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जैनधर्मसिंधु.
यादस्यो || हुं० ॥ देवतादीधो वेश रे || हुं० ॥ ४॥ कर्म खपाय मुगतें गया || हुं० ॥ करकंडू ऋषि राय रे ॥ हुं० ॥ समयसुंदर कहे साधुने ॥ हुं० ॥ प्रण म्यां पातक जाय रे || हुं० ॥ ५ ॥ इति ॥
॥ अथ श्री मनोरमा सतीनी सद्याय ॥ ॥ मोहनगारी मनोरमा, शेठ सुदर्शन नरीरे ॥ शील प्रजावें शासनसुरी, थइ जस सान्निध्यकारी रे ॥ मो० ॥ १ ॥ दधिवाहन नृपनी प्रिया या दीए कलंक रे कोप्यो चंपापति कहे, शूली रोपण वंक रे ॥ मो० ॥ २ ॥ ते निसुणीने मनोरमा, करे काउस्स ग्ग धरी ध्यान रे ॥ दंपती शील जो निरमलुं, तो वो शासन मामरे ॥ मो० ॥३॥ शूली सिंहासन ययुं शासन देवी हजूर रे ॥ संजम यही थया केवली, दंपती दोय सनूर रे ॥ मो० ॥ ४ ॥ ज्ञानविमल गुण शीलथी, शासन शोज चढावे रें सुर नर सवि तस किंकरा, शिव सुंदरी ते पावे रे || मो० ॥५॥ इति ॥ ॥ अथ क्रोधनी सधाय ॥
॥ कडवां फल बे क्रोधनां, ज्ञानी एम बोले ॥ रीशतणो रस जाणीयें, हलाहल तोलें ॥ क० ॥ ॥ १ ॥ क्रोधें क्रोम पूरव तणुं, संजम फल जाय ॥ क्रोध सहित तप जेकरे, ते तो लेखें न थाय ॥ क०॥२॥ साधु घणो तपीयो हुतो, घर तो मन वैराग ॥ शिष्य ते क्रोध की थयो, चंगकोशोयो नाग ॥ क० ॥ ३ ॥