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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समायथं बोधिनी टोका प्र. श्र. अ. १ उ. २ क्रियावादिनांकर्म चिन्ताराहित्यम् ३२३ अन्वयार्थः(जंच) यच्च (जाण) जानन्-मनसा (हिंसइ) हिनस्ति-प्राणिहिंसा करोति किन्तु (कारण) कायेन शरीरेण (अगाकुटो) अनाकुट्टी अहिंसकोऽस्ति, (ज च) यच्च (अबुहो) अबुधा बोधशून्यः मनोव्यापाररहितः सन् (हिंसइ) हिनस्तिजीवहिंसां करोति स (पुट्ठो) स्पृष्टः= पापस्पर्शमात्रवानेव (परं) परम्=तादृशकर्मफलं (संवेएइ) संवेदयति= अनुभवति स्पर्शमात्रेणैव फलं भुनक्तीत्यर्थः, तत् सावज सावध= पापम् (अवियत्तंखु) अव्यक्तमेव अपरिस्फुटमेव भवति, न तस्य पापस्य स्पष्टविपाको भवतीति भावः ॥२५।। शब्दार्थ-'जच-यच्च' जो 'जाणं-जानन्' मनसे जानता हुआ 'हिंसइ हिनस्ति' प्राणि हिंसा करता है परंतु कारण--'कायेन' शरीरसे 'अगाकुट्टीअनाकुट्टी, नहीं करता है 'जं च यच्च' और जो 'अबुहो--अबुधः' नहीं जाना हुआ 'हिंसइ--हिनस्ति' जीवहिंसा करता है 'पुट्ठो-स्पृष्टः' केवल स्पर्शमात्रसे 'परं-परम्' वैसे कर्म के फल को 'संवेएइ-संवेदयति' भोगता है 'सावज्ज-सावधम्' वह पापकर्म ‘अवियत्तं खु-अव्यक्तं खलु' अस्पष्ट ही है ॥२५॥ - -अन्वयार्थ____ जो मन से प्राणी की हिंसा करता है किन्तु काय से अहिंसक है, और जो अज्ञान मन के व्यापार के विना ही जीवहिंसा करता है, वह पापकर्म से सिर्फ स्पृष्ट होता है । वह उस कर्म के फल को स्पर्श मात्र से ही भोगता है। उसका वह पाप अव्यक्त होता है अर्थात् उस पाप का फल स्पष्ट नहीं होता ॥२५॥ ---'जच-यच्च जाण-जानन्' भनथा. नीने 'हिसइ-हिनस्ति' प्रालि हिसा ३ . परंतु कायण-कायेन' शरीरथी 'अणाकुट्टी-अनाकुट्टो सा ४२ता नथी. 'जच-यञ्च' भने । 'अवुहो-अबुधः' एया १३२ 'हिंसइ-हिनस्ति' सारे छ, 'पुट्ठो स्पृष्टः' अवदा २५श भारथी 'पर-परम्' मेवा मना ने संवेएइ-सवेदयति' सोगवे छ, 'सावज-सावद्यम्' ते पा५४म 'अवियत्तं खु-अव्यक्त खलु १२५४२४ छ. ॥२५॥ मन्वयाय - જે વ્યક્તિ મનથી જીવહિંસા કરે છે પણ કાયા વડે હિંસા કરતી નથી, તે વ્યક્તિ પાપ કમથી માત્ર પૃષ્ટ જ થાય છે એજ પ્રમાણે જે અજ્ઞાની જીવ મનના વ્યાપાર વિના જ જીવહિંસા કરે છે, તે જીવ પણ પાપકર્મથી માત્ર પૃષ્ટ જ થાય છે તે જીવ તે કર્મના ફળને સ્પર્શ માત્ર રૂપે જ ભેગવે છે તેનું તે પાપ અવ્યકત હોય છે એટલે કે તે કુળ स्पष्ट होतु नथी. ॥ २५॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
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