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________________ १५४ जैनधर्मसिंधु. विधिपदगबनायकं वंदे. पदेखे पाटें सुधर्मास्वा मी, बीजे पाटें जंबूस्वामी, त्रीजे पाटें प्रनवस्वा मी, चोथे पाटें सिङनवसूरि, पांचमे पाटें यशो नसुरि, उठे पाटें संनूतिविजय सुरि, सातमे पाटे नाबाहु स्वामी, आठमे पाटें खिन्न स्वामी, एवा पाटानु पाट बेला श्री उप्पसहना मा आचार्य थाशे, तेने मदारी एकशो ने आठ वार त्रिकाल वंदना दोजो ॥ इति विधिपदागुरु वंदन ॥ए सातमुं (खमासमण.) पली श्वामि खमासमण पूर्वक श्वाकारेण संदिसह नगवन् सशाय कहूं, ससाय सांनढुं जी. अहीं नवकार कदीने ससाय कदेवी,॥ ॥ अथ ससाय॥ ॥अरिहंता मंगल मुज, अरिहंता मुऊ दे वाव ॥ अरिहंता कित्तियं ताणं, वोसिरामित्ति पावगं॥१॥सिहाय मंगलं मुज सिहायमुजा देवया ॥ सिहाय कित्तियं ताणं, वोसिरामित्ति पावगं ॥२॥ आयरिया मंगलं मुझ आय रियामुज देवया ॥ आयरिया कि त्तियं ताणं, वोसिरामित्ति पावगं ॥ ३ ॥ अवजाया मंगलं
SR No.023329
Book TitleJain Dharm Sindhu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMansukhlal Nemichandraji Yati
PublisherMansukhlal Nemichandraji Yati
Publication Year1908
Total Pages858
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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