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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. अ. १ उ. ३ आधाकर्माद्याहारभोजने मत्स्यदृष्टान्तः ३४९ आधामिकाहारमोजिनां कीदृशं कर्मफलं भवतीति प्रतिपादनाय प्रथममनुरूपं दृष्टान्तं गाथाद्वयेन प्रदर्शयति-तमेव, इत्यादि 'उदगम्स' इत्यादि' मूलम्-- तमेव अविषाणता' विसमंसि अकोविया । मच्छा वेसालिया चेव.उदगस्साऽभियागमे ॥२॥ उदगस्त पभावण मुकं णिवं तर्मिति उ । ठेकेहि य कंकहि य अमिसत्यहि त दुही ॥३॥ छाया-- तमेव अविजानन्तो विषमे अकोविदाः । मत्स्या वैशालिकाश्चैव, उदकस्याभ्यागमे ॥२॥ उदकस्य प्रभावेण शुष्क स्निग्धं तमेत्य तु । ढङ्केश्च कद्देश्चैवाऽऽमिपार्थिभिस्ते दुःखिनः ॥३।। आधार्मिक आहार का सेवन करने वालों को कैसा फल भोगना पड़ता है, यह कहने के लिए प्रथम दो गाथाओं से दृष्टान्त दिखलाते हैं" उदगम्स" इत्यादि। ___शब्दार्थ-'तमेव-तमेव' उस आधाकमिक आहरके दोपों को 'अवियाणता -अविजानन्तः' नहीं जानते हुए 'विसमंसि अकोविया-विषमे अकोदिदाः' अष्टविध कर्षक ज्ञानमें अथवा संसार के ज्ञान में अनिपुग पुरुष दुही-दुखिनः' दःखी होते हैं 'वेसालिया मच्छा-वैशालिका भत्स्याः' वैशालिजाति के मत्स्य 'उद्गस्याभियागमे-उदकस्याभ्यागमे' जलकी रेल (बाढ) आनेपर 'उदगस्सपभावेण-उदकस्य प्रभावेण' जलके प्रभावसे 'सुकं-शुष्क, सुके हुवे तथा 'णिद्धं આધાકર્મ દોષયુકત આહાર ની સીમાત્રનું સેવન કરનાર સાધુઓને કેવું ફળ ભોગવવું પડે છે, તે હવેની બે ગાથાઓમાં દૃષ્ટાન દઈને સમજાવવામાં આવે છે "उदगस्त" त्याह साथ - तमेव- मेव' मे २५१५मि' मा२ना द्वेषाने 'अधियाण ता-अविजानन्तः' ही adge विसमसि अकोविया-विषमे अकोविदाः' मटविध मना ज्ञानमा २५4॥ २२ना शानमा मनिषा) ५३५ 'दुही दुःखिनः' माई हु थाय छे. 'वेसाल'. मच्छा-शालिकाः मत्स्याः' वैशालीताना भल्य 'उदगस्साभिवागमे-उदकस्याभ्यागमें ५४ीनी २८ (धुर) भाववाना समय 'उदगस्स पभावेण-उदकस्य प्रभावेण For Private And Personal Use Only
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
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