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जैनधर्मसिंधु. एक दिन मात्रजी शील पालनेको समर्थ नहो शक्ते हे. हे संसार समुफ. मदिराजेसेमदयुक्त नेत्रोंवाली स्त्रीरूप पुस्तर पहाड बिच में न होते तो तेरा पार कों प्राप्त करना कुछ दूर नथा. मुक्ति पदकों अंतराय करनेवाली स्त्रीये प्राणिगणकों अवश्यमेव एक शि बारूपहि गिणनी चहिये असत्य, साहस (उतावल) माया (कपट)मूर्खता,लोजकी अधिकता,अपवित्रता, दया रहितता,इतने दोष स्त्रीयोंमे स्वनावसेंहि होतें हे.
जो स्त्री (मुक्ति) रागी उपरजी वैरागी होती हे एसी स्त्रीकों कोन जोगवेगा ? जो पंमित होगा सोहि नोगवेगा. क्यों कि मुक्ति रूपिणी स्त्री वैरागी उपर बरोबर रागी हे परं रागी उपर रागी नहीहे. समएसा स्त्रीयोंके विषयमे असारता विचारता थका समाधिमे कितनाक काल निजा करे. परंतु पर्वति ‘थी प्रमुख उत्तम दिनोमे उत्तम श्रावक स्त्रीयोंसे वि षय नोग करे नही.
विवेकीगण बहुत काल निजामें व्यतीत न करे. क्यों की विशेष निता करनेसें धर्म अर्थ और सुख ए तीनोंका नाश होता हे. __ जो प्राणी खटप ( थोमी) निझा करे, स्वरूप श्राहार लेवे, स्वल्प आरंन करे, स्वल्प परिग्रही, खल्प क्रोध करनेवाला होय एसे लक्षणवालोंको अ वश्यमेव स्वल्प संसार होता हे.