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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२५ समयार्थ बोधिनी टीका प्र. अ. अ. २ उ. १ भगवदादिनाथकृतो निजपुत्रोपदेशः मातापित्र्यादिकुटुंबस्नेह पाशयंत्रितः संयमात् भ्रष्टः संसारचक्रमेव भ्रमति, तर्हि आत्मार्थिभिः साधुभिः किं कर्त्तव्यमित्युपदिशति शास्त्रकार: 'तम्हा दवि' इत्यादि । मूलम् १ २ ३ B ५ ६ तम्हा दवि इक्ख पंडिए पावाओ विरए अभिनिवडे । १० ८ ९ ११ १२ १३ पण वीर महावीहि सिद्विपहं याज्यं धुवं ॥ २१॥ छाया तस्माद्रव्य ईक्षस्व पण्डितः पापाद्विरतोऽभिनिर्वृतः । प्रणता वीरा महावीथीं सिद्धिपथं नेतारं ध्रुवम् ॥ २१ ॥ माता पिता आदि कुटुम्बी जनों के स्नेहके बन्धन में पडा हुआ संयमभ्रष्ट पुरुष संसार चक्र में ही भ्रमण करता है, तो आत्मार्थी साधुओं को क्या करना चाहिए ? शास्त्रकार इस विषय में उपदेश देते हैं-- 'तम्हा दवि' इत्यादि । शब्दार्थ - तम्हा--तस्मात्, इसलिये ( माता पिता में आसक्त होकर पापकर्म करते हैं इसलिये) 'दवि - द्रव्यो' मुक्ति गमन के योग्य अथवा रागद्वेषरहित 'इक्ख - इक्षस्व' विचारो 'पंडिए - पंडित : ' सत् असत् के विवेक से युक्त तथा 'पावाओ - पापात् ' पापसे ( पाप जनक अनुष्ठान से) 'विरए - विरत' निवृत्तहोकर अभिनिव्बुडे 'अभिनिर्वृतः' शान्त हो जाओ कारणकी 'वीरे - वीर : ' कर्मके विदारण करने में समर्थ पुरुष 'महाविहि--महावीथीम् ' महामार्गको 'पणए - प्रणताः ' प्राप्त करते है 'सिद्धिपदं - सिद्धिपथम् ' जो महामार्ग सिद्धिका मार्ग 'णेयाउयं - नेतारम्' मोक्षके पास ले जानेवाला और 'धुंव- ध्रुवम्' निश्चल है ||२१|| માતા, પિતા આદ્રિ સ્વજનોના સ્નેહના બન્ધનમાં બંધાયેલે તે સંયમભ્રષ્ટ પુરૂષ સસાર ચક્રમાં જ ભ્રમણ કર્યા કરે છે. તે આત્માથી સાધુઓએ શુ કરવુ જોઇએ? આ प्रश्ननो उत्तर हवेनी गाथामा सूत्रारे माग्यो छे - "म्हा दवित्याहि शब्दार्थ--' तम्हा-तस्मात् ' ते अरो (भातामां मासस्त थाने-तहसीन थाने ) चाय रे छे ते भाटे) ' दवि द्रव्यो' मुक्ति अमन भाटे योग्य अथवा रागद्वेष रहित 'ख' वियारीसो 'पंडिए - पंडित : ' सत्य असत्यना विवे श्री युक्त तथा ' पावाओ - पापात् ' पायथी ( पाय न अनुष्ठानथी) 'विरए - विरत: ' निवृत्त थाने ' अभिनिवुडे - अभिनिवृत्तः ' शान्त थर्ध लो। अशशु के 'वीरे वीरः' मना विहारण ४२वास समर्थ ५३५ ' महाविहि- महावीथीम् ' मला मार्गने 'पणप-प्रणताः ' प्राप्त रे छे. सिद्धिपद - सिद्धिपथम् ' ? महामार्ग - सिद्धिनेो भार्ग' ' नेयाज्यं - नेतारम्' भोक्षना सेवावाणी ने 'धुवं ध्रुवम्' निश्चल छे ॥२१॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
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