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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ५५५ः अन्वयार्थ: (धम्मस्स) धर्मस्य = श्रुतचारित्रभेदभिन्नस्य (पारए) पारगः सिद्धान्तपारगामी चारित्रानुष्ठायी वा ( आरंभस्स) आरंभस्य सावद्यव्यापारस्य (अंतर) अन्ते= पर्यन्ते वहि: (ठिए) स्थितः (मुणी ) मुनिर्भवति (ममाइणो ) ममतावन्तः पुरुषाः(सोयंति य) शोचति च (णियं) निर्ज= स्वकीयम् (परिग्गहं) परिग्रहम् धनधान्यादि भृतं पुत्रादिकं वा (गोल भंति) नोलभते न प्राप्नुवन्तीत्यर्थः ॥ ९ ॥ " अब श्रुतचारित्रात्मक भेद से भिन्न स्वधर्मका सूत्रकार उपदेश करते हैं धम्मस्स य' इत्यादि शब्दार्थ - 'धम्मस्स - धर्मस्य' श्रतचारित्ररूप धर्मका 'पारए - पारगः' सिद्धान्त में पारगामी अर्थात् चारित्रका अनुष्ठान वाला एवं 'आरंभस्स - आरंभस्य' सावध व्यापार के ' अंतर - अन्तके' अंत में 'ठिए-स्थितः' स्थित पुरुष 'मुणी - मुनिः ' मुनि कहलाता है 'ममाइणो-ममतावन्तः 'ममता वाले पुरुष 'सोयंति य-शोचन्ति च ' शोक करते हैं 'णिय- निजम्' अपने 'परिम्ाहं परिग्रहम्' परिग्रह को 'णो. लम्भंति - नो लभन्ते' नहीं प्राप्त करते हैं || ९ || अन्वयार्थ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- श्रुत और चारित्रके भेद से भिन्न धर्मका पारगामी अर्थात् सिद्धान्त में पारंगत तथा चारित्रका अनुष्ठान करने वाला और आरंभ से परे स्थित पुरुष ही मुनि होता है अर्थात् आरंभरहित मुनि होता है । ममतावान् पुरुष अपने धन धान्य या पुत्रादि रूप परिग्रह के लिए शोक करते हैं, परन्तु उन्हे प्राप्त नहीं कर सकते ॥ ९ ॥ डुवे श्रुतयारित्र ३५ लेहवाणा स्वधर्मनो सूत्रभर उपदेश हे छे “धम्मस्स य" इत्याहिशब्दार्थ' - 'धम्मस्स - धर्म' स्य' श्रुतयस्त्रि३५ धर्मना 'पारण- पारगः' सिद्धांतभां पार गाभी अर्थात् चारित्रमा अनुष्ठानवाणा सेवम् 'आरंभस्स - आरंभस्य' सावध व्यापारना 'अंतर - अन्तकः' संतमां 'ठिए - स्थितः' स्थित पु३ष 'मुणी - मुनिः' मुनि उडेवाय छे, 'म माइणी - ममतावन्तः भभतावाणी ५३ष' सोय तिय- शोचन्ति च ' शा३ ४२ छे, 'णिय - निजम्' योताना 'परिग्गह' - परिग्रहम्' परियहने 'णो लम्भति-नो लभन्ते' आप्त उरी शस्ता नथी. ॥६॥ સૂત્રા શ્રુત અને ચારિત્ર રૂપ ભેદવાળા સ્વધમના પારગામી એટલે કે સિદ્ધાન્તમાં પારંગત અને ચારિત્રનું અનુષ્ઠાન કરનારા અને આરંભથી નિવૃત્ત હાય એવે પુરુષ જ મુનિ કહેવાને ચેાગ્ય છે. મમત્વ ભાવયુક્ત પુરુષ પોતાના ધન, ધાન્ય, અથવા પુત્ર, પૌત્રાદિ રૂપ પરિગ્રહને માટે શાક કરે છે, પરન્તુ તે તેમને પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી. ૫૯ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
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