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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समपार्थ योधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. २ अशानिपुसां अप्राप्य पदार्थनिरूपणम् २९३ क्रोधम्' लोमानमायाक्रोधान् ‘विहूणिया 'विधूय-परित्यज्य । लोभादयो हि कषायाः, एतेषां परित्यागेन मोहनीयकर्मणः परित्यागो हि प्रतिपादितो भवति । मोहनीयकर्मणः परित्यागेन च सकलकर्मणां परित्यागः प्रतिपादितो भवति । उक्तंच "जह. मत्थयमईए, हयाए हम्मए तलो । तह कम्माणि हम्मंति, मोहणिज खयं गए ।। ९ ॥ छाया--यथा मस्तके सूच्या हतायां हन्यते तलः । तथा कर्माणि हन्यन्ते, मोहनीये क्षयं गते ॥ ९ ॥ इति ।। तेन जीवः 'अकम्मसे' इति अकर्मांश:---- न विद्यते कर्मणाम् अंशः यस्य सअकमांशः कमरहितो भवति । कर्मणां विनाशश्च सम्यग् ज्ञानात् जायते, न तु मिथ्याज्ञानात् । एतदेव दर्शयति--'एयम एतमर्थ कमीशाऽभावस्वरूपम् ‘मिए' ___ अन्वयार्थ और टीका सभी के अन्तःकरण में जिसका वास है, ऐसे लोभ को सर्वात्मक कहते हैं । व्युत्कर्ष का अर्थ मान है राम अर्थात् माया और अप्पत्तियं का मतलब है क्रोध । इस प्रकार लोभ, मान, माया और क्रोध से सम्पूर्ण मोहनीय कर्मका ग्रहण हो जाता है और मोहनीय कर्म से समस्त कर्मों का ग्रहण समझ लेना चाहिये । इस प्रकार लोभादि कषायों के त्याग से समस्त लोहनीय कर्म का त्याग समजना चाहिये मोहनीय कर्म के त्याग से सभी कर्मों के त्याग कों समजना चाहिए । कहा भी है "जह मत्थयाईए" इत्यादि । जैसे ताडवृक्ष के मस्तक में सूई का आघात होने पर तालवृक्ष सूख जाता है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म का क्षय होने पर समस्त कर्मों का घात हो जाता है ॥१॥ कों के क्षय से जीव 'अकर्मा' कर्मों से रहित हो जाता है। कर्मों का क्षय सम्यग्ज्ञान से होता है, मिथ्याज्ञान से नहीं । अज्ञानी जीव इस अर्थ को त्याग देता है अर्थात् कर्मक्षय रूप अर्थ से भ्रष्ट हो जाता है । સંપૂર્ણ મોહનીય કર્મનું ગ્રહણ થઈ જાય છે, અને મેહનીય કર્મ વડે સમસ્ત કર્મોનું ગ્રહણ થાય છે, એમ સમજવું, અને હનીય કર્મના ત્યાગથી સમરત કર્મોનો ત્યાગ સમજ ये धुं पर छे "जह मत्थयसूईए” त्या । જેવી રીતે તાડવૃક્ષના મસ્તક (ટોચ પર સેય ભેંકી દેવાથી તાડવૃક્ષ સૂકાઈ જાય છે, એજ પ્રમાણે મેહનીય કમેને ક્ષય થઈ જવાથી સમસ્ત કને ક્ષય થઈ જાય છે ||૧n, કર્મોને ક્ષય થઈ જવાથી જીવ’ અકસ્મ” (કર્મોથી રહિત) થઈ જાય છે. કર્મોને ક્ષય સમ્ય જ્ઞાનથી જ થાય છે, મિથ્યાશાનથી થતું નથી. અાની જીવ આ પદાર્થને ત્યાગ કરે છે For Private And Personal Use Only
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
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