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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४८ सूत्रकृताङ्गसूत्रे अन्वयार्थः पूर्ववदेव । व्याख्या सुगमा, नवरम्-ते वादिनः मारस्य= मृत्योः पारगा न भवन्ति वारं वारं मृत्युमुखमेव विशन्तीत्यर्थः ॥२५॥ ते अज्ञानिनो यानि यानि स्थानानि प्रामवन्ति, तानि तानि स्थानानि दर्शयति-'नाणाविहाई'इत्यादि । नाणाविहाई दुक्खाई, अणुहोति पुणो पुणो। संसारचक्वालंमि मच्चुवाहि जराकुले ॥२६॥ छायानानाविधानि दुःखान्यनु भवन्ति पुनःपुनः । संसारचक्रवाले, मृत्युव्याधिजराकुले ॥२६॥ फिर कहते हैं-" ते णावि" इत्यादि। शब्दार्थ-ते-ते वे अन्यतीर्थी 'णावि संघिणच्चाण-नापि सन्धि ज्ञात्वा खलु' संधिको विना जानेही क्रिया में प्रवृत्त होते है 'ते जणा धम्मविओ न-ते जनाः धर्म विदः न' वे लोग धर्म को नहीं जानते हैं 'जे ते उ एवं वाइणो-ये ते तु एवं वादिनः' मिथ्यासिद्धांतकी प्ररूपणा करने वाले वे अन्यतीर्थी 'न मारस्स पारगा-मारस्य पारगा न' मृत्यु को पार नहीं कर सकते हैं ॥२५॥ - अन्वयार्थ - अर्थ और व्याख्या पूर्ववत् ही हैं। विशेषयह है कि वे वादी मृत्यु से पार नहीं होते अर्थात् बार बार मृत्यु के मुँह में ही प्रवेश करते हैं ॥२५॥ वणी सूत्र॥२ ४ छ (" तेणावि") त्याह शहाथ-ते-ते'ते अन्य तीथीयो 'णावि सन्धि णच्चा ण-नापि संधि ज्ञात्या खलु' अक्सरने तया विना लियामा प्रवृत्त थाय छ 'ते जणा धम्मविओ न-ते जनाः धर्मविदः न' तेयो भने समाता नथी. 'जे ते तु एवं वाइणो-ये ते तु एवं वादिनः' भिथ्या सिद्धांतनी प्र३५। ७२पापा मेवा ते अन्य तीथी 'न मारस्स पारगा-मारस्य पारगान' मृत्युने पा२ री शता नथी. (मन्वयाथ) આ ગાથાને અર્થ અને વ્યાખ્યા પૂર્વવત્ જ છે. અહી એટલી જ વિશેષતા સમજવાની છે કે તે અન્ય મતવાદીઓ મૃત્યુના પારગામી થતા નથી એટલે કે વારંવાર મેતના મુખમાં પ્રવેશ કરે છે . ૨૫ For Private And Personal Use Only
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
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