Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम नमो नमो निम्मलदंसणस्स
अपूज्य आनंद- क्षमा- ललित-सुशील सुधर्मसागर - गुरुभ्यो नमः शम्
सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि
आगम
आगम
‘भगवती' मूलं एवं वृत्ति: [३]
-
आजम आज
५
~1~
इस आज
पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से 'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा
भाग
10
आगम आगम आगम आगम आगम आगम आगम मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D. श्रुतमहर्षि
STET
आगम
TEFL
आगम
OHL
सागम
Ottaret
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
श्री आगम मंदिर
S पालिताणा
JOIN
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
नमो नमो निम्मलदसणस्स
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
DEE
SAIRRIEDO
SON
O
।
Mal
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
प्रत-प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 982559885519825306275
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
ਸ
ਸਵਾਸ ਨੇ ਕੀਤਾ ਸ ਆਤਸ਼ ਗਰੀਸ ਕਿਸਾਸ ਕਤਲ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਹ
ਸ ਥ
ਨੂੰ ਗੁਰੂ
ਦਾ ਗਲਾ
RISH
वाचना शताब्दी वर्ष
ਹੈ। ਹਾਲ ਹੀ
ਸ਼ ਨਿਕਾਸ ਇਕ ਗਲ ਸਨ, ਨਾਲ ਉਸ
* 4
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
[भाग-१०] श्री भगवती-अंगसूत्रम्- भाग-३
नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम:
"भगवती" मलं एवं वत्ति: [भाग-3] (अपरनाम- "व्याख्याप्रज्ञप्ति") शतक- १२ से २०
मूलं एवं अभयदेवसूरि रचिता वृत्तिः ]
[आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा.]
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.)
28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५
'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-१०
श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'आगम-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट'
~5~
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब
• जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक्-श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक | अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी गुरुभक्ति | : बुद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामुली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है।
.चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर | | अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ : - बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण-न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए।
.एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हुए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से | : शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और नियुक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया | फिर | पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और “आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ |
.सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अव चूरी, संस्कृत-छाया आदि का भी | संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो की : प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की।
.ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं को - प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे सत्य-पक्षमें । अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था ।
• सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ७०० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | ....ये थे हमारे गुरुदेव “सागरजी"...
___......मुनि दीपरत्नसागर... |
.
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
-
.
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त । पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक पून्यवान् । | आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या । शिष्यो कि संख्या बढती चली, बढ़ते हुए पुन्य के साथ-साथ वे
आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे,
तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी | संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, । • वे खुद अकेले या शिष्य-परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। | ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेलु दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी
भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी | नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही रटण बारबार चालु हो : गया- “अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनुं शरण " इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना |
... मुनि दीपरत्नसागर... ... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... | पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक-प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुइ। : आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ ।
शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन-प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुजयगिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां ४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्णो के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस-पत्थर से बना है, देवो दवारा रचित समवसरण के शास्त्र वर्णनअनुसार आगम-मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है | ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है।
- मुनि दीपरत्नसागर...
.
-
.
.
-
.
.
~74
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
..
.
-
..
-
..
-.. -.. -.. -.. -.. -.. -.. -.. -.. -.. -..
'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब
पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय के सुचारु : संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये “सवृत्तिक-आगम-सुल्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण दव्यराशि प्राप्त हुई , उनका अत्यल्प परिचय यहां
करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन: अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय मिलने पर शास्त्र
वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे। छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की • प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से | पूजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई। ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है।
... मुनि दीपरत्नसागर
[कात्रेज]पूना, शंखेश्वर, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब
(एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ
.......मुनि दीपरत्नसागर
-..
-..
-..
-..
-..
-..
-..
-..
-..
-..
-..
-..
-..
-.
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
....
२७१
मूलाका: ८६८ + ११४ भगवती (अग)सत्रस्य विषयानुक्रम
दीप-अनुक्रमा: १०८७ | मलांक:: | विषय:
पृष्ठांक: मूलांक: विषय: पृष्ठांक: मलाक:
पृष्ठांक: | शतक -१ ... ......शतकं - ३
......शतक -५ ००१ | उद्देशक: ०१ चलन १७० | उद्देशक: ०२ चमरोत्पात
२६४ | उद्देशक: ०९ राजगृह ०२६ | उद्देशक: ०२ दुःख १४८ | उद्देशक: ०३ क्रिया
| उद्देशक: १० चन्द्रमा ०३४ | उद्देशक: ०३ कांक्षाप्रदोष १८४ | उद्देशक: ०४ यान
शतकं-६ ०४६ | उद्देशक: ०४ कर्मप्रकृति १८९ | उद्देशक: ०५ स्त्री
२७२ | उद्देशक: ०१ वेदना ०५२ | उद्देशक: ०५ पृथ्वी १९१ | उद्देशक: ०६ नगर
२७७ उद्देशक: ०२ आहार ०६९ | उद्देशक: ०६ यावंत १९३ | उद्देशक: ०७ लोकपाल
રા૦૮ | उद्देशक: ०३ महा-आश्रव ०७९ | उद्देशक: ०७ नैरयिक
२०१ | उद्देशक: ०८ देवाधिपति ।
२८६ उद्देशक: ०४ सप्रदेशक ०८५ | उद्देशक: ०८ बाल २०५ | उद्देशक: ०९ इन्द्रिय
२९१ | उद्देशक: ०५ तमस्काय ०९४ | उद्देशक: ०९ गुरुत्व २०६ | उद्देशक: १० परिषद
३०० | उद्देशक: ०६ भव्य १०२ उद्देशक:१० चलत
| शतकं -४
३०२ | उद्देशक: ०७ शाली शतक - २ २०७ | उद्देशका: १-४ लोकपाल-विमान
३१३ उद्देशक: ०८ पृथ्वी १०५ | उद्देशक: ०१ स्कंदक २१० | उद्देशका: ५-८लोकपालराजधानी
३१७ | उद्देशक: ०९ कर्म ११८ | उद्देशक: ०२ समुदघात २११ | उद्देशक: ०९ नैरयिक
३२० | उद्देशक: १० अन्ययूथिक ११९ | उद्देशक: ०३ पृथ्वी २१२ | उद्देशक: १० लेश्या
शतकं - ७.... १२२ | उद्देशक: ०४ इन्द्रिय ... शतक - ५.....
३२७ उद्देशक: ०१ आहार १२३ | उद्देशक: ०५ अन्यतीर्थिक २१५ | उद्देशक: ०१ रवि
३३९ | उद्देशक: ०२ विरति १३८ | उद्देशक: ०६ भाषा २२० | उद्देशक: ०२ वाय
३४५ | उद्देशक: ०३ स्थावर १३९ | उद्देशक: ०७ देव २२३ | उद्देशक: ०३ जालग्रंथिका
३५१ उद्देशक: ०४ जीव १४० | उद्देशक: ०८ चमरचंचा २२५ | उद्देशक: ०४ शब्द
३५३ उद्देशक: ०५ पक्षी १४१ | उद्देशक: ०९ समयक्षेत्र २४१ | उद्देशक: ०५ छद्मस्थ
३५५ | उद्देशक: ०६ आयु १४२ | उद्देशक: १० अस्तिकाय २४४ | उद्देशक: ०६ आय
| उद्देशक: ०७ अनगार शतकं - ३..... २५३ उद्देशक: ०७ पुदगल
३६५ | उद्देशक: ०८ छद्मस्थ | उद्देशक: ०१ चमरविकुर्वणा । २६२ | उद्देशक: ०८ निर्ग्रन्थीपुत्र
३७१ | उद्देशक: ०९ असंवृत पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०५], अंग सूत्र-[०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
१५१
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
Woo
.
५६०
०१७
मूलाका: ८६८ + ११४ भगवती (अग)सूत्रस्य विषयानुक्रम
दीप-अनुक्रमा: १०८७ मूलांक: विषय: | पृष्ठांक: ।
मूलांक: विषय: पृष्ठांक: मलांक: | विषय:
पृष्ठांक: ... .....शतकं -७
.....शतकं -१०
.....शतकं - १२ ३७७ उद्देशक: १० अन्यतीर्थिक ४८२ उद्देशक: ०३ आत्मऋद्धि
| उद्देशक: ०५ अतिपात
०४७ शतकं-८ ४८७ उद्देशक: ०४ श्यामहस्ती
५४६ | उद्देशक: ०६ राह
०५५ ३८१ उद्देशक: ०१ पद्गल ४८८ | उद्देशक: ०५ देव
५५० उद्देशक: ०७ लोक
०६३ ३८९ | उद्देशक: ०२ आशीविष ४९० | उद्देशक: ०६ सभा
५५२ | उद्देशक: ०८ नाग
૦૬૮ ३९७ | उद्देशक: ०३ वृक्ष ४९३ उद्देशका: ०७-३४ अंतर्दवीप
५५४ | उद्देशक: ०९ देव
०७१ उद्देशक: ०४ क्रिया | शतकं- ११
| उद्देशक: १० आत्मा
०८१ ४०१ उद्देशक: ०५ आजीविक ४९४ | उद्देशक: ०१ उत्पल
शतकं - १३ ४०५ | उद्देशक: ०६ प्रासकआहार ४९९ |उद्देशक: ०२ शालक
५६३ | उद्देशक: ०१ पृथ्वी ४१० | उद्देशक: ०७ अदत्तादान ५०० | उद्देशक: ०३ पलाश
५६७ | उद्देशक: ०२ देव |
१०७ ४१२ | उद्देशक: ०८ प्रत्यनिक
५०१ | उद्देशक: ०४ कुम्भिक
५६८ उद्देशक: ०३ नरक
११३ ४२२ उद्देशक: ०९ प्रयोगबन्ध १०२ | उद्देशक: ०५ नालिक
५६९ | उद्देशक: ०४ पृथ्वी |
११४ ४३० | उद्देशक: १० आराधना ५०३ | उद्देशक: ०६ पद्म
५८४ | उद्देशक: ०५ आहार
१३८ | शतक - १ ५०४ | उद्देशक: ०७ कर्णिक
५८५ | उद्देशक: ०६ उपपात
१३९ ४३८ | उद्देशक: ०१ जम्बू
| उद्देशक: ०८ नलिन
५८९ उद्देशक: ०७ भाषा
१४७ ४४० | उद्देशक: ०२ ज्योतिष्क
५०६ उद्देशक: ०९ शिवराजर्षि
५९३ | उद्देशक: ०८ कर्मप्रकृति १५७ ४४४ | उद्देशका: ०३-३० अंतविप ५१० उद्देशक: १० लोक
५९४ | उद्देशक: ०९ अनगारवैक्रिय | १५८ ४४५ | उद्देशक: ३१ असोच्चा ५१४ | उद्देशक: ११ काल
५९५ उद्देशक: १० समुदघात १६३ | उद्देशक: ३२ गांगेय ५२५ उद्देशक: १२ आलभिका
... शतकं - १४.....
१६५ ४६० | उद्देशक: ३३ कण्डग्राम
| शतकं - १२..... ०१० ५९६ उद्देशक: ०१ चरम
१६५ उद्देशक: ३४ पुरुषघातक
५२९ उद्देशक: ०१ शंख
०१० ६०० उद्देशक: ०२ उन्माद
१७३ शतकं - १०.....
५३४ उद्देशक: ०२ जयंति
०१८ ६०३ उद्देशक: ०३ शरीर
१७८ उद्देशक: ०१ दिशा
५३७ उद्देशक: ०३ पृथ्वी ૦૨e ६०० उद्देशक: ०४ पुदगल
१८२ ४४७ | उद्देशक: ०२ संवृतअनगार
५३८ उद्देशक: ०४ पुदगल
६१२ उद्देशक: ०५ अग्नि
१८७ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-०५), अंग सूत्र-[०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
...
રક.
~10
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
...
४५१
७२१
४८१
७८३
४५६
२९७
मूलाइका: ८६८ + ११४ भगवती (अगसूत्रस्य विषयानुक्रम
दीप-अनुक्रमा: १०८७ मूलांक::| विषय: पृष्ठांक: मलाक: |
विषयः पृष्ठांक: मलाक:
विषय:
पृष्ठांक: |.....शतक - १४ ... .....शतक - १७
.....शतकं- १९ ६१५ | उद्देशक: ०६ आहार १९३ ७०६ उद्देशक: ०४ क्रिया
३६०
| उद्देशक: ०८ निर्वृत्ति ६१८ | उद्देशक: ०७ संश्लिष्ट
१९८ | उद्देशका: ६-११ पृथ्व्यादिकाय ३६१ ७७४ | उद्देशक: ०९ करण
४४९ ६२४ | उद्देशक: ०८ अंतर
२०८ ७१५ उद्देशक: १२ एकेन्द्रिय ३६२ ७७५ | उद्देशक: १० व्यंतर
४५० ६३१ | उद्देशक: ०९ अनगार
२१५ ७१६ | उद्देशका:१३-१७ नागादिकुमार | ३६२
शतक - २० ६३६ | उद्देशक: १० केवली
२१९ | शतकं - १८ ३६७ ७७९ | उद्देशक: ०१ बेईन्द्रिय
४५१ शतकं - १५
२२२ | उद्देशक: ०१ प्रथम
३६७ | उद्देशक: ०२ आकाश
४५४ ६३७ | --गोशालक
રાક | | उद्देशक: ०२ विशाखा
३७९
उद्देशक: ०३ प्राणवध शतकं - १६ ७२८ | उद्देशक: ०३ माकंदीपत्र ३८३ ७८५ | उद्देशक: ०४ उपचय
४५९ ६६० उद्देशक: ०१ अधिकरण २९४ ७३३ | उद्देशक: ०४ प्राणातिपात ३९२ ७८६ उद्देशक: ०५ परमाण
४६० ६६६ । उद्देशक: ०२ जरा ३०३ ७३६ उद्देशक: ०५ असुरकुमार
३९६
७८९ | उद्देशक: ०६ अंतर ६७० | उद्देशक: ०३ कर्म
३०९ ७४० | उद्देशक: ०६ गुडवर्णादि
७९२ उद्देशक: ०७ बन्ध
४८५ ६७२ | उद्देशक: ०४ जावंतिय
३१२ ७४२ | उद्देशक: ०७ केवली
४०२ ७९३ | उद्देशक: ०८ भूमि ६७३ | उद्देशक: ०५ गंगदत्त ३१५ ७४९ | उद्देशक: ०८ अनगारक्रिया ४१२ ८०१ उद्देशक: ०९ चारण
४९१ ६७७ | उद्देशक: ०६ स्वप्न ૩૨૨ ७५० | उद्देशक: ०९ भव्यद्रव्य
४१६ ८०३ उद्देशक: १० आय
४९५ ૬૮૨ | उद्देशक: ०७ उपयोग
७५३ उद्देशक: १० सोमिल
४१८
शतक - २१ ६८३ | उद्देशक: ०८ लोक
૩૩૨ | शतकं - १९.....
४२६
| वर्ग: १ शाली-आदि ६८७ उद्देशक: ०९ बलिन्द्र ३४० ७५८ | उद्देशक: ०१ लेश्या
४२६
| वर्गा:२-८ मूलअलसी, वंश, ६८८ | उद्देशक: १० अवधि
७६० उद्देशक: ०२ गर्भ
રક.
| इक्षु,सेडिय, अमरुह, तुलसी ६८९ उद्देशक: ११-१४ दविपादि० ३४३ ७६१ | उद्देशक: ०३ पृथ्वी
४२८
शतक - २२ शतकं- १७.....
३४४ ७६५ | उद्देशक: ०४ महाश्रव
४३९ । ८२२ वर्गा:१-६ताड़,निम्ब,अगस्ति ६९३ | उद्देशक: ०१ कुंजर
३४४ ७६६ उद्देशक: ०५ चरम
४४१
| वैगन, सिरियक,पुष्पकलिका ६९९ | उद्देशक: ०२ संयत | ३४९ । । ७६८ | उद्देशक: ०६ दवीप
४४२
• शतक - २३ ७०३ | उद्देशक: ०३ शैलेशी ३५५ ७६९ | उद्देशक: ०७ भवन
८२९ वर्गा:१-४आलू,लोही,आय,पाठा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०५), अंग सूत्र-[०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
५००
४८७
३३१
८१५
वग्गाः
३४२
...
