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समयार्थबोधिनी टीका प्र.श्रु. अ. २ उ. २ निजपुत्रेभ्यः भगवदादिनाथोपदेशः
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-मूलम्कुजये अपराजिए जहा अक्खेहिं कुसलेहिं दीवयं
कडमेव गहाय णो कलिं नो तीयं नो चेव दावरं ॥२३॥
छायाकुजयोऽपराजितो यथाक्षैः कुशलो दीज्यन् । कृतमेव गृहीत्वा नो कलिं नो त नो चैव द्वापरम् ॥२३॥
अन्वयार्थ:( अपराजिए ) अपराजितः अन्येन जेतुमशकयः ( कुसलेहिं ) कुशल इत्यर्थः (कुजए) कुजयः (जहा) यथा (अक्खेहि) अक्षैः कपर्दैः (दीवयं) दीव्यन=
शब्दार्थ-'अपराजिए-अपराजितः' अन्य के द्वारा पराजित न होने वाला 'कुसलेहि-कुशलः' चतुर 'कुजए-कुजयः' जुआ खेलने वाले जुआरी 'जहा-यथा' जैसे 'अक्खेहि-अवैः' पासा से 'दीवयं-दीव्यत्' खेलता हुआ 'कडमेव गहाय-कृतमेव गृहीत्वा' कृत नाम के चोथे स्थान को ही ग्रहण करता है 'णो कलि--नो कलिम्' कलि नामक प्रथम स्थान को ग्रहण नहीं करता है 'णो तीयं-नी चैतं, तीसरे स्थान को भी ग्रहण नहीं करता हैं एवं 'नो चेव दावरं नैव द्वापरम्, दूसरे स्थान को भी ग्रहण नहीं करता है॥२३॥
-अन्वयार्थअपने विरोधी से पराजित न होने वाले कुशल अर्थात् पासा फेंकने में चतुर जुआरी जैसे पासों से जुआ खेलता हुआ ‘कृत' स्थान को ही ग्रहण करता है । कलि नामक
शहाथ-'अपराजिए-अपराजितः' मीन द्वारा परात न वावा 'कुसलेहि कुशल' याला यतु२ 'कुजए-कुजयः' गार २मा वाणा जुगारी 'जहा-यथा' वी शते 'अक्खेहि-अनः' पासाथी दीवयं-दीव्यन्' २मता ‘क डमेव गहाय-कृतमेव गृहीत्वा' कृत नामना याथा स्थानने ०४ अड ४२ छे. 'णो कलिं-नो कलिम्' सिनामना प्रथम स्थानने अड) ४२तो नथी 'णो तीय-नो त्रीत" त्रीत स्थानने ५५ अड ४२तो नथी मेवम् ‘णो चेव दावर-नैव द्वापरम्' भी स्थानने ५९ अहम तो नथी. ।२३।
-सूत्रार्थપિતાના વિરોધીઓ વડે પરાજિત ન થનાર, કુશળ (પાસા ફેકવામાં કુશળ) જુગારી પાસા ફેંકતી વખતે “કૃત” નામના ચોથા સ્થાનને જ ગ્રહણ કરે છે, “ક્લી' નામની
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