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चतुर्थपरिबद. ३११ श्रीहीरविजय सूरि, शिष्य वाचक, कीर्ति विजय, सु रगुरु समो ॥ तस शिष्य वाचक, विनयविजये, थु एयो, जिन चोवीशमो ॥३॥इस सत्तर संवत, उंग ण त्रीशे, रही रांदेर चौमास ए ॥ विजय दशमी, विजय कारण, कि गुण श्रन्यास ए॥४॥ नरन व आराधन, सिकि साधन, सुकृत लील, विलास 'ए ॥ निर्जरा हेतें स्तवन रचियुं, नामे पुण्य, प्रका शए ॥ ५॥ इति श्रीपुण्यप्रकाशस्तवनं समाप्तं ॥ ॥अथ श्री सिद्धचक्रजीनु स्तवन ॥
॥आ लालनी देशी॥ ॥ समरी शारदा माय, प्रणमी निज गुरुपाय ॥ श्रा लाल ॥ सिकचक गुण गायशु जी॥ ए सिक चक्र श्राधार, नवि उतरे नवपार ॥ श्रा॥ते जणी नवपद ध्यायशुं जी ॥१॥ सिक चक्र गुणगेह, जस गुण अनंत अह ॥ श्रा०॥ समर्यां संकट उपश मेजी लहियें वंबित जोग, पामी सवि संजोग । ॥ श्रा॥ सुरनर ावी बहु नमेजी ॥२॥ कष्ट निवारे एह, रोग रहित करे देह ॥ श्रा॥ मय पासुंदरी श्रीपालनेजी ॥ ए सिक चक्र पसाय, श्रा पदा पूरें जाय ॥ आ॥आपे मंगल मालने जी॥ ॥३॥ ए सम अवर न कोय, सेवे ते सुखीयो होय ॥ श्रा० ॥ मन वच काया चश करीजी॥ नव यां बिल तप सार, पमिकमणु दोय वार ॥ आप ॥ देव