SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 399
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समया बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. ३ पूर्वोक्तवादिनां फलप्राप्तिनिरूपणम् ३८१ पूर्वोक्तवादिनां कीदृशं फलं भवतीत्याह-"अमणुम" इत्यादि मूलम् . "अमणुन्नसमुपायं, दुक्खमेव विजाणिया । समुप्पायमजाणंता कहं नायंति संवरं ॥१०॥ छाया " अमनोज्ञसमुत्पादं दुःखमेव विजानीयात् । समुत्पादमजानंतः कथं ज्ञास्यन्ति संवरम् ॥१०॥ अन्वयार्थ (दुक्खं) दुःखम् चतुर्गतिपरिभ्रमणरूपम् (अमणुनसमुप्पाय एव) अमनोसमुत्पादमेव-कुमतस्थापनाद्यशुभाऽनुष्ठानजनितमेव भवति, इत्येवम् (विजाणिया) पूर्वोक्त वादियों को किस प्रकार के फल की प्राप्ति होती है, सो कहते हैं-अमणुन्न "इत्यादि । शब्दार्थ-दुक्ख-दुःखम्' दुःख 'अमणुनसमुप्पाय-अमनोज्ञसमुत्पादम्' अशुभअनुष्ठानसे ही उत्पन्नहोता है 'विजाणिया-विजानीयात्' यह जानना चाहिये 'समुप्पायं-समुत्पादम्' दुःख की उत्पत्तीका कारण 'अजाणता-अजानन्तः' न जानने वाले लोग 'संवर-संवरम्' दुःखके रोकने का उपाय 'कह-कथम्' कैसे 'नायति-ज्ञास्यन्ति' जान सकते हैं ? अर्थात् नहीं जान सकते ॥१०॥ अन्वयार्थचार गतियों में भ्रमणरूप दुःख, मिथ्यामत की स्थापना आदि अशुभ कार्यों से ही उत्पन्न होता है ऐसा जानना चाहिए। दुःख की उत्पत्ति હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે પૂર્વોક્ત મતવાદિએને ક્યા પ્રકારના ફળની प्राप्ति थाय छे“अमणुन" त्याह___शहाथ-'दुक्ख-दुःखम्' ५ 'अमणुन्नसमुप्पाय-अमनोज्ञसमुत्पादम्' अशुभ प्रवृत्ति थी अपन्न थाय छे. 'विजाणिया-विजानीयात्' 24 नये 'समुप्पाय समुत्पादम्' हु.मनी उत्पत्तीनु १२ 'अयाण ता-अजानन्त' - onjan वा मासो 'सवर-सवरम्' हुमने शवानी उपाय 'कह-कथम् वी शते 'नाति-ज्ञास्यन्ति' સમજી શકે છે, અર્થાતું નથી જાણી શકતા ૧૦ -सूत्राथ-. મિથ્યામતની સ્થાપના આદિ અશુભ કાર્યો કરવાથી, ચાર ગતિઓમાં ભ્રમણ રૂપ દુઃખ ઉત્પન્ન થાય છે. એમ સમજવું દુઃખની ઉત્પત્તિને આ કારણને નહીં જાણનારા અજ્ઞાની For Private And Personal Use Only
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy