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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टोका मङ्गलाचरणम् गत्यर्थस्य मगि धातो रलच् प्रत्यये कृते मङ्गलमिति रूपं निष्पद्यते मंग्यते साध्यते हितं मोक्षादि अनेनेति मङ्गलम् तादृशं मङ्गलं साक्षात् क्रियासंवलितं ज्ञानमेव यतस्तादृशेन ज्ञानेनैवाशेषकर्मक्षयात्मकमोक्षजननात् परंपरया तीर्थकर - स्तदागमश्रभावपि मङ्गलं, ज्ञानद्वारेण तयोरपि मोक्षं प्रति प्रयोजकत्वात् । " " अथवा मंगो - धर्मस्तं लाति - इति मङ्गलम्, अर्थात् धर्मस्योपादाने कारण यत् तन्मंगलम् ला आदाने इति धातोर्मेगलपदव्युत्पत्तेस्तथा च धर्मोपादान कारणं यद् भवति तन्मंगलमिति । अथवा मं गालयतीति मङ्गलम् अर्थात् मं संसारप्रथम पद से ज्ञान का कथन किया गया है। ज्ञान संसार और संसार के कारणों का विनाशक है, aara उसका कथन मंगलरूप ही है । गति अर्थवाले "मगि" धातु से "अलच" प्रत्यय करने पर "मंगलम् " ऐसा रूप निष्पन्न होता है। जिसके द्वारा हित मोक्षादि साधा जाता है वह मंगल कहलाता है । ऐसा मंगल साक्षात् क्रियायुक्त ज्ञान ही है, क्योंकि इस प्रकार के ज्ञान के द्वारा ही समस्त कर्मों का क्षय रूप मोक्ष उत्पन्न होता है । परम्परा से तीर्थंकर भगवान् और उनका आगम दोनों मंगल हैं। क्योंकि ज्ञान के द्वारा वे दोनों भी मोक्ष के प्रति उपयोगी होते हैं । अथवा 'मंग' अर्थात् धर्म को जो लावे वह मंगल कहलाता है । अभिप्राय यह हुआ कि धर्म के उपादान में जो कारण हो वह मंगल है " ला " धातु आदान के अर्थ में है, इस प्रकार “मंगल" पद की व्युत्पत्ति मानने से जो धर्म का उपादान कारण हो वह "मंगल" कहलाता है । अथवा जो 'म' જ્ઞાનનું કથન કરવામાં અાવ્યુ` છે. સ`સાર અને સંસારનાં કારણેાનુ વિનાશક જ્ઞાનને ગણવામાં આવે છે; તેથી તેનું કથન મંગળરૂપ જ છે. गति अर्थवाला “मगि” धातुने “अलच् " प्रत्यय 'मंगलम् यह मन्युं छे. नेना द्वारा हित (भोक्षाहि साधी ‘મંગળ’ છે. એવું મંગળ સાક્ષાત્ ક્રિયાયુક્ત જ્ઞાન જ છે, જ્ઞાન દ્વારા જ સમસ્ત કર્મના ક્ષય રૂપ મોક્ષ ઉત્પન્ન થાય ભગવાન્ અને તેમના આગમ, અને મંગલ રૂપ જ છે, કારણ } જ્ઞાન દ્વારા તે અને મેાક્ષ સાધવામાં ઉપયોગી થઇ પડે છે. For Private And Personal Use Only लगाउवाथी "मंगलम्' शाय हे, तेनुं नाभ કારણ કે આ પ્રકારના છે. પર`પરાથી તીર્થંકર अथवा-- - "मंग" भेटखे धर्म धर्मने ने सावे तेनुं नाम मंगल छ, मा કથનના ભાવાથ એવા છે કે...... 'ધના ઉપાદાનમાં જે કારણરૂપ મંગલ કહે છે, “હા” ધાતુ આદાનના અર્થમા વપરાયા છે. ‘મ’ગળ' હોય છે તેને પદની આ
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
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