Book Title: Sutrakritanga Sutram Part 01
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सैन्यचाचे जेनयमंदिरावर-गुलम्बी-घासीलाल- प्रतिविरचितया समयावधिन्वाख्या व्याख्या सम हिन्दी-गुर्जर-भाषाऽनुवादसहितम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री-सूत्रकृताङ्गसूत्रम् । (प्रथमो भागः) SHREE SUTRAKRUTANG SUTRAM नियोजक संस्कृत माकृत जैनागमनिष्णात मियव्याख्यानिः पण्डितमुनि श्री कन्हैयालालजी महाराज पाउन परनिवासिन्यायमूर्ति स्व. तिखालाई माइदमाई मद्देवाना अमरणार्थ तेमना धर्मपत्नि श्री-बीकास्तीबरेन तमचद्रव्य धारयेन प्रति ५२०० ० आ० १० स्थानवासोद्धारसमितिभमुखः येष्टि मीशान्तिवार-मदासभाई महोदया मु० सुनकोट For Private And Personal Use Only १९३ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री- घासीलाल - प्रतिविरचितया समयार्थबोधिन्याख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं हिन्दी - गुर्जर - भाषाऽनुवादसहितम् श्री - सूत्रकृताङ्गसूत्रम् । ( प्रथमो भागः ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नियोजकः संस्कृत - प्राकृतज्ञ - जैनागमनिष्णात- प्रियव्याख्यानि - पण्डितमुनि - श्री कन्हैयालालजी - महाराजः पालनपुरनिवासिन्यायमूर्ति स्व. - रतिलालभाई भाइचंदभाई महेताना स्मरणार्थे तेनां धर्मपत्नी श्री - लीलावतीबहेन तत्प्रदत्त द्रव्यसाहाय्येन प्रथमा - आवृत्ति प्रति १२०० प्रकाशक: अ० भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्धार समितिप्रमुखः श्रेष्ठि- श्री शान्तिलाल - मङ्गलदासभाई -महोदयः ० राजकोट वीर- संवत् २४९५ मूल्यम् - रू० २५-०-० विक्रम संवत् २०२५ For Private And Personal Use Only ईसवीसन् १९६९ ************* Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org મળવાનું ઠેકાણું : श्री म. सा. श्वे. स्थानवासी જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર समिति, ઠે. ગડિયા કૂવા રોડ, ગ્રીન લેાજ पासे, रानोट, (सौराष्ट्र). પ્રથમ આવૃત્તિઃ પ્રત ૧૨૦૦ વીર સંવત્ : ૨૪૯૫ વિક્રમ સંવત ૨૦૨૫ ઇસવીસન ૧૯૬૯ Published by : Shri Akhil Bharat S.S. Jain Shastroddhara Samiti, Garedia Kuva Road, RAJKOT, (Saurashtra) W. Ry. India. 5 ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥१॥ 5 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (हरिगीतच्छन्दः) करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये । जो जानते हैं तत्त्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्व इससे पायगा । है काल निरवधि विपुल पृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥ १ ॥ भूयः २५-०० : भुद्र : પંડિત મફતલાલ વેરચ’ઢ નયન પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, ગાંધીરાડ, અમદાવાદ. For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अनुक्रमाङ्क www.kobatirth.org अनुक्रमणिका विषय प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देश १ मङ्गला चरण २ ज्ञानका मङ्गलत्व का प्रतिपादन ३ बन्धके स्वरूपका निरूपण ४ परिग्रह के स्वरूपका निरूपण ५ प्रकारान्तर से बन्धके स्वरूपका निरूपण ६ कर्मबन्धसे निर्वृत्तिका निरूपण ७ स्वसमय प्रतिपादित अर्थका कथन करने के पश्चात् परसमय में प्रतिपादित अर्थ का कथन ८ चार्वाक मत के स्वरूपका कथन ९ वेदान्तियों के एकात्मवादका निरूपण १० अद्वैतवादियों के मत का खंडन ११ तज्जीव तच्छरीरवादियों के मतका निरूपण १२ पुण्य और पाप के अभावका निरूपण १३ अकारकवादी - सांख्यमतका निरूपण १४ अकारकवादियों के मतका खण्डन Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५ पृथिवी आदि भूतों के और आत्माका नित्यत्व १६ क्षणिकवादि बौद्धमत का निरूपण १७ चतुर्धातुवादी बौद्धमत का निरूपण १८ चार्वाक से लेकर बौद्धपर्यन्त के अन्यमतवादियों के मतका निष्फलत्वका प्रतिपादन दूसरा उद्देशा १९ मिथ्यादृष्टि नियतवादियों के मतका निरूपण २० नियत्यादि अन्यमतवादियों को मोक्षप्राप्ति का अभाव का कथन २१ अज्ञानवादियों के मतका निरूपण में मृगका दृष्टान्त २२ पाशमें बंधे हुए मृगकी अवस्थाका निरूपण २३ असम्यक् ज्ञान के फलप्राप्तिका निरूपण For Private And Personal Use Only पृष्ठ १-१० ११-१५ १६-२१ २१-२६ २७-३४ ३४-३७ ३८-४३ ४३-१४१ १४२-१४५ १४८-१५० १५०-१५९ १६०-१६८ १६९-२०३ २०३-२०५ २०५-२११ २१२-२२२ २२२-२३९ २३९-२५३ २५४-२७५ २७५-२७९ २७९-२८५ २८५-२८६ २८७-२९० Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ शंकितधर्म और अशंकित धर्म की भिन्नता का कथन २९०-२९१ २५ अज्ञानि पुरुषको अप्राप्तपदार्थ का निरूपण २९२-२९४ २६ अज्ञानियों के दोषों का निरूपण २९४-२९५ २७ अज्ञानवादियों के मतका निरसन २९६-२९७ २८ अज्ञानवादियों का मत दिखाते हुए सूत्रकार म्लेच्छके दृष्टान्त का कथन करते हैं २९८-२९९ २९ दृष्टान्त का कथन करके सिद्धांतका प्रतिपादन २९९-३०२ ३० अज्ञानवादियों के मत के दोपदर्शन ३०२-३०६ ३१ ये अज्ञानवादी अपने को या अन्यको बोधदेने में समर्थ नहीं होने का दृष्टान्त के द्वारा कथन । ३०६-३०८ ३२ अज्ञानवादियों के विषयमें अन्य दृष्टान्तका कथन ३०८-३०९ ३३ दृष्टान्त कहकर दार्टान्तिक-सिद्धांतका प्रतिपादन ३१०-३११ ३४ फिरसे अज्ञानवादिके मतका दोपदर्शन ३११-३१३ ३५ अज्ञानवादियों को होनेवाले अनर्थका निरूपण ३६ एकान्तवादियोंके मत का दोष कथन ३७ क्रियावादियोंके मत का निरूपण ३१९-३२२ ३८ क्रियावादियों के कर्म रहितपना ३२२-३२८ ३९ प्रकारान्तर से कर्मबन्ध का निरूपण ३२८-३३२ ४० कर्मबन्ध के विषयमें पितापुत्र का दृष्टान्त ४१ कर्मबन्ध के विषयमें आईत मतका कथन ३३४-३३९ ४२ ये क्रियावादियों के अनर्थ परंपरा का निरूपण ३३९-३४१ ४३ क्रियावादीयों के मत का अनर्थ दिखानेमें नौकाका दृष्टान्त ३४१-३४२ ४४ दृष्टान्त के द्वारा सिद्धान्तका प्रतिपादन ३४२-३४५ तीसरा उद्देशा४५ मिथ्यादृष्टियों के आचारदोषका कथन ३४६-३४८ ४६ आधाकर्मी आदि आहार को लेनेवालेके विषयमें मत्स्य का द्रष्टान्त ३४९-३५१ ४७ दृष्टान्त कहकर सिद्धांत का प्रतिपादन ३५१-३५२ ४८ जगत् की उत्पत्ती के विषयमें मतान्तर का निरूपण ३५३-३६९ ४९ देवकृत जगद्वादियों के मतका निरसन ३६९-३८० For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५० अन्यमतावलंबियों के फल प्राप्तिका निरूपण ५१ प्रकारान्तरसे देवोप्तादियों के मतका निरूपण ५२ त्रैराशिकों के मतका निरसन ६९ साधुओंके गुणका निरूपण ७० अध्ययन का उपसंहार ५३ प्रकारान्तरसे कृतवादियों के मतका निरूपण ५४ रसेश्वरवादियों के मतका निरूपण ५५ रसेश्वरवादिके मतके अनर्थताका कथन चौथा उद्देशा ५६ पूर्वोक्तवादियों के फलप्राप्तिका निरूपण ५७ पूर्वोक्तवादियों के प्रति विद्वानों का कर्त्तव्य ५८ साधुओं के जीवनयात्रा निर्वाह का निरूपण ५९ उद्गम आदि दोषोंका निरूपण ६० सोलह प्रकार के उत्पादनादोषका निरूपण ६१ शंकित आदि दशप्रकार के दोषों का निरूपण ६२ ग्रापणा के पांच दोषों का निरूपण ६३ पौराणिकादि अन्यतीर्थिकों के मतकानिरूपण ६४ विपरीत बुद्धि जनित लोकवाद का निरूपण ६५ अन्यवादियों के मतका खण्डन के लिये अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन ६६ अन्यवादियों के मत के खण्डन में दृष्टान्त का कथन ६७ जीवहिंसा के निषेध का कारण ६८ मोक्षार्थि मुनियों को उपदेश दूसरा अध्ययन का पहला उद्देशा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥२-३॥ For Private And Personal Use Only ३८१-३८५ ३८६-३९० ३९०-३९२ ३९३-३९६ ३९६-३९९ ३९९-४०१ ४०२-४०७ ४०८-४१० ४१०-४१३ ४१३- ४१८ ४१९-४२१ ४२२-४२४ ४२४-४२६ ४२६-४२८ ४२८-४३५ ४३५-४४४ ४४४-४४७ ७१ दूसरे अध्ययनकी अवतरणिका ४६२ ७२ भगवान् आदिनाथने स्व पुत्रोंको दियाहुआ उपदेशवचन ४६३-६२६ तीसरा उद्देशा ७३ साधुओं को परीषह एवं उपसर्ग सहनेका उपदेश द्वितीयाध्ययनपर्यन्तका प्रथमभाग समाप्त ४४७-४५१ ४५१-४५३ ४५४-४५६ ४५६-४६१ ६२७-६८८ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org શ્રી સૌજન્ય ન્યાયમૂર્તિ જરિયંસ રતિલાલભાઇ ભાયચંદભાઈ મહેતાનું જીવન ઝરમર Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ભારતમાં ગરવી ગુજરાતનું સ્થાન અતિહાસિક અને ધાર્મિક ક્ષેત્રે મહત્વપૂર્ણ છે, ગુજરાતમાં પણ ઉત્તરગુજરાતનું સ્થાન ગૌરવશાળી રહ્યું છે. ઉત્તરગુજરાતના પાલનપુર નામના શહેરમાં સ્થાનકવાસી જૈન ધમ'માં અત્યંત શ્રદ્ધાવાન અને ધર્મ પરાયણુ એવા શ્રીમાન શ્રી ભાયચંદભાઈ ઝુમચંદભાઈ મહેતા નામના સગૃહસ્થ રહેતા હતા. તેમની ધમ પત્નીનું નામ મેનાબાઈ હતું. પિતાશ્રી ભાયચંદભાઇ પાતે વકીલાતના ધંધામાં અગ્રગણ્ય બાહેાશ વકીલ તરીકે ખ્યાતિ પામ્યા હતા, તેમજ પાલનપુરના જાહેર જીવનમાં પણ તેમનું સ્થાન વિશિષ્ઠ પ્રકારનું હતું. માતુશ્રી મેનાબાઈ ધ પરાયણ, સેવાપરાયણ અને સંસ્કાર સંપન્ન હતા. જે તેમના સમાગમમાં આવ્યા હતા. તે આજે પણ તેમના સંસ્કારોનું સ્મરણ કરી રહ્યા છે. આવા સંસ્કારી, સેવાભાવી ધાર્મિક માતા પિતાને સતાનમાં પાંચ સુપુત્રો અને એ સુપુત્રીએ એમ સાત સતાના પ્રાપ્ત થયાં હતાં. તેમાં નામાંક્તિ એવા મેટા સુપુત્ર શ્રી મણીલાલભાઇ, બીજા સુપુત્ર શ્રી કાળીદાસભાઇ, ત્રીજા સુપુત્ર શ્રી બાપાલાલભાઇ, ચોથા સુપુત્ર શ્રી સૂરજમલભાઈ તથા પાંચમાં સુપુત્ર સૌથી નાના એવા શ્રી રતિલાલભાઇ અને પહેલા સુપુત્રી તારાબાઈ (પૂ. તારાબાઇ મહાસતીજી)અને બીજા સુપુત્રી અ.સૌ. માતીબહેન હતા. આવા સુસંસ્કાર સુ’પન્ન માતા પિતાને ત્યાં શ્રી રતિભાઈના જન્મ સને ૧૯૦૨માં પંદરમી ઓગષ્ટે થયા હતા. બાલ્યાવસ્થાથી જ સ્થાનકવાસી જૈન ધર્મને વારસા માતપિતા તરફથી શ્રી રતિભાઇને પ્રાપ્ત થયા હતા, જે ધાર્મિક સંસ્કારના સિંચનથી સેવાભાવના અને ધર્મભાવના પૂર બહારમાં તેઓશ્રીમાં ખીલો હતી. બાલ્યકાળમાં પ્રાથમિક અધ્યયન પૂરુ કરીને મુંબઈમાં ભરડા અને એલ્ફિન્સ્ટન હાઈસ્કૂલમાં માધ્યમિક શિક્ષણ મેળવ્યુ. સને ૧૯૧૮માં તેઓએ શાળાંત પરીક્ષા પસાર For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org જન્મ તા. ૧૪-૧૧-૧૯૦૧ સ્વસ્થ ન્યાયમૂર્તિ રતીલાલભાઇ ભાયચંદભાઇ મહેતા Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only વર્ગ વાસ ૫-૧-૧૯૬૬ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir કરી. એલિફન્સ્ટન કૉલેજ, વિસન કૅલેજ અને ગવરમેન્ટ લ કલેજમાં ઝળકતી ફતેહ મેળવી ઉચ્ચ કારકીર્દિ સાથે ઉચ્ચકક્ષાનું શિક્ષણ પ્રાપ્ત કર્યું. સને ૧૯૨૪માં એલ. એલ. બી. માં પ્રથમ શ્રેણીમાં પાસ થઈ સને ૧૯૨૭માં એડકેટ (એ. એસ.) ની કઠણ ગણતી પરીક્ષા પસાર કરી. મુંબઈ હાઈકોર્ટમાં ઓરિજીનલ સાઈડ પર પ્રેકટીસ શરૂ કરી. તેઓશ્રીની ઉજજવલ કારકીર્દિ અને સેવાપરાયણ સ્વભાવને કારણે લેકચાહના પ્રાપ્ત કરી. આ લેકચાહનાના બળથી શ્રી રતિભાઈ સને ૧૯૪૪-૪૫ માં બાર કાઉન્સીલના સભ્ય તરીકે ચૂંટાયા. સને ૧૯૪૭-૪૮માં હિંદના ભાગલા થતાં બીજી સ્પેશ્યલ ટીબ્યુનલ લાહોરની અનુગામી મુંબઈની સ્પેશ્યલ ટ્રીબ્યુનલમાં શ્રી રતિભાઈની નિમણુંક થઈ. જે ટ્રીબ્યુનલ “સિંધાણીયા ટ્રીબ્યુનલ” તરીકે જાણીતિ છે. આ ટ્રીબ્યુનલનું કામ પૂરું થતાં ૧૫૦માં મુંબઈની સિટી સિવિલ કેટેમાં ન્યાયાધીશ તરીકે નિયુક્ત થયા. આ સ્થાન પર રહ્યા તે સમય દરમ્યાન તેઓશ્રી એક સંનિષ્ઠ નિડર, અને સિદ્ધાંતપ્રિય ન્યાયાધીશ તરીકે દેશભરમાં જાણીતા થયાં. ઉપરોક્ત જવલંત કારકીદિને લઈને તેઓશ્રી સને ૧૫૭માં મુંબઈની સિટિ સિવિલ કેર્ટના મુખ્ય ન્યાયાધીશ નિયુક્ત થયાં. આ સમય દરમ્યાન તેમની ખ્યાતિને ફેલા સમગ્ર ભારતમાં ઉત્તમ રીતે થયે, અનેક કઠિન સમસ્યાવાળા કેસો આવ્યા, જેમાં આરે મિક કેલેની કેસ, કેડિયા ખૂન કેસ અને આહુજા ખૂન કેસમાં રત્ન સમા રતિભાઈની વિશિષ્ટ પ્રકારની છાપ ભારતની જનતામાં પડી. આહજા ખૂન કેસ જે કમાન્ડર નાણાવટી કેસ તરીકે પ્રસિદ્ધ થયેલ હતું. આ કેસ જ્યારે ચાલતે ત્યારે દેશભરના લેટેની મીટ ત્યાં મંડાઈ હતી, દેશભરના દૈનિક વર્તમાનપત્રમાં વિગતો આવતી હતી. આના જેવા અનેક મહત્વના કેસમાં તેમણે બતાવેલ ન્યાયપ્રિયતા અને હિંમત ને લઈને જ શ્રી રતિભાઈ એક નિડર, સિદ્ધાંતપ્રિય, બાહોશ, સંનિષ્ઠ, ન્યાયમૂર્તિ તરીકે પ્રસિદ્ધ થયા. ન્યાયમૂર્તિ તરીકેની કારકીર્દિ કીતિના કળશ રૂપ બની રહી. સને ૧૯૬૦માં બૃહત્ મુંબઈ રાજ્યનું મહારાષ્ટ્ર અને ગુજરાતમાં વિભાજન થતાં ગુજરાત રાજ્યની અલગ હાઈકોર્ટ અમદાવાદમાં સ્થપાઈ અને સને ૧૯૬૦ને જુલાઈ માસમાં ગુજરાત હાઈકોર્ટના ન્યાયમૂર્તિ તરીકે નિમાયા. આ પદ પરથી નિવૃત થતાં તેમની સેવાની કદર કરી ગુજરાત સરકારે રાજ્યની રેવન્યુ ટ્રીબ્યુનલના અધ્યક્ષ તરીકે નિમણુક કરી અને તેઓશ્રીએ જીવનના છેલ્લા દિવસ સુધી રાજ્યને તેમજ આમ જનતાને પિતાના જ્ઞાનને લાભ આપ્યો. શ્રી રતિભાઈ બાહોશ અને પ્રતિમાસંપન્ન ધારાશાસ્ત્રી હતા, છતાં પણ તેઓશ્રીની લાક્ષણિકતા તે સૌજન્ય અને વિનયશીલ સ્વભાવમાં હતી. બીજાને ઉપયોગી થવા માટે For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir પિતાની જાતને ભેગ આપી સહાય કરવા તેઓ સદા તત્પર રહેતા હતા. જેમ વૃક્ષને ફળ આવતા વૃક્ષ વધુ નમ્ર બની ગૂંકી પડે છે, બીજાને ફળ લેવા સુલભ બને છે, તેમ ચરિત્ર નાયક શ્રી રતિભાઈને પણ જેમ જેમ ઉચ્ચસ્થાન પ્રાપ્ત થતા ગયા તેમ તેમ તેઓશ્રી વધુ ધીરેદાર, સેવાભાવી બની સમાજને ઉપયોગી કાર્યોમાં પિતાનાથી બનતું કરવા હરહંમેશા પ્રવૃત્તિશીલ રહેતા હતા. પાલણપુરના શ્રી ધર્મશ્રદ્ધાવાન રત્નસમા શ્રી રતિભાઈનું લગ્ન સંસ્કારી માતા પિતાના સુસંસ્કાર પ્રાપ્ત કરેલ લીલાવતી બહેન સાથે થયા હતાં. લીલાવતી બહેન બાલ્યકાળથી ધર્મપરાયણ છે. તેઓ સામાયિક પ્રતિક્રમણ, પર્વતિથિને પિષધ કર વિગેરે ધાર્મિક કાર્યોમાં સદા સાવધ રહેતાં. ઉપરાંત દીન, દુઃખી ને શાતા ઉપજાવવામાં તથા સાધર્મિક પ્રેમ વિશેષ રીતે દીપી ઉઠે છે. આ રીતે તેમનામાં ઘણી ઉંચા પ્રકારની ધર્મભાવનાઓ વાસ કરેલ છે. લીલાવતી બહેનમાં કૌટુંબીક નેહ પણ વિશેષ રીતે ખલેલ છે. ધર્મકાર્યથી પિતાનું જીવન સફળ કરી સુશ્રાવિકા બની રહેલ છે. વ્રત અને નિયમથી શ્રાવિકા પદનું આરાધન કરાય છે. તે નિયમ પ્રમાણે તેઓ તેમાં સદા પ્રવૃત્તિશીલ રહ્યા છે. શ્રી રતિભાઈના વિચાર અને આદર્શોને અનુકૂળ રહી, સુસંગત કાર્યોમાં લીલાબહેન સાથ આપતા. જૈન ધર્મના સિદ્ધાંતમાં શ્રી રતિભાઈને અવિચળ શ્રદ્ધા હતી. તેઓશ્રી ધર્મના અગ્રગણ્ય મુનિ મહારાજે અને મહાસતિજીઓના ચારિત્ર તથા જીવનમાંથી વારંવાર પ્રેરણ મેળવતા હતા. વિશાળ અને વ્યાપક જૈનધર્મ તેમને જીવન દીપ હતે. (દરીયાપુરી સંપ્રદાય) ૫. તારાબાઈ મહાસતિજી તેમના સાંસારિક બહેન) તથા પૂ. શ્રી. વસુમતીબાઈ મહાસતિજી તેમના સાંસારિક સાળી) વિગેરેનું જીવન હંમેશા તેમની નજર સમક્ષ રહેલું તેમના પવિત્ર જીવનમાંથી તેઓ હંમેશાં અખૂટ ધર્મશ્રદ્ધા અને પ્રેરણા મેળવતા. અમદાવાદમાં આવ્યા બાદ જૈનધર્મદિવાકર, શાસ્ત્રોદ્ધારક, પરમપૂજ્ય આચાર્ય શ્રી ઘાસીલાલ મ. સા. ના સમાગમમાં અવારનવાર આવતા અને કલાક સુધી બેસી ધર્મબળ મેળવતા. તેમના ધર્મપત્ની લીલાબહેન પણ વખતેવખત પૂજ્ય મ. સા. ને અચૂક પ્રયત્ન કરી રહ્યા છે. ધાર્મિક સંસ્કારની સુવાસ શ્રી રતિભાઈના સર્વ કુટુંબીજનેમાં આજે પણ મઘમઘી રહેલ છે. શ્રી રતિભાઈ વિદ્વાન હતાં છતાં તેમની વિદ્વત્તા બીજાને આંજી નાખવા માટે ન હતી પરંતુ તે અન્યને સહાયભૂત થવા કંઈક જાણવા મેળવવા માટે હતી ગમે તેવા કુટ પ્રશ્નને સાદી સમજદારીથી સમજાવવાની તેમની અંતર સૂજ હતી. For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir પૂજ્ય શ્રી પંડિતરન આચાર્ય દેવ શ્રી ભાતૃચંદજી મહારાજના સુશિષ્ય પૂ. ચતુરલાલજી તપવીજી મહારાજશ્રીન સંથારા પ્રસંગે જૈનેતર ભાઈઓને પણ જૈન ધર્મની ફિલસુફી સરળતા અને શ્રધ્ધાથી સમજાવતા શ્રી રતિભાઈને જેઓએ સાંભળ્યા છે તેઓને તે આશ્ચર્ય થયા વિના નહીં રહે કે-મુંબઈ જેવા શહેરમાં બેરિસ્ટર અને વિદેશી ભણતર વચ્ચે ઉચ્ચસ્થાન પ્રાપ્ત કરેલ વ્યક્તિ આવી સુજ કેવી રીતે કેળવી શકયા હશે? પરંતુ શ્રી રતિભાઈની આ વિશિષ્ટતા હતી. તેમણે ઉચ્ચ માનવતા વાદમાં જ પિતાનું ગૌરવ જોયું. તેમણે તે પ્રસંગે આપેલી સેવાઓ વિશેષ ધ્યાન માગી લે છે. ઉચ્ચ અધિકાર પ્રાપ્ત કરવા છતાં વિનમ્રતા અને વિનય તેમણે જીવનમાં વણી લીધા હતા. તેમના સન્માનમાં ભેજાએલ એક સભામાં તેમણે કહેલ ઉદગારે તેમના આદર્શો અને સિદ્ધાંતને પરિચય આપી જાય છે. - સત્તા અને વૈભવની પ્રભુતા તે ક્ષણિક પ્રસંગો છે. તેમાં રાચીને ખુશી થવાનું નથી. આવા પ્રસંગે જીવનમાં મળે તેમાં ડૂબી ન જતાં તેમાંથી માનવતાને પાઠ કાઢી પિતાની જાતને યથાર્થ કરવી જોઈએ. આવી હતી તેમની જીવન દૃષ્ટિ. તેમનું જીવન આ વિચારને અનુરૂપ હતું. સમગ્ર રીતે જોતાં તેઓએ એક સાચા માનવી તરીકે જીવી જાણ્યું અને યથાર્થ રીતે તેમણે જીવન સફળ કર્યું. શ્રી લીલાવતી બહેને તેમની છેવટની માંદગી જાણ્યા છતાં હિંમત રાખી સતત સેવા કરીને ભારતીય આદર્શ નારિત્વનું વ્યક્તિત્વ દીપાવ્યું છે. આવી પ્રતિભા સંપન્ન અને કર્તવ્યનિષ્ઠ વ્યકિતનું મૃત્યુ એ ખરેખર મૃત્યુ હતું નથી પણ મૃત્યુજ નામશેષ થઈ જાય છે. For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org આદ્યમુરબ્બીશ્રીએ શ્રી શાંતિલાલ મંગળદાસભાઈ અમદાવાદ. (સ્વ.) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર · – અમદાવાદ શેઠશ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ વીરાણી–રાજકાટ, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (સ્વ.) રોઠશ્રી શામજીભાઇ વેલજીભાઇ વીરાણી રાજકાટ शाजी मोडीलालजी गलुन्डिया વચ્ચે બેઠેલા લાલાજી કિશનચંદજી સા. જૌહરી ઉભેલા સુપુત્ર ચિ. મહેતાબચન્હજી સા. નાના – અનિલકમાર જૈન (દાયત્તા ) For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir આમુરબ્બીશ્રીઓ (સ્વ.) શેઠશ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વારિઆ ભાણવડ. (સ્વ.) શેઠ રંગજીભાઈ મોહનલાલ શાહ અમદાવાદ, (સ્વ) શેઠશ્રી દિનેશભાઇ કાંતિલાલ શાહ અમદાવાદ, શ્રી વિનોદભાઈ વીરાણી શેઠશ્રી જેસિંગભાઈ પાચાલાલભાઈ અમદાવાદ સ્વ. શેઠશ્રી આત્મારામ માણેકલાલ અમદાવાદ For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir આધમુરબ્બીશ્રીઓ શ્રી વૃજલાલ દુર્લભજી પારેખ રાજકોટ, કોઠારી હરગોવિંદ જેચંદભાઇ રાજકોટ, પટેલ ડોસાભાઈ ગોપાલદાસ મુ. સાણંદ (જી. અમદાવાદ) શેઠશ્રી મિશ્રીલાલજી લાલચંદજી સા, લુણિયા તથા શેઠશ્રી જેવતરાજજી લાલચંદજી સા. (સ્વ.) શેઠશ્રી ધારશીભાઈ જીવણલાલ ખાસ્સી સ્વ. શ્રીમાન શેઠશ્રી મુકનચંદજી સા. માલિયા પાલી મારવાહ For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org આદ્યમુરબ્બીશ્રીએ સ્વ, શેઠશ્રી હરિલાલ અનેાષચંદ્ર શાહુ ખંભાત. श्रीमान् शेठ सा. चीमनलालजी सा. ऋषभचंदजी सा. अजीतवाले (सपरिवार) વચ્ચે બેઠેલા મેાટાભાઇ શ્રીમાન્ મૂલચંદજી જવાહીરલાલજી અહિયા ૨ બાજુમાં બેઠેલા ભાઈ મિશ્રીલાલજી ખરહિયા ૩ ઉભેલા સૌથી નનાભાઈ પૂનમચંદ અરક્રિયા Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्व. शेठ ताराचंदजी साहेब गेलडा મદ્રાસ. ૧ અમીચંદભાઈ ત્યા ૨ ગીરધરભાઈ ખાટવિયા श्रीमान् सेठश्री खीमराजजी सा. चोरडिया For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री सती शिरोमणि ताराबाई इन्द्रवज्राच्छंद:" सती प्रधाना सुकृपा निधाना सतीषु सारा सुविचारधारा । विभाति गच्छे दरियापुरीये 'तारा सती' स्वच्छतराविभूतिः ॥१॥ " भद्राऽस्तिभावेन विनीतभावा सद्वर्तिनी या सरलस्वभावा । 'हीराऽभिधाना' रुचिरस्वभावा चकास्ति साध्वी गुणरत्नभाभिः ॥२॥ " यमेषु मग्ना नियमेषु लग्ना भग्नानयाकाऽपि तपस्तटान्तात् । सेवाशतैरञ्जयतीव साध्वीविभाति सेयं 'विमला' सतीषु ॥३॥ अनुष्टुपच्छंदः 'इन्दुबाई विभातीन्दोः कलेव विमला सदा । विनम्रभक्तिसम्पन्ना साध्वीमध्ये विराजते ॥४॥ इन्द्रवज्राच्छंद धर्मे सुशीला नियमे सुशीला व्रते सुशीला विनये सुशीला । चारित्रशीला यतिधर्मशीला नाम्ना 'सुशीला' जगति प्रसिद्धा ॥५॥ उषा विशेषा शुभधर्मलेश्या न दोषशेषा विनिवृत्तकामा । वाञ्छाविशिष्टा विनयादिवृत्तो यस्या 'उषा' ऽऽस्तेशुभनामधेयम् ॥६॥ हंसस्य चन्चुर्जलदुग्धभेदं करोति शास्त्रे सदसद्विवेकम् ।। कुर्यां कथं स्वं स्वजनं विबोध्य 'हंसाबाई' सती रूपमकारि किनु ॥७॥ न लोचने में स्वहिताय गेहे विचारयन्ती समवस्थिता या । प्रवज्यजाता शिवशुद्धमार्गे 'मुलोचनाबाई' सती प्रसिद्धा ॥८॥ सुखस्य दुःखस्य च कारणं य-जाते तु तस्मिन्नपि हर्षमेति । इत्थं स्वभावेन विराजते या चकास्ति 'हर्षाबाई' शुभनामतस्याः ॥९॥ वसन्ततिलका सम्यक्त्ववर्षणपरास्वपराऽर्थसिद्धयै औदायभावमवलंब्य मुदं वहन्ती । सेवा-सभक्ति-विनया-ऽम्बु-धरा धराया-वर्षिष्यतीति गुरुभिधुपिताऽस्ति 'वर्षां ।१० बाई 'मनोरमा साध्वी, धर्मकायें मनोरमा । शुद्धभावेन संयुक्ता, शास्त्रस्वाध्यायतत्परा ॥११॥ 'इन्दिराबाई' साध्वी च, साध्वाचारपरायणा । विनम्रा भक्तिभावेन, षट्कायप्रतिपालिका ॥१२॥ For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥श्री। सति शिरोमणि केशरबाई महासतीजी तथा विदुषि वसुमतिबाई इन्द्रवज्रा छन्दः पर्यायतो ज्येष्ठतया स्वगच्छे चित्तैकधीरा सरलस्वभावा । श्री 'पार्वतीबाई' विशुद्धभावैः विराजते सर्व सतीषु मुख्या ॥१॥ प्रवर्तिनी 'केशरबाई गच्छे गच्छस्य कार्येष्वनिशं समर्था । चारित्रसंरक्षणहेतुकार्ये प्रवर्तते प्रेरयतीव साध्वीः ॥२॥ विचक्षणायाऽति विनीतबुद्धिः मोक्षस्य मार्गे सततं प्रयाति । विनीतभावेन करोति सेवां 'प्रभावतीबाई' गुणैगरिष्ठा ॥३॥ द्रुतविलम्बितछन्दः वसुमती शिवमागविधायिनी विमलभाव सतीषु शिरोमणिः । अमलशासनतत्वविकाशिनी विजयते गुणगौरवशासने ॥४|| अनुष्टुप् छन्दः द्योतते 'दमयन्तीयं संयमाराधनोद्यता । विनीतभावसम्पन्ना शुद्धा गुणवती सती ॥५॥ इन्द्रवज्रा छन्दः स्वकार्यदक्षा परकार्यदक्षा विवेकदक्षा विनयेषु दक्षा । सेवासु दक्षा यतनासु दक्षा श्री दीक्षिताबाई' सतीसु दक्षा ॥६॥ भद्राऽस्ति भावेन विनोतभावा सद्वर्तिनी या सरलम्वभावा । 'हीराऽभिधाना' रुचिरस्वभावा चकास्ति साचीगुणरत्नमाभिः ॥७॥ विशुद्धभावा सरलस्वभावा शीलप्रभावा विषये विरक्ता ।। समाधिभावं भजतीति नित्यं विनम्रभावा 'सविता' सती या ॥८॥ विनीतताभावसमाश्रयेण सेवाऽधिकारेषु परायणा या। 'प्रवीणबाई' विनये विवेके प्रावीण्यभावं विदधाति नित्यम् ॥९॥ विनयादिगुणोमिभिः संयुता सरला सती। 'उर्मिलाबाई मुदिता सेवाभावेषु वर्तते ॥१०॥ For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १२ विदुला विमलाबुद्धया सेवाधर्मपरायणा । विनयामृतपानेन सफलयति जीवनम् ॥११॥ विशुद्धा 'निर्मलाबाइ' ज्ञानध्यानादिसोधमा । विनयादिसमाराध्य सफलर्यात जीवितम् ॥१२॥ पयोमुचां पयोबिन्दुसिक्तकुन्दसमा सती । गुरूणां कृत्यवचसा 'प्रफुल्लीबाई' भाषते ॥१३।। तरौ लता यथा पुष्पैः फलैश्च परिशोभते । सती 'तरुल्लताबाई' विनयादि गुणान्विता ॥१४॥ 'मजुला' मजुभावेन विनम्रा धर्मतत्परा । सफलं जीवितं चाऽस्या धन्य धन्या सतीसदा ॥१५।। 'मृदुला' मृदुभावेन सेवाधर्मपरायणा । धन्यं जन्म पुनात्येषा स्वात्मानं वचसा गुरोः ॥१६।। धर्मनिष्ठा सती साध्वी, विनयादि गुणान्विता । सेवाभावपरा नित्यं, 'जयश्री' जयकारिणी ॥१७॥ 'ज्योत्स्नाबाई' सती गच्छे, धर्मज्योतिः प्रकाशिनी । धर्भध्यानरता नित्यं, विरक्ता पापकर्मणि ॥१८॥ 'दर्शना' दर्शने निष्ठा, विशिष्टा विनयादिषु । कृतिकर्मरता साध्वी, यथारात्निक भावतः ॥१९॥ 'वनिता' च विनीताया, सतीधर्मपरायणा । जिनधर्मे च श्रद्धाल, रनन्या तस्य पालने ॥२०॥ 'मीनाक्षी' या सती सावी, तल्लीना धर्मकर्मणि । यथारात्निकसेवायां तत्परा शुभभावतः ॥२१शा 'पुष्पावती सती साध्वी ज्ञानध्यानपरायणा । विनीता नम्रभावेन, चारित्राराधने रता ॥२२॥ 'करुणाबाई' साध्वी च, करुणाकरुणालया । आराधिका वरीवति, समितिगुप्तिधारिणी ॥२३॥ For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री श्री वीतरागाय नमः जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्य श्री - घासीलालवतिविरचितया समयार्थप्रबोधिन्याख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं श्री सूत्रकृताङ्गसूत्रम् ॥ मंगलाचरणम् ॥ ( इन्द्रवज्रान्तर्गतबालानामकच्छन्दः ) श्रीवर्द्धमानं गुणसन्निधानं सिद्धालये शाश्वतराजमानम् । धर्मोपदेशादिविधेर्निदानं नमामि भक्त्या जगतीप्रधानम् ||१|| श्री सूत्रकृताङ्गका हिन्दी अनुवाद | - मङ्गलाचरण 'श्रीवर्द्धमानं ' इत्यादि । गुणों के निधान, मुक्ति में सदा के लिये विराजमान, धर्म के उपदेश आदिक विधि के कारणभूत और भूतल पर प्रधान श्री वर्द्धमान भगवान् को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूं || १ || સૂત્રતાંગના ગુજરાતી અનુવાદ -भंगलायर “श्रीवर्द्धमानं” हत्याहि— ગુણાના ભડાર, મુક્તિમાં સદાને માટે વિરાજમાન, ધના ઉપદેશ આદિની વિધિના કારણભૂત, અને ભુતલ પર પ્રધાન (શ્રેષ્ઠ) એવા શ્રી વર્કીંમાન ભગવાનને ભકિતભાવ પૂર્વક નમસ્કાર કરૂ છું "૧" For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतोगसूत्रे (शिखरिणीछन्दः) चतुर्ज्ञानोपेतं जिनवचनपीयूषमतुलं, पिबन्तं कर्णाभ्यामविरतिपुटाभ्यां गुणगृहम् । अघौघं भिन्दन्तं सकलजनकल्याणसदनं, प्रणम्य प्रेम्णा तं गुणिषु गुणिनं गौतममिनम् ॥२॥ शार्दूलविक्रीडितम्] षटकायप्रतिपालकं च करुणाधर्मोपदेशप्रदं, यत्नाथै मुखवस्त्रिकाविलसितास्येन्दं प्रसन्नाननम् । अन्तर्धान्तविनाशकाघिनखरज्योतिश्चयं चिन्तयन् , वन्दित्वोगविहारिणं गुरुवरं पञ्चव्रताराधकम् ॥३॥ "चतुर्बानोपेतं' इत्यादि। चार ज्ञानों से सम्पन्न, कानों से जिनवचन रूपी अनुपम अमृत का पान करने वाले और भव्यों को पान कराने वाले, गुणों के सदन (गृह) पापों के समूह को भेदने वाले, समस्त प्राणियों के कल्याणके धाम तथा गुणीजनों मे याने ज्ञानादिगुणयुक्त मुनिजनों में भी विशिष्ट गुणी श्री गौतम स्वामी को भक्तिपूर्वक नमस्कार करके ॥२॥ "षट्काय" इत्यादि। ___आन्तरिक अन्धकार को सर्वथा नष्ट करने वाली चरणों के नाखूनों की प्रखर ज्योतिका चिन्तन करता हुआ मैं छहकायों के जीवों की रक्षा करने वाले, करुणा दयाधर्म का उपदेश देनेवाले, यतना के लिये दोरे सहित मुखवत्रिका को मुखपर बांधनेवाले प्रसन्नवदन, उपविहार करने वाले तथा पांच महाव्रतों के आराधक गुरुवर को नमस्कार करके ॥३॥ "चतुर्ज्ञानोपेतं" त्या ચાર જ્ઞાનથી સંપન્ન જિનવચન રૂપી અનુપમ અમૃતનું પિતાના કર્ણો વડે પાન કરનારા અને ભવ્યને તેનું પાન કરાવનારા, ગુણેના સદન(ગૃહ), પાપના સમૂહને ભેદનારા, સમસ્ત પ્રાણીઓના કલ્યાણના ધામ રૂપ તથા ગુણજનમાં-જ્ઞાનાદિ ગુણયુકત મુનિજનમાં પણ વિશિષ્ટ ગુણી એવા શ્રી ગૌતમસ્વામીને પ્રીતિપૂર્વક નમસ્કાર કરીને રા. "षट्काय" त्याह આન્તરિક અંધકારને સર્વથા નાશ કરનારી ચરણના નખની પ્રખર તિનું ચિન્તન કરતે થકે હું છકાયના જીવોની રક્ષા કરનારા, કરૂણ- દયા ધર્મના ઉપદેશક, For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका मङ्गलोचरणम् प्रणम्य वाणी परमां विशुद्धां विचित्य नानार्थपदार्थसारम् करोमि टीकां समयार्थबोधां, भव्यावबुद्धयै मुनिघासिलालः ॥४|| सूत्रमात्रं समालम्ब्य निरालम्बेपि गच्छतः।। __ अम्बरे नटवन्मेऽत्र साहसः सिद्धिमेष्यति ॥५॥ निमज्जद्भिर्जन्तुभिरेतस्मात्संसारमहोदधेः वार मिच्छद्भिर शेषकर्मक्षयाय यस्तिव्यम् । स च सम्यग्ज्ञानसापेक्षः, तच्चाप्तवाक्यमन्तरेण न भवितुमर्हति, आप्तश्च "प्रणम्यवाणी" इत्यादि। परम विशुद्ध वाणी को नमस्कार करके और नानार्थक पदार्थसारों को हूंढकर अथवा शोचकर मैं मुनि घासीलाल भव्य जीवों को बोध कराने के लिये सूत्रकृताङ्ग की समयार्थबोधिनी नामक टीका की रचना करता हूँ ॥४॥ 'सूत्रमात्रं' इत्यादि। जैसे निरालम्बन आकाश मैं सूत्रमात्र (रस्सी) का सहारा लेकर चलने वाले नट का साहस ही उसे सफलता प्रदान करता है, उसी प्रकार सूत्रमात्र (मूल आगम)का आश्रय लेकर टीका रचना में प्रवृत्त मुझे मेरा साहस ही सिद्धि प्रदान करेगा ॥५॥ जो प्राणी इस संसार सागर में डूब रहे हैं किन्तु इससे पार होना चाहते हैं उन्हें समस्त कर्मो का क्षय करने का यत्न करना चाहिये । कर्मों વાયુકાયાદિ છે જીવનીકાયની રક્ષા કરવા માટે મુખપર દેરાસહિત મુહપત્તી બાંધવાવાળા પ્રસન્ન વદન, ઉગ્રવિહાર કરનારા, તથા પાંચ મહાવ્રતના આરાધક ગુરૂવરને નમસ્કાર उशने ॥3॥ "प्रणम्यवाणीं" त्या: પરમ વિશુદ્ધ વાણને નમસ્કાર કરીને, અનેક અર્થવાળા પદાર્થોના સારને ધીને અથવા વિચારીને હું મુનિ ઘાસીલાલજી ભવ્ય જીવોને બેધ કરાવવાને માટે સૂત્રકૃતાંગની સમયાધિની નામની ટીકાની રચના કરૂં છું. ૧૪ "मूत्रमात्र" त्या જેવી રીતે આધાર વિનાના આકાશમાં દેરડાને આધાર લઈને ચાલનારા નટનું સાહસ જ તેને સફલતા પ્રાપ્ત કરાવે છે, એજ પ્રમાણે સૂત્રમાવ (મૂળ આગમ) ને આધાર લઈને ટીકાની રચના કરવાને તૈયાર થયેલા મને મારું સાહસ १ सिध (समता) प्रहान ४२ ॥५॥ For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे आत्यन्तिककर्ममलप्रक्षयाद्भवति, एतादृशश्च भगवानर्हन्नेवातस्तत्प्ररूपितागमपरिज्ञानमेवावलम्बनीयम् । आगमश्च द्वादशाङ्गादिलक्षणः, तत्र चरणकरणानुयोगप्राधान्येन प्रथममाचाराङ्गं व्याख्यातम्, साम्प्रतमवसरप्राप्तं द्वितीयं द्रव्यानुयोगप्रधान सूत्रकृताङ्गं व्याख्यायते___ ननु प्राणिहितस्य परमपुरुषार्थस्य शासनकरणादिदं शास्त्रपदवाच्यतां लभते शास्त्रस्य च समस्तविघ्नविनाशायादौ मंगलमावश्यकम् तथा अधिकृतशास्त्रस्यस्थिरीकरणार्थ मध्येपि मंगलमावश्यकम् एवं शिष्यपरंपरया शास्त्रस्याऽविच्छेका क्षय सम्यग्ज्ञान से होता है और सम्यग्ज्ञान आप्त वाक्य आगम के विना नहीं हो सकता। आप्त कर्ममल का सर्वथा क्षय करने से होता है। ऐसे आप्त अर्हन्त भगवान् ही हैं। अतएव उनके द्वारा प्ररूपित आगम के ज्ञान का ही आश्रय लेना उचित है। आगम द्वादशांग रूप है। उसमें चरणकरणानुयोग की प्रधानता है इस कारण पहले आचारांग की व्याख्या की गई है । उसके पश्चात द्रव्यानुयोग प्रधान सूत्रकृतांग की व्याख्या का अवसर प्राप्त है अतएव यहां उसकी व्याख्या की जाती है। शंका-प्राणियों के लिये हितकर परम पुरुषार्थ (मोक्ष) का शासन उपदेश करने के कारण यह शास्त्र कहलाता है और शास्त्र की आदि में समस्त विनों का विनाश करने के लिये मंगलाचरण करना आवश्यक है। इसी प्रकार प्रस्तुत शास्त्र की स्थिरता के लिये मध्य में तथा शिष्य प्रशिष्यों જે જે આ સંસાર સાગરમાં ડૂબી રહ્યા છે, પરંતુ સંસાર સાગરને પાર કરવા માગે છે તેમણે સમસ્ત કમેને ક્ષય કર જોઈએ. કર્મોને ક્ષય કરવા માટે સમ્યગ્ન જ્ઞાનની જરૂર પડે છે. સમ્યગ જ્ઞાન આમ વાક્ય રૂપ આગમ વિના પ્રાપ્ત થઈ શકતું નથી, કમળને સર્વથા ક્ષય કરનાર છવજ આપ્ત કહેવાય છે. એવાં આપ્ત અહંત ભગવાને જ છે. તેથી તેમના દ્વારા પ્રરૂપિત આગમના જ્ઞાનને જ આધાર લે તે ઉચિત છે. આગમ દ્વાદશાંગ રૂપ (બાર અંગ રૂ૫) છે. તેમાં ચરણ કરણાગની પ્રધાનતા છે, તે કારણે પહેલાં આચારાંગની વ્યાખ્યા કરવામાં આવી છે. ત્યાર બાદ દ્રવ્યાનુગપ્રધાન સૂવકૃતાંગની વ્યાખ્યા કરવાને પ્રસંગ પ્રાપ્ત થયે છે, તેથી અહીં તેની વ્યાખ્યા કરવામાં આવે છે. શંકા–પ્રાણીઓને માટે હિતકારી એવા પરમપુરૂષાર્થ (મોક્ષ) નું શાસન (ઉપદેશ) કરનાર હોવાને કારણે આ સૂત્રને શાસ્ત્ર કહેવામાં આવે છે. શાસ્ત્રના પ્રારંભે, સમસ્ત વિદને ને વિનાશ કરવાને માટે મંગળાચરણ કરવું આવશ્યક ગણાય છે. એજ પ્રમાણે પ્રસ્તુત શાસ્ત્રની સ્થિરતાને માટે મધ્યમાં તથા શિષ્ય પ્રશિષ્યની પરમ્પરા For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टोका मङ्गलाचरणम् दायावसानेपि मंगलमावश्यकम् । अन्यथा पूर्वाचार्यैमंगलाकरणे तदनुयायिभिः शिष्यप्रशिष्यैरपि मंगलं नाद्रियेत तथा च निविघ्नशास्त्रपरिसमाप्तिर्न स्यादिति सर्वोपि जनः परमप्रयोजनाद् हीयेतानर्थे च प्राप्नुयात् । स्थलत्रयेपि मंगलमावश्यक मित्यन्यतीथिका अपि समामनन्ति “मंगलादीनि मंगलमध्यानि मंगलान्तानि च शास्त्राणि प्रथन्ते अध्येतारश्च वीराः" इत्यादि । तदिह मंगलाकरणाम्न्यूनता प्रसक्तेति चेन, मंगलं नाम स्वेष्टदेवता नमस्कारादि रूपमेव किन्तु प्रकृतद्वादशाङ्गरूपागमस्यार्थतः प्रणेता भगवान् तीर्थकर एव की परम्परा सतत चालू रहे और इससे शास्त्रका विच्छेद न हो, इसलिये अन्तमें भी मंगल करना आवश्यक है । पूर्ववर्त्ती आचार्य यदि मंगल न करे तो उनके शिष्य प्रशिष्य भी मंगल नहीं करेंगे। ऐसा होने से शास्त्र की निर्विघ्न समाप्ति नहीं होगी। सब लोग परम प्रयोजन से वंचित हो जाएंगे और उन्हें अनर्थ की प्राप्ति होगी । अन्यतीर्थी भी आदि मध्य और अन्त में तीनों जगह मंगल करना आवश्यक मानते हैं - शास्त्र की आदि में शास्त्र मध्य में और शास्त्र के अन्त में मंगल प्रशस्त होते हैं और उनका अध्ययन करने वाले वीर होते हैं इत्यादि । इस प्रकार यहां मंगल न करने के कारण न्यूनता का प्रसंग होता है । समाधान - ऐसा न कहिए। अपने इष्टदेव को नमस्कार आदि करना ही मंगल कहलाता है किन्तु प्रकृत द्वादशांग रूप आगम के अर्थ के प्रणेता સતત ચાલુ રહે અને શાસ્ત્રના વિચ્છેદ ન થાય તે માટે શાસ્ત્રને અન્તે પણુ મંગલાચરણ કરવું' આવશ્યક ગણાય છે. પૂવી' આચાય આદિ જે મંગલાચરણ કરવાનુ' અંધ કરી દે, તેા તેમના શિષ્યા અને પ્રશિષ્યા પણુ મંગલાચરણ કરવાનુ બંધ કરી દેશે, એવુ થાય તા શાસ્ત્રની નિવિઘ્ને સમાપ્તિ પણ થઇ શકે નહી. સઘળા લોકો પરમ પ્રત્યે:જનથી વંચિત (રહિત) રહી જશે અને તેમને અનની પ્રાપ્તિ થશે. અન્ય તીથિકા પણ આદિ, મધ્ય અને અન્તે મંગળાચરણને આવશ્યક ગણે છે. શાસ્ત્રના પ્રારંભે, શાસ્ત્રના મધ્ય ભાગમાં અને શાસ્ત્રના અન્ત ભાગમાં મંગલાચરણને પ્રશસ્ત ગણવામાં આવે છે અને તેમનુ અધ્યયન કરનાર વીર થાય છે. ઇત્યાદિ આ પ્રકારનું મંગલાચરણ આ શાસ્ત્રના પ્રારંભ કરતી વખતે કરવામાં આવ્યુ' નથી. તેથી શું અહી' ન્યૂનતા દોષના પ્રસંગ પ્રાપ્ત થતા નથી ? સમાધાન-આ પ્રકારની શંકા અસ્થાને છે. પોતાના ઇષ્ટદેવને નમસ્કાર આદિ કરવા તેનું નામ જ મંગલ છે. તેના કરતાં વધારે મગલ બીજું શું હોઇ શકે ? પ્રસ્તુત દ્વાદશાંગ રૂપ આગમના અર્થના પ્રણેતા સ્વયં તીથ 'કર ભગવાન ४ छे. For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे स च सर्वज्ञः, सर्वदोषविनिर्मुक्तस्य तादृशस्य तस्य नमस्कार्यो नास्ति कश्चिदपरः पुरुषो, यं नमस्कृत्य नमस्कारादि रूपं मंगलं संपादयेत् तथा मंगलस्य प्रयोजनं विघ्नविनाशः न च तस्मिन् घातिकर्मचतुष्टयरहिते विघ्नस्य संभावना यदुदेशेन प्रकृतशास्त्रप्रणेता सर्वज्ञस्तीर्थकरो मंगलमाचरेत् अतोऽस्मिन् शास्त्रे मंगलाभावेऽपि नास्ति न्यूनतारूपो दोषः। अयमाशयः -यः कश्चित् पदार्थः स्थितिमान् भवेत् तस्यैव विनाशः कारणसाध्यो भवति न तु असतो विनाशो जायते तत्र वस्तुन एवाभावात्, नह्यनुत्पन्नघटस्य वन्ध्यापुत्रस्य वा केनापि कारणेन विनाशो दृश्यते । स्वयं तीर्थकर भगवान् हैं। वे सर्वज्ञ होते हैं। समस्त दोषों से सर्वथा मुक्त तीर्थकर भगवान् के लिए अन्य कोई नमस्कार रूप मंगल किया जाय । इसके अतिरिक्त मंगल का प्रयोजन है विघ्नों का विनाश होना किन्तु चार घातिक कर्मों से रहित तीर्थकर भगवान्को विघ्न होने की कोई संभावना ही नहीं है, जिनका निवारण करने के लिये सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान् मंगलाचरण करें। इस प्रकार इस शास्त्र में मंगल न होने परभी न्यूनता दोष नहीं है। तात्पर्य यह है कि प्रतियोगिता सम्बन्ध से नाश के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध होने के कारण प्रतियोगी कारण होता है। अर्थात्-जिसका अभाव होता है वह प्रतियोगी कहलाता है जैसे जहां घट का अभाव है वहां घट प्रतियोगी है। प्रतियोगिता घटाभावीय अघट में है। अतएव प्रतियोगिता सम्बन्ध से घट आदि का नाश घट में रहता है और उसी घट में तादात्म्य सम्बन्ध से घट भी रहता है તેઓ સર્વજ્ઞ છે. સમસ્ત દેથી સર્વથા મુકત એવાં તીર્થકર ભગવાનને માટે અન્ય કેઈ નમસ્કાર કરવા ગ્ય ઈષ્ટદેવ જ નથી કે જેમને નમસ્કાર કરીને નમસ્કાર રૂપ મંગળ કરવામાં આવે. વિનેને નાશ થાય એવું જ મંગલનું જે પ્રયોજન હય, તે ચાર ઘાતિયા કર્મોને ક્ષય કરી નાખનાર તીર્થકર ભગવાનને એવું કંઈ પણ વિક્ત નડવાની શકયતા જ હોતી નથી, કે જેના નિવારણ માટે સર્વશ, તીર્થકર ભગવાને મંગલાચરણ કરવું પડે! આ પ્રકારે આ શાસ્ત્રમાં મંગલ (મંગલાચરણ) ના હેવા છતાં પણ ન્યૂનતા દેવને પ્રસંગ પ્રાપ્ત થતું નથી. ઉપર્યુક્ત કથનને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે – પ્રતિયોગિતા સંબંધની અપેક્ષાએ નાશ સાથે તાદામ્ય સંબંધ હોવાને કારણે પ્રતિયોગી કારણ હોય છે. એટલે કે જેને અભાવ હોય છે, તેને પ્રતિયેગી કહે છે. જેમ કે, જ્યાં ઘટ (ઘડા) ને અભાવ હોય છે ત્યાં ઘટ પ્રતિયોગી છે. ઘટાભાવીય (ઘટના અભાવવાળા) અઘટમાં પ્રતિયોગિતા છે. તેથી પ્રતિગિતા સંબંધની અપેક્ષાએ ઘટ આદિને નાશ ઘટમાં રહે છે-ઘટમાં જ સંભવી શકે છે, અને એજ ઘટમાં For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका मङ्गलाचरणम् , एवं च यदि तीर्थकराणां विघ्नो भवेत्तदा तस्य विनाशाय ते मंगलमाचरेयुः, नत्वेवं तेषां घातिकर्मचतुष्टयाभावेन पापविशेषरूपस्य विघ्नस्यैवाभावात् । अस्मदादीनां चर्मचक्षुषां तु अतीन्द्रियविघ्नादीनां दर्शने सामर्थ्याभावात्, अस्ति विघ्नो नास्ति वेति शङ्कया मङ्गलाचरणमावश्यककोटिमधिरोहति दिव्यदृष्टीनां तु तादृशसंदेहाभावात् मंगलाचरणमनावश्यकमेव । यतो मंगलस्य फलं विघ्नविनाश एव स च विघ्नो नास्त्येवेति कथं स भगवान् निष्फल मंगलस्याचरणं क्योंकि अपने आपमें अपना तादात्म्य सम्बन्ध रहता है । इसी प्रकार जो पदार्थ विद्यमान हो उसी का कारण मिलने पर अभाव हो सकता है । सर्वथा असत् का विनाश नहीं होता क्योंकि वहां तो वस्तु का ही अभाव है । अनुत्पन्न घटका अथवा बन्ध्या पुत्र का किसी भी कारण के द्वारा विनाश होना नहीं देखा जाता। इस प्रकार यदि तीर्थकरों को विघ्न होता तो वे उसके विनाश के लिये मंगलाचरण करते किन्तु ऐसा है नहीं। चार घातिया कर्मों का अभाव हो जाने से पाप विशेष्य रूप विघ्न उन्हें हो ही नहीं सकता। हम चर्मचक्षु वाले जन इन्द्रियों से अगोचर विन आदि को देखने में समर्थ नहीं हैं । अतएव विघ्न है या नहीं ? इस शंका के कारण हमारे लिये मंगलाचरण करना आवश्यक है। दिव्यदृष्टि महात्माओं को अर्थात् सर्वज्ञ को ऐसा सन्देह नहीं होता अतः उनके लिये वह आवश्यक नहीं है क्योंकि मंगल का फल विनों का विनाश होना ही है और विन हैं ही नहीं, फिर તાદાત્મ્ય સંબંધની અપેક્ષાએ ઘટ પણ રહે છે; કારણ કે પોતાની અંદર પેાતાના તાદાત્મ્ય સંબધ રહે છે. એજ પ્રકારે જે પટ્ટાથ વિદ્યમાન હૈાય તેના જ કોઇ કારણે અભાવ અથવા નાશ સભવી શકે છે. સર્વથા અસત્ત્ના (અવિધમાનને) વિનાશ સ'ભવી શકતા નથી, કારણ કે ત્યાં તે વસ્તુનેાજ અભાવ હૈાય છે. અનુત્પન્ન ઘટના અથવા વધ્યાના પુત્રને કાઈ પણ કારણુ દ્વારા વિનાશ થતા જોવામાં આવતા નથી, કારણ કે ત્યાં તે ઘડા અથવા પુત્ર જ સભવી શકતા નથી. ઉત્પત્તિ વિના વિનાશ કેવી રીતે સંભવી શકે ! એજ પ્રમાણે જો તીથકરાને વિઘ્ના નડતાં હાત, તા તેઓ તેના વિનાશને માટે મૉંગલાચરણ કરત, પરન્તુ તેમને વિઘ્ના જ નડતાં નથી. તેમના ચાર પ્રકારના ઘાતિયાં કર્મોના અભાવ થઈ જવાને કારણે પાપ વિશેષ્ય રૂપ વિઘ્ન તેમને નડતાં જ નથી. ચચક્ષુવાળા આપણે ઇન્દ્રિયા દ્વારા અગાચર વિઘ્ન દિને જોઇ શકવાને સમર્થ હાતા નથી. તેથી આપણને એવી શકા થાય છે કે કદાચ કોઇ વિઘ્ન આવી પડશે. તે કારણે આપણે માટે મંગળાચરણુ કરવાનું આવશ્યક થઈ પડે છે. દિવ્યદ્રષ્ટિ મહાત્માઓને એટલે કે સર્વજ્ઞને એવા સદૈડુ થતા નથી. તેથી તેમના માટે તે આવશ્યક નથી. મંગલનું', વિઘ્નાના વિનાશરૂપ સ્કૂલ પ્રાપ્ત થાય છે. પરંતુ સČજ્ઞ ભગવાનને તા વિઘ્ન નડવાના સાઁભવ જ નથી, તે શા માટે તે For Private And Personal Use Only ७ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागसूत्रे विदध्यात्, नहि निष्फले कार्ये कोऽपि विद्वान् यत्नं संपादयति अन्यथा जलताडनादेरपि कर्तव्यता प्रसङ्गात् । अतः प्रकृतशास्त्रादौ मंगलं नाचरितमिति । __सत्यम् यद्भवता कथितं किन्तु भगवतस्तीर्थकरादेविघ्नाभावेऽपि विघ्न नाशोद्देशेन मंगलाकरणसंभवेपि शिष्यशिक्षार्थ मंगलकरणमावश्यकमेव । एवं च मङ्गलस्यावश्यकत्वे प्रकृतसूत्रे मंगलाभावेन न्यूनताऽस्त्येवेतिचेदत्र ब्रूमः-तीर्थकरणसमर्थः सर्वज्ञः, शास्त्रं चोभयमपि मङ्गलमेव यन्नामस्मरणमात्रेण भवाब्धि तरति लोकस्ततोऽधिकं किमपरमङ्गलं स्यात् । एवंवत्र शास्त्रस्यादौ मंगलमस्त्येव "बुझिजति" इति प्रथमपदेन ज्ञानस्य कथनात् ज्ञानंच भवस्य भवकारणस्य चोभयोविनाशकं, विनाशकत्वात्तदभिधानं मङ्गलमेवेति भावः। भगवान् क्यों वृथा मंगलाचरण करें ? निष्फल कार्य में कोई बुद्धिमान् प्रवृत्ति नहीं करता, अन्यथा जलताडन आदि भी कर्त्तव्य हो जाएँगे। इस कारण इस शास्त्र की आदि में मंगलाचरण नहीं किया है। शंका—मानलिया जो आपने कहा वह ठीक है, किन्तु तीर्थकर भगवान् को विघ्न विनाश के उदेश्य से मंगल न करने पर भी शिष्यों को शिक्षा देने के लिए तो मंगल करना आवश्यक ही है। इस प्रकार जब मंगल आवश्यक है और इस सूत्र में मंगल नहीं किया गया है तो न्यूनता है ही। समाधान तीर्थकी रचना करने में समर्थ तीर्थकर भगवान् और शास्त्र यह दोनों मंगल हैं। जिनके नाम मात्र के स्मरण से लोग संसार सागर से पार हो जाते हैं उनसे बढकर मंगल और क्या हो सकता है ? इस प्रकार इस शास्त्र की आदि में मंगल मौजूद ही है क्योंकि "बुझिज्जति" इस વૃથા મંગલાચરણ કરે ! કઈ પણ બુદ્ધિમાનું વ્યક્તિ નિષ્ફલ કાર્યમાં પ્રવૃત્ત થાય, તે જલતાડન (જળસિંચન) અદિ પણ કરવા યોગ્ય વિધિ જ બની જાય! આ કારણે શાસ્ત્રની શરૂઆતમાં મંગલાચરણ કરવામાં આવ્યું નથી. શંકા–તીર્થકર ભગવાનને વિદને નડતાં નથી, તે કારણે વિદનેના વિનાશના હેતુ પૂર્વક ભલે મંગલાચરણ ન કરવામાં આવે, પરંતુ શિષ્યોને શિક્ષા પ્રદાન કરવાને માટે તે મંગલાચરણ આવશ્યક છેવાં છતાં પણ આ સત્રમાં મંગલાચરણ કરવામાં આવ્યું નથી તે કારણે અહીં ન્યૂનતા દેષની સંભાવના જ છે. સમાધાન-તીર્થની રચના કરવાને સમર્થ એવા તીર્થકર ભગવાન અને શાસ્ત્ર આ બને મંગળ જ છે. તેમના નામમાત્રના સ્મરણથી કે સંસાર સાગરને તરી જાય છે તેમનાથી વધારે સારૂં મંગળ બીજુ કયું હોઈ શકે? આ શાસ્ત્રના प्राममा । भगण भा छ, ३ "बुज्झिज्जति" मा प्रथम ५४ २॥ For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टोका मङ्गलाचरणम् गत्यर्थस्य मगि धातो रलच् प्रत्यये कृते मङ्गलमिति रूपं निष्पद्यते मंग्यते साध्यते हितं मोक्षादि अनेनेति मङ्गलम् तादृशं मङ्गलं साक्षात् क्रियासंवलितं ज्ञानमेव यतस्तादृशेन ज्ञानेनैवाशेषकर्मक्षयात्मकमोक्षजननात् परंपरया तीर्थकर - स्तदागमश्रभावपि मङ्गलं, ज्ञानद्वारेण तयोरपि मोक्षं प्रति प्रयोजकत्वात् । " " अथवा मंगो - धर्मस्तं लाति - इति मङ्गलम्, अर्थात् धर्मस्योपादाने कारण यत् तन्मंगलम् ला आदाने इति धातोर्मेगलपदव्युत्पत्तेस्तथा च धर्मोपादान कारणं यद् भवति तन्मंगलमिति । अथवा मं गालयतीति मङ्गलम् अर्थात् मं संसारप्रथम पद से ज्ञान का कथन किया गया है। ज्ञान संसार और संसार के कारणों का विनाशक है, aara उसका कथन मंगलरूप ही है । गति अर्थवाले "मगि" धातु से "अलच" प्रत्यय करने पर "मंगलम् " ऐसा रूप निष्पन्न होता है। जिसके द्वारा हित मोक्षादि साधा जाता है वह मंगल कहलाता है । ऐसा मंगल साक्षात् क्रियायुक्त ज्ञान ही है, क्योंकि इस प्रकार के ज्ञान के द्वारा ही समस्त कर्मों का क्षय रूप मोक्ष उत्पन्न होता है । परम्परा से तीर्थंकर भगवान् और उनका आगम दोनों मंगल हैं। क्योंकि ज्ञान के द्वारा वे दोनों भी मोक्ष के प्रति उपयोगी होते हैं । अथवा 'मंग' अर्थात् धर्म को जो लावे वह मंगल कहलाता है । अभिप्राय यह हुआ कि धर्म के उपादान में जो कारण हो वह मंगल है " ला " धातु आदान के अर्थ में है, इस प्रकार “मंगल" पद की व्युत्पत्ति मानने से जो धर्म का उपादान कारण हो वह "मंगल" कहलाता है । अथवा जो 'म' જ્ઞાનનું કથન કરવામાં અાવ્યુ` છે. સ`સાર અને સંસારનાં કારણેાનુ વિનાશક જ્ઞાનને ગણવામાં આવે છે; તેથી તેનું કથન મંગળરૂપ જ છે. गति अर्थवाला “मगि” धातुने “अलच् " प्रत्यय 'मंगलम् यह मन्युं छे. नेना द्वारा हित (भोक्षाहि साधी ‘મંગળ’ છે. એવું મંગળ સાક્ષાત્ ક્રિયાયુક્ત જ્ઞાન જ છે, જ્ઞાન દ્વારા જ સમસ્ત કર્મના ક્ષય રૂપ મોક્ષ ઉત્પન્ન થાય ભગવાન્ અને તેમના આગમ, અને મંગલ રૂપ જ છે, કારણ } જ્ઞાન દ્વારા તે અને મેાક્ષ સાધવામાં ઉપયોગી થઇ પડે છે. For Private And Personal Use Only लगाउवाथी "मंगलम्' शाय हे, तेनुं नाभ કારણ કે આ પ્રકારના છે. પર`પરાથી તીર્થંકર अथवा-- - "मंग" भेटखे धर्म धर्मने ने सावे तेनुं नाम मंगल छ, मा કથનના ભાવાથ એવા છે કે...... 'ધના ઉપાદાનમાં જે કારણરૂપ મંગલ કહે છે, “હા” ધાતુ આદાનના અર્થમા વપરાયા છે. ‘મ’ગળ' હોય છે તેને પદની આ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतोङ्गसूत्रे सागरे निमजन्तं प्राणिनं, कर्मबन्धनेन संसारे परिभ्रमन्तं च गालयति-अपनयति पृथक् करोति पारं करोति वा यत् तन्मङ्गलम् । अथवा गलो-विघ्नो माभूत शाखस्येति मङ्गलम् अर्थात् यस्मिन् सति चिकीर्षितशास्त्रे विघ्नसमुदायो नोत्पद्येत तन्मालमिति । अथवा गलो-नाशः स च 'म' इति माभूत शास्त्रस्येति वा मङ्गलम्, अर्थात् यस्मिन् सति प्रारीप्सितशास्त्रस्य विनाशो न समुत्पद्येत तन्मङ्गलमिति, अथवा 'मंगे' इति सम्यग्रूपेण ज्ञानदर्शनचारित्रमार्गे 'लं' इति लयनात्-संयोजनान्मङ्गलम्, अथवा ज्ञानदर्शनादिमार्गेषु, यत्पुरुषं विनियोजयति तस्याभिधानं मङ्गलमिति । संभवन्ति बहवो मङ्गलस्यावयवार्थाः किन्तु तेषामिह व्याख्याने विस्तरभयाद्विरम्यते।। अर्थात् संसारसागर में डूबते हुए प्राणी को या कर्मबन्धन के कारण संसार में भटकते प्राणी को गालता है अर्थात् पृथक् करता है या पार करता है वह "मंगल" कहलाता है, अथवा जिसके कारण शास्त्र में 'गल' अर्थात् विघ्न न हो अर्थात् जिसकी विद्यमानता में चिकीषित शास्त्र में विघ्नों का समूह उत्पन्न न हो वह "मंगल" कहलाता है। अथवा जिसके कारण शास्त्र का 'गल' अर्थात् विनाश "#" अर्थात् न हो वह “मंगल" है। अथवा "मंग" सम्यक् प्रकार से ज्ञानदर्शन और चारित्र तप रूप मोक्षमार्ग में "" लयन-संयोजन करनेवाला "मंगल" कहलाता है। अथवा जो ज्ञानदर्शन आदि मार्ग में पुरुष का विनियोजन करता है उसका नाम मंगल है। इस प्रकार "मंगल" शब्द के और भी अनेक अर्थ हो सकते हैं किन्तु उन सब का व्याख्यान करने पर विस्तार हो जाएगा इस भय से रुक जाते हैं। પ્રકારની વ્યુત્પત્તિ માનવામાં આવે. તે જે ધર્મનું ઉપાદાન કારણ હોય તેને 'भ' हेपाय छे. અથવા તેની આ પ્રમાણે વ્યુત્પત્તિ પણ થાય છે- “” એટલે સંસાર સાગરમાં Bei vथवा भमन्यने रणे संसारमा मत प्राणीमाने 'गल'ले ॥णे छ, पार शव छ, तेनु नाम 'म' छ अथवा-रेना जारणे शाखमा गस (विनी)न આવે અથવા જેની વિદ્યમાનતાને લીધે ચિકીર્ષિત (અભિષિત) શાસ્ત્રમાં વિને સમહ ઉત્પન્ન ન થાય તેને મંગલ કહે છે. અથવા જેને કારણે શાસ્ત્રને ગલ (पिनाथ) 'म' न थाय तेने मस ४ छे. भयवा-"मंग" सभ्यः शते ज्ञानहीन भने यात्रित५ ३५ भोक्षमार्गमा "ल" લયન અથવા જે જ્ઞાનદર્શન આદિ માર્ગમાં પુરૂષનું વિનિયેાજન કરે છે તેનું નામ મંગલ છે, મંગલ પદના બીજા પણ ઘણા અર્થ થાય છે, પરંતુ અહીં તે અર્થ સમજાવવામાં શાસને વિસ્તાર થઈ જવાનો ભય રહે છે. તેથી બીજા અર્થો અહીં આપ્યા નથી, For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका ज्ञानस्य मङ्गलत्वप्रतिपादनम् अत्र प्रकृतसूत्रे 'बुझिजति' पदेन ज्ञानरूपमङ्गलप्रदर्शनपूर्वकं सूत्रमुच्चारणीयम् । तच्चेदम्-'बुझिजत्ति' इत्यादि । बुझिज-त्ति तिरुट्टिजा बंधणं परिजाणिया । किमाह बंधणं वीरो, किं वा जाणं तिउद्दई ॥१॥ चित्तमंतमचित्तं वा, परिगिझ किसामवि ।। १९ २० २१ २२ २३ २४ २५ । अन्नं वा अणुजाणाइ, एवं दुक्खा ण मुचई ॥२॥ छाया- बुध्येतेति त्रोटयेत्, बन्धनं परिज्ञाय । किमाह बंधनं वीरः, किं वा जानन् त्रुटयति ॥१॥ चित्तवन्तमचित्तं वा, परिगृह्य कृशमपि । अन्यं वा अनुजानाति, एवं दुःखात् न मुच्यते ॥२॥ अन्वयार्थ-'त्ति' इति “पड्जीवनिकायवधेन बन्धो भवति' इत्याचाराङ्गे प्रोसं बन्धनस्वरूपम् (बुज्झिज्ज) बुध्येत जानीयात् (परिजाणिया) परिज्ञाय=ज्ञ परिक्षया ज्ञात्वा (बंधणं) बन्धनम् अष्टविधकर्मबन्धं (तिउट्टिजा) त्रोटयेत् विनाशयेत् प्रकृत सूत्र में "बुझिज्जत्ति" पद से ज्ञानरूप मंगल को प्रदर्शित किया है। अब सूत्रकार निम्नोक्त सूत्र कहते हैं—“बुझिज्जत्ति" इत्यादि । शब्दार्थ-(बुझिजत्ति) मनुष्यको बोध प्राप्त करना चाहिये (बंधणं परिजाणिया) वन्धनको जानकर (तिउट्टिजा) उसे तोडना चाहिये (वीरो) वीरप्रभुने (बंधणं किमाह) बंधनका स्वरूप क्या कहा है ? (वा) और (किं जाणं) क्या जानता हुआ पुरुष (तिउट्टइ) बंधनको तोडता है ? . प्रकृत सूत्रमा "बुज्झिज्जत्ति" ३५ ५४ २॥ शान ३५ भने प्रति ४२१ामा भाव्यु छ. वे सूत्र।२ निये प्रभाधेनु सूत्र हे छ.-बुझित्ति त्या___Aal-(बुझिजत्ति) माणुसे माथ भेगा ये (बंधणं परिजाणिया) मनने समलने (तिउट्टिजा) तेने तोये (वीरो) २५ मे (बंधणं किमाह) मधन २१३५ शुध्धु छ ? (वा) १५१॥ (किं जाणं) ५३५ शु Meta (तिउद्दइ) બંધનને તેડે છે. For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे प्रत्याख्यानपरिक्षया परित्यजेदित्यर्थः अथ जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिनं पृच्छति-हे भदन्त ! (वीरो) वीरः भगवान् श्री महावीरः (बंधणं) बन्धन (किं) किम् किस्वरूपम् (आह) आह=ोक्तवान (वा) वा=अथवा (किं) किं प्रकारकं वस्तु स्वरूपं (जाणं) जानन्-अवबुध्यमानः जीवः (तिउई) त्रोटयति-कर्मवन्धं विनाशयतीति ॥१॥ सुधर्मास्वामी प्राह-यःकोऽपि (चित्तमंत) चित्तवन्तं सचित्तं द्विपदचतु___शब्दार्थ-(चित्तमंत) सचित्त द्विपद, चतुष्पद आदि प्राणी (वा) अथवा (अचित्त) चैतन्य रहित सोना चांदि आदि (किसामवि) तथा तुच्छवस्तु-भूसाआदि अथवा स्वल्पभी (परिगिज्झ) परिग्रह ररवकर (वा) अथवा 'अन्नं' दुसरेको परिग्रह रखनेको 'अणुजाणाइ' आज्ञा देकर (एवं) इसप्रकार (दुक्खा) दुःखसे 'णमुच्चइ' जीव मुक्त नहीं होता है ॥२॥ अन्वयार्थ-पट्जीवनिकाय का वध करने से बन्ध होता है ऐसे आचारांग में कहे हुए बन्धन के स्वरूप को ज्ञपरिज्ञा से जानना चाहिये और जानकर आठ प्रकार के कर्मवन्धन को नष्ट करना चाहिये अर्थात् प्रत्याख्यान परिज्ञा से उसका त्याग करना चाहिये जम्बूस्वामी सुधर्मास्वामी से पूछते हैं-भगवान् ! महावीर भगवान् ने बन्धन का क्या स्वरूप कहा है ? अथवा किस प्रकार के वस्तु स्वरूप को जानता हुआ जीव कर्मबन्धन का विनाश करता है ? ॥१॥ शार्थ -(चित्तमतं) सथित ६५६ यतुष्प६ विगेरे प्राणिया (वा) 441 'अचित्तं यतन्यविनाना सोनु यादी विगेरे 'किसामवि' तथा तुछ वस्तु-मुसु विगेरे मया था.५४ परिगिज्झ' परियड मीन (वा) अथवा 'अन्नं भागने परियड रामपानी 'अणुजाणाइ' माज्ञ! मापीने 'एवं' या शते 'दुक्खा' दुपथा 'ण मुच्चइ' ०१ भुत थत नयी ॥२॥ અન્વયાર્થ–છકાયના જીવોની હિંસા કરવાથી કમરને બન્ધ થાય છે. આ પ્રકારનું બનું જ સ્વરૂપ આચારાંગ સૂત્રમાં પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે તેને જ્ઞપરિજ્ઞા વડે જાણવું જોઈએ, તે રીતે તેને જાણું લઈને આઠ પ્રકારના કર્મબંધનેને નાશ કરવું જોઈએ, એટલે કે પ્રત્યાખ્યાનપરિજ્ઞાથી તેને ત્યાગ કર જોઈએ. જંબુ સ્વામી સધર્મા સ્વામીને એ પ્રશ્ન પૂછે છે? કે “હે ભગવન્! મહાવીર ભગવાને બન્ધનનું કેવું સ્વરૂપ કહ્યું છે ? અથવા કયા પ્રકારના વધુ સ્વરૂપને જાણ થકે જીવ કર્મ બંધનને વિનાશ रेछ ? ml For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टोका शानस्य मङ्गलत्यप्रतिपादनम् पदादिकम् (अचित्त) अचित्तम्-जीवरहितं हिरण्यसुवर्णादिकं (किसामवि कृशमपि स्वल्पमपि तृण तुषादिकमपि (परिगिज्झ) परिगृह्य-स्वयं परिग्रहविषयीकृत्य अन्यान् वा ग्राहयित्वा (अन्नवा) अन्य वा परिग्रहं कुर्वन्तम् (अणुजाणई) अनुजानाति-अनुमोदयति (एवं) एवम् =उक्तरीत्या करणे सति सः (दुक्खा) :दुःखात् =अष्टविधकर्मजनितादपायात् (न मुच्चई) न मुच्यते मुक्तो न भवतीति ॥२॥ टीका-'त्ति' इति="षड्जीवनिकायवधेन बन्धो भवति" इत्याचाराङ्गोक्तं 'बुज्झिज्जा' बुद्धयेत-बोधं प्राप्नुयात्-परिजाणिया' परिज्ञाय-ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा 'बंधणं' बन्धनं-ज्ञानावरणीयाधष्टविधकर्मबन्धं 'तिउद्दिजा' त्रोटयेत् प्रत्याख्यानपरिक्षया विनाशयेत् , निवारयेदित्यर्थः, विनाशोहि पदार्थानामभावः, तद्बोधश्च प्रतियोगिबोधपूर्वकः, अभावज्ञाने प्रतियोगिज्ञानस्य कारणत्वात् , प्रतियोगि-विशेपिताभावज्ञानं च विशिष्टवैशिष्टयबोधमर्यादा नातिशेते, इति नियमात । यथा छत्री देवदत्त इति विशिष्टवैशिष्टय बोधः, पूर्व छत्रात्मकविशेषणज्ञाने सत्येव सुधर्मा स्वामी कहते हैं-'चित्तमंत' जो द्विपद चतुष्पद आदि सचित्त 'अचित्त' हिरण्य सुवर्ण आदि अचित्त 'किसामवि' स्वल्य परिग्रह को भी 'परिगिज्झ' ग्रहण करता है दूसरों को ग्रहण करवाता है 'अन्नं वा अणुजाणइ' या ग्रहण करनेवाले की अनुमोदना करता है 'एवं' वह ऐसा करने, पर 'दुक्खा' अष्ट प्रकार के कर्मों द्वारा जनित दुःख से 'न मुच्चइ' मुक्त नहीं हो सकता ॥२॥ __षट्काय के जीवों के वध से बन्ध होता है इस आचारांग सूत्र के कथन को समझे और ज्ञपरिज्ञा से ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्मबन्ध को जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से विनष्ट करे विनाश का अर्थ है पदार्थों का अभाव । वह प्रतियोगी को ज्ञानपूर्वक होता है । अभाव के ज्ञान में સુધર્મા સ્વામીને ઉત્તર–જે જીવ દ્વિપદ, ચતુષ્પદ આદિ સચિત્ત પદાર્થોને અને સેનું, ચાંદી આદિ અચિત્ત પદાર્થોને સ્વ૯૫ પરિગ્રહ પણ કરે છે– એટલે કે બહુ જ અલ્પ પ્રમાણમાં પણ તેમને ગ્રહણ કરે છે તથા અન્યને ગ્રહણ કરાવે છે અથવા अडएर ४२नारनी मनुमहिना ४२ छ 'एवं ते ०१ 'दुक्खा ' मा ४२॥ ॐ द्वारा જનિત દુખમાંથી મુકત થઈ શકતું નથી ૧૨ છકાયના જીવેની હિંસા કરવાથી કમબન્ધ થાય છે, આ પ્રકારના આચારાંગ સૂત્રના કથનને સમજવું જોઈએ અને જ્ઞપરિજ્ઞા વડે જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારના કર્મબન્ધનું સ્વરૂપ જાણી લઈને, પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞાવડે તેને વિનાશ કરે જોઈએ. પદાર્થોના અભાવનું નામ જે વિનાશ છે તે પ્રતિયોગીને જ્ઞાનપૂર્વક થાય છે. અભાવના જ્ઞાનમાં પ્રતિયેગીનું જ્ઞાન કારણભૂત બને છે પ્રતિગીથી વિશેષિત (યુક્ત) અભાવનું જ્ઞાન વિશિષ્ટની વિશિષ્ટતાના બંધની મર્યાદાનું ઉલ્લંઘન કરત For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे भवति, अज्ञातच्छत्रस्य पुरुषस्य छत्रीति ज्ञानस्य प्रादुर्भावाभावात् तथाऽभावत्व प्रकारकबोधोपि विशिष्टवैशिष्ट्यबोधे सत्येव भवतीति, स तु स्वविशेषणीभूत प्रतियोगिज्ञानजन्य एव स्यात्, इह च बन्धनाभावस्य प्रतिज्ञातत्वात् बन्धनज्ञानसाध्ये एव बन्धनाभावःस्यादतः पूर्व बन्धनस्य ज्ञातव्यत्वं कथयित्वा तदनन्तरं तस्य विनाश्यत्वमुपदिशति-बन्धनं परिज्ञाय त्रोटयेदिति। बुद्धया संनिकृष्टस्य प्रकृतप्रकरणस्य संहितादिक्रमेण व्याख्यां करोति-'बुद्धयेत' इत्यादि । संहितादेः स्वरूपं दर्शयतिप्रतियोगी का ज्ञान कारण होता है। प्रतियोगी से विशेषित अभाव का ज्ञान विशिष्ट की विशिष्टता के बोध की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता ऐसा नियम है । जैसे "छत्रवान् देवदत्तः" यह विशिष्ट ज्ञान छत्र रूप विशेषण का ज्ञान होने पर ही हो सकता है । जिसने छत्र को नहीं जाना उस पुरुष को "छत्रवान्" ऐसा ज्ञान नहीं होता । इसी प्रकार अभावत्व प्रकारक अर्थात् अभाव का ज्ञान विशिष्ट की विशिष्टता का बोध रूप होने से वह अपने विशेषणरूप प्रतियोगी के ज्ञान से ही जन्य होता है। यहां बन्धन के अभाव का कथन किया जा रहा है अतः बन्धन का ज्ञान होने पर ही बन्धन के अभाव का ज्ञान हो सकता है। इसी कारण पहले बन्धन को जानने का कथन करके फिर उसके नाश करने का उपदेश किया है कि बन्धन को जानकर नष्ट करें । बुद्धि से संनिकृष्ट प्रकृत प्रकरण की संहिता आदि के क्रम से व्याख्या की जाती है "बुद्धयेत" इत्यादि । नथी मेवे नियम छ. रेम है "छत्रवान् देवदत्तः" ! विशिष्ट ज्ञान ७२ ३५ વિશેષણનું જ્ઞાન હોય તે જ થઈ શકે છે. જે છત્રને જ જાણતા નથી, તે છત્રવાનું આ પદ દ્વારા પ્રકટ થતા અર્થને પણ સમજી શકતા નથી. આ પ્રકારે અભાવત્વ પ્રકારક એટલે કે અભાવનું જ્ઞાન વિશિષ્ટની વિશિષ્ટતાના બોધ રૂપ હોવાથી, તે પિતાના વિશેષણ રૂપ પ્રતિયેગીના જ્ઞાનથી જ જનિત હોય છે. અહીં બન્ધનના અભાવનું કથન થઈ રહ્યું છે જે બન્ધનના સ્વરૂપનું જ્ઞાન હોય તે જ બન્ધનના અભાવનું જ્ઞાન પણ પ્રાપ્ત થઈ શકે છે. તે કારણે પહેલાં બન્ધનને જાણવાની વાત કરવામાં આવી છે અને ત્યાર બાદ તેના વિનાશને ઉપદેશ આપે છે. આ સમત કથનને ભાવાર્થ એ છે કે બન્ધના સ્વરૂપનું જ્ઞાન મેળવીને તેના વિનાશને માટે પ્રયત્ન કરવો જોઈએ. For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका भामस्य मङ्गलत्वप्रतिपादनम् "संहिता च पदं चैव, पदार्थः पदविग्रहः। चालना प्रत्यवस्थानं, व्याख्या तंत्रस्य षड्विधा ॥१॥ तत्र पदानां स्पष्टतया समुच्चारणं संहिता (१) श्लोकस्थपदानां पृथक् पृथक् रूपेण परिदर्शनं पदम् (२) पदानामर्थः पदार्थः (३) पदानां विग्रहः पदविग्रहः (४) शिष्याणां संप्राप्तजिज्ञासावतां प्रश्नः संदिग्धपदार्थपरिपृच्छा सैव चालना (५) शिष्याणां प्रश्नस्य उत्तरमेव प्रत्यवस्थानम् (६) अनेन प्रकारेण शास्त्रस्य व्याख्या षड्विधा भवति । अस्य च सूत्रकृताङ्गसूत्रस्याचाराङ्गसूत्रेण सहायं सम्बन्धः-आचाराङ्गसूत्रे इत्थं प्रतिपादितम्-"जीवो छक्काय पहले संहिता आदि का स्वरूप दिखलाया जाता है शास्त्र की व्याख्या छह प्रकार से होती है-(१) संहिता (२) पद (३) पदार्थ (४) पदविग्रह (५) चालना और (६) प्रत्यवस्थान ॥१॥ (१) शास्त्र के पदों का स्पष्ट रूप से उच्चारण करना संहिता है । (२) पदों को अलग अलग करके कहना पद या पदच्छेद कहलाता है । (३) प्रत्येक पद का अर्थ कहना पदार्थ है । (५) जिज्ञासु शिष्यों का संदिग्ध पदार्थ के विषय में प्रश्न करना चालना है। (६) शिष्यों के प्रश्न का उत्तर देना प्रत्यवस्थान कहलाता है। इस प्रकार शास्त्र की व्याख्या छह प्रकार से होती है। इस सूत्रकृतांग सूत्र का आचारांग सूत्र के साथ यह सम्बन्ध हैआचारांग सूत्र में कहा है कि पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, હવે આ પ્રકરણનું સંહિતા આદિના ક્રમપૂર્વક વ્યાખ્યા કરવામાં આવે છે– "बुद्धयेत" त्या પહેલાં સંહિતા આદિનું સ્વરૂપ બતાવવામાં આવે છે. शासनी व्याध्या नीयन। ७ प्रारे थाय - (१) साहिता (२) ५६ (3) पहाय, (४) पविड, (५) याना भने (६) प्रत्यपस्थान. ॥३॥ (1) શાસ્ત્રનાં પદેનું સ્પષ્ટ રૂપે ઉચ્ચારણ કરવું તેનું નામ સંહિતા છે. (૨) પદને અલગ અલગ કરીને તેમનું પ્રતિપાદન કરવું તેનું નામ પદ અથવા પદચ્છેદ (3) प्रत्ये: पहने। अयं वा तेनु नाम ५५ छ. (४) पहना वियस (व्युत्पत्ति) કરે તેનું નામ પદવિગ્રહ છે. (૫) જિજ્ઞાસુ શિષ્ય સંદિગ્ધ પદાર્થના વિષયમાં જે प्रश्नो ४२ छ तेनु नाम 'यातना' छ. (६) शिष्यांना प्रोन उत्तर भाप त', નામ પ્રત્યવસ્થાન છે, આ પ્રકારે શાસ્ત્રની વ્યાખ્યા છે પ્રકારે થાય છે. આ સૂત્રકૃતાંગ સુત્રને આચારાંગ સૂત્ર સાથે સંબંધ આ પ્રકારને છે– આચારાંગ સત્રમાં એવું કહેવામાં આવ્યું કે પૃથ્વીકાય, અપકાય, તેજસ્કાય For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे परूषणा य तेसिं वहेण बन्यो" त्ति, जीवाः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिरूपाः षड्विधाः, एतेषां जीवानां वधेन=विराधनेन कर्मवन्धो जायते, कर्मणा बद्धो हि जीवः स्वशुभाशुभफलमुपभुन्जानः संसाराटव्यामितस्ततः परिभ्रमति, इति संसारपरिभ्रमणस्य मूलकारणं कमैंव, एतत्सर्वं बुद्धयेत-जानीयात् , नहि अज्ञात्वा कर्मबन्धनं समुच्छेत्तुं शक्यमिति तेषां बोध एव प्रथमं श्रेयस्करः। अथ वेदान्तिनो ज्ञानादेव मुक्तिं प्रतिपादयन्ति, मीमांसकाः कर्मणैव मुक्तिमामनन्ति, जैनास्तु क्रियासंवलितज्ञानादेव मुक्तिर्भवतीति मन्यन्ते "पढमं नाणं तओ दया" इत्यागमवनस्पतिकाय और त्रसकाय के भेद से जीव छह प्रकार के हैं और उनका वध (हिंसा) करने से कर्मवन्ध होता है । कर्म से बद्ध जीव अपने शुभ और अशुभ फल का उपभोग करता हुआ संसार रूप अटवी में इधर उधर भटकता है। इस प्रकार संसार परिभ्रमण का मूल कारण कर्म ही है । इस सबको समझे बुझे । क्योंकि कर्मबन्धन को जाने विना उसे नष्ट नहीं किया जा सकता । अतएव सर्वप्रथम उनका बोध प्राप्त करना ही श्रेयस्कर है । ____ वेदान्ती अकेले ज्ञान से ही मुक्ति होना स्वीकार करते हैं। मीमांसक अकेले कर्म से ही मुक्ति होना कहते हैं । किन्तु जैन क्रियायुक्त ज्ञान से मोक्ष मानते हैं । आगम में कहा है-"पढमं गाणं तओ दया" अर्थात् पहले ज्ञान फिर दया-क्रिया । अतएव यहां पहले "बुद्धयेत" इस पद के द्वारा ज्ञान का प्रतिपादन किया गया है और फिर "त्रोटयेत्” इस पद से क्रिया का વાયુકાય વનસ્પતિકાય અને ત્રસકાયના ભેદથી જીવ છ પ્રકારના છે અને તેમને વધુ (હિંસા) કરવાથી કર્મબન્ધ થાય છે. કમ વડે બધ્ધ થયેલ જીવ તેના શુભ અને અશુભ ફલને ઉપભોગ કરતે થકે સંસાર રૂપ અટવીમાં ભ્રમણ કર્યા કરે છે. આ પ્રકારે સંસાર પરિભ્રમણનું મૂળ કારણ કર્મ જ છે. આ કર્મબન્ધનું સ્વરૂપ જીવે સમજવું જોઈએ, કારણ કે કર્મબન્ધનના સ્વરૂપને જાણ્યા વિના તેને નાશ કરી શકાતે નથી. તે કારણે સૌથી પહેલાં તેના સ્વરૂપ વિષયક બધ પ્રાપ્ત કરે એજ મેયસકર છે. વેદાન્તીઓ એકલા જ્ઞાન દ્વારા જ મુકિત પ્રાપ્ત થાય છે, એવું માને છે. મીમાંસકે એકલાં કમથી જ મુક્તિ પ્રાપ્ત થાય છે, એવું માને છે. પરંતુ ક્રિયાયુત જ્ઞાન વડે જ મેલ સાધી શકાય છે, એવું જેને માને છે. આગમમાં પણ घुछ है- पढम णाणं तओ दया मेखे “पsei ज्ञान अने. त्या माह ध्या-या”. तेथी मी पडi "बुद्धयेत" १४ दास शाननु प्रतिपादन ४२वामां भाव्यु छ, भने त्या२।६ "त्रोटयेत्" AL ५४ द्वारा जियानु ४थन ४२पामा For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Acharya S समयार्थबोधिनी टीका प्र० श्रु० अ० १ बन्धस्वरूपनिरूपणम् १७ वचनात् । 'बुध्येत' इति पदेन सर्वप्रथमतो ज्ञानमेव प्रतिपादितं, त्रोटयेदिति पदेन तु क्रिया प्रोक्ता, केवलं ज्ञानस्य कार्याक्षमत्वात् । येन केनापि प्रकारेण जीवाजीवादिसकलपदार्थानां ज्ञानमर्जनीयमिति ज्ञानसंपादनायोपदेशः कृतः । ज्ञानं च सविषयकम् नहि विषयमन्तरा ज्ञानं निरूपयितुं शक्यम् , ज्ञानरूपक्रियायाः सविषयरूपसकर्मकतया कर्मनिरूपणाधीननिरूपणकत्वात् यथा गमनादि क्रिया न गन्तव्यादि निरूपणं विना सम्भवतीत्यंत आह-"बंधणं परिजाणिया" इति । बन्धनम् आत्मप्रदेशानां पुद्गलानां च . क्षीरोदकवत् परस्पराश्लेषणम् , अथवा बध्यते परतन्त्री क्रियते आत्माऽनेन तद् बन्धनम् । तादृशबन्धनं च ज्ञानावरणीयादिकमष्टप्रकारकं कर्म । अथवा ज्ञानावरणीयाधष्टविधकर्मणां कारणं मिथ्यात्वाऽविरत्यादिकमेव बन्धनपदवाच्यम् । तच्चतुर्विधं प्रकृति-स्थित्य-नुभागकथन किया गया है, क्योंकि अकेला ज्ञान कार्य करने में समर्थ नहीं होता। जिस किसी प्रकार से सम्भव हो, जीव अजीव आदि पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये इस प्रकार ज्ञान सम्पादन के लिये उपदेश किया गया है। ज्ञान का कुछ न कुछ विषय: अवश्य होता है। विषय के विना ज्ञान का निरूपण होना शक्य नहीं है। ज्ञानरूप क्रिया सकर्मक है, अतएव उस का निरूपण कर्म (विषय) के निरूपण के अधीन है। जैसे-गमन आदि क्रिया का गन्तव्य आदि के विना संभव नहीं है। इसी कारण यहां कहा है "बंधणं परिजाणिया" आत्मप्रदेशों का और कर्मपुद्गलों का दूध और पानी की भाँति एकमेक हो जाना बन्धन कहलाता है। अथवा. जिसके द्वारा आत्मा परतंत्र बना दिया जाय वह बन्धन कहलाता है। ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्म ही इस प्रकार के बन्धन हैं। या ज्ञानावरणीय आदि आठ આવ્યું છે, કારણ કે એકલું જ્ઞાન જ કાર્ય કરવાને સમર્થ હોતું નથી. તેથી જે જે રીતે શકય હોય, તે તે રીતે જીવ, અજીવ આદિ પદાર્થોનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરવું જોઈએ. આ પ્રકારે અહીં જ્ઞાન સંપાદન કરવાને ઉપદેશ આપવામાં આવ્યો છે. જ્ઞાનને કોઈને કોઈ વિષય અવશ્ય હોય છે. વિષયના સભાવ વિના જ્ઞાનનું નિરૂપણ થવું શક્ય નથી. જ્ઞાનરૂપ ક્રિયા સકર્મક છે, તેથી તેનું નિરૂપણ કર્મ (વિષય) ना नि३५४ने साधीन छ. भ........मन माहि ठिया गन्तव्य माहिना समाय विना संभवी शती नथी. मे पारणे मही से वामा माव्यु छ "बधणं परिजाणिया" ६५ भने पपीनी ओम मात्मप्रशानुमने भगवान से lonनी સાથે સંયુક્ત થઈ જવું તેનું નામ બન્ધન છે. અથવા જેના દ્વારા આત્માને પરાધીન કરી નાખવામાં આવે છે તેનું નામ બન્ધન છે. જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારના કર્મો જ આ પ્રકારના અન્ય રૂપ છે. અથવા-જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારનાં કર્મોને કારણભૂત सू. ३ For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे प्रदेशभेदात् । तत्स्वरूपं विशेषजिज्ञासुभिराचाराङ्गसूत्रस्य मत्कृतायामाचार चिन्तामणिटीकायां कर्मवादिप्रकरणे विलोकनीयम् । तादृशं बन्धनं बन्धकारणं च परिज्ञाय = ज्ञात्वा तपः संयमाद्यनुष्ठानरूपया विशिष्टक्रियया त्रोटयेत् = आत्मनः सकाशात् पृथक् कुर्यात्, अथवा बन्धनं बन्धकारणं च ज्ञात्वा तादृशं बन्धनं बन्धकारणं च परित्यजेत् । एवं कथिते सति बन्धस्वरूपजिज्ञासुः श्रीजम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिनं पृच्छति – 'किमाह बंधणं वीरो' इत्यादि, हे भदन्त ! वीरो महाबीर स्वामी तीर्थंकरः बन्धनं बन्धनस्वरूपम् बन्धकारणादिकं च किम्- किं स्वरूपम् आह कथितवान् किं वा जानन् आत्मा तद् बन्धनं त्रोटयतीति । अत्र " प्रकार के कर्मों के कारणभूत मिध्यात्व, अविरति आदि ही बन्धन शब्द से ग्रहण करना चाहिए । बन्धन चार प्रकार का है । ( १ ) प्रकृतिबन्ध (२) स्थितिबन्ध (३) अनुभागबन्ध ( ४ ) प्रदेशबन्ध विशेष जिज्ञासुओं को उनका स्वरूप मेरे द्वारा रचित आचारांग सूत्र की आचार चिन्तामणि टीका में कर्मवादी के प्रकरण में देखना चाहिए। इस प्रकार बन्धन और बन्धन के कारण को जानकर उसे तप एवं संयम आदि के अनुष्ठानरूप क्रिया से तोडना चाहिए अर्थात अपनी आत्मा से पृथक् करना चाहिये अथवा उसका परित्याग करना चाहिए । इस प्रकार कहने पर बन्धके स्वरूप को जानने के इच्छुक श्री जम्बू स्वामी सुधर्मास्वामी से पूछते हैं- प्रभो ! भगवान् महावीर स्वामी ने बन्धन का स्वरूप और उसके कारण आदि क्या प्ररूपित किये हैं? और आत्मा क्या जानता हुआ बन्धन को तोडता है ? यद्यपि मूलपाठ में "वीर" इस प्रकार મિથ્યાત્વ અવિરતિ આદિને અન્ધન શબ્દ દ્વારા ગ્રહણ કરવા જોઇએ. અન્યન ચાર अारना छे. (१) अधृतिमन्ध, (२) स्थितिमन्ध, (3) अनुभागमन्ध अने (४) प्रदेशमन्ध આ વિષયને લગતી વધુ માહિતી મેળવવાની જિજ્ઞાસાવાળા પાઠકોએ, મારા દ્વારા રચિત આચારાંગસૂત્રની આચારચિન્તામણિ નામનિ ટીકાનું ‘કર્મવાદી” નામનુ પ્રકરણ વાંચી જવું. આ પ્રકારના અન્ય અને બન્ધનાં કારણાને જાણીને, તપ અને સંયમ આદિના અનુષ્ઠાન રૂપ ક્રિયા વડે તે અન્યને તેડવા જોઇએ. એટલે કે પેાતાના આત્માથી તેને અલગ કરવા જોઇએ. આ પ્રમાણે કર્મબન્ધના વિનાશની અહીં વાત કરી છે. આ પ્રકારનું સુધર્મા સ્વામીનું કથન સાંભળીને, અન્યના સ્વરૂપને જાણવાની ઈચ્છાવાળા જ ખૂસ્વામીએ સુધર્મા સ્વામીને એવો પ્રશ્ન પૂછ્યો કે હે ભગવન્ ! મહાવીર પ્રભુએ અન્યના સ્વરૂપ અને તેના કારણે આદિના વિષયમાં શી પ્રરૂપણા કરી છે? અને આત્મા કઈ વાતને જાણીને અન્યન તાડવાને સમર્થ બને છે ? (સૂત્રમાં ‘મહાવીર’ પદને For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र० श्रु० अ० १ बन्धस्वरूपनिरूपणम् यद्यपि 'वीर' इति नामैकदेशग्रहणमेव कृतं तथाप्येकदेशग्रहणेन सम्पूर्णस्य तस्य ग्रहणं भवति 'नामैकदेशे नामग्रहणमितिनियमात्, एवं-वीरेति शब्देन 'महावीरः' इति गृह्यते । यथा पार्वे -त्युक्ते पार्श्वनाथ इति गृह्यते, शान्तिशब्देन शान्तिनाथ इति गृह्यते । यथा च-"पासं तह बद्धमाणं च" तथा "संतीसंति करे लोए" इति वचनात् । लोकेऽपि च-मामेत्युक्ते 'सत्यभामा' इति भीमेत्युक्ते--'भीमसेनेति गृह्यते ॥१॥ ____ पूर्व "किमाह बंधणं वीरो" इत्यादिना प्रथमसूत्रे जम्बूस्वामी सुधर्मस्वामिनं बन्धनस्वरूपं पृष्टवान् , किमेतद् बन्धनं ? किं वा तस्य स्वरूपं तीर्थकरैरुपदिष्टमिति प्रश्नः किं शब्दस्य प्रश्नवाचकत्वात् , यावद् बन्धनस्वरूपं न ज्ञायते तावत् ततो निवृत्तिनस्यात् , अनिवृत्तौ बन्धनाभावरूपमोक्षस्य संभावनापि न स्यात् । न कारणमन्तरेण कार्य भवतीति पूर्व बन्धनकारणमाह 'चित्तमंत' इत्यादि । नाम का एकदेश ही ग्रहण किया है, फिर भी एकदेश के ग्रहण से सम्पूर्ण का ग्रहण हो जाता है, इस नियम के अनुसार "वीर" शब्द से "महावीर" का ग्रहण होता है। जैसे पार्थ शब्द से “पार्श्वनाथ" का और “शान्ति" शब्द से "शान्तिनाथ' का ग्रहण किया जाता है। कहा भी है-"पासं तह बद्धमाणं च" और "संती संतिकरे लोए" लोक में भी "भामा" कहने से सत्यभामा का और भीम कहने से भीमसेन का बोध होता है ॥१॥ ___ "किमाह बंधणं वीरो" यहां प्रथम सूत्र में जम्बूस्वामीने सुधर्मा स्वामी से बन्धन का स्वरूप पूछा---बन्धन क्या है ? तीर्थंकर भगवान् ने बन्धन का क्या स्वरूप कहा है ? यहां "किं" शब्द प्रश्न का वाचक है। जब तक बन्धन का स्वरूप न जान लिया जाय तब तक उससे निवृत्ति नहीं हो सकती और निवृत्ति हुए विना बन्धन के अभावरूप मोक्ष की संभावना भी બદલે “વીર” પદ વપરાયું છે. પરંતુ એકદેશને ગ્રહણથી સંપૂર્ણનું ગ્રહણ થઈ જાય છે, આ નિયમને આધારે “વીર” શબ્દ વડે “મહાવીર” શબ્દનું પણ ગ્રહણ થઈ જાય છે. જેમ પાર્શ્વ પદ વડે પાર્શ્વનાથ અને “શાન્તિ” પદ વડે “શાન્તિનાથને ગ્રહણ કરી શકાય છે, એ જ પ્રમાણે વીર” પદ વડે “મહાવીર” પ્રભુને ગ્રહણ કરી શકાય છે. ४थु ५ छ “पासं तह वद्धमाणं च" अने "सती संतिकरे लोए" सोमा ५ मामा वाथी सत्यभामानो भने भीम वाथी भीमसेनन। माघ थाय छे.) ॥१॥ "किमाह बंधणं वीरों" "न्धन शुछे ? तीर्थ ४२ मावाने मन्धननु २१३५ કેવું કહ્યું છે?': જબૂસ્વામીએ સુધમાં સ્વામીને આ પ્રકારને જે પ્રશ્ન પ્રથમ સૂત્રમાં પૂછે છે, તેના દ્વારા બન્ધનનું સ્વરૂપ જાણવાની તેમની ઈચ્છા પ્રકટ થાય છે. સૂત્રમાં “જિ” પદ પ્રશ્નનું વાચક છે. જ્યાં સુધી બન્ધનનું સ્વરૂપ જાણી ન શકાય ત્યાં સુધી ત બન્શનમાંથી છુટકારે પણ મેળવી શકાતું નથી, અને બન્થનમાંથી છુટકારે પામ્યા For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3 सूत्रकृताङ्गसूत्रे . अत्र बन्धनशब्देन कर्मगृह्यते, कारणे कार्योपचारात् , बन्धनं हि संसारजनितं सुखदुःखम् तादृशमुखदुःखकारणं कर्म-शुभाशुभादिरूपम् । तस्मिन् कारणे कर्मणि कार्यस्य दुःखरूपबन्धनस्योपचारात्तदपि कर्म, बन्धनपदप्रतिपाद्यं भवति, यथा 'धम्मो मंगलं' नह्यत्र धर्मों मङ्गलं किन्त्वसौ मङ्गलजनकः कारणेधर्मे कार्यस्य मंगलस्योपचाराद् धर्मों मङ्गलमिति व्यपदिश्यते तद्वत्प्रकृतेपि दुःखस्य बन्धनत्वं तज्जनकं कर्म तस्मिन् कर्मण्यपि बन्धनव्यवहारः । तथा च बन्धनं दुःखं तत्कारणं च कर्मबन्धनमेव यथा लोके-मुखं सुखजनकं च स्त्रक्चन्दननवनीतादिसर्व मुखमिति व्यपदिश्यते तथेहापि दुःखं तत्कारणं कर्म च नहीं हो सकती । कारण के विना कार्य नहीं होता, अतः पहले बन्धन का कारण कहते हैं -चित्तमंत इत्यादि । यहां बन्धन शब्द से कर्म ग्रहण किया गया है। कारण में कार्य का उपचार करने से बन्धन का अर्थ हुआ-संसार जनित सुख दुःख । इस प्रकार के सुख दुःख का कारण शुभ अशुभादि कर्म है । उस कारण अर्थात् कर्म में कार्य का अर्थात् दुःख का उपचार करने से दुःख भी कर्मबन्धन शब्द का वाच्य हो जाता है। जैसे—''धम्मो मंगलं" यहां धर्म को मंगल कहा है किन्तु धर्म मंगल नहीं, मंगल का जनक है, फिर भी कारणरूप धर्म में कार्यरूप मंगल का उपचार करने से धर्म मंगल कहा जाता है। इसी प्रकार प्रकृत तें भी दुःख बन्धनरूप है और दुःख का जनक कर्म है। अतएव कर्म में भी बन्धन का व्यवहार होता है। इस प्रकार जैसे लोक में मुख और सुख के जनक फूल, माला, चन्दन, वनिता आदि भी सुख कहવિના બર્ધનના અભાવરૂપ મેક્ષની પ્રાપ્તિ પણ સંભવી શકતી નથી. કારણ વિના કાર્ય थत नथी, तेथी सूत्रा सौथी पास अन्धनना आरशानु नि३५९ ४२ छ. "चित्तमंत" त्या:-- - અહીં બન્ધન પદ દ્વારા કર્મને ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. કારણમાં કાર્યને ઉપચાર કરવાથી બન્ધનને અર્થ “સંસાર જનિત સુખદુઃખ થાય છે. આ પ્રકારના સુખદુઃખનું કારણ શુભ, અશુભાદિ કર્મો છે. તે કારણે–એટલે કે કર્મમાં કાર્યને એટલે કે દુઃખને ઉપચાર કરવાથી દુઃખ પણ કર્મબન્ધન શબ્દનું વાચ થઈ જાય છે. જેમકે "धम्मो मंगल" ही धन मानस यो छ. ५२न्तु धर्म मस नथी ५९५ भजतनी જનક છે. છતાં પણ કારણ રૂપ ધર્મમાં કાર્ય રૂપ મંગલને ઉપચાર કરવાથી ધર્મને મંગલરૂપ કહેવાય છે. એ જ પ્રમાણે અહીં પણ દુઃખને બન્ધન રૂપ કહ્યું છે, અને દુઃખનું જનક કર્મ હોય છે, તે કારણે કર્મમાં પણ બન્ધનને વ્યવહાર થાય છે. લેકમાં જેવી રીતે ફૂલ, માલા, ચન્દન, વનિતા આદિ સુખજનક વસ્તુઓને સુખ કહેવામાં આવે છે, For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र श्रु. अ. १ बन्धस्वरूपनिरूपणम् सर्व बन्धनपदेन संगृह्यते । तत्र कारणमन्तरेण कार्ये न स्यादिति कारणस्वरूपमेव प्रथमतो दर्शयति सूत्रे । नहि अप्राप्तदण्डादिः पुरुषः कदाचिदपि कथंचिदपि घटादिकार्य संपादयितुं शक्नुयात् यदि कारणमन्तरेणापि कार्ये भवेत्तदा धूमार्थी वह्मेरुपादानं तृप्त्यर्थी भोजनादिकं कथमपि नार्जयेत् । अतः प्रथमतः कारणमेवोपादेयं कार्यकरणाय प्रेक्षावतेति कार्यात् पूर्वं कारणमवश्यमन्वेषणीयमिति लोकप्रसिद्धां रीतिमनुसृत्य सूत्रकारेण प्रथमं बन्धस्य कारणमेव प्रदर्शितम्, संसारे सर्वे समारंभाः कर्मोपादानरूपाः कर्म कारणभूता 'ममे' तिपरिग्रह बुद्धचैव समुत्पन्ना भवन्तीति कृत्वा प्रथमं परिग्रह एव सर्वबन्धनानां कारणमिति तदेव - दर्शयति- 'चित्तमंतमचित्तंवे' ति 'चित्तमंतं' चित्तवत्-चित्तं चेतना, तदस्यास्तीति लाते हैं, उसी प्रकार कर्म तथा कर्म के कारण भी बन्धन ही कहे जाते हैं । कारण के बिना कार्य नहीं होता, इस कारण सूत्र में पहले कारण का ही स्वरूप दर्शाते हैं। डंडा चाक आदि प्राप्त किये जाने बिना पुरुष कभी भी और किसी प्रकार घट आदि कार्य को सम्पादित करने में समर्थ नहीं हो सकता यदि कारण के बिना भी कार्य हो जाता तो धूम का अर्थी अग्नि को ग्रहण न करता और तृप्ति चाहने वाला भोजन आदि का उपार्जन न करता । अतएव कार्य करने के लिए बुद्धिमान पुरुष को प्रथम कारण को ही ग्रहण करना चाहिए । कार्य से पहले कारण का अवश्य अन्वेषण करना चाहिए, इस लोक प्रसिद्ध रीति का अनुसरण करके सूत्रकार ने पहले बन्धन का कारण ही दिखलाया है । संसार में कर्मों के कारणभूत सभी समारंभ " मम" यह मेरा" इस परिग्रह बुद्धि से ही उत्पन्न होते हैं । अतएव सर्व प्रथम परिग्रह ही सर्व बन्धनों का कारण है, इस कारण उसी को दिखलाते हैं એજ પ્રમાણે કમ તથા કના કારણેાને પણ અન્યનેાજ કહેવામાં આવે છે. કારણ વિના કાં સંભવી શકતુ નથી, તે કારણે સૂત્રકારે સૂત્રમાં કારણના સ્વરૂપનું' જ પહેલાં નિરૂપણ કર્યું' છે, ડંડા, ચાકડા, આદિ પ્રાપ્ત કર્યા વિના માણસ કદી પણુ અને કોઇ પણ પ્રકારે ઘડા આદિ કાર્યને સમ્પાદિત કરવાને સમર્થ થઇ શકતા નથી. જો કારણ વિના કાર્ય થઈ જતુ હોત તો ધૂમના અર્થી અગ્નિને ગ્રહણ ન કરત, અને તૃપ્તિ ચાહનારા ભાજન આદિત્તુ ઉપાર્જન ન કરત. તેથી કાર્ય કરવાને માટે બુદ્ધિમાન પુરુષે પ્રથમ કારણને જ ગ્રહણ કરવુ' જોઇએ. કાય પહેલાં કારણની અવસ્ય અન્વેષણા (શોધ) કરવી જોઇએ. આ લોકપ્રસિદ્ધ રીતનું અનુસરણ કરીને સૂત્રકારે પહેલાં બન્ધનાં કારણેા જ બતાવ્યાં છે. સર્વ બન્ધનાતુ સૌથી પહેલું કારણ પરિગ્રઙ્ગ જ છે. સંસારમાં કર્મોના કારણભૂત સઘળા સમારંભ, મમત્વભાવ રૂપ (આ મારું છે, એવા ભાવરૂપ) પરિગ્રહ બુદ્ધિમાંથી જ ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી સ્ત્રકાર હવે પરિગ્રહનુ સ્વરૂપ પ્રકટ કરે છે. For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २२ www.kobatirth.org ܕ सूत्रकृताङ्गसूत्रे " चित्तवत्, तत् सचित्तमित्यर्थः, वा अथवाऽचित्तम् चेतनारहितम् । 'चित्तवत्' इत्यनेन द्विपदचतुष्पदादीनाम् अचित्तमित्यनेन सुवर्णरजतमणिमाणिक्यादीनां ग्रहणम् । एतदुभयं परिग्रहो द्विधा विभज्यते वाह्याभ्यन्तरभेदात् तत्र बाह्यो नवविध:द्विपदचतुष्पद क्षेत्रवास्तुरजतसुवर्णधनधान्यकुप्यभेदात् । आभ्यन्तरश्वतुर्दशविध:मिथ्यात्वाविरत्यादिपञ्चकम् ५, हास्यादिषम् ११ वेदत्रिकं १४ चेति । एतदुभयमपि 'किसामवि' कृशमपि स्वल्पमपि तृणतुषादिकमपि 'परिगिज्झ' परिगृह्य ममत्वबुद्धया परिग्रहविषयीकृत्य - परिग्रहं कृत्वेत्यर्थः । अथवा कसनं कसः परिग्रहबुद्धया जीवस्य परिगृहीतत्वार्थे गमनपरिणामः परिग्रहः, अर्थात् सुदरे वर्तमानस्यापि पदार्थस्य मनोरथादिप्रकारेण ममत्वादिबुद्धया ग्रहणाकारपरिणामो यो जीवस्य भवति मनसा ग्रहणमिति स सर्वोपि परिग्रह एव तम् । जो चेतना से युक्त हो वह "चित्तमंत" या सचित्त कहलाता है । चेतना से रहित को "अचित्त" कहते हैं "चित्तमंत" इस पद से द्विपद चतुष्पद आदि का तथा “अचित्त" शब्द से सुवर्ण, रजत, मणि, माणिक्य आदि का ग्रहण होता है, ये दोनों ही परिग्रह हैं । परिग्रह दो प्रकार का है बाह्य और आभ्यन्तर । इनमें से बाह्य परिग्रह के नौ भेद हैं- (१) द्विपद (२) चतुष्पद (३) क्षेत्र (४) वास्तु (५) रजत (६) स्वर्ण ( ७ ) धन (८) धान्य और (९) कुप्य । आभ्यन्तर परिग्रह चौदह प्रकार का है - पांच मिथ्यात्व अविरति आदि छह हास्य आदि, और तीन वेद (स्त्रीवेद आदि) । इन दोनों प्रकार के परिग्रहों को स्वल्प- तृण तुष मात्र भी जो ममत्व बुद्धि से ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करने का मनोरथ करता है अर्थात् पदार्थ के दूर रहने पर भी उस पर ममत्व धारण करके उसे मन से ग्रहण करता है, वह Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ચેતનાથી યુકત વસ્તુને “ચિત્તમન્ત” અથવા સચિત્ત કહેછે, અને ચેતનાથી રહિત वस्तुने अत्ति उहे छे. द्विपह, चतुष्पह आहि पार्थो सचित्त जाणाय छे, सोनु', यांही, મણિ, માણિકય આદિ પદાર્થાને અચિત્ત કહે છે, આ બન્ને પ્રકારના પદાથે રાખવા તેનુ' નામ જ પરિગ્રહ છે. પરિગ્રહના મુખ્ય પ્રકાર છે. (૧) ખાદ્યપરિગ્રહ અને (૨) આભ્યન્તર પરિગ્રહ. બાહ્યપરિગ્રહના નીચે પ્રમાણે નવ ભેદ કહ્યા છે. For Private And Personal Use Only (१) द्विपह, (२) यतुष्पह, (3) क्षेत्र, (४) वास्तु, (५) २४ (यांही) (६) सुव (७) धन, (८) धान्य भने (८) मुख्य आल्यन्तर परिवहना नीचे प्रमाणे १४ प्रार પડે છે. મિથ્યાત્વ, અવિરતિ આર્દિ પાંચ પ્રકારી, હાસ્ય આદિ છ પ્રકારો અને સ્રીવેદ રૂપ ત્રણ પ્રકારે. આ બન્ને પ્રકારના પરિગ્રહાને સ્વલ્પ પ્રમાણમાં તૃણુ અથવા તુષ જેટલા અલ્પ પ્રમાણમાં) પણ જે મમત્વ બુદ્ધિથી ગ્રહણ કરવાના મનોરથ સેવે છે. એટલે કે પદાર્થ દૂર હેાવા છતાં પણ તેના પર મમત્વ ધારણ કરીને તેને મનથી ગ્રહણ કરે છે, Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.१ परिग्रहस्वरूपनिरूपणम् २३ तदेवमेतादृशं परिग्रहं स्वयं परिगृह्यान्यान् वा ग्राहयित्वा, 'अन्नवा' परिग्रह कुर्वन्तमन्यं वा 'अणुजाणाइ' अनुजानाति=अनुमोदयति । एवं सति जीवः “दुक्खा" दुःखात्-दुःखयति प्रतिकूलवेदनीयतां जीवस्याचरतीति दुःखम् , अर्थात् ज्ञानावरणीयाधष्टप्रकारकं कर्म तादृशकर्मणः फलं वाऽसातोदयादिकं तादृशदुःख तत्कारणाभ्यां जीवः कदाचिदपि 'न मुच्चइ' न मुच्यते अनेन परिग्रह एव परमानर्थमूलमित्युक्तम्, यद्यपि अनर्थमूलं न केवलं परिग्रह एव अपितु अन्ये बहवोपि हिंसानृतस्तेयादयः सन्ति तथापि सर्वप्रथमतः शास्त्रकारः कथं परिग्रहस्यैव ग्रहणं कृतवान् १ सर्वेषु परिग्रह एव प्रधानम् , तेषां हिंसाऽनृतस्तेयादीनां परिग्रहमूलत्वात् , परिग्रहो हि ममत्वबुद्धिरेव, यावज्जीवस्य शरीरसब परिग्रह ही है । इस प्रकार के परिग्रह को स्वयं ग्रहण करके, दूसरों से ग्रहण करवा कर या ग्रहण करनेवाले की अनुमोदना करके जीव दःख से मुक्त नहीं होता । जो जीव को दुःखी करता है-प्रतिकूल वेदन उत्पन्न करता है, वह दुःख कहलाता है। ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्म तथा उन का असाता आदि रूप उदय, दुःख है। परिग्रही जीव इस दुःख से छुटकारा नहीं पाता । इस कथन से यह सूचित किया गया है कि परिग्रह ही घोर अनर्थों का मूल है। __ यद्यपि केवल परिग्रह ही अनर्थ का मूल नही है, हिंसा, असत्य, स्तेय आदि अन्य भी बहुत से अनर्थ के कारण हैं, फिर भी शास्त्रकार ने सबसे पहले परिग्रह को ही क्यों ग्रहण किया है ? इसका कारण यह है कि सब अनर्थ कारणों में परिग्रह ही प्रधान है, हिंसा आदि अन्य कारण परिग्रहमूलक है । ममत्वभाव परिग्रह कहलाता है। जब तक जीवको તેને પરિગ્રહ રૂપ જ માનવામાં આવે છે. આ પ્રકારના પરિગ્રહને સ્વયં ગ્રહણ કારાવનાર અને ગ્રહણ કરનારની અનુમોદના કરનાર જીવ દુઃખથી મુકત થતું નથી. જેના દ્વારા જીવને પ્રતિકૂળ વેદના ઉત્પન્ન કરાય છે, તેનું નામ દુઃખ છે. જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારના કર્મો તથા તેમને અસાતા આદિ રૂપ ઉદય જ દુઃખ રૂપ છે. પરિગ્રહી જીવા આ દુઃખમાંથી છુટકારે પામતે નથી. આ કથન દ્વારા એ સૂચિત કરવામાં આવ્યું છે કે પરિગ્રહ જ ઘર અનર્થોનું મૂળ છે. જે કે માત્ર પરિગ્રહ જ અનર્થનું મૂળ નથી, હિંસા, અસત્ય, ચેરી આદિ બીજા પણ અનેક અનર્થનાં કારણો છે. છતાં પણ શાસ્ત્રકારે સૌથી પહેલાં પરિગ્રહને જ શા કારણે ગ્રહણ કર્યો છે? આ પ્રશ્નનો ઉત્તર નીચે પ્રમાણે છે. અનર્થના સઘળાં કારણેમાં પરિગ્રહ જ પ્રધાન છે. હિંસા આદિ અન્ય કારણે પરિગ્રહમૂલક છે. મમત્વ ભાવને જે પરિગ્રહુ કહે છે. જ્યાં સુધી શરીર, વર્ણ, વય અને અવસ્થા પ્રત્યે જીવમાં મમત્વભાવ ઉત્પન્ન થતા નથી, ત્યાં For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागसूत्रे वर्णवयोऽवस्थासु ममत्वबुद्धि न जायते तावन्नासौ मनोवाकायैः कर्म समारभते, असमारभमाणश्च कथं हिंसादि दोषेभ्यो युज्यतेति शरीरादौ प्रथमतो ममत्वबुद्धि समुत्पादेन शरीरादिकमात्मीयतया परिगृह्य शरीरादिना शुभाशुभकर्म संपादयन् तत्फलेन सुखदुःखादिना संस्पृष्टोऽनेकां नारकतिर्यग्रूपां योनि प्राप्नुवन् अधोगतिमेव प्रामोति, ततश्च कदाचिदपि दुःखवियुक्तो न भवतीति सर्वेषामनर्थानां नियानं भवन् परिग्रहः सर्वातिशय्य सर्वेषु प्रधान भवतीत्यतः सूत्रकारः सर्वप्रथमं परिग्रहस्यैव ग्रहणं कृतवान् । परिग्रहस्य सर्वानर्थकारणताऽन्यत्रापि प्रतिपादिता; तथाहि "द्वेषस्यायतनं धृतेरपचयः क्षान्तेः प्रतीपो विधि, याक्षेपस्य सुहृन्मदस्य भवनं ध्यानस्य कष्टो रिपुः। दुःखस्य प्रभवः सुखस्य निधनं पापस्य वासो निजः, प्राज्ञस्यापि परिग्रहो ग्रह इव क्लेशाय नाशाय च ॥१॥" इति । शरीर, वर्ण, वय एवं अवस्था में ममत्व बुद्धि नही उत्पन्न होती तब तक वह मन वचन-कायसे कर्म का आरंभ नहीं करता और जब आरंभ नहीं करता तो हिंसादि दोषों का पात्र कैसे हो सकता है ? इस प्रकार पहले शरीर आदि में ममत्वबुद्धि उत्पन्न होती है और वह उसे अपना मानता है। फिर शरीर आदि से शुभ अशुभ कर्म करके उसके फल सुख दुःख आदि से स्पृष्ट होता है तथा नरक तिर्यच आदि अनेक योनियों को प्राप्त करता हुआ अधोगति को ही प्राप्त होता है। इस प्रकार जीव कभी भी दुःख से रहित नहीं हो पाता। इसी कारण परिग्रह सब अनौँ का कारण होता हुआ सब अनर्थों से बढकर है और इसीलिये सूत्रकार ने सर्व प्रथम परिग्रह को ही ग्रहण किया है। परिग्रह सब अनर्थों का कारण है, यह बात अन्यत्र भी कही गई है, जैसे-"द्वेषस्यायतनं " इत्यादि। સુધી તે મન, વચન અને કાયા વડે કર્મને આરંભ કરતું નથી. અને જ્યાં આરંભની જ અભાવ હોય ત્યાં હિંસાદિ દોને સદ્ભાવ જ કેવી રીતે સંભવી શકે ? આ પ્રકારે પહેલાં શરીર આદિ પ્રત્યે મમત્વભાવ ઉત્પન્ન થાય છે અને તેને તે પિતાનું માને છે. ત્યાર બાદ શરીર આદિ વડે શુભ અશુભ કર્મ કરીને, તેના ફલસ્વરૂપ સુખદુઃખ આદિનું અનુભવન કરે છે, તથા નારક, તિર્યંચ આદિ અનેક નિઓમાં ઉત્પન્ન થયા કરે છે. આ પ્રકારે જીવ કદી પણ દુઃખથી રહિત થઈ શક્તા નથી. એ જ કારણે પરિગ્રહ સઘળા અનર્થોનું કારણ હેવાને લીધે સઘળા અનર્થોમાં પ્રધાન છે. તે કારણે સૂત્રકારે સૌથી પહેલાં અહીં પરિગ્રહ રૂપ કારણનું જ પ્રતિપાદન કર્યું છે. “પરિગ્રહ સઘળા અનર્થોનું મૂળ છે.” આ વાત અન્યત્ર પણ પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. જેમકે – "वेषस्यायतनं" त्याहि For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टोका प्र. श्रु. अ.१ परिग्रहस्वरूपनिरूपणम् पुनरप्युक्तम् “यथा ह्यामिषमाकाशे, पक्षिभिः श्वापदै भुवि । भक्ष्यते सलिले नऊ, स्तथा सर्वत्र वित्तवान्" ॥१॥ इति । परिग्रहरक्षणार्थ प्राप्तधनस्य महान् क्लेशो जायते, धननाशेऽपि च उपभोगे चातृप्तिः, तथाचोक्तम्-- न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवमेव भूयएवाभिवर्द्धते ॥१॥" "परिग्रह द्वेष का स्थान है, धैर्य को कम करता है, क्षमा का विरोधी है, विक्षेप का सखा (मित्र) है, मद (अहंकार) का घर है, ध्यान का कष्टकारीवैरी है, दुःखों का उत्पत्ति स्थान है, मुख का विनाशक है, पाप का वास है और विवेकवान् पुरुष के लिए भी ग्रह के समान क्लेश और विनाश का कारण होता है।" फिर कहा है- “यथाह्यामिषमाकाशे" इत्यादि । ___"जैसे मांस का टुकड़ा आकाश में पक्षियों के द्वारा, धरती पर हिंसक पशुओं द्वारा, और जल में नक्र (मगर, मत्स्य) आदि जलचरों द्वारा भक्षण किया जाता है, उसी प्रकार धनवान् भी सर्वत्र ही सताया जाता है। जिसे धन प्राप्त हो गया है, उसे उसकी रक्षा करने में घोर क्लेश होता है और नाश होने पर भी दुःख होता है। वह उसका उपभोग करे तो भी तृप्त नहीं हो पाता । कहा है-"न जातु कामः" इत्यादि। પરિગ્રહ શ્રેષનું સ્થાન છે. વૈર્યની હાનિ કરનાર છે, ક્ષમાની વિરોધી છે, વિક્ષેપને મિત્ર છે, મદ (અહંકાર) નું ધામ છે. ધ્યાનને કષ્ટકારી શત્રુ છે, દુઃખોનું ઉત્પત્તિસ્થાન છે, સુખને વિનાશક છે. પાપનું નિવાસસ્થાન છે, અને વિવેકવાન પુરુષને માટે પણ ગ્રહના સમાન કલેશ અને વિનાશના કારણરૂપ હોય છે. पणी मे छ है - "यथा ह्यामिषमाकाशे” त्या - જેવી રીતે આકાશમાં ઉડતાં પક્ષિઓ દ્વારા, ધરતી પર રહેતાં હિંસક પશુઓ દ્વારા અને જળમાં રહેતાં મગર, મત્સ્ય આદિ દ્વારા માંસના ટુકડાનું ભક્ષણ કરાય છે, એજ પ્રમાણે ધનવાન મનુષ્યની પણ સાર્વત્ર સતામણી જ થયા કરે છે. (ચાર, સરકાર, વારસદારે, આદિ તેના ધનને પ્રાપ્ત કરવાને માટે પ્રયત્નશીલ રહે છે. તેથી તે ધનની રક્ષા કરવાની ચિંતા તેને હંમેશા રહ્યા કરે છે.) જેની પાસે ધન હોય છે તેને તેની રક્ષા કરવાને માટે ખૂબ જ દુઃખ વેઠવું પડે છે. ધનને કદાચ નાશ થઈ જાય, તે પણ તેને દુઃખ જ થાય છે. તેની ઉપભેગા કરવા છતાં ५५ तेने तृप्ति थती नथी. यु पार छ - "न जातु कामः" त्याह For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे इत्येवं प्राप्तिरक्षणोपभोगनाशादि सर्वावस्थायां परिग्रहो दुःखान्येव जनयतीति परिग्रहे सति दुःखरूपबन्धनात्कदाचिदपि न मुच्यते, तस्मात् परिग्रह एव सर्वदुःखात्मकबन्धनस्य परमं कारणमिति सुष्टुक्तं भगवता-एवंदुःखा ण मुच्चई” इति ॥२॥ पूर्व 'परिग्रह एव सकलदुःखस्वरूपबन्धस्य कारणम्' इत्युक्तम् , सच नारम्भमन्तरेण संभवति, तत्र च हिंसाऽवश्यम्भाविनीति तत्स्वरूपमाह-- ____ अथवा-यः खलु परिग्रहवान् सः अवश्यमेवारंभं करिष्यति, कृतेचारंभेऽवश्यमेव प्राणातिपात इति दर्शयितुमाह-अथवा सूत्रकारो द्वितीयगाथया बन्धस्वरूपं बोधयित्वा प्रकारन्तरेणापि पुनर्बन्धस्वरूपमेव दर्शयति-'सयं निवायए' इत्यादि। . कामों के उपभोग से कामकी शान्ति नहीं होती । जैसे घृत से अग्नि शान्त न होकर अधिकाधिक प्रज्वलित होती है। उसी प्रकार कामों के भोग से काम की वृद्धि ही होती है। इस प्रकार परिग्रह प्राप्ति, रक्षण, उपभोग और विनाश आदि सभी अवस्थाओं में दुःख ही उत्पन्न करता है अतएव परिग्रह की विद्यमानता में जीव दुःख रूप बन्धन से कभी भी मुक्त नहीं हो सकता। इसलिये परिग्रह ही समस्त दुःखरूप बन्धन का परम कारण है अतएव भगवान्ने ठीक ही कहा है कि इस प्रकार दुःख से छुटकारा नहीं हो सकता ॥२॥ पहले कहा जा चुका है कि परिग्रह ही समस्त दुःख रूप बन्धन का कारण है। वह परिग्रह आरंभ के विना नहीं होता और आरंभ करने में हिंसा अवश्य होती है, अतएव हिंसा का स्वरूप कहते हैं अथवा जो परिग्रहवान् है वह अवश्य ही आरंभ करेगा। आरंभ करने કામના ઉપભેગથી માણસને તૃપ્તિ થતી નથી. જેમ ઘી નાખવાથી અગ્નિ શાન્ત થવાને બદલે અધિકને અધિક પ્રજ્વલિત થાય છે, એ જ પ્રમાણે કામના ઉપભેગથી કામની વૃદ્ધિ જ થતી રહે છે.” એજ પ્રકારે પરિગ્રહ પ્રાપ્તિ, રક્ષણ, ઉપભોગ અને વિનાશ આદિ સઘળી અવસ્થાઓમાં દુઃખ જ ઉત્પન્ન કરે છે, તેથી જ્યાં સુધી પરિગ્રહનો પરિત્યાગ ન કરવામાં આવે, ત્યાં સુધી જીવ દુઃખ રૂપ બન્શનમાંથી કદી પણ મુક્ત થઈ શક્તિ નથી. તેથી પરિગ્રહને જ સમસ્ત દુઃખ રૂપ બન્ધનના મુખ્ય કારણ રૂપ કહ્યો છે. તેથી જ ભગવાને કહ્યું છે કે પરિગ્રહનો ત્યાગ કર્યા વિના દુઃખમાંથી છુટકારે થઈ शता नथी. ॥२॥ આગળ એ વાતનું પ્રતિપાદન થઈ ચુક્યું છે કે પરિગ્રહ જ સમસ્ત દુઃખ રૂપ બન્ધનનું કારણ છે. તે પરિગ્રહ આરંભ વિના સંભવી શક્તા નથી, અને આરંભ કરવામાં હિંસા તે અવશ્ય થાય જ છે. તેથી હવે સૂત્રકાર હિંસાના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છે. અથવા પરિગ્રહવાળો જીવ આરંભ અવશ્ય કરશે જ, અને આરંભ કરવાથી For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ प्रकारान्तरेण बन्धस्वरूपनिरूपणम् २७ मूलम्-- सयं निवायए पाणे, अदुवाऽन्नेहिं घायए । हणतं वाऽणुजाणाइ, वेरं वइडइ अप्पणो ॥३॥ छायास्वयं निपातयेत् प्राणान् , अथवाऽन्यः घातयेत् । नन्तं वाऽनुजानीयात् , वैरं वर्धयति आत्मनः ॥३॥ अन्वयार्थयःपरिग्रहवान् (सयं) स्वयम् आत्मना (पाणे) प्राणान्=एकेन्द्रियादीन् जीवान् (निवायए) निपातयेत् हिंस्यात् , (अदुवा) अथवा (अन्नेहि) अन्यैः परै पर प्राणातिपात अवश्य होता है यह दिखाने के लिये कहते हैं अथवा-सूत्रकार दूसरी गाथा के द्वारा बन्ध के स्वरूप को समझा कर फिर प्रकारान्तर से बन्ध के ही स्वरूप को दिखाते हैं-सयं निवायए इत्यादि शब्दार्थ-'सयं--स्वयं अपने आप 'पाणे--प्राणान् , जीवों को 'निवायए निपातयेत् ' मारते हैं, 'अदुवा--अथवा 'अथवा' 'अन्नेहि-अन्यैः' दूसरे के द्वारा 'घायए घातयेत्' घात कराता है 'वा-वा' अथवा 'हणंतं -नन्त' प्राणी का घात करने वाले को 'अणुजाणाइ-अनुजानीयात् ' अनुज्ञा-आज्ञा देता है, वह 'अप्पणो आत्मनः' अपना 'वेरं'-वैर वैरको 'वढइ-वर्धयति' बढाता है ॥३॥ अन्वयार्थ जो परिग्रहवान् (पुरुष) एकेन्द्रिय आदि जीवों की स्वयं हिंसा करता है अथवा दूसरों से हिंसा करवाता है अथवा हिंसा करने वाले की मन, प्रातिपात २५१श्य थाय छ, ते वात ५४८ ४२वाने भाटे सूत्र॥२ “सयं निवायए" ઇત્યાદિ સૂત્ર કહે છે. शार्थ - 'सयं-स्वयं' पाते 'पाणे-प्राणान्' याने 'निवायए-निपातयेत्' भारे छ. 'अदुवा-अथवा' मा 'अन्नेहि-अन्यः' भीनी भाईत 'घायए-घातयेत्' धात ४२शवे छे. 'वा-वा' मगरते'हणतं नन्त' प्राणियाने घात४२वा वाणाने 'अणुजाणाइअनुजानीयात्' मा सरेछ. ते 'अप्पणो-आत्मानः' पाताना 'वेरं-वरं। पेरने 'वडूढइबर्धयति, पधारे छे. અથવા બીજી ગાથા દ્વારા બન્ધના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરીને સૂત્રકાર અન્ય પ્રકારે अन्धना २१३५नु नि३५९ ४२ छ – “सय निवायए" त्या - અન્વયાર્થ – જે પરિગ્રહવાળ જીવ એકેન્દ્રિય આદિ જેની પોતે હિંસા કરે છે અથવા અન્યની પાસે હિંસા કરાવે છે અથવા હિંસા કરનારની મન, વચન અને કાયાથી For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे रपि (घायए) घातयेत् (वा) वा अथवा (हणंत) नन्त जीवान् मारयन्तमन्यम् (अणुजाणाइ) अनुजानीयात् अनुमोदयेत् मनोवाकाययोगैः सः (अप्पणो) आत्मनः -स्वस्य (वेरं) वैर-स्वघातितजीवैः सह शत्रुभावं (वड्ढइ) वयति-जन्म जन्मान्तरे वैरसम्बन्धं विस्तारयतीत्यर्थः ॥३॥ टीकायः सचित्तानां द्विपदचतुष्पदादीनाम् , अचित्तानां हिरण्यसुवर्णादीनां परिग्रहकारी पुरुषः समुपार्जितपरिग्रहादतृप्यन् पुनरपि धनादीनामर्जने प्रयत्नवान् भवति । तथार्जितधनानामुपद्रवकारके द्वेष करोति, ततो द्वेषयुक्तः पुरुषः 'सयं' स्वयम् आत्मना 'पाणे' प्राणान् अत्र 'प्राण' शब्देन प्राणिनो गृह्यन्ते तेन प्राणान् एकेन्द्रियानारभ्य पञ्चेन्द्रियपर्यतान् जीवान् 'निवायए' निपातयेत् अतिपातयेत् । हिंसा च प्राणिप्राणवियोजनरूपा। उक्तश्च "पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः। प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्ता स्तेषां वियोगीकरणं तु हिंसा" ॥१॥ वचन, काया से अनुमोदना करता है वह मारे जाने वाले जीवों के साथ अपना वैर बढाता है अर्थात् जन्मजन्मान्तर के लिए वैर सम्बन्ध का विस्तार करता है ॥३॥ टीकार्थ-जो द्विपद चतुष्पद आदि सचेतन वस्तुओं का और हिरण्य-स्वर्ण आदि अचेतन पदार्थों का परिग्रह करता है, वह उपार्जित परिग्रह से तृप्ति न पाता हुआ पुनः पुनः धनादि के उपार्जन में प्रयत्नशील होता है तथा उपार्जित किये हुए धन का उपद्रव करने वाले पर द्वेष करता है, अतएव द्वेषयुक्त पुरुष स्वयं एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के प्राणियों की हिंसा करता है प्राणियों के प्राणों का वियोग करना ही हिंसा है कहा भी है"पञ्चेन्द्रियाणि" इत्यादि । અનમેદના કરે છે, તે મારી નાખવામાં આવેલા છે સાથે પિતાનું વેર વધારે છે એટલે કે જન્મ જન્મને માટે તેની સાથે શત્રુતા રૂપ સંબંધને વિસ્તાર કરે છે. 1 ટકાઈ - જે મનુષ્ય દ્વિપદ, ચતુષ્પદ આદિ સચેતન વસ્તુઓને અને સોનું, ચાંદી આદિ અચેતન પદાર્થોને પરિગ્રહ કરે છે, તે ઉપાર્જિત પરિગ્રહ વડે વૃદ્ધિ પામતા નથી, એ પુરુષ ધનાદિનું અધિકને અધિક ઉપાર્જન કરવાનો પ્રયત્ન કર્યા કરે છે. જે કંઈ વ્યક્તિ આદિ તેણે ઉપાર્જિત કરેલા ધનને પડાવી લેવા અથવા નાશ કરવાનો પ્રયત્ન કરે છે, તેના પ્રત્યે તે પરિગ્રહી શ્રેષભાવ રાખે છે. એવે દ્વેષયુક્ત પુરુષ પોતે જ એકેન્દ્રિથી લઈને પંચેન્દ્રિય પર્યન્તના જેની હિંસા કરે છે. પ્રાણીઓનાં પ્રાણોની વિયેગ કરે તેનું નામ જ હિંસા છે. કહ્યું પણ છે કે – For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ प्रकारान्तरेण बन्धस्वरूपनिरूपणम् २९ अथवा 'अन्नेहिं' अन्यैः परैरपि 'घायए' घातयेत् । सोऽपि घातक एव, उक्तञ्च "अनुमंता विशसिता, निहन्ताक्रयविक्रयी । संस्कर्ताचोपहर्ताच, खादकश्चेति घातकाः" ॥१॥ अष्ट प्रकारकास्ते घातका उपदिष्टाः । साक्षात्परंपरया वा हिंसायाः संपादकाः शरीरेण वचसा मनसा वा हिंसायाः कर्ता हिंसक एव । वा=अथवा -'हणंत' नन्तं मारयन्तमन्यम् 'अणुजाणाइ' अनुजानीयात् अनुमोदयेत् सुष्टुकृतमिति मनसा प्रसंशयेदित्यर्थः। स कृतकारितानुमोदनादिभिः प्राणिनां प्राण पांच इन्द्रियाँ, तीन बल मनोबल, वचनबल, कायबल, श्वासोच्छवास और आयु, यह दस प्राण भगवान् ने कहे हैं। इनका वियोग करना हिंसा है ॥१॥ ____ अथवा जो पुरुष दूसरों से हिंसा करवाता है, वह भी घातक ही कहलाता है। कहा है-“अनुमंता" इत्यादि । हिंसा का अनुमोदन करने वाला, मारने वाला, हनन करने वाला मांस का क्रय विक्रय करने वाला, उसे पकाने वाला परोसने वाला और खाने वाला यह सब घातक-हिंसक है ॥१॥ वे घातक(हिंसक) आठ प्रकार के कहे गये हैं । साक्षात् या परम्परा से जो मन वचन या काय के द्वारा हिंसा का कता है वह हिंसक ही है। अथवा जो मारने वाले का अनुमोदन करता है -' अच्छा किया। इस प्रकार प्रशंसा करता है, वह कृत कारित और अनुमोदन आदि के द्वारा प्राणियों का प्राण अलग करके सैंकड़ों हजारों जन्मों तक कायम रहने “पञ्चेन्द्रियाणि" त्या પાંચ ઇન્દ્રિયે, ત્રણ બળ (મનોબળ, વચનબળ અને કાયબળ), શ્વાસે વાસ, અને આયુ, આ પ્રમાણે ૧૦ પ્રાણુ ભગવાને કહ્યા છે. તે પ્રાણન વિગ કરે તેનું नाम प्रातिपात (डिसा) छे. અથવા – જે પુરુષ બીજા લકે દ્વારા હિંસા કરાવે છે, તેને પણ ઘાતક જ કહેવાય छ. युपए छ है – “अनुमता" त्या - હિંસાની અનુમોદના કરનાર, મારનાર હનન (હત્યા કરનાર, માંસનો વેપાર કરનાર, માંસને પકાવનાર, માંસ પિરસનાર, અને માંસાહાર કરનાર, આ બધાને ઘાતક જ उपाय छे. ॥१॥ તે ઘાતક (હિંસકે) ના આઠ પ્રકાર કહ્યા છે. જે માણસ પોતે જ મન, વચન અને કાયા દ્વારા હિંસાને કર્તા હોય છે તેને હિંસક જ ગણાય છે. અથવા જે પોતે હિંસા કરતા નથી, પણ હિંસા કરનારની અનુમોદન કરે છે “ઘણું જ સારું કર્યું” આ પ્રકારે હિંસા કરનારની પ્રશંસા કરે છે, તે કૃત, કારિત અને અનુમોદના આદિ દ્વારા For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे व्यपरोणेन 'अप्पणो' आत्मनः-स्वस्य 'वेरं' वैरं जन्मान्तरशतानुवन्धि वैरभाव 'वड्ढइ' वर्धयति' अर्थात् यं प्राणिनमिह जन्मनि विराधयति स प्राणी तमुपहन्तारं भवान्तरे मारयति एवं घटीयंत्रन्यायेन वैरं दिनानुदिनं वर्द्धत एव । ततश्चासौ दुःखपरंपरारूपाद् बन्धात् कदापि न मुच्यते । प्राणातिपातश्चोपलक्षणं तेन न केवलं प्राणातिपात एव बन्धनं बन्धकारणं वा किन्तु मृपावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहा अपि बन्धहेतव इति ॥३॥ पुनरपि बन्धनस्वरूपमेव दर्शयति--'जस्सि कुले' इत्यादि । मूलम्---- जसि कुले समुप्पण्णे, जेहिं वा संवसे नरे ममाइ लुप्पई बाले, अष्णमष्णेहि मुच्छिए ॥४॥ छाया----- यस्मिन् कुले समुत्पन्नः, यैर्वा संवसेत् नरः । ममेति लुप्यते वालः, अन्यान्येषु मूर्छितः ॥४॥ वाले वैरभाव को बढाता है। अर्थात् जो पुरुष इस जन्म में किसी प्राणी का घात करता है, वह प्राणी जन्मान्तर में उस घातक को मारता है। वह प्राणी जन्मान्तर में उस घातक को मारता है उस प्रकार घटीयंत्र (अरहट) के न्याय से दिनों दिन वैर वढता ही चला जाता है। इस प्रकार वह दुःखों की परम्परा रूप बन्धन से कदापि मुक्त नहीं हो पाता। यहां 'प्राणातिपात' शब्द उपलक्षण हैं अतएव केवल प्राणातिपात ही बन्धन या बन्धन का कारण नहीं है किन्तु मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह भी बन्ध के कारण हैं ॥३॥ પ્રાણીઓનાં પ્રાણનું વ્યાપકપણ શરીરથી પ્રાણને અલગ કરીને સેંકડે કે હજારો જન્મ સુધી જારી (ચાલુ) રહેનારા વેરભાવને વધારે છે. એટલે કે જે પુરુષ આ જન્મમાં કોઈ પ્રાણીને ઘાત કરે છે. તે પ્રાણી જન્માક્તરમાં તે ઘાતકની ઘાત કરે છે. આ પ્રકારે રહેંટના ન્યાયે દિનપ્રતિદિન વેર વધતું જ જાય છે. આ પ્રકારે દુઃખોની પરમ્પરા રૂપ બન્ધનમાંથી તે કદી પણ મુક્ત થઈ શક્તો નથી.' અહીં “પ્રાણુતિપાત” શબ્દ ઉપલક્ષણ રૂપ છે. તેથી અહીં એવું સમજવાનું છે કે કેવળ પ્રાણાતિપાત જ બન્ધન અથવા બન્ધનનું કારણ નથી, પરંતુ મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, મૈથુન અને પરિગ્રહ પણ બન્ધના કારણરૂપ સમજવા જોઈએ. tia For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ प्रकारान्तरेण बन्धस्वरूपनिरुपणम् ३१ अन्वयार्थः--- (नरे) नरः पुरुषः (जस्सि) यस्मिन् यादृशे (कुले) कुले-क्षत्रियादि वंशे (समुप्पण्णे) समुत्पन्नः संजातः, (वा) वा अथवा (जेहिं) यैः मातृपितृभगिनी भार्यादिभिः सह (संवसे) संवसेत् निवसेत् तेषु सः (बाले) बालः अज्ञातसंसारस्वरूपत्वोद बाल इव बाल अज्ञानी (ममाइ) ममेति 'एते मम' इति कृत्वा (लुप्पई) लुप्यते पीड्यते । कीदृशः सः ? इत्याह---(अण्णमण्णेहि) अन्यान्येषु अन्येष्वन्येषु-पूर्व मातरि पश्चात् पितरि तदनन्तरं भ्रातृभार्यापुत्रपौत्रादिषु (मुच्छिए) मूर्छितः मोहमुपगतः । एतादृशः स स्नेहेन भूयो भूयो बध्यते किन्तु न कर्मबन्धनान्मुच्यत इति भावः ॥४॥ फिर भी बन्धन के स्वरूप को ही दिखलाते हैं - 'जस्सिं' इत्यादि ।। शब्दार्थ-'नरे-नरः' मनुष्य 'जस्सि-यस्मिन्' जिस 'कुले-कुले' वंश में 'समुप्पण्णे-समुत्पन्नः' उत्पन्न होता है 'वा-वा' अथवा 'जेहि-यैः जिसके साथ 'संवसे-संवसेत्' निवास करता है 'बाले-बालः' वह अज्ञानी 'ममाइ-ममेति' उनमें ममत्व रखता हुआ 'लुप्पई-लुप्यति,' पीडित होता है 'अण्णमण्णेहिअन्यान्येषु' दूसरी वस्तुओं में 'मुच्छिए-मूर्छितः' मोह को प्राप्त करता है ॥४॥ अन्वयार्थ-मनुष्य जिस क्षत्रिय आदि कुल में जन्मा है अथवा जिन माता, पिता, भाई, बहिन, पत्नी आदि के साथ निवास करता है उनमें वह संसार के स्वरूप को न जानने वाला अज्ञानी जीव ममत्व धारण करके पीडित होता है । क्यों पीडा पाता है ? वह पहले माता में, फिर पिता में, फिर भ्राता, भार्या पुत्र, पौत्र आदि में मोह को प्राप्त हो कर पीड़ा पाता है ऐसा रागी जीव સૂત્રકાર બન્ધનના સ્વરૂપનું નીરૂપણ કરતાં વિશેષ કથન આ પ્રમાણે કરે છે – "जस्सि" त्याह शहाथ-'नरे-नरः' माणुस 'जस्सिं-यस्मिन्' र 'कुले-कुले' १शमा समुप्पण्णे -समुत्पन्नः' उत्पन्न थाय छ. 'बाले-बालः' ते माज्ञानी 'ममाइ-ममेति' तमा ममत्व रानीने 'लुप्पई-लुप्यते भी थाय छे. 'अन्नमन्नेहि-अन्यान्येषु' भी ली तु मामा 'मुच्छि प-मूच्छितः' मोड पामे छे. ॥४॥ અન્વયાર્થી - સંસારના સ્વરૂપને ન જાણનારે અજ્ઞાની જીવ, જે ક્ષત્રિય આદિ કુળમાં જન્મે છે તેના પ્રત્યે અથવા જે માતા, પિતા, ભાઈ બહેન, પત્ની આદિની સાથે નિવાસ કરે છે તેમના પ્રત્યે મમત્વભાવ ધારણ કરીને પીડિત (દુઃખી) થાય છે. તે શા કારણે પીડિત થાય છે? તે પહેલાં માતામાં, ત્યાર બાદ પિતામાં, ત્યાર બાદ ભાઈ, બહેન, ભાર્યા, પુત્ર, પૌત્ર આદિમાં મેહયુક્ત (રાગયુક્ત) થઈને પીડા પામ્યા કરે For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३२ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतसूत्रे टीका (नरे) नरः मनुष्यः 'जस्मिस ' यस्मिन् कुले उग्रकुलभोगकुलादौ उपलक्षणात् देशका राष्ट्रादौ 'समुप्पण्णे' समुत्पन्नः उत्पत्तिं लब्धवान् वा तथा 'जेहिं ' यैः सह 'संवसेत् मातृपितृभ्रातृ कलत्रपुत्र मित्रजामातृ श्वशुरश्वश्रूश्याल कमातुलपितृव्यप्रभृतिभिः सह संवासं कुर्यात् तेषु 'ममाइ' ममेति 'ममेते, अहमेतेषामित्येवं प्रकारेण ममत्वं कुर्वन् 'लुप्पड़' लुप्यते ममत्वसमुत्पादितकर्मणा नरकनरामरतिर्यगलक्षणे चतुर्गतिकसंसारे परिभ्रमन् पीडयते घटीयन्त्रगतघटिकावदनिशमावर्त्तमानो न कदाचिदपि कर्मबन्धनाद् विमुक्तो भवतीति । कीदृशः राग के कारण पुनः पुनः बन्ध को प्राप्त होता है किन्तु कर्मबन्धन से मुक्त नहीं हो पाता ॥४॥ टीकार्य - जिस उग्रकुल या भोगकुल आदि में और उपलक्षण से जिस देश, काल, राष्ट्र आदि में मनुष्य जन्मा है तथा जिन माता, पिता, कलत्र, पुत्र, मित्र, जामाता श्वसुर सासू साले, मामा, या काका आदि के साथ निवास करता है, उनके प्रति ममत्व धारण करता है अर्थात्, ये मेरे हैं- मैं इनका हूँ इस प्रकार का ममताभाव स्थापित करता है और ममत्व के कारण उत्पन्न कर्म के उदय से नरक मनुष्य देव और तिर्यच इन चारगतिरूप संसार में परिभ्रमण करता हुआ पीडा पाता है । अरहट की घडियों के समान निरन्तर घूमता हुआ कर्मबन्धन से मुक्त नहीं होता । वह जीव बाल है अर्थात् सत् असत् के विवेक से विकल ( रहित ) है । वह अन्यान्यों में भी अर्थात् છે. એવા રાગી જીવ રાગને કારણે ફરી ફરીને અન્યને પ્રાપ્ત કરતા રહે છે, પરન્તુ કમ બન્ધનમાંથી મુક્ત થઇ શક્તા નથી. टीअर्थ-ने भुणभां (उग्रभुण, लोग हिमां) भने उपलक्षाणुनी अपेक्षाये नेहेश, કાળ, રાષ્ટ્ર આદિમાં મનુષ્ય જન્મ્યા હોય છે, તે કુળ આદિના પ્રત્યે તથા જે માતા, પિતા, भाई, महेन, लाय, भित्र, पुत्र, पुत्री, भाई, सासु, ससुरा, साजा, भाभा, 31 આદિની સાથે મનુષ્ય નિવાસ કરતા હાય છે, તેમના પ્રત્યે મમત્વ ભાવ ધારણ કરે છે, એટલે કે “તેઓ મારા છે અને હું તેમના છું” આ પ્રકારનો મમત્વભાવ સ્થાપિત કરે છે. આ મમત્વને કારણે તે જે કર્મોનું ઉપાર્જન કરે છે તે કર્મના ઉદયને લીધે તે નરક, મનુષ્ય, દેવ અને તિર્યંચ રૂપ ચાર ગતિ રૂપ સંસારમાં પરિભ્રમણ કરતા થકી પીડાના અનુભવ કરતા રહે છે. For Private And Personal Use Only રહેઇટની જેમ નિરન્તર પરિભ્રમણ કરતા તે જીવ કબન્ધનમાંથી મુક્ત થઈ શતા નથી, એવા જીવ બાલ હેાય છે, એટલે કે સત્ અસત્તા વિવેકથી વિહીન હાય Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ प्रकारान्तरेण बन्धस्वरूपनिरूपणम् ३३ सः नरः १ इत्याह (बाले)-बाला सदसद्विवेकविकलः भवतीति । कीदृशोऽसौ १ 'अण्णमण्णेहि अन्यान्येषु-कुलपरिजनातिरिक्तेषु द्विपदचतुष्पदहिरण्यसुवर्णादिषु 'मुच्छिए' मूर्छितः-गृद्धिभावमुपगतः । एतादृशः सः स्नेहबन्धनबद्धो न मुच्यते कर्मबन्धनादितिभावः । अयमाशयः प्रथमं तावत् मातरि स्नेह करोति जन्मसमये तदतिरिक्तैः सह परिचयाभावात् संबन्धाभावाच । ततः पितरि स्नेहं संपादयति मातृसमीपे वर्तमानत्वात् तदनन्तरं भ्रातभगिन्योः' ततः परं क्रीडासुखमनुभवन् मित्रादिषु स्निह्यति तदनन्तरं व्यतीते बाल्ये संप्राप्तयुवत्वशरीरः स्वानुरूपभार्यादौ स्नेहं करोति । ततः संजातपुत्रादिमान् पुत्रादिषु समुत्पन्नासक्तिमान् क्रमशः प्राक्तनीं तनुं त्यजन् भवाद्भवान्तरं गच्छन् पुनः कुल एवं परिजनों से अतिरिक्त द्विपदचतुष्पद हिरण्य, सुवर्ण आदि में भी मूर्छित होता है । आशय यह है कि स्नेह के बन्धन में बंधा हुवा ऐसा जीव कर्मबन्धन से मुक्त नहीं होता है । तात्पर्य यह है कि वह पहले माता पर स्नेह करता है, क्योंकि जन्म के समय माता के सिवाय अन्य जनों के साथ न उसका परिचय होता है, न सम्बन्ध होता है। तत्पश्चात् पिता पर उसका स्नेह उत्पन्न होता है क्यों कि पिता माता के समीप रहता है। फिर भाई बहिन के साथ स्नेह होता है । फिर खेल कूद करता हुआ मित्रों पर स्नेह करता है। फिर बाल्यावस्था व्यतीत हो जाने पर और युवावस्था प्राप्त होने पर अनुरूप पत्नी आदि पर स्नेह करता है । तत्पश्चात् जब पुत्र पौत्र आदि उत्पन्न हो છે. તે કેવળ કુળ અને પરિજને પ્રત્યે જ મમત્વભાવ યુક્ત હેતે નથી, પરંતુ દ્વિપદ, ચતુષ્પદ, સોનું, ચાંદી આદિમાં પણ આસક્તિવાળો હોય છે. આ સમસ્ત થનને ભાવાર્થ એ છે કે સ્નેહના બન્ધનમાં બંધાયેલ તે અજ્ઞાની જીવ કર્મબન્ધનમાંથી મુક્ત थव शस्त नथी. તે અજ્ઞાની જીવ પહેલાં માતા પ્રત્યેના સ્નેહભાવથી યુક્ત હોય છે, કારણ કે જમ્યા પછી શરૂઆતના થોડાં વર્ષો સુધી તે માતા સિવાય અન્ય કોઈ પણ વ્યક્તિ સાથે તેને પરિચય પણ હેત નથી અને સંબંધ પણ હોતું નથી. ત્યારબાદ જેમ પિતાને પરિચય થતું જાય છે તેમ તેમ પિતા પ્રત્યે પણ તેને સ્નેહ ઉત્પન્ન થાય છે, કારણ તેને માતાપિતાના સાંનિધ્યમાં જ રહેવું પડે છે. ત્યાર બાદ ભાઈ બહેન પ્રત્યે નેહ ઉત્પન્ન થાય છે. ત્યારબાદ જે મિત્ર સાથે તે રમત રમે છે તેમના પ્રત્યે નેહ ઉત્પન્ન થાય છે. બાલ્યાવસ્થા વ્યતીત થઈ ગયા બાદ યુવાવસ્થા પ્રાપ્ત થતાં જ તેના લગ્ન થાય છે. ત્યારથી તે પત્ની પ્રત્યે નેહ રાખતો થાય છે ત્યારબાદ જ્યારે પુત્ર, પુત્રી, પૌત્ર આદિની. સૂ. ૫ For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे पुनरपि मात्रादिकमनुभवन् कदाचिदपि भवपरंपरां नातिक्रामतीति सर्वानर्थमूलं ममत्वबुद्धिरिति ॥गा. ४ ॥ पूर्व विस्तरेण बन्धनस्वरूपं प्रदर्शितं, साम्प्रतं "किंवा जाणं तिउद्दइ " इति प्रथमगाथोक्तं मनसि विधाय सूत्रकारः प्राह - ' वित्तं ' इत्यादि । मूलम् ----- १ ३ २ वित्तं सोयरिया चैव ११ १० ९८ संखाए जीवियं चेव Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ ६ ७ सव्वमेयं न ताणइ १२ १३ १४ कम्मुणा उतिउ ||५|| छाया वित्तं सोदर्य्याश्चैव सर्वते न त्राणाय । संख्याय जीवितं चैवं कर्मणा तु त्रोटयति ॥ ५ ॥ जाते हैं तो उन पर एकीभाव धारण करता है । फिर क्रम से शरीर को त्याग करके एकभव से दूसरे भव में चला जाता है । पुनः माता आदि का अनुभव करता है भवपरम्परा का उल्लंघन नहीं कर पाता । इस प्रकार यह ममत्व भाव ही समस्त अनर्थों का मूल है ||४|| विस्तार से बन्धन का स्वरूप दिखलाया जाचुका है । अब प्रथम गाथा में कहे हुए “किंवा जाणं तिउट्टह" इस वाक्य को ध्यान में रख कर सूत्रकार कहते हैं - वित्तं इत्यादि ॥ शब्दार्थ ---' वित्तं वित्तं ' सचित्त अचित्त धनदौलत 'चैव चैव' और 'सोयरियासौदर्याः सहोदर भाई भगिनी आदि 'एयं एतत्' ये 'सव्वं सर्व' सब ભવનું પ્રાપ્તિ થાય છે, ત્યારે તેમનાપ્રત્યે તેને રાગભાવ ઉત્પન્ન થાય છે. ત્યારખાદ આયુષ્ય પુરૂ' કરીને તે જીવ અન્યભવ માં ચાલ્યા જાય છે. ત્યાં પણ તે આ પ્રકારના મમત્વભાવનો અનુભવ કરતા રહે છે. આ પ્રમાણે મમત્વભાવ ના અનુભવ કરતા એવા તે અજ્ઞાની જીવ ભવપરમ્પરાનું ઉલ્લંઘન કરી શકતા નથી એટલે કે ચાર ગતિ રૂપ સંસારમાં ભ્રમણ કર્યા જ કરે છે. આ પ્રકારનો આ મમત્વ ભાવ જ સમસ્ત અનર્થ નું भू. ॥४॥ અન્ધનના સ્વરૂપનું વિસ્તાર પૂર્વક નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર પ્રથમ ગાથામાં उथित " किंवा जाणं तिउहह ” म वाक्य ने ध्यानमां शमीने “ वित्त" इत्यादि સૂત્રનુ` કથન કરે છે - " वित्त " त्याहि - शब्दार्थ- 'वित्तं वित्त' सत्ति अत्ति धन होसत 'चेव - चैत्र' भने 'सोयरिया -सोदर्याः' सगा लाई महेन विगेरे 'पयं एतत्' मा 'सव्वं सबै' सधणु' 'ताण - त्राणाय ' For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ कर्म बन्धनिवृत्तिनिरूपणम् अन्वयार्थः-- (वित्त) वित्तं-धनं सचित्तमचित्तं वा (चेव) चैव तथा (सोयरिया) सोदर्याः-भ्रातभगिन्यादयः कौटुम्बिकाः, (एयं) एतत्-- पूर्वोक्तं (सव्वं) सबै-समस्तं धनजनादिकं जीवस्य (ताणइ) त्राणाय--शरणाय-शरणं दातुं (न) न-नैव समर्थ भवति । (एवं च) एतत्प्रकारकं च (जीवियं) जीवितम्-अशरणं जीवनं (संखाय) संख्याय--ज्ञात्वा (कम्मुणा उ) कर्मणा तु-कर्मणैव संयमानुष्ठानादिक्रिय यैव--प्रशस्तक्रियाकरणेनैव (तिउट्टइ) त्रोटयति-कर्मबन्धमपनयति जीवः, कर्मबन्धात् पृथग् भवति नान्यथेत्यर्थः ॥५॥ टीका--- 'वित्त वित्तम्--द्रव्यं तत् सवित्तमचित्तादिकम् । तथा सोदUः समानोदरभवाः भ्रातृभगिन्यादयः । सोदर्या इत्युपलक्षणात्-मातृपितृपितृव्यादयः, तथा पश्चादयश्च । 'सव्वमेयं सर्वमेतत् 'न ताणइ' न त्राणाय रक्षणाय भवति । 'ताणइ-त्राणाय' रक्षा के लिये 'न-न' समर्थ नहीं हैं ‘एवं च-एतत्प्रकारकं' इस प्रकार का 'जीवियं-जीवितम्' जीवन को 'संखाय-संख्याय' जानकर 'कम्मणा उ कर्मणा तु' कर्म से 'तिउट्टइ-त्रोटयति' अलग हो जाता है ॥५॥ अन्वयार्थ सचित्त या अचित्त धन तथा भाई भगिनी आदि कुटुम्बी ये सब शरण देने में समर्थ नहीं हैं । इस प्रकार जीवन को शरण हीन जानकर संयमानुष्ठान रूप क्रिया के द्वारा ही जीव कर्म बन्धन को दूर करता है अन्यथा नहीं ॥५॥ टीकार्थ-वित्त का अर्थ है सचित्त या अचित्त द्रव्य एक ही उदर से जन्मने वाले भ्राता भगिनी सहोदर-सगे भाई बहिन कहलाते हैं सहोदर शब्द उपलक्षण है, अतः उससे माता, पिता, काका आदि तथा पशुओं आदि का २क्षा भाटे 'न-न' समय यता नथी एवं च-एतत्प्रकारक' मा प्रारना 'जीवियं -जीवितम्' वनने 'संखाय-संख्याय' समलने कम्मणाउ-कर्मणातु म थी 'तिउट्टा -त्रोटयति' 25 लय छे. ॥५॥ અન્વયાર્થ – સચિત્ત અથવા અચિત્ત ધન, તથા ભાઈ બહેન આદિ કુટુંબીઓ શરણ આપવાને સમર્થ નથી. આ પ્રકારે જીવનને શરણહીન જાણીને સંયમાનુષ્ઠાન રૂપ કિયા દ્વારા જ જીવ કર્મબન્ધનને દૂર કરી શકે છે અન્ય કેઈ પણ પ્રકારે જીવ કર્મબન્ધનથી મુક્ત થઈ શક્તા નથી. 1 ટકાળું—“વિત્ત પર સચિત્ત અથવા અચિત્ત દ્રવ્યનું વાચક છે. એક જ માતાને ઉદરમાંથી જન્મ લેનારા ભાઈ બહેનને સદર કહે છે. ઉપલક્ષણની અપેક્ષાએ અહીં માતા, પિતા, આદિને તથા પશુ આદિને પણ ગ્રહણ કરવા જોઈએ. ભાઈ, બહેન આદિ For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir A सूत्रकृताङ्गमत्र इमे सर्वेऽपि वित्तसोदर्यादयः जीवस्य रक्षकाः शरणदायकाश्च न भवन्तीति भावः अतारणे तेषामौदासीन्यं न कारणमपि तु सामर्थ्याभाव एव तत्र हेतुः । दृश्यते हि लोके सकलपरिवारपरिवृतोपि सर्वधनधान्यादिसम्पन्नोऽपि मरणसमये मरणशय्यायां समासीनो दीनो मृत्युमुखमाविशति, न कस्यापि साहाय्यमवलंब्य मृत्युमुखाद्विमुक्तो भवति । तदुक्तम्-- 'धनानि कोष्ठे पशवश्च गोष्ठे, दारा गृहे बन्धुजनाः श्मशाने । देहश्चितायां परलोकमार्गे धर्मानुगो गच्छति जीव एकः ॥१॥ ग्रहण होता है। ये सब इस जीव का त्राण करने में, इसे शरण देने में समर्थ नहीं हैं । त्राण या शरण न देने में उनकी उपेक्षा कारण नहीं, किन्तु उनमें ऐसा सामर्थ्य ही नहीं है कि वे त्राण या शरण दे सकें । लोक में देखा जाता है कि सम्पूर्ण परिवार से घिरा हुआ और विपुल धन धान्य आदि से समृद्ध पुरुष भी मृत्यु के समय मरणशय्या पर पड़ा हुआ दीनता पूर्वक मौत के मुख में चला जाता है किसी की सहायत्ता पाकर वह मौत के मुंह से बच नहीं सकता। कहा है-“धनानि कोष्ठे' इत्यादि। धन कोठे (भंडार) में पड़ा रहता है पशु वाड़े में रह जाते हैं पत्नी घर में रह जाती है बन्धुजन श्मशान तक साथ देते हैं, देह चिता तक साथ रहता है। किन्तु परलोक के पथ में तो जीव अकेला ही जाता है । हां, उसका किया हुआ धर्म अवश्य उसके साथ जाता है"॥१॥ કોઈ પણ વ્યક્તિ આ જીવનું ત્રાણ કરવાને અથવા આ જીવને શરણ દેવાને સમર્થ નથી. ત્રાણુ અથવા શરણુ ન દેવામાં તેમની ઉપેક્ષા વૃત્તિ કારણભૂત હોતી નથી, પરંતુ તેમનામાં એવું સામર્થ્ય જ નથી કે તેઓ ત્રાણુ અથવા શરણ આપી શકે. લેકમાં એવું પ્રત્યક્ષ જોવામાં આવે છે કે સંપૂર્ણ પરિવારથી વીંટળાયેલી અને વિપુલ ધન, ધાન્ય આદિથી સંપન્ન વ્યક્તિ પણ, મૃત્યુને સમયે મરણશય્યા પર પડી પડી દીનતાનો અને લાચારીનો અનુભવ કરે છે અને તને કેળિયે બની જાય છે. તેને બચાવવાને કઈ પણ સમર્થ હેતું નથી. લાખ ઉપાય કરવા છતાં મત આગળ તેમને લાચાર જ થવું पो छ, ४यु ५५ छ है - "धनानि काष्ठे" त्याहि - धन २मा ५ यु २३ छ, પશ વાડામાં રહી જાય છે, પત્ની ઘરમાં રહી જાય છે, સગા સંબંધીઓ સમશાન સુધી સાથ દે છે, અને દેહ ચિતા સુધી સાથ દે છે. પરંતુ જીવને પરલેકને પંથે તે એકલા જ જવું પડે છે. હા, તેણે કરેલે ધર્મ તે અવશ્ય તેને સાથ આપે છે. એટલે કે ધર્મ જ માણસનું ખરૂં શરણ છે. For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3 समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ कर्मबन्धनिवृत्तिनिरूपणम् पुनरपि"मृतं शरीरमुसृज्य, काष्ठलोष्टसमं क्षितौ । विमुक्ता बान्धवा यान्ति, धर्मस्तमनुगच्छति ॥१॥ अपिच"चेतोहरायुवतयः सुहृदोऽनुकूलाः, सद्बान्धवाः प्रणतिगर्भगिरश्च भृत्याः । गर्जन्ति दन्तिनिवहास्तरलास्तुरङ्गाः, संमीलने नयनयो नैहि किंचिदस्ति" ॥१॥ इत्येतत्सर्वं न त्राणायेति, तथा 'जीवियं' जीवितं-मनुष्यजीवनमल्पमेवास्तीति, संखाए' संख्याय--ज्ञ परिजया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिक्षया प्राणातिपातादिकं सचित्ताचित्तपरिग्रहं च प्रत्याख्याय 'कम्मुणा उ' कर्मणैव निरवद्यतपासंयमाधनुष्ठानरूपया क्रिययैव 'तु' इति एवकारार्थः 'तिउहई बोटयति-कर्मबन्धमपनयति जीवः, एवं करणेन प्राणी कर्मबन्धनात् पृथग् भवतीत्यर्थः ॥गा.५॥ और भी कहा है-'मृतं शरीरमुत्सृज्य' इत्यादि । चित्त को हरने वाली तरूणियां हैं मन के अनुकूल मित्र हैं, अच्छे बन्धु हैं, मस्तक नमाकर बात करने वाले भृत्यगण हैं गजों का समूह गर्जन करता है, चपल अश्व हैं, मगर कब तक ! जब तक नेत्र खुले हुए हैं । आँखें बन्द होते ही ये सब अदृश्य हो जाते हैं ॥१॥ इस प्रकार यह सब सांसारिक पदार्थ जीव की रक्षा करने में समर्थ नहीं है। जीवन अल्पकालीन है। यह सब ज्ञपरिज्ञा से जानकर तथा प्रत्याख्यान परिज्ञा से प्राणातिपात आदि पापों को एवं सचित्त अचित्त परिग्रह वणी - "मृत शरीरमुत्सृज्य" त्याह - મૃત શરીરને લાકડાં અથવા માટીના ઢગલાની જેમ ધરતી પર છેડી દઈને સગાંસંબંધીઓ ચાલ્યા જાય છે. એક ધર્મ જ મૃતશરીરની સાથે જાય છે.” ચિત્તને આકર્ષનાર તરુણ યુવતીઓ ભલે મેજૂદ હેય, મનને અનુકૂળ મિત્રો પણ ભલે હોય, સારા સારા બંધુઓ પણ ભલે હોય, મસ્તક નમાવીને વાત કરનાર નેકર ચાકરેને સમૂહ પણ ભલે હોય, હાથીઓ ઘરના આંગણામાં ઝૂમતા હોય, અને ચપળ અશ્વો હણહણતા હોય, પણ તેમને એકવાર તે જવાનું જ છે. આંખે બંધ થતાં જ (भृत्यु यतi r) ते सौ सदृश्य 25य छे." આ પ્રકારે અહીં એ વાતનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે કે સંસારના કેઈ પણ પદાર્થો જીવની રક્ષા કરવાને સમર્થ નથી. જીવન અલ્પકાલીન છે આ બધી વાત પરિજ્ઞા વડે જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞા વડે પ્રાણાતિપાત આદિ પાપન અને સચિત્ત અચિત્ત For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे प्रथमाध्ययनस्यार्थाधिकारः परसमयवक्तव्यताऽप्यस्तीत्यध्ययनस्यार्थाधिकारे प्रतिपादनात् स्वसमयप्रतिपादितार्थकथनानन्तरं परसमयप्रतिपादितार्थप्रदर्शनाय शास्त्रकार आह-एए गंथे' इत्यादि ! मूलम्-- एए गंथे विउकम्म, एगे समणमाहणा। अयाणंता विउस्सित्ता, सत्ता कामेहिं माणवाः ॥६॥ छाया-- एतान् ग्रन्थान् व्युक्रम्य, एके श्रमणब्राह्मणाः । अजानंतो व्युत्सिताः, सक्ताः कामेषु मानवाः ॥६॥ अन्वयार्थ-(एए) एतान्- पूर्वोदितान् (गंथे) ग्रन्थान्-अर्हत्प्रोक्तानागमान् (विउक्कम्म) व्युत्क्रम्य-अतिक्रम्य परित्यज्येत्यर्थः (विउस्सित्ता) व्युत्सिताः= विविधप्रकारेण को त्याग कर निरवद्य तप और संयम के आचरण रूप क्रिया के द्वारा ही जीव (आत्मा) कर्मबन्ध को नष्ट करता है ॥५॥ प्रथम अध्ययन में परसमय की वक्तव्यता भी है ऐसा अर्थाधिकार में प्रतिपादन किया गया है, अतः स्वसमय में प्रतिपादित अर्थ का कथन करने के पश्चात् परसमय में प्रतिपादित अर्थ को दिखलाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं-'एए गंथे' इत्यादि। शब्दार्थ----'एए-एतान्' इन 'गंथे-ग्रंथान्' ग्रंथोंको आगमोंको 'विउक्कम्म व्युत्क्रम्य' छोडकर 'विउस्सित्ता व्युत्सिताः स्वसिद्धांत में अत्यंत बद्ध हैं 'एगेएके' कोई कोई 'समणमाहणा श्रमणब्राह्मणाः' शाक्यमतानुयायी भिक्षु और પદાર્થોના પરિગ્રહ પરિત્યાગ કરીને નિરવદ્ય તપ અને સંચમના આચરણ રૂપ ક્રિયા द्वारा १०१ (आत्मा) ४भमन्धन नाश शश छ. ॥ ५॥ પ્રથમ અધ્યયનમાં પરસમયની (જૈન સિવાયના સિદ્ધાંતની) વક્તવ્યતા પણ આપવામાં આવી છે, એ વાતનું પ્રતિપાદન અર્થાધિકારમાં કરવામાં આવ્યું છે, તેથી સ્વસમયમાં (જૈન સિદ્ધાંતમાં પ્રતિપાદિત અર્થનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર પરસમય પ્રતિપાદિત अथ ने प्रगट ४२१॥ भाट नायना सूत्रीनू थन ४२ छ – “एए गथे" त्याह - शहाथ----'एए-पतोन्' 'गथे-ग्रंथान्' अयाने भागभाने 'विउक्कम्म-व्युत्क्रम्य' छोडीन विउस्सित्ता-व्युत्सिताः' स्वसिद्धांतमा अत्यंत धाये। छ. 'एगे-एके ई 'समणमाहणा-श्रमणब्राह्मणाः' ॥४५ मतानुयायी लक्षुमने माझए 'अयाणंता: For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. . अ. १ परसमयार्थ प्रतिपादितार्थ प्रदर्शनम् ३९ स्वसमयेषु सिताः बद्धाः स्वसमयाभिनिविष्टबुद्धयः (एगे) एके- केचन न तु सर्वे ( समणमाहणा ) श्रमणब्राह्मणाः, तत्र श्रमणा :- शाक्यादयः, ब्राह्मणाः बार्हस्पत्यमताद्यनुयायिनः (अयाणंता) अजानाना:- परमार्थम नवबुध्यमानाः ( माणवाः) मानवा: - पुरुषाः ( कामे हिं) कामेषु - स्वेच्छारूपेषु च (सत्ता) सक्ता: = गृद्धा अध्युपपन्ना भवन्तीति ॥ ६ ॥ टीका - (एए) एतान् अनन्तरप्रतिपादितान् (गंधे) ग्रंथान - सर्वज्ञात्प्रतिपादितान् आगमान् यद्यपि सर्वज्ञोऽर्हन तीर्थंकर : केवलमर्थरूपेण वक्ति न तु सूत्रागमतयोपनिबध्नाति । आगमप्रणयनं तु गणधरपरंपरया जायते तथापि तीर्थकर मूलतया इदानीं समुपलब्धा लोकोत्तरार्थप्रतिपादका आगमास्तीर्थकरस्यैवागमा इति व्यपदिश्यते योर्थस्तीर्थकर वाचा प्रकाश्यते स एवार्थः गणधरादि गुरु ब्राह्मण 'अयाणता-अजानानाः' नहीं जान ने वाले अर्थात् ये अज्ञानी 'मार्णवाःमानवाः' मनुष्यों 'कामेहिं कामेषु' कामभोगों में 'सत्ता-सक्ताः' आसक्त होते हैं || ६ || अन्वयार्थ--इन पूर्वोक्त शास्त्रों को अर्थात् अर्हन्त भगवान् द्वारा कथित आगमों को त्याग कर अपने २ आगमों में आग्रहशील कितनेक शाक्य आदि श्रमण तथा बार्हस्पत्यमत आदि के अनुयायी ब्राह्मण परमार्थ को न जानते हुए स्वेच्छा रूप और कामभोग रूप कामों में गृद्ध होते हैं ॥ ६ ॥ टीकार्थ-पि अर्हन्त तीर्थकर भगवान् केवल अर्थ रूप से ही आगमों का कथन कहते हैं, उन्हें सूत्र रूप में ग्रथित नहीं करते, सूत्ररूप आगमों का प्रणयन गणधर परम्परा से होता है, फिर भी वर्तमान में उपलब्ध लोकोत्तर अर्थके प्रतिपादक आगम तीर्थकर मूलक होने के कारण तीर्थकर के ही कहलाते हैं । तीर्थकरों की वाणी के द्वारा जो अर्थ प्रकाशित किया जाता अज्ञानानाः' अज्ञानी 'माणवा - मानवाः' भनुष्यो 'कामेहिं- कामेषु' अमलोगोभां 'सत्तासक्ताः' आसत थाय छे. ॥ ६॥ અન્વયા – આ પૂર્વોક્ત શાસ્ત્રના એટલે કે અહંત ભગવાના દ્વારા કથિત ' આગમોના ત્યાગ કરીને (આગમની માન્યતાઓના અસ્વીકાર કરીને), કેટલાક શાક્ય ૌદ્ધ મતવાદીઓના તથા બાર્હસ્પત્યમત આદિના અનુયાયી બ્રાહ્મણેા પાત પેાતાના આગમામાં આગ્રહશીલ હેાય છે એટલે કે તેઓ પાત પેાતાના સિદ્ધાંતેનેજ ખરાં માનતા હોય છે. એવા પરમતવાદીએ પરમાર્થને જાણ્યા વિના સ્વેચ્છા રૂપ અને अमलोग ३५ प्रभोभां शृद्ध (सोलुप - मासस्त) रहे छे. ટીકા — જો કે અહુત તીર્થંકર ભગવાના, કેવળ અર્થ રૂપે જ આગમાનું કથન કરે છે - તેમને સૂત્ર રૂપે થિત કરતા નથી. સૂત્રરૂપ આગમાનું પ્રણયન તા ગણધર For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गो परंपरयापि प्रकाश्यते, शद्धानुपूर्तीणां विलक्षणता प्रणयने एव तेषां स्वातंत्र्य न तु अर्थाशे । अतएव शास्त्राणां द्रव्याथिकनयतोऽनादिप्रवाहपरंपरया प्राप्त तया नित्यत्वमपि सिद्धं भवतीति । (विउकम्म) व्युत्क्रम्य परित्यज्य अईत्प्रतिपादितशास्त्रमनादृत्य, अनादरे हेतुश्च तेषामज्ञानातिशय एव नान्यः । है, वही अर्थ गणधर आदि गुरुपरम्परा के द्वारा भी प्रकाशित किया जाता है। शब्दानुक्रम की विलक्षणता के प्रतिपादन करने की स्वतंत्रता उन्हें हैं किन्तु अर्थ की विलक्षणता का प्रतिपादन करने की स्वतंत्रता नही है। इसी कारण द्रव्याथिक नय से अनादि प्रवाहपरम्परा से प्राप्त होने के कारण शास्त्रों की नित्यता सिद्ध होती है। इस प्रकार अनन्तर प्रतिपादित अर्हन्त भगवान् के द्वारा कथित आगमों का त्याग करके अर्थात् शास्त्रों का अनादर करके कितनेक कुशास्त्रों के संस्कार से युक्त बुद्धि वाले शाक्य आदि श्रमण तथा बार्हस्पत्य मतानुयायी आदि ब्रह्मण, विविध प्रकार की कुत्सित भावना से सर्वज्ञप्रणीत समीचीन आगम में कथित अनुष्ठान का परित्याग करके वंचकों द्वारा निर्मित ग्रंथ में प्रतिपादित अनुष्ठान मे आग्रहशील होते हैं-उसे आदर के साथ स्वीकार करते हैं , पालते हैं। પરંપરા વડે જ થાય છે, છતાં પણ લકત્તર અર્થના પ્રતિપાદક જે જે આગમે વર્તમાન કાળે ઉપલબ્ધ છે, તેઓ તીર્થકરમૂલક હેવાને કારણે તીર્થકરેના જ કહેવાય છે. તીર્થકરેની વાણી દ્વારા જે અર્થ પ્રકાશિત કરવામાં આવે છે, એજ અર્થ ગણધર આદિ ગુરૂપરમ્પરા દ્વારા પણ પ્રકાશિત કરવામાં આવે છે. તેમને શબ્દાનુક્રમની વિલક્ષણતાના પ્રણયનની સ્વતંત્રતા છે, પરંતુ અર્થની વિલક્ષણતાનું પ્રતિપાદન કરવાની સ્વતંત્રતા નથી. એજ કારણે વ્યાર્થિક નયની અપેક્ષાએ અનાદિ પ્રવાહ પરમ્પરા રૂપે પ્રાપ્ત હેવાને કારણે શારની નિત્યતા સિદ્ધ થાય છે. આ પ્રકારના અહંત ભગવાને દ્વારા કથિત આગમને ત્યાગ કરીને એટલે કે શાસ્ત્રોને અનાદર કરીને, શાક્ય આદિ શમણે તથા બાહસ્પત્યમતાનુયાયી આદિ બ્રાહ્મણે કુશાસ્ત્રના સંસ્કારથી યુક્ત મતિવાળા થઈને, વિવિધ પ્રકારની કુત્સિત ભાવનાએથી પ્રેરાઈને સર્વજ્ઞ પ્રણીત સમીચીન આગમાં કથિત અનુષાનેને પરિત્યાગ કરીને, વાંચક દ્વારા નિર્મિત ગ્રંથમાં તથા એવા ગ્રંથમાં પ્રતિપાદિત અનુછાને માં આગ્રહશીલ હોય છે. એટલે કે તેને આદરની સાથે સ્વીકારે છે. અને તેનું પાલન કરતા હોય છે, For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ परसमयार्थप्रतिपादितार्थप्रदर्शनम् ४१ सूर्यप्रकाशो हि सर्वप्राणिनां चाक्षुषज्ञानजनने चक्षुरिन्द्रियस्य सहकारी भवति स एव प्रकाशस्तामसोलूकजीवानां प्रतिबन्धको भवति, तत्र तेषामुलूकादीनामशुभकर्मोदयातिशय एव हेतुः । तदुक्तम्पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो वसन्तस्य किम् नोलूकोप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम् । धारा नव पतंति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणं, यत्पूर्व विधिना ललाटलिखितं तन्मानितुं कः क्षम;" ॥१॥ अपिच-"सद्धर्मबीजवपनानघकौशलस्य, यल्लोकबान्धव तवापि खिलान्यभूवन् तन्नाद्भूतं खगकुलेष्विह तामसेषु, सूयांशवो मधुकरी चरणावदाताः ॥१॥ इति । ___ सर्वज्ञोक्त आगम का अनादर करने का कारण उनके अज्ञानता की अधिकता ही है अन्य नहीं । सूर्य का प्रकाश सभी प्राणियों के चाक्षुष ज्ञान की उत्पत्ति में चक्षुरिन्द्रिय का सहायक होता है, मगर वही प्रकाश तमश्वर उलूक आदि के लिए दृष्टि प्रतिबन्धक हो जाता है। इसका कारण उलूक आदि के अशुभ कर्म की तीव्रता ही है। कहा भी है-"पत्रं नैव" इत्यादि । यदि करीर (कैर) के वृक्ष मे पत्तें नहीं आते तो इसमे वसन्त का क्या दोष है ? यदि दिन मे उल्लू देख नहीं सकता तो सूर्य का क्या अपराध है ? अगर चातक पक्षी के मुख मे धारा नहीं गिरती तो मेघ का क्या दूषण है ? प्रारम्भ मे विधाता ने ललाट पर जो लिख दिया है, उसे मिटाने में कौन समर्थ है ?"१" और भी कहा है- “सद्धर्मबीजवपनानघ" इत्यादि । તેઓ શા કારણે આ પ્રકારનું વર્તન કરે છે? સર્વના આગમને અનાદર કરવાનું કારણ તેમના અજ્ઞાનની અધિકતાને જ ગણાવી શકાય. સૂર્યને પ્રકાશ સઘળાં પ્રાણીઓને દૃષ્ટિ જ્ઞાનની ઉત્પત્તિમાં ચક્ષુરિન્દ્રિયને સહાયક થાય છે, પરંતુ એ જ પ્રકાશ નિશાચર ઘુવડ, ચીબરી, ચામચીડિયાં આદિને માટે તે દષ્ટિ પ્રતિબન્ધક જ થઈ પડે છે. ઘુવડ આદિના અશુભ કર્મની તીવ્રતાને કારણે જ આવું બને છે. કહ્યું પણ છે કે, "पत्र नैव” त्याहि જે કેરડાના વૃક્ષને પાન ન આવે, તે તેમાં વસંતને શો દોષ છે? જ દિવસે ઘુવડ દેખી ન શકે તે તેમાં સૂર્યને શે દોષ છે? જે ચાતક પક્ષીના મુખમાં વરસાદની ધારા ન પડે, તે તેમાં મેઘને શે દેષ છે! પ્રારંભમાં વિધાતાએ લલાટ પર જે લખી નાખ્યું છે, તે પ્રમાણે થતું અટકાવવાને કેણ સમર્થ છે?” ___५५ छ - "सद्धर्मबीजवपनानघ" त्याहसू.-६ For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सूत्रकृताङ्गसूत्रे के ते इत्थंभूता ये भगवत्प्रणीतशास्त्रं नानुमन्यन्ते ? तत्राह -'एगे' इत्यादि । 'एगे समणमाहणा' एके श्रमणब्राह्मणा; एके केचन कुशास्त्रवासनावासितान्तःकरणाः श्रमणब्राह्मणाः, तत्र-श्रमणाः शाक्यादयः, ब्राह्मणाः बार्हस्पत्यमताद्यनुयायिनः 'विउस्सित्ता' व्युत्सिताः=विविधप्रकारककुत्सितभावनया सिताः-बद्धाः, अर्थात् सर्वज्ञप्रणीतान् आगमान्, तादृशसदागमप्रतिपादितार्थस्यानुष्ठान परित्यज्य तत्तत्प्रतारकनिर्मितग्रन्थे तादृशग्रंथप्रतिपादितार्थानुष्ठाने च कृतमतयस्तत्रैव बद्धाः सन्ति तादृशग्रन्थप्रतिपादितार्थान् सादरेण स्वीकुर्वन्ति परिपालयन्ति च, सर्वज्ञप्रणीतागमार्थस्यानभ्युपगमात् । सर्वज्ञप्रतिपादितागमे चायमर्थः प्रोक्तः, तथाहि-अस्ति परलोकगामी जीवः, तदस्तित्वे सति ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मबन्धनम् भवति । एतादृशबन्धहेतवो मिथ्यात्वाविरत्यादयः परिग्रहारम्भादयश्च । कर्मत्रोटनं च सम्यग्दर्शनादिना, तेन च मोक्षप्राप्तिरित्येवमादिकः। तमर्थ (अयाणंता) हे लोक के बन्धु जिनेन्द्र ! सद्धर्म रूपी बीज को बोने में आप का कौशल सर्वथा निर्दोष है, फिर भी आपके लिए ऊसर भूमि हो गई अर्थात् कई जीवों पर आप की दिव्य ध्वनि का असर नहीं पड़ा। इसमे आश्चर्य की कोई बात नहीं है, क्योंकि अन्धकार में विचरण करने वाले पक्षियों के लिए सूर्य की चमचमाती हुई किरणें भी मधुकरी के चरणों के समान अर्थात् काली काली हो जाती हैं। सर्वज्ञ भगवान् द्वारा प्रतिपादित आगम में कहा गया है कि जीव परलोक गामी है । जीव का आस्तित्व होने पर ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्मों का बन्ध होता है इस प्रकार के वन्ध के कारण मिथ्यात्व अविरति आदि तथा परिग्रह और आरम्भ आदि हैं। सम्यग्दर्शन आदि के द्वारा कर्मों લકના બધુ હે જિનેન્દ્ર ! સદ્ધર્મ રૂપી બીજને વાવવાનું આપનું કૌશલ બિલકુલ નિર્દોષ છે. છતાં આપને ઉસર જમીન મળી ગઈ–એટલે કે કેટલાય એવાં જીવે છે કે જેમના પર આપની દિવ્ય વાણીની બિલકુલ અસર પડતી નથી. તેમાં આશ્ચર્યની કઈ વાત નથી! અંધકારમાં ઘુવડ આદિ પક્ષીઓને માટે સૂર્યના ચમકતાં કિરણે પણ મધુકરીના ચરણેના સમાન કાળાં કાળાં થઈ જાય છે! તે અજ્ઞાની છે પર આપની દિવ્ય વાણીની કોઈ અસર ન થાય એમાં આશ્ચર્ય જેવું નથી. | સર્વજ્ઞ ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદિત આગમમાં એવું કહ્યું છે કે જીવ પરલોકગામી છે. જીવનું અસ્તિત્વ હોય ત્યારે જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારના કર્મોને બન્ધ થાય છે. મિથ્યાત્વ, અવિરતિ પરિગ્રહ, આરંભ આદિ આ બધુમાં કારણભૂત બને છે. સમ્યગુ દર્શન આદિ દ્વારા કર્મોને વિનાશ થાય છે, અને કર્મોને વિનાશ થવાથી મેશની प्राप्ति थाय छ,” त्याहि For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् ४३ अजानानाः सम्यगनवबुध्यमानाः 'माणवा' मानवाः =स्वमताभिमानिनः पुरुषाः 'कामेहिं' कामेषु शब्दादिकामभोगेषु (सत्ता)सक्ताः गृद्धिभावमुपगता, नरकनिगोदादि दुर्गतिं प्राप्नुवन्ति । तदुक्तम् "प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ।" इति ॥६॥ पूर्वस्मिन् सूत्रे विपरीतप्ररूपकाणां स्वरूपं प्रदर्शितम् । साम्प्रतं सूत्रकारवार्वाकमतं स्वरूपतो वर्णयन्नाह-संति' इत्यादि। संति पंच महब्भूया, इह मेगेसि माहिया । पुढवी आऊ तेऊ वा, वाऊ आगासपंचमी ॥७॥ छायासंति पंच महाभूतानि इहैकेपाम् आख्यातानि । पृथिव्यापस्तेजो वा वायुराकाशपंचमानि ॥७॥ का विनाश होता है और कर्मविनाश से मोक्ष होता है, इत्यादि । इस अर्थ को न जानते हुए स्वमत के अभिमानी पुरुष शब्दादि कामभोगों में गृद्ध होते हैं और नरकनिगोद आदि दुर्गतियों को प्राप्त होते हैं। कहा भी है-"प्रसक्ता कामभोगेषु" इत्यादि । जो कामभोगों में आसक्त हैं वे अशुचि नरक में जाकर पड़ते हैं ॥ ६ ॥ पूर्वसूत्र मे विपरीत प्ररूपणा करने वालों का स्वरूप कहा है। अब सूत्रकार चार्वाक (नास्तिक) मत के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं - 'संति' इत्यादि ।। शब्दार्थ-'इह-इह' इस लोक में 'एगेसिं-एकेषां' किन्हीं ने 'पंच-पञ्च' . पांच 'महन्भूया-महाभूतानि' महाभूत 'संति-सन्ति' हैं ऐसा कहा है 'पुढवी-पृथिवी' આ અર્થને નહીં જાણનારા એવાં પિત પિતાના મતનું અભિમાન કરનારા પુરૂ શબ્દાદિ કામગોમાં લુબ્ધ થાય છે અને નરક નિગદ આદિ દુર્ગતિઓની प्रान्ति ४२ छ. ५j ५९४ छ -"प्रसक्ताः कामभोगेषु" त्याहि-रे मनुष्यो आमભોગોમાં આસક્ત હોય છે, તેઓ અશુચિ નરકમાં જઈને ઉત્પન્ન થાય છે. દા. પૂર્વ સૂત્રમાં વિપરીત પ્રરૂપણ કરનારાઓનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરવામાં આવ્યું हवे सूत्रे२ यावाड (नास्ति) मतना २१३५नु न “संति" त्या सूत्रा । ४३ छ. “संति” त्याहि सन्हा-'इह-इह' मा सभा 'पगेसिं-एकेषां ये 'पंच-पञ्च पाय 'महाभया-महाभूतानि' महाभूत। 'संति-सन्ति' छे. तेम ४थु छ. 'पुढवी-पृथिवी' पृथ्वी For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसत्रे अन्वयार्थः (इ) अस्मिन् लोके (एगेसिं) एकेषां केषाञ्चिद भूतवादिनां मते (पंच) पञ्च पञ्चसंख्यकानि (महन्भूयाणि) महाभूतानि लोकव्यापित्वात् (संति) विद्यन्ते । यद्वा - संति = अनादिसत्तारूपेण विद्यमानानि पञ्चमहाभूतानीत्यन्वयः । तानि कानीत्याह ( पुढवी ) पृथिवी १, (आऊ) आप: - जलम् २, (तेऊ ) तेजः - अग्निः ३, ( वाऊ) वायुः ४, (वा) तथा ( आगासपंचमा) आकाशपञ्चमानि - आकाशः पञ्चमो येषु तानि, (आहिया) आख्यातानि - कथितानि तत्तीर्थिकैरिति ॥७॥ टीका संति-विद्यन्ते पंच पंचसंख्या विशिष्टानि 'महम्भूया' महाभूतानि महान्ति च तानि भूतानि महाभूतानि । भूते महत्त्वविशेषणं भूतानां सर्वलोकव्यापित्वात्, नास्ति तादृशो लोकविभागो यत्रैते पृथिव्यादयो न भवेयुः । एतावता ये भूताभाववादिनः सन्ति तेषां मतमपाकृतम्, इह-अस्मिन् लोके 'एकेषां भूतवादीनां मते 'आहिया' आख्यातानि = कथितानि तत्तीर्थिकैर्बृहस्पतिमतानुयायिभिपृथ्वी १ 'आउ-आपः ' २ जल 'तेऊ - तेजः' ३, तेज 'वाऊ वायु' ४ पवन 'वाचा' और 'आगासपंचमा- आकाशपञ्चमानि' पांचवां आकाश ||७|| अन्वयार्थ -- इस लोक में किन्हीं भूतवादियों के मत में पांच महाभूत हैं या पाँच महाभूत अनादि काल से सत्तारूप में विद्यमान हैं वे ये हैं- पृथिवी जल, अग्नि, वायु और पांचवां आकाश ऐसा उन्होंने कहा हैं ॥ ७ ॥ टीकार्थ -- - महाभूत पांच हैं भूतों के साथ " महान् जो विशेषण लगाया है वह इस कारण कि वे सर्वलोक व्यापी हैं। ऐसा कोई लोक का भाग नहीं जहां पृथिवी आदि विद्यमान न हों । इस कथन के द्वारा भूतों का अभाव मानने वालों के मत का निराकरण किया गया है। ऐसा बृहस्पति के मत के अनु 'आऊ - आप:' पाए 'तेऊ - तेजः' ते 'वाऊ- वायु' पवन 'वाया' भने 'आगासपंचमाआकाशपञ्चमानि' पांयभु आशय ॥७॥ अनि, અન્વયા –કેટલાક ભૂતવાદીએની માન્યતા અનુસાર આ લાકમાં પૃથ્વી, જલ, વાયુ અને આકાશરૂપ પાંચ મહાભૂતા છે. આ પાંચ મહાભૂતાનું અનાદિ કાળથી या सभां अस्तित्व छे. ॥७॥ For Private And Personal Use Only ટીકા-પાંચ મહાભૂતાનુ આ લોકમાં અસ્તિત્વ છે, તે સ લેાકવ્યાપી હાવાને કારણે તેમને “મહાન” વિશેષણ લગાડવામાં આવ્યુ` છે. આ લાકના કોઈ પણ ભાગ એવા નથી કે જ્યાં આ પાંચ મહાભૂતા વિદ્યમાન ન હેાય. આ કથન દ્વારા ભૂતાના અભાવ માનનારાના મતનું ખંડન કરવામાં આવ્યું છે. બૃહસ્પતિના મતના અનુયાયીએએ (ભૂતવાદીએ એ) પાતે જ આ માન્યતાને સ્વીકાર કર્યો છે અને અન્ય મતવાદીએની Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् ४५ भूतवादिभिः तैः स्वयं स्वीकृत्वान्येषां पुरः प्रतिपादितानि । कानि तानि भूतानि ? इति जिज्ञासायामाह 'पुढवी' इत्यादि । 'पुढवी' पृथिवी कठिनरूया, 'आऊ' आपः-द्रवलक्षणाः, 'तेज' तेजः उष्णरूपम् , वाऊ' वायुः-चलनलक्षणः, वा=पुनः आकाशः शुषिरलक्षणः स पञ्चमो येषां तानि आकाशपंचमानि । एतेषां महाभूतानां निराकरणं न केनापि कर्तुं शक्यम् प्रसिद्धत्वात् , प्रत्यक्षविषयत्वाच्च । यद्यपि चार्वाकमते चत्वारि, पृथिव्या आरभ्य वायुपर्यन्तमेव भूतानि, “चतुर्थ्यः खलु भूतेभ्यश्चैतन्यमुपजायते” इति तन्नियमात् तथापि लोकायतिकानां बहुत्वात् “भविष्यति कोपि पंचमहाभूतवादी' इति संभाव्य तन्मतमुपपादयता भगवता पंच महाभूतानामिह निर्देशःकृतः । सांख्यकारादिभिरपि पंचमहाभूतानि स्वीकृतान्येव ।।सू०७॥ यायी भूतवादियों ने स्वयं स्वीकार किया है और दूसरों के सामने प्रतिपादन किया है। वे पांच महाभूत कौन से हैं ? इस जिज्ञासा का उत्तर दिया गया है काठिन्य रूप पृथिवी, द्रवता लक्षण वाला जल, उष्ण स्वरूप वाला तेज, चलन स्वभाव वाली वायु और पोलार लक्षण वाला आकाश । इस प्रकार आकाश उनमें पांचवां है । ___ इन पांच महाभूतों का कोई निषेध नहीं कर सकता, क्योंकि वे प्रसिद्ध हैं और प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। यद्यपि चार्वाक मत में पृथ्वी से लेकर वायु पर्यन्त 'चार भूतों से चैतन्य की उत्पत्ति होती है तथापि चार्वाक बहुत से हैं। कोई पांच महाभूत वादी चार्वाक भी होगा, ऐसी संभावना करके उनके मत को प्रदर्शित करते हुए भगवान् ने ऐसा निर्देश किया है। सांख्य आदि ने महाभूत पांच स्वीकार किया ही है ॥७॥ સમક્ષ તેમણે પિતાની આ માન્યતાનું પ્રતિપાદન કર્યું છે. હવે તે પાંચ મહાભૂત ક્યા ध्या छ, ते ४८ ४२वामा माछ- (१) 8न्य ३५ पृथ्वी, (२) द्रवता सक्षवाणु જળ, (૩) ઉષ્ણ સ્વરૂપવાળું તેજ, (૪) ચલન સ્વભાવવાળ વાયુ અને (૫) પોલાણ લક્ષણવાળું આકાશ. આ પ્રકારે આકાશને પાંચમું મહાભૂત કહેવામાં આવેલ છે. આ પાંચ મહાભૂતને કેઈ નિષેધ કરી શકે તેમ નથી, કારણ કે તેઓ પ્રત્યક્ષ દેખાય છે અને જાણીતા છે. જો કે ચાર્વાકમત પ્રમાણે પૃથ્વીથી લઈને વાયુ પર્યન્તના ચાર જ મહાભૂત માનવામાં આવ્યા છે, (કહ્યું પણ છે કે “ચાર ભૂતેમાંથી જ ચિતન્યની ઉત્પત્તિ થાય છે, છતાં પણ અહી ભગવાને ચાર્વાકને પાંચ મહાભૂત વાદી કહ્યા છે તેનું કારણ એ છે કે ચાર્વાક એક નહીં પણ ઘણું જ હોવા જોઈએ. કેઈ પાંચ મહાભૂતવાદી ચાવક પણ થયે હશે, તે કારણે ભગવાને ઉપર પ્રમાણે કથન કર્યું છે. પાંચ મહાભૂતવાદી ચાર્વાકના મતને પ્રદર્શિત કરવા નિમિત્તે ઉપર્યુક્ત કથન કરાયું છે. સાંખ્ય આદિએ તે મહાભૂત પાંચ હોવાની માન્યતાને સ્વીકાર કરે જ છે માળા For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ક www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साम्प्रतं सूत्रकार एव चार्वाकमतं प्रदर्शयति 'एए' इत्यादि । मूलम् - २ ३ ४ ७ एए पंच मह-भूया, ते भो एगोत्ति आहिया १० १२ १३ . ११ अह तेसि विणासेणं, विणासो होइ देहिणो ||८|| छाया एतानि पंच महाभूतानि तेभ्य एक इत्याख्यातम् । अथ तेषां विनाशेन, विनाशो भवति देहिनः ॥ ८ ॥ अन्वयार्थ :—— सूत्रकृताङ्गसूत्रे (एए) एतानि = पूर्वोक्तानि पृथिव्यादीनि पञ्च महाभूतानि सन्ति (ते भो) तेभ्यः=भूतेभ्यः (एगो) एकः आत्मा उत्पद्यते पञ्चमहाभूतजन्य एव आत्मा अब स्वयं सूत्रकार चार्वाक ( नास्तिक) मत को प्रदर्शित करते हैं'एए' इत्यादि । भूत शब्दार्थ - 'एए - एतानि ' ये 'पंच-पांच' पांच 'महन्भूया - महाभूतानि ' महाहैं 'ते भो तेभ्यः' इन से 'एगो - एक : ' एक आत्मा उत्पन्न होता है 'त्ति' इति' इसप्रकार 'आहिया' आख्यातम्' कहा है 'अह अथ' तदनन्तर 'तेसिं- तेषां ' उन भूतों के' 'विणासेणं विनाशेन' नाश से ' देहिणो - देहिनः' आत्मा का 'विणासो - विनाशः ' ' होइ-भवति' होता है | ||८|| अन्वयार्थ - ये पूर्वोक्त पृथ्वी आदि पांच महाभूत हैं। इन भूतों से एक आत्मा की उत्पत्ति होती है । आत्मा पांच महाभूतों से जनित ही है उनसे पृथक् हवे सूत्रार पोते यार्वा ( नास्ति ) भतने प्रदर्शित उरे छे. "पप" त्याहि शब्दार्थ - - ' एप - पतानि' मा 'पंच - पञ्च' पांथ 'महन्भूया - महाभूतानि महाभूतो छे. 'तेव्भो - तेभ्यः' तेनाथी 'एगो एक:' से आत्मा उत्पन्न थाय छे. 'त्ति - इति' या प्रमाणे 'आहिया - आख्यातम्' उधुं छे. 'अह- अथ' ते पछी 'तेलि - तेषाँ' मे महाभूतोना 'विणासेणं विनाशेन' नाशथी 'देहिणो- देहिनः' आत्मानो 'विणासो -विनाशः' विनाश 'होह - भवति' थाय छे. ॥८॥ For Private And Personal Use Only अन्वयार्थ - “ પૂર્વકિત પૃથ્વી આદિ પાંચ મહાભૂત છે. આ ભૂતોમાંથી આત્માની ઉત્પત્તિ થાય છે. આત્મા પાંચ મહાપૂતોથી બનેલા જ છે. આ પાંચ મહાભૂતાથી આત્મા ભિન્ન Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चाकिमतस्वरूपनिरूपणम् ४७ न तु तद्वयतिरिक्तः कोऽप्यन्यः 'त्ति' इति तैः (आहिया) आख्यातम् कथितम् (अह) अथ तत्पश्चात् (तेसिं) तेषां पञ्चमहाभूतानां (विणासेणं) विनाशेन (देहिणो) देहिनः आत्मत्वेन स्वीकृतस्य पदार्थस्यापि (विणासो) विनाशः (होइ) भवति ॥८॥ टीका-'एए' एतानि पूर्वसूत्रप्रदर्शितानि पृथिव्यप् तेजो वाय्याकाशाख्यानि पंचमहाभूतानि सन्ति, 'तेब्भो' तेभ्यः पंचमहाभूतेभ्यः शरीरलक्षणतां गतेभ्यः 'एगो' एकः कश्चिद्विलक्षणश्चैतन्यरूप आत्मा भूताभिन्नः समुत्पद्यते । न तु पूर्वकथितभूतव्यतिरिक्तः परलोकानुयायी सुखदुःखादीनां भोक्ता जीवनामकः पदार्थोस्तीति तैराख्यातं तन्न युक्तम् , “तमाओ ते तमं जंति मंदा आरंभनिस्सिया" इत्यत्रैव सूत्रे चतुर्दशगाथोक्तभगवद्वचनात् । अत्र कथ्यते पंचमहाभूतानां पृथिव्यादीनां परस्परसंयोगात्कायाकारपरिणामे सति चैतन्यात्मको गुणस्तथा आदि शब्दात् भाषाचलनादिकश्च नैव भवितुं शक्नोति कुतः ? अन्य गुणत्वादिति हेतुः । तथा नहीं है ऐसा उनका कहना है। बाद में उन पाँच महाभूतों का विनाश होने से आत्मा के रूप में स्वीकृत पदार्थ का भी विनाश हो जाता है ॥८॥ टीकार्थ-पूर्ववर्ती सूत्र में कथित पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश नामक पाँच महाभूत है । ये पाँच महाभूत जब शरीर का रूप धारण करते हैं तब उनसे एक विलक्षण चैतन्य स्वरूप एवं भूतों से अभिन्न आत्मा की उत्पत्ति होती है। पूर्वोक्त भूतों से भिन्न, परलोकगामी, सुख दुःख का भोक्ता जीव नामक पदार्थ नहीं है। ऐसा उनका कथन है। किन्तु आगे चौदहवीं गाथा में " तमाओ ते तमं जंति" इत्यादि सूत्र में कथित भगवान के वचन के अनुसार उनकी यह मान्यता युक्तियुक्त नहीं है। इस विषय में कुछ विचार करते हैं पृथ्वी आदि पाँच महाभूतों का परस्पर संयोग होने पर चैतन्यगुण तथा आदि शब्द से भाषण एवं चलन आदि नहीं हो सकते क्योंकि वे अन्यનથી” આ પ્રકારની ચાર્વાક મતવાળાઓની માન્યતા છે. તેઓ એવું માને છે. કે તે પાંચ મહાભૂતોને વિનાશ થવાથી આત્મા રૂપે મનાતા પદાર્થને પણ વિનાશ થઈ જાય છે. ૮ ટીકાર્ય-પૂર્વ સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે પૃથ્વી, જલ, તેજ, વાયુ અને આકાશ, એ પાંચ મહાભૂત છે. આ પાંચ મહાભૂતે જ્યારે શરીરનું રૂપ ધારણ કરે છે ત્યારે તેમનામાંથી વિલક્ષણ ચૈતન્યસ્વરૂપ અને ભૂતથી અભિન્ન એવા આત્માની ઉત્પત્તિ થાય છે. પૂર્વોત ભૂતેથી ભિન્ન હોય એ, પરલેકગામી, સુખદુઃખને ભક્તા જીવ નામને કઈ પદાર્થ डात नथी, म प्रा२नी तेमनी मान्यता छ. ५२न्तु " तमाओ ते तम जति" ઈત્યાદિ ૧૪માં સૂત્રમાં પ્રતિપાદિત ભગવાનના કથન અનુસાર તે ચાર્વાકમત વાદીએની આ માન્યતાં યુક્તિયુક્ત નથી. તેમની આ માન્યતાનું આ પ્રકારે ખંડન કરી શકાય છેપૃથ્વી આદિ પાંચ મહાભૂતને પરસ્પરની સાથે સંગ થવાથી ચેતન્ય ગુણ તથા આદિ શબ્દ વડે સૂચિત થતાં ભાષણ, ચલન, આદિ સંભવી શક્તા નથી, કારણ કે તે અન્યગુણે For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे चानुमानाकारः भूतसंयोगे सति (पक्ष) शरीरे, न चैतन्या(साध्य)दिकम् , अन्यगुण(हेतु)त्वात् यो यद्गुणवान् न तेभ्योऽन्यगुणस्योत्पत्तिः संभवति । यथा सिकताभ्यस्तैलस्य । एतदुक्तं भवति यथा प्रत्येकसिकताकणे तैलोत्पादकसाम र्यस्यानुपलंभान्न सिकतासमुदायादपि तैलस्योत्पादनम्, किन्तु तिलेभ्य एव तैलं जायते तथा प्रत्येकपृथिव्यादिभूते भूयसोऽल्पीयसोवाचैतन्यस्यादर्शनात् तत्समुदायरूपशरीरादपि कथं चैतन्यस्योत्पत्तिः स्यादिति कथमपि न संभवति । सत एव आविर्भावो भवति नत्वसतोऽत्यंतासतोवा, नहि वन्ध्यापुत्रस्य कुत्राप्याविर्भावो दृष्टः दृष्ट थाविर्भावो गवि पूर्वस्थितस्य दुग्धस्य दोहनक्रियया, तिलेषु वा गुण हैं। अनुमान प्रयोग इस प्रकार का है भूतों का संयोग होने पर शरीर मे चैतन्य आदि उत्पन्न नहीं हो सकते, क्योंकि वे अन्य के गुण हैं, अन्य के गुणों की अन्य से उत्पत्ति नहीं होती, जैसे बालू से तैल की उत्पत्ति नहीं होती। तात्पर्य यह है जैसे-बालू के एक एक कण में तैल को उत्पन्न करने का सामर्थ्य नहीं पाया जाता तो वालु के समुदाय से भी तैल की उत्पत्ति नहीं हो सकती, किन्तु तिलों से ही तैल की उत्पत्ति होती है, इसी प्रकार पृथ्वी आदि एक २ भूत में बहुत या थोड़ी भी चैतन्य की मात्रा नहीं देखी जाती, अतएव उनके समुदोयरूप शरीर से भी चैतन्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। आविर्भाव (प्रकट होना) सत् का ही होता है, असत् का या अत्यन्त असत् का नहीं होता । बन्ध्यापुत्र का आविर्भाव कहीं नहीं देखा जाता । गाय में पूर्वस्थित दूध का दुहने की क्रिया द्वारा आविर्भाव देखा जाता है। છે. અનુમાન પ્રવેગ આ પ્રકારને છે-ભૂતને સંગ થવાથી શરીરમાં ચૈતન્ય આદિની ઉત્પત્તિ થઈ શકતી નથી, કારણ કે તેઓ અન્યના ગુણે છે. અન્યના ગુણેની અન્ય વડે ઉત્પત્તિ થતી નથી? જેમ કે રેતીના પ્રત્યેક કણમાં તેલ ઉત્પન્ન કરવાનું સામર્થ્ય નથી, તે કારણે રેતીને સમુદાયમાંથી પણ તેની ઉત્પત્તી થઈ શકતી નથી. તેલની ઉત્પત્તિ તે તલમાંથી જ થઈ શકે છે. એ જ પ્રમાણે પૃથ્વી આદિ પ્રત્યેક ભૂતમાં વધુ અથવા અલ્પ માત્રામાં પણ ચૈતન્યગુણેને સદ્ભાવ હોતું નથી તેથી તેમના સમુદાય રૂપ શરીરમાં પણ ચૈતન્યની ઉત્પત્તિ થઈ શકે નહી. આવિર્ભાવ (પ્રકટ થવાની ક્રિયા) સને (વિદ્યમાનને) જ થાય છે અને અથવા અત્યન્ત અસના થતા નથી શું વંધ્યાને કદી પુત્ર થાય છે ખરે; વંધ્યાને પુત્ર થવાની વાત કદી સંભવી શકતી જ નથી, એવું જ આવિર્ભાવ વિષે પણ સમજવું ગાયમાં પૂર્વસ્થિત દૂધને દોહવાની ક્રિયાદ્વારા આવિર્ભાવ થતો જોવામાં આવે For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चार्याक्रमतस्वरूपनिरूपणम् ४९ पीडनेन तैलस्य । अन्यथा दुग्धादेव दधि तिलेभ्य एव तैलमितिव्यवस्था न स्यात् । व्यवस्थाया अभावे सर्वैक्यं स्यात् । तदिह प्रत्येकस्मिन् भूते चैतन्यस्या नुपलभ्यमानतया तत्समुदायेपि चेतना कुतः स्यात्, अन्यगुणस्य =आत्मगुणस्य चैतन्यस्य अन्यत्र भुते असंभवात् नहि घटगुणो जलादिष्वनुवर्तमानः कदाचिदप्युपलव्धस्तद्वदात्मगुणश्चैतन्यं कथमात्मभिन्ने भूते समवेयात् कथमपि नेति मुकुलितार्थः । भूतानां संयोगे सति चैतन्यमुपजायते, 'तच्चैतन्यं किं स्वतंत्रम् आहोस्थित भूतानां संयोगजन्यं । तत्र न प्रथमः पक्षः समीचीनः, तथाहि - काठिन्यइसी प्रकार तिलों में पहले से विद्यमान तैल का पेरने से आविर्भाव होता है । ऐसा न होता तो दुग्ध से हो दही हो और तिलों से ही तेल हो' ऐसी व्यवस्था न होती । व्यवस्था के अभाव मे सभी एक हो जाते । इस प्रकार प्रत्येक भूत में चैतन्य की उपलब्धि न होने से उनके समुदाय मे भी चेतना कैसे हो सकती है ? क्योंकि अन्य अर्थात् आत्मा का गुण चैतन्य अन्य में अर्थात् भूतो में होना संभव नहीं है । घट का गुण जलादि में रहता हुआ कभी नहीं देखा गया । इसी प्रकार आत्मा का गुण चैतन्य आत्मा से भिन्न भूत मे कैसे रह सकता है ? किसी भी प्रकार नहीं रह सकता । यह संक्षिप्त अर्थ है । भूतों का संयोग होने पर चैतन्य की उत्पत्ति होती है सो वह चैतन्य क्या स्वतन्त्र है या भूतों के संयोग से जन्य हैं ! पहला पक्ष समीचीन नहीं, છે, તલમાં પહેલેથી જ જે તેલ વિદ્યમાન હેાય છે, તેનેા તલને પીલવાની ક્રિયા દ્વારા આવિર્ભાવ થાય છે. જો એવી પરિસ્થિતિ ન હાત, તે દૂધમાંથી જ દહીં થતુ ન હેત અને તલમાંથી જ તેલ નીકળતુ ન હેાત. આપ્રકારની વ્યવસ્થાના અભાવ હૈાત તે તેમના વચ્ચે કોઈ પણ પ્રકારની ભિન્નતા જ રહેત નહી. આ પ્રકારે સૂત્રકાર અહીં એવી દલીલ કરે છે કે પૃથ્વી આદિ પ્રત્યેક ભૃતમાં ચૈતન્યના સદ્ભાવ નથી, તે તેમના સમુદાયમાં પણ ચેતના કેવી રીતે હોઈ શકે ? કારણ કે અન્યના (એટલે કે આત્માને ) ચૈતન્યના જે ગુણુ છે તેના સદ્ભાવ અન્યમાં (એટલે કે ભૂતામાં ) હોવાનુ સંભવી શકતું નથી જેમ ઘાદિમાં જળના ગુણના સદ્ભાવ દેખવામાં આવત નથી, એજ પ્રમાણે આત્માથી ભિન્ન એવા ભૃતામાં પણ આત્માના ચૈતન્ય ગુણ કેવી રીતે સંભવી શકે; આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે આત્માના ચૈતન્યગુણના સદ્ભાવ આત્માથી ભિન્ન એવા પૃથ્વી આદિ ભૂતામાં કદાપિ સંભવી શકે જ નહી. " “પાંચ ભૂતાનો સંચાગ થવાથી ચૈતન્યની ઉત્પત્તિ થાય છે. ” આ પ્રકારની ચાર્વાકની માન્યતા સામે અમારા આ પ્રશ્નો છે. તે ચૈતન્ય શુ સ્વતંત્ર છે, કે ભૃતાના સયાગથી જન્ય છે પહેલા પક્ષ સમીચીન ( યોગ્ય ) નથી, કારણકે પૃથ્વી કઠિનતાગુણવાળી છે, 24-19 For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे गुणा पृथिवी द्रवशीतस्पर्शगुणा आपः, पाचकगुणवत्तेजः, इणगुणवान् वायुः, अवगाहनगुणकमाकाशम् , अथवा गन्धगुणवती पृथिवी, शीतस्पर्शवत्य आपः उष्णस्पर्शवत्तेजः, विलक्षणस्पर्शवान् वायुः अवगाहनगुणमाकाशम् , तदेवं प्रत्येक भूतानां चैतन्यं न गुणस्तदा तत्समुदायादपि चैतन्यं कथमुत्पद्येताभिव्यज्येत वा । यदि चैतन्यं पृथिव्यादिगुणः स्यात् तदा चैतन्यवत्तया पृथिव्यादीनामुपलब्धिः स्यानत्वेवमुपलभ्यते तस्मान्न चैतन्यं भूतानां गुणः दृश्यते च शरीरावच्छिन्न चेतनागुणः, स चात्मन एव न भूतानामिति । तेषां चैतन्य गुणानधिकरणत्वात् , न चैतन्यं भूतगुणः किन्तु तदतिरिक्तस्यात्मन एव । अयमाशयः चार्वाकमते क्योंकि पृथिवी कठिनता गुण वाली है, जल तरलता एवं शीत स्पर्श वाला है तेज पाचक गुण वाला है वायु चलन गुण वाला है आकाश अवगाहन गुण वाला है । अथवा गन्ध गुण वाली पृथ्वी, शीतस्पर्श वाला जल, उष्ण स्पर्श वाली अग्नि, विलक्षण स्पर्श वाला वायु और अवगाहन गुण वाला आकाश है। इस प्रकार जब एक एक भूत मे चैतन्य नहीं है। तो उनके समुदाय से भी चैतन्य कैसे उत्पन्न हो सकता है ? या अभिव्यक्त हो सकता है ? यदि चैतन्य पृथ्वी आदि का गुण होता तो पृथ्वी आदि की सचेतन रूप में उपलब्धि होती। किन्तु ऐसी उपलब्धि होती नहीं हैं, अत एव चैतन्य भूतों का गुण नहीं हो सकता । शरीरावच्छिन्न में चेतना गुण देखा तो जाता है अत एव वह आत्मा का ही हो सकता है भूतों का नहीं, क्योंकि भुत चैतन्य गुणके आरधा नहीं है चैतन्य भुतों का गुण नहीं किन्तु उनसे भिन्न आत्मा का ही गुण है । आशय यह है कि चार्वाक मतमें शरीर और इन्द्रियों से જલ તરલતા ગુણવાળું અને શીત સ્પર્શવાળ છે, તેજ પાચક ગુણવાનું છે, વાયુ ચલન ગુણવાળે છે અને આકાશ અવગાહના ગુણવાળું છે. અથવા ગબ્ધગુણવાળી પૃથ્વી, શીત સ્પર્શવાળું જળ, ઉષ્ણુ સ્પર્શવાળો અગ્નિ વિલક્ષણ પર્શવાળ વાયુ. અને અવગાહન ગુણવાળું આકાશ છે. આ પ્રકારે એક એક ભૂતમાં જ જે ચૈતન્યગુણને અભાવ છે, તે તેમના સમુદાય વડે પણ ચૈતન્યની ઉત્પત્તિ અથવા અભિવ્યકિત (આવિર્ભાવ) કેવી રીતે થઈ શકે, જે પૃથ્વી આદિમાં ચૈતન્યના ગુણને સભાવ હૈાત તે પૃથ્વી આદિની સચેતન રૂપે ઉપલબ્ધિ થાત, પરંતુ એવી ઉપલબ્ધિ થતી નથી તેથી ચૈતન્ય ભૂતને ગુણ હૈઈ શકે નહી. શરીરાવચ્છિન્નમાં (શરીરયુક્તમાં) ચેતનને ગુણ જોવામાં આવે છે, તેથી તે આત્માને જ ગુણ હોઈ શકે છે- ભૂતને નહીં, કારણ કે ભૂત ચૈતન્યગુણને આધાર નથી ચૈતન્ય ભૂતને ગુણ નથી પરંતુ ભૂતોથી ભિન્ન એવા આત્માને જ ગુણ છે. આ For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् शरीरेन्द्रियातिरिक्तस्यात्मनोऽनंगीकारात् द्रष्टुरतिरिक्तस्यानंगीकारेण चक्षुरादीन्द्रियाण्येव द्रष्टृणि तेषां चक्षुरादीनां यानि स्थानानि उपादानकारणानि पृथिव्या दीनि तानि त्वचेतनानि भूते अचिद्रूपत्वात्तेषां न भूतसमुदाये चैतन्यं कथमपि संभवति । किंचेन्द्रियाणामेव ज्ञानवस्वस्वीकारे किं मिलितस्य ज्ञानाधिकरणत्वम्, उत प्रत्येकस्य ? नायः पक्षः, संमिलितस्य तथात्वे एकेन्द्रियस्य विनाशे ज्ञानवतो विनाशात्, पुनर्ज्ञानोदयस्तत्र न स्यात् ज्ञानाधिकरणस्याभावात् । द्वितीयपक्षा भ्युपगमे कारणवशाचक्षुषो विनाशे रूपस्मरणं न स्यात् अनुभवितुरभावात् । अनुभवस्मरणयोः सामानाधिकरण्यस्य नियमात् । ५१ अतिरिक्त आत्मा को स्वीकार नहीं किया गया है। इस प्रकार द्रष्टा ( आत्मा ) को स्वीकार न करने के कारण चक्षु आदि इन्द्रियां ही उनके मत के अनुसार हैं। चक्षु आदि के जो उपादान कारण या स्थान पृथ्वी आदि हैं, वे अचेतन हैं। भूतों के अचेतन होने के कारण उनके समूह में किसी भी प्रकार चैतन्य का संभव नहीं है । For Private And Personal Use Only इसके अतिरिक्त इन्द्रियों को ही यदि ज्ञानवान् माना जाय तो सब मिली हुई इन्द्रियाँ ज्ञानका आधार हैं अथवा अलग २१ पहला पक्ष तो ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से एक इन्द्रिय का नाश होने पर ज्ञानवान् का भी नाश हो जाएगा, वहां फिर ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होगी, क्योंकि ज्ञान अधिकरण का अभाव हो चुका है। दूसरे पक्षमें किसी कारण से चक्षुका विनाश होने पर पहले देखे रूपका स्मरण नहीं होना चाहिए, કથનના ભાવાર્થ એ છે કે ચાર્વાકમતમાં શરીર અને ઇન્દ્રિયાના અસ્તિત્વની સાથે સાથે આત્માના અસ્તિત્વનો સ્વીકાર કરવામાં આવ્યે નથી. આ પ્રકારે દ્રષ્ટા ( આત્મા ) ના અસ્તિત્વના સ્વીકાર ન કરવાને કારણે, તેમના મત અનુસાર તા ચક્ષુ આદિ ઇંદ્રિયા ને જ માનવામાં આવેલ છે. ચતુ આદિના જે ઉપાદાન કારણુ અથવા સ્થાન પૃથ્વી આદિ છે, તે અચેતન છે. ભૂતામાં અચેતનતા હાવાનેકારણે તેમના સમૂહમાં કઈ પણ પ્રકારે ચૈતન્ય સંભવી શકતુ નથી. જો ઇન્દ્રિયાને જ જ્ઞાનવાન્ માનવામાં, આવે, તેા પ્રશ્ન એ ઉદ્ભવે છે કે ખધી ઇન્દ્રિયાના સમુદાય જ્ઞાનના આધાર છે, કે અલગ અલગ પ્રત્યેક ઈન્દ્રિય જ્ઞાનના આધાર છે? પહેલા પક્ષ તો ખરા લાગતા નથી કારણ કે એવુ માનવામાં આવે તેા જ્ઞાનવાનના પણ નાશ થઇ જશે’અને પછી ત્યાં જ્ઞાનની ઉત્પત્તિ જ નહી થાય' કારણ કે જ્ઞાનના અધિકરણનો અભાવ થઇ ચુકયા છે. બીજો પક્ષ પણ માનીશકાય એમ નથી, કારણ કે ચક્ષુ ઇન્દ્રિયનો કોઇ કારણે નાશ થઈ જાય તા પહેલાં જોયેલા રૂપનું વિસ્મરણ થવાનો પ્રસંગ એવી પરિસ્થિતિમાં ઉત્પન્ન થવા જોઇએ, કારણ કે તમારા મત પ્રમાણે અનુભવ કર્તા (ચક્ષુ) જ જો વિદ્યમાન ન હેાય, તેા તેના દ્વારા અનુભવવામાં આવેલ વિષયનુ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे - अयमर्थः-यस्मिन्नेवाधिकरणे यद्विषयकोऽनुभवः तादात्म्यसंवन्धनोत्पमये तस्मिन्नेवाधिकरणे तादृशानुभवाहितसंस्कारबलात्कालान्तरे तादात्म्यसंबन्ये स्मरणं जायते । नत्वन्यदृष्टस्य स्मरणमन्यस्य भवति नहि जिनदत्तानुभूतष स्मरणं जिनदासस्य कदापि जायमानं दृष्टम् । यदि कदाचिदन्यदृष्टस्यान्यस्य स्मरणं भवेत्तदा सर्वज्ञपरिदृष्टस्य पदार्थसार्थस्य स्मरणमस्मदादीनां भवेदिति सर्वोपि सर्वज्ञः स्यात् । तदुक्तम् “नान्यदृष्टं स्मरत्यन्यो, नैकभूतमपक्रमादिति" वचनात् , अत इन्द्रियाणि न चेतनावन्ति । तावता भूतसमुदाये चैतन्याभावः साधितो भवति । क्योंकि अनुभव कर्ता (चक्षु) अब विद्यमान नहीं है। ऐसा नियम है कि जिसे अनुभव होता है उसी को स्मरण हो सकता है। ___अभिप्राय यह है जिस अधिकरण में जिस विषय का अनुभव उत्पन्न होता है उसी अधिकरण में पूर्वोत्पन्न अनुभव से प्राप्त संस्कार के बलसे कालान्तर में स्मरण की उत्पत्ति होती है। ऐसा नहीं होता कि एक अनुभव करे और दूसरे को उसका स्मरण हो जाय । जिनदत्तने जिसका अनुभव किया है उसका स्मरण जिनदास को होजाय, ऐसा नहीं देखा जाता । यदि दुसरेके देखे का स्मरण दूसरे को होने लगे तो सर्वज्ञ के द्वारा देखे हुए पदार्थों के समूहका हमलोगों को भी स्मरण होने लगे। ऐसी स्थिति में सभी सर्वज्ञ हो जाएँगे ! कहा भी है "नान्यदृष्टं स्मरत्यन्यो नैकभूतमपक्रमात" अन्य के देखे को अन्य स्मरण नहीं करता अतएव इन्द्रियां चेतनावान् नहीं है। इससे भूतसमुदाय में चैतन्य का अभाव सिद्ध किया गया है। સ્મરણ જ કેવી રીતે થાય એ નિયમ છે કે જેને અનુભવ થાય છે, તેને જ અનુભવેલ પદાર્થનું મરણ થઈ શકે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જે અધિકરણમાં જે વિષયને અનુભવ ઉત્પન્ન થાય છે, એજ અધિકરણમાં પૂર્વેપન્ન અનુભવ દ્વારા પ્રાપ્ત સંસ્કારના પ્રભાવથી કાળાન્તરે મરણની ઉત્પત્તિ થાય છે. એક અનુભવ કરે અને બીજો તે અનુભવનું સ્મરણ કરે, એવી વાત કદી સંભવી શકતી નથી. દાખલા તરીકે જિનદત્ત જેને અનુભવ કર્યો હોય તેનું સ્મરણ જિનદાસને થઈ જાય, એવું કદી બની શકતું નથી. જે એકે દેખેલા પદાર્થનું સ્મરણ બીજે માણસ કરી શક્તિ હોય, તે સર્વ દ્વારા જેવા વેલા પદાર્થોના સમૂહનું સમરણ આપણે પણ કરી શકવાને સમર્થ થઈ શકીએ. જે એવું मनी शतु डाय तो सौ सर्वश मना नत? ज्यु पशु छ - नान्य दृष्ट स्मरत्यन्यते नैकभूतमपक्रमात्,' मे नयेसा पार्थ भरण अन्य व्यक्ति ४१ ति नथी. For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समर्थ बोधिनी टीका प्र. शु. अ. १ चार्वाकमत स्वरूपनिरूपणम् पुनर्हेत्वन्तरमाह - इन्द्रियाणि खलु प्रन्येकभूतात्मकानि तान्येव चक्षुरादीन्द्रियाणि द्रष्टृणि चार्वाकमते तदतिरिक्तद्रष्टुरभावात् । तेषां चेन्द्रियाणां प्रत्येकं स्वस्वविषयग्राहकत्वस्य व्यवस्थितत्वात् अन्यत्रविषये प्रवृत्तेरभावेनेन्द्रियान्तरेण ज्ञानस्येन्द्रियान्तरेणग्रहणा भावात्, य एवाहं पूर्वदर्शकः स एवाहं सम्प्रति स्पर्शकइति प्रत्यभिज्ञानं न स्यात् भवति च अनुसंधानं सर्वेषामत इन्द्रियेभ्योऽतिरिक्तः कचिज्ज्ञाता सिद्धयति । तथा चानुमानम् - न भूतसमुदाये चैतन्यम् भूतजनितेन्द्रियाणां प्रत्येक विषय नियतत्वे संकलनाप्रत्ययाभावात् । यदि पुनरन्यगृहीतमन्यो गृह्णीयात्तदा जिनदत्त ५३ फिर दूसरा हेतु कहते हैं - इन्द्रियां प्रत्येक भूतात्मक हैं । चार्वाक मत में वह चक्षु आदि इन्द्रियां ही द्रष्टा हैं, क्योंकि उनके सिवाय अन्य किसी द्रष्टा आत्मा का अस्तित्व नहीं है । इन्द्रियां अपने २ विषय में ही नियमित हैं | अपने विषय के अतिरिक्त अन्य विषय में इन्द्रिय की प्रवृत्ति नहीं होती । tara एक इन्द्रियने जो जाना है, उसे दूसरी इन्द्रिय ग्रहण नहीं कर सकती अतएव "मैं जो पहले दर्शक था, वही मैं अब स्पर्शकर्त्ता हूं" इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान नहीं होना चाहिये । किन्तु इस प्रकार का जोड़ रूप ज्ञान तो सभी को होता है। इससे सिद्ध है कि इन्द्रियों से अतिरिक्त कोई ज्ञाता अवश्य है। अनुमान का प्रयोग इस प्रकार है भूतोंके समुदाय से चैतन्य की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि भूतजनित इन्द्रियों का अपना विषय नियत होने से संकलता प्रत्यय ( जोड़ रूपज्ञान ) તેથી જ ઇન્દ્રિયા ચેતનાવાત્ નથી, એ વાત સિદ્ધ થઇ જાય છે. આ કથન દ્વારા ભૂતસમુદાયમાં પણ ચૈતન્યના અભાવ સિદ્ધ થઇ જાય છે. હવે બીજા કારણાનું કથન કરવામાં આવે છે--ઇન્દ્રિયા પ્રત્યેક ભૂતાત્મક છે. ચાર્તાકમત પ્રમાણે તે ચક્ષુ આદિ ઇન્દ્રિયોજ દ્રષ્ટા છે, કારણ કે ઇન્દ્રિયાથી ભિન્ન એવા અન્ય કોઇ દ્રષ્ટા (આત્મા)નું અસ્તિત્વ જ તેઓ માનતા નથી. ઇન્દ્રિય પાત પેાતાના વિષયમાં જ નિયમિત છે. પોતાના વિષય સિવાયના અન્ય વિષયમાં ઇન્દ્રિયની પ્રવૃત્તિ હાતી નથી. તેથી જ એક ઇન્દ્રિયે જે જાણ્યુ છે. તેને બીજી ઈન્દ્રિય ગ્રહણ કરી શક્તી નથી. તેથી “ હું જે પહેલાં દર્શક હતા, એજ હું હવે સ્પર્શ કર્યાં છું “ આ પ્રકારનુ` પ્રત્યભિજ્ઞાન–(યથા જ્ઞાન) થવું જોઇએ નહી. પર ંતુ આ પ્રકારનુ સંકલિત (જેડ રૂપ)જ્ઞાન સૌને થાય છે. તેથી એ વાત સિદ્ધ થાય છે કે ઇન્દ્રિયાથી ભિન્ન એવા કોઇ જ્ઞાતા અવશ્ય છે. For Private And Personal Use Only અનુમાનાને પ્રયોગ આ પ્રમાણે છે-ભૂતાના સમુદાયથી ચૈતન્યની ઉત્પત્તિ થતી નથી, કારણ કે ભૂતજનિત ઇન્દ્રિયોના પાત પાતાના વિષય નિયત હાવાથી સંકલનતા પ્રત્યય (જોડ રૂપ જ્ઞાન) થઇ શકતું નથી, જો કોઇ એકના દ્વારા ગ્રહણ કરાયેલ વિષય બીજા Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे गृहीतस्य जिनदासस्यापि ग्रहणं स्यात् , नत्वेवं कुत्रापि दृष्टं श्रुतं संभवति वा । न च प्रत्येकभूतानामिन्द्रियाणां चैतन्यपक्षे पूर्वोक्तदोषः कदाचित्संभवेत् किन्तु समुदितभूतेषु चैतन्यमुपजायते यथा प्रत्येकगुड़पिष्टादिषु मादकता शक्तेरभावेपि मिलितेषु गुड़पिष्टादिषु मद्यं समुत्पद्यते, अस्मिन् पक्षे नास्ति पूर्वोक्तदोपलेश इति वाच्यम्, अयमाशयः-समुदितभूतेभ्यश्चैतन्यमुपजायते इति यदुक्तं तन्न सम्यग् विकल्पासहत्वात् , तथाहि योऽयं पंचमहाभूतानां संयोगो यद्भलाद् चैतन्यमुपजायते इति मन्यते स संयोगः भूतेभ्यो भिन्नोऽभिन्नो वा ? नाद्यः, पंचभूतातिरिक्तपदार्थस्वीकारेणापसिद्धान्तापातात् । नहीं हो सकता। अगर अन्य के ग्रहण किये को अन्य ग्रहण करले तो जिनदत्त के द्वारा गृहीत विषयको जिनदास भी ग्रहण करले ! मगर न ऐसा कहीं देखा गया है, न सुना गया है और न संभव ही है। शंका-एक २ भूतसे चैतन्य का उत्पाद मानने से कदाचित् उक्तदोष आता हो, किन्तु भूतोंके समुदाय में चैतन्यकी उत्पत्ति होती है; जैसे अलग २ गुड या आटे में मादकता शक्ति का अभाव होने पर भी उन सबके मिलने पर मद्यकी उत्पत्ति हो जाती है। इस पक्षों पूर्वोक्त दोपका लेश भी नहीं है। ___समाधान-ऐसा नहीं कहना चाहिये। मतलब यह है कि समुदित भूतोंसे चैतन्य उत्पन्न होता है, ऐसा कहना उचित नहीं क्योंकि यह कथन विकल्पों को सम्यक् प्रकार से सहन नहीं करता। पांच महाभूतों का जो संयोग है, जिसके बल से चैतन्यकी उत्पत्ति होना मानते हो, वह संयोग કઈ દ્વારા પણ ગ્રહણ થઈ જતે હેત, તે જિનદતે ગ્રહણ કરેલા વિષયનું જિનદાસ દ્વારા પણ ગ્રહણ થઈ જાત પરંતુ એવી વાત કદી જોવામાં કે સાંભળવામાં આવતી નથી. એ વાત જ અસંભવિત છે. શંક–એક એક ભૂત વડે ચૈતન્યની ઉત્પત્તિ માનવામાં આવે તે કદાચ ઉપર્યુક્ત દોષ સંભવી શકતા હશે, પરંતુ ભૂતના સમુદાય વડે ચેતન્યની ઉત્પત્તિ માનવામાં શો વધે છે? જેમ ગેળ, લેટ, મહુડા આદિ અલગ અલગ પદાર્થમાં માદક્તાને અભાવ હોવા છતાં પણ તે સઘળા પદાર્થોના સંયોગથી બનતી મદિરામાં માદક્તાને સદ્ભાવ હોય છે, એ જ પ્રમાણે પાંચે ભૂતોના સમુદાયમાં ચૈતન્ય સભાવ માનવામાં પૂર્વોક્ત દોષની બિલકુલ સંભાવના રહેતી નથી. આ પ્રકારની ચાર્વાકની શંકા છે) સમાધાન–આ પ્રકારની માન્યતા એગ્ય નથી–ભૂતના સમુદાય વડે ચૈતન્ય ઉત્પન્ન થાય છે, એ માન્યતા ઉચિત નથી, કારણ કે આ કથન નીચેના વિકલ્પને સભ્ય પ્રકારે સમજ્યા વિના કરવામાં આવ્યું છે-પાંચ ભૂતના જે સંયોગને આધારે આપ ચૈતન્યની ઉત્પત્તિ થવાનું માને છે, તે સંગ ભૂતથી ભિન્ન છે, કે અભિન્ન છે? પહેલે For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनो टीका प्र. शु. अ. १ चार्वाक मतस्वरूपनिरूपणम् ५५ किंच पंचमहाभूतातिरिक्ततादृश संयोगग्राहकं प्रत्यक्षं तदन्यद्वा प्रमाणम् ? नाद्यः पक्षः प्रत्यक्षेणातीन्द्रियतदृशसंयोगस्य ग्रहणासंभवात् नातीन्द्रियं वस्तु चक्षुवा कदाचिदपि गृह्यते, तथा सति अतीन्द्रियताया एव व्यावातात् । इन्द्रियमतिक्रान्तमित्यतीन्द्रियम् इति इन्द्रियविषयत्वे तन्न घटेत, तस्मान्न प्रथमः पक्षः । न च प्रमाणान्तरात्तादृशसंयोगस्य ग्रहणमितिवाच्यं तत्प्रमाणान्तरमनुमानमागमोवा । नाद्यः पक्षः तादृशसंयोगग्राहकानुमानप्रमाणेन श्रुतातिरिक्तात्मसिद्धि - रपि संभवतीति स्वाभिप्रेतभूतात्मवादस्य विलोपप्रसंगात् । नाप्यागमः, तवमते आप्तस्य कस्यचिदभावेन तत्प्रणीतागमस्याप्यप्रसिद्धेः । अथ स संयोगो भूतेभ्योभूतों से भिन्न है या अभिन्न ? पहला पक्ष ठीक नहीं क्योंकि पांच भुतों से अतिरिक्त संयोग पदार्थ को स्वीकार करना आपके सिद्धान्त से विरुद्ध है । इसके अतिरिक्त पांच महाभूतों से अतिरिक्त उस संयोग को प्रत्यक्ष ग्रहण करता है या अन्य प्रमाण ? प्रत्यक्ष से अतीन्द्रिय संयोग का ग्रहण होना संभव नहीं है । अतीन्द्रिय वस्तु चक्षुके द्वारा कभी भी गृहीत नहीं होती। अगर गृहीत हो तो वह अतीन्द्रिय का विषय स्वीकार कर लिया जाय तो उसमे अतीन्द्रियता घटित नहीं होगी । अतएव पहला पक्ष संगत नहीं है । किसी अन्य प्रमाण से उस संयोग का ग्रहण होता है, यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि वह अन्य प्रमाण अनुमान है अथवा आगम ? प्रथम पक्ष युक्त नहीं, उस संयोग को ग्रहण करने वाले अनुमान प्रमाण से भूतों से अतिरिक्त आत्माकी सिद्धि भी हो सकती है । अतएव आपके माने हुए પક્ષ (વિકલ્પ) સ્વીકાર્ય નથી, કારણ કે પાંચ ભૂતા સિવાયના કોઈ પણ પદાર્થના સંયાગના સ્વીકાર કરવા તે આપના સિદ્ધાન્તની વિરૂદ્ધ છે. વળી પાંચ મહાભૂતા સિવાયના તે સંચાગને પ્રત્યક્ષ ગ્રહણ કરે છે, કે અન્ય પ્રમાણ ગ્રહણ કરે છે? પ્રત્યક્ષ દ્વારા અતીન્દ્રિય સયોગોનું ગ્રહણ થવું સ ભવે નહીં. અતીન્દ્રિય વસ્તુને ચક્ષુ દ્વારા કદી પણ ગ્રહણ કરી શકાતી નથી. જે ગૃહીત થાય, તા તે વસ્તુને અતીન્દ્રિય જ ગણી શકાય નહીં. ઈંદ્રિયાથી જે પર હોય અથવા ઇંદ્રિયા દ્વારા જે અગ્રાહ્ય હાય તેને અતીન્દ્રિય કહે છે. તેને ઇન્દ્રિયના વિષય રૂપે સ્વીકારવામાં આવે, તે તેમાં અતીન્દ્રિયતા જ ઘટિત થાય નહીં. આ કથન દ્વારા સિદ્ધ થાય છે કે પહેલા પક્ષ સંગત નથી. કોઈ અન્ય પ્રમાણ દ્વારા તે સંયોગનું ગ્રહણ થાય છે, એવું કથન પણ ઉચિત નથી, કારણ કે તે અન્ય પ્રમાણુ વિષે અમારેશ એવા પ્રશ્ન છે કે તે અન્ય પ્રમાણ અનુમાન છે કે આગમ છે? પહેલા પક્ષ યુક્ત નથી, કારણ કે તે સ યાગને ગ્રહણ કરનારા અનુમાન પ્રમાણ વડે ભૂતે ઉપરાંત આત્માની સિદ્ધિ પણ થઈ શકે છે. તેથી આપના For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६ सूत्रकृतागसूत्रे see इति द्वितीयपक्षे किं प्रत्येकं भुतं चेतनावत् अचेतनावद्वा, नाद्यः पक्षः, तथा सत्येकमेवेन्द्रियं सिद्धयेत् एवंच पृथिव्यादि समुदायात्मकशरीरनिष्टचैतन्यं पंचप्रकारकं स्यात्, अतः शरीरस्य समुदायरूपत्वेन पृथिव्यंशविषयकं ज्ञानं घ्राणजन्यत्वादतिरिक्तम् ; चक्षुरादि जन्यत्वात्ततोप्यतिरिक्तम् इति महदाश्चर्य मापतेत् । अथाचेतनानीतिद्वितीयपक्षे पूर्वोक्त एव दोषः प्रत्येकस्मिन्नविद्यमानचैतन्यस्य समुदायादपि समुत्पादासंभवात् । सिकतासमुदायात् यदप्युक्तं किण्वेभ्यो (गुड़ पिष्टमधुकादिकमद्य जनकवस्तुभ्यो ) तैलमिव । भुत चैतन्यवाद का खंडन हो जाएगा । आगम प्रमाण से भी संयोग का ग्रहण नहीं कर सकते, क्योंकि तुम्हारे मत मे आप्त (ईश्वर) का ही अभाव है, अतएव उसके द्वारा प्रणीत आगम की सिद्धि नहीं हो सकती । वह संयोग भूतों से अभिन्न है, इस दूसरे पक्षमें यह बतलाइए कि प्रत्येक भूत चेतनावान् है या अचेतन है ? प्रथम पक्ष में एक ही इन्द्रिय सिद्ध होगी । इस प्रकार पृथ्वी आदि के समूहरूप शरीर में रहनेवाला चैतन्य पांच प्रकारका हो जाएगा। क्योंकि शरीर समुदाय रूप है अतः पृथिवी अंश विषयक ज्ञान घ्राणजन्य होने से अतिरिक्त होगा । चक्षु आदि से जन्य होने के कारण उससे भी अतिरिक्त होगा, यह महान् आश्चर्य की बात है ! अगर प्रत्येक भूत अचेतन है तो पूर्वोक्त दोष का ही प्रसंग आता है कि एक २ भूतमें चैतन्य विद्यमान नहीं है तो उनके समुदाय से भी उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, जैसे रेतके समूह से तैलकी उत्पत्ती नहीं होती । ભૂત ચૈતન્યવાદનું ખંડન થઈ જશે. આગમ પ્રમાણ દ્વારા પણ સંયોગનું ગ્રહણ કરી શકાતુ નથી, કારણ કે તમારા મત પ્રમાણે તે આમ (ઈશ્વર) ના જ અભાવ છે. તેથી તેમના દ્વારા પ્રણીત આગમની સિદ્ધિ થઈ શક્તી નથી. “તે સંયોગ ભૂતોથી અભિન્ન છે,” આ બીજા વિકલ્પના આપ સ્વીકાર કરતા હૈ। તો અમારા આ પ્રશ્નના જવાબ આપે!- “પ્રત્યેક ભૃત ચેતનાવાત્ છે કે અચેતન છે?' પ્રથમ પક્ષ (વિકલ્પ)ને સ્વીકારવામાં આવે તે એક જ ઇન્દ્રિય સિદ્ધ થશે. આ પ્રકારે પૃથ્વી આદિ પાંચ મહભૂતાના સમૂહ રૂપ શરીરમાં રહેનાર ચૈતન્ય પાંચ પ્રકારનું થઈ જશે. કારણ કે શરીર સમુદાય રૂપ છે. તેથી પૃથ્વી રૂપ અંશવિષયક જ્ઞાન ઘ્રાણુજન્ય હેાવાથી ભિન્ન હશે, ચક્ષુઆદિ વડે જન્ય હાવાને કારણે તેના કરતાં પણ ભિન્ન હશે, આ બહુ જ આશ્ચર્યની વાત છે. જો પ્રત્યેક ભૂત અચેતન હાય, તેા પૂર્વોક્ત દોષના જ પ્રસ’ગ પ્રાપ્ત થાય છે કે પ્રત્યેક ભૂતમાં જે ચૈતન્ય વિદ્યમાન ન હોય, તો તેમના સમુદાય દ્વારા પણ તેની ઉત્પત્તિ સંભવી શકે નહી. જેમ રેતના સમૂહમાંથી તેલની ઉત્પત્તિ થવી શકય નથી એજ પ્રમાણે ચેતન ભૂતાના સમુદાય વડે પણ ચૈતન્યની ઉત્પત્તિ થઈ શકતી નથી. For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकमत स्वरूपनिरूपणम् ५७ मदशक्तिवदिति तदपि न सम्यकदृष्टान्तदान्तिकयोवैषम्यात् तेथाहिं गुड़पिष्टकादौ प्रत्येकस्मिन् सूक्ष्मरूपेण मादकता शक्तेर्विधमानत्वेन समुदायोवस्थायां स्फुटस्वरूपेणाभिव्यक्तिसंभवात् । प्रकृतेतु प्रत्येकपृथिव्यादौ चैतमाया: सर्वथैवाभावात् कथं समुदितेभ्यश्चैतन्यं स्यात् । किंच भूतात्मवादे मरणव्यवस्थापि नोपपद्यते, यतो मृतशरीरेपि पृथिव्यादीनां सद्भावात् । नच मृतशरीरे वायुस्तेजो वा नास्ति तस्मान्मरणमितिवाच्य आपने यह जो कहा है कि किण्व अर्थात् गुड आटा महुवा आदि मद्यजनक वस्तुओंसे जैसे मदशक्ति उत्पन्न हो जाती है, इसी प्रकार भूतोंके समुदाय से चेतना उत्पन्न हो जाती है, यह भी ठीक नहीं, क्योंकि दृष्टान्त और दार्टान्तिक में समानता नहीं है। गुड़ पिष्ट आदि प्रत्येक मद्यांग में सूक्ष्म रूपसे मादक शक्ति विद्यमान रहती है। वही समुदाय अवस्था में स्फुट रूप से प्रकट हो जाती है। किन्तु प्रकृत प्रत्येक भूत-पृथ्वी आदि में चेतना का सर्वथा ही अभाव है। ऐसी स्थिति में भूतों के समूह से भी चैतन्य कैसे उत्पन्न हो सकता है ? ___इसके अतिरिक्त भूतों से चैतन्य की उत्पत्ति मानने पर मरण की व्यवस्था भी नहीं बन सकती, क्योंकि मृतक शरीर में भी पृथिवी आदि मौजूद रहते हैं। कदाचित् कहो कि मृत शरीर में वायु या तेज का अभाव हो जाता है, इस कारण मरण हो जाता है पर ऐसा कहना ठीक આપે એવી દલીલ કરી છે કે ગોળ, લેટ મહુડા આદિ પ્રત્યેકમાં માદકતાને અભાવે હોવા છતાં તેમના સંગથી ઉત્પન્ન થતી મદિરામાં જેમ માદકતાને સદ્ભાવ હૈોય છે, એજ પ્રમાણે અચેતન ભૂતોના સમુદાય વડે ચૈતન્યની ઉત્પત્તિ થઈ શકે છે. આ દલીલ પણ વ્યાજબી નથી. ગોળ, લોટ, મહુડા આદિ પ્રત્યેક પદાર્થમાં સૂમ રૂપે માદક શક્તિ વિદ્યમાન હોય છે. એજ માદક શક્તિ સમુદાયિક અવસ્થામાં ફુટ રૂપે પ્રકટ થઈ જાય છે પરન્તુ અહીં જેની વાત ચાલી રહી છે તે પૃથ્વી આદિ પ્રત્યેક ભૂતમાં ચેતનને સર્વથા અભાવે જ છે આ પ્રકારની પરિસ્થિતિને કારણે ભૂતના સમૂહ વડે પણ ચૈતન્યની ઉત્પત્તિ वी शते थ६ श; ? વળી ભૂતે વડે ચૈતન્યની ઉત્પત્તિ માનવામાં આવે, તે મરણ પણ સંભવી શકે નહીં; કારણ કે મૃત શરીરમાં પણ પૃથ્વી આદિ પાંચ મહાભૂતને સદ્ભાવ રહે છે. કદાચ એવી દલીલ કરવામાં આવે કે શરીરમાંથી વાયુ અથવા તેજને અભાવ થવાથી મરણ થાય છે, પણ આ વાત પણ સ્વીકારી શકાય તેમ નથી, મૃત શરીરમાં સૂજન (સેજसु. ८ For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८ सूत्रकृताड़ सूत्रे मृतकाये शोथासप्रभृतीनां विद्यमानत्वेन वाय्वाद्यभावस्य कल्पयितुमशक्यत्वात् । तथाहि - शोथोवायुकार्यम्, मृतशरीरे विद्यमानशोथोवायुमवगमयेत् । एवमसृक् तेजः कार्यम् तच मृतशरीरे विद्यमानम्, तेजसः सत्तामवगमयेदेवेति मृतशरीरे वायुतेजसोरभावो नैव विद्यते ततो वाय्वादीनामभावान्मरणमित्यर्थ शून्यं वचः । न च सूक्ष्मो वायुः सूक्ष्मं तेजो वा तादृशमृतशरीरादपसरति तेन मरणसंज्ञाभवतीति वाच्यम् एवमभ्युपगमे संज्ञामात्रे एव विवादः, नामान्तरेण जीवस्य भवद्भि रपि स्वीकृतत्वात् । पंचमहाभूतानां समुदायमात्रेण न चैतन्योत्पादः पृथिव्यादिष्वेकत्र संस्थापितेष्वपि चैतन्यस्यादर्शनात् यतो लेप्यमयपुत्तलिकादौ समस्त भूत सद्भावेपि नहीं है मृत शरीर में सूजन और असृक् आदि मौजूद रहते हैं इस कारण उसमें वायु आदि के अभावकी कल्पना नहीं की जा सकती। सूजन वायु का कार्य है, उसके विद्यमान होने से मृत शरीर में वायु का अनुमान किया जा सकता है। इसी प्रकार तेज (अग्नि) का कार्य है, वह भी उसमें रहता ही है अतएव तेजके सद्भाव का अनुमान होता है । इस प्रकार मृत शरीर में वायु और तेज का अभाव नहीं है । अतएव वायु आदि का अभाव होने से मरण हो जाता है, यह कथन निरर्थक है । सूक्ष्म वायु या सूक्ष्मतेज मृत शरीर में से निकल जाता है ऐसा कहना भी उचित नहीं । ऐसा मानोगे तो नाम मात्र में ही विवाद कहलाएगा, क्यों कि दूसरा नाम (सूक्ष्म वायु और सूक्ष्म तेज ) देकर आपने भी जीव की सत्ता स्वीकार कर ली है । શરીર ફૂલી જવું તે) મેાજૂદ હોય છે; તે કારણે તેમાં વાયુ આદિના, અભાવની કલ્પના કરી શકાય તેમ નથી; શરીર સૂજી જવાની ક્રિયા વાયુના કારૂપ છે. તે સાજાના સદ્ભાવને લીધે મૃતશરીરમાં વાયુના સદ્ભાવ પણ સિદ્ધ થાય છે. એજ પ્રમણે અગ્નિના કાર્ય રૂપ તેજના પણ તેમાં સદ્ભાવ હાય છે. તે કારણે મૃતશરીરમાં તેજના સદ્દભાવ હાવાનું અનુમાન પણ કરી શકાય છે. આ પ્રકારે મૃતશરીરમાં વાયુ અને તેજનો અભાવ નથી, એ વાત સિદ્ધ થાય છે. તેથી વાયુ આદિના અભાવને લીધે મરણ થાય છે, આ પ્રકારની માન્યતા ખરી નથી. સૂક્ષ્મવાયુ અથવા સૂક્ષ્મતેજ મૃતશરીરમાંથી નીકળી જાય છે, આ પ્રકારની દલીલ પણ ઉચિત નથી. એવું માનવામાં આવે તો નામ માત્રના જ વિવાદ કર્યા કહેવાશે, કારણ કે ખીજું નામ (સૂક્ષ્મવાયુ અને સૂક્ષ્મ તેજ રૂપ નામ) દઇને આપે પણ જીવની સત્તાના (વિદ્યમાનતાના) સ્વીકાર કરી લીધા છે, પાંચ મહાભૂતાના સમુદાય માત્ર વડેજ For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् ५५ जड़त्वमेवोपलभ्यते न तु चैतन्यम् । तदेव मन्वयव्यतिरेकाभ्यां विचार्यमाणो नायं चैतन्यगुणो भूतानां भवितुमर्हति । उपलभ्यते चायं चैतन्यगुणो देहेष्वेवतस्मात्परिशेषाजीवस्यैव शरीरादिव्यक्तिरिक्तस्य चैतन्यं गुणः। यदप्युक्तं पृथिव्यायतिरिक्त आत्मा नास्ति तद्राहकप्रमाणाभावात् , प्रमाणश्च केवलं प्रत्यक्षमेवेति तन्न युक्तम् , अनुमानप्रमाणास्वीकारे प्रत्यक्षस्यापि प्रमाणयितुमशक्यत्वात् , तथाहि-प्रत्यक्षस्यैव प्रमाण्यं व्यवस्थाप्यते-यां कांचित्प्रत्यक्षव्यक्तिं पक्षीकृत्य प्रत्यक्षं प्रमाणम् अर्थाविसंवादकत्वात्, अनुभूतप्रत्यक्षवत् । - पांच महाभूतों के समुदाय मात्र से चैतन्य का उत्पाद नहीं हो सकता, क्योंकि पृथ्वी आदि को एक स्थान पर मिला कर रखदेने पर चैतन्य दिखाई नहीं देता। मिट्टी की पुतली में समी भूत मौजूद हैं, फिर भी वह जड ही रहती है चेतना उस में उत्पन्न नहीं होती। इस प्रकार अन्वय और व्यतिरेक से विचार करने पर चैतन्य नामक गुण भूतों का सिद्ध नहीं होता। मगर चैतन्य गुण शरीरों में पाया तो जाता है अतएव पारि शेष्य न्याय से वह जीव का ही है। आपने कहा कि पृथ्वी आदि से मिन्न आत्मा नहीं है क्योंकि आत्मा के ग्राहक प्रमाण का अभाव है और प्रमाण केवल प्रत्यक्ष ही है यह भी युक्त नहीं । अनुमान प्रमाण को स्वीकार किये बिना प्रत्यक्ष की प्रमाणता सिद्ध नहीं की जा सकती। प्रत्यक्ष की प्रमाणता इस प्रकार सिद्ध की जाति है-किसी भी प्रत्यक्ष विशेष को पक्ष बना कर कहा जाता है कि प्रत्यक्ष प्रमाण है क्योंकि वह अर्थ का अविसंवादी है पूर्वानुभूत प्रत्यक्ष के समान ચૈતન્યની ઉત્પત્તી થઈ શકતી નથી, કારણ કે પૃથ્વી આદિ પાંચમહાભૂતને એક સ્થાન પર એકત્ર કરી દેવાથી તન્યની ઉત્પત્તિ થતી દેખાતી નથી. માટીની પુતળીમાં પાંચ મહાભૂત મજદ હોય છે, છતાં પણ તે જડજ રહે છે ચેતના તેમાં ઉત્પન્ન થઈ જતી નથી. આ રીતે અન્વય અને વ્યતિરેકની અપેક્ષાએ વિચાર કરવામાં આવે, તે ભૂતેમાં ચૈતન્ય નામના ગુણનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ થતું નથી. પરંતુ શરીરમાં ચૈતન્ય ગુણને તે સદ્ભાવ જોવામાં આવે છે, તેથી પારિશેષ્ય ન્યાયની અપેક્ષાએ વિચારવામાં આવે, તે તે જીવ (मामा) नो गुण छ. વળી આપે એવું જે કહ્યું કે પૃથ્વી આદિ ભિન્ન એવા આત્માને સદ્ભાવ જ નથી કારણ કે આત્માનું અસ્તિત્વ દર્શાવતા પ્રમાણને અભાવ છે, અને પ્રમાણ કેવળ પ્રત્યક્ષ જ છે, આવાત પણ ઉચિત નથી. અનુમાન પ્રમાણને સ્વીકાર્યા વિના પ્રત્યક્ષની પ્રમાણુતા આ પ્રકારે સિદ્ધ કહી શકાતી નથી. પ્રત્યક્ષની પ્રમાણુ તા આ પ્રકારે સિદ્ધ કરાય છે-કેઈ પણ પ્રત્યક્ષવિશેષને પક્ષ બનાવીને પ્રત્યક્ષ પ્રમાણને સદ્દભાવ બતાવી શકાય છે, કારણ કે તે પૂર્વાનુભૂત પ્રત્યક્ષના સમાન અર્થને અવિસંવાદી છે. (અવિરેધી) પરન્ત પક્ષ બનાવ– For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे नच पक्षीकृताभिरेवक व्यक्तिभिस्तस्य प्रत्यक्षस्य स्वसंविदिताभिः प्रामाण्यं परंप्रति व्यवहारयितुं शक्यते तादृशप्रत्यक्षव्यक्तीनां स्वसंनिविष्ठत्वान्मकत्वाच्च । तदयमर्थः-स्वप्रत्यक्षं स्वानुभव एव गच्छति न तु पुरुषान्तरीयबुद्धौ नवा किंचित्साधनं विद्यते यतः स्वकीय प्रत्यक्षं परबुद्धौ संक्रामयेत, तस्माद् प्रथमतो ज्ञात्वा शब्दादिना स्वप्रत्यक्षमन्यं बोधयितुं शक्यते ततः परोपि जाचात्ति । किन्तु शब्दादिना जायमानं ज्ञानं न प्रत्यक्षरूपमपितु शाब्दं तत् । प्रत्यक्षं तु तदेव यदिन्द्रियार्थसन्निकर्षेण जातं स्वानुभवमधिरोहेत् न तु परस्मिन् स्थापयितुं शक्यतेऽतः प्रत्यक्षस्य मूकत्वमुच्यते स्वप्रामाण्ये परिच्छेदासामर्थ्यात् प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यंतु अनुमानागमादिना सिद्धयति तथचानुमानादेरकिन्तु पक्ष बनाये हुए ही स्वसंविदित प्रत्यक्ष विशेषों से दूसरों के समक्ष प्रत्यक्ष की प्रमाणता का व्यवहार नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे प्रत्यक्ष विशेष स्वसंवेदी वृत्ति और मूक होते हैं। अभिप्राय यह है-अपना अनुभव अपने प्रत्यक्ष में ही प्रतिभासित होता है , वह दूसरे पुरुष की बुद्धि में प्रतिभासित नहीं होता, ऐसा कोई साधन भी नहीं कि जिससे अपने प्रत्यक्ष को दूसरे की बुद्धि में उड़ेल दिया जाय। पहले स्वयं जाना जाता है, फिर शब्द आदि के द्वारा अपना प्रत्यक्ष दूसरों को समझाया जाता सकता है। तभी दूसरा जानता है। मगर शब्द आदि के द्वारा होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं कहलाता शब्द कहलाता है। प्रत्यक्ष शब्दात्मक न होने से मूक होता है। वह दूसरे में स्थापित नहीं किया जा सकता। इसी कारण प्रत्यक्ष मूक कहलाता है। वह अपनी प्रमा मता को दूसरे के समक्ष सिद्ध नहीं कर सकता । अनुमान या आगम आदि से उसकी प्रमाणता सिद्ध होती है। अतएव अनुमान आदि को अप વામાં આવેલા જ સ્વસંવિદિત પ્રત્યક્ષવિશે વડે અન્યની સમક્ષ પ્રત્યક્ષની પ્રમાણિતાને વ્યવહાર કરી શકતા નથી, કારણકે તે પ્રત્યક્ષવિશેષ સ્વસંવેદી વૃત્તિવાળા અને મૂક હોય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે પિતાને અનુભવ પિતાના પ્રત્યક્ષમાં જ પ્રતિભાસિત થાય છે, તે અન્ય પુરુષની બુદ્ધિમાં પ્રતિભાસિત થતું નથી. એવું કેઈ સાધન પણ નથી કે જેની મદદથી પિતાના દ્વારા જ અનુભવમાં અથવા જાણવામાં આવે છે, ત્યાર બાદ શબ્દાદિ દ્વારા પિતાના પ્રત્યક્ષની અન્યને સમજણ પાડવામાં આવે છે. ત્યારે જ અન્ય વ્યક્તિ તેને જાણે છે. પરંતુ શબ્દાદિ દ્વારા જે જ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થાય છે, તે જ્ઞાનને પ્રત્યક્ષ કહેવાતું નથી– શા કહેવાય છે. પ્રત્યક્ષ શબ્દાત્મક નહીં હોવાથી મૂક (અવાચ) હોય છે. તેને અન્યમાં સ્થાપિત કરી શકાતું નથી એજ કારણે પ્રત્યક્ષને મૂક કહેવામાં આવે છે. તે પોતાની પ્રમાણુતાને અન્ય વ્યક્તિઓ પાસે સિદ્ધ કરી શકતું નથી. અનુમાન અથવા આગમ આદિ વડે તેની પ્રમાણતા સિદ્ધ થાય છે. તેથી અનુમાન આદિને અપ્રમાણ For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सामधार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चाकिमतस्वरुपनिरुपणम् ६१ प्रामाण्ये प्रत्यक्षस्यापि प्रामाण्य न सिध्येदिति वृद्धिमिच्छतो मूलमपि नष्टमिति न्याय विषयतां नातिक्रामति। किंचानुमानस्याप्रामाण्ये सन्दिग्धोविपर्यस्तो वा पुरुषो वर्तते इति कथं चार्वाको जानीयात् अजानन् तं प्रति प्रवर्तमान उन्मत्तवदुपेक्ष्येत अतः चेष्टादिना संशयादिमन्तं पुरुषं विजानीयादिति । "आकारैरिङ्गितर्गत्या, चेष्टया भाषणेन च । नेत्रवक्त्रविकाराभ्यां, लक्ष्यतेऽन्तर्गतं मनः" ॥१॥ अकामेनाप्यनुमानस्य प्रामाण्यमापतति प्रत्यक्षमात्रं प्रमाणमिच्छन् गृहाद्विनिर्गतो माण मानने पर प्रत्यक्ष की प्रमाणता भी सिद्ध नहीं होगी। इससे लाभ की इच्छा करने पर मूल भी नष्ट हो गया, यह न्याय उपस्थित होगा । इसके अतिरिक्त चार्वाक यदि अनुमान को प्रमाण नहीं मानता तो कैसे जानेगा कि यह पुरुष संदिग्ध या विपर्यस्त है ? ऐसा नहीं जानता हुआ उसके साथ व्यवहार करेगा तो उन्मत्त के समान उपेक्षणीय होगा। अतएव चेष्टा आदि के द्वारा संशयादिमान् पुरुष को जानना चाहिए । कहा भी है। ____ "आकारैरिङ्गितर्गत्या" इत्यादि । “आकार, इंगित, गति, चेष्टा, भाषण और नेत्र तथा मुख के विकार से अन्दर के मन का अभिप्राय समझने में आ जाता है। ___इस प्रकार इच्छा के विना भी अनुमान की प्रमाणता मानना अनिवार्य हो जाता है। केवल प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, ऐसा मानने वाला जब घर से बाहर निकलेगा तो उसे अपने घरके लोग दिखाई नहीं देगें और जब दिखाई नहीं માનવાથી પ્રત્યક્ષની પ્રમાણતા પણ સિદ્ધ થશે નહીં. તેથી “લાભની ઈરછા કરવાથી મૂળ પણ નષ્ટ થઈ જવાને ” પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે! વળી ચાકે જે અનુમાનને પ્રમાણ માનતા નથી, તે તેઓ કેવી રીતે જાણી શકે કે આપુરૂષ સંદિગ્ધ અથવા વિપર્યસ્ત છે. જે એવું જાણ્યા વિના તેની સાથે વ્યવહાર કરશે, તે ઉન્મત્તની જેમ ઉપેક્ષણીય બનશે. તેથી જ ચણ આદિ દ્વારા સંશય આદિ વિશિષ્ટ પુરૂષને જાણ જોઈએ. કહ્યું પણ છે કે___"आकारङ्गितर्गत्या" त्याह- २२, गित, गति, येष्टा, भाषण, नेत्र तथा મુખના વિકાર વડે કોઈ પણ વ્યકિતના મનને સમજી શકાય છે. આ પ્રકારે અનુમાનને પ્રમાણતા માનવાની ઈચ્છા ન હોય, તે પણ તેને માનવાનું અનિવાર્ય બની જાય છે. ધારે કે કેવળ પ્રત્યક્ષને જ પ્રમાણ માનનારી કઈ વ્યક્તિ છે. તે વ્યક્તિ જ્યારે પિતાના ઘરમાંથી બહાર નીકળશે ત્યારે તેને પિતાના ઘરના માણસે દેખાશે નહીં. શું For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे गृहजनमपश्यन् तदभावं विनिश्चिनुयात् मृत इति मत्वा आक्रोशं कुर्वन् गृह प्रत्यागतोपि मित्रादिकं न पश्येत् ।। ___ अपि चानुमानं न प्रमाणमर्थविसंवादकत्वात् अनवस्था दुःस्थतर्का निवर्त्यव्याभिचारशंकावरुद्धव्याप्तिकत्वाद्वा । अत्राह एतदप्यनुमानमेव अनुमानास्वीकारे कथमनुमानस्याप्रामाण्यमपि व्यवस्थापयितुं शकयेत । न च परसिद्धानुमानेनपरस्य प्रामाण्यं स्वीक्रियते इति वाच्यम् , परमतसिद्धमनुमानं प्रमाणमप्राणं वा । आद्यपक्षस्वीकारे कथमिवानुमानस्याप्रामाण्यं वक्तुमीशेत कण्ठत एव प्रामाण्याभ्युपगमात् । द्वितीयपक्षाभ्युपगमे कथमप्रमाणेनानुमानेन परं बोधयितुं देंगें तो वह उनके अभाव का निश्चय कर लेगा। उन्हें मरा हुआ समझ कर आक्रोश करेगा और घर लौट कर भी अपने पिता आदि को नहीं देखेगा । और भी अनुमान प्रमाण नहीं है, क्योंकि वह अर्थका विसंवादी है तथा अनवस्था एवं तर्क के द्वारा नहीं हटने वाले व्यभिचार की शंका से युक्त व्याप्तिवाला है। इस कथन का उत्तर यह है कि यह भी तो अनुमान ही है। जब अनुमान को प्रमाण स्वीकार नहीं करते तो अनुमान के द्वारा ही अनुमान की अप्रमाणता कैसे सिद्ध कर सकते हो। अगर कहो कि दूसरों को सिद्ध अनुमान से ही अनुमान की प्रमाणता सिद्ध करते हैं तो यह कहिये कि परमत सिद्ध अनुमान प्रमाण है या अप्रमाण है ? प्रथम पक्ष स्वीकार करोतो अनुमान को अप्रमाण नहीं कह सकते, क्योंकि अपने ही कंठ से आप उसे प्रमाण कह रहे हैं। दूसरा पक्ष अंगीकार करो तो अ તે કારણે તેમના અભાવને નિશ્ચય કરીને તેમને મરી ગયેલા માનીને તે વિલાપ કરવા લાગશે? શું તે ઘેર પાછો ફરીને તેના પિતા આદિ ઘરના માણસેને નહીં ? આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે આ પ્રકારની વ્યક્તિ પણ અનુમાન પ્રમાણને આધાર લેતી જ હોય છે. આટલા ખુલાસા છતાં પણ આપ એવું કહેતા હો કે અનુમાન પ્રમાણ નથી, કારણ કે તે વિસંવાદી અર્થવાળુ તથા અનવસ્થા અને તર્કના દ્વારા દૂર નહી થનારા વ્યભિચારની (અવળે માર્ગે દોરી જનાર) શંકાથી યુક્ત વ્યાપ્તિવાળું છે.” તે આપના આ કથનને ઉત્તર આ પ્રમાણે છે. તે પણ આપનું અનુમાન જ છે. જે આપ અનુમાનને પ્રમાણ માનતા ન હૈ, તે અનુમાન દ્વારા જ અનુમાનની અપ્રમાણતા કેવી રીતે સિદ્ધ કરી શકે છે? જે આપ એવું કહેતા હો કે અન્ય વ્યક્તિઓએ સિદ્ધ કરેલા અનુમાન દ્વારા જ અનુમાનની પ્રમાણતા સિદ્ધ કરે છે, તે અમારા આ પ્રશ્નોને જવાબ આપે કે “પરમતસિદ્ધ અનુમાન પ્રમાણ છે કે અપ્રમાણ છે? જો આપ પહેલા પક્ષ (વિકલ્પ) ને સ્વીકાર કરતા For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. चार्वाकम स्वरुप निरुपणम् शक्नुयात् । परस्तु अनुमानं प्रमाणमेव स्वीकरोतीतिचेत् यदि परः कदाचिन्मतिमान्धात् अप्रमाणमेव प्रमाणतयांगीकरोति तावता सर्वकल्पेन भवतापि तदेव स्वीकर्तव्यम् योज्ञः रज्जुमेव सर्प इति मन्यते तावताकिमभ्रान्तोपि तां रज्जुं सर्पतयाऽवगच्छति । तदेवं प्रत्यक्षानुमानयोर्यथाक्रमं प्रामाण्याप्रामाण्यं व्यवस्थाtearssकामेनाप्यनुमानस्य प्रामाण्यमंगीकरणीयमेव । अपि च स्वर्गा दृष्टादे - तीन्द्रियस्य निषेधः क्रियते त्वया स स्वर्गादि भवतां ज्ञानविषयोऽज्ञानविषयो वा ? आधे पक्षे केन ? प्रत्यक्षेण तदन्येन वा । नाद्यः । न तावत् प्रत्यक्षेणविकल्पासहत्वात् किं प्रवर्तमानं प्रत्यक्षम् तन्निषेधति निवर्तमानं वा नाद्यः प्रमाण रूप अनुमान के द्वारा कैसे दूसरों को समझा सकते हो। दूसरा तो अनुमान को प्रमाण मानता है,, ऐसा कहो तो इसका उत्तर यह है कि दूसरा कदाचित् बुद्धि की मन्दता के कारण अप्रमाण को प्रमाण मानता है, मगर आप तो सर्वज्ञ के समान हैं। आप को तो ऐसा नहीं मानना चाहिए । कोई अज्ञानी रस्सी को सर्प समझ ले तो क्या आप अभ्रान्त होते हुए भी उसे रस्सी ही मानेंगे । इस प्रकार जब आप प्रत्यक्ष को प्रमाण और अनुमान को अप्रमाण सिद्ध करते हैं तो इच्छा न होते हुए भी आपको अनुमान की प्रमाणता स्वीकार करनी चाहिए । इसके अतिरिक्त आप स्वर्ग तथा अदृष्ट आदि अतीन्द्रिय पदार्थों का निषेध करते हैं तो आप उन स्वर्ग आदि को जानते हैं या नहीं जानते ? अगर जानते हैं तो प्रत्यक्ष से जानते हैं अथवा अन्य किसी प्रमाण से ? ६३ હા, તે અનુમાનને આપ અપ્રમાણુ કહીશકે તેમ નથી. કારણકે આપના સ્વમુખે આપ જ તેને પ્રમાણુ કહી રહ્યા છે. જો આપ બીજા પક્ષોના (વિકલ્પ ) સ્વીકાર કરતા હો, તેા અપ્રમાણ રૂપ અનુમાન દ્વારા ખીજાને કેવી રીતે સમજાવી શકે છે? જો આપ એમ કહેતા હો કે બીજી વ્યક્તિ તો અનુમાનને પ્રમાણ માને છે, તો તે કથનની સામે અમારા જવાબ એ છે કે અન્ય વ્યક્તિ તો કદાચ બુદ્ધિ ની મંદતાને કારણે અત્રમાણુને પ્રમાણ માનતી હોય, પરન્તુ આપ તે સર્વજ્ઞસમાન છે, તો આપે એવું માનવુ જોઈ એ નહી. કોઈ અજ્ઞાની વ્યક્તિ દોરડાને સર્પ સમજી લે, તે શુ આપ અભ્રાન્ત હોવા છૂતાં પણ તેને સર્પ સમજશે ખરાં? આપ પ્રત્યક્ષને પ્રમાણ અને અનુમાનને અપ્રમાણ સિદ્ધ કરવા માગે છે, પણ ઉપયુક્ત દલીલાને આધારે તમારે અનુમાનની પ્રમાણુતાને સ્વીકારવી જ પડશે. For Private And Personal Use Only વળી આપ સ્વર્ગ તથા અષ્ટ (ભાગ્ય) આદિ અતીન્દ્રિય પદાર્થાના નિષેધ કરી છે, તે આપ તે સ્વર્ગ આદિને જાણા છે કે નથી જાણતા? જો આપ તેને જાણતા હા તા કેવી રીતે જાણા પ્રત્યક્ષ પ્રમાણ વડે જાણા છે, કે કોઇ અન્ય પ્રમાણને આધારે જાણા છે? પ્રત્યક્ષ પ્રમાણ વડે તેા આપ તેને જાણતા નથી, કારકે તે અતીન્દ્રિય પદાર્થો પ્રત્યક્ષ પ્રમાણ દ્વારા ગૃહીત થતા નથી. અમે આપને એ પૂછવા માગીએ છીએ કે પ્રવત માન Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६४ www.kobatirth.org सूत्रकृताङ्गसूत्रे # स्वर्गादेरतीन्द्रियस्य प्रत्यक्षागृहीतत्वात् तदेव अतीन्द्रियाणामतीन्द्रियत्वम् यत्प्रत्यक्षायोग्यत्वम् प्रत्यक्षयोग्यत्वेऽतीन्द्रियत्वव्याघातात् । नद्वितीयः यत्र प्रत्यक्षं न प्रवर्तते तत्र प्रत्यक्षेण तद्ग्रहणासंभवात् । अयमाशयः न प्रत्यक्षमात्रस्य निवृत्त्यावस्त्वभाव: शक्योवदितुमतिप्रसंगात् । तथात्वे गृहाद्विनिर्गतो गृहजनमपश्यन्तदभावं विनिश्विनुयादिति । ननु यदि प्रत्यक्षनिवृस्यावस्त्वभावो a reet सप्तमस्य गगनकुसुमकूर्मरोमशशविषाणादीनामपि सद्भावः स्यात् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रत्यक्ष से तो जानते नहीं क्योंकि वह विकल्पों को सहन नहीं करता । पहले यह कहिए कि प्रवर्त्तमान प्रत्यक्ष ज्ञानका निषेध करता है या निवर्तमान प्रत्यक्ष ? पहला पक्ष ठीक नहीं, क्योंकि स्वर्ग अदृष्ट आदि अतीन्द्रिय पदार्थ प्रत्यक्ष से गृहीत नहीं होते । अतीन्द्रिय पदार्थ इसी कारण अतीन्द्रिय कहे जाते हैं कि वे हमारे प्रत्यक्ष के विषय नहीं हैं। अगर वे हमारे इन्द्रिय प्रत्यक्ष के विषय हों तो अतीन्द्रिय ही नहीं कहलाएँगे । दूसरा पक्ष भी संगत नहीं है क्योंकि जहाँ प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति नहीं होती वहां प्रत्यक्ष से ग्रहण होना संभव नहीं है । अभिप्राय यह है कि प्रत्यक्ष मात्र को निवृत्ति से किसी वस्तु का अभाव नहीं कहा जा सकता। ऐसा माना जाय तो घर से बाहर निकला हुआ मनुष्य घर के आदमियों को न देखता हुआ उनके अभाव का निश्चय कर लेगा । शंका- यदि प्रत्यक्ष न होने से वस्तु का अभाव न समझा जाय तो सातवें रस का, आकाश कुसुम का एवं कूर्म ( कच्छप) रोम तथा शशविषाण પ્રત્યક્ષ તેમના નિષેધ કરે છે, કે નિવ`માન પ્રત્યક્ષ નિષેધ કરે છે? પહેલા વિકલ્પ સ્વીકા નથી, કારણ કે સ્વર્ગ આદિ અતીન્દ્રિય હાવાને કારણે પ્રત્યક્ષ દ્વારા ગૃહીત થતાં નથી. અતીન્દ્રિય પદાર્થ ને અતીન્દ્રિય કહેવાનુ કારણ એ છે કે તે પદાર્થો આપણી ઇન્દ્રિયા દ્વારા ગ્રાહ્ય નથી. જો ઇન્દ્રિય પ્રત્યક્ષ વડે તેમનું ગ્રહણ કરી શકતુ હોત, તે તે પદાર્થાને અતી-ન્દ્રિય કહી શકાત નહી. વળી પ્રશ્નગત બીજો વિકલ્પ પણ સંગત નથી, કારણ કે જયાં પ્રત્યક્ષની પ્રવૃત્તિ જ થતી ન હોય ત્યાં પ્રત્યક્ષ દ્વારા ગ્રહણ થવાનું પણ સંભવી શકે નહી. આથનનું તાત્પર્ય એ છે કે કેવળ પ્રત્યક્ષની નિવૃત્તિ વડે કોઈ પદાર્થનો અભાવ માની લેવામાં આવે, તે ઘરમાંથી બહાર નીકળેલ વ્યક્તિ, ઘરના માણસોને પ્રત્યક્ષ ન દેખવાને કારણે, શું તેમના અભાવનાનિશ્ચય કરી લેશે? શકા જો પ્રત્યક્ષ (ઇન્દ્રિયા દ્વારા ગ્રાહ્ય) ન હોય એવી વસ્તુને અભાવ માનવા માં ન આવે તે સાતમાં રસના, આકાશ પુષ્પો, કાચબા પર રૂવાટીના અને સસલાને શિંગડાં હોવાના For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् ६५ नहि प्रत्यक्षनिवृत्तेरन्यत्तेषामसत्त्वसाधकमितिचेत्सत्यम् नहि प्रत्यक्षनिवृत्त्या तदभावोपितु योग्यप्रत्यक्षनिवृत्तेरेवायमभावं विनिश्चिनोति एतदुक्तं भवति निवर्तमान प्रत्यक्षं यदि वस्त्वभावमववोधयेत्तदागृहान्तर्वतिनोप्यभावं गृह्णीयात् । किन्तु सामीप्यादिदोषवर्जित प्रत्यक्षमप्रवर्तमानं योग्यप्रतियोगिकमेवाभावं बोधयति । तदुक्तम्-- __ "अतिदुरात्सामीप्यादिन्द्रियघातात्मनोऽनवस्थानात् सौम्याद् व्यवधाना दभिभवात्समानाभिहाराच्चेति ॥ (शशले का श्रृंग) आदि का भी अभाव नहीं जाना जा सकेगा ! प्रत्यक्ष न होने के अतिरिक्त उनकी असत्ता का साधक अन्य कोई उपाय नहीं है । यह कहना ठीक नहीं क्योंकि केवल प्रत्यक्ष न होने से उनका अभाव सिद्ध नहीं हो सकता है । अपितु जो प्रत्यक्ष से जानने योग्य हो, फिर भी न जाना जाता हो तभी प्रत्यक्ष से उसका अभाव सिद्ध होता है । तात्पर्य यह है कि यदि निवर्तमान प्रत्यक्ष वस्तु का अभाव सिद्ध करता है तो घर के अन्दर की वस्तु का भी अभाव सिद्ध कर देगा । सत्य तो यह है कि समीपता आदि बाधकों से रहित प्रत्यक्ष जब किसी वस्तु को नहीं जानता है तभी योग्य वस्तु के अभाव का बोध होता है । कहा भी है-"अतिदुरात्" इत्यादि । (१) अन्यन्त दूरी होने से (२) अति समीपता होने से (३) इन्द्रिय का घात होने से (४) मन के अनवस्थान (अन्य मनस्कता) से પણ અભાવ નહીં માનવાનો પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે. આ બધાં પદાર્થો પ્રત્યક્ષ નથી અને તેમની અવિદ્યમાનતાને સિદ્ધ કરવાને અન્ય કેઈ ઉપાય નથી. સમાધાન-આપની આ દલીલ પણ ઉચિત નથી, કારણ કેવળ પ્રત્યક્ષ ન હોવાથી તેમને અભાવ સિદ્ધ થઈ શક્તા નથી. પરંતુ જે પદાર્થ પ્રત્યક્ષ વડે જાણવા ગ્ય હોય, છતાં પણ પ્રત્યક્ષ વડે જાણી લેવામાં આવતું નથી, ત્યારેજ પ્રત્યક્ષની અપેક્ષાએ તેને અભાવ સિદ્ધ થાય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે જે નિવર્તમાન પ્રત્યક્ષ તેને નિષેધ કરતું હોય તેને અભાવ સિદ્ધ કરતું હોય, તે ઘરની અંદરની વસ્તુને પણ અભાવ સિદ્ધ કરશે. ખરી વાત તે એ છે કે સમીપતા આદિ બાધકો (નડતર રૂપ અથવા અવધક પદાર્થો) થી રહીત પ્રત્યક્ષ ક્યારે કઈ વસ્તુને જાણતું નથી. ત્યારે જ યોગ્ય વસ્તુના અભાવને બોધ થાય छ. ४( ५४ छ । “अतिदुरात्” त्यादि-विधमान पहायने ५ नीयना रोना सदभाव હોય ત્યારે પ્રત્યક્ષ દ્વારા ગ્રહણ કરી શકતું નથી(१) ते पाय धणे १ २ जाय तो, (२) ध १ ०७४भा डाय तो, (3) धन्द्रियन धात पाथी, (४) भन्यमान२४ता अथवा आयतानो पसाब डायतो, (५) पानी For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे सन्नपि पदार्थ एभि हेतुभिर्न गृह्यते यथा विद्यमानोपि गगने पक्षी अतिदूरतया न गृह्यते प्रत्यक्षेण तावता कोपि पक्षिणोऽभावं निश्चिनोति नैवम् तत्कस्य हेतोः अतिदूरत्वात् तथाचातिदूरत्वात्मकप्रतिबन्धकसद्भावभावितप्रत्यक्षं स्वनिवृत्त्या नैव वस्त्वभावं विनिश्चाययति । तथाऽतिसामीप्यादपि सम्भपि पदार्थों न गृह्यते यथा लोचनस्थमञ्जनं न पश्यति तावता न तदभावो भवति । तथेन्द्रियघातोऽन्धत्ववधिरत्वादिः तथाचान्धोरूपं न पश्यति बधिरो न शब्दं श्रृणोति तावता न रूपशब्दयोरभावो भवति । तथा मनसोऽनवस्थानात् (५) पदार्थ की सूक्ष्मता से (६) व्यवधान होने से (७) अभिभव हो जाने से और (८) सजातीय पदार्थों के सम्मिश्रण होने से प्रत्यक्ष जान नहीं पाता । .. विद्यमान पदार्थ भी इन कारणों से प्रत्यक्ष द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता-(१) जैसे-आकाश में विद्यमान भी पक्षी अत्यन्त दूरी के कारण नहीं देखा जा सकता, मगर इतने मात्र से पक्षी का अभाव नहीं हो जाता । अतिदुरी रूप प्रतिबन्धक (रुकावट डालने वाले वाधक कारण) के सद्भाव के कारण से प्रत्यक्ष प्रवृत्त न होने पर भी वस्तु के अभाव का निश्चायक नहीं हो सकता। इसी प्रकार अत्यन्त समीपता के कारण विद्यमान पदार्थ भी गृहीत नहीं होता, जैसे अपने नेत्रों में लगा अंजन दिखाई नहीं देता, किन्तु न दिखने मात्र से ही उसका अभाव नहीं होता। तथा इन्द्रिय का घात होना अर्थात् अन्धता या बधिरता आदि हो जाना । अन्धा रूप को नहीं देख सकता और बहिरा शब्द नहीं सुन सकता । किन्तु इससे रूप या शब्द का अभाव नहीं होता । तथा मन की अस्थिरता अति सूक्ष्मताने धरणे, (६) व्यवधान (पथ्ये पावती ही4ne 13), (७) मलिભવ થઈ જવાથી અને (૮) સજાતીય પદાર્થો સાથે સેળભેળ થઈ જવાથી. હવે આ કારણેનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે. (૧) કેટલીક વાર એવું બને છે કે આકાશમાં પક્ષી વિદ્યમાન હોય છે, પરંતુ તે ઘણુજ દૂર હોવાને લીધે દષ્ટિગોચર થતું નથી. તે કારણે તેને અભાવ માની લેવાતો નથી. ઘણું જ દૂર હવા રૂપ પ્રતિબન્ધક (અવરોધક કારણુ) ના સદ્ભાવને કારણે તે પદાર્થ નેન્દ્રિય દ્વારા ગ્રહણ કરી શકાતું નથી. એટલા કારણે તેને વસ્તુના અભાવનું નિશ્ચય કરાવનાર ગણી શકાય નહીં. (૨) કેટલીક વાર અતિ સમીપતાને કારણે પણ વિઘામાન પદાર્થ ગૃહીત થતા નથી. જેમ કે આંખમાં આંજવામાં આવેલું કાજળ દેખાતું નથી. તે દેખાતું હોવાથી તેને અભાવ માની શકાય નહી. (૩) ઇન્દ્રિયને ઘાત થવાથી એટલે કે અંધાપ, બહેરાપણું આદિ આવી જવાથી. જેમ કે અંધાળો રેપને દેખી શકતું નથી અને બહેરે શબ્દને સાંભળી શકતું નથી. તે કારણે રૂપ અથવા શબ્દને અભાવ માની શકતો નથી, For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से भी पदार्थ का ग्रहण होता है तो प्रचण्ड प्रत्यक्ष नहीं होत समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् ६७ यथाऽन्यत्रमनाः स्फीतालोकमध्यवत्तिनमपि घटं न पश्यति । तथा सौक्षम्यादपि न पश्यति यथा प्रणिहितमना अपि न पश्यति कदाचिदपि परमाणुम् तत्कि परमाणु नास्तीति वदितुं शक्नुयात्कोपि कदाचिदपि । तथा व्यवधानादपि न पश्यति । यथा कुडयादि व्यवहितं राजदारादिकं न पश्यति तावता राजदारादीनां नाभावोऽपितु भाव एव भवति प्रत्यक्षं तु निवर्तते इति न प्रत्यक्षनिवृत्तिमात्राद्वस्त्वभावो भवति । तथा अभिभवादपि प्रत्यक्षं न भवति यथाऽहनि सूर्यप्रभाभिरभिभूतं ग्रहनक्षत्रमण्डलं न पश्यति एतावता ग्रहनक्षत्राणां तदानीं नैवाभावोऽपितु भाव एव अथच प्रत्यक्षं तु निवर्तते एवं समानाभिसे भी पदार्य का ग्रहण नहीं होता । जब चित्त ग्राहय विषय की ओर नहीं होता, कहीं अन्यत्र होता है तो प्रचण्ड प्रकाश के होने पर मी घड़े का प्रत्यक्ष नहीं होता । सूक्ष्म के कारण भी प्रत्यक्ष नहीं होता है-सूक्ष्म पदार्थ चित्त की एकाग्रता होने पर भी दिखाई नहीं देता जैसा परमाणु तो क्या परमाणु नहीं है, ऐसा कभी कोई कह सकता है ? व्यवधान के कारण भी नहीं देखता है, जैसे रीवर पडदे का व्यवधान (आड़) होने से राजपत्नी नहीं देखी जाती । किन्तु न देखने मात्र से राजपत्नी का अभाव है ऐसा नहीं कहा जा सकता । अभिभव के कारण भी प्रत्यक्ष नहीं हो पाता, जैसे दिन में सूर्य की प्रभा से दब जाने के कारण ग्रह और नक्षत्रमंडल दृष्टिगोचर नहीं होता । किन्तु इतने मात्र से ही उनका अभाव नहीं कहा जा सकता । सत्ता तो उनकी रहती ही है। इसी प्रकार समान जातीय पदार्थों की सेलभेल हो जाने से भी पदार्थ प्रत्यक्ष नहीं होता । (૪) જયારે ચિત્તની અસ્થિરતા અથવા અનેકાગ્રતા હોય છે. ત્યારે ચિત્ત ગ્રાહ્ય વિષયમાં એકાગ્ર થતું નથી પણ અન્ય વસ્તુમાં ભમતું હોય છે. તેથી, સૂર્યને પ્રચંડ પ્રકાશ હોવા છતાં પણ ઘડો આદિ પદાર્થો દ્રષ્ટિગોચર થતાં નથી. (૫) સૂમ પદાર્થોને પણ દેખી શક્તા નથી. ચિત્તની ગમે તેટલી એકાગ્રતા હોય છતાં પણ પરમાણુને દેખી શકતા નથી. તે કારણે પરમાણુને અભાવે હેવાનું માની શકાતું નથી. (૬) પડદે આદિ વ્યવધાન (આડી આવી જવાને કારણે પણ વરતુ દેખાતી નથી. જેમ કે પડદાના વ્યવધાનને કારણે પડદાની પિલી તરફ રહેલી રાજપી (રાણી) દેખાતી નથી. પણ તે કારણે રાજપત્નીને અભાવ સિદ્ધ થતું નથી. (૮) અભિભવ રૂપ કારણ નીચે પ્રમાણે છે. દિવસે સૂર્યના પ્રકાશને લીધે ગ્રહો અને નક્ષત્રો દષ્ટિગોચર થતા નથી તે કારણે તેમને અભાવ સિદ્ધ થતું નથી. તે પદાર્થો વિદ્યમાન તે અવશ્ય હોય છે. (૮) એકજ જાતના પદાર્થોની સેળભેળ થઈ જવાથી પણ પદાર્થો દષ્ટિગોચર થતાં નથી. જેમકે કઈ For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र हारादपि प्रत्यक्षं न भवति समानाभिहारो नाम सजातीयसंबलनम् यथा जलराशौ प्रक्षिप्तं कमण्डलुजलं पार्थक्येन ग्रहीतुं न शक्नोति तावता कमण्डलु जलस्याभावो न भवति किन्तु सजातीयजलराशौ निमग्नतया पार्थक्येन न दृश्यते यथा वा कपोतराशौ मिलितो गृहकपोतो विविच्य द्रष्टुं न शक्यते तावता कपोतस्य गृहरक्षितस्य नाभावो भवति । च शब्देनान्योपि हेतुर्गृह्यतेऽतः अनुभवोपि गृह्यते तेन दुग्धावस्थायां दधि न पश्यति, यथा वा बीजावस्थायामङ्कुरम् अङ्कुरे वा वृक्षं न पश्यति तावता दश्नोऽङ्करस्य वा वृक्षस्य वा अभावो न सिद्धयति । एवं प्रकृते स्वर्गादृष्टादावप्रवर्तमानमपि प्रत्यक्षं न तादृश स्वर्गादीनामभावं बोधयितुं शक्नुयात् । प्रमाणान्तरानिर्धारितवस्तुनि निवर्तमान प्रत्यक्षं तदभावं बोधयति न तु प्रत्यक्षनिवृत्तिमात्राद्वस्त्वभावः जैसा जल की राशि में कमण्डलु का जल डाल दिया जाय तो उसका पृथक् ग्रहण नहीं होता है या कबूतरों के झुंड मे मिला हुआ घर का कबूतर अलग दिखलाई नहीं देता । मगर न दिखने मात्र से न तो उस जल का अभाव होता है और न कबूतर का ही । ___ श्लोक में दिये हुए "च" शब्द से पूर्वोक्त कारणों के अतिरिक्त एक कारण "अनुभव" भी समझ लेना चाहिए । अनुभव के कारण दुग्धावस्था में दधि नहीं दीखता या वीज या अङ्कुर की अवस्था में वृक्ष दिखाई नहीं देता । मगर न दिखने मात्र से दधि या अङ्कर या वृक्ष का अभाव नहीं है। इसी प्रकार स्वर्ग तथा अदृष्ट आदि में प्रवृत्त न होने वाला प्रत्यक्ष स्वर्ग आदि के अभाव का बोधक नहीं हो सकता । जो वस्तु किसी अन्य જળાશયના વિપુલ જળમાં એક કમંડળ ભરીને પાણી રેડી દેવામાં આવે, તે બન્નેને અલગ અલગ રૂપે જોઈ શકાતાં નથી. અથવા ઘરનું કબૂતર, કબૂતરના સમૂહમાં જઈને બેસી ગયું હોય તે તેને અલગ રૂપે દેખી શકતું નથી. પણ દષ્ટિગોચર ન થવાને કારણે જ તે જળ અથવા કબૂતરને અભાવ માની શકાય નહીં. ___ोभा १५२॥ये "च" ५४ द्वारा पूर्वोत १२ सिवायना “अनुप" ३५ કારણને પણ ગ્રહણ કરવું જોઈએ. અનુભવને કારણે દૂધમાં દહીં દેખાતું નથી. અને બીજ અથવા અંકુરની અવસ્થામાં વૃક્ષ દેખાતું નથી. પરંતુ તેમાં તે દેખાતું ન હોવાને કારણેજ દહીં અથવા અંકુર અથવા વૃક્ષને અભાવ માની શકાતું નથી. એજ પ્રકારે સ્વર્ગ તથા અષ્ટ આદિમાં પ્રવૃત્ત ન થનારા પ્રત્યક્ષને સ્વર્ગ આદિના અભાવનું બેધક કહી શકાય નહીં. જે વસ્તુ કોઈ અન્ય પ્રમાણે દ્વારા નિશ્ચિત ન કરી શકાતી હોય, તે વસ્તુમાંથી જે પ્રત્યક્ષ નિવૃત્ત થઈ ગયું હોય તે તે વસ્તુને અભાવ સિદ્ધ થઈ શકે છે. For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् ६९ प्रामाणिकानाम् । नापि अप्रमितस्वर्गादीनामभावबोधनं संभवति अभावज्ञाने प्रतियोगिज्ञानस्य कारणत्वात् नाज्ञातघटः पुमान् घटाभावं जानाति तदिह स्वर्गादीप्रतियोगिज्ञानस्याभावेन कथं स्वर्गाद्यभावं लोकायतिका जानीयुः । कथमपि न तदभावावगतिरतो न स्वर्गादीनामभावः साधयितुं शक्यः ततः स्वर्गादिनामभावबोधनाय चार्वाकणावश्यं प्रमाणान्तरमन्वेषणीयम् । तथा परकीयाभिप्रायविज्ञानाय परान् बोधयितुं चावश्यमेव प्रमाणान्तरमभ्युपगमनीयम् । कथमन्यथापरावबोधाय शास्त्रमकारि चार्वाकण । अपि च शरीरस्यात्मत्वे प्रमाण के द्वारा निश्चित न हो, उससे यदि प्रत्यक्ष निवृत्त हो तो उस वस्तु का अभाव सिद्ध हो सकता है। किन्तु प्रत्यक्ष न होने मात्र से ही किसी वस्तु का अभाव हो जाय, ऐसा प्रामाणिक पुरुष स्वीकार नहीं करते। इसके अतिरिक्त जिन्होंने स्वर्ग आदि को नहीं जाना, उन्हें उनके अभाव का भी ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि अभाव के ज्ञान में प्रतियोगी का ज्ञान कारण होता है । जिस पुरुष ने घट को नहीं जाना, वह घटा भाव भी नहीं जानता । इस प्रकार स्वर्ग आदि प्रतियोगियों के ज्ञान का अभाव होने से चार्वाक स्वर्ग आदि के अभाव को कैसे जान सकते हैं उन्हें किसी भी प्रकार स्वर्गादि के अभाव का ज्ञान नहीं हो सकता। अतएव स्वार्गादि का अभाव सिद्ध करना उनके लिए उचित नहीं है । इस प्रकार स्वर्ग आदि का अभाव जानने के लिए चार्वाक को अवश्य ही दूसरा प्रमाण स्वीकार करना चाहिए । इसी प्रकार दूसरे के अभिप्राय को जानने के लिए और दूसरों को समझाने के लिए भी प्रत्यक्ष के सिवाय किसी अन्य प्रमाण अंगीकार करना चाहिये । अन्यथा दूसरों को समझाने के लिए चार्वाक ने शास्त्रों की रचना क्योंकि ? પરન્તુ પ્રત્યક્ષ ન હોવાના જ કારણે કોઈ વસ્તુને અભાવ થઈ જાય. એવી વાતને કઈ પણ પ્રમાણિક પુરૂષ સ્વીકાર કરતા નથી. વળી જેણે સ્વર્ગને જાણ્યું નથી. તેમને તેના અભાવનું જ્ઞાન પણ હોઈ શકતું નથી. કારણ કે અભાવના જ્ઞાન માં પ્રતિયોગીનું જ્ઞાન કારણભૂત બને છે. જે માણસે ઘડાને જ જાણ્યું નથી, તે ઘડાના અભાવને પણ જાણ નથી. એજ પ્રકારે સ્વર્ગ આદિપ્રતિયોગીના જ્ઞાનના અભાવને ચાર્વાક કેવી રીતે જાણી શકે ? તેમને સ્વર્ગાદિના અભાવનું જ્ઞાન કેઈ પણ પ્રકારે પ્રાપ્ત થઈ શકતું નથી. તેથી સ્વર્ગાદિને અભાવ સિદ્ધ કરવનું કાર્ય તેમને માટે ઉચિત નથી. | સ્વર્ગ આદિને અભાવ જાણવા માટે ચાવકે અન્ય કોઈ પ્રમાણને જ સ્વીકાર કરવો જોઈએ. એજ પ્રમાણે બીજાના અભિપ્રાયને જાણવાને માટે અને બીજા લેકેને સમજાવવા For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे जीवच्छरीरवदमृतशरीरेपि चैतन्यमुपलभ्यते नतूपलभ्यते तस्माच्छरीरातिरिक्तो जीवः । न च यथाऽतिरिक्तात्मवादि न्यायमते मुक्तावस्थायां घटादि ज्ञानं न भवति प्राणाभावात् , तथा मन्मतेपि प्राणाभावादेव मृतशरीरे ज्ञानादिगुणा नामभाव इति वाच्यं शरीराणामवयवोपचयापचयाभ्यां प्रतिक्षणं विनश्वरतया बालावस्थायां विलोकितस्य वृद्धावस्थायां प्रतिसन्धानं न स्यात् यो है बाल्येपितरावन्वभूवं स एव वृद्धे नप्तननुभवामीति प्रतीतेः । न च पूर्वोत्पन्न इसके अतिरिक्त शरीर को आत्मा मानने पर जीवित शरीर के सामने मृतशरीर में भी चैतन्य की उपलब्धि होनी चाहिए, मगर उपलब्धि होती नहीं है, इससे सिद्ध है कि जीव शरीर से भिन्न है । शंका-जैसे अतिरिक्त आत्मा मानने वाले नैयायिक मत में युक्तावस्था में प्राणों का अभाव होने से घट आदि का ज्ञान नहीं होता, उसी प्रकार हमारे मत में भी प्राणों का अभाव होने के कारण ही मृतक शरीर में ज्ञानादि गुणों का अभाव होता है । समाधान-ऐसा न कहो । शरीरों के अवयवों का उपचय और अपचय अतएव वे प्रतिक्षण विनश्वर हैं । अतएव जो बाल्यावस्था में देखा है उसका वृद्धावस्था में प्रतिसन्धान (जोड़ रूप ज्ञान) नहीं होना चाहिए किन्तु “जिस मैंने बाल्यावस्था में माता पिता का अनुभव किया था, वही मैं वृद्धावस्था में नाती पोतों का अनुभव करता हूँ" इस प्रकार का માટે પણ પ્રત્યક્ષ સિવાયનું કોઈ અન્ય પ્રમાણ સ્વીકારવું જોઈએ. નહીં તે અન્યને સમજાવવાને માટે ચાર્વાકે શાની રચના જ શામાટે કરી? વળી શરીરને આત્મા માનવામાં આવે, તે જીવિત શરીરની જેમ મૃત શરીરમાં પણ રીત ને સદ્ભાવ હવે જોઈએ, પરંતુ મૃત શરીરમાં તન્ય હોતું નથી. તેથી એ વાત સિદ્ધ થાય છે કે જીવ (આત્મા) શરીર કરતાં ભિન્ન છે. શંકા–શરીરની સાથે આત્માના અસ્તિત્વને સ્વીકારનાર તૈયાયિક મત પ્રમાણે મુક્તા વસ્થામાં પ્રાણને અભાવ હોવાથી ઘટ આદિનું જ્ઞાન થતું નથી. એજ પ્રમાણે અભાવ માન્યતા અનુસાર મૃતશરીરમાં પ્રાણેને અભાવ હોવાને કારણે મૃતશરીરમાં જ્ઞાનાદિ ગુણોને અભાવ હોય છે. સમાધાન- આપની આ વાત ઉચિત નથી. શરીરના અવયના ઉપચય (વૃદ્ધિ) અને भने अ५यय (हानि) यता रहे छे. तेथी तेसो क्षणविनश्वर (क्षाराम ३२) छे. तेथी माझ्यापસ્થામાં જે દેખ્યું હોય તેનું પ્રતિસવ્વાન (સંકલિત જ્ઞાન જેડ રૂપ જ્ઞાન વૃદ્ધાવસ્થામાં) થવું જોઈએ નહીં. પરંતુ “મારા દ્વારા બાલ્યાવસ્થામાં માતાપિતાને અનુભવ કર્યો હતો એજ હું વૃદ્ધાવસ્થામાં પૌત્રો અને દૌહિત્રને અનુભવ કરૂં છુ,આ પ્રકારનું પ્રતિસવ્વાન For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir • समयार्थ बोधिनी टीका प्र. अ. अ. १ चार्याक्रमतस्वरूपनिरूपणम् शरीरसंस्कारेण द्वितीयशरीरे संस्कार उत्पद्येतेति सर्वं प्रत्यभिज्ञानादिकं स्यादिति वाच्यम् अनन्तसंस्कारकल्पने गौरवात् । तस्माद्येषु व्यावर्तमानेषु यदनुवर्तते तत्तेभ्योऽभिन्नम् यथा कुसुमेभ्यः सूत्रम् बालस्थविरशरीरेषु परस्परं व्यावर्तमानेष्वपि अहमास्पदमनुवर्तमानं दृश्यते यथा कुसुमेषु व्यावर्तमानेष्वपि सूत्रमनुवर्तत इति कुसुमेभ्यः सूत्रे भिद्यते तथा बालादिशरीरव्यावर्तनेपि अहमास्पदमनुवर्तते इति शरीरेभ्य आत्मा भिद्यते । कृशोहमस्थूलोहमित्यत्र प्रतिसन्धान ज्ञान होता ही है। safaa art कि पूर्वोत्पन्न शरीर के संस्कार से दूसरे शरीर में संस्कार उत्पन्न हो जाता है, इस कारण प्रत्यभिज्ञान आदि की संगति हो जाती है, सो यह कहना ठीक नहीं । इससे तो अनन्त संसार की कल्पना करने का प्रसंग होगा । ज जिनके व्यावृत हो जाने पर भी जो अनुष्टत्त रहता है अर्थात् जिनके न रहने पर भी जो बना रहता है, वह उनसे भिन्न होता है, जैसे फूलों से सूत । बाल्यावस्था और वृद्धावस्था के शरीर परस्पर व्यावृत्त होते हैं, फिर भी अहमास्पद ("अहं - मैं" इस प्रकार के ज्ञान का आधार अर्थात् आत्मा ) ज्यों का त्यों वना रहता है, इस कारण शरीर से आत्मा भिन्न है । अभिप्राय यह है कि जैसे फूलों की व्यावृत्ति होने पर भी सूत की अनुवृत्ति रहती हैं, इस कारण फूलों से सूत भिन्न हैं, बाल शरीर के न रहने पर भी आत्मा बना रहता है, अतएव आत्मा शरीरों से भिन्न है । कुश हूँ, मै स्थूल हूँ,, यहाँ कृशत्व और स्थूलत्व की यद्यपि જ્ઞાન અવશ્ય થાય છે. કદાચ આપ એવી દલીલ કરવા માગતા હો કે “ પૂર્વાપન્ન શરી– રના સંસ્કાર દ્વારા બીજા શરીરમાં સંસ્કારઉત્પન્ન થઈ જાય છે. તે કારણે પ્રત્યભિજ્ઞાન (જોયલાને) આળખીલેવું તે આદિની સંગતિ થઈ જાય છે.” તે આપનુ તે કથન પણ ઉંચિત નથી. તેના દ્વારા તા અનત સ ંસારની કલ્પના કરવાનો પ્રસંગ ઉપસ્થિત થશે. For Private And Personal Use Only જેમની વ્યાવૃત્તિ થઈ જવા છતાં પણ જે અનુવૃત્ત રહે છે, એટલે કે જેમના અભાવ અથવા નાશ થઈ જવા છતાં પણ જે અનુવૃત્ત રહે છે. એટલે કે જેમના અભાવ અથવા નાશ થઈ જવા છતાં પણ જેના સદ્ભાવ ટકી રહે છે, તે પદાર્થ તેમના કરતાં ભિન્ન હોયછે. જેમકે ફૂલા કરતાં દોરી ભિન્ન છે. બાલ્યાવસ્થા અને વદ્ધાવસ્થાના શરીર પરસ્પર વ્યાવૃત્ત હોયછે. છતાં પણ અહમાસ્પાદ ( ‘હું આ પ્રકારના જ્ઞાનનો આધાર એટલે કે (આત્મા) એવાને એવાજ રહે છે. તે કારણે આત્મા શરીરથી ભિન્ન છે તત્વ રૂપ છે જેવી રીતે ફૂલોની વ્યાવૃત્તિ (અભાવ-નાશ) થઈ જવા છતાં પણ દોરીની અનુવૃત્તિ (સદ્ભાવ અથવા મૂળ સ્થિતિમાં ભિન્નતાના અભાવ ) જ રહે છે અને તે કારણે દોરીને ફૂલોથી ભિન્ન Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे कृशत्वादे रहन्त्व सामनाधिकरण्यदर्शनेपि तादृशसामानाधिकरण्यान्नदेहरूपत्वमहमास्पदस्य, गौणीवृत्त्यापि सामानाधिकरण्यस्योपपादयितुं शक्यत्वात् । अपि स्वप्नमध्ये दिव्यं देवशरीरमासाद्य देवशरीरोचितं भोगं मुंजान एवं प्रतिबुद्धो जागरितावस्थां प्राप्य पश्यति न मे देवशरीरं न वा तादृशी भोगसामग्री किन्तु मनुष्योहम् इति जानन् देवशरीरे बाधितेपि तादृशोहं प्रत्ययविषयस्या बाधात्प्रत्युत तमेवाहं प्रत्ययविषयं मनुष्यशरीरे पश्यन् शरीरादात्मा भिन्नो भवति, ततश्च शरीरादिभ्यो भिन्न आत्मा सिद्धो भवति इति निश्चिनाति । समानाधिकरणता देखी जाती है, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि "अहमास्पद" देह रूप ही है। क्योंकि उपचार से भी इस प्रकार की समानाधिकरणता सिद्ध की जा सकती है। कोई पुरुष स्वप्न में दिव्य देवशरीर को प्राप्त करके देव शरीर के योग्य भोग भोगता भोगता ही जाग उठता है। वह जागृत अवस्था प्राप्त करके देखता है कि-न तो मेरा देव शरीर है और न वैसी भोगसामग्री है । मैं तो मनुष्य हूँ । जब वह ऐसा जानता है तब देव शरीर के बाधित होने पर भी "अहम्' प्रत्यय के विषय में कोई बाधा नहीं आती । अर्थात् “मैं देव नहीं हूँ, मै मनुष्य हूँ" इस प्रकार उसका वह "मैं" तो ज्यों का त्यों अबाध रहता है । उल्टा उसी अहं प्रत्यय के विषय को मनुष्य शरीर में देखता हुआ आत्मा शरीर से भिन्न ही सिद्ध होता है । इस प्रकार आत्मा शरीर आदि से भिन्न है । વસ્તુ રૂપ માનવામાં આવે છે. એ જ પ્રમાણે બાલશરીરને અભાવ થઈ જવા છતાં પણ આત્મા તે એવાનેએજ રહે છે. ને કારણે આત્મા શરીરેથી ભિન્ન છેકૃશ છું. હું સ્થૂલ છું” અહીં કૃશત્વ અને સ્કૂલની જે કે સમાનાધિકરણતા જોવામાં આવે છે, છતાં ५४४ मेम ४६ शाय नही "अहमास्पद" 'आत्मा' हे ३५०८ छ ।२५ औपयाરિક રીતે પણ આ પ્રકારની સમાનાધિકરણતા સિદ્ધ કરી શકાય છે કેઈ પુરુષ સ્વપ્રમાં દિવ્ય દેવશરીરને પ્રાપ્ત કરીને દેવશરીરને એગ્ય ભોગોને ભગવતે ભોગવતે જાગી જાય છે. ત્યારે તે એવું સમજી શકે છે કે “મારું શરીર દેવશરીર રૂપ નથી અને એવી ભગ સામગ્રી પણ મારી પાસે નથી. હું તો મનુષ્ય જ છું” જ્યારે તે એવું જાણે છે ત્યારે દેવशरीर धित थवा छतi ५ "अहम्" प्रत्येना ज्ञानना विषयमा माया (अवशेष) थत नथी. मेटले हेव नथी. मनुष्य छु” 241 प्रारने तेनी 'अहम्' તે જે હતું તેવો જ ટકી રહે છે. ઉલટાએ જ અહં પ્રત્યય એના વિષયને મનુષ્ય શરીર માં દેખતે એ આત્મા શરીર કરતાં ભિન્ન જ સિદ્ધ થાય છે. આ પ્રકારે આત્મા શરીર આદિ ભિન્ન છે. એ વાત સિદ્ધ થાય છે. For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७३ समर्थ बोधिनी टीका प्र. थु. अ. १ चार्वाकमत स्वरूपनिरूपणम् किंच शरीरस्यात्मत्वे सुखदुःखादीनामुपभोगो न स्यात् यतो येन शरीरेण कर्मकृतं न तच्छरीरेण फलपर्यन्तं स्थीयते कर्मकरणकालेऽतिरिक्तं शरीरमासीत फलोपभोगसमये चातिरिक्तं शरीरमभूदिति कर्तान्यो भोक्ताचान्य इति कृतहानिरकृताभ्यागमदीपः प्रसज्येत । अपि च शरीरस्यात्मत्वे मोक्षार्थ कस्यापि - मोक्षजनकर्मणि दीक्षाचारित्रादौ प्रवृत्ति र्न स्याद यतः शरीरनाशस्य प्रत्यक्ष सिद्धतयाऽतिरिक्तस्य परलोकगामिनोऽभावनिश्चयेन कथं कोपि प्रवर्तेत । नच निष्फलैव तेषां प्रवृत्तिः तीर्थकरगणधरादीनां मोक्षार्थं प्रवृत्तिदर्शनेन निष्फल फल इसके अतिरिक्त शरीर को आत्मा मानने से सुख दुःख आदि का उपभोग नहीं हो सकेगा । जिस शरीर ने कर्म किया है वह फल के भोगने तक कायम नहीं रहता । कर्म करने के समय अलग शरीर था, भोगने के समय अलग शरीर हो गया । इस प्रकार कर्त्ता और भोक्ता कोई और ही होगा । इससे कृतहानि और अकृताभ्यागम नामक दोषों का प्रसंग होता है अर्थात् कर्म करने वाले को उसका फल नहीं भुगतना पड़ा और जिसने कर्म नहीं किया था उसे भुगतना पड़ा । शरीर को आत्मा मानने पर मोक्ष के लिए किसी की भी मोक्ष are दीक्षा चारित्र आदि कर्मों में प्रवृत्ति नहीं होगी। क्योंकि शरीर का नाश प्रत्यक्षसिद्ध है और शरीर से भिन्न परलोकगामी का अभाव है । ऐसी स्थिति में कोई क्यों प्रवृत्ति करेगा ? उनकी प्रवृत्ति निष्फल ही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता । तीर्थकर और गणधर वगैरह आप्त व्यक्तियों की मोक्ष के लिये प्रवृत्ति होने से मोक्षजनक दीक्षादि प्रवृत्ति को निष्फल नहीं कहा जा सकता । વળી શરીરને આત્મા માનવાથી સુખ દુઃખ આદીનો ઉપભોગ નહી થઇ શકે. જે શરીરે કર્યાં કર્યાં છે. તે શરીર કમના ફલને ભોગવી લેવાય ત્યાં સુધી ટકતુ નથી. કમ કરતી વખતે અલગ શરીર હતુ, ફૂલ ભાગવતી વખતે તે શરીરને બદલે બીજું જ કઈ શરીર હાય છે. આ પ્રકારે કર્તા એક અને ભોકતા કોઇ બીજો જ હશે. આ પ્રકારની માન્ય તામાં તે “કૃતાને અને અકૃતાભ્યાગમ ” નામના દોષાનો પ્રસંગ પ્રાપ્ત થાય છે, એટલે કે “કરે કોઈ અને ભાગવે કોઇ” એવા પ્રસ’ગ પ્રાપ્ત થશે. શરીરને આત્મા માનવામાં આવે તો મોક્ષ જનક દીક્ષા, ચારિત્ર, આદિ કાર્યમાં કોઈને પ્રવૃત્ત થવાનુ મનજ ન થાય ! કારણ કે શરીના નાશ પ્રત્યક્ષ છે અને શરીરથી ભિન્ન પરલોકગામીના ( આત્માને! ) અભાવ છે. એવી સ્થિતિમાં કોઇ શા માટે એવી પ્રવૃત્તિ કરે’ માક્ષજનક દીક્ષાદિ પ્રવૃત્તિને નિષ્ફલ કહી શકાય જ નહી'. કારણ કે તીર્થંકરા, ગણુધરા વગેરે આસોની મેક્ષને માટેની દીક્ષાદિ પ્રવૃતિ નિરંક હાઇ શકે જ નહીં, सु. १० For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागसूत्रे त्वस्य वक्तुमशक्यत्वात् । नच प्रतारकेण केनचित् स्वयं दीक्षादिकमादाय वंचितो लोकः क्रियते ख्यातिपूजादिलाभायेति वाच्यम् , कोहि एवं स्यात् यः जन्मपर्यन्तं क्लेशबहुलं कर्मकुर्वन्नात्मानमवसादयेत् क्लेशकूपे आत्मानं पातयेत वा । तदुक्तम् विफला विश्ववृत्तिनों नो दुःखैकफलापि वा । दृष्टलाभफलानापि विप्रलंभोपि नेदृशः ॥ तस्माच्छास्त्राणां मोक्षाभिलाषिणां महाधियां च मोक्षार्थ प्रवृत्तिदर्शनादतिरिक्त आत्माऽस्तीति गम्यते । युक्त्या तकेंण प्रमाणैश्च शरीरव्यतिरिक्तस्यात्मनः प्रसिद्धिः कृता । अतः प्रमाणादिसिद्धस्यात्मनः प्रसिद्धिः सर्वैरेवकर्तव्या । किसी ठग ने स्वयं दीक्षा आदि लेकर अपनी ख्याति पूजा आदि के लिए लोगों को धोखा दिया है, ऐसा कहना उचित नहीं है। कौन ऐसा होगा जो जीवन पर्यन्त क्लेश की बहुलता वाला कार्य करता हुआ अपने आपको पीडित करे और क्लेशों के कूप में पटके । कहा भी है-"विफलाविश्ववृत्तिः" इत्यादि । विश्व की वृत्ति न निष्फल है, न एक मात्र दुःख रूप फल देने वाली है, न प्रत्यक्ष दिखने वाला मात्र ही उसका फल है और न यह ठगाई है, इस कारण शास्त्रों की एवं मोक्ष के अभिलाषी महाबुद्धिमानपुरुषों की मोक्ष के लिए प्रवृत्ति देखी जाती है, इससे जान पड़ता है कि आत्मा शरीर से भिन्न है। इस प्रकार युक्ति से, तर्कों से और प्रमाणों से आत्मा की सिद्धि की। प्रमाणसिद्ध आत्मा की प्रसिद्धि सभी को करनी चाहिए । कहा भी है -"युक्तिप्रमाणतश्च" इत्यादि । એવું કથન પણ ચગ્ય નથી કે કઈ ઠગે સ્વયં દીક્ષા લઈને, પિતાની ખ્યાતિ પૂજા આદિને માટે લેકેને દગો દીધે છે” એ તે કેણ હશે કે જે જીવનપર્યન્ત કલેશની અધિકતાવાળું કાર્ય કરતે રહીને પોતાની જાતને પીડિત કરેતે રહે અથવા કલેશેના १५मां पातानी जतने १ घटी है! ४थु ५५ छ । “विफला विश्ववृतिः" त्या વિશ્વની વૃતિ (સંસારની પ્રવૃતિ) નિષ્ફળ પણ નથી. એક માત્ર દુઃખરૂપ ફુલ પ્રદાન કરનારી પણ નથી. તેનું ફલ પ્રત્યક્ષ દેખાય એવું પણ નથી અને તે ઠગાઈ રૂપ પણ નથી તે કારણે શાસ્ત્રીની અને મોક્ષની અભિલાષાવાળા મહાબુદ્ધિમાની મોક્ષને માટે પ્રવૃતિ જોવામાં આવે છે. તેથી જાણી શકાય છે કે આત્મા શરીરથી ભિન્ન છે. આ રીતે યુક્તિથી, તર્કોથી અને પ્રમાણે દ્વારા આત્માની સત્તા સિદ્ધ થાય છે. પ્રમાણસિદ્ધ આત્માની સત્તા વિદ્ય For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् ७५ युक्तिप्रमाणतच ह्यात्मसिद्धिः प्रदर्शिता । देहातिरिक्त आत्मास्तित्वं सर्वैः प्रपद्यताम् ॥१॥ यदि शरीरव्यतिरिक्त आत्मा न स्यात्तदा बाल्यावस्थायामनुभूतस्यपदार्थस्य स्मरणं न स्यात् , तथा तीर्थकरादीनां शास्त्राणां च मोक्षार्थ प्रवृत्ति नं स्यात् । भवति च प्रवृत्तिरेतेषामिति प्रवृत्त्यन्यथानुपपत्या शरीरव्यतिरिक्तात्मनः प्रसिद्धि भवतीति संग्रहश्लोकार्थः संक्षिप्तः विस्तरतस्तु व्याख्याग्रन्थादेव ज्ञातव्यः । स्मरणं मोक्षसिद्धयर्थ प्रवृत्ति व संभवेत् । प्रवृत्त्या देहभिन्नात्मप्रसिद्धिः खलु दर्शिता ॥२॥ "युक्ति प्रमाण और तर्क से आत्मा की सिद्धि प्रदर्शित की गई है। अतः सभी को मान लेना चाहिए कि देह से भिन्न आत्मा का अस्तित्व है।" यदि शरीर से भिन्न आत्मा न हो बाल्यावस्था में अनुभूत पदार्थ का स्मरण नहीं होना चाहिए । तथा तीर्थकर आदि और शास्त्रों की मोक्षके लिए प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए। मगर उनकी प्रवृत्ति होती है, अत-एव प्रवृत्ति की अन्यथानुपपत्ति से शरीर से भिन्न आत्मा की सिद्धि होती है। यह संग्रह श्लोक का संक्षिप्त अर्थ है। विस्तृत अर्थ व्याख्या ग्रन्थ से ही जानना चाहिये । कहा भी है-"स्मरणं मोक्षसिद्धयर्थ" इत्यादि । यदि शरीर से भिन्न आत्मा न होती तो स्मरण न होता और मोक्ष के लिए प्रवृत्ति न होती । किन्तु प्रवृत्ति होती है, अतः आत्मा देह से भिन्न है। इस प्रकार आत्मा की सिद्धि प्रदर्शित की गई है। भानता) सौम्य २वी १२वी , पण छ "युक्तिप्रमाणतकैश्च" त्यादि-- યુક્તિ, પ્રમાણ અને તર્ક દ્વારા આત્માનું અહીં પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે તેથી સૌએ દેહથી ભિન્ન એવા આત્માના અસ્તિત્વને અવશ્ય સ્વીકાર કરવો જોઈએ. જે આત્મા શરીરથી ભિન્ન ન હોય, તે બાલ્યાવસ્થામાં અનુભવેલા પદાર્થનું સ્મરણ થવું જોઈએ નહીં, તથા તીર્થકર આદિની તથા શાસ્ત્રોની મેક્ષને માટે પ્રવૃત્તિજ રહે નહીં. પરંતુ તેમની પ્રવૃત્તિ તે ચાલુ જ રહે છે. તેથી પ્રવૃત્તિની અન્યથાનુપપત્તિની અપેક્ષાએ શરીરથી ભિન્ન એવા આત્માનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ થાય છે. સંગ્રહ ગાથાને આ સંક્ષિપ્ત અર્થ છે. વિસ્તૃત અર્થ व्याच्या माथी । सभवान. ४यु पशु छ - "स्मरणः मेक्षिसिद्धयर्थ." ઈત્યાદિ –જે શરીરથી ભિન્ન આત્મા ન હોત તે પૂર્વે અનુભવેલી વાતનું સ્મરણ ન થાત અને મેક્ષપ્રાપ્તિ માટે પ્રવૃત્તિ પણ ન થાત પરંતુ પ્રવૃત્તિ તે થાય છે. આ પ્રકારે અત્માના અસ્તિત્વનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे तदेवं प्रकारेण प्रत्यक्षव्यतिरिक्तप्रमाणमपि सिद्धयति, तादृशप्रमाणेन देहेन्द्रियमनोवाग्विषयादिभिन्नात्मास्तित्वं भविष्यति । किं तत् प्रमाणं येनात्मसद्भावः सिद्धयतीति चेत् परोक्षमेवेतिगृहाण । स्वपरव्यवसायित्वमिति प्रमाणलक्षणम् तद्विविधम् प्रत्यक्षं परोक्षं च तत्र प्रत्यक्षं चाक्षुपादि भेदेनानेकप्रकारकम् परोक्षमपि पूर्वोक्तक्रमेण स्मरणप्रत्यभिज्ञानतर्कानुमानागमभेदात्पंचविधम् , तादृशपरोक्षान्तर्गतानुमानेन देहायतिरिक्तजीवस्य सिद्धिर्भवति, तथाहि (१) आत्मानं स्मरामीत्यादिप्रतीत्या आत्मसिद्धिः, (२) स एवायमात्मा इति प्रतीत्या आत्मास्तित्वं प्रसिद्धयति, (३) यदि आत्मा न स्यात्तदा इस प्रकारसे प्रत्यक्ष से भिन्न प्रमाण भी सिद्ध होता है । उस प्रमाण से देह, इन्द्रिय, मन, वाक् और विषय आदि से भिन्न आत्मा का अस्तित्व होगा । वह प्रमाण कौन सा है ? जिससे अत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है ? ऐसा पूछते हो तो वह प्रमाण परोक्ष ही समझ लो । __ स्व और पर का निश्चय करने वाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है। प्रमाण के दो भेद है—प्रत्यक्ष और परोक्ष । इनमें से प्रत्यक्ष चाक्षुप आदि भेदसे अनेक प्रकार का है । परोक्ष स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क अनुमान और आगम के भेद से पाँच प्रकार का है । परोक्ष के अन्तर्गत अनुमान प्रमाण से देह आदि से भिन्न जीव की सिद्धि होती है । वह इस प्रकार है-(१) मैं आत्मा को स्मरण करता हूँ, इत्यादि प्रतीति से आत्मा की सिद्धि होती है । (२) यह वही आत्मा है, इस प्रतीति से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध એજ પ્રમાણે પ્રત્યક્ષ કરતાં ભિન્ન એવા પ્રમાણની પણ સિદ્ધિ થાય છે. તે પ્રમાણ દ્વારા દેહ ઇન્દ્રિય, મન અને વિષય આદિથી ભિન્ન એવા આત્માનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ થશે તે પ્રમાણ કર્યું છે, કે જેના દ્વારા આત્માનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તર રૂપે તે પ્રમાણને પરોક્ષ પ્રમાણ જ અહીં સમજવું. સ્વ અને પરનો નિશ્ચય કરનારા ज्ञानने प्रभा ४९ छे. ते प्रभाएना मे ले - (१) प्रत्यक्ष प्रभा अने. (२) ५२२६ પ્રમાણુ પ્રત્યક્ષ પ્રમાણને ચાક્ષસ આદિ અનેક ભેદી પડે છે. પક્ષપ્રમાણના નીચે પ્રમાણે पांय ४२ - (१) २१२२, (२) प्रत्यभिज्ञान, (3)त, (४) अनुमान गने. (५) मागा. પક્ષ પ્રમાણને એક ભેદ રૂપ અનુમાન પ્રમાણ વડે દેહથી ભિન્ન એવા આત્માનું અસ્તિત્વ આ પ્રમાણે સિદ્ધ થાય છે (१) मासानु स२ ४३ . त्यादि प्रतीति वा आत्मानी सिद्धि यायचे. (૨) આ એજ આત્મા છે, આ પ્રતીતિ દ્વારા અમાનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ થાય છે. (૩) જે આત્મા ન હોત, તે તેના જ્ઞાનાદિ ગુણોની ઉપલબ્ધિ ન થાત, પરંતુ જ્ઞાનાદિ ગુણ ઉપ For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समया) बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् ७७ तद्गुणो ज्ञानादि नोपलभ्येत, उपलभ्यते च तस्मादस्ति आत्मेति तर्कप्रमाणादपि आत्मनः प्रसिद्धि भवतीति प्रदानुमानेन आत्मास्तित्वं साधयति । (४) देहादिव्यतिरिक्तात्माऽस्ति असाधारणतगुणोपलब्धेः चक्षुरादीन्द्रियवदिति कार्यलिंगकमनुमानम् यथा चक्षुरादिलब्धान्द्रियाणि अतीन्द्रियत्वान्न दृश्यते किन्तु तदीयकार्य रूपादिविषयकं ज्ञानादिकमुपलभ्य तजनकचक्षुषो ग्रहणं भवति, रूपादिविज्ञानं सकरणकं क्रियात्वात् । पदादि क्रियावत् यथा वाऽदृश्यमानो पि वन्हिः स्वकार्येण पर्वतगतधुमेन पर्वते ज्ञायते, तथा चैतन्यात्मको गुणो भूतादाववर्तमानः स्वीपलब्ध्या स्वकारणं देहाद्यतिरिक्तात्मानं साधयति, न हि चेतनागुणोभूतादेः पूर्वोपदशितप्रकारेण भौतिकत्वस्य ज्ञाने खण्डनात् । होता है। (३) यदि आत्मा न होती तो उसके गुण ज्ञानादि उपलब्ध न होते, किन्तु उपलब्ध हो रहे हैं , इस कारण आत्मा है, इस प्रकार तर्क प्रमाण से भी अत्मा की सिद्धि होती है। इस प्रकार तर्क प्रमाण से आत्माका अस्तित्व दिखा कर अनुमानसे आत्माका अस्तित्व सिद्ध करते हैं (४) आत्मा देह आदि से भिन्न है, क्योंकि उसके असाधारण गुणों की उपलब्धि होती है, चक्षु आदि इन्द्रियों के समान अनुमान कार्यलिंगक होता है। जैसे चक्षु आदि लब्धि इन्द्रियाँ अतीन्द्रिय होने से दीखती नहीं ह, किन्तु उनका कार्य रूपादि विषयक ज्ञान उपलब्ध होता है। उससे ज्ञान को उत्पन्न करने वाली चक्ष का ग्रहण होता है । यथा रूपादि का ज्ञान करण पूर्वक है, क्योंकि वह क्रिया है, पदादि क्रिया के समान । अथवा जैसे अद्रश्यमान अग्नि अपने कार्य पर्वतनिष्ठ म से पर्वत में जानी जाती है, उसी प्रकार चैर गुण सतों आदि में नहीं रहता हुआ, अपनी उपलब्धि द्वारा अपने कारण रूप देहादि से भिन्न आत्मा લબ્ધ થઈ રહ્યા છે, તે કારણે આત્માનું અસ્તિત્વ છે. આ પ્રકારના તર્ક પ્રમાણ વડે પણ આત્માનું અસ્તિવ સિદ્ધ થાય છે. હવે અનુમાન દ્વારા આત્માના આરિતત્વને સિદ્ધ કરવામાં આવે છે. (૪) આત્મા દેહ આદિથી ભિન્ન છે, કારણ કે તેના અસાધારણ ગુણોની ઉપલબ્ધિ થાય છે. ચક્ષુ આદિ ઇન્દ્રિયના સમાજ અનુમાન કાર્યલિંક (કાર્યથી ઓળખાય એવુ) હોય છે. જેમકે... ચટા આદિ લબ્ધિ ઇન્દ્રિય અયિ હોવાથી દેખાતી નથી, પરંતુ તેમનું કાર્ય રૂપદિ વિષયક જ્ઞાન ઉપલબ્ધ થાય છે. તેના દ્વારા તે જ્ઞાનને ઉત્પન્ન કરનારી એઈ. ન્દ્રિયનું ગ્રહણ થાય છે. જે રૂપાદિનું જ્ઞાન કરણપૂર્વક હોય છે, કારણ કે તે ક્રિયા છે, પદાદિ ક્રિયાના સમાન અથવા જેમ પર્વતમાં રહેલા અદૃશ્ય અગ્નિનું અસ્તિત્વ તેના કાર્ય રૂપ ધુમાડા વડે જાણી શકાય છે, એ જ પ્રમાણે ચૈતન્ય ગુણોને પૃથ્વી આદિ ભૂતોમાં સદ્દભાવ ન હોવા છતાં પણ, તેના કારૂપ જ્ઞાનાદિ ગુણીની ઉપલબ્ધિ દ્વારા તેના કાણુ રૂપ દેહાદિથી ભિન્ન એવા આત્માનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ કરે છે. આગળ એ વાતનું પ્રતિપાદન કરવામાં For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र किन्त्वात्मन एचायमसाधारणो गुणः स च चैतन्यगुणो देहादावुपलभ्यते इति कार्योंपलब्ध्या कारणस्य देहातिरिक्तस्यात्मनः सिद्धिर्भवति । तथाऽस्तिदेहाति रिक्तात्मा समस्तेन्द्रियोपलब्धार्थविषयकज्ञानदर्शनात् पंचगवाक्षो लब्धार्थसंकलनाविधायी एक देवदत्तवत् यथा एक एव पुरुषो गृहे वर्तमानोऽनेकगवाक्षमार्गेण विभिन्नाथमुपलभ्यानेकप्रकारकसद्भतज्ञानं संकलयन् दृष्टः तथा चक्षुरादि पंचेन्द्रियमपि गवाक्षवत् ज्ञानसाधनं तेन तत्तदनेकविषयरूपादीनाम् तादृशरूपादिविज्ञानानां यः संकलनकर्ता एको देवदत्तस्थानापन्नः स एव नः परलोकस्वर्गमोक्षादिभागी देहाभिन्नः इति निश्चीयते । तथात्मा अर्थद्रष्टा, नेन्द्रियाणि, इन्द्रियाणां को सिद्ध करता है । चेतना गुण, जैसा की पहले कहा जा चुका है भूतों आदि का नहीं है। क्योंकि ज्ञान में भौतिकता का खण्डन किया जा चुका है। चैतन्य आत्मा का ही असाधरण गुणहै और वह उपलब्ध होता है, इस प्रकार कार्य की उपलब्धि से कारण की अर्थात् देह से भिन्न आत्मा की सिद्धि होती है। तथा आत्मा देह से भिन्न है क्योंकि समस्त इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध अर्थ विषयक ज्ञान देखा जाता है, पाँच खिड़कियों द्वारा उपलब्ध अर्थों की संकलना करने वाले एक देवदत्त के समान । जैसे एक ही पुरुष घर के भीतर रह कर अनेक खडकियों द्वारा भिन्न पदार्थों को देखता है और उत्पन्न हुए उन अनेक ज्ञानों की संकलना करता है, उसी प्रकार चक्षु आदि पांच इन्द्रियां खिड़कियों के समान हैं, और उनसे रूपादि विषयक अनेक ज्ञान उत्पन्न होते हैं । उन सब ज्ञानों का देवदत्त के समान जो संकलनकर्ता है, वही हमारा परलोक-स्वर्ग मोक्ष आदि का भागी एवं देह से भिन्न आत्मा है ऐसा निश्चय होता है, ।। આવ્યું છે કે ભૂતાદિમાં ચેતનાગુણને સદ્દભાવ નથી, કારણકે જ્ઞાનમાં ભૌતિક્તાનું ખંડન કરવમાં આવી ચુકયું છે. ચૈતન્ય, આત્માને જ અસાધારણ ગુણ છે, અને તે ઉપલબ્ધ થાય છે. આ પ્રકારે કાર્યની ઉપલબ્ધિ દ્વારા કારણની એટલે કે દેહથી ભિન્ન એવા આત્માની સિદ્ધિ થાય છે. તથા આત્મા દેહથી ભિન્ન છે કારણ કે પાંચ બારીઓ દ્વારા ઉપલધ અર્થોની સંકલન કરનાર એક દેવદત્તના સમાન, સમસ્ત ઇન્દ્રિ દ્વારા ઉપલબ્ધ થતા અર્થવિષયક જ્ઞાનને સંકલન કર્તા આત્મા જ છે. તે દેવદત્તનું દૃષ્ટાન્ત નીચે પ્રમાણે છે. દેવદત્ત નામને કઈ એક પુરુષ પાંચ બારીઓવાળા એક ઘરમાં રહે છે. તે દેવદત્ત તે પાંચ બારીઓ દ્વારા જુદા જુદા પદાર્થનું નિરીક્ષણ કરે છે, અને તે રીતે ઉત્પન્ન થયેલાં અનેક જ્ઞાનેની સંકલના કરે છે. એ જ પ્રમાણે ચક્ષુ આદિ પાંચ ઇન્દ્રિયે બારીઓ જેવી છે, દેહ ઘર સમાન છે અને For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चाकिमतस्वरूपनिरूपणम् विनाशेपि तदुपलब्धार्थविषयकस्मरणसद्भावात् गवाक्षाभावेपि गवाक्षमार्गेण संप्राप्तार्थस्मरणकर्तृदेवदत्तवत् । यः पुरुषोयं पदार्थमिदानीं चक्षुरादिद्वाराऽनुभवति स एव पुरुषः कालान्तरेऽनुभवसाधने विनष्टेपि तं पदाथै स्मरति नान्योऽ न्योपलब्धमर्थ स्मरतीति नः सर्वेषां प्रसिद्धम् नान्यदृष्टं स्मरत्यन्य इति नियमात् । तदिह यदि कदाचिदिन्द्रियाण्येव ज्ञानकतृणि भवेयु स्तदा चक्षुषोप ___ तथा अर्थद्रष्टा आत्मा है, इन्द्रिया नहीं क्योंकि इन्द्रियों का विनाश हो जाने पर भी उनके द्वारा उपलब्ध अर्थ का स्मरण होता है, गवाक्ष के अभाव में भी गवाक्ष मार्ग से देखे हुए अर्थ का स्मरण करने वाले देवदत्त के समान । जो पुरुष जिस पदार्थ को इस समय चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा अनुभव करता है, वही पुरुष कालान्तर में उस अनुभव के साधन का नाश हो जाने पर भी स्मरण करता है। एक पुरुष दूसरे के द्वारा अनुभूत पदार्थ का स्मरण नहीं कर सकता । यह सत्य हम सब को निर्विवाद सिद्ध है । "अन्य के देखे को अन्य स्मरण नहीं करता" ऐसा नियम है। इस नियम के अनुसार यहाँ विचार करें । यह इन्द्रिया स्वयं ही अनुभव करने वाली देखने वाली होती, तो चक्षु का विनाश हो जाने पर कालान्तर में उसके द्वारा देखे हुए पदार्थ का स्मरण किसी भी प्रकार संगत नहीं हो सकता था । ज्ञान का कर्त्ता चक्षु है, और वह विनष्ट हो તે ઈન્દ્રિ દ્વારા જે જ્ઞાન થાય છે તેને સંકલનકર્તા આત્મા છે. તે આત્મા જ પરલેક ભાગી સ્વર્ગ મેક્ષ આદિમાં આપણે સાથીદાર છે અને દેહથી ભિન્ન છે. તથા ઈન્દ્રિય અર્થદ્રષ્ટા નથી પણ આત્મા જ અર્થ દ્રષ્ટા છે, કારણ કે ઇન્દ્રિયોને વિનાશ થઈ જવા છતાં પણ તેમના દ્વારા ઉપલબ્ધ થયેલા અર્થનું વિસ્મરણ થતું નથી. જેમ બારીઓને નાશ થવા છતાં પણ તે બારીઓમાંથી દેખેલા અર્થનું દેવદત્તને વિસ્મરણ થતું નથી, એજ પ્રમાણે ઈન્દ્રિયેને નાશ થવા છતાં પણ તેમના દ્વારા ઉપલબ્ધ થયેલા અર્થનું પણ વિસ્મરણ થતું નથી. જે વ્યક્તિ જે પદાર્થને અત્યારે ચક્ષુ આદિ ઇન્દ્રિ દ્વારા અનુભવ કરે છે, તે પુરુષની તે ઈન્દ્રિયેને નાશ થઈ જવા છતાં પણઅનુભવના સાધનને નાશ થઈ જવા છતાં પણ તે અનુભવનું સ્મરણ કરી શક્તા હોય છે. એક પુરુષ, બીજા પુરુષ દ્વારા અનુભૂત પદાર્થનું સ્મરણ કરી શક્તા નથી, આ વાતને તે આપણે કઈ પણ પ્રકારના વિવાદ વિના સ્વીકાર કરી લઈએ છીએ. “એકે દેખેલા પદાથેનું સ્મરણ બીજી વ્યક્તિ કરી શકતી નથી.” એ નિયમ છે. આ નિયમ પ્રમાણે વિચાર કરવામાં આવે તે ઇન્દ્રિયે, અને દેહ કરતાં આત્માનું અલગ અસ્તિત્વ આ પ્રકારે સિદ્ધ થાય છે- જે ઈન્દ્રિયે પિતે જ રૂપ, સ્પર્શ આદિને અનુભવ કરનારી હોત, તે ચક્ષુને વિનાશ થઈ જતાં, કાળાન્તરે તેણે દેખેલા પદાર્થનું સ્મરણ કઈ પણ પ્રકારે સંભવી શકતું નહીં. જેવી રીતે દેવદત્ત દ્વારા દેખવામાં For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे लब्धार्थस्य स्मरणं चक्षुषो विनाशेपि कालान्तरे संजायमानं कथमिवोपपनि पदवीं लमेत ज्ञानकर्तृचक्षुस्तच्च विनष्टमिति तस्य चक्षुपोऽभावे तस्य रूपादेः स्मरणं त्वगादीन्द्रियाणां कथं स्यात् यथा देवदत्तपरिदृष्टस्यार्थस्य स्मरणं यज्ञदत्तादे ने भवति तद्वत् दृश्यते चक्षुषो विनाशेपि कालान्तरे रूपादीनां स्मरणमिति निधीयते देहेन्द्रियादि भूताद्भिन आत्मा इति । तथा अर्थापत्तिप्रमाणेनापि देहादिव्यतिरिक्तजीवस्य ज्ञानेच्छा, प्रलयादि गुणवतः सिद्धिरिति निर्णीयते तथाहि मनुष्यादि पुत्तलिकायां मृत्तिकादि निर्मितायां पृथिव्यादि समस्ताविकलभूतसमुदाये विद्यमानेऽपि सुखदुःखेच्छा प्रयत्न ज्ञानादिगुणकार्याणां सद्भावादर्शनात् ।। गई अब उसके अभाव में पूर्वदृष्ट, रूप आदि का स्मरण स्पर्शन आदि हिन्द्रयों को कैसे हो सकता है, जैसे देवदत्त द्वारा देखे अर्थ का स्मरण यज्ञदत्त आदि को नहीं होता है। किन्तु चक्षु केन रहने पर भी कालन्तर में रूप का स्मरण होता है। इस कारण यह निश्चित होता है कि आत्मा देह इन्द्रिय और भूतों से भिन्न है। - अर्थापत्ति प्रमाण से भी देह आदि से भिन्न जीव की सिद्धि होती हैं । वह इस प्रकार मृत्तिका की बनी हुई मनुष्य आदि की पुतली में पृथिवी आदि समस्त भूतों का समुदाय होने पर भी मुख दुःख इच्छा प्रयत्न ज्ञान आदि गुण कर्मों का सद्भाव नहीं देखा जाता। अतएव सामर्थ्य से ऐसा प्रतीत होता है कि चैतन्यस्वरूप आत्मा पाँच महाभूतों से भिन्न है । वह आत्मा परलोकगामी है। આવેલા પદાર્થનું સ્મરણ યદત્ત આદિને થઈ શકતું નથી, એજ પ્રમાણે જ્ઞાનના કર્તાને (ચક્ષુ આદિને વિનાશ થઈ ગયા બાદ, તેના દ્વારા દેખેલા રૂપ આદિનું સ્મરણ સ્પશે. ન્દ્રિય આદિ દ્વારા કેવી રીતે થઈ શકે? પરંતુ એ વાત તો સોને વિદિત છે કે ચક્ષુને નાશ થવા છતાં પણ કાલાન્તરે રૂપનું સ્મરણ થાય છે. તેથી એ વાત નિશ્ચિત થાય છે કે દેહ, ઈન્દ્રિય અને ભૂતીથી ભિન્ન એવા આત્માનું અસ્તિત્વ છે. અથપત્તિ પ્રમાણને આધાર લઈને પણ આત્માને દેડ આદિથી ભિન્ન સિદ્ધ કરી શકાય છે. જેમકે માટીમાંથી બનાવેલી માણસ આદિની પુતળીમાં પૃથ્વી આદિ પચે ભૂતને સમુદાય મોજૂદ હોવા છતાં પણ તે પુતળીમાં સુખ, દુઃખ, ઈચ્છા, પ્રયત્ન, શાન આદિ ગુણને સદ્ભાવ જણાતું નથી. આ દૃષ્ટાન્ડ દ્વારા એ વાત સિદ્ધ થાય છે કે ચૈતન્ય સ્વરૂપ આત્મા પાંચ મહાભૂતથી ભિન્ન છે. તે આત્મા પામી છે. For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् ८१ __ अतः सामर्थ्यादवसीयते अस्ति पंचमहाभूतसमुदायाद्भिन्न आत्मा कश्चित्सुखदुःखेच्छाप्रयत्नधर्माधर्मसंस्कारज्ञानादिगुणानां परिणामि कारणं पदार्थः यस्मिन्नेते गुणाः तादात्म्येन परिणमन्ते सचात्मा परलोकादि गामी । सुखमहमस्वाप्सम् न किंचिदवेदिषमिति सौषुप्तिकपरामर्शानुमितसुषुप्तिकालिकसुखादि प्रत्यक्षव्यक्त्या जाग्रत्कालेऽहं सुखीति प्रत्यक्षव्यक्त्या चातिरिक्तात्मसिद्धिर्भवति । तथाऽस्ति अतिरिक्त आत्मा शरीरस्य भग्न क्षतादिजातेपि पुनः संरोहणपुष्टयादि दर्शनादित्याधनुमानेन चात्मास्तित्वं प्रत्येमि। न च सुखादीनां तादात्म्यकारणं देहः मृतशरीरादौ सुखादीनामदर्शनादित्यायनेकहेतुभिः पूर्वशरीरादीनामात्मस्वरूपतायानिराकृतत्वात् एवं प्रत्यक्षानुमानादिपूर्वकार्थापत्तिप्रमाणेन तदस्तित्वं प्रति इसके अतिरिक्त "मैं मुख से सोया मुझे कुछ पता नहीं चला" इस प्रकार सोने वाले के ज्ञान से अनुमान होता है कि सुप्त अवस्था में सुख की अनुभूति होती हैं। जागृति के समय "मैं सुखी हूँ" इस प्रकार का प्रत्यक्ष अनुभव होता है, इससे भी आत्माकी भिन्नता सिद्ध होती है । ___ तथा आत्मा हैं क्योंकि भग्न और क्षत हो जाने पर भी पुनः भर जाना एवं पुष्टता आदि होना देखा जाता है। तात्पर्य यह है कि सजीव शरीर में कोई घाव हो जाय तो भर जाता है क्षीणता हो जाय तो दूर होकर पुष्टता हो जाती है निर्जीव में यह सब नहीं होता । इत्यादि अनुमानों से मैं आत्मा का अस्तित्व जानता हूँ। सुख आदि का उपादान कारण देह हैं, यह कहना उचित नहीं क्योंकि मृतक शरीर मे सुखादि नहीं देखे जाते । इत्यादि अनेक हेतुओं से पहले शरीर आदि की आत्मरूपता का निषेध किया जा चुका है। इस प्रकार ' વળી “હું સુખેથી સૂતે, મને કંઈ ખબર પણ ન પડી.” આ પ્રકારના શયન કરનારના જ્ઞાન દ્વારા એવું અનુમાન થઈ શકે છે કે- સુતાવસ્થામાં સુખની અનુભૂતિ થાય છે. જાગૃતિના સમયમાં તે “હું સુખી છું” આ પ્રકારને પ્રત્યક્ષ અનુભવ થાય છે તે કારણે પણ આમાની ભિન્નતા સિદ્ધ થાય છે આત્માનું અસ્તિત્વ આ પ્રકારે પણ સિદ્ધ કરી શકાય છે- સજીવ શરીરમાં કઈ જગ્યાએ ઘા વાગ્યો હોય, તે તે ઘા ભરાઈ જાય છે. શરીરમાં કોઈ કારણે ક્ષીણતા આવી ગઈ હોય તે તે ક્ષીણતા દૂર થઈને પુછતા આવી જાય છે. નિર્જીવમાં આ બધું સંભવી શકતું નથી. આ પ્રકારના અનુમાને દ્વારા આત્માનું અસ્તિત્વ જાણી શકાય છે. સુખ આદિનું ઉપાદાન કારણ દે છે. આ કથન ઉચિત નથી, કારણ કે મૃત શરીરમાં સુખાદિને અનુભવ થતો જોવામાં આવતું નથી, ઈત્યાદિ અનેક હેતુઓ (કારણો) सू. ११ For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे पादितं भवति । प्रमणैर्विज्ञातार्थोऽन्यथाऽनुपपन्नः सिद्धोऽभवन् अदृष्टं कारणान्तरं कल्पयति सा अर्थापत्तिः प्रमाणमिति । अर्थापत्तेस्तु लक्षणमिदम् प्रमाणपट्कविज्ञातो यत्रार्थी नान्यथाभवन् । अदृष्टं कल्पये दन्यं सार्थापत्ति रुदाहृता । उपपाद्यज्ञानेनोपपादक कल्पनमर्थापत्तिः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यथा जीवतो देवदत्तस्य शतवर्षजीवित्वं ज्योतिःशास्त्रादवगतं गृहे च प्रत्यक्षतो नोपलभ्यते तथा च जीवतः वहिः सत्त्वमन्तराशत वर्षजीवितस्यानुप प्रत्यक्ष अनुमान आदि पूर्वक अर्थापत्तिप्रमाण से आत्मा का अस्तित्व प्रतिपा दित किया गया है । प्रमाण से सिद्ध पदार्थ जिस अदृष्ट पदार्थ के बिना न होता हुआ उसकी कल्पना करवाता है, उसे अर्थापत्ति प्रमाण कहते हैं । अर्थापत्ति के लक्षण है - " प्रमाणषट्कविज्ञातो" इत्यादि । छह प्रमाणों में से किसी भी प्रमाण से कोई पदार्थ सिद्ध हो और जिस पदार्थ के विना उपपन्न न हो सकता हो, उससे उस अदृष्ट पदार्थ की कल्पना की जाती है । यही अर्थापत्ति प्रमाण है । अर्थात् उपपाद्य के ज्ञान से उपपादक की कल्पना करना अर्थापत्ति है । जैसे जीते हुए देवदत्त का सौ वर्ष तक जीवित रहना ज्योतिष शास्त्र से जाना है । वह घर में प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता । ऐसी स्थिति में उसका घर से बाहर होना निश्चित होता है, क्योंकि बाहर हुए विना वह जीते हुए शतवर्ष जीवी I દ્વારા શરીર આદિની આત્મરૂપતાના અસ્વીકાર આગળના કથન દ્વારા કરવામાં આવ્યા છે. આ પ્રકારે પ્રત્યક્ષ અનુમાન આદિ પૂર્વક અર્થાત્પત્તિ પ્રમાણ દ્વારા આત્માનું અસ્તિત્વ પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યું છે. પ્રમાણ દ્વારા સિદ્ધ પદાર્થ જે અદૃષ્ટ પદાર્થ વિના જે અદૃષ્ટ પદાથ ન હોય તે છતાં પશુ તેની કલ્પના કરાવે છે, તેને “અર્થાપત્તિ પ્રમાણ” કહે છે અર્થાપત્તિનું લક્ષણ કહ્યું छे- " प्रमाणपदकविज्ञातो" त्याहि छ प्रमाणामांना डोई पाशु प्रमाणु द्वारा अ પદાર્થોનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ થયેલુ હોય, અને જે પદાર્થના વિના ઉપપન્ન ન થઈ શકતા હાય, તેના દ્વારા તે અદૃષ્ટ પદાર્થ'ની કલ્પના કરી શકાયછે. આ પ્રકારના લક્ષણવાળુ' અર્થાપત્તિ પ્રમાણ છે. એટલે કે ઉપપાદ્યના જ્ઞાન વડે ઉપપાદકની કલ્પના કરવી તેનુ નામ અર્થાપત્તિ છે, જેમકે કોઇ દેવદત્ત નામના માણસનુ ૧૦૦ વર્ષનું આયુષ્ય જાતિષશાસ્ત્ર દ્વારા તાવવામાં આવ્યુ' છે. તે દેવદત્ત ઘરમાં પ્રત્યેક્ષ દેખાતો ન હોય, ત્યારે તે ઘરની બહાર For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चाकमतस्वरूपनिरूपणम् ८३ पन्नत्वान्दहिः सत्त्वं कल्प्यते, से यं दृष्टार्थापत्तिश्रुतार्थापत्तिभेदेन द्विधा तत्र दृष्टार्थापत्तेरुदाहरणं दर्शितमेव । श्रुतार्थापत्तेस्तु, स्वर्गकामो धर्ममाचरेत्" इत्यादिकं तथाहि क्षणप्रध्वंसि दानजीवरक्षादेः कालान्तरभावि स्वर्गादिफलं प्रतिजनकत्वमन्यथानुपपन्नमिति अर्थापत्तिप्रमाणेन दानस्वर्गयोर्मध्यवर्त्यपूर्व कल्पितं भवति तत्रैवोदाहतप्रयोगे । एवमागमेनापि देहादिव्यतिरिक्तात्मसिद्धि भवति तथा च स्वकीयागमः "अस्थि में आया उववाइये" अस्ति में आत्मा परलोकगामीति । परागमोपि भवति" आत्मानं रथिनं विद्धि, शरीरं रथमेव तु । बुद्धिं तु सारथिं विद्धि, मनः प्रग्रहमेव च ॥ नहीं हो सकता । अर्थापत्ति दो प्रकार की है-दृष्टार्थापत्ति और श्रतार्थापत्ति । दृष्टार्थापत्ति का उदाहरण ऊपर दिखलाया ही जा चुका है। श्रुतार्थापत्ति का उदाहरण है--" स्वर्ग का अभिलाषी धर्म का आचरण करे" इत्यादि । क्षणविनश्वरदान तथा जीवरक्षा आदि कालान्तर में होने वाले स्वर्ग आदि फलों के जनक नहीं हो सकते इस प्रकार के अर्थापत्ति प्रमाण से दान जीवरक्षा और स्वर्ग के मध्यवर्ती अपूर्व की कल्पना की जाती है। उसी उदाहृत प्रयोग में इसी प्रकार आगम से भी देह आदि से भिन्न आत्मा की सिद्धि होती है स्वकीय आगम इस प्रकार है-"मेरा आत्मा परलोकगामी है" परकीय आगम से भी यही सिद्ध होता है-"आत्मानं रथिनं विद्धि" इत्यादि । જ હવે જોઈએ એવું નિશ્ચિત થાય છે. કારણ કે તેનું સે વર્ષનું આયુષ્ય હોવાથી તેને મરી ગયેલે માની શકાય એમ નથી અને ઘરમાં તેનું અસ્તિત્વ નથી તેથી તે બહાર ગયે હશે, તે વાત નક્કી થઈ જાય છે. અર્થાપત્ત બે પ્રકારની કહી છે– (૧) દૃષ્ટાથપત્તિ અને (૨) કૃતાર્થપત્ત દાર્થોપત્તિનું ઉદાહરણ તે ઉપર આપવામાં આવ્યું છે. શ્રુતાથપત્તિનું ઉદાહરણ આ પ્રમાણે છે- “સ્વર્ગની અભિલાષા રાખનાર વ્યક્તિએ ધર્મનું આચરણ કરવું જોઈએ” ઈત્યાદિ “ક્ષણવિનશ્વર દાન તથા જીવરક્ષા આદિ કાલાન્તરે ઉભાવનાર સ્વર્ગ આદિ ફલેના જનક થઈ શકતા નથી.” આ પ્રકારના અર્થાપત્ત પ્રમાણ વડે દાન જીવરક્ષા અને મોક્ષના મધ્યવતી અપૂર્વની કલ્પના કરાય છે. એજ પ્રમાણે આગમ દ્વારા પણ દેહ આદિથી ભિન્ન આત્માના અસ્તિત્વનું પ્રતિપાદન કરાય છે. સ્વકીય આગમ આ પ્રમાણે કહે છે- “મારો આત્મા પટેલેગામી .” ५२४ीय भागम द्वा! ५ को पात सिद्ध थाय छ- "आत्मान' रथिन विद्धि" त्याह For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र विज्ञानसारथि यस्तु, मनः प्रग्रहवान्नरः । सोध्वनः परमाप्नोति, तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो" अयमात्मा सर्वानुभूरित्यादि । न चार्थापत्तेः प्रमाणत्वस्य परकीयागमप्रामाण्यस्यानुपगमात्कथं तयो रुपन्यासः क्रियते इति वाच्यम् अर्थापत्तेरनुमानान्तर्भावान्नपार्थक्येन प्रमाणता तथाऽविरुद्धांशे परकीयागमस्य स्वीकारेपि क्षत्यभावात् परकीयागमस्वीकारे यत्र स्वमतस्य हानिस्तत्रैव तस्याप्रामाण्यम् किन्तु स्वगृहकलहे तेन विवादः, आत्मविपये तु न, ___ "आत्मा को रथी समझो और शरीर को स्थ समझो । बुद्धि को सारथि समझो और मन को पगहीर रस्सी-लगाम समझो।" जो मनुष्य विज्ञान रूपी सारथिवाला और मन रूपी पगही वाला है. वह मार्ग से चल कर “पट्" को प्राप्त कर लेता है । वही विष्णु का परमपद है।" ___तथा “स आत्मा तत्त्वमसि अयमात्मा सर्वानुभूः” इत्यादि आगमों से भी आत्मा सिद्ध होता है। ___अर्थापत्ति और परकीय आगम की प्रमाणता आपने स्वीकार नहीं की है फिर उनका उल्लेख क्यों कहते हो ? ऐसा नहीं कहना चाहिए । अर्थापत्ति अनुमान के ही अन्तर्गत है, अतः वह पृथक् प्रमाण नहीं है । तथा अविरुद्ध अंश में परकीय आगम को स्वीकार करने में भी कोई हानि नहीं है । परकीय आगम को स्वीकार करने पर जहाँ स्वमत की हानि होती हो આત્માને રથી સમજે, શરીરને રથ સમજે, બુદ્ધિને સારથિ સમજે અને મનને ५डी (म) समन." જે મનુષ્ય વિજ્ઞાન રૂપી સારથી વાળે છે, અને મન રૂપી લગામ વાળે છે, તે યોગ્ય भागे यादीने “पद” ने (भाक्षने) प्राः ४६ी खेछ. मे विशुनु ५२/५४ छ." तथा- "स आत्मा तत्वमसि, अयमात्मा सर्वानुभूः" त्याह यामी ५९ ५९ આત્મા સિદ્ધ થાય છે. પ્રશ્નઅર્થપત્તિ અને પરકીય આગની પ્રમાણુતાને આપ સ્વીકાર કરતા નથી. છતાં અહી આપે તેમને ઉલેખ શા કારણે કર્યો છે.” ઉત્તર–અર્થપત્તિને અનુમાનમાં જ સમાવેશ થઈ જાય છે. તેથી તેને અલગ પ્રમાણ રૂપ માની શકાય નહીં તથા અવિરુદ્ધ અંશમાં (જે બાબતમાં વિરોધ જ નથી તેમાં) પરકીય આગમને સ્વીકાર કરવામાં પણ કઈ વાંધો નથી. પરકીય આગમને સ્વીકાર કરવાથી જ્યાં સ્વમતને હાનિ થતી હોય, ત્યાંજ પરકીય આગમને અપ્રમાણ રૂપ માનવામાં આવે છે. આપણું ઘરના કલહમાં તેની સાથે વિવાદ છે, આત્માના વિષયમાં For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्र. शु. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् ८५ 1 antratfat atar आवयो रुभयोरेव मोक्षस्वीकारात् अमोक्षवादिभिः सह शास्त्रार्थे सर्वे वयं दार्शनिकाः संभूय ताननात्मवादिनोऽपसारयामः यावता स्वर्गनरकमोक्षादीनां सद्भावो भवेदिति कृत्वा परस्याप्यत्र चर्चाकृता । किं बहुना प्रमाणोपन्यासे नात्मास्तित्वप्रसाधनाय प्रमाणशेखरेण प्रत्यक्षेणैव साधनसंभवादात्मनस्तथाहि आत्मगुणो ज्ञानेच्छा प्रयत्नादिः मानसप्रत्यक्षेणैव प्रत्यक्षी क्रियते, गुणगुणिनोश्चैकत्वादात्मापि मानस प्रत्यक्ष एव । स आत्मा धर्माधर्मयोराश्रयोपि कारणं तथा विशेषगुणानां ज्ञानादीनां सम्बन्धात्प्रत्यक्षो भवतीति । तदुक्तं “धर्माधर्माश्रयो वहीं वह अप्रमाण होता है । अपने घर के कलह में उसके साथ विवाद है । आत्मा के विषय में नहीं, क्योंकि हम दोनों ही मोक्ष को स्वीकार करते हैं। जो मोक्ष नहीं मानता, उनके साथ शास्त्रार्थ होने पर हम सभी दार्श fre sea ster उन अनात्मवादियों को भगाते हैं जिससे स्वर्ग, नरक और मोक्ष आदि का सद्भाव सिद्ध हो जाय । इस कारण यहाँ दूसरों की भी चर्चा की गई है। आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करने के लिये बहुत से प्रमाणों की क्या आवश्यकता है ? प्रधान प्रमाण प्रत्यक्ष से ही आत्मा की सिद्धि हो सकती है वह इस प्रकार - ज्ञान इच्छा और प्रयत्न आदि आत्मा के गुण मानस प्रत्यक्ष के द्वारा ही प्रत्यक्ष किये जाते हैं । और गुण तथा गुणी एक होने के कारण आत्मा भी मानस प्रत्यक्ष ही है । वह आत्मा धर्म और अधर्म का आश्रय होता हुआ भी कारण है तथा ज्ञानादि विशेष गुणों के सम्बन्ध से I વિવાદ નથી, કારણ કે અમે બન્ને પક્ષા મેાક્ષના તા સ્વીકાર જ કરીએ છીએ જે લાક મેાક્ષમાં માનતા નથી, તેમની સાથે જયારે શાસ્ત્રા કરવાનો પ્રસંગ ઉદ્ભવે છે, ત્યારે અમે સઘળા દાનિકો ભેગા થઇને તે અનાત્માવાદીઓના મતનું ખંડન કરીએ છીએ. જેના દ્વારા સ્વર્ગ, નરક, મેક્ષ આદિના સદ્ભાવ સિદ્ધ થઈ જાય, એવાં સ્વકીય આગમે અને પરકીય આગમાની અહીં ચર્ચા કરવામાં આવી છે. આત્માનું અસ્તિત્વ સિદ્ધ કરવા માટે ઘણાં પ્રમાણેાની શી આવશ્યકતા છે ? મુખ્ય પ્રમાણ પ્રત્યક્ષ દ્વારા જ આમાનું અસ્તિત્વ સિદ્ધથઈ શકે છે. તે આ પ્રકારે સિદ્ધ થાય છે. આત્માના જ્ઞાન, ઇચ્છા, પ્રયત્ન આદિ ગુણા માનસપ્રત્યક્ષ દ્વારા જ પ્રત્યક્ષ કરાય છે. તથા ગુણ અને ગુણી એક હાવાને કારણે આત્મા પણ માનસ પ્રત્યક્ષ જ છે. તે આત્મા ધ અને અધર્મીના આશ્રય ભૂત થતા થકો કારણ છે. તથા જ્ઞાનાદિ વિશેષ ગુણેના સ ંબંધથી તેના પણ પ્રત્યક્ષ રૂપે અનુભવ થાય છે. કહ્યું પણ છે કે.... વિશેષ ગુણ્ણાના સંબંધથી For Private And Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे ध्यक्षो विशेषगुणयोगतः" यथा रूपादिगुणानां चक्षुरिन्द्रियजन्यज्ञानविषयतया प्रत्यक्ष इति तादृशरूपादि गुणवान् घटादिरपि प्रत्यक्ष एव भवति न तत्र तस्य घटादेः प्रत्यक्षत्वे कस्यचित् विवादः प्रमाणान्तरान्वेषणं च क्रियते तथा ज्ञानादीनां मानसप्रत्यक्षत्वे तदभिन्नस्यात्मनोपि मानसप्रत्यक्षत्वमेव एवमहं सुखी दुःखी त्यादिरूपेणात्मनो मानसप्रत्यक्षग्राह्यत्वमेव वर्तते इति न प्रमाणान्तरान्वेषणमिति । __ नैयायिकमते गुणद्रव्ययोर्भेदात् मनसासुखादीनां ग्रहणं तेनैव च मनसा सुखाधिकरणस्य जीवस्यापि ग्रहणं जायते जैनमते तु गुणगुणिनो रभेदान्मनसासुखादिप्रत्यक्षे संवृत्ते मुखाद्यभिन्नस्य जीवस्यापि ग्रहणं भवत्येवेत्यनयोर्मतयोर्भेदः उसका भी प्रत्यक्ष होता है । कहा भी है-"विशेष गुणो के सम्बन्ध से धर्म और अधर्म का आश्रय (आत्मा) भी प्रत्यक्ष ही है । जैसे रूप आदि गुणों का चक्षुरिन्द्रिय जन्य ज्ञान का विषय होने से प्रत्यक्ष होता है, उसी प्रकार रूपादि गुणों वाले घटादि का भी प्रत्यक्ष ही होता है । घट आदि की प्रत्यक्षता में न किसी को विवाद है, और न किसी दूसरे प्रमाण की गवेषणा की जाती है, उसी प्रकार जब ज्ञानादि गुण मानस प्रत्यक्ष है तो उनसे अभिन्न आत्मा भी मानसप्रत्यक्ष ही है । इस प्रकार " मैं सुखी हूँ, दुखी हूँ" इत्यादि रूप से आत्मा भी मानस प्रत्यक्ष से ग्राह्य ही है । अतएव अन्य प्रमाणों की खोज करने की आवश्यकता ही नहीं है । नैयायिक मत में गुण और द्रव्य का भेद माना गया है। वहां मन से सुख आदि का ग्रहण होता है और उसी मनसे सुख के आधारभूत जीव का भी ग्रहण होता है । जैनमत में गुण और गुणी कथंचित् अभिन्न ધર્મ અને અધર્મને આશ્રય (આત્મા) પણ પ્રત્યક્ષ જ છે. જેવી રીતે રૂપ આદિ ગુણો, ચક્ષુરિન્દ્રિય જન્ય જ્ઞાન વિષય હેવાથી, તેમનો પ્રત્યક્ષ અનુભવ થાય છે, એ જ પ્રમાણે રૂપાદિ ગુણોવાળા ઘટાદિ પણ પ્રત્યક્ષ જ થાય છે. ઘટ (ઘડો) આદિની પ્રત્યક્ષતામાં કઈને વિવાદ કરવા જેવું પણ લાગતું નથી અને બીજા પ્રમાણની શોધ પણ કરવી પડતી નથી, એજ પ્રમાણે જે જ્ઞાનાદિ ગુણે માનસ પ્રત્યક્ષ હોય, તે તેમનાથી અભિન્ન એવે આત્મા પણ માનસપ્રત્યક્ષ જ છે. એ જ પ્રકારે “હું સુખી છું, દુઃખી છું” ઇત્યાદિ રૂપે આત્મા પણ માનસપ્રત્યક્ષ વડે ગ્રાહ્ય જ છે. તેથી અન્ય પ્રમાણેને શોધવાની જરૂર જ રહેતી નથી. નિયાયિક મતમાં ગુણ અને દ્રવ્યમાં ભેદ માનવામાં આવેલ છે. તે મત પ્રમાણે મન વડે સુખ આદિનું ગ્રહણ થાય છે અને એજ મન વડે સુખના આધાર ભૂત જીવનું પણ ગ્રહણ થાય છે. જૈનમત પ્રમાણે તે ગુણ અને ગુણી કેટલેક અંશે અભિન્ન છે. તેથી સુખ For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् १७ अनयोरभेदोप्यस्ति कथम् उभयोः प्रत्यक्षविषयत्वस्य समानत्वात् यथा नैयायिकमते मानसप्रत्यक्षविषयआत्मा तथाऽनेकान्तमतेपि मानसप्रत्यक्ष एवेति । देहः स्थौल्यादियोगाच्च स एवात्मा न चापरः । मम देहोऽयमित्युक्तिः संभवेदौपचारिकी इत्यादिना देहस्वरूपत्वमात्मन उक्तम् , उक्तं च-मम देह इत्यस्याः प्रतीतेरौपचारिकत्वं तन्न सम्यक, मम देह इत्यादि प्रतीत्या देहभिन्नत्वेनैव समर्थनात् संभवेदप्यौपचारिकत्वं यदि मुख्ये कश्चिद्वाधको भवेत् शरीरात्मनोéदस्य-प्रमाणैः साधनात् मम शरीरमित्यस्य मम गृहमितिवद्दविषयत्वेन मुख्यत्वस्यावाधहैं, अतएव सुखादि का प्रत्यक्ष होने पर सुखादि से अभिन्न जीव का भी ग्रहण हो ही जाता है । इस प्रकार इन दोनों मतों में भेद है। मगर दोनों में अभेद है। कैसे ? दोनों में प्रत्यक्षविषयता समान है । जैसे नैयायिक मत में आत्मा मानस प्रत्यक्ष है, उसी प्रकार अनेकान्तमत में भी स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ही है। ___"स्थूलता आदि के योग से देह ही आत्मा है, उससे अलग आत्मा नहीं है । "मम देहोऽयम्' अर्थात् यह मेरी देह है, इस प्रकार का कथन उपचार से होता है" यहां आत्मा को देह स्वरूप कहा है और "मेरा देह" इस प्रकार की प्रतीति को उपचरित कहा है । यह कथन समीचीन नहीं है । मेरी देह इत्यादि प्रतीति से देह से भिन्न ही आत्मा का समर्थन किया गया है । जब मुख्य में बाधा आती है तभी कोई प्रतीति उपचरित मानी जाती है । किन्तु शरीर और आत्मा का भेद प्रमाणों द्वारा सिद्ध किया जा चुका है, अतएव "मेरा घर" इस प्रतीति के समान "मेरा शरीर દિને પ્રત્યક્ષ અનુભવ થાય ત્યારે સુખાદિથી અભિન્ન એવા જીવનું પણ રહણ થઈ જાય છે. આ પ્રકારે તે બને તેમાં ભેદ છે. છતાં તે બન્નેમાં અભેદ પણ છે. કેવી રીતે અભેદ છે? બન્નેમાં પ્રત્યક્ષ વિષયતા સમાન છે. જેવી રીતે તૈયાયિક મતમાં આત્માને માનસપ્રત્યક્ષ માનવામાં આવ્યું છે, એ જ પ્રમાણે અનેકાન્ત મતમાં પણ સ્વસંવેદન પ્રત્યક્ષજ છે. - “સ્થલતા આદિના યોગથી દેહ જ આત્મા છે, તેનાથી અલગ આત્માનું અસ્તિત્વ नथी." "मम देहोऽयम" असे २ भाग हेड छ,” मा प्रानु थन औपचारिश રીતે થાય છે. અહીં આત્માને દેવસ્વરૂપ કહ્યો છે અને “મારો દેહ” આ પ્રકારના કથનને ઔપચારિક કહેવામાં આવ્યું છે. આ કથન ઉચિત નથી. “મારે દેહ” ઇત્યાદિ પ્રતીતિ દ્વારા દેહથી ભિન્ન એવા આત્માનું જ સમર્થન કરવામાં આવ્યું છે. જ્યારે મુખ્યમાં બાધા (અવરોધ, મુશ્કેલીઓ આવે છે, ત્યારે કાઈ પ્રતીતિને ઉપચરિત માનવાં આવે છે. પરંતુ શરીર અને આત્માની ભિન્નતા પ્રમાણે દ્વારા સિદ્ધ કરવામાં આવી ચુકી છે, તેથી “મારૂં ઘર” આ પ્રતીતિના સમાન મારૂં શરીર” આ પ્રતીતિ પણ શરીર અને આત્માના ભેદનું જ પ્રતિપાદન કરે છે. તેને મુખ્ય પ્રતીતિ માનવામાં કઈ વાંધો નથી. For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सूत्रकृताङ्गसूत्र नादिति । यदप्युक्तं न भूतभिन्नं चैतन्यं भूतकार्यत्वाद् घटवदिति तन्न सम्यक्, तादृशानुमाने भूतकार्यत्वादिति हेतोः स्वरूपासिद्धत्वात् यत्र हेतुः पक्षे न भवति अर्थात् हेत्वभाववान्पक्षः स्वरूपासिद्धिर्यथाशब्दोगुणश्चाक्षुषत्वात् अत्र चाक्षुषत्वस्य हेतोः शब्दात्मकपक्षेऽभावेन स्वरूपासिद्धत्वं चाक्षुपत्वस्य, शब्दस्य श्रोत्रेन्द्रियजन्यज्ञानविषयत्वस्वरूपश्रावणत्वदर्शनेन चाक्षुषत्वाभावाद्भवति स्वरूपासिद्धत्वं चाक्षुषत्वस्य तथाभूतकार्यत्वस्थ हेतोः पक्षे चैतन्येऽभावेन स्वरूपासिद्धत्वात् । चैतन्यं न भूतकार्यम् अतद्गुणत्वात् तथा संकलनाप्रत्ययाभावप्रसंगादिति स यह प्रतीति भी शरीर और आत्मा के भेद को विषय करती है । इसे मुख्य प्रतीति मानने में कोई बाधा नहीं है । _ तुमने यह जो कहा कि-चैतन्य भूतों से भिन्न नहीं है, क्योंकि वह भूतों का कार्य है, जैसे घट, सो ठीक नहीं क्योंकि यहां "भूतकार्यत्व" हेतु स्वरूपसिद्ध है । जहां हेतु पक्ष में नहीं रहता वहां हेतु का अभाव होने से पक्ष में स्वरूपसिद्धि होती है । जैसे "शब्द गुण है, क्योंकि वह चाक्षुष है ।" यहां चाक्षुषत्व हेतु शब्द रूप पक्ष में न रहने के कारण स्वरूपासिद्ध है । शब्द श्रोत्रेन्द्रिय जन्य ज्ञान का विषय होने से श्रावण है। उसमें चाक्षुपता नहीं है, अतएव वह स्वरूपासिद्ध है । इसी प्रकार "भूतकार्यत्व" हेतु चैतन्यरूप पक्ष में नहीं रहता, अतएव वह भी स्वरूपासिद्ध है । चैतन्यभूतों का कार्य नहीं है क्योंकि उसमें भूतों के गुण नहीं पाये जाते । तथा चैतन्य यदि भूतों का कार्य होता तो संकलनाप्रत्यय का अभाव होता, इस प्रकार विरोधी हेतुओं के विद्यमान होने से चैतन्य भूतों का कार्य नहीं है किन्तु ज्ञानादि आत्मा के ही कार्य हैं । તમે એવું જ કહ્યું કે “ચૈતન્ય ભૂતથી ભિન્ન નથી, કારણ કે તે ભૂતનું કાર્ય છે. જેમ કે ઘડે” તે આપનું તે કથન ઉચિત નથી. કારણ કે અહીં ભૂતકાત્વ” હેતુ સ્વરૂપસિદ્ધ છે જ્યાં હેતુ પક્ષમાં રહેતા નથી, ત્યાં હેતુને અભાવ હોવાથી પક્ષમાં સ્વરૂપસિદ્ધિ થાય છે. જેમ કે “શબ્દ ગુણ છે, કારણ કે તે ચાક્ષુષ (ચક્ષુઈન્દ્રિય દ્વારા ગ્રાહ્ય) છે.” અહીં ચાક્ષુષત્વ રૂપ હેતુને શબ્દ રૂપ પક્ષમાં સદ્દભાવ નહીં હોવાને કારણે સ્વરૂપ અસિદ્ધ છે, શબ્દ શ્રીન્દ્રિય જન્ય જ્ઞાન વિષય હોવાથી શ્રોત્રેન્દ્રિય દ્વારા જ ગ્રાહ્ય છે. તેમાં ચાક્ષુષતાને સદ્દભાવ નહીં હોવાને કારણે તે સ્વરૂપાસિદ્ધ છે. એજ પ્રકારે ભૂતકાર્યત્વ” હેતુ ચિતન્ય રૂપ પક્ષમાં રહેતું નથી, તેથી તે પણ સ્વરૂપસિદ્ધ છે. ચૈતન્યને ભૂતના કાર્ય રૂપ માની શકાય નહીં, કારણ કે તેમાં ભૂતોના ગુણોને અભાવ હોય છે. તથા ચેતન્ય જે ભૂતનું કાર્ય હતા, તે સંકલના પ્રત્યયને અભાવ હોત’ આ પ્રકારે વિરોધી હેતુઓ વિદ્યમાન હોવાથી ચૈતન્ય ભૂતોનું કાર્ય નથી, પરંતુ જ્ઞાનાદિ ગુણ તે આત્માને જ કાર્યરૂપ છે. For Private And Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् ८९ . प्रतिसाधनात् न भूतकार्यचैतन्यम पितु आत्मन एव कार्य ज्ञानादिकम् । अथ ज्ञानाधिकरणं ज्ञानभिन्नश्वात्मा कथं स्वीकरणीयः । न च तथाऽस्वीकारे संकलनादिकं कथं स्यादिति वाच्यम् ज्ञानादेव सर्वसंभवात् , ज्ञानं स्वप्रकाशात्मकम् प्रत्ययान्तरावेद्यत्वे सत्यपरोक्षव्यवहारयोग्यत्वात् , यन्नैव तन्नैवम् यथा घटः। यदि ज्ञानं परतः प्रकाश्येत तदा घटपरिच्छित्तये ज्ञानान्वेषणं ज्ञानपरिच्छित्तये च ज्ञानान्तरमन्वेषणीयम् ज्ञानान्तरस्वीकारे प्रवाहस्य कचिदपि अविरामेऽनवस्था आपतेत कचित्प्रत्ययप्रवाहस्य विश्रान्तौ अन्तिमज्ञानस्याज्ञाततया तद्विषयकसंशयादिसंभवात्पूर्वपूर्वसर्वज्ञानानामेव सन्दिग्धत्वात् विषयपर्यन्तं सन्देहविपर्ययप्रसंगात ___ आत्मा ज्ञान का अधिकरण है और ज्ञान से भिन्न है यह मत कैसे स्वीकार करने योग्य है ? यदि ऐसा स्वीकार नहीं करेंगे तो संकलना आदि किस प्रकार होंगे ? ऐसा नहीं कह सकते । ज्ञान से ही संकलनादि सब हो सकते हैं । ज्ञान स्वप्रकाशक है, क्योंकि वह ज्ञानान्तर से वेद्य (जानने योग्य) न होता हुआ अपरोक्ष व्यवहार के योग्य है । जो स्वप्रकाशक नहीं होता वह ज्ञानान्तर से ज्ञेय न होता हुआ अपरोक्ष व्यवहार के योग्य नहीं होता, जैसे घट । यदि ज्ञान किसी दूसरे ज्ञान के द्वारा जाना जाय तो घट को जानने के लिए दूसरे ज्ञान की आवश्यकता होती है और ज्ञान को जानने के लिये दूसरे ज्ञान की आवश्यकता पडेगी। इस प्रकार दसरे दसरे ज्ञानों के प्रवाह को स्वीकार करने का कहीं अन्त नहीं आएगा अतः अनवस्था दोष आएगा। यदि ज्ञानों के प्रवाह की कहीं विश्रान्ति मानी जाय तो अन्तिम ज्ञान अज्ञात रहेगा। उसके विषय में संशय आदि का संभव होने से पहले पहले के सभी ज्ञान अज्ञान हो जाएँगे । પ્રશ્ન- “આત્મા જ્ઞાનને આધાર છે અને જ્ઞાનથી ભિન્ન છે, આ મત કેવી રીતે સ્વીકાર્ય બની શકે? આપ એવી દલીલ કરી શકે નહીં કે “જે એ સ્વીકાર ન કરવામાં આવે તે સંકલના આદિ કેવી રીતે થશે.” જ્ઞાન વડે જ સંકલન આદિ થઈ શકે છે. જ્ઞાન સ્વપ્રકાશક છે, કારણ કે તે જ્ઞાનાન્તર દ્વારા વેદ્ય (જાણવા યોગ્ય નથી, પરંતુ અપક્ષ વ્યવહારને યોગ્ય છે. જે સ્વપ્રકાશક ન હોય તે જ્ઞાનાન્તર વડે ય ન થવાને લીધે અપક્ષ વ્યવહારને ગ્ય હેતું નથી, જેમ કે ઘટ (ઘડો) જે જ્ઞાનને કેઈ બીજા જ્ઞાન દ્વારા જાણવામાં આવે, તે ઘડાને જાણવાને માટે જ્ઞાનની જેમ આવશ્યકતા રહે છે, તેમ જ્ઞાનને જાણવા માટે બીજા જ્ઞાનની આવશ્યકતા રહે! આ પ્રકારે તે બીજા, ત્રીજા, ચોથા ઈત્યાદિ જ્ઞાનના પ્રવાહને સ્વીકારવાને અન્ત જ નહીં આવે! આ પ્રકારે તે અનવસ્થા દોષને પ્રસંગ પ્રાપ્ત થશે. જે જ્ઞાનના પ્રવાહને કોઈ પણ સ્થાને અત માનવામાં આવે, તે અન્તિમ જ્ઞાન અજ્ઞાત રહેશે. તેની ઉત્પત્તિના વિષયમાં સંશય For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसने तस्माज्ज्ञानस्य स्वप्रकाशता आवश्यकी, किंच यदि जड़त्वमेव ज्ञानस्य स्यात्तदा विषयास्तु जड़ा एवेति केन कस्य प्रकाश इति जगदान्ध्यम् आपतेत । नहि ज्ञाने जाते कस्यापि संदेहविपर्ययौ भवतः । तस्मात्स्वप्रकाशात्मकज्ञानस्य कायांकारपरिणताचेतनभूतैः सह संबन्धे सति मुखदुःखेच्छादिसर्पगुणानामुत्पादन स्यादेवं संकलनाप्रत्ययोपि स्यात्तथा भवाद्भवान्तरगमनमपि स्यादिति सर्वव्यवस्थोंपपती किमतिरिक्तात्मकल्पनव्यसनेनेति चेत् अत्रोच्यते सत्यं, ज्ञानं स्वप्रकाशल्पं, तथापि तस्याधारभूतः कथंचिज्ज्ञानभिन्नआत्मा स्वीकरणीय एव । अन्यथा इस प्रकार विषय पर्यन्त सन्देह और विपर्यय का प्रसंग होगा। अतएव ज्ञान को स्वप्रकाशक मानना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त ज्ञान यदि जड़ है और विषय भी जड़ है तो किसके द्वारा किसका प्रकाश होगा ? फिर तो जगत् में अन्धता ही हो जाएगी। ज्ञान उत्पन्न हो जाने पर किसी को भी सन्देह या विपर्यय नहीं होता। अतएव स्वप्रकाशात्मक ज्ञान का, शरीर के आकार में परिणत अचेतन भूतों के साथ सम्बन्ध होने पर सुख दुःख ३च्छा आदि सभी गुणों की उत्पत्ति हो जाती है। ऐसा मानने से संकलना प्रत्यय भी बन जाता है और एक भव से दूसरे भव में गमनं भी घटित हो जाता है । इस प्रकार सारी व्यवस्था संगत हो जाने पर अलग आत्मा की कल्पना करने से क्या लाभ है ? इस प्रश्न का समाधान करते हैं-ज्ञान स्वप्रकाशक है, यह सत्य है; तथापि उस ज्ञान का आधार एवं ज्ञान से कथचित् भिन्न आत्मा तो स्वीकार करनी ही આદિને સંભવ હોવાને કારણે તેની પહેલાંના સઘળા જ્ઞાને અજ્ઞાન રૂપ જ મનાશે. આ પ્રકારે તે સન્દહ અને વિપર્યવને જ પ્રસંગ પ્રાપ્ત થાય છે. તેથી જ જ્ઞાનને સ્વપ્રકાશક માનવું જ પડશે. તદુપરાંત જ્ઞાન જે જડ હોય અને વિષય પણ જડ હેય, તે કેના દ્વારા કણ પ્રકટ થશે? એવું બને, તે જગતમાં અંધતા જ વ્યાપી જાય. જ્ઞાન ઉત્પન્ન થઈ ગયા બાદ કેઈને પણ સન્ડેડ અથવા વિપર્યવ થવાનું સંભવી શકતું નથી. તેથી સ્વપ્રકશાત્મક જ્ઞાનને, શરીરના આકાર રૂપે પરિણત અચેતન ભૂતની સાથે સંબંધ થવાથી સુખ દુઃખ, ઈશ્વછા આદિ સઘળા ગુણોની ઉત્પત્તિ થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે માનવાથી સંકલના પ્રત્યય પણું શક્ય બની જાય છે અને એક ભવમાંથી બીજા ભવમાં ગમન પણ ઘટિત થઈ જય છે. આ પ્રકારે સઘળી વ્યવસ્થા સંગત બની જતી હોય, તે અલગ આત્માની કપના કરવાથી શું લાભ થાય તેમ છે? સૂત્રકાર આ પ્રશ્નનું હવે સમાધાન કરે છે– સાને સ્વપ્રકાશક છે, એ વાત સત્ય છે. છતાં પણ તે જ્ઞાનને આધાર અને જ્ઞાન કરતાં કંઈક ભિન્ન એવા. આત્માને તે સ્વીકાર કરે જ જોઈએ. એ સ્વીકાર નહીં કરે તે For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थबोधिनी टीका प्र. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् " संकलनाज्ञानं न स्यात् तथाहि प्रत्येकमिन्द्रियं स्वस्वविषयग्रहणे एव प्रवणम् यथा चक्ष रूपमेव विषयीकरोति नतु रसनेन्द्रियादिविषयान् विषयीकरोति कदाचिदपि, एवंच यदिकश्चिद् आत्मा इन्द्रियव्यतिरिक्तो न भवेत्तदा परिच्छेत्तुरभावात् मया पञ्चापि विषयाः परिच्छिन्ना इत्याकारक संकलना ज्ञानस्याभावप्रसंगादतो ज्ञानाधिकरणं ज्ञानभिन्नश्रात्मा अवश्यमेवांगीकरणीय इति । न च ज्ञानाधिकरणमतिरिक्तो नास्तिकश्चिदद्रव्यरूपः किन्तु ज्ञानमेवालया परपययं प्रवृत्तिविज्ञानस्य जनकमधिकरणं च अर्थात् विज्ञानं द्विविधम्, आलयविज्ञानं प्रवृत्तिविज्ञानं च तत्राहमास्पदम् सुखाद्यनुसंधातुआलयविज्ञानम्, द्वितीयं तु- घटादि विषयकम् । तदुक्तं चाहिए । ऐसा स्वीकार न करेंगे तो संकलना ज्ञान नहीं होगा । क्योंकि प्रत्येक इन्द्रिय अपने विषय को ही ग्रहण करने में समर्थ होती है। चक्षु रूप को ही जानती है, रसादि को कदापि नहीं जान सकती । इस प्रकार यदि इन्द्रियों से भिन्न आत्मा का अस्तित्व न होगा तो ज्ञापक का अभाव होने से “मैंने पाँचों ही विषय जाने" इस प्रकार के संकलनाज्ञान का अभाव हो जाएगा । अतः ज्ञान का अधिकरण किन्तु ज्ञान से कथंचित् भिन्न आत्माका अवश्य ही स्वीकार करना चाहिए । ज्ञान का अधिकरण कोई द्रव्य नहीं है, किन्तु "आलय " (आधार) इस नामान्तर चाला ज्ञान ही प्रवृत्ति विज्ञान का जनक होता है और वही अधिकरण है । अर्थात् विज्ञान दो प्रकार का है आलय विज्ञान और प्रवृत्ति विज्ञान | इसमें “अहम् " प्रत्यय का आधार और सुखादि का अनुसन्धानकर्त्ता आलयविज्ञान है और घट आदि को विषय करने वाला प्रवृत्तिविज्ञान कहलाता સકલના જ્ઞાન અસ’ભવિત થશે, કારણ કે પ્રત્યેક ઇન્દ્રિય પાત પેાતાના વિષયને ગ્રહણ કરવાને સમર્થ હોય છે. ચક્ષુ દ્વારા રૂપને જ જાણી શકાય છે, રસાદિના અનુભવ ચક્ષુ દ્વારા કદી થઈ શકતા નથી. આ પ્રકારે ઇન્દ્રિયાથી ભિન્ન એવા આત્માના સદ્ભાવ ન હેાય, તે જ્ઞાપકના અભાવ હાવાથી મેં પાંચ વિષય જાણ્યા,” આ પ્રકારના સકલના જ્ઞાનના અભાવ થઈ જશે. તેથી જ્ઞાનના આધાર રૂપ અને જ્ઞાનથી કંઈક ભિન્ન એવા આત્માના સ્વીકાર अवश्य ४२वोन लेखि ज्ञाननु अधिर (आधार) अर्ध द्रव्य नथी, परन्तु "मासय” (આધાર) આ નામાન્તર વાળું જ્ઞાન જ પ્રવૃત્તિવિજ્ઞાનનું જનક હાયછે અને એજ અધિ १२ ३५ पशु छे. भेटले } विज्ञान मे प्रारनु छे - (१) मासय विज्ञान भने ( २ ) अंgत्तिविज्ञान. तेभांथी “अहम्” “हु" प्रत्ययनो आधार भने सुहिनु अनुसन्धान उत આલયવિજ્ઞાન છે. અને ઘટ આદિને વિષય કરનારૂ' (ગ્રહણ કરનારૂ) જે વિજ્ઞાન છે તેને For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुतासूत्रे " तत्स्यादालयविज्ञानं यद्भवेदहमास्पदम् । तत्स्यात्प्रवृत्तिविज्ञानम् यन्नीलादिकमुल्लिखेदिति ॥ एवं च संकलना ज्ञानादीनामपि संग्रह : संभवश्वापि घटते एव ततश्च ज्ञानव्यतिरिक्तात्मसद्भाव प्रयासो मुधैवेति वाच्यम् स्वप्रकाशात्मकविज्ञानस्वरूप भेदं पुरस्कृत्य सर्वव्यवस्थोपपादने संज्ञामात्रे एव विवादस्य पर्यवसानात्। आत्मवादिनामात्मा घटादि विज्ञानानां सुखादीनामधिकरणमभ्युपगतो भवताप्यालयविज्ञानस्य तदेव स्वरूपं स्वीकृतमिति जीवस्यैव नामान्तरेण भवतापि स्वीकृतत्वादिति । नहि ज्ञानरूपो गुणो गुणिनमात्मानं परित्यज्यान्यत्रावस्थातुं निराधारतया वाऽवस्थतुं शक्नोति इत्यवश्यमेवात्मना गुणवताभाव्यमिति । ननु ज्ञानस्य स्वप्रकाशत्वमुक्तमभिमतंच स्वपरव्यवसायिप्रमाणहै। कहा भी है- "तत्स्यादालयविज्ञानं " इत्यादि । "जो" "अहम्" प्रत्यय का आधार है वह आलय विज्ञान है और जो नीलादि पदार्थों को जानता है वह प्रवृत्ति विज्ञान कहलाता है" इस प्रकार संकलनाज्ञान आदि भी घटित हो जाते हैं, अतः ज्ञान से भिन्न आत्मा के सद्भाव का प्रयास वृथा ही है । ऐसा कहना उचित नहीं है । स्वप्रकाशक ज्ञान के स्वरूप भेद को सामने रख कर यदि आप समस्त व्यवस्था की संगति कहते हैं तो यह तो नाम मात्र में ही भेद हुआ । आत्मवादी आत्मा को घटादि के ज्ञानों का और सुखादि का अधिकरण मानते हैं । आपने भी आलय विज्ञान का वही स्वरूप स्वीकार किया है । इस प्रकार आलय विज्ञान नाम देकर आपने भी जीव को ही स्वीकार किया है। ज्ञान गुण गुणी आत्मा को छोडकर अन्यत्र नहीं रह सकता और न निराधार ही ठहर सकता है | ravव जब ज्ञान गुण है तो गुणवान् आत्मा भी होना चाहिये । For Private And Personal Use Only प्रवृत्तिविज्ञान उहे छे. उधुं पशु छे डे- “तत्स्यादालयविज्ञान" त्यिाहि " ने "महुभ् પ્રત્યય (અનુભવ) ના આધાર રૂપ વિશિષ્ટ જ્ઞાનછે તેને આલયવિજ્ઞાન કહે છે, અને નીલાદિ પદાર્થીને જાણે છે તે વિશિષ્ટ જ્ઞાનને પ્રવૃત્તિ વિજ્ઞાન કહે છે.” આ પ્રકારે સ`કલના જ્ઞાન આફ્રિ પણ ઘટિત થઈ જાય છે, તેથી જ્ઞાનથી ભિન્ન એવા આત્માને સદ્ભાવ માનવાના પ્રયાસ જ નકામે છે,” આ પ્રકારનું કથન પણ ઉચિત નથી. સ્વપ્રકાશક જ્ઞાનના સ્વરૂપભેદને નજર સમક્ષ રાખીને, જો આપ સમસ્ત વ્યવસ્થાને સ ંગત કહેતા હૈા, તે તે નામમાત્રને જ ભેન્ર થયા. આત્મવાદી આત્માને ઘટાદિના જ્ઞાનાનુ અને સુખાદિનું અધિકરણ માને છે. આપે પણ આલયવિજ્ઞાનનું એજ સ્વરૂપ સ્વીકાર્યું છે આ પ્રકારે આલયવિજ્ઞાનનુ નામ દઈને આપે પણ જીવના જ સ્વીકાર કર્યાં છે. જ્ઞાનગુણ ગુણીને (આત્મ ને) છોડીને અન્યમાં રહી શકતા નથી, અને વિના આધાર પણ રહી શકતા નથી. તેથી જ જો જ્ઞાનગુણુના સદ્ભાવ માનવામાં આવે, તે ગુણવાન અમાને પણ સદ્ભાવ સ્વીકારવા જ જોઇએ. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Sarafat chot प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकमत स्वरूपनिरूपणम् मित्यस्मिन् सूत्रे स्वपरमर्थंच व्यवस्यति निश्चिनोत्येवं शीलं यत्तदेव प्रमाणमितिवदता जैनाचार्येण ज्ञानस्य स्वप्रकाशताया अभ्युपगमात् तदस्वीकारेऽनवस्थाजगदान्ध्यप्रसंगात्मकदण्डमप्याह । तत्र ज्ञानस्य स्वप्रकाशतायां किंचिचर्चयामि स्वबोधपरिशुद्धये विदुषां प्रमोदाय च। न च स्वस्य परितोषमात्रेण पदार्थों विशुद्धिपथमवतरति किन्तु परेषां सन्तोषादपि । यदुक्तम् " आपरितोषाद्विदुषां न साधुमन्ये प्रयोग - प्रश्न- आपने ज्ञान को स्वपरप्रकाशक कहा हैं और माना है " जो ज्ञान स्व का और पर का निश्चय करता है, वह प्रमाण हैं ।" इस सूत्र में यही कहा गया है कि जो स्व अर्थात् स्वयं अपने आप का और पर अर्थात् अर्थ का निश्चय करता है, वही प्रमाण कहलाता है । इस प्रकार कहने वाले भगवान् ने ज्ञान की स्वपरप्रकाशकता स्वीकार की है। ज्ञान को स्वपर प्रकाशक न मानने पर अनवस्था और जगत् की अन्धता का प्रसंग रूप दंड का भी कथन किया है । तो यहां अपने ज्ञान की परिशुद्धि के लिए तथा विद्वानों के प्रमोद के लिए ज्ञान की स्वपरप्रकाशकता की किंचित् चर्चा करते हैं। अपने को सन्तोष हो जाने मात्र से पदार्थ विशुद्धि पथ को प्राप्त नहीं होता अर्थात् निर्दोष सिद्ध नहीं हो जाता किन्तु दूसरों को भी सन्तोष होना चाहिए । कहा भी है- " आपरितोषाद्विदुषाम्" इत्यादि । विद्वानों को यदि सन्तोष न हुआ तो प्रयोग विज्ञान को मैं समीचीन नहीं मानता अच्छी प्रकार शिक्षा प्राप्त कर लेने पर भी अपने मन में विश्वास नहीं होता । प्रश्न- आये ज्ञानने स्वप्राश उधु छे भने भान्युं छे. "ने ज्ञान स्वनो ( पोताना) અને પરને નિશ્ચય કરે છે, તેનુ નામ પ્રમાણ છે.” આ સૂત્રમાં એજ વાત કહેવામાં આવી છે કે જે સ્વ અથવા પેાતાની જાતના અને પર એટલે કે અર્થના નિશ્ચય કરે છે, તેનેજ પ્રમાણ કહે છે. આ પ્રમાણે પ્રજ્ઞાપિત કરનાર ભગવાને જ્ઞાનની સ્વપ્રકાશતા અને પરપ્રકાશતાના સ્વીકાર કર્યાં છે. જ્ઞાનને સ્વપ્રકાશક ન માનવામાં આવે, તે અનવસ્થા દોષ અને જગતની 'ધતાના પ્રસગ રૂપ દંડનું' પણ આપે કથન કર્યું" છે, તે અહી પેાતાના જ્ઞાનની પરિશુદ્ધિને માટે તથા વિદ્વાનોના પ્રમાદને માટે જ્ઞાનની સ્વપ્રકાશકતાની થોડી ચર્ચા કરવામાં આવે છે. પેાતાને સતાષ થઇ જવા માત્રથી જ પદાર્થ નિર્દોષ સિદ્ધ થઇ જતા नथी, परन्तु जीन सोओने पशु संतोष थयो . ह्युं पशु छे - " अपरितोषाद्विदुषाम् " ઇત્યાદિ વિદ્વાનોને જો સ ંતોષ ન થાય, તેા પ્રયોગવિજ્ઞાનને હું સમીચીન માનતા નથી. સારી રીતે શિક્ષા પ્રાપ્ત કરી લેવા છતાં પણ પેાતાના મનમાં વિશ્વાસ ઉત્પન્ન થતા નથી. For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकतास्त्र विज्ञानम् । बलवदपि शिक्षितानामात्मन्यप्रत्ययं चेतः इति स्वप्रकाशत्वं ज्ञाननिष्ठमधिकृत्य विचारयामि । किं स्वश्वासौ प्रकाशश्चेति स्वप्रकाशः । किं वा स्वस्य स्क्यमेव प्रकाशः स्वप्रकाशः। किं वा सजातीयप्रकाशाप्रकाश्यत्वं । अवेद्यत्वे सति अपरोक्षव्यवहारयोग्यत्वं वा स्वप्रकाशत्वम् । तत्र नाद्यः पक्षः साधीयान् मीमांसकै ानान्तरवेद्यस्यापि ज्ञानस्य स्वप्रकाशत्वस्वीकारेण भवल्लक्षणस्यातिव्याप्तिप्रसंगात्। नचाति व्यप्तौ को दोष इति वच्यम् इतरभेदानुमापकहेतौ व्यभिचारप्रसंगात् अयमाशयः लक्षण हि लक्ष्यस्य स्वेतरेभ्यो व्यावृत्तिं प्रतिपादयति व्यवहारं वा सम्पादयति"व्यावृतिर्व्यवहारोवा लक्षणस्य प्रयोजनमिति नियमात्,तथा च लक्षणस्य अतएव ज्ञान की स्वपरप्रकाशकता को लेकर विचार करते हैं । आपका मानना स्वप्रकाशक क्या है ? (१) क्या स्वरूप प्रकाश स्वप्रकाश है ? (२) या स्व का स्वयं प्रकाश होना स्वप्रकाश है ? (३) या सजातीय प्रकाश के द्वारा प्रकाश्य न होना स्वप्रकाश है ? (४) या अवेद्य (अज्ञेय) होते हुए अपरोक्ष व्यवहार के योग्य होना स्वप्रकाशत्व है ? इनमें से प्रथम पक्ष ठीक नहीं है, क्योंकि मीमांसकों ने दूसरे ज्ञान के द्वारा वेद्य भी ज्ञान को स्वप्रकाशत्व स्वीकार किया है, अतएव आपके लक्षण में अतिव्याप्ति दोष का प्रसंग आता है । अतिव्याप्ति दोष आता है तो क्या हानि है ? ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि इतरभेदानुमानसाधक हेतु में व्यभिचार आता है । तात्पर्य यह है कि लक्षण लक्ष्य की अन्य पदार्थों से व्यावृत्ति (भिन्नता) का प्रतिपादन करता है और व्यवहार करता है । "व्यावृत्ति और व्यवहार लक्षण के प्रयोजन हैं ऐसा नियम है । अतएव તેથી જ્ઞાનની સ્વપ્રકાશતાની અપેક્ષાએ આ પ્રમાણે વિચારણા કરવામાં આવે છે આપની માન્યતા અનુસાર સ્વપ્રકાશ શું છે? (૧) શું સ્વરૂપ પ્રકાશને આપ સ્વપ્રકાશ માને છો? અથવા (२) स्वनी स्वयं प्राश थवो, ते स्वाश छ? अथवा (3) सन्ततीय ॥२द्वारा प्राश्य ન થવું, તેનું નામ સ્વપ્રકાશ છે? અથવા અદ્ય (અય) હોવા છતાં પણ અપરોક્ષ વ્યવહારને કેચ હોવું તેનું નામ સ્વપ્રકાશત્વ છે? આ ચાર વિકલ્પમાને પહેલે વિકલ્પ સ્વીકાર્ય નથી કારણ કે મીમાંસકેએ બીજા જ્ઞાનના દ્વારા વેદ્ય જ્ઞાનને પણ સ્વપ્રકાશક રૂપે સ્વીકાર્યું છે, તેથી આપના લક્ષણમાં અતિવ્યાપ્તિ દોષને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થાય છે. “અતિવ્યાપ્તિ દોષ આવતો હોય તો ભલે આવતી તેમાં શી હાનિ છે?” એ પ્રકારનું કથન પણ ગ્ય નથી. કારણ કે ઈતર ભેદાનમાન સાધક હેતુમાં વ્યભિચારને (અવળે માર્ગે દોરી જનાર) સદ્દભાવ આવવાને પ્રસંગ આવે છે. આ કથનનું તાડૂર્ય એ છે કે લક્ષણ લક્ષ્યથી અન્ય પદાર્થો સાથેની વ્યાવૃત્તિ (ભિન્નતાનું પ્રતિપાદન કરે છે અને વ્યવહાર કરાવે છે. “વ્યાવૃત્તિ અને વ્યવહાર લક્ષણના પ્રયોજન છે.” એ નિયમ છે. For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बोधिनी टीका प्र. शु. अ. ९ चार्वाकमत स्वरूपनिरूपणम् यो दोषाः संभवन्ति अव्याप्त्यतिव्याप्त्यसंभवाख्याः तत्र लक्ष्यतावच्छेदक समानाधिकरणात्यंताभावप्रतियोगित्वं । लक्ष्यैकदेशे लक्षणासत्वम्. यथागोनलरूपवत्वं लक्षणं कृतं चेत्तदा लक्ष्यतावच्छेदकगोत्वाधिकरणे श्वेतगवि नीलरूपाभवस्य विद्यमानत्वेनाव्याप्तिप्रसंगात् । लक्ष्यतावच्छेदकसामानाधिकरण्ये सति लक्ष्यता बच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकान्योन्याभावसामानाधिकरण्यमलक्ष्ये लक्षणगमन मिति यावत् । यथा गोः श्रृंगित्व लक्षणे अंगित्वस्य लक्ष्यतावच्छेदकगोत्वसामानाधिकरण्यं गवि तिष्ठति तथा गोत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकान्योन्याभावाधिकरणे महिष्यादावपि शृंगित्वमस्ति इत्यलक्ष्ये महिषादौ गित्वस्य विद्यमानतया भवत्य ९५ 1 लक्षण के तीन दोष होते हैं - (१) अव्याप्ति ( २ ) अतिव्याप्ति और (३) असंभव । इनमें से लक्ष्यतावच्छेदक के समानाधिकरण अत्यन्ताभाव का प्रतियोगी होना लक्ष्य एकदेश में लक्षण का न होना है । जैसे किसी ने नील रूप गाय का लक्षण किया । किन्तु लक्ष्यतावच्छेदक अर्थात् गोव के अधिकरण श्वेत गाय में नील रूप का अभाव पाया जाता है, अतएव इस लक्षण में अव्याप्ति दोष का प्रसंग है । तथा लक्ष्यतावच्छेदक की समानाधिकरणता होने पर लक्ष्यतावच्छेदक से अवच्छिन्न का अन्योन्याभाव की समानाधिकरणता अलक्ष्य में लक्षण का चला जाना कहलाता है । जैसे किसी ने गाय का श्रृंगवत्व लक्षण किया । यहां श्रृंगवत्व लक्ष्यतावच्छेदक गोव के अधिकरण गाय में रहता है और साथ ही गोत्वावच्छिन्न प्रतियोगिता का ज्ञापक ( गौर्न) इत्याकारक अन्योन्याभाव - अधिकरण म आदि में भी श्रृंगवत्व रहता है । इस प्रकार अलक्ष्य अर्थात् महिष आदि તેથી લક્ષણના ત્રણ દોષ કહ્યા છે For Private And Personal Use Only (अध्याप्ति ( २) अतिव्याप्ति मने (3) असंभव. सक्ष्यता छेउना (महार्थना નિણ્ય કર નાર) સમાનાધિકરણ અચન્તાભાવનુ પ્રતિયાગિત્વ (અભાવ) હેવુ તેનુ નામ લક્ષ્યના એક દેશમાં લક્ષણનો અભાવ છે. જેમ કે કોઇ વ્યક્તિ નીલા રંગને ગાયનું લક્ષણ કહે છે. પરન્તુ લક્ષ્યતાવચ્છેદક એટલે કે ગેાત્વના અધિકરણમાં સફેદ ગાયમાં નીલ રૂપનો અભાવ જોવામાં આવે છે. તેથી આ લક્ષણમાં અવ્યાપ્તિ દોષનો પ્રસગ આવે છે, તથા લક્ષ્યતાવકની સમાનાધિકરણતા હાય ત્યારે લક્ષ્યતાવદકથી અવચ્છિન્ન (હમેશારહેનાર) અન્યેાન્યાભાવની સમાનાધિકરણતાને અલક્ષ્યમાં લક્ષણનુ ગમન કહે છે. જેમ કે કાઇએ ગાયનું એવું લક્ષણ કહ્યું કે ગાયને શિ ંગડાં હોય છે. આ કથન દ્વારા શ્રૃંગયુક્તતાને ગાયનુ લક્ષણ કહેવામાં આવેલ છે, અહીં શ્રૃંગવત્વ લક્ષ્યતાવક ગેાત્વના અધિકરણ ગાયમાં પણ રહે છે અને સાથે સાથે ગાવચ્છિન્ન પ્રતિયેાગિતાનું જ્ઞાપક હત્યાકારક Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे तिव्याप्तिः। लक्ष्यतावच्छेदक व्यापकाभावप्रतियोगित्वं लक्ष्यमात्रे कुत्राप्यवर्तनमसंभवः यथा एकशफवत्वं गोर्लक्षणं भवेत्तदा गोत्वं यत्र यत्र तिष्ठति तत्र सर्वत्र एकशफवत्वं नास्ति गोसामान्यस्य द्विशफवत्त्वादेकशफवत्वस्य गर्दभादावेव विद्यमानत्वेन गोत्वव्यापकीभूताभावस्यैकशफवत्त्वाभावस्य प्रतियोगित्वमेकशफे भवत् असंभवत्वमभिव्यनक्ति । एवं चेतरभेदानुमानसमये लक्षणमेव हेतुर्भवति तथा च गौः स्वेतरेम्यो भिद्यते शृंगित्वादिन्यनुमाने शृंगित्वस्य महिषेपि विद्यमानतया तत्र महिषे गवेतरभेदरूपसाध्यस्याभावादितरभेदानुमानं में श्रृंगवत्व विद्यमान होने से इस लक्षण में अतिव्याप्ति दोष है । तथा लक्ष्यतालच्छेदक का व्यापकी भूत अभाव का प्रतियोगी होना असंभव दोष है अर्थात लक्ष्य मात्र में कहीं भी लक्षण का न पाया जाना असंभव दोष है। जैसे किसी किसी ने एक खुर होना गाय का लक्षण किया । किन्तु जहां जहां गोत्व है वहां सर्वत्र एक खुर के पाये जाने का अभाव है क्योंकि प्रत्येक गौ दो खुरों वाली होती हैं । एक खुर तो गधे आदि में ही पाया जाता है । इस प्रकार गोत्व का व्यापक अभाव एक खुरत्व का अभाव, अभाव की प्रतियोगिता एक खुर में रहती है । यह असंभवता को प्रकट करती है । इस प्रकार दूसरों से भेद का अनुमान करते समय लक्षण ही हेतु बन जाता है । अतएव गौ दूसरों से भिन्न है, क्योंकि वह सींग वाली है। इस अनुमान में श्रृंगवत्व भैस में भी विद्यमान होने के कारण महिष में गौ से इतर की भिन्नता रूप साध्यका अभाव होने से इतर भेद का અન્યાભાવના અધિકરણ ભેંસ-આદિમાં પણ #ગત્વની સભાવ રહે છે. આ રીતે અલચમાં એટલે કે ભેંસ આદિમાં શૃંગને સદ્ભાવ હોવાને કારણે, આ લક્ષણમાં અતિવ્યાપ્તિ દેષને સદભાવ રહે છે, તથા લક્ષ્યમાં તે લક્ષણને સદ્ભાવ જન , તેનું નામ અસંભવ દેષ છે, જેમ કે ફાટ વિનાની ખરી-આખી ખરી હેવી તે ગાયનું લક્ષણ છે આ પ્રકારના લક્ષણમાં અસંભવ દોષ રહેલે છે કારણ કે પ્રત્યેક ગાયને બેખરી ફાટવાળી ખરી હોય છે આખી ખરીને સદ્ભાવ તો ઘેડા ગઘેડા આદિમાં જોવામાં આવે છે આ પ્રકારે બીજાની સાથેના ભેદનું અનુમાન કરતી વખતે લક્ષણ જ હેત બની જાય છે. શિંગડાંવાળી હવાને કારણે ગાય અન્ય પ્રાણીઓ કરતા ભિન્ન છે. આ અનુમાનમાં અતિવ્યાપ્તિ દોષ રહેલે છે. કારણ કે ભેસમાં પણ શૃંગયુક્તતા રહેલી જ હોય છે. આ લક્ષણ દ્વારા ભેમાં ગાય કરતા ભિન્નતાને અભાવ જ દેખાય છે, તેથી આ પ્રકારનું For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. १ चाकिमतस्वरूपनिरूपणम् ९७ न स्यात् व्यभिचाराघ्रातत्वात् अतस्तथाप्रयत्नो विधेयो यावतालक्षणेऽतिव्याप्त्यादिदोषो न भवेत् स्वप्रकाशस्य प्रकृतलक्षणेऽतिव्याप्तिर्भवति कथं न क्षतिमापादयिष्यतीति । न वा द्वितीयःपक्षः क्षोदक्षमः स्वस्मिन् कर्तृकर्मभावस्य विरोधात् नहि स एव कर्ता भवति तदेव च कर्म भवति परसमवेतक्रियाजन्यफलशालित्वात्कर्मणः यथा देवदत्तो ग्रामं गच्छतीत्यत्र देवदत्तसमवेतक्रियाजन्य संयोगात्मकफलव्याप्यत्वेन ग्रामस्य कर्मत्वं संपद्यते तत्र देवदत्तरूपकर्तुः सकाशाद्ग्रामस्य विभिन्नत्वदर्शनेन कर्तृकर्मणो दस्यावश्यकत्वादतएव मल्लो मल्लं गच्छतीति प्रयोगो भवति न भवति च स्वः स्वं गच्छतीति तदिहापि स्व स्व अनुमान नहीं किया जा सकता क्योंकि हेतु में व्यभिचार दोष है । अतः प्रयत्न ऐसा करना चाहिए कि लक्षण में अतिव्याप्ति अव्याप्ति आदि न हों । स्वप्रकाश के प्रकृत लक्षण में अतिव्याप्ति दोष आता है । वह कैसे क्षति नहीं पहुँचाएगा ? दूसरा पक्ष भी विचार को सहन नहीं करता, क्योंकि अपने आपमें कर्ता कर्मपन का होना विरुद्ध है वही कर्ता हो और वही कर्म हो, ऐसा होना संभव नहीं है । कर्म परसमवेत क्रिया से जनित फल वाला होता हैं । जैसे "देवदत्त ग्राम को जाता है" यहां देवदत्त में समवेत (समवाय संबन्ध से रहने वाली) क्रिया द्वारा उत्पन्न होने वाले संयोगरूप फल वाला होने से ग्राम कर्म है । यहां "देवदत्त' कर्ता है और ग्राम कर्म है तथा दोनों भिन्न हैं। इस प्रकार कर्ता और कर्म में भेद होना आवश्यक है । इसी कारण "मल्लो मल्लं गच्छति" ऐसा प्रयोग होता है લક્ષણ અતિવ્યાપ્તિ દોષ રૂપ છે, તેથી એ પ્રયત્ન કરે જોઈએ કે લક્ષણમાં અવ્યાપ્તિ, અતિવ્યાપ્તિ આદિ દોષને સદ્ભાવ જ ન રહે. સ્વપ્રકાશકના પ્રકૃતિ (પ્રસ્તુત) લક્ષણમાં અતિવ્યાપ્તિ દોષને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થાય છે. તે તેના દ્વારા ઉપયુક્ત માન્યતાનું શું ખંડન થતું નથી? બીજો પક્ષ (વિકલ્પ) સ્વીકારી શકાય તેમ નથી, કારણ કે પિતાની જાતમાં જ કર્તા અને કર્મપણાને સદૂભાવ હોવાની વાત સંભવી શક્તી નથી. એટલે કે જે કર્યા હોય એજ કર્મ પણ હોય – કર્તા અને કર્મ એક જ હોય એવું પણ સંભવી શકતું નથી. કર્મ પર સમેત (પની સાથે સમવાય સંબંધથી રહેનારી) ક્રિયા દ્વારા જનિત ફલવાળું હોય છે. જેમ કે “દેવદત્ત ગામ જાય છે અહીં દેવદત્તમાં સમેત (સમવાય સંબંધથી રહેનારી) ક્રિયા દ્વારા ઉત્પન્ન થનારા સંગ રૂપ ફળવાળું હોવાને કારણે “ગામ” પદ કર્મ છે. અહીં દેવદત્ત’ કર્તા છે અને ગામ” કર્મ છે, આ રીતે બન્ને ભિન્ન ભિન્ન છે. આ પ્રમાણે કર્તા અને કર્મમાં ભેદ છે, તે આવશ્યક છે. તે કારણે १३ For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र स्य कर्तृकर्मत्वाभावेन लक्षणस्यासंभवप्रसंगात् । नापि तृतीयः पक्षः प्रदीपेऽतिव्याप्तेः प्रदीपसजातीयप्रदीपान्तरेण प्रदीपस्य प्रकाश्यत्वादर्शनेन तत्रातिव्याप्तेः घटादेरपि सजातीयप्रकशाप्रकाश्यस्यास्वप्रकाशस्यापि स्वप्रकाशत्वप्रसंगात् नहि प्रदीप ज्ञाने वा घटत्वादिजातिरस्ति येन घटादेः सजातीयप्रकाशप्रकाश्यतास्यात् । न च सत्ताजातिपुरस्कारेण प्रदीपघटयोरपि साजात्यमस्त्येवेति वाच्यम् व्यापकधर्मपुरस्कारेण सजात्यस्याभ्युपगमे सजातीयेति विशेषणस्य नरर्थक्या किन्तु "स्वः स्वः गच्छति" ऐसा प्रयोग नहीं होता । इसी प्रकार यहां भी ज्ञान ही कर्ता और ज्ञान ही कर्म होने से लक्षण में असंभव दोष का प्रसंग आता है। तीसरा पक्ष भी ठीक नहीं है । इसमें अतिव्याप्ति दोप है। दीपक के सजातीय दूसरे दीपक के द्वारा दीपक में प्रकाश्यता नहीं देखी जाती इस कारण अतिव्याप्ति दोष है । घटादि भी अपने सजातीय घटान्तर आदि के प्रकाश से प्रकाश्य नहीं है, अतः वे स्वप्रकाश रूप न होते हुए भी स्वप्रकाशरूप हो जाएंगे (क्योंकि आपने सजातीय के प्रकाश से प्रकाशित न होने को ही "स्वप्रकाश' माना है ) दीपक दीपक में अथवा ज्ञान में घटत्व आदि जाति सामान्य नहीं रहती जिससे कि उनमें (घटादि में) सजातीय के प्रकाश से प्रकाश्यता हो । सत्ता जाति को प्रधान मानकर प्रदीप और घट सजातीय है, ऐसा नहीं कहा जा सकता । अगर व्यापक धर्म को प्रधान मान कर सजातीयता की व्यवस्था "मल्लो मलं गच्छति" मेवो प्रयोग थाय छे. ५२न्तु “ स्वः स्वं गच्छति", या प्रश्न પ્રવેગ થતું નથી. એ જ પ્રમાણે અહીં પણ જ્ઞાન જ કર્તા અને જ્ઞાન જ કર્મ હોવાથી લક્ષણમાં અસંભવ દોષને પ્રસંગે પ્રાપ્ત થાય છે. ત્રીજો પક્ષ (ત્રીજી માન્યતા રૂપ વિકલ્પ) પણ સ્વીકારી શકાય તેમ નથી. દીપકના સજાતીય એવા બીજા દીપક દ્વારા દીપકમાં પ્રકાશ્યતા સંભવી શક્તી નથી, તે કારણે અહીં અતિવ્યાપ્તિ દોષને સંભવ રહે છે. ઘટાદિ પણ પોતાના સજાતીય અન્ય ઘટ આદિના પ્રકાશ વડે પ્રકાશ્ય નથી, તેથી તેઓ સ્વપ્રકાશ રૂપ ન હોવા છતાં પણ સ્વપ્રકાશ રૂપ હવાને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે. (કારણકે આપે સજાતીયના પ્રકાશથી પ્રકાશમાન ન થવાને જ“સ્વપ્રકાશ” માને છે) દીપકમાં અથવા જ્ઞાનમાં ઘટવ આદિ જાતિ સામાન્ય રહેતી નથી કે જેના દ્વારા તેમનામાં (ઘટાદિમાં) સજાતીયના પ્રકાશ વડે પ્રકાશ્યતા હોય. સત્તા (વિવમાનતા) રૂપ જાતિને પ્રધાન માનને પ્રદીપ અને ઘટ સજાતીય છે, એવું કહી શકાય નહીં. જે વ્યાપક ધમને પ્રધાન માનીને સજાતીયતાની વ્યવસ્થાને સ્વીકાર કરવામાં આવે, For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ योधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् पातात् नहि कोऽपि प्रकाशः सत्तारहितोऽस्ति यस्य व्यावृत्तिः सजातीयेति विशेषणेन क्रियेत । नापि चतुर्थपक्षः ज्ञानस्यावेद्यत्वे प्रमाणाविषयत्वेन कथानवतारप्रसंगात् अपरोक्षव्यवहारविषयत्वयोग्यत्वमित्यनेन प्रत्यक्षज्ञानविषयत्वस्य स्वयमेव कथनात्तद् विपरीतावेद्यत्वकथने में माता वन्ध्येतिवद् व्याघातप्रसंगात् । किंच सुषुप्तिमोक्षप्रलयेषु केषांचिदपि व्यवहाराणामभावेन तत्र ज्ञाने विशेषणस्य व्यवहारस्याभावेन लक्षणस्याव्याप्तेः । अपि च योग्यत्वं स्वीकार की जाएगी तो "सजातीय" यह विशेषण व्यर्थ हो जाएगा, क्योंकि ऐसा मानने पर कोई भी प्रकाश सत्ता से रहित नहीं है जिसकी व्यावृत्ति के लिए "सजातीय ' इस विशेषण का प्रयोग किया जाय । अर्थात् सत्ता सभी प्रकाशों में रहती है, अतएव सभी प्रकाश सजातीय हो जाएँगे । कोई प्रकाश विजातीय नहीं होगा । फिर किसकी व्यावृत्ति के लिए "सजातीय" विशेषण लगाया जाएगा? चौथा पक्ष भी संगत नहीं है । ज्ञान को यदि अवेद्य जानोगे तो प्रमाण का विषय न होने से इस चर्चा का प्रसंग ही उपस्थित नहीं होता । “अपरोक्ष व्यवहार योग्यत्व" ऐसा कह कर आपने स्वयं ही उस प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय कहा है फिर साथ में उसे अवेद्य अर्थात् अज्ञेय कहना "मेरी माता बन्ध्या" इस प्रकार के कथन के समान परस्पर विरुद्ध है। अर्थात् ज्ञान यदि अवेद्य है तो प्रत्यक्ष का विषय नहीं हो सकता । इसके अतिरिक्त सुषुप्ति मुक्ति और प्रलय की अवस्था में सभी व्यवहारों का अभाव हो जाता है, अतः ज्ञान में व्यवहार "इस विशेषण का भी अभाव होने તે “સજાતીય” આ વિશેષણ જ વ્યર્થ બની જશે, કારણ કે એવું માનવામાં આવે તે કઈ પણ પ્રકાશ સત્તાથી રહિત નથી કે જેની વ્યવૃત્તિ (અભાવ) ને માટે “સજાતીય આ વિશેષણને પ્રયોગ કરી શકાય. એટલે કે સત્તા સઘળા પ્રકાશમાં રહે છે, તેથી સઘળા પ્રકાશ સજાતીય થઈ જશે, કોઈ પણ પ્રકાશ વિજાતીય નહીં હોય. પછી કેની વ્યાવૃત્તિને માટે “સજાતીય” વિશેષણને પ્રવેશ કરવામાં આવશે? ચોથે પક્ષ – ચોથી માન્યતા – પણ સંગત લાગતી નથી. જ્ઞાનને જે અવેદ્ય માનશે, તે પ્રમાણને વિષય નહીં હવાથી ચર્ચાને પ્રસંગ જ ઉપસ્થિત નહીં થાય. અપક્ષ વ્યવહાર ગ” આ પ્રમાણે કહીને આપે પિતે જ તેને પ્રત્યક્ષ જ્ઞાનના વિષય રૂપ કહેલ છે, તે સાથે તેને અવેદ્ય એટલે કે અય કહેવું તે પિતાની માતાને વધ્યા કહેવા સમાન પરસ્પર વિરુદ્ધતાને ભાવ જ પ્રકટ કરે છે. એટલે કે જ્ઞાન જે અવેદ્ય હોય, તે પ્રત્યક્ષના વિષય રૂપ સંભવી શકે નહીં, અને જે પ્રત્યક્ષના વિષય રૂપ હોય તે અવેધ સંભવી શક્યું નથી. તદુપરાંત સુષુપ્તિ, મુક્તિ અને પ્રલયની અવસ્થામાં સઘળા વ્યવહારને અભાવ થઈ જાય છે, તેથી જ્ઞાનમાં “વ્યવહાર” આ વિશેષણને પણ અભાવ For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०० सूत्रकृताङ्गसूत्रे विशेषणमुपलक्षणं वा आये असंभवः यतः तद्वशायां कस्यचिदपि विशेषणस्यामावात् द्वितीये ज्ञानस्वरूपात्मनो व्यवहारनिरूपणीयत्वेन सप्रतियोगित्वं स्यात् सप्रतियोगित्वे च घटादिज्ञानवदनित्यत्वप्रसंगात् नापि स्वप्रकाशतायां किं चिदपि प्रमाणं विद्यते । न चानुभूतिः स्वप्रकाशा अनुभूतित्वात् यन्नैवं तनैवं यथा घट इति व्यतिरेक्यनुमानमेव प्रमाणं स्वप्रकाशतायामिति वाच्यम् अनुभूति व्यवहारस्य कारणीभूतः प्रकाशः कचित्प्रसिद्धो न वा द्वितीयेऽप्रसिद्धविशेषणत्वं से लक्षण में अव्याप्ति दोष है । इसके सिवाय योग्यत्व का अर्थ क्या है ? विशेषण या उपलक्षण प्रथम पक्ष में असंभव दोष है क्योंकि उस अवस्था में किसी भी विशेषण का अभाव है । दूसरे पक्ष में ज्ञानस्वरूप आत्मा का व्यवहार निरूपणीय होने से सापेक्षता होगी और ऐसा होने पर घटादि के ज्ञान के समान अनित्यता का प्रसंग आ जाएगा । ज्ञान की स्वप्रकाशता में कोई भी प्रमाण नहीं है । अनुभूति स्वप्रकाशरूप है, क्योंकि वह अनुभूति है जो स्वप्रकाशरूप नहीं है, वह अनुभूति भी नहीं होती, जैसे घट । यह व्यतिरेकी अनुमान ही स्वप्रकाशता में प्रमाण है ऐसा नहीं कहना चाहिए "अनुभूति" इस प्रकार के व्यवहार का कारणभूत प्रकाश कहीं प्रसिद्ध है अथवा नहीं ? यदि प्रसिद्ध नहीं है, यह द्वितीय पक्ष स्वीकार करो तो अप्रसिद्ध विशेषणत्व नामक पक्ष का दोष आता है । जो वस्तु प्रसिद्ध नहीं है उसको सिद्ध करना कहीं नहीं देखा जाता । पहला पक्ष भी ठीक नहीं क्योंकि अनुभूति व्यवहार का कारण भूत प्रकाश जहां प्रसिद्ध है उस अधिकरण હોવાથી લક્ષણમાં અવ્યાપ્તિ દોષ છે. તે સિવાય ગ્યત્વને અર્થ શું છે? વિશેષણ કે ઉપલક્ષણ? પ્રથમ પક્ષમાં – પહેલે વિકલ્પ સ્વીકારવામાં અસંભવ દોષ આવે છે, કારણ કે તે અવસ્થામાં કઈ પણ વિશેષણને અભાવ છે. બીજો પક્ષ સ્વીકારવામાં આવે, તે જ્ઞાનસ્વરૂપ આત્માને વ્યવહાર નિરૂપણીય હેવાથી સાપેક્ષતા સંભવશે અને એવું થવાથી ઘટાદિના જ્ઞાનના સમાન અનિત્યતાને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે. જ્ઞાનની સ્વપ્રકાશતા વિષેનું કઈ પ્રમાણ નથી. અનુભૂતિ સ્વપ્રકાશ રૂપ છે, કારણ કે જે અનુભૂતિ સ્વપ્રકાશ રૂપ હોતી નથી, તેને અનુભૂતિ જ કહી શકાય નહીં, જેમ કે ઘટ. આ વ્યતિરેક અનુમાન જ સ્વપ્રકાશતામાં પ્રમાણ છે, એવું કહેવું જોઈએ નહીં. “અનુભૂતિ” આ પ્રકારના વ્યવહારના કારણભૂત પ્રકાશ પ્રસિદ્ધ છે કે ક્યાંય પ્રસિદ્ધ નથી? “પ્રસિદ્ધ નથી”. એવા બીજા પક્ષને જે સ્વીકાર કરવામાં આવે. તે અપ્રસિદ્ધ વિશેષણ નામને દોષ આવવાને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થાય છે. જે વસ્તુ પ્રસિદ્ધ નથી તેને સિદ્ધ કરવાની વાત જ સંભવી શકતી નથી. “પ્રસિદ્ધ છે, એ પહેલો પક્ષ પણ રવીકાર્ય નથી, કારણ કે અનુભૂતિ વ્યવહારના કારણભૂત પ્રકાશ જ્યાં પ્રસિદ્ધ છે તે અધિકરણમાં અનુભૂતિ હેતુ વિદ્યમાન હોવાથી હેતુ અન્વયવ્યતિરેકી For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०१ समर्थ बोधिनी far प्र शु. अ. १ चार्वाकमत स्वरूपनिरूपणम् पक्षदोषः स्यात् नहि अप्रसिद्धस्य वस्तुनः कचित्साधनं दृष्टं न वा प्रथमः पक्षः अनुभूतिव्यवहारस्य कारणीभूतः प्रकाशो यत्र प्रसिद्धस्तदधिकरणेऽनुभूतित्व तोर्विद्यमानत्वे हेतोरन्वयव्यतिरेकित्वं स्याम्नतु केवलव्यतिरेक्यनुमानं स्यादिति केवलव्यतिरेक्यनुमानप्रयोगस्यायोग्यत्वमापतेत् । यत्राधिकरणे साध्यं प्रसिद्धं तत्राधिकरणे हेतोरवृत्तौ सपक्षेऽवर्तमानतयाऽसाधारणानैकान्तिकत्वं हेतोः स्यात् सपक्ष विपक्षव्यावृत्तः पक्षमात्रे वर्तमानोऽसाधारणानेकान्तिक इति असाधारणानैकान्तिकलक्षणस्य प्रकृतौ सद्भावतया शब्दो नित्यः शब्दत्वादित्येतत्स्थलीय हेतुवदसाधकत्वं स्यादनुभूतित्वहेतोः । एतेन अनुभूतिरनुभाव्या न भवत्यनुभूतित्वादित्यादिस्वप्रकाशता साधका हेतवोऽपि परास्ताः एतादृशस्थलेपि अप्रसिद्धविशेषणतादोषस्या निराकरणात् । में अनुभूतित्व हेतु के विद्यमान होने से हेतु अन्वय व्यतिरेकी हो जाएगा, केवलव्यतिरेकी हेतु नहीं रहेगा। ऐसी स्थिति में आपका केवलव्यतिरेकी अनुमान का प्रयोग करना अयोग्य हो जाएगा । जिस अधिकरण में साध्य प्रसिद्ध हैं, उसमें हेतु की वृत्ति यदि न मानी जाय तो समक्ष में विद्यमान न होने से हेतु साधार अनैकान्तिक हो जाएगा । जो हेतु सपक्ष और विपक्ष में न रहता हो और सिर्फ पक्ष में ही वर्तमान हो वह असाधरण अकान्ति कहलाता है । असाधारण अनैकान्तिक का वह लक्षण प्रकृत हेतु में विद्यमान होने से " शब्द नित्य है क्योंकि वह शब्द यहां शब्दत्व हेतु के समान यह अनुभूतित्व हेतु भी साध्य का साधक नहीं हो सकता । पूर्वोक्त कथन से "अनुभूति अनुभाव्य नहीं है, क्योंकि वह अनुभूति है" इत्यादि स्वप्रकाशता को सिद्ध करने वाले अन्य हेतु भी खण्डित हो जाते हैं, क्योंकि ऐसे स्थलों पर भी अप्रसिद्धविशेषणता दोष का निवारण नहीं किया जा सकता | થઇ જશે, કેવળ વ્યતિરેકી હેતુ નહીં રહે. એવી પરિસ્થિતિમા આપનુ કેવળ વ્યતિરેકી અનુમાનના પ્રયોગ કરવાનું કાર્ય અયેાગ્ય જ થઈ જશે. જે અધિકરણમાં સાધ્ય પ્રસિદ્ધ છે, તેમાં હેતુની વૃત્તિ જો ન માનવામાં આવે, તે સમીપમાં જ વિદ્યમાન ન હોવાથી અસાધારણ અનેકાન્તિક થઈ જશે જે હેતુ સપક્ષ અને વિપક્ષમાં રહેતા ન હેાય, અને કેવળ પક્ષમાં જ વમાન હોય, તેને અસાધારણ અનૈકાન્તિક કહેવાય છે. અસાધારણ અનેકાન્તિકનું આ લક્ષણ પ્રકૃત (પ્રસ્તુત) હેતુમાં વિદ્યમાન હોવાથી “શબ્દ નિત્ય છે કારણ કે તે શબ્દ છે”, અહીં શબ્દત્વ હેતુના સમાન તે અનુભૂતિત્વ હેતુ પણ સાધ્યના સાધક બની શકતા નથી. પૂર્વોક્ત કથન વડે અનુભૂતિ અનુભાન્ય નથી. કારણ કે તે અનુભૂતિ છે.” ઇત્યાદિ સ્વપ્રકાશતાને સિદ્ધ કરનારાં અન્ય કારણાનુ' પણ ખંડન થઇ જાય છે. કારણ કે એવાં સ્થળો પર પણ અપ્રસિદ્ધ વિશેષતા દોષનું નિવારણ કરી શકાતુ નથી. For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतानसूत्रे ज्ञानं वेद्यम् वस्तुत्वाद् घटवत् यद्यद्वस्तुतत्तद्वेद्यं यथा घटादीत्यादि सत्प्रतिपक्षस्यापि संभवात् । समानबलबोधितसाध्यविपर्ययकत्वं यस्य साध्याभावः प्रमाणान्तरेण बोधितः स सत्प्रतिपक्षइति तल्लक्षणात् न च सत्प्रतिपक्षानुमाने यदि वस्तुत्वं तत्किं काल्पनिकं सत्वमथवा वास्तविकं सत्वम् । नाद्यः मम मते सत्त्वनिष्ठकाल्पनिकत्वस्यासंभवात नहि सत्तापि भवेत्कल्पनीया भवेदिति व्याघातात् । नाप्यकाल्पनिकं सत्त्वं हेतुः शांकरवेदान्तिनां मतेऽप्रसिद्धः तन्मते सर्वधर्मार्णा काल्पनिकत्वात् इति वाच्यम् सत्ताधिकरणलक्षणस्यावधीरितकल्पिताकल्पितविशेषस्य ज्ञान वेद्य (ज्ञेय) है क्योंकि वह वस्तु है, जो जो वस्तु होती है, वह वह वेद्य होती है जैसे घट आदि । इत्यादि हेतु सत्प्रतिपक्ष भी हो सकते हैं । जिस हेतु का समान वल वाला विरोधी हेतु विद्यमान हो जिस हेतु के साध्य का अभाव किसी अन्य हेतु से प्रतीत हो, वह हेतु सत्प्रतिपक्ष कहलाता है । सत्प्रतिपक्ष अनुमान में जो वस्तुन्व हेतु है वह काल्पनिक सत्व है या वास्तविक सत्व है ? प्रथम पक्ष ठीक नहीं क्योंकि हमारे मत सत्व में काल्पनिकता होना असंभव है । सत्ता भी हो और काल्पनिकता भी हो यह परस्पर विरुद्ध है और सत्य को अकाल्पनिक (वास्तविक) कहना भी ठीक नहीं क्योंकि शांकरवेदान्तियों के मत में वह सिद्ध नहीं । उनके मत में सभी धर्म काल्पनिक हैं, यह कहना संगत नहीं । सत्तारूप अधिकरण जिसका लक्षण है और जो कल्पित तथा अकल्पित भेदों से रहित है ऐसा वस्तुत्व अनुभूतित्व के समान ही हेतु हो सकता है । જ્ઞાન વેદ્ય (ય) છે. કારણ કે તે વસ્તુ રૂપ છે. જેમ ઘડે ય હોય છે. એજ પ્રમાણે દરેક વસ્તુ ય હોય છે. ઈત્યાદિ હેતુ (કારણો) સપ્રતિપક્ષ પણ હોઈ શકે છે. જે હેતુના સમાન બળવાળો વિરોધી હેતુ વિદ્યમાન હોય, જે હેતુના સાધ્યને અભાવ કોઈ અન્ય હેતુ વડે પ્રતીત થતું હોય, તે હેતુને સપ્રતિપક્ષ કહેવાય છે. સતિપક્ષ અનુમાનમાં જે વસ્તુત્વ હેતુ છે, તે કાલ્પનિક સત્ત્વ છે કે વાસ્તવિક સત્ત્વ છે? પહેલે પક્ષ (કાલ્પનિક સત્ત્વ છે, આ માન્યતા) સ્વીકાર્ય નથી, કારણ કે અમારા મત અનુસાર સર્વમાં કાલ્પનિકતા હૈવી અસંભવિત છે. સત્તા (વિદ્યમાનતા) પણ હોય અને કાલ્પનિકતા પણ હોય, તે પરસ્પર વિરૂદ્ધ લાગે છે. અને સત્વને અકાલ્પનિક (વાસ્તવિક) કહેવું, એ વાત પણ ઉચિત નથી કારણ કે શાંકરેદાન્તીઓના મત અનુસાર તે સિદ્ધ નથી. તેમના મત અનુસાર સઘળા ધર્મ કાલ્પનિક છે, એમ કહેવું તે પણ સંગત નથી. સત્તા (વિદ્યમાનતા) રૂપ અધિકરણ જેનું લક્ષણ છે; તથા જે કલ્પિત તથા અકલ્પિત ભેદોથી રહિત છે એવું વસ્તુત્વ અનુભૂતિના સમાન જ હેતુ રૂપ હોઈ શકે છે. For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टोका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकमतस्यरूपनिरूपणम् १०३ वस्तुत्वस्यानुभूतित्ववदेव हेतुत्वसंभवात् । किंच स्वप्रकाशत्वे प्रमाणमस्ति न वा अस्ति चेतर्हि तादृशप्रमाणेन वेद्यत्वादवेद्यत्वघटितलक्षणमेव न संभवतीति लक्षणासंभवो दोष आपतति। द्वितीये प्रमाणाभावादेव न स्वप्रकाशत्वलक्षणप्रमेयस्य सिद्धिः स्यात् । प्रमेयसिद्धिः प्रमाणादीति न्यायात् नहि प्रमाणमन्तरा प्रमेयस्य सिद्धि भवतीति । यदि प्रमाणमन्तरेणापि प्रमेयस्य सिद्धि भवेत्तदा सर्ववस्तुनः सर्वत्र प्रसिद्धिः मुलभा भवति सप्तमरसादेरपि सिद्धिः स्यादिति न स्वप्रकाशतायां लक्षणप्रमाणे स्तः लक्षणप्रमाणयोरभावे च कथं स्वप्रकाशतायाः सिद्धिः स्यात् लक्षणप्रमाणाभ्यामेव वस्तुनः प्रसाधनात् इति चेदत्रोच्यते - इसके अतिरिक्त स्वप्रकाशता में कोई प्रमाण है या नहीं ? यदि है तो उसी प्रमाण से वेद्य होने के कारण अवेद्यत्वरूप लक्षण ही नहीं हो सकता, इस प्रकार लक्षणासंभव दोप आता है । दूसरे पक्ष में प्रमाण का अभाव होने से ही स्वप्रकाशत्व रूप प्रमेय की सिद्धि नहीं हो सकती । प्रमाण से ही प्रमेय की सिद्धि होती है, ऐसा न्याय है। प्रमाण के विना प्रमेय की सिद्धि नहीं होती । यदि प्रमाण के विना ही प्रमेय की सिद्धि होने लगे तो सर्वत्र सर्व वस्तुओं की सिद्धि मुलभ हो जाय और सातवें रस आदि की भी सिद्धि हो जाय । इस प्रकार स्वप्रकाशता का न लक्षण ही बनता है और न उसकी सिद्धि में कोई प्रमाण ही है । लक्षण और प्रमाण के अभाव में स्वप्रकाशता की सिद्धि कैसे हो सकती है ? वस्तु की सिद्धि कैसे हो सकती है ? वस्तु की सिद्धि तो लक्षण और प्रमाण से ही होती है । यह स्वप्रकाशता के अभाव का निरूपक पूर्वपक्ष हुआ। अब स्वप्रकाशता વળી સ્વપ્રકાશતામાં કોઈ પ્રમાણ છે કે નહીં ? જે કોઈ પ્રમાણને સદ્ભાવ હેય તે એજ પ્રમાણે દ્વારા વેદ્ય (ય) હેવાને કારણે એવેવત્વ રૂપ લક્ષણ જ હોઈ શકે નહીં. આ પ્રકારે લક્ષણસંભવ દોષનો પ્રસંગે ઉપસ્થિત થાય છે. “પ્રમાણને અભાવ છે. આ બીજો પક્ષ સ્વીકારવામાં આવે, તે પ્રમાણુનો અભાવ હોવાથી જ સ્વપ્રકાશ રૂપ પ્રમેયની સિદ્ધિ થઈ શકે નહીં. પ્રમાણ દ્વારાજ પ્રમેયની સિદ્ધિ થઈ શકે છે, એ નિયમ છે. પ્રમાણ વિના પ્રમેયની સિદ્ધિ થઈ શકે જ નહીં. જે પ્રમાણ વિના પ્રમેયની સિદ્ધિ થતી હેય, તે બધી વસ્તુઓની સિદ્ધિ સુગમ જ થઈ જાય. આરીતે સાતમે રસ, આકાશપુષ્પ આદિને સદ્ભાવ પણ સિદ્ધ થઈ જાય ! આ પ્રકારે સ્વપ્રકાશતાનું લક્ષણ પણ સંભવતું નથી અને તેને સિદ્ધ કરવાને માટે કઈ પ્રમાણ પણ નથી. લક્ષણ અને પ્રમાણને અભાવ હોવાથી સ્વપ્રકાશતાની સિદ્ધિ કેવી રીતે થઈ શકે ? વસ્તુની સિદ્ધિ તે લક્ષણ અને પ્રમાણ વડે જ થાય છે. આ પ્રકારની સ્વપ્રકાશતાના અભાવનું નિરૂપણ કરતી પૂર્વપક્ષની વક્તવ્યતા For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे किचित्स्वप्रकाशतासाधनाय अवेद्यत्वे सत्यपरोक्षव्यवहारयोग्यत्वस्य चतुर्थपक्षस्य स्वप्रकाशत्वलक्षणकरणेन दोषाभावात् । न च योग्यतायाः प्रकाशधर्मत्वस्वीकारे मोक्षकालिकज्ञाने कस्यचिदपि धर्मस्याभावेन पुनरपि लक्षणमव्याप्त मिति वाच्यं योग्यत्वात्यंताभावानधिकरणत्वस्यैव योग्यतापदेन विवक्षणाददोषः यथा द्रव्यत्वं गुणवत्वात्यन्ताभावानधिकरणमिति तद्वत् संसारकालिकज्ञाने परोक्षव्यवहारविषयत्वस्य विद्यमानत्वेन मोक्षकाले तादृशविषयत्वस्यासत्त्वेपि योग्यतायाः सत्त्वे क्षत्यभावात । यथा वनीयदण्डे फलोपहितत्वस्याविद्यमानत्वेपि कारणतावच्छेदकधर्मवत्त्वरूपयोग्यत्वस्य संभवस्तथाविषयतावच्छेदकधर्मस्य तदा की सिद्धि के लिए कहते हैं । “अवेद्य होते हुए अपरोक्ष व्यवहार की योग्यता" इस चौथेपक्ष को हम स्वप्रकाशता का लक्षण कहते हैं। इसमें कोई भी दोष नहीं है । कदाचित् कहो कि योग्यता को प्रकाश का धर्म स्वीकार करने पर मोक्षकालीन ज्ञान में किसी भी धर्म का अभाव होने से लक्षण में फिर अव्याप्ति दोष आता है, ठीक नहीं, योग्यता के अत्यन्ताभाव का अधिकरण न होना ही यहां योग्यता शब्द से विवक्षित है, अतएव कोई दोष नहीं, जैसे गुणवत्व के अत्यन्ताभाव के अधिकरण को द्रव्यत्व कहते हैं । संसारकालीन ज्ञान अपरोक्ष व्यवहार का विषय होता है, अतः मोक्षकालीन ज्ञान में इस प्रकार का व्यवहार न होने पर भी उसमें योग्यता मान लेने में कोई क्षति नहीं हैं। जैसे यति के दंड में फलोपहितता विद्यमान न होने पर भी कारणतावच्छेदक धर्मवत्व रूप योग्यता संभव है उसी प्रकार विषयतावच्छेदक धर्म का भी संभव है, मोक्षकालीन ज्ञान में સમજવી. હવે સ્વપ્રકાશતાની સિદ્ધિને માટે “અવેદ્ય (અય) હોવા છતાં અપરોક્ષ વ્યવહારની યોગ્યતા” આ ચેથા પક્ષને વિકલ્પને) અમે સ્વપ્રકાશતાનું લક્ષણ કહીએ છીએ. તેમાં કઈ પણ દોષ નથી. કદાચ તમે એવી દલીલ કરતા હો કે ગ્યતાને પ્રકાશના ધર્મ રૂપે સ્વીકાર કરવામાં આવે તે મોક્ષકાલીન જ્ઞાનમાં કોઈ પણ ધર્મને અભાવ હોવાથી લક્ષણમાં અવ્યાપ્તિ દોષને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે, તે એ પ્રકારની દલીલ પણ યોગ્ય નથી. યેગ્યતાના અત્યન્તાભાવનું અધિકરણ (આધાર) ન હોવું એજ અહીં યોગ્યતા શબ્દ વડે વિવક્ષિત છે, તેથી કેઈ દોષ નથી. જેમ કે ગુણત્વના અત્યન્તાભાવના અધિકરણને દ્રવ્યત્વ કહે છે. સંસાર કાલીન જ્ઞાન અપક્ષ વ્યવહારને વિષય હોય છે, તેથી મોક્ષકાલીન જ્ઞાનમાં આ પ્રકારને વ્યવહાર ન હોવા છતાં, તેમાં વ્યતા માની લેવામાં કઈ દોષ નથી. જેવી રીતે યતિના દંડમાં ફેલે પહિતતા વિદ્યમાન ન હોવા છતાં પણ કારણતાછેદક ધર્મસ્વરૂપ વ્યતા સંભવી શકે For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् १०५ मोक्षकालिकज्ञानेऽपि ज्ञानत्वस्य विद्यमानतया योग्यताया अक्षतेः घटादविपरोंक्षव्यवहारविषयत्वस्य विद्यमानत्वेनाऽतिव्याप्तिः स्यादतस्तत्परिहाराय अवेद्यत्वमिति विशेषणम् । तदुपादाने नातिव्याप्तिर्घटादौ यतस्तस्य वेद्यत्वात् । अवेद्यत्वमात्रस्य लक्षणत्वेऽतीन्द्रिये धर्माधर्मादावतिव्याप्तिप्रसंगात् । न च धर्मादीनामपि शब्दप्रमाणविषयत्वस्य विद्यमानत्वेनावेद्यत्वं नास्तीति विशेष्यभागोलक्षणे निरर्थक इति वाच्यं अवेद्यत्वघटकवेद्यत्वस्य प्रत्यक्षप्रमाणविषयत्वमित्यर्थकरणेनादोषात् । न च योगिप्रत्यक्षविषयत्वेनापरोक्षत्वमेव धर्मादीनामिति वाच्यम् शब्दप्रमाणमात्रस्यैव विषयता तेषां नतु कदाचिदपि कथंचिदपि प्रत्यक्षविषयता । भी ज्ञानत्व विद्यमान होने से योग्यता मानने में कोई क्षति नहीं । घटादि में अपरोक्ष व्यवहार की विषयता मौजूद है, अतएव अतिव्याप्ति दोष हो सकता है, उसके परिहार के लिए "अवेद्यत्व" यह विशेषण लगाया गया है । इस विशेषण के प्रयोग से घटादि में अतिव्याप्ति नहीं होती, क्योंकि घटादि वेध हैं । यदि अवेद्यत्व मात्र को ही लक्षण वनाते तो अतीन्द्रिय धर्म अधर्म आदि में अतिव्याप्ति हो जाती । यह कहना ठीक नहीं कि धर्म आदि भी शब्द प्रमाण के विषय हैं इस कारण वे अवेद्य नहीं हैं, अतएव लक्षण में विशेष्य अंश निरर्थक है । यहां अवेद्यत्व का अर्थ है-प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय होना । ऐसा अर्थ करने से दोष नहीं है । धर्मादि योगिप्रत्यक्ष के विषय होने से अपरोक्ष हैं, ऐसा कहना उचित नहीं, क्योंकि धर्म आदि शाब्द प्रमाण के ही विषय हैं, वे प्रत्यक्ष के विषय कदापि नहीं हैं और किसी भी प्रकार नहीं हैं । यों कहने से तो योगियों में सर्वदर्शिता का છે, એજ પ્રમાણે વિષયતાછેદક ધર્મને પણ સંભવ છે. મેક્ષિકાલીન જ્ઞાનમાં પણ જ્ઞાનત્વે વિદ્યમાન હોવાથી યોગ્યતા માનવામાં કઈ ક્ષતિ (દષ) નથી. ઘટાદિમાં અપક્ષ વ્યવહારની વિષયતા મેજૂદ છે, તેથી અતિવ્યાપ્તિ દોષ સંભવી શકે છે. તેના નિવારણ માટે અદ્યત્વ” આ વિશેષણ લગાડવામાં આવ્યું છે. આ વિશેષણના પ્રયોગને લીધે ઘટાદિમાં અતિવ્યાપ્તિ દોષનું નિવારણ થઈ જાય છે, કારણ કે ઘટાદિ વેદ્ય (ય) છે. જે અન્ય માત્રને જ લક્ષણ જ માની લેવામાં આવ્યું હેત તે અતીન્દ્રિય ધર્મ, અધર્મ આદિમાં અતિવ્યામિ દોષ આવી-જાત. અહીં એવું કથન ઉચિત નથી કે ધર્મ આદિ પણ શબ્દ પ્રમાણને વિષય રૂપ છે, તે કારણે તેઓ અવેદ્ય નથી, તે કારણે લક્ષણમાં વિશેષ્ય અંશ નિરર્થક છે, અહીં અદ્યત્વને- પ્રત્યક્ષ પ્રમાણુના વિષય રૂપ હેવું” આ પ્રકારને અર્થ કરવામાં કઈ દેષ નથી, ધર્માદિ ગિપ્રત્યક્ષના વિષય રૂપ હેવાથી અપક્ષ છે, કથન ઉચિત નથી, કારણ કે ધર્મ અધર્મ આદિ શબ્દ પ્રમાણના જ વિષય રૂપ છે, તેઓ પ્રત્યક્ષને વિષય કદાપિ અને કોઈ પણ પ્રકારે સંભવી શકતા નથી, એવું કથન 'सू. १४ For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे न चैतावता सर्वदर्शित्वाभावो योगिनां संभवति, सर्वदर्शित्वशब्देन योग्यसर्वद्रष्टत्वस्य विवक्षणेन सर्वदशित्वाभावो न भवति योगिनः । तदुक्तम् "यत्राप्यतिशयो दृष्टः स स्वार्थानतिलंघनात् । दूरसूक्ष्मादि दृष्टेः स्यान्न रूपे श्रोत्रवृत्तितेति न्यायात् ॥ अतो धर्मादिव्यवच्छेदार्थमपरोक्षव्यवहारयोग्यत्वे सतीति विशेषणो. पादानमावश्यकमेव, वस्तुतस्तु धर्मादीनामजीवत्वेन योगिप्रत्यक्षगम्यत्वमस्तीति तद्व्यवच्छेदार्थ तादृशविशेषणमनावश्यकमेवेत्यार्हताः जैनमतानुयायिनाअभाव हो जाएगा, ऐसा मानना ठीक नहीं, क्योंकि सर्वदर्शी शब्द का अर्थ योग्य पदार्थों के सर्वदर्शी विवक्षित, अर्थात् योगी सर्वदर्शी हैं इसका अर्थ यही है कि वे अपने योग्य सर्व पदार्थों के दर्शक हैं । ऐसा अर्थ लेने से योगियों के सर्वदर्शित्व होने का अभाव नहीं होता। कहा भी है“यत्राप्यतिशयो दृष्टः" इत्यादि । "जहां कहीं भी अतिशय देखा जाता है वह अपने विषय का अतिक्रमण न करके ही होता है। दुर के और सूक्ष्म पदार्थ के देखने में नेत्र का अतिशय हो सकता है, किन्तु रूप को देखने में श्रोत्र का व्यापार नहीं हो सकता ।" . इसलिए धर्म आदि का व्यवच्छेद करने के लिये "अपरोक्ष व्यवहार के योग्य होते हुए" इस विशेषण को ग्रहण करना आवश्यक है। वास्तव में तो धर्म आदि अजीव होने से योगि प्रत्यक्ष के विषय हैं, अतः उनके કરવાથી તે યોગીઓમાં સર્વદશિતાને અભાવ થઈ જશે એવી માન્યતા પણ ઉચિત નથી, કારણ કે “સર્વદશ” શબ્દનો અર્થ “ગ્ય પદાર્થોના સર્વદશ” જ ગણવે જોઈએ. એટલે કે યેગી સર્વદશ છે તેને અર્થ એ જ છે કે તેઓ પિતાને યેવ્ય સર્વ પદાર્થોના દર્શક છે, આ પ્રકારને અર્થ ગ્રહણ કરવામાં યોગીઓમાં સર્વશિત્વ હેવાને मनाप नही २, युं पशु छ .... “यत्राप्यतिशयो इष्टः" त्या ___orii orii अतिशयनो सहलाप हेपाय छे, त्या त्या पात पाताना विषयानु अतिકમણ કર્યા વિના જ તે અતિશય સદૂભાવ મનાય છે. દૂરના પદાર્થને અથવા સૂક્ષમાં પદાર્થને જોવા રૂપ નેત્રને અતિશય સંભવી શકે છે, પરંતુ રૂપને દેખવામાં શ્રોત્રને વ્યાપાર સંભવી શકતા નથી.” , તેથી ધર્મ આદિને વ્યવછેર કરવા માટે “અપરોક્ષ વ્યવહારને પ્ય થઈને” આ વિશેષણનું ગ્રહણ કરવું આવશ્યક થઈ પડે છે. વાસ્તવિક દષ્ટિએ જોવામાં આવે, તે ધર્મ આદિ અજીવ હોવાથી ગિપ્રત્યક્ષના વિષય છે, તેથી તેમના વ્યવછેદને (નિવારણને) For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. शु. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् १०७ अथवा स्वस्य स्वयमेव प्रकाश इत्यपि स्वप्रकाशलक्षणं संभवति, न च स्वस्य स्वस्मिन् कर्मकर्तृभावविरोधः संभवति, यद्यपि ग्रामं गच्छति, देवदत्त इत्यादौ स एव कर्म स एव कर्तेति न भवति, तथापि क्वचित्स्वस्मिन् स्वस्य कर्मकर्तृत्वमपि भवति तथादर्शनात् यथा सर्पः स्वयमेव स्वं वेष्टयति, सर्पआत्मनैवात्मानं वेष्टयति तथा ज्ञानं स्वयमेव स्वं प्रकाशशयतीति सर्वतो बलवती ह्यन्यथानुपपत्तिस्तथाप्रवृत्तमपि तर्कशतं प्रतिबध्नाति, यथाऽन्यमन्यश्च ज्ञाता इति सर्वत्र दृश्यते, तथापि आत्मानं जानामीति प्रतीत्य , व्यवच्छेद के लिए " अपरोक्ष व्यवहार के योग्य होते हुए" इस विशेषण को ग्रहण करना आवश्यक ही है । यह आर्हतों का मत है । अथवा स्वप्रकाश का लक्षण स्वयं ही अपना प्रकाश होना भी माना जा सकता है, स्व का स्व में अर्थात् अपने आप में कर्तृकर्म भाव का विरोध नहीं है। यद्यपि "देवदत्तः ग्रामं गच्छति" इत्यादि स्थलों में वही कर्त्ता और वही कर्म नहीं हो सकता, फिर भी कहीं कहीं वही कर्त्ता और वही कर्म भी होता देखा जाता है जैसे "सर्प स्वयं ही अपने आपको वेष्टित करता है " यहां वेष्टित करने वाला भी सर्प है और वेष्टित होने वाला भी वही सर्प है । इसी प्रकार ज्ञान स्वयं ही अपने आपको प्रकाशित करता है । अन्यथानुपपत्ति सबसे बढकर बलवती होती है। वह सैकड़ों तर्कों को भी रोक देती है । जैसे ज्ञेय भिन्न होता है, और ज्ञाता भिन्न होता है, यह बात सर्वत्र देखी जाती है तथापि "आत्मानं जानामि " अर्थात् मैं अपने को जानता हूँ, માટે ‘અપરાક્ષ વ્યવહારને યોગ્ય હાવા રૂપ’ આ વિશેષણને ગ્રહણ કરવુ ં તે અનાવશ્યક જ છે, આ પ્રકારનું આતાનુ મત છે. અથવા સ્વપ્રકાશનું લક્ષણ સ્વયં પોતાના જ પ્રકાશ' પણ માની શકાય છે. સ્વને स्वभां भेटले } पोतानी लतमा उर्तृ - उर्भ लावनो विशेष नथी. ले ! " देवदत्तः ग्रामं गच्छति" इत्यादि स्थणोमा उर्ता ने उर्भ मे संभवी शता नथी, छतां પણ કોઈ કોઈ સ્થળે કર્તા અને કમ એક જ હોય એવુ પણ સ ંભવી શકે છે જેમ કે- ' · સર્પ પાતે જ પોતાને વેષ્ટિત કરે છે.’ અહી વેષ્ટિત કરનાર પણ સર્પ છે અને વેષ્ટિત થનાર પણ એજ સ જ છે. એ જ પ્રમાણે જ્ઞાન પોતે જ પેાતાને પ્રકાશિત કરે છે. અન્યથાનુપપત્તિ સૌથી વધારે બળવાન હોય છે. તે સેંકડો તીને પણ રોકી દે છે. જેમ કે જ્ઞેય પણ ભિન્ન હાય છે અને જ્ઞાતા પણ ભિન્ન હાય છે, એવું સત્ર જોવામાં આવે छे, छतां पशु " आत्मानं जानामि " 'हु' पोताने लागू छु' मा अझरनी अतीतिनी 66 For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूताजासूबे न्यथानुपपत्त्या त्यज्यते तथा प्रकृते ज्ञानेपि अन्यत्र दृष्टनियमस्यान्यथानुपपत्त्यैवपरित्यागसंभवात् । तदुक्तम्-- "अन्यथानुपपत्तिश्चेदस्ति वस्तुप्रसाधिका । पिनष्टि दृष्टिवैमत्यं सैव सर्ववलाधिका ॥१॥ वाच्यान्यथोपपत्तिर्वा त्याज्यो वा दृष्टताग्रहः । नह्मकत्र समावेशश्छायातपवदेतयोः ॥२॥ ... न चानुचितमिदमेकस्मिन्कर्मकर्तृभावस्येति अनौचित्यतर्केण वाघो भविष्यतीतिवाच्यं यत्रानौचित्य-तर्कस्य मूलं प्रवृत्तप्रमाणेन न निराक्रियते तत्रानौचित्यस्य इस प्रकार की प्रतीति की अन्यथानुपपत्ति से उसका त्याग किया जाता है, उसी प्रकार प्रकृत ज्ञान में भी अन्यत्र देखे जाने वाले नियम का अन्यथानुपपत्ति के द्वारा ही परित्याग हो जाता है । कहा भी है--"अन्यथानुपपतिश्चेद्" इत्यादि । "यदि किसी वस्तु को सिद्ध करने वाली अन्यथानुपपत्ति विद्यमान है तो वह दृष्टि के मतभेद को नष्ट कर देती है। वही सब से अधिक बलवान् है।" "या तो अन्यथा-उपपत्ति कहो या दृष्टता के आग्रह को छोडो । छाया और आतप के समान इन दोनों का एक जगह समावेश नहीं हो सकता ।" एक ही वस्तु में कर्म कर्त्तापन होना अनुचित है, इस प्रकार के अनौचित्य रूप तर्क से उसमें बाधा होगी, ऐसा कहना ठीक नहीं। जहां અન્યથાનુપત્તિ દ્વારા તેને ત્યાગ કરાય છે, એ જ પ્રકારે પ્રકૃત (પ્રસ્તુત) જ્ઞાનમાં પણ અન્યત્ર દેખાતા નિયમને અન્યથાનુપપત્તિ દ્વારા જ પરિત્યાગ થઈ જાય છે. કહ્યું પણ છે 3-"अन्यथानुपपत्तिश्चेद्” इत्यादि જે કઈ પણ વસ્તુને સિદ્ધ કરવાને માટે અન્યથાનુપત્તિને સદ્ભાવ હોય, તે તેના દ્વારા દષ્ટિ (માતા)ને મતભેદનું નિવારણ થઈ જાય છે. તે અન્યનુથાપપત્તિ જ સૌથી બળવાન છે.” “ક તે અન્યથા-ઉપપત્તિ કહે અથવા છાના આગ્રહને છોડે. છાયા અને તડકા જેવી આ બે વસ્તુઓને એક જ જગ્યામાં સમાવેશ થઈ શકતો નથી. બન્નેમાંથી એક જ સદ્ભાવ સંભવી શકે છે. એક જ વસ્તુમાં કર્મ અને કર્તાપણું દેવું અનુચિત છે, આ પ્રકારના અનૌચિત્ય રૂપ તર્ક દ્વારા તેમાં બધા ઉપસ્થિત થશે”, આ પ્રકારનું કથન પણ ગ્ય નથી. જ્યાં અનૌચિત્ય રૂપ તર્કનું મૂળ પ્રવૃત્ત થયેલા પ્રમાણ દ્વારા નિવારણ ન કરવામાં આવે, For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चाकमतस्वरूपनिरूपणम् १९ साम्राज्यं भवति प्रकृतस्थले प्रवृत्तमन्यथानुपपचिप्रमाणमनौचित्यतर्कस्य मूलं मिथ्यासेपं निकुन्ततीत्यत्रानौचित्यतर्कस्य बाधसंभवात् । तथोक्तं "प्रवृत्तेनाप्यनौचित्यमूलं यत्र न लूयते तत्रा नौचित्यसाम्राज्यं वैपरीत्यात्तु नात्र तत् । इति तदेवं स्वस्य स्वयमेवप्रकाश इत्यपि स्वप्रकाशलक्षणं संभवति । यदि ज्ञानं स्वं परं न प्रकाशयेत्तदा जगदान्ध्यादिदोष आपतितः केन वारयितुं शक्यः स्यात् । तदेव ज्ञाने प्रमाणत्वं यत् स्वपरप्रकाशकत्वम् स्वपरव्यवसायिप्रमाणमिति प्राचीनाचायलेक्षणकरणात् । तदेवं स्वप्रकाशस्य लक्षणं प्रदय तत्र प्रमाणमपि विद्यते इत्यतः प्रमाणमपि अनौचित्य रूप तर्क मूल प्रवृत्त हुए प्रमाण के द्वारा निराकृत न किया जाय, वहीं औचित्य का साम्राज्य होता है । प्रकृत स्थल में प्रवृत्त हुए अन्यथानुपपत्ति प्रमाण के द्वारा अनौचित्य तर्क का मूल खण्डित हो जाता है अतएव यहाँ यह तर्क बाधित है । कहा भी है - "प्रवृत्तेनाप्यनौचित्यं " इत्यादि । “जहाँ प्रमाण प्रवृत्त होकर अनौचित्य के मूल का छेदन (निवारण) नहीं करता , वहीं औचित्य का साम्राज्य होता है किन्तु यहाँ उससे उलट है, अतएव अनौचित्य रूप तर्क लागू नहीं होता।" इस प्रकार स्वयं ही स्त्र का प्रकाशक, होना जो स्त्र प्रकाश का लक्षण है वह भी यहाँ घटित होता है । यदि ज्ञान अपने को और परपदार्थ को प्रकाशित न करे तो सारा जगत् अन्धा हो जाय, इस दोष का निवारण कौन कर सकता है ? स्व और पर का प्रकाशक होना ही ज्ञान का प्रमाणत्व है । प्राचीन आचार्यों ने प्रमाण का यही लक्षण कहा है कि "स्वपरव्यवसायि प्रमाणम्" ___ इस प्रकार स्वप्रकाश का लक्षण दिखलाकर उसमें प्रमाण भी दिखलाते हैं, ત્યાં જ અનૌચિત્યતાનું સામ્રાજ્ય હોય છે. પ્રસ્તુત સ્થળમાં પ્રવૃત્ત થયેલા અન્યથાનુપત્તિ પ્રમાણ દ્વારા અનૌચિત્ય તર્કનું મૂળ ખંડિત થઈ જાય છે, તેથી અહીં આ તર્ક બાધાयुत छ, ५५ छे 3.-"प्रवृत्तेनाप्यनौचित्य" त्यादि____यां प्रभाए प्रवृत्त थाने मनौयित्यना भूजनु छैन (निवा२९) ४२तु नथी, ત્યાં જ અનૌચિત્યનું સામ્રાજ્ય હોય છે. પરંતુ અહીં એના કરતાં ઉલટી પરિસ્થિતિ છે, તેથી અનૌચિત્ય રૂપ તર્ક લાગૂ પડતું નથી. આ પ્રકારે “પોતે જ પોતાનું પ્રકાશક હોવા રૂપ', જે સ્વપ્રકાશકનું લક્ષણ છે, તે પણ અહીં ઘટાવી શકાય છે. જે જ્ઞાન પિતાને અને પરેને પ્રકાશિત ન કરે, તે આખું જગત અબ્ધ થઈ જાય, આ દોષનું નિવારણ કેણ કરી શકે છે? સ્વ અને પરનું પ્રકાશક હોવું એ જ જ્ઞાનનું પ્રમાણ છે प्राचीन मायामि ज्ञाननु से सक्ष -"स्वपरव्यवसायि प्रमाणम्" For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११० सूत्रकृताङ्गसूत्रे दर्शयामि तथाहि अनुभूतिः स्वयं प्रकाशा अनुभूतित्वाद् यत्रैव तत्रैवं यथा घटः । घटे स्वयं प्रकाशत्वस्याभावसद्भावादनुभूतित्वहेतोरप्यभावः सिद्धयति, व्यापकाभावस्य व्याप्याभावसाधकत्वस्यान्यत्रदृष्टत्वात् यथा-हदादिभ्यो निवर्तमानो वह्निः स्वाभावेन इदादौ स्वव्याप्यस्य धूमादेरभावं बोधयतीति सर्वाविवादात् । नच स्वप्रकाशत्व रूपं साध्यं कुत्रापि न प्रसिद्धमिति तादृशाप्रसिद्धस्य साधनेऽप्रसिद्धविशेषणपक्षाख्यो दोपः स्यादिति वाच्यं सामान्यतो दृष्टानुमानेन स्वप्रकाशत्वसाधनसंभवात् । तथाहि वेद्यत्वं किंचिन्निष्ठात्यंताभावप्रतियोगिधर्मत्वात् रूपादिवत्, क्योंकि स्वप्रकाश की सिद्धि में प्रमाण भी मौजूद हैं । वह इस प्रकार है अनुभूति ( अनुभव ) स्वयं प्रकाश रूप हैं, क्योंकि वह अनुभूति है, जो स्वयं प्रकाश रूप नहीं वह अनुभूति भी नहीं होती, जैसे घट घट में स्वयंप्रकाशता का अभाव है, अतः उनमें अनुभूतित्व का भी अभाव है । व्यापक का अभाव व्याप्य के अभाव का साधक होता है । यह नियम अन्यत्र देखा जाता है । जैसे तालाव आदि से निवृत्त होती हुई अग्नि स्वभाव से ही तालाव आदि मैं अपने व्याप्य धूमादि के अभाव को भी बोधित करती है । इस विषय में किसी को विवाद नहीं हैं । कदाचित् कहो कि स्वप्रकाशता रूप साध्य कहीं भी सिद्ध नहीं है, अतएव अप्रसिद्ध को सिद्ध करने से "अप्रसिद्ध विशेषणपक्ष" नामक दोष आता है, किन्तु ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि सामान्यतो दृष्ट अनुमान से स्वप्रकाशता को सिद्ध करना संभव है । वह इस प्रकार वेद्यत्व किसी में रहे हुए अन्यथाभाव का प्रतियोगी ( सम्बन्धी ) है, क्योंकि वह આ પ્રકારે સ્વપ્રકાશનું લક્ષણ બતાવીને, હવે તેનુ પ્રતિપાદન કરતું પ્રમાણ પણ ખતાવવામાં આવે છે. સ્વપ્રકાશની સિદ્ધિમાં નીચે પ્રમાણે પ્રમાણ મેાજૂદ છે—અનુભૂતિ (અનુભવ) સ્વય” પ્રકાશ રૂપ છે; કારણ કે જે સ્વયં પ્રકાશ રૂપ ન હેાય તેને અનુભૂતિ જ કહી શકાય નહીં. જેમ કે ઘડામાં સ્વયંપ્રકાશતાનેા અભાવ છે, તેથી તેમાં અનુભૂતિત્વના પણ અભાવ છે. વ્યાપકના અભાવ વ્યાપ્યના અભાવના સાધક હોય છે, આ નિયમ અન્યત્ર પણ જોવામાં આવે છે. જેમ કે તળાવ આદિમાંથી નિવૃત્ત થતી અગ્નિ સ્વ ભાવથી જ તળાવ આદિમાં પોતાના વ્યાખ્યના (ધૂમાડા આદિનો) અભાવના પણ બેધ કરાવે છે. એટલે કે તળાવ આદિમાં અગ્નિના જ અભાવ હાવાથી ધુમાડાના પણ અભાવ જ રહે છે, આ વિષયમાં કોઈ ના પણ વિવાદ સંભવી શકતા નથી. કદાચ આપ એવુ પ્રતિપાદન કરતા હૈા કે સ્વપ્રકાશતા રૂપ સાધ્ય ક્યાંય પણ સિદ્ધ નથી, તેથી અપ્રસિદ્ધને સિદ્ધ કરવાથી અપ્રસિદ્ધ વિશેષણ પક્ષ' નામના દોષ આવે છે, પરન્તુ તે પ્રકારનું કથન પશુ અનુચિત છે, કારણ કે સામાન્યતઃ દૃષ્ટ અનુમાન દ્વારા સ્વપ્રકાશતા સિદ્ધ કરવાનું સંભવિત છે. તે આ પ્રકારે શકય છે વેદ્યત્વ કોઈ પણ વસ્તુમાં રહેલા અત્યન્તાભાવનું For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टोका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् १११ यथा रूपादौ धर्मत्वं विद्यते इति तत्र रूपादौ किंचिनिष्ठात्यंताभावप्रतियोगित्वं विद्यते, अर्थात् यो धर्मों भवति तस्य कचिदपि अधिकरणेऽवश्यमत्यताभावो भवति यथा वायौ रूपस्याभावो भवति तथा वेद्यत्वमपि धर्म इति तस्यापि कुत्रचिदभावेन भाव्यमेवेति यत्र वेद्यत्वस्याभावस्तस्यैवावेद्यत्वं सिद्धं भवति । अनेन क्रमेणावेद्यत्वस्य सामान्यतः सिद्धत्वात् कतदिति जिज्ञासायां व्यतिरेक्यनुमानेन ज्ञानेऽवेद्यत्वं सिद्धं भवति इति ना प्रसिद्धविशेषणतादोषः संभवति । अथवा यद्विपर्ययेऽसमीहितप्रसक्तिर्भवति तत्कचिन्मानयोग्य भवति इति सामान्यव्याप्तिरिह च ज्ञानं वेद्यं भवति नवेति वादिनां विप्रतिपच्या संशये सत्यनुभाव्यत्वस्य स्वीकारेऽनवस्थारूपा समीहितप्रसक्तैर्वद्यत्वविपर्ययस्यापि सामान्यतः प्रमाणगम्यधर्म है, जैसे रूपादि में धर्मत्व है तो किसी में रहे हुए अत्यन्ताभाव का ( सम्बन्धित्व ) प्रतियोगित्व भी है । तात्पर्य यह है कि जो भी धर्म होता उसका किसी अधिकरण में अत्यन्ताभाव अवश्य होता है, जैसे वायु में रूप का अभाव है । उसी प्रकार वेद्यत्व भी धर्म है तो उसका भी कहीं न कहीं अभाव होना चाहिए और जहाँ वेद्यत्व का अभाव है उसी में अवेद्यत्व सिद्ध है । इस क्रम से अवेद्यत्व की सामान्य रूप से सिद्धि हो जाती है । वह अवेद्यत्व कहां है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर व्यतिरेकी अनुमान से ज्ञान में अवेद्यत्व सिद्ध होता है अतएव अप्रसिद्ध विशेषणता दोष नहीं हो सकता। अथवा जिसके विपर्यव में अनिष्ट का प्रसंग होता है वह कहीं प्रमाण से जानने योग्य होता है , य एक सामान्य व्याप्ति है ज्ञान वेद्य है अथवा नहीं इस प्रकार की विभिन्न वादियों की विप्रतिपत्ति के कारण संशय होने पर वेद्यत्व के स्वीकर करने पर अनवस्था दोष रूप अनिष्ट का प्रसंग होने પ્રતિયેગી (સંબંધી) છે, કારણ કે તે ધર્મ છે. જેમ કે રૂપ રૂપાદિકમાં ધર્મને સંભાવ છે, તે કઈ વસ્તુમાં રહેલા અત્યન્તાભાવના પ્રતિયોગિત્વ (સંબંધિત્વ)ને પણ સંભાવ છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે—જે ધર્મ હોય છે તેને કોઈ અધિકરણમાં અત્યન્તાભાવ પણ અવશ્ય હોય છે, જેમ કે વાયુમાં રૂપને અભાવ છે. એ જ પ્રમાણે વેધત્વ પણ ધર્મરૂપ હોવાથી તેને પણ કઈને કઈ વસ્તુમાં અભાવ હોવો જોઈએ. અને જ્યાં વેદ્યત્વને અભાવ છે, તેમાં જ અઘતા સિદ્ધ થઈ જાય છે. તે અદ્યત્વ ક્યાં છે? આ પ્રકારની જિજ્ઞાસા થાય ત્યારે વ્યતિરેકી અનુમાન વડે જ્ઞાનમાં અદ્યતા સિદ્ધ થાય છે. તે કારણે અપ્રસિદ્ધ વિશેષણતા દોષ સંભવી શક્તા નથી. અથવા જેના વિપર્યયમાં અનિષ્ટને પ્રસંગ આવે છે, તે કઈક વસ્તુમાં પ્રમાણ દ્વારા જાણવા યેવ્ય હોય છે, આ એક સામાન્ય વ્યામિ વેદ્ય છે કે નથી, આ પ્રકારની વિભિન વાદીઓની વિપ્રતિપત્તિને કારણે સંશય થતા વેધત્વને સ્વીકાર કરવામાં અાવસ્થા દેષ રૂપ For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासूत्रे स्वात् । अन्यथा कथमिच्छादि गुणानामष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्याश्रितत्वं नैयायिकोपि साधयेत् अष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यस्याप्रसिद्धविशेषणता प्रसिद्धौ यत्र तस्य प्रसिद्धि स्तत्र हेतोवृत्तितायामन्वयव्यतिरेकिता स्याद् , आवृत्तौ हेतोरसाधाधारणानकान्तिकतादोषः स्यादतः सामान्यतो दृष्टानुमानेन साध्यस्य कथमपि सिद्धौ नाप्रसिद्धविशेषणतायाः प्रसर इत्यवश्वमभ्युपेयम् तथा च यथा भवद्भिः सामान्यतो दृष्टानुमानन साध्यप्रसिद्धि कृत्वा पुनस्तस्य साधनं क्रियते तथा यदि मयापि क्रियते तत्र कः प्रद्वषो भवताम् । न चैवं सत्यप्रसिद्धविशेषणतारूषो दोषो न कुत्रापि भवेदिति वाच्यम्, सामान्यतो दृष्टानुमानासंभवे शशसे वैद्यत्व का विपर्यय ( अवेद्यत्व ) भी सामान्य रूप से प्रमाण द्वारा गम्य हो जाता है । अगर ऐसा न माना जाय तो नैयायिक इच्छा आदि गुणों को आठ द्रव्यों से अतिरिक्त ( नौवे-आत्मा) द्रव्य के आश्रित किस प्रकार सिद्ध कर सकेगा ! क्योंकि आठ द्रव्यों से अतिरिक्त द्रव्य की सिद्धि न होने से अप्रसिद्ध विशेषणता दोष आता है जहाँ उसकी सिद्धि है वहाँ हेतु का रहमा माना जाय तो हेतु अन्वयव्यतिरेकी हो जायेगा और यदि हेतु का रहना माना जाय तो असाधारण अनैकान्तिकता दोष आएगा । ऐसी स्थिति में अवश्य ही यह मानना चाहिए कि सामान्यती दृष्टानुमान से साध्य की सिद्धि होने पर अप्रसिद्ध विशेषणता दोष नहीं आता है इस प्रकार जैसे आप समान्यतोदृष्ट अनुमान से साध्य की सिद्धि करके उसका साधनं करते हैं, उसी प्रकार यदि हम भी करें तो क्यों आपको द्वेष होता है ? कदाचित कहो कि ऐसा मानने पर तो अप्रसिद्ध विशेषणता दोष कहीं हो ही नहीं सकेगा , तो ठीक नहीं । जहाँ सामान्यतो दृष्ट अनुमान होना અનિષ્ટને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થવાથી ત્વનું વિપર્યય (અદ્યત્વ) પણ સામાન્યરૂપે પ્રમાણ દ્વાર ગમ્ય થઈ જાય છે. જે એવું માનવામાં ન આવે તે તૈયાયિક ઈચછા આદિ ગુણોને, આક દ્રવ્યો સિવાયના (નવમા–આત્મા) દ્રવ્યને આશ્રિત કેવી રીતે સિદ્ધ કરી શકશે? કારણ કે આઠ દ્રવ્ય સિવાયના દ્રવ્યની સિદ્ધિ ન હોવાથી ‘અપ્રસિદ્ધ વિશેષણતા દેશને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થાય છે. જ્યાં તેની સિદ્ધિ છે ત્યાં હેતુને સદ્ભાવ માનવામાં આવે તે હત અન્ય વ્યતિરેકી થઈ જશે, અને જે હેતુને સદ્ભાવ ન માનવામાં આવે, તે અસાધારણ અનેકનિકતા દોષને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં અવશ્ય એવું માનવું જ જોઈએ કે સામાન્યતઃ છાનુમાન વડે સાધ્યની સિદ્ધિ થતી હેચ ત્યારે અપ્રસિદ્ધ વિશેષણતા દેષ” નડતા નથીઆ રીતે આપ જેવી રીતે સામાન્યતઃ દઇ અનુમાન દાસ સાધ્યની સિદ્ધિ કરીને, તેને સાધન રૂપે ઉપયોગ કરે છે, એ રીતે અમે પણ કરીએ તે આપને દ્વેષ થવાનું કારણ શું છે? કદાચ આપ એવું કહેતા હે છે એવું માનવામાં અપ્રસિદ્ધ વિશેષણતા દેષ નડતા જ નથી, તે તે વાત પણ અનુચિત For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्र. शु. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् ११३ समर्थ बोधिनी टीका विषाणोल्लिखिताभूः पृथिवीत्वादित्यादौ तादृशदोषस्य निरंकुशप्रसरसंभवात् । न च कल्पितसत्त्वरूपमनुभूतित्वं हेतु रुताऽकल्पितसत्वरूपमनुभूतित्वं वा हेतुः । आद्यपक्षे नैयायिकादिमते हेतोरसिद्धिस्तन्मते कल्पिताया: सत्ताया अनभ्युपगमात् । न वा द्वितीयः पक्षः वेदान्तिमते अकल्पितानुभूतित्वस्यासंभवेन हेतोरसिद्धिरिति वाच्यम् परित्यक्तकल्पिताकल्पित विशेषस्यानुभूतित्वमात्रस्यैव हेतुत्वेन स्वीकारात् । अन्यथा वह्निवान् धूमादित्यत्रापि धूमः किं पर्वतीयो संभव न हो वहाँ इस दोष का प्रसंग हो सकता है जैसे पृथ्वी शशविषाण से कुरेदी गई है, क्योंकि यह पृथ्वी है, ऐसे स्थल पर यह दोष आ सकता है । यहाँ जो अनुभूतित्व हेतु है वह कल्पितसत्त्व रूप हैं या अकल्पित सत्त्व रूप है ? प्रथम पक्ष स्वीकार करो तो नयायिक आदि मतों में हेतु असिद्धि हो जाएगा क्योंकि उनके मत में कल्पित सत्ता स्वीकार नहीं की गई है । दूसरा पक्ष भी स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि वेदान्तियों के मत में अकल्पित अनुभूतित्व संभव नहीं है, इस कारण हेतु असिद्ध है | यह कहना अनुचित है, क्योंकि हमने कल्पित अथवा अकल्पित विशेषों को छोड कर अनुभूतित्वसामान्य को ही हेतु स्वीकार किया है अन्यथा पर्वत अग्निमान् है, क्योंकि इस अनुमान में भी यह प्रश्न किया जा सकता है कि क्या धूमवान् है पर्वत का છે, જ્યાં ‘સામાન્યતઃ દૃષ્ટ' અનુમાનના સદ્ભાવ સંભવતા ન હાય, ત્યાં આ દોષના પ્રસંગ ઉપસ્થિત થાય છે. જેમ કે પૃથ્વીને સસલાનાં શિંગડાં વડે ખેાદવામાં આવી છે.’ આ પ્રકારના કથનમાં આ દોષના સંભવ રહે છે, કારણ કે સસલાને શિંગડાં જ હેાતાં નથી. તે તેના શિંગડાં વડે પૃથ્વીને ખેાદવાની વાત જ કેવી રીતે સંભવી શકે? For Private And Personal Use Only અહીં જે અનુભૂતિત્વ છે તે કલ્પિત સત્ત્વરૂપ છે, કે અકલ્પિત સત્ત્વરૂપ છે? પહેલા પક્ષને, સ્વીકાર કરવામાં આવે, તે નૈયાયિક આદિ મતામાં હેતુ અસિદ્ધ થઇ જશે, કારણ તેમના મતમાં કલ્પિત સત્તાનો સ્વીકાર કરાયો નથી, બીજા પક્ષને પણ સ્વીકાર કરી શકાય તેમ નથી, કારણ કે વેદાન્તીઓના મત અનુસાર અકલ્પિત અનુભૂતિત્વ સભવી શકતુ નથી, તે કારણે હેતુ અસિદ્ધ છે. તે પ્રકારનું કથન અનુચિત છે; કારણ કે અમે કલ્પિત અથવા અકલ્પિત વિશેષાને છેડીને અનુભૂતિત્વ સામાન્યને જ હેતુરૂપે સ્વીકારેલ છે. નહી તો પર્યંત અગ્નિમાન છે; કારણ કે ત્યાં ધુમાડાના સદ્ભાવ છે’; આ અનુમાન સામે પણ એવા પ્રશ્ન કરી શકાય છે કે શું પર્યંતના હેતુ ધુમાડા હોય છે; કે રસોડાને હેતુ ધુમાડા હાય છે? પહેલા પક્ષ સંગત નથી; કારણ કે પર્વતમાં ધુમાડાની સાથે તે सू. १५ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ११४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे हेतुर्महानसीयो वा नाद्यः पर्वतीयधूमे तदानीं व्याप्तेग्रहणाभावेन तेनानुमातुमशक्यत्वात् । न द्वितीयः स्वरूपासिद्धेर्महानसीयधूमस्य पर्वतादावभावात् इत्यादि विकल्पेन धूमेनापि पर्वते वह्नयनुमानं न स्यात् इति तत्र यथा तदेशनिष्टत्वमतदेशनिष्ठत्वं न विकल्प्यते, किन्तु धूमत्वेन धूमो हेतुस्तथाप्रकृतेपि अनुभूतित्वमात्रं हेतुरित्येवं न कोषि दोषः प्रसरति, न वा स्वप्रकाशसाधनतायां कोषि दोषो भवति । न च स्वप्रकाशत्वरूपसाध्यस्याभावाधिकरणेऽनुभूतित्वस्य हेतोर्वृत्ति च्वसन्देहाद्धेतौ संदिग्धाऽनैकान्तिकता स्यादिति वाच्यम् अनुभूतेरप्यनुभाव्यत्वेनाऽव Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धूम होता है या महानस का धूम हेतु है ? प्रथमपक्ष संगत नहीं क्योंकि पर्वत के धूम के साथ उस समय (अनुमान प्रयोग के समय ) व्याप्तिका ग्रहण नहीं हुवा है अतएव उससे अग्नि का अनुमान नहीं किया जा सकता । दूसरे पक्ष में महानस का धूम पर्वत में पाया नहीं जाता । इत्यादि विकल्प यहाँ भी संभव होने से धूम हेतु के द्वारा पर्वत में अग्नि का अनुमान नहीं हो सकेगा । इस प्रकार जैसे यहाँ पर तदेश निष्टता या अतदेश निष्ठता अमुक जगह रहने अथवा न रहने का विकल्प नहीं किया जाता किन्तु सामान्य धूम को ही हेतु मान लिया जाता है उसी प्रकार प्रस्तुत अनुमान में भी अनुभूतित्व सामान्य ही हेतु है, ऐसा मानने में कोई भी दोष नहीं आता और न स्वप्रकाशता की सिद्धि में ही कोई दोष आता है स्वप्रकाशता रूप साध्य के अभाव के अधिकरण में अर्थात् जहाँ स्वप्रकाशता साध्य नहीं है वहां भी अनुभूतित्व हेतु की वृत्ति का सन्देह होने से हेतु में संदिग्ध अनैकान्तिकता दोष आता है । यह कहना उचित સમયે (અનુમાન પ્રયોગના સમયે) વ્યાપ્તિનું ગ્રહણ થતું નથી. તે કારણે તેના દ્વારા અગ્નિનું અનુમાન કરી શકાતુ નથી. બન્ને પક્ષ પણ સ્વીકારી શકાય તેમ નથી, કારણ કે રસોડાના ધુમાડા પર્વતમાં સંભવી શકતા નથી, ઇત્યાદિ વિકલ્પ અહીં પણ શક્ય હાવાથી ધુમાડા રૂપ હેતુ દ્વારા પર્યંતમાં અગ્નિનું અનુમાન કરી શકાશે નહીં. આ રીતે જેમ અહીં તદ્દેશનિષ્ઠતા અથવા અતર્દેશનિષ્ઠતાના (અમુક જગ્યાએ રહેવા અથવા ન રહેવાને) વિકલ્પ માન્ય કરી શકાતા નથી, પરન્તુ સામાન્ય ધુમાડાને જ હેતુ માની લેવામાં આવે છે, એજ પ્રમાણે પ્રસ્તુત અનુમાનમાં પણ અનુભૂતિત્વ સામાન્યજ હેતુ રૂપ છે. આ પ્રકારની માન્યતામાં પણ કોઈ દોષ ઉદ્ભવતા નથી અને સ્વપ્રકાશતાની સિદ્ધિમાં પણ કોઇ દોષના સંભવ રહેતા નથી. સ્વપ્રકાશતા રૂપ સાધ્યના અભાવના અધિકરણમાં એટલે કે જ્યાં સ્વપ્રકાશતા સાધ્ય નથી ત્યાં પણ અનુભૂતિત્વ હેતુની વૃત્તિના સન્દેહ હોવાથી હેતુમાં સંદિગ્ધ અનેકાન્તિકતા દોષનો સંભવ રહે છે, એમ કહેવું તે ઉચિત નથી; કારણ કે આપણે અનુભૂતિને પણ For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बोधिनी टीका प्र. शु. अ. ९ वार्यामतस्वरूपनिरूपणम् ११५ स्थापातात्, यदि ज्ञानं ज्ञानान्तरेण वेद्यं स्यात् तदा येन ज्ञानान्तरेण प्रथमं ज्ञानं वेदितं स्यात्तदपि ज्ञानत्वाविशेषात् स्वान्येन केनचिदपि ज्ञानेन ज्ञातं स्यात्तदपि पुनर्ज्ञानान्तरेणेत्येवमनवस्था पिशाचस्यावतारः स्यादित्येव ज्ञानस्य ज्ञानान्तरवेद्यत्वे बाधकस्तर्कः । सति च बाधकतर्केण सन्दिग्धानैकान्तिकतापदमध्याधातुं शक्नोति । नच ज्ञानमात्रस्यावश्यवेद्यत्वं न स्वीकरोमि ज्ञानव्यवहारस्तु न ज्ञायमानसत्तया किन्तु स्वरूपसत्ताविशिष्टेनैव ज्ञानेन ज्ञानस्य व्यवहार इति कानवस्थायाः नहीं है, क्योंकि हम अनुभूति को भी अनुभाव्य स्वीकार करते हैं । यदि एक ज्ञान दूसरे से ही जाना जाय तो जिस ज्ञान ने पहले ज्ञान को जाना वह भी ज्ञान होने के कारण अपने से भिन्न किसी अन्य ज्ञान के द्वार ही जाना जाएगा और वह ज्ञान भी किसी अन्य ज्ञान से | इस प्रकार अनवस्था दोष रूपी पिशाच का अवतार होगा । एक ज्ञान को दूसरे ज्ञान द्वारा वेद्य मानने में यह बाधक तर्क है इस बाधक तर्क की मौजूदगी में संदिग्ध अनैकान्तिकता दोष नहीं आ सकता । कदाचित् यह कहो कि हम प्रत्येक ज्ञान को वेद्य (ज्ञेय) नहीं मानते । फिर भी उसमें जो ज्ञान का व्यवहार होता है वह ज्ञायमान सत्ता से नहीं किन्तु स्वरूपसत्ता से विशिष्ट ज्ञान के द्वारा ही होता है । ऐसा मानने से अनवस्था दोप कैसे संभव हो सकता है ? किन्तु यह कथन युक्ति संगत नहीं है । ज्ञान अपने आप को जानता नहीं और उसे जानने के लिए અનુભાવ્ય રૂપે સ્વીકારીએ છીએ. જો એક જ્ઞાનને બીજા જ્ઞાન વડે જ જાણી શકાતુ હાય, તા જે જ્ઞાન વડે પહેલા જ્ઞાનને જાણવામાં આવ્યુ, તે જ્ઞાનને પણ જાણનારૂં કેઇ ત્રીજું જ્ઞાન પણ હાવું જ જોઇએ. જે જ્ઞાન વડે તે બીજા જ્ઞાનને જાણવામાં આવ્યુ તે ત્રીજા જ્ઞાનને જાણનારૂં કોઇ ચેાથું જ્ઞાન પણ હશે જ. આ પ્રમાણે આગળ વધતાં વધતાં જે છેલ્લુ જ્ઞાન આવશે, તે જ્ઞાનને કયા જ્ઞાન દ્વારા જાણવામાં આવ્યું તે પ્રશ્ન ઊભા થશે, અને છેલ્લા જ્ઞાનને જાણનારા અન્ય જ્ઞાનના અભાવ હાવાને કારણે અનવસ્થા દેષની સંભાવના ઊભી થશે. એક જ્ઞાનને અન્ય જ્ઞાન દ્વારા વેદ્ય (અનુભવ કરવા યોગ્ય) માનવામાં આ બાધક તર્ક છે. આ બાધક તની ઉપસ્થિતિમાં (મેાજૂદગીમાં) સ ંદિગ્ધ અનૈકાન્તિકતા દોષ આવી શકતા નથી. કદાચ એવું કહેવામાં આવે કે “અમે પ્રત્યેક જ્ઞાનને વેદ્ય (જ્ઞેય) માનતા નથી. તે તેમાં જે જ્ઞાનના વ્યવહાર થાય છે તે જ્ઞાયમાન સત્તા વડે થતા નથી, પણ સ્વરૂપ સત્તાથી યુક્ત જ્ઞાન દ્વારા જ થાય છે, આ પ્રમાણે માનવામાં આવે, તો અનવસ્થા દોષ કેવી રીતે સંભવી શકે છે ?” પરન્તુ આપનું આ કથન પણ યુક્તિ સંગત લાગતુ નથી. જ્ઞાન પેાતાને જ જાણતું ન હોય અને તેને જાણવાને માટે કોઈ અન્ય જ્ઞાનની પ્રવૃત્તિ પણ ન For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे , संभवः ज्ञानस्यावश्यवेद्यतास्वीकारे एवानवस्थायाः संभवादिति वाच्यं ज्ञान - विषयक ज्ञानान्तरानवतारे ज्ञानसत्ताया निर्णेतुमशक्यतया स्वरूपसत्तया व्यवहार इति स्वीकर्तुमशक्यत्वात् न च यदा कदाचिद ज्ञानान्तरसत्ताविषक जिज्ञासोदये सति व्यवहारादिना केनचित्कारणेन तस्या अपि प्रमास्यादिति न तस्या निर्णयः किन्तु निर्णयः स्यादिति न कोपि दोष इति वाच्यम् । घटोऽयं घटविषयक ज्ञानवानहमिति ज्ञानद्वयातिरिक्तज्ञानान्तरस्याननुभवात् यदि ज्ञानप्रवाहो भवेत्तदा भवत्कथनं शोभेतापि न त्वेवम् अननुभूतेनापि पदार्थस्वीकारेऽतिप्रसंगात् । विनापि प्रमाणं यदि सत्तायाः स्वीकारः स्यात्तदा प्रमेयसत्ताया अपि प्रमाण दूसरे ज्ञान की भी प्रवृत्ति न हो तो ज्ञान की सत्ता का ही निर्णय नहीं हो सकता । ऐसी स्थिति में स्वरूप सत्ता से ज्ञान का व्यवहार स्वीकार करना शक्य नहीं है । जब कभी ज्ञानान्तर की सत्ता के विषय में जिज्ञासा उत्पन्न होती है। तो व्यवहार आदि किसी कारण से उसका भी ज्ञान हो जाता है । अतएव उसका निर्णय नहीं किन्तु निर्णय हो जाता हैं । इस कारण कोई दोष नही है । ऐसा कहना ठीक नहीं । "यह घट है" या मैं घट विषयक ज्ञानवान् हूँ इस प्रकार के दो ज्ञानों से भिन्न ज्ञानान्तर का अनुभव नहीं होता । यदि ज्ञान का प्रवाह होता तो आप का कथन शोभा भी देता । मगर ऐसा है नहीं जो अनुभव में नहीं आता, उसके द्वारा भी पदार्थ को स्वीकार किया जाएगा तो अति प्रसंग ( अनिष्टापत्ति) का प्रसंग होगा । यदि प्रमाण के विना ही सत्ता को स्वीकार करते हो तो प्रमेय की सत्ता 46 હાય, તેા જ્ઞાનની સત્તાના (અસ્તિત્વનો) જ નિર્ણય થઇ શકે નહીં. એવી સ્થિતિમાં સ્વરૂપસત્તા દ્વારા જ્ઞાનના વ્યવહાર સ્વીકાર્ય બની શકતા નથી. "न्यारे ज्ञानान्तर (रमन्य ज्ञान ) नी सत्ता (विद्यमानता ) ना विषयभां निज्ञासा ઉત્પન્ન થાય છે, ત્યારે વ્યવહાર આદિ કોઈ કારણ વડે પણ તેનું જ્ઞાન થઇ જાય છે. તે કારણે તેના અનિર્ણય રહેવાને બદલે નિર્ણય જ થઇ જાય છે, આ કારણે કોઇ દોષ નથી” આ પ્રમાણે કહેવુ તે પણ યોગ્ય નથી. “આ ઘટ (ઘડે) છે” અથવા “ ું ઘટવિષયક જ્ઞાનવાન્ધ્યું. ” આ પ્રકારના બે જ્ઞાનેાથી ભિન્ન જ્ઞાનાન્તરના અનુભવ થતો નથી, જે જ્ઞાનના પ્રવાહ હેાત તેા આપનુ કથન સુંદર લાગત પરન્તુ એવુ છે નહી. જે અનુભવવામાં ન આવે તેના દ્વારા પણ પદાર્થના સ્વીકાર કરવામાં આવે, તે અતિપ્રસગ (અનિાપત્તિ) રૂપ દોષનો સંભવ ઉપસ્થિત થશે. જો પ્રમાણ વિના જ સત્તાના સ્વીકાર કરવામાં આવે, તો પ્રમેયની સત્તાના પણ પ્રમાણના અસ્તિત્વ વિના જ સ્વીકાર કરી શકાશે અને પ્રમાણના For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११७ समर्थ बोधिनी टोका प्र. . अ. १ चाकमतस्वरूपनिरूपणम् सत्तामन्तरेणैव स्वीकारसंभवेन प्रमाणचिन्तैव परित्यक्ता भवेत् । इष्टापत्तौ च प्रमेयसिद्धिः प्रमाणाद्धीति परिभाषालुप्येत, अनुभवविरोधश्व स्यात्, नहि चक्षुरादिप्रमाणमन्तरा रूपादिप्रमेयस्य व्यवस्था कचिदपि दृष्टा उपपन्ना वा । ज्ञानान्तरविषयक ज्ञानस्वीकारे पुनरग्रे ज्ञानान्तरगवे पणायामनवस्थाया अवश्यंभावेन दोषराहित्यं कदापि न संभवेत् । न चानवस्थैवेष्टेति वाच्यम् । अनवस्थास्वीकर्तॄणां त्रिदोषसंभवात्, त्रिदोषाः प्राग् लोप- अविनिगम्यत्व-श्रमाणापगमाः । उत्तरोत्तरज्ञानस्वीकारे पूर्वज्ञानोपयोगसिद्धौ अपरापरज्ञानेन पूर्वपूर्वविज्ञानस्य विलोपप्रसंगात्, इति प्राग्लोपदोषः । भी प्रमाण की सत्ता के बिना ही स्वीकार की जा सकेगी और प्रमाण का विचार ही त्याग देना होगा अर्थात् प्रमाण का विचार निरर्थक हो जाएगा । अगर कहो कि यह तो इष्टापत्ति है अर्थात् हम प्रमाण का त्याग करते हैं तो यह कथन बाधित हो जाएगा कि प्रमाण से ही प्रमेय की सिद्धि होती है । अनुभव से भी विरोध होगा, क्योंकि चक्षु आदि प्रमाणों के विना रूप आदि प्रमेयों की व्यवस्था कहीं भी नहीं देखी गई है और न वह संगत हो सकती है । ज्ञान को ज्ञानान्तर से ग्राह्य मानने पर ज्ञानान्तर को ग्रहण करने के लिए भी ज्ञानान्तर की खोज करनी पड़ेगी तो अनवस्था दोष होगा । दोष रहितता कदापि संभव नहीं होगी । हमें अनवस्था ही इष्ट है ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि अनवस्था स्वीकार करने वालों को तीन दोष आएँगे । वे तीन दोष ये हैं (१) प्राग्लोप ( २ ) अविनिगम्यत्व और ( ३ ) प्रमाणापगम । उत्तरोत्तर ज्ञान को स्वीकार करने पर पूर्वज्ञान के उपयोग की सिद्धि होने વિચાર જ જતા કરવા પડશે. એટલે કે પ્રમાણુના વિચાર જ નિરર્થક બની જશે. કદાચ તમે તેને ઈષ્ટાપત્તિ રૂપ ગણા અને એવુ કહેા કે અમે પ્રમાણના ત્યાગ કરીએ છીએ, તા “પ્રમાણ દ્વારા જ પ્રમેય સિદ્ધ થાય છે,” આ કથન અસ ંગત બની જવા રૂપ બાધાન પ્રસ`ગ ઉપસ્થિત થશે. વળી આ કથન અનુભવની પણ વિરૂદ્ધ જશે, કારણ કે ચક્ષુ આદિ પ્રમાણેા વિના રૂપ આદિ પ્રમેયાની વ્યવસ્થાના સદ્ભાવ સ ંભવી શકતા જ નથી અને તે પ્રકારની વ્યવસ્થા સંગત પણ હોઈ શકે નહી. જ્ઞાનને જ્ઞાનાન્તર (અન્ય જ્ઞાન) વડે ગ્રાહ્ય માનવામાં આવે, તા જ્ઞાનાન્તરને ગ્રહણ કરવાને માટે જ્ઞાનાન્તરની શેાધ કરવી પડશે. તે તે પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં અનવસ્થા દોષના પ્રસંગ ઉપસ્થિત થઇ જશે. “અમને અનવસ્થા જ ઇષ્ટ છે,” આ પ્રકારનું કથન પણ યોગ્ય નથી, કારણ કે અનવસ્થાના સ્વીકાર કરનારને નીચે પ્રમાણે ત્રણ દોષ લાગશે. (૧) પ્રાગ્લોપ (૨) અવિનિગમ્યત્વ અને (૩) પ્રમાણાપગમ. ઉત્તરોત્તર જ્ઞાનના સ્વીકાર કરવામાં પૂર્વ જ્ઞાનના ઉપયોગની સિદ્ધિ For Private And Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे विनिगमनापि न स्यात् कस्य स्वीकारः कस्य नेति पूर्वनियामकं परं वेति विनियन्तुमशक्यत्वात् , इति अविनिगम्यत्वरूपो द्वितीयदोपः प्रमाणापगमोपि अनन्तज्ञानस्वीकारे नास्ति किंचित्प्रमाणमनुभवो वा इति प्रमाणापगमात्मा तृतीयो दोपः । तदुक्तं श्री हर्पमिश्रेण "प्राग्लोपाविनिगम्यत्व-प्रमाणापगमैर्भवेत् । अनवस्थितिमास्थातु रचिकित्स्यात्रिदोपता ॥ इति । अवयवावयविनोभेदे श्लोकस्थ तृतीयाविभक्तेः प्रयोज्यत्वमर्थस्तथा च प्रागलोपाविनिगम्यत्वप्रमाणापगमप्रयोज्या त्रिदोषता। अवयवाऽवयविनोरभेदे तु तृतीया विभक्तरभेदोर्थः तथा च प्रागलोपाविनिगम्यत्व प्रमाणापगमाभिन्नात्रिदोषता से अगले २ ज्ञान से पहले २ के ज्ञान का लोप हो जाएगा। यह प्राग्लोप नामक दोप है किसे स्वीकार करें और किसे स्वीकार न करें, पहलाज्ञान नियामक है, या दूसरा ज्ञान नियामक है ? इस प्रकार :निर्णय करना शक्य न होने से अविनिगमता नामक दूसरा दोष होगा। अनन्त ज्ञानों को स्वीकार करने में न कोई प्रमाण है और अनुभव है इस कारण प्रमाणापगम नामक तीसरा दोप भी आता है। श्री हर्ष मिश्र ने कहा है-"प्रागलोपाविनिगम्यत्व" इत्यादि । “जो ज्ञानों की अनवस्था को स्वीकार करते हैं, उनके मतानुसार तीन दोषों का निवारण नहीं हो सकता । वे दोप इस प्रकार हैं-प्राग्लोप, अविनिगम्यत्व और प्रमाणापगम । अवयव और अवयवी, का भेद मानने पर श्लोक में आई हुई तृतीया विभक्ति का अर्थ प्रयोज्यत्व है । तात्पर्य यह है कि प्राग्लोप, अविनिगम्यत्व और प्रमाणापगम के द्वारा प्रयोज्य त्रिदोषता है । अवयवी का अभेद मानने થવાથી પાછળને પ્રત્યેક જ્ઞાન દ્વારા આગળના પ્રત્યેક જ્ઞાનને લેપ થઈ જશે. આ દોષનું નામ પ્રાગલેપ દોષ છે. તેને સ્વીકાર કરે અને કેને અસ્વીકાર કરે, પહેલું જ્ઞાન નિયામક છે કે બીજુ જ્ઞાન નિયામક છે, આ પ્રકારનો નિર્ણય કરવાનું શકય ન હોવાથી અવિનિગમતા નામને બીજે દેષ લાગશે. અનંત જ્ઞાનેનો સ્વીકાર કરવા માટે કઈ પ્રમાણ પણ નથી અને એવા કેઈ અનુભવને પણ સદ્ભાવ નથી. તે કારણે પ્રમાણપગમ નામને त्री हो५ ५४ वे छे. श्री उप भित्रै ४झुछ-"प्रागलोपाविनिगम्यत्व" त्यात બજેઓ જ્ઞાનની અવસ્થાને સ્વીકાર કરે છે, તેમના મતાનુસાર ત્રણ દોષનું નિવારણ २४ २४तु नथा, ते न ५ २५॥ प्रभारी छ. (१) प्राणan५, (२) विनियत्व भने (3) પ્રમાણપગમ. અવયવ અને અવયવીમાં ભેદ માનવામાં આવે, તે શ્લેકમાં વપરાયેલી ત્રીજી વિભકિતને અર્થ “ પ્રજ્યત્વે છે. એટલે કે પ્રલેપ, અવિનિગમ્યત્વ અને For Private And Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्र. शु. अ. १ चार्वाकमत स्वरूपनिरूपणम् ११९ समयार्थ बोधिनी टोका अनवस्थां स्वीकुर्वतो भवति । चिकित्सारहिता भवतीत्यनवस्था कथमपि न हितावहा । न च द्वितीयादिज्ञानं स्वभावविशेषादेव स्वविषयप्रमाणमन्तरेणैव स्वविषयकव्यवहारं गमयत्यतो नानवस्था न वाऽप्रामाणिकत्वेन व्यवहाराभाव इति वाच्यम् । एवं तर्हि द्वितीयादिज्ञानानामेवंविवस्वभावस्वीकारे तद्वरं प्रथमज्ञानस्यैव तादृशस्वभावविशेषः स्वीक्रियताम् तावतैव सर्वविघ्नोपशांतिसंभावना ज्ञानस्य स्वप्रकाशतापि सिद्धा भवति निरर्थकोयं द्राविडप्राणायामः । तथा लौकिकानामाभाणकः । अन्ते रण्डाविवाहः स्यादादावेव कुतो नहीति । पर तृतीया विभक्ति का अर्थ अभेद है। अभिप्राय यह निकला कि ग्रागुलोप, aafarera और प्रमाणापगम से अभिन्न त्रिदोषता अनवस्था मानने वाले के मत में आती है । अनवस्था की कोई चिकित्सा नहीं है अतएव वह हितकर नहीं है। द्वितीय आदि ज्ञान अपने स्वभाव विशेष से स्वविषयक ज्ञान के विना ही, स्वविषयक व्यवहार को उत्पन्न कर लेता है अतः न तो अन वस्था दोष आता है और न अप्रामाणिक होने से व्यवहार का अभाव ही होता है, ऐसा नहीं कह सकते । यदि ऐसा है अर्थात् द्वितीय आदि ज्ञानों में इस प्रकार का स्वभाव स्वीकार करते हो तो पहले ज्ञान का ही ऐसा स्वभाव मान लेना अच्छा है । ऐसा मानने से सभी दोषों की उपशान्ति हो जाएगी और ज्ञान की स्वप्रकाशEता भी सिद्ध हो जाएगी । फिर यह द्रविड़ प्राणायाम व्यर्थ है लोक में कहावत है-यदि कुत्सित वर्तन करने वाली को अन्त में विवाह करना है तो आदि में ही क्यों न कर ले | પ્રમાણાપગમના દ્વારા પ્રયાન્ય ત્રિદોષતા છે. જો અવયવ અને અવયવીના અભેદ માનવામાં આવે, તેા તૃતીયા વિભક્તિના અથ અભેદ’ છે. એટલે કે પ્રાગ્લાપ, અવિનિગમ્યત્વ અને પ્રમાણાપગમ, આ ત્રણેથી અભિન્ન ત્રિદોષતાને, અનવસ્થા માનનારાના મતમાં સદ્ભાવ રહે છે. અનવસ્થાની કોઈ ચિકિત્સા નથી, તે કારણે તે હિતકર નથી. દ્વિતીય આદિ જ્ઞાન પાતાના સ્વભાવ વિશેષ વડે જ, વિષયક જ્ઞાનના વિના જ, સ્વવિષયક વ્યવહારને ઉત્પન્ન કરી લે છે, તેથી અનવરથા દોષ પણ આવતા નથી, અને અપ્રામાણિક હોવાથી વ્યવહારના અભાવ પણ સભવતા નથી” આ પ્રકારનું કથન પણ ઉચિત નથી. જો દ્વિતીય આદિ જ્ઞાનામાં આ પ્રકારના સ્વભાવના આપ સ્વીકાર કરતા હો, તા પહેલા જ્ઞાનના જ એ પ્રકારના સ્વભાવ માનવા ડીક થઈ પડશે. એવું માનવાથી સઘળા દોષોનુ નિવારણ થઇ જશે, અને જ્ઞાનની સ્વપ્રકાશતા પણ સિદ્ધ થઈ જશે. તે પછી આ દ્રાવિડ ( ઉલ્ટી રીતે) પ્રાણાયામ વ્યર્થ જ બની જશે. લોકોમાં એવી કહેવત છે કે “કુત્સિત વન કરનારી સ્ત્રીને આખરે વિવાહ કરી લેવાના જ હોય, તે પ્રારંભમાં જ શા માટે ન કરી લે !” For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२० सूत्रकृताङ्गसूत्रे तदेवं ज्ञानस्य ज्ञानान्तरविषयत्वस्वीकारे ज्ञानस्य स्वरूपमेव न सिद्धयेदित्यादिविपक्षबाधक तर्कसंभवेन न संदिग्धा नैकान्तिकता दोषः । यत्र हेतोः साध्याभावाधिकरणे वृत्तित्वसन्देहो भवेत् । तादृशवृत्तित्वे बाधकतकों नावतरति तत्रैव संदिग्धानैकान्तिकतायाः साम्राज्यम् प्रकृते तु ज्ञानस्वरूपासिद्धिरूपविपक्षबाधकतर्कस्य सत्वेन न तर्कस्य विरहप्रयुक्तसंदिग्धानैकान्तिकतायाः संभावनापि पदमाधातुं शक्नोतीति । अपि च घटादि स्वरूपविषयप्रकाशनसमये ज्ञानं प्रकाशते न वा । न प्रकाशते इति पक्षस्य स्वीकारे ज्ञानोदयानन्तर क्षणे जिज्ञासुपुरुषस्य तादृशघटादिज्ञाने सन्देहो विपर्ययो विपरीतप्रभा वा स्यात् । न तु कश्चिद्घटमह एक ज्ञान को दूसरे ज्ञान का विषय मानने पर ज्ञान का स्वरूप ही सिद्ध नहीं होगा इत्यादि बाधक तर्कों का सद्भाव होने से हमारे हेतु में संदिग्ध अनैकान्तिकता दोष नहीं है । जहाँ ऐसा सन्देह होता है कि हेतु साध्य के अभाव के अधिकरण में रहता है या नहीं अर्थात् जहाँ साध्य का अभाव है वहाँ भी रहता होगा वहाँ बाधक तर्क नहीं होता । ऐसे स्थल पर ही संदिग्ध अनैकान्तिकता का साम्राज्य होता है । यहां ज्ञान के स्वरूप की असिद्धि रूप बाधक तर्क : विद्यमान है, अतएव बाधक तर्क के अभाव में होने वाली संदिग्ध अनैकान्तिकता की संभावना भी नहीं की जा सकती है इसके अतिरिक्त यह कहिये कि जब ज्ञान घटादि विषयों को प्रकाशित करता है तब स्वयं प्रकाशित होता है कि नहीं होता ? अगर प्रकाशित नहीं होता, यह पक्ष स्वीकार किया जाय तो ज्ञान की उत्पत्ति के अनन्तर क्षण में जिज्ञासु पुरुष को उस घटादि के ज्ञान में सन्देह, विपर्यय अथवा એક જ્ઞાનને બીજા જ્ઞાનના વિષય માનવામાં આવે, તો જ્ઞાનનું સ્વરૂપ જ સિદ્ધ નહી થાય, ઇત્યાદિ બાધક તર્કીના સદ્ભાવ હાવાથી અમારા હેતુમાં સ ંદિગ્ધ અનૈકાન્તિ કતા દોષના સદ્ભાવ નથી. જ્યાં એવા સદંડુ થાય છે કે હેતુ સાધ્યના અભાવના અધિકરણમાં રહે છે, કે રહેતા નથી—એટલે કે જ્યાં સાધ્યના અભાવ છે ત્યાં પણ રહેતા હશે. ત્યાં બાધક તક સભવતા નથી. એવી પરિસ્થિતિમાં જ સ ંદિગ્ધ અનૈકાન્તિક્તાનુ સામ્રાજ્ય હોય છે. અહી જ્ઞાનના સ્વરૂપની અસિદ્ધિ રૂપ બાધક તર્ક વિદ્યમાન છે, તેથી બાધક તર્કના અભાવમાં સભવી શકે એવી સબ્ધિ અનેકાન્તિકતાની સંભાવના પણ માની શકાતી નથી. વળી અમારા આ પ્રશ્નના જવાબ આપા— જો જ્ઞાન ઘટાદિ વિષયાને પ્રકાશિત કરે છે, તેા પાતે પ્રકાશિત હોય છે, કે નથી હતુ ?” જો પાતે પ્રકાશિત નથી હાતુ', આ માન્યતાના રવીકાર કરવામાં આવે તેા જ્ઞાનની ઉત્પત્તિની ક્ષણની અનન્તર ક્ષણે જિજ્ઞાસુ For Private And Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्र. शु. अ. १ चार्वाकमत स्वरूपनिरूपणम् १२१ समर्थ बोधिनी टीका मद्राक्ष नवेति दृष्टाऽनन्तरक्षणे सन्देहं करोति विपर्यस्यतिज्ञानविषये ज्ञानाभावं निश्चिनोति किन्तु इदमहमद्राक्षमित्येव निश्चिनोति ज्ञानस्य स्वरूपानपगमे सन्देह विपर्ययविपरीतप्रमा अवश्यं भवेयु र्नतु कस्यचिदपि ता भवन्ति किन्तु ज्ञानस्वरूपस्य निश्चय एव भवति । तस्मात् स्वयं प्रकाशमानमेव ज्ञानं घटादिविषयैः सह व्यवहारं जनयतीति वक्तं युक्तम् तथा च ज्ञानस्य स्वप्रकाशता सिद्धा भवतीति । ननु यथा सुखदुःखादिकं न स्वप्रकाशस्वरूपम् किन्तु ज्ञानद्वाराप्रकाशते किन्तु सुखदुःखादि संवेदनसमये कस्यापि सचेतसोऽचेतसोपि वा सुखे, न संशयो जायते सुखं मेऽस्ति न वेत्याकारकः, न वा नास्त्येव सुखादिकमित्याकारको विपरीत प्रमिति हो जायेगी । कोई भी पुरुष घट देखने के पश्चात् ऐसा सन्देह नहीं करता कि मैंने घट देखा है या नहीं, वह विपरीत जानता हैं और न ज्ञान के विषय में ज्ञान के अभाव का निश्चय करता है । किन्तु उसे यह निश्चय होता है कि " मैंने घट देखा है " यदि ज्ञान के स्वरूप का ज्ञान न हो तो सन्देह, विपर्यय और विपरीत प्रमा अवश्य होगी, किन्तु वह किसी को होती नहीं है । वल्कि ज्ञान के स्वरूप का निश्चय ही होता है । अतएव स्वयं प्रकाशमान ही ज्ञान घट आदि विषयों के साथ व्यवहार उत्पन्न करता है, ऐसा कथन ही उचित है । और ऐसा होने से ज्ञान की स्वप्रकाशता सिद्ध हो जाती हैं । शंका - जैसे सुख दुःख आदि स्वयं प्रकाशमान नहीं हैं किन्तु वे ज्ञान के द्वारा प्रकाशित होते हैं, फिर भी सुख दुःख आदि के संवेदन के समय किसी विचारशील या अविचारशील पुरुष को सुख के विषय में संशय नहीं પુરૂષને તે ઘાસદના જ્ઞાનમાં સ ંદેહ, વિપય અને વિપરીત પ્રમિતિ ઉત્પન્ન થશે. કોઈ પણ પુરૂષ, ઘડાને દેખ્યા પછી એવા સંદેહ કરતા નથી કે મે' ઘડો દેખ્યા છે કે નહી'? વળી તે વિપરીત રૂપે પણ તે ઘડાને માનતા નથી. અને જ્ઞાનના વિષયમાં જ્ઞાનના અભાવના પણ નિશ્ચય કરતા નથી. પરન્તુ તેના દ્વારા એ જ નિર્ણય કરાય છે કે મે ઘડાને જોયા છે.' જે જ્ઞાનના સ્વરૂપનું જ્ઞાન ન હોય, તે સ ંદેહ, વિપય અને વિપરીત પ્રમિતિના અવશ્ય સદ્ભાવ જ રહેશે, પરન્તુ આ ત્રણેના અનુભવ કઇપણ વ્યક્તિને થતા નથી, પરન્તુ જ્ઞાનના સ્વરૂપના નિશ્ચય જ થતા હોય છે. તેથી એવુ માનવું જ ઉચિત થઇ પડે છે કે સ્વયં પ્રકાશમાન જ્ઞાન જ ઘટાઢિ વિષયેાની સાથે વ્યવહાર ઉત્પન્ન કરે છે. અને એવુ હોવાથી જ્ઞાનની સ્વપ્રકાશતા સિદ્ધ થઈ જાય છે. શકા-જેમ સુખદુઃખ આદિ સ્વયં પ્રકાશમાન નથી, પરન્તુ જ્ઞાનના દ્વારા જ પ્રકાશિત થાય છે, છતાં પણ સુખદુઃખાદિનું સવેતન કરતી વખતે કોઈ પણ વિચારશીલ પુરુષને સુખના વિષયમાં એવા સંશય હાતા નથી કે ‘મને સુખ છે કે નથી' ‘મને સુખ નથી’ सू. १६ For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे विपर्ययो वा कदाचिदुदेति, मुखाभावविषयकप्रमातु नैव कथमपि स्वोदयमासादयति, तथा ज्ञानस्य ज्ञानान्तरविषयत्वस्वरूपपरप्रकाश्यत्वस्वीकारे पि संशयविपर्ययविपरीतप्रमाणामभावः स्यात्कथं ज्ञानस्य स्वप्रकाशला सन्देशाधभावनैव स्वप्रकाशता साध्यते, सन्देहायभावस्तु परप्रकाश्यत्वेपि संभवतीति व्यभिचारान्नसंशयाद्यभावानां स्वप्रकाशता साधकत्वं संभवति परग्नकाश्यत्वेऽपि संशयाबभावस्य वक्तुं शक्यत्वात्सुखादिवदिति न वाच्यम् तथा सति ज्ञानस्यापि ज्ञानान्तरवेद्यत्वेऽनवस्थापरिहारस्यासंभवापातात् । किंच तव नैयायिकस्य व्यवसायानुव्यवसाययोरुत्पादक एक एव मनःसंयोगो विभिन्नो वा, तत्र यदि येनैव मनस्संयोगेन हाता कि “मुझे सुख है या नहीं । मुझे सुख नहीं है" ऐसा विपरीत ज्ञान भी उसे नहीं होता सुखाभावविषयक प्रमिति भी कभी उत्पन्न नहीं होती। इसी प्रकार एक ज्ञान को दूसरे ज्ञान से ज्ञेय अर्थात् पर प्रकाश्य मानने पर भी संशय, विपर्यय और विपरीत प्रमिति का अभाव होगा। फिर सन्देह आदि के अभाव के कारण ज्ञान की स्वप्रकाश्यता कैसे सिद्ध की जा सकती है ? सन्देह आदि का अभाव तो ज्ञान को परप्रकाश्य मानने पर भी हो सकता है । इस प्रकार व्यभिचार होने से संशय आदि का अभाव ज्ञान को स्वप्रकाशकता का साधक नहीं है। क्योंकि परप्रकाश्यता मानने पर भी संन्देह आदि का अभाव कहा जा सकता है । समाधान-यदि ज्ञान को परप्रकाश्य माना जाएगा तो अनवस्था दोष का परिहार करना संभव नहीं होगा । इसके अतिरिक्त तुम नैयायिकों के मतमें व्यवसाय और अनुव्यवसाय का जनक मनःसंयोग एक ही है अथवा એ વિપરીત ભાવ પણ તેને થતો નથી, અને સુખાભાવ વિષયક પ્રમિતિ પણ તેને કદી 641 यती नथी. . એ જ પ્રમાણે એક જ્ઞાનને બીજા જ્ઞાન દ્વારા રેય એટલે કે પરપ્રકાશ્ય માનવામાં આવે, તે સંધ્ય, વિપર્યય અને વિપરીત પ્રમિતિને અભાવ જ રહેશે. તે પછી સંદેહ આદિના અભાવને કારણે જ્ઞાનની સ્વપ્રકાશ્યતા કેવી રીતે સિદ્ધ કરી શકાશે? સંદેહ આદિને અભાવ તે જ્ઞાનને પરપ્રકાશ્ય માનવામાં આવે તે પણ સંભવી શકે છે. આ પ્રકારની બાધા હેવાને કારણે સંશય આદિને અભાવ પણ સાનની સ્વપ્રકાશતાને સાધક નથી, કારણ કે પરપ્રકાશ્યતા માનવામાં આવે તે પણ સંદેહ આદિને અભાવ પ્રતિપાદિત કરી શકાય છે. સમાધાન–જે જ્ઞાનને પરપ્રકાશ્ય માનવામાં આવે, તે અનવસ્થા દોષને પરિહાર (નિવારણ) કરવાનું સંભવી નહીં શકે. વળી તમારા નિયાચિકના મત પ્રમાણે તે વ્યવસાય અને અનુવ્યવસાયને જનક મનઃસંયોગ એક જ છે, કે અલગ અલગ છે? જે For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् १२३ घटस्य व्यवसायज्ञानमुत्पादितं तेनैव मनःसंयोगेन यदि घटानुव्यवसायोपि प्रादुर्भवेत्तदा घटानुव्यवसायजनकस्य घटव्यवसायज्ञानस्य तादृशघटव्यवसायजन्यानुव्यवसायस्य योगपद्यं स्यात् । न च तत्संभवति जन्यजनकयोरेकदोत्पादासंभवात् , नियताव्यवहितपूर्वकालवृत्तिरूपं जनकं कारणाव्यवहितोत्तरकालवृत्तिरूपं जन्यम् , व्यवसायविषयकोऽनुव्यवसायोव्यवसायात्मकज्ञानजन्यो भवति अनुव्यवसायं प्रतिव्यवसायज्ञानस्य कर्मकारकतया कारणत्वात् , कारणकार्ययोविभिन्नकालस्थितिमत्त्वमावश्यकं सहैवोत्पत्या कस्य के प्रति पूर्वकालवृत्तित्वं कस्य के प्रति वोत्तरकालवृत्तित्वं अलग अलग है ? यदि जिस मनःसंयोग के द्वारा घट का व्यवसायज्ञान उत्पन्न होता है उसी मनःसंयोग से घट का अनुव्यवसाय भी उत्पन्न होता है तो घट के अनुव्यवसाय को उत्पन्न करने वाला व्यवसाय और अनुष्यवसाय दोनों एक ही साथ उत्पन्न होने चाहिए, मगर ऐसा होना संभव नहीं है क्योंकि जन्य और जनक अर्थात् कार्य और कारण का एक ही काल में उत्पाद होना संभव नहीं है । कारण नियत एवं अव्यवहित पूर्व कालवत्तों होता है और कार्य अव्यवहित ( व्यवधान रहित ) उत्तर कालवी होता है अर्थात् कारण पूर्व कालवी और कार्य उत्तर कालवर्ती होता है परन्तु दोनों के बीच में काल का व्यवधान नहीं होता । यहां व्यवसाय को विषय करने वाला अनुव्यवसाय ज्ञान से उत्पन्न होता है । अतएव व्यवसाय अनुव्यवसाय का कारण है और अनुव्यवसाय, व्यवसाय द्वारा जन्य होने से व्यवसाय का कार्य है। दोनों में कार्य कारण भाव है, अतएव दोनों का भिन्न का लीन होना आवश्यक है। अगर दोनों एक साथ उत्पन्न होंगे तो कौन किस મનગ વડે ઘટનું વ્યવસાય જ્ઞાન ઉત્પન્ન થાય છે, એ જ મનાયેગ વડે જ ઘટને અનુવ્યવસાય પણ ઉપન્ન થતો હોય, તે ઘટના અનુવ્યવસાયને ઉત્પન્ન કરનાર વ્યવસાય અને અનુવ્યવસાય, બન્ને એક જ સમયે ઉત્પન્ન થવા જોઈએ. પરંતુ એવું બની શકવાને સંભવ નથી, કારણ કે જન્ય અને જનક-એટલે કે કાર્ય અને કારણનો એક જ કાળે ઉત્પાદ થવાની વાત સંભવી શકતી નથી. કારણ નિયત અને અવ્યવહિત પૂર્વકાળવસ્તી હોય છે, અને કાર્ય અવ્યવહિત (વ્યવધાન રહિત) ઉત્તર કાળવતી હોય છે, એટલે કે કારણ પૂર્વકાળવતી અને કાર્ય ઉત્તરકાળવતી હોય છે, પરંતુ બન્નેની વચ્ચે કાળનું વ્યવધન (કાળને આંતરે) હોતું નથી. અહીં વ્યવસાયને વિષય કરનાર (ગ્રહણ કરનારો) અનુવ્યવસાય જ્ઞાન દ્વારા ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી વ્યવસાય, અનુવ્યવસાયના કારણરૂપ છે, અને અનુવ્યવસાય દ્વારા જન્ય હવાથી વ્યવસાયના કાર્ય રૂપ છે. બન્નેમાં કાર્યકારણ ભાવ છે, તે કારણે તે બન્નેની ઉત્પત્તિને કાળ જુદે જુદે હવાનું આવશ્યક થઈ પડે છે. For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२४ सूत्रकृताङ्गसुत्रे , स्यात् नहि भवति सव्येतरविपाणयोर्युगपज्जायमानयोर्जन्यजनकभावः । तदवच्छिनकालतदनवच्छिनकालयोरेव कारणकार्यरूपत्वात नहि युगपज्जायमानत्वे एकस्तदवच्छिन्नः अन्यस्तदनवच्छिन्नश्चेति तस्मात्कार्यकारणयोर्यैौगपद्यं न समीचीनम् । न च करणस्य भेदादेव तादृशज्ञानयोर्भेदः स्यादिति वाच्यम्, करणभेदस्य ज्ञानभेदकसामर्थ्याभावात्, किन्तु असमवायिकारण भेदस्यैव ज्ञानभेदकत्वात् ज्ञानस्थले ज्ञानस्य का पूर्ववर्त्ती या उत्तरवर्ती कहा जाएगा ? कौन किसका कारण और कौन किसका कार्य कहलाएगा ? जैसे एक साथ उत्पन्न होने वाले गाय के दहिने बाएँ दोनों सींगों में कार्य कारण भाव नहीं होता उसी प्रकार व्यवसाय अनुव्यवसाय में भी कार्य कारणभाव नहीं हो सकेगा । तदवच्छिन्नकाल और तदवच्छिक ही कारण कार्य रूप होते हैं । एकसाथ उत्पाद मानने पर एक तदवच्छिन्न और दूसरा तदनवच्छिन्न कैसे हो सकता । अतएव कार्य और कारण का एक साथ उत्पन्न होना समीचीन नहीं है । कदाचित् कहो कि कारण में भेद होने से उन दोनों ज्ञानों में भेद हो जाएगा तो ठीक नहीं, क्योंकि कारण का भेद ज्ञान में भेद नहीं कर सकता । ज्ञान में भेद तो असमवाथि कारण के भेद से ही होता है । आपके मत से ज्ञान का समवायिकारण आत्मा है असमवायिकारण आत्मा और मन का संयोग है मन कारण है और घट आदि विषय कर्म है । ऐसी स्थिति में ज्ञान रूप कार्य में जो भेद है वह समवायि कारण के भेद से नहीं हो सकता । क्यों જો તેઓ એક સાથે ઉત્પન્ન થતા હોય, તે કોને કોનું પૂર્વવતી અથવા ઉત્તરવતી માનવું, એ પ્રશ્ન થઈ પડશે. કોને કોનુ કારણ માનવું અને કોને નું કાર્ય માનવું, એ પ્રશ્ન પણ ઉપસ્થિત થશે. જેવી રીતે એક સાથે ઉત્પન્ન થનારાં ગાયના જમણા અને ડાખા શિગડા રૂપ અને શિંગડામાં કાર્યકારણભાવ સભવતો નથી, એ જ પ્રમાણે વ્યવસાય અને અનુવ્યવસાયમાં પણ કાર્ય કારણુ ભાવ નહીં સંભવી શકે તવચ્છિન્નકાળ અને તદનવચ્છિન્નકાળ જ કારણ કા રૂપ હોય છે એક સાથે બન્નેને ઉત્પાદ માનવામાં આવે, તે એક તદવચ્છિન્ન અને બીજું તદનવચ્છિન્ન કેવી રીતે હાઇ શકે? તે કારણે કાર્ય અને કારણની એક સાથે ઉત્પત્તિ થવાની માન્યતા સંગત લાગતી નથી. કદાચ આપ એવી દલીલ કરો કે કારણ ભેદ હેવાથી તે બન્ને જ્ઞાનમાં ભેદ પડી જશે, એવી વાત પણ ઉચિત નથી, કારણ કે કારણના ભેદ જ્ઞાનમાં ભેદ ઉત્પન્ન કરી શકતા નથી, અસમવાય કારણના ભેદ વડે જ જ્ઞાનમાં ભેદ સ ંભવી શકે છે આપના મત અનુસાર તે જ્ઞાનનું સમવાયિકારણ આત્મા છે, અસમવાયિકારણ આત્મા અને મનનો સયોગ છે, મન કરણ છે અને ઘટ આદિ વિષય કર્મ છે એવી સ્થિતિમાં જ્ઞાનરૂપ કાર્ય માં જે ભેદ છે તે સમાયિકારણના ભેદથી સંભવી શકતે નથી, કારણ કે સમાયિકારણ For Private And Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् १२५ समवायिकारणमात्मा असमवायिकारणमात्ममनःसंयोगः, मनःकरणम् , घटादिविषयः कर्म, एतादृशस्थितौ ज्ञानात्मककार्यभेदो न समवायिकारणभेदमूलको यतः समवायिकारणस्यात्मनो भेदाभावात् । नाप्यसमवायिकारणात्ममनःसंयोगाधिकरणमनोरूपकरणभेदात् यतः करणीभूतमनसः एकत्वात् , नापि कर्मकारकभेदमूलकतया तस्यापि घटव्यवसायानुव्यवसायघटानुभवघटस्मरणं प्रतिसमानत्वात् , तस्मादसमवायिकारणभेदादेव ज्ञानात्मककार्यभेदः स्वीकरणीयः। एवं च घटव्यवसायानुन्यसायो यदि एकमनः संयोगजन्यौ स्याताम् तदायोगपर्व केन वार्येत, न च योगपद्यं संभवति तथात्वेतादृशज्ञानयोः परस्परं कार्यकारणभावो न स्यादित्येकमनःसंयोगजन्यत्वं न द्वयोनियोः किंचासमवायिकारणभेदस्य ज्ञानात्मककार्यभेदकत्वेऽस्वीक्रियमाणे कि समवायिकारण आत्मा तो दोनों का एक ही है । आत्मा और मन के संयोग रूप असमवायि कारण के अधिकरण मन के भेद से भी भेद नहीं माना जा सकता, क्योंकि मन भी एक है । कर्म कारक में भेद होने से भी भेद नहीं हो सकता, क्योंकि घटव्यवसाय, घटानुव्यवसाय घटानुभव और घट स्मरण में कमे कारक अर्थात घट समान ही है । अतएव असमवायि कारण के भेद से ही ज्ञान रूप कार्य में भेद स्वीकार करना चाहिए । ऐसी स्थिति में यदि घटव्यवसाय और अनुव्यवसाय जब एक ही मनःसंयोग से उत्पन्न होते हैं तो उनके योगपद्य को कौन रोक सकता है ? मगर युग पद् होना संभव नहीं है । अगर दोनों युगपद् हों तो उनमें कार्य कारण भाव नहीं हो सकेगा । आएव दोनों ज्ञान एक ही मनःसंयोग से उत्पन्न नहीं हो सकते । अगर आप असमवायि कारण को ज्ञान रूप कार्य में भेद करने वाला स्वीकार नहीं करते तो फिर उनमें भेद करने वाला दुसरा આત્મા તે બન્નેને એક જ છે. આત્મા અને મનને સગરૂપ અસમાયિકારણના અધિકરણ રૂપ મનના ભેદથી પણ ભેદ માની શકાતું નથી, કારણ કે મન પણ એક જ છે, કાર્યકારકમાં ભેદ હોવાથી પણ ભેદ માની શકાતું નથી, કારણ કે ઘટવ્યવસાય, ઘટાનવ્યવસાય, ઘટાભાવ અને ઘટસ્મરણમાં કર્મકારક એટલે કે ઘટ સમાન જ છે. તેથી અસમવાય. કારણના ભેદથી જ જ્ઞાનરૂપ કાર્યમાં ભેદ સ્વીકારે જોઈએ. એવી સ્થિતિમાં જે ઘટવ્યવસાય અને અનુવ્યવસાય એક જ મનાયેગથી ઉત્પન્ન થતા હોય, તે તેમના યોગદ્યને એક જ સાથે ઉત્પત્તિને) કોણ રોકી શકે છે? પણ યુગપલ્ (એક સાથે) તેમની ઉત્પત્તિ સંભવી શકતી નથી, જે બન્નેની એકસાથે ઉત્પત્તિ હોય, તે બન્નેમાં કાર્ય કારણભાવ સંભવી શકે નહીં. તેથી બન્ને જ્ઞાન એક જ મનઃસંયોગથી ઉત્પન્ન થઈ શક્તા નથી. જો તમે અસમાયિકારણને જ્ઞાનરૂપ કાર્યમાં ભેદ કરનારું માનતા ન હો, તે તેમનામાં ભેદ For Private And Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ऽन्यस्य भेदकस्याभावेन ज्ञानभेदव्यवस्थैव न स्यात् । यतोऽन्यस्यापेक्षणीयान्तरस्याभावेन एकदैव घटानुभवघटस्मरणयोरेव मनुभवान्तरस्य घटविषयकस्योत्पत्तिप्रसंगात् । क्रमरहितकारणेन कार्यभेदक्रमस्य व्यवस्थापयितुमशक्यत्वात् । बाह्यसामग्रीक्रमभेदेन कार्य भेदाभ्युपगमे युगपदेव संप्रयुक्तपट घटादिषु युगपदेवाने कज्ञानानां समुत्पादप्रसंगात् इत्यकामेनापि ज्ञानात्मककार्य भेदोऽसमवायिकारणभेदादेव समर्थनीयः तदि हासमवायिकारणमनःसंयोगस्यैकस्यैव घटव्यवसाय घटानुव्यवसायौ प्रति जनकत्वेयौगपद्यं कथमपि न वारयितुं शक्नुयादिति एकेन मनःसंयोगेनो भयो जन्मेति प्रथम पक्षो न साधीयानिति । नापि येन मनःसंयोगेन व्यवसायस्य प्रथमज्ञानस्योत्पत्तिर्न कोई नहीं है । ऐसी स्थिति में ज्ञान में भेद की व्यवस्था ही न हो सकेगी। फिर तो किसी अन्य अपेक्षणीय कारण के न होने से एक साथ घट का अनुभव घट का स्मरण और घट सम्बन्धी अन्य ज्ञान होने का प्रसंग आ जाएगा । क्रम रहित कारण से कार्य भेद क्रम की व्यवस्था नहीं की जा सकती । बाह्य सामग्री में क्रम भेद होने से यदि कार्य में भेद स्वीकार किया जाय तो जब घट पट आदि अनेक पदार्थों का एक साथ संयोग होता तो एक साथ ही अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति का प्रसंग आ जाएगा । अतएव चाहे आपकी इच्छा न हो फिर भी ज्ञानों का भेद असमवायिकारण के भेद से ही आप को मानना चाहिए | और जब घट के व्यवसाय और अनुव्यवसाय में एक ही असमवायिकारण मनःसंयोग है तो इन दोनों ज्ञानों की एक साथ उत्पत्ति किसी भी प्रकार नहीं रोकी जा सकती । अतएव एक ही मनःसंयोग से दोनों व्यवसाय और अनुव्यवसाय की उत्पत्ति होती है, यह पक्ष समीचीन नहीं है । કરનારૂં બીજું કોઈ પણ નથી. એવી સ્થિતિમાં જ્ઞાનમાં ભેદની વ્યવસ્થા જ નહીં થઈ શકે. એવી પરિસ્થિતિ ઉત્પન્ન થવાથી અન્ય અપેક્ષણીય કારણ ન હાવાથી, એક સાથે ઘટના અનુભવ, ઘટનુ સ્મરણ અને ઘટવિષયક અન્ય જ્ઞાન થવાના પ્રસંગ ઉપસ્થિત થઈ જશે. ક્રમરહિત કારણ વડે કા ભેદ ક્રમની વ્યવસ્થા કરી શકાતી નથી. બાહ્ય સામગ્રીમાં ક્રમભેદ થવાથી તે કાર્ય માં ભેના સ્વીકાર કરવામાં આવે, તા જારે ઘટ (ઘડા), પટ આદિના એક સાથે સંયોગ થાય ત્યારે તે એક સાથે જ અનેક જ્ઞાનાની ઉત્પત્તિના પ્રસંગ ઉપસ્થિત થશે. તેથી આપની ઇચ્છા ન હેાય તા પણ આપે અસમવાયકારણના ભેદ દ્વારા જ જ્ઞાનાના ભેદ માનવા પડશે. અને ઘટના વ્યવસાય અને અનુવ્યવસાયમાં જે એક જ અસમવાયિકારણ મનઃસયોગ હોય તો આ બન્ને જ્ઞાનોની એક સાથે ઉત્પત્તિ કોઇ પણ પ્રકારે રોકી શકાતી નથી તેથી એક જ મનઃસયોગ વડે બન્નેની વ્યવસાય मने अनुव्यवसायनी -उत्पत्ति थाय छे' या पक्ष सभीथीन (साथी) नथी. For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनो टोका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकमनस्वरूपनिरूपणम् १२७ तेन मनःसंयोगेन द्वितीयगनुव्यवसायज्ञानं जायते किन्तु संयोगान्तरेणानुव्यवसायस्योत्पत्तिरिति न पूर्वोदीरितदोष इत्यपि न, घटादिज्ञानोत्पत्तिसमये मनसि कर्म ततो विभागस्ततः पूर्वसंयोगस्य विनाशस्तदनन्तरमुत्तरसंयोगस्य समुत्पत्तिस्तदनन्तरं द्वितीयमव्यवसायज्ञानपुत्पद्यते इत्यनेकक्षणविलम्रेन जायमानस्य ज्ञानस्यानुव्यवसायात्मकस्य व्यवहितल्या पूर्वज्ञानग्राहकत्वासंभवात् नैयायिकादिमते ज्ञानं प्रथमक्षणे जायते द्वितीयक्षणे तिष्ठति तृतीयक्षणे विपद्यते इति नियमः । एवं पूर्वज्ञानस्य व्यवसायस्य नाशानन्तरमनुव्यवसायज्ञानं जातमिति कथं तेन द्वितीय जिल्ट मनासंयोग से प्रथम ज्ञान अथात् व्यवसाय की उत्पत्ति होती है, उसी मनःसंयोग से दूसरे ज्ञान अर्थात् अनुव्यवसाय की उत्पत्ति नहीं होती किन्तु दूसरे संयोग से अनुव्यवसाय उत्पन्न होता है । अतएव पूर्वोक्त दोष का प्रसंग नहीं आता, ऐसा कहना भी उचित नहीं है । घटादि के ज्ञान की उत्पत्ति के समय मन में कर्म उत्पन्न होता है, फिर विभाग होता है, विभाग होने पर पूर्वसंयोग का नाश होता है उसके पश्चात् उत्तरसंयोग की उत्पत्ति होती है । और उसके बाद अनुव्यवसाय की उत्पत्ति होती है । इस प्रकर जब व्यवसाय और अनुव्यवसाय की उत्पत्ति में अनेक क्षणों का अन्तर मौजूद है तो अनुव्यवसाय अनेक क्षण पहले के व्यवसायों को कैसे जान सकेगा । तात्पर्य यह है कि नैयायिक आदि के मत के अनुसार ज्ञान प्रथम क्षण में उत्पन्न होता है, दूसरे क्षण ठहरता है और तीसरे क्षण में नष्ट हो जाता है । इस नियम के अनुसार पूर्वज्ञान अर्थात् જે મનગ વડે પ્રથમ જ્ઞાન એટલે કે વ્યવસાયની ઉત્પત્તિ થાય છે, એ જ મનઃસંગ વડે બીજા જ્ઞાનની એટલે કે અનુવ્યવસાયની-ઉત્પત્તિ થતી નથી, પરંતુ બીજા સંગ વડે અનુવ્યવસાયની ઉત્પત્તિ થાય છે. તેથી પૂર્વોકત દોષને સંભવ રહેતું નથી.” આ પ્રકારની દલીલ પણ ઉચિત નથી. ઘટાદિના જ્ઞાનની ઉત્પત્તિને સમયે મનમાં કર્મ ઉત્પન્ન થાય છે, ત્યારબાદ વિભાગ થાય છે, વિભાગ થતાં જ પૂર્વસંયોગને નાશ થાય છે, અને ત્યારબાદ ઉત્તરસંગની ઉત્પત્તિ થાય છે, અને ત્યારબાદ અનુવ્યવસાયની ઉત્પત્તિ થાય છે. આ પ્રકારે વ્યવસાય અને અનુવ્યવસાયની ઉત્પત્તિ વચ્ચે અનેક ક્ષણેનું અત્તર રહેલું હોવાથી, અનુવ્યવસાય છે અનેક ક્ષણ પહેલાના વ્યવસાયને કેવી રીતે જાણી શકાય? આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે નયાયિક આદિની માન્યતા પ્રમાણે જ્ઞાન પ્રથમ ક્ષણે ઉત્પન્ન થાય છે, બીજી ક્ષણે રિથર રહે છે અને ત્રીજી ક્ષણે નષ્ટ થઈ જાય છે. આ નિયમ પ્રમાણે પૂર્વ જ્ઞાન એટલે કે વ્યવસાય તે નષ્ટ થઈ ચુક્યો અને ત્યારબાદ અનુવ્યવસાય ઉત્પન્ન છે. તે પછી અનુવ્યવસાય દ્વારા નષ્ટ થઈ ચુકેલા વ્યવસાયને કેવી For Private And Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ज्ञानेनाविद्यमानस्य प्रथमज्ञानस्य प्रकाशः स्यात् । न ह्यविद्यमानोर्थः केनचिदपि प्रत्यक्षीक्रियते अतीतानागतवस्तुविषयकप्रत्यक्षस्यादर्शनादनुभवविरोधाच्च । तस्मान्न द्वितीयपक्षोपि विचारपदवीमधिरोहति । अपि च यथा चक्षुरादिकमप्रकाशमानमेवार्थव्यवहारे कारणं न तथा ऽप्रकाशमानस्यैवज्ञानस्यार्थव्यवहारे कारणत्वं स्वातिरिक्तज्ञानोत्पादनद्वारेण कारणत्वाभावात् , जडपदार्थानां स्वतः परस्परं वा प्रकाशमानत्वासंभवात । ज्ञानमपि न प्रकाशते चेत्तदा किमपि न प्रकाशेतेति जगदामध्यप्रसंगः स्यात्तथाच लौकिकानामाभाणकः "अन्धस्येवान्धलग्नस्य विनिपातः पदे व्यवसाय तो नष्ट हो चुका अनुव्यवसाय, उसके बाद में उत्पन्न हुआ । तो फिर अनुव्यवसाय नष्ट हुए व्यवसाय को कैसे जानेगा ? जो पदार्थ विद्यमान ही नहीं है, उसका कोई प्रत्यक्ष नहीं कर सकता । भूतकालीन और भविष्यत्कालीन वस्तु का इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहीं नहीं देखा जाता । उनका इन्द्रिय प्रत्यक्ष मानना अनुभव से भी विरुद्ध है । अतएव दूसरा पक्ष भी विचार संगत नहीं है। जैसे चक्षु आदि इन्द्रियां स्वयं प्रकाशमान न होती हुई भी अर्थव्यवहार में यह घट है इत्यादि व्यवहार में, करण होती है, उसी प्रकार अप्रकाशमान ही ज्ञान अर्थ व्यवहार में कारण नहीं हो सकता । वह अपने से अतिरिक्त ज्ञान को उत्पन्न करने के कारण नहीं हो सकता । जड़ पदार्थ न स्वयं प्रकाशमान हो सकते हैं, और न आपस में एक दूसरे को प्रकाशित कर सकते हैं। अगर ज्ञान ही प्रकाशित नहीं होता है फिर कोई भी प्रकाशमान नहीं होगा और जगत् अन्धा हो जाएगा । फिर तो यही लोकोक्ति चरितार्थ होगी "अंधे के पिछलग्गू अंधे का पद पद पर पतन होता है । રીતે જાણી શકાય? જે પદાર્થ વિધમાન જ નથી, તેને કઈ પણ પ્રકારે પ્રત્યક્ષ કરી શકાતું નથી. ભૂતકાલીન અને ભવિષ્યકાલીન પદાર્થોને ઈન્દ્રિય પ્રત્યક્ષ કરી શકાતા નથી. તેમને ઇન્દ્રિય પ્રત્યક્ષ માનવા, તે વાત અનુભવથી પણ વિરૂદ્ધ જાય છે. તે કારણે બીજે पत्रे (विया२) ५६५ संगत नथी. જેવી રીતે ચક્ષુ આદિ ઇન્દ્રિય સ્વયં પ્રકાશમાન ન હોવા છતાં પણ અર્થવ્યવહારમાં (આ ઘડે છે, ઈત્યાદિ વ્યવહારમાં) કારણભૂત થાય છે. એ જ પ્રમાણે અપ્રકાશમાન જ્ઞાન અર્થવ્યવહારમાં કારણભૂત થઈ શકતું નથી. તે અન્ય જ્ઞાનને ઉત્પન્ન કરવાને કારણભૂત થઈ શકતું નથી. જડ પદાર્થો પિતે પ્રકાશમાન પણ હોઈ શક્તા નથી અને એકબીજાને પ્રકાશિત પણ કરી શકતા નથી, જે જ્ઞાન જ પ્રકાશવાન ન હોય તો અન્ય કઈ પણ વસ્તુ પ્રકાશમાન સંભવી શકે નહીં; અને જગત આંધળું જ બની જાય. એવી પરિસ્થિતિમાં તે આ साहित साथ थाय....(माधान ने साधा होरे तो; આંધળાનું પગલેને પગલે પતન થાય છે.) For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ योधिनी टीका प्र. श्रु. अ.१ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् १२९ पदे" इति । न च घटविषयकज्ञानवानहम् ज्ञातो घट इत्यादि प्रत्यक्षेण प्रथमज्ञानस्य वेद्यत्वप्रतीतेः प्रात्यक्षिक एव बाध इति वाच्यम् , ज्ञानस्य वेद्यत्वमन्तरेणापि स्वतः स्फुरणतास्वीकारेणापि तादृशव्यवहारस्योपपादयितुं शक्यत्वात् । किंच ज्ञातो घटो विदितो घट इत्यादौ घटादिविषयस्यैव वेदनविषयताविदितत्वादि धर्माणां घटविशेषणत्वात् न तु ज्ञानस्य वेदनविषयता प्राप्यते येन विदितत्वेन ज्ञानस्य परप्रकाश्यता आशंक्येतापि । अपि चानुभूतेः प्रत्यक्षत्वेपि तत्प्रत्यक्षेणैव तदनुभाव्यत्वस्याप्रत्यक्षीकरणानप्रत्यक्षविरोधः। अन्यथाऽनुव्यवसायेन व्यवसायस्य स्वविशेषितवेद्यत्वग्रहणे विशेषणतया स्वस्यापि ग्रहणेनात्माश्रयप्रसंगादिति ज्ञानस्य ___मैं घट विषयक ज्ञानवान हूँ, मैंने घट जाना" इत्यादि प्रत्यक्ष से प्रथम ज्ञान वेद्य प्रतीत होता है, अतः प्रत्यक्ष से ही बाधा है, ऐसा नहीं चाहिए । ज्ञान की वेद्यता के विना भी स्वतः स्फुरणता स्वीकार कर लेने से भी इस व्यवहार को होना सिद्ध किया जा सकता है । इसके अतिरिक्त घट ज्ञात हुआ, घट विदित हुआ, इत्यादि प्रत्ययों में घटादि पदार्थ ही वेदन के विषय प्रतीत होते हैं, क्योंकि विदितत्व आदि धर्म घट के विशेषण है । इन प्रत्ययों से ज्ञान की वेदनविषयता अर्थात् ज्ञान को जानने की सिद्धि नहीं होती जिससे कि ज्ञान की परप्रकाश्यता की आशंका की जाय । तथा अनुभव का प्रत्यक्षत्व होने पर भी उस प्रत्यक्ष से ही उसके अनुभव्यत्व का प्रत्यक्षीकरण नहीं होता, अतएव प्रत्यक्ष से विरोध नहीं आता है । अन्यथा अनुव्यवसाय के द्वारा व्यवसायका स्वविशेषित वेद्यत्व का ग्रहण हो जाने से आत्माश्रय का प्रसंग होगा । इस प्रकार ज्ञान को स्वप्रकाशक स्वीकार હું ઘટાદિ વિષયક જ્ઞાનવાળ છું; મેં ઘટને જાયે” ઇત્યાદિ પ્રત્યક્ષ દ્વારા પ્રથમ જ્ઞાન વેધ પ્રતીત થાય છે તેથી પ્રત્યક્ષ દ્વારા જ બાધા આવે છે એવું કહી શકાય નહીં. જ્ઞાનની વેદ્યતા વગર પણ સ્વતઃ સ્કૂરણને સ્વીકાર કરી લેવાથી પણ આ વ્યવહારને સદ્ભાવ સિદ્ધ કરી શકાય છે. તદુપરાંત ઘટ જ્ઞાત થયે; ઘટ વિદિત થયે ઇત્યાદિ પ્રત્યક્ષામાં ઘટાદિ પદાર્થો જ વેદનના વિષયરૂપ પ્રતીત થાય છે, કારણ કે વિદિતત્વ આદિ ધર્મ ઘટના વિશેષણ છે. આ પ્રત્યક્ષ દ્વારા જ્ઞાનની વેદના વિષયતા; એટલે કે જ્ઞાનને જાણવાની સિદ્ધિ થતી નથી. કારણ કે તેના દ્વારા તે જ્ઞાનની પરપ્રકાશ્યતાની જ આશંકા થાય છે તથા અનુભવની પ્રત્યક્ષતા હોવા છતાં પણ તે પ્રત્યક્ષ દ્વારા જ તેના અનુભવ્યત્વનું પ્રત્યક્ષીકરણ થતું નથી, તે કારણે પ્રત્યક્ષની અપેક્ષાએ વિરોધ આવતો નથીઅન્યથા અનુવ્યવસાય દ્વારા વ્યવસાયના સ્વવિશેષિત વઘત્વનું ગ્રહણ થવાથી, વિશેષણ હેવાને કારણે પિતાનું પણ ગ્રહણ થઈ જવાથી તેમાં આત્માશ્રયને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે. આ પ્રકારે જ્ઞાનને સ્વ. . सू. १७ For Private And Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १३० www.kobatirth.org सूत्रकृताङ्गसूत्रे स्वप्रकाशतैव श्रेयस्करीति सा मन्तव्यैवेत्ति स्वप्रकाशता विचारः संक्षेपेण निवेदितः विस्तरस्तु यथासमयं करिष्ये इति ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir , एतादृशं स्वपरप्रकाशरूपं स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणमिति सूत्रलक्षितं ज्ञानं गुणः । न च गुणो गुणिनं द्रव्यं विहायावस्थातुं समर्थः घटीयरूपादिवत् नहि रूपादयो गुणा घटादिद्रव्यमन्तरेणोपलभ्यमाना दृष्टा इति तेषां यथा अधिकरणं घटादिद्रव्यं तथा ज्ञानस्यापि गुणत्वात तदपि द्रव्यमन्तरेण न स्थितिमदिति तस्याप्यधिकरणं द्रव्यमात्मा । सचायमात्मा व्यापकपरिमाणो वा, मध्यमपरिमाणवान् वा, अणुपरिमाणो वा । तत्र व्यापकपरिमाणस्तथात्वे तद्गुणस्य सर्वत्रोपलभः स्यानतु करना ही श्रेयस्कर है, अतएव उसे स्वीकार करना ही चाहिए । संक्षेप से स्वप्रकाशता का विचार किया गया हैं, विस्तार से यथासमय करेंगे । ऐसा स्व और पर को प्रकाशित करने वाला स्व-परव्यवसायी ज्ञान प्रमाण है । यह सूत्र में लक्षित ज्ञान गुण है । गुणी गुणी अर्थात् द्रव्य को छोड़ कर रह नहीं सकता, जैसे घट के गुण रूप आदि । रूप आदि गुण घट आदि द्रव्य के विना उपलब्ध होते नहीं देखे गए । अतएव जैसे रूप आदि का अधिकरण घट आदि द्रव्य हैं, उसी प्रकार ज्ञान भी गुण है और वह द्रव्य के बिना रह नहीं सकता, अतएव उसका अधिकरण द्रव्य आत्मा है । वह आत्मा व्यापक परिमाण वाला है, मध्यम परिमाण वाला है या आणु परिमाण वाला है? इन तीन पक्षों में से वह व्यापक परिमाण वाला नहीं हो सकता। ऐसा होता तो सभी जगह उसके गुण उपलब्ध પ્રકાશક માનવું એ જ શ્રેયસ્કર છે. અહીં જ્ઞાનની સ્વપ્રકાશતાના સ ંક્ષિપ્તમાં વિચાર કરવામાં આવ્યો છે; તેના વિસ્તારપૂર્વકના વિચાર યથાસ્થાને કરવામાં આવશે. એવું સ્વ અને પરને પ્રકાશિત કરનારૂં સ્વ-પર-વ્યવસાયી જ્ઞાન જ પ્રમાણ છે. જ્ઞાનના આ ગુણ આ સૂત્રમાં પ્રકટ થાય છે. ગુણ ગુણીને (દ્રવ્યને ) છેડીને રહી શકતા નથી. જેમ કે ઘડાના રૂપ આદિ ગુણા ઘડાના અસ્તિત્વ વગર ઉપલબ્ધ થતા નથી, તેથી રૂપ આદિનું અધિકરણ ( આધારસ્થાન ) જેવી રીતે ઘટાદિ દ્રવ્યો છે; એ જ પ્રકારે જ્ઞાનનું અધિકરણ આત્મા જ છે; કારણ કે જ્ઞાન ગુણરૂપ છે; તેથી તે ગુણ (દ્રવ્ય) વિના રહી શકતું નથી- તેથી જ આત્મારૂપ દ્રવ્યને જ જ્ઞાનનું અધિકરણ માનવું પડશે હવે આત્માના પરિમાણુ વિષયક આ ત્રણ પ્રશ્નાનો વિચાર કરવામાં આવે છે (૧) શું આત્મા વ્યાપક પરિમાણવાળા છે? (૨) શું આત્મા મધ્યમ પરિમાણુ વાળે છે? (૩) શું આત્મા અણુપરિમાણુ વાળે છે? આત્મા વ્યાપક પરિમાણવાળા હોઈ શકે નહીં. જો આત્મા વ્યાપક પરિમાણવાળા હાત, તે સઘળી જગ્યાએ તેના ગુણા ઉપલબ્ધ હાત, પરન્તુ એવું ખનતુ નથી, તેથી For Private And Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३१ संमयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाक मतस्वरूपनिरूपणम् सर्वत्रोपलभ्यते तस्मान्भतथा । यथा घटीयरूपादिकं घटव्यतिरिक्तप्रदेशे, नोपलभ्यते किंतु घटमात्रे तथा ज्ञानादिकमपि शरीरे एवोपलभ्यते न तदतिरिक्तस्थलेऽतो ज्ञानादीनामधिकरणं न व्यापकम् । तदुक्तं " यत्रैव यो दृष्टगुणः स तत्र कुंभादिवनिष्प्रतिपक्षमेतत् । तथापि देहाद्वहिरात्मतत्त्वमतत्ववा दोपहताः पठन्ति ॥ इति । नापि मध्यमपरिमाणस्तथात्वे घटादिवदनित्यत्वं स्यात् । नापि अणुपरिमाणस्तथात्वे सर्वशरीरव्याप्तज्ञानगुणस्योपलब्धिर्नस्यात् दृश्यते च होते, मगर ऐसा होता नहीं है । अतएव आत्मा व्यापक नहीं है । जैसा घट के रूप आदि गुण घट से भिन्न प्रदेश में नहीं पाये जाते किन्तु घट में ही पाये जाते हैं, उसी प्रकार ज्ञानादिक गुण भी शरीर में ही पाये जाते हैं। शरीर के सिवाय अन्यत्र नहीं पाये जाते । इस कारण ज्ञानादिक गुणों का अधिकरण ( आत्मा ) व्यापक नहीं है । कहा भी है " जिसके गुण जहाँ देखे जाते हैं वह पदार्थ भी वहीं पर होता है । जैसे घट आदि के गुण जहां होते हैं वहीं पर घट आदि होते हैं । यह मियम निर्वाध है। फिर भी कुतन्ववाद से जिनका चित्त उपहत हैं, वे आत्मा को शरीर से बाहर भी स्वीकार करते हैं ।" आत्मा मध्यम परिमाण वाला भी नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा मानने से वह घट आदि के जैसा अनित्य हो जायेगा । वह अणु परिमाण भी नहीं है, क्योंकि अणुपरिमाण मानने से सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त ज्ञान આત્માને વ્યાપક માની શકાય નહીં. જેવી રીતે ઘડાના રૂપાદિ ગુણાને સદ્ભાવ ઘડાથી ભિન્ન હેાય એવા પદાર્થોમાં જોવામાં આવતા નથી, પરન્તુ ઘડામાં જ જોવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે જ્ઞાનાદિ ગુણાના સદ્ભાવ પણ શરીરમાં જ જોવામાં આવે છે, શરીર સિવાયની કોઇ પણ જગ્યાએ જોવામાં આવતા નથી. એ જ કારણે જ્ઞાનાદિક ગુણાના અધિકરણ રૂપ આત્મા વ્યાપક નથી. કહ્યું પણ છે કે— જેના ગુણ જ્યાં જોવામાં આવે છે, તે પદા` પણ ત્યાં જ હોય છે.’ જેમ કે ઘટાદિના ગુણાના જ્યાં સદ્ભાવ હાય છે, ત્યાં જ ઘાટ્ટુના પણ સદ્ભાવ હાય છે. આ નિયમ નિર્માધ (આધારહિત) છે. છતાં પણ જેમનુ ચિત્ત કુતત્વવાદના પ્રભાવથી યુક્ત હોય છે, એવાં લોકો આત્માની શરીરની બહાર વ્યાપ્તિ હોવાના પણુ સ્વીકાર કરે છે.’ આત્મા મધ્યમ પરિમાણવાળા હાવાનુ પણ સ્વીકારી શકાય તેમ નથી, કારણ } એવુ' માનવામાં આવે, તેા ઘટાઢિની જેમ તેને પણ અનિત્ય માનવા પડે. આત્માને मागुપરમાણુવાળા પણ માની શકાય નહીં, કારણ કે તેને અણુરિમાણવાળા માનવાથી સંપૂર્ણ સ For Private And Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे निदाघे नदीसलिलमवगाहमानस्य सर्वाङ्गीणसुखाद्युपलब्धिः, नेयमुपलब्धिरात्मनोऽणुरूपत्वे सति संभवति, अणुरूपत्वे तु एकदेशे एव सुखादीनां ज्ञानं स्यात न तु सर्वावयवावच्छेदेन । न च वालाग्रशतभागस्य शतधाकल्पितस्य च भागो जीवो हि विज्ञेयः सचानन्त्याय कल्प्यते एषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो यस्मिन् प्राणः पंचधा संनिवेश इत्यादि श्रुतिप्रमाणेनात्मनोऽणुरूपतैव सिद्धयतीति वाच्यम् , श्रुत्यादिप्रामाण्यस्याग्रे निराकरिष्यमाणत्वेन तादृशश्रुत्याऽणुत्वव्यवस्थापनस्याशक्यगुण की उपलब्धि नहीं होनी चाहिए, मगर ग्रीष्म ऋतु में नदी के जल में अवगाहन करने वाले को सर्वांगीण मुख की उपलब्धि होती देखी जाती है। इस प्रकार की उपलब्धि आत्माको अणुपरिमाण मानने पर संभव नहीं है। आत्मा अणुपरिमाण होता, तो शरीर के एकदेश में ही सुख आदि का अनुभव होता, एक साथ सभी अवयवों में न होता। ___"एक बालाग्रका सौं वा भाग हो और उसके भी सौभाग कर दिये जाएँ तो उसका जो परिमाण होता है, उतना ही परिमाण जीव का होता है। वह अनन्त है।" तथा "यह अणुपरिमाण आत्मा चित्त के द्वारा जानने योग्य है जिसमें पांच प्रकार के प्राण का सनिवेश है।" __इत्यादि श्रुति आदि के प्रामाण्य से आत्मा की अणुरूपता ही प्रमाणित होती है ऐसा कहना ठीक नहीं। श्रुति की प्रमाणता का निराकरण आगे किया जाएगा, अतएव इस श्रुति से आत्मा की अणुरूपता सिद्ध नहीं की जा सकती। શરીરમાં વ્યાપ્ત જ્ઞાનગુણની ઉપલબ્ધિ થઈ શકે નહીં. પરંતુ ગ્રીષ્મઋતુમાં નદીના જળમાં અવગાહન કરનારને સ્વર્ગીય સુખની ઉપલબ્ધિ થતી જોવામાં આવે છે. આત્માને આગુપરિમાણવાળો માનવામાં આવે તે આ પ્રકારની ઉપલબ્ધિની સંભાવના જ ન રહે. જો આત્મા અશુપરિમાણવાળે હેત, તે શરીરના એકદેશમાં જ સુખ આદિને અનુભવ થતો હોત, એક સાથે સઘળા અવયમાં એ અનુભવ થાત નહીં. એક બાલાગ્રના ૧૦૦ ભાગ કરવામાં આવે. તે સો ભાગમાંથી એક ભાગ લઈને તેના પાછા ૧૦૦ ભાગ કરી નાખવામાં આવે, તે તે પ્રત્યેક ભાગ જેટલા પરિમાણવાળો डाय छ, मेट परिणाम अनु (मात्मानु)छ,ते मनत छ,” तथा" ते मापरिभा વાળો આત્મા, પાંચ પ્રકારના પ્રાણને સન્નિવેશ છે એવાં ચિત્ત વડે જાણવા ગ્ય છે” ઈત્યાદિ શ્રતિઆદિના પ્રમાણથી આત્માની આગુરૂપતા જ સિદ્ધ થાય છે, એમ કહી શકાય નહી. શ્રતિનિ પ્રમાણુતાનું નિરાકરણ આગળ કરવામાં આવશે. તેથી શ્રુતિ દ્વારા આત્માની અગુરૂપતા સિદ્ધ કરી શકાતી નથી, એવું પ્રતિપાદન થઈ જશે For Private And Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ योधिनो टीका प्र. श्रु. अ. १ चाकिमत स्वरूपनिरूपणम् १३३ त्वात् । तथा जीवस्याऽणुरूपत्वे सर्वशरीरे वेदनोपलब्धिर्न स्यात् । एवं चात्मनि* कीदृशं परिमाणम् इति चेत्सत्यम् , प्रथमान्तिमविकल्पस्यासंभवितत्वेपि मध्यमपक्षस्यास्माभिरातत्वात् । अर्थात् यावत्प्रमाणकं शरीरं भवति तावत्प्रमाणक एवात्मा । न च शरीरादिवदात्मनोपि विनाशिता स्यात् , शरीरस्य मध्यमपरिमाणस्यानित्यता दृष्टेति, तथाविधस्यात्मनोप्यनित्यत्वं स्यात् । तथा च शरीरनाशे शरीरवदात्मापि नश्येदिति कर्मफलोपभोगो जन्मान्तरादौ श्रूयमाणः कथमुपपद्येत इति वाच्यम् , कथंचिदनित्यत्वस्य स्वीकारात् । अयमाशयः अनेकान्तवादे सर्वमपि इसके अतिरिक्त आत्मा यदि अणुपरिमाण होता तो समस्त शरीर में वेदना की उपलब्धि न होती। तो फिर आत्मा में कैसा परिमाण है ? यह प्रश्न ठीक है। प्रथम और अन्तिम विकल्प असंभव होने पर भी मध्यम परिणाम बाले मध्यम पक्ष को हमने स्वीकार किया है। इसका अर्थ यह है कि जितना परिमाण शरीर का होता है उतना ही आत्मा का होता है। ऐसा मानने से आत्मा भी शरीर के जैसा अनित्य हो जाएगा ऐसा कहना ठीक नहीं। मध्यम परिमाण वाले शरीर में अनित्यता देखी जाती है, अतएव मध्यम परिमाण वाले आत्मा में भी अनित्यता देखी जाती है, अत एव मध्यम परिणामवाले आत्मामें भी अनित्यता हो जाएगी। फिर तो शरीर का नाश होने पर शरीर के समान आत्मा का भी नाश हो जाएगा। ऐसी स्थितिमें जन्मान्तरमें कर्मफल का उपभोग मानना कैसे संगत हो सकेगा ? ऐसा कहना ठीक नहीं । हम વળી–જે આત્મા આશુપરિમાણવાળા હતા, તે સમસ્ત શરીરમાં વેદનાની ઉપલબ્ધિ પણ થાત નહીં તે પછી આત્મા કેવા પરિમાણવાળે છે. આ પ્રશ્ન ઉપસ્થિત થાય છે, આત્માના પરિમાણવિષયક પહેલે અને છેલ્લો વિકલ્પ અસંભવિત હોવાને કારણે, મધ્યમ પરિમાણવાળે જે બીજો વિકલ્પ છે, તેને અમે સ્વીકાર કર્યો છે. તેને અર્થ એ છે કે શરીરનું જેટલું પ્રમાણ હોય છે, તેટલું જ પ્રમાણ આત્માનું હોય છે. એવું માનવામાં આવે, તે આત્માને પણ શરીરની જેમ અનિત્ય માનવાને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે, એવું કથન ઉચિત નથી. મધ્યમ પરિમાણુવાળા શરીરમાં અનિત્યતા જણાય છે, તેથી મધ્યમ પરિમાણવાળા આમામાં પણ અનિત્યતા જ હશે. એવી પરિસ્થિતિમાં તે શરીરને નાશ થવાની સાથે શરીર પ્રમાણે જ આત્માને પણ નાશ થઈ જશે એવી પરિસ્થિતિમાં જન્મા તરમાં કર્મફલને ઉપલેગ માનવાની વાત કેવી રીતે સંગત બનશે? આ પ્રકારનું કથન ઉચિત નથી. અમે આત્માને અમુક દ્રષ્ટિએ અનિત્ય પણ માનીએ છીએ આ કથનનું તાત્પર્ય For Private And Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे वस्तु नित्यानित्यमेव न तु एकान्तोनित्यमनित्यं वा, किन्तु द्रव्यरूपेण नित्यम्, अनित्यं च पर्यायरूपेण । यथा घटो द्रव्यरूपेण नित्यः स्वपर्यायैस्तु नवपुराणत्वादिभिरनित्यस्तथाजीवोपि द्रव्यरूपेण नित्य इति शरीरनाशेपि तदपहाय शरीरान्तरमाविशन् कर्मफलं शुभाशुभं भुंक्ते पर्यायरूपेण वालयवस्थविरादिनाशरीरान्तराद्यवच्छेदकभेदेन वा, अनित्यएव, कथंचिदनित्यत्वस्य मया स्वीकृतत्वात् । अतएव मानवपर्यायं परित्यज्य कदाचिद्देवपर्यायं गच्छन् देवोचितभोगं भुंक्ते कदाचिन्नारकपश्चादिपर्यायं च प्राप्य दुःखपरंपरामेवानुभवति । उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिति सूत्रानुसारेण पदार्थमात्रस्यैव तथा नियमात् । तदुक्तं आत्मा को कथंचित् अनित्य स्वीकार करते हैं । तात्पर्य यह है कि अनेकान्तवाद में प्रत्येकवस्तु कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य है । एकान्त नित्य अनित्य नहीं है, किन्तु द्रव्य रूप से नित्य और पर्यांय रूप से अनित्य है । जैसे घट द्रव्य रूप से नित्य है और नवीनता प्राचीनता आदि पर्यायों से अनित्य है। इसी प्रकार जीवन भी द्रव्य रूप से नित्य है । अतएव शरीर का नाश होने पर उसे त्यागकर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है और शुभ या अशुभ कर्मफल को भोगता है । किन्तु बाल, युवा, वृद्धता आदि अथवा शरीर आदि अवच्छेदक के भेद से अनित्य है, ऐसा हमने स्वीकार किया है। इस कारण मनुष्य पर्याय को छोड़ कर कभी देवपर्याय में जाता है और देवों के योग्य भोगों को भोगता है। कभी नारक या पशु पर्याय को प्राप्त होता है और दुःख की परम्परा का अनुभव करता है । "जो उत्पाद, व्यय और धौव्य से युक्त होता है, वही सत् होता है" इस सूत्र के अनुसार पदार्थ એ છે કે અનેકાન્તવાદમાં પ્રત્યેક વસ્તુને અમુક દ્રષ્ટિએ નિત્ય અને અમુક દ્રષ્ટિએ અનિત્ય માનવામાં આવે છે, એકાન્તતઃ નિત્ય અથવા અનિત્ય માનવામાં આવતી નથી પરન્તુ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ નિત્ય અને પર્યાયની અપેક્ષાએ અનિત્ય માનવામાં આવે છે જેમ કે ઘડા દ્રવ્યની આપેક્ષાએ નિત્ય છે, પરન્તુ નવીનતા, પ્રાચીનતા આદિની આપેક્ષાએ અનિત્ય છે. એજ પ્રમાણે જીવ (આત્મા) પણ દ્રવ્યની આપેક્ષાએ નિત્યછે. તેથી એક શરીરનેા નાશ થતાં જ તે શરીરના ત્યાગ કરીને તે બીજા શરીરમાં પ્રવેશ કરે છે, અને શુભ કે અશુભ કર્મ ફૂલને ભેગવે છે. પરન્તુ માલ્યાવસ્થા, યુવાવસ્થા, વૃદ્ધત્વ આદિ પર્યાયાની અપેક્ષાએ અથવા શરીર આફ્રિ અવચ્છેદના ભેદની અપેક્ષાએ આત્માને અનિત્ય માનવામાં આવ્યો છે. તે કારણે મનુષ્ય પર્યાયને છોડીને કયારેક તે દેવપર્યાયમાં જાય છે અને દેશને યાગ્ય ભાગ ભાગવે છે, કદી તે નારક અથવા પશુપર્યાયમાં પણ જાય છે અને દુઃખાની પર’પરાતુ વેદન કરે છે, "ने उत्पाद, व्यय भने धौव्यथी (अयम रहेवाना स्वभावथी) युक्त होय छे, खेन सत् होय छे" આ સૂત્ર અનુસાર પ્રત્યેક પદાર્થ માટે એ જ નિયમ છે. પણ કહ્યું છે કે.... For Private And Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनो टोका प्र. श्रु. अ. १ चाकिमतस्वरूपनिरूपणम् १३५ "आदीपमाव्योमसमस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदिवस्तु । तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यदितित्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापा इति । यद्यपि जीवस्य परिमाणविषये वहवो विवादमनादृश्यन्ते इति, तनिर्णयार्थ विचार आवश्यक, इति तदर्थ प्रयत्नवता भाव्यम् , तथापि ग्रंथगौरवमयादप्रासंगिकत्वाच्च विरम्यते ॥ स चानादिकर्मसंबद्धः कदाचिदपि संसारपर्यन्तं निरस्तसर्वमलं कदाचिदपि स्वस्वरूपं न लभते इत्यमूर्तोऽपि मूर्तेन कर्मणा संवद्धो भवति । कर्मसंबन्धा मात्र के लिए यही नियम है। कहा भी है ।-"आदीपमाव्योमसमस्वभाव" इत्यादि। , दीपक से लेकर आकाश पर्यन्त प्रत्येक वस्तु समान स्वभाव वाली है अर्थात् नित्यानित्य है, क्योंकि कोई भी वस्तु स्याद्वाद की मुद्रा (छाप ) का उल्लंघन नहीं करती है । ऐसी स्थिति में आकाशादि कोई वस्तु नित्य ही है और घट आदि कोई वस्तु अनित्य ही है, ऐसा कहना हे भगवन् आपकी आज्ञा से द्वेष रखने वालों का प्रलाप मात्र है ।" यद्यपि आत्मा के परिमाण के विषय में नाना प्रकार के विवाद देखे जाते हैं, अतएव उसका निर्णय करने के लिए विचार करना आवश्यक है और उसके लिए प्रयत्नशील होना चाहिए, तथापि ग्रन्थ बह जाने के भय से तथा अप्रासंगिक होने से यहाँ विचार नहीं करते ।। वह आत्मा अनादि काल से कर्मों से बद्ध है और जब तक संसार में है तब तक समस्त मल से रहित अपने स्वरूप को प्राप्त नहीं कर पाता " आदोपमाव्योमसमस्वभाव" त्याहि" ही५४थी साने २॥४॥२॥ पय-तनी प्रत्ये परंतु સમાન સ્વભાવવાળી છે એટલે કે નિત્યનિય છે, કારણ કે કોઈ પણ વસ્તુ સ્યાદ્વાદની મુદ્રાનું (છાપનું ઉલ્લંઘન કરતી નથી. એવી પરિસ્થિતિમાં” આકાશાદિ કે વસ્તુ નિત્ય જ છે અને ઘટ આદિ કોઈ વસ્તુ અનિત્ય જ છે” આ પ્રમાણે કહેવું તે, હે ભગવાન! આપની આજ્ઞાને દ્વેષ કરનારને પ્રલાપ માત્ર જ છે. - જો કે આત્માના પરિમાણના વિષયમાં અનેક પ્રકારના વિવાદો ચાલે છે તે કારણે તેને નિર્ણય કરવા માટે વિસ્તૃત વિચાર કરે આવશ્યક થઈ પડે છે અને તેને માટે પ્રયત્નશીલ પણ રહેવું જોઈએ, પરંતુ ગ્રંથવિસ્તાર થઈ જવાના ક્યથી, તથા અપ્રાસંગિક હેવાથી અહીં તેને વધુ વિચાર કરવામાં આવ્યું નથી. તે આત્મા અનાદિ કાળથી કર્મોના બંધ વડે બદ્ધ છે, અને જ્યાં સુધી આ સંસારમાં રહે છે ત્યાં સુધી સમસ્ત મળથી(કર્મમળથી) રહિત પિતાના મૂળ સ્વરૂપને પ્રાપ્ત કરી શક્તો For Private And Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे तस्मिन्नात्मनि सूक्ष्मबादरैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रिचतुःपंचेन्द्रियपर्याप्तापर्याप्ताद्यवस्था अनेकप्रकाराः संभवन्ति स चात्मा यधेकान्तानित्यः स्यात्तदा केवलज्ञानोत्पादाय श्रवणमनननिदिध्यासनयमनियमप्राणायामध्यानधारणासमाधितपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानाधलौकिकफलसाधानानां तथा श्रमव्यापारकृषिसेवादि-इहलोकस्थफलक कर्मणां तथा प्रत्यभिज्ञानस्मरणादीनामत्यंतविलोपप्रसंगात् । अयमाशयः सर्वोऽपि प्रेक्षावान् स्वशरीराद्भिनं परलोकानुयायिन कथंचिन्नित्यं स्वात्मानमवगम्य तदनन्तरं पारलौकिकफलसाधने दानादौ प्रवर्तते यदि स प्रेक्षावान् आत्मानमेकान्तानित्यमवगच्छेत्तदा येन शरीरेण यच्छरीरावच्छिन्नेनात्मना कर्म कृतम् स है वह स्वभाव से अमूर्त होकर भी मूर्त कर्मों के साथ सम्बद्ध है। कर्म के सम्बन्ध से आत्मा में सूक्ष्म, बादर, एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रि पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त अपर्याप्त आदि अनेक प्रकार की अवस्थाएँ होती रहती हैं। आत्मा यदि एकान्त रूप से अनित्य हो तो केवलज्ञान की उत्पत्ति के लिए श्रवण मनन, निदिध्यासन, यम नियम, प्राणायम, ध्यान, धारणा, समाधि, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान आदि लोकोत्तर फल के साधनों का तथा श्रम व्यापार कृषि सेवा आदि इहलोक सम्बन्धी फल देने वाले कर्मों का तथा प्रत्यभिज्ञान एवं स्मरण आदि का सर्वथा लोप ही हो जाएगा । तात्पर्य यह है कि सभी बुद्धिमान् जन आत्मा को अपने शरीर से भिन्न तथा परलोक में जाने वाला कथंचित् नित्य जान कर ही पारलौकिक फल के साधन दान आदि में प्रवृत्ति करते हैं । अगर वह बुद्धि मान् आत्मा को एकान्त अनित्य समज्ञते तो जिस शरीर के द्वारा, जिस નથી. તે સ્વભાવથી જ અમૂર્ત હોવા છતાં પણ મૂર્ત કર્મોની સાથે સંબદ્ધ છે. કર્મના સંબંધને લીધે જ આત્મામાં સૂમ, બાદર, એકેન્દ્રિય, દ્વીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય, પંચેન્દ્રિય, પર્યાપ્ત, અપર્યાપ્ત આદી અનેક પ્રકારની અવસ્થાઓ ને સદૂભાવ રહ્યા જ કરે છે. આત્મા જે એકાન્તતઃ અનિત્ય હેયતે કેવળજ્ઞાનની ઉત્પત્તિને માટે શ્રવણ, મનન, નિદિધ્યાસન (पार वार २२५) यम, नियम, प्राणायाम, ध्यान, पार, समाधि, तप, स्वाध्याय भने ઇશ્વર પ્રણાધાન આદી લકત્તર ફળનાં સાધનને તથા શ્રમ, વ્યાપાર, કૃષિ, સેવા આદિ આલેક સંબંધી ફલ દેનારા કર્મોને તથા પ્રત્યભિજ્ઞાન અને સ્મરણ આદિને સર્વથા લેપ જ થઈ જાત. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે-સઘળા બુદ્ધિમાન માણસે આત્માને પિતાના શરીરથી ભિન્ન તથા પરલોકમાં જનારે અને નિત્યાનિત્ય માનીને જ પારલૌકિક ફળનાં સાધનમાં (દાનાદીમાં) પ્રવૃત્ત રહે છે. જે તેએ આત્માને એકન્તતઃ અનિત્ય જ માનતા હોત, For Private And Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ममा बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चाकिमतस्वरूपनिरूपणम् ३७ आत्या तच्छरीरम् तादृशं कर्म लेति सर्वमेव वदैव विनष्टं निरन्वयतया तदनन्तरं कालान्तरमासाद्य कः फलोपभोमं करिष्यति स्वर्गादिपरलोके भवान्तरे वा सातरमासाद्य पूर्वभवसंपादितकर्मजन्यशुभाशुभकर्मणोः फलं सुखदुःखादिकं ने जीवः स चेज्जीवो देहविगमसमले सहैव देहेन स्वयमपि विनष्टस्जदाफलभरेका भवान्तरे को भवेजदा आत्सत प्रवाभावात् । न च कर्माचरणसामयिकस्य आत्मनो विनाशेरम फलोपभोगकालिको नकीज़ एवाला जायते इति वाव जवानरूम फलोपभोगः स्यादिति न पारलौकिकफलसाधकर्मणा नरर्थक्यमिति जाच्यम् तथापि अन्यकृतकर्मणोन्यस्य फलभोक्तत्वे कृतहान्यकृताभ्यागमप्रसं शुरीरमें रह कर आत्मा ने कोई कर्म किया है, वह आत्मा, वह शरीर और वह किया हुआ कर्म सब के सब उसी समय पूरी तरह नष्ट हो जाते । उनके पश्चात् कालान्तर में स्वर्ग आदि परलोक या भवान्तर में कौन फल भोगेगा ? जीव दुसरे भव को प्राप्त करके पूर्वभव में किए हुए कामों द्वारा जनित शुभ या अशुभ कर्मों का सुख दुःख रूप फल भोगता है। वह जीव यदि देह के नाश के समय, देह के साथ ही नष्ट हो जाय तो कौन भवान्तर में फल को भोगेगा ? उस समय आत्मा तो रहा नहीं । " शंका-कर्म का आचरण करते समय के आत्मा का तो विनाश हो जाता है मस्न्नु मल का उपभोग करते समय नया आत्मा उत्पन्न हो जाता है । वह जमा आत्मा ही उस कर्म का फल भोगता है । अतएव मारलौकिक.फलों को सिद्ध करने वाले कर्म निरर्थक नहीं होने । તે જે શરીરમાં રહીને જે શરીર દ્વારા આત્માએ જે કઈ કર્મો કર્યા છે, તેમના તે શરીર નિષ્ટ થતાની સાથે જ નાશ થઈ જાત ! ત્યાર બાદ કાલાન્તરે સ્વર્ગ આદિ પટેલેક અથવા ભવાન્તરમાં કોણ તે કર્મોનું ફળ ભેગવત? જીવ જ (આત્મા જ) બીજો ભવ અથવા અનેક ભ પ્રાપ્ત કરીને પૂર્વભવમાં કરેલાં કર્મો દ્વારા જનિત શુભ અથવા અશુભ કર્મોને સુખદાખ રૂપ ફળને ભેગવે છે. આ જીવ, જે દેહને નાશ થતાં જ દેહની સાથે સાથે જ નષ્ટ થઈ જાય, તે ભવાન્તરમાં કર્મ જનિત ફળ કેણ ભગવશે – જે તે સમયે આત્માનું અસ્તિત્વ જ ન સ્વીકારવામાં આવે, તે કર્મનું ફળ કેણુ ભગવશે? કારણ કે આ માન્યતા અનુસાર દેહના નાશ સાથે આત્માને નાશ પણ સ્વીકાર્યો જ છે, શંકા-કર્મનું આચરણ કરતી વખતે જે આત્મા હોય છે, તે આત્માને વિનાશ થઈ य, ..परन्तु Suो ती मते नको. मात्मा..त्पन्न. ४ कनय . ते नको AAL: भन लोगये थे. तेथी पासो गाने सिद्ध ४२२ तिर होता नथी. सू. १८ For Private And Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३८ सूत्रकृतागसूत्रे गस्य दुरिता स्यात् येन मनुष्यशरीरावच्छिन्नेनात्मना कर्माराधनं कृतं न तेन फलमभोजि इति कृतस्य कर्मणो हानि र्जाता येन च देवादिशरीरसंवन्धिना त्मना फलोपभोगः कृतः न तेन कर्माराधनमकारीति अकृतस्य कर्मणः फलस्योपभोगः संवृत्त इत्यकृताभ्यागमः प्रामोतीत्यतो नैकान्तेनात्माऽनित्यः । नाप्येकान्तनित्यस्तथात्वे जन्ममरणादिव्यवस्थैव निरवकाशा स्यात्, नहि सर्वथा नित्ये गगने किंचिदपि क्षीयमाणं दृष्टम् । तस्मात्कथंचिन्नित्यः कथंचिदनित्यश्च तावता सर्वदोषोपशमसंभवात् । न च परस्परविरोधशीलयोनित्यत्वा . समाधान-ऐसा मत कहो । ऐसा मानने परभी दूसरे के किये कर्म का फल दसरा भोगेगा तो कृतहानि और अकृताभ्यागम नामक दोषों का प्रसंग होगा । मनुष्य शरीर में रहे हुए जिस आत्मा ने कर्म की आराधना की थी, उसने उस कर्म का फल नहीं भोगा, इस प्रकार कृत कम की हानि हुई । और देवादि के शरीर सम्बन्धी जिस आत्मा ने फल का उपभोग किया, उसने वह कर्म नहीं किया था । इस प्रकार उसे विना किये कर्म का फल मिल गया । यह अकृताभ्यागम दोष प्राप्त होगा। इस कारण आत्मा एकान्त अनित्य नहीं है। - आत्मा एकान्त रूप से नित्य भी नहीं है। एकान्त नित्य मानने से जन्म मरण आदि की व्यवस्था ही नहीं बन सकती । सर्वथा नित्य आकाश अतएव आत्मा कथंचित् नित्य और कथंचित अनित्य है । ऐसा मानने से कोई भी दोष नहीं आता है। - સમાધાન આ માન્યતા અનુચિત છે. આ પ્રકારની માન્યતામાં” કરે કોઈ અને ભગવે બીજે.” એવું માનવને કારણે કૃતડાની અને અકૃતાભ્યાગમ નામના દોષને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે. મનુષ્ય શરીરમાં રહેલા જે આત્માએ કર્મની આરાધના કરી હતી, તેણે તે કર્મનું ફળ ભેગવ્યું નહીં, આ પ્રકારે કૃત કર્મની હાની થઈ. અને દેવાદના શરીરમાં રહેલા જે આત્માએ ફળને ઉપગ કર્યો, તેણે તે કર્મ કર્યું ન હતું. તે કારણે તેને કર્મ કર્યા વિના ફળ મળી ગયું. તેને જ અહી અકૃતાભ્યાગમ દેષ કહેવામાં આવ્યો છે. તે કારણે આત્માને એકાન્તતઃ નિત્ય માની શકાય નહીં. આત્મા એકાન્તત: નિત્ય પણ નથી. આત્માને એકાન્તતઃ નિત્ય માનવાથી જન્મ મરણ આદિની વ્યવસ્થા જ સંભવી શકે નહીં. તે કારણે આત્માને અમુક દષ્ટિએ (દ્રવ્યાર્થિતાની અપેક્ષાઓ) નિત્ય અને અમુક દષ્ટિએ (પર્યાયની અપેક્ષાએ) અનિત્ય માનવાથી, કોઈ પણ દેષની સંભાવના રહેતી નથી. For Private And Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समयार्थ योधिनी टोका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् १३६ नित्यत्वयोरेकस्मिन्नात्मनि कथं संभवः नहि शैत्यौष्ण्यधर्मयोः परस्परविरुद्धयो "रेकस्मिन्समावेशो दृश्यते समावेशेच विरोधकथैवास्तमियादिति तदेव विरुद्धानां विरुद्धत्वं यत्सहानवस्थायित्वम् इति वाच्यम् अपेक्षाभेदेनोभयोरपि समावेश संभवात् । अयमाशयः यथैकस्मिन्पुरुषे अपेक्षाभेदेन पितृत्वपुत्रत्वश्यालत्वश्वशुरत्व भ्रातृत्वजामातृत्वादिधर्माणां समावेशेपि न विरोधसंभावना तथैकस्मिन्नामनिद्रव्यत्वरूपेण नित्यत्वं देव मनुष्यतिर्यकपक्ष्यादि पर्यायात्मनाऽनित्यत्वमपि स्यात्तत्र को दोषः । यथावा नैयायिकमते एकस्मिन्नेव घटे घटत्वपृथिवीत्वद्रव्यत्वप्रमेयत्वाद्यनेकधर्माणां समावेशः यथैवैकस्मिन् वृक्षे- शाखावच्छेदेन शंका-स्वभाव से ही परस्पर विरोधी नित्यता और अनित्यता एक ही आत्मा में कैसे रह सकते हैं? शीतता और उष्णता का जो परस्पर विरुद्ध है. एकही वस्तु में समावेश नहीं देखा जाता । अगर उनका समावेश हो तो विरोध की कथा ही समाप्त हो जाय । एक साथ न रहना ही विरोधी पदार्थों की विरूद्धता कहलाती है । समाधान-उपेक्षा के भेद दोनों का समवेश होता है । अभिप्राय यह है कि जैसे एक ही पुरुष में भिन्न भिन्न अपेक्षा से पितृत्व, पुत्रत्व, श्यालय (सलापन), श्वसुरत्व, भ्रातृत्व, जामातृत्व आदि धर्मों का समावेश होने में कोई विरोध नहीं है, उसी प्रकार एक ही आत्मा में द्रव्य की अपेक्षा से नित्यता और देव मनुष्य तियेच पक्षी आदि पर्याय की अपेक्षा से अनित्यता हो तो क्या दोप है ? अथवा जैसे नैयारिक मत के अनुसार एक ही घट में घटत्व, पृथित्व, द्रव्यत्व तथा प्रमेयत्व आदि अनेक धर्मों का समावेश શંકા-સ્વભાવથી જ પરસ્પર વિરોધી એવી નિત્યતા અને અનિત્યતા એક જ આત્મામાં કેવી રીતે રહી શકે છે? જેમ કે શીતતા અને ઉષ્ણતા રૂપ પરસ્પર વિરોધી ગુણોને સદ્ભાવ એક જ વસ્તુમાં સંભવી શક્તો નથી. જે એક જ વસ્તુમાં તેમને સમાવેશ થત હૈય, તે વિરોધની વાત જ સમાપ્ત થઈ જાય. એક સાથે ન રહેવું, તેને જ વિરોધી • पानी वि३द्धता उपाय छे. . સમાધાન–અપેક્ષાના ભેદની અપેક્ષાએ બન્નેને સમાવેશ થઈ શકે છે. જેવી રીતે એક જ પુરૂષમાં ભિન્ન ભિન્ન અપેક્ષાએ પિતૃવ, પુત્રત્વ, સાળાપણું, સુરત, ભ્રાતૃત્વ, જામાતૃત્વ આદ ધર્મને સમાવેશ થવામાં કઈ પણ મુશ્કેલી રહેતી નથી, એજ પ્રમાણે એકજ આત્મામાં દ્રવ્યની અપેક્ષાએ નિત્યતા અને દેવ, મનુષ્ય, તિર્યંચ આદિ પર્યાની અપેક્ષાએ અનિત્યતા માનવામાં શું વાંધો છે? અથવા જેવી રીતે તૈયાયિકોના મત પ્રમાણે એક જ ઘડામાં ઘટવ, પૃથ્વી, દ્રવ્યત્વ તથા પ્રયત્ન આદિ અનેક ધર્મોને સમાવેશ થાય છે, અથવા For Private And Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १४० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतान कंपिसयोगो मूलावच्छेदेन कपिसंयोगाभावो विद्यमानो ने क्षतिमहर्ति retr होतोः १. अवच्छेदेकभेदाते तथैव प्रकृते अस्मिन्यपि अवच्छेदकमेवमाश्रिस्वं विरुद्धयोरपिं नित्यत्वानित्यत्वयोः समावेशे कः प्रद्वेषो भवताम् अन्यत्र स्वप पातसि तस्मात् स्यादनित्यः स्यान्नित्यश्च स्यादिति कृतं विस्तरेण । यद्यप्यत्र वहु वसव्यं मस्ति तथापि प्रकरणे एव विस्तरविचार: शोभते अवसरपठिता वणीति न्यायात् ॥ पंचभूत समुत्पन्न आत्मा चैतन्यवान्स्वतः । मात्रमिदं जगत् ॥ १॥ न स्वर्गो नापवर्गी वा होता है, अथवा जैसे एक ही वृक्ष में शाखा की अपेक्षा से कपि संयोग ( वैदर के साथ संयोग) और मूल की अपेक्षा से संयोगाभाव रहता है और उसमें कोई बाधा नहीं आती। ऐसा क्यों होता है ? अवच्छेदक के मैदे से 1 इसी प्रकार प्रकृत आत्मा में भी अवच्छेदक के भेद से परस्पर विरुद्ध भी नित्यता और अनित्यता का समावेश मानने में आपको क्या द्वेष है ? पक्षपति के सिवाय और कोई कारण नहीं है । अतएव आत्मा कथंचित् अनित्य है । और कथंचित् नित्य है । अब अधिक विस्तार नहीं करते । यद्यपि इस विषय में बहुत कुछ वक्तव्य है, तथापि प्रकरण में ही विस्तार से विचार करना शोभा देता है । " अवसरपठिता वाणी" ऐसा न्याय है । आत्मा पाँच भूतों से स्वतः ही उत्पन्न हो जाने वाला तथा चैतन्यवान् है । न स्वर्ग हैं, न मोक्ष है । यह जगत् इतना ही जितना दिखाई देता है, || १|| જેવી રીતે એક જ વૃક્ષમાં શાખાની અપેક્ષાએ કર્પિસ યોગ (વાનાની સાથે સંગ) અને મૂળની અપેક્ષાએ પિસ ચાગાભાવ રહી શકે છે, અને તેમાં કોઇ મુશ્કેલી નડતી નથી, એજ પ્રમાણે આત્મામાં પણ નિત્યતા અને અનિત્યતા માનવમાં શી મુશ્કેલી છે? ઘડા અને વૃક્ષમાં અવચ્છેદ્યકના ભેદને લીધે એવું સભવી શકે છે, એજ પ્રમાણે પ્રસ્તુત આત્મામાં પણ અવચ્છેદકના ભેદની અપેક્ષાએ પરપર વિરૂદ્ધ એવી નીર્ત્યતા અને અનિત્યતાને સમાવેશ માનવામાં આપને શી મુશ્કેલી લાગે છે? પક્ષપાત સિવાય બીજું કોઇ પણ કારણ હોઇ શકે નહીં. તેથી આત્માને નિત્યાનિવ ાનવા એજ ઉચિત છે, એ કે આ વિષયને અનુલક્ષીને ઘણુ કહી શકાય તેમ છે, પરન્તુ ગ્રન્થવિસ્તારના ભયથી તથા વિષાન્તર થવાના ભયથી અહીં વધુ વિસ્તાર થી વિચારવા ઠીક લાગતા નથી. આ વિષયને લગતા પ્રકરણમાં જ આ વિષયની વિસ્તૃત વિચારણા રોભી શકે, કારણ કે "अपसरा ता "वाणी" येवो सिद्धांत छे. ચાર્વાક મતનુ શૅરૂપ પ્રકટ કરતાં બે શ્લોકોના ભાવાથ – ” આત્મા પાંચ મહાભૂતમાંથી સ્વતઃ ઉપન્ન થઇ જનારા અને ચૈતન્યમુક્ત છે. स्वर्ण पशु नथी अने भो पण नथी. तो वाथ छे For Private And Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समायबाधनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चाकिमतस्वरूपानरूपणम् १४१ मात्रमध्यक्षमा हि नानुमानागमो मतौ । अनवस्थान्वीन्यायस्वदोषाघाती यतो हिलो पारस देहमात्रस्य ह्यात्मत्वे देहाशाद्धिनाशतः । महाधियां च शास्त्राणां प्रवृत्ति नैव संभवेत् ॥३॥ मात्रमध्यक्षमान चैत् दूरदेशाम्तरं गते । पितरि वरूधील्लोको खदृष्ट्वानशिशंकया ॥४॥ संक्षिप्तोयं मया पक्षश्चावाकस्य समासतः । विशेषतो विचारो हि यथाशास्त्रं स्वयं कृतः ॥५||गा. "सिर्फ प्रत्यक्ष ही प्रमाणे हैं । अनुमान और ऑगम प्रमाण नहीं हैं, क्योंकि अनुमान और आगम को प्रमाण मानने में अनवस्था और अन्योन्याश्रय दोष आते हैं, शा "यदि देह मात्र को आत्मा माना जाय तो देह का नाश होने पर आत्मा का भी नाश हो जायेगा । ऐसा हो तो महाबुद्धिमानों और शास्त्रों की प्रवृत्ति समंव में हीती" ||३॥ यदि एक मात्र प्रत्यक्ष ही प्रमाण हो तो पिता के दूर देश जाने पर लोग रोने लगै । क्योंकि पिता के दिखाई न देने पर उसके विनाश की आशंका हो जाएंगी, ॥४॥ पर प्रथमं दी श्लोकों द्वारा चार्कक मत का स्वरूप दिखाया गया है, और अंतिम दो श्लोकों द्वारा उक्त चार्वाक मत का खण्डन किया गया है। માત્ર પ્રત્યક્ષ કે પ્રમણ છે. અણુમાન અને આગમ પ્રમાણરૂપ નથી, કારણ કે એમણે ચામાનને જાણ માનશથી અનવસ્થા અને અભ્યાશ્રય દોષના પ્રસંગ ઉપસ્થિતિ થાય છે”રા નીચેના બે કો દ્વારા ચાર્વાકના મતનું ખંડન કરવામાં આવ્યું છે. "જે દેહને જ આત્મા માનવામાં આવે, તે દેહને નાશ થાય ત્યારે આત્માને પણ નાશ થવાનું સ્વીકારવું જ પડે. એવું થતું હેપ તે મહાબુદ્ધિમાન અને શસ્ત્રોની પ્રવૃતિ सलवी शत नही."॥3॥ - જે એક માત્ર પ્રત્યક્ષને જ પ્રમાણ માનવામાં આવે, તે પિતા દૂરના દેશમાં જાય ત્યારે લે ર લાગશે, કારણ કે દૂર રહેલા પિતા છિછર નહીં થવાને કારણે તેના ધની આશકા જ કભી થશે.”18 .८॥ For Private And Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . सूत्रतागसूत्रे वेदान्तीयैकात्मवादः-. एकात्मवादीयपूर्वपक्षं दर्शयति सूत्रकारः---'जहाय' इत्यदि । जहा य पुढवी थूभे एगे नानाहि दीसइ । एवं भो कासिणे लोए विन्नू नाणाहि दीसइ ॥९॥ छाया---- यथा च पृथिवी स्तूप एको नानाहि दृश्यते । एवं भोः कृत्स्नो लोकः विज्ञः ( विद्वान् ) नानाहि दृश्यते ॥९॥ अन्वयार्थ:--- ( जहा-यथा ) येन प्रकारेण ( पुढवीथूभे-पृथिवीस्तूपः) पृथिवी समुदाय रूपोऽवयवी ( एगेय-एकोऽपि ) एकरूपेण स्थितोऽपि ( नानाहिदीसइ-नाना वेदान्तियों का एकात्मवाद एक ही आत्मा मानने वालों का पूर्वपक्ष सूत्रकार दिखलाते हैं। 'जहा' इत्यादि ॥ . , शब्दार्थ-'जहा-यथा' जिस प्रकार पुढचीथुमे ढवीस्तूपः' पृथ्वीसमूद 'पगेय-एकोऽपि' एक ही "नानाहि दीसइ-नाना दृश्यते” नानारूपों में देखा जाता है। एवं-एवम्' इसी प्रकार 'यो-हे' हे जीवों 'किसणेलोएकृत्स्नो लोकः समस्तलोक 'विन्नू-विज्ञः आत्मस्वरुप 'नाणाहि-नाना' अनेकरुषों में 'दीसइ-दृश्यते' देखा जाता है। अन्वयार्थ जैसे पृथ्वी रूप स्तूप एक होने पर भी सरिता सागर, पर्वत, नगर, ग्राम, घट, पट, आदि के भेद से अनेक रूपों वाला दिखाई देता है, एवं इसी प्रकार यह जड़ चेतन रूप सम्पूर्ण लोक ज्ञान स्वरूप आत्मा वहातियाना भवाह' એક જ આત્માને માનનારા લેકેની માન્યતા સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા પ્રકટ छ. "जहा य" २४ाय -'जहा-यथा वी शत पुढवीमे-पृथ्वोस्तूपः' पृथ्वी समूड एगेय-एकोऽपि' ४०८ 'नानाहि दीसइ-नाना दृश्यते' मने ३पोमा हेपाय छे. 'एवं-एवम्' मेर प्रमाणे 'भो-हे वो ‘कसिणे लोए-कृत्स्नो लोक' समत यो 'विन्न-विज्ञः' मात्मस्व३५ 'नाणाहि-नाना' भने ३सोमा 'दीसह-दृश्यते' अवामा मावे छ. ॥६॥ For Private And Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयावधिना प्र. शु. अ. १ एकात्मवादनिरूपणम् १४३ दृश्यते ) सरित्समुद्रपर्वत नगरग्रामघटपटादिभेदेन अनेक रूपो दृश्यते ( एवं एवम् ) अनेनैव प्रकारेण (भो-हे) हे लोकाः ! (कसिणे लोए कृत्स्नो लोकः ) चेतना - चेतनरूपः समस्तो लोकः (विन्नू-विज्ञः) विद्वानेव ज्ञानस्वरूप आत्मैव ( नानाहि - नाना ): पृथिव्यादि भूताकारतया (दीसह दृश्यते) दृष्टिगोचरो भवति । किन्तु नान्यः कोऽपि आत्मातिरिक्तोऽन्यः पदार्थ इति ॥९॥ टीका दृष्टान्तेनार्थः स्पष्टरूपतयाऽवगतो भवतीत्यतः प्रथमं दृष्टान्तमेवाह'जहा य' = यथा च येन प्रकारेण 'एगे' = 'एक:' 'पुढवी शुभे' पृथिवीस्तूप:पृथिव्येव स्वपः पृथिव्याः स्तूपः पृथिवीसमुदायात्मकोऽवयवी, 'नानाहि दीस ' नाना अनेकप्रकारेण दृश्यते यथा एक एव पृथिवीसमुदायः नानारूप: जलसमुद्रपर्वतन गरघटपटादिविभिन्नरूपेणातिविचित्रो दृश्यते न तु पृथिवीही हैं । पृथ्वी आदि भूतों के नाना आकार में दृष्टिगोचर होता है । आत्मा से अतिरिक्त अन्य कोई पदार्थ नहीं है || ९ || टीकार्थ दृष्टान्त ही से अर्थ स्पष्ट हो जाता है, इस कारण यहाँ सर्व प्रथम दृष्टान्त ही कहते हैं- जैसे एक ही पृथ्वी रूप स्तूप या पृथ्वी का स्तूप अर्थात् पृथ्वी का समुदाय रूप पिण्ड अनेक रूपों में दिखाई देता है अर्थात् मूल में पृथ्वी एक होने पर भी जल, समुद्र पर्वत, नगर, नाना रूपों में होने से विचित्र दिखाई देती है, फिर भी सभी में व्याप्त रहता है— उसके स्वरूप में भेद नहीं होता, घट, पट आदि पृथ्वी तत्व इन इसी प्रकार हे नेवी रीते पृथ्वी ३५ स्तूप (भिंड) मेड होवा छतां पशु सरिता सागर, पहाड, नगर ग्राम, घट (घडे।) पट माहिना रोहनी अपेक्षा भने ३पोवाणा देणाय हे, येन प्रमाणे " હું લેક ! આ જડ ચેતન રૂપ સંપૂર્ણ લેાક જ્ઞાનસ્વરૂપ આત્મા જા છે. આત્મા જ પૃથ્વી આદિ ભુતાના આકારે દૃષ્ટિગોચર થાય છે આત્મા સિવાયના અન્ય કોઈ પદાર્થ નથી. -11819 For Private And Personal Use Only દ્રષ્ટાન્તની મદદથી અર્થ સ્પષ્ટ થઇ જાય છે. તેથી અહીં સૌથી પહેલાં દ્રષ્ટાન્ત જ આપવામાં આવેલ છે--જેમ એક જ પૃથ્વી રૂપ સ્તૂપ અર્થાત્ પૃથ્વીનો સ્તૂપ એટલે કે પૃથ્વીના સમુદાય રૂપ પિંડ અનેક રૂપે દેખાય છે, એટલે કે મૂળમાં તે પૃથ્વી એક હાવા છતાં પણ જળ, સમુદ્ર, પંત, નગર, ઘટ, પટ આદિ વિવિધ રૂપે રહેલા હોવાને કારણે વિવિધ રૂપે દેખાય છે, છતાં પણ તે બધામાં પૃથ્વીતત્ત્વની વ્યાપ્તિ તા રહેલી જ હોય છે, -तेना स्वयमां तो लेह पडतो नथी, मेन अझरे हे बोओ ! आ गयेतन (४३) याने Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कलाकाराने सत्त्वस्य स्वरूपतो भेडो भवति एवं प्रवम्-अनेनैव प्रकारेण 'भो' मोः लोकाः ! 'कसिणे लोए' कृत्स्नो लोक:- वेतनाचेतनारूपः बिल्लू' विद्वान् जानस्वरूपः पृथिवीज़लादिभूताकारतया नाना अनेकप्रकारको दृश्यते वर्तते अनं भावः-एकएमात्मा विद्वान् ज्ञातस्वरूपः पृथिव्यादिभूताकारतया अनेकरूपोण परिदृश्यमानो भन्नति, नचैतावता आमतत्वस्ट कामपि भेदो भवति, पृथिवीवद्, तथा च श्रुतिः "एक एवहि भूसत्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकत्रा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥ पुरुष एवेदं सर्वम् २, एकमेवाद्वित्तीयम् ब्रह्म ३ । वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव लोगो ! अचेतन चेतन रूप समस्त लोक ज्ञान रूप (आत्मा) ही है, महार पृथ्वी जल आदि भूतों के आकार में होने से अनेक प्रकार का दिखाई दे रहा है । तात्पर्य यह है कि एक ही ज्ञान स्वरूप आत्मा पृथ्वी आदि भूतों के आकार में परिणत होने से अनेक रूपों में दिखाई दे रहा है । मगर जैसे पृथ्वी, घटादि सब में एक ही है, उसी प्रकार आत्मा भी एक ही है उसमें कोई भेद नहीं है । श्रुति मे कहा है-"एक एव हि" इत्यादि । एक ही भूतामा प्रत्येक भूत में रहा हुआ है। वह जलचन्द्र के समान एक प्रकार का होने पर भी अनेक प्रकार का दिखाई देता है, ॥१॥ "यही सब पुरुष की है, ॥२॥ "एक अद्वितीय तत्त्व ही है,, ॥३॥ येत ३स.समहाशान३५ (AICHI )२८ छ, ५२न्तु वा भूत (grat) ના આકારમાં હોવાથી અનેક પ્રકારને દેખાય છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે-જ્ઞાનસ્વરૂપ આત્મા તે એક જ છે પરંતુ તે પૃથ્વી આદિ ભૂતના આકારમાં પરિણત થઈ જાણી અનેક રૂપે દેખાય છે. પરંતુ જેવી રીતે ઘટાદિ સમસ્ત પદાર્થોમાં પૃથ્વી રૂપ તત્વ त १४:, मे प्रमाणे मा.५५-२४.१४:छे-तेमा अ.ना. अतिभा । -"कन हि" sen-" मे ११ भूतमा प्रत्ये भूतम दो . ते Ass (PATALAन्द्रमा प्रतिमि) समान से आरोप छत मने प्रारना हेमाय.. ॥१॥ " मे ॥ पुरुष (मामा) छे" ॥२॥ " में अद्वितीय तत्व छे” ॥ ३ ॥ For Private And Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ एकात्मवादनिरूपणम् १४५ .. एकस्तथा सर्व भूतान्तरात्मा उपाधिना क्रियते भेदरूप इत्यादि एक एवात्मा जीवः भूते भूते प्रत्येकवस्तुनि व्यवस्थितो जीवरूपेण स्थितः तिष्ठति स एव एको जीवः एकधा एकरूपेण बहुधा अनेकरूपेण देवदत्तगंगदत्तादिभेदेन दृश्यते, जलचन्द्रवत् , यथा एक एव चन्द्रमाः जलभाजनभेदेन अनेकरूपतया दृश्यते, एवमात्मा एकः उपाधिभेदेनानेकप्रकारको भवतीति ॥१॥ पुरुष आत्मैव इदं सर्वम् परिदृश्यमानं सर्वमपि वस्तु आत्मरूपमेवेति २, एकमेवाद्वितीयमात्मा ब्रह्म ३, यथा एको वायुः भुवनं तत्तत् स्थान प्राप्य अनेकरूपो भवति तथा एकोऽपि आत्मा तत्तद् उपाधिविशेषमासाद्यानेकरूपो भवतीति श्रुत्यर्थः-इत्यात्माद्वैतवादः ॥९॥ जैसे एक ही वायु भुवन में प्रविष्ट है, मगर उपाधि भेद से अलग अलग रूप हो गया है, इसी प्रकार सर्वभूतों के अन्दर रहा एक ही आत्मा उपाधि के भेद से भिन्न भिन्न रूपवाला बना दिया जाता है ॥४॥ एक ही आत्मा प्रत्येक वस्तु में जीव रूप से स्थित है। वही एक आत्मा एक रूप से और देवदत्त गंगदत्त आदि अनेक रूपों से प्रतीत होता है। जैसे एक ही चन्द्रमा जल के विभिन्न पात्रों में अनेक दिखाई देता है इसी प्रकार एक आत्मा उपाधि भेद से अनेक प्रकार का हो जाताहै ॥१॥ ___यह सब जो दिखाई दे रहा है, वह आत्मा ही है ॥३॥ एक अद्वितीय ब्रह्म आत्मा ही है ॥ ३ ॥ जैसे एक ही वायु लोक में व्याप्त है, फिर भी उपाधि भेद से अनेक रूप हो जाता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा भिन्न भिन्न उपाधियों को ” જેવી રીતે એક જ વાયુ ઘરમાં પ્રવિષ્ટ છે, છતાં પણ ઉપાધિ ભેદને લીધે જુદા જુદા આકારવાળે થઈ ગયું છે,” એજ પ્રમાણે સર્વ ભૂતેમાં રહેલે એક જ આત્મા ઉપાધિના ભેદ વડે ભિન્ન ભિન્ન રૂપવાળા બનાવી દેવાય છે. જો એક જ આત્મા પ્રત્યેક વસ્તુમાં જીવ રૂપે સ્થિત છે. એ એક જ આત્મા એક રૂપે અને દેવદત્ત, ગંગદત્ત આદિ અનેક રૂપે દેખાય છે. જેવી રીતે ચન્દ્રમાં એક જ હોવા છતાં પણ જુદાં જુદાં જળપાત્રોમાં તેના અનેક પ્રતિબિંબ દેખાય છે, એજ પ્રમાણે એક આત્મા उपाधि लेहनी अपेक्षाये अने प्रारतो हेपाय छे. ॥ १ ॥ साधु हेमाय छ, ते मात्मा छे. ॥२॥ में अद्वितीय ब्रह्म मात्मा ४ छ. ॥ 3 ॥ જેવી રીતે એક જ વાયુ લેકમાં વ્યાપ્ત છે, છતાં પણ ઉપાધિ ભેદની અપેક્ષાએ અનેક રૂપ થઈ જાય છે, એજ પ્રકારે એક જ આત્મા જુદી જુદી ઉપાધિઓને પામીને અનેક રૂપને सू. १८ For Private And Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्रे ___पूर्वगाथोक्तं द्वैतात्मवादिमतं निरसितुमुपनामन् सूत्रकार आह—'एगमेवेत्ति' इत्यादि। मूलम्-- एव मेगेत्ति जपति, मंदा आरंभणिरिसया। ૭ ૧૦ ૮ ૧૦ ૧૧ ૧૨ ૧૩ एगे किचा सयं पावं, तिव्वं दुक्खं नियच्छइ ॥१०॥ छाया-- एक मेव इति जल्पन्ति मन्दा आरम्भनिश्रिताः । एके कृत्वा स्वयं पापं तीनं दुःखं नियच्छन्ति ॥१०॥ अन्वयार्थः( एवं-एवम् ) अनेन प्रकारेण (एगे-एके) केचन आत्माद्वैतवादिनः (त्ति-इति) पूर्वोक्तप्रकारेण (जपंति-जल्पन्ति) असत्प्रलापं कुर्वन्ति ते (मंदाप्राप्त होकर अनेक रूपों को धारण करता है। यह पूर्वोद्धत श्रुतियों का अर्थ है। यही आत्माद्वैतवादियाँ की मान्यता है ॥९॥ पूर्वोक्त अद्वैतात्मवादी के मत का निराकरण करने का उपक्रम करते हुए सूत्रकार कहते हैं-"एवमेगे" इत्यदि ॥१०॥ शब्दार्थ-एवं-एवम्' इसप्रकार 'एगे-पके कितनेक पुरुष त्ति-इति' एकही आत्मा है यह 'जप्पति-जल्पन्ति' कहते हैं 'मदा-मन्दाः' जडबुद्धि वाले वे 'आरंभनिस्सिया-आरम्भनिश्रिताः' प्राणातिपातादि आरंभमें आसक्त ऐसे 'एगे-एके' कितनेक पुरुष 'सय-स्वयं स्वयं पाय किच्चा-'पापं कृत्वा' पाप करके 'तिब्ब-तीव्र, ताब 'दुक्ख-दुखम् दुखको 'नियच्छह-नियच्छन्ति' प्राप्त करते हैं ॥१०॥ ધારણ કરે છે. પૂર્વોક્ત કૃતિઓને આ પ્રકારને અર્થ થાય છે. એજ આત્માના અઢતિवाहियानी मान्यता छे. ॥॥ डवे सूत्र॥२ पूरित अद्वैतवाहीमोना मतनु ५४न ४२ छ “पवमेगे” त्या - शपथ -एवं-एवम्' के प्रमाणे 'एगे-एके' मा ५३५ 'त्ति-इति' मे४०४ मात्मा छे. मारीते 'जप्पंति-जल्पंति' छ. 'मंदा-मन्दाः' मुद्धिपातेमा 'आरंभनिस्सिया-आरम्भनिश्रिताः प्रातिपात वगेरे मारलमा मासत मेवा 'एगे एकेटमा ५३५ो 'सय-स्वयं' पाते 'पावं किच्चा-पापं कृत्वा' ५।५४रीने 'तिव्वंतीव्र' तीन खम्-दुःखम्' : 'नियच्छइ-नियच्छन्ति' प्राप्त ४२ छे ॥१०॥ For Private And Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ एकात्मवादिमनिरसनम् १४७ मन्दाः) जडा = जडमतयः (आरंभनिस्सिया-आरम्भनिश्रिताः आणातिपाताधारम्भासक्ताः (एगे-एके) केचन कृषीवलादयः (सयं-स्वयं) आत्मनैव (पावं किच्चा-पापं कृत्वा) पाप-प्राणातिपातादिकं कृत्वा ( तिव्वं-तोत्रम् ) अत्यन्तम् ( दुक्खं-दुःखम् ) नरकनिगोदादिजन्यवेदनां (नियच्छइ-नियच्छन्ति) नितरां प्राप्नुवन्ति । आत्मन एकत्वे स्वीकृते एकेनाप्यशुभे कर्मणि कृते सर्वेषां दुःखसंभवः, इति तु न दृश्यन्तेऽत एक एवात्मेति न युक्तिसंगतमिति ॥१॥ टीका-- 'एगे' एके केचनात्मा द्वैतवादिनः, 'त्ति' इति-अनेनोक्तप्रकारेण 'जंपंति' जल्पन्ति-असत्प्रलापं कुर्वन्ति किं भूतास्ते तत्राह-'मंदा' मन्दाः जड़ा मन्दमतयः, सम्यग्ज्ञानरहिताः, मन्दत्वं चैतेषाम् युक्तिरहितात्माद्वैतपक्षावलंब --अन्वयार्थ--- कोई कोई आत्मा द्वैतवादी पूर्वोक्त प्रकार का कथन करते हैं आर्थात् मिथ्या प्रलाप करते हैं वे अज्ञानी हैं, प्राणातिपात आदि आरंभो में आसक्त है। कोई कोई किसान आदि स्वयं प्रणातिपात आदि आरंभ करके तीव्र नरक निगोद आदि के दुःख को प्राप्त होते हैं । आत्मा को एक स्वीकार करने पर तो एक के अशुभ कर्म करने पर सभी को दुःख भोगना पडता, मगर ऐसा देखा नहीं जाता । अतएव एक ही आत्मा है, ऐसा कहना युक्तिसंगत नहीं है ।। १० ॥ --टीकार्थ-- ___ आत्माद्वैतवादी उक्त प्रकार से मिथ्या प्ररूपणा करते हैं । वे कैसे हैं ? जड हैं अर्थात् सम्यग्ज्ञान से रहित हैं । युक्तिहीन आत्माद्वैत पक्ष __मन्वयार्थઆત્મવાદી પૂર્વોક્ત જે કથન કરે છે જે માન્યતા ધરાવે છે તે મિથ્યા છે. તેઓ અજ્ઞાની છે, અને પ્રાણાતિપાત આદિ આરંભેમાં આસક્ત છે. કઈ કઈ ખેડુત આદિ લોકો સ્વયં પ્રાણાતિપાત આદિ આરંભ કરીને તીવ્ર નરક નિગદ આદિના દુઃખના ભક્તા બને છે. આત્મા એક જ હોવાની વાત સ્વીકારવામાં આવે, તે એકે કરેલા અશુભ કર્મનું ફળ સૌએ ભેગવવું પડત. “એક અશુભ કર્મ કરે. અને તેના ફળ રૂપે બીજા બધા લેકે योगवे", सेतो ही नेपामा मावतुं नथा. तेथी "मात्मा से छ,” | પ્રમાણે કહેવું તે યુક્તિ સંગત લાગતું નથી. તે ૧૦ છે ટીકાર્ય–આત્માદ્વૈતવાદી (આમા એકજ છે, એમ માનનારા) પૂર્વોક્ત પ્રકારની મિથ્યા પ્રરૂપણ કરે છે. તેઓ શા કારણે એવું કહે છે? તેઓ જડ છે એટલે કે સમ્યજ્ઞાનથી રહિત છે. યુક્તિહીન આત્માàતિવાદિયેની માન્યતાને આધાર લેવાને કારણે તેઓ જડ છે તથા For Private And Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४८ सूत्रकाङ्गसूत्रे नात, 'आरंभनिस्सिया' आरंभनिश्रिताः आरम्भे प्राणातिपातादौ आसक्ताः । 'एगे' एके केचन पुरुषाः आरंभसमारंभादिभिः कृत्वा उपादाय 'सर्य' स्वयमेव 'पावं' पापं-प्राणातिपातादिकं 'किच्चा' कृत्वा 'तिव्यं दुक्खं नियच्छइ' तीव्रमतिकठोरं दुःखमसातावेदनीयरूपं नियच्छन्ति प्राप्नुवन्ति । अयं भावःय एव अशुभं कर्म कुर्वन्ति त एव तस्य फलं दुःखमनुभवन्ति, नान्ये अनुभवन्तीति सर्वानुभवसिद्धम्, यदि एक एवात्मा भवेत् , तदा एकेन कृतस्य कर्मणोऽन्येषामपि तत्फलानुभवः प्रसज्येत, नत्वेवं भवति, उपपद्यते वा, तथाहि य एवं पापं कर्म करोति स एव तदनुभवरूपां वेदनां प्राप्नोति, एवमात्मनः सर्वव्यापकत्वे स्वीक्रियमाणे बन्धमोक्षव्यवस्थापि न स्यात् , तथा प्रतिपाद्यप्रतिपादकयोरभावात् , शास्त्रादिप्रणयनमपि एकात्मवादिनां निरर्थकमेव स्यादिति भावः । एवं यदि एक एवात्मा भवेत् तदा एकस्मिन् पुरुषे जायमाने सर्वे का अवलम्बन करने के कारण वे जड हैं तथा प्राणातिपात आदि आरम्भ आदि द्वारा स्वयं ही प्राणातिपात आदि पाप करके तीव्र दुःख को प्राप्त होते हैं। आशय यह है कि जो जीव अशुभ कर्म करते हैं वही उसका दःख रूप फल भोगते है, दूसरे नहीं। यह तथ्य सभी को अनुभवसिद्ध है। यदि एक ही आत्मा होता तो एक के द्वारा किये गये अशुभ कर्म का दसरों को भी फल भोगना पडता । किन्तु न ऐसा होता है और न यह संगत ही है। इस प्रकार आत्मा को एक स्वीकार करने पर बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था भी नहीं हो सकती। तथा प्रतिपाद्य ( शिष्य ) और प्रतिपादक (शिक्षक) का भेद न होने से उनका शास्त्र की रचना करना भी निरर्थक ही सिद्ध होता है। इसी प्रकार आत्मा यदि एक ही हो तो एक पुरुष का પ્રાણાતિપાત આદિ આરંભેમાં આસક્ત છે. કોઈ કઈ જીવ આરંભ સમારંભ આદિ દ્વારા સ્વયં પ્રાણાતિપાત આદિ પાપનું સેવન કરીને તીવ્ર દુ:ખની પ્રાપ્તિ કરે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે-જે જીવે અશુભ કર્મ કરે છે, તેઓ જ તેના ફળ સ્વરૂપે દુઃખ ભોગવે છે. અન્ય લેકે (અશુભ કર્મ નહીં કરનારા લેકે) તેના ફળસ્વરૂપે દુઃખ ભોગવતા નથી. જે આત્મા એકજ હત, તે એકના દ્વારા લેવાયેલા. અશુભ કર્મનું ફળ બીજા લેકેને પણ ભેગવવું પડત. પરન્તુ એવું બનતું નથી અને તે માન્યતા સંગત પણ લાગતી નથી. આ પ્રકારે આત્માને એક માનવામાં આવે, તે બન્યું અને મેક્ષની વ્યવસ્થા પણ સંભવી શકે નહીં. તથા પ્રતિપાઘ (શિષ્ય) અને પ્રતિપાદક (શિક્ષક) ને ભેદ ન હોવાથી તેમના દ્વારા શાસ્ત્રની રચના કરવાનું કાર્ય પણ નિરર્થક બની જાય છે. એ જ પ્રમાણે આત્મા જે એક હેત, તે For Private And Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir trafat tar प्र. श्रु. अ. १ एकात्मवादिमतनिरसनम् १४९ जीवा युगपदेव जायेरन् यथा एकस्मिन् म्रियमाणे सर्वेऽपि जीवाः म्रियेरन् तथा एकस्मिन् कुत्रचित् कार्ये प्रयतमाने सर्वे सर्वत्र प्रयतमाना भवेयुर्नत्वेवं भवति. आत्मबहुत्वे तु नैते दोषाः संभवन्ति तथा बन्धमोक्षव्यवस्थापि समाहिता भवतीत्यादि । " “नात्मैकवादे सुखदुःखमोक्षव्यवस्थया कोऽपि सुखादिमान् स्यात् । अतोपास्या पुरुषैः सदैव सता समाराधितसप्तभंगी ॥ १ ॥ दशमश्लोकस्य संक्षेपतोऽयमर्थः - सर्वेषामेकएवात्मेति पक्षो न सम्यक् यतो य एव पुरुषः पापकर्म करोति, स एव दुःखी भवति नान्ये दुःख भाजो भवन्ति । परन्तु यदि सर्वस्य एक एवात्मा, तदा यः पापी नास्ति, तस्यापि तादृशं दुःखं जन्म होने पर एक ही साथ सव का जन्म हो और एक के मरने पर सभी जीवों का मरण हो जाय, एक कहीं किसी कार्य में प्रवृत्त हो तो सभी उस कार्य में प्रवृत्त हो जाएँ । किन्तु ऐसा होता नहीं है । अनेक आत्माओं को स्वीकार करने पर ये दोष नहीं आते हैं और बन्ध मोक्ष की व्यवस्था का भी समाधान हो जाता है । "नात्मकवादे" इत्यादि । एकात्मवाद में सुख, दुःख, मोक्ष की व्यवस्था से कोई भी सुखादि बाला नहीं होगा । अतएव सत्पुरुष को किसी ऐसे पुरुष की उपासना करनी चाहिए जिसने सप्तभंगी की अराधना की हो ॥ १ ॥ दसवीं गाथा का संक्षिप्त अर्थ यह है - सब का आत्मा एक ही है, यह पक्ष समीचीन नहीं है, क्योंकि जो पुरुष पाप कर्म करता है, वही दुःखी होता है, दूसरे सब दुःखी नहीं होते । यदि सब का आत्मा एक ही होता એક જ માણસના જન્મ થાય ત્યારે એક સાથે જ સૌના જન્મ થતા હોત અને એકનુ મૃત્યુ થતાં જ સઘળા જીવાનુ` મૃત્યુ થતું હોત ! એક કોઇ કાર્યમાં પ્રવૃત્ત થાત ત્યારે સઘળા એજ કા માં પ્રવૃત્ત થઇ જાત! પરન્તુ એવુ કદી ખનતુ નથી. અનેક આત્માઓના સ્વીકાર કરવામાં આવે, તો આ દોષોની સંભાવના રહેતી નથી, અને અન્ય મેાક્ષની व्यवस्थानुं पशु सभाधान थनय छे. “नात्मैवादे" इत्याहि- એકાત્માવાદમાં સુખ, દુ:ખ, અને મેાક્ષની વ્યવસ્થા દ્વારા કોઇ પણ જીવ સુખાદિવાળે નહીં અને, તેથી સત્પુરુષે કોઇ એવા પુરુષની ઉપાસના કરવી જોઇએ કે જેણે સમભ’ગીની आराधना उरी होय, भेटने में छे स्याहू वाहनो ज्ञाता होय. ॥ १ ॥ દસમી ગાથાના સંક્ષિપ્ત ભાવાથ નીચે પ્રમાણે છે સૌને આત્મા એક જ છે, આ માન્યતા ઉચિત નથી, કારણ કે જે માણસ પાપકર્મ કરે છે, એજ દુ:ખી થાય છે. બીજા લોકો દુ:ખી થતાં નથી. જો સૌના આત્મા એક જ હોત, તો જે પાપી નથી તેને પણ પાપી જેવું જ દુ:ખ ભોગવવું પડત, કારણ કે સૌના આત્મા એક હોવાથી ભિન્નતાના અભાવ For Private And Personal Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५० सूत्रकृताङ्गसूत्रे स्यात्, सर्वेषामैक्येन पार्थक्याऽभावात् । तथा सर्वव्यापकत्वमप्यात्मनो न संभवति । शरीराकारपरिणतभूते-एवचेतनाया उपलब्धिदृश्यते, न च घटपटादिषु, अतो नात्मा सर्वव्यापकः । तथा देवदत्तज्ञानं यज्ञदत्तो नावगच्छति इत्यपि निर्विवादमेव । यदि सर्वेषामैकएवात्मा भवेत्तदा देवदत्तीयज्ञानं यज्ञदत्तोऽपि जानीयात् । नत्त्वेवं कुत्रचिदपि दृश्यते, अतो न सर्वेषामात्मा एक इति ॥१०॥ ____ आत्मैकत्ववादिमतं निराकृत्य, तज्जीवतच्छरीरवादिमतं दृषयितुं तस्य पूर्वपक्षमाह- 'पत्तेयं' इत्यादि । पत्तेयं कसिणे आया जे वाला जे य पंडिया । ९ २२ १० १२ १५ १३ १४ संति पिच्चा न ते संति नत्थि सत्तोववाइया ॥११॥ छाया प्रत्येकं कृत्स्ना आत्मानः, ये बाला ये च पण्डिताः। सन्ति प्रेत्य न ते सन्ति, न सन्ति सत्त्वा औपपातिकाः ॥११॥ तो जो पापी नहीं है उसको भी पापी जैसा ही दुःख भोगना पडता, क्यों कि सब एक होने से भिन्नता का अभाव है । तथा आत्मा सर्वव्यापक भी नही है। शरीर के आकार में परिणत भूत में ही चेतना की उपलब्धि होती है, घट पट आदि में नहीं है। तथा यह भी निर्विवाद है कि देवदत्त के ज्ञान को यज्ञदत्त नहीं जानता । यदि सब का आत्मा एक ही होता तो देवदत्त के ज्ञान को यज्ञदत्त भी जानता । मगर ऐसा कहीं भी नहीं देखा जाता । अतएव सब का आत्मा एक नहीं है ॥ १० ॥ ___ एकात्मवादी के मत का निराकरण करके "तज्जीव तच्छरीरवादी" के मत को दृषित करने के लिए उसका पूर्वपक्ष कहते हैं--"पत्तेयं" इत्यादि । છે. તથા આત્મા સર્વ વ્યાપક પણ નથી. શરીરના આકારે પરિણત ભૂતમાં જ ચેતનાની ઉપલબ્ધિ થાય છે, ઘટ, પટ આદિમાં થતી નથી. તે કારણે આત્માને સર્વવ્યાપક પણ માની શકાય નહીં. તથા એ વાત પણ નિર્વિવાદ છે કે દેવદત્તના જ્ઞાનને યજ્ઞદત્ત જાણ નથી. જે સૌને આત્મા એક જ હોત તે દેવદત્તના જ્ઞાનને યજ્ઞદત્ત જાણી શક્ત પણ એવું કદી બની શકતું નથી. તેથી એ વાત સિદ્ધ થાય છે કે સૌને આત્મા એક નથી. ગા.૧ળા मेडात्मवादी मोना मतनु न शने हुवे सूत्र१२ “तज्जीवतघ्छरीरवादी" ना મતનું (જીવની એક ભવમાંથી ગતિ નહીં માનનારના મતનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરે છે "पत्तेय" त्यादि For Private And Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समर्थ बोधिनी टीका प्र. थु. अ. १ तञ्जोबतच्छरीरवादीमत निरूपणम् अन्वयार्थः— ( कसिणे ) कृत्स्ना : = समस्ताः ( आया ) आत्मानः ( जे बाला) ये बाला:= अज्ञा:= शास्त्रपरिशीलनजन्यबुद्धिप्रकर्षरहिताः अविवेकिन इत्यर्थः । ( जे य पंडिया ) ये च पण्डिताः = शास्त्रपरिशीलनजन्यप्राप्तबुद्धिप्रकर्षाः विवेकिन इत्यर्थः, ते सर्वे ( पत्तेयं ) प्रत्येकम् = पृथक् पृथक् सन्ति । न त्वेक आत्मा किन्तु ( पेच्चा) प्रेत्य = परलोके ( ते न संति) ते आत्मानो न विद्यन्ते अतः ( सत्त ) सत्त्वाः = प्राणिनः = षड्जीवनिकायरूपाः ( ओववाइया नत्थि ) औपपातिका: = भवाद् भवान्तरगामिनः आत्मानो न सन्तीति ॥ ११ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Com शब्दार्थ - 'कसिणे कृत्स्नाः' समस्त 'आया - आत्मा' आत्माएँ 'जे बाला ये बालाः' जो अज्ञानी है 'जे य पंडिया ये च पण्डिताः' और जो पण्डित हैं 'पत्तेय - प्रत्येकम' प्रत्येक पृथक् पृथक् 'सति-सन्ति' है 'पिच्चा - प्रेत्य' मृत्यु के पश्चात् 'ते न संति-ते सन्ति' वे नहीं रहते हैं 'सत्ता-सत्वा' प्राणी उबवाइया - औपपातिकाः' परलोकमें जानेवाले 'नत्थि - न सन्ति नहीं है ॥ १२ ॥ अन्वयार्थ समस्त आत्माएं, जो अज्ञ अर्थात् शास्त्र के परिशीलन से उत्पन्न होने वाले बुद्धि के प्रकर्ष से रहित अविवेकी हैं, और जो विज्ञ अर्थात् शास्त्र परिशीलन से उत्पन्न होने वाले बुद्धि के प्रकर्ष वाले - विवेकी हैं, वे सब पृथक पृथक् हैं। एक ही आत्मा नहीं है, किन्तु वे पृथक पृथक् १५१ शब्दार्थ --- 'कसिणे - कृत्स्ना' समस्त 'आया - आत्मा' आत्माओ 'जे बाला-ये बालाः' भेमोमाज्ञानीयो छे 'जेथ पंडिया ये च पण्डिताः' भने भेमो पंडितो छे. 'पत्तेयं - प्रत्येकम्' अधा आत्मा भाग भाग 'संति - सन्ति' छे. 'पिच्चा - प्रेत्य' भर छ 'तेन संति-ते न सन्ति' तेयो रहेता नथी. 'सत्ता-सत्वाः' आशियो 'उववाइया - औपपातिकाः' परखोभां वा वाणा 'नस्थि-न सन्ति' होता नथी. या प्रभारी તજ્જીવ તઋરીરવાદિયાના મત છે.॥૧૧॥ અન્વયા --સમસ્ત આત્માએ અલગ અલગ છે. એટલે કે અજ્ઞ અને વિજ્ઞ આત્માએ मे नथी यागु पृथई पृथइ ( भिन्न भिन्न ) छे. For Private And Personal Use Only શાસ્ત્રના પરિશીલનથી ઉત્પન્ન થનારી ખૂબ જ બુદ્ધિ પ્રભાથી રહિત એવા જે આત્મા છે તેને અજ્ઞ ( અજ્ઞાન ) અથવા અવિવેકી કહે છે. જેમનામાં શાસ્ત્રના પરિશીલનથી ખૂબ જ બુદ્ધિ પ્રભા ઉત્પન્ન થયેલી છે એવાં આત્માઓને વિજ્ઞ અથવા વિવેકી કહે છે. આ પ્રકારના અજ્ઞ અને વિજ્ઞ આત્માએ પૃથક પૃથક છે. એક જ આત્મા નથી. પરન્તુ તે ભિન્ન Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूबे टीका'कसिणे' कृत्स्नाः समस्ताः 'आया' आत्मानः सन्ति ते के बहव आत्मानस्तत्राह-ये बालाः = शास्त्रपरिशीलनजन्यबुद्धिप्रकर्षरहिता अविवेकिन इत्यर्थः । 'जे य पंडिया' ये च पण्डिताः शास्त्रपरिशीलनजन्यप्राप्तबुद्धिप्रकर्षाः सदसद्विवे. किनः, तत्त्वज्ञानिन इत्यर्थः। ‘पत्तेयं' प्रत्येक-पृथक् पृथक् सन्ति किन्तु न एक एवात्मा सर्वव्यापित्वेन स्थितः । 'पेचा' प्रेत्य-परलोके ते आत्मानः न सन्ति न विद्यन्ते । 'सत्तोववाइया' सत्त्वाः प्राणिनः षड्विधजीवराशयः औपपातिका भवाद् भवान्तरगामिनः, आत्मानो न सन्तीति । स एव जीवस्तदेव शरीरमिति यो बोधयति, तं तज्जीवतच्छरीरवादिनमितिलोकः कथयति । यद्यपि भूतवादी आत्मा परलोक में नहीं रहते । अतएव प्राणी औपपातिक नहीं हैं अर्थात् एक भव से दूसरे भव में जाने वाले नहीं हैं ॥ ११ ॥ --टीकार्थ-- आत्मा अनेक हैं। जो आत्मा अज्ञ है अर्थात् शास्त्र के परिशीलन से जनित बुद्धि के प्रकर्ष से रहित या अविवेकी हैं और जो पण्डित अर्थात् बुद्धि प्रकर्ष से युक्त है, सत असत के विवेक से युक्त हैं तत्त्वज्ञानी हैं, वे सब अलग अलग हैं। एक ही आत्मा सब में नहीं है। किन्तु वे आत्मा परलोक में नहीं रहते । निकाय रूप प्राणी एक भव से दूसरे भव में जाते हों, ऐसा नहीं है। वही जीव है और वही शरीर है, ऐसी प्ररूपणा करने वाला "तज्जीव तच्छरीर वादी" कहलाता है यद्यपि भूतवादी ( चार्वाक ) शरीर को ही चेतन ભિન્ન આત્માઓ પરલકમાં રહેતા નથી. તેથી પ્રાણીઓ ઔપપાતિક નથી એટલે કે એક अपमाथी भी अवमा तेभनु गमन तु. नथी. ॥ ११ ॥ ટીકાર્થ– આત્મા અનેક છે. જે આત્મા અજ્ઞ છે એટલે કે શાસ્ત્રના પરિશીલનથી જનિત બુદ્ધિના પ્રકર્ષથી રહિત છે અથવા અવિવેકી છે, અને જે વિજ્ઞ (પંડિત) એટલે કે બુદ્ધિના પ્રકર્ષથી યુક્ત છે, સત્ અને વિવેકથી યુક્ત છે, તત્ત્વજ્ઞાની છે, તે સૌ અલગ અલગ જ છે. સૌમાં એક જ આત્મા હેત નથી. પરંતુ તે આત્માઓને પરલોકમાં સદ્ભાવ રહેતું નથી. છ નિકાય રૂચ જીવે એક ભવમાંથી બીજા ભવમાં જતાં હોય એવું બનતું નથી. र छ भने से शरीर , मेवी प्र३५९॥ ४२ ॥राने " तज्जीवतच्छरीरवादी." કહેવાય છે. કે ચાર્વાકના મતને માનનારા લોકો પણ શરીરને જ ચેતન કહે છે. અને For Private And Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ तजीवतच्छरीरवादीमतनिरूपणम् १५३ शरीरमेव चेतनं वक्ति, अयमपि तथैव, तथापि भूतचैतन्यवादिमते पंचमहाभूतान्येव शरीरतया परिणामं प्राप्य समस्तक्रियां कुर्वन्ति । तज्जीवतच्छरीरवादिमते तु शरीराकारपरिणतभूतेभ्यश्चैतन्यमुपजायते, अभिव्यज्यते वा । एतावानेवानयोर्भेदः । अयमाशयः--तज्जीवतच्छरीरवादिनाम्-शरीराकारतां गतेभ्यः पंचभ्यो महाभूतेभ्यश्चैतन्यमुत्पद्यते, यथा कम्बुग्रीवादि-स्वरूपतां प्राप्तायाः मृत्तिकायाः घट उत्पद्यते । अथवा शरीराकारतां गतेभ्यः पंचमहाभूतेभ्यः चैतन्यमभिव्यज्यते, यथा समुदितेभ्यस्तिलेभ्य स्तैलमभिव्यज्यते। यथा प्रथमतस्तिलेषु व्यवस्थितमेव तैलं, पीडनादि व्यापारेणाऽभिव्यक्तं भवति, नतु कहता है और यह भी ऐसा ही कहता है, फिर भी दोनों के मत में कुछ भिन्नता है। वह यह कि भूत चैतन्यवादी के मत में पांच महाभूत ही शरीर के रूप में परिणत होकर समस्तक्रियाएं करते हैं, किन्तु तज्जीवतच्छरीरवादी के मत के अनुसार शरीराकार में परिणत हुए भूतों से चैतन्य की उत्पत्ति होती है या अभिव्यक्ति होती है। इन दोनों में इतना ही अन्तर है। तात्पर्य यह है तज्जीवतच्छरीरवादियों के मत अनुसार शरीर के आकार को प्राप्त पांच महाभूतों से चैतन्य की उत्पत्ति होती है, जैसे कम्बुग्रीवता आदि रूप को प्राप्त मृत्तिका से घट की उत्पत्ति होती है, अथवा जैसे इकट्ठे हुए तिलों से तैल की अभिव्यक्ति होती है उसी प्रकार शरीराकारपरिणत पांच महाभूतों से चैतन्य की अभिव्यक्ति होती है। तिलों में तैल पहले से ही मौजूद रहता है, पेरने से वह प्रकट हो जाता है, नया આ લેકે પણ એવું જ કહે છે. છતાં પણ આ બન્નેના મતમાં થેડી ભિન્નતા રહેલી છે. ભૂતચૈતન્યવાદી (ચાર્વાક) ના મત પ્રમાણે તે પાંચ મહાભૂત જ શરીરના રૂપે પરિણત थ ने समस्त ठियाय ४३ 2. परन्तु “ तज्जीवतच्छरीरवादी" २॥ भतने भाननाराना મત પ્રમાણે શરીરાકારે પરિણત થયેલાં ભૂત દ્વારા જ ચૈતન્યની ઉત્પત્તિ થાય છે અથવા અભિવ્યક્તિ થાય છે, એવું માનવામાં આવે છે. આ બન્ને મતમાં આટલી જ ભિન્નતા છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે તજજીવ છશરીર વાદીઓના મત પ્રમાણે શરીરના આકારે પરિણમિત થયેલા પાંચ મહાભૂત વડે ચૈતન્યની ઉત્પત્તિ થાય છે, જેમ કનુગ્રીવતા આદિ રૂપે પરિણમિત માટીમાંથી ઘડાની ઉત્પત્તિ થાય છે, અથવા જેમ એકઠાં થયેલાં તલમાંથી તેલની અભિવ્યક્તિ થાય છે. એ જ પ્રમાણે શરીરાકારે પરિણત થયેલા પાંચ મહાભૂત વડે ચેતન્યની અભિવ્યક્તિ થાય છે. તલમાં પહેલેથી જ તેલ મેજૂદ હોય છે, તલને પીલવાથી તે પ્રકટ થઈ જાય છેનવું ઉત્પન્ન થતું નથી. જે નવું ઉત્પન્ન થતું હેત તે રેતીને પીલવાથી પણ તેલની सू. २० For Private And Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अपूर्वस्य तैलस्योत्पत्तिर्भवति । अन्यथा सिकतास्वपि तैलमुत्पद्येत । नत्वेवं भवति, अत आविर्भवति तिलेभ्यस्तैलम् । तथा प्रत्येकभूतेऽवस्थितमेव चैतन्य समुदितभूतेषु स्पष्टतयाऽऽविर्भवति, तेनैकैकं शरीरं प्रति प्रत्येकं, आत्मानः कृत्स्नाः सर्वेऽप्यात्मानो व्यवस्थिताः, यावन्ति शरीराणि तावन्त एवात्मानः, नतु अद्वैतात्मवादिवत् सर्वेषु शरीरेषु एक एवात्मा, येन बन्धमोक्षादि व्यवस्था न सिध्येत् । अपितु जीवनानात्वं शरीरभेदादभ्युपगतम् । अतः शरीरभेदादात्मबहुत्वं स्वीकृत्य मुखदुःखव्यवस्था समाधीयते । एतावता तज्जीवतच्छरीवादिमतेन अद्वैतात्मवादिमतस्य खण्डनं जातम् । आत्मबहुत्वमेव प्रकटयति सूत्रकारः 'जे वाला जे य पंडिया' इत्यादिना । ये वालाः अज्ञाः स्वाभाविकबोधउत्पन्न नहीं होता है। अगर नया उत्पन्न हो तो बालू को पेरने से भी तैल की उत्पत्ति होने लगे । किन्तु ऐसा होता नहीं है, अतएव तिलों से तेल प्रकट ही होता है इसी प्रकार प्रत्येक भूत में पहले से रहा हुआ चैतन्य इकठे हुए भूतों में स्पष्ट रूप से प्रकट हो उठता है। इस कारण प्रत्येक शरीर में अलग अलग आत्मा हैं। जितने शरीर हैं उतने ही आत्माएँ हैं। अद्वैतवादी के मत के समान सब शरीरों में एक ही आत्मा हो, ऐसा नहीं है, जिससे वन्धमोक्ष आदि की व्यवस्था सिद्ध न हो सके। हमने शरीरों के भेद से जीवों में भी भिन्नता स्वीकार की है। अतः शरीरभेद से आत्माओं की अनेकता स्वीकार करके सुख दुःख की व्यवस्था की संगति विठलाई जाती है । इसी तज्जीवतच्छरीरवादी के मत से अद्वैतवादी के मत का खण्डन हो गया, आत्माओं के बहुत्व को ही सूत्रकार प्रकट करते हैं जो जीव वाल अर्थात् स्वाभाविक बोध से रहित हैं और जो सत् के विवेक ઉત્પત્તિ થાત. પરન્તુ એવું બનતું નથી. તલમાં જે તેલ પહેલેથી જ મેજદ હતું, એજ તેલ તલના સમૂહને પીવાથી પ્રકટ થઈ ગયું. એજ પ્રમાણે પ્રત્યેક ભૂતમાં પહેલેથી જ જે ચિતન્ય મજૂદ હતું, એજ ચિતન્ય એકત્રિત થયેલા પાંચ ભૂતામાંથી સ્પષ્ટ રૂપે પ્રકટ થાય છે. આ કારણે પ્રત્યેક શરીરમાં અલગ અલગ આત્મા છે જેટલાં શરીર છે, એટલા જ આત્માએ છે. અદ્વૈતવાદિઓના મત પ્રમાણે બધાં શરીરેમાં એક જ આત્મા હોવાની વાત આ મતવાળા સ્વીકારતા નથી. બધાં શરીરમાં એક જ આત્મા હોય તે બન્ધ, મેક્ષ આદિની વ્યવસ્થા સિદ્ધ થઈ શકે નહી. અમે શરીરના ભેદની અપેક્ષાઓ માં પણ ભિન્નતા સ્વીકારી છે. તેથી શરીરના ભેદ દ્વારા આત્માઓની અનેક્તાને સ્વીકાર કરીને સુખ દુઃખની વ્યવસ્થાને પણ સંગત સિદ્ધ કરી શકાય છે.” તજજીવતછરીરવાદિઓના આ મત દ્વારા અગ્રતવાદિઓના મતનું ખંડન થઈ જાય છે. હવે સૂત્રકાર આત્માઓના બહત્વનું જ પ્રતિપાદન કરે છે-જે જે બાલ છે એટલે કે સ્વાભાવિક બોધથી રહિત છે. અને For Private And Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ तज्जीवतच्छरोरवादीमतनिरूपणम् १५५ रहिता इत्यर्थः तथा ये पण्डिताः सदसद्विवेकवन्तः ते सर्वेऽपि पृथक्पृथग्रूपेण व्यवस्थिताः, न तु एक एवात्मा सर्वव्यापित्वेन सर्वशरीरसंबन्धी, येन बालपाण्डित्यविभागो न भवेत् । अपितु पृथक्पृथगात्मानः, अतो भवति बालपाण्डित्यभेदो बन्धमोक्षादीनां प्रतिनियतव्यवस्थापि । तथा च भवद भिमताश्रुतिरप्यनेकात्मप्रतिपादिकाऽस्ति ।। "सर्वे आत्मानः समर्पिताः यथाऽग्नेः क्षुद्रा विस्फुलिंगा व्युच्चरन्ति, एवमेव सर्वे जीवा व्युच्चरन्ति । "द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥१॥” इति गीता । से युक्त हैं, वे सब अलग अलग हैं, सर्वव्यापी होने से समस्त शरीरों में एक ही आत्मा नहीं है। एक ही आत्मा होता तो अज्ञ ( मूर्ख ) और विज्ञ (पण्डित ) का भेद न होता । किन्तु अलग अलग आत्मा हैं, इस कारण बाल पण्डित आदि का भेद होता है और बन्ध मोक्ष आदि की भी प्रति नियत व्यवस्था होती है। आप के मत में अति भी अनेक आत्माओं का प्रतिपादन करने वाली हैसभी आत्मा समर्पित हैं । जैसे अग्नि की छोटी छोटी चिनगारिया इधर उधर उडती फिरती है, उसी प्रकार सभी जीव इधर उधर विचरते हैं। गीता में भी कहा है--"द्वाविमौ पुरुषौ लोके" इत्यादि । लोक में दो पुरुष हैं । क्षर और अक्षर भर अर्थात् नाशशील सब भूत हैं और जो कूटस्थ नित्य है वह अक्षर है। જેઓ પંડિત છે (સત્ સત્ ના વિવેકથી યુક્ત છે) તેઓમાં એક જ આમાને સભાવ નથી પણ જુદા જુદા આત્માનો સદુભાવે છે. જે તે સૌમાં એક જ આત્માને સદ્દભાવ હત, તે અજ્ઞ (મૂM) અને વિર (પંડિત) ના ભેદો સંભવી શત નહીં. પરંતુ અલગ અલગ આત્માઓને ભાવ હોવાથી બાલ (અજ્ઞાની) અને પંડિત રૂપ ભેદો સંભવે છે, અને અન્ય મેક્ષ આદિની પ્રતિનિયત વ્યવસ્થા પણ સંભવે છે. આપના મત અનુસાર શ્રુતિ પણ અનેક આત્માઓનું પ્રતિપાદન કરે છે– સઘળા આત્મા સમર્પિત છે. જેમ અશ્ચિના નાના મેટા તણખા આમ તેમ ઉડતા રહે છે, એજ પ્રમાણે સઘળા છે આમ તેમ વિચરે છે.” ગીતામાં પણ એવું કહ્યું છે કે - "हाविमौ पुरुषौ लोके" त्यादि-"म मे आना पुरुषा -(१) २२ अने (२) અક્ષર, ફેર એટલે નાશવંત અને અક્ષર એટલે નિત્ય. ક્ષર અથવા નાશશીલ સઘળા ભૂત છે. અને જે કૂટસ્થ છે, તે નિત્ય છે એક જ રૂપમાં રહેવું તે અક્ષર છે” For Private And Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे ... "बहवः पुरुषा राजन्" इति महाभारतेऽपि । एभिः श्रुतिस्मृत्यादिप्रमाणैः जीवबहुत्वमेव सिद्धयति । जीववहुत्वं सांख्यकारैरपि दर्शितम् "जनन-मरण-करणानां प्रतिनियमात् अयुगपत्प्रवृत्तेश्च पुरुषबहुत्वं सिद्ध त्रैगुण्यविपर्ययाञ्चैव" । ननु शरीरभेदेनाऽत्मबहुत्वं जैनानामपीष्टमेव, तत्कथं त जीवतच्छरीरवादिनामिदं मतमिति कथ्यते, जैनैरपि तथैव स्वीकृतत्वात् इत्याशंक्याहसन्ति इति विद्यन्त इत्यर्थः । यावत् शरीरं विद्यते तावत पर्यन्तमेवात्मा विद्यते, न तु-शरीरनाशानन्तरमुपलभ्यते-आत्मा । अयमाशय:-शरीराकारपरिणत पंचमहाभूतसमुदाये चैतन्यस्याविर्भावो भवति, भूतसमुदायस्य विलक्षणस्य महाभारत मे भी कहा है--राजन् बहुत आत्मा हैं । इन श्रुति और स्मृत्यादि के प्रमाणों से जीवों का बहुत्व की ही सिद्धि होता है। सांख्यमत में भी जीवों की अनेकता दिखलाई गई है ___ जन्म, मरण और कारण की विभिन्नता से तथा सब की एक साथ प्रवृत्ति न होने से आत्माओं का बहत्व सिद्ध होता है । त्रैगुण्य की विपरीतता से भी बहुत्व की सिद्धि होती है। शरीरों की भिन्नता से आत्माओं की भिन्नता तो जैनों को भी इष्ट है, फिर इस मत को तज्जीवतच्छरीरवादियों का मत क्यों कहा है ? इस शंका का समाधान करने के लिए "संति,, इत्यादि कहा है । तज्जीवतच्छरीरवादी कहते हैं-जब तक शरीर है तभी तक अत्मा है, शरीर का नाश होने के अनन्तर आत्मा उपलब्ध नहीं होता, तात्पर्य यह है कि शरीर के आकार में परिणत पाच महाभूतों के समुदाय में चैतन्य का आविभाव होता है । किन्तु મહાભારતમાં પણ એવું કહ્યું છે કે” રાજ! આત્માએ ઘણાજ છે.” આ અતિ અને સ્મૃતિ આદિન પ્રમાણેથી જેની બહુતાનું જ પ્રતિપાદન થાય છે. સૌખ્યમતમાં પણ જેની અનેક્તા જ બતાવવામાં આવી છે ” જન્મ મરણ અને કરણની વિભિન્નતા દ્વારા તથા સોની એક સાથે પ્રવૃત્તિ ન હોવાથી આત્માઓની અનેકતા સિદ્ધ થાય છે.” મૈગુણ્યની વિપરીતતા દ્વારા પણ બહત્વની જ સિદ્ધિ થાય છે, - શરીરની ભિન્નતાને કારણે આત્માઓની ભિન્નતાને જેને પણ સ્વીકાર કરે છે. છતાં પણ અહીં આ મતને તજીવતરછરીરવાદિઓના મત રૂપે શા માટે ઓળખાવવામાં આવ્યું छ? म नुनिया ४२वा भाटे "संति" त्या सूत्रा6 आवामा माया छे-- તજજીવતછરીરવાદિઓની માન્યતા આ પ્રકારની છે ” જ્યાં સુધી શરીરનું અસ્તિત્વ રહે છે, ત્યાં સુધી જ આત્મા રહે છે. શરીરને નાશ થયા બાદ આત્મા ઉપલબ્ધ થતું નથી, ” આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે શરીર રૂપે પરિણત થયેલ પાંચ મહાભૂતને For Private And Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ तज्जीवतच्छरीरवादीमतनिरूपणम् १५७ विघटने सति, अर्थात् शरीरादेकस्य तत्त्वस्य द्वयोर्वा विघटने सति,तत्र चैतन्य नोपलभ्यते । न वा-पुनः शरीराद्विनिर्गत्त्य कुत्रचिद्गमनमात्मनः केनापि दृष्टम् बिलाद्विनिर्गतस्य सर्पस्याऽन्यत्र गमनमिव यदि शरीरातिरिक्तः स्वतन्त्रः कोऽपि, आत्मा भवेत्-तदा-मरणसमये पार्श्वस्थ-पुरुषैरुपलभ्यते तादृशो विलक्षण आत्मा । यथा-बिलाद्विनिर्गतस्य सर्पस्य प्रत्यक्षं जायते बिलपरिसरे वसताम् । नत्वेव मुपलभ्यते तस्मात-न शरीरविगमानन्तरमप्यात्मसत्तेति । एतदेव दर्शयति सूत्रकारः-'पिच्चा न ते संति, इति । प्रत्येति मृत्वा समुपात्त-शरीरं परित्यज्य परलोकगामिनः शरीरेन्द्रियादिभ्यो भिन्नाः आत्मानो न सन्ति । स्वकृत-कर्मा शुभाशुभानां भोक्तार आत्मनामकाः पदर्था; शरीरादिभ्यो व्यतिरिक्ता न विद्यन्ते, जब भूत समुदाय का विघटन होता है अर्थात् शरीर में से एक या दो भूत निकलकर अलग हो जाते हैं, तब चैतन्य उपलब्ध नहीं होता। न शरीर से निकलकर आत्मा का कहीं अन्यत्र जाना ही देखा जाता है जैसे बिल के बाहर निकले सर्प का अन्यत्र जाना देखा जाता है । अगर शरीर से भिन्न कोई आत्मा होता तो मरण के समय बगल में बैठे हुए पुरुषों को उसका पता चलता कि यह आत्मा है, जैसे कि बिल के आसपास में स्थित मनुष्यों को बिल से बाहर निकले हुए सर्प का प्रत्यक्ष होता है। किन्तु आत्मा की इस प्रकार उपलब्धि नहीं होती, अतएव शरीर का नाश होने के बाद आत्मा की सत्ता नहीं रहती । यही बात सूत्रकार दिखलाते हैं-प्राप्त शरीर को त्याग कर परलोक में जाने वाले तथा शरीर इन्द्रिय आदि से भिन्न आत्मा नहीं हैं । अर्थात् अपने किये शुभ या अशुभ कर्मों को भोगने वाले आत्मा સમુદાયમાં ચૈતન્યને આવિર્ભાવ થાય છે. પરંતુ જ્યારે ભૂતાના સમુદાયનું વિઘટન થાય છે–એટલે કે શરીરમાંથી એક અથવા બે ભૂત નીકળી જઈને જ્યારે અલગ પડી જાય છે. ત્યારે ચૈતન્ય ઉપલબ્ધ થતું નથી જેવી રીતે દરમાંથી નીકળીને બીજે કઈ પણ સ્થળે જતા સપને જોઈ શકાય છે. એવી રીતે શરીરમાંથી નીકળીને આત્માને બીજે જતે દેખી શકાતું નથી જે શરીરથી ભિન્ન એવા કેઈ આત્માને સદ્ભાવ હોય, તે મરણપથારીએ પડેલા માણસની સમીપમાં બેઠેલી વ્યક્તિ, મૃત શરીરમાંથી બહાર નીકળતા આત્માને દેખી શકતી હેત. દરમાંથી નીકળતે સર્ષ જેમ માણસને દેખાય છે તેમ મૃત્યકાળે શરીરમાંથી નીકળતે આત્મા શા માટે દષ્ટિગોચર થાય? તેથી શરીરને નાશ થતાંની સાથે સાથે જ આત્માને પણ નાશ થઈ જાય છે. એજ વાત સૂત્રકારે આ પ્રકારે પ્રકટ કરી છે પ્રાપ્ત શરીરને ત્યાગ કરીને પરલોકમાં જનાર તથા શરીર, ઇન્દ્રિયે આદિથી ભિન્ન એ આત્મા છે જે નહીં. એટલે કે પોતે કરેલાં શુભ અથવા અશુભ કર્મોને ભક્તા આત્મા નામને પદાર્થ શરીર આદિથી For Private And Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे शरीरं यावद्-विद्यते तावदेवात्मा भवति शरीरे विद्यमाने विद्यते शरीरनाशेऽपगच्छति-आत्मापि" इति तज्जीवतच्छीरवादिमतम् । आत्म-बहुत्वांशस्य तुल्यत्वेऽपि स शरीरोत्पादे उत्पत्ति मिच्छति, शरीरनाशे नाशमिच्छति, नतु-जैनीयं मतं तथा । जैनास्तु-जीवबहुत्वमभिगम्याऽपि शरीराद्-भिन्नं परलोकगामिनं शरीरादि भिन्न मभ्युपगच्छन्तीति मानेवानयो भेदः । नहि यत्किंचित् साम्यासमत्वाऽपादानं युक्तम्,अति-प्रसंगात् । कथमेवं ते स्वीकुर्वन्ति-इत्यतआह 'नत्थिसत्तोववाइया,इति । न सन्ति =नविद्यन्ते । के न विद्यन्ते ? तबाह-सत्त्वाइति । =सत्वाः प्राणिनां जीवाः । कथंभूताः ? तबाह -'ओवधाइया, औपपातिका नामक पदार्थ शरीर आदि से भिन्न नहीं हैं । । जब तक शरीर है तभी तक आत्मा है। शरीर की विद्यमानता में आत्मा विद्यमान रहता है और शरीर का नाश होने पर आत्मा भी नष्ट हो जाता है। यह तज्जीव तच्छरीरवादी का मत है । यहाँ आत्माएँ अनेक हैं, इतना अंश तो जैनों को भी इष्ट है मगर शरीर की उत्पत्ति के साथ आत्मा की उत्पत्ति होना और शरीर का नाश होने पर आत्मा का भी नाश हो जाना जैनों को अभीष्ट नहीं है जैन जीवों के बहुत्व को स्वीकार करते हुए भी आत्मा को शरीर से भिन्न और परलोकनामी मानते हैं । इस प्रकार इन दोनों मतों में बहुत अन्तर हैं । थोडी सी समानता होने से ही दोनों पूरी तरह समान कह देने से अतिप्रसंग होता है। तज्जीवतच्छरीरवादी ऐसा क्यों स्वीकार करते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं—प्राणी औपपातिक नहीं हैं अर्थात् एक भव को ભિન્ન નથી. જ્યાં સુધી શરીર રહે છે, ત્યાં સુધી જ આત્મા રહે છે. શરીર વિદ્યમાન રહે ત્યાં સુધી આત્મા પણ વિદ્યમાન રહે છે અને શરીરને નાશ થાય ત્યારે આત્માનો પણ નાશ थाय छे. - તજજીવ તરછરીરવાદિએની ઉપર કહ્યા પ્રમાણેની માન્યતા છે. જેનેની જેમ તેઓ પણ એમ માને છે કે આત્મા અનેક છે– આટલી વાત તે જેને પણ ઈટ ગણે છે. પનુ શરીરના નાશની સાથે આત્માને નાશ થવાની માન્યતાને જેને સ્વીકાર કરતા નથી. જેને આત્માના બહત્વને સ્વીકાર કરે છે અને આત્માને શરીરથી ભિન્ન અને પરલેકગામી માને છે. આ પ્રકારે જૈન મત અને તેમના મત વચ્ચે ઘણે જ તફાવત છે. ડી સમાનતા હોવાને કારણે બન્નેમાં પૂરે પૂરી સમાનતા માનવાથી અતિપ્રસંગ દોષને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થાય છે. - તજજીવ તથ્વીરવાદી પૂર્વોક્ત માન્યતા શા કારણે ધરાવે છે? આ પ્રશ્નનો ઉત્તર આપતાં સૂત્રકાર કહે છે કે–પ્રાણી (જીવ) પપાતિક નથી એટલે કે એક ભવને ત્યાગ For Private And Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनो टीका प्र. श्रु. अ. १ तज्जीवतच्छरोरवादीमतनिरूपणम् १५९ इति । एकस्माद्- मवाद् भवान्तरगमनमुपपातः । तद्वन्त:- उपपातवन्तः औपपातिकाः एकस्माद् भवाद् भवान्तरगामिनो जीवा न भवन्तीत्यर्थः । एतन्मते शरीरसमुत्यत्तावेव जीवः समुत्पद्यते । शरीरविनाशेच तदनु विनश्यति जीव इति । क एकभवं परित्यज्य भवान्तरं गच्छेत्, नहि-विनष्टस्य वस्तुनो गमनाऽऽगमनं सम्भवति, गमनागमनयोः स्थितिविशष्टभावधर्मत्वस्य स्वीकारात् ॥११॥ ___आत्मस्वरूपधर्मिणोऽभावात्तद्धर्म भूतो धर्माऽधर्मावपि नस्तः, कारणाभावे कारणाश्रितकार्यस्याप्यभावात्, नहि-कपालाभावे कथमपि घटोऽवस्थितिं लभते, तथात्मरूप-कारणस्यैव यदा न सत्त्वं, तदा का कथा धर्माधर्मयोरिति, धर्माधर्मयो त्याग कर दूसरे भव में गमन करने वाले नहीं हैं । भवान्तर में गमन करना उपपात कहलाता है और गमन करने वाला औपपातिक कहा जाता है। इस मत के अनुसार शरीर की उत्पत्ति होने पर ही जीव की उत्पत्ति होती है और शरीर का विनाश होने पर जीव का भी विनाश हो जाता है । तो फिर कौन एक भव को त्याग कर दूसरे भव में जाएगा । जो वस्तु विनष्ट हो चुकी, उसका जाना आना संभव नहीं है। जाना आना तो उसी में पाया जा सकता है जो स्थितिशील हो ॥११॥ ... जब गुणी आत्मा का ही अभाव है तो उसके गुणधर्म और अधर्म का भी अभाव है क्योंकि कारण के अभाव में कारणों पर आश्रित कार्य का भी अभाव होता है । कपालों (ठीकरों) के अभाव में घट भी किसी प्रकार उहर नहीं सकता । इसी प्रकार जब आत्मा रूप कारण की ही કરીને બીજા ભવમાં ગમન કરનાર નથી. ભવાન્તરમાં ગમન કરવું તેનું નામ જ “ઉપધાત” છે. અને બીજા ભવમાં ગમન કરનારને પપાતિક કહે છે. આ મતની માન્યતા અનુસાર ત્યારે શરીરની ઉત્પત્તિ થાય છે, ત્યારે જ જીવની (આત્માની ઉત્પત્તિ થાય છે, અને શરીરને વિનાશ થાય ત્યારે આત્માને પણ વિનાશ થઈ જાય છે. આ માન્યતાને કારણે એક ભવનો ત્યાગ કરીને બીજા ભવમાં જીવના ગમનને પ્રશ્ન જ રહેતું નથી. જે વરતને વિનાશ થઈ ચુક્યું હોય તે વસ્તુના આવાગમનની વાત જ સંભવી શકતી નથી. આવાગમન તે એ વસ્તુ જ કરી શકે છે, કે જે સ્થિતિશીલ હેય. છે ગાથા ૧૧ જે ગુણી આત્માને જ અભાવ હોય, તે તેના ગુણ રૂપ ધર્મ અને અધર્મને પણ અભાવ જ હોય, કારણ કે જ્યાં કારણનો જ અભાવ હોય, ત્યાં કારણ પર આધાર રાખનાર કાર્યને પણ અભાવ જ રહે છે. જે ઘડાને જ અભાવ હોય, તે ઠીકરાંને સદભાવ કેવી રીતે હોઈ શકે ? એ જ પ્રમાણે જો આત્મારૂપ કારણની જ સત્તા ( વિદ્યમાનતા) ન For Private And Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासूचे रभावं दर्शयितुं द्वादशगाथामाह-"नस्थि" इत्यादि । मूलम- नत्थि पुण्णेव पावे वा नत्थि लोए इओवरे सरीरस्स विणासेणं विणासो होइ देहिणो ॥१२॥ छाया नास्ति पुण्यंवा पापं वा नास्तिलोक इतःपरः । शरीरस्य विनाशेन विनाशो भवति देहिनः ॥१२॥ अन्वयार्थः(पुण्णेव नत्थि) पुण्यं वा नास्ति= शास्त्रोक्तानुष्ठानजनितसुखादि-फलरूपं पुण्यं न विद्यते । तथा-(पावे वा)अथवा-पापम्= निषिद्धकर्मानुष्ठानजनितं नारकादि फलजनकं प्रत्यवायस्वरूपं नास्ति तथा (इओवरे)इतः अस्माल्लोकात् पर:= सत्ता नहीं है तो धर्म और अधर्म की तो बात ही क्या है । अतएव धर्म और अधर्म का अभाव दिखलाने के लिए बारहवीं गाथा कहते हैं-- "नत्थि" इत्यादि ॥ - शब्दार्थ-'पुण्णेव नत्थि-पुण्यं नास्ति' सुखादि फलरूप पुण्य नहीं है तथा 'पावे वा-पापं वा' अथवा नारकादि फलरूप पाप नत्थि-नास्ति' नहीं है 'इओवरे -इतः अपरः' इस लोकसे दूसरा 'लोए-लोक' लोक 'नथि-नास्ति' नहीं है 'सरीरस्स -शरीरस्य' शरीरके विणासेण-विनाशेन' नाशसे 'देहिणो-देहिनः आत्मनोऽपि आत्माकाभी 'विणासो-विनाशः' विनाश होई-भवति' होता है ॥१२॥ अन्वयार्थ-शास्त्रोक्त अनुष्ठान से उत्पन्न सुखादि फलरूप पुण्य नहीं है। तथा निषिद्ध कार्यों से उत्पन्न होने वाला एवं नरक आदि फलरूप पाप હૈય, તે તેના ગુણરૂપ ધર્મ અને અધર્મની તે સત્તા કેવી રીતે સંભવી શકે? તેથી ધર્મ અને અધર્મને અભાવ બતાવવા નિમિત્ત બારમી ગાથા કહેવામાં આવી છે— “नथि" त्याह शहाथ-'पुण्णेव नत्थि-पुण्यं नास्ति' सुभविगेरेना इस स्व३५ पश्य नथी. तथा 'पावे वा-पापंवा' अथवा न२४ विगैरे ३४ ३५ ५५ ५ 'नत्यि-नास्ति' नथी. 'इओवरे -इतः परः' मा सो शिवायनो मीन 'लोए-लोक' सो 'नथि-नास्ति' नथी. 'सरीरस्स-शरीरस्य' शरीना 'विणासेण-विनाशेन' नाश थवाथी 'देहिणो-देहिनः' मात्मानो 'विणासो-विनाश' विनाश होई-भवति' थाय छे. ॥१२॥ अन्वयार्थ શાસ્ત્રોક્ત અનુષ્ઠાનેથી ઉત્પન્ન થનારાં સુખાદિ ફલરૂપ પુણ્ય પણ નથી, તથા નિષિદ્ધ કાર્યોના સેવનથી ઉત્પન્ન થનાર અને નરકાદિ ફલરૂપ પાપ પણ નથી. આ લેક સિવાયના For Private And Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. शु. अ.१ पुण्यपापाभावनिरूपणम् १६॥ अन्यः कोऽपि (लोए)लोकः (नत्थि)नास्ति यतः (सरीरस्स) शरीरस्य= वर्तमानदेहस्य(विणासेणं)विनाशेन (देहिणो-देहिनः आत्मनोऽपि (विणासो होइ)विनाशी भवति, अतः कथं पुण्यपापादीनां संभव इति भावः ॥१२॥ . टीका (पुण्णे व नत्थि)पुण्यं नास्ति 'शाखविहितकर्मानुष्टानजनितं, कालान्तरभावि सुखादि फलजनकं पुण्यं, दानादि क्रिया संप्रति अनुष्ठीयते फलंच स्वर्गादिकं कालान्तरे जायते, तादृशफलाव्यवहितपूर्वक्षणवृत्तित्वं दानादिक्रियाणां न संभवति, तादृशकर्मणां क्षणध्वंसित्वात् । अतो दानादिकर्मणः फलभूतस्वर्गस्य च मध्येऽस्ति कश्चित् पदार्थः, यः स्वर्गाव्यवहितपूर्वक्षणे विद्यमानो भी नहीं है । इसलोक के सिवाय कोई परलोक भी नहीं है। जो इस शरीर का विनाश होने पर आत्मा का भी विनाश हो जाता है। अतः पुण्य पाप आदिका संभव ही कैसे हैं ॥१२॥ ___टीकार्थ-शास्त्रोक्त कार्य करने से उत्पन्न होने वाला और कालान्तर में होने वाले मुख रूप फल को उत्पन्न करने वाला पुण्य नहीं है । दान आदि कार्य इस समय किये जाते हैं और उनका फल स्वर्ग आदि कालान्तर में होता है । मगर दानादि क्रियाएँ क्षण भर में ही नष्ट हो जाती हैं, वे स्वर्ग आदि फल के अव्यवहित पूर्वक्षण वर्ती नहीं हो सकतीं । अतएव दानादिक क्रिया और स्वर्गादिक फल के बीच में कोई पदार्थ है, जो स्वर्ग आदि के अव्यवहित पूर्णक्षण में व्यापार करता हुआ विद्यमान रहता है और दानादिक को स्वर्ग का कारण बनाता है । वह अभ्युदय रूप फल वाला કઈ પલેકનું પણ અસ્તિત્વ નથી. આ શરીરને નાશ થતાં જ આત્માને પણ નાશ થઈ જાય છે. તેથી પુણ્યપા૫ આદિને સંભવ જ કેવી રીતે હોઈ શકે ? ટીકાથ–શાસ્ત્રોકત અનુષ્ઠાનેનું આચરણ કરવાથી ઉત્પન્ન થનારા અને કાળાન્તરમાં પ્રાપ્ત થનારા સુખરૂપ ફળને ઉત્પન્ન કરનારું “પુણ્ય” એ નામનું કંઈ પણ છે જ નહીં. દાન આદિ કાર્ય આ સમયે (આ ભવમાં) કરવામાં આવે છે, અને તેનું ફળ કાળાન્તરે સ્વર્ગ આદિમાં મળે છે, એવી કઈ વાત જ સંભવી શકતી નથી. દાનાદિ ક્રિયાઓ ક્ષણ માત્રમાં જ નષ્ટ થઈ જાય છે, તેમાં સ્વર્ગ આદિ ફળની અવ્યવહિત પૂર્વ ક્ષણવતી હે शती नथी. તેથી દાનાદિક ક્રિયાઓ અને સ્વર્ગાદિક ફળની વચ્ચે કેઈએ પદાર્થ છે કે જે સ્વર્ગાદિને અવ્યવહિત પૂર્વેક્ષણમા વ્યાપાર કરતા વિદ્યમાન હોય અને દાનાદિકને સ્વર્ગના કારણભૂત બનાવતે હેય. તે પદાર્થ બીજે ફેઈ નથી, પણ અભ્યદય રૂ૫ ફળવાળું પુણ્ય सू. २१ For Private And Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे ब्यापारतया, दानादिकमपि स्वर्गकारणमिति व्यवस्थापयति । तथा च अभ्युदयफलकं पुण्यम् । एतद् विपरीतं निषिद्धकर्मानुष्ठानजनितं नारकादिफलप्रापकं पापम् एतदुभयमपि न विद्यते। कुतः आत्मनो धर्मिणोऽभावात् । आश्रयाऽभावे आधेयस्य व्यवस्थानाऽसंभवात् , नहि जन्य वस्तु स्वाश्रयमन्तरेण स्थातुमर्हति यथा घटादिकम् । यदा पुण्यपापे नस्तः तदा तदधीनस्य परलोकस्यापि सत्त्वं न संभवतीतिदर्शयति-(नत्थि लोए इओ बरे) इति, इतः अतः अस्मात् परिदृश्यमानलोकात् संसारात् यावत् । पर्यन्तं चक्षुरादीन्द्रियविपयो भवति तावानेव लोकः मुखदुःखाद्युपभोगाधिकरणं लोकः प्रामाणिकः । ततः (वरे) परः अतिरिक्तः इन्द्रियाग्राह्य परलोको (नत्थि) नास्ति यत्र गत्वा जीवः पुण्यपापयोः सुखदुःखात्मकं पुण्य ही है । पाप इससे उल्टा है, वह निषिद्ध कार्य के करने से उत्पन्न होता है और नरकगति आदि अनिष्ट फल को उत्पन्न करता है । इन दोनों की ही सत्ता नहीं है, क्योंकि आत्मा रूप धर्मी का अभाव है । आधार के अभाव में आधेय ठहर नहीं सकता । कोई भी जन्य वस्तु अपने आश्रय के विना नहीं रहती, जैसे घटादि । इस प्रकार जब पुण्य पाप ही नहीं हैं तो उसके कारण होने वाला परलोक भी नहीं है । यही वात दिखलाते हैं-इस दिखाई देने वाले लोक से भिन्न कोई परलोक नहीं है । जहां तक चक्षु आदि इन्द्रियों का व्यापार होता है, उतना ही लोक है । सुख दुख आदि के उपभोग का आधार लोक ही प्रामाणिक है। इसके सिवाय जो इन्द्रियो द्वारा ग्राह्य लोक नहीं है, ऐसा कोई परलोक नहीं है, जहां जाकर जीव पुण्य और पाप का सुखरूप या दुःखरूप फल જ છે. પાપ તેના કરતાં ઊલટું છે. નિષિદ્ધ કાર્ય કરવાથી તેથી ઉત્પત્તિ થાય છે, અને નરકગતિ આદિ અનિષ્ટ ફળને તે ઉત્પન્ન કરે છે. આ બન્નેનું અસ્તિત્વ જ નથી, કારણ કે આત્મા રૂપ ધમને અભાવ છે. આધારે જ જે અભાવ હોય, તે આધેય પણ રહી શકતું નથી. કોઈ પણ જન્ય વસ્તુ પિતાના આશ્રય વિના રહી શકતી નથી, જેમ કે ઘડે આ પ્રકારે જે પુણ્ય અને પાપને જ ભાવ ન હોય, તે તેમને કારણે ઉદ્દભવનાર પલેકને પણ સદ્દભાવ હોઈ શકે નહીં. એ જ વાત અહીં પ્રકટ કરવામાં આવી છે-આ જે લેક દેખાય છે, તે લેકથી ભિન્ન એવા પલેકને સદ્ભાવ જ નથી. ચહ્ન આદિ ઈન્દ્રિ દ્વારા ગ્રાહ્ય ક્ષેત્રને જે લક કહે છે. સુખદુઃખ આદિના ઉપભોગને આધાર લેક જ પ્રામાણિક “સ્વીકાર્ય છે. તે સિવાય ઈન્દ્રિ દ્વારા અંગ્રાહ્ય એ કોઈ પરક છે જ નહીં, કે જ્યાં જઈને જીવ પુણ્ય અને પાપના સુખરૂપ અથવા દુઃખરૂપ ફળને ઉપ For Private And Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र, श्रु. अ. १ पुण्यपापाभावनिरूपणम् १६३ फलमुपभुञ्जीत परलोकोहि पुण्यपापमूलकः पुण्यपापस्वरूपकारणस्य निवर्त्तनात् साध्यः तादृशपरलोको नैव विद्यते यमाश्रित्य जीवः स्वकृतकर्मजन्यफलस्य भोक्ता स्यात् । ननु परलोको नास्ति तत्र किं कारणम् । कारणाभावे कथमिव कर्याचदपि प्रमेयस्य सिद्धिः स्यादित्याशंकायां कारणं स्वयं मूलकार एव स्पष्टयति 'सरीरस्स' इति । शरीरस्य कायस्य भोगाधिष्ठानस्य चेष्टेन्द्रियार्थाश्रयः शरीरमिति सूत्रप्रदर्शितस्य 'विणासेणं' इति विनाशेन । ततःकि, तबाह ‘विणासो होइ देहिणो' इति । 'विणासो, विनाशः होइ, भवति कस्य तत्राह 'देहिणो' देहिनो जीवस्य । अर्थात् देहस्य जीवोत्पादकस्य विनाशेन मरणेन देहवतो देहस्थितिकस्यात्मनोऽ पि विनाशात् । देहमरणेन जीवोऽपि म्रियते तस्याप्यभावो भवति । न पुनः भोगता हो । पुण्य और पाप के कारण परलोक होता है, जब पुण्य पाप रूप कारण ही नहीं हैं तो उनसे होने वाला परलोक भी नहीं है जहां जाकर जीव अपने किये कर्म का फल भोगे । परलोक नहीं है, इसका मूल क्या है ? मूल के अभाव में किसी भी प्रमेय की सिद्धि नहीं हो सकती । ऐसी शंका होने पर स्वयं मूलकार स्पष्ट करते है-चेष्टा तथा इन्द्रियार्थ का आधारभूत जो हो वह शरीर कहलाता है, अर्थात् मुखःदुख आदि के भोग का जो आश्रय है, ऐसे शरीर का विनाश होने पर आत्मा का भी नाश हो जाता है । अर्थात् जीव को उत्पन्न करने वाले शरीर के विनाश से मरने से-देहवान् आत्मा का भी विनाश हो जाता है । देह के मरने से जीव भी मर जाता है, जीव का भी अभाव हो जाता है। शरीर नाश हो जाने के पश्चात् शरीर से ભોગ કરતા હોય. પુષ્ય અને પાપને કારણે પલેકનું અસ્તિત્વ સ્વીકારવામાં આવે છે, પરનું પુણ્ય અને પાપ રૂપ કારણને જ જે અભાવ હોય, તે તેને કારણે અસ્તિત્વ ધરાવનાર એવો કોઈ પલેક જ હોઈ શકે નહીં કે જ્યાં જઈને જીવ પોતે કરેલાં કર્મોનું ફળ ભોગવે. પરલોક નથી, આ પ્રકારની માન્યતાનું મૂળ શું છે? જે મૂળને જ અભાવ હોય તે કોઈ પણ પ્રમેયની સિદ્ધિ થઈ શકતી નથી. આ શંકાનું નિવારણ કરવાનું સૂત્રકાર પિતે જ તે મૂળ કારણનું સ્પષ્ટીકરણ કરે છે ચેષ્ટા તથા ઇન્દ્રિયાર્થના આધારભૂત જે પદાર્થ છે, તેને શરીર કહે છે. એટલે કે સુખ દુઃખ આદિને ભેગને આધાર એવું જે શરીર છે તેને વિનાશ થઈ જવાથી આત્માને પણ વિનાશ થઈ જાય છે. એટલે કે જીવને ઉત્પન્ન કરનારા શરીરને વિનાશ થવાથી (મરવાથી) દેહવાન આત્માને પણ વિનાશ થાય છે. દેહનું મરણ થવાથી જીવનું પણ મરણ થઈ જાય છે. જીવને પણ અભાવ થઈ જાય છે. For Private And Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र शरीरनाशानन्तरं देहाद विनिर्गत्य जीवः परलोकं गत्वा पुण्यस्य पापस्य वा फलं सुख दुःख वा अनुभवति अतः आश्रयस्यात्मनोऽभावत् पुण्यपापयोरप्यभाव आपद्यतेति भावः। उत्पादकाऽभावे उत्पाद्यस्य, अभिव्यञ्जकाभावेऽभिव्यं ग्यस्य वा अभावो भवती त्यस्मिन विषये बहून्युदाहरणानि सन्ति । तथाहि यथा जलतरंगो जलादभिव्यज्यमानो जले सत्येव परिदृश्यते, विनष्टे तु जले कारणाभावान्नैव बुबुदस्याऽवस्थानम् । यावदेव जलं तावदेव तन्मूलक बुद्बुद कल्लोलादयः समुपलभ्यन्ते, तापशोषादिना जले विनष्टे सति जलाभिव्यक्तं सर्वमपि कार्यजातं विनश्यति । तथा अभिव्यंजकभूतसमुदाये विनष्टे सति बाहर निकल कर और परलोक में जाकर जीव पुण्य पाप के सुखदुःख रूप फल को नहीं भोगता है । अतः आश्रय रूप आत्मा का अभाव होने से पुण्य और पाप का भी अभाव हो जाता है । उत्पादक के अभाव में उत्पाद्य का तथा अभिव्यंजक के अभाव में अभिव्यंग्य का अभाव होता है, इस विषय में बहुत से उदाहरण विद्यमान हैं । वे इस प्रकार है-पानी से प्रकट होने बाली लहरें पानी के होने पर ही दिखाई देती हैं । जल के नष्ट होने पर कारण अभाव होने से जल का बुलबुला नष्ट हो जाता है । जब तक जल रहता है तभी तक जल जनित बुद्बुद और तरंग आदि रहते है ताप या शोपण के कारण जल के विनष्ट होने पर जल के द्वारा अभिव्यक्ति होने पाले सभी कार्य समूह भी नष्ट हो जाते हैं । इसी प्रकार अभिव्यंजक શરીરને નાશ થઈ ગયા પછી, શરીરની બહાર નીકળી જઈને અને પરલોકમાં ગમન કરીને પુણ્ય અને પાપના સુખદુઃખ રૂપ ફળને ભેગવતે નથી. કારણ કે આશ્રય રૂપ આત્માને જ અભાવ હોવાથી પુણ્ય અને પાપને પણ અભાવ જ થઈ જાય છે. ઉપ્તાદકના અભાવે ઉદ્યને અને અભિવ્યંજકના અભાવે અભિવ્યંગ્યને અભાવ જ હોય છે. આ વાતનું પ્રતિપાદન કરવા માટે ઘણું ઉદાહરણ આપી શકાય તેમ છે. કેટલાક ઉદાહરણે અહીં આપવામાં આવે છે-પાણીમાં લહેરે પ્રકટ થતી હોય છે. જ્યાં સુધી પાણીને સદ્ભાવ હોય ત્યાં સુધી જ તેમાં લહેરો નજરે પડે છે. વળી પાણીમાં જે પરપોટા દેખાય છે, તે પરપેટા પણ જ્યાં સુધી પાણીને સદ્દભાવ હોય, ત્યાં સુધી જ ઉત્પન્ન થતાં રહે છે. પરંતુ તડકા અથવા શેષણને કારણે જ્યારે પાણીને વિનાશ થઈ જાય છે, ત્યારે જળના દ્વારા અભિવ્યક્ત થનારા તે કાર્ય સમૂહને પણ વિનાશ થઈ જાય છે એટલે કે જળને અભાવ થઈ જવાથી તરંગો અને પરપોટાને પણ અભાવ જ થઈ જાય છે. એ જ પ્રમાણે અભિવ્યંજક ભૂત સમુદાય રૂપ શરીરને વિનાશ થઈ જવાથી For Private And Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ पुण्यपापाभावनिरूपणम् १६५ भूतसमुदायोत्पनो जीवोऽपि विनश्यत्येव । यथा वा कदलीस्तम्भादीनां त्वचोपनये कृते सति त्वङ्मात्रमेवाऽवतिष्ठते नान्यत् किमपि त्वगतिरिक्तं तत्रोपलभ्यते । एवं भूतसमुदाये विघटिते सति भूतातिरिक्तो न कश्चिदात्माख्यः पदार्थों विद्यते यः पुण्यपापादि कारणकलापमादाय परिदृश्यमानलोकाल्लोकान्तरं गत्वा मुखदुःखयो रुपभोगं करिष्यति । नत्वेवं संभवति, भूतसमुदायातिरिक्तस्य रूपस्पर्शादिमतोऽनुपलंभात् यथा विवरान्निःसरणसमये सर्पः बिलसमीपस्थपुरुषैरुपलभ्यते न तथा शरीराद् विनिर्गच्छन् जीवो म्रियमाणशरीरपार्श्वपुरुष रुपलभ्यते । अनुपलभ्यमानः कथं स्थितिं लभेत । अनुपलभ्यमानपदार्थभूतसमुदाय अर्थात् शरीर के विनष्ट होने पर भूतों के समुदाय से उत्पन्न होने वाला जीव भी विनष्ट हो जता है । केवल छिलके ही जिसमें सार है ऐसे केले के स्तंभ की छाल हटाने पर छाल ही शेष बचती है । वहाँ छाल को छोड़ कर और कुछ भी उपलब्ध नहीं होता । इसी प्रकार भूतों के विखरने पर भूतों से भिन्न आत्मा नाम का कोई पदार्थ नहीं रहता, जो पुण्य पाप आदि कारणों को ग्रहण करके दिखाई देने वाले इस लोक से दूसरे लोक में जाकर सुख या दुखः का उपभोग करेगा, ऐसा होता नहीं है भूत समुदाय के अतिरिक्त रूप स्पर्श वाले किसी पदार्थ की उपलब्धि नहीं होती । जैसे बिल से बाहर निकलते समय सर्प बिल के समीप स्थित पुरुषों द्वारा देखा जाता है, उसी प्रकार शरीर से बाहर निकलता हुआ जीव मरते हुए शरीर के पास बैठे हुए लोगों को दिखाई नहीं देता और जो दीखता ભૂતના સમુદાય વડે ઉત્પન્ન થનારા જીવને પણ વિનાશ થઈ જાય છે. કેવળ છાલ જ જેમાં સારભૂત છે એવી કેળના સ્તંભની છાલને દૂર કરવામાં આવે, તો અંદરથી કશું જ નીકળતું નથી, તે છાલ જ બાકી રહે છે. એટલે કે ત્યાં છાલ સિવાય કોઈ પણ વસ્તુની ઉપલબ્ધિ થતી નથી. એ જ પ્રમાણે જ્યારે ભૂતે વિખરાઈ જાય ત્યારે ભૂતોથી ભિન્ન એ આત્મા નામને કે પદાર્થ જ બાકી રહેતા નથી, કે જે પુણ્ય પાપ આદિ કારણેને ગ્રહણ કરીને પ્રત્યક્ષ એવા આ લેકમાંથી પાકમાં જઈને સુખ અથવા દુઃખને ઉપભેગ કરે. આ પ્રકારની વાત સંભવી શકતી નથી ભૂત સમુદાય સિવાયના રૂપ સ્પર્શ વાળા કઈ પણ પદાર્થની ઉપલબ્ધિ જ થતી નથી. જેવી રીતે દરમાંથી નીકળતે સર્ષ, દરની સમીપમાં બેઠેલી વ્યક્તિઓ દ્વારા દેખી શકાય છે, એજ પ્રમાણે શરીરમાંથી નીકળતા આત્માને જોઈ શકાય છે ખરો? મરણ કાળે મૃત્યુ પામતી વ્યક્તિની સમીપમાં બેઠેલ માણસો દ્વારા પણ મૃત શરીરમાંથી બહાર નીકળતે આત્મા નામને કઈ પદાર્થ દેખવામાં આવતું નથી. આ રીતે જે પદાર્થ દેખાતે જ નથી તે પદાર્થની સત્તા For Private And Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे परिकल्पने च बहूनामनुपलभ्यमानानामपि सद्भावः प्रसज्येत । नहि अनुपलभ्यमाना इयन्त एव पदार्थाः परिकल्पनीयाः इयन्तोनेति व्यवस्थायामस्ति कश्चिन्नियामको हेतुः । कल्पनायाः पुरुपबुद्धिप्रभवायाः पुरुषस्वातव्येणाऽव्यवस्थापत्तेः । तस्मान्नास्ति भूतसमुदायादतिरिक्तो जीव इति । यथा वा स्वप्ने बाह्यार्थानां घटादीनां विरहेऽपि घटाद्याकरतयाऽनुभूयमानं भवति विज्ञानं घटपटादि नानावस्तुविषयकम् तथा विनैवात्मानं तद्विषयकं विज्ञानं भूतसमुदायमात्रादेव प्रादुर्भविष्यति तत्र को दोषः १ । नं च यदि अर्थ मन्तरेणापि विज्ञानं भवेत् तदा सुषुप्तावपि अर्थावभासः कुतोनेति वाच्यम् । अनुभूतार्थ: ही नहीं, उसकी सत्ता किस प्रकार मानी जा सकती है ? उपलब्ध न होने वाले पदार्थों की कल्पना की जाय तो बहुत से उपलब्ध न होने वाले पदार्थों का भी सद्भाव हो जायेगा । उपलब्ध न होने वाले इतने ही पदार्थ मानने चाहिए और इतने नहीं, ऐसी व्यवस्था करने में कोई नियामक हेतु नहीं है । कल्पना तो पुरुष की बुद्धि से उत्पन्न होती है । और पुरुष कल्पना करने में स्वतन्त्र है इस कारण अव्यवस्था की आपत्ति होगी । इस कारण भूतसमुदाय से भिन्न जीव नहीं है । अथवा जैसे स्वप्न में घटादि के विरह में भा घट पट आदि पदार्थों को विषय करने वाला ज्ञान अनुभव में आता है, उसी प्रकार आत्मा के अभाव में भी भूतसमुदाय से आत्मा विषयक ज्ञान उत्पन्न हो जाता है । ऐसा मानने में क्या आपत्ति है ? ___ यदि पदार्थ के विना ही ज्ञान उत्पन्न हो जाता है तो सुषुप्ति की अवस्था में भी अर्थ का ज्ञान क्यों नहीं होता ? ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि ( વિધમાનતા) કેવી રીતે સ્વીકારી શકાય? ઉપલબ્ધ થતા ન હોય એવા પદાર્થોની પણ જે ક૯પના કરવામાં આવે, તો ઉપલબ્ધ નહીં થનારા ઘણા પદાર્થને પણ સદૂભાવ થઈ જશે, ઉપલબ્ધ ન થનાર આટલા જ પદાર્થો માનવા જોઈએ અને આટલા ન માનવા જોઈએ, એવી વ્યવસ્થા કરવામાં કેઈ નિયામક હેતુ સંભવી શકતું નથી. કલ્પના તે માણસની બુદ્ધિમાંથી ઉત્પન્ન થાય છે અને માણસ કલનના કરવાને સ્વતંત્ર છે. આ કારણે અવ્યવસ્થાની આપત્તિ ઉપસ્થિત થશે. તેથી એવું જ માનવું જોઈએ કે ભૂતસમુદાયથી ભિન્ન જીવને સદ્ભાવ જ નથી. અથવા જેવી રીતે સર્વમમાં, ઘટાદિને અભાવ હોવા છતાં પણ, ઘટાદિ પદાર્થને વિષય કરનારા (હણ કરનારા) જ્ઞાનને અનુભવ થાય છે, એજ પ્રમાણે આત્માને અભાવ હોય તો પણ ભૂતસમુદાય દ્વારા આત્મવિષયક જ્ઞાન ઉત્પન્ન થઈ જાય છે, એવું માનવામાં શું વાંધો છે ? “જે પદાર્થ ન હોવા છતાં પણ જ્ઞાન ઉત્પન્ન થઈ જતું હોય, તે સુષુપ્તિની અવસ્થામાં પણ પદાર્થનું જ્ઞાન શા કારણે થતું નથી ? ” આ પ્રકારનું કથન ઉચિત નથી, For Private And Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समया बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.१ पुण्यपापामावनिरूपणम् १६७ बाधस्याऽशक्यत्वात् । स्वमसमये सर्वैरप्यनुभूयतेऽन्तरेणापि बाह्यार्थम् विज्ञानम् । नहि सर्वानुभवस्य बाधो युक्तोऽनुभवशरणानाम् अनुभवादेव व्यवस्था भवति । तत्र यदि अनुभवोऽपि पर्यनुयुज्येत, तदा न कस्यापि व्यवस्था व्यवस्थिता स्यात् । नत्वेवं संभवति । यथा वाऽऽदर्शऽतिस्वच्छे मुखप्रतिविवो दृश्यते, अति स्वच्छत्वादेव। तत्र वाह्योऽर्थो न गच्छति किन्तु अविद्यमानोऽपि तदन्तर्गततयोपलभ्यते । तथाऽऽत्मापि भूतसमुदायानां शरीराकारपरिणतौ सत्यां भूतेभ्यः पृथगसन्नपि भूतेभ्यः पार्थक्यबुद्धिमुत्पादयति । अयमाशयः भूतसमुदायेभ्यः समुत्पन्नतया भूतविशेणतया भूताऽव्यतिरिक्तोऽपि भूतेभ्यो भिन्नो भासते । भेदतया प्रति अनुभूत पदार्थ में बाधा होना शक्य नहीं है। स्वभ में वाह्यपदार्थ के विना ही ज्ञान हो जाता है, यह बात सभी जानते हैं । अनुभव को शरण मानने वालों के लिये सभी के अनुभव को बाधित मानना युक्त नहीं है। अनुभव से ही वस्तु की व्यवस्था होती है । अनुभव में अगर प्रश्न किया जाय तो कोई भी व्यवस्था सिद्धि नहीं होगी, मगर ऐसा असंभव नहीं। ___ अथवा जैसे अत्यन्त स्वच्छ काच में मुख का प्रतिविम्ब दिखाई दोता है, क्योंकि काच अत्यन्त स्वच्छ होता है। काच में बाह्यपदार्थ तो घुसता नहीं है, वह वहाँ विद्यमान न होता हुआ भी उसके अन्दर प्रतीत होता है इसी प्रकार आत्मा भी भूतसमुदाय के शरीर आकार में परिणत होने पर भूतों से पृथक् न होने पर भी भूतों से पृथक्ता की बुद्धि उत्पन्न करता है । अभिप्राय यह है कि भूत समुदायों से उत्पन्न होने के कारण , भूतों કારણ કે અનુભૂત પદાર્થમાં બાધા હોવી શક્ય નથી સ્વમમાં બાહ્ય પદાર્થના વિના જ સાન થઈ જાય છે, આ વાત સૌ જાણે છે અનુભવને શરણ માનનારા લેકએ સર્વના અનુભવને બાધિત માને તે ઉચિત નથી. અનુભવ વડે જ વસ્તુની વ્યવસ્થા થાય છે. અનુભવમાં પણ જે પ્રશ્ન કરવામાં આવે – શંકા ઉઠાવવામાં આવે, તે કોઈ પણ વ્યવસ્થા સિદ્ધ નહીં થાય. પરંતુ એવો સંભવ નથી. અથવા જેવી રીતે અત્યંત સ્વચ્છ કાચમાં મુખનું પ્રતિબિંબ દેખાય છે, કારણ કે કાચ અત્યંત સ્વચ્છ છે. બાહ્ય પદાર્થ કાચમાં પ્રવિણ તે થતા નથી, તે કાચની અંદર વિદ્યમાન ન હોવા છતાં પણ વિદ્યમાન હવાને ભાસ થાય છે. એ જ પ્રમાણે જ્યારે ભૂતસમુદાય શરીરના આકારે પરિણત થાય છે, ત્યારે આત્મા પણ ભૂતથી ભિન્ન ન હોવા છતાં પણ, ભિન્ન દેવાનો ભાસ થાય છે. આ કથનનો ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે. ભૂતસમુદાય વડે ઉપન્ન થયેલ હોવાને કારણે અને ભૂતના વિશેષણ રૂપ હોવાને કારણે, આત્મા ભૂતથી ભિન્ન હોવા છતાં પણ ભૂતથી અભિન્ન પ્રતીત થાય છે. જેમ For Private And Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे भावं त्वस्य भ्रान्तमेव शुक्तिकायां रजतमिव रजौ सर्षपइव नहि शुक्तिकादौ रजतादिबुद्धिः पारमार्थिकी एवं भूतसमुदाये चेतना बुद्धिरप्यपारमार्थिकी एव । तस्मात् न भूतसमुदाये शरीरे तदतिरिक्तः कोऽप्यात्मेति सिद्धम् ॥ इति तज्जीवतच्छरीरवादिमतसंक्षेपः ॥१२॥ चार्वाकादिमते आत्मा शरीरदिव्यतिरिक्तो नास्तीति प्रति पादितम् । इदानीं यद्यपि चेतनः शरीरेन्द्रियबुद्धिमनोविषयै र्व्यतिरिक्तः, किन्तु "निष्क्रय निष्कलं शान्तं निरवद्य निरंजनम् । असंगो ह्ययं पुरुष इत्यादि श्रुति प्रतिपादितं क्रियाशून्यत्वरूपनिष्क्रियत्वमिति वदता अकारकवादिसांख्यानां का विशेषण होने से आत्मा भूतों से अभिन्न होता हुआ भी भूतों से भिन्न प्रतीत होताहै । आत्मा का भेद रूप से प्रतिभास होना शुक्तिका में रजत के और रस्सीमें सर्प के प्रतिभास के समान भ्रान्त है । शुक्तिका आदि में रजत आदि की बुद्धि वास्तविक नहीं है, इसी प्रकार भूतसमुदाय में चेतना बुद्धि होना भी अवास्तविक है इस कारण भूतों के समुदाय रूप शरीर में भूतो से अतिरिक्त कोइ आत्मा नहीं है, यह सिद्ध हुआ। यह तज्जीवतछरीरवादियों के मत का संक्षेप कथन है ॥१२॥ चार्वाक आदि मतों में आत्मा शरीर आदि से भिन्न नहीं है, यह कहा जा चुका है। अब सांख्यों का मत दिखलाया जाता है, उनके मतानुसार यद्यपि आत्मा शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि, मन और विषयों से भिन्न है । परन्तु निष्क्रिय, निष्फल, शान्त, निरवद्य और निरंजन है । "यह पुरुष असंग है" ऐसी श्रुति है । इसश्रुति प्रतिपादित क्रियाशून्यत्व रूप निष्क्रियत्व मानने वाले अकारकवादी सांख्यों के मत को दिखलाने के लिए શક્તિકામાં રજત (ચાંદીને) અને દોરડામાં સપને ભાસ (બ્રમ) થાય છે, એજ પ્રમાણે આત્માને પણ ભિન્ન રૂપે પ્રતિભાસ થાય છે. જેમ દોરડામાં સપને ભાસ થે તે વાસ્તવિક નથી પણ તે ભ્રમ માત્ર જ છે, એ જ પ્રમાણે ભૂતસમુદાયમાં ચેતના છેવાની વાત પણ અસ્વાભાવિક છે. તે કારણે ભૂતોના સમુદાય રૂ૫ શરીરમાં ભૂતથી ભિન્ન એવા કે આત્માની વિદ્યમાનતા જ નથી, એ વાત સિદ્ધ થાય છે. તજજીવે તછરીરવાદીઓના મતને આ પ્રકારે સંક્ષિપ્ત રૂપે અહીં પ્રકટ કરવામાં આવ્યો છે. ગાથા. ૧૨ એ. ચાર્વાક આદિ મતિમાં આત્મા શરીર આદિથી ભિન્ન નથી, એવું આના પહેલાની ગાથાએમાં કહેવામાં આવ્યું છે, હવે સાંખેને મત પ્રકટ કરવામાં આવે છે તેમના મતાનુસાર જે કે અત્મિા શરીર, ઇન્દ્રિય, બુદ્ધિ, મન અને વિષયેથી ભિન્ન છે. પરંતુ તે નિષ્ક્રિય, નિષ્કલ, શાન્ત, નિરવ અને નિરજન છે. “આ પુરુષ અસંગ છે,” એવી કૃતિમાં પ્રતિપાદિત કિયા શૂન્યત્વ રૂપ નિષ્ક્રિયત્નમાં માનનારા અકારકવાદી સંખ્યાના મતને પ્રકટ For Private And Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६९ - - समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ अकारवादि-सांख्यमतनिरूपणम् मतं दर्शयितुं सूत्रकार आह—' कुव्वं चे' त्यादि । मूलम् कुव्वं च कारयं चेव सव्वं कुब्वं न विजई । एवं अकारओ अप्पा एवं तेउ पगन्भिया ॥१३॥ छाया ___ कुर्वश्च कारयंश्चैव सर्वी कुर्वन्न विद्यते । एवम् अकारक आत्मा एवं ते तु प्रगल्भिताः ॥१३॥ अन्वयार्थः(कुव्वंच-कुर्वश्च) कार्य कुर्वन्-कार्यकर्ता (चेव-चैव) एवंच (कारयं-कारयन् ) अन्यद्वारा कार्य कारयन् प्रेरणां कृत्वाऽन्यद्वारा कार्यकारयिता, तथा (सव्वं कुव्वंसर्वी कुर्वन) समस्तक्रियां कुर्वन् समस्तक्रियाकारकः आत्मा (न विजइ-नविद्यते) न वर्त्तते (एवं-एवम् ) अनेन पूर्वोक्तप्रकारेण (अप्पा-आत्मा) जीवः सूत्रकार कहते हैं "कुव्वं च" इत्यादि शब्दार्थ-'कुव्वच-कुर्व श्च' क्रिया करने वाला 'चेव-चैव' और 'कारय-कारयन्' दूसरे के द्वारा क्रिया कराने वाला 'अप्पा-आत्मा' आत्मा 'न विजइ-न विद्यते' नहीं है 'तेउ-तेनु' वे अकोरकवादी एवं-एवम्' इस प्रकार अकारओ-अकारकः' आत्मा क्रिया का कर्ता नहीं है एवं एवम्' उक्त प्रकार से कहने वाले 'पाभिया-प्रगल्भिता' घष्टता करते हैं ॥१३॥ --अन्वयार्थ-- च आत्मा स्वयं क्रिया करने वाला, प्रेरणा करके दूसरे से क्रिया कराने वाला तथा समस्त क्रियाएँ करने वाला नहीं है। इस प्रकार आत्मा ४२५॥ सूत्रा२ ४ छ । “ कुछ च" त्या - -'कुवंच-कुर्व श्च' या ४२वावाणे 'चेव-चैत्र' भने 'कारय-कारयन्' wlon भाई त जियायो ४२शववावाणे 'अप्पा-आत्मा' मामा 'न विजा-न विद्यते' नथी. 'तेउ-तेतु' ते५४।२४ वाहिया एवं-एवम्' त प्राय वाचा 'पगभिया-प्रगल्भिता' धृष्टता ४२ छ. ॥१३॥ - अन्वयार्थ - - આમા પિતે જ ક્રિયા કરનારે નથી, પ્રેરણા કરીને અન્યની પાસે કિયા કરાવનાર પણ નથી અને સમસ્ત ક્રિયાઓ કરનારે પણ નથી. આ પ્રકારે આત્મા અકર્તા છે. તે श्या. २२ For Private And Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७० सूत्रकृताङ्गसुत्रे (अकारओ - अकारकः) अकर्त्ताऽस्ति ( तेउ - ते तु ) ते च सांख्या: ( एवं - एवम् ) उक्त रीत्या प्ररूपकाः (पगभिया-प्रगल्भिताः) मोह विजृम्भिताः धृष्टाः सन्तीति ।। १३ टीका – 'कुच्वं' कुर्वन् कार्यं कुर्वन् कर्त्ता भवति । कारणान्तरा प्रयोज्यत्वे सकलकारकप्रयोजकत्वं कर्तृत्वम् । स्वतन्त्रः कर्तेत्यनुशासनात् । क्रियां प्रति स्वतन्त्र कर्त्ता भवति । आत्मा तु निष्क्रियोऽमूर्ती नित्यः सर्वव्यापी, तस्मात् अयं न कामपि क्रियां प्रति कर्त्ता भवति । नहि - अमूर्त्तस्य सर्वव्यापिनः कत्तत्वं संभवति नवा समुपपद्यते युक्त्या तर्केण वा । 'कार' कारयन् । यत एव आत्मा सर्वक्रियारहितः सर्वव्यापी अतो न कर्त्ता स्वातंत्र्येण नवा कारयिता न अकर्त्ता हैं । वे सांख्य उक्त प्रकार से धृष्टता करते हैं अर्थात् मोहग्रस्त होकर धृष्ट बनते हैं ||१३|| - टीकार्य कार्य करने वाला कर्त्ता कहलाता है । किसी अन्य कारण से प्रयुक्त न होकर जो सकल कारकों का प्रयोजक होता है, वह कर्ता कहलाता है । “कर्ता स्वतन्त्र होता है" ऐसा व्याकरण शास्त्र में भी कहा है । आशय यह है कि कर्त्ता क्रिया के प्रति स्वतन्त्र होता है आत्मा क्रियाशून्य है, अमूर्त है, नित्य है, सर्वव्यापी है । अतएव वह किसी भी क्रिया का कर्त्ता नहीं है । जो अमूर्त और सर्वव्यापी है वह कर्ता नहीं हो सकता और युक्ति या तर्क द्वारा सिद्ध किया जा सकता है आत्मा समस्त क्रियाओं से रहित और सर्वव्यापी है, अतः कर्ता नहीं है । वह दूसरों से कराने वाला या किसी સાંખ્ય મતવાદીઓ આ પ્રમાણે કહેવાની ધૃષ્ટતા કરે છે એટલે કે મેહગ્રસ્ત થઇને ધૃષ્ટ जने छे. ॥ १३ ॥ - टीअर्थ - કાર્ય કરનારને કત્તાં કહેવાય છે. કોઇ અન્ય કારણા દ્વારા પ્રયુક્ત ન થઇને જે સફળ કારકોના પ્રયાજક હાય છે, તેને જ કર્તા કહેવાય છે. કર્તા સ્વતંત્ર હોય છે,” એવુ વ્યાકરણ શાસ્ત્રમાં પણ કહ્યું છે. આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે કર્તા ક્રિયાના વિષયમાં સ્વતંત્ર હાય છે. આત્મા ક્રિયાશૂન્ય છે, અમૂત્ત છે, નિત્ય છે અને સર્વવ્યાપી છે, તેથી એવા આત્મા કોઇ પણ ક્રિયાના કત્તાં હાઈ શકે નહીં. જે અમૃત્ત અને સર્વવ્યાપી હોય તે કર્તા હાઇ શકે નહીં અને યુક્તિઓ અથવા તર્ક દ્વારા તેને કર્તા સિદ્ધ કરી શકાય પણ નહીં. આત્મા સમસ્ત ક્રિયાઓથી રહિત અને સર્વવ્યાપી છે. તેથી તે કાં નથી. તે અન્યની For Private And Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org -- समार्थ बोधिनी टोका प्र. शु. अ. १ अकारवादि-सांख्यमतनिरूपणम् १७१ कुर्वन्तमन्यं प्रेरयता प्रयोजककर्त्तापि भवति । प्रयोजकत्वस्यापि क्रियाघाटतत्वात् । अयं तु सर्वथैव क्रियारहितोऽतो न कर्त्ता, न वा कारयिता भवति । गाथाघटकः प्रथमः चकारोऽतीताऽनागतक्रियाकर्तृत्वस्याऽऽत्मनि निराकरणं करोति । निष्क्रियत्वादात्मा यथा न वर्त्तमानकाले क्रियायाः कर्त्ता तथा भूतभविष्यत्कालेपि नासीन्न भविष्यति कर्त्ता कारयिता वेत्यर्थः । द्वितीयश्चकारो गाथाघटकः समुच्चयार्थः । तदयं निर्गलितोऽर्थः - आत्मा न स्वयं किमपि करोति नवा कुर्वन्तमन्यं क्रियायां प्रवर्तयति । न स्वातन्त्र्येण कर्त्ता न प्रयोकर्त्ता भवतीति भावः । तथा सति आत्मनः कर्तृत्वनिषेधपरं वचनं सांख्यानाम् । तथाहि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करने वाले को प्रेरणा देने वाला प्रयोजक कर्त्ता भी नहीं है, क्योंकि क्रिया के विना प्रकोजकत्व भी बन नहीं सकता । आत्मा सर्वथा ही क्रिया रहित होने के कारण न करने वाला और न कराने वाला है । गाथा में प्रयुक्त पहला (च) पद आत्मा में अतीत और अनागत कालीन क्रियाओं के कर्तृत्व का निषेध करता है अर्थात् निष्क्रिय होने से आत्मा जैसे वर्त्तमान काल में क्रिया का कर्त्ता या कारयिता ( कराने वाला) नहीं है, उसी प्रकार न भूतकाल में था और न भविष्यत् काल में होगा । दूसरा "च" पद समुच्चय के लिए है । अर्थ यह निकला कि आत्मा न स्वयं करता है, न दूसरे करनेवाले क्रिया प्रवृत्त करता है न स्वतन्त्रता से कर्त्ता है और प्रयोजक कर्त्ता है | आत्मा के कर्तृत्व का निषेध करने वाला सांख्यों का वचन इस प्रकार है- “ तस्मात्तत्संयोगादचेतनं" इत्यादि । પાંસે ક્રિયા કરાવનારા અથવા અન્યને ક્રિયા કરવાની પ્રેરણા દેનારેશ પ્રયોજક કત્તાં પણ नथी, अरागु કે ક્રિયા વિના પ્રયાજકત્વ પણ સંભવી શકતુ નથી. આત્મા બિલકુલ ક્રિયારિહંત હાવાને કારણે કરનારા પણ નથી અને કરાવનારા પણ નથી. ગાથામાં વપરાયેલા ‘ ’ આત્મામાં ભૂતકાલીન અને ભવિષ્યકાલીન ક્રિયાના કર્તૃત્વનો નિષેધ કરે છે. એટલે કે નિષ્ક્રિય હાવાને કારણે જેવી રીતે આત્મા વમાન કાળમાં ક્રિયાના કર્તા અથવા કારિયતા (કરાવનારા) નથી, એજ પ્રમાણે ભૂતકાળમાં પણ તે ક્રિયાના કર્તા અથવા કારયિતા ન હતા, અને ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે ક્રિયાના કાં અથવા કાયિતા નહીં હાય. બીજો ‘=’ સમુચ્ચય બેધક છે. આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે આત્મા પાતે કર્તા નથી, અન્યને ક્રિયામાં પ્રવૃત્ત કરનારા પણ નથી – સ્વતંત્ર કાં પણ નથી અને પ્રયોજક કર્તા પણ નથી. આત્માના કર્તૃત્વનો નિષેધ કરનારા સાંખ્યા આ પ્રમાણે કહે છે 'तस्मात्तत्स योगादचेतन ” छत्याहि " " -- For Private And Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रो तस्मात्तत्संयोगा दचेतनं चेतनावदिव लिंगम् । गुणकर्तृत्वेऽपि तथा कर्तव भवत्युदासीनः ॥१॥ तस्मादिति यस्मात् चैतन्यकर्तृत्वयो विभिन्नाधिकरणत्वम् अर्थात् चैतन्यमात्मगुणः कर्तृत्वं प्रकृते गुणस्तस्मात् पुरुषसंयोगात् अचेतनमपि लिंगम् अर्थात् प्रकृति श्चेतनावदिव भवति । आत्मा-अकर्तापि कर्तलिंगशरीरसंबन्धात् कर्तेव भवति, नतु स्वतन्त्रः कर्त्तति कारिकार्थः ।। ____ ननु आदर्शे मुखस्य प्रतिबिंबो जायते, तथा प्रकृतिरूपदर्पणे पुरुषस्य प्रतिविवो भवति । तेन यथा-आदर्शे कम्पमाने तद्गतप्रतिबिंबोऽपि कम्पते । एवं प्रकृतिगता विकाराः पुरुषेऽपि प्रतिभासमानाः भवन्ति इति अकर्ताऽपि चैतन्य के संयोग से अचेतन प्रकृति भी चेतन सी हो जाती है । आत्मा स्वभाव से अकर्ता होने पर भी शरीर के संबंध से कर्ता जैसा हो जाता है । __ तात्पर्य यह है कि चैतन्य और कर्तृत्व धर्म भिन्न भिन्न अधिकरण में रहते हैं । चैतन्य आत्मा का गुण है और कर्तृत्व प्रकृति का ऐसी स्थिति में अचेतन भी प्रकृति चेतनावती सी हो जाती है । और आत्मा शरीर के सम्बन्ध से अकर्ता होने पर भी कर्ता सरीखा हो जाता है । वह स्वतन्त्र कता नहीं है । यह पूर्वोदद्धत कारिका का अर्थ है । ___ शंका-काचमें मुख का प्रतिबिम्ब पड़ता है उसी प्रकार प्रकृति रूपी दर्पण में पुरुष (आत्मा) का प्रतिविम्ब गिरता है अतएव जैसे काच के हिलने पर उसमें पड़ा हुआ प्रतिबिम्ब भी हिलता है, इसी प्रकार प्रकृति में रहे हुए विकार पुरुष में भी प्रतिभासित होते हैं । इस प्रकार जीव अकर्ता होकर भी कर्ता ચૈતન્યના સંયોગથી અચેતન પ્રકૃતિ પણ ચેતન જેવી થઈ જાય છે. આત્મા સ્વભાવથી અકર્તા હોવા છતાં પણ શરીરના સંબંધને લીધે કર્તા જે થઈ જાય છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે –ચૈતન્ય અને કત્વ ધર્મ ભિન્ન ભિન્ન અધિકરણમાં રહે છે. ચૈતન્ય આત્માને ગુણ છે અને ક્તત્વ પ્રકૃતિને ગુણ છે એવી સ્થિતિમાં અચેતન પ્રકૃતિ પણ ચેતન્ય યુક્ત જેવી થઈ જાય છે. અને આત્મા, શરીરના સંબંધને કારણે, અકત્ત હોવા છતાં પણ કર્તા જેવો બની જાય છે. પરંતુ તે સ્વતંત્ર કર્તા તે નથી જ. આ પ્રકારને ઉપર્યુક્ત ગાથાને અર્થ થાય છે. શંકાકાચમાં મુખનું પ્રતિબિંબ પડે છે, એજ પ્રમાણે પ્રકૃતિ રૂપી અરીસામાં પણ પુરુષ (આત્મા)નું પ્રતિબિંબ પડે છે, જેવી રીતે અરીસે સ્થિર પડ્યો રહેવાને બદલે કોઈ પણ કારણે ચલાયમાન થાય-ઉચે નીચે થાય કે આમ તેમ ડેલવા લાગે, તે તેમનું પ્રતિબિંબ પણ સ્થિર રહેવાને બદલે ડોલવા માંડે છે. એ જ પ્રમાણે પ્રકૃતિમાં રહેલા વિકારે પણ પુરુષમાં (આત્મામાં) પ્રતિભાસિત થાય છે. આ પ્રકારે જીવ અકર્તા હોવા છતાં પણ For Private And Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ अकारवादि-सांख्यमतनिरूपणम् १७३ जीवः कर्ता भवति । अचेतनमपि लिंगं चेतनावद् भवति । प्रकृतौ स्थितिक्रिया सत्त्वे पुरुषेऽपि स्थितिक्रियोपलभ्यते । अतएव पुरुषः तिष्ठति इति प्रतीति जर्जायते भोक्ता च भवति द्रष्टाच भवति । तथाच सांख्यानां वचनम्"तस्माच विपर्यासात् सिद्धं साक्षित्वमस्य पुरुषस्य कैवल्यं माध्यस्थ्यं द्रष्ट्रत्वमकर्तृभावश्चेति । तथाच स्थित्यादिक्रियावत्त्वात् आत्मनः कथं क्रियारहितत्ववचनं संभवेदित्यत आह-"सधं कुव्वं न विजई" इति सर्वी क्रियां कुर्वन् न विद्यते सर्वक्रियाकारक आत्मा न भवति । अयमाशयः यद्यपि स्थितिक्रियोपलभ्यते आत्मनि जपाकुसुमस्फटिकन्यायेन । तथापि समस्तक्रियाकर्त्तत्वं नास्तीति द्योतयति सर्वमित्यादिना । सर्वो परिस्पन्दादिकां देशादेशप्राप्तिलक्षणां हो जाता है और अचेतन भी लिंग चेतना वाला हो जाता है । प्रकृति में स्थितिक्रिया होने पर पुरुष में भी स्थितिक्रिया उपलब्ध होती है। इसी कारण पुरुष स्थित होता है, ऐसी प्रतीति होने लगती है। और वह भोक्ता तथा द्रष्टा भी प्रतीत होने लगता है सांख्यों का कथन है--उस विपर्यास के कारण पुरुष का साक्षित्व कैवल्य माध्यस्थ्य, द्रष्टुत्व और अकर्तृत्व सिद्ध होता है।" स्थिति आदि क्रियावान् होने से आत्मा की क्रियारहितता किस प्रकार से संभावित है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं आत्मा समस्त क्रियाओं का कर्ता नहीं है। तात्पर्य यह है कि यद्यपि जपाकुसुमन्याय से जैसे स्फटिक के सामने जपा का पुष्प रख दिया जाय तो स्फटिक रक्तवर्ण दिखाई देता है परन्तु वास्तव में वह रक्तता स्फटिक में नहीं होती, वही औपाधिक है। इसी प्रकार आत्मा में स्थिति आदि क्रिया पाई जाती है કર્તા બની જાય છે, અને અચેતન લક્ષણ પણ ચેતનાવાળું થઈ જાય છે. પ્રકૃતિમાં સ્થિતિકિયાની ઉપલબ્ધિ થાય ત્યારે પુરુષમાં પણ સ્થિતિકિયા ઉપલબ્ધ થાય છે. એ જ કારણે પુરુષ સ્થિત હોય છે, એવી પ્રતીતિ થવા લાગે છે, એને તે જોતા તથા દ્રા પણ પ્રતિત थवा सागे छे. सांध्यान मेथन ....” ते विपासने ॥२) पुरुषनु साक्षिय, કેવલ્ય માધ્યચ્ય, દ્રવ અને અકતૃત્વ સિદ્ધ થાય છે.” સ્થિતિ આદિ કિયાવાન હોવાથી આત્માની કિયારહિતતા કેવી રીતે સંભવી શકે છે? સમાધાન –આત્મા સમસ્ત કિયાઓને કર્તા નથી. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે –સ્ફટિકની સામે પાપુ રાખવામાં આવે, તો સ્ફટિક રક્ત વર્ણને દેખાય છે. પરંતુ વારતવિક રીતે વિચારવામાં આવે, તે સ્ફટિકમાં રતાશ લેતી નથી. જપાપુષ્પને લાલ વર્ણ જ તેમાં કારણભૂત બને છે. જપાપુ રૂપ ઉપધિને કારણે સ્ફટિકમાં પ્રકટ થતા તે વર્ણ પાધિક જ છે. એ જ પ્રમાણે આત્મામાં સ્થિતિ આદિ ક્રિયાઓને ભાવ જોવામાં For Private And Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे क्रियां कुर्वन् आत्मा नैव विद्यते, सर्वव्यापित्वेनामूतत्वेनच निष्क्रियत्वं गगनवदिति । यथा गगने सर्वव्यापकेऽमूर्ते गमनचलनादिरूपा काचनापि क्रिया न भवति तथा व्यापकेऽमूर्ते आत्मनि गमनचलनादिपरिस्पन्दस्वरूपक्रिया नैव भवति सत्यपिप्रयत्नादिमत्वे । तदुक्तम् अकर्ता निर्गुणो भोक्ता आत्मा कपिलदर्शने " इति । एवं इति, एवम्-अनेन प्रकारेणाकारकाः ते आत्मानः तु शब्दो गाथान्तिमचरणपतितः पूर्ववादिभ्यः सांख्यस्य भेदं सूचयति । ते पुनः सांख्याः एवम् 'पगब्भिया, प्रकर्षेण अतिशयतया धृष्टतावन्त एवं तत्र भूयो भूयः प्रतिपातथापि समस्त क्रियाओं का कर्तृत्व आत्मा में नहीं है । यह बात " सर्वम्" इत्यादि पदों द्वारा प्रकट करते हैं-आत्मा परिस्पन्द आदि एक जगह से दूसरी जगह की प्राप्ति रूप क्रिया करने वाला नहीं है क्योंकि वह आकाश की भाँति सर्वव्यापक और अमूर्त है जैसे सर्वव्यापक और अमूर्त आकाश में गमन तथा चलना आदि कोई क्रिया नहीं होती उसी प्रकार व्यापक और अमूर्त आत्मा में जाना चलना हिलना आदि क्रिया नहीं होती, यद्यपि उसमें प्रपत्नादिमत्व मौजूद हैं । कहा भी है- "अकर्ता निर्गुणो भोक्ता,, इत्यादि । “कपिल मुनि के दर्शन में आत्मा अकर्ता, निर्गुण और भोक्ता है" इस प्रकार आत्मा अकारक है | गाथा में जो "तु" शब्द आया है वह यह सूचित करता है कि सांख्यमत पूर्ववादियों से भिन्न है, वे सांग्व्य अत्यन्त धष्ट होकर बारम्बार ऐसा प्रतिपादन करते है कि सब कुछ प्रकृति આવે છે. આત્મામાં સ્થિતિક્રિયા ઉપલબ્ધ થાય છે, છતાં પણ સમસ્ત ક્રિયાઓનું કતૃત્વ मात्मामा नथी. मे० पात "सर्व मू" त्याहि पो द्वारा सूत्रा२ ५४८ ४२ ----मात्मा પરિપબ્દ આદિ એક જગ્યાથી બીજી જગ્યાની પ્રાપ્તિ રૂપ કિયા કરનાર નથી, કારણ કે તે આકાશની જેમ સર્વવ્યાપક અને અમૂર્ત છે. જેવી રીતે સર્વવ્યાપક અને અમૂર્ત આકાશમાં ગમન તથા ચલન આદિ કે કિયા થતી નથી, એજ પ્રમાણે વ્યાપક અને અમૂર્ત આત્મામાં પણ આવવું જવું, ચાલવું આદિ ક્રિયાઓ થતી નથી, જો કે તેમાં प्रयत्नाहिमत्व तो भान . ४युं ५४ छ- “अकर्ता निर्गुणो भोक्ता" त्याहકપિલમુનિના દર્શનમાં એવું કહ્યું છે કે ” આત્મા અકર્તા, નિર્ગુણ અને ભકતા છે.” આ પ્રકારે આત્મા અકારક છે. ગાથામાં જે”_” પદ વપરાયું છે. તેના દ્વારા એ વાત સૂચિત થાય છે કે સાંખ્યમત પૂર્વોકત મતવાદીઓના મત કરતાં ભિન્ન છે. તે સાંખ્ય મતવાદીઓ ધૃષ્ટતાપૂર્વક એવું વારંવાર કહે છે કે પ્રકૃતિ જ બધું કરે છે. તે પ્રકૃતિ જ For Private And Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ अकारवादि-सांख्यमतनिरूपणम् १७५ दयन्ति, यथा प्रकृतिः सर्व करोति यज्ञदानतपःप्रभृतिकं करोति तादृशकर्मणां फलमुपभुज्यते पुरुषेण कर्तृत्वभोक्तत्वयोः सामानाधिकरण्यनियमस्य सत्वेपि ते वैयधिकरण्यमन्विच्छन्ति इति तेषां धाष्टम् तथा बुद्धिरध्यवस्यति चितिमान् भवति पुरुष इत्यपरम् धाष्टयम् एवमन्योऽपि धृष्टता प्रकारस्तदीयदर्शनतो ज्ञातव्यः । तदुक्तम् तस्मान्न बध्यतेऽद्धा न मुच्यते नापि संसरति कश्चित् । संसरति मुच्यते बध्यते च नानाश्रया प्रकृतिः । रूपैः सप्तभिरेवमात्मानं बध्नात्यात्मना प्रकृतिः । सैव च विमोचयति पुनः पुरुषार्थ प्रत्येकरूपेणेत्यादि । इत्यकारकवादिमतम् । आत्मनः कर्तृत्वं नास्ति एवं वदन्तः सांख्या अकारकवादिन अतएव धृष्टाः ॥१३॥ ही करती है । वही यज्ञ, दान, तप आदि करती है और उन कर्मों का फल भोगती है । यद्यपि पुरुष के साथ कर्तृत्व और भोक्तृत्व का समानाधिकरणता का नियम है फिर भी वे वैयधिकरण्य मानते हैं, यह उनकी धृष्टता है । बुद्धि जड़ होते हुए भी जानती है और पुरुष चैतन्यवान् है फिर भी नहीं जानता ऐसा कहना उनकी दूसरी धृष्टता है । इसी प्रकार उनकी धृष्टता के अन्य प्रकार भी उनके दर्शन से समझलेने चाहिए । कहा भी है-"तस्मान्न बध्यतेऽद्धा" इत्यादि । ___ "पुरुष न बन्ध को प्राप्त होता है, न मुक्त होता है और न एक भव से दूसरे भव में जाता है । अनेक पुरुष का आश्रय लेने वाली प्रकृति ही एक भव से दूसरे भव में जाती है, मुक्त होती है और बद्ध होती है ।" યજ્ઞ, દાન, તપ, આદિ કરે છે, અને તે કર્મોનું ફળ ભેગવે છે. જો કે પુરુષ (આત્મા)ની સાથે કર્તવ ભેન્દ્ર વને સમાનાધિકરણતાને નિયમ છે, છતાં પણ તેઓ વૈયધિકરણ્ય માને છે, આ તેમની ધૃષ્ટતા છે. બુદ્ધિ જડ હોવા છતાં પણ જાણે છે અને આત્મા ચૈિતન્યવાન હોવા છતાં પણ જાણતો નથી, આ પ્રમાણે તેઓ જે પ્રતિપાદન કરે છે, તે નરી ધૃષ્ટતા જ છે. આ પ્રકારની તેમની પુષ્ટતાને અન્ય પ્રકારે, તેમના દર્શન ગ્રંથ द्वारा ती सेवा मे यु पछे -"तस्मा बध्यतेऽद्धा" त्या" पुरुष (આત્મા) બન્ધદશાને પણ પામતો નથી, મુક્ત પણ થતું નથી, એક ભવમાથી બીજા ભવમાં જત પણ નથી. અનેક પુરુષને (આત્માઓને) આશ્રય લેનારી પ્રકૃતિ જ એક ભવમાથી બીજા ભવમાં જાય છે અને મુક્ત દશા અથવા બન્ધ દશા પ્રાપ્ત કરે છે” For Private And Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १७६ www.kobatirth.org सूत्रकृताङ्गसूत्रे तज्जीवतच्छरीरवादिमतं तथा अकारकवादिसांख्यमतं च निरसितुमाह -- ' जे तेउ' इत्यादि । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलम् २ जे ते उ वाईणा एवं लोए तेर्सि कओ सिया । 6 १० ११ ९ ८ तमाओ ते तमं जैति, मंदा आरंभनिस्सिया ||१४|| छाया ये तेतु वादन एवम् लोकस्तेषां कुतः स्यात् I तमसस्ते तमो यान्ति मन्दा आरंभनिः श्रिताः || १४ || इस प्रकार सात रूपों द्वारा आत्मा को प्रकृति बद्ध करती हैं, आत्मा नहीं वही प्रकृति फिर उसे मुक्त करती है । यह आकारकवादियों का मत है । आत्मा कर्ता नहीं है, ऐसा कहते हुए सांख्य अकारकवादी हैं, अतएव भ्रष्ट हैं ||१३|| तज्जीवतच्छरीरवादी तथा अकारकवादी सांख्य के मत का निराकरण करने के लिए कहते हैं, -- “जे तेउ" इत्यादि । शब्दार्थ - 'एवं - एवम्' इस पूर्वोक्त प्रकार से 'चाइणो वादिनः' तज्जीवतच्छरीरवादी कहते हैं 'तेसिं- तेषां ' उनकेमत में 'लोए-लोकः' परलोक 'कओसिया-कुतः स्यात् ' कैसे हो सकता है ? 'ते - ते' वे बादी 'आर' भनिस्सिया - आरम्भनिश्रिताः प्राणातिपातादि आरम्भ में आसक्त 'मंदा - मन्दाः पापके फलके नहीं जानमेवाले मूर्ख' 'तमाओ तमसः' एक अन्धकार से 'तम तमः' दूसरे अज्ञानको 'जति यान्ति प्राप्त करते हैं ॥१४॥ આ પ્રકારે સાત રૂપે દ્વારા આત્માને પ્રકૃતિ બદ્ધ કરે છે-આત્મા કરતા નથી એજ પ્રકૃતિ ત્યાર બાદ તેને મુકત કરે છે, આ પ્રકારને અકારકવાદીઓના મત છે. આત્મા કર્તા નથી, આ પ્રકારની માન્યતા ધરાવનારા સાંખ્યાને અકારકવાદી કહે છે. અને આ પ્રકારની તેમની માન્યતા ખરેખર ધૃષ્ટતા રૂપ જ માનવી જોઇએ “ગા. ૧૩૫ હવે સુત્રકાર તજીવતછારીરવાદી તથા અકારકવાદીઓના (સંખ્યાના ) મતનુ उन वा भाटे नीथेनु सूत्र अडे छे" जे तेउ” प्रत्याहि 22—— '07-03' uydisa usızell ‘arçon-arfza:' droya d2ylपाही हे छे. 'तेसि तेषां ' तेयोना भतभा 'लोए लोक:' परसो 'कओसिया-कुतः स्यात्' डेवी रीते अड्डी शाय ? 'ते ते' ते मतवाहीओ 'आर' भनिस्सिया आरंभनिश्रिताः प्रातिपात विगेरे मारंभां न्यायस्त येवा तेथे 'मंदा- मन्दा:' पापना इणने नही लागु नारा भूर्मायो 'तमाओ तमसः' मे संधारा थी अज्ञानथी 'तम-तमः' जीन अज्ञानने 'जति यान्ति' आप्त रे ||१४| For Private And Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ अकारवादि-सांख्यमतनिरूपणम् १७७ अन्वयार्थ. (एवं) एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण (जे तेउ) ये तेतु पूर्वप्रतिपादिताः (वाइणो) वादिनः तज्जीवतच्छरीरवादिनः सन्ति (तेसिं) तेषां-तजीवतच्छरीवादिनां मते (लोए) लोकः परलोकः (कओ सिया) कुतः स्यात् कथंचिदपि न संभवेदित्यर्थः । (ते) ते पूर्वोक्ताः (आरम्भनिस्सिया) आरंभनिः श्रिताः प्राणातिपाताधारम्भासक्ताः (मंदा) मन्दाः बोधविकलाः पापकर्मफलानभिज्ञाः (तमाओ) तमसः एकस्मादन्धकारात् तज्जीवतच्छरीरवादात्मककुश्रद्धानरूपात् (तमं) तमः अन्यत् नरकनिगोदादिगमनरूपं द्वितीयमन्धकारं (यंति) यान्ति प्राप्नुवन्तीति ॥१४॥ टीका‘एवं' इति एवं पूर्वोक्तप्रकारेण जे ते, ये ते भूताव्यतिरिक्त आत्मेति मन्यमाना वादिनः सन्ति 'तेसिं' तेषां वादिनाम् 'लोए' लोकः-परलोकः 'कओ सिया' कुतः स्यात्-कथं स्यात् कथमपि न संभवेत् परलोकस्य परलोकगामि -अन्वयार्थइस प्रकार जो पूर्वोक्तवादी तज्जीवतच्छरीरवादी हैं उनके मत में परलोक कैसे हो सकता है ? अर्थात् किसी भी प्रकार नहीं हो सकता । वे वादी हिंसा आदि आरंभो में आसक्त हैं, मन्द अर्थात् बोधरहित एवं पापकर्म के फल से अनभिज्ञ हैं, वे एक अन्धकार से दूसरे अन्धकार में जाने वाले हैं अर्थात् तज्जीवतच्छरीरवाद रूप कुश्रद्धान से नरकनिगोद आदि गति रूप दूसरे अन्धकार में जाने वाले हैं ॥१४॥ -टीकाथे-- इस प्रकार भूतों से आत्मा भिन्न नहीं है, ऐसा मानने वाले जो वादी हैं, उनके मत में परलोक कैसे हो सकता है ? किसी प्रकार संभव नहीं है, __-मन्वयाथપૂર્વોક્ત તજજીવતછરીરવાદીઓ એવું કહે છે કે પહેલેક કેવી રીતે સંભવી શકે ? એટલેકે તેઓ પરલકના (પરભવના અસ્તિત્વને જ સ્વીકારતા નથી. તેઓ હિંસા, આદિ આર. ભમાં આસક્ત છે, મન્દ એટલે કે બેધવિહીન અને પાપકર્મના ફળથી અનભિજ્ઞ (અજ્ઞાત) છે. તેઓ એક અંધકારમાંથી બીજા અંધકારમાં જનારા હોય છે, એટલે કે તજજીવતા રીરવાદ રૂપ કુશ્રદ્ધાન પોતે જ અંધકાર રૂપ છે. આ એક અંધકારમાં તે તે મતવાદીઓ ડૂબેલા જ છે; એટલું જ નહીં પણ આ અંધકારમાંથી નરક નિગોદ રૂપ બીજા અંધકારમાં ५. तमो नारा छे. ॥ १४ ॥ -At - પાંચ મહાભૂતથી આત્મા ભિન્ન નથી,” આ પ્રકારની માન્યતા ધરાવનારાઓ પલેકના અસ્તિત્વને જ સ્વીકાર કરતા નથી. જે પરલોકને જ અભાવ માનવામાં આવે, स. २३ For Private And Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir {we सूत्रकृताङ्गसूत्री नश्राभावात् । 'ते' तेच 'तमाओ तमं जंति' तमसस्तमो यन्ति एकस्मात्तमसः कुश्रद्धानरूपान्धकारात् तमः - अन्धकारान्तरं नरकादिगमनरूपं यन्ति प्राप्नुवन्ति । अन्धकरादन्धकारान्तरगमने कारणमाह- 'मंदा आरंभनिस्सिया' इति । यतस्ते आरंभे पापकर्मणि निरताः संलग्ना मन्दा - बोधरहिताः पापकर्मफलानभिज्ञाः, तस्मा तेषाम् उत्तमलोकप्राप्तिः कथमपि न संभवेत् किन्तु अज्ञानान्धकारे एव वारं वारं ते पतन्ति । तत्र यदुक्तम् "भूतव्यतिरिक्त आत्मा नास्ति, भूतकार्यत्वात् । यत् यस्य कार्य न तस्मात् तद् व्यतिरिच्यते, यथा मृत्तिका कार्यों घटो न मृत्तिका भिद्यते, इत्यादि । तत्रोच्यते अस्ति भूतव्यतिरिक्त आत्मा, तत्सा I क्योंकि परलोक और परलोकगामी का ही अभाव है । वे एक अन्धकार से दूसरे अन्धकार में जाते हैं अर्थात् खोटे श्रद्धान रूप अन्धकार से नरकादिगमनरूप दूसरे अन्धकार को प्राप्त होते हैं। एक अन्धकार से दूसरे अन्धकार में जाने का कारण कहते हैं - वे मन्द और आरम्भ में रत हैं अर्थात् uresर्म में निरत हैं और पापकर्म के फल से अनभिज्ञ हैं अतएव उन्हे उत्तम लोक की प्राप्ति किसी प्रकार नहीं हो सकती । वे अज्ञान के अन्धकार में ही बार बार पड़ता हैं । उन्होने कहा है- आत्मा भूतों से भिन्न नहीं है, क्योंकि वह भूतों का कार्य है, जो जिसका कार्य होता है वह उससे भिन्न नहीं होता जैसे मृत्तिका का कार्य घट, मृत्तिका से भिन्न नहीं होता इत्यादि । इसका उत्तर यह है - आत्मा भूतों से भिन्न તા આત્માને પરલેાકગામી પણ કેવી રીતે માની શકાય? એટલે તેઓ પલાકના અભાવ માનવાની સાથે પરલેાકગામીના પણ અભાવ જ માને છે. આ પ્રકારના કુમતમાં માનનારા તેઓ એક અંધકારમાંથી બીજા અંધકારમાં જાય છે. એટલે કે ખાટી શ્રદ્ધારૂપ અધકારમાંથી નરકઢિ ગમન રૂપ બીજા અંધકારમાં જાય છે. તેઓ શા કારણે એક અંધકારમાંથી ખીજા અંધકારમાં જાય છે? સૂત્રકાર તેનુ આ પ્રકારનું કારણ બતાવે છે. તેઓ મદ (અજ્ઞાન) અને આરંભમાં લીન હોય છે, એટલે કે તે પાપક'માં પ્રવૃત્ત રહે છે અને પાપકર્મના ફળથી અનભિજ્ઞ હેાય છે. તે કારણે તેમને ઉત્તમ લેાકની ( ભવન ) પ્રાપ્તિ થઈ શકતી નથી. તેઓ નરકની જ પ્રાપ્તિ કરે છે. એટલે કે અજ્ઞાનના અંધકારમાં જ વારવાર પડતાં રહે છે. તેઓ કહે છે “ આત્મા ભૂતેથી ભિન્ન નથી, કારણ કે તે ભૃતાના કાર્ય રૂપ છે, જે જેનુ' કાર્ય હૈાય છે, તે તેનાથી ભિન્ન હેાય જ નહીં, જેમ માટીના કાર્ય રૂપ ઘડા માટીથી ભિન્ન હાતા નથી, એજ પ્રમાણે ભૂતના કાર્ય રૂપ આત્મા ભૂતાથી ભિન્ન નથી. ’ ઇત્યાદિ, For Private And Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रृं. अ. १ अकारकवादि-सांख्यमत निरूपणम् १७६ धकप्रमाणसद्भावात् । तथाहि-परिदृश्यमानमिदं शरीरं विद्यमानकर्तृकम् । आदिमत्त्वे सति प्रतिनियताकारत्वात् । यद् यदादिमत्त्वे सति प्रतिनियताकारं भवति, तत् तद् विद्यमानकर्तृकं भवति, यथा घटादि सहेतुकं वस्तु । यद् विद्यमानकर्तकं न भवति । न तदादिमत्त्वे सति प्रतिनियताकारं भवति, यथा गगनादिकमिति व्यतिरेकी दृष्टान्तः । शरीरं चाऽऽदिमत् प्रतिनियताकारं तस्मादपि विद्यमानकर्तृकमेव । आदिमत् प्रतिनियताकारस्य सकर्तृकत्वव्याप्ते । यदि शरीरं सकर्तृकं न स्यात्, तर्हि आदिमत्त्वे सति प्रतिनियताकारतापि न स्यात् । दृश्यते च प्रत्यक्षादिनैवादिमत्त्वे सति प्रति नियताकारता तस्मात् सकर्त्तकेण शरीरेण अवश्यमेव भाव्यम् । तत्र या है, क्योंकि उसके साधक प्रमाणों का सद्भाव है । वे प्रमाणे इस प्रकार हैं इस दृश्यमान शरीर का कर्ता विद्यमान है क्योंकि शरीर आदिमान् होता हुआ प्रतिनियत आकार वाला होता है। जो जो आदिमान होता हुआ प्रतिनियत आकार वाला होता है, वह वह विद्यमान कर्तृक होता है, जैसे घटादि सहेतुक वस्तु । जो विद्यमानकतृक नहीं होता अर्थात् जिसका कोई कर्ता नहीं होता, वह आदिमान और नियत आकार वाला नहीं होता, जैसे आकाश यह व्यतिरेकी दृष्टान्त है । शरीर आदिमान और नियत आकार वाला है, अतः उसका कोई कर्ता अवश्य है । आदिमान् प्रतिनियताकारता की सकर्तृकता के साथ व्याप्ति है यदि शरीर सकर्तृक न होता तो आदिमान और प्रतिनियत आकार वाला भी न होता । शरीर प्रत्यक्ष प्रमाण से ही आदिमान् और नियत आकार वाला दिखाई देता है इसकारण उसका कर्ता તેમની ઉપર્યુક્ત માન્યતાનું આ પ્રકારે ખંડન કરી શકાય છે. આત્માભૂતથી ભિન્ન છે, કારણ કે આ વાતને સિદ્ધ કરનાર પ્રમાણેને સાવ છે. તે પ્રમાણે નીચે પ્રમાણે છે. આ દ્રશ્યમાન શરીરને કર્તા વિદ્યમાન છે, કારણ કે શરીર આદિમાનું પણ છે અને પ્રતિનિયત આકારવાળું પણ છે. જે જે વસ્તુ આદિમાન અને પ્રતિનિયત અકારવાળી હોય છે, તે પ્રત્યેક વસ્તુને કર્તા પણ વિદ્યમાન જ હોય છે, જેમ કે ઘટાદિ સહેતુક વસ્તુઓ જેને કેઈ કર્તા ન હોય, તે વસ્તુ આદિમાન અને નિયત આકારવાળી હોતી નથી. જેમ કે આકાશ આ વ્યતિરેકી દ્રષ્ટાન્ત છે. શરીર આદિમાનું અને નિયત અકારવાળું છે, તેથી તેને કઈ કર્તા અવશ્ય હવે જ જોઈએ. આદિમાનું પ્રતિનિયતાકારતાની સત્તાની સાથે વ્યક્તિ છે. એટલે કે જે શરીર સકક ન હેત તે આદિમાન અને પ્રતિનિયત આકારવાળું પણ ન હોત. પ્રત્યક્ષ પ્રમાણુ વડે જ શરીર આદિમાનું અને પ્રતિનિયત આકારવાળું દેખાય છે, તે કારણે તેને કર્તા અવશ્ય હોવું જ જોઈએ. શરીરને કર્તાકણું છે? For Private And Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागसूत्रे कर्ता स एव भूतव्यतिरिक्तः परलोकगामी जीवः इति जीवसत्तेति भूतव्यतिरिक्त आत्मा नास्तीति कथनमयुक्तमेव भवति वादिनाम् अनुमानप्रमाणस्य सद्भावात् , प्रामाणिकपदार्थापलापेऽतिप्रसंगात् । तथेन्द्रियाणि विद्यमानाधिष्ठातकाणि करणत्वात् । यद् यत्करण तत् तद् विद्यमानाधिष्ठातृकम् यथा घटकरणं दण्डादिकम् । अधिष्ठातारमन्तरेण करणत्वमेव दण्डादीनां न स्यात् । न हि आकाशादेः किमपि करणम् ततश्च य इन्द्रियाणामधिष्ठाता स इन्द्रियादिभ्यो भिन्न आत्मा । तथा विद्यमानभोक्तृकमिदं शरीरम् भोग्यत्वात् , ओदनादिवत् अवश्यहोना चाहिए । बस इस शरीर का जो कर्ता है वही भूतों से भिन्न और परलोकगामी जीव है इस प्रकार जीव की सत्ता होती है अतएव भूतों से भिन्न आत्मा नहीं हैं यह कहना अयुक्त है जीव का अस्तित्व सिद्ध करने वाला अनुमानप्रमाण विद्यमान है और इस प्रमाण से सिद्ध पदार्थ का अपलाप करने से अतिप्रसंग होता है । .. तथा इन्द्रियों का कोई अधिष्ठाता अवश्य है क्योंकि वे करण हैं, जो करण ' होता है उसका अधिष्ठाता कोई अवश्य होता है जैसे घट के कारण दण्ड का अधिष्ठाता कुम्भकार होता है । अगर अधिष्ठाता न हो तो दण्ड आदि कारण ही नहीं हो सकने । आकाश आदि का कोई करण नहीं है। अतएव इन्द्रियों का जो अधिष्ठाताहै वह इद्रियों आदि से भिन्न आत्मा ही है । तथा इस शरीर का भोक्ता कोई अवश्य है, क्योंकि शरीर भोग्य है जो भोग्य होता है उसका भोक्ता अवश्य होता है जैसे ओदनादि का । શરીરને કર્તા ભૂતોથી ભિન્ન અને પરલેકગામી એ જીવ (આત્મા) જ છે. તેથી “ભૂતથી ભિન્ન આત્મા નથી,” આ પ્રકારનું કથન અનુચિત જ લાગે છે. જીવના અસ્તિત્વને સિદ્ધ કરનારું અનુમાન પ્રમાણ વિદ્યમાન છે અને પ્રમાણ દ્વારા સિદ્ધ થયેલા પદાર્થને અપલાપ (અસ્વીકાર) કરવાથી અતિપ્રસંગ દોષને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થાય છે. તથા ઈન્દ્રિયોને અધિષ્ઠાતા પણ કઈ હે જ જોઈએ, કારણ કે ઇન્દ્રિય તે કરણ રૂપ છે. જે કરણ હોય છે, તેને અધિષ્ઠાતા કેઈ અવશ્ય હોય છે. જેમ કે ઘડાના કારણ રૂપ દંડને અધિષ્ઠાતા કુંભાર હોય છે. જે તેને કોઈ અધિષ્ઠાતા જ ન હોય, તે દંડ, ચાક આદિ કરણ પણ સંભવી શકે નહીં. આકાશ આદિનું કઈ કરણ નથી. તેથી એ વાત સિદ્ધ થાય છે કે ઇન્દ્રિયને જે અધિષ્ઠાતા છે, તે ઇન્દ્રિયથી ભિન્ન એ આમા જ છે. તથા આ શરીરને જોતા પણ કેઈ અવશ્ય હોવો જોઈએ. કારણ કે શરીર ભાગ્ય છે અને જે ભાગ્ય હોય છે તેને જોતા પણ અવશ્ય હોય છે. જેવી રીતે એદન (ભાત) આદિને કેઈ લેતા હોય છે, એ જ પ્રમાણે શરીરને ભેકતા પણ હેવો જ જોઈએ. For Private And Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टोका प्र. श्रु. अ. १ अकारवादि-सांख्यमतनिरूपणम् १८१ न च कुलालादि कर्तृणां मूतत्वाऽनित्यत्वसंहतत्वदर्शनात् आत्मापि मूर्ताऽनित्यसंहत एव सिद्धयेदिति विरुद्ध एव हेतुरिति वाच्यम् , कथश्चिदात्मनोऽपि संसारदक्षायां कर्मणा संसक्तस्य अनित्यत्वमूर्त्तत्वसंहतत्वादि धर्मवचस्या ऽभ्युपगमात् । यदप्युक्तम् न.सन्ति सत्त्वा औपपातिका, (गा ११) इत्यादि तद प्यसमीचीनम् । सद्योजातमात्रबालस्य यो दुग्धपानाऽभिलाषः, स अन्या ऽभिलाषपूर्वकः, अभिलाषत्वात् कुमाराऽभिलाषवत् । तथा बालविज्ञानम् अन्यविज्ञानपूर्वकम् विज्ञानत्वात् , कुमारविज्ञानवत् जातमात्रस्य शिशो यावत् स एवाऽयं स्तनः इत्यनुसन्धानं न जायते न तावदुपरतरुदितो भूत्वा स्तने . कदाचित् कहो कि कुम्भकार आदि कर्ता मूर्त अनित्य और अवयवी रूप देखे जाते है, अतएव आत्मा भी मूर्त, और अनित्य संहतरूप ही सिद्ध होता है इस प्रकार आप का हेतु विरुद्ध है कर्मों से बद्ध संसारी आत्मा को हम भी कथंचित् अनित्यत्व मूर्तत्व और संहतत्व आदि धर्मों से युक्त स्वीकार करते हैं। आप ने कहा था कि जीव औपपातिक (परलोकगामी नहीं है गाथा ११) इत्यादि सो भी युक्ति संगत नहीं है । तत्काल जन्मे बालक को दूध पीने की जो अभिलाषा होती है वह अन्य अभिलाषा पूर्वक ही होती है, क्योंकि वह अभिलाषा है, जैसे कुमार की अभिलाषा इसी प्रकार बालक का विज्ञान, अन्य विज्ञानपूर्वक है । क्योंकि कुमार पुरुष के विज्ञान के समान । तत्काल जन्मे शिशुको जबतक “यह वही स्तन है उस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान नहीं हो जाता, तबतक वह रोना बन्द પ્રશ્ન- કુંભાર આદિ કર્તા મૂર્ત, અનિત્ય અને અવયવી રૂપ હોય છે, તે આત્મા પણ મૂર્ત, અનિય આદિ રૂપ સિદ્ધ થઈ જાય છે, તેથી આપને હેતુ (કારો) ઉપર્યુક્ત વાતની સિદ્ધિ કરવાની વિરૂદ્ધ જાય છે. ઉત્તર- આ કથન ઉચિત નથી, કારણ કે કર્મથી બદ્ધ સંસારી આત્માને અમે પણ અમુક અપેક્ષાએ અનિત્યત્વ, અમૂક્તત્વ અને સેતુત્ય આદિ ધર્મથી યુક્ત માનીએ છીએ. આપે કહ્યું હતું કે જીવ ઔપપાતિક (પરલેક ગામી) નથી. (આગળ ૧૧ મી ગાથામાં તજીવતછરીરવાદીની આ માન્યતા બતાવવામાં આવી છે), એ વાત પણ યુક્તિ સંગત નથી, તુરતના જન્મેલા બાળકને દૂધ પીવાની જે અભિલાષા થાય છે, તે અન્ય અભિલાષા પૂર્વક જ થાય છે, કારણ કે તે અભિલાષા કુમારની અભિલાષા જેવી છે. જે પ્રકારે બાળકનું વિજ્ઞાન ( વિશિષ્ટ જ્ઞાન ) અન્ય વિજ્ઞાન પૂર્વક જ હોય છે, કારણ કે તે વિજ્ઞાન કુમાર પુરુષના વિજ્ઞાન જેવું છે. સુરતના જન્મેલા બાળકને જ્યાં સુધી” આ For Private And Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मुखमर्पयति । अतो ज्ञायते विद्यते बालस्यापि विज्ञानलेशः, सचाऽन्यविज्ञान पूर्वकः । तत्-अन्यज्ञानं भवान्तरविज्ञानमेव तद्भवे तादृशविज्ञानस्याऽसंभवात् । तस्मात् सन्ति सत्त्वा औपपातिकाः इति “ विज्ञानघन एवैतेभ्यः उत्थाय तान्येवाऽनुविनश्यति,, इति श्रुतिप्रमाणेन शरीरोत्पादेनाऽऽत्मन उत्पत्तिः। शरीरनाशे तदनु आत्मापि नश्यतीति नास्ति परलोकगामी आत्मा-इत्याधुक्तम् तदपि न सम्यक्, श्रुतेर्भावानवबोधात् । नही शरीरविनाशे आत्माविनाश एतस्याः श्रुतेरर्थः । किन्तु विज्ञानधनः-विज्ञानपिण्ड आत्मा भूतेभ्य उत्थाय करके स्तन का मुंह नहीं लगाता । इससे प्रतीत होता है कि बालक में कुछ ज्ञान होता है । वह ज्ञान अन्यज्ञान पूर्वक है और वह अन्यज्ञान पूर्व भव का ही ज्ञान हो सकता है, कयोकि वर्तमान भव में वैसा ज्ञान संभव नहीं है । इस कारण जीव औपपातिक-परलोक में जाकर उत्पन्न होने वाले हैं "विज्ञानघन ही इन भूतों से उत्पन्न होकर इनके नष्ट होने पर नष्ट हो जाता है" इस श्रुति के प्रमाण से शरीर की उत्पत्ति होने पर आत्मा की उत्पत्ति होती है और शरीर का नाश होने पर आत्मा का भी नाश हो जाता है, इस कारण आत्मा परलोकगामी नहीं है, इत्यादि कथन भी समीचीन नहीं है । आपने इस श्रुति का अर्थ नहीं समजा है । यह श्रुति शरीर का नाश होने पर आत्मा का नाश प्रतिपादन करनेवाली नहीं है । इसका अर्थ तो यह है विज्ञानधन अर्थात् आत्मा पूर्वकर्मों के वल से उत्पन्न એજ સ્તન છે. આ પ્રકારનું પ્રત્યભિજ્ઞાન (પ્રતીતિ) થતું નથી, ત્યાં સુધી તે રડવાનું બંધ કરીને સ્તનને મુખ વડે સ્પર્શ પણ કરતા નથી. તેથી એવી પ્રતીતિ થાય છે કે બાળકમાં ચેડા જ્ઞાનને પણ સદૂભાવ હોય છે. તે જ્ઞાન અન્ય જ્ઞાન પૂર્વક જ હોઈ શકે છે અને તે અન્ય જ્ઞાન પૂર્વભવનું જ જ્ઞાન હોઈ શકે છે, કારણ કે વર્તમાન ભવમાં તે એવું જ્ઞાન સંભવી શકતું જ નથી. આ કારણે જીવ ઔપપાતિક (પરલોકમાં જઈને ઉત્પન્ન થનાર -५२सोमाभी) छ, से वात सिद्ध याय छे. ” વિજ્ઞાનઘન આ ભૂત દ્વારા ઉત્પન્ન થઈને, તેમને નાશ થતાં જ નષ્ટ થઈ જાય છે, ” કૃતિના પ્રમાણ દ્વારા” શરીરની ઉત્પત્તિ થતાં જ આત્માની ઉત્પત્તિ થાય છે અને શરીરને નાશ થતાં જ આત્માને પણ નાશ થાય છે, આ કારણે આત્મા પોકગામી નથી” ઇત્યાદિ કથન પણ સમીચીન (ઉચિત નથી. આપ આ કૃતિને અર્થ જ સમજ્યા નથી. આ કૃતિ દ્વારા એવું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું નથી કે શરીરને નાશ થતાં જ આત્માને પણ નાશ થઈ જાય છે. તેના દ્વારા તે એવું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે કે–વિજ્ઞાનઘન એટલે કે આત્મા પૂર્વકના કારણે ઉત્પન્ન થઈને એટલે કે For Private And Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. १ अकारवादि-सांख्यमतनिरूपणम् १८३ पूर्वकर्मबलात् तथाविधशरीराकारपरिणतभूतसमुदाये शरीरेन्द्रियादिद्वारेण स्वोपार्जितकर्मफलमनुभूय, पुनस्तादृशशरीरनाशे तदनन्तरमात्मापि तेना कारेण विनश्य पर्यायान्तरमादायोत्पद्यते न तु शरीरेण सहैवाऽत्यन्तं विनश्यति तथा च घटे विनष्टे सति घटोपाधिक आकाशो नाशं प्राप्त इव भवन् अपि, पुनः पटावच्छिन्नो भवति, न तु आकाशस्य सर्वथा विनाशः, तथैव एकपर्याय स्य विनाशेऽपि पर्यायोपाधिक आत्मा विनश्यति पर्यायान्तरेणोत्पद्यते । तत्र विशेषणस्य पर्यायस्यैवोत्पादविनाशौ भवतः । न तु पर्यायवतो जीवस्य, तस्या न्वयि-द्रव्यतया सर्वदैवावस्थानात् । इति श्रुत्यर्थमज्ञात्वैव ते मन्दाः स्वयं पतन्तोऽन्यानपि पातयन्ति भवार्णवे । तदुक्तम् होकर अर्थात् विशिष्ट प्रकार के शरीर के आकार में परिणत भूत समुदाय में शरीर इन्द्रिय आदि के द्वारा अपने द्वारा उपार्जित कर्म के फल का भोगकर, पुन : उस शरीर का नाश होने पर आत्मा भी उस आकार से विनष्ट होकर नवीन पर्याय का ग्रहण करके उत्पन्न हो जाता है। शरीर के साथ ही सर्वथा नष्ट नहीं हो जाता। जैसे घटके नष्ट हो जाने पर घट उपाधि वाला अर्थात् घट संबंधी आकाश नष्ट हुआ सरीखा प्रतीत होता है फिर भी वह पटसे युक्त हो जाता है। उसका सर्वथा विनाश नहीं होता। इसी प्रकार एक पर्याय का विनाश होने पर उस पर्याय से विशिष्ट आत्मा का नाश होता है किन्तु दूसरे पर्याय, के रूप में उसकी उत्पत्ति हो जाती है। वस्तुतः विशेष पर्याय का ही उत्पाद और विनाश होता है, पर्यायवान् जीव का नहीं । जीव तो વિશિષ્ટ પ્રકારના શરીર રૂપે પરિણુત થઈને-ભૂત સમુદાયમાં શરીર ઈન્દ્રિયે આદિ દ્વારા, પિતે પૂર્વોપાર્જિત કર્મના ફળને, ભગવે છે. ત્યાર બાદ જ્યારે તે શરીરને નાશ થઈ જાય છે, ત્યારે આત્મા પણ તે આકારે રહી શક્તો નથી. તેથી તેને તે આકાર નષ્ટ થઈ જાય છે અને નવીન પર્યાયને ગ્રહણ કરીને આત્મા પણ નવી પર્યાયે ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. શરીરને નાશ થવાની સાથે સાથે આત્માને સર્વથા નાશ થઈ જતા નથી. ઘડાને નાશ થતાં ઘટ સબંધી આકાશનષ્ટ થયેલું હોય એવું લાગે છે, છતાં પણ તે પટથી યુકત થઈ જાય છે, તેને સર્વથા વિનાશ થતો નથી. એ જ પ્રમાણે એક પર્યાયને વિનાશ થતાં જ તે પર્યાયથી વિશિષ્ટ આત્માને નાશ થઈ જાય છે, પરંતુ અન્ય પર્યાય રૂપે તેની ઉત્પત્તિ થઈ જાય છે. ખરી રીતે તે વિશિષ્ટ પર્યાયને જ ઉત્પાદ અને વિનાશ થાય છે, પર્યાયવાન ને (આત્મા) ઉત્પાદ અને વિનાશ થતો નથી. For Private And Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकताको "अविद्यायामन्तरे विद्यमानाः स्वयं धीराः पण्डितं मन्यमानाः । दन्दम्यमाणाः परियन्ति मूढाः अन्धेनैव नीयमाना यथा अन्धाः" इति । अज्ञानकूपे पतिता बालिशाः स्वयं विनष्टाः परानपि विनाशयन्ति । यथा-एकेनाऽन्धेन नीयमाना अपरा अन्धाः इति श्रुत्ययः । यदप्युक्तम्-"धर्मिणः आत्मनोऽभावात्तद्धमयो धर्माधर्मयोरप्यभावः (गा. १२ टीका) इति तदपि न सम्यक्, धर्मिण आत्मनः पूर्वोक्तानुमानश्रुतिप्रमाणैः संसाधनात् । अन्वयी द्रव्य होने से सदैव कायम रहता है । इस प्रकार श्रुति के अर्थ को न जान कर ही वे मन्द स्वयं भवसागर में गिरते है और दूसरों को भी गिराते है । कहा भी है “अविद्यायामन्तरे विद्यमानाः' इत्यादि । "जो मूढ पुरुष अज्ञान में विद्यमान है परन्तु अपने आपका पण्डित मानते है और धीर है वे अन्धे के द्वारा ले जाए जाने वाले अन्धों के समान ठोकरे खाते है, नाश को प्राप्त होते है। ____ जो मूढ अज्ञान के कूप में पडे है वे स्वयं नष्ट हैं और दूसरों का भी विनाश करते है, जैसे एक अन्धे के द्वारा ले जाये जाते दूसरे अन्धे नष्ट होते हैं । यह श्रुति का अर्थ है। आपने कहा था कि धर्मी आत्मा का अभाव होने से उसके गुणोंधर्म और अधर्म का अभाव हो जाता है (गाथा १२ की टीका) सो भी જીવ તે અવ્યયી દ્રવ્ય હોવાથી તેને સદા સદ્ભાવ જ રહે છે, તેને નાશ ક્રી પણ સંભવી શક્તા જ નથી. શ્રુતિના આ પ્રકારના અર્થને સમજ્યા વિના વિપરીત પ્રરૂપણા કરનારા તે અજ્ઞાની લેકો પતે તે ભવસાગરમાં ભ્રમણ કર્યા જ કરે છે, એટલું જ નહીં પણ બીજા લોકોને પણ ભવસાગરમાં ભ્રમણ કરાવે છે. કહ્યું પણ છે કે ___ "अविद्यायामन्तरे विद्यमानाः “त्याह જે મૂઢ પુરુષે અજ્ઞાની હોવા છતાં પણ પિતાને પંડિત અને ધીર માને છે. તેઓ આંધળા દ્વારા દોરી જવાતા અંધળાઓની જેમ પગલે અને પગલે ઠોકર ખાધા કરે છે અને નષ્ટ થઈ જાય છે. જે મૂઢ લેકે અજ્ઞાન રૂપી કૂવામાં પડેલાં છે, તેઓ પોતે તે પિતાના વિનાશને નેતરે જ છે અને અન્યને પણ વિનાશ કરે છે. જેમ આંધળા વડે રાતે આંધળે નષ્ટ થઈ જાય છે, એજ પ્રમાણે અજ્ઞાન લેકે દ્વારા કુમાર્ગે દેરાતા લેકે પણ વિનર જ થઈ જાય છે. આ કૃતિને અર્થ છે. વળી તજજીવ તછરીરવાદી એવું કહે છે કે “ધમી આત્માને અભાવ હોવાથી તેના ગુણધર્મ અને અધર્મને–પણ અભાવ જ હોય છે, “આ તેમનું કથન પણ અનુચિત જ છે. (ગાથા ૧રની ટીકા)પૂર્વોક્ત અનુમાને અને For Private And Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. १ अकारकवादि-सांख्यमतनिरूपणम् १८५ आत्मसिद्धौ च तद्धमभूतयोधर्माधर्मयोरपि प्रसिद्धिर्भवत्येव । अन्यथा धर्माऽधर्मयोरभावेऽन्यस्य दृष्टकारणस्याऽभावेन जगतो विचित्ररचनाऽपि नोपपद्येत। न च प्रत्यक्षदृष्टं वैचित्र्यं केनाप्यपद्मोतुं शक्यते, इति जगद् वैचित्र्यान्यथाऽनुपपत्त्या तादृशवैचित्र्यसंपादकौ धर्माधर्माववश्यमेवाऽभ्युपगन्तव्यौ । ताभ्यां विना तादृशवैचित्र्यस्य संपादयितुमशक्यत्वात् इति । यदपि जीवाऽभावसाधनाय अलातचक्रादिका अनेकशो दृष्टान्तास्तैः प्रदर्शिताः तेऽपि दृष्टान्ताभासा एव वेदितव्याः। भूतव्यतिरिक्तस्य परलोकगामिनः सारभूतस्यात्मनः पूर्वोक्तयुक्तिभिः ठीक नहीं है, क्यों कि हमने पूर्वोक्त अनुमानों और श्रुति रूप प्रमाणों से आत्मा की सिद्धि कर दी है। आत्मा की सिद्धि हो जाने पर उसके धर्म और अधर्म की सिद्धि भी हो ही जाती है, अगर धर्म अधर्म न होते तो जगत् की विचित्रता भी नहीं होती. क्यों कि इस विचित्रता का अन्य काई दृष्ट कारण नहीं है। जगत् में जो विचित्रता प्रत्यक्ष से दिखाई दे रही है, उसका अपलाप नहीं किया जा सकता है। अतएव जगत की विचित्रता की अन्यथानुपपत्ति से उस विचित्रता का उत्पन्न करने वाले धर्म और अधर्म को अवश्य ही स्वीकार करना चाहिए । धर्म अधर्म के विना इस प्रकार की विचित्रता उत्पन्न नहीं की जा सकती । जीव का अभाव सिद्ध करने के लिए अलातचक्र आदि अनेक दृष्टान्त उन्होंने दिये हैं, उन्हें भी दृष्टान्ताभास ही समजना चाहिए । क्योंकि भूतों से भिन्न, परलोक में गमन करने वाले, सारभूत आत्मा की पूर्वोक्त युक्ति यों द्वारा सिद्धि की जा चुकी है । दृष्टान्त मात्र से किसी भी अर्थ की શ્રુતિરૂપ પ્રમાણે વડે આત્માને ભાવ તે સિદ્ધ કરવામાં આવ્યું છે. આત્માની સિદ્ધિ થઈ જવાથી તેના ગુણ રૂપ ધર્મ અને અધર્મની પણ સિદ્ધિ થઈ જાય છે. જે ધર્મ અને અધર્મનું અસ્તિત્વ ન હોત, તે સંસારની વિચિત્રતા (વિલક્ષણતા) પણ ન હોત, કારણકે આ વિચિત્રતાનું અન્ય કેઈ કારણ દેખાતું નથી. જગતમાં જે વિચિત્રતા પ્રત્યક્ષ રૂપે દેખાય છે, તેને અપલાપ (અસ્વીકાર) કરી શકાય તેમ નથી તેથી જગતની વિચિત્રતાની અન્યથાનુપપત્તિ ને આધારે તે વિચિત્રતાને ઉત્પન્ન કરનાર ધર્મ અને અધર્મને અવશ્ય સ્વીકાર કરે જ જોઈએ ધર્મ અને અધર્મને અભાવ હોય તે આ પ્રકારની વિચિત્રતા ઉત્પન્ન જ થઈ શકે નહીં. જીવને અભાવ સિદ્ધ કરવાને માટે તેમણે અલાતચક (રહે.) આદિ અનેક દૃષ્ટાન્ત આપ્યાં છે પરંતુ તેમને પણ દૃષ્ટાન્તાભાસ રૂપ સારભૂત જ માનવા જોઈએ, કારણ કે ભૂતથી ભિન્ન એવા, પરલેક ગામી ચારભૂત આત્માની પૂર્વોક્ત યુક્તિઓ દ્વારા સિદ્ધિ सू. २४ For Private And Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे प्रसाधनात् । नहि दृष्टान्तमात्रेण कस्यचिदप्यर्थस्य सिद्धिर्जायते । तथा सति यथाकथंचिद् दृष्टान्तस्य सर्वत्र संभवेन सर्वस्य इष्टाऽनिष्टस्य सिद्धिप्रसंगात् । यद्वाऽस्या गाथाया अन्योऽप्यर्थः - तेसिं तेषां भूतव्यतिरिक्तात्मचैतन्या ऽपलापकारिणाम् तज्जीवतच्छरीराकारात्मवादिनाम् । 'लोए, लोकः अयम् प्रत्यक्षनिर्दिष्टः लोकः संसारः । 'कओ' कुतः 'सिया' स्यात् भवेत् । लोक्यतेऽ नुभूयते कर्म फलानि अस्मिन्निति लोकः, चतुर्गतिकः संसारः भवाद् भवान्तरगमनस्वरूपः। यः पूर्व प्ररूपितः कश्चित्सुखीकश्चिद्दुःखी कश्विद् ज्ञानी, कश्चिदज्ञानी, कश्चिदादयः कश्चिदनाढ्यः इत्येवं रूपा जगतो विचित्रताच कुतो भवेत कुतो घटेत नैव कथंचिदपि घटेतेत्यर्थः । 'कओ सिया' इत्यत्र किं शब्द आक्षेपार्थः, " सिद्धि नहीं होती । ऐसा होता तो दृष्टान्त तो सब जगह चाहे जैसे मिल सकते हैं। उनसे सभी का इष्ट या अनिष्ट सिद्ध हो जाएगा । अथवा इस गाथा का अन्य अर्थ भी है । वह इस प्रकार है उन भूतों से free आत्मा का अपलाप करने वाले तज्जीवतच्छरीरवादियों के मत मे यह प्रत्यक्ष सिद्ध संसार कैसे संगत हो सकता है ? जहाँ कर्मफलों का अनुभव किया जाता है, वह लोक कहलाता है । वह चार गतियों वाला है, एक से दूसरे भव में जाना उसका स्वरूप है । इसकी प्ररूपणा पहले की जा चुकी है । इस संसार में कोई सुखी हैं, कोई दुःखी है, कोई ज्ञानी है कोई अज्ञानी है, कोई संपन्न ( संपत्तिशाली) है, कोई विपन्न ( विपत्तिवाला ) है । यह जो विचित्रता देखी जाती है सो किस कारण से होगी ! यह किसी भी प्रकार घटित नहीं हो सकती । " कओ सिया । यहाँ किम् शब्द કરાઈ ચુકી છે. માત્ર દૃષ્ટાન્ત દ્વારા જ કોઇ પણ પદાની સિદ્ધિ થતી નથી. એવુ હાય તે દૃષ્ટાન્ત તો ગમે ત્યારે અને ગમે ત્યાં જોઈએ એટલા મળી શકે છે. તે દૃષ્ટાન્તા દ્વારા સમસ્ત પદાર્થા ને ઇષ્ટ અથવા અનિષ્ટ રૂપ સિદ્ધ કરી શકાય છે. અથવા- આ ગાથાના બીજો અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે. ભૃતાથી ભિન્ન આત્માના અપલાપ કરનાર તે તજ્જીવ તમ્બરીરવાદીઓના મતમાં આ પ્રત્યક્ષ સિદ્ધ સંસાર કેવી રીતે સંગત થઈ શકે છે! જ્યાં કમ ક્લાનો અનુભવ કરાય છે, તે લેાક (સંસાર) છે. તે સંસાર ચાર ગતિ વાળા છે. એક ભવમાંથી બીજા ભવમાં ગમન કરવાનુ આત્માનું લક્ષણ છે. તેની પ્રરૂપણા પહેલા કરવામાં આવી છે. આ સંસારમાં કોઈ સુખી છે અને કોઈ દુઃખી છે, કોઈ જ્ઞાની છે रमने आई अज्ञानी छे, अध संपन्न (संपत्तिशाणी) छे याने अर्ध वियन्न (विपत्तिशणी) છે. આ પ્રકારની જે વિચિત્રતા સંસારમાં દેખાય છે. તે શા કારણે હશે? આ પ્રશ્નના ઉત્તર તજ્જીવ તરીરવાદીઓના મતમાંથી મળી શકે તેમ નથી. For Private And Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ पोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ अकारकवादि-सांख्यमतनिरूपणम् १८७ तथा च कथमपि संसारस्य वैलक्षण्यं न घटेत तेषां मते । तत्र कारणं वक्तिआत्मनोऽभावात् । यदि शरीरातिरिक्त आत्मा पुण्यपापादीनां फलभोक्ता स्वीक्रियेत तदैव जगतो विचित्रतायाः सिद्धिःस्यात् नान्यथा तस्याः सिद्धिः संभवति । ते तु परलोकगामिनमात्मानम् तथा परलोकगमने साधनं पुण्यपापादिकं च नैव स्वीकुर्वन्ति, तत्कथं जगतो विचित्रता प्रसाधिता स्यात् नैव कथमपीत्यर्थः । ते नास्तिकाः परलोकगमनकर्तारं जीवमस्वीकृत्य पुण्यपापयोवाऽभावमाश्रित्य स्व स्वबुद्धयनुसारेण सावधकर्मकरणात, अज्ञानस्वरूपात्तमसः सकाशात् अन्यतमः प्राप्नुवन्ति । पुनरपि ज्ञानावरणादिरूपमहत्तरं तमः= अज्ञानं आक्षेप अर्थ में प्रयुक्त है। तात्पर्य यह है कि उनके मत में संसार की विलक्षणता किसी भी प्रकार घटित नहीं हो सकती । उसका कारण है आत्मा का अभाव । यदि शरीरादि से भिन्न आत्मा को पुण्य पाप का फल भोक्ता स्वीकार किया होता तो ही जगत् की विचित्रता सिद्ध होती । उसके विना विचित्रता की सिद्धि नहीं हो सकती । परन्तु वे परलोकगामी आत्मा और परलोकगमन के साधन पुण्यपाप आदि को स्वीकार ही नहीं करते तो जगत् की विचित्रता कैसे सिद्ध करेंगे ? किसी प्रकार भी सिद्ध नहीं कर सकते। वे नास्तिक परलोकगामी आत्मा को तथा पुण्यपाप को स्वीकार न करके अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार सावध कार्य करने से, अज्ञान रूप अन्धकार से दूसरे अन्धकार को प्राप्त होते हैं अर्थात् पुनः ज्ञानावरणीय आदि "कओ "सिया डी "किम्" ५४ साझेपाथ पपरा छ । समस्त थन તાત્પર્ય એ છેકે તેમના મનમાં સંસારની વિલક્ષણતા કોઈ પણ પ્રકારે ઘટિત થઈ શક્તી નથી. તેનું કારણ છે આત્માને અભાવ. જે શરીરાદિથી ભિન્ન આત્માને પુણ્યપાપના ફલના ભક્તા રૂપે સ્વીકાર કર્યો હેત, તે જગતની વિચિત્રતા સિદ્ધ થઈ જાત આ માન્યતાને સ્વીકાર કર્યા વિના સંસારની વિચિત્રાની સિદ્ધિ થઈ શકતી નથી. પરન્ત તેઓ પરલેક ગામી આત્માને અને પરલેકગમનને પાપપુણ્ય આદિ સાધનેને સ્વીકાર જ કરતા નથી, તે તેમની માન્યતાને છોડયા વિના તેઓ જગતની વિચિત્રતાને કેવી રીતે સિદ્ધ કરી શકશે? કહેવાનું તાત્પર્ય એ છેકે તેમને મત સંસારની વિચિત્રતાને સિદ્ધ કરવાને સમર્થ નથી. તે નાસ્તિક લોકે પરલોકગામી આત્માને તથા પાપપુણ્ય સ્વીકાર નહીં કરીને, પિતે પિતાની બુદ્ધિ અનુસાર સાવદ્ય કાર્યો કરીને એક અંધકારમાંથી બીજા અંધકારમાં For Private And Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १८८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे संचित | अथवा तम इव तमः दुःखसमुद्घातेन सदसद्विवेकविनाशकत्वात् । यातनास्थानं तमः । तस्मादेवंभूतां तमसः सकाशात् अन्यतमो यातनास्थानं नरकविशेषं प्राप्नुवन्ति । अर्थात् सप्तमनरक पृथिव्यां रौरव महारौरव - काल - महाकालाऽप्रतिष्ठाननामकं नरकाऽपरपर्यायं दुःखस्थानं यान्ति । अयमर्थः सदसदविवेकरहितत्वात् तेषां सुखाशातु दुरे भवतु नाम । प्रत्युत एकं नरकस्थानं परित्यज्य ततोऽप्यधिकतराऽधिकतमनरकस्थानं यान्ति, arrer एव परिभ्रमन्ति । कथं ते तादृशनरकचक्रं नातिवर्त्तन्ते, तत्राह - 'मंदा आरंभनिस्सिया' इति । मन्दा : = सदसद्विवेकरहिताः, आत्मसाधकप्रत्य - रुप महान् अज्ञान का संचय करते हैं । अथवा दुःखो के समूह के कारण सत् असत् के विवेक का विनाशक होने से तम के समान होने के कारण यातना का स्थान तम कहलाता है । अतएव इस प्रकार के तम से दूसरे तम अर्थात् यातना के धाम नरक को प्राप्त होते हैं अर्थात् सातवीं नरक को पृथ्वी में रौरव, महारौरव काल, महाकाल और अप्रतिष्ठान नामक नरक को प्राप्त होते हैं । अभिप्राय यह है सत् असत् के विवेक से रहित होने के कारण उनके सुख की आशा तो दूर रही, उलटे एक नरक स्थान को छोड़कर उससे भी अधिकतर और अधिकतम नरकस्थान को प्राप्त होते हैं वे नरक के चक्र में ही घूमते रहते हैं । नरक के चक्र से बाहर क्यों नहीं निकलते हैं ? इसका कारण कहते हैं-- वे मन्द अर्थात् सत् असत् के विवेक से रहित हैं और आत्मा પડતા રહે છે. એટલેકે ફરી ફરીને જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મ રૂપ અજ્ઞાનને સંચય કરતા રહે છે. અથવા યાતનાનાં સ્થાનને અહી... ‘તમ’ રૂપ કહેવામાં આવેલ છે, કારણ કે અજ્ઞાનને કારણે સત્ અસ! વિવેક નષ્ટ થઇ જાયછે યાતનાનાં સ્થાન એટલે એક એકથી ચિયાતાં નરકધામા આ પ્રકારના નાસ્તિક લોકો એક નરકમાંથી બીજા નરકમાં ગમન કર્યા જ કરે છે. એક એકથી અધિકતર યાતનાજનક નરકોમા ઉત્પન્ન થયા કરે છે. એટલે કે સાતમી પૃથ્વીના રૌરવ, મહારૌરવ, કાળ. મહાકાળ અને અપ્રતિષ્ઠાન નામનાં અત્યંત યાતના જનક નરકાવાસામાં ઉત્પન્ન થાય છે. મા કથનના ભાવા એ છેકે સત્ અસના વિવેકથી રહિત હોવાને કારણે તેમને સુખપ્રાપ્ત થવાની તે આશા જ નથી, પરન્તુ એક એકથી અધિસ્તર અને અધિકતમ યાતનાજન નરકમાં ઉત્પન્ન થઇને તેઓ અધિકને અધિક દુઃખનો જ અનુભવ કર્યાં કરે છે. તેઓ શા કારણે નરકાના ચક્રમાં જ ભસ્યાં કરે છે; તે નામાંથી બહાર કેમ નીકળી શક્તા નથી, તેનુ કારણ નીચે પ્રમાણે છે. તે મન્દ બુદ્ધિવાળાં છે. સ For Private And Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ अकारकवादि-सांख्यमतनिरूपणम् १८९ क्षाऽनुमानाऽऽगमप्रमाणसद्भावेऽपि स्वाऽभिनिवेशमात्रेणैव आत्मनोऽभावं प्रतिपद्य प्राणिनां विनाशकारणे विवेकिजननिन्दितकर्मणि प्राणातिपाताधारंभे निःश्रिताःनितरामतिशयिततयाऽऽश्रिताः= आसक्ताः । 'धर्माधर्मयो स्तिसत्ते'-त्यंगीकृत्य पापकर्मणि रताः, परलोकनिरपेक्षतया पापोत्पादककर्मणि प्राणातिपातादौ संबद्धाः। यस्मात्तेऽतिमूर्खाः विवेकालोकरहिताः, अतस्ते पापकर्मचयोपचयं कृत्वा, नरकात् नरकान्तरं गच्छन्ति बोधविकलत्वात् । एतादृशं शिष्टजनगर्हितमपि कर्म कृत्वा तत्फलं घटीयन्त्रन्यायेनाऽनुभवन् न ततः कदाचिदपि विमुक्तिं प्राप्नुवन्ति ॥१४॥ इति तज्जीवतच्छरीरवादिमतखण्डनम् । को सिद्ध करनेवाले प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आगम प्रमाणों का सद्भाव होनेपर भी अपने दुराग्रह के वशीभूत होकर, आत्मा का अभाव मान कर विवेकी जनों द्वारा निन्दित कर्म प्राणातिपात आदि आरंभ में अतीव आसक्त हो जाते हैं ___अर्थात् धर्म और अधर्म की सत्ता नहीं हैं, ऐसा मान कर पाप कर्म में निरत होते है । परलोक की परवाह न करके प्राणातिपात आदि पाप जनक कार्यों में लीन होते हैं। क्योंकि वे अत्यन्त मूर्ख हैं, विवेक के प्रकाश से रहित हैं अतएव पापकर्मों का अत्यन्त संचयकरके एक नरक से दूसरे नरक में जाते हैं, क्योंकि वे बोधसे रहित हैं । शिष्ट पुरुषों द्वारा निन्दित इस प्रकार के पाप कर्म को करके घटीयन्त्र की भाँति उसके फल का अनुभव करते हुए कभी छुटकारा नहीं पाते तज्जीवतच्छरीरवादी के मत का खण्डन समाप्त અસતના વિવેકથી રહિત છે આત્માને સિદ્ધ કરવા માટે પ્રત્યક્ષ, અનુમાન અને આગમ પ્રમાણેને સદ્ભાવ હોવા છતાં પણ તેઓ પિતાને દુરાગ્રહ છોડતા નથી. તેઓ આત્માને અભાવ માનીને વિવેકી જ દ્વારા નિન્દ્રિત એવાં પ્રણાતિપાત આદિ આરંભમાં ઘણું જ આસક્ત રહે છે અને પાપપ્રવૃત્તિ કરતા રહે છે. એટલે કે ધર્મ અને અધર્મનું અસ્તિત્વ જ નથી, એવું માનીને તેઓ પાપકર્મોમાં નિરત રહે છે. પહેલેકની પરવા કર્યા વિના પ્રાણાતિપાત આદિ પાપજનક કર્મોમાં તેઓ લીન રહે છે. કારણ કે તેઓ અત્યંત મૂખ છે અને વિવેક રૂપ પ્રકાશથી રહિત છે. તેથી પાપકર્મોને ખૂબજ સંચય કરીને તેઓ એક નરકમાંથી બીજી નરકમાં ગમન ર્યા જ કરે છે. બોધથી વિહીન એવા તે લેકે પાપકર્મોનું સેવન કરીને તે પાપના ફળને ભેગવવાને માટે રહેંટ સમાન નરક ચક્રમાં ઘૂમ્યા જ કરે છે. તજજીસ તરીવાદીના મતનું ખંડન સમાપ્ત. n For Private And Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९० सूत्रकृताङ्गो ___ चतुर्दशगाथया तज्जीवतच्छरीरवादिमतं निराकृत्य पुनरावृत्याऽनयैवगाथया अकारकवादि सांख्यमतं प्रतिक्षेप्तुं अस्या एव गाथायाः प्रकाज्ञन्तरेण व्याख्यानं क्रियते-'जे तेउ' इत्यादि । जे तेउ वाइणो एवं, लोए तसि कओ सिया । तमाओ ते तमं जंति, मंदा आरंभनिस्सियो ॥१४॥ टीका'जे तेउ वाइणो' ये ते तु वादिनः आत्मनोऽकारकवादिनः आत्मनः कूटस्थनित्यत्वामूर्त्तत्वसर्वव्यापित्ववादिनः, एभिरेव नित्यत्वाऽमूर्त्तत्वव्यापकत्व कारणैरात्मनः क्रियारहितत्वमिच्छन्ति । तेषामयं प्रत्यक्षदृष्टो यो लोकः उत्तममध्यमाऽधमभावेन जरा-मरण-जननसुख-दुःखादितारतम्येन व्यवस्थितः । तथा नरकतिर्यङ्मनुष्यदेवगतिलक्षणः । सोऽयमेवंभूतः प्रपंचः संसारापरनामकः ___ चौदहवीं गाथा के द्वारा तज्जीवतच्छरीरवादी के मतका निराकरण करके पुनरावृत्ति करके इसी गाथा द्वारा अकारकवादी सांख्यमतका खण्डन करने के लिए इसी गाथा का दूसरी तरहसे व्याख्यान किया जाता है। -टीकार्थ जो बादी आत्मा को अकारक मानते हैं, आत्मा को कूटस्थ, नित्य, अमूर्त और सर्वव्यापक मानते हैं और नित्यता अमूर्तता तथा सर्वव्यापकता के कारण आत्मा को क्रिया रहित स्वीकार करते हैं, उनके मत के अनुसार यह प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला, उत्तम मध्यम तथा अधम रूपसे एवं जन्म जरा मरण सुख दुःख आदि रूप तारतम्य से व्यवस्थित, नरक, तिर्यंच, હવે સૂત્રકાર અકારકવાદીઓના મતનું ખંડન કરે છે. - ચૌદમી ગાથા દ્વારા તજજીવ તછરીરવાદીઓના મતનું ખંડન કરવામાં આવ્યું હવે એજ ગાથાનું બીજી રીતે વ્યાખ્યાન કરીને અકારવાદી સાંખ્યોના મતનું ખંડન કરવામાં भाव छ. ___-टीआय જે મતવાદીએ આત્માને અકારક માને છે. આત્માને કુટસ્થ નિત્ય, અમૂર્ત અને સર્વવ્યાપક માને છે, અને નિત્યતા, અમૂર્તતા તથા સર્વવ્યાપકતાને કારણે આત્માને કિયારહિત માને છે, તેમના મત અનુસાર જે આત્માને કિયાશૂન્ય માનવામાં આવે અને નિત્ય માનવામાં આવે, તો આ પ્રત્યક્ષ દેખાતે, ઉત્તમ, મધ્યમ તથા અધમ રૂપ અને सन्म, २, भ२०, सुपः५ २६३५ तारतभ्यथी व्यवस्थित, न२४, तिय"य, मनुष्य અને દેવગતિ વાળે સંસાર નામને પ્રપંચ પણ આત્મામાં કેવી રીતે સંભવી શકે? આ For Private And Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ अकारकवादि-सांख्यमतनिरूपणम् १९१ सर्वथा क्रियाशून्ये आत्मनि स्वीक्रियमाणे अप्रच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकस्वभावे सर्वथा नित्ये स्वीक्रियमाणे च आत्मनि कुतः कस्मात् कारणविशेषात् स्यात् । न कथमपि घटेत । अयमाशयः-यदि जीवः कूटस्थ नित्यः तदा तस्य देहाद देहान्तरे गमनाऽऽगमनासंभवात् । मनुष्यशरीरं विहाय देवशरीरग्रहणस्वरूपं जन्म कथं स्यात् । कथं च पूर्वशरीरत्यागरूपं मरणं वा संभवेत् । नहि सर्वथा व्यापकस्य गगनस्य गमनागमनं संभवति । गगनवत् यदि आत्मापि सर्वव्यापको नित्योऽमूर्तश्च भवेत् तदा तादृशात्मनोऽपि गत्यागती न संभवेताम् । ततश्च जन्ममरणादिव्यवस्थाया अभाव एव प्रसज्येत । जन्ममरणाऽभावे उपभोगसाधन शरीराणां देवमनुष्यादीनां प्राप्तेरभावात् । कश्चित्सुखी, कश्चिदुःखी, कश्चित्बद्धः, --- मनुष्य एवं देवगति वाला संसारनामक प्रपंच आत्माको क्रिया शून्य मानने पर, तथा अपने स्वरूप से च्युत न होना, उत्पन्न न होना एवं स्थिर एक स्वभाव रूप सर्वथा नित्य मानने पर आत्मा में किस प्रकार होगा ? अर्थात् किसी भी प्रकार से घटित नहीं होसकता । तात्पर्ययह है कि जीव यदि कूटस्थ नित्य है तो उसका एक देह से दूसरे देह में जाना संभव नहीं है। फिर मनुष्य शरीर को छोडकर देव शरीर को ग्रहण करना रूप जन्म कैसे होगा ? पूर्व शरीर का त्यागना रूप मरण भी कैसे हो सकेगा? सर्वथा व्यापक आकाश का गमन आगमन नहीं हो सकता। अगर आत्मा भी आकाश की तरह सर्वव्यापक, नित्य और अमूर्त है तो उसकी भी गति और आगति होना संभव नहीं है। ऐसी हालत में जन्म और मरण आदि की व्यवस्था का अभाव हो जाएगा। जन्म और मरण के अभाव में उपभोग के साधन देव मनुष्य आदि के शरीर की भी प्राप्ति नहीं होगी। कोई सुखी हो, कोई दुःखी, कोई बद्ध, कोई मुक्त, इस प्रकार की व्यवस्था भी किसी भी प्रकार सिद्ध न होगी। કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જીવ જે કૂટસ્થ નિત્ય હોય, તે તેનું એક દેહમાંથી બીજા દેહમાં ગમન સંભવી શકતું નથી. તે પછી મનુષ્યશરીરને છોડીને દેવશરીરને ગ્રહણ કરવા રૂપ જન્મ કેવી રીતે સંભવી શકે? પૂર્વશરીરને ત્યાગ કરવા રૂપ મરણ પણ કેવી રીતે સંભવી શકે? જેવી રીતે સર્વવ્યાપક આકાશનું ગમનાગમન સંભવી શકતું નથી, એજ પ્રમાણે જે આત્માને પણ સર્વવ્યાપક, નિત્ય અને અમૂર્ત માનવામાં આવે, તે આત્માની પણ ગતિ આગતિ સંભવી શકે નહીં. એવી પરિસ્થિતિમાં જન્મને મરણ, આદિની વ્યવસ્થાને પણ અભાવ જ થઈ જાય. જન્મ મરણને અભાવ હોય, તે ઉપભેગના સાધનરૂપ દેવ, મનુષ્ય આદિને શરીરની પ્રાપ્તિ પણ થઈ શકે નહીં. અને કઈ For Private And Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतामसूत्रो कश्चिन्मुक्तः इति व्यवस्थापि न कथमपि सिद्धयेत् । तादृश व्यवस्थाया अभावे सर्वोपिलोको व्याकुली क्रियेत । अयं भावः-आत्मा यदि कूटस्थनित्योऽमृत्तों निष्क्रियो भवेत् तदा एतादृशाऽऽत्मनः स्वभावपरित्यागस्याऽसंभवेन स्वभाव प्रच्युतिसाध्य जन्म-मरण-जरा-बन्धमोक्षादीनामभावो भवन् केन कथं वारणीयः, कथमपि-एतेषां मोक्षादीनां समर्थनं न केनापि कर्तुं शक्येत, न चेष्टापत्तिः, तथा सति आस्तिकपरिषदं परित्यज्य नास्तिककोटौ प्रवेशस्य दुरिता स्यात् । इत्थं च दृष्टेष्टबाधारूपात्तमसोऽज्ञानरूपात् । तमोऽन्तरं अतिशयित यातनास्थानं यान्ति प्राप्नुवन्ति । कथमेवं ते यातनास्थानं यान्ति तत्राह इस प्रकार की व्यवस्था के अभाव में सब लोग व्याकुल हो जाएंगे। अभिप्राय यह है आत्मा यदि कूटस्थ नित्य हैं, अमूर्त है और क्रियाशून्य है तो ऐसे आत्मा का स्वभाव बदलना संभव नहीं होगा। फिर स्वभाव के बदलने पर ही होने वाले जन्म, जरा, मरण, बन्ध और मोक्ष आदि का भी अभाव हो जाएगा। उसे कौन रोकेगा? कोई भी मोक्ष आदि का समर्थन न कर सकेगा। अगर कहो कि यह हमारे लिए इष्टापत्ति है तो ऐसी दशा में आस्तिकों की मंडली को त्याग कर नास्तिकों की कोटि में प्रवेश करना अनिवार्य हो जाएगा। इस प्रकार प्रत्यक्ष और अनुमान से आनेवाली बाधारूप अन्धकार अज्ञान से दूसरे अन्धकार को अर्थात् अतिशय यातना के स्थान को प्राप्त સુખી હોય અને કેઈ દુઃખી હોય, કોઈ મુક્ત હોય અને કોઈ અમુક્ત હય, એવી વ્યવસ્થાની પણ કોઈ પણ પ્રકારે સિદ્ધિ જ ન થાય ! આ પ્રકારની વ્યવસ્થાના અભાવે સઘળા લેકે વ્યાકુળ થઈ જશે. આ કથન દ્વારા સૂત્રકાર એ વાત પ્રગટ કરે છે કે – જે આત્મા કુટસ્થ નિત્ય, અમૂર્ત અને ક્રિયાશૂન્ય હિય, તે એવા આત્માને સ્વભાવ બદલવાનું શકય નહી બને તે પછી સ્વભાવ બદલાયા ત્યારે જ સંભવી શકનારા જન્મ, જરા, મરણ, બબ્ધ, અને મિક્ષ આદિનો અભાવ જ માન પડે. તેને કેણ રોકી શકશે ?કે પણ મેક્ષ આદિનું સમર્થન નહીં કરી શકે ! કદાચ તેને તમે ઇછાપત્તિ રૂપ માનતા છે, તે તમારે માટે આસ્તિકોની મંડળીમાંથી નીકળી જઈને નાસ્તિકની મંડળીમાં જ દાખલ થઈ જવાનું અનિવાર્ય થઈ પડશે. આ પ્રકારે આત્માને કિયા સહિત અમૂર્ત,નિત્ય આદિ રૂપ માનનારા અકારકવાદીઓની માન્યતા પ્રત્યક્ષ અને અનુમાન પ્રમાણે તથા આગમ પ્રમાણુ દ્વારા ખંડિત થઈ જાય છે. તે પ્રકારની માન્યતા ધરાવનારા અજ્ઞાની લેકે એક અંધકારમાંથી બીજા અંધકારમાં ગમન • કર્યા જ કરે છે એટલે કે તેમને અધિકતર અને અધિકતમ યાતનાઓ સહન કરવી પડે For Private And Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र.अ. अ. १ अकारकवादि-सांख्यमतनिरूपणम् १९३ 'मंदा' इति । यतो मन्दाः-जडाः सदसद्विवेकविकलाः, तथा प्राणातिपाताधारंभे निश्रिताः संलग्नाश्चेति ततो नैतन्मतं समीचीनम् ॥१४॥ अथ नियुक्तिकारोऽप्यकारकवादिमतनिरासार्थमेवमाह को वेएई अकयं कयनासो पंचहा गई नत्थि । देवमणुस्स गयागई, जाई सरणाइयाणं च ॥१॥ छाया- को वेदयति अकृतं कृतनाशः पञ्चधा गतिर्नास्ति । देवमनुष्यगत्यागती, जातिस्मरणादिकानां च ॥१॥ इति । व्याख्याचेत्थम्-'को वेएई' यदि कर्ता नास्ति कश्चित तदा तादृशकर्तुः क्रियमाणं कर्माऽपि नास्ति । अथ च यदि कर्म न विद्यते, तदा कर्मणामभावे स कथं होते हैं। वे यातना स्थान को क्यों प्राप्त होते हैं ? इसका कारण यह है कि वे मन्द अर्थात् सत् असत् के विवेक से रहित हैं तथा प्राणातिपात आदि आरंभ में संलग्न हैं। अतः यह मत समीचीन नहीं है। नियुक्तिकारने अकारकवादी के मत का निरास करने के लिए इस प्रकार कहा है-"वेएई अकयं" इत्यादि। _ (अगर कोई कर्म का कर्ता नहीं है तो) विना किये कर्म को कौन भोगता है ? कृत कर्म के विनाश का दोष आता है। पांच प्रकार की गति संभव नहीं हो सकती। देव एवं मनुष्य पर्याय में गति आगति तथा जाति स्मरण आदि भी संभव नहीं हैं। गाथा की व्याख्या इस प्रकार है-यदि कोई कर्ता नहीं है तो कर्ता द्वारा किया जाने वाला कर्म भी नहीं हो सकता। अगर कर्म नहीं है तो એવાં સ્થાનમાં (નરકમાં) વારં વાર ઉત્પન્ન થયા જ કરે છે. તેઓ શા કારણે એવાં યાતના સ્થાનેમાં ઉત્પન્ન થયા કરે છે? તેનું કારણ એ છે કે તેઓ મન્ટ છે એટલે કે સત્ અસના વિવેકથી રહિત છે તથા પ્રાણાતિપાત આદિ આરંભમાં લીન છે. તેથી તેઓ એક અંધકારમાંથી બીજા અંધકારમાં ગમન કર્યા જ કરે છે. આ પ્રકારે તેમની માન્યતા યુક્ત નથી, એ વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે. અકારકવાદીઓના મતનું ખંડન કરવા માટે નિર્યુક્તિકારે આ પ્રમાણે કહ્યું છે"वेइए अकयं त्याह- " (ने भनी त । न जायत) मत भनु (२ भर કરવામાં આવ્યું નથી તેનું ફળ કોણ ભોગવે છે? કૃતકર્મના વિનાશને દેવ પણ આવે છે, અને પાંચ પ્રકારની ગતિ પણ સંભવી શકે નહીં દેવ અને મનુષ્ય પર્યાયમાં ગતિ, આગતિ તથા જાતિસ્મરણ આદિ પણ સંભવી શકે નહી, ઉપર્યુક્ત ગાથાનું વિશેષ સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે કરી શકાય- જે કંઈ કર્તા જ ન હોય. તે કર્તા દ્વારા કરવામાં આવનારૂં કર્મ પણ હોઈ શકે નહીં. જે કર્મ જ ન હોય સૂ૨૫ For Private And Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - ... सूत्रकृताङ्गसूत्रो .. कर्मफलोपभोग करिष्यति । एवमात्मनोऽकर्तृत्वे "अहं जानामि" इत्यादि रूपेण ज्ञान क्रियाऽपि न संपद्येत । एवं सति · कृतनाशाकृतागमप्रसंगः केन वारियितुं शक्येत । ततश्च एकेन सम्पादितपापकर्मणा .सर्वोऽपि प्राणी दुःखी संपद्येत । तथा-एकेन संपादितपुण्यकर्मणा सर्वोऽपि सुखी संपद्येत । न चैवं. संभवति दृष्टविरोधात् । न चैवं भवति देवदत्तः कर्म करोति, फलं च भवेद् यज्ञदत्तस्य । तत्कुतः ? कर्मफलयोः समानाधिकरण्येनैव कार्यकारणभावस्य व्यवस्थितत्वात् । अन्यथा-दारुच्छिदासंबन्धेऽन्यत्रापि द्वैधी. कर्ता । अगर कर्म नहीं है तो कर्मों के अभाव में वह कर्मफल का उपभोग कैसे करेगा ? इस प्रकार आत्मा को अकर्ता मानने पर "मैं" जानता हूँ "इत्यादि रूप से ज्ञान क्रिया भी नहीं हो सकेगी। इस प्रकार कृतनाश और अकृताभ्यागम दोषों का प्रसंग कौन रोक सकेगा ? ऐसी स्थिति में एक के द्वारा किये हुए पापकर्म से सभी प्राणी दुःखी हो जाएँगे और एक के किये पुण्यकम से सब सुखी हो जाएँगे । मगर प्रत्यक्ष बिरोध होनेसे ऐसा होना संभव नहीं है । ऐसा तो होता नहीं कि देवदत्त कर्म करे और यज्ञदत्त उसका फल भोगे ! क्यों ऐसा नहीं होता ? कर्म और फल में जो कार्यकारणभाव सम्बन्ध है वह समानाधिकरणता के साथ है अर्थात् जो आत्मा कर्म का आदिकरण होता है वही फल का अधिकारण १ किये कर्म का फल न मिलना कृतनाश दोष कहलाता है २ विना किये कर्म का फल मिलना अकृताभ्यागम दोष कहलाता है । તે કર્મને અભાવે તે કર્મફળને ઉપભેગ કેવી રીતે કરશે? આ પ્રકારે આત્માને અકર્તા માનવામાં આવે, તે હું જાણું છું” ઈત્યાદિ રૂપે જ્ઞાનકિયા પણ સંભવી શકે નહીં. આ પ્રકારે કૃતનાશ અને અકૃતાત્માગમ નામના બે દોને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થઈ જશે. (કરેલા કર્મનું ફળ ન મળવું તેનું નામ “કૃતનાશ દોષ” છે. અકૃત કર્મનું ફળ મળવું તેનું નામ “અકૃતાભ્યાગમ દોષ” છે) એવી પરિસ્થિતિમાં એકના દ્વારા આચરિત પાપકર્મને કારણે સઘળા પ્રાણીઓ દુઃખી થશે અને એકના દ્વારા આચરિત પુણ્યકર્મ દ્વારા સઘળા છે સુખી થઈ જશે. પરંતુ આ વાતમાં તે પ્રત્યક્ષ વિરોધ હોવાથી, એવું બની શકે જ નહી. એવું તે કદી બનતુ નથી કે દેવદત્ત કર્મ કરે અને તે કર્મનું ફળ યદત્ત ભેગવે એવું કેમ સંભવી ન શકે ? " કર્મ અને ફલમાં જે કાર્યકારણભાવ રૂપ સંબંધ છે, તે સમાનાધિકરણતાની સાથે જ છે. એટલે કે જે આત્મા કર્મને અધિકરણ રૂપ હોય છે, એજ આત્મા ફળના અધિકરણ For Private And Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ योधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ अकारकदिवादि-सांख्यमतनिरूपणम् १९५ भावस्यापत्तेः । किंच-यदि आत्मा कर्ता न स्यात् । तदा भवच्छास्त्रे एव प्रदर्शितानाम् "स्वर्गकामो यजेत" "मा हिंस्यात्सर्वभूतानि" इत्यादि विधिनिषेधशास्त्राणां का गतिः स्यात् ? का वा गति भवेत्-"श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः' इत्यादि मोक्षकारण-प्रतिपादकवचसाम् । भवन्मान्य वेदव्यासरेव-"कर्ता शास्त्रार्थवत्त्वात्" इति वेदान्तसूत्रे, जीवानां कर्तृत्वप्रतिपादनं कृतं, तदपि कथं संगतं भवेत् । तथाऽऽत्मनोऽकर्तृत्वे-"पंचहा गई नत्थि" पंचधा= पंचप्रकारा-नारक, तिर्यङ्नराऽमरमोक्षलक्षणा गतिरपि न संभवेत् । ततश्च सांख्यशास्त्राऽनुयायिनां मोक्षोद्देशेन संन्यासविधानं योगायनुष्ठानं च सर्वमेव होता है। ऐसा न हो तो लकडी ओर कुल्हाडी का संयोग होने से दूसरी चीजों के भी दो टुकडे होने लगेंगे। - इसके अतिरिक्त आत्मा यदि कर्ता न हो तो आपके शास्त्र में ही दिखलाए हुए "स्वर्गकामो यजेत " अर्थात् स्वर्ग का अभिलापी यज्ञ करे 'मा हिंस्यात्सर्वभूतानि" अर्थात् किसी भी प्राणी की हिंसा न करे इन विधि निषेध रूप वाक्यों की क्या दशा होगी ! और "इस आत्मा का श्रवण" मनन और निदिध्यासन करना चाहिए "इत्यादि मोक्ष के प्रतिपादक वचनों का क्या होगा ? आपके मान्य वेदव्यासने ही "कर्ता शास्त्रार्थवत्त्वात् " इस वेदान्त सूत्र में जीवों के कर्तत्व का प्रतिपादन किया है, वह भी कैसे संगत होगा ? तथा आत्मा को अगर अकर्ता मानोगे तो मनुष्यगति देवगति, नरकगति, तिर्यंचगति और मोक्षगति यह पांच प्रकार की गति भी संभव नहीं होगी । फिर तो सांख्यशास्त्र का अनुसरण करने वालों के लिए मोक्ष રૂપ હોય છે. જે એવું ન હોત તો લાકડી અને કુહાડીને સોગ થવાથી બીજી ચીજોના પણ બે ટુકડા થઈ જતા હતા તે ने आत्मा पत्ता न डाय, ते मापन शास्त्री २.४ प्रतिपाहित, "स्वर्गकामा यजेत" वगना मनिसावाणामे य: ४२वो ऽन्ये "मा हिस्यात्सर्वभूतानि" પણ જીવની હિંસા ન કરવી જોઈએ” આ વિધિનિષેધ રૂપ વાની સંગતતા જ કેવી રીતે માની શકાય? અને આ આત્માનું શ્રવણ, મનન, અને નિદિધ્યાન કરવું જોઈએ ઈત્યાદિ મેક્ષનું પ્રતિપાદન કરનારાં વાને પણ કેવી રીતે સગત ગણી શકાય? આપ ने भान्य । छ। मेवा मुनि वेदव्यासे पान “कत्ता शास्त्रार्थवत्वात् मा वेहान्त सूत्रमा જીવના કર્તવનું જ પ્રતિપાદન કર્યું છે. તેને પણ કેવી રીતે સંગત માની શકાય? તથા આત્માને જે અકર્તા માનશે, તે મનુષ્યગતિ, દેવગતિ, નરકગતિ, તિર્યંચગતિ અને મેક્ષગતિ, આ પાંચ પ્રકારની ગતિ પણ સંભવી શકશે નહી. એવી પરિસ્થિતિમાં For Private And Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९६ निरर्थकतां प्राप्नुयात् । तथा " पंचविंशतितत्त्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे वसेत् । जी मुण्डी शिखिवापि मुच्यते नात्र संशयः ॥ १ । ।" इत्यादीनां नैरर्थक्यं कथमपि न समाहितं भवेत । अयमाशय: - यादि -आत्मा कर्तव न भवति, तदा विधिनिषेधमोक्षशास्त्राणां नैरर्थक्यं सर्वथैवाऽऽपतति, नहि एतस्य समाधानं कथमपि स्यात् । तथा ' देवमणुस्स गयागई " देवमनुष्यगत्यागती, यदि आत्मा न कर्त्ता, स सर्वव्यापकः तदा देवमनुष्यादि योनौ जीवस्य गमनाऽऽगम ने न स्याताम् । नहि सर्वव्यापकस्याऽऽकाशस्य गत्यागती संभवतः । तथा 'जाइसरणाइयाणं च' जातिस्मरणादिकानामपि संभवो न स्यादिति । यदप्युक्तम् - "प्रकृतिः प्राप्ति के उद्देश्य से संन्यास धारण करना और योग आदि का अनुष्ठान करना आदि सभी कुछ व्यर्थ हो जाएगा । तथा आपका यह कथन भी निरर्थक हो जायगा कि - " जो पच्चीस तत्वों का ज्ञाता है, वह जिस किसी भी आश्रम में रहता हो, चाहे जटा धारण करता हो, चाहे सिर मुंडवाता हो, चाहे शिखा रखता हो, मुक्त हो जाता है। इसमें संशय नहीं है । " अभिप्राय यह है कि अगर आत्मा कर्त्ता ही नहीं हैं तो विधि, निषेध और मोक्ष का प्रतिपादन करने वाले शास्त्र वचन निरर्थक ही हो जाते हैं । किसी भि प्रकार इसका समाधान नहीं हो सकता । इसी प्रकार देव और मनुष्य भव में गमन और आगमन नहीं हो सकता, क्योंकि आत्मा कर्त्ता नहीं है और सर्वव्यापक है । आकाश सर्वव्यापक है तो उसका गमन और आगमन संभव नहीं है 'जातिस्मरण आदि भी संभव नहीं हो सकते । સાંખ્યશાસ્ત્રના અનુયાયીઓનુ મેાક્ષની પ્રાપ્તિ નિમિત્તે સન્યાસી બનવાનું અને યાગાદિનુ અનુષ્ઠાન કરવાનું પણ નિરથ ક જ ગણાશે. આત્માને અકત્તાં માનવાને કારણે આ પ્રકારની પરિસ્થિતિ ઉત્પન્ન થવાને કારણે આપનું આ કથન પણ નિરક જ ખની જશે. “ જે પચીશ તત્ત્વાના જ્ઞાતા છે, તે ભલે ગમે તે આશ્રમમાં રહેતા હોય કે ચાહે જટા ધારણ કરતા હાય કે ધારણ ન કરતા હાય, ચાહે, શિર મુડાવતા હાય કે શિખા રાખતા હાય, છતાં પણ એવો જીવ મુક્ત થઇ જાય છે, એ વાતમાં કોઇ સંશયને સ્થાન જ નથી.” આ કથન દ્વારા એ વાત સિદ્ધ થાય છે કે જે આત્મા કત્તાં જ ન હેાય, તે વિધિ, નિષેધ અને મેાક્ષનુ' પ્રતિપાદન કરનારાં શાસ્ત્રવચને નિČક જ બની જાય છે. કોઇ પણ પ્રકારે તેમની સાર્થકતાનું સમાધાન જ કરી શકાય નહી એજ પ્રમાણે દેવ અને મનુષ્ય ભવમાં ગમન અને આગમન પણ સભવી શકે નહી. કારણ કે આત્માં કર્તા નથી અને સવ્યાપક છે. આકાશ સ`વ્યાપક છે, તેથી તેનુ ગમન અને આગમન સ ંભવી શકતુ નથી, એજ પ્રમાણે સર્વવ્યાપક આત્માનુ પણ દેવગતિ આદમાં ગમનાગમન સભવે નહીં અને જાતિસ્મરણ આદિ પણ સભવી શકે નહીં. For Private And Personal Use Only सूत्रकृतासूत्रे Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र.अ. अ. १ पुण्यपापाभावनिरूपणम् १९७ करोति सर्व फलं च भुंक्त पुरुष" इति, न सम्यक्, क्रियाफलयोः समानाधिकरण्येनैव कार्यकारणभावस्य व्यवस्थानात् । प्रकृतिसंपादित फलोपभोगस्या ऽन्यत्र संभवात् । किंच-भोक्तृत्वमपि क्रियैव, सा च भुजिक्रिया निष्क्रिये पुरुषे कयं समवेयात् । नहि दण्डाभाव-विशिष्टं पुरुषं दण्डः समाश्रयते, तथा सर्वथा क्रियाविरहितं पुरुष भुजिक्रिया कथमाश्रयिष्यति । न च प्रतिबिंबोदय न्यायेन प्रकृतिकृतसंसारापर्गयोः पुरुषसंबन्धः स्यादिति वाच्यम्, असं____ आपने यह जो कहा है कि प्रकृति कर्म करती है और पुरुष उसका सारा फल भोगता है, सो भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि क्रिया और फल में समानाधिकरणता होने पर ही कार्यकारणभाव होता है। प्रकृति के द्वारा सम्पादित फल का उपभोग किसी दूसरे (पुरुष) में संभव नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त भोक्तत्व भी क्रिया ही है। वह भोगने की क्रिया निष्क्रिय पुरुष में कैसे हो सकती है ! दण्ड दण्डाभाव से विशिष्ट पुरुष का आश्रय नहीं ले सकता, इसी प्रकार सर्वथा क्रियारहित पुरुष में भोगने की क्रिया नहीं हो सकती। अगर कहो कि प्रतिविम्बोदय के न्याय से प्रकृति के द्वारा कृत संसार और मोक्ष का पुरुष में सम्बन्ध हो जाता है, अर्थात् जैसे दर्पण में नाना प्रकार के प्रतिबिम्ब गिरते है फिर भी दर्पण अपने स्वरूप से ज्यों का त्यों रहता है। उसी प्रकार संसार मोक्ष प्रकृतिगत होने पर भी पुरुष में उनका प्रतिविम्ब पडता है। फिर भी पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं होता, ऐसा कहना ठीक नहीं । यह असंभव है । ન આપે છે એવું કહ્યું છે કે “ પ્રકૃતિ કર્મ કરે છે અને પુરુષ (આત્મા) તેનું પૂરે પૂરૂ ફળ ભેગવે છેતે કથન પણ સ્વીકારી શકાય તેમ નથી, કારણ કે કિયા અને ફળમાં સમાનાધિકરણતા હોય તે જ કાર્યકારણભાવ સંભવે છે. પ્રકૃતિ દ્વારા સંપાદિત ફલને ઉપભોગ કેઈ બીજા (પુરુષ) માં સંભવી શકતું નથી. વળી ભેાવ પણ ક્રિયા જ છે. તે ભેગવવાની ક્રિયા નિષ્ક્રિય પુરુષમાં કેવી રીતે સંભવી શકે ? દંડ દંડાભાવથી યુક્ત પુરુષને આશ્રય લઈ શકતા નથી, એજ પ્રમાણે સર્વથા કિયારહિત પુરુષમાં ભેગવવાની ક્રિયા સંભવી શકે નહીં. કદાચ આપ એવું પ્રતિપાદન કરતા હો કે “ પ્રતિબિમ્બદયને ન્યાયે પ્રકૃતિના દ્વારા કૃત સંસાર અને મોક્ષને પુરુષમાં સંબંધ સંભવી શકે છે, એટલે કે જેવી રીતે અરીસામાં વિવિધ પ્રકારનાં પ્રતિબિંબ પડે છે, છતાં પણ અરીસાના સ્વરૂપમાં બિલકુલ ફેરફાર પડતું નથી, એજ પ્રમાણે સંસાર અને મોક્ષ પ્રકૃતિગત હેવા છતાં પણ, પુરુષમાં (આત્મામાં) તેમનું પ્રતિબિંબ પડે છે, છતાં પણ પુરુષમાં કોઈ પણ પ્રકારને વિકાર ઉત્પન થતું નથી આ પ્રકારનું કથન ઉચિત નથી. એ વાત અસંભવિત છે. પ્રતિબિંબને For Private And Personal Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे भवात् । तथाहि-प्रतिबिंबोदयस्यापि क्रियारूपत्वेन निष्क्रिये पुरुषे तदुपचारस्याऽशक्यत्वात् । किंच प्रतिबिंबो भवन्मते मिथ्यापदार्थः तदाकथं मिथ्याभूतेन प्रतिबिंबेन सत्यभोगः संपाद्येत । - ननु भवतु पुरुषे भुजिक्रिया, भवतु वा प्रतिबिंबोदयोऽपि क्रियारूपः, तथापि जीवस्य तादृशक्रियावत्त्वेऽपि न सक्रियत्वम् । समस्तक्रियारहित्वेन निष्क्रियत्वेनाऽस्माभिः स्वीकृतत्वात् यदि पुरुष सर्वाः क्रिया भवेयुः, तदैव पुरुषे निष्क्रियत्वस्य व्याधातो भवति एक द्वयादि क्रियावत्वेऽपि निष्क्रियत्वस्यैव प्रतिविम्ब का उदय होना भी एक प्रकार की क्रिया है। निष्क्रिय पुरुष में उसका उपचार करना शक्य नहीं है । मिथ्या प्रतिबिम्ब से वास्तविक भोग किस प्रकार हो सकता है ? ___ कदाचित् कहो पुरुष में भोग करने की क्रिया भले हो और क्रियारूप प्रतिविम्ब का उदय भी हो, इस प्रकार की क्रिया होने पर भी जीव सक्रिय नहीं कहलाता । हम तो सभी क्रियाओं से रहित होने को निष्क्रिय कहते है । अगर पुरुष में समस्त क्रियाएँ हो तो ही पुरुष में निष्क्रियता की क्षति हो, एक दो क्रियाएँ होने पर भी उसे क्रियाशून्य ही मानते है । जैसे एक मुहि धान्य होने पर भी भिखारी निर्धन ही कहलाता हैं धनवान् नहीं कहलाता । इस प्रकार की आशंका करके नियुक्तिकार कहते हैं “पहु अफल" इत्यादि । ઉદય થ, એ પણ એક પ્રકારની ક્રિયા જ છે, નિષ્કિય પુરુષમાં તેને ઉપચાર કરવાનું શક્ય નથી વળી આપના મત અનુસાર પ્રતિબિંબને મિથ્યા માનવામાં આવે છે, તે મિથ્યા પ્રતિબિંબ વડે વાસ્તવિક ભેગની સિદ્ધિ કેવી રીતે થઈ શકે? આપ કદાચ એવું કહેતા હે કે “ પુરુષમાં ભંગ કરવાની ક્રિયા ભલે હોય અને કિયારૂપ પ્રતિબિંબને ઉદય પણ ભલે હૈય, આ પ્રકારની ક્રિયાને સદ્ભાવ હેવા છતાં પણ જીવને સક્રિય કહી શકાય નહી અમે તે સમસ્ત ક્રિયાઓથી રહિત હોય તેને જ. નિષ્ક્રિય માનીએ છીએ જે પુરુષમાં સમસ્ત કિયાઓને સદ્ભાવ હોય તે જ પુરુષને (જીવન). નિષ્ક્રિય માની શકાય. એક અથવા બે ક્રિયાઓને જીવમાં સદ્ભાવ હોય, તે પણ અમે તે તેને ક્રિયાશૂન્ય જ માનીએ છીએ જેવી રીતે મુઠ્ઠી ધાન્યને જેની પાસે સદ્ભાવ હોય એવા માણસને આપણે નિર્ધન માનીએ છીએ, એજ પ્રમાણે જો જીવમાં એક, બે કિયાનેજ સદ્ભાવ હોય તો તેને નિષ્ક્રિય જ માનવે જોઈએ मा प्रा२नी भानु निवा२७ ४२वाने भाटे सूत्र४२ ४ छ । ‘णहु अफल", त्याह For Private And Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समया बोधिनो टीका प्र. श्रु. अ. १ अकारकवादि-सांख्यमतनिरूपणम् १९९ व्यवहारात् । यथा मुष्टिमात्रपरिमितधान्यवत्त्वेपि, भिक्षुको निर्धन एव कथ्यते, नं तु धनवान् भवति । इति पूर्वोक्तमाशंक्य नियुक्तिकारोऽप्याह "णहु अफल थोवणिच्छित काल फलत्तणमिहं अदुमहेऊ । . णादुद्धथोव दुद्धत्तणे णगावित्तणे होउ ॥२॥" छाया-नैव-अफलस्तोक निश्चितकालफलत्वे इह अद्महेतू । न अदुग्ध-स्तोक दुग्धत्वे आगोत्वे हेतू ।।२।।" इति । व्याख्या-'गहु' इत्यादि । नैवाऽफलत्वं द्रुमाऽभाऽवे साध्ये हेतुर्भवति, नहि यदा रसालः फलवान् तदैव द्रुमो भवति, अन्यदा तु अद्रुमः । अयं रसालो दुमः, 'फलवत्त्वात् । अयं न वृक्षः, फलरहितत्वादित्यनुमानं न भवति । नैव कोऽपि फलाऽभावेन हेतुना रसाले वृक्षत्वाऽभावं साधयति । यदि कदाचिन् फलविरहे स वृक्षो न स्यात् तदा प्रावृषि सर्वेपि रसाला अवृक्षा भवेयुः, नत्वेवं भवति फलाऽभावकालेऽपि रसाले वृक्षत्वस्य सर्वानुभववेद्यत्वात् । तथा वृक्ष का अभाव सिद्ध करने में फलों का अभाव हेतु नहीं हो सकता। आम जब फल वाला हो तभी वृक्ष कहलाए और जब फल वाला न हो तब वृक्ष न कहलाए, ऐसी बात नहीं है । ऐसा अनुमान नहीं किया जाता कि यह आम वृक्ष है, क्योंकि फल वाला है अथवा यह वृक्ष नहीं है, क्योंकि फल रहित है । इस प्रकार फलाभाव रूप हेतु से आम में वृक्षत्व का अभाव कोई सिद्ध नहीं करता । अगर फल के अभाव में वह वृक्ष न हो तो वर्षा काल में सभी आम वृक्ष नहीं रहेंगे । मगर ऐसा होता नहीं है, फलों के अभाव के समय भी आम में सभी लोग वृक्षत्व का अनुभव करते हैं । આ વૃક્ષને અભાવ સિદ્ધ કરવામાં ફલેના અભાવ રૂ૫ કારણને સ્વીકારી શકતું નથી. અબે જ્યારે ફળવાળો હોય ત્યારે જ તેને વૃક્ષ કહેવાય અને ફળ વિનાને હોય, ત્યારે તેને વૃક્ષ ન કહેવાય, એવી કોઈ વાત સંભવી શકતી નથી. ' એવું અનુમાન કરી શકાય નહીં કે આ વૃક્ષ આમ્રવૃક્ષ છે, કારણ કે તે ફળવાળું છે, અથવા આ વૃક્ષ નથી, કારણ કે તેને ફળો જ નથી. આ પ્રકારે ફલાભાવ રૂપ હેતુ (કારણુ) ને આધાર લઈને આંબામાં વૃક્ષનો અભાવ કઈ સિદ્ધ કરતું નથી. જે ફળના અભાવને કારણે તેને વૃક્ષ માનવામાં ન આવે તે વર્ષાઋતુમાં સઘળાં આંબા પર ફળને અભાવ હોવાને કારણે તેમને વૃક્ષો રૂપે માની શકશે નહીં પરંતુ એવી વાત સંભવી શક્તી નથી. ફળને જયારે અભાવ હોય છે, ત્યારે પણ લેકો આંબાને વૃક્ષ રૂપે જ સ્વીકારે છે For Private And Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०० सूत्रकृतास्त्र सुप्तमूर्छाद्यवस्थायाम् आत्मनि क्रियाया अभावेऽपि, नैतावता सर्वथैव निष्क्रियत्वमात्मनः संभवति । तथा-अल्पफलवत्त्वमपि वृक्षाऽभावे साध्ये हेतुर्न अल्पफलपति पनसादौ हेतोरनैकान्तिकत्वात् । पनसेऽल्पफलवत्त्वं हेतु स्तिष्ठति नैव च तिष्ठति तत्रावृक्षत्वम् , किन्तु अवृक्षत्वविरोधिनो वृक्षत्वस्यैव पनसे सद्भावदर्शनात् । तथा आत्मा-अल्पक्रियावानपि सक्रिय एव, न तु निष्क्रियः । "नन': अल्पक्रियावानप्यात्मा निष्क्रिय एव, यथाऽल्पधनो भिक्षुकोऽधन एव कथ्यते इति चेन्न । विकल्पाऽसहत्वात् । तथाहि-प्रतिनियतपुरुषापेक्षया स भिक्षुको निर्धनः इति कथ्यते । आहोस्वित् समस्तपुरुषापेक्षया ? नाघः इसी प्रकार सुप्त अवस्था में या मूर्छा आदि की अवस्था में आत्मा में क्रिया का अभाव होने पर भी इतने मात्र से ही आत्मा सर्वथा निष्क्रिय नहीं हो सकता। __अल्प फलवत्त्व अर्थात् थोडे फलों का होना भी वृक्ष के अभाव को सिद्ध करने के लिए हेतु नहीं हो सकता, क्योंकि पनस आदि में थोडे ही फल होते हैं फिरभी वह वृक्ष ही हैं। अतएव हेतु अनैकान्तिक हो जाता हैं। अर्थात् पनस में अल्प फलवत्त्व हेतु तो रहता है परन्तु वृक्षत्व का अभाव नहीं रहता, किन्तु वृक्षत्व के अभाव का विरोधि वृक्षत्व ही पनस में पाया जाता है। इसी प्रकार अल्पक्रिया वाला आत्मा भी क्रियावान् ही है, क्रियाहीन नहीं । शंका-अल्पक्रिया वाला आत्मा निष्क्रिय ही है।, जैसे अल्पधन वाला भिखारी निर्धन कहलाता है । समाधान-यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि वह विकल्पों को सहन नहीं करता એજ પ્રમાણે સુણાવસ્થામાં અથવા મૂછ આદિ અવસ્થામાં આત્મામાં ક્રિયાને અભાવ હોવા છતાં પણ, એટલાજ કારણે આત્માને સર્વથા નિષ્ક્રિય માની શકાય નહીં. અલ્પ ફલવ7-એટલે કે ડાં જ ફળ આવવા રૂપ સ્થિતિને પણ વૃક્ષના અભાવને સિદ્ધ કરવાના હેતુ (કારણ) રૂપ માની શકાય નહીં ફણસ આદિ પર ઓછાં જ ફળ આવે છે, છતાં તેમને વૃક્ષ રૂપ જ માનવામાં આવે છે. તેથી હેતુ અનેકાન્તિક બની જાય છે. એટલે કે વૃક્ષમા અલ્પ ફળ ઉત્પન્ન થવા રૂપ હેતુને સદ્ભાવ હોવા છતાં પણ વૃક્ષત્વને અભાવ રહેતું નથી, પરન્તુ વૃક્ષત્વના અભાવનું અથવા અવૃક્ષત્વનું વિરોધી વૃક્ષ જ ઉપલબ્ધ થાય છે. એ જ પ્રમાણે અલ્પકિયાવાળો આત્મા પણ કિયાવાન જ છે- કિયાહીન नथी. શંકા- જેવી રીતે અલ્પ ધનવાળા ભિખારીને નિર્ધન જ કહેવામાં આવે છે. એજ પ્રમાણે અ૫કિયાવાળા આત્માને પણ નિષ્કિય જ કહેવું જોઈએ. સમાધાન- આ દલીલ વ્યાજબી નથી. કારણ કે આ બે વિકલ્પ દ્વારા જ તેનું For Private And Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ अकारकवादि-सांख्यमत निरूपणम् २०२ सिद्धसाधनात् । यतोलक्षाधिपाऽपेक्षया तन्यूनधनवतां निर्धनत्वस्य सर्वसम्मतत्वात् । नाऽपि द्वितीयः-भिक्षुकापेक्षयाऽल्पधनस्यापि गृहस्थस्य धनवत्त्वात एवमात्मापि विशिष्टसामोपेतपुरुषापेक्षया निष्क्रियो यदि स्वीक्रियेत तदा न कापि क्षतिरिति शब्दान्तरेण सिद्धसाधनमेव भवति सामान्यापेक्षया तु क्रिया वान् एव, न तु सर्वथा निष्क्रियः इति नाऽयं सांख्यो मारितसर्पमारणन्याय मतिकामति । तदयमत्र संक्षेपः—आत्मनः सर्वथा निष्क्रियत्वेऽभ्युपगम्यमाने बन्धमोक्षव्यवस्था न स्यात् । सर्वथा सक्रियत्वे कदाचिदपि क्रियातो विरामाऽभावात् वे विकल्प यह हैं वह भिखारी किसी खास पुरुष की अपेक्षा निर्धन कहलाता है अथवा समस्त पुरुषों की अपेक्षा ? पहला पक्षतो हमें भी मान्य है लक्षाधीश की अपेक्षा उससे कम धनवानों को सभी निर्धन मानते हैं । दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं भिक्षुक की अपेक्षा अल्प धनवान् गृहस्थ भी धनी होता है । इसी प्रकार किसी विशिष्ट सामर्थ्य से सम्पन्न पुरुष की अपेक्षा से आत्मा को निष्क्रिय स्वीकार करते हो तो कोई हानि नहीं है । दूसरे शब्दों में आप उसी को सिद्ध कह रहे है जो हमें पहले से सिद्ध है सामान्य रूप से तो आत्मा क्रियावान् ही है, सर्वथा निष्क्रिय नहीं । इस प्रकार यह सांख्यवादी, मारे हुए सांप को मारने की कहावत चरितार्थ करता है। संक्षेप में भावार्थ यह है कि आत्मा को यदि सर्वथा निष्क्रिय माना जाय तो बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था नहीं बन सकती । इसी प्रकार सर्वथा सक्रिय નિરાકરણ થઈ જાય છે. તે ભિખારી કેઈ વિશિષ્ટ પુરુષ કરતાં વધારે ગરીબ હોવાને કારણે તેને નિર્ધન કહે છે, કે સમસ્ત પુરુષ કરતાં વધારે ગરીબ હોવાને કારણે તેને નિર્ધન छो? આ પહેલે વિકલ્પ તો અમને પણ સ્વીકાર્ય છે. લક્ષાધિપતિની અપેક્ષાએ તેના કરતાં ઓછા ધનવાળાને સૌ નિર્ધન માને છે. બીજો વિકલ્પ બરાબર નથી કારણ કે ભિક્ષુકની અપેક્ષાએ અલ્પ ધનવાળે માણસ પણ ધનવાન ગણાય છે. એ જ પ્રકારે કઈ વિશિષ્ટ સામર્થ્ય સંપન્ન પુરાયની અપેક્ષાએ આત્માને નિષ્કિય સ્વીકારતા હૈ, તે તેમાં કેઈવધે નથી. બીજા શબ્દોમાં આપ એ વાતને જ સિદ્ધ કરી રહ્યા છે કે જે અમે પહેલેથી સિદ્ધ થઈ ચુકેલા માનીએ છીએ સામાન્ય રૂપે તે આત્મા કિયાવાન જ છે- સર્વથા નિષ્ક્રિય નથી. આ પ્રકારે તે આ સાંખ્યો મારી નાખવામાં આવેલા સાપને મારી નાખવાની કહેવત જ ચરિતાર્થ કરે છે. આ કથનનો સંક્ષિપ્ત ભાવાર્થ એ છે કે – આત્માને જે સર્વથા નિષ્ક્રિય માનવામાં આવે, તે બન્ધ અને મોક્ષની વ્યવસ્થા સંભવી શકતી નથી. એ જ પ્રમાણે જે આત્માને सू. २६ For Private And Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मोक्षशास्त्रप्रणयनं निरर्थकतामंचति । अतः कथंचिनिष्क्रियः कथंचित् सक्रियो ऽपि एवं सर्वथाऽमूर्तत्वे शरीरे प्रवेशनिर्गमौ न स्याताम् अमूर्तत्वादेव । अम् तस्य प्रवेशनिर्गमयोरदर्शनात् । अतः कथचिदमूर्तश्च तथा सर्वथा सर्वव्यापितास्वीकारे गत्यागती न भवेताम् । व्यापकस्य गत्यागत्योरदर्शनात् । गत्यागत्योरस्वीकारे भक्तः शास्त्रे एवोच्यमाने ते गत्यागती निरर्थिक भवेताम् । "तमुत्क्रामन्तं सर्वे प्राणा अनूत्क्रामन्ति" इत्यादि । तस्मात् कथंचित् व्यापकोऽ मानें तो वह क्रिया करने से कभी विरत नहीं होगा, अतएव मोक्ष के लिए शास्त्र की रचना करना निरर्थक हो जाएगा । इस कारण आत्मा कथंचित् निष्क्रिय है और कथंचित् सक्रिय भी है। इसी प्रकार सर्वथा अमृत मानने से न शरीर में प्रवेश कर सकेगा और न शरीर से बाहर निकल सकेगा, क्योंकि अमूर्त वस्तु का प्रवेश करना और निकलना देखा नहीं जाता । इस लिए आत्मा कथंचित् मूर्त है और कथंचित् अमूर्त है । इसी प्रकार सर्वथा ध्यापक स्वीकार करने से उसका गमन आगमन नहीं हो सकेगा, क्योंकि ध्यापक वस्तु गमन आगमन नहीं कर सकती । गमन आगमन नहीं स्वीकार करोगे तो आप के ही शास्त्र में कही हुई उसकी गति आगति निरर्थक हो जाएगी आपके यहां कहा है "जब आत्मा जाती है तो उसी के पीछे पीछे सब प्राण भी चले जाते हैं । इत्यादि इस कारण आत्मा कथंचित સર્વથા સક્રિય માનવામાં આવે, તે તે કદી પણ ક્રિયા કરવાથી વિરત (નિવૃત્ત) ન હોઈ શકે, તે કારણે મોક્ષને માટે શાસ્ત્રની રચના કરવાનું કાર્ય નિરર્થક બની જાય. તે કારણે એવું સ્વીકારવું પડશે કે આત્મા અમુક રીતે સક્યિ છે. અને અમુક દૃષ્ટિએ વિચારવામાં આવે તે નિષ્ક્રિય પણ છે. એ જ પ્રમાણે આત્માને સર્વથા અમૂર્ત માનવાથી શરીરમાં પ્રવેશ પણ નહીં કરી શકે અને શરીરમાંથી બહાર પણ નીકળી નહીં શકે, કારણ કે અમૂર્ત વસ્તુને પ્રવેશ અથવા નિર્ગમન કદી પણ સંભવી શકે નહીં તે કારણોને લીધે અમુક દૃષ્ટિએ આત્માને મૂર્ત પણ માની શકાય અને અમુક દષ્ટિએ અમૂર્ત પણ માની શકાય છે. એ જ પ્રમાણે તેને સર્વથા વ્યાપક સમજવાથી તેનું ગમનાગમન સંભવી નહીં શકે, કારણ કે વ્યાપક વસ્તુ ગમનાગમન કરી શકતી નથી. જે આત્માના ગમનાગમનને સ્વીકારવામાં ન આવે, તે આપણુ જ શાસ્ત્રમાં તેની ગતિ-આગતિનું જે પ્રતિપાદન કર્યું છે, તે નિરર્થક થઈ જશે. આપના શાસ્ત્રમાં કહ્યું છે કે- “જ્યારે આત્મા જાય છે, ત્યારે તેની પાછળ પાછળ સમસ્ત પ્રાણ પણ ચાલ્યા જાય છે.” ઈત્યાદિ આ કારણે આત્મા અમુક દૃષ્ટિએ વિચારવામાં આવે તે વ્યાપક છે. અને બીજી દષ્ટિએ વિચારવામાં આવે તે અવ્યાપક છે. For Private And Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ घोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.१ अकारकवादिमतनिरसनम् २०० व्यापकश्च कथञ्चित् , इति, अन्ततो गत्वाऽनेकान्तवादपादावलंबनमेव शरणं सर्वेषामिति स्याद्वादमार्गों निराकुल इति ॥१४॥ समाप्य चतुर्दशगाथाव्याख्यानम् , इदानीमवशिष्टमकारकवादिमतं निराकर्तुमाह सूत्रकारः—'संती' त्यादि ।। मूलम् संति पचं महन्भूया इहमेगेसि माहिया । आयछट्टो पुणो आहु आया लोगे य सासए ॥१५॥ छायासन्ति पञ्च महाभूतानि इहेकेषामाख्यातानि । आत्मा पष्ठः पुनराहु रात्मा लोकश्च शाश्वतः ॥१५ अन्ययार्थ 'महन्भूया' महाभूतानि-पृथिव्यपूतेजोवाय्वाकाशरूपाणि (पंच) पञ्चसंख्यकानि 'सति' सन्ति विद्यन्ते । तानि (इहं) इह लोके (एगेसि) एकेषां केषा व्यापक और कथंचित् अव्यापक है। इस प्रकार अन्ततः अनेकवाद के चरणों की ही सब को शरण ग्रहण करनी पड़ती है । अतएव स्याद्वाद का मार्ग ही निराकुल है ॥१४॥ चौदहवीं गाथा का व्याख्यान समाप्त करके पुनः अकारकवादी के मत का निराकरण करते हैं-"सन्ति" इत्यादि ___ शब्दार्थ- 'महन्भूया-महाभूतानि' महाभूत 'पंच-पञ्च' पांच प्रकार के 'सतिसन्नि' हैं 'इह-दह' इस लोकमें 'एगेसि-एकेषां किन्हींने 'अहिया-आख्यातानि' कथन किया है 'पुणो-पुनः' फिर 'आहु-आहुः' वे कहते हैं 'आयछट्ठो-आत्मा षष्ठः' आत्मा छट्ठा है 'आया लोगे य आत्मा तथा लोकः' आत्मा एवं लोक 'सासप-शाश्वत' नित्य है इस प्रकार आत्मषष्ठवादीका मत हैं ॥१५॥ આ રીતે આખરે તે સૌએ અનેકાન્તિકવાદનું જ શરણ સ્વીકારવું પડે છે. તેથી સ્યાદ્વાદને માર્ગ જ નિરાકુલ છે. ગાથા ૧૪ વૈદમી ગાથાનું વ્યાખ્યાન પૂરું થયું. હજી પણ સૂત્રકાર અકારકવાદિઓના મતનું નિરાકરણ કરે છે. हाथ- 'महब्भूया महाभूतानि' महाभूतो 'पंच-पञ्च' पाय ना 'संतिसन्ति छ. 'इह-इह' भाभा 'एगेसिं-पकेषां ये 'आहिया-आख्यातानि उस छे. 'पुणो-पुनः' quो 'आहु-आहुः' तेसो छ - 'आयछटो आत्माषष्ठ' मात्मा ७४ो छ. 'आया लोगे य-आत्मा तथा लोक' आत्मा भने सो 'सासए-शाश्वत' નિત્ય છે. આ પ્રમાણેને આત્મષષ્ઠવાદિને મત છે. ૧૫. For Private And Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे ञ्चित् सांख्यादीनां मते (आहिया) आख्यातानि कथितानि (पुणो) पुनस्ते (आहु) आहुः कथयन्ति यत् (आयटो) आत्मा पष्ठः षष्ठआत्मा अस्तीति । यतः (आया लोगे य) आत्मा तथा लोकः पृथिव्यादिरूपः (सासए) शाश्वतः नित्यो वर्त्तते इत्यात्मषष्ठवादिमतम् ॥१५॥ .. टीकामहन्भूया, महाभूतानि-पृथिव्यपूतेजो वाग्वाकाशाख्यानि महाभूतानि 'पंच' पञ्चसंख्याविशिष्टानि सन्ति विद्यन्ते । महच्च तद्भुतं चेति महाभूतम् । महान्ति च तानि भूतानि महाभूतानि, तानि नामभिः प्रदर्शितानि । भूतत्वं बहिरिन्द्रियग्राह्यविशेषगुणवत्त्वम् । “इहमेगेसमिाहिया" इह अस्मिन् लोके एकेषां केषांचिन्मते आख्यातानि कथितानि “पुण आहु" पुनस्तेन आहुः कथयन्ति “आयछट्टो" आत्माषष्ठ:--पंचमहाभूतानि तथा पष्टश्चात्मा । ननु यथा भूतचैतन्यबादिमते आत्मभूतान्यनित्यानि तथा एतन्मतेऽपि आत्मा अन्वयार्थपृथ्वी, जल तेज वायु और आकाश रूप पांच महाभूत है वे सांख्य आदि किन्हीं के मत में कहेगए हैं। फिर वे कहते हैं कि छठा आत्मा है । आत्मा और लोक शाश्वत अर्थात् नित्य है । यह छठा आत्मा मानने वालों का मत है ॥१५॥ -टीकार्थपृथ्वी जल तेज वायु और आकाश नामक पाँच महाभूत हैं । महान् भूत को महाभूत कहते हैं । बाह्य इन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य होने का विशेषण गुण जिसमें हो वह भूत कहलाता है । इस लोक में किन्हीं-के मत में यह भूत कहे गये हैं । वे यह भी कहते हैं कि पांच महाभूतों के अतिरिक्त - अन्वयार्थ - પૃથ્વી, જલ, તેજ, વાયુ અને આકાશ રૂપ પાંચ મહાભૂત છે. સખ્ય આદિ કેટલાક મતવાદિઓ આ પ્રકારની માન્યતા ધરાવે છે. વળી તેઓમાં કઈ કઈલેકે એવું પણ કહે છે છ આત્મા છે. આત્મા અને લેક શાશ્વત (નિત્ય) છે. આત્મા નામના છઠ્ઠા મહાભૂતને માનનારાની આ પ્રકારની માન્યતા છે. જે ૧પ છે -टीअर्थ - - પૃથ્વી, જલ, તેજ, વાયુ અને આકાશ નામના પાંચ મહાભૂતા છે. મહાન ભૂતને મહાભૂત કહે છે. બાહ્ય ઈન્દ્રિયો દ્વારા ગ્રાહ્ય થવાનો વિશિષ્ટ મુળ જેમાં હોય છે. તેને ભૂત’ કહેવામાં આવે છે. કેઈ કે લેકેની માન્યતા અનુસાર આ લોકમાં પાંચ મહાભૂતાનું અસ્તિત્વ કહ્યું છે. તેઓ એમ પણ કહે છે કે પાંચ મહાભૂત સિવાય આત્મા નામના છડૂત તત્વનું પણ અસ્તિત્વ છે. જેવી રીતે ભૂતૌતવારીના મત અનુસાર આત્મા For Private And Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०५ afalta प्रश्रु अ. १ अकारकवादिमतनिरसनम् नित्योऽनित्योवेतिसंदिद्य एतन्मते आत्मा नित्यः । पृथिव्यादि पंचभूतान्यपि नित्यान्येव त्वनित्यानि । एतदेव दर्शयति “आयालोगे य सासए" इति । आत्मष ष्ठानि भूतानि प्रतिपाद्य पुनरपि आहुस्ते वादिन: । ' आया' आत्मा च 'लोगे ' लोकः पृथिव्योदि स्वरूपः । 'सास' शाश्वतो नित्यः । न तु चार्वाकादिमतवत् अनित्यः प: तथा सति बंधमोक्षव्यवस्था न सिद्धयेत् न वा संसारस्य वैचित्र्यमेव भवेत् इति सम्यगुक्तसूत्रकृता पृथिव्यादिरूपो लोकः आत्मा च शाश्वत इति ||१५|| पृथिव्यादिभूतानामात्मनांच नित्यत्वं द्योतयितुं षोडशगाथामाह'दुहओ' इत्यादि । मूलम् - २ ३ ४ ૭ ६ दुहओण विणस्संति नो व उपज्जए असं । ११ १२ १० सव्वेवि सव्वा भावा नियती भावमागया ॥ १६ ॥ छाया द्विधापि न विनश्यन्ति नो वा उत्पद्यन्ते असन्तः । सर्वेऽपि सर्वथा भावा: नियतीभावमागताः ॥ १६ ॥ T छठा आत्मा भी है । जैसे भूत चैतन्यवादी के मत में आत्मा और भूत अनित्य हैं उसी प्रकार इनके मत में आत्मा नित्य है या अनित्य ? इस शंका का उत्तर दिया गया है आत्मा नित्य है और पृथिवी आदि पांचों भूत भी free ही हैं अनित्य नहीं है । सर्वथा अनित्य मानने से बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था नहीं सिद्ध होती और न संसार की व्यवस्था ही हो सकती है । इस कारण ऐसा कहा गया है कि पृथिवी आदि रूप लोक और आत्मा नित्य है ||१५|| पृथिवी आदि की तथा आत्मा की नित्यता प्रकट करने के लिए सोल हवीं गाथा कहते हैं "दुहओ" इत्यादि અને ભૂત અનિત્ય છે, એજ પ્રમાણે તેમના મતમાં આત્માને નિત્ય માનવામાં આવ્યા છે; કે અનિત્ય માનવામાં આવ્યા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તર આપતાં સૂત્રકાર કહે છે કે આત્મા નિત્ય છે. અને પૃથ્વી આદિ પાંચે ભૃતા પણ નિત્ય જ છે, અનિત્ય નથી. સથા અનિત્ય માનવાથી બન્ય અને મેક્ષની વ્યવસ્થા સિદ્ધ થઇ શકે નહી. આ કારણે એવુ કહેવામાં આવ્યું છે કે પૃથ્વી આદિ રૂપ લાક અને આત્મા નિત્ય છે. ॥ ૧૫ ૫ હવે પૃથ્વી આદિની તથા આત્માની નિત્યતા આ સોળમી ગાથામાં પ્રરૂપિત वामां आवे छे. “ दुहओ " इत्यादि For Private And Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गयो अन्वयार्थ:पूर्वोक्ता आत्मपठा पृथिव्यादयो भावाः (दुहओ) द्विधातः द्विप्रकारेण निर्हेतुक-सहेतुकेति विनाशद्वयेन-निहें तुको विनाशो बौद्धानाम् सहेतुको लकुटादिकारणसान्निध्येन विनाशो वैशेषिकाणामिति विनाशद्वयेनापि (ण विणस्संति) न विनश्यन्ति-विनाशं न प्रामुवन्ति न सर्वनाशं नश्यन्तीत्यर्थः (नो वा) नापि -नैव (असं) असन्तः पूर्वकालिकसत्तारहिताः भावाः आत्मषष्ठाः पृथिव्यादयः पदार्थाः(उप्पज्जए) उत्पद्यन्ते नूतनतया समुत्पन्नाः असतसत्तया सत सत्तावन्तो भवन्ति असत उत्पत्तौ खरविषाणादीनामप्युत्पत्तिःस्यादतो न सतामुत्पत्तिः कदापि भवे दतो नित्या सर्व भावाः, तदेवाह (सव्वे वि भावा) सर्वे ऽपि भावाः आत्मपृथिव्यादिरूपाः (सव्वहा) सर्वथा-सर्वप्रकारेण नि हैतुक सहेतु कविनाशाभावरूपेण (नियतीभावमागया) नियतिभावमागताः, नियतिभावं । नित्यभावम् अनाद्यनन्तरूपं भावम् आगताः-प्राप्ता एव सन्ति-न तेषामात्मषष्ठानां पृथिव्यादीनां विनाशः पूर्वमासीत्, न साम्प्रतं भवति न वा अनागतकाले भविष्यति एते, पदार्था अभवन् भवन्ति भविष्यन्ति चेति त्रैकालिकसत्तावन्त एते पदार्था इति भावः । इत्यनेन बौद्धवैशेषिकमतं निरस्तमिति ॥१६॥ शब्दार्थ- 'दुहओ-द्विधातः' दोनों प्रकार से पूर्वोक्त छहोपदार्थ 'ण विणस्सतिन विनश्यन्ति' नष्ट नहीं होते हैं 'नोवा-नैव न 'प्रस-असन्तः' अविद्यमान पदार्थ 'उप्पज्जए-उत्पद्यान्ते' सान्नहोता है 'सव्वे वि भावा-सवेऽपि भावाः' सभी पदार्थ 'सबहा-सर्वथाः' सभी प्रकारसे 'नियतिभावमागया-नियतिभायमागताः' नियतिभाषको (नित्यना) प्राप्त होता है ॥१६॥ -अन्वयार्थपूर्वोक्त पांच महाभूत और छठा आत्मा दोनों प्रकार के निहतुक और सहेतुक विनाश से नष्ट नहीं होते हैं और न पहले असत् होते हुए बाद में उत्पन्न होते हैं। अतएव सभी पदार्थ सर्वथा नित्यता को प्राप्तकिये हैं ॥१६॥ शहाथ - ‘दुहओ-द्विधातः' मन्ने प्रस्थी पाडेसास से पहाय 'ण विणस्संतिन विनश्यति' नाश पामता नथी. 'नोवा-नैव' न 'असं-असन्तः' भविमान पदार्थ 'उपजए-उत्पद्यतो अपन्न थाय छे. 'सर्च विभावा-सवेऽपिभावाः' अधा पहायों 'सही-सर्वथा' या प्रकारे 'नियतिभावमागया-नियतिभावमागताः' नियति भावने पामेछ. ॥१६॥ ___- अन्वयार्थ = પૂર્વોક્ત પૃથ્વી આદિ પાંચ મહાભૂત અને છ આત્મા અને પ્રકારના નિર્દેતુક અને સહેતુક) વિનાશથી નષ્ટ થતાં નથી, અને એવું પણ નથી કે તેઓ પહેલાં અસ્ત (અવિદ્યમાન) હતાં અને પછીથી ઉત્પન્ન થયા છે. તેથી પૃથ્વી આદિ સઘળા પદાર્થો નિત્ય જ છે. જે ૧૬ For Private And Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समपार्थ बोधिनी टीका प्र श्रु १. पृथिव्यादि भूतानामात्मनां च नित्यत्वम् २०७ —टीका'दुहओ' द्विधातः-द्विप्रकारेण, निर्हेतुकसहेतुकविनाशद्वयेन। ते आत्म षष्ठाः पृथिव्यादयो भावाः पदार्थाः प्रत्यक्षाऽनुमानप्रमाणप्राप्त : 'ण विणसंति' न विनश्यन्ति । 'नो वा' न वा-नापि 'असं' असन्तः भावाः 'उप्पज्जए' उत्पद्यन्ते । यतोऽसतो न भवति समुत्पादो न वा सतो भवति विनाशः । तत्र कारणमाह-सव्वेवि' सर्व-अपि । 'भावा' भावाः पृथिव्यादय आत्मानश्च प्रत्यक्षाऽनुमानाऽऽगमप्रमाणवेद्याः पदार्थाः 'सव्वहा' सर्वथा सर्वप्रकारेण 'नियती भावमागया' नियतीभावमागताः नियतीभाव नैयत्यं-नित्यत्वं प्राप्त एव । अयं भावः-सर्वे आत्मपष्ठाः पृथिव्यादयः पदार्थाः द्विधातः-उभयतो निर्हेतुकसहेतुकोभयप्रकारकनाशेन न विनष्टा भवन्ति यथा बौद्धमते निर्हे. टीकार्थप्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण से सिद्ध पृथ्वी आदि पांच भूत और छठा आत्मा न निर्हेतुक विनाश से नष्ट होते हैं और न सहेतुक विनाश से । असत् पदार्थों की उत्पत्ति भी नहीं होती क्योंकि असत् की उत्पत्ति और सत् पदार्थ का विनाश नहीं होता । कारण यह है कि पृथिवी आदि सभी पदार्थ जो प्रत्यक्ष अनुमान और आगम के विषय हैं सर्वथा नित्य ही हैं । तात्पर्य यह है-आत्मा तथा पांच महाभूत निर्हेतुक और सहेतुक दोनों प्रकार के विनाश से विनष्ट नहीं होते हैं । बौद्ध दर्शन में विनाश निर्हेतुक माना गया है । उन्होंने कहा है पदार्थों की उत्पत्ति ही उनके विनाश में कारण है । जो पदार्थ उत्पन्न होते ही नष्ट न हो वह बादमें किस कारण से नष्ट होगा ? अर्थात नाश का - टी - - પ્રત્યક્ષ અને અનુમાન પ્રમાણે દ્વારા સિદ્ધ એવાં પૃથ્વી આદિ પાંચ મહાભૂતે અને છ આત્મા નિહેતુક વિનાશ વડે પણ નષ્ટ થતાં નથી અને સહેતુક વિનાશ વડે પણ નષ્ટ થતાં નથી. અસત્ પદાર્થોની ઉત્પત્તિ પણ થતી નથી, કારણ કે અસતની ઉત્પત્તિ અને સત્ પદાર્થને વિનાશ થતો નથી. તેનું કારણ એ છે કે પૃથ્વી આદિ સઘળા પદાર્થો કે જે પ્રત્યક્ષ, અનુમાન અને આગમના વિષયો છે. એટલે કે પ્રત્યક્ષ, અનુમાન અને આગમ દ્વારા ગ્રાહ્ય છે. તેઓ સર્વથા નિત્ય જ છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે આત્મા તથા પાંચ મહાભૂત નિહેતુક અને સહેતુક રૂપ બન્ને પ્રકારના વિનાશથી વિનષ્ટ થતાં નથી. બૌદ્ધ દર્શનમાં વિનાશને નિહેતુક માનવામાં આવેલ છે. બૌદ્ધો માને છે કે પદાર્થોની ઉત્પત્તિ જ તેમના વિનાશમાં કારણ રૂપ હોય છે. જે પદાર્થ ઉત્પન્ન થતાં જ નષ્ટ ન થાય તે પાછળથી કયા કારણે નષ્ટ થશે? એટલે કે નાશનું કારણ For Private And Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ सूत्रकृतागलो तुको विनाशो भवति तदुक्तम् -- "जातिरेवाहि भावानां, विनाशे हेतुरिष्यते । यो जातश्च न नश्येत्' नश्येत् पश्चात्सकेन सः ॥१॥ वैशेषिकमते तु दण्डादिकारणसन्निधानेन विनाशो भवति सहेतुकः एतादृशोभयप्रकारेण विनाशेन रहित इति । अथवा “ दुहओ" द्विप्रकारकादात्मनः स्वभावात् चेतना चेतनरूपात् कथमपि-नश्यति, पृथिवी जलतेजोवायुगगनात्मकानि भूतानि स्व स्वरूपाणामपरित्यागतया नित्यान्येव भवन्ति न कारण उत्पत्ति है, अतएव उत्पत्ति के अनन्तर ही पदार्थ का नाश हो जाना चाहिए । यदि उसी समय नाश न माना जाय तो बाद में विनाश का कोई कारण ही नहीं रहता । ऐसी अवस्था में पदार्थ का कभी नाश ही नहीं होना चाहिए। वैशेषिक दर्शन में घट आदि का विनाश डंडा आदि कारणों के संयोग से होता है । अतएव सहेतुक विनाश कहलाता है । ___आत्मा आदि सभी पदार्थ इन दोनों प्रकार के विनाशों से रहित हैं । अथवा सभी पदार्थ अपने अपने स्वभाव से किसी भी प्रकार से नष्ट-च्युत नहीं होते हैं । पृथिवी, अप् , अग्नि, वायु और आकाश नामक भूत अपने अपने स्वभाव का परित्याग न करने के कारण नित्य ही हैं। यह जगत् कभी पृथ्वी आदि भूतों से रहित नहीं था, न होता है और न होगा । इस कारण वे नित्य हैं । ઉત્પત્તિ છે, તેથી ઉત્પત્તિ થતાં જ પદાર્થને નાશ થ જોઈએ. જે તે સમયે વિનાશ ન માનવામાં આવે, તે પાછળથી નાશ થવા માટેનું કોઈ કારણ જ રહેતું નથી. એવી અવસ્થામાં તે પદાર્થને કદી પણ નાશ જ થે જોઈએ નહીં” વિશેષિક દર્શનમાં એવી માન્યતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે કે ઘાં આદિને વિનાશ ઠંડા આદિ કારણેના સંગથી થાય છે. તેથી તે પ્રકારના વિનાશને સહેતુક વિનાશ કહેવાય છે. આત્મા આદિ સઘળા પદાર્થો આ બન્ને પ્રકારના વિનાશથી રહિત છે. અથવા સઘળા પદાર્થો પિત પિતાના સ્વભાવમાંથી કોઈ પણ પ્રકારે નષ્ટ અથવા યુત થતાં નથી. એટલે કે પિત પિતાના સ્વભાવને પત્યાગ કરતા નથી. પૃથ્વી, જળ, અગ્નિ, વાયુ અને આકાશ, આ પાંચ ભૂત પિત પિતાના સ્વભાવને પરિત્યાગ નહીં કરતા હોવાને કારણે નિત્ય જ આ જગત પૃથ્વી આદિ ભૂતોથી કદી રહિત ન હતું, વર્તમાન કાળે પણ તેમનાથી રહિત નથી અને ભવિષ્યમાં પણ તેમનાથી રહિત નહીં હોય તેથી જ તેમને નિત્ય કહેવામાં આવે છે. For Private And Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समर्थ वोधिनी टीका प्र शु. अ. १ पृथिव्यादिभूतानामात्मनां च नित्यत्वम् २०९ कदाचिदपि जगत पृथिव्यादिशुन्यमभूत् भवति भविष्यतीति कृत्वा नित्यन्येव तानि तथा आत्मा अपि नित्य एव अजन्यत्वादिहेतुभिः अन्यथा आत्मनो ऽनित्यत्वे मोक्ष कथैवास्तमियात् । तदुक्तम् "नैनं छिन्दंति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्रेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ||१|| अच्छेयोऽयमदाय मवि कार्योऽयमुच्यते । नित्यः सर्वगतः स्थाणु रचलोऽयं सनातनः ||२|| न जायते म्रियते वापि कश्चित् इत्यादि । तस्मात् न असदुत्पद्यते तथात्वे सर्वस्य सर्वत्र सद्भावः स्यात् । असति चकारकव्यापाराभावात् सत्कार्यवादः तथाचोक्तम् असदकरणात् उपादानग्रहणात् तथा आत्मा भी अन्य अर्थात् किसी कारण से उत्पन्न होने योग्य न होने से नित्य ही है । आत्मा को अगर नित्य न माना जाय तो मोक्ष की कथा ही समाप्त हो जाएगी । कहा है – “ नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि " इत्यादि । "आत्मा को शस्त्र छेदन नहीं कर सकते अग्नि जला नहीं सकती, पानी गला नहीं सकता, वायु सोख नहीं सकता ॥ १ ॥ आत्मा को छेदन करना शक्य नहीं है जलाना शक्य नहीं है उसमें किसी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं हो सकता । वह नित्य है, सर्वव्यापी है, स्थितिशील है, अचल है, सनातन है," ॥२॥ न कोई जन्मता है, न कोई मरता है इत्यादि । इसी प्रकार असत् की उत्पत्ति नहीं होती । ऐसा होने लगे तो सभी का सभी जगह सद्भाव हो जाए । असत् में कारणों का व्यापार नहीं होता તથા આત્મા પણ અજન્મા (કોઈં પણ કારણે ઉત્પન્ન ન થવા યોગ્ય) હોવાથી નિત્ય જ છે. આત્માને જે નિત્ય માનવામાં ન આવે, તા મેાક્ષની વાત જ સમાપ્ત થઈ જાગ્યું. पछे 'नैन' छिन्दन्ति शस्त्राणि' इत्यादि " आत्माने शस्त्रो छेवी शता નથી, અગ્નિ બાળી શકતા નથી, પાણી ભીજવી શકતુ નથી અને વાયુ સુકવી શકતા શોષી શકતા નથી. ॥ ૧ ॥ આત્માનું છેદન કરવાનું શકય નથી, તેને બાળી નાખવા શક્ય નથી અને તેમાં કોઇ પણ પ્રકારના વિકાર પણ ઉત્પન્ન કરી શકાતો નથી. તે નિત્ય છે, સ व्यापी छे, स्थितिशील छे, अयक्ष छे भने सनातन है" ॥ २ ॥ " अ (आत्मा) जन्मतो पशु नथी याने श्रेई (आत्मा) भरतो पशु नथी " એજ પ્રકારે અસની ઉત્પત્તિ થતી નથી. કદાચ અસની ઉત્પત્તિ થવા લાગે તે સઘળી વસ્તુને બધી જગ્યાએ સદ્ભાવ જ થઈ જાય અસહ્માં કારણેાને બાપાશ્ (प्रवृत्ति) रातो नथी, तेथी सत्ार्यवाह वास्तवि सु. २७ For Private And Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २१० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे सर्वसंभवाभावात् शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत्कार्यमिति । यद कारणे कार्य सत् न भवेत् तदा घटार्थी नियमतो मृत्तिकामेव नोपाददीत उपाददते तस्मात् सत्कार्यम् । एवं च सर्वेपि भावाः पृथिव्यादयः आत्मषष्ठाः । नियतिभावं नित्यत्वमागताः नाभावरूपतामनुभूय भावरूपतां प्रतिपद्य - न्ते आविर्भाव तिरोभावमात्रत्वादुत्पत्तिविनाशयोः, तदुक्तम्- 'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः' इति तदेतन्मतं न सम्यक सर्वपदार्थस्य नित्यत्वा अतएव सत्कार्यवाद ही वास्तविक है । कहा भी है- असदकरणात्,,इत्यादि । ( खरविषाण आदि) को उत्पन्न नहीं किया जा सकता, प्रत्येक कार्य के लिए उपादान को ग्रहण करना पडता है, सब से सब की उत्पत्ति नहीं होती (जैसे मिट्टि से घटादि सजातीय ही उत्पन्न होते हैं, पट आदि सभी कुछ नहीं उत्पन्न होता) है शक्य से शक्य की ही उत्पत्ति होती है और प्रत्येक कार्य के लिए कारण की आवश्यकता पडती है, इन सब हेतुओं से सत्कार्य वाद ही सिद्ध होता है | यदि कारण में कार्य की सत्ता न रहती हो तो क्या कारण है कि घट बनाने का अभिलाषी मृत्तिका को ही ग्रहण करता है ? वह मिट्टी को ही ग्रहण करता है, इस कारण सत्कार्यवाद ही समीचीन है । इस प्रकार पृथ्वी आदि सभी पदार्थ नित्य है । ऐसा नहीं है कि वे पहले अभाव रूप में थे और फिर भाव रूप हो गए हों । उत्पत्ति और विनाश वास्तव में आविर्भाव ( प्रकट होना) और तिरोभाव ( छिपजाना ) मात्र ही हैं । कहा भी है – “नासतो विद्यते भावो" इत्यादि । असत् का सद् उधुं पशु छेउ- असदकरणात् इत्यादि अधेडाने शिंगडां उत्पन्न पुरी शमतां નથી. પ્રત્યેક કાર્ય ને માટે ઉપાદાનને ગ્રહણ કરવું પડે છે. ગમે તે વસ્તુમાંથી આપણે ધારીએ તે વસ્તુ ઉત્પન્ન કરી શકાતી નથી માટીમાંથી ઘડા આદિ સજાતીય પદાર્થાં જ ઉત્પન્ન થાય છે, પરન્તુ પટ-વસ્ત્ર આદિની ઉત્પત્તિ થઈ શકતી નથી. શકયની દ્વારા જ શયની ઉત્પત્તિ થાય છે. અને પ્રત્યેક કાર્યને માટે કારણની આવશ્યકતા રહે છે. આ બધાં હેતુઓ (કારણા) વડે સત્કાર્યવાદ જ સિદ્ધ થાય છે. જો કારણમાં કા'ની સત્તા ન રહેતી હાય, તો કયા કારણે ઘડો બનાવવા ઇચ્છતા માણસ માટીને જ ગ્રહણ કરે છે? તે માટીને જ ગ્રહણ કરે છે, તે કારણે સત્કાર્ય વાદ જ સમીચીન છે. એજ પ્રમાણે પૃથ્વી આદિ સઘળા પદાર્થો નિત્ય છે, એવુ' નથી કે પહેલાં તેમના અભાવ હતો અને પાછળથી સદ્ભાવ થઇ ગયા છે. ઉત્પત્તિ અને વિનાશ વાસ્તવિક દૃષ્ટિએ તો આવિર્ભાવ (પ્રકટ થવાની ક્રિયા) અને તિભાવ (અદૃશ્ય થવાની ક્રિયા) માત્ર ४ छे. पशु छेडे “नासतो विद्यते भावो" इत्यादि असत्नो सहलाव नथी होतो અને સતના વિનાશ થઇ શકતા નથી.” For Private And Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाथ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ पृथिव्यादि भूतानामात्मनां च नित्यत्वम् २११ भ्युपगमे आत्मनः कतृत्वपरिणामो न स्यात् ततवात्मनोऽकर्तृत्वे कर्मबन्धाभावः तदभावात् मुखदुःखदिकं कोऽनुभवेत् । तथा असत उत्पादाभावे ये यमात्मनः पूर्वभवपरित्यागे नापरभवोत्पत्तिलक्षणा चतुर्धा गतिः कथ्यते सा न स्यात् ततः मोक्षगतिरपि आत्मनो न स्यात् एव मप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावत्वे आत्मनो नरामरादिगत्यागती तथा स्मृतेरभावात् जातिस्मरणादिकं च न स्यादिति । यत्तुक्तं सदेवोत्पद्यते तन्न यदि सर्वथा सदेव तदा कथमुत्पादः, उत्पादश्चेत् कथं सर्वथा सत् तस्मात् कथंचित् नित्यत्वं कथंचिदनित्यत्वं सदसत् कार्यवादश्चेति ॥१६॥ भाव नहीं होता और सत् का विनाश नहीं हो सकता । यह मत समीचीन नहीं है। सब पदार्थों को एकान्तन्तः नित्य स्वीकार करने पर आत्मा में कर्तृत्व परिणमन नहीं हो सकेगा । आत्मा को यदी अकर्ता मान लिया जाय तो कर्मवन्ध का अभाव हो जाएगा और कर्मबन्ध के अभाव में सुख दुःख का अनुभव कौन करेगा ? इसी प्रकार अगर असत् की उत्पत्ति न हो तो पूर्वभव का परित्याग करके उत्तरभव की उत्पत्ति रूप जो चार प्रकार की आत्मा की गति कहते हो वह नहीं होगी । मोक्ष गति का भी अभाव हो जाएगा इस प्रकार आत्मा को अच्युत अनुत्पन्न एवं स्थिर एक स्वभाव वाला मानने पर मनुष्य देव आदि गतियों में आना जाना नही बन सकेगा और स्मृति का अभाव होने से जाति स्मरण आदि भी नहीं हो सकेंगे । सत् कार्य की ही उत्पत्ति होती है, यह कहना भी ठीक नहीं है यदि कार्य पहले से ही सर्वथा सत् है तो फिर उत्पत्ति कैसी ? और यदि उत्पत्ति ____A२ मत सभीची-1 (अथित) नथी. सा. पानि अन्तत : (सथा) નિત્ય સ્વીકારવામાં આવે, તે આત્મામાં કતૃત્વ પરિણમન સંભવી શકે નહીં. આમાને જે અકર્તા માની લેવામાં આવે, તે કર્મબન્ધને અભાવ જ થઈ જાય, અને કર્મબન્ધને અભાવે સુખ દુઃખને અનુભવ કેણ કરશે? એજ પ્રકારે છે અસની ઉત્પત્તિ સંભવતી ન હોય, તે પૂર્વભવને પરિત્યાગ કરીને ઉત્તરભવની ઉત્પત્તિ રૂપ જે આત્માની ચાર પ્રકારની ગતિ કહે છે, તે પણ સંભવી શકે નહીં, અને મોક્ષ ગતિને પણ અભાવ જ થઈ જાય. આ પ્રકારે આત્માને અચુત, અનુત્પન્ન, અને સ્થિર એક સ્વભાવવાળે માનવામાં આવે, તે મનુષ્ય, દેવ આદિ ગતિઓમાં ગતિ-આગતિ પણ સંભવી શકશે નહીં અને સ્મૃતિને અભાવ થઈ જવાથી જાતિમરણું આદિ પણ સંભવી નહીં શકે. તુ કાર્યની જ ઉત્પત્તિ થાય છે,” આ પ્રમાણે કહેવું તે પણ ઊચિત નથી, જો કાર્ય પહેલેથી જ સર્વથા સતું હોય, તે પછી ઊત્પત્તિ કેવી? અને જે ઊત્પત્તિ થતી For Private And Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रो अधासत्कार्यवादि बौद्धमतं दर्शयति-पंचखंधे इत्यादि । मूलम् पंच खंधे वयंतगे वोलो उ खणजोइणो अण्णो अण्णष्णो णेवाहु हेउयं च अहेउयं ॥१७॥ -छायापश्च स्कन्धान् वदन्त्येके वालास्तु क्षणयोगिनः । अन्यमनन्यं नैवाहु है तुकं च अहेतुकम् ॥१७॥ अन्वयार्थ(एगे) एके केचन (बाला उ) बालास्तु सदसद्विवेकविकला बौद्धमतानु यायिनः (पंच) पञ्चसंख्यकान् (खधे) स्कन्धान रूप-वेदना विज्ञान-सज्ञाहोती है तो सर्वथा सत् कैसे हो सकता है ? अतएव आत्मा को कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य और सत् असत्-कार्यवाद स्वीकार करना चाहिए अर्थात् द्रव्य रूप से सत् और पर्याय रूप से असत् कार्य की उत्पत्ति होती है ।।१६।। ___अब असत्कार्यवादी बौद्धमत को दिखलाते हैं-"पंचखंधे" इत्यादि शब्दार्थ--'एगे-एके कोई 'बाला उ-बालस्तु अज्ञानी पच-पञ्च पांच 'खधेस्कन्धान्' ध 'वयंति-चम्ति' बताते हैं-कहते हैं 'खणजोइणो क्षणयोगिनः' क्षणमात्ररहने वाले हैं 'अण्णो-अन्यम्' पांच महाभूतों से अन्य 'अणण्णो-अनन्यम्' तथा इससे अभिन्न 'हेउय-हेतुक सकारण उत्पन्न 'च-च' तथा 'अहेउयं-अहेतुक" दिनाकरण उत्पन्न आत्मा ‘णेवाहु-नैवाहुः' नहीं होता हैं ॥१७॥ -अन्वयार्थकोई कोई सत् असत् के विवेकसे रहित बौद्धमत के अनुयायी अज्ञानी पांच स्कन्ध कहते हैं-(१) रूप (२) वेदना (३) विज्ञान (४) संज्ञा और હાય, તે સર્વથા સત્ કેવી રીતે હોઈ શકે ? તેથી જ આત્માને અમુક દૃષ્ટિએ નિત્ય અને અમુક દૃષ્ટિએ અનિત્ય તથા સત્--અસત્ કાર્યવાદ સ્વીકાર કરવો જોઈએ. એટલે કે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ સત્ અને પર્યાયની અપેક્ષાએ અસત્ કાર્યની ઊત્પત્તિ થાય છે. ગાથા ૧૬ . हवे सूत्र॥२ २१४ायपाहो मौद्धिमतनु विवेचन ४३ .- “पंच खधे” त्यादि शहा – 'एगे-एके 'बाला उ-बालस्तु' जानी 'एच-पञ्च' iय 'खधेसाधान्' २४५ 'वयंति-वदन्ति' ४ छ 'अण्णो-अन्यम्' लय भायाभू शिवाय अायो- अमन्यम्' यानाथी मन्य हे उय-हेतुकम्' सा पान 'य-च' तथा 'अहे. उय-अहेतुक' १२९विनापन्न मात्मा ‘णेशाहु-नेबाहुः खाता नथी. ॥१७॥ अन्वयार्थ તુ વિવેકથી રહિત અને બદ્ધમતના અનુયાયી એવા કઈ હોઈ અજ્ઞાની લોકો પાંચ રડીનું પ્રતિપાદન કરે છે. તે પાંચ સ્કલ્પના નામ નીચે પ્રમાણે છે. (૧) For Private And Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ असत्कार्य वादीबौद्धमतनिरूपणम् २१३ संस्काराख्यान (वयंति) वदन्ति प्रतिपादयन्ति-पश्चस्कन्धेभ्यो व्यतिरिक्त : परलोकगामी कोऽप्यात्मा नास्तीति कथयन्ति । ते च स्कन्धा : (खणजोइणो) क्षणयोगिनः क्षणमात्र योगवन्तः क्षणिकाः सन्तीत्यर्थः । पुनश्चैते बौद्धाः (अण्णो) अन्यम्- आत्मषष्ठवादि- सांख्योक्तं पञ्चभूतेभ्योऽन्यमात्मानम् तथा (अणको)अनन्यम्-चार्वाकाभिमतं पश्चभूताव्यतिरिक्तमात्मानं न मन्यन्ते । एवं (हेउयं) हेतुकं सहेतुकं पञ्चभूतेभ्यः समुत्पन्नम् (च) च-तथा (अहेऽयं) अहेतुकम् हेतुरहितम् अनाद्यनन्तत्वान्नित्यं चात्मानं (णेवाहु) नैवाहुः नैव कथयन्ति अन्यम् अनन्यम् हेतुकम् अहेतुकम् चात्मानं न मन्यन्ते बौद्धा इति भावः ॥ १७ ॥ -टीका'एगे एके-केचन' वाला उ, बालास्तु सदसद्विवेकविकला बौद्धमतानुयायिनः 'पंच खंधे' पञ्चकन्धान वयंति वदन्ति-प्रतिपादयन्ति । तथाहि-रूपस्कन्ध-वेदना स्कन्ध-विज्ञानस्कन्ध-संज्ञास्कन्ध-संस्कारस्कन्धाग्व्याः पञ्चैव स्कन्धा विद्यन्ते (५) संस्कार । उनका कहना है कि इन पांच स्कन्धों से भिन्न कोई आत्मा नहीं है, जो परलोक में गमन करता हो, वे स्कन्ध एक क्षण भर ही ठहरते हैं। वे बौद्ध आत्मा को सांख्य की भांति पांच भूतों से भिन्न स्वीकार नहीं करते और न चार्वाक की तरह अभिन्न ही स्वीकार करते हैं । आत्मा को सहेतुक अर्थात् भूतों से उत्पन्न या निर्हेतुक अर्थात् अनादि अनन्त भी नहीं मानते हैं ॥१७॥ —टीकार्थकोई कोई बौद्धमत के अनुयायी सत्य असत्य के मान से शून्य अज्ञानी पांच स्कंधों का प्रतिपादन करते हैं। वे पांच कर यह है-(१) रूपस्कंध (२) वेदनास्कंध (३) विज्ञानस्कंध (४) संज्ञास्कंध और (५) संस्कार ३५, (२) वेदना, (3) विज्ञान (४)संज्ञा अने (५) ४२ तेयो गेषु प्रतियान २ છે કે પાંચ સ્કથી ભિન્ન એ છે કે આત્મા જ નથી કે જે પરલોકમાં ગમન કરતે હિય. તે સ્થળે એક ટ્રણ માત્ર જ ટકે છે. તે બૌદ્ધમતને માનનારા લેકે આત્માને સાંખ્યાની જેમ પાંચ ભૂતથી ભિન્ન પણ માનતા નથી. અને ચાર્વાક મતવાદીઓની જેમ પાંચ ભૂતથી અભિન્ન પણ માનતા નથી. તેઓ આત્માને સહેતુક એટલે કે ભૂતો વડે પિન થયેલે અથવા નિહેતુક એટલે અનાદિ અનંત પણ માનતા નથી. ૧૭ टीथ કઈ કઈ બૌદ્ધમતના અનુયાયીઓ સત્ય અને અસત્યના ભાનથી વિહીન હોવાને કારણે–અજ્ઞાની હોવાને કારણે પાંચ સ્કંધનું પ્રતિપાદન કરે છે. તે પાંચ સ્કંધ નીચે अ५ छ. (१) ३१४५, (२) ना२४५, (3) विज्ञान२४५, (४) संज्ञा न्यने (५) For Private And Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१४ सूत्रकृतात्रे एतेभ्यः स्कन्धेभ्यो व्यतिरिक्तः कश्चिदात्मा परलोकगामी नास्तीति प्रतिपादयन्ति । तत्र पृथिवी पार्थिवरूपादयश्च रूपस्कन्धे समाविष्टा भवन्ति १ सुखदुखयोः तदभावयोथ वेदनमनुभवो वेदनास्कन्धेऽन्तर्भवतिर रूपज्ञान - रसज्ञान घटादिज्ञानानि विज्ञानस्कन्थेऽन्तर्भवन्ति ३ । घटपटादिसंज्ञानां बोधकः संज्ञास्कन्ध : ४ । पुण्यपापानां समुदायः संस्कारस्कन्धः ५ । एतेषां समुदायरूपएवात्मा न तु एतेभ्योऽतिरिक्तः कचिदात्मा नामक पदार्थोऽस्ति । एतद् व्यतिरिक्तात्माऽस्तित्वे प्रमाणस्याऽभावात् । अयमर्थ:- प्रत्यक्षं द्विविधम्- बाह्यमाभ्यन्तरंच । तत्र वाह्य चाक्षुप-रसनाप्राणज - श्रावण - नवाच भेदात् पंचविधम् । तत्र - रूप-रूपत्व- रूपिणां च चक्षुषा ग्रहणं भवति स्पर्श - स्पर्शत्व स्पर्शवतांच त्वगिन्द्रियेण ज्ञानं जायमानं त्वाच स्कंध | उनका कथन है कि इन पांच स्वों से भिन्न और परलोकगामी आत्मा नामक कोई पदार्थ नहीं है । इनमें से पृथिवी और पार्थिव रूप आदि रूपकंव के अन्तर्गत हैं सुख दुःख और उन के अभाव का अनुभव करना वेदना के अन्तर्गत है रूपज्ञान रसज्ञान और घट आदि संज्ञाओं कान काने वाला संज्ञास्कंध कहलाता है और पुण्य पाप का समुदाय संस्कारस्कंध है। आत्मा इन स्कंधों से अभिन्न है भिन्न नहीं है। इनसे भिन्न आत्मा का अस्तित्व मानने में प्रमाण का अभाव है । आशय यह है प्रत्यक्ष दो प्रकार का है वाह्य और आभ्यन्तर । वाद्य प्रत्यक्ष पांच प्रकार का है – (१) चक्षु से उत्पन्न होने वाला ( २ ) रसना से उत्पन्न होने वाला (३) प्राग उत्पन्न होने वाला (४) श्रोत्र से उत्पन्न होने वाला (५) त्वचा स्पशेन्द्रिय से उत्पन्न होने वाला रूप का સંસ્કાર સ્કંધ તેઓ એવું કહે છે કે આ પાંચ સ્કંધાથી ભિન્ન અને પરલેાકગામી આત્મા નામના કોઇ પદાર્થ જ નથી તેમના પૃથ્વી અને પાર્થિવ રૂપાદિના રૂપક ધમાં સમાવેશ થઈ જાય છે. સુખ દુઃખના અને તેમના અભાવના અનુભવ કરવા. તેને વેદનાસ્ય ધમાં સમાવેશ થઇ જાય છે. રૂપજ્ઞાન અને રસજ્ઞાન કરાવનારા જે સ્કંધ છે, તેને વિજ્ઞાનસ્ક ધ કહે છે. ઘટાદિ સંજ્ઞાઓનુ જ્ઞાન કરાવનારા સ્કંધને સજ્ઞાસ્ક ધ કહે છે. અને પુણ્યપાપના સમુદાય રૂપ રાસ્કાર ધ છે. આત્મા આ સ્કંધાથી અભિન્ન છે.– ભિન્ન નથી. તેમનાથી ભિન્ન આત્માને માનવામાં પ્રમાણન અભાવ છે. આ કથનના આશય એ છે કે પ્રત્યક્ષના બે પ્રકાર છે. (१) माह्यप्रत्यक्ष भने (२) आभ्यन्तर प्रन्या मा प्रत्यक्षापात्र र छे. (१) ચક્ષુ વડે ઉત્પન્ન થનારૂ (૨) રસના વડે ઉત્પન્ન થનાર (૩) કાણુ વડે ઉત્પન્ન થનાર (४) श्रोत्र वडे उत्पन्न थनार अने (५) त्वया (स्पर्शेन्द्रिय) वडे उत्पन्न थना३. For Private And Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. १ असत्कार्यवादी बौद्धमतनिरूपणम् २१५ मित्यभिधीयते । रसगन्ध - शब्दानां रसनत्राणश्रोत्रज्ञानं जायते । तथात्मनि न चक्षुषः प्रवृत्तिः संभवति, आत्मानो नीरूपत्वात् । रूपवतामेव द्रव्याणां चक्षुग्रीवत्वनियमात । नापि त्वगिन्द्रियस्य प्रवृत्तिरात्मनि स्पर्शतो द्रव्यस्यैव त्वयोग्राह्यत्व दर्शनात आत्मनिच रूपस्पर्शयोरभावेन ताभ्यां त्वचक्षुभ्यग्रहणाभावाद । नापि रसनादीन्द्रियतिग्रहणं संभवति तेषां गुणमात्रवाहकत्वात् आत्मनश्च सर्वथा गुणरूपत्वाऽभावात् । नापि - आन्तर- प्रत्यक्ष वेद्यता - आत्मानः सुखादीनामेव मनोग्राद्यन्वनियमात् । तस्मान्न प्रत्यक्षं प्रक्रमते - आत्मनि । नाप्यनुमानं प्रक्रमते आत्मनि निर्दष्टहेतोरभावात् , रूपत्व का और रूपी पदार्थों का चक्षु से ग्रहण होता है स्पर्श स्पर्शत्व तथा स्पर्श वाले पदार्थों का त्वचा इन्द्रिय से ग्रहण होता है । सगंध और शब्द का रसना घ्राण और क्षेत्र इन्द्रियों से ग्रहण होता है । इनमें से आत्मा के विषय में चक्षु की प्रवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि आत्मा अरुपी है । चक्षु के विषय तो रूपवान पदार्थ ही होते हैं ऐसा नियम है । स्पर्शनेन्द्रिय की भी प्रवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि स्पर्शवान् द्रव्यही उसके द्वारा ग्रहण किया जा सकता है। आत्मा में रूप और स्पर्श का अभाव है अतएव उसका स्पर्शन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रिय से ग्रहण नहीं हो सकता । इसी प्रकार रसना घ्राण और इन्द्रियों से भी ग्रहण होना संभव नहीं है क्योंकि यह इन्द्रियां गुणमात्र को ग्रहण करती हैं और आत्मा गुण मात्र स्वरूप नहीं है । आत्मा आन्तर प्रत्यक्ष से भी ज्ञेय नहीं है क्योंकि सुखादि ही मन के ग्राह्य हो सकते हैं । अतएव आत्मा के विषय में प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। अनुमान प्रमाण की प्रवृत्ति होना भी संभव नहीं है क्योंकि निर्दोष हेतु का अभाव है । ચક્ષુ વડે રૂપનું, રૂપત્વનું અને રૂપી પદાર્થ નુ ગ્રહણ થાય છે. ત્વચા (સ્પર્શેન્દ્રિય) વડે સ્પર્શી, સ્પત્ય અને સ્પવાળા પટ્ટાને ગ્રહણ કરાય છે. રસનું હુણ રસના ઈન્દ્રિય વડે, ગધનું પ્રાણેન્દ્રિય વડે અને શબ્દનું શ્રન્દ્રિય વડે ગ્રહણ થાય છે. આ પાંચમાંના ચતુ નામના બાહ્ય પ્રત્યક્ષ વડે આત્માના વિષયમાં પ્રવૃત્તિ થઇ શકતી નથી, કારણ કે આત્મા અરૂપી છે. ‘રૂપી પદાર્થ જ ચક્ષુ દ્વારા ગ્રાહ્ય હાય છે,’એવા નિયમ છે આત્માના વિષયમાં સ્પર્શેન્દ્રિયની પ્રવૃત્તિ પણ થઇ શકતી નથી. સ્પર્શયુક્ત દ્રવ્યના જ બધ સ્પર્શેન્દ્રિય દ્વારા થઇ શકે છે. પરન્તુ આત્મામાં સ્પગુણનો પણ અભાવ છે તેથી આત્મા સ્પર્શેન્દ્રિય દ્વારા પણ અગ્રાહ્ય છે. સ્પર્શેન્દ્રિય દ્વારા તેને વિષે કશે! પણ ધ થતા નથી. એજ પ્રમાણે રસના, પ્રાણ અને શ્રોત્રોન્ડ્રિયા દ્વારા પણ આત્માને ગ્રહણ કરી શકાતા નથી, કારણ કે આ ઇન્દ્રિય ગુણમાત્રને ગ્રહણ કરે છે, અને આત્મા ગુણમાત્રસ્વરૂપ નથી. આમાં આન્તર પ્રત્યક્ષ દ્વારા પણ જ્ઞેય નથી, કારણ કે મન દ્વારા For Private And Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१६ सूत्रकृताङ्गसूत्रो प्रत्यक्षमनुमानंच विहाय प्रमाणान्तरं नास्ति यद्वलाद् पञ्चस्कन्धातिरिक्तस्यात्मनः प्रसिद्धि भवेत् । एवं ते वालाः वाला इव वालाः-सदसद्विवेकविकला बौद्धाः प्रतिपादयन्ति । वहवो हि बुद्धमताऽनुयायिनः । तत्र केचन सर्वास्तित्ववादिनः केचन विज्ञानमात्राऽस्तित्ववादिनः अपरे पुनः सर्वशून्यतावादिनः यद्यपि बुद्ध एक एवोपदेष्टा तत्र तत्त्वभेदप्रतिपादनं न युक्तम् तथापि विनेयभेदात् प्रतिपत्तिभेदाद्वा भेदो जातः तदुक्तम् "देशना लोकनाथानां सत्वाशयवशानुगाः। भिद्यन्ते बहुधा लोके उपायैर्बहुभिःपुनः ।।१।। गंभीरोत्तानभेदेन कचिचोभयलक्षणा । भिन्नाऽपि देशनाऽभिन्ना शून्यता द्वयलक्षणा ॥२॥ __ प्रत्यक्ष और अनुमान के सिवाय कोई दूसरा प्रमाण नहीं है, जिसके बल से पांच स्कंधों से भिन्न आत्मा की सिद्धि की जा सके । ऐसा वे अज्ञान बौद्ध प्रतिपादन करते हैं। बुद्धमत के अनुयायी बहुतेरे हैं । उनमें से कोई सर्वास्तित्ववादी हैं कोई विज्ञान को ही मानते हैं, कोई सर्वशून्यतावादी हैं । यद्यपि उनके उपदेशक बुद्ध एक ही हैं फिर भी शिष्यों के भेदसे या प्रतिपत्ति के भेद से भेद हो गया है । कहा भी है-'देशना लोकनाथानां" इत्यादि। लोक के नाथ भगवान् बुद्धकी देशना प्राणियों के आशय की वशवर्तिनी है। वह अनेकों उपायों से लोक में अनेक प्रकार की हो गई है ॥१॥ ___वह देशना कहीं गंभीर, कहीं उत्तान और कहीं दोनों तरह की है। किन्तु સુખાદિનું જ ગ્રહણ થઈ શકે છે. તેથી આમાના વિષયમાં પ્રત્યક્ષની પ્રવૃત્તિ થઈ શક્તી નથી. આ પ્રકારે પ્રત્યક્ષ પ્રમાણ દ્વારા આત્માને જાણી શકાતું નથી. આત્માના વિષયમાં અનુમાન પ્રમાણની પ્રવૃત્તિ પણ સંભવિત નથી, કારણ કે નિર્દોષ હેતુને અભાવ છે. - પ્રત્યક્ષ અને અનુમાન પ્રમાણ સિવાયનું બીજું કઈ પ્રમાણ નથી કે જેને આધારે પાંચ થી ભિન્ન એવા આત્માની સિદ્ધિ કરી શકાય, એવું તે અજ્ઞાન બૌદ્ધ મતવાદીઓ પ્રતિપાદન કરે છે. બૌદ્ધ મતના અનુયાયીઓના અનેક પ્રકારે છે. કોઇ સર્વાસ્તિત્વવાદી છે. કેઈ વિજ્ઞાનને જ માને છે, અને કોઈ સર્વશૂન્યતાવાદી છે. જો કે બૌદ્ધ ધર્મને ઉપદેશ આપનારા તે એક જ બુદ્ધ થઈ ગયા છે. પરંતુ શિષ્યની માન્યતા અથવા પ્રતિપત્તિના ભેદને કારણે બૌદ્ધ મતવાદીઓના પણ ઘણા ભેદ પડી ગયા છે. કહ્યું પણ छ ॐ "उशना लोकनाथानां" त्या ना नाथ भगवान मुद्धनी देश-॥ प्राणीमाना આશયની વશવત્તિની છે. તે અનેક ઉપાયે વડે લેકમાં અનેક પ્રકારની થઈ ગઈ છે. ૧ - તે દેશના ગંભીર પણ છે, ઉત્તાન પણ છે. અને ગંભીરત્તાન પણ છે. પરંતુ विभिन्न. (४) ४ छ. ॥२॥ For Private And Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनो टोका प्र. श्रु. अ. १ असत्कार्यवादी बौद्धमतनिरूपणम् २१७ इति शिष्यभेदात् तेषां ज्ञानभेदाद्वा बहुप्रकारत्वं न तु तत्वभेदादयं भेदः । तत्त्वस्य शून्यताऽद्वयस्यैकविधत्वात् । सर्वेऽपि शिष्यास्तेन साक्षात्परंपरया शून्यताया मेवाऽवतार्यन्ते । तत्र ये विचक्षणाः ते साक्षादेव शून्यतोपदेशेन बोधिता बुद्धन मध्यमास्तु वाह्यार्थप्रतिक्षेपपूर्वकविज्ञानास्तित्वप्रतिपादनेन बोधिताः । ये च सर्वेभ्योऽपि हीना स्ते बाह्यार्थप्रतिपादनेनैव बोधिता बोध्यन्ते बुद्धेन । एते सर्वेऽपि यथाऽवस्थितार्थाऽपरिज्ञानाद बाला एव। तएव बाह्यार्थवादिनो बाह्यमाभ्यन्तरं च पदार्थजातं स्वीकुर्वन्ति भूतं भौतिकं चित्तं चैतंच । तथोक्तं सूत्रकारेण-पंचस्कन्धान इत्यादि । ते च पंच स्कन्धसमुदायात्मकमेवाऽऽत्मानं स्वीकुर्वन्ति न तु स्कन्धाऽतिरिक्तमात्मानमभ्युपगच्छन्ति । विभिन्न प्रकार को वह देशना शून्यता रूप एक लक्षण वाली होने से अभिन्न एक ही है ॥ २॥ ___ इस प्रकार शिष्यों के भेद से या उनके ज्ञान के भेद से नाना प्रकार हो गए हैं । तत्त्व के भेद से यह भेद नहीं है। तत्त्व है शून्यता और वह एक ही प्रकार का है । सभी शिष्यों को इसके द्वारा साक्षात् या परम्परा से शून्यता में ही प्रवेश कराया जाता है। जो शिष्य प्रज्ञावान हैं, उन्हें बुद्ध ने साक्षात् शून्यता का उपदेश देकर वोधित किया है। मध्यम शिष्योंको वाह्य पदार्थों का निषेध करके और अकेले विज्ञान का अस्तित्व प्रतिपादन करके समझाया है और जो सबसे हीन हैं उनको वाह्य पदार्थों का अस्तित्व प्रतिपादन करके बोध प्रदान किया है। परन्तु ये सभी वास्त. विक पदार्थ स्वरूप से अनभिज्ञ होने के कारण अज्ञानी ही हैं। बाह्यार्थवादी શિષ્યના ભેદની અપેક્ષાએ અથવા તેમના જ્ઞાનના ભેદની અપેક્ષાએ બૌદ્ધોમાં અનેક ભેદ પડી ગયા છે. પરંતુ તત્વના ભેદની અપેક્ષાએ આ ભેદ પડ્યા નથી. તત્વ તે એક જ છે. શુન્યતા રૂપ તત્વમાં કોઈ ભેદ નથી. સઘળા શિષ્યને તેના દ્વારા સાક્ષાત્ અથવા પરંપરા વડે શુન્યતામાં પ્રવેશ કરાવવામાં આવે છે. - જે શિષ્ય પ્રસ્તાયુક્ત હતાં, તેમને બુદ્ધ સાક્ષાત્ શૂન્યતાને ઉપદેશ આપીને બધિત કર્યા હતા. મધ્યમ શિષ્યોને બાહ્ય પદાર્થોને નિષેધ કરીને અને એકલા વિજ્ઞાનના અસ્તિત્વનું જ પ્રતિપાદન કરીને સમજાવ્યા છે. અને જેઓ સૌથી હીન હતાં, તેમને બાહ્ય પદાર્થોના અસ્તિત્વનું પ્રતિપાદન કરીને બોધ આપ્યો હતો. પરંતુ તે સઘળા શિષ્ય પદાર્થને વારતવિક વિરપથી અનભિન્ન રહેવાને કારણે અજ્ઞાની જ રહ્યા છે. બાહ્યાર્થવાદી सू. २८ For Private And Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3 २१८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे तथा ते स्कन्धाः-"खणजोइणो,' इति' क्षणयोगिन इत्यर्थः । क्षणः परमसुक्ष्मकालः तेन सह योगः संवन्धः क्षणयोगः-क्षणयोगो विद्यते यस्य स क्षणयोगी यत् सत् तत् क्षणिकमिति व्याप्तेः । तत्र मेघमालादिकं दृष्टान्तः"यथा मेघमालाः क्षणिकाः सत्त्वात् । तथा सर्वे भावाः सत्त्वात् क्षणिका एव न तु स्थायिनो भवन्ति । सत्वं नाम-अर्थक्रियाकारित्वम् । अर्थक्रियाच स्थायिनि पदार्थे न संभवति, अतः स्थायित्वं विरुद्ध क्षणिकत्वं भावनां पर्यवस्यति । अयमाशयः-यदि पदार्थः स्थायी भवेत् तदा स अर्थक्रियां क्रमेण बौद्ध वही हैं जो वाह्य आभ्यन्तर पदार्थों को स्वीकार करते हैं। वे पदार्थ हैं भूत, भौतिक, चित्त और चैत्त । सूत्रकार ने कहा है-वे पाँच स्कंधों के समुदाय को ही आत्मा स्वीकार करते हैं। स्कंधों से भिन्न आत्मा को नहीं मानते हैं। तथा वे स्कंध क्षणयोगी हैं। सब से सूक्ष्म काल को क्षण कहते है। उन स्कंधों का एक क्षण के साथ ही संबंध रहता है अर्थात् वे क्षणिक हैं, क्यों कि जो सत् होता है वह क्षणिक होता है, ऐसी व्याप्ति है। यहाँ मेघमाला आदि द्रष्टान्त हैं। जैसे मेघमालाएं क्षणिक हैं, क्योंकि सत् हैं, उसी प्रकार सभी सत् पदार्थ क्षणिक हैं स्थायी नहीं। यहां सत्त्वका अर्थ है अर्थक्रिया कारित्व स्थायी पदार्थ में अर्थक्रिया संभव नहीं है । अतएव स्थायिन्व से विरुद्ध क्षणिकत्व ही पदार्थों में सिद्ध होता है। ___आशय यह है यदि पदार्थ स्थायी हो तो वह क्रमसे अर्थक्रिया करेगा બૌદ્ધ એજ છે કે જેઓ બાહઆભ્યન્તર પદાર્થોને સ્વીકાર કરે છે. તે પદાર્થો નીચે प्रमाणे छ- भूत, लौतिह, वित्त अने औत्त.. - સૂત્રકારે એવું કહ્યું છે કે તેઓ પાંચ સ્કના સમુદાયને જ આત્મા રૂપે સ્વીકારે છે. કંથી ભિન્ન આત્માને તેઓ માનતા નથી. તથા તે કંધે ક્ષણગી છે. કાળના સૌથી સૂક્ષ્મ વિભાગને ફણ કહે છે. તે સ્ક ક્ષણિક છે, કારણ કે જે સતું હોય છે, તે ક્ષણિક જ હોય છે, એ નિયમ છે. આ નિયમનું પ્રતિપાદન કરવા માટે મેઘમાલા આદિ દટાને આપવામાં આવ્યાં છે. જેવી રીતે મેઘમાલાએ ક્ષણિક છે, કારણ કે તે સત્ પદાર્થ રૂપ છે, એ જ પ્રમાણે સઘળા સત્ પદાર્થો ક્ષણિક જ હોય છે-સ્થાયી હતા નથી. અહીં સત્ત્વને અર્થ છે અર્થ કિયાકારિત્વ' સ્થાયી પદાર્થમાં અર્થયિા સંભવી શક્તી નથી. તેથી સ્થાયિત્વથી વિરૂદ્ધ એવું ક્ષણિકત્વ જ પદાર્થોમાં સિદ્ધ થાય છે. આ કથનને આશય એ છે કે જે પદાર્થ સ્થાયી હોય, તે તે કમપૂર્વક અર્થ ક્રિયા For Private And Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र, श्रु अ. १ असत्कार्य वादी बौद्धमतनिरूपणम् २१९ करिष्यति, युगपद्वा, तृतीयपक्षस्याऽभावात् , 'परस्परविरोधेहि न प्रकारान्तरस्थिति-' रिति नियमात् । तत्र नाद्यः पक्षः प्रशस्तः यतो यदि क्रमेण कार्य करिष्यति नित्यः पदार्थ स्तदा स कालान्तरभाविनीः सर्वा अपि क्रियाः प्रथम क्रियाकाले एवं करिष्यति, समर्थस्य क्षेपा (कालक्षेपा)ऽयोगादिति न्यायात् । कालक्षेपे चासामर्थ्य वा स्यात् । यद्यपि समर्थोऽयं भावः क्रियाकरणे तथापि सहकारिसमवधाने एव तत्तत् कार्य करिष्यतीति न वाच्यम् । एवं सति असामर्थ्य स्यात्, स्वेतर सहकारि-सापेक्षवृत्तित्वात् । तस्मात्क्रमेणेति पक्षो न सम्यक् । अथ युगपदिति वा-कार्य करोति स्थिरभाव इति द्वितीयपक्षोऽपि न समीचीनः नयको भावोऽशेपदेशकालवर्तिनीः सर्वा अपि क्रियाः युगपदेव संपादयतीति अथवा एक साथ ! तीसरा पक्ष हो नहीं सकता। ऐसा नियम है कि परस्पर विरोधी दो पक्षों के अतिरिक्त तीसरा पक्ष नहीं हो सकता। उक्त दो में से प्रथम पक्ष ठीक नहीं है, क्योंकि नित्य पदार्थ यदि क्रम से कार्य करेगा तो वह कालान्तर में होने वाली सभी क्रियाओं को पहली क्रिया के समय में ही क्यों नहीं कर लेता ? समर्थ पदार्थ कालक्षेप नहीं करता, ऐसा न्याय है। अगर वह कालक्षेप करे तो असमर्थ हो जाएगा । अगर कहो कि पदार्थ तो अर्थक्रिया करने में समर्थ है तथापि सहकारी कारणों का संयोग होने पर ही वह अमुक अमुक कार्य करता है सो ठीक नहीं। ऐसा होने पर तो वह असमर्थ हो जाएगा, क्योंकि वह अपने से भिन्न सहकारियों की अपेक्षा से ही प्रवृत्ति करता हैं। अतएव क्रमसे अर्थक्रिया करने का पक्ष समीचीन नहीं है। ___स्थायी पदार्थ एक साथ अर्थक्रिया करता है, यह दूसरा पक्ष भी समीचीन नहीं है। एक पदार्थ समस्त देशकालों में होनेवाली समस्त क्रियाओं को एक કરશે. કે એક સાથે અર્થ કિયા કરશે ? આ બે વિકલ્પ સિવાયને ત્રીને કેઈ વિકલ્પ સંભવી જ શક્તા નથી. કારણ કે એ નિયમ છે કે પરરપર વિરોધી એવા બે પક્ષો ઉપરાંત ત્રીજે કઈ પક્ષ જ હોઈ શકે નહીં ઉપર્યુકત બન્ને પક્ષેમાને પહેલે પક્ષ સમીચીન નથી. કારણ કે નિત્ય પદાર્થ જે કમપૂર્વક કામ કરે છે તે કાલાન્તરે થનારી સઘળી ક્રિયાઓને પહેલી કિયાના સમયમાં જ શા માટે કરી ન લે? સમર્થ પદાર્થ કાળક્ષેપ કરતા નથી. એવો નિયમ છે જેને કાળક્ષેપ કરે તે અસમર્થ થઈ જાય કદાચ આપ એવું પ્રતિપાદન કરતા હો કે પદાર્થ તે અર્થ ક્રિયા કરવાને સમર્થ છે, પરંતુ હકારી કારણેને સંગ થાય ત્યારે જ તે અમુક અમુક કાર્ય કરે છે, પરન્ત આ માતા ઉચિત નથી જે એ માન્યતા સ્વીકારવામાં આવે તે પદાર્થની અસમર્થતા જે સિદ્ધ થશે, કારણ કે તે પોતાનાથીસૂન એવા સહકારીઓને આધારે જ પ્રવૃતિ કરે છે તેથી ક્રમે કમેઅર્થ ક્રિયા કરવાને પક્ષ (વિકલ્પ) સમીચીનનથી. For Private And Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २२० सूत्रकृतसूत्रे कुत्रचिदपि केनापि ज्ञायते । अनुभवविरोधात् । तथा सति कार्यकारणादीना दैव जायमानतया दण्डघटादिनां परस्परकार्यकारणभावस्य विलोपप्रसंगात् । यथा कथंचित् एकदेव सर्वक्रियाकारित्वस्य स्वीकारेऽपि न दोषाद् विमुच्यते । यतो यदि स्थिरो भावः सर्वमपि अर्थक्रियामेकदैव करोति, तदा द्वितीय तृतीयादि क्षणे स भावः किं करिष्यति, करणीयान्तराभावत् । यत्सत्कर्त्तव्यमासीत् तत्सर्व प्रथमक्षणे एव तेन कृतमेव, ततोऽनन्तरकाले किं करिष्यति । इति युगपदिति पक्षोपि न समीचीनः तदेवं स्थिरस्य भावस्य क्रम यौगपद्य द्वाराऽर्थक्रियाकारित्वस्याभावात् स्वकारणेन स्थिरभावस्योत्पत्ति नै जायते । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साथ कर लेता है, ऐसी प्रतीति कहीं किसी को भी नहीं होती है। अगर सभी पदार्थों की एक साथ उत्पत्ति मानी जाय तो कार्य और कारण आदि के एक साथ उत्पन्न होने से दण्ड और घट आदि में परस्पर कार्य कारणभाव ही नहीं बन सकेगा । किसी प्रकार एक ही साथ समस्त क्रियाओं का किया जाना स्वीकार करने पर भी दोष से छुटकारा नहीं हो सकता । यदि स्थिर पदार्थ सभी अर्थक्रियाओं को एक साथ ही कर डालता हैं तो दूसरे तीसरे आदि क्षणों में क्या करेगा ? उसे करनेको कुछ शेष नहीं है। जो कुछ करने योग्य था वह सब उसने प्रथम क्षण में ही कर लिया, फिर बाद के क्षणों में क्या करेगा ? इस प्रकार एक साथ अर्थक्रिया करने का पक्ष भी समीचीन नहीं है । इस प्रकार स्थिर पदार्थ में क्रम अथवा अक्रम से अर्थक्रियाकारित्व का अभाव होने से नित्य पदार्थ की उत्पत्ति अपने कारणों से नहीं हो सकती । 3 સ્થાયી પદાર્થ એક સાથે ક્રિયા કરે છે”, આ બન્ને પક્ષ પણ સ્વીકાર્ય નથી એક પદાર્થ સમસ્તદેશકાળમા થનારી સમસ્તક્રિયાઓ એક સાથે કરી લે છે. એવી પ્રીતિ કોઈને ક્યારે ય પણ થતી નથી જો સઘળા પદાથેની એક સાથે ઉત્પત્તિ થવાની વાત માનવામાં આવે તા કાય અને કારણ આદિની એક સાથે ઉત્પત્તિ થવાથી દંડ અને ઘટાઢિમાં પરસ્પર કાર્ય કારણ ભાવ જ સંભવી શકશે નહીં. કોઈ પણ પ્રકારે એક સાથે જ સમસ્ત ક્રિયાએ કરાયાના સ્વીકાર કરવામાં આવે તે પણ દોષથી મુક્ત રહી શકાશે નહીં. જો સ્થિર પદાર્થ પહેલી ક્ષણમાં જ સઘળી અક્રિયાએ એક સાથે કરી નાખે, તે! બીજી, ત્રીજી આદિ ક્ષણામાં શું કરશે ? તેને કઈ પણ કરવાનું જ બાકી રહ્યું નથી જે કઈ કરવા જેવુ હતુ, તે તેણે પ્રથમ ક્ષણમાં જ કરી નાખ્યું. હવે પછીની ક્ષણામાં તે શું કરશે ? આ પ્રકારે “ એક સાથે અર્થક્રિયા કરવાના બીજો પક્ષ પણ સમીચીન લાગતા નથી. આ પ્રકારે સ્થિર (સ્થાયી) પદાર્થ માં ક્રમ અથવા અક્રમ પૂર્વક ક્રિયા કારિત્વનો અભાવ હોવાથી નિત્ય પદાર્થની ઉત્પત્તિ પોતાના કારણેાવડે થઈ શકતી નથી. For Private And Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'समर्थ'बोधिनी टीका २२१ प्र. . अ. १ असत्कार्यवादी बौद्धमतनिरूपणम् अथ पदार्थोऽनित्यस्वभावः, तदा सर्वस्याऽपि पदार्थस्य क्षणिकत्वम् अयत्नसिद्धमेव भवति । तथा चोक्तम् " जातिरेव हि भावानां विनाशे हेतुरिष्यते । यो जातश्च न चेद्ध्वस्तो नश्येत् पश्चात्स केन ||१|| " इति । तस्मात्स्वकारणेभ्यो जायमानाः पदार्थाः विनश्वरस्वभाववन्त एव समुत्पद्यन्ते, न तु स्थिरस्वभावतया । यदि समुत्पत्तिसमये एव स भावो विनाशकारणसंवलितो न भवेद तदा पश्चात्को हितं नाशयितुं शक्नुयात् । तदुक्तम् - "तावत्कालं स्थिरं चैनं कः पचान्नाश यिष्यति इति तस्मात् पञ्चस्कन्धाः क्षणयोगिन इति सिद्धम् । पुनश्च 'अण्णो अणष्णो, इत्यादि । ते बौद्धा:- अन्यम् - पञ्चभूतेभ्योऽतिरिक्तम् आत्मपष्टवादि सांख्याभिमतम् आत्मानं वाहू' नैवाहुः नैव कथयन्ति न स्वीकुर्वन्ती । एवं अगर पदार्थको अनित्यमाना जायतां सभी पदार्थोंकी क्षणिकता बिना प्रयत्न ही सिद्ध हो जाती है। कहा भी है- " जातिरेव हि भावानाम्" इत्यादि । पदार्थों की उत्पत्ति ही उनके विनाश का कारण है । जो पदार्थ उत्पन्न होते ही नष्ट नहीं होता, वह बादमें किस कारण से नष्ट होगा ? अर्थात् नष्ट ही नहीं होगा । " I अतएव उत्पन्न होने वाले पदार्थ नाशशील ही उत्पन्न होते हैं, स्थितिशील नहीं। अगर उत्पत्ति के समय में ही पदार्थ विनाश के कारण से युक्त न हो तो बाद में कौन उसे नष्ट करने में समर्थ हो सकेगा ? कहानी हैउतने समयतक स्थिर रहे हुए उस पदार्थ को बादमे कौन नष्ट करेगा ? इससे यह सिद्ध हुआ की पांच स्कंध क्षणिक हैं । वे बौद्ध आत्मवादी सांख्या के माने हुए आत्मा को पांच भूतों से भिन्न नहीं मानते हैं । तथा चार्वाक (नास्तिक) के द्वारा स्वीकृत पांच भूतों જો પદાર્થીને અનિત્ય માનવામાં આવે, તા સઘળા પદાથાંની ક્ષણિકતા વિના પ્રયત્ને ४ सिद्ध था लय छे. उधुं पशु छे - “जातिरेव हि भावानाम्" इत्याहि “ પદાર્થોની ઉત્પત્તિ જ તેમના વિનાશનું કારણ છે. જે પદાર્થ ઉત્પન્ન થતાં જ નષ્ટ થતા નથી, તે પાછળથી કયા કારણે નષ્ટ થશે ? એટલે કે નષ્ટ જ નહીં થાય.” તેથી ઉત્પન્ન થનારા પદાર્થ નાસશીલ જ ઉત્પન્ન થાય છે, સ્થિતિશીલ નહીં. જે ઉત્પત્તિને સમયે જ પટ્ટા વિનાશના કારણથી યુક્ત ન હોય, તા ત્યાર બાદ (ઉત્પત્તિના સમય બાદ) તેને નાશ કરવાને કોણ સમ હશે? કહ્યું પણ છે કે 22 “ આટલા સમય સુધી સ્થિર રહેલા તે પદાર્થના પછીથી કાણુ નાશ કરશે ? ” આ કથન દ્વારા એ વાત સિદ્ધ થાય છે કે પાંચ સ્કંધા ક્ષણિક છે. આત્મષણવાદી (આત્મારૂપ છઠ્ઠા તત્ત્વના સ્વીકાર કરનારા) સાંખ્યા જેમ આત્માને પાંચ ભૂતાથી ભિન્ન માને છે, તેમ બૌદ્ધી માનતા નથી. વળી તેઓ ચાર્વાકાની જેમ For Private And Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे हेतुकं - सहेतुकम् - शरीराकारपरिणतं पञ्चभूतनिष्पादितम् तथा अहेतुकम् - अना धनन्तत्वानित्यमपि च न स्वीकुर्वन्तीति ॥ १७ ॥ एके बौद्धाः पृथिवीजलतेजोवायुगगन रूपपञ्चस्कन्धात्मकं जगन्मन्यन्ते, तन्मतं प्रदर्श्य साम्प्रतं ये तु पृथिवीजलतेजोवायुरूपचतुर्धातुकमेवेदं जगदिति मन्यन्ते तेषां मतं संक्षेपतो दर्शयन्नाह - पुढवी आउ इत्यादि । मूलम् - २ ४ ३ ७ ११ पुढवी आउ तेऊ य, तहा वाऊ य एगओ । ९ १० १२ १५ १३ १४ चत्तारि धाउणो रूवं एवमाहंसु यावरे ॥ १८ ॥ छाया पृथिव्यापस्तेजश्च तथा वायुश्चैकतः । चत्वारि धातो रूपाणि, एवमाहुश्चाऽपरे ॥ १८ ॥ से अभिन्न भी नहीं स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार आत्मा को न सहेतुक मानते हैं, न अहेतुक मानते है, अर्थात् न शरीर के आकार में परिणत पंचभूतों द्वारा जनित स्वीकार करते हैं, न अनादि अनन्त होने से नित्य ही स्वीकार करते हैं ||१७|| कोई बौद्ध पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पांच स्कंध रूप जगत् स्वीकार करते हैं, उनके मत को प्रदर्शित करके अब जो बौद्ध पृथिवी, जल, अग्नि और वायु रूप चतुर्धातुक ही जागत् है, ऐसा मानते हैं, उनके मत को संक्षेप से दिखलाते हुए कहते है આત્માને પાંચ ભૂતાથી અભિન્ન પણ માનતા નથી. આ રીતે તેઓ આત્માને સહેતુક પણ માનતા નથી અને અહેતુક પણ માનતા નથી. એટલે કે તે આત્માને શરીરના આકારે પિરણત પાંચ ભૂતો વડે જિનિત પણ માનતા નથી. અને અનાદિ અનંત હોવાથી તેને નિત્ય પણ સ્વીકારતા નથી. ।। ગાથા ૧૭૫ કોઈ કોઈ ઔદ્ધમતવાદીઓ પૃથ્વી, જલ, તેજ, વાયુ અને આકાશ આ પાંચ સ્કંધ રૂપ જગતના સ્વીકાર કરે છે. તેમના મતને પ્રકટ કરીને હવે સૂત્રકાર કેટલાક એવા બૌદ્ધ મતવાદીઓના મતને પ્રકટ કરે છે કે જે પૃથ્વી, જલ, અગ્નિ અને વાયુરૂપ ચતુર્થાંતુક જગત છે એવું માને છે. સૂત્રકાર તેમના મતને નીચેના સૂત્ર દ્વારા સક્ષિપ્તમાં પ્રદ– શિત કરે છે. For Private And Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra समार्थ बोधिनी टीका www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्र. अ. १ चतुर्धातुकवादी बौद्धमतनिरूपणम् २२३ अन्वयार्थः— ( पुढवी आउ य तेऊ ) पृथिवी आपश्च तेजः ( तहा चाऊ य) तथा वायुश्च, एतानि ( चत्तारि ) चत्वारि चतुःसंख्यकानि ( धाउणो) धातोः धारकपोषकत्वाद् धातुः, तस्य (रूवं) रूपाणि स्वरूपाणि सन्ति पूर्वोक्तानि पृथिव्यादीनि चत्वारि धातु स्वरूपाणि सन्ति । पृथिव्यादीनि चत्वारि धातवः कथयन्त इतिभावः । एतानि (एओ) एकत: एकत्र मिलितानि जगत् घटपटादिरूपं समुत्पादयन्ति । ( एवं ) एवम् — अनेन प्रकारेणच [ अवरें] अपरे – चतुर्धातुकवादिनो बौद्धाः [आईसु] आहु: - कथयन्तीति ॥१८॥ शब्दार्थ - 'पुढयो माउय तेऊ- पृथिवी आपश्च तेजः' पृथिवी जल और तेज 'तहा घाउ य-तथा वायुश्च' तथा वायु 'चत्तारि - चत्वारि' ये चार 'धाडणो धातोः' धातुके रू' रूपाणि' रूप हैं 'पगओ एकतः' ये शरीर रूपमें एक होने पर जीव संज्ञाको प्राप्त करते हैं 'पत्र एवम्' इस प्रकार 'अघरे - अपरे' दूसरे बौद्धोंने 'आहंसु - आहुः' कहा है ॥१॥ -: अन्वयार्थ : पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु यह चार धातु के रूप हैं । अर्थात् यह पृथ्वी आदि चार धातु ( धारक और पोषक तत्त्व ) हैं । यही धातु मिलकर घटपट आदि को उत्पन्न करते हैं। ऐसा दूसरे चतुर्धातुवादीबौद्ध कहते हैं | ||१८|| शहा - 'पुढवी आय उ-पृथिवी आपश्च तेजः' पृथ्वी, 'तहा घाउ य-तथा वायुश्च' तथा वायु 'बत्तारि - चत्वारि' आ यार धातुना 'रूवं - रूपाणि' ३पो छे. 'एमओ एकतः' मा शरीर शुभ संज्ञा प्राप्त छे. 'एवं पवम्' से रीते 'अवरे - अपरे' जी ? गौद्धो छे तेसो 'आह' सु- आहुः 'धुं छे. ॥१८॥ न्स याने तेल 'घाउणो धातोः ' अथवाथी लव અન્વયા "पृथ्वी, स, अग्नि याने वायु, आा यार धातुनां ३५ छे. भेटले मे मा पृथ्वी આદિ ચાર ધાતુ (ધારક અને પાષક તત્વ) છે. એ જ ધાતુ મળીને ઘટ, પટ આદિને ઉત્પન્ન કરે છે.” ચતુાંતુવાદી જે બૌદ્ધો છે, તેમની આ પ્રકારની માન્યતા છે. ૧૮ For Private And Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २२४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे टीका 'पुढची आउ तेऊ य तहा वाऊ य' पृथिवीधातुरापथ धातुस्तेजो वातुः तथा वायुश्वेति गगनपंचमन्यूनानि 'चतारिं' चत्वार्येव ' धाउणो वं', धातो: जगतो धारकपोषकत्वाद धातूपदवाच्यस्य रूपाणि सन्ति एतानि चत्वारि पृथिव्यादीनि 'एगओ' एकतो मिलितानि जगदुत्पादयन्ति तथा जगद् धारयन्ति पोषयन्ति अतो धातुपदवाच्यानि भवन्ति । एतेभ्य एव कारणेभ्यो जगज्जायते तत्र पृथिवी कठिनस्वभावा, शीतगुणान्वितं जलम्, उष्णस्पर्शगुणकं तेजः, सर्वथा चलनस्वभावो वायुश्च भवति । एतेभ्यः समुदि - तेभ्यो वा घटादिजातं जगत तथा एतेभ्य एव कायाकारपरिणतेभ्यः शरीरं जायते, कायाकारपरिणतेषु तेष्वेव च चैतन्यमपि जीवपदवाच्यं जायते, (टीकार्थ) पृथिवीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायु धातु, यह आकाश को छोड़कर चार ही धातु हैं । धातु का अर्थ हैं जगत् के धारक और पोषक तत्त्व यह चारों धातु एक साथ मिलकर जगत् को उत्पन्न करते हैं, जगत् को धारण करते हैं और पोषण करते हैं । इसी कारण यह धातु कहलाते हैं । इन्हीं से जगत् की उत्पत्ति होती है। इनमें पृथिवी का स्वभाव कठोरता । जल शीतगुण वाला है, अग्नि उष्ण स्पर्शवाली हैं | और वायु सर्वथा चलने के स्वभाव वाला है। इन्हीं के समुदित होने से घटादि का समूह रूप जगत् उत्पन्न हुआ है। यही जब काय के आकार में परिणत होते हैं तो शरीर की उत्पत्ति होती है, और इन्हीं से चैतन्य का, जिसे जीव भी कहते ટીકા પૃથ્વીધાતુ, જલધાતુ, અગ્નિધાતુ અને વાયુધાતુ, આ ચાર જ ધાતુ છે. આકાશને આ મતવાળા ધાતુરૂપ માનતા નથી. જગતના ધારક પાષક તત્ત્વોને ધાતુ કહે છે. આ ચારે ધાતુ એકત્ર થઈને જગતને ઉત્પન્ન કરે છે. For Private And Personal Use Only જગતને ધારણ કરે છે અને પેાષણ કર છે. તે કારણે જ તેમને ધાતુ કહેવામા આવે છે. તેમના દ્વારા જ જગતની ઉત્પત્તિ થાય છે. આ ચાર તત્ત્વોમાંનુ પૃથ્વી નામનુ જે તત્ત્વ છે. તેના સ્વભાવ કઠોરતા છે, જળ શીતગુણવાળુ છે અગ્નિ ઉષ્ણુ સ્પર્શવાળી છે અને વાયુ સ ંથા ચાલતા રહેવાના સ્વભાવવાળા છે. આ ચારે તત્ત્વો (ધાતુ) જ્યારે એકત્રિત થાય છે, ત્યારે ઘટાદિના સમૂહ રૂપ જગતની ઉત્પત્તિ થાય છે, તે ચારે ધાતુ જ્યારે કાયના આકારે પરિણત થાય છે, ત્યારે શરીરની ઉત્પત્તિ થાય છે, અને તેમના દ્વારા જ ચૈતન્ય અથવા જીવને ઉત્પાદ થાય છે. આ ચાર ધાતુઓથી ભિન્ન એવા કોઈ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाध-बोधिनी टीका प्र. अ. १ चतुर्धातुकवादी बौद्धमतनिरूपणम् २२५ न चतुभूतव्यतिरिक्तः कश्चिदात्माख्यः पदार्थों विद्यते । एतेषां समुदाये एव आत्मसंज्ञेति । तदुक्तम् - "चातुर्धातुकमिदं शरीरम् न तद् व्यतिरिक्त आत्मा ऽस्ती" ति । एवमाहुंसु यावरे' इति अपरे बौद्धाः एवम् इत्थं पूर्वोक्त प्रकारेण आहुः कथयन्ति । 'जागगा" इति कचित् पाठो दृश्यते । तत्रापि अयमर्थः - ज्ञानकाः ज्ञातारः वयं ज्ञानिन इत्येवमभिमानवन्तः अभिमानाऽग्निदग्धाः सन्तः एवं चातुर्धातुकम् इदं शरीरं, शरीरव्यतिरिक्त आत्मा नास्तीति कथितवन्तः । एते सर्वेऽपि बुद्धमतानुयायिनोऽफलवादिनः, यत एतेषां मते कार्य - क्षणे एव कर्तरात्मनो निरन्वयविनाशात् क्रियाफलेन संबन्धा --- हैं, उत्पाद होता है । इन चार धातुओं से भिन्न आत्मा नामक कोई पदार्थ नहीं है। इन्हीं के समुदायको “आत्मा ” नाम दिया जाता है । कहा भी है 46 यह शरीर चार धातुओंसे निर्मित है आत्मा इनसे भिन्न नहीं, दूसरे बौद्धों ने इस प्रकार कहा है । कहीं कहीं " यावरे " के स्थानपर "जणगा" ऐसा पाठ देखा जाता है । उसका अर्थ यह हैं कि ' इस जानकार हैं' ऐसे अभिमानवाले अभिमान की अग्नि से दग्ध होते हुए वे कहते हैं की यह शरीर चार धातुओं से बना है और शरीर से भिन्न आत्मा नहीं है । यह बुद्धमत के अनुयायी सभी अफवादी है, क्यों कि इनके मतानुसार कार्य क्षण में ही कर्ता-आत्मा का विनाश हो जाने से उसको फल के साथ संयोग नहीं होता । जब फल के समय तक आत्मा रहताही नहीं है तो ऐहिक और पारलौकिक क्रिया फल को कौन भोगेगा ? जब इनके मतानुसार આત્મા નામના પદાર્થ નથી. તેમના સમુદાયને જ “આત્મા” કહેવામાં આવે છે. કહ્યું પણ છે કે “આ શરીર ચાર ધાતુએ વડે નિર્મિત છે. આત્મા તેમનાથી ભિન્ન નથી” આ जीन प्रारना गौद्धी या अझरनी मान्यता धरावे छे. 5 मे मां "यावरे" मा पहने महले “जाणगा" या यह पशु लेवामां आवे छे. तेन! अर्थ आ प्रमाणे छे. “અને જાણકાર છીએ” આ પ્રકારના અભિમાનવાળા તે અભિમાનની અગ્નિથી દગ્ધ હોવાને કારણે એવું કહે છે કે આ શરીર પૃથ્વી આદિ ચાર ધાતુઓ વડે બનેલુ છે, અને શરીરથી ભિન્ન આત્માનું અસ્તિત્વ જ નથી. ! આ બૌદ્ધમતના સઘળા અનુયાયીઓ અફલવાદી છે, કારણ કે તેમના મતાનુસાર કાર્ય ક્ષણમાં જ કર્તાના (આત્માના) વિનાશ થઈ જવાથી લની સાથે તેના સંયોગ થતા નથી. જે ફળના સમય સુધી આત્મા રહેતા જ ન હોય, તે એહિક અને પારલૌકિક ક્રિયાફળને કોણ ભોગવશે ? તેમના મતાનુસાર જે સઘળા પદાર્થો ક્ષણિક જ હોય, તે सू. २८ For Private And Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२६ सूत्रकृतास्त्र ऽभावात्, को नाम क्रियाफलस्य ऐहिकस्यामुष्मिकस्य ना-उपभोक्ता स्यात् । एतेषां मते पदार्थमात्रस्य क्षणिकत्वे-आत्मापि क्षणिक एव क्रियाश्च दानादिका. स्ताः सर्वा अपि क्षणिका एवेति क्रियाकरणानन्तरं क्षणमात्रे एव सर्वेषां विनाशात् कः प्रेत्य कालान्तरभाविनं फलमुपभोक्ष्यते अतिरिक्तस्य कालान्तरस्थायिनश्रोपभोक्तुरभावात् । अथवा-सर्वे एव पूर्वोदिताः सांख्यादयो बौद्धाश्वाऽफलवादिनः एव भवन्ति । “केषाश्चिन्मते एकान्तोऽविकारी निष्क्रियः कूटस्थश्वाऽऽत्मा, तन्मते विकारविरहितस्याऽऽत्मनः कथं कर्तृत्वफलभोक्तृत्वं वा भवेत् । कर्तृत्वं च क्रियाविषयककृतिमत्वमेव, नेयं कृतिः क्रियाविरहिते जायते, आकाशादावभावात् । कृत्यभावे च कर्तृत्वमेव न स्यात् , कर्तृत्वाऽभावेच क्रियायाः संपादनाऽसंभवात् , क्रियाजनित सुखदुःखादि साक्षात्कारात्मक फलोपभोगश्च कथमिव समर्थितो भवेत् । पदार्थ मात्र क्षणिक है तो आत्मा भी क्षणिक ही है और दानादिक सभी क्रियाएँ भी क्षणिकही हैं। इस कारण क्रिया करते ही क्षण मात्रमें सबका विनाश होजाने पर कालान्तर में होने वाला फल कौन भोगेगा कालान्तर में ठहरने वाला कोई अतिरिक्त भोक्ता वे स्वीकार नहीं करते हैं। __अथवा पूर्वोक्त सांख्य आदि तथा बौद्ध, यह सभी अफलवादी ही हैं। इनमें से किन्हीं के मत में आत्मा है भी तो वह एकान्त रूप से अविकारी क्रिया रहित और कूटस्थ नित्य है। उनके मत में विकारहीन आत्मा में कर्तृत्व या फलभोक्तत्व कैसे सिद्ध हो सकता है ? क्रिया विषयक कृतिमत्व को ही कर्तत्व कहते हैं । यह कृति क्रिया से रहित में नहीं हो सकती, क्योंकि आकाश आदि में उसका अभाव पाया जाता है । कृति के अभाव में कर्तृत्वही नहीं होता और कर्तत्व के अभाव में क्रिया का सम्पादन करना असंभव है। ऐसी स्थिति में આત્મા પણ ક્ષણિક જ હવે જોઈએ અને દાનાદિક સઘળી ક્રિયાઓ પણ ક્ષણિક જ હેવી જોઈએ. આ કારણે ક્રિયા કરતાં ક્ષણ માત્રમાં જ સઘળા પદાર્થોને વિનાશ થઈ જવાથી કાળાન્તરે પ્રાપ્ત થનારું ફળ કેણુ ભગવશે? કાળાન્તરે પણ સ્થિર રહેનાર કે આ સિવાયના ભક્તાને તે તેઓ સ્વીકાર જ કરતા નથી. અથવા પૂર્વોક્ત સાંખ્ય આદિ મતવાદીઓ તથા આ બૌદ્ધો અફલવાદી જ છે. એમાંથી કોઈ મતવાદીએ આત્માના અસ્તિત્વને સ્વીકાર તે કરે છે, પરંતુ તેને એકાન્ત રૂપે (સર્વથા) અવિકારી, કિયારહિત અને કુટથે નિત્ય માને છે. તેમની આ માન્યતા સ્વીકારવામાં આવે, તે વિકારહીન આત્મામાં કત્વ અને ફલકતૃત્વ કેવી રીતે સિદ્ધ થશે? ક્રિયાવિષયક કૃતિમત્વને જ કર્તવ કહે છે. તે કૃતિ કિયાથી રહિત આત્મામાં સંભવી શકે નહીં, કારણ કે આકાશ આદિમાં તેને અભાવ જણાય છે. કૃતિના અભાવમાં કત્વ જ હેતું નથી અને કર્તુત્વના અભાવે ક્રિયાનું સંપાદન કરવાનું જ અસંભવિત થઈ પડે છે, એવી પરિસ્થિતિમાં For Private And Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समर्थ बोधिनी टीका प्र. थु. अ. १ चतुर्धातुकवादी बौद्धमतनिरूपणम् नहि सर्वथोदासीनस्य सर्वप्रपंचविरहितस्य कर्तृत्वं भोक्तृत्वं वा संभवति । . केषांचिन्मते " आत्मैव नास्ति, तन्मते उपभोक्तुरेवाऽ भावत् कथं फलोपभोगः संभवेत् । केषांचिन्मते सर्वे भावाः क्षणिका इति सर्वे पदार्थान्तर्गत आत्मापि क्षणिक एवेति कार्यक्षणाऽव्यवहितोत्तरकाले एव आत्मनो विनाशात् कर्मफलेन कालान्तर देशान्तरभाविना कथं क्षणविनष्टस्याऽऽत्मनः संबन्धः स्यादिति सर्वेऽपि पूर्वोदिता वादिनोऽफलवादिन एव भवन्ति । एतेषामफलवादिनाम् उत्तरदानाय पूर्व चतुर्दशगाथाटीकायां व्याख्याता निर्युक्तिगाथैव इहापि विज्ञेया । तथाहि " को वेएई " इत्यादि । २२७ सुखदुःख के साक्षात्काररूप फलोपभोग का समर्थन कैसे हो सकता है ? जो सर्वथा उदासीन है और सर्वप्रपंच से सर्वथा रहित है, वह कर्त्ता या भोक्ता नहीं हो सकता किन्ही के मत मे आत्मा ही नहीं है । उनके मत में उपभोक्ता का अभाव होने से फलका उपभोग कैसे संभव हो सकता है ? किन्हीं के मतानुसार आत्मा क्षणिक है, क्योंकि सभी पदार्थ क्षणिक हैं और आत्मा भी उन्हीं के अन्तर्गत है । कार्यक्षण के पश्चात् दूसरे ही क्षण में आत्मा का विनाश हो जाता है तो कालान्तर में होने वाले कर्मफल के साथ क्षण विनष्ट आत्मा का सम्बन्ध किस प्रकार हो सकता है ? इस प्रकार पूर्वोक्त सभी वादी अफलवादी ही है । इनको उत्तर देने के लिए चौदहवीं गाथा की टीका में व्याख्यात की गई नियुक्ति की गाथा यहाँ भी जान लेना चाहिए। वह गाथा " को वेएई " इत्यादि है । સુખદુ:ખના સાક્ષાત્કાર રૂપ લેાભાગનું સમન કેવી રીતે થઈ શકે? જે સર્વથા ઉદાસીન છે અને સ પ્રપંચથી રહિત છે, તે કત્તાઁ અથવા ભાકતા સંભવી શકે નહીં. કેટલાક મતવાદીઓ આત્માના અસ્તિત્વના જ સ્વીકાર કરતા નથી. તેમના મતમાં ઉપભોકતાના જ અભાવ હાવાથી ફલના ઉપભેગ કેવી રીતે સ ંભવિત થઈ શકે ? કેટલાક મતવાદીઓ આત્માને ક્ષણિક માને છે, કારણ કે તેએ એવું પ્રતિપાદન કરે છે કે સઘળા પદાર્થો ક્ષણિક છે, આત્મા પણ એક પટ્ટા રૂપ હોવાથી ક્ષણિક જ છે. તેમને અમે આ પ્રકારને પ્રશ્ન પૂછીએ છીએ કે કાર્ય ક્ષણ પછીની બીજી જ ક્ષણે જો આત્માના નાશ થઇ જતા હાય, તેા કાળાન્તરે અને દેશાન્તરમાં પ્રાપ્ત થનારા કર્મ ફળની સાથે ક્ષણવિનષ્ટ આત્માના સબંધ કયા પ્રકારે સ`ભવી શકે ? For Private And Personal Use Only આ પ્રકારના પૂર્વોક્ત સઘળા મતવાદીએ અફલવાદી જ છે. તેમની માન્યતાનુ ૧૪મી ગાથામાં ખ’ડન કરવામાં આવ્યુ છે, તે ૧૪મી ગાથાની ટીકામાં જે પ્રતિપાદન Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अयं भावः- यदि पंचभूतव्यतिरिक्तः चतुर्भूतव्यतिरिक्तो वा आत्मा नास्ति, ततः अत्मन एवाऽभावात् सुखदुःखादि फलानामुपभोक्ता कः स्यात् । न कोऽपि भवेत्, उपभोक्तुरेवाऽभावात् । न चेष्टापत्तिः प्रतिप्राणि सुखदुःखादिफलोपभोगस्य स्वा ऽनुभवसिद्धस्याऽपलापः कथं कर्तुं शक्येत । सर्वेऽपि प्राणिनः सुखाय प्रयतमाना दुःखेभ्यश्च निवर्तमाना दृश्यन्ते, आत्मनोऽभावेऽयं नियमः कथमिव समर्थितो भवेत् । किंच यदि आत्मैव नास्ति, तदा बन्धमोक्ष जन्म-मरण व्यवस्थापि व्यवस्थिता न स्यात् । मोक्षादि व्यवस्थाया अभावे शास्त्राणां महाधियांच प्रवृत्तिरपि निरथिका भवेत् । नचैतद् युक्तमाश्ररितुम्-तदुक्तम् भाव यह है यदि पांच भूतों से या चार भूतों से भिन्न आत्मा नहीं है तो सुखदुःख आदि फलों का उपभोक्ता कौन होगा? उपभोक्ता का अभाव होने से कोई भी फल नहीं भोगेगा। अगर कहो कि हमें इष्टापत्ति है अर्थात् फलभोक्ता कोइ नहीं है तो मुखदुःख आदि फलों का उपभोग जो प्रत्येक प्राणी में स्वानुभव से सिद्ध है, उसका अपलाप कैसे किया जा सकता है ? सभी प्राणी सुख के लिए प्रयत्न करते हुए और दुःखों से बचने का प्रयत्न करते हुए देखे जाते हैं। आत्मा के अभाव में यह नियम कैसे सिद्ध हो सकेगा? इसके अतिरिक्त यदि आत्मा ही नहीं हैं तो बन्ध, मोक्ष,जन्म और मरण की व्यवस्था भी नहीं बैठ सकेगी। मोक्ष की व्यवस्था के अभाव में કરવામાં આવ્યું છે. તે સમસ્ત પ્રતિપાદન અહીં પણ ગ્રહણ કરવું જોઈએ. એટલે કે वेई" त्या यानी अर्थ मी पण अडए) ४२वो नये. તે ગાથા દ્વારા પ્રતિપાદિત વિષયને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે. જે ચાર ભૂ તે અથવા પાંચ ભૂ તેથી ભિન્ન આત્મા ન હોય, તે સુખ, દુઃખ આદિ ફળને ઉપભોક્તા કેણુ થશે? ઉપલેક્તાને જ અભાવ હોવાથી કોઈ પણ (જીવ) ફળ ભગવશે નહીં. જો તમે તેને ઇષ્ટપત્તિ રૂપ માનતા છે, તે ફલકતા કેઈ ન હોય તે સુખદુઃખદ ફલેને ઉપભેગ જે પ્રત્યેક પ્રાણીમાં સ્વાનુભવથી સિદ્ધ છે, તેને ખુલાસે છે? સઘળા છ સુખને માટે પ્રયત્ન કરતા અને દુઃખમાંથી બચવાનો પ્રયત્ન કરતા જોવામાં આવે છે. આત્માને અભાવ માનવામાં આવે, તે આ નિયમને કેવી રીતે રિદ્ધિ કરી શકાય ? વળી જે આત્માને જ અભાવ માનવામાં આવે, તો બન્ય, મેક્ષ, જન્મ અને મરણની વ્યવસ્થા પણ સંભવિત બની શકે નહીં મોક્ષની વ્યવસ્થા નો અભાવ જ થઈ જાય, For Private And Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र, श्रु अ. ! चतुर्धातुकवादी बौद्धमतनिरूपणम् २२९ " विकला विश्ववृत्तिों , नो दुःखैकफलापि वा ।। दृष्टलाभफलावापि विप्रलंभोपि नेदृशः ॥१॥” इति । ननु को ब्रूते आत्मा नास्ति, अस्त्येव तु विज्ञानस्कन्धरूप आत्मा. यद्यपि आत्मापि विज्ञानरूप एव, तथापि तस्मिन्नेव विज्ञानात्मनि ज्ञान मुखादयो विद्यन्ते । ज्ञानसुखादयश्च तादृश विज्ञानात्मन एवाकारविशेपाः ते तदात्मनि समवेताः, ततः सुखदुःखादिफलानामुपभोगो जन्ममरणादिका सर्वाऽपि व्यवस्था समाहिता भवति-इतिचेत्सत्यं ब्रूषे ? अस्ति विज्ञानधातुरेवात्मा, तस्यैव शास्त्रों को तथा महाबुद्धिमानों की प्रवृत्ति निरर्थक हो जाएगी । परन्तु ऐसा मानना तो उचित नहीं है। कहा है " विफला विश्ववृत्तिों " इत्यादि। "विश्व का व्यापार न तो निष्फल है, न एक मात्र कष्ट रूप फलवाला है, न ऐसा है कि उसका फल प्रत्यक्ष से जो दीखता है वही हो और न यह धोखा ही है ॥१॥ . शंकाः-कौन कहता है कि आत्मा नहीं है ? आत्मा तो है परन्तु वह विज्ञान स्कंध ही है। वही सुखदुःख आदि फलोंका उपभोक्ता है। यद्यपि आत्मा विज्ञान रूप ही है, फिरभी उसी विज्ञानरूप आत्मा में ज्ञान और सुख आदि रहते हैं। ज्ञान सुख आदि विज्ञान आत्मा के ही विशिष्ट आकार हैं और वे उसी में रहते हैं। ऐसा मानने से सुखदुःख आदि की व्यवस्था संगत हो जाती है। समाधान—तुम सत्य कहते हो, आत्मा विज्ञानमय ही है और सुखदुःख તે શાસ્ત્રીની તથા મહાબુદ્ધિમાની પ્રવૃત્તિ જ નિરર્થક થઈ જાય પરંતુ એવું માનવું ते यित नथी. धुं पा छ-"विफला विश्ववृत्तिों प्रत्यादि વિશ્વ (સંસાર) ની પ્રવૃત્તિ નિષ્ફલ પણ નથી અને એક માત્ર કઈ રૂપ ફલવાળી પણ નથી. એવું પણ નથી. કે તેનું ફલ પ્રત્યક્ષ જે દેખાય છે એજ છે, અને ते पोयामा (अ५२) ३५ प नथी." શંકા-કોણ કહે છે. કે આત્મા નથી? આમા તે છે જ પરંતુ તે વિજ્ઞાન સ્કંધ રૂપ છે. એજ સુખ દુઃખ આદિ ફોને ઉપભોકતા છે. - જો કે આત્મા વિજ્ઞાન રૂપ જ છે, છતાં પણ એજ વિજ્ઞાન રૂપ આત્મામાં જ્ઞાન અને સુખ આદિ રહે છે. જ્ઞાન,સુખ આદિ વિજ્ઞાનરૂપ આત્માના જ વિશિષ્ટ આકારો છે, અને તેઓ તેમ જ રહે છે. આ પ્રમાણે માનવામાં આવે, તે સુખ દુઃખ આદિ ફળના ઉપભોગની તથા જન્મ, મરણ આદિની વ્યવસ્થા સંગત બની જાય છે. સમાધાન- તમે આત્માને જે વિજ્ઞાનમય કહો છે અને સુખદુઃખ આદિને આત્માની For Private And Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3 २३० सूत्रकृताङ्गसूत्रे मुखदुःखादयः आकारविशेषाः किन्तु विरुद्धं प्रलपसि सर्वस्यैव पदार्थजातस्य क्षणिकत्वस्वीकारात् । यथा घटादयो भावाः क्षणिकाः तथा आत्मापि क्षणिक एवेति क्षणिकत्वात् उत्पद्य सद्य एव विनश्यति, ततो विनष्टेनात्मना कालान्तरभावि स्वर्गादिफलं कथमिव भोक्तं शक्येत । क्षणरूपयोः क्रियाफलवतोः संबन्धाऽभावात् । कृतनाशाऽकृताभ्यागमदोषश्च स्यात् । येन आत्मक्षणे न क्रिया संपादिता स तु तदैव विनष्टो जातः स तु कथमपि कालान्तरभाविनं फलं न भोक्ष्यते विनष्टत्वादिति कृतनाशः। यश्च फलोपभोगं करोति' तेन तु क्रिया न संपादिताऽयच फलभोक्ता भवति, इत्यकृताभ्यागमप्रसंग इति । आदि पर्याय विशेष उसी के हैं, किन्तु तुम परस्पर विरुद्ध प्रलाप करते हो क्यों कि तुमने सभी पदार्थों को क्षणिक स्वीकार किया है। जैसे घटादि पदार्थ क्षणिक हैं उसी प्रकार आत्मा भी क्षणिक है । क्षणिक होने के कारण वह उत्पन्न होकर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है तो फिर विनष्ट हुआ आत्मा कालान्तर में होने वाले स्वर्ग आदि फलों को कैसे भोग सफलता है ? क्षणविनश्वर क्रियावान् और फलबान का सम्बन्ध हो नहीं सकता। कृतनाश और अकृताभ्यागम दोष भी आते हैं। जिस आत्मक्षणने क्रिया की वह उसी समय नष्ट हो गया वह कालान्तर में उत्पन्न होने वाले फलको किसी भी प्रकार नहीं भोगेगा। यह कृतनाश नामक दोष हुआ। जो फल भोगता है उसने वह क्रिया नहीं की थी, अतएव अकृताभ्यागम दोष हुआ। પર્યા રૂપ ગણે છે, તે ખરું જ છે. તમારી તે માન્યતા સાથે અમે પણ સંમત છીએ, પરંતુ તમે પરસ્પરથી વિરૂદ્ધ વાત કહે છે, કારણ કે તમે સઘળા પદાર્થોને ક્ષણિક જ માન્યા છે. જેવી રીતે ઘટાદિ પદાર્થ ક્ષણિક છે, એ જ પ્રમાણે આત્માને પણ તમે ક્ષણિક જ માને છે. ક્ષણિક હેવાને કારણે, તે ઉત્પન્ન થયા બાદ શીવ્ર નષ્ટ થઈ જાય છે. તે વિનષ્ટ થયેલે તે આત્મા કાળાન્તરે પ્રાપ્ત થનારાં સ્વર્ગ આદિ ફલેને કેવી રીતે ભોગવી શકે ? ક્ષણવિનશ્વર કિયાવાનું અને ફલવાનને સંબંધ જ સંભવી શકે નહીં તમારી આ માન્યતામાં તે કૃતનાશ ષ અને અકૃતાભ્યાગમ દોષને પણ પ્રસંગ ઉપસ્થિત થાય છે. ક્રિયા કરનારો આત્મા તે એજ ક્ષણે નષ્ટ થઈ ગયે, તેથી કાળાન્તરે ઉત્પન્ન થનારા ફળને તે આત્મા કેઈ પણ પ્રકારે ભેગવી શકે જ નહીં આ પ્રકારના કૃતના દોષને પ્રસંગ ત્યાં ઉભે છે. જે ફળ ભેગવે છે– એટલે કે ફળને જે ભોક્તા છે, તેણે તે ક્રિયા કરી ન હતી, ” આ પ્રકારના અકૃતાભ્યાગમ દોષને પ્રસંગ પણ ત્યાં ઉપસ્થિત થાય છે, For Private And Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चतुर्धातुकवादी बौद्धमतनिरूपणम् २३१ तदेवं क्षणिकपक्षस्य विचाराऽक्षमत्वात् तथा सर्वथा नित्यैकान्तपक्षस्य च युक्तिविकलत्वात्-परिणामनित्यपक्ष एव सर्वथा ज्यायान् । एवं च सति-आत्मा ज्ञानाधिकरणम् भवान्तरगामी भूतेभ्यः कथंचिद् अन्य एव, शरीरेण सहाऽ न्योन्याऽनुवेधात् कथंचिदनित्योऽपि । तथा सहेतुकोपि मनुष्यनारकतिर्यक भवोपादानकर्मणा तेन तेनाऽऽकारेण परिणमनस्वभावात् । तथात्मद्रव्यस्य नित्यतया अहेतुकोऽपि भवति आत्मा । तत्तत्कारणतो जायमानोऽपि द्रव्यरूपेण नित्यतयाऽबिनश्यन् बन्धजातं परित्यज्य मोक्षगामी भवति । एवं युक्तितर्कप्रमाणादिभिरात्मनः शरीरव्यतिरिक्तत्वे साधिते सति-': चतुर्धातुकमात्रं शरीरमेवेदम् "इत्यादि बौद्धानां कथनमुन्मत्तप्रलपितमिव भवति । तदेवं संक्षेपेण बौद्धमतं निरस्तमिति ॥१८॥ इस प्रकार क्षणिक पक्ष विचार को सहन नहीं करता और एकान्त नित्यपक्ष युक्ति शून्य हैं, अतएव परिणामि नित्य पक्ष ही निर्दोष है । इस पक्ष में आत्मा ज्ञान का अधिकरण, भवान्तर में जाने वाला भूतों से कथंचित भिन्न और शरीर के साथ एकमेक होने से कथंचित् अभिन्न भी है। तथा वह सहेतुक भी है क्योंकि मनुष्य नारक तिर्यच भवो के कारणभूत कर्म के स्वभाव बाला है। और वह अहेतुक भी हैं क्योंकि आत्मद्रव्य नित्य है । विभिन्न कारणों से पर्याय रूप से उत्पन्न होता हुआ भी द्रव्य रूपसे नित्य होने के कारण कभी विनष्ट नहीं होता और बन्धन से रहित होकर मोक्षगामी हो जाता है। इस प्रकार युक्ति, तर्क और प्रमाण आदि से आत्मा की शरीर से भिन्नता सिद्ध कर देने पर वौद्धों का यह कथन प्रलाप मात्र है આ પ્રકારે આત્માને ક્ષણિક માનનારી પક્ષ વિચારને સહન કરતું નથી અને એકાન્ત નિત્ય પક્ષ પણ યુક્તિશૂન્ય હોવાથી અસ્વીકાર્ય બની જાય છે, અને આત્માને એકાન્તતઃ નિત્ય માનનારી પક્ષ પણ યુક્તિશૂન્ય જહેવાથી અસ્વીકાર્ય બની જાય છે. તેથી પરિણમી નિત્ય પક્ષ જ નિર્દોષ છે. આ પક્ષમાં આત્મા જ્ઞાનના અધિકરણ રૂપ, ભવાન્તરમાં જનારો, ભૂતેથી અમુક અપેક્ષાએ ભિન્ન અને શરીરની સાથે એક એકમેક હેવાની અપેક્ષાએ અભિન્ન પણ છે. તથા આત્મા સહેતુક પણ છે, કારણકે મનુષ્ય, તિર્યંચ, નારક અને દેવ ભવના કારણભૂત કર્મો દ્વારા તે પ્રત્યેક પર્યાયમાં પરિણમન કરવાના સ્વભાવવાળો પણ છે. અને આત્મા અહેતુક પણ છે, કારણકે આત્મદ્રવ્ય નિત્ય છે. વિભિન્ન કારણ વડે પર્યાય રૂપે ઉત્પન્ન થવા છતાં પણ દ્રવ્યરૂપે નિત્ય હેવાને કારણે તે કદી વિનષ્ટ થતું નથી. અને બન્યથી રહિત થતાં જ મોક્ષમાં ગમન કરે છે. આ પ્રકારે યુક્તિ, તર્ક અને પ્રમાણ આદિ દ્વારા આત્માની શરીરથી ભિતા સિદ્ધ થઈ જાય છે. તે કારણે” ચાર ધાતુઓ વડે ઉત્પન્ન થયેલું શરીર જ છે. For Private And Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३२ सूत्रकृताङ्गसूत्र संप्रति चार्वाकादि बौद्धान्तमतं :प्रतिक्षेप्यतया दर्शयित्वा पंचभूतात्मवा यात्माद्वैतवादि तज्जीवतच्छीरवाद्यकारकात्मपष्टवादि-क्षणिक पंचस्कन्धवादिना मफलवादित्वं कथयितुं सूत्रकारस्तेषां स्व स्व दर्शनफलाभ्युपगम दर्शयितुमाह --'अगारं इत्यादि । अगारमावसंता वि अरण्णा वावि पव्वया । इमं दरिसमाणवण्णा सव्वदुक्खा विमुचई ॥१९॥ -छायाअगारमावसन्तोऽपि आरण्या वापि प्रबजिताः । इदं दर्शनमापन्नाः सर्वदुःखात्प्रमुच्यन्ते ॥१९॥ कि यह चार धातुओंसे उत्पन्न शरीर ही है, इससे भिन्न आत्मा नहीं है। यह संक्षेप में बौद्धमत का खंडन हुआ ॥१८॥ .. चार्वाक से लेकर बौद्ध तक के मतों का निराकरण करके अब पंचभूतात्मवादी, आत्माद्वैतवादी, तज्जीवतच्छरीवादी' अकारक आत्मपष्टवादी तथा क्षणिक पंचस्कंधवादी, यह सब अफलवादी हैं । यह कहने के लिए सूत्रकार उनके दर्शनको स्वीकार करनेका फल दिखलाते हैं-" अगारं" इत्यादि । शब्दार्थ 'अगार-गृहम्' धरमें 'आवस तावि-आवसन्तः' निवास करने वाले 'आरपणा-आरण्याः' अथवा वनमें निगस करने वाले 'पव्यया-प्रतिताः' प्रव्रज्या धारण किये हुए 'अथवा पबया-पावताः' पार्वतमें रहेने वाले 'इम दरिसण-इद दर्शनम्' इस दशनको-शास्त्रको 'आवण्णा-आपन्नाः' प्राप्तकर 'सब दुक्खा-स दुःखात्' समस्त दुःखों से 'मुच्चइ-मुच्यन्ते मुक्त हो जाते हैं । १९॥ તેનાથી ભિન્ન આત્મા નામના કોઈ પણ પદાર્થનું અસ્તિત્વ જ નથી.” આ પ્રકારનું બૌદ્ધનું કથન પ્રલાપ માત્ર જ બની જાય છે. આ પ્રકારે સૂત્રકારે સંક્ષિપ્તમાં બૌદ્ધ મતનું અહીં ખંડન કર્યું છે. છે ૧૮ છે t". ચાર્વાકથી લઈને બૌદ્ધ પર્યન્તના મતનું ખંડન કરી ને, હવે પાંચ ભૂતાત્મવાદી, આત્માતિવાદી, તજજીવ તછરીરવાદી અકારક આત્મપષ્ટવાદી તથા ક્ષણિક પંચસ્કંધવાદી, આ બધાં મતે અફલવાદી જ છે, તે દર્શાવવા માટે સૂત્રકાર તેમના (ઉપર્યુક્ત) દર્શને नो स्वी२ ४२वानु ३० गताये छ-"अगार" इत्यादि.शा---'अगार-गृहम्' घमा 'आवमतावि-आवसन्तः' निवास ४२वाया। आरण्णा-अरण्याः अथवा पनमा निवास वावा पचय्त-प्रव्रजिताः' याने धारण रेस मेवा अथवा 'यया-पार्वता' पर्वतमा हा वाजागा 'इम दरिसण-इद दश नम' मा शनने-शास्त्राने 'आवण्णा-आपन्नाः प्रात सरीने 'सब दुक्खा-सर्व दुःखात्' सपा माथी 'मुच्चइ-मुच्यन्ते' भुतथ: 1य छे. ॥१९॥ For Private And Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चतुर्धातुकवादी बौद्धमनिरूपणम् २३३ -अन्वयार्थः'अगार' मिति-अगारं गृहम् 'आवसंतावि' आवसन्तः। 'अरण्णा' आरण्याः-अरण्ये वसन्ति ये ते आरण्याः वननिवासिनस्तापसा इत्यर्थः । 'पव्वया' प्रवजिताः प्रवज्यां संन्यासदीक्षां प्राप्ताः संन्यासिन इत्यर्थः। अथवा 'पव्वया' इत्यस्य 'पार्वताः' इतिच्छाया, तत्पक्षे पार्वताः पर्वतनिवासिनः, 'इमं दरिसणं' इदं दर्शन-दर्शनशास्त्रम् ‘आवण्णा' आपन्नाः सन्तः। 'सव्वदुक्खा' सर्वदुःखात् समस्तदुःखात् 'मुच्चइ' मुच्यन्ते-तत्तच्छाखकारा एवं वदन्ति- यो वा कोवाऽपि इदं मदीयशासनं धर्म वाऽवाप्य तत्प्ररूपितधर्मजातम् आचरिप्यति स गृहस्थो भवेत् वानप्रस्थो वा भवेत् संन्यासी वा भवेत् सर्वविधदुःखेभ्यो विमुच्य मोक्षपदं प्राप्स्यतीति भावः ॥१९॥ - अन्वयार्थ : चाहे कोई घरमें निवास करते हो-गृहस्थ हो चाहे वनवासी तापस हो, चाहे सन्न्यास दीक्षाको प्राप्त संन्यासी हो या पर्वतनिवासी हों यदि इस दर्शन को अंगीकार कर ले तो समस्त दुःख से मुक्त हो जाते हैं, ऐसा उन उन शास्त्रों के रचयिता कहते हैं । अर्थात् जो भी हमारे इस शासन या धर्म का अंगीकार करके, उसमें प्ररूपित धर्म का आचरण करेगा वह चाहे गृहस्थ हो, वानप्रस्थ हो या संन्यासी हो, सब प्रकार के दुःखों से विमुक्त होकर मोक्ष पद प्राप्त कर लेगा । ( ऐसा विभिन्न मतों के शास्त्रकार अपने अपने शास्त्रों में प्रतिपादन करते हैं) ॥१९॥ - मनक्याथભલે ઘરમાં નિવાસ કરનારા ગૃહસ્થ છે, ભલે વનવાસી તાપસ હે, ભલે સન્યાસી છે અથવા ભલે પર્વતનિવાસી છે, પરંતુ જો તમે અમારા આ દર્શનને સ્વીકાર કરી લેશે, તે સમસ્ત દુઃખમાંથી મુક્ત થઈ જશે, એવું ઉપર્યુકત શાસ્ત્રોની રચના કરનારા કહે છે. એટલે કે જુદા જુદા મતનું પ્રતિપાદન કરનારા શાસ્ત્રકારે પિત પિતાનાં શાસ્ત્રીનું આ પ્રમાણે પ્રતિપાદન કરે છે. અમારા આ શાસન અથવા ધર્મને અંગીકાર કરવાથી અને તેમાં પ્રરૂપિત ધર્મનું આચરણ કરવાથી તમે સમસ્ત દુઃખમાંથી મુક્ત થઈ જશે. સંસારમાં રહીને અથવા વાનપ્રસ્થ અવસ્થામાં રહીને, અથવા પર્વતમાં નિવાસ કરીને, અથવા સંન્યાસી બનીને, આ પ્રકારે તમને ફાવે તે અવસ્થામાં રહીને, અમારા દર્શનને સ્વીકાર કરવાથી અને તે પ્રમાણે આચરણ કરવાથી તમે સમસ્ત દુઃખમાંથી મુકત થઈને પરમપદની (મેક્ષની). प्राति ४२. mel सू.30 For Private And Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २३४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे - टीका 6 अगार ' - मिति अगारं गृहम् तस्मिन् 'आवसंतावि' आवसन्तोऽपि वासं कुर्वन्तोऽपि । अत्र अगारपदं गृहमध्ये विद्यमान कलत्रपुत्रादीनामुपलक्षणत्वात् मचा क्रोशन्तीतिवत् लाक्षणिकम् । तथाचाऽगारे वसन्तः कलत्रपुत्रादिना सह वासं कुर्वन्त इत्यर्थः संपद्यते । तदुक्तम् - " न गृहं गृहमित्याहु गृहिणी गृहमुच्यते " । इति नीत्या गृहे स्थित इत्यस्य गृहस्थितपुत्रभार्यादिषु स्नेहं कुर्वाणा इत्यर्थः संपद्यते । 'आरण्णावावि, इति आरण्यावापि अरण्ये निवसन्तोऽपि तापसाः वानप्रस्था इति यावत् । तथा 'पव्वया' प्रवजिताः सन्न्यासिन इत्यर्थः । अथवा ' पार्वताः' इतिच्छायापक्षे पर्वतवासिनः । एषु ये केचन ' इदं दर्शनम् ' आवण्णा' आपन्ना प्राप्ताः सन्तः सव्वदुक्खा सर्वदुःखात् सर्वेभ्यः सांसारिकदुःखेभ्यः ' विमुच्चर' विमुच्यन्ते-विमुक्ता भवन्ति । 1 , -:टीकार्थ : अगार का अर्थ है घर । यहाँ अगार पद गृह में रहने वाले पत्नी पुत्र आदि का सूचक हैं । "माचे शोर कर रहे हैं" इसके समान यह एक लाक्षणिक कथन है । अतएव " घर में रहते हुए का अर्थ है कलत्रपुत्र आदि के साथ निवास करते हुए । कहा भी है " न गृहं गृहमित्याहु गृहिणी गृहमुच्यते इत्यादि । "गृह गृह नहीं कहलाता, वास्तव में गृहिणी गृह कहलाती है" । इस कथन के अनुसार गृह में स्थित का अभिप्राय है गृह में स्थित पुत्र पत्नी आदि पर स्नेह करते हुए । अरण्य का अर्थ अरण्य - वन में निवास करने वाले तापस या वानप्रस्थ भी कहलाते हैं । प्रव्रजित संन्यासी को कहते हैं । मूल में जो "पव्या" पाठ है उसका अर्थ पार्वत अर्थात् पर्वतवासी भी हो सकता है । ટીકા " अगार" आा पहनो अर्थ गृह थाय छे. अहीं अगर पह घरमा रहेनारा पत्नी, पुत्र माहिनु सूयः छे. “भयो (भायो) मोझे छे," मा थनना भेषु आ साक्षि કથન છે. તેથી ઘરમાં રહેનારા ના અર્થ આ પ્રમાણે સમજવા “પુત્ર, પુત્રી, પત્ની આદિની साथै निवास उरतो” म्ह्यं यछे जे "न गृहं गृहमित्याहु" इत्याहि ઘરને ગૃહ કહેવાતું નથી, વાસ્તવિક રૂપે તે ગૃહિણીને જ ગૃહ કહેવાય છે,” મા કથન અનુસાર ઘરમાં રહેતેા” એટલે પુત્ર, પુત્રી, પત્ની આદિ પર સ્નેહભાવ રાખતા” For Private And Personal Use Only "मरएय” भेटले वन, मने “आरएय" भेटले वनमां निवास अरनार, तेने तापस अथवा वानप्रस्थ पड़े छे. सन्यासीने 'प्रवति' हे छे. भूग सूत्रमां ने "पव्वया" આ પદ વપરાયુ છે. તેના અર્થ પાવત એટલે કે પર્વતવાસી પણ થઇ શકે છે. Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाथ बोधिनी टीका प्र श्रु. अ.१ चतुर्धातुकवादी बौद्धमतनिरूपणम् २३५ - अयं भावः-पूर्वोक्ताः सर्वेऽप्येवं कथयन्ति-मदीयं दर्शनं ये प्राप्स्यन्ति ते गृहस्थाः वानप्रस्थाः वा संन्यासिनो वा भवन्तु तेषां सर्वदुःखप्रहाणमवश्यम्भावि भवति, अवश्यमेव दुःखोच्छेदः निरतिशयसुखप्राप्तिश्च भवतीति । तथाहि-पंचभूत तज्जीवतच्छरीरात्मवादिनामयमाशयः- ये मदीयदर्शनशास्त्रमधिगतवन्तः ते गृहस्था एव सर्वदुःखेभ्यः सर्वेभ्यः केशलुंचनशिरोमुण्डनदण्डादिग्रहणनाग्न्यतपश्वरणकायक्लेशादिदुःखेभ्यः सद्य एव विमुच्यन्ते, तदुक्तम् - "तपांसि यातना श्चित्राः, संयमो भोगवंचनम् अग्निहोत्रादिकं कर्म बालक्रीडेव दृश्यते ॥१॥" इति । इनमें से जो कोई भी इस दर्शन को प्राप्त (स्वीकार) करते हैं, वे समस्त सांसारिक दुःखों से विमुक्त हो जाते हैं। ____तात्पर्य यह हैं पूर्वोक्त सभी बादी कहते हैं जो हमारे दर्शन को अंगीकार करेंगे वह चाहे गृहस्थ हो, वानप्रस्थ हों या सन्यासी हों, उनका सब दुःख अवश्य नष्ट हो जाएगा और उनको मुख की प्राप्ति होगी । यहां पंचभूतवादी और तज्जीवतच्छरीरवादी का मत यह है कि जो हमारे दर्शनशास्त्र को स्वीकार कर लेगें, वे गृहस्थ रहते हुए ही समस्त दुःखो से अर्थात् केशलांच, मस्तक मुंडन, डंडधारण, नग्नता तपश्चरण तथा कायक्लेश आदि दुःखों से शीघ्र ही छुटकारा पा लेगे। कहा भी है "तपांसि यातनाश्चित्राः" इत्यादि । तपस्या विविध प्रकार की यातना मात्र है, संयम भोगों से वंचित है और अग्निहोत्र आदि कर्ममलों के खेल जैसे दिखाई देते हैं" ॥१॥ ગૃહસ્થ, આરણ્ય આદિમાંથી જે કે અમારા દર્શનને સ્વીકાર કરે છે, તેઓ સમસ્ત સાંસારિક દુઃખોમાંથી મુક્ત થઈ જાય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે પૂર્વોક્ત સમસ્ત મતવાદીઓ કહે છે કે જે કંઈ અમારા દર્શનને સ્વીકાર કરશે, તેઓ ગૃહસ્થ અથવા વાનપ્રસ્થ અથવા સંન્યાસી, ગમે તે અવસ્થામાં રહેવા છતાં અમરત દુઃખમાંથી મુક્ત થઈને સુખની પ્રાપ્તિ કરે છે. પાંચ મહાભૂ તવાદી અને તજજીવતછરીરવાદીને મત એ છે કે અમારા દર્શનશાસ્ત્રને સ્વીકાર કરનાર માણસે, ગૃહસ્થાશ્રમમાં રહીને જ સમસ્ત દુઃખમાંથી મુક્ત થઈ જશે. એટલે કે કેશકુંચન, મરતક મુંડન, દંડધારણ, નગ્નતા, તપશ્ચરણ તથા કાયકલેશ माहिमामाथी ही भुरत थशे. ५४ छ । “तपांसि यातनाश्चित्राः" त्यादि તપસ્યા વિવિધ પ્રકારની યાતના રૂપ જ છે. સંયમ ભેગેથી વિહીન હોય છે. અને અગ્નિહોત્ર આદિ કર્મો તે બાળકનાં ખેલ જેવાં દેખાય છે.” ( ૧ ! For Private And Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३६ .... .. सूत्रकृताशी मम दर्शनाऽऽश्रितानां सद्यएव दुःखात्मककेशलुचनादिभिः विमुक्तिर्जायते । एत न्मते परलोकादीनामभावेन तदर्थ शरीरक्लेशकारिकर्मानुष्ठानस्य नैरर्थक्पेन त्याग एव दुःखविमोक्ष इति । तथाचोक्तम्___ "त्रयो वेदस्य कर्तारो भाण्डधूर्तनिशाचराः" इत्यादिना शास्त्रविहितकर्माणि निन्दित्वा, स्वेच्छया-ऐहिकफलोपभोगस्यैव पुरुषार्थत्वं प्रतिपादयन्तीतिपञ्चभूततज्जीवतच्छरीरवादिमतम् । सांख्यादयस्तु मोक्षवादिनः एवं प्रतिपादयन्ति-यो हि सांख्यदर्शनस्याऽऽ श्रयं करोति, यत्र दर्शने-आत्माऽकर्ताऽभोक्ताऽद्रष्टा साक्षी भोक्ता कूटस्थनित्यो हमारे दर्शन का आश्रय लेने वालों को शीघ्र ही इस केशलंचन आदि के कष्ट से मुक्ति मिल जाती है । इस मत में परलोक आदि का अभाव होने से उसके लिए शरीर को क्लेश उत्पन्न करने वाले कर्मों का अनुष्ठान करना निरर्थक होने से उसका त्याग कर देना ही दुःखों से मुक्ति पा लेना है । कहा है “त्रयो वेदस्य कर्त्तारो भांडधूर्तनिशाचराः" इत्यादि । "वेद रचनेवाले तीन हैं भांड, धूर्त और निशाचर" इस प्रकार कह कर वे शास्त्रोक्त कर्मों की निन्दा करके और अपनी इच्छा से इहलोक संबंधी फलोपभोग को ही पुरुषार्थ कहते हैं । यह पंचभूतवादी एवं तज्जीवतच्छरीरवादी का मत हुवा । ___सांख्य आदि कि जो मोक्षवादी हैं, उनका यह कथन है कि जो सांख्य दर्शन का आश्रय लेता है, जिसमें आत्मा अकर्ता, अभोक्ता, अद्रष्टा, साक्षी અમારા દર્શનશાસ્ત્રને આશ્રય લેનાર વ્યક્તિને, કેશલુંચન આદિના કણમાંથી તે તરત જ મુક્તિ મળી જાય છે. આ લેકના મતાનુસાર પલેક આદિને અભાવ હેવાથી પરલેકના સુખને નિમિતે, શરીરને કલેશ ઉત્પન્ન થાય એવાં અનુષ્ઠાની આરાધના નિરર્થક હેવાથી, એવાં અનુષ્ઠાની જરૂર જ રહેતી નથી. આ પ્રકારના અનુષ્ઠાનેને ત્યાગ કરે, તેનું જ નામ દુઃખમાંથી મુક્તિ છે. આશય એ છે કે ઉપર્યુક્ત મતવાદીઓ તપ આદિ અનુષ્ઠાનમાં માનતાં નથી, અને તે અનુષ્ઠાન દ્વારા જ લેકે નિરર્થક शारी२ि४ ४वेश सहन ४२ छ, मे भान छ. ५५ छ "त्रयो वेदस्य कर्तारों" त्यादि વેદ રચનારા ભાંડ, ધૂર્ત અને નિશાચર, આ ત્રણ પ્રકારના છે.” આ પ્રમાણે કહીને તેઓ શાક્ત કર્મોની નિંદા કરે છે. અને પિતાની ઈચ્છા પુસાર આ લેક સંબધી ક્લેપભોગ કરે, તેને જ પુરુષાર્થ કહે છે. આ પ્રકારને પંચભૂતવારી અને તજીવતછરીરવાદીઓને भत छ. - સાંખ્ય આદિ મતવાદીઓ કે જેઓ મેક્ષવાદી છે, તેઓ પણ એવું કહે છે કે જે લેકે સાંખ્યદર્શનને આશ્રય લે છે, તે લોકો શ્રવણ, મનન અને નિદિધ્યાસન દ્વારા આત્માના For Private And Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाथे बोधिनी टीका प्र श्रु अ. १ चतुर्धातुकवादी बौद्धमतनिरूपणम् २७ जन्मजरामरण रोगशोकादि विविधदुःखकारण विरहितोऽस्तीत्येवं स्वीकरोति स तादृशमात्मानं श्रवणमनननिदिध्वासनमार्गेण ज्ञात्वा साक्षात्कृत्य प्रकृतिविरचितसमस्तदुःखकारणात्संसाराद्विमुच्यते । मदीयदर्शनमाश्रित्य ताशदर्शनप्रतिपादितात्मानं विज्ञाय जन्मजरामरणगर्भपरम्पराऽनेकवाककायमानसातितीवतराऽ सातोदयरूपेभ्यो दुःखेभ्यो विमुच्यते । सकलद्वन्दविरहितं मोक्षमाश्रित्य केवलः स्वस्थः स्वरूपमाश्रितो भवतीति भावः । तत्र नाश्रमविचारो वा तदुक्तम् पञ्चविंशतितत्व यत्र तत्राश्रमे वसे । जटी मुण्डी शिखी वापि, मुच्यते नात्र संशयः " || १ || इत्यादि सांख्यमतम् । " भोक्ता, कूटस्थनित्य तथा जन्म, जरा, मरण, रोग शोक आदि विविध प्रकार के दुःख के कारणों से रहित माना गया है, वह पुरुष, श्रवण, मनन और निदिध्यासन के द्वारा आत्मा के इस प्रकार के स्वरूप को जान कर प्रकृति के संयोग से उत्पन्न होने वाले समस्त दुःखों के कारणभूत संसार से मुक्त हो जाता है । हमारे दर्शन का आश्रय लेकर और इस दर्शन में प्रतिपादित आत्मा के स्वरूप को जान कर जन्म, जरा, मरण गर्भ परम्परा, अनेक वाचक कायिक और मानसिक तीव्रतर असातोदय रूप दुःखों से मुक्त हो जाता है । वह समस्त द्वन्द्वो से रहित मोक्ष को प्राप्त करके शुद्ध स्वस्थ और अपने स्वरूप में आश्रित हो जाता है । इस विषय में आश्रम वय या वर्ण आदि का कोई विचार नहीं हैं । कहा भी है "पंचविंशतितत्त्वज्ञो " इत्यादि । जो पच्चीस तत्त्वों का ज्ञाता है, वह चाहे किसी भी आश्रम में रहे આ પ્રકારના સ્વરૂપને (આત્મા અકત્તાં, અભાતાં અદ્રષ્ટા, સાક્ષીભોક્તા, ફૂટસ્થ નિત્ય તથા જન્મ, જરા, મરણ, રાગ, શાક આદિ વિવિધ પ્રકારના દુઃખનાં કારણાથી રહિત છે. ) જાણીને પ્રકૃત્તિના સંચાગથી ઉત્પન્ન થનારા સમસ્તદુઃખાના કારણભૂત સંસારથી મુક્ત થઈ જાય છે. અમારા દર્શનના (સાંખ્ય દર્શનના) આશ્રય લઇને, અને તેમાં પ્રતિપાદિત આત્માના સ્વરૂપને જાણીને જન્મ, જરા, મરણુ ગ પરપરા અને માનસિક તીવ્રતર અસાતાઉદય રૂપ દુઃખોથી મુક્ત થઈ જાય છે. તે સમસ્ત દ્વન્દ્વોથી રહિત મેાક્ષને પ્રાપ્ત કરીને શુદ્ધ સ્વસ્થ અને નિજ સ્વરૂપમાં આશ્રિત થઈ જાય છે- આ વિષયમાં આશ્રમ, वय व महिना अर्थ प्रश्न ४ रहेता नथी. उधुं पए छे से " पचविंशतितत्वज्ञ” इत्यादि For Private And Personal Use Only " જે પચીશ તત્ત્વાના જ્ઞાતા છે, તે ભલે આશ્રમમાં રહે, અથવા ભલે જટા વધારે અથવા ભલે શિરમુંડન કરાવે, અથવા ભલે શિખા વધારે, પરન્તુ તે અવશ્ય મુક્તિ પ્રાપ્ત કરે Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे एवमेव बौद्धोऽपि वक्ति-मदीयदर्शनं समाश्रितः दर्शनोदीरितनरात्म्यपदं पदार्थमात्रस्य क्षणिकतां दुःखरूपतां च ज्ञात्वा सर्व दुःख सर्व हेयम्, सर्व क्षणिक सर्व शून्यमिति विभाव्य सपरिकरमार्गप्रणाल्या क्षणिकात्मज्ञानं शून्यात्मज्ञानं वा प्राप्य जन्ममरणबन्धादि दोषजातेभ्यो दुःखेभ्यो विमुच्यते । एवमेवाऽऽद्वैतवेदान्ति-मदीयं दर्शनमाश्रित्य नित्यानित्यविवेकइहामुत्राऽ थफलभोगविरागशमदमसमाधानोपरतितितिक्षाश्रद्धारूपसाधनषट्क-मुमुक्षुत्वानन्तरं निष्कामकर्मोपासनया-उत्पन्न-जिज्ञासः गुरुमात्मज्ञानिनमवाप्य, श्रवणमनननिदिध्या और चाहे जटा धारण करता हो मुंड़ मुंडवाता हो या चोटी रखता हो, अवश्य मुक्त हो जाता है । इसमें संशय नहीं है। "इत्यादि सांख्य मत है। ___इसी प्रकार बौद्ध कहता है जो हमारे दर्शन की शरण लेता है और इस दर्शन में प्रतिपादित नैरात्मवाद को तथा पदार्थ मात्र की क्षणिकता एवं दुःख रूपता को जान कर ऐसी भावना करता है कि-"सभी कुछ दःखरूप है सब हेय है, सब क्षणिक है, सब शून्य है "बह सपरिकरमार्ग प्रणाली से क्षणिक या शुन्यरूप आत्मा का ज्ञान प्राप्त करके जन्म मरण बन्ध आदि दोषों से उत्पन्न दुःखो से मुक्त हो जाता है । इसी प्रकार अद्वैतवादी-वेदान्ती कहते हैं हमारे दर्शन को अंगीकार करने से ही आत्मा मोक्ष प्राप्त करके कृतकृत्य होता है । नित्य और अनित्य का विवेक होने पर ऐहिक और पारलौकिक पदार्थों के तथा फलभोग के प्रति विरक्ति, सम,दम समाधान, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धारूप छह साधनों तथा मुमुक्षुत्व के છે, આ વાતમાં કઈ સંશયને માટે અવકાશ જ નથી” આ પ્રકારને સાંખ્યોને મત છે. - બૌદ્ધો પણ એવું જ કહે છે કે અમારા બૌદ્ધદર્શનનું શરણ સ્વીકારે છે, અને તેમાં પ્રતિપાદિત નૈરાત્મવાદને તથા પ્રત્યેક પદાર્થની ક્ષણિકતા અને દુઃખ રૂપતાને જાણીને એવી ભાવનાવાળા થઈ જાય છે. કે ” બધું દુઃખરૂપ છે, બધું છે બધું ક્ષણિક છે અને બધું શુન્ય છે,” તે સપરિકર માર્ગ પ્રણાલી દ્વારા ક્ષણિક અથવા શૂન્ય રૂપ આત્માનું જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરીને, જન્મ, મરણ, બન્ધ આદિ દ વડે ઉત્પન્ન થયેલાં દુઃખમાંથી મુક્ત થઈ જાય છે. એજ પ્રમાણે અદ્વૈતવાદી-વેદાન્તીઓ કહે છે કે અમારા દર્શનશાસ્ત્રનું શરણ સ્વીકારવાથી જ આત્મા મોક્ષ પ્રાપ્ત કરીને કૃતકૃત્ય થઈ જાય છે. નિત્ય અને અનિત્યને વિવેક ઉત્પન્ન થતાં એહિક અને પરલોકિક પદાર્થો પ્રત્યે તથા ફલગ પ્રત્યે વિરકિત ઉત્પન્ન થાય છે. તથા શમ, દમ, સમાધાન, ઉપરતિ તિતિક્ષા અને શ્રદ્ધા રૂપ છ સાધનાની તથા મુમુક્ષત્વના અનન્તર For Private And Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समयार्थ बोधिनी टीका प्र. अ. अ. १ चार्वाकादिबौद्धान्तवदिनामफलवादित्वम् २३९ नित्यशुद्धमुक्तस्वभाव सनद्वारेण अजरामर नित्यमुक्त वेदान्तमात्रवेद्याऽऽत्मानं ज्ञात्वा संसारसागरकार्यविशिष्टमज्ञानं जगदुपादानभूतं विनाश्य, निरतिशयसुमात्रात्मकं मोक्षमवाप्य कृतकृत्यो भवति ॥ १९ ॥ ३ २ ते गाव संधि इदानीं सूत्रकारः चार्वाकादि बौद्धान्तवादिनामफलवादित्वमाविष्कर्त्तुमाह - 'ते' इत्यादि । ४ चाणं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलम् - ८ ५ ७ ६ न ते धम्मविओ जणा । ९ १० ११ १२ १३ १६ १४ १५ १७ जे ते उ वाइणो एवं न ते ओहंतराऽऽहिया ॥२०॥ छाया तेनापि संधि ज्ञात्वा खलु न ते धर्मविदो जनाः । ये ते तु वादिन एवं न ते ओघन्तरा आख्याताः ॥ २० ॥ अनन्तर निष्काम कर्म की उपासना होती है । उपासना से जिज्ञासा उत्पन्न होती है । तब ज्ञानी गुरू को प्राप्त करके श्रवण, मनन और निदिध्यासन के द्वारा वेदान्त से ही जानने योग्य अजर अमर और नित्यमुक्त तथा शुद्ध बुद्ध और मुक्त स्वभाववाले आत्मा को जानता है । तब संसारसागर के कार्य और जगत् के उपादान रूप अज्ञान को नष्ट करता है। उसके पश्चात् सर्वोत्कृष्ट सुखमय मोक्ष प्राप्त कर लेता है और कृतकृत्य हो जाता है ||१९|| अव सूत्रकार चार्वाक से लेकर बौद्धमत तक के वादियों को अफलवादी प्रकट करते हुए कहते हैं - " ते " इत्यादि । (બાદમા) નિષ્કામ કર્મીની ઉપાસના થાય છે. ઉપાસનાદ્વારા જિજ્ઞાસા ઉત્પન્ન થવાથી યાખ્ય ગુરુ મેળવીને શ્રવણ, મનન અને નિદ્દિધ્યાસન દ્વારા જ વેદાન્તમાંથી જ જાણવા યાગ્ય અજર’ અમર અને નિત્યમુકત તથા શુદ્ધ યુદ્ધ અને મુક્તસ્વભાવવાળા આત્માને જાણે છે. ત્યારે જ તે સંસાર સાગરના કાર્ય અને જગતના ઉપાદાન રૂપ અજ્ઞાનને નષ્ટકરી નાખે છે. ત્યારબાદ સવા ભૃષ્ટ સુખમય મોક્ષને પ્રાપ્ત કરીને તેઓ કૃતકૃત્ય થઈ જાય છે. ગાથા ૧૯” હવે સૂત્રકા ચા કાથી લઈને બદ્ધમત પન્તના મતવાદીઓને અફલવાદી રૂપે પ્રકટ કરવા નિમિતે કહે છેકે “ને” ઈત્યાદિ For Private And Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४० सूत्रकृतामसूत्रो अन्वयार्थ:(ते) ते पूर्वोक्त वादिनोऽन्यतीथिकाः 'संधि' सन्धिम् अवसरं (णावि) नैव (णच्चा) ज्ञात्वा क्रियायां प्रवर्तन्ते । ते (जणा) जनाः- पूर्वोक्तवादिनः । (धम्मविओ) धर्मविदः= धर्मज्ञातारः (न) न सन्ति। (जे ते उ) ये ते तु (एवं) एवं पूर्वोक्ताः (वाइणो) वादिनः अफलवादस्य समर्थयितारः । (ते) ते वादिनः (ओहंतरा) ओघन्तराः संसारपारकर्तारः (न आहिया) नाख्याताः= न कथितास्तीर्थङ्करैः ते संसारपारगामिनो न भवन्तीति भावः ॥२०॥ शब्दार्थ-ते-ते' पञ्चमहाभूत आदिको बताने वाले 'संधि-सधिम्' संधिको अवसरको ‘णावि जच्चा-नैव प्रात्वा' नहीं जानकर किया प्रवृत्त होते हैं 'ते जणाते जनाः' वे लोग 'धम्मविओ-धर्मविद्ः धर्म को जानने वाले 'न-न' नहीं हैं 'जे ते उ-ये ते तु' जो अन्यदर्शि हैं 'एवं-एवम् पूर्वोक्त रूप कहे गये 'वाइणो-वादिनः' अफलयादी समर्थन करनेवाले ते-ते वे वाद करनेवाले 'ओहंतरा-ओधन्तग' संसारको पार करनेवाला 'न आहिया-नाख्याताः, नहीं कहे हैं ॥२०॥ अन्वयार्थः पूर्वोक्त अन्यतीर्थिक सन्धि अर्थात् अवसर को न जानकर ही क्रिया में प्रवृत्ति करते हैं वे लोग धर्म के ज्ञाता नहीं हैं जो पूर्वोक्त वादी अफलवाद के समर्थक हैं वे तीर्थकरों द्वारा संसार को पार करने वाले नहीं कहे गये हैं, अर्थात् वे संसार से तिर नहीं सकते ॥२०॥ शा-'ते ते' ५महाभूतवाहीमो 'संधि-सन्धिम्' सचिन-२५१५२ने 'णावि णच्चा-नैव ज्ञात्वा याविना ४ यिामा प्रवृत्त थाय छे. 'ते जणा-ते जनाः' तेही 'धम्मविओ-धर्म विदः' भने पापा 'न-नाता नथी. 'जे ते उ-ये ते तु' र अन्यमतवाहिन्या छ. 'एवं-एवम् पूर्वात प्रारथी अपामां आवेत 'वाइणो-वादिनः' १३सपा समर्थन ४२वावा'ते ते मे शत वा ४२वावाणा-या 'ओह तराओधन्तगः' संसारने ॥२ ४२वावा॥ 'न आहिया-नाख्याता' हा नथी. ॥२०॥ __-मन्वयार्थ - પૂત અન્યતીથિ કે (અન્ય મતવાદીએ) સન્ધિ એટલે કે અવસરને જાણ્યા વિના જ કિયામાં પ્રવૃત થાય છે. તેઓ ધર્મના જ્ઞાતા નથી જે અન્યતીથિ કે અફલવાદના સમર્થક છે તેમને તીર્થકરેએ સંસારને પાર કરનાર કહ્યા નથી. એટલે કે તે અફલવાદીએ સંસારને तरी शता नथी, परन्तु तेभा मेसा ४ रहे छ. "२०" For Private And Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. थु अ. १ चार्वाकादिबौद्धान्तवादीनामफलवादित्वम् २४१ टीका 'ते' ते पञ्च भूतादि बौद्धान्ताः वादिनः 'णावि, नापि नैव, संधि सन्धिम् अवसरं मनुष्य भवार्यक्षेत्रप्राप्तिमुकुलजन्म केवलिप्रज्ञप्तधर्मश्रवण - तच्छ्रद्धान- तदाचरण द्वारा कर्मनाशरूपम् ज्ञात्वा' विज्ञाय तादृशमवसरमज्ञात्वैव ते पूर्वोक्तवादिनः प्रवृत्ताः । णमिति वाक्यालंकारे । अयं भावः येन आत्मा कर्मरहितो भवति तमसरमज्ञात्वैव दुःखाद विमोक्तुं प्रयतन्ते । कर्मनाशार्थं यतमानेन प्रथमतः कर्मस्वरूपमवगन्तव्यम् । तदनवगमे कर्मोच्छेदो न साधितः स्यात्, पूर्वोक्तवादिनस्तु तत्त्वतः कर्मस्वरूपं न जानन्ति । तादृशमवसरमज्ञात्यैव कर्मविनाशाय स्व स्व शास्त्रं विरचितवन्तः, अतस्तदीयशास्त्रज्ञानेनापि न सम्यग्रूपेण कर्मोच्छेदः संभवति । अतः सूत्रकारेण सम्यगेवोक्तम् - - ' तेणाविसंधि चाणं' इत्यादि । -: टीकार्थ: वे चार्वाक से लेकर बौद्धमत तक के बादी मनुष्यभव आर्यक्षेत्र की प्राप्ति, सुकुल में जन्म, केवलि प्ररूपित धर्म के श्रवण, उस धर्म पर श्रद्धान और उसके आचरण द्वारा कर्मों के क्षयरूप अवसर को न जानकर ही प्रवृत्त हो रहे हैं । आशय यह है कि आत्मा जिसके द्वारा कर्म रहित होता है, उस अवसरको न जानकर ही वे दुःखसे मुक्ति पाने के लिए प्रयत्न ही करते रहते हैं उसे पहले कर्मका स्वरूप समझना चाहिए। उसे समझे बिना कर्म का उच्छेद किया.. नहीं जा सकता । परन्तु ये वादी कर्म के स्वरूप को वास्तविक रूप को जानते नहीं है । इस प्रकार के अवसर को जाने विना ही उन्होने कर्मों के विनाश के लिए अपने अपने शास्त्र रच डाले है । अतएव उनके शास्त्रों को जान लेने से भी कर्मों का उच्छेद नहीं हो सकता । अतएव सूत्रकारने यथार्थ ही कहा है- " वे अवसर को नही जानकर " इत्यादि । -अर्थ ચા કથી લઈને ૌઢો પન્તના અન્યમતવાદીએ મનુષ્યભવ આ ક્ષેત્રની પ્રાપ્તિ. સુકુલમાં’ જન્મ વલિ પ્રરૂપિત ધર્મનુ શ્રવણ, કેવલિ પ્રરૂપિત ધર્મીમાં શ્રદ્ધા. અને તે ધમ આચરણ દ્વારા કમો ને ક્ષય કરવાનો અવસર પ્રાપ્ત થાયા છે, આ વાતને સમજયાવિના જ પ્રવૃત્તિ કયા કરે છે, આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે આત્મા કેવી રીતે કર્મ થી રહિત થાયછે, તેજાણવાના અવસરપ્રાપ્ત થવા છતાં પણ તે તે અવસરના ઉપયોગ કર્યા વિના જ દુઃખમાંથી મુકત થવાના પ્રયત્ન કર્યા કરે છે. તેમણે સૌથી પહેલાં કમ નુ સ્વરૂપ સમજવુ જોઇએ કમ સ્વરૂપજાણ્યા વિના તેના નાશના ઉપાય જ કેવી રીતે કરી શકાય? પરન્તુ તે અન્યતીથિ કો કર્મના સ્વરૂપને વાસ્તવિક રૂપે જાણુતાનથી. આ પ્રકારના અવસરને જાણ્યા વિના જ. તેમણે કર્મના વિનાશ નેમાટે પોત પોતાનાં શાસ્ત્રીની રચના કરી નાખી છે. એથી તેમનાં તે શાસ્ત્રોને સમજી લેવા છતાં પણ કર્મોના ઊચ્છેદ થઇશકતા નથી તેથી જ સૂત્રકારે યથાર્થ જ કહ્યું सू. ३१ For Private And Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ____ अथवा-सन्धान सन्धिः उत्तरोत्तरजीवादिपदार्थजातविषयकं-ज्ञानम् । तदज्ञात्वैव ते वादिनः कर्मविनाशाय प्रवृत्ताः। अतः'न ते धर्मविदः' । यतः कर्म स्वरूपमविदित्वैव प्रवृत्ताः ततस्ते न धर्मविदः । समीचीनरूपेण धर्मपरिच्छेदेन ते विद्वांसो-निपुणमतयो नैव भवन्ति । जना इतिजनाः चार्वाक्सांख्यादयो लोका इति । वस्तुतस्तु क्षान्तिमुक्त्यादिको दशविधो धर्मः तं दविधधर्ममज्ञात्वैव-अन्यथाऽन्यथा धर्मस्वरूपं प्ररूपयन्ति । अज्ञातमूलककथितधर्माणां मोक्षरूपं फलं न भवति, अतस्ते अफलवादिनःकथ्यन्ते । अयं भावः-यो हि वद्विरुष्णः प्रकाशको दाहपाकादि कार्यकारी, इत्येवं रूपेण बढे वास्तविकं रूपं जानाति, स एव वह्निमादाय दाहपाकादि कार्य करोति, यो वढेः स्वरूपमेव न जानाति स कथं वह्निना अथवा सन्धि का अर्थ है सन्धान अर्थात् उत्तरोत्तर जीवादि पदार्थों का ज्ञान । उसे न जानकर ही वे वादी कर्म के विनाश के लिए प्रवृत्त हुए है, अतएव वे धर्म के वेत्ता नहीं हैं अर्थात् समीचीन रूपसे धर्मको जानने में कुशल नहीं है। " जणा" का अर्थ है चार्वाक सांख्य आदि लोग। वास्तव में धर्म क्षमा मुक्ति आदि के भेदसे दस प्रकार का है। पर वे उस दशविध धर्मको न जानकर ही दुसरी दूसरी तरह से धर्मका स्वरूप कहते हैं। अज्ञान पूर्वक कहे हुए धर्म से मोक्ष फल की सिद्धि नहीं होती अतएव वे अफलवादी कहे गये है। तात्पर्य यह है कि जो पुरुष अग्नि के वास्तविक स्वरूप को जानता है कि अग्नि उष्ण होती है, प्रकाश करती ह और दाह पाक आदि कार्य करती है, वही अग्नि को ग्रहण करके दाह पाक છે કે-અવસરને જાણ્યા વિના ઇત્યાદિ-અથવા “સંધિ આ પદને અર્થ સંધાન એટલે કે ઉત્તરોત્તર જીવાદિ પદાર્થોનું જ્ઞાન”. પણ કરી શકાય, તેને જાણ્યા વિના જ તે મતવાદીઓ કર્મને વિનાશ કરવાને પ્રવૃત્ત થયા છે તેથી તેઓ ધર્મના વેત્તા નથી એટલે કે તેઓ સમીચીન રૂપે ધર્મના જાણકાર નથી “ના” આ પદ ચાર્વાક આદિ લેક ના અર્થમાં વપરાયું છે. ખરી રીતે તે ક્ષમા મુકિત આદિને ભેદથી ધર્મ દસ પ્રકારનો છે. પરંતુ પૂકત અન્ય મતવાદીએ આ દસ પ્રકારના ધર્મને જાણ્યા વિના ધર્મના સ્વરૂપની બીજી રીતે જ પ્રરૂપણ કરે છે. અજ્ઞાન પૂર્વક જેને ધર્મ માનવામાં આવ્યો હોય એવા ધર્મ દ્વારા મોક્ષરૂપ ફલની સિદ્ધિ થતી નથી. તેથી એવા ધર્મની પ્રરૂપણ કરનારાને અફલવાદી કહેવામાં આવેલ છે. દાખલા તરીકે જે માણસ અગ્નિના વાસ્તવિક સ્વરૂપને જાણતા નથી–એટલે કે જે માણસને એટલી પણ ખબર નથી કે અગ્નિ ઉષ્ણ હોય છે, પ્રકાશ આપનારી હોય છે, દાહક હોય છે, પકવવાનું આદિ કાર્ય કરનારી છે, તે માણસ અગ્નિને રાધવા આદિ કાર્યોમાં ઉપયોગ કરી શકતું નથી. પરતુ જે માણસને અગ્નિના વાસ્તવિક સ્વરૂપનું જ્ઞાન હોય છે, તે માણસ રાંધવા, તાપવા, આદિ કાર્યમાં અગ્નિને ઉપયોગ કરી શકે છે. એ જ પ્રમાણે જે માણસ ધર્મન For Private And Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समर्थ बोधिनी टीका प्र. अ. अ. १ चार्वाकादिबौद्धान्तवदिनामफलवादित्वम् २४३ पाकादिकार्य संपादयिष्यति तद्वत् यो धर्मस्वरूपं तत्त्वतो न जानाति तस्य तेन प्रतिपादितः तथाऽनुष्ठितच धर्मः कथं मोक्षफलाय पर्याप्तः स्यादिति ते अफलवादिन एव भवन्ति । 'ये ते तु' इत्यत्र तु शब्दः च शब्दस्य अर्थे विद्यते चकारस्य“ये इत्यस्यानन्तरं प्रयोगः तथा च ये च ते वादिनः पूर्वोदिता नास्तिका श्रावकाः नास्तिकप्रायाश्च एवम् उक्तप्रकारेण सम्यग ज्ञानाभावेन सांख्यादयः न ते ओवंतरा : 'ओघः - संसार:- तस्य ते संतरणशीला नाख्यताः न कथिताः ||२०|| पुनरप्याह - तेणाविसंधि' इत्यादि । मूलम् - तेणा वि संधि चाणं न ते धम्मविओ जणा । ये ते उ वाइणो एवं न ते संसारपारगा ॥२१॥ छाया तेनापि संधिं ज्ञात्वा न ते धर्मविदो जनाः । ये ते तु वादिन एवं न ते संसारपारगाः || २१ || आदि कार्य कर सकता हैं। जो अग्नि के स्वरूप को ही नहीं जानता वह उससे दाह पाक आदि कार्य किस प्रकार सम्पादित कर सकता है ? इसी प्रकार जो धर्म के वास्तविक स्वरूप को नहीं जानता, उसके द्वारा प्रतिपादित तथा आचरित धर्म मोक्ष फल को प्रदान करने में कैसे समर्थ हो सकता है ? अतएव वे अफलवादी ही हैं। इस प्रकार जो पूर्वोक्त चार्वाक या चार्वाक जैसे वादी हैं, वे उक्त प्रकार से सम्यज्ञान का अभाव होने के कारण संसार से तिरने वाले नहीं कहे गए हैं ||२०|| पुनः कहते हैं- " तेणावि संधि " इत्यादि । शब्दार्थ' - 'ते - ते ' वे अन्यतीथी 'णाविसंधि' णच्चा न अपिसन्धिं ज्ञात्वा' सन्धिको जाने विनाही क्रियामें प्रवृत्त रहते हैं 'ते जणा धम्मविओ न ते जनाः धर्मविदः न' વાસ્તવિક સ્વરૂપને જાણતા નથી, તેના દ્વારા આરિત ધર્મ અથવા તેના દ્વારા પ્રતિપાદિત ધમ મેાક્ષફળની પ્રાપ્તિ કરવામાં કેવી રીતે સમર્થ હેાઈ શકે? તે કારણે સૂત્રકારે તે અન્યતીથિકાને અફલવાદી કહ્યા છે. આ પ્રકારના ચાર્વાક આદિ અન્ય મતવાદીઓ સભ્યજ્ઞાનના અભાવને કારણે સસાર સાગર તરીજવાને સમર્થ હાતા નથી. ૫ ગાથા, ૨૦ા वणी सूत्रार आहे छे " तेणावि संधि ” त्याहि " शब्दार्थ –'ते' - ते' ते अन्यतीर्थ 'णावि संधिं गच्चा-न अपि सन्धिं ज्ञात्वा' संधीने लक्ष्या विनाडियामां प्रवृत्त रखे छे. 'ते जणा धम्मविओ न ते जनाः धर्मविदःन' For Private And Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २४४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः पूर्ववदेव । व्याख्या स्पष्टा, नवरं ते वादिनः संसारपारगाः संसारस्य - नरामरनारकतिर्यक रूपस्य पारगाः = पारगामिनो न भवन्ति ॥ २१ ॥ पुनरप्याह - ' तेणावि' इत्यादि । मूलम् - तेणावि संधि णचाणं न ते धम्मविओ जणाः । जे ते उ वाइणो एवं न ते गभस्स पारगा ॥२२॥ छाया तेनापि संधि ज्ञात्वा न ते धर्मविदो जनाः । ये ते तु वादिन एवं न ते गर्भस्य पारगा ||२२|| वे लोक धर्म को जानने वाले नहीं हैं 'जे ते उ एवं वाइणो ये ते तु एवं वादिनः ' जो पूर्वोक्त सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं 'न ते संसार पारगा ते संसार पारगाः न' वे संसार को पार नहीं कर सकते हैं ||२१|| -:अन्वयार्थः " इस गाथा का अर्थ पूर्ववत् ही है । पिछली गाथा में “ ओहंतराऽऽहिया " पाठ था, उसके स्थान पर यहाँ " संसारपारगा " पाठ है । अतः इसका अर्थ इस प्रकार है वे वादी मनुष्य देव नारक और तिर्यंचगतिरूप संसार से पारगामी नहीं होते हैं। इसकी व्याख्या स्पष्ट है। शेष सब पूर्ववत् समझना चाहिए ||२१|| फिर कहते हैं- " ते णावि " इत्यादि । शब्दार्थ - 'ते ते' वे 'संधि - संधिम्' सन्धिको 'णावि णच्चा - नापि ज्ञात्वा' नहीं जानकर क्रियामें प्रवृत्त हैं 'ते जणा ते जनाः' वे लोग 'धम्मविओ - धर्मविदः' धर्म के तेवा बोओ धर्मना रहस्य ने भागवावाणा नथी, 'जे ते उ एवं वाइणो- ये ते तु एवं वादिनः । पूर्वो सिद्धान्तनुं प्रतिपाहन उरे छे, 'न ते संसारपारगा-ते संसारपारगाः न' तेथे संसारने पार उरी शता नथी ||२१|| - अन्वयार्थ - या गाथाना अर्थ पूर्ववत् ४ छे. आगदी गायामां 'ओह 'तराऽऽहिया' पाहतो, तेनी भभ्यामे या गाथाभां “संसारपारगा" पाठ थे "संसारपारगा" इत्यादि गाथानो અર્થ આ પ્રમાણે છે. તે અન્ય મતવાદી લોકો મનુષ્ય, તિર્યંચ નારક અને દેવ, આ ચાર તિ રૂપ સંસારને પાર કરીને મેક્ષની પ્રાપ્તિ કરી શકતા નથી. આ ગાથાના અથ સ્પષ્ટ છે. બાકીનું બધુ કથન આગલી ગાથામાં કહ્યા પ્રમાણે જ સમજવું ॥ ગાથા ૨૧ ॥ पणी सूत्रअर उहे छेडे - तेनावि" त्याहि शब्दार्थ- 'ते ते' तेथे 'संधि- संधिम्' संधीने 'पाणिच्चा नापि atat' एया विनागडियामां प्रवृत्त थाय छे 'ते जणा ते जनाः' ते बोडी 'धम्मविओ - धर्म' For Private And Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकादिबौद्धान्तवादोनामकलवादित्वम् २४५ अन्वयार्थः पूर्ववदेव । व्याख्या निगदसिद्धा, नवरं-ते वादिनः गर्भस्यगागमनस्य पारगा न भवन्ति गर्भाद् गर्भान्तरपरिभ्रमणं तेषां न नश्यति।।२२।। पुनरप्याह-'तेणा वि संधि' इत्यादि । मूलम्तेणा वि संधि णचाणं न ते धम्मविओ जणा । जे ते उ वाइणो एवं न ते जम्मस्स पारगो ॥२३॥ छायातेनापि संधि ज्ञात्वा न ते धर्मविदो जनाः । ये ते तु वादिन एवं न ते जन्मनः पारगाः ॥२३॥ ज्ञाता 'न-न नहीं हैं 'जे-ये' जो 'ते उ-ते तु' वे एवं-एवम्' ऐसे 'वाइणो-चादिनः' वादी हैं 'ते-ते' वे 'नगम्भस्स पारगा-गर्भस्य पारणाः न' गर्भ को पार नहीं कर सकते हैं ॥२२॥ -अन्वयार्थःइस गाथा का अर्थ भी पूर्ववत् ही है। व्याख्या भी स्पष्ट है। विशेष इतना समझना कि-वे वादी गर्भ के पारगामी नहीं होते अर्थात् उनका एक गर्भ से दुसरे गर्भ मे परिभ्रमण करना बंद नहीं होता है ॥२२॥ फिर कहते हैं-" ते णावि" इत्यादि । शब्दार्थ-ते-ते वे सधिं-सन्धिम्' सन्धिको ‘णावि णच्चा नापि शात्वा' नहीं जानकर क्रिया प्रवृत्त होते हैं 'ते जणा धम्मविओ न-ते जनाः धर्मविदः न वे लोग विदः' भने ना२॥ 'न-न' नथी. 'जे-ये यो 'एय-एवम्' मेरीत ना 'वाइणोपादिनः' पाही। छे. 'तेउ-ते तु तेसो 'न गम्भस्स पारगा-गर्भस्य पारगाः न' ગર્ભને પાર કરી શક્તા નથી. ૨૨ -अन्वयाथ આ ગાથાને અર્થ પણ પૂર્વવત્ જ છે. વ્યાખ્યા પણ સ્પષ્ટ છે. અહીં એટલું જ વિશેષ કથન સમજવાનું છે કે તે અન્યતીર્થિકે ગર્ભના પારગામી થતા નથી. એટલે કે તેમનું એક ગર્ભમાંથી બીજા ગર્ભમાં પરિભ્રમણ કરવાનું બંધ પડતું નથી. ગાથા રર पणी सूत्र॥२ ४ छ -"तेणावि" त्याह शाहाय---'ते-ते तेयो 'सधि-सन्धिम्' सधीन 'णाविणच्चा-नापि ज्ञात्त्या Mया विना लियामा प्रवृत्ति ४२ छ, 'ते जणा धम्मविओ न-ते जनाः धर्मविदः न' For Private And Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४६ सूत्रकृताङ्गसूत्रो - अन्वयार्थः पूर्ववदेव । व्याख्या सूत्रसिद्धा, नवरम्-ते वादिनः जन्मनः = उत्पत्तिरूपस्य पारगा न भवन्ति जन्मनो जन्मान्तरं सततं गच्छन्ति किन्तु मुक्तिं न प्रामुवन्ति,उक्तश्च"व्रजन्तो, जन्मनो जन्म, लभन्ते नैव निवृतिम् इति ॥२३॥ पुनरप्याह-'तेणा वि संधि' इत्यादि । तेणा वि संधि णचाणं न ते धम्मविओ जणा । ये ते तु वादिन एवं ण ते दुक्खस्स पारगा॥२४॥ धर्म को जानने वाले नहीं हैं 'जे ते उ एवं बाइणो-ये ते तु एवं वादिनः' मिथ्यात्वके सिद्धान्तकी प्ररूपणा करने वाले वे लोग 'जम्मस्स पारगा न-जन्मस्य पारगान जन्मको पार नहीं कर सकते हैं ॥२३॥ -- अन्वयार्थः- अर्थ और व्याख्या पहले के समान ही है। विशेष यही है की वे वादी जन्म अर्थात् उत्पत्ति के पारगामी नहीं होते वे एक जन्म से दूसरे जन्म को प्राप्त होते रहते हैं। मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते । कहाभी हैं-" वजन्तो जन्मनो जन्म" इत्यादि। ___ " एक जन्म से दूसरे जन्म को प्राप्त करते हुए मुक्ति नहीं पाते हैं" ॥२३।। तेसो भने पापामा हाता नथी. 'जे तेउ एवं थाइणो-ये ते तु एवं वादिनः' देसी मारीते भिथ्यात्वनी प्र३५९। ४२वावा छे तमा 'जम्मस्स पारगा न-जन्मस्य पारगा न' भने पा२ री शता नथी. ॥२॥ -मन्ययाथઆ ગાથાને અર્થ અને વ્યાખ્યા પૂર્વવત્ જ સમજી અહીં ચટલું જ વિશેષ કથન ગ્રહણ કરવું જોઈએ કે તે અન્યતીથિ કે જન્મ અથવા ઉત્પત્તિના પારગામી થતા નથી. તેઓ એક પછી એક જન્મની પ્રાપ્તિ જ કર્યા કરે છે. તેઓ મોક્ષની પ્રાપ્તિ કરી Adi नथी. ४{ ५५५ छे छे “व्रजन्तो जन्मनो जन्म” त्याह- તેઓ એક જન્મ પછી બીજા જન્મની પ્રાપ્તિ કરતાજ રહે છે. તેઓ જન્મ મરણના ફેરામાંથી છુટકાર પામીને મેક્ષધામની પ્રાપ્તિ કરી શક્તા નથી . ૨૩ છે For Private And Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाथ बोधिनी टीका प्र शु. अ. १ चार्वाकादिवौद्धान्तवादीनामकलवदित्वम् २४७ - छायातेनापि संधि ज्ञात्वा न ते धर्मविदो जनाः। ये ते तु वादिन एवं न ते दुःखस्य पारगाः ॥२४॥ अन्वयार्थः पूर्ववदेव । व्याख्या निगदसिद्धा, नवरम्-ते वादिनः दुःखस्य= शारीरमानससम्बन्धिनः पारगाः पारगामिनः न भवन्ति दुःखसागरे निमग्ना एव भवन्ति ॥२४॥ पुनरप्याह-'तेणा वि संधि इत्यादि मूलम्तेणा वि संधि णचाणं न ते धम्मविओ जणो । जे ते उ वाइणो एवं न ते मारस्स पारगा ॥२५॥ छाया तेनापि सन्धिं ज्ञात्वा न ते धर्मविदो जनाः । ये ते तु वादिन एवं न ते मारस्य पारगाः ॥२५॥ फिर कहते हैं-" ते णावि" इत्यादि । शब्दार्थ-'ते-ते वे अन्यतीथी 'णावि संघिणच्चा ण-नापि सन्धि' ज्ञात्वा खलु सन्धिको जाने विनाही क्रिया प्रवृत्त होते हैं 'ते जणा धम्मविओ न-ते जनाः धर्मविदः ने वे लोग धर्म को नहीं जानते हैं 'जे ते उ एवं वाइणो-ये ते तु एवं वादिनः' मिथ्यासिद्धांत की प्ररूपणा करने वाले घे अन्यतीर्थी 'दुक्खस्स पारगा न-दुःखस्य पारगाः न दुःखको पार नहीं कर सकते है ॥२४॥ -अन्वयार्थ:अर्थ और व्याख्या पूर्ववत् ही है। विशेष यह है कि-वे वादी दुःख के पारगामी नहीं होते अर्थात वे दुःख सागर में डूबे ही रहते हैं ॥२४॥ qणी सूत्र७२ ४ छ-" तेणापि त्यादि शाय- 'ते-ते ते भन्यताथा ‘णावि संधि णच्चा ण-नापि सन्धि ज्ञात्वा खलु' मसरने याविना प्रियामा प्रवृत्त थाय छे. 'ते जणा धम्मविओ न-ते जनाः धर्म विदः न' तेयो धर्मवेत्ता नथी. 'जे ते उ एवं वाइणो-ये ते तु एवं वादिनः' मिथ्या सिध्यातनी प्र३५ ४२वावागायो सेवा ते मन्यतीथी . 'दुखस्ल पारगा न "दुःखस्य परगान हुमने पा२ री शता नथी ॥२४॥ (मन्वयार्थ) આ ગાથાને અર્થ તથા વ્યાખ્યા પૂર્વવત્ જ છે. અહી એટલું જ વિશેષ ક્વન કરવું જોઈએ કે તેઓ દુઃખસાગરમાં જ ડૂબેલાં રહે છે. એ ૨૪ For Private And Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः पूर्ववदेव । व्याख्या सुगमा, नवरम्-ते वादिनः मारस्य= मृत्योः पारगा न भवन्ति वारं वारं मृत्युमुखमेव विशन्तीत्यर्थः ॥२५॥ ते अज्ञानिनो यानि यानि स्थानानि प्रामवन्ति, तानि तानि स्थानानि दर्शयति-'नाणाविहाई'इत्यादि । नाणाविहाई दुक्खाई, अणुहोति पुणो पुणो। संसारचक्वालंमि मच्चुवाहि जराकुले ॥२६॥ छायानानाविधानि दुःखान्यनु भवन्ति पुनःपुनः । संसारचक्रवाले, मृत्युव्याधिजराकुले ॥२६॥ फिर कहते हैं-" ते णावि" इत्यादि। शब्दार्थ-ते-ते वे अन्यतीर्थी 'णावि संघिणच्चाण-नापि सन्धि ज्ञात्वा खलु' संधिको विना जानेही क्रिया में प्रवृत्त होते है 'ते जणा धम्मविओ न-ते जनाः धर्म विदः न' वे लोग धर्म को नहीं जानते हैं 'जे ते उ एवं वाइणो-ये ते तु एवं वादिनः' मिथ्यासिद्धांतकी प्ररूपणा करने वाले वे अन्यतीर्थी 'न मारस्स पारगा-मारस्य पारगा न' मृत्यु को पार नहीं कर सकते हैं ॥२५॥ - अन्वयार्थ - अर्थ और व्याख्या पूर्ववत् ही हैं। विशेषयह है कि वे वादी मृत्यु से पार नहीं होते अर्थात् बार बार मृत्यु के मुँह में ही प्रवेश करते हैं ॥२५॥ वणी सूत्र॥२ ४ छ (" तेणावि") त्याह शहाथ-ते-ते'ते अन्य तीथीयो 'णावि सन्धि णच्चा ण-नापि संधि ज्ञात्या खलु' अक्सरने तया विना लियामा प्रवृत्त थाय छ 'ते जणा धम्मविओ न-ते जनाः धर्मविदः न' तेयो भने समाता नथी. 'जे ते तु एवं वाइणो-ये ते तु एवं वादिनः' भिथ्या सिद्धांतनी प्र३५। ७२पापा मेवा ते अन्य तीथी 'न मारस्स पारगा-मारस्य पारगान' मृत्युने पा२ री शता नथी. (मन्वयाथ) આ ગાથાને અર્થ અને વ્યાખ્યા પૂર્વવત્ જ છે. અહી એટલી જ વિશેષતા સમજવાની છે કે તે અન્ય મતવાદીઓ મૃત્યુના પારગામી થતા નથી એટલે કે વારંવાર મેતના મુખમાં પ્રવેશ કરે છે . ૨૫ For Private And Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समयार्थ बोधिनी टीका प्र.अ. अ. १ चार्वाकादिवौद्धान्तवदिनामफलवादित्वम् २४९ अन्वयार्थःते पूर्वोक्तवादिनः (मच्चुवाहिजराकुले)मृत्युन्याधिजराकुले मृत्युव्याधि जराव्याप्ते (संसारचकवालंमि) संसारचक्रवाले-संसारावर्ते (नाणाविहाई) नानाविधानि= अनेकप्रकाराणि, (दुक्खाई) दुःखानि= शारीरमानसादीनि (पुणोपुणो) पुनः पुनः= वार वारम् (अणुहोति) अनुभवन्ति ॥२६॥ टीका‘मच्चुवाहिजराकुले' मृत्युन्याधिजराकुले-मृत्युः-मरणम् ब्याधिः शरीरमानसपीडा जरा वार्द्धक्यम्, तैराकुले व्याप्ते एतादृशे' संसारचकवालम्मि वे अज्ञानी जिन जिन स्थानों को प्राप्त करते हैं, उ स्थानों को दिखलाते हैं “ नाणाविहाई" इत्यादि। शब्दार्थ--'मच्चुवाहिजराकुले-मृत्युव्याधिजराकुले' मृत्यु, व्याधि और वृद्धावस्था से व्याप्त 'संसारचकवाल मि-संसारचक्रवाले संसार रूपी चक्रमे 'पुणो पुणो-पुनः पुनः' बार बार 'णाणाविहाई-नानाविधानि' अनेक प्रकारके 'दुक्खाइ-दुःखानि' दुःखांको 'अणुहोति-अनुभवन्ति' भोगते हैं ॥२६॥ - अन्वयार्थ - वे वादी मृत्यु, व्याधि और जरा से व्याप्त संसार के प्रवाह में अनेक प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःखोंको वारं वार' अनुभव करते हैं ॥२६॥ -टीकार्थ:मृत्यु न्याधि अर्थात् शारीरिक तथा मानसिक पीडा और जरा अर्थात् बुढापे से व्याप्त संसार रूपी आवर्त में नाना प्रकार के असाता के उदय रूप હવે સૂવાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે તે અન્ય મતવાદીઓ ક્યા કયા સ્થાનેને પ્રાપ્ત ७२ छ "नाणा विहाइ” त्यादि ___ -'मच्चुवाहि जराकुले मृत्युव्याधिजराकुले मृत्यु, व्याधि भने वृद्धावस्थाथी व्यात 'संसारचकवाल मि-संसारचक्रबाले' संसा२ ३थी या पुणो पुणो-पुनः पुनः पारंवार 'णाणाविहाइ-नानाविधानि' भने २ना 'दुक्खाई-दुःखानि माने 'अणुहोति-अनुभवन्ति' भोगवे छे. ॥२१॥ (मन्वयार्थ) તે અન્ય મતવાદીઓ મૃયુ, વ્યાધિ અને જરાથી વ્યાપ્ત આ સંસાર પ્રવાહમાં અનેક પ્રકારના શારીરિક અને માનસિક દુઓને અનુભવ કરે છે. તે ર૬ (अर्थ) તેઓ આ સંસારમાં વ્યાધિ – શારીરિક અને માનસિક પીડાઓને અનુભવ કરે છે. વારંવાર વૃદ્ધાવસ્થાના દુઃખે ભેગવે છે વારંવાર મૃત્યુના દુઃખને પણ અનુભવ કરે છે सू. ३२ For Private And Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५० सूत्रकृताङ्गसूत्रे संसारचक्रवाले= संसारावर्ते 'नाणाविहाई' नानाविधानि= अनेकप्रकाराणिदुक्खाई 'दुःखानि अतिकूलवेदनीयानि असातोदयलक्षणानि 'पुणो पुणो' पुनः पुनः= वारं वारम् 'अणुहोति' अनुभवन्ति । ___ तथाहि-नरकयातनायां कदाचित्करपत्रेण विदार्यन्ते कुम्भीपाके विषाच्यन्ते तमायःपिण्डेषु संबद्धयन्ते, शाल्मलिवृक्षण कंटकाऽऽविद्धन संयोज्यन्ते । तिर्यग् योनिषु समुत्पद्य शीतोष्णादिसहनाङ्कनदमनताडनाऽतिभारवहनक्षुत्तृषादीनि दुःखान्यनुभवन्ति । मनुष्येषु इष्टवियोगाऽनिष्टसंयोगशोकक्रोधमदविषाद भयप्रमादगर्भावासजन्मजरामरणरोगाऽऽक्रन्दनादीनि नानाविधानि दुःखानि । देवेषु अभियोगेा किल्लिषिकत्वच्यवनादीनि दुःखानि ते पूर्वोक्तवादिनः एवं प्रतिकूल वेदना रूप दुःखो को बार बार भोगते हैं। वह दुःख इस प्रकार हैं- नरक संबंधी यातना में जीव कभी करौंत से चीरे जाते हैं, कुम्भी में पकाये जाते हैं, गर्म लोहे के पिण्ड के साथ चिपकाए जाते हैं, काँटों वाले सेमल वृक्ष के साथ संयुक्त किये जाते हैं। तिर्यश्च योनी में उत्पन्न होने पर सर्दी गर्मी को सहन करना, डाम लगाना, दमन, मारपीट सहना, खूबबोझ लदना भूख प्यास आदि दुःखों को अनुभव करना पडता है। मनुष्यगति में इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, शोक, क्रोध, मद, विषाद, भय, प्रमाद, गर्भवास, जन्म, जरा, मरण, आक्रन्दन आदि नाना प्रकार के दुःख है। देवो में अभियोग, इर्षा, किल्विषिकता और च्यवन आदि के दुःख हैं। તેઓ સંસાર રૂપી આવર્તમાં વિવિધ પ્રકારની અસાતાના ઉદય રૂપ અને પ્રતિકૂળ વેદના રૂપ દુઃખનું વારંવાર વેદન કરે છે તેઓ કયા કયા પ્રકારની યાતનાઓ ભગવે છે તે હવે પ્રકટ કરવામાં આવે છે- નરક સંબંધી નીચેની યાતનાઓ તેઓ ભગવે છે કરવતે વડે તેમના શરીરને ચીરવામાં આવે છે કુંભમાં તેમને પકવવામાં રાંધવામાં આવે છે, ગરમ લેતાના પિંડ સાથે સંયુક્ત કરવામાં આવે છે, કાંટાવાળા સેમલ વૃક્ષની સાથે તેમને સંયુક્ત કરવામાં આવે છે ઈત્યાદિ અનેક પ્રકારની તીવ્ર વેદનાએ ત્યાં તેમને ભેગવવી પડે છે તિર્યંચ નિમાં ઉત્પન્ન થઈને તેઓ નીચે પ્રમાણે વેદનાઓ ભેગવે છે. ઠંડી અને ગરમી સહન કરે છે તેમને ડામ દેવામાં આવે છે, દમન, મારપીટ આદિ તેમને સહન કરવું પડે છે. ખૂબ ભાર ઉપાડે પડે છે અને ભૂખ તરસ આદિ વિવિધ યાતનાઓ સહન કરવી પડે છે. મનુષ્ય ગતિમાં ઉત્પન્ન થઈને તેઓ નીચેનાં નું વેદન रे ष्ट वियोग, अनिष्ट स योग, आध, मह, विपा, मय, प्रमाद, वास, सन्म, १२१ મરણ, રેગ, આક્રન્દ આદિ વિવિધ પ્રકારના દુઃખો તે મનુષ્ય ગતિમાં સહન કરે છે. દેવગતિમાં ઉત્પન્ન થઈને તેઓ નીચેનાં દુખે સહન કરે છે. For Private And Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ चार्वाकादिषौद्धान्तवादीनामकलवादित्वम् २५१ पुनःपुनरनुभवन्ति । अयं भावः- पूर्वोक्ताश्चार्वाकादयो वादिनो मिथ्यापदार्थप्ररूपणात् समनन्तरप्राग्वर्णिताऽनेकदुःखानि पौनःपुन्येन अनुभवन्ति । विंशतितमश्लोकादारभ्य पंचविंशतितमश्लोकपर्यन्तानां सर्वेषामुत्तरार्धमादाय एतस्य श्लोकस्य पूर्वाध योज्यम् , तथाहि-"जे ते उ वाइणो एवं न ते ओहंतराऽऽहिया । नाणाविहाई दुक्खाई, अणुहोति पुणो पुणो ।" इत्यादि रूपेण संयोज्य पठनीयम् ॥२६॥ पूर्वप्रतिपादितमुपसंहरम्नाह-'उच्चावयाणि इत्यादि। मूलम्उच्चावयाणि गच्छंता गम्भमेस्संति गंतसो । नायपुत्ते महावीरे एवमाह जिणोत्तमे ॥२७॥ छायाउच्चावचानि गच्छन्तो गर्भमेष्यंत्यनन्तशः ज्ञातपुत्रो महावीर एवमाह जिनोत्तमः ॥१६॥ पूर्वोक्त वादी इन सब दुःखों को वारम्वार अनुभव करते हैं। तात्पर्य यह है कि चार्वाक आदि पूर्वोक्त वादी मिथ्या पदार्थों की प्ररूपणा करके अनन्तर वर्णित अनेक दुःखों का पुनःपुनः अनुभव करते हैं। वीसवें श्लोक से पच्चीसवें श्लोक तक सब श्लोकों का उत्तरार्द्ध लेकर इस श्लोक के पूर्वाद्ध के साथ उसे जोड लेना चाहिए। जैसे “ये जो पूर्वोक्त वादी हैं, वे संसार के आवर्त से निकलने वाले नहीं हैं। वे वारवार नाना प्रकार के दुःखों का अनुभव करते हैं। " इस प्रकार संयोग करके पढना चाहिए ॥२६॥ અભિયોગ, ઈર્ષા, કિલ્બિષિકતા ચવન આદિ દુખે ભેગવવા પડે છે. પૂર્વોક્ત મતવાદીઓ આ સમસ્ત દુઃખને વારંવાર અનુભવ કરે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે ચાવક આદિ પૂર્વોક્ત મતવાદીઓ મિથ્યા પદાર્થની પ્રરૂપણું કરીને પૂર્વ વર્ણિત અનેક દુઃખને વારંવાર અનુભવ કર્યા જ કરે છે. વીસમાં ફ્લેકથી પચીસમાં લેક સુધીના બધાં બ્લેકેને ઉત્તરાદ્ધ આ બ્લેકના પૂર્વ સાથે જોડી દેવું જોઈએ. એટલે કે પૂર્વોક્ત ચાર્વાક આદિ મતવાદીઓ, સંસારના આવર્ત (પ્રવાહ)માંથી નીકળી શક્તા નથી તેઓ વારંવાર વિવિધ પ્રકારના દુઃખોને અનુભવ કરે છે.” આ પ્રકારે સજન કરીને દરેક લેકને ભાવાર્થ સમજવું જોઈએ . ગાથા ૨૬ છે For Private And Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ:ते पूर्वोक्ता वादिनः (उच्चावयाणि) उच्चावचानि उच्चनीचानी उच्चेभ्यो नीचानि, नीचेभ्य उच्चानीति स्थाना स्थानान्तराणि (गच्छंता) गच्छन्तः परिभ्रमन्तः (णंतसो) अनेकवारम् (गम्भ मेस्संति) गर्भश्रेष्यन्ति गर्भाद्गर्भान्तरं प्राप्स्यन्ति । अरघट्टघटीन्यायेन परिभ्रमिष्यन्ति किन्तु मुक्तिरूपं विश्रामस्थानं न कदापि प्राप्स्यन्तीति भावः । (एवं) एवम् इत्थम् (नायपुत्ते) ज्ञातपुत्र:= सिद्धार्थनन्दनः (जिणोत्तमे) जिनोत्तमः= जिनेषु-सामान्यकेवलिषु उत्तमः श्रेष्ठः जिनोत्तमः (महावीरे) महावीरः श्री वर्धमानस्वामी (आह) आह-कथयति= कथितवानित्यर्थः न त्वहम्, इति भावः ॥२७॥ पहले कहे हुए का उपसंहार करते हुए कहते हैं-" उच्चावयाणि" इत्यादि ॥ शब्दार्थ-ते-ते वे पूर्वोक्त वादीलोग 'उच्चावयाणि-उच्चावचानि' ऊँचनीच गतियों में 'गच्छता-गच्छन्तः' भ्रमण करते हुए वे अन्यतीर्थी 'गंतलो-अनन्तश' अनन्तवार 'गब्भमेस्सति-गम्भमेष्यन्ति गर्भवासको प्राप्त करेंगे एवं-एवम् ऐसा नायपुत्ते शातपुत्रः' 'जिणोत्तमे-जिनोत्तमः' जिनोत्तम 'महावीरः महावीर' श्री वर्धमान महावीरस्वामीने 'आह-आहे' कहा है ॥२७॥ -अन्वयार्थ:वे पूर्वोक्त वादी ऊँचे नीचे स्थानों को अर्थात् ऊँचे से नीचे और नीचेसे ऊँचे स्थानों में परिभ्रमण करते हुए अनन्त वार गर्भ को प्राप्त करेंगे । किन्तु मुक्ति रूप विश्राम का स्थान नहीं प्राप्त करेंगे, ऐसा जिनों में उत्तम ज्ञात पुत्र महावीर ने कहा है ॥२७॥ हवे उपयुत ४थनन! ५सडार ४२ता सूत्रसर छ "उच्चाध्याणि" त्यादि शहाथ:-ते-ते ते पूति मन्य तीथि 'उच्चावयाणि उच्चावचानिय नीय गतियोमा 'गच्छता गच्छन्तः समता लमतi ‘णतसो-अनन्तशः' मनन्तवार 'गठनमेस्सति-गर्भ मेन्ति ' गलपासने प्राप्त ४२२. 'एवं-एवम्' मे प्रमाणे 'नायपुत्ते शातपुत्रः' ज्ञात पुत्र 'जिणोत्तमे-जिनोत्तमः' नोत्तम महावीरे-महावीर' श्री भान महावीर स्वामीण आह-आह उह्यु छ ॥२७॥ (सन्क्याथ) તે પૂર્વોક્ત મતવાદીઓ ઊંચા નીચા સ્થાનમાંથી –એટલે કે ઊંચા સ્થાનમાંથી નીચા સ્થામાં અને નીચાં સ્થાનમાંથી ઊંચાં સ્થાનમાં પરિભ્રમણ કરતાં જ રહેશે. – વારંવાર ગર્ભ માં આવીને જન્મ ધારણ કરશે એટલે કે રહેંટની જેમ પરિભ્રમણ કર્યા જ કરશે પરન્તુ તેઓ મુક્તિ રૂપ વિશ્રામ સ્થાનમાં પહોંચી શકશે નહી. એવું જિનત્તમ, જ્ઞાતપુત્ર મહાવીરે કહ્યું છે. પરછા For Private And Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. १ चार्वाकादियौद्धान्तवादीनामफलवादित्वम् ६५३ टीकाते पूर्वोक्ता वादिनः उच्चावयाणि उच्चावचानि उच्चनीचानि अधमोत्तमानि स्थानानि 'गच्छंता' गच्छन्तः एकस्मात् स्थानात् स्थानान्तरं भ्रमन्तः 'पंतसो' अनन्तशः अनन्तवारम् 'गम्भमेस्संति' गर्भमेष्यन्ति गर्भाद् गर्भ प्राप्नुवन्ति । घटीयन्त्रन्यायेनानन्तसंसारे परिभ्रमिष्यन्तीति भावः। उक्तञ्च-"व्रजन्तो जन्मनो जन्म लभन्ते नैव निवृतिम्" इति । एवं कः प्राह ! इत्यत आह'णायपुत्ते' इत्यादि । 'णायपुत्ते' ज्ञातपुत्र सिद्धार्थपुत्रः, जिनेषु-सामान्य केवलिषु उत्तमः जिनोत्तमः महावीरः चरमतीर्थङ्करः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण वक्ष्यमाणप्रकारेणच आह-कथयतीति ॥२८॥ इतिश्री विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पश्चदशभाषाकलित-ललितकलापालापकाविशुद्ध गद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक वादिमानमर्दक-श्री शाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनाचार्य पदभूषित कोल्हापुरराजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य--जैनधर्मदिवाकर पूज्य . श्री घासीलाल व्रति विरचिता सूत्रकृताङ्गमत्रस्य-समयार्थबोधिन्याख्यायां व्याख्यायां समयनानकप्रथमाध्ययने प्रथमोद्देशकः समाप्तः १-१ -टीकार्थःवे पूर्वकथित वादी 'उच्चावयाणि गच्छंता ' अधम और उत्तम स्थानों को प्राप्त होते हुए अर्थात् एक स्थान से दूसरे स्थान में भ्रमण करते हुवे अनन्तवार एक गर्भसे दूसरे गर्भ में जाएँगे । अर्थात् अरहट के जैसे अनंत संसार में परिभ्रमण करेंगे। कहाभी है-"व्रजन्तो जन्मनो जन्म" इत्यादि । "एक जन्म के बाद दूसरा जन्म धारण करते हुए विश्राम नहीं पाते हैं।" ऐसा कौन कहता है ? ज्ञातवंश में उत्पन्न सिद्धार्थनन्दन तथा जिनोत्तम (सामान्य केवलियो में उत्तम) चरमतीर्थकर महावीर ने पूर्वोक्त कथन किया है।॥२७॥ ॥ समय नामक प्रथमाध्ययन का प्रथमोद्देशक समाप्त ।। ટીકાર્થ પૂર્વોક્ત અન્ય મતવાદીઓ અધમ અને ઉત્તમ સ્થાને માં ગમન કરતા રહે છે એટલે કે એક સ્થાનમાંથી બીજા સ્થાનમાં ભ્રમણ કરતા એવા તે જીવે અનંત વાર એક ગર્ભમાંથી બીજા ગર્ભમાં જશે એટલે કે રોંટની જેમ અનત સંસારમાં પરિભ્રમણું કર્યા કરશે કહ્યું ५ छ "वजन्तो जन्मनो जन्म" याहि" तया मे पछी म पा२५१ यां। કરશે તેમને કદી વિશ્રામરથાન (મેક્ષ) ની પ્રાપ્તિ નહીં થાય એવું કોણે કહ્યું છે? જ્ઞાત વશમાં ઉત્પન્ન થયેલા, સિદ્ધાર્થ નન્દન અને જિનેત્તમ (સામાન્ય કેવલી એમાં ઉત્તમ) ચરમ તીર્થંકર મહાવીર પ્રભુએ પૂર્વોક્ત કથન કર્યું છે. ગાથા ર૭. છે સમય નામના પહેલા અધ્યયનને પહેલે ઉદેશક સમાપ્ત છે For Private And Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे ॥ अथ प्रथमाध्ययने द्वितीय उद्देशकः ॥ . गतः प्रथमोद्देशकः, अथ द्वितीय आरभ्यते, तत्र प्रथमद्वितीययोः सम्बन्धं दर्शयति-प्रथमोद्देशके स्वसिद्धान्तपरसिद्धान्तयोनिरूपणं कृतम् । इहाप्यध्ययनार्थाधिकारत्वात्, स्वशास्त्रपरशास्त्रयोरेव प्ररूपणं भविष्यति । अथवा प्रथमोद्देशके भूतवादिमतमुपदर्य तस्य निरासः कृतः इहापि प्रकरणे तस्यैव चर्चा क्रियते । ___एतावान् विशेषः यत् प्रथमे भूतवादिनां मतं प्रदर्य तन्निराकरणं कृतम्, इहतु नियतिवादि मिथ्यादृष्टिमतमुपदर्य तन्निराकरणं करिष्यते । यदि वा प्रथमे प्रथमतः एव उक्तम्-" बन्धनं बुद्धयेत तच्च त्रोटयेत् " इति। -- द्वितीय उद्देशक - प्रथम उद्देशक समाप्त हुआ। अब दूसरा आरंभ किया जा रहा है। पहले प्रथम और द्वितीय उद्देशकों का सम्बन्ध दिखलाते हैं। प्रथम उद्देशे में स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्त का निरूपण किया गया है। अध्ययन का अर्थ चालू होने से दूसरे उद्देशे में भी स्वसिद्धान्त परसिद्धान्त का ही निरूपण किया जाएगा। अथवा प्रथम उद्देशे में भूतवादीयों का मत दिखलाकर उसका खण्डन किया गया है, इस प्रकरण में भी उसी की चर्चा की जाएगी। ____ अन्तर इतना है की प्रथम उद्देशे में भूतवादीयों का मत दिखलाकर उसका निराकरण किया गया है, यहाँ मिथ्यादृष्टि नियतिवादियों के मत का उल्लेख करके इसका निराकरण किया जाएगा। अथवा प्रथम उद्देशेके प्रारंभ में ही कहा था कि 'बन्धन को जाने और तोडे' वह बन्धन नियतिवादियों के - બીજે ઉદ્દેશક પહેલો ઉદ્દેશક પૂરી થશે. હવે બીજો ઉદ્દેશક શરૂ થાય છે. પહેલા ઉદેશક સાથે બીજા ઉદેશકને આ પ્રકારને સંબંધ છે. પહેલા ઉદેશમાં સ્વસિદ્ધાન્તનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. અધ્યયનને વિષય હજી ચાલુ જ છે. તેથી આ બીજા ઉદ્દેશકમાં પણ સ્વસિદ્ધાન્તનું જ નિરૂપણ કરાશે. પહેલા ઉદેશકમાં ભૂતવાદીઓના મતનું સ્વરૂપ પ્રક્ટ કરીને તેમના મતનું ખંડન કરવામાં આવ્યું છે. આ પ્રકરણમાં પણ તેની જ ચર્ચા કરવામાં આવશે. પહેલા ઉદેશકમાં ભૂતવાદીઓના મતનું સ્વરૂપ બતાવીને તેમના મતનું ખંડન કરવામાં આવ્યું છે. પરંતુ આ ઉદ્દેશકમાં મિથ્યાષ્ટિ નિયતિવાદીઓના મતનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરીને તેમના મતનું ખંડન કરવામાં આવશે. અથવા પહેલા ઉદેશકના પ્રારંભે જ એવું કહેવામાં આવ્યું હતું કે “બન્ધના સ્વરૂપને જાણે અને તે બન્ધને તેડ” પરન્તુ નિયતિવાદીઓ For Private And Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.शु. अ.१ उ. २ मिथ्याइष्टिनियतिवादिनां मतनिरूपणम् २५५ तदेव बन्धनं नियतिवादिनां मते नास्ति इति इदानीं प्रदर्श्यते । तदेवं विविधसंबन्धेन संप्राप्तस्यास्योद्देशकस्येदमादिमं सूत्रम्-'आघायं पुण' इत्यादि । आघायं पुण एगेसि उववण्णा पुढो जिया। वेदयंति सुहं दुक्खं अदुवा लुप्पंति ठाणओ॥१॥ -छायाआख्यातं पुनरेकेषामुपपनाः पृथग्ज़ीवाः । वेदयन्ति सुखंदुःखं अथवा लुप्यन्ते स्थानतः ॥१॥ अन्वयार्थः(पुण) पुनः-पूर्वोक्तचार्वाकादिमतकथनानन्तरं पुनः (एनेसिं) एकेषांक केषांचिद्वादिनाम् । (अघायं) आख्यातं-कथनम् अस्ति यत् (जिया) जीवाः। (पुढो) पृथक् पृथगेव-भिन्न भिन्नगतौ (उववण्णा) उपपन्नाः समुत्पन्नाः सन्तः मत में नहीं हैं, यह बात अब प्रदर्शित की जाती है। इस प्रकार अनेक सम्बधों से प्राप्त इस उद्देशे का यह आदि सूत्र है-"आघायं पुण' इत्यादि । शब्दार्थ-'पुण-पुनः' चार्वाक मादि के मतकथन के अन्तर 'एगेसि-एकेषां' किन्हींका 'माधाय-आख्यातम्' कहना है 'जीया-जीवाः' जीव 'पुढो-पृथक' अलग अलग 'उबवण्णा-उपपन्नाः' उत्पन्नहोकर 'सुहं दुक्ख-सुख दुःख' सुख दुःखको 'वेदय ति-वेदयन्ति' भोगते हैं 'भदुवा अथवा अथवा ठाणओ-स्थानतः' अपने अपने उत्पतिस्थान से 'लुप्पति-लुप्यन्ते अन्यत्र जाते हैं अर्थात् मृत्युको पा लेते हैं ॥१॥ . -अन्वयार्थ:___पूर्वोक्त चार्वाक आदि मतों के कथन के पश्चात् फिर किन्हीं वादियों का कथन है कि जीव पृथक् पृथक् ही उत्पन्न होकर पृथक् पृथक् रूपसे આ બન્યને માનતા નથી. એજ વાત હવે પ્રદર્શિત કરવામાં આવે છે. પહેલા ઉદેશક સાથે भा ॥२ना भने समधी रावता मी उद्देशनु पौडेयु सूत्र मा प्रभारी छ. "आघायं पुण" त्या शहाथ-पुण-पुन:' या विगेरे ना मत ४थना पछी पगेसि-एकेषां' अन्यना मत 'आधाय-आख्यतम्' थन ४२९ छे. 'जीया-जीवा' को 'पुढो-पृथक् Tea Tu छे. 'उवषण्णा-उपपन्नाः' उत्पन्न थाने 'सुहं दुक्ख-सुख दुःख' सुम भने 'वेदयंति-वेदयन्ति लोगवे छे. 'अदुवा-अथवा' अथवा 'ठाणओ-स्थानतः' पातपाताना उत्पत्तिस्थानथी 'लुप्पति-लुप्यन्ते भी तय छे. अर्थात् मृत्यु पामे छे. ॥१॥ અન્વયાર્થ:- પૂર્વોક્ત ચાર્વાક આદિ તેની માન્યતા કરતાં ભિન્ન માન્યતા ધરાવતા કેટલાક મતવાદિઓ એવું પ્રતિપાદન કરે છે કે જીવે અલગ અલગ જ ઉત્પન્ન થઈને For Private And Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५६ सूत्रकृतास्त्रे (सुइ दुक्ख) सुखं दुःख च [वेदयति] वेदयन्ति पार्थक्येनानुभवन्ति [अदुवा] अथवा-अथच [ ठाणओ ] स्थानतः-स्वस्वोत्पतिस्थानतः (लुप्पंति) लुप्यन्ते नियन्ते अन्यत्र गच्छन्ति । तेषां वादिनामयमभिप्रायः-यत् जीवाः अनेके सन्ति, ते च जीवाः पृथक्पृथगेव सुखदुःखे अनुभवन्ति, तथा-एकस्मात् स्थानात् स्थानान्तरमपि पृथक् पृथगेव गच्छन्ति, नतु-एक एवजीवः, येन सुखदुःखयोः सांकयं स्यादिति भावः ॥१॥ -टीका___ 'पुण' पुनरिति शब्दः पूर्वोक्तचार्वाकादिवाद्यपेक्षया नियतिवादिनां वैशिष्टयं दर्शयति-'एगेसि आघायं ' एकेषामाख्यातम्-एकेषां नियतिवादिनां कथनम्-तदेवा-तदेव दर्शयति-'जिया' जीवाः 'पुढो उववण्णा' पृथक्-भिन्न भिन्नगतौ उपपन्नाः-उत्पन्नाःसन्तः 'सुहं दुक्ख' सुखं दुःखं 'वेदयंति - वेदयन्ति= मुख दुःख भोगते हैं। अथवा अपने उत्पत्तिस्थान से अन्यत्र गमन करते हैं उनका अभिप्राय यह है कि जीव अनेक हैं और वे जीव अलग अलग ही मुखदुःख का अनुभव करते हैं तथा पृथक्- पृथक् ही एक स्थान से दूसरे स्थानपर जाते हैं। आत्मा एक नहीं है जिससे कि सुखदुःख की सेलभेल (सांकर्य) हो ॥१॥ --टीकाःगाथा में प्रयुक्त 'पुण' शब्द 'पुनः' (फिर) के अर्थ में है और वह पूर्वोक्त चार्वाक आदि से नियतिवादी की विशेषता को प्रदर्शित करता है। नियतिवादी क्या मानते हैं, वह यहाँ दिखलाया जाता है-जीव भिन्न भिन्न गतियों में उत्पन्न होते हुए सुख दुःख का अनुभव करते हैं और वे जीव અલગ અલગ રૂપે સુખ દુખ ભોગવે છે. અથવા પિતાના ઉત્પત્તિ સ્થાને ગમન કરે છે. તેમની માન્યતા એવી છે કે જીવ અનેક છે, અને તે જે અલગ અલગ જ સુખ દુઃખને અનુભવ કરે છે. તથા જુદા જુદા જ એક સ્થાનેથી બીજે રથાને જાય છે. આત્મા એક નથી તેથી સુખદુઃખની સેળભેળ થઈ જવાનો પ્રસંગ જ ઉદ્ભવતું નથી. 21 :- माथामा १५सयेदु " पुण” (धुन:) पह, पूर्वरित यावा माहि भतपाहीको કરતાં નિયતિવાદીની માન્યતામાં જે વિશેષતા છે. તે પ્રદર્શિત કરે છે. નિયતવાદીઓની માન્યતા કેવી છે, તે આ સૂત્રમાં આવે છે. જે જુદી જુદી ગતિઓમાં ઉત્પન્ન થઈને સુખદુઃખને અનુભવ કરે છે, અને તે જીવે પિત પિતાના સ્થાનમાંથી અન્યત્ર ચાલ્યા જાય છે. છે ૧છે For Private And Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २५७ समयार्थ बोधिनी टीका प्र. अ. अ. १ उ. २ नियतिवादिमत निरूपणम् अनुभवन्ति । 'अदुवा' अथवा अथच ते जीवाः 'ठाणओ' स्थानतः = ततदुत्पतिस्थानतः 'लुप्पति' लुप्यन्ते विनश्यन्ति = पृथक् पृथगेव म्रियन्ते इति, अन्यत्र - गच्छन्तीति ॥ १॥ अथ नियतिवादिभिर्यत् स्वीक्रियते, ततदीयमतं गाथाद्वयेन सूत्रकारोदर्शयति-- ' न तं सयं ' इत्यादि । - मूलम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५ १ ३ ४ २ ७ ८ न तं सयं कडं दुक्खं कओ अन्नकडं च णं । १३ १४ १५ १६ १० ११ १२ सुहं वा जड़वा दुक्ख, सेहियं वा असेहियं ॥२॥ २० २१ १९ २२ २३ १७ १८ सयं कर्ड न अण्णेहिं वेदयति पुढो जिया । ૨૮ २४ २६ २५ २७ २९ ३० संगइयं तं तहा तेर्सि, इह मेगेसि आहिये || ३ || - छाया — न तत्स्वयंकृतं दुःखं कुतोऽन्यकृतं च तत् । सुखं वा यदि वा दुःखं सैद्धिकं वा असैद्धिकम् ||२|| स्वयंकृतं न अन्यैर्वा वेदयन्ति पृथग्जीवाः । सांगतिकं तत्तथा, तेषामिषा माख्यातम् ||३|| अपने अपने स्थान से पृथक् पृथक् ही मरते है- अन्यत्र चले जाते है ॥१॥ नियतिवादियों के मन्तव्य का सूत्रकार यो गाथाओं में कहते हैं-" न तं सयं " इत्यादि । शब्दार्थ- 'तं तत्' वह 'दुक्खं दुःखम् ' दुःख 'सयं कडं न स्वयं कृतं न स्वयं कृत नहीं हैं ' अन्नकर्ड - अन्यकृतम्, दूसरे का कियाहुवा 'कओ - कुतः ' कहां से हो सकता है' सेहियं सैद्धिकम् ' सिद्धिसे प्राप्त 'वा - वा' अथवा 'असे हियं - असैद्धिकम् ' सिद्धिके विना ही प्राप्त सुहं वा जइ वा दुक्खं मुखं वा यदि यास्या भय छे. "१" नियतिवाद्विमानी मान्यताने सूत्रभर मे गाथाओ द्वारा अउट ४२छे - " न त सयं धत्याहि शब्दार्थ' - 'त-तत्' ते 'दुक्ख - दुःखम् ' दु: 'सयंकडन - स्वयं कृतं न' पोते उरेस नथी, 'अन्नकड - अन्यकृतम्' मील उरेल 'कभ- कुतः' यांथी होय ? 'सेहियसैद्धिकम् ' सिद्धिथी प्राप्त थयेस 'वाया' अथवा 'असे हिय असे किम्-सिद्धि वगर प्राप्त थयेस 'सुवा जद वा दुख-सुखं वा यदि दुःखम् सुण अथवा दुः सू. 33 For Private And Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % D - -- - ... २५८ सूत्रकृताङ्गसूत्री .- अन्वयार्थः..तमिति-तत् तादृशं (दुक्खं) दुःखम् (सयं कडं न) स्वयं कृतं न भवति (अन्नकडं च) अन्यकृतं खलु (कओ) कुतो भवेत् । तादृशं दुःखं न तेन कृतम् अन्येन तु कथमिव कृतं स्यात् नैवाऽन्येन कृतमितिभावः । तथा (सेहियं) सैद्धिकम्-सिद्धया उत्पन्नम् । (असेहिय) असैद्धिकम् सिद्धिमन्तरेणैव जातं यत् (मुहं वा जइया दुखं) सुखं वा यदि वा दुःखम् ॥१॥ (जिया) जीवाः प्राणिनः (पुढो) पृथक पृथक् (वेदयंति) वेदयन्ति अनुभवन्ति तत् न (सयं कडं) स्वयं कृतं खेन संपादितम् । (न अण्णेहिं) नान्यैर्वा कृतम् । योऽयं सुखदुःखाद्यनुभवो जायते प्राणिनां तत्सुखादिकं न स्वेन कृतं विद्यते, नवाऽन्यःकृतं विद्यते तर्हि तादृशमुखादीनां कथम् आकस्मिकत्वं स्यात् ? इत्यतआह-ततसुखादिकं (तेसिं) तेषाम् (तहा) वा दुःखम् , सुख अथवा दुःख 'जीया-प्राणिनः प्राणी पुढो पृथक्, अलगअलग 'वेदयंति-वेदयन्ति' भोगते हैं 'सयं कडं न-स्वयं कृतम् न, स्वयं कियाइवा नहीं है 'न अण्णेहि-अन्यैः न' दूसरे के द्वारा कियाहुवा नहीं है 'त-तत्, वह 'तेसिं-तेषां, उनका 'तहा- तथा' वैसा 'संगइयं-साङ्गतिक' नियतिकृत है 'इहअत्र' इसलोकमें 'एगेसिं-एकेषां' किन्ही २ का 'आहिय-अख्यातम्' कथन है।।३-२॥ - अन्वयार्थ - वह दुःख स्वयंकृत-अपने आपसे कियाहुआ नहीं होता है तो अन्यकृत तो होही कैसे सकता है ? अर्थात् विभिन्न प्राणी जो सुख या दुःख भोगते हैं वह न स्वयं के द्वारा उपार्जित होता है और न दूसरे के द्वारा ही, सिद्धि से उत्पन्न होने वाले या विना सिद्धि के उत्पन्न होने वाला सुख या दुःख स्वकृत अथवा परकृत नहीं है ॥२॥ जीव पृथक् पृथक् जो सुख दुःख का अनुभव करते हैं वह उनके स्वयं के द्वारा या अन्य के द्वारा उत्पन्न किया हुआ नहीं होता उनका वह 'जीया-जीवा' प्राजिया 'पुढो-पृथक' मा 'वेदयंति-वेदयन्ति' लोगये छ. 'सयकडन-स्वयं कृतम् न' पोते रेव नथी. 'त-तत् ते तेसि-तेषां तेमना 'तहा-तथा तेवा। 'संगइयं-साङ्गतिकम्' नियति त छ. 'इह-अत्र' मा सभा 'एगेसि-एकेषां धनु आहिय-आख्यातमू छ. ॥२-31 मन्वयार्थ - - તે દુખ સ્વયંકૃત પિતાને દ્વારા જ ઉત્પન્ન કરાયેલું) હેતું નથી, તે અન્યકૃત તે કેવી રીતે હોઈ શકે? એટલે કે જુદા જુદા છે જે સુખ કે દુઃખ ભોગવે છે, તે તેમના દ્વારા પણ ઉપાર્જિત હેતા નથી અને અન્યના દ્વારા પણ ઉપાર્જિત હોતા નથી. સિદ્ધિ વડે ઉત્પન્ન થનારું કે સિદ્ધિ વિના ઉત્પન્ન થનારુ સુખ અથવા દુખ સ્વકૃત અથવા પરકૃત નથી. જીવે અલગ અલગ રૂપે જે સુખદુઃખનો અનુભવ કરે છે, તે ખુદ તેના જ દ્વારા કે અન્યના દ્વારા ઉત્પન્ન કરાયેલ હેતું નથી. તેમને તે સુખદુઃખ નિયતકૃતિ જ હોય છે. આ પ્રકારનું For Private And Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समर्थ बोधिनी टीका प्र. अ. अ. १ उ. २ नियतिवादिमतनिरुपणम् तथा - तथैव एवमेव (संगइयं) साङ्गतिकं-नियति कृतं विद्यते । (इ) अत्र (एगेसिं) एकेषां केषाञ्चित् 'आहियं' आख्यातं - कथनम् नियतिवादिनाम् । नियतिसंपादितमेव सुखादिकं पार्थक्येन जीवानां भवति, न तु स्वकृतं परकृतं वा विद्यते ||२||३|| Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - (टीका) - सर्वैरेव जीर्वैः सुखादिकं 'स्थानविलोपादिकमनुभूयते तत् सुखादिकं ' सयं कर्ड ' स्वयं कृतम् ण= न तत्, नवा 'अन्नकर्ड ' अन्यकृतम् अन्येन पुरुषकार कालपरमेश्वरस्वभावकर्मादिना कृतं वा, न कथमपि संभवति । अयं भावः योऽयं - प्रतिप्राणि सुखदुःखाद्यनुभवो जायते तादृशंमुखदुःखादिकं न जीवेन संपादितं विद्यते जीवप्रयत्ननिर्मितं नास्ति । न वा पुरुषकारादिकृतं तत्मुखादिकम् । यदि पुरुषकारकृतं सुखादिकं स्यात्तदा सेवककृपकवणिजां समानेऽपि पुरुषकारे फलसाम्यं भवेत्, पुरुषकारस्य पुरुषप्रयत्त्पपरपर्यायस्य सर्वेषां समानत्वात् । नत्वेवं दृश्यते समानेऽपि पुरुषकारे फले भेदस्य सर्वाऽनुभव सुख दुःख नियति कृत ही होता है ऐसा किसी किसी का अर्थात् नियतिवादी का कथन है अभिप्राय यह है कि जीव अलग अलग जो भी सुख दुःख भोगते हैं वह नियतिकृत ही होता है, अपने द्वारा या दूसरे के द्वारा किया हुआ नहीं होता ||२३|| टीकार्थ सब जीवों के द्वारा सुख दुःख या मरण आदि का जो अनुभव किया जाता वह स्वयंकृत नहीं और न पुरुपकार, काल, परमेश्वर, स्वभाव अथवा कर्म के द्वारा उत्पन्न किया हुआ होता है । अर्थात् वह किसी के द्वारा उत्पन्न किया हुआ नहीं होता । यदि सुख दुःख का कारण पुरुषार्थ होता तो सेवक, कृषक और वणिकू का पुरुषार्थ समान होने से उनको प्राप्त होने वाले फल में भी समानता નિયતિવાદીઓનું કથન છે. આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે જીવા અલગ અલગ દુઃખ ભોગવે છે,તે નિયતિકૃત જ હોય છે; સ્વકૃત કે પરધૃત હાતુ નથી”ર-૩” ટીકાથ સુખ - સઘળા જીવો દ્વારા સુખ દુઃખ અથવા મરણાદિના જે અનુભવ કરાય છે, તેસ્વયં કૃત પણુ હાતા નથી, અને પુરુષકાર, કાળ, પરમેશ્વર, સ્વભાવ અથવા કર્મી દ્વારા પણ ઉત્પન્ન થયેલ હાતા નથી, એટલે કે તે કોઈના પણ દ્વારા ઉત્પન્ન કરાયેલા હાતા નથી. પુરુષકાર એટલે પુરુષના પ્રયત્ન. જો સુખદુઃખનું કારણ પુરૂષાર્થ જ હોય તેા સેવક, ખેડુત, વેપારી, વિગેરે ના પુરૂષાર્થ સરખાજ હોવાથી તેમને પ્રાપ્ત થનારા ફળમાં પણ સમાનતા જ હોત કારણ કે તે સૌને પુરુષકાર (પ્રયત્ન) સમાન જ છે પરન્તુ ફળમાં For Private And Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६० सूत्रकृताङ्गसूत्रे सिद्धत्वात् । अतो न पुरुषकारात् किंचित् सिद्धयति । यदि पुरुषकारादिना सुखादिकं न जायते, तर्हि कथं सुखादिकं स्यात् तत्राह-द्वितीयगाथायास्तृतीयचरणादौ 'संगइयं' साङ्गतिकम् नियतिसंपादितं भवतीति । ननु न भवतु पुरुषकारस्य कर्तृत्वं कार्य प्रति, कालस्तु सर्वेषां कर्ता स्यात् । तथा चोक्तम्-" कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः । कालः मुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः ॥१॥" जन्यानां जनकः कालो जगतामाश्रयो मतः। इत्यादि होती, क्योंकि पुरुषकार अर्थात् पुरुषका प्रयत्न सबका समान है । परन्तु फल में समानता तो देखी नहीं जाती । सबको ऐसा अनुभव होता है कि पुरुषकार समान होने पर भी फल में भेद है ! अतएव पुरुषकार से कुछ भी सिद्ध नहीं होता । यदि पुरुषकार से मुखादिक की उत्पत्ति नहीं होती तो किस कारण से होती है ? इस प्रश्न का समाधान दुसरी गाथा के तीसरे चरण में किया गया है । वह समाधान यह है कि सुख दुःख आदि नियति से ही उत्पन्न होते हैं। शंका- पुरुषार्थ यदि कार्य के प्रति कारण नहीं है तो न सही काल तो सबका कर्ता है कहा भी है -'काल ही भूतो को पकाता है काल ही प्रजा का संहार करता है, काल सायों हुओं में भी जागता रहता है काल के सामर्थ्य का उल्लंघन नहीं किया जासकता' ॥१॥ और भी कहा है'काल ही समस्त कार्यों का जनक है और वही जगत का आधार है ।' इत्यादि સમાનતા જોવામાં આવતી નથી. સૌને એ અનુભવ થાય છે કે પુરુષકારમાં સમાનતા હોવા છતાં પણ ફળમાં ભેદ હોય છે! તેથી એવું પુરવાર થાય છે કે પુરુષકાર દ્વારા કઈ પણ સિદ્ધ (પ્રાણ) થતું નથી. જે પુરુષકાર દ્વારા સુખાદિકની ઉત્પત્તિ થતી ન હોય, તે કયા કારણે થાય છે ? આ પ્રશ્નનું સમાધાન બીજી ગાથાના ત્રીજા ચરણમ કાવામાં આવ્યું છે. તે સમાધાન આ પ્રકારનું છે " सुभ माहिना उत्पत्ति नियति द्वारा थाय छ." શંકા- ભલે પુરુષાર્થ કાર્યનું કારણ ન હોય, પરંતુ કાળ તે સૌને કર્તા છે, એ વાત તે સ્વીકારવી જ જોઈએ. કહ્યું પણ છે કે-” કાળ જ ભૂતને (પદાર્થોને પકાવે છે, કાળ જ પ્રજાને સંહાર કરે છે, સૂતેલાં જેમાં પણ કાળ જાગતે રહે છે. કાળનાં સામર્થનું ઉલ્લંઘન (अस्वी४२) ४२री शातुनथा" ॥१॥ વળી એવું પણ કહ્યું છે કે ” કાળ જ સમસ્ત કને જનક છે, અને એજ જગતને माधार छ,” इत्यादि For Private And Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. २ नियतिवदिमतनिरूपणम् २६१ सत्यपि कारणान्तरसाकल्ये वसन्ते एव कोकिला रावो भवति, न तु शरदि शिशिरे वा। सत्यपि सर्वकारगसांनिध्ये शरदि-एव गोधूमादीनामुत्पत्तिः, नत्वन्यदा, अतः कालः सर्वेषां जनिमतां कर्त्ततिचेन्न । कालस्य सर्वव्यापकतया, एकत्वेन कार्यभेदो न स्यात्, दृश्यते कार्याणां वैचित्र्यम् । अतःकालस्य न कर्तृत्वम् कारणभेदेसति कार्यभेदो जायते, न तु कारणस्यैक्ये कार्यभेदः स्यात् । तदुक्तम्-"अयमेव हि भेदो भेद हेतुर्वा, यदुत विरुद्धधर्माऽध्यासः कारणभेदोवेति । यदि समान एव कालः सर्वेषां हेतुभवेत् तदा ग्रीष्मशिशिरादिभेदेन तन्तुकपालादि भेदेन कार्याणां योऽयं भेदः समुपलभ्यते स न स्यात्, भवतिच तादृशो भेदः, अतः वसन्त में ही कोयल की कुहक होती हैं अन्यान्य कारणों के रहते हुए भी शरद् या शिशिर ऋतु में नहीं होती । अन्य सब कारणों के विद्यमान रहने पर भी गेहूं आदि की उत्पत्ति अन्य ऋतुओ में न होकर शरद् ऋतु में ही होती है । इसलिए काल ही सब कार्यों का कर्ता है ।। समाधान-यह कहना ठीक नहीं । काल सर्वव्यापक और एक है यदि यहीं कर्ता होता तो कार्यों में भेद न होता परन्तु भेद तो दिखाई देता है अतएव काल कर्ता नहीं है । कारण के भेद से कार्यो में भेद होता है अगर कारण एक हो तो कार्यो में भेद नहीं हो सकता । कहा भी है'परस्पर विरोधी धर्मों का होना भेद है और कारणों में भेद होना भेद का कारण है। यदि काल ही एकमात्र सब कार्यों का कारण होता तो ग्रीष्म और शिशिर आदि कालभेद से अथवा तन्तुकपाल आदि के भेद से कार्यों में जो भेददृष्टि गोचर होती है वह नहीं होना चाहिए मगर भेद વસંતમાં જ કેયલને મધુર”કહુ કહું” એ ટક્કે સંભળાય છે. બીજા ઘણા કારણે મેજૂદ હોવા છતાં પણ શરદ ઋતુમાં અથવા શિશિરમાં કેયલના ટહુકા સંભળાતા નથી અન્ય સઘળાં કારણે વિદ્યમાન હોવા છતાં પણ ઘઉં આદિની ઉત્પત્તિ બીજી વસ્તુઓમાં થતી નથી પણ શર ઋતુમાં જ થાય છે. તેથી એવું સિદ્ધ થાય છે કે કાળ જ સઘળાં કાર્યો કર્તા છે. સમાધાન- આપનું કથન ખરું નથી. કાળ સર્વવ્યાપક અને એક છે. જે કાળા જ કર્તા હતા તે કાર્યોમાં ભેદ સંભવી શક્ત નહીં, પરંતુ ભેદ તે જણ,ય છે. તેથી કાળ કર્તા નથી. કારણના ભેદને લીધે કાર્યોમાં ભેદ પડી જાય છે. જે કારણ એક જ હોય, તે કાર્યોમાં ભેદ સંભવી શકે નહીં. કહ્યું પણ છે કે-” પરસ્પર વિરોધી ધર્મોને ભાવ હવે તેનું જ નામ ભેદ છે, અને કારણોમાં ભેદનું અસ્તિત્વ હોય, એને જ ભેદનું કારણ માનવામાં આવે છે. જે કાળ જ બધાં કાર્યોના એક માત્ર કારણ રૂપ હેત, તે ગ્રીમ અને શિશિર આદિ કાળ ભેદને કારણે અથવા તખ્ત, કપાલ (ઠીક) આદિના ભેદને લીધે કાર્યોમાં જે ભેદ For Private And Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६२ सूत्रकृताङ्गसूत्र न कालस्य कारणता, “ नहिदृष्टेऽनुपपन्न नामे" ति न्यायात् । तस्मात् कालादेव कार्यमिति परिभाषा न कालवादिनां समीचीनेति । एवमेव परमेश्वरोऽपि सुखदुःखादीनां कर्त्ता न संभवति । यतोऽयं परमेश्वरो मूर्तोऽमूर्ती वा, नायः-ईश्वरस्य मूर्त्तत्वेऽस्मदादिदेवदेहवत्त्वादना परिच्छिन्नत्वात् सर्वकर्तृत्वं न स्यात् । नहि वयं परिच्छिन्ना मूर्ती वा सवै कार्य कुर्मः। तद्वदेव ईश्वरस्यापि मूतत्वे परिच्छिन्नत्वेच सर्वकार्यकरत्वं न घटते । न वा द्वितीयः पक्षः-ईश्वरस्याऽमूतत्वे आकाशादिवन्निष्क्रियत्वेन कार्योत्पादकत्वं न स्यात् । नहि क्रियारहितआकाशः किमपि कार्य करोतीत्यस्माभि ईष्टम् । तो होता है अतः काल को कारण नहीं माना जा सकता । 'प्रत्यक्ष दीखनेवाली बात में कोई असंगतता नहीं होती' ऐसा न्याय है । अतएव काल से ही कार्य उत्पन्न होता है यह कालवादियों का कथन समीचीन नहीं है। ___ इसी प्रकार ईश्वर भी सुख दुःख आदि का कर्ता नहीं हो सकता वह ईश्वर मूर्त है या अमूर्त है ! मूर्त मानना योग्य नहीं। क्योंकि ईश्वर यदि मूर्त होगा तो हम लोगों के समान ही देहादिमान होने से सब का कर्ता नहीं हो सकेगा । हम देह में ही समाये हुए अर्थात् सीमित और मृत्त हैं अतः सभी कार्य नहीं कर सकते । इसी प्रकार ईश्वर भी यदि मूर्त और परिमित है तो वह भी सर्व कार्यों का कर्ता सिद्ध नहीं होता । अगर ईश्वर को अमृत मानो तो वह आकाश के समान निष्क्रिय होने से कार्यों का उत्पादक नहीं होगा । हमने ऐसा तो कहीं દ્રષ્ટિગોચર થાય છે, તે હોવો જોઈએ નહીં. પરંતુ ભેદ તે અવશ્ય હોય છે, તેથી કાળ ને કારણે માની શકાય નહીં. પ્રત્યક્ષ દેખાતી વાર્તામાં કઈ અસંગતતા હોતી નથી” એ સિદ્ધાન્ત છે. તેથી કાળ દ્વારા જ કાર્ય ઉત્પન્ન થાય છે, એવું કાળવાદીઓનું કથન ખરૂં નથી. એજ પ્રમાણે ઈશ્વરને પણ સુખ દુખ આદિને કર્તા માની શકાય નહીં. તે ઈશ્વર મૂર્ત છે अभूत्त छ? ઈશ્વરને મૂર્ત માની શકાય નહીં, કારણ કે જે ઈશ્વરને મૂર્ણ માનવામાં આવે, તે તે પણ આપણી જ જેમ દેહાદિથી યુક્ત હેવાને કારણે સઘળા પદાર્થને અથવા સૃષ્ટિને કર્તા હોઈ શકે નહીં. આપણે દેહમાં જ સમાયેલા એટલે કે સીમિત અને મૂર્ત છીએ, તેથી આપણે ઘળાં કાર્યો કરી શકતા નથી. એ જ પ્રમાણે ઈશ્વર પણ જે મૂર્ત અને પરિમિત હોય, તે તેને પણ સર્વ કાને કર્તા કેવી રીતે માની શકાય? જે ઈશ્વરને અમૂર્ત માનવામાં આવે, તે તેને આકાશની જેમ નિષ્કિય જ માનવે For Private And Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाथ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. २ नियनिवादिमतनिरूपणम् २६३ : किं चाऽयं रागादिमान् वीतारगी वा? नायः । रागादिमत्त्वेऽस्मदादि वदेव सर्वकार्यकारिता न स्यात् । द्वितीयपक्षे वीतरागतया परमेश्वराद् विचित्र कार्यरचना न स्यात् । ईश्वरस्य कर्तृत्वे, वैषम्यं नैपुण्यमपि स्यात् । किंच परमेश्वरः स्वार्थेन जगद्रचनायां प्रवर्त्तते करुणया वा ? आधे आप्तकामादि श्रुतिविरोधः आपतति । आप्तकाम इति कृतकृत्यः । नहि-अवाप्तसर्वकामस्य जगत्सर्जने किंचित्प्राप्तव्यमस्ति यतः स प्रवृत्ति कुर्यात् । तस्मात् स्वार्थेनेश्वरः प्रवर्तते जगत्सर्जने इतिमुधैव । देखा नहीं कि क्रियाहीन आकाश किसी कार्य को करता हो । और ईश्वर रागादिमान् है या वीतराग ? अगर रागादिमान है तो हमारे समान सर्व कार्यों का कर्ता नहीं हो सकता । यदि वीतराग है तो वीतराग होने के कारण ईश्वर के द्वारा विचित्र कार्यों की उत्पत्ति नहीं हो सकती । ईश्वर को कमानोगे तो उसमें विषमता और निर्दयता भी हो जाएगी । और यह कहिए कि ईश्वर स्वार्थ से प्रेरित होकर जगत् की रचना करने में प्रवृत्त होता है या करुणा से प्रेरित होकर ? प्रथम पक्ष में 'आप्तकाम' आदि श्रुति से विरोध आता है । आप्त काम का अर्थ है-कृतकृत्य अर्थात् जो करने योग्य सभी कुछ कर चुका हो, जिसे कुछ भी करना शेष न रहा हो । कृतकृत्य को जगत् की रचना करके कुछ पाना પડે જેમ નિષ્ક્રિય આકાશ કોઈ પણ કાર્ય કરતું નથી, એજ પ્રમાણે નિષ્કય ઈશ્વર પણ કેઈ કાર્યને કર્તા સંભવી શકે નહીં. વળી ઈશ્વર રાગાદિથી યુક્ત છે, કે વીતરાગ છે? જે તે રાગાદિમાન હોય તે જેમ આપણે સઘળા કાર્યોના કત્તાં હોઈ શકતા નથી, એમ ઈશ્વર પણ સઘળાં કાર્યોને કર્તા હૈઈ શકે નહીં. જે ઇશ્વર વીતરાગ (રાગ રહિત) હોય, તે ઈશ્વર દ્વારા વિવિધ કાર્યોની ઉત્પત્તિ થઈ શકે નહીં. ઈશ્વરને જે કર્તા માનશે, તે તે માન્યતામાં વિષમતા અને નિર્દયતાને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે! વળી અમારા આ પ્રશ્નને જવાબ આપશું ઈશ્વર સ્વાર્થ વડે પ્રેરાઈને જગતની રચના કરે છે, કે કરુણા દ્વારા પ્રેરાઈને જગતની રચના કરવાને પ્રવૃત્ત થાય છે? પહેલા પક્ષને સ્વીકાર કરવામાં આવે, તે” આકામ” આદિ શ્રુતિ વાકયેથી વિરૂદ્ધનું કથન લાગે છે. આતકામનો અર્થ આ પ્રમાણે છે જેણે કરવા ગ્ય બધું કરી લીધું હોય છે. અને કંઈ પણ કરવાનું બાકી રહ્યું હતુ નથી, એવી વ્યક્તિને કૃતકૃત્ય અથવા આતકામ કહે છે. કૃતકૃત્યને જગતની રચના કરીને એવું તે શું પ્રાપ્ત કરવાનું હોય છે કે તેણે જગતની રચના For Private And Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे ____नापि करुणया-कारुण्यं नाम परदुःखप्रहाणेच्छा । जीवा दुःखिनः कदा स्युः ? यदा जगत्सृष्टिः स्यात् । सृष्टिमन्तरा दुःखकारणशरीरादीनामेवाऽ भावात् । कुतो दुःखोच्छेदरूपं कारुण्यम्, सर्जनानन्तरं दुःखिनमवलोक्य करुणा स्वीकारे अन्योन्याश्रयदोषप्रसंगात्, अतो न परमेश्वरः कर्त्ता संभवति । तदुक्तम्न कत्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ १ ॥ इति । तस्मादीश्वरो न सुखदुःखयोः कर्ता । तदुक्तम्तो है ही नहीं जिससे कि वह प्रवृत्ति करे । अतएव ईश्वर स्वार्थ से प्रेरित होकर जगत् की सृष्टि करने में प्रवृत्त होता है, यह कहना वृथा है । ____करुणा से प्रेरित होकर जगत् की रचना करताहै, यह कहना भी ठीक नहीं है । दूसरों के दुःख का नाश करने की इच्छा करुणा कहलाती है । जीव आखिर दुःखी कब होते हैं ? सृष्टि होने के पश्चात् ही वे दुःखी हो सकते हैं । सृष्टि के अभाव में दुःख के कारण शरीर आदि ही जीवों के नहीं होते तो दुःख कैसे हो सकता है ? और जब दुःख ही नहीं तो दुःख को नष्ट करने की इच्छारूप करुणा भी किस प्रकार हो सकती है ? कदाचित् कहो कि सृष्टि रचने के बाद जीवों को दुःखी देखकर ईश्वर को करुणा उपजी, तो अन्योन्याश्रय दोष आता है। अर्थात् पहले सृष्टि रचना हो जाय तो प्राणियों को दुःखी देख कर करुणा उपजे और करुणा उपजे तो सृष्टि रचे कहा भी है-'ईश्वर में कर्तृत्व नहीं है । वह कर्म या कर्म और फल के संयोग का भी कर्त्ता नहीं है। यह सब स्वभाव से ही होता है ॥१॥ કરવી પડે? તેને તે કોઈ પણ વસ્તુની પ્રાપ્તિ કરવનું બાકી જ રહ્યું હોતું નથી. તેથી” સ્વાર્થથી પ્રેરાઈને ઈશ્વર જગતનું સર્જન કરે છે. આ પ્રકારનું કથન વૃથા જ છે. એવું કથન પણ બરાબર નથી કે ઈશ્વર કરુણાથી પ્રેરાઈને જગતની રચના કરે છે. અન્યના દુઃખને નાશ કરવાની ઈચ્છાનું નામ કરુણ છે. પરંતું જીવે દુઃખી ક્યારે થાય છે? સૃષ્ટિની રચના થયા બાદ જ જે દુઃખી થાય છે. જે સૃષ્ટિને જ અભાવ હતો તે દુઃખના કારણભૂત શરીર આદિને જ જેમાં સદ્ભાવ ન હેતએવી પરિસ્થિતિમાં દુઃખ જ કર્યાથી સંભવી શકત? - જે દુઃખને જ અભાવ હેત, તે દુઃખને નષ્ટ કરવાની ઈચ્છા રૂપ કરુણાને સદૂભાવ પણ કેવી રીતે સંભવી શક્ત? કદાચ તમે એવી દલીલ કરે કે સૃષ્ટિની રચના કર્યા બાદ જેને દુઃખી જોઈને ઈશ્વરને કરુણા ઉપજી, તે આ પ્રકારના કથનમાં તે અન્યાશ્રય દેષને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે. એટલે કે પહેલાં સુષ્ટિની રચના થઈ જાય, ત્યાર બાદ જેને દુખી જોઈને કરુણા ઉપજે, અને કરુણા ઉપજવાને લીધે જ સૃષ્ટિની રચના કરે ? આ બન્ને વાત કેવી વિરોધાભાસવાળી એ કહ્યું પણ છે કે ઈશ્વરમાં કવ નથી તે કર્મને કર્તા પણ નથી For Private And Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बोधिनी टीका प्र. अ. अ. १ उ. २ नियतिवादि मतनिरूपणम् २६५ "नाssदते कस्य चित्पापं नचैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनाऽवृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।। १ ।। अत्र श्लोके अज्ञानपदं नियतेरुपलक्षणम्' अतो नियतेरेव सुखदुःखकर्त्तृत्वम्, नेश्वरस्येति ज्ञायते । 64 स्वभाववादिनस्तु स्वभावमेव सुखदुखयोः कर्त्तारं स्वीकुर्वन्ति । दुग्धादेवदधिजायते नतु जलात्, तत्र स्वभावं परित्यज्याऽन्यस्य गमकस्याऽभावात् । एकस्मादेव वृक्षात् कण्टकपुष्यफलानां समुत्पादोऽपि स्वभाववादं स्थापयति । तन सम्यक्, विकल्पासहत्वात्, तथाहि अयं स्वभावः पुरुषाद् भिन्नोऽभिनो वा ? यदि अतएव ईश्वर सुख दुःख का कर्ता नहीं है । कहा भी है- "नादत्ते कस्यचिपri " इत्यादि । 'ईश्वर किसी के पाप या पुण्य को ग्रहण नहीं करता है । जीवों का ज्ञान अज्ञान से आवृत हो गया है, इसी कारण वे मूढ हो रहे हैं ||१|| इस श्लोक में 'अज्ञान' पद नियति का उपलक्षक (सूचक) है, अतएव नियति ही सुख दुःख की कर्त्री है, ईश्वर कर्त्ता नहीं है, ऐसा ज्ञात होता है । I स्वभाव भी कर्त्ता नहीं है, । स्वभाववादी स्वभाव को ही सुख दुःख का कर्त्ता स्वीकार करते हैं । दुध से ही दही बनता है, जल से नहीं । यहाँ स्वभाव के सिवाय और कोई गमक नहीं है । एक ही वृक्ष से कंटकों पुष्पों और फलों की उत्पत्ति भी स्वभाववाद का समर्थन करती है । किन्तु स्वभाव को कर्त्ता कहना सभीचीन नहीं है, क्योंकि वह विकल्पों को सहन नहीं करता । वह इस प्रकार स्वभाव पुरुष से भिन्न है या अभिन्न है ? यदि पुरुष से भिन्न माना जाय तो वह पुरुष में होने वाले सुख दुःख का जनक અને કમ અને ફળનો સયાગ કર્તા પણ નથી ॥ ૧ ॥ તેથી એ વાત સિદ્ધ થાય છે કે ઇશ્વર સુખદુ:ખના કાં નથી કહ્યું પણ છે કે 66 नाद ते कम्यचित्पाप " छत्याहि " ४श्वर अवना पाप अथवा पुण्यने हरतो નથી. જીવાનુ જ્ઞાન અજ્ઞાન દ્વારા આવૃત ( આચ્છાદિત) થઈ ગયુ છે, તે કારણે જ તે भूढ थर्ध गया छे” ॥ १ ॥ २॥ सोम्मां वपरायेषु “अज्ञान” यह नियतिनु उपलक्षम् (सून्यम्) છે, તેથી એવુ જ્ઞાત થાય છેકે નિયતિ જ સુખદુઃખની કત્રી' છે, શ્વર સુખ:દુખના કત્તાં નથી સ્વભાવવાદી સ્વભાવને જ સુખદુઃખના કર્તા માને છે. દૂધમાંથી જ દહીં અને છે, પાણીમાંથી બનતું નથી અહી સ્વભાવ સિવાય બીજું કોઈ કારણ નથી. એક જ વૃક્ષમા કાંટાઓ, પુષ્પો અને ફળની ઉત્પત્તિ પણ સ્વભાવવાદનું સમથ ન કરે છે. પરન્તુ સ્વભાવને કાં કહેવા તે ઉચિત નથી, કારણ કે નીચેના વિકલ્પોના ત્યાં ખુલાસા મળતા નથી.-સ્વભાવ પુરુષથી ભિન્ન છે, કે અભિન્ન છે? જે સ્વભાવને પુરુષથી અભિન્ન માનવામાં सू. ३४ For Private And Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे भेदपक्ष: स्वीक्रियेत, तदा पुरुषाश्रितसुखदुःखयोः समुत्पादको न स्यात्, अतिभिन्नत्वादेव । नाप्यभिन्नः इति द्वितीयः यक्षः साधीयान् । अभेदे स्वभावस्य पुरुषस्वरूपतया पुरुषस्य च सुखदुःखे प्रति कर्तृत्वाऽभावस्य प्रतिपादनात् । नापि कर्मणः सुखदुःखयोः कर्त्तृत्वं संभवति । यतः कर्मणः पुरुषादभेदे पुरुषस्वरूपतया पुरुषस्य चाऽकर्तृत्वस्य प्रतिपादितत्वात्, पुरुषाद्भेदे तत्कर्मसचेतनमचेतनं वा ? नाद्यः कर्मणः सचेतनत्वे, एकस्मिन्नेव शरीरे चेतनद्वयस्य आपत्तेः नहि एकं शरीरं अनेकेषां चेतनानां भोगाधिष्ठानमिति कस्यापि प्रतीतिः । नवाऽचेतनं कर्म इति द्वितीयपक्षः सम्यक् । अचेतनत्वे कर्मणः पाषाणादिवत परतन्त्रस्य तस्य सुखःदुखे प्रति कर्तृत्वाऽसंभवात् । तस्मात् न कर्म सुखदुःखं प्रति कर्तृ, किन्तु नियतेरेव कर्तृतेति सिद्धम् । नहीं हो सकता, क्योंकि वह पुरुष से अत्यन्त भिन्न है । अभिन्न पक्ष मानना भी ठीक नहीं है । अभेद मानने से स्वभाव पुरुष ही होगा और पुरुष सुख दुःख का कर्त्ता नहीं है, यह पहले ही कहा जा चुका है । कर्म भी सुख दुःख का कर्त्ता नहीं हो सकता, क्योंकि कर्म का पुरुष से अभेद माना जाय तो वह पुरुष ही कहलाएगा और पुरुष कर्त्ता नहीं है, यह पहले कहा जा चुका है । यदि कर्म को पुरुष से भिन्न मानें तो वह सचेतन है या अचेतन ? सचेतन मानने से एक ही शरीर में दो चेतन हो जाएँगे । एक ही शरीर अनेक चेतनों के भोग का आधार हो एसी प्रतीति किसी को नहीं होती । कर्म अचेतन है, यह दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है । जो अचेतन है वह पाषाण आदि की भाँति परतन्त्र है । वह सुख दुःख का આવે, તે સ્વભાવ પુરુષ રૂપ જ હશે, અને પુરુષ (આત્મા) સુખદુઃખના કર્યાં નહી હોવાને કારણે, સ્વભાવ પણ સુખદુઃખના કર્તા સભવીશકશે નહીં' માટે બીજે વિકલ્પ પણ સ્વીકા નથી. કર્મ પણ સુખદુઃખનું કર્તા હેાઈ શકે નહીં, કારણ કે ના પુરુષ સાથે અભેદ માનવામાં આવે, તે તે પણ પુરુષ રૂપ જ ગણાય. એ વાત પહેલાં પ્રતિપાદિત થઇ ચુકી છે કે પુરુષ કર્તા નથી. તેથી પુરુષથી અભિન્ન એવું કમ પણ સુખદુઃખનું કત્તાં હાઈ શકે નહી.' જો કમને પુરુષથી ભિન્ન માનવામાં આવે તે તે સચેતન છે, કે અચેતન સંચેતન માનવામાં આવે, તેા એક જ શરીરમાં બે ચેતન હોવાના પ્રસંગ ઉપસ્થિત થશે. એવી પ્રતીતિ ઇને પણ થતી નથી કે એક જ શરીર અનેક ચેતનાના ભાગના આધાર હોય. કમ અચેતન છે”, આ બીજો વિકલ્પ પણ સ્વીકાર્ય નથી, કારણ કે જે અચેતન હેાય છે, તે પાષાણુ આદિની જેમ પરતંત્ર હાય છે. For Private And Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.१ उ. २ नियतिवादिमतनिरूपणम् २६७ तदुभयमपि सैद्धिकमसैद्धिकं च भवति । तत्र स्रश्चन्दनादि समुपभोगात्मक सिद्धिजनितं वैषयिकं सुखं सैद्धिकम् । तथा कशाघातादिजनितं दुःख सैद्धिकम् । बाह्यनिमित्तमन्तरेण यत् सुखं तद् असैद्धिकम् । तथा शिरोवेदना ज्वरादि जनितं दुःखमसैद्धिकम् । एतदुभयप्रकारकमपि सुखंदुःखं च न पुरुषकारेण जीवेन कालादिना वा कृतम् पृथक् पृथक् जीवा अनुभवन्ति । यदि एभिः कृतं मुखदुःखादिकं न वेदयन्ति जीवाः तदा कुतः कारणविशेषात्तयोरनुभव इत्यत आह 'संगइयं इति संभ्सम्यक् स्व परिणामेन गति रिति संगति नियतिः । कर्ता नहीं हो सकता । अतएव यह सिद्ध हुआ कि कर्म सुखदुःख का कर्ता नहीं है किन्तु नियति ही कर्ता है । अर्थात् यह सुख और दुःख दोनों ही जीव आदि के द्वारा उत्पन्न होते हैं । यह सुख और दुःख दोनों सैद्धिक और असैद्धिक दोनों प्रकार के होते हैं माला चन्दन आदि उपभोगरूप सिद्धि के द्वारा उत्पन्न होने वाला वैषयिक सुख सैद्धिक सुख कहलाता है और कोडे के आघात आदि के द्वारा जनित दुःख सैद्धिक दुःख कहलाता है । बाह्य निमित्त के विना ही जो सुख उत्पन्न होता है वह असैद्धिक है तथा सिरदर्द एवं ज्वर आदि से होने वाला दुःख असैद्धिक है । यह दोनों प्रकार का सुख दुःख पुरुषकार, जीव या काल से उत्पन्न नहीं होता । इसे जीव पृथक् वेदन करते हैं । यदि पुरुषकार आदि के द्वारा उत्पन्न हुए मुख दुःख आदि को जीव नहीं वेदते हैं तो फिर किस कारण से उनका अनुभव होता है ? इस प्रश्न का उत्तर है-वह सांगतिक अर्थात् नियतिकृत है । क्योंकि पुरुषकार काल आदि के द्वारा सुख दुःख उत्पन्न नहीं होते તેથી તે સુખ દુઃખનું કર્તા હોઈ શકે નહીં. આ પ્રકારે એ વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે કે સુખ દુઃખ આદિનું í કર્મ નથી, પણ નિયતિ જ છે. એટલે કે સુખ અને દુઃખની ઉત્પત્તિ જીવ આદિ દ્વારા થતી નથી, પરંતુ નિયતિ દ્વારા જ સુખ અને દુઃખની ઉત્પત્તિ કરાય છે આ સુખ અને દુઃખ બે પ્રકારના હોય છે.(૧) સૈદ્ધિક અને(૨) અદ્ધિક માલા, ચન્દન આદિ ઉપભેગ રૂપ સિદ્ધિના દ્વારા ઉત્પન્ન થનારા વેયિક સુખને સૈદ્ધિક સુખ કહેવાય છે. અને ફટકાના માર આદિ દ્વારા જનિત દુઃખને સિદ્ધિક દુઃખ કહેવાય છે. બાહ્ય નિમિત્તવિના જે સુખ ઉત્પન્ન થાય છે, તેને અદ્ધિક સુખ કહેવાય છે. તથા માથાને દુખા, જવર, આદિ વડે ઊત્પન્ન થનાર દુઃખને અદ્ધિક દુઃખ કહે છે. અને બન્ને પ્રકારના સુખ દુખ પુરુષકાર, જીવ અથવા કાળ દ્વારા ઉત્પન્ન થતા નથી. તેનુ જીવ અલગ અલગ રૂપે વેદન કરે છે. જે પુરુષકાર આદિ દ્વારા ઉત્પન્ન થયેલા સુખાખ આદિનું વેદના છ ન કરતા હોય, તે ક્યા કારણે ઉત્પન્ન થયેલા સુખઃખાદિનું વેદના છ કરે છે? આ પ્રશ્નને ઉત્તર એ છે કે સુખઃખાદિ સાંગતિક એટલેકે નિયતિત છે. કારણ કે પુરુષકાર, કાળ આદિ દ્વારા સુખદુખ ઉત્પન્ન થતાં For Private And Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे तस्यां भवं सांगतिकम् । यस्मात् पुरुषकारकालादिभिः सुखदुःखादि न कृतं, अतस्तत्सुखदुःखानुभवनं प्राणिनां नियतिसंपादितं सांगतिकमिति कथ्यते । 'इह' इह = सुखदुःखाऽनुभववादे 'एगेसिं' एकेषां वादिनाम् 'आहियं' आख्यातंकथनम्, तेषामयमभिप्राय इत्यर्थः । तथाचोक्तम्“प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि यत्ने, नाऽभाव्यं भवति न भाविनोऽस्तिनाशः ॥ १ ॥ अतएव उनका प्राणियों को जो अनुभव होता है वह नियति से ही होता है । वही सांगतिक कहलाता है । सुख दुःख के अनुभव के विषय में ऐसा किन्हीं किन्हीं वादियों का कथन है । कहा भी है- " प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण " इत्यादि । नियति के बल से मनुष्यों (जीवों) को जो शुभ अथवा अशुभ अर्थ प्राप्त होने वाला है, वह अवश्य प्राप्त होता है । जीव कितना ही महान् प्रयत्न क्यों न करे जो नहीं होनहार है वह नहीं होता और जो होनहार है वह मिट नहीं सकता 1, 'जो नहीं होने वाला है वह नहीं होता और जो होनहार है वह अन्यथा नहीं हो सकता यह चिन्ता रूपी विष को नष्ट करने वाली औषध क्यों न दी जाए ?, पहले श्लोक का अर्थ यह है कि प्राप्तव्य अर्थ की प्राप्ति अवश्य ही होती है, उसे अन्यथा नहीं किया जा सकता। मनुष्य के द्वारा लाख प्रयत्न करने पर भी होनहार मिट नहीं सकता ।. નથી, તેથી એવું સ્વીકારવું પડશે કે પ્રાણીઓને સુખદુઃખનેા જે અનુભવ થાયછે, તે સુખદુઃખ નિયતિકૃત જ હોય છે. તે નિયતિકૃત સુખદુઃખને સાંગતિક સુખદુઃખ પણ કહે છે. સુખદુઃખના અનુભવના વિષયમાં કેટલાક મતવાદીઓની ઉપયુકત માન્યતા છે. તે લોકો સુખદુઃખને नियतित माने छे. ह्युं पशु छेडे प्राप्तभ्यो नियतिबलाश्रयेण” त्याहि or નિયતિ દ્વારા જીવાને જે શુભ અથવા અશુભ અથની પ્રાપ્તિ થવાની હોય છે તે અવશ્ય થાય છે, જ જીવ ગમે તેટલે પ્રયત્ન કરે પણ જે થવાનુ નથી તે થતુ જ નથી, અને જે થવાનુ છે તેને રેકી શકાતું નથી કે નષ્ટ કરી શકાતુ નથી” “જે થવાનુ નથી તે થશે જ નહી' અને જે મનવાનુ છેતે બનશે જ-મનવાનું છે તેને રાકી નહી શકાય, આ ચિન્તા રૂપી વિષને નષ્ટ કરનારી ઔષધિ શા માટે ન અપાય ? પહેલાશ્લોકના અથ એ છે કે પ્રાસબ્ય અથવા(પા)ની પ્રાપ્તિ અવશ્ય થાય છે તેને ફેરવી શકવાને કોઈ સમર્થ નથી, For Private And Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र.श्रु अ. १. उ. २ नियतिवादिमतिनिरूपणम् २६९ यदभावि न तद्भावि भाविचेन्न तदन्यथा । इति चिन्ता विषघ्नोऽयमगदः किन्न पीयते ॥१॥ इति । प्राप्तव्यार्थस्यावश्यमेव प्राप्ति भवति तत्र न भवति अन्यथा, मनुष्यैः सर्वथा कृतेपि यत्ने भाविनो विनाशो न भवतीति प्रथमश्लोकार्थः । यद् भावि तद्भवत्येव न तद् अन्यथा भवति, सर्वचिन्तानाशकोऽयम् अगदः= औषधं कि किमर्थ न पीयते ? इति ॥ २ ॥ ३ ॥ _ द्वितीय तृतीय श्लोकाभ्यां नियति वादिनां मतं प्रदर्य तस्य उत्तरं प्रदातुं चतुर्थगाथामाह सूचकारः-एवमयाण इत्यादि । मूलम् एवमेयाणि जैपंता बाला पंडियमाणिणो । निययानियतं संत अयाणंता अबुद्धिया ॥४॥ छायाएवमेतानि जल्पन्तो बालाः पण्डितमानिनः । नियताऽनियतं संतम् अजानन्तोऽबुद्धिकाः ॥४॥ द्वितीय तृतीय श्लोद्वाभ्यां नियति वादिनां मतं प्रदर्य तस्य उत्तरं प्रदातुं चतुर्यगाथामाह सूत्रकारः-'एवमेयाणि' इत्यादि । दूसरे श्लोक का आशय यह है कि जो भावी है वह होकर ही रहता है, वह अन्यथा नहीं होता यह समस्त चिन्ताओ को दूर करने वाली दवा है, क्यों न इस दवा का पान किया जाय ? ॥२-३॥ दूसरी और तीसरी गाथा में नियतिवादियों के मत को प्रदर्शित करके सूत्रकार उसका उत्तर देने के लिए चौथी गाथा कहते हैं----"एवमेयाणि" इत्यादि । शब्दार्थ-एवं-एवम् ' इसप्रकार 'एयाणि-एतानि' इन वचनों को-बातो को 'जपता-जल्पन्तः, कहतेहुवे नियतिवादी 'बाला-बालाः' अज्ञानी हैं મનુષ્ય લાખ પ્રયત્ન કરે તે પણ જે બનવાનું છે તેને બનતું રેકી શકાતું નથી. બીજાક્ષેકને ભાવાર્થ એ છે કે “જે બનવાનું છે, તે અવશ્ય બન્યા જ કરે છે. આ વાતને સ્વીકાર કરવાથી આપણી સમસ્ત ચિન્તાઓ દૂર થઈ જાય છે. તે સમસ્ત ચિન્તાઓ ને દૂર કરનારી આ ઔષધિનું પાન શા માટે ન કરવું? 1ર-વા બીજી અને ત્રીજી ગાથાઓ દ્વારાનિયતિવાદીઓને મત પ્રદર્શિત કરવામાં આવ્યું. હવે सूर नियतिवाहीमोना मतनु मन परेछ. -एवमेयाणि" त्याहि - शार्थ-एवं-एवम्' मा प्रभारी 'पयाणि-पतानि' मा क्यना ने-४थन ने 'जता-जल्पन्त नारा नियति वाही बाला-पाला' आशानी छ. परियमाणिणो For Private And Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्रे अन्वयार्थ:(एवं) एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण (एयाणि) एतानि वचनानि एतादृशीं वार्ताम् (जपंता) जल्पन्तः, कथयन्तो नियतिवादिनः (बाला) बालाः अज्ञानिनः सन्ति । तथापि (पंडियमाणिणो) पण्डितमानिनः आत्मानं पण्डितं मन्यमाना स्ते वादिनः (संत) सत्-विद्यमानं (निययानिययं)नियतानियत सुखदुःखयो नियतत्वमनियतत्वं च (अयाणंता) अजानन्तः= अनवबुध्यमानाः नियतिवादिनः (अबुद्धिया) अबुद्धिका:- बुद्धिहीनाः सम्यग्बोधविकलाः सन्तीति । पूर्वोक्तप्रकारेण नियतिवादं समर्थयमाना स्ते वादिनोऽज्ञानिनः तथापि आत्मानं पण्डितं मन्यमानाः सुखदुःखयो नियतानियतत्वमजानन्तोऽ बुद्धिका एवेति भावार्थः ॥४॥ पंडियभाणिणो-पंडितमानिनः' अपने को पंडितमाननेवाले वे वादिजन 'संतं -सत्' विद्यमान 'निययानियय-नियतानियतम् , सुख दुःख को नियत तथा अनियत 'अयाणंता-अजानन्तः । नहीं जानते हुवे वे नियतिवादी, अबुद्धिया अबुद्धिकाः, बुद्धिहीन हैं अर्थात् सम्यक् वोधको वे नही जान ते हैं ॥४॥ अन्वयार्थ-- इस प्रकार के वचन कहने वाले नियतिवादीअज्ञानी हैं परन्तु अपने आपको पण्डित मानते हैं । वे सुख दुःख को नियतता और अनियतता को नहीं जानते हुए सम्यग्ज्ञान से रहित हैं। अभिप्राय यह है कि पूर्वोक्त प्रकार से नियति वाद का समर्थन करते हुए वे वादी अज्ञानी है तथापि अपने को पण्डित मानते हैं । वे मुख और दुःख की नियतानियतता को नहीं जानते अतः बुद्धिहीन है ॥४॥ -पंडितमानिन' पाताने परत मानना। मेवात नियतिवाहियो 'संत-सत' विद्यमान 'निययानिय-नियतानियतम्' सुमदुमने नियत भने मनियत 'अयाणता-अजानन्तः' नाही ना अने तेथी 'अबुद्धिया-अबुद्धिकाः' मुद्धि विनाना छे. अर्थात् तेसो સમ્યફ ધ ને જાણતા નથી. કારણ अन्वयार्थઆ પ્રકારનું પ્રતિપાદન કરનારા નિયતિવાદિઓ અજ્ઞાની છે. છતાં પણ તેઓ પિતાને પંડિત માને છે. સુખદુઃખની નિયતતા અને અનિયતતાને તેઓ જાણતા નથી, કારણ કે તેઓ સમ્યગ જ્ઞાનથી રહિત છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે પૂર્વોકત પ્રકારે નિયતિવાદનું સમર્થન કરનારા તે નિયતિવાદીઓ અજ્ઞાની છે, છતાં પણ તેઓ પિતાની જાતને પંડિતમાને છે. તેઓ સુખ અને દુઃખની નિયતાનિયતતાને સમજતા નથી, તેથી તેઓ બુદ્ધિહીન છે. જા For Private And Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir D समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. २ नियतिवादिमतनिरूपणम् २७१ टीका__'एवं' एवम् पूर्वोक्तप्रकरण 'एयाणि' एतानि नियतिवादमाश्रित्य प्रतिपादितानि वचनानि 'जंपंता' जल्पन्तः= प्रतिपादयन्तः 'बाला' बाला इव बालाः सदसद्विचारविकलाः 'पंडियमाणिणो' पण्डितमानिनः= स्वात्मानं पण्डितं मन्यमानाः, अपण्डितप्यात्मानं पण्डितमिति स्वीकुर्वन्तः सुखदुःखयोः 'संत' सत्-विद्यमानं 'निययानिययं' नियतानियतं नियतत्वमनियतत्वंच 'अयाणता' अजानन्तः अनवबुध्यमानाः, 'अबुद्धिया' अबुद्धिकाः सम्यग् बोधरहिताः सन्तीति। अयं भावः-स्याद्वादमते किंचित् सुखदुःखादिकं नियतिकृतम् । नियतिद्वारे गैव संपादितं भवति । पुनरपि किंचित् सुखदुःखादिकम् अनियतिकृतम् नियतिभिन्नपुरुषकारकालकर्मादि संपादितमपि भवत्येव । तथा च एता दृक् स्थितिष्वपि एकान्तेन नियतिकृतमेवाश्रयति अतस्ते अजानन्तः सुखदुःख टीकाइस प्रकार नियतिवाद का अवलम्बन करके प्रतिपादित किये गये वचन कहने वाले सत् असत् के विवेक से रहित होने के कारण अज्ञानी हैं फिर भी अपने आप को पण्डित मानते हैं । सुख और दुःख की नियतता और अनियतता को नहीं जानते हुए बुद्धिहीन हैं। तात्पर्य यह है कि स्याद्वाद मत में कोई कोई सुख दुःख आदि नियतिकत होता है अर्थात् नियति के द्वारा सम्पादित होता है, परन्तु कोई कोई अनियतिकृत भी होता है अर्थात् नियति से भिन्न पुरुषकार काल एवं कर्म आदि के द्वारा भी सम्पादित होता है । तात्पर्य यह है कि सुख दुःख का कारण अकेली नियति नहीं है, किन्तु निर्यात काल स्वभाव कर्म आदि सब मिल कर ही कारण होते हैं। ऐसी स्थिति में अकेली नियति को कारण मानना अज्ञान - - આ પ્રકારે નિયતિવાદનું અવલંબન લઈને ઉપર્યુક્ત વચનનું પ્રતિપાદન કરનારા લોકે સત-અસતના વિવેકથી વિહીન હોવાને કારણે અજ્ઞાની જ છે. છતાં પણ તેઓ એમ માને છે કે પિતે પંડિત છે. સુખ અને દુઃખની નિયતતા અને અનિયતતાને નહીં જાણનાર તે મતવાદીએ બુદ્ધિહીન છે. હવે સ્યાદ્વાદને આશ્રય લઈને તેમના મતનું ખંડન કરવામાં આવે છે. - સ્વાદ્વાદ મત અનુસાર તે કઈ કઈ સુખદુઃખનિયતિકૃત–નિયતિ દ્વારા સંપાદિત હોય છે, અને કઈ કઈ સુખદુઃખ અનિયતિકૃત પણ હેય છે, એટલે કે નિયતિથી ભિન્ન પુરુષકાર, કાળ અને કર્મ આદિ દ્વારા સંપાદિત હોય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે સુખદુઃખનું કારણ એકલી નિયતિજ નથી, પરંતુ નિયતિ, કાળ, સ્વભાવ આદિ બધા સુખદુઃખનાં કારણ રૂપ For Private And Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २७२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे कारणज्ञानरहिताः । तथाहि - किंचित्सुखदुःखादिकं नियतितो भवति । यतः तादृशसुखादिकारणस्य कर्मणोऽवसर विशेषेऽवश्यमेवोदयो जायते । अतो नियतिकृतं तत्सुखादिकं भवति । तथा किंचित्सुखदुःखादिकं तु अनियतिकृतं किन्तु पुरुषकारकालकर्मादिभिः संपाद्यते । तादृशस्थितौ कथंचित् पुरुषकारादि साध्यत्वमपि स्वीक्रियते । यतः क्रिया द्वारा फलं जायते, क्रियातु पुरुषार्थ साध्या वर्त्तते । पुरुषव्यापारमन्तरेण क्रियाया एवोत्पादनाऽसंभवात् । तथाचोक्तम् "न दैवमिति संचिन्त्य त्यजेदद्योगमात्मनः । अनुद्योगेन तैलानि, तिलेभ्यो नाप्तुमर्हति || १ ||" इति । का ही फल है । आचार्य सिद्धसेन ने सम्मतितर्क में कहा है-— “कालो सहाव नियई" इत्यादि । काल स्वभाव नियति, अदृष्ट और पुरुष रूप कारणों के विषय में जो एकान्तवाद हैं वे मिथ्या हैं । यही बात परस्पर सापेक्ष : होकर सम्यक्त्व ऐसी स्थिति में जो सुख दुःख आदि को एकान्ततः नियति कृत मानते हैं, उनके वास्तविक कारण को नहीं जानते । तात्पर्य यह है कि कोई कोई सुखादि नियतिकृत होते हैं अर्थात् अवश्यंभावी कर्मोदय से उत्पन्न होते हैं, इस कारण वे, 'नियत' कहलाते हैं और कोई सुखादि अनियतिकृत होते हैं। अर्थात् कथंचित् पुरुषकार अदि की प्रधानता द्वारा भी होते हैं । क्रिया के द्वारा फल की प्राप्ति होती है और क्रिया पुरुषार्थ द्वारा साध्य होती है क्योंकि पुरुष के व्यापार के विना क्रिया नहीं होती । कहा भी है- "न दैवमिति संचिन्त्य " इत्यादि । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir છે. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિ હેાવા છતાં એકલી નિયતિને જ સુખદુઃખના કારણભૂત માનવી તે અજ્ઞાનનું જ ફળ છે. આચાર્ય સિદ્ધસેને સમ્મતિ તર્કમાં કહ્યું છે કે “adi agafauf” Jeuft કાળ, સ્વભાવ, નિયતિ અદૃષ્ટ અને પુરૂષકાર રૂપ કારણેાના વિષયમાં જે એકાન્તવાદ છે, તે મિથ્યા છે એજ વાત પરસ્પર સાપેક્ષ (એક બીજાની અપેક્ષા રાખનારી) હાવા છતાં પણ જેઓ સુખદુઃખ આદિને એકાન્તતઃ (સંપૂર્ણ રૂપે) નિયતિ કૃત માને છે, તે તેમના વાસ્તવિક કારણને જાણતા નથી.” આ કથનનુ તાત્પર્ય એ છે કે કોઇ કોઇ સુખાદિ નિયતિકૃત હાય છે એટલે કે અવશ્યંભાવી કમેદય દ્વારા ઉત્પન્ન થાય છે, તે કારણે તેમણે “નિયત” કહેવાય છે. અન ઈ કોઈ સુખાદિ અનિયતિ કૃત હોય છે એટલે કે પુરૂષકાર આદિની પ્રધાનતાને કારણે પણ ઉત્પન્ન થાય છે. ક્રિયા દ્વારા ફલની પ્રાપ્તિ થાય છે અને ક્રિયા પુરૂષા દ્વારા સાધ્ય ડાય છે. કારણ કે પુરુષના વ્યાપાર (પ્રવૃતિ અથવા પ્રયત્ન) વિના ક્રિયા થતી नथी. छेडे "नदेवमिति संचिन्य" इत्याहि For Private And Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र.श्रु अ. १ उ. २ नियतिवादिमतनिरूपणम् २७३ इति कथंचिनियतिकृतं कथंचित् पुरुषकारादिकृतमिति स्याद्वादिनां माग इति । ___यत्तुक्तं समानेऽपि पुरुषकारे फलवैचित्र्यमिति न तदूषणम् । यतस्तादृश स्थलेऽपि कारणभूतस्य पुरुषकारस्य वैचित्र्यादेव फलवैचित्र्यम् । समानरूपेण व्यवस्थितोऽपि पुरुषकारे यत्कचनफलवैचित्र्यं तत्राऽदृष्टस्यैव प्रयोजकत्वात् , अदृष्टस्याऽपि कारणत्वाऽवधारणात् । तथा कालोऽपि जनको भवत्येव, सुखदुःखादौ । अन्यथा कालस्या हेतुत्वे बकुलचंपकरसालादीनां कालकृतवैचित्र्यस्याऽनुपपत्तिः । वसन्ते च ___ दैव (भाग्य) से ही सब कुछ होगा, ऐसा विचार कर अपने पुरुषार्थ उद्योग को छोड नहीं बैठना चहिए क्योंकि उद्योग किये विना तो तिलों से तेल भी नहीं प्राप्त किया जा सकता ।, ___इस प्रकार सुखादिक कथंचित् नियतिकृत हैं और कथंचित् पुरुषार्थ आदि द्वारा कृत होते हैं । यह स्याद्वादवादियों का मार्ग है । __आपने कहा कि पुरुषार्थ समान होने पर भी फल में विचित्रता दिखाई देती है सो कोई दोष नहीं है। ऐसे स्थलों में भी पुरुषार्थ की विचित्रता से फल में विचित्रता अर्थात् भिन्नता होती है और जहां पुरुषार्थ समान हो फिर भी फल में भिन्नता हो वहां अदृष्ट (कर्म) का भेद समझना चाहिए । हम अदृष्ट को भी कारण स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार काल भी सुख दुःख आदि का जनक होता है। काल को कारण न माना जाय तो वकुल, चम्पक एवं आम्र आदि में कालकृत ભષ્યમાં હશે એજ બનશે, એ વિચાર કરીને પિતાના પુરુષાર્થને (ઉદ્યોગને) ત્યાગ કરે જોઈએ નહી, કારણ કે પુરૂષાર્થ કર્યા વિના તો તલમાંથી તેલ પણ મેળવી શકાતું નથી - આ પ્રકારથી સ્યાદ્વાદના અનુયાયિઓ એવું માને છે કે–સુખાદિક અમુક અપેક્ષાએ નિયતિકૃત છે, અને અમુક દ્રષ્ટિએ પુરુષાર્થ આદિદ્વારા કૃત છે. તેઓ સુખદુઃખાદિને એકાન્તતઃ નિયતિકૃત પણ માનતા નથી અને એકાન્તતઃ પુરુષકાર આદિ દ્વારાકૃત પણ માનતા નથી. આપે કહ્યું કે પુરુષાર્થ સમાન હોવા છતાં પણ ફળમાં વિચિત્રતા (વિભિન્નતા જોવામાં, આવે છે, તો એમાં કોઈ દેખ નથી. એવા સ્થળોમાં પણ પુરુષાર્થની વિચિત્રતાને લીધે ફળમાં પણ વિચિત્રતા (ભિવાતા સંભવી શકે છે. અને જ્યાં પુરુષાર્થમાં ભિન્નતા ન હોય પુરુષાર્થમાં સમાનતા હોય, ત્યાં પણ ફળમાં જે ભિન્નતાં જણાય છે ત્યાં અષ્ટ (કર્મ) માં ભિન્નતા સમજવી જોઈએ. અમે અદૃષ્ટને પણ સુખદુઃખની પ્રાપ્તિના કારણ રૂપ સ્વીકારીએ છીએ. એજ પ્રમાણે કાળ પણ સુખદુઃખને જનક હેઈ શકે છે. કાળને જે કારણભૂત ન માનવામાં આવે, તે બકુલ, ચંપક, અને આમ્રવૃક્ષ આદિમાં કાલકૃત વિચિત્રતા ઘટી શકે નહી, વસંત તુમાં યલના મધુર ટહુકા પણ સંભવી શકે નહીં. सू. ३५ For Private And Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org च २७४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे कोकिला वादीनां व्यवस्था नोपपादिता स्यात् । अतः कालोऽपि हेतुरेव । न तु एकान्त: काल एव हेतुः अपि तु कोलोऽपि एतेन कालस्यैकरूपतया फलवैचित्र्यं न घटते, इति कथनमपि निरस्तम्, केवलस्य कालस्य जनकत्वाऽ नभ्युपगमात् । स्वभावोऽपि कथंचित् कर्त्ता भवत्येव, जीवस्योपयोगलक्षणत्वं, पुद्गलानां मूर्त्तत्वं धर्माधर्मास्तिकाययोर्गतिस्थितिकारित्वमित्यादि स्वभावकतमित्यवधारणात् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तथा कर्माsपि कारणं भवत्येव । तथाहि कर्मजीवप्रदेशैः सह क्षीरनीर न्यायेनाऽन्योन्याऽनुवेधरूपतया व्यवस्थितमतः आत्मन कथंचिदभिन्नमेव । कर्मवora rial नारक तिर्यग्र मनुष्यदेवादिभवेषु पर्यटन् सुखदुःखादिकमनुभवतीति । विचित्रता घटित नहीं होती । वसन्त में कोकिल की ध्वनि होने की व्यवस्था भी नहीं बन सकती । अतः काल भी हेतु है । हां, एकान्ततः काल ही कारण नहीं है किन्तु काल भी कारण है । ऐसा स्वीकार करने से 'काल एक रूप है, उसके द्वारा फल की विचित्रता नहीं घट सकती, यह कथन भी खंडित हो जाता है क्यों कि फल की उत्पत्ति में अकेला काल ही कारण नहीं माना है । स्वभाव भी कथंचित् कर्त्ता होता है । जीव का लक्षण उपयोग, पुद्गलों का मूर्त्तत्व, अधर्म द्रव्य का स्थिति सहायकत्व आदि सब स्वभाव कृत ही हैं। इसी प्रकार कर्म भी कारण है । कर्म आत्मप्रदेशों के साथ दूध और पानी की तरह एकमेक होकर रहे हुए हैं, अतएव वे आत्मा से कथंचित् તેથી કાળના પણ હેતુ (કારણ) રૂપે સ્વીકાર થવા જોઇએ. હા, એકાન્તત : કાળ જ કારણ રૂપ છે. એમ કહી શકાય નહીં, પરન્તુ કાળ પણ કારણ રૂપ છે, એમ કહેવું જોઇએ. આ પ્રમાણે સ્વીકારવાથી “કાળ એક રૂપ છે” તેના દ્વારા ફળની વિચિત્રતા સંભવી શકતી નથી,” આ કથનનુ પણ ખંડન થઈ જાય છે, કારણ કે ફળની ઉત્પત્તિમાં એકલા કાળને જ કારણભૂત માન્યા નથી. : એ જ પ્રમાણે સ્વભાવને પત્રુ એકાન્તત કર્તા માનવાને બદલે અમુક અપેક્ષાએ કર્તા માનવા જોઇએ. જીવનું લક્ષણ ઉપયોગ, પુદ્ગલાનું મૂર્ત્તત્વ રૂપ લક્ષણ, ધદ્રવ્યનુ ગતિસહાયકત્વ રૂપ લક્ષણ, અને અધર્મીદ્રવ્યનુ સ્થિતિસહાયકવરૂપ લક્ષણ આફ્રિ લક્ષણા સ્વભાવકૃત જ હાય છે. એજ પ્રમાણે કર્મ પણ સુખદુઃખનુ કારણ છે. કર્મ પુદ્ગલા આત્મપ્રદેશાની સાથે દૂધ અને પાણીની જેમ એકએક થઇને રહેલાં છે, તેથી તેએ આત્માથી કચિત્ (અમુક For Private And Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समर्थ बोधिनी टीका प्र. शु. अ. १ उ. २ दियत्यादिवादिनां मोक्षप्राप्तेरभावः २७५ तदेवम् युक्तया नियत्यनियत्योः कत्वे व्यवस्थापिते सति एकान्ततो नियतेरेव कर्तृत्वं मन्यमानाः तदन्यस्य च कर्तृत्वं निराकुर्वन्तो नियतिवादिनो बुद्धिकाः सदसद्विवेकविकला एवेति भावः || ४ || एकान्ततो नित्यैव सर्व क्रियते इति नियतिवादिनां मतं युक्त्यादि तर्कजालै र्निराकृत्य तेषां दुःखनाशो न भवतीति प्रतिपादयति सूत्रकारः -- 'एवमेगे" इत्यादि । मूलम् ६ ७ १ २ ३ ४ एवमेगे उपासत्था ते भुज्जो विपगभिया । ८ ९ १० १२११ १३ एवं उवट्टिया संता, पण ते दुक्ख विमोक्खया ॥५॥ छाया एवमेतु पार्श्वस्थास्ते भूयो विप्रगल्भताः । एवमुपस्थिताः संतः न ते दुःखविमोक्षकाः ||५|| अभिन्न हैं । कर्म के बल से ही जीव नरक तिर्येच मनुष्य और देवगतियों में पर्यटन करता हुआ सुख दुःख आदि का अनुभव करता है । इस प्रकार नियति भी कारण हैं और नियति के अतिरिक्त पुरुषकार आदि भी कारण हैं, ऐसा सिद्ध कर देने पर एकान्त रूप से नियति को ही कारण और पुरुषकार आदि को अकारण कहने वाले नियतिवादी बुद्धिहीन हैं, सत असत के विवेक से विकल हैं ||४|| एकान्ततः नियति ही सब कुछ करती है, इस प्रकार के नियतिवादियों के मत को युक्तियों द्वारा निराकरण करके सूत्रकार अब यह दिखलाते हैं कि उनके दुःख का विनाश नहीं हो सकता - " एवमेगे" इत्यादि । અપેક્ષાએ) અભિન્ન છે. કના પ્રભાવથી જ જીવ નરક, તિર્યંચ, મનુષ્ય અને દેવગતિ એમાં પર્યટન કરતા થકા સુખદુઃખાદિનો અનુભવ કરે છે. આ પ્રકારે નિયતિ પણ કારણભૂત છે, અને નિયતિ સિવાયના પુરુષકાર આદિ પણ કારણભૂત છે, આ વાત સિદ્ધ થઈ જવાથી એકાન્ત રૂપે નિયતિને જ કારણભૂત અને પુરુષકાર આદિને । અકારણભૂત કહેનારા નિયતિવાદી મુદ્ધિહીન છે. તે સત્ – અસા વિવેકથી રહિત હાવાને કારણે અજ્ઞાની છે. ૫ ૪. : એકાન્તત નિયતિ જ બધું કરે છે,” આ પ્રકારના નિયતિવાદીઓના મતનુ યુક્તિઓ દ્વારા નિરાકરણ કરીને, હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે તેમના (નિયતિવાદીઓના) दुःमनो विनाश था शम्तो नथी. 'एवमेगे' त्यादि For Private And Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७६ सूत्रकृताङ्गसत्र अन्वयार्थ:-- (एवं) एवम् उक्तप्रकारेण (एगे) एके केचन नियतिवादिनः 'पासत्या' पाश्चस्थाः-पार्श्व-मोक्षमार्गबहिर्भागे स्थिताः, अथवा पाशस्था इति कर्मबन्धरूपपाशबद्धाः सन्ति, ते (भुजो) भूयो भूयः (विप्पगब्भिया) विप्रगल्भिताः धाष्टर्यमासादिताः धृष्टाः सन्ति नियतिवादमाश्रित्यापि दानपुण्यादि क्रियायां प्रवर्तनात् (एवं) एवम् अनेन रूपेण (उवटिया संतो) उपस्थिताः सन्तः नियतिवादे तिष्ठन्तः सन्तः (ते) ते नियतिवादिनः (न दुक्खविमोक्खया) न दुःखविमोक्ष काः जन्ममरणादि दुःखाद् न विमुक्ता भवन्ति सम्यग् ज्ञानविकलत्वात्तेषाम् ॥५॥ शब्दार्थ-एवं-एवम्' इसप्रकार 'एगे एके' कोई नियतिवादी ‘पासत्था पावस्था: पाश्वस्थ कहते हैं 'ते--ते' वे 'भुजो--भूयः बार-बार 'विप्पगम्भिया --विनगल्भिताः' नियति को कर्ता कहने की धृष्टता करते हैं एवं-एवम्' इसप्रकार 'उवठियासंतो-उपस्थिताः सन्तः' उपस्थित होकर भी 'ते--ते' वे 'न दुक्खविमोक्खिया-न दुःखविमोक्षकाः' जन्ममरणादि दुःख छुडाने में समर्थ नहीं है ॥५॥ ___ -अन्वयार्थ--- इस प्रकार कोई कोई नियतिवादी 'पासस्थ, है। पासस्थ, शब्द के दो संस्कृतरूप होते हैं--पार्श्वस्थ और पाशस्थ । पाश्वस्थ का अर्थ है-मोक्षमार्ग से बाहर स्थित और पाशस्थ का तात्पर्य है कर्म बन्धनों से बँधे हुए । वे वार वार धृष्टता करते हैं । उनकी धृष्टता यह है कि वे नियतिवाद को स्वीकार करके भी दानपुण्यादि क्रिया में प्रवृत्ति करते हैं । इस प्रकार नियतिवाद में स्थित वे नियतिवादी दुःखों से मुक्ति नहीं पा सकते, क्योंकि वे अज्ञानी हैं ॥५॥ ___ –'एच-एवम्' या प्रमाणे 'एगे-एके नियती पाटी पासस्था-पार्श्व स्थाः' पाथ वाय छे. 'ते ते तेमा 'भुजो भूयः पारंवार विष्पगभिया-विप्रगल्भताः' नियतिने तावानी वृष्टता रे छे. 'वं एवम्' या रीते उवष्टिया लता उपस्थिताः सन्तः नियतिस्वाहमा उपस्थित थाने ५ ते ते ते 'न दुश्वविमोक्खिया-न दुःखविमोक्षकाः' भन्म भ२९ ३५ी हुयी टवाने त भान यता नथी ॥५॥ मन्वयार्थ આ પ્રકારે કઈ કઈ નિયતિવાદી “પાર્થ” છે. પાર્થ શબ્દના બે સંસ્કૃત રૂપ થાય છે. (૧) પાધુરી અને ૨) પાશ. પાર્થસ્થ મોક્ષમાર્ગની બહાર રહેલાને પાશ્વસ્થ કહે છે અને “ પાર્થ” એટલે કર્મબન્ધન વડે બંધાયેલા, તેઓ વારંવાર ધૃષ્ટતા કરે છે. તેમની ધૃષ્ટતા એ છે કે તેઓ નિયતિવાદમાં માનતા હોવા છતાં પણ દાન, પુણ્ય આદિ ક્રિયાઓમાં પ્રવૃત્ત રહે છે. આ પ્રકારના તે નિયતિવાદીએ દુઃખમાંથી મુક્ત થઈ શકતા નથી, કારણ કે તેઓ અજ્ઞાની છે. For Private And Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनो टीका प्र. अ. अ. १ उ. २ नियत्या दिवादिनां मक्षिप्राप्तेरभावः २७७ टीका गाथायां प्रथम एवं शब्दः पूर्वदर्शितसिद्धान्तसूचकः 'एगे उ' एके तुं इत्यत्र तु शब्दोऽवधारणे, तेन त एव = नियतिवादिन एवं नत्वन्ये इत्यर्थः । एके इति सर्वस्मिन्नेव पदार्थे नियताऽनियतात्मके सति कालंकर्मादिकं निराकृत्य नियतिमात्रमेव कारणमित्येवं रूपेण नियतिवादं समाश्रिताः से नियतिवादिनः । कथंभूतास्ते ? इत्याह 'पासल्या' पार्श्वस्थाः, पार्श्वे = मुक्तिमार्गाद् बहि र्भागे तिष्ठन्ति ये ते पावस्था: । अथवा---परलोकक्रियायाः पार्श्वे स्थिता इति पार्श्वस्थाः । नियतिरेव सर्वकर्त्री इति तन्मते परलोकसाधिकायाः क्रियाया नैरर्थक्यम् । ते पार्श्वस्थाः क्रियामार्गस्य बहिरेव तिष्ठति, सत् क्रियां नैव कुर्वन्ति । अथवा - 'पासत्या' इत्यस्य पाशस्था इतिच्छाया पाशो मृगा- टीका गाथा में पहला ' एवं ' शब्द पहले प्रदर्शित किया गया सिद्धान्त का सूचक है । 'एगे उ' यहां 'तु, शब्द अवधारण अर्थ में हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि सभी पदार्थों के नियत अनियत रूप होने पर भी काल कर्म आदि का विषेध करके अकेली नियति कोही कारण मानने वाले निय तिवादी हैं। वे कैसे हैं ? सो कहते हैं - पार्श्वस्थ हैं अर्थात मुक्ति के मार्ग से बाहर के भाग में स्थित हैं, अथवा परलोक संबंधी क्रिया से बाहर हैं । उनके मत में जब नियति ही सब कुछ कहने वाली है तो परलोक साधक क्रिया व्यर्थ ही ठहरती है । वे पार्श्वस्य क्रियामार्ग से बाहर ही रहते है - अर्थात् सत् क्रिया नहीं करते हैं । T - अर्थ - 6 ગાથામાં પહેલાં વપરાયેલું “નવ” આ પદ પહેલાં પ્રદર્શિત કરેલા સિદ્ધાન્તનુ सूया छे. "एगे उ" अहीं "तु" यह अवधारण अर्थे प्रयुक्त थयुं छे. भेटते हे सधणा પદાર્થા નિયત અનિયત રૂપ હોવા છતાં પણ કાળ, કર્મ આદિનો નિષેધ કરીને એકલી નિયતિને જ તે નિયતિવાદી કારણ માને છે. તેઓ કેવાં છે ? આ પ્રશ્નનો જવાઞ આપતાં સૂત્રકાર કહે છે કે તેઓ પાર્શ્વસ્થ છે એટલે કે મુકિતના માર્ગ પર સ્થિત નથી પણ મુક્તિના માની બહાર સ્થિત છે, અથવા પરલોક સંબધી ક્રિયાથી બહાર (રહિત) છે. તેમના મતાનુસાર તા નિયતિ જ બધુ કરનારી છે, તે કારણે પરલોક સાધક ક્રિયા બ્ય જ બની જાય છે. તેઓ પાથ (ક્રિયામાર્ગની બહાર) જ રહે છે, એટલે કે સત્ ક્રિયા (४२वा योग्य डिया) उरता नथी. For Private And Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७८ सूत्रकृताङ्गसूत्र दीनां बन्धने उपयुज्यमानो रज्जुविशेषः, स च मृगादिकं स्वेन बध्नाति । तथे हापि पाश इव पाशः कर्मवन्धनम् तत्र कर्मबन्धने स्थिताः इति पाशस्थाः युक्तिरहित केवलनियतेरेव कारणत्वप्रतिपादनात्ते सर्वदैव कर्मवन्धने एव बद्धा भवन्ति, कदाचिदपि कर्मणा तेषां मुक्तिन भवति, अतस्ते पाशस्थाः कथ्यन्ते । एवमन्येऽप्येकान्तवादिनः कालकमादिमात्रस्यैव कारणत्वं वदन्तः पार्श्वस्थाः पाशस्था वा कथ्यन्ते । ___'ते' ते नियतिवादिनः केवल नियतिमात्रं कारणं स्वीकृत्यापि 'भुज्जो' भूयः 'विप्पगब्भिया' विप्रगल्भिताः-वि-विविधप्रकारेण विशेषेण वा 'प्रगल्भिताः धृष्टतामासादिताः सन्ति । नियतिमात्रं कारणमिति स्वीकृत्यापि नियतिवादविरोधिनीषु दानपुण्यादीक्रियासु प्रवर्तनमेव तेषां धृष्टता । ' एवं ' एवम्-एवं अथवा वे पाशस्थ हैं । मृग आदि को फसाने वाली रस्सी पाश कहलाती है । वह मृग आदि को बांध लेती है। यहां पाश के समान होने से कर्म को पाश कहा है । वे नियतिवादी पाशस्थ हैं अर्थात् कर्म बन्धन में स्थित हैं । अर्थात् युक्ति से रहित केवल नियति को ही कारण कह कर वे सर्वदा ही कर्मवन्धन में बंधे रहते हैं । उनकी कर्म से कभी मुक्ति नहीं होती । इस कारण उन्हें पाशस्थ कहा जाता है । इसी प्रकार अन्य एकान्तवादी जो काल या कर्म आदि को ही एकान्तरूप से कारण मानते हैं, पार्श्वस्थ या पाशस्थ ही हैं, ऐसा कहा जाता है । नियतिवादी नियतिमात्र को ही कारण स्वीकार करके भी धृष्टता कहते है । उनकी धृष्टता यह है कि वे एक तरफ तो नियति को ही कारण कहते हैं और दूसरी तरफ दान पुण्य आदि क्रियाओं में भी प्रवृत्ति અથવા તેઓ પાશસ્થ (બન્ધનો વડે બંધાયેલા છે. જેવી રીતે મૃગ આદિને ફસાવનારી જાળને “પાશે કહે છે, એ જ પ્રમાણે પાશ સમાન કર્મોને અહીં પાશ (બધન) કહેવામાં આવેલ છે. જેમ મૃગાદિ પશુઓ જાળમાં બંધાયા પછી મુક્ત થઈ શકતા નથી, તેમ આ નિયતિવાદીઓ પણ કર્મના બન્ધને તેડીને મુકિત પ્રાપ્ત કરી શક્તા નથી. આ નિયતિવાદીઓને પાશસ્થ કહેવાનું કારણ એ છે કે તેઓ કર્મબન્ધ વડે જકડાયેલા છે. એટલે કે યુકિતથી રહિત માત્ર નિયતિને જ સુખદુઃખનું કારણ માનીને તેઓ સર્વદા કર્મબન્ધથી જકડાયેલા જ રહે છે. તે કર્મોનો ક્ષય કરીને તેઓ કરી મુકિત પામી શકતા નથી. એજ પ્રમાણે અન્ય એકાન્તવાદીઓ કે જેઓ કાળ અથવા કમ આદિને એકાન્ત રૂપે સુખદુ:ખનું કારણ માને છે, તેઓ પણ પાર્શ્વસ્થ અથવા પાશસ્થ જ છે, એમ કહી શકાય. નિયતિવાદિઓ એકાન્ત રૂપે નિયતિને જ સુખદુઃખનું કારણ માનવા છતાં પણ એવી ધૃષ્ટતા કરે છે કે તેઓ દાન, પુણ્ય આદિ ક્રિયાઓમાં પણ પ્રવૃત્તિ કરે છે. એક For Private And Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ . २ अज्ञानवादिमतनिरूपणम् २७९ रूपेण · उवठिया संतो' उपस्थिताः सन्तः नियतिवादे तिष्ठन्तः 'ते' ते नियतिवादिनः 'ण दुक्यविमोक्खया' न दुःख विमोक्षकाः-न आत्मनो दुःखानां विमोक्षका भवन्ति सम्यगज्ञानव्यतिरेकेण क्रियासु प्रवर्तनात् । न ते स्वात्मानं परात्मानं वा दुःखाद्विमोचयन्ति, तेषां ज्ञानपूर्वकक्रियासद्भावविरहात् । सम्यगज्ञानरहिता क्रिया तु हस्तिस्नानमिव निरथिंकैव, न तु साफलाय भवतीति ॥५॥ ॥ इति नियतिवादिनो निराकरणम् ।। सम्प्रति-अज्ञानिनां मतं निराकर्तुं सूत्रकारो दृष्टान्तमाह-'जविणो' इत्यादि । जविणा मिगा जहा संता, परिताणेण वज्जिया। असंकियाई संकति, संकियाई असंकिणो ॥६॥ परिताणियाणि संकेता, पासिताणि असंकिणो । अण्णाणभयसंविग्गा, संपलिंति तहि तर्हि ॥७॥ -छायाजविनो मृगा यथा संतः परित्राणेन वर्जिताः । अशंकितानि शङ्कन्ते, शङ्कितानि अशङ्किनः ॥६॥ परित्राणिकानि शङ्कमानाः पाशितानि अशङ्किनः । अज्ञानभयसंविग्नाः संपर्ययन्ते तत्र तत्र ।।७।। करते हैं । इस प्रकार नियतिवाद को स्वीकार करते हुए वे अपनी आत्मा को दुःख से नहीं छुडा सकते। क्योंकि वे सम्यग्ज्ञान के विना ही क्रियाओं में प्रवृत्ति करने हैं। सम्यग्ज्ञान से रहित क्रिया हाथी के स्नान के जैसी निरर्थक है । फलप्रद नहीं होती ॥५॥ नियतिवाद का निराकरण समाप्त । તરફ નિયતિને જ કારણરૂપ માનવી અને બીજી તરફ દાન, પુણ્ય આદિ ક્રિયાઓ કરવી, તે નરી ધૃષ્ટતા જ છે. આ પ્રકારે નિયતિવાદને સ્વીકારનાર તે લોકે પિતાના આત્માને દુઃખમાંથી મુક્ત કરી શક્તા નથી, કારણ કે સમ્યગૃજ્ઞાન પ્રાપ્ત કર્યા વિનાની તેમની તે ક્લિાએ નિરર્થક જ બની જાય છે. સમ્યગૃજ્ઞાનથી રહિત કિયા હાથીના સ્નાનના જેવી નિરર્થક હોય છે. એવી ક્રિયાઓ ફલપ્રદ નીવડતી નથી પણ નિયતિવાદનું નિરાકરણ સમાસ છે For Private And Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८० सूत्रकृतागासले -अन्वयार्थ(जहा) यथा (परित्ताणेण) परित्राणेन (वज्जिया) वर्जिताः रहिताः सन्तः (जविगो) जविना अतिशयितवेगवन्तः इतस्ततो धावमाना इत्यर्थः, (मिगा) मृगाः हरिणाः (असंकियाई) अशङ्कितानि-शङ्कारहितान्यपि स्थानानि (संकंति) __ अब अज्ञानवादियों के मत का निरास करने के लिए सूत्रकार दृष्टान्त कहते हैं-"जविणो,, इत्यादि। शब्दार्थ--'जहा-यथा' जैसे 'परित्ताणेण-परित्राणेन रक्षक से 'वज्जियावर्जिताः, वर्जित 'जविणो-जविनः' वेगवाले 'मिगा-मृगाः' हरिण 'असंकियाईअशंङ्कितानि' शंका विनाके स्थानों में भी 'संकंति-शङ्कन्ते' शक्या करते हैं तथा 'संकियाई-शङ्कितानि शंका करने योग्य स्थानों में 'असंकिणोअशङ्किनः शंकारहित होते हैं 'परिताणियाणि-परित्राणिकानि' रक्षक युक्त स्थानको. 'संकेते' शङ्कमानाः-शंकास्पद मानते हुवे और 'पासिताणि-पाशितानि पाशयुक्त स्थानको 'असंकिणो-अशकिनः' शंका रहित समझते हुवे 'अण्णाण भयसंविग्गा-अज्ञानभयसंविग्नाः' अज्ञान और भयसे उद्विग्न ऐसे वे मृग 'तहिं तहि-तत्र तत्र' उन उन पाशयुक्त स्थानों मेंही 'संपलिंतिसंपर्यन्ते' जा फसते हैं ॥६-७॥ अन्वयार्थ---- जैसे त्राणसे रहित वेगवान् अर्थात्इधर उधर दौड़ते हुए हरिण शंकारहित स्थानों में शंका करते हैं और शंका के स्थानों में निःशंक होते हैं, रक्षा के वे सूत्रा२ दृष्टान्त द्वारा अज्ञानवादी मोना मतनु न ४२-” जविणे!" त्यादि शहाथ---'जहा यथारे रीते 'परित्ताणेण-परित्राणेन' २२४ 'वजिया-वर्जिताः विनाना 'जाविणो-जविनः' वेशा'मिगा-मृगाः' । 'असं कियाई-अशङ्कितानि श' विनाना स्थानमा प 'सक ति-शते । रामेछ. तथा 'स कियाई-शतितानि' श ४२१॥ योग्य स्थानमा 'असकिणो-अशनिः ' । नाना २९ छे. 'परिताणियाणि-परित्राणिकानि' २६४ पाणा स्थान ने 'संकता-शङ्कमानाः' २२५४ भाने छ. अने पासिताणि-पाशितानि शा॥ स्थान मा 'अस किणो-अशकिना' श विनानी मानीने 'अण्णाणभयस विग्गा-अज्ञानभयस विग्नाः' अज्ञान मने मय थी आयशा मे ते भृगो तहि तहिं तत्र-तत्र' ते ते पा॥स्थानमा 'संपलिति-संपर्यन्ते' इस नय छ. 14--01 -२मन्वयार्थ - જેમ કે - ત્રણ રહિત (નિરાધાર), અહીં નહી અતિ વેગથી દોડતું મૃગ શંકા ન કરવા જેવાં સ્થળમાં શંકા સેવે છે, અને જે સ્થાને શંકા કરવાને જે છે એની પ્રત્યે નિશંક For Private And Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. २ अज्ञानवादिमतनिरूपणे मृगदृष्टान्तः २८१ शङ्कन्ते= शङ्कां कुर्वन्ति । तथा ( संकियाई) शङ्कितानि - शङ्कास्पदानि प्रति ( असंकिणो ) अशङ्किनः=शङ्कारहिता भवन्ति ( परिताणियाणि ) (परित्राणिकानि=परित्राणयुक्तानि स्थानानि (संकंता) शङ्कमानाः, एतादृशा मृगाः शङ्कास्पदं जानानाः (पासिता णि) पाशितानि = पाशयुक्तानि स्थानानि प्रति (असंकिणो) अशङ्किनः = शङ्कामकुर्वाणाः (अण्णाण भयसंविग्ना) अज्ञानभयसंविग्नाः=अज्ञानजनितभयेन संत्रस्ताः सन्तः ( तहिं तर्हि ) तत्र तत्र = तस्मिन् तस्मिन् पाशयुक्ते स्थाने ( संपलिति) संपर्ययन्ते गच्छन्ति तत्रैव गत्वा पतन्ति ||६|७|| टीका - भावगम्या, सभावश्चेत्थम् - रक्षाविरहिता वेगवन्तो मृगाः अशङ्कि - तानि शङ्कमानाः, शङ्कितानि चाऽशङ्कमानाः । अनेन प्रकारेण परित्राणस्थानानि शङ्कमाना, पाशस्थानानि चाशङ्कमानाः अज्ञानभयसंविग्नाः भयज्ञानरहितत्त्वेन उद्विग्नमानसास्ते मृगाः तत्रैव पाशस्थाने एव गच्छन्ति । एवमेवाऽन्यदर्शनाऽनु स्थानों को शंकास्पद समझते हैं और वन्धन वाले स्थानों को शंका रहित समझते हैं । वे अज्ञान से उत्पन्न हुए भय के कारण घबडाए हुए रहते हैं और इस कारण बन्धनयुक्त स्थानों में जाकर पडते हैं फँस जाते हैं ||६ ---७॥ - टीका --- अर्थ सरल ही है, वह इस प्रकार है रक्षाविहीन और वेगवान् मृग जहां शंका नहीं करनी चाहिए वहाँ तो शंका करते हैं और जहां शंका करनी चाहिए ---जो शंका के स्थान हैं, वहां निश्शंक रहते हैं । इसी प्रकार जो रक्षा के स्थान हैं वहाँ भयातुर होकर शंकित रहते हैं और जो बन्धन के स्थान हैं. उनके प्रति शंकारहित होते हैं । अज्ञान जनित भय अथवा अज्ञान और રહે છે. રક્ષાના સ્થાનાને શ ંકાસ્પદ સમજે છે અને અન્ધનનાં સ્થાનોને શકા રહિત સમજે છે અજ્ઞાનને કારણે ઉત્પન્ન થયેલા ભયને કારણે તેઓ ગભરાટથી યુક્ત થઈ ને બન્ધનયુક્ત स्थानमा ४४ पड़े छे- इसा लय ॥ ६-७ ॥ - टीअर्थ - આ બન્ને ગાથાના અર્થ સરળ છે. છતાં અહીં તેનું સ ંક્ષિપ્ત વિવેચન કરવામાં આવે છે, રક્ષાવિહીન અને વેગવાન મૃગ જયાં શંકા ન કરવી જોઇએ ત્યાં શ ́કા કરે છે, અને જયાં શકા કરવી જોઇએ જે શકાનાં સ્થાનો છે- ત્યાં નિઃ શંક રહે છે. તે ભયાકુળ થઇને રક્ષાના સ્થાનને સમજી શકતું નથી, તેથી રક્ષાનાં સાચાં સ્થાનો પ્રત્યે તે શકાની નજરે જોવે છે અને અન્ધનનાં સ્થાનો પ્રત્યે નિઃશંક દૃષ્ટિથી જોવે છે. અજ્ઞાન જનિત ભય અથવા અજ્ઞાન અને ભયને કારણે તેનુ ચિત્ત ઉદ્વિગ્ન રહે છે. તેનુ પરિણામ એ આવે છે કે રક્ષાનાં સ્થાનમાં જવાને सू. ३९ For Private And Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २८२ www.kobatirth.org सूत्रकृताङ्गसूत्रे यायिनः रक्षायुक्तमपि स्याद्वाद सिद्धान्तं शङ्कमानास्तं परित्यज्य अनर्थकरमेकान्तवादमंशङ्कमानास्तमाश्रयन्तः पुनस्तत्रैव भयसंकुले संसारे पतन्तीति । अयमाशयः - अतस्मिन् तत्बुद्धि मिथ्याज्ञानम् । तादृशमिथ्याज्ञानेन परिहत - सम्यग्ज्ञानाः यथा कर्तव्याऽकर्तव्येषु विवेचनमकुर्वन्तः अनर्थजालमेवाऽऽविशन्ति तथा एकान्तशास्त्राध्ययने बोधविकलाः वस्तुतः मोक्षजनकमपि अनेकान्त शास्त्रमनात्य मोक्षजनकमपि स्वशास्त्रं मोक्षजनकमिति जानन्तः पुनरपि अनर्थ जाल संसार मेवाऽऽविशन्ति, अतो न कदाचिदपि तेषां संसारभयान्निवृत्तिर्जायते मिथ्याज्ञानस्येदं माहात्म्यमिति || ६ |७|| Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भय के कारण उनका चित्त उद्विग्न रहता है । परिणाम यह होता है कि वे उल्टे बन्धन के स्थान में ही जाते हैं । इसी प्रकार अन्य दर्शनों के अनुयायी रक्षण के स्थान स्याद्वाद स्थान के प्रति शंकायुक्त होकर उसका परि त्याग करके अनर्थ कारी एकान्तवाद के प्रति निःशंकित चित्त हो उसी का आश्रय लेते हैं । वे भयाकुल संसार में पड़ते हैं । अभिप्राय यह है---जो वस्तु जैसी नहीं है उसे वैसी समझ लेना मिथ्याज्ञान है । मिथ्याज्ञान के द्वारा सम्यग्ज्ञान का परित्याग करने वाले जैसे कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का भेद समझने में अकुशल होकर अनर्थों को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार एकान्तवादी मिथ्या शास्त्रों का अध्ययन करके, बोध से रहित होकर मोक्ष जनक अर्थात् सत्य मोक्षमार्ग का प्ररूपण करने वाले अनेकान्त शास्त्र को अस्विकार करके मोक्ष के अजनक अपने ही शास्त्रों को मोक्षजनक समझ कर पुनः अनर्थों से भरे संसार में परिभ्रमण करते અઠ્ઠલે તે અન્ધનના સ્થાનમાં જઈ ને ફસાઇજાય છે. એજ પ્રમાણે અન્ય દર્શનના અનુયાયીઓ રક્ષણના સ્થાન રૂપ સ્યાદ્વાદ સ્થાન પ્રત્યે શંકાયુક્ત થઈને તેનો પરિત્યાગ કરે છે, અને અનથ કારી એકાંતવાદ પ્રત્યે નિઃશંક ભાવથી જોવે છે તેથી તેએ તેમનો આશ્રય લે છે તેનુ પરિણામ એ આવે છે કે તેમને ભયાકુલ સંસારમાં જ જકડાવુ પડે છે. તેઓ સંસારમાં જ અથડાયા કરે છે, તેમને ત્રણ સ્થાન રૂપ મોક્ષની કદી પ્રાપ્તિ થતી નથી. આ દૃષ્ટાન્તનું તાત્પર્ય એ છે કે વસ્તુ જેવી નથી,એવી તેને સમજવી–વસ્તુના યથાર્થ સ્વરૂપને નહી જાણવુ પણ તેનાથી વિપરીત સ્વરૂપને જ યથાર્થ સ્વરૂપ માનવું તેનું નામ જ મિથ્યાજ્ઞાન છે. સમ્યગ્ જ્ઞાન નીપ્રાપ્તિ કયા વિના મિથ્યાજ્ઞાનના જ આશ્રય લેનાર માણસ કબ્ય અને અવ્યના ભેદ સમજવાને અસમથ હાય છે અને તે કારણે અનર્થીને પ્રાપ્ત કરે છે એવા અજ્ઞાની લોકો એકાન્તવાદી મિથ્યાશાસ્ત્રોનું અધ્યયન કરીને અબુધ જ રહે છે. તે સત્ય માની (મોક્ષ માર્ગીની) પ્રરૂપણા કરનારા અનેકાન્ત શાસ્ત્રીના પરિત્યાગ કરીને મોક્ષમાર્ગ ને અજનક એવાં પેાતાનાં જ શાસ્ત્રીને મોક્ષજનક માનીને, તે શાસ્ત્રોના ઉપદેશ અનુસાર આચરણ કરીને ने For Private And Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. २ अशानवादिमतनिरूपणे मृगदृष्टान्तः २८३ पूर्वोपदर्शितमेव दृष्टान्तं पुनरपि सूत्रकार आवर्त्तयति"अह तं' मित्यादि गाथया -मूलम् अह तं पवेज्ज वझं. अहे वझस्स वो वए। भुच्चेज्ज पय पासाओ, तं तु मंदे ण देहए ॥८॥ -छायाअथ तं प्लवेत बध्यमधोबध्यस्य वा ब्रजेत् मुत्त्येत पदपाशात्तत्तु मन्दो न पश्यति ॥८॥ - अन्वयार्थः(अह) अथ अनन्तरं स मृगः (तं वझं) तं वध्यंबन्धनयोग्यं स्थानं जालमित्यर्थः, (पवेज) प्लवेत उल्लङ्केत । अथवा (बज्ज्ञस्स) वध्यस्य हैं । इस कारण वे संसार के भय से कभी छूट नहीं सकते हैं। यह मिथ्या ज्ञान का ही माहात्म्य है ॥६-७॥ सूत्रकार पूर्वोक्त उदाहरण को पुनः स्पष्ट करते हैं "अह तं' इत्यादि । शब्दार्थ-'अह-अथ' उपरोक्त प्रकारसे जाल में फस जाने के बाद 'तं बझं-तं वध्यं' उस बन्धनको 'पवेज-प्लवेत' लांधलेवें 'वा-या' अथवा 'वज्झस्स-वध्यस्य' बन्धनके 'अहे-अधः' नीचे से 'वए-व्रजेत् ' निकलजायतो 'पयपासाओ-पदपाशात् ' चरण के बन्धन से 'मुच्चेज-मुच्येत' छूट सकता है 'नु-तु' परंतु 'तं-तत्' उसे 'मंदे-मन्दः' मंद बुद्धिवाला वह मृग ‘ण देहए-न पश्यति' नहीं देखता है ॥८॥ અનર્થોથી ભરેલા આ સંસારમાં પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. તે કારણે તેઓ સંસારના ભયમાંથી કદી છૂટી શકતાનથી. મિથ્યાજ્ઞાનને પરિણામે જ તેમની એવી દશા થાય છે. દા सूत्रा पूजित हा९२५४नु १५ २५टी४२६४ ४३ छे. “अहे त” त्यादि हा-'अह-अर्थ५२ हा प्रभारी कमा साया पछी त बज्झतं वध्य' मे मधन ने 'पवेज-प्लवेत' मागे 'चा-वा' अथवा 'वजस्स-वध्यस्य' मधननी 'अहे-अधः' नायथी 'वए-व्रजेत' नीजी नय तो पयपासाओ-पदपाशात्' पानामधनथी 'मुच्चेज मुच्येत' छूटी श छ 'तु-तु' परंतु 'त-तत् तेने 'मदे-मदः' मह मुद्धि वाणे । मेवो ते भृ। 'ण देहए-न पश्यति हेभी शत। नथी. ॥८॥ For Private And Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे बन्धनयोग्यस्य (अहे) अधः अधोदेशे (वर) व्रजेत् गच्छेत् तदा (पयपासाओ) पदपाशात् पदबन्धनात् (मुच्चेज) मुच्येत-मुक्तो भवेत् परन्तु (मंदः मन्दः विवेक-विकलो मृगः (न देहए) न पश्यति एवं न विजानातीत्यर्थः ।।८।। टीका- भावगम्या, स भावश्चायम्-स मृगो यदि बन्धनमुत्प्लुत्य तद्वन्धनं लंघयेत अथवा बन्धकपाशादिभ्योऽधोदेशेन निःसरेत, तदापि पाद पाशात् पृथग भवितुं शक्नुयात् किन्तु ज्ञानरहितो मूखों मृग एवं न जानति अतस्तस्माब्दन्धनान्नातिक्रान्तो भवतीति भावः । बन्धनाकारतया व्यवस्थितमपि पाशादिकं युक्त्या उत्प्लवेत पाशाऽधोदेशेन वा गमनादिकं कुर्यात् तदा पाशजनितताडनमारणादिकं न प्रामुयात् न तु स तथा करोति प्रत्युत विपर्ययेण - - --अन्वयार्थ--- कदाचित् वह मृग उस बन्धन के स्थान को अर्थात् जाल को लांघ जाय अथवा उस जाल के नीचे से निकल जावे तो चरण के बन्ध से बच जाए । परन्तु वह अज्ञानी यह बात नहीं जानता है ॥८॥ -टीकार्थ--- भाव यह है अगर वह मृग उछल कर बन्धन (जाल) को लांघ जाय अथवा बन्धनरूप पाश के नीचे होकर निकल जाए तो उसके पैर बन्धन में फसने से बच जाए । किन्तु ज्ञानरहित अज्ञानी मृग यह समझता नहीं । इस कारण बन्धन से बच नहीं पाता है । तात्पर्य यह है कि बन्धन के रूपमें रहे हुए पाश आदि को युक्ति से उल्लंघन कर जाए या उसके नीचे ___-:मन्वयार्थ :કદાચ તે મૃગ તે બન્ધનના સ્થાનને (જાળને) ઉલંઘી જાય અથવા તે જાળની નીચેથી નીકળી જાય, તે, પગના બંધનમાં થી બચી જાય. પરંતુ તે અજ્ઞાની મૃગને એવી સમજણ જ હતી નથી. પ૮ -टीઉપર્યુક્ત કથનનો ભાવાર્થ એ છેકે- તે મૃગ કૂદીને બન્શન (જાળ) માંથી બહાર નીકળી જાય, તે તેના પગ બન્શનમા ફસાતાં બચી જાય છે. પરંતુ તે જ્ઞાનરહિત અજ્ઞાની મૃગ તે વાતને સમજતું નથી. તે કારણે તે બન્યમાંથી મુક્ત થઈ શકતું નથી. તાત્પર્ય એ છે કે બન્ધનના રૂપમાં રહેલા પાશ આદિમાંથી મુક્તિ પૂર્વક બહાર નીકળી જાય, તે પાશજનિત મૃત્યુ આદિ પીડા માંથી ઉગરી જાય છે. પરંતુ તે એવું કરતુ નથી For Private And Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ घोधिनी टीका प्र. श्रृं. अ. १ पाशयद्धमृगावस्थानिरूपणम् २८५ अन्यथाभावं गतो वारं वारं तत्र निपत्य दुःखमेव प्राप्नोति, न कदाचिदपि ततो विमुच्यते अपि तु तत्रैव परिपच्यते इति संक्षेपः ॥ ८ ॥ कूटपाशादिकमजानन् मृगो यादृशीमवस्थामनुभवति, तादृशीमवस्थां दर्शयितुमाह- 'अहि अप्पा' इत्यादि । मूलम्अहिअप्पाहियपण्णाणे, विसमंतेणुवागए। स बद्धे पयपासेणं तत्थ घायं नियच्छइ ॥ ९॥ छायाअहितात्माऽहितप्रज्ञानो विषमांतेनोपागतः । स बद्धः पदपाशेन तत्र घातं नियच्छति ॥९॥ से निकल जाए तो पाशजनित ताडना मृत्यु आदि के कष्ट को प्राप्त न हो, परन्तु वह ऐसा करता नहीं है, बल्कि इसके विपरीत अन्यथाभाव को प्राप्त होकर उस बन्धन में पडकर वार बार दुःख प्राप्त करता है वह दुःख से छुटकारा नहीं पाता है। वहीं पचता रहता है ।।८।। ___कूटपाश को न जानने वाले मृग कैसी दशा का अनुभव करता है, उसे दिखलाने के लिए सूत्रकार कहते हैं-"अहि अप्पा" इत्यादि । शब्दार्थ-'अहिअप्पा-अहितात्मा' आत्महितको नहीं जानने वाले 'अहियपण्णाणेअहितप्रज्ञान:' सम्यक ज्ञान से रहित'विसमंतेणुवागए-विषमान्तेनोपागतः कूटपा. शादियुक्त विषम प्रदेशमें प्राप्त होकर 'स-सः' वह मृग 'पयपासेणं-पादपाशेन' पदबन्धके द्वारा 'बद्ध-बद्धः' बद्धहोकर 'तत्थ-तत्र' उस कूटपाशमेही 'घायं घातम्' विनाशको 'नियच्छइ-नियच्छति, प्राप्त होता है अर्थात् मृत्युपर्यंत वहांसे निकलसकतानहीं है ॥९॥ ઉલટ તે ઘભરાટને કારણે એવું વિપરીત વર્તન કરે છે કે તેનું બધૂન વધારેને વધારે પ્રગાઢ બનતું જાય છે. તે કારણે તે તેમાંથી મુક્ત થઈ શક્યું નથી, પરંતુ તેમાં જ પડ્યું રહે છે અને આખરે મોતને ભેટે છે. ૮ ફૂટ પાશને ન જાણનારું અંગ કેવી દશાને અનુભવ કરે છે, તે સૂત્રકાર હવે પ્રકટ કરે છે "अहि अप्पा इत्यादि शहाथ-'अहिअप्पा अहितात्मा' मात्माहतनेन नाश 'अहियपण्णाणे-अहितप्रज्ञान' सभ्य ज्ञान विनाना 'विसमतेणुगागए-विषमान्तेनोपागतः' छूट थी युत विषय प्रदेशमा प्रा थाने तस-सः' ते भृग ‘पयपासेण पादपाशेन' ५४ धन थी 'बध्धे बद्धः' ने 'तत्थ--तत्र' गेट पाशमा 'घाय घातम्' विनाश ने 'वियच्छइ-निय छति' मात थाय छे. अर्थात् भरण पन्त त्यांथी छूट. २०४ता नथाnel For Private And Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २८६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः ( अहिअप्पा) अहितात्मा = आत्महितमप्यजानानः (अहियपणाणे) अहितप्रज्ञानः = अहितकरज्ञानवान् सम्यगृज्ञानरहितः, (विसमं तेणुवागए) विषमा न्तेनोपागतः, विषमः अन्तः = प्रदेशो यस्य स विपमान्तः = कूटपाशः, तेन उपागतः= युक्तः कूटपाशप्राप्तः (स) स मृगः । ( पायपासेणं) पादपाशेन - कूटपाशेन (बद्धे) बद्धः सन् (तन्थ) तत्र कूटपाशे एव ( घायं) घातम् = विनाशं ( नियच्छइ ) निय च्छति प्राप्नोति न ततो निस्तु शक्नोतीति भावः ॥ ९ ॥ टीका- 'अहिअप्पा' अहितात्मा स्वस्यापि हितमजानानः 'अहियपण्णाणे' अहितप्रज्ञानः, अहितम् = असम्यक् प्रज्ञानं ज्ञानं यस्य स तथाविधो मृगः 'विसमंतेण' विपमान्तेन = कूटपाशादिना 'उवागए' उपागतः । अथवा 'विसमंते' विपमान्ते कूटपाशादिके 'अणुवायए' अनुपातयेत् स्वात्मानम् 'स' स मृगः 'पयपासेणं' पदपाशेन जालेन 'बद्धे' बद्धः सन् तादृशबन्धने 'तत्थ 'तत्र पदपाशकटपाशादि के 'घार्य' घातं = मृत्युं 'नियच्छ' नियच्छति = प्राप्नोति । विवेकविलाऽपहतमनाः स पाशमनुपतन् विनश्यति, न ततस्त्राणं भवति कदाचिदपि मृगस्येति भावः ॥ ९ ॥ - अन्वयार्थ अपने हित को भी न जानने वाला तथा अहितकर बुद्धि वाला अर्थात् सम्यग्ज्ञान से रहित वह मृग विषम प्रदेश अर्थात् कूटपाश को प्राप्त होकर उससे बद्ध हो जाता है और वहीं घात को प्राप्त हो जाता है- वह उस पाश से निकल नहीं पाता है ||९|| - टीकार्थ अपने हित को भी नहीं जानता हुआ तथा अहितकारी (असमीचीन) ज्ञान बाला मृग कूटपाश आदि को प्राप्त करके अपने आपको उसी में गिरा અન્વયા પેાતાના હિતને નહી સમજનારૂ તથા પોતાનું જ અહિતકરાવનારી બુદ્ધિવાળુ એટલે કે સમ્યજ્ઞાનથી રહિત એવું તે મૃગ વિષમ પ્રદેશમાં ( ફૂટપાશમાં - તળમાં) આવી પડીને તેમાં બંધાઇ, ફસાઇ જાય છે. તેમાંથી તે નીકળી શકતુ નથી, તે કારણે તેને માટે મરણને लेटवानी प्रसंग उपस्थित थाय छे ॥ ७ ॥ - टीअर्थ - For Private And Personal Use Only તે મૃગ એટલુ’ પણ જાણતુ નથી કે પેતાનુ હિત શેમાં છે? આવા અહિતકર (પેાતાનું જ અકલ્યાણ કરનારા ) જ્ઞાનવાળુ તે મૃગ જાળને જ હિતકારી સમજીને તેમાં જઇ પડે છે. Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ ३ समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्र. अ. १ उ. २ असम्पज्ञानफलनिरूपणम् २८७ पूर्वोक्तगाथात्रयेण दृष्टान्तं प्रदय दार्टान्तिकेऽपि असम्यग् ज्ञानस्य फलं दर्शयितुमाह-'एवं तु समणा' इत्यादि । __मूलम्एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्ठी अणारिया। असंकियाई संकंति, संकियाइं असंकिणा ॥१०॥ ___ छायाएवं तु श्रमणा एके मिथ्यादृष्टयोऽनार्याः । अशङ्कितानि शङ्कन्ते शङ्कितानि अशङ्किनः ॥ १० ॥ अन्वयार्थः(एवं तु) एवं तु-अनेन प्रकारेण (एगे) एके केचन (मिच्छदिट्ठी) मिथ्या दृष्टयः अतएव (अणारिया) अनार्याः-हेयधर्मादूरीभूता आर्याः न आर्या अनार्याः लेता है फसा लेता है । वह ऐसे पाश जाल में बद्ध होकर मृत्यु को प्राप्त होता है । किसी प्रकार भी उसकी रक्षा नहीं होती है ॥९॥ पूर्वोक्त तीन गाथाओं में दृष्टन्त दिखलाकर दान्तिक में भी मिथ्या ज्ञान का फल दिखलाते हैं-'एवं तु समगा' इत्यादि । ___शब्दार्थ-‘एवं तु-एवं तु' इसीप्रकार 'एगे-एके' कोई मिच्छदिट्टीमिथ्यादृष्टयः मिथ्याइष्टि वाले 'अणारिया-अनार्याः' अनार्य 'समणा-श्रमणाः' श्रमण 'अतंकियाई-अशङ्कितानि' शंका रहित ऐसे अनुष्ठानों में 'संकंति-शङ्कन्ते' शंका करते हैं तथा 'संकियाई शङ्कितानि शंका करने योग्य अनुष्ठानों में 'असंकिणोअशकिनः' शंका नहीं करते हैं ॥१०॥ તે બિચારું અજ્ઞાની મૃગ જાળના પાશમાં એવું તે સપડાઈ જાય છે કે તેમાંથી મુક્ત થઈ શકતું નથી આ પ્રકારે જાળમાં બધૂન દશાયુક્ત બનેલું તે મૃગ આખરે મૃત્યુ पामे छे. 11611 પૂર્વોક્ત ત્રણ ગાથામાં દૃષ્ટાન્ત પ્રકટ કરવામાં આવ્યું. હવે સૂત્રકાર દાર્જીન્તિકમાં ५ भयाज्ञान ५०० मताचे छ. “एवं तु समगा" त्या शहा---'एवं तु-एवं तु' के प्रमाणे 'एगे-एके 'मिच्छदिट्ठी मिथ्यादयः' भिथ्याष्टियाणा 'अगारिया-अनार्याः' मनायः 'समणा-श्रमणाः' श्रम 'अस कियाई-अशङ्कितानि ॥४॥ विनाना मेवा अनुष्ठानोमा 'सकाति--शङ्कने' ' ४२ छे. तथा 'संकियाई-शङ्कितानि ॥७॥ ४२वा वा मनुष्ठानोमा 'असकिणो-अशङ्किनः' ।। કરતા નથી તેના For Private And Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २८८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे हेयधर्मप्रसक्ताः ( समणा ) श्रमण : = साध्वाभासाः (असंकियाई) अशङ्कितानि - मोक्ष प्रापणे शङ्कारहितानि अनुष्ठानानि ( संकियाई) शङ्कितानि 'अनेन मोक्षप्राप्ति भवति न वा 'इत्येवं शङ्कायुक्तानि अनुष्ठानानि प्रति (असंकिणी) अशङ्किनःशङ्कावर्जिताः, शङ्कारहितं वस्तु साशङ्ककतया पश्यन्ति, शङ्कायुक्तं च अशङ्कितं यथा भवेत् तथा पश्यन्ति । मिथ्यामतिमोहितत्वात् || १० || टीका Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ' एवं तु' एवंतु = अत्र तु शब्दोऽवधारणार्थः, यथा मृगा अज्ञानावृताः अनेक शोऽनर्थजालमाविशन्ति । एवमेव तथैव 'एगे' एके = केचन, न तु सर्वे 'समणा' श्रमणाः - साध्वाभासाः पाखण्डिनः । किंभूतास्ते श्रमणास्तत्राह - 'मिच्छद्दिट्टी' -अन्वयार्थ इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि अनार्य - हेय कार्यों में आसक्त श्रमण साध्वाभास साधुवेषधारी 'असंकियाई' शाक्यादि मोक्ष प्राप्त कराने में असंदिग्ध अनुष्ठानों में शंका करते हैं और जो शंका करने योग्य अनुष्ठान हैं उनके प्रति शंका नहीं करते हैं । आशय यह है कि मिथ्यादृष्टि होने के कारण जिन अनुष्ठानों में शंका नहीं करनी चाहिए उनमें शंका करते हैं और जिनमें शंका करनी चाहिए उनमें निःशंक होकर प्रवृत्ति करते हैं ||१०|| - टीका'एवं तु' यहां 'तु' शब्द अवधारण के अर्थ है । जैसे अज्ञान से घिरे हुए मृग अनेक अनर्थों को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार कोई कोई श्रमण साध्वाभास पाखण्डी जो मिथ्या अर्थात विपरीत दृष्टि वाले हैं और अनार्य -- અન્વયાથ એજ પ્રમાણે મિથ્યાદષ્ટિ અનાયાં હેય કાર્યોમાં આસક્ત સાધુ વેષધારી શાકયાદિ શ્રમણા પણ મોક્ષ પ્રાપ્ત કરાવનારા અસંદિગ્ધ અનુષ્ઠાના પ્રત્યે શક્તિ રહે છે, અને શંકા કરવા યોગ્ય અનુષ્ઠાનો પ્રત્યે નિ: શક રહે છે.આ કથનનું તાત્પ એ છે કે મિથ્યાષ્ટિ જીવા (માણસા ) જે અનુષ્ઠાનો કરવા યોગ્ય છે, તે અનુષ્કાના પ્રત્યે શંકા ભાવ રાખીને એવાં અનુષ્ઠાનોનું સેવન કરતા નથી, પરન્તુ જે અનુષ્ઠાનો પ્રત્યે શકાભાવ રાખવા જેવા હોય छे, भेष्ट अनुष्ठानो भयर उश्वामां प्रवृत्त थता होय छे, ॥ १० ॥ - टीअर्थ - “એવ’તુ” અહીં ” તુ” પદ અવધારણના અર્થમાં પ્રયુકત થયુ' છે જેવી રીતે અજ્ઞાનથી ઘેરાયેલું મૃગ અનેક આફતાને નાતરે છે, એજ પ્રમાણે કોઇ કોઇ સાધુવેષધારી, પાખંડી, મિથ્યા-ષ્ટિવાળા, અને અનાર્ય શ્રમણા પણ વારંવાર અનથ કારી દશાની પ્રાપ્તિ કહે છે; For Private And Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र.शु. अ. १ उ. २ असम्यक्ज्ञानफलनिरूपणम् २१ मिथ्यादृष्टयः मिथ्या विपरीता अतस्मिन् तत्प्रकारिका दृष्टि बुद्धि विद्यते येषां ते मिथ्यादृष्टयः । पुनश्च 'अणारिया अनार्याः-आरात् दूरं सर्वेभ्यो हेयधर्मेभ्यो ये ते इत्यार्याः न आर्याः अनार्याः प्रज्ञानान्धकारे मजन्तः अशास्त्रविहित कर्मकारिणः सन्ति। अज्ञानतमसि कथं तेषां निम जनमिति सूत्रकारःस्वयमेव दर्शयति-'असंकियाई' इत्यादि, 'असंकियाई अशङ्कितानि शङ्कारहितानि सर्वज्ञशास्त्रप्रतिपादितानि सम्यग् ज्ञानादीनि 'संकंति' शङ्क-ते साशकतया पश्यन्ति, 'संकियाई मङ्कितानि शङ्कायुक्तानिच अनुष्ठानानि एकान्तवादाश्रितानि प्रति 'असंकिणो' अशङ्किनः शङ्का रहिताः सन्ति तानि शङ्कारहिततया पश्यन्तीत्यर्थः । यथा स्जतत्वाऽभाववति शुक्तिकादौ रजतत्वप्रकारकं ज्ञानं न यथार्थ, तथा शङ्कायुक्त-अशङ्कितत्वबुद्धिः अशङ्कायुक्ते शङ्कितत्वबुद्धिमिथ्याबुद्धिरेव । तथा च मिथ्याबुद्धिमाहात्म्यात् हैं जो समस्त त्याज्य कार्यों से दूर रहते हैं वे आर्य कहलाते हैं और जो आर्य न हो वे अनार्य हैं अर्थात् अज्ञान के अन्धकार में डूबे हुए और शास्त्र में विधान नहीं किये गये कर्म करने वाले हैं। वे कैसे अज्ञानान्धकार में डूबे हैं, यह स्वयं सूत्रकार दिखलाते हैं-शंका से रहित सर्वज्ञप्रणीत शास्त्र में प्रतिपादित सम्यग्ज्ञान आदि को शंका की दृष्टि से देखते हैं, और एकान्तवाद पर आश्रित शंकायुक्त अनुष्ठानों पर शंका नहीं करते हैं । जैसे जो रजत (चांदी) नहीं हैं ऐसी सीप आदि को रजत समझ लेना यथार्थ ज्ञान नहीं है, उसी प्रकार जो शंकनीय नहीं है उस पर शंकामय बुद्धि रखना और जो शंकनीय है उसे अंशकनीय मानना भी मिथ्याज्ञान ही है। इस प्रकार मिथ्या ज्ञान के माहात्म्य से कोई कोई श्रमण विपरीत देखते हुए मृगों के समान તે લોકમાં સમ્યગ જ્ઞાનનો અભાવ હોવાથી તેમને મિથ્યાષ્ટિ કહ્યા છે. જે લેકે સમસ્ત ત્યાજયકર્મોથી દૂર રહે છે, તેમને આર્ય કહે છે. પરંતુ અજ્ઞાન રૂપી અંધકારમાં ડૂબેલાં, અને શાસ્ત્રમાં જેને નિષેધ કરવામાં આવ્યા હોય તેવા કાર્યો કરનારા લેકેને અનાર્ય કહે છે. તેઓ કેવા અજ્ઞાનાન્ધકારમાં ડૂબેલા છે, તે સૂત્રકાર પોતે જ હવે પ્રકટ કરે છે –તેઓ સર્વરપ્રણીત શાસ્ત્રો પ્રત્યે શંકાની નજરે જુવે છે. સર્વજ્ઞ પ્રણીત શાસ્ત્રોમાં શંકા રાખવા જેવું કશું નથી, છતાં પણ તે શસ્ત્રોમાં પ્રતિપાદિત સમ્યગૃજ્ઞાન આદિપ્રત્યે તેઓ શંકા ભાવ સેવે છે. જે શાસ્ત્રો પ્રત્યે શંકાભાવ રાખવા જેવો છે. તે શાસ્ત્રી પ્રત્યે શંકાભાવ રાખવાને બદલે શ્રદ્ધાભાવ રાખે છે. એટલે કે એકાંતવાદ દ્વારા પ્રતિપાદિત અનુષ્ઠાન પ્રત્યે શંકા. રાખવાને બદલે શ્રદ્ધા રાખે છે. જેમ છીપ આદિને રજત(ચંદી) માનવી, તેને યથાર્થ જ્ઞાન કહી શકાય નહીં, એજ પ્રમાણે જે શંકનીય છે તેવા પ્રત્યે નિઃશંકભાવ રાખે અને જે શંકાનીય નથી તેના પ્રત્યે શંકાભાવ રખે, તેને સમ્યકજ્ઞાન કહી શકાય નહીં તેને મિથ્યાજ્ઞાન જ सू. ३७ For Private And Personal Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे बिपरीतं पश्यन्तो मृगा इवाऽनेकशोऽनर्थजातमेव प्रामुन्ति केचन श्रमणाः सर्वज्ञ शास्त्रेऽविश्वासस्य मिथ्याशास्त्रेऽन्धविश्वासस्य च फलमेतदिति भावः ॥१०॥ शङ्किताऽशङ्कितधर्मयोः परस्परं पार्थक्यं दर्शयति सूत्रकारः-धम्म' इत्यादि। धम्मपण्णवणा जो सा तं तु शंकंति मूढगा । आरंभाई न संकंति, अवियत्ता अकोविया ॥११॥ छायाधर्मप्रज्ञापना या सा, तां तु शङ्कन्ते मूढकाः । आरम्भं नैव शङ्कन्ते अव्यक्ता अकोविदाः ॥११॥ अन्वयार्थ:(जा सा) या सा (धम्मपण्णवणा) धर्मप्रज्ञापना-धर्मस्य क्षान्त्यादिदशविधस्य प्रज्ञापना-अरूपणा धर्मप्रज्ञापनाऽस्ति (तं तु) तां तु धर्मप्रज्ञापनाम् ( संकंति ) वार वार अनर्थों को ही प्राप्त होते हैं सर्वज्ञ प्रणीत शास्त्र पर अविश्वास और मिथ्याशास्त्रों पर अन्धविश्वास करने का ही यह फल है ॥१०॥ । अब सूत्रकार शंकित धर्म और अशंकित धर्म की भिन्नता दिखलाते हैं --'धम्म' इत्यादि । शब्दार्थ-'जा सा-या सा' जो वह 'धम्मपण्णवणा-धर्मप्रज्ञापना' धर्मकी प्रज्ञापना याने प्ररूपणा है 'तं तु-तां तु' उसमें तो 'संकंति-शङ्कन्ते' शंका करते हैं 'मूढगा-मूढका' अतीव मूर्ख 'अवियत्ता-अव्यक्ताः' विवेकरहित 'अकोविया-अकोविदाः' सच्छास्त्रके ज्ञानसे रहित आरंभाई-आरम्भान्' आरंभोंमें 'न संकंति-न शङ्कन्ते' शंका नहीं करते हैं ॥११॥ કહૈવાય. એ પ્રકારેનાં મિથ્યાજ્ઞાનને પરિણામે કઈ કઈ શ્રમણ આદિ, વિપરીત ભાવસંપન્ન પૂર્વોક્ત મુગની જેમ, વારં વાર આ સંસારમાં પરિભ્રમણ કરવારૂપ અનર્થને પ્રાપ્ત કરે છે સર્વ પ્રણીત શાસ્ત્ર પ્રત્યે અવિશ્વાસ અને મિથ્યાશાસ્ત્રો પ્રત્યે વિશ્વાસ રાખવાનું એવું જ ફળ મળે છે. ૧૦ હવે સૂત્રકાર શક્તિધર્મ અને અશક્તિ ધર્મને ભેદ સમજાવે છેધર્મ ઈત્યાદિ शहाथ-'जा सा-या सा' को 'धम्मपण्णवणा-धर्म प्रज्ञापना' भनी प्रज्ञापना याने ५३५४ 'ततु-तां तु तेमांत 'सकंति-शङ्कन्ते ॥४॥ ४२ छ. 'मूढगा--मूढकाः' अत्यंत भूम प्रवियत्ता-अव्यक्ताः' विवे पिनाना 'अकोविया-अकोविदा' सछा ना जानविनाना 'आरंभारम्भान्ह --अ' मा ममा 'न संकति-न शङ्कन्ते ॥ ४२ता नथी ॥११॥ For Private And Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समर्थबोध टोका प्र. अ. १. उ. २ शङ्किताशाङ्कितधर्म योः पार्थक्यम् २९१ शङ्कन्ते - असद्धार्मप्ररूपणेति शङ्काचा पश्यन्ति । के इत्थंभूताः तत्राह - ( मूढगा ) मूढका : अतिशयेन मूर्खा: । ( अवियत्ता) अव्यक्ताः = स्वाभाविक विवेकविकला : ( अकोविया) अकोविदाः- अपण्डिताः सच्छास्त्रजनितज्ञानविकलाः । ( आरंभाई) आरम्भान् = षट्कायोपमर्दनरूपान् (न संकंति ) न शङ्कन्ते तत्र शकां न कुर्वन्तीत्यर्थः । या सर्वतो विशुद्धा सर्वदोषरहिता च वीतरागधर्मप्ररूपणा, तां तु शङ्कते । या च हिंसा बहुला यागादिरूपा क्रिया तां न शन्ते इति महाश्चर्यमिति भावः ॥ ११ ॥ टीका - अन्वयार्थगम्या ॥ ११ ॥ अज्ञानावृताः पुमांसो यान् पदार्थान् नाप्नुवन्ति तान् पदार्थान् सूत्रकारो दर्शयति- 'सव्वगं 'इत्यादि ----अन्वयार्थ --- यह जो धर्मप्रज्ञापना है अर्थात् क्षमा आदि दसप्रकार के धर्मों की प्ररूपणा है उसे वे असद्धर्म प्ररूपणा की दृष्टि से देखते हैं उसमें अधर्म की आशंका करते हैं । ऐसा करने वाले कौन हैं ? जो अत्यन्त मूढ ( अज्ञानी) हैं स्वाभाविक विवेक से विकल हैं और 'अकोविया' समीचीन शास्त्रों से उत्पन्न होने वाले बोध से भी रहित हैं, वे पटुकाय के उपमर्दनरूप आरंभ में शका नहीं करते हैं और जो पूर्णरूप से शुद्ध और समस्त दोषों से रहित वीतराग की धर्मप्ररूपणा है, उसमें शंका करते हैं। हिंसा की बहुलता वाली जो यज्ञ आदि क्रियाएँ हैं उनके विषय में शंका नहीं करते। यह महान् आश्चर्य की बात है ॥ ११ ॥ अन्वयार्थ से ही टीका समज लेना चाहिए || ११ ॥ અન્વયા --જે આ ધ પ્રજ્ઞાપના છે, એટલેકે ક્ષમા આદિ દસ પ્રકારના ધર્માની પ્રરૂપણા છે' તેને તે અસદ્ધ'ની પ્રરૂણાનીષ્ટિએ દેખે છે. તેમાં અધર્મની આશકા કરે છે. એવુ' કણ કરે છે? તેના જવાથ્ય આ પ્રમાણે છે–જે અત્યન્ત મૂઢ(અજ્ઞાની) છે, જેએ સ્વાભાવિક વિવેકથી પણ વિહીન છે. અને યથા શાસ્ત્રોમાંથી પ્રાપ્ત થનારા ધની પણ જેમણે પ્રાપ્તિ કરી નથી, એવા તે લોકો કાયના જીવાના ઉપમન રૂપ આર ંભમાં શ’કા કરતા નથી, પરન્તુ સંપૂર્ણ શુદ્ધ અને સમસ્ત દોષોથી રહિત વીતરાગની જે ધમ પ્રરૂપણા છે, તેના પ્રત્યે તે શંકાની દ્રષ્ટિએ જોવે છે, પરન્તુ હિંસાની જેમા અધિક્તા હોય છે એવી યજ્ઞાદિ ક્રિયાઓ પ્રત્યે તેઓ શ'કાની નજરે જોતાં નથી, એ પણ કેટલુ આશ્ચય જનક છે?૫૧૧૫ અન્વયા સરળ હોવાથી વધુ વિવેચન કરવાની જરૂર નથી ॥૧૧॥ For Private And Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे मूलम् सव्वष्पगं विउकसं, सव्वं मं विहूणिया अप्पत्तियं अकम्मसे, एयम, मिगे चए ॥१२॥ छाया सर्वात्मकं व्युत्कर्ष, सर्वा मायां विधूय । अप्रत्ययिकमकमीशः एतमर्थ मृगस्त्यजेत् ॥१२॥ सान्वयार्थटीका-'सव्वप्पगं' सर्वात्मकं सर्वत्र आत्मस्वरूपं यस्य स सर्वा त्मका सर्वान्तःकरणवर्ती लोभः, तम् । 'विउकसं' व्युत्कर्ष विविधः उत्कर्षः गर्यो व्युत्कर्षः मानःतम् तथा 'शूम' इति मायाम् । अप्पत्तियं' अप्रत्ययिकम् अज्ञानी पुरुष जिन पदार्थों को प्राप्त नहीं कर पाते हैं, सूत्रकार उन्हे दिखलाते है “सबप्पगं" इत्यादि । शब्दार्थ-'सब्बप्पगं-सर्वात्मकं' सर्वात्मक लोभ को 'विउक्कसं--व्युत्कर्ष' अनेक प्रकारके उत्कृषरूप-मानको तथा “गुम-माया मायाको 'अप्पत्तियंअप्रत्ययिकम्' क्रोधको 'विहूणिया-विध्य' त्यागकर ‘अकम्मंसे-अकमांशः' जीव कमांश रहित होताहै 'एयम-एतमर्थ' इस अर्थको ‘मिगे मृगः' मृगके समान अज्ञानी जीव 'चए-त्यजेत्' त्यागदेता है ॥१२॥ હવે સૂત્રકાર એ પ્રકટ કરે છે કે અજ્ઞાની પુરુષો ક્યા ક્યા પદાર્થોની પ્રાપ્તિ કરી शता नथी- "सम्वप्पग” त्या शा-'सध्यप्पग--सर्वात्मक' सात्मवालानो विउक्कन-व्युत्कप' भने माना ७५३५-मानने तथा ‘णूम-माया मायाने 'अप्पत्तिय --प्रत्यायकम् धनो 'विहूणिया-विधूय त्या परीने 'अकम्म से- अकर्मा शः' ७१ ४२० २हित थाय छे. 'एयम--एतमर्थ' मा म ने। 'मिगे-मृगः' भूगता ! २मज्ञानी ०५ 'चए-त्यजेत्' त्याग ४२ . ॥१२॥ - अन्वयार्थ मने टी - સના અન્તઃકરણમાં જેને વાસ હોય છે, એવા ક્રોધને સર્વાત્મક કહે છે. વ્યુહર્ષ એટલે भान. भ' मेटलो माया, आने "२५ पत्तिय" भेटवे ।५. माध,मान, माया अने' सोमयी For Private And Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समपार्थ योधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. २ अशानिपुसां अप्राप्य पदार्थनिरूपणम् २९३ क्रोधम्' लोमानमायाक्रोधान् ‘विहूणिया 'विधूय-परित्यज्य । लोभादयो हि कषायाः, एतेषां परित्यागेन मोहनीयकर्मणः परित्यागो हि प्रतिपादितो भवति । मोहनीयकर्मणः परित्यागेन च सकलकर्मणां परित्यागः प्रतिपादितो भवति । उक्तंच "जह. मत्थयमईए, हयाए हम्मए तलो । तह कम्माणि हम्मंति, मोहणिज खयं गए ।। ९ ॥ छाया--यथा मस्तके सूच्या हतायां हन्यते तलः । तथा कर्माणि हन्यन्ते, मोहनीये क्षयं गते ॥ ९ ॥ इति ।। तेन जीवः 'अकम्मसे' इति अकर्मांश:---- न विद्यते कर्मणाम् अंशः यस्य सअकमांशः कमरहितो भवति । कर्मणां विनाशश्च सम्यग् ज्ञानात् जायते, न तु मिथ्याज्ञानात् । एतदेव दर्शयति--'एयम एतमर्थ कमीशाऽभावस्वरूपम् ‘मिए' ___ अन्वयार्थ और टीका सभी के अन्तःकरण में जिसका वास है, ऐसे लोभ को सर्वात्मक कहते हैं । व्युत्कर्ष का अर्थ मान है राम अर्थात् माया और अप्पत्तियं का मतलब है क्रोध । इस प्रकार लोभ, मान, माया और क्रोध से सम्पूर्ण मोहनीय कर्मका ग्रहण हो जाता है और मोहनीय कर्म से समस्त कर्मों का ग्रहण समझ लेना चाहिये । इस प्रकार लोभादि कषायों के त्याग से समस्त लोहनीय कर्म का त्याग समजना चाहिये मोहनीय कर्म के त्याग से सभी कर्मों के त्याग कों समजना चाहिए । कहा भी है "जह मत्थयाईए" इत्यादि । जैसे ताडवृक्ष के मस्तक में सूई का आघात होने पर तालवृक्ष सूख जाता है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म का क्षय होने पर समस्त कर्मों का घात हो जाता है ॥१॥ कों के क्षय से जीव 'अकर्मा' कर्मों से रहित हो जाता है। कर्मों का क्षय सम्यग्ज्ञान से होता है, मिथ्याज्ञान से नहीं । अज्ञानी जीव इस अर्थ को त्याग देता है अर्थात् कर्मक्षय रूप अर्थ से भ्रष्ट हो जाता है । સંપૂર્ણ મોહનીય કર્મનું ગ્રહણ થઈ જાય છે, અને મેહનીય કર્મ વડે સમસ્ત કર્મોનું ગ્રહણ થાય છે, એમ સમજવું, અને હનીય કર્મના ત્યાગથી સમરત કર્મોનો ત્યાગ સમજ ये धुं पर छे "जह मत्थयसूईए” त्या । જેવી રીતે તાડવૃક્ષના મસ્તક (ટોચ પર સેય ભેંકી દેવાથી તાડવૃક્ષ સૂકાઈ જાય છે, એજ પ્રમાણે મેહનીય કમેને ક્ષય થઈ જવાથી સમસ્ત કને ક્ષય થઈ જાય છે ||૧n, કર્મોને ક્ષય થઈ જવાથી જીવ’ અકસ્મ” (કર્મોથી રહિત) થઈ જાય છે. કર્મોને ક્ષય સમ્ય જ્ઞાનથી જ થાય છે, મિથ્યાશાનથી થતું નથી. અાની જીવ આ પદાર્થને ત્યાગ કરે છે For Private And Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मृगः मृग इव मृगोऽज्ञानी जीवः 'चए' त्यजेत् परिजह्यात् । एतस्मादर्थात् अज्ञानी जीवः परिभ्रष्टो भवतीति । अज्ञानी जीवः एतमर्थ कमीशाऽभावलक्षणम् अर्थ परित्यजति । एतावता ज्ञानाभावेन जीवः स्वमार्गात् मोक्षलक्षणात् परिभ्रश्यन् संसारलक्षणाम्अधोगतिमेव पुनः पुनरामोतीति ॥ १२ ॥ पुनरपि--अज्ञानवतां दोषमावेदयति सूत्रकारः-'जे एय इत्यादि । मूलम्जे एयं नाभिजाणंति मिच्छदिट्ठी अणारिया । मिगावा पासबद्धा ते घायमेसति गंतसो ॥ १३ ॥ छायाये एतन्नाऽभिजानन्ति मिथ्यादृष्टयोऽनार्याः । मृगां इव पाशवद्धास्ते घातमेष्यन्यनन्तशः ॥ १३ ॥ परिणाम यह होता है कि सम्यग्ज्ञान के अभाव से जीव मोक्षमार्ग से च्युत होकर चतुर्गति संसार स्वरूप अधोगति को वार बार प्राप्त होता है ॥१२॥ सूत्रकार पुनः अज्ञानियों को होने वाले दोष प्रकट करते हैं -"जे एय इत्यादि । शब्दार्थ-'जो मिच्छदिहि-ये मिथ्यादृष्टयः' जो मिथ्यादृष्टि 'अणारियाअनार्याः' अनार्य पुरुष 'एयं-एतम्' इस अर्थको 'नाभिजाणंति-नैव जानन्ति' नहीं जानते हैं 'ते-ते' वे लोग 'पासबद्धा- पाशपाशिताः' पाशमे बद्ध 'मिगा व-मृगाइव' मृगके समान ‘णतसो-अनंतशः' अनन्तवार 'घायं-घात' विनाशको 'एसंति-एष्यन्ति, प्राप्तकरेंगे ॥१३॥ એટલે કે કર્મક્ષય રૂપ અર્થથી ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે કર્મક્ષય કરી શક્યું નથી. સમ્યગ જ્ઞાનના અભાવને કારણે જીવ મોક્ષના માર્ગ પર પ્રયાણ કરવાને બદલે તે માર્ગની બહાર જ રહે છે એટલે કે ચાર ગતિવાળા સંસાર રૂપ અધોગતિમાં જ વારંવાર ભ્રમણ કર્યા કરે છે. ૧૨ सूत्र॥२ वे से वात प्र४८ ४३ छ । अज्ञानी याने शुनु४सान थाय छ “जे एय" ઈત્યાદિ २०४ाय जो मिच्छद्दिट्ठी-ये मिथ्यादृष्टयः' रे भिश्यावृष्टि पायो 'अणारिया - -अनार्याः' मना पु३षो 'एयम्-एतम्' या अर्थाने 'नाभिजाणति-नैव जानन्ति' नाता नथी. 'ते-ते से सो पासबद्धा-पाशपाशिताः' पाशमा येसा 'मिगाव-मृगाइव' भृगनी म ‘णतसो-अनंतशः' मनतवार 'घाय-घातम्' विनाशने 'एसतिएष्यन्ति' प्राप्त ४२शे. ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनो टोका प्र. शु. अ. १ उ. अशानिनां दोषनिरूपणम् २९५ अन्वयार्थ:-- (जे मिच्छदिट्टी) ये मिथ्यादृष्टयः, मिथ्या-विपरीता दृष्टि:-दर्शनं येषां ते मिथ्यादृष्टयः (अणारिया) अनार्याः-- शास्त्रविहितकर्मणः सकाशात् अतिदरतांगताः प्रवचनबाह्या इत्यर्थः (एयं) एतम् अर्थ (नाभिजाणंति) नैव जानन्ति । (ते ते मिथ्यादृष्टयादयः (पासवद्धा) पाशपाशिताः (मिगा वा) मृगाइव, (गंतसो) अनन्तशः, अनन्तवारम् (घाय) घातं-विनाशम् (एसंति) एप्यन्ति-प्रामुवन्ति विनष्टा भवन्तीत्यर्थः ॥ १३ ॥ -टीकाटीका भावगम्या, भावश्चायम्-यथा पाशवद्धा मृगा अनेकशःताडनमारणादिकमनिष्टमनुभवन्ति, तथाऽज्ञानपाशपरिवृतास्तादृशा जीवा अपि मुहर्मुहुः संसारे जन्ममरणादिकमेव प्रामुवन्ति । मिथ्यात्वग्रहग्रस्ताः कुशास्त्रविहितकर्मणामाचरणेन नरकनिगोदादिप्रधानकं संसारमेवाऽऽविशन्ति, न ततः कदाचिदपि तेषां त्राणं भवतीत्यज्ञानिनामयं दोषः ॥१३॥ अन्वयार्थ जो मिथ्यादष्टि और शास्त्रविहित अनुष्ठान से अत्यन्त दूर रहने वाले अर्थात् आहत प्रवचन से बाह्य पुरुष इस बात को न जानते वे जाल में फसे मृगे के जैसे अनन्तवार घात को प्राप्त होते हैं ॥१३॥ -टीकाअभिप्राय यह है कि जैसे बन्धन में पड़े हुए मृग अनेक प्रकार के ताङन मारण आदि अनिष्टों को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार अज्ञान के बन्धन में पडे हुए अज्ञानी जीव भी बार बार जन्ममरण को प्राप्त होते हैं । जिनको मिथ्यात्व रूपी ग्रह ने ग्रस्त कर रक्खा है वे मिथ्याशास्त्रों में विधान - अन्वयार्थ - જે મિથ્યાષ્ટિ અને શાસ્ત્રોકત અનુષ્ઠાનોથી અત્યન્ત દૂર રહેનારા એટલે કે આઈપ્રવચ નથી દૂર રહેનારા (જિન પ્રરૂપિત ધર્મનું શરણ નહીં લેનારા) પુરુષો આ વાત સમજતા નથી તેઓ જાળમાં ફસાયેલા મૃગની જેમ વારં વાર અનિષ્ટની પ્રાપ્તિ કર્યા કરે છે ૧૩ -टीજેવી રીતે જાળમાં પડેલું હરણ અનેક પ્રકારના તાડન, મારણ આદિ રૂપ અપત્તિઓ સહન કરે છે, એ જ પ્રમાણે અજ્ઞાનના બન્શનમાં પડેલા અજ્ઞાની જીવે પણ વારંવાર જન્મ, જરા, મરણ અદિ આપત્તિઓને અનુભવ કરતા રહે છે. જેમને મિથ્યાત્વ રૂપી ગ્રહ ગ્રસ્ત કરી લીધા છે, એવા તે છ મિથ્યા શાસ્ત્રી દ્વારા જેમનું પ્રતિપાદન કરાયું છે એવાં For Private And Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २९६ www.kobatirth.org इत्यादि -- सूत्रकृताङ्गसूत्रे इतःपरमज्ञानवादिनां मतं निरसितुं तेषां मतानि दर्शयति- 'माहणा ' मूलम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ર ३ ४ ६ माहणा समणो एगे, सब्वे नाणं सर्व वए। ८ ९ १० १ ११ १३ १२ सव्वलोगे वि जे पाणा न ते जाणंति किंचण ॥ १४ ॥ -छाया ब्राह्मणाः श्रमणा के सर्वे ज्ञानं स्वकं वदन्ति । सर्वलोकेऽपि ये प्राणा, न ते जानन्ति किञ्चन || १४ || — अन्वयार्थ ( एगे ) एके ' माणा ' ब्राह्मणा: ( समण ) श्रमणाः - शाक्यादयः (सव्वे ) सर्वेऽपि सयं स्वकीयम् (नाणं) ज्ञानम् (वयंति) वदन्ति = ज्ञानप्रतिपादनं 4 किये हुए कर्मों का आचरण करके नरकनिगोद आदि दुर्गतियों मे ही प्रवेश करते हैं। उनका उन दुर्गतियों से त्राण (रक्षण) नहीं हो सकता । यह अज्ञानियों का दोष है ॥ १३ ॥ इसके पश्चात् अज्ञानवादियों के मतका निराकरण करने के लिए उनका मत प्रदर्शित करते हैं " महणा" इत्यादि । शब्दार्थ - 'एगे - एके' कोई 'माहणा - ब्राह्मणाः' ब्राह्मण 'समणा - श्रमणाः ' श्रमण 'सव्वे सर्वे' सव 'सयं स्वयं' अपना 'नाणं- ज्ञानम्' ज्ञान 'वयंति वदन्ति ' बताते हैं 'तु-तु' परंतु 'सव्वलोगे वि-सर्वस्मिन्नपि लोके, सब लोक मे 'जे पाणाये प्राणिनः' जो प्राणी 'ते-ते' वे 'किंचण किञ्चन' कुछभी 'न जाणंति- न जानन्ति ' नहीं जानते हैं ||१४|| કર્મોનું આચરણ કરીને નરકનગાદ આદિ દુતિમાં જ પ્રવેશ કરે છે તે દુર્ગતિમાંથી તેમનું ત્રાણુ ( રક્ષણ ) થઇ શકતુ નથી અજ્ઞાનીઓને પોતાના દોષને કારણે જ નરક નિગા हना हुःयो वार वार लोणववा पडे छे. ॥ १३ ॥ - હવે અજ્ઞાનવાદીએના મતનું ખંડન કરવા માટે તેમના મતને પ્રકટ કરવામાં અવે छे" " इत्यादि माहणा शब्दार्थ - 'पगे - एके' अ 'माहणा- ब्राह्मणो:' श्राह्मा 'समणा श्रमणाः' श्रम 'सव्वे--स' गधा 'सयं स्वयं' पोतानु' 'नाणं' - ज्ञानम्' ज्ञान 'वयं'ति वदन्ति' मतांचे छे. 'तु तु' परंतु 'सबलोगे वि-सर्वस्मिन्नपि लोके' मघासोउभो 'जे पाणा-ये प्राणिनः प्राणियो छे 'ते ते 'तेथे' किच-किञ्चन ४४६ पासुन जा" ति न जानन्ति नगुता नथी ॥१.४॥ For Private And Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ योधिनी टोका प्र. श्रु अ. १ उ. २ अज्ञानवादिनां मतनिरसनम् २९७ कुर्वन्ति । परन्तु (सव्व लोगे वि) सर्वस्मिन्नपि लोके (जे पाणा) ये प्राणिनः ब्राह्मणादयः (ते) ते (किंचण) किश्चन-किमपि (न जाणंति) न जानन्ति ॥१४॥ टीका स्पष्टा । अयं भावः-सर्वेऽपि ब्राह्मणाः शाक्यादयश्च हेयोपादेयार्थबोधकं ज्ञानं प्ररूपयन्ति स्व स्व शास्त्रे । अनेन रूपेण एतादृशार्थाऽनुष्ठाने कृते सति स्वर्गादिकं भविष्यति, मोक्षश्च भविष्यति परन्तु तेषां नेदं ज्ञानम्, अपि तु अज्ञानमेव । तत्र कारणं परस्परविरूद्धार्थानां प्रतिपादनमेव । परस्परविरुद्धार्थप्रतिपादनात् ज्ञायते न तेषां ज्ञानम् , किन्तु प्रतिपाद्यमानं तत् , अज्ञानमेव ॥१४॥ ___अन्वयार्थ ____ कोई कोई ब्राह्मण और श्रमण सभी अपने अपने ज्ञानका बखान करते हैं, किन्तु सम्पूर्ण लोक में जो प्राणी हैं वे कुछ भी नहीं जानते हैं ॥१४॥ -टोकार्थटीका स्पष्ट है । अभिप्राय यह है कि सभी ब्राह्मण और शाक्य आदि श्रमण हेय उपादेय पदार्थों का बोधक ज्ञान अपने अपने शास्त्र में निरूपण करते हैं कहते हैं इस प्रकार से यह अनुष्ठान करने पर स्वर्ग आदि की प्राप्ति होगी और मोक्ष की प्राप्ति होगी, परन्तु उनका वह ज्ञान ज्ञान नहीं, अज्ञान ही है । इसका कारण यह है कि वे परस्पर विरोधी प्ररूपणा करते है । परस्पर विरुद्ध प्ररूपणा करने से प्रतीत होता है कि उन्हे वास्तविक ज्ञान नहीं है, प्रत्युत वे सब अज्ञान के अन्धकार मे ही भटक रहे हैं ॥१४॥ -मन्वयार्थ - કઈ કઈ બ્રાહ્મણ અને શ્રમણો (બૌદ્ધ સધુઓ) પેત પોતાના જ્ઞાનના વખાણ કરે છે પરન્તુ લેકમાં જે જીવે છે, તેઓ કશું જાણતા નથી. n ૧૪ in - टी સઘળા બ્રાહ્મણ અને શાકયાદિ શમણે ઉપાદેય પદાર્થોનો બધ કરાવનાર જ્ઞાનનું પિત પિતાના શાસ્ત્રમાં નિરૂપણ કરે છે, અને કહે છે કે આ પ્રકારે આ અનુષ્ઠાન કરવાથી સ્વર્ગ આદિની પ્રાપ્તિ થશે. અને મોક્ષની પ્રાપ્તિ થશે. પરંતુ તેમને તે જ્ઞાન યથાર્થ રૂપે તે જ્ઞાન જ નથી, અજ્ઞાન જ છે. તેનું કારણ એ છે કે તેઓ પરસ્પર વિરોધી પ્રરૂપણ કરે છે આ પ્રકારની તેમની પરસ્પર વિરોધી હોય એવી પ્રરૂપણ દ્વારા એવી પ્રતીતિ થાય છે કે તેમ નામાં વાસ્તવિક જ્ઞાનાને અભાવ છે. ખરી રીતે તે તેઓ અજ્ઞાન રૂપી અંધકારમાં જ मटपा २॥ छ ॥ १४॥ सू 36 For Private And Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अथ तन्मतदर्शनाय दृष्टान्तं दर्शयति सूत्रकारः- मिलक्खू' इत्यादि । ___ - मूलम् - मिलक्खू अमिलक्खूस्म, जहा वुत्तागुभासए । ण हेउं से विजाणाइ, भासियं ताणुभासए ॥१५॥ -छाया - म्लेच्छो ऽलेच्छस्य यथोक्तानुभाषकः । न हेतुं स विजानाति, भासितं तदनु भाषते ॥१५॥ -अन्वयार्थ:(जहा) यथा (मिलक्खू ) म्लेच्छः (अमिलक्खुस्स) अम्लेच्छस्य-आर्यपुरुषस्य (वुत्ताणुभासए) उक्तानुभाषकः-उक्तार्थस्याऽनुभाषकः यथा कश्चिदनार्यः आर्यभापितस्याऽनुवादको भवति ‘से' म्लेच्छः 'हेउ' कारणम् । (ण) न= नैव (विजाणाइ) विजानाति किन्तु (भासियं) भापितम् आर्यैर्यद् भापितं (तं) तत् (अणुभासए) अनुभाषते तस्यानुवादमात्रं करोति ॥१५।। अब उनके मत को दिखलाने के लिए सूत्रकार दृष्टान्त का प्रयोग करते है-- मिलक्खू " इत्यादि । शब्दार्थ-'जहा-यथा' जैसे 'मिलक्खू-म्लेच्छः' म्लेच्छ पुरुष 'अमिलक्खूस्सअम्लेच्छस्य' आर्य पुरुषके 'वुत्नाणुभासए-उक्तानुभाषकः' कथनका अनुवादकरते है 'से-सः' वह म्लेच्छ 'हेउ-हेतुं' कारणको 'ण विजाणाइ- न विजानाति' नहीं जानता है 'भासियं-भाषितम्' उसके कथनका 'अणुभासए-अनुभाषते, अनुवादमात्र करता है ॥१५॥ - अन्वयार्थ - जैसे कोई म्लेच्छ आर्य पुरुष के कथन को दोहरा देता है मगर उस कथन के अर्थ को नहीं समझता, सिर्फ आर्य पुरुष के कथन को तोते के जैसा दोहरा देता है ॥१५॥ हवे तेमनी मत मतावाने माटे सूत्र४२ मे दृष्टान्त छ"मिलक” त्यादि शाय-'जहा-यथा' म 'मिलक्खू-म्लेच्छाः' ७५३५ 'अमिलक खुस्त--अम्लेयस्य' मा ५३पना 'बुत्ताणुभासए--रक्तानुभाषकः' ४थनी अनुवाद , 'से-स' त २७ हेउ-हेतु" ॥२५ ने 'ण विजाणाइ-न विजानाति' odyता नथी. 'भासिय-- -भाषितम् तेना ४थन नो 'अणुभासप-अनुभाषते' अनुपा४ ४ ४२ छे. ॥१५॥ -अन्वयार्थ - જેમ કેઈસ્લેચ્છ આર્ય પુરુષનું કઈ કથન સાંભળી જાય છે તેને અર્થ તે ત જાણતા નથી પરન્તુ છતાં પણ તે વારંવાર પોપટની જેમ તે કથનનું ઉચ્ચારણ કર્યા કરે છે. ૧૫ For Private And Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मार्थं बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. २ तन्मतख डने म्लेच्छष्टान्तः दार्शन्तिकश्च २९९ टीका- निगदसिद्धा । अयमभिप्रायः यथा कश्विदनार्यः विशिष्ट स्वमनीषया आर्यस्य कस्यचिद भाषस्याऽनुवादमेव करोति । किन्तु आर्यभाषणस्याऽभिप्रायं वा तादृशभाषणे कारणं वा न कथमपि - ' केनाऽभिप्रायेणायं वदति, केन हेतुना वा वदति इत्यादिकं किमपि नाऽवगच्छति, किन्तु शुकवत् केवलमनुवदत्येवेति ॥१५॥ , पूर्व दृष्टान्तं दर्शयित्वा साम्प्रतं दाष्टन्तिकमाह-' एवमन्नाणिया ' इत्यादि । - मूलम् - २ ६ ३ ४ एव मन्नाणिया नाणं, वयंता विसयं सयं । ५ ६ ९ निच्छयत्थं न जाणंति, मिलक्कुब्व अबोहिया ॥ १६ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ی - - छाया एवमज्ञानिका ज्ञानं वदन्तोऽपि स्वकं स्वकम् । निश्वयार्थं न जानन्ति म्लेच्छा इव अवोधिकाः ॥ १६॥ - — टीकार्थ टीका सरल ही है। आशय यह है कि जैसे अनार्य पुरुष किसी आर्य पुरुष के कथन को सुनकर उसे ज्यों का त्यों बोल देता है, मगर वह यह नहीं समझता कि इस कथन का अभिप्राय क्या है, और किस कारण से यह भाषण किया गया है, वह तो तोते के जैसे उसे मात्र दोहरा देता है ||१५|| दृष्टान्त दिखलाकर अब दान्तिक कहते हैं- "एव मन्नाणिया" इत्यादि । शब्दार्थ - ' एवं - एवम्' इसी प्रकार 'अभाणिया अज्ञानिका:' ज्ञानरहित श्रमण और ब्राह्मण 'सयं - सर्व' स्वकं स्वर्क, अपने अपने 'नाणं' ज्ञानं ज्ञानको - टीअर्थ - અથ સ્પષ્ટ છે. કોઇ મ્લેચ્છ (અનાય )કાઇ આય ને મોઢેથી બેલાયેલા થાડા શબ્દો સાંભળી જાય છે. ત્યાર બાદ તે મ્લેચ્છ તે શબ્દોનું એજ સ્વરૂપે –તેમાં સહેજ પણ ફેરફાર કર્યાં વિના પેાપટની જેમ વારંવાર ઊચ્ચારણ કર્યા કરે છે. તે કથનનો ભાવાર્થ તે જાણતા નથી શા માટે તે આ દ્વારા એવા વચનોનુ ઊચ્ચારણ થયું છે, તે પણ તે જાણતા નથી.તે તે માત્ર પોપટની જેમ તેનું ઉચ્ચારણ કરવાનુ જ શીખ્યા છે. પા ઉપર્યુકત પ્રાન્ત દ્વારા જે વાતનું સૂત્રકાર પ્રતિપાદન કરવા માગે છે, તે વાત हार्शन्तिस्थी हुवे मताववामा अवे छे " एवमन्नाणिया "छत्याहि शब्दार्थ -- ' एवं '--एवम्' से प्रमाणे 'अन्नाणिया अज्ञानिकाः ज्ञान विनाना श्रभभु अने श्राह्म 'सय सयं स्वक स्वक' पोत पोताना 'णा' - ज्ञानम्' ज्ञानने 'वयं' ताषि For Private And Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३०० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे - अन्वयार्थ : ( एवं ) एवम् = उक्त प्रकारेण ( अम्नाणिया) अज्ञानिकाः ज्ञानरहिता ब्रह्मणाः श्रमणाश्च ( सयं सयं) स्वकं स्वकं (नाणं) ज्ञानं ( वयंतावि) वदन्तोऽपि (निच्छयत्थं) निश्चयार्थ ( न जानंति) नैवजानन्ति । कथं न जानन्ति ? इत्याह-(मिलक्खुव) म्लेच्छा इव पूर्वप्रदर्शितम्लेच्छा इव (अवोडिया) अवोधिकाः बोधरहिता सन्ति, अतएव ते निश्रयार्थं न जानन्तीति भावः । यथा म्लेच्छा आर्य पुरुषस्याऽभिप्रायं परमार्थतोऽजानाना एव केवलं- आर्यभाषितमेवानुभाषन्ते तथा सम्यग् - ज्ञानरहिताः केचन ब्राह्मणा श्रमणाच स्वकीयं स्वकीयं ज्ञानं वदन्तोऽपि न निश्चितार्थस्य ज्ञातारः, परस्परविरुद्धार्थप्रतिपादकत्वादिति भावः || १६ || "वयं तावि वदन्तोऽपि' कहते हुये भी 'निच्छयत्थं नियार्थ' निश्चित अर्थको न 'जाणंति न जानन्ति' नहीं जानते हैं 'मिलक्खुच्च - म्लेच्छा इव' पूर्वोक्त म्लेच्छ के तुल्य 'अवोहिया अवोधिकाः बोधशून्य ही है ||१६|| ---अन्वायार्थ--- इसी प्रकार ये अज्ञानी ब्राह्मण और श्रमण अपने अपने ज्ञान का वखान करते हुए भी निश्चित अर्थ को नहीं जानते हैं। क्योंकि ये सव पूर्वोक्त म्लेच्छ के समान अबोडिया, अबोध हैं। जैसे म्लेच्छ आर्य पुरुष के अभिप्राय को वास्तविक रूप से नहीं जानते हुए केवल आर्य पुरुष के भाषण का अनुकरण ही करते हैं समझते कुछ नहीं सिर्फ ज्यों के त्यों शब्द उगल देते हैं, उसी प्रकार ज्ञान हीन ये ब्राह्मण और श्रमण अपने अपने ज्ञान का प्रतिपादन करते हुए भी निश्चित अर्थ के ज्ञाता नहीं है । ज्ञाता होते तो एक दूसरे से विरूद्ध प्ररूपणा क्यों करते ? ||१६|| -दन्तोऽपि वा छतां पशु 'निच्छ्यत्थ- निश्चयार्थ" निश्चित अर्थने 'न जाण ं ति--- जामन्ति' लगुता नथी. 'मिलक्खुध्व- म्लेच्छाइव' पडेला उडेला म्लेच्छोनी भ 'अबोदिन अयोधिकाः' मोध विनाना छे. ॥१६॥ .I -मन्वयार्थ - For Private And Personal Use Only એજ પ્રમાણે અજ્ઞાની બ્રાહ્મણેા અને શાકયાશ્રમણા ખેત પેતાના જ્ઞાનનાં વખાણુ કરવા છતાં પણ નિશ્ચિત અર્થ ચીઅનભિન્ન જ હોયછે, કારણ કે તેઓ પૂર્વકત મ્લેચ્છના જેવા અખાધ છે. જેવી રીતે આ પુરુષના વચનોના ભાવાર્થ નહી સમજવા છતા પણપૂવા કત મ્લેચ્છ તેમણે (આ પુરપે) ઉચ્ચારેલા વચનોનું વારંવાર ઉચ્ચારણ કરતા હતા એજ પ્રમાણે જ્ઞાનહીન આ બ્રાહ્મણા અને શાકયાદિ શ્રમણા તેઓ ધર્મ તત્વના યથાર્થ સ્વરૂપથી અજ્ઞાત જ હે છે. જો તેઓ જ્ઞાતા હોય, તો પરસ્પર વિરેાધી પ્રરૂપણા શા માટે કરત? ૫૧૬૫ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाथ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. २ तन्मतखडजे म्लेच्छहपान्तः दान्तिकश्च ३०१ टीकाऽभिप्राय गम्या, सोऽभिप्रायश्चायम्-तेहि ब्राह्मणाः स्वकीय शास्त्रस्य उपदेष्टारं सर्वज्ञमितिमत्वा तदुपदिष्टाक्रियासु प्रवर्तेरन् किन्तु अयमुपदेष्टा सर्वज्ञ इति अल्पज्ञैः पुरुपै निर्णतुं न शक्येत, नाऽसर्वज्ञःसर्व जानातीति न्यायात् । अन्यत्राऽप्युक्तम् सर्वज्ञोऽसा विति ह्येतत् , तत्तत्काले बुभुत्सुभिः । तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञानरहित आयते कथम् ॥१।। इति । किच परकीय ज्ञानानामप्रत्यक्षत्वाद् उपदेष्टुः पुरुषस्य विवक्षापि नैव ---टीकार्थ--- टीका अभिप्रायगम्य है । वह अभिप्राय यह है वे ब्राह्मण और श्रमण अपने शास्त्र के मूल उपदेशक को सर्वज्ञ मानकर उसके द्वारा उपदिष्ट क्रियाओं में प्रवृति करते हैं परन्तु वह उपदेशक सर्वज्ञ था, इस बात का निर्णय अल्पज्ञ पुरुषों द्वारा किया नहीं जा सकता । जो स्वयं असर्वज्ञ है वह सर्वज्ञ को नहीं जान सकता ऐसा न्याय है । दूसरे स्थल पर कहा है---"सर्वज्ञोऽ सावितिह्येतत्,, इत्यादि । 'जिस काल में तथाकथित सर्वज्ञ था, उस काल में भी अगर कोई उसे सर्वज्ञ के रूपमें जानने की इच्छा करते तो उसके ज्ञान के द्वारा जानने योग्य पदार्थों के ज्ञान से रहित होने के कारण वे उसे सर्वज्ञ के रूप में कैसे जान सकते थे ? अर्थात् जब तक सर्वज्ञ के द्वारा जाने हुए पदार्थों को कोई स्वयं न जान ले तब तक उसे सर्वज्ञ के रूप में नहीं जाना जा सकता । जिसे सर्वज्ञ कहा जाता है वह सभी पदार्थों को जानता है और वास्तविक रूप से जानता है, यह बात अल्पज्ञ मनुष्य नहीं जान सकता । - - ઉપર્યુકત ગાથાનો ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે બ્રાહ્મણો પિતે પિતાનાશાસ્ત્રના મૂળઉપદેશક સર્વને માનીને તેમના દ્વારા ઉપદિષ્ટ ક્રિયાઓમાં પ્રવૃત્તિ કરતા રહે છે. પરંતુ તે ઉપદેશક ખરેખર સર્વજ્ઞ હતા કે નહીં, તેને નિર્ણય અલ્પજ્ઞ પુરુષ દ્વારા કરી શકાતું નથી. જે તે જ અસર્વજ્ઞ હેય, તેના દ્વારા સર્વજ્ઞાને જાણી શકાતા નથી, એ નિયમ છે. કહ્યું પણ છે કે "सवोऽमाविति ह्यततू' त्याहि आणे सर्वज्ञ विद्यमान डाय छे, ते आणे पण જો કે તેમને સર્વજ્ઞ રૂપે જાણવાની ઈચ્છા કરે છે તે પણ તેમને સર્વજ્ઞ રૂપે જાણી શક્યાને સમર્થ થતું નથી, કારણ કે તેનું પિતાનું જ્ઞાન જ એટલું પરિમિત હોય છે, કે પિતાના તે રાન દ્વારા તે સર્વને સર્વજ્ઞ રૂપે જાણી શક્યું નથીએટલે કે જ્યાં સુધી સર્વજ્ઞના દ્વારા જાણવામાં આવેલા પદાર્થને કોઈ વ્યક્તિ પોતે જ જાણી ન લે, ત્યાં સુધી તે વ્યક્તિ તેમને ગર્વજ્ઞ રૂપે ઓળખી શકતી નથી. જેને સર્વજ્ઞ કહેવામાં આવે છે, તેઓ ત્રિકાળવત્તી પદાર્થોને જાણતા હોય છે, અને તે પદાર્થોને યથાર્થ રૂપે તેઓ જાણતા હોય છે. પરંતુ આ For Private And Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०२ सूत्रकृतागसूत्रे विज्ञातुं शक्यते, इति, उपदेष्टुरभिप्रायस्याऽपरिज्ञानात्ते ब्राह्मणादयः आनार्यबत् केवलं स्वोपदेष्टुर्वचनानामनुवादका एव न तु तद्भावज्ञातार इति ॥१६॥ ___एतावता प्रबन्धेन अज्ञानिनां मतमुपन्यस्तम् इतःपरं तन्मते दृषणमाह — 'अन्नाणियाणं' इत्यादि । मूलम्'अन्नाणियाणं' वीमंसो अण्णो णेण विनियच्छड़। अप्पणो य परं नालं, कओ अन्नाणुसासिउं ॥१७॥ छायाअज्ञानिकानां विमर्शः अज्ञानेन विनियच्छति । आत्मनश्च परं नालं कुतोऽन्याननुशासितुम् ॥१७॥ अभिप्राय यह है कि सर्वज्ञ के समकालीन अल्पज्ञ पुरुष भी सर्वज्ञ की सर्वज्ञता को नहीं समझते थे तो वाद के लोग तो समझ ही कैसे सकते हैं ? इसके अतिरिक्त दूसरे के ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं होते हैं, अतएव उपदेष्टा पुरुष की विवक्षा (कथन करने की इच्छा) भी नहीं जानी जा सकती । इस प्रकार उपदेष्टा पुरुष के अभिप्राय को न समझ सकने के कारण वे ब्राह्मण आदि अज्ञानवादी पूर्वोक्त अनार्य के समान अपने उपदेशक के वचनों का अनुवाद मात्र करते हैं अर्थात् उसके शब्दों को तोते की तरह दोहरा देते है, उसके अभिप्राय को नहीं जानते हैं ॥१६॥ यहां तक अज्ञानवादियों के मत का उल्लेख किया, अब उनके मत में दोष कहते है--"अन्नाणियाणं" इत्यादि । વાત અલ્પજ્ઞ મનુષ્ય જાણી શક્યું નથી. આ કથનને સંક્ષિપ્ત ભાવાર્થ એ છે કેસર્વજ્ઞ સમકાલીન અલ્પજ્ઞ પુરુષે પણ સર્વશની સર્વજ્ઞતાને સમજી શકતા ન હતા, તે ત્યાર બાદ ઉત્પન્ન થયેલા માણસે તે તેને કેવી રીતે સમજી શકે? વળી અન્યનું જ્ઞાન પ્રત્યક્ષ અનુભવને વિષય પણ બની શકતું નથી. ઉપદે પુરુષની વિવેક્ષા (કથન કરવા પાછળનો આશય પણ જાણી શકાતી નથી. આ પ્રકારે ઉપદેટા પુરુષના કથનને આશય નહી સમજી શકવાને કારણે તે બ્રાહ્મણ આદિ દ્વારા પૂર્વોક્ત અનાર્ય (સ્વેચ્છ)ની જેમ, પોતાના ઉપદેશકના વચનને અનુવાદ માત્ર જ કરવામાં આવે છે એટલે કે તેમના કથનને ભાવાર્થ સમજ્યા વિના તેઓ પોપટની જેમ તેઉચારણ જ કરતા હોય છે. સૂત્રકારે આ ગાથા સુધીની ગાથાઓમાં અજ્ઞાનવાદીઓના મતને ઉલ્લેખ કર્યો છે, वे तमना भतमा रखा होषी मातापामा मावे छ'अन्नाणियाण" त्यादि For Private And Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - -- - समायर्थ बोधिनी टोका प्र. श्र. अ. १ उ. २ अज्ञानवादिमते दृषणप्रदर्शनम् ३०३ अन्वयार्थः(अन्नाणियाणं) अज्ञानिनाम्, न विद्यते ज्ञानं यस्याऽसौ अज्ञानी, न ज्ञानमज्ञानम् । अत्र विरोधो नबर्थः, तथा च ज्ञानविरोधी विपरीतज्ञानवानित्यर्थः । तेषामज्ञानिनां (वीमंसा) विशेषेण मीमांसा विचारः । (अप्पणे) आत्मीयपक्षे अज्ञानपक्षे इति यावत् । (न विनियच्छइ) न मुक्तो भवति । (अप्पणो) सः अज्ञानवादी स्वात्मानमपि (अणुसासिउं) अनुशासितुम् (नालम्) न अलं पर्याप्तः (अन्नाणु सासिउं) अन्यान् स्वेतरान् अनुशासितुं कुतोऽलम् कुतः पर्याप्तः स्यात् । शब्दार्थ-'अन्नाणियाण-अज्ञानिनाम् ' अज्ञानवादियोंका, 'विमंसा-विमर्शः' पर्यालोचनात्मक विचार 'अप्णाणे-अज्ञाने' अज्ञानपक्षमें 'न विनियच्छइ-न विनियच्छति' मुक्त नहीं होसकता है 'अप्पणो य-आत्मनश्च' अपने को भी 'अणुसा. सिउं-अनुशासितु' शिक्षा देनेकेलिये 'नालम्-न अलम्' पर्याप्त नहीं होते पुनः वे 'अण्णाणुसासिङ-अन्यानुशासितुम्' दूसरेको शिक्षादेनेमें कैसे समर्थ हो सकता है ? ॥१७॥ _ --अन्वयार्थ--- जिसे ज्ञान न हो वह अज्ञानी कहलाता है और ज्ञान नहीं सो अज्ञान । यहां नञ् समास विरोध के अर्थ में है। अतएव अज्ञानी का अर्थ हुआ ज्ञान विरोधी विपरीत ज्ञान वाला । अज्ञानियों का विशेष कथन यह है--अज्ञान ही श्रेष्ठ और श्रेयस्कर है, ऐसा विचार अज्ञान पक्ष में संगत नहीं है । अज्ञानी अपने को भी अनुशासित करने में समर्थ नहीं है तो दूसरों को अनुशासित करने में कैसे समर्थ हो सकता है ? अर्थात् जो अपने को ही नहीं समझ शहाथ-'अन्नाणियाण-अशानिनाम्' मशान वाहियाना 'विम सा-विमर्श:' पयांतीयनाम विया२ 'अप्पाणे-अज्ञा' अज्ञान पक्षणी 'न विनियच्छइ-न विनियच्छति भुत यशता नथी. 'अप्पणोवि-आत्मनश्च' पाताने ५५ 'अणुलासिउ-अनुशासितुं' शिक्षा ४२१॥ भाटे 'नालम्-न अलम्' पर्यायता नथी. शथी तेथे 'अण्णाणुसासिउ-- अन्यानुशासितु' मीतने वी ते शिक्षा मी शत ॥१७॥ -अन्वयार्थ - नामा ज्ञान न डाय तेने अज्ञानी छे. "शाननी मला भेटले. अज्ञान" अज्ञान પદમાં નગ સમાસવિરોધના અર્થમાં છે. તેથી અજ્ઞાની એટલે જ્ઞાનથી વિધી એવા. વિપરીત જ્ઞાનવાળે.” અજ્ઞાન જ શ્રેષ્ઠ અને શ્રેયસ્કર છે. એવી માન્યતા અજ્ઞાન પક્ષે સંગત નથી. અજ્ઞાની માણસે પોતાને અનુશાસિત કરવાને સમર્થ હતા નથી, તે અન્યને અનુશાસિત For Private And Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०४ सूत्रकृताङ्गसने अर्थात् यः स्वात्मानमपि शासितुं न प्रभवति, स अन्यान् कथमिव शासने समर्थः स्यात् । स्वयमसिद्धः कथं परान् साधयिष्यतीतिन्यायात् । टीका'अन्नाणियाणं' अज्ञानिकानाम्-सम्यग् ज्ञानरहितानाम् योऽयम्-'वीमसा' विमर्शः विचारः पर्यालोचनरूपः सः 'अन्नाणे' अज्ञाने अज्ञानविषये 'न नियच्छइ' 'न नियच्छति-निश्चयेन न यच्छति नाऽवतरति न युज्यते इति भावः यतः योऽयं एवम्भूतस्तेषां विचारः यथा-ज्ञानं सत्यता असत्यम् , इति ? तथा अज्ञानमेव श्रेयः यथा यथा ज्ञानाऽतिशयः, तथा तथा च दोषाऽतिरेकः इतिच । एतादृशो विचारः तेषां न युक्तः एवंभूतस्य विचारस्याऽपि ज्ञानरूपत्वात् अज्ञानवादे तादृश विचारस्याऽवतारयितुमशक्यत्वात् । अपिच-एते अज्ञानवादिनः 'अप्पणो य'आत्मनश्च आत्मनोऽपि स्वानपि 'परं' परम्-ज्ञानात्परम् अज्ञानमित्यर्थः, तद् सकता वह दूसरों को कैसे समझा सकता है ? जो स्वयं असिद्ध है वह दूसरों को सिद्ध नहीं कर सकता. ऐसा न्याय है ॥१७॥ टीकाथ--- सम्यग्ज्ञान से रहित अज्ञानवादियों का यह जो विचार है सो अज्ञान वाद में उचित नहीं है। उनका विचार इस प्रकार है कि-ज्ञान सत्य है या असत्य ? अज्ञान ही श्रेयस्कर है । ज्यों ज्यों ज्ञान बढता है त्यों त्यों दोष बढते है। उनका यह विचार युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि यह विचार भी तो ज्ञानस्वरूप ही है और अज्ञानवाद में इस प्रकार के विचार की कोई संगति नहीं हो सकती । इसके अतिरिक्त ये अज्ञानवादी अपने को भी अज्ञानवाद का કરવાને સમર્થ તે કેવી રીતે હોઇ શકે. એટલે કે જે પોતે જ સમજી શકવાને અસમર્થ હોય, તેઓ અન્યને કેવી રીતે સમજાવી શકે જે પિતે જ અસિદ્ધ હોય છે, તે અન્યને સિદ્ધ કરી શકતે નથી, એ નિયમ છે, ૧છા -अर्थસમ્યગ જ્ઞાનથી રહિત અજ્ઞાનવાદીઓને જે આ વિચાર છે, તે અજ્ઞાનવાદ સાથે સંગત લાગતે નથી. તેમને વિચાર (માન્યતા)આ પ્રકાર છે ”જ્ઞાન સત્ય છે, કે અસત્ય ! અજ્ઞાન જ શ્રેયસ્કર છે. જેમ જેમ જ્ઞાન વધતું જાય છે, તેમ તેમ દોષ પણ વધતી જ જાય છે.” તેમની આ માન્યતા યુક્તિયુક્ત નથી, કારણ કે આ પ્રકારને વિચાર પણ જ્ઞાનસ્વરૂપ જ છે. વળી અજ્ઞાનવાદમાં આપ્રકારની માન્યતા કોઈ પણ રીતે સંગત લાગતી નથી. વળી આ પ્રકારની તેમની માન્યતા હોવાને કારણે તે અજ્ઞાનવાદીઓ પિતાના અનુયાયીઓને પણ For Private And Personal Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ.२ अमानवादिमते दुषर्णानरूपणम् ३०५ अज्ञानवादम् ‘अणुसासिउं' अनुशासितुम्-उपदेष्टुं नालं' नालम् न समर्थाः सन्ति, अज्ञानपक्षस्वीकारेण तेषामनत्वात् तर्हि ते स्वयमज्ञाः सन्तः 'अन्ने' अन्यान्शिष्यत्वेन स्वसमीपसमागतान् अनुशासितुम् 'कओ नालं' कुतोऽलम् कथं समर्थाभवेयुरिति । येऽज्ञानपक्षं स्वस्मिन्नपि स्थापयितुं न समर्थास्तेऽन्येभ्यः कथमज्ञानवादं शिक्षयितुं समर्था भवन्तीति भावः । तथा च-इमेऽज्ञानवादिनः यथा स्वयमेव अज्ञानिन स्तदा तत्समीपे ये समागता उपदेश ग्रहणाय, तांस्ते कथमिवोपदेक्ष्यन्ति, स्वस्यैवाऽज्ञानित्वात् । उपदेशो ज्ञानसाध्यः, इति नियमात् । ज्ञानविरहेच कथं स्वं परं वा बोधयितुं ते समर्थाः स्युः । यदप्युक्तम्- “परचेतोवृत्तीनां ज्ञातुमशक्यत्वाद् अज्ञानवादः श्रेयान्" इति, तदपि न सम्यक् । यतोऽ. ज्ञानवादिभिः परचेतो वृत्तयोऽपि ज्ञायन्ते, इति स्वीकारात् । कथमन्यथा अज्ञानिगुरुसमीपे यदा शिष्याः समागच्छन्ति, तदा तैः कथं ज्ञायेत इमे मत्पावें उपदेश नहीं कर सकते, क्योकि अज्ञानवाद को स्वीकार करने के कारण वे स्वयं अज्ञानी हैं तो शिष्य के रूप में समीप आये हुए दूसरों को उपदेश देने में कैसे समर्थ हो सकते हैं? जो अपने आप में भी अज्ञानपक्ष को स्थापित नहीं कर सकते, वे दूसरों को अज्ञानवाद की शिक्षा किस प्रकार दे सकेंगे ? उपदेश ज्ञान से दिया जाता हैं । ज्ञान के अभाव में वे स्व अथवा पर को समझने में कैसे समर्थ हो सकते है ? पर की चित्तवृत्तियां जानना शक्य नहीं हैं, अतएव अज्ञान ही श्रेयस्कर है। यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि अज्ञानवादियों ने परकीय चित्तवृत्तियों का ज्ञान भी स्वीकार किया है । अन्यथा अज्ञानी गुरु के समीप जब शिष्य आते हैं तो वह कैसे जानेंगे कि यह मुझसे कुछ जानने के लिए અજ્ઞાનવાદને ઉપદેશ આપી શકે નહીં, કારણ કે અજ્ઞાનવાદને સ્વીકાર કરવાને કારણે તેઓ પિતે જ અજ્ઞાની છે, એવી પરીસ્થિતિમાં તેમની સમીપે આવેલા શિષ્યોને અથવા તેમના અનુયાયીઓને ઉપદેશ આપવાનું સામર્થ્ય જ તેમનામાં ક્યાંથી સંભવી શકે? જેઓ પિતાના અંતઃકરણમાં જ અજ્ઞાનપક્ષને સ્થાપિત કરવાને સમર્થ ન હોય, તેઓ અન્યને અજ્ઞાનવાદને ઉપદેશ કેવી રીતે આપી શકે ? જ્ઞાન હોય તે જ ઉપદેશ આપી શકાય છે જ્ઞાનને અભાવ જ હોય તે તેઓ પિતે કેવી રીતે સમજી શકે અને અન્યને સમજાવી શકવાને સમર્થ પણ કેવી રીતે હેઈ શકે! मन्यना चित्तवृत्तिमा (भनामाव)ने बनवानु. शय होतु नथी, तेथी अज्ञान હિતકર છે.” આ પ્રકારની માન્યતા પણ ઉચિત નથી, કારણ કે અજ્ઞાનવાદીઓએ પરકીય મનોભાવેને જાણવાનું જ્ઞાન પણ સંપાદિત કર્યું હોય છે. જે એવું ન હોય, તે અજ્ઞાની ગુરુની સમક્ષ કઈ શિષ્ય કઈ વાત જાણવા માટે આવે, ત્યારે તેને કેવી રીતે તે વાતની ખબર सू. 36 For Private And Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०६ सूत्रकृताय किमपि ज्ञातुं समागता इति, अज्ञाते च कथमुपदेशः स्यात् इति उपदेशान्यथाऽ नुपपच्या सिद्धयति । यत् अज्ञानी गुरुर्जानात्येव शिष्यस्य प्रश्न विषयिणीमिच्छाम् । अनुमानेन चेष्टादिना च ज्ञायते एवं परचेतो वृत्तिः, तदुक्तम्"अकार रिङ्गितैर्गत्या, चेष्टया भाषणेन च । नत्रवऋविकारैश्च, ज्ञायतेऽन्तर्गतं मनः ॥ ९ ॥ " इति । कथं ज्ञानमन्तरेण ज्ञायते तस्मात् न ते स्वस्याज्ञानपक्षं साधयितुं समर्था इति सिद्धम् । अतः अज्ञानपक्षस्तेषां न युक्त इति ||१७|| यथा च इमे वराका अज्ञानवादिनः स्वात्मानं परंच बोधयितुं न समर्थाः तथा दृष्टान्तद्वारेण प्रदर्शयितुमाह- 'वणे मुढे' इत्यादि मूलम् २ ३ १ ४ ५ ७ वणे मूढे जहा जंतू मूढे णेयाणुगामिए । ९ ११. १२ १३ दोवि एए अकोविया, तिव्वं सोयं नियच्छइ || १८ || आए हैं। अगर नहीं जानते तो उन्हें उपदेश कैसे देंगे ? इस प्रकार पंदेश की अन्यथानुपपत्ति से यह सिद्ध होता है कि अज्ञानी गुरु शिष्य की प्रथमविषयक इच्छा को जानता ही हैं । अनुमान से और चेष्टा आदि से परायी चित्तवृत्ति ज्ञान हो ही जाती है । कहा भी है--'" आकारैरिङ्गितैर्गत्या " इत्यादि । आकार से इंगित से गति से, चेष्टा से बोलने से और नेत्र तथा मुख के विकारों से मन की बात मालूम हो जाती है ? यह ज्ञान के बिना कैसे जाना जा सकता है ? अतएव अज्ञानवादी अपने अज्ञान पक्ष को सिद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकते । इस प्रकार उनका अज्ञान पक्ष संगत नहीं है यह सिद्ध हुआ || १७॥ પડિ જાય છે કે આ શિષ્ય કંઇક જાણવાને માટે મારી પાસે આન્યા છે. જો એટલું પણ જાણે નહીં, તે તેને ઉપદેશ કેવી રીતે આપે ? આ પ્રકારે ઉપદેશની અન્યથા નુપત્ત વડે એ વાત સિદ્ધ થાય છે કે અજ્ઞાની ગુરુ પણ શિષ્યની પ્રશ્ન વિષયક ઇચ્છા જાણતા જ હાય છે, અનુમાન અને ચેષ્ટા આદિ દ્વારા પકીય ચિત્તવૃત્તિ જ્ઞાત થઈ જતી જ હાય છે, अ या छेडे "आकारैरिङ्गितैग त्या " इत्यादि “આકાર દ્વારા ઈંગિત દ્વારા, ગતિદ્વારા, વાણી દ્વારા અને નેત્ર તથા મુખના વિકાશ દ્વારા અન્યના મનાભાવેા જાણી શકાય છે” જ્ઞાન વિના તેને કેવી રીતે જાણી શકાય છે! આ રીતે અજ્ઞાનવાદીએ પાતાના અજ્ઞાનપક્ષને સિદ્ધ કરી શકવાને સમર્થ નથી. તેથી સિદ્ધ થાય છે કે તેમના અજ્ઞાનવાદ સંગત નથી. ૫૧૭૭ For Private And Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र.अ. अ. १७.२ अज्ञानवादिनां स्वं परं च बोधने असामर्थ्य त्वम् ३०७ छाया वने मूढो यथा जन्तु दं नेतारमनुगामिकः । द्वाप्येतावकोविदौ तीव्रं शोकं नियच्छतः || १८ || 'अन्वयार्थ (जहा) यथा (वणे) वने ( मूढे) मृहः = दिशामूढः (जंतू) जन्तुः = प्राणी (मृढे याशुगामिए) मूढनेतारमनुगामिकः = दिवमूढं नेतारमनुगामी (एए दोषि ) एतौ द्वावपि गन्ता गमयिता च ( अकोविया) अकोविदौ - मार्गज्ञाने उभावपि समानावेव दिङमोहेन विपर्यस्तबुद्धित्वात्, अतस्तौ ( तिव्वं सोयं) तीव्रं शोकम् अत्यन्तं दुःखम् (नियच्छ) नियच्छतः = प्रातः ॥ १८ ॥ टीका भावगम्या, भावश्चायम्-यथा अतिनिविडे व्याघ्रादि समाकुले वने भ्रमन् यह बेचारे अज्ञानवादी न अपने को समझा सकते हैं और न दूसरोंको यह तथ्य दृष्टान्त द्वारा दिखलाने के लिए कहते है - " वणे मुढो “इत्यादि शब्दार्थ- 'जहा - यथा' जैसे 'वणे वने' वनमें 'मूढे मूढः' दिशासूढ 'जतू --जन्तुः' प्राणी 'मृठेणेयाणुगामिए मूढ नेतारमनुगामिक' दिशामूढ नेताके पीछे चलता है तो 'एए दोवि - एतौ द्वावपि वे दोनों ही 'अकोविया - अको-विदौ' मार्ग नहीं जानने वाले हैं, इसलिए वे 'तिब्वं सोयं तीव्र शोकम' अत्यन्त दुःखको 'नियच्छइ - नियच्छतः प्राप्त होते है || १८ || --अन्वयार्थ जैसे वनमें दिशासूद प्राणी, जो दिशामृढ पथ प्रदर्शक के पीछे पीछे चल रहा हो ये दोनों मार्ग नहीं जानते । दोनों उलटी बुद्धिवाले हैं। दोनों ही तीव्रदुःखको प्राप्त होते हैं ||१८|| -टीकार्थ:-- atar भावगम्य है और भाव यह है-जैसे व्याघ्र आदि से युक्त सघन वन બિચારા તે અજ્ઞાનવાદીએ પેાતે સમજી શકતા નથી અને બીજાને સમજાવી પણ શકતા नथी, यो वातने दृष्टान्त द्वारा सूत्रअर स्पष्ट उरे छे “वणे मूढो" इत्यादि शब्दार्थ' - 'जहा - यथा' प्रेम 'वणे- घने' वनमा 'मूढे मूढः' दिशाभूढ 'जंतू - जन्तुः " आणी 'मूढे णेयानुगामि- मूढनेतारमनुगामिकः' दिशाभूढ नेतानी पोछण यो ते 'पदोविएतौ द्वावपि' से मेन्ने 'अकोविया - अकोविदौ' भागे थी अन्नाश होवाथी 'तिब्ब' सोय - तीत्र' शोक' अत्यंत शोउने 'नियच्छछ - नियच्छतः प्राप्त थाय छे. ॥१८॥ અન્વયાથ દિશાસૂઢ ( દિશા ભૂલેલા માર્ગથી અજાણ ) ઇ પથ પ્રદર્શક હોય તેની પાછળ કોઈ દિશાસૂદ્ધ અન્ય પુરુષ ચાલી નીકળે તો મને માર્ગના જાણકાર નહીં હાવાને કારણે– વિપરીત બુદ્ધિવાળા હાવાને કારણે વનમાં તીવ્ર દુઃખ અનુભવે છે. ૧૮ ટીકા દૃષ્ટાન્તના ભાવાર્થ સમજી શકાય એવા છે. વાધ આદિ હિંસક પશુઓથી યુક્ત કોઇ ઘાડ For Private And Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०८ कश्चिदिङ्मोहविमूढः पथिकः स्वस्मै स्वयमपि दिक्परिच्छेदं कर्तुमसमर्थः, अन्य मुढान्तरमेव नेतारमनुगच्छति, तदा द्रावपि विपरीत-ज्ञानवत्त्वात् इतस्ततः पर्यटन्तौ तत्पारमपारयन्तौ तीवं दुःखमनुभवतः तत्रैव विनष्टौ भवतः । उभयोरपि अज्ञानपाशपाशितत्वात् । तथाऽयमपि अज्ञानी अज्ञानाऽऽवृतत्वात, आत्मीयं दर्शनशोभनमिति मन्यमानः परकीय शास्त्रं न सम्यगिति निश्चिन्वन् कमपि मूर्खशिष्यं स्वायत्तीकृत्य तमपि तथैव प्रज्ञापयन् स्वयं भवकूपे प्रपतन् तमपि पातयतीति भावः ॥१८॥ एतस्मिन् प्रक्रान्तविषये दृष्टान्तारमपि दर्शयति-'अंधो अंध' इत्यादि अंधो अंधं पहं णितो दूरमद्धाणुगच्छइ । आवजे उप्पहं जंतू अदुवा पंथाणुगामिएः ॥१९॥ में घूमता हुआ कोइ पथिक दिशा भूलजाए और स्वयं अपने लिए ही दिशाको समझने में असमर्थ हो जाए और फिर किसी दूसरे दिशामूढ मनुष्य के पीछे पीछे चलने लगे तो दोनों असम्यक् ज्ञानवाले होनेसे इधर उधर भटकते हैं। वनको पार करनेमें समर्थ नहीं होते हैं और वहीं विनष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार यह अज्ञानवादी अज्ञान से घिरा होनेके कारण, अपने दर्शन को समीचीन समझता हुआ और दूसरों के दर्शन को गलत निश्चित करता हुआ, मूर्खशिष्य को अपने वशीभूत करके उसे भी यही समझाता हुआ स्वयं भी संसार कूपमें गिरता है और उसे भी गिराता है ॥१८॥ વનમાં ભ્રમણ કરતે કે પથિક ભૂલ પડે છે- કઈ દિશામાં પિતે જઈ રહ્યો છે અને કઈ દિશામાં પિતાને જવાનું છે તે સમજવાને અસમર્થ બની જાય છે. તેવામાં તેને કેઈ બીજે દિશા મૂહ દિશા ભૂલેલે માર્ગ ભૂલેલે) માણસ તેની નજરે પડે છે, અને તે માણસની પાછળ પાછળ તે ચાલી નીકળે છે. આ બન્ને વ્યક્તિઓને રસ્તાનું સાચું જ્ઞાન ન હોવાને કારણે તેઓ તે વનમાં અટવાઈ જાય છે તેઓ વનને ઓળંગવાને શક્તિમાન થતાં નથી અને અનેક તીવ્ર છે. વેઠીને આખરે તેઓ તે વનમાં જ મોતને ભેટે છે. એ જ પ્રમાણે અજ્ઞાનવાદીઓ પણ અજ્ઞાનમાં ડૂબેલાં હોય તેઓ પિતાના દર્શનને જ સત્ય દર્શનરૂપ માને છે. અને અન્યનાં દર્શનને મિથ્યા માને છે. તે કારણે અસત્ય દર્શનને જ સત્ય દર્શન રૂપે પ્રતિપાદિત કરતા તે અજ્ઞાની લેકે પિતે તે સંસાર કૂપમાં પડે છે એટલું જ નહીં પણ અન્યને પણ સંસાર કપમાં પાડે છે. એટલે કે અજ્ઞાનવાદીઓ પિતે તે સંસાર કાનનમાં પરિભ્રમણ કરીને અનેક દુઃખને અનુભવ કરે છે, અને બીજાને પણ સંસાર કાનનમાં પરિભ્રમણ કરાવે છે. ૧૮ For Private And Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनो टीका प्र. श्रु. अ.१ उ.२ अप्रविषये अन्धद्धान्तः ३०९ छायाअन्धोऽन्धं पन्थानं नयन् दूरमध्वानमनुगच्छति । आपधेत उत्पथं जन्तु रथवा पन्थानमनुगामिकः ॥१९॥ अन्वयार्थःयथा (अधो) अन्धः (अंध) अन्यमन्धपुरुषं (पह) पन्थानम् मार्गम् (शिंतो) नयन् (दुरमंद)दरमध्वानं-दूरं भविकरूपं मार्गम् (अणुगच्छइ) अनुगच्छति-प्राप्नोति तथा एतादृशः (जंतू) जन्तुः प्राणी (उप्पहं) उत्पथम् आभिनिवेशिकाभिग्रहिकमिथ्यात्वरूपं मार्गम् (आवज्जे) आपद्येत-प्राप्नुयात् (अदुवा) अथवा-पन्थानम् अन्यपन्थानम् इष्टमार्गादतिरिक्त मोक्षमार्गाद्भिनं मार्ग प्रति (अणुगामिए) अनुगामिका अनुगन्ता भवतीति ॥१९॥ इसी विषय में दूसरा भी दृष्टान्त कहते हैं- " अंधो अं " इत्यादि । शब्दार्थ-'अंधो--अन्धः' अंधापुरुष 'अंध-अन्धम्' अंधे मनुष्यको 'पह-- पन्थानम्' मार्गमें 'णितो--नयन्' ले जाता हुआ 'दूरमद्धं-दूरमद्धानम्' दूरके मार्ग में 'अणु गच्छइ--अनुगच्छति' चलाजाता है वैसेही 'जंतू--जन्तुः प्राणी उप्पई-उत्पथम्' उत्पथमार्गमें 'आवज्जे--आपद्येत, चलाजाता है 'अदुवा--अथवा 'पंथाणुगामिए-- पन्थानमनुगामिकः' अन्यमार्गमें चलाजाता है ॥ १९ ॥ -अन्वयार्थ और टीकार्य:'जैसे एक अन्धा दुसरे अन्धे पुरुषको मार्ग में लेजाएँ तो दूरी वाले लम्बे मार्गपर ले जाता है अथवा वह उत्पथ खराब राह पर ले जाता है ।।१९।। આ વિષયનું પ્રતિપાદન કરવા માટે સૂત્રકાર બીજું એક દષ્ટાન્ત આપે છે "अंधो अंध" त्या सम्हा---'अघो-अन्धः' सांधणी भावस 'अंध-अन्धम्' मी Hist भासने 'पह-पन्थानम्' भाभा 'णितो-नयन्' वामां आवेतो 'दूरमद्ध-दूरमध्यानम् रना भाभा अणुगच्छह-अनुगच्छति' होरी कनय छे. ते प्रमाणे 'जतू जन्तुः प्राणी 'उगह-उत्पथम्' अव भागमा 'आवज्जे-आपोत' यढे छे. 'अदुवा-अथवा' २५५३ थाणुगामिप-पन्थोनुगामिकः' utonor भाभा यायो नय छ. ॥१८॥ - A-या अने 21st - કેઈએક આંધળા મણસ બીજા આંધળાને માર્ગ બતાવતે આગળ વધે તે તે તેને ટૂંકા માર્ગને બદલે લાંબા માર્ગ પર જ લઈ જાય છે અથવા સરળ માર્ગને બદલે ખરાબ ખાડા ખડિયા વાળા માર્ગે જ લઈ જાય છે એટલે કે ઇષ્ટ માર્ગને બદલે અનિષ્ટ પર જ દોરી જાય છે 11. For Private And Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासो एवं दृष्टान्तं प्रदय दान्तिकं प्रदर्शयति सूत्रकारः-'एवमेगे' इत्यादि मूलम्एवमेगे णियागट्ठो धम्ममाराहगा वयं । छाया अदुवा अहम्ममावज्जे ण ते सव्वज्जुयं वए ॥२०॥ एवमेके नियागार्थिना धर्ममाराधका व्यम् । अथवाऽधर्ममापोरन् न ते सर्वर्जुकं ब्रजेयुः ॥२०॥ अन्वयार्थः(एवम्) उक्तप्रकारेण (एगे) एके केचित्-अज्ञानवादिप्रभृतयः (नियागही) मोक्षार्थिनः- मोक्षगमनाभिलाषिणः कथयन्ति (वयं) वयम् (धम्ममाराहगा) धर्माराधकाःस्म इति ख्यापयन्ति (अदुवा) अथवा-परन्तु ते (अहम्म) अधर्ममेव (आवज्जे) आपरन् किन्तु (ते) नियागार्थिनः (सव्वज्जुय) सर्व कम्-सर्वतः दृष्टान्तवताकर सूत्रकार दार्टान्तिक कहते हैं-" एव मेगे " इत्यादि । ... शब्दार्थ-एवं-एवम् ' इस प्रकार 'एगे-एको' कोई ‘नियागढी-नियागार्थिनः' मोक्षार्थी-मोक्षमें जानेकी इच्छावाले 'वयं-अयम् । हम 'धम्ममाराहगा-धर्माराधकाः' धर्मके आराधकहैं ऐसा कहते हैं 'अदुवा-अथवा '.' परंतु 'अहम्म-अधर्मम्' अधर्म कोही 'आवज्जे-आपद्येरन् ' प्राप्तकरते हैं 'तेते ' वे मोक्षार्थी 'सव्वज्जुयं-सर्बर्जुकम् ' सब प्रकारसे सरल मार्गको 'न वए-न व्रजेयुः ' प्राप्त नहीं करते हैं ॥ २० ॥ -अन्वयार्थ__इसी प्रकार कोई कोई अज्ञानवादी आदि मोक्ष के अभिलाषी होकर कहते हैं- 'हम धर्मके आधारक है ' 'किन्तु वे अधर्म को ही प्राप्त होते हैं। હવે સૂત્રકાર રાષ્ટ્રન્તિક દષ્ટાન્ત દ્વારા જે વિષયનું પ્રતિપાદન કરવાનું છે તે વિષય ५४८ ४२ छ "एवमेगे” त्यादि --एवं-एवम्' मा प्रमाणे एगे-एके' 5 नियागढी-नियागार्थिनः' भीमाथी-भाक्षमा पानी छावा यय-यम्' म 'धम्ममाराहगा-धर्म माराधका धर्मना मारा छाप तम अडी छामे. 'अदुवा-अथवा' परंतु 'अहम्म-अधर्म म्'. अधर्मने 'आवजे-आपोरन्' प्रात ४३री से छीथे 'ते-ते ते भाक्षाथिमा 'सन्चज्जयं-सर्वजु कम्' गधी प्रा२ सरस भागने 'नवये-न व्रजेयुः' प्रात 3 शता नथी. १२०1 अन्वयार એજ પ્રમાણે કઈ કઈ અજ્ઞાનવાદીઓ મોક્ષના અભિલાષી બનીને એવું કહે છે કે અમે ધર્મના આરાધકે છીએ પરંતુ ખરી રીતે તે તેઓ અધર્મનું જ આચરણ કરતા હોય છે. તેઓ સંયમના માર્ગે ચાલી શક્તા નથી એટલે કે પિતાને ધર્મના આરાધકે For Private And Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समवाय बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ.२ दान्तिकनिरूपणम् ३११ सरलं मार्गम् (न वए) न व्रजेयुः- न प्राप्नुवन्ति । वयं धर्माराधका इति वदन्तोऽ पि ते मोक्षं धर्ममपि वा न प्राप्नुवन्ति, प्रत्युताऽधर्ममेव प्राप्नुवन्ति, तथा ते अतिसरलं संयमादिकं न प्राप्नुवन्तीति भावः ॥२०॥ टीका... (एवं) एवम्-उपर्युक्तरूपेण प्ररूपकाः 'एगे' एके अज्ञानवादि-प्रभृतयः णियागट्ठी' नियागार्थिनः-नियागो-मोक्षः सद्धर्मो वा तमर्थयमानाः वयं वयम् 'धम्ममाराहगा' धर्माराधकाः “वयं सद्धर्माचरणसंपन्नाः " इति कथयन्ति 'अदुवा' अथच-स्व स्व धर्मदीक्षां 'अहम्म' अधर्मम् षट्कायोपमदनरूपमादायाऽ पि, किन्तु 'ते' ते 'सबज्जुयं' सर्वजुक-सर्वप्रकारेण सरलं मोक्षदायकत्वादनवद्यत्वाच्च सरलं संयम 'न आवज्जे' न आपघेरन्-न प्राप्नुयुः ॥२०॥ पुनरपि अज्ञानवादिमते दोषं प्रदर्शयितुमाह-'एवमेगे' इत्यादि १ २ मूलम् एव मेगे वियकाहिं, नो अन्नं पज्जुवासिया । अप्पणो य वियकाहिं अय मंजू हि दुम्मई ॥२१॥ वे सबसे सरल मार्ग (संयम) को प्राप्त नहींकर पाते अर्थात् हम धर्म के आराधक है, इस प्रकार कहते हुए भी वे मोक्ष अथवा धर्म को प्राप्त नहीं करते हैं, बल्कि अधर्म को ही प्राप्त करते हैं । वे संयम आदि को भी नहीं पाते हैं ॥२०॥ __-टीकार्थ... उपर्युक्तरूप से प्ररूपणा करनेवाले अज्ञानवादी वगैरह मोक्ष या सद् धर्म की इच्छा करते हुए 'हम धर्माराधक है, धर्माचरण से सम्पन्न है ऐसा दावा करते हैं, वे षट्काय जीवों की हिंसाकारी दीक्षा अंगीकार करके भी मोक्षप्रद और निरवद्य होने के कारण सरल संयम को प्राप्त नहीं कर पाते हैं ॥२०॥ માનતા તે અજ્ઞાનીએ ધર્મની પ્રવૃત્તિને બદલે અધર્મની જ પ્રવૃત્તિ કરતાં હોય છે તેથી તેઓ મેક્ષની પ્રાપ્તિ કરી શક્તા નથી. સંયમની પ્રાપ્તિ વિના મેક્ષની કયાંથી પ્રાપ્તિ થાય ટીકર્થ– વિપરીત રૂપે પ્રરૂપણું કરનારા અજ્ઞાનવાદીઓ મેક્ષ અથવા સદુધર્મની જે ઈચ્છા કરતા થકા એ દાવો કરે છે કે” અમે ધર્મારાધક છીએ- ધર્માચરણથી સંપન્ન છીએ” એવા તે અજ્ઞાનવાદીઓ નિરવઘ અને સરળ સંયમ અંગીકાર કરી શકતા નથી, પરન્તુ છકાયના જીવોની હિંસા થાય એવી દીક્ષા (અધર્મને માર્ગ) અંગીકાર કરે છે એવા અજ્ઞાનવાદીએ પિતે સંસાર સાગરને તરી શકતા નથી અને બીજાને તારી શકતા નથી રહો For Private And Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताने छायाएवमन्ये वितळभिनों अन्य पर्युपासते । आत्मनश्च वितर्काभि रयमृजुर्हि दुर्मतयः ॥२१॥ अन्वयार्थः(एवं) एवम्-अनेन प्रकारेण (एगे) एके-केचित् (दुम्मइ) दुर्मतयः= विपरितबुद्धयः (वियक्काहिं) वितर्काभिः विरूद्धविचाररूपतर्कणाभिः (अन्न) अन्य-ज्ञानवादिनं न (पज्जुवासिया) न पर्युपासते' ज्ञानिनः सेवां न कुर्वन्ति । तथा (अप्पणो य वियक्काहिं) आत्मनश्च वितर्काभिः= स्वकीयवितः (हि) हि-निश्चयेन (अयं) अयम् अज्ञानवाद एव (अंजू) ऋजुः श्रेयान् इति मन्यन्ते॥२१॥ टीकाभावगम्या, तथाहि-एके वादिनः स्वस्य वितः नाऽन्यं परमहित मताऽनु यायिनं समुपासते । सर्वज्ञशास्त्रपरि शीलनजनितबुद्धिप्रकर्षयन्तमाचार्य अज्ञानवादियों के मत में पुनः दोष दिखलाने के लिए कहते हैं" एवमेगे " इत्यादि। शब्दार्थ-एवं-एवम्' इसीप्रकारसे 'एगे--एको कोई ‘दुम्मइ-दुर्मतयः' दुर्बुद्धीवाला 'वियकाहि-वितर्काभिः' वितर्कोंसे 'अन्न--अन्यम्' दूसरे ज्ञानवादीको 'न पज्जुवासिया-न पर्युपासते' सेवा नहीं करते हैं 'हि-हि' निश्चय वे 'अप्पणो य वियक्काहि-आत्मनश्ववितर्काभिः' अपने वितर्कोसे 'अयं--अयम्' यह अज्ञानवादही अजू-ऋजुः' श्रेष्ठ हैं ऐसा मानतें हैं ।। २१ ॥ -अन्वयार्थइस प्रकार कोई विपरीत बुद्धिवाले खोटी तर्कणाएँ करके दूसरे ज्ञानवादी की उपासना नहीं करते और अपने कुतर्कों के कारण ऐसा मानते है ॥२१॥ अज्ञानवाहीमोना मतमा २सो होप सूत्र४२ - सूत्रमा पY ४२ ४३छ "एमेगे" शहाय-एवं-एवम्' मा प्रमाणे 'एगे-पके | 'दुम्मई-दुर्मतयः' भुद्धिवाणा 'वियकाहि-वितर्काभिः' वितथा 'अन्न-अन्यम्' भी ज्ञानपाहीयाने 'न पज्जुवासिया-न पर्युपासका' सेवा ४२ता नथी 'हि-हि' निश्चय ते 'अप्पणीय वियकाहि-मा. स्मनश्चविताभिः' पोताना वितथिी 'अय-अयम्' २॥ मज्ञानपान 'अंजू ऋजु ४ છે તેમ માને છે. ર૧n. - मन्वयार्थ - - આ પ્રકારે કઈ વિપરીત બુદ્ધિવાળા લેકે બેટા તર્કો કરીને અન્ય જ્ઞાનવાદીની ઉપાસના કરતા નથી તેઓ પિતાના અવળા વિચારોને કારણે એવું માને છે કે અમારે આ અજ્ઞાનવાદ જ શ્રેયસ્કર છે મારા For Private And Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावबोधिनो टीका प्र. अ. अ. १ उ. २ अज्ञानिया दिमते दोषनिरूपणम् ३.१.३ नैव पृच्छन्ति । तदुपदेशेन धर्मकार्य नैव संपादयन्ति । पुनः स्वकीयवितर्कैः मोक्षजनक संयमपालनं च नैव कुर्वन्ति । ग्रस्मादिमे दुर्मतयः, अतः परमहितसेवनं न कुर्वन्ति, सेवाया अभावात् संयमादिकं नाप्नुवन्ति । गुरूणां सेवयैव ज्ञानादिकमवाप्यवे, एभिर्गुरोः सेवा न क्रियते तदभावे कथं तेषां ज्ञानम्, तदभावे च कथमिव संयमादिकम्, तदभावे च कथमिव मोक्षसंभवः, तदभावादेव तेषामनन्तसंसारसागरे एवं परिभ्रमण - महर्निशं भवतीति भावः ||२१|| :- टीकार्य — टीका वगम्य है। कोई कोई वादी अपने कुतर्कों के कारण परम 'हितकर सतर्क अनुयायी की उपासना नहीं करते हैं अर्थात् सर्वज्ञ प्रणीत शास्त्रों के परिशीलन से प्रकर्ष को प्राप्तबुद्धिवाले आचार्यको नहीं पूछते है और उन्हीं के उपदेश के अनुसार धर्मकार्य नहीं करते हैं। तथा कुतर्क करके मोक्षप्रद संयम का पालन नहीं करते हैं ऐसे लोग दुर्बुद्धि है अतः परमहित को सेवता नहीं और सेवा के अभाव में संयमादिक को प्राप्त नहीं कर पाते है। गुरू की सेवा से ही ज्ञानादिक की प्राप्ति होती है। ये लोग गुरुकी सेवा नहीं करते तो बिना सेवा किये उन्हे ज्ञान कैसे प्राप्त हो सकता है ? उसके Maa में संयम आदि की प्राप्ति भी नहीं होती और संयम के अभाव में मोक्षका संभव नहीं हो सकता । मोक्ष नहीं प्राप्त होता तो उन्हे राव दिन अनन्त संसार में ही परिभ्रमण करना पडता है ।। २१ ।। - समर्थ આ ગાયાના ભાવાર્થ સર્ચ્યા છે કેટલાક મતવાદીએ પેાતાના તર્કને કારણે, પરમ હિતકર મતના અનુયાયીની ઉપાસના કરતા નથી. એટલે કે સર્વજ્ઞપ્રણીત શાસ્રીના પિર શીલન દ્વારા ઉત્કૃષ્ટ બુદ્ધિ જેમણે પ્રાપ્ત કરી છે, એવા આચાય ને પૂછ્યા નથી. તેમના ઉપદેશને અનુસરીને ધર્માચરણ કરતા નથી. તથા તે કુતર્ક કરીને મોક્ષપ્રદ સંયમનુ પાલન કરતા નથી. એવાં લેાકો ન દુદ્ધિ હોવાને કારણે પરમ હિતકર આચાય આદિની સેવા કરતા નથી, અને સેવાને અભાવે સયમાદિને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી ગુરુની સેવા કરવાથી જ જ્ઞાનાદિકની પ્રાપ્તિ થાય છે આ લોકો ગુરુની સેવા કરતા નથી, તો સેવા કર્યા વિના તેમને જ્ઞાનની પ્રાપ્તિ કેવી રીતે થઇ શકે ? તેને અભાવે તેમને સયમ આદિની પ્રાપ્તિ પણ થતી નથી અને સયમના અભાવને લીધે મોક્ષની પ્રાપ્તિ પણ સંભવતી નથી. तेभने या अनंत संसारमा गनंत अण सुधी परिश्रम ४२ प ६ ॥ २१ ॥ २. ४० For Private And Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१४ ..सप्रकृतीशी ज्ञानवादी अज्ञानवादिनामनर्थ दर्शयति- 'एवं. सकाइ, इत्यादि । ... एवं तत्काई साहिता, धम्माधम्मे अकोविया । दुक्ख तेनाइ तुटुंति, सउणी पंजरं जहा ॥२२॥ छाया-... एवं तः साधयन्तः धर्माधर्मयोरकोविदाः । दुखं तेनाऽति त्रोटयन्ति शकुनिः पंजरं यथा ॥२२॥ .. अन्वयार्थ:(एवं) एवम्-उक्तप्रकारेण (तक्काई) तर्कया-तर्केण (साहिता) साधयन्तुः स्वकीयं मतम्-"अज्ञानवाद एव श्रेयान् " इत्याकरकं प्रतिपादयन्तोऽज्ञानिन (धम्माधम्मे) धर्माधर्मयोः (अकोविया) अकोविदा: अज्ञातारः (ते) ते अज्ञानवा ____ज्ञानवादी अज्ञानवादियों को होने वाला अनर्थ दिखलाते हैं-'एवं तक्काई, इत्यादि । शब्दार्थ-एवं-एवम्' इसीप्रकार 'तक्काई-तर्कया' तर्कोसे 'साहिता-साधयन्त अपने मतको मोक्षप्रदसिद्धकरते हुए 'धम्माधम्मे-धर्माधर्मयोः' धर्म एवं अषमें में 'अकोविया--अकोविदाः' नजानने वाले 'ते-ते' अज्ञानवादी 'दुकावं दुःखम् दुःखको 'नाइ तुईति-नाति त्रोटयन्ति' अत्यंत नहीं तोडसकते हैं 'जहा--यथा' जैसे 'सउणी-शकुनी' पक्षी 'पंजरं--परं' पीजडेको नहीं तोडसकते हैं ॥ २२ ॥ -अन्वयार्थउक्त प्रकार से तर्क के द्वारा 'अज्ञान ही श्रेयस्कर हैं अपने इन मत का समर्थन करते हुए अज्ञानवादी धर्मऔर अधर्म के विषय में नासमझ हैं અજ્ઞાનવાદીઓને ક્યા કયાં અનિષ્ટોને અનુભવ કરે પડે છે, તે હવે સૂત્રકાર ५४८ ४२ छ- "एवं तकाई" त्या ... हाथ-एवं-एवम्' मे प्रमाणे 'तकाई-तर्कया' तथा 'साहिता-साधयन्तः' पाताना मतने भोक्ष प्रसिद्ध४२ताया 'ध धम्मे-धर्माधर्म या' धर्म व अधम भां 'अकोविया-अकोविदाः न पा 'ते-तें' अज्ञानपाहि 'दुक्न-दुक्खम्' भने 'नाइतुति-नाति त्रोटयन्ति' अत्यंत रीत तोडी शता नथी, 'जहा-यथा सेभ 'सउणी -शकुनी पक्षी पिंजर पजरम्' पाराने तोडी शता नथी तेभ. ॥२२॥ -भ-क्याथપૂર્વોકત તર્ક દ્વારા “અજ્ઞાન જ શ્રેયસ્કર છે.” આ પ્રકારના પિતાના મતનું સમર્થન કરતા તે અજ્ઞાનવાદીઓ ધર્મ અને અધર્મના ખરા સ્વરૂપને જાણતા નથી. તેનું શું For Private And Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समर्थ योधिमो टीका प्र. श्रु. अ. १ अक्षानवादिनामनथं निरूपणम् ३१५ दिनः (दुक्खं) दुःख स्वकीयं (नाइनुटुंति) नाऽति त्रोटयन्ति=न दूरीकर्तुं शक्नुवन्तीत्यर्थः, (जहा) यथा (सउणी) शकुनि-पक्षी शुकादिः (पंजरं) पञ्जरं न त्रोटयन्तीत्यन्वयः ॥२२॥ . भावार्थः ____टीका-भावार्थगम्या तथाहि-यथा शुकादयः पक्षिणोऽज्ञानाऽवृतत्वात्, मोक्षणज्ञानाऽभावेन पंजरमतिक्रान्तुं समर्था न भवन्ति प्रत्युत पंजरबद्धाः सन्तो दुःखमेवाऽनुभवन्ति तथा इमे कुवादिनो ज्ञानाऽभावात्, कुतर्कमुखरिताऽऽननाः अज्ञानवाद एव श्रेयानिति प्रलपन्तः, धर्माधर्मयोविवेकविकलाः अधर्म धर्मतया परिगृह्य संसारबन्धनस्य विनाशे अकृतमतयो बन्धनमेव समाश्रयन्ति, न बन्धनमुच्छेत्तुं समर्थाः भवन्ति तर्कस्याऽप्रतिष्ठत्वात् तर्केण कस्याऽप्यर्थस्य जैसे पक्षी पीजरे को नहीं तोड़ पाता उसी प्रकार वे अज्ञानी अपने दुःख को नष्ट नहीं कर सकते हैं ॥ २२ ॥ -टीकार्थ- टीका भावार्थगम्य है । वह इस प्रकार--जैसे तोता आदि पक्षी अज्ञानी होने से छुटकारे के मानका अभाव होने से पीजरे का अतिक्रमण नहीं कर सकते, बरन् पीजरे में पडे हुए दुःखका अनुभव करते हैं उसी प्रकार से कुचादी ज्ञान के अभाव से, कुतर्क से बङबड़ाते हुए कहते हैं अज्ञानवाद ही श्रेयस्कर है । ये धर्म अधर्म के विवेक से विकल हैं, अधर्म को धर्म रूपमें ग्रहण करके संसारबन्धन को नष्ट करनेका विचार नहीं करते उलटा बन्धन का ही आश्रय लेते हैं । वे बन्धन को तोड़ने में समर्थ नहीं होते हैं, પરિણામ આવે છે? જેવી રીતે પક્ષી પાંજરાને તેડી શકતું નથી, એજ પ્રમાણે તે અાનવાદીઓ પિતાના દુઃખને નષ્ટ કરી શક્તા નથી. પરરા ___-टीजઆ દૃષ્ટાન્તને ભાવાર્થ સમજી શકાય એવે છે. પિપટ આદિ પક્ષીઓ અજ્ઞાની હોય છે. પાંજરામાંથી કેવી રીતે મુક્ત થઈ શકાય, તેનું જ્ઞાન ન હોવાને કારણે તેઓ પાંજરામાંથી છુટકારો મેળવી શકતા નથી, પરંતુ પાંજરામાં જ પરાધીન દશામાં પડયાં રહે છે અને અનેક યાતનાઓ સહન કર્યા કરે છે, એ જ પ્રમાણે કુવાદીઓ પણ જ્ઞાનને અભાવે અજ્ઞાનવાદને જ કલ્યાણકારક માને છે. તેઓ ધર્મ-અધર્મના વિવેકથી વિહીન હોય છે. તેથી તેઓ અધર્મને જ ધર્મરૂપ માની લઈને અધર્મમાં જ પ્રવૃત્ત રહે છે. તેનું પરિણામ એ આવે છે કે તેઓ સંસાર બન્ધનને નાશ કરવાનું વિચાર જ કરતા નથી, ઉલટા કર્મને અન્ય બાંધતાં જ રહેવાને કારણે તેમને સંસાર વધતે જ જાય છે તેઓ સંસાર બન્ધનને તેડવાને સમર્થ બનતા નથી, કારણ કે તેઓ તેના For Private And Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सूत्रकृती सियसंभवात् । तमूलक एवं एतेषां विवादों यत् धर्ममति निर्मलमपि परिस्थ ज्याऽधर्मनिरता भवन्ति । अधर्माऽऽचरणेन च कुतः तेषां बन्धक्षयः, अपितु बन्धस्यैव प्राप्ति भवतीति भावः ॥२२॥ ___संप्रति सामान्यतः एकान्तवादिमते दूषणमुद्भावयितुमाह- 'सयं सय इत्यादि । सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं । १२१ १३ जे उ तत्थ विउस्संति, संसारं ते विउस्मिया ॥२३॥ छायास्वकं स्वकं प्रशंसन्तः गर्हयन्तः परं वचः ।। ये तु तत्र विद्वस्यन्ते संसारं ते व्युच्छ्रिता ॥२२॥ क्योंकि स्वयं अप्रतिष्ठित है । तर्क से किसी भी अर्थ की सिद्धि होना असंभव है । उनके विवाद का मूल तर्क ही है जिससे कि वे अत्यन्त निर्मल धर्मका परित्याग करके अधर्म में निरत होते हैं । अधर्म का आचरण करने से उनके बन्धका क्षय कैसे हो सकता है ? उससे तो उलटे बन्ध की ही प्राप्ति होती है ॥ २२ ॥ अब सामान्य रूप से सभी एकान्तवादियों के मत में दोष दिखलाते हैं "सयं सयं" इत्यादि । शब्दार्थ-'सयं संयं--स्वकं स्वकं' अपने अपने मतकी 'पसंसता--प्रशंसन्तः' प्रशंसा करते हुए 'परं-परं' दूसरे के वचनकी 'गरहंता--गर्हन्तः' निंदा करते हुए 'जे उ-ये तु, जो लोग 'तत्य-तत्र' इस विषयमें 'विउस्संति विद्वस्यन्ते' ઉપાયથી જ અનભિન્ન હોય છે. તેઓ તકમાં જ રચ્યા પચ્યા રહે છે. તર્ક દ્વારા કઈ પણ વસ્તુની સિદ્ધિ થવી અસંભવિત છે. તેમને વિવાદનું મૂળ તક જ છે. તે તર્કમાં જ રચ્યા પચ્યા રહેવાને કારણે તેઓ ધર્મને ત્યાગ કરીને અધર્મમાં નિરત રહે છે. અધર્મનું આચરણ કરવાથી તેમના કર્મબન્ધને નાશ કેવી રીતે થઈ શકે? ઊલટા કર્મબન્ધ બંધાતે જ રહેવાથી તેમને સંસારમાં ભ્રમણ કરવું જ પડે છે. ઘરમાં હવે સૂત્રકાર સઘળા એકાન્તવાદીઓની માન્યતામાં રહેલા દેનું સામાન્ય રૂપે नि३५ छ-" सयं सयं" त्याह.. शहाथ-'सय सय-स्वक स्त्रक' पात पोताना भतनी 'पस संता-प्रशसन्तः' ५सा ४२ता था 'पर-पर' बना क्यननी 'गरहता गहन्तः' नि ४२॥ ४॥ जे उ-ये तु' हो। 'तत्थ-तत्र' या विषयमा विउस्सति-विद्वस्यन्ते' पातानी हिता For Private And Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समपाय योधिसी टोका प्र श्रु अ. १. उ. २ एकान्तवादीमने दूपणनिरूपणम् ३१७ अन्वयार्थ:-- (सयं सयं) स्वकं स्वकं स्वकीयं स्वकीयं मतम् (पसंसंता) प्रशंसन्तः = स्व स्वमतस्य प्रशंसां कुर्वन्तः, "मदीयं मतमीदृशं सर्वतः श्रेष्ठतमम् । मम मताश्रयणेनैव मोक्षो भवतीत्यादिकं प्रतिपादयन्तः (परं) परं परकीयं (वयं) वचः-वचनं च (गरहंता) गर्हन्तः निन्दा कुर्वन्तः (जे उ) ये तु (तत्थ) तत्र विषये (विउस्संति) विद्वस्यन्ते विद्वांस इवांचरन्ति-स्वकीय पाण्डित्यं प्रकाशयन्ती त्यर्थः (ते) ते तु (संसार) संसार (विउस्सिया) व्युच्छ्रिता: विशेषेण बद्धवन्तः सन्ति टीका-भावगम्या, भावश्वायम् तेऽज्ञानवादिनः स्वाऽभ्युपगतस्वमतस्य प्रशंसां कुर्वाणाः परमतानि निन्दन्ति, तथाहि--- अपना पांडित्य प्रकट करते हैं 'ते-ते ' वे 'संसार--संसारम्' संसारमें 'विउ स्सिया-व्युच्छ्रिताः' अत्यंत दृढरूपमें बंधे हुए हैं ॥२३॥ . -अन्वयार्थएकान्तवादी 'मेरा ही मत सर्वश्रेष्ठ है' मेरे मत का आश्रय लेने से ही मोक्ष प्राप्त होता है 'इस प्रकार अपने अपने मत की प्रशंसा करते हुए और दूसरों के वचन की निन्दा करते हुए अपना पाण्डित्य प्रकट करते हैं वें वास्तव में संसार से जन्म मरण से बद्ध हैं ॥ २३ ॥ टीकार्य टीका भावगम्य है और भाव यह है-वे अज्ञानवादी एकान्तवादी अपने अपने माने मत को प्रशंसा करते हुए दूसरे मतों की निन्दा करते हैं, यथा मता छ 'ते-से' तमो 'संसारम्-संसारम्' संसारमा 'विउस्सिया-ज्युनिछताः' અત્યંત મજબૂતાઈથી બંધાયેલા છે ર૩n -मन्वयाथમારે જ મત શ્રેષ્ઠ છે, મારા મતને આશ્રય લેવાથી મોક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે.” આ પ્રકારે એકાન્તવાદીએ પિત પિતાના મતની પ્રશંસા કરે છે અને બીજાના મતની નિન્દા કરીને પિતાનું પાંડિત્ય પ્રકટ કરે છે. તે લેકો સંસારના બન્ધથી – જન્મ મરણ થી બદ્ધ છે. ર૩. ઉપર્યુક્ત કથનનો ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે. પૂર્વોક્ત અજ્ઞાનવાદીઓ એકાન્તવાદી છે. તેઓ પિત પિતાના મતની પ્રશંસા કરે છે અને અન્યના મતની નિંદા કરે છે. જેમ કે... નયાયિકે અસત્કાર્યવાદી છે. તેઓ સત્કાર્યવાદી સાંખ્યમતનું ખંડન For Private And Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ---- - - -- - - सूत्रकृतागायो नैयायिकोऽसत्कार्यवादी सर्व कार्यमुत्पत्तेः प्राक् असनेवेति व्यवस्थापय मानः यदि कार्य उत्पत्तेः प्रागपि सत् तदा कारणव्यापारो निरर्थकतामधि गच्छतीति वदन् सत्कार्यवादिनं सांख्यदर्शन प्रतिक्षिपति स्वमतं च प्रशंसति । सांख्यश्च यदि कार्यमसत् भवेत्तदा तिलेभ्य एव तैलं न सिकताभ्य इति नियमो. न, स्यात् । एवं यदि असत्कार्य तदा सर्व सर्वस्माद्भवेदिति नाऽसत्कार्यवादपक्षः श्रेयानिति किन्तु असत्कार्यवादः अशोभनः इति परमतं दूषयति, प्रशंसति च स्वमतम् । इत्येवं कुर्वाणाः स्व स्व विषये आत्मानं पण्डितं मन्यमानाः ते ते वादिनः संसारं चतुर्गतिभेदभिन्नमेवाऽनुवर्तमाना भवन्ति, न कदाचिदपि नैयायिक असत्कार्यवादी है । वह सत्कार्यवादी सांख्य के मत का खण्डन करता है और अपने मतकी प्रशंसा करता है । कहता है-उत्पत्ति से पहले ही कार्य की सत्ता है तो कारणों का व्यापार निरर्थक हो जाएगा । अर्थात् घट आदि अपनी उत्पत्ति से पूर्व ही मौजूद है तो कुंभकार, दंड, चाक आदि का व्यपार वृथा है । सांख्य कहता है-यदि असत् कार्य की उत्पत्ति मानी जाय तो तिलों में से तेल निकलता है, बालू से नहीं ऐसा नियम नहीं होता चाहिए । जैसे तिलों में तेल असत् है उसी प्रकार बालू में भी। तिलों में से तेल निकल सकता है तो बालू में से भी निकलना चाहिए, इस प्रकार असत् कार्य की उत्पत्ति मानने पर सभी से सभी कुछ उत्पन्न होने लगना चाहिए । अतएव असत्कार्यवाद ठीक नहीं है। इस प्रकार वह असत्कार्यवाद को अशोभन कह कर उसकी निन्दा करता है और अपने मत की प्रशंसा करता है। ___ ऐसा करते हुए वे एकान्तवादी अपने विषय में अपने को पण्डित मानते हुए चतुर्गतिक संसार में ही भ्रमण करते हैं, उससे मुक्ति नहीं पाते । કરે છે અને પિતાના મતની પ્રશંસા કરે છે. તે મતવાદીએ એવું કહે છે કે જે ઉત્પત્તિ પહેલાં જ કાર્યની સત્તા વિદ્યમાનતા) હેય, તે કારણેને વ્યાપાર નિરર્થક બની જશે. એટલે કે ઘટાદિ તેમની ઉત્પત્તિના પહેલાં જ મેજૂદ હોય, તે કુંભાર, દંડ, ચાક આદિની પ્રવૃત્તિ જ વૃથા બની જાય.” સાંખ્યમતવાદીઓ એવું કહે છે કે “ને અસતુ કાર્યની ઉત્પત્તિને વીકાર કરવામાં આવે, તે તલમાંથી જ તેલ નીકળી શકે અને રેતીમાંથી ન નીકળી શકે, એ નિયમ હવે જોઈએ નહીં. જેમ તલમાં તેલ અસત છે, એજ પ્રમાણે રેતીમાં પણ અસત્ છે. છતાં પણ તલમાંથી જે તેલ નીકળી શકે છે, તે રેતીમાંથી પણ નીકળવું જ જોઈએ. આ પ્રકારે અસત્ કાર્યની ઉત્પત્તિને માનવામાં આવે, તે બધી વસ્તુઓમાંથી બધું ઉત્પન્ન થવું જોઈએ! પણ એવું સંભવી શકતું નથી તેથી અતુકાર્યવાદની માન્યતા ખોટી છે. આ પ્રકારે તેઓ અસત્કાર્યવાદને વૃથા કહીને તેની નિંદા કરે છે અને પિતાના મતની પ્રશંસા કરે છે. આ પ્રકારની માન્યતા ધરાવનારા તે એકાન્તવાદીએ પિત પિતાના વિષયમાં પિતાને પંડિત માને છે. આ વિપરીત માન્યતાને કારણે તેઓ ચાર ગતિવાળા સંસારમાં For Private And Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खिमयार्थबोधिनो टोका प्र. अ. अ. १ उ.२ क्रियावादिमतनिरूपणम् ३१९ संसाराद्विमोक्ष्यन्ते ते । मोक्षाऽभावे कारणम् अज्ञानं परद्वेषश्च । जैनैरपि परद्वेषः क्रियते एवेति तेषामपि संसाराम मोक्षः स्यादिति न वाच्यम् , भावाऽनवबोधात् । तथाहि-इमे वादिनः एकान्तेन परं मतं प्रदृष्य स्वमतं ख्यापयन्ति । जैनास्तु तत्तनयाऽनुसारेण तत्तत्पदार्थस्य स्थापनं नयभेदेन च तदितरस्य निराकरणं करोति, अतो न जैनमते कश्चिदोष इति संक्षेपः ॥२३॥ अथाज्ञानवादिमतं निराकृत्य क्रियावादिमतं निराकर्तुमाह 'अहावरं' इत्यादि। मूलम्- ' 1 २३ अहावरं पुरक्खायं, किरियावाइदरिसणं । कम्मचिंता पणट्ठाणं संसारस्स पवणं ॥२४॥ मुक्ति न पाने का कारण उनका अज्ञान और पर के प्रति द्वेष है। कदाचित कोई कहे कि ऐसा द्वेष जैन भी करते हैं तो उनका भी संसार से मोक्ष नहीं होना चाहिए किन्तु ऐसा कहने वाले ने आशय को समझा नहीं है, ये वादी एकान्तरूप से अन्यान्य मतों में दुषण दिखला कर अपने ही मत को समीचीन कहते हैं । जैन भिन्न नयों के अनुसार अमुक अमुक वस्तु की स्थापना और अन्य का निषेध करते हैं । उदाहरणार्थ अनेकान्तबाद में द्रव्यार्थकनय की अपेक्षा से सत कार्य की उत्पत्ति और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा असत्कार्य की उत्पत्ति स्वीकार की गई है । इस प्रकार अनेकान्तवाद में मध्यस्थभाव की प्रधानता है । अतएव जैनमत मे कोई दोष नहीं है, यह संक्षेप में भाव है ॥ २३ ॥ બ્રમણ કર્યા કરે છે, તેમાંથી મુક્ત થઈ શક્તા નથી. તેમના અજ્ઞાનને કારણે તથા અન્યને છેષ કરવાને કારણે એવું બને છે. કદાચ એવી દલીલ કરવામાં આવે કે એ ઠેષ તે જેને પણ કરે છે, તે તેમને પણ સંસારમાંથી છુટકારા રૂપ મોક્ષની પ્રાપ્તિ થવી જોઈએ નહીં, પરંતુ એવી દલીલ કરનાર લેકે અમારે આશય સમજયા વિના, આ પ્રમાણે દલીલ કરતા હોય છે. પૂર્વોકત મતવાદીઓ એકાન્ત રૂપે અન્ય મતમાં દોષ બતાવીને પિતાના જ મતને ખરે કહે છે. જેને ભિન્ન ભિન્ન નને આશ્રય લઈને અમુક અમુક વસ્તુની સ્થાપના કરે છે. અને અમુક દષ્ટિએ અન્યને નિષેધ કરે છે. જેમ કે અનેકાન્તવાદમાં દ્રવ્યાર્થિક નયની અપેક્ષાએ સત્કાર્યની ઉત્પત્તિ અને પર્યાયાર્થિક નયની અપેક્ષાએ અસત્ કાર્યની ઉત્પત્તિને સ્વીકાર કરવામાં આવ્યો છે. આ પ્રકારે અનેકાન્તવાદમાં મધ્યસ્થ ભાવની પ્રધાનતા છે. તેથી જૈનમતમાં કોઈ દોષ નથી. આ ગાથાને સંક્ષિપ્ત ભાવાર્થ અહીં પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે. ૨૩ For Private And Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३२० www.kobatirth.org छाया Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृता अथाऽपरं पुराख्यातं क्रियावादिदर्शनम् । कर्मचिता प्रनष्टानां संसारस्य प्रवर्धनम् ||२४|| अन्वयार्थ: (अह) अथ=अनन्तरम् (अवरम् ) अपरम् (पुरवखायं ) पुरा ख्यातम् पूर्वप्रतिपादितम् । (किरियावाइदरिसणं) क्रियावादिदर्शनम् । तत् 'संसारस्स पवणं' संसारस्य प्रवर्धनम् = संसारवृद्धिकारकमस्ति ? केषाम् ? इत्याह- 'कम्मचितापहाणं, कर्मचिन्ताप्रनष्टानां कर्मचिन्ता रहितानां संसारवर्धक भवतीत्यन्वयः ॥ २४ ॥ अब अज्ञानवादी के मत का निराकरण करके क्रियावादी के मत का निराकरण करने के लिए कहते हैं-"अहावरं" इत्यादि । शब्दार्थ- 'अह - अर्थ' इसके पश्चात् 'अवरं- अपरम्' दूसरा 'पुरकखा पुराख्यातम्' पूर्वोक्त 'किरियावा इदरिसणं- क्रियावादिदर्शनम्' क्रियावादियोंका दर्शन 'संसारस्स पवडणं-संसारस्य प्रवर्धनम् संसारको बढाने वाला है 'कम्म चिंता पणहाणं कर्मचिंता प्रणानाम् कर्मकी चिंतासे रहित उनक्रियाकादियों का दर्शन संसारको बढाने वाला है ||२४|| -अन्वयार्थ इस के अनन्तर दूसरा पहले कहा हुआ क्रियावादियों का दर्शन कर्म की चिन्ता से रहित वादियों के संसार को बढानेवाला है || २४ ॥ અજ્ઞાનવાદીઓના મતનું નિરાકરણ કરીને હવે ક્રિયાવાદીઓના મતનું નિરાકરણ वामां आवे छे. “अहावरं " इत्यादि. शब्दार्थ –'अह-अर्थ' ते पछी 'अवर - अपरम्' मी 'पुरकखाय'- पुराख्यातम्' पूर्वो 'किरिया वाइदरिसण - क्रियादि दर्शनम्' प्रियावाहियान दर्शन छे, ते 'संसा रसफाइ - संसारस्य प्रवर्धनम्' संसारने वधारनार छे. 'कम्मचि तापणाण-कर्मचिन्ताप्रनष्टानाम्' भनी चिंता विनाना ते प्रियावाहिनु दर्शन संसारने वधारवा वा ॥२४॥ For Private And Personal Use Only - अन्वयार्थ - કરવામાં આવી છે, તે ક્રિયાવાદીઓની માન્યતા તેા કર્મીની ચિન્તાથી રહિત એવા ક્રિયાવાદીઓના સંસારને વધારનાર છે, ૫ ર૪ ॥ પહેલાં જે ક્રિયાવાદિની વાત Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समया बोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.१ उ.२ क्रियावादिमतनिरूपणम् ३२१ टीका'अह' अथ अनन्तरम् । आनन्तथिकोऽथशब्दः, न तु प्रारंभार्थकः । तथाच अज्ञानवादिमतानन्तरम् 'पुरक्खाय, पुराऽऽख्यातम् पुरा-पूर्वम्, आख्यातम् कथितम् । किं पुनः पूर्वकथितमित्यत आह 'किरियावाइ दरिसणं' क्रिया वादिदर्शनं क्रियावादिमतम् , क्रियैव प्रधानतया मोक्षस्य कारणमित्येवं वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः, तेषां क्रियावादिनां दर्शनम् मतम् इति क्रियावादि दर्शनम् । 'संसारस्स' संसारस्य चतुर्गतिकरूपस्य ‘पवड्ढणं' प्रवर्धनं वृद्धिकारक भवति । केषाम् ? इत्याह--'कम्मचिंता' इत्यादि । 'कम्मचिंतापणट्ठाणं' कर्म चिन्ताप्रणष्टानाम् कर्मणां ज्ञानावरणीयादीनां चिन्ता-सुखदुःखजनकादिविचारणा इति कर्मचिन्ता । तादृशी कर्मचिन्ता प्रनष्टा प्रकर्षेण नष्टा:-नशं प्राप्ता येषां ते कर्मचिन्ताप्रणष्टाः तेषां कर्मचिन्ताप्रणष्टानाम् । यतो बौद्ध भिक्षवः अज्ञा -टीकार्थ_ 'अथ' शब्द यहां अनन्तर के अर्थ में है, प्रारंभ अर्थ में नहीं। अभिप्राय यह हुआ कि अज्ञानवादियों के मत के अनन्तर पूर्वकथित क्रियावादियों का दर्शन चतुर्गतिक संसार की वृद्धि करने वाला है। क्रियाही प्रधान रूपसे मोक्षका कारण है, ऐसा कहनेवाले क्रियावादि कहलाते हैं। किनके संसार की वृद्धि करने वाला है ? इस प्रश्न का उत्तर यह हैं कि जो कर्म की चिन्ता से रहित हैं ज्ञानावरणीय आदि कर्म सुख दुःख आदि के जनक होते हैं ऐसी विचारणा को कर्मचिन्ता कहते हैं । यह कर्मचिन्ता जिनकी अत्यन्त नष्ट हो गई हैं, उनके संसार को बढाने वाला है । ___-टीअर्थ -- અથ” શબ્દ અહીં અનન્તરના અર્થમાં વપરાય છે. પ્રારંભના અર્થમાં વપરાયે નથી. એટલે કે અજ્ઞાનવાદીઓના મતને પ્રકટ કરતાં પહેલાં કિયાવાદીઓના જ મતને આ ગ્રન્થમાં પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે, તે ક્રિયાવાદીઓનું દર્શન ચાર ગતિવાળા સંસાર ની વૃદ્ધિ કરનારું છે. કિયા જ પ્રધાન રૂપે (મુખ્યત્વે મોક્ષનું કારણ છે, આ પ્રકારની માન્યતા ધરાવનારને કિયાવાદી કહે છે. આ દર્શન કેના સંસારની વૃદ્ધિ કરનારું છે? આ પ્રશ્નને ઉત્તર એ છે કે જેઓ કર્મની ચિન્તાથી રહિત છે, તેમના સંસારની વૃદ્ધિ કરનારું છે. જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારના કર્મો સુખ દુઃખ આદિના જનક છે, એવી વિચારણને કર્મચિન્તા કહે છે. જેમની આ કર્મચિન્તા અત્યન્ત નષ્ટ થઈ ગઈ છે, તેમને સંસારની વૃદ્ધિ થાય છે. सु. ४१ For Private And Personal Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir · सूत्रकृताङ्गो नादि संपादितं चतुर्विधमपि कर्मबन्धकारकं न भवतीति मन्यन्ते, अतस्ते कर्मचिन्ता प्रनष्टा इति कथ्यते । . ___ अयं भावः यथा तथा कृतं. कर्म स्वल्पमधिकं वा, फलं शुभमशुभं वा ददात्येव, न तु बन्धजनकत्वाऽभावः कदापि कर्मणां भवति । कर्मणां बन्धकत्वाऽभावइति वदतां तद्, वस्तुतः संसारस्यैव जनकं भवतीति ॥२४॥ क्रियावादिनो यथा कर्मचिन्ता रहिताः सन्ति तथा प्रदर्शयितुमाह'जाणं' इत्यादि । ३ ५ ६ ९ १० २-८.४ जाणं कारणऽणाकुट्टी, अबुहो जं च हिंसइ । . मूलम् पुट्ठो संवेएइ परं, अवियत्तं खु सावज ॥२५॥ छायाजानन् कायेनाऽनाकुट्टी, अबुधो यच्च हिनस्ति । स्पृष्टः संवेदयति परम्, अव्यक्तं खलु (एव) सावधम् ॥२५॥ बौद्ध भिक्षु, अज्ञान आदि से सम्पादित चार प्रकार के कर्म को बन्धजनक नहीं मानते हैं । अतएव वे कर्म चिन्ताग्रणष्ट अर्थात् कर्मचिन्ता से रहित कहलाते है। ___आशय यह है- किसी भी रूप में किया गया. कर्म, चाहे वह स्वल्प हो या अधिक, शुभ या अशुभ फल प्रदान करता ही है। ऐसा कदापि नहीं हो सकता कि कर्म बन्धजनक न हो । जो लोग कर्म को वन्धजनक नहीं कहते, उनका कथन वास्तव में संसार का ही जनक होता है ।। २४ ।। ___क्रियावादी जिस प्रकार कर्मचिन्ता से रहित हैं वह दिखलाने के लिए कहते हैं-"जाणं" इत्यादि । બૌદ્ધ ભિક્ષુઓ અજ્ઞાન આદિ દ્વારા સંપાદિત ચાર પ્રકારના કર્મોને બન્યજનક માનતા. નથી. તેથી તેમને કર્મચિન્તાપ્રણષ્ટ (કર્મ ચિન્તાથી રહિત) માનવામાં આવે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે કઈ પણ પ્રકારે કરાયેલું કર્મ, પછી ભલે તે સ્વલ્પ હોય કે અધિક હોય, પરંતુ શુભ અશુભ ફળ અવશ્ય આપે જ છે. એવું કદી સંભવી શકતું નથી કે કર્મ બન્યજનક ન હોય. જે લેકે કમને બધેજનક કહેતા નથી, તેમનું કથન ખરી રીતે સંસારનું જ જનક હોય છે. - કિયાવાદી ક્યા પ્રકારે ચિન્તાથી રહિત છે, તે હવે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે"जाणं" त्याहि For Private And Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समायथं बोधिनी टोका प्र. श्र. अ. १ उ. २ क्रियावादिनांकर्म चिन्ताराहित्यम् ३२३ अन्वयार्थः(जंच) यच्च (जाण) जानन्-मनसा (हिंसइ) हिनस्ति-प्राणिहिंसा करोति किन्तु (कारण) कायेन शरीरेण (अगाकुटो) अनाकुट्टी अहिंसकोऽस्ति, (ज च) यच्च (अबुहो) अबुधा बोधशून्यः मनोव्यापाररहितः सन् (हिंसइ) हिनस्तिजीवहिंसां करोति स (पुट्ठो) स्पृष्टः= पापस्पर्शमात्रवानेव (परं) परम्=तादृशकर्मफलं (संवेएइ) संवेदयति= अनुभवति स्पर्शमात्रेणैव फलं भुनक्तीत्यर्थः, तत् सावज सावध= पापम् (अवियत्तंखु) अव्यक्तमेव अपरिस्फुटमेव भवति, न तस्य पापस्य स्पष्टविपाको भवतीति भावः ॥२५।। शब्दार्थ-'जच-यच्च' जो 'जाणं-जानन्' मनसे जानता हुआ 'हिंसइ हिनस्ति' प्राणि हिंसा करता है परंतु कारण--'कायेन' शरीरसे 'अगाकुट्टीअनाकुट्टी, नहीं करता है 'जं च यच्च' और जो 'अबुहो--अबुधः' नहीं जाना हुआ 'हिंसइ--हिनस्ति' जीवहिंसा करता है 'पुट्ठो-स्पृष्टः' केवल स्पर्शमात्रसे 'परं-परम्' वैसे कर्म के फल को 'संवेएइ-संवेदयति' भोगता है 'सावज्ज-सावधम्' वह पापकर्म ‘अवियत्तं खु-अव्यक्तं खलु' अस्पष्ट ही है ॥२५॥ - -अन्वयार्थ____ जो मन से प्राणी की हिंसा करता है किन्तु काय से अहिंसक है, और जो अज्ञान मन के व्यापार के विना ही जीवहिंसा करता है, वह पापकर्म से सिर्फ स्पृष्ट होता है । वह उस कर्म के फल को स्पर्श मात्र से ही भोगता है। उसका वह पाप अव्यक्त होता है अर्थात् उस पाप का फल स्पष्ट नहीं होता ॥२५॥ ---'जच-यच्च जाण-जानन्' भनथा. नीने 'हिसइ-हिनस्ति' प्रालि हिसा ३ . परंतु कायण-कायेन' शरीरथी 'अणाकुट्टी-अनाकुट्टो सा ४२ता नथी. 'जच-यञ्च' भने । 'अवुहो-अबुधः' एया १३२ 'हिंसइ-हिनस्ति' सारे छ, 'पुट्ठो स्पृष्टः' अवदा २५श भारथी 'पर-परम्' मेवा मना ने संवेएइ-सवेदयति' सोगवे छ, 'सावज-सावद्यम्' ते पा५४म 'अवियत्तं खु-अव्यक्त खलु १२५४२४ छ. ॥२५॥ मन्वयाय - જે વ્યક્તિ મનથી જીવહિંસા કરે છે પણ કાયા વડે હિંસા કરતી નથી, તે વ્યક્તિ પાપ કમથી માત્ર પૃષ્ટ જ થાય છે એજ પ્રમાણે જે અજ્ઞાની જીવ મનના વ્યાપાર વિના જ જીવહિંસા કરે છે, તે જીવ પણ પાપકર્મથી માત્ર પૃષ્ટ જ થાય છે તે જીવ તે કર્મના ફળને સ્પર્શ માત્ર રૂપે જ ભેગવે છે તેનું તે પાપ અવ્યકત હોય છે એટલે કે તે કુળ स्पष्ट होतु नथी. ॥ २५॥ For Private And Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२४ सूत्रकतासत्रे टीकायः पुरुषः (जं च) यच्च यदि 'जाणं' जानन् मनसेत्यर्थः 'हिंसइ' हिनस्तिप्राणिहिंसां करोति किन्तु 'काएण' कायेन-शरीरेण 'अणाकुट्टी' अनाकुट्टी कुट च्छेदने, आङ् पूर्वपदेन आसमन्तात् कुट्टनम् आकुट्टः= छेदनभेदनादिकं, स विद्यते यस्य स आकुट्टी, न आकुट्टी अनाकुट्टी अहिंसकः, मनोव्यापारमात्रेणैव प्राणिवधकारकः नतु काययोगेन प्राणिनोऽवयवानां छेदनभेदनं करोति, अत स्तस्य तत्कर्म न बन्धजनकं भवति । इति परिज्ञोपचितनामकः प्रथमो भेदः १॥ तथा (जच) यच्च यत् यदि 'अबुहो' अबुधः अजानानः मनोव्यापाररहितः सन् 'हिसइ' हिनस्ति कायन्यापारमात्रेण न तु मनसा प्राणिनो हिंसां करोति तस्यापि मनोव्यापाराभावान कर्मोपचयो भवतीतिअविज्ञोपचितनामको द्वितीयो भेदः । यत् 'चतुर्विधं कर्म नोपचीयते' इति भिक्षुसमये (बोद्धसिद्धान्ते) प्रोक्तं तत्र परिज्ञोपचिताविज्ञोपचितरूपं भेदद्वयं -टीकार्थःजो पुरुष जानकर मन से हिंसा करता है किन्तु शरीर से हिंसा नहिं करता अर्थात् सिर्फ मनोयोग से प्राणी का वध करता है, काय से प्राणी के अवयवों का छेदन भेदन नहीं करता, उसका कार्य बन्धजनक नहीं होता यह परिज्ञोपचित्त नामक पहला भेद है। (१) ____ और जो अज्ञानी जन मन के व्यापार के विना अर्थात् अनजान में काय के व्यापार मात्र से हिंसा करता है, उसको भी मन का व्यापार न होने से हिंसाजनित कर्म का बन्ध नहीं होता। यह अविज्ञोपचित नामक दूसरा भेद है। [२] बौद्ध सिद्धान्त में कहागया है कि चार प्रसार से कर्म का बंध नहीं होता है, उनमें से परिज्ञोपचित्त और अविज्ञोपचित नामक दो भेद सूत्रकार साथજે માણસ જાણી જોઈને મનથી હિંસા કરે છે એટલે કે શરીર વડે હિંસા કરતો નથી માત્ર મને યોગ દ્વારા જ પ્રાણીના વધને વિચાર માત્ર જ કરે છે પરંતુ શરીર દ્વારા પ્રાણીને અવયનું છેદન ભેદન કરતું નથી, તેનું કાર્ય બજનક હેતું નથી, આ પરિચિત્ત’ નામને પહેલે ભેદ છે. તે ૧૫ અને જે અજ્ઞાની મનુષ્ય મનના વ્યાપાર વિના જ એટલે કે અજાણતા જ કાયના વ્યાપાર માત્ર દ્વારા જ હિંસા કરે છે તેના દ્વારા પણ મને વ્યાપાર ચાલતું ન હોવાને કારણે તેનું તે કાર્ય બધાજનક હોતું નથી આ “અવિપચિત” નામને બીજે ભેદ છે (૨) બૌદ્ધ સિદ્ધાન્તમાં એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે ચાર પ્રકારના કાર્યથી કમને બન્ધ થતું નથી For Private And Personal Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टोका प्र. श्रु अ. १ उ. २ क्रियावादिनांकर्म चिन्ताराहि रम् ३२५ सूत्रकृतैव गाथापूर्वार्द्धन साक्षादेव प्रतिपादितम् । शेषम् ई-पथ-- स्वप्ना न्तिकरूपं भेदद्वयं 'च' शब्देन संगृहीतम् । तथाहि- ईरणम् ईयां = गमनम् तत्सम्बन्धोपन्या ईर्यापथः । पथिगच्छतोऽनाभोगेन यत् प्राण्युपमर्दनं भवति तेन कर्मापचयो न भवति। तत्र 'एनं हन्मि' 'इत्याकारक मानसिकव्यापारस्याभावात् , इतीर्यापथनामक स्तृतीयो भेदः ३॥ तथा स्वप्नान्तिकम्-स्वप्ने प्राणिनो यत् छेदनभेदनादिकं क्रियते तदपि न कर्मबन्धाय भवति, तत्र कायिकव्यापारस्याभावात् । यथा कश्चित् स्वमे भोजनं कुर्वन्नपि न वस्तुत स्तृप्तिमासादयति तथा स्वमे कृतं हिंसादिकं कर्म न बन्धजनकं भवति । शरीरव्यापारस्याभावादेव नहि स्वमप्राप्तराज्यभिक्षाभ्यां भवति कोऽपि लाभो ने गाथा के पूर्वार्द्ध में साक्षात् कह दिये हैं । शेष दो प्रकार ईर्यापथ और स्वप्नान्तिक 'च' शब्द से संगृहीत किये गये हैं । इरण का अर्थ है गमन गमन के पथ को ईर्यापथ कहते हैं। पथ पर चलते उपयोग के बिना ही प्राणियों की जो हिंसा होती है उससेभी कर्मका उपचय नहीं होता है कायोंकी वहाँ 'इस प्राणी का घातकरूँ ऐसे मानसिकव्यापार का अभाव है यह ईर्यापथ नामक तीसरा भेद है। [३] ___चौथा है स्वप्नान्तिक । इसका अर्थ यह है कि स्वप्न में प्राणी का जो छेदन भेदनकिया जाता है उससे भी कर्मका बन्ध नहीं होता क्योंकि वहां कायिकव्यापार का अभाव है। जैसे स्वप्न में भोजन करने वाला तृप्ति प्राप्त नहीं करता है-धापता नहीं है, उसी प्रकार स्वम में किया हआ हिंसा आदि कर्म बन्धन का कारण नहीं होता है क्योंकि वहां काया के व्यापार का अभाव होता है। स्वप्न में राज्य मिलने से या मिक्षा मिलने से कोई પરિકોપચિત અને અવિપચિત નામના બે પ્રકારે તે સૂત્રકારે ગાથાના પૂર્વાર્ધમાં પ્રકટ કરી દીધાં છે બાકીના બે પ્રકાર ઈર્યાપથ અને સ્વપ્નાન્તિક “ચ” પદ્ધ ગ્રહણ કરાયા છે. ' આ પદને અર્થ ગમન થાય છે. રસ્તા પર ચાલતી વખતે ઉપયોગ વિના જ જેની જે હિંસા થઈ જાય છે, તેના દ્વારા પણ કમને ઉપચય થતું નથી, કારણ કે “આ જીવને વધ કરું આ પ્રકારના મને ગમે ત્યાં અભાવ રહે છે આ ઇર્યાપથ” નામને ત્રીજો પ્રકાર છે (૩) હવે સ્વપ્નાન્તિક નામના ચેથા ભેદનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે સ્વમમાં જેનું જે છેદન ભેદન કરવામાં આવે છે તેના દ્વારા પણ કર્મને બન્ય થતું નથી, કારણ કે ત્યાં કાચિક વ્યપારને અભાવ રહે છે જેવી રીતે સ્વપમાં ભેજન કરનાર તૃપ્તિ પામી શક્તો નથી તેનું પેટ તે ખાલી જ રહે છે એજ પ્રમાણે સ્વમમાં કરાયેલ હિંસા For Private And Personal Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे हानिर्वा । इति स्वमान्तिकनामकश्चतुर्थों भेदः ।४। यद्येतत् कर्मचष्टयं बन्ध जनक न भवेत्, कथं तर्हि भिसूणां मते कर्मोपचयो भवति ? तत्राह- यदि हन्यमानः कोऽपि जीवो भवेत्, हननकर्तश्च "अयं प्राणी" इतिज्ञानं भवेत् तथा मारयितुः “अहमेनं हन्मि" इत्याकारिका बुद्धिः तचेष्टा, प्राणवियोगश्च भवेत् । एतस्मिन् सर्वस्मिन् सति कायिकचेष्टा प्रवर्तते, ततश्च यधसौ प्राणी व्यापाद्यते, तदा सा हिंसा, तया च हिंसया कर्मोपचयो भवति । एषां हेतूनामन्यतमस्याऽ प्यभावे, न हिंसा, न वा तत्र कर्मोपचयो भवतीति । अत्र सन्ति पञ्च कारणानि, तदुक्तम्"-प्राणी १, प्राणिज्ञानम् २, घातक चित्तं ३, च, तद्गता चेष्टा४, प्राणैश्च विप्रयोगः५, पञ्चभिरापाद्यते हिंसा ॥१॥ इति । हानि लाभ नहीं है। यह स्वमान्तिक नामक चौथा भेद है । (४) ___यदि इन चार प्रकारों से कर्मबन्ध नहीं हो तो बौद्धों के मतानुसार किसप्रकार कर्मबन्ध होता है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है-सर्वप्रथम तो हनन किया जाने वाला कोई प्राणी हो, फिर हनन करनेवाले को ' यह प्राणी हैं ऐसा ज्ञान हो, मारने वाले की ' मैं ' इसे मारूं या मारता हूँ ' ऐसी बुद्धि हो मारने की चेष्टा हो और फिर उसप्राणी के प्राणों का वियोग हो जाए इन सब चीजों के होने पर ही हिंसा होती है और उसी से कर्म का बन्ध होता है । इस प्रकार यहां पांचवांकारण हैं। कहा भी है-"प्राणी प्राणिज्ञानम् " इत्यादि । (१) प्राणी (२) प्राणी का ज्ञान (३) घातक का चित्त (४) घातक આદિ કૃત્ય કર્મબન્ધના જનક હતા નથી કારણ કે તે પ્રકારનાં કાર્યોમાં કાયના વ્યાપારને અભાવ હોય છે સ્વમમાં રાજ્યની પ્રાપ્તિ થાય કે ભિક્ષાની પ્રાપ્તિ થાય તે વ્યક્તિને વાસ્તવિક રીતે તે કઈ લાભ કે હાનિ થતી નથી આ સ્થાનિક નામને ચે ભેદ સમજ (૪) બૌદ્ધો એમ માને છે કે પૂર્વોકત ચાર કારણને લીધે કર્મબન્ધ થતો નથી તે તેમની માન્યતા અનુસાર કર્મબન્ધ કયા પ્રકારે થાય છે ? આ પ્રશ્નને ઉત્તર નીચે પ્રમાણે છે. નીચેના પાંચ કારણોને સભાવ હોય ત્યારે જ કર્મબન્ધ થાય છે (૧) જેનું હનન (હિંસા) કરવાનું છે એવા કે પ્રાણીને સભાવ હેય, (૨) હનન કરનારને એવું ભાન હોય કે આ પ્રાણ હનન કરવા યોગ્ય છે (૩)હનન કરનારને “હુ આ પ્રાણીને મારું” એવી ઈચ્છા થાય, (૪) તે વ્યક્તિ તે પ્રાણીને મારવાની ચેષ્ટા કરે અને (૫) તે પ્રાણીના પ્રાણીને નાશ થઈ જાય, આ પાંચ ચીજોને સદ્ભાવ હેય, ત્યારે જ હિંસા થાય છે, એના દ્વારા જ भनी गन्ध थाय छे ४थु प है -"प्राणीप्राणिशानम्" त्या For Private And Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समया योधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ.२ क्रियावादिनां कर्मचिन्ताराहित्यम् ३२७ "ननु तर्हि-परिज्ञोपचितादिना सर्वथैव कर्मबन्धो किं न जायते' इत्याशङ्कायाभाह-भवति कर्मवन्धः, किन्तु-अत्यल्पम् । इत्येतदेव दर्शयितुमाह-पुट्ठो"इति । केवल मनो व्यापाररूपंपरिज्ञोपचित, कर्म तथाशरीरक्रियामात्रेण उत्पन्नमविज्ञोपचितम्, गमनक्रिया संजातम्-ई-पथं, स्वप्नसंजातं स्वप्नान्तिकम् । एतत्कर्म चतुष्टयेन पुट्ठो' स्पृष्टः पुरुषः तादृशकर्माऽसौ नरः 'पर' परम्=तादृश कर्मणः फलं किचिदेव 'संवेएइ' संवेदयति= अनु भवति नत्वधिकं फलमनुभवति। यथा-कुडचे प्रक्षिप्ता सिकतामुष्टिः तदैव विशीर्णा भवति तद्वत् एतत्कर्म चतुष्टयं तदैव विनश्यति, एतावन्मात्रेण बन्धजनकत्वाऽभावः कथ्यते । न पुनरत्यन्ताऽभावरूपेण। एवं च तत्कर्म की चेष्टा और [५] प्राणो का वियोग, इन पांच कारणों - होने पर ही हिंसा होती हैं ॥१॥ प्रश्न-क्या परिझोपचित आदि से कर्म का बन्धन सर्वथा ही नहीं होता ? उत्तर-होता तो है, परन्तु अत्यन्त अस्प । इसी को कहने के लिए 'पुढो' इस शब्द का प्रयोग किया है इसका आशय यह है कि केवल मनके व्यापार रूप परिज्ञा से, शरीर की क्रिया मात्र से, चलने फिरने से और स्वप्न देखने से, इन चार प्रकारो से पुरुष कर्म से स्पृष्ट मात्र होता है (बद्ध नहीं होता है । ) ऐसे कर्म का थोडा सा ही फल होता है, अधिक फल नहीं भोगना पडता । जैसे दीवार पर रेत की मुट्टो फेंकी जाय तो वह दीवार से छूकर ही नीचे गिर जाती है-उससे चिपकती नहीं है, उसी प्रकार पूर्वोक्त चार प्रकारों से कर्म स्पृष्ट मात्र होता है, बद्ध नहीं होता । वह कर्म उसी समय (१) प्रा (२) प्राणानुज्ञान, (3) धातनु यित्त, (४) यातनी येष्टा भने (५) प्राणाने। વિયેગ, આ પાંચ કારણેને સદૂભાવ હોય ત્યારે જ હિંસા થાય છે 1 ૧પ પ્રશ્ન -- શું પરિચિત આદિ કારણે દ્વારા કર્મને અન્ય બિલકુલ થતું નથી? ઉત્તર-થાય તે છે જ, પરંતુ અત્યન્ત અલ્પ એજ વાતને સ્પષ્ટ કરવા માટે પુડ્ડો આ પદને પ્રયોગ કરવામાં આવ્યા છે એટલે કે કેવળ મને વ્યાપાર રૂપ પરિક્ષા વડે, શરીરની કિયામાત્ર વડે, ચાલવા વડે અને સ્વપ્ર દેખવા વડે આ ચાર પ્રકારે તે મનુષ્ય કર્મ વડે માત્ર પૃષ્ણ જ થાય છે બદ્ધ થતું નથી. એવાં કર્મોનું શેડું ફળ જ ભેગવવું પડે છે અધિક ફળ ભેગવવું પડતું નથી. જેવી રીતે દીવાલ પર એક મુઠ્ઠી ભરીને રેતી ફેંકવામાં આવે, તે તે રેતી દીવાલને માત્ર સ્પર્શ કરીને નીચે પડી જાય છે દીવાલ સાથે ચૂંટી જતી નથી, એજ પ્રમાણે પૂર્વે For Private And Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'अवियत्तं खलु' अव्यक्तमेव अपरि स्फुटमेव भवति । अत्र-“खु" शब्दोऽवधारणे, तेनाऽव्यक्तमेव स्पष्ट विपाकस्याऽभावात् । अतः परिज्ञोपचितादिककर्मचतुष्टयम्, अव्यक्तरूपेण सावज्ज' सावधं पापमिति ॥२५॥ "ननु यदि अनन्तरपूर्वोक्तं कर्मचतुष्टयं बन्धाय न भवति तर्हि कथं तेषां मते कर्मोपचयो भवतीत्याशङ्कायामाह-"संति मे "इत्यादि । मूलम्संति मे तउ आयाणा, जेहिं कीरइ पावगं अभिकम्मा य पेसा य, मणसा अणुजाणिया-॥२६॥ छायासन्तीमानि त्रीण्यादानानि यैः क्रियते पापकम् । अभिक्रम्य प्रेष्यच, मनसाऽनुज्ञाय- ॥२६ नष्ट हो जाता है। इसी कारण यहां बन्ध का जनक नहीं होता, ऐसा कहा गया है, वह स्पृष्ट भी न होता हो, ऐसा नहीं है। इस प्रकार वहकर्म अव्यक्त ही होता है। यहां ' खु' शब्द अवधारण के अर्थ में है, इस कारण आशय यह निकला कि वह कर्म अव्यक्त ही है, क्योंकि उसका फल स्पष्ट नहीं होता। इस प्रकार परिज्ञोपचित्त आदि चार प्रकार का उक्त कर्म अव्यक्त रूप से सापद्य है ॥२५॥ ___ यदि पूर्वोक्त चार प्रकार का कर्मबन्ध का कारण नहीं है तो उनके मत में कर्म का बन्ध किस प्रकार होता है ? ऐसी आशंका करके उत्तर देते हैं-"संति में" इत्यादि । કત ચાર પ્રકારે કર્મ માત્ર સ્પષ્ટ જ થાય છે બદ્ધ થતું નથી તે કર્મ એજ સમયે નષ્ટ થઈ જાય છે એ જ કારણે તેને બધનું જનક કહ્યું નથી એવું બનતું નથી કે તે પૃષ્ટ પણ થતું ન હોય આ પ્રકારે તે કર્મ અવ્યક્ત જ હોય છે અહીં ખુ આ પદ અવધારણના અર્થમાં વપરાયું છે તેથી એ અર્થ ફલિત થાય છે કે કર્મ અવ્યકત જ હૈય છે, કારણ કે તેનું ફળ સ્પા હેતું નથી આ પ્રકારે પરિચિત આદિ ચાર પ્રકારનાં પૂર્વોક્ત કમ भव्यरत ३५ सावध छे ॥ २५ ॥ જે પૂર્વોક્ત ચાર પ્રકારના કર્મો કર્મબન્ધના કારણભૂત થતા નથી, તે બૌદ્ધોના મત અનુસાર કયા પ્રકારે કર્મને બધે થાય છે? આ પ્રશ્નને ઉત્તર આ સૂત્રમાં આપવામાં भाव्यो छ, 'सति में त्यादि For Private And Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनो टीका प्र. श्रु. अ. १ उ.२ प्रकारान्तरेण कम बन्र्धानरूपणम् ३२९ अन्वयार्थ:(इमे) इमानि वक्ष्यमाणानि (तउ) त्रीणि । (आगणा) आदानानि कर्मबन्धकारणानि (संति) सन्ति विद्यन्ते । (जेहिं) यैः (पावगं) पापक--पापकर्म (कीरइ) क्रियते । तान्येवाह-(अभिकम्माय) अभिक्रम्य कमपि प्राणिनं मारयितुं तदुपरि आक्रमण कृत्वा यत् हिंसनं क्रियते तत् प्रथममादानम् १। (च) (तथा पेसाय) प्रेष्य भृत्यादिकं प्राणिघाताय प्रेष्य हिंसनमिति-द्वितीयमादानम् ॥