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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५७६ सूत्रकृताङ्गसूत्रे पुनरपि जिनकल्पिकादिमुनिमनुलक्ष्य दर्शयति सूत्रकारः - 'णो अभिकं खेज्ज इत्यादि । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलम् १ ३ ४ ६ णा अभिकखेज्ज जीवियं नोऽवि पूयणपत्थये सिया ९ १० ११ ૭ ८ अम्भस्थ मुनिभेरवा सुन्नागारगयस्स भिक्खुणो १६ नाभिकांक्षेत जीवितं नापि च पूजनप्रार्थकः स्यात् । अभ्यस्ता उपयन्ति भैरवा शून्यागारगतस्य भिक्षोः || १५ ॥ ' उपसर्गत्रयान् यस्तु' इत्यादि । शून्य गृह में स्थित भी शान्त बुद्धिवाला जो मुनि तीनों प्रकार के उपसगको सहन करता है, रोम आदिको कम्पित न करे ।। १५ ।। जिनकल्पी आदि सुनियो को लक्ष्य करके पुनः सूत्रकार कहते हैं- 'णो अभिकखेज्ज' इत्यादि । शब्दार्थ--'जीवियं जीवितम् ' जीवनकी 'गो अभिकखेज्ज--नो अभिकांक्षेत इच्छाकरे नहीं करनी चाहिए 'नोवि य- नापि च' और न 'पूयणपत्थ ए-- पूजन प्रार्थकः, सत्कार काली 'शिया स्यात् ' हो सुन्नागारगयस्स - शून्यागारगतस्य' शून्यगृह में गये हुए 'भिक्खुणो भिक्षोः' साधु को 'भेरवा - भैरवाः ' भयानक प्राणी 'अभत्थंअभ्यस्ताः' अभ्यस्त भाव को 'उविंति - उपयन्ति' प्राप्त हो जाते हैं || १६ || धुं छे.-" उपसर्ग त्रयान् यस्तु" इत्यादि 66 શૂન્ય ઘરમાં સ્થિત (રહેલા) બુદ્ધિમાન્ સાધુ ત્રણે પ્રકારના ઉપસર્ગાને સહન કરે છે તે ઉપસગાંને કારણે તેનું રૂવાડું' પણ ફરકતુ નથી અને ફરકવુ જોઈએ પણ નહીં.’: ॥ गाथा १५ ॥ बिनादिय आहि भुनियोने अनुसक्षीने सूत्रार अडे छे डे-" णो अभिकखेज्ज ઈત્યાદિ शब्दार्थ- 'जीविr - जीवितम्' वननी 'णो अभिक खेज्ज-ना अभिकांक्षेत्' ४२ छ अरे नहि 'नोवि य - नापि च' अनेन पूयणपत्थप-पूजन प्रार्थकः' सानो मलिदाषी 'सिया-स्या ' होय सुन्नागारग यस्स - शून्यागारगतस्य शून्यधरमां गयेला 'भिक्खुणोभिक्षोः' साधुने 'मेरा-भैरवाः' लयान प्राणी 'अम्मत्थं - अभ्यस्ताः' अभ्यस्त भावने 'उवि 'ति - उपयंति प्राप्त था लय छे. ॥ ॥ For Private And Personal Use Only 29
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
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