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६३४ जैनधर्मसिंधु. __“॥ उ अहं श्रुतेनाङ्गोपाङ्गैः कालिकैरुत्कालिकैः पूर्वगतैश्चूलिकानिः परिकर्मनिः सूत्रैः पूर्वानुयोगैः बन्दोनिझक्षणैर्निरुक्तैर्धर्मशास्त्रैर्विद्धकर्णो यासह उ॥"
शुभादिकोंको ॥ ॥ ॐ अहँ तव श्रुतिघ्यं हृदयं थम? विज़नस्तु ॥ ऐसें कहना.॥
तदपीजे बालकको यानमें बैठाके, वा नर नारी उत्संगमें लेके धर्मागारमें ले जावे; तहां पूर्वोक्त विधिसें मंडलीपूजा करके बालकको गुरुके चरणां आगे लोटावे. तब यतिगुरु विधिसें वासदेप करे । तदपीछे बालकको घरमें व्याके गृहस्थगुरु कर्णाचरण पहिनावे. । यतिगुरुयोंको शुरू चार प्रकारका श्रा हार वस्त्र पात्र देवे। गृहस्थगुरुको वस्त्र स्वर्णदान देवे।
इति दशमंकर्णवेधसंस्कारवर्णनं
अथ दौर करणसंस्कारविधि हस्त, चित्रा, खाति, मृगशीर्ष, ज्येष्टा, रेवती, पुनर्वसू, श्रवण, धनिष्टा, इन नदत्रोंमें ।।।३।५।। १३।११। इन तिथियों में । शुक्र, सोम, बुध, श्न वारोंमें चंज वा तारेके बल हुए, दौरकर्म करणा.। दौरनक्षत्रोमें स्वकुल विधिकरके चूमाकरण करना मुनी कहते हैं; परं गुरु, शुक्र और बुध यह तीन