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समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५४३
कं वस्तुविशेषमालंन्य साधुना संयमानुष्ठान विधेयमित्यतआह –'दूरं' इत्यादि ।
१२
दूरं अणुपस्सियया मुणी तीतं धम्ममणोगयं तहा। ૧૦ ૯ ૨ ૧૧ पुढे परुसेहिं माहणे अवि हष्णू समयंमि रीयइ ॥ ५॥
छाया दरमनुदृश्य मुनिरतीतं धर्ममनागतं तथा। स्पृष्टः पुरुषैर्माहनः अपि हन्यमानः समये रीयते ॥५॥
किस वस्तुविशेष का अवलम्बन करके साधु को संयम का अनुष्ठान करना चाहिए, सो कहते हैं-"दुरं" इत्यादि १. शब्दार्थ-'मुणी-मुनिः" तीनों कालको जानने वाला मुनि 'माहणे-माहनः' कोई भी जीवको मत मारो मत मारो ऐसा उपदेशक 'दरम्-दूरम्' दूर होने से मोक्षको 'तहा-तथा' तथा 'तीतं-अतीतम् वीता हुवा तथा 'अणागयंअनागतम्' अनागत अर्थात् भविष्य काल में भी 'धम्म-धर्मम्' जीवों के स्वभाव को 'अणुपस्सिया-अनुपश्य' देख कर पुरुसेहि-पुरुषैः' कठिन वाक्य अथवा लकडी आदिसे 'पुढे-स्पृष्टः' ताडित किया जाने पर भी 'अविहण्णू-- अपि हन्यमानः' हनन किये जाने पर भी 'समयंमि-समये' संयम में ही 'रीयइ-रीयते' जिनोक्त मार्गसे ही चलें ॥५॥
............. ... .......... ................ ..- હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે કઈ વસ્તુ વિશેષનું અવલંબન લઈને સાધુએ સંયમની આરાધના કરવી જોઈએ. “દૂર ઇત્યાદિ
शहाथ 'मुणी-मुनिः' ये अपने वादा मुनि 'माहणे-माहनः' ५५ पने ना मा। ना मा यो उपहेश, दूर-दूरम्' र खोपायी भाक्षने 'तहा-तथा' तथा 'तीत-अतीतम्' वाती गये तथा 'अणागय-अनागतम्' मनात अर्थात् भविष्य
मा ५९] 'धम्म-धर्मम्' योना स्वमापने 'अणुपस्सिया-अनुपश्यन ने 'पुरुसेहिपुरुषैः ४४९ वाध्य अथवा नाडी वगेरेथा पुट्ठो-स्पृष्टः' allsत ४२ डावा छतां ५ 'अविहणू-अपिहन्यमानः' हुनन ४२वामा म त ५५ 'समय मि-समये सयम मा ४ 'रीय-रीयते नात भागथी यारी ॥५॥
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