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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४८४ www.kobatirth.org सूत्रकृताङ्गसूत्रे ज्ञानदर्शनचारित्रतपांश्येव मोक्षस्य कारणम् इति दर्शयितुमाह- 'अहपास' , इत्यादि । ४ मूलम्— २ ३ ६ ७ अह पास विवेगमुट्टिए अवितिने इह भाई धुवं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ ९ ११ १० १३ १४ १५ माहिसि आरं कओ परं वेहासे कम्मेहि किच्चइ ||८|| छाया - अथ पश्य विवेकमुत्थितोऽवितीर्ण इह भाषते ध्रुवम् । ज्ञास्यस्यारं कुतः परं विहायसि कर्मभिः कृत्यते ॥८॥ ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ही मोक्षके कारण है, यह दिखलाने के लिए कहते हैं - ' अह पास' इत्यादि । शब्दार्थ -- ' अह--अथ इसके पश्चात् ' पास - पश्य' देखो 'विवेगं - विवेक' परिग्रह को छोडकर अथवा संसारको अनित्य जानकर 'उट्टिए - उत्थितः प्रवृज्या गृहण करते हैं' ' अवितिन्ने- अवितीर्णः' संसार सागरको पार नहीं कर सकते हैं 'इह--इह' इससंसार में 'धुवं ध्रुवं' मोक्षको 'भास - भाषते ' केवल भाषण ही करते हैं हे शिष्य' तुमभी उनके मार्ग में जाकर 'आरं - आरम्' इस लोकको 'परं परम् ' तथा परलोकको 'कओ - कुतः' कैसे 'णाहिसि - ज्ञास्यसि ' जान सकते हो ? वे अन्य तीर्थिजन 'वेहासे - विहायसि' मध्यम में हीं 'कम्मेहिकर्मभिः' कर्मों के द्वारा 'किच्चइ - कृत्यन्ते' पीडित होते हैं ॥८॥ હવે સૂત્રકાર એ વાતનું પ્રતિપાદન કરે છે કે જ્ઞાન, દુશન, ચારિત્ર અને તપ જ भोभां अशुभूत भने छे-' अह पास" त्याहि शब्दार्थ -- 'अह अथ' माना पछी 'पास-पइय' नुवो विवेग' - विवेकम् ' परिवहने छोडीने अथवा संसारने अनित्य समलुने 'उट्टिए - उत्थित' वन्याने अणु उरे छे. 'अवितिन्ने- अवितीर्ण':' संसार सागरने पार नथी श्री शता 'इह - इह" मा संसारभां 'ध्रुव' - ध्रुवम्' भोक्ष' 'भासह - भाषते' डेवस भाषण ४ ४रे छे. हे शिष्य ! तप तेभना भार्गभां न्धने 'आर' - आरम्' या सोने 'पर' - परम्' तथा परसोने 'कओकुतः' डेवी रीते 'णादिसि - ज्ञास्यसि' नी शशो तेयो मन्यतीर्थन! ' बेहासे ॥८॥ विहायसि ' मध्यमा 'कम्मे हि कर्मभिः' अभेना द्वारा 'किञ्चाई - कृत्यन्ते' दुःखी थाय छे. For Private And Personal Use Only
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
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