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समायर्थ बोधिनी टोका प्र. श्र. अ. १ उ. २ अज्ञानवादिमते दृषणप्रदर्शनम् ३०३
अन्वयार्थः(अन्नाणियाणं) अज्ञानिनाम्, न विद्यते ज्ञानं यस्याऽसौ अज्ञानी, न ज्ञानमज्ञानम् । अत्र विरोधो नबर्थः, तथा च ज्ञानविरोधी विपरीतज्ञानवानित्यर्थः । तेषामज्ञानिनां (वीमंसा) विशेषेण मीमांसा विचारः । (अप्पणे) आत्मीयपक्षे अज्ञानपक्षे इति यावत् । (न विनियच्छइ) न मुक्तो भवति । (अप्पणो) सः अज्ञानवादी स्वात्मानमपि (अणुसासिउं) अनुशासितुम् (नालम्) न अलं पर्याप्तः (अन्नाणु सासिउं) अन्यान् स्वेतरान् अनुशासितुं कुतोऽलम् कुतः पर्याप्तः स्यात् ।
शब्दार्थ-'अन्नाणियाण-अज्ञानिनाम् ' अज्ञानवादियोंका, 'विमंसा-विमर्शः' पर्यालोचनात्मक विचार 'अप्णाणे-अज्ञाने' अज्ञानपक्षमें 'न विनियच्छइ-न विनियच्छति' मुक्त नहीं होसकता है 'अप्पणो य-आत्मनश्च' अपने को भी 'अणुसा. सिउं-अनुशासितु' शिक्षा देनेकेलिये 'नालम्-न अलम्' पर्याप्त नहीं होते पुनः वे 'अण्णाणुसासिङ-अन्यानुशासितुम्' दूसरेको शिक्षादेनेमें कैसे समर्थ हो सकता है ? ॥१७॥
_ --अन्वयार्थ--- जिसे ज्ञान न हो वह अज्ञानी कहलाता है और ज्ञान नहीं सो अज्ञान । यहां नञ् समास विरोध के अर्थ में है। अतएव अज्ञानी का अर्थ हुआ ज्ञान विरोधी विपरीत ज्ञान वाला । अज्ञानियों का विशेष कथन यह है--अज्ञान ही श्रेष्ठ और श्रेयस्कर है, ऐसा विचार अज्ञान पक्ष में संगत नहीं है । अज्ञानी अपने को भी अनुशासित करने में समर्थ नहीं है तो दूसरों को अनुशासित करने में कैसे समर्थ हो सकता है ? अर्थात् जो अपने को ही नहीं समझ
शहाथ-'अन्नाणियाण-अशानिनाम्' मशान वाहियाना 'विम सा-विमर्श:' पयांतीयनाम विया२ 'अप्पाणे-अज्ञा' अज्ञान पक्षणी 'न विनियच्छइ-न विनियच्छति भुत यशता नथी. 'अप्पणोवि-आत्मनश्च' पाताने ५५ 'अणुलासिउ-अनुशासितुं' शिक्षा ४२१॥ भाटे 'नालम्-न अलम्' पर्यायता नथी. शथी तेथे 'अण्णाणुसासिउ-- अन्यानुशासितु' मीतने वी ते शिक्षा मी शत ॥१७॥
-अन्वयार्थ - नामा ज्ञान न डाय तेने अज्ञानी छे. "शाननी मला भेटले. अज्ञान" अज्ञान પદમાં નગ સમાસવિરોધના અર્થમાં છે. તેથી અજ્ઞાની એટલે જ્ઞાનથી વિધી એવા. વિપરીત જ્ઞાનવાળે.” અજ્ઞાન જ શ્રેષ્ઠ અને શ્રેયસ્કર છે. એવી માન્યતા અજ્ઞાન પક્ષે સંગત નથી. અજ્ઞાની માણસે પોતાને અનુશાસિત કરવાને સમર્થ હતા નથી, તે અન્યને અનુશાસિત
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