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पंचमपरिच्छेद .
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जव अनंतनी ए सगी, दया ते माता जाए ॥ रुमा राजा ॥ धन्य० ॥ १५ ॥ गजनवें शशलो राखियो, मेघकुमार गुंण जाण रुडां राजा ॥ श्रेणिकराय सुत सुख लह्यां, पोहोता अनुत्तर विमान ॥ रुमा राजा ॥ धन्य० ॥ २० ॥ एम जाणी दया पालजो, मनमांहे करुणा याण ॥ रुमा राजा समयसुंदर एम वीनवे, दयाथी सुख निरवाण ॥ रुरु राजा ॥ धन्य० ॥ २१ ॥ ॥ अथ श्री लब्धिविजयजी कृत पंदर तिथिनी पंदर ॥ सद्याय प्रारंभः ॥
॥ दोहा ॥ श्रीमद्गोडी जगधणी, दायक शिवग ति जेह ॥ लिय विधन दूरें हरे, टाले पुरित अ बेह ॥ १ ॥ सुधादृष्टि होवे सदा, एहवी जेहनी ह ष्टि ॥ उरग तजी सुरपति कस्यो, गिरुन गुणें गरिष्ट ॥ २ ॥ जावियपद पंकज सदा, हुं नित्य प्रणमुं तास ॥ सकल मनोरथ पूरवे, ते वीशमो जिनपाश ॥ ३॥ जावे प्रणमू जारती पूरे पूरण आश ॥ मूरखनें पंकि त करे, आपे वचन विलास ॥ ४ ॥ ( पांवांतरें ) मूरखने पंदित करे, जेवी तुज आख्यत ॥ वचन सुधारस पोषवा, वर दे शारद मातु ॥ ४ ॥ शक्ति नहिं सिद्धांतनी, बुद्धि नही लवलेश ॥ वचन विला स करी कहुं, ते पण नहिं सुविशेष ॥ ५ ॥ पण मु ज एक आधार बे, सगुरु तणो पसाय ॥ तस अनु जावें उपजे, वचन सदा सुखदाय ॥ ६ ॥ श्रागमना
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