५४३
~114
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
मूलाङ्का: ८६८ + ११४
विषय:
मूलांक::
८३५
८४३
८४४
८४६
८५३
८५७
•
८६१
९७५
•
९९१
शतकं २४
उद्देशक: ०१ नैरयिक
उद्देशक : ०२ परिमाण
उद्देशक: ०३-११ नागादिकमारा
उद्देशक: १२-१६ पृथ्व्यादि
उद्देशक: १७-२० बेईन्द्रियादि
उद्देशक: २१-२४ मनुष्यादि
शतकं २५
उद्देशका: १-१२ लेश्या, द्रव्य, संस्थान, युग्म, पर्यव, निर्गन्थ संयत, ओघ, भव्य, अभव्य, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि
शतकं २६
उद्देशका: १ - ११ जीव, लेश्या, पखिय, दृष्टि, अज्ञान, ज्ञान,
संज्ञा, वेद, कषाय, उपयोग, योग शतकं २७
उद्देशका: १ ११ जीव आदि-
जाव २६ शतक
-
-
पृष्ठांक
भगवती (अग) सूत्रस्य विषयानुक्रम
मूलांक:
विषय:
| पृष्ठांक
९९२
९९५
९९८
१००३
१०१६
१०१८
१०३३
शतकं २८
-
उद्देशका: १ ११ जीव आदि-
जाव २६ शतक शतकं २९
उद्देशका १११ जीव आदि-
जाव २६ शतक
शतकं ३०
उद्देशका: १ ११ समवसरण, लेश्या आदि
शतकं ३१
उद्देशका: १-२८ युग्म, नरक, उपपात आदि विषयकाः
-
शतकं ३२
-
उद्देशका: १-२८ नारक्स्य--- उद्वर्तन, उपपात, लेश्यादि शतकं ३३
एकेन्द्रिय शतकानि १२ शतकं ३४
एकेन्द्रिय शतकानि १२
-
-
मूलांक:
~ 12 ~
१०४४
१०५८
१०६१
१०६२
१०६३
१०६४
शतकं ३५
-
दीप-अनुक्रमाः १०८७
विषय:
चतुरिन्द्रिय शतक शतकं ३९
असंज्ञीपंचेन्द्रिय शतकानि शतकं ४० संज्ञीपंचेन्द्रिय शतकानि शतकं ४१
१०६८ से| उद्देशका: १- १९६ राशियुग्म, ---१०७९ | त्र्योजराशि, द्वापरयुग्मराशि कल्योजराशि इत्यादि
एकेन्द्रिय शतकानि १२
शतकं ३६
-
बेन्द्रिय शतकानि-१२
शतकं ३७ त्रिन्द्रिय शतक
शतकं ३८
-
१०८० से उपसंहार गाथा ---१०८६
परिसमाप्तः
पृष्ठांक:
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र -[०५], अंग सूत्र -[०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
[भगवती- मूलं एवं वृत्तिः ] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले (श्रीमद) भगवतीसूत्र के नामसे सन १९१८ (विक्रम संवत १९७४) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब |
इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद् सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और श्रीमसागरानंदसूरिजी तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया |
हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर शतक-वर्ग-उद्देशक-मूलसूत्र- आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा शतक, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है।
हमने एक अनक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक शतक, वर्ग एवं उद्देशक लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते शतक या विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है ।
शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-१० का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है ।
__......मुनि दीपरत्नसागर.
~13
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४३७-४३९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४३७-४३९]
दिसू ४३७
गाथा
व्याख्या
॥ अथ द्वादशं शतकम् ॥ •प्रज्ञप्तिः
१२ शतके अभयदेवी-15
१ उद्देशः या वृत्तिः व्याख्यातं विविधार्थमेकादशं शतम्, अथ तथाविधमेव द्वादशमारभ्यते, तस्य चोद्देशकार्थाभिधानार्था गाथेयम्- शलपु
संखे १ जयंति २ पुढवि ३ पोग्गल ४ अइवाय ५ राहु ६ लोगे य ७॥ नागे य८ देव ९ आया १०पारसम- साकल्याचा एसए दसुरेसा ॥१॥ तेणं कालेणं २ सावत्धीनाम नगरी होत्था वन्नओ, कोहए चेइए वनओ, तत्थ णं || सावत्थीए नगरीए बहवे संखप्पामोक्खा समणोवासगा परिवसंति अड्डा जाव अपरिभूया अभिगयजीवा-IN
जीवा जाब विहरंति, तस्स णं संखस्स समणोवासगस्स उप्पला नाम भारिया होत्था सुकुमाल जाव सुरूहवा समणोवासिया अभिगयजीवा २ जाव विहरह, तत्थ णं सावत्थीए नगरीए पोक्खलीनाम समणोवासए
परिवसह अहे अभिगयजाव विहरह, तेणं कालेणं २ सामी समोसढे परिसा निग्गया जाव पजुवा,तए णं ते समणोबासगा इमीसे जहा आलभियाए जाव पज्जुवासइ, तए णं समणे भगवं महावीरे तेसिं समणोवासगाणं तीसे य महति०धम्मकहा जाव परिसा पडिगया, तए णं ते समणोवासगा समणस्स भगवओमहावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हहतुट्ट समणं भ० म०० न० ०म० पसिणाई पुरुषंति प० अढाई परियादियंति अ०२ षट्ठाए उद्वेति उ.२ समणस्स भ० महा. अंतियाओ कोहयाओ चेइयाओ परिनि०15||
G५५२॥ प०२ जेणेच सावत्थी मगरी तेणेष पहारेत्थ गमणाए (सूत्रं ४३७)।तए णं से संखे सममोवासए ते
दीप अनुक्रम [५२९-५३२]
Auditurary.com
अत्र द्वादशं शतकं आरभ्यते
अथ द्वादशमे शतके प्रथम-उद्देशक: आरभ्यते
शंख नामक श्रमणोपासकस्य वृतांत
~14
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक -1, उद्देशक [१], मूलं [४३७-४३९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४३७-४३९]
गाथा
मणोवासए एवं वयासी-तुजले णं देवाणुप्पिया । विउलं असणं पाणं खाइमं साहम उवक्खडावेह, तए | अम्हेनं विपुलं असणं पाणं खाइम साइमं आसाएमाणा विसाएमाणा परिभुजेमाणा परिभाएमाणापक्खियं पोसह परिजागरमाणा विहरिस्सामो, तए णं ते समणोबासगा संखस्स समणोवासगस्स एपमट्ट विणएणं पडिमुणंति, तए णं तस्स संखस्स समणोवासगस्स अयमेयारूवे अम्भत्थिए जाच समुप्पज्जित्था-नो खल मे सेयं तं विलं असणं जाव साइमं अस्साएमाणस्स ४ पक्खियं पोसह पडिजागरमाणस्स विहरित्तए, सेयं खलु मे पोसहसालाए पोसहियस्स बंभचारिस्स उम्मुकमणिसुवन्नस्स ववगयमालावन्नगविलेवणस्स निक्खित्तसत्थमुसलस्स एगस्स अबिइयस्स दन्भसंधारोवगयस्स पक्खियं पोसह पडिजागरमाणस्स विहरि-15 तएत्तिक एवं संपेहेति २ जेणेव सावत्थीनगरी जेणेव सए गिहे जेणेच उप्पला समणोवासिया सेणेव उवा०२ उप्पलं समणोचासियं आपुच्छह २ जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छद २ पोसहसालं अणुपविसह२ पोसहसालं पमजा पो०२ उचारपासवणभूमी पडिलेहेइ उ०२ दन्भसंथारगं संथरति दम्भ०२दन्भसंथारगं दुरूहह दु०२ पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव पक्खियं पोसह पडिजागरमाणे विहरति, तए णं ते समणोवासगा जेणेव सावत्थी नगरी जेणेव साई गिहाई तेणेव उवाग० २ विपुलं असणं पाणं । खाइमं साइमं उवक्खडावेंति उ०२ अन्नमन्ने सद्दावति अ०२ एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हेहिं से विषले असणपाणखाइमसाइमे उचक्खडाविए, संखे प णं समणोवासए नो हषमागच्छइ, तं सेयं खल
5
दीप
- 0
अनुक्रम [५२९-५३२]
E5%-4
%
शंख नामक श्रमणोपासकस्य वृतांत
~15
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक -1, उद्देशक [१], मूलं [४३७-४३९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
व्याख्या-1
[४३७
या वृत्तिा
-४३९]
सू४३८
गाथा
देवाणुप्पिया! अम्हं संखं समणोवासगं सहावेत्तए । तए णं से पोक्खली समणोवासए ते समणोवासए एवं ||१२ शतके प्राप्तिःवयासी-अच्छह णं तुझे देवाणुप्पिया ! मुनिवुया वीसस्था अहन्नं संखं समणोवासगं सहावेमित्तिक? तेसिं १ उद्देशः अभयदेवी- समणोवासगाणं अंतियाओ पडिनिक्वमति प०२सावत्थीए नगरीए मजझमझेणं जेणेच संखस्स समणोवास-शखपुष्क
४ गस्स गिहे तेणेव उचाग०२ संखस्स समणोवासगस्स गिहं अणुपवितु।तएशंसा उप्पला समणोवासिया पोक्खलिंल्यादिवृत्त ॥५५॥ समणोवासयं एजमाणं पासह पा०२ हहह आसणाओअम्भुढेह अ०२त्ता सत्तट्ट पयाई अणुगच्छदरपोक्खलिं
समणोवासगं बंदति नर्मसतिन० आसणेणं उवनिमंतेइ आ०१एवं बयासी-संदिसंतु णं देवाणुप्पिया! किमागमणप्पयोयणं, तए णं से पोक्खली समणोवासए उप्पलं समणोवासियं एवं वयासी-कहिनं देवा-|| Mणुप्पिए! संखे समणोवासए ?, तए णं सा उप्पला समणोवासिया पोक्खलं समणोवासयं एवं वयासी-1
एवं खलु देवाणुप्पिया! संखे समणोवासए पोसहसालाए पोसहिए भयारी जाव विहरह । तए | कसे पोक्खली समणोवासए जेणेव पोसहसाला जेणेव संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छह २ गमणागमराणाए पडिक्कमइ ग.२ संखं समणोवासगं वंदति नमंसति वन एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया | k| अम्हे हिं से विउले असणजाब साइमे उवक्खडाविए तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया! तं विउलं असणं जाच
॥५५शा साइमं आसाएमाणा जाव पडिजागरमाणा विहरामो, तए णं से संखे समणोवासए पोक्खलि समणो| वासगं एवं वयासी-णो खलु कप्पड देवाणुप्पिया! तं विलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणस्स
दीप अनुक्रम [५२९-५३२]
शंख नामक श्रमणोपासकस्य वृतांत
~16
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक -1, उद्देशक [१], मूलं [४३७-४३९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
%
[४३७-४३९]
%
%
गाथा
जाप पडिजागरमाणस्स विहरित्तए, कप्पड़ मे पोसहसालाए पोसहियस्स जाव विहरित्तए, तं देणं देवागुप्पिया ! तुन्भे तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा जाव विहरह, तए णं से पोक्खली समणोबासगे संखस्स समणोवासगस्स अंतियाओ पोसहसालाओ पडिनिक्खमइ २ त्ता सावधि नगरि मझमझेणं जेणेव ते समणोवासगा तेणेव उवागच्छद २ ते समणोवासए एवं बयासी-एवं खलु देवाणु|प्पिया ! संखे समणोवासए पोसहसालाए पोसहिए जाव विहरह, तं देणं देवाणुपिया! तुझे विउलं असणपाणखाइमसाइमे जाव विहरह, संखे णं समणोवासए नो हबमागच्छद । तए णं ते समणोवासगा तं विउलं असणपाणखाइमसाइमे आसाएमाणा जाव विहरति । तए णं तस्स संखस्स समणोवासगस्स पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारवे जाव समुप्पज्जित्था-सेयं खलु मे कल्लं जाव जलते समर्ण भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता जाव पजुवासित्ता तओ पडिनियत्तस्स पक्खियं पोसहं पारितएत्तिकहु एवं संपेहेति एवं २ कल्लं जाव जलते पोसहसालाओ पडिनिक्समति प० २ सुद्धप्पावेसाई मंगलाई वत्थाई पवर परिहिए सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमति सयाओ गिहाओ पडिनिक्ख|मित्ता पादविहारचारेणं सावधि नगरि मझमझेणं जाच पजुवासति, अभिगमो नस्थि । तए णं ते || समणोवासगा कलं पादु० जाब जलंते पहाया कयवलिकम्मा जाव सरीरा सरहिं सरहिं गेहेहिंतो पडिनिक्खमंति सएहिं २ एगयओ मिलायंति एगयओ २ सेसं जहा परमं जाव पजुवा
%
-%
दीप अनुक्रम [५२९-५३२]
K-RE
For P
OW
शंख नामक श्रमणोपासकस्य वृतांत
~17~
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४३७-४३९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४३७-४३९]
मज्ञप्तिमा
॥५५४॥
गाथा
व्याख्या- संति। तए णं समणे भगवं महावीरे तेर्सि समणोवासगाणं तीसे य धम्मकहा जाच आणाए आराहए
१२ शतके भवति । तए णं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हहतुट्टा | १ उद्देशः भमयदेवी
उहाए उट्ठति ज०२ समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति वं० २सा न०२त्ता जेणेच संखे समणोवासए प्रबुद्धावुद्धसुया वृत्तिः२ तेणेव उवागच्छन्ति २ संखं समणोवासयं एवं वयासी-तुमं देवाणुप्पिया ! हिज्जा अम्हेहिं अप्पणा चेव एवं
दक्षजागरि
काः सू४३९ MS वयासी-तुम्हे णं देवाणुप्पिया ! विउलं असणं जाव चिहरिस्सामो, तए णं तुम पोसहसालाए जाच विहरिए
सह तुम देवाणुप्पिया! अम्हं हीलसि, अज्जोत्ति समणे भगवं महावीरे ते समणोवासए एवं वयासी-|| भामा अजोतुज्झे संखं समणोवासगं हीलह निंदह खिंसह गरहह अवमन्नह, संखे णं समणोवासए पिय
धम्मे चेव दधम्मे चेव सुदक्खुजागरियं जागरिए (सू०४३८)। भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भाव & महान०२ एवं वपासी-कइविहा णं भंते ! जागरिया पण्णता, गोयमा ! तिविहा जागरिया पण्ण-2
सा, तंजहा-बुद्धजागरिया अबुद्धजागरिया सुक्खुजागरिया, से केण एवं बु० तिविहा जागरिया पक्षणदत्तातंजहा-बुद्धजा०१अबुद्धजा०२ सुदक्खु०३१, गोयमा!जे इमे अरिहंता भगवंता उप्पन्ननाणदंसणधरा जहा
॥५५४॥ खंदए जाव सवन्नू सबदरिसी एएणं बुद्धा बुद्धजागरियं जागरंति, जे इमे अणगारा भगवंतो ईरियासमिया भासासमिया जाव गुत्तभचारी एए णं अबुद्धा अबुद्धजागरियं जागरंति, जे इमे समणोवासगा अभिग-12
दीप अनुक्रम [५२९-५३२]
शंख नामक श्रमणोपासकस्य वृतांत, बुद्ध-आदि जागरिका
~18~
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक -1, उद्देशक [१], मूलं [४३७-४३९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
ACC
SARAC
[४३७
C
-४३९]
+
गाथा
यजीवाजीचा जाब विहरन्ति एतेणं सुदक्खुजागरियं जागरिंति, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुचह तिविहा। जागरिया जाव सुदक्खुजागरिया (सूत्रं ४३९)॥
'संखे'त्यादि । शङ्खश्रमणोपासकविषयः प्रथम उद्देशकः । 'जयंति'त्ति जयन्त्यभिधानश्राविकाविषयो द्वितीयः । 'पुढवित्ति रसप्रभापृथिवीविषयस्तृतीयः । 'पुग्गल'त्ति पुद्गल विषयश्चतुर्थः । 'अइवाए'त्ति प्राणातिपातादिविषयः। | पञ्चमः । 'राहु'त्ति राहुवक्तव्यतार्थः षष्ठः । 'लोगे यत्ति लोकविषयः सप्तमः । 'नागे यत्ति सर्पयक्तव्यतार्थोऽष्टमः।।
'देव'त्ति देवभेदविषयो नवमः । 'आय'त्ति आत्मभेदनिरूपणार्थों दशम इति ॥ तत्र प्रथमोद्देशके किश्चिल्लिख्यते-3 ४'आसाएमाण'त्ति ईषत्स्वादयन्तो बहु च त्यजन्तः इक्षुखण्डादेरिव 'विस्साएमाण'त्ति विशेषेण स्वादयम्तोऽल्पमेव
त्यजन्तः खजूरादेरिव 'परिभाएमाण'त्ति ददतः परिधुंजेमाण'त्ति सर्वमुपभुञ्जाना अल्पमप्यपरित्यजन्तः, एतेषां च | पदानां वार्त्तमानिकप्रत्ययान्तत्वेऽप्यतीतप्रत्ययान्तता द्रष्टव्या, ततश्च तद्विपुलमशनाधास्वादितवन्तः सन्तः 'पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणा विहरिस्सामोति पक्षे-अर्द्धमासि भवं पाक्षिक 'पौषधम्' अव्यापारपौषधं 'प्रतिजाग्रतः' अनुपालयन्तः 'विहरिष्यामः स्थास्यामः, यच्चेहातीतकालीनप्रत्ययान्तत्वेऽपि वार्त्तमानिकप्रत्ययोपादानं तभोजनानन्त-| रमेवाक्षेपेण पौषधाभ्युपगमप्रदर्शनार्थ, एवमुत्तरत्रापि गमनिका कार्येत्येके, अन्ये तु व्याचक्षते-इह किल पौषधं पर्वदिनानुष्ठानं, तब वेधा-इष्टजनभोजनदानादिरूपमाहारादिपौषधरूपं च, तत्र शङ्ख इष्टजनभोजनदानरूपं पौषधं कर्नुकामः सन् यदुक्तवांस्तदर्शयतेदमुकं-'तए णं अम्हे तं विउलं असणपाणखाइमसाइमं अस्साएमाणा'इत्यादि, पुनश्च ।
+
+
+
दीप अनुक्रम [५२९-५३२]
शंख नामक श्रमणोपासकस्य वृतांत
~19
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[४३७
-४३९]
+
गाथा
दीप
अनुक्रम
[५२९
-५३२]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र -५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [– ], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [१], मूलं [४३७-४३९] + गाथा
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २.
