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अष्टमपरिछेद. ६६७ रह सके तो, तिसही उपनयनबतादेशके दिनमेंही विसर्ग करिये, सोही कहने हैं । उपनीत, तीन २ प्रदक्षिणा करके चारों दिशायोंमें जिनप्रतिमाके श्रागे पूर्ववत् युगादिजिनस्तोत्र सहित शक्रस्तव पढे. तदपी बासनपर बैठे गुरुके आगे नमस्कार करके हाथ जोमके ऐसें कहे ॥" नगवन् देशका लाद्यपेदया व्रतविसर्गमादिश” ॥ गुरु कहे ॥ " आदिशामि॥” फिर नमस्कार करके शिष्य कहे। " जगवन्ममव्रतविसर्ग श्रादिष्टः ॥ गुरु कहे ॥ " श्रादिष्टः ॥” फिर नमस्कार करके शिष्य कहे ॥ " जगवन् ब्रतबंधो विसृष्ट ॥” गुरु कहे ॥ "जिनो पवीतधारणेन अविस्तृष्ठोस्तु स्वजन्मतः षोडशाब्दी ब्रह्मचारी पाउधर्मनिरतस्तिष्ठः ॥ उसपी पंचपरमे ष्ठिमंत्र पढता हुआ शिष्य, मौंजी, कौपीन, वल्कल, दंड, श्नको दूर करके, गुरुके आगे स्थापन करे;
और आप जिनोपवीतधारी श्वेतवस्त्र उत्तरीय होके गुरुके आगे नमस्कार करके बैठे, तव गुरु तिस बारां तिलकधारी उपनीतके आगे उपनयनका व्या ख्यान करे।
तद्यथा ॥ श्राप वर्षके ब्राह्मणको दश वर्षके क्षत्रि यको, और बारां वर्षके वैश्यको, उपनयन करना तिसमें गर्जमास जी बीचमेंही गणने । तथाच ॥ "जिनोपवीतमिति जिनस्य उपवीतं मुशासूत्रमित्यर्थः”