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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र.श्रु अ. २ उ. १ भगववादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः ४७७ -अन्वयार्थः(देवा) देवाः देवताः (गंधधरक्खसा) गंधर्वराक्षसाः (असुरा) असुराः (भूमिचरा)भूमिचराः भूमौ पृथिव्यां चरणशीला:, (सरीसिवा) सरीसृपाः सदिय (राया) राजानः नृपाः (नरसेठिमाहणा) नरश्रेष्ठिब्रह्मणाः, नरा मनुष्याः श्रेष्ठिनः= नगरवेष्ठिनः ब्राह्मणाः असिद्धाः (तेवि) तेपि, ते उपयुक्ताः देवादयः सर्वे(दुक्खिया) दुःखिताःसन्तः (ठाणा) स्थानानि स्वकीयस्थानानि (चयंति) त्यजन्तीति सर्वे देवादयः दुःखिता एव स्वस्थानं परित्यजन्ति दुःखिताःअवश्यमेव भवन्तीति भावः ॥५॥ इस जगत् में जो कोई भी स्थान फलभोगके लिए नियत हैं, वे सब अनित्य ही हैं, यह बात सूत्रकार दिखलाते हैं- 'देवगंधब्वरक्खसा इत्यादि। शब्दार्थ- 'देवा--देवाः' देवताः ‘गंधव्वरक्खसा--गंधर्वराक्षसाः' गंधर्व राक्षस आदि तथा 'असुरा-असुराः' असुर भूमिचरा--भूमिचराः भूमिपर चलनेवाले 'सरीसिवा--सरिसृपाः' सरक कर चलनेवाले सर्पादि ‘राया--राजानः' राजा 'नरसेटिमाहणा--नरश्रेष्ठिब्राह्मणाः' मनुष्य, नगरशेठ और ब्राह्मण 'तेवि--तेपि वे उपयुक्त देवादिसब 'दुक्खिया-दुःखिताः' दुःखित होकर 'ठाणा-स्थानानि' अपने अपने स्थानोंको 'चयंति-त्यजन्ति' छोड़ते हैं ॥५॥ -अन्वयार्थ'देवा देवता, गन्धर्व,राक्षस, असुर, भूमिचर, सरीसृप-सर्प आदि राजा, सामान्यनर, सेठ, ब्राह्मण, इत्यादि सभीदुःखित हो कर अपने अपने स्थानोंको त्यागते हैं। अर्थात् वे अपने स्थान त्याग करते समय अवश्य दुःखी होते हैं, परन्तु स्थानका त्याग तो करना ही पड़ता है ॥५॥ આ જગતમાં કર્મનું ફળ ભોગવવા માટે જે કોઈ સ્થાને નિયત થયેલાં છે. તેઓ अनित्य । छ, से वात वे सूत्रधार ४८ ४२ छे. "देवगधवरक्खसा" त्या ... शहाथ-'देवा-देवाः' वा 'गधन्वरक्खसा-गंधर्व राक्षसाः' मध राक्षस विगेरे तथा 'असुरा-असुराः मसुर 'भूमिचरा-भूमिचराः' भीन ५२ यासा वाणा 'सरीसिवा-सरिसृपाः' स२४ ने याला वाणा सप विगेरे गया-राजानः' २२० 'नरसेवि महणा नरश्रेष्टिब्राह्मणाः' मनुष्य, नगररोड, भने माझा 'तेवि-तेपि ते पर प्रमाणे देव विगेरे मा 'दुक्खिया-दुःखिताः' हुमत धन'ठाणा-स्थानानि' पात पाताना स्थानन 'चयति-त्यजन्ति' छाडेछ. ॥ ५॥ सूत्रार्थ देवता, गन्ध, राक्षस, असुर, भूभियर, सी२५५ (सप माह) , सामान्य નર, શેઠ, બ્રાહ્મણ આદિ સૌ કઈ પિત પિતાના સ્થાનને ત્યાગ કરતા દુઃખી થાય છે, પરંતુ તે સ્થાને તેમણે ત્યાગ તે કરે જ પડે છે, પા For Private And Personal Use Only
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
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