1144411
शङ्ख एष संवेगविशेषवशादाद्यपौषधविनिवृत्तमनाः द्वितीयपौषधं चिकीर्षुर्यचिन्तितवांस्तदर्शयतेदमुक्तम्- 'नो खलु मे सेयं त' मित्यादि, 'एगस्स अविश्यस्स'ति 'एकस्य' बाह्यसायापेक्षया केवलस्य 'अद्वितीयस्य' तथाविधक्रोधा| दिसहायापेक्षया केवलस्यैव, न चैकस्येति भणनादेकाकिन एव पौषधशालायां पौषधं कर्त्तुं कल्पत इत्यवधारणीयं, | एतस्य चरितानुवादरूपत्वात् तथा ग्रन्थान्तरे बहूनां श्रावकाणां पौधशालायां मिलनश्रयणादोषाभावात्परस्परेण स्मारणादिविशिष्ट गुणसम्भवाच्चेति । 'गमणागमणाए पक्किम त्ति ईर्यापथिको प्रतिक्रामतीत्यर्थः, 'छंदेणं ति स्वामिप्रायेण न तु मदीयाज्ञयेति । 'पुवरत्तावरत्तकालसमर्थसि 'त्ति पूर्वरात्रश्च रात्रेः पूर्वी भागः अपगता रात्रिरपररात्रः स च पूर्वरात्रापररात्रस्तलक्षणः कालसमयो यः स तथा तत्र 'धम्मजागरियं' ति धर्माय धर्मचिन्तया वा जागरिका-जाग रणं धर्म्मजागरिका तां 'पारितपत्तिकट्टु एवं संपेहेई 'त्ति 'पारयितुं' पारं नेतुम् एवं सम्प्रेक्षते' इत्यालोचयति, किमि - त्याह-' इतिकर्त्तुम्' एतस्यैवार्थस्य करणायेति । 'अभिगमो णत्थि'ति पश्चप्रकारः पूर्वोक्तोऽभिगमो नास्त्यस्य, सचि | तादिद्रव्याणां विमोचनीयानामभावादिति । 'जहा पढमंति यथा तेषामेव प्रथमनिर्गमस्तथा द्वितीयनिर्गमोऽपि वाक्य इत्यर्थः, 'हिज्जो'त्ति ह्यो ह्यस्तनदिने 'सुदुक्खुजागरियं जागरिए'त्ति सुठु दरिसणं जस्स सो मुदक्खू तस्स जागरियाप्रमादनिद्राध्यपोहेन जागरणं सुदक्खुजागरिया तां जागरितः कृतवानित्यर्थ', 'बुद्धा बुद्धजागरियं जागरंति'त्ति बुद्धाः केवलावबोधेन, ते च बुद्धानां व्यपोढाज्ञाननिद्राणां जागरिका-प्रबोधो बुद्धजागरिका तां कुर्वन्ति 'अबुद्धा अबुद्धजागरियं जागरंति त्ति अबुद्धाः केवलज्ञानाभावेन यथासम्भवं शेषज्ञानसद्भावाच्च बुद्धसदृशास्ते चाबुद्धानां -
Education International
शंख नामक श्रमणोपासकस्य वृतांत
For Penal Use On
~20~
१२ शतके १ प्रदेशः शङ्खादिवृत्तं जागरिकाच
॥५५५॥
www.landbrary or
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४०]
छद्मस्थज्ञानवतां या जागरिका सा तथा तां जामति ॥ अथ भगवन्तं शसस्तेषां मनाक्परिकुपितश्रमणोपासकाना कोपोपशमनाय क्रोधादिविपाकं पृच्छन्नाह
तए णं से संखे समणोवासए समणं भ० महावीरं वंदइ नम०२ एवं वयासी-कोहवसट्टे णं भंते ! जीवे किं बंधए किं पकरेति किं चिणाति किं उवचिणाति , संखा! कोहवसद्दे णं जीवे आउयवनाओ सत्त
कम्मपगडीओ सिढिलयंधणबहाओ एवं जहा पढमसए असंवुडस्स अणगारस्स जाव अणुपरियहइ । माणहै वसणं भंते ! जीवे एवं चेच । एवं मायावसद्देवि एवं लोभवसद्देवि जाव अणुपरियइ । तए णं ते समणो-18
वासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमढे सोचा निसम्म भीया तत्था तसिया संसारभउविग्गा समणं भगवं महावीरं वं० नम०२ जेणेव संखे समणोवासए तेणेव उवा०२संखं समणोवासगं ।
न.२त्ता एयमढ़ संमं विणएणं भुजोरखामेति । तए णं ते समणोवासगा सेसं जहा आलंभियाए
जाव पडिगया, भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं बंदइ नमसइ २ एवं वयासी-पभू णं भंते ! 18 संखे समणोवासए देणाणुप्पियाणं अंतियं सेसं जहा इसिमपुत्तस्स जाव अंतं काहेति । सेवं भंते ! सेवं|
भंते त्ति जाव विहरह (सूत्रं ४४०)॥१२-१॥ 'कोहवसद्दे ण'मित्यादि, 'इसिभहपुत्तस्स'त्ति अनन्तरशतोक्तस्येति ॥ द्वादशशते प्रथमः ॥ १२-१॥
दीप अनुक्रम [५३३]
For P
OW
अत्र द्वादशमे शतके प्रथम-उद्देशकः परिसमाप्त:
शंख नामक श्रमणोपासकस्य वृतांत
~21
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[४४१
-४४३]
दीप
अनुक्रम
[५३४
-५३६]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र -५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [−], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [४४१-४४३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवी या वृत्तिः २
१५५६॥
अनन्तरोद्देश के श्रमणोपासकविशेषप्रश्नितार्थनिर्णयो महावीरकृतो दर्शितः इह तु श्रमणोपासका विशेषप्रश्नितार्थनिर्णयस्तत्कृत एव दर्श्यते, इत्येवं संबद्धस्यास्येदमादिसूत्रम् -
ते काले २ कोसंबी नामं नगरी होत्था बन्नओ, चंदोवतरणे चेहए वन्नाओ, तत्थ णं कोसंबीए नगरीए | सहस्साणीयस्स रनो पोते सयाणीयस्स रनो पुत्ते चेडगस्स रन्नो नत्तुए मिगावतीए देवीए अत्तर जयंतीए समणोवासियाए भत्तिलए उदायणे नामं राया होत्था वन्नाओ, तत्थ णं कोसंबीए नयरीए सहस्साणीयस्स रन्नो सुण्हा सयाणीयस्स रन्नो भज्जा चेडगस्स रन्नो घूया उदायणस्स रन्नो माया जयंतीए समणोवासियाए भाउज्या मिगावती नाम देवी होत्था वन्नओ सुकुमालजावसुरूवा समणोवासिया जाव विहरह, तत्थ णं कोसंबीए नगरीए सहस्साणीयस्स रन्नो धूया सयाणीयस्स रन्नो भगिणी उदायणस्स रन्नो पिच्छा मिगावती देवीए नणंदा बेसालीसावयाणं अरहंताणं पुषसिजाघरी जयंती नामं समणोवासिया होत्या सुकुमाल जाव सुरूवा अभिगय जाव वि० (सूत्रं ४४१ ) । तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसले जाव | परिसा पज्जुवासह । तए णं से उदायणे राया इमीसे कहाए लट्ठे समाणे हट्टतुट्ठे कोटुंबियपुरिसे सदावेह को० २ एवं बयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! कोसंविं नगरिमभितर बाहिरियं एवं जहा कूणिओ तहेव सर्व्वं जाब पञ्जवासए । तए णं सा जयंती समणोवासिया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणी हट्टतुट्ठा जेणेव | मिघावती देवी तेणेव उवा० २ मियावतीं देवीं एवं वयासी एवं जहा नवमसए उसभदत्तो जाब भवि
can Internationa
अथ द्वादशमे शतके द्वितीय-उद्देशक: आरभ्यते
जयंति श्रमणोपासिका एवं तस्या प्रश्ना:
For Penal Use On
~22~
१२ शतके १ उद्देशः क्रोधादिवशार्त्तताफलंसू ४४०
१२ शतके जयन्ती पूर्व
उद्देश २
शय्यातरा सू ४४१
॥५५६॥
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [४४१-४४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४१-४४३]
लस्सइ । तए णं सा मियावती देवी जयंतीए समणोवासियाए जहा देवाणदा जाच पडिसुणेति । तए णं सा
मियावती देवी कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ को०२ एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! लहुकरणजुत्तजोइयजाच धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवट्ठवेह जाव उवट्ठवेंति जाव पञ्चप्पिणंति । तए णं सा मियावती देवी जयंतीए समणोवासियाए सद्धिं पहाया कयवलिकम्मा जाव सरीरा बहहिं खुजाहिं जाव अंतेउराओ निग्गच्छति अं०२ जेणेव याहिरिया उबट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवेर तेणेव उ०२ जाव | ४ रूढा । तए णं सा मियावती देवी जयंतीए समणोवासियाए सद्धिं धम्मियं जाणप्पवरं दुरूदा समाणी निय-४ गपरियालगा जहा उसभदत्तो जाव धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहद । तए णं सा मियावती देवी है
जयंतीए समणोवासियाए सद्धिं बहूहिं खुजाहिं जहा देवाणंदा जाव वं. नम० उदायणं रायं पुरओ कट्ट |४|| ठितिया चेव जाव पजुवासह । तए णं समणे भगवं महाउदायणस्स रनो मियावईए देवीए जयंतीए सम-18 &ीणोवासियाए तीसे य महतिमहा. जाव धम्म० परिसा पडिगया उदायणे पडिगए मियावती देवीवित
पहिगया (सून ४४२) । तए णं सा जयंती समणोवासिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं । धम्म सोचा निसम्म हहतुहा समणं भ० महावीरं वं० न० २एवं वयासी-कहिनं भंते ! जीवा गरु-8 यत्तं हवमागच्छन्ति ?, जयंती! पाणाइवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं, एवं खलु जीवा गरुयत्तं हवं एवं जहा पढमसए जाव वीयीवयंति । भवसिद्धियत्सणं भंते ! जीवाणं किं सभावओ परिणामओ, जय
दीप अनुक्रम [५३४-५३६]
जयंति श्रमणोपासिका एवं तस्या प्रश्ना:
~23~
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [४४१-४४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
984
%
प्रत सूत्रांक [४४१-४४३]
व्याख्या
ती! सभावओ नो परिणामओ । सच्चेवि णं भंते ! भवसिडिया जीवा सिजिमस्संति ?, हंता ! जयंती! १२ शतके प्रज्ञप्ति छासषि णं भवसिद्धिया जीवा सिजिासंति । जइ भंते ! सधे भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति तम्हा गं २ उद्देशः अभयदेवी- भवसिद्धियविरहिए लोए भविस्सइ, णो तिणढे समझे, से केणं खाइएणं अटेणं भंते ! एवं बुच्चइ सवेवि गं धमकथापन या वृत्तिः२ भवसिद्धिया जीवा सिनिस्संति नो चेव णं भवसिद्धियविरहिए लोए भविस्सइ ?, जयंती ! से जहाना-
जापत्यतिगमः
माता मए सधागाससेढी सिया अणादीया अणबद्ग्गा परित्ता परिवुडा साणं परमाणुपोग्गलमत्तेहिं खंडेहिं ।
सू ४४२ ५५७॥ समये २ अवहीरमाणी २ अर्णताहि ओसप्पिणीअवसप्पिणीहि अवहीरति नो चेव णं अपहिया सिया, जिसप्तदर्ब
गुरुतासिसे तेणदेणं जयंती ! एवं युचर सवेषि णं भवसिद्धिया जीवा सिजिलस्संति नो चेव णं भवसिद्विअविर-III अलसेत|हिए लोए भविस्सइ ॥ सुत्तत्तं भंते ! साहू जागरियत्तं साह, जयंती! अत्धेगइयाणं जीवाणं सुत्तत्तं || रप्रश्नाः | साह अत्धेगतियाणं जीवाणं जागरियत्तं साहू, से केण?णं भंते! एवं बुच्चइ अस्धेगइयाणं जाव साहू सू ४४३
जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया अहम्माणुया अहम्मिट्ठा अहम्मक्खाई अहम्मपलोई अहम्मपलजमाणा साअहम्मसमुदायारा अहम्मेणं चेच विर्ति कप्पेमाणा विहरति एएसि णं जीवाणं सुत्तत्तं साह, एए णं जीवा ||
सुत्सा समाणा नो घणं पाणभूयजीवसत्ताणं दुक्खणयाए सोयणयाए जाच परियावणयाए चट्टति, एए f% जीवा सुसा समाणा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा नो बहहिं अहम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो भ- ५५७॥ वंति, एएसि जीवाणं सुत्तत्तं साहू, जयंती! जे इमे जीवा धम्मिया धम्माणुया जाव धम्मेणं चेव विति
दीप अनुक्रम [५३४-५३६]
95-%9515-45515
जयंति श्रमणोपासिका एवं तस्या प्रश्ना:
~24
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[ ४४१
-४४३]
दीप
अनुक्रम
[५३४
-५३६]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र -५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [−], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [४४१-४४३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
| कप्पेमाणा विहरंति एएसि णं जीवाणं जागरियन्तं साहू, एए णं जीवा जागरा समाणा बहूणं पाणाणं | जाव सत्ताणं अदुक्खणयाए जाव अपरियावणियाए वहंति, ते णं जीवा जागरमाणा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा बहिं धम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो भवति, एए णं जीवा जागरमाणा धम्मजागरिपाए अप्पाणं जागरहन्तारो भवंति, एएसि णं जीवाणं जागरियन्तं साहू, से तेणद्वेणं जयंती ! एवं बुच्चर | अत्थेगइयाणं जीवाणं सुत्तत्तं साहू अत्येगइयाणं जीवाणं जागरियन्तं साहू ॥ बलियतं भंते ! साहू दुबलियत्तं साहू ?, जयंती ! अत्येगइयाणं जीवाणं बलियत्तं साहू अत्थेगइयाणं जीवाणं दुधलियतं साहू, से केणद्वेणं भंते! एवं बुच्चइ जाब साहू ?, जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया जाव विहरति एएसि णं जीवाणं दुबलियत्तं साहू, एए णं जीवा एवं जहा सुत्तस्स तहा दुबलियस्स वत्तवया भाणियद्दा, यलियस्स जहा आगरस्स तहा भाणियवं जाव संजोएतारो भवंति, एएसि णं जीवाणं वलियतं साह, से तेणद्वेणं जयंती ! एवं बुच्चइ तं चैव जाव साहू || दक्खन्तं भंते ! साहू आलसियत्तं साहू ?, जयंती ! अस्थेगतियाणं जीवाणं दक्खत्तं साहू अत्येगतियाणं जीवाणं आलसियत्तं साहू, से केणद्वेगं भंते! एवं बुचइ तं चैव जाब साहू ?, जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया जाव विहति एएसि णं जीवाणं आलसियन्तं साहू, एए णं जीवा आलसा समाणा नो बहूणं जहां मुत्ता आलसा भाणियचा, जहा जागरा तहा दक्खा भाणियवा जाव संजोएतारो भवंति, एए णं जीवा दक्खा समाणा बहूहिं आयरियवेयावदेहिं जाव उवज्झाय० थेर० तवस्सि०
जयंति श्रमणोपासका एवं तस्या प्रश्ना:
For Pale Only
~25~
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [४४१-४४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४१-४४३]
च्याख्या-18|| गिलाणवेया० सेहवे. कुलवेया गणवेया. संघवेयाव. साहम्मियवेयावचेहि अत्ताणं संजोएत्तारो भवंति, ||१२ शतके प्रज्ञप्तिः एएसिणं जीवाणं दक्खत्तं साह, से तेण?णं तं चेव जाव साहू ॥ सोई दियवसद्दे णं भंते ! जीवे किं बंधह, ||२ उद्देशः अभयदेवी-5
एवं जहा कोहवसहे तहेव जाव अणुपरियइ । एवं चक्विदियवसदृषि, एवं जाव फार्सिदियवसहे जाव | गुरुताद्या या वृत्तिः२८
अणुपरियहइ । तए णं सा जयंती समणोवासिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमहूँ सोचा ॥५५८॥ |निसम्म हहतुट्ठा सेसं जहा देवाणंदाए तहेव पवइया जाव सबदुक्खप्पहीणा । सेवं भंते ।२त्ति ||
सू४४३ (सूत्रं ४४३) ॥१२-२॥
'तेणं कालेण'मित्यादि, 'पोत्तेत्ति पौत्रः-पुत्रस्यापत्यं 'चेडगस्स'त्ति वैशालीराजस्य 'नत्तुए'त्ति नप्ता-दौहित्रः "भाउज'त्तिभ्रातृजाया 'वेसालीसावगाणं अरहंताणं पुत्वसेज्जायरीति वैशालिको-भगवान्महावीरस्तस्य वचनं शृण्वन्ति श्रावयन्ति वा तद्रसिकत्वादिति वैशालिकमावकारतेषाम् 'आहतानाम्' अर्हदेवतानां साधनामिति गम्यं 'पूर्वशय्यातरा' प्रथमस्थानदात्री, साधवो ह्यपूर्वे समायातास्त गृह एव प्रथम वसतिं याचन्ते तस्याः स्थानदात्रीत्वेन प्रसिद्धत्वादिति || सा पूर्वशय्यातरा । 'सभावओ'त्ति स्वभावतः पुद्गलानां मूतत्त्ववत् 'परिणामओ'त्ति 'परिणामेन' अभूतस्य भवनेन |
पुरुषस्य तारुण्यवत् । 'सवेवि पं भंते ! भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संतित्ति भवा-भाविनी सिद्धिर्येषां ते भव-IMInven | सिद्धिकास्ते सर्वेऽपि भदन्त ! जीवाः सेत्स्यन्ति ? इति प्रश्नः, 'हते त्यादि तूत्तरम् , अयं चास्यार्थ:-समस्ता अपि भव-13 सिद्धिका जीवाः सेत्स्यम्त्यन्यथा भवसिद्धिकत्वमेव न स्यादिति । अथ सर्वभवसिद्धिकानां सेरस्थमानताऽभ्युपगमे भव
दीप अनुक्रम [५३४-५३६]
SCRECSCIRCK
| जयंति श्रमणोपासिका एवं तस्या प्रश्ना:
~26
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[ ४४१
-४४३]
दीप
अनुक्रम
[५३४
-५३६]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र -५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [२], मूलं [४४१-४४३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
सिद्धिकशुन्यता लोकस्य स्यात् नैवं, समयज्ञातात्, तथाहि सर्व एवानागतकालसमया वर्त्तमानतां लप्त्यन्ते“भवति स नामातीतः प्राप्तो यो नाम वर्त्तमानत्वम् । एष्यंश्च नाम स भवति यः प्राप्स्यति वर्त्तमानत्वम् ॥ १ ॥" इत्यभ्युपगमात्, न चानागतकालसमयविरहितो लोको भविष्यतीति । अथैतामेवाशङ्कां जयन्ती प्रश्नद्वारेणास्मदुक्कसमयज्ञातापेक्षया ज्ञातान्तरेण परिहर्तुमाह-- 'जह ण'मित्यादि इत्येके व्याख्यान्ति, अन्ये तु व्याचक्षते -सर्वेऽपि भदन्त ! भवसिद्धिका जीवाः सेत्स्यन्ति ये केचन सेत्स्यन्ति ते सर्वेऽपि भवसिद्धिका एव नाभवसिद्धिक एकोऽपि, अन्यथा भवसि - |द्धिकत्वमेव न स्यादित्यभिप्रायः, 'हंते'त्याद्युत्तरम् । अथ यदि ये केश्चन सेत्स्यन्ति सर्वेऽपि भवसिद्धिका एव नाभवसिद्धिक एकोऽपीत्यभ्युपगम्यते तदा कालेन सर्वभवसिद्धिकानां सिद्धिगमनाद् भव्यशून्यता जगतः स्यादिति जयन्त्याशङ्कां तत्परिहारं च दर्शयितुमाह- 'जह णमित्यादि, 'सागाससेदित्ति सर्वाकाशस्य बुद्ध्या चतुरस्रप्रतरीकृतस्य | श्रेणिः- प्रदेशपङ्किः सर्वाकाशश्रेणिः 'परितत्ति एकप्रदेशिकत्वेन विष्कम्भाभावेन परिमिता 'परिवुड'ति श्रेण्यन्तरैः परिकरिता, स्वरूपमेतत्तस्याः, अत्रार्थे वृद्धोक्ता भावनागाथा भवन्ति- “तो भन्नइ किं न सिझति अहव किमभवसा| बसेसत्ता । निलेवणं न जुज्जर तेसिं तो कारणं अन्नं ॥ १ ॥ " अयमर्थः यदि भवसिद्धिकाः सेत्स्यन्तीत्यभ्युपगम्यते ततो भणति शिष्यः- कस्मान्न ते सर्वेऽपि सिद्ध्यन्ति ?, अन्यथा भवसिद्धिकत्वस्यैवाभावात्, अथवाऽपरं दूषणं - कस्मादभव्य सावशेषत्वाद्-अभव्यावशेषत्वेनाभव्यान् विमुच्येत्यर्थः तेषां भव्यानां निर्लेपनं न युज्यते ?, युज्यत एवेति भावः, १-तदा भणति किं न सिध्यन्ति अथवाऽभव्यावशिष्टत्वं (भवति) निर्लेपनं न युज्यते तेषां तद्भव्यत्वादन्यत्कारणं वाच्यं सिद्धेः ॥ १ ॥
Education Internation
जयंति श्रमणोपासिका एवं तस्या प्रश्ना:
For Penal Use On
~27~
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [४४१-४४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४१-४४३]
text
व्याख्या-13 यस्मादेवं ततः कारणं-सिद्धेतुरन्यन्नव्यत्वातिरिक्त वाच्यं, तत्र सति सर्वभव्यनिर्लेपनप्रसङ्गादिति ॥"भन्नह तेसिमभ-18||१२ शतके प्रज्ञप्तिः
बेवि पइ अनिलेवणं न उ विरोहो । न उ सबभवसिद्धी सिद्धा सिद्धंतसिद्धीओ ॥२॥" अयमों-भण्यते अत्रो- २ उद्देशः अभयदेवी
त्तरं भव्यत्वमेव सिद्धिगमनकारणं न त्वन्यत्किश्चित्, तत्र च सत्यपि भव्यत्वे सिद्धिगमनकारणे 'तेषां' भव्यानाम् । गुरुताद्या या वृत्तिः 'अभव्यानपि प्रति' अभव्यानप्याश्रित्य 'अनिलेपनम्' अव्यवच्छेदः, अभव्यानवशिष्य यदव्यानां निलेपनमुक्कं तदपि
प्रश्नाः ॥५५९|| नेत्यर्थः 'न तु' न पुनरिहार्थे 'विरोधा' वाधाऽस्ति सिद्धान्तसिद्धत्वात् , एतदेवाह-न तु इत्यादि, न हि सर्वभव्य
सू४४३ सिद्धिः सिद्धा सिद्धान्तसिद्धेरिति ॥ "किह पुण भवबहुत्ता सवागासप्पएसदिता । नवि सिज्झिहिंति तो भणइ किंनु| भवत्तणं तेसिं १ ॥ ३ ॥ जइ होऊ णं भवावि केइ सिद्धिं न चैव गच्छति । एवं तेवि अभवा को व विसेसो भये तेसि || ॥४॥ भनाइ भयो जोगो दारुय दलियंति वावि पजाया । जोगोवि पुण न सिज्झइ कोई,रुक्खाइदिईता ॥ ५॥ पडि-17 माईणं जोगा बहवो गोसीसचंदणदुमाई । संति अजोगावि इह अन्ने एरंडभेंडाई॥६॥न य पुण पडिमुप्पायणसंपत्ती ||
१-भण्यते भव्यानामभव्यानपि प्रति तेषामनिलेपो न तु विरोधो यतः सिद्धान्तसिद्धेनं तु सर्पभव्यसिद्धिः सिद्धा ॥२॥२-कथं || |पुनर्भव्यबहुत्वात्सर्वाकाशप्रदेशदृष्टान्तात् नैव सेत्स्यन्ति तदा भण्यते तेषां किं भव्यत्वं पुनर्भवति ॥शा केचिद्या भूत्वाऽपि यदि सिद्धिं नैव | | | गच्छेयुरेवं तेऽप्यभव्याः को वा विशेषस्तयोर्मव्याभन्ययोर्भवेत् ॥ १॥ भण्यते भन्यो योग्यो दारु च दलिकमिति चापि पर्यायाः । योग्योऽपि पुनः कश्चिन्न सिद्धयति वृक्षादिदृष्टान्तात् ॥ ५ ॥ यहवो गोशीर्षचन्दनाद्याः प्रतिमानां योग्या द्रुमाः सन्ति अन्ये एरण्डभिण्डाद्या अयोग्या
Ch-44%E5545445%
दीप अनुक्रम [५३४-५३६]
||५५९॥
| जयंति श्रमणोपासिका एवं तस्या प्रश्ना:
~28~
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [४४१-४४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४१-४४३]
& होइ सवजोगाणं । जैसिपि असंपत्ती न य तेसि अजोग्गया होइ ॥७॥ किं पुण जा संपत्ती सा नियमा होइ जोग्गरु
खाणं । न य होइ अजोग्गाणं एमेव य भवसिझणया ॥ ८॥ सिझिस्संति य भवा सबेवित्ति भणियं च जे पहुणा तंपि य एयाएच्चिय दिहीऍ जयंतिपुच्छाए ॥९॥ भव्यानामेव सिद्धिरित्येतया दृष्ट्या-मतेनेति ॥ "अहवा पडुच्च कालं, न सबभवाण होइ वोच्छित्ती। तीतणागयाओ अद्धाओ दोवि तुल्लाओ ॥ १०॥ सत्थातीतद्धाए सिद्धो एको अर्णत-14 | भागो सिं । कामं तावइओ च्चिय सिज्झिहिइ अणागयद्धाए ॥ ११॥ ते दो अणंतभागा हो सोच्चिय अर्णतभागो सिं । एवंपि सबभवाण सिद्धिगमणं अणिद्दिई ॥ १२॥" तौ द्वावप्यनन्तभागौ मीलितौ सर्वजीवानामनन्त एव भाग इति, यत्पुनरिदमुच्यते-अतीताद्धातोऽनागताद्धाऽनन्तगुणेति तन्मतान्तरं, तस्य चेदं वीज-यदि द्वे अपि ते समाने स्यातां तदा मुह दावतिक्रान्तेऽतीताद्धा समधिका अनागताद्धा च हीनेति हतं समत्वम् , एवं च मुहूर्त्तादिभिः प्रतिक्षणं क्षीय|माणाऽप्यनागताद्धा यतो न क्षीयते ततोऽवसितं ततः साऽनन्तगुणेति, यच्चोभयोः समत्वं तदेवं यथाऽनागताद्धाया
अपि सन्ति ॥ ६॥ नैव च सर्वेषां योग्यानां प्रतिमोत्पादनसम्पत्तिर्भवति । येषामध्यसम्प्राप्तिनं च तेषामयोग्यता भवति ॥ ७ ॥ किं पुनर्या | सम्प्राप्तिः सा नियमाद् योग्यवृक्षाणां भवति नैवायोग्याना एवमेव च सर्वभव्यसिद्धिरपि ॥ ८॥ सर्वेऽपि भव्याः सेत्स्यन्तीति प्रभुणा | यद्भणितं तदप्यनयैव दृष्ट्या जयन्तीपृच्छायाम् ॥९॥ १-अथवा कालं प्रतीत्य सर्वभज्यानां व्युच्छिचिर्न भवति यतोऽतीतानागताद्धे द्वे
अपि तुल्ये स्तः ॥ १० ॥ तत्रातीताद्धायां भन्यजीवानामनन्तभाग एकः सिद्धस्तावानेव चानागताद्वायां सेत्स्यति प्रकामम् ॥ ११ ॥ तौ | II द्वावपि अनन्तभागौ संमील्यैषामनन्तभागः स एवैव, एवमपि सर्वमव्यानां सिद्धिगमनं न निर्दिष्टम् ॥ १२ ॥
दीप अनुक्रम [५३४-५३६]
4545459460555
जयंति श्रमणोपासिका एवं तस्या प्रश्ना:
-~-29~
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [४४१-४४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [४४१
॥५६॥
-४४३]
ब्याख्या
अन्तो नास्ति एवमतीताद्धाया आदिरिति समतेति ॥ जीवाश्च न सुप्ताः सियन्ति किं तहिं जागरा एवेति सुप्तजाप्रज्ञप्तिः गरसूत्रम्-तत्र च 'सुत्तत्तंति निद्रावशत्वं 'जागरियतति जागरणं जागरः सोऽस्यास्तीति जागरिकस्तभावो जाग- २ उद्दशः अभयदेवी-2 रिकत्वम् 'अहम्मिय'त्ति धम्मेण-श्रुतचारित्ररूपेण चरन्तीति धार्मिकास्तन्निषेधादधामिकाः, कुत एतदेवमित्यत आह- | गुरुताद्याः या वृत्तिः अहम्माणुया' धर्म-श्रुतरूपमनुगच्छन्तीति धर्मानुगास्तनिषेधादधर्मानुगाः, कुत एतदेवमित्यत आह-'अहम्मिट्ठा'
प्रश्नाः धर्मः-श्रुतरूप एवंष्टो-वल्लभः पूजितो वा येषां ते धर्मेष्टाः धर्मिणां वेष्टा धर्मीष्टाः अतिशयेन चा धम्मिणो धर्मिष्ठास्त- सू ४४३ निषेधादधर्मेष्टा अधीष्टा अधम्मिष्ठा वा, अत एव 'अहम्मक्खाई' न धर्ममाख्यान्तीत्येवंशीला अधर्माख्यायिनः अथवा न धर्मात् ख्यातिर्येषां तेऽधर्मख्यातयः 'अहम्मपलोइ'ति न धर्ममुपादेयतया प्रलोकयन्ति ये तेऽधर्मप्रलोकिनः 'अह|म्मपलजण'त्ति न धर्म प्ररज्यन्ते-आसजन्ति ये तेऽधर्मप्ररञ्जनाः, एवं च 'अहम्मसमुदाचार'तिन धर्मरूप:-चारित्रा-18 || मका समुदाचारः-समाचारः सप्रमोदो वाऽऽचारो येषां ते तधा, अत एव 'अहम्मेण चेवे'त्यादि, 'अधर्मेण' चारित्र
श्रुतविरुद्धरूपेण 'वृत्ति' जीविका कल्पयन्तः' कुर्वाणा इति ॥ अनन्तरं सुप्तजाग्रता साधुत्वं मरूपितम्, अथ दुर्बला-12 दीनां तथैव तदेव प्ररूपयन सूत्रद्वयमाह-बलियत्तं भंते ! इत्यादि, बलियत्तंति बलमस्यास्तीति बलिकस्तद्भावो चलिकत्वं 'दुवलियत्त'ति दुष्ट बलमस्यास्तीति दुर्बलिकस्तद्भावो दुर्बलिकत्वं । दक्षत्वं च तेषां साधु ये नेन्द्रियवशा भवन्तीतीन्द्रियवशानां यद्भवति तदाह-सोइंदिए'त्यादि, 'सोइंदियवसहे'त्ति श्रोत्रेन्द्रियवशेन-तत्पारतव्येण ऋत:-पी-||2||
| ॥५६॥ डितः श्रोत्रेन्द्रियवशारीः श्रोवेन्द्रियवर्श वा ऋतो-गतः श्रोत्रेन्द्रियवशातः॥ द्वादशशते द्वितीयः ॥ १२-२॥
दीप अनुक्रम [५३४-५३६]
ॐाऊक
-
-
k
अत्र द्वादशमे शतके द्वितीय-उद्देशक: परिसमाप्त:
जयंति श्रमणोपासिका एवं तस्या प्रश्ना:
~30
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [४४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४४]
दीप अनुक्रम [५३७]
