SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 607
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनायोपदेश ५८९ तीर्थकरेण प्रतिपादितम् तस्मात् शीतं जलम् असंयमानुष्ठानम् , गृहस्थस्य पात्रादौ भोजनं च न कर्तव्यं मोक्षाभिलाषुभिः साधुभिरिति संक्षेपः ॥२०॥ मूलम्ण य संखय माहु जीवियं तहवि य वालजणो पगभइ बाले पापेहिं मिजइ इति संखाय मुणी ण मजई ॥२१॥ -छायान च संस्कार्यमाहुर्जीवितं तथापि च बालजनः प्रगल्भते । वालः पापै मर्मीयते इति संख्याय मुनि ने माद्यति ॥२१॥ -अन्वयार्थ(जीविय) जीवितं (णयसंखयमाहु) न च संस्कार्यमाहुः, तंतुवन् संधातुं न कहा है । अतः मोक्षाभिलाषी साधु को सचित्त जल, असंयम का अनुष्ठान और गृहस्थ के पात्र में अशन नहीं करना चाहिए अर्थात् गृहस्थि का पात्र किसी भी काम में नहीं लेना चाहिए ॥२०॥ शब्दार्थ-'जीविय--जीवितम्' प्राणियों का जीवन 'ण य संखयमाहु-नच संस्कार्यमाहुः संस्कार करने योग्य नहीं कहा है 'तहवि--तथापि, फिर भी 'बाल जणो-बालजनः' अज्ञानी पुरुष 'पगभइ-प्रगल्भते' पाप करने में धृष्टता करता है 'वाले--बालः' अज्ञजीव 'पापेहिं-पापैः, पापकर्मसे 'मिज्जइ--मीयते बताये जाते है ‘इति--इति, इस प्रकार 'संखाय-ज्ञात्वा, जानकर 'मुणी-सुनिः' 'ण मज्जइ--न माद्यति, मद नहीं करते है ॥२१॥ अन्वयार्थयह जीवन संस्कार्य नहीं है अर्थात् धागे के અશનાદિ કરતું નથી, તેને જ સમભાવની પ્રાપ્તિ થાય છે, એવું સર્વજ્ઞ તીર્થકર ભગવાને કહ્યું છે તેથી મેક્ષાભિલાષી સાધુએ સચિત્ત જળ અને સાવધ કર્યો ત્યાગ કર જોઈએ અને ગૃહસ્થના પાત્રને ઉપયોગ કરે જોઈએ નહીં. ગાથા ૨૦ છે हाथ-'जीविय-जीवितम्' प्राणियानुन न च संखाय माहु-न च संस्कार्य माहुः' २२४२ ४२१॥ योज्य ९८ नथी, 'तहवि तथापि' ते५ बालजणा-बालजन' अज्ञानी ५३५ 'पगम्भई-प्रगल्भते' ५५ स्वामा वृष्टता ४२ छ 'बाले-बालः' अश 'पापेहि-पापैः' पा५म था 'मिज्जा-मीयते' s आवे छे. 'इति-इति' मा प्रारे 'संखाय ---ज्ञात्वा' याने 'मुणी---मुनिः' भुनि ‘ण मज्झई- न माधति' भ६ ४२ता नथा. ॥ २१ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy