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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समथार्थ बोधिनी टीका प्र. श्र. अ. २ उ. २ निजपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५३७ मदकरणाभावे सति किं कर्तव्यं तदर्शयति सूत्रकारः-'जे यावी' इत्यादि जे यावि अणायगो सिया जेवि य पेसगपेसए सिया । ९ १० १२ ११ १३ जे मोणपयं उवहिए णोल्लज्जे समयं सयाचरे ॥३॥ छायायश्चाप्यनायकः स्यात् योऽपि च प्रेष्यप्रेष्यः स्यात् । यो मौनपदमुपस्थितो नो लज्जेत समतां सदाचरेत् ॥३॥ अन्वयार्थ:(जे यावि) यश्चापि (अणायगे) अनायकः नायकरहितस्वयंप्रभुश्चक्रवादिः अभिमान करने के अभाव में क्या करना चाहिए, सो सूत्रकार दिखलाते हैं "जे यावि इत्यादि । शब्दार्थ-'जे यावि-यश्चापि' जो कोई 'अणायगे-अनायकः' नायक रहित स्वयं प्रभु चक्रवर्ती आदि है 'य-च' तथा 'जेवि-योऽपि' जो 'पेसग पेसए सिया-प्रेषकप्रेषकः स्यात् । दास के भी दास है थे दोनों में 'जो-यः, जो कोई भी ‘मोणपयं-मौनपदं मौनपद अर्थात् संयममार्ग में 'उवहिएउपस्थितः उपस्थित हो ‘णो लज्जे-न लज्जेत, उन्हें लज्जा न करनी चाहिए किन्तु 'सया-सदा' सदा सर्व काल 'समयं चरे-समतां चरेत् , समभावसे व्यवहार करना चाहिए ॥३॥ जिस का कोई नायक नहीं है अर्थात् जो चक्रवर्ती आदि स्वयं प्रभु અભિમાનને પરિત્યાગ કરીને, શું કરવું જોઈએ તે હવે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે'जे यावि' त्या शा--'जे यापि-यश्चाधि 'अणायगे-अनायकः' नाय १२ स्वयं प्रयवती वगेरे छ. 'यच' तथा 'जेवि-योऽपि' 'पेसगपेलए-प्रेषकप्रेषक: हास ना पहास 'सिया स्यात्' डाय ते मानेमा 'मोणपय-मौनपद' भौनपह अर्थात् सयभभामा ‘उवहिप उपस्थितः' त भान डाय ‘णो लज्जेत-न लज्जेत' तेमाणे शभ न ४२वी ने. परंतु 'सया-सदा सदा 'समय चरे-समतां चरेत्' સમભાવથી વ્યવહાર કરે જોઈએ. રા . - सूत्रार्थ - જેમને કેઈ નાયક નથી એટલે કે ચક્રવર્તી આદિ જેલે પિતે જ સમર્થ છે, અને सू. ६८ अन्वयार्थ For Private And Personal Use Only
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
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