अनन्तरं श्रोत्रादीन्द्रियवशार्ता अष्टकर्मप्रकृतीचन्तीत्युक्त, तद्वन्धनाच नरकपृथिवीष्वप्युत्पद्यन्त इति नरकप-14 थिवीस्वरूपप्रतिपादनाय तृतीयोद्देशकमाह, तस्य चेदमादिसूत्रम्| रायगिहे जाव एवं वयासी-करणे भंते ! पुढवीओ पन्नत्ताओ?, गोयमा! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-पढमा दोचा जाव सत्तमा । पढमा णं भंते ! पुढवी किनामा किंगोता पण्णत्ता ?, गोयमा ! धम्मा नामेणं रयणप्पभा गोत्तेणं एवं जहा जीवाभिगमे पढमो नेरइयउद्देसओ सोचेच निरवसेसो भाणिययो जाब है अप्पाबहुगंति । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ॥ (सूत्रं ४४४)॥
रायगिहे' इत्यादि, 'किनामा किंगोय'त्ति तत्र नाम-यादृच्छिकमभिधानं गोत्रं च-अन्वर्थिकमिति 'एवं जहा &ाजीवाभिगमे इत्यादिना यत्सूचितं तदिदं-'दोचा णं भंते ! पुढवी किनामा किंगोया पन्नत्ता १, गोयमा ! वंसा ना-Med मेणं सकरप्पभा गोत्तेण मित्यादीति ॥ द्वादशशते तृतीयः ॥ १२-३॥
अनन्तरं पृथिव्य उक्तास्ताश्च पुगलात्मिका इति पुद्गलांश्चिन्तयश्चतुर्थोदेशकमाह, तस्य चेदमादिसूत्रम्रायगिहे जाव एवं बयासी-दो भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहन्नति एगपओ साहपिणत्ता किं भवति ?, गोयमा ! सुप्पएसिए खंधे भवइ, से भिजमाणे दहा कजइ एगयओ परमाणुपोग्गले एगपओ परमाणुपोग्गले भवइ । तिन्नि भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहन्नंति २ किं भवति ?, गोयमा । तिपए
AN
अत्र द्वादशमे शतके तृतीय-उद्देशक: आरब्ध: एवं परिसमाप्त: अथ द्वादशमे शतके चतुर्थ-उद्देशक: आरभ्यते
~31
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४५]
+
दीप अनुक्रम [५३८]
व्याख्या-1 सिए खंघे भवति, से भिजमाणे दुहावि तिहावि कजइ, दुहा कजमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ||१२ शतके प्रज्ञप्तिः दुपएसिए खंधे भवइ, तिहा कन्जमाणे तिपिण परमाणुपोग्गला भवंति । चत्तारि भंते ! परमाणुपोग्गला एग- ३ उद्देशः अभयदेवी-यओ साहन्नंति जाव पुच्छा, गोयमा ! चउपएसिए खंधे भवइ, से भिजमाणे दुहावि तिहावि चउहावि पृथ्व्यः या वृत्तिः कजइ, दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ, अहवा दो दुपएसिया खंधा
सू४४४
१२ शतके ॥५६॥ भवति, तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ दुप्पएसिए खंधे भवह, चउहा कत्रमाणे
४ उद्देशः |चत्तारि परमाणुपोग्गला भवंति । पंच भंते ! परमाणुपोग्गला पुच्छा, गोयमा! पंचपएसिए खंधे भवइ, से। |भिज्जमाणे दुहावि तिहावि चउहावि पंचहावि कज्जा, दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एग-Ilकान्तसंयोयओ चउपएसिए खंधे भवइ अहंवा एगयओ दुपएसिए खंधे भवति एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ, तिहा। विभागभं कजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ तिप्पएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एग- गा:सू४२५
यओ दो दुपएसिया खंधा भवंति, चउहा कजमाणे एगयओ तिनि परमाणुपोग्गला एगयओ दुप्पएसिए । सखंधे भवति, पंचहा कजमाणे पंच परमाणुपोग्गला भवति । छम्भंते । परमाणुपोग्गला पुच्छा, गोयमा !|| छप्पएसिए खंधे भवइ, से भिज्जमाणे दहावि तिहावि जाव छबिहावि कजइ, दुहा कजमाणे एगयओ पर
॥५६शा |माणुपोग्गले एगयओ पंचपएसिए खंधे भवह अहवा एगयओ तुप्पएसिए खंधे एगयो चउपएसिए खंधे | भवद अहवा दो तिपएसिया खंधा भवह, तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ चउपए
+%7-6-11-14
RELIGuninternational
wreluctaram.org
~32
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४५]
-964466446
%2544-450-25
%
सिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दुपएसिए खंधे एगयओ तिपएसिए खंधे भवह
अहवा तिन्नि दुपएसिया खंधा भवन्ति चउहा कत्रमाणे एगयओ तिन्नि परमाणुपोग्गला एगयओ तिपए|| सिए खंघे भवइ अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला भवंति एगयओ दो दुप्पएसिया खंधा भवंति, पंचहा | कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला एगयओ दुपएसिए खंधे भवति, छहा कजमाणे छ परमाणुपोग्गला भवंति । सत्त भंते ! परमाणुपोग्गला पुच्छा, गोयमा! सत्तपएसिए खंधे भवइ, से भिजमाणे दुहावि* जाव सत्तहावि कजह, दुहा कज़माणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ दुप्पएसिए खंधे भवह एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ अहवा एगपओ तिप्पएसिए एगयओ चउपएसिए खंधे भवइ, तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ पंचपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दुपएसिए खंधे एगयओ चउपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणु एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवंति एगयओ तिपएसिए खंघे भवति, चउहा कजमाणे एगयओ तिन्नि परमाणुपोग्गला एगयओ चउप्पएसिए खंघे भवति अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ दुपएसिए खंधे एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणु० एगर्यओ तिन्नि दुपएसिया खंधा भवंति, पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला ाएगयओ तिपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ तिन्नि परमाणु एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवंति, छहा
दीप अनुक्रम [५३८]
84%
4%
~33~
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[४४५]
दीप
अनुक्रम [५३८ ]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४४५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५६२॥
कजमाणे एगयओ पंच परमाणुपोग्गला एगयओ दुपएसिए खंधे भवइ, सत्तहा कजमाणे सत्त परमाणुषोग्गला भवंति । अट्ठ भंते ! परमाणुपोग्गला पुच्छा, गोयमा ! अट्ठपएसिए खंधे भवइ जाव दुहा कलमाणे एगयओ परमाणु० एगयओ सन्तपसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ दुपएसिए बंधे एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ तिपएसिए० एगयओ पंचपएसिए खंधे भवः अहवा दो चउप्पएसिया संधा भवंति तिहा कज़माणे एगयओ परमाणु० एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ दुप्पएसिए खंधे एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणु एगयओ तिपएसिए खंधे एगयओ चडपएसिए बंधे भवइ अहवा एगयओ दो दुपएसिया खंधा एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवद्द अहवा एगयओ दुपएसिए बंधे एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति चउहा कलमाणे एगयओ तिन्नि | परमाणुपोग्गला एगयओ पंचपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ दोन्नि परमाणुपोग्गला एगयओ दुपएसिए खंधे एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ दो परमाणु एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ परमाणु एगयओ दो दुपएसिया खंधा एगयओ तिपएसिए खंधे भवति अहवा यत्तारि दुपएसिया खंधा भवंति, पंचहा कज्जमाणे एगयओ बस्तारि परमाणुपोग्गला एगपओ चप्पएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ तिन्नि परमाणु० एगयओ दुपएसिए एगयओ तिपए लिए संधे भवति अहवा | एगयओ दो परमाणु एगयओ तिन्नि दुपएसिया खंधा भवंति, छहा कज्जमाणे एगयओ पंच परमाणु० एग
For Paren
~34~
१२ शतके
| ४ उद्देशः
अनन्ताणु कान्तसंयो गविभागभ
गाः सू४४५
॥५६२॥
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[४४५]
दीप
अनुक्रम [५३८]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४४५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
यओ तिपएसिए खंघे भवइ अहवा एगयओ चत्तारि परमाणु एगयओ दो दुपए लिया खंधा भवइ, सत्तहा कजमाणे एगयओ छ परमाणुपोग्गला एगयओ दुपए सिए खंधे भवइ अट्टहा कज्जमाणे अट्ठ परमाणुपोग्गला भवंति ॥ नव भंते ! परमाणुपोग्गला पुच्छा, गोपमा ! जाव नवविहा कांति, दुहा कजमाणे एगयओ परमाणु० एगयओ अट्ठपएसिए खंधे भवति, एवं एफेकं संचारतेहिं जाव अहवा एगयओ चउप्पएसिए खंधे एगयओ पंचपएसिए खंधे भवति, तिहा कज्ज्रमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ सत्तपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणु एगयओ दुपएसिए एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ तिपएसिए बंधे एगयओ पंचपएसिए संधे भवइ अहवा एगयओ परमाणुः एगयओ दो | चउप्पएसिया संधा भवंति अहवा एगयओ दुपएसिए बंधे एगयओ तिपएसिए खंधे एगयओ चउपसिए | खंधे भवइ अहवा तिन्नि तिपएसिया संधा भवंति चउहा कज्जमाणे एगयओ तिन्नि परमाणु० एगयओ | छप्परसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ दो परमाणु एगयओ दुपपलिए खंधे एगयओ पंचपएसिए बंधे भवति अहवा एगयओ दो परमाणु एगयओ तिपएसिए बंधे एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ परमाणु एगयओ दो दुपएसिया खंधा एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ दुपएसिए खंधे एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ तिन्नि दुप्पएसिया खंधा एगयओ तिपएसिए खंधे भवति, पंचहा कज्रमाणे एगयओ चत्तारि परमाणु एगयओ पंचपएसिए
Education International
For Penal Use On
~35~
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४५]
व्याख्या- खंघे भवह अहवा एगयओ तिन्नि परमाणु एगयओ दुपएसिए० एगयो चउपएसिए खंधे भवह अहवा १२ शतके प्रज्ञप्तिः एगयओ तिन्नि परमाणु० एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला एग- ४ उद्देशः अभयदायओ दो दुपएसिया खंधा एगपओ तिपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ पत्तारि दुप-5|| अनन्ताणु एसिया खंधा भवंति, छहा कजमाणे एगयओ पंच परमाणुपोग्गला एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवद अहवाकान्तसयो
गविभाग ।५६३॥ एगयओ चत्तारि परमाणु० एगपओ दुप्पएसिए० एगयओ तिपएसिए खंधे भवति अहवा एगपओ तिशि
गाःसू४४५ परमाणु० एगयओ तिन्नि दुप्पएसिया खंधा भवंति, सत्तहा कज़माणे एगयओ छ परमाणु एगयओ तिप्पएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ पंच परमाणु एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवंति, अट्टहा कजमाणे
एगपओ सत्त परमाणु० एगयओ दुपएसिए खंधे भवति, नवहा कजमाणे नव परमाणुपोग्गला भवंति ॥ दस है भंते ! परमाणुपोग्गला जाव दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ नवपएसिए खंधे भवइ अहवा
R॥५६॥ भाएगयओ दुपएसिए खंधे एगयओ अg पएसिए खंधे भवड एवं एक संचारेयवंति जाव अहवा दो पंच पए-||||
सिया खंधा भवंति, तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणु० एगयओ अट्ठपएसिए खंधे भवइ अहवा एगलायओ परमाणु० एगपओ दुपएसिए० एगयओ सत्तपएसिए खंधे भवइ अहवा एगपओ परमाणु० एगपओ ||
तिपएसिए खंधे भवइ एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ चउप्पएसिए एग-| यओ पंचपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे० एगयओ दो चउप्पएसिया खंधा भवंति
%
दीप अनुक्रम [५३८]
%
-
K-2
~36
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[४४५]
दीप
अनुक्रम [५३८]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४४५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
