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५१५ जैनधर्मसिंधु. गण ॥ ३० ॥ सिलावटो सीरोही वसै ॥ कोढपरा नवियो किसमिसै ॥ तिहां थकी तू इहां आणजे ॥ सत्यवचन माहरो मान जे ॥३१॥ गोठीनो मनथि र थापियो ॥ सिलावटनें सुहणो दियो ॥ रोगगमी में पूरूं आस ॥ पास तणो मंमें आवास ॥ ३ ॥ सुपन माहे मान्यो तेवैण ॥ हेम वरण देखाड्यो नैण ॥ गोठी मनह मनोरथ हुवा ॥ सिलावटैने गया तेमवा ॥ ३३ ॥ सिला वटो आवै समरो ॥ जीमें खीरखांम घृत चूरमो ॥ घमै घाट करै कोर णी॥लगन नलै पाया रोपणी ॥ ३४ ॥ थंनए कीधी प्रतली ॥ नाटक कौतिक करती रली॥ रंग मंम्प रलियामणो रसै ॥ जोतां मानवनो मन हसै ॥३५॥ नीपायो पूरो प्रासाद ॥ स्वर्गसमो मंडे संवाद ॥ दिवस विचारी इंडोघड्यो ॥ ततखिण देवल ऊपर चड्यो॥३६॥ शुल लगन शुन वेलावास ॥ पचासण वैग श्रीपास ॥ महिमा मोटी मेरुसमान ॥ एकल मनवगडे रहै वान ॥ ३० ॥ वात पुराणों में सांज ली ॥ तवन मांहि सूधी सांकली ॥ गोठी तणा गोतरीया अ॥यात्र करीने परणे प॥३०॥ (दहा) विघन विडारण यद जगि ॥ तेहनो अकल सरूप ॥ प्रीतकरी श्रीसंघनें ॥ देखाडै निजरूप ॥ ३६ ॥ गिरु
ओ गौमी पास जिन ॥ श्रापै अरथनंमार ॥ सानि ध करै श्रीसंघनें ॥ आस्या पूरणहार ॥४०॥ नील