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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Karined अन्वयार्थ:'सहिएहि' सहितैः-ज्ञानादिभिः सपन्नः पुरुषः एवं एवम् अनेन प्रकारण 'पासए' पश्येत्- कुशाग्रबुद्धया विचारयेत् 'अहमेव' अहमेव (ता) तैः-शीतोष्णादि दुःखविशेषः ‘णवि' नापि भवेत्यर्थः, 'लुप्पए' लुप्ये पीड़ये, किन्तु (लोयमि) लोके संसारे 'पाणिणो प्राणिनो अन्येपि जीवाः 'लुप्पंति लुप्यन्ते' पीडयन्ते, अतः 'से' सः महासत्त्वः पुढे स्पृष्टः परिषहैः स्पृष्टोपि तान् (अणिहे) अनिहः ननिहो अनिहः क्रोधादिभिरपीडितः सन् (अहियासए) अधिसहेत मना-पीयान विदध्यादिति ॥१३॥ आदि दुःख विशेषों से 'णवि-नापि' नहीं 'लुप्पए-लुप्ये' पीडित किया जाता हूं 'लोयमि-लोके' इस संमारमें 'पाणीणो -प्राणिनः' दूसरे प्राणी भी 'लुप्पंतिलुप्यन्ते' पीडित होते हैं अतः 'से--सः' वह मुनि 'पुट्टे-स्पृष्टः' परीपहों से स्पर्शित होकरके भी 'अणिहे--अनिहः' क्रोधादि रहित होकर 'अहियासहे-अधिसहेत' उनको सहन करें ॥१३॥ अन्वयार्थसम्यग्ज्ञान आदि से सम्पन्न पुरुष इस प्रकार विचार करें सर्दी गर्मी के कृष्ट से मैं ही पीडिन नहीं होता किन्तु संसार में अन्यप्राणी भी पीडित होते हैं। इस प्रकार विचार कर वह महासत्त्व साधक परीषहो से स्पृष्ट होकर भी, क्रोधादिसे रहित होता हुआ उसे सहन करें- मानसिक पीडाका अनुभव न करें ॥१३॥ ती विगैरे) विशेष थी 'णपि-नापि नथी. लुप्पए-लुप्ये' पीडित ४२पामा भावतो. "लोय मि-लोके' २॥ संसारमा पाणिणो-प्राणिनः' मी प्राणीमा ५ लुप्पति-लुप्यन्ते' भारत ४२वामा मावे छे. तेथी 'से-सः' ते मुनि पुढे-स्पृष्टः ' परिषडाथी २५शित थध ने पण 'अणि हे'-अनिहः' वगेरे हित ने महियासहे- अविसहेत' તેમને સહન કરે છે ૧૩ છે -सूत्राथ - સમ્યગૂ જ્ઞાન આદિથી સંપન્ન પુરુષે આ પ્રાકારને વિચાર કરવો જોઈએ હું એકલો જ ઠંડી, ગરમી આદિ કષ્ટો વડે પીડિત છું, એવું નથી, પરંતુ સંસારના અન્ય પ્રાણીઓ પણ તે કષ્ટો વડે પીડિત છે” આ પ્રકારને વિચાર કરીને તે મહા સર્વ સાધક પરીષહોથી સ્કૃષ્ટ થવા છતાં પણ કેધાદિ કર્યા વિના મધ્યસ્થ ભાવે તેને સહન કરે આ પ્રકારના પરીષહે આવી પડવાથી તેણે માનસિક પીડા અનુભવવી જોઈએ નહીં. જે ૧૩ For Private And Personal Use Only
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
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