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चतुर्थपरिवेद. श्रादिजिनेश्वर ॥॥ श्राजनी थांगी-अजब बनी बे ॥ सुंदर मुख शोने प्रनु सारो ॥ श्रादिजिनेश्व र ॥ ३ ॥ रोहिणी पतिथी-कोटी गुणो प्रनु बदन आनंदी दिसे तुमारो ॥ श्रादिजिनेश्वर ॥४॥ मृगपतिथी पण अधिक गुणोडे, लंक कटीनो प्रनु जी तुमारो ॥ श्रादिजिनेश्वर ॥५॥ नाथ निरंज न-नव पुःखनंजन, नवो नव होजो शरण तुमा रो ॥ श्रांदिजिनेश्वर ॥६॥ युगम् नाव स्तवना वली करवा, बालमित्रनी बुद्धिबधारां ॥ श्रादिजि नेश्वर ॥७॥
___श्रीसंजवनाथ जिनुं स्तवन ।
त्रिताल चोपाइ-प्रनु पासमुं मुखॉ॥ संजवजिनजीनुं मुखहुं शोहे, नयणा देखी जग सहु मोहे. रोहिणीपतिसम वदन विशाल, तस श्र जैकारे दीसे नाल, कांति कनकसरीखी सारी, इंज चंषरूप जायहारी; __ सावथ्यीमा हतो दूकाल, प्रनू जनमतां थयो सुगाल, धान्यनां तिहां संजव थाय, अव्य संचवथी नयरी साहायः फल फूल संजवथया सार, तेथी वर त्यो त्यां जयजयकार; राय जितारी वीचारी श्राम, संजवथी पाड्यं संजव नाम; एवा संजव करजो श्र- . मने, बालमित्र अरज करे तुमने; अहमदनगरमा र हेतां उल्हास, मुनि मनसुखनी पूरोयास ।