अहवा एगयओ दो तिपएसिया खंधा० एगयओ चडप्पएसिए खंधे भवह, चउहा कजमाणे एगयओ तिन्नि परमाणु० एमओ सत्तपएसिए बंधे भवइ अहवा एगयओ दो परमाणु एगयओ दुपएसि० एगयओ छप्पएसिए बंधे भवर अहवा एगयओ दो परमाणु एगयओ तिप्पएसिए खंधे एगयओं पंचपएसिए खंधे | भवति अहवा एगयओ दो परमाणु० एगयओ दो चउप्पएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ परमाणु एगयओ दुपएसिए एगयओ तिपए लिए एगयओ चउप्परसिए खंधे भवति अहवा एगपओ परमाणु० एगयओ तिन्नि तिपएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ तिन्नि दुपएसिया खंधा एगयओ चउपसिए खंधे | भवति अहवा एगयओ दो दुपएसिया खंधा एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति, पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला एगयओ छपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ तिनि परमाणु एगयओ दुपएसिए खंधे० एगयओ पंचपएसिए संधे भवइ अहवा एगयओ तिन्नि परमाणु एगयओ तिपएसिए खंधे | एगयओ चडपएसिए खंधे भवति अवा एगयओ दो परमाणु० एगयओ दुपएसिए संधे० एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ तिन्नि दुपएसिया एगयओ तिपएसिए खंधे भवति अहवा पंच दुपएसिया खंधा भवंति, छहा कजमाणे एगयओ पंच परमाणु एगयओ पंचपसिए बंधे भवति अहवा एगयओ चत्तारि परमाणु० एगयओ दुपएसिए० एगयओ चउपपसिए खंधे भवति अहवा | एगयओ चत्तारि परमाणु० एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ तिनि परमाणु० एगयओ
Education Internation
For Pale Only
~37~
waryru
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४५]
दीप अनुक्रम [५३८]
च्याख्या- ||5|| दो दुपएसिया खंधा एगपओ तिपएसिए खंधे भवति अहवा एगपओ दो परमाणु. एगयओ चत्तारि। १२ शतके प्रज्ञप्तिः ।
दुपएसिया खंधा भवंति, सत्तहा कजमाणे एगयओछ परमाणु० एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति अहवा ४ उद्देशः अभयदेवी
अनन्ताणु * एगयओ पंच परमाणु० एगयओ दुपएसिए एगयओ तिपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ चत्तारि परया वृत्ति:२८ माणु० एगयओ तिन्नि दुपएसिया खंधा भवंति, अट्टहा कजमाणे एगयओ सत्त परमाणु० एगयओ तिपए-Mana
गविभागों ॥५६॥ सिए खंधे भवति अहवा एगयओ छ परमाणु० एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवंति, नवहा कज्जमाणे एग
गाः सू४४५ यओ अट्ठ परमाणु० एगयओ दुपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ छ परमाणु० एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवंति, दसहा कजमाणे दस परमाणुपोग्गला भवति । संखेज्जा भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहनंति एगयओ साहपिणत्ता किं भवति ?, गोयमा ! संखेजपएसिए खंधे भवति, से भिजमाणे दुहाविद जाव दसहाचि संखेजहावि कजंति, दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ दुपएसिए खंघे एगयओ संखेजपएसिए खंघे भवति एवं अहया एगयो| |तिपएसिए एगयओ सं० खंधे भवति एवं जाव अहवा एगपओ दसपएसिए खंधे एगयओ संखे
जपएसिए खंधे भवति अहवा दो संखेजपएसिया खंधा भवंति, तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणु० एग| यो संखेजपएसिए खंधे भवति अहवा एमयओ परमाणु० एगयओ दुपएसिए खंधे० एगयओ संखेजपए|सिए खंधे भवति अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ तिपएसिए खंधे० एगपओ संखेजपएसिए खंधे भवह
-9%8
-%
H
॥५६॥
4
2
%
~38~
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
-
प्रत सूत्रांक [४४५]
दीप अनुक्रम [५३८]
एवं जाप अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ दसपएसिए खंधे एगयो संखेजपएसिए खंधे भवति अहवा|| एगयओ परमाणु एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ दुपएसिए० एगपओ दो। संखेजपएसिया खंधा भवंति, एवं जाव अहवा एगयओ दसपएसिए० एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा
भवंति अहवा तिन्नि संखेजपएसिया खंधा भवंति, चउहा कञ्जमाणे एगयओ तिन्नि परमाणु० एगयओ संखे४ जपएसिए भवति अहया एगयओ दो परमाणु० एगयओ दुपएसिए.एगयओ संखेजपएसिए भवति अहवाल
एगयओ दो परमाणु० एगयओ तिप्पएसिए० एगयओ संखेजपएसिए भवति एवं जाव अहवा एगयओ दो परमाणु० एगयओ दसपएसिए एगपओ संखेजपएसिए भवति अहवा एगयओ दो परमाणु० एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ परमाणु एगयओ दुपएसिए एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा भवंति जाव अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ दसपएसिए एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा भवंति अहया एगयओ परमाणु० एगयओ तिन्नि संखेजपएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओवासिए एगयओ तिन्नि |
संखेजपएसिया भवंति जाव अहवा एगयओ दसपएसिए एगयओ तिन्नि संखेजपएसिया भवंति अहवा| है। चत्तारि संखेजपएसिया भवति एवं एएणं कमेणं पंचगसंजोगोवि माणियबो जाव नवगसंजोगो, दसहा कज्ज-13
माणे एगयओ नव परमाणु एगयओ संखेजपएसिए भवति अहवा एगयओ अट्ठ परमाणु० एगयओ दुपएसिए एगयो संखेजपएसिए खंधे भवति, एएणं कमेणं एकेको पू० जाव अहवा एगयओ दसपएसिए एमयओ
%C3
~39~
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४५]
दीप अनुक्रम [५३८]
व्याख्या- नव संखेजपएसिया भवंति अहवा दस संखेजपएसिया खंधा भवंति संखेज हा कज्जमाणे संज्जा परमाणु- १२ शतक
प्रज्ञप्तिः पोग्गला भवति । असंखेज्जा भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति एगयओ साहणित्ता किं भवति !, अभयदेवी गोयमा ! असंखेजपएसिए खंधे भवति, से भिन्जमाणे दुहावि जाव दसहावि संखेवहावि असंखेज्जहावि |
का अनन्ताणु या वृत्तिः
कान्तसंयोकजइ, दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणु० एगयओ असंखेजपएसिए भवति जाव अहवा एगयओ दसपए-|||विभागों ।५६५॥ सिए एगयओ असंखिजपएसिए भवति अहवा एगयओ संखेज्जपएसिए खंधे एगयओ असंखेजपएसिएगाःसू४४५
& खंधे भवति अहवा दो असंखेजपएसिया खंधा भवंति, तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणु० एगयओ असं
खेजपएसिए भवति अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ दुपएसिए एगयओ असंखिजपएसिए भवति जाव
अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ दसपएसिए एगयओ असंखेजपएसिए भवति अहवा एगे परमाणु० एगे| & संखेजपएसिए एगे असंखेजपएसिए भवति अहवा एगे परमाणु० एगयओ दो असंखेजपएसिया खंधा भवंति || | अहवा एगे दुपएसिए एगयओ दो असंखेजपएसिया भवंति एवं जाव अहया एगे संग्वेजपएसिए भवति एगयओ दो असंखिजपएसिया खंधा भवति अहवा तिन्नि असंखेजपएसिया भवति, चउहा कजमाणे एग-द यओ तिन्नि परमाणु० एग. असंखेजपएसिए भवति एवं चउक्कगसंजोगो जाव दसगसंजोगो एए जहेव संखेजपएसियस्स नवरं असंखेज्जगं एगं अहिर्ग भाणियई जाव अहवा दस असंग्वेजपएसिया खंधा भवंति, |संखेजहा कजमाणे एगयओ संखेज्जा परमाणुपोग्गला एगयओ असंखेजपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ||
13॥५६॥
~40
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४५]
संखेजा दुपएसिया खंधा एगयओ असंखेजपएसिए खंघे भवति एवं जाव अहवा एगयओ संखेज्जा दसप
एसिया खंधा एगपओ असंखेजपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ संखिल्ला संखिजपएसिया खंधा एग-10 फायओ असंखिजपएसिए खंधे भवति अहवा संखेजा असंखेजपएसिया खंधा भवंति, असंखिजहा कञ्जमाणे ||3||
असंखेज्जा परमाणुपोग्गला भवंति । अणंताःणं भंते ! परमाणुपोग्गला जाव किं भवंति ?, गोयमा ! अणंतपएसिए खंधे भवति, से भिजमाणे दुहावि तिहावि जाव दसहावि संखिज्जा असंस्विजा अर्णतहावि कज्जर, दुहा कजमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ अणंतपएसिए खंधे जाच अहवा दो अणंतपएसिया खंधा भवंति, तिहा कज्जमाणे एगयओ दो परमाणु० एगयओ अणंतपएसिए भवति अहचा एग० परमाणु० एग दुपएसिए एग. अणंतपएसिए भवति जाव अहवा एग० परमाणु एग. असंखेजपएसिए एग अणंतपएसिए भवति अहवा एग परमाणु० एग दो अणंतपएसिया भवंति अहवा एग दुपएसिए एग दो अणं-18 सातपएसिया भवंति एवं जाव अहवा एगयओ दसपएसिए एगयओ दो अणंतपएसिया खंधा भवंति अहवा
एग संखेजपदे०एगयओ दो अणंतपएसिया खंधा भवंति अहवा एग. असंखेजपएसिए खंधे एगयओ दो अणंतपएसिया खंधा भवंति अहया तिनि अणंतपएसिया खंधा भवंति, चउहा कञ्जमाणे एग. तिन्नि पर-18 माणु० एगयओ अणंतपएसिए भवति एवं चउकसंजोगो जाव असंखेजगसंजोगो, एते सच्चे जहेच असंखेजाणं भणिया तहेव अणंताणवि भाणियचा नवरं एक अणंतर्गअन्भहियं भाणियबंजाव अहवा एगयओ संखे
दीप अनुक्रम [५३८]
CACANCOMASAL
RELIGunintentrational
~41
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४५]
दीप अनुक्रम [५३८]
व्याख्या- जा संखिजपएसिया खंधा एग अणंतपएसिया भवंति अहवा एग संखेज्जा असंखेचपएसिया खंधा एग अणंत
१२ शतके प्रज्ञप्तिः |पएसिए खंधे भवति अहवा संखिजा अर्णतपएसिया खंधा भवंति, असंखेजहा कजमाणे एगपओ असंखेजा उद्देशः अभयदेवी| परमाणु० एग० अर्णतपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ असंखिजा दुपएसिया खंधा एग० अर्णतपएसिए | अनन्ताणु या वृत्तिः२ भवति जाव अहवा एग. असंखेजा संखिज्जपएसिया एग० अणंतपएसिए भवति अहवा एग० असंखिज्जा|
कान्तसंयो॥५६॥
मागविभागर्भ असंखिजपएसिया खंधा एग० अणंतपएसिए भवति अहवा असंखेवा अणंतपएसिया खंधा भवंति, अणं
गा:सूध४५ |तहा कजमाणे अणंता परमाणुपोग्गला भवंति (सूत्रं ४४५)॥ _ 'रायगिहे'इत्यादि 'एगयओ'त्ति एकत्वतः एकतयेत्यर्थः 'साहन्नंति'त्ति संहन्येते संहती भवत इत्यर्थः, द्विप्रदेशि
कस्कन्धस्य भेदे एको विकल्पः, त्रिप्रदेशिकस्य द्वौ, चतुष्पदेशिकस्य चत्वारः, पश्चप्रदेशिकस्य पट्, षट्पदेशिकस्य दश, ॐ सप्तपदेशिकस्य चतुर्दश, अष्टप्रदेशिकस्यैकविंशतिः, नवप्रदेशिकस्याष्टाविंशतिः, दशप्रदेशिकस्य चत्वारिंशत्, सङ्ख्यात
प्रदेशिकस्य द्विधाभेदे ११ विधा भेदे २१ चतुर्दा भेदे ३१ पञ्चधाभेदे ४१ पोढारवे ५१ सप्तधारखे ६१ अष्टधात्वे ७१ नवधावे ८१ दशधासे ९१ सहयातभेदखे खेक एव विकल्पः, तमेवाह-संखेजहा कजमाणे संखेजा परमाणुपो-1 ग्गला भवंति'त्ति, असहयातनदेशिकस्य तु द्विधाभावे १२ त्रिधात्वे २३ चतुर्कीले ३४ पञ्चधात्वे ४५ पोढात्वे ५६ सप्त&धात्वे ६७ अष्टधात्वे ७८ नवधात्वे ८९ दशभेदत्वे १०० सङ्ख्यातभेदत्वे द्वादश असवातभेदकरणे त्वेक एव, तमेवाह-11
॥५६६॥ I'असंखेजा परमाणुपोग्गला भवंति'त्ति, अनन्तप्रदेशिकस्य तु द्विधात्वे १३ त्रिधात्वे २५ चतुद्धात्वे ३७ पञ्चधात्वे ४९|
~42
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४५]
दीप अनुक्रम [५३८]
पविधत्वे ६१ सप्तधात्वे ७३ अष्टधात्वे ८५ नवधात्वे ९७ दशधात्वे १०९ सङ्ख्यातत्वे १२ असवातत्वे १३ अनन्तभे&||दकरणे त्येक एव विकल्पः, तमेवाह-'अणंतहा कजमाणे इत्यादि ॥'दो भंते ! परमाणुपोग्गला साहपर्णती'त्या-IN | दिना पुगलानां प्राक् संहननमुक्तं से भिजमाणे दुहा कजई इत्यादिना च तेषां भेद उक्तः, अथ तावेवाश्रित्याह
एएसिणं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं साहणणाभेदाणुवाएणं अणंताणता पोग्गलपरिपट्टा समणुगंतवा भवंतीति मक्खाया, हंता गोयमा ! एएसि णं परमाणुपोग्गलाणं साहणणा जाव मक्खाया ॥ कइविहे णं भंते ! पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते ?, गोयमा ! सत्तविहा पो० परि०पण्णत्ता, तंजहा-ओरालियपो परि० | वेउविय० तेयापो० कम्मापो० मणपो० परियहे वइपोग्गलपरियहे आणापाणुपोग्गलपरिय? । नेरदयार्ण भंते ! & कतिविहे पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते ?, गोयमा ! सत्तविहे पोग्गलपरियष्टे पपणत्ते, तंजहा-ओरालियपो० वेउधिPायपोग्गलपरियढे जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टे एवं जाव बेमाणियाणं । एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स केव-12 ४ इया ओरालियपोग्गल परियट्टा अतीया , अर्णता, केवड्या पुरेक्खडा, कस्सइ अस्थि कस्सइ नस्थि जस्सस्थि |जहन्नेणं एको वा दो वा तिनि वा उकोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा अर्णता था । एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स केवतिया ओरालियपोग्गला?, एवं चेव, एवं जाव चेमाणियस्स । एगमेगस्स गं भंते!
