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अष्टमपरिवेद.
७३३ से निकलके मोदको प्राप्त होगा, यह निश्चय जाण ना. यत उक्तम् ॥ अंतोमुहुत्तमित्तंपि फासियं जेहिं हुज्क सम्मत्तं ॥ तेसिं अवटु पुग्गलपरिअट्टो चेव संसारो ॥१॥ जावार्थः-अंतर्मुहर्तमात्र जी जिनोंने सम्यक्त्व स्पर्श किया है, तिनोंका अईपुजलपरावर्त्तही उत्कृष्ट संसा र जाणना, तदनंतर अवश्यमेव मोदको प्राप्त होवे. इति सम्यक्त्वस्वरूपम् ॥१॥ । अथ मिथ्यात्वखरूपमाह ॥ जिसमें देवके गुण नही हैं, ऐसे अदेवमें देवकी बुद्धि-जैसे तममें उद्योतकी बुद्धि । जिसमें गुरुके गुण नहीं हैं, ऐसे अगुरुमें गुरुकी बुद्धि-जैसें नींबमें आम्र की बुद्धि । अधर्म यागादि, जीवहिंसादिक के विषे धर्म की बुद्धि-जैसें सर्पके विषे पुष्पमालाकी बुद्धि, सो मिथ्यात्व है. सम्यक्त्वसें विपर्यय होनेसें, अर्थात् साचे देवके ऊपर अदेवपणेकी बुद्धि, जैसें कौशिक (घूश्रम) की सूर्यके तेजऊपर अंधकारकी बुद्धि, साचे गुरुऊपर अगुरुपणेकी बुद्धि, जैसें श्वेतशंखके ऊपर काचकामलरोगवालेकी नीलशंखकी बुद्धि । तिसको मिथ्यात्व कहतेहैं. । सो मिथ्यात्व पांच प्रका रका हैं. १ आनिग्रहिक, अनानिग्रहिक, ३ श्रानि निवेशिक, ४ सांशयिक, ५ अनाजोगिक.॥ (१) प्रथम आजिग्रहिकमिथ्यात्व, सो, जिस्को