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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. ३ साधूनां परीपहोपसर्ग सहनोपदेशः ६६१ पुनरप्युपदेशान्तरमधिकृत्याह सूत्रकारः-'दुक्खी मोहे' इत्यादि । मूलम्दुक्खी मोहे पुणो पुणो निविदेज्ज सिलोगपूयणं । ८ ७ १३ १ २ ११ १० एवं सहिए अहिपासए आयतुल्ले पाणेहिं संजए॥१२॥ छाया दुःखी मोहं पुनः पुनर्निर्विन्देत श्लोकपूजनम् । एवं सहितोऽधिपश्येद् आत्मतुल्यान् प्राणान् संयतः ॥१२॥ अन्वयार्थः(दुक्खी) दुःखी जीवः(पुणोपुणो) पुनः पुनः (मोहे) मोहम् प्राप्नोति (सिलोगपूयणं) श्लोकप्जनम् स्तुतिसंस्तवम् (निविंदेज्ज) निर्विन्देत=परित्यजेत् सूत्रकार पुनः उपदेश करते हैं—“दुक्खी मोहे" इत्यादि शब्दार्थ-दुक्खी-दुःखी' दुःखी जीव 'पुणो पुणो-पुनः पुनः' बार बार 'मोहे-मोहम्' अविवेकको प्राप्त करता है 'सिलोगपूयणं-श्लोकपूजनम्' अतः साधु अपनी स्तुति और पूजा 'निविदेज्ज-निर्विन्देत त्यागदेवे ‘एवं-एवम् इस प्रकार ‘सहिते-सहितः' ज्ञानादियुक्त 'संजए-संयतः' साधु 'पाणेहिप्राणान् प्राणियों को 'आयतुल्ले-आत्मतुल्यान्' अपने समान' अहियासएअधिपश्येत्' देखे ॥१२॥ -अन्वयार्थ--- दुःखी जीव वार वार मोह को प्राप्त होता है साधु पुरुष श्लोक श्लाघा को अर्थात् प्रशंसा सन्मान आदि को त्याग और सम्यग् ज्ञानादि RAINR अपहेश मापता सूत्रा२ छ " दक्खीमोहे" त्यादि शहाथ-'दुक्खी-दुःखो हुमी ७५ 'पुणो पुणो-पुनः पुनः' पार वार 'मोहे-- मोहम्' मविवेने पास ४२ छ 'सिलोगपृश्ण-लोकपूजनम्' मत: साधु पातानी स्तुति भने त निविदेज-निविदेत' छाडी हे 'एवं-एवम्' 21 २ ‘सहिते-सहितः' ज्ञान पोथी युत सजए- संयतः' साधु पाणेहि-प्राणान्' प्राणुयाने 'आयतुल्ले-- आत्मतुल्यान्' पाताना समान 'अहिपासए अधिपश्येत्' गुपे. ।। १२॥ -सूत्रार्थદુખી જીવ વારંવાર મોહને આધીન બને છે. સાધુઓએ બ્લેક-ક્લાધા (પ્રશંસા, For Private And Personal Use Only
SR No.020778
Book TitleSutrakritanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size13 MB
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