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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थबोधिनी टीका प्र. . अ. १ उ. ३ मिथ्याष्टिनामाचारदोषनिरूपणम् ३४७ अन्वयार्थ:'जं किंचि उ' यत्किश्चित्तु स्वल्पमपि न तु प्रचुरं, तत् पूइकडं पूतिक तम आधाकर्माद्याहारसिक्थेनापि संमिश्रं न तु साक्षादाधाकर्म तदपि न स्वकृतम् अपि तु सड्ढीमागंतु मीहियं श्रद्धावता आगन्तुकेभ्य ईहितम्, श्रद्धा वता मुनिभिक्षादानश्रद्धायुक्तेन केनापि श्रावकेण आगन्तुकेभ्यो मुनिभ्यः आगछन् मुनिनिमित्तम् ईहितं चेष्टितं सम्पादितमित्यर्थः, तच तादृशमाहारजातं यदि सहस्संतरियं सहस्रान्तरितम्-आगन्तुकमुनिनिमित्तमाश्रित्य निष्पादितस्याधाकर्माहारस्य सिक्थेन अन्यान्यसंमिलनेन सहसतममाहारजातं समिश्रितं शब्दार्थ-'ज किचि उ-यत् किंचित्तु' थोडासाभी 'पुइकडं-प्रतिकृतम्' आधाकर्मादि कणसे मिश्रित आहार अशुद्ध है 'सड्ढी-श्रद्धावता' श्रद्धावान् पुरुषने 'आगंतुमीहियं-आगन्तुकेभ्य ईहितम्' आनेवाले मुनियों के लिये बनाया है ऐसा आहारको 'सहस्संतरियं-सहस्रान्तरितम्' हजार घरका अन्तरदेकर भी 'मुंजे-भुञ्जीत' खाताहै तो वह 'दपक्खं चेव-द्विपक्षं चैव' गृहस्थ और साधु दोनों पक्षका ‘सेवइ--सेवते' सेवन करता है ॥१॥ -अन्वयार्थजो अत्यन्त अल्प भी आहार पूतिकृत है अर्थात् आधाकर्मी अहार के एक सीथ से भी मिश्रित है-जो साक्षात् आधाकर्मी नहीं है और जो मुनि को भिक्षा देने की श्रद्धा वाले किसी गृहस्थ ने दूसरे आगन्तुक मुनियो के निमित्त बताया है, ऐसा आहार की एक सीथभी यदि सहस्रान्तरित हो अर्थात् एक से दूसरे के पास, दूसरे से तीसरे के पास अर्थात हजार घरों के अन्दर चला गया हो, फिर भी मुनि यदि उसका उपभोग करता है तोवह ____wat --ज किवि उ-यत् किंचित्तु' थोड प 'पुईकड पूतिकृतम्' आधारमादि मारनी सीथथी ५ मिश्र राय ते २२ अशुद्ध छे. 'सट्ठी-श्रद्धावता' श्रद्धावान् पुरुषने 'आग'तुमीहिय-आगन्तुकेभ्य ईहितम्' मावा पाय भुनियाने भाटे मनापेस डाय मे माडा२नु सहस्संतरिय-सहस्रान्तरितम् ॥२ ५२नुमत२ ययुद्धाय तो प 'भुजे-भुञ्जित' माय छे, तो ते 'दुक्ख चेव-द्विपक्ष चैव' गुस्था भने साधु भन्ने पक्ष सेवई-सेवते' सेपन ४३ छ. ॥ १ ॥ -मन्वयार्थ - જે આહારને અલ્પમાં અલ્પ ભાગ પણ પૂતિકૃત હોય એટલે કે આધાકર્મ આદિ દેષયુક્ત આહારના એક કણથી પણ મિશ્રિત હોય, જે આહાર સાક્ષાત્ આધાંકમી ન હોય અને જે આહાર કોઈ અન્ય મુનિઓને નિમિત્તે કઈ શ્રદ્ધાળુ ગૃહસ્થ વડે તૈયાર કરાવવામાં આવ્યું હોય, એવા આહાર નીસીમાત્ર પણ સત્યાન્તરિત હોય (એક ઘેરથી બીજા ઘરે. બીજાથી ત્રીજા ઘરે એમ હજારમાં ઘરે ચાલ્યો ગયો હોય) છતાં પણ કઈ મુનિ જે તેને For Private And Personal Use Only
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
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