नेरइगस्स केवतिया वेउवियपोग्गलपरियट्टा अतीया ?, अणंता, एवं जहेव ओरालियपोग्गलपरियट्टा &| तहेव उधियपोग्गल परियहावि भाणियचा, एवं जाव घेमाणियस्स आणापाणुपोग्गलपरियट्टा, एत
~43~
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४६]
दीप अनुक्रम [५३९]
॥ एगत्तिया सत्त दंडगा भवंति । नेरयाणं भंते ! केवतिया ओ. पोग्गलपरिपहा अतीता?, गोयमा||१२ शतके प्रज्ञप्तिः | अनंता, केवइया पुरेक्खडा ?, अणंता, एवं जाव वेमाणियाणं, एवं बेउवियपोग्गलपरियट्टाचि एवं जाव || ४ उद्देशः अभयदेवी- आणापाणुपोग्गलपरियट्टा वेमाणियाणं, एवं एए पोहत्तिया सत्त चउच्चीसतिदंडगा ॥ एगमेगस्स णं भंते ! नेरदयस्स नेर० केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता, नस्थि एकोवि, केवतिया पुरेक्खडा,
४ ताधिकारः अ५६७॥
नस्थि एकोवि, एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स असुरकुमारत्ते केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा एवं
चेव एवं जाव धणियकुमारसे जहा असुरकुमारत्ते । एगमेगरसणं भंते ! नेरइयस्स पुदविकाइयत्ते केवदतिया ओरालियपोग्गलपरियडा अतीता ?, अणंता, केवतिया पुरेक्खडा ?, कस्सइ अस्थि कस्सद नस्थि
जस्सस्थि तस्स जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा एवं जाव
मणुस्सत्ते, वाणमंतरजोइसियवेमाणियत्ते जहा असुरकुमारत्ते । एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स नेरइIX| यत्ते केवतिया अतीया ओरालियपोग्गलपरियट्टा एवं जहा नेरइयस्स चत्तवया भणिया तहा असुरकुमार-|| * स्सवि भाणियचा जाव वेमाणि, एवं जाव थणियकुमारस्स, एवं पुढविकाइयस्सवि, एवं जाव वेमाणियस्स, ४
सबेसि एको गमो । एगमेगस्सणं भंते! नेरइयस्स नेर० केव. वेउ०पोग्गलपरियट्ठा अतीया,अणंता, केवतिया ॥५६७॥ ला पुरेक्खडा?, एकोत्तरिया जाव अणता, एवं जाव थणियकुमारत्ते, पुढवीकाइयत्ते पुच्छा, नथि एकोवि, केव-II तिया पुरेक्खडा?, नत्थि एकोदि, एवं जत्थ वेउवियसरीरं अत्थि तत्थ एगुत्तरिओ जत्थ नत्थि तत्थ जहा
~44
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४६]]
पढविकाइयत्से तहा भाणियर, जाव बेमाणियस्स वैमाणियत्ते । तेयापोग्गलपरियटा कम्मापोग्गलपरिपट्टा य सबत्य एकोसरिया भाणियचा, मणपोग्गलपरियट्टा सवेसु पंचिंदिएस एगोसरिया, विगलिंदिएम नस्थि, वइपोग्गलपरियट्टा एवं चेव, नवरं एगिदिएम नत्थि भाणियचा । आणापाणुपोग्गलपरियडा सवत्थ एकोत्तरिया जाव येमाणियस्स चेमाणियत्ते । नेरइयाणं भंते !नेरइयत्ते केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीया ?, नत्थि एकोवि, केवइया पुरेक्खडा !, नस्थि एकोवि, एवं जाव थणियकुमारत्ते, पुढविकाइयत्ते पुच्छा, गोयमा अणंता, केवइया पुरेक्खडा ?, अणंता, एवं जाव मणुस्सत्ते, वाणमंतरजोइसियवेमाणियत्ते जहा नेरइयत्ते | एवं जाव बेमाणियस्स वेमाणियत्ते, एवं सत्तवि पोग्गलपरियहाभाणियबा, जत्थ अस्थि तत्थ अतीयावि पुरे
क्खडावि अर्णता भाणियचा, जत्थ नथि तत्थ दोवि नत्थि भाणियथा जाव वेमाणियाणं वेमाणियत्ते केवलतिया आणापाणुपोग्गलपरियट्टा अतीया ?, अर्णता, केवतिया पुरेक्खडा, अणंता (सूत्रं ४४६)॥ __'एएसि णमित्यादि, 'एतेषाम्'अनन्तरोक्तस्वरूपाणां परमाणुपुद्गलानां परमाणूनामित्यर्थः 'साहणणाभेयाणुवाएणं'ति 'साहणण'त्ति प्राकृतत्वात् संहननं-सङ्घातो भेदश्च-वियोजनं तयोरनुपातो-योगः संहननभेदानुपातस्तेन सर्व
पुद्गलद्रव्यैः सह परमाणूनां संयोगेन वियोगेन चेत्यर्थः, 'अर्णताणत'त्ति अनन्तेन गुणिता अनन्ता अनन्तानन्ताः, भएकोऽपि हि परमाणुवर्षणुकादिभिरनन्ताणुकान्तैर्द्रव्यैः सह संयुज्यमानोऽनन्तान् परिवान् लभते, प्रतिद्रव्यं परिवर्तजाभावात् , अनन्तत्वाच परमाणूना, प्रतिपरमाणु चानन्तत्वात्परिवर्तानां परमाणुपुद्गलपरिवर्तानामनन्तानन्तत्वं द्रष्टव्य
दीप अनुक्रम [५३९]
~45
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[ ४४६ ]
दीप
अनुक्रम [५३९ ]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४४६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या
मज्ञसिः अभयदेवी या वृत्तिः २
॥५६८॥
मिति । 'पुग्गल परियह' त्ति पुलैः पुरद्रव्यैः सह परिवर्त्ताः- परमाणूनां मीलनानि पुलपरिवर्त्ताः 'समनुगन्तव्याः' अनुगन्तव्या भवन्तीति हेतो: 'आख्याताः' प्ररूपिताः भगवद्भिरिति गम्यते, मकारश्च प्राकृतशैलीप्रभवः ॥ अथ पुगपरावर्त्तस्यैव भेदाभिधानायाह- 'कडविहे ण' मित्यादि, 'ओरालियपोग्गलपरियत्ति औदारिकशरीरे वर्त्तमानेन | जीवेन यदीदारिकशरीरप्रायोग्य द्रव्याणामौदारिकशरीरतया सामस्त्येन ग्रहणमसायदारिकपुद्गल परिवर्त्तः एवमन्येऽपि । 'नेरइयाणं 'ति नारकजीवानामनादौ संसारे संसरतां सप्तविधः पुद्गलपरावर्त्तः प्रज्ञप्तः ॥ 'एगमेगस्से त्यादि, अतीता| नन्ता अनादित्वात् अतीतकालस्य जीवस्य चानादित्वात् अपरापरपुद्गलग्रहणस्वरूपत्वाच्चेति । 'पुरक्खडे' ति पुरस्कृता भविष्यन्तः 'कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थिति कस्यापि जीवस्य दूरभव्यस्याभाव्यस्य वा ते सन्ति, कस्यापि न सन्ति, उद्धृत्य यो मानुषत्वमासाथ सिद्धिं यास्यति सङ्ख्ायैरसोयैर्वा भवर्यास्यति यः सिद्धिं तस्यापि परिवत्तों नास्ति, अनन्तकालपूर्यत्वात्तस्येति । 'एगत्तिय'त्ति एकत्विका:- एकनारकाथाश्रयाः 'सत्त'त्ति औदारिकादिसप्तविधपुद्गलविषयत्वात्स| सदण्डकाश्चतुर्विंशतिदण्डका भवन्ति, एकत्वपृथक्त्वदण्डकानां चायें विशेषः- एकत्वदण्डकेषु पुरस्कृतपुङ्गलपरावर्त्ताः कस्यापि न सन्त्यपि, बहुस्वदण्डकेषु तु ते सन्ति, जीवसामान्याश्रयणादिति ॥ 'एगमेगस्से' त्यादि, 'नत्थि एकफोवित्ति | नारकरवे वर्त्तमानस्यौदारिकपुद्गलग्रहणाभावादिति ॥ 'एगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स असुरकुमारत्ते' इत्यादि, इह च नैरयिकस्य वर्त्तमानकालीनस्य असुरकुमारत्वे चातीतानागतकालसम्बन्धिनि 'एगुत्तरिया जाव अनंता वत्ति अने-' नेदं सूचितं- 'कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि तस्स अहन्त्रेणं एको वा दोन्नि वा तिन्नि वा उक्कोसेणं सं
Education Internation
For Parts Only
~46~
१२ शतके ४ उद्देशः पुद्गलपराव तौधिकारः सू ४४६
||५६८ ॥
waryra
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४६]]
खेज्जा वा असंखेचा वा अणता वा इति एवं जत्थ बेउवियसरीरं तत्थ एकोत्तरिओ'त्ति यत्र वायुकाये मनुष्यका पोन्द्रियतिर्यक्षु व्यन्तरादिषु च वैक्रियशरीरं तत्रैको वेत्यादि वाच्यमित्यर्थः, 'जस्थ नत्थी'त्यादि यत्राप्कायादी नास्ति | || ॥ वैक्रियं तत्र यथा पृथिवीकायिकरवे तथा वाच्यं, न सन्ति वैक्रियपुद्गलपरावर्ता इति वाच्यमित्यर्थः, 'तेयापोग्गले त्यादि
तैजसकार्मणपुद्गलपरावर्ती भविष्यन्त एकादयः सर्वेषु नारकादिजीवपदेषु पूर्ववद्वाच्यास्तैजसकार्मणयोः सर्वेषु भावाशादिति । 'मणपोग्गले त्यादि, मनापुद्गलपरावर्ताः पञ्चन्द्रियेध्येव सन्ति, भविष्यन्तश्च ते एकोतरिकाः पूर्ववद्वाच्या, 18 'विगलिदिएसु नस्थिति विकटेन्द्रियग्रहणेन चैकेन्द्रिया अपि ग्राह्याः तेषामपीन्द्रियाणामसम्पूर्णत्वात् मनोवृत्तेश्चा-18||
भावाद् अतस्तेष्वपि मनःपुद्गलपरावर्त्ता न सन्ति । 'वइपोग्गलपरियहा एवं चेव'त्ति तैजसादिपरिवर्त्तवत्सर्वनारकादि
जीवपदेषु वाच्याः, नवरमेकेन्द्रियेषु वचनाभावान्न सन्तीति वाच्याः । 'नेरझ्याण'मित्यादिना पृथक्त्वदण्डकानाह, 8 'जाच वेमाणियाण'मित्यादिना पर्यन्तिमदण्डको दर्शितः॥ अथौदारिकादिपुद्गलपरावत्तानां स्वरूपमुपदर्शयितुमाह-18||
से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-ओरालियपोग्गलपरियट्टा ओ०१, गोयमा !जण्णं जीवेणं ओरालियसरीरे वमाणेणं ओरालियसरीरपयोगाई दवाई ओरालियसरीरत्ताए गहियाई बधाई पुट्टाई कडाई पट्टवियाई |निविट्ठाई अभिनिविद्याइं अभिसमन्नागयाई परियाइयाई परिणामियाइं निजिन्नाई निसिरियाई निसिट्ठाई दाभवंति से तेणटेणं गोयमा! एवं बुचइ ओरालियपोग्गलपरियट्टे ओरा०२, एवं वेउचियपोग्गलपरियझेवि, नवरं
बेउवियसरी रे वट्टमाणेणं वेउधियसरीरप्पयोगाई सेसं तं चेव सर्व एवं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टे, नवरं ।
दीप अनुक्रम [५३९]
~47
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[४४७]
दीप
अनुक्रम [ ५४० ]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४४७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या
आणापाणुपयोगाई सपदबाई आणापाणत्ताए सेसं तं चैव ॥ ओरालियपोग्गलपरियट्टे णं भंते ! केवइकालस्स प्रज्ञप्तिः निवत्तिज्जइ ?, गोपमा ! अनंताहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं एवतिकालस्स निवत्तिज्जर, एवं वेडवियपोअभयदेवी- *ग्गलपरियद्वेषि एवं जाव आणापाणुपोग्गलपरियडेवि । एयस्स णं भंते! ओरालियपोग्गल परियट्टनिवत्तणाया वृत्तिः २ कालस्स वेवियपोग्गला जाब आणुपाणुपोग्गलपरियहनि बत्तणाकालस्स करे कयरेहिंतो जाव विसे॥५६९॥ साहिया वा ?, गोयमा ! सवत्थोवे कम्मगपोग्गल परियट्टनिवत्तणाकाले तेयापोग्गल परियइनिद्यत्तणाकाले अनंतगुणे ओरालिपपोग्गलपरियट्टे अनंतगुणे आणापाणुपोग्गल० अनंतगुणे मणपोग्गल अनंतगुणे वहपो० अनंतगुणे वेडन्डियपो० परियनिवत्तणाकाले अनंतगुणे (सूत्रं ४४७ ) ॥
'सेकेणट्टेण' मित्यादि, 'गहियाई'ति स्वीकृतानि 'बडाई'ति जीवप्रदेशैरात्मीकरणात् कुतः १ इत्याह- 'पुट्ठाई' ति यतः पूर्वं स्पृष्टानि तनौ रेणुवत् अथवा 'पुष्टानि' पोषितान्यपरापरग्रहणतः 'कडाई'ति पूर्वपरिणामापेक्षया परिणामान्तरेण कृतानि 'पट्टवियाई' ति प्रस्थापितानि स्थिरीकृतानि जीवेन 'निविद्वाई'ति यतः स्थापितानि ततो निविष्टानि जीवेन स्वयम् 'अभिनिविद्वाई' ति अभि-अभिविधिना निविष्टानि सर्वाण्यपि जीवे उग्नानीत्यर्थः 'अभिसमन्नागयाई ति अभिविधिना सर्वाणीत्यर्थः समन्यागतानि-सम्प्राप्तानि जीवेन रसानुभूतिं समाश्रित्य 'परियाइयाई' ति पर्याप्तानि - जीवेन सर्वावयवैरात्तानि तद्रसादानद्वारेण 'परिणामियाई' ति रसानुभूतित एव परिणामान्तरमापादितानि 'निज्जिण्णा' ति क्षीणरसीकृतानि 'निसिरियाई' ति जीवप्रदेशेभ्यो निःसृतानि कथं ?- 'निसिट्ठाई' ति जीवेन निःसृष्टानि स्वप्रदेशे
For Park Use Only
~48~
१२ शतके
४ उद्देशः पुनलपराव तन्वर्थः कालश्वतस्य
सू ४४७
॥५६९ ॥
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४७]
दीप अनुक्रम [५४०]
64545555755
भ्यस्याजितानि, इहाचानि चत्वारि पदान्यौदारिकपुद्गलानां ग्रहणविषयाणि तदुत्तराणि तु पञ्च स्थितिविषयाणि तदुत्त-15
राणि तु चत्वारि विगमविषयाणीति ॥ अथ पुद्गलपरावर्तानां निर्वसनकालं तदल्पबहुत्वं च दर्शयन्नाह-'ओरालिये'-. | त्यादि, 'केवहकालस्स'त्ति कियता कालेन निर्वय॑ते ?, 'अर्णताहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिंति एकस्य जीवस्य | ग्राहकत्वात् पुद्गलानां चानन्तत्वात् पूर्वगृहीतानां च ग्रहणस्यागण्यमानत्वादनन्ता अवसर्पिण्य इत्यादि सुलूक्तमिति । 'सबथोचे कम्मगपोग्गले'त्यादि, सर्वस्तोकः कार्मणपुद्गलपरिवर्त्तनिर्वर्तनाकालः, ते हि सूक्ष्मा बहुतमपरमाणुनिष्पनाश्च भवन्ति, ततस्ते सकृदपि बहवो गृह्यन्ते, सर्वेषु च नारकादिपदेषु वर्तमानस्य जीवस्य तेऽनुसमयं ग्रहणमायान्तीति स्वल्पकालेनापि तत्सकलपुद्गलग्रहणं भवतीति, ततस्तैजसपुद्गलपरिवर्त्तनिवर्त्तनाकालोऽनन्तगुणो, यतः स्थूलत्वेन तैजस-||3|| पुरलानामल्पानामेकदा ग्रहणम् , एकग्रहणे चाल्पप्रदेशनिष्पन्नत्वेन तेषामल्पानामेव तदणूनां ग्रहणं भवत्यतोऽनन्तगुणोड| साविति, तत औदारिकपुद्गलपरिवर्त्तनिवर्तनाकालोऽनन्तगुणो, यत औदारिकपुद्गला अतिस्थूराः, स्थूराणां चाल्पानामे| वैकदा ग्रहणं भवति अल्पतरप्रदेशाश्च ते ततस्तद्रणेऽप्येकदाऽल्पा एवाणवो गृह्यन्ते, न च कार्मणतैजसपुद्गलवत्तेषां ★ सर्वपदेषु ग्रहणमस्ति, औदारिकशरीरिणामेव तणाद् , अतो बृहतैव कालेन तेषां ग्रहणमिति, तत आनप्राणपुगलप-14 परिवर्तनाकालोऽनन्तगुणः, यद्यपि हि औदारिकपुद्गलेभ्य आनप्राणपुरलाः सूक्ष्मा बहुप्रदेशिकाश्चेति तेषामल्पकालेन ।
ग्रहणं संभवति तथाऽप्यपर्याप्तकावस्थायां तेषामग्रहणात्पर्याप्तकावस्थायामप्यौदारिकशरीरपुद्गलापेक्षया तेषामल्पीयसामेव ग्रहणान्न शीघ्रं तद्ब्रहणमित्यौदारिकपुद्गलपरिवर्त्तनिर्वनाकालादनन्तगुणताऽऽनप्राणपुद्गलपरिवर्त्तनिर्वर्तनाकालस्येति,
N SCI -CA
~49~
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक -1, उद्देशक [४], मूलं [४४७,४४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४७, ४४८]
दीप अनुक्रम
व्याख्या- ततो मनःपुद्गलपरिवर्तनिर्वर्तनाकालोऽनन्तगुणः, कथम् ?, यद्यप्यानप्राणपुद्गलेभ्यो मनःपुद्गलाः सूक्ष्मा बहुप्रदेशाश्चे- १२ शत प्रज्ञप्तिः त्यल्पकालेन तेषां ग्रहणं भवति तथाऽप्येकेन्द्रियादिकायस्थितिवशान्मनसश्चिरेण लाभान्मानसपुद्गलपरिवत्र्तों बहुकाल- ४ उद्देश: अभयदेवीसाध्य इत्यनन्तगुण उक्तः, ततोऽपि वाक्पुद्गलपरिवर्तनिवर्तनाकालोऽनन्तगुणः, कथम् , यद्यपि मनसः सकाशादाषा |
| परावीशीघ्रतरं लभ्यते द्वीन्द्रियाद्यवस्थायां च भवति तथाऽपि मनोद्रव्येभ्यो भाषाद्रव्याणामतिस्थूलतया स्तोकानामेवैकदा प्र-51
ल्पवहुत्वं ॥५७०॥ दहणात्ततोऽनन्तगुणो वाकुपुद्गलपरिवर्तनिर्वर्तनाकाल इति, ततो वैक्रियपुद्गलपरिवर्तनिर्वर्तनाकालोऽनन्तगुणो, वैक्रिय
सू४४८ शरीरस्थातिबाहुकाललभ्यत्वादिति ॥ पुद्गलपरिवानामेवाल्पबहुत्वं दर्शयन्नाह
एएसिणं भंते ! ओरालियपोग्गलपरियट्टाणं जाव आणापाणुपोग्गलपरियहाण य कयरे २ हिंतो जाव | विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सबथोवा वेउबियपो० वइपो० परि० अणंतगुणा मणपोग्गलप० अणंत.
