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सम्याथ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ स्त्रपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः ६०१ :
छाया
उत्तरा मनुजानामाख्याता ग्राम धर्मा इह मयाऽनुश्रुतम् । येभ्यो विरताः समुत्थिताः काश्यपस्याऽनुधर्मचारिणः।। २५||
अन्वयार्थ:
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(A) मया (अणुस्सुयं) अनुश्रुतम् । (गामधम्म) ग्राम्यधर्माः शब्दादिरूपा मैथुनरूपा वा ( मणुजाणं) मनुजानां (उत्तरा) उत्तराः दुर्जया: = ( आहिया ) आख्याताः तीर्थकरैरिति (जैसि विरया) येभ्यो विरताः (समुट्टिया) समुत्थिताः =
पुनः दूसरा उपदेश करते हैं । सर्वज्ञोक्त धर्म अत्यन्त सूक्ष्म है और उसको समझना अत्यन्त कठिन है, ऐसा सोचकर सूत्रकार अनेक दृष्टान्तों द्वारा उसी अर्थ का बार बार प्रतिपादन करते हैं- " उत्तरे" इत्यादि
शब्दार्थ - 'मे --मया' मैंने 'अणुस्यं - अनुश्रुतम् । सुना है कि 'गामधम्मा-ग्राममः' शब्द आदि विषय अथवा मैथुन सेवन 'मणुयाणं - मनुजानाम्' मनुष्यों के लिये 'उत्तरा - उत्तराः ' दुर्जय 'आहिया - आख्याताः' कहे गये हैं 'जसि विरया-येभ्यो विरताः' उनसे निवृत्त होकर 'समुट्टिया - समुत्थिताः संयम में प्रवृत्तिवाला पुरुष ही 'कासवस्स - काश्यपस्य' काश्यपगोत्र वाले भगवान् महावीर स्वामी के 'अणुधम्मचारिणो--अनुधर्मचारिणः ' धर्मानुयायी है || २५॥
अन्वयार्थ --
मैंने सुना है कि ग्राम धर्म अर्थात् शब्दादि अथवा मैथुन आदि रूप इन्द्रियों के विषय मनुष्यों के लिए दुर्जय हैं, ऐसा तीर्थकरों ने कहा है । उनसे
સÖજ્ઞ પ્રરૂપિત ધર્મ અત્યંત સૂક્ષ્મ છે અને તેને સમજવા ઘણા મુશ્કેલ છે, એવુ સમજીને સૂત્રકાર અનેક દૃષ્ટાન્તા દ્વારા એજ અર્થ નુ વાર વાર પ્રતિપાદન કરે છે—“શરે ઇત્યાદિ
"
शब्दार्थ' - 'मे-मया' में 'अणुस्सुय' - अनुश्रुतम्' सांलज्यु' छेडे 'गामधम्मा- ग्रामधर्माः' शब्द वगेरे विषय अथवा मैथुन सेवन 'मणुयाण - मनुजानाम्' मनुष्योना भाटे 'उत्तराउत्तराः' हुई 'महिया - आख्याता:' हे छे. 'जसि विरया येभ्यो विरताः' तेभांथी निवृत्त थाने 'समुट्टिया - समुत्थिताः संयममां प्रवृत्तिवाना पु३ष ०४ 'कासवस्स काश्यपस्य' अश्यप गोत्रवाणा भगवान् महावीर स्वामीना 'अणुधम्मचारिणो- अनुधर्मचारिणः' ધર્માનુયાયી છે. ારપા
सूत्रार्थ -
મે” (પ્રભુની સમીપે) એવું સાંભળ્યુ છે કે ગ્રામધમ એટલે કે શબ્દાદિ અથવા મૈથુન આદિ રૂપ ઇન્દ્રિયાના વિષયા મનુષ્યાને માટે દુય છે. (આ પ્રકારનુ સ્થન તીથ કરાએ
सू. ७९
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