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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३०० www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रकृताङ्गसूत्रे - अन्वयार्थ : ( एवं ) एवम् = उक्त प्रकारेण ( अम्नाणिया) अज्ञानिकाः ज्ञानरहिता ब्रह्मणाः श्रमणाश्च ( सयं सयं) स्वकं स्वकं (नाणं) ज्ञानं ( वयंतावि) वदन्तोऽपि (निच्छयत्थं) निश्चयार्थ ( न जानंति) नैवजानन्ति । कथं न जानन्ति ? इत्याह-(मिलक्खुव) म्लेच्छा इव पूर्वप्रदर्शितम्लेच्छा इव (अवोडिया) अवोधिकाः बोधरहिता सन्ति, अतएव ते निश्रयार्थं न जानन्तीति भावः । यथा म्लेच्छा आर्य पुरुषस्याऽभिप्रायं परमार्थतोऽजानाना एव केवलं- आर्यभाषितमेवानुभाषन्ते तथा सम्यग् - ज्ञानरहिताः केचन ब्राह्मणा श्रमणाच स्वकीयं स्वकीयं ज्ञानं वदन्तोऽपि न निश्चितार्थस्य ज्ञातारः, परस्परविरुद्धार्थप्रतिपादकत्वादिति भावः || १६ || "वयं तावि वदन्तोऽपि' कहते हुये भी 'निच्छयत्थं नियार्थ' निश्चित अर्थको न 'जाणंति न जानन्ति' नहीं जानते हैं 'मिलक्खुच्च - म्लेच्छा इव' पूर्वोक्त म्लेच्छ के तुल्य 'अवोहिया अवोधिकाः बोधशून्य ही है ||१६|| ---अन्वायार्थ--- इसी प्रकार ये अज्ञानी ब्राह्मण और श्रमण अपने अपने ज्ञान का वखान करते हुए भी निश्चित अर्थ को नहीं जानते हैं। क्योंकि ये सव पूर्वोक्त म्लेच्छ के समान अबोडिया, अबोध हैं। जैसे म्लेच्छ आर्य पुरुष के अभिप्राय को वास्तविक रूप से नहीं जानते हुए केवल आर्य पुरुष के भाषण का अनुकरण ही करते हैं समझते कुछ नहीं सिर्फ ज्यों के त्यों शब्द उगल देते हैं, उसी प्रकार ज्ञान हीन ये ब्राह्मण और श्रमण अपने अपने ज्ञान का प्रतिपादन करते हुए भी निश्चित अर्थ के ज्ञाता नहीं है । ज्ञाता होते तो एक दूसरे से विरूद्ध प्ररूपणा क्यों करते ? ||१६|| -दन्तोऽपि वा छतां पशु 'निच्छ्यत्थ- निश्चयार्थ" निश्चित अर्थने 'न जाण ं ति--- जामन्ति' लगुता नथी. 'मिलक्खुध्व- म्लेच्छाइव' पडेला उडेला म्लेच्छोनी भ 'अबोदिन अयोधिकाः' मोध विनाना छे. ॥१६॥ .I -मन्वयार्थ - For Private And Personal Use Only એજ પ્રમાણે અજ્ઞાની બ્રાહ્મણેા અને શાકયાશ્રમણા ખેત પેતાના જ્ઞાનનાં વખાણુ કરવા છતાં પણ નિશ્ચિત અર્થ ચીઅનભિન્ન જ હોયછે, કારણ કે તેઓ પૂર્વકત મ્લેચ્છના જેવા અખાધ છે. જેવી રીતે આ પુરુષના વચનોના ભાવાર્થ નહી સમજવા છતા પણપૂવા કત મ્લેચ્છ તેમણે (આ પુરપે) ઉચ્ચારેલા વચનોનું વારંવાર ઉચ્ચારણ કરતા હતા એજ પ્રમાણે જ્ઞાનહીન આ બ્રાહ્મણા અને શાકયાદિ શ્રમણા તેઓ ધર્મ તત્વના યથાર્થ સ્વરૂપથી અજ્ઞાત જ હે છે. જો તેઓ જ્ઞાતા હોય, તો પરસ્પર વિરેાધી પ્રરૂપણા શા માટે કરત? ૫૧૬૫
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
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