Book Title: Sutrakritanga Sutram Part 01
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti

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Page 683
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समयार्थ बोधिनी टीका प्र. अ. २ उ. ३ साधूनां परिषहोपसर्ग सहनोपदेशः १६५ गृहेऽपि वसन् पुरुषो यदि देशविरतिमंगीकृत्य सर्वप्राणिषु समताभावं कुर्वन् जिनोदितधर्माको भवति तदा स देवलोकमवश्यं गच्छतीति जिनप्रतिपादिताऽहिंसाया इदं फलं यत् गृहमावसन्नपि स्वर्गगामी भवति, देशवितेरपि यदा ईशी गतिस्तदा सर्वविरतेस्तु का कथा || १३ || संप्रति सर्वविरते महिमानमाह 'सोच्चा' इत्यादि । मूलम् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ १ ३ ४ ६ सोच्चा भगवाणुसासणं सच्चे तत्थ करेज्जुवकमं । ७ ८ ११ १० १२ सवत्थ विणीयमच्छरे उंछें भिक्खु विशुद्धमाहरे ॥ १४ ॥ छाया श्रुत्वा भगवदनुशासनं सत्ये तत्र कुर्यादुपक्रमम् । सर्वत्र विनीतमत्सर उच्छे भिक्षुर्विशुद्धमाहरेत् ॥ १४ ॥ ॥ जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित धर्म की आराधना करता है तो अवश्य ही उसे देवलोक की प्राप्ति होती है । जिनप्रतिपादित अहिंसा का यह फल है कि are करने वाला भी स्वर्ग के सुखों का भोक्ता बन जाता है । जब देशविरति से भी ऐसी गति की प्राप्ति होती है तो सर्वविरति के फल का तो कहना ही क्या है || १३ || अब सर्वविरति की महिमा कहते हैं - " सोच्चा" इत्यादि । शब्दार्थ –'भगवाणुसासणं- भगवदनुशासनम् ' भगवान् के अनुशासन अर्थात् आगमको 'सोच्चा- श्रुत्वा' सुनकर 'सच्चे सत्ये' उस आगममें कहेगये सत्य 'तत्थ - तंत्र' संपममें 'उबकमं- उपक्रमम्' उद्योग 'करेज्ज - कुर्यात् करते रहें 'सव्वत्य - सर्वत्र' प्राणिमात्र में 'विणीयमच्छरे - विनीतमत्सरः' 'मत्सररहित होकर અંગીકાર કરીને અને સમસ્ત પ્રાણી તરફ સમતા ભાવ ધારણ કરીને જિનેદ્ર ભગવાન્ દ્વારા પ્રરૂપિત ધર્મીની આરાધના કરે તે તેને અવશ્ય દેવલેાકની પ્રાપ્તિ થાય છે. જો દેશ વિરતિને અંગીકાર કરવાથી દેવગતિ રૂપ ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે. તે સ`વિરતિના ફળની તે વાત જ શી કરવી ? એટલે કે સÖવરિત દ્વારા મેક્ષની પ્રાપ્તિ થાય એમાં કોઈ આશ્ચર્યની વાત નથી. ૫૧૩ા हवे सूत्रभर सर्वविरतिनो महिमा वर्णुवे छे “सेोच्चा" इत्यादि शब्दार्थ -- 'भगवाणुसासण - भगवदनुशासनम्' भगवानना अनुशासन अर्थात् भगमने 'सोच्चा-वा' सांलणीने 'सच्चे - सत्ये' ते भागमभां उन्हेंस सत्य तत्थ तंत्र' संयभभां ‘उवक्कम'--उपक्रमम्' उद्योग 'करेज- कुर्यात्' उरत रहे 'सव्वत्थ- सर्वत्र' प्रशि सू.-८४ For Private And Personal Use Only

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