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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - -- - समायर्थ बोधिनी टोका प्र. श्र. अ. १ उ. २ अज्ञानवादिमते दृषणप्रदर्शनम् ३०३ अन्वयार्थः(अन्नाणियाणं) अज्ञानिनाम्, न विद्यते ज्ञानं यस्याऽसौ अज्ञानी, न ज्ञानमज्ञानम् । अत्र विरोधो नबर्थः, तथा च ज्ञानविरोधी विपरीतज्ञानवानित्यर्थः । तेषामज्ञानिनां (वीमंसा) विशेषेण मीमांसा विचारः । (अप्पणे) आत्मीयपक्षे अज्ञानपक्षे इति यावत् । (न विनियच्छइ) न मुक्तो भवति । (अप्पणो) सः अज्ञानवादी स्वात्मानमपि (अणुसासिउं) अनुशासितुम् (नालम्) न अलं पर्याप्तः (अन्नाणु सासिउं) अन्यान् स्वेतरान् अनुशासितुं कुतोऽलम् कुतः पर्याप्तः स्यात् । शब्दार्थ-'अन्नाणियाण-अज्ञानिनाम् ' अज्ञानवादियोंका, 'विमंसा-विमर्शः' पर्यालोचनात्मक विचार 'अप्णाणे-अज्ञाने' अज्ञानपक्षमें 'न विनियच्छइ-न विनियच्छति' मुक्त नहीं होसकता है 'अप्पणो य-आत्मनश्च' अपने को भी 'अणुसा. सिउं-अनुशासितु' शिक्षा देनेकेलिये 'नालम्-न अलम्' पर्याप्त नहीं होते पुनः वे 'अण्णाणुसासिङ-अन्यानुशासितुम्' दूसरेको शिक्षादेनेमें कैसे समर्थ हो सकता है ? ॥१७॥ _ --अन्वयार्थ--- जिसे ज्ञान न हो वह अज्ञानी कहलाता है और ज्ञान नहीं सो अज्ञान । यहां नञ् समास विरोध के अर्थ में है। अतएव अज्ञानी का अर्थ हुआ ज्ञान विरोधी विपरीत ज्ञान वाला । अज्ञानियों का विशेष कथन यह है--अज्ञान ही श्रेष्ठ और श्रेयस्कर है, ऐसा विचार अज्ञान पक्ष में संगत नहीं है । अज्ञानी अपने को भी अनुशासित करने में समर्थ नहीं है तो दूसरों को अनुशासित करने में कैसे समर्थ हो सकता है ? अर्थात् जो अपने को ही नहीं समझ शहाथ-'अन्नाणियाण-अशानिनाम्' मशान वाहियाना 'विम सा-विमर्श:' पयांतीयनाम विया२ 'अप्पाणे-अज्ञा' अज्ञान पक्षणी 'न विनियच्छइ-न विनियच्छति भुत यशता नथी. 'अप्पणोवि-आत्मनश्च' पाताने ५५ 'अणुलासिउ-अनुशासितुं' शिक्षा ४२१॥ भाटे 'नालम्-न अलम्' पर्यायता नथी. शथी तेथे 'अण्णाणुसासिउ-- अन्यानुशासितु' मीतने वी ते शिक्षा मी शत ॥१७॥ -अन्वयार्थ - नामा ज्ञान न डाय तेने अज्ञानी छे. "शाननी मला भेटले. अज्ञान" अज्ञान પદમાં નગ સમાસવિરોધના અર્થમાં છે. તેથી અજ્ઞાની એટલે જ્ઞાનથી વિધી એવા. વિપરીત જ્ઞાનવાળે.” અજ્ઞાન જ શ્રેષ્ઠ અને શ્રેયસ્કર છે. એવી માન્યતા અજ્ઞાન પક્ષે સંગત નથી. અજ્ઞાની માણસે પોતાને અનુશાસિત કરવાને સમર્થ હતા નથી, તે અન્યને અનુશાસિત For Private And Personal Use Only
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
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