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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टोका प्र. शु अ. २. उ. ३ साधूनां परिषहोपसर्ग सहनोपदेशः ६५५ अन्वयार्थः_ 'जीवियं' जीवितम् ‘संखयं' संस्कार्यम् (ण य आहु) न चाहुः=न कथयन्ति त्रुटितसूत्रवत्संधातुं न शक्यते जीवतमित्यर्थः,(तह वि य)तथापि च(बालजणो)बाल जनोऽज्ञानी (पगभइ) प्रगल्भते-पापकर्मणि धृष्टो भवति, स चाज्ञ एवं वक्ति'पच्चुप्पन्नेन कारियं' प्रत्युत्पन्नेन कार्यम्-वर्तमानकालवर्तिना मुखेनैव कार्यम् प्रयोजनम् (परलोय) परलोकं नरकादिकं स्वर्गादिकं वा (दटुं) दृष्ट्वा (को)कः (आगए) आगतः इति ॥१०॥ शब्दार्थ-'जीवियं-जीवितम्' जीवनको संखयं-संस्कारयम् संस्कार करने योग्य ‘ण य आहु-नचाहुः सर्वज्ञों ने नहीं कहा हैं अर्थात् त्रुटित सूत्र के जैसे सांधने योग्य नहीं है 'तह वि य-तथापि च' तोभी 'बालजणो-बालजनः अज्ञानी पुरुष 'पगभइ-प्रगल्भते' पाप कर्म करने में धृष्टता करते हैं वे ऐसा कहते हैं कि 'पच्चुपन्नेन कारियं-प्रत्युत्पन्नेन कार्यम्' वर्तमान सुख का ही मुझे प्रयोजन है 'परलोयं-परलोकम्' नरकादिक स्वर्गादिक परलोकको 'दट्टुं दृष्ट्वा' देख कर 'को-कः' कौन 'आगए-आगतः' आया है ॥१०॥ -अन्वयार्थजीवन संस्कार्य नहीं है अर्थात् टूटे हुए धागे के समान पुनः जोडा नहीं जा सकता ऐसा तीर्थकर भगवान् कहते हैं फिर भी अज्ञानी जन पापकर्म करने में धष्टता करते हैं । वे कहते हमें तो वर्तमानकालीन सुख से ही प्रयोजन है, स्वर्ग नरक आदि परलोक कौन देख कर आया है ? ॥१०॥ शहा- 'जीविय-जीवितम्' पनने 'सखय-संस्कार्यम्' २४.२ ४२वा योग्य 'ण य आहु-न चाहु.' सर्पज्ञान्ये डस नथी अर्थात् त्रुटित सूतरनी रेभ साधना योग्य नथी तहवि य-तथापि च तो ५ 'बालजणो-बालजनः' मसानो ५३५ 'पगभइ-प्रगसमते' पा५ ४ ४२पामा वृष्टता ४२ छ, तेसो छ । 'पच्चुपन्नेन कारियप्रत्युत्पन्नेन कार्यम्' वतमान सुगनु । भने प्रयोन छे. 'परलोय-परलोकम् । वगेरे वर्ग वगेरे परयो ने 'दंळु-दृष्ट्रवा' ने 'को-कः' । 'आगए-आगतः' भाव्यु छ. ॥१०॥ सूत्राथः (माथा १०) જીવન સંસ્કાર્ય નથી એટલે કે તૂટેલા દેરાની જેમ ફરી સાંધી શકાય એવું નથી, છતાં પણ અજ્ઞાની પુરુષ પાપકર્મ કરતાં લજજા કે સંકેચ અનુભવતા નથી. તેઓ એવું કહે છે કે અમારે તે વર્તમાનકાલીન સુખનું જ પ્રયોજન છે, સ્વર્ગ, નરક આદિ પરલેક કેણુ જેઈને આવ્યું છે, કે ૧૦ છે For Private And Personal Use Only
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
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