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जैनधर्मसिंधु.
कठोर, ब्राह्मण डोला काढ्या जोर ॥ क्रोधें सासु थई नणंद, सुनद्रासती शिर कीधो फंद ॥ ७ ॥ क्रोधें काया कर्मनो बंध, क्रोधें घरमा पैंसे धंध ॥ क्रोधें चेडो ते महाराय दल विहल मामा घरजा य ॥ ८ ॥ क्रोधें कोशिक कटकी करे, जांगी विशा ला पो फरे ॥ क्रोधें लखमणने वलि राम, क्रोधें रावण टाल्यो वाम ॥ ए ॥ क्रोधतणी बे खोटी वात, कोईन करशो एहनी तात ॥ क्रोधें कर्म घणां बंधा य, क्रोधें दुर्गति पकवा जाय ॥ १० ॥ तेह जणी सहु ठंडो क्रोध, सुख निरबाध लहो वलि बोध ॥ मान ती दवे सुजो वात, मानतजे ते सबल सुजात ॥ ११ ॥ माने मान तुरंगें चडे, माने मोह जालमां पडे ॥ माने नीच कुलें अवतरें, माने विनय मूल न विजडे ॥ १२ ॥ माने चउगतिने अनुसरे, माने जंबुक जव मांहे फिरे || शांब प्रद्यन को विचार, माने शियाल तो अवतार ॥ १३ ॥ माने बलराजा निरधार, ब्राह्मण रूप धरयो मोरार ॥ मान गयंद तोडे जोर, बाहुबले बांड्यो एकठोर ॥ १४ ॥ मान ती वधती वेल, माने नमिया दुखनी रेल ॥ माने वीरमती ते नार, चंदनें कीधो कुर्कट सार ॥ १५ ॥ प्रेमला लही हायें चमी, सूरज कुंडे कीधो नर फरी ॥ माने दुर्योधन दुःख लहे, माने सर्पनी उपमा कहे ॥ १६ ॥ माने धर्म न पामे कदा, माने कर्म बंधाये