Book Title: Sutrakritanga Sutram Part 01
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti

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Page 667
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बोधिनी टीका प्र.शु. अ. २ उ. ३ साधूनां परषहोपसर्ग सहनोपदेशः ६४९ रुदन्ति, नरकनिगोदादौ अनन्तकालं परिभ्रमति च, अतो विषयसेवनं न कर्त्तव्यम् । विषयसेवनेनैव विषयिणां जीवानां जन्ममरणादयो भवन्तीत्यादि - रूपेण आत्मनोऽनुशासनं विधेयमिति भावः ||७|| पुनरपि समुपदिशति - 'इह' इत्यादि । मूलम् - १ ૨ ३ ५ ४ ६ इह जीवियमेव पासहा तरुण वाससयरस तुझ्इ । の Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० ९ ११ १२ इत्तरवासे य बुज्झह गिद्ध नरा कामेसु मुच्छिया ||८|| छाया - इह जीवितमेव पश्यत तरुण के वर्षशतस्य त्रुटति । इत्वरवासं च बुध्यध्वं वृद्धनरा कामेषु मूर्च्छिताः ||८|| विरोधी कामभोगों का सेवन करने वाले जीवों को बहुत शोक करना पडता है, अनेको बार रुदन करना पडता है और अनन्त काल तक नरकनिगोद आदि में परिभ्रमण करना पडता है । अतएव विषयों का सेवन नहीं करना चाहिये । विषयसेवन से ही जीवों को जन्म मरण करना पडता है । इस प्रकार आत्मा का अनुशासन करना चाहिये ||७॥ पुनः उपदेश करते हैं "इ" इत्यादि । शब्दार्थ - 'इह - इह इस लोक में 'जीवियमेव - जीवितमेव' जीवन को ही 'पाहा - पश्यत' देखो 'वाससयस्स - वर्षशतस्य' सौ वर्षकी आयुवाले पुरुषका भी जीवन ' तरुण-तरुणे युवावस्था में ही 'तुट्ट त्रुटयति' नष्ट हो जाता है यह जीवन को 'इत्तरवासे य- इत्वरवासं च' थोडे दिनके निवास तुल्य 'बुज्झह - बुध्यध्वम्' समजो 'नरा नराः' क्षुद्र मनुष्य 'कामेसु कामेषु' शब्दादि તેમને નરકાવાસામાં અસહ્ય ત્રાસ આપવામાં આવે છે, એવા જીવાને અનંત કાળ સુધી નરક નિગેદ આદિ દુતિમાં ભ્રમણ કરવું પડે છે. તેથી વિષયાનુ સેવન કરવુ જોઇએ નહીં. વિષયાનુ સેવન કરવાથી જ જીવાને જન્મ મરણુ કરવા પડે છે. આ પ્રકારે આત્માનુ અનુશાસન કરવુ જોઇએ. ૫ ગાથા છ " इत्यादि આગળ ઉપદેશ આપતા સૂત્રકાર કહે છે કે इह शब्दार्थ' - 'इह - इह' या सोउभा 'जीवियमेव- जीवितमेव' लवनने ४ 'पासहापश्यत' पो 'वायस्स-वर्षशतस्य' सो वर्षनी आयुष्यवाणा पु३षनु पशु भवन 'तरुण तरुणे' युवान अवस्थामा 'तुट्ट त्रुटयति' नए था लय सा वने 'इत्तवासे - इवास' व' थोडा दिवसना निवास तुल्य 'बुज्झह बुध्यध्वम् सु. ८२ ---- For Private And Personal Use Only

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