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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. अ. अ. १ उ. ३ रसेश्वरवादिमत निरूपम् ३९७ अन्वयार्थ:-- (इ) इह = अस्मिन् लोके ( एगेसि) एकेषां = रसेश्वरवादिनाम् (आहियं ) आख्यातं=कथितं=कथनं भवति यत् येऽस्मन्मतानुयायिनः सन्ति (ते) ते (सिद्धा य) सिद्धाr ( अरोगा य) अरोगाश्च भवन्तीति । किन्तु ते ( नरा) नराः = एवं वादिनः पुरुषाः (सिद्धिमेव ) सिद्धिमेव स्वमतसिद्धां सिद्धिमेव (पुरोकाउं) पुरस्कृत्य अन्येभ्यः प्रदर्श्य च (सासए) स्वाशये = स्वाग्रहे (गठिया) ग्रथिता: =अध्युपपन्नाः सन्ति । टीका रसेश्वरदर्शनमतानुयायिन एवं कथयन्ति ये रसेश्वरदर्शनमङ्गीकुर्वन्ति, से सिद्धपारदसिद्धिमेत्य तत्प्रभावेण वातपित्तकफविकारात्मकशरीर रोगान् सिद्धा य-सिद्धाश्व' सिद्ध और 'अरोगा य - अरोगाश्व' नीरोग होते हैं परंतु वे 'नरा - नरा:' इस प्रकार कहने वाले मनुष्य 'सिद्धिमेव - सिद्धिमेव ' स्वमत से सिद्ध ऐसी सिद्धिको ही 'पुरो काउं- पुरस्कृत्य : आगे रखकर 'सासए - स्वाशये ' अपने अपने दर्शन में 'गढिया - ग्रथिताः' आसक्त बने हुए हैं ||१५|| -अन्वयार्थ इस लोक में किन्हीं का अर्थात् रसेश्वरवादियों (रसायन शास्त्रवादियों) का कथन है कि जो हमारे मत के अनुयायी हैं वे सिद्ध और निरोग होते हैं । किन्तु ऐसा कहने वाले पुरुष स्वमत सिद्ध सिद्धि को ही आगे करके आर दूसरों को दिखला कर अपने आशय या आग्रह में ग्रस्तहो रहे हैं ||१५|| टीकार्य रसेश्वर दर्शनमत के अनुयायी ऐसा कहते हैं- जो रसेश्वर दर्शन को स्वीकार करते हैं वे सिद्धपारद सिद्धि को प्राप्त करके, उसके प्रभाव से बात सिद्ध भने 'अरोगा य- अरोगाश्च' नीरोगी होय छे, परंतु तेथे 'नरा नराः' या प्रारे डेवाणा भनुष्य 'सिद्धिमेव - सिद्धिमेव' पोताना भतथी सिद्ध खेवी सिद्धिने ४ पुरोकाउ - पुरस्कृत्य भागण राणीने 'सासए - स्वाशये' पोतपोताना दर्शनभां 'गढिया - प्रथिता:' आसत मनेा छे. ॥१५॥ - सूत्रार्थ - આ લેાકમાં રસેશ્વરવાદીએ (રસાયન શાસ્ત્ર વાદીઓ) એવું કહે છે કે અમારા મતના અનુયાયિઓ સિદ્ધિને પ્રાપ્ત કરનાર અને નીરેણી હેાય છે. પરન્તુ એવુ' કહેનારા પુરુષા સ્વમતસિદ્ધ સિદ્ધિને જ આગળ કરીને, અને બીજાની આગળ તેનું પ્રદર્શન કરીને પેાતાના આશય અથવા આગ્રહમાં જ ગ્રસ્ત થઇ રહ્યા હાય છે. ટીકાથ રસેશ્વર દન મતના અનુયાયીઓ એવું કહે છે કે જે રસેશ્વર દર્શન ના સ્વીકાર કરે છે, તે સિદ્ધપારદ સિદ્ધિને પ્રાપ્ત કરે છે, અને તેના પ્રભાવથી વાત, પિત્ત અને કફના For Private And Personal Use Only
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
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