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अष्टमपरिबेद.
६७५ कार्यं व्रतं प्रेतकर्मकरणं वृषल त्वया ॥ युक्तिरेषोत्तरासंगानुयायां च विधीयते ॥५॥ दात्राणामथ वैश्यानां देशकालादियोगतः ॥ त्यक्तोपवीतानां कार्यमुत्तरासंगयोजनम् ॥६॥ धर्मकार्ये गुरोर्दृष्टौ देवगुर्वालयेऽपि च ॥ धार्यस्तथोत्तरासंगः सूत्रवत् प्रेतकर्मणि ॥ ७॥ अन्येषामपि कारूणां गुर्वानुज्ञां विनापि हि ॥ गुरुधर्मादिकार्येषु उत्तरासंग इष्यते ॥ ७॥ __ अर्थः-सम्यक्त्वके संयुक्त छादश व्रत तैने धार ण करने, और कुलका मद न करना. । जैन ब्राह्म णोंकी उपासना करनी; तथा गीतार्थाचीर्ण तप करना. । किसी पापात्माको निंदना नही, अपनी प्रशंसा नकरनी, हित इच्छके ब्राह्मणको मान देना. । शेष चतुर्वर्ण शिदाश्लोकमें कहे याचारको आचरण करना; (उत्तरीयके परिभ्रंशमें, वा जंगने उपवीतवत् जाणना. । व्रत करना, प्रेतकर्म करना,) हे वृषलशूज ! उत्तरासंगकी अनुशामें तैने यह युक्ति करनी. । देशकालादियोगसें त्याग किया है उपवीत जिनोंनें, वैसे दत्रिय और वैश्योंको, उत्त रासंग योजन करना. । धर्मकार्यमें,. गुरुकी दृष्टिमें, देव और गुरुके मकानमें, तथा प्रेतकर्ममें, सूत्रकी तरें उत्तरासंग धारण करना.। और नी कारुओंको गुरुकी आज्ञाके विना नी गुरुधर्मादिकार्यों में उत्त