२॥ प्रथम कारणेन साक्षात्-हननक्रियायां कतृत्वं प्रतिपादितम् । द्वितीयेन तु प्रयोजककतृत्त्वं प्रदर्शितम् । (च) तथा (मणसा अणुजाणिया) मनसा अनुज्ञाय आह शब्दार्थ-'इमे-इमानि ये 'तउ-त्रीणि' तीन आयाणा-आदानानि' कर्मबन्धके कारण 'संति-सन्ति' हैं 'जेहि-यैः' जिनसे 'पावगं-पापकं' पापकर्म 'कीरइ-क्रियते' कियाजाता है 'अभिकम्माय-अभिक्रम्य' किसी प्राणिको मारने के लिए आक्रमण करके 'पेसाय-प्रेष्य' भ्रत्यादिकको प्राणिको मारने के लिये भेजकर 'मणसा अणुजाणिया-मनसा अनुज्ञाय' मनसे आज्ञादेकर ॥२६॥ अन्वयार्थ और टीकार्यआगे कहे जाने वाले यह तीन आदान कर्मबन्ध के कारण हैं जिनके द्वारा पापकर्म किया जाता है । वे यह हैं (१) किमी प्राणी का घात करने के लिए उस पर आक्रमण करके हिंसा करना यह पहला आदान है । (२) किसी नौकर आदि को प्राणी का घात करन के लिए भेज कर उसका घात कराना, यहां प्रथम आदान में हनन क्रिया के प्रति साक्षात् कर्तत्व प्रतिपादन किया गया है और दूसरे में प्रयोजक कर्तृत्व (दूसरे से करवाना) शम् -'इमे-मानि' में 'तउ-त्रीणि' थे 'आयाणा-आदानानि' मना आर0 'संति-सन्ति' छ. 'जेहि-यैः' नाथी 'पायग-पापक' पा५ ४ 'कीरइ-क्रियते' ४२वामा मावे छे. 'अभिकम्माय -अभिक्रम्य / प्रान भारवा भाटे मारा री ने 'पेसाय-प्रेष्य' नौ3२ विगैरे ने प्राणीने भावा माटे भोशी ने 'मणपा अणुजाणिया-मनसा अनुशाय' भनथी आज्ञा साधीन ॥२६ સૂત્રાર્થ અને ટીકા જેમના દ્વારા પાપકર્મ કરાય છે એવા, ત્રણ આદાનને કર્મબન્ધને કારણભૂત માનવામાં આવે છે. તે ત્રણ આદાન નીચે પ્રમાણે છે (૧) કઈ પણ પ્રાણને વધ કરવાને માટે તેના ઉપર આક્રમણ કરીને હિંસા કરવી, તે પહેલું આદાન છે. (૨) કેઈ નેકર આદિને પ્રાણુને ઘાત કરવા માટે મેલીને પ્રાણીને વધ કરાવે, તે બીજું આદાન છે. અહીં પહેલા આદાનમાં ક્રિયા કરવામાં સાક્ષાત કર્તવ પ્રતિપાદિત કરવામાં આવ્યું છે. અને બીજા આદાનમાં પ્રયોજક કર્તૃત્વ (બીજા પાસે કરાવવાનું) પ્રતિપાદિત કરાયું છે. सू. ४२ For Private And Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३३० सूत्रकृतासूत्रे ननं कुर्वन्तम् अन्यं मनसा अनुमोध यद दिने क्रियते तत् हिंसकस्यानुमोदनमिति तृतीयमादानम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिज्ञोपचितात् - अस्य तृतीयादानस्याऽयं भेदः तत्र परिनोपचिते केवलं मनसाऽनुचिन्ानम् । इह तु परेग क्रियमाणायामनुमोदनम् । तथा च स्वयं कर्तृत्वम् परेण कारकत्वम् जीवेत्येतानि त्रीणि आदाननि भवन्ति । एभिस्त्रिभिरादानैः कर्मबन्धो भवतीति बौद्धभिक्षूणां मतमिति ||२६|| पुनस्तदेव स्पष्टयति - ते उ" इत्यादि । मूलम् २ 3 ક “एते उतर आयाणा जेहि किरs पावi | ૧૧ 6 ८ ९ एवं भावसोही निव्वाणमभिगच्छइ ||२७|| छाया एतानि तु त्रीण्यादानानि यैः क्रियते पापकम् । एवं भावविशुद्धया निर्वाणमधिगच्छति ||२७|| दिखलाया गया है । ( ३ ) बात करते हुए दूसरे का मनसा अनुमोदन कस्के: हिंसा करना अर्थात् हिंसा का अनुमोदन करना । यह तीसरा आदान है । परिज्ञोपवित कर्म से तीसरे आदान में यह अन्तर है परिज्ञोपचित में केवल मन से विचार किया जाता है यहां दूसरे के द्वारा की जाने वाली क्रिया का अनुमोदन किया जाता है। इस प्रकार स्वयं करना, दूसरे से करवाना और अनुमोदना करना, यह तीन आदान कर्मवन्ध के कारण होते हैं 1. बौद्ध भिक्षुओं का मत है कि इन्हीं तीन करणों से होता है। इसी का पुनः स्पष्टीकरण करते हैं -- "एते उ" इत्यादि । d. (૩) ઘાત કરનાર કોઈ માણસને મનથી અનુમોદન આપીને હિંસાની અનુમોદના કરવી. આ ત્રીજુ આદાન છે. પરિજ્ઞાપચિતકમ કરતાં ત્રીજા સ્યાદાનમાં આટલુ અન્તર છે પરિોયચિતમાં માત્ર મનથી વિચાર કરવામાં આવે છે, પરન્તુ ત્રીા પ્રકારના આદાનમાં તે અન્યના દ્વારા કરાતી. ક્રિયાની અનુમોદના કરવામાં આવે છે; આ પ્રકારે સ્વયં કરવું, બીજા પાસે કરાવવુ અને उरनारनी अनुमोदना उरवी, या त्रशु आहान उमन्धमा अरभूत मने गो ભિક્ષુઓની એવી માન્યતા છે કે આ ત્રણ કારણાને લીધેજ જીવ કર્મને બન્ધ કરે છે! पूर्वोत व अरगोनु वधु स्पष्टी वा भावे छे. 'उ' इत्यादि १ For Private And Personal Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समया) बोधिनी टोका प्र. श्रु. अ. १ उ. २ प्रकारान्तरेण का वन्धनिरूपणम् ३३६ अन्वयार्थ:यथा (एते उ) एतानि तु; एतान्येव अत्र तु शब्दोऽवधारणे । (सङ) त्रीणि, (आयाणा) आदानानि सन्ति । (जेहिं): यः हिंसाकारणभूतै रादानैः (पावग) पापं कर्म (किर३) क्रियते । . अयं भावः-एतान्येव पूर्वगाथोक्तानि त्रीणि आदानानि हिंसाकारणानि, सन्ति यैः कारणभूतैः आदानैदुष्टाऽध्यवसायसहकृतैयस्तैस्समस्तैर्वा पायं कोपचीयो ? 'एवनिति एवं तथैव नैव प्रकारेण (भावविसोहीए) भावविशुद्धया विशुद्धान्तःकरणेन अरक्रुतिपरिणामेन नवर्तमानस्य पुरुषस्य केवलेन मनसा केवलेन वा कायेन मनोऽमितविरहितेनं उभयेन वा सत्यपि प्राणिघाते कर्मणानुपचयो न भवति । कर्मोपचयाऽभावाच (लिब्याण) निर्वाण सर्वद्वन्द्वोप शब्दार्थ- 'एतेउ-एतानि तु ये 'तउ-त्रीणि तीन 'आयाणा आदानानि' कमयके कारण हैं 'जेहि-यैः जिनसे 'पावगं-पापकम्' पापकर्म 'कीरइ-- क्रियते' किया जाता है ‘एवं-एवम्' इसी प्रकार 'भावविंसोहिए-भावविशुद्धया' भावकी विशुद्धिसे 'निव्याणं-निर्वाण' मोक्षको 'अभिगच्छइ-अभिगच्छति' प्राप्तकरताहै अन्वयार्थ और टीकाथे यही तीन कारण हैं जिन के द्वारा पापकर्म किया जाता है । अभिप्राय यह है कि पूर्वगाथा में कहे हुए यही तीन आदान हैं जो दुष्ट अध्यवसाय की सहायता से, अलग अलग या मिलकर कर्मबन्ध के कारण होते हैं । इसी कारण भावविशुद्धि से अर्थात् राग द्वेष से रहित परिणाम से. प्रवृत्ति करने वाले पुरुष को केवल मन से या केवल काय से या मानसिक संकल्प से रहित दोनों के द्वारा प्राणी का घात हो जाने पर भी कर्म का उपचय नहीं होता है । कर्म के उपचय का अभाव होने से निर्वाण की -'एते उ-एतानि तु' २॥ 'तउ-त्रीणि नाणे 'आगणा-आदानानि भयधना ४१२६१ छ, जेहि-यैः' नाथी पावग-पापकम् ५।५४मः कीरई-क्रियते' ४२वामा माये छ. एव एवम' से प्रमाणे 'भावविरोहिए-भावविशुद्धया' लाप.विशुद्धिथा 'निव्वाण -- निर्वाण' भाक्षने 'अभिगच्छइ-अभिगच्छति' प्रात ७२ 2. ॥२७॥.. અન્વયાર્થ અને ટીકાર્યું પૂર્વોક્ત ત્રણ કારણને લીધેજ પાપકર્મ કરાય છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે આગલી ગાથામાં દર્શાવવામાં આવેલા ત્રણ આદાનો છે તેઓ દુષ્ટ અવ્યવસાયની સહાયતાથી અલગ અલગ અથવા ત્રણે મળીને કમબન્ધમાં કારણભૂત બને છે. એજ કારણે ભાવવિશુદ્ધિથી એટલે કે રાગદ્વેષથી રહિત પરિણામ વડે પ્રવૃત્તિ કરનાર પુરુષ દ્વારા માત્ર મનથી, અથવા માત્ર શરીરથી, અથવા માનસિક સંકષથી રહિત બન્ને દ્વારા પ્રાણીને ઘાત થઇ જવા છતાં પણ તે પુરુષ કર્મને ઉપચય કરતું નથી. For Private And Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३२ सूत्रकृतागसूत्रे रति स्वभावं निरतिशयमुखरूपं मोक्षम् (अभिगच्छइ) अभिगच्छति प्रामोति, एवंविधः पुमान् मोक्षम् लभत एवेति भावः ॥२७॥ टीका निगद सिद्धा ॥२७॥ एवं भावविशुद्धया शुद्धान्तःकरणेन प्रवर्त्तमानस्य पुरुषस्य पापाऽऽचरणेनाऽपि कर्मबन्धो न जायते, एतदर्थे--पितृपुत्रद्दष्टान्तमाह--सूत्रकारः"पुत्तं पिया" इत्यादि । पुत्तं पिया समारम्भ आहारेज असंजएभुंजमाणो य मेहावी कम्मणा नोवलिप्पइ ॥२८॥ छाया-- पुत्रं पिता समारभ्या हरेद् असंयतः । भुजानश्च मेधावी, कर्मणा नोपलिप्यते. ॥२८॥ प्राप्ति होती है । जिसमें समस्त द्वन्द्व (शारीरिक, मानासिक क्लेश) दूर हो जाते हैं और जो सर्वोत्कृष्ट मुखस्वरूप है । तात्पर्य यह है कि इस प्रकार का पुरुष मोक्ष को प्राप्त करता है ॥२७॥ कोई मतवाला इस से कहता है कि भावशुद्धि से शुद्ध अन्तः करणवाले पुरुष को पापाचरण करने पर भी कर्मबन्ध नहीं होता है इसलिए पिता पुत्र का दृष्टान्त देते हैं-"पुत्तं पिया, इत्यादि । शब्दार्थ--'असंजए-असंयतः" संयमसे रहित 'पिया-पिता' पिता 'पुत. पुत्रम्' अपने पुत्र को 'समारम्भ-समारभ्य' मारकर 'आहरेज-आहरेत्' खालेवे तो ' जमाणो य-भुञ्जानोऽपि' खाताहुवाभी वह पिता 'कम्मणा-कर्मणा' पापकर्म કર્મના ઉપચયને અભાવ થઈ જવાથી તેને નિર્વાણની પ્રાપ્તિ થાય છે. એટલે કે તે સમસ્ત દ્વોથી (શારીરિક અને માનસિક કલેશેથી) રહિત થઈ જાય છે અને સંસ્કૃષ્ટ સુખની પ્રાપ્તિ કરે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે આ પ્રકારને પુરુષ મોક્ષ પ્રાપ્ત ४२ छ. ॥२७॥ કઈ કઈ મતવાળાઓ અવું કહે છે કે ભાવશુદ્ધિની અપેક્ષાએ જેનું અંતકરણ શુદ્ધ હોય છે, એવા પુરુષને પાપાચરણ કરવા છતાં પણ કર્મબન્ધ થતું નથી આ વાતનું समान ४२वा भाटे पितापुत्रनु दृष्टान्त आवामां आवे छे 'पुत्त पिया' त्याहि. ___ा - 'असंजए असं यतः' सयम विनाना 'पिया -पिता' पिता 'पुत्तं-पुत्रम्' पोताना पुत्रने 'समारम्भ समारभ्य' भारीने 'आहरेज-आहरेत्' मासेतो 'भुजमाणो य For Private And Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra समर्थ बोधिनी टोका www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्र. श्रु. अ. १ उ. २ कर्मबन्धे पितृपुत्रन्तः ३३३ अन्वयार्थः- (असंजए) असंयतः = संयमवर्जितः (पिया) पिता (पुत्तं ) पुत्रं, स्वात्मजम् । ( समारम्भ) समारभ्य मारयित्वा । (आहरेज्ज) आहरेत् आहारं कुर्यात् । (भुंजमाणोय) भुञ्जानोऽपि पिता । (कम्मणा) कर्मणा पापकर्मणा । ( नोवलिप्पर) नोपलिप्यते । पापलिप्तो न भवति एवं (मेहावी ) मेधावी साधुरपि कर्मणा नोपलिप्यते ॥ अयं भावः - बौद्धभिक्षवः एवं कथयन्ति -- यत्तू आपदि समापतित स्तदुदरणार्थम् अरक्तद्विष्ठोऽसंयतो गृहस्थः पिता, पुत्रं व्यापाद्य तन्मांस भक्षयन्नपि अशुभकर्मणा नोपलिप्तो भवति । तथा मेवावी, अपि संयतोऽपि तदेवं गृहस्थो से 'नोवलिप्प - नोपलिप्यते' उपलिप्तनहीं होता है उसी प्रकार 'मेहावी - मेधावी ' साधुभी कर्म से उपलिप्त नहीं होता है ॥२८॥ - अन्वयार्थ और टीकार्थ कोई असंयमी पिता अपने पुत्र का घात करके उस का आहार करे तो वह खाता हुआ भी पाप कर्म से लिप्त नहीं होता इसी प्रकार मेधावी साधु भी कर्म से लिप्त नहीं होता | आशय यह है बौद्ध भिक्षुओं का कथन है कि आपत्ति में पड़ा हुआ कोई गृहस्थ उस आपत्ति से पार होने के लिए रागद्वेष से रहित होकर अपने पुत्र को मार कर उसका मांसभक्षण करे तो भी वह पापकर्म से लिप्त नहीं होता । इसी प्रकार संयत ( भिक्षु) भी पाप से लिप्त नहीं होता। इस प्रकार गृहस्थ या साधु शुद्ध अन्तःकरण वाला होकर मांसभक्षण करता हुआ भुञ्जानोऽपि जातो व ते पिता 'कम्मणा-कर्मणा' पाप उभथी 'नोवलिप्पर - नोपलिप्यते' उपलिप्त थता नथी, मेन प्रभाणे 'मेहावी - मेधावी' साधु पशु उभथी उपदिप्त थता नथी ॥२८॥ સુત્રા અને ટીકા કાઇ અસંયમી પિતા પેાતાના પુત્રના ઘાત કરીને તેના માંસના આહાર કરે છે, છતાં પણ શુદ્ધભાવે કરાયેલું આ કાર્ય કરનાર તે પિતા પાપકમથી લિસ થતો નથી. એજ પ્રકારે મેધાવી સાધુ પણ કર્મથી લિપ્ત થતા નથી. આ કથનનુ તાત્પર્ય નીચે प्रमाणे छे. બૌદ્ધ ભિક્ષુ એવુ કહે છે કે આપત્તિમાં આવી પડેલા કોઇ પુરુષ તે આપત્તિને પાર કરવાને માટે, રાગદ્વેષથી રહિત થઈને પેાતાના પુત્રને મારીને તેના માંસનુ ભક્ષણ કરે, તો પણ તે પાપકમથી લિપ્ત થતા નથી. એજ પ્રમાણે સયત (ભિક્ષુ) પણ પાપથી લિપ્ત થતા નથી. આ રીતે અહીં એવું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે કે For Private And Personal Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३४ सूत्रकृताङ्गसूत्र वा भिक्षुर्वा, शुद्धान्तःकरणः मांसं भक्षयित्वाऽपि पापेन कर्मणा नोपलिप्तो भवति । यथाऽरक्तद्विष्टमनसः पितुः पुत्रवधे कृतेऽपि न पापकर्मसमुदयः । तथाऽन्यस्याऽप्यरक्तद्विष्टमनसो जीवववे कृतेऽपि कर्मवन्धो न भवतीति ॥२८॥ साम्प्रतमेत इपगमभिधातुमाईतमतमाह-सूत्रकार:-"मणसा जे" इत्यादि २ , मूलम् मणसा जे पउस्संति, चित तसि ण विजइ-। ९ १० ८. 311 १२ अगवजमतहं तेसि गते संवुडचारिणो॥२९॥ छायामनसा ये प्रद्विपन्ति चित्त तेषां न विद्यते । अनवद्यमतथ्य तेषां न ते संवृनचारिणः ॥२९॥ भी पापकर्म से लिप्त नहीं होता है । जैसे रागद्वेष से रहित पिता को पुत्र का वध करने पर भी पाप कर्म नहीं लगता उसी प्रकार दूसरे भी रागद्वेष से रहित मनुष्य को जीववध करने पर भी कर्मवन्ध नहीं होता ॥२८॥ ___अब इस मत को दूपित करने के लिए सूत्रकार आहेत मत का कथन करते हैं-'मनसा जे' इत्यादि । शब्दार्थ-'जे-' जो मनुष्य मणसा-मनसा' मन से 'पउस्संति-प्रद्विपन्ति' द्वेषकरता है तेसिं-पां' उनका 'चित्त-चित्तम्' चित 'ण विज्जइ-न विद्यते' निर्मल नहीं है, 'तेसि-तेपा' मनसे द्वेषकरने वाले का 'अणवज्ज-अनवद्यम'. अनवद्य कथन 'अतह--अतथं' मिथ्या है 'ते-ते संयुडचारिगो-संवृतचारिणः, संवरयुक्त 'न-न' नहीं है ॥२९॥ ગૃહસ્થ અથવા સાધુ શુદ્ધ અંતઃકરણવાળા થઈને માંસ ભક્ષણ કરે તે પણ પાપકર્મથી લિપ્ત થતા નથી. જેવી રીતે રાગદ્વેષથી રડિત મને ભાવપૂર્વક પુત્રને વધ કરનાર પિતાને પાપ લાગતું નથી, એટલે કે તે કર્મને અન્ય કરતું નથી, એજ પ્રમાણે રાગ દ્વેષથી રહિત હોય એવા કઈ પણ મનુષ્ય દ્વારા જીવને વધ થઈ જાય, તે તેને પણ કમને બન્ધ થતું નથી. એટલે કે તેનું તે કર્મ કમને ઉપચય કરવામાં સહાયભૂત થતું નથી. ર૮ - હવે બૌદ્ધીના આ મતનું ખંડન કરવા નિમિત્તે સૂત્રકાર આહંતમતનું કથન કરે छ. "मणमा जे" या शहाथ --जे से भरा 'मणमा मनमा' भनथी उति प्रतिवन्ति ५ ४२ छ. 'तेसि तेषां तमनु चित-चित्तम् चित्त ‘ण विजय-न विद्यते' निर्मल नथी. 'तेसि-तेषाम्' भनी ३५ ४२वा पाणानु 'अणरज-अनवद्यम्' मन थन 'अतह-अनथम्' भिश्या छे ते ते तसा 'संवुडचारिणो संवृतचारिणः' संय२ युत 'न-न' नथी. ॥ २८॥ For Private And Personal Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलायर्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ.१ उ. २ कर्म बन्धे आतमतमनिरूपणम् ३३५ अन्वयार्थ:-- - . (जे) ये, मनुष्याः (मणसा) मनसा (पउस्संति) प्रद्विषन्ति कमपि जीवं प्रति प्रद्वपं कुर्वन्ति । (तेसिं-तेषां.) (चित्तं) चित्तम् मनः । (ण विज्जइ) न विद्यते न निर्गलं भवितु मर्हति अतः (तेसिं) तेषाम् अनसा प्रद्वेषकरिणां (अगवज्ज) अनवद्यम्-अनवद्यकथनम् (अतह) अतथं मिथ्या, अतः (ते) ते एवं वादिनः (संवुडचारिगो) संवृतचारिणो न न संवरयुक्ताः सन्ति । मनसोऽ शुद्धत्वात् इति । ___अयं भावः-ये पुरुषा किमपि निमित्तमासाद्य मनसा प्रद्वेष कुर्वन्ति तेषां जीवानां मनो नैव विशुद्धं भवति । तथा तै भिक्षुभिः यदभिहितं पूर्व पञ्चविं शतिगाथायां कथितं परिज्ञोपचिता-ऽविज्ञोपचितेर्यापथ-स्वशान्तिकाख्यं कर्मचतुष्टयं पापाय न भवति, तत्र प्रथमः परिज्ञोपचितः पक्षो, यत्-केवलमनसा प्रद्वेषकरणेऽपि न कर्मोपचयो भवति,, कायव्यापाराभावात् इति तन्नैव शोभनम् । मनस एव पापकारणत्वात् । ____ अन्वयार्थ और टीकार्थ.. जो मनुष्य किसी जीव के उपर मन से भी द्वेष करते हैं, उनका मन निर्मल नहीं हो सकता । अतएव उनके मन को निष्पाप कहना मिथ्या है। ऐसा कहने वाले संवर युक्त नहीं हो सकते, क्योंकि उनका मन अशुद्ध है। आशय यह है-जो पुरुप किसी भी निमित्त से मन के द्वारा द्वेष करते हैं उनका मन विशुद्ध नहीं हो सकता है । तथा उन भिक्षुओं ने पहले पञ्चीसवीं गाथा में जो कहा है कि परिज्ञोपचित, अविज्ञोपचित, ईर्यापथ और स्वमान्तिक नामक चार प्रकारके पाप, कर्मबंध के कारण नहीं होते हैं। उनमें पहला पक्ष परिज्ञोपचित है जिसका अर्थ यह है कि केवल मन से द्वेप करने पर સૂત્રાર્થ અને ટીકાર્ય જે માણસ કોઈ જીવ પ્રત્યે મનમાં પણ શ્રેષભાવ રાખે છે, તેનું મન નિર્મળ હઈ શકતું નથી. તેથી તેના મનને નિષ્પાપ કહેવું તે મિથ્યા છે. એવું કહેનાર સંવરયુક્ત હોઈ શક્તા નથી, કારણ કે તેમનું મન અશુદ્ધ હોય છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જે માણસે કઈ પણ નિમિત્તે મન દ્વારા ઠેષ કરે છે, તેમનું મન વિશુદ્ધ હૈઈ શકતું નથી. તથા આગળ રપમી ગાથામાં બૌદ્ધ ભિક્ષુઓની જે માન્યતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે, તે પણ મિથ્યા છે, ત્યાં એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે પરિચિત, અવિપશ્ચિત, ઈર્યાપથ અને સ્વ'નાન્તિક નામના ચાર પ્રકારના, પાપકર્મો કર્મબધમાં કારણભૂત બનતાં For Private And Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे तथहि-कर्मणामुपचये मन एव प्राधान्येन कारणं भवति । मनोरहित केवलकायिकव्यापारेण कर्मोपचयाऽभावस्य भिक्षुभिरेव स्वीकृतत्वात्. । ततश्च यस्य सत्त्वे सत्त्वं, यदभावेऽभावः तस्य तं प्रति कारणत्वावधारणात् । यद्यपि कायव्यापाररहितस्य मनसो न जनकत्वं तथापि "एवं भावविसोहीए निव्वाणमहिगच्छइ" एवं भावविशुद्धया निर्वाणमधिगच्छति, (गा. २७) इति वदता भवतैव केवलं मनसः प्राधान्यस्य स्वीकृतत्वात् । 'तथा चोक्तम्-चित्तमेव हि संसारो रागादि क्लेशवासितम्. । तदैव तैर्विनिर्मुक्तं भावान्न इति कथ्यते. ॥१॥" "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयोः" । भी कर्म का उपचय नहीं होता, क्योंकि वहाँ काय का व्यापार नहीं है, उनका यह कहना समीचन (सत्य) नहीं है वास्तव में मन ही पाप का कारण है । कर्मों के उपचय में मुख्यरूप से मन ही कारण होता है। क्योंकि मनोव्यापार के अभाव में केवल काय के व्यापार से कर्म का उपचय न होना भिक्षुओं ने स्वयं स्वीकार किया है। जिसके होने पर जो हो और जिसके न होने पर जो न हो, वही उसके प्रति कारण समझा जाता है। यद्यपि आप कहते हैं कि काय के व्यापार से रहित मन पाप जनक नहीं होता, फिर भी आपने इस प्रकार भाव की विशुद्धि से निर्वाण प्राप्त होता है, ऐसा कह कर मन की प्रधानता स्वीकार की है। कहा भी है"चित्तमेव हि संसारो" इत्यादि । ___राग आदि क्लेशों से दृषित चित्त ही संसार हैं और रागादि से रहित वही चित्त भवान्त (मोक्ष) कहलाता हैं ॥१॥ નથી. તેમાં પરિચિત નામને પહેલે ભેદ એ વાત પ્રકટ કરે છે કે મન વડે દ્વેષ કરવા છતાં પણ કમને ઉપચય થતું નથી. કારણ કે ત્યાં કાયના વ્યાપારને અભાવ હોય છે. તેમનું આ કથન સત્ય નથી. ખરી રીતે તેમના જ પાપનું કારણ છે. કર્મોના ઉપચયમાં મુખ્યત્વે મનજ કારણભૂત બને છે, કારણ કે મને વ્યાપારને અભાવ હેય એવી પરિસ્થિતિમાં માત્ર શરીરની પ્રવૃત્તિ દ્વારા જ કર્મને ઉપચય ન થવાની વાતને તે બૌદ્ધ ભિક્ષુઓએ પિતે જ સ્વીકાર કરે છે જેના સદૂભાવમાં જે થાય અને જેના અભાવે જે ન થાય તેને જ તેનું કારણ ગણવામાં આવે છે. જો કે આપ એવું કહે છે કે શરીરના વ્યાપારથી રહિત મન પાપજનક હેતું નથી, છતાં આપે જ એવું પ્રતિપાદન કર્યું છે કે ” આ પ્રકારે ભાવની વિશુદ્ધિથી નિર્વાણ પ્રાપ્ત થાય છે. આ પ્રકારના કથન દ્વારા भननी प्रधानताना आपे स्वी॥२ ४ छ. ४ह्यु ५४ा छ -" चित्तमेवहि संसारो" त्या રાગ આદિ કલેશેથી દૂષિત ચિત્ત જ સંસાર છે. અને રાગાદિથી રહિત એજ ચિત્ત मवान्त (भी) ३५ छ.” For Private And Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समगार्थ बोधिनी टीका प्रश्र प. १. उ. २ कर्मबन्धे आहेतपतनिरूपणम् ३३७ __. “मतिविभव नमस्ते यत्समत्वेऽपि पुसाम् परिणमसि शुभांशैः कल्मषां-शैस्त्वमेव ॥ नरकनगरवर्त्मप्रस्थिताः कष्टमेके उपचितशुभ शक्त्या सूर्य सं भेदिनोऽन्ये ॥१॥ एवम्--इपिथेऽपि यदि उपयोगमन्तरेण गच्छेत् , तदा तत्रापि चित्तकलुषतायाः सद्भावेन कर्मबन्यो भवत्येव ।। स्वप्नमध्येऽपि, अशुद्धचित्तसदभागत् यत्किचित् कर्मबन्धो भवत्येव । स च भिक्षभिरपि स्वीकृत एव । “अन्यक्तं तत्सापद्यम्" इत्यादिनेति । अव्यक्तं स्वमादौ संजातमिति ॥ और भी कहा है--'मन एव मनुष्याणाम्, इत्यादि । मनुष्यों को मन ही बन्धन और मोक्ष का कारण है । फिर भी कहा है.---'मतिविभवनमस्ते, इत्यादि । हे मतिविभव (मन)! तुम्हे नमस्कार हो! सब मनुष्य सरीखे हैं मगर तुम पुण्यरूप से और पाप रूप से परिणत होते हो इसी परिणमन के कारण कोई कोई मनुष्य नरकरूपी नगर की राह पर चले गये और कई प्राप्त पुण्य की शक्ति से सूर्य को भेदने वाले बन गए अर्थात सूर्य से भी ऊपर के लोक में चले गये। , इसी प्रकार ईर्यापथ में भी यदि ऊपयोग के विना गमन करे तो वहां चित्तकी कलुषता (मलिनता) विद्यमान होने से कर्मवन्ध होता ही है। स्वम में भी चित्त अशुद्ध होने के कारण कुछ न कुछ कमबन्ध होता ही है और भिक्षुओं ने भी उसे स्वीकार किया ही है क्योंकि वे उसे अव्यक्त पाप कहते हैं । अव्यक्त का अर्थ है--स्वम आदि में होने वाला। qणी मे ५ ४ह्यु छ - "मन एव मनुष्याणाम्" त्या -- મનુષ્યનું મન જ બન્ધન અને મોક્ષનું કારણ છે.” qणी मे ९५ ४युं छे । - "मतिविभवनमस्ते" त्यादि - હે મતિવિભવ (મન)? તને નમસ્કાર હે બધાં મનુષ્ય સરખાં છે, પણ તું પણ રૂપે અને પાપ રૂપે પરિણત થાય છે. એ જ પરિણમનને કારણે કોઈ કોઈ માણસ નરક રૂપી નગરને પળે ચાલ્યા ગયા છે, અને કઈ કઈ માણસે પ્રાપ્ત પુણ્યના પ્રભાવથી સૂર્યને ભેદનારા બની ગયા છે – એટલે કે સૂર્ય કરતાં પણ ઊંચે આવેલા સ્વર્ગલેકમાં પહોંચી ગયા છે. એજ પ્રમાણે ઈર્યાપથમાં (ગમનમાં પણ ઉપયોગ (સાવધાનતા વિના ગમન કરવામાં આવે તે ત્યાં પણ ચિત્તની કલુષતા (મલિનતા) વિદ્યમાન હોવાને લીધે કર્મબન્ધ થાય છે જ સ્વમમાં પણું ચિત્ત અશુદ્ધ હેવાને કારણે વધુ ઓછો કર્મબન્ધ થાય જ છે, અને ભિક્ષાએ પણ તેને સ્વીકાર કર્યો છે, કારણ કે તેમણે તેને વ્યક્ત પાપ કહ્યું છે. અવ્યક્ત એટલે સ્વ આદિની અવસ્થામાં થતું सू. ४३ For Private And Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३८ सूत्रकृताङ्गसूत्रो पुत्रं पिते-त्यादि यदुक्तं तदपि न सम्यक्' यतो मारयामीत्याकारक चित्तं यावन्न परिणमेत्तावत् न केनापि मारयितुं शक्यते । .... ___ एवंभूतचित्तपरिणामे सति कथमक्लिष्टता चित्तस्य संभवेत् । चित्तसंक्लेशे च विद्यमाने कर्मवन्धस्यावश्यमेव सद्भावात् । ___अयं भावः-यावत् पर्यन्तं मनसि विकारो नाऽऽगच्छेत् तावन्मारणव्यापारे कायव्यापारो नैव कथमपि संभवति, विकृते एव मनसि व्यापादनव्यापारसंभवात. विकृतमनोव्यापारपूर्वकक्रियासु प्रवर्तनाद्भवत्येव तत्र सर्वत्राऽपि कर्म बन्ध इति । किं बहुना-अन्यत्राऽपि व्यापादनविषये हिंसकत्वव्यपदेशो दृश्यते । तथाहि---"अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी । संस्कर्त्ताचोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः ॥१॥ इत्यादि .. पिता पुत्र को मार कर खा जाय, इत्यादि कहना भी ठीक नहीं है। जबतक 'मैं इसे मारूं' ऐसा मलिन विचार न हो तब तक कोई किसी को मार नहीं सकता और जब इस प्रकार का विचार होगा तो चित्त अक्लिष्टक्लेश रहित कैसे हो सकता है ? चित्त में क्लेश होने पर कर्मबन्ध अवश्य होता ही है। अर्थात् चित्तमें मलिनता होने पर कर्मवन्ध अवश्य होताही है । आशय यह है-जब तक मन में विकार, न आवे तब तक मार ने में कायका व्यापार किसी भी प्रकार नहीं हो सकता । मन में विकार आने पर ही मार ने की क्रियाका संभव होता है और विकृत मन के व्यापार पूर्वक क्रियाओं में प्रवृत्ति करने से सर्वत्र ही कर्मबन्ध होता है । आधिक क्या कहा जाय, अन्यत्र भी मार ने वाले को हिंसक कहा है-“अनुमंता विशसिता" इत्यादि . 'પિતા પુત્રને મારીને ખાઈ જાય, ઈત્યાદિ સ્થન પણ ઉચિત નથી.” હું અને મારી નાખું,” આ પ્રકારને મલિન વિચાર ઉદ્ભવ્યા વિના કેઈ પણ માણસ કેઈ પણ જીવને ઘાત કરી શકતા નથી. અને જે આ પ્રકારનો વિચાર ઉદ્ભવતું હોય તે ચિત્ત અક્લિષ્ટ (કલેશ રહિત) કેવી રીતે હોઈ શકે ? ચિત્તમાં કલેશને સદ્ભાવ હોય, ત્યારે કર્મબન્ધ અવશ્ય થાય છે જ. એટલે કે ચિત્તમાં મલિનતા હોય, તે કર્મને બન્ધ અવશ્ય થાય છે આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે જ્યાં સુધી મનમાં વિકાર ને આવે, ત્યાં સુધી શરીર દ્વારા, મારવાને વ્યાપાર કઈ પણ પ્રકારે સંભવી શક્તિ નથી મનમાં વિકૃત ભાવ ઉત્પન્ન થાય ત્યારે જ મારવાની ક્રિયા સંભવી શકે છે, અને વિકૃત મનના વ્યાપાર પૂર્વક ક્રિયાઓમાં પ્રવૃત્તિ કરવાથી સર્વત્ર કર્મબન્ધ થાય છે જ. આ બાબતમાં અધિક શું કહી શકાય? અન્ય शलीमा पy भा२नारने सिर २१ स छ " अनुमंता विशसिता" - त्यादि For Private And Personal Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - समार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १३. २ क्रियावादिनामनर्थ परम्परानिरूपणम् ३३९ तत्सिद्धं मारणं सर्वत्र मनोव्यापारपूर्वकमेव । तादृश कर्मणः सकाशाद् भवत्येव कर्मोपचयः इति ॥ २९ ॥ साम्प्रतं क्रियावादिनामेतेषामनर्थपरम्परां दर्शयितुमाह । “इच्चेयाहि" इत्यादि । मूलम्- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २.३. इच्चेयाहि यदिट्ठीहि सोगागारवणिस्सिया । ४. ५ .. ७ सरणं ति मन्नमाणा, सेवंति पावगं जणा - ॥३०॥ छाया- "इत्येताfree frः सातगौरवनिश्रिताः । शरणमिति मन्यमानाः सेवन्ते पापकं जनाः ॥ ३० ॥ अनुमोदन करने वाला, मांसको साफ करने वाला, हनन करने वाला, क्रय विक्रय करने वाला, पकाने वाला, परोसने वाला और खाने वाला' ये सभी घातक कहलाते हैं । इस प्रकार सिद्ध हुआ कि मारना सर्वत्र मनोव्यापार पूर्वक ही होता है और ऐसे कर्मसे कर्म का बन्ध अवश्य होता है ||२९|| अब इन क्रियावादियों को होने वाली अनर्थ परम्परा को बतलाते हैं"च्या" इत्यादि । शब्दार्थ --' इच्चेयाहि-- इत्येताभिः पूर्वोक्त इन 'दिट्टीहि दृष्टिभिः' दर्शनी से 'सायागार णिस्सिया - सातगौरवनिश्रिताः सुखोपभोग में आसक्त परतीर्थिक जन 'सरणं ति मन्नमाना - शरणमिति मन्यमानाः? अपने दर्शनको अपना शरण मान ते हुवे 'पावर्ग सेवंति - पापकं सेवन्ते' पापकर्म का सेवन करता है ॥३०॥ અનુમેદન કરનારા માંસને સાફ કરવાવાળા હનન (હત્યા) કરનાર, કેયવિક્રય કરનારા, રાંધનારા પીરસનારા અને ખાનરા, આ સૌને ઘાતક જ કહેવામાં આવે છે. આ પ્રકારે એ વાત સિદ્ધ થાય છે કે મારવાની ક્રિયા સર્વત્ર મનાવ્યાપારપૂર્વક જ થાય છે, અને એવું કૃત્ય કરવાથી કમના અન્ય અવશ્ય થાય છે. ૧૨૯૫ આ ક્રિયાવાદિઓને કઈ કઈ અનથ પર પરાના અનુભવ કરવા પડે છે. તે સૂત્રકાર પ્રકટ ४२ -- याहि " इत्यादि -- " ... शब्दार्थ' – 'इच्चेयादि-इत्येताभिः' पूर्वोस्त या 'दिट्ठीहि - दृष्टिभिः दर्शनाथी 'सायागारवणिस्सिया- साता गौरवनिश्रिताः सुमोपलोग मां व्यासस्त परतीर्थिन्न 'सरणंतिमनमाना - शरणमितिमन्यमाना' पोताना दर्शनने पोतानु' शरशु भानताथम 'पावत' सेति पावक सेवन्ते पापानु सेवन रे छे. 13 on For Private And Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३४० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूगे अन्वयार्थ:---- ( इच्चेयाहि ) इत्येताभिः पूर्वोक्ताभिः (दिट्ठीहिं) दृष्टिभिः ? (सायागार - वर्णिस्सिया ) सातगौरवनिश्रिताः सुखभोगादौ प्रसक्ताः परतीर्थिकाः ? (सरणं ति मनमाणा ) शरणमितिमन्यमानाः स्वकीयदर्शनम्, स्वस्य शरणमितिमन्यमानाः । (पावगं सेर्वति) पापकं सेवन्ते पापं कर्म सेवन्ते ! अयमर्थ:-- चतुर्विधं कर्म पापाय न भवतीत्येवं दर्शनमाश्रिताः परतीर्थिकाः सुखभोगादावासक्ता यत्किंचन कारिणः आमर्यादितभोजनाच "संसार सागरादुद्धारे समर्थमस्मदर्शन" मिति मन्यमाना विपरीताऽनुष्ठान कारणेन सावद्यमेव कर्मोपार्जयन्ति । एवं व्रतिनोऽपि दीक्षाग्रहणादिना साधुसारूप्यं प्राप्ता अपि न ते साधवः, किन्तु प्राकृतपुरुषसदृशा एव ते पापकरणे एव अन्वयार्थ और टीकार्थ इन पूर्वप्रतिपादित दृष्टियों से सुखभोग आदि में आसक्त, ये परतीर्थिक अपने दर्शन को अपने लिए शरणभूत मानते हुए पाप का सेवन करते हैं । आशय यह है परिज्ञोपचित, अविज्ञोपचित, ईर्यापथ और स्वमान्तिक ये चार प्रकार का कार्य पापजनक नहीं होता, इस प्रकार के मत का आश्रय करके ये परतीर्थिक सुखभोग आदि में आसक्त होते हैं, जो मन में आता है वही करते हैं, मर्यादा हीन खान पान करते हैं और 'हमारा दर्शन संसार सागर से उद्धार करने में समर्थ है 'ऐसा मानते हुए विपरीत क्रियाएँ करके पाप कर्मों को उपार्जन करते हैं। इसी प्रकार उनमें जो व्रती हैं, वे दीक्षा धारण करके साधुजैसे बन जाते हैं । परन्तु वे वास्तव में साधु नहीं हैं । For Private And Personal Use Only સૂત્રા અને ટીકા પૂર્વકિત વિચારણાને અધારે સુખસાગ આદિમાં આસકત રહેનાર તે પરતીર્થિક પોતાના દનશાસ્ત્રને પોતાને માટે શરણભૂત માનીને પાપાકમાંનુ સેવન કરે છે. આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે પિરજ્ઞોપચિત, વિજ્ઞોપચિત, ઇર્યાપથ અને સ્વામ્રાન્તિક આ દ્વાર પ્રકારનાં કાર્યાં પાપજનક હાતાં નથી. આ પ્રકારના મતના આશ્રય લઇને પરતીથિ કો સુખભાગ આદિમાં આસકત રહે છે. તેઓ તેમની ઇચ્છા પ્રમાણે આચરણ કરે છે- તે મર્યાદાહીન ખાનપાન કરે તે. અમારું દર્શન સંસારસાગરને પાર કરાવવાને સમર્થ છે’ એવું માનીને વિપરીત ક્રિયાએ કરીને પાપકર્મોનું ઉપાર્જન કરે છે એજ પ્રમાણે તેમનામાં જે વ્રતી છે તેઓ દીક્ષા લઈને સાધુ બની જાય છે પરન્તુ તે વાસ્તવિક રૂપે સાધુ જ હાતા નથી તેએ સામાન્ય લોકોની જેમ પાપકમાં પ્રવૃત્ત રહેતા હેાય છે Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थबोधिनी टीका प्र.अ. अ. १७.२ क्रियावादिनामनर्थ प्रदर्शने नौका हान्तः ३४५ प्रवृत्ताः । यथा-- प्राकृतपुरुषाः अज्ञानप्रधानतया सावद्यकर्मण्येव प्रवृत्ताः भवन्ति, सहदिमेऽषि तिन इति. ॥३०॥ एतस्यैवार्थस्य पोषकं दृष्टान्तं दर्शयति सूत्रकारः-- "जहा" इत्यादि । मूलम् --- १ ३ ४ २ जहा अस्साविण गावं जाइअंधो दुरूहिया ८ ७ ६ इच्छई पारमागंतु अंतरा य विसीगइ ||३१|| छाया--- "यथा आस्राविणीं नावं जात्यन्धो दूरु | इच्छति पारमागन्तुम् अन्तराच विषीदति ॥ ३१ ॥ अन्वयार्थ:--- ( जहा ) यथा येन प्रकारेण । ( जाइ अधो) जात्यन्धः ! स्वभावादेव - सामान्यजनोंके समान ही पापकर्म में ही प्रवृत्त रहते हैं । जैसे सामान्य लोग अज्ञान की प्रधानता के कारण सावद्यकार्यों में ही प्रवृत्ति करते रहते हैं, उसी प्रकार ये व्रती भी सावध कर्म करते हैं ||३०|| इसी कथन को पुष्ट करने वाला दृष्टान्त सूत्रकार दिखलाते हैं " - जहा " इत्यादि । शब्दार्थ - -'जहा -यथा' जैसे 'जाइअंघो - जात्यन्धः ' जन्मान्ध 'अस्साविणि आखाविणि' छिद्रवाली 'णावं - नावम्' नौकापर 'दुरुहिया - दूरुह्या बैठकर 'पार मांगतु - पारमागन्तुम्' पार पहचनेकेलिये 'इच्छइ - इच्छति' इच्छारखता है परंतु 'आरा य--अन्तरा च ' बीचमेंही 'विसीय - विषीदति बजाता है ||३१|| अन्वयार्थ जैसे कोइ जन्मान्ध पुरुष छेदों वाली नौका पर आरूढ होकर જેવી રીતે સામાન્ય લોકો આજ્ઞાનને કારણે સાવદ્ય કાર્યાં કર્યાં કરે છે, એજ પ્રમાણે ते व्रती (लिक्षुमो) पशु सावध अर्यो उरता होय छे. ॥३०॥ એજ કથનનું સમર્થન કરવામાટે સૂત્રકાર નીચેનું દૃષ્ટાન્ત આપે છે.- “ના” ઇત્યાદિ शब्दार्थ –'जहा-यथा' प्रेम 'जाइ 'धो-जात्यन्धः' भन्थी आंधी 'अस्साविर्णि-- आस्राविणी' छिद्रवाणी 'नाव' नायम्' छोडी उपर 'दुरुहिया दुरुह्य' मेसीने 'पारमागंतु परमागन्तुम्' सामेडिनारे पडवा भाटे 'इच्छा इच्छति ४२ राजे छे परंतु 'अंतराय -अन्तरा च' या 'विसीय विषीदति डूणी लय छे 11391 -:सूत्रार्थ: જેવી રીતે કોઇ જન્માન્ધ પુરુષ છિદ્રોવાળી નૌકામાં બેસીને કોઇ નદી અથવા For Private And Personal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्ने रूपप्रदर्शकचक्षुर्विकलः पुरुषः (अस्साविणिं) आखाविणीं सच्छिद्रां (गाव) नाव= नौकाम्. । (दुरूहिया) दूरुह्य आरुह्य, (पारमागंतु) पारमागन्तुम्= पारं प्राप्तुम् (इच्छइ) इच्छति, परन्तु (अन्तरा य) अन्तरा च मध्ये एव । विसीयई, विषीदति जलमग्नो भवति । यथा स्वभावादेव रूपदर्शनविकलः पुरुषः सच्छिद्रां नावम् अधिरुह्य नद्याः पारं गन्तु मिच्छन् नौकायाः सच्छिद्रतया जलपूरणात् जलमध्ये एव विषीदन् प्राणान्तिकं कष्टमनुभवति । तथा प्रकृतेऽपि परतीथिकानां गतिरिति भावः ॥३१॥ सम्प्रति दृष्टान्तं दान्तिके योजयति सूत्रकारः 'एवं तु' इत्यादि । मूलम्-- एवं तु समणो एगे मिच्छदिट्ठी अणारिया । संसारपारकखी ते संसारं अणुपरियडंति ॥३२॥ छया --- "एवं तु श्रमणा एके मिथ्यादृष्टयोऽनार्याः । संसारपारकांक्षिणस्ते संसारमनुपर्यटन्ति, ॥३२॥ पार पाने की इच्छा करताहै, किन्तु वह बीच में ही विषाद को पाप्त होता हैपानी में डूब जाता हैं ॥३१॥ -टीकार्थ___अर्थात् जन्म से ही नेत्रहीन अन्धा पुरुष छेद वाली नाव पर चढ कर नदी के पार पहुँचना चाहता है। परन्तु छेद होने के कारण नौका जल से. भरजाती है और डूब जाती है । तब जल के मध्य में ही वह अन्धा प्राणान्तिक कष्ट का अनुभव करता हैं । इन परतीथिकों की भी ऐसी ही गति होती है ॥३१॥ ... સાગરને પાર કરવાની ઈચ્છા કરે છે, પરંતુ વચ્ચેજ તેની નૌકા ડૂબવાથી તે વિષાદયુક્ત થાય છે–ડૂબી જાય છે ૩૧ - 12 - એટલે કે જન્મથી જ આંધળો હોય એ કે પુરુષ નદી અથવા સમુદ્રને પાર કરવાની ઈચ્છાથી કોઈ છિદ્રોવાળી નૌકામાં ચડી બેસે છે. પરંતુ નૌકામાં છિદ્રો દ્વારા પાણી ભરાઈ જવાથી તે નૌકા ડૂબી જાય છે. ત્યારે જળમાં ડૂબતો તે માણસ પ્રાણાન્તિક કને અનુભવ કરે છે. આ પરતીથિકની પણ એવી જ દશા થાય છે ૩૧ For Private And Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयावार्थ बोधिनो टीका प्र. शु. अ. ! उ. २ दृष्टान्तस्स सिद्धान्ते निदर्शनम् ३४३ __ अन्वयार्थ:--- (एवंतु) एवंनु= अनेन प्रकारेण (एगे) एके केचित् (मिच्छदिठी) मिथ्या दृष्टयः । (अणारिया) अनार्याः (समणा) श्रमणाः (ससारपारकंखीते) संसारपारकांक्षिणस्ते (संसार) संसारमेय (अणुपरियडंति) अनुपर्यटन्ति संसारे एवपर्यटनं कुर्वन्ति । यथाऽन्धः सच्छिद्रां नावमधिरुह्य पारं गन्तुमिच्छन् पारमनासाद्य नद्यामेव विधूर्णितो भवति तथा जात्यन्धसदृशा इमे दृष्टिमन्तोऽ अब सूत्रकार दृष्टान्त को दान्तिक से जोड़ते हैं- "एवं तु समणाएगे"इत्यादि। . शब्दार्थ--'एवंतु-- एवंतु' इस प्रकार 'एगे-एके' कोई 'मिच्छद्दिद्वी-मिथ्या दृष्टया' मिथ्यादृष्टिवाले 'अणारिया-अनार्याः' अनार्य 'समणा-श्रमणाः' श्रमण संसारपारकंखिते-संसारपारकांक्षिणस्ते' संसार से पार पहोंचने की चाहना'. करते हैं परंतु वे 'संसार--संसारम्' संसारमें 'अणुपरियटंति-अनुपर्यटन्ति' फिरते रहते हैं ॥३२॥ __ अन्वयार्थ..इसी प्रकार कोई कोई मिथ्यादृष्टि और अनार्य श्रमण, संसार से पार होने की इच्छा करते हैं, किन्तु वे संसार में ही पर्यटन करते हैं। आशय यह है कि जैसे अन्धा आदमी सछिद्र नौका पर आरूढ होकर पार पहुंचना चाहता है. मगर पार तक न पहुँच कर बीच में ही विपत्ति को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार जन्मान्ध के समान ये मिथ्यादृष्टिवाले अनार्य श्रमण હવે સૂત્રકાર ઉપર્યુક્ત પ્રાન્તને દાર્જીનિક સાથે જોડીને, જે અર્થ ફલિત થાય छे, ते ५४८ ४२ छ.-"एवं तु समणा एगे" त्या - शाय – 'पवत एवं तु ॥ प्रभाव 'एगे-एके' Us 'मिच्छट्टिी-मिथ्याद्रष्टयः' मिथ्या टिवाणायो 'अमारिया- अनार्योः' मनाय'' 'समणा श्रमणाः' श्रम संसार पारखि ते-संसारपारकांक्षिणस्ते संसारथी पार पडायवानी याइना ४२ छ परंतु तमा संसार संसारम्' संसारमा अणुपरियति अनुपर्य यटन्ति' ३२ता २ छे. ॥३२॥ मन्वयार्थ - એજ પ્રમાણે કઈ કઈ મિથ્યાષ્ટિ અને અનાર્ય શ્રમણે પણ સંસારસાગરને પાર કરવાની ઈચ્છા કરે છે, પરંતુ તેમની તે ઈચ્છા સફળ થવાને બદલે તેઓ સંસારમાં જ પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. જેવી રીતે આંધળે માણસ છિદ્રોવાળી નૌકામાં બેસીને નદી અથવા સાગરને પાર જવાની ઈચ્છા કરે છે. પરંતુ તેને પાર પહોંચી શકવાને બદલે વચ્ચેજ વિપત્તિમાં ફસાઈ જાય છે-ડૂબી જાય છે. એ જ પ્રકારે તે જન્માન્યના જેવાં For Private And Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५४ सूत्रकृताङ्गसूबे • नार्याः श्रमणाः स्वकीयदर्शनरूपां नौकामारुय मोक्षाभिलाषवन्तः, चतुर्विध कर्मणामुपचयो न भवतीति मिथ्याशिक्षया संसारमेव चतुर्गतिसंसरण रूपमनुपर्यटन्ति । वारं वारं तत्रैव संसारे जन्ममरणजराव्याध्यादि क्लेशमनुभवन्तोऽनन्तकाले परिभ्रमन्ति न तु कदाचिदपि मोक्षसुखमामवन्ति । कारणानुरूपं कार्यम् भवतीति नियमाद् मोक्षगमने शास्त्रं सदुपदेश प्रदानेन कारणं भवति ॥ ३२ ॥ टीका यत् शास्त्रं सर्वज्ञप्रणीतं तत्तु निर्दुष्टतया निर्दोषान् पदार्थान् प्रतिपाद यन् प्राणातिपातविरमणादिमार्गे पुरुषं प्रवर्त्तयन् मोक्षाय पर्याप्तं भवति । यस्मिन् शास्त्रेतु हिंसाकर्मणामेवोपदेशो विद्यते तादृशशास्त्रेण कथं मोक्षसंभावनाऽपि संभवेत् । 7 अपने दर्शन रूपी नौका पर आरूढ होकर मोक्ष की अभिलाषा करते हैं, मगर 'चार प्रकार के कार्यों से कर्मका उपचय नहीं होता, इस खोटी सीख के. कारण चारगति रूप संसार में ही परिभ्रमण करते हैं अर्थात् संसार में ही बार बार जन्म जरा मरण व्याधि आदि के क्लेशों को अनुभव करते हुए अनन्तकाल तक भटकते रहते हैं । वे कभी मोक्षसुख को प्राप्त नहीं करते हैं । कार्य, कारण के अनुरूप ही होता है, इसी नियम के अनुसार शास्त्र सदुपदेश देने में कारण होता है ||३२|| टीकार्थ जो शास्त्र सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत होता है, वह समस्त दोषों से रहित होने के कारण, पदार्थों की सत्य प्ररूपणा करता है और पुरुष को हिसा विरति મિથ્યાદ્ધિ અનાર્ય શ્રમણા પણ પાતના દર્શનરૂપી નૌકામાં બેસીને સંસારસાગરને પાર કરવાની-મોક્ષ પ્રાપ્ત કરવાની ઇચ્છા કરે છે. પરન્તુ ચાર પ્રકારના કાર્યાંથી કા ઉપચય થતા નથી, એવી ખેાટી માન્યતાંને કારણે ચાર ગતિ રૂપ સંસારમાં પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. એટલે કે સંસારમાંજ વારંવાર જન્મ, જરા, મરણ, વ્યાધિ આદિ જન્ય કલેશેાના અનુભવ કરતાથકા અનન્તકાળ સુધી ભટકતા રહે છે. તે કદી પણ મેક્ષ રૂપ પરમ સુખની પ્રાપ્તિ કરીશકતા નથી. કા, કારણને અનુરૂપ જ હાય છે. આ નિયમ અનુસાર શાસ્ત્ર સદુપદેશ દેવામાંજ કારણભૂત થવુ જોઇએ. ૩રા - टीअर्थ - જે શાસ્ત્ર સજ્ઞ દ્વારા પ્રણીત હોય છે. તે સમસ્ત દોષોથી રહિત હોવાને કારણે પદાર્થની સત્ય પ્રરૂપણા કરે છે, અને પુરુષ ને અહિંસા આદિના માર્ગે પ્રવૃત્ત કરે છે, For Private And Personal Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समयार्थ बोधिनो टीम प्र. . अ. १ उ. २ दृष्टान्तस्य सिध्धान्ते निदर्शनम् ३४५० बौद्धादि शास्त्रं हिंसादिहले कर्म उपदिशति तादृशशास्त्राऽनुरागेण कथमिव तेषां मोक्षः अपितु संसारपर्यटनमेवाऽभूत् भवति भविष्यति च । कदापि तेषां संसारबन्धनान्न मोक्ष इति ||३२|| Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इतिश्री विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ--प्रसिद्धवाचक - पञ्चदशभाषाकलित--ललितकलापालापकप्रविशुद्ध गद्यपद्यनेकग्रन्थ निर्मापक वादिमानमर्दक-श्री शाहल पति कोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनाचार्य, पदभूषित कोल्हापुरराजगुरु बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर पूज्य श्री घासीलाल न्रति विरचितायां सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य समयार्थबोधिन्याख्यायां व्याख्यायां समयनामक-प्रथमाध्ययने द्वितीयोदेशकः समाप्तः १ - २ (अहिंसा) आदि के मार्ग में प्रवृत्त करता है । इस कारण वह मोक्ष प्रदान करने में समर्थ होता है । मगर जिस शास्त्र में हिंसा का उपदेश विद्यमान हो, उस शास्त्र से मोक्ष प्राप्त होने की संभावना भी कैसे की जा सकती है ? बौद्ध आदि का ara हिंसा बहुल कर्मका उपदेश करता है । ऐसे शास्त्रमें अनुराग होने से उन्हें मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकता है ? ऐसे शास्त्र से तो भवभ्रम ही हुआ है होता है और भविष्य में होगा । अतएव उनका संसारबन्धन से कभी छुटकारा नहीं हो सकता ||३२|| || समय नामक प्रथमाध्ययन का द्वितीयदेशक समाप्त || તે કારણે તે મેક્ષ પ્રદાન કરવાને સમર્થ હોયછે. પરન્તુ જે શાસ્ત્રમાં ડિસાના જ ઉપદેશ વિદ્યમાન હાય, તે શાસ્ત્રને આધારે માક્ષ પ્રાપ્ત કરવાનું કેવી રીતે સ ંભવી શકે ? २५. ४४ બૌદ્ધ આદિ પરતીર્થિકોનાં શાસ્ત્ર હિંસા પ્રધાન કના ઉપદેશ આપે છે. એવા શાસ્ત્રોમાં અનુરાગ રાખનારને મોક્ષ કેવી રીતે પ્રાપ્ત થઈ શકે ? એવાં શસ્ત્રોના આશ્રય લેનાર માણસો ભૂતકાળમાં પણ ભવભ્રમણ કરતા હતા વર્તામાનમાં કરે છે. અને ભવિષ્યઆ પણ કરશે આ પ્રકારે તે કદી પણ સ ંસાર બ ંધનમાંથી છુટકારો મેળવી શકતા નથી. ॥ સમય નામના પહેલા અધ્યયનના આજે ઉદ્દેશક સમાપ્ત For Private And Personal Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अथ तृतीयोद्देशकः प्रारभ्यतेउक्तो द्वितीयोद्देशः अथ तृतीयोद्देश आरभ्यते, अस्य पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः-पूर्वम् उद्देशद्वये स्वसमयपरसमयप्ररूपणा कृता, सैवात्राभिधीयते । अथवा पूर्व कुदृष्टीनां दोषाः प्रदशिताः, अत्रापि तेषामाचारदोषा एव प्रदयन्तेइति सम्बन्धेन संप्राप्तस्यास्योदेशकस्येदमादिसूत्रमाह-जंकिंचि उ' इत्यादि जं किंचि उ पूइकडं, सइढी मागं तु मीहिंयं ९ १० ११ १२ सहस्संतरियं मुंजे, दुपख चेव सेवइ ॥१॥ छायायत्किश्चित्तु पूतिकृतं, श्रद्धावताऽऽगन्तुकेभ्य ईहितम् । सहसान्तरित भुञ्जीत, द्विपक्षं चैव सेवते ॥१॥ तीसरे उद्देशेका प्रारंभद्वितीय उद्देश कहा जा चुका । अब तीसरा आरंभ किया जाता है। तीसरे उद्देश का पहले के साथ यह संबन्ध है सो निरूपण करते हैं-पहले दो उद्देशको में स्वसमयपरसमय की प्ररूपणा की गई है। वही यहां भी कही जाएगी। अथवा पहले मिथ्यादृष्टियों के दोष प्रदर्शित किये गये हैं। यहाँ भी उनके आचार संबन्धी दोष ही दिखलाए जाएँगे यही दूसरे और तीसरे उद्देश का संबंध है इस संबंध से प्राप्त इस तीसरे उद्देश का यह पहला सूत्र है-"जं किंचि उ" इत्यादि । ત્રીજા ઉદ્દેશાને પ્રારંભબીજો ઉદેશક પૂરે થયે હવે ત્રીજા ઉદ્દેશકને આરંભ થાય છે. બીજા ઉદેશક સાથે તેને સંબંધ આ પ્રકારનું છેપહેલા ઉદેશકમાં સ્વસમય (જૈન સિદ્ધાંત) અને પરસમય (જૈન સિવાયના સિદ્ધાંત) ની પ્રરૂપણ કરવામાં આવી છે આ ઉદ્દેશકમાં પણ એજ વિષયનું નિરૂપણ ચાલુ છે. બીજા ઉદ્દેશકમાં મિથ્યાષ્ટિઓને દોષે પ્રકટ કરવામાં આવ્યા આ ઉદ્દેશકમાં પણ તેમના આચારના દોષ બતાવવામાં આવશે બીજા ઉદ્દેશક સાથે ત્રીજા ઉદ્દેશકને આ પ્રકારને સંબંધ સમજે આ ત્રીજા ઉદ્દેશકનું પહેલું સૂત્ર આ પ્રમાણે છે 'नं किंचि उ' त्याह For Private And Personal Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. . अ. १ उ. ३ मिथ्याष्टिनामाचारदोषनिरूपणम् ३४७ अन्वयार्थ:'जं किंचि उ' यत्किश्चित्तु स्वल्पमपि न तु प्रचुरं, तत् पूइकडं पूतिक तम आधाकर्माद्याहारसिक्थेनापि संमिश्रं न तु साक्षादाधाकर्म तदपि न स्वकृतम् अपि तु सड्ढीमागंतु मीहियं श्रद्धावता आगन्तुकेभ्य ईहितम्, श्रद्धा वता मुनिभिक्षादानश्रद्धायुक्तेन केनापि श्रावकेण आगन्तुकेभ्यो मुनिभ्यः आगछन् मुनिनिमित्तम् ईहितं चेष्टितं सम्पादितमित्यर्थः, तच तादृशमाहारजातं यदि सहस्संतरियं सहस्रान्तरितम्-आगन्तुकमुनिनिमित्तमाश्रित्य निष्पादितस्याधाकर्माहारस्य सिक्थेन अन्यान्यसंमिलनेन सहसतममाहारजातं समिश्रितं शब्दार्थ-'ज किचि उ-यत् किंचित्तु' थोडासाभी 'पुइकडं-प्रतिकृतम्' आधाकर्मादि कणसे मिश्रित आहार अशुद्ध है 'सड्ढी-श्रद्धावता' श्रद्धावान् पुरुषने 'आगंतुमीहियं-आगन्तुकेभ्य ईहितम्' आनेवाले मुनियों के लिये बनाया है ऐसा आहारको 'सहस्संतरियं-सहस्रान्तरितम्' हजार घरका अन्तरदेकर भी 'मुंजे-भुञ्जीत' खाताहै तो वह 'दपक्खं चेव-द्विपक्षं चैव' गृहस्थ और साधु दोनों पक्षका ‘सेवइ--सेवते' सेवन करता है ॥१॥ -अन्वयार्थजो अत्यन्त अल्प भी आहार पूतिकृत है अर्थात् आधाकर्मी अहार के एक सीथ से भी मिश्रित है-जो साक्षात् आधाकर्मी नहीं है और जो मुनि को भिक्षा देने की श्रद्धा वाले किसी गृहस्थ ने दूसरे आगन्तुक मुनियो के निमित्त बताया है, ऐसा आहार की एक सीथभी यदि सहस्रान्तरित हो अर्थात् एक से दूसरे के पास, दूसरे से तीसरे के पास अर्थात हजार घरों के अन्दर चला गया हो, फिर भी मुनि यदि उसका उपभोग करता है तोवह ____wat --ज किवि उ-यत् किंचित्तु' थोड प 'पुईकड पूतिकृतम्' आधारमादि मारनी सीथथी ५ मिश्र राय ते २२ अशुद्ध छे. 'सट्ठी-श्रद्धावता' श्रद्धावान् पुरुषने 'आग'तुमीहिय-आगन्तुकेभ्य ईहितम्' मावा पाय भुनियाने भाटे मनापेस डाय मे माडा२नु सहस्संतरिय-सहस्रान्तरितम् ॥२ ५२नुमत२ ययुद्धाय तो प 'भुजे-भुञ्जित' माय छे, तो ते 'दुक्ख चेव-द्विपक्ष चैव' गुस्था भने साधु भन्ने पक्ष सेवई-सेवते' सेपन ४३ छ. ॥ १ ॥ -मन्वयार्थ - જે આહારને અલ્પમાં અલ્પ ભાગ પણ પૂતિકૃત હોય એટલે કે આધાકર્મ આદિ દેષયુક્ત આહારના એક કણથી પણ મિશ્રિત હોય, જે આહાર સાક્ષાત્ આધાંકમી ન હોય અને જે આહાર કોઈ અન્ય મુનિઓને નિમિત્તે કઈ શ્રદ્ધાળુ ગૃહસ્થ વડે તૈયાર કરાવવામાં આવ્યું હોય, એવા આહાર નીસીમાત્ર પણ સત્યાન્તરિત હોય (એક ઘેરથી બીજા ઘરે. બીજાથી ત્રીજા ઘરે એમ હજારમાં ઘરે ચાલ્યો ગયો હોય) છતાં પણ કઈ મુનિ જે તેને For Private And Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४८ सूत्रकृताङ्गसूत्र ... ... .... . . .. भवेत्तदपि यदि मुनिः (मुंजे) भुञ्जीत तदा सः दुपखंचेव द्विपक्षेचैव साधु पक्षं गृहस्थपक्षं च सेवइ सेवते- स एतादृशाहारोपभोक्ता मुनिः साधुपक्षजनितस्य गृहस्थपक्षजनितस्य च दोषस्य भागी भवतीति भावः ॥सू० १॥ टीका-- एतावता एतत् फलितं य आहारः श्रद्धालुभिः श्रावकैरागन्तुकमुनिभ्यः सम्पादितः तस्य किश्चिदाधाकर्मविशिष्टत्वात् सहस्रगृहान्तरितस्यापि तस्याहारस्यैककणयुक्तस्यापि आहारस्य भक्षणे यदा श्रमणस्य साधुगृहस्थरूपद्विपक्षसेवनजनितदोषो भवति तदा किमुत वक्तव्यं स्वयमेव सम्पूर्णाहा स्वार्थ निर्माय भक्षयतः शाक्यभिक्षुप्रभृतिसाधुवर्गस्य ते खलु शाक्यभिक्षुप्रभृति साधवः सुतरामेव तथाविधाहारसेविनो द्विपक्षाश्रितदोषभाजो भवन्तीति भावः दोनों पक्षों का अर्थात् साधु और गृहस्थ पक्ष का सेवन करता है वह साधु होता हुआ भी गृहस्थ के समान है। अर्थात् वह साधुपक्ष जनित और गृहस्थपक्ष जनित दोष का भागी होता है ॥१॥ ___ -टीकार्थतात्पर्य यह है कि जिस आहार को श्रद्धालु गृहस्थ श्रावक ने साधुओ के निमित्त बनाया है उस आहार के एक भी कग से युक्त आहार को हजार घर व्यवधान देकर भी खाने वाले मुनि को जब साधु गृहस्प दोनो पक्षाश्रित दोष लगता है तब दूसरे साधु की तो बात ही क्या है जो कि अपने लिए ही स्वयं बनाकर खाने वाले होते हैं ॥१॥ ઉપગ કરે તે તે બન્ને પક્ષોનું સેવન કરે છે, એટલે કે સાધુ અને ગૃહસ્થ પક્ષનું સેવન કરે છે. તે સાધુ હોવા છતાં પણ ગૃહસ્થની સમાનજ એટલે કે તે સાધુપક્ષ જનિત અને ગૃહસ્થ પક્ષ જનિત દોષને ભાગી બને છે. टी - આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જે આહાર કઈ શ્રદ્ધાળુ શ્રાવકે સાધુઓને નિમિતે બનાવ્યો હોય એવા આહારને એક કણ પણ જે આહારમાં ભળેલ હોય એ આહાર સહસ્ત્રાન્તરિત હજાર ઘેર લઈ જવા હોય તે પણ એવા આહાર ઉપભોગ કરનાર સાધુને પણ જે સાધુ અને ગૃહસ્થ, આ બન્ને પક્ષાશ્રિત દાય લાગે છે, તે જે સાધુઓ પિતાને માટે પિતાની જાતે જ આહાર બનાવીને ખાય છે, તેમની તે पात २८ शी ४२वी ! ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. अ. १ उ. ३ आधाकर्माद्याहारभोजने मत्स्यदृष्टान्तः ३४९ आधामिकाहारमोजिनां कीदृशं कर्मफलं भवतीति प्रतिपादनाय प्रथममनुरूपं दृष्टान्तं गाथाद्वयेन प्रदर्शयति-तमेव, इत्यादि 'उदगम्स' इत्यादि' मूलम्-- तमेव अविषाणता' विसमंसि अकोविया । मच्छा वेसालिया चेव.उदगस्साऽभियागमे ॥२॥ उदगस्त पभावण मुकं णिवं तर्मिति उ । ठेकेहि य कंकहि य अमिसत्यहि त दुही ॥३॥ छाया-- तमेव अविजानन्तो विषमे अकोविदाः । मत्स्या वैशालिकाश्चैव, उदकस्याभ्यागमे ॥२॥ उदकस्य प्रभावेण शुष्क स्निग्धं तमेत्य तु । ढङ्केश्च कद्देश्चैवाऽऽमिपार्थिभिस्ते दुःखिनः ॥३।। आधार्मिक आहार का सेवन करने वालों को कैसा फल भोगना पड़ता है, यह कहने के लिए प्रथम दो गाथाओं से दृष्टान्त दिखलाते हैं" उदगम्स" इत्यादि। ___शब्दार्थ-'तमेव-तमेव' उस आधाकमिक आहरके दोपों को 'अवियाणता -अविजानन्तः' नहीं जानते हुए 'विसमंसि अकोविया-विषमे अकोदिदाः' अष्टविध कर्षक ज्ञानमें अथवा संसार के ज्ञान में अनिपुग पुरुष दुही-दुखिनः' दःखी होते हैं 'वेसालिया मच्छा-वैशालिका भत्स्याः' वैशालिजाति के मत्स्य 'उद्गस्याभियागमे-उदकस्याभ्यागमे' जलकी रेल (बाढ) आनेपर 'उदगस्सपभावेण-उदकस्य प्रभावेण' जलके प्रभावसे 'सुकं-शुष्क, सुके हुवे तथा 'णिद्धं આધાકર્મ દોષયુકત આહાર ની સીમાત્રનું સેવન કરનાર સાધુઓને કેવું ફળ ભોગવવું પડે છે, તે હવેની બે ગાથાઓમાં દૃષ્ટાન દઈને સમજાવવામાં આવે છે "उदगस्त" त्याह साथ - तमेव- मेव' मे २५१५मि' मा२ना द्वेषाने 'अधियाण ता-अविजानन्तः' ही adge विसमसि अकोविया-विषमे अकोविदाः' मटविध मना ज्ञानमा २५4॥ २२ना शानमा मनिषा) ५३५ 'दुही दुःखिनः' माई हु थाय छे. 'वेसाल'. मच्छा-शालिकाः मत्स्याः' वैशालीताना भल्य 'उदगस्साभिवागमे-उदकस्याभ्यागमें ५४ीनी २८ (धुर) भाववाना समय 'उदगस्स पभावेण-उदकस्य प्रभावेण For Private And Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५० सूत्रकृताङ्गसूत्रे __अन्वयार्थ:---- (तमेव) तमेव---अधाकमिकाहारस्य दोषमेव (अवियाणंता) अविनानन्तः (विसमंसि अकोविया) विषमे अष्टविधकर्मवन्धे चतुर्गतिकसंसारे वा अकोविदाः अपण्डिताः मुनयः (दुही) दुःखिनो भवन्ति । के इव इत्याह---यथा 'वेसालिया मच्छा' वैशालिका वैशालिकजातीया मत्स्याः (उद गस्साऽभियागमे) उदकस्याभ्यागमे (उदगस्स पभावेणं) जलप्रवाहस्य प्रभावेण (सुकं) शुष्कं तथा (णिद्धं) स्निग्धं क्लिनंच (तं) तत्स्थानं (इंति) यान्ति प्रामु वन्ति तत्र (ते) (आमिसत्थेहि) आमिषार्थिभिः--मांसार्थिभिः (ढंकेहि य कंकेहि य) ढङ्कःककैश्च पक्षिभिः खाद्यमानाः (दुही) दुःखिनो भवन्ति तथैव आधाकर्म सेविनः साधवोऽपि दुःखिनो भवन्तीति भावः ॥२-३॥ टीका--- आधाकाहारसेवनजन्यदोषानभिज्ञाः ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मबन्धनज्ञाना प्रवीणाः कथमयं कर्मबन्धो भवति कथं वा न भवति ? कथं वाऽयं संसारस्निग्ध' गिले 'त--तम्' उस स्थानको 'इंति--यान्ति' प्राप्त करते हैं कि 'आमिसत्थे' हिं-आमिषार्थिभिः' मांसार्थी 'ढंकेहि य--ककेहि य' ढकैः ककैश्च, ढङ्क और कंक पक्षि द्वारा 'दुही-दुःखिनः' दुःखी होते हैं उसी प्रकार आधाकर्म आहार सेवन करने वाले दुःखी होते हैं ॥२-३॥ -अन्वयार्थआधाकमित आहार के दोष को ही न जानते हुए आठ प्रकार के कर्मबन्धन के विषय में अथवा चतुगतिकसंसार के विषयमें अकुशल मुनि विशाल-नामक मत्स्य के समान दुःखी होते हैं ? ॥२॥ -टीकार्थजैसे विशालनाम मत्स्य विशेष समुद्र के तरङ्ग के प्रभाव से प्रवाहित पाना प्रभावथा 'सुक्क -शुष्क" सुआयेशा तथा गिद्ध-स्निग्ध पक्षणेसा 'त'-तम्' ते तेना ने 'इति-यान्ति' प्रात ४२ छैन्न्यां 'आमिसत्थेहि-आमिषार्थिभिः' मांसाहारी 'ढ केहि य क केहिय-ढकै कङ्कश्च' ८४ भने ४४ पक्षी द्वारा दुही-दुखिनः' भी थाय छे. તેવીજ રીતે આધાકર્મ આહારની એક સીથીમાત્રનું સેવન કરવાવાળા દુઃખી થાય છે.ર૩, સૂત્રાર્થ – જે અકુશલ મુનિ આધાકર્મ દોષયુક્ત આહારના દેષને જાણ નથી, તે આઠ પ્રકારના કર્મબન્ધના વિષયમાં અથવા ચાર ગતિવાળા સંસારના વિષયમાં વિશાલ નામના મછલાના સમાન દુઃખી થાય છે. ૨ - टार्थ - જેવી રીતે વિશાલ નામને મત્સ્ય સમુદ્રના મોજાઓ વડે ધકેલાઈને ક્વિારા પરના For Private And Personal Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र.श्रु अ. १ उ. ३ आषाकर्माद्याहारभोजने मत्स्यदृष्टान्तः ३५१ सागरः समुत्तीर्यते इत्यादि विषयकज्ञानाकुशलाः पुरुषाः कर्मपाशबद्धाः सन्तस्तस्मिन्नेव संसारसागरे निमग्नाः सन्तो दुःखमनुभवन्ति, यथा विशालनामक मत्स्य जातिविशेषाः समुद्रतरङ्गान्दोलिताः सन्तः शुष्कं स्थलं कर्दममयं स्थान वा समासाद्य ढङ्ककङ्कनामकमांसभक्षणशीलैः पक्षिविशेष भक्ष्य. माणाः दुःखमासादयन्ति मत्स्यबन्धादिभि वा धीवरादिभिर्जीवन्त एव गृह्यमाणाः पोडयन्ते तथैव आधाकाहारसेविनः साधवोऽपि तदाहारभक्षणजन्यपापैः क्लेशमनुभवन्ति ॥२---३॥ दृष्टान्तमुपदय दार्टान्तिकमाह--‘एवं तु समणा एगे इत्यादि । ___ मूलम् एवं तु समणा एगे वट्टमोणसुहेसिणा मच्छा वेसालीया चेव घायमेस्संती शंतसो ॥४॥ छाया-- एवं तु श्रमणा एके वर्तमानसुखैषिणः । मत्स्या वैशालिका इव घातमेष्यन्त्यनन्तशः ॥४॥ होकर किनारे पर सूखे या कीचड़मयस्थान पर ले जाया जाकर ढङ्क कङ्क नाम मांसार्थी पक्षियों द्वारा खाया जाता हुआ दुःखी होता है वैसे ही आधाकर्माहार का सेवन जन्य पाप से क्लेश को प्राप्त करते हैं ॥२॥ ३॥ दृष्टान्त दिखलाकर दान्तिक कहते हैं-" एवं तु समणा" इत्यादि। शब्दार्थ-'एवं तु-एवंतु' इस प्रकार वट्टमाणसुहेसिणा-वर्तमानमुखैषिणः' वर्तमान सुख की इच्छा करने वाले 'एगे समणा--एके श्रमणाः' कोइ शाक्यादिश्रमण 'वेसालिया मच्छा चेव-वैशालिकाः मत्स्या इव' वैशालिक સૂકા અથવા કીચડ યુક્ત સ્થાન પર લઈ જવાય છે, અને ત્યાં ઢંક, કંક આદિ માંસાહારી પક્ષીઓ તેના શરીરમાંથી માંસ ઠોલી ખાય છે અને તે કારણે તે મત્સ્ય અત્યન્ત વેદનાને અનુભવ કરે છે, એ જ પ્રમાણે આધાકર્મ આહારની સાથે માત્ર શુદ્ધ આહાર સાથે સેવન કરનાર સાધુને પણ સંસારમાં ભ્રમણ કરવું પડે છે અને અત્યન્ત કલેશને અનુભવ કરવો પડે છે, ૨nડા ઉપર્યુક્તદૃષ્ટાન્ત દ્વારા જે વાત ફલિત થાય છે, તેનું આ દાર્જીન્તિક સૂત્રમાં નિરૂપણ ४२वामां आवे छे “एवं तु सपणा" इत्यादि शहाथ -- 'एवं तु एवं तु' मा रीते वट्टमाणसुहेसिणा घत मानसुखैषिणः' पतमान सुमना छ। ४२वावा 'पगे समणा एके श्रमणाः' 5 ॥४५ श्रम 'वेसा For Private And Personal Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३५२ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ:--- ( एवंतु ) एवं तु अनेन प्रकारेण ( वट्टमाणसुहेसिणो) वर्तमान सुखैषिणः वर्तमानमुखम् आधाकर्माद्याहारोपभोगजनितमेव सुखम् एण्डं गवेपितु शीलं येषां ते वर्तमानमुखेपिणः वर्त्तमानकालिकसुखमात्रमेवाभिपन्त ( एगे समणा) एके श्रमणाः शाक्यादयः आधाकर्मादिसेविनः स्वयुथिका (मच्छासलियाचेव ) वैशालिका मत्स्या इव वैशालिकजातीयमत्स्या ३व (जंतसो) अनन्तशः अनन्तवारम् (वाय मेस्संति) घातमेष्यन्ति घातं विनाशम् एप्यन्ति--- प्राप्स्यन्ति । तादृशं दुःखं न एकवारमेवाऽनुभूय ततो दुःखौवात् निवृत्ताः भवि व्यन्ति किन्तु अनेकवारं घटीयन्त्रन्यायेन भूयो भूयः संसारमहोदधौ निम ज्जन्तः संसारसागरपारगामिनो न भविष्यन्तीति भावः ||४|| स्वष्टार्थत्वात् टीका न कृता ||४|| जाती के मत्स्य के समान 'तसो - अनन्तशः' अनन्तवार 'वायमेस्संति - घातमे व्यन्ति वातको प्राप्त करेंगे ||४|| -अन्वयार्थ इसप्रकार वर्तमानकालीन सुख के अभि- लापी अर्थात् जो भविष्यत् की चिन्ता न करके वर्तमानकालीक सुख के ही अभिलाषी हैं ऐसे 'एगे समगा शाक्यादि श्रमण और आधाकर्मादिका सेवन करने वाले स्वयुविक वैतालिकजाति के मच्छों के जैसा अनन्तवार घातको प्राप्त होंगे। वे उस दुःख को एक बार ही भोगकर नहीं छूट जाएँगे किन्तु अरहर के न्याय से वारंवार संसारसागर में डूवेंगे, संसारसागर से पार नहीं होंगे। टीका स्पष्ट है ||४|| लिया मच्छाचे वैशालिक मस्ra' वैशावि लतना मत्स्यो माछामोनी नेम 'ण'तसो - अनन्तराः' अनंत वार घायमेस्स तिघातमेष्यन्ति' विनाश प्राप्त ४२ ||४|| सूत्रार्थ - For Private And Personal Use Only એજ પ્રમાણે ભવિષ્યની ચિન્તા, ન કરનારા અને વર્તમાન કાલિક સુખની જ અભિ લાષાવાળા શકયાદિ બૌદ્ધ ભિક્ષુએ, અને આધાકર્માદિ દોષયુકત અહાર નીસીથમાત્રનું સેવન કરનારા સ્વયંર્થિકો ( જૈન સાધુએ વૈશાલિક જાતના મત્સ્યોની જેમ સંસારમાં અનેક યાતાના એ સહન કરે છે. અને તે દુઃખને એક જ વાર ભોગવીને તેઓ તેમાંથી છુટકારો પામતા નથી, પરન્તુ રહેતની જેમ તે વાર' વાર સ ંસાર સાગરમાં ડૂબાતા રહેશે તેઓ સસાર સાગરને તરી શકશે નહી. અર્થ સ્પષ્ટ હાવાથી ટીકા આપ્યા નથી 1311 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समायथं घोधिनी टोका प्र. श्रु. अ. १ उ. ३ जगदुत्पतिविषये मनान्तरनिरूपणम् ३१३ आधाकर्माद्याहारभोजिनां दोषं प्रदर्य साम्प्रतं जगदुत्पत्तिविषये मता न्तरमाह---"इण मन्नं तु" इत्यादि । इण मन्नं तु अण्णाणं इह मेगेसिमाहियं ७ ८ ११ १२ १० देव उत्ते अयं लोए बन उत्तेत्ति योवरे ॥५॥ छायाइदमन्यत्तु अज्ञानमिह एकेषामाख्यातम् । देवोप्तोऽयं लोकः ब्रह्मोप्त इति चापरे ॥५॥ अन्वयार्थ:-- (इड) अस्मिन्लोके (एगेसिं) एकेषां केषांचित् मते (इण) इदम् अग्रे आधार्मिक आदि आहार का सेवन करने वालों को दोष दिखाकर अब जगत् की उत्पत्ति के विषय में मतान्तर दिखलाते हैं-" इणमन्नं तु” इत्यादि । शब्दार्थ-'इह-अस्मिन्' इसलोकमें 'एगेसि-एकेषां' कोई कोई के मतमें 'इणं-इदम्' यह आगेकहेजानेवाला 'अनंतु—अन्यत्त' अन्यही अन्नाण--अज्ञा नम्' अज्ञान है ऐसा 'आहियं-आख्यातम्' कहा है अयं-अयम्' यत्र 'लोएलोकः' संसार 'देवउत्ते-देवोप्तः' किसी देवके द्वारा उत्पन्न किया गया है ।५। -अन्वयार्थइस लोक में किन्हीं के मतमें यह-आगे कहा जानेवाला अज्ञान कहा . આધાકર્મ આદિ દોષયુક્ત આહારના સેવન કરવાના છે અને તેને કારણે પ્રાપ્ત થતા ફળની પ્રરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર જગની ઉત્પત્તિ વિષે જુદા જુદા મતે ચાલે छे ते 42 ४२छे इणमन्नतु” त्यादि हाथ-ह-प्रस्मिन' मा सोमा 'एगेसि-एकेपांना मतमा णम्इदम्' २ मा वाम भावना२ 'अन्न-अन्य-तु' aligar अन्नाणं भज्ञानम् मज्ञान छ मे 'आहिय -आख्यातम्' छ. 'अयं-अयम्' - 'लोर लोक संसार 'देवउ-ते-देवोप्तः' हेवना द्वारा उत्पन्न ४२८ छ. ॥५॥ -सूत्राथ - આ લેકની ઉત્પત્તિના વિષયમાં કેટલાક અજ્ઞાનીઓ એવી માન્યતા ધરાવે છે કે જ For Private And Personal Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५४ सूत्रकृताङ्गसूत्र वक्ष्यमाणम् । (अन्नंतु) अन्यत्तु अन्यदेव (अन्नाण) अज्ञानम्, मोहविजृम्भणम् (आहियं) आख्यातम् कथितम् , किं पुनस्तेषां मते कथितम् ? तबाह (अयं) अयं प्रत्यक्षाऽप्रत्यक्षः तिर्यङ्नरामरनारकरूपः (लोए) लोकः संसारः । (देवउत्ते) देवोप्तः देवेन उप्त निष्पादितः इति देवोतः यथा कश्चित्कृषकः बीजं क्षत्रे उप्त्वा धान्यादिकमुत्पादयति तथा-केनचिद्देवेनाऽयं संसार उत्पादितः (य) च-पुनः ( अवरे) अपरे अन्ये- वादिनो वदन्ति अयं लोकः (बंभउत्ते) ब्रह्मोप्तः। ब्रह्मणा उप्तः निर्मित इति ।। अपरे एवं प्रतिपादयन्ति-अयं लोको ब्रह्मणा निष्पादित, इति । टीकाअयमभिप्रायस्तेषाम्-- जगतः सृष्टेः पूर्वं ब्रह्मैवासीत्, नान्यत् तद्व्यतिरितं किंचिदभवत् । स च सर्वानेव लोकानसृजत् । प्रथम-माकाशादीनां गया हैं यह जड चेतन का समूह रूप लोक देव के द्वारा उत्पन्न किया गया है। जैसे कोई किसान खत में बीज बोकर धान्य आदि उत्पन्न करता है उसी प्रकार किसी देवने इस- संसार को उत्पन्न किया है। वादी कहते हैं यह लोक ब्रह्मा के द्वारा रचागया है ॥५॥ -टीका--- उनका अभिप्राय यह है कि जगत की सृष्टि होने से पूर्व ब्रह्मा ही था। उसके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं था। उसीने सब लोकों का निर्माण किया पहले तो आकाश आदिकी रचना की, फिर मनुष्य पर्यन्त सभी अन्य पदार्थ बनाये। कहा भी है-"ततःस्वयम्मूभेगवान्" इत्यादि "पहले हिण्यगर्म अर्थात् ब्रह्मा ही था" तथा उसने देखा' एवं ' उसने तेज की सृष्टि की।' इत्यादि । ब्रह्मा से सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ, ऐसा किन्हीं का मत है ॥५॥ ચેતનના સમૂહ રૂપે આ લેકની ઉત્પત્તિ કેઈ દેવ દ્વારા કરવામાં આવી છે જેવી રીતે ખેડૂત પિતાના ખેતરમાં ધાન્યાદિ ઉત્પન્ન કરે છે, એજ રીતે કેઈ દેવે આ સૃષ્ટિની ઉત્પત્તિ કરી છે કે કેઈ લેકે એવું માને છે કે બ્રહ્માએ આ સૃષ્ટિનું સર્જન કર્યું છે. જ્યાં –टार्थકેટલાક મતવાદીઓ એવું માને છે કે સૃષ્ટિની ઉત્પત્તિ થયા પહેલાં માત્ર બ્રહ્માનું જ અસ્તિત્વ હતું. તેમણે સૃષ્ટિનું સર્જન કર્યું, પહેલાં આકાશ આદિની રચના કરી. त्यार माह मनुष्य पतन सघा पहामनाव्या. ५९ छ - "ततः स्वयम्भू मंगवान" त्यादि "पडसा २९याल (ब्रह्मा) ०४ ता." तथा "तेमणे यु" मने "तेभरे तनी સુષ્ટિ કરી ઈત્યાદિ આ રીતે બ્રહ્માએ જ આખા જગતનું સર્જન કર્યું છે, એવી मान्यता टस सी धरावे छे. ॥ ५ ॥ For Private And Personal Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टोका प्र. श्रु अ. १ उ. ३ जगदुत्पतिविषये मतान्तर निरूपणम् ३५५ सृष्टिः, तदनन्तरं क्रमशः सर्वेऽपि मनुष्यान्ताः पदार्थाः समुत्पन्नाः । तथा चोक्तम्- "ततः स्वयम्भूर्भगवान् सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः । " अप एव ससर्जाद, तासु वीजमवासृजत् ॥१॥ “हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे” “स ऐक्षत, “तत्तेजोऽसृजत् । इत्यादि । ब्रह्मणः सकाशात् सर्व जगदुत्पन्नमिति एकेषां मतम् ॥ ५ ॥ पुनरन्येषां मतं दर्शयति सूत्रकारः "ईसरेण', इत्यादि - मूलम् - २ ४ ईसरेण कडे लोए पहाणाइ तहा वेरे . । जीवाजीवसमाउते सुहदुक्स्वसमन्निए - ॥६॥ ૭ छाया ईश्वरेण कृतो लोकः प्रधानादिना तथा परे. जीवाजीवसमायुक्तः सुखदुःखसमन्वितः ।। ६ ।। अन्वयार्थः ( जीवाजीवसमाउते ) जीवाजीवसमायुक्तः जीवाजीवाभ्यां युक्तः । सूत्रकार फिर दूसरों का मत दिखलाते हैं- " ईसरेण " इत्यादि । शब्दार्थ- 'जीवाजीवसमाउते - जीवाजीवसमायुक्तः' जीव और अजीव से युक्त तथा 'मुहदुक्खसमन्निए- मुखदुःखसमन्वितः' सुख और दुःखसे युक्त 'लोए-लोकः' यह लोक 'ईसरेण कडे - ईश्वरेण कृतः इश्वर कृत है ऐसा कोई कहते हैं 'तहा - तथा' और 'अवरे - अपरे ' दूसरे कोई 'पहाणाई - प्रधानादिः प्रधानादिकृत है अर्थात् प्रकृति से ही उत्पन्न होता है ऐसा कहते हैं ||६|| -- अन्वयार्थ जीव और अजीव से युक्त तथा सुख दुःख से युक्त यह लोक ईश्वर હવે સૃષ્ટિની ઉત્પત્તિના વિષયમાં કેટલાક લોકોની જે બીજી માન્યતા છે તે સૂત્રકાર प्रगट उरे छे- “ईसरेण त्यिाहि शम्दार्थ --' जीवाजीवसमाउते - जीवाजीवसमायुक्तः' लव भने मलव थीयुक्त अर्ध उहे छे, 'तहा तथा 'सुहदुःखसमन्निए- सुख दुखसमन्वितः' सुण भने दुःथी युक्त 'लोप- लोकः' माबो (संसार) 'ईसरेण कडे - ईश्वरेण कृतः' ४श्वर त छे - तथा' तथा 'अवरे - अपरे' नील अर्थ 'पहाणाई प्रधानादि' અર્થાત પ્રકૃતિથીજ ઉત્પન્ન થાય છે એવુ કહે છે. પ્રા સૂત્રા-જીવ અને અજીવથી અને સુખદુઃખથી યુક્ત એવા प्रधान विगेरे त छे, આ લોકને ઈશ્વરે For Private And Personal Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६ सूत्रकृतासो तथा ( मुहदुक्खसमनिए ) सुखदुःखसमन्वितः (लोए ) अयं लोकः । (ईसरेण कडे) ईश्वरेण कृतः ईश्वरेणोत्पादित इत्येके वदन्ति । ( तहा) तथा ( अवरे ) अपरे, अन्यचादिनः कथयन्ति । ( पहाणाइ ) प्रधानादिना कृत इत्यनुवर्तनीयः तथा च-प्रधानादिना कृतोऽयं लोक इति चाऽपरे वदन्तीति ।। ६॥ टीका___" ईसरेण कडे लोए" इत्यादि । अयं जीवाजीवयुक्तः सुखदुःखादि सहितः स्वर्गनरकादिगतिसहितः जन्मजरामरणव्याध्यादिपाशपाशितो लोक ईश्वरेण कृतः, परप्रेश्वरप्रयत्नेनोत्पादितः । अनेन वेदान्तिनैयायिक मतयोरुपदर्शनं कृतम् । "वेदान्तिन ईश्वरस्यैव जगत उपादानकारणत्वं निमित्तकारणत्वं च प्रतिपादयन्ति । यतो वा इमानि भूनानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्नि" "एतदात्म्यमिदं सर्वम्" "सचत्यच्चाऽभवत्" सदितिपृथियो न उ जांसि प्रत्यक्षरूपागि, त्यदिति-वाय्वाकाशौ अप्रत्यक्षरूपो, ने उत्पन्न किया है, ऐसा कोई कहते है। दूसरे वादियों का कथन है कि प्रधान (प्रकृति) आदि के द्वारा रचा गया है। उनके मतानुसार यह लोक प्रकृति आदि के द्वारा रचित है ॥६॥ -टीकार्थयह जीव और अजीव से युक्त तथा सुख दुःखमय सं सार स्वर्ग--नरक आदि गतियों से युक्त, जन्मजरामरण व्याधि आदि के बन्धनों से आबद्ध लोक ईश्वर के द्वारा उत्पन्न किया गया है । इस कथन से नैयायिक और वेदान्तियों का मत प्रदर्शित किया गया है। वेदान्ती ईश्वर को ही जगत् का उपादान कारण और निमित्त कारण मानते हैं । ' यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति यत्प्रઉપન્ન કર્યા છે, એવું કેટલાક લેકે માને છે. ત્યારે કેટલાક લેકે એવું માને છે કે પ્રકૃતિ આદિ દ્વારા આ લેકની રચના થઈ છે૬ || - - - જીવ અને અજીવથી યુક્ત, સુખ અને દુઃખમય, સ્વર્ગ, નરક આદિ ગતિથી યુક્ત, જન્મ, જરા, મરણ, વ્યાધિ આદિના બન્ધનધી યુક્ત એવા આ લેકની ઈશ્વર દ્વારા ઉત્પત્તિ કરવામાં આવી છે આ કથન દ્વારા તૈયાયિકે અને વેદાન્તીઓની માન્યતા પ્રગટ કરવામાં આવી છે. - વેદાન્તીઓ ઈશ્વરને જ જગતનું ઉપાદાન કારણ અને નિમિત્ત કારણ માને છે. For Private And Personal Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाय बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.१ उ. ३ जगदुत्पतिविषये मतान्तरनिरूपणम् ३५७ इत्यादि श्रुतिभिः, " जन्माद्यस्य यतः' इत्यादि ब्रह्मसूत्र या संवलितचेतनरूपस्य परमेश्वरस्य जगत उपादानकारणतां कथयन्ति । तथा-"तदैक्षत" "तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्" "एकोऽहं बहुस्यां प्रजायेय" इत्यादि श्रुत्या, ईश्वरो जगतः कर्त्ता, चेतनत्वात् कुलालवदिति तर्केण च परमेश्वरस्य जगदुत्पत्तौ कर्तृकारणत्वं कथयन्ति वेदान्तिनः ।। नैयायिकास्तु-- जगतो गिरिसमुद्रानेरुपादानकारणं समवायिकारगाऽपर पर्यायं परमाणु वदन्ति । असमवायिकारणं तु परमाणूनां संयोगः निमित्तकारणमदृष्टदेशकालपरमेश्वरादयः । तत्र समवायिकारणं परमाणुम् , असमवायिकारणं परमाणुसंयोगं, निमित्तकारणं जीवाऽदृष्टादिकं चादाय ' चेतनत्वात् कर्तृत्वं स्वस्मिन्नासाद्य सर्वं जगत् परमेश्वरः सृजति, जगदुत्पत्तौ परमेश्वरस्य चेतनत्वात् कर्तृत्वमेव न तु समवायिकारणत्वम् । तथात्वे समवायिकारणे यन्त्यभिसंविशन्ति' 'एतदात्म्यमिदं सर्वम्' 'सच्चत्यच्चाऽभवत् — इत्यादि श्रुतिवाक्यो से तथा "जन्माद्यास्य यतः" इत्यादि ब्रह्मसूत्रों के अनुसार वे ईश्वर को जगन का उपादान कारण मानते हैं इन वाक्यों का आशय यह है कि ईश्वर के द्वारा ही भूतों की उत्पत्तिहोती है, उत्पन्न हुए भूत जीवित रहते हैं और उसके कारण अभि संवेश करते हैं । यहाँ जो कुछ भी है, सब वही ईश्वर ब्रह्म ही है। पृथ्वी, जल और तेज जो प्रत्यक्ष हैं और वायु तथा अकाश जो अप्रत्यक्ष हैं वे सब उसी के बनाये हुए हैं। मायायुक्त चेतनस्वरूप ईश्वर जगत् का उपादान है। तथा 'तदक्षत ' तत्सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत् ' ' एकोऽहं बहुस्यां प्रजाये य' इत्यादि श्रुतियों के प्रमाण से भी यही सिद्ध होता है, तथा ईश्वर जगत् का कर्ता है, क्योंकि वह चेतन है, जो चेतन होता है वह कर्त्ता होता है जैसे कुंभार इस तर्क से भी वेदान्ती ईश्वर को जगत् की उत्पत्ति में कर्तारूप कारण कहते हैं। "यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातोनि जीवन्ति यत्प्रयन्त्यभिस विशन्ति" "पतक्षात्म्यमिदं सर्वम्,” सच्चत्यच्चाऽभवत् त्यादि श्रुति॥४ये 43, तथा “जन्माद्यस्य यतः" त्या ब्रह्मसूत्रो अनुसार तेसो वरने तनु जाहान २] भान छ, આ વાક્યને ભાવાર્થ નીચે પ્રમાણે છે- ઈશ્વરના દ્વારાજ ભૂતની ઉત્પત્તિ થાય છે, ઉત્પન્ન થયેલા ભૂત જીવિત રહે છે, અને તેને કારણે અભિસંવેશ કરે છે. અહીં જે કંઈ પણ છે તે એજ બ્રહ્મરૂપ અથવા ઇશ્વરરૂપ છે, પૃથ્વી, જળ અને તેજરૂપ પ્રત્યક્ષ ત અને વાયુ આકાશરૂપ અપ્રત્યક્ષ તને સર્જક એજ ઈશ્વર છે. માયાયુકત ચેતનસ્વરૂપ घश्व२ गतनु जाहान २ छे. तथा “तदेक्षत, तत्सृष्ट्रवा तदेवानु प्राविशन, एकोऽह बहुस्यां प्रजायेय” इत्याहि श्रुतिमाना प्रभाए 43 पशु मे पात सिद्ध थाय छे. तथा For Private And Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५८ सूत्रकृतामय वर्तमाना गुणाः स्वसमानजातीयं गुणान्तरं कार्य उत्पादयन्ति' इतिनियमात् । यदि परमेश्वरो जगतः समवायिकारणं भवेत् , तदा परमेश्वरे वर्तमानं ज्ञानमपि जगति संभवेत् न तु जगति चेतना दृश्यते, तस्मादीश्वरो न जगतः समवायिकारणम् किन्तु कुलालादिवन्निमित्तकारणमेव । तत्राऽपि सप्तभेदभिन्नस्य कतृ-कर्म-करण-सम्प्रदाना-ऽपादान-सम्बन्धा-ऽधिकरणरूपस्य निमित्तकारणस्य मध्यात् कत्तुकारणमेव परमेश्वरो जगतां भवति । तत्र परमेश्वरस्य जगत्कर्तृत्वेऽ प्रमाण उदाहरति । तथाहि--क्षित्यकुरादिकम्, कत्र्तृजन्यम्, कार्यत्वात्, घटवत् । यद्यत्कार्य तत्तत्कर्तजन्यम्, यथा घटः, क्षित्यङ्कुरादिकमपि कार्यमेव, सावयवत्वात्, अतः कर्तृजन्यमेवेदमपि भवति । नैयायिक पवर्त समुद्र आदि रूप जगत् का उपादानकारण जिसका दूसरा नाम समवायिकारण है, परमाणु को मानते हैं। उनकी मान्यता के अनुसार परमाणुओं का संयोग असमवाविकारण हैं और अदृष्ट, देश काल, परमेश्वर आदि निमित्त कारण हैं। समवायिकारण परमाणु, असमवायिकारण परमाणु संयोग और निमित्त कारण जीव के अदृष्ट आदि को लेकर तथा चेतन होने के कारण अपने आपमें कर्तृत्व धारण करके ईश्वर सम्पूर्ण जगत् की रचना करता है। ईश्वर चेतनस्वरूप होने के कारण जगत् का कर्ता ही है, पर उपादान कारण नहीं है। समवायि कारण में जो गुण विद्यमान होते हैं, वे अपने समानजातीय दूसरे गुण को कार्य में उत्पन्न करते हैं, ऐसा ઈશ્વર જગતને કર્તા છે, કારણ કે તે ચેતન છે, જે ચેતન હોય છે તે કર્તા હોય છે, જેમ કે કુંભાર આ તકને આધારે પણ વેદાન્તીઓ ઇશ્વરને જગની ઉત્પત્તિમાં કર્તારૂપ કારણ માને છે. નૈચાયિક પર્વત, સમુદ્ર આદિ રૂપ જગતનું ઉપાદાન કારણ (જેનું બીજુ નામ સમવાયિકારણ છે) પરમાણુને માને છે તેમની માન્યતા પ્રમાણે પરમાણુંએને સંગ અસમવાય કારણ છે, અને અદષ્ટ, દેશ, કાળ, પરમેશ્વર આદિ નિમિત્ત કારણે છે. સમવાય કારણ પરમાણું, જીવન અષ્ટ આદિને લઈને તથા ચેતન હોવાને કારણે તેિજ કતૃત્વ ધારણ કરીને ઈશ્વર સંપૂર્ણ સૃષ્ટિની રચના કરે છે. ઈશ્વર ચેતન સ્વરૂપ હેવાને કારણે જગને કર્તા જ છે, પણ ઉપાદાન કારણ નથી. સમવાય કારણમાં જે ગુણે મજૂદ હોય છે, તે પિતાના સમાન જાતીય બીજા ગુણને કાર્યમાં ઉત્પન્ન કરે છે, એ નિયમ છે, આ નિયમ પ્રમાણે જે ઈશ્વર જગતના સમવાધિકારણ રૂપ હેત, તે ઈશ્વરમાં વિદ્યમાન જ્ઞાન ગુણેને પણ જગતમાં સદ્ભાવ હત. પરતુ જગમાં ચેતના તે દેખાતી નથી. તેથી ઈશ્વર જગતને સમવાયિ કારણરૂપ નથી, પરંતુ તે For Private And Personal Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाथ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. ३ जगदुत्पत्तिषिये मतान्तरनिरूपणम् ३५९ इत्थंच यथोक्त परमेश्वरात् यथोक्तरूपस्य जगतः उत्पत्ति भवतीति, नैयायिकाः कथयन्तीति । __ अपरे सांख्यकारास्तु--नेश्वरः सृष्टौ हेतुः । अपितु कार्य शब्दादिप्रपंचः, सुखदुःखमोहसमन्वितः इति तस्य प्रपञ्चस्य मुखदुःखमोहात्मकेन सामान्येन भाध्यमिति कार्यसमान प्रधान प्रकृत्यपरनामकं सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था रूपमेव जगत उपादानकारणं भवति ।। तस्मात् प्रकृत्यपरनामकात्प्रधानान्महदादि क्रमेण आकाशादिप्रपंचस्योत्पत्ति भवति। तदुक्तमीश्वरकृष्णेन-- "प्रकृते महांस्ततोऽहंकार स्तस्माद्गणश्च षोडशकः । नियम है। इस नियम के अनुसार यदि ईश्वर जगत् का समवायिकारण होता तो ईश्वर में विद्यमान ज्ञानगुण भी जगत में होता । मगर जगत में चेतना तो दीखतीही नहीं है। अतएव ईश्वर जगत् का समवायिकारण नहीं है। वह कुंभकार आदि के समान निमित्तकारण ही है। निमित्तकारण सात प्रकार का होता है [१]कर्ता [२] कर्म [३] करण [४] सम्प्रदान [५] अपादान [६] सम्बन्ध और (७) अधिकरण । इनमें से ईश्वर जगत् का कर्ता रूप कारण है। ईश्वर के जगत्कर्तृत्व में अनुमान प्रमाण का प्रतिपादन किया जाता है पृथ्वी तथा अंकुर आदि कर्ता द्वारा जन्य हैं, क्योंकि वे कार्य हैं, जो कार्य होते हैं वे सब कर्तजन्य होते हैं जैसे घट पृथ्वी अंकुरआदि आदिकार्य, क्योंकि वह सावयव हैं। इस प्रकार पृथ्वी आदि सावयव होने से कार्य हैं और कार्य होने के कारण कर्ता के द्वारा उत्पन्न होने योग्य हैं। इस प्रकार नैयायिकों का कथन है कि यथोक्त परमात्मा से यथोक्त रूप जगत् की उत्पत्ति होती है। કુંભાર આદિની જેમ નિમિત્ત કારાણુ જ છે. નિમિત્તકારણ સાત પ્રકારનું હોય છે – (1) पत्ता (२) भ, (3) ४२६], (४) सहान, (५) अहान, (६) समय भने (૭) અધિકરણ. આ સાતમાંથી ઈશ્વર જગતના íરૂપ કારણ છે. ઈશ્વરના જગત કતૃત્વમાં અનુમાન પ્રમાણુનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવે છે – પૃથ્વી તથા અંકુર આદિ કર્તા દ્વારા જન્ય છે, કારણ કે તેઓ કાર્યરૂપ છે, એ નિયમ છે કે જે કાર્યો હોય છે, તે કર્તુજન્ય હોય છે. જેવી રીતે ઘડો, અંકુર આદિ કાર્યો છે, કારણ કે તેઓ સાવયવ છે, એજ પ્રમાણે પૃથ્વી આદિ પણ સાવયવ હોવાથી કાર્યરૂપ છે. અને તે કાર્યરૂપ હોવાને કારણે કર્તા દ્વારા ઉત્પન્ન થવા એગ્ય છે. આ પ્રકારે નિયાયિકોનું એવું કથન છે કે યક્ત (આગળ જેનું જેવું સ્વરૂપ પ્રકટ કર્યું છે. એવા) પરમાત્મા દ્વારા વ્યક્ત સ્વરૂપવાળા જગતની ઉત્પત્તિ કરાઈ છે. For Private And Personal Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६० तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि " इति । प्रधानं मूलकाणम्, ततो महत्तत्त्वं समुत्पद्यते, तादृशमहतः सकाशात् अहंकारस्य जनि:, अहंकारा देकादशेन्द्रियाणि पञ्च तन्मात्राणि भूतसूक्ष्मरूपाणि जायन्ते । तेभ्यः सूक्ष्मेभ्यः पञ्चमहाभूतानाम् आकाशवायु ते जोजलपृथिवीनां समुत्पत्तिः । पृथवीभ्य ओषधिवनस्पत्यादीनां संभवो जायते । पुरुषस्तु केवल मुदासीनो भोक्ता च तदेवं सर्वमपि कार्य प्रधानादेव साक्षात्परंपरया जायते इति । सूत्रकृताङ्गसूत्रे अब सूत्रकार सांख्यों का कथन करते हैं। उनका कहना है कि ईश्वर जगत् का कारण नहीं है । उनका तर्क यह है कि शब्दादि जो प्रपंच (फेलावविस्तार ) है वह सुख दुःख और मोह आदि से युक्त है अतएव इस प्रपंचका कारणभी सुख दुःख मोह आदिसे युक्त ही होना चाहिए । प्रधान या प्रकृति कार्य के समान ही है, अतएव वही जगत् का उपादान कारण है । सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण की समान अवस्था को प्रधान या प्रकृति कहते हैं । इस प्रकृति से महत् (बुद्धि) आदि के क्रमसे आकाश आदि प्रपंच की उत्पत्ति होती है । ईश्वर कृष्ण ने कहा है 'प्रकृति से महत्तत्व की, महत् से तत्वों की और उन सोलह में के पाँच उत्पत्ति होती है । अहंकार की, अहंकार से सोलह तन्मात्राओं से पाँच भूतों की तात्पर्य यह है कि प्रधान मूल कारण है । प्रधान से महत् अर्थात् बुद्धि उत्पन्न होती है । महत् से अहंकार का प्रादुर्भाव होता है । अहंकार से ग्यारह इन्द्रियाँ (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और मन ) और पांच तन्मात्रा હવે સૂત્રકાર સાંખ્યાનેા મત પ્રકટ કરે છે- સાંખ્યાની એવી માન્યતા છે કે શ્વર જગત્ત્યુ કારણ નથી--- ઇશ્વરે જગત્ની રચના કરી નથી. તેમને એવા તર્ક છે કે શબ્દાદિ જે પ્રપંચ ( વિસ્તાર ) છે, તે સુખદુઃખ અને માહથી યુક્ત છે, તેથી આ પ્રપંચનુ કારણ પણ સુખદુ:ખ, મેહ આદિથી યુક્ત હાવુ જોઇએ. પ્રધાન અથવા પ્રકૃતિ કાર્યના સમાનજ છે, તેથી તેને જ (પ્રકૃતિનેજ) જગનું ઉપાદાન કારણુ માનવું જોઇએ. સત્વગુણુ, રજોગુણ, અને તમેગુણની સમાન અવસ્થાને પ્રધાન અથવા પ્રકૃતિ કહે છે. આ પ્રકૃતિ દ્વારા મહત્ (બુદ્ધિ ) આદિના ક્રમે આકાશ આદિ પ્રપંચની ઉત્પત્તિ થાય છે. ઈશ્વરકૃષ્ણે એવુ કહ્યું કે--- For Private And Personal Use Only “પ્રકૃતિ વડે મહત્તત્ત્વની, મહત્ વર્ડ અહંકારની, અહંકાર વડે સોળ તત્ત્વાની અને એ સાળમાંના પાંચ તન્માત્રાઓ વડે પાંચ ભુતાની ઉત્પત્તિ થાય છે. આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે પ્રધાન (પ્રકૃતિ) મૂળ કારણ છે. પ્રકૃતિ દ્વારા મહત્ બુદ્ધિ) ઉત્પન્ન થાય છે, મહત્ વડે અહંકારનો પ્રાદુર્ભાવ પ્રકટ થવાની Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ योधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. ३ जगदुत्पतिविषये मतान्तर निरूपणम् ३६१ "पहाणाई" प्रधानादि, अक्षादिपदेन कालस्वभावनियतिवादिनां ग्रहणं भवति । तथा च कालवादिनः कालादेव जीवाजीवादिसंयुक्तः सुखदुःखसमन्वितः सर्वोऽपि संभवति । ____ अत एव जनिमतां भवति, अमुकः पदार्थोऽमुककाले भवति नान्यस्मिन् की उत्पत्ति होती है । यह पांच तन्मात्रा भूतों के सूक्ष्म रूप हैं और नाम हैंरूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द । इन पांच तन्मात्राओं से आकाश, वायु, तेज, जल और पृथिवी नामक पांच महाभूतों की उत्पत्ति होती है । पृथ्वी से औषधि वनस्पति आदि पैदा होती हैं। पुरुष केवल उदासीन और भोक्ता है इस प्रकार सभी कार्य साक्षत् या परम्परा रूप से प्रकृति से ही उत्पन्न होते हैं। गाथा में 'पहाणाई' पद में प्रयुक्त 'आदि' शब्द से कालवादी स्वभाववादी आदि का ग्रहण किया गया है । कालवादी के मतानुसार इस जीव अजीवमय और सुखदुःखमय संसार का कारण काल ही है । वे कहते हैं- अमुक पदार्थ अमुक ही काल में उत्पन्न होता है, अन्यकाल में नहीं। कहा हैकाल ही भूतों को उत्पन्न करता है, काल ही प्रजा का संहार करता है । जब हम सब सो जाते हैं तब भी काल जागता रहता है । काल दुरतिक्रम है उसके सामथ्र्य को उल्लंघन नहीं किया जा सकता । કિયા) થાય છે. અહંકાર વડે ૧૧ ઈન્દ્રિયે (પાંચ જ્ઞાનેન્દ્રિયે, પાંચ કર્મેન્દ્રિત અને મન ) અને પાંચ તન્માત્રાની ઉત્પત્તિ થાય છે. આ પ્રાંચ તન્માત્રા ભૂતના સૂમ રૂપ છે અને નામ છે રૂપ, રસ, ગંધ, સ્પર્શ અને શબ્દ. આ પાંચ તન્માત્રા વડે આકાશ, વાયુ, તેજ, જળ અને પૃથ્વી નામના પાંચ મહાભૂતની ઉત્પત્તિ થાય છે. पृथ्वीमाथी औषधि, वनस्पति माह पहा थाय छे. पुरुष (मामा) पण ઉદાસીન અને ભક્તા છે. આ પ્રકારે સઘળાં કાર્યોની સાક્ષાત અથવા પરંપરા રૂપે प्रकृति 43 २४ उत्पत्ति थाय छे. ॥थामा " पहाणाई" ५६मा प्रयुक्त श्येमा " आदि" પદ વડે કાળવાદી, સ્વભાવવાદી, નિયતિવાદી આદિને ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. કાળવાદીઓની માન્યતા અનુસાર આ જીવજીવમય તથા સુખદુઃખ મય સંસારનું કારણ કાળ જ છે તેઓ, કહે છે કે અમુક પદાર્થ અમુક કાળે જ ઉત્પન્ન થાય છે, અન્ય કાળે ઉત્પન્ન થતું નથી કહ્યું પણ છે કે –', કાળ જ ભૂતને ઉત્પન્ન કરે છે અને કાળ જ પ્રજાને સંહાર કરે છે. ' જ્યારે આપણે ઊંઘી જઈએ છીએ, ત્યારે પણ કાળ જાગૃત જ રહે છે. કાળ દરતિકમ્ય છે તેના આગળ કોઈનું કંઈ ચાલતું નથી, सू. ४६ For Private And Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६२ काले । तदुक्तम् - कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः । कालः सुप्तेषु जागर्त्ति, कालो हि दुरतिक्रमः " इति । सूत्रकृताङ्गसूत्रे स्वभाववादिनस्तु स्वभावेन सर्वोऽपि लोकः संजातः इति । नियतिवादिनस्तु नियत्यैव सर्व प्रस्तूयते । तदेवं ते ते - वादिनः स्व मतानुसारेणाऽयं लोको जायते इति वदन्ति || ६ || "जगत उत्पत्तौ ततोऽपरमपि मतं प्रदर्शयति सूत्रकारः - "सयंभुणा" इत्यादि । मूलम् - १ ગ્ १० १२ सयंभुणा कडे. लोए, इति वृत्तं महे सिणा । ४ मारेण संथुया माया, तेण लोए असासए - " ॥ ७ छाया स्वयम्भुवा कृतो लोकः इत्युक्तं हि महर्षिणा । मारेण संस्तुता माया तेन लोकः अशाश्वतः ॥७ स्वभाववादी मानता है - समस्त लोक स्वभाव से ही उत्पन्न हुआ है । नियतिवादी के मतानुसार सभी कुछ नियति के द्वारा इस प्रकार भिन्न भिन्नवादि अपने अपने मत के उत्पत्ति कहते हैं ॥ ६ ॥ ही उत्पन्न होता है। अनुसार लोक की जगत् की उत्पत्ति के विषय में सूत्रकार एक और मत का उल्लेख करते हैं- "सर्वभ्रुणा" इत्यादि । शब्दार्थ "संयंभुणा-स्वयम्भुवा" विष्णुने "लोए-लोक:' संसार ' कडेकृतः ' किया है 'मारेण - यमराजेन' यमराजाने 'माया - माया' मायाशक्ति 'संधुया - संस्तुता' रची है 'तेण तेन' इसकारण - 'लोए - लोकः संसार 'असासए अशाश्वत : ' अनित्य है ||७|| For Private And Personal Use Only સ્વભાવવાદીઓ એવું માને છે કે સમસ્ત લોક સ્વાભાવિક રીતે જ ઉત્પન્ન થાયા છે. નિયતિવાદીએ એવુ કહે છે કે સઘળા પદાર્થા નિયતિ દ્વારા જ ઉત્પન્ન થાય છે. આ પ્રકારે લેકની ઉત્પત્તિના વિષયમાં જુદા જુદા મતવાદીઓની જુદી જુદી માન્યतायो छे. ॥ ५ ॥ જગતની ઉત્પત્તિના વિષયમાં વધુ એક માન્યતાને સૂત્રકાર હવે પ્રકટ કરે છે ” . 'सय भुणा " इत्यादि शव्दार्थ - 'सभुणा-स्वयम्भुवा' विष्णुमे 'शेष-लोक' स'सार'कडे - मृतः' पुरेस छे 'मारेण-यमराजेन' यभरालये 'माया माया' भायाशक्ति 'संथुया - संस्तुता' स्येस छे. 'तेण तेन' मा अशे 'लोप- लोक:' संसार 'असासर - अशाश्वतः' अनित्य छे. ॥७॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. ३ जगदुत्पत्तिविषये मतान्तर निरूपणम् ३६३ अन्वयार्थः( सयंभुणा ) स्वयम्भुवा= विष्णुना। (लोए) लोकः। (कडे) कृतः)= रचितः। (मारेण) मारेण यमराजेन । (माया) मारकशक्ति माया । (संथुया) संस्तुता रचिता । (तेण) तेन, कारणेन । (लोए) लोकः (असासए) अशाश्वतोऽ नित्यः (इति) इति-एवम् (महेसिणा) महर्षिणा (वृत्तं) उक्तं कथितमिति । ___कश्चिदन्यतीर्थी एवं कथयति-यदयं लोको विष्णुनोत्पादित इति महर्षिणा कथितः। तथा तेनैव विष्णुना लोकानां व्यवस्थायै यमराज उत्पादितः, तेन यमेन लोको मार्यते । तस्माल्लोको जडाजडात्मको म्रियते, मरणादनित्यए व। उत्पत्तिविनाशवतामनित्यत्वं प्रसिद्धमेवेति भावः । अन्वयार्थयह लोक स्वयंभू (विष्णु) ने रचा है। मार (यमराज) ने माया (मारकशक्ति) रची है। इस कारण से लोक अनित्य है । ऐसा महर्षि ने कहा है। ___ कोई अन्यतीथिक (पौराणिक) कहते हैं कि--महर्पिने ऐसा कहा है कि इस लोक की रचना विष्णु ने की है, लोक की व्यवस्था के लिए विष्णु ने ही यमराज को उत्पन्न किया है जो लोगोंको मारता है । इस यमराज के कारण ही सचेतन और अचेतन की मृत्यु होती है । मृत्यु होने के कारण लोक अशाश्वत है । जिनकी उत्पत्ति हो और विनाश भी हो, उनकी अनित्यता प्रसिद्ध ही है ॥ ७ ॥ - सूत्राय - २an सोनी स्वयंभू (विपशु भगवान् ) 43 स्यना ४२वाम मावी छ. भा२ (यभरार) દ્વારા માયા (મારક શક્તિ) ની રચના કરવામાં આવી છે. તે કારણે લેક અનિત્ય छ,” से भाऽपि धुं छे. | કઈ કઈ અન્યતીથિક પૌરાણિકે એવું કહે છે કે મહર્ષિએ એવું કહ્યું છે કે આ લેકની રચના વિષ્ણુએ કરી છે. લેકની વ્યવસ્થાને માટે વિષ્ણુએ યમરાજને ઉત્પન્ન કર્યા છે, જે લોકોને સંહાર કરે છે. તે યમરાજને કારણે જ સચેતનનું મૃત્યુ થાય છે અને અચેતનને નાશ થાય છે મૃત્યુને સદ્ભાવ હેવાને કારણે લોક અશાશ્વત છે. જેમની ઉત્પત્તિ થતી હોય અને નાશ પણ થતો હોય, એવી વસ્તુઓને અનિત્ય અથવા અશાશ્વત માનવામાં भाव. ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३६४ सूत्रकृतालसो टीकाकिंच जगत उत्पत्तिविषये नैयायिकाद्यतिरिक्तोऽपरः कश्चिद्वादि एवं प्रतिपादयति-"सयंभुणा" इत्यादि । स्ययं भवति, स्वव्यतिरिक्ताऽनपेक्षयैवाऽ भिव्यक्तो भवति यः स स्वयम्भूः= विष्णुः, अन्योवा ब्रह्मा कमलयोनिः, सच एक एव सर्व प्रथमतोऽभूत् । स च स्वातिरिक्तं कमप्यपश्यन् साधनाभावादानन्दं न लब्धवान् । तथा च श्रुतिः- "तस्मादेकाकी न रमते" इति । ततः स आनन्द कारणं स्वातिरिक्तमभिलषितवान् । तस्यैवं चिन्तयतो द्वितीया शक्तिरभूत, ततो लोकोनां स्थावरजंगमानां सृष्टि र्जाता। एवं प्रकारेण मम महर्षिणा पूर्वाचार्येण कथितम् । टीकार्थ-- ... जगत् उत्पत्ति के विषय में नैयायिक आदि दर्शनों के अतिरिक्त दूसरा कोई वादी कहता है- 'जो स्वयं होता है या अपने से भिन्न अन्य की अपेक्षा न रखता हुआ प्रकट हो जाता है, वह 'स्वयम्भू' कहलाता है । ऐसा स्वयम्भू विष्णु है या कमलयोनि ब्रह्मा है । सृष्टि से पहले वह अकेला ही था । किसी दूसरे को न देखकर, आनन्द के साधन का अभाव होने से उसे आनन्द नहीं मिला । श्रुति में भी कहा है-उस अकेले का मन नहीं लगा । तब उसने ऐसे किसी दूसरे की कामना की जिससे आनन्द लाभ हो सके । उसके विचार करने पर 'शक्ति ' दूसरी उत्पन्न हो गई । तत्पश्चात् स्थावरों और जंगमों की सृष्टि पैदा हुई-ऐसा हमारे पूर्वाचार्य महर्षि ने कहा है - टी - ૧ નૈયાયિક આદિ મતવાદીઓ સિવાયના કેટલાક અન્ય મતવાદીઓ જગતની ઉત્પત્તિના વિષયમાં આ પ્રકારની માન્યતા ધરાવે છે ” જે સ્વયં પ્રકટ થાય છે પિતાનાથી ભિન્ન એવા કોઈ પણ અન્ય પદાર્થની અપેક્ષા રાખ્યા વિના જે પ્રકટ થઈ જાય છે, તેને સ્વયંભૂ કહે છે. વિષ્ણુને અથવા કમલાનિ બ્રહ્માને એવાં સ્વયંભૂ કહે છે સૃષ્ટિનું સર્જન થયા પહેલાં એકલા સ્વયંભૂને જ અભાવ હતે કઈ અન્ય વસ્તુને નહીં દેખવાથી, આનંદના સાધનના અભાવને લીધે સ્વયંભૂને આનંદ પ્રાપ્ત થતું નહીં કૃતિમાં પણ કહ્યું છે કે ”તેમને એકલા ગેર્યું નહીં” તેથી તેમણે એવી કોઈ અન્ય વસ્તુની કામના કરી કે જેના દ્વારા આનંદ મળી શકે આ પ્રકારને વિચાર કર્યો ત્યારે જે બીજી વસ્તુ ઉત્પન્ન થઈ તેનું નામ ”શક્તિ” હતું ત્યાર બાદ સ્થાવર અને જગમેની સૃષ્ટિનું સર્જન થયું, આ પ્રકારના અમારા પૂર્વાચાર્ય મહર્ષિઓને મત છે. For Private And Personal Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir narratfart टीका प्र.श्रु अ. १. उ. ३ जगदुत्पत्तिविषये मतान्तर निरूपणम् ३६५ तथा च श्रुतिः -' इति शुणुम धीराणां ये नः तद्विचचक्षिरे" पूर्वाचार्याणामेव वचनं वयं श्रुणुमः यत्- ये पूर्वाचार्या नः अस्मभ्यं विचचक्षिरे= कथितवन्तः इति । अनेन प्रकारेण स्वयम्भूवादिनो लोकस्य स्थावरजंगमस्य कर्त्तारं स्वीकुर्वन्ति स्वयम्भूवम् । " अपि च स स्वयम्भूर्विष्णुर्लोकानुत्पाद्य तद्भारेण भीतः सन् अथवा लोकव्यवस्थायै मारं = यमराजम् उत्पादितवान् । तेन यमराजेन माया रचिता तां मायां पुरस्कृत्य स यमो लोकान् मारयति । " तदुक्तं श्रुत्या" "यस्य ब्रह्मच क्षत्रंच उभे भवत ओदनः । मृत्युस्योपसेचनं कथा वेदयत्रसः " 1 यस्य यमराजस्य ब्राह्मणादिकम् ओदनो भवति मृत्युश्च उपसेचनं शाकस्थानीयं भवति - इत्थम्भूतं स्वयम्भुवं को जानाति यत्र स स्थितः इत्यादि स्वयंभूवादिमतम् ॥ ७ ॥ श्रुति में कहा है-- हम पूर्वाचार्यों का ऐसा वचन सुनते हैं जिन्होंने हमें ऐसा कहा है । इस प्रकार स्वयंभूवादी स्थावर जंगमरूप जगत् का कर्त्ता स्वयंभू को स्वीकार करते ह । और वह स्वयंभू (विष्णु) लोकों को उत्पन्न करके जब उनके भार से भयभीत हुआ तो उसने लोक व्यवस्था के लिए यमराज को जन्म दिया । यमराज ने माया रची, उस माया को आगे करके यमराज लोकों का संहार करता है | श्रुति में भी कहा है- “यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च " इत्यादि । ब्राह्मण और क्षत्रिय आदि जिस के भोजन हैं और मृत्यु जिस के लिए शाक भाजी के समान है, ऐसे स्वयंभू को कौन नहीं जानता, जहां वह स्थित है । इत्यादि स्वयंभूवादियों का मत है ॥ ७ ॥ શ્રુતિમાં કહ્યું છે કે અમે પૂર્વાચાર્યની એવી વાત સાંભળીએ છીએ તેમણે જ અમને એવું કહ્યું છે. આ પ્રકારે સ્વય’ભૂવાદીએ સ્થાવર જંગમ રૂપ આ સંસારના કર્તા સ્વયંભૂને માને છે, અને લોકાને ઉત્પન્ન કર્યા બાદ જ્યારે તેમના ભારથી તે સ્વયંભૂ (બ્રહ્મા ) ભયભીત થઈ ગયા, ત્યારે તેમણે લેાકવ્યવસ્થાને માટે યમરાજને ઉત્પન્ન કર્યા. યમરાજે માયા રચી. તે માયાને આગળ કરીને યમરાજ લોકોના સંહાર કરે છે. શ્રુતિમાં પણ કહ્યું છે કે: 'यस्य ग्रह्म च क्षत्रं च 44 ઇત્યાદિ બ્રાહ્મણ અને ક્ષત્રિય આદિ જેમનુ ભોજન છે, અને મૃત્યુ જેમની આગળ શાકભાજીના સમાન (તુચ્છ) છે, એવા સ્વય ંભૂને કોણ નથી જાણતું ? ઇત્યાદિ સ્વયંભૂવાદીઆના મત છે. છા For Private And Personal Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासूत्रो "जगत्सृष्टिविषये ततोऽन्येषां मतं दर्शयति सूत्रकार:-"माहणा समणा" इत्यादि। माहणो समणा एगे आह अंडकडे जगे। असो तत्तमकासीय अयाणंता मुसं वदे-11८ छायाबाह्मणाः श्रमणा एके, आहुरण्डकृतं जगत् । असौ तत्त्वमकार्षीचा जानन्तो मृषा वदेत् -||८ अन्यवार्थ:(एगे) एके केचित् । (माहणा) ब्राह्मणाः =वेदवादिनः। तथा-(समणा) श्रमणाः त्रिडण्डिप्रभृतयः पौराणिकादयश्च । (जगे) जगत्, स्थावरजंगमात्मको जगत् की रचना के विषय में सूत्रकार अन्य मतों का उल्लेख करते हैं-- 'माहणा समणा,' इत्यादि । शब्दार्थ-एगे-एके' कोई 'माहणा-ब्राह्मण ब्राह्मणाः तथा 'समणा श्रमणाः' श्रमणजन 'जगे-जगत्' यह लोक 'अंडकडे-अंडकृतम्' अंडासे वनाहुवा 'आह -आहुः' कहते हैं 'असो-असो' यह ब्रह्माने तत्तं-तत्त्वम्' पदार्थसमूहको अकासी अकार्षीत्' बनाया है 'अयाणता-अजानन्तः' वस्तुतत्वको न जानने वाले वे ब्राह्मणादि ‘मुसं-मृपा' झूठा 'वदे-बदन्ति' कहते हैं ॥८॥ अन्वयार्थ___ कोई कोई ब्राह्मण अर्थात् वेदवादी और श्रमण त्रिदण्डी पौराणिक आदि कहते हैं कि जगत् अंडे से बना है और ब्रह्मा ने पदार्थ समूह की रचना की है। જગતની રચનાના વિષયમાં જે અન્ય મતે ચાલે છે તેમને નિર્દેશ કરીને સૂત્રકાર मा मान्यताव्याने मिथ्या छ-"माहणा समणा" त्या शहाथ--'एगे-एके' 5 'माहणा ब्राह्मगाः ब्राह्मण तथा 'समणा-श्रमणा' श्रममन 'जगे जगत्' मा स (ससा२) 'अंडकडे-अंकृतम्' माथी मनेस 'आह-आहुः' ४ छ. 'असो असौ २॥ ब्रह्माये तत-तत्त्वम्' पहा समूडने 'अकासी-अकार्षीत्' नावेस छ. 'आयण ता-अजानन्तः' वस्तुतत्पने ना ! ते माझए वगैरे 'मुस-मृपा' मोटु वदे यान्ति' डे छे. ॥८॥ मस्याथકઈ કઈ બ્રાહ્મણે (વેદવાદીઓ) શમણું ત્રિદંડીઓ અને પૌરાણિક કહે છે કે જગત ઈંડામાંથી બન્યું છે, અને બ્રહ્માએ પદાર્થસમૂહની રચના કરી છે. આ પ્રમાણે For Private And Personal Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थ बोधिनी टीका प्र. अ. १ उ. ३ जगदुत्पतिविषये मतान्तर निरूपणम् ३६७ आहुः कथयन्ति । पुनश्च (असो) अकार्षीत् = रचितवान् इति । लोकः । ( अंड कडे) अण्डकृतमिति । ( आह) असौ ब्रह्मा (तत्तं) तत्वम् = पदार्थसमूहम् | ( अयाणंता) अजानन्तः । वस्तु तत्वमजानानास्ते ब्राह्मणादयः (मुस) मृषा । (a) वदन्ति = कथयन्ति । इत्थं पदार्थजातानाम् उत्पत्तिर्भवतीति मृषैव ते प्रतिपादयन्ति । मिथ्याप्ररूपणे तेपामज्ञानमेव कारणं भवतीति ॥ ८ ॥ टीका अपच ( माणा ) ब्रह्मण : == वेदविदः (समणा ) श्रमणाः त्रिदण्डिप्रभृतयः, 'एगे' एके = पौराणिकः स्मृत्यनुयायिनश्च । एके, न तु सर्वे - (आह) आहु:= कथयन्ति । किं कथयन्ति तत्राह - ( अंडकडे जगे = ) अण्डकृतं जगत् जायते= उत्पद्यते इति जगत्, प्रत्यक्षनिर्दिष्टम् स्थावरजंगमात्मकम् । अण्डेन कृतम्, अण्डा जातमित्यर्थः । तथाहि सृष्टेः पूर्वं न किमपि वस्तुजात मासीत्, पदार्थरहितं जगदासीत् ततो विष्णोर्नाभिकमलादुत्पन्नो ब्रह्मा अण्डं निर्मितवान् । तदुक्तम्- “तदण्डमभवद्धैमं सहस्रांशुसमप्रभम् । इति सहस्त्रांशुसमप्रभमिति, सूर्यसदृशं तदण्डमुत्पादितवानित्यर्थः ततोऽण्डद्विधाकृतं ब्रह्मणा, darasat विभागो जातः । ऐसा कहने वाले ब्राह्मण आदि तत्त्व को न जानते हुए मिथ्या कथन करते हैं । अर्थात् पदार्थों की उत्पत्ति के विषय में उनका कथन मिथ्या हैं और मिथ्या कथन का कारण उनका अज्ञान है || ८ ॥ टीकार्थ कोई कोई ब्राह्मण, श्रमण और पौराणिक कहते हैं कि यह जगत् अंडे से उत्पन्न हुआ है । उनकी मान्यता यह है कि सृष्टि से पहले कोई भी वस्तु नहीं थी । तत्र विष्णु के नाभिकमल से ब्रह्मा का जन्म हुआ और A ने अंडा बनाया। कहा भी है - वह अंडा सूर्य के समान प्रभा वाला हैमवर्ण था । ' ब्रह्माने उस अंडे के दो टुकडे कर दिए। ऐसा कहने से કહેનારા બ્રાહ્મણા આદિ તત્ત્વને નહી જાણવાને કારણે મિથ્યા કથન કરે છે. પદાર્થાની ઉત્પત્તિ વિષેની તેમની માન્યતા મિથ્યા છે. તેએ અજ્ઞાનને કારણે જ આવું મિથ્યા કથન કરે છે. ૫૮૫ ટીકાથ કોઈ કોઈ બ્રાહ્મણા, શ્રમણા એને પૌરાણિકો કહેછે કે: આ જગત્ ઇંડામાંથી ઉત્પન્ન થયું છે તેમની માન્યતા એવી છે કે સૃષ્ટિનું સર્જન થયા પહેલાં વિષ્ણુ સિવાય કઈ પણ વસ્તુ ન હતી ત્યાર બાદ વિષ્ણુના નાભિકમલમાંથી બ્રહ્મા પ્રગટ થયા. અને બ્રહ્માએ ઈંડાની રચના કરી કહ્યું પણ છેકે તે ઈંડુ સૂર્યના સમાન પ્રભાવાળુ અને સોનેરીવનુ હતુ બ્રહ્માએ તે ઇંડાના બે ટુકડા કરી નાખ્યા. આ રીતે ઈ ંડાના બે વિભાગ પડી (( For Private And Personal Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे .. मध्येच-भू१ भुवः२, स्वः३, महः४, जनः५, तपः६, सत्यः७, इत्येवं रूपाणां सप्तानामूर्ध्वलोकानाम् । एवम्-अतल१ वितल२ सुतल३ तलातल४ पाताल५ महापाताल६ रसातल७ रूपाणां च सप्तानामधोलोकानां चेति चतुर्दशभुवनानामुत्पत्तिरभूत् । एवं पृथिवीजलतेजोवायुगगनसरित् समुद्रपर्वतादीनां सर्वेपामुत्पत्तिरभूत् । तदुक्तम्- "आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् । अप्रतय॑मविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव स तः" ॥१॥ इति ।। एवं क्रमेण 'असो' असौ ब्रह्मा 'तत्त' तत्त्वं सर्वपदार्थजातं तदण्डक्रमपरम्परया 'अकासी' अकार्षीत् कृतवान् । ते च ब्राह्मणश्रमणपौराणिकस्मदो विभाग हो गए ऊर्ध्व भाग और अधोभाग । मध्य में (१) भू (२) भुवः (६) स्वः (४) मह (५) जन (६) तप और (७ ) सत्य, इन सात लोकों की तथा (१) अतल (२) वितल (३) सुतल (४) तलातल (५) पाताल (६) महापाताल और (७) रसातल नामक सात अधो लोकों की उत्पत्ति हुई। इस प्रकार चौदह लोक बन गए । इसी प्रकार पृथिवी, जल, तेज, वायु, गगन, नदी, समुद्र और पर्वत आदि सभी की उत्पत्ति हुई । कहा भी हैं- यह सब अन्धकार जैसा था, सर्वथा अज्ञात था, इसका कोई लक्षण नहीं था, इसके विषय में तर्क से भी कुछ नहीं जाना जा सकता था, अज्ञेय था, सभी और सर्वथा सुप्त शून्य जैसा था । ___ ब्रह्मा ने इस प्रकार अंडे से आरंभ करके अनुक्रम से सब पदार्थों की रचना की । परन्तु वे ब्राह्मण, श्रमण, पौराणिक एवं स्मृति अनुयायी गया (१) मास, (२) अधोला। मध्यम (१) (भू, (२) भुपः (3) २१ः, (४) भर; (५) न, (६) त५ माने (७) सत्य, मसात योनी तथा (१) मतस, (२) वित (3) सुतस, (४) तसतस(५) पाताa, (६) मायाता मने (७) २सात नामना સાત અધ લેકની ઉત્પત્તિ થઈ આ પ્રકારે ૧૪ લેકની ઉત્પત્તિ થઈ ગઈ એજ પ્રમાણે પૃથ્વી, જળ, તેજ વાયુ, આકાશ, સમુદ્ર અને પર્વત આદિ બધાં પદાર્થોની ઉત્પત્તિ થઈ ગઈ કહ્યું પણ છે કે– સકળ વિશ્વ પહેલાં અંધકારમય હતું, સર્વથા અજ્ઞાન હતું, તેનું કોઈ લક્ષણ ન હતું તર્ક દ્વારા પણ તેને વિષે કંઈ જાણી શકાતુ નહીં, અય હતું અને ચારે તરફ સર્વથા સૂત શૂન્ય જેવું હતું. બ્રહ્માએ આ પ્રકારે ઈડાથી શરૂઆત કરીને કેમ કમે સઘળા પદાર્થોની રચના કરી પરંતુ તે બ્રાહ્મણો, શ્રમણો, પૌરાણિક અને સમૃત્તિના અનુયાયીઓ વાસ્તવિક For Private And Personal Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समगया बोधिनो टीका प्र. श्रु.अ. १ उ. ३ देवकृतजगदितिवादिनां मतनिराकरणम् ३६९ त्यनुयायिनः 'अयाणंता' अजानन्तः वास्तविकतत्त्वमजानानाः सन्तः 'मुसं' मृपैव 'वए' वदन्ति । अन्यथा स्थितं तस्वमन्यथैव प्रतिपादयन्तीति भावः ||८॥ देवोप्तादिजगदादिनां मत निराकर्तुमाह-“सएटिं" इत्यादि मूलम्सएहिं परियाएहि लोयं बूयो करेत्तिय । तत्तं ते ण जिाणंति ण विणासी कया इति ॥९ -छाया"स्वकैः पर्यायै लोकमब्रुवन् कृतमिति च ।। तत्त्वं ते न विजानन्ति न विनाशी कदापि हि ॥९ अन्वयार्थ (सएहि) स्वकैः (परियारहि) पर्यायैः अभिप्रायविशेषैः। (लोय) (लोकं), वास्तविक तत्त्व को नहीं जानते हुए मिथ्या ही कथन करते हैं । वस्तु स्वरूप कुछ और है किन्तु वे और ही तरह का कहते हैं ॥ ८ ॥ अब देवकृत जगत्वादियों के मत का निराकरण करने के लिए सूत्रकार कहते हैं-"सएहि "इत्यादि । शब्दार्थ-'सएहिं-स्वकैः' अपने 'परियाएहि-पर्यायः' अभिप्राय से 'लोयं-लोकं' लोक को 'कडेत्तिय-कृतमिति' कियाहुआ 'बूया-अब्रुवन् ' कहते हैं 'ते-ते' ये 'तत्तं-तत्त्वं' वस्तु स्वरूपको ‘ण वियाणति-न विजानन्ति' नहीं जानते है यह लोक 'कयाइवि-कदाचिदपि' कभी भी 'ण विणासी-न विनाशी' विनाशशील नहीं है ॥९॥ अन्वयार्थवादी अपने अपने अभिप्राय के अनुसार जगत् को ब्रह्मा आदि के તત્વથી અજ્ઞાત હોવાને કારણે મિથ્યા કથન જ કરે છે. વસ્તસ્વરૂપ જુદા જ પ્રકારનું છે. પણ તેઓ તેમના અજ્ઞાનને કારણે ઉપર્યુક્ત માન્યતાને સાચી માને છે. આ ૮ હવે જગતને દેવકૃત માનનારા લોકોના મતનું ખંડન કરવામાં આવે છે – "सएहि" त्याह "शहाथ--सएहि'- स्वक' मा 'परियारहि-पर्यायैः' अभिप्रायथा 'लाय-लोक' संसारने कडेत्तिय-कृतमिति ४रेख छे तेम'बूया-अब्रुवन्डे छ 'ते से ते तन-तत्व" . १२तु २१३५ने 'ण वियाणति-न विजानन्ति नथी. मा सो 'कयाइवि-कदाचिदर्षि ध्यारे पल ‘ण विणासी-न विनाशी' विनाशशी नथी. ६ - सूत्रार्थ - તે અન્ય મતવાદીઓ પિતપતાના મત પ્રમાણે જગતને બ્રહ્મા આદિ દ્વારા રચિત सू. ४७ For Private And Personal Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७० सूत्रकृताङ्गसूत्रे भूरादिकम् । (करेत्तिय) कृतं ब्रह्मादिना इति (बूया) अब्रुवन् । (ते) ते वादिनः। (तत्तं) तत्त्वं वस्तुस्वरूपम् । (ण विजाणंति) न विजानन्ति नैव कथमपि जानन्ति । किन्तु अयं लोकः (कयाइवि) कदाचिदपि । (ण विणासी) न विनाशी विनाशशीलो नास्ति । ____ अयं भावः-ते वादिनः स्वस्वाभिप्रायविशेषैर्देवादिभिः कृतोऽयं लोक इति ब्रुवन्तः, तत्त्वं पारमार्थिकं नैव विजानन्ति । यतोऽयं लोकः कदाचिदपि-निरन्वयतो न विनश्यति पर्यायरूपेण प्रतिक्षणमन्यथाभावेऽपि अवस्थितः। द्रव्य रूपेणाऽविनाशात् , इति । टीकापूर्वप्रदर्शिता वादिनः स्वस्वाभिप्रायविशेषैः परिदृश्यमानो लोकः देवेन केनचित् , ब्रह्मणा परमेश्वरेण प्रधानस्वभावकालनियत्यादिभिर्वा संपादित द्वारा किया कहते हैं । उन्हे वास्तविकता का ज्ञान नहीं है । वास्तविकता यह है कि लोक विनाशशील कदापि नहीं है। ___अभिप्राय यह है-पूर्वोक्तवादी अपने अपने अभिप्राय के अनुसार यह लोक देवादि के द्वारा रचित है ऐसा कहते हैं, परन्तु उन्हें वास्तविक तत्त्व का ज्ञान नहीं है । क्योंकि इस लोक का कभी भी निरन्वय अर्थात् समूल विनाश नहीं होता । पर्यायरूप से क्षण क्षण में पलटते रहने पर भी द्रव्यरूप से वह कभी विनष्ट नहीं होता, सदा कायम रहता है । ९ टीकार्थ पूर्वोक्तवादी अपनी अपनी इच्छा के अनुसार इस दिखाई देने वाले માને છે. તેમને વાસ્તવિક્તાનું જ્ઞાન નથી. વાસ્તવિક પરિસ્થિતિ તે એ છે કે લેક વિનાશશીલ નથી પરંતુ નિત્ય જ છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે કોઈ આ લેકને દેવ દ્વારા રચિત કહે છે, કે ઈશ્વર દ્વારા રચિત કહે છે. ઇત્યાદિ અનેક માન્યતાઓ ચાલે છે. પરંતુ આ પ્રકારની માન્યતા ધરાવનાર લેકે વાસ્તવિક પરિસ્થિતિથી અનભિજ્ઞ છે. તેમને વાસ્તવિક તત્વનું જ્ઞાન નથી. કારણ કે આ લેકનો નિરન્વય (સમૂળ) વિનાશ કદી પણ થતું નથી, પર્યાય રૂપે ક્ષણે ક્ષણે પરિવર્તન પામવા છતાં પણ દ્રવ્ય રૂપે તે તેને કદી નાશ થતો નથી. એટલે કે લેકનું અસ્તિત્વ કાયમ ટકી રહે છે. टाપૂર્વોક્ત અન્ય તીર્થિક જગતની ઉત્પત્તિના વિષયમાં પિત પિતાની ઈચ્છા અનુસાર For Private And Personal Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनो टीका प्र. श्रु. अ. १ उ.२ प्रकारान्तरेण कर्मबन्धनिरूपणम् ३७१ इति वर्णयन्ति, तथा स्वयम्भुवा निर्मितः, तन्निर्मितमायया म्रियते च, ततश्राण्डसमुद्भवो लोक इत्यादि स्वकीययुक्तिभिः प्रतिपादयन्ति, मया यदुच्यतेतदेव सत्यं नाऽन्यदिति । इत्थं प्रतिपादयन्तः सर्वेऽपि वादिनः तत्वं वास्तविकाथ लोकस्वभावं न विजानन्ति । द्रव्यरूपेण कदाचिदपि निरन्वयतया न विनश्यति । एवं स्थितौ सर्वथा विनश्यन्तीति वदन्तस्ते परमार्थ न जानन्ति । ___अतीतकालेऽयं लोकः आसीत् , इदानीमपि विद्यते अनागतकाले च भविष्यत्येव, द्रव्यार्थिकनयेन कालत्रयेऽपि सद्भावात् । प्रतिक्षणं पर्यायरूपेण लोक को किसी ब्रह्मा ने, परमेश्वर ने, प्रकृति ने, स्वभाव, काल अथवा नियति ने, उत्पन्न किया है, ऐसा कहते हैं । किसी का कहना है कि इसे स्वयंभू ने बनाया है और उसी के द्वारा निर्मित माया के द्वारा मरता है और अण्डे से लोक की उत्पत्ति हुई है । वे सब अपनी युक्तियों से ऐसा प्रतिपादन करते हैं में जो कहता हूँ वही सत्य है, अन्य नहीं । किन्तु इस प्रकार प्रतिपादन करके हुए सभी वादी वास्तविक बस्तु स्वरूप को नहीं जानते हैं । यह लोक द्रव्यरूप से कभी भी सर्वथा नष्ट नहीं होता ऐसा शास्त्रकार कहते हैं । ऐसी स्थिति में उसका सर्वथा विनाश कहने वाले परमार्थ के ज्ञाता नहीं हैं। यह लोक भूतकाल में था, वर्तमान में भी हैं और भविष्य में भी रहेगा द्रव्याथिक नय से यह तीनो कालों में विद्यमान रहता है । यद्यपि માન્યતાઓ પ્રકટ કરે છે. કોઈ એમ માને છે. કે આ લેક બ્રહ્માએ બનાવ્યું છે. કેઈ કહે છે કે પરમેશ્વરે તેની ઉત્પત્તિ કરી છે, એ જ પ્રમાણે કાળ, સ્વભાવ, નિયતિ આદિ દ્વારા પણ આ લેકની ઉત્પત્તિ થયાનું માને છે. ત્યારે કે કોઈ લોકો એવું પણ કહે છે કે સ્વયંભૂએ આ સૃષ્ટિની રચના કરી છે અને સ્વયંભૂ દ્વારા નિર્મિત યમરાજ પિતાની માયા દ્વારા લેકોને સંહાર કરે છે. કોઈ કહે છે કે બ્રહ્માએ ઈડામાંથી આ લેકથી ઉત્યત્તિ કરી છે. આ દરેક મતવાદીએ યુક્તિઓ દ્વારા એવું પ્રતિપાદન કરે છે કે પિતાને મતજ સાચે છે. અને બીજાને મત ઓટો છે પરંતુ આ પ્રકારનું પ્રતિપાદન કરનારા તે મતવાદીઓ વાસ્તવિક વસ્તુવરૂપને જાણતા નથી. આ લેક દ્રવ્યની અપેક્ષાએ કદી પણ સર્વથા નષ્ટ થતું નથી, એવું શાસ્ત્રકારે કહે છે. એવી પરિસ્થિતિમાં તેને સર્વથા વિનાશ માનનારા લેકે તેના યથાર્થ સ્વરૂપથી અજ્ઞાત જ હેવાને કારણે તેને અશાશ્વત કહે છે, આ લોક ભૂતકાળમાં હતો, વર્તમાનમાં છે અને ભવિષ્યમાં પણ તેનું અસ્તિત્વ રહેવાનું જ છે. દ્રવ્યાર્થિક નયની અપેક્ષાએ તેનું અસ્તિત્વ ત્રણે કાળમાં રહે છે. જો કે For Private And Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे विनाशेऽपि द्रव्यरूपेण निरन्वयविनाशस्याऽनभ्युपगमात् । देवोप्तं जगदिति यदुक्तं तन्म समीचीनम् , तत्र प्रमाणाऽभावात् । अप्रमाणवचसि कः श्रद्धां कुर्यात् । किंचाऽयं देवः स्वयमुत्पन्नो लोकं मजति, अनुत्पन्नो वा-२ नाऽन्तिमः अनुत्पन्नस्य देवस्य गगनकुसुमसदृशतया कारणत्वाऽभावात् । न प्रथमः पक्षा, विकल्पाऽसहत्वात् । तथाहि-स देवः स्वत एवोत्पनो जगत् सृजति, अन्यतो वा-२ स्वत इति पक्षे देववत् लोकस्यापि स्वत एवोत्पति भवतु, कि देवेन । अथाऽन्यत उत्पन्नो पर्यायरूप से प्रतिक्षण विनाश होता रहता है फिर भी उसका निरन्वय विनाश नहीं माना गया है। ऐसी स्थिति में लोक को देवकृत आदि कहना समीचीन नहीं है । ऐसा कहने में कोई प्रमाण नहीं है । अप्रमाणिक वचन में कौन श्रद्धा करेगा ? इसके अतिरिक्त यह देव स्वयं उत्पन्न होकर लोक को उत्पन्न करता है अथवा स्वयं उत्पन्न हुए विना ही अन्तिम पक्ष मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि अनुत्पन्न देव आकाश कुसुम के समान ( असत् ) होने के कारण लोक का जनक नहीं हो सकता । पहला पक्ष स्वीकार करना भी संगत नहीं है । वह विकल्पों को सहन नहीं करता। वे विकल्प इस प्रकार हैं-वह यदि उत्पन्न होकर जगत् की रचना करता है तो स्वतः ही उत्पन्न होता है अथवा अन्य से उत्पन्न होता है ? अगर देव स्वतः अर्थात अपने आपसेही उत्पन्न होता है तो लोक भी उसके समान स्वतः ही क्यों न उत्पन्न हो जाए ? फिर देव की आवश्यकता પર્યાય રૂપે તેને પ્રતિક્ષણ વિનાશ થતું રહે છે, પરંતુ તેને નિરન્વય (સંપૂર્ણ વિનાશ થવાની વાત માની શકાય તેમ નથી. એવી સ્થિતિમાં લેકને દેવકૃત આદિ કહે, તે બરાબર નથી. એવું કહેવા પાછળ કઈ પ્રમાણ પણ વિદ્યમાન નથી. અપ્રમાણિક વચનમાં કેણ શ્રદ્ધા રાખે? વળી આ માન્યતા ધરાવનાર લેકે અમારા આ પ્રશ્નોને જવાબ આપે. જે લેક દેવકૃત હોય તે શું દેવ સ્વયં ઉત્પન્ન થઈને લેકને ઉત્પન્ન કરે છે? કે ઉત્પન્ન થયા વિના લેકને ઉત્પન્ન કરે છે? અનુત્પન્ન દેવ લેકને ઉત્પન્ન કરી શકે છે આ વાત સ્વીકાર્ય નથી, કારણકે અનુત્પન્ન દેવ આકાશપુષ્પની જેમ અસત (આવિદ્યમાંન) હોવાથી લેકને જનક સંભવી શકે નહીં. દેવ સ્વયં ઉત્પન્ન થઈને લેકને ઉત્પન્ન કરે છે. આ પહેલે પક્ષ પણ સ્વીકારી શકાય તેમ નથી, કારણ કે, તે માન્યતા સ્વીકારવામાં નીચેના વિક (પ્રશ્નો) ઉદ્દભવે છે, જે આ પક્ષને સ્વીકાર કરવમાં આડા આવે છે. જે તે દેવ ઉત્પન્ન થઈને જગતની રચના કરતે હોય, તે તે સ્વતઃ (જાતે જ) ઉત્પન્ન થાય છે, કે અન્યના દ્વારા ઉત્પન્ન થાય છે? જે દેવ પિતાની જાતે જ ઉત્પન્ન થતું હોય તે લેક પણ તેની જેમ જાતે જ કેમ ઉત્પન્ન કેમ ન થાય? તેની ઉત્પત્તિ માટે દેવની For Private And Personal Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मसायर्थ बोधिनो टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. २ कर्मबन्धे आईतमतनिरूपणम् ३७३ देवो लोकं मृजति, तदा-अनवस्था, देवाल्लोको जातः, देवस्यापि कुतश्विदुत्पत्तिः, तस्यापि कुतश्चिद् इति व्यवस्थिताऽनवस्था । नचाऽनादिरयं देव इति ब्रुयात् , तदा जगतोऽपि भवत्वनादित्वम् , तत्र कः प्रद्वेषो भवतः । किचार्य देवो नित्योऽनित्यो वा-२ नित्यश्चेत् क्रमयोग पद्याभ्याम् अर्थक्रियां नैव सम्पादयितुमलम् क्रमिककार्यपक्षेऽनवस्था, योगपद्यपक्षेऽनन्तरक्षणे नैरर्थक्यमिति । नाऽप्यनित्य इति पक्षः, यः स्वयमनित्यः स कथमन्यं प्रति उत्पादनाय चिन्तां करिष्यति, उत्पादादनन्तरं पूर्वे स्वस्यैवाऽभावात् । क्या है ? अगर कहो कि देव किसी दूसरे से उत्पन्न होकर लोक को उत्पन्न करता है तो अनवस्था दोष आता है । अर्थात् जैसे देव को उत्पन्न कर ने वाला कोई अन्य है, उसी प्रकार उस अन्य का उत्पादक भी कोई अन्य है, उसी प्रकार उस अन्य का उत्पादक भी कोई अन्य ही होगा। इस प्रकार की कल्पना का कहीं अन्त नहीं आएगा। - कदाचित् कहो कि वह देव अनादि कालीन है तो जगत् भी अनादि हो क्यों न माना जाय ? उसे अनादि मानने में आपको क्या द्वेष है ? : ___ और, यह देव नित्य है या अनित्य है ? अगर नित्य है तो क्रम से अथवा एक साथ अर्थक्रिया नहीं कर सकता । क्रम से अर्थात् एक के बाद दूसरी अर्थक्रिया करेगा तो अनवस्था दोष आएगा। यदि समस्त अर्थक्रियाएँ एक साथ करना मानो तो दूसरे क्षण में अर्थक्रिया से शून्य हो जाएगा । (अर्थक्रिया) से जो शून्य होता है वह आकाश कुसुम की तरह असत् होता है । अगर देव को अनित्य मानो तो वह दूसरे को उत्पन्न જરૂર જ શી છે? જે તે દેવ અન્ય કેઈન દ્વારા ઉત્પન્ન થઈને લેકની ઉત્પત્તિ કરતો હોય, તો અનવસ્થા દોષને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થઈ જશે. એટલે કે દેવને ઉત્પન્ન કરનાર કેઈ અન્ય (વ્યક્તિ) હોય, તે તે અન્ય (વ્યક્તિ) ને ઉત્પન્ન કરનાર પણ કઈ અન્યને સદ્દભાવ હવે જ જોઈએ. વળી તે અન્યને ઉત્પાદક પણ વળી બીજે કઈ હવે જ જોઈએ. આ પ્રકારે કલ્પનાને કદી અન્તજ નહીં આવે. જે આપ એવી દલીલ કરતા છે કે તે દેવ અનાદિકાલીન છે, તે જગતને પણ અનાદી માનવમાં શો વાંધે છે? વળી જાતને ઉત્પન્ન કરનાર તે દેવ નિત્ય છે કે અનિત્ય જે તે નિત્ય હોય તે કમે કમે અથવા એક સાથે અર્થ કિયા કરી શકે નહીં કેમે ક્રમે એટલે એક પછી એક અર્થકિયા કરે તે અનવસ્થા દોષને પ્રસંગ પ્રાન્ત થશે. જો બધી ક્રિયાઓ એકસાથે કરે છે એવું માની લે તે બીજી ક્ષણે તે દેવ અર્થ કિયાથી વિહીન બની જશે. અર્થ કિયાથી જે શૂન્ય હોય છે, તે આકાશપુષ્પની જેમ અસતું હોય છે. જે દેવને અનિત્ય માનવમાં For Private And Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३७४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे किचाऽयं देवोऽमूर्ती मूर्तीवा - १ अमूर्तत्वे न कथमपि जगतः कर्तासंभवति, आकाशवत् । यथाऽऽकाशोऽमूर्त्तत्वान्नकस्यचिदपि कर्ता तथाऽमूर्ती देवो न कस्यचिदपि कर्ता - संभवेत् । मूर्त्तत्वेऽस्मदादिवदेव न सर्वस्य जगतः कर्ता, इति न देवकरीकं जगत् सम्भवतीत्यनेन देवोप्सजगद्वादिमतं निराकृतम् । तथाब्रह्मकृतईश्वरकृतोऽपि न लोकः । किन्तु अनादिकालप्रवृत्तोऽयं लोको न कमपि कर्तारमपेक्षते, आत्माऽऽकाशादिवत् इति । यदप्युक्तं क्षित्यं कुरादिकं कर्त्तजन्यम्, कार्यत्वात् इत्यनुमानेन परमेश्वरस्य जगत्कर्त्तृत्वमिति, तदपि न सम्यक् । कर ने की चिन्ता ही कैसे करेगा ? उत्पत्ति के पश्चात् उसका स्वयं का ही अभाव हो जाएगा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसके अतिरिक्त यह देव अमूर्त है या मूर्त ? अगर अमूर्त है तो आकाश के समान किसी प्रकार भी जगत् का कर्त्ता नहीं हो सकता । अर्थात् जैसे अमूर्त होने के कारण आकाश किसी का कर्त्ता नहीं है, उसी प्रकार अमूर्त देव भी किसी का कर्त्ता नहीं हो सकता है । और यदि देव मूर्त है तो हम लोगों के समान ही सम्पूर्ण जगत् का कर्त्ता नहीं है । इस प्रकार जगत् देवकृत नहीं हो सकता है । यह देवकृत जगत् मानने वाले के मत का निराकरण हुआ । इसी प्रकार जगत् ब्रह्मकृत और ईश्वरकृत भी नहीं हो सकता । वास्तव में यह जगत् अनादि काल से चला आ रहा है। आत्मा और आकाश आदि की तरह इसको किसी कर्त्ता की अपेक्षा नहीं है । पृथ्वी अंकुर आदि कर्त्ता के द्वारा जन्य है, क्योंकि वे कार्य हैं। इस આવે, તે એવા અનિત્ય દેવ અન્યને ઉત્પન્ન કરવાની ચિ'તાજ શા માટે કરે? કારણકે સૃષ્ટિની ઉત્પત્તિ કર્યા ગાદ તેના પેાતાના જ અભાવ થઇ જવાના છે. વળી અમારા એવા પ્રશ્ન છે કે તે દેવ મૂત્ત છે, કે અમૂત છે. જો તે અમૂત હાય તા આકાશની જેમ કોઈ પણ પ્રકારે જગતના કત્તાં સંભવી શકે નહી. એટલે કે જેવી રીતે આકાશ અમૂત્ત હાવાને કારણે કોઇ પણ પદાથ નુ કત્તાં નથી, એજ પ્રમાણે અમૃત્ત દેવ પણ કોઈના કર્તા હોય શકે નહી. જો દેવને મૃત્ત માનવામાં આવે, તે આપણા જેવાજ હોવાને કારણે સમસ્ત લોકના કર્તા હાઇ શકે નહીં. આ પ્રકારની દલીલે દ્વારા એ વાત સિદ્ધ થાય છે કે જગત દેવકૃત હાઇ શકે નહીં. આ પ્રકારે જગતને દેવકૃત માનનાર લોકોના મતનું ખંડન થઇ જાય છે. એજ પ્રમાણે આ જગતને બ્રહ્મકૃત અથવા ઇશ્વરકૃત પણ માની શકાય નહીં. આ રીતે તો આ જગત અનાદી કાળથી ચાલ્યું આવે છે. આત્મા અને અકાશ આદિ ને જેમ કોઈ કર્તાની આવશ્યકતા રહેતી નથી. એજ પ્રમાણે આ લોકને પણ કોઇ કર્તાની આવશ્યકતા જ નથી. પૃથ્વી અંકુર આદિ કર્તા દ્વારા જન્ય છે, કારણકે તેઓ કા રૂપ છે,” આ અનુમાનને આધારે ઇશ્વરને જગતને For Private And Personal Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टोका प्र. श्रु. अ. १ उ. २ प्रकारान्तरेण कम बन्धनिरूपणम् ३७५ ___तथाहि-ईश्वरसाधककार्यत्वहेतोर्मेधमालादौ व्यभिचारात् । तत्र मेघमालादौ कार्यत्वमस्ति, किन्तु तत्र कर्तुजन्यत्वं नास्ति । तत्रापि यदि कर्तृजन्यत्वं स्वीक्रियेत तदा-यथा घटस्य कर्ता कुलालादि र्दश्यते, तथा तत्राऽपि कश्चित्कर्तादृश्येत, परन्तु न दृश्यते अतो नास्ति कर्ता, अतो मेघमालादौ कार्यत्वं हेतु यभिचरत्येव । किंच यः कर्ता, स अवश्यं शरीरविशिष्टो भवेत् । यथा कुलालादि । ईश्वरस्यापि जगत्कर्त्तत्वे-इश्वरोऽपि शरीरी स्यात् । न तु शरीरवान् परमेश्वरस्त्वया स्वीक्रियते । तत्स्वीकारे स्वशास्त्रविरोध एव भवेत् । अनुमान से ईश्वर को जगत्कर्ता सिद्ध करना भी समीचीन नहीं है । क्यों कि ईश्वर के कर्तृत्व के साधक कार्यत्व हेतु में मेघमाला आदि से व्यभिचार आता है । मेघमाला आदि से कार्यत्व हेतु रहता है मगर वे किसी कर्ता के बनाये हुए नहीं हैं । अगर मेघमाला को भी कर्तृ जन्य मानो तो जैसे घट का कर्त्ता कुंभार दिखाई देता है, उसी प्रकार मेघमाला का कर्ता भी दिखाई देना चाहिए। किन्तु कर्ता कोई दिखाई नहीं देता । अतएव उसका कोई कर्ता नहीं है। अतः मेघमाला आदि में कार्यत्व हेतु व्यभिचारी सिद्ध होता है। . इस के अतिरिक्त जो भी कर्त्ता होता है, वह अवश्य ही सशरीर होता है, जैसे घट का कर्ता कुम्भकार शरीर से युक्त होता है । अगर ईश्वर जगत् का कर्ता है तो वह भी शरीर युक्त ही होना चाहिए। अगर आप ईश्वर को शरीरयुक्त मान लेते हैं तो आपके ही शास्त्र से विरोध आएगा। आप के यहां कहा है કર્તા માને, તે પણ અનુચિત જ છે. કારણકે ઈશ્વરના કર્તૃત્વ સાધક કાર્યત્વ હેતુમાં મેઘમાલા આદિને કારણે અસંગતતાને પ્રસંગ આવે છે. મેઘમાળા આદિમાં કાર્યત્વ હેતુ રહે છે, પરન્તુ તે કઈ કર્તા દ્વારા બનાવેલા હતા નથી, જે મેઘમાળાને પણ કતૃજન્ય માને તે જેવી રીતે ઘટને કર્તા કુંભાર દેખાય છે, તેમ મઘભાવને કર્તા પણ દેખાવે જોઈએ. પરંતુ કેઈ કર્તા દેખાતું નથી. તેથી તેને કઈકર્તાજ નથી એ સિદ્ધ થાય છે. તેથી મેઘમાસ આદિમાં કાર્યવ હેતુ વ્યભિચારી (અસંગત) સિદ્ધ થાય છે. વળી એવો નિયમ છે કે જે કઈ કર્તા હોય છે, તે સશરીર (મૂર્ત) જ હોય છે. જેમકે ઘડાની કર્તા કુંભાર શરીરથી યુક્ત જ હોય છે. તેથી જે ઇશ્વર જગતને કર્તા હોય, તે તે પણ શરીરથી યુક્ત જ હોવા જોઈએ જે આપ ઈશ્વરને શરીયુકત માને, તે તે માન્યતા આપના શાસ્ત્રોથી વિરૂદ્ધની માન્યતા ગણશે આપના શાસ્ત્રોમાં કહ્યું છે કે For Private And Personal Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३७६ www.kobatirth.org तदुक्तम् -' Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (- "न तस्य कार्य ( शरीरं ) करणं (इन्द्रियं ) च विद्यते, न तत्समवाऽभ्यधिकश्च दृश्यते । परास्य शक्ति विविधैव श्रूयते स्वाभाविक ज्ञानबलक्रिया च ॥ इत्यादिना परमेश्वरे शरीराद्यभावस्य प्रतिपादनात् । सूत्रकृतसूत्रे किंच शरीरविशिष्टत्वं कर्तत्वव्यापकतया कुलालादौ गृहीतं, तत् शरीरं वैशिष्ट्यं परमेश्वराद् व्यावर्त्तमानं कर्तृत्वमपि व्यावर्त्तयति । अतो न परमेश्वरो लोकस्य कर्ता सम्भवति । अपि चेश्वरस्य स्वीकारे तदीयं शरीरं दृश्यमदृश्य वा स्यात् नाद्यः तथा सति दृश्य- शरीरविशिष्टतया ईश्वरोऽप्यस्मदादिवदेवो - पलभ्येत, नोपलभ्यते, तस्मान्नास्ति । न द्वितीयः तादृश शरीरस्य प्रमाण - 'ईश्वर के न शरीर हैं और न इन्द्रियां ही है । न कोई दूसरा उसके समान है, न कोई उससे बढ़कर है । उसकी परा सर्वोत्कृष्ट और विविध सुनी जाती है । उस में जो ज्ञान, बल और क्रिया है, वह स्वाभाविक है । ' इत्यादि आगमों में ईश्वर के शरीर आदि का अभाव कहा गया है । शरीर विशिष्टत्व कर्तृत्व का व्यापक है । यह नियम कुंभकार आदि में सिद्ध है । अगर परमेश्वर में शरीर विशिष्टता नहीं है तो कर्तृत्व भी नहीं होना चाहिए | इस प्रकार परमेश्वर लोक का कर्त्ता नहीं हो सकता । यदि ईश्वर को सशरीर मानते हो तो उसका शरीर दृश्य है या अदृश्य है । अगर उसका शरीर दृश्य है तो जैसे हम लोगों का शरीर दिखाई देता है ऐसेही इश्वरका शरीरभी दिखाना चाहिए। मगर दीखाता तो है नहीं, अतएव शरीर दृश्य नहीं हो ” ઈશ્વરને શરીર પણ નથી અને ઇન્દ્રિયા પણ નથી ઇશ્વરના સમાન કોઇ નથી અને ઇશ્વરથી મહાન્ પણ કોઇ જ નથીતે સર્વ શક્તિમાન છે તેની અંદર જે જ્ઞાન, બળ અને ક્રિયા છે, તે સ્વાભાવિક છે” ઇત્યાદિ કથન દ્વારા ઇશ્વરમાં શરીર આદિના અભાવ બતાવ્યા છે શરીરયુક્તતા કર્તૃત્વના વ્યાપક રૂપ હોય છે આ નિયમ કુંભાર આદિમાં સિદ્ધ થાય છે. જો ઇશ્વરમાં શરીરયુક્તતાના અભાવ છે, તે કÖત્વ પણ સ ંભવી શકે નહીં, આ પ્રકારે એ વાત સિદ્ધ થાય છે કે ઇશ્વર પણ લેાકના કાં નથી. For Private And Personal Use Only જો ઇશ્વરને તમે સશરીર માનતા હેા, તે તેમનુ શરીર દૃશ્ય છે કે અદૃશ્ય જો દૃશ્ય હાય, તેા આપણા શરીરની જેમ ઇશ્વરનુ ં શરીર પણ દેખાવું જ જોઇએ પરન્તુ દેખાતુ તેા નથી જ તેથી તેનુ શરીર દૃશ્ય હાઇ શકે નહીં. તેમના શરીરને અદૃશ્ય, માનવું તે Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु भ. उ. ३ जगदुत्पत्तविग्ये मतान्तरनिरूपणम् ३७ तयाऽनुपलम्भात् । यदि इश्वरः कर्ता न स्यात् तदा कार्यत्वकतृत्वयोर्व्याप्तिः घटादौ परिदृश्यमाना कथमुपपत्तिपदवीं लभेतेति न वाच्यम् । एतावता सकारणकत्वमात्रमेव गिरिसमुद्रादौ व्यवस्थितं भवति न तु ईश्वरकर्तृत्व सम्भवति । कार्यस्य केनचित्कारणेन साहचर्यं भवति, न तु अमुककारणेनैवेति नियमः, तदिहाऽपि कारणत्वं न व्यभिचरति ३. कार्यस्य घटादेरनित्यत्वदर्शनात् , कार्यत्वस्य गिरिसमुद्रादावपि सत्वात कथं न गिरिसमुद्रादेरनित्यत्वमिति न वाच्यम् । कथंचिदनित्यत्वस्याऽस्माभिरपि स्वीकारात् । निरन्वयविनाशस्यैवाऽनङ्गीकारात् । पर्यायरूपेण सर्वेऽनित्याः द्रव्यसकता । उसके शरीर को अदृश्य मानना भी उचित नहीं है क्योंकि ऐसा शरीर प्रमाण से उपलब्ध नहीं होता। : शंका-यदि ईश्वर का नहीं होगा तो कार्यत्व और कृर्तृत्व की व्याप्ति, जो घटादि में दृष्टिगोचर होती है, किस प्रकार संगत हो सकेगी? समाधान-ऐसा न कहीए कार्यत्व हेतु से पर्वत समुद्र आदि में सामान्य रूप से सकारणता सिद्ध होती है, । अर्थात् पर्वत आदि कार्य हैं तो उनका कोई कारण होना चाहिए, इतना ही सिद्ध होता है, उससे यह सिद्ध नहीं होता कि ईश्वर उनका कर्ता होना चाहिए । कार्य की किसी कारण के साथ व्याप्ति होती है, मगर अमुक कारण के साथ ही व्याप्ति हो, ऐसा नियम नहीं है। यहां वह सामान्य कारणता व्यभिचरित नहीं है। घट आदि कार्य अनित्य देखे जाते हैं, और गिरि समुद्र आदि में भी कार्यत्व है, अतः अनित्यत्व भी होना चाहिए' ऐसा कहना ठीक नहीं। हमने कथंचित् अनित्यताका स्वीकार किया ही है। हां, उनका निरन्वय विनाश પણ ઉચિત નથી, કારણ કે એવું શરીર પ્રમાણ દ્વારા ઉપલબ્ધ થતું નથી. શંકા જે ઇશ્વર કર્તા ન હોય, તે કાર્યવ અને તૃત્વ અને તૃત્વની વ્યાપ્તિ કે જે ઘટાદમાં દષ્ટિગોચર થાય છે, તે કેવી રીતે સંગત હોઈ શકે ? - સમાધાન-- આ શંકા અસ્થાને છે, કાર્યત્વ હેતુ વડે પર્વત, સમુદ્ર આદિમાં સામાન્ય રૂપે કારણુતા સિદ્ધ થાય છે એટલે કે પર્વત આદિ કાર્ય છે, તે તેમનું કેઈ કારણ હેવું જોઈએ, એટલું જ સિદ્ધ થાય છે. તેના દ્વારા એ સિદ્ધ થતું નથી કે ઈશ્વર જ તેના કર્તા હોવા જોઈએ કાર્યની કોઈ પણ કારણની સાથે વ્યાપ્તિ હોય છે. પરંતુ અમુક કારણુની સાથે જ વ્યાપ્તિ હોવી જોઈએ એવો નિયમ નથીઅહીં તે સામાન્ય કારણુતા વ્યભિચરિત નથી. - ઘટ આદિ કાર્ય અનિત્ય દેખાય છે, અને ગિરિ, સમુદ્ર આદિમાં પણ કાર્ય છે, તેથી અનિત્યત્વ પણ હોવું જોઈએ, એવું કથન ઉચિત નથી અમે કથંચિત (અમુક દષ્ટિએ અનિત્યતાને સ્વીકાર જ કર્યો છે. પરંતુ તેનો નિરન્વય (મૂળ) વિનાશ અમે સ્વીકારતા सु. ४८ For Private And Personal Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७८ रूपेण न सर्वे नित्या एवेति स्वीकारात् । तदुक्तं हेमचन्द्राचार्यै:“आदी पमाव्योमसमस्वभावं स्याद्वादमुद्रा नति भेदि वस्तु । तन्नित्यमेवैक मनित्यमन्यदितित्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः" इति ॥ १॥ यदप्युक्तं सांख्यकारैः प्रकृत्यपरनामकप्रधानकृतोऽयं लोक इति तदपि न युक्तम् । यतः प्रधानं मृर्त्तममूर्तम्या - २ अमूर्त्तत्वे तादृशाऽमृतंप्रधानान्नजगतः उत्पत्तिसम्भवः, आकाशादिवत् । आकाशेनाऽमूर्त्तेन यथा न किंचिदपि समुत्पाद्यते, तथा प्रधानादपि न किमपि उत्पादितं स्यात् । यदि मूर्त्त प्रधानम् तदा तत् कुतः समुत्पद्यते - २ सूत्रकृतानसमे For Private And Personal Use Only होना अंगीकार नहीं किया है। पर्याय से सब पदार्थ अनित्य हैं और द्रव्य से नित्य हैं। हेमचन्द्राचार्य ने कहा है- 'दीपक से लेकर आकाश पर्यन्त सम वस्तुएँ समान स्वभाव वाली हैं अर्थात् कथंचित् नित्य और कर्यचित् अनित्य हैं, क्योंकि कोई भी वस्तु स्याद्वाद की मुद्रा (छाप) को उल्लंघन नहीं करती। ऐसी स्थिति में एक अर्थात् आकाश आदि नित्य ही है और दीपक आदि अनित्य ही हैं ऐसा कहना, हे जिनेन्द्र आपकी आज्ञा ( आगम) से द्वेष रखने ' वालों का प्रमाद मात्र है। प्रकृति जिसका दूसरा नाम है उस प्रधान ने लोक को उत्पन्न किया है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि प्रधान मूर्त है या अमूर्त है ? अगर अमूर्त्त मानो तो अमूर्त्त प्रधान से जगत् की उत्पत्ति होना संभव नहीं है । जैसे अमूर्त आकाश से किसी भी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार प्रधान से कोई कार्य उत्पन्न नहीं होगा । और प्रधान यदि मूर्त है तो उसकी उत्पत्ती किससे होती है ? अगर प्रधान अपने आपसे ही उत्पन्न हो નથી પર્યાયની અપેક્ષાએ સઘળા પદાર્થો અનિત્ય છે, પરન્તુ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ નિત્ય છે. હેમચન્દ્રાચાર્ય' કહ્યું છે કે દીપકથી લઇને આકાશ પન્તની સઘળી વસ્તુ સમાન સ્વભાવવાળી છે એટલે કે તે વસ્તુઓને એકાન્તતઃ નિત્ય કે અનિત્ય માનવામાં આવી નથી, પરન્તુ અમુક અપેક્ષાએ નિત્ય અને અમુક અપેક્ષાએ અનિત્ય માનવામાં આવેલ છે, કારણ કે કોઇ પણ વસ્તુ સ્યાદ્વાદની મુદ્રા (છાપ ) નું ઉલ્લ ંઘન કરી શકતી નથી એવી પરિસ્થિતિમાં આકાશ આદિ ઇ કોઇ પદાર્થાને નિત્ય કહેવા અને દ્વીપક આદિને અનિત્ય કહેવા, તે હું જિનેન્દ્ર આપની આજ્ઞાના—આગમના દ્વેષ કરનારનો પ્રલાપ માત્ર જ છે ! પ્રકૃતિ અથવા પ્રધાને આ લાકને ઉત્પન્ન કર્યાં છે, આ પ્રમાણે કહેવું તે પણ ચેગ્ય નથી જો પ્રકૃતિને કર્તા માનવામાં અવે, તે અમારા આ પ્રશ્નોના જવાબ શા છે ? શુ પ્રકૃતિ મૂત્ત છે કે અમૂત્ત ? જો તેને અમૃત્ત માનો તે અમૂત્ત પ્રકૃતિ દ્વારા સૃષ્ટિની ઉત્પત્તિ ચવાની વાત જ સ ંભવી શકે નહીઁ જેવી રીતે અમૂત્ત આકાશ કોઇ પણ વસ્તુનુ કાં હતુ નથી. એજ પ્રમાણે અમૂત્ત પ્રકૃતિ પણ કોઇ પણ વસ્તુની કાઁ સભવી શકે નહી પ્રકૃતિ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थबोधिनी टोका प्र. श्रु अ. १ उ. ३ जगदुत्पतिविषये मतान्तर निरूपणम् ३७९ न तावत् स्वत इति पक्षः । तथा सति लोकस्याऽपि तथोत्पत्तिप्रसङ्गात् । नाप्यन्यतोऽनवस्थापत्तेः इति । यदि स्वतोऽनुत्पन्नत्वं प्रधानस्य स्वीक्रियते सदा जगतः स्वतोऽनुत्पन्नत्वमेव कथं न स्वीक्रियते । - किंच- प्रधानं विकारि, अविकारि बा- २ विकारित्वे - घटादिवदेवाऽ जवानत्वापत्तिः । अविकारित्वे त्वन्मतसिद्धं प्रकृतेर्महान्, महतोऽहङ्कारः, महङ्कारात्पचतन्मात्रम् इत्यादीनामुत्पादकत्वं न स्यात् । अविकृतस्याऽऽकाशादेः कार्योत्पादकत्वाऽदर्शनात् । अतो न प्रधानात् जगतः समुत्पत्तिः सम्भवति । किंच अचेतनस्य प्रधानस्य (प्रकृतेः) कथं पुरुषार्थं प्रति प्रवृत्तिः, येन जीवस्य भोगाय सृष्टिः स्यात् । जाता है तो लोक भी प्रधान के बिना ही अपने आप उत्पन्न हो जाएगा। अगर प्रधान की उत्पत्ति किसी अन्य से मानो तो अनवस्था दोष आता है। इसके अतिरिक्त प्रधान विकारवान् है या अधिकारी है ? वह विकारवान् है तो घटादि के समान होने से प्रधान ही नहीं कहलाएगा । यदि अविकारी कहो तो वह महत् आदि का उत्पादक नहीं हो सकता। मगर आपके यहां तो ऐसा कहा है कि प्रधान से महत्, महत् से अहंकार और अहंकार से पांच तन्मात्र आदि उत्पन्न होते हैं। आकाश आदि जो अविकारी पदार्थ हैं वे कार्य के उत्पादक नहीं देखे जाते। इस प्रकार प्रधान से जगत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती । और अचेतन प्रकृति की पुरुषार्थ के लिए प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? जिस से जीव के भोग के लिए यह सृष्टि उत्पन्न हो सके મૂર્ત હાય, તા તેના કર્તા કોઇ અન્ય જ હોવા જોઇએ અને તે અન્યના કર્તા પણ કોઇ અન્ય જ હોવા જોઇએ આ કલ્પનાના અન્ત જ ન આવે પરિણામે અનવસ્થા દોષનો પ્રસંગ ઉપસ્થિત થઇ જાય વળી પ્રકૃતિ પ્રધાન વિકારવાન છે કે અવિકારી છે? જો તે વિકારવાન હાય, તે તે ઘટાદિના સમાન હેાવાને કારણે તેને પ્રધાન જ ન કહી શકાય જે તેને અવિકારી કહેતા હાય, તે તે મહત (મુદ્ધિ) આદિની ઉત્પાદક જ ન હોઇ શકે આપના શાસ્ત્રોમા તે એવુ કહ્યું છે કે ” પ્રધાન ( પ્રકૃતિ) વડે અંકાર, અહંકાર વડે પાંચ તન્માત્રા આદિ ઉત્પન્ન થાય છે" આકાશ આદિ જે અવિકારી પદાર્થમાં છે, તેમને કાયના ઉત્પાદક હવે જોવામાં આવતા નથી. આપ્રકારે વાત સિદ્ધ થાય છે કે પ્રધાન (પ્રકૃતિ વડે જગતની ઉત્પત્તિ થઇ શકતી નથી. વળી અચેતન પ્રકૃતિ, જીવના ભાગને માટે સૃષ્ટિની ઉત્પત્તિ કરવાની પ્રવૃત્તિ જ કેવી રીતે કરી શકે ? તેની પુરુષાર્થને માટેની કોઇ પ્રવૃત્તિ જ સંભવી શકે નહીં. For Private And Personal Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ..... स्वभाववादस्वीकारे स्वभावादेव जगत्प्रक्रिया स्वीकरणीया, किं प्रधानादि कल्पनया । . .. . ___ स्वभावनियत्यादीनां कारणत्वं कथंचिदस्माभिरप्यङ्गीकृतमेवेति न तब विशेषचिन्ता करणीयेति, तदेवं सुव्यवस्थित, यदयं लोको न मारादिव्यवस्थया व्यवस्थाप्यते । अपितु कथञ्चिदुत्पद्यमानोऽपि कथंचिद्विनश्यति, न तु सर्वस विनाशी स्याद्वादे सर्वदोषाणां निराकृतत्वात् । अतः स्याद्वादमतमेवानुसरणीय श्रेयस्कामैरिति पूर्वोक्तदेयोप्तब्रह्मोप्तधेश्वरादिकृतजगदादिमतनिराकरणम् ॥९॥ अगर स्वभाववाद को स्वीकार करते हो अर्थात् प्रकृति का ऐसा ही स्वभाव मानते हो कि वह पुरुषार्थ के लिए प्रवृत्ति करती है तो स्वभाव से ही जगत् की प्रक्रिया स्वीकार करना चाहिए । फिर प्रकृति आदि की कल्पना करने से क्या लाभ है ? स्वभाव, नियति आदि को हम भी अपेक्षा विशेष से कारण स्वीकार करते हैं, अतएव उनके विषय में विशेष विचार करने की आवश्यकता ही नहीं है । इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि यह लोक मार यम आदि की व्यवस्था पर निर्भर नहीं है। यह तो किसी पर्याय रूपसे उत्पन्न होता है और किसी पर्याय से विनष्ट भी होता रहता है । यह लोक सर्वथा विनाशशील नहीं है । स्याद्वाद में कोई भी दोष होना असंभव है । अतएव जो अपना कल्याण करना चाहते हैं उन्हें स्याद्वाद मत का ही अनुसरण करना चाहिए । इस प्रकार देवकृत, ब्रह्मकृत अथवा ईश्वरादि के द्वारा कृत लोक है, इन मन्तव्यों का निराकरण किया गया है ।। ९॥ જે સ્વભાવવાદને સ્વીકાર કરતા હો, એટલે કે પ્રકૃતિને એ જ સ્વભાવ માનતા છે કે તે પુરુષાર્થને માટે પ્રવૃત્તિ કરે છે, તે સ્વભાવ દ્વારા જ જગતની પ્રકિયા (ઉત્પત્તિ) થયાની વાત જ સ્વીકારવી જોઈએ તે પછી પ્રકૃતિ આદિની કલ્પના કરવાથી શું લાભ છે? સ્વભાવ, નિયતિ આદિને અમે (જૈન) પણ અમુક અપેક્ષાએ જગત્ની ઉત્પત્તિના કારણ રૂપે સ્વીકારીએ છીએ, તેથી તેમના વિષે વધુ વિચાર કરવાની આવશ્યકતા જ નથી. આ પ્રકારે એ વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે કે આ લેક માર (યમરાજ) આદિની વ્યવસ્થા પર નિર્ભર નથી. તેને કેઈ પર્યાય રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. અને કોઈ પર્યાયની અપેક્ષાએ વિનષ્ટ પણ થતું રહે છે. આ લેક સર્વથા વિનાશશીલ નથી. સ્યાદ્વાદમાં કઈ પણ દેષ હોવાને સંભવ જ નથી. તેથી જેઓ પિતાનું શ્રેય ચાહતા હોય, તેમણે સ્યાદ્વાદને જ અનુસરો જોઈએ. આ પ્રકારે લેક દેવકૃત, બ્રાકૃત, ઈશ્વરકૃત આદિ હેવાની વાતનું નિરાકરણ થઈ જાય છે. ગાથા ! For Private And Personal Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समया बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. ३ पूर्वोक्तवादिनां फलप्राप्तिनिरूपणम् ३८१ पूर्वोक्तवादिनां कीदृशं फलं भवतीत्याह-"अमणुम" इत्यादि मूलम् . "अमणुन्नसमुपायं, दुक्खमेव विजाणिया । समुप्पायमजाणंता कहं नायंति संवरं ॥१०॥ छाया " अमनोज्ञसमुत्पादं दुःखमेव विजानीयात् । समुत्पादमजानंतः कथं ज्ञास्यन्ति संवरम् ॥१०॥ अन्वयार्थ (दुक्खं) दुःखम् चतुर्गतिपरिभ्रमणरूपम् (अमणुनसमुप्पाय एव) अमनोसमुत्पादमेव-कुमतस्थापनाद्यशुभाऽनुष्ठानजनितमेव भवति, इत्येवम् (विजाणिया) पूर्वोक्त वादियों को किस प्रकार के फल की प्राप्ति होती है, सो कहते हैं-अमणुन्न "इत्यादि । शब्दार्थ-दुक्ख-दुःखम्' दुःख 'अमणुनसमुप्पाय-अमनोज्ञसमुत्पादम्' अशुभअनुष्ठानसे ही उत्पन्नहोता है 'विजाणिया-विजानीयात्' यह जानना चाहिये 'समुप्पायं-समुत्पादम्' दुःख की उत्पत्तीका कारण 'अजाणता-अजानन्तः' न जानने वाले लोग 'संवर-संवरम्' दुःखके रोकने का उपाय 'कह-कथम्' कैसे 'नायति-ज्ञास्यन्ति' जान सकते हैं ? अर्थात् नहीं जान सकते ॥१०॥ अन्वयार्थचार गतियों में भ्रमणरूप दुःख, मिथ्यामत की स्थापना आदि अशुभ कार्यों से ही उत्पन्न होता है ऐसा जानना चाहिए। दुःख की उत्पत्ति હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે પૂર્વોક્ત મતવાદિએને ક્યા પ્રકારના ફળની प्राप्ति थाय छे“अमणुन" त्याह___शहाथ-'दुक्ख-दुःखम्' ५ 'अमणुन्नसमुप्पाय-अमनोज्ञसमुत्पादम्' अशुभ प्रवृत्ति थी अपन्न थाय छे. 'विजाणिया-विजानीयात्' 24 नये 'समुप्पाय समुत्पादम्' हु.मनी उत्पत्तीनु १२ 'अयाण ता-अजानन्त' - onjan वा मासो 'सवर-सवरम्' हुमने शवानी उपाय 'कह-कथम् वी शते 'नाति-ज्ञास्यन्ति' સમજી શકે છે, અર્થાતું નથી જાણી શકતા ૧૦ -सूत्राथ-. મિથ્યામતની સ્થાપના આદિ અશુભ કાર્યો કરવાથી, ચાર ગતિઓમાં ભ્રમણ રૂપ દુઃખ ઉત્પન્ન થાય છે. એમ સમજવું દુઃખની ઉત્પત્તિને આ કારણને નહીં જાણનારા અજ્ઞાની For Private And Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतामधे विजानीयात, (समुप्पाय) समुत्पाद-दुःखकारणम् , पूर्वोक्तकुमतस्थापनादिकम् वर्तते इत्येवम् (अजाणता) अजानन्तः अनवबुध्यमानाः पुरुषाः, संवरं संवरम् दुःखनिरोधोपायभूतं तपःसंयमलक्षणम् (कह) कथम् केन प्रकारेण (नायंति) ज्ञास्यन्ति, अपितु नैव ज्ञास्यन्तीति । ये पुरुषाः दुःखकारणं न जानन्ति, ते दुःखोच्छेदकं कारणं कथमिव ज्ञास्यन्ति । नैव कथमपि ज्ञास्यन्ति तस्मात् दुःखकारण ज्ञानमावश्यकम् । ज्ञाते च तस्मिन् तदुच्छेदकोपायस्याऽपि तथा कथंचित्परिज्ञानसम्भवादिति भावः ॥१०॥ टीका "अमणुन्नसमुप्पाय" इत्यादि । मनसा अनुकूलवेदनीयतया ज्ञायते यत् , तन्मनोमं सुखम् । तादृशसुखस्य कारणमपि मनोज्ञम् कारणे कार्योंपचारात् । तथाच मनोझं शुभाऽनुष्ठानम् , प्राणानुकम्पादिकम् , न मनोज्ञम्के इस कारण को नहीं जानते हुए अज्ञानी जन संवर को-दुःख निरोध के कारणभूत तप और संयम आदि को किस प्रकार जानेगे ? अर्थात् नहीं जानसकते हैं । अभिप्राय यह है कि जो दुःख के कारण को नहीं जानता वह दुःखविनाश के कारण को कैसे जान सकता है ? नहीं जान सकता। दुःख के कारण को जान लेने पर ही दुःख के विनाश के कारण को जाना जा सकता है ॥ १० ॥ टीकार्थजो मन को अनुकूल लगता है वह मनोज्ञ कहलाता है । इस प्रकार मनोज्ञ का अर्थ मुख है। कारण में कार्य का उपचार करने से सुख का कारण भी ‘मनोज्ञ' कहलाता है। यहां मनोज्ञ का तात्पर्य शुभ अनुष्ठान है માણસે સંવરને- દુઃખનિરોધના કારણરૂપ તપ, સંયમ આદિને કેવી રીતે જાણી શકે? અજ્ઞાનિયે તપ સંયમ આદિનું મહત્વ તે સમજતા જ નથી. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે જેઓ દુઃખના કારણને જ જાણતા નથી, તેઓ દુઃખના કારણેને તે કેવી રીતે જાણી શકે ? દુઃખના કારણોને જાણી લેવામાં આવે, તે જ તેના વિનાશને ઉપાય કરી શકાય છે. તમે ____-टीમનને જે અનુકૂળ લાગે છે, તેને મને કહેવામાં આવે છે. આ પ્રકારે મનોજ્ઞ પદ અહીં સુખનું વાચક છે. કારણમાં કાર્યને ઉપચાર કરવાથી સુખના કારણને પણ “મનેસ?” કહેવાય છે. અહી શુભ અનુષ્ઠાન એટલે કે જીવો પ્રત્યેની અનુકંપા આદિને “મજ્ઞ” For Private And Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समपार्थ बोधिनो टीका प्र. . अ. १ उ. ३ पूर्वोक्तवादिनां फलप्राप्तिनिरूपणम् ३४३ अमनोज्ञम् , प्राणातिपातादिकर्माऽनुष्ठानम् । तस्मादुत्पादो भवति यस्य तद् अमनोज्ञसमुत्पादम्-दुःखम् । ___ अत्र-एव शब्दोऽवधारणार्थकः। तथाच अमनोज्ञसमुत्पादमेव 'दुक्खं' दुःखम् । इत्येवं 'विनाणिया' विजानीयात् अवबुध्येत । - अयं भावः-दुःखस्य कारणं कुशास्त्रारूपणमेव, न तु अन्यत् किश्चित् दुःखस्य कारणम् । एवं सति कुशास्त्रप्ररूपणरूपकर्माऽनुष्ठानत्वेन दुःखत्वेन कुशास्त्रप्ररूपणरूपकर्माऽनुष्ठानदुःखयोः कार्यकारणभावस्य व्यवस्थितत्वेऽपि अनन्तरोदीरिता वादिनः कुशास्त्रारूपणदुःखयोः कार्यकारणभावमजानन्तः परमेश्वरादि रूपकारणेभ्यो दुःखस्य समुत्पत्तिमिच्छन्तः 'कह' केन प्रकारेण (संवरं) सम्बरं दुःखोच्छेदहेतुं तपःसंयमादिकम् “नायति" ज्ञास्यन्ति, नैव अर्थात् प्राणी की अनुकम्पा आदि । और जो मनोज्ञ न हो ऐसा प्राणातिपात आदि असत् अनुष्ठान 'अमनोज्ञ' कहलाता है। इस अमनोज्ञ से जिसकी उत्पत्ति हो उसे अर्थात् दुःख को 'अमनोज्ञ समुत्पाद' कहा गया है। यहाँ एवं' शब्द निश्चय का घोतक है। अभिप्राय यह है कि अमनोज्ञ समुत्पाद को ही दुःख जानना चाहिए । अभिप्राय यह ह- खोटे शास्त्र की प्ररूपणा आदि असत अनुष्ठान ही दुःख का कारण है । दुःख का अन्य कोई कारण नहीं है। इस प्रकार कुशास्त्र की प्ररूपणा दुःखरूप होने से कुशास्त्र की प्ररूपणा गौर . दुःख. : में कार्यकारणाभाव है । इस प्रकार की व्यवस्था होने पर भी पूर्वोक्त बादी इस कार्यकारणभाव को नहीं समझते हुए, परमेश्वर आदि कारणों से दुःख की उत्पत्ति मानते हैं। वे दुःखों के विनाश रूप तप संयम आदि स्वरूप वाले संवर को कैसे जान सकते हैं ? किसी प्रकार भी नहीं जान सकते। કહેવામાં આવેલ છે. અને પ્રાણાતિપાત આદિ અસત્ અનુષ્ઠાનને “અમને” કહેવામાં भारत छ. २मा अमनो द्वारा रेनी उत्पत्ति थाय छे सेवा हुमने "ममनोर" समुत्पाद" पाम आयेत छ. मही “पवं" ५६ निश्चयाथै १५रायु 2. तात्पर्य को છે કે અમને સમુત્પાદને જ દુઃખ માનવું જોઈએ. - હવે આ કથનને ભાવાર્થ સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે– | મિથ્યા શાસ્ત્રની પ્રરૂપણું આદિ અસ અનુષ્ઠાન જ દુઃખનું કારણ બને છે. અમું અન્ય કોઈ કારણ નથી. આ પ્રકારે કુશાસ્ત્રની પ્રરૂપણ દુઃખ રૂપ હેવાથી કુશાસ્ત્રની પ્રરૂપણું અને દુઃખમાં કાર્યકારણભાવ છે. એ પ્રકારની પરિસ્થિતિ હોવા છતાં પણ પૂર્વોક્ત મસ્ત વાદીઓ આ કાર્યકારણભાવને સમજ્યા વિના, પરમેશ્વર આદિ કારણે વડે દુઃખની ઉત્પત્તિ થવાની વાત માને છે. તેઓ દુઃખના વિનાશ રૂપ તપ સંયમ અદિ સ્વરૂપવાળા For Private And Personal Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૧૮૪ सूत्रकृताङ्गसूर्य कथमपीति भावः । न च कारणाज्ञाने को दोषः इति वाच्यम् । तद्विनाशाभाव एवेति गृहाण | अयमर्थः- यदि दुःखस्य कारणमवगच्छेत् तदा तस्योच्छेदाय प्रयत्नः सम्पादितो भवेत् । तदज्ञाने तु कथं तस्य समुच्छेदाय प्रयत्नं करिष्यन्ति केऽपि । प्रयतमानाः अपि नैव दुखोच्छेदमवाप्स्यन्ति अपितु संसारमेव जन्मजरामरणेष्टवि योगाद्यनेकप्रकारकदुःखसमुदायात्मकं घटीयन्त्रन्यायेन अनन्तकालपर्यन्तं परिश्र मिष्यन्ति । कारणाभावे कार्याऽभावो भवतीति स्थितिः । यथा वहचभावे धूमाभावः, तद्वद् इदं दुःखकारणमिति परमार्थतो निर्णये जाते तादृशकर्मनाशके प्रवर्त्तमानो नरः कारणाभावाद् दुःखाभावमासाद्य कृतकृत्यो भवेत् । यदि 7 कारण को न जानने में क्या हानि है ? ऐसा कहना उचित नहीं । इसका समाधान यही है कि जो दुःख के कारण को नहीं जानेगा वह दुःख का विनाश नहीं कर सकेगा। तात्पर्य यह है यदि दुःख के कारण का ज्ञान हो जाय तो उस के विनाश के लिए प्रयत्न किया जा सकता है । दुःख के कारण का ही ज्ञान न होगा तो कोई उसके उच्छेद के लिए प्रयत्न भी कैसे करेंगे ? कदाचित् प्रयत्न करेंगे भी तो मी दुःख का उच्छेद नहीं कर सकेंगे । इसके विपरीत वे जन्म जरा मरण इष्टवियोग आदि अनेक प्रकार के दुःखों के समूह रूप इस संसार में ही अनन्त काल तक अरहर की तरह परिभ्रमण करते रहेंगे। कारण का अभाव होने पर कार्य का अभाव होता है। जैसे अग्रि के अभाव में घूम का अभाव होता है। इसी प्रकार दुःख के कारण का वास्तविक निर्णय हो जाने पर उस प्रकार के कर्म को સવરને કેવી રીતે સમજી શકે? કોઇ પણ પ્રકારે જાણી શકતા નથી. “ કારણને ન જાણુવામાં શી હાનિ છે? આ પ્રકારની દલીલ પણ વ્યાજબી નથી. જે માણસ દુઃખના કારણને ન જાણી શકે, તે માણસ દુઃખને વિનાશ કરવાને સમર્થ પણ ન બની શકે. જો દુઃખના કારણનું જ્ઞાન થઇ જાય, તો તેના વિનાશને માટે પ્રયત્ન કરી શકાય છે. જો દુ:ખના કારણનુ જ જ્ઞાન ન હોય, તે કોઈ તેનાં ઉચ્છેદને માટે પ્રયત્ન પણ કેવી રીતે કરે? કદાચ વિના સમયે પ્રયત્ન કરે, તેા પણ દુઃખના ઉચ્છેદ કરી શકે નહી દુઃખના ઉચ્છેદ કરવાને ખદલે ઊલટા તે જન્મ, જરા, મરણ ઇવિયોગ આદિ અનેક પ્રકારના દુઃખાના સમૂહ રૂપ સસારમાં જ અનંત કાળ સુધી રહેટની જેમ પરિભ્રમણ કરતા રહેશે. કારણના અભાવ હાય ત્યારે જ કાર્યનો અભાવ હેાય છે, જેવી રીતે અગ્નિના અભાવ હાય, તે મનેા પણ અભાવ જ રહે છે, એજ પ્રમાણે દુઃખના કારણના વસ્ત For Private And Personal Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समायथ बोधिनी टोका प्र. श्रु. अ. १ उ. ३ जगदुत्पतिविषये मतान्तरनिरूपणम् ३८५ दःखकारण मेव न जानीयात तदा प्रयतमानोऽपि कारणस्याऽभावं नैव प्रान्तुयात् । अप्राप्ते हि तस्मिन् दुःखाभावो न भविष्यति, किन्तु सांसारिकदुःखमेव सदोपस्थित मिति, कथमपि न संसाराग्निवर्तेत इति दुःखकारणज्ञानमावश्यकम् । इमे पूर्वोक्तवादिनस्तु जानन्ति अतस्ते सर्वदैव दुःखिन एव भविष्यन्तीति मावः ॥१०॥ । “अतः परं सूत्रकारः प्रकारानरेण देवोप्तादिकृतवादिमतमेव प्रदर्शयितुमाह-"मुद्धे अपावए" इत्यादि मलम् सुद्धे अपावए आया. इह मेगेसिमाहियं । पुणो किड्डापदोमेणं, सो तत्थ अवरज्झई-॥११ छायाशुद्धोऽपापक आत्मा इहैकेषामाख्यातम् । पुनः क्रीडाप्रद्वेषेण स तत्र अपराध्यति ॥११ नष्ट करने में प्रवृत्ति करने वाला पुरुष, कारण के अभाव को प्राप्त करके कृतकृत्य हो सकता। अगर वह दुःख के कारण को ही न जानता हो तो प्रयत्न करने पर भी उस कारग का निरोध नहीं कर सकेगा और दुःख के कारण का निरोध हुए विना दुःख का अभाव नहीं किया जा सकता उसे तो सदा सांसरिक दुःख ही बना रहेगा । वह किसी भी प्रकार दुःख से निवृत्त नहीं हो पाएगा। अतएव दुःख के कारण को समझ लेना आवश्यक है आशय यह है कि पूर्वोक्त वादी ऐसा जानते नहीं . हैं, अतः वे सदैव दुःखी बने रहेंगे ॥१०॥ વિક નિર્ણય થઈ ગયા બાદ, તે પ્રકારના કર્મને નાશ કરવાની પ્રવૃત્તિ કરનાર પુરુષ, કારણને અભાવ પ્રાપ્ત કરીને કૃતકૃત્ય થઈ શકે છે. પરંતુ જે તે દુઃખનું કારણ જ ન જાણતો હોય, તે પ્રયત્ન કરવા છતાં પણ તે કારણને દૂર કરી શકશે નહીં. દુઃખના કારણને નાશ થયા વિના તે દુઃખને અભાવ નહીં કરી શકે. તેને પરિણામે તેને સદા સાંસારિક દુઃખનું વેદન જ કરવું પડશે. તે કઈ પણ પ્રકારે સંસારના દુઃખમાંથી છુટકારો મેળવી શકશે નહીં તેથી દુ:ખના કારણને સમજી લેવાનું આવશ્યક બની જાય છે. પરંતુ પૂકા મતવાદીઓ આ વાતથી અજ્ઞાત હોય છે, તેથી તેઓ સદા દુઃખી જ थाना । गाथा १०॥ सु. ४६ For Private And Personal Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८६ सूत्रकृताङ्गसूत्रो अन्वयार्थ:(इह) अस्मिन् जगति । (एगेसिं) एकेषाम् (आहियं) आख्यातम् कयनं विद्यते । (आया) आत्मा । (सुद्धे) शुद्धः समस्तकलङ्करहितः (अपावए) अपापकः, पापपङ्करहितः शुद्धः विद्यते । (पुणो) पुनः । (सो) स आत्मा । (किड्डापदोसेणं) क्रीडाप्रद्वेषेण क्रीडा-रागः, प्रद्वेषः द्वेषः ताभ्याम् (तत्थ) तत्र शुद्धावस्थायामपि (अवरज्झइ) अपराध्यति कमरजसा श्लिप्यते । अस्मिन् कृतवादिप्रस्तावे गोशालकमतानुसारिणः त्रैराशिकास्ते इत्थं प्रतिपादयन्तियथाऽयमात्मा शुद्धः मनुष्यभवे एव शुद्धाचारो भूत्वा समस्तकलङ्करहितोऽ इससे आगे सूत्रकार देवकृत आदि मतों को प्रकारान्तर से दिखलाते हुए कहते हैं-"सुद्धे अपावए "इत्यादि ___ शब्दार्थ-'इह-इह' इस जगत् में 'एगेसि-एकेषाम्' किन्हीका 'आहियं -आख्यातम्' कथन है कि 'आया-आत्मा' आत्मा 'सुद्धे-शुद्धः' शुद्ध और 'अपावए -अपापकः' पापरहित है 'पुणो-पुनः' फिर 'सो-सः' वह आत्मा 'किड्डापदोसेणं -क्रीडापद्वेषेण' रागद्वेषके कारण 'तत्थ---तत्र' वहीं 'अवरज्झइ-,-अपराध्यति' बंध जाता हैं ॥११॥ अन्वयार्थ___इस जगत् में किन्हीं-किन्हीं का ऐसा कथन है कि आत्मा समस्त कलंको से रहित शुद्ध है और पाप के पंक (कीचड) से, रहित है, किन्तु वह रागद्वेष के कारण शुद्ध अवस्था में भी कर्म रज से लिप्त हो जाता है । इस प्रसंग में गोशालक मत के अनुयायी त्रैराशिक इस प्रकार હવે સૂત્રકાર દેવકૃત આદિ મતેને અન્ય પ્રકારે પ્રકટ કરતા થકા એવું કહે છે કે "सुद्धे अपावर" त्यावि शार्थ -इह इहे' मा गत्मा 'एगेसि-एकेषाम्' अनु 'आहिय-आख्यतम्' ४थन छ 3 'आया-आत्मा' आत्मा 'सुद्ध शुद्धः' शुद्ध भने 'अपावए-अपापकः' ५५ २हित छ 'पुणो-पुनः' ५छी 'सो-सः' ते आत्मा 'किइडापदोण-क्रीडाप्रद्वेषेन' राषने छारो तत्थ-तत्र' तेमin 'अवरज्झइ-अपराध्यति' घाई नय छे. ॥११॥ सूत्रा. આ જગતમાં કઈ કઈ મતવાદીઓ એવું પ્રતિપાદન કરે છે કે આત્મા સમસ્ત કલંકેથી રહિત-શુદ્ધ છે અને પાપના પંકથી કીચડથી) રહિત છે, પરંતુ રાગદ્વેષને કારણે તે શુદ્ધ આત્મા પણ કર્મજ વડે લિપ્ત (આચ્છાદિત) થઈ જાય છે. આ બાબતમાં ગશાલક મતવાદિઓ-ત્રરાશિકે એવી પ્રરૂપણ કરે છે કે આ શુદ્ધ આત્મા મનુષ્ય For Private And Personal Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. ३ पूर्वोक्तवादिनां फलप्राप्तिनिरूपणम् ३८७ पापो भवति । इत्येकेषां गोशालकमतानुसारिणामाख्यानं कथनं भवति । पुनरपि असौ आत्मा शुद्धत्वाऽशुद्धत्वात्मकराशिद्वयावस्थ एव रागद्वेषाभ्यां मोक्षे विद्यमानोऽपि कर्मरजसा आश्लिष्टो भवति ॥११॥ . टीकाअयम्भावः-तेषां मते स्वकीयशासनस्य अयमात्मा महिमानं दृष्ट्वा परशासनस्य पराभवं च दृष्ट्वा आनन्दमनुभवति । तथा स्वशासनस्य तिरस्कारं पर शासनस्य च प्रभावं दृष्ट्वा प्रद्वेषमनुभवति । ततश्च तादृशरागद्वेषाभ्या माश्लिष्यमाणः क्रमेण शुक्लपटवदुपयुज्यमानो रजसा मलिनी भवति । इत्थं कर्मगौरवात्पुनरपि आत्मा संसारसागरमेव प्रामोतीति । तृतीयो राशिः। पूर्व संसारे पश्चान्मुक्तः, पुनरपिच बद्ध इति राशित्रयं भवतीत्यत एते त्रैराशिकाः प्ररूपणा करते हैं कि यह शुद्ध आत्मा मनुष्यभव में ही शुद्धाचारी होकर समस्त कलंकों से रहित निष्पाप होता है। फिर वह आत्मा शुद्धता और अशुद्धता इन दोनों राशियों में स्थित होता हुआ ही, रागद्वेष के कारण, मोक्ष में विद्यमान रहता हुआ भी कर्मरज से लिप्त होता है । ११ टीकार्थ____ आशय यह है उनके मत के अनुसार (मुक्त) आत्मा अपने धर्मशासन की महिमा को और परशासन के पराभव को देखकर आनन्द का अनुभव करता है । इससे विपरीत अपने धर्मशासन का तिरस्कार और परशासन का प्रभाव देख कर प्रद्वेष का अनुभव करता है । इस कारण आत्मा रागद्वेष से युक्त होकर उसी प्रकार मलीन हो जाता है। जैसे काम में लाए जाने से श्वेत वस्त्र मलीन हो जाता है। इस प्रकार कर्मों से गुरु (भारी) हो जाने ભવમાં જ શુદ્ધાચારી થઈને સમસ્ત કલંકથી રહિત (નિષ્પા૫) થઈ જાય છે. ત્યાર બાદ તે આત્મા શુદ્ધતા અને અશુદ્ધતા આ બન્ને રાશિઓમાં સ્થિત રહેતું કે, રાગદ્વેષને કારણે, મેક્ષમાં વિદ્યામાન રહેવા છતાં પણ કર્મર વડે લિપ્ત થાય છે. ૧૧ - -अर्थરાશિની એવી માન્યતા છે કે મુક્ત આમાં પિતાના ધર્મશાસનને મહિમા વધતે જોઈને અને પરશાસનને પરાભવ થતે જોઈએ આનંદને અનુભવ કરે છે. તેથી વિપરીત બને ત્યારે એટલે પિતાને ધર્મશાસનને તિરસ્કાર થાય અને પરશાસનને પ્રભાવ વધે, ત્યારે પ્રષનો અનુભવ કરે છે તે કારણે રાગદ્વેષથી યુક્ત બને તે આત્મા ઉપયોગમાં લીધેલા શ્વેતવસ્ત્રના જે મલિન થઈ જાય છે આ પ્રકારે કર્મો વડે ભારે થઈ જવાને કારણે આત્મા ફરી સંસારમાં આવી જાય For Private And Personal Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गले कथ्यन्ते । तदुक्तम्-"ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्तारः परमं पदम् । गत्वा गच्छन्ति भूयोऽपि, भवतीर्थनिकारतः । इति ॥११॥ अथपुन स्तन्मतमेव प्रदर्शयति- "इहसंवुडे' इत्यादि मूलम"इह संवुडे मुणीजाए, पच्छा होइ अपावए । वियडंबुजहो भुजो, नीरयं सरयं तहा-॥१२ छाया"इह संवृतो मुनिर्जातः पश्चाद्भवत्यपापकः । विकटांबु यथा भूयो नीरजस्कं सरजस्कं तथा-॥१२ के कारण आत्मा फिर संसारसागर में आ जाती है । यह तीसरी राशि है। आत्मा पहले संसारो था, फिर मुक्त हो गया और संसारी (बद्ध) हो गया। ये त्रैराशिक यह तीन राशियाँ मानते हैं । उन के यहां का है- "ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य" इत्यादि। धर्मतीर्थ के कर्ता ज्ञानी पुरुष परमपद को प्राप्त होकर फिर अपने तीर्थ का पराभव देखकर पुनः संसार में आजाने हैं ॥११॥ फिर उन्हीं का मत दिखलाते हैं " इह संवुडे " इत्यादि। शब्दार्थ-- 'इह--इह' इस मनुष्य भवमें जो जीव 'संबुडे-संवृतः' संयमादि में रत 'मुणी जाए--मुनिर्जातः' मुनि हो करके 'पच्छा--पश्चान्' पोछे 'अपावए-अपापकः' कर्म रहित 'होइ-भवति' होजाता है। जहा- यथा' जैसा 'नीरयं--नीरजस्कम्' निर्मल 'वियडंबु---विकटाम्बु' विस्तृतजल 'भुजो--भूयः' फिर છે. આ ત્રીજી શશિ છે આત્મા પહેલાં સંસારી હતું, ત્યાર બાદ મુક્ત થઈ ગયો અને ફરી સંસારી (બદ્ધ) થઈ ગયે. આ પ્રકારની ત્રણ રાશિઓમાં તે ત્રિરાશિક માને છે તેમના धर्मसभा मे ४थुछ - "ज्ञानिो धर्मतीर्थस्थ" त्याह ધર્મતીર્થના કર્તા (સ્થાપક) જ્ઞાની પુરુષે પરમપદ મોક્ષ પ્રાપ્ત કરે છે. પરંતુ પિતાના તીર્થને પરાભવ થતે જોઈને તેઓ ફરી સંસારમાં આવી જાય છે ૧૦ सूत्रा२ तेमना । मतनु विशेष पान ४२ छे. 'इह सबुडे" त्या शहा- 'इह-इह' मा भनुष्यममा 'सबुडे संवृतः' संयम वगेरेभां प्रवृत्ति ४२नारा 'मुणीजाए मुनि नः' मुनि ने ‘पच्छा पश्च त्' पा७७५ ' अपावर-- अपापक' भहित 'हाइ-भवति' 54 छे. 'जहा--यथा' वाशते निरय-रजस्कम' निवियड चु-विकटाम्यु' विस्तृत पाए ‘भुजो-भूगः' ५२Nथा 'सरय--वर स For Private And Personal Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra समयार्थ बोधिनो टीका प्र. www.kobatirth.org अ. १ उ. ३ पूर्वोक्तवादिनां फलप्राप्तिनिरूपणम् ३८९ अन्वयार्थः (इ) अस्मिन् मनुष्यभवे पूर्व संसारी कर्म मलविशिष्टो यः जीवः (संबुडे) संवृतः संयमादौ स्तः । ( मुणीजाए) मुनिर्जातः सन् ( पच्छा) पश्चात् (अपायर) अपापक = कर्मरहित: ( होइ) भवति । ( जहा ) यथा ( नीर) नीरजस्कं निर्मलम् (विडंबु) विकटाम्बु = विस्तृतजलम् । (भुज्जो) भूय: = पुनः - ( सरयं) सरजस्कं मलिनं भवति तहा = तथा, निर्मल आत्मा पुन मलिनो भवति । यथा निर्मलमपि जलं पुन र्वातादि कारणकलापमादाय समलं भवति तथैव अस्मिन् से 'सरयं - सरजस्कम् ' मलिन हो जाता है ' तहा - तथा' वैसेही वह निर्मल आत्मा फिर मलिन हो जाता है ||१२|| अन्वयार्थ ---- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस मनुष्यभव में कर्ममल से युक्त कोई जीव संवृत्त अर्थात् संयम आदि में निरत होकर मुनि हो जाता है और किर कर्महित बन जाता है। जैसे निर्मल जल पुनः मलिन हो जाता है उसी प्रकार निर्मल आत्मा पुमः मलिन हो जाता है ||१२|| अभिप्राय यह है कि जैसे निर्मल जल भी आंधि आदि के कारण मलिन हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्यभव को प्राप्त जीव प्रव्रज्या अंगीकार करके और संयम आदि में रत होकर समस्त बंधनोंको नष्ट करके मुक्ति अवस्था प्राप्त करके स्वस्थ होजाता है | तत्पश्चात अपने शासन की महिमा और स्कम्' - नर्भस चियजंबु - विकटाम्बु:' - विस्तृत पाली 'भुज्जा' - भूत्र:' इरीधी 'मध्यसस्कम्' गंहु थ भय छे. 'तहा- तथा' तेवी रीते ते निर्माण पालीनी प्रेम आत्मा ફ્રી બંધાઈ થઇ જાય છે. ૫૧૨૫ સૂત્રા આ મનુષ્ય ભવમાં કર્રમથી યુક્ત એવાં કોઇ કાઈ જીવા સંવૃત્ત થઈ જાય છે. એટલે કે પ્રત્રજયા અંગીકાર કરીને સંયમ આદિની આરાધના કરે છે એવા જીવ કમ રહિત અની જાય છે. પરન્તુ જેવી રીતે નિળ જળ ફરી મલિન થઇ જાય છે. એજ પ્રમાણે નિર્મળ આત્મા પણ ફરી મિલન થઇ જાય છે, ૫૧૨ના ટીકા આ કથનના ભાવાથ એ છે કે જેવી રીતે નમળ જળ પણ વાવાઝાડા આદિ કારણાને લીધે મિલન થઇ જાય છે. એજ પ્રમાણે નિર્મળ આત્મા પણ રાગદ્વેષને કારણે મલિન થઈ જાય છે. મનુષ્ય ભવ પ્રાપ્ત કરીને કોઈ કાઇ જીવો પ્રત્રજયા ગ્રહણ કરીને સંયમ તપ આદિમા લીન થઈ જઈને સંયમ આદિની સમ્યક્ રીતે આરાધના કરીને કમાંનેા ફાય કરી નાખીને મેાક્ષપદની પ્રાપ્તિ કરીને સ્વસ્થ થઇ જાય છે. ત્યાર બાદ પોતાના શાસનની નિન્દા For Private And Personal Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रो भवे प्राप्तो जीवः दीक्षामादाय संयमादिरतः अपगत सकलबन्धनः सन मुत्तयवस्थायां स्वस्थो भूत्वा पुनश्च स्वशासनस्य महिमनिन्दादिदर्शनजनितरागद्वेषोदयात् कर्ममलमलिनो भवति । एवं त्रैराशिकानां मते राशित्रयावस्थो भवति जीवः, सू० १२॥ - पूर्व गाथाद्वयेन त्रैराशिकमतमुपपाद्य तन्मतं निराकत्तुमाह "एपाणु वीइ" इत्यादि। मूलम्एयाणुवीइ महावी, बंभचेरे ण ते वसे । पुढो पावाउया सव्वे, अक्खायारो सयं सयं ॥१३ .. छायाएताननुविचिन्त्य मेधावि ब्रह्मचर्ये ण ते बसेयुः। पृथक् प्रावादुकाः सर्वे आख्यातारः स्वकं स्वकम् ॥१३ निन्दा होने से उत्पन्न होने वाले रागद्वेप के उदय से फिर कर्ममल से मलीन बन जाता है। इस प्रकार त्रैराशिकों के मत में जीव की तीन अवस्थाएँ होती हैं ॥१२॥ ___पिछली तीन गाथाओं में हुए त्रैराशिक मत का निराकरण करने के लिए सूत्रकार कहते हैं-" एयाणुवीइ" इत्यादि । शब्दार्थ--'मेहावी-मेधावी' बुद्धिमान् पुरुष 'एया-एतान्' इन पूर्वोक्त वादियों के विषयमें 'अणुवीई-अनुविचिन्त्य' विचार करके यह निश्चय करे कि ते-ते' वे अन्यतीथिक 'बंभवेरे-ब्रह्मचर्ये' ब्रह्मचर्य में 'ण वसे-न वसेयुः स्थित नहीं है किन्तु 'सवे पावाउया-सर्वे प्रावादुकाः' वे सभी થવાથી તેમને આત્મા દેયુક્ત બને છે અને પિતાના શાસનને માહિમા વધવાથી તેમના આત્મામાં આનંદ થાય છે. આ પ્રકારે રાગદેષનો ઉદય થવાને કારણે તેમને આત્મા ફરી કર્મમળથી મલિન થઈ જાય છે, રાશિકના મત અનુસાર જીવની આ પ્રકારની ત્રણ અવસ્થાઓ હોય છે. ૧ર : }'આગલી એ ગાથાઓમાં જે રાશિક મતનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. તેનું ..उन २५ भाटे सूत्रा२ ४३.छे 3- “एयाणु वीइ" त्याह..... सहा- 'मेहावी--मेधारी' मुद्धिमान भास 'एया-एतान्' मा पूर्वरित वाहियाना विषयमा 'अणु ई--अनुविचिन्त्य' वियार ४ीने 20 निश्चय ४२ तेते तो अन्य ती व भचेरे--ब्रह्मवये' प्रहायर्यमा ण वसे-- बसेयुः' स्थित नथी परंतु 'सव्वेपावाउया सर्व प्रावादुकाः' तेसो ५५॥ अथ १२॥ २४६५४ छ. 'पुढो--पृथक' For Private And Personal Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ममगार्थ बोधि टीका प्र शु अ. १. उ. ३ राशिकमतनिर र एम:५६ अन्वयार्थः-. . (मेहावी) मेधावी बुद्धिमान पुरुषः। (एया) एतान् पूर्वोक्तान वादिनः - पूर्वोक्तवादिविषये इत्यर्थः (अणुवीइ) अनुविचिन्त्य= पालीच्य इथे , निश्चयं कुर्यात् । यत् (ते) ते वादिनः (बंभचेरे) ब्रह्मचर्ये (म वसे) न वसेयुः ते वह्मचर्य न पालयन्तीति भावः । किन्तु (सव्वे पावाउया) सर्वे प्रावादुका: ते सर्वे निरर्थकप्रजल्पकाः सन्ति । (पुढो) पृथक पृथक् (सय सयंः स्वक स्वकं स्वकीयं सिद्धान्तम् । (अकखायारो) आख्यातारः शोभनत्वेन वक्तार एवं ते सन्ति, नतु वस्तुतः आचारादि परिपालका इति । टीका___ अयम्भावः– मेधावी पुरुषः पूर्वोक्तवादिविषये विचार्य इत्थं निश्चय कुर्यात् यदेते वादिनः संसारं त्यक्त्वाऽपि स्वभावतो न बह्मचर्ये रताः न च ज्ञानादिः निरर्थक प्रजल्पक है 'पुढो-पृथक्' अलग अलग 'सयं सर्य-स्वकं , स्वकम्' अपने अपने सिद्धान्तको 'आक्खायारो-आख्यातार' कहने वाले है ॥१३॥ -अन्वयार्थ:बुद्धिमान् पुरुष इन पूर्वोक्त वादियों के विषय में विचार करके इस प्रकार निश्चय करे कि वे वादी ब्रह्मचर्य में वास नहीं करते वे सब निरर्थक, प्रलाप करने वाले है अलग अलग अपने अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन ही करते हैं, वस्तुतः आचार का पालन नहीं करते हैं ॥१३॥ टीकार्थ भावार्थ यह है बुद्धिमान् पुरुष पूर्वोक्तवादियों के विषय में विचार. करके इस प्रकार निश्चय करे कि ये वादी संसारका त्याग करके भी स्वभावतः ब्रह्मचर्य में रत नहीं हैं। और न ज्ञान आदि पांच आचारों मला मन सय सय-स्वक स्वकम् पातपाताना सिद्धान्तने 'आक्खायागे-आख्यातार શુભ કહેનારાઓ છે. ૧૩ -सूत्राथ- ... - બુદ્ધિશાળી પુરુએ પૂકા મતવાદીઓના વિષયમાં વિચાર કરીને આ પ્રકારને નિશ્ચય કરે જોઈએ તે મતવાદીઓ બ્રહ્મચર્યનું પાલન કરતા નથી. તેઓ સૌ નિરર્થક પ્રલાપ કરનારા જ છે તેઓ અલગ અલગ પ્રકારના પિતા પિતાના મતનું પ્રતિપાદન જ કર્યા કરે છે. પરંતુ આચારાનું પાલન કરતા નથી. -टीअथ- . બુદ્ધિમાન માણસો જાતે જ વિચાર કરીને તેમની માન્યતાઓની નિર્થકતા સમજે શકે એમ છે આ મતવાદીઓ સંસારને ત્યાગ કરવા છતા પણ સંસારી જેવું જ આચરણ For Private And Personal Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३९२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे पश्चाचारे वसन्ति। यत स्तेषां मते मुक्तानामपि स्वशासनमहिमनिन्दाभ्यां रागद्वेषौ जायेते, तदा ते कथं क्षीणकर्माणः मुक्तास्तु स्तुतिनिन्दायां समाना भवन्ति-न निन्दया- उद्विजन्ते, स्तुत्या वा न प्रसन्ना भवन्ति । यावत् पर्यन्तं रागद्वेषौ स्त न तावत्ते कमरहिता भवन्ति । एवं सति कथं तेषां संसारस्य परित्यागः । यद्यपि ते कथंचित द्रव्यब्रह्मचर्ये स्थिता अपि तथापि भावब्रह्मचर्य न प्राप्ताः । सम्यक् ज्ञानाभावान्न ते सम्यगनुष्ठानभाजः अपिच सर्वेऽ प्येते प्रावादुकाः स्वस्थ स्वस्य दर्शनस्य प्रशंसाकारिणः सन्ति अतो विदिततत्वैः श्रेयस्कामैः पुरुष स्तेषां शास्त्रेषु कथमपि आदरोन विधेयः । अपि तु विषकुम्भवत् दरतोऽपि तच्छास्त्रं परिवर्जनीयमेवेति ॥ १३ का पालन करते हैं। जब उनके मत में मुक्त जीवों को भी अपने शासन की महिमा और निदासे रागद्वेष उत्पन्न हो जाता है तो ये क्षीणकर्मा (कर्मों का क्षय कर चुकने वाले ) किस प्रकार कहे जा सकते हैं? मुक्त जीव स्तुति और निन्दा में समान रहते हैं। न निन्दा से उद्विग्न होते है और न स्तुति से प्रसन्न होते हैं। जब तक रागद्वेष बने हुए हैं तब तक वे कर्म रहित नहीं हो सकते । ऐसी स्थिति में उनके संसार का परित्याग कैसे हो सकता है ? यद्यपि वे किसी प्रकार द्रव्यवह्मवर्य में स्थित भी हो तो भी भावब्रह्मचर्य उन्हे प्राप्त नहीं हुआ है । सम्यग्ज्ञान का अभाव होने से वे सम्यग्र अनुष्ठानकर्ता नहीं है। और ये सभी वादी अपने अपने दर्शन की प्रशंसा करते हैं, अतएव जिन्होंने तत्व को जान लिया है और કરે છે તેઓ બ્રહ્મચર્યનું પાલન કરતા નથી અને જ્ઞાનાદિ પાંચ આચારોનું પણ પાલન ४२ता नथी. વળી તેઓ એવું કહે છે કે “મુક્ત જીવેમાં પણ પિતાના શાસનને મહિમા તે જોઈ ને આનંદ થાય છે અને પિતાના શાસનની નિન્દા થતી જોઈને દ્વેષ થાય છે” તેમની આ માન્યતાને કેવી રીતે સ્વીકાર કરી શકાય ? જે મુક્તાત્માઓમાં પણ રાગદ્વેષ ઉત્પન્ન થઈ જતું હોય, તે તેમને ક્ષીણકર્મા (કમેને ક્ષય કરી નાખનાર) કેવી રીતે કહી શકાય? મુક્ત સ્તુતિ અને નિંદામાં સમાન રહે છે. નિન્દા થવાથી ઉદ્વિગ્ન પણ થતા નથી અને સ્તુતિ થવાથી આનંદ પણું પામતા નથી. જ્યાં સુધી રાગદ્વેષને સદ્ભાવ હોય ત્યાં સુધી તેઓ કર્મહિત થઈ શક્તા નથી. એવી પરિસ્થિતિમાં તેઓના સંસારને પરિત્યાગ કેવી રીતે થઈ શકે? કદાચ તેઓ દ્રવ્ય બ્રહ્મચર્યમાં સ્થિત પણ હેય, પરંતુ તેમનામાં ભાવબ્રહાચર્ય તે સંભવી શકતું જ નથી. તેમનામાં સમ્યજ્ઞાનનો અભાવ હોવાને કારણે તેઓ સમ્યગૂ અનુષાને પણ કરી શક્તા નથી. તે સઘળા અન્ય તીર્થિક પિત પિતાના દર્શનની પ્રશંસા કરે છે. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિ હેવાથી, જેમણે તમે જાણી લીધેલ For Private And Personal Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिमो टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. ३ प्रकारान्तरेण कृतवादिमतनिरूपणम् -३९३ "पुनरपि कृतवादिमतमेव प्रकारान्तरेण-प्रदर्शयितुं सूत्रकारः प्रक्रमते-- "सए सए" इत्यादि । मूलम् सए सए उवट्ठाणे, सिद्धिमेव न अन्नहा । अहो इहेव वसती. सव्वकामसमप्पिए ।१४ छाया"स्वके स्वके उपस्थाने सिद्धिमेव न चान्यथा । अधइहैव वशवत्ती सर्वकामसमर्पितः ॥१४ जो कल्याण के अभिलापी हैं, उन्हे उनके शास्त्रोंका किसी भी प्रकार आदर नहीं करना चाहिए, बल्कि उनके शास्त्रों को विष के घडे के समान समझ कर त्याग देना चाहिए ॥१३॥ सूत्रकार पुनः कृतवादियों का मत प्रकारान्तर से दिखलाने के लिये कहते हैं—“सए सए' इत्यादि । ___ शब्दार्थ-'सए सए-स्वके स्वके' अपने अपने 'उवाढणे-उपस्थाने' अनुष्ठान में ही 'सिद्धि-सिद्धिम्' सिद्धिको प्राप्त करते हैं ऐसा वे कहते हैं किन्तु 'न अञ्चहानान्यथा' इस प्रकार से सिद्धि प्राप्त नहीं होती है 'अहो-अधः' मोक्ष प्राप्तिके पूर्व 'इहेव-इहैव' इस लोकमें अथवा इस जन्ममें 'बसवत्ती-वशवर्ती' जितेन्द्रिय हो वही 'सबकाम समप्पिए-सर्वकामसमर्पितः' सर्व सिद्धि सम्पन्न होता है ॥१४॥ છે અને જેઓ કલ્યાણના અભિલાષી છે, તેમણે અન્ય તીર્થિકનાં શાસ્ત્રીને કોઈ પણ પ્રકારે આદર કરે જોઈ એ નહી. પરંતુ તે શાસ્ત્રીને વિષના ઘડા સમાન સમજીને તેમને परित्या ४२वो नये. ॥१३॥ सूत्राशीथी तपाहीमाना भतने अन्य प्रा ट रता -- "सए सए" त्या - शहाथ-'सए सए-स्वके स्वके' पोत पोताना 'उबट्ठाणे--उपस्थाने अनुष्ठानमा 'सिद्धि-सिद्धिम् सिद्विने प्रात ४२ छ ५२-तुन अन्नहा-नान्यथा अन्य मी प्रथा सिद्धि प्राप्त यती नथी. 'अहो--अधः' मोक्ष प्रासिनी पूर्व । पडसा) 'इहेव--इहैव: मा सोभा अथवा मान्ममा 'वसवत्ती-घशवर्ती स्तिन्द्रिय डाय से 'सबकामसमप्पिए--सर्व कामसमपितः' गधी सिद्धि युत थाय छे. ॥१४॥ सु. ५० For Private And Personal Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ:(सए सए) स्वके स्वके= स्वकीये स्वकीये (उवहाणे) उपस्थाने अनुष्ठाने एव विद्यमानपुरुषः स्व स्व वर्णाश्रमाद्यनुकूलानुष्ठानकर्ता एव । (सिद्धि) सिद्धि मुक्तिम् प्रामोति किन्तु (न अन्नहा) नान्यथा नचान्यथा सिद्धेः संभावना । यः कश्चित् (अहो) अधः मोक्षप्रासेः पूर्वम् (इहेव) इहैव, अस्मिन् लोके एतस्मिन्नेव देहे वा (वसत्ती) वशवर्ती जितेन्द्रियो भवेत् स एव (सर्वकामसमर्पितः) सर्व सिद्धिसम्पनो भवति । टीकाते कृतवादिनः एवं प्रतिपादयन्ति यत्-अस्मदीयशास्त्रप्रतिपादिताऽ नुष्ठानादेव सिद्धि भवति नान्यस्मादिति । तत्र शैवाः शैवशास्त्रोक्तानुष्ठानादेव सिद्धिर्जायते इति । -अन्वयार्थअपने अपने अनुष्ठान में विद्यमान अर्थात् अपने अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल कर्तव्य करने वाला ही पुरुष सिद्धि प्राप्त करता है, अन्य प्रकार से सिद्धि की संभावना नहीं की जा सकती। जो मनुष्य मोक्ष प्राप्त करने से पूर्व इस लोक में या इसी जीवनमें जितेन्द्रियों होता है, वही सब सिद्धियों से सम्पन्न होता है ॥१४॥ -टीकार्थवे कृतवादी इस प्रकार कथन करते हैं-हमारे शास्त्र के अनुसार आचरण करने से ही सिद्धि प्राप्त होती है, अन्य शाखों के अनुसार क्रिया करने से नहीं। उनमें से शैवों का कथन है कि शैवशास्त्रों का अनुष्ठान करनेसे ही -सूत्राथપિત પિતાનાં અનુષ્ઠાનમાં સ્થિત એટલે કે પિત પિતાના વર્ણ અને પિતાના આશ્રમને અનુકૂળ કર્તવ્ય કરનાર જ સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરે છે, અન્ય પ્રકારે સિદ્ધિ સંભવી શક્તી નથી. જે મનુષ્ય મેક્ષ પ્રાપ્ત કર્યા પહેલાં આ લેકમાં અથવા આ મનુષ્ય જીવનમાં જિતેન્દ્રિય હોય છે, એ માણસ જ સઘળી સિદ્ધિઓ વડે સંપન્ન થાય છે. -अर्थ - તે કૃતવાદિઓ એવું કહે છે કે – અમારા શાસ્ત્રમાં કહ્યા પ્રમાણેનું આચરણ કરવાથી જ સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે – અન્ય શાસ્ત્રોમાં કહ્યા પ્રમાણે આચરણ કરવાથી સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થતી નથી. જો એવું કહે છે કે શિવ શાસ્ત્રોમાં કહ્યા પ્રમાણેના અનુષ્ઠાન કરવાથી જ સિદ્ધિ For Private And Personal Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. ३ प्रकारान्तरेण कृतवादिमनिरूपणम् ३९५ एकदण्डिनः सांख्या:- पञ्चविंशतितत्त्वप्रतिपादककपिलशास्त्रप्रतिपादिताऽनुष्ठानविशेषादेव सिद्धिर्जायते, इति । योगा- यम-नियम-प्राणायाम--प्रत्याहार-धारणा--ध्यान-समाधि--कुर्वतामेव सिद्धि जर्जायते, इति । वेदान्तिनः-श्रवण-मनन-निदिध्यासनै रात्मसाक्षात् कुर्वतामेव सिद्धि र्भवतीति । बौद्धाः--"सर्वं क्षणिकं सर्व हेयं सर्व दुःख सर्व शून्य" मिति चिन्तयत एव सिद्धि भवतीति, वदन्ति । एव मन्येऽपि स्व स्व शास्त्रानुसारेण सिद्धिप्राप्तिमामनन्ति । अशेषद्वन्द्वोपरमलक्षणायाः सिद्धेः पूर्व यावत् सिद्धिर्भवति, तावदस्मिन्नेव जन्मनि अस्मिन्ने व मनुष्यशरीरे मदीयदर्शनाऽनुष्ठानप्रभावादष्टप्रकारसिद्धि होती है। कपिल सांख्य कहते हैं-पच्चीस तत्वों को प्रतिपादन करने वाले शास्त्र के ज्ञान से ही मुक्ति मिल सकती है। योगमत के अनुसार यम, नियम, प्राणायाम प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का सेवन करने वाले ही सिद्धि प्राप्त करते हैं। वेदान्ती श्रवण, मनन और निदिध्यासन से आत्मा का साक्षात्कार करने वालों को ही सिद्धि प्राप्त होना मानते हैं। बौद्ध कहते हैं- सभी कुछ क्षणिक है, सभी कुछ हेय है, सब दुःखमय है, सब शून्य है' ऐसी भावना करने वालों को ही सिद्धि प्राप्त होती है। . इसी प्रकार अन्य वादी भी अपने अपने शास्त्र के अनुसार सिद्धि की प्राप्ति मानते हैं। समस्त द्वंद्वों का दूर हो जाना रूप सिद्धि से पहले इसी जन्म में इसी मनुष्य शरीर के रहते हुए हमारे दर्शन के अनुसार व्यवहार करने से आठ પ્રાપ્ત થાય છે. કપિલ સાંખ્ય કહે છે કે – ૨૫ તનું પ્રતિપાદન કરનાર શાસ્ત્રનું જ્ઞાન સંપાદન કરવાથી જ મુક્તિ મળી શકે છે. વેગ મતાનુસાર યમ, નિયમ, પ્રાણાયામ, પ્રત્યાહાર, ધારણું, ધ્યાન અને સમાધિનું સેવન કરનાર મનુષ્ય જ સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરે છે. વેદાન્તીએ એવું કહે છે કે–-શ્રવણ, મનન, અને નિદિધ્યાસન વડે આત્માને સાક્ષાત્કાર કરનારને જ સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે. બૌદ્ધ કહે છે કે- “સઘળી વસ્તુઓ ક્ષણિક છે, સઘળું હોય છે, સઘળું દુખમય छ, सघणु शुन्य छ,” मा प्रारनी भावना ४२वाथी सिद्धि प्राप्त थाय छे. એજ પ્રમાણે અન્ય મતવાદીઓ પણ પોત પોતાનાં શાસ્ત્રોની આજ્ઞા અનુસાર આચરણ કરવાથી સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે, એવું માને છે. સમસ્ત દ્વન્દો (કલેશે) દૂર થઈ જવા રૂપ સિદ્ધિની પ્રાપ્તિ કરવી હોય તે આ મનુષ્ય જન્મ ધારણ કરીને-મનુષ્ય દેહને પ્રાપ્ત કરીને અમારા દર્શનકારની આજ્ઞાને For Private And Personal Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३९६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे कैश्वर्यसद्भावो भवतीति प्रयत्नेन वशवर्त्ती जितेन्द्रियो भूत्वा प्राप्ताष्टविधगुणेsar: सांसारिsalt asभिभूयते । अस्य सर्वे कामा: संपन्ना भवन्ति । यान् पदार्थान् यदैवेच्छति, ते पदार्थाः तस्य तदैवोपस्थिता भवन्ति । संकल्पमात्रेण सर्वान् पदार्थान् स प्रामोति । एवं ते स्व स्व शास्त्र प्रशंसन्तीति ||१४|| पुनरपि तेषां मतमाह--' सिद्धा य' इत्यादि । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलम्- २ १ ३ ४ ५ ६ सिद्धाय ते अरोगा य इहमेगेसि माहियं । の १० सिद्धिमेव पुरोकाउं सासए गढिया नरा ||१५ छाया- "सिद्धार्थ ते अरोगाव इह एकेषामाख्यातम् । सिद्धिमेव पुरस्कृत्य स्वाऽऽशये ग्रथिता नराः || १५ प्रकार के ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है । अतएव प्रयत्नपूर्वक जितेन्द्रिय होकर, आठ प्रकार के गुणों का ऐश्वर्य प्राप्त करके सांसारिक दोषों से अभिभूत नहीं होता है, ऐसे पुरुष की सभी वासनाएँ पूर्ण होती हैं । वह जब जिन पदार्थों की अभिलाषा करता है, उसी समय वे पदार्थ उसके सामने उपस्थित हो जाते हैं । वह सब वस्तुओं को संकल्प मात्र से प्राप्त करता है । इस प्रकार वह कहकर वे अपने अपने शास्त्रों की प्रशंसा करते हैं || १४ || फिर उन्हीं का मत कहते हैं- " सिद्धा य " इत्यादि । शब्दार्थ - - ' इहं - इह ' इस लोक में 'एगेसि- एकेषां' कोई मतवालोंका 'आहिये - अख्यातम्' कथन है कि जो हमारे मतानुयायी है 'ते-ते' वे અનુસરો, એમ કરવાથી તમે આઠ પ્રકારના ઐશ્વર્યની પ્રાપ્તિ કરશે. તેથી પ્રયત્ન પૂર્વક જિતેન્દ્રિય થઇને, આઠ પ્રકારના ગુણા રૂપ ઐય પ્રાપ્ત કરીને, મનુષ્ય સાંસારિક દોષોથી અભિભૂત થતા નથી. એવા પુરુષની સઘળી અભિલાષાએ પૂર્ણ થાય છે. તે જે પદાર્થની અભિલાષા કરે છે, તે પદાર્થ એ જ વખતે તેની સામે ઉપસ્થિત થઈ જાય છે. તે સ’ કરવા માત્રથી જ સઘળી વસ્તુઓ પ્રાપ્ત કરી શકે છે. આ પ્રમાણે કહીને તે પાત પેાતાના શાસ્ત્રોની પ્રશંસા કરે છે. ૫ ૧૪ ll तेंमना भतनुं सूत्रार इरी प्रदर्शन उरे छे - सिद्धा य " इत्याहि शब्दार्थ' – 'इह - इह' मा सोहम 'पगेलि एकेषां' 5 भतवासानु' 'आहियआगतम् ' उथन छे ने अभारा मतानुयायियो छे ते ते' तेयो 'सिद्धा य-सिद्धान' For Private And Personal Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. अ. अ. १ उ. ३ रसेश्वरवादिमत निरूपम् ३९७ अन्वयार्थ:-- (इ) इह = अस्मिन् लोके ( एगेसि) एकेषां = रसेश्वरवादिनाम् (आहियं ) आख्यातं=कथितं=कथनं भवति यत् येऽस्मन्मतानुयायिनः सन्ति (ते) ते (सिद्धा य) सिद्धाr ( अरोगा य) अरोगाश्च भवन्तीति । किन्तु ते ( नरा) नराः = एवं वादिनः पुरुषाः (सिद्धिमेव ) सिद्धिमेव स्वमतसिद्धां सिद्धिमेव (पुरोकाउं) पुरस्कृत्य अन्येभ्यः प्रदर्श्य च (सासए) स्वाशये = स्वाग्रहे (गठिया) ग्रथिता: =अध्युपपन्नाः सन्ति । टीका रसेश्वरदर्शनमतानुयायिन एवं कथयन्ति ये रसेश्वरदर्शनमङ्गीकुर्वन्ति, से सिद्धपारदसिद्धिमेत्य तत्प्रभावेण वातपित्तकफविकारात्मकशरीर रोगान् सिद्धा य-सिद्धाश्व' सिद्ध और 'अरोगा य - अरोगाश्व' नीरोग होते हैं परंतु वे 'नरा - नरा:' इस प्रकार कहने वाले मनुष्य 'सिद्धिमेव - सिद्धिमेव ' स्वमत से सिद्ध ऐसी सिद्धिको ही 'पुरो काउं- पुरस्कृत्य : आगे रखकर 'सासए - स्वाशये ' अपने अपने दर्शन में 'गढिया - ग्रथिताः' आसक्त बने हुए हैं ||१५|| -अन्वयार्थ इस लोक में किन्हीं का अर्थात् रसेश्वरवादियों (रसायन शास्त्रवादियों) का कथन है कि जो हमारे मत के अनुयायी हैं वे सिद्ध और निरोग होते हैं । किन्तु ऐसा कहने वाले पुरुष स्वमत सिद्ध सिद्धि को ही आगे करके आर दूसरों को दिखला कर अपने आशय या आग्रह में ग्रस्तहो रहे हैं ||१५|| टीकार्य रसेश्वर दर्शनमत के अनुयायी ऐसा कहते हैं- जो रसेश्वर दर्शन को स्वीकार करते हैं वे सिद्धपारद सिद्धि को प्राप्त करके, उसके प्रभाव से बात सिद्ध भने 'अरोगा य- अरोगाश्च' नीरोगी होय छे, परंतु तेथे 'नरा नराः' या प्रारे डेवाणा भनुष्य 'सिद्धिमेव - सिद्धिमेव' पोताना भतथी सिद्ध खेवी सिद्धिने ४ पुरोकाउ - पुरस्कृत्य भागण राणीने 'सासए - स्वाशये' पोतपोताना दर्शनभां 'गढिया - प्रथिता:' आसत मनेा छे. ॥१५॥ - सूत्रार्थ - આ લેાકમાં રસેશ્વરવાદીએ (રસાયન શાસ્ત્ર વાદીઓ) એવું કહે છે કે અમારા મતના અનુયાયિઓ સિદ્ધિને પ્રાપ્ત કરનાર અને નીરેણી હેાય છે. પરન્તુ એવુ' કહેનારા પુરુષા સ્વમતસિદ્ધ સિદ્ધિને જ આગળ કરીને, અને બીજાની આગળ તેનું પ્રદર્શન કરીને પેાતાના આશય અથવા આગ્રહમાં જ ગ્રસ્ત થઇ રહ્યા હાય છે. ટીકાથ રસેશ્વર દન મતના અનુયાયીઓ એવું કહે છે કે જે રસેશ્વર દર્શન ના સ્વીકાર કરે છે, તે સિદ્ધપારદ સિદ્ધિને પ્રાપ્ત કરે છે, અને તેના પ્રભાવથી વાત, પિત્ત અને કફના For Private And Personal Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गको निवार्य नीरोगा भवन्ति । पुनश्च रोगादिप्रतिबन्धकाऽभावेन समाध्यादि विशिष्टाऽनुष्ठान करणात् शरीरं परित्यज्य सिद्धाः अशेषद्वन्द्वरहिता मुक्तिमेत्य नीरोगाः भवन्ति । शरीराऽभावे तदाश्रितेन्द्रियमनसोरभावात् सर्वदुःखानामन्तं कुर्चन्ति । एवमेकेषां रसेश्वरदर्शनानुयायिनो कथनं भवति । ते रसेश्वरमतवादिनः- सिद्धिं रससिद्धिं मुक्तिरूपां सिद्धि चाङ्गीकृत्य शास्त्रबोधविकला अपि आत्मानं पण्डितं मन्यमानाः परमार्थतत्वमजानन्तः स्वाऽऽग्रहसाधिकाः बहुशो युक्तीः प्रतिपादयन्ति । किन्तु वस्तुत स्तत्त्वं नैव जानन्ति । तदुक्तम्-"आग्रहिवत् निनीषति युक्तिं, तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तियत्र तत्र मतिरेति निवेशम्" ॥१॥ इति पित्त और कफ के विकार से उत्पन्न होने वाले रोगों का निवारण करके निरोग हो जाते हैं। तत्पश्चात् रोगादि की रुकावट हट जाने से समाधि आदि विशिष्ट अनुष्ठान करके, शरीर को त्याग कर सिद्ध होते हैं और समस्त द्वन्द्वों (क्लेशों) से रहित मुक्ति प्राप्त करके नीरोग हो जाते हैं । शरीर का अभाव होने पर उसके आश्रित मन का भी अभाव हो जाने से वे समस्त दुःखों का अन्त करते हैं । ऐसा रसेश्वर दर्शन (रसायनशास्त्र मतवादियों का) के अनुयायियों का कथन है। वे रसेश्वर मतवादी रस सिद्धि और मुक्तिरूप सिद्धि को स्वीकार करके शास्त्रज्ञान से हीन होते हुए भी अपने आप को पण्डित मानते हैं। परमार्थतत्त्व को न समझते हुए अपने आग्रह को सिद्ध करने वाली बहुतेरी युक्तियां कहते हैं । किन्तु वास्तव में वे तत्त्व को नहीं जानते । कहा भी है-आग्रहिवत् "इत्यादि । પ્રકોપથી ઉત્પન્ન થનારા રોગોનું નિવારણ કરીને નીરોગી થઈ જાય છે. આ પ્રકારે ગાદિ દૂર થયા બાદ તેઓ સમાધિ આદિ વિશિષ્ટ અનુષ્ઠાન કરીને, શરીરને ત્યાગ કરીને સિદ્ધ થાય છે, અને સમસ્ત કો લેશે)થી રહિત મુક્તિ પ્રાપ્ત કરીને નીરોગી થઈ જાય છે શરીરને અભાવ થઈ જવાથી, શરીરાશ્રિત મનને પણ અભાવ થઈ જાય છે. મનને અભાવ થઈ જવાથી તેમના સસસ્ત દુઃખને પણ અન્ત આવી જાય છે. આ પ્રકારની રસેશ્વર દર્શનના અનુયાયીઓની માન્યતા છે. રસસિદ્ધિ અને મુક્તિરૂપ સિદ્ધિને સ્વીકાર કરનાર તે રસેશ્વર મતવાદી શાસ્ત્રજ્ઞાનથી અજ્ઞાત હોવા છતાં પણ પિતાને પંડિત માને છે. પરમાર્થ તત્વને નહીં સમજનાર તે લેકે પિતાના મતાગ્રહને સિદ્ધ કરવાને માટે અનેક પ્રકારની યુક્તિઓ (ચમત્કારે) બતાવે છે. પરંતુ ખરી વાત તે એજ છે કે તેઓ તત્વને onाता नथी. ४युं पशु छे" आपहिवत् ” त्या. For Private And Personal Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सामयाथ बोधिनी टीका प्र. श्रु. भ. १ उ. ३ प्रक्तियादिनामनर्थ प्रदश नम् ३२९ यत्-स्वमताग्रही पुरुषो यत्र स्वस्य मतिर्निविष्टा भवेत् तत्रैव स्व युक्ति यथा कथश्चिदपि प्रतिपाद्य स्वमतं स्थापयति किन्तु निष्पक्षपुरुषः स्वबुद्धि तत्रैव स्थापयति यत्र तत्त्वनिर्णायिका युक्ति गच्छतीति ॥१५॥ “सम्प्रति पूर्वोक्तवादिनामनथै प्रदर्शयन्नाह-सूत्रकारः-"असंबुडा" इत्यादि। असंवुडा अनोदीयं, भमिहिति पुणो पुणो । कप्पकालमुवज्जति ठाणो आसुरकिन्विसिया ॥१६ छायाअसंवृता अनादिकं भ्रमिष्यन्ति पुनःपुनः । कल्पकालमुत्पद्यन्ते स्थाना आसुरकिल्विषिकाः ॥ १६ 'आग्रही पुरुष युक्ति को वहीं घसीट ले जाना चाहता है, जहाँ उसकी बुद्धि (श्रद्धा) जमी हुई है, किन्तु जो पक्षपात रहित होता है वह युक्ति के अनुकूल श्रद्धा करता है ॥१॥ __ अर्थात् स्वमत का आग्रह रखने वाला पुरुष अपनी बुद्धि जहां निविष्ट है अर्थात् जिस पर वह श्रद्धा रखता है, उसी ओर जैसे तैसे युक्ति को घसीट कर अपने मत की स्थापना करता है किन्तु निष्पक्ष मनुष्य अपनी बुद्धि को वही स्थापित करता है, जहां तत्त्व निर्णायक युक्ति होती है ।।१५।। अब सूत्रकार पूर्वोक्तवादी को दोष दिखलाते हुए कहते हैं-"असंवुडा" ... शब्दाय-ये 'असंबुडा-असंवृताः' इन्द्रिय जयसे रहित अर्थात् इन्द्रियके वश बने हुए लोक 'अणादीय-अनादिकम्' आदि रहित इस अनन्त संसारमें 'पुणो-पुणो-पुनः पुनः' बार बार 'भमिहिंति-भ्रमिष्यन्ति' भ्रमण करेंगे तथा ” આગ્રહી પુરુષ યુક્તિને તાણી ખેંચીને ત્યાં જ લઈ જવા માગે છે કે જ્યાં તેની બુદ્ધિ (શ્રદ્ધા) જામી હોય છે. પરંતુ જે માણસ પક્ષપાતથી રહિત હોય છે. તે યુક્તિને અનુકૂળ શ્રદ્ધા રાખે છે. તેના એટલેકે પિતાના મતને આગ્રહ રાખનાર પુરુષ જેમાં શ્રદ્ધા ધરાવતા હોય છે, તે તરફ જ યુક્તિને તાણી ખેંચીને-પિતાના જ મતનું પ્રતિપાદન કરનારી વિચિત્ર દલીલે કરીને પિતાના મતની સ્થાપના કરે છે. પરંતુ નિપક્ષ મનુષ્ય તે પિતાની બુદ્ધિ (શ્રદ્ધા) ની ત્યાં જ સ્થાપના કરે છે, કે જ્યાં તત્વનિર્ણાયક યુક્તિ હોય છે. ll૧પ હવે સૂત્રકાર પૂર્વોક્ત મતવાદીઓના દેષ પ્રગટ કરીને તેમને કેવું ફળ પ્રાપ્ત થાય छे ते मतावे छ "असं वुडा' त्या___शहाथ-'असंवुडा-असंवृतान्द्रिय यथी २हित अर्थात न्द्रियना वश मनेस सो 'अणादीय- अनादिकम्' हि विनाना मा अनन्त ससारमा 'पुणो-पुणो-पुनः पुनः' For Private And Personal Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४०० सूत्रकृतासूत्रे इन्द्रियवश अन्वयार्थ:एते (असंबुढा) असंवृता इन्द्रियनोइन्द्रियजयरहिताः, वर्त्तिन इति भाव: ( अणादीर्य ) अनादिकम् आदिरहितम् अनन्तं संसारम् । (पुणा पुणो ) पुनःपुनः = वारम् वारम् भमिहिति भ्रमिष्यन्ति संसारे भ्रमण करिष्यन्ति तथा - ( कप्पकालं) कल्पकालं चिरकालम् (ठाणा) स्थानाः = नरकादिस्थानोत्पन्नाः तथा (आसुर किच्चिसिया) आसुरकिल्विषिकाः अनुरस्थानोत्पन्ना नागकुमारादयस्तत्रापि किल्विषिकाः अधमाः प्रेष्याः अल्पर्द्धयोऽल्पभोग । अल्पायुपोऽल्पसामर्थ्याद्युपेताश्व भूत्वा ( उवज्र्ज्जति) उत्पद्यन्ते उत्पन्ना भवन्ति । टीका ते पाखण्डिनः मोक्षप्राप्तये उद्यता अपि इन्द्रियवशवर्त्तितया इत्थं चिन्तयन्तिsesपि मे भोगः परलोकेऽपि स्यात्, इत्येवं स्वयं भोगादौ प्रवर्त्तमानस्य परा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'कप्पकाल - कल्पकालम् ' चिरकाल तक 'अपुर किन्वसिया ठागा - असुरकिल्वि शिका स्थाना:' असुरस्थानमें किल्विषिक' रूपसे 'उवज्जति - उत्पद्यन्ते' उत्पन्न होते हैं ||१६|| अन्वयार्थ ये असंवृत अर्थात् इन्द्रियों को और मन को न जीतने वाले वादी वार - वार अन्तरहित संसार में परिभ्रमण करेंगे। तथा चिरकाल तक नरकादि स्थानों में उत्पन्न होकर तथा आसुर स्थानों में उत्पन्न होकर भी किल्बिषक होंगे । अर्थात् अथम, दूसरों की आज्ञा बजाने वाले, अल्प ऋद्धि के धारक, अल्प भोग वाले, अल्पायुष्क तथा अल्प सामर्थ्य वाले हीन देवों के रूप में उत्पन्न होते हैं ||१६|| टीकार्थ वे पाखण्डी मोक्ष पाप्त करने के लिए उद्यत होकर भी इन्द्रियों के वशीभूत होकर इस प्रकार विचार करते हैं मुझे इस भव में भोग प्राप्त हों वारंवार भमिहि - भमिष्यन्ति' भ्रम र अथवा 'ऋष्पकाल - कल्पकालम् यांमा समय सुधी 'असुर किब्बिमिया ठाणा- असुरकिल्विषिकास्थाना:' असुर स्थानमा डिपि ३५थी 'उजन - उत्पद्यन्ते' उत्पन्न थशे. ॥१६॥ - સૂત્રાથ તે અસવૃત્તા (અસ યતા) એટલે કે ઇન્દ્રિયા અને મનને કાનૂમાં ન રાખનારા તે અન્ય મતવાદિ વારવાર અનંત સંસારમાં પરિભ્રમણ કરશે. તથા ચિરકાળ સુધી અસુર સ્થાનામાં ઉત્પન્ન થવા છતાં પણ કિલ્મિષિક દેવા રૂપે ઉત્પન્ન થશે. એટલે કે તે કદાચ દેવગતિ પ્રાપ્ત કરે તે પણ અધમ, અન્યની આજ્ઞા માનનારા અલ્પ બુદ્ધિવાળા, અલ્પ ભાગાવાળા, અલ્પ આયુષ્યવાળા અને અલ્પ સામર્થ્યવાળા હીન દેવા રૂપે જ ઉત્પન્ન થશે. ૧૬ ટીકા માક્ષ પ્રાપ્ત કરવાને ઉદ્યત થયેલા તે પાખડીએ ઇન્દ્રિયાને વશીભૂત થઇને આ પ્રકારના વિચાર કરે છે- “મને આ ભવમાં પણ ભાગની પ્રાપ્તિ થાય અને પરભવમાં પણ ભાગની For Private And Personal Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाथ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. ३ प्रक्तियादिनामनर्थप्रदश नम् ४०१ नपि तथैव सिद्धादिविपये प्रवर्तयतः पुरुषपशोः दुश्चरितपाशपाशितस्य संसारे एव परिभ्रमणं चिरकालपर्यन्तं भवति । ते तु नरकादि यातना स्थानेप्रत्यद्यन्ते । नहि तेपामिन्द्रियवशवर्तिनां रागद्वेषद्वन्द्वविनाशरूपा सिद्धिर्भवति । याऽपि अणिमादिलक्षणा ऐहिकी सिद्धिः प्राप्यते. साऽपि पुरुषपशूनां विप्रतारणायैव भवति । याऽपि तेषां बालतपोऽनुष्ठानस्याऽऽचरणेन स्वर्गप्राप्तिर्भवति साऽपि असुरकिल्विषकत्वेनैव भवतीति ।१६। इतिश्री विश्वविख्यात---जगबल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलित-ललितकलापालापकाविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक वादिमानमदक-श्री शाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त 'जनाचार्य, पदभूषित कोल्हापुरराजगुरु बालब्रह्मचारि- जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालव्रतिविरचितायां सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य-समयार्थबोधिन्याख्यां व्याख्यायां समयनामकप्रथमाध्ययने तृतीयोद्देशकः समाप्तः १-३ और परभव में भी ! इस प्रकार सोचकर जो स्वयं भोग आदि में प्रवृत्त होता है और दूसरों को भी उसी प्रकार सिद्धि के लिए प्रवृत्त करता है, उस पुरुष पशु और दुराचार के फंदे फँसे को चिरकाल तक संसार में भ्रमण करना पड़ता है। ___ वे नरक आदि यातना के स्थानों में उत्पन्न होते हैं । इन्द्रियों के वशीभूत उन पुरुषों को रागद्वेष आदि द्वन्द्वों का अभाव रूपमोक्ष प्राप्त नहीं होता । ऐसे पुरुष पशुओं को जो अणिमा आदि इस लोक संबंधी सिद्धि प्राप्त होती है, वह भी ठगाइ करने के लिए ही होती है। बालतप करने से उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती है, उसमें भी वे असुरकिल्विषक ही होते है ॥१५|| प्रथम अध्ययनका तृतीय उद्देशक समाप्त ॥ પ્રાપ્તિ થાય આ પ્રમાણે વિચાર કરીને જેઓ પોતે ભેગ આદિમાં પ્રવૃત્ત રહે છે, અને બીજા લેને પણ એજ પ્રકારે સિદ્ધિને માટે પ્રવૃત્ત કરે છે, એવા દુરાચારના ફંદામાં ફસાયેલા નરપશને તે અનંત કાળ સુધી સંસારમાં ભ્રમણ કરવું પડે છે. તેઓ નરક આદિ યાતનાના સ્થાને માં ઉત્પન્ન થાય છે. ઇન્દ્રિયના સુખમાં જ રચ્યા પચ્યા રહેનારા તે લેકેને રાગદ્વેષ આદિ દ્વન્દના અભાવ રૂપ મેક્ષની પ્રાપ્તિ થતી નથી. એવાં નરપશુઓને જે અણિમા આદિ આ લેાક સંબંધી સિદ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે, તે પણ લોકોની ઠગાઈ કરવાના કામમાં આવે છે. બાલૂતપ કરવાથી તેમને દેવલોકની પ્રાપ્તિ પણ થાય છે ખરી, પરંતુ તેમાં પણ તેઓ અસુર કિલ્પિષક નામના અધમ દેવ રૂપે જ ઉત્પન્ન થાય છે. પાન પહેલા અધ્યયનને ત્રીજો ઉદેશક સમાપ્ત ! સુ. ૫૧ For Private And Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४०२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अथ प्रथमाऽध्ययने चतुर्थ उद्देशकः प्रारभ्यते - तृतीयोद्वेशे स्वसमयपरसमययोः प्रतिपादनं कृतं तत्सम्बन्धेनाऽत्रापि तदेव प्रतिपादयिष्यते इति चतुर्थोदेशकस्य प्रथमसूत्रमाह - 'एए जिया' इत्यादि । , Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलम् - १ ६ ७ ३ ४ एए जिया भो न सरणं, बाला पंडियमाणिणो । १० हिचा णं पुव्वसंजोगं, सिया कचोव सगा ॥ १ ॥ छाया " एते जिता भोः न शरणं वाला: पण्डितमानिनः हित्वा खलु पूर्वसंयोगं, सिताः कृत्योपदेशकाः ॥ १ ॥ चौथे उद्देशक का प्रारंभ तीसरे उद्देशे में स्वसमय और परसमय का प्रतिपादन किया गया है । उस संबंध से यहां भी स्व पर समय का प्रतिपादन करेंगे। चौथे अध्ययन का प्रथम सूत्र कहते हैं- “ एए जिया" इत्यादि । शब्दार्थ - 'भो भो' हे शिष्यो ! 'एए- एते' ये अन्यतीर्थी 'वालाबालाः ' तत्वज्ञानसे रहित होने पर भी 'पंडियमाणिणो - पण्डितमानिनः' अपने आत्माको पण्डित - तत्वज्ञ मानने वाले हैं अतएव वे 'जिया-जिताः' काम क्रोधादि से पराजित हैं अतः वे 'न सरणं-न शरणम्' शरण योग्य नहीं हैं कारण कि 'पुव्वसंयोगं - पूर्वसंयोगम्' स्वजन संबंधी जनों का सम्बन्धको ' हिच्चा णं हित्वा खलु' त्याग करके भी 'कच्चोवएसगा - कृत्योपदेशकाः' ચાથા ઉદ્દેશક ના પ્રારંભ ત્રીજા ઉદ્દેશકમાં સ્વસમય અને પરસમયનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું. આ ચેાથા ઉદ્દેશકમાં પણ સ્વસમય અને પરસમયનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવશે. આ ચેાથા ઉદ્દેશકનું हे सूत्र माप्रमाणे छे - " एप जिया" इत्याह शब्दार्थ' - 'भो भो' हे शिष्यो ! 'पप-पते' या अन्य तीर्थ 'बाला- बोला'' तत्त्वज्ञानथी रहित छे तो य 'पंडियमाणिणो- पण्डि मानिनः' पोताने पंडित-तत्वज्ञ मानवावाजा छे तमेव (तोपशु) तेथे 'जिया - जिता: अम-अध वगेरेथी पराकृत छे अतः तेथ्या 'न सरण' न शरणम्' शरण योग्य नथी, आरडे 'पुवस योग - पूर्व स योगम्' स्वन्न संधी नोना संमंधने 'हिच्या णं-हित्वा खलु' त्याग उरीने पण 'किच्चोवएसगा For Private And Personal Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.१ उ. ४ पूर्वोक्तवादिनां फलप्राप्तिनिरूपणम् ४०३ अन्वयार्थ-- गुरुः स्वशिष्यान् सम्बोध्य प्राह (भो) भोः भो भोः शिष्याः ! (एए) एते पूर्वोक्ताः वादिनः (बाला) बाला: अज्ञानिनः तत्वज्ञानरहिताः सन्तोऽपि (पंडियमाणिणो) पण्डितमानिनःआत्मानं पण्डितं मन्यमानाः पाण्डित्यमदगर्विता अत एव ते (जिया) कामक्रोधादिभिः पराजिताः सन्ति अतएव ते (न) नैव (सरणं) शरणं भवन्ति ते स्वेषां परेषां वा न त्राणकर्तारो भवन्ति यतस्ते (पुव्वसंयोगं) पूर्वसंयोग मातापित्रादिसम्बन्धम् उपलक्षणात् पश्चात्संयोग श्वशुरश्यालकादिसम्बन्धं च (हिच्चा णं) हित्वा खलु त्यक्त्वाऽपीत्यर्थः (किच्चीवएसगा) कृत्योपदेशकाः= कृत्यानां गृहस्थैः कर्तुं योग्यानां सावद्यकार्याणाम् उपदेशका: उपदेशकर्तारः गृहस्थकार्याणामनुमोदका इत्यर्थः, अतस्ते (सिया) सिताःबद्धाः प्रबलमहामोहोदयेन मोहपाशबद्धाः सन्ति न तु ते मुक्ता भवन्ति इति । गृहस्थके कृत्योंका अर्थात् सावधकर्मका उपदेश करने वाला होने से 'सियासिताः' प्रबल महामोहपाश से बद्ध हैं ॥१॥ अन्वयार्थगुरु अपने शिष्यों को सम्बोधन करके कहते हैं हे शिष्यो ! ये पूर्वोक्तवादि तत्त्वज्ञान से रहित होते हुए भी अपने को पण्डित मानते हैं -पाण्डित्य के अभिमान में चूर हैं अर्थात् पण्डितपन के अहंकार से भरे हुए. हैं अतएव काम क्रोध आदि के द्वारा पराजित है। वे न अपना त्राण क्यों कि वे पूर्व संयोग अर्थात माता करसकते है और न दूसरों का। पिता आदि के सम्बन्ध को और उपलक्षण से पश्चात्संयोग अर्थात् श्वसुर साले आदि के सम्बन्ध को त्याग करके भी गृहस्थों द्वारा करने योग्य सावध कार्यों का उपदेश करते हैं अर्यात-गृहस्थ के कार्यों की अनुमोदना करते हैं । अतः वे मोह के बन्धनों से आबद्ध हैं। वे मुक्त नहीं होते हैं । कृत्योपदेशकाः' स्थना त्यांना पर्यात सावध भनी उपहेश ४२पापामाहापाथी 'सियासिताः' प्रमाण भाडामा पाशथी माघार छ. ॥१॥ -सूत्राथસુધર્મા સ્વામી પિતાના શિષ્યોને આ પ્રમાણે કહે છે હે શિષ્ય ! પૂર્વોક્ત મતવાદીઓ તત્ત્વજ્ઞાનથી રહિત હોવા છતાં પણ પોતાને પંડિત માને છે, એટલે કે તેઓ પાંડિત્યના અભિમાનમાં ચૂર છે. તેઓ પાંડિત્યના અભિમાનથી ભરપૂર હોવાને કારણે કામક્રોધ આદિ પર વિજ્ય પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. તેઓ પોતાનું ત્રાણુ ( રક્ષણ) પણ કરી શક્તા નથી અને અન્યને પણ ત્રાણુ આપવાને સમર્થ નથી. તેમણે પૂર્વસંગને (માતા, પિતા આદિના સંબંધને) અને પશ્ચાત્સગન (સાસુ, સસરા, સાળા આદિના સંબંધને) ત્યાગ કર્યો હોય છે, છતાં પણ તેઓ ગૃહસ્થના સાવદ્ય કાર્યોની અનમેદના કરે છે. તેથી તેમના મેહનું બન્ધન તૂટયું નથી. મેહના બન્ધન વડે બંધાયેલા તે મુકત થઈ શક્તા નથી. For Private And Personal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४०४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अयं भावः --यथा कथंचित् पूर्वसम्बन्धं विहायाऽपि पुनः नवीनं सावद्यं कार्यमुपदिशन्ति । यतः इसे बाला अज्ञानिनोऽपि आत्मानं पण्डितमानिनो वयमेव सर्व ज्ञातार इति मत्वा एवं कुर्वन्ति । परन्तु यावत्पर्यन्तमज्ञानं नापगच्छेत् ज्ञानं च न लभेत तावत् यथावस्थितवस्तूपदेशका : न भवन्ति । स्वकीयपाण्डित्यप्रकाशनाय अवश्यं किंचिदुपदेष्टव्यमेवेति कृत्वा यथाकथंचिदुपदेशं कुर्वन्तो न स्वयम् उपरता भवन्ति, नवाऽन्यानपि सावधानिवर्त्तयितुं समर्थाः भवन्ति । अतएवोक्तम् न शरणमिति ॥ १॥ टीका- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एते अनन्तरोदीरिताः पंचभूतवादिन एकात्मतज्जीवतच्छरीरादिवादिनः कृतवादिनो गोशालकमतानुसारिणखैराशिकाश्च सर्वेऽपि वादिन: ( जिया) जिता:, तात्पर्य यह है - जैसे तैसे पूर्व सम्बन्ध को त्याग करके भी वे सावध कर्म का उपदेश करते हैं। यद्यपि वे अज्ञानी हैं फिर भी अपने को पण्डित मानते हैं । हम ही सर्वज्ञ हैं' ऐसा मानकर वे ऐसा करते हैं । परन्तु जब तक अज्ञान दूर न हो जाय और ज्ञान प्राप्त न हो जाय तब तक वे यथार्थ वस्तु स्वरूप के उपदेशक नहीं हैं । अपनी पण्डिताई प्रकट करने के लिए कुछ उपदेश देना चाहिए, ऐसा सोचकर किसी प्रकार उपदेश करते हुए भी वे न स्वयं सावध अनुष्ठान से विरत होते हैं और न दूसरों को विरत करने में समर्थ होते हैं । इसी कारण कहा है कि वे शरणभूत (किसी के रक्षक) नहीं हैं ॥ १२ ॥ टीकार्थ है शिष्यो ! तुम यह समझलो कि ये पूर्वोक्त पंचभूतवादी, एकात्मवादी, આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે - પૂર્વસંધના (માતા, પિતા આદિ સંસારી સંબધાના ) પરિત્યાગ કરીને સાધુ બનવા છતાં તેઓ સાવદ્ય કર્મોને ઉપદેશ આપે છે. જો કે તેઓ અજ્ઞાન છે, છતાં પણ પેાતાને પડિત માને છે. “ અમે જ સજ્ઞ છીએ ” એવું માનીને તે આ પ્રમાણે કહે છે. પરન્તુ જ્યાં સુધી તેમનુ અજ્ઞાન દૂર ન થાય અને જ્ઞાનની પ્રાપ્તિ ન થાય, ત્યાં સુધી તેઓ યથાર્થ વસ્તુસ્વરૂપના ઉપદેશ આપી શકતા નથી, પેાતાનું પાંડિત્ય પ્રકટ કરવા માટે કોઇ પણ પ્રકારનો ઉપદેશ આપવા જોઈ એ, એમ માનીને કોઈ પણ પ્રકારે ઉપદેશ આપવાની પ્રવૃત્તિ કરનારા તે મતવાદીએ પેાતે જ સાવદ્ય અનુષ્ઠાનો કરતા અટકતા નથી અને અન્યને સાવદ્ય અનુષ્ઠાનો કરતા રોકી શકતા નથી. તેથી જ એવુ કહ્યું છે કે તેઓ કોઇને શરણ આપવાને (સંસારના દુઃખામાંથી भाववाने) समर्थ होता नथी. ॥ १ ॥ ટીકા-- હે શિષ્યા ! તમે આ વાત સમજી લો કે પૂર્વોક્ત પચભૂતવાદીઓ, એકાત્મ For Private And Personal Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनो टीका प्र. . अ. १ उ. ३ पूर्वोक्तवादिनां फलप्राप्तिनिरूपणम् ४०५ रागद्वेषादिभिः शब्दादिविषय महामोहजनिताऽज्ञानेश्च पराभूताः 'भोरिति' शिष्याणां संबोधने, भो शिष्याः इत्थं यूयं विवेकं कुरुत । एते परतीथिकाः अवास्तविकोपदेशे प्रवृत्ताः न कस्यचिदपि शरणं भविष्यन्ति, कस्यचिदपि पापेभ्यो रक्षणाय समर्था न भवन्ति । कुतो नैते अन्येषां समुद्धरणे समर्था स्तत्राह-"बाला" बालाः इति वाला इव बालाः सदसद्विवेकविकलाः सन्ति । यथा यत्किश्चिद भाषमाणाः यथा तथा कार्यकारिणश्चाऽज्ञानिनः न कस्याऽपि रक्षणादिकार्ये समर्था भवन्ति तथा इमे अपि वादिनः स्वयमज्ञानिनः सन्तः परानपि मोहयन्ति । ननु यदि इमे अज्ञानिनस्तदा कथमन्यानुपदिशन्ति, तत्राऽह-" पंडियमाणिणो" पण्डितमानिनः आत्मानं पण्डितं मन्यन्ते तत्त्वाऽतत्त्वज्ञानविकला तज्जीवतच्छरीरवादी, कर्त्तावादी और गोशालक के अनुयायी त्रैराशिक-सभीरागद्वेष आदि से, शब्दादि विषयों से और महामोह जनित अज्ञान से पराजित हैं । ये मिथ्या उपदेश देने में प्रवृत्त हैं। किसी के लिए भी शरण नहीं होंगे । किसी को पाप से बचाने में समर्थ नहीं होंगे । ये लोग दूसरों का उद्धार करने में क्यों समर्थ नहीं हैं ? इसका कारण यह है की ये सत और असत के विवेक से हीन हैं। जैसे जो मन में आवे वही बकने वाले और मनमाना कार्य करने वाले किसी की रक्षा करने में समर्थ नहीं होते, वैसे ही ये वादी हैं। ये स्वयं अज्ञानी हैं और दूसरों को भी मूढ बनाते हैं। यदि ये स्वयं अज्ञानी हैं तो दूसरों को कैसे उपदेश करते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देते हैं-वे पण्डितमानी हैं अर्थात ऐसा समझते हैं कि हम समस्त વાદીઓ, તજજીવતછરીર વાદીઓ, કર્નાવાદીઓ અને ગોશાલકના અનુયાયીઓ (બૈરાશિકો, આદિ સઘળા મતવાદીઓ રાગદ્વેષ આદિ વડે, શબ્દાદિ વિષયે વડે, અને મહામહ જાનિત અજ્ઞાન વડે પરાજિત છે. તેઓ મિથ્થા ઉપદેશ આપ્યા કરે છે. તેઓ કોઈને પણ શરણ આપવાને સમર્થ નથી. કોઈને પાપમાંથી બચાવવાને સમર્થ નથી. તેઓ શા કારણે બીજાને ઉદ્ધાર કરવાને સમર્થ નથી? તેનું કારણ પ્રકટ કરતા સૂત્રકાર કહે છે કે તેઓ સત્ અને અસના વિવેકથી વિહીન છે. મન ફાવે તેમ તેઓ બકવા ટકરનારા અને મન ફાવે તેવું વર્તન રાખનારા તે અન્યતીથિકે કોઈની રક્ષા કરવાને સમર્થ હોતા નથી. તેઓ પિતે જ અજ્ઞાની છે. અને અન્યને પણ મૂઢ કરનાર છે. જે તેઓ પિતે જ અજ્ઞાની છે, તે બીજાને ઉપદેશ કેવી રીતે આપી શકે છે? આ પ્રશ્નને જવાબ આ પ્રમાણે છે. તેઓ અજ્ઞાની હોવા છતાં પણ એવું માને છે કે અમે For Private And Personal Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०६ सूत्रकृताङ्गसके अपि ते वयं सर्वशास्त्रस्य विवेचनात्सर्वानेव पदार्थान् जानीमः इत्येवमभिमानवन्तः अतः परानुपदिशन्ति । उपदेशं कुर्वाणाश्च स्वयं महामोहान्धकार प्राप्नुवन्ति, अन्यानपि प्रापयन्ति, पातयन्ति च तान् नरकादिदुर्गतौ । तेषां पण्डितमानिनाम् अज्ञानकार्यविरूपाचरणं दर्शयति सूत्रकारः "हिच्चा णं" इति 'हिचा' हित्वा परित्यज्य (पुव्वसंयोगं) पूर्वसंयोग मातापित्रादिसम्बन्धं परित्यज्याऽपि' वयं प्रप्रजिताः सर्वानेव त्यक्तवन्त इति कृत्वा संन्यासदीक्षामवाप्यापि पुनस्तत्रैव "सिया“ सिताः आरम्भसमारंभादौ पुनरपि संसक्ता भवन्ति । परिव्रज्या मादायापि पुनः परिग्रहारंभादावेवाऽऽसक्ता भवन्ति, न ततो विरज्यन्ते । शास्त्र का विवेचन करने के कारण सब पदार्थों के ज्ञाता हैं। इस प्रकार के अभिमान से युक्त होकर दूसरों को उपदेश देते हैं। उपदेश देते हुए ये स्वयं महा मोहान्धकार को प्राप्त होते हैं और दूसरों को भी उसी में ले जाते हैं: और नरक आदि दुर्गति में गिराते हैं। उन पण्डितम्मन्यों के अज्ञानजनित विरूप आचरण को सूत्रकार दिखलाते हैं-माता पिता आदि संबंधी पूर्वसंयोग को त्याग करके भी 'हम दीक्षित हैं, हमने सबको त्याग दिया है। ऐसा समझ कर संन्यास दीक्षा प्राप्त करके फिर भी उसी आरंभ समारंभ मे आसक्त हो जाते हैं दीक्षा ग्रहण करके भी फिर परिग्रह एवं आरंभ में आसक्त रहते हैं उससे विरक्त नहीं होते हैं। __अथवा 'सिया' यहाँ षष्ठी के अर्थ में प्रथमा विभक्ति है। इसका अर्थ यह हुआ कि आरंभ समारंभ आदि में आसक्त गृहस्थों के कृत्यो का उपदेश करते हैं अर्थात् पकाना, पकपाना, कटना, पीसना आदि गृहस्थ के सावध સમસ્ત શાસ્ત્રોનું વિવેચન કરી શકીએ છીએ, તે કારણે અમે સમરત શાસ્ત્રોના જ્ઞાતા છીએ. આ પ્રકારના અભિમાનથી યુક્ત થઈને તેઓ લોકોને ઉપદેશ આપવાની ધૃષ્ટતા કરે છે. ઉપદેશ દેતા એવા તે મતવાદીએ પોતે મહા મેહાન્ધકારમાં ડૂબેલા રહે છે. અને. બીજાને પણ તે મહાન્ધકારમાં જ લઈ જાય છે અને નરકાદિ દુર્ગતિમાં પાડે છે. પિતાની જાતને પંડિત માનતા તે મતવાદીઓના અજ્ઞાન જનિત વિરૂપ આચરણનું સૂત્રકાર કથન કરે છે. માતા પિતા આદિ વિષયક પૂર્વસંગને (સંસારી સંબંધને) ત્યાગ કરીને. “અમે દીક્ષિત છીએ, અમે સર્વ સંબંધને તેડી નાખ્યા છે. એવું બતાવવાને માટે દીક્ષા ગ્રહણ કરીને પણ તેઓ સંસારી જેવાં જ આરંભ સમારંભમાં આસકત રહે છે. સંન્યાસી બનવા છતાં પણ તેઓ પરિગ્રહ અને આરંભને ત્યાગ કરતા નથી. — अथवा "सिया” मा ५४ मा ७४ी विमतना अर्थ पडती विमतिमा प्रयुत થયું છે તેને અર્થ એ થાય છે કે તેઓ આરંભ સમારંભ આદિમાં આસકત ગૃહ For Private And Personal Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. . अ. १ उ. ४ पूर्वोक्तवादिनामशरण्यत्वम् ४५० अथवा (सिया) इत्यत्र षष्ठ्यर्थे प्रथमा, तेन सितानाम् आरम्भ-समारम्भादावासक्तानां गृहस्थपुरुषाणां 'किच्चोवदेसगा' कृत्योपदेशकाः गृहस्थानां यानि कृत्यानि कार्याणि आरम्भसमारम्भादीनि, तेषामुपदेशका उपदेष्टारो भवन्ति । गृहस्थकर्तव्यं तु पचनपाचनकण्डनपेषणादिकः सावद्यव्यापारविशेषः, तमेवोपदिशन्ति, यद्वा कृत्यं कर्त्तव्यं सावधानुष्ठानं, तदेव प्रधानं येषां ते कृत्याः गृहस्थाः। तेषामुपदेश: आरम्भसमारम्भादिसावद्यकार्य स विद्यते येषां ते कृत्योपदेशकाः गृहस्थसदृशं कार्यकारकाः इत्यर्थः ते स्वयं संन्यासिनो भूत्वाऽमि आचरणैगृहस्थेभ्यो न विलक्षणा भवन्ति । यथा गृहस्थाः सर्वाण्येव आरम्भ समारम्भादीनि कुर्वन्ति, तथा इमेऽपि प्रबजिताः कुर्वन्त्येव आरम्भसमारम्भादीनि कार्याणीति ॥१॥ एवं भूतेषु परतीर्थिकेषु साधुमानिना किं कर्तव्यमित्युपदिशन्नाह-- "तं च भिक्खू" इत्यादि-- मलम्-- "तं च भिक्खू परिन्नाय बियं तेसु न मुच्छए । अणुक्कसे अप्पलीणे मञ्ण मुणि जावए ॥२॥ छाया-- तं च भिक्षुः परिज्ञाय विद्वांस्तेषु न मूर्च्छत् । अनुत्कर्षः अप्रलीनो मध्येन मुनिर्यापयेत् ॥२॥ कार्यों का उपदेश करते हैं , अथवा गृहस्थ के समान ही वे आरंभ आदि में सावध अनुष्ठान करते हैं। वे संन्यासी होते हुए भी आचरण से गृहस्थों से विलक्षण नहीं हैं। जैसे गृहस्थ सब आरंभ समारंभ आदि करते हैं, उसी प्रकार ये दीक्षित होकर भी आरंभ समारंभ आदि करते हैं ॥१॥ ના કને ઉપદેશ આપે છે. એટલે કે રાંધવાને, રંધાવવાને, દળવાને, દળાવવાને, ખાંડવાને આદિ સાવદ્ય કાર્યોને ઉપદેશ આપે છે. અથવા તેઓ પિતે જ ગૃહસ્થાના જેવાં જ સાવદ્ય અનુષ્ઠાનેનું સેવન કરે છે. આરીતે સંન્યાસીને વેષ ધારણ કરવા છતાં પણ તેમનું આચરણ સંસારીના (ગૃહસ્થના) જેવું જ હોય છે. જેવી રીતે ગૃહસ્થ આરંભ, સમારંભ આદિમાં પ્રવૃત્ત રહે છે. એ જ પ્રમાણે તેઓ દીક્ષિત હોવા છતાં પણ આરંભે સમારંભ આદિ કરે છે. જે ૧છે For Private And Personal Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र अन्वयार्थ-- (वियं भिक्खू ) विद्वान् भिक्षुः मेधावी साधुः (तंच) तंच परतीर्थिकवादम् । (परिन्नाय) परिज्ञाय=ज्ञपरिज्ञया हेयरूपेण ज्ञात्वा (तेसु) तेषु परतीथिंकवादेषु (न मुच्छए) मूछों न कुर्यात् आसक्तिं न कुर्यादित्यर्थः तर्हि किं कुर्यादित्याह (मुणि) मुनिः जिनप्रवचनरहस्यज्ञाता (अणुकसे) अनुत्कर्षः= . परतीर्थिक ऐसे हैं तो सच्चे मुनि को क्या करना चाहिये ? यह कहते हैं-"तं च भिक्खू ' इत्यादि। - शब्दार्थ--'वियं भिक्खू-विद्वान् भिक्षुः' मेधावी साधु 'तं च-तंच' उन अन्यतीथिंकों को परिभाय-परिज्ञाय' ज्ञ परिज्ञा से हेय रूप जानकर 'तेसु-तेषु' परतीर्थिकवादमें 'न मुच्छए-न मर्छन्' आसक्त न बने 'मुणिमुनिः' जिनप्रवचन रहस्य को जानने वाला 'अणुक्कसे-अनुत्कर्षः' किसी प्रकारका मद न करता हुआ 'अप्पलीणे-अप्रलीनः' पार्श्वस्थादिकोंके साथ सम्बन्ध न रखता हुआ 'मज्ज्ञेण-मध्येन' मध्यस्थ भावसे 'जावए-यापयेत्' संयम का वहन करे ॥२॥ अन्वयार्थ विद्वान् भिक्षु परतीर्थिकों के सिद्धान्त को ज्ञपरिज्ञा से हेय जानकर उसमें आसक्ति न करे, तो क्या करे ? जिनप्रवचन के रहस्य का ज्ञाता मुनि जाति પરતીથિકે જે આ પ્રકારના છે, તે સાચા મુનિ કેવા હોવા જોઈએ? આ પ્રશ્નને 6वे सूत्र।४।२ उत्तर मापे छ. 'त चभिक्खू त्यादि शहा -'वियं भिकख-विद्वान् भिक्षुः' भेधावी साधु 'तंच-नच' ते अन्य तीयिाने परिम्नान-परिक्षाय' । परिशाथी शीने 'तेसु-तेषु' ५२तीथि वाम 'म मुच्छए-न मुच्छेत् मासात न मने 'मुणि-मुनिः' । प्रक्यान त्याने नावावाणा 'भणुकसे-अनुत्कर्ष: प्रा२नु अभिमान न ४२ता 'अप्पलीणे असलीन' पावस्थ पोश्नी साथै समय न समता 'मझेण मध्येन' मध्यस्थ माथी 'जावए- या ग्येत्' સંયમ યાત્રાનું વહન કરે. રા વિદ્વાન સાધુએ પરતીથિ કોના સિદ્ધાન્તને જ્ઞપરિણા વડે હેય (ત્યાજ્ય) જાણીને તેમાં આસક્ત થવું જોઈએ નહીં. તેમણે જિનપ્રવચનના રહસ્યના જ્ઞાતા થવું જોઈએ, અને જાતિ, કુળ આદિના મદને પરિત્યાગ કરીને, તથા અન્યતીથિક, ગૃહસ્થ અને For Private And Personal Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. अ. १ उ. ४ पूर्वोक्तवादिनां प्रति विदुषां कतम् ४०९ उत्कर्षरहितः जात्यादिमदरहितः ( अप्पलीणे ) अप्रलीनः परतीर्थिकेषु गृहस्थ पार्श्वस्थादिषु वा सम्बन्धमकुर्वाणः सन् (मज्झेण) मध्येन मध्यस्थभावेन रागद्वेषराहित्येन (जावए) यापयेत् संयमयात्रां निर्वहेत् ॥२॥ टीका-- 'वियं' विद्वान् स्वसमयपरसमयज्ञाता 'भिक्खू' भिक्षुः निरवद्यभिक्षणशीलः साधुः (तंच) तंच-पूर्वोक्तं देवोसब्रह्मोप्तादिवादिमतं 'परिन्नाय' परिवाय ज्ञपरिक्षया हेयरूपतया सम्यगवगम्य-यथा इमे मिथ्यात्वमोहग्रस्ताः सदसद्विवेकविकलाः न स्वस्मै हिताय न वा परस्मै हिताय समर्था इत्येवं पर्यालोच्य 'तेसु' तेषु पूर्वोक्तवादिषु (न मुच्छए) न मूछेत् आदेयतया गृद्धिं न कुर्यात् तेष्वासक्ति न विदध्यादित्यर्थः । तर्हि किं कुर्यादित्याह-'मुणि' मुनिः मनना मुनिः जिनप्रवचनरहस्यज्ञानसम्पन्नः 'अणुक्कसे' अनुत्कर्षः अष्टसु मदस्थानेषु कमपि मदमकुर्वाणः 'अप्पलीणे, अप्रलीनः परतीथिकेषु गृहस्थेषु कुल आदि के मद से रहित होता हुआ, · अन्यतीर्थिकों, गृहस्थों और पावस्थों (शिथिलाचारियों) आदि का सम्बन्ध न रखता हुआ मध्यस्थभाव से अपनी संयमयात्रा का निर्वाह करे ॥२॥ -टीकार्थस्वसमय और परसमय का ज्ञाता तथा निरवद्य भिक्षा हण करने वाला साधु पूर्वकथित देवकृत या ब्रह्मकृत जगत् आदि मानने वालों को ज्ञपरिज्ञा से हेय जान कर अर्थात् ये मिथ्यात्व मोह से गुप्त और सत् असत् के विवेक से रहित हैं, ऐसा समझ कर उन्हे ग्राहय न समझें, उनमें आसक्ति न करें। तो फिर क्या करे ? जिनप्रवचन के रहस्य के ज्ञान से सम्पन्नमुनि, आठ मदस्थानों में से किसी भी मद को न धारण करता हुआ, परतीथिंकों, પાર્થ (શિથિલાચારીઓ) આદિની સાથે સંબંધ રાખે જોઈએ નહીં. તેમણે મધ્યસ્થ ભાવે પિતાની સંચમયાત્રાને નિર્વાહ કરવો જોઈએ. - 11 - સ્વસમય અને પરસમયના જ્ઞાતા તથા નિરવ (નિર્દેશ) ભિક્ષા ગ્રહણ કરનાર સાધુએ પૂર્વોકત દેવકૃત, બ્રહ્મકૃત આદિ જગત્ વિષયક માન્યતાઓનું પ્રતિપાદન કરનાર અન્યતીથિ કેને શપરિણા વડે જાણીને. એટલે કે તેઓ મિથ્યાત્વ મેહથી આવૃત્ત છે અને સત્ અસના વિવેકથી રહિત છે એવું સમજીને તેમની માન્યતાને અગ્રાહ્ય સમજીને તેમાં આસક્ત થવું જોઈએ નહીં. ત્યારે તેમણે શું કરવું જોઈએ? જિનપ્રવચનના રહસ્યના જાણકાર મુનિએ આઠ દસ્થાનમાંના કેઈ પણ મદસ્થાનનું સેવન કરવું જોઈએ નહીં. સુ. પર For Private And Personal Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१० सूत्रकृताङ्गसूत्र पार्श्वस्थादिषु वा संपर्करहितो भूत्वा मज्झेण मध्येन मध्यस्थभावेन रागद्वेषराहित्येनेत्यर्थः (जावए) यापयेत् संयमयात्रां निर्वहेत् । अयं भावः-सम्यग्रज्ञानवान् मुनिः स्वसमयं परसमयं च पर्यालोक्य परतीथिकादिभिः सह सम्बन्धमकुर्वन् अपगताहङ्कारो रागद्वेषरहितः स्वसंयमयात्रां निर्वहेदिति ॥२॥ ___कथं ते परतीथिकाः स्वात्मनां परेषां च त्राणाय वा शरणाय वा न भवन्ति, ये त्राणाय भवन्ति ते च कथंभूता इत्यत्राह-"सपरिग्गहा" इत्यादि। “सपरिंगहा य सारंभा, इह मेगेसि माहियं । अपरिग्गहा अणारम्भा भिक्खू ताणं परिवए ॥३॥ छाया-- "सपरिग्रहाश्च सारंभा इह एकेषामाख्यातम् । अपरिग्रहान् अनारंभान् भिक्षुत्राणं परिव्रजेत् ॥३॥ गृहस्थों और पार्श्वत्थ आदि के सम्पर्क से रहित होकर मध्यस्थभाव से अर्थात् रागद्वेष से रहित होकर संयमयात्रा का निर्वाह करे ॥२॥ परतीर्थिक अपने और दूसरों के लिए त्राण या शरण क्यों नहीं होते और जो त्राण या शरण होते हैं, वे कैसे होते हैं यह कहते है-" सपरिग्गहा " इत्यादि। शब्दार्थ-'सपरिग्गहा-सपहिग्रहाः' परिग्रह वाले 'य-च' और 'सारंभा सारम्भाः ' प्राणातिपातादि आरंभ करने वाले जीव, मोक्ष प्राप्त करते हैं यह 'इहं-इह' मोक्षके विषय में 'एगेसिं-एकेषां' कोई कोई दर्शनवादिकों का 'आहियं-आख्यतम्' कथन हैं 'भिक्खू-भिक्षुः' जिनाज्ञाराधक 'अपरिग्गहा તેણે પરતીર્થિક, ગૃહસ્થ અને પાર્ધ (શિથિલાચારીઓ)ના સંપર્કથી રહિત થઈને, મધ્યસ્થ ભાવે (રાગદ્વેષથી રહિત થઈને પિતાની સંયમયાત્રાને નિર્વાહ કરે જોઈએ. છે ગાથા રા હવે સૂત્રકાર એ વાતનું સ્પષ્ટીકરણ કરે છે કે પરતીથિકે શા કારણે અન્યને શરણ भावाने असम छ, भने त्रा (शर) सापना२ वा डाय छे. “सपरिग्गहा त्याह शहाथ-'सपरिग्गहा-सपरिग्रहाः' परियाणा 'य--च' अने 'सारभा-सारम्भा': પ્રાણાતિપાત વગેરે આરંભ કરવાવાળા જીવ, મોક્ષ પ્રાપ્ત કરે છે. આ “હંદુ’ મેક્ષના विषयमा 'पगेसिं-पकेषां निवानु 'आहिय-आख्यातम्' था। भिक्ख-- भिक्षुः न भगवान्नी आज्ञानु पासन ४२ना२ 'अपरिग्गहा-अपरिग्रहान्' परियडया For Private And Personal Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टोका प्र. श्रु अ. १ उ. ४ साधुजीवनयात्रानिर्वाहनिरूपणम् ४११ अन्वयार्थ-. (सपरिग्गहा) सपरिग्रहाः परिग्रहेण सहिताः परिग्रहवन्तइत्यर्थः। (य) च-पुनः (सारंभा) सारम्भाः प्राणातिपाताधारंभसहिता अपि जीवाः मोक्षं प्राप्नुवन्ति इति । (इहं) इह-अस्मिन् लोके विषये । ( एगेसि ) एकेषां केषांचिद्वादिनाम् आख्यातम् कथितं कथनं वर्तते किन्तु तन्न सम्यक् अतः (भिक्खू) भिक्षुः=जिनाज्ञाराधकः । (अपरिग्गहा) अपरिग्रहान्=परिग्रहरहितान् (अणारंभा) अनारम्भान् आरंभरहितान् पुरुषान् । (ताणं) त्राणं शरणम् (परिव्वए) परिबजेत् प्राप्नुयात् । टीका-- 'सपरिग्गहा' सपरिग्रहाः परिग्रहेण धनधान्यपश्वादिना सह वर्तन्ते इति सपरिग्रहाः । कदाचित् परिग्रहाऽभावेऽपि शरीरोपकरणे मूर्छावन्तः सपरिग्रहाः। अपरिग्रहान्' परिग्रह से रहित और 'अणारंभा-अनारम्भान्' आरम्भवर्जित पुरुष के 'ताण-त्राणम्' शरणमें 'परिव्वए-परिव्रजेत्' जावे ॥३॥ अन्वयार्थ परिग्रह से युक्त और प्राणातिपात आदि आरंभ से युक्त जीव भी मोक्ष प्राप्त करते हैं, ऐसा इस संसार में किन्हीं वादियों का कथन है । किन्तु यह कथन समीचीन नहीं है, अतः जिनाज्ञा का आराधक भिक्षु परिग्रह और आरंभ से रहित पुरुषों की शरण ग्रहण करे ॥३॥ -टीकाथजो धन धान्य और पशु आदि परिग्रह रखते हैं वे सपरिग्रह कहलाते हैं कदाचित् परिग्रह के अभावमें भी शरीर और उपकरणोंमें जो ममत्व धारण करते हैं वे भी सपरिग्रह ही हैं। जो पट्काय के उपमर्दन रूप आरंभ से युक्त हों, उन्हे सारंभ कहते हैं। जैसे हिंसादि करने वाले भी मोक्ष प्राप्त २डित भने 'अणार भो- अनारम्भान्' मा त पु३५ना 'ताण-प्राणम्' शरम 'परिव्वए-परिव्रजेत्' य. ॥3॥ -सूत्राथપરિગ્રહથી યુકત અને પ્રાણાતિપાત આદિ આરંભથી યુક્ત જીવ પણ મેક્ષ પ્રાપ્ત કરી શકે છે આ પ્રકારની માન્યતા કઈ કઈ અન્ય મતવાદીઓ ધરાવે છે, પરંતુ આ માન્યતા સાચી નથી, તેથી જિનાજ્ઞા આરાધક ભિક્ષુએ પરિગ્રહ અને આરંભથી રહિત હેય એવા પુરુષનું જ શરણ સ્વીકારવું જોઈએ. टीआय ધન, ધાન્ય, પશુ આદિને પરિગ્રહ રાખનારને સપરિગ્રહ કહે છે. કદાચ આ વસ્તુઓના પરિગ્રહને અભાવ હોય પરંતુ શરીર અને ઉપકરણમાં મમત્વભાવ હેય, For Private And Personal Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे (य) च तथा 'सारंभा' सारम्भाः आरम्भेण षट्कायजीवोपमर्दनरूपेण सह वर्तन्ते इति सारंभाः प्राणातिपातादिकारका अपि मोक्षं प्राप्नुवन्तीति तेषां कथनं विद्यते । ते इत्थं कथयन्ति-दुःखदायिना प्रव्रज्यादिना, शिरस्तुण्डमुण्डादिकया क्रियया च किम् ? (इहं) इह-अस्मिन् लोके (एगेसिं) एकेषां केषाश्चित् वादिमाम् (आहियं) आख्यातं-कथनम् किं, केवलगुरोः कृपयैव सारम्भादि मत्वेऽपि. मोक्षो भविष्यत्येवेत्येवं भाषमाणाः कथं कस्याऽपि संसारसागरात् त्राणाय शरगाय वा समर्था भवेयुः नैव कदापीति भावः । अतस्तान् प्रति स्व त्राणाय न. गच्छेत् । यदीमे न त्राणाय समर्था स्तदा कान् त्राणाय गच्छेदित्यत्राऽऽह -----...-- कर लेते हैं, ऐसा कोई कोई कहते है। उनका कथन यह है कि इस दुःख देने वाली दीक्षा से और मूंड मुडाना आदि क्रिया करने से क्या लाभ है ? आरंभ युक्त होने पर भी यदि गुरुकृपा प्राप्त हो जाय तो उसी से मोक्ष मिल जायगा ! ऐसा कहने वाले किस प्रकार संसारसागरसे किसी का त्राण कर सकते हैं ? कैसे किसी के लिए शरणभूत हो सकते हैं ? कदापि नही हो सकते । अतः अपने त्राण के लिए उनके समीप नहीं जाना चाहिए ___ यदि ये त्राण नहीं कर सकते तो त्राण पाने के लिए किसकी शरण लेना चाहिए ? इस प्रश्न का उत्तर देते हैं-जो परिग्रह से रहित हैं अर्थात् जो धर्मोपकरणों के सिवाय शरीर के उपभोग के लिए रंच मात्र भी परिग्रह તે એવા મમત્વભાવ યુકત પુરુષને પણ સપરિગ્રહ જ કહે છે જેઓ છકાયના જીની હત્યા કરવા રૂપ આરંભથી યુક્ત હોય છે, તેમને સારંભ કહે છે. એવા હિંસાદિ કરનારાઓ પણ મોક્ષ પ્રાપ્ત કરી શકે છે, એવું કઈ કઈ મતવાદીઓ કહે છે. તેઓ એવું પ્રતિપાદન કરે છે કે આ દુઃખદાયક દીક્ષા લેવાથી અને કેશલુંચન આદિ ક્રિયાઓ કરવાથી શ લાભ છે? આરંભયુક્ત જીવ પણ ગુરુકૃપાના પ્રભાવથી મોક્ષ પ્રાપ્ત કરી શકે છે.” આવું કહેનારા લેકે સંસારસાગર તરાવવાને સમર્થ હોતા નથી. તેમનું શરણ સ્વીકારનારને ઉદ્ધાર થઈ શકતું નથી તેથી મુમુક્ષુ છએ તેમનું શરણ સ્વીકારવું જોઈએ નહીં જે તેઓ શરણ આપવાને સમર્થ ન હૈય, તે કોનું શરણુ શોધવું? આ પ્રશ્નને ઉત્તર આપતા સૂત્રકાર કહે છે. જેઓ પરિગથી રહિત છે. એટલે કે જેઓ ધપકરણો સિવાયના શરીરના ઉપભેગા માટેને બિલકુલ પરિગ્રહ રાખતા નથી, તથા જેઓ આરંભથી ગ્રહિત છે એટલે કે જેઓ For Private And Personal Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु अ. १ उ. ४ साधुजीवनयात्रानिर्वाहनिरूपणम् ४१३ "अपरिग्गहा" इत्यादि । 'अपरिग्गहा' अपरिग्रहान् येषां धर्मोपकरणाऽतिरिक्तः शरीरोपभोगार्थ स्वल्पोऽपि परिग्नहो नास्ति तान् तथा 'अणारंभा' अनारम्भान् आरम्भरहितान् येषां सावद्यकर्मणि मनसोऽपि व्यापारो नास्ति, किमुत कायिकवाचिकव्यापारसंभावना तान् इत्थंभूतान लघुकर्मणस्तीर्थकरगणधरान् भावितात्मानगारान् वा 'भिक्खू ' भिक्षुः मुनिः 'ताणं' वाणं शरणम् 'परिव्वए' परिव्रजेत् स्वात्मनः संसारसागरादुद्धाराय गच्छेत् । एतान् संप्राप्य मुक्ति प्राप्नुयादिति भावः ॥३॥ __आरम्भं परिग्नदं च वर्जयित्वा साधुः कथं जीवनयात्रां निर्वहेदिति दर्शयति--"कडेसु" इत्यादि । मूलम्-- “कडेसु घोसमेसेजा, विऊ दत्तेसणं चरे । अगिद्धो विष्पमुक्को य ओमाणं परिवज्जए ॥४॥ छाया-- "कृतेषु ग्रासमेषयेत् विद्वान् दत्तैषणां चरेत् । अगृद्धो विप्रमुक्तश्च अपमानं परित्यजेत् ॥४॥ नहीं रखते तथा जो आरंभ से रहित है अर्थात् जो मन से भी सावध कार्य नहीं करते हैं-वचन और काय से सावध व्यापार की बात ही दूर रही ऐसे लघुकर्म तीर्थकर गणधर और भावितात्मा अनगारों की भिक्षु शरण ग्रहण करे। संसारसागर से अपनी आत्मा का उद्धार करने के लिए उन्हीं की शरण में जाना चाहिए। उनकी शरण में जाने से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है ॥३॥ आरंभ और परिग्रह का त्याग करके साधु किस प्रकार जीवन निर्वाह कर सकता है ? यह दिखलाते हैं-" कडेसु" इत्यादि। મન, વચન અને કયા દ્વારા સાવધ કૃત્ય કરતા નથી, એવા લઘુકમ તીર્થકર, ગણધર અને ભાવિતાત્મા અણગારોનું શરણ ભિક્ષુએ લેવું જોઈએ સંસારસાગરને તરી જવાની અભિલાષાવાળા ભિક્ષુએ તેમનું જ શરણ સ્વીકારવું જોઈએ તેમના શરણે જવાથી જ મુક્તિની પ્રાપ્તિ થાય છે. ૩ આરભ અને પરિગ્રહને ત્યાગ કરીને, સાધુ કેવી રીતે જીવનનિર્વાહ કરી શકે છે? मा प्रश्नको उत्तर भापता सूत्र॥२ ४ छ - "कडेसु" त्या: For Private And Personal Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१४ सूत्रकृताङ्गसूते अन्वयार्थः“विऊ" विद्वान् सम्यग ज्ञानवान् मुनिः 'कडेसु कृतेषु अन्यैः संपादितेषु । 'घासं' ग्रास पिण्ड मिति यावत् । 'एसे जा' एषयेत् आवेषयेत् गृहस्थैः स्वः निमित्तं सम्पादिताहारस्यान्वेषणं कुर्यात् । तदपि नादत्तं किन्तु 'दत्तेसणं' दत्तैषणांक दीयमानाहारादिकस्यैषणाम् 'चरे' चरेत् अभिलषेत् । तत् कीदृशो भूत्वा चरे दित्याह='अगिद्धो' अमृद्धः शृद्धिभावरहितः। तथा-'विप्पमुक्को' विप्रमुक्तः, गगद्वेषपरिवर्जितः । 'य' च-तथा-'ओमाणं' अपमानम् , 'पविजए' परिवर्जयेत् । गृहस्थैरदत्तेऽल्पदत्ते वा स्वापमानं न विचारयेत् किन्तु समभावं भजेदिति भावः । शब्दार्थ--'विउ-विद्वान् विद्वान् पुरुष 'कडेसु-कृतेषु' दुसरे द्वारा संपादन किये हुए आहारमें से 'घासं-ग्रासम्' एक मास 'एसेज्जा-एषयेत' गवेषणा करे, दत्तेसणं-दत्तैषणां' दिये हुए आहार को लेने की 'चरे-चरेत्' इच्छा करे और 'अगिद्धो-अगृद्धः गृद्धि-आसक्ति रहित तथा 'विप्पमुक्को-विप्रमुक्तः' रागद्वेप वर्जित होकर 'य-च' एवं 'ओमाणं-अपमानम् ' दूसरे द्वारा किया गया अपने अपमान को 'परिव्वए-परिवर्जयेत् ' त्यागदे अर्थात् मानापमानों में समभाव रहे ॥४॥ अन्वयार्थसम्यग्ज्ञानवान् मुनि दूसरों के द्वारा बनाये हुए आहार की गवेषणा करे अर्थात् गृहस्थों ने अपने निज के लिए बनाये आहार का अन्वेषण करे। वह आहार भी अदत्त नही किन्तु उनके द्वारा प्रदत्त हो, उसी की अभिलापा करे । उसे भी किस प्रकार ग्रहण करे ? गृद्धि से रहित होकर . शाय'-'विउ-विद्वान् विद्वान् ५३५ 'कडेसु-कृतेषु' मा द्वारा पाउन ४२ मा २माथी घाल-ग्रासम्' मे श्रास 'पसेज्जा-एषयेत्' गवेषण। ४२ 'दत्तेसण दत्तषणां' हीधेस मारने वानी 'चरे-चरेत् । ४२ अने 'अगिध्धो--अगृद्धः द्वि-मासहित २डित तथा 'विषमुक्को-विप्रमुक्त:' रागद्वेषथीत ने 'य-च' अवम 'ओमाणअपमानम्' मी द्वारा ४२ पोताना अपमानने परिधए-परिवज येत्'-त्याजी અર્થાત્ માનાપમાનમાં સમભાવ રાખે. કા __ -सूत्राथ ગૃહએ પિતાને નિમિત્તે જ બનાવેલા આહારની સમ્યગ જ્ઞાનવાન સાધુએ વેષણ કરવી જોઈએ-સાધુને નિમિત્તે બનાવેલ આહાર ગ્રહણ કરે જોઈએ નહીં. સાધુએ અદત્ત આહારની અભિલાષા રાખવી નહીં પણ પ્રદત્ત આહાર પણ તેણે ગૃદ્ધિ તથા રાગશ્રેષથી રાહત થઈને ગ્રહણ કરવો જોઈએ કદાચ ગૃહસ્થ આહાર પ્રદાન ન કરે અથવા For Private And Personal Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बोधिनी टोका प्र. श्रु अ. १. उ. ४ उद्गमादिपोऽशदोषनिरूपणम् ४१५ टीका 'विऊ' विद्वान्=चारित्रपालनैकरतो मुनिः 'कडेसु कृतेषु गृहस्थेन स्वार्थाय सम्पादितेषु चतुविधाहारादिषु 'घास' ग्रासं पिण्डम् 'एसेज्जा एपयेत्' षोडशोद्गम दोषपरिहारपूर्वकमाहारादिकं गृह्णीयादित्यर्थः ते च पोडशदोपा इसे मूलम् – आहाकम्मुद्देसिय, पूइकम्मे यमीसजाए य । ठवणा पाहुडिया य, पाओयरकी पामिच्चे || १ || परियहिए अभिडे. उब्भिन्ने मालोहडेय | अच्छिज्जे अणिसि, अज्झोयरए य सोलसमे ||२|| छाया - आधाकर्म १ औद्देशिकम् २ पूतिकर्म ३ च मिश्रजात४ च । स्थापना ५ प्राभृतिका ६ च प्रादुष्करं७ क्रीतं प्रामित्यम् (अपमित्यम्) परिवर्तितम् १० अभ्याहृतम् ११, उद्भिनं १२ मालापहृतम् १३ ॥ इति|| आच्छेद्यम् १४ अनिसृष्टम् १५ अध्यवपूरकं १६ च पोडशः ॥ २॥ तथा रागद्वेष से रहित होकर ग्रहण करे। और गृहस्थ यदि न देवे अथवा थोडा देवे तो अपना अपमान न जाने किन्तु समभाव धारण करे ||४|| - टीकार्थ चारित्र का पालन करनेमें अनन्य रति वाला मुनि ऐसे ही आहार की गवेषणा करे जो गृहस्थों ने अपने स्वयं के लिए बनाया हो । अर्थात् उद्गम के सोलह दोष यह हैं ( १ ) आधाकर्म ( २ ) औदेशिक ( ३ ) पूतिकर्म (४) मिश्रजात ( ५ ) स्थापना ( ६ ) प्राभृतिका (७) प्रादुष्कर (८) क्रीत (९) प्रामित्य (१०) परिवर्तित (११) अभ्याहृत (१२) उद्भिन्न (१३) मालापहृत . આ આહર વહેારાવે, તે પણ સાધુએ અપમાન માનવુ. જેઇએ નહીં, પરન્તુ सभलाव धारा वो हमे ॥४॥ ચારિત્રનુ પાલન કરવામાં તત્પર મુનિએ ઉદ્ગમ આદિ દોષોથી રહિત આહારની ગવેષણા કરવી જોઇએ ગૃહસ્થાએ સાધુને નિમિત્તે નહીં પણ પેાતાને જ નિમિત્તે બનાવેલા આહાર ગ્રહણ કરવા જોઇએ ઉદ્ગમના નીચે પ્રમાણે ૧૬ દોષો કહ્યા છે- (१) आधाम', (२) भद्देशित, ( 3 ) पूतिम्भ, (४) भिश्रन्नत, (५) स्थापना, (९) ' आकृति), (७) आदुष्पुर, (८) डीत, (८) प्रामित्य, (१०) परिवर्तित (११) अल्याहृत, For Private And Personal Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गो तत्र-आधाकर्म-आधया-साधु प्रणिधानेन यत्कर्म तद् आधाकर्म, साधुप्रणिधानमाश्रित्य यत् क्रियते, तद् आधाकर्मोच्यते १। औद्देशिकम्साधुमुद्दिश्य यत्कृतं तत् २। पूतिकृतम् आधाकर्माद्याहारस्य सिक्थेन मिश्रितं पूतिकर्मोच्यते एतादृशमाहारो यदि सहस्रगृहान्तरितोऽपि दीयते तदा एतद्दोषदुष्टोच्यते ३। मिश्रजातम्-साधुगृहस्थं चेति द्वयं मिश्रतयोद्दिश्य यत्कृतं तत् ४। स्थापना-यत् साधुनिमित्तं स्थापितं तत् ५। प्राभृतिका-साधुनिमित्तं प्राघूर्णकान् पूर्व पश्चात् कृत्वा यत् क्रियते तत् । प्राभृतमेव (१४) आच्छेद्य (१५) अनिसृष्ट और (१६) (१६) अध्यवपूरक । इनका अर्थ इस प्रकार है(१) आधाकर्म-साधु के निमित्त से छ काय का आरंभ करके पकाया आहार आधाकर्मी हैं। (२) औद्देशिक-किसी एक साधु के उद्देश्य से जो बनाया गया हो। (३) पूतिकर्म-जिस आहार आदि में आधाकर्म का थोडा सा भाग एक सीथ भी मिला हो उस आहारको यदि हजार घरका अंतर देकर भी साधुको देनेमें आवेतो भी पूतिकर्म दोषयुक्त कहा जाता हैं। (४) मिश्रजात-जो आहार साधु और गृहस्थ दोनों के लिए बनाया गया हो । (५) स्थापना-जो अमुक साधु को ढुंगा ऐसा विचार कर रख छोडा हो (६) प्राभृतिका–साधु के निमित्त से मेहमानों को आगे पीछे करके (१२) मिन्न,(१3) भातात, (४) मा छेध, (१५) मानिसट, मने (१६) अध्यक्ष२४. આ પદેને અર્થ નીચે પ્રમાણે છે. (१) माघाभ-2 माहार साधुने निभित्ते, ७४यना योनी २ (७५मईन) કરીને બનાવવામાં આવ્યા હોય, એવા આહારને આધાકમિ કહે છે. (૨) દેશિક- કેઈએક સાધુને નિમિત્તે જ બનાવેલા આહારને ઔદેશિક કહેવાય છે. (૩) પૂતિકર્મ જે શુદ્ધ આહારમાં આધાકર્મ આદિ દેયુક્ત આહારને એક કણ પણું રહેલું હોય છે, તે આહારને જે એક હજાર ઘરનું અંતર આપીને સાધુને વહોરાવવામાં આવે તે પણ તે આહાર આદિ પૂતિકર્મ દોષયુક્ત આહાર કહે છે. (४) भिनत-2 माडार साधु मने स्थ, मन्नेने निमित्त मनाव्य लोय, તેને મિશ્રિજાત આહાર કહે છે. (૫) સ્થાપના- અમુક સાધુને હરાવવા માટે જે આહારને અલગ મૂકી રાખે હેય, તેને સ્થાપને દોષયુક્ત આહાર કહે છે. (૬) પ્રાભૂતિકા- સાધુને માટે મહેમાનને આઘા પાછા કરીને કરવામાં આવે તે For Private And Personal Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनो टीका प्र. श्रु. अ. १ उ.४ उद्गमादिषोडशदोषनिरूपणम् ४१७ प्राभृतिका तदुक्तमन्तरेण या दीयमाना भिक्षा सा प्राभृतिकोच्यते ६ । प्रादुष्करम्--अन्धकारे प्रकाशं कृत्वा यद्दीयते तत् ७ । क्रीतम्-साधुनिमित्तं मूल्येन गृहीत्वा यदीयते तत् ८ । प्रामित्यम्--साध्वर्थमन्यसकाशात् 'भूयोऽपि, तुभ्यं दास्यामीति कृत्वा यदुच्छिन्नमानीयते तत् ९ । परिवर्तनम्-साधुनिमित्तं परिवर्त्य अन्य वस्तुस्थाने अन्यद्वस्तुदत्वा यदानीयते तत् १० । अभ्याहृतम्स्वगृहात् परगृहाद्वा आनीय साधु-संमुखे गत्वा यद्दीयते तत् ११ । उद्भिन्नम्गोमयादिना--मुद्रितं भाजनमुद्भिध यदीयते तत् १२। मालापहृतम्-माले-गृतैयार किया जाय । प्राभूत को ही प्राभृतिका कहते हैं। उसके भोजन किये विना दी जाने वाली भिक्षा प्राभृतिका कहलाती है। (७) प्रादुष्कर-अँधेरे में उजेला करके दी जाने वाली भिक्षा । (८) क्रीत–साधु के निमित्त खरीद कर दी जाने वाली भिक्षा । (९) प्रामित्य-साधु के निमित्त वापिस लौटाने के वायदे पर उधार ली हुइ भिक्षा। (१०) परिवर्तित-साधु के अदल बदल करके एक के बदले दूसरी वस्तु देकर लाई हुई भिक्षा। (११) अभ्याहृत-अपने या पराये घरसे लाकर और साधु के सन्मुख जाकर जो दी जाय। (१२) उद्मिन्न-गोबर आदि से मुद्रित [छाबे हुए पात्र को उघाड कर दिया जाने वाला आहार आदि । પ્રાકૃતિક આહાર દેષ કહે છે. તે પ્રાકૃતને પ્રાભૂતિકા પણ કહે છે. (૭) પ્રાદુષ્કર- અંધકારવાળી જગ્યામાં અજવાળું કરીને જે આહાર વહેરાવવામાં આવે છે, તેને પ્રાદુક્કર દોષયુક્ત આહાર કહે છે. (૮) કીત-સાધુને નિમિત્તે ખરીદ કરીને સાધુને પ્રદાન કરાતી ભિક્ષાને ક્રીદોષયુક્ત કહે છે (૯) પ્રામિત્ય-પાછી આપવાનો વાયદો કરીને બીજાની પાસેથી સાધુને નિમિત્તે લાવવામાં આવેલી વસ્તુ પ્રામિત્યદેવયુક્ત ગણાય છે. (૧૦) પરિવર્તિત-પોતાને ઘેરથી કઈ વસ્તુ અન્યને આપીને તેના બદલામાં સાધુ નિમિત્તે કઈ વસ્તુ લેવામાં આવે, તે તેને પરિવર્તિત દોષયુક્ત ગણાય છે. (૧૧) અભ્યાહત-પિતાને ઘેરથી કે પારકા ઘેરથી લાવીને જે વસ્તુ (ભિક્ષા) સાધુને પ્રદાન કરાય છે, તેને અભ્યાહુત દેષયુક્ત ગણાય છે. (૧૨) ઉદુભિન્ન-ગાર, માટી આદિથી આચ્છાદિત પાત્ર ઉપરથી તે આચ્છાદન ખૂલ્યું કરી નાખીને તેમાંથી જે ભિક્ષા સાધુને વહેરાવાય, તેને ઉભિન્ન દેષયુક્ત કહેવાય છે. સુ. ૫૩ For Private And Personal Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे होपरितले स्थितं वस्तु निश्रेण्यादिकसंस्थापनेन तत उत्तार्य यहीयते तत् १३ । आच्छेद्यम्-अनिच्छतोऽपि निर्बलादेः सकाशात् साधुदानाय यद्गृह्यते तत् १४ । अनिसृष्टम्--अनेकस्वामिकवस्तु अन्याननाच्छ्य तेष्वेकेन केनचिद् यद्दीयते तत् १५। अध्यवपूरकम्--चुल्हिकाधुपरिस्थापितेऽधिश्रयणे साध्यागमनाय साधुनिमित्तमधिकं पूरयित्वा निष्पादितं यद्दीयते तत् १६ । एषषोडशोदोषः ॥२॥ पुनश्च विद्वान् संयमीमुनिः 'दत्तैसणं' दत्तेषणां दत्तेषु गृहस्थैर्दीयमानेषु दौत्यधात्र्याधुत्पादनादोषयनितेषु आहारादिषु एषणां ग्रहणैषणां 'चरे' चरेतअनुतिष्ठेत् । यत उद्गमदोषरहितो मूलतः शुद्धोऽप्याहारादिदौंत्यधाच्यादि(१३) मालापहृत-घर के ऊपरी मंजिल पर रक्खी वस्तु को नसैनी आदि लगाकर और वहाँ से उतारकर दी जाने वाली। (१४) आच्छेध-निर्बल आदि से छीनकर जो भिक्षा दी जाय । (१५) अनिसृष्ट-जिस वस्तु के अनेक स्वामी हो वह दूसरों से पूछे विना किसी एक के द्वारा दी जाय तो अनिसृष्ट कहलाती है। (१६) अध्यवपूरक-चूल्हे के ऊपर कोई वस्तु रक्खी हो, और साधु के निमित्त उसमें कुछ अधिक डालकर तैयार किया हुआ आहार। यह सोलहवाँ दोष हैं। इसके अतिरिक्त संयमी मुनि गृहस्थों के द्वारा दिये जाने वाले तथा धात्री दौत्य आदि उत्पादना दोषों से रहित आहार आदि में ही ग्रहण एपणा करे। क्योंकि उद्गम दोषों से रहित आहार आदि भी धात्री आदि उत्पादना दोषों से और शंकित प्रक्षित आदि दस ग्रहणैषणा के दोषों से (૧૩) માલાપાડુત ઘરના ઉપલા માળે રાખેલી વસ્તુને નિસરણી આદિ મૂકીને ત્યાંથી ઉતારીને સાધુને આપવામાં આવે, તે સાધુને માલાપહૃત દોષ લાગે છે, (૧૪) આછેદ્ય-નબળા પાસેથી ખૂંચવી લઈને સાધુને પ્રદાન કરવાથી, લેનાર સાધુને આદ્ય દેષ લાગે છે. (૧૫) અનિષ્ટ-જે વસ્તુના અનેક સ્વામી હેય, એવી વસ્તુ દરેક સ્વામીની અનુમતિ વિના પ્રદાન કરવાથી અનિષ્ટ ગણાય છે. એવી વસ્તુ ગ્રહણ કરનાર સાધુને અનિસૃષ્ટ ગ્રહણ કરવાને દોષ લાગે છે. (૧૬) અધ્યવપૂરક-કઈ વસ્તુ ચૂલે ચડાવેલી હોય, તેમાં સાધુને નિમિત્ત ડી વધારે વસ્તુ નાખીને તૈયાર કરાયેલા ભેજનને અધ્યપૂરક કહે છે. આ ૧૬ ઉગેમ દો કહ્યા છે. આ દોષ ગૃહસ્થ સાધુ ને લગાડે છે. આ દેથી યુક્ત આહાર સાધુએ ગ્રહણ કરે જોઈએ નહીં. વળી ઘાત્રી, દત્ય આદિ ૧૬ ઉત્પાદન દોથી રહિત આહારની જ સંયમી અતિએ ગષણા કરવી જોઈએ. કારણ કે ઉઝમ દેથી રહિત આહારાદિ પણ ધાત્રી For Private And Personal Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. षोडशोत्पादनादिदोषनिरूपणम् ४१९ षोड सोत्पादनादोषः शङ्कितम्रक्षितादिदशग्रहणेषमादोषैश्च दुष्टो भवितुमहस्यतोऽत्र दत्तैषणापदेन तद्दोषशुद्धिः प्रदर्शिता। ते च षोडशोत्पादनादोषा इमे----"धाई १ दुइ २ निमित्ते ३ आजीव ४ वणीमगे ५ तिगिच्छा ६ य कोहे७ माणे८ माया९, लोभे१० य हवंति दस एए ॥१॥ "पुब्बि पच्छा संथव ११ विजा १२ मंते १३ चुण्ण१४ जोगे१५ य । उप्पायणाइदोसा, सोलसमे मूलकम्मे१६ य ॥२॥ छाया-- धात्री (धात्रीकर्म) १, दूती (दृतीकर्म) २, निमित्तं ३, आजीवः ४ वनीपकः ५, चिकित्सा ६ च, क्रोधः७, मानः८, माया९, लोभश्व१० भवन्ति दश-एते ॥१॥ पूर्व पश्चात्संस्तवः११ विद्या१२ मन्त्र१३ थ चूर्ण १४ योग१५ श्च । उत्पादनादि दोषाः, षोडशं मूलकर्म १६ च ॥५॥ तत्र-धात्रीकर्म--आहारादि ग्रहणार्थ क्षीर-मज्जन-मण्डन-क्रीडनो-सङ्ग धात्रीति पञ्चविधधात्रीविषयककार्यकारणं धात्रीकर्मोच्यते १। दूतीकर्म-- दूषित हो जाता है। अतएव यहाँ ' दत्तैषणा पद से उन दोषों की भी शुद्धि प्रदर्शित की गई है। उत्पादना के वे सोलह दोष ये हैं (१) धात्री (२) दूती (३) निमित्त (४) आजीव (५) वनीपक (६) चिकित्सा (७) क्रोध (८) मान (९) माया (१०) लोभ (११) पूर्वपश्चासंस्तव (१२) बिद्या (१३) मंत्र (१४) चूर्ण (१५) योग और (१६) मूलकर्म, यह उत्पादना के दोष हैं। इनका स्वरूप इस प्रकार है (१) धात्री-कर्मधाएँ पाँच प्रकार की होती है-ध पिलाने वाली, नहलानेवाली, श्रृंगार करने वाली, खेलाने वाली और गोदी में लेने बाली इन धायों में से किसी का कार्य करके आहार आदि प्राप्त करना । આદિ ઉત્પાદન થી અને શક્તિ મિશ્રિત આદિ દસ ગ્રહÚષણના દેથી દૂષિત થઈ જાય છે. તેથી અહીં દત્તકણા પદ દ્વારા તે દોષની શુદ્ધિ પણ પ્રદર્શિત કરવામાં આવી છે સાધુના પિતાનાથી લગાડવામાં આવતા ઉત્પાદનના તે ૧૬ દે નીચે પ્રમાણે છે (१) यात्री, (२) इता, (3) निमित्त, (४) माप, (५) बनी५४, (6) विल्सिा , (७) आध, (८) मान, माया, (१०) बोस, ११) पूर्व पश्चात संस्तव, (१२)विधा, (१३) मंत्र, (१४) यूप, (૧૫) વેગ અને (૧૬) મૂલકર્મ હવે તે ૧૬ ઉત્પાદના દોનું સ્વરૂપ પ્રકટ કરવામાં આવે છે. (૧) ધાત્રી- ધાત્રી પાંચ પ્રકારની હોય છે. દૂધ પિવરાવનારી, સ્નાન કરાવનારી, શણગાર કરનારી, રમાડનારી અને ખોળામાં લેનારી. આ ધાત્રીઓમાંથી કોઈ પણ ધાત્રીનું કામ કરીને આહારાદિ પ્રાપ્ત કરવાથી ધાત્રિદોષ લાગે છે.' For Private And Personal Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२० सूत्रकृताङ्गसूत्रो दुती-परस्परसन्देशवाहिका तस्याः कर्म-आहाराद्यर्थ तद्नामेऽन्यग्रमे वा गृहस्थादेः सन्देशकथनम् २ । निमित्तम् आहाराद्यर्थ भौमान्तरिक्षाघष्टविधनिमित्त कथनम् ३ । आजीवः-आजीविका-आहाराद्यर्थ जातिकुलादिप्रदर्शनम् ४ । वनीपकः-आहाराद्यर्थ गृहस्थदानप्रशंसां कृत्वा स्ववनीपकत्वप्रदर्शनम् यद्वा-अन्यरङ्कभिक्षुवद् याचनम् ५ । चिकित्सा-रोगप्रतीकारः, आहाराद्यर्थ रुग्णगृहस्थानामौषधादिप्रदानम् ६। क्रोधः-आहाराद्यर्थ क्रोधपूर्व शापादिदानम् ७ । मानः . (२) दुतीकर्म-दुती का अर्थात् एक का संदेश दूसरे को पहुँचानेका काम करके आहारादि प्राप्त करना अर्थात् आहारादि प्राप्त करने के लिए उसी या अन्यग्राम में गृहस्थ आदिका संदेश कहना।। (३) निमित्त-आहारादि के निमित्त संबंधी या आकाशसंबंधी आठ प्रकार के निमित्त कहना। (४) आजीव-(आजीविका) जाति कुल आदि प्रकट करके भिक्षा प्रहण करना। (५) वनीपक-आहारादि प्राप्त करने के लिए गृहस्थ के दानकी प्रशंसा करके अपनी वनीपकता [मंगनापन] दिखलानी अथवा दूसरे दरिद्र भिखारी की तरह मांगना, (६) चिकित्सा-आहार आदि के लिए रोगी गृहस्थों को औषध आदि देना। (७) क्रोध- आहारादि के लिए क्रोध करके शाप आदि देना । | (૨) કતિકર્મ–એકને સંદેશે બીજા ને પહોંચાડે તેનું નામ દૂતિકર્મ છે. એટલે કે આહારાદિ પ્રાપ્ત કરવા માટે ગામમાં જ અથવા પરગામ ગૃહસ્થાદિને સંદેશ પહોંચાડે આમ કરવાથી દુતિક દેષ લાગે છે (૩) નિમિત્ત-આહાશદિ પ્રાપ્ત કરવા માટે ભૂમિ સંબંધી કે આકાશ સંબંધી આઠ પ્રકારનાં નિમિત્ત કહેવા. (४)-4080quelfqst) onld, gn in 42 ॐरीन मिL प्रय ४२वी. (પ) વનીક- આહારાદિ પ્રાપ્ત કરવાને માટે પિતાની વનપક્તા ભિક્ષા પ્રાપ્ત કરવાની ઈચ્છા) બતાવવી. અથવા કેઇ દદ્ધિ ભિખારીની જેમ માગવું. (૯) ચિકિત્સા- આહારાદિ પ્રાપ્ત કરવાની ઈચથી રેગી ગૃહસ્થને ઔષધ દેવું. -साहिन निमित्त । शनाय आपको For Private And Personal Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समयार्थबोधिनी टीका प्र. शु. अ. १ उ. ४ षोडशोत्पादनादिदोषनिरूपणम् ४२१ स्वोत्कर्षादिप्रदर्शनम् ८। माया-वेषादिपरिवर्तनेन परवञ्चनाकरणम् १ । लोभः-रसादिलोलुपता करणम् १० । पूर्वपश्चात्संस्तवः-भिक्षादानात्पूर्व पत्राद्वा गृहस्थस्य संस्तवनम् । ११ । विद्यारोहिणीप्रज्ञप्त्यादिप्रदर्शनम् १२ । मन्त्र:-- पुरुषदेवताधिष्ठितवाग्मात्रसिद्धः, तत्प्रदर्शनम् १३। चूर्णः-वशीकरणसौभाग्यदौर्भारयादिकारकः बाह्योपयोगी वा, तत्प्रदर्शनम् १४। योगः-अन्तर्धानादिनिमितमनेकवस्तूनां समिश्रणरूपः यद्वा-अन्तरुपयोगी योगः तत्प्रदर्शनम् १५ । (८) मान अपना बड़प्पन दिखलाना। (९) माया-वेष आदि बदलकर दूसरोंको धोखा देना । (१०) लोभ-रसलोलुपता प्रकट करना । (११) पूर्वपश्चात संस्तव-भिक्षा लेने से पहले अगर पीछे से गृहस्थ की प्रशंसा करना। (१२) विद्या-रोहिणीप्रज्ञप्ति आदि विद्या का प्रदर्शन करना । (१३) मंत्र पुरुषदेव जिसका अधिष्ठाता हो, और जो पाठ करने से ही सिद्ध हो जाय वह मंत्र कहलाता है। उस मत्र का प्रदर्शन करना । (१४) चूर्ण-वशीकरण सौभाग्य या दौर्भाग्य करने वाली या जो बाह्य उपयोग में आवे वह चूर्ण कहलाता है। उसका प्रदर्शन करना (१५) योग-अन्तर्धान (अदृश्य गायब होने ) आदि के लिए अनेक वस्तुओं का संमिश्रणरूप योग होता है । या जो आन्तरिक उपयोग में आवे वह योग कहलाता है। उसका प्रदर्शन करना । (८) भान-पोतार्नु महत्व मता: (e) भाया-५ मा मलीन मीलने गवा. (१०) सोल-रसोलुपता ५४८ ४२वी. (૧૧) પૂર્વપશ્ચાત્ સંસ્તવ-ભિક્ષા લેતા પહેલાં અથવા પછીથી ગૃહસ્થની પ્રશંસા કરવી. (१२) विधा-used प्रति माह विधानु प्रहशन खु. (૧૩) મંત્ર-પુરુષ દેવ જેને અધિષ્ઠાતા હોય અને જે પાઠ કરવા માત્રથી જ સિદ્ધ થઈ જાય તેનું નામ મંત્ર છે. એવા મંત્રનું પ્રદર્શન કરીને ભિક્ષા પ્રાપ્ત કરવાથી સાધુને દેષ લાગે છે. (૧૪) ચૂર્ણ–આહાર પ્રાપ્તિની ઈચછાથી વશીકરણ, સૌભાગ્ય અથવા દુર્ભાગ્ય કરનારૂં બાહ્ય ઉપગમાં આવે એવું ચૂર્ણ (ભૂકો) આપવી તેનું નામ ચૂર્ણદેણ છે. (૧૫) ગ-અંતર્ધાન (અદશ્ય થવું તે) આદિને નિમિત્તે અનેક વસ્તુઓનાં સંમિશ્રણ રૂપ વેગ હોય છે. અથવા જે આન્તરિક ઉપગમાં આવે, તેને વેગ કહે છે. તે યુગનું પ્રદર્શન કરીને ભિક્ષાદિ પ્રાપ્ત કરવાથી દોષ લાગે છે. For Private And Personal Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतसूत्रे मूलकर्म--मूलमिव मूलं--भबवृक्षमूलकारणं सावधक्रियारूपम्, गर्भस्तम्भन-गर्भाधान-गर्भपात-गर्भशातन--गर्भवर्धनरूपम् तत्प्रदर्शनम् । दशग्रहणैषणादोषाश्चेत्थम् "संकिय१--मक्खिय२ निक्खित्तं३ पिहिय४ साहारिय५ दायगुदम्मीसे७ अपरिणत८ लित्त९ छड्डिय२०, एसणदोसा दस हवंति ॥१॥ छायाशङ्कितम् १ भ्रक्षितम् निक्षिप्तम्३ पिहितं४ संहृतम्५ दायकम्६ उन्मिश्रम्७ अपरिणतम्८ लिमम्९ छर्दितम् १० एषणादोषा दश भवन्ति ॥१॥ तत्र---शङ्कितम्-आषाकर्मादिदोषसम्भावनम् १ । म्रक्षितम्-- सचित पृथिवीजलादिना देयवस्तु यस्मिन् देयं वस्तु विद्यते तत्पात्रं, दातुर्हस्तादिवाऽवगुण्ठितं भवेत्तदा म्रक्षितं कथ्यते २ । निक्षिप्तम्-सचित्तोपरिदेयवस्तुनःस्थापनम् , (१६) मूलकर्म-जो संसार वृक्षके मूलके समान हो, ऐसे गर्भस्तम्भन, गर्भाधान, गर्भपात, गर्भशातन, गर्भवर्धनरूप पापव्यापार को मूलकर्म कहते हैं उसका प्रदर्शन करना । अर्थात् मूलकर्म करके भिक्षा प्राप्त करना। ___ ग्रहणैषणा के दस दोष इस प्रकार हैं (१) शंकित (२) म्रक्षित (३) निक्षिप्त (४) पिहित (५) संहृत (६) दायक (७) उन्मिश्र (८) अपरिणत (९) लिप्त और (१०) छर्दित । इनका स्वरूप इस प्रकार है-शंकित लेनेवाले देनेवाले दोनोंको जिस आहार में संदेह हो । (२) म्रक्षित-देववस्तु जिसमें देयवस्तू हो वह पात्र अथवा दाता का हाथ आदि सचित्त पृथ्वी या जल आदि से भरा हो । (३) निक्षिप्त-देयवस्तु किसी सचित्त वस्तु पर रक्खी हो अथवा सचित्तवस्तु (૧૬) મૂલકમ-ગર્ભસ્તંભન, ગર્ભાધાન, ગર્ભપાત, ગર્ભશાતન અને ગર્ભવઈન રૂપ સંસાર વૃક્ષના મૂળસમાન પ્રવૃત્તિને મૂળકર્મ કહે છે. આ મૂલકર્મનું પ્રદર્શન કરીને ભિક્ષા પ્રાપ્ત કરવાથી દેષ લાગે છે. अडोष-देवाना होषानीय प्रमाणे छ- (१) शत, (२) प्रक्षित, (3) निक्षित, (४) पिडित, (५) सहित, (6) हाय, (७) मिश्र, (८) मपरिणत, (६) सिH भने (१०) છર્દિત. તેમનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે. - (૧) શંતિ-જે આહાગ્ની નિર્દોષતા વિષે લેનાર દેનારને શંકા હોય, તે આહારને શક્તિ આહાર કહે છે.. (ર) પ્રક્ષિત-પ્રદાન કરવાની વસ્તુ, તે વસ્તુ ભરેલું પાત્ર અથવા દાતાના હાથ આદિ માટી અથવા જળ પાદિ વડે ખરડાયેલ હોય, તે તે વસ્તુ પ્રક્ષિત દોષયુક્ત ગણાય છે. (૩) નિક્ષિણ-દેય વસ્તુને કેઈ સચિત્ત વસ્તુ પર મૂકી હાય, અથવા સચિન વસ્તુને For Private And Personal Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. ४ शंकितादिदशदोषनिरूपणम् ४२३ अचित्त देयवस्तूपरि सचित्तस्य स्थापनम् अनन्तरपरम्परारूपेण-स्पर्शनं वा निक्षिप्त प्रोच्यते ३। पिहितम्-देयवस्तु सचित्तेन स्थगितम् ४। संहृतम्-सचित्तजला दिपात्रं रिक्तीकृत्य तस्मित् देयवस्तुनः स्थापनम् ५। दायकं-दायकदोषः-- अन्धः, कुष्ठी, पङ्गुः, ज्वरितः, बालः, ग्लानः, उन्मत्तः, इत्यादिरूपो दायको भवेत्तदा तस्य हस्ताद् भिक्षाग्रहणं दायकदोषदुष्टं भवति ६। उन्मिश्रम्-- अचित्तवस्तुनि अल्पस्य व्यञ्जनादेरधिककरणार्थम् उपरितः सचित्तजलादेमिश्रणम् ७ । अपरिगतम्-सचित्तस्याचित्तत्वेनापरिणमनम्-अप्रासुकीभूतमिति८ । लिप्तम्--गोमयादिना तत्काललिप्तस्थाने स्थितमशनादिकं लिप्तदोषदुष्टमुच्यते । देयवस्तु पर रक्खी हो या साक्षात् अथवा परम्परा से देयवस्तु का सचित्त के साथ स्पर्श हो । (४) पिहित-देयवस्तु सचित्त से ढंकी हो । (५) संहृत-सचित्त जल आदि से गीले पात्र को खालीकरके उसमें देय वस्तु रखना। (६) दायक-अन्धा, कोढी, लँगडा, ज्वरग्रस्त, वच्चा, बीमार, पागल या इसी प्रकार के अन्य अयोग्य दाता के हाथ से भिक्षा लेना । (७) उन्मिश्र- सचित्त अचित्त दोनों का मिश्रण को उन्मिश्र कहा जाता है (८) अपरिणत- शस्त्र परिणत न हो। (९) लिप्त-गोवर आदि से तत्काल लीपे हुए स्थान पर रक्खा हुआ अशन आदि लिप्त दोष से दृषित कहलाता हैं । अथवा अलिप्त पात्र દેય વસ્તુ પર રાખી હોય અથવા દેય વસ્તુને સચિત્ત વસ્તુની સાથે પરંપરાની અપેક્ષાએ સ્પર્શ થતું હોય. (४) पिडित-हेय परतुने सथित्त वस्तु पडे diseी डाय. (૫) સંહત-પાણી આદિ સચિત્ત વસ્તુ ભરેલા પાત્રને ખાલી કરીને ભીના વાસણમાં રાખેલી વસ્તુને ગ્રહણ કરવાથી સંહત દેષ લાગે છે. (6) य४-मांधणा, मेवा, Cl, ११२यस्त, ४, अिभा२, पागल अथवा એવા જ કેઈ અન્ય અગ્ય દાતાને હાથે ભિક્ષા લેવાથી દાયક દેષ લાગે છે. (७) अन्भि-सचित्त भयित्त मन्ने वस्तु ना मिलने भि ष हे छ. .. (८) अपरिश्त- शत्रपरिशत नाय ते मपरिणत दोष ४ाय छे. . (૦ લિસજે સ્થાન પર તત્કાલ તાજી જ ગાર કરી હોય કે માટી આદીથી લખ્યા હોય એવા સ્થાન પર રાખેલા અશિનાદીને લીખ દેખથી દૂષિત ગણાય છે. અથવા અલિપ્ત For Private And Personal Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे यद्वा अलिप्तस्य पात्रस्य दधिदुग्धतेमनादिना लिप्तीकरणम् । अलिप्ते अखरण्टिते पात्रे निक्षिप्य दीयमानमशनादिना लिप्तदोषदुष्टं भवति ९। छदितम् यदशनादिदानसमये इतस्ततः सिक्थादिना पात्यते तत् १० । इति । तथा 'अगिद्धो' अगृद्धः गृद्धिभावरहितः 'य' च तथा 'विष्पमुको' विप्रमुक्तः रागद्वेषरहितः 'ओमाणं' अपमानम् आहारग्रहणसमये जायमानं स्वापमानम् 'परिवज्जए' परिवर्जयेत् परिहरेत् । अत्र 'अगृद्धः' 'विप्रमुक्तः' इत्यनेन पदद्वयेन पश्चग्रासैषणा दोषाः प्रदर्शिताः । तथाहि "इंगाले १ धूमे२ संजोयणा४ पमाणे५ कारणे५" छाया-अङ्गारः१, धूमः२, संयोजना३, प्रमाणम्४ कारणम्५ । को दही दूध आदि से लिप्त करना । अलिप्त अर्थात् विना भरे पात्र में डाल कर दिया जाने वाला भी अशनादि आहार लिप्त दोष से दुषित कहलाता है। (१०) छर्दित-देते समय अशनादि के कण या सीथ आदि इधर उधर विखेरते हुए दिये जाएँ तो वह अशनादि छदित दोष से दुष्ट होता है। इस प्रकार उल्लिखित दोषों से बचता हुआ साधु जो आहारादि ग्रहर करे उसमें भी गृद्धि नहीं होनी चाहिए उसे आसक्ति रहित होना चाहिए तथा रागद्वेष से रहित होना चाहिए । साधु को दूसरों का अपमान नहीं करना चाहिए अर्थात् अपने ज्ञान और तपश्चरण का अभिमान करके अन्य की अवहेलना नहीं करनी चाहिए । यहाँ 'अगृद्ध' और विप्रमुक्त 'इन दो पदों से ग्रासैपणा के पांच दोषों का त्याग प्रदर्शित किया गया है । वे दोष ये हैं-(१) अंगार (२) धूम (३) संयोजना (४) प्रमाण और (५) कारण । પાત્રમાં દહીં દૂધ આદિ વડે લિસ કરવાં. એટલે કે કઈ ખાલી પાત્રમાંદુધ, દહીં આદી પદાર્થ ભરીને સાધુને વહોરાવવાથી તે આહાર પણ લિસ દષથી દૂષિત થયેલું ગણાય છે. (૧૦) છર્દિત-સાધુને વહેરાવતી વખતે લાવવામાં આવતે આહાર વેરાતે આવે તે તે આહાર છતિદોષ વાળ કહેવાય છે. ઉપર્યુક્ત દે ન લાગે એવી રીતે જે આહારાદિ ગ્રહણ ક્યાં હોય તેના પ્રત્યે ગુદ્ધિભાવ રાખવું જોઈએ નહીં. તેમાં આસક્તિ રાખ્યા વિના અને રાગદ્વેષથી રહિત બનીને તે આહારાદિને ઉપભેગ કરે જોઈએ. સાધુએ બીજાનું અપમાન કરવું જોઈએ નહીં, એટલે કે પોતાના જ્ઞાન અને તપશ્ચરણનું અભિમાન કરીને અન્યની અવહેલના કરવી જોઈએ નહીં. અહીં ” અમૃદ્ધ અને "વિપ્રમુક્ત” આ બે પદો વડે ગ્રાઔષણના પાંચ દેને ત્યાગ કરવાનું સૂચિત કરાયું છે. તે પાંચ દે નીચે પ્રમાણે છે. For Private And Personal Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. ग्रासैषणायाः पञ्चदोषनिरूपणम् ४२५ तत्र--अङ्गारदोपः-रागेण-मनोज्ञाहारादेः तदायकस्य वा प्रशंसां कुर्वतः आहाराद्युपभोगः चारित्रेन्धनस्याङ्गारभवनात् ।१।। धूमदोपः--द्वेषेण अमनोज्ञारसविरसाद्याहारादेस्तदायकस्य वा निन्दापूर्वकमुपभोगः चारित्रेन्धनस्य मलिनीकरणात् ।२। संयोजनादोपः-आस्वादार्थमेकस्मिन् द्रव्यान्तरमेलनम् ॥३॥ प्रमाणदोपः-द्वात्रिंशत्कवलाधिकाहारकरणम् ४। कारणदोषः-पट्कारणमन्तरेणाहारकरणम् । ५ षट्कारणानि यथा-"वेयण१ (१) अंगारदोष रागद्वेष के वशीभूत होकर मनोज्ञ आहार की या उसके दाता की प्रशंसा करते हुए खाना । यह दोष चारित्र रूपी इंधन को नष्ट करने के लिए अंगार के समान होने से 'अंगार' कहलाता है । (२) धूमदोषद्वेष के वश होकर अमनोज्ञ, अरस अथवा वि रस आहार की या उसके दाता की निन्दा करते हुए खाना। इस से चरित्र मलिन होता है, अतः इसे धूमदोष कहते हैं। (३) संयोजनादोष-लोलुपता के कारण एक वस्तु में दूसरी वस्तु मिलाकर खाना। (४) प्रमाणदोष-बत्तीसग्रस से अधिक भोजन करना । (५) करणदोष-छह करणों के विना ही आहार करना छह कारण (१) PARोप, (यूभोप, (3) संयो। होप, (४) प्रमाण द्वेष भने (५) ४२५ होप.. (૧) અંગારદોષ-રાગને આધીન થઈને મનગમતે આહાર વખાણ વખાણીને ખાય અથવા તેના દાતાની પ્રશંસા કરતાં કરતાં ખાવાથી અંગાર દોષ લાગે છે. ચારિત્ર રૂપી ઈન્જનને નષ્ટ કરવામાં આ દોષ અંગારાની ગરજ સારે છે, આ કારણે તેને અંગારદોષ કહેવાય છે. (૨) ધૂમદોષ-દ્વેષને વશવતી થઈને અમનેશ, અરસ અથવા વિરસ આહારની અથવા તેના દાતાની નિંદા કરતાં કરતાં ખાવાથી ધૂમદોષ લાગે છે. આ પ્રમાણે કરનારના ચારિત્રમાં મલિનતા આવી જાય છે, તે કારણે આ દોષને ધૂમદોષ કહ્યું છે. (૩) સજના દેષ-લેલુપતાને કારણે એક વસ્તુ સાથે બીજી વસ્તુનું મિશ્રણ કરીને ખાવાથી સંજના દોષ લાગે છે. પ્રમાણ દોષ-૩ર ગ્રાસ-કોળિયા કરતાં અધિક આહાર ખાવાથી પ્રમાણદોષ લાગે છે સુ. ૫૪ For Private And Personal Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ सूत्रकृतागासो वेयावच्चे २ इरियटाए ३ य संजमहाए ४ तह पाणवत्तियाए ५, छठं पुण धम्मचिंतए ६" ॥१॥ .. छाया-वेदना १ वैयावृत्यम् २ ईर्यार्थाय ३ च संयमार्थाय ४. तथा प्राणवृत्तिकायै ५ षष्ठं पुन धर्म चिन्तायै ६ ॥१॥ इति।च॥ एवं मुनिः ग्रहणैषणा-ग्रासैषणा-परिभोगैषणा दोषान् निवारयन् ज्ञानमदं तपोमदं च परिहरन् मानापमानभयमपनयन् संयमयात्रां निर्वहेदिति भावः ॥गा. ४॥ पुनरपि तेषामेव मतमाह-"लोगवायं" इत्यादि लोगवायं णिसामिजो इहमेगेसिमाहियं । विपरीयपन्नसंभूयं अन्नउत्तं तयाणुयं-॥५ छायालोकवादं निशामयेत् इह एकेपामाख्यातम् । विपरीतप्रजासम्भूतमन्योक्तं तदनुगम् ॥५ इस प्रकार हैं-(१) वेदना (२)वैयावृत्य (३) ईर्यापथ (४) संयमपालन (५) प्राणरक्षा और (६) धर्मचिन्ता। तात्पर्य यह है कि क्षुधा की वेदना को उपशान्त करने के लिये, आचार्य आदि की सेवा करने के लिये, ईर्यापथ की शुद्धि के लिए, संयमपालन के लिए प्राणों की रक्षा के लिए, और धर्मचिन्तन के लिये ही साधु को आहार ग्रहण करना चाहिए । __अभिप्राय यह है कि मुनि ग्रहणैषणा, ग्रासैषणा और परिभोगैषणा संबंधी दोषों का निवारण करता हुआ तथा ज्ञानमद एवं तपोमद के वशीभूत होकर दूसरों को अपने से निम्नश्रेणी को समझकर उनका अपमान न करे ॥४॥ ( ૫ કારણ દોષ નીચેના છ કારણ વિના આહાર કરવાથી કારણ દોષ લાગે છે. ૧ વેદના ૨ વૈયાવૃત્ય, ૩ ઈર્યાપથ, ૪ સંયમપાલન, ૫ પ્રાણુરક્ષા ૬ ધર્મચિંતા એટલે કે સુધાની વેદનાને ઉપૂશાન્ત કરવા માટે, આચાર્ય આદિની સેવા કરવા માટે નર્યાપથની શુદ્ધિને માટે, સંયમન નિર્વાહ માટે, અને ધર્મ ચિન્તન કરવાની શક્તિ ટકાવી રાખવા માટે જ સાધુએ આહાર ગ્રહણ કરવા જોઈએ તાત્પર્ય એ છે કે ગ્રહષણ પ્રાપૂણુ, અને પરિભેગષણ વિષયક દેનું નિવારણ કરીને સાધુએ સંયમના નિર્વાહ નિમિત્ત નિર્દોષ આહાર જગ્રહણ કરે જોઈએ તેણે પોતાના જ્ઞાન અને તપને મદ કરીને અન્યને પિતાના કરતા હલકી શ્રેણીના માનીને તેમનું અપમાન કરવું જોઈએ નહીં જ ગાથા કn For Private And Personal Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सामवार्थ बोधिनो टीका प्र. . अ. १ उ. ४ पुनः अम्यतीर्थ कमतनिरूपणम् ४२७ अन्वयार्थः(लोगवाय) लोकवाद पौराणिकानां सिद्धान्तम् । (णिसामिज्जा) निशा मयेत्, श्रृणुयात् पौराणिकवादः श्रोतुं योग्य इति भावः । एवं (इह) इह अस्मिन् संसारे (एगेसिं) एकेपा केषांचित् (आहिये) आख्यातम्-कथनम् अस्ति परन्तु वस्तुतः- पौराणिकानां कथनम् (विपरीयपक्षसभूयं) विपरीतप्रज्ञासंभूतम् विपरीतबुद्ध्या रचितं विद्यते । . तमा (अन्नउत्त) अन्योक्तम् अन्यैरविवेकिभि यत्कथितम् (तयाणुगं) तदनुगम्= तदेवाऽनुगच्छतोति भावः ॥५॥ टीका 'लोगवाय' लोकवादम्, लोकानां= पौराणिकलोकानां वादः= सिद्धान्तः फिर उन्हीं के मत का निरूपण करते हैं-" लोगवायं " इत्यादि। शब्दार्थ-~-'लोगवाय-लोकवादम्' लोकवाद अर्थात् पौराणिकोंके सिद्धांतको 'णिसामिज्जा-निशामयेत्' सुनना चाहिए 'इह-इह' इस संसार में 'एगेसिएकेषां' किन्हीका 'आहियं-आख्यातम् ' कथन है। 'विपरीयपन्नसंभूय-विपरीत प्रज्ञासंभूतम् ' परंतु वस्तुतः पौराणिकोंका सिद्धांत विपरीत बुद्धिसे रचित है, तथा 'अन्नउत्त-अन्योक्तम् ' अन्य अविवेकियोंने जो कहा हैं 'तयाणुगं-तदनुगम् ' उसका अनुगामी हैं ॥५॥ -अन्वयार्थलोकवाद को, जो पौराणिको का एक मन्तव्य है, सुनना चाहिए अर्थात् वह सुनने योग्य है । ऐसा किन्हीं का कथन है, किन्तु उनका यह कथन विपरीत बुद्धि से कहा हुआ है तथा अन्य अविवेकियों के कथन के समान है ॥५॥ सूत्र॥२ मन्यता ना मतनु विशेष नि३५४ रे छे "लोगवाय” त्या : शाय-'लोगवाय-लोकवाद म्' या अर्थात् 'पोशना सिद्धान्तने 'णिसाविजा-निशामयेत्' समय मे. 'इह-इह' PAL संसारमा 'एगेसि-एकेषां' मेनु we 'आहिय-आख्यातम्' थन छ 'विपरियपन्नसंभूय-विपरीतप्रज्ञासंभूतम्' परंतु तुत: पौने सिद्वांत विपरीत सुद्धिथी २यित छ, तथा 'अन्नउत्त-अन्योक्तम्' अन्य अविवाश्यायो ४ऱ्या छ तयाणुग-तदनुगम् तेनु मनुगामीछे ॥५॥ સૂત્રાર્થ– પૌરાણિકનું એવું મંતવ્ય છે કે લેકવાદનું શ્રવણ કરવું જોઈએ તેઓ લકવાદ શ્રવણ કરવા યોગ્ય માને છે. પરંતુ તેઓ વિપરીત બુદ્ધિને લીધે આ પ્રકારનું કથન કરે છે તેથી તે કથનને અન્ય અવિવેકી જનાના કથન સમાન જ માનવું જોઈએ For Private And Personal Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४२८ www.kobatirth.org सूत्रकृताङ्गसूत्रे > , लोकवादः, अथवा स्वाभिप्रायेण यथा तथा कथनं लोकवादः, तम् 'निसामिज्जा' निशामयेत् = श्रृणुयात् पौराणिकमतं श्रेष्ठमतएव श्रोतव्यम् इति 'इ' इहअस्मिन् लोके 'एगेसि' एकेषां केषाञ्चित्तन्मतानुसारिणाम् 'आहितं' आख्यातम् = कथनमस्ति किन्तु हे शिष्याः ! तन्मतम् 'विवरीयपन्नसंभूयं' विपरीतप्रज्ञासंभूतम्, विपरीता = विपर्यस्ता प्रज्ञा = बुद्धि:, तया संभूतं = समुत्पन्न - विपरीत प्रज्ञासंभूतम् = विवेकविकलबुद्धिग्रस्तमित्यर्थः तथा अन्नउत्त अन्योक्तम्= अन्यैरसर्वज्ञैर्यत् कथितम् (तयाणुगं) तदनुगम् = तदनुगामि तत्कथनमिति ||५|| अथ विपरीत बुद्धिनिर्मितं लोकवादमेव दर्शयति- 'अनंते' इत्यादि । 6 , मूलम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ 3 ४ ५ ६ अणते निइए लोए, सासर ण विणस्स । " ८ ९ ७ ११ १२ अंतवं णिइए लोए इति धीरोऽतिपासइ । ६ छाया अनन्तो नित्यो लोकः शाश्वतो न विनश्यति । अन्तवान्नित्यो लोक इति धीरोऽति पश्यति || ६ || -टीकार्थ पौराणिक लोकों के सिद्धान्त को अथवा मनमाना कुछ भी कह देने को लोकवाद कहते हैं । यह पौराणिकसत उत्तम है, अतः इसे श्रवण करना चाहिए, ऐसा इस मत के अनुयायियों का कथन है । किन्तु यह कथन विपरीत बुद्धि से उत्पन्न हुआ है। विवेक विनाका कथन है । अन्य असर्वज्ञों के कथन के समान है ||५|| अब विपरीतबुद्धि से जनित लोकवाद को दिखलाते हैं " अणते ' इत्यादि । शब्दार्थ - 'लोए - लोकः' यह पृथिव्यादिलोक 'अनंते - अनन्तः' अनन्त अर्थात् सीमारहित 'निइए - नित्यः' नित्य और 'सासए - शाश्वतः ' शाश्वत है टीअर्थ - પૌરાણિક લોકોના દ્ધિાન્તને અથવા મનમાં આવે તે કહી દેવું તેને લેાકવાદ કહે છે. આા પૌરાણિક મત ઉત્તમ છે, તેથી તેને શ્રવણ કરવા જોઇ એ, એવુ તે મતના અનુયાયીએ કહે છે. પરંન્તુ આ કથન વિપરીત બુદ્ધિથી જનિત છે-સત્ અસના વિવેક વિનાના લોકોનુ આ કથન છે. તેથી તેને અન્ય અસવ જ્ઞોના કથન સમાન જ ગણવું જોઇએ ! ગાથા પા • डुवे सूत्रार विपरीत बुद्धि वडे नित सोडवा स्व३५ ४४८२ अयं ते इत्यादि - " शहाथ 'लोए लोक' मा पृथ्वी वगेरे सो 'अण ते अनन्तः' अनन्त अर्थात् सिमारडित 'निरए - नित्यः' नित्याने 'सासर- शाश्वतः' शक्ति छे. 'ण विणस्सह-न For Private And Personal Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयrथ बोधिनी टीका प्र. अ. १ उ. ४ विपरीतबुद्धिजनित लोकवादनिरूपणम् ४२९ अन्यार्थः ( लोए) लोक: अयं परिदृश्यमानः पृथिव्यादिलोकः । (अणते) अनन्तः नास्ति अन्तः सीमा यस्य तथाभूतः । ( निरए) नित्य: = सदाभावी, (सासए) शाश्वतः सदाकालभावी अतएवायं लोकः (ण विणस्स न विनश्यति) न विनाशं प्राप्नोति इति । यतोऽनन्तो नित्यः शाश्वतः अतो न कदापि नाशमेतीतिभावः । केचिच्चैवं वदन्ति यत् अयं (लोए) लोक: (अंतर्व) अन्तवान् = सीमायुक्तः "सप्तद्वीपावसुमती" इत्यादि परिमाणोक्तः । तथा (निइए) नित्यः निरचयनाशरहितोऽस्ति (इति) इति = एबम् ( धीरो ) धीरः व्यासादिः । ( अतिपासइ) अतिपश्यति कथयतीत्यर्थः || ६ || 'ण विस्सs - न विनश्यति' यह नष्ट नहीं होता है किसीका यह कथन है तथा अन्य कोई ऐसा भी कहते हैं कि 'लोए - लोक : ' यह लोक 'अंतर्वअन्तवान्' अंतवाला 'निइए - नित्यः' नित्य है, 'इति - इति' धीरः' धीर पुरुष व्यासादि 'अतिपास - अतिपश्यति' कहते हैं ||६|| इस प्रकार 'धीरोदेखते हैं अर्थात् अन्वयार्थ यह लोक अनन्त है - इसकी कोई सीमा नहीं है नित्य है, शाश्वत है, aara इसका कभी विनाश नहीं होता । भाव यह है कि लोक अनन्त, नित्य एवं शाश्वत है, अतएव वह कभी भी नष्ट नहीं होता है कोई कोई ऐसा भी कहते हैं कि यह लोए लोक अन्तवाला ससीम है। 'यह पृथ्वी सात द्वीप परिमित है' ऐसा कहकर उसका परिमाण कहा गया है । ससीम होते हुए लोक नित्य है, ऐसा व्यास आदि का कथन है || ६ || વિનતિ' આ નષ્ટ નથી થતા, કોઈનું આ કથન છે તથા બીજા કોઇ એમ પણ કહે छे 'लोप-लोक' मा दोउ 'अतव' - अन्तवान्' संतवाणा 'निइए- नित्यः' नित्य छे. ' इति - इति' या प्रारे 'धीरो- घोर' धीरपु३ष-व्यास विगेरे 'अतिपासा - अतिपश्यति' દેખે છે અર્થાત્ કહે છે. દા For Private And Personal Use Only - सूत्रार्थ કોઇ કોઇ અન્ય મતવાદિએ એવું કહે છે કે આ લોક અનંત છે તેની કોઇ સીમા જ નથી, નિત્ય છે અને શાશ્વત છે, તેથી તેને કઢી પણ વિનાશ થતા નથી. આ થનના ભાવાર્થ એ છે કે આ લેક અનંત, નિત્ય અને શાશ્વત છે. તેથી તેના કદી પણુ નાશ થવાનું શકય જ નથી. કોઈ કોઈ મતવાદ્ધિ આવું પણ કહે છે કે આ લોક અન્તયુક્ત સસીમ છે. “ આ પૃથ્વી સાત દ્વીપ પરિમિત છે, આ કથન દ્વારા તેનુ પરમાણુ ખતાવવામાં આવ્યું છે. વ્યાસ મુનિ આદિનુ એવુ કથન છે કે આ લાક રસસીમ અને नित्य छे. " ॥ ६ ॥ (( Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गो टीकापरतीथिका एवं प्रतिपादयन्ति । अयं (लोए) लोकः पुरुषादिलोकः (अणंते) अनन्तः, अन्तरहितः यो जीवः इहलोके यादृशः पुरुषः स्त्री नपुंसको वा, स परभवेऽपि तादृशः पुरुषः स्त्री नपुंसक एव भवति न तु पुरुषत्वादिरन्तः अथवा अनन्तो निरवधिकएव कालत्रयभावात् , तथा (णिइए) नित्यः अप्रच्युताऽ नुत्पन्नस्थिरैकस्वभावः, तथा (सासए) शाश्वतः शाश्वद्वारं वारं न भवतीति शाश्वतः । यद्यपि द्वयणुकाद्यवयविनां समुत्पत्तिर्जायते तथापि परमाणुरूपापेक्षया न कदापि जायते । तथा न विनश्यति, कालकाशा दिगात्मपरमाशूनां नित्यत्वेन विनाशाऽभावात् । तथा-केपांश्चिन्मतेऽयं लोकः (अंतर्व) 'अन्तवं अन्तवान् परिसीमितः-"सप्तद्वीपा वसुमती, त्रयो लोकाः ___-टीकार्थपरतीर्थिक ऐसा कहते हैं कि यह पुरुषादि रूप लोक अनन्त है । अर्थात् जो जीव इस भव में पुरुष, स्त्री या नपुंसक है, वह परभव में भी वैसा ही पुरुष, स्त्री या नपुंसकही होता है। पुरुषत्व आदि का कभी अन्त नहीं होता । अथवा यह लोक अनन्त है, अर्थात् इसकी कोई अवधि नहीं है, क्योंकि यह तीनों कालों में विद्यमान रहता है। न कभी नष्ट होता है, बल्कि सदैव स्थिर और एक सरीखा रहता है। यह लोक शाश्वत है-वारंवार उत्पन्न नहीं होता है। यद्यपि द्वयणुक आदि अवयवियों की उत्पत्ति होती रहती है, फिरभी परमाणु रूपसे उसकी कभी उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि काल, दिशा आकाश आत्मा और परमाणु नित्य हैं। और किसी किसी के मतानुसार यह लोक अन्तवान सीमित है, -अर्थકેટલાક પરતીર્થિક એવું મંતવ્ય ધરાવે છે કે પુરુષ સ્ત્રી આદિ રૂપ આ લેક અનંત છે. એટલે કે જે જીવ આ ભવમાં પુરુષ, સ્ત્રી અથવા નપુંસક રૂપે ઉત્પન્ન થયેલ છે, તે પરભવમાં પણ એવાં જ પુરુષ, સ્ત્રી અથવા નપુંસક રૂપે ઉત્પન્ન થશે. પુરુષત્વ આદિને કદી પણ અન્ત આવતું નથી. અથવા આ લેક અનંત છે એટલે કે તેની કે અવધિ (મર્યાદા-સીમા) નથી, કારણ કે ત્રણે કાળમાં તેવું અસ્તિત્વ રહે છે તે કદી નષ્ટ થતું નથી. ઉત્પન્ન થતું નથી, પરંતુ સદા સ્થિર અને એક સરખે રહે છે. આ લેક શાશ્વત છે-વારં વાર ઉત્પન્ન થતું નથી જે કે દ્વથાણુક બે અણુવાળા સ્કલ્પ આદિ અવયવીઓની ઉત્પત્તિ થતી રહે છે, પરંતુ પરમાણુ રૂપે તેની ઉત્પત્તિ કદી પણ થતી નથી. તથા તેને વિનાશ પણ થતો નથી, કારણ કે કાળ, દિશા, આકાશ, આત્મા અને પરમાણુ નિત્ય છે. કેટલાક અન્યતીર્થિકે એવું માને છે કે આ લેક For Private And Personal Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयायार्थ बोधिनी टीका प्र. अ. अ. १ उ. ४ लोकवादनिरूपणम् ४३१ चत्वारो लोकसंनिवेशा:" इत्यादिना लोकानां मर्यादादर्शनात् । तथा नित्यो लोकः प्रवाहरूपेणाऽद्यापि परिदृश्यमानत्वात् तथा - " अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैवच नैवच ।" "ब्राह्मणो हि देवता" "श्वानो यक्षाः " इत्यादि । 'इति' इत्येवं (धीरो) धीरो:व्यासादिः । 'अतिपास' अतिपश्यति, इत्थंभूतलोकवादं कथयति || गा०६ || "पुनस्तमेव लोकवाद दर्शयति सूत्रकारः - "अपरिमाणं" इत्यादि मूलम् - ૨ ३ ४ अपरिमाणं वियाणा इह मेगेसिमाहियं । ६ ७ ८ सव्वत्थ सपरीमाणं, इति धीरोऽतिपास - ॥७ छाया "अपरिमाणं विजानाति इहैकेषामाख्यातम् । सर्वत्र परिमाणम् इति धीरोऽतिपश्यति ||८|| क्योंकि ' यह पृथ्वी सातद्वीप तक ही है, लोक तीन हैं। चार लोक संनिवेश हैं, इत्यादि रूप में लोकों की मर्यादा देखी जाती है। तथा लोक नित्य है । क्योंकि प्रवाह रूपसे यह आज भी दिखाई देता है । तथा 'निपूते को शुभगति नहीं मिलती है, स्वर्ग हर्गिज नहीं मिलता है, ब्राह्मण देवता है, कुत्ते यक्ष हैं, इत्यादि सब इस लोकवाद के मन्तव्य हैं । व्यास आदि ने इस प्रकार के लोकवाद का निरूपण किया है || ६ || ' सूत्रकार पुन: लोकवाद को दिखलाते हैं -- “ अपरिमाणं ' इत्यादि । शब्दार्थ –'अपरिमाणं- अपरिमाणम् परिमाणरहित अर्थात् अपरिमित पदार्थको 'वियाणा - विजानाति' जानता है 'इहें इह' इस लोक में 'एगेसिं एकेषां' किन्हींका 'आहियं - आख्यातम्' कथन है 'सव्वत्थ - सर्वत्र' सर्व देशकालके । मन्तवान् (सीमित) छे, अरण हे " मा पृथ्वी सात द्वीप पर्यन्त व्याप्त छे, बो ત્રણ છે, ચાર લેાક સ'નિવેશ છે.” ઈત્યાદિ રૂપે લેાકની મર્યાદા દેખી શકાય છે. તથા લાક નિત્ય છે, કારણ કે પ્રવાહ રૂપે તે આજ પણ વિદ્યમાન છે તથા “ અપુત્રને શુભगति भणती नथी, स्वर्ग तो जिंक ( सहन्तर ) भगतुं नथी, श्राह्मण देवता छे, इतरा યક્ષા છે, ઈત્યાદિ લેાકવાદના જ મન્તવ્યા છે. વ્યાસ આદિએ આ પ્રકારના લેાકવાદનુ નિરૂપણ કર્યું છે. !! ગાથા ૬૫ सूत्रअर सोडवाहन विशेष निश्प ४२ छे - " अपरिमाण" इत्यादि शब्दार्थ- 'अपरिमाण - अपरिमाणम्' परिमाणु रहित अर्थात् अपारमित पहार्थने 'विषाणाइ - विजानाति' लगे छे. 'इह - इह' या बोभां 'एगेसि' - एकेष' अर्धनु' 'आहिय For Private And Personal Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir કદર सूत्रकृतागसूत्रे अन्वयार्थःपौराणिकादीनां परमेश्वरः (अपरिमाण) अपरिमाणम् इयत्तारूपपरिमाणरहितं पदार्थजातम् (वियाणाई) विजानाति-अवबुध्यते इति (इह) इह= अत्र लोके (एगेसि) एकेषां केपाश्चिन् (आहियं) आख्यातं कथनमस्ति । तथा अन्येषामेवं कथनम्-यत् (सव्वत्थ) सर्वत्र=सर्वदेशकालविषये समस्तवस्तु जातम् (सपरिमाणम् ) सपरिमाणम् इयत्तारूपप्रमाणविशिष्टमस्ति । (इति) इति=एवंरूपेण (धीरो) धीरः अन्यपौराणिकपरमेश्वरः (अतिपासइ) अतिपश्यति जानातीति ॥७॥ टीकापौराणिकादीनामीश्वरः (अपरिमाणं) अपरिमाणम् न विद्यते परिमाण-मियत्तारूपं देशकालापेक्षया यस्य तत् अपरिमाणम् । इत्थंभूतविषयमें 'सपरिमाणं-सपरिमाणम्' परिमाण सहित जानता है 'इति-इति' ऐसा 'धोरो-धीरः' धीर पुरुष 'अतिपासइ-अतिपश्यति' देखता है ॥७॥ अन्वयार्थईश्वर परिमाणरहित पदार्थों को जानता है, ऐसा किन्हीं पौराणिकों का कथन है। दूसरों का कहना है कि समस्त देश और काल के विषय में सर्व पदार्थ परिमित हैं नियतसंख्यावाला हैं। ऐसा अन्य पौराणिको का ईश्वर जानता है ॥७॥ टीकार्थ-- कोई कोई पौराणिक कहते हैं कि ईश्वर अनन्त पदार्थों को जानता है, अर्थात् उनकी कोई नियत संख्या है ही नहीं। दूसरों का कहना है कि आख्यातम्' थन छ. 'सवत्थ-सर्वत्र' अब शासना विषयमा सपरिमाण-सारिमाणम्' परिमाण सहित ) छ. 'इनि-दति' माम धीरो-धीरः' धीर ५३५ ‘अतिपासहअतिपश्यति' तु . ॥७॥ - सूत्रार्थ -- કેટલાક પિરાણિકો એવું કહે છે કે ઈશ્વર પરિમાણ રહિત પદાર્થોને જાણે છે. કેટલાક અન્ય પૌરાણિકે એવું કહે છે. કે સમસ્ત દેશ અને કાળના વિષયમાં સમસ્ત પદાર્થો પરિમિત છે-નિયત સંખ્યાવાળા છે. અને ઈશ્વર તે પરિમિત પદાર્થોને જ જાણે છે. છા - टीअर्थ - કઈ કઈ પૌરાણિકે એવું કહે છે કે ઈશ્વર અનંત પદાર્થોને જાણે છે. એટલે કે તે પદાર્થોની નિયત સંખ્યા જ નથી, તે પદાર્થો અપરિમિત છે. ત્યારે કોઈ કઈ અન્ય For Private And Personal Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. ४ लोकवादनिरूपणम् ४३३ मियतयाऽपरिच्छिन्न पदार्थजातम् । ( वियाणा इ) विजानाति ज्ञानविषयीकरोति । इत्येम् (इह) इह अस्मिन् लोके (एगेसिं) एकेषाम् (आहिय) आख्यातम् कथनविद्यते. एके परतीथिका एवं कथयन्ति अपरिमितपदार्थविषयकज्ञानवानसौ परमेश्वरो न तु सर्वज्ञः । अथवा तदेवाऽतीद्रियं जानाति यः पदार्थः सप्रयोजनो भवेत्, न तु निष्प्रयोजनवस्तुजातस्य ज्ञानं भवति, निष्प्रयोजनत्वादेव । 'तदुक्तम्' सर्व पश्यतु वा मा वा, इष्टमर्थ तु पश्यतु ॥१॥ कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य नः, कोपयुज्यते तस्मादनुष्ठानगतं, ज्ञानमस्य विचार्यताम् प्रमाणं दूरदर्शीचे-देते गृद्धानुपास्महे ॥२॥ अयम्भावः-स परमेश्वरः सर्वं पश्यतु नवा पश्यतु अत्र नास्माकमाग्रहः किन्तु इष्टमर्थ जानातु तस्य कीटसंख्याज्ञानेनाऽस्माकं किं प्रयोजनम् ? न किमपि ॥१॥ अतोऽभिलषितपदार्थज्ञानमेव तस्यावश्यकम्, यदि दूरदर्शित्वेन तस्य प्रमाणता मन्येत तदा गृद्धानामुपासनमेव श्रेयः तेषामपि दूरदर्शित्वात् ॥२॥ ईश्वर अपरिमित पदार्थों का ज्ञाता है, परन्तु सर्व का, ज्ञाता सर्वज्ञ नहीं हैं। अथवा वह उन्हीं अतीन्द्रिय पदार्थों को जानता है जो किसी प्रयोजन में आते हों। निष्प्रयोजन वस्तुओंका ज्ञान नहीं होता है क्योंकि वह प्रयोजन हीन हैं। कहा भी है-" सर्व पश्यतु वा मा वा' इत्यादि। सर्वज्ञ सब पदार्थों को देखे या न देखे, हाँ, इष्टतत्त्व को देख ले तो बस है। कीडों की संख्या का उसका ज्ञान हमारे किस काम आता है ? ___अतएव हमें उसके अनुष्ठान संबंधी अर्थात् कर्त्तव्य अकर्त्तव्य संबंधी ज्ञान का ही विचार करना चाहिए। अगर दूरदर्शी को ही प्रमाण मानना है तो गिध पक्षियों की उपासना करना चाहिए । वह बहुत दूरदर्शी होता है।' પૌરાણિકે એવું કહે છે કે ઈશ્વર પરિમિત પદાર્થોને જ્ઞાતા છે, પરંતુ સમસ્ત પદાર્થોને જ્ઞાતા (સર્વજ્ઞ) નથી. અથવા ઈશ્વર એજ અતીન્દ્રિય પદાથોને જાણે છે કે જે પદાર્થોનું કઈ પ્રયજન (ઉપગિતા) હેાય છે. તે નિપ્રજનવાળા પદાર્થને જ્ઞાતા નથી, કારણકે જેનું કઈ પ્રજન જ ન હોય તેને જાણવાથી શું લાભ? पशु छे -"सर्व पश्यतु वा मा वा" प्रत्याहि- सर्वज्ञ सघणा पहायो ने हेमे કે ન દેખે, પરંતુ ઈષ્ટ પદાર્થોને જાણી લે તે તે પુરતું છે. કીડાઓની સંખ્યાનું તેમનું જ્ઞાન આપણે શા કામનું! - તેથી આપણે તેના અનુષ્ઠાન સંબધી એટલે કે કર્તવ્ય અકર્તવ્ય સંબધી જ્ઞાનને જ વિચાર કરવો જોઈએ. જે આપ દૂરદર્શીને જ પ્રમાણ માતા છે, તે આપે ગીધ પક્ષીઓની જ ઉપાસના કરવી જોઈએ. કારણ કે તેઓ દૂરદર્શી હોય છે. સૂ પપ For Private And Personal Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४३४ www.kobatirth.org सूत्रकृताङ्गसूत्रे इत्यादिना आजीविकमतानुसारिणः सर्वज्ञ निराकुर्वन्ति । तथा अन्येपामेवं कथनम् - यत् 'सव्वत्थ' सर्वत्र सर्वदेशकाल स्थितपदार्थ जातम्, ( सपरिमाणं सपरिमाणम् इयत्तारूपं परिमाणविशिष्टं वर्त्तते (इति) एवं प्रकारेण ( धीरो) धीरः अन्यपौराणिकादिपरमेश्वर : ( अतिपासइ) अतिपश्यति जानाति || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir • अयं भावः - गाथा पूर्वार्धन आजीविकमतं प्रदर्शितम् । उत्तरार्धेन तु पौराणिकानां मतं प्रतिपादितम् तेषां सिद्धान्ते परमेश्वरस्य सर्वसत्ताववस्तुविषयकज्ञानवत्त्वस्य स्वीकारात् । ' यः सर्वज्ञः स सर्ववित्' इति श्रुतेः । अथवा संपूर्ण गाथया पौराणिकमतस्यैव कथनम् । तथाहि तेषां मते स्वयम्भुवो ब्रह्मणः चतुर्युगसहस्त्रपरिमितकालो दिवसमानम् तावदेव रात्रिमानमपि तथोक्तम्'चतुर्युगसहस्राणि ब्रह्मणो दिनमुच्यते । इति ॥ इत्यादि कह कर आजीविक ( गोशालक ) मत के अनुयायी सर्वज्ञ का निषेध करते हैं । इनके अतिरिक्त दूसरोंका ऐसा कहना है कि समस्त देशों और कालों में स्थित पदार्थसमूह परिमाणयुक्त है ऐसा अन्य पौराणिकों आदि का ईश्वर देखता है। आशय यह है इस गाथा के पूर्वार्ध में पौराणिक मत की मान्यता दिखलाई है और उत्तरार्ध में पौराणिक मत का निरूपण किया गया है । उनके मत में ईश्वर का ज्ञान सभी सत् पदार्थों को जानने वाला स्वीकार किया गया है। श्रुति में कहा है- ' सर्वज्ञ सब जानता है ' अथवा सम्पूर्ण गाथा में पौराणि मत का ही कथन किया गया है उनका मत इस प्रकार है- स्वयंभू ब्रह्मा का दिन चार हजार युगों का होता है और रात्रि भी इतनी ही होती है। कहा भी है- "चतुर्युग सहस्त्राणि" इत्यादि । આ પ્રકારે પ્રતિપાદન કરીને આવિ (ગાશાલકના અનુયાયીઓ) સર્વૈજ્ઞના નિષેધ કરે છે. તે સિવાયના કેટલાક અન્ય મતવાદીઓનું એવુ' મતન્ય છે કે સમસ્ત દેશે અને કાળામાં સ્થિત પદાર્થ સમૂહ પરિમાણુયુક્ત જ છે, અને તે પરિણામયુકત પદાર્થ સમૂહને જ શ્વિર જાણે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે આ ગાથાના પૂર્વાર્ધમાં આજીવિકાની માન્યતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. અને ઉત્તરાર્ધમાં પૈરાણિકોની માન્યતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. તેમના મત અનુસાર ઇશ્વરના જ્ઞાનને સઘળા સત્ પદાર્થોને જાણનાર જ્ઞાન રૂપે સ્વીકારવામાં આવ્યું છે. શ્રુતિમાં એવું કહ્યું છે કે ”સર્વજ્ઞ બધુ જાણે છે” અથવા આખી ગાથામાં પૌરાણિકના મતને જ પ્રગટ કરવામાં આવ્યા છે. તેમના મત આ પ્રમાણે છે... ”સ્વયંભૂ પ્રહ્માના દિવસ ચાર હજાર યુગ જેટલા પ્રમાણવાળા હૈય છે, અને તેમની રાત્રી પણ એટલા જ પ્રમાણવાળી હાય છે. કહ્યુ છે કે−, ''चतुर्युगसहस्राणि " त्याहि For Private And Personal Use Only - Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. ४ अन्यवादिनां मतनिराकरणम् ४३५ एवं च दिवसात्मककाले सर्वपदार्थ सृजतो ब्रह्मणः सर्वविषयकमपरिमितज्ञानं भवति । यदा रात्रौ स्वपिति तावत्कालपर्यन्तं स परिमितमपि न जानाति, इति परिमितत्वेनाज्ञानमतो ज्ञानाज्ञानमुभयमपि संभवति । तदेवंभूतो बहुधा लोकप्रवादो वर्तते-इति भावः ॥ इति ॥७॥ .. 'एतेषां वादिनां मतं निराकर्नु स्वसिद्धान्ताऽभिप्रायमाविष्करोति सूत्रकारः-'जे केइ' इत्यादि। मूलम् जे केइ तसा पाणा चिट्ठति अदु थावरा। परियाए अस्थि से अंजू जेण ते तसथावरा-॥८॥ छाया ये केचित् त्रसाः प्राणास्तिष्ठन्त्यथवा स्थावराः। पर्यायोऽस्ति तेषामंजू येन ते त्रसाः स्थावरम् ॥८॥ 'चार हजार युग ब्रह्मा का एक दिन है।' ब्रह्मा दिन के समय जब सब पदार्थों की सृष्टि करता है तब उसे सभी पदार्थों का अपरिमित ज्ञान होता है। किन्तु रात्रि में जब वह सोता है तो उसे परिमित ज्ञानभी नहीं होता है । इस प्रकार परिमित अज्ञान होने के कारण उसमें ज्ञान और अज्ञान दोनों का संभव होते हैं। अभिप्राय यह है कि इस प्रकार के बहुत से लोक प्रवाद प्रचलित हैं ॥७॥ सूत्रकार इन वादियों के मतका निराकरण करने के लिए अपने सिद्धान्त का अभिप्राय प्रकट करते हैं-"जे केइ" इत्यादि । शब्दार्थ-'जे केई-ये केचित् ' जो कोई 'तसा-त्रसा' त्रस 'अदु-अथवा' अथवा 'थावरा-स्थावरा' 'पाणा-प्राणिनः' प्राणी 'चिट्टति-तिष्ठति' स्थित हैं 'से-तेषाम् ' उनका 'अंजू-अंजू' अवश्य 'परियाए-पर्यायः' पर्याय 'अस्थिअस्ति' होता है ॥८॥ "બ્રહ્માને એક દિવસ ચાર હજાર યુગને હોય છે. દિવસે બ્રહ્મા જ્યારે સઘળા પદાર્થોનું સર્જન કરે છે, ત્યારે તેમને સઘળા પદાર્થોનું અપરિમિત જ્ઞાન હોય છે. પરન્તુ રાત્રે જ્યારે તેઓ શયન કરે છે, ત્યારે તેમનું જ્ઞાન પરિમિત પણ હોતું નથી. આ પ્રકારે પરિમિત અજ્ઞાન હેવાને કારણે તેમનામાં જ્ઞાન અને અજ્ઞાન અને સંભવી શકે છે. સૂત્રકાર આ કથન દ્વારા એ વાત પ્રદર્શિત કરે છે કે આ પ્રકારના ઘણા લોકપ્રવાદ પ્રચલિત છે. ગાથાણા હુવે અન્યતીથિકના પૂર્વોક્ત મતનું ખંડન કરવા માટે સૂત્રકાર પિતાના સિદ્ધાન્તનું (जैन सिद्धान्तनु) मतव्य ४ ४२ छ. "जे केई" त्याह शहाथ-'ये केई-ये केचित्' 'तमा-सा उस 'अदु-अथवा' अथ। 'थारा-स्थावराः' स्थावर 'पाणा-प्राणिनः प्राणी चिट्ठति तिष्ठति' स्थित छ 'सेतेषाम्' तयानी अजू-अंजू' अवश्य 'परियाए पर्यायः' पर्याय 'अस्थि-अस्ति' डायछ।८ For Private And Personal Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः (जे केइ) ये केचित् । (तसा) प्रसाः (अदु) अथवा । (थावरा) स्थावराः (प्राणा) प्राणाः आणिनः (चिटुंति) तिष्ठन्ति (से) तेषाम् (अंजू) अवश्यम् । (परियाए) पर्यायः (अत्थि) अस्ति-भवति । (जेण) येन कारणेन (ते) ते प्राणिनः। (तसथावरा) सस्थावराः तसा अपि स्थावरा भवन्ति, स्थावराश्च त्रसभावमापद्यन्ते । यः कदाचित् त्रसो जीवः स एव पर्यायभेदात् स्थावरतां लभते, स्थावरश्च पर्यायभेदमाश्रित्य सतां लभते। अतएव नायं नियमों मनुष्य एव भवेत् , नान्यः कदाचिदपि स्यात् इति । टीका 'जे केई' इत्यादि-'जे केइ ये केचित् 'तसा प्रसाः त्रस्यंति-भयं प्रामुवन्ति ये ते त्रसाः अथवा-त्रसन्ति छायात आतपे आतपतश्च छायायां गच्छन्ति -अन्वयार्थजो कोई त्रस प्राणी हैं या स्थावर प्राणी हैं, उनका अवश्य ही पर्याय परिणमन होता है। त्रस प्राणी स्थावर पर्याय को और स्थावर प्राणी त्रस पर्याय को प्राप्त करते हैं। अर्थात जो जीव जिस भव में त्रस होता है वही पर्याय बदलने पर दूसरे भव में स्थावर हो जाता है और स्थावर जीव पर्याय पलटने पर सपना प्राप्त कर लेता है। अतएव मनुष्य सदा मनुष्य ही रहता है, अन्य किसी पर्याय को धारण नहीं करता, ऐसा कोई नियम नहीं है ।८। टीकार्यजो जीव त्रस्त होते हैं, या भय को प्राप्त होते हैं वे त्रस कहलाते हैं, अथवा जो छाया से धूप में और धूपसे छाया में जाते हैं वे त्रस हैं, सूत्रार्थત્રસ અને સ્થાવર નું પર્યાય પરિણમન અવશ્ય થતું જ રહે છે. ત્રસ જીવ સ્થાવર પર્યાયને પ્રાપ્ત કરે છે અને સ્થાવર જીવ ત્રસ પર્યાયને પ્રાપ્ત કરે છે. એટલે કે જે છવ આ ભવમાં રસ હોય છે, તે પર્યાય બદલાય જવાથી બીજા ભવમાં સ્થાવર રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે અને આ ભવમાં સ્થાવર જીવ રૂપે ઉત્પન્ન થયેલે જીવ, બીજા ભવમાં પર્યાય બદલાય જવાથી ત્રસ જીવ રૂપે ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. તેથી મનુષ્ય સદા મનુષ્ય રૂપે જ રહે છે, અન્ય કઈ પણ પર્યાયને ધારણ કરતો નથી, એ કેઈ નિયમ નથી. જે છે ત્રસ્ત હોય છે એટલે કે ભયભીત અવસ્થામાં જ રહેતા હોય છે, એવાં જીને ત્રસ કહે છે. અથવા જે જીવે તડકામાંથી છાંયડામાં અને છાંયડામાંથી તડકામાં For Private And Personal Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र.श्रु. अ.१ उ. ४ अन्यवादिनां मतनिराकरणम् ४३७ इति त्रसाः यद्वा-सनामकर्मोदयात् त्रसाः जीवाः द्वीन्द्रियादयो जीवाः, भयादिमत्त्वेन चलनात्मकक्रियावत्वेन वा प्राणवन्तो जीवाः व्यवस्थिता जीवाः त्रासमनुभवन्ति । 'अदुवा अथवा 'थावरा' स्थावराः स्थितिशीलाः स्थावरनामकोंदयाद् वा स्थावराः पृथिव्यादयः सन्ति, ते त्रसाः सा एव भवन्ति, स्थावराः स्थावरो एव भवन्तीति लोकवादः, तन्न सम्यक् । यधयं लोकवादः सत्य एव भवेत् , तदा दानाऽध्ययनजपनियमादयोऽनुष्ठानादिकाः क्रिया विफलतामेवापधेरन् । तीर्थान्तरीयैरपि प्रतिपादितमन्यथात्वम् । तथा च तेषां स्मरणम् । अथवा जिनके त्रस नामकर्म का उदय होता है ऐसे द्वीन्द्रिय आदि जीव त्रस कहलाते हैं। भयादि से युक्त होने के कारण या चलन रूप क्रिया से युक्त होने के कारण प्राणवान् जीव त्रसव का अनुभव करते है। जो जीव स्थितिशील हों या जिनके स्थावरनामकर्म का उदय हो वे स्थावर कहलाते हैं, जैसे पृथ्वीकाय आदि के जीव त्रस ही रहते हैं और स्थावर जीव सदा स्थावर ही बने रहते हैं, यह लोकवाद सच्चा नहीं हैं। यदि यह लोकवाद सच्चा हो तो दान, अध्ययन, जप, नियम आदि अनुष्ठान सब निरर्थक हो जाएँगे। अन्यतीथिको ने भी जीवों का अन्यथा होना स्वीकार किया है उनका कथन है-" सवैष शृगालो भवति" इत्यादि । 'जो मलसहित जलाया जाता है, वह श्रृगाल के रूप में जन्म लेता है।' અવર જવર કરે છે, તેમને ત્રસ કહે છે. અથવા જેમને ત્રસ નામકર્મને ઉદય હોય છે, એવા દ્વીન્દ્રિય આદિ જીવોને ત્રસ કહે છે. ભયાદિથી યુક્ત હોવાને કારણે અથવા ચલન (ગમન) રૂપ ક્રિયાથી યુક્ત હેવાને કારણે પ્રાણવાન છ ત્રાસને અનુભવ કરે છે. જે જીવ સ્થિતિશીલ હોય છે. ગમનાગમન કરવાને અસમર્થ હોય છે તેમને સ્થાવર કહે છે. અથવા જેમના સ્થાવર નામકર્મને ઉદય હોય છે, તે જેને સ્થાવર કહે છે. જેમકે પૃથ્વીકાય આદિ જીવે.”ત્રસ જીવે સદા ત્રસ જ રહે છે અને સ્થાવર છે સદા સ્થાવર જ રહે છે, આ લેકવાદ સાચે નથી, જે આ લકવાદ સારો હોય, તે દાન, અધ્યયન, જપ તપ આદિ સઘળાં અનુષ્કાને નિરર્થક જ બની જાય અન્ય તીથિંકેએ પણ જીની अन्य प्रारे उत्पत्ति थवानी बात स्वीरी छे. तेमनु मे ४थन छ । “सवैष अगालो भवति" त्या ” જેને મળસહિત બાળવામાં આવે છે, તે શિયાળ રૂપે જન્મ લે છે.” વળી એવું પણ કહ્યું છે કે ગુરુ સાથે તું અથવા હું ને વ્યવહાર કરે છે એટલે કે અવિનીત વ્યવહાર For Private And Personal Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतानसूत्रे 'सवैष शृगालो भवति यः सपुरीषो दह्यते' तथा-'गुरुं तुं कृत्य हुंकृत्य विप्रानिर्जित्य वादतः। श्मशाने जायते वृक्षः कङ्कगृध्रोपसेवितः ॥१॥ तस्मात् त्रसस्थावरप्राणिनां स्वकृतकर्मबलात् परस्परसंक्रमणादिकं भवत्येवेति पुरुषः पुरुष एव भवतीत्यादिलोकवादमतं तेषामेव वाक्येन निरस्तम् । तथा पुनस्तैः प्रतिपादितम्-'अनन्तो नित्यश्च लोकः इत्यादि। तत्र पृच्छामि-किं लोकस्य नित्यत्वं जात्या प्रतिपाद्यते अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरस्वभावतया वा तत्र न प्रथमः पक्षः, परिणामिनित्यत्वस्याऽस्माभिरपि स्वीकृतत्वेन सिद्धसाधनात्, स्वसिद्धान्तविलोपप्रसङ्गाच्च । नाऽपि द्वितीयः पक्षः, तत्र प्रत्यक्षबाधात्, ____ और भी कहा है-' जो गुरु के प्रति 'तुं' या ' हुँ' करता है अर्थात् अविनयमय व्यवहार करता है और ब्राह्मणों को बाद में पराजित करता है, वह मर कर श्मशान में वृक्ष होता है । वह वृक्ष भी कंक गिद्ध आदि नीच पक्षियों से सेवित होता है। अतएव त्रस और स्थावर प्राणियों का अपने अपने उपार्जित कर्म के अनुसार उलटफेर होता ही रहता है। 'पुरुष मर कर पुरुष ही होता है, इत्यादि लोकवाद का उन्हीं के वचन से खण्डन कर दिया है। इसके अतिरिक्त उनका कथन है कि लोक अनन्त हैं, इस विषय में प्रश्न है कि लोक को जाति (सामान्य) से नित्य कहते हो अथवा अविनाशी अनुत्पन्न एवं स्थिर एक स्वभाव वाला होने के कारण नित्य कहते हो ? पहला पक्ष नहीं कह सकते, क्योंकि हमने भी लोकको परिणामी नित्य स्वीकार किया है, अतएव आपको सिद्ध साधन अर्थात् सिद्ध को ही सिद्ध करने का दोष आता है। ऐसा मानने से आपके सिद्धान्त का विरोध કરે છે, જે બ્રાહ્મણને વાદમાં પરાજિત કરે છે, તે મૃત્યુ બાદ સ્મશાનમાં વૃક્ષ રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. તે વૃક્ષ ઉપર કંક, ગીધ આદિ નીચ પક્ષિઓ જ બેસે છે આ કથન દ્વારા એ વાત સિદ્ધ થાય છે કે ત્રસ અને સ્થાવર જીવે પિત પિતાના ઉપાર્જિત કર્મો અનુસાર જુદી જુદી પ્રર્યાય પ્રાપ્ત કરતા રહે છે. પુરુષ મરીને પુરુષ રૂપે જ ઉત્પન્ન થાય છે, ઈત્યાદિ કવાદનું તેમના જ આ કથન દ્વારા ખંડન થઈ જાય છે. વળી તેઓ એવું કહે છે કે લેક અનંત છે. તે અમે તેમને આ પ્રશ્નને જવાબ આપવાનું આવાહન કરીએ છીએ લેકને જાતિ (સામાન્ય)ની અપેક્ષાએ નિત્ય કહો છે?કે અવિનાશી. અનુત્પન્ન અને સ્થિર એક સ્વભાવવાળો હોવાને કારણે નિત્ય કહે છે? પહેલા પક્ષને આપ અસ્વીકાર કરી શકશે નહીં, કારણ કે અમે પણ લેકને પરિણામી નિત્ય રૂપે સ્વીકાર્યો છે, તેથી આપને માટે સિદ્ધને જ સિદ્ધકરવા પ્રસંગે ઉપસ્થિત થાય For Private And Personal Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. . अ. १ उ. ४ अन्यवादिनां मतनिराकरणम् ४३९ दृश्यते हि प्रतिक्षणं पदार्थाः पर्यायतया समुत्पद्यन्ते विनश्यन्तिच ततः कथं तेषां कटस्थनित्यता स्यात् । एवं च प्रत्यक्षबाधान्न नित्यत्वं घटते । वहा शैत्यानुमानवत् । पर्यायरहितस्य सर्वथैवाऽसत्यता स्यात् , गगनकुसुमवत् । तथा यत् कार्यद्रव्याणामनित्यत्वम् , आकाशकालदिगात्ममनसांच द्रव्यविशेषापेक्षया सर्वथा नित्यत्वमेवोक्तं तदप्यसत्यमेव, सर्ववस्तूनाम् उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तत्वेन समत्वात् । अन्यथा शशश्रृङ्गादीनामिव वस्तुत्वमेव हीयेत । यद्यपि 'सप्तद्वीपा वसुमती' त्यादिना लोकस्याऽनन्तत्वमुक्तं तदपि स्वगृहे एव कथनम् , परीक्षकास्तु भी होता है। दूसरे पक्षमें प्रत्यक्ष से बाधा है। पदार्थ प्रतिक्षण पर्याय रूप से उत्पन्न होते हुए और विनष्ट होते हुए दिखाई देते हैं । अतएव वे कूटस्थ नित्य किस प्रकार हो सकते हैं ? इस प्रकार प्रत्यक्ष से बाधा होने के कारण नित्यता घटित नहीं होती, अग्नि में शीतता के अनुमान के कारण समान जो पर्याय से रहित है वह गगनकुसुम (आकाश के फुल) के समान सर्वथा असत् होता है। तथा कार्यद्रव्यों को अनित्य कहना और आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मनको द्रव्यविशेष की अपेक्षा से सर्वथा नित्य ही कहना भी असत्य ही है क्योंकि समस्त वस्तुएँ उत्पाद व्यय और प्रौव्य से युक्त होने के कारण समान है। जो उत्पाद व्यय और ध्रौव्य से युक्त नहीं है, उसमें शशविषाण (शशले के श्रृंग) के समान वस्तुत्व ही नहीं होता पृथ्वी को सप्तद्वीपपरिमित कहा सो वह अपने घरमें ही कहना है । परीक्षक ऐसा છે અને પહેલા પક્ષને સ્વીકાર કરવાથી આપના સિદ્ધાન્તને પણ વિરોધ કરવાનો પ્રસંગ ઉપસ્થિત થાય છે. બીજો પક્ષ સ્વીકારવામાં પ્રત્યક્ષની અપેક્ષાએ બાધા-વાંધો આવે છે. પદાર્થો ક્ષણે ક્ષણે પર્યાય રૂપે ઉત્પન્ન થતાં અને વિનષ્ટ થતાં દેખાય છે. તેથી તેઓ કૂટસ્થ નિત્ય કેવી રીતે હેઈ શકે? આ પ્રકારે પ્રત્યક્ષ રૂપે જ બાધા આવવાથી નિત્યતા ઘટિત થતી નથી જેમ અગ્નિમાં શીતતાનું અનુમાન કરી શકાતું નથી, તેમ, લેકમાં નિયતાનું અનુમાન કરી શકાતું નથી. જે પર્યાયથી રહિત હેય છે. તે આકાશપુષ્પની જેમ સર્વથા અસતું હોય છે, તથા કાર્ય દ્રવ્યને અનિત્ય કહેવા અને આકાશ, કાળ, દિશા આત્મા અને મનને દ્રવ્યશેષની અપેક્ષાએ સર્વથા નિત્ય જ કહેવા, તે પણ અસત્ય છે, કારણ કે સઘળી વસ્તુઓ ઉત્પાદ, વ્યય અને ધ્રૌવ્યથી યુક્ત હેવાને કારણે સમાન છે જે ઉત્પાદ. વ્યય અને પ્રૌવ્યથી યુક્ત ન હોય, તેમાં, સસલામાં શિંગડાને જેમ અભાવ જ હોય છે, એજ પ્રમાણે વસ્તુને જ For Private And Personal Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४० सूत्रकृताङ्गसूत्रे नैवं स्वीकरिष्यन्ति प्रमाणाभावात् । तथा यदप्युक्तम्- 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति ' इत्यादि, तदपि न सम्यक् । विकल्पासहत्वात् । तथाहि - किं पुत्रस्य सत्तामात्रेणैव विशिष्टलोकप्राप्तिः स्यात् । अथवा पुत्रकृतकर्मानुष्ठानात् । तत्र न प्रथमः, तथासति वराहसारमेयादीनां बहुपुत्रादिदर्शनात्, वराहसारमेयादीनामेव विशिष्टलोकप्राप्तिः स्यात् । नाऽन्येषाम् । तथाच विशिष्टलोकप्राप्तये कृतकर्मणां दानतपः संयमादीनां नैरर्थक्यं स्यात् । न द्वितीयः, पुत्रकृताऽनुष्ठानेन यदि पितुः स्वर्गप्राप्तिरिति मन्यते स कथं स्यात्, कर्मणां व्यधिकरणतया फलोत्पादकत्वस्याऽदर्शनात्, नहि अन्येन भुक्तं तद् अन्येन वान्तमिति भवति तथा स्वीकारे तु यस्य पितुः पुत्रद्वयं वर्तते, एकेन शुभानुष्ठानं कृतमपरेण अशुभानुष्ठानं कृतं तत्र शुभाऽनुष्ठानेन पितुः स्वर्गे गमनं स्यात्, स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि उसे सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है । पुत्रहीन को सद्गति की प्राप्ति नहीं होती, यह कहना भी यथार्थ नहीं, क्योंकि यह कथन विकल्पों को सहन नही करता क्योंकि शास्त्र विरुद्ध है । वह इस प्रकार - क्या पुत्र के होने मात्र से ही विशिष्ट लोक की प्राप्ति हो जाती हैं ? अथवा पुत्रके द्वारा किये हुए कर्मानुष्ठान से विशिष्ट लोक प्राप्ति होती है ? प्रथम पक्ष ठीक नहीं, क्योंकि शुकरों और कूकरों के बहुत पुत्र देखे जाते हैं, तो फिर उन्हीं को विशिष्ट लोक की प्राप्ति होगी, दूसरों को नहीं । ऐसी स्थिति में विशिष्ट लोक की प्राप्ति के लिए किये गये तप संयम आदि कार्य निरर्थक हो जाएँगे। दूसरा पक्ष भी सम्यक् नहीं है, पुत्र द्वारा किये गये कर्म से यदि पिताको स्वर्ग की प्राप्ति मानते हो तो वह कैसे हो सकती है ? कर्म व्यधिकरण में फलजनक होते नहीं देखे जाते । एक ने खाया और दूसरा उसे वमन करदे, ऐसा नहीं होता ऐसा मानोगे तो किसी અભાવ હાય છે આપે પૃથ્વીને સાત દ્વીપ પરિમિત’· કહી, તેને સિદ્ધ કરવાને માટે કોઈ પ્રમાણ જ નથી. તેા તેના સ્વીકાર કેવી રીતે થઈ શકે ? " 'પુત્રહીનને સદ્ગતિની પ્રાપ્તિ થતી નથી,', આ કથન પણ યથાર્થ નથી, કારણ કે તેમાં નીચેના પ્રશ્નોનું પ્રતિપાદન થતું નથી શું પુત્ર હાય તા જ વિશિષ્ટ લાકની પ્રાપ્તિ થાય છે? કે પુત્રના દ્વારા કરાયેલાં કર્માનુષ્ઠાના વડે વિશિષ્ટ લાકની પ્રાપ્તિ થાય છે. ? જો પહેલા પક્ષ સ્વીકારવામાં આવે, તા ભુંડ અને કૂતરીઓને અનેક બચ્ચા હેાવાને કારણે તેમને વિશિષ્ટ લાકની પ્રાપ્તિ થવી જોઇએ ! માત્ર પુત્રના સદ્ભાવ હોવાથી જવિશિષ્ટ લાકની પ્રાપ્તિ થતી હોય, તે તપ સચમ આદિ નિરર્થક બની જશે ! બીજો પક્ષ પણ અસ્વીકાર્ય છે, કારણ કે પુત્ર કમ કરે અને પિતા ફળ ભાગવે, એ વાત કેવી રીતે સંભવી શકે એકે કરેલા કમનું ફળ બીજો ભાગવી શકે જ નહી. એક ખાય અને બીજા વમન કરે, For Private And Personal Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयायार्थ बोधिनी टीका ર प्र. अ. अ. १ उ. ४ अन्यवादिनां मतनिरूपणम् शुभेन तु नरके गमनं भविष्यति, इति महदनिष्टमापतितं देवानांप्रियस्य । तथासति स्वकृतकर्मानुष्ठानस्यापि नैरर्थक्यं स्यात् अतः परतीर्थिकानां कथनं प्रमाणविरुद्ध मेवेति । यदप्युक्तम्- 'ब्राह्मणाः देवताः" श्वानो यक्षाः' इत्यादि, तत्तु युक्तिरहितत्वादनादरणीयमेव । तथा परतीर्थिकैर्यदुक्तम् 'अपरिमितं जानाति, किन्तु न स सर्वज्ञः' इति, तदपि न सम्यक् । यतोऽपरिमितज्ञानवत्वेऽपि यदि सर्वज्ञो न भवेत् तदाहेयोपादेयपदार्थोंपदेशे न स कुशलः स्यादिति प्रेक्षावद्भिः सोऽनादृतो भवेत् । तस्मात्सर्वज्ञता तस्य मन्तब्यैव । अन्यथाऽतीन्द्रियसाधारणपदार्थाना मुपदेशो न स्यात् । पिता के दो पुत्र हों, एक ने शुभ कर्म किया, दूसरे ने अशुभ कर्म किया एक के शुभकर्म से पिता स्वर्ग में जायगा और दूसरे के अशुभ अनुष्ठान से नरक में जायगा ? एक ही जीव एक साथ दो गतियों में कैसे जा सकेगा ? यह महान् अनिष्ट की प्राप्ति होती है। ऐसा मानने से अपने स्वयं के किये हुए कर्म तो निरर्थक ही हो जाएँगे । अतएव परतीर्थिको का कथन प्रमाण से विरुद्ध है । यह जो कहा है कि ब्राह्मण देवता है और कुत्ते यक्ष हैं इत्यादि सो भी युक्तिशून्य होने के कारण आदरणीय नहीं है। तथा परतीर्थिकोंने जो कहा है कि अपरिमित पदार्थों को जानता, है परन्तु सबको नहीं जानता, वह भी समीचीन नहीं, क्योंकि अपरिमित ज्ञानवान् होनेपर भी यदि सर्वज्ञ न हो तो हेय और उपादेय पदार्थों के ज्ञान એવી વિચિત્ર આ વાત છે. જો પુત્ર દ્વારા કરાયેલા કનુ ફળ પિતા ભોગવી શકતા હાય, તે નીચે બતાવેલી પરિસ્થિતિમાં કેવી સ્થિતિ ઊભી થશે--કોઇ માણસને બે પુત્રો છે. એક શુભ કર્મો કરે છે, બીજો અશુભ કમ કરે છે. એકના શુભ કર્મોને પરિણામે પિતા સ્વગમાં જશે, અને બીજાના અશુભ ક ને પિરણામે નરકમાં જશે ! એક જ જીવ એક સાથે એ ગતિએમાં કેવી રીતે જઇ શકશે ? આ પ્રકારની અનિષ્ટાપત્તિના પ્રસંગ આ માન્યતાને કારણે ઉદ્ભવશે વળી આ પ્રકારની માન્યતાનો સ્વીકાર કરવાથી પોતે કરેલાં કર્મા તાનિ ક જને તેથી પરતીથિંકાનું આ કથન પ્રમાણભૂત નથી. બ્રાહ્મણ દેવતા છે અને કૂતરાઓ યક્ષ છે,” આ કથન પણ યુક્તિશૂન્ય હાવાને કારણે अस्वीकार्य छे. તથા ઇશ્વર અપરિમિત પદાર્થોને જાણે છે પરન્તુ સઘળા પદાર્થને જાણતા નથી, આ કથન પણ યોગ્ય નથી કારણ કે અપરિમિત જ્ઞાનવાન હેાવા છતાં પણ જો તે સર્વજ્ઞ ન હોય, તે હેય અને ઉપાદેય પદાર્થોના જ્ઞાનમાં તે કુશલ નહીં હોય, અને પરીક્ષક सू. यह For Private And Personal Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४४२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे कीटादिसंख्यापरिज्ञानमपि तस्याऽऽवश्यकमेव । अन्यथा सकीटादिविषये ज्ञानवान्न, तथाऽन्यत्राऽपि भविष्यतीति शङ्कया बुद्धिमता पुरुषेण तदुपदिष्टस्वर्गादिवस्तुनि न निर्विशङ्गतया प्रवृत्तिरासाद्येत, अत स्तादृशोपदेशकस्य सर्वज्ञत्वमनाश्यमेव स्वीकर्त्तव्यमिति । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तथा यदुक्तम्- ब्रह्मा निद्रासमये न किमपि जानाति, प्रवोधसमये सर्व जानाति, तदपि सकलजनसाधारणत्वान्न किमपि अपूर्वमुद्घोषित मिति अनादरणीयमेव । में वह कुशल नहीं होगा और परीक्षकजन उसका आदर नहीं करेंगे। अतएव सर्वज्ञता का स्वीकार करना ही चाहिए । सर्वज्ञ हुए बिना वह अतीन्द्रिय पदार्थों का उपदेश नहीं दे सकेगा । कीटों आदि की संख्या का ज्ञान भी उसके लिए उपयोगी ही है । अन्यथा बुद्धिमान पुरुष ऐसी शंका करेंगे कि उसे जैसे कीटों का ज्ञान नहीं है, उसी प्रकार अन्य वस्तुओं का भी ज्ञान नहीं होगा ! ऐसी स्थिति में वे निश्शंक होकर उसके द्वारा उपदिष्ट स्वर्ग आदि के लिए भी प्रवृत्ति नहीं करेंगे। अतएव ऐसे उपदेशक को सर्वज्ञ अवश्य ही स्वीकार करना चाहिए । और यह जो कहा है कि ब्रह्म निद्रा के समय कुछ भी नहीं जानता और जागते समय सब कुछ जानता है, यह तो सभी में साधारण रूप से होता है । ऐसा कहकर उन्होंने कोई अपूर्व नहीं कहा है अतएव यह कथन भी अनादरणीय है । તેમના આદર નહી કરે તેથી ઈશ્વરની સજ્ઞતાના સ્વીકાર કરવા જ જોઈએ સર્વજ્ઞ અન્યા વિના તે અતીન્દ્રિય પદાર્થાના ઉપદેશ આપી શકે નહીં કીડા આદિની સંખ્યાનું જ્ઞાન પણ તેમને માટે ઉપયોગી છે. નહીં. તે બુદ્ધિમાન પુરુષો એવી શકા કરશે, કે જેને કીડાઓ જેવી સામાન્ય વસ્તુનું પણ જ્ઞાન નથી તેને અન્ય વસ્તુઓનુ જ્ઞાન પણ નહી. હાય ! તે કારણે તે નિઃશક ભાવે તેમના ઉપદેશને પણ નહીં સ્વીકારે તેમના ઉપદેશ પ્રત્યે શકા ભાવ જાગવાને કારણે તેમના દ્વારા ઉપષ્ટિ સ્વર્ગ આદિ માટેની પ્રવૃત્તિ પણ નહીં કરે તેથી એવા ઉપદેશકને સર્વજ્ઞ રૂપે અવસ્ય સ્વીકારવા જ જોઈએ. બ્રહ્મા નિદ્રાવસ્થામાં હોય ત્યારે કંઈ પણ જાણતા નથી, અને દિવસે જ્યારે જાગૃતાવસ્થામાં હાય ત્યારે બધુ જ જાણે છે,” આ પ્રકારની પરતીર્થિકોની માન્યતા પણ સાચી નથી. આ પ્રકારની સ્થિતિ તે સૌ લોકોમાં સાધારણ રીતે જોવા મળે છે. તે સામાન્ય લેા કરતાં બ્રહ્મામાં શી વિશેષતા છે? જો કોઇ વિશેષતા જ ન હાય, તે આ થન પણ અસ્વીકાર્ય જ બની જાય છે. For Private And Personal Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. ४ अन्यवादिनां मतनिरूपणम् ४४३ यदपि - उक्तम् - ब्रह्मणः स्वापप्रबोधौ प्रलयप्रभवौ, तदपि प्रमाणहीनतया समुपेक्षणीयमेव । वस्तुतो जगतोऽस्य परिदृश्यमानस्य पृथिव्यादिलोकस्य नैका - न्तिकोत्पादविनाशौ भवतः । 'नकदाचिदनी जग' दितिवचनात द्रव्यतया जगतः सर्वदैव स्थितिरिति । तदेवमनन्तादिकं जगदितिलोकवादं गाथापूर्वार्द्धन निराकृत्य यथावस्थितस्वभावस्याऽऽविर्भावनं गाथापश्चार्थेन प्रकाशयति- 'जे ण ते' इत्यादि । 'से' तेषां सस्थावराणां जीवानां 'परियए' पर्याय: = रूपान्तरम् 'अस्थि' अस्तीति 'अंजू' अज्जु स्पष्टं विद्यते 'जेण' येन पर्यायेण पर्यायमाश्रित्येत्यर्थः 'ते' यह कहना कि ब्रह्मा का शयन प्रलय है और जागरण सृष्टि है, बह भी प्रमाणशून्य होने के कारण उपेक्षणीय है । वास्तव में दिखाई देने वाले इस पृथ्वी आदि स्वरूप वाले जगत् का एकान्त रूप से न उत्पाद होता हैं, न विनाश । द्रव्य रूपसे जगत् सदैव बना रहता है। कहा भी है- “ न कदाचिदनीदृशं जगत् " इति । ' यह जगत् कभी ऐसा नहीं था, ऐसी बात नहीं है अर्थात् जगत् सदा ऐसा ही बना रहता है।' इस प्रकार जगत् अनन्तादि रूप है, इस लोकवाद का गाथा के पूर्वार्ध द्वारा freate करके यथार्थता को प्रकट करने के लिए गाथा का उत्तरार्ध कहते हैं-" जेण ते " इत्यादि । स और स्थावर जीवों का रूपान्तर होता है, यह स्पष्ट हैं । अतएव पर्याय रूपसे वे स और स्थावर होते हैं, अर्थात् सजीवकर्मोदय से स्थावर हो जाते हैं और स्थावर स रूप से उत्पन्न हो जाते हैं। “ब्रह्मानुं शयन प्रसय ३५ छे भने लगगु सृष्टि३य (सन३५) छे” मा प्राश्नु કથન પણ પ્રમાણ શૂન્ય હેાવાથી ઉપેક્ષણીય છે. પ્રત્યક્ષ દેખાતા આ પૃથ્વી આદી સ્વરૂપવાળા જગત્ના એકાન્ત રૂપે ઉત્પાદ પણ થતા નથી, અને વીનાશ પણ થતા નથી. द्रव्य ३ गत्नु अस्तित्व सहाण टडी रहे छे. उधुं पशु छे छे - " न कदाचिदनीदृश जगद्" इत्याहि-"मा भगतनुं ही आ प्रास्नु स्व३५ न तु सेवी अर्ध वात नथी” એટલે કે જગત્ સદા એવુ ને એવુ જ રહે છે. આ પ્રકારે જગત્ અનન્તાહિરૂપ છે, આ લેાવાદનુ ગાથાના પૂર્વાધ દ્વારા નિરાકરણ पुरीने, यथार्थता अउट वा माटे सूत्रार उसे छेडे - " जेण ते" हत्याहि ત્રસ અને સ્થાવર જીવાનુ રૂપાન્તર થાય છે, આ વાત સ્પષ્ટ છે. ત્રસ જીવા કમેદિયને લીધે સ્થાવર જીવ રૂપે ઉત્પન્ન થઇ જાય છે, અને સ્થાવર જીવા કમયથી ત્રસ જીવ રૂપે ઉત્પન્ન થઇ જાય છે. For Private And Personal Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ર सूत्रकृताङ्गसूत्र ते जीवाः ' तस्थावरा' साः स्थावराश्च भवन्ति = त्रसाः स्वकर्मवशात् स्थावरत्वेन, स्थावरासत्वेन समुत्पद्यन्ते इतिभावः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्वे अपि जीवाः स्वकृतकर्मणः फलोपभोगाय तत्तत्पर्यायमासादयन्ति । पर्याय प्राप्तिनिश्चिता आवश्यकीच त्रसाः स्वकृतकर्मणां फलोपभोगाय स्थावरभावमापद्यन्ते । स्थावराश्च स्वकृतकर्मणां फलोपभोगाय असतामासादयन्ति कदाचित् कर्मवैचित्र्यात् साखसा एव भवन्ति स्थावराः स्थावरा एव । न तु ऐकान्ति कोऽयं नियमो यत् साः सा एव भवन्ति, स्थावराः स्थावरा एव भवन्तीति सिद्धम् ॥८॥ 'उक्तेऽर्थे दृष्टान्तं दर्शयति सूत्रकारः - 'उरालं इत्यादि - मूलम् - २ ४ ४ ६ उरालं जगओ जोगं विवज्जासं पलिति य - | 6) ४ ९ १० सव्वे अकं तदुक्खाय अओ सव्वे अहिंसिया- | ९ | छाया 'उदारं जगन्ति योगं विपर्यासं पर्ययन्ते । सर्वे आक्रान्तदुःखाश्च अतः सर्वे अस्याः ॥९ सभी जीव अपने किये कर्मों का फल भोगने के लिए भिन्न भिन्न पर्याय को धारण करते हैं। पर्यायों की प्राप्ति निश्चित है और आवश्यक भी है । स जीव अपने किये कर्मों का फल भोगने के लिए स्थावर होते हैं और स्थावर जी अपने उपार्जित कर्मों का फल भोगने के लिए सत्व प्राप्त करते हैं। कभी कभी कर्मों की विचित्रता के कारण स जीव ास पर्याय में ही उत्पन्न होते हैं और स्थावर जीव मर कर पुनः स्थावर ही होते हैं । किन्तु ऐसा नियम नहीं है कि स जीव मर कर त्रस ही हो और स्थावर जीव मर कर स्थावर ही हो, ऐसा सिद्ध हुआ ||८|| ધારણ સઘળા જીવો પોતે કરેલાં કર્માનુ ફળ ભાગવવાને માટે જુદી જુદી પર્યાયાને કરે છે. પર્યાચાની પ્રાપ્તિ નિશ્ચિત છે અને આવશ્યક પણ છે. ત્રસ જીવા પાતે કરેલાં કર્મોનું ફળ ભોગવવા માટે સ્થાવર જીવા રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે અને સ્થાવર જીવા પેાતાના ઉપાર્જિત કમાંનુ ફળ ભોગવવા માટે ત્રસ જીવા રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. હા, કોઈ કોઈ વખત કર્મોની વિચિત્રતાને કારણે ત્રસ જીવ ત્રસામાં અને સ્થાવર જીવ સ્થાવામાં પણ ઉત્પન્ન થાય છે ખરાં. પરન્તુ એવા કોઈ નિયમ નથી કે ત્રસ જીવ મરીને ત્રસ જીવેામાં જ ઉત્પન્ન થાય અને સ્થાવર જીવ મરીને સ્થાવરામાં જ ઉત્પન્ન થાય. ૫ ગાથા દ્વા For Private And Personal Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समयाथ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. ४ अन्यवादिनां मतनिराकरणे दृप्रान्तः ४४५ अन्यवार्थ: - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (जगओ) जगन्ति, जगन्तीति लक्षणया जगज्जीवा इत्यर्थः, ते (उरालं) उदारम्=अतिशयितम्=अत्यन्तमित्यर्थः ( विवज्जासं) विपर्यास = विपर्यस्तं (जोगं) योगं बाल्यकौमारद्यवस्थाविशेषम् (पलिति ) पर्ययन्ते = प्राप्नुवन्ति (य) च तथा (सब्वे) सर्वे ते जगज्जीवा (अतदुवखा) आक्रान्तदुःखाः दुःखाक्रान्ताः सन्ति, (अओ) अतः (सव्वे ) सर्वे ते जीवाः (अहिंसिया ) अहिंस्याः हन्तुमयोग्याः न इन्तव्याः इत्यर्थः ||९|| टीका 'जगओ' जगन्ति, जगन्तीति- जगज्जीवाः जगत्रयवर्तिन स्वसस्थावरजीवाः उरालं उदारम् अत्यन्तम् 'विवज्जासं विपर्यासं विपर्यस्तम् 'जोग' योगम् उक्त विषय में सूत्रकार दृष्टान्तप्रदर्शित करते हैं-" उरालं " इत्यादि । शब्दार्थ - 'जगओ - जगन्ति' बस स्थावर जीव 'उरालं-उदारम्' उदार आत्यन्तिक 'विवज्जासं - विपर्यासम्' विपर्य्यास रूप 'जोगं - योगम्' अवस्था विशेषको 'पलिति - पर्ययन्ते' प्राप्त होता है 'य-च' तथा 'सव्वे - सर्वे । सभी प्राणीको 'अकंतदुक्खा - अक्रान्तदुःखाः ' दुःखाक्रान्त है 'अओ - अतः ' । इसलिये 'सव्वेसर्वे' वे सभी जीव ' अहिंसिया-अहिंस्या: ' मारने योग्य नहीं हैं ॥ ९ ॥ -अन्वयार्थ जगत के जीव अत्यन्त विपरीत विषम अवस्थाओं को बाल्य, कुमार आदि को प्राप्त करते रहते हैं और सभी जीव दुःखों से आक्रान्त हैं अतः सभी जीव अहिंस्य है- हनन करने योग्य नहीं हैं ||९|| उपर्युत विषय सूत्रार दृष्टान्त द्वारा स्पष्टी४२ ४३ छे -" उराल" इत्यादिशब्दार्थ –'जगओ-जगन्ति' त्रस स्थावर व 'उराल' - उदारम्' यात्यन्ति 'विव जासं - विपर्यासम्' विपर्यास३य जोग - योगम्' व्यवस्थाविशेषने 'पलिति - पर्ययन्ते ' प्राप्त थाय छे. 'य-च' तथा 'सत्रे - सर्वे' अधा ४ प्राणीयोने 'अक्कं तदुक्खा - अकान्त दुःखा' दुवाणा छे. 'अओ-अतः ' भेटला भाटे 'सब्वे-सर्वे' ते मघा व अहिंसियाअहिंस्याः ' भारवा योग्य नथी. - सूत्रार्थी - જગના જીવા અત્યન્ત વિપરીત અવસ્થાઓ-બાલ્યાવસ્થા, કૌમારાવસ્થા, વૃદ્ધાવસ્થા આદિ પ્રાપ્ત કરતા રહે છે, અને સઘળા જીવો દુ:ખથી ઘેરાયેલા છે. તેથી તે જીવા અહિસ્ય છે, હિંસા કરવાને યેાગ્ય નથી. For Private And Personal Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागसूत्र अवस्था विशेष बाल्यात्कौमारं, कौमाराद् यौवनं, यौवनाद् वार्धक्यमित्यादि, अथवा दुःखादुःखं दुःखतरं दुःखतम मित्यादिरूपमवस्थानन्तरम् 'पलियंति' पर्ययन्ते प्रामुवन्ति न तु यथापूर्व तथा सर्वदा तिष्टन्ति, अतएव 'सव्वे' सर्वे ते 'अकंतदुक्खा' आक्रान्तदुःखाः दुःखेन-जन्मनरामरणादिरूपेण आक्रान्ता: व्याप्ता एव वर्तन्ते । यद्वा 'अकंतदुक्खा' अकान्तदुःखाः अकान्तम् अप्रियं दुःखं मरणादि रूपं येषां ते अकान्त दुःखा न ते मरणादि दुःखमिच्छन्ति “सव्वे जीवावि इच्छंति जीविउ न मरिजिउँ" इति वचनात् 'अओ' अतएव 'सव्वे' सर्वे त्रसाः स्थावराः सूक्ष्मा बादराः, पर्याप्ता अपर्याप्ताः सर्वेऽपि जीवाः 'अहिसिया' अहिंस्याः हिसितुमयोग्याः, सकलसंसारिजीवाः पूर्वमेव स्वस्वकर्मवशाहुः टीकार्थतीनों जगत् के सभी त्रस और स्थावर जीव अन्यन्त विपरीत अवस्थाओं को प्राप्त होते हैं । अर्थात् बाल्यावस्था से कुमारावस्था को, कुमारावस्था से यौवनावस्था को और यौवन से वृद्ध अवस्था को अथवा दुःख से दुःखतर या दुःखतम अवस्था को प्राप्त करते रहते हैं सदा एक सरीखी स्थितिमें नहीं रहते हैं । अतएव वे दुःखों से आक्रान्त हैं। अथवा 'अक्रान्त' के स्थान पर · अकंत' पाठ माना जाय तो इसका अर्थ यह है कि सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है। वे मरण आदि के दुःखकी इच्छा नहीं करते । कहा भी है— सव्वे जीवावि इच्छंति ' इत्यादि। सभी जीव जीवित रहना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता। अतएव सभी सस्थावर सूक्ष्म बादर पर्याप्त और अपर्याप्त जीव हनन करने योग्य - - ત્રણે લેકના સઘળા ત્રસ અને સ્થાવર અત્યન્ત વિપરીત અવસ્થાઓ પ્રાપ્ત કરતા રહે છે. એટલે કે બાલ્યાવસ્થા પૂરી કરીને કુમારાવસ્થા પ્રાપ્ત કરે છે અને કુમારાવસ્થા પૂરી કરીને વૃદ્ધાવસ્થા પ્રાપ્ત કરે છે. અથવા જગને જીવે અધિક, અધિકતર અને અધિક્તમ દુઃખ યુકત અવસ્થા પ્રાપ્ત કરતા રહે છે. તેઓ સદા એક સરખી સ્થિતિમાં रखता नथी. तेयो मथी मान्त छ. अथवा " अक्कान्त" ने स्थाने "अत" ५४ મૂકવામાં આવે, તે તેને અર્થ આ પ્રમાણે થાય છે-સઘળા પ્રાણીઓને દુઃખ અપ્રિય છે तेयो भ२९५ मामिनी छ। ४२ता नथी. धुं छे .-"सचे जीवावि इच्छति" त्याहि સઘળા ને જીવિત રહેવાનું ગમે છે, કેઇને મત ગમતું નથી. તે કારણે ત્રસા સ્થાવર, સૂકમ, બાદર, પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત રૂપ સમસ્ત જી હનન કરવા યોગ્ય નથી, For Private And Personal Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलम् समयार्थबोधिनी टीका प्र. . अ. १ उ. ४ जिवहिंसानिषेधे कारणम् ४४७ खिन एव सन्ति, दुःखिनां किमर्थ दुःखमुत्पाद्यते, इति विचार्य न सर्वे प्राणा भूता जीवाः सत्त्वा हेन्तव्या वाङ्मनःकाययोगैः कृतकारितानुमोदन रिति भावः ॥९॥ तथा च 'जीवहिंसा न कर्त्तव्या' इत्यत्र हेतुप्रदर्शनाय सूत्रकार उपक्रमते'एवं खु नाणिणो' इत्यादि ।। एवं खु नाणिणो सारं जन्न हिंसइ किंचण। अहिंसासमयं चव एतावंतं वियाणियो ॥१०॥ छाया-. एतत्खलु ज्ञानिनः सारं यन्न हिनस्ति कश्चन । अहिंसासमतामेव एतावती विजानीयात् ॥१०॥ नहीं है। तात्पर्य यह है कि संसारी जीव बेचारे पहले ही दुःखी है। उन दुःखियों को क्यों दुःख उत्पन्न किया जाय । ऐसा विचार कर किसी भी प्राणी भूत जीव या सत्त्व को मन वचन और काय से अथवा कृत, कारित और अनुमोदना से दुःखित नहीं करना चाहिए ॥९॥ जीवहिंसा नहीं करनी चाहिए, इस विषय में सूत्रकार हेतु दिखलाते हैं-" एवं खु नाणिणो “ इत्यादि। ___शब्दार्थ-'नाणिणो-ज्ञानिनः' विवेकी पुरुषके लिए ‘एवं खु-एतत्खलु' यही 'सारं-सारम्' न्यायसङ्गत है 'ज-यत् ' जो 'कंचण-कञ्चन' किसी जीवको 'न हिंसइ-न हिनस्ति' न मारे 'एतावतं-एतावती' इसकोही 'अहिंसा समयं चेव-अहिंसासमतामेव' अहिंसारूपी समता 'वियाणिया-विजानीयात् ' जानना चाहिए ॥१०॥ તાત્પર્ય એ છે કે સંસારી છેપહેલેથી જ દુઃખી છે. એવાં દુઃખી જેને દુઃખ આપવું તે યંગ્ય નથી. આ પ્રકારનો વિચાર કરીને કેઈ પણ પ્રાણું, ભૂત, જીવ અથવા સત્વને મન, વચન અને કાયાથી અથવા કૃત, કાતિ અને અનુમોદના વડે દુઃખી કરવા જોઈએ નહીં. તેમના પ્રાણોને વિયાગ કર જોઈએ નહીં. એ ગાથા લા સૂત્રકાર હવે એ વાત પ્રગટ કરે છે કે શા કારણે જીવહિંસા કરવી જોઈએ નહીં -"एवं ख नाणिणो" त्या शमा--'नाणिणो-ज्ञानिनः' विवेठी पु३५ना भाटे एवं खु-एतत्खलु' मा 'सारसारम्' न्यायसंगत छ. 'ज-यत्' ले कंचण-कञ्चन' ify ने 'न हिंसा-नहिमस्ति' न मारे 'एतावत-एतावती' भने 'अहिंसासमय-चेव-अहिंसासमतामेव' मासा ३५ी समता 'वियाणिया-विजानीयात्' odegी नये. ॥१०॥ For Private And Personal Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ:___(नाणिणो) ज्ञानिनः पुरुषस्य (एयं खु) एतदेव (सारं) सारम् सारभूतं तत्त्वम्। (ज) यत् (किंचण) कञ्चन=कमपि-जीवम् । (न हिंसइ) न हिनस्ति, (एतावंत) एतावतीम् केवलामियन्मात्राम् (अहिंसासमयचेव) अहिंसा समतामेव, अहिंसया समता अहिंसा समता, तामेव अहिंसासमतामेव (वियाणिया) विजानीयात् । ज्ञानिनां ज्ञानस्य एतदेव सारं यत् कमपि प्राणिनं त्रसं स्थावर वा न हिंस्यात् । अहिंसाकारणीभूतां समतां सर्वप्राणिषु आत्मौपम्येन जानीयादिति भावः ॥१०॥ टीका'नाणिणो' ज्ञानिनः ज्ञानवतः पुरुषस्य 'एयं खु' 'खु' एवार्थे एतदेव वक्ष्यमाणमेव 'सारं' सारभूतं वस्तु ज्ञानित्वमित्यर्थः 'ज' यत् 'किंचण' कञ्चन= असं स्थावरं वा प्राणिनम् -अन्वयार्थ- ज्ञानी पुरुष के लिए यही सारभूत तत्त्व है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता। इतनी ही अहिंसा समता समझना चाहिए । अर्थात् ज्ञानी के ज्ञानका यही सार है कि वह किसी प्राणी की हिसा न करे अहिंसा का कारण समता है। सब प्राणियों को अपने ही समान जानना चाहिए ॥१०॥ -टीकार्थज्ञानी पुरुष के लिए यही सारभूत वस्तु हैं कि वह किसी त्रस या स्थावर प्राणी की हिंसा न करे। ज्ञानी पुरुष के ज्ञान का सार हिंसा न करना ही है, अन्यथा वह ज्ञान निरर्थक ही नहीं वरन भारभूत ही है, कहा भी है-" किं तया पठितया" इत्यादि। - सूत्रार्थ - " જ્ઞાની પુરુષને માટે એજ સારભૂત તવ છે કે તે કોઈ પણ જીવની હિંસા ન કરે. આ પ્રકારની અહિંસા ત્યારે જ સંભવી શકે છે કે જ્યારે તેનામાં સમતા ગુણ હોય છે. એટલે કે જ્ઞાનીના જ્ઞાનને સાર જ એ છે કે તે કોઈ પણ પ્રાણીની હિંસા ન કરે. અહિંસામાં સમતા કારણભૂત બને છે સઘળા જેને પિતાના સમાન ગણવા તેનું નામ જ સમતા છે જ્ઞાની પુરુષે આ સમતા ભાવ કેળવે જાઈએ. ૧૦ || -टी -- જ્ઞાની પુરુષ માટે એજ સારભૂત વસ્તુ છે કે તે કઈ પણ ત્રસ અથવા સ્થાવર પ્રાણીની હિંસા ન કરે, જ્ઞાની પુરુષોના જ્ઞાનને સાર હિંસા ન કરવી, એજ છે. જે આ સારને ગ્રહણ કરવામાં ન આવે, તે તેનું જ્ઞાન નિરર્થક જ નહીં, પણ ભાર રૂપ જ થઈ પડે કહ્યું પણ For Private And Personal Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टोका प्र. श्रु अ. १ उ. ४ जीवहिंसानिषेधेकारणम् ४४९ 'न हिंसइ' न हिनस्ति ज्ञानिपुरुषस्य हिंसाया अकरणमेव ज्ञानस्य सारं, यद्येवं न तर्हि ज्ञानिनो ज्ञानम् न निरर्थकमेव प्रत्युत भारभूतमेव, उक्तञ्च "किं तया पठितया, पदकोट्या पलालभूतया । येनैतन्न ज्ञातं, परस्य पीडा न कर्तव्या ॥१॥” इति, अतः ‘एतावत' एतावती वक्ष्यमाणां केवलामियन्मात्राम् ' अहिंसासमयं चेव, अहिंसासमतामेव अहिंसया समता अहिंसासमता, ताम् अहिंसाकारणे भूतां समतामेव आत्मौपम्येन 'वियाणिया' विजानीयात्-ज्ञानविषयीकुर्यात् यथा मम देहायुच्छेदे यादृशं दुःखमुपजायते तादृशमन्येषामपि दुःखं स्यादिति विचारयेदिति भावः । इति विचार्य कमपि प्राणिनं न हिंस्यात् , उक्तश्च-" प्राणा यथात्मनोऽभीष्टाः भूतानामपि ते तथा।" ___ ‘पयाल के समान निस्सार करोडो पदों को पढ लेने से क्या लाभ है, अगर उससे यह समझ नहीं आई कि पर को पीडा नहीं उत्पन्न करना चाहिए। ____ अतएव केवल इतनी अहिंसासमता अर्थात् अहिंसा से होने वाली समता को आत्मौपम्य बुद्धि से समझना चाहिए कि जैसे मेरे देह आदि के विनाश से मुझे पीडा का अनुभव होता है, उसी प्रकार दूसरे प्राणियों को भी होता है ऐसा विचार कर किसी प्राणी की हिंसा न करे। कहा भी है"प्राणा यथात्मनोऽभीष्टाः" इत्यादि । छ -',कि तया पठितया" त्याहि જે એટલું પણ તેના દ્વારા સમજવામાં ન આવે કે પરને પીડા ઉત્પન્ન કરવી જોઈએ નહીં, તે પરાળ જેવાં કરેડો નિસાર પદેને મેઢે કરી લેવાથી શું લાભ થાય તેમ છે?” તેથી એટલી અહિંસા સમતાને (અહિંસા દ્વારા કેળવાનારીસમતાને) આત્મૌપજ્ય બુદ્ધિથી સમજવી જોઈએ એટલે કે આપણે એ વાતને) વિચાર કરવું જોઈએ કે જેવી રીતે મારા દેહ આદિને વિનાશથી મને પીડાને અનુભવ થાય છે, એ જ પ્રમાણે અન્ય પ્રાણીઓને પણ થતું હશે આ પ્રમાણે વિચાર કરીને કોઈ પણ પ્રાણીની હિંસા કરવી नये नही. युं ५ "प्राणा यथात्मनोऽभीष्टाः" त्यादि सू. ५७ For Private And Personal Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५० सूत्रकृताङ्गसूत्रे प्रत्याख्याने च दाने च सुखदुःखे प्रियाऽप्रिये । आत्मौपम्येन पुरुषः प्रमाणमधिगच्छति ॥१॥” इति । अन्यत्राप्युक्तम् आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥१॥ तथा-" इहैव तैर्जितः सर्गों येषां साम्ये स्थितं मनः" । इत्यादि । ननु-'न हिंसइ किंचण' इत्यादिना हिसाया एव निषेधः, शास्त्रकारेणकृतः एतावता अदत्तादानादीनामपरिगणनात् तेषां विधि भवेदिति न, हिंसाया जैसे हमें अपने प्राण प्रिय हैं, उसी प्रकार अन्य जीवों को भी अपने अपने प्राण प्रिय हैं। प्रत्याख्यान, दान, सुख-दुःख और प्रिय अप्रिय के विषय में पुरुष आत्मौपम्य बुद्धि से वास्तविकता को समझ सकता है ॥१॥ अन्यत्र भी कहा है-" आत्मौपम्येन सर्वत्र " इत्यादि । हे अर्जुन ! जो पुरुष सर्वत्र सुख या दुःख को आत्मौपम्यभाव से समझता है, वही उत्कृष्ट योगी (साधु) माना गया है ॥१॥ तथा जिनका मन साम्यभाव में स्थित है, उन्होंने ही विश्वपर विजय प्राप्त किया है या जन्म मरण को जीता है । शंका--' न हिंसइ किंचण' इत्यादि कथन द्वारा सिर्फ हिसा का ही निषेध शास्त्रकार ने किया है। इससे अदत्तादान आदि ग्रहण हो जाता है, क्योंकि चोरी आदि नहीं करना उसका भी ग्रहण हो जाता है। જેવી રીતે આપણને આપણું પ્રાણ પ્રિય છે, એ જ પ્રમાણે અન્ય જીને પણ પિતા પિતાનાં પ્રાણ પ્રિય હોય છે. પ્રત્યાખ્યાન, દાન, સુખ-દુઃખ અને પ્રિય અપ્રિયના વિષયમાં પુરુષ આપમ્ય બુદ્ધિથી વાસ્તવિક્તાને સમજી લેવી ના अन्यत्र पसे । धुंछ-"आत्मौपम्येन सबंध "त्याहि-" सन २ પુરુષ સર્વત્ર સુખ અથવા દુઃખને આભીપભ્ય ભાવે સમજે છે, તે પુરુષને જ ઉકષ્ટ વેગી સાધુ માની શકાય છે. ” તથા જેમનું મન સમભાવથી યુકત છે, તેમણે જ વિશ્વ પર વિજય પ્રાપ્ત કર્યો છે અને જન્મ મરણને જીત્યાં છે. -"न हिंसह किंचण” त्यादि थन । शारे मात्र हिंसान ८ (नषेध કર્યો છે. શું તે કથન દ્વારા અદત્તાદાન આદિને પણ ગ્રહણ કરવાના છે ખરા ? For Private And Personal Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र.श्रु अ. १ उ. ४ मोक्षाथिमुन्युपदेशः ४५१ उपलक्षणत्वेन तेषामपि स्वीकृतत्वात् , तथाच एतदेव ज्ञानिनां न्याय्यम् , यत् शेषा सत्यास्तेयाऽब्रह्मपरिग्रहादीनामहिंसावतभञ्जकानां निषेवणं नैव कर्तव्यमिति प्रदर्शितम् । एवकारोऽवधारणे, तेन झानज्ञानवतां प्राणिनां परितापनादिकं नैव विधेयमिति भावः ॥१०॥ सूत्रकारः पुनरपि मोक्षार्थिनं मुनिमुपदिशति-'बुसिए य' इत्यादि । बुसिए य विगयगेही आयाणं सम्मरक्खए । चरिआसणसेजासु भत्तपाणे य अंतसा ॥११॥ छायाव्युपितश्च विगतगृद्धिरादानं सम्यग् रक्षयेत् चर्यासनशय्यासु भक्तपाने च अन्तशः ॥११॥ समाधान-हिंसा यहाँ उपलक्षण है, अतएव उसके ग्रहण से अदत्तादान आदि सभी पापों का ग्रहण हो जाता है । अतएव ज्ञानी पुरुष के लिए यही न्याययुक्त है कि वह अहिंसा को भंग करने वाले असत्य, अस्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह आदि का सेवन न करे। यहाँ 'एव' शब्द अवधारण के अर्थ में है। इसका अभिप्राय यह है कि ज्ञानी जनों को परितापना आदि नहीं करना चाहिए ॥१०॥ सूत्रकार मोक्षार्थी मुनि को पुनः उपदेश करते हैं-" बुसिए य " इत्यादि । शब्दार्थ-'बुसिए-व्युषितः' दश प्रकारकी साधु समाचारी में स्थित 'य-च' और 'विगयगेही-विगतगृद्धिः' आहार आदिमें गृद्धि रहित साधु સમાધાન--અહીં હિંસા ઉપલક્ષણ છે, તેના ગ્રહણ દ્વારા અદત્તાદાન આદિ સઘળાં પાપનું ગ્રહણ થઈ જાય છે. તેથી જ્ઞાની પુરુષોને માટે એજ ન્યાયયુકત છે કે અહિંસાને ભંગ કરનારા અસત્ય. અસ્તેય, અ બ્રહ્મચર્ય અને પરિગ્રહ આદિનું તેઓ સેવન ન કરે. અહીં ”જ” આ પદ અવધારણ અર્થે વપરાયું છે. તેનું તાત્પર્ય એ છે કે જ્ઞાની જનેએ પ્રાણિઓને પરિતાપના થાય એવું કઈ પણ કાર્ય કરવું જોઈએ નહીં | ગાથા ૧૦ सूत्रा२ भुमुक्षु भुनिने या प्रार! उपदेश मा छ "बुसिए य' त्याह शा- 'बुसिए व्युषितः' ४२॥ प्रा२नी साधु सभायारीमा रहेर 'य-च' भने 'विगयगेही-विगतगृद्धिः' २२ पोरेभा द्विहित साधु 'चरियासणसेजासु चर्या For Private And Personal Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ:(बुसिए) व्युषितः साधुसामाचारी स्थितः 'य' च-तथा (विगयगेही) विगतगृद्धिः आहारादौ गृद्धिभावरहितः (चरियासणसेज्जासु) चर्यासनशय्यासु= गमनासनशय्यासु (य) च-तथा (भत्तपाणे) भक्तपाने भक्तपानविषये (अंतसो) अन्तशः अन्ततः उपयोगवान् सन् मुनिः (आयाणं) आदानम् आदानीयं ज्ञानदर्शनचारित्रं (सम्म) सम्यग् रूपेण (रक्खए) रक्षयेत् अनुपालयेत् ॥११॥ टीका'बुसिए' न्युषितः, वि-विविधम् उषितः अनेकप्रकारकाऽतिकठिन दशविधसाधुसमाचर्या स्थितः। 'य' च-तथा 'विगयगेही' विगतगृद्धिः 'चरियासणसेज्जासु-चर्यासनशय्यासु' गमनादि विषयमें 'य-च' तथा 'भत्तपाणेभक्तपाने' भक्तपानके विषयमें अंतसो-अन्तशः' अन्त पर्यन्त 'आयाणं-आदानम् ' ज्ञानदर्शन और चरित्र को 'सम्म-सम्यग्' सम्यगू रीतिसे 'रक्खए-रक्षयेत्' रक्षाकरे ॥११॥ -अन्वयार्थसाधु की समाचारी में स्थित, गृद्धि से रहित तथा गमन, शयन अशन आदि क्रियाओं में और आहार पानी में उपयोगबान रहता हुआ मुनि ज्ञान दर्शन और चारित्र की सम्यक् प्रकार से रक्षा करे ॥११॥ ___-टीकार्थसाधु दस प्रकार की अत्यन्त कठिन साधु समाचारी में स्थित और आहारादि संबंधी आसक्ति से रहित हो। चर्या आसन एवं शयन में उपयोग सनशय्यासु' गमन विगैरे विषयमा 'य-च' तथा भत्तपाणे-भक्तपाने' सतपानना विषयमा 'अत सो अन्तशः' मन्त पर्यन्त 'आयाण -आदानम्' ज्ञानशन भने यत्रिने 'सम्मसम्यग् सभ्य३ तथा 'रक्खए-क्षयेत्' २६॥ ४२शे. ॥११॥ - सूत्राथ સાધુની સમાચારોમાં રિત રહીને, ગૃદ્ધિથી રહિત (આહારાદિ વિષયક આસક્તિથી રહિત થવું જોઈએ, ગમન, શયન અશન આદિ ક્રિયાઓમાં અને આહાર પાણીમાં સાધુએ ઉપગવાન રહેવું જોઈએ. આ પ્રમાણે કરીને તેણે જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રની સમ્ય પ્રકારે રક્ષા કરવી જોઈએ ૧૧ ૧ ટીકાર્ય સાધુએ દસ પ્રકારની અત્યન્ત કઠિન સાધુ સમાચારીનું પાલન કરવું જોઈએ તેણે આ હારાદિ વિષયક આસક્તિ ને પરિત્યાગ કરે જોઈએ. ચર્યા (ગમન), આસન અને શયનાદિ For Private And Personal Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु अ. १. उ. ४ मोक्षाथिमुन्युपदेशः ४५३ विगता अपगता आहारदौ गृद्धिः-आसक्तिः यस्य स विगतगृद्धिः, तथा 'चरियासणसेज्जासु ' चर्यासनशय्यासु चर्याचरणं चलनमितियावत् । यदि कचिद्गन्तव्यं भवेत् तदा युगमात्रदृष्टिना भाव्यम् । तथा-सुप्रमार्जितासने उपवेष्टव्यम् । एवं उपयोगपूर्वकसंमार्जितप्रत्युपेक्षितशय्यायां शयनादिकं कर्त्तव्यम् । 'य' च-तथा 'भत्तपाणे · भक्तपाने भक्तपानविषये आहारपानादौ 'अंतसो ' अन्तशः उपयोगवान् सन् मुनिः । 'आयाणं ' आदानम् आदानीयम् , आदीयते प्राप्यते मोक्षो येन तत् आदानम् । ज्ञानदर्शनचारित्रम् तत् ‘सम्म' सम्यक् प्रकारेण · रक्खए' रक्षयेत् परिपालयेत् । येन प्रकारेण ज्ञानदर्शनचारित्ररूपरत्नत्रयं रक्षितं भवेत् तथा करणीयमितिभावः । साधुना चारित्रं प्राप्य तदनन्तरं यथा ज्ञानादिकं सुरक्षितं भवेत्तथा तेन रूपेण यत्नो विधेय इति भावः। ____एतदुक्तं भवति-साधुना सदैव ईर्याभाषणाऽऽदाननिक्षेपप्रतिष्ठापना समितिषु प्रयतमानेन भक्तपानीयादिकानां गवेषणं कर्त्तव्यम् । उद्गमादिदोषरहितमाहारादिकं गृह्णीयादिति भावः ॥११॥ वान् हो । कहीं चलना हो तो चार हाथ (युगमात्र) दृष्टि से देख कर चले, भलीभाँति प्रमार्जित आसन पर बैठे। इसी प्रकार उपयोग पूर्वक पूंजे हुए और देखे हुए विस्तर पर शयन करे। आहार पानी की शुद्धि में ऐसा उपयोगवान् हो। ऐसा हो कर मुनि मोक्ष प्राप्त कराने बाले ज्ञान, दर्शन और चारित्रतप की सम्यक् प्रकार से आराधना करे । तात्पर्य यह है कि साधु को ऐसा व्यवहार करना चाहिए जिससे ज्ञानदर्शन और चारित्रतपरूप रत्न चतुष्टय की रक्षा हो । साधु को चारित्र प्राप्त करके बाद में ऐसा ही यत्न करना चाहिए जिससे ज्ञानदिक की सुरक्षा हो सके। ક્રિયાઓમાં ઉપગવાન (સાવધાન રહેવું જોઈએ. ચાલતી વખતે ચાર હાથ પ્રમાણ યુગ માત્ર ભૂમિને જોઈને ચાલવું જોઈએ આસનને સારી રીતે પ્રમાર્જિત કરીને પુંજીને તેના પર બેસવું જોઈએ. એજ પ્રમાણે ઉપયોગ પૂર્વક પૂજેલી અને ધ્યાન પૂર્વક દેખી લીધેલી શય્યા પર જ તેણે શયન કરવું જોઈએ તેણે આહારપાણની શુદ્ધિની સાવધાની રાખવી જોઈએ. ઉપયુકત નિયમનું પાલન કરીને મુનિએ મોક્ષ પ્રાપ્ત કરાવનાર જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર અને તપની સમ્યફ પ્રકારે આરાધના કરવી જોઈએ આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે સાધુએ એ વ્યવહાર કરવો જોઈએ કે જેના દ્વારા જ્ઞાન, દર્શન ચારિત્ર અને તપ રૂપ રત્નચતુષ્ટયની રક્ષા થાય સાધુએ ચારિત્ર અંગીકાર કર્યા બાદ એ યત્ન કરે જોઈએ કે જેના દ્વારા જ્ઞાનાદિકની સુરક્ષા થઈ શકે. તાત્પર્ય એ છે કે સાધુએ ઈર્યાસમિતિ, ભાષા સમિતિ એષણા For Private And Personal Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे पुनरपि साधुगुणान् दर्शयति- एतेहिं तिहिं' इत्यादि। एतेहिं तिहिं ठाणेहि, संजए सततं मुणी। उक्कसं जलणं णूम, मझत्थं च विगिचए ॥१२॥ एतेषु त्रिषु स्थानेषु संयतः सततं मुनिः। उत्कर्प ज्वलनं मायां मध्यस्थं च विवेचयेत् ॥१२॥ अन्वयार्थः(एतेहिं) एतेषु-पूर्वोक्तेषु चर्यासनशय्यारूपेषु (तिहिं) त्रिषु (ठाणेहिं) स्थानेषु (सततं) सततं-निरन्तरम् (संजए) संयतः-यतनावान् (मुणी) मुनिः (उकसं) उत्कर्षम् मानम् , (जलणं) ज्वलनम्-क्रोधम् (णूमं) मायाम् (च) तथा (मझत्थं) मध्यस्थम्-लोभम् (विगिंचए) विवेचयेत्-परित्यजेत् ॥१२॥ ___ तात्पर्य यह है कि साधु को ईर्या समिति, भाषा समिति, एपणा समिति आदाननिक्षेप समिति और परिष्ठापनासमिति, में यतनावान् होकर आहार पानीकी गवेषणा करनी चाहिये अर्थात् उद्गम के सोलह दोप, उत्पादना के सोलह दोष, शंकितादि दस दोष इन ४२ दोपोंसे रहित आहार आदि को ग्रहण करना चाहिए ॥११॥ ___ शब्दार्थ-'एतेहिं-एतेषु' पूर्वोक्त चर्या आसन रूप 'तिहिं-त्रिषु' तीन 'ठाणेहिं-स्थानेषु' स्थानोमें 'सततं सततम् ' निरन्तर संजए-संयतः' यतनावान् ‘मुणी-मुनिः' मुनी 'उकसं-उत्कर्षम् ' अभिमानको ‘जलणं--ज्वलनम्' क्रोधको ‘णूम--मायाम्' मायाको 'य-च' तथा 'मज्झत्थं-मध्यस्थम्' लोभ को 'विगिचए-विवेचयेत्' त्याग दे ॥१२॥ સમિતિ આદાનનિપસમિતિ અને પરિઝાપના સમિતિમાં યતનાવાન થવું જોઈએ તેણે ઉદ્રમના ૧૬ દોષ. ઉત્પાદનના ૧૨ દેવ અને શકિત આદિ ૧૦ દે, આ કર દોષથી આહારદિને ગ્રહણ કરવા જોઈએ . ગાથા ૧૧ છે शहा- 'पतेहिएतेषु' पूतिया---पासन३५ 'तिहि --त्रिपु' र 'ठाणेहि-स्थानेषु' स्थानोमा 'सतत-सततम्' निरन्तर संजए संयतः' यातनावान् ‘मुणी मुनिः' मुनि 'उक्कसं उत्कर्ष म्' मलिभानने जलण-ज्वलनम्' धने 'म मायाम् भायाने 'य-च' तथा 'मज्झत्थ मध्यस्थम्' सोमने 'विगिंच विवेचयेत्' त्याग ४२॥ है. ॥१२॥ - -- For Private And Personal Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. अ. १ उ. ४ साधुगुणनिरूपणम् ४५५ टीका ‘एतेहिं ' एतेषु ‘तिहिं ' त्रिषु ठाणेहि ' स्थानेषु एतानि पूर्वसूत्रोक्तानि त्रीणि स्थानानि यथा-ईर्यासमितिरित्येकं स्थानम् । आसनशय्येत्यनेन आदान भाण्डमात्रनिक्षेपणासमितय उच्यन्ते । एतद् द्वितीय स्थानम् । 'भक्तपाने इत्यनेन एपणासमितिः कथिता, इति तृतीय स्थानम् । एषु त्रिषु स्थानेषु 'सततं । सन्ततं-सर्वदैव 'संजए' संयतः सम्यगरूपेण यतः प्रयत्नवानमुनिः 'उकसं ' उत्कर्षम्-मानम्, उत्कृष्यते अभिमानग्रस्तः क्रियते आत्माऽनेनेति उत्कर्षों मानस्तम् । तथा-'जलणं । ज्वलनम्-ज्वलयति भस्मयति ज्ञानादिगुणान् यः स ज्वलन:-क्रोधस्तम् , तथा 'मं मायाम् तथा 'मज्झत्थं मध्यस्थम्-संसारिप्राणिनां मध्ये तिष्ठतीति, मध्यस्थो लोभस्तम् एतान् मानादीन् चतुरोऽपीत्यर्थः -- -अन्वयार्थ इन पूर्वोक्त तीन स्थानों में चर्या, आसन और शय्या में यतनावान् मुनि निरन्तर क्रोध, मान, माया और लोभका त्याग करे ॥१२॥ टीकार्थपूर्वोक्त तीन स्थानों में ईर्यासमिति पहला स्थान हैं। आसन और शय्या शब्द से आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमिति, यह दूसरा स्थान हैं। भक्तपान शब्दसे एपणासमितिका कथन किया गया है। यह तीसरा स्थान है। उन तीनों स्थानों में सदैव यतनावान् मुनि अभिमान को ज्वलन अर्थात् ज्ञानादि गुणोंको भस्म करने वाले क्रोध को, माया को और मध्यस्थ अर्थात् समस्त प्राणियोंको त्यागे अर्थात् अपने आत्मा या मन से पृथक रक्खे। - सूत्राथ - પૂર્વોક્ત ત્રણ સ્થાનમાં-ચર્યા, આસન અને શવ્યાના વિષયમાં યતનાવાન મુનિએ ધ, માન, માયા અને લેભને સર્વથા ત્યાગ કરે જોઈએ. ૧૨ છે - टी - પેક ત્રણ સ્થાનોમાં ઇuસમિતિ પહેલું સ્થાન છે. આસન અને શમ્યા શબ્દ દ્વારા આદાન ભાડમાત્રનિક્ષેપણ સમિતિ રૂપ બીજું સ્થાન ગ્રહણ કરવું જોઈએ. ભક્ત પાન શબ્દ દ્વારા એષણસમિતિ રૂપ ત્રીજા સ્થાન નું કથન કરાયું છે. આ ત્રણે સ્થાનમાં સદા યતનાવાન મુનિએ અભિમાનને ત્યાગ કરવો જોઈએ. જ્ઞાનાદિ ગુણેને ભસ્મ કરનાર જવલનને (કોઈને) ત્યાગ કરે જોઈએ. મધ્યસ્થ એટલે કે સમસ્ત પ્રાણીઓની મધ્યમાં સ્થિત લેભને ત્યાગ કરે જોઈએ. કેધ, માન, માયા અને તેને ત્યાગ કરે જોઈએ यो तमने पोताना मामाथी अथवा भनथी सग ४ (२०४ ) रावा. For Private And Personal Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'विगिंचए ' विवेचयेत्-परित्यजेत् आत्मनो मनसो वा सकाशात् पृथक कुर्यादिति भावः। ननु आगमे क्रोधस्यैव प्राथम्यं दृश्यते, इह तु विपर्ययं कृत्वा मानस्य प्राथम्यं किमर्थ कृतमिति चेदाह-माने संजाते क्रोधोऽवश्यमेव भवति, क्रोघे संजाते मानो भवेन्नवा ? इति प्रदर्शनाय क्रमस्याऽन्यथा करणम् । यथा कस्यचिन्माने विघटनं भवेत्, तदा क्रोध आयात्येव । न तु क्रोधे जाते मानोऽवश्यंभावीति ॥१२॥ मूलगुणं तदुत्तरगुणं च प्रदर्य साम्प्रतमुपसंहरनाह-समिए ' इत्यादि । समिए उ सया साहू, पंच संवरसंवुडे । सिएहिं असिए भिक्खू , आमोक्खाय परिव्वएजासित्तिबेमि ॥१३॥ छायासमितस्तु सदा साधुः, पंच संवरसंवृतः। सितेषु असितो भिक्षुरामोक्षाय परिव्रजेत्-इति ब्रवीमि ॥१३॥ शंका-आगम में क्रोध को सर्वप्रथम ग्रहण किया जाता है, यहां उससे विपरीत उत्कर्ष शब्दसे मानको पहिले क्यों लिया गयाहैं ? समाधान – मान होने पर क्रोध अवश्य होता है। क्रोध होने पर मान होता भी है और नहीं भी होता है। किसी के मानका विघटन होने पर क्रोध आही जाता है परन्तु क्रोध उत्पन्न होने पर मानका होना अनिवार्य नहीं है ॥१२॥ मूलगुण और उसका उत्तरगुण दिखलाकर अब उपसंहार करते हैं'समिए' इत्यादि। શંકા-આગમમાં પ્રાધ પદને સૌથી પહેલું મૂકવામાં આવે છે. અહીં તેના કરતાં ઊલટા કમને ઉપયોગ કરીને “માનનું નિરૂપણ સૌથી પહેલાં શા માટે કરવામાં આવ્યું છે? સમાધાન - માનને અભાવે હેય, ત્યારે કે અવશ્ય ઉત્પન્ન થાય છે. કેને સદૂભાવ હોય, ત્યારે માનને અભાવ હોય છે પણ ખરે અને નથી પણ હતા. કેઈનું માન હણાય ત્યારે તેને કેધ તે અવસ્ય ઉત્પન્ન થાય છે, પરંતુ કેધ ઉત્પન્ન થાય ત્યારે માનને સદ્ભાવ અનિવાર્ય નથી. ! ગાથા ૧૨ા મૂલગુણ અને ઉત્તરગુણ બતાવીને હવે સૂવકાર આ ઉદેશાને ઉપસંહાર કરતા કહે छ– “समिए" त्याह For Private And Personal Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - " . - . .. .. .. समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. ४ अध्ययनोपसहारः अन्वयार्थः(भिक्खू) भिक्षुः भिक्षयैव निर्वहनशीलः (साहू) साधुः=मुनिः (सया) सदा निरन्तरम् (समिए उ) समितस्तु ईर्यासमित्यादियुक्तः तु शब्देन गुप्तियुक्तः तथा (पंचसंवरसंयुडे)पश्नसंवरसंवृतःप्राणातिपातविरमणादिसंवरपञ्चकयुक्तःसन् (सिएहिं) सितेषु-बद्धेषु गृहादिपाशवद्धेषु गृहस्थेषु इत्यर्थः (असिए) असितः अबद्धः आसक्तिपाशेनानवबद्धः आहारादिषु मूर्छामकुर्वाण इत्यर्थः (आमोक्खाय) आमोक्षाय मोक्षप्राप्तिपर्यन्तं यावन्मोक्षो न स्यात्तावत् (परिधएजासि) परिव्रजेत् शब्दार्थ-'भिक्खू-भिक्षुः' भिक्षुक 'साहू-साधुः' मुनी 'सया--सदा' निरन्तर 'समिए उ--समितस्तु' इर्यासमिति में युक्त होकर 'सिएहि-सितेषु' गृहादि पाशमें बद्ध ऐसे गृहस्थों में बद्ध 'असिए-असितः' आसक्तिभावसे अबद्ध होकर अर्थात् आहारमें मूर्छाभाव विना किये 'आमोक्खाय-आमोक्षाय' मोक्षप्राप्ति पर्यन्त 'परिव्वएज्जासि-परिव्रजेत्' प्रव्रज्या को पालन करें 'त्तिबेमि-इति ब्रवीमि' ऐसा यह कथन जैसा भगवान्से सुना हैं वैसाही कहता हूं ॥१३॥ अन्वयार्थभिक्षा द्वारा ही निर्वाह करने वाला मुनि सदा समितियों और गुप्तियों से युक्त होकर, प्राणातिपातविरमण आदि पांच संवररों से संवृत होकर, गृहपाश में फंसे गृहस्थो के साथ सम्पर्क न रखता हुआ तथा आहारादि में मूर्छा धारण नहीं करता हुआ जब तक मोक्षकी प्राप्ति न हो जाय तब तक दीक्षा हाथ --भिक्खू-भिक्षुः' भिक्षु: "साहू- साधुः' साधु५३५ (:भुनी ) 'सया-सदा' निरन्तर ‘समिएउ--समितस्तु या समितिमा युक्त ने 'सिएहि सितेषु' ५२ पोरे पाशमा मा मेवा गृहस्थामा 'असिए-असितः' मासत भावथा ममद्ध थईने मात माडामा भू२४ामा ४ा १२ 'आमोक्खाय--आमोक्षाय' भोक्षप्राति पयन्त परिव्वएजासि परिव्रजेत् प्रवृrयानु पासान ४२ 'त्तिबेमि इति ब्रवीमि' गेमा थन रे ભગવાનથી સાંભળ્યું છે તેવું જ કહું છું. ૧૩ __-सूत्रार्थ ભિક્ષા દ્વારા જ નિર્વાહ કરનાર મુનિએ સદા સમિતિઓ અને ગુપ્તિઓથી યુક્ત થઈને, પ્રાણાતિપાત વિરમણ આદિ પાંચ સંવરથી સંવૃત થઈને, ગૃહપાશમાં ફસાયેલા ગૃહસ્થોને સંપર્ક નહીં રાખતા થકા, આહારાદિમાં મૂછભાવને ત્યાગ કરીને, જ્યાં સુધી મોક્ષની પ્રાપ્તિ ન થાય ત્યાં સુધી દીક્ષાનું પાલન કરવું જોઈએ તેણે સંયમના सू. ५८ For Private And Personal Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - सूत्रकृताङ्गसूत्रे प्रव्रज्यां पालयेत् न तु ततो विचलेदिति भावः । (त्तिबेमि) इति ब्रवीमि यथा भगवतः सकाशात् श्रुतं तथा कथयामीति सुधर्मस्वामिवाक्यम् ॥ टीका'भिक्खू भिक्षुः= भिक्षणशीलः। एतावता निरवद्यभिक्षयैव जीवनं यापयितव्यं न तु पाकादौ स्वयं प्रवृत्ति कुर्यादिति ध्वनितम् । एतादृशः 'साह' साधुः मोक्षसाधनशीलो मुनिः, एतावता संसारसाधनपरित्यागो ध्वनितः। 'सया सदा सर्वदा, न तु यदा कदाचित् । तदुक्तम्-- आसुप्तेरामृतेः कालं नयेत्संयमचिन्तया । का पालन करे, उससे विचलित न हो। श्रीमुधर्मा स्वामीका कथन है कि भगवान् के समिप जैसा सुना है, वैसा ही में कहता हूं ॥१३॥ -टीकार्थभिक्षु अर्थात् भिक्षणशील । इस विशेषणके द्वारा यह सूचित किया है कि साधुको निर्दोष भिक्षा के द्वारा ही जीवनयापन करना चाहिए, स्वयं आहार पकाने आदि की प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। साधनशील मुनि साधु कहलाता है। इससे यह प्रकट किया गया है कि मुनिको संसार के साधनों (कारणों)का परित्याग कर देना चाहिए । सदाका अर्थ हैं सर्वदा, कभी कभी नहीं। कहा भी है- 'आसुप्तेरामृतेः कालं' इत्यादि । साधु को चाहिए कि પંથમાથી વિચલિત થવું જોઈએ નહીં. શ્રી સુધમાં સ્વામી એવું કહે છે કે આ સમસ્ત કથન ભગવાન મહાવીરના શ્રી મુખે મેં શ્રવણ કર્યું છે, અને તેમાં બિલકુલ ફેરફાર ર્યા વિના હું આ પ્રમાણે કહી રહ્યો છું. ૧૩ છે - टीअर्थ - ભિક્ષુ” આ વિશેષણ દ્વારા એ સૂચિત કરાયું છે કે સાધુએ નિર્દોષ ભિક્ષા વહેરી લાવીને જ પિતાને જીવનનિર્વાહ કરે જોઈએ, તેણે જાતે જ આહાર રાંધવા આદિની પ્રવૃત્તિ કરવી જોઈએ નહીં. સાધનશીલ મુનિને સાધુ કહે છે. આ પદ દ્વારા એ વાત સૂચિત થાય છે કે મુનિએ સંસારનાં સાધનને (કારણોનો પરિત્યાગ કરે જોઈએ. 'સદા આ પદ એ સૂચિત કરે છે કે થોડા સમયને માટે જ તેણે સંયમનું પાલન ४२पानु नथी पर सहा पासन ४२वानु छ. ४ह्यु प छ -आसुप्तेरामृतेःकाल त्याह જ્યાં સુધી શયન ન કરે અથવા દેહને ત્યાગ ન કરે, ત્યાં સુધી સાધુએ સંયમના For Private And Personal Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समर्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. अध्ययनोपस हारः नाऽनुध्यायाद् बहून् शब्दान् वाचो विग्लापनं हि तत् ॥ १ ॥ 'समिएउ समितस्तु - समितः समित्या युक्तः - तु शब्देन गुप्तियुक्तश्च भवेत् न तु यदा कदाचित् समितिगुप्तिरहितः किन्तु सर्वदा पञ्चसमितिगुप्तित्रययुक्तो भवेत् । तथा - 'पंच संवरसंबुडे' पञ्चसंवरसंवृतः, प्राणातिपातविरमणादिलक्षणपञ्च महाव्रतयुक्तः । तथा 'सिएहिं 'सितेषु गृहपाशादिषु सिताः बद्धा: - आसक्ताः ये ते सिताः -गृहास्थास्तेषु गृहस्थेषु असितः असितः - अनवबद्धः गृहस्थेषु मूर्च्छामकुर्वाणः । यथा पंके जायमानं जले च वर्धमानमपि कमलं न पंकेन जलेन वा स्पृष्टं भवति किन्तु निर्लिप्तमेव जलोपरि तिष्ठति तथैव तेषु सम्बन्धरहितो भवेत् । यदा गृहकलत्रादावासक्तैः सहापि संबन्धो निषिध्यते तदा का कथा गृहकलत्रादीनां साक्षात्संबन्धस्य | ४५९ वह जब तक शयन न करे अथवा देहका त्याग न करदे तब तक संयम के चिन्तन में ही काल व्यतीत करे वह कभी भी शब्द आदि विषयों का ध्यान न करे । वह तो वचनका विग्लापन है । 'समिए' का अर्थ है समिति से युक्त और 'तु शब्द से गुप्तियुक्त भी समझ लेना चाहिए | साधु कभी समिति और गुप्ति से रहित न हो किन्तु पांच समितिओंसे और तीन गुप्तिओं से सम्पन्न रहे । वह पांच संवरो से संवृत हो अर्थात् प्राणातिपातविरमण आदि पांच महाव्रतो से युक्त हो । गृह के फंदे में पडे हुए गृहस्थो में ममता स्थापिक न करे। जैसे कीचडमें उत्पन्न होने और जल मे बढनेवाला भी कमल कीचड या जलसे लिप्स नहीं होता, किन्तु निर्लिप्त रह कर ही जल के उपर स्थित रहता है, उसी प्रकार मुनि भी संसार से अलिप्त रहे । जब गृह और कलत्र आदि में ચિન્તનમાં જ કાળ વ્યતીત કરવા જોઈએ. તેણે શબ્દ આદિ વિષયેામાં મનને વાળવું જોઇએ નહી. તેનાથી તે તેણે દૂરજ રહેવુ જોઇએ. કારણ કે શબ્દાદિ વિષયેા સંયમના નિભાવમાં બાધક થઈ પડે છે. For Private And Personal Use Only "समिल" या यह थे सूचित रे तेषु समितिथी युक्त रहेषु लेाखे, ”તુ... આ પદના પ્રયોગ દ્વારા ગુપ્તિથી યુક્ત રહેવાનું સૂચન થયુ છે, સાધુએ સદા પાંચ સમિતિ અને ત્રણ ગુપ્તિથી યુકત જ રહેવુ જોઈએ. તેણે પ્રાણાતિપાતવિરમણ આદિ પાંચ પ્રકારના સવરનુ પાલન કરવુ જોઇએ, એટલે કે પાંચ મહાવ્રતનુ સમ્યક્ રીતે પાલન કરવું જોઇએ. તેણે ગૃહના ફંદામાં (બન્ધનમાં) સાયેલા ગૃહસ્થામાં મમતાભાવ રાખવા જોઇએ નહીં. જેમ કાદવમાં ઉત્પન્ન થનાર અને પાણીમાં વૃદ્ધિ પામનાર કમળ, કાદવ અને જહાથી અલિપ્ત જ રહે છે, એજ પ્રમાણે મુનિએ પણ સંસારથી Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे ___इत्यंभूतः सन् मुनिः 'परिव्वए' परिव्रजेत्-प्रव्रज्यां पालयेत् कियत्कालपर्यन्तं प्रव्रज्यां पालयेदित्याह- आमोक्खाय आमोक्षाय, अशेषकर्मविग़मस्वरूपमोक्षप्राप्तिपर्यन्तम् । यथा पथिकः प्रवासी यावत् पर्यन्तममिलपितस्थानं न प्रामोति तावत् पर्यन्तम् गमनाद्विनिवृत्तो न भवति, यथा वा नष्टद्रव्यो यावत्पर्यन्तं तद्रव्यं न प्राप्नोति तावत् पर्यन्तमन्वेषयत्येव, यथा तृप्त्यर्थीआतृप्ति भोजनान्न निवर्तते, यथा वा नधुपकूलान्वेषको यावन्नामोति नदीतटं तावन्न त्यजति नौकाम् , यथा वा कदलीफलार्थी यावन्नामोति कदलीफलं तावत्पर्यन्तं सिंचत्येव कदआसक्त (गृहस्थ) के साथ भी सम्बन्ध रखनेका निषेध किया गया है, तो साक्षात् गृह या कलत्र आदि के साथ संबंध रखनेकी तो बात ही दूर रही । इन सब गुणों से युक्त होकर मुनि प्रव्रज्याका पालन करें। वह कितने काल तक प्रव्रज्याका पालन करें ? इसका स्पष्टीकरण किया गया है समस्त कर्मों के क्षयस्वरूप मोक्षप्राप्तिपर्यन्त दीक्षाका पालन करें । जैसे प्रवासी-पथिक जब तक अपनी इष्ट मंजील तक नहीं पहुंच पाता तब तक चलना बन्द नहीं करता है या जिसकी कोईवस्तु गुम हो गई है वह उसके मिल जाने तक उसे ढूंढता ही रहता है अथवा जैसे तृप्तिका अभिलाषी तृप्त होने तक भोजन करना नहीं बंद करता या जैसे नदी के किनारका अन्वेषण करने वाला जब तक नदीका किनारा न पा ले तब तक नौकाका परित्याग नहीं करता, जैसे केले का इच्छुक जब तक केला फल नहीं અલિપ્ત રહેવું જોઈએ. જો ગૃહ, પુત્ર, પત્ની, પુત્રી આદિમાં આસકતગૃહસ્થની સાથે સંબંધ રાખવાનો નિષેધ કરાવે છે, તે પિતાના સંસારી સગાઓ સાથે તે સંબંધ જ કેવી રીતે રાખી શકાય? ઉપર્યુકત સઘળા નિયમોનું પાલન કરીને સાધુએ પિતાની પ્રવજ્યાનું પાલન કરવું જોઈએ. તેણે કેટલા કાળ સુધી પ્રત્રજ્યાનું પાલન કરવું જોઈએ? આ પ્રશ્નને જવાબ એ છે કે- સમસ્ત કર્મોનો ક્ષયસ્વરૂપ મેક્ષની પ્રાપ્તિ પર્યન્ત તેણે સંયમનું પાલન કરવું જોઈએ. જેવી રીતે પિતાના નિર્ણિત સ્થાને ન પહોંચે ત્યાં સુધી પ્રવાસી પિતાને પ્રવાસ ચાલુજ રાખે છે, અથવા કોઈ માણસની કઈ વસ્તુ ગૂમ થઈ ગઈ હોય તે તે વસ્તુ જ્યાં સુધી જડે નહીં ત્યાં સુધી તેની શોધ ચાલૂ જ રાખે છે, જેવી રીતે તૃપ્તિની અભિલાષાવાળો માણસ તૃપ્તિ ન થાય ત્યાં સુધી ભજન કરવાનું ચાલુ જ રાખે છે, અથવા નદી કે સાગરને કિનારે પહોંચવાની ઇચ્છાવાળો માણસ જ્યાં સુધી કિનારે ન પહોંચે ત્યાં સુધી નૌકાને પરિત્યાગ કરતા નથી જેવી રીતે કેળાં મેળવવાની ઈચ્છાવાળે મનુષ્ય જ્યાં સુધી કેળ પર કેળા ન પાકે. ત્યાં સુધી તેનું સિંચન For Private And Personal Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६१ समयार्थ योधिनी टोका प्र. श्रु. अ. १ उ. ४ अध्ययनोपसंहारः लीम् यथावा स्वस्थापितनिधिं नामोति यावत् तावत् पर्यन्तमन्वेषको न त्यजति दीपं तथा यावन्नावाप्य ते सकलदुःखनिवृत्यात्मको निरतिशयसुखावाप्तिलक्षणो मोक्षः तावत् पर्यन्तं मोक्षार्थिना संयमः पालनीय इति सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रति प्रत्याह- इत्येवं उपदेशः कृत इति दर्शयति- तिबेमि' इति ब्रीवमि- इति यथा भगवतः सकाशात् मया श्रुतं तथैव ब्रवीमि-तुभ्यं कथयामीति ॥ १३॥ इतिश्री विश्वविख्यात---जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलित-ललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक वादिमानमर्दक-श्री शाहूच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनाचार्य, पदभूषित कोल्हापुरराजगुरु बालब्रह्मचारि- जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालबतिविरचितायां सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य-समयार्थबोधिन्याख्यां व्याख्यायां समयनामकप्रथमाध्ययने चतुर्थोद्देशकः समाप्तः १-४ पालेता तब तक कदली को सींचता ही रहता है, जैसे गाडी हुई निधि को पाये विना अन्वेषक दीपक का त्याग नहीं करता उसी प्रकार जब तक समस्त दुःखोको दूर करनेवाले और सर्वोत्तम सुखस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति न हो जाय तब तक मोक्षार्थी को संयमका पालन करना चाहिए । सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं- जिस प्रकार मैंने भगवान् के समीप सुना है, उसी प्रकार तुमसे कह रहा हूँ। १३ ।। ॥ प्रथम अध्ययनका चतुर्थ उद्देशक समाप्त ॥ ॥ प्रथम अध्ययन समाप्त ॥ ક્યાં જ કરે છે, જેવી રીતે દાટેલા ભંડારને પ્રાપ્ત કર્યા વિના અન્વેષક દીપકને ત્યાગ કરતે નથી, એજ પ્રમાણે સમસ્ત દુઃખને નાશ કરનાર અને સર્વોત્તમ સુખસ્વરૂપ મેક્ષની જ્યાં સુધી પ્રાપ્તિ ન થાય ત્યાં સુધી સાથ સાધુએ સંયમનું પાલન કરવું જોઈએ. સુધર્મા સ્વામી જંબૂ સ્વામીને કહે છે કે આ બધી વાત મેં મહાવીર પ્રભુની સમીપે શ્રવણુ કરી છે, અને તેમના કથનમાં સહેજ પણ ફેરફાર કર્યા વિના તમારી પાસે હું આ કથન કરી રહ્યો છું " ૧૩ 1 ને પ્રથમ અધ્યયનને ઉદેશક સમાપ્ત . પ્રથમ અધ્યયન સમાપ્ત ] For Private And Personal Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६२ सूचकृताङ्गसूत्रे ॥ अथ द्वितीयमध्ययनम् ॥ प्रथमोद्देशकः उक्तं प्रथममध्ययनं, साम्प्रतं द्वितीयं वैतालीयाख्यमध्ययनं प्रारभ्यते, अस्य कर्मविदारकत्वेन प्राकृतत्त्वाद् वैतालीयमिति नाम, यद्वा वैतालीयच्छन्दोनिवद्धत्वाद् वैतालीयमिति नाम । अस्य पूर्वण सहायमभिसम्बन्धः पूर्वाध्ययने स्वसमयगुणाः, परसमयदोषाश्च प्रतिपादिताः, तांश्च ज्ञात्वा यथा कर्मविदार्यते तथा बोधो विधेयः, इत्येवमस्मिन् द्वितीयाध्ययने प्रतिपादयिष्यते । तथा प्रथमाध्ययनस्यान्तिमोद्देशकस्यान्तिमगाथायां यदुक्तम् 'आमोक्खाय परिचए' मोक्ष प्राप्तिपर्यन्तं प्रव्रज्यामनुपालयेदित्यनुसृत्य भगवानादिनाथो भरततिरस्कृतान् स्वसंसारिपुत्रानुपदिशन्नाह-'संबुज्झह' इत्यादि । द्वितीय अध्ययन-का पहला उद्देशा प्रथम अध्ययन कहा जा चुका। अब वैतालीय नामक दुसरा अध्ययन प्रारंभ किया जाता है । कौका विदारक होने के कारण प्राकृतभाषा में इसका 'वैतालीय' नाम है। पहले अध्ययनके साथ इसका यह सम्बन्ध है -प्रथम अध्ययनमें स्वसमय के गुणो और परसमयके दोषांका प्रतिपादन किया गया है। उन गुणदोषोंको जान कर ऐसा बोध प्राप्त करना चाहिए जिससे कर्मका विदारण हो सके । यह विषय इस दुसरे अध्ययन प्रतिपादन किया जाएगा। तथा प्रथम अध्ययनके अन्तिम उद्देशककी अन्तिम गाथा में कहा है कि मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त प्रव्रज्या का पालन करना चाहिए । इस कथनका अनुसरण करके भगवान् आदिनाथ ने भरतके द्वारा तिरस्कृत अपने सांसारिक पुत्रोको जो उपदेश दिया था, वह कहते हैं- संबुज्झह' इत्यादि । - द्वितीय अध्ययन - देश पडेसो પહેલું અધ્યયન પૂરું થયું હવે ' વૈતાલીય” નામનું બીજું અધ્યયન શરૂ થાય છે. કર્મોનું વિદારક હોવાને કારણે પ્રાકૃત ભાષામાં તેનું નામ “વૈતાલીય છે. પહેલા અધ્યયન સાથે તેને સંબંધ આ પ્રકાર છે. પહેલા અધ્યયનમાં સ્વસમયના ગુણનું અને પરસમયના દોષોનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. આ ગુણદોષને જાણીને એ બોધ પ્રાપ્ત કરવો જોઈએ કે જેના દ્વારા કર્મનું વિદારણ થઈ શકે આ બીજા અધ્યયનમાં આ વિષયનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. પહેલા અધ્યયનના છેલ્લા ઉદ્દેશકની છેલ્લી ગાથામાં એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે સાધુએ મેક્ષથી પ્રાપ્તિ થાય ત્યાં સુધી સંયમનું પાલન કરવું જોઈએ. આ કથનનું અનુસરણ કરીને ભગવાન આદિનાથ, ભરત દ્વારા તિરસ્કૃત થયેલા પિતાના સાંસારિક પુત્રોને र पहेश माथ्यो हतो, तेनु सूत्रा२ मडी ४थन ४२ छे "संबुनह" त्याह For Private And Personal Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. क्षु. अ. १ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ४६३ मूलम्— संबुज्जह किं न बुज्झह संबोही खलु पेच्च दुल्लहा । गोहूवणमंति राईओ नो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥१॥ छाया संबुध्यध्वं किं न बुध्यध्वं संबोधिः खलु प्रेत्य दुर्लभा । नो हुथव नर्मति रात्रयः नो सुलभं पुनरपि जीवितम् ॥१॥ अन्वयार्थः हे भव्याः ! (संबुज्झ ) संबुध्यध्वम् यूयं बोधं प्राप्नुत । किं न बुज्झह । किं न बुध्यध्वं कथं न बोधं प्राप्नुत । यतः (पेच) प्रेत्य - परभवे (संवोही ) संबोधि :- जैनधर्मप्राप्तिः (खल) खलु निश्वयेन (दुल्लहा ) दुर्लभा - दुःखेन लभ्या शब्दार्थ - हे भव्यो ' संबुज्झह-संबुध्यध्वम्' तुम बोध प्राप्त करो 'किं न बुज्झह- किं न बुध्यध्वम् ' कयों बोध प्राप्त नहीं करते ? 'पेच्च - प्रेत्य' मृत्युके अनन्तर ' संवोही - संबोधि ः ' जैनधर्म प्राप्ति ' खलु - खलु ' निश्चयसे 'दुलहा - दुर्लभ, दुर्लभ है 'राईयो - रात्रयः' वीतिहुई रात्रियां 'मोहवणमंतिनैवोपनमंति' लोटकर पीछी नहीं आती है तथा 'जीवियं जीवितम् संयम जीवन 'पुणरावि - पुनरपि फिर 'नो सुलभ-न सुलभम् सुलभ नहीं है ॥१॥ 1 " -अन्वयार्थ हे भव्यो ! बोध प्राप्त करो। तुम क्यों बोध नहीं प्राप्त करते हो ? परभव में जैन धर्मको प्राप्ति निश्चय ही दुर्लभ है । व्यतीत हुई रात्रियां फिर शब्दार्थ- हे लव्यो ! 'सं बुझह - सं बुध्यध्वम्' तमे मोघ प्राप्त 'किंन बुज्झह- किं न बुध्यध्वम्' शा भाटे मोघ प्राप्त नथी उरता ? 'पेच्च-प्रेत्य' मृत्युनाअनन्तर 'सोही संधिः नैन धर्म प्राप्ति 'खलु खलु' निश्ययथी 'दुलहा' - दुर्लभा ' इस छे. राईयो - रात्रयः वितेजी रात्रीयो 'पोहूवनमंति-नैवोपनमति, इरीथी पाछी भावती नथी, तथा 'जीवियं जीवित" संयमवन पुणरात्रि - पुनरपि' इरीधी 'ना सुलभ agon' yan del. 11 19 11 - सूत्रार्थ - હે ભવ્યે। ? બેધ પ્રાપ્ત કરો તમે શા કારણે એધ પ્રાપ્ત કરતા નથી ? પરભવમાં જૈન ધર્મની પ્રાપ્તિ ચોક્કસ દુર્લભ જ છે. વ્યતીત થયેલી રાત્રિએ પાછી ક્રુતી નથી, મનુષ્ય For Private And Personal Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६४ सूत्रकृतागसूत्रे भवति । पुनश्च (राईओ) रात्रयः-व्यतीता रात्रयः (णोहवणमंति) नैवोपनमंति नैव पुनरागच्छन्ति, तथा (जीवियं) जीवितं-मनुष्यजन्मादिदशप्रकारयुक्तं दशदृष्टान्तजीवनं (पुणरावि) पुनरपि-भूयो भूयः)नो सुलभं-न सुलभं सुलभं नास्ति, अतो बोधाय यत्नो विधेय इति भावः ॥१॥ टीकाहे भव्याः । यूयं 'संबुज्नह' संबुध्यध्वं बोधं प्राप्नुत अष्टविधकर्मविदारक ज्ञान दर्शनचारित्रतपश्चर्यात्मकं मोक्षमार्ग शरणीकुरुध्वम् । 'किं न बुज्झह' कि न बुध्यध्वं यदीदं राज्यं क्षणभङ्गुरं सन्ध्यारागसनिभं कुञ्जरकरचञ्चलं कुशाग्रस्थितजलबिन्दुवदस्थिरं परित्यज्य अचलमव्यावाघमरुजमनन्तमक्षयमपुनरावृत्तिकप्राज्य मोक्षराज्यमस्ति तदर्थ कथं न बोधं कुरुत, उक्तं चनहीं लौटतीं और मनुष्यजन्म आदि दश विशेषताओं से युक्त जीवन वारंवार सुलभ नहीं है। अतएव बोध प्राप्त करने के लिए यत्न करना चाहिए ॥ १ ॥ ____-टीकार्थहे भव्यजीवो ! बोध प्राप्तकरो आठ प्रकार के कर्मों का विदारण करनेवाले ज्ञानदर्शन चारित्र तपश्चर्यात्मक मोक्षमार्गका शरण ग्रहण करो। बोध क्यों नहीं प्राप्त करते ? क्षण भरमें विनिष्ट होने वाले, सन्ध्याकालीन लालिमाके समान अस्थायी, हाथीकी सूंडके समान चंचल तथा दुवकी नौक पर स्थित जलबिन्दु के समान अस्थिर इस राज्यको त्याज्य समज्ञ कर अचल, अव्याबाध, अरुज (रोगांसे रहित) अनन्त अक्षय और पुनरागमन से रहित विराष्ट्र जो मोक्ष राज्य है, उसके लिए बोध क्यो नहीं प्राप्त करते ? कहा हैજન્મ આદિ દસ પ્રકારની વિશિષ્ટતાઓથી યુક્ત જીવન ફરી સપડવું સુલભ નથી. તેથી આ મનુષ્ય જીવન પ્રાપ્ત કરીને બધ મેળવવા યત્ન કરે જોઈએ ૧ - टी . - હે ભવ્ય છે? બેધ પ્રાપ્ત કરે. આઠ પ્રકારનાં કર્મોનું વિદારણ કરનાર જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર અને તપશ્ચર્યાત્મક મેક્ષમાર્ગનું શરણું ગ્રહણ કરો, તમે શા કારણે બોધ પ્રાપ્ત કરતા નથી ? ક્ષણ માત્રમાં વિનષ્ટ થનારા, સંધ્યાકાલીન લાલિમાના સમાન અસ્થાયી, હાથીની સૂદ્ધના સમાન ચંચળ, તથા દર્ભની ટોચ પર પડેલાં જળબિંદુ સમાન અસ્થિર આ રાજ્યને ત્યાયે સમજીને અચલ, અવ્યાબાધ, અશુજ (રેગથી રહિત) અનંત, અક્ષય અને પુનરાગમનથી રહિત એવુ જે વિરાટ મિક્ષરાજ્ય છે. તેને પ્રાપ્ત કરવાને માટે તમે શા માટે For Private And Personal Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनो टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ४६५ "निर्वाणादिसुखप्रदे नरभवे जैनेन्द्रधर्मान्विते, लब्धे स्वल्पमचारुकामजसुखं नो सेवितुं युज्यते । वैडूर्यादिमहोपलौघनिचिते प्राप्तेऽपि रत्नाकरे, लातुं स्वल्पमदीप्तिकाचशकलं कि साम्प्रतं साम्प्रतम् ॥१॥ इति । ' इति विचिन्त्य मोक्षाय मतिं कथं न कुरुध्वमिति भावः । यतः 'पेच' प्रेत्य परभवे मनुष्यातिरिक्ते भवे 'संबोही' संबोधिः जैनधर्मप्राप्तिः 'दुल्लहा' दुर्लभा-लब्धुमशक्या अकृतधर्माणां मनुष्यातिरिक्तबोधिप्राप्तेरसम्भवात् । पुनश्च-'राईओ' रात्रयः ‘णो हू' नैव 'हू' एवकारार्थे, 'उवणमंति' उपनमन्तिआगच्छन्ति-व्यतीता रात्रयः उपलक्षणादिवसा न पुनरावर्तन्ते इति भावः । 'निर्वाणादि सुखप्रदे, इत्यादि। -अन्वयार्थजिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रतिपादित धर्म से युक्त और निर्वाण आदिका सुख प्रदान करनेवाले मानवभवके प्राप्त हो जाने पर स्वल्प और कुत्सित कामजन्य सुखका सेवन करना उचित नहीं है। वैडूर्य आदि महान् रत्नोंके समूह से व्याप्त रत्नाकर (सागर)को प्राप्त करके भी तुच्छ, दीप्तिहीन काचके टुकडेको लाना क्या उचित है ? कदापि नहीं।' ऐसा विचार करके मोक्षके लिए विचार क्यों नहीं करते हो ? क्योंकि मनुष्यसे अन्यभव में बोधि जिनधर्मकी प्राप्ति होना कठिन है, क्योंकि जो धर्मका सेवन नहीं करते उन्हे मनुष्य से अन्य भवकी प्राप्ति होती है अर्थात् पशु आदिका भव प्राप्त होता है, और वहां बोधि प्राप्त होना संभव नहीं है। ___इसके अतिरिक्त, वीती हुई रात्रिया और उपलक्षण से दिन वापिस माध प्राप्त ४२ता नथी ? ४यु ५४ छ । “निर्वाणादि सुखप्रदे” त्याह- જિનેન્દ્ર ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદિત ધર્મથી યુક્ત અને નિર્વાણ આદિનું સુખ પ્રદાન કરનારે માનવભવ પ્રાપ્ત થયા બાદ સ્વલ્પ અને કુત્સિત કામજન્ય સુખનું સેવન કરવું તે ઉચિત નથી. વંડૂર્ય આદિ મહાન રત્નના સમૂહથી વ્યાસ્રનાકર (સમુદ્ર)ને પ્રાપ્ત કરવા છતાં પણ તુચ્છ, કાન્તિહીન કાચના ટુકડાને ગ્રહણ કરે શું ઉચિત છે? કદાપિ નહીં. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને તમે મેક્ષ રાજ્યની પ્રાપ્તિ માટે વિચાર કેમ કરતા નથી આ મનુષ્ય ભવમાં જ બેધિની પ્રાપ્તિ થઈ શકે છે, એ સિવાયના કેઈ પણ ભવમાં બોધિની જૈન ધર્મની) પ્રાપ્તિ થતી નથી. જે માણસ ધર્મનું સેવન કરતું નથી, તેને મનુષ્ય ભવની ફરી પ્રાપ્તિ થતી નથી, એટલે કે તે મનુષ્યભવનું આયુષ્ય પૂરું કરીને પશ આદિને ભવ પ્રાપ્ત કરે છે, અને તે ભવમાં બોધિ પ્રાપ્ત થવાને સંભવ જ નથી. , વ્યતીત થઈ ગયેલી રાત્રિએ (અને ઉપલક્ષણથી વ્યતીત થયેલા દિવસો) પાછી ફરતી નથી સંયમને માટેના નીચે દર્શાવેલા દસ અવસરે ફરી સરલતાથી પ્રાપ્ત થવાના નથી. For Private And Personal Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'पुणरवि' पुनरपि 'जीवियं' जीवितम् दशभेदभिन्नं संयमजीवनम् 'नो सुलभं' नो सुलभं नो सुप्रापं भवति । ते दशभेदाः (बोल) यथा मनुष्यजन्म१, आर्यक्षेत्रमर, सुकुलम् ३, दीर्घमायुः पञ्चेन्द्रियपूर्णत्वम्५, शरीरनैरुज्यम्६, साधुसङ्गतिः७, धर्मश्रवणम्८, धर्मश्रद्धा९, धर्मे वीर्यस्फोरणं चेति१० इत्येतद्दशप्रकारकसाधनसम्पत्तिर्मनुष्याणां न सुप्रापा भवति सा युष्माकमुपस्थिता तथापि किमर्थमत्र न पराक्रमत, किमेतेन क्षणध्वंसेन राज्येन युष्माकमिति श्रीभगवदादिनाथस्योपदेश इति । अस्मिन् श्लोके वतालीयं छन्दः तल्लक्षणन्तु षड्विषमेऽष्टौ समे कलास्ताश्च समे स्युनों निरंतराः । न समात्र पराश्रिता कला वैतालीयेन्तरे रलौगुरुः ॥ १॥ नहीं लौटते । दश प्रकारका संयम जीवन भी फिर सरलता से मिलनेवाला नहीं हैं। वे दश प्रकार ये हैं (१) मनुष्य जन्म (२) आर्यक्षेत्र (३) मुकुल (४) दीर्घआयु (५) पांचों इन्द्रियोंकी परिपूर्णता (६) शरीरकी नीरोगता साधुओंकी संगति (८) धर्मश्रवण (९) धर्मश्रद्धा और (१०) धर्म में पराक्रम करना। दश प्रकारके इन साधनोंकी सम्पन्नता सभी मनुष्योंको सरलता से प्राप्त नहीं होती और वह तुम्हे प्राप्त है फिर तुम इस विषय में पराक्रम क्यों नहीं करते ? इस क्षणविनश्वर राज्य से तुम्हारा क्या हित होता हैं। यह भगवान् श्री आदिनाथका उपदेश अपने सांसारिक अठारह पुत्रोंके प्रति है । इस श्लोक में वैतालीय नामक छन्द है । इस छन्दका लक्षण इस प्रकार है-'षड् विषमेऽष्टौ' इत्यादि । तस विशिष्ट अवस। नीये प्रमाणे छे. (१) मनुष्य म; (२) माय क्षेत्र, (3) सुक्षण (४) ही आयुष्य, (५) पांये धन्द्रियानी ५२पूत। (६) शरीरनी नीरोगता (७) साधुसानो योग (८) यमः श्रपा (6) धर्म श्रद्धा भने (१०) धर्ममा पराभ દશ પ્રકારના આ સાધનની સંપન્નતા સઘળા મનુષ્યને સરળતાથી પ્રાપ્ત થતી નથી પરંતુ તમને આ દસે સાધને પ્રાપ્ત થયાં છે, છતાં તમે શા માટે મોક્ષ પ્રાપ્તિ માટે પ્રયત્ન કરતા નથી? આ ક્ષણવિનશ્વર રાજ્યથી તમારું શું હિત સધાવાનું છે? ભગવાન આદિનાથે તેમના ૧૮ સાંસારિક પુત્રોને આ પ્રકારનો ઉપદેશ આપે હતો. - આ શ્લેક તાલીચ છન્દમાં લખાય છે. વૈતાલીય છન્દનું લક્ષણ આ પ્રમાણે છે. "पह विषमेऽष्टौ" त्याह For Private And Personal Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समया) बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ४६७ अस्यार्थः-प्रथमतृतीयचरणयोः आदितः षड्मात्रा, ततः रगणः (sis) ततः एको लघुः, ततः एको गुरुवर्णः । द्वितीयचतुर्थचरणयोस्तु आदितः अष्टौ मात्रा ततः रगण, ततः एको लघुः, ततः एको गुरुर्वर्णों भवति । इति ॥१॥ संसारिणः प्रायः सोपक्रमायुष्का भवन्तीति तेषामनियतायुः प्रदशर्यवाह --'डहराबुहा' इत्यादि । मूलम् डहरा बुड्ढा य पासह गम्भत्था वि चयंति मोणवा । सेणे जइ वट्टयं हरे एवं आउक्खयंमि तुट्टई ॥२॥ छाया-- डहरा वृद्धाश्च पश्यत गर्भस्था अपि च्यवन्ति मानवाः । श्येना यथा वर्तक हरेद् एवमायुः क्षये त्रुटयति ॥२॥ प्रथम और तीसरे चरणके प्रारंभ में छह मात्राएँ हो, फिर रगण (sis) हो, फिर एक लघु अक्षर और एक गुरु (दीर्घ) अक्षर हो। द्वितीय और चतुर्थ चरणमें आरंभ में आठ मात्राएँ हो, फिर रगण हो फिर एक लघु और एक गुरु वर्ण हो तो वैतालिक छन्द कहलाता है ॥१॥ संसारी जीव प्रायः उपक्रम युक्त आयुवाले होते हैं, अतएव उनकी अनियत आयु दिखलाने के लिए कहते हैं-- 'डहरा वुड्ढा' इत्यादि । शब्दार्थ-डहरा-डहराः' बालक 'य-च' और 'बुडूढा-वृद्धाः' वृद्ध 'गम्भत्थावि-गर्भस्था अपि' गर्भमें रहे हुए बालकभी ‘माणवा-मानवाः' मनुष्य 'चयंति-व्यवन्ति' अपने जीवनको छोड देतेहैं 'पासह-पश्यत' देखो ‘जह-यथा' जैसे 'सेणे-श्येनः' श्येनपक्षी (वाजपक्षी) 'वट्टयं-वर्तक' - પહેલા અને ત્રીજા ચરણની શરૂઆતમાં છે માત્ર હોય, પછી રગણ (ડ, હાય પછી એક લઘુ અક્ષર અને એક ગુરુ (દીર્ઘ) અક્ષર હોય, બીજા અને ચોથા ચરણથી શરૂઆતમાં આઠ માત્રાઓ હોય, ત્યાર બાદ રગણુ હોય અને ત્યાર બાદ એક લઘુ અને એક ગુરુ વર્ણ હોય, એવા ઇન્દ્રનું નામ “વૈતાલિક છન્દ” છે. સંસારી જીવો સામાન્ય રીતે ઉપકમયુક્ત આયુવાળા હોય છે તેથી તેમના અનિય मित आयुनु प्रतिपादन ४२वा भाटे सूत्रा२ ४ छे 3-" डहराबुड्ढा" त्याहि शहाथ-'डहरा-हरा' मा७४ 'च-च' मने 'वुढा वृद्धाः' वृद्ध त्या 'गल्भरथाविगर्भस्था अपिलमा रोडसा 18 ५७ 'माणवा-मानवाः' मनुष्य 'चयंति-व्यवन्ति' पाताना वनने छ। छे. 'पासई-पश्यत गुवा 'जह-यथा' भ 'सेणे-श्येम' For Private And Personal Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६८ सूत्रकृताङ्गसूत्रो ___ अन्वयार्थ:(डहरा) डहरा:-बालकाः (य) च--तथा (बुढ्ढा) वृद्धाः (गब्भत्थावि) गर्भस्था अपि (माणवा) मानवाः- मनुष्याः (चयंति) च्यवन्ति- म्रियन्ते । इति (पासह) पश्यत (जह) यथा (सेणे) श्येनः 'बाज' इति प्रसिद्धः पक्षिविशेषः (वट्टयं) वर्तकं-'बटेर' इति भाषाप्रसिद्धं पक्षिविशेषम् (हरे) हरेत्-- मारयेत् एवं मृत्युः प्राणिनं हरतीति भावः। (एवं) एवम्-अनेन प्रकारेण (आउक्खयमि) आयुःक्षये प्राणी (तुट्टई) त्रुटयति म्रियते जीवन व्यपगतं भवति ॥२॥ टीका'डहरा' डहरा:-बालकाः 'डहर' इति बालकवाचकोऽयं देशीयशब्दः, 'य' च तथा 'वुड्ढा वृद्धाः वयोवृद्धा रोगवृद्धा वा तथा 'गब्भत्थावि' गर्भस्था वर्तक पक्षीको 'हरे-हरेत् ' मारताहै ‘एवं-एवम् ' इसी प्रकार ‘आउक्खयंमि आयुःक्षये ' आयुके क्षय होनेपर 'तुट्टई-त्रुटयति' जीवन नष्ट हो जाता है ॥२॥ ___अन्वयार्थ देखो बालक और वृद्ध सभी यहां तक कि गर्भ में स्थित मनुष्य भी जीवनका परित्याग कर देते हैं। जैसे वाज, वटेर पक्षीको मार डालता है उसी प्रकार आयुष्यका क्षय होने पर जीवन नष्ट हो जाता है। तात्पर्य यह है कि इस जीवनकी कोई अवधि निश्चित नहीं है यह किसी भी समय समाप्त हो जाता है ॥२॥ टीकार्थ - डहर' यह देशी शब्द 'बालक' अर्थका वाचक है। वृद्धका अर्थ वयोवृद्ध या रोगवृद्ध है। अभिप्राय यह है कि बालक हो चाहे वृद्ध, या गर्भ में श्येनपक्षी (मा. पक्षी ) “वट्टय-वर्तक" वत४५क्षीने 'हरे-हरेत् ' भारे छ. 'एवं-एवम् मा अरे 'आउखय मि-आयुःक्षये आयुष्यना क्षय यया पछी 'तुट्टई-त्रुटयति જીવન નષ્ટ થઈ જાય છે. આ ૨ જુઓ, બાલક યુવાન, વૃદ્ધ, એ સૌ જીવનને પરિત્યાગ કરે છે. અરે? ગર્ભમાં રહેલા જીવના પ્રાણ પણ વિનષ્ટ થઈ જાય છે. જેવી રીતે બાજપક્ષી બતકને મારી નાખે છે. એ જ પ્રમાણે આયુષ્યને ક્ષય થાય ત્યારે જીવન નષ્ટ થઈ જાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે આ જીવનની કઈ અવધિ નિશ્ચિત નથી, તે ગમે તે સમયે સમાપ્ત થઈ જાય છે. સૂત્રાર્થ __-टाथ -- "डहर" मा आमही यह माना' मनु पाय वृद्ध' मा ५४ क्योवृद्ध અને રેગવૃદ્ધનું વાચક છે ચાહે બાલક હેય, ચાહે વૃદ્ધ હેય, ચાહે ગર્ભમાં રહેલે For Private And Personal Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir trafat at प्र. श्रु. अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ४६९ अपि गर्भे वर्त्तमाना अपि 'माणवा' मानवाः मनुष्याः 'चयंति' च्यवन्ति म्रियन्ते, अथ केचन कोमलायां बालावस्थायामेव म्रियन्ते, केचन जराजर्जरितावस्थायां रोगप्राप्तजरावस्थायां वा म्रियन्ते केचन च गर्भक्षरणादिकारणवशाद गर्भावस्थायामेव म्रियन्ते, आयुषोऽपायबहुलत्वाद् सोपक्रमत्वाच्च यस्यां कस्याञ्चिदव्यवस्थायां प्राणान् त्यजन्तीति पश्यतेति भावः । इति है पुत्राः यूयं 'पासह ' पश्यत विवेकबुद्धया विलोकयत । अस्मिन्नर्थे दृष्टान्तः 'जहा' यथा 'सेणे' श्येनः 'बाज' इति लोकप्रसिद्धः पक्षिविशेषः 'वट्टयं' वर्त्तकं 'बटेर' इति लोकप्रसिद्धं पक्षिविशेषं 'हरे' हरेत् गृहीत्वा गच्छेत् तथा मृत्युरपि प्राणिनः प्राणान् अपहरति । उक्तञ्च - " अशनं मे वसनं मे जाया मे बन्धुवर्गों मे । इति मे मे कुर्वाणं, कालवृको हन्ति पुरुषाजम् ||१|| इति । ही स्थित मनुष्य कयों न हो सभी मृत्युको प्राप्त हो जाते हैं । आशय यह है कि कोई कोई मनुष्य कोमल बाल्यावस्था में ही मर जाते हैं, कोई जरासे जर्जरीत या रोगसे जर्जरीत होने पर मर जाते हैं और कोई गर्भपात आदि कारणोंसे गर्भावस्था में ही मरण प्राप्त करते हैं, क्योंकि यह आयु अनेक विघ्नवाघाओंसे युक्त है और सोपक्रम है । अतएव किसी भी अवस्था में वह समाप्त हो जाता है और मनुष्य प्राण त्याग देता है, हे पुत्रो ! विवेक बुद्धिसे इस संसारको देखो । जैसे वाजपक्षी बटेर पक्षीको पकड कर ले जाता है, उसी प्रकार मृत्यु प्राणियोंके प्राणोंको अपहरण कर लेता है । कहा भी है--' अशनं मे वसनं मे' इत्यादि । 'मेरे अशन है, मैंरे वसन (वस्त्र) है, मेरी पत्नी है, मेरे बन्धुवर्ग हैं, इस प्रकार मनुष्य मेरे मेरे 'संस्कृत भाषा में 'मे मे' करता रह जाता है જીવ હેાય પરંતુ કાઇને મૃત્યુ છેાડતુ નથી, કથનના ભાષા એ છે કે કોઈ કોઈ મનુષ્ય બાલ્યાવસ્થામાં જ મરણ પામે છે. કોઇ ભર યુવાનીમાં મરણ પામે છે, કોઈ જરા અથવા રાગથી જરિત થઈ ને મરણ પામે છે અને કોઈં કોઈ જીવ ગર્ભાપાત આદિ કારણેાને લીધે ગર્ભાવસ્થામાં જ મરણ પ્રાપ્ત કરે છે. કારણ કે મનુષ્યનુ આયુષ્ય અનેક વિઘ્નાથી યુક્ત અને સાપક્રમ (ઉપક્રમયુક્ત) છે. તેથી કોઈ પણ અવસ્થામાં તે આયુષ્ય સમાપ્ત થઈ જવાને કારણે માણસનાં પ્રાણ ચાલ્યા જાય છે માટે હૈ પુત્રો ! વિવેક બુદ્ધિથી સ ંસારી જીવાની આ સ્થિતિ સમજી લે. જેવી રીતે ખાજ પક્ષી ખતર્કને પકડીને લઈ જાય છે, એજ પ્રમાણે મૃત્યુ પ્રાણીઓના પ્રાણાનું અપહરણ કરી લે છે કહ્યું પણ છે કે अशनं मे वसनं मे" इत्याहि આ મારૂ અશન ખાદ્ય સામગ્રી છે, આ મારૂ વસન વચ્ચેા છે, આ મારી પત્નીં For Private And Personal Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासूत्रे पुनश्च-व्योम्नैकान्तविहारिणोऽपि विहगाः सम्प्राप्नुवन्त्यापदं, वध्यन्ते वधकैरगाधसलिलान्मत्स्याः समुद्रादपि । दुर्नीतं किमिहास्ति किं सुचरितं कः स्थानलाभे गुणः, कालो हि व्यसनप्रसारितकरो गृह्णाति दुरादपि ॥१॥ इति । ‘एवं' एवम् अनेनैव प्रकारेण निरुपक्रमसागरोपमपल्योपमायुष्कोऽपि 'आउक्खयम्मि' आयुःक्षये-स्वायुषो विनाशे तैलाभावे प्रदीपवत् 'तुट्टइ' त्रुटयतिविनश्यति । एवं हे पुत्राः! एवंविधसंसारस्वरूपं ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया परित्यज्य प्राज्याक्षय्यमोक्षराज्यप्राप्तये प्रयतध्वमिति भावः ॥२॥ और कालरूपी वृकू (भेडिया) आकर मनुष्योंको पकड ले जाता है।' और कहा भी है-' व्योम्नैकान्तविहारिणो' इत्यादि। 'एकान्त आकाश में विचरण करने वाले पक्षी भी मृत्युको प्राप्त हो जाते हैं, जैसे मच्छीमार अथाह समुद्र में से भी मत्स्योको बन्धन में बांध लेते हैं। इस संसारमें न तो दुराचार से बचाव हो सकता है, न सदाचार से। अच्छे स्थानकी प्राप्ति होनेसे भी कोई लाभ नहीं होता । अपने स्वभावसे ही हाय फैलाए हुए काल दूर से भी प्राणिोंको दबा देता है।' इसी प्रकार निरुपक्रम सागरोपम और पल्योपम की आयुवाले भी आयुका क्षय होनेपर, तेलके अभाव में दीपककी तरह, नष्ट हो जाते है। हे पुत्रो ! संसारके ऐसे स्वरूपको ज्ञपरिज्ञा से जानकर और प्रत्याख्यान परिज्ञासे त्याग कर विशाल और अक्षय साम्राज्यको प्राप्त करने का प्रयत्न करो ॥२॥ છે, આ મારા બધુઓ છે આ પ્રકારે માણસ મારા માટે કરતે રહી જાય છે, અને કાળરૂપી વરુ આવીને માણસને પકડીને લઈ જાય છે” पणी से पशु ४युं छे 3- “व्योम्नेकान्तविहारिणो" या आन्त शर्मा વિચરતું પક્ષી પણ મેતથી બચી શકતું નથી, અગાધ સમુદ્રમાં રહેલાં માછલાઓને પણ માછીમાર જાળમાં પકડી લે છે, એજ પ્રમાણે આ સંસારમાં સદાચારથી પણ બચાવ (મતની સામે રક્ષા) થઈ શકતી નથી અને દુરાચારથી પણ બચાવ થઈ શકતે નથી ગમે તેવા સારા સ્થાનનો આશ્રય લેવા છતાં પણ માણસ મતથી બચી શકતા નથી કાળ દૂરથી પણ હાથ લંબાવીને પ્રાણીઓને જકડી લેવાને સમર્થ છે, એજ પ્રમાણે નિરુપકેમ સાગરોપમ અને પલ્યોપમ કાળના આયુષ્યવાના છે પણ આયુને ક્ષય થતાં નષ્ટ થઈ જાય છે જેમ કેડિયામાં તેલ ખૂટી જતાં દીવે. હોલવાઈ જાય છે એ જ પ્રમાણે આયુને ક્ષય થતાં છે પણ મરણ પામે છે માટે, હે પુત્ર ! સંસારના આ પ્રકારના સ્વરૂપને પરિજ્ઞા વડે જાણીને અને પ્રત્યાખ્યાન પરિણા વડે ત્યાગીને વિશાળ અને અક્ષય ક્ષસામ્રાજ્યને પ્રાપ્ત કરવા માટે પ્રયત્ન કરે છે ૨ For Private And Personal Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.२ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ४७१ पुनः प्रवज्याकारणभूतं संसारस्वरूपं दर्शयति-'मायाहिं इत्यादि । । मूलम्--- मायाहिं पियाहिं लुप्पइ, नो सुलहा सुगई य पेचओ। ऐयाई भयाई पेहिया, आरंभाविरमेज सुव्वए ॥३॥ छाया-- मातृभिः पितृभिश्च लुप्यते नो सुलभा सुगतिश्च प्रेत्य । एतानि भयानि प्रेक्ष्य आरंभाद्विरमेत मुव्रतः ॥३॥ अन्वयार्थ:कश्चिदद्विवेकविकलः (मायाहि) मातृभिः (पियाहिं) पितृभिः मातृपित पुनः प्रव्रज्या के कारणभूत संसारके स्वरूप को दिखलाते हैं—'मायाहिं' इत्यादि । शब्दार्थ- मायाहि-मातृभिः ' माताकेद्वारा 'पियाहिं-पितृभिः' पिताके द्वारा ' लुप्पइ-लुप्यते ' संसारमें भ्रमणकराये जाते हैं ' य-च ' और 'पेच्चओ प्रेत्य' उनके मरने के पश्चात् 'सुगई-सुगतिः सद्गति ‘नो सुलहा-नोसुलभा' मुलभनहीं है, अतः 'सुव्वए--सुव्रतः' विवेकशील पुरुष 'एयाई--एतानि ' पूर्वोक्तमाता पिताके स्नेह बधनरूप ‘भयाहि-भयानि' भयको 'पेहिया--प्रेक्ष्य' ज्ञपरिज्ञासे जानकर 'आरंभा-आरभ्भात्' सावद्यअनुष्ठानोंसे 'विरमेज्ज-विरमेत ' प्रत्याख्यानपरिज्ञासे विरक्त होजावे ॥३॥ -अन्वयार्थकोइ कोई अविवेकी जन माता और पिताके प्रति अनुराग के कारण विनष्ट हो जाता है अर्थात् संसार में परिभ्रमण करता है। ऐसे प्राणीको સૂત્રકાર પ્રવજ્યાના કારણભૂત સંસારના સ્વરૂપનું વિશેષ વર્ણન કરતાં કહે કે "मायाहि" त्याह शहाथ-'मायाहि-मातृभिः' भाताना द्वारा 'रियाहिं-पितृभिः' पिताना द्वारा 'लुप्पई-लुप्यते संसारमा प्रभात ४२२वाय छे. 'य-च' मने 'पेच्चओ-प्रेत्य' तेमना भरण पछी 'सुगई -सुगतिः' सद्गति 'नो सुलहा-नो सुलभा' सुक्षल नथी, अत: 'सुब्बए-सुव्रत' विवेशीस पुरुष 'एयाई-एतानि' पूर्वोत माता पिताना स्नेमधन ३५ 'भयाइ-भयानि' मयने 'पेहिया प्रेक्ष्य' 'ज्ञ' परिज्ञाथी शीने 'आरभाभारभ्भात्' मनुष्ठानाथी 'विरमेज्ज-विरमेत्' प्रत्याभ्यान परिज्ञाथा वित 25 तय ॥3॥ - सूत्रार्थ - કઈ કઈ અવિવેકી માણસે માતા પિતા પ્રત્યેના અનુરાગને કારણે પ્રવજ્યા અંગીકાર કરી શક્તા નથી, અને તે કારણે સંસારમાં પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. એવા પ્રાણીને પરભવમાં For Private And Personal Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे स्नेहैरित्यर्थः (लुप्पइ) लुप्यते विनश्यति संसारे भ्रमतीत्यर्थः (य) च-तथा इत्थम्भूतस्य प्राणिनः (पेच्चाओ) प्रेत्य-मरणानन्तरम् (सुगई) सुगतिः (नो सुलहा) नो मुलभा सुगतिप्राप्ति भवति अतः (मुव्बए) सुव्रतः विवेकशील पुरुषः (एयाहिं) एतानि पूर्वोक्तानि मातृपितृस्नेहवन्धनरूपाणि (भयाइं) भयानि भयानीव भयानि भयजनकानि स्थानानि (पेहिया) प्रेक्ष्य ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा (आरंभा) आरम्भात् सावधानुष्ठानात् (विरमेज) विरमेत् प्रत्याख्यानपरिज्ञया निवर्तेत ॥३॥ टीका-- ‘मायाहिं' मातृभिः 'पियाहिं' पितृभिः 'लुप्पइ' लुप्यते विनश्यति संसारे भ्रमणं करोतीत्यर्थः, 'मातृभिः पितृभिः' इत्यत्र बहुवचनमनेकजन्मसम्बन्धख्यापनार्थम् मातृपितृभिः, इत्येतेन पुत्रकलत्रादीनां संग्रहो भवति । सचैतेषां मिलितानाम एकैकैषां वा स्नेहेन धर्माचरणं न करोति । एतान्विहाय कथपरभव में सुगति सुलभ नहीं होती। अतः विवेकवान पुरुष इस मात पित स्नेह रूप बन्धनसे उत्पन्न भयों को जान कर सावद्यअनुष्ठान से विरत हो जाय ।।३।। टीकार्थमाताके कारण और पिताके कारण जीव संसारमे परिभ्रमण करता है। मूल पाठ में 'मायाहिं, पियाहिं' ऐसा जो बहुवचन दिया है, वह अनेक जन्मोंका सम्बन्ध कहने के लिए हैं। यहां यद्यपि सिर्फ माता पिताका उल्लेख किया गया हैं तथापि उससे पुत्र कला आदि सभी आत्मीय जनोंका ग्रहण कर लेना चाहिए । मनुष्य इन सभीके अथवा इनमें से एक एक के प्रति अनुराग होनेके कारण धर्मका आचरण नहीं करता है। वह सोचता हैं इन्हे સુગતિ પ્રાપ્ત થતી નથી. તેથી વિવેક યુક્ત માણસે માતા પિતા પ્રત્યેના સ્નેહ રૂપ બન્ધન વડે ઉત્પન્ન થનારા ભને જાણીને સાવદ્ય અનુષ્ઠાનેને પરિત્યાગ કરે જોઈએ. ૩ - टीथ - ' માતા અને પિતા પ્રત્યેના અનુરાગને કારણે જીવ સંસારમાં પરિભ્રમણ કરે છે. મૂળ पाठभ'मायाहि पियाहि" 24 मपयनन पहोवामा पान्योछ. ते भने सामानो સંબંધ પ્રકટ કરવાને માટે આપવામાં આવ્યાં છે. અહી જે કે માતા પિતાને જ ઉલ્લેખ કરવામાં આવ્યો છે, પરંતુ તેના દ્વારા પુત્ર, કલત્ર, આદિ સઘળા આત્મીય જનેને પણ ગ્રહણ કરવા જોઈએ. આ સઘળા આત્મીય જને પ્રત્યેના અથવા તેમાંના કોઈ પણ એક બે આદિ આમીય જને પ્રત્યેના અનુરાગને કારણે માણસ ધર્મનું નામ પણ લેતા નથી. તે એ વિચાર કરે છે કે તેમને છોડીને હું એકલે કેવી રીતે રહી શકું! આ પ્રકારની For Private And Personal Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु अ. २. उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ४७३ महमेकाकी स्थास्यामी' तिचिन्तयन् , तेषां स्नेहपाशबद्धो धर्माचरणमकुर्वाणः तैः सहैव संसारे परिभ्रमन् वारंवारमृत्युमवाप्य पुनःपुनर्भवारण्ये भ्रमतीति भावः । इत्थंभूतस्नेहबद्धमानसस्य विचारविकलस्य स्वजनपोषणाय यथा कथंचिद्व्यापारं कुर्वतः पुरुषस्य 'पेच्चाओ' प्रेत्य मरणानन्तरमपि 'सुगई मु. गतिः स्वर्गापवर्गप्राप्तिरूपा ‘नो सुलहा' सुलभा न भवति । अपि तु तस्य नरकनिगोदादिपात एव भवति, अनेकविधारम्भसमारम्भादिसावधकर्माऽनुष्ठानात् । अत एव-'सुब्बए' सुव्रतः देशविरत्यादिव्रतयुक्तः पुरुषः 'एयाई' एतानि 'भयाई' भयानि नरकनिगोदादिगतिप्राप्तिरूपभयकारणानि 'पहिया' प्रेक्ष्य ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय 'आरंभा' आरंभात् सावधकर्माऽनुष्ठानात् 'विरमेज' विरमेत् प्रत्याख्यानपरिज्ञया परित्यजेदिति भावः ॥३॥ छोडकर मैं अकेला कैसे रहूंगा ? इस प्रकार सोचकर उनके प्रेमपाश में बंधकर धर्मका आचरण न करता हुआ, उन्हीं के साथ साथ संसार परिभ्रमण करता हैं और पुनः पुनः मृत्युको प्राप्त होता है। इस प्रकार रागके बन्धन में जिसका मन बंधा हुआ है, जो विवेकसे रहित है तथा आत्मीय जनोंके पोषणके लिए चाहे जैसे कार्य करता है, उस जीव को मृत्युके पश्चात् स्वगे या मोक्ष रूप सदगति सुलभ नहीं होती। उसका नरक या निगोद में ही पतन होता है, क्योंकि वह अनेक प्रकारके आरंभ समारंभ आदि सावद्यकर्मोंका अनुष्ठान करता है। अतएव जो सुव्रत है अर्थात् देशविरति आदि चारित्रसे युक्त है, वह पुरुष नरक निगोद आदि दुर्गतियों की प्राप्ति के भयके कारणोंको ज्ञपरिज्ञासे जानकर सावद्यकर्मके अनुष्ठान को प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग दे ॥३॥ વિચારધારાને કારણે તે તેમના પ્રેમપાશમાં જ જકડાયેલે રહીને ધાર્મિક પ્રવૃત્તિ કરતે નથી. પરિણામે તેમની સાથે તેને પણ સંસારમાં પરિભ્રમણ કરવું પડે છે, એટલે કે વાર વાર જન્મ મરણના દુઃખોનુ વેદન કરવું પડે છે. - આ પ્રકારે જેનું મન રાગના બન્ધનમાં જકડાયેલું છે, જે વિવેકથી રહિત છે અને આત્મીય જનના પિષણ માટે ગમે તેવાં કાર્યો કર્યા કરે છે, તે જીવને આ મનુષ્ય ભવન આયુષ્ય પૂરું થયા બાદ સ્વર્ગ અથવા મેક્ષની પ્રાપ્ત થતી નથી. મનુષ્ય ભવમાં તે માણસ અનેક આરંભ સમારંભ આદિ સાવદ્ય કૃત્ય કરવાને કારણે નરક અથવા નિગોદમાં જ ઉત્પન્ન થાય છે તેથી જેઓ સુંવ્રતસંપન્ન છે, એટલે કે જેઓ દેશવિરતિ આદિ ચારિત્રથી યુકત છે તેમણે નરક નિગદ આદિ દુર્ગતિઓની પ્રાપ્તિના કારણેને પરિણા વડે જાણીને સાવદ્ય કર્મોના અનુષ્ઠાનને પ્રત્યાખ્યાન પરિજ્ઞા વડે ત્યાગ કરે જોઈએ. જે રે II For Private And Personal Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 98 www.kobatirth.org ९ १० ११ १४ १२ सयमेव कडेहिं गार्हति णो तस्स मुच्चे Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ सावद्यकर्मानिवृत्तस्य दोषमाह -- 'जमिणं' इत्यादि । मूलम् ર ३ ક ५ ७ ८ ६ जमिणं जगति पुढो जगा. कम्मेहि पति पाणिणो । । १५ १३ सूत्रकृताङ्गसूत्रे For Private And Personal Use Only पुट्टयं ॥ ४॥ -छाया यदिदं जगति पृथक् जगाः कर्मभि लुप्यन्ते प्राणिनः । स्वयमेव कृतैर्गाहन्ते, नो तस्मात् मुच्येतास्पृष्टः || ४ || अन्वयार्थः (जं) यत् - यस्मात्कारणात् ( इणं) इदम् वक्ष्यमाणप्रकारकं गत्यादिकं भवति - ( जगति) जगति = अस्मिन संसारे ( पुढो) पृथक् एकैकत्वेन ( जगा) इति जगत्स्थिताः (पाणिणो ) प्राणिनः = जीवाः (कस्मेहिं ) कर्मभिः (लुप्यंति) लुप्यन्ते= अब सावधकर्म से निवृत न होनेवालेको होनेवाले दोष कहते हैं - 'जमिण' इत्यादि । माण प्रकार से गत्या - 6 पृथक् पृथक् 'जगा'कम्मे हि कर्मभिः ' शब्दार्थ - ' जं- यत्' जिस कारण से 'इर्ण - इम्' वक्ष्य दिकहोती है 'जगति - जगति' इस संसार में ' पुढो - पृथक् जगा: ' जगत् में रहे हुए ' पाणिणो - प्राणिनः जीव कर्मों से 'लुप्पति-- लुप्यन्ते' दुःखी होते हैं तथा ' सयमेवकडे हिं- स्वयमेव कृतैः अपने किये हुए कर्मों से 'गार्हति गाहन्ते' नरक निगोदादि स्थानों में जाते हैं ' अपुट्टयं -अस्पृष्टः ' स्वतः कर्म को विनाभोगेही ' तस्स- तस्मात् ' ये कर्म से 'णी मुच्चेज्ज - नो मुच्येत ' मुक्त नहीं हो सकते हैं ॥४॥ -अन्वयार्थ क्योंकि आगे कही जाने वाली गति आदि होती है इस संसार में स्थित प्राणी पृथक् पृथक् अपने अपने कर्मोंसे पीडित होते हैं । तथा अपने હવે સાવદ્ય કમાંથી નિવૃત્ત નહીં થનારને કેવી હાર્ડન થાય છે, તે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે " जमिण "छत्याहि भायु प्राश्थी गति वगेरे थाय 'जगा- जगाः' लगतमा रहेला लुति- लुप्यन्ते दुमी थाय छे, शब्दार्थ - 'ज. - यत्' ? रथी 'इण' - इदम् ' वक्ष्य छे. 'जगति - जगत' संसारमा 'पुढो - पृथक् पृथ 'पाणिणो प्राणिनः' व 'कस्मेहिं कर्मभिः' तथा 'सयमेवकडेहि स्वयमेव कृतैः पोताना रेखा उभेोथी 'गाहति गाहन्ते' नरः निगोह विगेरे स्थानोमा लय छे. 'अट्टय' -अस्पृष्टः' स्वत उभ लोगव्या विना 'तस तस्मात् ' ते थी 'णो मुच्चेज्ज' - तो मुच्येत' भुत था शता नथी ॥ ४ ॥ - सूत्रार्थ - સાવદ્ય કર્મોથી નિવૃત્ત ન થનાર જીવાની આગળ કહ્યા પ્રમાણેની ગતિ થાય છે. આ સંસારમાં રહેલા જીવા પોત પોતાનાં કર્મો દ્વારા પૃથક્ પૃથક્ રૂપેપીડા ભેગવે છે. તેમના Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समर्थ बोधिनी टोका प्र श्रु अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ४७५ उत्पीडयन्ते । तथा (सयमेव कडेहिं) स्वयमेवकृतैः = स्वकृतैरेवकर्मभिः (गाहंति) गाहन्ते= नरकनिगोदादिगतौ प्रवेश कुर्वन्ति तत्र तिष्टन्तीत्यर्थः, अतः 'अपुयं ' अस्पृष्टः सन् स्वकृतकर्मणः स्पर्शमकृत्वा स्वकृतं कर्माभुक्त्वा (तस्स) तस्मात् कर्मण सकाशात् ( णो मुच्चेज्ज) नो मुच्येत न मुक्तो भवेत् स्वकृतकर्मणोऽवश्यं भोगादिति ॥४॥ , टीका इदम् - वक्ष्यमाणप्रकरकं गत्यादिकं भवति ' जं' यत् - यस्मात्कारणात् 'इणं' जगति ' जगति=अस्मिन् संसारे 'पुढो 4 1 , पृथक-पृथक एकैके ' जगा' जगत् स्थिताः संसारिण इत्यर्थः, 'पाणिणो प्राणिनः = जीवाः 'कम्मेहिं ' कर्मभिः 'लुप्यंति' लुप्यन्ते= उत्पीडयन्ते = उत्पीडिता भवन्ति, कर्मभिरेव दुःखिता भवन्ति नत्वन्यैः कैश्चित अन्येषां निमित्तमात्रत्वात्, मुख्यनिमित्तकारणं तु शुभाशु भस्य स्वकर्मैवेति भावः । अतो जीवाः 'सयमेव कडेहिं' स्वयमेवकृतैः स्वकृतैरेवकर्मभिः नान्यकृतैः ' गार्हति' गाहन्ते = नरकनिगोदादिस्थानं प्राप्नुवन्ति किन्तु ही किये हुए कर्मोंके कारण हैं। अपने किये कर्मको भोगे Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नरक निगोद आदि में प्रवेश करते या रहते विना कोई उस कर्मसे मुक्त नहींहोता ||४|| - टीकार्थ आरंभ का त्याग न करनेवालोंकी आगे कही जाने वाली गति आदि होती है । इस संसार में पृथक् पृथक रहे हुए संसारी प्राणी अपने कर्मोंसे पिडित होते हैं । अन्य कोई किसी को पीडा नहीं पहुंचाता, क्योंकि वह तो निमित्त मात्र होता है । प्रधान निमित्त तो अपना शुभ या अशुभ कर्म ही है । अतएव जीव अपने किये कर्मोंसे ही नरक निगोद आदि स्थानोंको प्राप्त કૃત કર્યાંનાં ફળ સ્વરૂપે જ તેમને નરક નિીદ આદિમાં રહેવુ પડે છે પોતે કરેલાં કર્માંના ફળને ભોગવ્યા વિના, કોઈ પણ જીવ તે કથી મુક્ત થઇ શકતા નથી. ૪ - टीअर्थ - આરભના ત્યાગ ન કરનાર જીવાની નીચે કહ્યા અનુસારની દશા થાય છે. આ સંસારમાં અલગ અલગ રૂપે ઉત્પન્ન થતાં સંસારી જીવાને પોત પોતાનાં કર્મોના ફળ અલગ અલગ રૂપે ભોગવવા પડે છે. અન્ય કઇ પણ જીવ કોઇને પીડા પહેાંચાડતા નથી કારણ કે તે તે નિમિત્ત માત્ર જ હોય છે, પેાતાનુ શુભ અથવા અશુભ કર્મ જ સુખદુઃખનુ મુખ્ય નિમિત્ત અને છે. તેથી એ વાત નિશ્ચિત જ છે કે પાતે કરેલાં કર્મોને કારણે જ જીવા નરક નિગોદ For Private And Personal Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताने ' अपुहय' अस्पृष्टः कर्मणो भोगमन्तरेण 'तस्स' तस्मात् अत्र पञ्चम्यर्थे षष्ठी तस्मात् स्वकृतकर्मणः सकाशात् ‘णो मुच्चेज' नो मुच्येत=न मुक्तो भवेत् कर्मणो भोगमन्तरेण विनाशाभावत्, उक्तश्च-" कडाणकम्माण न मोक्ख अस्थि" इति । अन्यत्राप्युक्तम्- " नाभुक्तं क्षीयते कर्म, कल्पकोटिशतैरपि "। किश्च" प्रारब्धकर्मणां भोगादेव क्षयः।" इत्यादि । कृतं कर्म तु फलं दत्त्चैव निवर्तते नान्यथा तन्निवृत्तिरिति ॥४॥ ..इह जगति यानि कानि स्थानानि फलोपभोगार्थ नियतानि, तानि सर्वाण्य नित्यानित्येवेति दर्शयति सूत्रकारः- देवागंधव्वरक्खसा' इत्यादि । मूलम्देवा गंधव्वरक्खसा असुरा भूमिचरा सरीसिवा । राया नर सेट्ठि माहणा ठाणा तेवि चयंति दुक्खिया ॥५॥ -छायादेवगन्धर्वराक्षसा असुरा भूमिचराः सरीसृपाः । राजानो नरश्रेष्टिब्राह्मणाः स्थानानि त्यजन्ति तेऽपिदुःखिताः ।।५।। करते हैं। कर्मको भोगे विना जीवको छुटकारा नहीं मिलता कयोंकि कर्म भोगे विना विनष्ट नहीं होता। कहा भी है-'कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि' इत्यादि। किये कौंको (भोगे विना) मोक्ष नहीं होता अर्थात् छुटकारा नहीं होता। अन्यत्र भी कहा है-'नाभुक्तं क्षीयते कर्म' इत्यादि। 'सैकडो अरवकल्पकाल बीत जाने पर भी विना भोगे कर्मका क्षय नहीं होता। और उपार्जित कर्मोंका भोग से ही क्षय होता है। इत्यादि । आशय यह है कि किया कर्म फल देकर ही हटता है, बिना फल दिये नहीं हटता ॥४॥ આદિ સ્થાનમાં ઉત્પન્ન થાય છે. કરેલા કર્મનું ફળ જીવને ભેગવવું જ પડે છે. જ્યાં સુધી કર્મનું ફળ ભોગવવામાં ન આવે, ત્યાં સુધી તે કર્મમાંથી જીવને છુટકારો થતો નથી, ४१२६५ भने सोच्या विना मना विनाश थता नथी. ४युं ५५५ 3 'कडाण कम्माणाण मोक्ख अत्थि" त्यादि - કૃત કર્મોને ભેગવ્યા વિના મેક્ષ મળતું નથી. એટલે કે છુટકારો થતું નથી. અન્યત્ર पान मेधुं छे 3 'नामुक्त क्षीयते कर्म' त्याह ”સેંકડો અબજ ૫કાળ વ્યતીત થઈ જવા છતાં પણ ભેગાવ્યા વિના કર્મને ક્ષય થતું નથી અને ઉપાર્જીત કર્મનું ફળ ભેગવ્યા બાદ તે કર્મને ક્ષય થાય છે... આ સમસ્ત કથનને ભાવાર્થ એ છે કે “કૃત કર્મનું ફળ ભેગવવું પડે છે. ફળ ભેગવ્યા विना भनो क्षय यता नथी. ॥४॥ For Private And Personal Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र.श्रु अ. २ उ. १ भगववादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ४७७ -अन्वयार्थः(देवा) देवाः देवताः (गंधधरक्खसा) गंधर्वराक्षसाः (असुरा) असुराः (भूमिचरा)भूमिचराः भूमौ पृथिव्यां चरणशीला:, (सरीसिवा) सरीसृपाः सदिय (राया) राजानः नृपाः (नरसेठिमाहणा) नरश्रेष्ठिब्रह्मणाः, नरा मनुष्याः श्रेष्ठिनः= नगरवेष्ठिनः ब्राह्मणाः असिद्धाः (तेवि) तेपि, ते उपयुक्ताः देवादयः सर्वे(दुक्खिया) दुःखिताःसन्तः (ठाणा) स्थानानि स्वकीयस्थानानि (चयंति) त्यजन्तीति सर्वे देवादयः दुःखिता एव स्वस्थानं परित्यजन्ति दुःखिताःअवश्यमेव भवन्तीति भावः ॥५॥ इस जगत् में जो कोई भी स्थान फलभोगके लिए नियत हैं, वे सब अनित्य ही हैं, यह बात सूत्रकार दिखलाते हैं- 'देवगंधब्वरक्खसा इत्यादि। शब्दार्थ- 'देवा--देवाः' देवताः ‘गंधव्वरक्खसा--गंधर्वराक्षसाः' गंधर्व राक्षस आदि तथा 'असुरा-असुराः' असुर भूमिचरा--भूमिचराः भूमिपर चलनेवाले 'सरीसिवा--सरिसृपाः' सरक कर चलनेवाले सर्पादि ‘राया--राजानः' राजा 'नरसेटिमाहणा--नरश्रेष्ठिब्राह्मणाः' मनुष्य, नगरशेठ और ब्राह्मण 'तेवि--तेपि वे उपयुक्त देवादिसब 'दुक्खिया-दुःखिताः' दुःखित होकर 'ठाणा-स्थानानि' अपने अपने स्थानोंको 'चयंति-त्यजन्ति' छोड़ते हैं ॥५॥ -अन्वयार्थ'देवा देवता, गन्धर्व,राक्षस, असुर, भूमिचर, सरीसृप-सर्प आदि राजा, सामान्यनर, सेठ, ब्राह्मण, इत्यादि सभीदुःखित हो कर अपने अपने स्थानोंको त्यागते हैं। अर्थात् वे अपने स्थान त्याग करते समय अवश्य दुःखी होते हैं, परन्तु स्थानका त्याग तो करना ही पड़ता है ॥५॥ આ જગતમાં કર્મનું ફળ ભોગવવા માટે જે કોઈ સ્થાને નિયત થયેલાં છે. તેઓ अनित्य । छ, से वात वे सूत्रधार ४८ ४२ छे. "देवगधवरक्खसा" त्या ... शहाथ-'देवा-देवाः' वा 'गधन्वरक्खसा-गंधर्व राक्षसाः' मध राक्षस विगेरे तथा 'असुरा-असुराः मसुर 'भूमिचरा-भूमिचराः' भीन ५२ यासा वाणा 'सरीसिवा-सरिसृपाः' स२४ ने याला वाणा सप विगेरे गया-राजानः' २२० 'नरसेवि महणा नरश्रेष्टिब्राह्मणाः' मनुष्य, नगररोड, भने माझा 'तेवि-तेपि ते पर प्रमाणे देव विगेरे मा 'दुक्खिया-दुःखिताः' हुमत धन'ठाणा-स्थानानि' पात पाताना स्थानन 'चयति-त्यजन्ति' छाडेछ. ॥ ५॥ सूत्रार्थ देवता, गन्ध, राक्षस, असुर, भूभियर, सी२५५ (सप माह) , सामान्य નર, શેઠ, બ્રાહ્મણ આદિ સૌ કઈ પિત પિતાના સ્થાનને ત્યાગ કરતા દુઃખી થાય છે, પરંતુ તે સ્થાને તેમણે ત્યાગ તે કરે જ પડે છે, પા For Private And Personal Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र -टीकार्थ(देवा) देवाः (गंधवरक्खसा) गन्धर्वराक्षसाः-गन्धर्वराक्षसेतिपदे पिशाचभूतयक्षकिन्नरकिंपुरुषमहोरगव्यन्तराणामुपलक्षके, तथा 'असुरा' असुराः भवनपतयो दशप्रकाराः, 'भूमिचरा' भूमिचराः पृथिव्यां संचरणशीलाः संपातिम कीटपतंगादयः तथा 'राया' राजाना चक्रवर्तिनो बलदेववासुदेवप्रतिवामुदेवादयः । तथा ' नरा' नराः सामान्यपुरुषाः, श्रेष्ठिनो नगरश्रेष्ठिनः, 'माहणा' ब्राह्मणाः वेदशाखाध्यायिनः, एते सर्वेऽपि 'दुखिया' दुःखिताः सन्तः 'ठाणा' स्थानानि-स्वकीयस्थानानि 'चयंति' त्यजन्ति । सर्वेषामपि जन्तूनां स्वस्थानपरित्यागे दुःखं भवतीति भावः ॥५॥ किच-'कामेहि ण ' इत्यादि । -मूलम् कामेहि ण संथवेहि गिद्धा कम्म सहा कालेन जंतवो। ताले जह बंधणचुए एवं आयुक्खयंमि तुट्टइ ॥६॥ -छायाकामेषु खलु संस्तवेषु गृद्धाः कर्मसहाः कालेन जन्तवः। तालं यथा बन्धनच्युतमेवमायुः क्षये त्रुटयति ॥६॥ -टीकाथदेव, गन्धर्व, राक्षस और राक्षस पदसे उपलक्षित पिशाच, भूत यक्ष, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, व्यन्तर तथा असुर अर्थात् दश प्रकारके भवनवासी, भूचर-पृथ्वी पर चलनेवाले कीट आदि तथा चक्रवर्ती, बलदेव, बासुदेव प्रतिवासुदेव आदि राजा, सामान्य मनुष्य, नगरसेठ, ब्राह्मण ये सभी दुःखित होकर अपने स्थानों को त्याग करते हैं। अर्थात् सभी जीवोंका अपना स्थान त्यागते दुःख होता है ॥५॥ __ - आर्थ - हेव, गन्धर्व, राक्षस अने राक्षस ५४ ५3 Gualक्षत पिशाय, भूत, यक्ष, सिन्नर, કિપુરુષ, મહારગ, વ્યન્તર આદિ છે, તથા અસુર (દસ પ્રકારના ભવનપતિ દેવે), ભૂચર છે (જમીન પર ચાલનારા , તથા ચકવતી, બળદેવ વાસુદેવ, પ્રતિવાસુદેવ આદિ રાજાઓ, સામાન્ય મનુષ્ય, નગર શેઠ, બ્રાહ્મણ આદિ સમસ્ત જ દુઃખિત થઈને જ પિત પિતાનાં સ્થાને (પ) નો ત્યાગ કરે છે. એટલે કે સમસ્ત જેને પિતાનું સ્થાન છોડતાં દુઃખ થાય છે. ગાથા પર For Private And Personal Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ४७९ .. -अन्वयार्थः(कामेहिं ण) कामेषु खलु कामेषु शब्दादिविषयेषु तथा(संथवेहि संस्तवेषुपूर्वापरपरिचितेषु (गिद्धा) गृद्धाः-आसक्ताः (जंतवो) जन्तवः-प्राणिनः-(कालेण) कालेन-कर्मविपाकफलकालेन ' कम्मसहा' कर्मसहाः-स्वकर्मफलान्युपमुञ्जाना (जहा) यथा (बंधणचुए) बन्धानच्युतम् (ताले) ताल-तालफलम त्रुटयति (एवं) और कहते हैं-- 'कामेहिं णं इत्यादि । शब्दार्थ—'कामेहि-कामेषु' विषयभोगोंकी तृष्णा में अर्थात् शब्दादि विषयोंमें ‘णं-खलु' निश्चयसे 'संथवेहि-संस्तवेषु मातापिता स्त्री, पुत्र आदि परिचितोंमें, 'गिद्धा-गृद्धाः ' आसक्त, रहनेवाले ‘जंतवो-जन्तवः' प्राणी 'कालेण-कालेन' अवसर आनेपर अर्थात् कर्मविपाक के समय 'कम्मसहा-कर्मसहाः' अपने अपने कर्मके फलोंको भोगते हुवे 'जहा-यथा' जैसे 'बंधणच्चुए-बन्धनच्युतम्' बंधनसे छुटाहुआ 'ताले-तालम् ' तालफल गिरजाता है ' एवं-एवम् । इसीप्रकार ‘आउक्खयंमि--आयुःक्षये आयु समाप्त होजानेपर ' तुट्टइ-त्रुटयति मरजाते हैं ॥६॥ -- अन्वयार्थ -- शब्दादि विषयों में तथा पहले पीछेके परिचितोंमें आसक्त प्राणी कर्मके फलोदय के समय अपने कर्मों के फलको भोगते हुए आयुके टूटने पणी सूत्र।२४ - "कामेहिण” त्याह शहा यामेहि-कामेषु' विषय भोगनी तृामा अर्थात् २०५४ वगेरे विषयोमा 'ण-खलु निश्ययथा 'संथवेहि-सस्तवेषु' मातापिता श्री पुत्र को पाथितीमा मिडा-गद्धा' यासरत रहेका पाणा 'जतवो-जन्तवः' प्राणी 'कालेण-कालेन अक्स२ मा ५२ अर्थात् १५४ना समये 'कम्मसहा कम सहाः' पोताना भना ने भोगवता य४ जहा-यथा' वीरीते बंधणच्युप-बंधनच्युतम्' धनथी छुटेसा 'नाले-तालम् ॥ ५डी य. 'एवं -एवम् -40 प्रा२ 'आउक्खय मि'-आयालये आयुष्य समाप्त थय त्या२ ५७। 'तुट्टइ-त्रुटयति' भरी तय ॐ ॥६॥ - सूत्रार्थ - શબ્દાદિ વિષયમાં તથા આગલા અને પાછલા પરિચિત સગાં સ્નેહીઓમાં આસક્ત છે, ફલેદયને સમયે પિતા પોતાનાં કર્મોના ફળને અનુભવ કરતાં થકા આવું કર્મને ક્ષય થતાં મરણ પામે છે. જેવી રીતે વૃક્ષ સાથે સંબંધ તૂટી જવાથી તાડ પરથી ફળ For Private And Personal Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८० सूत्रकृतास्त्र एवम् अनेन प्रकारेण (आउखयंमि) आयुःक्षये (तुट्टइ) त्रुटयन्ति-म्रियन्ते इत्यर्थः ॥६॥ -टीका- 'कामेहि ण ' कामेंषु खलु-शब्दादिकामभोगविषयेषु तथा 'संथवेहिं संस्तवेषु -पूर्वपरिचितेषु मातृपितृप्रभृतिषु तथा पश्चात्संस्तवैः श्वशुरादिषु ' गिद्धा ' गृद्धाः तेषु गृद्धिभावं प्राप्ताः 'जंतवो ' जन्तवः-प्राणिनः 'कम्मसहा ' कर्मसहा:कर्मजनितफलमुपभुञ्जानाः ‘कालेण ' कालेन-शुभकर्मफलोदयकालेन भोगैस्तृप्तिमिच्छन्तोपितैर्विषयोपभोगैः प्रतिक्षणमासक्तिवृद्धया अतृप्ता केवलं इहलोके परलोकेच दुःखमेवानुभवन्तीति । यथाकश्चित् दिवसावसाने स्वच्छायां ग्रहीतुं पूर्वस्यां दिशि धावेत्, स धापनपि छायां न गृह्णाति । यथा वा पिपासितः पिपासामुपशमयितुं पर उसी प्रकार गिरते हैं जेसे बन्धन से टूटा हुआ ताल फल नीचे गिरता है ॥६॥ टीकार्थकाम भोगके विषय शब्दादि में तथा पूर्व सम्बद्ध मातापिता आदि में एवं पश्चात् सम्बद्ध श्वसुर आदि में आसक्ति को प्राप्त प्राणी कर्मजनित फलको भोगते हुए, शुभ कर्मके उदयके समय भोग भोगकर तृमिकी इच्छा करते हैं किन्तु विषयभोंगोसे प्रतिक्षण आसक्ति बढनेके कारण अतृप्त ही रह जाते हैं तथा इहलोक और परलोक में दुःख ही भोगते हैं। जैसे कोइ पुरुष दिवसके अन्तिम समय में अपनी छाया को पकडनेके लिए पूर्वदिशा में दौडे तो वह दौडता हुआ भी उसे पकड नहीं सकता । अथवा जैसे कोइ प्यासा मनुष्य प्यास बुझाने के लिए मृगतृष्णा की और दौड लगा कर भी प्यासको शान्त नहीं कर सकता । वह उलटा दुःखी होता है। નીચે તૂટી પડે છે. એ જ પ્રમાણે આયુકર્મને ક્ષય થતાં જ આસકત જીવનું પણ પિતાને સ્થાનેથી પતન થાય છે એટલે કે મૃત્યુ જ થાય છે. ૬ -टाडाथ - કામભેગોમાં (શબ્દ, રૂપ, રસ, ગંધ અને સ્પર્શમાં, તથા પૂર્વ પરિચિત માતા; પિતા આદિમાં અને પશ્ચાત્ પરિચિત સાસુ, સસરા આદિમાં આસક્ત બનેલા છે કર્મભનિત ફોને ભોગવ્યા કરે છે. જ્યારે શુભ કર્મને ઉદય થાય ત્યારે ભેગ ભોગવીને તૃપ્તિની ઈચ્છા સેવે છે, પરંતુ વિષય ભેગમાં ક્ષણે ક્ષણે આસક્તિ વધતી જ જવાને કારણે તેઓ અતૃપ્ત જ રહી જાય છે, અને આ લેક અને પરલેકમાં દુઃખ જ ભોગવે છે. જેવી રીતે કોઈ પુરુષ સાંજને સમયે પિતાના પડછાયાને પકડવાને માટે પૂર્વ દિશામાં દેટ લગાવવા છતાં તેને પકડી શકતા નથી, અથવા જેવી રીતે કઈ તરસ્યું પ્રાણી મૃગાજળની દિશામાં ગમે તેટલું દડવા છતાં પણ પિતાની તરસ છિપાવી શકતું નથી, For Private And Personal Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र.श्र, प्र. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ४८१ मृगतृष्णामनुव्रजन्नपि न पिपासामुपशमयति प्रत्युत दुःखीएव भवति, तथा विषयोप भोगपरायणा विषयेभ्यस्त प्निं कथमपि न लभन्ते । तदुक्तमन्यत्रापि " न जातुकामः कामानामुपभोगेन शाम्यनि । हविषा कृण्णवर्मेव भूय एवाभि वर्द्धते " इति । 'जहा' यथा 'ताले ' तालं-तालफलं 'बंधणचुए' बन्धनच्युतं पतत्येव तथा इमेऽपि कामभोगासक्ता जन्तवः ‘आउक्खयंमि' आयुःक्षये-स्वायुषःक्षये 'तुट्टइ' त्रुप्यन्ति-म्रियन्ते न तु भोगेन मुखं लभन्ते गण्ठकण्डूयनवत् इति भावः।।६॥ किंच-'जे यावि बहुस्सुए' इत्यादि । -मूलम् १ २ ३ ४ जे याचि बहुस्सुए सिया धम्मिणमाहण भिक्खुए सिया। अभिणूमकडेहि मूछिए तिब्वं ते कम्मेहि किन्नड ॥७॥ इसी प्रकार विषय भोगों में परायण जीव विषयों से कभी तृप्ति लाभ नहीं कर सकते। अन्यत्र भी कहा है- 'न जातु कामः कामानाम्' इत्यादि । कामों को मोगने से कामकी शान्ति नहीं होती.। जैसे घत डालने से अग्नि बढती है, उसी प्रकार काम भोग से कामकी अभिलाषा बढती ही जाती है। जैसे बन्धन से टूटने पर ताल फलका पतन ही होता हैं, उसी प्रकार भोगों में आसक्त प्राणी आयुका क्षय होने पर मर जाते हैं। जैसे फोडेको खुजलाने से सुखकी प्राप्ति नहीं होती उसी प्रकार भोगों से सुखकी प्राप्ति नहीं होती ।। ६॥ એજ પ્રમાણે વિષય ભેગોમાં આસક્ત છે પણ વિષ દ્વારા કદી તૃપ્તિ પામી શકતા નથી, अन्यत्र पशु मेवुः प्रयुं छे -"न जातु कामः कामानोम्" त्याह- કામે ઉપભેગ કરવાથી કામની શાન્તિ થતી નથી. જેવી રીતે આગમાં ઘી હેમવાથી આગ વૃદ્ધિ પામે છે, એજ પ્રમાણે કામો ભોગવવાથી કામગ ભેગવવાની અભિલાષા વધતી જ જાય છે. જેવી રીતે વૃક્ષ સાથે સંબંધ તૂટી જવાથી તાડનું ફળ નીચે તૂટી પડે છે એજ પ્રમાણે કામમાં આસકત જીવના આયુની અવધિ પૂરી થતાં જ, તે જીવનું મૃત્યુ થાય છે. જેવી રીતે ફેલા પર ખંજવાળવાથી સુખની પ્રાપ્તિ થતી નથી, એજ પ્રમાણે ભેગે વડે પણ સુખની પ્રાપ્તિ થતી નથી. એ ગાથા દા સ. ૬૧ For Private And Personal Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४८२ www.kobatirth.org -छाया Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir येचापि बहुश्रुताः स्यु धर्मिकत्राह्मणभिक्षुकाः स्युः । अभिच्छादककृतैर्मुच्छिता स्तीव्रं ते कर्मभिः कृत्यते ||७|| -अन्वयार्थ सूत्रकृताङ्गसुत्रे (जे) ये (यावि) चापि ( बहुस्सुया) बहुश्रुताः - अनेकशास्त्रार्थ पारगताः तथा ( धामिणमाहणभिक्खुए) धार्मिक ह्मणमिक्षुकाः- धार्मिकाः- धर्माचरणशीलाः ब्राह्मणाः प्रसिद्धाः भिक्षुकाः -- भिक्षाटनशीलाः (सिया) स्यु: ( अभिणूमकडेहिं ) अभिच्छादककृतैः =मायासंपादितानुष्ठानैः (मुच्छिए) मृच्छिता:--गृद्धाः (ते) ते (तिब्बं) तीव्रमत्यन्तम् (कम्मे हिं) कर्मभिः (किच्चति) कृत्यन्ते - छिद्यन्ते पीडयन्ते इत्यर्थः ॥७॥ और भी कहते हैं 'जे या बहुस्सु ' इत्यादि । 4 शब्दार्थ –' जे ये' जो ' यावि चापि कोई भी 'बहुस्सुया' बहुश्रुताः, अनेक शास्त्रों के पारंगत तथा 'श्रमिणमाहण भिक्खुए धार्मिकब्रह्मणभिक्षुधार्मिक ब्राह्मण और भिक्षुक 'सिया- स्युः' हों, 'अभिणुमकडेहिं - अभिच्छादक कृतैः' मायाकृत अनुष्ठानों में 'मुच्छिए मूच्छिता: ' आसक्त हैं तो 'ते - ते ' वे 'तिव्वं तिनम्' अत्यन्त 'कम्मेहिं - कर्मभिः कर्मसे 'किच्च कृत्यन्ते - पीडित किये जाते हैं ॥७॥ > अन्वयार्थ- जो भी अनेक शास्त्रों में पारंगत हैं, तथा धर्मका आचरण करनेवाले हैं, ब्राह्मण हैं या जो मायाचारसे किये हुए अनुष्ठानों के द्वारा गृद्ध हैं, वे अपने hi अत्यन्त पीडित होते हैं ॥ ७ ॥ वणी सूत्रअर हे छेडे - "जे यात्रि बहुस्सुर" इत्याहि शब्दार्थ' – 'जे - ये' ? 'यावि-चापि' मे पशु 'बहुस्सुता' भने शास्त्रोना पारंगत, तथा 'धम्मणमाहणभिक्खुए- धार्मिक ब्राह्मणभिक्षुकाः' धार्मिङ ब्राह्मण भने लिभारी 'सिया- स्युः' होय, 'अभिणूमकडेहि--अभिच्छादक कृतैः ' भायामृत अनुष्ठानोभां 'मुच्छिएमूच्छिताः' असक्त होय तो 'ते-ते' तेथे 'तिव्यं तीव्र अत्यन्त |' कम्मे हि कर्मभिः ' भथा 'किच्चई - कृत्यन्ते' दुःख उपन्नववामां आवे छे. ॥ ७ ॥ For Private And Personal Use Only सूत्रर्थ જે અનેક શસ્ત્રોમાં પારંગત છે, તથા ધર્માચરણ કરનારા છે, બ્રાહ્મણેા છે અથવા ભિક્ષુક છે, તેઓ જો માયાચારથી કરાતાં અનુષ્કાનામાં શ્રૃદ્ધ (આસકત) હોય છે, તે તે પેાતાનાં કર્મો દ્વારા અત્યંત પીડિત થાય છે. ૫ ૭ । Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ४८३ -टीकार्थ'जे यावि' ये चापि 'बहुस्सुए' बहुश्रुताः अनेकशास्त्रार्थपारगाः 'सिया' स्यु भवेयुः । तथा 'धम्मिणमाहणभिक्खुए' धार्मिकब्राह्मणभिक्षुका:-धार्मिकाःधर्माचरणशीलाः, ब्राह्मणाः, भिक्षुका:-भिक्षाचरणशीलाः शाक्यादयः, 'सिया' स्युभवेयुः, तेऽपि 'अभिणूमकडेहिं मूच्छिए' अभिच्छादककृतच्छिताः-अभिआभिमुख्येन 'शूम' इति-कर्ममाया वा तादृश कर्मणा माया वा तत्कृतेषु जिनमतविपरीतसावद्यानुष्ठानेषु मूच्छिताः गृद्धाः सन्तः 'ते' ते 'तिव्वं' तीव्र 'कम्मेहि' कर्मभिः ज्ञानावरणीयाद्यष्टकर्मभिः 'किच्चइ' कृत्यन्ते-छियन्ते नानाप्रकारकदुःखमनुभवन्तीत्यर्थः । __ अयं भावः-मायामयकर्मानुष्ठाने आसक्तपुरुषाः यदि बहुश्रुताः स्युः, ब्राह्मणाः धर्माचरणशीलाः भिक्षुका वा भवेयुः ते सर्वेऽपि स्वकृतकर्मभिः पीडयन्ते एव । सावद्यकर्मभिः केषामपि विमुक्तिन भवतीति भावः ॥७॥ -टीकार्थ__ जो अनेक शास्त्रों के अर्थ मे पारंगत हैं, जो धर्माचरण शील हैं, ब्राह्मण हैं या भिक्षा पर निर्वाह करने वाले शाक्य आदि हैं, वे 'शूम' अर्थात् कर्म या माया से किये आचरण में मूञ्छित हैं या जिनमत से विपरीत सावद्यअनुष्ठानों में गृद्ध है, वे ज्ञानावरण आदि आठ तीव कर्मों द्वारा पीडित होते हैं नाना प्रकारके दुःखोका अनुभव करते हैं। तात्पर्य यह है कि मायायुक्त कर्मों के अनुष्ठान में आसक्त पुरुष यदि बहुश्रुत हों ब्राह्मण, हों धर्माचारी या भिक्षाजीवी हो तो भी वे अपने किये कर्मों से पीडित होते ही हैं ।। ७॥ - टीर्थ - જે જે માયયુકત આચરણમાં પૃદ્ધ હોય છે, એટલે કે જેઓ જિનમત કરતાં વિપરીત સાવધ અનુષ્ઠાનમાં મૂછિત (આસકત) હોય છે, તેઓ ચાહે અનેક શાસ્ત્રોના અર્થમાં પાંરગત હેય, ચાહે ધર્મનું આચરણ કરનારા હેય ચાહે બ્રાહ્મણ હોય, ચાહે ભિક્ષા દ્વારા નિર્વાહ કરનાર શાક્ય આદિ ભિક્ષુકે હોય, પરંતુ તેમને જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ પ્રકારના તીવ્ર કર્મો દ્વારા પીડિત થવું પડે છે. તે કમેને કારણે તેમને વિવિધ દુઃખનું વેદન કરૂં પડે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે માયાયુકત કર્મોના અનુષ્ઠાનમાં આસક્ત પુરુષ ભલે પંડિત હોય, કે ભલે બ્રાહ્મણ હોય, કે ભલે ધર્માચારી અથવા ભિક્ષાવી હોય, પણ તેને પિતાના કર્મો દ્વારા પીડિત થવું જ પડે છે. ૭ For Private And Personal Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४८४ www.kobatirth.org सूत्रकृताङ्गसूत्रे ज्ञानदर्शनचारित्रतपांश्येव मोक्षस्य कारणम् इति दर्शयितुमाह- 'अहपास' , इत्यादि । ४ मूलम्— २ ३ ६ ७ अह पास विवेगमुट्टिए अवितिने इह भाई धुवं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ ९ ११ १० १३ १४ १५ माहिसि आरं कओ परं वेहासे कम्मेहि किच्चइ ||८|| छाया - अथ पश्य विवेकमुत्थितोऽवितीर्ण इह भाषते ध्रुवम् । ज्ञास्यस्यारं कुतः परं विहायसि कर्मभिः कृत्यते ॥८॥ ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ही मोक्षके कारण है, यह दिखलाने के लिए कहते हैं - ' अह पास' इत्यादि । शब्दार्थ -- ' अह--अथ इसके पश्चात् ' पास - पश्य' देखो 'विवेगं - विवेक' परिग्रह को छोडकर अथवा संसारको अनित्य जानकर 'उट्टिए - उत्थितः प्रवृज्या गृहण करते हैं' ' अवितिन्ने- अवितीर्णः' संसार सागरको पार नहीं कर सकते हैं 'इह--इह' इससंसार में 'धुवं ध्रुवं' मोक्षको 'भास - भाषते ' केवल भाषण ही करते हैं हे शिष्य' तुमभी उनके मार्ग में जाकर 'आरं - आरम्' इस लोकको 'परं परम् ' तथा परलोकको 'कओ - कुतः' कैसे 'णाहिसि - ज्ञास्यसि ' जान सकते हो ? वे अन्य तीर्थिजन 'वेहासे - विहायसि' मध्यम में हीं 'कम्मेहिकर्मभिः' कर्मों के द्वारा 'किच्चइ - कृत्यन्ते' पीडित होते हैं ॥८॥ હવે સૂત્રકાર એ વાતનું પ્રતિપાદન કરે છે કે જ્ઞાન, દુશન, ચારિત્ર અને તપ જ भोभां अशुभूत भने छे-' अह पास" त्याहि शब्दार्थ -- 'अह अथ' माना पछी 'पास-पइय' नुवो विवेग' - विवेकम् ' परिवहने छोडीने अथवा संसारने अनित्य समलुने 'उट्टिए - उत्थित' वन्याने अणु उरे छे. 'अवितिन्ने- अवितीर्ण':' संसार सागरने पार नथी श्री शता 'इह - इह" मा संसारभां 'ध्रुव' - ध्रुवम्' भोक्ष' 'भासह - भाषते' डेवस भाषण ४ ४रे छे. हे शिष्य ! तप तेभना भार्गभां न्धने 'आर' - आरम्' या सोने 'पर' - परम्' तथा परसोने 'कओकुतः' डेवी रीते 'णादिसि - ज्ञास्यसि' नी शशो तेयो मन्यतीर्थन! ' बेहासे ॥८॥ विहायसि ' मध्यमा 'कम्मे हि कर्मभिः' अभेना द्वारा 'किञ्चाई - कृत्यन्ते' दुःखी थाय छे. For Private And Personal Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समर्थ बोधिनी टोका प्र. श्रु अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ४८५ अन्वयार्थः अह अथ अनन्तरमित्यर्थः (पास) पश्य (विवेगं ) विवेकं परिग्रहं परित्यज्य संसारमनित्यं ज्ञात्वा वा ( उडिए) उत्थितः प्रव्रज्यां गृह्णातीत्यर्थः (अवितिन्ने) अवितीर्णः संसारं नातिक्रामतीत्यर्थः (इह) इहास्मिन् संसारे (धुवं) मोक्षम् (भासइ) भाषते, भाषते एव केवलं न तवं जानातीत्यर्थः । हे शिष्याः ! यूयमपि तन्मतं परिगृह्य (आर) आरमिहलोकम् (परं) परं परलोकं (कओ) कुतः कथमित्यर्थः ( णाहिसि ) ज्ञास्यसि ज्ञास्यथ अन्यतीथिन : ( वेहा से ) विहायसि मध्ये एव (कम्मेहि) कर्मभिः ( किच्चइ) कृत्यन्ते - पीडयन्ते इत्यर्थः ||८|| : टीका हे शिष्य ! 'अह' अथानन्तरम् | 'पास' पश्य 'विवेगं' विवेकं कश्चिपरतीर्थी परिग्रहं त्यक्त्वा, अथवा संसारस्य क्षणभंगुरतां ज्ञात्वा 'उडिए ' अन्वयार्थ:-- और देखो, परिग्रह को त्याग कर या संसारको अनित्य जानकर जिन्होंने दीक्षा अंगिकार की है, परन्तु वे संसारका पार नहीं कर पाते हैं । वे यहां मोक्षकी बात कहते हैं, परन्तु मात्र कहते ही है, उन्हें तत्त्वका ज्ञान नहीं हैं । हे शिष्यो ! तुम उनके मतको ग्रहण करके इस लोक और परलोक को कैसे जान सकोगे ? वे अन्यतीर्थिक बीच में ही कर्मों के द्वारा पीडित किये जाते हैं ॥ ८ ॥ - टीकार्थ हे शिष्य ! इसके अनन्तर देखो । कोइ अन्यतीर्थिक परिग्रहको त्याग कर अथवा संसारकी क्षणभंगुरता को जानकर दीक्षित हुआ कि मैं जन्म जरा सूत्रार्थ. હું શિષ્યા! જુવા, કોઈ અન્યતીથિ કો પરિગ્રહના ત્યાગ કરીને, અથવા સંસારને અનિત્ય જાણીને દીક્ષા અંગીકાર કરી લે છે, પરન્તુ તે સંસારસાગરને તરી શક્તા નથી. તેઓ અહીં મેાક્ષની વાત કરે છે, પરન્તુ તેમની તે વાત યથા તત્ત્વના જ્ઞાનથી વિહીન હેાવાને કારણે માત્ર કલ્પિત કથન રૂપજ છે. હું શિષ્યા! તેમના મતને ગ્રહણ કરીને તમે આ લેાક અને પરલેાકના યથાર્થ સ્વરૂપને કેવી રીતે સમજી શકશે? તે અન્ય તીર્થિકો માક્ષ પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી પણ વચ્ચે જ (સંસારમાંજ) અટવાયા કરે છે અને તેમના કર્માનાં ફળ સ્વરૂપે પીડા ભાગવ્યા કરે છે. ! ૯ ॥ - टीअर्थ - હું શિષ્યા ! પર કોઈ પરીતીર્થિક પરિગ્રહનોત્યાગ કરીને અથવા સ ંસારની ક્ષણભંગુરતાને જાણીને જન્મ. જરા અને મરણરૂપ સંસાર સાગરને તરી જવાની ઇચ્છાથી દીક્ષા ગ્રહણ For Private And Personal Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गले उत्थितः अहं जन्मजरालक्षणसंसारं तरिष्यामीति कृत्वा प्रव्रज्योत्थानेन उत्थितः किन्तु 'अवितिन्ने' अवितीर्णः संसारं तर्तुमिच्छन्नपि प्राणातिपातादिसावधकर्मपरायणत्वात् संसारसागरं नावतीर्णः, केवलम् 'इह' इह संसारे लोके 'धुवं' ध्रुवम् शाश्वतत्वात् ध्रुवो मोक्षस्तं मोक्षकारणं संयमादिकं वा । 'भासई' भाषते एव केवलं कथनमात्रं करोति, न पुनस्तदनुष्ठानं करोति, तत् परिज्ञानाभावात् । हे शिष्य ! त्वमपि यदि तेषां मार्गमाश्रित्य गच्छसि तदा 'आरं' आरम् इह भवम् तथा 'परं परं परलोकम् 'कओ' कुतः कथमिव ‘णाहिसि ज्ञास्यसि, नैवकथमपि ज्ञातुं शक्ष्यसि । अत एवतन्मार्ग परित्यज्य वीतरागप्रतिपादितमागेंविचर कस्मात् यस्मात् तेऽन्यतीर्थिनः एवं भाषमाणाः 'वेहासे' विहायसि मध्ये एव 'कम्मेहि' कर्मभिः 'किच्चइ कृत्यन्ते-छिद्यन्ते पराभूयन्ते-संसारे परिभ्रमणं कुर्वतीति यावत् । हे शिष्य ! इदं पश्य कश्चित्परतीर्थी संसारस्याऽनित्यतां मरण रूप संसारका तिरुंगा। किन्तु वह तिरनेकी इच्छा रखता हुआ भी हिंसा आदि सावद्य अनुष्ठानों के करने के कारण संसारसागरको तिर नहीं सका। वह यहाँ मोक्ष या मोक्षके कारण संयमके विषय में भाषण करता है परन्तु उसका अनुष्ठान नहीं करता। वह उन्हे जानता ही नहीं है। हे शिष्य ! यदि तुम भी उनके मार्गका अनुसरण करके चलते हो तो इस लोकको और परलोक को कैसे जान सकोगे ? किसी भी प्रकार नहीं जान सकोगे। अतएव उनके मार्गको त्याग कर वीतराग द्वारा प्रतिपादित मार्ग पर विचरो क्यों कि वे अन्यतीर्थी इस प्रकार कहते हुए मध्य में ही कर्मों के द्वारा पराभूत होते हैं। अर्थात् संसार में परिभ्रमण करते हैं। કરે છે પરંતુ સંસાર સાગરને તરવાની તેની ઈચ્છા સફળ થતી નથી કારણકે દીક્ષા ગ્રહણ કરવા છતાં પણ તે હિંસા આદિ સાવદ્ય અનુષ્ઠાનેમાં પ્રવૃત્ત રહેતું હોય છે તે દીક્ષા લઈને મેક્ષ અથવા મેક્ષના કારણે ભૂત સંયમન. વિષયમાં ઉપદેશ આપે છે. પરંતુ તે પિતે સંયમના અનુષ્ઠાનેનું પાલન કરતું નથી. અથવા તે મોક્ષ પ્રાપ્તિના ઉપાયનું યથાર્થ જ્ઞાન જ ધરાવતા નથી.હે શિષ્યો? જો તમે તેમના માર્ગને અનુસરશે, તે લોક અને પલેકને કેવી રીતે જાણું શકશે! એ પ્રકારે તે તમે આ લોક અને પરલેકના સ્વરૂપને સમજી શકવાના જ નથી તેમના માર્ગનું અનુસરણ કરવાને બદલે વીતરાગ દ્વારા પ્રતિપાદિત માર્ગનું અનુસરણ કરે તેમાં જ તમારૂ શ્રેય છે. અન્ય તીથિકે યથાર્થ વસ્તુ તથી અજ્ઞાત હોવાને કારણે વિપરીત વાત કરે છે, અને તે કારણે તેઓ મધ્યમાં જ કર્મો દ્વારા પરાભૂત થાય છે એટલે કે સંસારમાં પરીભ્રમણ કર્યા કરે છે. For Private And Personal Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु अ. २. उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ४८७ भावयित्वा परिग्रहादिकं परित्यज्य प्रवन्यामादायापि मोक्षाय यतमानो भवति । किन्तु सम्यक् संयमानुष्ठानाऽभावात् संसारं नैवाऽतिक्रामति । केवलं मोक्षस्य तत्कारणं संयमादिकमेव भाषते । परन्तु सम्यग्ज्ञानाभावात् तदुपाये न प्रवर्तते। हे शिष्य यदि त्वमपि तेषामेवाऽनुसरणं करिष्यसि, तदा इहलोकं परलोकं वा कथं ज्ञास्यसि । परतीथिका उभयभ्रष्टाः अन्तराले एव स्वकृतकर्मभिःपीडयन्ते, चतुर्गतिकसंसारे परिभ्रमन्ति । प्राणातिपातविरमणादिमहावताभावादिति भावः।।८ ___अथ दृश्यते परतीथिकोऽपि कश्चित्परिग्रहरहितः, तथा तपो विशेषैर्युक्तश्च, तत्कथं तस्य मोक्षप्राप्ति न भवति । नहि तपोविशेषाऋते मोक्षो भवतीति सिद्धान्तः । तपो मोक्षस्य कारणमिति जिनैरपि कथनात् । तथा च तपसी विद्यमानतया तेषां कथं न मुक्तिः, सत्यपि तपसि यदि न मोक्षस्तदा भवच्छासनमनुसरतामपि मोक्षो न स्यादिति गतेयं मोक्षवार्ता इत्याशंक्याह आशय यह हैं- हे शिष्य ! यह देखो कि कोई परतीर्थी संसारकी अनित्यता को जानकर, परिग्रह आदिका त्याग करके और दीक्षा ग्रहण करके मोक्षके लिए प्रयत्नशील होता है। किन्तु संयमका सम्यक् अनुष्ठान न करनेसे वह संसार में ही भ्रमण करता हैं उससे पार नहीं होता। वह मोक्षकी और मोक्षके कारणभूत संयम की बाते करता है, मगर सम्यग् ज्ञानका अभाव होने से उसके उपायमें प्रवृत्ति नहीं करता । हे शिष्य ! यदि तू भी उसीका अनुसरण करेगा तो इह लोग एवं परलोक को किस प्रकार जान सकेगा ? परतीर्थिक तो दोनों तरफसे भ्रष्ट हैं और बीच ही में अपने किये कर्मोंसे पीडा पाते हैं चतुर्गतिक संसार में परिभ्रमण करते हैं, क्योंकि वे अहिंसा आदि महाव्रतोंका पालन नहीं करते हैं ॥ ८॥ આ કથન દ્વારા સૂત્રકાર એ વાતનું પ્રતિપાદન કરે છે કે કોઈ કોઈ પરતીર્થિક સંસારની અનિત્યતાને સમજી જઈને પરિગ્રહ આદિને ત્યાગ કરીને દીક્ષા ગ્રહણ કરીને મોક્ષપ્રાપ્તિ માટે પ્રયત્નશીલ બને છે પરન્તુ સંયમનું સમ્યક અનુષ્ઠાન નહીં કરવાને કારણે સંસારમાં જ પરીભ્રમણ કર્યા કરે છે તે સંસાર સાગર તરી શક્તો નથી તે મોક્ષની અને મેક્ષના કારણભૂત સંયમની વાત કરે છે, પરંતુ સમસ્યગ જ્ઞાનનો અભાવ હોવાને કારણે તેની સમ્યક્ રૂપે આરાધના કરતું નથી. હે શિષ્ય ! જે તું પણ તેમનું અનુસરણ કરીશ તે આ લેક અને પરલોકને કેવી રીતે જાણી શકીશ ? પરતીથિકે તે બન્ને તરફથી ભ્રષ્ટ છે અને વચ્ચે જ ( સંસારમાં જ) પોતાના કૃતકર્મો દ્વારા પીડા ભેગવી રહ્યા છે. તેઓ ચાર ગતિવાળા સંસારમાં પરિભ્રમણ કરે છે, કારણ કે તેઓ અહિંસા આદિ મહાવ્રતનુ पासन ४२ता नथी. | माथा ८ ॥ For Private And Personal Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे ૪૮૮ 'जइ विणिगसे' इत्यादि । मूलम् जइ वि णिगसे किसे चरे जइविय भुजियमासमंतसो । जे इह मायाइ मिज्जइ आगंता गम्भाय गंतसो ॥९॥ १२ ११ १० छायायद्यपि च नग्नः कृशश्चरेत् यद्यपि च भुजीत मासमन्तशः । य इह मायादिना हि मीयते आगन्ता गर्भायानन्तशः ॥९॥ कहा जा सकता है कि कोई कोई परतीर्थिक भी परिग्रह से रहित और विशिष्ट तपस्यावान् देखे जाते है, ऐसी स्थिति में उन्हें मोक्षकी प्राप्ति क्यों नहीं होती ? विशिष्ट तपके विना मोक्ष नहीं होता, ऐसा सिद्धान्त है। तप मोक्षका कारण , ऐसा है तीर्थंकरोंने भी कहा है । तपकी विद्यमानता होने से उन्हें मोक्ष क्यों नहीं होता? यदि तपस्या के होने पर भी मोक्ष नहीं होता तो आप के शासन का अनुसरण करनेवालों को मोक्ष नहीं होना चाहिए। फिर तो मोक्ष की बात ही कहां रही। ऐसी आशंका करके कहते हैं-"जइ विणिगसे" इत्यादि । शब्दार्थ-'जे-ये' जो 'इह-इह इसलोकमें 'मायाइ मिज्जाइ-मायादिना मीयते' कषायोंसे युक्त हैं वह 'जइविय-यद्यपि' चाहे 'णिगणे-ननः नग्न अर्थात् वस्त्ररहित एवं 'किसे-कृशः' दुर्बल होकर 'चरे-चरेत्' विचरे 'जइविय-यद्यपि' चाहे अंतसो-अन्ततः' अन्तपर्यन्त 'मास-मासम्' एक मासके अनन्तर 'भुजिय એવું પણ કહી શકાય છે કે કેટલાક પુરતીર્થિક પણ પરિગ્રહણથી રહિત અને વિશિષ્ટ તપસ્યાસંપન્ન હોય છે. છતાં તેમને મેક્ષની પ્રાપ્તિ કેમ થતી નથી ? વિશિષ્ટ તપ વિના મિક્ષ નથી. એ સિદ્ધાંત છે. તપ મેક્ષનું કારણ છે, એવું તીર્થકરોએ પણ કહ્યું છે. છતાં તપને સદ્ભાવ હોવા છતાં પણ તે પરતીર્થિકોને મેક્ષ કેમ મળતું નથી? તપસ્યા કરવા છતાં પણ મેક્ષ ન મળતું હોય, તે આપના શાસનનું અનુસરણ કરનારને પણ મોક્ષ મળવો જોઈએ નહીં. એવી સ્થિતિમાં તેમને મેક્ષ પ્રાપ્ત થવાની વાતજ કેવી शते २वी मने! ! श निवारण ४२वा माटे सूत्र४२ छ-"जइ वि णिगसे" त्यादि. शहाथ-'जे-ये' र 'इन-इह' सभा 'मायाइमिज्जइ-मायादिना मोयते पायथा युरत छ 'जइत्रिय-यद्यपि' या 'णिगणे-नग्नः' नाग अर्थात् वस्त्र पारन। सवम 'किसे-कृशः निमण ने 'चरे-चरेत् ३२ 'जइबिय-यद्यपि' या अंतसोभन्ततः' मन्त पर्यन्त 'मास-मास' मनन्त सुधी-गब्भाय-गाय' मेमास पछी For Private And Personal Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समवार्थबोधिनी टोका प्र. श्रु. अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ४६९ अन्वयार्थ(ज) यः (इह) इह-अस्मिन् लोके (मायाइ मिज्जइ) मायादिना मीयते उपलक्षणत्वात् कषाययुक्त इति परिच्छिद्यते (जइविय) यधपि (णिगणे) नग्न:वस्तरहितः (किसे) कृशः (चरे) चरेत् (जइविय) यद्यपि (अंतसो) अन्ततः (मास) मासं मासपर्यन्तं तपसोऽनन्तरम् (भुजिय) भुजीत-भोजनं कुर्यात् परन्तु (णतसो) अनन्तशः-अनन्तकालं यावत् (गन्भाय) गर्भाय-गर्भवासायेत्यर्थः (आगंता) आगन्ता-गर्ते आयातीत्यर्थः ॥९॥ टीका। 'जे इह मायाइ मिज्जइ' य इह मायादिना मीयते-यः परतीर्थिकः इह मायादिना मीयते यः कश्चित् पुरुषः इहलोके मायया उपलक्षणत्वाल्क्रोधमानभुंजीत' भोजन करें परंतु 'णंतसो-अनन्तशः अनन्तकालतक 'गब्भाय-गर्भाय' गर्भवासमें 'आगंता-'आगन्ता' आनेवालेही होते हैं ॥९॥ -अन्वयार्थ___ इस लोक में जो माया अर्थात् कपायों से युक्त होता है, वह यद्यपि नग्न और कृश होकर विचरता है और महीने महीने के पश्चात् भोजन करता है, फिर भी वह अनन्तकाल पर्यन्त गर्भावास को प्राप्त होता है ॥९॥ -टीकार्यइस लोक में जो परितीर्थिक माया से अर्थात् उपलक्षण से क्रोध, मान, माया और लोभ कषायों से युक्त होता है, वह भले ही नग्न रहता हो जिय-भुजीत' लोन २ ५२ गतसो-अनन्तशः' मनात सुधी गम्भाय-गर्माय' आल भां. 'आगता-आगन्ता' मावावा डाय छे. ॥६॥ -सूत्रार्थઆ લેકમાં જેઓ માયા એટલે કે કષાયથી યુક્ત હોય છે, તેઓ કદાચ વસ્ત્રોનું બધન તોડી નાંખીને નગ્નાવસ્થામાં વિચરણ કરે, મહિના મહિનાના ઉપવાસ કરીને શરીરને તદન ક્ષીણ કરી નાખે, છતાં પણ તેમને અનન્ત કાળ સુધી ગર્ભમાં ઉત્પન્ન થવું પડે છે એટલે કે સંસારમાં પરિભ્રમણ કરવું પડે છે. પલા -टीशर्थઆ લેકમાં જે પરતીથિકે મયાથી (અહીં માયા પદ દ્વારા ક્રોધ, માન, માયા અને લેસરૂપ ચારે કષાયને ગ્રહણ કરવા જોઈએ) યુક્ત હોય છે, એટલે કે ક્રોધ, માન માયા અને લેભ રૂપ કષાયથી યુક્ત હોય છે તેમને મેક્ષ મળી શકતા નથી, ભલે તેઓ सु. १२ For Private And Personal Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूकता मायालोभात्मककषायेण युक्तो भवेत् , स यदि 'जइविय' यद्यपि 'णिगसे किसे चरे' नग्नः कृशश्चरेत्-सपदि नग्नः अज्ञानकष्टेन कृशो भूत्वापि चरेत्-विचरेत् , 'जइविय' यद्यपि 'अंतसो' अन्ततः 'मास' मासम्-मासक्षपणं कृत्वा, पक्षात 'अँजिय' भुनीत-भोजनं कुर्यात् । परन्तु एवं कुर्वाणो 'गंतसो' अनन्तश:-अवन्तकालपर्यन्तम् 'गम्भाय' गर्भवासाय 'आगंता' आगन्ता-गर्भवासाय आगच्चतील्यर्थः । कषाययुक्तः पुमान् अनेकविधं तपः कुर्वन्नपि न संसारपारं याति, परन्तु अनन्तकालं गर्भवासमेवाऽनुशेते, न ततो विमुच्यते, मोक्षमार्गस्य सम्पम् ज्ञानाभावेन विपरीताचरणात् इति ॥९॥ न भवति मिथ्याज्ञानोपबृहिततपसाऽपि चतुर्गतिभ्रमणनिरोधः । अपितु वीतरागप्रणीतमार्गादेव श्रेयसः प्राप्तिचतुर्गतिभ्रमणनिरोधश्चत्यर्थघटितमुपदेशदित्सुःसूत्रकारो गाथामिमां पठति-'पुरिसोरम' इत्यादि । मूलम्पुरिसोरम पावकम्मुणा पलियतं मणुयाण जीवितं । सन्ना इह काममुच्छिया मोह जंति नरा असंवुडा ॥१०॥ और अज्ञानपूर्वक कष्ट सहन करके कृश (दुर्बल) होकर विचरता हो और भले ही मासखमण करके भोजन करता हो, फिर भी वह अनन्तकाल पर्यन्त गर्भवास को प्राप्त होता है । अभिप्राय यह है कि कषाय से युक्त पुरुष अनेक प्रकार की तपस्या करता हुआ भी संसार को पार नहीं कर सकता, परन्तु अनन्तकाल पर्यन्त गर्भवास को प्राप्त होता रहता है, उस से छूट नहीं सकता, क्योंकि मोक्षमार्ग का सम्यग्ज्ञान न होने से वह विपरीत आचरण करता है ।।९।। નગ્ન રહે (પડાને પરિગ્રહ પણ ન કરે, ભલે તેઓ અજ્ઞાન પૂર્વક કષ્ટ સહન કરીને કૃશ (દુર્બલ) થઈ જાય, ભલે તે માસમણ કર્યા કરે (મહિનાના ઉપવાસ કરીને પારણું કર્યા બાદ મહિનાના ઉપવાસ આ પ્રકારની તપસ્યા કર્યા કરે, છતાં પણ તેઓ અનંત કાળ સુધી ગર્ભમાં ઉત્પન્ન થયા જ કરે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે કષાયુકત પુરૂષ અનેક પ્રકારની કરી તપસ્યા કરવા છતાં પણ સંસારને પાર કરી શકતું નથી. પરનું અનંત કાળ સુધી જન્મ મરણના ફેરા કર્યા જ કરે છે. તેમાંથી તેને છુટકારો થઈ શક્તિ જ નથી, કારણકે તેને મેક્ષમાર્ગનું સમ્યગૂજ્ઞાન ન હોવાને કારણે તે વિપરીત આચરણ જ કરતા હોય છે. ગાથા લા For Private And Personal Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ४११ छायापुरुष उपरम पापकर्मणा पल्यान्तं मनुजस्य जीवितम् । सक्का इह काममूच्छिता मोहं यान्ति नरा असंवृताः ॥१०॥ अन्वयार्थ:( पुरिस ) पुरुष! हे पुरुष ! ( पावकम्मुणा ) पापकर्मणा-प्राणातिपातादिकर्मणा (उपरम) उपरम-निवर्तस्व यतः (मणुयाण) मनुजानाम् जीवियम् जीवि मिथ्याज्ञान से युक्त तपस्या के द्वारा चार गतियों का भ्रमण नहीं कर सकता है, किन्तु वीतराग द्वारा प्रणीत मार्ग से ही श्रेयस (कल्याण) की प्राप्ति होती है भवभ्रमण का निरोध होता है । इस अर्थवाला उपदेश देने के इच्छुक पत्रकार यह गाथा कहते हैं-"पुरिसो रम इत्यादि। शब्दार्थ-'पुरिसो-पुरुष' हे पुरुष ! 'पावकम्मुणा-पापकर्मणा' प्राणातिपातादि पापकर्मसे 'उपरम-उपरम' तू निवृत्त होजा क्योंकि 'मणुयाणं-मनुजानाम्' मनुष्यों का 'जीवियं-जीवितम्' जीवन 'पलियंत-पल्यान्तम्' नाशवंत हैं 'इह-इह' इस संसारमे 'सन्ना--सक्ताः' जो आसक्त है तथा 'काममुच्छिया. काममूच्छिताः' कामभोगो में आसक्त हैं एवं 'असंवुडा-असंवृताः' प्राणातिपात आदिसे निवृत्तनहीं हुए हैं 'नरा--नराः' ऐसे मनुष्य 'मोहं-मोहम्' मोहको 'जति--यान्ति' प्राप्त करते हैं ॥१०॥ -अन्वयार्थ... हे पुरुष ! तू पापकर्म से विरत हो क्योंकि मनुष्यों का जीवन पल्योपन મિથ્યાજ્ઞાનથી યુક્ત તપસ્યા દ્વારા ચાર ગતિઓનું ભ્રમણ રોકી શકાતું નથી, પરંતુ વીતરાગ પ્રણીત માર્ગનું અનુસરણ કરવાથી જ ભવભ્રમણને નિરોધ થાય છે અને કલ્યાણ કારી મેક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે. આ વાતનું પ્રતિપાદન સૂત્રકારે નીચેની ગાથા દ્વારા કર્યું 2. "पुरिसोरम" त्याह Auth' 'पुरिसो-पुरुष' : ५३५ ? 'पावकम्मुणा-पापकर्मणा" प्राgulaura पोरे पा५४ थी 'उपरम-उपरम' तु निवृत्त थJan उभरे 'मणुयाण-मनुजानाम् भनाध्यांनु' 'जीविय-जीवितम्' वन 'पलियत -पल्यान्तम्' नाथपंत छ. 'दह-नई' DAN संसारमा 'सन्ना-सक्ताः' ने सासरत छे तथा 'असं बुडा-असंवृताः' प्रतिपात पोथी निवृत्त नथी थया. 'नरा-नराः' सेवा मनुष्य। 'मोह-मोहम्' भने जतिमन्ति' प्रास ४२ छ. ॥१०॥ -स्त्रीહે પુરૂષ! તું પાપકર્મથી વિરત થા, કારણ કે માણસનું જીવન વધારેમાં વધારે For Private And Personal Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१२ सूच नम् (पलियंत) पल्योपमान्तम् (इह ) इह = संसारे सन्ना सक्ताः=गृद्धाः सन्तः तथा ( नरा) नरा: ( काममुच्छिया) काममूच्छिताः = कामभोगेष्वासक्ताः तथा (असंबुडा) असंवृताः=प्राणातिपातादिभिरनिवृत्ताः, (मोहं) मोहं (जंति) यान्ति मोहं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः ॥ १० ॥ - टीका'पुरिसा' हे पुरुष= पुरि शरीरात्मकनगरे शेते तिष्ठति इति पुरुषो जीवः । तत्संबुद्धौ हे पुरुष विवेकज्ञानिन् ! (पावकम्मुणा) पापकर्मणा = प्राणातिपातादारभ्य मिथ्यादर्शनशल्यान्तकर्मणा 'रम' उपरम निवृत्तो भव । ' मणुयाण जीवितं मनुष्याणां जीवनम् (पलियंत) पल्योपमान्तम् उत्कर्षतः त्रिपल्योपमान्तमेव मनुष्याणां जीवनम् भवति तदपि नाशवदेव इह = अस्मिन् संसारे वी कामभोगेषु (सम्भा) सक्ताः आसक्ताः । (काममुच्छिया) काममुच्छिताः (असेकुंडा) असंवृत्ताः = हिंसादिकर्मणोऽनिवृत्ताः । 'नरा' नराः = मनुजाः जीवा इति शेषः । ( मोहं जंति) मोहं यान्ति = मुग्धा भवन्ति, मोहनीयं कर्म समुपार्जयन्ति । तक ही है । इस संसार में जो आसक्त हैं, कामभोगों में मूच्छित है और हिंसा, आदि से निवृत्त नहीं हैं, वे मोह को प्राप्त होते हैं ॥ १० ॥ टीकार्थ पुर अर्थात् इस शरीर रूपी नगर में जो सोता है अर्थात् ठहरता है, वह 'पुरुष' कहलाता है । पुरुष का अर्थ 'जीव' है । हे पुरुष ! हे विवेकज्ञानी आत्मा तूं प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्यतक के अठारहो पापों से निवृत्त हो । क्योंकि मनुष्यों का जीवन अधिक से अधिक युगलिक की अपेक्षा तीन पल्योपम का ही है और वह भी नाशवान् हैं । जो इस संसार में आसक्त हैं, कामभोगो में मूच्छित हैं, हिंसा आदि पापकर्मों से विरत नहीं हैं, ऐसे जीव मोहनीय कर्म का उपार्जन करते हैं । ત્રણ પાલ્સેપમનુ જ છે. આ સ'સારમાં જે આસકત છે, જેઓ કામભાગેામાં મૂર્છાિત છે, અને જેએ હિં ંસા આદિથી નિવૃત્ત નથી, તેઓ મેાહનીય ક નું ઉપાર્જન કરે છે.૧૦ના टी अर्थ પુર એટલે નગર. આ શરીર રૂપી નગર્મા જે શયન અથવા નિવાસ કરે છે, તેને पुरुष उहे छे. मा पुरुषने व (आत्मा) हे छे. ralp હે પુરુષ! હું આત્મા! તું પ્રાણાતિપાતથી લઇને મિથ્યાદર્શન શલ્ય પન્તના અઢારે પાપાથી નિવૃત્ત થઈ જા, કારણ કે મનુષ્યના જીવનને કાળ અધિકમાં અધિક ત્રણ પલ્યા. પમના કહ્યા છે. (આ કાળ યુગલિકોના જીવનની અપેક્ષાએ કહેવામા આવ્યેા છે); ના શરીર નાશવાન છે. જે જીવા આ સસારમાં આસક્ત હાય કામભાગામાં મતિ હાય છે અને હિંસાદિ કાર્યાં કર્યાં કરે છે, એવાં જીવા માહનીય ક નું ઉપાર્જન કરતા રહે છે. છે, For Private And Personal Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ४९३ ___ यद्यपि प्राणिमात्रं कर्मफलभोक्ताः भवति । तथाच विशिष्ठ-नरस्यैव कीर्तन माक्षायामनुचित मिवाऽऽभाति, तथापि विशिष्ठकर्माऽनुष्टानं शुभाशुभफलप्रापर्क मनुष्यशरीरेणैव संपादितं सत् फलोपभोगाय जायते। अतो मनुष्यस्यैव ग्राण पुरुष इति पदेन गाथाघटकेन भवति । कर्मकारित्वं यद्यपि पश्चादावपि भवति तथापि पश्चादौ न भवति विशिष्टतपःप्रभृतिका क्रिया । __असदनुष्ठानात्मकपापकर्मणा निवर्तस्व, मनुष्याणां जीवितमत्यल्पम् विनाशीति यावत् । तदेवं मनुष्यजीवनमत्यल्पमित्यवगत्य यावत् तन्न विनश्यति, तावत् सर्वज्ञोदीरितशास्त्रप्रतिपादितप्रक्रियाऽनुसारेण धर्मानुष्टानं कृत्वा सफलयितव्यं जीवनम् । ये पुनः कामभोगादिषु संसक्ता एव भवन्ति यद्यपि प्राणीमात्र अपने अपने कर्म को भोगते हैं, अतएव विशेष रूपसे नर (मनुष्य) के लिए गाथा में ऐसा कहना अनुचित सा प्रतीत होता हैं' तथापि विशिष्ट कर्मों का अनुष्ठान, जो कि शुभ और अशुभ फल प्राप्त कराने वाला है, मनुष्य शरीर के द्वारा ही सम्पादित होता है और फलके उपभोग के लिये होता है, इस कारण गाथा में 'पुरुष' पद के द्वारा मनुष्य का ही ग्रहण किया हैं । यद्यपि पशु आदि भी कर्म उपार्जन करते हैं, तथापि उनमें विशिष्ट तप आदि क्रिया नहीं होती। तात्पर्य यह हैं असत्कर्मरूप पाप से निवृत्त हो । मनुष्यों का जीवन अल्प हैं, बिनश्वर है । इस प्रकार मनुष्य का जीवन अल्पकालीन है, इसा जानकर जब तक वह विनष्ट नहीं हुआ हैं तब तक सर्वज्ञोक्त शास्त्रों में प्रतिपादित प्रक्रिया के अनुसार धर्मानुष्ठान करके जीवन को सफल बना लेना શંકા-જો કે પ્રત્યેક પ્રાણી પિત પિતાનાં કર્મોનું ફળ ભોગવે છે, છતાં પણ આ ગાથામાં વિશેષ રૂપે મનુષ્યને અનુલક્ષીને જે કથન કરવામાં આવ્યું છે તે અનુચિત लागे छे. | * સમાધાન– વિશિષ્ટ કર્મોનું અનુષ્ઠાન કે જેના દ્વારા શુભ અને અશુભ ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે, તેમનું સંપાદન મનુષ્ય શરીર દ્વારા જ થાય છે, અને તે કર્મોનું ફળ જીએ ભોગવવું પડે છે, તે કારણે ગાથામાં વપરાયેલા "પુરુષ" પદ દ્વારા મનુષ્યનું જ ગ્રહણ કરાયું છે. જો કે પશુ આદિ પણ કર્મોનું ઉપાર્જન કરે છે. પરંતુ તેમનામાં વિશિષ્ટતા આદિ ક્રિયાઓને સદ્દભાવ હેતે નથી. આ સમસ્ત કથન દ્વારા અસત્કર્મ રૂપ પાપથી નિવૃત્ત થવાને ઉપદેશ આપવામાં આવ્યો છે. માણસનું જીવન અલ્પ અને વિનશ્વર છે. આ અલ્પકાલીન જીવનને જ્યાં સુધી અન્ન ન આવે, ત્યાં સુધી માણસેએ સર્વોક્ત શાસ્ત્રમાં પ્રતિપાદિત પ્રકિયા અનુસાર ધર્માનુષ્ઠાન કરીને આ મનુષ્ય ભવને સાર્થક કરે જઇએ. જે મનુષ્ય કામમાં For Private And Personal Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४९४ ान तथा सांसारिकविषयविषयकतृष्णावन्तो भवन्ति, ते नरा मोहं यान्ति, हिताहितप्राप्तिपरिहारे मोहमप्युपगच्छन्ति । अथवा मोहनीय कर्म संचिन्वन्ति इति ॥ १० ॥ मनुष्यभव एव तावद् दुर्लभः, तत्रापि श्रावककुले उत्पत्तिः, तयारि शुभानुष्टानाय प्रयतनीयमिति दर्शयति सूत्रकारः - 'जययं विहराहि' इत्यादि । - मूलम् - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ ३ ४ ५ ६ जययं विहराहि जोगवं अणुपाणा पंथा दुरुतरा । ७ ८ ९ १० ११ अणुसासणमेव पकमे विरेहिं समं पवेइयं ॥ ११ ॥ छाया -- यतमानो विहर योगवान् अनुप्राणाः पंथानो दुरुत्तराः । अनुशासनमेव प्रक्रमेत वीरैः सम्यक् प्रवेदितम् ॥ ११ ॥ चाहिये । जो कामभोगो में ही आसक्त रहते हैं तथा सांसारिक विषयों की तृष्णावाले होते हैं, वे नर मोह को प्राप्त होते हैं हित (धर्म) की प्राप्ति और अहित (पाप) के छोड़ने में मूढ होते है अथवा मोहनीय कर्म का संचय करते है ||१०|| प्रथम तो मनुष्यभव ही दुर्लभ है, उसमें भी श्रावक के कुल में उत्पत्ति दुर्लभ है, यह जिसे प्राप्त हो उसे शुभकर्म करने का प्रयत्न करना चाहिये सूत्रकार यह दिखलाते है - " जययं विहराहि" इत्यादि । शब्दार्थ –'जययं -- यतमानः ' हे मनुष्यः तू यत्न करता हुआ तथा 'जोगवंयोगवान' समितिगुप्ति से गुप्तहोकर 'विहराहि-- बिहर' विचरण कर 'अणुपाणा-:: જ આસક્ત રહે છે અને સાંસારિક વિષયાની તૃષ્ણાવાળા હેાય છે, તે મેહનીય કર્માંનુ ઉપાર્જન કરીને હિત (ધર્મ) ની પ્રાપ્તિ અને અહિત (પાપ)ના પરિત્યાગ કરવાને અસમર્થ અની જાય છે. ૫ ૨૦ ॥ પહેલી વાત તે એ છે કે આ મનુષ્ય ભવજ દુર્લભ છે. મનુષ્ય ભવ પ્રાપ્ત કરીને શ્રાવકના કુળમાં ઉત્પત્તિ અતિ દુર્લભ છે. આ બન્નેની પ્રાપ્તિ જેમને થઇ છે તેમણે શુભ કમાં કરવાના પ્રયત્ન કરવા જોઇએ. સૂત્રકાર નીચેની ગાથામાં આ વાતજ પ્રકટ કરે છેजयय विहराहि" इत्याह 27 शब्दार्थ - जयय - यतमानः' हे मनुष्य ! तु प्रयत्न रे त्यारे तथा 'जोगव'- योगवान्' समिति गुप्तिथी गुप्त थर्धने 'विहराहि-बिहर' विधारण ४२ 'अणुपाणा - अनुप्राणाः ' For Private And Personal Use Only Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सनमार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ४९५ -अन्वयार्थ:... हे पुरुष ! स्वल्पं जीवितं ज्ञात्वा क्लेशस्वरूपान् विषयानवबुद्धय (जययं) सतमानः प्रयत्नं कुर्वन् तथा (जोगवं) योगवान् समितिगुप्ति गुप्तःसन् (विहराहि) विहर-उद्युक्तविहारी भव, यतः (अणुपाणा) अनुप्राणा:-अणवः सूक्ष्माः प्राणा जीवा पथिसु ते अणुप्राणाः एवंभूताः (पंथा) पन्थानः (दुरुत्तरा) दुरुत्तराः अनुपयुक्तैर्जीवानुपमर्दैन दुस्तराः दुर्गमा इत्यर्थः । अपिच (अणुसासण मेव) अनु शासनमेव सूत्रानुसारेण संयमं प्रति (पक्कमे) प्रक्रमेत् संयमानुष्ठानं कुर्यादित्यर्थः प्रसञ्च वीरेहिं वीरैः- रागादिविजेतृभिरर्हद्भिः, समं सम्यक् (पवेइयं) प्रवेदितम् मासेमारख्यातमिति ॥११॥ अनुप्राणाः सूक्ष्मप्राणियोंसे युक्त 'पंथा--पन्थानः' मार्ग 'दुरुत्तरा-दुरुत्तराः उपयोग के विना दुस्तर होता है 'अणुसासणमेव--अनुशासनमेव शास्त्रोक्त रीतिसे ही 'पक्कमे--प्रक्रमेत् संयमका अनुष्ठान करना चाहिए 'वीरेहि-विरैः रागादिको जीतने वाले अरिहन्तोंने 'सम--सम्यक् सम्यक् प्रकारसे 'पवेइयं-- प्रवेदितम्' कहा है ॥११॥ -अन्वयार्थहे पुरुष ! जीवन को अल्पकालिक जानकर तथा विषयों को क्लेशकर दु:खदायी। समझकर प्रयत्न करते हुए, समिति और गुप्ति से युक्त होकर उधत विहारी बनो । मार्ग में छोटे छोटे जीव होते हैं, उनका उपमर्दन किये बिना चलना उपयोग रहित मनुष्यों के लिये कठिन है इस लिये उपयोग सहित यतनापूर्वक चलो । अतः सूत्र के अनुसार संयम में पराक्रम करना चाहिये । ऐसा रागादि के विजेता अर्हन्त भगवानने सम्यक् प्रकार से कहा है ॥११॥ सूक्ष्म प्राणीयोथी युत प्रथा-पन्थानः' भाग 'दुरुत्तरा-दुरुत्तरा' उपयोगना १२ हुस्त२ थाय छ, 'अणुसासणमेव -अनुशासनभेव' शास्त्री शतीथी 'पकमेप्रकमेत' सयभनु मनुष्ठान ४२ नये 'वीरेहि-वीरै' । विगेरेने त मरिडतामे 'सम-सम्पा ' सभ्य प्रारथी 'पवेदय प्रवेदितम्' हे छ, ॥११॥ ___ - सूत्रार्थ - ' હે પુરુષ! (આત્મા) જીવનને અલ્પકાલીન જાણીને તથા વિષયને દુઃખદાયી સમજીને, પ્રયત્ન પૂર્વક સમિતિ અને ગુપ્તિ યુક્ત થઈને ઉદ્યત વિહારી બને. માર્ગમાં અનેક નાનાં નાનાં જીવજંતુઓ હોય છે, તેમનું ઉપમર્દન કર્યા વિના ચાલવાનું કાર્ય ઉપયોગરહિત (અસાવધાન)મનુષ્યને માટે કઠણ છે, તેથી ઉપયોગ સહિત (યતનાપૂર્વક) ચાલવું જોઈએ તેથી શાસના આદેશ અનુસાર જ આચરણ કરવું જોઈએ, એવું રાગાદિ પર વિજય પ્રાપ્ત કરનાર (વીતરાગ) અહંત ભગવાને સમ્યક પ્રકારે કહ્યું છે. ૧૧ For Private And Personal Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतारले -टीकाहे विवेकि पुरुष ! 'जययं' यतमान:- यतमानो त्वं 'जोगव' योगवान् समितिगुप्तिभ्यां युक्तः सन् 'विहराहि' विहर विचर, कस्मात् समितिगुप्तिभ्यां युक्त एव तथा प्रयत्नवता भाव्यमित्यत आह-'अणुपाणा' अनुप्राणाः- यस्मात् सूक्ष्मप्राणिभिरिद्रियाऽग्राहयुक्ताः पंथा! पन्थानः मार्गाः 'दुरुत्तरा' दुरुतराः, उपयोगमन्तरेण गन्तुमशक्याः भवन्ति कथं तहि एतादशो मार्गः संचरितुं शक्यो भविष्यति, तत्राह 'अणुसासणमेव' अनुशासनमेव, “जयं चरे जयंचिट्टे' जयमासे जयं सए जयं मुंजतो भासंतो पावं कम्मं न बंधइ' ॥१॥ इति शास्त्रोक्ताज्ञानुसारणैव 'पक्कमे प्रक्रामेत् संयमस्याऽष्ठानं कर्तव्यम् शाखाजानुसारेणैव संयमपालनं विधेयम् न स्वबुद्धिकल्पिताचारेणेति । - ननु कथं कोऽपि भगवद्वचने विश्वास करिष्यति आप्तत्वस्य भगवत्यनि -टीकार्थहे विवेकवान् पुरुष ! तू यतना करता हुआ योगवान् अर्थात् समिति और गुप्ति से युक्त होकर विचर । यतनावान् और योगवान् क्यों होना चाहिए ? इस का उत्तर यह है कि इन्द्रियों से ग्रहण न होने योग्य अत्यन्त सूक्ष्म जीवों से व्याप्त मार्ग होते हैं । उन पर उपयोग के विना चलाना शक्य नहीं है । ऐसे मार्ग पर शास्त्रोक्त विधि के अनुसार ही चलना चाहिए शासोक्त विधि यह हैं-'यतनापूर्वक चलना चाहिए, यतनापूर्वक ठहरना चाहिए, यतनापूर्वक बैठना चाहिए । यतनापूर्वक आहार करना चाहिए और यतमापूर्वक निर्वद्य भाषण करनेवाला पुरुष पापकर्म नहीं बाँधता' अर्थात् संयम - Nt - હે વિવેકવાન પુરુષ! તું યતનાપૂર્વક અને યેગવાન (પંચ સમિતિ અને ત્રણ ગુમથી યુક્ત) થઈને વિચર. યતનાવાન અને વેગવાન શા કારણે થવું જોઈએ? આ પ્રશ્નને ઉત્તર એ છે કે ઇન્દ્રિ દ્વારા ગ્રહણ ન કરી શકાય એવાં અત્યંત સૂક્ષમ થી માર્ગ વ્યાસ હોય છે. એવાં માર્ગ પર ઉપયોગ વિના (અસાવધાનીથી) ચાલવાથી જીવનું ઉપમદન થાય છે. માટે એવા માર્ગ પર શાસ્ત્રોક્ત વિધિ અનુસાર ચાલવું જોઈએ. શાસ્ત્રોકત વિધિ આ પ્રમાણે છે- ”યતના પૂર્વક ચાલવું જોઈએ. યતનાપૂર્વક ઊઠવું બેસવું જોઈએ. યતના પૂર્વક શયન કરવું જોઈએ. યતનાપૂર્વક આહાર કરવો જોઈએ. યતનાપૂર્વક નિર્વધા ભાષણ કરવું જોઈએ. આ પ્રમાણે યતનાપૂર્વક પ્રવૃત્તિ કરનાર મનુષ્ય પાપકર્મને બમ્પક થતું નથી એટલે કે સંયમનું અનુષ્ઠાન શાસ્ત્રના આદેશ અનુસાર જ કરવું જોઈએ. For Private And Personal Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सबा पोधिनी टीका प्र. व.अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ४९७ चयादित्यत आह- 'विरेहि' वीरैस्तीर्थक रैः 'सम' सम्यग्ररूपेण प्रवेदितम् प्रकर्षणाख्यातम् ते हि तीर्थकराः संप्राप्तकेवलज्ञानाः केवलज्ञानद्वारा अतीन्द्रियसाधारणान् यथाऽवस्थितस्वरूपान् पदार्थान् ज्ञात्वा अनुग्रहबुद्धया परोपकारमात्रं मनसि निधाय उपदिष्टवन्तः। अतो न तत्राऽप्रामाण्यशङ्का, तस्मात्तदुपदिष्टशाखसमतिमादाय संयमपालने प्रयत्नो विधेय इति ॥११॥ पूर्वगाथायां विश्वासकारणतया वीररित्युक्तम् तत्र को वीरः किं लक्षण: किंस्वरूपश्च तत्राह-'विरया वीरा' इत्यादि। की अनुष्ठान शास्त्र के आदेश के अनुसार ही करना चाहिए, अपनी बुद्धि के. द्वारा कल्पित आचरण करके संयम पालन करना योग्य नहीं । __ शंका-भगवान् में आप्तता का निश्चय न होने से कोई भगवान् के वचन पर कैसे विश्वास करेगा ? __समाधान-तीर्थकरो ने सम्यक् प्रकार से कथन किया है । उन तीर्थकरों को केवलज्ञान प्राप्त था । उन्होने केवलज्ञान के द्वारा अतीन्द्रिय पदार्थोंको यथार्थ रूप में जानकर अनुग्रह की बुद्धि से, मन में परोपकार का भाव धारण करके उपदेश दिया है । अतएव उनके उपदेश में प्रमाणिकता की आशंका नहीं की जा सकती । अतएव उनके द्वारा उपदिष्ट शाख के अनुकूल ही संयम . पालन में प्रयत्न करना चाहिए ॥११॥ પિતાની બુદ્ધિ દ્વારા કલ્પના કરીને પિતાને ગ્ય લાગે એવાં આચરણ વડે સંયમનું પાલન કરવું તે ઉચિત નથી. શંકા-ભગવાને આપ્ત કેવી રીતે ગણી શકાય તેમનામાં આપ્તતાને નિશ્ચય થયા વિના કેઈ ભગવાનનાં વચમાં કેવી રીતે શ્રદ્ધા રાખી શકે? સમાધાન-તીર્થકરોનું કથન યથાર્થ જ છે. તે તીર્થકારેને કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થઈ હતી. તેમણે કેવળજ્ઞાન દ્વારા અતીન્દ્રિય પદાર્થોને યથાર્થ રૂપે જાણી લઈને અનુગ્રહની ભાવનાથી-મનમાં પરોપકારની ભાવનાથી પ્રેરાઈને ના કલ્યાણને માટે ઉપદેશ આપે છે એને માર્ગ બતાવનાર તે અહંત ભગવાને આપ્ત રૂપ ગણવામાં શી મુશ્કેલી છે? કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શન ધારણ કરનાર તે તીર્થકર ભગવાનનાં ઉપદેશમાં પ્રમાણ ભૂતતા જ રહેલી છે. તેમની પ્રામાણિક્તાના વિષયમાં કઈ પણ પ્રકારના સન્દહને અવકાશ જ નથી. તેથી તેમના દ્વારા ઉપદિષ્ટ શાસ્ત્રાનુસાર જ સંયમનું પાલન કરવાનો પ્રયત્ન કરે જઈએ ગાથા || सू. १३ For Private And Personal Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४९८ समकतावासले विरया वीरा ममुट्टिया कोहकायरियाइ पीसणा। पाणे ण हणति सव्वसो पावोआ विरयाऽभिनिबुडा ॥१२॥ छाया-- विरता वीराः समुत्थिताः क्रोधकातरिकादिपीषणाः । प्राणिनो न घ्नति सर्वशः पापाद्विनिधृत्ता अभिनिर्वृत्ताः ॥१२॥ -अन्वयार्थ(विरया)विरताः-प्राणातिपातादितो विरताः (वीरा) वीराः (समुठिया) समूस्थिताः सम्यगारंभपरित्यागेनोस्थिता इति समुत्थिताः, (कोहकायरियाइ पूर्व गाथा में विश्वास के कारण रूपसे 'वीर' इतना मात्र कहा है, किन्तु वीर कौन है ? उसका लक्षण या स्वरूप क्या है ? इसका उत्तर देते है'विरया वीरा' इत्यादि। शब्दार्थ-'विरया-विरताः' जो हिंसादि पापोंसे निवृत्त हैं और 'वीराविराः' कर्मको विशेषरूपसे दूर करनेवाले होनेसे वीर हैं 'समुट्ठिया--समुत्थिताः आरम्भ समारम्भके त्यागसे समुत्थित हैं 'कोहकायरियाइपीसणा--क्रोधकात-- रिंकादिपीषणाः' जो क्रोध और माया आदिको दूर करने वाले है तथा 'पाणेप्राणिनः' प्राणी को अर्थात् द्वीन्द्रि यादि जीवोंको 'सव्वसो--सर्वशः' मन वचन और काय कर्म से 'ण हणंति--न नन्ति' नहीं मारते हैं 'पावाओ--पापात्' सावद्य अनुष्ठानसे 'विरया-विरताः' निवृत्त है 'अभिनिव्वुडा--अभिनिवृताः' वे पुरुष मुक्त जीवके समान है ॥१२॥ પૂર્વ ગાથામાં વિશ્વાસના કારણ રૂપે “વીર” આ શબ્દ માત્રને જ પ્રગ કરાવવામાં આવે છે. પરંતુ તે વીર કેણ છે? તેનું સ્વરૂપ કેવું છે? આ પ્રશ્નને उत्त२ मापता सूत्रधार अछे 3 "विरया वीरा' त्याह शहाथ-'विरया-विरताः' हिंसा वगेरे पापाथी निवृत्त छ भने रा-वीरा' भने विशेष ३५थी ४२ ४२१ावा उपाथी वीर छे. 'समुट्ठिया-समुत्थिताः' मारसभामना त्यागथी समुत्थित छ 'कोहकायरियाइ पीसणा-क्रोधकातरिकादि पीषयाः' साथ अने भाया वगेरेने २ ४२वा छतथा 'पाणे-प्राणिनः' प्राणीने अर्थात् येन्द्रीय वगेरे ७वाने 'सव्वसो-सर्वशः' भन, क्यन भने माथा-न हति-न घ्नन्ति' भारत नथी. 'पाधामो-पापात् ' सावध अनुष्ठानथी 'रिया-विरताः निवृत्त छ' अभिनिखुडाभभिनिवृताः' ते, ५३षो भुत ना समान छ. ॥ १२ ॥ For Private And Personal Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सवा बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ४९९ बासना) क्रोधकातरिकादिपीषणाः तत्र क्रोधग्रहणान्मानो गृहीतः, कातरिका भाषा तद्ग्रहणाल्लोभी गृहीतः आदिना शेषमोहनीयपरिग्रहः एतेषां पीपणारसपामपमेतारः। तथा (पाणे) प्राणिनः-द्वीन्द्रियादीन् जीवान (सव्वसो) सर्वश:-मनोवाकायकर्मभिः (ण हणंति) ननन्ति-न विराधयन्तीत्यर्थः । (पावाओ) सापास-सर्वतः सावधानुष्ठानात् (विरया) विरताः-निवृत्ताः, ततश्च (अभिनिषुडा) अमिनिर्वृताः, क्रोधाधुपशमेन शान्तिभूताः, अथवा अभिनिता मुक्ता इव अभिनिवृता मुक्ता इव इमे द्रष्टव्या इति भावः ॥ १२ ॥ -टीका'विरया' विरताः, हिंसान्तस्तेयादि पापेभ्यः पापकर्मभ्यो विरताः निवृत्ताः तथा 'वीरा' वीराः वि- विशेषेण (ईरयंति) पराक्रामंति तपः संयमाभ्यां ज्ञाना अन्वयार्थ-- जो वीर प्राणातिपात आदिसे विरत हैं समीचीन रूपसे आरंभका त्याग करके उत्थित -प्रबजित हुए हैं, क्रोध, मान, माया और लोभ तथा सम्पूर्ण मोहनीयकर्मको नष्ट कर देने वाले हैं जो प्राणियों का मन वचन और काय से हनन नहीं करते हैं, जो पाप अर्थात् सावध क्रिया से सर्वथा निवृत हो चुके हैं और इस कारण जो क्रोधादि का उपशम करके शान्त स्वरूप हो गए है अथवा जो मुक्तके समान है, वही वीर पुरुष है ॥१२॥ -टीकार्थ... वीर पुरुष वह हैं जो हिंसा, मृपावाद, स्तेय (चौर्य) आदि पापोंसे निवृत हो चुके हैं । जो संयम और तपके द्वारा विशेष रूपसे कर्म शत्रुओंका - सूत्रार्थ - । तपात मा ५५४थी विरत (निवृत्त) या या डाय छ, यो આરંભને સમ્યક્ પ્રકારે ત્યાગ કરીને ઉસ્થિત પ્રવ્રજિત થઈ ગયા હોય છે. જેઓ કેજ, માન, માયા અને લેભને તથા મેહનીય કર્મને નાશ કરી નાખનારા હોય છે, જે મન વચન અને કાયાથી પ્રાણીઓની હિંસા કરતા નથી, જેઓ પાપથી સાવધ ક્રિયાઓથી) સર્વથા નિવૃત્ત થઈ ચુક્યા છે, અને આ કારણે કોંધાદિને ઉપશમ કરીને જેઓ શાન્તસ્વરૂપ થઈ ગયા હોય છે, અથવા જેઓ મુક્તના સમાન જ હોય છે તેમને જ વીર પુરુષ કહેવામાં આવે છે. તે ૧૨ टी .. वीर पुरुष तो तेने ४ डी शय र प्रातिपात, भृषावाह, स्तेय (योरी) આદિ પાપોથી નિવૃત્ત થઈ ચુક્ય હેય જેઓ સંયમ અને તપ દ્વારા વિશેષ રૂપે કર્મ For Private And Personal Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५०० वरणीयादीन् कर्मरिपूनिवारयितुं प्रयतन्ते ते वीराः । बायशत्रमामुन्मूलने भनित बहवो वीराः, इमे तु - आभ्यन्तरारिदलने बद्धपरिकराः अतस्ते भाक्वीन इति कथ्यन्ते, तथा ये-'समुडिया' समुत्थिता:--सम्यगारंभपरित्यागेनोतिषमा मोक्षमार्गे उद्यताः, तथा-- 'कोहकायरियाइपीइण' क्रोधकातदिकादिपीपण, तब क्रोधपदं मानस्योपलक्षकं कातरिका माया-तथा, लोभ उपलक्ष्यते । घीसका पीपणाः एतेषांनिवाहकाः तथा ये 'सव्वसो सर्वश:-' मनोवाकायैः सर्वधा, 'पाणे' प्राणिनः 'ण' हणति न घ्नन्ति- न व्यापारयन्ति सस्थावरभेदभिधान् प्राणिनः त्रिकरणत्रियोगेन तथा 'विरया' विरता:-मिथ्यात्वाविरतिकषायप्रमादाशुभयोगतो निवृताः, ततश्च 'अभिनिव्वुडा' अभिनिवृत्ताः, क्रोधादीनाम् उपशमेन शान्ता स्तेवीराः कथ्यन्ते । निवारण करने में प्रयत्नशील रहते हैं, वे वीर कहलाते हैं। बाह्य शत्रुओका विनाश करने मे तो बहुत से लोग वीर होते हैं, मगर ये आभ्यन्तर शत्रुओं को नष्ट करनेके लिये कमर कसे हुए हैं, अतएव ये भाववीर कहलाते हैं। तथा जो आरंभ का सम्यक् प्रकार से त्याग करके मोक्षमार्ग मे उद्यत हैं जो क्रोध और कातरिका आदिको चूर्ण करने वाले हैं। यहां 'क्रोध पदसे मानका भी ग्रहण होता है। कातरिका का अर्थ माया है। उससे लोभ का भी ग्रहण हो जाता है । आदि पदसे शेप सम्पूर्ण मोहनीय कर्मका ग्रहण होता है। अर्थात् जो सम्पूर्ण मोहनीय कर्मको क्षय करने वाले हैं। जो मन वचन और काय से प्राणियोंका हनन नहीं करते हैं अर्थात् तीन करण और तीन योगसे त्रस या स्थावर जीवोंकी हिंसा से निवृत हैं तथा मिथ्यात्व ગુઓનું નિવારણ કરવામાં પ્રયત્નશીલ રહેતા હોય, તેમને જ વીર કહેવામાં આવે છે. બાહ્ય શત્રઓને નાશ કરવાના સામર્થ્યની અપેક્ષાઓ જેમને વીર કહી શકાય એવા તે ઘણું પુરુષ હોઈ શકે છે, પરંતુ આભ્યન્તર શત્રુઓને નાશ કરવાને માટે કમર કસીને તૈયાર થઈ ગયેલા જે પુરુષ છે તેમને ભારે વર કહેવાય છે. તથા જેઓ આરંભને સમ્યક પ્રકારે ત્યાગ કરીને પ્રવજયા અંગીકાર કરીને મેક્ષમાર્ગે વિચરી રહ્યા છે, જેઓ ક્રોધ અને પદ દ્વારા માન પણ ગ્રહણ કરવું જોઈએ. કાતરિકા એટલે માયા કાતરિકા પદ દ્વારા માયાનું પણ ગ્રહણ કરવું જોઈએ. આદિ પદ વડે બાકીના સંપૂર્ણ મેહનીય કર્મને ગ્રહણ કરવું જોઈએ. જે મનવચન અને કાયા વડે પ્રાણીઓની હિંસા કરતા નથી, એટલે કે ત્રણ કરશું અને ત્રણ ચોગ વડે જેઓ ત્રસ અને સ્થાવર જીવની હિંસા કરતા નથી, તથા જેઓ મિથ્યાત્વ, અવિરતિ, પ્રમાદ, કષાય અને અશુભ યેગથી નિવૃત્ત છે, અને આ For Private And Personal Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir APTS मेधिनी टीका प्र. . अ. २ उ. १ भगवदादिनाथ कृतो निजपुत्रोपदेशः .५०१ अयं भावः-ये प्राणातिपाताद्यष्टादशपापेभ्यो निवृताः ज्ञानावरणीयादीनां कर्मणां विनाशकाः सर्वारभविरहिताः क्रोधमानमायालोभानां निवारकाः, त्रिकरण त्रियोगैः प्राणिनामनुपमर्दकाः, सर्वपापरहिताः शान्ताः मुक्ताः ते वीराः कथ्यन्ते तीर्थकरा इति ॥१२॥ पुनरपि उपदेशान्तरमाह-'णविता अहमेव' इत्यादि । A णविता अहमेव लुप्पए लुपति लोयमि पाणिणा । एवं सहिएहिं पासए अहिणे णिहे से पुढे अहियासए ॥१३ - छायानापि तैरहमेव लुप्ये लुप्यन्ते लोके प्राणिनः । - एवं सहितः पश्येत् अनिहः स स्पृष्टोऽधिसहेत ।। १३ ॥ अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योगसे निवृत्त है और इस कारण क्रोधादिका उपशम हो जाने से जो शान्त है, वे महापुरुष वीर कहलाते है। तात्पर्य यह है जो प्राणातिपात आदि अठारह पापोंसे निवृत्त है, ज्ञाना वरणीय आदि कर्मोके विनाशक हैं, स्मस्त आरंभ से रहित हैं, क्रोध मान और माया और लोभके निवारक हैं, तीन कारण और तीन योगसे प्राणियोकि हिंसा नहीं करते, जो समस्त पापोंसे रहित हैं, शान्त और मुक्तवत् हैं, वे वीर पुरुष कहलाते हैं ॥१२॥ पुनः उपदेश कहते है- 'णविता अहमेव' इत्यादि शब्दार्थ-'सहिएहि-सहितैः' ज्ञानादि से सम्पन्न पुरुष ‘एवं-एवम्' इसप्रकार 'पासए-पश्येत्' विचारें कि 'अहमेव-अहमेव' मैं ही 'ता-तैः शीतउष्ण પ્રકારે કાયાદિને ઉપશમ થઈ જવાને લીધે જેઓ શાંત સ્વરૂપ છે, એવા મહાપુરુષને જ ધાર કહેવાય છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જેઓ પ્રાણાતિપાત આદિ ૧૦ પ્રકારનાં પાપોથી નિવૃત્ત છે, જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોના જેઓ વિનાશક છે, જેઓ સમસ્ત આરંભ થી રહિત છે, જેઓ ધ. માના, માયા અને લેભના નિવારક છે, જેમાં ત્રણ કરણ અને ત્રણ વેગથી પ્રાણીઓની હિંસા કરતા નથી, જેઓ પાપોથી રહિત છે, શાન્ત અને મુક્ત સમાન છે. એવો પુરુષ વીર કહેવાય છે. એ ગાથા ૧રા ये सूत्रधार पपडाने सडन ४२वानी उपहेश आपे 'णवि ता अहमेव' त्या शहाथ-- 'सहिपहि-सहितैः' ज्ञान वगैरे थी सम्पन्न माणुस 'एवं-एवम्' आ प्रमाणे 'पासह पश्ये या 3 अहमेव अहमेव ता-तैः गरम शेरे (18 For Private And Personal Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Karined अन्वयार्थ:'सहिएहि' सहितैः-ज्ञानादिभिः सपन्नः पुरुषः एवं एवम् अनेन प्रकारण 'पासए' पश्येत्- कुशाग्रबुद्धया विचारयेत् 'अहमेव' अहमेव (ता) तैः-शीतोष्णादि दुःखविशेषः ‘णवि' नापि भवेत्यर्थः, 'लुप्पए' लुप्ये पीड़ये, किन्तु (लोयमि) लोके संसारे 'पाणिणो प्राणिनो अन्येपि जीवाः 'लुप्पंति लुप्यन्ते' पीडयन्ते, अतः 'से' सः महासत्त्वः पुढे स्पृष्टः परिषहैः स्पृष्टोपि तान् (अणिहे) अनिहः ननिहो अनिहः क्रोधादिभिरपीडितः सन् (अहियासए) अधिसहेत मना-पीयान विदध्यादिति ॥१३॥ आदि दुःख विशेषों से 'णवि-नापि' नहीं 'लुप्पए-लुप्ये' पीडित किया जाता हूं 'लोयमि-लोके' इस संमारमें 'पाणीणो -प्राणिनः' दूसरे प्राणी भी 'लुप्पंतिलुप्यन्ते' पीडित होते हैं अतः 'से--सः' वह मुनि 'पुट्टे-स्पृष्टः' परीपहों से स्पर्शित होकरके भी 'अणिहे--अनिहः' क्रोधादि रहित होकर 'अहियासहे-अधिसहेत' उनको सहन करें ॥१३॥ अन्वयार्थसम्यग्ज्ञान आदि से सम्पन्न पुरुष इस प्रकार विचार करें सर्दी गर्मी के कृष्ट से मैं ही पीडिन नहीं होता किन्तु संसार में अन्यप्राणी भी पीडित होते हैं। इस प्रकार विचार कर वह महासत्त्व साधक परीषहो से स्पृष्ट होकर भी, क्रोधादिसे रहित होता हुआ उसे सहन करें- मानसिक पीडाका अनुभव न करें ॥१३॥ ती विगैरे) विशेष थी 'णपि-नापि नथी. लुप्पए-लुप्ये' पीडित ४२पामा भावतो. "लोय मि-लोके' २॥ संसारमा पाणिणो-प्राणिनः' मी प्राणीमा ५ लुप्पति-लुप्यन्ते' भारत ४२वामा मावे छे. तेथी 'से-सः' ते मुनि पुढे-स्पृष्टः ' परिषडाथी २५शित थध ने पण 'अणि हे'-अनिहः' वगेरे हित ने महियासहे- अविसहेत' તેમને સહન કરે છે ૧૩ છે -सूत्राथ - સમ્યગૂ જ્ઞાન આદિથી સંપન્ન પુરુષે આ પ્રાકારને વિચાર કરવો જોઈએ હું એકલો જ ઠંડી, ગરમી આદિ કષ્ટો વડે પીડિત છું, એવું નથી, પરંતુ સંસારના અન્ય પ્રાણીઓ પણ તે કષ્ટો વડે પીડિત છે” આ પ્રકારને વિચાર કરીને તે મહા સર્વ સાધક પરીષહોથી સ્કૃષ્ટ થવા છતાં પણ કેધાદિ કર્યા વિના મધ્યસ્થ ભાવે તેને સહન કરે આ પ્રકારના પરીષહે આવી પડવાથી તેણે માનસિક પીડા અનુભવવી જોઈએ નહીં. જે ૧૩ For Private And Personal Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % 3D या सोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ५१३ . ... ..... टीका--- 'सहिएहि' सहितैः सम्यग् ज्ञानादिभिः संपन्नः पुरुषः, प्रथमार्थे तृतीया 'एवं' एवम् अनेन प्रकारेण 'पासए' पश्येत् , कुशाग्रबुद्धया विचारयेत् किं विचारयेत्तत्राह अहमित्यादि अहमेव 'अहमेव' 'ता' ताः ताभिःशीतोष्णादिदुःखपरंपरा भिः, 'णवि लुप्पए' नापि नैवेत्यर्थः लुप्ये पीडये अहमेव शीतोष्णादिभिः, दुःखैः पीडितो भवामीति न किन्तु 'लोयंमि' लोके अस्मिन् संसारे 'पाणिणो' प्राणिनः सर्वे जीवाः, 'लुप्पंति' पीडिता भवन्ति । अतः 'पुटे से स्पष्टः स शीतोष्णादिभिः स्पृष्टो मुनिः । 'अणिहे निहन्यते इति निह क्रोधादिः न निहः अनिहः सममावेन क्रोधादिरहितः सन् 'अहियासये' अधिसहेत, सहनं कुयात् । यद्यपि अन्येऽपि प्राणिनः अस्मिन् जगति शीतादीनां सहनं कुर्वन्ति किन्तु तेषां सम्यग् ज्ञानं नास्ति, अतो निर्जराख्यं फलं- न प्राप्नुवन्ति । तदुक्तम्-- क्षान्तं न क्षमया गृहोचितसुखं त्यक्तं न सन्तोषतः, सोढा दुस्सहशीततापपवनक्लेशा न तप्तं तपः । ध्यातं वित्तमहर्निशं नियमितप्राणैने तत्त्वं परं, तत्तत्कर्मकृतं सुखार्थिभिरहो तैस्तैः फलैश्चिताः ॥१॥ टीकार्थ'सहिएहिं' यहां प्रथमा के अर्थमे तृतीया विभक्ति हैं। अर्थ यह हैं,सम्यग्ज्ञान आदि से सम्पन्न ऐसा पुरुष अपनी कुशाग्रबुद्धि से विचार करे कि अकेला मैं ही सर्दी गर्मी आदिके कष्टोंकी परम्परा से पीडित नहीं होता हूं किन्तु इस संसार में सभी जीव पीडित हो रहे हैं। ऐसा विचार कर वह मुनि बल्कि उन कष्टों को सहन कर ले। . इस संसार में अन्य प्राणी भी शीतादि के कष्टको सहन करते हैं, परन्तु उन्हें सम्यग्ज्ञान प्राप्त नहीं है, अतएव वे निर्जरा नामक फल प्राप्त नहीं - - "सहिपहि' मा पहमा प्रथमाना म तृतीया विमति छ मा गायानो माया . નીચે પ્રમાણે છે સમ્યમ્ જ્ઞાન આદિથી સંપન્ન પુરુષે પોતાની કુશાગ્ર બુદ્ધિથી એ વિચાર કરે જોઈએ કે એકલે હું જ ઠંડી. ગરમી આદિ કોની પરંપરાથી પીડાતું નથી, પરંતુ આ સંસારના સમસ્ત છે આ કણોથી પીડાઈ રહ્યા છે. આ પ્રકારને વિચાર કરીને તે મુનિએ સમભાવ પૂર્વક તે કોને સહન કરવા જોઈએ. છે. આ સંસારમાં અન્ય જે પણ શીતાદિ જનિત કષ્ટ સહન કરે છે. પરંતુ તેમનામાં સમ્યજ્ઞાનને અભાવ છે. તેથી તેઓ કર્મોની નિર્જર કરવા રૂ૫ ફળની પ્રાપ્તિ કરી. For Private And Personal Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 401 www.kobatirth.org तदुक्तम्- सूत्रकृताचे एताश क्लेशानां सहनं सम्यगुज्ञानिनां गुणायैव भवति, न दोषाय । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काइये क्षुत्प्रभवं कदमशनं शीतोष्णयोः पात्रता, पारुष्यं च शिरोरुहेषु शयनं मधास्तले केवले । एतान्येव गृहे वहन्त्यवनतिं तान्युन्नतिं संयमे, दोषाचापि गुणा भवन्ति हि नृणां येोग्ये पदे योजिताः ||२|| करते। कहा भी हैं- ' क्षान्तं न क्षमया' इत्यादि । 'क्षमा तो की' परन्तु क्षमाधर्मके कारण नहीं की, गृह में होने वाले. सुखका त्याग तो किया, परन्तु सन्तोष से प्रेरित होकर नहीं, दुस्सह सर्दी गर्मी और वायुके क्लेशतो सहन किए, किन्तु तपश्चरण नहीं किया, श्वास, रोककर रातदिन धनका ध्यान तो किया, परन्तु उत्तम तत्त्वका चिन्तन नहीं किया, इस प्रकार आश्चर्य हैं कि इन ( अज्ञानी) मुखाभिलाषियोंने कार्य तो सब वही किये परन्तु उन्हीं कार्यों से ज्ञानियों को जो फल प्राप्त होते हैं, उनसे ये वंचित रहे ? इस प्रकार के क्लेशों का सहन सम्यग्ज्ञानियों के लिए लाभप्रद ही होता है, हानि जनक नहीं। कहा भी है- “ कार्य क्षुत्प्रभवं कदन्नमशनं " इत्यादि । 'भूख से उत्पन्न होने वाली शारीरिक कृशता कुत्सित ( निरस ) अन्न का भोजन, शीत और उष्ण का सहन केशों का रूखापन, विस्तर रहित शता नथी. ह्युं पशु छे 'क्षान्तं न क्षमया' इत्याहि ’ક્ષમા તેા કરી પરન્તુ ક્ષમાધર્મને કારણે ન કરી, ઘરમાં મળતાં સુખનો ત્યાગ તે કર્યાં, પરન્તુ સ ંતાષથી પ્રેરાઇને ન કર્યાં, અસહ્ય ઠંડી, ગરમી અને વાયુના કલેશા સહન કર્યા, પરન્તુ તપશ્ચરણને નિમિત્તે તેને સહન ન કર્યાં, શ્વાસ રોકીને (બલકુલ આરામ કર્યાં વિના ધનને માટે રત્રિ દિવસ ધ્યાન તા ધયું, પરન્તુ ઉત્તમ તત્ત્વનું ચિન્તન ન કર્યું, આ પ્રકારની આ બધી વાત એવી આશ્ચર્ય જનક છે કે આ( અજ્ઞાની ) સુખાભિલાષીએએ કા તા એજ ( જ્ઞાનીઓના જેવાં ) ર્યા પરન્તુ એજ કાર્યો દ્વારા જ્ઞાનીઓને જે ફૂલની પ્રાપ્તિ થાય છે, તે ફળથી આ ' અજ્ઞાનીઓ તે વંચિત જ રહ્યા ! આ પ્રકારના કષ્ટો (પરીષહે' ) સહન કરવાથી જ્ઞાની જનેાને તે લાભ જ થાય છે કાંઇ यशु हानि थती नथी. ऽधुं पशु छेडे " काश्य क्षुत्प्रभव कदन्नमशन" इत्यादि " ભૂખથી ઉત્પન્ન થતી શારીરિક કૃશતા, કુત્સિત, (નીરસ) અન્નને આહાર શીત અને ગરમીને સહન કરવી. ફૅશેનું રૂખાપણું. પાગરણને અભાવે ભૂતલ પર શયન, આ For Private And Personal Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ५०५ मोक्षाभिलाषी कर्मनिर्जरार्थी एवं युक्तः सम्यग्ज्ञानादिभिः स्वहिताय विचारयेत् । तथा 'अणि हे 'अनिहे निहन्यते ज्ञानादिगुणवृन्दमनेनेति निहः कषायः, न निहोऽनिहः क्रोधादिभीरहितः सन् 'अहियासए' अधिसहेत सर्वपरीपहान् समभावेन सहेत ॥१३॥ अपि च--'धूणियाकुलिय' इत्यादि । मूलम् धूणिया कुलियं व लेववं किसए देह मणसणाइहि । अविहिंसामेव पव्वए अणुधम्मो मुणिणा पवेइओ ॥१४॥ छाया धृत्वा कुडयं व लेपवत् कर्शयेदेहमनशनादिभिः । अविहिंसामेव प्रवजेदनुधर्मों मुनिना प्रवेदितः । १४॥ भूतल पर शयन-यह सब बाते गृहस्थी में रहते हुए अवनति का लक्षण होती हैं और यही बाते संयम की अवस्था में उन्नति का कारण बन जाती हैं। सच है, योग्य स्थान में योजना करने पर दोष भी गुण बन जाते हैं। मोक्ष का अभिलाषी, कर्मों की निर्जरा का इच्छुक तथा सम्यग् ज्ञानादि से सम्पन्न पुरुष इस प्रकार के कष्टों को अपने हित के लिए अनुकूल ही समझें। जिससे ज्ञान आदि गुणों का समूह नष्ट होता है, उसे 'निह' अर्थात् कषाय कहते हैं क्रोध आदि कषायों से रहित होकर साधु समस्त परीषहों को शान्तभाव से सहन करें ॥१३॥ બધી બાબતેને જે ગૃહમાં અભાવ હોય, તે તે અવનતિનું લક્ષણ ગણાય છે, પરંતુ એજ બાબતે સંયમની અવસ્થામાં ઊન્નતિનું કારણ બની જાય છે. ખરેખર, એ વાત સાચી છે કે જે સ્થાને યોગ્ય પ્રવૃત્તિનું સંયેજન કરવામાં આવે, તે દોષ પણ ગુણ બની જાય છે. - મેક્ષની અભિલાષાવાળા કર્મોની નિર્જરા કરવાની ઈચ્છાવાળા તથા સમ્યગ જ્ઞાનાદિથી યુકત પુરુષે આ પ્રકારના કષ્ટોને પિતાના હિતને માટે અનુકૂળ જ સમજવા જોઈએ જેના દ્વારા જ્ઞાનાદિ ગુણોના સમૂહને નાશ થાય છે, તેને નિહ” એટલે કે કષાય કહે છે. સાધુઓ ક્રોધાદિ કષાયેથી રહિત થઈને શાન્ત ભાવે સમસ્ત પરીષહેને સહન કરવા on. । गाथा 138 For Private And Personal Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागतो अन्वयार्थः(व) इव-यथा (लेववं ) लेपवत्-लेपयुक्तं ( कुलियं ) कुडभित्त्यादि (धुणिया) धृत्वा यथा गामयादिले पेन सलेपं कुडयादिलेपापगमात् कृशं भवति तथा (अणसणार्हि) अनशनादिभिः, (देहं) देहम् शरीरम् (किसए) कृशयेत्अपचितमांसशोणितं कुर्यात्, तथा (अविहिंसामेव) अविहिंसामेव, विविधा हिंसा विहिंसा न विहिंसा अविहिंसा तामेव (पव्वए) प्रव्रजेत् प्रकर्षण व्रजेत् अहिंसाप्रधानो भवेदित्यर्थः, (मुणिणा) मुनिना=सर्वज्ञेन (अणुधम्मो) अनुधर्मः अनुगतो. मोक्षं प्रत्यनुकूलो धर्मोऽनुधर्मः असौ अहिंसालक्षणः परीषहोपसर्गसहनलक्षणश्च । (पवेईओ) प्रवेदितः कथित इत्यर्थः ॥१४॥ और भी कहते हैं-" धूणियाकुलियं" इत्यादि । शब्दार्थ-'लेववं-लेपवत्' लेपवाली 'कुलियं-कुडयं' भित्ति 'धुणियाधूत्वा लेप गिराकर क्षीण कर दी जाती है 'व-इव' इसी प्रकार 'अणसणाहिअनशनादिभिः' अनशनादि तपके द्वारा ‘देहं-देहम्' शरीरको 'किसए-कशयेत्' कृश करता है तथा 'अविहिंसामेव-अविहिंसामेव' अहिंसा धर्मको ही 'पव्वएप्रव्रजेत्' पालन करनाचाहिए 'मुणिणा-मुनिना' सर्वज्ञने 'अणुधम्मो-अनुधर्मः' यही धर्म ‘पवेइओ-प्रवेदितः' कहा है ॥१४॥ अन्वयार्थ जैसे लेप से युक्त भित्ति लेप हटाकर कुश (कमजोर) कर दी जाती है, उसी प्रकार अनशन आदि तप से देह को कुश करदे मांस रुधिर आदि को सुखादे । तथा વળી સૂત્રકાર સાધુને એ ઊપદેશ આપે છે કે'धुणियाकुलिय' त्याह शहाथ -- 'लेवव-लेपवत्' ५वाणी 'कुलिय कुडय' मित्ति 'धुणिया धूत्वा तेना अपने पाडीने क्षा ४२ हेवामां आवे छे. 'य-इव' २॥ प्रारं 'अणसणाहि-अनशनादिभिः' उपवास वगेरे तपना द्वारा 'देह -- देहम्' शरीरने 'किसप-कृशयेत्' दु ३ छ. तथा 'अविहिंसामेव-अविहिं सामेव' महिंसा भने ४ पन्चए-यजेत्' पालन ४२व। नमे 'मुणिणा-मुनिना' सर्वज्ञे 'अणुधम्मो-अनुधर्मः' मा धर्म ‘पवेईओ-प्रवेदितः' કહેલ છે પpજા सूत्राथજેવી રીતે લેપયુક્ત દીવાલ પરથી લેપને ઊખેડી નાખીને દીવાલને કમજોર કરી નાખવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે સાધુએ અનશન આદિ તપ વડે દેહનાં માંસ રુધિર આદિને સુકવી નાખીને દેહને કૃશ કરી નાખે જાઈએ. તેણે અહિંસાનું જ આચરણ For Private And Personal Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समया बोधिनी टीका प्र. . अ. २ उ. १ भगवादनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः . ५०७ टीका'व' इव यथा 'लेवव' लेपवत्-गोमयमृत्तिकादिलेपविशिष्टम्, 'कुलिय' कुडयम्-भित्तिः तां 'धूणिया धूत्वा, विधूय जलादिना प्रक्षाल्य । यथा गोमयमृत्तिकादि संपादितलेपविशिष्टं कुडयादिकं धूत्वा लेपरहितं सत्, अतिशयेन कुडयं' कृशतरं भवति तथा 'अणसणाइहि अनशनादिभिः द्वादशप्रकारकतपोभिः, 'देह देह-शरीरं स्वकीय 'किसए कृशयेत्-तपोनुष्ठानेनापचितमांसशोणितं कुर्यात् तथा शीतोष्णादि सहनं च कुर्यात् । मांसशोणितादीनामपचये कर्ममलस्याप्यपचयसंभवात् । तथा 'अविहिंसामेव' अविहिंसामेव, विविधा अनेकप्रकारिका हिंसा विहिंसा, न विहिंसा अविहिंसा तादृशीमविहिंसामेव पालयेत् । कुतः षट्काय अहिंसा का ही आचरण करे । सर्वज्ञ भगवान् ने यही परीषह विजय और अहिंसा रूप अनुकूल धर्म कहा है ॥१४॥ टीकार्थ__जैसे गोबर मिट्टि आदि के लेपसे युक्त भित्ति (दीवार) को लेप हटाकर के उत्पन्न कमजोर करदिया जाता है, उसी प्रकार अनशन आदि बारह प्रकार के तपश्चरण से शरीर को भी कुश कर देना चाहिए । अर्थात् शरीर के बढे हुए रुधिर मांस को तपस्या के द्वारा सुखा देना चाहिए और सर्दी गर्मी आदि के परीषहों को सहन करना चाहिए । मांस और रुधिर की कमी होनेपर कर्म मल की भी कमी होना संभव है। विविध प्रकार की हिंसा विहिंसा कहलाती हैं। विहिंसा का अभाव अविहिंसा है। उस अविहिंसा का કરવું જોઈએ. સર્વજ્ઞ ભગવાને પરીષહ વિજ્ય અને અહિંસાને જ મોક્ષને માટે અનુકૂળ ધર્મ કર્યો છે . ૪ ____ - -- જેવી રીતે છાણ, માટી આદિના લેપથી યુક્ત દીવાલ પરથી તે લેપને દૂર કરવાથી દીવાલને કમજોર કરી નાખવામાં આવે છે, એ જ પ્રમાણે અનશન આદિ બાર પ્રકારના તપશ્ચરણ વડે શરીરને પણ કૃશ કરી નાખવું જોઈએ. એટલે કે શરીરમાં વધી ગયેલા રકત અને માંસને તપસ્યા દ્વારા સુકવી નાખવા જોઈએ; અને ઠંડી, ગરમી આદિ પરીષહને શાન્ત ભાવે સહન કરવા જોઈએ. માંસ અને રુધિર ઘટી જવાથી કર્મમળ પણ ઘટી જવાને સંભવ રહે છે. વિવિધ પ્રકારની હિંસાને વિહિંસા કહે છે. વિહિંસાનો અભાવ હવે તેનું નામ અવિહિંસા છે. સાધુએ તે અવિહિંસાનું (દયાનું પાલન કરવું જોઈએ. છકાયના જીવોના For Private And Personal Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागसूत्र रक्षणरूपामविहिंसामेव कुर्यात्-तत्राह-मुणिणेति, 'मुणिणा' मुनिना-मननशीलेन सर्वज्ञेन । 'अणुधम्मो अनुधर्मः, अनु-अनुगतो मोक्ष प्रति अनुकूलो धर्मोऽनुधर्मः अविहिंसैव सकलजीवरक्षणारूपा दयैव परीषहोपसर्गसहनरूपश्च, 'पवेइओ प्रवे. दितः, तादृश्या अहिंसाया एव मोक्षप्रयोजकतया तस्या एव अनुधर्मत्वं निवेदितबान् । न वयं स्वातन्त्र्येण कथयामः, किन्तु सर्वज्ञेन महावीरेण काश्यपगोत्रेणकेवलज्ञानिना प्रतिपादितोऽयमनुधर्मः । यस्यैव नामान्तरमविहिंसा, एतादृशी अविहिंसा सदा मोक्षाभिलाषुकैः पालनीयेति ॥१४॥ अपिच-'सउणी जह' इत्यादि । मूलम् सज्णी जह पंसुगुंडिया विहुणीय धंसयई सियं स्यं । एवं दवि ओवहाणवं कम्मं खवा तवस्सिमोहणे ॥१५) छाया शकुनिका यथा पांसुगुण्ठिता विधूय ध्वंसयति सितं रजः । एवं द्रव्य उपधानवान् कर्म क्षपयति तपस्वीमाहनः ॥१५॥ दया का पालन करे । षट्कायरक्षणरूप अविहिंसा क्यों करनी चाहिए ? इसका उत्तर देते हैं। मुनि अर्थात् सर्वज्ञने समस्त जीवों की रक्षा रूप दया को ही और परीषह तथा उपसर्गों के सहन को मोक्ष के लिए अनुकूल धर्म कहा है इस प्रकार की अहिंसा ही मोक्षका कारण होने से अनुधर्म अविहिंसा दया है। हम अपने मन से ऐसा नहीं कहते, किन्तु सर्वज्ञ, काश्यपगोत्रीय केवलज्ञानी महावीर ने यह अनुधर्म कहा है। जिसका ही दूसरा नाम अविहिसा-दया है, वह अविहिसा-दया मोक्ष के अभिलाषियों को सदा पालने योग्य है ॥१४॥ રક્ષણ રૂપ અવિહિંસાની શી આવશ્યકતા છે? આ પ્રશ્નને ઉત્તર આપતાં સૂત્રકાર કહે છે કે – સર્વજ્ઞ ભવાને સમરત ની રક્ષા રૂપ દયાને તથા પરી હો અને ઉપસર્ગો પરના વિજયને મેને માટે અનુહૂળ ધર્મ કહેલ છે. આ પ્રકારની દયા જ મોક્ષ સાધવામાં કારણભૂત બનતી હોવાને કારણે અવિહિંસા (દયા) નેજ અનુધર્મ (મેક્ષને માટે અનુકૂળ ધર્મ) કહેવામાં આવેલ છે. અમે અમારા મનમાં કલ્પના કરીને આ પ્રમાણે કહેતા નથી, પરંતુ કાશ્યપ ગોત્રીય, કેવળજ્ઞાની સર્વજ્ઞ મહાવીર પ્રભુએ આ અનુધર્મની પ્રરૂપણ કરી છે. આ અનુધર્મ કે જેનું બીજુ નામ અવિહિંસા દયા છે, તે અવિહિંસા દયાનું મુમુક્ષુ જીવોએ સદા પાલન કરવું જોઈએ. ગાથા ૧૪ For Private And Personal Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. अ. भ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ५०९ अन्वयार्थः (जह ) यथा ( सउणी) शकुनिका = पक्षिणी (पंगुंडिया) पांसुना - रजसा अवगुंठिता अवकीर्णाः (सियं) सितं संबद्धं ( रयं ) रजः ( विहूणिय ) विलूय शरीरं कंपयित्वा ( धंसयइ) ध्वंसयति = अपनयति, ( एवं ) एवमनेन प्रकारेण (दवि) द्रव्यः =भव्यो मुक्तिगमनयोग्य : ( ओवहाणवं ) उपधानवान् उप सामीप्येन मोक्षंप्रति ददाति इत्युपधानमनशनादिकमुग्रतपः, तदस्यास्तीति उपधानवान् (तवस्सि) तपस्वी = साधुः (माहणे ) माहन: मावधीरिति प्रवृत्तिर्यस्य स माहनः (कम्मं ) कर्म - ज्ञानावरणादिकं (aas) क्षपयति = अपनयतीत्यर्थः || १५ || और भी कहते हैं-- " सउणी जह" इत्यादि । शब्दार्थ - 'जहा - यथा' जैसे 'सउणी- शकुनिका' पक्षिणी 'पंसुगुंडिया-पांसुगुंठिता' धूलिसे व्याप्तहोकर 'सियं - सितं' लगी हुई 'रयं रजः' धूलिको 'विहूणिय - विधूय' शरीरको कंपाकर 'धंसयइ-ध्वंसयति' दूरकरती है ' एवं--एवम्' इसीप्रकार 'दवि - द्रव्य : ' ' ओवहाणवं उपधानवान्' अनशन आदि तपकरने वाला 'तवस्सि --तपस्वी' साधु 'माहणे --माहनः' अहिसाव्रती पुरुष 'कम्मं --कर्म' ज्ञानावरणादि कर्मको 'खवर - क्षपयति' नाश करता है ||१५|| अन्वयार्थ जैसे पक्षिणी रेत से भरने पर शरीर को कँपा कर लगी हुई रेत को हटा देती है, उसी प्रकार भव्य मुक्तिगमन के योग्य, उपधानवान अर्थात् उग्रतपस्वी, तथा माहन ' किसी की हिंसा न करो, ऐसा जिनका उपदेश है, वह मुनि ज्ञानावरण आदि कर्मों का क्षय करता है || १५ || वणी सूअर उहे छे - 'सउणी जह' धत्याहि शब्दार्थ – जह--यथा' देवी रीते 'सउणी- शकुनिका' पक्षिणी 'पं सुगुडियापांसुगुठिता' धूण्थी भरडाई ने 'सियं सित' सागेसी 'रयं रजः' धूणने 'विहूणियविधूय' शरीरने पावाने 'सयइ-ध्वंसयति' इ२ ४२ छे. 