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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. शु. अ. १ चार्वाकमतस्वरूपनिरूपणम् १०७ अथवा स्वस्य स्वयमेव प्रकाश इत्यपि स्वप्रकाशलक्षणं संभवति, न च स्वस्य स्वस्मिन् कर्मकर्तृभावविरोधः संभवति, यद्यपि ग्रामं गच्छति, देवदत्त इत्यादौ स एव कर्म स एव कर्तेति न भवति, तथापि क्वचित्स्वस्मिन् स्वस्य कर्मकर्तृत्वमपि भवति तथादर्शनात् यथा सर्पः स्वयमेव स्वं वेष्टयति, सर्पआत्मनैवात्मानं वेष्टयति तथा ज्ञानं स्वयमेव स्वं प्रकाशशयतीति सर्वतो बलवती ह्यन्यथानुपपत्तिस्तथाप्रवृत्तमपि तर्कशतं प्रतिबध्नाति, यथाऽन्यमन्यश्च ज्ञाता इति सर्वत्र दृश्यते, तथापि आत्मानं जानामीति प्रतीत्य , व्यवच्छेद के लिए " अपरोक्ष व्यवहार के योग्य होते हुए" इस विशेषण को ग्रहण करना आवश्यक ही है । यह आर्हतों का मत है । अथवा स्वप्रकाश का लक्षण स्वयं ही अपना प्रकाश होना भी माना जा सकता है, स्व का स्व में अर्थात् अपने आप में कर्तृकर्म भाव का विरोध नहीं है। यद्यपि "देवदत्तः ग्रामं गच्छति" इत्यादि स्थलों में वही कर्त्ता और वही कर्म नहीं हो सकता, फिर भी कहीं कहीं वही कर्त्ता और वही कर्म भी होता देखा जाता है जैसे "सर्प स्वयं ही अपने आपको वेष्टित करता है " यहां वेष्टित करने वाला भी सर्प है और वेष्टित होने वाला भी वही सर्प है । इसी प्रकार ज्ञान स्वयं ही अपने आपको प्रकाशित करता है । अन्यथानुपपत्ति सबसे बढकर बलवती होती है। वह सैकड़ों तर्कों को भी रोक देती है । जैसे ज्ञेय भिन्न होता है, और ज्ञाता भिन्न होता है, यह बात सर्वत्र देखी जाती है तथापि "आत्मानं जानामि " अर्थात् मैं अपने को जानता हूँ, માટે ‘અપરાક્ષ વ્યવહારને યોગ્ય હાવા રૂપ’ આ વિશેષણને ગ્રહણ કરવુ ં તે અનાવશ્યક જ છે, આ પ્રકારનું આતાનુ મત છે. અથવા સ્વપ્રકાશનું લક્ષણ સ્વયં પોતાના જ પ્રકાશ' પણ માની શકાય છે. સ્વને स्वभां भेटले } पोतानी लतमा उर्तृ - उर्भ लावनो विशेष नथी. ले ! " देवदत्तः ग्रामं गच्छति" इत्यादि स्थणोमा उर्ता ने उर्भ मे संभवी शता नथी, छतां પણ કોઈ કોઈ સ્થળે કર્તા અને કમ એક જ હોય એવુ પણ સ ંભવી શકે છે જેમ કે- ' · સર્પ પાતે જ પોતાને વેષ્ટિત કરે છે.’ અહી વેષ્ટિત કરનાર પણ સર્પ છે અને વેષ્ટિત થનાર પણ એજ સ જ છે. એ જ પ્રમાણે જ્ઞાન પોતે જ પેાતાને પ્રકાશિત કરે છે. અન્યથાનુપપત્તિ સૌથી વધારે બળવાન હોય છે. તે સેંકડો તીને પણ રોકી દે છે. જેમ કે જ્ઞેય પણ ભિન્ન હાય છે અને જ્ઞાતા પણ ભિન્ન હાય છે, એવું સત્ર જોવામાં આવે छे, छतां पशु " आत्मानं जानामि " 'हु' पोताने लागू छु' मा अझरनी अतीतिनी 66 For Private And Personal Use Only
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
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