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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. १ उ. ४ अन्यवादिनां मतनिराकरणम् ४३५ एवं च दिवसात्मककाले सर्वपदार्थ सृजतो ब्रह्मणः सर्वविषयकमपरिमितज्ञानं भवति । यदा रात्रौ स्वपिति तावत्कालपर्यन्तं स परिमितमपि न जानाति, इति परिमितत्वेनाज्ञानमतो ज्ञानाज्ञानमुभयमपि संभवति । तदेवंभूतो बहुधा लोकप्रवादो वर्तते-इति भावः ॥ इति ॥७॥ .. 'एतेषां वादिनां मतं निराकर्नु स्वसिद्धान्ताऽभिप्रायमाविष्करोति सूत्रकारः-'जे केइ' इत्यादि। मूलम् जे केइ तसा पाणा चिट्ठति अदु थावरा। परियाए अस्थि से अंजू जेण ते तसथावरा-॥८॥ छाया ये केचित् त्रसाः प्राणास्तिष्ठन्त्यथवा स्थावराः। पर्यायोऽस्ति तेषामंजू येन ते त्रसाः स्थावरम् ॥८॥ 'चार हजार युग ब्रह्मा का एक दिन है।' ब्रह्मा दिन के समय जब सब पदार्थों की सृष्टि करता है तब उसे सभी पदार्थों का अपरिमित ज्ञान होता है। किन्तु रात्रि में जब वह सोता है तो उसे परिमित ज्ञानभी नहीं होता है । इस प्रकार परिमित अज्ञान होने के कारण उसमें ज्ञान और अज्ञान दोनों का संभव होते हैं। अभिप्राय यह है कि इस प्रकार के बहुत से लोक प्रवाद प्रचलित हैं ॥७॥ सूत्रकार इन वादियों के मतका निराकरण करने के लिए अपने सिद्धान्त का अभिप्राय प्रकट करते हैं-"जे केइ" इत्यादि । शब्दार्थ-'जे केई-ये केचित् ' जो कोई 'तसा-त्रसा' त्रस 'अदु-अथवा' अथवा 'थावरा-स्थावरा' 'पाणा-प्राणिनः' प्राणी 'चिट्टति-तिष्ठति' स्थित हैं 'से-तेषाम् ' उनका 'अंजू-अंजू' अवश्य 'परियाए-पर्यायः' पर्याय 'अस्थिअस्ति' होता है ॥८॥ "બ્રહ્માને એક દિવસ ચાર હજાર યુગને હોય છે. દિવસે બ્રહ્મા જ્યારે સઘળા પદાર્થોનું સર્જન કરે છે, ત્યારે તેમને સઘળા પદાર્થોનું અપરિમિત જ્ઞાન હોય છે. પરન્તુ રાત્રે જ્યારે તેઓ શયન કરે છે, ત્યારે તેમનું જ્ઞાન પરિમિત પણ હોતું નથી. આ પ્રકારે પરિમિત અજ્ઞાન હેવાને કારણે તેમનામાં જ્ઞાન અને અજ્ઞાન અને સંભવી શકે છે. સૂત્રકાર આ કથન દ્વારા એ વાત પ્રદર્શિત કરે છે કે આ પ્રકારના ઘણા લોકપ્રવાદ પ્રચલિત છે. ગાથાણા હુવે અન્યતીથિકના પૂર્વોક્ત મતનું ખંડન કરવા માટે સૂત્રકાર પિતાના સિદ્ધાન્તનું (जैन सिद्धान्तनु) मतव्य ४ ४२ छ. "जे केई" त्याह शहाथ-'ये केई-ये केचित्' 'तमा-सा उस 'अदु-अथवा' अथ। 'थारा-स्थावराः' स्थावर 'पाणा-प्राणिनः प्राणी चिट्ठति तिष्ठति' स्थित छ 'सेतेषाम्' तयानी अजू-अंजू' अवश्य 'परियाए पर्यायः' पर्याय 'अस्थि-अस्ति' डायछ।८ For Private And Personal Use Only
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
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