'पव पवम्' या अभा 'दवि-वव्य:' लव्य 'ओवहाण व उपधानवान्' उपवास वगेरे तप उश्वा पाणा 'तवस्ति-तपस्वी' साधु 'माहणे -माहनः' अहिंसाव्रतवाणा ३ष 'कश्म-कर्म म्' ज्ञानावर वगेरे भने 'खवर - क्षपयति' नाश उरे छे. ॥१५॥ - सूत्रार्थ - જેવી રીતે શરીર પર લાગેલી રજને પક્ષિણી શરીર કંપાવીને દૂર કરી નાખે છે, એજ પ્રમાણે ભવ્ય, મુકિતગમનને ચેાગ્ય, ઉપધાનયુક્ત (ઉગ્રતપસ્વી), તથા કોઇ પણ જીવની હિંસા નકરે એવા ઉપદેશ આપનાર મુનિ પણ જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મોના ક્ષય કરે છે. ૧૫૫ For Private And Personal Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५१० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसू टीका 'जह' यथा येन प्रकारेण 'पंसुगुंडिया' पांसुगुण्ठिता रजसा अवकीर्णा । व्याप्तेत्यर्थः, 'सउणी' शकुनिका=पक्षिणी 'स्यिं स्यं' सितं वद्धं शरीरे लग्नं 'रयं' रजः = धूलिम् 'विह्णीय' विधूय= शरीरं कंपयित्वा 'सई' ध्वंसयति = अपनयति ' एवं ' एवम् तथा 'दवि' द्रव्यः, भव्यो जीवः । ' ओवहाणवं उपधानवान् = उग्र उग्रतरो ग्रतमाभिग्रहादिसहिताननादितपःकारी । 'दवासी' रुप..पः शील:- 'माहणे' माहन :- मा कमपि प्राणिनं घातयेति उपदेशो यस्य इत्थंभूतः अहिंसावतवान्, 'कम्मं' कर्म 'ख' क्षपयति 'उपधानवान्' तपस्वी उभयत्रापि तपसोऽभिधानात् तपः प्रधानोहि अनगारो भवति । यथा पक्षी शरीरसंलग्नं रजः शरीरकम्पनेन शरीरात पृथकरोति तथा मुक्तिगमनयोग्यः पुरुषः तपस्वी अनशनादिना स्वात्मसम्बद्धं शुभाशुभकर्म विनाशयति । ततः कर्मक्षयात् कृत्स्न - टीकार्थ जैसे रज (धूल) से लिप्त हुइ पक्षिणी, शरीर में लगी हुई रज को शरीर कँपाकर हटादेती है, इसी प्रकार भव्य जीव, उग्र, उग्रत्तर और उग्रतम अनशन आदितप करने वाला, तपस्वी 'किसी भी प्राणी का घात मत करो ' ऐसा उपदेश करने वाला अहिंसावती साधु कर्मों का क्षय करता है । यहां 'उपधानवान् ' और ' तपस्वी' इन दोनों विशेषणों के द्वारा तप का कथन करके यह प्रकट किया गया है कि अनगार तपः प्रधान होते हैं । जैसे पक्षी शरीर में लगी हुई रज को शरीर कँपा कर हटा देता है, उसी प्रकार मोक्षाभिलाषी मुनि अनशन आदि तप के द्वारा अपनी आत्मा के साथ बँधे हुए कर्मों का क्षय करता है । तत्पश्चात् कर्मक्षय से समस्त कर्मों के -टीअर्थ જેવી રીતે શરીર પર લાગેલી રજથી લિપ્ત થયેલી પક્ષિણી; પેાતાની પાંખાને ફ ડાવીને તથા શરીરને કપાવીને તે રજને દૂર કરી નાખે છે, એજ પ્રમાણે ભવ્ય જીવ ઉગ્ર ઉગ્રત અને ઉગ્રતમ અનશન આદિ તપ કરનાર તપરવી, કોઈ પણ જીવની હિંસા ન કરે ' ‘મા હણેા ! મા હણેા ! ' એવા ઉપદેશ આપનાર અહિંસાવ્રત ધારી સાધુ પણ કર્મનો ક્ષય કરે છે. For Private And Personal Use Only અહીં ‘ ઉપધાનવાન’ અને ‘તપરવી' આ બે વિશેષણાનો પ્રયોગ કરીને સૂત્રકારે એ વાત પ્રકટ કરી છે કે અણગારા તપ:પ્રધાન હેાય છે. જવી રીતે પક્ષી પેાતાનાં શરીર કંપાવીને શરીર પર લાગેલી રજ દૂર કરી નાખે છે, એજ પ્રમાણે મેક્ષાભિલાષી મુનિ અનશન આદિ તપ દ્વારા પેાતાના આત્માની સાથે બદ્ધ થયેલાં કર્મોના ક્ષય કરે છે. ત્યાર Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 23 समयार्थ बोधिनो टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. १ भगवदादित्रायकृतनिजपुत्रोपदेशः ५११ कर्मक्षयात्मकमोक्षस्वरूपयोग्यो भवतीति समुदितार्थः । उक्तं च-- विधुनोति तु योगी पक्षौ पक्षीव भूतले । त्यक्त्वा कर्ममलं कृत्स्नं मोक्षमामोति मोक्षवित् ॥१॥ सू० १५॥ मोक्षार्थ प्रयतमानस्य साधोः मोक्षसामोप्यं प्राप्तस्य कदाचिदनुकूलोपसर्गः संपतेदिति दर्शयति सूत्रकारः-'उठिय इत्यादि । उठिय मणगार मेसणं समणे ठोणदिव्यं तवास्सणं । डहरा वुड्ढा य पत्थये अविसुस्से ण य तं लभेजणो ॥१६॥ छायाउत्थितमनगारमेषणां श्रमणं स्थानस्थितं तपस्विनम् ।। दहरावृद्धाश्च प्रार्थयेरन अपि शुष्येयुर्न च तं लभेरन् ॥१६॥ क्षय लक्षण वाले मोक्ष के स्वरूप योग्य हो जाता है, यह समुदित अर्थ है। कहा भी है- "विधुनोति तु योगी " इत्यादि । 'जैसे पक्षी पंखों को झाडता है, उसी प्रकार मुक्ति का ज्ञाता योगी इस भूतल पर समस्त कर्ममल को तप संयम से धो डालता है और मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥१५॥ मोक्ष के लिए प्रयत्नशील साधु को, जो मुक्ति के समीप पहुँच चुका है, कदाचित् अनुकूल उपसर्ग प्राप्त हो जाता है, यह विषय सूत्रकार दिखलाते हैं-" उहिय " इत्यादि। शब्दार्थ-'अणगारं-अनगारम' गृहरहित मुनिको तथा 'एसणं--एषणाम' एषणा को पालन करने के लिये 'उवडियं--उपस्थितम् तत्पर और' ठाणढियं-- બાદ જ્યારે સમસ્ત કર્મોનો ક્ષય થઈ જાય છે, ત્યારે કર્મોના ક્ષયલક્ષણવાળા મોક્ષની પ્રાપ્તિ કરવાને ગ્ય તે બની જાય છે. આ समुहित मलित थाय छ /युं ५ छ - "विधुनोति तु योगी" त्या જેવી રીતે પક્ષી પાંખોને ફડફડાવીને શરીર પરની રજ દૂર કરે છે, એ જ પ્રમાણે મુક્તિમાર્ગને જ્ઞાતા મુન આ ભૂતલ પર સમસ્ત કર્મફલને તપસંયમ વડે ધોઈ નાખે છે. અને મોક્ષ પ્રાપ્ત કરે છે.“ ગાથા ૧પ મેક્ષને માટે પ્રયત્નશીલ સાધુ જ્યારે મુક્તિમાર્ગ પર આગળને આગળ સંચરણ કરી રહ્યા હેય છે ત્યારે કયારેક અનુકૂળ ઉપસર્ગ પણ પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. સૂત્રકાર હવે मे वात २ छ- "उद्विय त्याहि शहाथ-'अणगार - अनगारम्' गृह २डित भुनिने तथा 'पसण--एपणाम्' मेषपाने पासन ४२वाने भाटे 'उवद्वियं-- उपस्थितम् तत्५२ अने, 'ठाणद्विय स्थानस्थितम्' For Private And Personal Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्रे ___ अन्वयार्थः (अणगारं) अनगारम् मुनिम् तथा (एसणं) एषणाम् प्रति (उठियं) उत्थितं तत्परम् (ठाणट्ठिय) स्थानस्थितम् उत्तरोत्तरसंयमस्थानाध्यासितं (तवस्सिणं) तपस्विनम् अनशनादितपोनिष्टप्रदेहम् (समणं) श्रमणं (डहरा) दहराः पुत्रादयः (य बुड्ढा च) पुनः वृद्धाः पितृमातुलादयः (ण पत्थए) न प्रार्थयेरन् याचेरन् प्रवज्यां स्खलयितुम् (अविसुस्से) अपि शुष्येयुः प्रार्थनां कुर्वन्तस्ते श्रान्ता अपि भवेयुरित्यर्थः, परन्तु (तं) तं साधुम् (गोलभेज) नो लभेरन् तं स्वाधीनं कर्तुं प्राप्तुं वा नैव शक्ता भवेयुरिति ॥१६॥ स्थानस्थितम्' संयमस्थान में स्थित 'तवस्सिणं-तपस्विनम्' अनशनादि तपोनिष्ठ 'समणं-श्रमणम्' श्रमणको 'डहरा--दहराः पुत्रादि 'य वुझ्ढा-य वृद्धाः' और उसके मातापिता आदि 'ण पत्थए--न प्रार्थयेरन्' प्रवज्या छोड़ने के लिये चाहे प्रार्थनाकरें परंतु 'त--तम्' उससाधुको ‘गोलभेज्ज-नो लभेरन्' अपने अधीन नहीं कर सकता है ॥१६॥ -अन्वयार्थगृह के त्यागी, एषणा में तत्पर, उत्तरोत्तर संयम के स्थानों में स्थित, अनशन आदि तपों से देह को तपाने वाले श्रमण को कदाचित् छोटे पुत्रादि या वृद्ध पिता माता आदि दीक्षा त्यागने की प्रार्थना करे और प्रार्थना करते हुए थक भी जाएँ तो भी वे उस साधु को अपने अधीन करने में समर्थ नहीं होते ॥१६।। संयभस्थानमा स्थित तवस्सिण-तपस्विनम्' उपास वगेरे तपोनिष्ठ 'समण:-श्रमणम्' श्रभने 'डहरा-दहरा' पुत्र वगेरे 'य वुड्ढा-च वृद्धाः' अने तेना मातापिता वगेरे ‘ण पत्थप-न प्रार्थ येरन् प्राय छोडवाने भाट या प्रार्थना ४२ परंतु 'त--तम् ते साधु २ नो लमेजन-नो लमेरेन्' पोताना आधीन री शता नथी. ॥१६॥ __ -सूत्राथગૃહ ત્યાગ કરનારા, એષણામાં તત્પર, ઉત્તરોત્તર સંયમનાં સ્થાનમાં સ્થિત અને અનશન આદિ તપ વડે દેહને તપાવનારા શ્રમણને નાના મોટા માણસે (નાના માણસે એટલે પુત્રાદિ, મેટા એટલે વૃદ્ધ માતાપિતા આદિ) કદાચ દીક્ષાને ત્યાગ કરવાની પ્રાર્થના કરે, તે પ્રાર્થના કરનારા તેમ કરતાં થાકી જાય છતાં પણ તેઓ તે સાધુને સંયમના માર્ગેથી ચલાયમાન કરવા અને પોતાની ઈચ્છાને અધીન કરી શકવાને શકિતમાન થતા નથી. ૧૬ For Private And Personal Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 3 'समर्थ'बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ५१३ टीका 'अणगारं ' अनगारम् अगारं गृहं तत् यस्य नास्ति इति अनगारः तामनगरं मुनिं 'एस' एषां प्रति संयमपरिपालनाय 'उद्वियं' उत्थितं तत्परम् । तथा 'ठाणद्वियं' स्थानस्थितम् उत्तरोत्तरं संयमस्थाने विद्यमानम् । 'तस्सिणं' तपविनम्र, विशिष्टतपसा निस्तप्तशरीरम् | 'समणं' श्रमणं साधुम् 'डहरा' दहराः, बालकाः | 'बुड्ढा य' बृद्धाश्च स्वमातृपितृप्रभृतिबृद्धजनाः । 'पत्थये प्रार्थयेरन् प्रवज्यां त्यक्तुं प्रार्थयेरन । एवं वदन्ति वृद्धस्य यष्टिमिवान्धस्य चक्षुर्वत् निर्धनस्य धनवत् तृषितस्य जलवत् त्वमेकएव अस्माकं पालयिता, नास्ति त्वत्तोऽतिरिक्तः कचिद् यमासाद्य शेषजीवनं यापयिष्यामः । एवं प्रार्थयमानास्ते 'अविसुस्से' अपि शुष्येयुः प्रार्थनां कुर्वन्तस्ते श्रान्ता अपि भवेयुः । किन्तु 'तं' साधुम् ''णो लभेज' नो लभेरन् स्वाधीनं कर्तुं न ते पारयन्ति यतः संसारदुःखादुद्वि- टीकार्थ जिसके अगार अर्थात् घर नहीं है अर्थात् जिसने गृहत्याग कर दिया है वह अनगार कहलाता है । उसको तथा जो संयम के पालन के लिए एषणा में तत्पर है, जिसने विशिष्ट तपस्या के द्वारा शरीर को पूरी तरह तपा डाला है, ऐसे श्रमण को बालक (पुत्रादि) या वृद्ध अर्थात् माता पिता आदि वृद्ध जन प्रव्रज्या त्यागने के लिए प्रार्थना करें और कहे - बूढे की लकडी के समान, अंधे के लिए आँख के समान, निर्धन के लिए धन के समान और प्यासे के लिए पानी के समान, एक तुम्हीं हमारे पालनकर्त्ता हो, तुम्हारे सिवाय दूसरा कोई ऐसा नहीं है कि जिसका सहारा लेकर हम अपना शेष जीवन पुरा करे।' इस प्रकार प्रार्थना करते हुए वे थक भी क्यों न जाएँ, किन्तु -- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - टीअर्थ - જેને ઘર નથી, એટલે કે જેણે ઘરો ત્યાગ કર્યા છે, તેને અણુગાર કહે છે. એવા ધરના ત્યાગ કરનાર, સંયમના પાલનને માટે એષણામાં તત્પર, અને જેણે વિશિષ્ટ તપસ્યા વડે શરીરને પૂરે પૂરૂં તપાવી નાંખ્યું છે એવા શ્રમણને ખાલક (પુત્રાદિ) અથવા વૃદ્ધે (માતા પિતા અહિં વૃદ્ધ જને!) સંસારી કુટુંબીઓ પ્રત્રજ્યાના ત્યાગ કરી નાખવા માટે કદાચ આ પ્રકારથી પ્રાર્થના પણ કરે કે- ”વૃદ્ધની લાકડી સમાન, આંધળાંની આંખો સમાન, નિર્ધનના ધન સમાન, અને તરસ્યાને માટે પાણી સમાન, એક તુજ અમા પાલનકર્તા છે. તુજ અમારા નોધારાના આધાર છે એવી બીજી કોઇપણ વસ્તુ નથી કે જેના આધાર લઇને અમે અમારૂં બાકીનુ જીવન સુખેથી વ્યતીત કરી શકીએ”. આ પ્રકારની પ્રાર્થના કરનારા તેને વિનંતી કરી કરીને થાકી જવા છતાં પણ સયમના માર્ગેથી ચલાયમાન કરીને તેને પેાતાને આધીન કરી શકતા નથી. જે સંસારનાં દુઃખાથી ઉદ્વિગ્ન સ. ૬૫ For Private And Personal Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे जितो विशिष्टसंयमस्थानं प्राप्य विशिष्टतपसा संतप्तशरीरो न कदापि तेषां पित्रादीनां वाक्येभ्यो मोक्षपरिपन्थिभ्यो विचलति । किन्तु सर्वथा सुस्थिर एव मोक्षमार्गे स्थितो भवतीति । उक्तं च बन्धूनां करुणावाक्यं श्रुत्वापि न निवर्तते । संयमेभ्यः परो योगी मुक्तिदेभ्यः समुक्तिभाक् ॥१॥सू०१६॥ मुनिरनुकूलपरीषहादपि न प्रचलति तत्राह 'जइ कालुणिया' इत्यादि । मूलम् जइ कालुणिया णिकासिया जइ रोयंति य पुत्तकारणा । दवियं भिक्खू समुट्ठियं णो लभंति ण संठवित्तये ॥१७॥ छाया यदि कारुणिकानि कुर्युर्यदि रुदंति च पुत्रकारणात् । द्रव्यं भिक्षु समुत्थितं न लभते न संस्थापयितुम् ॥१७॥ उस साधु को अधीन नहीं कर सकते हैं । जो संसार के दुःखों से उद्विग्न हो चुका है, जिसने संयम के विशिष्ट स्थानको प्राप्त करके उग्र तपश्चरण के द्वारा शरीर को तपा लिया है, वह मोक्षमार्ग में विघ्न स्वरूप पिता माता आदि के वचनों से विचलित नहीं होता है। वह मोक्षमार्ग में पूरी तरह स्थिर ही बना रहता है। कहाभी है--." बन्धनां करुणावाक्यं " इत्यादि । 'अपने बन्धुजनों के करुणवाक्यों को सुन करके भी उत्कृष्ट योगी संयम से निवृत्त नहीं होता है, वही मोक्ष प्राप्त करता है ॥१६॥ मुनि अनुकूल परीषह से भी चलायमान नहीं होता, यह कहते हैं"जइ कालुणिया" इत्यादि। થઈ ગયેલા છે. જેણે સંયમનું વિશિષ્ટ સ્થાન પ્રાપ્ત કરીને ઉગ્ર તપસ્યાઓ દ્વારા શરીરને તપાવી નાંખ્યું છે, એ તે અણગાર, મોક્ષમાર્ગમાં વિદ્મરૂપ થઈ પડે એવા માતાપિતા આદિનાં વચનથી ચલાયમાન થતું નથી. પરંતુ તે અડગતા પૂર્વક મેક્ષમાર્ગ પર સ્થિર र २ छे. ४थु ५४ छे 3-"बन्धूनां करुणायाक्य" त्याह ”પિતાના બધુજનના કરુણ વાક્ય સાંભળવા છતાં પણ ઉત્કૃષ્ટ ભેગી સંયમથી નિવૃત્ત થતું નથી. એ સાધુજ મેક્ષ પ્રાપ્ત કરે છે. તે ૧દા હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે મુનિ અનુકૂળ પરીષહ વડે પણ સંયમના भागे थी यसायमान थती नथी." जब कालणिया" त्यादि . .. - . . - . . - - .. For Private And Personal Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ५१५ अन्वयार्थः (ज) यदि ते मातापित्रादय:, (कालुणियाणि) कारुणिकानि करुणाप्रधानानि वचनानि कार्याणि वा (कासिया) कुर्युः (जड़) यदि ते ( पुत्तकारणा) पुत्रार्थम् पुत्रमेकमुत्पाद्य ततः प्रवज्याग्रहीतव्येत्यर्थः, (रोयंतिय) रुदंति च रोदनमपि कुर्युः तथापि ( दवियं) द्रव्यम् रागद्वेपरहितत्वान्मुक्तिगमनयोग्यत्वाद्वाद्रव्यभूतम् भव्यं ( समुद्वियं) समुत्थितं संयमपालनतत्परम् (भिक्खु ) भिक्षु साधुम् (णो) नो नैव (लब्भंति) लभंते प्राप्नुवन्ति तथा (ण संठवित्तये) म संस्थापयितुम् गृहवासे तं स्थापयितुं शक्ता न भवन्तीत्यर्थः ॥ १७॥ 3 शब्दार्थ - 'जड़ - यदि ' यदि वे ' कालुणियाणि - कारुणिकानि' करुणामय वचनबोले अथवा करुणामय कार्य ' कासिया - कुर्युः' करे 'जइ - यदि' यदि वे 'पुत्तकारणा - पुत्रकारणात् पुत्रके लिये 'रोयंति य-रुदंति च' रुदन करे तोंभी 'दवियं - द्रव्यम्' द्रव्यभूत 'समुट्टियं - समुत्थितम् ' संयम करनेमें तत्पर ' भिक्खु - भिक्षुम्' साधुको 'नो-नैव' नहीं 'लब्भंति- लभते प्रव्रज्यासे भ्रष्ट करसकते है तथा 'ण संठवित्तये-न संस्थापयितुम् ' वे उन्हें गृहस्थलिंग में नहीं प्रवेश करासकते हैं । १७ अन्वयार्थ यदि माता पिता आदि करुणाजनक वचन कहे या कार्य करें। अगर वे पुत्र के लिए रोएँ अर्थात् ऐसा कहे कि एक पुत्र उत्पन्न करके फिर दीक्षा ले लेना, तो भी रागद्वेष से रहित या मुक्तिगमन के योग्य मोक्षाभिलाषी तथा संयम पालन में तत्पर साधु को वे प्राप्त नहीं कर सकते और उसे गृहवास में स्थापित नहीं कर सकते || १७॥ शब्दार्थ- 'जइ यदि ' ले ते 'कालुणियानि कारुणिकानि' दु:मभय वयन मोझे अथवा दुःअभय अर्थ' ' कासिया - कुर्युः' रे 'जइ-यदि ' ले ते ' 'पुत्तकारणापुत्र कारणात् ' पुत्रना भाटे 'रोयंति य - रुवंति च ' ३हन रे तो पदवियं द्रव्यम्' द्रव्यभूत 'समुट्ठियं समुत्थितम् संयम वामां तत्पर ' भिक्खु - भिक्षुम्' साधुने 'ना--नैव' नहीं 'लभ तिलभंते ' प्रवन्न्याथी भ्रष्ट उरी शडे छे, तथा 'ण संवित्तन स स्थापयितुम्' तेथे तेमने अस्थविंगमां प्रवेश उरावी शम्वा समर्थ नथी. ॥२७॥ - सूत्रार्थ - જો માતાપિતા આદિ કરુણાજનક વચના કહે, અથવા કરૂણાજનક કાર્ય કરે એટલે કે આક્રંદાદિ કરે, તો પણ સયમનું પાલન કરવાને દૃઢનિશ્ચયી ખનેલા તે મુનિને ચલાયમાન કરી શકતા નથી. એટલે કે તેઓ તેને એવી કાકલૂદી કરે કે ”એક પુત્ર ઉત્પન્ન કરીને તુ દીક્ષા લેજે. તે પણ રાગદ્વેષથી રહિત, મુકિતગમનને ચાગ્ય, મેાક્ષાભિલાષી તથા સંયમપાલનમાં તત્પર સાધુને ગૃહવાસમાં સ્થાપિત કરવાને સમર્થ બની શકતા નથી. ૫૧૭ાા For Private And Personal Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra બાફ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतसूत्रे टीका 'जइ' यदि ते मातापितृपुत्रकलत्रादयः' 'कालुणियाणि' कारुणिकानि करुणरसपूर्णानि हृदयद्रावकाणि संयमशिखरात् पातकानि हीनदीनवचनानि नास्ति मे त्वदन्यः शरणं त्वमेवैको विद्यसे इत्यादि विलासरूपाणि वचांसि 'कासिया' कुर्युः 'जइ य' यदि वा 'पुत्तकारणा' पुत्रकारणात् पुत्रनिमित्तं कुलवर्द्धन मे पुत्रमुत्पाद्य पुनरेवं कर्तुमर्हसीति, 'रोयंति' रुदंति रोदनं कुर्वन्ति उरस्ताडन पुरःसरं नेत्ररूपशुक्तिपुटेभ्यखुटितमुक्तामालातः मुक्ताप्रपातवार्यश्रुधारापरंपरां मोचयन्ति तथापि 'दवियं द्रव्यभूतम् रागद्वेषरहितत्वान्मुक्तिगमनयोग्य 'समुद्वियं ' समुत्थितं संयमप्रासादारोहणे तत्परम् । 'भिक्खू' भिक्षुम् 'णो लभंते' न लभते न प्रवज्यातो भ्रष्टं कर्त्तुं शक्नुवन्ति । 'ण संठवित्तये' न संस्थापयितुं तथा न संस्थापयितुं गृहवासे स्थापयितुं न समर्थाः भवन्ति । साधर्मातृपितृप्रमुखाः संयम—टीकार्थ— कदाचित् माता, पिता, पुत्र, कलत्र आदि करुण रस से परिपूर्ण, हृदय द्रवित करनेवाले, संयम के शिखर से गिराने वाले दीनता हीनता प्रकट करने वाले, 'तुम्हारे सिवाय मेरे लिए अन्ध को कोई शरण नहीं हैं, एक मात्र तुम्हीं शरण हों इत्यादि विलापरूप वचन कहे अथवा 'कुल को बढानेवाले एक पुत्र को उत्पन्न करके फिर संयम पालना इस प्रकार का रोना रोएँ, छाती पीट पीट कर टूटी हुई मोतियों की माला से गिरने वाले मोतियों के समान आंसुओकी धारा बहावें, फिर भी " वे राग द्वेषसे रहित होनेके कारण मुक्ति गमनके योग्य तथा संयमके प्रासाद पर आरोहण करने में समर्थ तत्पर भिक्षुकको प्रव्रज्या - संयम से च्युत चलायमान करने में समर्थ नहीं हो सकते । पुनः गृहवास में स्थापित नहीं कर सकते । For Private And Personal Use Only - टीअर्थ - કદાચ માતા, પિતા, પત્ની આદિ કરૂણાજનક, હૃદયને દ્રવિત કરનારાં સંયમને શિખરેથી નીચે ગબડાવી દેનારા તથા દીનતા હીનતા પ્રકટ કરનારાં, ”તુ તે અમારા જેવા નિરાધારને માટે આંધળાની લાકડી જેવા છે, તારા સિવાય અમારે કોઇના આધાર નથી, અમારે તા માત્ર તારાજ આધાર છે“ ઇત્યાદિ વચના કહે, અથવા ”કુળની વૃદ્ધિ કરનારો એક પુત્ર ઉત્પન્ન કરીને તુ સંયમ અંગીકાર કરજે, આવાં રાદણાં રડે, છાતી ફૂટી ફૂટીને આક્રંદ કરે અને તૂટેલી માળામાંથી ખરી પડતાં મેતીએ જેવા આસુ સારે, તેા પણ તે, તે રાગદ્વેષથી રહિત હેાવાને કારણે મુકિતગમનને પાત્ર તથા સંચમના પ્રાસાદ પર આરેહણ કરવાને ઉધત (તત્પર) થયેલા તે ભિક્ષુને પ્રત્રજ્યા (સંયમ)ના માર્ગેથી શ્રુત (ચલાયમાન) કરીને ગૃહાવાસમાં ફરી સ્થાપિત કરવાને સમર્થ થતા નથી. આ કથનનુ તાત્પર્ય એ છે કે Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ५१७ तत्परसाधुसमीपमागत्य यदि करुणामयानि वचांसि ब्रूयुः मोहवशात् , यदि वा करुणोत्पादकं कार्य कुयुः, अथवा पुत्रमुद्दिश्य रुदन्ति, तथापि संयमपालने सत्परो मुक्तिगमनयोग्यो मुनिः संयमान प्रचलितो भवति, न वा गृहस्थलिंग पुनः प्राप्नोति, स्वव्रते स्थिरत्वात् इति ॥१७॥ ___पुनरपि सूत्रकार आह 'जइविय' इत्यादि । मूलम् जइविय कामेहिं लाविया जइ णोजाहिणवंधिउं घरं । जइ जीवियं नावकंखए णो लभंति ण संठवित्तए ॥१८॥ छाया यद्यपि च कामैावयेयुर्यदि नयेयुर्वद्ध्यागृहम् । यदि जीवितं नाविकांक्षेत नो लभन्ते न संस्थापयितुम् ।।१८।। साधु के मातापिता वगैरह कोई स्वजन संयमी साधु के समीप आकर यदि मोहवश करुणापूर्ण वाणी बोलें या करुणा जनक कार्य करे अथवा पुत्र के लिए रोदन करे, तब भी संयम पालन में तत्पर मोक्षाभिलाषी मुनि संयम से चलायमान नहीं होता और न फिर गृहस्थका वेष धारण करता हैं, क्योंकी वह अपने संयम पालने में स्थिर होता है ॥१७॥ सूत्रकार पुनः कहते हैं-'जइवि य' इत्यादि। शब्दार्थ-'जइवि य-यद्यपि' चाहे 'कामेहि-कामैः' शब्दादि रूप काममोगों में 'लाविया-लावयेयुः प्रलोभन दे 'जइ-यदि' अथवा 'बंधिउं-बद्ध्या बांधकर 'घर-गृहम् घर पर 'णोज्जाहिण-नयेयुः' ले जावे 'जइ-यदि परंतु यदि સાધુના માતાપિતા આદિ સંસારી સ્વજને સાધુની સમીપે આવીને મેહને અધીન થઈને કરૂણાપૂર્ણ વચને બેલે, અથવા કરૂણાજનક કાર્ય કરે અથવા પુત્રને માટે (પુત્ર ઉત્પન્ન કરીને જવા માટે) આગ્રહ કરે, આકંદ કરે કે છાતી કૂટે, છતાં પણ સંયમપાલનમાં અડગ અને મેક્ષાભિલાષી એ ને મુનિ ચલાયમાન થઈને ગૃહસ્થને વેષ ધારણ કરતે નથી, પરંતુ અડગતા પૂર્વક સંયમનું પાલન કરે છે. છા वणी सूत्र२ ४ छ - "जइ वि य” त्याह शहाथ-.-'जइवि य-यद्यपि' या 'कामेहि--कामैः' शण्ट पणे३ ३५ अम लोगमा 'लाविया लाक्येयुः प्रयोलन मापे 'जइ-यदि ' मथवा 'बंधिउ-बध्या' मोधिने 'घर-गृहम् ' ५२५२ ‘णोजाहिणः युयेन' as onय 'जह यदि' परंतु ते साधु For Private And Personal Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५१८ www.kobatirth.org -- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्वयार्थः ( जवि ) यद्यपि ( कामे हिं) कामैः शब्दादिरूपैः (लाविया) लावयेयुः प्रलोभनं दद्युः (ज) यदि वा (बंधिउं) बद्ध्वा ( घरं ) गृहम् ( णोज्जाहि ण ) नयेयुः णमिति वाक्यालंकारे (जइ) यदि परन्तु यदि स साधुः, ( जीवियं ) जीवितं संयमरहितजीवनम् (नावकखए) नावकांक्षेत् नाभिलषेत तदा 'णो (लब्भंति) नो लभते ते कुटुंबिजनाः तं साधुं स्वाधिकारे नैव कुर्वन्ति तथा (ण संठवित्तए) न संस्थापयितुं गृहे स्थापयितुं न शक्नुवन्तीति ॥ १८ ॥ -टीका सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'जवि य' यद्यपि साधोः सांसारिक कुटुंविपुरुषाः, 'कामेहि लाविया' कामैः शब्दादि मनोज्ञकामभोगैः लोभयेयुः साधवे कामादिना प्रलोभनं दद्युः, 'जइ वंधिउ' यदि वा बन्धयित्वा क्रुद्धाः सन्तो हस्तपादादिकं बन्धयित्वा, 'घरंवह साधु 'जीवियं - जीवितम् ' संयम रहित जीवनको 'नावकखए-नावकांक्षेत्' नहीं चाहता है 'णो लब्भंति--नो लभन्ते वे उसे वशमें नहीं कर सकते है 'ण संठवित्तए --न संस्थापयितुम् और उसे गृहस्थ भावमें नहीं रख सकते है ॥ १८ ॥ -अन्वयार्थ यद्यपि वे स्वजन शब्दादि कामभोगों का प्रलोभन दे अथवा बाँधकर घर ले जाएँ । परन्तु साधु यदिअसंयम जीवन की अकांक्षा न करे तो वे उसे अपने अधिकार में नहीं कर सकते और न घर में रख सकते हैं । ।। १८ ।। - टीकार्थ- साधु के स्वजन को भले ही शब्द आदि मनोज्ञ कामभोगों का प्रलोभन दे अथवा क्रुद्ध होकर उसके हाथ और पैर बाँध कर घर ले जाएँ 'जीविय - जीवितम् ' संयम वगरना भवनने 'नायक खए- नावकांक्षेत्' न छे 'णो लब्भति-नो लभते ते' तेने वशमां री शम्ता नथी. 'ण संठवित्तए-न संस्थापयितुम् અને તેને ગૃહસ્થ ભાવમાં રાખી શકતા નથી. ૫૧૮ - सूत्रार्थ - કદાચ તે સ્વજનો તેને શબ્દાદિ કામભોગોનું પ્રલેાભન બતાવે, અથવા તેને પરાણે બાંધીને ઘેર લઇ જાય, તો પણ અસયમ જીવનની આકાંક્ષા ન રાખનાર તે સાધુને તે સંયમના માર્ગે થી ચલાયમાન કરી શકતા નથી અને પરાણે ઘરમાં રાખી શકતા નથી. ૧૮। -अर्थ For Private And Personal Use Only તે સાધુના સ્વજનો તેને શબ્દા મનેાસ કામભાગાનુ પ્રલાભન બતાવીને પણ સચમના માળેથી ચલાયમાન કરી શકતા નથી. તેએ કદાચ દાધાવેશમાં આવી જઇને Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाय बोधिनो टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. १ भावदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ५१९ णेजाहि' गृहं नयेयुः, 'जइ' यदि, परन्तु यदि 'जीवियं नावकंखए जीवित नावकांक्षेत् परन्तु यदि स साधुः असंयमजीवनं नावकांक्षेत् । तदा ‘णो लभंति' नोलभन्ते ‘ण संठवित्तए' न गृहेऽसंयमजीवने संस्थापयितुं शक्ष्यति । __अयं भावः-यदि संयमपरिपालनशीलं साधु साधु संबन्धिनः साधुसमीपमागत्य । साधु विषयभोगेन प्रलोभयेयुः । असफलाः सन्तः क्रुद्धा यष्टयादिना ताडयन्तो यदि वा साधुं बंधयित्वा गृहं नयेरन् एतादृशं अनुकूलप्रतिकुलोपसर्ग कुर्युः । परन्तु एतादृशा अनुकूलप्रतिकूलोपसर्गद्वारा परिपीडितोऽपि साधु यदि असंयमजीवनं नाभिलपति, तदा तस्य परिवाराः तं साधुं स्वाधिकारे आनीय गृहे स्थापयितुं समर्था न भवन्ति । परमानन्दजनकं शारदचन्द्रवनिमल सुवेव सुधादुसंयमक्षीरसमुद्रशिशिरं निर्मलं जलं पीत्वा कामभोगरूपं क्षाराशुचिरूपं विषयजल को डि पातुमभिवांछेत् न कोपि इति ॥ १८ ॥ परन्तु साधु यदि असंयम जीवन की इच्छा न करे तो वे उसे पा नहीं सकते और न घर में रख सकते हैं। तात्पर्य यह है-संयम का पालन करने की रुचिवाले साधु के सम्बन्धी यदि साधु के समीप आकर विषयभोगों का लालच देवें और जब उसमें सफल न हों तो क्रुद्ध होकर लकडी आदि से पीटने लगे या बाँधकर घर ले जाएँ अर्थात इस प्रकार का अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग करे, तब भी अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों द्वारा पीडित होकर भी साधु यदि असंयम जीवन की इच्छा नहीं करता है तो उसके परिवार वाले उस साधु को अपने अधिकार में लाकर घर में रखने को समर्थ नहीं हो सकते । परमानन्द को उत्पन्न करने वाले, शरत्कालीन चन्द्रमा के समान निर्मल, सुधा के समान सुस्वादु, क्षीरसागर के जल के समान शीतल और निर्मल जल को पीकर તેના હાથ પગ બાંધીને તેને પરાણે ઘેર લઈ જાય છે, પરંતુ અસંયમ જીવનની તે સાધુ ઈચ્છા જ ન કરે તો તેઓ તેને ઘરમાં પણ રાખી શકતા નથી. તાત્પર્ય એ છે કે સંયમનું પાલન કરવાની રુચિવાળા સાધુના સંસારી સ્વજને સાધુની સમીપે આવીને તેને વિષય ભેગોની લાલચ આપે, અને તે રીતે તેને સમજાવવામાં નિષ્ફળ જ્યાથી ક્રોધે ભરાઈને તેને લાકડી આદિ વડે મારવા લાગી જાય અથવા બાંધીને ઘેર લઈ જાય, એટલે કે આ પ્રકારનાં અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગો દ્વારા પીડિત થવા છતાં પણ જે સાધુ અસંયમી જીવનની ઈચ્છા કરે નહીં તે તેના સ્વજને પણ તે સાધુને પિતાના અધિકારમાં લઈને તેને પરાણે ઘરમાં રાખી શકવા ને સમર્થ થતા નથી, પરમાનંદ ઉત્પન્ન કરનાર, શરદઋતુના ચન્દ્રમાં જેવું નિર્મળ, અમૃત જેવું મીઠું, અને For Private And Personal Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२० सूत्रकृतास सेहंनि य णे ममाइणो मायापिया य सुया य भारिया पोमाहि ण पासओ तुम लोगं परं पिं जहासि पौस हो।१९। --छाया-- शिक्षयति च ममत्ववन्तो मातापिता च सुताश्च भार्याः । पोषय नो दर्शकस्त्वं लोकं परमपि जहासि पोषय नः ॥१९॥ अन्वयार्थ--- (ममाइणो) ममत्ववन्तः (मायापिया च) मातापिता वा जननीजनको कामभोग रूपी खारे और गंदे विषम रूपी जल को पीने की कौन अभिलाषा करेगा ? कोई नहीं ॥१८॥ शब्दार्थ-'ममाइणो--ममत्ववन्तः' यह मेरा है ऐसा जानकर स्नेहकरने वाले उसके मायापिया य--मातापिता च' मातापिता सुया य--सुताः पुत्र और 'भारिया--भार्याश्च' स्त्री 'सेहंति य--शिक्षयंति च, शिक्षाभी देते है कि 'तुमं पासओ-त्वम् दर्शकः' तुम सूक्ष्म दर्शी हो 'पोसाहि-पोपय' 'ण--अस्मान् हमारा 'परंपि--परमपि' दूसरे भी · लोग-लोकम्' लोकको 'जहासि-त्याजसि खराब कर रहे हो अतः ‘णो--नः' हमारा 'पोस-पोपय' पोषण करो ॥१९।। -अन्वयार्थ ममता वाले माता, पिता पुत्र और पत्नी ऐसे शिक्षा देने वाले वचनों ક્ષીર સાગરના જળના સમાન શીતલ અને નિર્મળ જળનું પાન કરીને, કામગ રૂપી ખારા ગંદા અને વિષમ જળનું પાન કરવાની અભિલાષા કેણ કરે? ( કઈ પણ ન કરે ) ગાથા ૧૮ शहाथ-'ममाइणो-ममत्ववन्तः' मा भा३ छे सीने रेनेड ४२वावा तेना 'मायापिया य-माता पिता च' माता पिता 'सुया य-सुताः' पुत्र भने 'भारियाभाषांश्च' सी 'सेप सि य-शिश्नयति च' शिक्षा ५ मा छ 'तुम पासओ-त्वम् वशंक' तमे सूक्ष्महशी छ। 'पोसाहि-पोषय' पासन ४२। '-अस्मान् ' मा३ "परपि-परमपि' ५५ लीग-लोकम्' सोने ‘जहासि त्यजसि' पराम शरी २वा । मेथी ‘णो-नः' मा३ 'पोल-पोषय' पोषण ४२ ॥१८॥ सूत्राथસૂત્રકાર પૂર્વગાથામાં પ્રતિપાદિત વિષયનું આગળ નિરૂપણ કરે છે. તે સાધુ પ્રત્યે સમતાભાવથી યુકત એવા તેના માતા, પિતા, પુત્ર અને પત્ની તેને For Private And Personal Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र श्रु अ. २. उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ५२१ इत्यर्थः, (नुयाय) सुताः पुत्राव (भारिया) भार्याव स्वकीया पत्न्यः (सेहंति य शिक्षयंति च शिक्षाप्रायं वचनमुच्चारयति च (तुमं) त्वम् (पासओ) दर्शक सूक्ष्माद्रष्टा त्वमसीत्यर्थः, ( पोसाहि ) पोषय परिपालय (ण) न अस्मान् (परंपि) परमपि 'लोगं लोकं ' ( जहासि ) - त्यजसि अतः ( णो) नः अस्मान् (पोस) पोषय परिपालयेत्यर्थः ।। १९ ।। टीका 'ममाइणो' ममत्ववन्तः 'मायापिया य सुया य भारिया' मातापिताच सुताव भार्याः मोहवशेन 'सेहंति' शिक्षयन्ति साधुं नवदीक्षितम् । शिक्षावचनमाह -... 'तुमं पासओ' त्वमसि दूरदर्शी 'पोसणो' पोषय न पोषयाऽस्मान् 'परं वि' परमपि 'लोग' लोकं परलोकमपि त्यजसि, अस्मान् पालयतस्ते परलोकोऽपि का उच्चारण करते हैं तुम सूक्ष्म वातों को समझने वाले हो, अतः हमारा पोषण करो। अगर हमारा पोषण नहीं करते तो अपने परलोक का त्याग करते हो अर्थात् उसे विगाडते हो। अतएव हामरा पोषण करो ||१९|| - टीकार्थ माता, पिता, पुत्र और पत्नी मोहके वश होकर नवदीक्षित साधुको इस प्रकार सिखाते हैं- तुम दूरदर्शी हो, अतः हमारा पोषण करो | हमारा पालन नहीं करोगे तो तुम्हारा परलोक भी सुव्यवस्थित नहीं होगा । अतएव हमारा पोषण करो । नवदीक्षित साधुका माता पिता पुत्र पत्नी आदि स्वजन यीं सिखलाते हैं । तुम्हारे सिवाय हमारा कोई आश्रय नहीं है। देखो, तुम विद्वान् हो, એવા ઉપદેશ આપે છે કે—તમે સૂક્ષ્મ વાતા સમજનાર છે, તે અમારુ પાષણ કરવાની તમારી ફરજને સમજો, જો તમે અમારું પોષણ નહી કરો તે તમારે પરભવ બગાડશે તેથી તમારે અમારૂ પોષણ કરવું જ જોઇએ’. ! ૧૯૬ -टीअर्थ - માતા, પિતા, પુત્ર અને પત્ની મેહુને અધીન થઇને નવદીક્ષિત સાધુને આ પ્રમાણે શિખામણ આપે છે. તમે દૂરદશી છે, તે અમારું પોષણ કરવાની તમારી ફરજ અદા કરે। જો તમે અમારા પ્રત્યેની ક્રજ નહીં બજાવા તે તમારા આ ભવ અને પરભવ બગાડશે’ તાત્પર્ય એ છે કે માતા, પિતા, પુત્ર, પત્નિ આદિ સ્વજના નવદીક્ષિત સાધુને પાતાના ગણીને આ પ્રમાણે શિખામણ આપે કે હે પુત્ર ! ( હે પિતાજી !, હે સ્વામી ! ) તમે અમારા ત્યાગ કરીને સાધુ બન્યા હોવાથી અમને ઘણુ જ દુઃખ થાય છે. તમારા સિવાય અમારે सु. ६६ For Private And Personal Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२२ सुत्रकृताङ्गसूत्रे सुव्यस्थितो भवेत् । तस्मात् 'पोस णो' पोषय न:-पोषणं कुरु । नवजात दीक्षं मातृपितृपुत्रकलत्रादयो बान्धवाः शिक्षयन्ति, अयं ममेति मत्वा ते कथयन्ति । हे पुत्र ! भवदर्थ वयं अतिदुःखिनो भवेम। भवन्तं विहाय नान्यः कश्चिदस्त्यस्माकं शरणम् । त्वं पश्य, त्वमसि विद्वान् अतस्त्वमस्मान् पालय । अन्यथा साधुभावमासाद्य तत्त्यागात् अयं लोकस्तु त्वया विनाशित एव । अस्माकमपालने परलोकमपि नाशयिष्यसि । स्वजनानां परिपालनेन महापुण्यप्राप्ति भवति । अस्मान्पालयेत्याधुपसर्ग करोतीति ॥१९॥ ___ पूर्वोपदशितोपसर्गर्वाधिताः केन मलिनसत्वाः पुनरपि संसारमेवाऽऽ. विशन्ति, इत्याह- 'अन्ने' इत्यादि । मूलम् अन्ने अन्नेहि मूच्छिया मोहं जंति नरो असंवुडा विसमं विसमेहिं गाहिया ते पावेहिं पुण्णो पगम्भिया ॥२० छायाअन्येऽन्येषु मूञ्छिता मोहं यान्ति नरा असंवृताः। विषमं विषमै हितास्ते पुनः पापैः प्रगल्भिताः ॥ २०॥ अतः हमारा पालन करो । अन्यथा साधु होकर तुमने यह भव तो बिगाड ही लिया है, हमारा पालन न करने के कारण परलोक भी नष्ट कर डालोगे स्वजनों का पालन पोषण करने से महान् पुण्यकी प्राप्ति होती है। अतएव तुम हमारा पालन करो । इस प्रकार वे उपसर्ग करते हैं ॥१९॥ पूर्वोक्त उपसर्गों से पीडित होकर कोई कोई दुर्बल हृदय पुनः संसार में प्रवेश करते हैं, यह कहते है- 'अन्ने' इत्यादि। કે આધાર નથી. તમે ઘણું જ વિદ્વાન છો, છતાં આટલું પણ સમજતા નથી. અમારું પાલન પેષણ કરવાની તમારી ફરજ છે. તમારી ફરજ ચુકીને તમે આ ભવ તે બગાડે જ છે અને પરભવ પણ બગાડવાના જ છે. સ્વજનનું પાલન પિષણ કરવાથી મહાન પુણ્યની પ્રાપ્તિ થાય છે. માટે તમે સંસારી બની જઈને અમારું પાલન કરે “આ પ્રકારની શિખામણ તેઓ તે નવદીક્ષિત સાધુને આપે છે. આ પ્રકારે તેઓ ઉપસર્ગ કરે છે. ગાથા પૂર્વોક્ત ઉપસર્ગોથી પીડિત થઈને કેઈકેઈનબળા મને બળવાળા સાધુઓ સંસારમાં પાછાં ફરે છે, તે વાત સૂત્રકાર હવે પ્રકટ કરે છે ”, ઇત્યાદિ For Private And Personal Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2: % D समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ५२३ अन्वयार्थ:- (असंवुडा) असंवृत्ताः संयमवर्जिताः, (अन्ने नरा) अन्ये नराः केचन कातराः (अन्नेहिं) अन्येषु मातृपित्रादिषु (मुच्छिया) मूच्छिताः गृद्धाः (मोहंजति) मोह यान्ति (विसमेहि) विषमैः, संयमहीनपुरुषैः (विसम) विषममसंयम (गाहिया) ग्राहिताः स्वीकारिताः सन्तः (पुणो) पुनः पुनरपि (पावेहि) पापैः पापकर्मसु 'पगब्भिया'-प्रगल्भिताः धृष्टतां गता इति ॥२०॥ टीका----- ___'असंवुडा' असंवृताः सर्वविरतिलक्षणसंयमभाववर्जिताः, 'अन्ने नरा' अन्ये नराः साधुभावे अपरिपकमतयः कातराः पुरुषाः, 'अन्नेहि मूच्छिया' शब्दार्थ- 'असंवुडा--असंवृताः' संयमरहित 'अन्ने नरा-अन्ये नराः' दूसरे मनुष्यः अन्नेहि--अन्येषु' मातापिता आदि दूसरे में 'मुच्छिया--मूछिताः' आसक्त होकर मोहं जंति--मोहं यान्ति मोहको प्राप्त होते हैं :विसमेहि--विषमै' संयमरहित पुरुषों के द्वारा :विसम-विषमम्' असंयमको 'गाहिया-ग्राहिताः' स्वीकारकराये हुवे पुरुष :पुणो--पुनः फिर 'पावेहि-'पापैः' पापकर्मकरने में 'पगब्भिया--प्रगल्भिताः धृष्ट होजाते हैं ॥२०॥ -अन्वयार्थसंयम से रहित कोई कायर जन माता पिता आदि में मूर्छित होकर अपनी प्रव्रज्याका त्याग करके मोहको प्राप्त होता है । असंयमी पुरूषों द्वारा माता पिता द्वारा असंयम जिन्हे ग्रहण करवाया गया हैं ऐसे वे पुनः पाप कर्मों में धृष्ट बन जाते हैं ॥२०॥ . शहा-'असं बुडा-असं वृडाः' संयम वगर 'अन्नेनरा-अन्ये नराः' भी मनुष्य 'अन्नेहि-अन्येषु' माता पिता विगेरेभा 'मुच्छिया-मुच्छिताः' भासत थाने 'मोह जति-माह यान्ति' भाडने पास थाय छे ‘विसमेहि-विषमैः' सयम ११२ ५३षाना द्वारा 'विसम-विषमम्' असयम ने 'गाहिया-ग्राहिताः' स्वी॥२ शये ते Y३१ पुणो-पुनः' ५५ पावेहि-पापैः' ५५ ४२वामा ‘पगभिया-प्रगल्भिताः' ધૃષ્ટ થઈ જાય છે. પરબ -सूत्रार्थમાતાપિતા આદિ પ્રત્યેના મૂછભાવને કારણે કઈ કઈ કાયર સાધુઓ પિતાની પ્રવજ્યાને (સંયમને) ત્યાગ કરીને ફરી સંસારમાં પ્રવેશ કરે છે. અસંયમી પુરૂ દ્વારા માતાપિતા દ્વારા જેમને અસંયમ ગ્રહણ કરાવવામાં આવ્યા છે એવાં તેઓ પાપકર્મમાં એવા તે પ્રવૃત્ત થઈ જાય છે કે પાપકર્મ કરતાં તેઓ લજિજત પણ થતા નથી. મારો For Private And Personal Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२४ सूत्रकृताङ्गसूत्रों अन्येषु मातृपितृकलत्रादिषु मूछिताः गृद्धिभावं गताः, 'मोह जति' मोहं यान्तिअसंयमानुष्ठाने मोहं प्राप्नुवन्ति । तथा 'विसमेहिं विसमं गाहिया' विषमैः मोहग्रस्तमातापितृकलत्रादिभिः विषमं असंयमसंसारभावं ग्राहिताः स्वीकारिताः 'पुणो पावेहिं पगम्भिया' पुनः पापेषु प्राणातिपाताद्यष्टादश पापेषु प्रगल्भिताः आसक्ता भवंति, पुनरपि पापकर्माचरणे धृष्टतां प्राप्ता भवंति पापकर्मकुर्वाणा अपि न लज्जन्ते कश्चिदल्पबुद्धिरसंयतः पुरुषः मातृपितृप्रभृतिस्वजनोपदेशमवाप्य तेष्वेव संसारसहायकपरिवारेषु मूच्छितो भवति, स असंयमी असंयतपुरुषैरसंयम ग्राहितोः पुनरपि पापकर्मण्येव संसक्तो भवति । रागद्वेषादीनां प्रबलसंस्कारबलात् पुनः संसारे एव पततीति भावः ॥ २० ॥ -टीकार्थसर्वविरति संयम से रहित, साधुता में अपरिपक बुद्धिवाले कायर पुरुष माता पिता पत्नी आदि में मूर्छित होकर मोहका प्राप्त हो जाते हैं। विषम अर्थात् माता पिता कलत्र आदि के द्वारा उन्हे पुनः असंयम ग्रहण करवा दिया जाता है। ऐसे पुरुष फिर से प्राणातिपात आदि अठारह प्रकार के पाप करने में धृष्ट बन जाते हैं अर्थात् पापकर्म करते हुए लज्जित नहीं होते हैं। तात्पर्य यह है कि कोइ अल्प बुद्धि असंयमी पुरुष माता पिता आदि स्वजनो का उपदेश पाकर उन्ही में-संसार के सहायक परिवार में मूच्छित हो जाता है । उस असंयमी पुरुष पुनः असंयम ग्रहण करवा देते हैं और वह पुनः पापकर्म में आसक्त हो जाता है। अर्थात् वह रागद्वेष के प्रबल संस्कार के बल से पुनः संसार में ही पड जाता है अर्थात् संयम से भ्रष्ट हो जाता है ॥२०॥ -टीસર્વવિરતિ રૂપ સંયમથી રહિત, અપરિપકવ બુદ્ધિવાળો, સંયમનું માહાસ્ય નહીં સમજનારે તે કાયર પુરૂષ માતા, પિતા, પત્ની આદિમાં મૂર્શિત થઈને મેહને વશ થઈને સંયમને પરિત્યાગ કરે છે. વિષમ એટલે કે માતા, પિતા, પત્ની આદિ દ્વારા તેને ફરી અસંયમને માર્ગે લાવી દેવામાં અવાય છે, એ પુરૂષ ફરી પ્રાણાતિપાત આદિ ૧૮ પ્રકારનાં પાપકર્મોમાં ધૃષ્ટ બની જાય છે, એટલે કે એવાં પાપો સેવતા લજજા અનુભવ નથી. તાત્પર્ય એ છે કે કેઈ અલ્પબુદ્ધિ, અસંયમી પુરૂષ માતા, પિતા આદિ સ્વજનેને પૂર્વોક્ત ઉપદેશ સાંભળીને તેમનામાં જ (સંસારના સહાયક પરિવારમાં આસકત થઈ જાય છે. તે સાધુને તેઓ ફરી અસંયમ ગ્રહણ કરાવે છે. એટલે કે ફરી ગૃહસ્થાવાસમાં પ્રવેશ કરાવે છે. અને આ પ્રકારે ગૃહસ્થાવાસમાં પાછા ફરે તે પુરૂષ ફરી પાપકર્મોમાં આસકત થઈ જાય છે. એટલે કે રાગદ્વેષના પ્રબળ સંસ્કારને પ્રભાવથી ફરી સંસારના મેહમાં ફસાઈ જઇને પાપકર્મ માં પ્રવૃત્ત થઈ જાય છે. એટલે કે તે સંયમના માર્ગ થી ચૂત થઈને સંસારના માયામાં ફરા ફસાઈજાય છે. ર૦૧ For Private And Personal Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२५ समयार्थ बोधिनी टीका प्र. अ. अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः मातापित्र्यादिकुटुंबस्नेह पाशयंत्रितः संयमात् भ्रष्टः संसारचक्रमेव भ्रमति, तर्हि आत्मार्थिभिः साधुभिः किं कर्त्तव्यमित्युपदिशति शास्त्रकार: 'तम्हा दवि' इत्यादि । मूलम् १ २ ३ B ५ ६ तम्हा दवि इक्ख पंडिए पावाओ विरए अभिनिवडे । १० ८ ९ ११ १२ १३ पण वीर महावीहि सिद्विपहं याज्यं धुवं ॥ २१॥ छाया तस्माद्रव्य ईक्षस्व पण्डितः पापाद्विरतोऽभिनिर्वृतः । प्रणता वीरा महावीथीं सिद्धिपथं नेतारं ध्रुवम् ॥ २१ ॥ माता पिता आदि कुटुम्बी जनों के स्नेहके बन्धन में पडा हुआ संयमभ्रष्ट पुरुष संसार चक्र में ही भ्रमण करता है, तो आत्मार्थी साधुओं को क्या करना चाहिए ? शास्त्रकार इस विषय में उपदेश देते हैं-- 'तम्हा दवि' इत्यादि । शब्दार्थ - तम्हा--तस्मात्, इसलिये ( माता पिता में आसक्त होकर पापकर्म करते हैं इसलिये) 'दवि - द्रव्यो' मुक्ति गमन के योग्य अथवा रागद्वेषरहित 'इक्ख - इक्षस्व' विचारो 'पंडिए - पंडित : ' सत् असत् के विवेक से युक्त तथा 'पावाओ - पापात् ' पापसे ( पाप जनक अनुष्ठान से) 'विरए - विरत' निवृत्तहोकर अभिनिव्बुडे 'अभिनिर्वृतः' शान्त हो जाओ कारणकी 'वीरे - वीर : ' कर्मके विदारण करने में समर्थ पुरुष 'महाविहि--महावीथीम् ' महामार्गको 'पणए - प्रणताः ' प्राप्त करते है 'सिद्धिपदं - सिद्धिपथम् ' जो महामार्ग सिद्धिका मार्ग 'णेयाउयं - नेतारम्' मोक्षके पास ले जानेवाला और 'धुंव- ध्रुवम्' निश्चल है ||२१|| માતા, પિતા આદ્રિ સ્વજનોના સ્નેહના બન્ધનમાં બંધાયેલે તે સંયમભ્રષ્ટ પુરૂષ સસાર ચક્રમાં જ ભ્રમણ કર્યા કરે છે. તે આત્માથી સાધુઓએ શુ કરવુ જોઇએ? આ प्रश्ननो उत्तर हवेनी गाथामा सूत्रारे माग्यो छे - "म्हा दवित्याहि शब्दार्थ--' तम्हा-तस्मात् ' ते अरो (भातामां मासस्त थाने-तहसीन थाने ) चाय रे छे ते भाटे) ' दवि द्रव्यो' मुक्ति अमन भाटे योग्य अथवा रागद्वेष रहित 'ख' वियारीसो 'पंडिए - पंडित : ' सत्य असत्यना विवे श्री युक्त तथा ' पावाओ - पापात् ' पायथी ( पाय न अनुष्ठानथी) 'विरए - विरत: ' निवृत्त थाने ' अभिनिवुडे - अभिनिवृत्तः ' शान्त थर्ध लो। अशशु के 'वीरे वीरः' मना विहारण ४२वास समर्थ ५३५ ' महाविहि- महावीथीम् ' मला मार्गने 'पणप-प्रणताः ' प्राप्त रे छे. सिद्धिपद - सिद्धिपथम् ' ? महामार्ग - सिद्धिनेो भार्ग' ' नेयाज्यं - नेतारम्' भोक्षना सेवावाणी ने 'धुवं ध्रुवम्' निश्चल छे ॥२१॥ For Private And Personal Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra .५२६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्वयार्थः ( तम्हा) तस्मात् यस्मात् मातापित्रादिष्वासक्ताः पापं कुर्वन्ति तस्मात् 'दवि' द्रव्यो मुक्तिगमनयोग्यः साधुः सत् त्वम् (इक्ख ) ईक्षस्व पर्यालोचयेत्यर्थः, एवं (पंडिए) पंडितः सदसद्विवेकयुक्तः, ( पाचाओ) पापात् पापजनकानुष्ठानात्, ( विरए) विरतः निवृत्तो भूत्वा (अभिनिव्बुडे) अभिनिर्वृतः शांतोभूयाः इत्यर्थः ' यतः (वीरे) वीराः कर्मविदारणे समर्थाः पुरुषाः (म्हाविहि) महावीथीम् = महामार्गमित्यर्थः, ( पण ए) प्रणताः प्रहीभूता भवन्ति प्राप्नुवन्तीत्यर्थः, (सिद्धिप) सिद्धिपथम् (याउयं) नेतारम् (धुवं ) ध्रुवम् निश्चलमिति ॥ २१ ॥ टीका " हे शिष्य ! इस कारण होकर विचार करो । सत् सूत्रकृताङ्गसूत्रे हे शिष्य ! 'तम्हा' तस्मात्कारणात् 'दवि' द्रव्यम्, मोक्षगमनयोग्यः : यद्वा रागद्वेषरहितो भूत्वा त्वम् 'इक्ख' ईक्षस्व विचारय विवेकबुद्धया, 'पंडिए' पण्डितः, अन्वयार्थ माता पिता आदि स्वजनो में आसक्त पुरुष पापका उपार्जन करते हैं, इस कारण मुक्तिगमन के योग्य मोक्षाभिलाषी साधु विचार करे सत् और असत् के विचार से युक्त तथा पापजनक कार्यों से विरत होकर शान्त हो, क्योंकि कमका विदारण करने में समर्थ पुरुष महामार्गको प्राप्त करते हैं । वह महामार्ग सिद्धिका पथ है, मोक्षकी ओर ले जाने वाला है ध्रुव और निश्चित है ॥२१॥ टीकार्थ मोक्षगमन के योग्य अथवा रागद्वेष से रहित असत् के विवेकसे युक्त मेधावी मुनि पाप से - सूत्रार्थ માતા, પિતા આદિ સ્વજનામાં આસક્ત થયેલે પુરૂષ પાપનું ઉપાર્જન કરે છે. આ કારણે મુકિતગમનને પાત્ર, મેાક્ષાભિલાષી સાધુએ વિચાર કરવા જાઇએ. સત્ અને અસના વિવેકથી યુક્ત થઈને તેણે પાપજનક કાર્યાથી નિવૃત્ત થવુ જોઇએ અને કાયાદિના ત્યાગ કરીને સમતા ભાવ ધારણ કરવા જોઇએ. કારણ કે જેઓ કંતુ વિદ્યારણ કરવાને સમર્થ હોય છે, તે પુરુષો મહામાર્ગને પ્રાપ્ત કરે છે. તે મહામાગ સિદ્ધિના માર્ગો છે અને મેક્ષધામમાં લઈ જનારા નિશ્ચિત માર્ગ છે. - टीअर्थ - For Private And Personal Use Only હું શિષ્યા! તે કારણે મેક્ષગમનને પાત્ર થઇને અથવા રાગદ્વેષના ત્યાગ કરીને વિચાર કરો. સત્ અસા વિવેકથી યુકત મેધાવી મુનિએ પાપકર્માથી વિરત (નિવૃત્ત) થવું જોઇએ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ योधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ५२७ सदसद्विवेकयुक्तो मेधावी मुनिः, 'पावाओ पापेभ्यः 'विरए' विरतः निवृत्तः 'अभिनिव्वुडे' अभिनिवृतः क्रोधादिपरित्यागात् शान्तो भव । तथा एप मार्गः वीराणां 'वीरे वीराः कर्मविदारणे समर्थाः पुरुषाः, 'महावीहिं' महावीथीम् विशालमार्गम् , मोक्षमार्गम् , कथंभूतं तत्राह ‘सिद्धिपहम्' सिद्धिपथं सिद्धेमोक्षस्योपायभूतम् सम्यग्रज्ञानादिरत्नत्रयरूपं 'णेयाउयं नेतारं मोक्षप्रापकं 'धुवं' धृवम् निश्चलम् मार्ग 'पणए' प्रणताः प्रहीभूताः प्राप्नुवन्ति के वीराः वीराः कर्मविदारणसमर्थाः । हे शिष्य अयं मार्गः वीराणां धीराणां कर्मपंचाननविदारणे समर्थानां परीषहोपसर्गसहने मेरुवत् स्थिराणां न तु कातराणां संसारसुखलिप्सूनामयं मार्गः तस्मात् त्वमपि कुटुम्बस्नेहं परित्यज्य परीपहोपसर्गसहने धीरो भूत्वा संयममार्गे विचर इति भावः ॥२१॥ पुनरपि उपदेशं ददत् उद्देशकमुपसंहरनाह 'वेयालिय' इत्यादि । मूलम् । ६ वेयालियमग्ग मागओ मणवयसा कायेण संवुडो । चिच्चा वित्तं च णायओ आरंभं च सुसंवुडे चरे ॥२२॥ विरत हो और क्रोधादिका त्याग करके शान्त हो । वीर पुरुषों का यही मार्ग हैं। कर्म विदारण में समर्थ वीर पुरुष मोक्षके उपाय सम्याज्ञानादि रत्नत्रयरूप, मोक्ष प्राप्त कराने वाले और ध्रुव अर्थात् निश्चल महामार्ग मोक्षमार्ग को प्राप्त होते हैं। भाव यह है हे शिष्य ! यह मार्ग वीरों का धीरों का कर्मरूपी सिंह को विदारण करने में समर्थों का तथा परीषह और उपसर्ग का सहन करने में मेरू के समान स्थिर पुरुषोंका है । संसार के सुखों की अभिलाषा करने वाले कायरोंका यह मार्ग नहीं हैं। इस कारण तुम भी परिवारका अनुराग त्याग कर तथा परीषहो और उपसर्गों को सहन करने में धीर होकर संयम के मार्ग में विचरो ॥२१॥ અને ક્રોધાદિને ત્યાગ કરીને સમતા ભાવ ઘારણ કરે જોઈએ. વીર પુરૂષને એજ માર્ગ છે. કર્મવિદારણ કરવાને સમર્થ હોય એ પુરૂષ સમ્યગ્ર જ્ઞાન આદિ રત્નત્રયની આરાધના કરીને મોક્ષ પ્રાપ્ત કરાવનાર ધ્રુવ (નિશ્ચલ) મહામાર્ગ મોક્ષમાર્ગને પ્રાપ્ત કરે છે. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે હે શિ ! આ માર્ગ વીરોને માર્ગ છે, ધીરોને માર્ગ છે, કર્મરૂપ શત્રુઓનું વિદારણ કરવાને સમર્થ સિંહે આ માર્ગ છે, પરીષહ અને ઉસને મેરૂની જેમ અડગ રહીને સહન કરી શકનારને આ માર્ગ છે. સંસારનાં સુખની અભિલાષા કરનારા કાર્યને આ માર્ગ નથી. તે કારણે તમે પણ કુટુંબને અનુરાગ છોડી દઈને પરીષહ અને ઉપસર્ગોને અડગતા પૂર્વક સહન કરીને આ સંયમન માર્ગ પર વિચરણ કરે. પગાથા ૨૧ For Private And Personal Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२८ सूत्रकृतामसूत्र छाया वेदारकमार्गमागतो मनसा वचसा कायेन संवृतः । त्यक्त्वा वित्तं च ज्ञातींश्च आरंभं च मुसंवृतश्चरेत् ॥२२॥ अन्वयार्थः (वेयालियमग्गं) बैदारकमार्गम् कर्मविदारणे समर्थमार्गमित्यर्थः, (आगओ) आगतः तादृशमार्गप्राप्त इत्यर्थः । (मणवयसा) मनसा वचसा (कायेण) कायेन (संवुडो) संवृतः सावधप्रवृत्तिरहितः सन् (वित्त) वित्तं धनं (च णायओ) ज्ञातीन् स्वजनान् (च) च पुनः (आरंभं) आरंभम् सावधारंभम् (चिच्चा) त्यक्त्वा (सुसंवुडे) सुससंवृतः इन्द्रियैः संवृत इत्यर्थः (चरे) चरेत् संयमानुष्ठानम् इति ॥२२॥ पुनः उपदेश देते हुए और उदेशकका उपसंहार करते हुए कहते हैं"वेयालिय शब्दार्थ--'वेयलियमगं--वैशालिकमार्गम्' कर्मकोविदारण करने में समर्थ मार्ग में 'आगओ-आगतः' आकर 'मणवयसा मनसा वचसा' मन वचन और 'कायेण कायेन' शरीरसे 'संवुडो--संवृतः' गुप्तहोकर अर्थात् सावधप्रवृत्तिसे रहितहोकर 'वित्त--वित्तम्' धन तथा ‘णायओ-ज्ञातीन्' ज्ञातिवर्ग 'च-पुनः' और 'आरंभ -आरंभम्' आरंभको 'चिच्चा-त्यत्तवा' छोडकर 'सुसंवुडे-सुसंवृत्तः' उत्तम संयमी होकर 'चरे-चरेत् संयमानुष्ठानका पालन करे ||२२॥ --अन्वयार्थ-- कर्म विदारण में समर्थ पथ को प्राप्त, मन वचन और कायसे संवरयुक्त अर्थात् सावध प्रवृत्ति से रहित, धन स्वजन और आरंभको त्याग कर तथा इन्द्रियो से संवृत होकर संयम का पालन करे ॥ २२ ॥ હવે સૂત્રકાર આ ઉદ્દેશકને ઉપસંહાર કરતા આ પ્રમાણે ઉપદેશ આપે છે. "बेयालिय"त्यादि शार्थ -'वेयालियमग्न-वैशालिकमार्गम्' भने विद्या ४२वामा समर्थ भाभा 'आगओ-आगतः' भावीने 'मणवयसा-मनसा वचसा' भन, वयन भने 'कायेणकायेन' शरीरथी 'संवुडो-संवृतः' शुस थ ने अर्थात् ५।५४ वाणी प्रवृत्तिथा२हित ने वित्त-वित्तम्' धन तथा ‘णायओ-शातीन्' शातिया व पुनः भने 'आरंभं-आरभम्' मा भने 'चिच्चा-त्य-त्वा' छोडीने सुवुडे -सुसवृतः, उत्तम संयमी थईने चरेचरेत्' संयमानुष्ठाननु पासन ४३० ॥२२॥ ... -सूत्रार्थકર્મવિદારણને માટે સમર્થ એવા સંયમના માર્ગને પ્રાપ્ત કરીને, મન, વચન અને કાયાએ કરીને સંવૃત્ત (સંવર યુક્ત) બને એટલે કે સાવધ પ્રવૃત્તિને પાર ત્યાગ કરે, અને આરીભને ત્યાગ કરીને તથા જિતેન્દ્રિય થઈને સંયમનું પાલન કરો. રરા For Private And Personal Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ५२९ टीका 'वेयालियमri' वैदारकमार्गम्, कर्मविदारण समर्थमार्गम् सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूपम् 'आगओ' आगतः प्राप्त इत्यर्थः तथा 'मणवयसा कायेण संवुडो' सनसा वचसा कायेन संवृतः सावधप्रवृत्तिरहितः 'वित्तं णायओ' वित्तं ज्ञातींच वित्तं - हिरण्यसुवर्णादिरूपम् ज्ञातींश्च - स्वजनपरिवारादिकुटुम्बम् च पुनः 'आरंभ' आरंभं च 'चिचा' त्यक्त्वा 'सुसंबुडे' सुसंवृतः सन् 'चरे' चरेत् विचरेत् संयसमार्गे । कर्मनिवारकमार्गमागतो मनोवाक्कायैः संवृतो धनधान्यस्वजनपरिवारान् तथा सावद्यव्यापारांश्च परित्यज्य जितेन्द्रियो भूत्वा संयमारामे विचरेत् इति ॥ २२ ॥ इति श्री विश्वविख्यात --- जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक- पञ्चदशभाषाकलित- ललितकलापालापक प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थ निर्मापक वादिमानमर्दक- श्री शाहच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनाचार्य, पदभूषित कोल्हापुरराजगुरु बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालवतिविरचितायां सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य- समयार्थबोधिन्याख्यां व्याख्यायां वेतालियाख्यस्य द्वितीयाध्ययनस्य प्रथमोदेशक : समाप्तः २-१ टीकार्य कर्म विदारण में समर्थ सम्यग्ज्ञान दर्शन और चारित्र रूप मार्ग को प्राप्त तथा मन वचन कायसे सावध प्रवृत्तिका त्यागी चांदी सोने आदि द्रव्यको, स्वजन परिवार आदि कुटुम्ब को और आरंभको त्याग कर, संवृत होकर संयममार्ग में विचरें । कर्मक्षय के मार्गको प्राप्त, मन वचन काय से संवृत, धन धान्य स्वजन परिवार तथा सावध व्यापारों को त्याग कर जितेन्द्रिय होकर संयमरूपी उद्यान में विचरे ॥ २२ ॥ ॥ प्रथमोद्देशसमाप्त ॥ -21819 કર્મના નાશ કરવાને સમર્થ એવા સમ્યજ્ઞાન દર્શન અને ચારિત્રરૂપ માને પ્રાપ્ત કરીને, મન; વચન અને કાયાથી સાવધ પ્રવૃત્તિ ન કરવાને નિશ્ચય કરીને; સાનુ, ચાંદી આદિ દ્રવ્યના, સ્વજન પરિવાર આદિ કુટુંબના અને આર્ભના ત્યાગ કરીને, સંવૃત થઇને સંયમમાગે વિચા. જેને કમ ક્ષયના માર્ગ જડી ગયા છે. એવાં સંયમી જીવાએ મન, વચન અને કાયથી સ ંવૃત થઇને ધન; ધાન્ય; સ્વજન પરિવાર આદિ પરિગ્રહેાથી નિવૃત્ત થઈને; સાવદ્ય વ્યાપારાના ત્યાગ કરીને; જિતેન્દ્રિય અનીને સંયમરૂપ ઉદ્યાનમાં વિચરવુ જોઇએ. !! ગાથા રા ના બીજા અધ્યયનના પહેલા ઉદ્દેશક સમાપ્ત सु. ६७ For Private And Personal Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३० सूत्रकृतागर ___ अथ द्वितीयाध्ययने द्वितीय उदेशकः प्रारभ्यते___ द्वितीयाऽध्ययनस्य प्रथममुद्देशमुपदेशप्रधानक परिसमाप्य द्वितीयोदेशकमारभते । प्रथमान्तरं द्वितीयस्य कथने प्रथमेन सह द्वितीयोद्देशकस्याऽये संवन्धः। प्रथमोद्देशके भगवताऽर्हता तीर्थकरेणाऽऽदिजिनेश्वरेण स्वपुत्रेभ्यों देशना दत्ता । स एव धर्मोपदेशोऽस्मिन् द्वितीयोदेशकेऽपि कथ्यते । अस्य सूत्रस्य प्रथमोद्देशीयसूत्रेण सहाऽयं संबन्धः । अनन्तरप्रतिपादितसूत्रविवेकवते पुरुषाय बाह्यद्रव्यस्वजनबन्धुबांधवसमारंभादीनां त्यागः प्रतिपादितः । अस्मिन् सूत्रे च आन्तरिकशत्रुमानादीनां त्यागः प्रतिपादितो भविष्यतीत्ययमेव विषयो द्वितीयोद्देशकस्याऽर्थाधिकारेऽपि सूचित इति । तदनेन संबन्धेन प्राप्तस्य द्वितीयो दूसरे उद्देशे का प्रारंभद्वितीय अध्ययन के उपदेश प्रधान प्रथम उद्देश को समाप्त कर द्वितीय उद्देश आरम्भ करते हैं। प्रथम उद्देश के साथ दूसरे उद्देश का यह सम्बन्ध है-प्रथम उद्देशमें अर्हन्त भगवान् तीर्थकर आदि जिनेश्वर ने अपने पुत्रों को उपदेश दिया था। वही उपदेश इस दूसरे उद्देश में भी कहा जाता है। __ प्रस्तुत सूत्र का प्रथम उद्देश के अन्तिम सूत्रके साथ यह सम्बन्ध है अनन्तर प्रतिपादित सूत्र में कहा गया था कि विवेकवान् संयमी बाह्यद्रव्य, स्वजन बन्धु बान्धव तथा समारंभ आदि का त्याग करे इस सूत्र में आन्तरिक शत्रुमान आदिका त्याग कहेंगे। यही विषय द्वितीय उद्देश के अर्थाधिकार में भी सूचित किया है। इस सम्बन्ध से प्राप्त द्वितीय उद्देश का यह प्रथम सूत्र ઉદ્દેશાને પ્રારંભબીજા અધ્યયનને ઉપદેશપ્રધાન પહેલે ઉદ્દેશક પૂરે થયે હવે બીજા ઉદ્દેશકની શરૂઆત થાય છે. પહેલા ઉદ્દેશક સાથે આ બીજા ઉદ્દેશકને સંબંધ આ પ્રકાર છે પહેલા ઉદ્દેશકમાં અહંત ભગવાન તીર્થકર રાષભદેવ જિનેશ્વરે પિતાના સંસારી પુત્રોને જે ઉપદેશ આપ્યું હતું તેનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે. બીજા ઉદ્દેશકમાં પણ એજ પ્રકારને ઉપદેશ કરવામાં આવે છે. પ્રસ્તુત સૂત્રના પહેલા ઉદ્દેશકના છેલ્લા સૂત્રમાં એવું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું હતું કે વિવેક યુકત સંયમીએ બાહ્ય દ્રવ્ય, સ્વજન, સમારંભ આદિને ત્યાગક રે જોઈએ. આ ઉદ્દેશકમાં આન્તરિક શત્રુ રૂપ માન આદિને ત્યાગ કરવાનું કહેવામાં આવશે બીજા ઉદ્દેશ કના અર્થાધિકારમાં પણ આ વિષયનું જ સૂચન કરાયું છે. પૂર્વ ઉદ્દેશક સાથે આ પ્રકારને For Private And Personal Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ निजपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५३१ देशकस्येदमादिमं सूत्रम् --- ' तयसंवहाई' इत्यादि । मूलम् - २ १ ३ ४ ५ ७ ८ ११ तयसं व जहा से रयं इति संखा य मुणी ण मज्जइ । १० १ १४ १५ १२ १३. गोयन्नतरेण माहणे अहसेयरी अन्नेसी इंखिणी ॥ १ ॥ छाया त्वचमिव जहाति सः रज इति संख्याय मुनि ने माद्यति । गोत्रान्यतरेण मानेऽथाश्रेयस्कर्यन्येषा मीक्षणी ॥ १ ॥ अन्वयाथ (a) यथा सर्प : ( तसं ) त्वचम् (जहाइ) जहाति = परित्यजति एवम् (से) सः = साधुः (स्यं) रजः =अष्टविधकर्ममलम् परित्यजति (इति) इति ( संखाय ) है - " तयसं व जहाइ" इत्यादि । शब्दार्थ - ' - इव' जैसे सर्प ' तयसं त्वचम् ' अपनी त्वचाको 'जहा -- जहाति' त्यागकर देता है इसी प्रकार 'से - स:' वह साधु 'रयं -- रजः' आठ प्रकार के कर्म मल को छोड देता है ' इति - इति' इस प्रकार 'संखाय -- ज्ञात्वा' जान कर 'मुणी - मुनिः, मुनि 'माहणे - माहन : ' साधु 'गोयन्तरेण -- 'गोत्रान्तरेण' गोत्र तथा दूसरे मदके कारणोंसे 'ण मज्जइ -- न माद्यति' मद नहीं करते हैं 'अन्सी - अन्येषां दूसरे की 'इंखिणी - ईक्षिणी' निन्दा 'अस्सेय'करी - अश्रेयस्करी' कल्याण विनाशिनी है ॥ १ ॥ अन्वयार्थ जैसे सर्प त्वचा (केंचुली) को त्याग देता हैं, उसी प्रकार साधु आठ प्रकार के कर्म रूपी मैल को त्याग देता है । ऐसा जानकर माहन - अहिंसा संबंध धावता या उद्देशउनु प्रथम सूत्र या प्रमाणे छे “तयस व जहाई” छत्याहि शब्दार्थ - '-व-इव' नेवी रीते साप 'तयसं-त्वचम्' पोतानी यामडीने 'जहारजहाति' त्यगरी छे. आगरीते 'से-सः' ते साधु 'रयं रजः' मा प्रहारना अर्भ भजने छोडी छे. 'इति - इति' सारे 'संखाय - ज्ञात्वा' लगीने 'मुणी-मुनि' भुनि 'माहणे - माहनः ' साधु 'गोयन्तरेण - गोत्रान्यतरेण' गोत्र तथा मील अभिमानना अरगोथी 'ण मज्जान माद्यति' अलिमान उरतो नथी, अर्थात् प्रभाह उरतो नथी. 'अन्नेसी अन्येषां मीलनी ''इंखिणी - ईक्षिणी' निन्दा 'अस्लेयकरी अश्रेयस्करी' यामुनो नाश उरवावाजी थाय छे. ॥ १ ॥ सूत्रार्थ - જેવી રીતે સપ કાંચળીના ત્યાગ કરી નાખે છે. એજ પ્રમાણે સાધુ આઠ પ્રકારના ક રૂપી મેલના ત્યાગ કરી નાખે છે. એવુ જાણીને માણે ( માણેા, મા હણેા એવા For Private And Personal Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३३ सूत्रकृतसू संख्याय = ज्ञात्वा (मुणी) मुनि: (माहणे ) माहनः साधुः (गोयनतरेण) गोत्रांन्यतरेण = गोत्रम देनान्यमदेन च (ण मज्जइ) न माद्यति प्रमादं न करोतीत्यर्थः । ( अ ) अथानन्तरम् ( अन्नेसी) अन्येषाम् = पुरुषान्तराणाम् (इंखिणी ) = निन्दा ( अस्सेकरी) अश्रेयस्करी कल्याणनाशिनी भवतीति ॥ १ ॥ टीका , ' व' यथा सर्पः ' तयसं' त्वचम् 'जहार' जहाति = जीर्णत्वचं परित्यजतीत्यर्थः, तथा 'से' सः साधुः 'रयं' रजः = अनादिसंलग्नज्ञानावरणीयाद्यष्टप्रकारककर्ममलं जहाति, कषायरहितत्वेन परित्यजतीति कषायाभावो हि कर्माभावकारणम् ' इति संख्याय' - इति एवं रूपेण ज्ञात्वा ज्ञपरिया चातुर्गतिकसंसारपरिभ्रमण रूपमनन्तदुःखजनक कारणं ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया कषाये त्रिकरण त्रियोगेन परित्यजतीति, 'मुणी माहणे' मुनिर्ब्राह्मण : = मुनिः = का उपदेशक मुनि गोत्र के मद से अथवा अन्य किसी मदसे मदवाला नहीं होता अर्थात् अभिमान नहीं करता । तथा अन्य पुरुषों की निन्दा जो अश्रेयस्कर है, उसे भी नहीं करता || १ || टीकार्थ- जैसे सर्प जीर्ण त्वचा का परित्याग कर देता है । उसी प्रकार साधु अनादिकाल से लगे ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार के कर्ममल को त्याग देता है । कषायरहित होने के कारण ही वह कर्मों का त्याग करता है, अतएव कषाय का अभाव ही कर्मों के अभाव का कारण है । इस प्रकार जानकर अर्थात् चारगति वाले संसार में परिभ्रमण रूपअनन्त दुःख को उत्पन्न करने का कारण कषाय है, ऐसा ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से तीन करण तीन योग से त्याग देता है । सावध कर्मों में मौनधारी मुनि અહિંસાના ઉપદેશ આપનાર મુનિએ) કુળ, ગાત્ર આદિના મઢ કરવો જોઇએ નહીં. તેણે બીજાની નિન્દા પણ કરવી જોઇએ નહીં, કારણ કે અહીંકાર, નિંદા આદિ કરવાથી તેનુ पोतानुं ४ मश्रेय-अस्यालु थाय छे, ॥ १ ॥ • टीअर्थ - જેવી રીતે સાપ જીણું ત્વચાના ( કાંચળીના ) ત્યાગ કરી દે છે, એજ પ્રમાણે સાધુએ અનાદિ કાળથી જમા થયેલા જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારના કમળનો ત્યાગ કરવા જોઈએ. કષાયેાના ત્યાગ કરવાથી જ કર્મને ક્ષય થાય છે, એટલે કે કષાયના અભાવ જ કર્મોના અભાવમાં કારણભૂત બને છે. ચાર ગતિવાળા સોંસારમાં પરિભ્રમણ રૂપ અનંત દુઃખને ઉપન્ન કરવામાં કષાયેા જ કારણભૂત બને છે, એવું પરિજ્ઞા વડે જાણીને પ્રત્યા For Private And Personal Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सामवार्थ बोधिनी टीका प्र.शु. अ. २ उ. २ निजपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५३३ सावधकर्मसु मौनधारी, ब्राह्मण = माहनमाहनेति उपदेशशीलो, 'गोयन्नतरेण गोत्रान्यतरेण, तत्र गोत्रेण जात्यादिना तदन्येन-ज्ञानाधाधिकयतपश्चारित्रगुरु शुश्रूषावैराग्यबहुश्रुतत्वपूर्वधरत्वादिना कारणेन ‘ण मज्जइ' न माद्यति=मदं न करोति, तथा 'अन्नेसी' अन्येषाम् सामान्यतपःसंयमादिगुणवताम् 'इंखिणी' निन्दा, 'अहसेयकरी अश्रेयस्करी, कल्याणनाशाय भवतीति ज्ञात्वा न कस्यापि निन्दा करोति ॥१॥ ____संप्रति परकीयनिन्दादोषमधिकृत्य आह सूत्रकारः- 'जो परिभवई परं' इत्यादि। जो परिभवई परं जणं ससारे परिवत्तइ महं। अदु इखिणिया उ पाविया इति संखाय मुणि ण मन्जइ ॥२॥ छाया यः परिभवति परजनं संसारे परिवर्तते महत् । अथ ईक्षणिका तु पापिका इति संख्याय मुनि ने माघति ॥२ ॥ और 'मत हनो, मतहनो' ऐसे दया का उपदेश देनेवाला माहन कहलाता है। वह कुल का जाति का अथवा किसी अन्य ज्ञानाधिक्य तप चारित्र, गुरुसेवा, वैराग्य, बहुश्रुतता, पूर्वधारित्व आदिका मद नहीं करता है तथा दूसरों की-सामान्य तप या संयम वालों की निन्दा अश्रेयस्करी है-कल्याण का नाश करनेवाली है, ऐसा जानकर किसी की भी निन्दा नहीं करता है ॥१॥ अब सूत्रकार परनिन्दा दोषके संबंध में कहते हैं-"जो परिभवई परं" इत्यादि । ખ્યાન પરિજ્ઞા વડે ત્રણ કરણ અને ત્રણ વેગથી તેને ત્યાગ કરે જોઈએ. સાવધ કર્મોમાં भीनधारी मुनि मने" भा हो, मा हो।" वो हयानो अपहेश मापनारने 'भाइन કહે છે. તે કુળને, જાતિને તપન, ગુરુસેવાને, વૈરાગ્યને, બહુશ્રુતતા અને પૂર્વધારિત આદિને મદ કરતું નથી. તથા તે એ વાતને જાણતા હોય છે કે અન્યની (સામાન્ય લેકે અને તપ અને સંયમયુક્ત મનુષ્યની) નિંદા અશ્રેયસ્કારી (કલ્યાણને નાશ કરનારી) છે. તેથી તે કોઈની પણ નિંદા કરતો નથી. પ ગાથા ૧ છે सूडा२ पनि होपना विषयमा छ " जो परिभवई परं" त्याह For Private And Personal Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३४ सूचकतासमझे अन्वयार्थ __ (जो) यः कश्चित् पुरुषः (परं जणं) परं जन-परमन्य जनम् पुरुषम् (परिभवई) परिभवति= तिरस्करोति, स (संसारे) संसारे चातुर्गतिके संसारे (महं) महतू चिरकालं यावत् (परिवत्तइ) परिवर्तते संसारे परिभ्रमतीत्यर्थः, 'अदु अथवा अतः इत्यर्थः, (इंखिणिया उ) इक्षणिका तु= परनिन्दा, (पाविया) पापिका पापोत्पादिकेत्यर्थः, (इति) इति (संखाय) संखाय-ज्ञात्वा (मुणी) मुनिः (णों) न (मज्जइ) माद्यति-स्वगुणाहंकारं न करोतीति ॥ २॥ टीका 'जो' यः पुरुषः परंजणं परं जनम् अन्य पुरुषम् ‘परिभवई परिभवति अन्वयार्थ जो दूसरों का तिरस्कार करता है, वह संसार में चिरकाल तक परिभ्रमण करता है, अतएव परनिन्दा पापजनक है । ऐसा जानकर मुनि अपने गुणों का अहंकार नहीं करता ॥२॥ शब्दार्थ-'जो--यः' जो पुरुष 'परं जणं-पर जनं' दुसरेपुरुष को 'परिभवईपरिभवति' तिरस्कार करता है 'संसारे--संसारे' चतुर्गतिरूप संसार में 'महं.. महत्' चिर कालतक 'परिवत्तई-- परिवर्तते' भ्रमण करता है 'अदुअथवा' अगर 'इंखिणिया उ-इक्षणिका तु' परनिंदा 'पाविया- पापिका' पाप जनक होती है 'इति-- इति' इस प्रकार 'संखाय-संख्याय, जानकर 'मुणीमुनिः' मुनि ‘णो-न' 'मज्जइ-माधति' मद नहीं करता है अर्थात् अपने गुणों का अहंकार नहीं करता है ॥२॥ __-टीकार्थजो पुरुष अन्य जन की निन्दा करता है, वह संसार में दीर्घकाल पर्यन्त -सूत्राथ - જે અન્યને તિરસ્કાર કરે છે, તે આ સંસારમાં ચિરકાળ સુધી પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે. તેથી. પરેનિન્દા પાપજનક છે એવું સમજીને મુનિ પિતાના ગુણને અહંકાર કરતે नथी. ॥२॥ शहाथ-'जो-य' पु२५ ‘पर जण-परजन' भी पुरुषने 'परिभवई-परि भवति' ति२२४।२ ४२ छे. 'संसार-संसारे ते यार तिवा॥ संसारमा 'मह-महत्' cial समय सुधी भन्या ४२ छ. 'अदु-अथवा' मा 'इखिणिया उ-इक्षणिका तु' ५२नि। 'पापिया-पापिका' ५५ नाय छ, 'इति-इति' 21 प्रारे 'सखाय'-संख्याय areीने 'मुणी-मुनि' भुनि 'णो-', 'मज्जइ-माद्यति' मलिभान ४रत नथी. अर्थात् પિતાના ગુણને અહકાર કરતા નથી, પરા -टाथ - જે પુરુષ અન્યની નિન્દા કરે છે, તે સંસારમાં દીર્ઘકાળ પર્યત પરિભ્રમણ કરતે For Private And Personal Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सार्थ बोधिनी टीका प्र. अ. अ. २ उ. २ निजपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५३५ तिरस्करोति निन्दतीत्यर्थः, स संसारे संसारे 'महं महत् चिरकालपर्यन्तम् परिवत्त ' परिवर्तते परिभ्रमति, 'अदु' अथवा 'इंखिणिया निन्दा परनिन्दा | 'पाविया' पापिका पापोत्पादन कर्त्री ' इति संखाय' इति एवं संख्याय ज्ञात्वा 'मुणि' मुनिः, 'ण मज्ज‍ नः माद्यति मदं न करोति, सर्वथा मदरहितो भवति । यः अविवेकी पुरुषोऽन्यं तिरस्करोति स परतिरस्कारजनित कर्मप्रभावेण चातुर्गतिकसंसारं घटीयंत्रन्यायेन परिभ्रमति । अतः परनिन्दा पापोत्पादिका भवति । अथवा परनिन्दा निन्दाकारिण पुमांसं नीचस्थानेषु पातयति । तत्रेहलोके परनिंदा दोषजनिकेत्यत्र सूकरो दृष्टान्त: खरोवा । तदुक्तमन्यत्र -: 'परीवादात् खरो भवति श्वा वै भवति निन्दकः इति । परिभ्रमण करता रहता है । अथवा पराई निन्दा पाप उत्पन्न करने वाली है, ऐसा जानकर मुनि मद नहीं करता, मद (अहंकार) से सर्वथा रहित होता है । जो अविवेकी पुरुष अन्य का तिरस्कार करता है वह परतिरस्कार से उत्पन्न होने वाले कर्मके प्रभाव से चार गतिवाले संसार में अरहर की भाँति घूमता है । अतएव परनिंदा पापजनक है । अथवा परनिन्दा निन्दा करने वाले पुरुष को नीच स्थानों में गिराती हैं । इस लोक में निन्दा दोषों को उत्पन्न करने वाली है, इस विषय में शुकर या गधे का दृष्टान्त है । अन्यत्र कहा भी है - "परीवादात् खरो भवति" इत्यादि । 'दूसरे का तिरस्कार करने से मनुष्य गर्दभवनता है और निन्दा करने वाला कुत्ता के रूप में जन्म लेता है ।' રહે છે. પરની નિન્દા પાપજનક છે, એવું જાણીને મુનિ મદ કરતા નથી. તે મદથી (öહંકારથી ) સ`થા રહિત થઇ જાય છે. જે અવિવેકી પુરુષ અન્યના તિરસ્કાર કરે છે’ તે તિરસ્કારથી ઉત્પન થયેલાં કાઁના પ્રભાવથી ચાર ગતિવાળા સંસારમાં રહેટની જેમ પિરામણ્ કર્યા કરે છે. તેથી જ પરિનન્દાને પાપજનક માનીને વિવેકી પુરુષે તેને પરિ ત્યાગ કરવા જોઈએ. અથવા પરિન્દા કરનાર માણસે નરક નિગેાદ તિય ચ આદિ નીચ સ્થાનામાં ઉત્પન્ન થાય છે. આ લોકોમાં નિંદા દોષોને કરનારી છે. આ વિષયનું પ્રતિપાદન કરવા માટે સૂકર (સુઅર ) અથવા ગર્દભનું દૃષ્ટાન્ત આપવામાં આવે છે. કહ્યું પણ છે કે "परीवादात् खरो भवति" इत्यादि * કોઇને તિરસ્કાર કરવાથી મનુષ્ય ગભ રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે અને નિન્દા કરનાર માણસ કૂતરા રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે.“ For Private And Personal Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतायो परलोके पुरोहितकु क्कुरदृष्टान्तः । निन्दा पापकारणमिति ज्ञात्वा मैं विशिष्टकुलोत्पन्नः शास्त्रज्ञः तपस्वी, त्वन्तु मत्तो हीनः, इत्याद्यभिमानं न कुर्यात् , यद्यपि दयाप्रतिपादने घातकेा स्यात् ब्रह्मचर्यप्रतिपादने वेश्यादयः क्रुध्येयुः, अस्तेयप्रतिपादने चोराः कुप्येयुः, परिग्रहप्रतिपादने लोभिनः, कुप्येयु सत्यप्रतिपादने मिथ्याभाषिणः कुप्येयुः तथा एतेषां निन्दाकरणात् देवोऽपि निन्दादोषमवाप्स्यात् तस्मात् निन्दा वर्जनीया इति । चातुर्गतिकसंसारे घटीयंत्रव्यवस्थया । भ्राम्यन्तीति निन्दका यस्मात्तस्मात्तो परिवर्जयेत् ॥१॥ गा.२॥ परलोक में पुरोहित और कुत्ते का दृष्टान्त है। निन्दा पापजनक है, ऐसा जानकर इस प्रकार का अभिमान नहीं करना चाहिए कि-'मैं विशिष्ट कुल में उत्पन्न हुआ हूँ, मैं शास्त्र का ज्ञाता हूँ, मैं तपस्वी हूँ, तुम मुझसे हीन हो' इत्यादि प्रकार से अभिमान न करें । यद्यपि दया का प्रतिपादन करने पर घातक को ईर्षा होती है, ब्रह्मचर्य का प्रतिपादन करनेपर वेश्या आदि को क्रोध उत्पन्न होता है, अचौर्य का व्याख्यान करने से चोर कुपित होते हैं, परिग्रह के विषय में प्ररूपणा करने से लोभियों को क्रोध होता है, सत्य का प्रतिपादन करने पर मिथ्याभाषी कुपित होते हैं, तथा इनकी निन्दा करने से देव भी निन्दा के दोष को प्राप्त हुए हैं, इस कारण निन्दा नहीं करनी चाहिए। "चातुर्गतिकसंसारे" इत्यादि । __ 'निन्दा करनेवाले चार गतिरूप संसार में अरदट की तरह घूमते हैं, इस कारण निन्दा का त्याग करना चाहिए ॥२॥ નિન્દા કરનારના પરલોકના વિષયમાં પુરોહિત અને કૂતરાનું દષ્ટાન્ત છે. નિન્દા પાપજનક છે. એવું જાણીને આ પ્રકારનું અભિમાન કરવું જોઈએ નહીં કે હું વિશિષ્ટ કુળમાં ઉત્પન્ન થયે છું, હું શાસ્ત્રીને જ્ઞાતા છું હું તપસ્વી છું, તમે મારા કરતાં હીન છે” આ પ્રકારનું અભિમાન કરવું જોઈએ નહીં. જો કે દયાનું પ્રતિપાદન કરવાથી ઘાતક ને ઈજા થાય છે. બ્રહ્મચર્યનું પ્રતિપાદન કરવાથી વેશ્યાને કેધ ઉત્પન્ન થાય છે. ચેરીની વિરૂદ્ધ ઉપદેશ આપવાથી ચારને કે ઉત્પન્ન થાય છે. પરિગ્રહને ઉપદેશ આપવાથી લેથી જનેને કેધ ઉત્પન્ન થાય છે. અને સત્યનું પ્રતિપાદન કરવાથી મિથ્યા વાદીને કાધ થાય છે. પરંતુ આ ઉપદેશ આપે અને નિન્દા કરવી તેમાં ઘણું જ અંતર છે. અહીં તો નિન્દા અથવા તિરસ્કાર નિષેધ ફરમાવવામાં આવ્યા છે. કહ્યું પણ છે કે નિન્દા કરનારા દેવે પણ દોષને પાત્ર બને છે. આ કારણે કોઈની પણ નિન્દા કરવી જોઈએ નહીં. 'चातुर्गति कसं सारे' त्याह- निन्दा ४२ना। वो यार गति ३५ संसारमा रहेंटनी म धूमता रहे छ, २१॥ राणे निन्हाना त्या॥ ४२वो नये ॥२॥ For Private And Personal Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समथार्थ बोधिनी टीका प्र. श्र. अ. २ उ. २ निजपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५३७ मदकरणाभावे सति किं कर्तव्यं तदर्शयति सूत्रकारः-'जे यावी' इत्यादि जे यावि अणायगो सिया जेवि य पेसगपेसए सिया । ९ १० १२ ११ १३ जे मोणपयं उवहिए णोल्लज्जे समयं सयाचरे ॥३॥ छायायश्चाप्यनायकः स्यात् योऽपि च प्रेष्यप्रेष्यः स्यात् । यो मौनपदमुपस्थितो नो लज्जेत समतां सदाचरेत् ॥३॥ अन्वयार्थ:(जे यावि) यश्चापि (अणायगे) अनायकः नायकरहितस्वयंप्रभुश्चक्रवादिः अभिमान करने के अभाव में क्या करना चाहिए, सो सूत्रकार दिखलाते हैं "जे यावि इत्यादि । शब्दार्थ-'जे यावि-यश्चापि' जो कोई 'अणायगे-अनायकः' नायक रहित स्वयं प्रभु चक्रवर्ती आदि है 'य-च' तथा 'जेवि-योऽपि' जो 'पेसग पेसए सिया-प्रेषकप्रेषकः स्यात् । दास के भी दास है थे दोनों में 'जो-यः, जो कोई भी ‘मोणपयं-मौनपदं मौनपद अर्थात् संयममार्ग में 'उवहिएउपस्थितः उपस्थित हो ‘णो लज्जे-न लज्जेत, उन्हें लज्जा न करनी चाहिए किन्तु 'सया-सदा' सदा सर्व काल 'समयं चरे-समतां चरेत् , समभावसे व्यवहार करना चाहिए ॥३॥ जिस का कोई नायक नहीं है अर्थात् जो चक्रवर्ती आदि स्वयं प्रभु અભિમાનને પરિત્યાગ કરીને, શું કરવું જોઈએ તે હવે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે'जे यावि' त्या शा--'जे यापि-यश्चाधि 'अणायगे-अनायकः' नाय १२ स्वयं प्रयवती वगेरे छ. 'यच' तथा 'जेवि-योऽपि' 'पेसगपेलए-प्रेषकप्रेषक: हास ना पहास 'सिया स्यात्' डाय ते मानेमा 'मोणपय-मौनपद' भौनपह अर्थात् सयभभामा ‘उवहिप उपस्थितः' त भान डाय ‘णो लज्जेत-न लज्जेत' तेमाणे शभ न ४२वी ने. परंतु 'सया-सदा सदा 'समय चरे-समतां चरेत्' સમભાવથી વ્યવહાર કરે જોઈએ. રા . - सूत्रार्थ - જેમને કેઈ નાયક નથી એટલે કે ચક્રવર્તી આદિ જેલે પિતે જ સમર્થ છે, અને सू. ६८ अन्वयार्थ For Private And Personal Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५३८ सूत्रकृतस्ये (य) (च) (जेवि) योपि (पेसग पेसए) प्रेष्यप्रेष्यः (सिया) स्यात् तयोः (जो ) यः कोsपि (मोणपर्य) मौनपदं संयममार्गे, ( उवद्विए) उपस्थितः सोपि (गो) न= नैव ( लज्जे ) लज्जेत=लज्जां नैव कुर्यात् किन्तु (सया) सदा-सर्वस्मिन्नेव काले 'समयं चरे' समतां चरेत् = समभावे विचरेदिति ||३|| टीका Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'जे यावि' यश्चापि यः कश्चित, 'अणायगे' अनायकः, नायकरहितः स्वयं सर्वसमर्थचक्रवर्त्यादिः । 'जे वि य' यश्चापि 'पेसगपेसए सिया' प्रेप्यप्रेष्यो दासस्यापि दासो भवेत् । तयोर्मध्ये कोऽपि 'जे' यः 'मोणपर्यं, मौनपदं = संयममार्गम् ' उवट्टिए' उपस्थितः, संयममार्ग प्राप्तः, सन् 'णो लज्जे, नो लज्जेत, कथमपि न लज्जां कुर्यात् । किन्तु 'सया, सदा 'समय, समताम्, चरे=चरत् समभावेन विहरणं कुर्यात् । काऽन्येषां कथा, यदि नायकरहितः चक्रवर्त्ती भवेत्, अथवा दासस्य दासो भवेत् । एवं भूतोऽपि संयमं प्रति उपस्थितो भवेत्, सोऽप्यलज्जितउत्कर्षापकर्षयोर्विचारं हित्वा परस्परं वन्दनाऽनुवन्दनादिकं कुर्यात् । (समर्थ) है और जो दास का भी दास है वह संयममार्ग में उपस्थित होकर लज्जा न करे किन्तु सदैव समभाव में विचरण करे || ३ || टीकार्थ जो स्वयं समर्थ चक्रवर्ती आदि है अथवा जो दास का भी दास है, वह संयममार्ग में प्राप्त होकर किसी भी प्रकार लज्जा न करे किन्तु सदा समता धारण करे । औरों की तो बात ही क्या, यदि नायक रहित चक्रवर्त्ती हो, अथवा दास का भी दास हो ? ऐसा होकर भी जो संयम के गति उपस्थित है, वह लज्जित न होकर अर्थात् अपने उत्कर्ष (ऊँचा ) और अपकर्ष (नीचा) के विचार को त्याग कर परस्पर वन्दनादि करे । જેએ દાસના પણ દાસ છે, તેમણે સયમમાર્ગ માં ઉપસ્થિત થઇને કઈ પણ પ્રકારે લજ્જા ભાવ ધારણ કરવા જોઇએ નહીં, પરન્તુ સદૈવ સમભાવમાં (સમતા ભાવમાં) વિચરવુ જોઈ એ. - अर्थ - જેએ પેાતે સમ ચક્રવતી આદિ છે, અથવા જેએ દાસના પણ દાસ છે, એવાં પુરુષાએ સંયમના માર્ગે વિચરણ કરતાં કોઈ પણ પ્રકારે લજ્જા અનુભવવી જોઇએ નહીં, પરન્તુ સદા સમતા ભાવ ધારણ કરવા જોઈ એ. જો નાયક રહિત ચક્રવતી આદિને અથવા દાસના દાસને પણ આ પ્રકારના આદેશ છે, તેા અન્યની તે વાત જ શી કરવી. આ કથન દ્વારા એ વાતનુ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યુ છે કે સંયમને માગે વિચરતા સાધુએ પેાતાના સાંસારિક ઊંચા દરજ્જાને! વિચાર કર્યા વિના પરસ્પરને વંદ્રાદિ કરવા જોઈ એ, એમ કરતાં તેણે સંકોચ કે શરમ અનુભવવા જોઇએ નહીં. For Private And Personal Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छाया समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ निजपुत्रेभ्यः भगादादिनाथोपदेशः ५३९ यदि कदाचित् चक्रवर्ती अपि साधु भवेत् । अथ च तस्यैव दासाऽनुदासोऽपि साधुभवेत् तदाऽपि स्वहीनमपि साधु नमस्कुर्यात् नत्वेवं विचारयेत्, यदहंपूर्व चक्रवर्ती आसम्, कथं मत्तो न्यूनमिमं नमस्करिष्ये, एवं न लज्जेत॥३॥ .. कस्यां स्थितौ विद्यमानेन साधुना मदलज्जे न विधेये इति दर्शयितुं सूत्रआह-'सम अन्नयरं, इत्यादि । मूलम्समे अन्नयरंमि संजमे संसुद्धे समणे परिव्वए । जे आवकहा समाहिए दविए कालमकासी पंडिए॥४॥ समोऽन्यतरस्मिन् संयमे संशुद्धः श्रमणः परिव्रजेत् । यो यावत्कथा समाहितः द्रव्यः कालमकार्षीत् पण्डितः॥४॥ - यदि कदाचित् चक्रवर्ती भी साधु हो जाय और उस के दास का दास भी साधु हो जाय, तव भी अपने से हीन साधु को भी नमस्कार करे ! ऐसा विचार न करे कि में पहले चक्रवर्ती था तो अपने से हीन इस साधु को कैसे नमस्कार करूँगा । वह नमस्कार करने में लज्जा का अनुभव न करे ॥३॥ ... किस स्थिति में विद्यमान साधुको मद और लज्जा नहीं करना चाहिए, यह सूत्रकार दिखलाते है "समे अन्नयमि" इत्यादि। शब्दार्थ-'ससुद्धे-संशुद्धः' सम्यक् प्रकार से शुद्ध अर्थात् सकल अतिचार से रहित ‘समणे-श्रमणः' तपस्वी साधु 'जे आवकहा-यो यावत्कथा' जीवन पर्यन्त 'समाहिए-समाहितः शुभ अध्यवसाय रखता हुआ 'अन्नयरंमिअन्यतरस्मिन्' किसीभी संजमे-संयमे संयम स्थान में स्थित होकर अर्थात् सत्रह प्रकार के संयम स्थानोंमें से कोई एक भी संयमस्थानको विना छोडे 'समे-सम:' - જે કદાચ કોઈ ચક્રવત્તી સાધુ બની જાય અને તેને દાસાનુદાસ પણ સાધુ બની જાય, તે તેણે તે સાધુને વંદણનમસ્કાર કરતાં સંકોચ અનુભવે જોઈએ નહીં. તેણે એ વિચાર ન કરે જોઈએ કે હું પહેલાં ચક્રવત્તી હતી, તે મારાથી હીન એવાં આ સાધુને શા માટે નમસ્કાર કરું ! તેને વંદનમસ્કાર કરતાં તેણે શરમાવું જોઈએ નહીં. ગાથા રૂા કેવી સ્થિતિમાં રહેલા સાધુએ મદ અને લજજા નહીં કરવા જોઈએ, તે સૂત્રકાર मंताचे छ- 'सम अन्नयर” त्याह शहाथ-'सं सुद्धे सशुद्धः' सभ्य प्रथा शुद्ध अर्थात २४॥ मतियारथी हित 'समणे श्रमणः' तपस्वी साधु 'जे आवकहा-ये यावत्कथा' न पर्यन्त 'समाहिएसमाहितः' शुभ, मध्यवसाय रामतो 'अन्नयर मि-अन्यतरस्मिन्' ५५ 'संजमे-संयमे સંયમ સ્થાનમાં સ્થિર થઈને અર્થાત સત્તર પ્રકારના સંયમે પૈકી એક પણ સંયમસ્થાનને છોડયા For Private And Personal Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतानसरे अन्वयार्थ:(संसुद्धे) संशुद्धः सम्यकप्रकारेण शुद्धः(समणे) श्रमणः साधुः (जे आवकहा) यो यावत्कथासमाहितः (अन्नयरंमि) अन्यतरस्मिन् यस्मिन् कस्मिन् वा (संजमे) संयमे (समे) समः समभावेन (परिव्वए) परिव्रजेत् अवज्यां पालयेत (दविए) द्रव्यः भव्यः मोक्षगमनयोग्यः (पंडिए) पडिनः (समाहिए) समाहितः= शुभाध्यवसायवान् (काल) कालम् मरणम् (अकासी) अकार्षीत् मरणपर्यन्तं संयमानुष्ठानं कुर्यादिति भावः ॥४॥ टीका'ससुद्ध' सशुद्धः सम्यक् प्रकारेण शुद्धः सकलातिचाररहितः, 'समणे' श्रमणः तपस्वी साधुः अनशनादि द्वादशविधतपःपरायणः 'जे आवकहा' यो यावत्कथा जीवनपर्यन्तम् , अन्नयरंमि संजमे, अन्यतरस्मिन् संयमे सप्तदशविधसंयमस्थानासमभाव के साथ 'परिचए-परिव्रजेत्' प्रव्रज्या का पालन करे 'दविए-द्रव्यः' वह द्रव्य भूत अर्थात् भव्य 'पंडिए-पंडितः' पंडित-सत् असत् के विवेकशील पुरुष 'समाहिए-समाहितः' शुभ अध्यवसाय-रखता हुवा 'कालं-कालम्' मरण पर्यंत 'अकासी-अकार्षीत्' संयमका पालन करे ॥ ४ ॥ अन्वयार्थ सम्यक् प्रकार से शुद्ध साधु जीवनपर्यन्त संयम में स्थित रहकर समभाव से दीक्षा का पालन करे । मोक्षगमन के योग्य, पण्डित, शुभ अध्यवसाय वाला साधु मृत्यु पर्यन्त संयम का पालन करे ॥४॥ टीकार्थ सम्यक् प्रकार से शुद्ध अर्थात् सकल अतिचारों से रहित तपस्वी अनशन आदि बारह प्रकार के तप में परायण साधु जीवनपर्यन्त सतरह प्रकार के सम-समः' समभावना साथे 'रिव्वप-परिव्रजेतू' प्रत्यानु पासान४३ 'दविएद्रव्यात द्रव्यभूत अर्थात् भव्य पंडिए-पंडितः' ५डित सत्य, मसत्य पहायनेसमनना। विदेशी पुरुष 'समाहिए-समाहितः' शुभ २५६यसाय रामतो 'काल-कालम् भर सुधा 'अकासी-अकात्'ि संयमनु पालन रे ॥४॥ -सूत्राथસમ્યક્ પ્રકારે શુદ્ધ સાધુએ જીવનપર્યત સંયમમાં સ્થિત વિદ્યમાન) રહીને સમભાવ પૂર્વક દીક્ષાનું પાલન કરવું જોઈએ. મેક્ષગમનને ગ્ય, પંડિત, અને શુભ અધ્યવસાયવાળા સાધુએ મૃત્યુ પર્યત સંયમનું પાલન કરવું જોઈએ. ૪ . -साथસમ્યક્ પ્રકારે શુદ્ધ એટલે સઘળા અતિચારોથી રહિત. અનશન આદિ બાર પ્રકારના તપમાં પરાયણ તપસ્વી સાધુ જીવનપયત સત્તર પ્રકારના સંયમસ્થાનેમાના કેઈ પણ For Private And Personal Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समया बोधिनी टोका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ निजपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५४१ न्यतरस्मिन् किमप्येकं संयमस्थानमरित्यजनित्यर्थः, अथवा छेदोपस्थापनीयादि यथाख्यातचारित्रपर्यन्ते स्थितः सन् प्रवृद्धपरिणामेन 'समे' समः समभावेन सह. 'परिवए' परिव्रजेत् , अतएव 'दविए' द्रव्यस्वरूपः मुक्तिगमनयोग्यः 'पंडिए' पण्डितः सदसद्विवेकवान् 'समाहिए' समाहितः शुभाऽध्यवसायपरिवृतः । 'कालमकासी कालमकार्षीत् मरणपर्यन्तं सयमानुष्ठानं कुर्यादित्यर्थः । समभावनया युक्तः सामायिकसंयमस्थाने स्थितः। अथवा छेदोपस्थापनीयादौ विद्यमानः तपस्वी मुनिर्लज्जामदौ विहाय समाहितः संयमपालने तत्परो भवेत् । कियत्कालं तथा कुर्यादित्यत आह . 'जे आवकहा' यावत्पर्यन्तं देवदत्तेत्यादि नामकथा जगति भवेत् । यावज्जीवनं तावत् संयमाऽनुष्ठान विधेयम् , ज्ञानादिषु स्वात्मानं व्यवस्थापयन् , अथवा शुभाऽध्यवसाययुक्तः संयमपालनं कुर्यात् । अनेन प्रकारेण रागद्वेषरहितो मुक्तिसंयम स्थानोंमें से किसी भी संयमस्थान का परित्याग न करता हुआ अथवा छेदोपस्थापनीय से लेकर यथाख्यात पर्यन्त किसी चारित्र में स्थित होता हुआ, वर्धमान परिणामों से, स्वभाव के साथ विचरे । अतएव मुक्तिगमन के योग्य, सत् असत् के विवेक से युक्त तथा शुभ अध्यवसाय से परिपूर्ण मोक्षाभिलाषी साधु मरणपर्यन्त संयम का पालन करे । समभावना से युक्त होकर सामायिक संयम के स्थान में स्थित रहे। ___अथवा छेदोपस्थापनीय आदि संयमों में विद्यमान तपस्वी मुनि लज्जा और मद (अभिमान) को त्याग कर समाधियुक्त होकर संयम के पालनमें तत्पर हो। कितने काल तक ऐसा करे? इसका उत्तर देते हैं-जबतक नाम रहे अर्थात् जीवनपर्यन्त संयम का पालन करे। ज्ञानादि में अपनी आत्माको स्था: पित करे, अथवा शुभ अध्यवसाय से युक्त होकर संयम का पालन करे। इस સંયમસ્થાનને પરિત્યાગ કર્યા વિના, અથવા છેદોપસ્થાપનીયથી લઈને યથાખ્યાત પર્ય નના કેઈ ચારિત્રમાં સ્થિત રહીને, વર્ધમાન પરિણામે પૂર્વક સ્વભાવમાં (સમતા ભાવ પૂર્વક) વિચરે. તાત્પર્ય એ છે કે મુક્તિગમન મેગ્ય સત્ અસત્ વિવેકથી યુક્ત, તથા શુભ અવ્યવસાયથી સંપન્ન મેક્ષાભિલાષી સાધુએ મરણ પર્યન્ત સંયમનું પાલન કરવું જોઈએ. તેણે સમભાવથી યુક્ત થઈને સામાયિક સંયમના સ્થાનમાં સ્થિત રહેવું જોઈએ. અથવા છેદો પસ્થાપનીય આદિ સંયમમાં વિદ્યમાન તપસ્વી મુનિએ લા અને મદને ત્યાગ કરીને સમાધિયુક્ત ભાવે સંયમની આરાધના કરવાને તત્પર રહેવું જોઈએ. કેટલા કાળ સુધી તેણે આ પ્રમાણે કરવું જોઈએ! તેને ઉત્તર એ છે કે જ્યાં સુધી નામ રહે ત્યાં સુધી (જીવનપર્યત) તેણે સંયમનું પાલન કરવું જોઈએ. અથવા શુભ For Private And Personal Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४२ सूत्रकृताङ्गसो गमनयोग्यो वा विवेकयुक्तः आमरणं संयमानुष्ठानं कुर्यात् तदुक्तम्-'आसुप्ते : रामृतेः कालं नयेत्संयमचिन्तया, चतुविशदतिशयसंपन्नपंचत्रिंशद्वाणीगुणगणसमलंकृततीर्थकरादिभिः सर्वदेव कोमलाक्षरेण विनेयाः उपदिष्टाः यत् असंयतो नैव विहरेदिति तदेव ज्ञातव्यम् तदुक्तमन्यत्रापि... "किं वस्तु विज्ञेयतया प्रदिष्टं यदाश्रितः संयममेव तिष्ठेत् । त्रिकाली विनयेन वारितः पदात्पदं नैव चलेदसंयतः ॥२॥ गा ४॥ प्रकार रागद्वेष से रहित, मुक्तिगमन के योग्य मुनि विवेक से युक्त होकर मृत्यु. पर्यन्त संयम का पालन करे। कहा भी है "आसुप्तेरामृतेः कालम्" इत्यादि । 'जब तक मृत्यु न आ जाय तबतक संयम के चिन्तन (आराधन) में ही काल व्यतीत करे ।' चौतीस अतिशयों से सम्पन्न और वाणीके पैंतीस गुणों से सुशोभित तीर्थकर भगवान् आदिने सर्वदा ही कोमल वचनों द्वारा शिष्यों को उपदेश दिया है कि संयमरहित होकर नहीं विचरना चाहिए, यही जानना चाहिए । अन्यत्र भी कहा है-'किं वस्तु विज्ञेयतया प्रदिष्टं-इत्यादि । . 'ऐसी कौनसी वस्तु जानने योग्य कही है, जिसका आश्रय लेने से साधु संयम में ही स्थिर रहे ? त्रिकालदर्शी प्रभुने विनय से निवारण किया हैं अर्थात् कोमल वचन से कहा है कि असंयमी होकर एक पग भी नहीं चलना चाहिए। अर्थात् प्रतिक्षण संयम में ही स्थिर रह कर विचरना चाहिए ॥ અધ્યવસાયથી યુક્ત થઈને સંયમનું પાલન કરવું જોઈએ. આ પ્રકારે રાગદ્વેષથી રહિત, મુક્તિગમનને વેગ્ય મુનિએ સત્ અસતને વિવેકથી યુક્ત થઈને મૃત્યુપર્યન્ત સંયમનું पासन ४२ न. ४ह्यु ५६ छ - 'आसुप्तेरामृतेः कालम् त्या- 'orयां सुधी મૃત્યુ ન આવે ત્યાં સુધી મુનિએ સંયમના ચિન્તન (આરાધન)માં જ કાળ વ્યતીત કરે જોઈએ ત્રીસ અતિશયેથી સંપન્ન અને વાણીના પાંત્રીસ ગુણોથી સુશોભિત એવાં તીર્થકર ભગવાને સર્વદા કોમળ વચને દ્વારા શિષ્યને એ ઉપદેશ આપે છે કે સંયમથી રહિત થઈને વિચારવું જોઈએ નહી અન્યત્ર પણ એવું કહ્યું છે કે 'कि वस्तु विज्ञयतया प्रदिष्ट' त्याह એવી કઈ વસ્તુ જાણવા યોગ્ય કહી છે કે જેને આશ્રય લઈને સાધુ સંયમમાં સ્થિર રહે! આ પ્રશ્નને ત્રિકાળદેશી પ્રભુએ પિતાની કેમલ વાણી દ્વારા આ પ્રમાણે ઉત્તર આપે છે. - “અસંયમી થઈને ડગલું પણ ચાલવું જોઈએ નહી” એટલે કે સદા સંયમમાં જ સ્થિર રહીને વિચારવું જોઈએ છે ! For Private And Personal Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५४३ कं वस्तुविशेषमालंन्य साधुना संयमानुष्ठान विधेयमित्यतआह –'दूरं' इत्यादि । १२ दूरं अणुपस्सियया मुणी तीतं धम्ममणोगयं तहा। ૧૦ ૯ ૨ ૧૧ पुढे परुसेहिं माहणे अवि हष्णू समयंमि रीयइ ॥ ५॥ छाया दरमनुदृश्य मुनिरतीतं धर्ममनागतं तथा। स्पृष्टः पुरुषैर्माहनः अपि हन्यमानः समये रीयते ॥५॥ किस वस्तुविशेष का अवलम्बन करके साधु को संयम का अनुष्ठान करना चाहिए, सो कहते हैं-"दुरं" इत्यादि १. शब्दार्थ-'मुणी-मुनिः" तीनों कालको जानने वाला मुनि 'माहणे-माहनः' कोई भी जीवको मत मारो मत मारो ऐसा उपदेशक 'दरम्-दूरम्' दूर होने से मोक्षको 'तहा-तथा' तथा 'तीतं-अतीतम् वीता हुवा तथा 'अणागयंअनागतम्' अनागत अर्थात् भविष्य काल में भी 'धम्म-धर्मम्' जीवों के स्वभाव को 'अणुपस्सिया-अनुपश्य' देख कर पुरुसेहि-पुरुषैः' कठिन वाक्य अथवा लकडी आदिसे 'पुढे-स्पृष्टः' ताडित किया जाने पर भी 'अविहण्णू-- अपि हन्यमानः' हनन किये जाने पर भी 'समयंमि-समये' संयम में ही 'रीयइ-रीयते' जिनोक्त मार्गसे ही चलें ॥५॥ ............. ... .......... ................ ..- હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે કઈ વસ્તુ વિશેષનું અવલંબન લઈને સાધુએ સંયમની આરાધના કરવી જોઈએ. “દૂર ઇત્યાદિ शहाथ 'मुणी-मुनिः' ये अपने वादा मुनि 'माहणे-माहनः' ५५ पने ना मा। ना मा यो उपहेश, दूर-दूरम्' र खोपायी भाक्षने 'तहा-तथा' तथा 'तीत-अतीतम्' वाती गये तथा 'अणागय-अनागतम्' मनात अर्थात् भविष्य मा ५९] 'धम्म-धर्मम्' योना स्वमापने 'अणुपस्सिया-अनुपश्यन ने 'पुरुसेहिपुरुषैः ४४९ वाध्य अथवा नाडी वगेरेथा पुट्ठो-स्पृष्टः' allsत ४२ डावा छतां ५ 'अविहणू-अपिहन्यमानः' हुनन ४२वामा म त ५५ 'समय मि-समये सयम मा ४ 'रीय-रीयते नात भागथी यारी ॥५॥ For Private And Personal Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५४४ www.kobatirth.org - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्वयार्थ: ( मुणि) मुनि: कालत्रयवेत्ता माहणे माहनः (दूरं) दूरं दूरवर्तित्वात् इमं मोक्षम् अथवा दूरं दीर्घकालम् (तहा) तथा (तीतं) अतीतम् अणागयं अनागतम् (धम्मं ) धर्मम् स्वभावं जीवानामुच्चावचस्थानं - गतिलक्षणम् (अणुपस्सिया) अनुदृश्य-पर्यालोच्य, (परुसेहिं) परुषैर्दण्डादिभिः वाग्भिर्वा (पुट्ठे ) स्पृष्टः ताडितोऽपि (अवि हणू) अपिहन्यमानः मार्यमाणोपि (समयंमि) सयमे = इत्यर्थः, (यह ) रीयते जिनोक्तमार्गेणैव गच्छतीत्यर्थः ॥ ५ ॥ सूत्रकृताङ्गसूत्रे - टीका 'मुणी' मुनिः = जिनाज्ञापालकः 'माहणे' माहनः कमपि जीवं माहन माहनेत्युपदेशकः, 'दूर' दूरम् अभूतकर्मनिर्जराणां दरमिव दरं मोक्षम् 'तहा' तथा 'तीतं अतीतम् = भूतकाले कर्मवशत एव परिभ्रमणं कृतम्, अथ च ' अणागयं ' -अन्वयार्थ माहन मुनि दूर अर्थात् मोक्ष या दीर्घकाल को तथा अतीत और अनागत धर्मको जीवों के ऊच नीच स्थानों में जाने रूप स्वभाव को जान कर, कठोर दंड आदि या वचनों से ताडित होकर भी या मारा जानेपर भी संयम में ही विचरता है ||५|| टीकार्थ- जिन भगवान् की आज्ञाका पालन करने वाला तथा किसी भी जीवको मत मारो ऐसा जीवदया का उपदेश देने वाला साधु, जिनके कर्मों की निर्जरा नहीं हुई है उनके लिये दूर अर्थात् मोक्ष को जानकर तथा अतीतकाल में कर्म के अधीन होकर ही संसार परिभ्रमण किया है और भविष्य - सूत्रार्थ - માહણ (મુનિ) દૂર એટલે કે મેાક્ષને અથવા દી કાળને તથા અતીત અને અનાગત ધર્મને-જીવના ઊંચ અને નીચ સ્થાનામાં ગમન કરવા રૂપ સ્વભાવને જાણીને, ભય'કર દંડથી અથવા કઠોર વચનપ્રહારેથી અથવા મારના કે માતા ભય અતાવવાથી પણ સંય મના માર્ગે થી વિચલિત થતા નથી. પા For Private And Personal Use Only - टीअर्थ જિનેશ્વર ભગવાનની આજ્ઞાનું પાલન કરનારા તથા ” કોઇ પણ જીવની હિંસા ન ४श,” ” એવા દયાનો ઉપદેશ આપનારા સાધુ ગમે તેવી વિષમ પરિસ્થિતિમાં પણ સંયમનુ પાલન કર્યાં જ કરે છે. તેનુ કારણ એ છે કે તે આ વાતને બરાબર સમજતા હોય છે કે જેમના કર્મોની નિર્જરા થઈ નથી. તેમને માટે મોક્ષ દૂર છે, આ જીવે પૂર્વપાર્જિત ફને કારણે ભૂતકાળમાં સંસારપરિભ્રમણ કર્યુ છે, અને ભવિષ્યકાળમાં પણ કર્માંત C+ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. अ. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः १५४५ अनागतम् भविष्यत्कालेऽपि कर्मवशत एव भ्रमिष्यति, 'धम्मं धर्मम् जीवस्वभावम् कर्मवशतश्चतुर्गतिभ्रमणलक्षणम् उपलक्षणात् वर्तमानकालेपि शारीरमानसं दुःखमनुभवति, 'अणुपस्सिया अनुपश्य, 'परुसेहिं परुषैः = कठिनवाक्यै - दण्डप्रहारादिभिर्वा 'पुढे' स्पृष्टः तथा 'अविष्णू' अविहन्यमानोऽपि स्कन्दक शिष्यवत्, 'समयमि' समये संयममार्गे एव 'समयः शपथाचारः कालसिद्धान्तसंविदा इति कोशात् समयपदं सिद्धान्तोक्ताचारपरकम् तेन पंचाचारपालनलक्षणसंयमे इत्यर्थः । 'रीयते' विचरतीति । मोक्षं दीर्घकालं वा अनुपश्य, त्रिकालदर्शी मुनिः लज्जामदौ न कुर्यात्। तथा पुरुषवाक्यदण्डादिभिस्ताडितोऽपि प्रहर्तुः शिष्य इव विनयमवलव्य शास्त्रोक्तसंयममार्गे एव विचरेत् चोरघोरतरघोरतमपरिकालमें भी कर्म के कारण ही भ्रमण करना पडेगा, ऐसा जानकर तथा धर्म अर्थात् कर्मवश से चार गतियों में भ्रमण करने रूप जीव के स्वभाव को जानकर उपलक्षण से वर्तमान काल में भी जो शारीरिक और मानसिक दुःख का अनुभव करता है उसे जाने | ऐसा साधु कठोर दंड प्रहार आदि से स्पृष्ट होकर भी स्कन्दकमुनि के शिष्यों के समान संयम में ही स्थिर रहे । यहाँ 'समय' पद सिद्धान्त में प्रतिपादित 'आचार' अर्थ का वाचक है, अव उसका अर्थ पांच आचारों का पालनरूप संयम समझना चाहिए। कोशमें कहा है- 'संयमशब्द त्याग आचार काल सिद्धान्त 'और ज्ञान का वाचक है।' मोक्ष या दीर्घकाल को जान कर मुनि लज्जा और मद (अहंकार) न करे तथा कठोर वाक्यों द्वारा या डंडे आदि के द्वारा ताडना पाकर भी प्रहार करनेवाले पर शिष्य के समान विनय का કારણે સંસારમાં ભ્રમણ કરવું પડશે. વળી તેણે એ વાત પણ સમજવી જોઇએ કે કને વશવતી થઇને ચારે ગતિઓમાં ભ્રમણ કરવાના જીવને સ્વભાવ છે. વળી જીવ વમાન કાળમાં પણ જે શારીરિક અને માનસિક દુઃખાનો અનુભવ કરે છે, તેના કારણેાના પણ તેણે વિચાર કરવા જોઇએ. આ વાતને સમજનાર સાધુ ગમે તેવી પરિસ્થિતિમાં પણ સચમને માર્ગે થી વિચલિત નહીં થાય. ભલે તેને કઠોર શબ્દ પ્રહાર સાંભળવા પડે, ભલે માર ખાવો પડે પણ સ્કન્દક મુનિના શિષ્યેાની જેમ તે પ્રાણાન્તે પણ સંયમમાં સ્થિર જ રહેશે. અહીં ”સમય“ પદ સિદ્ધાન્તમાં પ્રતિપાદિત આચાર' ના અંનુ વાચક છે, તેથી તેના અથ ”પાંચ આચારોના પાલનરૂપ સંયમ“ સમજવા જોઇએ. શબ્દકોશમાં धुं छे - "संयम शब्द त्याग, आयार, आणं, सिद्धान्त भने ज्ञाननो वाया छे" માક્ષ અથવા દી કાળને જાણીને મુનિ લજ્જા અને મદ (અહંકાર) ન કરે, તથા કઠોર વાણી દ્વારા અથવા ઠંડા આદિ દ્વારા પ્રહાર થવા છતાં પણ પ્રહાર કરનાર પર શિષ્યના For Private And Personal Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे पहोपसर्गे संयममार्गात् कदापि न प्रचलेत् इति भावः । जीवः स्वकर्मवशतः चातुर्गतिकसंसारे भ्रमणं कृतवान् करोति करिष्यतीतिविचार्य 'षडंजाणाइ पंडिया' इत्यनुशासनात् मनुष्यजन्म आर्यक्षेत्रमुकुलोत्पत्तिचिन्तामणिवत् दुष्प्रापसर्वज्ञशासनप्राप्ति सुगुरुसुधर्म च प्राप्य जिनोक्तसिद्धान्तानुसारिधर्मावलंबनेन यदि-कर्मनिर्जरा न कृता तदा व्यर्थ एव सर्व इति विभाव्य संयमानुष्टानमेव कर्तव्यमिति ।।सू० ५॥ पुनः सूत्रकारः उपदिशति-'पण्णा समत्ते' इत्यादि । मूलम्पण्णासमत्ते सया जये समता धम्ममुदाहरे मुणी। सुहुमे उ सया अलूसए णो कुझे णो माणी माहणे ॥६॥ छायाप्रज्ञासमाप्तः सदा जयेत् समता धर्ममुदाहरेन्मुनिः । सूक्ष्मे तु सदा उलूषको नो क्रुध्येन्नो मानी माहनः ॥६॥ अवलम्बन करके शास्त्रोक्त संयममार्ग में ही विचरण करें । अभिप्राय यह है कि घोर, घोरतर और घोरतम परीपह और उपसर्ग आने पर भी संयममार्ग से कदापि विचलित न हो । कर्म के कारण ही जीवने इस चातुर्गतिक संसार में भ्रमण किया है, कर रहा है और करेगा, ऐसा विचार कर, विवेकी पुरुष छह बातों को जानता है, इस शिक्षा के अनुसार मनुष्यजन्म, आर्यक्षेत्र सुकुल में उत्पत्ति, चिन्तामणि के समान दुर्लभ सर्वज्ञ प्ररूपित शासन, सुगुरु और सुधर्म को प्राप्त करके जिनेन्द्र प्रतिपादित सिद्धान्तो का अनुसरण करने वाले धर्म का अवलम्बन करके यदि कमेनिजरा न की तो सब वृथा है । ऐसा विचार करके संयम का ही पालन करना चाहिए ॥५॥ સમાન વિનયનું આચરણ કરીને શાસ્ત્રોકત સંયમમાર્ગ માં વિચરણ કરે. તાત્પર્ય એ છે કે ઘેર ઘેરતર, અને ઘેરતમ પરીષહ અને ઉપસર્ગો આવી પડે તે પણ સાધુએ સંયમના માર્ગમાંથી વિચલિત થવું જોઈએ નહીં. 'કર્મને કારણે જ છે આ ચાર ગતિ વળા સંસારમાં ભ્રમણ કર્યું છે, કરે છે અને કરશે, એ વિચાર કરીને વિવેકી પુણ્ય છ पाताने त छ. ते ७ वातो नीचे प्रमाणे छे. (१) मनुष्य कम, (२) मायक्षेत्र, (3) सुगमा उत्पत्ति, (४) चिन्तामणि २ल्न समान हुन सर्वज्ञ प्र३पित शासन, (૫) સુગુરુ અને (૬) સુધર્મ. તેણે એ વિચાર કરે જોઈએ કે આટલી આટલી અનુકૂળતાએ મને મળી છે, તે જિનેન્દ્ર પ્રતિપાદિત સિદ્ધાંતનું અનુસરણ કરનારા ધર્મને આધાર લઈને જે કર્મની નિર્જ કરવાની પ્રવૃત્તિ નહીં કરું તે આ બધી અનુકૂળતાએ વ્યર્થ જશે. આ પ્રકારનો વિચાર કરનાર મુનિ ગમે તેવી વિષમ પરિસ્થિતિમાં પણ સંયમમાં સ્થિર રહી શકે છે. એ ગાથા છે પણ For Private And Personal Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु अ. २. उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५४७ अन्वयार्थः(पण्णासमत्ते) प्रज्ञासमाप्तः पटुप्रज्ञ इत्यर्थः, मुणी मुनिः साधुः (सया) सदा (जये) जयेत् कपायान् तथा (समयाधम्म) समताधर्मम् समतया अहिंसालक्षणं धर्मम् (उदाहरे)=उदाहरेत् (सुहुमे उ) सूक्ष्मे तु संयमविषये (सया) सदा (अलूसए) उलूपकोऽविराधको भूत्वा तिष्ठेत् (णो कुज्झ) नो नैव क्रुध्येत् तथा (णो) नैव (माहणे) माहनः साधुः (माणी) मानी-मानवान्भवेद्वा इति ॥ ६॥ टीका 'पण्णासमत्ते' प्रज्ञा समाप्तः पूर्णतया ज्ञानवान् पटुप्रज्ञइत्यर्थः 'मुणी' मुनिः साधुः प्रवचनमंता अथवा जीवादितत्वावगता मुनिः 'सया' सदा 'जये' जयेत् सूत्रकार फिर उपदेश करते हैं-"पण्णासमत्ते" शब्दार्थ-'पण्णासमत्ते-प्रज्ञासमाप्तः' पूर्णबुद्धिमान् ‘मुणी-मुनिः' साधु 'सया-सदा सर्वदा 'जये--जयेत्' कषायों को जीते 'समयाधम्म--समता धर्मम्' समतारूप धर्म को अर्थात् अहिंसा लक्षण धर्म को 'उदाहरे--उदाहरेत्' उपदेश करे 'मुहुमे उ-सूक्ष्मे तु संयमके विषय में 'सया--सदा' हमेशां 'अलूसएअलूषकः' अविराधक होकर रहे ‘णो कुज्ञ-नो क्रुध्येत्' तथा क्रोध न करे 'णो माहणे मानी--नो माहनः मानी' एवं साधु मान की अभिलाषा न करें॥६॥ -अन्वयार्थकुशल प्रज्ञावाला महान् मुनि सदैव कषायों का जीतता रहे समभाव से अहिंसाधर्म का उपदेश करे, संयम की विराधना न करें, क्रोध न करे और मान न करे ॥६॥ -टीकार्थपूर्णतया ज्ञानवान् तथा जीवादि तत्वो का ज्ञाता मुनि सदा कषायोंको सूत्रा२ वी उपहेश मा छ - "पण्णासमरो” त्या - शहाथ-'पण्णासमत्ते-प्रज्ञासमाप्तः' पू मुद्धिी 'मुणी मुनिः साधु 'सयासदा सर्वहा 'जये-जयेत्' पायो नेते 'समयाधम्म-समताधर्म म्' समता३५ धर्मने अर्थात् मडिंसा सक्ष धर्मनि। 'उदाहरे-उदाहरेत् उपदेश ४२ 'सुहुमे उ-सुक्ष्मे तु सयभना विषयमा ‘सया-सदा' । 'अलूसए-अलूषकः' विरा५४ थने २ छे. 'णो कुज्झे-नो क्रुध्येत्' तथा आधु ना ४२ 'णो माहणे मानी' - नो माहनः मानी। अवम् સાધુ માનને અભિલાષી ન બને દા કુશલ પ્રજ્ઞાવાળે માહન (મા હણો, મહિણેને ઉપદેશ આપનાર), મુનિ સદી કલાને છતત રહે, સમભાવથી અહિંસા ધર્મને ઉપદેશ કરે, કે ન કરે અને માન ન કરે. દા -टीપૂર્ણતયા જ્ઞાની તથા જીવાદિ તના જ્ઞાતા એવા મુનિએ સદા કષાયોને જીતવા __ -सूत्राथ For Private And Personal Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४८ कषायं जयेत् उक्तंच भगवता “कोहो यमाणो य अणिग्गहीया माया य लोभो य पवड्ढमाणा । चारि एए कसणा कसाया सिचंति मूलाई पुणध्भवस्स इति इत्या धनुशासनेन कषायाणां भवबीजतामाकलय्य तान् परिहरेदित्यर्थः । तथा 'समयधम्मं समताधर्मम् अहिंसालक्षणम् ' उदाहरे' उदाहरेत् = अहिंसालक्षणधर्मस्यैवोपदेशं कुर्यात्, (मुहुमे उ ) सूक्ष्मेतु संयमविषये अगुरु अधीर पुरुपैरनुष्टातुमशक्यत्वमेव संयमस्य सूक्ष्मत्वम् | 'सया' सदा 'अलूसये' अलूषकः अविराधकः सन् तथा 'णो कुज्झे' 'नो कुध्येत्' 'णो माणी माहणों' नो मानवान्भवेन्मुनिरिति । कर्मनिर्जस कामी मेघावी साधुः कषायं सदा जयेत् । तथा अहिंसादिधर्म सदोपदिशेत् जीते । भगवान ने कहा है- " कोहो य माणो य अणिग्गहिया" इत्यादि । क्रोध और मान पर यदि अंकुश न रक्खा जाय और माया त्याग लोभ बढते जाएँ तो यह चारों कषाय पुनर्भव के मूल को सींचते हैं, अर्थात् वारंवार जन्ममरण के कारण होते हैं ।' सूत्रकृताङ्गसूत्रे इस आगम के अनुसार कषायों को संसार का बीज (कारण) समझ कर त्यागना चाहिए | तथा समताधर्म अर्थात् अहिंसा का उपदेश करें । यहां सूक्ष्म का अर्थ संयम हैं, क्योंकि जो पुरुष धैर्यवान नहीं हैं, वह संयम का पालन नहीं कर सकता । अतः तात्पर्य यह हुआ कि मुनिसंयम का विराधक न बन कर क्रोध न करें, न मान करे, माया न करे, लोभ न करे । भावार्थ यह है कि कर्मनिर्जरा का अभिलाषी, मेधावी साधु सदैव कपाय को जीते, समभाव से अहिंसा धर्म का उपदेश दे तथा कदापि संयम की विराधना न For Private And Personal Use Only हमे लगवाने उधुं छेडे- "काही य माणो य अणिग्गहिया" इत्याहि- "ले अध અને માન પર અંકુશ રાખવામાં ન આવે અને માયા તથા લાભ વધતાં જાય, તે આ ચારે કષાયા પુનવના મૂળને સિંચનારા થઈ પડે છે, એટલે કે વારવાર જન્મ મરણના કારણભૂત થઈ પડે છે આ આગમ અનુસાર કષાયાને સંસારના બીજ (કારણ) રૂપ સમજીને તેમને ત્યાગ કરવો જોઇએ. સાધુએ સમતા ધર્મોના એટલે કે અહિંસા ધર્મ ને ઉપદેશ આપવા જોઇએ. અહીં ”સુક્ષ્મ“ ના અર્થ ‘સ’યમ' છે, કારણ કે જે પુરુષ હૈ વાન્ હાતા નથી, તે સયમનુ પાલન કરી શકતા નથી. આ ક્થનના ભાવાર્થ એ છે કે મુનિએ સંયમના વિરાધક બનવું જોઇએ નહીં, તેણે ક્રાય કરવા જોઇએ નહી માન કરવુ જોઇએ નહીં. માયા કરવી જોઇએ નહી અને લાભ કરવા જાઇએ નહી. એટલે કે કર્મીની નિરા કરવાની અભિલાષાવાળા મેધાવી સાધુએ સદા કષાયાને જીતવા જોઇએ, સમભાવથી અહિં સાધના ઉપદેશ દેવા જોઇએ. તથા કદી પણ સંયમની વિરાધના Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्र अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५४९ समभावतः । तथा संयमानुष्ठानं कदापि न विराधयेत् । ताडितोऽपि क्रोधं न कुर्यात् तथा लोकैःपूजितोऽपि अभिमानगर्वादिकं नोद्वहेदिति भावार्थः ॥६॥ बहुजणणमणमि इत्यादि। बहुजणणमणमि संवुडो सबर्हि गरे अणिस्सिए । हदइव सयानाविले धम्मं पादुरकासी कासवं ॥ ७ ॥ छाया बहुजननम ने संवृतः सर्वाथेषु नरोऽनिश्रितः । हूद इव सदाऽनाविलो धर्म प्रादुरकापीत्काश्यपम् ॥ ७ ॥ (बहुजणनमणमि) वहजननमने बहुभिर्जनैनमस्यमाने धर्मे (संबुडो) संवृतः करें। ताडना पाकर भी क्रोध न करे और लोगों द्वारा पूजित होकर भी अभिमान गर्व आदि न करें ॥६॥ "बहुजणणमणमि" इत्यादि । शब्दार्थ-बहुजणणमणमि--बहुजननमने' अधिक जनों से नमस्कार कर ने योग्य धर्म में 'संवुडो--सवृतः' सावधव्यापाररहित ‘णरे-नरः' मुनि 'सव्व हि--सर्वार्थपु' सभी पदार्थों में ममता को हठाकर 'हद इव-हृद इच' तालाव के जैसा होकर 'कासवं--काश्यपम्' काश्यपगोत्री भगवान महावीर स्वामी के 'धम्म--धर्मम् अहिंसाधर्मको ‘पादुरकासी--प्रादुरकार्पोत्' प्रगट करे ॥७॥ -अन्वयार्थबहुजनों द्वारा नमस्करणीय धर्म में सावधव्यापार से रहित पुत्र કરવી જોઈએ નહીં કદાચ કોઈ કર શબ્દો કહે કે માર મારે, કે તિરસ્કાર કરે તે પણ તેણે કાધ કરે જાઈએ નહીં, અને પિતાની પૂજા, સત્કાર આદિ થાય, તે અભિમાન કરવું જોઈએ નહીં દો "बहुजणणमण मि” प्रत्याहि - __शहा---'बहुजणणमण मि-बहुजननमने मEि: भासाथी नभः॥२ ४२वा योग्य यममा वुडो-संवृतः' सावध व्यापार सहित ‘णरे-नमः' मुनि सबठेहि सर्वाथेषु' wधा पहार्योभा भभताने टावीने 'हर इय-हूदइव' तसावनी म 'सया-सदा सहा 'अणाविले-अनाविलो निम ॐने 'कासवं-काश्यपम्' आयपत्री मगवान महावीर २वाभाना 'धम्म-धर्म म्' 'सा घमने 'पादुरकासी- प्रादुरका(न्' प्रगट ४२ ॥७॥ -सूत्राथજનસમૂહ દ્વારા નમસ્કરણીય, ધર્મમાં સાવધ વ્યાપારથી રહિત, પુત્ર, પત્ની ધન, For Private And Personal Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्र सावधमार्गरहितः गरे' नरःमनुष्यः (सव्वदेहि)सर्वार्थेषु पुत्र कलत्रधनधान्यादिषु (अणि स्सिए) अनिश्रितसर्ववस्तुविषयकममतारहितः, (हद इव) हृद : इव (सया) सदा (अणापिले) अनाविलः निर्मलः (कासवं) काश्यपम् कश्यपगोत्रोत्पन्नमहावीरम् (धम्म) धर्मम् महावीरस्वामिनः अहिंसालक्षणं धर्ममित्यर्थः । (पादुरकासी) प्रादुरकार्षित् प्रकटये दुपदिशेदिति यावत् ॥ ७ ॥ टीका 'बहुजणणमणमि' बहुजननमने अनेक पुरुषैर्नमस्क्रियमाणधर्मे, संवुडो, 'संवृतः' सावधव्यापाररहितः सन् ‘णरें नरो मुनिः 'सव्वटेहिं सर्वार्थेषु सर्वत्र वस्तुनि ऐहिकाऽऽमुष्मिकादौ ममत्वरहितः। 'हूद इव हृद इव 'सया' सदा अणाविले अनाविलोऽतिशयेन विशुद्धो निर्मल इति यावत् सन् कासवं काश्यपगोत्रोत्पन्नस्य भगवतो महावीरस्य 'धम्म' धर्मम् महावीरप्रतिपादिताऽहिंसाप्रधानधर्मम् । पादुरकासी' प्रादुरकार्पित , प्रकटयेत्, साधुरिति । आपत्वाद् भूतकालनिर्देशः । कलत्र धन धान्य आदि समस्त पदार्थों के ममत्व से रहित तथा सरोवर के समान सदा निर्मल पुरुष-साधु महावीर स्वामी के धर्मका उपदेश करे ॥७॥ __-टीकार्थ बहुत लोगोंके द्वारा नमस्कार करने योग्य धर्म में सावध व्यापार से रहित होकर मुनि इस लोक संबंधी तथा परलोक संबंधी सभी वस्तुओं में ममत्व रहित होकर तथा सरोवर के समान सदा अत्यन्त निर्मल या विशुद्ध होकर काश्यपगोत्र में उत्पन्न भगवान् महावीरके अहिंसा प्रधान धर्मको प्रकाशित करे । 'पादुरकासी' यहाँ भूतकालका जो प्रयोग किया गया है सो आर्ष होनेके कारण समझना चाहिए । ધાન્ય, આદિ સમસ્ત પદાર્થોના મમત્વથી રહિત તથા સરોવરના સમાન સદા નિર્મળ પુરુષે (સાધુએ) મહાવીર સ્વામીના ધર્મને ઉપદેશ કરે જોઈએ છે આ છે -टीઘણું લેકે દ્વારા નમસ્કરણીય (નમસ્કાર કરવા યોગ્ય) જૈન ધર્મની સમ્યફ પ્રકારે મુનિએ આરાધના કરવી જોઈએ, તેણે સાવધ વ્યાપારથી રહિત થઈને તથા આ લેક અને પરલેક સંબધી સઘળી વસ્તુઓના મમત્વને ત્યાગ કરીને, સરેવરના જળ સમાન અત્યન્ત નિર્મળ અથવા વિશુદ્ધ થઈને, કાશ્યપ ગેત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલા ભગવાન મહાવીરના माहिसा धमनी उपदेश मापको नये. "पादुरकासी मही (भूतानो प्रयोग થયે છે તે આર્ષ હોવાને કારણે થયે છે, એમ સમજવું. For Private And Personal Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५५१ ___ अहिसाधर्मस्य सुखकारकत्वात् बहुभिलोंकः नरामरादिभिः सर्वदा नमस्कारयोग्ये धर्मे सदा समाहितो मुनिः धनधान्यादिबाह्याभ्यन्तरपदार्थे सर्वदाऽनासक्तो हृदजलम् इव निर्मलो भूत्वा भगवतो लोकनाथस्य काश्यपगोत्रोत्पन्नस्य महावीरतीर्थकरस्याऽहिंसादिप्रधानकं धर्म प्रकटीकुर्यादिति भावः । धर्मविषयेऽभयकुमारकथाविज्ञेया। ___'बहुभिर्मान्यधर्मेषु जैनधर्मः परः स्मृतः । निर्मलः संस्थितस्तत्र परानुपदिशेत्सदा ॥ १ ॥ गा. ७ ॥ बहुजननमस्करणीये धर्मे अवस्थितः साधु दृिशं धर्म प्रकटीकुर्यात्तादृशं धर्म दर्शयितुं सूत्रकार उपक्रमते । अथवा उपदेशान्तरं कुरुते 'बहवे पाणा' इत्यादि । वहवे पाणा पुढो सिया पत्तेयं समयं समीहिया । जो मोणपदं उवट्टिए विरतिं तत्थ अकासी पंडिए ॥८॥ तात्पर्य यह है अहिंसाधर्म सुखकारी है, अतएव वह बहुत मनुष्यों तथा देवों के द्वारा नमस्करणीय है। मुनि इस धर्म में सदैव सावधान रहे । धन धान्य आदि समस्त बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह में अनासक्त रहे और सरोवर के जल के जैसा निर्मल होकर लोकके नाथ, काश्यप गोत्र में उत्पन्न, भगवान महावीर तीर्थकरके अहिंसा प्रधान धर्मको प्रकट करें। धर्मके विषय में अभयकुमारकी कथा जान लेना चाहिए । 'बहुभिर्मान्यधर्मेषु' इत्यादि। 'बहुत से माननीय धर्मों में जैनधर्म उत्कृष्ट है और निर्मल है अतएव उसका दूसरों को उपदेश करना चाहिए ॥ ७ ॥ તાત્પર્ય એ છે કે અહિંસાધર્મ સુખકારી છે, તેથી ઘણા લેકે અને દેવે પણ તેને નમસ્કરણીય માને છે તેના તરફ આદરની દષ્ટિએ જોવે છે. મુનિએ આ ધર્મની આરાધનામાં સદા સાવધાન રહેવું જોઈએ. તેણે ધન, ધાન્ય આદિ સમસ્ત બાહ્ય પરિગ્રહને તથા આભ્યન્તર પરિગ્રહોને ત્યાગ કરવો જોઈએ અને પરિગ્રહોમાં આસકિત રાખવી નહીં. તેણે સરોવરના જળના સમાન નિર્મળ (વિશુદ્ધ) રહીને, લેકનાથ, કાશ્યપ ગેત્રીય, ભગવાન મહાવીર તીર્થંકરના અહિંસા પ્રધાન ધર્મને ઉપદેશ લેકેને આપે જોઈએ. घमना विषयमा सयभारनी 3था वांची सेवा नये. ४युं ५५ छ - "बहुभिर्मान्य धर्मषु त्याह “જગતના ઘણા માનનીય ધર્મોમાં જૈન ધર્મ ઉત્કૃષ્ટ અને નિર્મળ છે. તેથી તે ધર્મને લેકેને ઉપદેશ દેવે જોઈએ” ગાથા છા For Private And Personal Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५५२ www.kobatirth.org छाया बहवः प्राणाः पृथक् श्रिताः प्रत्येकं समीक्ष्य समताम् । यो मौनपदमुपस्थितो विरति तत्राकार्षीत् पण्डितः ॥ ८ ॥ -अन्वयार्थ ' ( बहवे ) बहवः अनंता : (पाणा) प्राणाः जीवाः, ( पुढो) पृथक् पृथक् (सिया) श्रिताः अस्मिन् जगति वसन्तीत्यर्थः (पत्तेयं) प्रत्येकं प्राणिनम् समय समतां समभावेन (समीहिया) समीक्ष्य (मोणपदं) मौनपदम् संयमम् ( उबढिए) उपस्थितः संयममाश्रित इत्यर्थः (पंडिए) पंडितः (तस्थ ) तत्र प्राणिघातादौ (विरति ) विरतिम् (अकासी) अकार्षीत् कुर्यादित्यर्थः ॥ ८ ॥ -- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बहुजन नमस्करणीय धर्म में स्थित साधु जिस प्रकारके धर्म को प्रकट करे, उसे दिखलाने के लिए सूत्रकार उपक्रम करते हैं अथवा दूसरा उपदेश करते हैं ' बहवे पाणा' इत्यादि । - सूत्रकृताङ्गसूत्रे शब्दार्थ - 'बहवे बहवः' अनेक 'पाणा - प्राणाः' प्राणी 'जीव' पुढो--पृथक ' पृथक् 'सिया-- श्रिता:' इस जगत् में निवास करते हैं 'पत्तेय - प्रत्येकम् ' प्रत्येक प्राणी को 'समय-समता' समभाव से 'समीहिया-समीक्ष्य' देखकर 'मोणपदंमौनपदम् संयम में 'उपडिए उपस्थितः' रहने वाला 'पंडिए - पंडित' पण्डित पुरुष ' तत्थ तत्र' उन प्राणियों के घातसे 'विरतिं विरतिम्' विरति 'अकासी - अकार्षीत् करे ||८|| — -अन्वयाथ बहुतसे प्राणी पृथक पृथक इस संसार में रहते हैं । प्रत्येक प्राणीकोसमभाव से देख कर संयम में उपस्थित पण्डित प्राणिहिंसा आदि से विरत हो ॥ ८ ॥ બહુજન નમસ્કરણીય જૈન ધર્મની આરાધના કરતા મુનિએ કયા પ્રકારે ધર્મ પ્રકટ કરવા જોઇએ, તે બતાવવાને માટે સૂત્રકાર ઉપક્રમ કરે છે અથવા આગળ ઉપદેશ આપે छे - "बहवे पाणा" त्याहि शब्दार्थ –'बहवे - बहवः' भने 'पाणा- प्राणाः' प्रावि 'पुढो पृथक् पृथ पृथ 'सिया- श्रिताः सा भगतमां निवास रे छे. 'पत्तय' - प्रत्येकम् ' प्रत्येक प्राणीने 'समय'समता' समभावथी 'समीहिया समीक्ष्य' लेने 'मोणपदं - मौनपदम् संयममा 'उच्चहिप'उपस्थितः' रहेवावाणा 'पंडिए - पंडित:' पंडित ३५ 'तत्थ तत्र' ते प्राजियोना घातथी विरंति - विरतिम्' विरति 'अकासी अकार्षीत् ४२ छे. For Private And Personal Use Only - सूत्रार्थ ઘણાં પ્રાણીએ આ સંસારમાં અલગ અલગ રહે છે. પ્રત્યેક પ્રાણી તરફ સમભાવની નજરે જોતા થકા, સંયમમાં ઉપસ્થિત પંડિતે પ્રાણીહિંસા આદિથી નિવૃત્ત થવું लेह ॥ ८ ॥ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समया बोधिनी टीका प्र. श्रु.अ.२ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५५३ टीका .... 'बहवे' बहवः अनेके एकेन्द्रियादयोऽनंताः 'पाणा' प्राणिनो जीवाः 'पुढो' पृथक पृथक् 'सिया' श्रिताः, इह संसारे निवासं कुर्वन्ति 'पत्तयं प्रत्येकं प्राणिषु 'समय' समतां समभावेन, 'समीहिया' समीक्ष्य, 'मोणपदं' मौनपदं संयमम् , 'उवहिए' उपस्थितः, पंडिए' पण्डिता सदद्विवेकवान् विशुद्धान्तःकरणः । 'तत्थ' तत्र-तेषां प्राणिनां घातात् । 'विरति' विरनिम् , 'अकासी' अकार्षीत् कुर्यादिति । दशविधप्राणानां धारणात् प्राणा इति पदेन प्राणिनः ज्ञायन्ते । अथवा धर्मधर्मिणोरभेदात् प्राणपदेन प्राणाऽऽधारस्य प्राणिनो ग्रहणं भवति । त एते प्राणिनः पृथिवीजलतेजोवायुवनस्पतिकायप्रभेदभिन्नाः । अथवा सूक्ष्मवादपर्याप्ता पर्याप्तनरकादिप्रभेदभिन्ना बहवो जीवाः इह संसारे सन्ति -टीकार्थएकेन्द्रिय आदि अनन्त जीव पृथक् पृथक् इस संसार में वास करते हैं। प्रत्येक प्राणी पर समभाव रखकर संयम में उपस्थित हुआ विवेकवान् एवं विशुद्ध चित्तवाला मुनि उन प्राणियोंके घातसे निवृत्ति करे । जो दश प्रकारके प्राणोंको धारण करते हैं वे 'प्राणी कहलाते है अतः 'प्राण' इस पदसे प्राणी समझना चाहिए अथवा धर्म और धर्मी का अभेद होने से प्राणों के आधार 'प्राणी' ग्रहण कर लेना चाहिए। - ये प्राणी पृथिवीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय आदि अनेक प्रकार के हैं। अथवा सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, नारक आदिके उपभेदों से बहुत प्रकारके हैं । ये सब इस संसार में रहते हैं। -टीએકેન્દ્રિય આદિ અનંત જીવે આ સંસારમાં અલગ અલગ વાસ કરે છે. પ્રત્યેક પ્રાણી પ્રત્યે સમભાવ રાખીને સંયમમાં ઉપસ્થિત, સત્ અસના વિવેક યુક્ત અને વિશુદ્ધ ચિત્તવાળા મુનિએ તે પ્રાણીઓની હિંસા ન કરવી જોઈએ. દસ પ્રકારના પ્રાણને જેઓ ધારણ કરે છે, તેમને પ્રાણી કહેવાય છે. તેથી પ્રાણુ આ પદને “પ્રાણું” નું વાચક સમજવું જોઈએ. અથવા ધર્મ અને ધમમાં અભેદ માનીને “પ્રાણું” પદ દ્વારા પ્રાણોના આધાર રૂપ “પ્રાણી પદ ગ્રહણ કરવું જોઈએ. A આ પ્રાણીઓના પૃથ્વીકાય, અપૂકાય, તેજસ્કાય, વાયુકાય, વનસ્પતિકાય અને ત્રસકાય આદિ અનેક પ્રકાર છે. અથવા સૂમ, બાદર, પર્યાપ્ત, અપર્યાપ્ત, નારક આદિ ઉપભેદોની અપેક્ષાએ તેમના ઘણા પ્રકારે છે. તે બધાં પ્રાણીઓ આ સંસારમાં રહે છે. પિત પિતાના सू. ७० For Private And Personal Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतासो स्वस्वकर्मवशतः पृथक पृथक् निवासं कुर्वाणाः ते जीवाः समानरूपेण सुखमभिलपन्तः, दुःखद्वेषिणश्व दृश्यन्ते, इति विचार्य सर्वत्र माध्यस्थ्यमवलंब्य संयमे उपस्थितः, पापानुष्ठानाद्विरतः पण्डितो मेधावी मुनिः प्राणिघातात् सदा विस्मेदिति भावः । उक्तंचान्यत्र "विरमेत्प्राणिघातेभ्यः संयमे हि मनः कथा । माध्यस्थ्यं वादिवादेषु विवादो भवकारणम् ॥ १॥ गा. ८॥ अधुना चारित्रात्मक भेदभिन्न स्वधर्ममधिकृत्य सूत्रकारः उपदिशति-- 'धम्मस्स य' इत्यादि। मूलम् धम्मस्स य पारए मुणी आरंभस्स य अंतए ठिए सोयंति य णं ममाइणो णो लन्भंति णियं परिगहं ॥९॥ __-छायाधर्मस्य पारगो मुनिरारम्भस्य चान्तके स्थितः।। शोचन्ति च ममतावन्तो नो लभन्ते निजं परिग्रहम् ॥९॥ अपने अपने कर्म के अनुसार पृथक् पृथक् रहते हुए ये जीव समान रूप से मुख की अभिलाषा करते हुए तथा दुःख से द्वेष करते हुए देखे जाते हैं। ऐसा विचार करके, सब पर मध्यस्थ भावका अवलम्बन करके संयम में उपस्थित, पापकर्म से रहित पण्डित पुरुष सदैव हिंसा से निवृत्त रहे । अन्यत्र कहा भी है- 'विरमेत्प्राणिघातेभ्यः, इत्यादि । 'प्राणियों की हिंसा से निवृत्त हो, संयम में मन रक्खे और मध्यस्थभाव से हि उपदेश करे। विवाद संसारका कारण है ॥ ८ ॥ કર્મ અનુસાર અલગ અલગ રહેતા તે જીવે સમાન રૂપે સુખની અભિલાષાવાળા અને દુઃખને દ્વેષ કરનારા હોય છે. એ વિચાર કરીને, તે સઘળા પ્રત્યે મધ્યસ્થભાવ (સમભાવ રાખીને સંયમની આરાધના કરતા, પાપકર્મથી રહિત અને સતું અસતના વિવેક્વાળા પંડિત મુનિએ તેમની હિંસાથી સદા નિવૃત્ત જ રહેવું જોઈએ. કહ્યું પણ છે 3- "विरमेत्प्राणिघातेभ्यः प्रत्याहिતે હે મુનિઓ ! પ્રાણીઓની હિંસાથી નિવૃત્ત થાઓ, સંયમમાં મનની સ્થિરતા રાખે, અને મધ્યસ્થ ભાવપૂર્વક ઉપદેશ આપ. વિવાદ ન કરે, કારણકે વિવાદ સંસારનાં કારણ ભૂત બને છે” ગાથા દ્રા For Private And Personal Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५५५ः अन्वयार्थ: (धम्मस्स) धर्मस्य = श्रुतचारित्रभेदभिन्नस्य (पारए) पारगः सिद्धान्तपारगामी चारित्रानुष्ठायी वा ( आरंभस्स) आरंभस्य सावद्यव्यापारस्य (अंतर) अन्ते= पर्यन्ते वहि: (ठिए) स्थितः (मुणी ) मुनिर्भवति (ममाइणो ) ममतावन्तः पुरुषाः(सोयंति य) शोचति च (णियं) निर्ज= स्वकीयम् (परिग्गहं) परिग्रहम् धनधान्यादि भृतं पुत्रादिकं वा (गोल भंति) नोलभते न प्राप्नुवन्तीत्यर्थः ॥ ९ ॥ " अब श्रुतचारित्रात्मक भेद से भिन्न स्वधर्मका सूत्रकार उपदेश करते हैं धम्मस्स य' इत्यादि शब्दार्थ - 'धम्मस्स - धर्मस्य' श्रतचारित्ररूप धर्मका 'पारए - पारगः' सिद्धान्त में पारगामी अर्थात् चारित्रका अनुष्ठान वाला एवं 'आरंभस्स - आरंभस्य' सावध व्यापार के ' अंतर - अन्तके' अंत में 'ठिए-स्थितः' स्थित पुरुष 'मुणी - मुनिः ' मुनि कहलाता है 'ममाइणो-ममतावन्तः 'ममता वाले पुरुष 'सोयंति य-शोचन्ति च ' शोक करते हैं 'णिय- निजम्' अपने 'परिम्ाहं परिग्रहम्' परिग्रह को 'णो. लम्भंति - नो लभन्ते' नहीं प्राप्त करते हैं || ९ || अन्वयार्थ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- श्रुत और चारित्रके भेद से भिन्न धर्मका पारगामी अर्थात् सिद्धान्त में पारंगत तथा चारित्रका अनुष्ठान करने वाला और आरंभ से परे स्थित पुरुष ही मुनि होता है अर्थात् आरंभरहित मुनि होता है । ममतावान् पुरुष अपने धन धान्य या पुत्रादि रूप परिग्रह के लिए शोक करते हैं, परन्तु उन्हे प्राप्त नहीं कर सकते ॥ ९ ॥ डुवे श्रुतयारित्र ३५ लेहवाणा स्वधर्मनो सूत्रभर उपदेश हे छे “धम्मस्स य" इत्याहिशब्दार्थ' - 'धम्मस्स - धर्म' स्य' श्रुतयस्त्रि३५ धर्मना 'पारण- पारगः' सिद्धांतभां पार गाभी अर्थात् चारित्रमा अनुष्ठानवाणा सेवम् 'आरंभस्स - आरंभस्य' सावध व्यापारना 'अंतर - अन्तकः' संतमां 'ठिए - स्थितः' स्थित पु३ष 'मुणी - मुनिः' मुनि उडेवाय छे, 'म माइणी - ममतावन्तः भभतावाणी ५३ष' सोय तिय- शोचन्ति च ' शा३ ४२ छे, 'णिय - निजम्' योताना 'परिग्गह' - परिग्रहम्' परियहने 'णो लम्भति-नो लभन्ते' आप्त उरी शस्ता नथी. ॥६॥ સૂત્રા શ્રુત અને ચારિત્ર રૂપ ભેદવાળા સ્વધમના પારગામી એટલે કે સિદ્ધાન્તમાં પારંગત અને ચારિત્રનું અનુષ્ઠાન કરનારા અને આરંભથી નિવૃત્ત હાય એવે પુરુષ જ મુનિ કહેવાને ચેાગ્ય છે. મમત્વ ભાવયુક્ત પુરુષ પોતાના ધન, ધાન્ય, અથવા પુત્ર, પૌત્રાદિ રૂપ પરિગ્રહને માટે શાક કરે છે, પરન્તુ તે તેમને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. ૫૯ ॥ For Private And Personal Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्र टीका'धम्मस्स' धर्मस्याऽहिंसादिप्रधानकस्य 'पारए' पारगः 'आरंभस्स' आरं भस्य 'अंतए' अन्तके 'ठिए' स्थितः पुरुषः । 'मुणी' मुनि भवति । धर्मस्य पारगामी पुमानेव मुनिवाच्यो भवति । न तु यथाकथंचित् वेषधारी मुनिः पारगामी भवति । 'ममाइणो' ममतावन्तः पुरुषाः गृहस्थाः, 'सोयंति य' परिग्रहम-शोचंतिं च चिन्तां कुर्वन्ति । 'णियं' स्वकीयम् 'परिग्गह' परिग्रहम् धनादिभृतं पुत्रादिकं वा, 'णो लब्भंति' नो लभते न प्राप्नुवन्ति । यः पुरुषः धर्मस्य पारगामी तथा आरम्भरहितः स मुनि भवति ममतावन्तो जीवाः परिग्रहार्थ शोचन्ति । तथा ते शोकं कुर्वाणा अपि परिग्रहं न प्राप्नुवन्ति । यथा स्वकीयां छायां तदनुगच्छन्नपि न लभते । टीकार्थ__अहिसा आदि जिस में प्रधान है ऐसे धर्मका पारगामी तथा आरंभ से रहित पुरुष मुनि कहलाता है अर्थात् धर्मका पारगामी पुरुष ही मुनि शब्द के द्वारा कहने योग्य होता है, केवल मुनिका वेषधारण करनेवाला चाहे जो पुरुष मुनि नहीं कहला सकता । ममतावान् गृहस्थ अपने परिग्रह धनादि या पुत्रादि के लिए चिन्ता करते हैं। लेकिन उसे प्राप्त नहीं कर पाते हैं । तात्पर्य यह है कि जो पुरुष धर्म का पारगामी होता है और आरंभसे रहित होता है, वही मुनि हो सकता है । ममतावाले पुरुष परिग्रह के लिए शोक करते हैं, मगर शोक करते हुए भी वे परिग्रह को प्राप्त नहीं कर सकते हैं । जैसे अपनी छाया के पीछे पीछे दौडनेवाला छाया को नहीं पा -टीઅહિંસા આદિ જેમાં પ્રધાન છે એવા ધર્મમાં પારંગત અને આરંભથી રહિત પુરુષ જ મુનિ ગણાય છે. એટલે કે ધર્મમાં પારંગત હોય અને આરંભને જેણે ત્યાગ કર્યો હોય એવા પુરુષને જ “મુનિ” કહી શકાય છે. કેવળ મુનિને વેષ ધારણ કરી લેવાથી જ. “મુનિ” બની શકાતું નથી, મમત્વ (મૂછભાવ) વાળા પુરુષે પોતાના પરિગ્રહને માટે (ધન, ધાન્ય, પુત્ર, કલત્ર આદિ પરિગ્રહને માટે) ચિન્તા કર્યા કરે છે, પરંતુ તેઓ તેને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. ' આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જે પુરુષ ધર્મને પારગામી હોય છે, અને આરંભથી રહિત હોય છે, તે પુરુષ જ મુનિ થઈ શકે છે, મમતાભાવવાળા પુરુષે પરિગ્રહને માટે ‘ચિહ્નિત રહે છે, પરંતુ તે છતાં પણ તેઓ ધનાદિ પરિગ્રહને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. જેવી રીતે પિતાના પડછાયાને પકડવા માટે પડછાયાની પાછળ દોડતે પુરુષ પડછાયાને For Private And Personal Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समया बोधिमी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्य भगवदादिनाथोपदेश ५७ तथा परिग्रहाऽभिलाषुकाणां परिग्रहो दुर्लभो भवतीति । प्रयतमाना अपि परिग्रह न प्राप्नुवन्तीत्यतस्तेभ्योतिनिवृत्तो नियमतः संयमार्थमेव प्रयत्नं कुर्यात् ॥९॥ पुनरपि सूत्रकार आह–'इहलोग इत्यादि । मूलम् - इह लोगे दुहावहं विउ परलोगे य दुहं दुहावहं । विद्धंसणधम्ममेव ते इतिविज्ज को गारमावसे ॥१०॥ छाया-- इहलोके दुःखावहं विद्याः परलोके च दुःखं दुःखावहम् विध्वंसनधर्ममेव तत् इति विद्वान्कोऽगारमावसेत् ॥ १० ॥ सकता, उसीप्रकार परिग्रह की अभिलाषा करनेवालों को परिग्रह दुर्लभ होता है । जब प्रयत्न करने पर भी परिग्रह नहीं प्राप्त होता तो उस से निवृत्त होकर नियम से संयम के लिए ही प्रवृत्ति करना उचित है ॥९॥ सूत्रकार पुनः कहत हैं--"इह लोग-- इत्यादि ।। शब्दार्थ-'इह-इह' इस लोगे--लोके' लोक में अर्थात् संसार में 'दुहावई-- दुःखावहम्' दुःख जनक 'परलोगे य-परलोके च' और परलोक में भी 'दुई--दुःखम्' दुःख 'दुहावहम्--दुःखावहम्' दुःख कारक है 'विउ'-विद्याः' ऐसा जानो 'तं--तम्' वह धन 'विद्धंसणधम्ममेव'--विध्वंसनधर्ममेव नाशवान स्वभाव वाला है 'इति विज्ज-इति विद्वान्' यह जानने वाला को -कः' कौन पुरुष 'अगारं--अगारम्' गृहवास में 'आवसे-आवसेत्' निवास कर सकता है ॥१०॥ પકડી શકતા નથી, એજ પ્રમાણે પરિગ્રહની અભિલાષા રાખનારને પરિગ્રહની પ્રાપ્તિ દુર્લભ થઈ પડે છે. જે પ્રયત્ન કરવા છતાં પણ પરિગ્રહની પ્રાપ્તિ થવાની જ ન હોય, તે તેનાથી નિવૃત્ત થઈને સંયમને નિમિત્ત જ અવશ્ય પ્રવૃત્તિ કરવી, એજ ઉચિત છે. ગાથા લાલ qणी सूत्रा२ ४ छ - "इहलेोग" त्या शहाथ-दह-इह' या 'लोगे-लोके' सोम मर्थात् संसारमा 'दुहावह-दुःखावहम न परलोगे य-परलोके च' भने ५२सोमा ५४ 'दुह-दुःखम्' ५ ॥२४ छ, 'विउ-विद्या' से 'त-तम्त धन विद्ध सणधम्ममेव-विव सनधर्म मेष' नाशवान् स्वभावानुछ ‘इति विज्ज-इति विद्वान्' मा प्रमाणे शुवावा! 'को-क' ध्यो ५३५ 'भगार-अंगारम्, प्रवासमा 'आवसे--आवत्से निवास ४२ छ? ॥१०॥ For Private And Personal Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रछतासो अन्वयार्थः(इह) इहास्मिन् (लोगे)लोक संसारे दुहावहं (दुःखावहं) दुःखजनकं (परलोगेय) परलोके च (दुई) दुःखम् (दुहावहं) दुःखावह दुखोत्पादकमिति 'विउ' विधा:जानीयाः तथा तदुपार्जितमपि (तं) तत् धनम् (विद्धसणधम्ममेव) विध्वंसनधर्ममेव क्षणभंगुरम् (इतिबिज्ज) इति विद्वान् एवं जानन् (को) कः मेधावीपुरुषः, (अगारं) अगारं गृहम् (आवसे) आवसेत् , इहलोके परलोके दुःखदायि विनश्वरं धनादिकंजानन् कः पुमान् गृहवासं कुर्यादिति ॥ १० ॥ टीका-- सुवर्णरजतादिरूपपरिग्रहधनम् इह ' अस्मिन् फलभोगसाधने जगति, 'दुहावह दुःखावहं दुःखजनकं भवति, च 'परलोगे-परलोके, उपस्थितशरीरत्यागानन्तरपरशरीरप्रापकलोके स्वर्गादावपि, 'दुहावह' दुःखावहमेव दुःखजनकमेव, 'विउ' विद्याः हे विवेकिन् इति जानीयाः, सुवर्णरजतधनधान्यस्वजनपरिग्रहाणां -अन्वयार्थ- धन इस लोक में दुःखजनक है और परलोक में भी दुःखरूप तथा दुःखो का जनक है, ऐसा समझो । उपार्जित किया हुआ धन भी विनाशशील ही है। ऐसा जानता हुआ कौन मेधावी पुरुष गृहवास करेगा। धन आदि को इह लोक परलोक में दुःखप्रद तथा विनाशशील जान कर कौन पुरुष गृहवास करेगा ॥१०॥ टीकार्थसुवर्ण रजत आदि परिग्रह इस फल भोग के साधन लोक में दुःख जनक है और परलोक में अर्थात् उपस्थित शरीर के त्याग के पश्चात् दूसरे शरीर को प्राप्त करानेवाले स्वर्ग आदि लोक मे भी दुःखका जनक ही है। -सूत्राथધન આ લેકમાં પણ દુઃખ જનક છે અને પરલોકમાં પણ દુઃખરૂપ તથા દુઃખનું જનક છે, એવું સમજે. ઉપાર્જિત કરેલું ધન પણ વિનાશશીલ જ છે. આ વાતને સમજતા કયે મેધાવી પુરુષ ગૃહવાસને પસંદ કરશે? ધન આદિને આલેક અને પરલેકમાં લખ જનક તથા નાશવંત જાણીને કયે પુરુષ ગ્રહવાસ (ગૃહસ્થ જીવન) ને સ્વીકારશે? ૧૦ -टीअथસોનું ચાંદી આદિ પરિગ્રહ ફલોગના સાધનરૂપ આલેકમાં પણ દુઃખજનક છે અને પરલેકમાં પણ દુઃખજનક છે. એટલે કે વર્તમાન મનુષ્ય ભવસંબંધી આયુષ્ય પુરૂ કરીને પરભવમાં-સ્વર્ગ, નરક આદિમાં ઉત્પન્ન થયા બાદ પણ દુઃખજનક જ છે. હે વિવે. For Private And Personal Use Only Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५५९ दुःखजनकत्वमुक्तम् । तथाहि 'अर्थानामजने दुःखं, अर्जितानां च रक्षणे । आये दुःख व्यये दुःखं धिगाः कष्टसंश्रयाः ॥ १ ॥ तथा- 'यथा ह्यामिषमाकाशे पक्षिभिः श्वापदै भुवि । भक्ष्यते सलिले नकै स्तथा सर्वत्र वित्तवान् ।। २।। राजतः सलिलादग्ने चौरतः स्वजनादपि । नित्यं धनवतां भीति दृश्यते भुवि सर्वदा ॥ ३ ॥ हे विवेकी ! यह बात समझो । सुवर्ण रजत धन धान्य स्वजन आदि परिग्रह दुःखजनक कहे गए हैं, यथा- 'अर्थानामजेने दुःखम्' इत्यादि । .. धनके उपार्जन करने में दुःख है, फिर उपार्जित कियेकी रक्षा करने में दुःख है, आय (प्राप्त) होने पर दुःख है और व्यय (नष्ट) होने पर भी दुःख होता है । इस प्रकार कष्टों के आधार इस धनको धिक्कार है । तथा- 'यथा ह्यामिषमाकाशे' इत्यादि । जैसे मांस आकाशमें पक्षियों के द्वारा पृथ्वी पर हिंसक जन्तुओं के द्वारा और पानी मे मगर मच्छों द्वारा खाया जाता है, उसी प्रकार धनवान् को मी लोग सब जगह निगल जाना चाहते हैं । 'राजतः सलिलादग्ने इत्यादि, ' धनवानों को राजा से, जल से, अग्नि से, चौर से यहां तक कि स्वजनों से भी निरन्तर भय बना रहता है ! इस धरती पर सदा यही देखा जाता है। કવાન પુરુષ! આ વાત સમજી લે. સોનું, ચાંદી, આદિ રૂપ ધનને, તથા ધાન્ય, સ્વજન माहि परिग्रहने अन्यत्र न ४ा छ- " अर्थानामजने दुःखम्" त्यादि ”ધન કમાવામાં દુઃખ સહન કરવું પડે છે, ઉપાર્જિત ધનની રક્ષા કરવામાં પણ દુઃખ સહન કરવું પડે છે. ધન પ્રાપ્ત થાય તે પણ દુઃખરૂપ થઈ પડે છે અને તેને નાશ થાય ત્યારે પણ દુઃખજ થાય છે. આ પ્રકારે જે ધન કણોના આધાર રૂપ છે, તે ધનને घि छ ! तथा-"यथा ह्यामिषमाकाशे" त्याleજેવી રીતે આકાશમાં પક્ષીઓ દ્વારા, પૃથ્વી પર હિંસક પ્રાણીઓ દ્વારા અને જળમાં મગરમો દ્વારા, માંસ ખવાય છે, એ જ પ્રમાણે ધનવાનના ધનને પણ હડપ કરી જવાને લેકે તલસી રહ્યા હોય છે. જેમાં માંસને ટુકડે પ્રાપ્ત કરવાને ઉપર્યુક્ત જે પ્રયત્ન કરતા હોય છે. તેમ ધનવાનના ધનને પણ ગમે તે રીતે પ્રાપ્ત કરવાને ચે તરફ લેકે माशाधी २ डाय छे. तथा-"राजतः सलिलादग्ने" त्या "धनवानाने भेशा रानी, नी; मलिना, अन यारनी लय २।। ४२ छ, એટલું જ નહિ પણ સ્વજનને ભયપણુ નિરંતર રહ્યા જ કરે છે. “ For Private And Personal Use Only Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतारने तथा सेवादयो धनोपार्जनसाधन भूतास्तेच तं दुःखयन्ति । तदुक्तम्-"दप्यदुरीश्वर द्वाःस्थ दंडचन्द्रार्धचन्द्रजाम् । वेदनां भावयन् प्राज्ञः कः सेवाष्वनुरज्यते ॥ ४ ॥ परलोकेपि हि जीवाः हिरण्यस्वजनादिकममत्वजनितकर्मजन्यं नरकनिगोदादिलक्षणं दुःखमनुभवन्ति । 'तं, तत् विद्धंसणधम्ममेव विध्वंसनधर्म क्षणभङ्गुरम् 'इति विज्ज, इतिजानन् 'का' कः 'अगारं' आगारं गृहम् 'आवसे' आवसेत् गृहपाशं वध्नीयात् । प्रबलमोहहेतुकं कुटुंबपरिवारादिकशत्रु मित्रमिव मन्यमानानां तेषां दुःखरूपा एव गृहादयः । इसके अतिरिक्त धनोपार्जन के साधन जो सेवा आदि हैं, वे भी मनुष्य को दुखी. बनाते हैं। कहा भी है 'दृप्यदुरीश्वर द्वाःस्थ' इत्यादि। घमंडी एवं दुष्ट स्वामी के द्वार पर स्थित मनुष्य को दंड चन्द्र या अर्थ चक्र से होने वाली वेदनाका विचार करनेवाला कौन पुरुष सेवा में अनुरक्त होगा ? कोई नहीं । ' परलोक में भी जीव हिरण्य एवं स्वजनादि के ममत्व से उत्पन्न हुए कर्मोंसे जन्य नरक निगोद आदि के दुःखका अनुभव करते हैं। इसके अतिरिक्त धन विनाशशील है। एसा जानता हुआ कौन गृहके बंधन में बंधेगा ! अर्थात् कौन घरके फंदे में पडेगा प्रबल मोहनीय कर्म में कारण कुटुम्ब परिवार आदि शत्रुको मित्र के समान मानने वालोंके लिए वे दुःख रुप ही . - વળી “ધને પાર્જન કરવાના સેવા આદિ જે સાધન છે, તે સાધને દ્વારા પણ માણસને દુઃખી થવું પડે છે –કહ્યું પણ છે કે• “ઘમંડી અને દુષ્ટ સ્વામીના દ્વાર પર સ્થિત પુરુષને તેની સેવા સ્વીકારનાર પુરુષને દંડ, અપમાન, અર્ધચન્દ્ર (ગળચી પકડીને બહાર હાંકી કાઢવે તેનું નામ અર્ધચન્દ્ર પ્રદાન છે) આદિ રૂપ વેદના ભેગવવી પડે છે. આ પ્રકારની વેદનાને વિચાર કરનાર કર્યો पुरुष सेवामा अनु२४त थशे ? (as नही)” । * સોનું ચાદી આદિ ધનના તથા સ્વજનાદિના પરિગ્રહને કારણે ઉપાર્જિત મેહનીય કર્મના ઉદયથી ને નરક નિગોદ આદિ પટેલેકમાં પણ દુઃખનું વેદન કરવું પડે છે, વળી ધન વિનાશશીલ છે. આ વાતને સમજનાર કે પુરુષ ગૃહના બન્ધનમાં બંધાશે? આ વાતને સમજનાર કેઈ પણ પુરુષ ગૃહના કંદામાં ફસાશે નહીં. પ્રબળ મેહનીય ફર્મના ઉદયને કારણે કુટુંબ, પરિવાર આદિ શત્રુઓને મિત્ર રૂપ માનનાર પુરુષને માટે For Private And Personal Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५६१ तदुक्तम्- 'दाराः परिभवकाराः बन्धुजनो बन्धनं विषं विषयाः । कोऽयं जनस्य मोहो ये रिपवस्तेषु सुहृदाशाः ॥ १ ॥ सुवर्णरजतादिकं स्वजनपरिवारादिकम् इहलौकिकं पारलौकिकं च सर्व दुःखजनकमेव । तथा इमे पदार्था विनश्वरा एव, इत्येवं विद्वान् कः पुरुषः गृहवास स्वीकुर्यात, न कोऽपि करिष्यतीति भावः ॥ १० ॥ पुनरपि उपदेशान्तरं ब्रूते सूत्रकारः- 'महयं' इत्यादि । मूलम् महयं परिगोवं जाणिया जावि य बंदणपूयणो इह । सुहुने सल्ले दुरुद्धरे विउमंता पयहिज संथवं ॥ ११ ॥ छाया-- महान्तं परिगोपं ज्ञात्वा यापिच वन्दनपूजनेह । सूक्ष्मे शल्ये दुरुद्धरे विद्वान्परिजह्यात्संस्तवम् ॥ ११ ॥ हैं । कहा भी है--'दाराः परिभवकाराः इत्यादि । 'पत्नी पराभव करने वाली है, बन्धु जन बन्धन रूप है, और विषय विषके समान हैं फिर भी न जाने कैसा है मनुष्यका यह मोह कि जो शन है उन्हे वह मित्र समझता है । - सोना चांदी और स्वजन परिवार आदि इस लोक संबंधी और परलोक संबधी सब दःखजनक ही है। तथा ये पदार्थ विनाशशील हैं। ऐसा समझने वाला कौन गृहवास स्वीकार करेगा ? कोइ भी नहीं करेगा ॥ १० ॥ सूत्रकार फिर उपदेश करते हैं-"महयं" इत्यादि। ___ 'शब्दार्थ-महयं-महान्तम्' संसारिकजीवोंका परिचय-महान् परिगोवंपरिगोपम्' पंक है ऐसा 'जाणिया-ज्ञात्वा' जान कर 'जावि य-यापि च' तथा तेमा दुःम ३५४ छे. युं छे -“दागः परिभवकाराः" त्याह પત્ની પરાભવ કરનારી છે, બધુજન બન્ધન રૂપ છે, અને વિષય (કામગ) વિષ રૂપ જ છે. છતાં મેહને વશવતી બનેલ મનુષ્ય જે શત્રુઓ છે તેમને મિત્રરૂપ ગણે છે, એ કેવા આશ્ચર્યની વાત છે!” સેનું, ચાંદી, સ્વજન, પરિવાર આદિ પરિગ્રહ આ લેક અને પરલોકમાં દુઃખ ઉત્પન્ન કરનાર જ છે. વળી આ પદાર્થો વિનાશ શીલ છે. આ વાતને સમજી જનાર કોઈ પણ વિવેકી પુરુષ ગૃહવાસ (ગૃહસ્થ જીવન)ને સ્વીકાર કરશે નહીં, પરંતુ તેને ત્યાગ કરીને સંયમના માર્ગે વિચરશે. એ ગાથા ૧. पणी सूत्रा२ विशेष उपहेश मा छ - "महयं त्याह शहाथ-'मयं-महान्तम्' सांसवानो पश्यिय भाडान् परिगोवं-परिगोपम्' आ४५ छ ओ 'जणिया-ज्ञात्वा' शीने 'जाविय-यापि च तथा इह-इह । सू. ७१ For Private And Personal Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६२ सूत्रकृताचे अन्वयार्थ:(महय) महान्तम् (परिगोव)परिगोपम् पंकम् इति (जाणिया) ज्ञात्वा (जावि य) यापिच (इहं) इह अस्मिन् लोके (वंदणपूयणा)वंदनपूजना कायादिभिर्वन्दनं वस्त्रपात्रादिभिश्च सत्कारः, एतत्सर्व कर्मोपशमनं फलमिति ज्ञात्वा तत्राभिमाना न विधेयः, यतः (विउमंता) विद्वान् सदसद्विवेकज्ञः, गर्वः (मुहुमे) सूक्ष्मम् (सल्ले) शल्यम् वर्तते, सूक्ष्मत्वाच्च (दुरुद्धरे) दुरुद्धरं दुःखेनोद्धतुं शक्य ते, अतः (संयवं) संस्तवं परिचयम् (पयहिज्जा) परिजह्यात्-परित्यजेदिति ॥ ११॥ टीका 'महय, महान्तं सांसारिकजीवानां परिचयरूपं महान्तं परिगोप' परिगोपं-पंकम्, गोप: पंकः स द्रव्यभावभेदाद् द्विविधः तत्र द्रव्यतः कुटुंबादिरूपः भावत जो भी 'इहं-इह' इसलोक में 'वंदणपूयणा-वन्दनपूजना वंदन पूजन है उसे भी कर्म के उपशमका फल है ऐसा जानकर 'विउमंता-विद्वान् पुरुष गर्व न करे क्योंकि गर्व 'मुहुमे-सूक्ष्मम्' सूक्ष्म 'सरले-शल्यम्' शल्य है 'दुरुद्धरे-दुरुद्धरं' उसका उद्धार करना कठिन है अतः 'संथवं-संस्तवम्' परिचयको ‘पयहिज-परिजह्यात्' त्याग करे ॥११॥ -अन्वयार्थ__सांसारिक जनों का परिचय महान कीचड है, ऐसा जानकर और यह जो वन्दन पूजा आदि है सो कर्म के उपशम का फल है ऐसा जानकर इसके प्राप्त होने पर अभिमान नहीं करना चाहिए। अभिमान सूक्ष्म शल्य है और सूक्ष्म होने के कारण उसका निकलना बहुत कठिन है, ऐसा समझकर विद्वान् पुरुष परिचय का त्याग करें ॥११॥ . -टीकार्थसांसारिक जीवों का परिचय महान् पंक (कीचड) है वह पंक दो प्रकार डोभ 'वदणपूरना-वंदनपूजना' न पून छ तेने प६५ मना उपशमनु ३० onाशीने 'विउमंता-विद्वान' भुद्धिमान पु३५ मिलिमान न ४२ भ मलिभान 'सुहमेसक्ष्मम्' सूक्ष्म 'सल्ले-शल्यम्' शल्य छ 'दुरुद्धरे-दुरुद्धरं' तेन धार ४२३॥ ४४१४ छ. मत: संथव-सस्तवम्' पश्यियन। 'पयहिज-परिजाह्यात्' त्याग ४२वी. ॥११॥ ___- सूत्राथ' -. સાંસારિક જનેને પરિચય મહાન કીચડ સમાન છે, એવું સમજીને સત અસના વિવેક યુક્ત સાધુએ તેને ત્યાગ કરે જોઈએ. આ જે વન્દન, પૂજન આદિ છે, તે કર્મના ઉપદેશનું ફળ છે, એવું સમજીને વન્દન, પૂજન આદિ થાય ત્યારે અભિમાન કરવું જોઈએ નહીં. અભિમાનસૂકમ શલ્ય (કાટા) સમાન છે. જેમ સૂકમ શલ્યને કાઢવાનું ઘણું જ મુશ્કેલ થઈ પડે છે. એ જ પ્રમાણે અભિમાનને કાઢવાનું કાર્ય પણ દુષ્કર થઈ પડે છે તેથી સાંસારિક પરિચયને ત્યાગ કરે એજ વિદ્વાન પુરુષને भाट लथित छे. For Private And Personal Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समषार्थ बोधिनी टीका प्र.अ. अ. २ उ. २ निजपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५६३ आसक्तिरूपश्च तं 'जाणिया' ज्ञात्वा मुनिः परित्यजेत् । अथ च 'जावि य यापि च 'इह' अस्मिन् लेोके 'वंदनपूयणा, वन्दनसत्कारादिकम्, तदपि अनर्थमूलमिति ज्ञात्वा 'विउमंता' विद्वान् ज्ञानवान् गर्व न कुर्यात् , गर्यो हि ‘सुहुमे, सूक्ष्मम् 'सल्ले, शल्यम् 'दुरुद्धरे' दुरुद्धरं भवति, दुःखेन तस्योद्धारः कर्तुं शक्यते । तथा 'संथवं, संस्तवम् , परिचयादिकं त्यजेत् । सांसारिकजीवानां परिचयो महान् पंक इति ज्ञात्वा मुनिः सांसारिकजीवैः परिचयं न कुर्यात् । तथा वन्दनसत्कारादिकमपि अनर्थमूलमिति ज्ञात्वा गर्व न कुर्यात् । यतो गौँ नितरां सूक्ष्म शल्य इव भवति, दुःखेन तस्योद्धारः कर्तुं शक्यते । अतो मोक्षाभिलाषिणा गर्वः का होता है द्रव्यपंक और भावपंक । द्रव्यपंक कुटुम्ब आदि है और भावपंक आसक्ति है। ऐसा जानना चाहिए। फिर यह जो वन्दन पूजन है अर्थात् काय आदि के द्वारा किया जाने वाला सत्कार है, वह भी अनर्थ का मूल होने से पंक के समान है। ऐसा जानकर विद्वान् पुरुष वन्दन सत्कार आदि प्राप्त होने पर गर्व न करे गर्व सूक्ष्मशल्य है, अतः उसका निकलना बहुत कठिन होता है। तथा संस्तव अर्थात् परिचय का त्याग करे। आशय यह है-संसारिकजीवों का परिचय महान् पंक है, ऐसा जानकर सांसारिक जीवों के साथ परिचय न करें। तथा वन्दन सत्कार आदि को भी अनर्थ का मूल जान कर गर्व न करे, क्योंकि गर्व अत्यन्त सूक्ष्म शल्य के समान है । वडी कठिनाई से उसका उद्धार किया जा सकता है। अतएव मोक्ष के अभिलाषी मुनियों को कदापि (૧) દ્રવ્યપંક અને (૨) ભાવપંક કુટુંબ આદિ દ્રવ્યપંક રૂપ છે, અને આસક્તિ ભાવપંક રૂપ છે. એવું સમજીને સાંસારિક જને પ્રત્યે આસક્તિ રાખવી જોઈએ નહીં. વળી લેકે દ્વારા જે વન્દન, સત્કાર આદિ કરાય છે. તે પણ અનર્થનું મૂળ છે. શરીર નમાવીને જે નસ્કાર કરાય છે તેનું નામ વન્દન છે. અને વસ્ત્ર પાત્રાદિ પ્રદાન કરીને જે પૂજ્યભાવ પ્રકટ કરાય છે, તેનું નામ સત્કાર છે, આ વન્દન અને સત્કારને અનર્થનું મૂળ જાણીને, વન્દન સંસ્કાર આદિ પ્રાપ્ત થવાથી સાધુએ ગર્વ કરે જોઈએ નહીં. ગર્વ સૂક્રમ શલ્ય (કાંટા) રૂપ છે. તેથી તેને કાઢવાનું કાર્ય ઘણુજ મુશ્કેલ છે. માટે સાધુએ ગર્વ કરે જોઈએ નહીં, અને સંસ્તવ (પરિચય) ને ત્યાગ કરે જોઈએ. સાંસારિક જેને પરિચય મહાન પંક સમાન છે, એવું સમજીને તેમના પરિચયને ત્યાગ કરે જોઈએ વન્દન સત્કાર આદિને પણ અનર્થનું મૂળ ગણુને ગર્વ કરે જોઈએ નહીં. કારણ કે ગર્વ સૂક્રમ શલ્ય સમાન છે જેમ સૂફમ શલ્યને બહાર કાઢવાનું કાર્ય ઘણું દુષ્કર થઈ પડે છે. એ જ પ્રમાણે ગર્વને ત્યાગ કરવાનું કાર્ય પણ ઘણું દુષ્કર થઈ પડે છે. તેથી મેંક્ષાભિલાષી મુનિએ કદી ગર્વ કરવું For Private And Personal Use Only Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६४ सूत्रकृतात्रे I कदापि न कर्त्तव्यः । अपि तु दृष्टिविष जग इवा दूरेण परिहरणीय इति भावः । उक्तंचान्यत्रापि -- "पलिमंथ महंपि याणिया जा वि य वंदण पूयणा इह । सुमं सलं दुरुद्धरं तं पि जिणे एएण पंडिए || १ ॥ अस्य चायमर्थः साधोः स्वाध्यायाध्ययनतपस्यादि परस्य सर्वतो बाह्याभ्यन्तर ऐहिकाऽऽमुष्मिक विषयवितृष्णस्य अन्यै र्योऽयं वन्दननमस्कारादि सरकार: क्रिमते, सोपि सदनुष्ठानस्य सद्गतेर्वा महान् परिमन्थी, इति विज्ञाय परित्यजेत् । आदरसत्कारमानपूजादिर्महान् विघ्नो भवति, स्वरूपत उपस्थिस्तदा का कथा शब्दादिविषयविषयकाऽसक्तेरिति विज्ञाय परिषहोपसर्ग सहनशीलो धीरो वक्ष्यमाणोपायेम्यः तं दुरुदरं सूक्ष्मं शल्यं परित्यजेत् इति ॥ ११ ॥ 44 " गर्व नहीं करना चाहिए | परन्तु दृष्टिविष सर्प के समान दरसे ही त्याग देना चाहिए । अन्यत्र कहा भी है- “ पलिमंथ महंपि याणिया " इत्यादि । 'स्वाध्याय, अध्ययन, तपश्चरण में निरत, बाह्य आभ्यन्तर एवं इसलोक तथा परलोक सम्बन्धी विषयों की तृष्णा से रहित साधु का दूसरों के द्वारा जो वंदन नमस्कार आदि सत्कार किया जाता है, वह भी उस साधु के सद् अनुष्ठान और सद्गति में घोर विघ्नरूप है । ऐसा जान कर साधु को इस - विघ्न पर भी विजय प्राप्त करना चाहिए । अर्थात् वन्दनादि होने पर अभिमान नहीं करना चाहिए । विनाकामना के अनायास होने वाले आदर सत्कार, मान समान आदि भी साधु जीवन के महान् विघ्न हैं तो शब्दादि विषयों की आसक्ति का तो જોઇએ નહીં, પરન્તુ દૃષ્ટિવિષ સર્પની જેમ દૂરથી જ તેના ત્યાગ કરવો જોઇએ. કહ્યું या छे -- " पलिमंथ महंपि याणिया ” इत्यादि “स्वाध्याय, अध्ययन भने तपश्चरणुभां निरत ( प्रवृत्त), बाह्य, आत्यांतर मने मासो તથા પરલાક સ ંબ ંધી વિષ્યની તૃષ્ણાથી રહિત સાધુના લોકો દ્વારા જે વંદન નમસ્કાર આદિ રૂપ સત્કાર કરાય છે. તે પણ તે સાધુના સદ્ અનુષ્ઠાન અને સદ્ગતિમાં ઘોર વિન્ન રૂપ થઇ પડે છે, એવું સમજીને સાધુએ આ વિદ્મ પર પણ વિજય પ્રાપ્ત કરવા જોઇએ. એટલે કે લેાકો દ્વારા વન્દન નમસ્કાર આદિ રૂપ સત્કાર કરવામાં આવે, તે પણ અભિમાન કરવું જોઇએ નહીં "" રાત્કાર, સન્માનની કામના કર્યા સિવાય પણ જે સત્કાર સન્માન થાયછે, તે પણ જો For Private And Personal Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir या । समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ निजपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५६५ पुनरुपदेशान्तरमनुवदति सूत्रकारः-'एगे चरे' इत्यादि । मूलम्-- एगे चरे ठाणमास सयणे एगे स भिक्खू उवहाणवीरिए वइगुते अज्झत्तसंवुडे ॥ १२ ॥ छायाएकश्वरेत्स्थानमासने एकः समाहितः स्यात् । भिक्षुरुषधानवीर्यः वाग्गुप्तोऽध्यात्मसंवृतः ॥१२॥ अन्वयार्थः( भिक्खू ) भिक्षुः (वइगुत्ते) वागगुप्तः सुपर्यालोचिताभिधायी, कहना ही क्या है ? ऐसा जानकर साधु सत्कार आदि की प्राप्ति होने पर लेश मात्र भी गर्व न करें ॥११॥ सूत्रकार पुनः उपदेश करते हैं-"एगे चरे " इत्यादि । शब्दार्थ-'भिक्खू-भिक्षुः' साधु 'वइगुत्ते-वाग्गुप्तः' वचनगुप्त 'अज्झत-- संवुडो-अध्यात्मसंवृतः' और मनसे गुप्त 'उपहाणवीरिए-उपधानवीर्यः' तपसे बल प्रकट करने वाला 'एगे-एकः' अकेला 'चरे-चरेत्' विचरण करे तथा 'ठाणं-स्थानम्' कायोत्सर्गादिक अकेलाही करे एवं 'आसणे-आसने' शयन में भी 'एगे-एकः' अकेला ही रहता हुआ 'समाहिए-समाहितः' धर्मध्यानसे युक्त 'सिया-स्यात्' रहे ॥१२॥ -अन्वयार्थवचनगुप्ति वाला अर्थात् भलीभांति विचार कर बोलने वाला, मनका સાધુજીવનના મહાન વિદં રૂપ છે, તે શબ્દાદિ રૂપ આસક્તિની તો વાત જ શી કરવી ! એવું સમજીને સત્કાર આદિની પ્રાપ્તિ થવાથી સાધુએ ગર્વ કરે જોઈએ નહીં. ગાથા ૧૧ છે सूत्रार साधुने उपदेश मापे छ -" एगे चरे" त्यादि शम्वार्थ-भिक्खु-भिक्षुः साधु 'वइगुत्ते-वाग्गुप्तः' क्यनशुत 'अज्झत्तसंवुडो-अध्यात्म संवृतः' भने भनथी गुप्त उवहाणवीरिए-उपधान वीर्यः' तपथी १४८ ४२वावाणा 'पगे-एक गेसो 'चरे-चरेत्' वियाए ४२ तथा 'ठाणं स्थानम्' योत्साहि मेसो ४२ 'सपणे-शयने शयनमा ५५५ 'एगे-एकः' मेदो २डीने 'समाहिए-समाहितः' धर्म ध्यानथी युश्त 'सिया-स्यात्' २हे. ॥१२॥ -सूत्राथવચનગુપ્તિવાળા (ખૂબજ વિચારીને બોલનાર), મસિવાળે (મનનું સંવરણ For Private And Personal Use Only Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६६ सूत्रकृतारने (अज्ज्ञत्तसंवुडो)अध्यात्मसंवृतः-अध्यात्म मनः तेन संवृतः (उवहाणवीरिए)उपधानवीर्य :-उपधानमुग्रतपस्तत्र वीर्यबलं यस्य स तथा, (एगे) एकः असहायः (चरे) चरेत् तथा (ठाणं) स्थानं कायोत्सर्गादिकमेक एव कुर्यात् (आसणे) आसने तथा (सयणे) शयनेपि (एगे) एक एव (समाहिए) समाहितः (सिया) स्यात्, सास्वप्यवस्थासु रागद्वेषविरहात् समाहित एव भवेदिति।।१२।। टीका'भिक्खू' भिक्षुः 'वइगुत्ते' वचनगुप्तः 'अज्ज्ञत्तसंवुडे' अध्यात्मसंवृत अध्यास्मं मनस्तेन मनसा गुप्तः 'उवहाणवीरिए' उपधानवीर्यः, साभिग्रह उपधानमुग्रं तपः तादृशतपसि वीर्य यस्य स उपधानवीर्यः । मुनिवृन्दमध्ये स्थितोऽपि 'एगे, एकः संवरण करने वाला तथा तपश्चरण में उग्र पराक्रम वाला भिक्षु अकेला विचरे, अकेला ही कायोत्सर्ग आदि करें, आसन और ‘शयन में भी अकेला ही होकर समाहित रहे, अर्थात् अनेक मुनिराजों के परिवार में रहता हुआ भी रागद्वेष रहित होकर समाधियुक्त ही रहे ॥१२॥ टीकार्थभिक्षु वचन से गुप्त तथा मन से गुप्त हो । अभिग्रह युक्त तप उग्रतप कहलाता है। ऐसे उग्रतप में पराक्रमवान् हो। वह एक अर्थात् रागद्वेष से रहित ही विचरे । जिसका कोई सहायक न हो वह एक या अकेला कहलाता है। साधु द्रव्य से सहायक से रहित और भावसे रागद्वेष से रहित हो। अकेला अर्थात् अनेकमुनिराजों के परिवार में रहता हुआ भी रागद्वेष से કરનાર) અને તપશ્ચરણમાં ઉગ્ર પરાકમવાળે ભિક્ષુ એકલે વિચરે, એકલે કાત્સર્ગ આદિ કરે, અને આસન અને શયનમાં પણ એ જ સમાહિત રહે. એટલે કે અનેક મુનિઓના પરિવારમાં રહેવા છતાં પણ રાગદ્વેષને ત્યાગ કરીને સમાધિયુત જ રહે ૧૦ -2012ભિક્ષુએ મને ગુપ્ત અને વચનગુપ્ત બનવું જોઈએ. અભિગ્રહ યુક્ત તપને ઉગ્ર તપ કહે છે. તેણે એવા ઉગ્રતામાં પરાક્રમવાન થવું જોઈએ તેણે એકલા એટલે કે રાગદ્વેષથી રહિત થઈને વિચારવું જોઈએ. જેને કોઈ સહાયક ન હોય, તેને એક અથવા એકલે કહે છે સાધુએ દ્રવ્યની અપેક્ષાએ સહાયકથી રહિત અને ભાવની અપેક્ષાએ રાગદ્વેષથી રહિત થવું જોઈએ અનેક મુનિરાજેના પરિવારમાં રહેવા છતાં પણ તે એકલે (રાગદ્વેષથી રહિત થઈને જ For Private And Personal Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ निजपुत्रेभ्यः भगवादिनाथोपदेशः ५६७ रागद्वेषरहित एव 'चरे' चरेत् एकः नास्ति अतिरिक्तः सहकारी यस्य स एकः, द्रव्यतोऽसहायः भावतो रागद्वेषादिरहितः चरेत् । ' ठाणं' स्थानम्, तथा एक एव रागद्वेपरहित एव कायोत्सर्गादिकं कुर्यात् । तथा 'आसणे सगणे' आसने शयने - आसनेऽपि रागद्वेषविरहित एव तिष्ठेत् । तथा शयनेऽपि रागद्वेषरहितो भवेत् । 'समाहिए सिया समाहितः स्यात्, धर्मध्यानादियुक्तोऽपि स्यात् । ૪ ५ ७ ६ णो पीहेण याव अयं भावः - सर्वास्वप्यवस्थासु आसनशयनस्थानादिषु रागद्वेषरहितः समाहितएव स्यात् । मनो वचोभ्यां गुप्तः तपसि पराक्रमशीलः साधुः स्थानासनशयनेषु एक एव वसन, धर्मध्यानयुक्तो भूत्वा सर्वदा रागद्वेषरहितः एव विचरे दिति साधवे उपदेशः क्रियते । एकाकि विहारनिषिद्धत्वेन एक शब्देनात्र रागद्वेपरहित इत्यर्थः || १२ || पुनरपि उपदिशति सूत्रकारः - ' णो पीहेण याव, इत्यादि । ९ १० १२ ११ पुट्ठे ण उदाहरे वयं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलम् ८ ३ २ पंगुणे दारं सुन्नघरस्स संजए । १३ ૧૩ १५ १६ ण समुच्छे णो संथरे तणं ॥ १३॥ छाया नो पिदध्या यावत् प्रगुणयेदद्वारं शून्यगृहस्य भिक्षुः । पृष्टो नो हरेद्वाचं न समुच्छिन्द्या न्नो संस्तरे चणम् ||१३|| रहित होकर ही कायोत्सर्ग आदिकरे । आसन पर भी रागद्वेष से रहित होकर बैठे। शयन में भी रागद्वेष से रहित हो तथा धर्मध्यान आदि से युक्त भी हो । तात्पर्य यह है सभी अवस्थाओं में आसन शयन स्थान आदिमें रागद्वेष रहित धर्मध्यान से युक्त ही हो । मन और वचन से गुप्त, तपस्या में पराक्रमवान् साधु स्थान शयन आसन आदि में एकाकी ही वसता हुआ, धर्मध्यान से युक्त होकर सर्वदा रागद्वेष से रहित ही विचरे । यह साधु के लिए उपदेश किया गया है। एकाकी विहार निषिद्ध है अतएव एकाकी शब्द से यहाँ रागद्वेष से रहित अर्थलेना चाहिए || १२ || કાર્યોત્સર્ગ આદિ કરૂં. તેણે રાગદ્વેષથી રહિત થઇને આસનપર બેસવું અને શયના વિષયમાં પણ રાગદ્વેષ રાખવા જોઇએ નહીં. તેણે ધમ ધ્યાન આદિમાં પ્રવૃત્ત થવુ જોઇએ. આ કષ્નના ભાવાર્થ એ છે કે સાધુએ સઘળી અવસ્થાઓમાં આસન, શયન સ્થાન આદિમાં રાગદ્વેષ રહિત અને ધમ ધ્યાનથી યુક્ત રહેવુ જોઇએ મનાગુપ્ત, વચનગુપ્ત તથા તપસ્યામાં પ્રવૃત્ત સાધુ, સ્થાન, શયન, આસન, આદિમાં એકાકી જ વસે અને ધમ ધ્યાન આદિથી યુકત થઇને તથા રાગદ્વેષથી રહિત થઇને જ વિચરે. સૂત્રકારે સાધુને આ ઉપદેશ આપ્યા છે શાસ્ત્રોમાં એકલવિહારનો નિષેધ ફરમાવ્યા છે, તેથી અહીં “ એકાકી ” પંદ 66 રાગદ્વેષથી ' રહિતના અર્થમાં વપરાયું છે, એમ સમજવું ! ગાથા ૧૨૫ For Private And Personal Use Only Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६८ सूत्रकृतास अन्वयार्थः .. (संजए) संयत-साधुः (सुन्नघरस्स) शून्यगृहस्य--शयनादिनिमित्तेन शून्यगृहमाश्रितः साधुः शून्यगृहस्य 'दारं द्वारम् (णो पीहे) नो पिदध्यात्, तथा(न जाव पंगुणे) न यावत्प्रगुणयेत् नोघाटयेदित्यर्थः, तथा(पुढे)पृष्टः केनचित् (वयं)वचनं सावधं (ण उदाहरे) नोदाहरेत् नोवदेदित्यर्थः, तथा (ण समुच्छे) न समुच्छिन्यात्-न प्रमार्जयेदित्यर्थः तथा शयनार्थम् तृणं तृणं-घासादिकम् (णसंथरे) न सस्तरेत्-तृणैरपि संस्तारकं न कुर्यादिति ॥१३॥ टीका-- 'संजए' संयतः-- साधुः ज्ञानदर्शनचारित्रसंपन्नः। सुन्नघरस्स, शून्यगृहस्य 'दार द्वारम् ‘णो पीहे' नोपिदध्यात् । न ‘यावपंगुणे' न यावत्प्रगुणयेत् न उद्घाटयेत् सूत्रकार फिर उपदेश देते हैं-"णो पीहेण याव " इत्यादि । शब्दार्थ--'संजए-सयतः साधु 'मुन्नघरस्स-शून्यगृहस्य' शून्यघर का दारं-द्वारम्' दरवाजा ‘णो पीहे-नो पिदध्यात्' बन्द न करे 'न यावपंगुणे-न यावत्प्रगुणयेत्' तथा न खोले तथा 'पुट्टे-पृष्टः' किसी के द्वारा पूछने पर 'वयं-वनचम्' सावधवचन ‘ण उदाहरे-नोदाहरेत्' न बोले एवं ‘ण संमुच्छे-न समुच्छिन्द्यात्' उस गृह का कचरा न निकाले तथा 'तणं-तृणम्' घास वगैरह भी 'ण संथरे न संस्तरेत्' न बिछावे ॥१३॥ अन्वयार्थ- शयन आदि के निमित्त से सूने घर में रहा हुआ साधु सुनेघर के द्वारको बन्द न करे और न खोले । किसी के पूछने पर सावध वचन न बोले । घर का प्रमार्जन न करे और सोने के लिए घास आदि भी न बिछावे ॥१३॥ साधुने उपहेश २५ता सूत्र॥२२॥ विशेष ४थन ४२ छ.-" णो पीहेण याव" त्याह . शहाथ-'संजए-सयतः साधु सुन्नधरस्स-शून्यगृहस्य' शून्यधरना 'दारं-द्वारम ४२वान-यो ‘णो पीहे-नो पिदध्यात्' ५५ । ४२ 'न यावपंगुणे-न यावत्प्रगुणयेत् तथा न मालत तथा 'पुढे-पृष्टः' आना द्वारा पूछाथी 'वयं वचनम् सावध क्यन 'न उदाहरे-नोदाहरेत्' ना मासे अवम 'न समुच्छे-न समुच्छिन्द्यातू' ते ध्यरी न ४ाडे तथा 'तणं-तृणम्' धास वगेरे ५५ ‘ण संथरे न संस्तरेत्' ना पाय२ ॥१३॥ -सूत्राथશયન આદિન નિમિત્તે કઈ ખાલી ઘરમાં રહેવાને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થાય, તો સાધુએ તે સૂના ઘરના દ્વારને બંધ પણ કરવું નહીં અને બોલવું પણ નહીં. કોઈને દ્વારા કોઈ પ્રશ્ન પૂછાય તે સાધુએ સાવધવચન બોલવા જોઈએ નહીં સાધુએ તે ઘરને વાળવું ઝુડવું જોઈએ નહીં અને શયનને નિમિત્ત ઘાસ આદિ પણ બિછાવવું જોઈએ નહીં ૧૩ For Private And Personal Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६९ समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिना थोपदेशः 'पुढे' केनचित् पृष्टः 'वयं' वचनम्, 'ण उदाहरे' नोदाहरेत् नैव सावद्यवचनं ब्रूयात् 'ण समुच्छे' नसमुच्छिन्द्यात् न समार्जनं कुर्याद् गृहस्य 'वर्ण' तृणम् 'न संवरे' न संस्तरेत् । रात्रिसमथापनाय वासार्थं गृहं गतः साधुः शून्यगृहस्य द्वारं नोवाटयेत् न वा पिधानं कुर्यात् । तत्र स्थितोऽन्यत्र स्थितो वा केनचित् धर्मादि मार्ग पृष्टः सावद्यवचनं न ब्रूयात् । जनकल्पस्तु निरवद्यामपि वाचं नोदाहरेत् । तथा गृहस्य संमार्जनादिकं नैव कुर्यात् । तथा आस्तरणार्थं तृणादिकमपि न संस्तरेव । किमुतवक्तव्यं कम्बलादीनाम् । यत्र तृणाद्युपधानमपि निषिद्ध सदद्यत्वेऽद्यतनीयसाध्वाभासा बहुमूल्यकम्वलादीनां संचयं शय्यार्थं कुर्वन्तीति टीकार्थ ज्ञान, दर्शन और चारित्र से सम्पन्न साधु शून्यगृहका द्वार बन्द न करे और न बन्द द्वारको खोले । किसीके पूछने पर सावद्यवचन न बोले घरको भी न झाडे और घासका भी विस्तर न बिछावे । तात्पर्य यह है after समय व्यतीत करने के लिए घर में गया साधु शून्यगृहका द्वार न खोले और न खुले द्वार को बंद करे । वहां या अन्यत्र स्थित साधुसे कोई धर्म का मार्ग पूछे तो साधु सावद्यवचन भी न बोले । तथा घरको झाडे नहीं । बिछौने के लिए तुण आदि भी न विछावे तो कम्बल आदि विछौने की तो बात ही क्या है ? जहां घास आदिका उपधान । सिरहाना, भी निषिद्ध किया गया है, वहां आजकलके Harare car के लिए बहुमूल्य कम्बल आदिका संचय करते हैं । -टीअर्थ - જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્ર સોંપન્ન સાધુએ શૂન્યગૃહનું દ્વાર ખંધ પણ કરવુ નહીં અને ખાલવું પણ નહીં કોઈ પણ વ્યક્તિ પૂછે, ત્યારે સાવદ્ય વચન બેલવા નહીં. તેણે ઘરને વાળવું પણ નહીં અને ઘાસનું બિછાનું પણ બિછાવવું નહીં. આ કથનના ભાવાથ એ છે કે રાત્રિનો સમય પસાર કરવા માટે ઘરમાલિકની આજ્ઞા લઈને કોઈ ખાલી ઘરમાં રાત્રિવાસો કરવામાં આવે, ત્યારે સાધુએ તે શૂન્ય ઘરના દ્વાર બંધ પણ કરવા ન જોઈએ. અને ખાલવા પણ ન જોઈએ તે શૂન્ય ઘરમાં અથવા અન્યત્ર રહેલા સાધુને કોઈ વ્યકિત ધર્મના માર્ગ પૂછે, તો તે સાધુએ સાવદ્ય વચન ખેલવા જોઇએ નહીં તેણે તે ઘરને વાળવું ઝુડવું જોઇએ નહીં અને બિછાના માટે તૃણાદિ પણ બિછાવવા ન જોઈએ જે બિછાના માટે ઘાસ આદિ બિછાવવાના પણ નિષેધ છે, તેા કામળ આદિના તા નિષેધ જ હોય તેમાં નવાઇ શી છે. ! જ્યારે ઘાસ આદિના બિછાનાનો પણ નિષેધ છે, ત્યારે હાલના સાધુએ શય્યા નિમિત્તે બહુમૂલ્ય ફામળ सू. ७२ For Private And Personal Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास्त्रे भाषः। उक्तंचान्यत्रापि "न पिदध्याद्गृहद्वारं शून्यागारस्य भिक्षुकः । वचो नोदाहरेत् पृष्टः संस्तरेन तृणं स्वयम् ॥१॥ गा ॥१३॥ 'जत्थऽत्थ' इत्यादि । मूलम्-- जत्थऽत्यमिये अणाउले समविसमाई मुणीऽहियासए । चरगा अदुवा वि भेरवा अदुवा तत्थ सरीसिवा सिया ॥१४॥ छायायत्रास्तमितः अनाकुलः समविषमाणि मुनिरधिसहेत । चरका अथवापि भैरवा अथवा तत्र सरीसृपाः स्युः ॥१४॥ अन्यत्र भी कहा गया है-- 'न पिदध्यागृहद्वारम्, इत्यादि । 'भिक्षु सुने घरका द्वार बंद न करे, पूछने पर न बोले और न स्वयं घास विछावे ये जिनकल्पिक कि अपेक्षा से कहा गया है ॥१३॥ शब्दार्थ--'मुणी-मुनिः' धर्मध्यान परायण साधु 'जत्थ-यत्र' जहां 'अत्थमिए-अस्तमितः' सूर्य अस्तहों वहीं 'अणाउले-अनाकुल:' क्षोभरहित होकर निवास करे तथा 'समविसमाई-समविषमाणि' अनुक्ल और प्रतिकूल असन शयन आदिको 'अहियासहे-अधिसहेत' रागद्वेषसे रहित होकर सहन करे जो वहां 'चरगा-चरकाः' मच्छर 'अदुवा वि-अथवापि' अथवा 'भेरवा-भैरवाः भयानक प्राणी माहिना ने संचय ४३छ. ते मनुचित गाय मुथु ५९५ डे-न 'पिदध्यात् गृहद्वारम्' त्याह ભિક્ષુએ સુના ઘરનું દ્વાર બંધ ન કરવું અને ખેલવું પણ નહીં. તેણે પ્રશ્ન પૂછવામાં આવે, તે પણ બોલવું નહીં અને ઘાસ આદિ બિછાવવું પણ નહીં આ કથન જિનકપિકની અપેક્ષાએ કરવામાં આવ્યું છે. આ ગાથા ૧૩ વળી સાધુને સૂત્રકાર આ પ્રમાણે ઉપદેશ આપે છે. Awar-'मुणी -मुनिः' मध्यान पराया साधु 'जत्थ-यत्र' त्या 'अथिमिए अ-- स्तमितः' सूर्य अस्त थाय त्यो 'अगाउले अनाकुल' माइत ने निवास ४२ तथा 'समविसमाई-समविषमाणि' अनुण अने प्रतिण मशन शयन गेरेने 'अहियासहे-अधिसहेत' राषथी २हित धने. इन ४२. नेत्यां चरणा बरकाः' भ२०२ अदुवा वि-अथगपि' अथवा 'मेरवाभैरवाः अयान प्राणी 'भतुवा-- For Private And Personal Use Only Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समया बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगववादिनायोपदेश ५७९ -अन्वयार्थ(मुणी) मुनिः-धर्मध्यानादिपरायणः साधुः (जत्थ) यत्रस्थाने (अत्थमिए, अस्तमितः सूर्यः तव (अणाउले) अनाकुलः क्षोभरहितः (समविसमाइ) समविषमाणि=अनुकूलप्रतिकूलानि शयनासनादीनि (अहियासए) अधिसहेत रागद्वेषराहित्येन सहेत यदि तत्र (चरगा) चरकाः दमशकादयः (अदुवावि) अथवापि (मेरवा) भैरवाः-भयानका राक्षसादयो भवेयुः (अदुवा) अथवा (तत्थ) तत्र (सरीसिवा) सरीसृपाः-सर्पाः वा (सिया) स्युः-भवेयुः तत्कृतान् परीपहान् सम्यक अधिसहेत इति ॥१४॥ टीका 'मुणी' मुनिराजः 'जत्थ' यत्र 'अत्यमिये सूर्योऽस्तंगतो भवेत् विहारं कुर्वतोमुनेः 'तत्थ ! तौव 'अणाउले ' अनाकुलः, जलनिधिर्यथा मकरादिभिः 'अदुवा-अथवा' अगर 'तत्थ-तत्र' वहां 'सरीसिवा-सरीसपाः सर्पवगैरह 'सियास्युः' हों तोभी तत्कृत परीषहों को सम्यग् प्रकार से सहन करे ॥१४॥ अन्वयार्थजहां सूर्य अस्त हो जाय वहीं मुनि आकुलता रहित होकर ठहर जाय सम विषम शयन आसन आदिको रागद्वेषसे रहित हो सहन करे । अगर वहां मच्छर हो अथवा भयानक राक्षस आदि हो अथवा सर्प आदि हो तो उनके द्वारा कृत उपसर्गोंको सम्यक् प्रकार से सहन करे ॥१४॥ टीकार्थविहार करते हुए साधुको जहां सूर्य अस्त हो जाय वहीं ठहर जाना चाहिए। जैसे मगर आदि से समुद्र क्षुब्ध नहीं होता, उसी प्रकार परिअथया' म॥२ 'तत्थ-तत्र' त्या 'सरोसिवा-सरीसृपाः' सा५ वगेरे सिया-स्युः' હેય તે પણ તસ્કૃત પરિષહેને સમ્યક્ પ્રકારથી સહન કરે . ૧૪ सूत्राथવિહાર કરતાં કરતાં જ્યાં સૂર્યાસ્ત થઈ જાય, ત્યાં સાધુએ આકુલતાથી રહિત ભાવે થંભી જવું જોઈએ. તેણે સમવિષમ શયન, આસન આદિને રાગદ્વેષથી રહિત થઈને સહન કરવા જોઈએ કદાચ તે સ્થાન ડાંસ મચ્છર આદિથી યુક્ત હોય, અથવા ત્યાં રાક્ષસ, સાપ આદિ રહેતા હોય, તે તેમના દ્વારા જે ઉપસર્ગો આવી પડે, તે સમભાવપૂર્વક સહન કરવા જોઈએ. ૧૪ ___ -- - સાધુ જ્યારે વિહાર કરી રહ્યા હોય, ત્યારે સૂર્યાસ્ત થતાં વિહાર ચાલુ રાખે નહીં સૂર્યાસ્ત સમયે તેઓ જ્યાં પહોંચ્યાં હોય, ત્યાં જ થંભી જવું જોઈએ. જેવી રીતે મગર For Private And Personal Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७२ - सूत्रकृतास्त्र शोभं नासादयति, तथा परिपहोपसर्गरक्षुभ्यन् 'समवसमाई! अनुकूलप्रतिक्लानि शपनाऽऽसनादिकानि रागद्वेषरहिततया समविषमाणि अहियासए' अधिसहेत-परीषहोपसर्गसहनं कुर्यात् । तत्र शून्यगृहादौ स्थितस्य तस्य साधोः 'चरगा' चरकाः चरन्तीति चरकाः दंशमशकादयः भवेयुः, 'अदुवा वि' अथवापि 'मेरला भैरवा भीषणाः भयानकाः रक्षःपिशाचादयः भवेयुः ‘अदुवा' : अथवा 'सरीसृपा' सर्पवृश्चिकादयः 'सिया' स्युभवेयुः । तथापि तीव वसेत् , तेषां प्रतिक्लाचरणादन्यत्र तत्स्थानं परित्यज्य न गच्छेत, अनुद्विग्नमनाःसन् सर्व परीषहोपसर्ग सहेत चारित्रवान् पुरुषः यत्र सूर्योऽस्तं गतो भवेत्तौव क्षोभरहितो वसेत्, तत्स्थानम् आसनशयनयोरनुक्लं प्रतिकूल वा भवेत् सर्वं सहेत । यदि तस्मिन् स्थाने दंशमशकादयो भवेयुस्थवा भयकारिणो रक्षःपिशाचादयो भवेयुरथवा सर्पादयो भवेयुः तथापि तौव सर्वपरीपहं सहन् निवासं कुर्यात् । न तु प्रतिकूलतया पहों और उपसर्गों से क्षुब्ध न होते हुए अनुकूल और प्रतिकूल शयन और आसनों को सहन करना चाहिए । शून्य गृह आदिमें कदाचित् डांस मच्छर आदि हो अथवा भयानक राक्षस पिशाच आदि हो अथवा सांप विच्छ आदि हो तो भी उसे वहीं रहना चाहिए। उनके विरोधी आचरण से घबरा कर उस स्थान को छोडकर न जाए। चित्त मे उद्वेग न लाकर समस्त परीपहों और उपसर्गों को सहन करे। __आशय यह है कि चारित्रवान् पुरुष वहीं रह जाय जहां चलते चलते सूर्य अस्त हो जाए, चाहे उस स्थान में शयन और आसन अनुकूल हों या प्रतिकूल हों, सबको सहन करे। यदि उस जगह डांस मच्छद हो या भयंकर राक्षस आदि पिशाच हो, अथवा सर्प आदि हो तथापि वहीं पर આદિ વડે સમુદ્ર સુબ્ધ થતું નથી, એજ પ્રમાણે ગમે તેવા પરીષહ અને ઉપસર્ગો આવે તે પણ સાધુએ સુબ્ધ થવું જોઈએ નહીં. તેમણે અનુકૂળ શયન અને આસનેને સહન કરવા જોઈએ. જે ઘરમાં સાધુએ ત્રિવાસે સ્વીકાર્યો હોય, તે ઘરમાં કદાચ ડાંસ, મચ્છર આદિને નિવાસ હય, અથવા ભયંકર રાક્ષસ, સાપ આદિ રહેતા હોય અથવા સાપ, વીંછી આદિને વાસ હોય, તે પણ તેણે ત્યાં જ રહેવું જોઈએ. તેમના ભયથી ગભરાઈને તેણે તે સ્થાન છોડવું જોઈએ નહીં, અને તે ડાંસ, મચ્છર, રાક્ષસ આદિ દ્વારા જે ઉપસર્ગો આવી પડે, તેમને સમભાવે (ચિત્તમાં ઉદ્વેગ કર્યા વિના) સહન કરવા જોઈએ. તાત્પર્ય એ છે કે સાધુએ સૂર્યાસ્ત બાદ વિહાર ચાલુ રાખવું જોઈએ નહીં, પણ સૂર્યાસ્ત થતાં જ આગળ ચાલવાનું થંભાવી દેવું જોઇએ જે સ્થાને તેઓ રાત્રિદરમિયાન નિવાસ કરે તે સ્થાનમાં શયન અને આસન ચાહે અનુકૂળ હોય કે પ્રતિકુળ હોય, પણ તેથી ઉદ્વિગ્ન થવું જોઈએ નહીં જે તે જગ્યાએ ડાંસ, મચ્છર, ભયંકર રાક્ષસ, પિશાચ For Private And Personal Use Only Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाय बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५७३ तत्स्थानं परित्यज्याऽन्यत्र गच्छेत् सर्वसहो भवेत् पृथिवीवत इति भावः ॥१४॥ उपसर्गत्रयं साढव्यमित्युक्तम् तमेवोपसर्गमधिकृत्याह सूत्रकारः 'तिरिया' इत्यादि । तिरियमणुया य दिव्वगा उवसग्गा तिविहाऽहियासिया। लोमादीयं ण हारिसे सुन्नागारगओ महामुणी ॥१५॥ -छायासैरश्वान्मानुषांश्च दिव्यगान उपसर्गान त्रिविधा अधिसहेत । रोमादिकमपि न हर्पयेत् शून्यागारगतो महामुनिः ॥१५ सब उपसर्गोंको सहन करता हुआ निवास करे । प्रतिकूल होनेके कारण उस स्थान को त्याग कर अन्यत्र न जाए । साधु पृथ्वी के समान सर्व सहिष्णु बने ।१४। तीन प्रकारके उपसर्गोको सहन करना कहा, अब उपसर्गके विषय मे ही सूत्रकार कहते हैं- 'तिरिय' इत्यादि शब्दार्थ---'महामुणी--महामुनिः जिनकल्पिकादि महामुनि 'सुन्नागारगओ शून्यागारगतः शून्यगृह में जाकर 'तिरिया--तैरश्चान्' तिर्यञ्चसंबंधी तथा 'मणुया-- मनुजान्' मनुष्य संबंधी एवं 'दिव्वगा-दिव्यगान्, तथा देव द्वारा किये हुए 'तिविहा--त्रिविधान्' तीनों प्रकारके 'उवसग्गा--उपसर्गान्' उपसर्गों को 'अहियासिया--अधिसहेत' सहन करे 'लोमादियं--लोमादिकम्' लोम आदि का भी 'ण हारिसे--न हर्षयेत्' हर्षित् न करे अर्थात् भयसे रोम आदि को भी न कंपावें ।।१५।। સર્પ, વીછી આદિને વાસ હોય અને તેમના દ્વારા જે ઉપગે કરવામાં આવે તેને સમભાવે સહન કરે. એવી પરિસ્થિતિમાં પણ તેણે તે સ્થાનને છેડવું જોઈએ નહીં, પણ પૃથ્વીના સમાન સહિષ્ણુતા જાળવવી જોઈએ. ગાથા ૧૪ આગલી ગાથામાં ત્રણ પ્રકારના ઉપસર્ગો સહન કરવાનું કહ્યું હવે સૂત્રકાર ઉપસર્ગોને विषे विशेष ४थन ४२ छ-"तिरिय" त्यादि शहाथ - 'महामुणी-महामुनिः' नल्पित वगेरे महामुनि सुन्नागारगओ-शून्यागारगतः शून्यमाने 'तिरिया-तैरश्चान्' तिय य संधी तथा 'मणुया-मनुजान् मनुष्य २५ पी. मेवम् 'दिव्वगा-दिष्यगान्' तथा हेव द्वारा ४२८ 'तिविहा-त्रिविधान' ऋथे प्रारना 'उबसग्गा-उपसर्गान्' उपसगाने 'अहियासिया-अधिसहेत' सहन ४२ 'लोमादिय-लोमादिकम्' वाण वगैरेने पण 'न हारिसे-न हर्ष येत्' पित ना ४२ અર્થાત્ ભયથી વાળ વગેરે પણ ન કંપાવે ૧પ For Private And Personal Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतास -अन्वयार्थ:__ (महामुणी) महामुनिर्जिनकल्पिकादिः (मुन्नागारगओ) शून्यागारगतः शून्यगृहे स्थितः सन् (तिरिया) तैरश्चान्-तिर्यक् संवन्धिन इति (य) च-पुनः (मणुया) मानुजान्-मनुष्यसंबन्धिनः (दिव्वगा)दिव्यगान् देवसंवन्धिनः (तिविहाउवसग्गा) त्रिविधान् उपसर्गान् (अहियासिया) अधिसहेत-नोपसर्गेर्विकारं गच्छेत् तदेव दर्शयति (लोमादीय) लोमादिकम् (ण) न (हारिसे) हर्षयेत् एतैरुपसगैयस्तो महामुनिः रोमादिकमपि न कंपयेत् किं पुनर्देहादिचालनमिति ॥१५॥ टीका 'मुन्नागारगओ' शून्यागारगतः-शून्यगृहे कायोत्सर्गादिकर्तुस्थितः 'महामुणी' महामुनिः,मननशीलो मुनिः, महांश्चासौ मुनिश्चेति महामुनिः, मुनौ महत्त्वमितिविशेषणात् अत्र प्रकरणे मुनिपदं वज्रऋषभनाराचसंहननसमन्वितस्य जिनकल्पिकस्य ग्रहणं सूचयति तेन महामुनिर्जिनकल्पी, किं करोति तत्राह-'तिरिया' तिर्यक् अन्वयार्थमहामुनि अर्थात् जिनकल्पिक आदि शून्य गृह में स्थित होकर तिर्यंचों संबंधी मनुष्योंसंबंधी और देवों संबंधी तीनों प्रकार के उपसर्गोंको सहन करे उनसे विकार को प्राप्त न हो । यही बात आगे दिखलाते हैं-इन उपसर्गों से ग्रस्त होकर मुनि अपना रोम भी न कँपने दे-देह आदि हिलाने की तो बात ही क्या !॥१५॥ टीकार्थशून्य गृह मे कायोत्सर्ग आदि करने के लिए महान् मुनि स्थित हो । जो मननशील हो वह मुनि कहलाता है। यहां मुनि को जो 'महान्' विशेषण लगाया गया है उससे वज्रऋषभनाराच संहनन से युक्त जिनकल्पिक मुनिका ग्रहण सूचित होता है । तो महामुनि अर्थात् जिनकल्पी क्या सत्राथમહામુનિ એટલે કે જિનકલ્પિક આદિ સાધુ જ્યારે કેઈ શૂન્ય ઘરમાં રાત્રિવાસ કરે ત્યારે તિર્યચકૃત, મનુષ્યકૃત અને દેવકૃત, આ ત્રણે પ્રકારના ઉપસર્ગોને સહન કરે તે ઉપસર્ગોને લીધે તેણે ક્ષુબ્ધ થવું જોઈએ નહીં આ પ્રકારના ઉપસર્ગો આવી પડે, તે તેનું રૂંવાડું પણ ફરકવું જોઈએ નહીં. રૂંવાડું પણ ન ફરકે તે શરીર કંપવાની તે વાત જ કયાંથી સંભવે ૧પ -टीअर्थજે મનનશીલ હોય તેને મુનિ કહે છે. મહામુનિએ શૂન્ય ઘરમાં કાર્યોત્સર્ગ આદિ ધાર્મિક અનુષ્ઠાને કરવા જોઈએ અહીં મુનિને જે “મહાન” વિશેષણ લગાયુ છે. તેના દ્વારા વાત્રષભ નારા સંહનન થી યુક્ત જિનકલ્પિક મુનિનું ગ્રહણ કરવાની વાત સૂચિત થાય છે. તેણે કાર્યોત્સર્ગમાં સ્થિત રહીને ત્રણ પ્રકારના ઉપસર્ગોને સહન કરવા For Private And Personal Use Only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. निजपुत्रेभ्यः भगवादिनाथोपदेशः ५७५ संबन्धिनः-सिंहव्याघ्रादिकृतान् ‘मणुया' मनुष्यसंबन्धिनो मनुष्यकृतान्-सत्कारपूजादण्ड कशादिताडनजनितान् अनुकूलान् प्रतिक्लान् 'दिव्वगा' दिव्यगान् व्यन्तरादिना हास्यप्रद्वेषादिजनितान् इत्येतान् तिविहा त्रिविधान् त्रिविधानपि उपसर्गान 'अहियासिया अधिसहेत-कर्मनिर्जराभावनया सहनं कुर्यात् किन्तु तादृश भयादिना 'लोमादीय लोमादिकम् ‘ण हारिसे' न हर्षयेत् न प्रचालयेत् लोमादिकमित्यत्राऽऽदिपदात् दृष्टिमुखविकारादीनां संग्रहः शून्यागारमुपस्थितो महामुनिः तिर्यक् मानुषदेवतासंवधिनखिविधानुपसर्गान् निर्जराभावनया सहेत । भयेनस्वकीयमुखादीनपि न विकंपयेत् किन्तु ऐषु भयंकरेषु शिविधेषु समुत्पन्नेष्वपि उपसर्गेषु मेरुरिवाचलो भवेदिति 'अन्यत्राप्युक्तम् ।। उपसर्गत्रयान यस्तु सहते शान्तधीर्मुनिः । रोमादीन्कम्पये नैव शून्यागारगतोऽपि सन् ॥१ गा० १५॥ करता है ? सो कहते हैं-सिंह व्याघ्र आदि तिर्यंचो द्वारा किये हुए, मनुष्यों द्वारा किये हुए देवद्वारा किये हुए अर्थात् वंदन दंड या चाबुक आदि का प्रहार रूप अनुकूल या प्रतिकूल तथा हास्य या द्वेषके कारण व्यन्तर आदि देवों द्वारा किये हुए तीनों प्रकारके उपसर्गों को सहन करे अर्थात् कर्म निर्जराकी भावना से सह ले। किन्तु उन भयों से रोम आदि भी न हिलने दे। रोमके साथ जुडे हुए 'आदि' पद से दृष्टि या मुख के विकार आदिका ग्रहण समझना चाहिए। शून्यागार मे उपस्थित महामुनि तिर्यचों मनुष्यों और देवो संबंधी तीनों प्रकार के उपसर्गों को निर्जरा की भावना से सहन करे भय के कारण अपने मुख आदि को कम्पित न करे किन्तु इन तीनों प्रकार के भयंकर उपसगों के उपस्थित होने पर भी मेरु की तरह अचल रहे । अन्यत्र भी कहा हैજોઈએ. ઉપસર્ગોના ત્રણ પ્રકાર નીચે પ્રમાણે છે--સિંહ, વાઘ, આદિ તિર્યચકૃત, (२) मनुष्य कृत मने (3) हेवत. तेणे मा रणे प्रा२ना पस! साउन ४२१॥ જોઈએ. અને વંદન, દંડ અથવા ચાબુક આદિના પ્રહાર દ્વારા કરાતા અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગો પણ સહન કરવા જોઈએ. તથા હાસ્ય અથવા શ્રેષને કારણે વ્યન્તર આદિ દેવે દ્વારા જે ઉપસર્ગો કરવામાં આવે, તેમને પણ સહન કરવા જોઈએ આ ત્રણે પ્રકારના ઉપસર્ગો કર્મનિર્જરની ભાવનાથી તેણે સહન કરવા જોઈએ. તે ઉપસર્ગોને કારણે તેનું રૂંવાડું પણ ફરકવું જોઈએ નહીં, મુખ પર અથવા દૃષ્ટિમાં સહેજ પણ વિકાર થે જોઈએ નહીંઆ ઉપસર્ગોને કર્મની નિર્જરી કરવાની ભાવનાથી તેણે સહન કરવા જોઈએ ઉપસર્ગો આવી પડે ત્યારે ભયને કારણે તેના મુખ અને શરીરમાં કંપન થવું જોઈએ. નહીં, પરંતુ તેણે ઉપસર્ગો આવી પડવા છતાં તેના સમાન અચલ રહેવું જોઈએ. અન્યત્ર For Private And Personal Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५७६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे पुनरपि जिनकल्पिकादिमुनिमनुलक्ष्य दर्शयति सूत्रकारः - 'णो अभिकं खेज्ज इत्यादि । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलम् १ ३ ४ ६ णा अभिकखेज्ज जीवियं नोऽवि पूयणपत्थये सिया ९ १० ११ ૭ ८ अम्भस्थ मुनिभेरवा सुन्नागारगयस्स भिक्खुणो १६ नाभिकांक्षेत जीवितं नापि च पूजनप्रार्थकः स्यात् । अभ्यस्ता उपयन्ति भैरवा शून्यागारगतस्य भिक्षोः || १५ ॥ ' उपसर्गत्रयान् यस्तु' इत्यादि । शून्य गृह में स्थित भी शान्त बुद्धिवाला जो मुनि तीनों प्रकार के उपसगको सहन करता है, रोम आदिको कम्पित न करे ।। १५ ।। जिनकल्पी आदि सुनियो को लक्ष्य करके पुनः सूत्रकार कहते हैं- 'णो अभिकखेज्ज' इत्यादि । शब्दार्थ--'जीवियं जीवितम् ' जीवनकी 'गो अभिकखेज्ज--नो अभिकांक्षेत इच्छाकरे नहीं करनी चाहिए 'नोवि य- नापि च' और न 'पूयणपत्थ ए-- पूजन प्रार्थकः, सत्कार काली 'शिया स्यात् ' हो सुन्नागारगयस्स - शून्यागारगतस्य' शून्यगृह में गये हुए 'भिक्खुणो भिक्षोः' साधु को 'भेरवा - भैरवाः ' भयानक प्राणी 'अभत्थंअभ्यस्ताः' अभ्यस्त भाव को 'उविंति - उपयन्ति' प्राप्त हो जाते हैं || १६ || धुं छे.-" उपसर्ग त्रयान् यस्तु" इत्यादि 66 શૂન્ય ઘરમાં સ્થિત (રહેલા) બુદ્ધિમાન્ સાધુ ત્રણે પ્રકારના ઉપસર્ગાને સહન કરે છે તે ઉપસગાંને કારણે તેનું રૂવાડું' પણ ફરકતુ નથી અને ફરકવુ જોઈએ પણ નહીં.’: ॥ गाथा १५ ॥ बिनादिय आहि भुनियोने अनुसक्षीने सूत्रार अडे छे डे-" णो अभिकखेज्ज ઈત્યાદિ शब्दार्थ- 'जीविr - जीवितम्' वननी 'णो अभिक खेज्ज-ना अभिकांक्षेत्' ४२ छ अरे नहि 'नोवि य - नापि च' अनेन पूयणपत्थप-पूजन प्रार्थकः' सानो मलिदाषी 'सिया-स्या ' होय सुन्नागारग यस्स - शून्यागारगतस्य शून्यधरमां गयेला 'भिक्खुणोभिक्षोः' साधुने 'मेरा-भैरवाः' लयान प्राणी 'अम्मत्थं - अभ्यस्ताः' अभ्यस्त भावने 'उवि 'ति - उपयंति प्राप्त था लय छे. ॥ ॥ For Private And Personal Use Only 29 Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ निजपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५७७ -अन्वयार्थ.... ( णो ) नो (जीवियं) जीवितम् जीवनम् (अभिकंखेज्ज) अभिकांक्षेत्जीवनाशां नैव कुर्यादिति । (नोवि य) नापि च (पूयणपत्थए) पूजनप्रार्थकः (सिया) स्यात् नहि परीषहोपसर्गसहनद्वारेण सत्काराभिलापी भवेदिति । यतः (सुन्नागारगयस्स) शून्यागारगतस्य (भिक्खुणो) भिक्षोः साधोः (भेरवा) भैरवा: भयानकाः जन्तवः (अब्भत्थं)अभ्यस्ताः अभ्यस्तभावम् (उविति)उपयंतिगच्छंतीत्यर्थः॥१६॥ -टीकाजिनकल्पिको हि महामुनिः ‘णो' नहि 'अभिकंखेज' अभिकांशेतनैवाभिलषेत्,-उपसर्गाभावः कदा स्यात् येन में प्राणरक्षणं भवेदिति नाभिलपेतु, किंनाऽभिकांक्षेत्-इत्यतआह-'जीवियं' जीवितं जीवनम्, 'नो वि य' नापि च पूयगपत्थये सिया' पूजनत्रार्थनको भवेत्, घोरत्रिविधोपसर्गसहनेन लोकेषु मम वन्दनसत्कारादिकं स्यादिति प्रार्थको नैव भवेत् । परीपहोपसर्गसहनेन किं अन्वयार्थजीवनकी आकांक्षा न करे और न परीपह सहन करने के कारण सत्कार सन्मानकी अभिलाषा करे, क्योंकि शून्यगृह मे स्थित साधुको भयानक जन्तु से भय नहीं होता है ।। १६॥ . टीकार्थजिनकल्पिक महामुनि ऐसी इच्छा न करे कि कब उपसर्गका अभाव हो मेरे प्राणोंकी रक्षा हो ! वह कौन सी इच्छा न करे, सो कहते हैंजीवनकी इच्छा न करे । वह वन्दनादि की इच्छा भी न करे तीनों प्रकार के घोर उपसर्गको सहन करने से लोगों में मेरा बंदन सत्कार आदि हो, ऐसी इच्छा न करे। परीपह और ऊपसर्गको सहन करने से क्या होता है ? सो कहते -सूत्रार्थ- શન્ય ઘરમાં સ્થિત સાધુએ પરીષહ અને ઉપસર્ગોને સહન કરવા જ જોઈએ અને તે વખતે તેણે જીવનની આકાંક્ષા કરવી જોઈએ નહીં પરીષહ સહન કરવાને કારણે સત્કાર સન્માનની અભિલાષા પણ રાખવી જોઈએ નહીં શૂન્ય ઘરમાં રહેતાં સાધુએ ભયાનક જંતુઓથી પણ ભયભીત થવું જોઈએ નહીં.1 ૧ દા ___-टी* જિનકલ્પિક મુનિએ એવી ઈચ્છા ન કરવી જોઈએ કે ક્યારે ઉપસર્ગને અભાવ થાય અને મારા પ્રાણ બચી જાય ! તેણે કેવી ઈચ્છા ન કરવી જોઈએ? આ પ્રશ્નનો ઉત્તર સૂત્ર કારે આ પ્રમાણે આખે છે-તેણે જીવનની ઈચ્છા કરવી જોઈએ નહીં અને વન્દનાદિની ઈચ્છા પણ કરવી જોઇએ નહીં-એટલે કે ત્રણ પ્રકારના ઘેર ઉપસર્ગો સહન કરવાથી લે सू. ७३ For Private And Personal Use Only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७८ सूत्रकृतात्रे भवति तत्राह-'सुन्नागारगयस्स' शून्यागारगतस्य = शून्यगृहादौ स्थितस्य ' ' भिक्खुणो भिभो: 'भैरवा' भैरवाः =भयकर्तारो व्यंतरादयः, परीषहोपसहनकर्तुर्मुनेः क्षांति शांतिधैर्यादिगुणं दृष्ट्वा भैरवाअपि व्यन्तरादयः दुर्लभबोधिनो 'अन्भत्थं' अभ्यस्ताः = परिचिता इतियावत् । 'उर्विति' उपयन्ति भवन्ति उपसर्गैरनेकशः उपद्रतोऽपि जीवनेच्छांन कुर्यात् । जीवननिरपेक्षः सहनं कुर्यात् । तथा - उपसर्गेण स्वकीयवन्दनसत्कारादिकं वा नैवेच्छेत् । अनेन प्रकारेण वन्दनसत्काराभ्यां निरपेक्षः साधुः भयंकर पिशाचादिजनितोपद्रवं सहेत । एतादृशस्य साधोः ते उपद्रवकारिणः पिशाचादयः आत्मीयप्राया अभ्यस्ता भवन्ति । एतादृशोपद्रवान् सहतः साधोः शून्यगृहे वर्तमानस्य शीतोष्णादिकृत उपद्रवोऽपि सुखसाध्यो भवतीति भावः ॥ १६ ॥ है-शून्य गृह आदि में स्थित भिक्षुको भयोत्पादक व्यन्तर आदि परीषह और उपसर्ग सहन करने वाले मुनिको क्षमा, शान्ति, धैर्य आदि गुणोंको देखकर भयंकर एवं दुर्लभोधि व्यन्तर आदि भी सुलभ हो जाते हैं। अतः अनेको बार उपसर्गों से उपद्रव ग्रस्त होनेपर भी जीवनकी इच्छा न करे । जीवनकी परवाह न करता हुआ सहन करे । तथा उपसर्ग सहकर अपनी बन्दन या अपनी संस्कार न चाहे । इस प्रकार आदर और सत्कार से निरपेक्ष होकर साधु भयंकर पिशाच आदिके द्वारा जनित उपद्रवको सहन करें। ऐसे साधु के लिए वे उपद्रवकारी पिशाच आदि आत्मीय के समान अभ्यस्त (परिचित) हो जाते हैं । अभिप्राय यह है कि इस प्रकार के उपद्रवों को सहन करनेवाले और शुन्य गृह में निवास करनेवाले साधु के लिए सर्दी गर्मी आदिका उपद्रव भी सुखसाध्य हो जाता है ॥ १६ ॥ 1 મારા સત્કાર કરશે, એવી ભાવના પણુ રાખવી જોઈએ નહીં પરીષહા અને ઉપસર્ગો સહન કરવાથી શે લાભ થાય છે? શૂન્ય ઘરમાં રહેલા સાધુના ક્ષમા, શાન્તિ, ધૈર્ય આદિ ગુણા જોઇને ઉપસર્ગ કરનારા ભયંકર ભયેત્પાદક અને દુલ ભબોધિ વ્યન્તરાદિ દેવા પણ સુલભ થઈ જાય છે, એટલે કે તેમના તે ગુણાથી પ્રભાવિત થાય છે. તેથી અનેક વાર ઉપદ્રવ ગ્રસ્ત થવા છતાં પણ સાધુએ જીવનની ઇચ્છા ન કરવી-તેણે જીવનની પરવા કર્યા વિના તે ઉપસર્ગાને સહન કરવા જોઇએ તથા ઉપસર્ગો સહન કરવાથી વંદનાદિ દ્વારા લોકોમાં મારા સત્કાર થશે. એવી આકાંક્ષા પણ તેણે રાખવી જોઇએ નહીં, પરન્તુ આ પ્રકારની આકાંક્ષા રાખ્યા વિનાજ તેણે તે ઉપસર્ગાને સહન કરવા જોઇએ. એવા સાધુને માટે તે તે ઉપદ્રવકારી પિશાચ આદિ પણ આત્મીયના સમાન અભ્યસ્ત (પરિચિત) થઈ જાય છે. એટલે કે આ પ્રકારે ઉપદ્રવાને સહન કરનાર અને સૂના ઘરમાં રહેનાર તે સાધુને માટે તે શીત, ઉષ્ણુતા, આદિ ઉપદ્રવા પણું સુખસાધ્ય થઈ જાય છે. ! ગાથા ૧૬ ૫ For Private And Personal Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समवाय बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदा दिना थोपदेशः ५७९ उपदेशान्तरं पुनः प्रस्तौति सूत्रकार:- ' उवणीयतरस्स' इत्यादि । मूलम् -- ४ ૨ वणीयतरस्स ताइणो भमाणस्स विविकमासणं । ૭ ८ १० ११ १२ सामाइयमाहु तस्स जं जो अप्पार्ण भए ण देस ||१७|| -छाया उपनीततरस्य त्रायिणः भजमानस्य विविक्तमासनम् । सामायिकमास्तस्य यद्य आत्मानं भये न दर्शयेत् ॥ १७॥ अन्वयार्थ: ( उवणीयतरस्स) उपनीततरस्य = स्वात्मानं ज्ञानादिसमीपे उपस्थापितस्य (ताइणो) त्रायिणः = परोपकारिणः षड्जीवनिकायरक्षकस्य वा (विविक्रमास) सूत्रकार पुनः उपदेश करते हैं- " उवणीयतरस्स" इत्यादि । शब्दार्थ - 'उवणीयतरस्स - उपनीततरस्य' जिसने अपने आत्मा को ज्ञान आदि के समीप पहुंचा दिया है 'ताइणो- त्रायिण' तथा जो अपना और पर का उपकार करता है अर्थात् षट्जीवनिकाय का रक्षण करता है ' विविकमासणं- विविक्तमासनम्' स्त्री नपुंसकवर्जितस्थान को 'भजमाणस्स - भजमानस्य' सेवन करता है 'तस-तस्य' ऐसे मुनिका सर्वज्ञोंने 'सामाइयमाहुसामायिकमाहुः' - सामायिक चारित्र कहा है ' जं--यत्' इसलिये 'अप्पार्ण - आत्मानं आत्मा में 'भए ण दंसए - भये न दर्शयेत्' भय प्रदर्शित नहीं करना चाहिए || १७ || | अन्वयार्थ 1 जिसने अपनी आत्मा को ज्ञान आदि के समीप स्थापित किया है, जो परोपकारी अथवा षट् जीवनिकाय का रक्षक है, और जो स्त्रीपशु और पण्डक से वणी सूत्रभर साधुने या प्रमाणे उपदेश आपे छे - " उवणीयतरस्स” इत्यादि शब्दार्थ' - 'उवणीयतरस्त्र - उपनीततरस्य' भेषे पोताना आत्माने ज्ञान विगेरेनी नही पडोंगाडी ही छे 'ताइणो- त्रायिनः' तथा ने पोतानो भने जीन्ननो उपहार १३ छे अर्थात षट्लवनिहाय रक्षा उरे छे. 'विविक्कमासण- विविक्तमासनम्' स्त्री, नपुंसकपतिस्थानने 'भजमा गस्स - भजमानस्य' सेवन उरता येवा 'तस्स - तस्य' आवा भुनिनु सर्वज्ञो 'सामाइयमाहु- सामायिकमाहुः सामायिक यारित्र अडेस छे. 'ज – यत्' भेटला भाटे 'अध्याण'- आस्मान" आत्माभां 'भप ण दंसए-भये न दर्शयेत्' लय अर्शित ના કરવા જોઈએ. ૧૭ાા - सूत्रार्थ - જેણે પાતાના આત્માને જ્ઞાન આદિની રામીપે સ્થાપિત કર્યાં છે. જે પરોપકારી છે એટલે કે છ જીવનિકાયના રક્ષક છે, અને જે સ્ત્રી, પશુ અને પડક (નપુંસક) થી રહિત For Private And Personal Use Only Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८० . सूत्रकृतासः विविक्तमासनम् स्त्रीपशुपण्डकवर्जितस्थानम् (भजमाणस्स) भजमानस्य तादृशस्थानसेविन इत्यर्थः, (तस्स) तस्य-एतादृशस्य मुनेः सर्वज्ञाः ‘सामाइयमाहु' सामायिकं चारित्रमाहुः कथितवन्तः, (जं ) यत् यस्मात् यः ‘अपाणं' आत्मानम् (भए ण दंसए) भये न दर्शयेत् इति ॥१७॥ टीकाउवणीयतरस्स' उपनीततरस्य स्वात्मानं ज्ञानदर्शनचारित्रसमीपं नीतवतः 'ताइणो' त्रायिणः यः स्वपरं च तारयति संसारसागरेभ्यः एतादशस्य 'विविकं ' विविक्तम्-वीपशुपण्ड कवर्जितम्, 'आसणं' आसनं वसत्यादि स्थानम् 'भजमाणस्स' भजमानस्य सेवमानस्य इति यावत् । 'तस्स' तस्यैतादृशस्य मुनेः सर्पज्ञपुरुषाः . सामाइयं' सामायिकचारित्रम् 'आहु' आहुः-कथितवन्तः 'ज' यत् यस्माद्यं चारित्रवान् साधुः ‘अप्पाण' आत्मानं 'भये ण दसए' भये न दर्शयेत् भयभीतो. न भवेत् । यः स्वात्मानं ज्ञानदर्शनादिषु अतिशयेन स्थापितवान्, यः स्वात्मना सहैवाऽन्यमप्युपकरोति यः स्त्रीपशुपण्डकरहितरहित स्थानको सेवन करने वाला है, ऐसे मुनि को सर्वज्ञ भगवान् ने सामायिक चारित्र कहा है। अतएव भयभीत नहीं होना चाहिए ॥१७॥ -. . -टीकार्थ- अपनी अत्मा को ज्ञान दर्शन चारित्र के समीप ले जानेवाले तथा 'तायी' अर्थात् संसार सागर से स्व और पर को तारने वाले तथा स्त्री पशु और पण्डक से रहित स्थान का सेवन करने वाले मुनि को सर्वज्ञ पुरुषने . सामा यिक चारित्र कहा है। अतएव अपने आप को भयभीत न करे। तात्पर्य यह है कि जिसने अपनी आत्मा को ज्ञान दर्शन आदि में खूब स्थापित किया है, जो अपनी अत्मा के साथ दूसरोंका भी उपकार करता है, સ્થાનનું સેવન કરનારા છે, એવા મુનિને સર્વજ્ઞ ભગવાને સામાયિક ચરિત્ર વાળે કહ્યો છે. તેથી સાધુએ ભયભીત થવું જોઈએ નહીં. ૧ળા .-टीआयજેણે પિતાના આત્માને જ્ઞાનદર્શન અને ચારિત્રમાં સ્થાપિત કર્યો છે, તથા જેઓ તાયી છે એટલે કે સંસારસાગર તરી જનારા અને બીજાને સંસારસાગર તરાવનારા છે, અને જેમાં સ્ત્રી, પશુ અને પંડકથી રહિત સ્થાનનું જ સેવન કરનારા છે, એવા મુનિને સર્વજ્ઞ ભગવાને સામાયિક આદિ ચારિત્ર યુક્ત કહ્યા છે તેથી તેણે ભયભીત થવું જોઈએ નહીં આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે જે સાધુએ પિતાના આત્માને જ્ઞાન દર્શન અને ચારિત્રથી યુક્ત કર્યો છે, જે છકાયના જીના રક્ષક છે, જે પોતાના આત્માનું કલ્યાણ કરનારા અને અન્યને પણ ઉપકાર કરનારા છે, જે સ્ત્રી, પશુ અને પંડકથી રહિત સ્થાનનું સેવન For Private And Personal Use Only Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५८१ स्थानसेवी भवति एतादृशं साधु तीर्यकराः सामयिकः समभावेन वर्तनशीलः इति नामाऽभिधानं कृतवन्त इत्यतो न भयभीता भवेयुरिति भावः ॥१७॥ उसिणोदग' इत्यादि । मूलम् उसिणोदगतत्तभोइणो धम्मट्टियस्स मुणिस्स हीमतो संसग्गियासाहरा असमाही उ तहागयस्सवी ॥१८॥ छायाउष्णोदकतप्तभोजिनो धर्मस्थितस्य मुने होमतः। - संसर्गोऽसाधूराजभि रसमाधिस्तु तथागतस्यापि ॥१८॥ जो स्त्री पशु और पण्डक से रहित स्थान का सेवन करने वाला है, ऐसे साधु को तीर्थकर सामायिक आदि चारित्र वाला कहते हैं अर्थात् ऐसा साधु ही सामायिक चारित्र आदि पाँच प्रकार के चारित्रों का अधिकारी होता है। अतएव साधु को भयभीत नहीं होना चाहिए ॥१७॥ " उसिणोदग" इत्यादि। - शब्दार्थ-'उसिणोदगतत्तभोइणों-उष्णोदकतप्तभोजिनः' बिना ठंडा किआ गरम जल पीने वाले 'धम्मडियस्स-धर्मस्थितस्य' श्रुतचारित्र धर्म में स्थित 'हीमतो-हीमतः' असंयममें लजित होने वाले 'मुणिस्स-मुनेः' मुनिको 'राइहि-राजभिः राजा आदि से 'संसग्गि-संसर्गः संसर्ग करना 'असाहु-असाधुः बुरा है 'तहागयम्स वि--तथागतस्यापि वह संसर्ग शास्त्रोक्त आचार पालने वाले का भी 'असमाही--असमाधिः समाधिका भंग करता है।॥१८॥ કરનારા છે, એવા સાધુને તીર્થકર ભગવાને સામાયિક આદિ ચારિત્રવાળા કહ્યા છે. એટલે કે એ સાધુ જ સામાયિક ચારિત્ર આદિ પાંચ પ્રકારના ચારિત્રને અધિકારી હોય છે. એવું જાણીને સાધુએ ભયભીત થવું જોઈએ નહીં “उसिणोदग" त्याह . . शहा- 'उसिणोदगतत्तमोइणो-उष्णोदकतप्तभोजिन' या कारनु जरभ पाणी पावावा 'धम्मट्टियस्ल धर्मस्थितस्य श्रुतयारित्र धर्ममा स्थित 'हीमतो-डीमतः असयमयी erot थवावा 'मुणिस्स-मुनेः मुनिना 'राइहि-राजभिः' २ion वगेरेथा 'ससग्गि-संलग:' संसग ४२वो 'असाहु-असाधु' ५२।. तहागयस्सवि-तथागतस्थापि ते ससा शास्त्रीत माया पायावामाने ५९'असमाही-असमाधिः समाधिन। ભંગ કરે છે. ૮૫ For Private And Personal Use Only Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतारने अन्वयार्य(उसिणोदगतत्तभोइणो) उष्णोदकतप्तभोजिनः (धम्मट्टियस्स ) धर्मस्थितस्य-चारित्रे वर्तमानस्येत्यर्थः, (हीमतो)हीमतः-असंयमात् लज्जमानस्य(मुणिस्स) मुनेः (राइहि) राजभिः (संसग्गि य) संसर्गः-संबन्धः परिचयो वा (असाहु) असाधुः अनर्थहेतुत्वात् (तहागयस्सवी ) तथागतस्यापि-यथोक्तानुष्ठायिनोपि राजादिसंसर्गवशात् (असमाही उ) असमाधिरेव-अपध्यानमेव स्यादिति ॥१८॥ टीका'उसिणोदगतत्तभोइणो' उष्णोदकतप्तभोजिनः, अग्नि संबन्धादुष्णं तदपि तप्तमेव न तु शीतलं कालेन वायुना वा कारितम् । उपलक्षणत्वात् तण्डुलोदकतिलोदकतुपोदकादिकं विंशतिप्रकारकधौतजलम् पेयं साधूनाम् । 'धम्मद्वियस्स' धर्मस्थितस्य-धर्मे श्रुतचारित्र्याख्ये लक्षणे -अन्वयार्थ।" उष्ण जल को उष्ण ही पीनेवाले, धर्म अर्थात् चारित्र में स्थित, तथा असंयम से लज्जित होने वाले मुनि का राजाओं के साथ संसर्ग होना समीचीन नहीं, क्योंकि वह अनर्थ का कारण है। पूर्वोक्त प्रकार से आचरण करने वाले को भी राजा आदि के संसर्ग से असमाधि अर्थात् दुर्ध्यान ही होता है ॥१८॥ -टिकार्य...जो साधु अग्नि के सम्बन्ध से उष्ण हुए जलको उष्ण ही पीता है, समय या बायु के द्वारा शीतल हुए को नहीं, यह कथन उपलक्षण होने से तण्डुलोदक, तिलोदक, तुषोदक आदि वीस प्रकार का धोवण साधुओं के लिए -सूत्रा ઉળેલું પાણી પીનાર, ધર્મમાં એટલે કે ચારિત્રમાં સ્થિત (સંયમના આરાધક અસંયમથી લજ્જિત થનારા મુનિને રાજાની સાથે સંસર્ગ થે તે ઉચિત નથી, કારણ કે તે અનર્થનું કારણ થઈ પડે છે. પૂર્વોક્ત પ્રકારે આચરણ કરનાર સાધુને પણ રાજાને સંસર્ગ રાખવાથી અસમાધિને (સમાધિનાભંગને) એટલે કે દુર્ગાનને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થાય छे. ॥१८॥ -टीજે સાધુ અગ્નિ વડે ઉષ્ણુ થયેલા પાણીને ગરમ ગરમ જ પીવે છે, એટલે કે સમય અથવા વાયુ દ્વારા શીતલ થયેલા પાણીને પીતે નથી, આ કથન ઉપલક્ષણ રૂપ હોવાથી એવું સૂચિત થાય છે કે તંડુલેદક, તિલેદક, તુષદક આદિ વીસ પ્રકારના પૈવણે For Private And Personal Use Only Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समभ्यार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु अ. २. उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५८३ स्थितस्य वर्त्तमानस्य, 'मुणिस्स' मुने: जिमाशाप्रमाणकस्य 'हीमतो' हीमतःअसंयमं प्रति लज्जाकारकस्य 'राइहि' राजभिः 'संसग्गि' संसर्गः =संपर्क' 'असाह’ असाधुः असम्यगिति यावत् । 'तहागयस्स वि' तथागतस्यापि शास्त्रोक्ता चारपालनकर्तुरपि 'असमाही' असमाधिः = समाधिभंगकारको भवति । राजा तुष्टः साध्वर्थमारंभसमारंभादिकं करोति, रुष्टस्तु संयमनिर्वाहकोपकरणं वस्त्रपात्रादिकमप्यपहरन प्राणमपि अपहरति तस्मात् उभयथापि राजसंसर्गे भयानक एवेति ज्ञात्वा राजसंसर्ग त्यजेत् ||१८|| त्यागयोग्यान् दोषान् उपदर्थ सूत्रकारः उपदेशान्तरं ब्रूते 'अहिगरणकड इत्यादि । मूलम् - の २ ४ अहिगरणकस्स भिक्खुणो वयमाणस्स पसज्झ दारुणं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५ ६ ८ १० ११ १२ ९ अठे परिहाती बहू अहिगरणं ण करेज पंडिए ||१९|| पेय है अर्थात् पीना कल्पता है । तथा जो साधु श्रुत और चारित्र रूप पर्स में स्थित है तथा जो असंयम सेवन से लज्जित होता है, ऐसे मुनि अर्थात जिनाज्ञा को प्रमाणभूत मानने वाले के लिए राजाओं के साथ सम्पर्क करना अच्छा नहीं है, क्योंकि उनका संसर्ग पूर्वोक्त आचार का पालन करने वाले की भी समाधि को भंग करने वाला होता है । राजा तुष्ट हो तो साधु के लिए आरंभ समारंभ आदि करता है और रुष्ट हो जाय तो वस्त्र पात्र आदि संयम के निर्वाहक उपकरणों का अपहरण करता हुआ प्राणों का भी अपहरण' करें-" लेता है इस प्रकार दोनों प्रकार से राजाका संसर्ग भयजनक ही है । ऐसा समझकर राजा के संसर्ग से बचना चाहिए ॥ १८ ॥ સાધુને માટે પેય એટલે કે પીવાયોગ્ય છે તથા જે સાધુ શ્રુત અને ચારિત્રરૂપ ધર્મની સમ્યક્ પ્રકારે આરાધના કરી રહ્યો હોય છે, તથા અસ’યમનુ સેવન થઈ જવાથી જે લજ્જિત થઈ જાય છે, એવા મુનિને માટે એટલે કે જિનાજ્ઞાને પ્રમાભૂત માનનાર મુનિને માટે, રાજાએની સાથેના સંપર્ક અનુચિત જ ગણાય છે, કારણ કે તેમના સંપર્ક પૂર્વોક્ત આચારાનુ પાલન કરનાર મુનિની સમાધિનો પણ ભંગ કરવામાં કારણભૂત બને છે. રાજા રીજે તા સાધુને નિમિત્તે આરંભ સમારંભ કરે છે અને જો રૂઠે તે વસ્ત્ર, પાત્રાદિ સયમાપકરણાનું પણ અપહરણ કરે છે અને કયારેક પ્રાણાનુ પણ અપહરણ કરતાં અટકતા નથી. આ પ્રકારે અન્ને તરફથી રાતના સપ ભયજનક અને અનથ કારી જ છે, એવુ સમજીને સાધુએ રાજાના સંપર્કથી દૂર જ રહેવુ જોઇએ. !! ગાથા ૧૮ ૫ For Private And Personal Use Only Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताशी छाया-- अधिकरणकरस्य भिक्षोः वदतः प्रसद्य दारुणम् । अर्थः परिहीयते बहु अधिकरणं न कुर्याद् पण्डितः ।।१९।। - अन्वयार्थः-- (अहिगरणकडस्स) अधिकरणकरस्य-कलह कुर्वतः (भिक्खुणो) भिक्षोः तथा (पसज्झ)प्रसह्य हठात् प्रकटरूपेणेत्यर्थः, (दारुणं)दारुणा-कठोरां वाचम् (वयमाणस्स) माता-इत्थंभूतस्य साधोः(अहे)अर्थः-मोक्षरूपः बहु परिहीयते-विनश्यति, तस्मात् त्याग के योग्य दोपों को दिखलाकर सूत्रकार दूसरा उपदेश करते हैं" अहिगरणकडस्स " इत्यादि। शब्दार्थ- 'अहिगरणकडस्स-अधिकरणकरस्य' कलह करने वाले 'भिक्खुणो --भिक्षोः' साधु को तथा 'पसज्झ-असह्य' प्रकट रूप से 'दारुणं-दारुणाम् कठोर वाणी 'वयमाणस्स--वदतः' बोलने वाले साधु को 'अटे--अर्थः' मोक्ष 'बहुपरिहायती-बहुपरिहीयते' नष्ट हो जाता है 'पंडिए--पण्डितः' इसलिये बुद्धिशाली मुनि 'अहिगरणं-अधिकरणम्' कलह 'न करेज-न कुर्यात्' न करें कलह करने वाला मोक्ष से दूर हो जाताहै इसलिये कलह न करना चाहिये ॥१९॥ . -अन्वयार्थकलह करने वाले तथा दृढता पूर्वक कठोर वाणी बोलने वाले साधु का मोक्षरूप अर्थ सर्वथा नष्ट होजाता है । इस कारण पण्डित मुनि એ ત્યાગ કરવા લાયક દોષ બતાવીને હવે સૂત્રકાર સાધુને બીજો ઉપદેશ આપે છે “ अहिगरणकडस्सा" त्यादि :सहाय----'अहिरगणका -अधिकरणकरस्य' या ४२वावा 'भिक्वणो-भिक्षोः' साधुने तथा 'पसज्झ प्रसह्य' ५४८३५थी 'दारुण-दारुणाम्' वाणी 'वयमाणस्स -प्रदत' मासवावा॥ साधुने 'अटूठे-अर्थः' मोक्ष 'बहुपरिहायती- बहुपरिहीयते' नष्ट 25 तय छे. 'पंडिए-पण्डितः' मेटसा भाटे सुvिी मुनि 'अहिगरणं-अधिकरणम् 46 'न करेज्ज-न कुर्यात्' ना ४२, ४सा ४२वावा मोक्षथा ६२ य छे, पेटमा માટે કલહ ન કરે જોઈએ છે ૧૯ -सूत्राथ. કલહ કરનાર તથા દૃઢતાપૂર્વક કઠોર વાણી બેલનાર સાધુના મોક્ષરૂપ અર્થને સર્વથા નાશ થઈ જાય છે, તે કારણે વિવેક યુક્ત મુનિએ કલહ કરે જોઈએ નહીં. એટલે કે For Private And Personal Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयावधिनी टीका प्र. श्रु.अ.२ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५८५ कारणात् (पण्डिए)पण्डित-मेधावी मुनिः (अहिगरण)अधिकरणं फलहं (म करेज) न कुर्यात्-कलह कर्ता मोक्षारो भवति तस्मात् कलहो न कर्तव्य इति ॥१२॥ टीका:'अहिगरणकडम्स' अधिकरणकरस्य अधिकरणं कलहः तत्कर्तुं शीलं यस्य स तथोतस्तस्य कलहक रिति यावत् । (भिक्खुणो)भिक्षोः भिक्षणशीलस्य-निर्दोषभिक्षायाचकस्येत्यर्थः, 'पसज्झे' प्रसह्य-हठात् प्रकटरूपेणेत्यर्थः, 'दारुणं-कर्कशकठोररूपं वचनं 'वयमाणस्स' वदतः, कटुभाषणशीलस्य 'अठे' अर्थ:-संयमः मोक्षो वा 'बहु' अतिशयेन 'परिहायती' परिहीयते, विनष्टो भवतीति भावः । अतः 'पंडिए' पण्डितःसदसद्विवेकशीलो मेधावी मुनिः, 'अहिगरणं न करेज्ज' अधिकरणं न कुर्यातअधिकरणं कलहं नैव कुर्यात् । यः कलहकारी, तथा कलहकद्वचनवादी साधु भवेत् तस्य मोक्षः संयमो वा विनश्यति, तस्मात् मोक्षाभिलाषिणा कलहो न विधेयः । कलह न करे' अर्थात् कलह करने वाला मोक्षसे दूर हो जाता है, अतएव कुलह नहीं करना चाहिए ॥१९॥ _ -टीकार्थजो कलह करता है या कलह करना जिसका स्वभाव है, तथा जो हठपूर्वक कर्कश कठोर वचनों का प्रयोग करता है अर्थात् जो कटुभाषणशील है, ऐसे साधु का संयम अथवा मोक्ष रूप अर्थ अत्यन्त हानि को प्राप्त होता है-विनष्ट हो जाता है अतएव सत् असत् का विवेकी साधु कलह न करें। ... जो साधु कलह करता है अथवा कलह कारी बचन बोलता है, उसका संयम या मोक्ष रूप प्रयोजन नष्ट हो जाता है। अतएव मोक्ष के अभिलाषी को कलह नहीं करना चाहिए। કલહ કરનાર સાધુ ક્ષથી દૂર થાય છે. એટલે કે સંસારમાં જ અટવાયા કરે છે, માટે સાધુએ કલહ કરે જોઈએ નહીં. ૧ --टीशर्थજે કલહ કરે છે અથવા કલહ કરવાને જ જેને સ્વભાવ છે, તથા જે હઠ પૂર્વક કર્કશ (કર) વચનને પ્રયોગ કરે છે, એટલે કે જે કટુભાષણશીલ છે, એવા સાધુને સંયમ અથવા મેરૂપ અર્થ અત્યન્ત ભયમાં મૂકાઈ જાય છે. વિનષ્ટ થઈ જાય છે. તેથી સતું. અરાતના વિવેક વાળા સાધુએ કલહ કરે જોઈએ નહીં. જે સાધુ કલહ કરે છે અથવા કલહકારી વચન બોલે છે, તેને યમ અથવા તેનું મેક્ષ રૂપ પ્રજને નષ્ટ થઈ જાય છે. તેથી મેક્ષાભિલાષી સાધુએ કલહ કરે જોઈએ નહીં, सू. ७४ For Private And Personal Use Only Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गो अयं भावः- बहुना कालेन यत् कृतं यदर्जितं महत्तपसा शांत्यादिगुणराशि तत्सर्व कलहं कुर्वतः परपीडाकरं वचनमुच्चारयतः तत्क्षणमेव नाशं गच्छति । तदुक्तम् - 'जं अज्जियं समिखल्लएहिं तवनियमबंभमइएहि । ... माहु तयं कलहं ता छड्डे अहसणपत्तेहि ॥ १॥ इत्यादि मत्वा ईषदपि कलहं न कुर्यात् पण्डितः । उक्तंचान्यत्रापि 'महता तपसा पूर्व कालेन समुपार्जितम् । तत्तपो नाशमायाति कलहात् परपीडनात् ॥ इति ॥ १९ ॥ -मूलम्सीयोदगपडिदुगुंछिणो अपडिण्णस्स लवावसपिणो सामाइय माहु तस्स जं जो गिहिमत्तेऽसणं न भुजई ॥२०॥ तात्पर्य यह है कि दीर्घ काल तक जो किया है और जो महान् तप के द्वारा उपार्जित किया है वह क्षमा आदि गुणों का समूह आदि सभी कुछ कलह करने वाले तथा परपीडाकारी बचन बोलने वाले का नष्ट हो जाता है। कहा भी हैं-"जं अज्जियं' इत्यादि। ___ तपश्चरण, नियम और ब्रह्मचर्य की साधना से जो प्राप्त हुआ है वह सब नष्ट न हो जाय, इस कारण कलह का त्याग कर देना चाहिए। र इत्यादि समझ कर विवेकी पुरुष थोडा भी कलह न करे । अन्यत्र भी ६ ७ ४ ५ ८ ९ १० ११ 'पहले दीर्घ काल तक तपस्या करने से जो प्राप्त हुआ है, वह तप कलह करने से तथा दूसरों को पीडा पहुँचाने से नष्ट हो जाता है ॥१९॥ આ કથનનું તત્પર્ય એ છે કે દીર્ઘકાળ પર્યન્તના સંયમની આરાધના દ્વારા અને કનિ તપસ્યાઓ દ્વારા ઉપાજિત કરેલા ક્ષમા આદિ ગુણેના સમૂહને કલહકારી તથા ५२पी 18 वयनो मोसपाथी नाश 25 नय छ ५५ छ में "ज अजिय" त्या - “જે કલહ કરવામાં આવે, તે તપશ્ચરણ, નિયમ અને બ્રહ્મચર્યની સાધના દ્વારા જે પ્રાપ્ત થયું હોય છે, તે નષ્ટ થઈ જાય છે, માટે વિવેકવાનું સાધુએ કલહને ત્યાગ કરે र " અન્યત્ર પણ એવું કહ્યું છે કે “પહેલા દીર્ઘ કાળ સુધી તપસ્યા કરીને જે પ્રાપ્ત કર્યું હોય છે, તે કલહ કરવાથી તથા અન્યને પીડા પહોંચાડવાથી નષ્ટ થઈ જાય છે.” | ગાથા ૧૯ For Private And Personal Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सममा बोधिनी टीका प्र. श्रृं. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५८७ - छाया-'. शीतोदकप्रतिजुगुप्सकस्य अप्रतिज्ञस्य लवावसर्पिणः । सामायिक माहुस्तस्य यत् यो गृह्यमत्रेऽशनं न भुक्त ।। २० ॥ अन्वयार्थः (सीयोदगपडिदुगुंछिणो) शीतोदकप्रतिजुगुप्सकस्य-शीतोदकमप्राशुकं जलम् तत्प्रतिजुगुप्सकस्य अप्राशुकोदकपरिहारिणः साधोः, (अपडिण्णस्स) अप्रतिज्ञस्यप्रतिज्ञारहितस्य (लवावसप्पिणो) लवावसर्पिणः लवं कर्म तस्मात् अवसर्पिणः परिहारिणः, (तस्स) तस्य एवंभूतस्य साधोः (ज)यत् यस्मात्कारणात् (सामाइय) सामायिक समभावम् (आहु) आहुः कथितवन्तः सर्वज्ञाः । (जे) यः मुनिः शब्दार्थ—'सीयोदगपडिदुगुंछिणो-शीतोदकप्रतिजुगुप्सकस्य जो साधु शीतोदक से घृणा करता है 'अपडिप्णस्स-अप्रतिज्ञस्य तथा कोई भी प्रकार की प्रतिज्ञा अर्थात् कामना नहीं करता है 'लवावसप्पिणो-लवावसर्पिण' एवं जो कर्मबन्धको उत्पन्न करने वाले कर्मों के अनुष्ठान से दूर रहता है 'तस्स-तस्य' ऐसे साधु का सर्वज्ञों ने 'ज-यत् जो 'सामाइयं-सामायिकम् , समभाव 'आहु-आहुः' कहा है तथा 'जे--यः' जो मुनि 'गिहिमत्ते-गृह्यमने गृहस्थ के पात्र में 'असणं-अशनम्' आहार 'ण भुंजइ--न मुंक्ते नहीं खाता है उसका समभाव है॥२०॥ -अन्वयार्थ-- सचित्त जलके त्यागी, निदान रूप प्रनिज्ञा के त्यागी, 'लव अर्थात् कर्म का त्याग करने वाले उसी साधु को सामायिक चारित्र कहा गया है जो गृहस्थ के पात्र में भोजन नहीं करता ॥२०॥ शहा – 'सीयादगपडिदुगु छिणो-शीतोदकप्रतिजुगुप्सकस्य' ने साधु शिया वृक्षा ४२ छ. 'अपडिण्णस्स-अप्रतिक्षस्य तथा प्रारनी प्रतिज्ञा अर्थात् माना ५रता नथी. 'लवावसप्पिणो-लवावसर्पिणः' मेवम् रे म माधने उत्पन्न ४२वावाणा उनी मनुहानथी ६२ २३ छ. 'तस्स-तस्य' सेवा साधुनी सवज्ञाय 'ज-पत्रे 'सामाइय-सामायिकम्' समला 'आहु-आहुः स छ तथा 'जे-यः' ने मुनि 'गिहि. मत्त गृह्यमत्रे' स्थना पत्रमा 'असण-अशनम्' मा.२ 'ण भुजर-न भुक्ते' पाते। નથી તેને સમભાવ છે. ૨૦ सूत्राथસચિત્ત જળના ત્યાગી, નિદાન રૂપ પ્રતિજ્ઞાના ત્યાગી, લવને (કર્મ) ત્યાગ કરનારા એવા એ સાધુને જ સામાયિક ચારિત્રવાળે કહ્યો છે કે જે ગૃહસ્થના પાત્રમાં ભજન કરતે નથી. For Private And Personal Use Only Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८८ (गिहिमत्ते) गृह्यमत्रे गृहस्थस्य पात्रे (असणं) अशनमाहारम् (ण भुंजई) न भुक्ततस्यैव सामायिकमाहुः सर्वत्रा इति ॥ २० ॥ टीका- . . 'सीगोदगपडिदुगुंछिणो' शीतोदकं प्रति जुगुप्सितस्य, शीतजलं परिपरिणः साधोः तथा 'अपडिण्णस्स' अप्रतिज्ञस्य निदानरूपप्रतिज्ञावर्जितस्य , 'लवावसप्पिणो' लवावसर्पिणः, लव इति कर्मनाम । तथाच कर्मोंत्पादकाऽनुष्ठानरहितस्य ' तस्स' तस्य साधोः 'सामाइयं सामायिक समभालक्षणम् 'आहु' आहुः कथितवन्तः सर्वज्ञाः 'जो' यः साधुः 'गिहिमत्ते' गृहस्थस्य अमने-पात्रे ‘असणं' अशन-आहारादिकम् ‘ज यत्-यस्मात् ‘ण भुजइ' नैव भुलते तस्य साधोः सामायिकमाहुस्तीर्थकराः, अशनेत्युपलक्षणं तेन गृहस्थपात्रे न वस्त्रादिकं क्षालयेन्न वा औषधादिकं गृहस्थपात्रे पिबेत् इति।। यः साधुः धर्माचरणशीलः शीतोदकं नैव सेवते, कर्मबन्धनदायि अनुष्ठानं न करोति, तथा गृहस्थस्य पात्रे भोजनं न करोति तस्यैव समभाव इति -टीकार्थशीत अर्थात् अप्रासुक जल का त्याग करने वाले, निदान रूप प्रतिज्ञा का वर्जन करने वाले तथा कर्मजनक कोई सावध क्रिया नहीं करने वाले उसी साधु को सर्वज्ञ भगवन्तो ने सामायिक कहा है जो गृहस्थ के पात्र में अशन आदि नहीं करता है। यहाँ 'अशन' तो उपलक्षण मात्र है। इससे यह भी समझ लेना चाहिए कि साधु गृहस्थ के पात्र में न वस्त्रादि धोए और न औषध आदिका पान करें। '' आशय यह है कि धर्माचरण शील जो साधु सचित्त जलका सेवन नहीं करता, कर्मवन्धनकारी कोई अनुष्ठान नहीं करता तथा गृहस्थ के पात्र में भोजन नहीं करता, उसी को समभाव की प्राप्ति होती है, ऐसा तीर्थकर ने - - ' સચિત્ત શીત જળને એટલે કે અપ્રાસુક જળને ત્યાગ કરનારા, નિદાન નિયાણ) રૂપ પ્રતિજ્ઞાને ત્યાગ કરનારા, તથા કર્મ જનક કોઈ પણ સાવદ્ય ક્રિયા નહીં કરનાર, એવા એ સાધુને જ સર્વજ્ઞ ભગવાને સામાયિક ચારિત્ર સંપન્ન કહ્યો છે, કે જે સાધુ ગૃહસ્થના પાત્રમાં અશન આદિ આહાર કરતા નથી અહીં “અશન” તે ઉપલક્ષણ માત્ર છે, તેના દ્વારા એ પણ સૂચિત થાય છે કે સાધુએ વસ્ત્રાદિનું પ્રક્ષાલન કરવા માટે અથવા ઔષધ આદિનું પાન કરવા માટે પણ ગૃહસ્થના પાત્રને ઉપયોગ કરે જોઈએ નહીં. - આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે ધર્માચરણ શીલ સાધુ કે જે સચિત્ત જળનું સેવન કરતું નથી, કર્મબન્ધનકારી કેઈ પણ અનુષ્ઠાન કરતું નથી, અને ગૃહસ્થના પાત્રમાં For Private And Personal Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनायोपदेश ५८९ तीर्थकरेण प्रतिपादितम् तस्मात् शीतं जलम् असंयमानुष्ठानम् , गृहस्थस्य पात्रादौ भोजनं च न कर्तव्यं मोक्षाभिलाषुभिः साधुभिरिति संक्षेपः ॥२०॥ मूलम्ण य संखय माहु जीवियं तहवि य वालजणो पगभइ बाले पापेहिं मिजइ इति संखाय मुणी ण मजई ॥२१॥ -छायान च संस्कार्यमाहुर्जीवितं तथापि च बालजनः प्रगल्भते । वालः पापै मर्मीयते इति संख्याय मुनि ने माद्यति ॥२१॥ -अन्वयार्थ(जीविय) जीवितं (णयसंखयमाहु) न च संस्कार्यमाहुः, तंतुवन् संधातुं न कहा है । अतः मोक्षाभिलाषी साधु को सचित्त जल, असंयम का अनुष्ठान और गृहस्थ के पात्र में अशन नहीं करना चाहिए अर्थात् गृहस्थि का पात्र किसी भी काम में नहीं लेना चाहिए ॥२०॥ शब्दार्थ-'जीविय--जीवितम्' प्राणियों का जीवन 'ण य संखयमाहु-नच संस्कार्यमाहुः संस्कार करने योग्य नहीं कहा है 'तहवि--तथापि, फिर भी 'बाल जणो-बालजनः' अज्ञानी पुरुष 'पगभइ-प्रगल्भते' पाप करने में धृष्टता करता है 'वाले--बालः' अज्ञजीव 'पापेहिं-पापैः, पापकर्मसे 'मिज्जइ--मीयते बताये जाते है ‘इति--इति, इस प्रकार 'संखाय-ज्ञात्वा, जानकर 'मुणी-सुनिः' 'ण मज्जइ--न माद्यति, मद नहीं करते है ॥२१॥ अन्वयार्थयह जीवन संस्कार्य नहीं है अर्थात् धागे के અશનાદિ કરતું નથી, તેને જ સમભાવની પ્રાપ્તિ થાય છે, એવું સર્વજ્ઞ તીર્થકર ભગવાને કહ્યું છે તેથી મેક્ષાભિલાષી સાધુએ સચિત્ત જળ અને સાવધ કર્યો ત્યાગ કર જોઈએ અને ગૃહસ્થના પાત્રને ઉપયોગ કરે જોઈએ નહીં. ગાથા ૨૦ છે हाथ-'जीविय-जीवितम्' प्राणियानुन न च संखाय माहु-न च संस्कार्य माहुः' २२४२ ४२१॥ योज्य ९८ नथी, 'तहवि तथापि' ते५ बालजणा-बालजन' अज्ञानी ५३५ 'पगम्भई-प्रगल्भते' ५५ स्वामा वृष्टता ४२ छ 'बाले-बालः' अश 'पापेहि-पापैः' पा५म था 'मिज्जा-मीयते' s आवे छे. 'इति-इति' मा प्रारे 'संखाय ---ज्ञात्वा' याने 'मुणी---मुनिः' भुनि ‘ण मज्झई- न माधति' भ६ ४२ता नथा. ॥ २१ ॥ For Private And Personal Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागसूत्र शक्यते इत्यर्थः, (तहवि) तथापि (वालजणो) बालजना=अज्ञानी (पगम्भइ) प्रगल्भते-पापकर्मकरणे धृष्टतां करोतीत्यर्थः, (वाले) वालोऽज्ञः जीवः (पापेहिं) पापैः (मिजइ) मीयते-ज्ञायते (इति) एवं (संखाय) संख्याय-ज्ञावा (मुणी) मुनिः (ण) न (मज्जइ) माधति जातिकुलादिमदं न करोतीत्यर्थः ॥२१॥ --टीका'जीवियं जीवितम् आयुष्यम् ‘णय संखयमाहु न च संस्कार्यमाहुः कालपर्यायेण त्रुटितमायुस्तंतुवत्संधातुं न शक्यते, 'तहवि य' तथापि च 'बालजणो' बालजन: अज्ञानी 'पगभइ' प्रगल्भते-पापजनकर्मणि धृष्टो भवति-पापेलज्जितो न भवति । 'पाले' बालः अज्ञो जीवः, 'पापेहि पापैः अयं पापीति, 'मिजइ मीयते लोकैरयं पापाचरणशील इति कथ्यते, 'इति संखाय' इति संख्याय इति ज्ञात्वा 'मुणी' मुनिः ‘ण मज्जई नैव माद्यति जातिकुलाघष्टविधमदं न करोति, समान पुनः नहीं जोड़ा जा सकता, फिर भी अज्ञानी जन पापकर्म करने मे धृष्टता करते है । अज्ञानी पुरुष पापों द्वारा जाना जाता है। ऐसा समझ कर मुनि जाति कुल आदि का मद नहीं करता ॥२१॥ -टीकाथ. काल के पर्याय से टूटा हुआ आयुष्य, टूटे हुए धागे के समान पुन: नहीं जोड़ा जा सकता, फिर भी अविवेकी पुरुष पाप करने में धृष्ट बनते है अर्थात् पापाचरण करते हुए लज्जित नहीं होते है तथा नहीं डरते हैं । लोग उस अज्ञानी जीव को 'यह पापी हैं। इस प्रकार कहते हैं । ऐसा जानकर मुनि जाति कुल आदि आठ प्रकार का मद नहीं करते -सूत्रार्थ- આ જીવન સંસ્કાર્ય નથી એટલે કે તૂટેલા દેરાની જેમ ફરી રાંધી શકાય તેવું નથી, છતાં પણ અજ્ઞાની લેકે પાપકર્મ કરવાની ધૃષ્ટતા કરે છે અજ્ઞાની પુરુષને તેના પાપ દ્વારા જાણી શકાય છે. એવુ સમજીને મુનિ જાતિ, કુળ આદિને મદ કરતા નથી. -टीअर्थઆયુકર્મ ક્ષય થતાં જ આયુષ્ય સમાપ્ત થઈ જાય છે જેમ તુટેલા દેરાને સાંધી શકાય છે તેમ તૂટેલા આયુષ્યને સાંધી શકાતું નથી. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિ હોવા છતાં અવિવેકી પુરુષ પાપ કરતાં ડરતાં પણ નથી અને શરમાતાં પણ નથી કે તે અજ્ઞાની જીવને “આ પાપી છે,” આ પ્રકારે ઓળખે છે એવું સમજીને મુનિ જાતિ, કુળ આદિ આઠ પ્રકારને મદ કરતું નથી. For Private And Personal Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समगार्थ बोधिनी टीका प्र. श्र. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५९. कालपर्यायेण त्रुटितं मनुष्याणामायु व सन्धीयते, तन्त्वादिवत् इति सर्वज्ञानवता तीर्थ करेग कथितम् । तथापि आयुषोऽसंस्कार्यत्वेऽपि सदसद्विवेकविकलो मनुष्यः पापजनककर्माऽनुष्ठानान्न निवृत्तो भवति । तेनायं पापी इति कथ्यते । इत्येत सर्व ज्ञात्वा मुनिः कथमपि कर्मदायिन प्रमादं न कुर्यादिति भावः ॥२१॥ ___ उपदेशान्तरमाह सूत्रकारः-'छंदेण पले' इत्यादि । छदेण पले इमा पया बहुमाया मोहेण पाउडा । वियडेय पलिंति माहणे सीउण्ह बयसाऽहियासए ॥२२॥ छायाछन्दसा प्रलीयन्ते इमाः प्रजा बहुमाया मोहेन प्रावृताः। विकटेन प्रलीयन्ते माहनः शीतोष्णं वचसाऽधिसहेत ॥ २२ ॥ आशय यह है काल के पर्याय से मनुष्यों की जो आयु एक वार सूट जाती है, उसका पुनः सन्धान करना शक्य नहीं है । टूटा धागा जोडा जा सकता है, पर आयु नहीं । ऐसा सर्वज्ञ तीर्थंकर ने कहा है । इस प्रकार आयु संस्कारहीन है तथापि सत् असत् के विवेक से रहित मनुष्य पापजनक कार्य करने से निवृत नहीं होता । उसे लोग (पापी) कहते हैं। यह सब जानकर मुनि किसी प्रकार भी कर्मदायी प्रमाद न करे ॥२१॥ सूत्रकार और उपदेश करते हैं--(छंदेण पले) इत्यादि। शब्दार्थ-'बहुमाया-बहुमायाः, बहुत माया करने वाली 'मोहेण पाउडा- मोहेन प्रावृता' मोह से आच्छादित 'इमा--इमाः ये 'पया-प्रजाः' प्रजाएँ - આં કથનને ભાવાર્થ એ છે કે મનુષ્યનું જે આયુષ્ય એક વાર તૂટી જાય છે, તેને ફરી સાંધી શકાતું નથી. તૂટેલા દોરાને સાંધી શકાય છે, પણ તુટેલા આયુષ્યને ફરી સાંધી શકાતું નથી. એવું સર્વજ્ઞ ભગવાને કહ્યું છે. આ પ્રકારે આયુ સંસ્કાર" હન (ન સાંધી શકાય એવું) છે, છતાં પણ સત્ અસના વિવેકથી જેઓ રહિત હોય છે, તેઓ પાપજનક કાર્યોમાંથી નિવૃત્ત થતા નથી. એવાં પાપકર્મ કનાર પુરુષને લેક પાપી” કહે છે. આ વાતને સમજીને મુનિએ કઈ પણ પ્રકારે કર્મદાયી પ્રમાદ કરે જોઈએ નહીં ! ગાયા ૨૧ છે ____qणी सूत्रा२ विशेष उपहेश मापता छ । “छदेण पले" त्यादि शहाथ - 'बहुमाया-यहुमायाः' मधुमाया ४२११vी 'माहेण पाउडा-मोहेन पावताः' भोथी माहित 'इमा इमाः' 24 ‘पया-प्रजा' प्रश्नमा छ देण---छन्दसा' पातानी For Private And Personal Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५९२ www.kobatirth.org अन्वयार्थ: ( बहुमाया) बहुमायाः कपटप्रधानाः (मोहेण पाउडा ) मोहेन प्रावृता आच्छादिताः (इमा ) इमाः (पया) प्रजाः (छंदेण) छन्दसा - स्वस्वेच्छया (पले) प्रलीयन्ते नरकादिगतिं गच्छन्ति, परन्तु ( माहणे ) माहनः साधुः (वियडेण) विकटेन = कपटरहितेन कर्मणा (पलिति ) प्रलीयते मोक्षे संयमे वा लीनो भवति, तथा ( वयसा ) वचसा = मनोवाक्कायैरित्यर्थः, (सीउण्ड)शीतोष्णम् (अहियासए) अधिसत इति ॥ २२ ॥ - -टीका 'बहुमाया' अनेकप्रकारक मायावत्यः 'मोहेण पाउडा' मोहेन आच्छादिता 'इमा' इमाः 'पया' प्रजाः 'छंदेण' छन्दसा स्वेच्छया स्वाभिप्रायेण कार्य परवचनादिकं कुर्वाणाः 'पले' प्रलीयते = नरकादिगतिं प्राप्नुवन्ति । -अन्वयर्थ- कपट की प्रधानता वाले मोह से घिरे अपनी कर्म से ही नरकादि गति में जाते हैं, साधु मोक्ष में या संयम में लीन होता है । तथा शीत उष्ण को सहन करे ||२२|| Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'छंदे--छन्दसा, अपनी इच्छासे 'पले-- प्रलीयन्ते, नरक आदि गति में जाती है 'माहणे - माहनः, साधु पुरुष 'वियडेण विकटेन' कपट से रहित कर्मके द्वारा 'पलिति--प्रलीयते, मोक्षमें अगर संयम में लीन होता है तथा 'वयसा -- वचसा, मन वचन और कर्म से 'सीउन्हं शीतोष्णम्, शीत और उष्णको 'अयास हे -- अधिस' सहन करते है || २२ || 11. सूत्रकृताङ्गसूत्रे -- टीकार्थ— अनेक प्रकार के मायाचार वाले, मोह से हुए ये प्रजाजन संसारी जीव किन्तु कष्ट रहित कर्म से साधु मन वचन काय से आच्छादित यह प्रजाजन च्छाथी 'पले - प्रलीयन्ते' २२४ वगेरे जतिमां नय छे, 'माहणे-माहनः साधु पु३ष 'विथडेण निकटेन' उपरथी रहित भंना द्वारा 'पलिती - प्रलीयते' भोक्षमां अगर संय भभां लीन थाय छे तथा 'वयसा वचसा' भन वथन उर्भथी 'सीउन्ह' शीतेोष्णम् ठंडी अने गरभीने 'अहियास हे - अधिसहेत' सन १२ छे. ॥ २२ ॥ - सूत्रार्थ - કપટની પ્રધાનતાવાળા, માહુથી ઘેરાયેલા આ પ્રજાજના સંસારી જીવા પાત પાતના ઉપાર્જિત કર્યાં દ્વારા જ નરકાસઢ ગતિમાં જાય છે. પરન્તુ કપટ રહિત ક દ્વારા સાધુ મેક્ષ અથવા સંયમમાં લીન હોય છે. સાધુ મન, વચન અને કાયા વડે શીત, ઉષ્ણ આદિ પરીષહાને સહન કરે છે. રા For Private And Personal Use Only - टीअर्थ - અનેક પ્રકારના માયાચારવાળા અને માહથી આચ્છાદિત આ પ્રજાજના સંસારી Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समर्थ बोधिनी टीका प्र. शु अ. २ उ. २ निजपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५९३ अयमर्थ:- मोहेन प्रावृताः केचन - 'अग्नीषोमीयं पशुमालभेत' इत्यादिशाखं पुरस्कृत्य प्रतिवादिकमेव सायकमिति मन्यमानाः प्राणिववादिकं कुर्वन्ति । अन्ये केचन स्वाभिप्रायग्रहग्रस्ताः संवादिक मुद्दिश्य दासीदास बनधान्यादिकं कुर्वन्ति । अन्ये पुनर्मायाप्रधानेन वारं वारं शरीरे जलप्रक्षेपणादि कुर्वन्ति । तथा तैरुच्यते 'कुकुटसाध्यो लोको ना कुक्कुटतः प्रवर्त्तते किंचित् । तस्मात् लोकार्थे पितरमपि सकुक्कुटं कुर्यादित्यादि ॥ 'माहणे मान नाहन माहन इति उपदेशकारकः साधुः 'वियडेग' विकटेन कपटादि संसारी जीव अपने ही कर्म से नरकादि गति को प्राप्त होते हैं । आशय यह है - कोई कोई मोह से आच्छादित लोग (अग्निषोमीयं पशुमालभेत ) इत्यादि शास्त्र वाक्य को आगे करके, प्राणी का वध ही कल्याण का साधक है, ऐसा मानते हुये प्राणीव आदि करते हैं। अन्य कोई अपने अभिप्राय रूपी ग्रह से ग्रस्त होकर संघादिक के लिए दासी, दास, धन, धान्य आदि का परिग्रह करते हैं । कोई कोई माया की प्रधानता से शरीर के ऊपर वारवार जलका प्रक्षेप करते हैं । वे कहते हैं 'लोक कुकुट अर्थात् कपट के द्वारा ही सिद्ध होता है, कुक्कुट के बिना कुछ भी नहीं होता है अतएव लोक के लिये पिता को भी सकुक्कुट करता है इत्यादि । જીવા પેાતાના કાને કારણેજ નરકાદ્રિ ગતિમાં ગમન કરે છે. આ કથનનો ભાવાર્થ એ छे से आई आई मोड्थी घेशयेता लवो “अग्निषोमीयं पशुमालभेत" इत्यादि शास्त्रवायोने આગળ કરીને, એવુ માને છે કે ‘ પ્રાણીના વધજ કલ્યાણના સાધક છે.’ આ પ્રકારની માન્યતા ધરાવતા તે લોકો પ્રાણીવધ આદિ કરે છે. વળી કોઈ કોઈ લોકો પેાતાના અભિપ્રાય રૂપી ગ્રહ વડે ગ્રસ્ત થઇને સંઘાહિકને માટે દાસ, દાસી, ધન ધાન્ય આદિના પરિગ્રહુ કરે છે. કોઇ કોઈ જીવા માયાની પ્રધાનતા વડે શરીર ઉપર વારંવાર પાણીના પ્રક્ષેપ ४३ छे. तेथे अडे छे डे લાક કુકુટના દ્વારા જ-સિદ્ધ થાય છે. કપટ વિના કોઇ પણ વસ્તુ પ્રાપ્ત થતી નથી તેથી તે લેાકને માટે પિતાને પણ કપટયુક્ત કરે છે” ઇત્યાદિ स. ७५ For Private And Personal Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५९४ सूत्रकृतात्सूत्रे रहितेन कर्मणा सम्यक संयमपालनेन 'पलिति' प्रलीयते मोक्षे संयमे वा लीना = तत्पराः भवन्ति । तथा ' वयसा' वचसा मनोवाक्कायैः 'सीउण्ड' शीतोष्णादिकम् 'eferrer' असित सहनं करोति । अनेकप्रकारकमायाकारिणो मोहेनाच्छादितालोकाः स्व स्वेच्छाया तादर्श कर्मानुष्ठानं कुर्वाणाः नरकादिगतिमेवाश्रयन्ते । परन्तु साधुपुरुषः परवचनादिकं परित्यज्य कपटरहितकर्मणि संयमे वा लीनो भवति । तथा मनेोवाक्कायैः शीतोष्णादिसहनं करोति इति भावः । : अन्यत्राप्युक्तम्- 'मनेोवचोभ्यां कायेन संयमाराधने रतः । शीतोष्णसुखदुःखानां जेता परवचो जयेत् ॥ १ ॥गा. २२॥ माहन अर्थात् अहिंसा का उपदेश कारक साधु कपट आदि रहित कर्म करके सम्यक् प्रकार से संयम का पालन करके मोक्ष के मार्ग में लीन होता है । तथा मन वचन और काय से सर्दी गर्मी आदि को सहन करता है || तात्पर्य यह है कि अनेक प्रकार की माया का सेवन करने वाले तथा मोह से ग्रस्त लोग अपनी अपनी इच्छासे विभिन्न प्रकार का अनुष्ठान करते हुए नरक आदि गतियों में जाते हैं किन्तु साधु पुरुष परवचन आदि का त्याग करके निष्कपट कर्म में या संयम में लीन होते हैं तथा मन वचन कायसे शीत उष्ण आदिको सहन करते हैं । अन्यत्र भी कहा है 'मन से, वचन से और काय से संयम की आराधना में तत्पर रहे और शीत उष्ण तथा सुख दुःख परीषहों का विजेता साधु परकीय वचनों को जीत लेता है ||२२| માહન (માણેા, મા હણા એવા ઉપદેશ આપનાર સાધુ) કપટ આદિ થી રહિત ક કરીને સમ્યક્ પ્રકારે સંયમનુ પાલન કરીને મોક્ષ પ્રાપ્તિ જનક સયમની આરાધનામાં લીન રહે છે. તે મન વચન અને કાયાથી ઠંડી, ગરમી આદિ પરીષહાને સહન કરે છે. તાત્પર્ય એ છે કે અનેક પ્રકારની માયાનું સેવન કરનારા માહગ્રસ્ત લોકો ત પેાતાની ઈચ્છિાનુસાર વિવિધ પ્રકારના પાપજનક અનુષ્ઠાનોનુ સેવન કરીને નરક આદિ દુતિઓમાં જાય છે. પરન્તુ સાધુએ પરવચન (છળ કપટ) આતિને ત્યાગ કરીને નિષ્કપટ કર્મીમાં અથવા સંયમમાં લીન થાય છે. તથા મન, વચન અને કાયાથી શીત, ઉષ્ણુ આદિ પરીષહેાને સહન કરે છે. અન્યત્ર પણ એવુ કહ્યું છે. કે -~ “ મન, વચન અને કાયાથી સંયમની આરાધનામાં લીન થયેલા શીત, ઉષ્ણુ તથા સુખદુઃખ રૂપ પરીષહાના વિજેતા સાધુ પરકીય વચનાને જીતી લે છે” ગાથા રા For Private And Personal Use Only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. २ उ. २ निजपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५९५ -मूलम्कुजये अपराजिए जहा अक्खेहिं कुसलेहिं दीवयं कडमेव गहाय णो कलिं नो तीयं नो चेव दावरं ॥२३॥ छायाकुजयोऽपराजितो यथाक्षैः कुशलो दीज्यन् । कृतमेव गृहीत्वा नो कलिं नो त नो चैव द्वापरम् ॥२३॥ अन्वयार्थ:( अपराजिए ) अपराजितः अन्येन जेतुमशकयः ( कुसलेहिं ) कुशल इत्यर्थः (कुजए) कुजयः (जहा) यथा (अक्खेहि) अक्षैः कपर्दैः (दीवयं) दीव्यन= शब्दार्थ-'अपराजिए-अपराजितः' अन्य के द्वारा पराजित न होने वाला 'कुसलेहि-कुशलः' चतुर 'कुजए-कुजयः' जुआ खेलने वाले जुआरी 'जहा-यथा' जैसे 'अक्खेहि-अवैः' पासा से 'दीवयं-दीव्यत्' खेलता हुआ 'कडमेव गहाय-कृतमेव गृहीत्वा' कृत नाम के चोथे स्थान को ही ग्रहण करता है 'णो कलि--नो कलिम्' कलि नामक प्रथम स्थान को ग्रहण नहीं करता है 'णो तीयं-नी चैतं, तीसरे स्थान को भी ग्रहण नहीं करता हैं एवं 'नो चेव दावरं नैव द्वापरम्, दूसरे स्थान को भी ग्रहण नहीं करता है॥२३॥ -अन्वयार्थअपने विरोधी से पराजित न होने वाले कुशल अर्थात् पासा फेंकने में चतुर जुआरी जैसे पासों से जुआ खेलता हुआ ‘कृत' स्थान को ही ग्रहण करता है । कलि नामक शहाथ-'अपराजिए-अपराजितः' मीन द्वारा परात न वावा 'कुसलेहि कुशल' याला यतु२ 'कुजए-कुजयः' गार २मा वाणा जुगारी 'जहा-यथा' वी शते 'अक्खेहि-अनः' पासाथी दीवयं-दीव्यन्' २मता ‘क डमेव गहाय-कृतमेव गृहीत्वा' कृत नामना याथा स्थानने ०४ अड ४२ छे. 'णो कलिं-नो कलिम्' सिनामना प्रथम स्थानने अड) ४२तो नथी 'णो तीय-नो त्रीत" त्रीत स्थानने ५५ अड ४२तो नथी मेवम् ‘णो चेव दावर-नैव द्वापरम्' भी स्थानने ५९ अहम तो नथी. ।२३। -सूत्रार्थપિતાના વિરોધીઓ વડે પરાજિત ન થનાર, કુશળ (પાસા ફેકવામાં કુશળ) જુગારી પાસા ફેંકતી વખતે “કૃત” નામના ચોથા સ્થાનને જ ગ્રહણ કરે છે, “ક્લી' નામની For Private And Personal Use Only Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५९६ सूत्रकृताङ्गसूत्रो द्यूतं कुर्वन (कड मेव गहाय)कृतमेव गृहीत्वा कृतनामकस्थानमेव गृहणाति(णो)कलि नो कलि (नो तीय) नो त्रैतं (नो चेव) नैव (दावरे) द्वापरम् इति ॥२३॥ टीका'अपराजिए' अपराजितः यः कदाचिदपि पराजयं न प्राप्नोति, इत्थंभूतोऽपराजितः 'कुसलेहि कुशलैः कुशल अक्षपानिपुणः कपर्दैन रममाणः प्रथमार्थे तृतीया 'कूजए' कुजयः कुत्सितो जयो यस्य सः द्यूतकारः 'जहा' यथा अक्खेहिदीवयं' अक्षैर्दीव्यन् पाशैः कपर्दकैर्वा द्यूतं कुर्वन् 'कड मेव गहाय' कृतमेव कृतनामक चतुर्थस्थानमेव गृहणाति । 'यो कलिं' नो कलिं कलिं प्रथमस्थानं णो तीय नो तृतीयं 'नोचेव दावर' नैव द्वापरं नो तृतीयं न वा द्वितीय स्थानं गृहीत्वा क्रीडति किन्नु चतुर्थस्थानमादायैव क्रीडति । यथा द्यूते निपुणो न केनापि पराजयं प्राप्नुवन् द्यूतकारः सर्वश्रेष्ठं कृतनामकं चतुर्थस्थानमेव स्वीकरोति, न तु कलि द्वितीयं तृतीय वा स्थानं स्थानको ग्रहण नहीं करता है, तथा तीसरे और दूसरे स्थान को भी ग्रहण नहीं करता है ॥२३॥ टीकार्थ कभी पराजय न प्राप्त करने वाला और पासे फेंकने में कुशल कुजय अर्थात् निन्दनीय विजय पाने वाला जुआरी जैसे पासों से या कोडियों से जुआ खेलता हुआ 'कृत' नामक चतुर्थ स्थान को ही ग्रहण करता है, कलि नामक प्रथम स्थान को ग्रहण नहीं करता है और न तृतीय या द्वितीय स्थान को ग्रहण करके खेलता है किन्तु चतुर्थ स्थान को ग्रहण करके ही खेलता है। तात्पर्य यह है कि जुआ खेलने में निपुण और किसीसे पराजित न होने वाला जुआरी सर्वश्रेष्ठ कृत नामके चतुर्थ स्थान को ही स्वीकार करता પહેલા સ્થાનને પણ ગ્રહણ કરતો નથી અને બીજા કે ત્રીજા સ્થાનને પણ ગ્રહણ કરતે नथा. ॥२॥ -टीકદી પરાજેય નહી પામનાર, પાસા ફેકવામાં કુશળ અને કુજય (નિન્દનીય વિજ્ય) પ્રાપ્ત કરનાર જુગારી પાસા અથવા ડાડીઓ વડે જુગાર રમતાં “કુ” નામના ચોથા સ્થાનને જ ગ્રહણ કરે છે. કલિ નામના પહેલા સ્થાનને ગ્રહણ કરતું નથી અને ત્રીજા કે બીજા સ્થાનને પણ ગ્રહણ કરતો નથી. પરંતુ કૃત નામના ચોથા સ્થાનને ગ્રહણ કરીને જ જુગાર ખેલે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે જુગાર રમવામાં નિપુણ અને કેઈના દ્વારા પરાજિત નહીં થનાર જુગારી સર્વ શ્રેષ્ઠ, કૃત નામના ચોથા સ્થાનનો જ સ્વીકાર કરીને જુગારના પાસા ફેકે છે. તે કલિ નામને પહેલા સ્થાનને અથવા બીજા કે ત્રીજા For Private And Personal Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टोका प्र. श्रु अ. २. उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथापदेशः ५९७ स्वीकरोति । यतः चतुर्थस्थानस्थितेनैव जयसंभवात् । एवं मेधावी मुनिः सर्वज्ञोक्तं सर्वतः कल्याणकारकं चतुर्थस्थानरूपं श्रुतचारित्रलक्षणधर्ममेव स्वीकुर्यात् । न तु तद्भिन्नमार्ग कदापि स्वीकुर्यादिति भावः । उक्तंचान्यत्रापि -- 'द्यूतकारो भवेज्जेता चतुर्थस्थानमास्थितः । वीतरागवचः श्रद्धा यस्यास्ते स जयी जनः || १ || गा. २३ ॥ उक्त दृष्टान्तः तं दृष्टान्तं दाष्टन्तिके योजयति सूत्रकारः'एवं लोगमि' इत्यादि । मूलम् - २ ३ ४ ५ ७ ६ एवं लोगंमि ताइणा वुइए जे धम्मे अणुत्तरे | ११ १० १२ तं गिन्ह हियंति उत्तमं कडमिव सेसऽवहाय पंडिए ॥२४॥ छाया एवं लोके त्राणोक्तो यो धर्मोत्तरः । तं गृहाण हितमित्युत्तमं कृतमिव शेषमपहाय पण्डितः ॥ २४ ॥ है । वह कलि नामक स्थान को या द्वितीय या तृतीय स्थान को स्वीकार नहीं करता क्योंकि वह जानता है कि चतुर्थ स्थान को ग्रहण करने से ही विजय प्राप्त हो सकता है। इसी प्रकार मेधावी मुनि सर्वज्ञ कथित और सब प्रकार से कल्याणकारी चतुर्थ स्थान के समान श्रुत चारित्र धर्म को ही स्वीकार करे । उससे भिन्न मार्ग को कदापि न स्वीकार करे । अन्यत्र भी कहा है" द्यूतकारो भवेज्जेता" इत्यदि । 6 प्रकार 'चतुर्थ स्थान में स्थित द्यूतकार जैसे विजयी होता है, उसी जिसकी श्रद्धा वीतराग के वचनों पर है, वह साधक जन भी विजयी होता है ||२३|| સ્થાનના સ્વીકાર કરીને પાસા ફેંકતા નથી, કારણ કે તે એ વાતને બરાબર જાણે છે કે ચોથા સ્થાનને ગ્રહણ કરવાથી જ વિજય મળી શકશે. એજ પ્રમાણે મેધાવી મુનિ સજ્ઞ પ્રરૂપિત અને કલ્યાણકારી, ચતુર્થ સ્થાનના જેવા, શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્મને જ ગ્રહણ કરે છે. તે ધમ કરતાં ભિન્ન હેાય એવા માર્ગના કદી પણ સ્વીકાર કરતા નથી. કહ્યુ પણ છે કે 'घृतकारे। भवेज्जेता " (C ચતુર્થાં સ્થાનને ગ્રહણ કરનાર ધૃતકાર (જુગારી) જેવી રીતે વિજયી થાય છે, એવી જ રીતે વીતરાગના વચનામાં શ્રદ્ધા રાખનાર સાધક પણ વિજયી થાય છે. ! ગાથા ૨૩ ૫ For Private And Personal Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागसूत्रे अन्वयार्थ:(एवं) एवमनेन प्रकारेण (लोगंमि) लोकेऽस्मिन् (ताइणा) त्रायिना जीघरक्षकेन (वुइए) उक्तः कथितः (जे) यः (अणुत्तरे) अनुत्तरः सर्वोत्तमः (धम्मे) धर्मः प्राणातिपातादि विरमणलक्षणः तं (गिण्ह) गृहाण=स्वीकुरु (हियंति उत्तम) ___ उपयुक्त द्यूतके दृष्टान्तकी दान्तिक में योजना करते हैं"एवं लोगंमि" इत्यादि । शब्दार्थ-एवं--एवम्, इसी प्रकार 'लोगंमि--लोके' इस लोकमें 'ताइणा --त्रायिना' जगत् की रक्षाकरने वाले सर्वज्ञने 'चुइए--उक्तः' कहा हुआ 'जे. यः' जो अणुत्तरे--अनुत्तरः, सर्वोत्तम 'धम्मे--धर्मः 'धर्म प्राणातिपातादि विरमण 'तं-तम्' उसको 'गिह-गृहाण' 'ग्रहण करना चाहिए 'हियंति उत्तम-हितमुत्तमम् , यही हित करने वाला एवं उत्तम मार्ग है 'सेसऽवहाय--शेषमपहाय' चतुर जुआरी सब स्थानों को छोडकर 'पंडिए कडमिय--पण्डितः कृतमिव' जैसे चतुर जुआरी कृतनामके चतुर्थ स्थान को ही ग्रहण करता है इसी प्रकार मेधावी मुनि अनुत्तम ऐसे धर्मको ही ग्रहण करते हैं ॥२४॥ अन्वयार्थइस प्रकार इस लोक त्राता अर्थात् जीवों के रक्षक तीर्थकर देवने, जो धर्म कहा है वही सर्वोत्तम धर्म है । ' उस प्राणातिपात विरमण आदि लक्षण वाले धर्म को हितकारी और उत्तम समझ कर और ' अन्य धर्मों को - હવે સૂત્રકાર ઉપર્યુક્ત જુગારીના દૃષ્ટાન્ત દ્વારા જે વાતનું પ્રતિપાદન કરવા માગે છે, ते प्रट ४२ छ.-"एवं लोग मि" त्या शहाथ-एवं-पचम्' प्राय 'लोग मि-लोके' 2 सोभा 'ताणा-त्रायिना' गतनी २क्षा ४२१॥ वाणा सज्ञ ने 'बुइए-उक्तः स 'जे-यः' 'अणुत्तरे-अनुत्तरः' सर्वोत्तम 'धम्मे-धर्मः' धर्म-प्रातिपात विभ५३५ धर्म छे 'त-तम्' तेने 'गिहगृहाण' घडण ४२वो ये 'हियति उत्तम-हितमुत्तमम्' से हित ४२वावाको अपम उत्तम भा छ 'सेसहार-शेषमपहाय' ५५ थानने छ।डीने पडिप कमिव-पणितः જેવી રીતે ચતુર જુગારી કૃત નામના ચોથા સ્થાનને જ ગ્રહણ કરે છે, તેજ પ્રકારે મેધાવીમુન અનુત્તમ એવા ધર્મને જ ગ્રહણ કરે છે. પારકા सूत्राथએજ પ્રકારે આ લેકમાં ત્રાતા (જીવેના રક્ષક) તીર્થકર ભગવાને જે ધર્મ કહ્યો છે, એજ સર્વોત્તમ છે. એજ પ્રાણાતિપાત વિરમણ આદિ લક્ષણ વાળા ધર્મને હિતકારી For Private And Personal Use Only Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समया धोधिनी टोका प्र. . अ. २ उ.२ निजपुत्रेभ्यः भगवदादिनाधोपदेशः ५९९ हितमित्युत्तमम् (सेसऽवहाय) शेषमपहाय (कडमिव) कृतमिव (पंडिए) पंडितः, यथा चतुरो द्यूतकारः कृतमेव गृह्णाति तथा मेधावी मुनिः अनुत्तमधर्ममेव गृह्णीयादिति ॥२४॥ टीकाएवं' एवम् अनेनैव रूपेण 'लोगंमि' लोके अस्मिन् लोके 'ताइणा' त्रायिना षट्जीवकायरक्षकतीर्थकरेण 'बुइए' उक्तः कथितो धर्मः 'जे' यः 'अणुत्तरे' अनुत्तरः सर्वेभ्यः उत्तमः 'धम्मे' धर्मः श्रुतचारित्रलक्षणः तं 'गिण्ह' गृहाण, हे शिष्य तमेव धर्ममनुत्तमाख्यमतिशयेनोत्तमं गृहाण । 'हियंति उत्तम' हितम् हितकारकम् उत्तमं सकलधर्मेषु श्रेष्ठमहिंसालक्षलणम् 'सेसऽवहाय' शेषमपहाय चतुरो इतकारः प्रथमं द्वितीय तृतीयं स्थानं विहाय, 'कडमिव' कृतनामकस्थान मेव गृहणाति यथा नाऽन्यं स्वजयाय गृहणाति तथैव ।इति। त्याग कर ग्रहण करो। जैसे द्यूतकार कृत नामक स्थान को ही ग्रहण करता है, उसी प्रकार पंडित अर्थात विवेकी पुरुष सर्वज्ञोक्त उत्तम धर्म को ही ग्रहण करता है ॥२४॥ -टीकार्थइसीप्रकार लोक में षट्काय के रक्षक तीर्थकर भगवान् के द्वारा प्ररूपित जो सर्वोत्तम श्रुतचारित्ररूप धर्म है, उसे ग्रहण करो हे शिष्य ! सर्वश्रेष्ठ धर्मको स्वीकार करो। वह धर्म हितकारक है और सब धर्मों में उत्तम है। जैसे चतुर जुआरी प्रथम, तीसरे और दूसरे स्थान को त्याग कर ‘कृत ' नामक स्थान को ही ग्रहण करता है, उसी प्रकार तुम भी सर्वोत्तम तीर्थकर प्ररूपित धर्म को हो ग्रहण करो। અને ઉત્તમ સમજીને ગ્રહણ કરે અને અન્ય ધર્મનો ત્યાગ કરે જેવી રીતે જુગારી કૃત નામના સ્થાનને જ ગ્રહણ કરે છે. એ જ પ્રમાણે વિવેકી પુરુષો સર્વક્ત ઉત્તમ ધર્મને જ ગ્રહણ કરે છે. પારકા अर्थ' જેવી રીતે કુશળ જુગારી પહેલા, ત્રીજા અને બીજા સ્થાનને ત્યાગ કરીને અને “કૃત નામનાં ચોથા સ્થાનને ગ્રહણ કરીને જુગાર ખેલે છે, એ જ પ્રમાણે તમે પણ તીર્થકર પ્રરૂપિત સર્વોત્તમ ધર્મને જ ગ્રહણ કરે છે કાયના જીના રક્ષક તીર્થકર ભગવાન દ્વારા પ્રરૂપિત સર્વોત્તમ કૃતચારિત્ર રૂપ ધર્મને જ ગ્રહણ કરે. તે ધર્મ જ હિતકારક અને સંસ્કૃષ્ટ છે. માટે અન્ય ધમેને ત્યાગ કરીને આ સર્વોત્તમ ધર્મનું જ શરણ સ્વીકારે, For Private And Personal Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०० सूत्रकृताङ्गसूत्रे यथा चतुरो द्यूतकारः विजयप्राप्तये विजयकारणतया सर्वोत्तमचतुर्थ स्थानम् एव गृहीत्वा दीव्यति, तथैव मनुष्यलोके सर्व प्राणिरक्षकतीर्थकरद्वारा प्रतिपादितं क्षान्त्यादिप्रधानकं श्रुतचारित्ररूपं सर्वतोऽनुत्तममेकान्तहितं धर्ममेव स्वीकृत्य स्वकल्याणायाऽन्येषां कल्याणाय प्रयतनीयम् । द्यूतकार इव साधुरपि गृहस्थकुप्रावचनिकपाश्वस्थादीनां धर्म परित्यज्य सर्वोत्तमं सर्वतो महत्तम सर्वज्ञप्रतिपादितं धर्ममेव गृहोयादिति भावः ॥२४॥ पुनरपि उपदेशान्तरमेव कथयति, सर्वज्ञधर्मस्याऽतिसूक्ष्मल्या दुर्विज्ञेयत्वमाकलय्य बहुशो दृष्टान्तादिद्वारा तमेवार्थ मुहुमुहुः प्रतिपादयति सूत्रकारः'उत्तरे' इत्यादि । उत्तरे मणुयाण आहिया गामधम्मा इह ये अणुस्सुयं । जंसि विरता समुटिया कासवस्स अणुधम्मचारिणो ॥२५॥ अभिप्राय यह है-जैसे चतुर जुआरी विजय प्राप्त करने के लिए, विजय का कारण होने से सर्वश्रेष्ठ चौथे स्थान को ही ग्रहण करके जुआ खेलता है, उसी प्रकार मनुष्यलोक में समस्त प्राणियों के रक्षक तीर्थकर द्वारा प्ररूपित क्षमा आदि की प्रधानता वाले, श्रुतचारित्ररूप, सबसे उत्तम और एकान्त हित करने वाले धर्म को ही स्वीकार कर के अपने और दूसरों के कल्याण के लिए प्रयत्न करना चाहिए जैसे द्यूतकार अन्य स्थानों को त्याग देता है उसी प्रकार साधु भी गृहस्थों कुप्रावचनिको तथा पार्श्वस्थो (शिथिलाचारियों) के धर्म को त्यागकर सब से उत्तम, सब से महान् सर्वज्ञ प्रतिपादित धर्म को ही ग्रहण करे ॥२४॥ - આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે જેવી રીતે ચતુર જુગારી, વિજ્ય પ્રાપ્ત કરવા માટે સર્વ શ્રેષ્ઠ ચોથા સ્થાને જ ગ્રહણ કરીને જુગાર ખેલે છે (કારણ કે તે એ વાત જાણતા હોય છે કે ચોથા સ્થાનને સ્વીકાર કરવાથી જ વિજય પ્રાપ્ત થાય છે, પહેલા, બીજા અને ત્રીજા સ્થાનને ગ્રહણ કરવાથી વિજ્ય થતું નથી), એજ પ્રમાણે આ લેખમાં સમસ્ત જીવોના રક્ષક પાર્વજ્ઞ તીર્થકર ભગવાન દ્વારા પ્રરૂપિત, ક્ષમા આદિની પ્રધાનતાવાળે, કૃત ચારિત્ર રૂપ, સૌથી ઉત્તમ અને સર્વથા હિતકારક ધર્મને જ સ્વીકાર કરીને પિતાના અને પરના કલ્યાણ માટે પ્રયત્ન કરવો જોઈએ. જેવી રીતે કુશળ જુગારી ચતુર્થ સ્થાન સિવાયના સ્થાનેને છોડી દે છે, એજ પ્રમાણે સત્ અને વિવેક વાળા પુરુષો પણ ગૃહસ્થ, કુટ્ટાવચનિક અને પાર્થસ્થ (શિથિલાચારીઓ) ના ધર્મને ત્યાગ કરીને સર્વોત્તમ સર્વજ્ઞप्रतिपाति भने हुए ४२ छ. ॥२४॥ For Private And Personal Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्याथ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ स्त्रपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ६०१ : छाया उत्तरा मनुजानामाख्याता ग्राम धर्मा इह मयाऽनुश्रुतम् । येभ्यो विरताः समुत्थिताः काश्यपस्याऽनुधर्मचारिणः।। २५|| अन्वयार्थ: 1 (A) मया (अणुस्सुयं) अनुश्रुतम् । (गामधम्म) ग्राम्यधर्माः शब्दादिरूपा मैथुनरूपा वा ( मणुजाणं) मनुजानां (उत्तरा) उत्तराः दुर्जया: = ( आहिया ) आख्याताः तीर्थकरैरिति (जैसि विरया) येभ्यो विरताः (समुट्टिया) समुत्थिताः = पुनः दूसरा उपदेश करते हैं । सर्वज्ञोक्त धर्म अत्यन्त सूक्ष्म है और उसको समझना अत्यन्त कठिन है, ऐसा सोचकर सूत्रकार अनेक दृष्टान्तों द्वारा उसी अर्थ का बार बार प्रतिपादन करते हैं- " उत्तरे" इत्यादि शब्दार्थ - 'मे --मया' मैंने 'अणुस्यं - अनुश्रुतम् । सुना है कि 'गामधम्मा-ग्राममः' शब्द आदि विषय अथवा मैथुन सेवन 'मणुयाणं - मनुजानाम्' मनुष्यों के लिये 'उत्तरा - उत्तराः ' दुर्जय 'आहिया - आख्याताः' कहे गये हैं 'जसि विरया-येभ्यो विरताः' उनसे निवृत्त होकर 'समुट्टिया - समुत्थिताः संयम में प्रवृत्तिवाला पुरुष ही 'कासवस्स - काश्यपस्य' काश्यपगोत्र वाले भगवान् महावीर स्वामी के 'अणुधम्मचारिणो--अनुधर्मचारिणः ' धर्मानुयायी है || २५॥ अन्वयार्थ -- मैंने सुना है कि ग्राम धर्म अर्थात् शब्दादि अथवा मैथुन आदि रूप इन्द्रियों के विषय मनुष्यों के लिए दुर्जय हैं, ऐसा तीर्थकरों ने कहा है । उनसे સÖજ્ઞ પ્રરૂપિત ધર્મ અત્યંત સૂક્ષ્મ છે અને તેને સમજવા ઘણા મુશ્કેલ છે, એવુ સમજીને સૂત્રકાર અનેક દૃષ્ટાન્તા દ્વારા એજ અર્થ નુ વાર વાર પ્રતિપાદન કરે છે—“શરે ઇત્યાદિ " शब्दार्थ' - 'मे-मया' में 'अणुस्सुय' - अनुश्रुतम्' सांलज्यु' छेडे 'गामधम्मा- ग्रामधर्माः' शब्द वगेरे विषय अथवा मैथुन सेवन 'मणुयाण - मनुजानाम्' मनुष्योना भाटे 'उत्तराउत्तराः' हुई 'महिया - आख्याता:' हे छे. 'जसि विरया येभ्यो विरताः' तेभांथी निवृत्त थाने 'समुट्टिया - समुत्थिताः संयममां प्रवृत्तिवाना पु३ष ०४ 'कासवस्स काश्यपस्य' अश्यप गोत्रवाणा भगवान् महावीर स्वामीना 'अणुधम्मचारिणो- अनुधर्मचारिणः' ધર્માનુયાયી છે. ારપા सूत्रार्थ - મે” (પ્રભુની સમીપે) એવું સાંભળ્યુ છે કે ગ્રામધમ એટલે કે શબ્દાદિ અથવા મૈથુન આદિ રૂપ ઇન્દ્રિયાના વિષયા મનુષ્યાને માટે દુય છે. (આ પ્રકારનુ સ્થન તીથ કરાએ सू. ७९ For Private And Personal Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०२ "सूत्रकतासो संयमे उपस्थिताः (कासवस्स) काश्यपस्य महावीरस्य (अणुधम्मचारिणो) अनुधर्मचारिणः, ग्रामभ्यो विरताः महावीरस्य धर्मचारिम इति मया श्रुतमिति ॥२५॥ टीका 'मे' मया 'अणुस्सुयं अनुश्रुतम् । किमनुश्रुतं भवता तत्राह-'गामधम्मा' ग्रामधर्माः शब्दादयो विषया मैथुनादयो वा । केषां कृते इमे ग्रामधर्मास्तत्राह'मणुयाणं' मनुजानाम्, मनुष्याधिकारत्वात् शास्त्रस्य । अथवा-मनुजेत्युपलक्षणं सर्वेषामेव जीवानाम्, ते ग्रामधर्माः । 'उत्तरे' उत्तराः दुर्जेया जेतुमशक्याः । 'आहिया' आख्याताः कथिताः, प्रतिपादिता इति यावत् । ग्रामधर्माणां दुर्जेयत्वं तीर्थकरादिभिः प्रतिपादितम्, इति तेभ्य एव तीर्थकरेभ्यो मयापि श्रुतम् । एतादृशग्रामधर्मेभ्यः जसि विरयाः' येभ्यो विरतायाः तादृशधर्म परित्यज्य, 'समुडिया' समुत्थिताः, गमधर्म परित्यज्य संयमाऽनुष्ठानाय प्रवृत्ता एव केचन पुरुषधौरेया विरत होकर जो संयम में पराक्रमी होते हैं, वे ही काश्यप अर्थात् महावीर के धर्म के अनुयायी हैं ॥२५॥ ___टीकार्थ हे जम्बू ! मैंने प्रभु के पास सुना है जम्बूस्वामी पूछते हैं हे भदन्त आपने क्या सुना है ? सुधर्मास्वामी कहते हैं-ग्रामधर्म अर्थात् शब्दादि विषय और मैथुन आदि मनुष्यों के लिए दुर्जेय हैं । यों तो ये विषय प्राणी मात्र के लिए दुर्जेय हैं किन्तु मनुष्य ही शास्त्र का अधिकारी है इस कारण मनुष्य का ही उल्लेख किया है। अथवा मनुष्य शब्द यहाँ उपलक्षण है, उससे सभी जीवों का ग्रहण समझ लेना चाहिए इन ग्रामधर्मों की दुर्जेयता तीर्थकरों आदि ने प्रतिपादन की है और उन्हों तीर्थकरों से मैने सुना है । इन ग्रामधर्मों से विरत होकर अर्थात् इन्हें त्याग कर जो संयम के पालन में કરેલું છે. જેમાં તેમાંથી વિરત (નિવૃત્ત) થઈને સંયમની આરાધનામાં પ્રવૃત્ત થાય છે, તેમને જ કાશ્યપ ત્રીય મહાવીરના ધર્મના અનુયાયીઓ કહેવાય છે. પરિપાલ સુધમ સ્વામી જંબુસ્વામીને કહે છે કે મેં ખુદ મહાવીર પ્રભુની સમીપે તેમનું આ કથન સાંભળ્યું છે કે “ગ્રામધર્મ પર વિજય મેળવવાનું કાર્ય મનુબે માટે ઘણું જ દુર છે.” શબ્દાદિ વિષય અથવા મંથન આદિ રૂપ ઇન્દ્રિયના વિષયને લેકધર્મ કહે છે. તે કામ મનુષ્યને માટે દુજેય ગણાય છે. જો કે તે વિષય સમસ્ત જેને માટે દુર્જાય છે, છતાં અહીં મનુષ્યને જ ઉલ્લેખ કરવાનું કારણ એ છે કે મનુષ્યજ શાસ્ત્રના અધિકારી છે. અથવા મનુષ્ય શબ્દ અહીં ઉપલક્ષણ છે, તેના દ્વારા સમસ્ત જેને પણ ગ્રહણ કરવા જોઈએ For Private And Personal Use Only Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समार्थबोधिनी टीका प्र.अ. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ६०३ एव 'कासव' काश्यपगोत्रोद्भवस्य महावीरस्वामिनस्तीर्थकरस्य 'अणुधम्मचारिणो' अनुधर्मचारिणो भवन्ति भगवतस्तीर्थकरस्य धर्मे त एवानुचरन्ति । ये ग्रामभ्यो विनिवृत्ता तथा संयमानुष्ठानाय कृतबद्धकरा नान्ये ग्रामधर्मसेवका स्तादृशधर्मग्रहणं कुर्वन्ति गणधरो हि सुधर्मस्वामी जंबुस्वामि प्रभृतये शिष्याय प्रतिपादयति भो भोः? शब्दादिविषयरूपाः मैथुनादिरूपा वा ग्रादधर्माः मनुजैर्दुर्जयाः" इतिश्रुतं मया सर्वज्ञश्रीमहावीरादिमुखेभ्यः । अतस्तान् शन्दादि विषयान् मैथुनादि ग्रामधर्मान् परित्यज्य ये संयमानुष्ठाने प्रवृत्तास्त एव तीर्थकरोदितधर्मस्याऽनुयायिनो भवन्ति इति भावः । अन्यत्राप्युक्तम् प्रवृत्त हैं वही कोई कोई उत्तम पुरुष काश्यपगोत्र में उत्पन्न भगवान् महावीर तीर्थकर के धर्म के अनुयायी हैं । तात्पर्य यह है - जो ग्राम धर्म से विरत हैं तथा संयम के अनुष्ठान के लिए कमर कस चुके हैं, वही उस धर्म को ग्रहण करते हैं। दूसरे जो ग्राम धर्म सेवी हैं वे उस धर्मको ग्रहण नहीं कर सकते । गणधर सुधर्मा स्वामी अपने शिष्यम्बू स्वामी आदि से कहते हैं - हे शिष्यों ! शब्द आदि विषय तथा मैथुन आदि ग्राम को जीतना मनुष्यों के लिए बहुत कठिन है, ऐसा मैने सर्वज्ञ श्री महावीर आदिके मुख से सुना है । अतएव शब्द आदि विषयों तथा मैथुन आदि ग्राम को त्याग कर जो संयम के परिपालन में प्रवृत्त हैं वही तीर्थंकर प्रतिपादित धर्म के अनुयायी होते हैं । अन्यत्र भी कहा है આ ગામમાંની દુજે યતાનુ' તીથંકરે। આદિ દ્વારા પ્રતિપાદન કરાયુ છે. સુધર્માં સ્વામી જખુ સ્વામીને કહે છે કે મહાવીર પ્રભુની સમીપે મેં આ વાત સાંભળી છે. આ ગ્રામધર્મોમાંથી નિવૃત્ત થઈને-તેમના પરિત્યાગ કરીને જે ઉત્તમ પુરુષો સંયમના પાલનમાં પ્રવૃત્ત થાય છે તેમને જ મહાવીર પ્રભુના ધર્મના અનુયાયીએ કહી શકાય છે. ભગવાન મહાવીર કાશ્યપ ગાત્રમાં ઉત્પન્ન થયા હતા, તેથી તેમને માટે - કાશ્યપ ’પદ્મના પ્રયાગ કરવામાં આવ્યો છે. આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે જે આ ગ્રામધમ માંથી વિરત (નિવૃત્ત) છે. તથા સંયમની આરાધના કરવાના કાર્યમાં કમર કસીને પ્રવૃત્ત થઈ ગયા છે. તેઆજ સČજ્ઞપ્રરૂપિત ધર્મને ગ્રહણ કરવાને સમર્થનથી. ગણધર સુધર્મા સ્વામી પેાતાના જબૃસ્વામી આદિ શિષ્યાને હે છે કે “હે શિષ્યા ! શબ્દાદિ વિષયે તથા મૈથુન આદિ ગ્રામધને જીતવાનું કામ મનુષ્યા માટે ઘણુ જ કઠણ છે, એવું મેં સર્વજ્ઞ મહાવીર ભગવાને મુખે સ ંભળ્યુ છે. તેથી શદાદિ વિષયાના તથા મૈથુન આદિ ગ્રામાંના ત્યાગ કરીને જેઓ સંયમના પરિપાલનમાં પ્રવૃત્ત થાય છે. તેમ જ તીથંકર પ્રતિપાદિત ધર્મના અનુયાયીઓ કહેવામાં For Private And Personal Use Only Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०४ सूत्रकता यामधर्मान् परित्यज्य संयमेस्थिति माप्नुहि । इत्थं तीर्थकरैः प्रोक्तं संयमो हि महद्धनम् ।।१।। इति ॥२५॥ मूलम् जे एयं चरंति आहियं नारणं महया महेसिया । ८ ९ १० ११ १३ १४ १२ ते उठिया ते समुट्रिया अन्नोन्नं सारंति धम्मओ ॥२६॥ छायाय एनं चरन्त्याख्यातं ज्ञातेन महता महर्षिणा । ते उत्थितास्ते समुत्थिता अन्योऽन्यं सारयन्ति धर्मतः ॥२६॥ 'ग्रामधर्मान् परित्यज्य ' इत्यादि। ग्रामधर्मों को त्यागकर संयम में स्थित होओ। संयम ही महान् धन हैं। ऐसा तीर्थंकरों का कथन हैं ॥२५॥ शब्दार्थ-'महया--महता' महान् ‘महेसिणा। अनुकूल प्रतिकूल उपसर्ग के सहन करने से महर्षि ऐसे 'नाएणं-ज्ञातेन' ज्ञातपुत्र के द्वारा 'आहियं-- आख्यातम्' कहे गये 'एयं-एनम्' इस अहिंसालक्षण धर्म को 'जे--ये' जो पुरुष 'चरंति-चरन्ति' आचरणकरण करते हैं 'ते-ते । वे ही 'उहिए-उत्थिताः' उत्थित हैं तथा 'ते--ते' वेही 'समुट्ठिया--समुत्थिताः सम्यक् प्रकार से उत्थित हैं एवं 'धम्मो -धर्मतः' धर्म से पतित होते हुए ‘अनोन्नं--अन्योन्यम् । एक दूसरे को वे ही 'सारंति--सारयन्ति' पुनः सद्धर्म में प्रवृत्त करते हैं ॥२६॥ माये छे अन्यत्र पए मेत् ४युं छे 3-' ग्रामधर्मान् परित्यज्य" त्यादि ગ્રામધને ત્યાગ કરીને સંયમમાં પ્રવૃત્ત થઈ જાઓ, સાંયમજ મહાધન છે.” એવું તીર્થકરોનું કથન છે. ગાથા ૨૫ . शम्दा---'महया-महता' भडान् 'महेसिणा-महर्षिणा' मनुज प्रतिपूण उपसना सहन ४२वाथी भाप सेवा 'नाएण-शातेन' सातपुत्रना द्वारा 'आहिय-आख्यातम् Ye 'एय-एनम्' मा मासा सक्ष धर्मने 'जे-येरे ५३५ 'चरति-चरन्ति' आय२६ ४२ छ. 'ते.ते' मे 'उद्विए-उत्थिता' स्थित छ तथा 'से-ते' मेन 'सम. द्विया-समुत्थिताः' सभ्य५ प्रस्थी. जयत छ मेवम् 'धम्मओ-धर्मतः' माथी पतित थवाथी 'अन्नोन्न-अन्योन्यम्' मीनने से 'सार ति-सारयन्ति' पुन: सधभभा પ્રવૃત્ત કરે છે. કેરા For Private And Personal Use Only Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु.अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ६०५ . -अन्वयार्थ(महया) महता महाविषयस्य केवलज्ञानस्यानन्यत्वात् महान् महावीरस्तेन, तथा (महेसिया) महर्षिणा=अनुकूलप्रतिकूलोपसर्गसहनात् (नाएणं ) ज्ञातेन= ज्ञातपुत्रेण (आहियं) आख्यातं कथितम् (एयं) एनम् अहिंसालक्षणं धर्मम् (जे) ये पुरुषाः (चरंति) चरन्ति (ते) ते एव (उटीए) उत्थिताः संयमोत्थानेन तथा (ते) त एव (समुट्ठिया) समुत्थिता कुमार्गदेशनापरित्यागेन, नान्ये तथा (धम्मओ) धर्मतः धर्मतः भ्रश्यन्तम् (अन्नोन्नं) अन्योन्यं परस्परम् (सारंति) सारयति पुनरपि सद्धर्मे प्रवर्तयन्तीति ॥ २६॥ टीका'महया' महता=महाविषयत्वात् ज्ञानावरणीयादिघातिककर्मक्षयेण जातं महत् केवलाख्यं ज्ञानं तेनाभिन्नत्वात् महान् तीर्थकरस्तेन महता 'महेसिया' मह अन्वयार्थःमहान् विषय वाले केवलज्ञान से अभिन्न होने के कारण महान् महर्षि अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग सहने वाले ज्ञातपुत्र के द्वारा कथित इस अहिंसाधर्म का जो पुरुष आचरण करते हैं उत्थित हैं और वही समुत्थित हैं, अर्थात् संयमरूप उत्थान से उत्थित और कुमार्ग के उपदेश का परित्याग करके समुत्थित हैं, अन्य नहीं । वे धर्म से च्युत होने वाले को पुनःपरस्पर में प्रवृत्त करते हैं ॥२६॥ टीकार्थःज्ञानावरणीय आदि घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने से केवलज्ञान महाविषय वाला होने के कारण 'महान्' कहलाता हैं और उससे अभिन्न સૂત્રાર્થ મહાન વિષયવાળા કેવળજ્ઞાનથી અભિન્ન હોવાને કારણે મહાન મહર્ષિ રૂપ ગણાતા એવા, અને અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગોને સહન કરનારા જ્ઞાતપુત્ર (મહાવીર) દ્વારા પ્રરૂપિત આ અહિંસાધર્મનુ જે પુરુષે આચરણ કરે છે, તેઓ જ ઉસ્થિત છે અને તેઓ જ સમુસ્થિત છે. એટલે કે સંયમ રૂપ ઉત્થાનથી ઉસ્થિત અને કુમાર્ગના ઉપદેશને પરિત્યાગ કરવાને કારણે સમુસ્થિત છે, અન્ય લોકેને ઉસ્થિત અને સમૃથિત કહી શકાય નહીં. એવા ઉસ્થિત અને સમુસ્થિત પુરુષો જ ધર્મથી ભ્રષ્ટ થયેલા લેને ફરી ધર્મમાં સ્થાપિત કરે છે. શરદ ટીકાઈ જ્ઞાનાવરણીય આદિ ઘાતિયા કર્મોને ક્ષય થવાથી ઉત્પન્ન થયેલું કેવળજ્ઞાન મહાવિષચવાણું હોય છે, તે કારણે તેને “મહાન ” કહેવાય છે. તીર્થકરમાં તે જ્ઞાનને સભાવ For Private And Personal Use Only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागसूत्रे पिणा अनुक्लप्रतिकूलोपसर्गसहनात् 'नाएणं' ज्ञातेन ज्ञातपुत्रेण श्री वर्द्धमानस्वामिना 'आहिय' आख्यातम् केवलालोकेन कथितम , 'एयं' एनम् धर्म 'जे' ये पुरुषाः-मोक्षाभिलाषिणः 'चरंति' आचरन्ति । ते-तएव पुरुषाः 'उट्टिया' उत्थिता: संयमोत्थानेन कुतीर्थिकपरिहारेण, तथा 'समुट्टिया समुत्थिताः निववादिपरिहारेण कुदेशनापरित्यागेनोत्थिताः समुत्थिताः । तथा 'धम्मओ' धर्मात् परिभ्रष्टान् पुरुपान् 'अन्नोनं' अन्योन्यं परस्परम् 'सारंति सारयति पुनरपि धर्मे श्रुतचारिश स्थापयन्ति सर्वतो महत् केवलज्ञानं भवति, तदभिन्नतया भगवान् तीर्थकरोपि महानित्याख्यायते । धर्मधर्मिणोरभेदात् । एतादृशमहत्त्वगुणयुक्तः, तथा अनुक्लपरीपहोपसर्गसहनशीलो महर्षिज्ञातपुत्रो महावीरस्वामी, तेन तीर्थकरेण प्रतिपादितयामधर्मपरित्यागस्वरूपः उत्तमो धर्मः तादृशधर्मे ये उग्रविहारेण विचरन्ति, होने से तीर्थकर भी महान हैं। उन महान् महर्षि अर्थात् अनुक्ल और प्रतिकूल उपसर्ग सहन करने वाले ज्ञातपुत्र श्री वर्धमान स्वामी के द्वारा कहे हुए धर्मको जो मोक्षाभिलाषी पुरुष आचरण में लाते हैं, वे ही पुरुष संयम रूप उत्थान से कुतीथिकों का परिहार करके उत्थित हैं तथा निह्नवी का परिहार करके एवं खोटी देशना का त्याग करके समुत्थित हैं। वे धर्म से पतित होने वाले को परस्पर में श्रुतचारित्रधर्म में स्थापित करते हैं। भावार्थ यह है कि केवलज्ञान सब से महान् है और उससे अभिन्न होने के कारण तीर्थकर भी महान् कहलाते हैं, क्योंकि गुण और गुणी में भेद नहीं होता । इस प्रकार के 'महत्त्व' गुण से युक्त और अनुकूल तथा प्रतिकूल परीपहों और उपसर्गों को सहन करने वाले महर्पि ज्ञातपुत्र महावीर स्वामी हैं। उन तीर्थकर ने ग्रामधर्म का परित्याग रूप उत्तमधर्म कहा है। હોય છે. તે કારણે તીર્થ કરેને પણ “મહાન” કહેવાય છે. એવા મહાન મહર્ષિ એટલે કે અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગોને સહન કરનારા જ્ઞાતપુત્ર શ્રી વર્ધમાન સ્વામી દ્વારા ધર્મની જે મેક્ષાભિલાષી પુરુષી આરાધના કરે છે, તે પુરુષ જ સંયમ રૂ૫ ઉત્થાન વડે કુતીર્થિકોનો પરિત્યાગ કરીને ઉસ્થિત છે અને નિને પરિત્યાગ કરીને અને પેટી દેશના ત્યાગ કરીને સમુસ્થિત થયેલા છે. એવા લેકો જ ધર્મથી ભ્રષ્ટ થયેલા લોકોને થતચારિત્ર રૂપ ધર્મમાં સ્થાપિત કરે છે. આ કથનનો ભાવાર્થ એ છે કે કેવળજ્ઞાન સૌથી મહાન છે, અને તેનાથી અભિન્ન હોવાને કારણે તીર્થકરને પણ મહાનું કહેવાય છે, કારણ કે ગુણ અને ગુણીમાં ભેદ હૈ નથી. આ પ્રકારના મહત્વ” ગુણથી યુક્ત અને અનુકૂળ તથા પ્રતિકૂળ પરીષહ અને ઉપસર્ગોને સહન કરનારા મહર્ષિ, જ્ઞાતપુત્ર મહાવીરે ગ્રામધર્મને પરિત્યાગ રૂપ ઉત્તમ ધર્મની પ્રરૂપણ કરી છે. જેઓ પ્રયત્નશીલ રહે છે, તેમને જ સંયમ For Private And Personal Use Only Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र.अ. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगदादिनाथोपदेशः १०७ त एव संयमधर्मे उस्थिताः तथा त एव परतीर्थिकधर्ममैथुनादिसेवनरूपं परित्यज्य सम्यग्धर्मे प्रवृत्ता भवन्ति, त एव निवादीन् परित्यज्य कुमार्गदेशनातः सम्यग् विरताः। एवं यथोक्तधर्मानुष्ठातार एव परस्परं लोकान धर्मे प्रवर्त्तयन्ति । - अथवा धर्मभ्रष्टान् कुमार्गप्रवृत्तान् त एव पुनः धर्ममार्गे योजयन्ति इति भावः । अन्यत्राप्युक्तम् पुनर्भष्टान् पुनर्भेष्टान् धर्मे संस्थापयन्ति ते । ये संयममनुष्टानं पालयन्ति दयालयः ॥१॥ गा. २६॥ गुरुः शिष्यं प्रतिबोधयति-'मा पेह इत्यादि । मूलम् मा पेह पुरा पणामए अभिकंखे उवहिं धूणित्तए । जे दमण तेहिं णो णया ते जाणंति समाहिमाहियं ॥२७॥ उस धर्म में जो उपविहार से विचरते हैं वहीं संयमधर्म में उत्थित कहलाते हैं और वही मैथुनादि के सेवनरूप परतीथिकों के धर्म को त्याग कर सम्यक्धर्म में प्रवृत्त होते हैं । वही निहव आदिकों को त्याग कर कुमार्ग की देशना से विरत है । इस प्रकार यथोक्त धर्मका अनुष्ठान करने वाले ही परस्पर लोगों को धर्म में प्रवृत करते हैं अथवा जो धर्म से भ्रष्ट हो गए हैं और कुमार्ग में प्रवृत हुए हैं, उन्हें धर्ममार्ग में लगाते हैं। अन्यत्र भी कहा है"पुनर्भेष्टान् पुनर्भेष्टान्" इत्यादि। जो संयम रूप अनुष्ठान का पालन करते हैं वे दयाल पुरुष ही धर्म से बार बार भ्रष्ट होने वालों को धर्म में स्थापित करते हैं।२६।। ધર્મમાં ઉસ્થિત કહેવાય છે, અને એવા લેકે જ મૈથુન આદિના સેવન રૂપ પરતીથિકના ધર્મને ત્યાગ કરીને સમ્યગ્ધર્મમાં પ્રવૃત્ત થાય છે. એવા પુરુષોજ નિહવ આદિકેને ત્યાગ કરીને કુમાર્ગની દેશના ત્યાગ કરીને શ્રતચારિત્ર રૂપ ધર્મની આરાધના કરે છે. આ પ્રકારે યક્ત ધર્મનું અનુષ્ઠાન કરનારા પુરુષો જ લેકેને ધર્મમાં પ્રવૃત્ત કરે છે અને ધર્મથી ભ્રષ્ટ થયેલા અને કુમાર્ગમાં પ્રવૃત્ત થયેલા લેકને ધર્મમાર્ગમાં સ્થાપિત કરે છે. मन्यत्र ५४ मे धुंछ -“पुनपान पुनर्धष्टान् " Unile સંયમ રૂપ અનુષ્ઠાન પાલન કરનારા દયાળુ પુરુષે જ ધર્મથી વારંવાર બ્રણ થનારા લેકેને ધર્મમાં સ્થાપિત કરે છે. ગાથા ૨૬ For Private And Personal Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६०८ सबकृतामसूत्र -छायामा प्रेक्षस्व पुरा प्रणामकान् अभिकांक्षे उपधि धनयितुम् । । ये दुर्मनसस्तेषु नो नतास्ते जानन्ति समाधिमाख्यातम् ॥२७॥ -अन्वयार्थ__ (पुरा) पुरा पूर्वकाले भुक्तान् (पणामए) प्रणामकान् शब्दादिविषयान् (मा पेह) मा प्रेक्षस्व, हे शिष्य ! स्मरणं मा कुरु, (उवहिं) उपधिमष्टविधं कर्म (धुणितए) धूनयितुं नाशयितुम् (अभिकखे) अभिकांक्षेत्-इच्छेत् । (दृमण) दुर्म नसः मनोदृषकाः शब्दादिविषयाः (तेहिं) तेषु (जे) ये पुरुषाः (णो णया) नो गुरु शिष्य को समझाता है- "मा पेह' इत्यादि । शब्दार्थ---'पुरा--पुरा' पूर्वकाल में भोगे हुए पणामए-प्रणामकान् ' शब्दादिविषयों को ‘मा पेह--मा प्रेक्षस्त्र' स्मरण न करो. 'उपहि-उपधिम् । माया को अथवा आठ प्रकार के कर्मों को 'धुणित्तए-धूनयितुम् ' दूर करने की 'अभिकंखे--अभिकांक्षेत्' इच्छा करो 'दूमण--दुर्मनसः' मन को दुषित बनाने वाले जो शब्दादि विषय है 'तेहिं--तेषु' उनमें 'जे-ये' जो पुरुष णो णया-नो नताः' आसक्त नहीं है वे 'आहियं-आख्यातम्' अपने आत्मामें स्थित 'समाधिम्' रागद्वेषके त्यागरूप अथवा धर्मध्यान को 'जाणंति-जानन्ति' जानते हैं ॥२७॥ अन्वयार्थ - पूर्व काल में भोगे हुए शब्द आदि विषयभोगों को न देखो हे शिष्य ! उनका स्मरण न करो । उपधि अर्थात् आठ प्रकार के कर्मों को नष्ट करने की अभिलाषा रक्खो। मन को विकृत करने वाले विषयभोगों में जो शुरु शिष्यने समनवे छे-" मा पेह" त्यात शहाथ-----'पुरा-पुरा पूर्व सभा सोमवेत 'पणामए- प्रणामकान्' ५४ वगेरे विषयानु ‘मा पेह-मा प्रेक्षस्व' स्भर ना ४। 'उवहि-उपधिम्' भायाने अथq3 प्रा२ना भनि 'धुणित्तए-धूनयितुम्' इ२ ४२वानी 'अभिक खे-अभिकक्षित् २छ। ४।. 'दुमण-दुर्मनसः' भनने दूषित मनाथ वा शह पो३ विषय छ तेहि-तेषु' तेमा 'जे-येरे पुरुष णो णया-नो नताः' मासत नथी 'ते-ते' ते ५३५ 'आहियआख्यातम्' पाताना मात्मामा 'समाहि-समाधिम्' रागद्वेषना त्या३५ २५थवा धर्मध्यानने 'जाणति-जानन्ति' ये छे. ॥२७॥ सूत्रार्थ હે શિ! પૂર્વકાળમાં ભેગવેલા શબ્દાદિ વિષય ભોગેનું સ્મરણ ન કરે. ઉપાધિ એટલે કે આઠ પ્રકારના કર્મોને નાશ કરવાની અભિલાષા રાખી. મનને વિકૃત કરનારા For Private And Personal Use Only Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समया बोधिनी टीका प्र. शु. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ६०९ नता नासक्ताः (ते) ते पुरुषाः (आहिय) आख्यातम् आत्मनि व्यवस्थित मित्यर्थः, (समाहि) समाधि रागद्वेपत्यागरूपं धर्मध्यानरूपं वा (जाणंति) जानंति= तत्त्वतो नान्ये इति ॥२७॥ -टीकाहे शिष्य ! 'पुरा' पुरा-पूर्वस्मिन् काले 'पणामए' प्रणामकान्-शब्दादिविषयान् प्रणामयंति पातयन्ति नरकनिगोदादि कुगति ये ते प्रणामाः शब्दादयो विषयमार्गास्तान ‘मा पेह' मा प्रेक्षस्व पूर्वानुभूतशब्दादिविषयान् नानुस्मर, तेपां स्मरणं मा कुरु। किन्तु 'उवहिं उपधिम् मायामष्टविधं कर्म वा, 'धूणित्तए' धूनयितुमपनेतुम्, 'अभिकंखे अभिकांक्षेत् माया कर्मणो नाशाय प्रवृत्तिं कुरु, 'दूमण' दुर्मनसः मनोविकारकारिणो ये शब्दादि तेहि तेषु 'जे' ये ‘णो णया' नो नताः नासक्ताः 'ते' एव सन्मार्गानुष्ठायिन पुरुषाः 'आहियं आख्यातं स्वात्मनि स्थितम् 'समाहि समाधिम् रागद्वेषयोस्त्यागं धर्मध्यानं वा 'जाणंति' जानन्ति । पुरुष आसक्त नहीं हैं, वे आत्मा में रही हुई समाधि को रागद्वेष का परित्याग या धर्मध्यान रूप समाधि को वास्तविक रूप से जानते हैं। अन्य लोग उसे नहीं जानते ॥२७॥ . टीकार्थ 'प्रणामक' का अर्थ है कामभोग । जो नरकनिगोद आदि आदि गतियों में जीव को ले जाते हैं वे प्रणामक कहलाते हैं । पूर्वकाल में जो कामभोग भोगे हों, उनका स्मरण मत करो । किन्तु उपधि अर्थात् माया को अथवा आठ प्रकार के कर्मों को दूर करने की आकांक्षा रक्खो अर्थात् माया और कर्मों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्ति करो । मन में विकार उत्पन्न करने वाले शब्दादि विषयों में जो आसक्त नहीं है, वे पुरुष ही सन्मार्ग વિષયોમાં જે પુરુષ આસક્ત થતા નથી, તેઓ સમાધિને રાગદ્વેષના પરિત્યાગ રૂપ સમાધિને અથવા ધર્મધ્યાન રૂપ સમાધિને-વારતવિક રૂપે જાણે છે, અન્ય પુરુષ તેને જાણતા નથી. પરા -टीआर्थी“પ્રણમક” એટલે “કામગ” જે નરકનિગોદ આદિ ગતિઓમાં જીવને લઈ જાય છે, તેમને પ્રણામક કહે છે. પૂર્વકાળે જે કામગ ભેગવ્યા હોય તેનું સ્મરણ ન કરે, પરન્તુ ઉપાધિ એટલે કે માયાને અથવા આઠ પ્રકારના કર્મોને દૂર કરવાની જ આકાંક્ષા રાખો, એટલે કે માયા અને કર્મોને દૂર કરવાને માટે પ્રયત્નશીલ રહે. જેઓ મનમાં વિકાર ઉત્પન્ન કરનારા શબ્દાદિ વિષયમાં આસક્ત હતા નથી, એવા પુરુષો જ સન્માર્ગનું For Private And Personal Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६१० सूत्रकृताङ्गसूत्रे पूर्वानुभूतान् शब्दादिकामभोगान् नाभिकांक्षेत् । तथा मायाया अष्टविकर्मणो वा त्यागः सर्वदैव करणीयः । ये पुरुषा मनोविकारकारिशब्दादि विषयेषु नासक्तास्ते एव पुरुषा स्वात्मनि स्थितधर्मादि ध्यानात्मकं रागद्वेपराहित्यात्मकं समाधिं जानंति नान्ये इति भावः ॥ २७॥ मूलम् ४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ ३ णो काहिए होज्ज संजए पासणिए ण य संपसारए । ८ ७ ६ णच्चा धम्मं अणुत्तरं कयकिरिए ण यावि मा ||२८| छाया नो काfथको भवेत्संयतः प्राश्निको न च संप्रसारकः । ज्ञात्वा धर्ममनुत्तरं कृतक्रियो न चापि मामकः ||२८|| I का अनुष्ठान करने वाले हैं । वे अपनी आत्मा में स्थित, रागद्वेष परित्याग रूप या धर्मध्यान रूप समाधि को जानते हैं । आशय यह है -- पूर्वयुक्त शब्दादि कामभोगों की अभिलाषा नहीं करनी चाहिए | माया या अष्टविध कर्मों को नष्ट करने का सदैव प्रयत्न करना चाहिए । जो पुरुष मन में विकार उत्पन्न करने वाले शब्द आदि विषयों में आसक्त नहीं हैं, वही अपनी आत्मा में स्थित रागद्वेष भाव स्वरूप अथवा धर्मध्यान रूप समाधि को जानते हैं, अन्य नहीं ||२७|| शब्दार्थ - तथा 'संजए संयतः संयमी पुरुष ' काहिए -काधिकः' विरुद्ध कथा कहने वाला 'णो होज्ज-नो भवेत् ' न होवे तथा ' णो पासणिए - नो प्रानिकः' प्रश्नका फल कहने वाला न होवे 'ण य संपसारए - न च संप्रसारकः અનુષ્ઠાન કરનારા છે. એવા પુરુષો જ, આત્મામાં રહેલા રાગદ્વેષના પરિત્યાગ રૂપે અથવા ધર્મ ધ્યાન રૂપ સમાધિને જાણે છે. , આ કથનનુ તાત્પર્ય એ છે કે સાધુએ ગૃહસ્થાવસ્થામાં ભાગવેલા કામભોગાનુ સ્મરણ કરવું જોઇએ નહીં તેણે માયા અથવા અવિધ કર્મોના નાશ કરવાને સદા પ્રયત્ન. શીલ રહેવુ જોઇએ જે પુરુષો, મનમાં વિકાર ઉત્પન્ન કરનારા શબ્દાદિ વિષયોમાં આસકત હાતા નથી, તે જ પેાતાના આત્મામાં સ્થિત રાગદ્વેષાભાવ સ્વરૂપ અથવા ધર્મધ્યાન રૂપ સમાધિને જાણે છે, અન્ય પુરૂષો તેને જાણતા નથી ગાથા જ્ઞા शब्दार्थ - तथा 'संजय - संयतः ' संयमी पु३ष 'काहिए - काशिक : वि३द्ध वार्ता उडेवावाणा 'णो होज्ज नो भवेत्' ना थाय तथा 'नो पासणिए-नो प्रानिक' प्रश्ननु इन उडवावाणा न मने 'ण य संप्रसारण- न च संप्रसारकः' भने वर्षा शोभ धन For Private And Personal Use Only Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र.अ. अ. २ उ. २ निजपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ६११ -अन्वयार्थतथा (संजए) संयतः प्रबजितः (काहिए) काथिकः (णो होज्ज) नो भवेत् विरुद्धकथाकारको न भवेदित्यर्थः, तथा (णो पासणिए) नो प्राश्निको भवेत् (ण य संपसारए) न च संप्रसारका घृष्टिधनोपार्जनाद्युपायदर्शको न भवेदित्यर्थः किन्तु (अणुत्तरं) अनुत्तरं सर्वतः श्रेष्ठं (धम्म) धर्म श्रुतचारित्रलक्षण (णचा) ज्ञात्वा (कयकिरिए) कृतक्रिया कृता क्रिया संयमानुष्ठानरूपा येन स कृतक्रियो भवेत् (ण यावि मामए) न चापि मामका कस्मिन्नपि वस्तुनि ममत्वं न कुर्यादिति ॥२८॥ -टीका'संजए' संयतः सप्तदशविधसंयमपालनपरायणो मुनिः 'नो काहिए' नो काथिकः राजादिविरुद्धकथाकारको न भवेत् , 'नो पासणिए' नो और वर्षा एवं धनोपार्जन के उपायोका कहने वाला भी न बने किन्तु 'अणुत्तरं -अनुत्तरम्' सर्वश्रेष्ठ 'धम्म-धर्मम्' श्रुतचरित्र रूप धर्म को ‘णच्चा-ज्ञात्वा' जानकर 'कयकिरिए-कृतक्रीतः' संयमरूप क्रिया का अनुष्ठान करे ‘ण यावि मामएनचापि मामकः और किसी भी वस्तु पर ममता न करे ॥२८॥ - अन्वयार्थ - संयमी पुरुष विरुद्ध कथाकारी न बने न प्राश्निक हो, न संप्रसारक हो अर्थात् वर्षा या धनोपार्जन आदि के उपाय कहने वाला न हो, किन्तु सर्वोत्तम श्रुतचारित्र धर्म को जानकर संयम की क्रिया करने वाला बने । वह किसी भी वस्तु में ममत्व न करे ॥२८॥ टीकार्थ सतरह प्रकार का संयम पालने में तत्पर मुनि राज्य विरुद्ध आदि कथा पाईनना उपायाना डावात ५९ ना मने [४न्तु 'अणुत्तर -अनुत्तरम्' सर्व श्रेय 'धम्म धर्मम्' श्रुतम्यारित्र ३५ धमन 'नश्चा-ज्ञात्वा' तीन 'ककिरिष-तक्रीत' संयम३५ ठियानु मनु४ान ४२ 'ण यावि मामए न चापि मामकः' अने ओऽपि वस्तु ५२ ममता ના કરે. ૨૮મા --सूत्रार्थસંયમી પુરૂ વિરૂદ્ધ કથાકારી થવું જોઈએ નહીં, તેમ પ્રાક્ષિક થવું જોઈએ નહીં અને સંપ્રસારક (પાપસૂત્રોના પ્રચારક) પણ થવું જોઈએ નહીં પરંતુ તેણે સર્વોત્તમ શ્રતચારિત્ર રૂપ ધર્માને જાણીને સંયમની આરાધના કરવામાં પ્રવૃત્ત થવું જોઈએ, તેણે કઈ પણ વસ્તુમાં મમત્વભાવ રાખે જોઈએ નહીં પર --टी -- સત્તર પ્રકારના સંયમના પાલનમાં પ્રવૃત્ત થયેલા મુનિએ રાજ્ય આદિના વિરૂદ્ધની For Private And Personal Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२ सुत्रकृतासूत्रे वा प्राविको भवेत् शुभाशुभप्रकारकः ' ण य संपसारए' न च संप्रसारकः भूकम्पान्तरिक्षाद्यष्टविधस्य एकोनत्रिंशत् प्रकारकपापसूत्रस्य प्रकारकपापसूत्रस्य वा वक्ता न भवेत् = किन्तु 'अणुत्तरं ' अनुत्तरं सर्वत उत्तमम्, 'धम्मं धर्मम् = श्रुतचारित्रलक्षण 'णा' ज्ञात्वा 'कयकिरिए ' कृतक्रियः, संयमक्रियाकारको भवेत्, तथा 'ण यावि 'मामए' न चापि मामकः - मामको न भवेत् । ममेदं वस्तु इत्याकारक ममत्व ग्रहाने न भवेत् । संयमशीलो हि पुमान् विरुद्धकथां न कुर्यात् । तथा प्रश्नफलानां प्रोच्चारयिता न भवेत् । तथा भूकंपादीनां धनोपार्जनोपायादीनामपि वक्ता न भवेत् । किन्तु लोकोत्तरं तीर्थकरधर्मं ज्ञात्वा संयमानुष्ठाने एव रतो भवेत् । ममत्वबुद्धिं च नैव विभृयात्कदापीति ||२८|| न करे, शुभ अशुभ संबंधी प्रश्नों का कथन करने वाला न हो तथा भूमि संबंधी आकाश संबंधी आदि आठ प्रकार के निमित्तों का तथा उनतीस प्रकार के पापसूत्रों का वक्त कहने वाला न हो । किन्तु श्रुतचारित्ररूप धर्म को ही सर्वोत्तम समझ कर संयम कि क्रिया को आराधन करे -पाले । 'यह वस्तु मेरी है' इस प्रकार के ममत्व रूपी ग्रह के अधीन न हो । अभिप्राय यह है कि संयमशील मुनि राज्यविरुद्ध कथा न करे, प्रश्न के फलों का कथन न करे भूकम्प आदि या धनोपार्जन के उपाय आदि न कहे, किन्तु लोकोत्तर तीर्थकरों के धर्म को ही सर्वश्रेष्ठ जान कर संयम के अनुष्ठान में ही लगा रहे । कभी fear भी वस्तु मे ममत्वभाव धारण न करे || २८ ॥ કથા કરવી જોઇએ નહીં, તેણે શુભ અશુભ સ ંબંધી પ્રશ્નોનું કથન કરનારા પણ અનવુ જોઇએ નહી. ભૂમિ, આકાશ આદિ સંબંધી આઠ પ્રકારનાં નિમિત્તાનું તથા ૨૯ પ્રકારનાં પાપસૂત્ર'નુ. પ્રતિપાદન અથવા કથન પણ તેણે કરવું જોઇએ નહીં. પરન્તુ શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્મને જ સર્વોત્તમ ગણીને સંયમની આરાધના કરવાને જ પ્રવૃત્ત થવું જોઈએ • આ વસ્તુ મારી છે” આ પ્રકારના મમત્વ રૂપ ગ્રહથી તેણે ગ્રસ્ત થવું જોઇએ નહીં, પરન્તુ મમત્વને પરિત્યાગ જ કરવા જોઇએ, આ કથનનુ તાત્પર્ય એ છે કે સાયમશીલ મુનિએ રાજા અથવા રાજ્ય વિરુદ્ધ ઉપદેશ આપવા નહી', તેણે પ્રશ્નના લેાનું કથન કરવું જોઇએ નહી. એટલેકે ભૂમિ, આકાશ આદિ સંબંધી આઠ પ્રકારનાં નિમિત્તોનુ કથન કરવુ જોઇએ નહીં. અને નેપાન આદિના ઉપાય તવવા જાઇએ નહીં, પરન્તુ લોકોત્તર તીથંકરા દ્વારા પ્રરૂપિત ધર્મને જ સર્વશ્રેષ્ઠ સમજીને, સયમની આરા ધનામાં જ પ્રવૃત્ત રહેવુ જોઇએ તેણે કોઈ પણ વસ્તુમાં મમત્વભાવ રાખવો જોઇએ નહીં પાગાથા ૨૮ ॥ For Private And Personal Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु अ. २ उ. २ निजपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ६१३ मूलम् छन्नं च पसंसं णो करे न य उक्कोसपगासमाहणे । तेसि सुविवेगमाहिए पणया जेहिं सुजोसियं धुय॥२९॥ छायाछम्नं च प्रशस्यं च न कुर्यात् न चोत्कर्ष प्रकाशं च माहनः । तेषां सुविवेक आहितः प्रणता यैः सुजुष्टं धुतम् ॥२९।। अन्वयार्थः(माहणे) माहनः साधुः (छन्न) छन्नं मायां (च) च=पुनः (पसंस) प्रशस्य लोभम् (णो करे) न कुर्यात् तथा ( उक्कोसं ) उत्कर्प मानं ( पगासं) प्रकाशं क्रोधं (न य ) न कुर्यात् (जेहिं) यैः (धुर्य) धुतमष्टविधकर्मनाशकं (सुजोसियं) - शब्दार्थ—'माहणे-माहनः' साधु पुरुष 'छन-छन्नम्' माया को 'च-च' और 'पसंसं-प्रशस्यम्' लोभ को 'उकोसं-उत्कर्षम्' मान को 'पगासं-प्रकाशम् क्रोध को 'णो करे--न कुर्यात्' न करे 'जेहि-यैः' जिस पुरुष ने 'धुर्य-धुतम् आठ प्रकार के कर्म को नष्ट करने वाले संयम को 'सुजोसियं-सुजुष्टम्' सम्यक् प्रकारसे सेवन किया है 'तेसिं-तेषाम्' उन्हीका ‘सुविवेगं-सुविवेकः' उत्तम प्रकार का विवेक 'आहिए-आहितः' प्रसिद्ध हुवा है और वे हि 'पण या-प्रणताः' धर्म परायण हैं ऐसा जानो ॥२९॥ अन्वयार्थ साधु, क्रोध, मान, माया, लोभ न करे, जिन्होंने आठ प्रकार के कर्मों को विनष्ट करने का सम्यक् अनुष्ठान किया है, उन्हीं का विवेक उत्तम कहा गया है। वे ही धर्म के प्रति प्रणत हैं- धर्मनिष्ठ हैं ॥२९॥ शाय-'माहणे-माहनः' साधु५३५ ‘छन्न-छन्नम्' भयाने 'च-च' भने 'पस स-- प्रशस्यम्' सोलने, 'उकोल-उत्कर्ष म्' मानने 'पगास-प्रकाशम्' धने को करे-न कुर्यातू' ना ४३ 'जेहि - यैः ५३षे 'धुयं-धुतम् २मा प्रा२ना भने नट ४२वापाणा संयमन 'सुजोसिय-सुजुष्टम् सभ्य५ प्राथी सेवन युछे, ते-तेषाम तमना । 'सुविवेना-सुश्विकः उत्तम प्रश्न विवे: 'आदिए-आहितः, प्रसिद्ध थयो छे गने ते 'पणया-प्रणताः यमपराया गेलो . ॥२८॥ -सत्रार्थસાધુએ કોધ, માન, માયા અને લેભ કરવા જોઇએ નહીં જેમણે આઠ પ્રકારના કર્મોને વિનાશ કરવાને માટે સમ્યફ અનુષ્ઠાન કર્યા છે, તેમના વિવેકને જ ઉત્તમ કહેવાય છે. તેઓ જ ધર્મનિષ્ટ છે. જે રા For Private And Personal Use Only Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१४ सूत्रकृताङ्गसू सुजुष्टं सम्यक सेवनं कृतम् (तेसिं) तेषामेव (सुविवेगं ) सुविवेक उत्तमो विवेकः (आहिए ) आहितः = प्रसिद्धो जातः तएव च (पणया) प्रणता धर्म प्रतीति ॥ २९ ॥ टीका 'माहणे' माहनः = साधुपुरुषः 'छन्नं च ' छन्नं मायाम् 'पसंसं' प्रशस्य लोभम् 'णो करे' नो कुर्यात् तथा 'उक्को' उत्कर्ष मानम् 'पगासं च' प्रकाशं क्रोधम् च ( नय) न करे षट्कायरक्षको मुनिः कदाचित् माया, लोभ, मान, क्रोधादि रूप कपायान् नो कुर्यादित्युपदेशः । 'जेहिं' यैः 'धुयं' धुतं विनाशितम् अष्टविधं कर्म 'सुजोसियं' सुजुष्टं सम्यग्रूपेण संयमानुष्ठानं कृतम् । 'तेसिं' तेषामेव 'सुविवेग आहिए' सुविवेक आहितः उत्तमो विवेकस्तेषां च प्रसिद्ध: । ' पणया' प्रणतास्त एव धर्म प्रति प्रणताः धर्मपरायणाः सन्ति, साधुभिः क्रोधमानमायालोभादयो न करणीयाः । यैर्हि अधर्मप्रणाशकं कर्मविनाशकं संयमानुष्टानं कृतम्, तेपामेवोत्तमो विवेको लोके प्रथितः, तथा त एव धर्मतत्परा इति लोके प्रशंसिता भवन्तीति भावः ॥ २९ ॥ - टीकार्थ साधु पुरुष क्रोध, मान, माया, और लोभ न करे अर्थात् पटुकाय का रक्षक मुनि इन चारों कषायों का सेवन न करें। जिन महापुरुषोंने आठ प्रकार के कर्मों को नष्ट किया है और सम्यक् प्रकार से संयमका अनुष्ठान किया है, उन्हीं का विवेक उत्तम कहा गया है । वही वास्तव में धर्मपरायण हैं । अभिप्राय यह है कि जिन्होंने अधर्म को तथा कर्मों को नष्ट करने वाला संयमानुष्ठान किया है, उन्हीं का उत्तम विवेक लोक में विख्यात है उन्हीं की धर्म में तत्पर हैं इस प्रकार की प्रशंसा होती है ॥ २९ ॥ - टीडार्थ - સાધુએ ક્રાધ, માન, માયા અને લાભને ત્યાગ કરવા જોઇએ, એટલે કે છકાયના જીવાના રક્ષક મુનિએ કષાયાનુ સેવન કરવું જોઈએ નહીં જે મહાપુરૂષાએ આઠ પ્રકારના કાંના ય કર્યાં છે અને સમ્યક્ પ્રકારે સંયમનું પાલન કર્યું છે, તેમના વિવેકને જ ઉત્તમ કહ્યો છે. એવા પુરુષો જ ખરી રીતે ધ પરાયણ ગણાય છે. . આ કથનનુ તાત્પર્ય એ છે કે જેમણે અધર્મના તથા કમાંના નાશ કરનાર સંયમાનુષ્ઠાન કર્યાં છે તેમના જ ઉત્તમ વિવેક લાકમાં વિખ્યાત છે તેમની જ આ પ્રકારે પ્રશસા થાય छे" भास धर्म परायालु छे " ॥ जाया २८ ॥ For Private And Personal Use Only Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टोका प्र. श्रु अ. २. उ. २ स्वपुत्रभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ६१५ मूलम् अणिहे सहिए सुसंवुडे धम्मट्ठी उवहाणवीरिए । विहरेज्ज समाहिहंदीए अत्तहियं खु दुहेण लब्भइ ३० अनिहः सहितः मुसंवृतः धर्मार्थी उपधानवीयः । विहरेत्समाहितेन्द्रियः आत्महितं दुःखेन लभ्यते ॥३०॥ अन्वयार्थ:(अणिहे) अनीहः कस्मिन्नपि वस्तुनि स्नेहरहितः (सहिए) सहितः= हितेन ज्ञानचारित्रादिना युक्तः(संवुडे) संवृतः इन्द्रियमनोभ्याम् (धम्मट्टी) धर्मार्थी -धर्मप्रयोजनवान् भवेत् तथा (उवहाणवीरिए) उपधानवीय-उपधाने उग्रतपसि शब्दार्थ-'अणिहे-अनीहः' साधु पुरुप किसी भी वस्तु में स्नेह न करे ज्ञान चरित्र वाले हितावह काम करे 'संवुडे-संवृतः' इन्द्रिय एवं मनसे गुप्त रहे 'धम्मट्टी-धर्मार्थी धर्म प्रयोजन वाले बने तथा 'उबहाणवीरिएउपधानवीर्यः' तप में पराक्रम करे 'समाहिइंदिए-समाहितेन्द्रियः' इन्द्रियों को नियमन में रखे 'विहरेज-विहरेत्' इस प्रकार से साधु संयम का अनुष्ठान करे क्यों की-'अत्तहिय-आत्महितम्' अपना कल्याण 'दुहेण-- दुःखेन' दुःख से 'लब्भइ--लभ्यते' प्राप्त होता है ॥३०॥ -अन्वयार्थ-- ____साधु सभी पदार्थों में अनुराग रहित हो, हित अर्थात् ज्ञान और चारित्र से युक्त हो इन्द्रियों और मन से संवरयुक्त हो धर्मार्थी हो तपस्या में उग्र सामर्थ्यवान् हो और अपनी इन्द्रियों को संवर में रख कर विचरे अर्थात् साधु शम्हा-'अणिहे अनीहः साधु पु३५ ४ ५ वस्तुमा रेनेड ना ४३ 'सहिएसहितः' ज्ञान यात्रिपा॥ हिताप भ. ४३ 'सं वुडे-संवृतः' धन्द्रिय शेष भनथी गुप्त २ 'धम्मट्टी-धर्मार्थी म प्रयासन वा मने तथा जबहाणवीरिप-उपधानवीयः तपमा पराभ ४२ 'समाहियई दिए- समाहितेन्द्रियः' छन्द्रियाने नियमनमा राणे 'विहरेज--विहरेत् ॥ प्राथी साधु सयभनु अनुष्ठान ४२ उभो 'अत्तहिय मात्महितम् पातार्नु च्याए। 'दुहेण-दुःखेन'हुमथा 'लब्भइ-लभ्यते प्रात थाय छे.॥30॥ સૂત્રાર્થ સાધુએ સઘળા પદાર્થોમાં અનુરાગરહિત થવું જોઈએ, હિત એટલે કે જ્ઞાન અને ચારિત્રથી યુક્ત થવું જોઈએ, ઇન્દ્રિયે અને મનના સંવરથી યુક્ત થવું જોઈએ, ધર્માથી થવું જોઈએ, તપસ્યામાં ઉગે સામર્થ્ય યુક્ત બનવું જોઈએ અને પિતાની ઇન્દ્રિયને For Private And Personal Use Only Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतागसूत्र सामर्थ्यवान् (समाहियइंदिए)समाहितेन्द्रियः संयतेन्द्रिय इत्यर्थः (विहरेज्ज)विहरेत्= विचरेत् एतादृशः-साधुः संयमानुष्ठानं कुर्यादित्यर्थः, यतः 'अत्तहियं आत्महितम् स्वकीयं कल्याणम् (दुहेण) दुःखेन (लब्भइ) लभ्यते यस्मादात्महितमतिशयितदुःखसाध्य तस्मादनीहादि युक्तो भवेदिति ॥ ३० ॥ टीका'अणिहे' अनीहः स्नेहरहितः साधुः, कस्मिन्नपि स्वल्पे महति वा वस्तुनि ऐहिके आमुप्मिके वा स्नेहं नैव कुर्यात् । 'सहिए' सहितः हितेन सम्यग् ज्ञानदर्शनचारित्रेण युक्तः यावता स्वहितं मोक्षादिरूपं कार्य साधितं भवेत् , तादृशं संयमानुष्ठानलक्षणम् एव कार्य कुर्यात् । 'सुसंवुडे' मुसंवृतः इन्द्रिय नो इन्द्रियविस्रोतसिका रहितः सन् वसेत् । 'धम्मट्टी' धमार्थी श्रताख्यचारित्र्यसंयमादिधर्मानुष्ठायी भवेत् । 'उवहाणवीरिए' उपधानवीर्यः, उपधानमुग्रतपः तस्मिन् तपसि वीर्यवान् पराक्रमशीलो भवेत् । यथा तथा तपो बहुलं कर्मानुष्ठानं इस प्रकार की विशेषताओं से सम्पन्न होकर संयम का पालन करे । आत्महित की प्राप्ति बडी कठिनाई से होती है, अतएव अनुराग त्याग आदि से युक्त हो॥३०॥ -टीकार्थ-- साधु अनीह हो अर्थात् छोटी या वडी, इस लोक संबंधी वस्तु में स्नेह धारण न करे तथा सहित हो अर्थात् ज्ञान दर्शन चारित्र तप से युक्त हो, जिससे मोक्ष रूप स्वहित सिद्ध हो जाय, वैसा संयमानुष्ठान रूप कार्य ही करे। इन्द्रिय और मन संबंधी विस्रोतसिका से रहित हो अर्थात् इन के विपयों की अभिलाषा न करे । श्रुतधर्म और चारित्रधर्म तथा संयम आदि धर्म का अनुष्ठान करे । उपधान अर्थात् उग्रतप में पराक्रमशील हो जैसे સંવરમાં રાખીને વિચારવું જોઈએ. એટલે કે આ પ્રકારની વિશેષતાઓથી સંપન્ન થઈને સાધુએ સંયમનું પાલન કરવું જોઇએ. આત્મહિતની પ્રાપ્તિ ધણી જ મુશ્કેલીઓ થઈ શકે છે, તેથી સાધુએ અનુરાગનો ત્યાગ આદિ પૂર્વોક્ત વિશેષતાઓથી યુક્ત થવું જોઈએ - -- - સાધુ “અનીહ હોવો જોઈએ. એટલે કે આ લેકની અને પલેકની કોઈ પણ વસ્તુમાં તે અનુરાગ ન રાખે. સાધુએ જ્ઞાન, દર્શન, ચારિત્ર અને તપથી યુક્ત થવું જોઈએ. કારણ કે તેના દ્વારા જ મેક્ષરૂપ બાત્મકલ્યાણની પ્રાપ્તિ થાય છે. તેણે સંયમની એવી રીતે આરાધના કરવી જોઈએ કે જેથી મેક્ષરૂપ સ્વહિત સિદ્ધ થઈ. જાય. તેણે ઈન્દ્રિયેના સુખની અભિલાષા રાખવી જોઈએ નહીં. પરંતુ શ્રતધર્મ, ચારિત્રધર્મ તથા સંયમ આદિ ધર્મની આરાધના કરવી જોઈએ. તેણે ઉપધાન (ઉગ્રતપ) માં પરાક્રમશીલ For Private And Personal Use Only Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु अ. २. उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ६१७ चरेत् । 'समाहिइंदिए' समाहितेन्द्रियः, इन्द्रियं स्वात्मवशे स्थापयेत् । इत्थंभूतः साधुः 'विहरेज्ज विहरेत्-विचरेत्, संयमानुष्ठानं कुर्यात् तावत् संयमानुष्ठानं कुर्यात् यावन्मोक्षो न भवेत् । यतः 'अत्तहियं आत्महितम्-आत्मने हितं यद्भवति तदात्महितम् । स्वकीयं कल्याणम् । 'दुहेण' दुःखेन 'लभइ' लभ्यते प्राप्यते, सर्वेषां प्राणिनाम आत्महितं निरतिशयं मुखं मोक्षाऽपरपर्यायमेव भवति, न तु तत् कष्टमन्तरा साध्यं भवति । तत्कारणस्य संयमाऽनुष्ठानादेवुःखबहुलत्वात् । 'नहि सुखं दुःखैर्विना लभ्यते' इति नियमात् । ____ अत एवोक्तम्- आत्महितं दुःखेन लभ्यते । यत आत्महितं निरतिशयसुखात्मको मोक्षो दुःखेन संसारे परिभ्रमताऽकृतधर्मानुष्ठानेन नावाप्यते । तथाचोक्तम्बने वैसे तप की बहुलता वाला कार्य ही करे । इन्द्रियों को अपने वश में रक्खे । इस प्रकार से साधु तब तक धर्म का सेवन करता रहे जब तक मोक्ष की प्राप्ति न हो जाए। क्योंकि आत्महित की प्राप्ति बहुत कठिनता से होती है और सभी प्राणियों के लिए सर्वोत्तम मुख स्वरूप मोक्ष ही आत्महित है । वह कष्ट सहन किये विना प्राप्त नहीं हो सकता । उसके कारणभूत संयम के अनुष्ठान में कष्टों की बहुलता होती है । ऐसा नियम है कि सुख की प्राप्ति दुःखों को सहन किये विना नहीं होती । इस कारण यहां कहा गया है कि आत्महित दुःख से प्राप्त होता है। सर्वोत्कृष्ट सुखस्वरूप मोक्ष ही आत्महित है और जिसने धर्म का सेवन नहीं किया है अतएव जो संसार में दुःख सहन करता हुआ भटक रहा है उसे થવુ જોઇએ આકરામાં આકરા તપ કરવા જોઈએ. તેણે ઈન્દ્રિયોને પિતાને વશ રાખવી જોઈએ. આ પ્રકારે સાધુએ જ્યાં સુધી મોક્ષની પ્રાપ્તિ થાય ત્યાં સુધી ધર્મનું સેવન કરવું જોઈએ. કારણ કે આત્મહિતની પ્રાપ્તિ ઘણી જ મુશ્કેલીથી થાય છે, અને સઘળા પ્રાણીઓને માટે સર્વોત્તમ સુખસ્વરૂપ મેક્ષ જ આત્મહિત રૂપ છે. તેની પ્રાપ્તિ કષ્ટ સહન કર્યા વિના થઈ શકતી નથી તેને કારણભૂત સંયમના અનુષ્ઠાનમાં કષ્ટની બહુલતા જ હોય છે એ નિયમ છે કે દુઃખને સહન ક્યાં વિના સુખની પ્રાપ્તિ થતી નથી. તે કારણે અહીં એવું કહેવામાં આવ્યું છે કે આત્મહિતની પ્રાપ્તિ દુઃખ સહન કરવાથી જ થાય છે. સંસ્કૃષ્ટ સુખસ્વરૂપ મેક્ષ જ આત્મહિત છે. જેણે ધર્મનું સેવન કર્યું નથી તેમને આત્મહિત રૂપ મેક્ષની પ્રાપ્તિ થતી નથી. એવા જેને તે સંસારમાં દુઃખ સહન કરતા થકા ભટકવું જ પડે છે, કહ્યું પણ છે કેसु. ७८ For Private And Personal Use Only Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रो 'न पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसारजलधिविभ्रष्टम् । मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसितप्रतिमम् ॥ १॥ तथाहि- 'शम्या पूर्वपयोनिधौ निपतिता भ्रष्टं युगं पश्चिमा ऽम्भोधौ दुर्धरवीचिंभिश्च सुचिरात्संयोजितं तवयम् । सा शम्या प्रविशेद्युगस्य विवरे तस्य स्वयं क्यापि चेत् भ्रष्टो मर्त्यभवात्तथाऽप्यसुकृती भूयस्तमामोति न ॥१॥ अर्थः-कीलकं पूर्वसमुद्रे प्रक्षिप्यते । तथा पश्चिमसमुद्रे युगम् । तदुभयं समुद्रस्य प्रबलवेगेन संयुज्येत अपि कदाचित्कालपरिपाकवशात् । तथा कीलकं युगेऽपि प्रविशेत् । यद्यपीदमसंभवि, तथापि कदाचित् असंभावितमपि संभ वेत् । किन्तु पुण्यरहितः पुरुषः गतं मनुष्यजन्म, कथमपि न पुनः प्राप्स्यवह प्राप्त नहीं हो सकता, कहा भी है-"न पुनरिदमतिदुर्लभम्' इत्यादि ___ अत्यन्त दुर्लभ, तथा अगाध संसार समुद्र में विभ्रष्ट (गुमा हुआ) तथा जुगनू और विजली की चमक के समान अल्पकालस्थायी यह मनुष्यभव पुनः प्राप्त नहीं होता।।१॥ तथा -"शम्या पूर्वपयोनिधौ निपतिता" इत्यादि । शम्या (जूए में लगाई जाने वाली लकडी जिसे 'पंचारी' या कील कहते हैं) पूर्वसमुद्र में गिर गई हो और जुआ पश्चिमसमुद्र में गिरा हो, तो समुद्र की उत्ताल तरंगों से आहत होकर दोनों चिरकाल में कभी मिल जाएँ और कदाचित् वह शम्या जुए के छेद में प्रवेश भी कर जाय ऐसा संभवित है किन्तु जिसने पुण्योपार्जन नहीं किया है ऐसा मनुष्य एकवार मनुष्यभव से होकर पुनः मनुष्यभव नहीं प्राप्तकर सकता ॥१॥ __ "न पुनरिदमति दुल भम्” त्यत हुन भने 414 सा२ सागरमा ५ અને આગિયા તથા વિજળીને ચમકારા જે અલપકાલ સ્થાયી આ મનુષ્ય ભવ ફરીથી प्रात यतो नथी. ॥१॥ तथा 'शम्या पूर्व पयोनिधौ निपतिता. त्यादि--- શમ્યા (ગાડાની ધૂંસરીમાં લગાડેલી લાકડી જેને કલ અથવા ખીલી કહે છે) પૂર્વ સમુદ્રમાં પડી ગઈ હોય અને ધૂસરી પશ્ચિમ સમુદ્રમાં પડી ગઈ હોય તે સમુદ્રના મેટાં મેટાં મોજાઓ વડે હડસેલાઈને કદાચ દીર્ઘકાળ બાદ તેઓ બન્ને ભેગાં થઈ જાય અને કદાચ તે શમ્યા (બીલી) ધૂસરીના છિદ્રમા પણ પ્રવેશ કરે, પરંતુ જેણે પુણ્યપાર્જન કર્યું નથી એ મનુષ્ય, એક વાર મનુષ્ય ભવ ગુમાવી બેસીને ફરી કદી પણ મનુષ્ય ભવની પ્રાપ્તિ કરી શકતા નથી ૧ છે For Private And Personal Use Only Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टोका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ६१९ तीति, युगशमिलादृष्टान्तस्याऽभिप्रायः । युगशमिलादृष्टान्तरीत्या मनुध्यभव एव तावदतिदुर्लभः तत्रापि आर्यक्षेत्रादिकमतीव दुर्लभम् । तस्मादात्महितमतीव दुर्लभ विद्यते । तथोक्तम् -- 'भूतेषु जंगमत्वं तस्मिन् पंचेन्द्रियत्वमुत्कृष्टम् । तस्मादपि मनुजत्वं मानुष्येऽप्यायदेशश्च ॥१॥ देशे कुलं प्रधान कुले प्रधाने जातिरुत्कृष्टा । जातौ रूपसमृद्धी रूपे च वलं विशिष्टतमम् ॥ २॥ आशय यह है -कीली पूर्व समुद्र में डाल दी जाय और जूआ पश्चिम समुद्रमें । समुद्र की प्रबल तरंगोंसे टकरा टकरा कर वे कदाचित् आपसमें मिल जाएँ और कदाचित् ऐसा भी समय आ जाय कि वह कीली जुएमें घुस जाय । यद्यपि यह संभवसा नहीं है तथपि कदाचित ऐसा हो भी जाय किन्तु पुण्यहीन पुरुष एक वार मनुष्यभव को त्याग कर पुनः मनुष्यभव नहीं पा सकता। यह युगशमलिका दृष्टान्त का अभिप्राय है। इस दृष्टान्त के अनुसार प्रथम तो मनुष्यभव ही अत्यन्त दुर्लभ है फिर मनुष्यभव में भी आर्यक्षेत्र आदि की प्राप्ति तो और भी दुर्लभ है। इस प्रकार आत्महित बहुत ही दुर्लभ है। कहा भी है-"भूतेषु जंगमत्व" इत्यादि । 'जीवों में त्रसपर्याय उत्कृष्ट है, बसों में पंचेन्द्रिय पर्याय उत्कृष्ट है । पंचेन्द्रियों में मनुष्यपन उत्तम है । मनुष्यभव में आर्यदेश की प्राप्ति, आर्यदेश में सत्कुल, सत्कुल में भी उत्कृष्ट जाति(मातृपक्ष की श्रेष्ठता) उत्कृष्ट जाति में આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે પૂર્વ સમુદ્રમાં પડી ગયેલી શમ્યા અને પશ્ચિમ સમુદ્રમાં પડી ગયેલી ધૂંસરી કદાચ દીર્ઘ કાલ બાદ સમુદ્રના પ્રબળ તરંગ પડે ધકેલાઈ ધકેલાઈને ભેગી થઈ જાય અને કદાચ તે શમ્યા (ખીલી) ધૂંસરીમાં પણ પ્રવિષ્ટ થઈ જાય, આ પ્રકારની અસંભવિત વાત પણ કદાચ શક્ય બને છે, પરંતુ પુણ્યહીન મનુષ્ય એક વાર મનુષ્ય ભવને ત્યાગ કરીને ફરી કદી તેને પ્રાપ્ત કરી શકતો નથી આ દૃષ્ટાન્ત દ્વારા એ બતાવવામાં આવ્યું છે કે મનુષ્ય ભવની ફરી પ્રાપ્ત થવી ઘણું જ દુષ્કર છે. મનુષ્ય ભવની પ્રાપ્તિ તે દુષ્કર છે, પરંતુ મનુષ્ય ભવ પ્રાપ્ત કરીને આર્યક્ષેત્ર આદિની પ્રાપ્તિ તે તેના કરતાં પણ વધુ દુષ્કર છે. આ પ્રકારે આત્મહિત સાધવાનું કાર્ય ઘણું दुल गाय छे. ज्युं पाछे -"भृतेषु जंगमत्व छत्यादि For Private And Personal Use Only Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६२० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भवति वले चायुष्कं प्रकृष्टमायुष्कतोऽपि विज्ञानम् । विज्ञाने सम्यक्त्वं सम्यक्त्वे शीलसंप्राप्तिः ॥ ३ ॥ एतत्पूर्वश्वाऽयं समासतो मोक्षसाधनोपायः । तत्र च बहु संप्राप्तं भवद्भिरल्यं च संप्राप्यम् ||४|| तत् कुरुतोद्यममधुना मदुक्तमार्गे समाधिमास्थाय त्यक्त्वा संगमनार्य कार्य सद्भिः सदा श्रेयः || ५ || इति ॥ ३० ॥ सूत्रकृताङ्गसूत्रे भी रूप की समृद्धि, रूप में भी विशिष्टतम बल की प्राप्ति, विशिष्ट बल मिल जाने पर भी दीर्घ आयुष्य, आयुष्य मिल जाने पर भी विज्ञान हिताहित का विवेक, विज्ञान प्राप्त होने पर भी सम्यक्त्व और सम्यक्त्व प्राप्त कर लेने पर भी चारित्र की प्राप्ति होना उत्तरोत्तर उत्कृष्ट है ।। १-२-३ ॥ 'एतत्पूर्वश्वाय' इत्यादि । इन सब की प्राप्ति होने पर संक्षेप में मोक्ष साधन का उपाय यह है । हे भव्यजीव ! तूने बहुत कुछ प्राप्त कर लिया है, थोडा प्राप्त करना शेष रहा है ||४|| अतएव चित्तमें समाधि धारण करके अब मेरे द्वारा प्रतिपादित मार्ग में आगे बढने का उद्यम करें । और 'अनार्य संगति को त्याग कर सत्पुरुषों को सदा श्रेय साधना चाहिए ||५|| इति ॥ ३०॥ જીવામાં ત્રસ પર્યાય સર્વોત્તમ ગણાય છે. સેામાં પંચેન્દ્રિય પર્યાય ઉત્કૃષ્ટ ગણાય છે. પ’ચેન્દ્રિયામાં મનુષ્યપર્યાય સૌથી ઉત્તમ ગણાય છે. મનુષ્ય ભવમાં આ ક્ષેત્રની પ્રાપ્તિ આ ક્ષેત્રમાં સકુળની પ્રાપ્તિ, સકુળમાં પણ ઉત્તમ જાતિની ( ઉત્તમ માતૃવંશની ) પ્રાપ્તિ ઉત્તમ જાતિમાં પણ રૂપની સમૃદ્ધિ અને વિશિષ્ટ તમ બળની પ્રાપ્તિ, વિશિષ્ટ બળની પ્રાપ્તિ થવા છતાં દીર્ઘાયુષ્યની પ્રાપ્તિ, દીર્ઘ આયુષ્ય પ્રાપ્ત થયા બાદ વિજ્ઞાનની હિતાહિતના વિવેકની પ્રાપ્તિ, વિવેકની પ્રાપ્તિ થયા બાદ સમ્યકૃત્વની અને સભ્યની પ્રાપ્તિ થયા બાદ ચારિત્રની પ્રાપ્તિ થવી, તે ઉત્તરાત્તર ઉત્કૃષ્ટ ગણાય છે. ॥ ૧-૨-૩ ॥ 'पतत्पूर्वश्चाय' इत्याहि मा अधी वस्तुनी प्राप्ति थया माह भोक्ष साधवानो સંક્ષિપ્ત ઉપાય આ છે For Private And Personal Use Only હે ભવ્ય જીવ તે બધુ જ પ્રાપ્ત કરી લીધું છે, હવે માત્ર થોડુ જ પ્રાપ્ત કરવાનું બાકી છે તેા ચિત્તમાં સમાધિ ધારણ કરીને મારા દ્વારા (સજ્ઞ તીથંકરો દ્વારા ) પ્રતિપાતિ માર્ગે આગળ વધવાના પ્રયત્ન કર. અને અનાય સંગતિના ત્યાગ કરીને સત્પુરુષોએ સદા શ્રેય સાધવાને કટિબદ્ધ થવું જોઇએ ! ૪--૫૫ ગાથા ૩૦ ॥ Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ६२१ तदुक्तः सामायिको धर्मः प्राणिभिः कदापि न पूर्व प्राप्त इत्येतदर्शयति सूत्रकारः ‘णहि शूण पुरा' इत्यादि । . मूलम् णहि गुण पुरा अणुस्सुयं अदुवा तं तह णो समुट्टियं । मुणिणा सामाय आहियं नारणं जगसव्वदंसिणो ॥३१॥ छायानहि नूनं पुराऽनुश्रुतमथवा तत्तथा नो समनुष्ठितम् । मुनिना सामायिकाद्याख्यातं ज्ञातेन जगत्सर्वदर्शिना ॥३१॥ अन्वयार्थ:(जगसबदसिणा) जगत्सर्वदर्शिना (नाएण) ज्ञातेन-ज्ञातपुत्रोण (मुणिणा) मुनिना (सामाय आहियं) यत् सामायिकम् सावद्यविरतिलक्षणम् आख्यातम् प्रकाशितम् तत् (णं) नूनं निश्चितम् (पुरा) पुरा पूर्वम् तीर्थकरोपदेशात्पूर्व तीर्थकरों का कहा हुआ सामायिक धर्म प्राणियों ने पहले कभी प्राप्त नहीं किया है, यह बात सूत्रकार दिखलाते हैं-"न हि गुण” इत्यादि । शब्दार्थ-'जगसव्वदंसिणा-जगत्सर्वदर्शिना' समस्त जगत् को देखने वाले 'नाएण-ज्ञातेन' ज्ञातपुत्र 'मुणिणा-मुनिना' मुनिने 'सामाइयं आहियंसामायिकम् आख्यातम्' सावधविरति लक्षण सामायिक कहा है वह 'गणंनूनम्' निश्चय से 'पुरा--पुरा' तीर्थकरके उपदेश से पहले 'ण हि अणुस्सुयं-नहि अनुश्रुतम्, जीवने नहीं सुना है 'अदुवा' अथवा' अगर सुना हो तो भी 'तं-तत्'उस सामायिक को 'तहा-तथा' तीर्थ करके कथनानुसार ‘णो समुष्टियं-नो समनुष्ठितम् उस प्रकार उसका अनुष्ठान नहीं किया है।।३१॥ તીર્થકરો દ્વારા પ્રતિપાદિત સામાયિક ધર્મની જેને પહેલાં કદી પ્રાપ્તિ થઈ नथी, मे पातने सूत्रार प्र४८ ४२ छ- “न हि गुण " त्यादि। Avt-'जगसम्पद सिणा-जगत्सर्वदर्शिना' समस्त ने नेवार 'नाएण-शातेन' शातपुत्र 'मुणिणा-मुनिना' भुनिये 'सामाइय-सामायिकम्' सावध विति सम सामाथि पणे३ ४ . त ‘णूण-नूनम्' निश्चयथा 'पुरा-पुरा' तीर्थ४२. अपहेश पाडया णहि अणुस्सुय-नहि अनुश्रुतम्' वे सामन्यु नथी 'अदुवा अथवा' 41 सान्युय ते५४ 'त-तत्' ते सामायने 'तहा-तथा' ती ४२ना ४थनतम् अनुसार 'णो समुढिय-नो समनुष्ठि ते मारे तेमनु मनुष्ठान४२स नथी.॥३१ For Private And Personal Use Only Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२२ सूत्रकृताङ्गसू मित्यर्थः, (गहि अणुस्सुयं) नहि अनुश्रुतं जीवैः (अदुवा ) अथवा श्रुतमपि किन्तु (तं) तत् सामायिकम् ( तहा) तथा = तेन रूपेण तीर्थकृत्कथनानुसारेण (णो समुद्वियं) नो समनुष्ठितम् = तद्रूपेण तदनुष्ठानं न कृतमस्मात् कारणात् प्राणिनामात्महितं सुदुर्लभमिति ॥ ३१ ॥ टीका ----- 'जगसव्वदंसिणा' जगत्सर्वदर्शिना, सर्वविषयक ज्ञानवता सर्वज्ञेन 'मुणिणा' मुनिना 'नाएणं' ज्ञातपुत्रेण वर्द्धमानस्वामिना 'सामायआहिये सामायिकाद्याख्यातम् = सामायिकादि यथाख्यातचारित्रपर्यन्तधर्मः सर्वदर्शिना भगवता तीर्थकरेण प्रतिपादितः 'णूण' नूनम् निश्चयेन 'पुरा' पुरा पूर्वम् इतः पूर्वं जीवेन 'हि' नहि = नैव 'अणुस्तुयं ' अनुश्रुतम् कर्णगोचरीकृतम् 'अदुवा' अथवा यदि कदाचित् श्रुतमपि - अन्वयार्थ जगत् के सर्व पदार्थों को देखने वाले ज्ञातपुत्र मुनि के द्वारा जो सावध त्याग रूप सामायिक धर्म कहा गया है निश्चय जीवों ने उसे पहले नहीं सुना है अथवा सुना भी है तो तीर्थंकरो के कथनानुसार उसका अनुष्ठान नहीं किया है । इसी कारण प्राणियों को आत्महितकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ रही है ।। ३१ ।। - टीकार्थ समस्त पदार्थों के दर्शक अर्थात् सर्वज्ञ मुनि ज्ञातपुत्र वर्द्धमान स्वामीने सामायिक आदि का कथन किया है अर्थात् सामायिक से लेकर यथाख्यात चारित्र पर्यन्त चारित्र धर्म का प्रतिपादन किया है । निश्चय ही उस धर्म को अब से पहले जीव ने श्रवण नहीं किया है। कदाचित् श्रवण किया भी हो तो उनके उपदेश के अनुसार अनुष्ठान नहीं किया हैं । सूत्रार्थ - જગત્ના સ` પદાર્થાને કેવળજ્ઞાન વડે પ્રત્યક્ષ દેખી શકનારા જ્ઞાતપુત્ર મુનિના દ્વારા ( મહાવીર સ્વામી દ્વારા) જે સાવદ્ય ત્યાગ રૂપ સામાયિક ધર્મનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે, તેને જીવાએ પહેલાં કદી સાંભળ્યો નથી, અને કદાચ સાંભળ્યે ડાય तो तीर्थ उशना उथनानुसार तेनु अनुष्ठान ( सायर) अयु नथी. ते अरणे प्राणीઆને માટે આમહિતની ( મેાક્ષની ) પ્રાપ્તિ અત્યન્ત દુર્લભ બની ગઇ છે. ૫ ૩૧ ૫ टीअर्थ - સમસ્ત પદાર્થોં ના દર્શીકએટલે કે મુનિ જ્ઞાતપુત્ર વમાન સ્વામીએ સામાયિકથી લઇને યથાખ્યાત ચારિત્ર પર્યન્તના ચારિત્રધર્મનું પ્રતિપાદન કર્યું છે, આ ધર્મનુ જીવે પહેલાં કદી શ્રવણ કર્યું જ નથી. કદાચ શ્રવણ કર્યું હાય. તે તેમના ઉપદેશ અનુસાર अनुष्ठान (आयरशु ) उयु नथी. For Private And Personal Use Only Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ योधिनी टीका प्र. श्रु.अ.२ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ६२३ तथापि 'तं तत् 'तह' तथा जिनाज्ञानुसारेण णो' नो नैव 'समुष्ट्रिय समनुष्टितम् एतादृशः सामायिकादि धर्मों न कदापि जीवेन श्रुतः । अश्रुतपूर्वो धर्मों महावीरेण प्ररूपितः । नत्वैवं धर्मस्य भवदुदीरितस्याऽपूर्वत्वेन प्रयाहरू पेण शास्त्रस्य परिणामिनित्यता न स्यादित्यरुचिं मनसिकृत्याह-नो समनुष्ठितम् । श्रतमपि किन्तु तथारूपेणानुष्ठानं न कृतम् । _ अयमभिप्रायः-- यद्यपि धर्मस्तु प्रथमत एव विद्यते किन्तु तीर्थकरः तमुच्चार्य लोकान् अशिक्षयत् । तादृशधर्मानुष्ठानस्य प्रकारं लोकेभ्य उपदिदेश । भावार्थस्त्वयम् सर्वज्ञेन तीर्थकरेण महावीरस्वामिना सामायिकादि धर्मः प्ररूपितः यं धर्म न जीवः कदापि श्रतवान् । अथवा श्रुत्वापि तादृश यथा रूपेणाऽनुष्ठानन्तु नैव कृतवान् इति ॥३१॥ ऐसा सामायिक आदि धर्म जीव ने कभी सुना नहीं है। महावीर ने अश्रुतपूर्व धर्म का निरूपण किया है। अगर आपका कहाहुआ धर्म अपूर्व है तो प्रवाहरूप से शास्त्र परिणामि नित्य नहीं रहेगा, इस अरूचि का विचार करके कहते हैं सुना भी है तो उसी रूप में उसका अनुष्ठान नहीं किया है। ___ अभिप्राय यह है-यद्यपि धर्म अनादिकाल से ही विद्यमान है किन्तु तीर्थकर अपनी वाणी द्वारा लोगों को उसे सिखाते हैं अर्थात् उस धर्म के आचरण का प्रकार जगत् के जीवों को बतलाते हैं। ___भावार्थ यह है-सर्वज्ञ तीर्थकर महावीर स्वामी ने सामायिक आदि धर्म की प्ररूपणा की है, जिसे जीव ने पहले कभी सुना नहीं था, या सुनकर भी जिसका कभी यथार्थ रूप से अनुष्ठान नहीं किया है।३१॥ એવા સામાયિક આદિ રૂપ ધર્મનું જીવે કદી શ્રવણ કર્યું નથી. મહાવીર પ્રભુએ અશ્રુતપૂર્વ ધર્મનું નિરૂપણ કર્યું છે. કદાચ કઈ એવી શંકા ઉઠાવે કે જો આપે પ્રતિપાદિત કરેલ ધર્મ અપૂર્વ છે. તે પ્રવાહ રૂપે શાસ્ત્ર પરિણામ નિત્ય નહીં રહે તે આ શંકાનું નિવારણ કરવાને માટે સૂત્રકારે કહ્યું છે કે “કદાચ આ ધર્મનું શ્રવણ કર્યું હોય એવું બન્યું હશે પરંતુ તેનું યથાર્થ રૂપે આચરણ કરવામાં આવ્યું નથી” આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે જે કે ધર્મ અનાદિ કાળથી વિદ્યમાન છે. પરંતુ તીર્થકર ભગવાન પોતાની વાણી દ્વારા તે ધર્મનું આચરણ કરવાની રીત જગતની જીને બતાવે છે, ભાવાર્થ એ છે કે સર્વજ્ઞ તીર્થકર મહાવીર સ્વામીએ સામાયિક આદિ ધર્મની પ્રરૂપણ કરી છે. મહાવીર ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદિત આ ધર્મનું શ્રવણ કરવાની તક આ જીવને પહેલાં કદી મળી ન હતી. કદાચ આ ધર્મનું શ્રવણ કરવાની તક પ્રાપ્ત થઈ હશે. છતાં આ જીવે કદી યથાર્થ રૂપે તેનું આચરણ કર્યું નથી. ગાથા ૩૧ છે For Private And Personal Use Only Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२४ सूत्रकृताङ्गसूत्रे पुनरपि उपदेशान्तरमधिकृत्याह सूत्रकारः ‘एवं मत्ता' इत्यादि । एवं मत्ता महंतरं धम्ममिणं सहिया वहूजणा गुरुणो छंदाणुवत्तगा विरया तिन्त्रमहोघमाहियं तिबेमि ॥३१॥ छायाएंव मत्वा महदन्तरं धर्ममेनं सहिता बहवो जनाः। गुरोश्छन्दाऽनुवर्तका विरता स्तीर्णा महौघमारख्यातम् ॥इति ब्रवीमि ॥३२॥ अन्वयार्थः (एवं) एवमनेन प्रकारेण (मत्ता) मत्वा (महंतरं) महदन्तरं सवर्थोत्तमम् (धम्ममिणं) धर्ममेनम् श्रुतचारित्रलक्षणमिमं धर्मम् स्वीकृत्य (सहिया) सहिताः= पुनः उपदेश करते हैं-"एवं मत्ता" इत्यादि । शब्दार्थ-एवं-एवम्' इस प्रकार 'मत्ता-मत्त्वा' मानकर 'महंतरं-महदन्तरम्' सर्वोत्तम 'धम्ममिणं-धर्ममेनम्' इस श्रुतचारित्ररूप आहेत धर्म को स्वीकार करके 'सहिया--सहितः, ज्ञानादियुक्त 'गुरुणो छंदाणुवत्तगा-गुरोछंदानुवर्तकाः' गुरु के अभिप्रायानुसार वर्तनेवाले 'विरया-विरताः' पाप से रहित 'बहुजणा -बहुजनाः' अनेकजनोंने 'महोघं-महौषम्' संसारसागर को 'तिन्ना-तीर्णाः' संसार को पारकिया है 'आहियं-आख्यातम्' ऐसा में आपसे कहता हूँ 'त्तिबेमि-इतिब्रवीमि' वह तीर्थकरके मुख से सुना है, वही आपको कहता हूँ स्व कल्पित नहीं कहता॥३२॥ -अन्वयार्थ मत्ता" रियाहि.. इस प्रकार इस श्रुतचारित्र धर्म को सर्वोत्तम मान कर, ज्ञानादि से ये सूत्र.४२ २0 देश/ने। 3५।२ ४२त! २५॥ प्रमाणे उपदेश मा छे--"एवं शहा- 'एक-एवम्' ! प्रारं 'मत्ता-मत्वा' मानीने 'मह तर-महदन्तरम्' सर्वोत्तम 'धम्ममिण धर्म मेनम्' 21 श्रुतयारित्र३५ मात धमनी स्वा॥२ ४ीने 'सहिया-सहिताः' ज्ञान कोश्थी युत 'गुरुणा छ दाणुवत्तगा-गुरोछ दानुवर्तकाः' शु३न। ममियाय अनुसार पतवावा 'विरया-विरताः' पाथी २हित 'बहुजणा-बहुजनाः' भने सवारी 'महाघ-महोघम्' सार सारने 'तिजा-तीर्णाः' संसारने पा२ ४२८ छे थे 'आहिय-आख्यातम्' मापने छु 'त्तिमि इति ब्रवीमि ते तीय ४२ना મેઢાથી સાંભળ્યું છે તે જ આપને કહું છું મારી જાતે કલ્પના કરીને કહેતા નથી. ૩રા सूत्राथઆ પ્રકારના આ કૃતચારિત્ર રૂપ ધર્મને સર્વોત્તમ માનીને, જ્ઞાનાદિથી સંપન્ન. For Private And Personal Use Only Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ६२५ ज्ञानादिसंपन्नाः (गुरुणो छंदानुवत्तगा) गुरोछंदानुवर्तकाः-गुरोराज्ञावर्तिनः (विरया) विरताः पापेभ्यः (बहुजणा) बहुजनाः अनेके महापुरुषाः। (महोघं) महौध संसारसागरम् (तिन्ना) तीर्णाः संसारमतिक्रान्ता इत्यर्थः (आहियं) आख्यातम् (त्तिबेमि) इति ब्रवीमि यदहं तीर्थकरमुखात् श्रुतवान् तदेवाहं तुभ्यं कथयामि न स्वकल्पितं किंचिद् कथयामीति ॥ ३२ ॥ टीका'एवं' एवमनेन रूपेण 'मत्ता' मत्वा 'महंतरं' महदन्तरं छायातपयोरिखज्ञानाज्ञानयोरिव पुण्यपापयोरिव प्राणातिपातप्रतिपादकधर्मेभ्योऽस्य प्राणातिपातविरमणलक्षणधर्मस्यान्तरम् उत्तमत्वम् इति महदन्तरं श्रुतचारित्रलक्षणम् सर्वत उत्कृष्टम् । 'धम्ममिणं' धर्ममेनम् सर्वज्ञोदीरितं धर्म जैनीयं स्वीकृत्य ‘सहिया' सहिताः ज्ञानादिसंपन्नाः । 'गुरुणोछंदाणुवत्तगा' गुरोश्छन्दाऽनुवर्तकाः गुरोराज्ञाकारिणः 'विरया' विरताः पापादिक्रियारजो विरताः, विनिवृत्ताः 'बहूजा' सम्पन्नगुरुकी आज्ञा का अनुसरण करने वाले, पापोंसे विरत, अनेक महापुरुप संसार सागर पार हुए हैं। इस प्रकार तीर्थकर भगवान् के मुख से मैंने जो सुना है वही तुम्हें कहता हूँ। अपनी कल्पना से कुछ भी नहीं कर रहा हूँ। -टीकार्थजैसे छाया और धूप में अन्तर है, ज्ञान और अज्ञान में अन्तर है, पुण्य और पाप में अन्तर है, उसी प्रकार हिंसा का प्रतिपादन करने वाले धर्मों से इस प्राणातिपातविरमण रूप धर्म में अन्तर है। अतः यह श्रुतचारित्रधर्म सव से उत्कृष्ट है। सर्वज्ञोक्त इस जैनधर्म को स्वीकार करके सहित अर्थात् ज्ञानादि से सम्पन्न, गुरु की आज्ञा के अनुसार चलने वाले, पापादि क्रियारूपी रज से विरत बहुत जन इस अपार संसार सागर से तिर ગુરુની આજ્ઞાનું અનુસરણ કરનારા અને પાપથી વિરત અનેક મહાપુરૂષો સંસાર સાગરને તરી ગયા છે. આ પ્રકારની વાત મેં ખુદ તીર્થકર ભગવાનને મુખે સંભાળી છે તેમની સમક્ષ મેં (સુધર્મા સ્વામીએ) જે વાત સંભળી છે, એજ તમારી સમક્ષ કહું છું મારી પોતાની કલ્પનાથી હું તમને કંઈ પણ કહેતા નથી . ૩ર છે તડકા અને છાંયડા વચ્ચે જે તફાવત છે. જ્ઞાન અને અજ્ઞાનમાં જે તફાવત છે પુણ્ય અને પાપમાં જેવું અત્તર છે એવું જ અન્તર હિંસાનું પ્રતિપાદન કરનારા અન્ય ધર્મો અને પ્રાણાતિપાત વિરમણરૂપ આ ધર્મમાં છે. તેથી જ આ શુતચારિત્રરૂપ ધર્મને સત્કૃષ્ટ ક છે. સર્વોક્ત આ જૈન ધર્મને સ્વીકાર કરીને જ્ઞાન દર્શન. ચારિત્ર અને તપનથી સમ્યક પ્રકારે આરાધના કરીને, અને ગુરૂની આજ્ઞા પ્રમાણે વર્તન टीआय सू. ७८ For Private And Personal Use Only Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६२६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे arat जनाः 'महो' महौघमपारससंसारसागरम् 'तिन' तीर्णाः, संसारसागर मतिक्रान्ताः 'आहिये' आख्यातम्, 'त्तिवेमि' इति ब्रवीमि इत्यहं भवद्भयः कथयामि प्राणिनां हितप्राप्तिरति कठिना इति मत्वा तथा श्रुतचारित्रलक्षणो धर्मः सर्वत श्रेष्ठ इति विज्ञाय ज्ञानदर्शनादिसंपन्नाः गुरूपदिष्टमार्गेण चलन्तः पापविरता बहवो मनुष्याः संसारसागरमतिक्रान्ता इत्यहं तुभ्यं कथयामि ॥ ३२ ॥ इति द्वितीयाध्ययनीयद्वितीयेोदेशकः समाप्तः || २ || इति श्रीविश्वविख्यात - जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक- पञ्चदशभाषाकलित-ललितकलाषालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक वादिमानमर्दक- श्री शाहच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनाचार्य, पद भूषित कोल्हापुरराजगुरु बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालवतिविरचितायां सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य समयार्थबोधिन्याख्यायां व्याख्यायां वेतालियाख्यस्य द्वितीयाध्ययनस्य द्वितीयोदेशकः समाप्तः २-२ गये हैं । सुधर्मास्वामी जम्बू स्वामीसे कहते हैं हे जम्बू जैसा मैंने भगवान् से सुना है वैसा तुम्हे कहता हूँ | तात्पर्य यह कि प्राणियों को हित की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है, ऐसा मानकर तथा श्रुतचारित्र धर्म सर्वोत्तम है, ऐसा जानकर उसका आचरण करने वाले ज्ञान दर्शन आदि से युक्त, गुरु द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलने वाले और पापों से विरत बहुत मनुष्य संसार सागर से पार हो चुके हैं ||३२|| || द्वितीय अध्ययन का द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥ નકરીને. અવિધ કર્મને! ક્ષય કરીને અનેક જીવો . આ અપાર સ ંસાર સાગરને તરી ગયા છે. સુધર્મા સ્વામી જ. સ્વામી આદિ શિષ્યો ને કહે છે કે ભગવાનને મુખે મે જે સાંભળ્યુ છે એજ તમારી સમક્ષ પ્રકટ કરૂ છું મારી બુદ્ધિ દ્વારા કલ્પના કરીને મે તમને આ ઉપદેશ આપ્યા નથી. પરન્તુ ખુદ રાજ્ઞ ભગવાન્ મહાવીરને મુખે સાંભળેલી આ વાત હું તમારી સમક્ષ કડી રહ્યા છુ. આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે મેાક્ષની પ્રાપ્તિ થવી ઘણી જ દુષ્કર છે. અને શ્રુતચારિત્ર રૂપ ધર્મ જ સર્વોત્તમ છે એવું સામજીને તેની આરાધના કરનારા જ્ઞાન દન ચારિત્ર અને તપથી યુક્ત ગુરૂ દ્વારા નિર્દિષ્ટ માર્ગ પર ચાલનારા અને પાપા થી નિવૃત્ત થઇ ચુકેલા અનેક મનુષ્યો આ સંસાર સાગરને તરી ગયા છે; ! ગાયા ૩૨૫ ।। બીજા અધ્યનના બીજો ઉદ્દેશક સમાપ્તા For Private And Personal Use Only Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टोका प्र. श्रु. अ. २ उ. ३ साधूनां परीषहोपसर्ग सहनोपदेशः ६२७ अथ तृतीयोद्देशकः प्रारभ्यतेद्वितीयोदेशक परिसमाप्य तृतीयमुद्देशकमारभते, तस्य द्वितीयेनाऽयं संवन्धः। द्वितीयान्ते उक्तम्--पापकर्मणो विरताः पुरुषाः संसारसागरं तरन्तीति, इह चैतत् प्रतिपादयिष्यति-यदि साधोः परीषहोपसौ भवेतां तदा तौ सोढव्यौ। यतस्तयोः सहनकरणादेवाऽज्ञानजनितकर्मणां समुच्छेदः स्यात् । उद्देशस्याऽर्थाधिकारोऽपि प्रतिपादितः-परीषहोपसर्गयोः सहनकरणादेवाऽज्ञानजनितकर्मणां विनाशः, अतः साधूनां परीपहोपसी सोढव्यावेवेति दर्शयितुं तृतीयोद्देशः प्रारभ्यते। तस्य चेदं प्रथम सूत्रम्-'संवुडकम्मस्स' इत्यादि । तीसरे उद्देशे का प्रारंभ द्वितीय उद्देश समाप्त करके तीसरा उद्देश आरंभ किया जारहा है। इसका दूसरे उद्देशे के साथ यह सम्बन्ध है--दूसरे उद्देशे के अन्त में कहा गया था कि पापकर्म से निवृत्त पुरुष संसारसागर से तिरते हैं । यहाँ यह कहेंगे कि यदि साधु को परीपह और उपसर्ग की प्राप्ति हो तो उन्हें सहना चाहिए, क्योंकि उन्हें सहन करने से ही अज्ञानजनित कर्मों का क्षय होता है । उद्देश का अर्थाधिकार भी प्रतिपादन कर दिया गया कि परीषहो और उपसर्गों को सहने से ही अज्ञानजनित कर्मों का विनाश होता है, अतः साधुओं को परीपह और उपसर्ग सहने ही चाहिए । यही दिखलाने के लिए तीसरा उद्देश आरंभ किया जाता है। तृतीय उद्देश का प्रथम सूत्र यह है - "संवुडकम्मस्स" इत्यादि । श्रीशानो प्रारमબીજો ઉદ્દેશક પૂરે થયે હવે ત્રીજા ઉદ્દેશકની શરૂઆત કરવામાં આવે છે. બીજા ઉદ્દેશક સાથે આ ઉદ્દેશકને સંબંધ આ પ્રકાર છે. બીજા ઉદ્દેશકને અને એવું કહેવામાં આવ્યું હતું કે પાપકર્મથી નિવૃત્ત પુરુષ સંસાર સાગરને તરી જાય છે. આ ઉદેશકમાં એ વાતનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવશે કે સાધુએ પરીષહ અને ઉપસર્ગોને સહન કરવા જોઈએ, કારણ કે તેમને સહન કરવાથી જ અજ્ઞાનજનિત કમેને ક્ષય થાય છે. આ પ્રકારે આ ત્રીજા ઉદ્દેશકના અર્થાધિકારનું પણ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે કે પરીષહ અને ઉપસર્ગોને સહન કરવાથી અજ્ઞાનજાનિત કર્મોને વિનાશ થાય છે, તેથી સાધુએ પરીષહ અને ઉપસર્ગોને સમભાવે સહન કરવા જોઈએ એ વાતનું પ્રતિપાદન કરવા માટે જ ત્રીજા ઉદ્દેશકની શરૂઆત કરવામાં આવે છે. ત્રીજા ઉદેશકનું પહેલું સૂત્ર આ પ્રમાણે છે. “संवुडकम्मस्स" त्यादि For Private And Personal Use Only Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे मूलन् संबुडकम्मस्स भिक्षुणो जं दुक्खं पुढे अयोहिए। तं संजमओऽवचिजई मरणं हिच्चा वयंति पंडिया॥१॥ छाया-- संवृतकर्मणो भिक्षोः यदुःखं स्पृष्टमबोधिना। तत्संयमतोऽपचीयते मरणं हित्वा व्रजन्ति पण्डिताः ॥१॥ अन्वयार्थ:---- (संवुड कम्मस्स) संवतकर्मणः-निरुद्धाश्रवद्वारस्य (भिक्खुणो) भिक्षोः साधोः (अबोहिए) अबोधिना=अज्ञानवशेन (ज) यत् (दुक्खं) दुख तज्जनकमष्टविधं कर्म वा शब्दार्थ-'संवुडकम्मस्स-संवृतकर्मणः' आठ प्रकारके कर्मों का आगमन जिसने रोकदिया है । ऐसे 'भिक्खुणो-भिक्षोः' साधुको तथा 'अवोदिए-अबो धिना' अज्ञान वशम्से 'ज-यन्' जो दुक्खं-दुःखम् दुःख 'पुटुं-स्पृष्टम्' बंधा है 'तं-नत् वह दुःख 'सं नमओ-संयमत:' सतरस प्रकारके संयम से 'अवचिजद -अपनीयते' प्रतिक्षण क्षीण हो जाता है और 'पंडिया- पंडिताः' वे पंडित पुरुष अर्थात् सन् असत् के विवेक वाला पुरुष 'मरणं हिच्चा- मरणं हित्वा मरग को छोडकर 'वयंति-वजन्ति मोक्षको प्राप्त करते हैं ॥१॥ अन्वयार्थ आश्राद्वारों को रोक देने वाले साधु के अज्ञान के कारण बंधे हुए या निकाचित हुए दुःख अथवा आठकर्म भगवान के कहे सतरह प्रकार के संयम से हाथ-'सवुडकममस्त-संवृतकर्मण' 2418 प्रा२ना भनु मनी शी ही छ, वा 'भिक्खुणो-भिक्षो' साधुने तथा 'अबोहिए-अबोधिना' मान पशथी 'ज-यत्' 'दुक्ख-दुःखम् दुः५ 'पुढ-स्पृष्टम्' मांधेत छ 'त-तत्' ते दुः। 'संजमओ-संयमतः' ५५0 ४ प्रारना संयमयी 'अवचिजइ-अपचीयते' १२ क्षणे क्षी 25 लय छे भने 'पंडिया-पंडिताः' ते ५रित ५३५ अर्थात् सत्य मसत्यना विवा ॥ ५३५ 'मरण हिच्चा-मरण हित्वा' भरने छोडीने 'वयंति-व्रजन्ति' भोक्षने प्रात કરે છે. ૧ -सूत्राथઅજ્ઞાનને કારણે બાંધેલા અથવા નિકાચિત થયેલા આઠ પ્રકારના કર્મોના આશ્રવ દ્વારેને બંધ કરનાર સાધુ, ભગવાન્ દ્વારા આદિષ્ટ સત્તર પ્રકારના સંયમનું પાલન કરવાથી For Private And Personal Use Only Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टोका प्र. अ. २ उ. ३ साधूनां परिषहोपसर्ग सहनोपदेशः ६२९ (i) = स्पृष्टं निकाचितमित्यर्थः (तं) तत् = दुःखं कर्म वा (संजमओ) संयमतः=भगवदुक्तसप्तदशसंयमतः (अवचिज्जई ) अपचीयते = प्रतिक्षणं क्षयमुपयाति यथा तडागस्थितं जलं निरुद्धापर प्रवेशद्वारं सूर्यकिरणस्पर्शात्प्रत्यहमपचीयते एवं संवृताश्रवद्वारस्य भिक्षोः संयमानुष्ठानेनानेकभवोपार्जितं कर्म क्षीयते इत्यर्थः ये च संयमानुष्ठायिनः ते (पंडिया) पंडिता: सदसद्विवेकिनः (मरणं हिच्चा) मरणं हिरवा = संयमपालनात् संसारपरिभ्रमणं परित्यज्य (वयंति ) व्रजन्ति = मोक्षं प्राप्नुवन्तीति ॥ | १ || टीका 'संgsकम्मस' संवृतकर्मणः संवृतानि = निरुद्धानि कर्माणि पञ्चास्रवरूपाणि येन स तथा एतादृशस्य, 'भिक्खुणो' भिक्षुकस्य निरवद्यभिक्षाभिक्षणशीलस्यसंयतस्य 'अवोहिए' अवोधिना अज्ञानवलात् यत्कर्म आगतम् 'जं दुःखं ' यत् दुःखम् 'पुढे' स्पृष्टम्, यस्य कर्मणो बन्धनं जातम् (तं) तत् कर्म 'संजमओ' संयमतः= प्रतिक्षण क्षीण होते जाते हैं । जैसे नवीन जल का आगमन रोक दिया जाय तो तालाव में भरा सूर्य की किरणो के स्पर्श से प्रतिदिन कम होता जाता है, इसी प्रकार आश्रवद्वारों का निरोध कर देने वाले भिक्षु के अनेक भवो में उपार्जित कर्म भी संयम के अनुष्ठान से क्षीण हो जाते हैं अतः जो संयम का अनुष्ठान करने वाले हैं वही पण्डित अर्थात् सत् असत् के विवेकी हैं और वे मरण को त्याग कर अर्थात् संयम पाल कर संसार भ्रमण को त्याग कर मोक्ष प्राप्त करते हैं ||१|| - टीकार्थ हुआ जल आठ प्रकार के कर्मों के आगमन के कारणभूत पाँच प्रकार के आश्रव को जिसने रोक दिया है ऐसे भिक्षु को अर्थात् निर्दोष भिक्षा ग्रहण करने वाले साधु को अज्ञान द्वारा जो दुःख आया है या जिस कर्म का बन्ध તે કમને ક્ષણે ક્ષણે ક્ષીણ કરતા રહે છે. જેવી રીતે તળાવમાં નવીન જળને આવતું અટકાવી દેવામાં આવે તેા તળાવનું પાણી સૂના તાપથી પ્રતિદિન સૂકાતુ જાય છે, એજ પ્રમાણે આશ્રવ દ્વારાના નિરોધ કરનારા ભિક્ષુના અનેક ભવામાં ઉપાર્જિત કર્યાં પણ સંયમના અનુષ્ઠાન વડે ક્ષીણ થઇ જાય છે. તેથી તેઓ સંયમનું અનુષ્ઠાન કરનારા છે, તે જ પંડિત (સત્ અસના વિવેકયુક્ત) કહેવાય છે. એવા પુરુષો જ સયમની આરાધના કરીને મરણનો ત્યાગ કરીને એટલે કે સંસારભ્રમણ માંથી છુટકારો પામીને મેાક્ષ પ્રાપ્ત કરે છે. ૧૫ -टीअर्थ આઠ પ્રકારના કર્મોના આગમનમાં કારણભૂત એવા પાંચ પ્રકારના આશ્રવને જેમણે રોકી દીધા છે, એવા ભિક્ષુને અર્થાત્ નિર્દોષ ભિક્ષા ગ્રહણ કરનાર સાધુને અજ્ઞાન દ્વારા જે દુઃખ આવી પડયું છે અથવા જે કર્મના બન્ધ થયા છે. દુઃખ અને કર્મીને સંયમની આરાધના For Private And Personal Use Only Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३० सूत्रकृताङ्गसूत्रो संयमेनेत्यर्थः 'अवचिज्जई अपचीयते नश्यतीत्यर्थः, 'पंडिया' पण्डिताः सदसद्विवेकयुक्ताः पुरुषाः, 'मरणं हिच्चा' मरणं हित्वा मरणं परित्यज्य ‘वयंति' ब्रजन्ति मोक्षम्, येन पुरुषेण कर्म अवरुद्धम् अथवा असम्यगनुयोगरूपमनुष्ठानं त्यक्तम्। अथवा मिथ्यादर्शनाऽविरतिप्रमादकपाययोगरूपं कर्म येन परित्यक्तम्, तस्य पुरुषस्य अज्ञानबलात् यत्कर्म प्रतिकूलवेदनीयमुपस्थितम् , यद्वा-दुःखकारगमष्टविधकर्म बद्धस्पृष्टनिकाचितभेदेनोपचितं । तत्सर्व तीर्थकरोदीरितसप्तदशप्रकारकसंयमानुष्ठानेन प्रतिक्षणमपचीयते। यथा तडागे जलागमनमवरुद्धं ततः शेपं तत्रस्थितं जलं सूर्यकिरणेन कालतो नश्यति । एवं येन भिक्षुणा आश्रवद्वारो निरुद्धः तस्य शेषमनेकहुआ है वह दुःख और कर्म संयम से नष्ट हो जाता है । सत् असत् का विवेकी पुरुष मरण को त्याग कर मोक्ष प्राप्त करता है ।। जिस पुरुप ने कर्म को रोक दिया है अथवा असत्कर्म का अनुष्ठान त्याग दिया है अथवा मिथ्या दर्शन, अविरति, प्रमाद, कपाय और योगरूप कर्मबन्ध के कारणों का त्याग कर दिया है उस पुरुष को अज्ञान के बल से जो प्रतिकूल वेदनीय कर्म उपस्थित हुआ है अथवा दुःख का कारणभूत आठ प्रकार का कर्म बद्ध स्पृष्ट निकाचित के भेद से उपचित हुआ है, वह सब तीर्थकरो द्वारा उपदिष्ट सतरह प्रकार के संयम का अनुष्ठान करने से क्षण क्षण में क्षीण होता जाता है । जैसे तालाब में नूतन जल का आना रोक दिया जाय तो तालाब में स्थित शेष जल मूर्य की किरणों का स्पर्श पाकर यथाकाल सूख जाता है, उसी प्रकार आश्रवद्वारों को निरुद्ध कर देने गले संवृतात्मा साधु के अनेक भवो में उपार्जित पुरातन कर्म संयम के अनुष्ठान से क्षय हो जाते કરવાથી નાશ થઈ જાય છે. સત્ અસતના વિવેકવાળો પુરુષ મરણને ત્યાગ કરીને (સંસાર ભ્રમણને ત્યાગ કરીને) મફા પ્રાપ્ત કરે છે. જે પુરુષે કર્મનું આગમન રોકી દીધું છે, અથવા અસત્કર્મના અનુષ્ઠાનને પરિત્યાગ કર્યો છે અથવા મિથ્યાદર્શન, અવિરતિ પ્રમાદ, કષાય અને ગરૂપ કર્મબન્ધના કારણે ત્યાગ કરી દીધું છે, તે પુરુષને અજ્ઞાનને કારણે જે પ્રતિકૂળ વેદનીય કર્મોને બન્ધ થયે છે, અથવા દુ:ખના કારણભૂત આઠ પ્રકારના જે કર્મ બદ્ધ, સ્પષ્ટ કે નિકાચિત કર્મો રૂપે ઉપસ્થિત થયા છે, તેમને તીર્થકરે દ્વારા ઉપદિષ્ટ સત્તર પ્રકારના સંયમના અનુષ્ઠાન દ્વારા ક્ષણે ક્ષણે ક્ષીણ કરી શકાય છે. જેવી રીતે તળાવમાં નવીન પાણીના આગમનના માર્ગોને બંધ કરી દેવામાં આવે તે તળાવમાં રહેલું પાણી સૂર્યના તાપથી ધીમે ધીમે સૂકાઈને સંપૂર્ણતઃ નષ્ટ થઈ જાય છે, એજ પ્રમાણે આશ્રવદ્વાનો નિરોધ કરનારા સંવૃતાત્મા સાધુના અનેક ભવમાં ઉપાર્જિત પુરાતન કર્મોને પણ સંયમના અનુષ્ઠાન વડે ક્ષય થઈ જાય છે. જે સંવૃતાત્મા For Private And Personal Use Only Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ योधिनी टीका प्र. श्रु अ. २ उ. ३ साधूनां परिषहोएसर्ग सहनोपदेशः ६३१ भवोपार्जितकम संवृतात्मनः संयमानुष्ठानेन क्षीयते। यः संवृतात्मा संयमानुष्ठानं पालयति, स जन्मजरामरणादिकं विधूय मोक्षं प्राप्नोति, इति।।१॥ दीक्षितोऽपि, कृतसंयमानुष्ठानोऽपि तस्मिन्नेव जन्मनि मोक्षं नासादयति, तादृशपुरुषविशेषमधिकृत्य किमपि ब्रूते सूत्रकारः-'ये विनवणाहि इत्यादि । मूलम् जे विनवणाहिऽजोसिया संतिनहि समं वियाहिया। तम्हा उडेति पासहा अदक्खु कामोई रोगवं॥२॥ छायाये विज्ञापनाभिरजुष्टाः संतीणे : समं व्याख्याताः। तस्मादृध्य पश्यत अद्राक्षुः कामान् रोगवत् ॥२।। हैं। जो संवृतात्मा संयमानुष्ठान का पालन करता है वह जन्म जरा मरण आदि को नष्ट करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥१॥ जो दीक्षित होकर भी और संयम का अनुष्ठान करके भी उसी जन्म में मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाता ऐसे पुरुषविशेष को लक्ष्य करके सूत्रकार कुछ कहते हैं- “जे विनवणाहिं इत्यादि ____ शब्दार्थ-'जे-ये' जो पुरुष 'विनवणाहि-विज्ञापनाभिः खियोंसे 'अजोसिया-अजुष्टाः' सेवित नहीं है वे 'संतिन्नेहि-सतीर्णैः' मुक्तपुरुषों के 'समं -समम्' समान 'वियाहिया-व्याख्याताः' कहे गये हैं 'तम्हा-तस्मात्' इसलिये "उड्डें-ऊध्यम स्त्री परित्याग के बादही 'पासह-पश्यत' मोक्षप्राप्त होता है ऐसा हे शिष्यो तुम जानो 'कामाई-कामान्' कामभोगों को जिन पुरुषों ने 'रोगवं -रोगवत्' रोगके तुल्य 'अदक्खु-अद्राक्षुः' देखे हैं वे मुक्त के तुल्य हैं ॥२॥ સંયમનુકાનનું પાલન કરે છે, તે જન્મ, જરા, મરણ આદિને નષ્ટ કરીને મોક્ષ પ્રાપ્ત ४ी से छे. ॥१॥ - જે પુરુષ દીક્ષા લઈને સંયમનું અનુષ્ઠાન કરવા છતાં પણ એજ જન્મમાં મિક્ષ પ્રાપ્ત કરી શકતે નથી, એવા પુરુષ વિશેષને અનુલક્ષીને સૂત્રકાર કહે છે કે__ "जे विनवणाहि" त्याह शहाथ---'जे-ये ५३५ विनवणाहि-विज्ञापनाभिः' स्त्रीमाथी 'अजोसियाअजुष्टाः' सेवित नथी, तो 'सतिन्नेहि-संतीण: भुत ५३वाना 'सम-समम्' समान 'वियाहिया-व्याख्याता'छ 'तम्हा-तस्मात् सेटसा भाटे 'उड्ढ-ऊधम्' स्त्री परित्या पछी १ 'पासह-पश्यत' मोक्ष प्रास थाय छ मे शिध्यो ! तमे । 'कामाई-कामान्' आमनागाने से पु३षामे 'रोगव-रोगवत्' शेजना तुख्य 'अदम्बुअद्राक्षुः युछे ते भुतना तुन्य छे. ॥२॥ For Private And Personal Use Only Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६३२ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः (जे) ये पुरुषा : (विश्ववगाहिं) विज्ञापनाभिः = विज्ञाप्यंते कामार्थिभिर्यास्ता विज्ञापनाः स्त्रियस्ताभिः 'अजोसिया' अजुष्टाः =असेविताः ते (संतिन्नेहि) सतीर्णैः मुक्तैः पुरुषैः ( समं) समं= तुल्याः (वियाहिया ) व्याख्याताः = कथिताः ( तम्हा ) तस्मात् कारणात् ( उ ) ऊर्ध्वम् = स्त्री परित्यागादनन्तरं यद् भवति तत् (पासह ) हे शिष्याः पश्यत=मोक्षं ते प्राप्नुवन्तीति जानीहि ये च ( कामाई ) कामान् (रोग) रोगवत् व्याधितुल्यान ( अदक्खु ) अद्राक्षु: दृष्टवन्तस्ते संतीर्णसमाव्याख्याता इति|| २ || टीका (जे) ये पुरुषाः 'विवाह' विज्ञापनाभि:, ' अजोसिया' अजुष्टा:= न सेविताः, विज्ञाप्यन्ते कामार्थिभिर्यास्ता विज्ञापनाः अथवा विज्ञाव्यन्ते कामिनः कामसेवनार्थ याभिः ताः विज्ञापना ललनाः ताभि -अन्वयार्थ कामी जन जिनकी विज्ञापना या आजीजी करते हैं, उन्हें विज्ञापना कहते हैं | विज्ञापना का अर्थ है - स्त्री । जो महापुरुष स्त्रियों के द्वारा सेवित नहीं हैं, वे मुक्त पुरुषों के समान कहे गए है । हे शिष्यो ! स्त्रीत्याग के पश्चात् जो होता है, उसे देखो अर्थात् यह जानो कि वे मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । जिन्होंने कामभोगों को रोग के समान देखा वे तिरे हुए कहे गये हैं ||२|| - टीकार्थ कामी जनों के द्वारा जिनकी विज्ञप्ति की जाती है या जिनके द्वारा कामसेवन के लिये कामी जनो की विज्ञप्ति की जाती है, उन्हें विज्ञापना - सूत्रार्थકામી જન જેમની વિજ્ઞાપના અથવા આજીજી કરે છે, તેમને વિજ્ઞાપના કહે છે, એટલે કે “ વિજ્ઞાપના ” પદ્મ અહીં સ્ત્રીનુ વાચક છે. જે મહાપુરુષો સ્ત્રી દ્વારા સેવિત નથી, તેમને મુક્તપુરુષાના સમાન કહ્યા છે. હે શિષ્યે ! સ્ત્રીના ત્યાગ કરવાથી શે। લાભ થાય છે, તે જુવે એટલે કે એ વાતને જાણી લે કે સ્ત્રીને ત્યાગ કરનાર મહાપુરુષો મેક્ષ પ્રાપ્ત કરી લે છે. જેમણે કામભોગાને રાગના સમાન માન્યા છે, તે મુક્તપુરુષાના જેવા જ છે. રા For Private And Personal Use Only - अर्थ - કામી જના દ્વારા જેમને વિજ્ઞપ્તિ (આજીજી) કરાય છે, અથવા જેમના દ્વારા કામ સેવનને માટે કામીજનોને વિજ્ઞપ્તિ કરાય છે, તેમને વિજ્ઞાપના અર્થાત્ સ્ત્રી કહે છે. તેમના Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनो टीका प्र. श्रु. साधूनां परिषहोपसर्ग सहनोपदेशः ६३३ स्त्रीभिः न जुष्टाः ते पुरुषाः 'संतिनेहि' संतीर्णैः संसारसागरपारगैः मुक्तैः पुरुषैः 'सम' समाः तुल्याः 'वियाहिया' व्याख्याताः कथिताः ये पुरुषाः स्त्रीसंपर्करहिताः ते मुक्तपुरुषतुल्याः भवन्ति । स्त्री एवं संसारसागरस्य प्रयोजिका तया रहितो मुक्तो भवति, तत्समो वा भवति । हे संसार ! त्वां सर्वोऽपि अतिक्रामेत् परन्तु मध्ये इयमवला सबलेव प्रतिबन्धिका, इयं च सर्वथैव बंधकारिणी तथा नरकादिजनिका चेति । तदुक्तम् ____ "संसार तव दुस्तारपदवी न दवीयसी, अन्तरा दुस्तरा न स्यु, यदि रे मदिरेक्षणाः॥१॥ अर्थात् स्त्री कहते है। उनके द्वारा जो पुरुष सेवित नहीं हैं वे संसारसागर के पारगामी मुक्तात्माओं के समान कहे गए हैं। जो पुरुष स्त्रीसम्पर्क से रहित हैं, वे मुक्त पुरुषों के समान हैं, स्त्री ही संसारसागर में डबाने वाली है, जो उससे रहित है, वह मुक्त या मुक्त के समान है। हे संसार ! तुझे सभी पार कर जाते परन्तु यह अवला सबलाजैसी बीच में रुकावट है ! यह सर्वथा बन्धकारणी है और नरक आदि दुर्गतियाँ में ले जाने वाली है । कहा भी है - "संसार तव दुस्तार” इत्यादि ।। 'अरे संसार ! यदि बीच में यह दुस्तरा (जिसका पार पाना कठिन है) मदिरेक्षणाः मादक दृष्टिवाली-कामिनी न होती तो तेरी यह जो दुस्तर पदवी (मार्ग) है, यह कोई दूर की बात न होती अर्थात् तुझे पार करना कठिन न रह जाता' દ્વારા જે પુરુષ સેવિત નથી, તે પુરુષને સંસાર સાગરને તરી જનારા મુક્તાત્માઓના જેવાં કહા છે, જે પુરુષ સ્ત્રી સંપર્કથી રહિત છે, તેમને મુકત પુરુષ જેવા જ માનવામાં આવે છે. સ્ત્રી જ સંસાર સાગરમાં ડુબાડનારી છે, જેઓ તેનાથી રહિત છે. તેઓ મુક્ત અથવા મુક્ત સમાન છે. હે સંસાર! તને સઘળા છે પાર કરી શક્ત, પરંતુ આ અબળા (સ્ત્રી) રૂપી સબળ રુકાવટ તારા માર્ગની વચ્ચે નડે છે. તે સર્વથા બન્ધકારિણી છે અને નરક આદિ हुमतमाम न छे. ह्यु पछ 3-" संसार तव दुस्तार" त्यादि ___ " संसार ! नेपथ्ये हुस्त। (रेने पा२ ४२वानुहु७२ छ मेवी), महिरक्षा। (માદક દૃષ્ટિવાળી) કામિની ન હેત તે તારી આ જે દુતરા પદવી (માર્ગ) છે, એ કોઈ મુશ્કેલી ભરી વાત ન હતા એટલે કે જે કામિની ન હેત, તે તને (સંસાને) પાર કરવાનું आय ॐन न नत." For Private And Personal Use Only Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे सम्यककुलोत्पन्नापि कामिनी पुरुषाणां बन्धनायैव भवति यथा सुवर्णनिर्मितापि शृंखला बन्धाय भवति । तदुक्तम् - "कामं कुलकलंकाय कुलजाताऽपि कामिनी । शृंखला स्वर्णजातापि बंधनाय न संशयः” ॥२॥ स्त्री हि मायाकारिणी मुकृतस्य खंडयित्री नृणां खंडनकारिका तथा नरकस्य भाजनं च भवतीति तदुक्तम् माया "प्रमदायुत्पथ"-मित्यादि । "प्रमदायुत्पथं नेतुं प्रयतन्ते शरीरिणाम् मायाकरण्डी सुकृतस्य चण्डी नृणां विखण्डी नरकस्य हण्डी" ॥ इत्यादि स्त्रीनिन्दया खीणामेव संसारमूलत्वकथनम् । अधुनापि दृश्यते अच्छे कुल में उत्पन्न भी कामिनी पुरुषों के बन्धन के लिए ही होती है, जैसे स्वर्ण की भी बनी सांकल वन्धनका ही कारण है। कहा भी है-"काम कुलकलंकाय" इत्यादि। 'कामिनी भले ही सत्कुल में जन्मी हो फिर भी वह कुल के कलंक का ही कारण होती है, यथा सोने की बनी हुई सांकल भी बन्धन के लिए ही होती है, इसमें संशय को अवकाश नहीं। स्त्री मायाचार करने वाली, पुण्य का खंडन करने वाली पुरुषों को खण्ड खण्ड करने वाली तथा नरक का पात्र होती है । कहा है-"प्रमदा ह्युत्पथं नेतुं” इत्यादि। 'स्त्री मनुष्य को उन्मार्ग में ले जाने का प्रयत्न करती है। यह माया की करंडी है, सुकृत को विनष्ट करने वाली चण्डी है और नरक की हंडी है। इत्यादि निन्दा करके स्त्रियों को ही भवभ्रमण का मूल कहा गया है। જેવી રીતે સેનાની સાંકળ પણ બન્ધનનું જ કારણ બને છે, એજ પ્રમાણે સારા કુળમાં ઉત્પન્ન થયેલી કામિની પણ પુરુષોને માટે બધનનું જ કારણ બને છે. કહ્યું પણ છે કે. "काम कुलकल काय" त्याह કામિની ભલે સકુળમાં જન્મી હોય, પરંતુ તે કુળના કલકનું જ કારણ બને છે. જેવી રીતે સેનાની સાંકળ બંધનનું કારણ બને છે. એવી જ રીતે સ્કુલમાં જોલી હેય આવી સ્ત્રી પણ પુરુષને માટે બન્ધનનું જ કારણુ થઈ પડે છે. તેમાં સંશયને मश नथी.” સ્ત્રી માયાચાર કરનારી, પુણ્ય નું ખંડન કરનારી, પુરુષને સર્વથા નાશ કરનારી तथा न२४i पात्र३५ डाय 2. ४यु पार छ -“प्रमदा हपथ नेतु "त्यादि શ્રી પુરુષને ઉન્માર્ગે લઈ જવાનો પ્રયત્ન કરે છે, તે માયાની ટોપલી જેવી છે, સુકૃતને નાશ કરનારી ચંડી છે અને નરકની હુંડી (હડી) છે.” For Private And Personal Use Only Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. . अ. २ उ. ३ साधूनां परिषहोपसर्ग सहनोपदेशः ६३५ -महान्तोऽपि शास्त्राणां पारंगताः स्त्रीपाशपाशिताः संसारमेवानुवर्तन्ते । स्त्रीविरहिता अल्पमेधसोऽपि स्वेच्छया धर्मध्यानादौ संलग्ना भवन्ति । अतः स्त्रीसंपर्करहिता मुक्ततुल्या भवन्ति पुरुषाः । एवमेव स्त्रीणां कृते पुरुषा अपि ज्ञातव्याः। 'तम्हा' तस्मात् 'उड्ड' स्त्रीपरित्यागादूर्ध्वम् 'पासहा' पश्यत स्त्रीपरित्यागादेव मुक्तिर्भवतीति पश्यत तथा ' कामाई' कामान् ये पुरुषाः । 'रोग' रोगवत् 'अदक्खु अद्राक्षुः, यः पुरुषः कामभोगादिकं रोगमिव पश्यति सोऽपि मुक्तसम एव भवति ॥२॥ पुनरपि उपदेशान्तरमाह—'अग्गं वणीएहि इत्यादि । ४ २ मलम् अगं वणिएहिं आहियं धारती राईणिया इहं एवं परमा महव्वया अक्खाया उसराइभोयणा ॥३॥ छायाअयं वणिग्भिराहितं धारयन्ति राजान इह । एवं परमाणि महाव्रतानि आख्यातानि सरात्रिभोजनानि।।३।। आज भी देखा जाता है कि शास्त्रों में पारंगत महान् पुरुष भी स्त्री के बन्धन में बद्ध होकर संसार के अनुकूल ही आचरण करते हैं, और जो स्त्री से रहित हैं वे अल्पबुद्धि होते हुए भी अपनी इच्छा से धर्मध्यान आदि में लगे रहते हैं। अतः स्त्रीके सम्पर्क से रहित पुरुष मुक्त के समान है। इसी प्रकार स्त्रियों के लिए पुरुपको समझने चाहिए । इस कारण यह देखो कि स्त्री त्याग के पश्चात् मुक्ति होती है। जिसने काम को रोग समझा, वह पुरुष भी मुक्त के समान ही है ॥२॥ આ પ્રકારે નિન્દા કરીને સ્ત્રીઓને જ ભવભ્રમણનું મૂળ કહેવામાં આવેલ છે. આજ પણ એવું જોવામાં આવે છે કે શાસ્ત્રમાં પારંગત મહાન પુરુષે પણ સ્ત્રીના બન્ધનમાં બંધાઈને સંસારને અનુકૂળ આચરણ જ કરે છે, અને જેઓ સ્ત્રીથી રહિત છે- સ્ત્રીમાં આસક્ત નથી, એવા પુરુષ અલપબુદ્ધિ વાળા હોવા છતાં પણ સ્વેચ્છાથી ધર્મધ્યાન આદિમાં લીન રહે છે. તેથી સ્ત્રીના સંપર્કથી રહિત પુરુષને મુક્તાત્માઓના જેવા કહ્યા છે. એજ પ્રમાણે સ્ત્રીઓને માટે પુરુષે પણ સમજવા-એટલે કે જે સ્ત્રી પુરુષના સંપર્કને ત્યાગ કરે છે, તે પણ મુક્તાત્મા સમાન જ છે. આ ગાથા દ્વારા એ વાતને પ્રતિપાદિત કરવામાં આવી છે કે સ્ત્રીને ત્યાગ કર્યા બાદ જ મુક્તિની પ્રાપ્તિ થઈ શકે છે. જેણે કામને રોગ સમાન માને છે, તે પુરુષ પણ મુક્તના સમાન છે. ! ગાથા ર છે For Private And Personal Use Only Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्ग सूत्र अन्वयार्थः - (इह) इहास्मिन् लोके (वणिएहिं) वणिग्भिः (आहियं) आहितं = देशान्तरादानीतं (अग्गं) अयं प्रशस्तं रत्नादिकं (राईणिया) राजानः (धारंति) धारयति विभ्रति (एवं) एवमनेन प्रकारेण (अक्खाया) आख्यातानि-तीर्थकरद्वारा प्रतिपादितानि (सराइभोयणा) सरात्रिभोजनानि = रात्रिभोजनपरित्यागयुक्तानि (परमा) परमाणि उत्कृष्टानि (महव्वया) महाव्रतानि =प्राणातिपातविरमणादीनि, महापुरुषा भाग्यवन्तएव धारयति।।३।। और भी उपदेश करते हैं--'अग्गं वणिएहि” इत्यादि । शब्दार्थ-'इहं-इह इसलोक में वणिएहि-वणिग्भिः ' बनियों के द्वारा 'आहियं-आहितम्' दूर देशसे लाए हुए 'अग्गं-अयम्' उत्तमोत्तम वस्तुओं को 'राइणिया-राजानः' राजा महाराजा आदि धारंति-धारयन्ति' धारण करते हैं 'एवं-एवम्' इसीप्रकार 'अक्खाया-आख्यातानि' आचार्य के द्वारा प्रतिपादित 'सराइभोयणा-सरात्रिभोजनानि' रात्रि भोजन के परित्याग सहित 'परमा -परमाणि उत्कृष्ट 'महव्वया-महाव्रतानि' प्राणातिपातविरमण आदि महाव्रतों को साधु पुरुष धारण करते हैं ॥३॥ - अन्वयार्थ - जैसे व्यापारियों द्वारा देशान्तर से लाये हुए उत्तम रत्न आदि को यहां राजा लोग धारण करते हैं, इसी प्रकार तीर्थकर द्वारा प्रतिपादित रात्रि भोजनविरमणसहितप्राणातिपातविरमण आदि महावता को महापुरुष भाग्यवन्त ही धारण करते हैं ।।३।। पी सूत्रसर उपदेश माछ-" अग वणिपहि" त्याद शा---'इह-इह' मा सोमा वणिएहि-वणिग्भिः' पसिना द्वारा 'आहियआहितम्' २ शिथी सास 'अग्ग-अश्यम्' उत्तमोत्तम वस्तुमाने 'राइणिया-राजानः' सन्न महान पोरे 'धारति-धारयन्ति धार ४२छे एवं-एवमू' मा प्रारे 'अक्खायाआख्यातानि' मायाना द्वारा प्रतिपादित 'सराइभोयणा-सरात्रिभोजनानि' त्रि. सोनना परित्यारानी साथे 'परमा-परमाणि' अष्ट महव्यया-महाव्रतानि' प्रातिपात વિરમણ વગેરે મહાવતને સાધુપુરૂષ ધારણ કરે છે. તે ૩ છે -सूत्राथ જેવી રીતે વ્યાપારીઓ દ્વારા પરદેશમાંથી લાવવામાં આવેલાં ઉત્તમ રન આદિકેને રાજાએ ધારણ કરે છે, એ જ પ્રમાણે તીર્થકર દ્વારા પ્રતિપાદિત રાત્રિ ભેજનવિરમણ સહિત પ્રાણાતિપાતવિરમણ આદિ મહાવ્રતને ભાગ્યશાળી પુરુષો જ ધારણ કરે છે. આવા For Private And Personal Use Only Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. ३ साधूनां परिषदोपसर्ग सहनोपदेशः ६३७ टीका_ 'इह, अस्मिन् लोके 'वणिएहि वणिग्भिः 'आहिय' आहितं दरदेशादानीतम् 'अग्गं' अग्रयम् प्रशस्तं रत्नादि 'राईणिया राजानः 'धारंती' धारयन्ति 'एवं' अनेन प्रकारेण 'अक्खाया, आख्यातानि-तीर्थकरद्वारा आख्यातानि प्रतिपादितानि 'सराइभोयणा' सरात्रिभोजनानि = रात्रिभोजनविरमणसहितानि 'परमा परमाणि = परमोत्कष्टानि 'महन्वया' महाव्रतानि पंच साधुभिरेव धार्यन्ते । यथा वणिम्भिरदेशादानीतानि महार्हरत्नानि राजानो धारयन्ति, तथा तीर्थकरप्रतिपादितानि सरात्रिभोजनविरमणपंचमहानतानि साधुपुरुषैर्धार्यमाणानि भवन्ति । ते के साधवः ये संयमानुष्ठाने सिंह इव शूरा भवन्ति, स्व्यादिसंपर्करहिता भवन्तीति भावः ॥३॥ -टीकार्थइस लोक में व्यापारियो द्वारा दर देशान्तर से लाये हुए उत्तम रत्न आदि को राजा महाराजा धारण करते हैं, इसी प्रकार तीर्थकर के द्वारा कथित रात्रिभोजनविरमण के साथ उत्कृष्ट पांच महाव्रतों को साधु पुरुष ही धारण करते हैं। आशय यह हैं जैसे दूर देशसे व्यापारियों द्वारा लाए हुए उत्तम एवं महान् पुरुषों के योग्य रत्नों को राजा धारण करते हैं, उसी प्रकार तीर्थकरों के द्वारा निरूपित रात्रिभोजनविरमण सहित पांच महाव्रतों को साधु पुरुष ही धारण करते हैं। साधु भी वही धारण करते हैं जो सिंह के समान शूर होते हैं और स्त्री आदि के सम्पर्क से रहित होते हैं ॥३॥ -टीआयઆ લેકમાં વ્યાપારીઓ દ્વારા દૂર દૂરના દેશોમાંથી લાવવામાં આવેલા ઉત્તમ રન વગેરે જેવી રીતે રાજા મહારાજા ધારણ કરે છે, એ જ પ્રમાણે તીર્થકર દ્વારા ઉપદિષ્ટ રાત્રિભેજનવિરમણ સહિત ઉત્કૃષ્ટ પાંચ મહાવ્રતને સાધુ પુરુષે જ ધારણ કરે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે દૂર દૂરના દેશમાંથી વ્યાપારીઓ દ્વારા જે બહુમૂલ્ય રત્નાદિકને લાવવામાં આવે છે તેને કોઈ સાધારણ મનુષ્ય ધારણ કરી શકતા નથી. પણ રાજા મહારાજાઓ જ ધારણ કરે છે, એજ પ્રમાણે તીર્થકર દ્વારા નિરૂપિત રાત્રિભોજન વિરમણ સહિત પાંચ મહાવ્રતને સાધુ પુરુષે જ ધારણ કરે છે. કોઈ સામાન્ય સાધુ તેને ધારણ કરી શકતું નથી, પરન્તુ સિંહના સમાન શૂરવીર અને સ્ત્રીઓના સંપર્ક આદિથી રહિત સાધુઓ જ તેને ધારણ કરી શકે છે. આ ગાથા ૩ . For Private And Personal Use Only Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे जे इह सायाणुगा नरा अझोववन्ना कामेहिं मुच्छिया ___८ ९ १० १४ १२ १५ १३ ११ किवणेण समं पगभिया न वि जाणंति समाहिमाहित॥४॥ छाया य इह सातानुगा नरा अध्युपपन्नाः कामेषु मूञ्छिताः । कृपणेन समं प्रगम्भिता नापि जानन्ति समाधिमाख्यातम् ॥४॥ __ अन्वयार्थ:(इह) इहलोके (जे नरा) ये नराः (सायाणुगा) सातानुगाः= सुखशीलाः (अज्झोववन्ना) अध्युपपन्नाः =ऋद्धिरससातगौरवेषु गृद्धाः, तथा (कामेहिं) कामेषु = शब्दादिषु (मुच्छिया) मूञ्छिताः (किवणेण) कृपणेन इन्द्रियपराजितेन(सम) शब्दार्थ—'इह-इह' इसलोकमें 'जे नरा-ये नराः' जो मनुष्य ‘सायाणुगा सातानुगाः' सुख के पीछे चलते हैं 'अन्झोववन्ना-अध्युपपन्नाः' तथा ऋद्वि रस और साता गैरवमें आसक्त है एवं कामेहि-कामेषु' शब्दादि कामभोगों में मुच्छिया-मूच्छिताः' आसक्त है 'किवणेण-कृपणेन । वे इन्द्रिय लंपटो के 'समं-समम्' समान् ‘पगभिया-प्रगल्भिताः' धृष्टता पूर्वक कामभोगका सेवन करते हैं 'अहियंपि-आहितमपि' ऐसे लोग कहने पर भी 'समाहि-समाधिम् समाधि धर्मध्यानको 'न-न' नहीं 'जाणंति-जनन्तीति' जानते हैं ॥४॥ -अन्वयार्थ:इस लोक में जो मनुष्य सुखशील आराम चाहने वाले होते हैं, ऋद्धि रस और साता के गौरव में आसक्त हैं तथा शब्दादि कामभोगो में मूर्छित हैं, शहाथ - 'इह-इह' २ मा 'जे नरा-ये नराः' मनुष्य 'सामाणुगा-साता. नुगाः' सुमनी पा७७ या छ 'अन्झोवयन्ना-अध्युपपन्नाः' तथा ऋद्धि२२१. २मने साता भैरवमा सासरत छ मेयम् 'कामेहि-कामेषु' पणेरे अमलोगोमा 'मुच्छियामूच्छिताः' मासत छ 'किवणेण कृपणेन' ते न्द्रय पटोन'सम-समम्' समान 'पगभिया-प्रगल्भिताः' धृष्टतापूर्व मनामनु सेवन ४३ छ 'अहिय पि-आहिताप' मावा सो ४ा छतi ५ 'समाहि-समाधिम्' समाधि-ध्यानने 'न-न' नथी 'जाणति-जानन्तीति' लाता. ॥ ४॥ -सूत्राथ:આ લેકમાં જે મનુષ્ય સુખશીલ આરામને પસન્દ કરનારા હોય છે. અદ્ધિ, રસ અને સાતાના ગૌરવમાં આસક્ત છે, તથા શબ્દાદિ કામગીમાં મૂછિત છે, તેઓ કૃપણના For Private And Personal Use Only Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. ३ साधूनां परिषहोपसर्ग सहनोपदेशः ६३९ समाः(पगम्भिया)प्रगल्भिताः धृष्टतां गताः (आहियं वि) आहितमपि कथितमपि (समाहि) समाधि = धर्मध्यानरूपम् (न) न (जाणंति) जानन्तीति ॥४॥ टीका 'इह' इहलोके 'जे नरा' ये नराः ये पुरुषाः 'सायाणुगा' सातानुगाः सातं सुखं वैषयिकं वकचन्दनवनितादिजन्यमैहिकम्, स्वर्गादिकं च पारलौकिकम् , तदनुगच्छन्तीति सातानुगाः मुखान्वेषिणः । शर्मसातसुखानि च' इत्यमरोक्तः । तथा 'अज्ज्ञोववन्ना' अध्युपपन्नाः--ऋद्धिरससातगौरवेषु आसक्ताः तथा 'कामेहिं मुच्छिया' कामेषु मूछिताः इच्छामदनरूपेषु कामेषु मूच्छिताः कामोत्कटतृष्णाः कामेषु तृष्णावन्तः 'किवणेन समं पगम्भिया' कृपणेन समं प्रगल्भिताः= कृपणो दीनः इन्द्रियाधीनस्तेन तुल्यं धृष्टतां गताः । अथवा उभयकालप्रतिलेखनादिकानां क्रियाणामकरणेनाऽल्पदोषेण संयमो न नश्यतीति प्रमादवन्तः वे कृपणो के समान अर्थात् इन्द्रियों द्वारा पराजितो के समान धृष्टता को प्राप्त हैं। वे कही हुई भी समाधि को नहीं जानते हैं ॥४॥ -टीकार्थइस जगत् में जो मनुष्य माला चन्दन स्त्री आदि द्वारा होने वाले इस लोक संबंधी वैपयिक सुख का तथा स्वर्ग आदि पारलौकिक सुख का ही अन्वेपण करते रहते हैं, तथा जो ऋद्धिगौरव, रसगौरव और सातागौरव में आसक्त हैं और जो इच्छा तथा मदनरूप कामों मे मूर्छित हैं-कामभोगों की तीव्र लालसा वाले हैं-कामो में तृष्णावान हैं, वे इन्द्रियों के अधीन ढीठ होकर कामभोगों का सेवन करते हैं। अथवा दोनों समय प्रतिलेखन न करने से या अल्प दोप से संयम नष्ट थोडे ही हो जाएगा, ऐसा सोचने वाले સમાન એટલે કે ઇન્દ્રિો દ્વારા પરાજિતેના સમાન છતાયુક્ત જ છે. એવા પુરૂષને સમાધિધર્મ સમજાવવા છતાં પણ તેઓ સમજતા નથી. જો - -- આ લેકમાં જે મનુષ્ય માળા, ચન્દન, સ્ત્રી આદિ દ્વારા પ્રાપ્ત થતાં આ લેકના વૈષયિક સુખનું અને સ્વર્ગાદિ પારલૌકિક સુખનું જ અન્વેષણ (રોધ કરતા રહે છે, તથા જેઓ ઋદ્ધિગૌરવ, રસગૌરવ અને સાતગૌરવમાં આસક્ત છે, અને જેઓ ઈચ્છા તથા મદન રૂપ કામમાં મૂર્ણિત છે-કામગોની તીવ્ર લાલસાવાળા છે, તેઓ ઇન્દ્રિયોના દાસ બનીને કામગીનું સેવન કર્યા કરે છે અને તેમ કરવામાં બિલકુલ લજજા કે સંકોચ અનુભવતા નથી. અથવા બને સમય પ્રતિલેખના (પલેવણા) ન કરવાથી અથવા નાનાં નાના દોષ થઈ જવાથી સંયમ થોડે જ નષ્ટ થઈ જવાને છે!” એ વિચાર કરનાર For Private And Personal Use Only Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६४० सूत्रकृताङ्गसूत्रे इन्द्रियलोलुपेन समं धृष्टतावन्तः इत्थंभूताः असंयताः पुरुषाः 'आहियं वि समाहिं' आख्यातमपि समाधिम् = आख्यातं कथितमपि समाधि = समाधिधर्म परप्रोच्चारितमपि 'न जाणंति' न जानन्ति । अस्मिन् लोके यः पुरुषः सुखमेवान्वेति तथा ऋद्धिरससातगौरवेषु आसक्तः, तथा कामभोगादि लोलुपः स इन्द्रियपराजितः सन् तुल्य एव कामसेवने धृष्टः स कथितमपि धर्मध्यानादिकं न जानन्ति । प्रथमं प्रायः शृणोत्येव नहि, कदाचित् श्रतमपि अश्रतमित्युपेक्षते । श्रवणे कृतादरोपि नैवावधारयितुं शक्नोति - इति भावः ||४|| पुनरपि उपदेशान्तरं प्रस्तौति सूत्रकारः - 'वाहेण जहा ' इत्यादि । मूलम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ १ ६ ४ वाहेण जहा व विच्छए अवले होइ गवं पचोइए છ ९ १२ १० अंतसो अपथामए नाइवह अवले वि सी ||४| छाया arta यथा वा विक्षतोऽवलोभवति गौः प्रचोदितः । सोन्तशोऽल्पस्थामा नातिवहत्यवलो विषीदति ||५|| प्रमादशील पुरुष हैं वे इन्द्रियलोलुप के समान धृष्टता वाले हैं। इस प्रकार के असंयमी पुरुष समाधिधर्म को कहने पर भी नहीं समझते हैं । अभिप्राय यह है - इस लोक में जो पुरुष सुख की ही तलाश में रहता है ऋद्धि रस सातागौरव में आसक्त है तथा कामभोग आदि में लोलुप है, वह इन्द्रियों से पराजित होकर पराजितों के समान ही कामसेवन में धृष्ट हो जाता है। वह कहने पर भी धर्म ध्यान आदि को नहीं जानता है। प्रथम तो वह सुनता ही नहीं, कदाचित् सुना तो भी अनसुना कर देता है, आदरपूर्वक सुनता भी है तो उसे समझ नहीं पाता ॥ ४ ॥ પુરુષો પ્રમાદશીલ જ છે. તેઓ ઇન્દ્રિયલાલુપ માણસાના જેવાં જ ગમે તેટલું કહેવામાં આવે, તે પણ સમાધિધર્મને તેઓ સમજતા નથી. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે-આલેાકમાં જે મનુષ્યા સુખની જ શોધમાં રહે છે, ઋદ્ધિ,રસ અને સાતાૌરવમાં આસક્ત રહે છે. તથા કામભોગાદમાં જ લાલુપ રહે છે, તેઓ ઇન્દ્રિયા દ્વારા પરાજિત થઇ ને પરાજિતાના સમાન જ (ગુલામેાની જેમ ) કામસેવનમાં ધૃષ્ટ ( લજજા રહિત) થઈ જાય છે. તેમને ગમેતેટલુ કહેવામાં આવે છતાં પણ ધર્મધ્યાન આદિને તેઓ જાણતા જ નથી. સામાન્ય રીતે તે આવા માણસો ધર્મ ધ્યાનની વાતજ સાંભળતા નથી અને કદાચ સાંભળે છે, તે એક કાનેથી સાંભળીને બીજા કાનેથી કાઢી નાખે છે. કદાચ આદર પૂર્વક સાંભળે છે, તે તેને સમજી શકતા नथी. ॥४॥ For Private And Personal Use Only ષ્ટ છે. એવાં પુરુષાને Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. अ. २ उ. ३ साधूनां परिषहोपसर्ग सहनोपदेशः ६४१ अन्वयार्थः ( जहा ) यथा वा (वाण) वाहकेन (विच्छ९) विक्षतः = ताडित: ( पचोइए) प्रचोदितः = प्रेरित: ( अवले गवं ) अवलो गौ: = दुर्वलो गौः न प्रचलति किन्तु (से) सः (अप्पथामए) अल्पस्थामा = अल्पसामर्थ्यवान् ( अबले) अवलो = दुर्बल: (अंतसो ) अंतरा: = मरणान्तमपि ( नाइवर) नातिवहति = भारं वोदु समर्थो न भवति अपि तु ( विसी) विषीदति पंकादौ इति ||५|| सूत्रकार पुनः उपदेश करते है - " वाहेण जहा" इत्यादि । शब्दार्थ - 'जहा - यथा' जिसप्रकार 'वाहेण - वाहेन' गाडीवान् के द्वारा 'विच्छए - विक्षत' चाबुक मारकर 'पवोइए - प्रचोदितः प्रेरित किया हुआ 'अवले गवं - अवलो गौः' दुर्बल बैल चलता नहीं है, परंतु 'से- सः' वह 'अप्पथामए - अल्पस्थामा' अल्पसामर्थ्य वाला 'अवले -अवल:' दुर्बल बैल 'अंतसो - अन्तशः ' मरण पर्यन्तभी 'नाइवहर - नातिवहति' भारवहन नहीं कर सकता है परंतु 'विसीय - विषीदति कीचड आदि में फंसकर क्लेश भोगता है ||५|| - अन्वयार्थ जैसे वाहक (गाडीवान) के द्वारा ताडना पाने पर और प्रेरित होने पर भी दुर्बल बैल चलता नहीं, सामर्थ्यहीन और निर्बल होने के कारण मरण पर्यन्त भी वह भार वहन करने में समर्थ नहीं होता, किन्तु कीचड आदि में फस कर दुःखी होता है ||५|| ८८ सूत्रार भागण उपदेश व्यापता हे छे - “ वाहेण जहा " प्रत्याहि शब्दार्थ - 'जहा यथा' ने प्रारे 'वाहेण वाहेन' गाडीवाणाना द्वारा 'विच्छएविक्षतः' या भारीने 'पचोईए- प्रचोदितः' प्रेरित रे ' अबले गवं - अवलो गौः ' हुर्मण मगह श्राद्यतो नथी, परंतु 'से- सः' ते 'अव्ययात्रए - अल्पस्थामा अस्य सामर्थ्य वाणा 'अबले - अवचः' दुर्मण मगह 'अंतसो - अंतरा' भर पर्यन्त पशु 'नाइवहद - नातिवहति' भारवाडुन डेरी शस्तो नथी परंतु 'विसीय विषीदति' अहव वरोरेमा इसाधने उदेश लोगये थे. ॥ ५ ॥ -:सूत्रार्थ: ગાડું હાંકનાર માણસ દ્વારા ગમે તેટલી મારપીટ આદિ કરવામાં આવે તે પણ દુળ ખળદ ચાલતા નથી. સામર્થ્ય હીન અને નિબળ હોવાને કારણે તે મરણ પન્ત પણ ભારને વહન કરી શકવાને સમર્થ હાતા નથી, એવા બળદ તા પોતાની કમોરીને કારણે કાદવ ક્રિમાં ફસાઇને દુઃખી જ થાય છે. પાા सु, ८१ For Private And Personal Use Only Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra દૂર www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे टीका 'जहा ' यथा 'वान वाहेन रथचालकेन 'विच्छए' विक्षतः - वि- विशेषण क्षतः कशातस्ताडितः सन् 'पचोइए' प्रचोदितः प्रेरितः 'अवले' अवल:= दुर्बल: गर्व' गौः प्रचलितुं न शक्नोति दौर्बल्यात् किन्तु 'से' सः 'अप्पथामए' अल्पसामर्थ्यवान् 'अवले 'अवल: वलरहित: 'अंतसो' अन्तशः 'नाइवहइ' नातिवहति भारं नातिवहति, भारवहने समर्थो न भवति, अपि तु 'विसीय, विषीदति पंकादौ मग्नः अतिशयेन दुःखी भवति । यथा वाहन कशादिना ताडितोऽपि दुर्बलो गवादिः क्लिष्टं मार्ग नातिक्रामति । अपितु अल्पसामर्थ्यहेतुना विषममार्गे क्लिश्यति । किन्तु स्वल्पवलात् भारवहनं नैव करोति तथा कामादिषु आसक्तोऽपि पश्चादन्ते दुःखी भवतीति भावः ||५|| - टीकार्थ जिस प्रकार रथचालक (गाडीवान) के द्वारा कोडे से ताडित होने पर भी दुर्बल बैल अपनी दुर्बलता के कारण चलने में समर्थ नहीं होता, अपि तु सामर्थ्य, हीन और बलहीन हो कर भारवहन नहीं करता है, कीचड आदि में फँस कर अत्यन्त दुःखी होता है । अभिप्राय यह है कि गाडी चलाने वाला यदि दुर्बल बैल को ताडना करे तो भी वह विषम मार्ग में चल नहीं सकता और भार वहन करने में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार काम आदि मे आसक्त पुरुष भी अन्त में दुःखी होता है ||५|| -: टीअर्थ: રથ અથવા ગાડીને જોડવામાં આવેલ નિળ બળદને સારથિ અથવા ગાડીવાળે! ગમે તેટલી લાકડીઓના પ્રહાર કરે, ગમે તેટલા ચાબૂક ફટકારે, છતાં પણ ભારવહન કરવાને અસમર્થ એવા તે કમજોર હળદ તેને વહન કરવાને સમર્થ થઇ શકતા નથી. એવા કમજોર બળદ આખરે કાદવકીચડમાં ફસાઇ પડીને દુ:ખી જ થાય છે. For Private And Personal Use Only જેવી રીતે કમજોર બળદને ગમે તેટલા મારવામાં આવે છતાં પણ તે વિષમ માર્ગ પર ગાડી ખેંચી શકતા નથી, એને કાદવ કીચડમાં ફસાઇ પડીને દુ:ખી જ થાય છે. એજ પ્રમાણે કામભોગે માં આસક્ત પુરુષને ગમે તેટલા ઉપદેશ આપવામાં આવે, અને પરલેાકના ( નરકાદિના ) ભય બતવવામાં આવે. તોપણ તે સમજતાજ નથી. અને અન્તે દુ:ખી જ થાય છે. ! ગાથા પા Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समार्थ बोधिनी टीका प्र. अ. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिना थोपदेशः पुनरप्युपदिशति सूत्रकारः - एवं कामेसण, इत्यादि । मूलम् - ३ ४ ५ एवं कामेसणं विऊ अजसुए पहएन संयवं । の Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ ११ १२ १३ कामी कामे ण कामए लद्धे वावि अल हुई || ६ || ६४३ छाया एवं कामैषणायां विद्वान् अद्यश्वः प्रजह्यात्संस्तत्रम् | arit arora कामयेत् लब्धान् वाप्यलव्धान् कुतश्चित् || ६ || अन्वयार्थ ( एवं ) एवम् उपर्युक्तप्रकारेण ( का मेसण) कामेपणायां शब्दाद्युपभोगरूपायां (विऊ) विद्वान निपुण: ( अज्जगुए) अद्यधः (संथवं ) संस्तवम् = परिचयं कामेपणाम् सूत्रकार पुनः उपदेश देते हैं -- “ एवं कामेसणं' शब्दार्थ - ' एवं - एवम् ' उपर्युक्त प्रकार से 'कामेसणं- कामेपणायाम् ' शब्दादि विषयों के अन्वेषण में 'विऊ - विद्वान' निपुण पुरुष 'अज्जसुए - अद्यश्वः' आज या कल 'संभव - संस्तवम्' विषय भोग की एपमा को 'पहएज्ज-प्रजह्यात् ' छोड देवें ऐसा विचार ही करता है परंतु 'कामी - कामी' कामी पुरुष 'कामे - कामान्' काम भोगों की 'न काम न कामयेत् कामना न करे एवं 'लद्धे वावि - लब्धान् अपि प्राप्त हुए कामभोगों को भी 'अल-अलब्धान' न मिले के समान 'aug - कुतश्चित् ' उसमें कभी आसक्ति न करें ||६|| -अन्वयार्थ इस प्रकार शब्दादिरूप कामों की गवेषणा में निपुण पुरुष ऐसा सूत्रार वणी या प्रमाणे उपदेश आये छे - " एव कामेसण " इत्यादि शब्दार्थ' - ' एवं ' - एवम्' उपर्युक्त प्रस्थी 'कामेसणं - कामेपणाय' शब्द वगेरे विषयोना अन्वेषणुभां 'त्रिऊ - विद्वान्' नियु। ५३ष 'अजसुए - अद्यश्वः' आहे अथवा असे 'संयंत्र - संस्तयम्' विषयलोगनी भेषणाने 'पहपज-प्रजह्यात्' छोडी : येवो विचार न ४२ छे परंतु छोडतो नथी, परंतु 'कामी कामी' अभी पु३ष 'कामे कामान्' अभ लोगोनी 'न काम न कामयेत्' अमना ना उरे व 'लद्धे वावि - लग्धान् अपि प्राप्त थयेस अभलोगोने पशु 'अलवा - अलब्धान्' ना मझ्याना समान 'कण्डुइ-कुतश्चित्' तेभां કદી પણ આસક્તિ ના કરે. ॥ ૬॥ For Private And Personal Use Only -:सूत्रर्थ: એજ પ્રમાણે શબ્દાદિ રૂપ કામભોગાની ગવેષણા (શેાધ, તલાશ) કરવામાં નિપુણ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे (पह एज्ज) प्रजह्यात् एवं चिन्तये देव केवलं न तु त्यजति परन्तु 'कामी' कामीपुरुषः (कामे) कामानेव (न कामए) न काम येत्नाभिलषेत्, तथा (लद्र बावि) लब्धान् प्राप्तानपि कामभोगान् (अलद्धे) अलब्यान् (कण्हुइ) कुतश्चिदित्येवं चिन्तयेदिति ॥६॥ टीका‘एवं' एवम् अनेनैव प्रकारेण 'कामेसणं विऊ कामेपणायां विद्वान् कामान्वेषणे निपुणः पुरुषः । अत्र 'कामेसगा इत्यत्र सप्तभ्यर्थे द्वितीयाऽऽपत्वात् 'अज्जसुए' अद्यश्वः, अद्य परदिने वा, 'संथवं' संस्तवम् परिचयं कामभोग सम्बन्धम् ‘पहएज्ज' प्रजह्यात्- केवलंचिंतयत्येव न तु त्यजति, परन्तु कामी पुरुषः 'कामे ण कामए' कामान कामयेत् विषयादिकं नैव चिन्तयेत्, न वा तं स्वीकुर्यादेव 'लद्धे वावि लब्धानपि कामभोगान् 'अलवे काहुई कुतश्चिदलव्यानिव चिन्तयेत्, कामी पुरुषः काममहं त्यक्ष्यामि झटिति एवेति केवलं चिन्तयत्येव सोचता है कि कामभोगों को आज त्यागढुंगा कल त्यागढुंगा, किन्तु त्यागता नहीं है, वास्तवमें कामभोग की अभिलापा ही नहीं करनी चाहिए और प्राप्त हुए कामभोगो को अप्राप्त सरीखा कर देना चाहिए ॥६॥ -टीकार्थइसी प्रकार कामभोगों के अन्वेषण में चतुर पुरुप, आज या कल कामभोगों का परित्याग कर दूँगा, ऐसा सोचता है पर वह सोचत मात्रही है, त्याग करता नहीं है, परन्तु वास्तव में कामभोगों की इच्छा करना ही उचित नहीं है । जो कामभोग प्राप्त है उन्हे अप्राप्त सा कर देना चाहिए । अर्थात् छोड़ देना चाहिए। अभिप्राय यह है कि कामी पुरुप ऐसा सोचता रहता है कि मैं कामપુરુષ એ વિચાર કરે છે કે આજથી જ કામગીને ત્યાગ અથવા કાલથી ત્યાગ કરીશ” પરન્તુ તે કામગોને ત્યાગ કરી શકતું નથી. વિવેકવાન પુરુષે કામગોની ઈચ્છા જ ન કરવી જોઈએ કદાચ અનાયાસે કામની પ્રાપ્તિ થઈ જાય, તે પણ તે કામોને અપ્રાપ્ત જેવાં કરી દેવા જોઈએ. તેમાં આસક્ત થવું જોઈએ નહીં. ૬ એજ પ્રમાણે કામમાં આસકત પુરુષ એ વિચાર કરે છે કે “આજે કામગેને ત્યાગ કરીશ, કાલે ત્યાગ કરીશ,” પરન્તુ તે આ વિચારને અમલમાં મૂકી શકો નથી. ખરી રીતે તે કામની ઈચ્છા જ કરવી જોઈએ નહીં. એટલું જ નહીં પણ જે કામભેગો પ્રાપ્ત થતા હોય, તેમને અપ્રાપ્ત જેવાં જ કરી નાખવા જોઈએ. આ કથનને એવો ભાવાર્થ છે કે કયારેક માણસ કામગોને છેડવાને વિચાર કરે For Private And Personal Use Only Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. ३ साधूनां परिषहोपसर्ग सहनोपदेशः ६४५ न तु कदाचिदपि तं कामं त्यजति, इच्छामात्रं भवति त्यागविषयकम्, न तु त्यजति, तदुक्तम् "नोपभोक्तुं न च त्यक्तुं, शक्नोति विषयानरः। - अस्थि निर्देशनः श्वेव, जिह्वया लेहि केवलम्।।१।।" इति। तस्मात्कामविपयिणी कामनैव न कार्या । यदि कदाचित् भाग्यवशात् उपस्थिता अपि भवेयुः कामाः, तदा लब्धानपि तान् अलब्धानिति मत्वा तत्राऽऽसक्ति नैव कुर्यात् , निःस्पृहो भवेदिति भावः।।६॥ ___अनन्तरकथनेन कामभोगानांत्यागः प्रदर्शितः, किन्तु तेषां कामभोगानां कथं त्यागः कर्तव्यः, तेषां स्वीकारे को दोपः । नहि अनुकूलवस्तुनः त्यागः संभवति । न च कामादीनां दुःखानुपक्तत्वा खकारणत्वाच्च त्यागो विधेय इति भोगों का आज त्याग कर दूंगा, कल त्याग कर दूंगा, परन्तु वह त्याग करने में समर्थ नहीं होता । कहा भी है- "नोपभोक्तुं न च त्यक्तुं इत्यादि । जैसे दन्तहीन श्वान अस्थि को जीभ से चाटता मात्र है, उसी प्रकार दुर्वल मनुष्य न तो कामभोगों को भोग सकता है और न त्याग ही सकता है। परन्तु सर्वोत्तम यही है कि कामभोगों की कामना ही न की जाय । कदाचित् भाग्य से कामों की प्राप्ति अनायास हो जाय तो भी उन्हें अप्राप्त सरीखा कर देना चाहिए, अर्थात् उनमें आसक्त नहीं होना चाहिए ॥६॥ पूर्वोक्त कथन के द्वारा कामभोगों के त्याग की प्रेरणा की है, किन्तु उनका त्याग किस प्रकार करना चाहिए और उनका स्वीकार करने में दोष क्या है ? अनुकूल वस्तु का त्याग नहीं किया जा सकता । दुःखों से युक्त होने या दुःखों का कारण होने से उनका त्याग करना उचित है, ऐसा છે–અનેતે આજ છોડું, કાલ છેડીશ, એ વિચાર કર્યા કરે છે, પરંતુ તે કામગોને કદી ५५ त्या ४ शत नथी. सयुं पशु छ -"नापभोक्तुं न च त्यक्तुं" જેવી રીતે દાંતવિનાને કૂતરે અસ્થિને માત્ર જીભ વડે ચાટે જ છે, એજ પ્રમાણે દુર્બળ માણસ કામોને ભોગવી શકતા નથી અને તેમને ત્યાગ પણ કરી શકતો નથી” માટે સારામાં સારી વાત એ જ છે કે કામગની કામના જ કરવામાં ન આવે કદાચ સગવશ કામગોની અનાયાસે પ્રાપ્તિ થઈ જાય તે તેમને અપ્રાપ્ત જેવા કરી નાખવા જોઈએ, એટલે કે તે કામમાં આસક્ત થવું જોઈએ નહીં. ગાથા દા પૂત કથન દ્વારા કામગોના ત્યાગની પ્રેરણું આપવામાં આવી છે, પરન્તુ તેમને ત્યાગ કેવી રીતે કરે જોઈએ અને તેમને સ્વીકાર કરવાથી શી હાનિ થાય છે? અનુકૂળ વસ્તુને ત્યાગ કરતા નથી. કદાચ એવું કહેવામાં આવે કે દુઃખોથી યુક્ત હોવાને કારણે અથવા દુઃખનું કારણ હેવાને કારણે તેમને ત્યાગ કરવો જોઈએ, તે અહીં એવી For Private And Personal Use Only Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir દુદ્ सूत्रकृताङ्ग सूत्रे वाच्यम्' यदि एवं मतिस्तदा वच्मि-मोक्षस्य त्यागः कथं न विहितः, तस्यापि अनेकविधकष्टकार्यजन्यत्वात् । न हि दुःखसंयोगात् त्यागो युक्तः । किन्तु दुःखपरिहाराययत्नातिशयो विधेयः । नहि मृगाः सन्तीति शालयो नोप्यन्ते" इति न्यायात् इत्याशङ्कायां - कामादीनामसारत्वेन दुःखपरंपरा जनकत्वात् कामः त्यक्तव्य एवेत्युपदिशति सूत्रकारः - ' मा पच्छा असाहुया' इत्यादि । " मूलम् — २ ३ ४ ७ ६ मा पच्छा असाहुया भवे अच्चेहि अनुसास अपगं । ९ ८ १० ११ १३ १४ १२ अहियं च असाहु सोयह, से थाइ परिदेवइ बहू ॥७॥ छाया मा पादसाधुता भवेद् अत्येहि अनुशाधि आत्मानम् । अधिकं चासाधुः शोचते स स्तनति परिदेवते बहुः ॥७॥ कहा जाय तो मैं यह कहता हूँ कि मोक्ष का भी परित्याग करना चाहिए क्योंकि वह भी अनेक प्रकार के कष्टों से प्राप्त होता है । दुःखों का संयोग होने से उनका त्याग कर देना उचित नहीं है हाँ दुःखों से बचने का ही खूव प्रयत्न करना चाहिए । कहावत है - " न हि मृगाः सन्तीति शालयो नोप्यन्ते " इति न्यायात् हरिण है अतएव धान्य ही बोना बंद नहीं कर दिया जाता । इस आशंकापर अतएव सूत्रकार यह उपदेश करते हैं कि काम आदि निस्सार हैं और दुःखो की परम्परा को उत्पन्न करते हैं - " मा पच्छा असाहुया" इत्यादि પણ કરી શકાય કે મેક્ષના પણ પરિત્યાગ કરવા જોઇએ, કારણ કે અનેક પ્રકારના કષ્ટો સહન કર્યાં બાદ મેાક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે. દુ:ખોના સંયોગ ઉત્પન્ન કરનારા હેાવાથી તેમના ત્યાગ કરવા ઉચિત નથી, હા, દુ:ખાથી બચવા માટે ખૂબ પ્રયત્ન કરવા ોઇએ. કહ્યું પણ છે3- " नहि मृगाः सन्तीति शाल्यो नोपयन्ते "" હરણાં છે, માટે ધાન્યનુ વાવેતર જ બધ કરીદો, એવું કોઇ સ્વીકારતું નથી. ” એજ પ્રમાણે દુઃખના સંયોગ હાવાથી કામભોગોના પણ ત્યાગ કરવાનું કોઇ કહેતા તેને પણ સ્વીકારી શકાય નહીં. આ શંકાનું નિવારણ કરવાને માટે સૂત્રકાર કહે છે કે કામભોગા નિસારે છે અને દુઃખાની પરંપરાના vos d'-“ A1 933) zangu” deul For Private And Personal Use Only Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सार्थबोधिनी टीका प्र . साधूनां परिषहोपसर्ग सहनोपदेशः अन्वयार्थः ( पच्छा) पश्चात् (मा) मा ( असाहुया भवे) असाधुता कुगतिगमनादि रूपा भवेत्, अतः (अच्चेहि ) अत्येहि विषयसंगादात्मानं मोचयेत्यर्थः, (अप्पगं ) आत्मानम् (अणुसास) अनुशाधि = आत्मनः शासनं कुरु ( असाहु ) असाधु : = हिंसा - दिकारी पुरुष : ( अहियं च ) अधिकं च (सोयइ) शोचति (से) सः (थणइ) स्तनति= सशब्दं निःश्वसिति तथा ( बहू परिदेवर) बहु परिदेवते (बहु) अत्यधिकं परिदेव विलपति ||७|| - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ૬૭ टीका 'पच्छा' पश्चात् 'मा असाहुया भवे' असाधुता मा भवेत् दुर्गतौ गमनं न भवतु इति विचार्य, 'अच्चेहि अप्पगं' अत्येहि विषयसेवनतः शब्दार्थ- 'पच्छा-पश्चात् ' पीछे 'मामा' नहीं असाहुया भवे - असाधुता भवेत् दुर्गतिगमन हो इसलिये 'अच्चेहि - अप्पमं' ' अत्येहि - आत्मानम्' विषयसेवन से अपने आत्माको अलग करो 'अणुशास- अणुशाधि ' शिक्षा दो 'असाहु - असाधुः' हिंसादि करने वाला असाधु पुरुष 'अहियं च - अधिकं च' अधिक रूप से 'सोय - शोचति' शोक करता है 'से सः' वह 'थणइ स्तनति' अधिक चिल्लाता है तथा 'बहू परिदेव - बहु परिदेवते' अधिक रूप से विलाप करता है ||७|| - अन्वयार्थ - - बाद में कुगति गमन आदि रूप असाधुता न हो अतः अपनी आत्मा को विषयों से पृथक कर लो, आत्मा पर शासन करो असाधु पुरुष को संयम रहित पुरुष को शोक करना पड़ता है ऊची वासे लेनी पड़ती है और अत्यन्त विलाप करना पड़ता है ॥७॥ — टीकार्थ पश्चात् असाधुता न हो अर्थात् दुर्गति में गमन न करना पडे, ऐसा शब्दार्थ - 'पच्छा-पश्चात् पाछ 'मा-मा' नन 'असाहुया भवे- असाधुता भवेत्' दुर्गति गमन थाय भेटूसा भोटे 'अच्चेहि - अत्यहि' अप्पम आत्मानम्' विषय सेवनथी आत्मानेा मने पोताना आत्माने 'अणुशास- अणुशाधि शिक्षा आयो 'असाहु - असाधुः' डिसा वगेरे खावाणा साधुष 'अहिय च अधिक च' अधि ३पथी सोय - शोचति' शो ४२ छे 'से सः' ते 'थाइ स्तर्नात' वधारे मुभो पाउ छे तथा बहु परिदेव बहु परिदेवते' पधारे उपथी विसाय रे छे. ॥ ७ ॥ For Private And Personal Use Only -:सूत्रार्थः- પાછળથી આ ભવનું આયુષ્ય પૂરૂ કરીને) દુ'તિગમન આદિ અસાધુતાની પ્રાપ્તિ ન થાય, તે ભાવનાથી આત્માને વિષયેામાંથી અલગ કરી દો. આત્મા પર શાસન કરે આ સાધુ પુરુષને (સંયમ રહિત પુરુષને ) શેક કરવા પડે છે, નિસાસા નાખવા પડે છે અને અત્યન્ત વિલાપ કરવા પડે છે. છા :- टीअर्थ : મનુષ્યભવ સબધી આયુષ્ય પૂરૂ કરીને અસાધુતા પ્રાપ્ત ન થાય—દુંતિમાં જવું ન Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६४८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे 1 आत्मानं पृथक्कुरु । ' अणुसास' अनुशाधि आत्मानमिति शेषः । विषयसेवनेन आत्मा अधोगतिं यातीति अतो विषय सेवनं न कर्त्तव्यमित्येवमात्मान मुपदिश, हे भव्य ! 'असाहु' असाधुः पुरुषः सदसद्विवेकरहितः 'अहियं च ' अधिकम् 'सोयइ' शोचति = परमधार्मिकः नरकादौ पीड्यमानो दुःखमनुभवति 'से थण' स स्तनति= तिर्यक्षु वा क्षुधादिवेदनाग्रस्तोऽत्यर्थ स्तनति सशब्दं निःश्व सिति, तथा 'बहु परिदेव' वहु परिदेवते= क्रन्दति 'हा मातम्रियते इत्यादि विलपति मरणानन्तरं दुर्गती पातो नैव भवेदिति विषयसेवनात् स्वात्मानं पृथक् कुर्यात् तथा स्वात्मानं शिक्षयेत यतः क्षणमात्रसुखजनकवहुकालदुःखजनक मोक्ष विपक्षभूतकामभोगानासेवमानाः बहुशोकं कुर्वन्ति, अनेकशो - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विचार कर अनुशासन करो अर्थात् ऐसा उपदेश करो कि विषयसेवन से आत्मा अधोगति को प्राप्त होता है, अतएव विषयों का सेवन करना उचित नहीं है हे भव्य ! जो पुरुष असाधु है अर्थात् सत् असत् के विवेक से रहित है, वह नरक आदि गतियों में परमाधार्मिकों द्वारा पीडित होकर दुःख का अनुभव करता है । तिर्यच गति में उत्पन्न होकर भूख आदि की वेदनाओं से ग्रस्त होकर अत्यन्त दुःखित होता है तथा 'हाय माता, मरा' इत्यादि रूप से आक्रन्दन करता है | तात्पर्य यह है कि आत्मा को दुर्गति में गिरने से बचाने के लिए विषयसेवन से पृथक् करना चाहिये और उसे सीख देनी चाहिये, क्योंकि क्षण भर सुख देने वाले और चीरकाल तक दुःख देनेवाले तथा मोक्ष के પડે, એવા વિચાર કરીને અનુશાસન કરો. એટલે કે આત્મા પર શાસન કરે.. એવે ઉપદેશ આપે। કે વિષયાનુ સેવન કરવાથી આત્માને અધતિમાં જવું પડે છે, તેથી વિષયે1નુ સેવન કરવું તે ઉચિત નથી. હું ભવ્ય ! જે પુરુષ અસાધુ છે. એટલે કે સત્ અસના વિવેકથી રહિત છે. તે નરકાદિ ગતિમાં પરધામ કા દ્વારા ખૂબ જ પીડિત થઇને અત્યન્ત દુઃખના અનુભવ કરે છે, કદાચ તિર્યંચ ગતિમાં પશુ આદિ રૂપે તેની ઉત્પત્તિ થાય, તે તેને ભુખ, તરસ આદિ વેદનાએ સહન કરવી પડે છે. આ આપરે ! મરી ગયા” ઇત્યાદિ રૂપેઆક્રંદ કરવા છતાં પણ તે દુઃખમાંથી તે છુટકારા મેળવી શકતા નથી. આ કથનનો ભાવાર્થ એ છે કે આત્માને દ્રુતિમાં પડતા અટકાવવા હોય, તે તેને તેને વિષય સેવનથી પૃથક્ કરવા જોઇએ, અને તેના પર અંકુશ રાખવા જોઇએ. તેને એવી શિખામણ દેવી જોઇએ કે ક્ષણ ભર સુખદેનારા અને દીર્ઘ કાળ સુધી દુઃખ દેનારા તથા મોક્ષના વિરોધી કામભોગનું સેવન કરનારા જીવાને નરકાદિ દુર્ગતિમાં ઉત્પન્ન થઇને ખૂબ જ શાક સહન કરવા પડે છે; અનેક વાર આક્રંદ કરવુ પડે છે. પરમાધાર્મિ ક દેવા દ્વારા For Private And Personal Use Only Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बोधिनी टीका प्र.शु. अ. २ उ. ३ साधूनां परषहोपसर्ग सहनोपदेशः ६४९ रुदन्ति, नरकनिगोदादौ अनन्तकालं परिभ्रमति च, अतो विषयसेवनं न कर्त्तव्यम् । विषयसेवनेनैव विषयिणां जीवानां जन्ममरणादयो भवन्तीत्यादि - रूपेण आत्मनोऽनुशासनं विधेयमिति भावः ||७|| पुनरपि समुपदिशति - 'इह' इत्यादि । मूलम् - १ ૨ ३ ५ ४ ६ इह जीवियमेव पासहा तरुण वाससयरस तुझ्इ । の Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० ९ ११ १२ इत्तरवासे य बुज्झह गिद्ध नरा कामेसु मुच्छिया ||८|| छाया - इह जीवितमेव पश्यत तरुण के वर्षशतस्य त्रुटति । इत्वरवासं च बुध्यध्वं वृद्धनरा कामेषु मूर्च्छिताः ||८|| विरोधी कामभोगों का सेवन करने वाले जीवों को बहुत शोक करना पडता है, अनेको बार रुदन करना पडता है और अनन्त काल तक नरकनिगोद आदि में परिभ्रमण करना पडता है । अतएव विषयों का सेवन नहीं करना चाहिये । विषयसेवन से ही जीवों को जन्म मरण करना पडता है । इस प्रकार आत्मा का अनुशासन करना चाहिये ||७॥ पुनः उपदेश करते हैं "इ" इत्यादि । शब्दार्थ - 'इह - इह इस लोक में 'जीवियमेव - जीवितमेव' जीवन को ही 'पाहा - पश्यत' देखो 'वाससयस्स - वर्षशतस्य' सौ वर्षकी आयुवाले पुरुषका भी जीवन ' तरुण-तरुणे युवावस्था में ही 'तुट्ट त्रुटयति' नष्ट हो जाता है यह जीवन को 'इत्तरवासे य- इत्वरवासं च' थोडे दिनके निवास तुल्य 'बुज्झह - बुध्यध्वम्' समजो 'नरा नराः' क्षुद्र मनुष्य 'कामेसु कामेषु' शब्दादि તેમને નરકાવાસામાં અસહ્ય ત્રાસ આપવામાં આવે છે, એવા જીવાને અનંત કાળ સુધી નરક નિગેદ આદિ દુતિમાં ભ્રમણ કરવું પડે છે. તેથી વિષયાનુ સેવન કરવુ જોઇએ નહીં. વિષયાનુ સેવન કરવાથી જ જીવાને જન્મ મરણુ કરવા પડે છે. આ પ્રકારે આત્માનુ અનુશાસન કરવુ જોઇએ. ૫ ગાથા છ " इत्यादि આગળ ઉપદેશ આપતા સૂત્રકાર કહે છે કે इह शब्दार्थ' - 'इह - इह' या सोउभा 'जीवियमेव- जीवितमेव' लवनने ४ 'पासहापश्यत' पो 'वायस्स-वर्षशतस्य' सो वर्षनी आयुष्यवाणा पु३षनु पशु भवन 'तरुण तरुणे' युवान अवस्थामा 'तुट्ट त्रुटयति' नए था लय सा वने 'इत्तवासे - इवास' व' थोडा दिवसना निवास तुल्य 'बुज्झह बुध्यध्वम् सु. ८२ ---- For Private And Personal Use Only Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृतानो अन्वयार्थ:(इह) इहास्मिन् लोके (जीवियमेव) जीवितमेव (पासहा) पश्यत (वाससयस्स) वर्षशतस्य = वर्षशतायुषोऽपि (तरुणए ) तरुणे= युवावस्थायामेव (तुट्टई) त्रुटयति = विनश्यति, इदं जीवनं (इत्तरवासे य) इत्वरवास= स्तोकनिवासकल्पम् (बुज्झह) बुध्यध्वं (नरा) नराः लघुप्रकृतयः पुरुषाः (कामेसु) कामेषु =शब्दादिषु (गिद्धा) गृद्धिभावं प्राप्ताः (मुच्छिया) मुछितास्तत्रैवासक्तमनसः नरकादियातनामाप्नुवन्तीति ॥८॥ टीका'इह' इहलोके 'जीवियमेव' जीवितं जीवनमेव 'पासह' पश्यत, यत् 'वाससयस्स' वर्षशतस्य = वर्षशतस्यापि शतवर्षायुष्कस्यापि पुरुषस्य जीवनम् 'तरुणए' कामभोगो में 'गिद्धा-गृद्धाः' गृद्धिभाव युक्त होकर 'मुच्छिया-मूच्छिताः' उसमें ही आसक्तियुक्त होकर नरकादि यातना का अनुभव करते हैं ॥८॥ - अन्वयार्थ - इस लोक में जीवन को ही देखो। सौ वर्ष तक जीने वाला पुरुष का जीवन भी तरुणावस्था में ही नष्ट हो जाता है। अतः इस जीवन को अल्पकालीन निवास के समान ही समझो। फिर भी साधारण जन कामभोगों में गृद्ध होकर और उनमें मूर्छित होकर नरक आदि की यातना प्राप्त करते हैं।८। टीकार्थ-- इस लोक में जीवन को देखो सौ वर्ष वाले का जीवन भी युवावस्था में ही नष्ट हो जाता है । अतएव इस जीवन को थोडे ही दिनों का निवास समनन 'नरा-नराः' क्षुद्र मनुष्य कामेसु कामेषु' श६ वगैरे आमनागमा 'गिद्धागृद्धाः' शृद्धिमार युक्त ने 'मुच्छिया-मूच्छिताः' तेमा मास्तियुत बनेन વગેરે યાતનાને અનુભવ કરે છે. ૮ - सूत्राथઆ લેકમાં મનુષ્યના જીવનને જ વિચાર કરો. ભલે મનુષ્યનું જીવન ૧૦૦ વર્ષનું કહેવામાં આવ્યું છે, પરન્તુ કઈ કઈ વાર તરુણાવસ્થામાં પણ તે જીવનને અન્ત આવી જાય છે તેથી આ જીવનને અપકાલીન નિવાસના સમાન જ માને. આ પ્રકારની પરિ. સ્થિતિ હોવા છતાં પણ સત અને વિવેક વિનાને મનુષ્ય કામગીરીમાં વૃદ્ધ અને મૂર્શિત થઈને નરકાદિની યાતનાઓ પ્રાપ્ત કરે છે. તે -टी :મનુષ્યનું જીવન તે જુઓ ! કેટલું બધું અલ્પકાલીન છે ! ભલે તેને ૧૦૦ વર્ષનું માનવામાં આવતું હોય, છતાં યુવાવસ્થામાં પણ તે પૂરું For Private And Personal Use Only Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir , innrr बोधिनी टीका प्र.अ. २ उ ३ साधूनां परिषहोपसर्ग सहनोपदेशः १५१ तरुणे युवावस्थायामेव 'तुट्ट' त्रुटयति नश्यति आवीचिमरणेन प्रतिक्षणं विशरा रुस्वभावत्वात् 'इचरवासे य बुज्झह' इत्वरवासं च बुध्यध्वम् अल्पदिननिवासमिव जानीथ सागरोपमापेक्षया कतिपयनिमेषमात्रत्वात् 'गिद्धनरा' - वृद्धनराः - नरालघुप्रकृतयः गृद्धाः - वृद्धिभावं प्राप्ताः क्षुद्रमनुजाः, 'कामेसु' कामभोगादौ 'मुच्छिया' मूच्छिताः - नरकादिगतिं गच्छन्ति, अस्मिन् संसारेऽन्यवस्तूनां जीवनोपकरणानां तु का कथा समस्तसुखसाधनं जीवनमेव अनित्यतयाऽऽघातं पश्यत | इदं जीवनमावीचिमरणेन प्रतिक्षणं क्षीयते । अथवा--अध्यवसाननिमित्तस्वरूपोपक्रमकारणेन कश्चित् शतायुरपि युवावस्थायामेव म्रियते । यद्वा ततोऽपि न्यूने वयसि मरगमाप्नोति । अथवा - अस्मिन् मनुष्यलोके सर्वतोऽधिकं शतवर्षमायुः तदपि वर्षशतान्ते नश्यति । इदमप्यायुः सागरोपमकालाऽपेक्षयाऽतिन्यूनमेव, अतोऽल्प समयवास तुल्यमेव तदायुः | आयुषः समझो | परन्तु तुच्छ प्रकृति के लोग कामभोगो में आसक्त और मूर्च्छित होकर नरक आदि कुगतियों को प्राप्त होते हैं । आशय यह है कि इस संसार में जीवनोपयोगी बात ही क्या समस्त सुखों के साधन इस जीवन के करो । यह जीवन अनित्यता द्वारा आघात है। आयुकर्म के दलिकों का निर्जीण होने रूप आवीचिमरण से इसका विनाश हो रहा है | arata अध्यवसाय एवं शस्त्रादिनिमित्त रूप उपक्रमों द्वारा सौ वर्ष तक जीने वाला पुरुष भी तुरुग अवस्था में ही मरण शरण हो जाता है । या इस मनुष्यलोक में सौ वर्ष की आयु सबसे अधिक गिनी जाती है । वह भी सौ वर्ष के अन्त में समाप्त हो जाती है । यह आयु भी arre काल की अपेक्षा अत्यन्त न्यून है | अतएव इतनी आयु भी अल्पથઇ જતુ હેય છે. તેથી આ જીવનને ઘેડા દિવસના નિવાસ રૂપ સમજો. આ વાતને પણ ઘડુણ નહી કરનારા તુચ્છ પ્રકૃતિવાળા લેાક કામમેગે!માં આસક્ત અને મૂર્છિત થઇને નરકાદિ દુર્ગાતિમાં ઉત્પન્ન થઇને અસહ્ય યાતનાઓ ભોગવે છે. તાપ એ કે-આ સંસારમાં જીવનપયોગી અન્ય વસ્તુ વિષે ભલે વિચાર ન કરે, પરન્તુ સમસ્ત સુખના સાધન રૂપ આ જીવનને! તે! જરા વિદ્યાર કરે ! આ મનુષ્યજીવન અનિત્ય છે, ક્ષણે ક્ષણે આયુકના દિલકોના નિભું થવા રૂપ આવીચિમરણની અપેક્ષાએ તે તેના વિનાશ થઈ રહ્યો છે. અથવા મનુષ્યનું આયુષ્ય ૧૦૦ વર્ષનુ ભલે ગણાતું હાય, પણ તીવ્ર અધ્યવસાય અને શસ્ત્રાદિ નિમિત્ત રૂપ ઉપક્રમેા દ્વારા માણસ યુવાવસ્થામાં પણ મરણને શરણ થાય છે. કદાચ કોઈ માણસ પૂરા ૧૦૦ વર્ષ સુધી જીવે, તે પણ એટલે કાળ સાગરોપમ કાળની અપેક્ષાએ અત્યન્ત ન્યૂન છે. તેથી આટલા આયુષ્યને For Private And Personal Use Only अन्य वस्तुओं की तो सम्बन्ध में ही विचार अनित्य है क्षण क्षण में Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५२ सूत्रकृताङ्गसूत्रे एतादृशीमवस्थां संपश्यन्तोऽपि क्षुद्रमनुजा विषयभोगेषु आसक्ता भूत्वा नरकादियातनास्थानं लभन्ते इति भावः ॥८॥ म्लम् जे इह आरंभनिस्सिया आत्तदंडा एगंतलूसगा। गंता ते पावलोगयं चिररायं आसुरियं दिसं॥९॥ छाया य इह आरंभनिश्रिता आत्मदण्डा एकान्तलूपकाः । गन्तारस्ते पापलोककं चिररात्रमासुरिकां दिशम् ॥९॥ कालीन निवास जैसी ही है । आयु की ऐसी दशा देखते हुए भी जो जीव क्षुद्र हैं वेही विषयभोगों में आसक्त होकर नरक आदि यातना स्थानों को प्राप्त करते हैं ॥८॥ . शब्दार्थ-यह-इह इस लोकमें 'जे-ये जो मनुष्य 'आरंभनिस्सिया-आरम्भनिश्रिताः' हिंसादि सावध अनुष्ठानों में आसक्त हैं 'आत्तदंडा-आत्मदण्डा' आत्माको दंड देनेवाले 'एगंतलूसगा-एकान्तलूपकाः, और एकान्तरूपसे प्राणि यों के घातक हैं 'ते-ते' वे पुरुष 'पावलोयं-पापलोकम्' पापलोक अर्थात् नरकमें 'चिररायं-चिररात्रम्' बहुतकाल पर्यन्त 'गंता-गन्तारः' जाने वाले होते हैं और 'आमुरियं दिसं-आसुरी दिशम्' आसुरी दिशामें जाते हैं अर्थात् देवाधम होते हैं ॥९॥ (જીવનને અલ્પકાલીન નિવાસ સમાન સમજીને માણસે સંયમમાં પ્રવૃત્ત થવું જોઈએ અને ચિન્તામણિ જેવા મનુષ્ય જીવનને સાર્થક કરવું જોઈએ. પરંતુ આયુની આવી દશા દેખવા છતાં પણ શુદ્ર જી વિષયોમાં આસક્ત થઈને આ મહામૂલા માનવ જીવનને વ્યર્થ ગુમાવી બેસીને નરકાદિ યાતના સ્થાનમાં ઉત્પન્ન થઈને અસહ્ય દુઃખોનું વેદન કરે છે. મેં ગાથા ૮ છે शहाथ-'इह-इह' २ सभा 'जे-ये हे मनुष्य 'आर भनिस्सिया-आरम्भनिश्रिता' हिसा वगेरे सावध मनुहानामा मासत छ 'आत्तदंडा-आत्मदण्डाः' मामाने हावामा 'एग तलूसगा एकान्तषकाः' मने आन्त३५थी प्राणिमाना पात: छ 'ते-से' ते ५३५ ‘पावलोय-पापलोकम्' पापस अर्थात् नभा 'चिरराय-चिररात्रम् घ। समय पर्यत 'गता-गन्तारः' वाचा डाय छ 'आसुरिय दिस-आसुरी दिशम्' અથવા આસુરી દિશામાં જાય છે અર્થાત દેવાધમ થાય છે. તે લ છે For Private And Personal Use Only Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समय बोधिनी टीका प्र. थु. अ. २ उ. ३ साधूनां परिषहोपसर्ग सहनोपदेशः ६५३ अन्वयार्थ (इ) इहलोके (जे) ये मनुष्याः ( आरंभनिस्सिया ) आरंभनिश्रिताः, आरंभ पटकायमर्दनलक्षणे तत्पराः, ( आत्तदंडा) आत्मदण्डाः - आत्मानं दण्डयितारः (एगंतलूसगा)एकान्तलूषकाः= एकान्ततः प्राणिनां घातकाः (ते) ते पुरुषा : ( पावलोयं ) पापलोकं -- नरकम् ( चिररायं ) चिररात्रं - बहुकालपर्यन्तम् (गंता ) गन्तारो भवन्ति तथा बालतपश्चरणादिना कदाचिद् देवो भवेत्तथापि (आमुरियं दिसं) आसुरीं दिशं यांति देवाधमा भवन्तीति ||९|| टीका 'इव जे' इह ये मनुष्याः 'आरंभनिस्सिया' आरंभनिश्रिताः = हिंसादिसावधानुष्ठाने रताः, 'अत्तदंडा' आत्मदण्डाः आत्मनो दण्डदातारः स्वपरात्मघातकाः, 'एगंतलूसगा' एकान्तपकाः एकान्ततः प्राणिनां हिंसकाः 'ते' ते पुरुषाः 'पावलोगयं' पापलोकंनरकादिलोकं 'गंता' गन्तारो भवंति 'चिररायं चिररात्रं चिरकालमितियावत् 'आमुरिय -- अन्वयार्थ इस लोक में जो पट्का के उपमर्दनरूप आरंभ में तत्पर हैं, अपनी आत्मा को दंडित करने वाले हैं और प्राणियों के घातक हैं, वे चिरकाल के लिए पापलोकगामी हैं । कदाचित् वे बालतप आदि करके देव हो जाएँ तो भी आसुरी दिशा को प्राप्त होते हैं अर्थात् अभ्रमदेव होते हैं ||९|| टीकार्थ जो मनुष्य हिंसा आदि सावध अनुष्ठानों में रत हैं, आत्मा को दण्डित करने वाले हैं अर्थात् स्त्र पर के घातक हैं, एकान्त हिंसक हैं, वे पापलोक अर्थात् नरक आदि में जाने वाले हैं और वहाँ चिरकाल तक निवास करते हैं, सूत्रार्थ .. આ લાકમાં જેઓ છકાયના જીવોની હિંસા રૂપ આર ંભમાં તપર છે, તેઓ પોતાના આત્માને દંડિત કરનારા છે. અને એકાંતથી પ્રાણિઓના ઘાતક છે, તે દીધ કાળને માટે પાપલેાકમાં (નરકાઢિમાં) ગમન કરે છે. કદાચ પાલતપ આદિ કરીને તે દેવલાકમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય, તે પણ અધમ દેવ રૂપે જ ઉત્પન્ન થાય છે. ૫૯ ! - टीअर्थ - જે મનુષ્ય હિંસા આદિ સાવદ્ય અનુષ્ઠાનામાં જ નિરત (પ્રવૃત્ત) રહે છે, આત્માને ઈંડિત કરનારા એટલે કે સ્વપરના ઘાતક છે, એકાન્ત રૂપે હિંસક છે, તેએ પાલેાકમાં (નરકાદિ દુર્ગતિમાં) જ જનારા છે. તે ત્યાં દીર્ઘકાળ સુધી નિવાસ કરે છે. કદાચ For Private And Personal Use Only Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६५४ सूत्रकृताङ्गसूत्र दिसं' आसुरी दिशं गच्छन्ति परप्रेष्याः किल्विपिका देवाऽधमा भवन्ति महामोहप्रभावात् । येषां चित्तमाकुलितं ते इत्थंभूताः पुरुषाः मनुष्यलोके सावद्यकर्मानुष्ठानं कृत्वा आसक्तिपूर्वकम् नरकाद्यधोगति प्राप्नुवन्ति, तथा ये आत्मानमपि दण्डयन्ति, एवमेकान्तरूपेण प्राणिनं हिंसन्ति, अथवा-सत्कर्मणो विनाशका मनुष्याः पापिनां लोकं नरकादिकम् आ वन्ति । तथा-तादृशस्थाने चिरकालं निवसन्ति यदि कदाचित् वालतपसः प्रभावात् देवा अपि भवेयुः तदापि असुरदिशामेवाऽऽमुवन्ति, देवस्थानेऽपि दासभूता अधमदेवा एव भवन्ति, न तूत्कृष्टा देवा भवन्तीति भावः।।९।। छाया ण य संखयमाजीवितं तहवि य वालजणो य पगभई। पच्चुप्पन्नेणा कारियं को दटुं परलोयमागते ॥१०॥ न च संस्कार्य माहुजीवितं तथापि च बालजनश्च प्रगल्भते । प्रत्युत्पन्नेन कार्य को दृष्ट्वा परलोकम् आगतः ॥१०॥ अथवा महामोह के प्रभाव से दूसरों के आज्ञाकारी किल्बिपक आदि देव होते हैं। जिनका चित्त आकुलित हैं, ऐसे पुरुष मनुष्यलोक में आसक्तिपूर्वक सावद्य क्रियाएँ करके नरकादि अधोगति को प्राप्त करते हैं। तथा जो आत्मा को भी दण्डित करते हैं। इस प्रकार एकान्तरूप से प्राणी की हिंसा करते हैं । अथवा सत्कर्मका विनाश करने वाले मनुष्य पापियों के लोक को प्राप्त करते हैं और उस लोक में चिरकाल पर्यन्त निवास करते हैं। कदाचित् बालतपस्या के प्रभाव से वे देवगति प्राप्त कर लें तो भी अधम देव ही होते हैं, अर्थात् देवों के दास होकर रहते है, उत्कृष्ट देव नहीं ॥९॥ બાલતપના પ્રભાવથી તેમને દેવગતિની પ્રાપ્તિ થાય છે, તે તેઓ બીજા દેના આજ્ઞાકારી કિબિષક આદિ અધમ દેવે રૂપે જ ઉત્પન્ન થાય છે. જેમનું ચિત્ત આકુલિત હોય છે. એવાં પુરુષે મનુષ્યમાં આસક્તિપૂર્વક સાવદ્ય ક્રિયાઓ કરીને નરકાદિ અધેગતિમાં ગમન કરે છે. તથા જેઓ આત્માને પણ દંડિત કરે છે અથવા એકાન્ત રૂપે પ્રાણીઓની હિંસા કરે છે, એવા સત્કર્મને વિનાશ કરનારા (દુકૃત્ય કરનારા) મનુષ્ય નરકાદિ પાપલેકમાં ઉત્પન્ન થઈને દીર્ઘ કાળ પર્યત ત્યાં યાતનાઓ સહન કર્યા કરે છે કદાચ બાલતપસ્યાના પ્રભાવથી તેમને દેવગતિની પ્રાપ્તિ થાય, તો પણ તેઓ અધમ દેવ રૂપે જ-દેના દાસ રૂપે જ ઉત્પન્ન થાય છે, ઉકૃષ્ટ દેવ રૂપે ઉત્પન્ન થતા નથી ગાથા છે For Private And Personal Use Only Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टोका प्र. शु अ. २. उ. ३ साधूनां परिषहोपसर्ग सहनोपदेशः ६५५ अन्वयार्थः_ 'जीवियं' जीवितम् ‘संखयं' संस्कार्यम् (ण य आहु) न चाहुः=न कथयन्ति त्रुटितसूत्रवत्संधातुं न शक्यते जीवतमित्यर्थः,(तह वि य)तथापि च(बालजणो)बाल जनोऽज्ञानी (पगभइ) प्रगल्भते-पापकर्मणि धृष्टो भवति, स चाज्ञ एवं वक्ति'पच्चुप्पन्नेन कारियं' प्रत्युत्पन्नेन कार्यम्-वर्तमानकालवर्तिना मुखेनैव कार्यम् प्रयोजनम् (परलोय) परलोकं नरकादिकं स्वर्गादिकं वा (दटुं) दृष्ट्वा (को)कः (आगए) आगतः इति ॥१०॥ शब्दार्थ-'जीवियं-जीवितम्' जीवनको संखयं-संस्कारयम् संस्कार करने योग्य ‘ण य आहु-नचाहुः सर्वज्ञों ने नहीं कहा हैं अर्थात् त्रुटित सूत्र के जैसे सांधने योग्य नहीं है 'तह वि य-तथापि च' तोभी 'बालजणो-बालजनः अज्ञानी पुरुष 'पगभइ-प्रगल्भते' पाप कर्म करने में धृष्टता करते हैं वे ऐसा कहते हैं कि 'पच्चुपन्नेन कारियं-प्रत्युत्पन्नेन कार्यम्' वर्तमान सुख का ही मुझे प्रयोजन है 'परलोयं-परलोकम्' नरकादिक स्वर्गादिक परलोकको 'दट्टुं दृष्ट्वा' देख कर 'को-कः' कौन 'आगए-आगतः' आया है ॥१०॥ -अन्वयार्थजीवन संस्कार्य नहीं है अर्थात् टूटे हुए धागे के समान पुनः जोडा नहीं जा सकता ऐसा तीर्थकर भगवान् कहते हैं फिर भी अज्ञानी जन पापकर्म करने में धष्टता करते हैं । वे कहते हमें तो वर्तमानकालीन सुख से ही प्रयोजन है, स्वर्ग नरक आदि परलोक कौन देख कर आया है ? ॥१०॥ शहा- 'जीविय-जीवितम्' पनने 'सखय-संस्कार्यम्' २४.२ ४२वा योग्य 'ण य आहु-न चाहु.' सर्पज्ञान्ये डस नथी अर्थात् त्रुटित सूतरनी रेभ साधना योग्य नथी तहवि य-तथापि च तो ५ 'बालजणो-बालजनः' मसानो ५३५ 'पगभइ-प्रगसमते' पा५ ४ ४२पामा वृष्टता ४२ छ, तेसो छ । 'पच्चुपन्नेन कारियप्रत्युत्पन्नेन कार्यम्' वतमान सुगनु । भने प्रयोन छे. 'परलोय-परलोकम् । वगेरे वर्ग वगेरे परयो ने 'दंळु-दृष्ट्रवा' ने 'को-कः' । 'आगए-आगतः' भाव्यु छ. ॥१०॥ सूत्राथः (माथा १०) જીવન સંસ્કાર્ય નથી એટલે કે તૂટેલા દેરાની જેમ ફરી સાંધી શકાય એવું નથી, છતાં પણ અજ્ઞાની પુરુષ પાપકર્મ કરતાં લજજા કે સંકેચ અનુભવતા નથી. તેઓ એવું કહે છે કે અમારે તે વર્તમાનકાલીન સુખનું જ પ્રયોજન છે, સ્વર્ગ, નરક આદિ પરલેક કેણુ જેઈને આવ્યું છે, કે ૧૦ છે For Private And Personal Use Only Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६५६ www.kobatirth.org सूत्रकृताङ्गसूत्रे टीका 'जीवितं ' जीवनम् 'संखयं संस्कार्यम्, संस्कारकरणयोग्यम् 'णय आहु' न चाहुः=न च सर्वज्ञेन कथितम् । 'तहवि य' तथापि च 'वालजणो' वालजनो मूख बाल व अविवेकी 'पगभई, प्रगल्भते पापकर्मणि धृष्टो भवति । स एवं कथयति । पच्चु पन्ने कारियं प्रत्युत्पन्नेन कार्यम् तात्कालिकमुखेनैवाऽस्माकं प्रयोजनं विद्यते 'परलोय' परलोकम् 'दटुं दृष्ट्वा 'को आगए ' क आगतः, कोपीति भावः, यदि कश्चित् परलोकं दृष्ट्वा आगतो भवेत्, तदा परलोकं श्रद्धां कृत्वा तदर्थेमैहिकसुखं परित्यज्य दुःखबहुले कर्मणि प्रवृत्तिः चारुतरा स्यात्, न त्वेवम् तस्मात् वैषयिकसुखायैव प्रवृत्तिः करणीयेति वदन्त्येवमज्ञानिनः । भावार्थत्वम्- सर्वज्ञेन कथितं यत् त्रुटितं जीवितं संधातुं न कोऽपि समर्थः । तथाहि न Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - टीकार्थ 1 यह जीवन संस्कार करने योग्य नहीं है अर्थात् टूटे हुए आयुष्य को पुनः जोड नहीं सकते ऐसा सर्वज्ञ कहते है तथापि अविवेकी जन पापकर्म के सेवन में ढिठाइ करते हैं। उनका कथन है- हमें तो वर्तमान से तात्पर्य है अर्थात् वर्त्तमान कालीन सुख से ही प्रयोजन है । कौन परलोक देखकर आया हैं ? कोइ परलोक देखकर आया होता तो परलोक पर श्रद्धा करके उसके लिए इहलोक संबंधी सुख का परित्याग करके दुःखों की बहुलता वाले कर्म में प्रवृत्ति करना अच्छा रहता है । परन्तु ऐसा तो है नहीं, अतएव वैषयिक सुख के लिए ही प्रवृत्ति करना चाहिये । यह अज्ञानी जीवों का कथन है । भावार्थ यह है - सर्वज्ञ ने कहा है कि टूटी हुई आयु फिर नहीं सांधी जा सकती । कहा भी है - "दंडकलियं करिता" इत्यादि । रात ટીકા કદાચ તૂટેલા દેરાને સાંધી શકાય છે, પણ તૂટેલા જીવનને સાંધી શકવાને કોઈ સમ નથી, એવું સČજ્ઞ ભગવાનનું કથન છે. છતાં પણ અવિવેકી મનુષ્ય પાપકમ સેવવાની ધૃષ્ટતા કરે છે. તેએ એવુ કહે છે કે “ અમારે તે વર્તીમાનકાળના સુખ સાથે જ નિસ્બત છે, પરલેાક જોઇને કોણ આવ્યું છે? કોઇ પરલોક જોઇને આવ્યું હેત તા પરલેાકની વાત પર શ્રદ્ધા મૂકીને તેને માટે આ લાકના સુખના પરિત્યાગ કરીને દુઃખાની બહુલતાવાળાં કાંમાં (તપસ્યા આદિમાં) વૃત્ત થવાનું ઉચિત ગણાત પરન્તુ એવું તા છે નહીં, તેથી વૈષિયક સુખને માટે જ પ્રવૃત્તિ કરવી જોઇએ”. આ પ્રકારનું કથન અજ્ઞાની મનુષ્યા કરે છે. આ ગાથાના ભાવાર્થ એ છે કે સર્વજ્ઞ તીર્થંકરાએ કહ્યું છે કે તૂટેલા આયુप्यने सांधी शतु नथी. उपायु छेउ - "द डकलिय करिता बच्चति हुँ” त्यिादि For Private And Personal Use Only Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ वोधिनी टोका प्र. . अ. २ उ. ३ साधूनां परिषहोपलर्गसहनोपदेशः ६५७ "दंडकलियं करित्ता वच्चंति हु राइयो य दिवसा य । आउसंवेल्लंता गता पुण पुणो निवत्तंति" ॥१॥ इति।। "आयुष्यक्षण एकोऽपि स्वर्णकोटिशतैरपि । तच्वेनिरर्थकं नीतं का नु हानिस्ततोऽधिका ॥१॥" “यदतीतं पुन:ति स्रोतः शीघ्रमपामिव ॥" इत्यादि । तथापि अज्ञानिनः पापकर्मणि धृष्टा एव भवन्ति, न ततो निवर्तन्ते। त एवं कथयन्ति अस्माकं वर्तमानमुखेनैव प्रयोजनं विद्यते, परलोकं दृष्ट्वा का समागत इति ॥१०॥ एवं पूर्वोक्तप्रकारेणेह लोकमात्रे विद्यमानसुखाभिलाषिणा पारलौकिकमुखं तिरस्कुर्वाणेन नास्तिकेन यदुक्तं तस्योत्तरमेकादशगाथया ददाति और दिन आयु की अवधि को दंडघटी के प्रमाण से क्षीण करते हुए वीत रहे हैं । जो एकवार व्यतीत हो जाते हैं, वे फिर लौट कर नहीं आते ___ "आयुष्यक्षण एकोऽपि" इत्यादि । आयु का एक क्षण भी अरबों स्वर्णमुहरों से भी नहीं खरीदा जा सकता । अगर वह निरर्थक चला गया तो उससे बडी हानि और क्या हो सकती है ? । वेग से बहता हुआ जल जैसे लौट कर नहीं आता, उसी प्रकार व्यतीत हुआ समय फिर नही लौटता"।। फिर भी अज्ञानी जन पापकर्म में घट ही होते हैं, उससे निवृत्त नहीं होते । वे कहते हैं - हमें तो वर्तमान के मुख से ही प्रयोजन है कौन परलोक देखकर आया है ? ॥१०॥ જેવી રીતે રેતઘડીમાંથી રેત ક્ષણે ક્ષણે ઓછી થતી રહે છે, એજ પ્રમાણે રાત અને દિવસો આયુષ્યની અવધિને ક્ષીણ કરતાં કરતાં વ્યતીત થઈ રહ્યા છે. જે દિવસો અથવા ક્ષણો એક વાર વ્યતીત થઈ જાય છે, તે ફરી પાછા આવવાના નથી.” ___आयुष्यक्षण एकोऽपि" त्याहि- सोनामला। देव॥ छतi पापायुनी એક ક્ષણ પણ ખરીદી શકાતી નથી. જે તે નિરર્થક ગુમાવી બેઠાં, તે તેના કરતાં અધિક હાનિ બીજી કઈ હોઈ શકે ?” વેગથી વહેતું પાણી જેવી રીતે પાછું આવતું નથી, એજ પ્રમાણે વ્યતીત થયેલ સમય પણ પાછો આવતો નથી.” - જીવનની ક્ષણભંગુરતાને જાણવા છતાં પણ અજ્ઞાની મનુષ્ય પાપકર્મ કરતાં પાછાં હઠતાં નથી. તેઓ એવું કહેવાની પણ ધૃષ્ટતા કરે છે કે- “અમારે તે આ લેના સુખ સાથે નિસ્બત છે, પરલોક કેણે જે છે ! છે ગા. ૧૦ | सू.-८३ For Private And Personal Use Only Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६५८ सूत्रकारः - 'अदक्खुव' इत्यादि । www.kobatirth.org / Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलम् - १ २ ३ ४ अदक्खुव दक्खुवाहियं सदहसु अददंसणा । सूत्रकृताङ्गसूत्रे २ ७ हंदि हु सुनिरुद्धदंसणे मोह णिज्जेण कडेण कम्मुणा ॥ ११ ॥ छाया - अपश्यवत् पश्यव्याहृतं श्रद्धत्स्व अपश्यदर्शन | गृहाण सुनिरुद्धदर्शनः मोहनीयेन कृतेन कर्मणा ॥ ११ ॥ अन्वयार्थ: (अक्खुव) अपश्यवत् पश्यतीति पग्यो न पश्योऽपश्योऽन्धः तद्वत् तत्सदृश ! इस प्रकार इस लोक संबंधी सुख के ही अभिलाषी और पारलौकिक सुख का तिरस्कार करने वाले नास्तिक के कथन का उत्तर सूत्रकार ग्यारहवीं गाथा में देते हैं- "अ" इत्यादि । शब्दार्थ –'अदक्ख व अपश्यवत' हे अन्धे के समान पुरुष' ' दक्खुवाहियंपश्यव्याहृतम्' सर्वज्ञके कहे हुए आगमों में 'सह - श्रद्धस्व' श्रद्धा करो 'अद क्खुणा - अपश्यदर्शन' हे सर्वज्ञ दर्शन वाले ! 'मोहणिज्जेण-मोहनीयेन' मोहनीय ' कडेण कृतेन' स्वयं किये हुए 'कम्मुणा - कर्मणा' कर्म से सुनिरुद्धदंसणे - सुनिरुद्धदर्शन:' जिनकी ज्ञान दृष्टि नष्ट होगई है वह सर्वज्ञोक्त आगमों को नहीं मानता है 'हंदि हु जानीहि ' ऐसा निश्चय जानो ॥ ११ ॥ - अन्वयार्थ हे अपश्यत् अर्थात् अन्धे के समान सर्वज्ञकथित आगम पर श्रद्धा આ પ્રકારના આ લોકના સુખની અભિલાષાવાળા અને પારલૌકિક સુખને તિરસ્કાર કરનારા નાસ્તિકોના કથનને ૧૧મી ગાથામાં સૂત્રકાર આ પ્રમાણે ઉત્તર આપે છે— "अ" त्यादि शब्दार्थ' - 'अक्खु - अपश्यवत्' हे ! घणाना समान पु३ष ! 'दुक्खुवाहिय - पश्याहृतम्' सर्वज्ञो आहेस भागभोभो 'सहहसु श्रद्धस्य' श्रद्धा राणो 'अक्खु दसणा- अपश्यदर्शन' हे ! सर्वज्ञ दर्शनत्राणाओ ! 'मोहणिज्जे ग- मोहनीयेन' मोडनीय 'कडेण कृतेन' पोते उरेल 'कम्मुणा कमणा' थी 'सुनिरुद्धदसणे - सुनिरुद्धदर्शनः' मनी ज्ञानदृष्टि नष्ट थ ग है ते सर्वज्ञो भागभोने मानतो नथी 'दि जानीहि ' ' निश्चित भो ॥११॥ For Private And Personal Use Only સૂત્રા હે અપણ્યવત્ ! (આંધળા સમાન પુરુષ !) સર્વજ્ઞ દ્વારા કથિત આગમ પર શ્રદ્ધા Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समया बोधिनी टोका प्र. श्रु. अ. २ उ. ३ साधूनां परिषहोपसर्ग सहनोपदेशः ६५९ हे अन्धतुल्य इत्यर्थः, (दक्खुवाहिथं) पश्यव्याहृतं-सर्वज्ञोक्तागर्म (सदहसु) श्रद्धस्व-तस्मिन् श्रद्धां कुरु (अदक्खुदसणा) हे अपश्यदर्शन (मोहणिज्जेण) मोहनीयेन (कडेण) कृतेन (कम्मुणा) कर्मणा (सुनिरुद्धदसणे) मुनिरुद्धदशनः पुरुषः सर्वज्ञोक्तागमं न पश्यतीति (हंदिहु) निश्चयेन गृहाण-जानीहि ॥११॥ टीका'अदक्स्नु व' अपश्यवत् पश्यतीति पश्यः न पश्योऽपश्योऽन्धः तत्तुल्य इत्यपश्यवत्, हे अन्धतुल्य नास्तिकप्राणिन् ? हे प्रत्यक्षमात्रग्राहित्वेन कार्याकार्यानभिज्ञ दक्खुवाहियं पश्यव्याहृतम् पश्यति केवलालोकेन सर्व सदा वस्तुजातं यः सः पश्यः सर्वज्ञः तेन पश्येन व्याहृतं प्रतिपादितं शास्त्रं श्रद्धत्स्व सर्वज्ञप्रतिपादितशास्त्रे श्रद्धां कुरु, प्रत्यक्षमात्रस्य कर, हे अपश्यदर्शन उपार्जित किये हुए मोहनीय कर्म के कारण जिसकी दृष्टि पूरी तरह अवरुद्ध हो गई है, वह पुरुष सर्वज्ञोक्त आगम पर श्रद्धा नहीं करता ॥११॥ -टीकार्थजो देखता है वह 'पश्य' कहलाता है, जो नहीं देखता वहे 'अपश्य कहा जाता है । अपश्य का अर्थ है-अन्धा, जो अपश्य के समान है उसे अपश्यवत् कहा गया है। हे अपश्यवत् नास्तिक पश्य अर्थात् केवलज्ञान दर्शन के आलोक के द्वारा सदैव समस्त वस्तु को देखने वाले अर्थात् सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत शास्त्र पर श्रद्धा कर, और प्रत्यक्ष मात्र वस्तु के आग्रह का परित्याग कर दे । अकेले प्रत्यक्ष प्रमाण को स्वीकार करने पर पितामह आदि सम्बन्धी समस्त व्यवहार लुप्त हो जाएगा । हे अपश्यदर्शन अर्थात् असर्वज्ञ के दर्शन રાખ. હે અપશ્યદર્શન! (અર્વની વાતમાં શ્રદ્ધા રાખનાર પુરુષ !) ઉપાર્જિત કરેલા મેહનીય કર્મને કારણે જેની દૃષ્ટિ પૂરે પૂરી વિરુદ્ધ થઈ ગઈ છે. તે પુરુષ સર્વોક્ત આગમ પર શ્રદ્ધા રાખતા નથી. છે ૧૧ છે ટીકાર્ય જે દેખી શકે છે તેને “પય’ કહેવાય છે અને જે દેખી શકતા નથી તેને “અપશ્ય કહેવાય છે. અપશ્ય એટલે આંધળે. જે માણસ અપશ્ય (આંધળા) જેવો હોય છે તેને અપશ્યવતું” કહે છે. સૂત્રકાર કહે છે કે હે અપશ્યવતુ નાસ્તિક! કેવળજ્ઞાન અને કેવળદર્શન રૂપ પ્રકાશ દ્વારા સમસ્ત વસ્તુસમૂહને સદેવ દેખનાર સર્વજ્ઞ દ્વારા પ્રણીત શાસ્ત્ર પર શ્રદ્ધા રાખ, અને પ્રત્યક્ષ વસ્તુને જ સ્વીકારવાને દુરાગ્રહ છેડી દે. એકલા પ્રત્યક્ષ પ્રમાણને જ સ્વીકાર કરવામાં આવે, તે પિતામહ, પ્રપિતામહ આદિ સંબંધી સમસ્ત વ્યવહારને લેપ થવાને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે. હે અપશ્યદર્શન! (અસર્વસના For Private And Personal Use Only Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६० सूत्रकृताङ्गसूत्रे स्वीकारे सर्वोऽपि पितामहादिनिधनो व्यवहारो लुप्येत । 'अदक्खुदसणा' अपश्यदर्शनः अपश्यकस्याऽसर्वज्ञस्य स्वीकृतं दर्शनं येनाऽसौ तत्संबुद्धौ हे अपश्यदर्शन ! हे नास्तिक स्वतः प्रत्यक्षदर्शी भवान् तथाविधशास्त्रप्रमाणकः सन् कार्याकार्यविवेकाऽभावेनाऽन्धतुल्योऽभविष्यत्, यदि सर्वज्ञाऽभ्युपगमं नाऽकरिष्यत् 'मोहणिज्जेणे' मोहनीयेन 'कम्मुणा'कर्मणा, 'कडेण' कृतेन स्वयं कृतेन मोहनीयेन कर्मणा, 'सुनिरुद्धदसणे' सुनिरुद्धदर्शनः-मुनिरुद्धं सर्वतः अवरुद्धं दर्शनं सम्यगवबोधरूपं यस्य स तथा जिनवचनश्रद्धावर्जितः पुरुषः सर्वज्ञोकमागमं न स्वीकरोतीति । 'हदि हु' 'हंदि' इत्यव्ययं 'गृहाण' इत्यर्थे 'हु' इति निश्चयो तेन निश्चयेन गृहाणे' अवधारय । हे अन्धतुल्यनास्तिक ! सर्वज्ञप्रतिपादितशास्त्रे श्रद्धां कुरु । हे असर्वज्ञोक्ताऽऽगमपक्षपातिन् जीव ! यस्य ज्ञानदृष्टिः स्वकृतमोहनीयकर्मणाऽवरुद्धा विद्यते, स सर्वज्ञोक्तमागम नेव स्वीकरोतीति गृहाण इति भावः ॥११॥ को स्वीकार करने वाले नास्तिक ! आप तो स्वयं प्रत्यक्षदर्शी हो, इस प्रकार के शास्त्र को प्रमाण मानते हुए तुम कार्य और अकार्य के विवेक से रहित होने के कारण अन्वे के समान हो जाओगे. यदि सर्वज्ञ के सिद्धान्त के अनुसार नहीं चलोगे । स्वयं उपार्जन किये हुवे मोहनीय कर्म के द्वारा जिसका सम्यक् बोधरूप दर्शन पूर्ण रूप से अवरुद्ध होगया है, ऐसा जिन भगवान् के वचनों की श्रद्धा से हीन पुरुष सर्वज्ञोक्त आगम को स्वीकार नहीं करता है । ऐसा निश्चय समझो । भाव यह है -हे अन्धे के समान नास्तिक सर्वज्ञ द्वारा प्रतिपादित शास्त्र पर श्रद्धा कर ! हे असर्वज्ञ के कहे आगम का पक्षपात करनेवाले जीव इस बात को समझ ले कि जिसकी दृष्टि उपार्जित किए हुए मोहनीय कर्म के कारण अवरुद्ध हो गई है, वह सर्वज्ञकथित आगम को स्वीकार नहीं करता ॥११॥ દર્શનને સ્વીકાર કરનાર હે નાસ્તિક !) આપ તે સ્વયં પ્રત્યક્ષદશી છે ! જે સર્વાના સિદ્ધાંત અનુસાર નહીં ચાલે અને આ પ્રકારના શાસ્ત્રને પ્રમાણ માનશો તે તમે કાર્ય અને અકાર્યને વિવેકથી વિહીન થઈ જવાને કારણે આંધળા જેવા થઈ જશે. પિતાના દ્વારા જ ઉપાર્જિત કરાયેલા મેહનીય કર્મના ઉદયને કારણે જેનું સમ્યક્ બોધ રૂપ દર્શન પૂર્ણ રૂપે અવરૂદ્ધ થઈ ગયું છે એ જિન ભગવાનના વચનમાં શ્રદ્ધા નહીં રાખનારે પુરુષ સર્વપ્રણીત આગમને સ્વીકાર કરતા નથી, એવું અવશ્ય સમજી લો. આ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે-હે આંધળા સમાન નાસ્તિક! સર્વજ્ઞ દ્વારા પ્રતિપાદિત શાસ્ત્ર પર શ્રદ્ધા રાખ. અસર્વજ્ઞ પ્રતિપાદિત શાસ્ત્ર પ્રત્યે પક્ષપાત રાખનારા છે. અપશ્યદર્શન નાસ્તિક ! તું આ વાતને બરાબર સમજી લે કે ઉપાર્જિત કરેલા મેહનીય કમને કારણે જેની દષ્ટિ અવરુદ્ધ થઈ ગઈ છે, એ પુરુષ જ સર્વજ્ઞપ્રરૂપિત આગમને સ્વીકાર કરતા નથી. ગાથા ૧૧ છે For Private And Personal Use Only Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. ३ साधूनां परीपहोपसर्ग सहनोपदेशः ६६१ पुनरप्युपदेशान्तरमधिकृत्याह सूत्रकारः-'दुक्खी मोहे' इत्यादि । मूलम्दुक्खी मोहे पुणो पुणो निविदेज्ज सिलोगपूयणं । ८ ७ १३ १ २ ११ १० एवं सहिए अहिपासए आयतुल्ले पाणेहिं संजए॥१२॥ छाया दुःखी मोहं पुनः पुनर्निर्विन्देत श्लोकपूजनम् । एवं सहितोऽधिपश्येद् आत्मतुल्यान् प्राणान् संयतः ॥१२॥ अन्वयार्थः(दुक्खी) दुःखी जीवः(पुणोपुणो) पुनः पुनः (मोहे) मोहम् प्राप्नोति (सिलोगपूयणं) श्लोकप्जनम् स्तुतिसंस्तवम् (निविंदेज्ज) निर्विन्देत=परित्यजेत् सूत्रकार पुनः उपदेश करते हैं—“दुक्खी मोहे" इत्यादि शब्दार्थ-दुक्खी-दुःखी' दुःखी जीव 'पुणो पुणो-पुनः पुनः' बार बार 'मोहे-मोहम्' अविवेकको प्राप्त करता है 'सिलोगपूयणं-श्लोकपूजनम्' अतः साधु अपनी स्तुति और पूजा 'निविदेज्ज-निर्विन्देत त्यागदेवे ‘एवं-एवम् इस प्रकार ‘सहिते-सहितः' ज्ञानादियुक्त 'संजए-संयतः' साधु 'पाणेहिप्राणान् प्राणियों को 'आयतुल्ले-आत्मतुल्यान्' अपने समान' अहियासएअधिपश्येत्' देखे ॥१२॥ -अन्वयार्थ--- दुःखी जीव वार वार मोह को प्राप्त होता है साधु पुरुष श्लोक श्लाघा को अर्थात् प्रशंसा सन्मान आदि को त्याग और सम्यग् ज्ञानादि RAINR अपहेश मापता सूत्रा२ छ " दक्खीमोहे" त्यादि शहाथ-'दुक्खी-दुःखो हुमी ७५ 'पुणो पुणो-पुनः पुनः' पार वार 'मोहे-- मोहम्' मविवेने पास ४२ छ 'सिलोगपृश्ण-लोकपूजनम्' मत: साधु पातानी स्तुति भने त निविदेज-निविदेत' छाडी हे 'एवं-एवम्' 21 २ ‘सहिते-सहितः' ज्ञान पोथी युत सजए- संयतः' साधु पाणेहि-प्राणान्' प्राणुयाने 'आयतुल्ले-- आत्मतुल्यान्' पाताना समान 'अहिपासए अधिपश्येत्' गुपे. ।। १२॥ -सूत्रार्थદુખી જીવ વારંવાર મોહને આધીન બને છે. સાધુઓએ બ્લેક-ક્લાધા (પ્રશંસા, For Private And Personal Use Only Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६र्र सूत्रकृताङ्ग साधुपुरुष: ( एवं ) एवमनेन प्रकारेण ( सहिते ) सहितो ज्ञानादियुक्तः (संजए ) संयतः साधुः (पाणेहिं ) प्राणान् - जीवान् (आयतुल्ले) आत्मतुल्यान् स्वसदृशान् ( अहियासए) अधिपश्येदिति ॥ १२ ॥ टीका 'दुखी' दुःखी, असातवेदनियतया प्रतिहतो जीवः, 'पुणो पुणो पुनः पुनः 'मोहे, मोहम्, तथा च दुःखी जीवः पुनः पुनः मोहं प्राप्नोति, अज्ञानोदयात् दुःखमनुभवन् मूढः तादृशं तादृशं कर्म करोति येन मुहुर्मुहःखान्वितं संसारसागरमेव प्राप्नोति । अतो मुनिर्मोहकर्महेतुकं, 'सिलोगपूयणं श्लोकपूजनम् = आत्मश्लावां संमानं च 'निविंदेज्ज ? निर्विन्देत, परित्यजेत् । ' एवं' एवमनेन प्रकारेण 'सहिए' सहितो हितेन - प्राणिहितेन सह सहितः प्राणिहितकारकः ज्ञानादि से युक्त होकर अन्य प्राणियों को अपने समान ही देखे ||१२|| - टीकार्थ- दुःखी अर्थात् असातावेदनीय कर्म से उपहत जीव पुनः पुनः मोह को प्राप्त होता है । अज्ञान के उदय से दुःख को अनुभव करता हुआ मूढ पुरुष ऐसे ऐसे कार्य करता है कि जिससे बार बार दुखों से पीड़ित होता है और संसार सागर को ही प्राप्त होता है । अतएव मुनि मोह हेतुक आत्मश्लाघा को और सम्मान को त्याग दे । इस प्रकार ज्ञानादि से सम्पन्न होकर संयमवान् साधु समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य समझे, क्योंकि मोहग्रस्त जीव दुःख से पीड़ित होकर वारवार संसार में ही परिभ्रमण करता है । इस સન્માન) આદિનો ત્યાગ કરવે જોઇએ, અને સમ્યક્ જ્ઞાનાદિથી યુક્ત થઇને સમસ્ત પ્રાણીઓને આત્મવત (પેાતાના સમાન) જ માનવા જોઇએ. ! ૧૨ ૫ - टीअर्थ - દુ:ખી અથવા અસાતાવેદનીય કર્મના ઉદયને કારણે દુઃખનો અનુભવ કરતા જીવ વારંવાર મેાહને અધીન બને છે. અજ્ઞાનના ઉયથી દુઃખનો અનુભવ કરતે મૂઢ મનુષ્ય એવા એવા કાર્ય કરે છે, કે જેને લીધે તેનુ સંસાર સાગરમાં પરિભ્રમણ ચાલુ જ રહે છે, અને તેને દુ:ખાથી પડાયા જ કરવુ પડે છે. તેથી મેહેતુક આત્મશ્લાઘા અને સન્માનના મુનિએ ત્યાગ કરવા જાઇએ. આ પ્રકારે જ્ઞાનાદ્ધિથી સ ંપન્ન થઇને સયમયુક્ત સાધુએ સમસ્ત જીવાને આત્મતુલ્ય સમજવા જોઇએ, કારણકે મેહગ્રસ્ત જીવ દુ:ખથી પીડિત થઈને વારવાર સંસારમાં જ પરિભ્રમણ કરે છે. આ કારણે સંયમી સાધુએ For Private And Personal Use Only Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनो टीका प्र. श्रु. अ२ उ.३ साधूनां परिषहोपसर्ग सहनोपदेशः ६६३ युक्तः 'संनए' संयतः साधुः पाणेहिं प्राणान् प्राणिनः 'आयतुल्ले' आत्मतुल्यान् 'अहिपासए' अधिपश्येत् । यतो मोहग्रस्तो जीवो दुःखातः सन् पुनः पुनरपि संसारमेवागच्छति । अतः श्लोक श्लाघादिभिरस्पृष्टो ज्ञानादिसंपन्नः साधुः सर्वप्राणिनः आत्मतुल्यानेव पश्येत । तदक्तम्-"अप्पसमे मन्नेज छप्पिकाए” आत्मसमान् मन्येत पड्कायानिति ॥१२॥ व्रतस्य महिमानं शास्त्रकारो वर्णयति --गारंपि य, इत्यादि । मूलम् गारं पि य आवसे नरे अणुपुव्वं पाणेहिं संजए। समतां सव्वत्थ सुव्वए देवाणं गच्छे स लोगयं ॥१३॥ छाया अगारमप्यावसन्नरोऽनुपूर्व्या प्राणेषु संयतः । समतां सर्वत्र सुव्रतो देवानां गच्छेत्स लोकम् ।।१३।। कारण प्रशंसा सम्मान आदि की अभिलाषा से रहित और ज्ञानादि से युक्त होकर संयमी साधु समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य समझे। कहा भी है"अप्पसमे मन्नेज्ज" इत्यादि । “छहों कायों के जीवों को आत्मा के समान ही समझना चाहिए" ॥१२॥ शास्त्रकार व्रत की महिमा का वर्णन करते हैं-'गारं पि य” इत्यादि । शब्दार्थ-गारंपि य 'अगारमपि' घर में भी 'आवसे- आवसन्' निवास करता हुआ 'नरे-नरः' मनुष्य 'अणुपुवं-आनुपूर्व्या क्रमशः 'पाणेहि संजए प्राणेषु संयतः, प्राणिहिंसासे निवृत्त होकर 'सव्वत्थ-सर्वत्र' सभी प्राणियों में 'समता-समतां' समभाव रखता हुआ ‘स-सः' वह 'मुव्यए-सुव्रतः' सुव्रत पुरुष ‘देवाणं लोगयं-देवानां लोकम् देवताओं के लोकको 'गच्छे-गच्छेत्' जाता है ॥१३॥ પ્રશંસા, રાન્માન આદિની અભિલાષાને ત્યાગ કરીને અને જ્ઞાનાદિથી સંપન્ન થઈને સમસ્ત वाने मामतुल्य भान ये. धुं पाछे -"अप्पसमे मन्नेज' त्याहि છકાયના જેને આત્મવતું જ માનવા જોઈએ” ગાથા ૧રા वे शास्त्रा२ प्रतनो भाडमा एवछ- “गार पि य” त्यात शार्थ -'गारपि य अगारमपि' घरभा ५९४ 'आवसे आवसन् निवास ४२ते। 'नरे--तरः' भनुष्य 'अणुपुर --आनुपूर्व्या' मश: 'पाणेहिं संजए- प्राणेषु संयतः' प्राण सिाथी निवृत्त थाने 'सव्वत्थ- सर्वत्र' या प्राजियोमा समतां समतां' समभाव रामवा 'से-सः' ते सुव्वा--सुव्रतः' सुत्रत पु३५ ‘देवाण लोगय - देवानां लोकम्' हेवताभ्याना सभा 'गच्छे गच्छेतू' नय छे. ॥ १३ ॥ For Private And Personal Use Only Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६६४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ ( गारंपि य) अगारमपि च गृहेपि (आवसे) आवसन् निवासं कुर्वन् (नरे) नरो -- मनुष्य : ( अणुपुच्छं) आनुपूर्व्या = क्रमशः (पाणेहिं संजए) प्राणेषु संयतः प्राणातिपातविरत: ( सव्वत्थ) सर्वत्र (समत) समभावं कुर्वन ( स ) सः ( सुव्वए) सुत्रतः (देवाणं लोगi) देवलोकं स्वर्गम् (गच्छे) गच्छेदिति ॥१३॥ टीका 'गारंपि य' अगारमपि च गृहमपि 'आवसे' आवसन् 'नरे' नरो = मनुष्यः 'अणुपुञ्च' आनुपूर्व्या क्रमशः 'पाणेहिं संजए' प्राणेषु संयतः प्राणिहिंसया निवृत्तः सन् 'सव्वत्य' सर्वत्र सस्थावर प्राणेषु 'समता' समतां समभावं कुर्वन् 'सुव्वए' सुव्रतः = जिनप्रतिपादितदेशविरतः धर्मयुतो भूत्वा 'देवाणं लोगए' देवानां लोकं स्थानम् 'गच्छे' गच्छेत् देवलोकं गच्छतीत्यर्थः । -अन्वयार्थ गृहवास में रहता हुआ भी मनुष्य प्राणियों की हिंसा से निवृत्त और 'सुव्व' सर्वत्र समभाव धारण करता हुआ सुवतवान् होता है और देवलोक में गमन करता है || १३|| - टीकार्थ गृहवास करता हुआ मनुष्य भी यदि अनुक्रम से प्राणियों में संयत होकर अर्थात् प्राणातिपात से निवृत्त होकर रहे और त्रस तथा स्थावर जीवों पर समभाव धारण करे तो वह जिनोक्त देशविरति से युक्त होकर देवलोक प्राप्त कर लेता है । अभिप्राय यह है कि गृहावास में रहने वाला पुरुष भी यदि देशविरति को अंगीकार करके तथा समस्त प्राणियों में समताभाव धारण करके - सूत्रार्थ - ગૃહવાસ કરતા મનુષ્ય પણ જો ક્રમે ક્રમે પ્રાણીઓની હિંસાના પરિત્યાગ તે જાય છે અને સમસ્ત પ્રણીઓ પ્રત્યે સમભાવ કરતે સુવ્રતવાન થાય છે, તે દેવ ગતિની प्राप्ति श्री शड़े थे ॥ १३ ॥ For Private And Personal Use Only ટીકા ગૃહવાસ કરતા મનુષ્ય પણ જો પ્રાણાતિપાત આદિથી નિવૃત્ત રહે અને સમસ્ત વસ તથા સ્થાવર જીવે! પ્રત્યે સમભાવ ધારણ કરે, તે તે જિનાક્ત દેશવિરતિથી યુકત થવાને કારણે દેવલાકની પ્રાપ્તિ કરે છે. આ કથનના ભાવાર્થ એ છે કે ગૃહસ્થાશ્રમમાં રહેનાર પુરુષ પણ જે દેશિવતિને Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समयार्थ बोधिनी टीका प्र. अ. २ उ. ३ साधूनां परिषहोपसर्ग सहनोपदेशः १६५ गृहेऽपि वसन् पुरुषो यदि देशविरतिमंगीकृत्य सर्वप्राणिषु समताभावं कुर्वन् जिनोदितधर्माको भवति तदा स देवलोकमवश्यं गच्छतीति जिनप्रतिपादिताऽहिंसाया इदं फलं यत् गृहमावसन्नपि स्वर्गगामी भवति, देशवितेरपि यदा ईशी गतिस्तदा सर्वविरतेस्तु का कथा || १३ || संप्रति सर्वविरते महिमानमाह 'सोच्चा' इत्यादि । मूलम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ १ ३ ४ ६ सोच्चा भगवाणुसासणं सच्चे तत्थ करेज्जुवकमं । ७ ८ ११ १० १२ सवत्थ विणीयमच्छरे उंछें भिक्खु विशुद्धमाहरे ॥ १४ ॥ छाया श्रुत्वा भगवदनुशासनं सत्ये तत्र कुर्यादुपक्रमम् । सर्वत्र विनीतमत्सर उच्छे भिक्षुर्विशुद्धमाहरेत् ॥ १४ ॥ ॥ जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित धर्म की आराधना करता है तो अवश्य ही उसे देवलोक की प्राप्ति होती है । जिनप्रतिपादित अहिंसा का यह फल है कि are करने वाला भी स्वर्ग के सुखों का भोक्ता बन जाता है । जब देशविरति से भी ऐसी गति की प्राप्ति होती है तो सर्वविरति के फल का तो कहना ही क्या है || १३ || अब सर्वविरति की महिमा कहते हैं - " सोच्चा" इत्यादि । शब्दार्थ –'भगवाणुसासणं- भगवदनुशासनम् ' भगवान् के अनुशासन अर्थात् आगमको 'सोच्चा- श्रुत्वा' सुनकर 'सच्चे सत्ये' उस आगममें कहेगये सत्य 'तत्थ - तंत्र' संपममें 'उबकमं- उपक्रमम्' उद्योग 'करेज्ज - कुर्यात् करते रहें 'सव्वत्य - सर्वत्र' प्राणिमात्र में 'विणीयमच्छरे - विनीतमत्सरः' 'मत्सररहित होकर અંગીકાર કરીને અને સમસ્ત પ્રાણી તરફ સમતા ભાવ ધારણ કરીને જિનેદ્ર ભગવાન્ દ્વારા પ્રરૂપિત ધર્મીની આરાધના કરે તે તેને અવશ્ય દેવલેાકની પ્રાપ્તિ થાય છે. જો દેશ વિરતિને અંગીકાર કરવાથી દેવગતિ રૂપ ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે. તે સ`વિરતિના ફળની તે વાત જ શી કરવી ? એટલે કે સÖવરિત દ્વારા મેક્ષની પ્રાપ્તિ થાય એમાં કોઈ આશ્ચર્યની વાત નથી. ૫૧૩ા हवे सूत्रभर सर्वविरतिनो महिमा वर्णुवे छे “सेोच्चा" इत्यादि शब्दार्थ -- 'भगवाणुसासण - भगवदनुशासनम्' भगवानना अनुशासन अर्थात् भगमने 'सोच्चा-वा' सांलणीने 'सच्चे - सत्ये' ते भागमभां उन्हेंस सत्य तत्थ तंत्र' संयभभां ‘उवक्कम'--उपक्रमम्' उद्योग 'करेज- कुर्यात्' उरत रहे 'सव्वत्थ- सर्वत्र' प्रशि सू.-८४ For Private And Personal Use Only Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६६६ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्वयार्थः ( भगवाणु सासणं) भगदनुशासनं - तीर्थकरागमं ( सोच्चा) श्रुत्वा --- (सच्चे) सत्ये = भगवदागमकथिते (तत्थ ) तत्र संयमे ( उवकमं) उपक्रममुद्योगम् (करेज्ज) कुर्यात् (सव्वत्थ) सर्वत्र प्राणिमात्रे ( विणीयमच्छरे ) विनीतमत्सरः विगतमत्सरो भूत्वा (भिक्खु) भिक्षु: (विशुद्धं ) विशुद्धं समस्ताहारदोषरहितम् ( उछं) उलं मिक्षामाहारम् (आहरे) आहरेत् गृहणीयादिति ॥ १४॥ टीका सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'भगवाणु सासणं, भगवदनुशासनं भगवतो ज्ञानैश्वर्यादिसंपन्नस्य तीर्थकर - स्य अनुशासनमाज्ञां शास्त्रं वा 'सोच्चा' श्रुत्वा = तीर्थकरसमीपेऽनगार। न्तिके वा श्रावकस्य वा सम्यग्रहदेव अन्तिकं वा श्रुत्वा 'सच्चे' सत्ये सर्वथा वाघर - हिते आगमप्रतिपादिते 'तत्य' तत्र संयमादौ ' उवक्कमं, उपक्रमम्, उद्योगम् दोषसे रहित शुद्ध ' भिक्खू - भिक्षुः ' साधु 'विसुद्ध - विशुद्धम्' समस्त आहार उछ- उच्छम् ' आहारको 'आहरे हरेत्' लावे ||१४|| -अन्वयार्थ जिन भगवान् के आगम को श्रवण करके सत्य अर्थात् संयम में पराक्रम करना चाहिए । प्राणीमात्र के प्रति मत्सरभाव का त्याग करके भिक्षु निर्दोष भिक्षा को ही ग्रहण करे || १४ || — टीकार्थ भगवान् अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञान एवं ऐश्वर्य आदि से सम्पन्न तीर्थकर के अनुशासन को तीर्थंकर भगवान के समीप, अनगार से, श्रावक से अथवा सम्यग्दृष्टि से सुनकर सत्य अर्थात् सव बाधाओं से रहित संयम में उद्योग करना चाहिए | क्या करके भगवान् द्वारा प्ररूपित संयम में उद्योग करे ? इसका मात्रमा 'त्रिणीयमच्छरे - विनीतमत्सरः भत्सर रहित थाने 'भिक्खू - भिक्षुः' साधु 'त्रिसुद्ध'- विशुद्धम्' मघा आहार होषथी रहित शुद्ध 'उछ' - उच्छम्' मोहारने 'आहरेआहरेत्' दावे ॥ १४ ॥ For Private And Personal Use Only - सूत्रार्थ - જિનેન્દ્ર ભગવાનના આગમનું શ્રવણ કરીને સાધુએ સત્ય એટલે કે સયમમાં પરાક્રમશીલ (પ્રવૃત્ત) થવુ જોઇએ. તેણે પ્રાણી માત્ર તરફ મત્સર ભાવને! ત્યાગ કરીને સમભાવ ધારણ કરવો જોઈએ અને નિર્દોષ ભિક્ષા જ ગ્રહણુ કરવી જોઇએ. ॥ ૧૪૫ ટીકા ભગવાન એટલે કે સંપૂર્ણ જ્ઞાન અને અશ્વથી સંપન્ન તીથંકરના અનુશાસનને તીથંકર ભગવાનની સમીપે, અણગારની સમીપે, શ્રાવકની સમીપે અથવા સભ્યષ્ટિની સમીપે શ્રવણ કરીને સત્યમાં એટલે કે સઘળી બધાએથી રહિત સંયમમાં પ્રવૃત્ત થવું જોઇએ. ભગવાન દ્વારા પ્રરૂપિત સંયમમાર્ગમાં કેવી રીતે પ્રવૃત્ત થવુ જોઇએ ? આ પ્રશ્નના Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयाथ बोधिनी टीका प्र. श्रु अ. २. उ. ३ साधूनां परिषहोपसर्ग सहनोपदेशः ६६७ तत्प्राप्तये 'करेज्ज कुर्यात् । किं कृत्वा भगवत्कथितसंयमादौ उद्योगं कुर्यात् तत्राह - 'सव्वत्थ सर्वत्र प्राणिनिवहे 'विणीयमच्छरें विनीतमन्सरः, सर्वप्राणिषु मत्सररहितो द्रुपरहितो भूत्वा 'भिक्खु' भिक्षुः साधुः 'विसुद्ध' विशुद्धम् अतिशयेन शुद्धमाधाकर्मिकादिद्विचत्वारिंशदोषरहितं शास्त्रप्रतिपाद्यमिति यावत् । 'उछ, उठछं-भिक्षाम् सामुदानिकभिक्षाम् 'आहरे, आहरेत् । ज्ञानेश्वर्यादिगुणगणोपेतस्य भगवतस्तीर्थकरस्य शासनं तत्प्रतिपादित तपःसंयमादिकं भगवत्समीपेऽनगारादिसमीपे वा श्रुत्वा लघुकर्मा साधुः सर्वप्राणिहित संपादयन् संयमादिप्राप्तये प्रयतमानः सर्वप्राणिषु मत्सररहितो गृहदारादी वितृष्णः सन् तथा सर्वत्र रागद्वेषरहितः द्विचत्वारिंशदोपरहितं शरीरयात्रामात्रनिर्वाहकमाहारं जलादिकं चाहरेत् । संयमपरिपालनबुद्धयैव, न तु शरीरपोषणबुद्धया, आहारादिकमाहरेदिति निष्कृष्टोऽर्थः ॥१४॥ उत्तर यह है कि समस्त प्राणियों के प्रति मात्सर्य-द्वेष से रहित होकर साधु आपाक आदि ४२ दोषों से सर्वथा रहित सामुदानिक भिक्षा ग्रहण करे । आशय यह है ज्ञान ऐश्वर्य आदि गुणगणों से सम्पन्न भगवान् तीर्थकर के शासन को, आगम प्रतिपादित तप संयम आदि को, भगवान् के मुरवारविन्द से अथवा अनगारों से मुन कर लघुकर्मी साधु समस्त प्राणियों का हित सम्पादन करता हुआ, संयमादि की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता हुआ समस्त जीवों में मात्सर्य रहित होकर, घर और पत्नी आदि से विरक्त होकर तथा सर्वत्र रागद्वेष से रहित होकर, बयालीस दोषों से रहित एवं शरीरयात्रा मात्र में सहायक आहार और पानी को ग्रहण करे । अभिप्राय यह है कि साधु संयम पालन की बुद्धि से ही आहारादिक को ग्रहण करे शरीर पोषण की बुद्धि से नहीं ॥१४॥ ઉત્તર એ છે કે સાધુએ સમસ્ત પ્રાણીઓ પ્રત્યે માત્સર્ય (વૈષ)થી રહિત થઈને આધાકર્મ આદિ કર દેથી રહિત સામુદાનિક ભિક્ષા ગ્રહણ કરવી જોઈએ. આ ગાથાને ભાવાર્થ એ છે કે- જ્ઞાન, અધર્ય આદિ ગુણસમૂહથી સંપન્ન એવાં તીર્થકર ભગવાનના શાસનને– આગમપ્રતિપાદિત તપ સંયમ આદિને ભગવાનના મુખાર વિન્દમાંથી, અથવા અણગારોની સમીપે શ્રવણ કરીને લઘુકમ સાધુએ મત પ્રાણીઓનું હિત સંપાદન કરતા થકા, સંયમાદિની પ્રાપ્તિ માટે પ્રયત્ન કરતા થકા, સમસ્ત જીવે પ્રત્યે માત્સર્યભાવરહિત થઇને, ઘર, પુત્ર, પત્ની આદિથી વિરકત થઇને તથા સર્વત્ર રાગદ્વેષથી રહિત થઈને, કર દેથી રહિત અને શરીયાત્રા (સંયમયાત્રા) માત્રમાંજ સહાયક બને એવાં નિર્દોષ આહાર પાણી આદિ ગ્રહણ કરવા જોઇએ. તાત્પર્ય એ છે કે સાધુએ સંયમને નિર્વાહ કરવાની ભાવનાથી જ આહારદિ ગ્રહણ કરવા જોઈએ, શરીરના પિષણ અથવા શરીર પ્રત્યેની આસક્તિની દષ્ટિએ આહારદિને ગ્રહણ કરવા જોઈએ નહીં ગાથા ૧૪ For Private And Personal Use Only Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे १ २ मूलम् छाया सव्वं नच्चा अहिट्ठए धम्मट्टी उवहाणवीरिए । गुत्ते जुत्ते सदा जए आयपरे परमोयतट्ठिए ॥१५॥ सर्व ज्ञात्वा अधितिष्ठेत् धर्मायुपधानवीर्यः । गुप्तो युक्तः सदा यतेताऽऽत्मपरयोः परमायतस्थितः ॥१५॥ अन्वयार्थ (सव्वं) सर्वम् (नच्चा) ज्ञात्वा (अहिट्ठए) अधितिष्ठेत् संवरन् (धम्मट्ठी), धर्मार्थी धर्मेणार्थ: प्रयोजनं यस्य स तथा (उवहाणवीरिए) उपधानवीयः उपधाने उग्रतपसि पराक्रमशीलः (गुत्त जुत्ते ) गुप्तो युक्तो मनोवाक्कायैर्गुप्तः, ज्ञानादिभियुक्तः (सया) सदा (आयपरे) आत्मपरयोः विषये शब्दार्थ-'सव्वं-सर्वम्' सर्व पदार्थों को 'नच्चा--ज्ञात्वा' जानकर साधु अहिदृए-अधितिष्ठेत्' सर्वज्ञोक्त संवरका आश्रय लेवें 'धम्मट्टी-धर्मार्थी, धर्म का प्रयो जन वाला बने 'उवहाणवीरिए-उपधानवीर्यः' तपकरने में पराक्रमशीलवने 'गुत्ते जुत्ते-गुप्तो युक्तो' इन्द्रियोंसे तथा-मन वचन और कायसे गुप्त और ज्ञनादिसे युक्त बने 'सया-सदा सर्वदा 'आयपरे-आत्मपरयोः' अपने और दूसरे के विषयमें 'जए-यतेत' यत्न करें 'परमायतहिए-परमायतस्थितः' और मोक्षकी अभिलाषा करे ॥१५॥ -अन्वयार्थसंयमी पुरुष समस्त पदार्थों को जानकर संबर को ग्रहण करे तथा धर्मार्थी होकर उग्र तपश्चरण में पराक्रम करे इन्द्रियों से तथा मन वचन काय से गुप्त हो और ज्ञानादिसे साथ-सव्य-सर्वम्' या पदार्थाने 'नच्चा- ज्ञात्वा तीन साधु 'अहिएअधितिष्ठेत् सर्वोत संवरने। पाश्रय से 'धमट्ठी-धर्मार्थी' धन प्रयोजनवाणे पने 'उवहाणवीरप-उपधानवीय:' त५ ४२वामा पशमशीद मने 'गुत्ते जुत्ते'-गुप्तो युक्तः' धद्रियोथी मने मन, वयन, यथा शुत भने शानायी. युत मने 'सया-सदा सह। 'आयपरे-आत्मपरयोः पोताना भने गीतना विषयमा ‘जप-यतेत' प्रयत्न ४२ 'परमा. यतहिप-परमायतस्थितः' भने भाक्षनी मनिलाषा ४३. ॥१५॥ सत्राय સંયમી પુરૂષ સમસ્ત પદાર્થોને જાણીને સંવર ગ્રહણ કરે. તથા ધર્માથી થઈને ઉગ્ર તપસ્યાઓમાં પ્રયત્નશીલ રહે, તેણે મને ગુપ્ત, વચન ગુપ્ત અને કાયગુપ્ત અને જ્ઞાનાદિથી યુક્ત થવું જોઈએ. તેણે સ્વપરની યતના કરવી જોઈએ. અને મોક્ષની અભિલાષા સેવવી જોઈએ છે ? For Private And Personal Use Only Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु अ. २ उ. ३ साधूनां परिषहोपसर्ग सहनोपदेशः ६६९ (जए) यतेत यत्नं कुर्यात् (परमायतहिए) परमायतस्थितः परमुत्कृष्टः आयतो दीर्घः सर्वदाऽवस्थानात् मोक्षः तेनार्थिकः मोक्षाभिलाषी भवेदिति ॥१५॥ टीका'सव्वं' सर्व पदार्थजातम् अथवा सर्वज्ञोक्तमोक्षमार्ग 'नचा' ज्ञात्वा 'अहिहए' अधितिष्ठेत् सर्वज्ञोक्तसवरमाश्रयेत् । तथा 'धम्मट्टी' धर्मार्थी-धर्मः श्रुतचारित्रलक्षणप्रयोजनवान् धर्मार्थीति यावत् । तथा 'उपहाणवीरिए' उपधानवीयः उपधाने उग्रतपसि पराक्रमशीलो भवेत् । 'गुत्ते जुत्ते' गुप्तो युक्तः गुप्त इन्द्रियादिभिः युक्तो ज्ञानादिभिः 'सया' सदा सर्वदा 'आयपरे' स्वात्मपरात्मनोः 'जए' यत्नं यत्नं कुर्यात्, 'परमायतष्ठिए' परमायतस्थितः-परमायतो मोक्षः, तत्र-स्थितः उत्थितः मोक्षविषयिणीमभिलाषां कुर्यात् । साधुः सवै सर्वज्ञवचनं सर्वप्राणिनो ज्ञात्वा सर्वज्ञप्रतिपादितसंवरमा युक्त हो सदा स्वपर की यतना करे और मोक्ष का अभिलापी हो ॥१५॥ -टीकार्थसमस्त पदार्थों को अथवा सर्वज्ञकथित मोक्षमार्ग को जानकर संवर का आश्रय ग्रहण करे । श्रुत चारित्ररूप धर्म का अर्थी हो उग्र तपश्चर्या में पराक्रम शील हो, इन्द्रयोका गोपन करे ज्ञानादिसे युक्त बने सदैव स्वात्मा तथा परात्मा की यतना करे और मोक्ष की अभिलापा करे । ____ भाव यह है कि साधु सर्वज्ञ भगवान् के वचन को तथा समस्त प्राणियों को जानकर सर्वज्ञ के द्वारा प्रतिपादित संवर का आश्रय लेवे । तथा धर्मार्थी ટીકાઈ સાધુએ સમસ્ત પદાર્થોને અથવા સર્વજ્ઞ પ્રરૂપિત મોક્ષમાર્ગને જાણીને સંવરને જ આશ્રય લે જોઈએ. તેણે છતચારિત્રરૂપ ધર્મનું પાલન કરવાને જ નિશ્ચય કરીને ઉગ્ર તપશ્ચર્યામાં પ્રવૃત્ત થવું જોઈએ. તેણે ઈન્દ્રિ પર સંયમ રાખીને મને ગુપ્ત, વચનગુપ્ત અને કાર્ય ગુપ્ત થવું જોઈએ, અને સદેવ સ્વાત્મા અને પરાત્માની યતના કરવી જોઈએ. તેણે આ લેક અને પરલોકના સુખની અભિલાષા રાખવી જોઇએ નહીં, પરંતુ મેક્ષની જ અભિલાષા રાખવી જોઈએ. | ભાવાર્થ એ છે કે, સાધુએ સર્વજ્ઞ પ્રરૂપિત મેક્ષમાર્ગને તથા સંસારના સમસ્ત પદાર્થોના સ્વરૂપને સમજવું જોઈએ. તેણે સર્વ પ્રતિપાદિત સંવરને આશ્રય લે જોઈએ, તથા ધર્માથી થઈને તપસ્યામાં પ્રવૃત્ત થવું જોઈએ. આ પ્રકારે મન વચન અને For Private And Personal Use Only Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६७० सूत्रकृताङ्गसूत्रे श्रयेत् । तथा धर्मार्थी तपसि स्वपराक्रमं प्रदर्शयेत् । एवं मनोवचन कायैर्गुप्तो ज्ञानादियुक्त व स्वात्मपरात्मनोः प्रयतमानो मोक्षमभिलषेदिति भावः || १५ || पुनरपि उपदेशान्तरं ब्रूते सूत्रकारः - 'वित्तं ' इत्यादि । मूलम् - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ ३ ४ ૧ ६ ७ वित्तं प्रसवो य नाइओ तं बाले सरणंति मन्न । ૧૧ ૧૨ ૧૨ ૧૩ ૧૪ १५ १६ ૧૭ एते मम तेसु वि अहं नो ताणं सरणं न विज्जई ॥ १६ ॥ छाया- वित्तं पशवश्च ज्ञातयः तान्बालः शरणमिति मन्यते । एते मम तेष्वप्यहं नो त्राणं शरणं न विद्यते || १६ | होकर तपस्या में पराक्रम करे । इस प्रकार मन वचन और काय से गुप्त होकर तथा ज्ञान आदि से युक्त होकर यतना करता हुआ मोक्ष की अभिलाषा करे ||१५|| सूत्रकार पुनः उपदेश करते हैं - "वित्तं', इत्यादि । शब्दार्थ- 'बाले-वाल:' अज्ञानी जीव 'वित्त वित्तम्' धनधान्यहिरण्यादि 'य-च' और 'परावो - पशवः' पशु 'नाइओ ज्ञातयः' तथा ज्ञातिजन 'ते - तत्' इन्हें 'सरणंति - शरणमिति' अपनी शरण 'मन्नइ - मन्यते' मानता है ' एते - एते ये सब 'मम - मम' मेरे हैं तथा ' तेसु वि-तेष्वपि ' धनादिमें 'अहं - अहम् ' मैं इन का स्वामी हूं ऐसा अज्ञानी जन मानते हैं परंतु ये सब 'नो ताणं - नो त्राणम्' त्राणकारक नहीं है एवं 'सरण - शरणम् शरणरूप 'न विज्जई - न विद्यते' नहीं है ॥१६॥ કાય ગુપ્તિથી યુક્ત થઇને અને જ્ઞાનાદિથી સંપન્ન થઈને મોક્ષની જ અભિલાષા કરવી જોઇએ. ! ગાથા ૧પા યતનાપૂર્વક વિચરતા થકા यागण उपदेश भायता सूत्रभर हे छे -" "वित्त" इत्याहिशब्दार्थ' - 'वाले - बालः' अज्ञानी व 'वित्त वित्तम्' धनधान्य डिस्एय वगेरे 'य-च' ने 'पसवो - पशवः' पशु 'नाईओ ज्ञातयः' तथा ज्ञातिन्न 'ते- तत्' तेभने 'सरणति शरणमिति' पोतानु' शरण 'मश्नइ मन्यते' भाने छे 'एते पते' मा मध 'मम-मम' भारा तथा 'तेसु वि-तेष्वपि' धन वगेरे वस्तुनो 'अहं' - अहम्' हुँ' स्वामी छु खेषु अज्ञानी माणुसो माने छे, परंतु या धु ं 'नो ताणं नो त्राणम्' त्रायुभरङ नथी शेवभू 'सरणम्' - शरण' श२३५ 'न विजई न विद्यते' नथी ॥ १६ ॥ For Private And Personal Use Only Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. थु. अ. २ उ. ३ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः अन्वयार्थ: ( वाले) वालोऽज्ञानी (वित्त) वित्तं धनधान्य हिरण्यादि (य) च (परावो) पशवो गवादय: ( नाइओ) ज्ञातयः (ते) तान् ( सरणंति) शरणमिति ( मन ) मन्यते (ते) ते इमे धनादय: ( मम ) मम इमे धनादय ममैवेत्यर्थः तथा वि) तेष्वपि धानादिषु (अहं) अहम्, इत्येवं मन्यते बाल: परंतु एते (नो ताणं) नो त्राणम् (सरणं) शरणम् (न विजई) नो विद्यते इति ॥ १६ ॥ टीका ( ते ६७१ 'वाले' वालोऽज्ञानी जीवः 'वित्तं' धनधान्यादिकम् 'य' च 'पसवो ' पशवः = गवादयः, 'नाईओ' ज्ञातयः ते तान् वित्तपभुज्ञातिप्रभूतीन' 'सरणंति' शरणमिति, 'मन्नई' मन्यते 'एते' घनपुत्रादयः 'मम' मम ममैव 'तेसु वि अहं, तेष्वप्यहम् = तेषु धनपुत्रादिष्वपि अहम् अहमस्मि एवं मन्यते वालः किन्तु वस्तुत एते, तस्य 'ताणं सरणं न विज्जइ' त्राणं शरणं न विद्यते । यदर्थअन्वयार्थ अज्ञानी जीव वित्त अर्थात् धन धान्य, हिरण्य स्वर्ण आदि को गो आदि पशुओं को, ज्ञातिजनों को शरणभूत मानता है । ये मेरे हैं और में इनका स्वामी हूँ, ऐसा समझता है, परन्तु ये पदार्थ शरणभूत नहीं हैं ॥१६॥ - टीकार्थ अज्ञानी प्राणी धन धान्य आदि को गो आदि पशुओं को और ज्ञादि जनों को अपने लिए शरण मानता है । वह समझता है कि ये पुत्र आदि मेरे हैं और मैं इनका स्वामी हूँ, किन्तु वास्तव में वे उसके लिए शरण नहीं हैं । जिनके लिए वह कार्य करता है उन्हें यथार्थ रूप से समझता नहीं है । कहा - सूत्रार्थ - અજ્ઞાની મનુષ્ય વિત્તને એટલે કે ધન, ધાન્ય, સોનું, ચાંદી આદિને તથા ગાય આદિ પશુઓને અને જ્ઞાતિજનાને શરભૂત માને છે. “ તે મારાં છે અને હું તેમનેા સ્વામી છું” એવું સમજે છે, પરન્તુ તે પદાર્થોં શરણ આપવાને સમર્થ નથી. ।। ૧૬ ૫ - टीअर्थ - For Private And Personal Use Only અજ્ઞાની મનુષ્ય એવુ માને છે કે ધન, ધાન્ય, આદિનો, ગાય આદિ પશુના, પુત્ર, માતા, પિતા, પત્ની આદિ સ્વજનોના અને જ્ઞાતિજનોના મારે આધાર છે. તે એવુ માની લે છે કે “ આ પુત્ર આદિ મારાં છે અને હું તેમના સ્વામી છુ” પરન્તુ વાસ્ત. વિક રીતે વિચાર કરવામાં આવે તે તે તેને શરણુ આપવાને સમર્થ નથી. જેમને માટે તે કાર્ય કરે છે; તેમને તે યથાર્થ રૂપે સમજતા જ નથી. કહ્યુ પણ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६२ सूत्रकृताङ्गसूत्र मयं कार्य करोति तच्छरीरमप्यशाश्वतमिति यथार्थतया नावगच्छति तथाचोक्तम् "रिद्धी सहावतरला, रोगजराभंगुर हयसरीरम् । दोण्हंपि गमणसीलाण कियच्चिरं होज्ज संबंधो ॥१॥ छायाऋद्धिः रवभावतरला रोगजराभङ्गुरं हतशरीरम् । द्वयोरपि गमनशीलयोः कियच्चिरं भवति संबन्धः ॥१॥ तथा--"मातापितृसहखाणि, पुत्रदारशतानि च । प्रति जन्मनि वर्तन्ते, कस्य माता पितापि वा" ॥१॥ एतदेव दर्शयति-नो वित्तादिकं संसारे कथमपि त्राणं भवति नरकपातादौ रागादयपद्रुतस्य शरणं न विद्यते इति ॥१६॥ भी है -"रिद्धी सहावतरला इत्यादि । 'सम्पत्ति स्वभाव से ही चपल है और यह निकृष्ट शरीर रोग तथा जरा से विनाशशील है । इस प्रकार दोनों ही जब विनाशशील है तो कितने दिनों तक इनका सम्बन्ध बना रह सकता है ? और भी कहा है - 'माता पितृसहस्राणि' इत्यादि ।। ___संसारी जीव के हजारों माता और पिता हो चुके है, सैकडों पुत्र और पत्नियाँ हो चुकी हैं । प्रत्येक जन्म में यह पलट जाते हैं। ऐसी स्थिति में कौन किसकी माता और कौन किसका पिता है । यही बात यहां दिखलाई गई है कि धन सम्पदा आदि किसी भी प्रकार संसार में शरणभूत नहीं हैं । जव रागी जीव नरक में जाता है तो यह सब वस्तुएँ उसकी रक्षा करने में समर्थ नहीं हो सकती ॥१६॥ छ- "रिद्धि सहावतरला त्याह સંપત્તિ સ્વભાવથી જ ચંચળ છે, આ નિકૃષ્ટ શરીર રેગ તથા જરા આદિથી વિનાશશીલ છે. આ પ્રકારે બન્ને જ વિનાશશીલ હોવાથી કેટલા દિવસ સુધી તેમને આ साथेन। २५५८४ी १४वान। छ?" qणी धुंछ-"मातापितृसहस्त्राणि" સંસારી જીવ હજારો માતા અને પિતા કરી ચુકયે છે, તેને અનંત જેમાં હજારે પુત્ર અને પત્નીએ થઈ ચુકી છે. પ્રત્યેક જન્મમાં આ સંસારી સંબંધે પલટાતા રહે છે. એવી સ્થિતિમાં કેણ કેની માતા છે અને કોણ કોને પિતા છે?’ આ સૂત્રમાં એજ વાતનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે કે ધન, પુત્ર, પરિવાર આદિ આ સંસારમાં કોઈ પણ પ્રકારે શરણભૂત (રક્ષા કરવાને સમર્થ) નથી. જ્યારે તેમાં આસકત બનેલે જીવ નરકમાં જાય છે, ત્યારે આ કઈ પણ વસ્તુ કે વ્યકિત તેની રક્ષા કરવાને સમર્થ હોતી નથી. ગાથા ૧૬ For Private And Personal Use Only Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir %3 सूत्रकृताङ्गसूत्रो नरके पतन्तं प्राणिनं मातापितृपुत्रकलबधनादयो न रक्षन्ति, इत्युक्तम् । तदेव पुनर्विस्तरेण कथयति सूत्रकार:-'अभागमितमि' इत्यादि । मूलम् अभागमितंमि वा हे अहवा उक्कमिते भवंतिए । ८ ९ १० ११ १२ १३ , एगस्स गई य आगई बिउमंता सरणं न मन्नई ॥१७॥ छायाअभ्यागते वा दुःखेऽथवोत्क्रान्ते भवान्तिके । एकस्य गतिश्चागति,-विद्वान् शरणं न मन्यते ॥१७॥ अन्वयार्थ:-- (वा) अथवा (अब्भागमितंमि) अभ्यागते समागते (दुहे) दुःखे पूर्वोपात्तासातावेदनीये सति एकाकी एवानुभवति दुःखमित्यर्थः । (अहवा) नरक में पड़ने वाले प्राणी को माता पिता पुत्र, कला और धन आदि बचा नहीं सकते, यह कहा जा चुका है' यही विषय सूत्रकार विस्तार से कहते है - "अब्भागमितमि" इत्यादि । शब्दार्थ-'या-वा' अथवा 'अब्भागमितमि दुहे-अभ्यागते दुःखे' दुःख आने पर असातावेदनीय रूप दुःख के आने पर उसको अकेला ही भोगता है 'अहवा-- अथवा' अथवा 'उक्कमिने--उत्क्रान्ते' उपक्रमके कारणों से आयु के नाश होने पर 'भतिए--भवान्तिके' अथवा मृत्यु उपस्थित होने पर 'एगस्स-एकस्य' अकेला को ही 'गई य--गतिश्च' जाना 'आगई य--आगतिश्च' और आना होता है "विउमंता--विद्वान' अतः विद्वान् पुरुष ‘सरणं--शरणम्' धन आदि को अपना शरण 'न मन्नई-न मन्यते' नहीं मानता है ।।१७।। નરકમાં પડનાર જીવને, માતા, પિતા, પુત્ર, પત્ની, ધન, આદિ કોઈ પણ બચાવી શકતું નથી, એવું પ્રતિપાદન આગલા સૂત્રમાં કરવામાં આવ્યું. હવે સૂત્રકાર એજ વાતનું विस्तारपूर्व वन ४२ छ- अभागमित मित्यादि हा-'वा-वा' मथवा 'अब्भागमित मि दुहे-अभ्यागते दुःखे दुः५ मावी ५ त्यारे असातावहनीय कोरे गाने मेसो ४ लोगवे छ ‘अहवा-अथवा' अथवा 'उकमित्त -उत्क्रान्ते' ५४मना रणाया मायुष्य नाश थाय त्यारे 'भवतिए-भान्तिके' २५थवा मृत्यु उपस्थित थाय त्यारे 'एगस्स-एकस्य' साने ४ 'गई य-गतिश्च' 'आगई य-आगतिश्च मने साव थाय छे 'विउमता-विद्वान्' यत: विद्वान् ५३५ 'सरण-शरणम्' धन वगेरेने पातानु २२ 'न मन्नई-न मन्यते' मानतो नथी ॥१७॥ सू. ८५ For Private And Personal Use Only Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3७४समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु.अ.२ उ. ३ साधूना परीषहोपसर्ग सहनोपदेशः । अथवा (उक्कमिते) उत्क्रान्ते उत्क्रमकारणैरुत्क्रान्ते स्वायुषि (भवतिए) भवान्तिके =मरणे वा समुपस्थिते सति (एगस्स) एकस्यैव जीवस्य (गई य) गतिश्च (आगई य) आगतिश्चागमनं च (विउमंता) विद्वान् विवेकी यथावस्थितसंसारस्वभावस्य वेत्ता (सरणं) शरणं मातापितृधनादीनामीपदपि (न मन्नई) न मन्यते कुतः सर्वात्मना धनादिभ्यस्त्राणमिति ॥१७॥ टीका'वा' अथवा 'अब्भागमितमि दुहे' अभ्यागते दुःखे पूर्वसंचितासात वेदनीयोदयेन समागते दुःखे, एक एव जीवस्तद् दुःखमनुभवति । नहि ता मातापितृपुत्रकलनादयः किंचिदपि कर्त पारयन्ति, न ज्ञातिवर्गेण न वा धनादिना किश्चित् क्रियते । तदुक्तम्-- ___ -अन्वयार्थदुःख के आ पडने पर अर्थात् पूर्वार्जित असातावेदनीय का उदय होने पर अथवा उपक्रम के कारणों द्वारा आयु का नाश होने पर जब मरग उपस्थित होता है तब यह जीव अकेला ही गमन और आगमन करता है । अतएव संसार के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता पुरुष माता पिता आदि परिवार को तथा धन सम्पत्ति आदि को अपने लिए शरण नहीं मानता ॥१७॥ टीकार्थ पूर्वोपार्जित असातावेदनीय कर्म के उदय से दुःख आने पर जीव अकेला ही उसे भोगता है । माता, पिता, पुत्र, पत्नी आदि उसे बचाने के लिए कुछ भी नहीं कर सकते । इसी प्रकार न ज्ञातिजन उसकी रक्षा कर पाते है और न धनादि ही। कहा भी है "सयणस्स वि मज्झगओ' इत्यादि -सूत्राथત્યારે દુઃખ આવી પડે છે ત્યારે એટલે કે પૂર્વોપાર્જિત અસાતવેદનીયને જ્યારે ઉદય થાય છે ત્યારે, અથવા ઉપકમના કારણે દ્વારા આયુને ક્ષય થવાથી જ્યારે મરણ ઉપસ્થિત થાય છે, ત્યારે આ જીવ એક જ ગમન અને આગમન કરે છે. તેથી સંસારને યથાર્થ સ્વરૂપને જાણનાર પુરુષ માતાપિતા આદિ પરિવારને તથા ધન સંપત્તિ આદિને પિતાનું ત્રાણ કરનાર (શરણદાતા) માનતો નથી, છે ૧૭ -टी.थ પૂર્વોપાર્જિત અસાતવેદનીય કર્મને જ્યારે ઉદય થાય છે, ત્યારે જે દુખ આવી પડે છે, તે એકલા જીવે જ ભોગવવું પડે છે. તે દુઃખમાંથી તેને બચાવવાને માતાપિતા આદિ કઈ પણ સમર્થ નથી. એ જ પ્રમાણે જ્ઞાતિજને પણ તેની રક્ષા કરી શકતા નથી For Private And Personal Use Only Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सुत्रकृताङ्गसूत्रे www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "यणस्स वि मझगओ रोगाभिहतो किलिस्सर इहेगो । सयणो विय से रोगं, न विरंच नेव नासे ॥१॥ ६७५ 'हवा' अथवा 'उक्aमिते' उत्क्रान्ते= उत्क्रमहेतुभिरायुषो विनाशे सति 'भवतिए' भवान्तिके अथवा मरणे प्राप्ते सति 'एगस्स गई य आगई' एकस्यैव जीवस्य गत्यागती भवतः, अतः 'विउमंता' विद्वान् पुरुषः 'सरणं न मनई ' विद्वान पुरुषो मातापितृ ज्ञात्पुत्र-कला- धनादिकं शरणं न मन्यते, ईषदपि शरणं न मन्यते, किं पुनः सर्वरूपेण त्राणं तेभ्यो धनादिभ्यः स्वस्य रक्षणं मन्यते तदुक्तम् " एकस्य जन्ममरणे, गतयश्च शुभाशुभा भवावर्ते । तस्मादाकालिक हितमेकेनैवात्मनः कार्यम् ||१|| इति । 'जव जीव रोग से पीडित होता है तो स्वजनों के मध्य में स्थित होने पर भी अकेला ही दुःख का अनुभव करता है । स्वजन उसके दुःख को नवाँट सकते हैं और न नष्ट कर सकते हैं । अथवा जब आयु के उपक्रम के कारणभूत शस्त्र आदि के द्वारा आयु का विनाश होता है और मरण की प्राप्ति होती है तो यह जीव अकेला ही जाता आता है अन्य कोई भी उसका साथ नहीं देता । अतएव ज्ञानवान् पुरुष माता, पिता, ज्ञाति, पुत्र कलत्र, धन आदि को अपने लिए लेश मात्र भी शरण नहीं समझता, पूर्णरूप से शरण समझने की तो बात ही दूर रही कहा भी है - " एकस्य जन्ममरणे" इत्यादि । 'यह जीव अकेला ही जन्मता है, अकेला ही मरता है और इस भवप्रवाह में अकेला ही शुभ या अशुभ गतियों में जाता है । अतएव इसे एकाकी For Private And Personal Use Only अने धनाहि पशु तेनी रक्षा उखाने समर्थ नथी. उधुं पशु छे -- “ सयणस्स वि मझगओ" त्याहि "व न्यारे रोगग्रस्त थाय छे, त्यारे स्वनोनी वये रहेवा छतां પણ એકલા જ દુઃખનું વેદન કરે છે. સ્વજને તેના તે દુઃખમાં ભાગ પણ પડાવી શકતા નથી અને તેના દુઃખને નષ્ટ પણ કરી શકતા નથી.” અથવા આયુના ઉપક્રમના કારણભૂત શસ્ત્ર આદિ દ્વારા જ્યારે આયુના વિનાશ થાય છે મરણની પ્રાપ્તિ થાય છે, ત્યારે આ જીવને એકલા જ જવું પડે છે, ત્યારે અન્ય કોઇ પણ વ્યક્તિને સાથે તેને મળતા નથી. તેથી જ્ઞાની પુરુષ માતા, પિતા, પુત્ર, કલત્ર જ્ઞાતિજનો, ધન આદિને પેાતાને માટે સહેજ પણ શરભૂત માનતા નથી. જો સહેજ પણ શરત માનતા નથી, તે સ ંપૂર્ણ, શૂભૂત માનવાની તા વાત જ સ ંભવતી ? આ જીવ એકલા જ જન્મે છે, અકલા જ મરે છે અને આ ભવપ્રવાહમાં એકલા Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - -- -- - -- ६७६ समथार्थ बोधिनी टीका प्र. . अ. २ उ. ३ साधूनां परिषहोपरग सहनोपदेशः "एको करेइ कम्मं, फलमवि तस्सिक्कओ समणुडवई । एको जायइ मरइ य, परलोग एक्कओ जाई' ॥२॥ इति । ___अन्यत्रापि उक्तम्धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे, दारा गृहे बन्धुजनाः श्मशाने । देहश्चितायां परलोकमार्गे, कर्मानुगो गच्छति जीव एकः ॥१॥गा १७॥ मूलमू--- सव्वे सयकम्मकपिया अवियत्तेण दुहेण पाणिणे । हिंडति भयाउला सढा जाइ-जरा-मरणेहिऽभिता ॥१८॥ होकर ही शाश्वतिक श्रेयर के लिये प्रयत्न करना चाहिये । कहा भी है --"एक्को करेइ कम्म" इत्यादि। जीव अकेला ही कर्म उपार्जन करता है, अकेला ही उसके फल का अनुभव करता है, अकेला ही जन्मता है अकेला ही मरता है और अकेला ही परलोक में जाता है। अन्यत्र भी कहा है-,'धनानि भूमौ पशवश्वगोष्ठे ' इत्यादि । 'धन जमीन में दवा (गढा) रह जाता है, गाय भैंस आदि पशु वाडे में बन्द रह जाते हैं, पत्नी घर के द्वार तक जाती है, बन्धु बान्धव श्मशान तक साथ देते हैं और देह चिता तक ही साथ रहती है जब जीव परलोक के पथ पर प्रयाग करता है तो इनमें से कोई भी उसका साथ नहीं देता । अपने उपार्जित कर्म के अनुसार अकेला जीव को ही जाना पडता है ॥१७॥ જ શુભ અથવા અશુભ ગતિઓમાં જાય છે. તેથી તેણે એકાકી થઈને જ (મમત્વ ભાવ અને રાગદ્વેષને ત્યાગ કરીને જ) શાશ્વત કલ્યાણ માટે પ્રયત્ન કરવો જોઈએ ह्यु ५५ छ 3 - 'पको करेइ कम्म" त्याहि-०७५ मेसो ४ भनुपान કરે છે. એક જ કર્મના ફળનું વેદન કરે છે, એક જ જન્મે છે, એકલે જ મરે છે અને એકલે જ પરલેકમાં ગમન કરે છે.” अन्यत्र ५ से अधुछ 'धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे त्या 'वन भीनमा દાટેલું જ રહી જાય છે. ગાય ભેંસ આદિ પશુઓ વાડામાં જ રહી જાય છે, પત્ની ઘરના બારણ સુધી જ આવે છે, બંધુબાંધવ સ્મશાન સુધી જ સાથ દે છે, અને દેહ ચિતા સુધી જ સાથે રહે છે, જીવ જ્યારે પરકને માર્ગે પ્રયાણ કરે છે, ત્યારે ઉપર્યુક્ત વસ્તુમાંથી કઈ પણ વસ્તુ જીવને સાથ દેતી નથી. પોતે ઉપાર્જિત કરેલા કર્મ અનુસાર, જીવને એકલાને જ પરલેકમાં ગમન કરવું પડે છે કે ગાથા ૧૭ For Private And Personal Use Only Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सुत्रकृताङ्गसूत्रे www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६७७ छाया सर्वे स्वकर्मकल्पिता अव्यक्तेन दुःखेन प्राणिनः । हिण्डन्ति भयाकुलाः शठा जातिजरामरणैरभिदुताः॥ १८ ॥ अन्वयार्थ -- ( सव्वे पाणिणो ) सर्वे सस्थावराः प्राणिनो जीवाः, ( सयकम्म कप्पिया) स्वककर्मकल्पिताः, स्वकृतेन ज्ञानावरणीयादिना कर्मणा कल्पिताः सूक्ष्मवादरपर्याप्तकापर्याप्त कै केन्द्रियभेदेन व्यवस्थिताः (अवियत्तेण दुहेण) अव्यक्तेन दुःखेन अपरिस्फुटेन शूलाद्यलक्षितस्वभावेन व्यक्तेन च दुःखेना सातावेदनीयस्वभावेन ( जा जरामरणेहि) जातिजरामरणैः जाति-जन्म जरा-वर्द्धक्यं मरणं - शरीरत्यागः, एभि: (अभिता) अभिताः पीडिताः सन्तः (भयाउला) भयाकुलाः (सढा) शठाः= शठकर्मकारित्वात् ( हिंडे ति ) हिण्डन्ति = परिभ्रमति तत्तद्योनौ घटीयंत्रन्यायेनेति ॥ १८ ॥ शब्दार्थ - 'सव्वे पाणिणो सर्वे प्राणिनः ' सब स स्थावर प्राणी 'सयकस्मक पिया - स्वकर्मकल्पिताः' अपने अपने कर्मों से नाना अवस्थाओं से युक्त हैं 'अवियतेण दुहेण - अव्यक्तेन दुःखेन' और सब अव्यक्त--अलक्षित - दुःख से दुःखी है ' जाइजरामरणेहिं - - जातिजरामरणैः' जन्म- जरा वार्द्धकय और मरण से 'अभिदुता - अभिद्रुताः' पीडित 'भयाउला - भयाकुला : ' और भय से आकुल 'सहा -- शठाः ' राठजीव 'हिंडंति--हिण्डन्ति' बार बार संसार चक्र में भ्रमण करते हैं। १८ ॥ अन्वयार्थ स और स्थावर सभी प्राणी अपने द्वारा उपार्जित ज्ञानावरणीय आदि कर्मों से सूक्ष्म बादर, पर्याप्त अपर्याप्त एकेन्द्रिय आदि के भेद में रहे हुये अव्यक्त तथा व्यक्त दुःख से एवं जन्म जरा मरण के द्वारा पीडित होकर शठतापूर्ण कर्म करने के कारण घटीयंत्र की तरह भ्रमण करते हैं ||१८ For Private And Personal Use Only शब्दार्थ- पाणि- प्राणिनः ' अधा वस स्थावर प्राणी 'सयकम्म कप्पिया - स्वकर्म कल्पिताः' पोतपोताना मेथी ने प्रारनी व्यवस्थाभोथी युक्त छे. 'अवियते दुहे - अध्यक्तेन दुःखेन भने मघा ४ भव्यस्त-अक्षित हुयी दुःखी छे 'जाइज रामरणेदि - जातिजरामरणैः' मनरा वार्द्धक्ष्य मने भरथी 'अभिदुत्ताअभिद्रुताः ' पीडित 'भयाउला - भयाकुलाः' भने लयथी आण सदा-राठाः' हलव 'हिडति - हिण्डन्ति' वारंवार संसारय मां भ्रम ४२ ॥ १८ ॥ સૂત્રા ત્રસ, સ્થાવર આદિ સમસ્ત જીવો પોતપેાતાના દ્વારા ઉપાર્જિત જ્ઞાનાવરણીય આદિ उभने अरणे सूक्ष्म, महर, पर्याप्त, अपर्याप्त भेटेन्द्रिय याहि लेहो ३पे रडेला छे. તેઓ અવ્યકત તથા વ્યક્ત દુઃખથી અને જન્મ, જરા અને મરણના દુઃખથી યુકત છે. શતા પૂર્ણાંક ક કરવાને કારણે તેઓ રહેટની જેમ સંસારમાં ભ્રમણ કરતા રહે છે. ૧૮૫ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६७८ समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु अ. २. उ. ३ साधूनां परिषहोपसर्ग सहनोपदेशः टीका 'सव्वे पाणिणो, सर्वे प्राणिनः संसारे विद्यमानाः एकेन्द्रियाद्यारभ्य पंचेन्द्रियपर्यन्ता: । ' सयकम्मकपिया' स्वकर्मकल्पिताः = स्वसंपादितज्ञानारवणीयादिकर्मणा कल्पिताः, सूक्ष्मवादरपर्याप्ताऽपर्याप्ते केन्द्रियादिभेदेन स्थिताः सर्वे 'अवियत्तेण दहेण' अव्यक्तेन दुःखेन= स्वकर्मणैव सूक्ष्मवादर निगोदसाधारणवनस्पत्यादिषु अव्यक्तदुःखेन अलक्षितेन दुःखेन व्यक्तेन वा दुःखेन युक्ताः प्राणिनः द्वीन्द्रियादयः 'जाइजरामरणेहिं' जातिजरामरणैः 'अभिता' अभिद्रुताः समन्विताः सन्तः । ' भयाउला' भयाकुलाः 'सदा' शठाः जीवाः अशुभकर्मकारिणः 'हिंडंति, हिण्डन्ति = संसारचक्रे घटीयंत्रन्यायेन परिभ्रमन्ति ॥ १८ ॥ मूलम्— २ ७ ४ ६ इणमेव खणं विजाणिया णो सुलभं बोहिं च आहियं I ८ ७ ११ १० १३ १२ एवं सहिएऽ हिपासए आह जिणो इणमेव से सगा ॥ १९ ॥ छाया इममेव क्षणं विज्ञाय नो 'सुलभां बोधिं च आख्याताम् । एवं सहितोऽधिपश्येदाह जिन इदमेव शेषकाः ॥ १९ ॥ टीकार्थ- एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त संसार में विद्यमान सभी प्राणी अपने किये ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के कारण सूक्ष्म बादर, पर्याप्त' अपर्याप्त एकेन्द्रिय आदि भेदों के रूप में स्थित हैं। सूक्ष्मनिगोद, बादरनिगोद एवं साधारण वनस्पति आदि के जीव अव्यक्त दुःख से युक्त हैं और द्वीन्द्रिय आदि प्राणी व्यक्त दुःख से दुःखी हैं । ये सभी प्राणी जन्म जरा और मरण से पीडित हैं अतएव भय से व्याकुल रहते हैं । अशुभ कर्म करने वाले ये जीव संसार चक्र से बढ़ी - यंत्र (अरहर) की भांति परिभ्रमण करते रहते हैं || १८ || --टीअर्थ - એકેન્દ્રિયથી લઇ ને પંચેન્દ્રિય પર્યન્તના સઘળા જીવેા પોતાના દ્વારા ઉપાર્જિત કરાયેલાં જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મીને કારણે સૂક્ષ્મ, ખાદર પર્યાપ્ત અપર્યાપ્ત, એકેન્દ્રિય આદિ પર્યાયામાં ઉત્પન્ન થાય છે સૂક્ષ્મ નિાદ અને સાધારણ વનસ્પતિ આઢિના જીવા અવ્યકત દુઃખથી યુક્ત છે અને દ્વીન્દ્રિય આદિ પ્રાણીઓ વ્યકત દુઃખથી યુકત છે તે બધાં પ્રાણીએ જન્મ, જરા અને મરણના દુઃખથી પીડિત છે, અને તે કારણે તેએ ભયથી વ્યાકુળ રહે છે. અશુભ કર્મ કરનારા આ જીવે સાંસાર ચક્રમાં રહે'ટની જેમ પરિ ભ્રમણ કરે છે ! ગાથા ૧૮ ૫ For Private And Personal Use Only Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे ६७९ . अन्वयार्थ (इणमेव) इममेव इमं द्रव्यक्षेत्रकालभावलक्षणं (खणं) क्षणम् अवसरं, तथा (बोहिं) बोधि सम्यक्त्वं च (णो सुलभ) नो मुलभाम् (आहिय) आख्याताम् सर्वज्ञैः, कथिताम् (विजाणिया) विज्ञाय(सहिए)सहितः हितेन ज्ञानदर्शनचारित्रेण युक्तः सन् (एवं) एवमनेन प्रकारेण (अहिपासए) अधिपश्येत्-विचारयेदित्यर्थः (जिणे) जिनः ऋषभदेवः (आह) कथितवान् (सेसगा) शेषकाः-अन्येपि (इणमेव) इदमेव आहुरिति ॥१९॥ . टीका'इणमेव, इममेव 'खणं' क्षणम् अवसरम् द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव स्वरूपमनुकूलं कर्मनिर्जराकारकमवसरं विज्ञाय अवसरोचितं कर्त्तव्यम्, तथाहि-द्रव्य शब्दार्थ-'इणमेव-इममेव' यही 'खणं-क्षणम्' अवसर है ऐसा तथा 'बोहिबोधिम्' सम्यक्त्व भी ‘णो मुलहं-नो सुलभाम्' मुलभ नहीं है, ऐसा 'आहियंआख्याताम्' सर्वज्ञों ने कहा है ऐसा 'विजाणिया-विज्ञाय' जानकर 'सहिए-- सहितः' ज्ञान दर्शन और चारित्र से युक्त होकर ‘एवं-एवम्' इस प्रकार 'अहिपासए-अधिपश्येत्' विचार करे, 'जिणे--जिन' श्री ऋषभ जिनेश्वरने 'आह-आह' कहा है 'सेसगा-शेषकाः' और शेष तीर्थकरों ने भी 'इणमेव-इदमेव' यही कथन किया है ॥१९॥ अन्वयार्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप ग्रह अवसर, तथा सर्वज्ञों द्वारा सम्यक्त्व मुलभ नहीं है इसे जानकर ज्ञानदर्शन और चारित्र तप से सम्पन्न होकर इस प्रकार विचार करे । यह ऋषम देव ने कहा है और अन्य तीर्थकरों ने भी कहा है ।।१९॥ शहाथ-इणमेव-इममेव' मा 'खण-क्षणम्' अवसर छे तथा 'बोहि-बोधिम्' सभ्य५ ५ णो सुलह-नो सुलभाम् सुतम नथी, से 'अहिय-आख्याताम्' सर्व शाम्मे सछे से विजाणिया-विज्ञाय नीने 'सहिए-सहितः' ज्ञान शान भने यास्थिी युक्त ने 'एक-एवम्' २प्रारं 'अहिपासए-अधिपश्येत्' (क्या२ ४२ 'जिणे-जिनः' श्री ऋषम गिनेश्वरे 'आह-आह छ 'सेलगा-शेषकाः' भने शेष तीर्थ शो ५५ 'इणमेव-इदमेव' २00 ४थन थुछ. ॥ १८ ॥ દ્રવ્ય ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવ રૂપ આ અવસર તથા સર્વ દ્વારા કથિત સમ્યકત્વ સુલભ નથી, એવું જાણીને જ્ઞાનદર્શન અને ચારિત્રથી સંપન્ન બને, ભગવાન રાષભદેવે પણ આ પ્રમાણે કહ્યું છે અને અન્ય તીર્થકરેએ પણ આ પ્રમાણે ફરમાવ્યું છે. -सूत्राथ For Private And Personal Use Only Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८० समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु अ. २ उ. ३ साधूनां परिषहोपसर्ग सहनोपदेश । जंगमत्व - पंचेन्द्रियत्व सुकुलोत्पत्तिमानुष्यलक्षणम् क्षेत्रमध्यार्य देशार्धविंशतिजनपदस्वरूपम्, कालोऽवसर्पिणीचतुर्थारकादिः धर्मप्रतिपत्तियोग्यलक्षणः, भावच धर्मश्रवणतच्छ्रद्धानचारित्रावरण कर्मक्षयोपशमाहितविर तिप्रतिपत्त्युत्साहलक्षणस्तदेवंविधं क्षणम् अवसरम् | 'बोहिं णो मुलभ' बोधिं नो सुलभां सम्यक्त्वं न सुलभम् । चिन्तामणिवद् अप्राप्याम् 'आहिये' आख्याताम् जिनैः प्रतिपादितां'वियाणिया ' विज्ञाय जिनैः सम्यग्दर्शनलक्षणा बोधिः न सुलभा इत्यवगम्य तत्प्राप्तौ यत्नातिशयः करणीयः । अकृतकर्मणां दुर्लभा वोधिर्भवतीति भावः । समुपेक्ष्यान्यस्य बोधस्य चिन्तां कुर्वन् मूल्यशतेनापि न लब्धुं शक्यते तदुक्तम् - "लद्वेल्लियं च वोटिं अकरें तो अणागये च पत्तो । अन्न दाई बहिं लब्स करेण मोलणं ||१|| टीकार्थ " यह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव अवसर कमकी निर्जरा के लिये अनुकूल हैं । इस अवसर की महत्ता को समझ कर उचित कर्तव्य करना चाहिये । सपन, पंचेन्द्रियत्व और मनुष्यत्व आदि द्रव्य, साठे पच्चीस आर्यदेश रूप क्षेत्र, अवसर्पिणी काल का चौथा आरा आदि काल धर्म को अंगीकार करनेरूप भाव, और धर्म का श्रवण, धर्म पर श्रद्धान, चारित्रावरण कर्म ( चारित्रमोहनीय) के क्षय या उपशम से प्राप्त होन वाली विरति (संयम) और धर्म में पराक्रमरूप उत्साह, यह सब अनुकूल अवसर है । इस अवसर की तथा चिन्तामणि के समान सम्यग्दर्शन की प्राप्ति सरलता से नहीं होती । ऐसा तीर्थकर भगवान ने फर्माया है । इसे समझ कर आत्महित के लिए प्रयत्न करना चाहिए | पुण्य कर्म नहीं करने ટીકા કર્મોની નિર્જરાને માટે આ દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર, કાળ અને ભાવરૂપ અનુકૂળ અવસર પ્રાપ્ત થયા છે. આ અવસરની મહત્તા સમજીને ઉચિત બ્ય કરવા જોઇએ. ત્રસ પર્યાય, પંચેન્દ્રિયવ અને મનુષ્યત્વ આદિ દ્રવ્યરૂપ અવસર મળ્યા છે. આ સાડી પચીસ આ દેશ રૂપ ક્ષેત્રની પ્રાપ્તિ થઇ છે અવસર્પિણી કાળના ચેથા આરા આદિ કાળની પ્રાપ્તિ થઇ છે અને ધમ અગીકાર કરવા રૂપ ભાવ ધ'નું શ્રવણ ધમ પર શ્રદ્ધા, ચારિત્રાવરણ કર્મ (ચારિત્ર માહનીય) ના ક્ષય અને ઉપશમ વડે પ્રાપ્ત થનારી વિતિ (સયમ) અને ધર્મમાં પરાક્રમ રૂપ ઉત્સાહ, આ સઘળા અનુકૂળ અવસરે પ્રાપ્ત થયા છે આ અવસરની તથા ચિન્તામણિ સમાન સમ્યગ્દર્શનની પ્રાપ્તિ સરલતાથી થતી નથી. એવુ તીર્થ કર ભગવાને ફરમાવ્યુ છે આ વાતને સમજીને આત્મતિને માટે પ્રયત્ન કરવા જોઈ એ. પુણ્યકર્મ નહી કરનારને બેધિની પ્રાપ્તિ થવી દુર્લભ છે. કહ્યું પણ છે કે સÛહિત ચોદુ ત્યિાદિ For Private And Personal Use Only Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे - छाया लब्धां च बोधिमकुर्वन् अनागतां च प्रार्थयमानः । अन्य दत्त्वा बोधि लप्स्यसे कतरेण मूल्ये नेति ॥१॥ एवं जिनोक्तां बोधिं दुर्लभां विज्ञाय, सर्वदा ज्ञानप्रापकद्रव्यक्षेत्रादि न मिलति बोधिरपि न सुलभेति विचार्य, 'सहिए' सहित:-हितेन सम्यग्ज्ञानादिना संपन्नः 'अहिषासए' अधिपश्येत् विचारयेत् । 'जिणो' जिनः आदिनाथजिनः 'आह' आह कथितवान् अन्यैरपि तीर्थकरैरिदमेव वस्तु उपदिष्टम् , तत्राह 'सेसका' शेषकाः अन्यतीर्थकरा अपि 'इणमेव' इदमेव आदिनाथेन यत् प्रतिपादितं तदेव कथितवन्तः ॥१९॥ बालों को पुनः बोधि की प्राप्ति होना कठिन है । कहा भी है - "लद्वेल्लियं च बोहि" इत्यादि 'जो पुरुष प्राप्त बोधि का सदुपयोग नहीं करता अर्थात् उसके अनुसार अतुष्ठान नहीं करता और भविष्यत्कालीन बोधि की अभिलाषा रखता है, अर्थात् यह चाहता है कि भविष्य में मुझे पुनः बोधि प्राप्त हो, वह दूसरों को बोधि देकर क्या मूल्य चुका कर पुनः बोधि प्राप्त करेगा? तात्पर्य यह है कि वर्तमान में प्राप्त बोधि के अनुसार कार्य करना ही भविष्य में प्राप्त होने वाली वोधि का मूल्य चुकाना है । जो ऐसा नहीं करता उसे भविष्य में पुनः बोधि प्राप्त नहीं होती । ___अतएव बोधि प्राप्त कराने वाले द्रव्य क्षेत्र आदि का तथा बोधि का फिर मिलना सरल नहीं है, ऐसा विचार करके, सम्यग्ज्ञानादि से युक्त होकर ऐसा सोचे कि आदिनाथ भगवान ने ऐसा कहा है और अन्य तीर्थंकरों का જે પુરૂષ પ્રાપ્ત થયેલ ધિને સદુપયોગ કરતા નથી એટલે કે તેના અનુસાર અનુષ્ઠાન કરતું નથી અને ભવિષ્યકાલીન બોધિની અભિલાષા રાખે છે, એટલે કે ભવિષ્યમાં મને ફરીથી બોધિની પ્રાપ્તિ થાય એવી અભિલાષા સેવે છે, તે અન્યને બોધિ દઈને કર્યું મૂલ્ય ચુકવીને પુનઃ બોધિની પ્રાપ્તિ કરશે? આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે વર્તમાનમાં બોધિને સદુપયોગ કરે એજ ભવિષ્યમાં પ્રાપ્ત થનારી બેધિનું મૂલ્ય ચુકવવા સમાન છે જે પુરુષ એવું કરતો નથી તેને પુનઃ બોધિ પ્રાપ્ત થતી નથી તેથી જ એવું કહ્યું છે કે બોધિ પ્રાપ્ત કરાવનારા દ્રવ્ય, ક્ષેત્ર આદિને તથા બેધિની પ્રાપ્તિનો અવસર ફરી પ્રાપ્ત થ દુર્લભ છે. એ વિચાર કરીને, સમ્યજ્ઞાન આદિથી યુકત થઈને એવું વિચારવું જોઈએ કે આદિનાથ ભગવાને એવું જ કહ્યું For Private And Personal Use Only Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - ६८२ समयार्थ बोधिनी टोका प्र. श्रु. अ. २ उ. ३ साधूनां पीरबहोपसर्ग सहनोपदेशः, पुनः सूत्रकार अमुमेवार्थमाह -- 'अभविंसु' इत्यादि । अभविसु पुरा वि भिक्खयो आएसा वि भवंति सुब्बया। एयाई गुणाई आहु ते कासवरस अणुधम्मचारिणो ॥२०॥ छाया अभवन् पुरापि भिक्षवः आगामिनश्च भविष्यन्ति सुव्रताः । एतान् गुणानाहुस्ते काश्यपस्य धर्माऽनुचारिणः ॥२०॥ अन्वयार्थः (भिक्खयो) हे भिक्षवः (पुरा वि) पूर्वकालेपि (अभविसु) अभूवन ये सर्व ज्ञास्तीर्थकराः, तथा (आएसा वि) आगामिनश्च (भवति) भविष्यन्ति (ते) ते सर्वे भी यही उपदेश है । अर्थात् जो आदिनाथ भगवान ने प्रतिपादन किया है, वही शेष तीर्थंकरों ने भी कहा है ॥१९॥ सूत्रकार पुनः यही कहते हैं "अभविंसु" इत्यादि । शब्दार्थ-'भिक्खयो--भिक्षवः' हे साधुओ ! 'पुरा वि--पुरापि पूर्व कालमें भी 'अभविंसु-अभूवन' जो सर्वज्ञ हो चुके और 'आएसा वि--आगामिनश्च भविष्यकाल में 'भवंति-भविष्यन्ति' जो होने वाले हैं 'ते--ते' वे 'सुव्यया-सुव्रताः' मुन्नत पुरुषो ने 'एयाई--एतान्' इन्हीं 'गुणाई--गुणान्' गुणों को 'आहु--आहुः' मोक्षका साधक कहा है, तथा 'कासवस्स-काश्यपस्य' भगवान ऋषभदेव अथवा भगवान् महावीर स्वामी के 'अणुधम्मचारिणो--अनुधर्मचारिणः' अनुयायी योंने भी यही कहा है ॥२०॥ છે અને અન્ય તીર્થકરોએ પણ એ જ ઉપદેશ આપે છે એટલે કે આદિનાથ ભગવાને જે પ્રતિપાદન કર્યું છે. એજ બાકીના તીર્થકરેએ પણ કહ્યું છે. આ ગાથા ૧૯ सूत्रा२ ३३१ मे पात - 'अभिवि सुत्याशहाथ-'भिक्खयो-भिक्षवः साधुमे। 'पुग वि-पुरापि' पूर्वमा ५ अभवि सु. अभवन् सय युरेत छ भने 'आपलावि-आगामिनश्च भविष्यमा भवति-- भविष्यन्ति' से थवावाणा छ तेते ते 'सुव्यया--सुव्रताः' सुव्रत धुषार 'एयाइ.. पतान्' २॥गुणाई-गुणान्' शुशाने 'आहु--आहुः' भावना सा स तथा 'कासवस्स-काश्यपस्य' गान् ५ महे१०७ मथा भावान भावीर स्वामीना 'अणुधम्मचारिणो-अनुधर्मचारिणः' अनुयायीमागे ५५ २ प्रमाणे . ॥ २० ॥ For Private And Personal Use Only Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे ६८३ (सुव्यया)सुत्रताः शोभनव्रताः, (एयाई) एतान् अनंतरकथितान् (गुणाई) गुणान् (आहु) आहुः कथितवन्तः, तथा (कासवस्स) काश्यपस्य ऋषभदेवस्य महावीरस्य वा(अणुधम्मचारिणो) अनुवर्मचारिणः सर्वेपि अनुचीर्णधर्मचारिणः एतानेव गुणान् सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकान् मोक्षमार्गमाहुरिति ॥२०॥ टीका'भिक्खयो' हे भिक्षवः! 'पुरा वि' पुरापि-पूर्वकालेऽपि ये तीर्थकरा जाताः तथा 'आएसा वि' अग्रेऽपि ये भविष्यत्कालेपि 'भवंति' भविष्यन्ति, 'ते मुच्चया ते मुव्रताः, सम्यगव्रतधारिणोऽभूवन भविष्यन्ति वर्तमानेपि सन्ति महाविदेहापेक्षया ते सर्वेऽपि 'एयाई गुणाई आहु' एतान् गुणानाहुः-एतानेव गुणान् मोक्षकारणतया कथयन्ति । तथा 'कासवस्स अणुधम्मचारिणो' काश्यपस्यानुधर्मचारिणः-*पभस्वा अन्वयाथ:हे भिक्षुओ ! पूर्वकाल में भी जो सर्वज्ञ तीर्थकर हुए हैं तथा आगे जो होंगे उन सभी शोभन व्रत वालों ने इन पुर्वोक्त गुणों का कथन किया है और जो काश्यप अर्थात् भगवान् ऋपदेव या महावीर के अनुधर्मचारीअनुगामी हैं, उन सब ने भी सम्यग्ज्ञान दर्शन चारित्र और तप को मोक्षमागे कहा है ॥२०॥ ___ -टीकार्थहे भिक्षुओ ! अतीतकाल में भी जो तीर्थकर हुए हैं, तथा भविष्यकाल में जो तीर्थकर होंगे, वे समीचीन व्रतों के धारक थे, होंगे और महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा वर्तमान काल में हैं । उन सभी ने इन्हीं गुणों को मोक्ष का -सूत्राथહે ભિક્ષુઓ ! પૂર્વકાળમાં જે સર્વજ્ઞો થઈ ગયાં છે, અને ભવિષ્યમાં જે સર્વજ્ઞ તીર્થકર થવાના છે, તેઓ સમીચીન વ્રતના ધારક હતા અને હશે. તેમણે પૂર્વોક્ત ગુણોનું જ પ્રતિપાદન કર્યું છે અને કરશે, અને જે કાશ્યપ (કાશ્યપ ગોત્રીય મહા વીર) અને ભદેવના અનુગામીઓ છે. તેમણે પણ સમ્યગુ જ્ઞાન દર્શન ચારિત્ર. અને તપને મોક્ષમાર્ગ રૂપ કહેલ છે. ર૦૧ - - હે ભિક્ષુઓ ! ભૂતકાળમાં જે તીર્થકર થઈ ગયા છે, તેઓ યોગ્ય વ્રતના ધારક હતા. ભવિષ્યમાં જે તીર્થકરે થશે તેઓ પણ ગ્ય વ્રતના ધારક હશે. અને મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં વર્તમાનકાળે જે તીર્થક વિદ્યમાન છે તેઓ પણ યોગ્ય વ્રતના ધારક છે તે સઘળા તીર્થકરોએ પૂર્વોકત ગુણોને જ મોક્ષના સાધક કહ્યા છે અને કહેશે. ઋષભદેવ ભગવાન અને મહાવીર પ્રભુના અનુયાયીઓ પણ એવું જ પ્રતિપાદન કરે છે For Private And Personal Use Only Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६८४ समयार्थ बोधिनी टीका प्र. शु. अ. २ उ. ३ साधूनां परिषहोपसर्ग सहनौपदेशः for महावीरस्वामिनो वा ये अनुयायिनः, तेऽपि इत्थमेव प्रतिपादयिष्यन्ति, प्रतिपादितवन्तश्च प्रतिपादयंति च ज्ञानदर्शनचारित्रतपांसि मोक्षमार्गत्वमिति || २० | पूर्वोक्तगुणानां नामधेयं वदति सूत्रकारः - 'तिविहेण वि' इत्यादि । मूलम् - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ ३ तिविहेण विपाण मा हणे आयहिए अणियाणसंवुडे | ४ ६ ८ ૭ ९ १० १२ ११ एवं सिद्धा अनंतसो संपड़ जे य अणागयावरे ॥ २१ ॥ छाया त्रिविधेनापि प्राणान् मा हन्यादात्महिताऽनिदानसंवृतः एवं सिद्धा अनन्तशः संप्रति ये चानागता अपरे ||२१|| कारण कहा है और कहेंगे । जो ऋषभदेव या महावीर के अनुयायी हैं, वे भी ऐसा ही प्रतिपादन करेंगे या उन्होंने ऐसा ही प्रतिपादन किया है कि ज्ञान, दर्शन चारित्र और तप ही मोक्षमार्ग है ॥२०॥ सूत्रकार अब उन गुणों का नामोल्लेख करते हैं - "तिविहेण वि" इत्यादि । शब्दार्थ - 'तिविहेण वि - त्रिविधेनापि मन वचन और काय इन तीनों से 'पाण मा हणे -प्राणान् मा हन्यात्' प्राणियों का वध नहीं करना चाहिये 'आयहिए - आत्महितः' अपने हितमें प्रवृत्त 'अणियाण संबुडे - अनिदानसंवृतः स्वर्ग आदिकी इच्छारहित तीनगुप्तियों से गुप्त रहना चाहिए। एवं- एवम्' इस प्रकार 'अनंतसो - अनंतरा : ' अनन्त जीव 'सिद्धा - सिद्धा: ' सिद्ध हुवे हैं तथा 'संप - संप्रति' वर्तमान कालमें 'जे य अवरे अणागया- ये च अपरे अनागताः' और भविष्यकाल में भी दूसरे अनंत जीव सिद्धिको प्राप्त करेंगे ||२१|| અને કરશે કે જ્ઞાન, દર્શન ચારિત્ર અને તપ રૂપ ત્રિના જ મેાક્ષની પ્રાપ્તિ કરાવનાર હેવાથી મેક્ષમાગ રૂપ છે. ાગાથા ૨૦ના हवे सूत्रार ते गुणोनो नाम साथै निर्देश उरे छे- "तिविहेण वि" इत्यादि शब्दार्थ - 'तिविहेण वि - त्रिविधेनापि भन, वयन भने अय मा त्रायुर्थी 'पाण माहणे - प्राणान् मा हन्यात् प्राणीयोनो वध ना खोले 'आयहिए - आत्महितः' पोताना हितमा प्रवृत्त 'अणियाणस वुडे--अनिदानसं वृतः' स्वर्ग वगेरेनी इच्छारहित त्रषु गुप्तिमोथी गुप्त रहेवु लेखे, 'एव पवम्' या अरे 'अण' तसो - अनंतशः' मनन्तऴ्व 'सिद्धा-सिद्धाः' सिद्ध थया छे तथा 'संपइ-संप्रति' वर्तमानअणमा 'जे य अवरे अणागया ये च अपरे अनागताः' भने लविष्यअणमां पशु जीन्न अनंत लव સિદ્ધિને પ્રાપ્ત કરશે. ૫ ૨૧ ॥ For Private And Personal Use Only Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थ:(तिविहेण वि) त्रिविधेनापि मनोवाकायेन (पाण मा हणे) प्राणान् मा हन्यात् (आयहिए) आत्महितः (अणियाणसंवुडे) अनिदानसंवृतः-अनिदानः स्वगावाप्त्यादिलक्षणनिदानरहितः तथा इन्द्रियनाइन्द्रियमनोवाकायैर्वा संवृतः त्रिगुप्तिगुप्तोभवेदित्यर्थः, ‘एवं' एवमनेन पूर्वोक्तानुष्ठानाचरणेन(अणंतसा) अनन्तशः (सिद्धा)सिद्धाः सिद्धि मोक्ष प्राप्ताः । तथा (संपइ)संप्रति-वर्तमानकाले(जे य अवरे अणागया) थे चापरे अनागताः, तेप्यनन्तशो जीवाः सिद्धिं यास्यन्तीति॥२१॥ टीका 'तिविहेग वि त्रिविधेनापि-त्रिविधेन मनोवाकायेन कृतकारितानुमतिरूपेण वाऽपि 'पाण मा हणे' प्राणान्-दशविधप्राणभाजल सस्थावरान् मा हन मा हन्यात् कीदृशः सन्नित्याह 'आयहिए' आत्महितः आत्महिते प्रवर्त्तमानः । यो हि आत्महित -अन्वयार्थ तीनों ही प्रकार से अर्थात् मन वचन और काय से प्राणियों की हिंसा नहीं करना चाहिए । तथा आत्मा के हित में तत्पर, स्वर्गमाप्ति आदि की इच्छारूप निदान से रहित और इन्द्रिय एवं मन से तथा मन वचन काय से संवरयुक्त होकर अर्थात् तीनों गुप्तियों से गुप्त होकर अनन्त जीव सिद्धि को प्राप्त हुए हैं, हो रहे हैं और होंगे ॥२१॥ __-टीकार्थतीन प्रकार से अर्थात् मन वचन काय से और कृतकारित अनुमोदना से दश प्रकार के प्राणों के धारक त्रस या स्थावर जीवों का हनन न करे। आत्महित में प्रवृत रहे । जो आत्मा के हित की इच्छा करता है, वह मन वचन सूत्राथ ત્રણે પ્રકારે એટલે કે મન, વચન અને કાયાથી પ્રાણીઓની હિંસા કરવી જોઈએ નહીં તથા આત્મહિતને માટે તત્પર રહેવું જોઈએ. સ્વર્ગ પ્રાપ્તિ આદિ રૂપ નિદાન (નિયાણુ)થી રહિત થવું જોઈએ. ઇનિ અને મનને વશ રાખવા જોઈએ, મન, વચન અને કાયથી સંયુકત થવું જોઈએ એટલે કે મને ગુપ્ત વચનગુપ્ત અને કાયગુપ્ત થવું જોઈએ આ પ્રકારે સંચમ આરાધના કરીને અનંત જી સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી ચુક્યા છે પ્રાપ્ત કરે છે અને પ્રાપ્ત કરશે. ર૧ ) -टीત્રણ પ્રકારે એટલે કે મનથી, વચનથી અને કાયાથી, તથા કૃત કારિત અને અનુમદના દ્વારા દસ પ્રકારના પ્રાણોને ધારણ કરનારા ત્રસ અથવા સ્થાવર જેની હિંસા કરવી જોઈએ નહીં આત્મહિતમાં પ્રવૃત્ત રહેવું જોઈએ જેઓ આમાનું હિત ચાહતા For Private And Personal Use Only Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८६ बोधिनी टीका प्र. अ. अ. उ. ३ साधूनां परिषहोपसर्ग सहनोपदेशः मिच्छति, स मनेोवाक्कायैर्जीवहिंसां न कुर्यात् । एतावता अहिंसावतोपदेशः कृतः, इदमुपलक्षणं सर्वेषा महाव्रतानाम् अस्तेयादीनाम् एतानि अहिंसावतरक्षणे वाटिकारूपाणि सन्ति पुनश्च 'अणियाणसबुडे' अनिदानसंवृतः - निदान - मायाशल्यनिदानशल्य मिथ्यादर्शनशल्यरूपम्, तद्रहितोऽनिदानः, तथा इन्द्रियनेोइन्द्रियमनेrवाकायैः संवृतः त्रिगुप्तिगुप्तः, एवम्-यथेोक्तप्रकारकानुष्ठानेन 'अणत्सा' अनन्तशः अनेके जीवाः भूतकाले 'सिद्धा' सिद्धिं संप्राप्ता तथा 'संपइ जे य अवरे अणागया' संप्रति वर्त्तमानकालिका महाविदेहे, ये चानागता अपरे, वर्तमानकाले ये विद्यन्ते, ये चाऽनागतका लेपि, ये जीवाः तेsपि यथोदितधर्मानुष्ठानात् सिद्धिं यास्यन्ति || २१ || धर्मास्वामी जंबूस्वामिनं प्राह - ' एवं से उदाहु' इत्यादि । मूलम् - १ २ ३ ४ ६ एवं से उदाह अगुत्तरनाणी अणुत्तरदंसी अणुत्तरणापदंसणधर For Private And Personal Use Only ૬ < ९ १० ११ १२ अरहा नायपुत्ते भगवं वेसालिए वियाहिए ॥ त्ति वेमि ॥२२॥ काय से जीवहिंसा न करे । इस कथन के द्वारा अहिंसा व्रत का उपदेश किया गया है। यह कथन अहिंसावत की रक्षा के लिए वाडके समान अस्तेय आदि अन्य समस्त व्रतों का उपलक्षण है । तथा निदान नामक शल्य से रहित हो, इन्द्रिय नो इन्द्रिय तथा मन वचन काय से संवर युक्त हो अर्थात् तीन गुप्तियों से गुक्त हो । इस प्रकार से आचरण करता हुआ पुरुष अवश्य सिद्धि प्राप्त करता है । ऐसा करके अनन्त जीवों ने सिद्धि प्राप्त की है । वर्तमान काल में महाविदेह क्षेत्र में जो आज विद्यमान हैं और भविष्यकाल में जो होंग वे भी पूर्वोक्त धर्म का अनुष्ठान करके ही सिद्धि प्राप्त करेंगे || २१ ॥ હોય તેમણે મન, વચન અને કાયા વડે જીવડુંસા કરવી જોઈ એ નહી કથન દ્વારા અહિંસા વ્રતના ઉપદેશ આપવામાં આવ્યે છે. આ કથન અહિંસાવ્રતની રક્ષાને માટે વાડના સમાન અસ્તેય આદિ સમસ્ત તેનુ પણ ઉપલક્ષક છે. તથા સાધુએ નિદાન (निया ) उधी शस्यश्री रहित श्रत्रु लेखे भने इन्द्रियो भन, तथा मन, वचन अने કાયાથી સવયુકત થવું જોઈ એ. એટલે કે મનશુખ્ત, વચનગુપ્ત અને કાળુપ્ત થવુ જોઇએ. આ પ્રકારનું આચરણ કરનાર પુરુષ અવશ્ય સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરે છે આ પ્રકારના આચરણ દ્વારા ભૂતકાળમાં અનંત જ્વાએ સિદ્ધિ પ્રાપ્ત કરી છે, મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં આ પ્રકારનુ આચરણ કરીને વમાન કાળે પણ અનેક જીવો મુકિત પ્રાપ્ત કરી રહ્યા છે અને અનેક જીવા ભવિષ્યમાં પણ મુક્તિ પ્રાપ્ત કરશે ાગાથા ૨૧૫ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सूत्रकृताङ्गसूत्रे www.kobatirth.org छाया Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एवं स उदाहृतवान्ननुत्तरज्ञान्यनुत्तरदर्शी अनुत्तरज्ञानदर्शनधरः । अर्हन ज्ञातपुत्रेो भगवान् वैशालिको व्याख्यातवानिति त्रवीमि ||२२|| अन्वयार्थ: (i) एवमनेन प्रकारेण (से) सः - ऋषभस्वामी (उदाह) उदाहृतवान् = कथितवान् (अणुत्तरनाणी) अनुत्तरज्ञानी - केवलज्ञानवान् (अणुत्तरदेसी) अनुतरदर्शी - केवलदर्शी (अणुतराणदंसणधरे) अनुत्तरज्ञानदर्शनघर :- सकलकर्मक्षयकारकः ( नायपुत्ते) ज्ञातपुत्र: (अरहा) अर्हन् ( भगवं ) भगवान - वर्द्धमानस्वामी स्वामी वा ( वैसा लिए) वैशालिक:- विशालाजननीजातो महावीरः, (वियाहिए ) व्याख्यातवान् । (तिवेमि) इत्यहं तुभ्यं ब्रवीमि कथयामीति ||२२|| ६८७ सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं - “ एवं से उदाहु" इत्यादि । शब्दार्थ - ' एवं - एवम्' इस प्रकार 'से- सः' ऋषभ स्वामीने 'उदाहुउदाहृतवान्' कहा था 'अणुचरनाणी - अनुत्तर ज्ञानी' उत्तम ज्ञान वाले 'अणुत्तरदेसी - अनुत्तरदर्शी' अनुत्तर दर्शन वाले 'अणुत्तरे नाणदंसणधरे अनुत्तरज्ञानदर्शनधरः " उत्तम ज्ञान और दर्शन को धारणकरने वाले 'अरहा - अर्हन्' इन्द्रादि देवों के पूज्य 'नाय पुते - ज्ञातपुत्र: ' ज्ञातपुत्र 'भगवं - भगवान्' ऐश्वयदि गुणवाले वर्धमान स्वामीने 'वेसालिए- वैशालिके' विशालानगरी में वियाहिए - व्याख्यातवान्' कहा था 'तिमि - इति ब्रवीमि' ऐसा मैं कहता है ||२२|| - अन्वयार्थ - इस प्रकार उन ऋषभदेव ने कहा था । अनुत्तर ज्ञानी अनुत्तरदर्शी अनुत्तर ज्ञान दर्शन के धारक, समस्त कर्मों का क्षय करने वाले, अर्हत ज्ञातपुत्र भगवान वर्द्धमान स्वामी ने भी विशाला नगरी में ऐसा ही कहा था || २२ | For Private And Personal Use Only सुधर्मा स्वाभी भूस्वाभीने उडे छे “एवं से उदाहु" त्यादि " સાન शब्दार्थ' - 'एव - एवम्' मा प्रअरे 'से सः' ऋषल स्वाभीये 'उदाहु-उदाहृतरानः धु ं तु 'अणुत्तरनाणी - अनुत्तरज्ञानी' उतम ज्ञानवाणा 'अणुत्तरद सी - अनुत्तरदर्शी ' અનુત્તર દનવાળા 'अणुत्तरनाद सणधरे-- अनुत्तरज्ञानदर्शनधरः उत्तम भने दर्शनने धार उरवावाणा 'अरहा - अर्हन' न्द्रि वगेरे हेवाने पूज्य 'नायपुत्ते ज्ञातपुत्रः ज्ञातपुत्र 'भगवं भगवान' मैश्वर्य' वगेरे गुणुवाणा वर्धमान स्वाभीये 'बेसालिएवैशालिके' विशाला नगरीभां वियाहिप - व्यख्यातवान्' उडेल तु' 'ति बेमि- इति ब्रवीमि ' એવું જ હું કહુ છું. ॥ ૨૨ ॥ સૂત્રા ઋષભદેવ ભગવાને પૂર્વાકત મુકિતમાર્ગનું પ્રતિપાદન કર્યું હતું. અને અનુત્તરજ્ઞાની અનુત્તરદર્શી અનુત્તર જ્ઞાનદર્શનના ધારક, સમસ્ત કર્મોનો ક્ષય કરનારા જ્ઞાતપુત્ર વૈશાલિક અતિ ભગવાન વમાન સ્વામીએ પણ એવું જ પ્રતિપાદન કર્યું છે રા Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८८ समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. ३ साधूनां परिषदोपसर्ग सहनोपदेशः टीका(एवं) एवम्-पूर्वोक्तप्रकारेण 'से' सः-भगवान् ऋषभस्वामी बद्धमानस्वामी वा 'उदाहु' उदाहतवान्-कथितवान् , स कथंभूतः तत्राह-'अनुत्तरणाणी अनुत्तरज्ञानी-अनुत्तरं-नास्ति उत्तरं प्रधानं यस्मात् तत् केवलज्ञानं तयुक्तः 'अणु त्तरदंसी' अनुत्तरदर्शी-सामान्यज्ञानं दर्शनं तद्युक्तः 'अणुचरणाणदंसणधरे' अनुत्तरज्ञानदर्शनयोर्धारयिता-अनुत्तरे ते ज्ञानदर्शने तयाधरः इति अनुत्तरज्ञान. दर्शनधरः 'नायपुत्ते ' ज्ञातपुत्रः 'अरहा' अर्हन-इन्द्रादिदेवः पूज्यः 'भगवं' भगवान ऐश्वर्यादिगुणसंयुक्तः । 'वेसालिए' शालिक:-विशाला त्रिशला, ततो जातो वैशालिकः, विशालं कुलं वा यस्य, विशालं वचनं यस्य स वैशालिकः महावीरः 'वियाहिए' व्याख्यातवान् 'त्तिवेमि, इनिब्रवीमि--इत्यहं भवद्भयः कथयामि॥२२॥ इति श्रीविश्वविख्यात-जगहल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलित-ललितकलापा लापकाविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक वादिमानमर्दक-श्री शाहच्छत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनाचार्य' पदभूषित कोल्हापुरराजगुरु बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधमदिवाकर पूज्य श्री घासीलालबतिविरचितायां सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य-समयाथेवोधिन्याख्यायां व्याख्यायां वैतालीयाख्यस्य द्वितीयाध्ययनस्य तृतीयोदेशकः समाप्तः२-३ ॥ समाप्तं द्वितीयाऽध्ययनम्।। टीकार्थपूर्वोक्त प्रकार से भगवान् ऋषभदेव या बद्धमान स्वामी ने कथन किया था । वह भगवान् किस प्रकार के थे, सो कहते है जिससे उत्तर अर्थात् बढ कर न हो उसे अनुत्तर कहते है । एसा अनुत्तर ज्ञान केवलज्ञान है । केवलज्ञान जिसे प्राप्त हो वह 'अनुत्तरज्ञानी' कहलाता है। सामन्य धर्मों का बोध दर्शन कहलाता है । जिनका दर्शन सर्वश्रेष्ठ हो वह 'अनुत्तरदर्शी है । सर्व श्रेष्ठ ज्ञान और दर्शन को धारण करने वाले 'अनुत्तरज्ञानदशेनधर' कहे जाते हैं दा ભગવાન ઋષભદેવ તથા અન્તિમ તીર્થકર મહાવીરે પૂર્વોકત ઉપદેશ આપે છે. તે ભગવાન કેવા હતા તે હવે પ્રકટ કરવામાં આવે છે. જેના કરતાં ઉત્તમ બીજી કોઈ પણ વસ્તુ ન હોય તેને અનુત્તર કહે છે એવું અનુત્તર જ્ઞાન કેવળજ્ઞાન ગણાય છે. જેમને કેવળજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થઈ હોય છે તેમને અનુત્તર જ્ઞાની કહેવાય છે. સામાન્ય ધર્મોના બંધનું નામ “દર્શન” છે જેમણે સર્વોત્તમ દશે. નની પ્રાપ્તિ કરી હોય છે. તેમને અનુત્તરદશી કહે છે સર્વશ્રેષ્ઠ જ્ઞાન અને દર્શનને ધારણ કરનારને “અનુત્તરજ્ઞાનદર્શનધરે કહેવામાં આવે છે એવાં અનુત્તર જ્ઞાનદર્શનધર જ્ઞાત For Private And Personal Use Only Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सूत्रकृताङ्गसूत्रे ६८९ ऐसे ज्ञातपुत्र अर्हन् अर्थात् इन्द्रादि देवों द्वारा पूज्य, भगवान् अर्थात् ऐश्वर्य आदि गुणों से युक्त, वैशालिक विशाला अर्थात् त्रिशला माता से उत्पन्न अथवा विशालकुल तथा वचन वाले महावीर ने ऐसा कहा है । सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं - हे जम्बू जैसा मैंने भगवान के मुख से सुना है वैसा मैं तुम्हें कहता हूँ ||२२|| Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर पूज्यश्री घासीलालजी महाराजकृत 'सूत्रकृताङ्ग' सूत्र की समयार्थबोधिनी व्याख्या का वैतालीय नाम का दूसरे अध्ययन का तीसरा उद्देशक समाप्त ॥२- ३ ॥ दूसरा अध्ययन संपूर्ण || २२ || પુત્ર, અન્ત (એટલે કે ઇન્દ્રાદિ દેવા દ્વારા પૂજનીય) ભગવાન (એટલે કે ઐશ્વર્ય આદિ ગુણાથી યુકત) વૈશાલિક (વિશાલા એટલે ત્રિશલામાતાની કૂખે ઉત્પન્ન થયેલા અથવા વિશાળ કુળ અને વચનવાળા) મહાવીર સ્વામીએ એવુ કહ્યુ છે સુધર્મા સ્વામી જણૢસ્વામીને એવુ કહે છે કે હું જ બુ ! મે' મહાવીર પ્રભુની સમીપે જેવુ' સાંભળ્યુ છે એવુ જ તમને કહું છું ગાથા ૨૨૫ શ્રી જૈનાચાર્ય જૈનધમ દિવાકર પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ‘સૂત્રકૃતાંગ’ સૂત્રની સમયાધિની વ્યાખ્યાના ચૈતાલીય નામના બીજા અધ્યયનના ત્રીજો ઉદ્દેશક समाप्त ॥ २-३ ॥ # દ્વિતીય અધ્યયન સમાપ્ત ॥ 節 For Private And Personal Use Only Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only