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समवाय बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ. २ उ. २ स्वपुत्रेभ्यः भगवदा दिना थोपदेशः ५७९
उपदेशान्तरं पुनः प्रस्तौति सूत्रकार:- ' उवणीयतरस्स' इत्यादि ।
मूलम् --
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वणीयतरस्स ताइणो भमाणस्स विविकमासणं ।
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सामाइयमाहु तस्स जं जो अप्पार्ण भए ण देस ||१७||
-छाया
उपनीततरस्य त्रायिणः भजमानस्य विविक्तमासनम् । सामायिकमास्तस्य यद्य आत्मानं भये न दर्शयेत् ॥ १७॥ अन्वयार्थ:
( उवणीयतरस्स) उपनीततरस्य = स्वात्मानं ज्ञानादिसमीपे उपस्थापितस्य (ताइणो) त्रायिणः = परोपकारिणः षड्जीवनिकायरक्षकस्य वा (विविक्रमास)
सूत्रकार पुनः उपदेश करते हैं- " उवणीयतरस्स" इत्यादि ।
शब्दार्थ - 'उवणीयतरस्स - उपनीततरस्य' जिसने अपने आत्मा को ज्ञान आदि के समीप पहुंचा दिया है 'ताइणो- त्रायिण' तथा जो अपना और पर का उपकार करता है अर्थात् षट्जीवनिकाय का रक्षण करता है ' विविकमासणं- विविक्तमासनम्' स्त्री नपुंसकवर्जितस्थान को 'भजमाणस्स - भजमानस्य' सेवन करता है 'तस-तस्य' ऐसे मुनिका सर्वज्ञोंने 'सामाइयमाहुसामायिकमाहुः' - सामायिक चारित्र कहा है ' जं--यत्' इसलिये 'अप्पार्ण - आत्मानं आत्मा में 'भए ण दंसए - भये न दर्शयेत्' भय प्रदर्शित नहीं करना चाहिए || १७ || | अन्वयार्थ
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जिसने अपनी आत्मा को ज्ञान आदि के समीप स्थापित किया है, जो परोपकारी अथवा षट् जीवनिकाय का रक्षक है, और जो स्त्रीपशु और पण्डक से
वणी सूत्रभर साधुने या प्रमाणे उपदेश आपे छे - " उवणीयतरस्स” इत्यादि शब्दार्थ' - 'उवणीयतरस्त्र - उपनीततरस्य' भेषे पोताना आत्माने ज्ञान विगेरेनी नही पडोंगाडी ही छे 'ताइणो- त्रायिनः' तथा ने पोतानो भने जीन्ननो उपहार १३ छे अर्थात षट्लवनिहाय रक्षा उरे छे. 'विविक्कमासण- विविक्तमासनम्' स्त्री, नपुंसकपतिस्थानने 'भजमा गस्स - भजमानस्य' सेवन उरता येवा 'तस्स - तस्य' आवा भुनिनु सर्वज्ञो 'सामाइयमाहु- सामायिकमाहुः सामायिक यारित्र अडेस छे. 'ज – यत्' भेटला भाटे 'अध्याण'- आस्मान" आत्माभां 'भप ण दंसए-भये न दर्शयेत्' लय अर्शित ના કરવા જોઈએ. ૧૭ાા
- सूत्रार्थ - જેણે પાતાના આત્માને જ્ઞાન આદિની રામીપે સ્થાપિત કર્યાં છે. જે પરોપકારી છે એટલે કે છ જીવનિકાયના રક્ષક છે, અને જે સ્ત્રી, પશુ અને પડક (નપુંસક) થી રહિત
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