________________
अष्टमपरिछेद.
रणे शत्रुसमाकीर्णे धार्यो वीररसो हृदि ॥ युद्धे मृत्युजयं नैव विधेयं सर्वथापि हि ॥ ८ ॥ गोब्राह्मणार्थे देवार्थे गुरुमित्रार्थ एव च ॥ स्वदेशमंगे युद्धेत्र सोढव्यो मृत्युरप्यलम् ॥ ए॥ ब्राह्मणक्षत्रियोर्नैव क्रियात्नेदोस्ति कश्चन ॥ विहायान्यत्रतानुज्ञा विद्यावृत्तिप्रतिग्रहान् ॥ १० ॥ दुष्ट निग्रहणं युक्तं लोनं भूमिप्रतापयोः ॥ ब्राह्मणव्यतिरिक्तं च क्षत्रियोदानमाचरेत् ॥ ११ ॥ ॥ इतिक्षत्रियत्रतादेशः ॥
अथ त्रियव्रतादेश कहते हैं. ॥ परमेष्ठिमहा मंत्र निरंतर स्मरण करना. शक्रस्तवोंकरके त्रिकाल जिनेश्वरको वंदन करना । मद्य, मांस, मधु, संधा न, पांच उडुंबरादि, ( श्रादिशब्द श्रमगोरससंयु त द्विदल, पुष्पितौदन, ) और रात्रिभोजन, इनको यत्तसें वर्जे । दुष्टका निग्रह करना, और युद्धादि वर्जके प्राणियोका बध न करना, स्थूलमृषावाद न बोलना, परस्त्रीका और परधनका त्याग करना; पर की निंदाका त्याग करे, युक्तिसें साधुयोंकी उपास ना करे, और बारां व्रत पालन करे । अपनी शक्ति अनुसार जिनपूजन करना. चित्तयत्नसें अर्थात् उप योगसें खपवीत, और अंतरीयको धारण करना । ! लिंगियोंको, अन्य ब्राह्मणोंको, और अन्यदेवालयों में जी, प्रणाम दान पूजादि काम पडे तो, लोक
६५