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समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चाकमतस्वरूपनिरूपणम् १९ साम्राज्यं भवति प्रकृतस्थले प्रवृत्तमन्यथानुपपचिप्रमाणमनौचित्यतर्कस्य मूलं मिथ्यासेपं निकुन्ततीत्यत्रानौचित्यतर्कस्य बाधसंभवात् । तथोक्तं
"प्रवृत्तेनाप्यनौचित्यमूलं यत्र न लूयते
तत्रा नौचित्यसाम्राज्यं वैपरीत्यात्तु नात्र तत् । इति तदेवं स्वस्य स्वयमेवप्रकाश इत्यपि स्वप्रकाशलक्षणं संभवति । यदि ज्ञानं स्वं परं न प्रकाशयेत्तदा जगदान्ध्यादिदोष आपतितः केन वारयितुं शक्यः स्यात् । तदेव ज्ञाने प्रमाणत्वं यत् स्वपरप्रकाशकत्वम् स्वपरव्यवसायिप्रमाणमिति प्राचीनाचायलेक्षणकरणात् । तदेवं स्वप्रकाशस्य लक्षणं प्रदय तत्र प्रमाणमपि विद्यते इत्यतः प्रमाणमपि अनौचित्य रूप तर्क मूल प्रवृत्त हुए प्रमाण के द्वारा निराकृत न किया जाय, वहीं औचित्य का साम्राज्य होता है । प्रकृत स्थल में प्रवृत्त हुए अन्यथानुपपत्ति प्रमाण के द्वारा अनौचित्य तर्क का मूल खण्डित हो जाता है अतएव यहाँ यह तर्क बाधित है । कहा भी है - "प्रवृत्तेनाप्यनौचित्यं " इत्यादि । “जहाँ प्रमाण प्रवृत्त होकर अनौचित्य के मूल का छेदन (निवारण) नहीं करता , वहीं औचित्य का साम्राज्य होता है किन्तु यहाँ उससे उलट है, अतएव अनौचित्य रूप तर्क लागू नहीं होता।" इस प्रकार स्वयं ही स्त्र का प्रकाशक, होना जो स्त्र प्रकाश का लक्षण है वह भी यहाँ घटित होता है । यदि ज्ञान अपने को और परपदार्थ को प्रकाशित न करे तो सारा जगत् अन्धा हो जाय, इस दोष का निवारण कौन कर सकता है ? स्व और पर का प्रकाशक होना ही ज्ञान का प्रमाणत्व है । प्राचीन आचार्यों ने प्रमाण का यही लक्षण कहा है कि "स्वपरव्यवसायि प्रमाणम्" ___ इस प्रकार स्वप्रकाश का लक्षण दिखलाकर उसमें प्रमाण भी दिखलाते हैं,
ત્યાં જ અનૌચિત્યતાનું સામ્રાજ્ય હોય છે. પ્રસ્તુત સ્થળમાં પ્રવૃત્ત થયેલા અન્યથાનુપત્તિ પ્રમાણ દ્વારા અનૌચિત્ય તર્કનું મૂળ ખંડિત થઈ જાય છે, તેથી અહીં આ તર્ક બાધાयुत छ, ५५ छे 3.-"प्रवृत्तेनाप्यनौचित्य" त्यादि____यां प्रभाए प्रवृत्त थाने मनौयित्यना भूजनु छैन (निवा२९) ४२तु नथी, ત્યાં જ અનૌચિત્યનું સામ્રાજ્ય હોય છે. પરંતુ અહીં એના કરતાં ઉલટી પરિસ્થિતિ છે, તેથી અનૌચિત્ય રૂપ તર્ક લાગૂ પડતું નથી. આ પ્રકારે “પોતે જ પોતાનું પ્રકાશક હોવા રૂપ', જે સ્વપ્રકાશકનું લક્ષણ છે, તે પણ અહીં ઘટાવી શકાય છે. જે જ્ઞાન પિતાને અને પરેને પ્રકાશિત ન કરે, તે આખું જગત અબ્ધ થઈ જાય, આ દોષનું નિવારણ કેણ કરી શકે છે? સ્વ અને પરનું પ્રકાશક હોવું એ જ જ્ઞાનનું પ્રમાણ છે प्राचीन मायामि ज्ञाननु से सक्ष -"स्वपरव्यवसायि प्रमाणम्"
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