SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 649
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ योधिनी टीका प्र. श्रु अ. २ उ. ३ साधूनां परिषहोएसर्ग सहनोपदेशः ६३१ भवोपार्जितकम संवृतात्मनः संयमानुष्ठानेन क्षीयते। यः संवृतात्मा संयमानुष्ठानं पालयति, स जन्मजरामरणादिकं विधूय मोक्षं प्राप्नोति, इति।।१॥ दीक्षितोऽपि, कृतसंयमानुष्ठानोऽपि तस्मिन्नेव जन्मनि मोक्षं नासादयति, तादृशपुरुषविशेषमधिकृत्य किमपि ब्रूते सूत्रकारः-'ये विनवणाहि इत्यादि । मूलम् जे विनवणाहिऽजोसिया संतिनहि समं वियाहिया। तम्हा उडेति पासहा अदक्खु कामोई रोगवं॥२॥ छायाये विज्ञापनाभिरजुष्टाः संतीणे : समं व्याख्याताः। तस्मादृध्य पश्यत अद्राक्षुः कामान् रोगवत् ॥२।। हैं। जो संवृतात्मा संयमानुष्ठान का पालन करता है वह जन्म जरा मरण आदि को नष्ट करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥१॥ जो दीक्षित होकर भी और संयम का अनुष्ठान करके भी उसी जन्म में मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाता ऐसे पुरुषविशेष को लक्ष्य करके सूत्रकार कुछ कहते हैं- “जे विनवणाहिं इत्यादि ____ शब्दार्थ-'जे-ये' जो पुरुष 'विनवणाहि-विज्ञापनाभिः खियोंसे 'अजोसिया-अजुष्टाः' सेवित नहीं है वे 'संतिन्नेहि-सतीर्णैः' मुक्तपुरुषों के 'समं -समम्' समान 'वियाहिया-व्याख्याताः' कहे गये हैं 'तम्हा-तस्मात्' इसलिये "उड्डें-ऊध्यम स्त्री परित्याग के बादही 'पासह-पश्यत' मोक्षप्राप्त होता है ऐसा हे शिष्यो तुम जानो 'कामाई-कामान्' कामभोगों को जिन पुरुषों ने 'रोगवं -रोगवत्' रोगके तुल्य 'अदक्खु-अद्राक्षुः' देखे हैं वे मुक्त के तुल्य हैं ॥२॥ સંયમનુકાનનું પાલન કરે છે, તે જન્મ, જરા, મરણ આદિને નષ્ટ કરીને મોક્ષ પ્રાપ્ત ४ी से छे. ॥१॥ - જે પુરુષ દીક્ષા લઈને સંયમનું અનુષ્ઠાન કરવા છતાં પણ એજ જન્મમાં મિક્ષ પ્રાપ્ત કરી શકતે નથી, એવા પુરુષ વિશેષને અનુલક્ષીને સૂત્રકાર કહે છે કે__ "जे विनवणाहि" त्याह शहाथ---'जे-ये ५३५ विनवणाहि-विज्ञापनाभिः' स्त्रीमाथी 'अजोसियाअजुष्टाः' सेवित नथी, तो 'सतिन्नेहि-संतीण: भुत ५३वाना 'सम-समम्' समान 'वियाहिया-व्याख्याता'छ 'तम्हा-तस्मात् सेटसा भाटे 'उड्ढ-ऊधम्' स्त्री परित्या पछी १ 'पासह-पश्यत' मोक्ष प्रास थाय छ मे शिध्यो ! तमे । 'कामाई-कामान्' आमनागाने से पु३षामे 'रोगव-रोगवत्' शेजना तुख्य 'अदम्बुअद्राक्षुः युछे ते भुतना तुन्य छे. ॥२॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy