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समयायार्थ बोधिनी टीका प्र. अ. अ. १ उ. ४ लोकवादनिरूपणम्
४३१ चत्वारो लोकसंनिवेशा:" इत्यादिना लोकानां मर्यादादर्शनात् । तथा नित्यो लोकः प्रवाहरूपेणाऽद्यापि परिदृश्यमानत्वात् तथा - " अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैवच नैवच ।" "ब्राह्मणो हि देवता" "श्वानो यक्षाः " इत्यादि । 'इति' इत्येवं (धीरो) धीरो:व्यासादिः । 'अतिपास' अतिपश्यति, इत्थंभूतलोकवादं कथयति || गा०६ || "पुनस्तमेव लोकवाद दर्शयति सूत्रकारः - "अपरिमाणं" इत्यादि
मूलम् -
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अपरिमाणं वियाणा इह मेगेसिमाहियं ।
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सव्वत्थ सपरीमाणं, इति धीरोऽतिपास - ॥७
छाया
"अपरिमाणं विजानाति इहैकेषामाख्यातम् । सर्वत्र परिमाणम् इति धीरोऽतिपश्यति ||८|| क्योंकि ' यह पृथ्वी सातद्वीप तक ही है, लोक तीन हैं। चार लोक संनिवेश हैं, इत्यादि रूप में लोकों की मर्यादा देखी जाती है। तथा लोक नित्य है । क्योंकि प्रवाह रूपसे यह आज भी दिखाई देता है । तथा 'निपूते को शुभगति नहीं मिलती है, स्वर्ग हर्गिज नहीं मिलता है, ब्राह्मण देवता है, कुत्ते यक्ष हैं, इत्यादि सब इस लोकवाद के मन्तव्य हैं । व्यास आदि ने इस प्रकार के लोकवाद का निरूपण किया है || ६ ||
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सूत्रकार पुन: लोकवाद को दिखलाते हैं -- “ अपरिमाणं ' इत्यादि । शब्दार्थ –'अपरिमाणं- अपरिमाणम् परिमाणरहित अर्थात् अपरिमित पदार्थको 'वियाणा - विजानाति' जानता है 'इहें इह' इस लोक में 'एगेसिं एकेषां' किन्हींका 'आहियं - आख्यातम्' कथन है
'सव्वत्थ - सर्वत्र' सर्व देशकालके
। मन्तवान् (सीमित) छे, अरण हे " मा पृथ्वी सात द्वीप पर्यन्त व्याप्त छे, बो ત્રણ છે, ચાર લેાક સ'નિવેશ છે.” ઈત્યાદિ રૂપે લેાકની મર્યાદા દેખી શકાય છે. તથા લાક નિત્ય છે, કારણ કે પ્રવાહ રૂપે તે આજ પણ વિદ્યમાન છે તથા “ અપુત્રને શુભगति भणती नथी, स्वर्ग तो जिंक ( सहन्तर ) भगतुं नथी, श्राह्मण देवता छे, इतरा યક્ષા છે, ઈત્યાદિ લેાકવાદના જ મન્તવ્યા છે. વ્યાસ આદિએ આ પ્રકારના લેાકવાદનુ નિરૂપણ કર્યું છે. !! ગાથા ૬૫
सूत्रअर सोडवाहन विशेष निश्प ४२ छे - " अपरिमाण" इत्यादि शब्दार्थ- 'अपरिमाण - अपरिमाणम्' परिमाणु रहित अर्थात् अपारमित पहार्थने 'विषाणाइ - विजानाति' लगे छे. 'इह - इह' या बोभां 'एगेसि' - एकेष' अर्धनु' 'आहिय
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