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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६८४ समयार्थ बोधिनी टीका प्र. शु. अ. २ उ. ३ साधूनां परिषहोपसर्ग सहनौपदेशः for महावीरस्वामिनो वा ये अनुयायिनः, तेऽपि इत्थमेव प्रतिपादयिष्यन्ति, प्रतिपादितवन्तश्च प्रतिपादयंति च ज्ञानदर्शनचारित्रतपांसि मोक्षमार्गत्वमिति || २० | पूर्वोक्तगुणानां नामधेयं वदति सूत्रकारः - 'तिविहेण वि' इत्यादि । मूलम् - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ ३ तिविहेण विपाण मा हणे आयहिए अणियाणसंवुडे | ४ ६ ८ ૭ ९ १० १२ ११ एवं सिद्धा अनंतसो संपड़ जे य अणागयावरे ॥ २१ ॥ छाया त्रिविधेनापि प्राणान् मा हन्यादात्महिताऽनिदानसंवृतः एवं सिद्धा अनन्तशः संप्रति ये चानागता अपरे ||२१|| कारण कहा है और कहेंगे । जो ऋषभदेव या महावीर के अनुयायी हैं, वे भी ऐसा ही प्रतिपादन करेंगे या उन्होंने ऐसा ही प्रतिपादन किया है कि ज्ञान, दर्शन चारित्र और तप ही मोक्षमार्ग है ॥२०॥ सूत्रकार अब उन गुणों का नामोल्लेख करते हैं - "तिविहेण वि" इत्यादि । शब्दार्थ - 'तिविहेण वि - त्रिविधेनापि मन वचन और काय इन तीनों से 'पाण मा हणे -प्राणान् मा हन्यात्' प्राणियों का वध नहीं करना चाहिये 'आयहिए - आत्महितः' अपने हितमें प्रवृत्त 'अणियाण संबुडे - अनिदानसंवृतः स्वर्ग आदिकी इच्छारहित तीनगुप्तियों से गुप्त रहना चाहिए। एवं- एवम्' इस प्रकार 'अनंतसो - अनंतरा : ' अनन्त जीव 'सिद्धा - सिद्धा: ' सिद्ध हुवे हैं तथा 'संप - संप्रति' वर्तमान कालमें 'जे य अवरे अणागया- ये च अपरे अनागताः' और भविष्यकाल में भी दूसरे अनंत जीव सिद्धिको प्राप्त करेंगे ||२१|| અને કરશે કે જ્ઞાન, દર્શન ચારિત્ર અને તપ રૂપ ત્રિના જ મેાક્ષની પ્રાપ્તિ કરાવનાર હેવાથી મેક્ષમાગ રૂપ છે. ાગાથા ૨૦ના हवे सूत्रार ते गुणोनो नाम साथै निर्देश उरे छे- "तिविहेण वि" इत्यादि शब्दार्थ - 'तिविहेण वि - त्रिविधेनापि भन, वयन भने अय मा त्रायुर्थी 'पाण माहणे - प्राणान् मा हन्यात् प्राणीयोनो वध ना खोले 'आयहिए - आत्महितः' पोताना हितमा प्रवृत्त 'अणियाणस वुडे--अनिदानसं वृतः' स्वर्ग वगेरेनी इच्छारहित त्रषु गुप्तिमोथी गुप्त रहेवु लेखे, 'एव पवम्' या अरे 'अण' तसो - अनंतशः' मनन्तऴ्व 'सिद्धा-सिद्धाः' सिद्ध थया छे तथा 'संपइ-संप्रति' वर्तमानअणमा 'जे य अवरे अणागया ये च अपरे अनागताः' भने लविष्यअणमां पशु जीन्न अनंत लव સિદ્ધિને પ્રાપ્ત કરશે. ૫ ૨૧ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
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