आणापाणुपोग्गल. अनंतगुणा ओरालियपो० अर्णतगुणा तेयापो० अणंत कम्मगपोग्गल० अर्णतगुणा । सेवं * ४ भंते ! सेवं भंतेत्ति भगवं जाव विहरइ (सूत्रं ४४८)॥१२-४॥
'एएसि णमित्यादि, सर्वस्तोका वैक्रियपुद्गलपरिवर्ता बहुतमकालनिर्वर्तनीयत्वात्तेषां, ततोऽनन्तगुणा वागविषया अल्पतरकालनिर्वय॑त्वात् , एवं पूर्वोक्तयुक्त्या बहुबहुतराः क्रमेणान्येऽपि वाच्या इति ॥ द्वादशशते चतुर्थः ॥ १२-४॥
॥५७०11 ४। ग्रन्धानम् ॥ १२०००।
[५४०,
५४१]
अत्र द्वादशमे शतके चतुर्थ-उद्देशक: परिसमाप्त:
~50~
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४४९-४५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
--
-
प्रत सूत्रांक [४४९
--
-४५०]
--
अनन्तरोद्देशके पुद्गला उक्तास्तत्प्रस्तावात्कर्मपुद्गलस्वरूपाभिधानाय पञ्चमोद्देशकमाहरायगिहे जाव एवं वयासी-अह भंते ! पाणाइवा मुसा. अदि. मेह० परि० एस णं कतिवन्ने कतिगंधे कतिरसे कतिफासे पण्णते?, गोयमा ! पंचवन्ने पंचरसे दुगंधे चउफासे पण्णत्ते ॥ अह भंते ! कोहे १ कोवे २रोसे ३ दोसे ४ अखमे ५ संजलणे ६ कलहे७चंडिक ८ भंडणे ९ विवादे १० एस णं कतिवन्ने जाव 3 कतिफासे पण्णते?, गोयमा! पंचवन्ने पंचरसे दुगंधे चउफासे पण्णत्ते ॥ अहं भंते ! माणे मदे दप्पे धंभेद गचे अत्तुकोसे परपरिवाए उक्कासे अवकासे उन्नामे दुन्नामे १२ एस णं कतिवन्ने ४१, गोयमा ! पंचवन्ने |जहा कोहे तहेव । अह भंते ! माया उवही नियडी वलये गहणे णूमे कके कुरूए जिम्हे किविसे १० आ| यरणया गृहणया बंचणया पलिउंचणया सातिजोगेय १५ एस णं कतिवन्ने ४१,गोयमा ! पंचवन्ने जहेव कोहे। अह भंते ! लोभे इच्छा मुच्छा कंखा गेही तण्हा भिज्झा अभिज्झा आसासणया पत्थणपा १० लालप्पणया कामासा भोगासा जीवियासा मरणासा नंदीरागे १६ एस णं कतिवन्ने ?, जहेव कोहे । अह भंते ! पेजे दोसे कलहे जाव मिच्छादसणसल्ले एसणं कतिवन्ने ! जहेव कोहे तहेव चउफासे ॥ (सूत्रं ४४९) अह भंते ! पाणाइवायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमणे कोहविवेगे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे एस णं कतिवन्ने जाव कतिफासे पण्णत्ते?, गोयमा ! अवन्ने अगंधे अरसे अफासे पण्णत्ते ॥ अह भंते ! उप्पत्तिया वेणइया कम्मिया परिणामिया एस णं कतिवन्ना तं चेव जाव अफासा पन्नत्ता ॥ अह भंते ! पग्गहे ईहा अवाये
दीप अनुक्रम [५४२-५४३]
ACE5CRICKS
अथ द्वादशमे शतके पंचम-उद्देशक: आरभ्यते
~51~
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[४४९
-४५०]
दीप
अनुक्रम
[५४२
-५४३]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र -५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [−], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [५], मूलं [४४९-४५०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवी
या वृत्ति:२
॥ ५७१॥
धारणा एस णं कतिवन्ना १, एवं चैव जाव अफासा पन्नता । अह भंते ! उट्ठाणे कम्मे यले वीरिए पुरि| सकारपरकमे एस णं कतिवन्ने ? तं चैव जाव अफासे पन्नते । सत्तमे णं भंते ! उवासंतरे कतिबन्ने ? | एवं चैव जाव अफासे पनन्ते । सप्तमे णं भंते । तणुवाए कतिवन्ने ?, जहा पाणाश्वाए, नवरं अट्ठफासे पण्णसे, एवं जहा ससमे तणुवाए तहा सत्तमे घणवाए घणोदधि पुढवी, छट्टे उधासंतरे अबन्ने, तणुवाए जाव छट्टी | पुढची एयाई अट्ट फासाई, एवं जहा सत्तमाए पुढवीए वत्तवया भणिया तहा जाब पढमाए पुढवीए भाणियां, | जंबुद्दीवे २ सयंभुरमणे समुद्दे सोहम्मे कप्पे जाव ईसिपम्भारा पुढची नेरतियावासा जाव वैमाणियावासा | एयाणि सङ्घाणि अट्ठफासाणि । मेरइया णं भंते! कतिवन्ना जाव कतिफासा पन्नता ? गोयमा ! वेडवियतेयाई | पहुच पंचवन्ना पंचरसा दुग्गंधा अट्ठफासा पण्णत्ता, कम्मगं पडुञ्च्च पंचवन्ना पंचरसा दुगंधा चडफासा पण्णत्ता, जीवं पहुच अवन्ना जाव अफासा पण्णत्ता, एवं जाव धणिय०, पुढविकाइयपुच्छा, गोयमा ! ओरालियतेयगाई पहुंच पंचवन्ना जाव अट्ठफासा पण्णत्ता, कम्मगं पहुच जहा नेर०, जीवं पडुच्च तहेव, एवं जाव + चउरिंदि०, नवरं वाउकाइया ओरा० बेड० तेयगाई पहुंच पंचवन्ना जाव अट्ठफासा पण्णत्ता, सेसं जहा नेरइयाणं, पंचिंदियतिरिक्खजोगिया जहा वाडकाइया, मणुस्साणं पुच्छा ओरालियवेउब्वियआहारगतेयगाई पडच पंचवन्ना जाव अट्टफासा पण्णत्ता, कम्मगं जीवं च पहुच जहा नेर०, वाणमंतरजोइसियवेमा
Education Internation
For Pernal Use On
१२ शतके
५ उद्देशः पापस्थान वर्णादिः वि 4 रमण प्रभू||ति वर्णादिः सू ४४९
४५०
~ 52~
॥५७१॥
waryru
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४४९-४५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४९
-४५०]
पणिया जहा नेर, धम्मत्धिकाए जाव पोग्गल० एए सधे अवन्ना, नवरं पोग्गल पंचवन्ने पंचरसे दुगंधे अह
॥ फासे पण्णते, णाणावरणिज्जे जाव अंतराइए एयाणि चउफासाणि, कण्हलेसा णं भंते ! कइवन्ना० १ पुच्छा मादबलेसं पहुंच पंचवन्ना जाच अट्ठफासा पण्णत्ता, भावलेसं पडुच अवन्ना ४, एवं जाच सुकलेस्सा, सम्म-|| | हिहि ३ चक्खुईसणे ४ आभिणियोहियणाणे जाव विम्भंगणाणे आहारसन्ना जाव परिग्गहसन्ना एयाणि अवन्नाणि ४, ओरालियसरीरे जाव तेयगसरीरे एयाणि अट्ठफासाणि कम्मगसरीरे चउफासे, मणजोगे वयजोगेय चउफासे, कायजोगे अहफासे, सागारोवओगे य अणागारोवओगे य अवन्ना । सबदबा णं भंते! कतिवना ? पुच्छा, गोयमा । अत्थेगतिया सबदबा पंचवन्ना जाव अट्ठफासा पण्णत्ता अत्थेगतिया सबदवा पंचवन्ना चउफासा पण्णत्ता अत्धेगतिया सबछा एगगंधा एगवण्णा एगरसा दुफासा पन्नत्ता अत्थेगइया सब
दवा अवना जाव अफासा पन्नता, एवं सबपएसावि सबपजवावि, तीयद्धा अवन्ना जाव अफासा पण्णत्ता, ५ एवं अणागयद्धावि, एवं सबद्धावि ॥ (सूत्रं ४५०)
'रायगिहे'इत्यादि 'पाणाइवाए'त्ति प्राणातिपातजनितं तजनक वा चारित्रमोहनीयं कर्मोपचारात् प्राणातिपात एच, एवमुत्तरवापि, तस्य च पुद्गलरूपत्वाद्वर्णादयो भवन्तीत्यत उक्तं 'पंचवन्ने' इत्यादि, आह च-"पंचरसपंचवन्नेहि परिणयं| दुविहगंधचउफासं । दवियमणतपएस सिद्धेहिं अणतगुण हीणं ॥१॥" इति [पञ्चभी रसैः पञ्चभिर्वणः परिणतं द्विविधगन्धं चतुःस्पर्शम् । अनन्तप्रदेशं द्रव्यं सिद्धेभ्योऽनन्तगुणं हीनम् ॥१॥] 'चउफासे'त्ति स्निग्धरूक्षशीतोष्णा
*--%A4%95%e0%
दीप अनुक्रम [५४२-५४३]
~53
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४४९-४५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४९-४५०]
व्याख्या- ख्याश्चत्वारा स्पर्शाः सूक्ष्मपरिणामपरिणतपुद्गलानां भवंति, सूक्ष्मपरिणामं च कर्मेति । 'कोहे'त्ति क्रोधपरिणामजनक
|१२ शतक प्रज्ञप्तिः कर्म, तत्र क्रोध इति सामान्य नाम कोपादयस्तु तद्विशेषाः, तत्र कोपः क्रोधोदयात्स्वभावाञ्चलनमात्रं, रोषः-क्रोधस्य- ५ उद्देशः अभयदेवी- वानुबन्धो, दोषः आत्मनः परस्य वा दूषणं, एतच्च क्रोधकार्य, द्वेषो वाऽमीतिमात्रम् , अक्षमा-परकृतापराधस्यासहन, पापस्थान या वृत्तिः ना सज्वलनो-मुहुर्मुहुः क्रोधाग्निना ज्वलनं, कलहो-महता शब्देनान्योऽन्यमसमञ्जसभाषणं, एतच क्रोधकार्य, चाण्डिक्यंशवणादिराव
सोमोजामिना ॥५७शारीद्राकारकरणं, एतदपि क्रोधकार्यमेव, भण्डन-दण्डादिभियुद्ध, एतदपि क्रोधकार्यमेव, विवादी-विपतिपत्तिसमुत्थ-IBIMA | वचनानि, इदमपि तत्कार्यमेवेति, क्रोधैकार्था बैते शब्दाः। 'माणे'त्ति मानपरिणामजनक कर्म, सत्र मान इति सा-॥
तिवादि
सू ४४९| मान्य नाम, मदादयस्तु तद्विशेषाः, तन्न मदो-हर्षमानं दो-दृप्तता स्तम्भ:-अनयता गर्व-शीण्डीय 'अत्तुकोसे'त्ति
४५० आत्मनः परेभ्यः सकाशाद्गुणैरुत्कर्षणम्-उत्कृष्टताऽभिधानं परपरिवादः-परेषामपवदनं परिपातो वा गुणेभ्यः परि|पातनमिति, 'उकासे'त्ति उत्कर्षणं आत्मनः परस्य वा मनाक क्रिययोत्कृष्टताकरणं उत्काशनं वा-प्रकाशनमभिमानात्स्वकीयसमृद्ध्यादेः 'अवकासे'त्ति अपकर्षणमवकर्षणं वा अभिमानादात्मनः परस्य वा क्रियारम्भात् कुतोऽपि व्यावर्तनमिति अप्रकाशो वाऽभिमानादेवेति, 'उण्णए'त्ति उच्छिन्नं नतं-पूर्वप्रवृत्तं नमनमभिमानादुन्नतम्, उच्छिन्नो वा नयो-नीतिरभिमानादेवोन्नयो नयाभाव इत्यर्थः, 'उण्णाम'त्ति प्रणतस्य मदानुप्रवेशादुन्नमनं 'दुन्नामे'त्ति मदादुष्ट | नमनं दुमि इति, इह च स्तम्भादीनि मानकार्याणि मानवाचका बैते ध्वनय इति । 'माय'ति सामान्य उपध्यादयस्त-II ॥५७२॥ देदाः, तत्र 'जवहित्ति उपधीयते येनासावुपधिः-वचनीयसमीपगमनहेतुर्भावः 'नियडि'त्ति नितरां करणं निकृतिः-13
दीप अनुक्रम [५४२
-५४३]
का
RELIGunintestaTATE
For P
OW
~54~
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४४९-४५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४९
CARN
-४५०]
आदरकरणेन परवञ्चनं पूर्वकृतमायापच्छादनार्थ वा मायान्तरकरणं 'वलए'त्ति येन भावेन वलयमिव वक्र वचनं चेष्टा वा प्रवर्तते स भावो वलयं 'गहणे'त्ति परव्यामोहनाय यद्वचनजालं तद्गहनमिव गहनं 'णूमेत्ति परवश्चनाय नि
मताया निम्नस्थानस्य वाऽश्रयणं तन्नुमति 'ककेत्ति कल्कं हिंसादिरूपं पापं तनिमित्तो यो वचनाभिप्रायः स कल्क|| मेवोच्यते 'कुरूएत्ति कुत्सितं यथा भवत्येवं रूपयति-विमोहयति यत्तस्कुरूपं भाण्डादिकर्म मायाविशेष एव 'जिम्हे'त्ति है येन परवचनाभिप्रायेण जैहय-क्रियासु मान्द्यमालम्बते स भावो जैहयमेवेति 'किषिसे त्ति यतो मायाविशेषाजन्मा
न्तरेऽत्रैव वा भवे किल्विषः-किल्बिषिको भवति स किल्विष एवेति, 'आयरणय'त्ति यतो मायाविशेषादादरणं-अभ्युAII पगर्म कस्यापि वस्तुनः करोत्यसावादरणं, ताप्रत्ययस्य च स्वार्थिकत्वाद् आयरणया, आचरणं वा-परप्रतारणाय विवि-15
धक्रियाणामाचरणं, 'गूढनया' गृहनं गोपायनं स्वरूपस्य 'वंचणया' वञ्चन-परस्य प्रतारणं 'पलिउंचणया' प्रतिकुश्चन सरलतया प्रवृत्तस्य वचनस्य खण्डनं 'साइजोगे'त्ति अविश्वम्भसम्बन्धः सातिशयेन वा द्रव्येण निरतिशयस्य योगस्तत्प्रतिरूपकरणमित्यर्थः, मायैकार्था वैते ध्वनय इति । 'लोभेत्ति सामान्य इच्छादयस्तद्विशेषाः, तत्रेच्छा-अभिलाषमात्र 'मुच्छा कंखा गेहीत्ति मूळ-संरक्षणानुबन्धः कासा-अप्राप्तार्थाशंसा 'गेहि'ति गृद्धिा-प्राप्तार्थेष्वासक्तिः 'तण्ह'त्ति
तृष्णा-प्राप्तार्थानामव्ययेच्छा 'भिजत्ति अभि-व्याप्त्या विषयाणां ध्यान-तदेकाग्रत्वमभिध्या पिधानादिवदकारलोपा|| द्भिध्या 'अभिज्झत्ति न भिध्या अभिध्या भिध्यासदृशं भावान्तरं, तत्र दृढाभिनिवेशो भिध्या ध्यानलक्षणत्वात्तस्याः, हद अहढाभिनिवेशस्त्वभिध्या चित्तलक्षणत्वात्तस्याः, ध्यानचित्तयोस्त्वयं विशेष:-"जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं
5555
-
दीप अनुक्रम [५४२-५४३]
-
%
%
%
-
For P
OW
~55
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४४९-४५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४९-४५०]
व्याख्या- चित्त"ति [थस्थिरमध्यवसानं तझ्यानं यच्चलं तश्चित्तम् ॥] 'आसासणय'त्ति आशंसनं-मम पुत्रस्य शिष्यस्य वा इद- १२ शतके मज्ञप्तिमिदं च भूयादित्यादिरूपा आशीः 'पत्थणय'त्ति प्रार्थन-परं प्रतीष्टार्थयाज्या 'लालप्पणय'त्ति प्रार्थनमेव भृशं लपनतः 8 ५ उद्देशः भयदान'कामास'त्ति शब्दरूपप्राप्तिसम्भावना 'भोगासति गन्धादिप्राप्तिसम्भावना 'जीवितासत्ति जीवितव्यप्राप्तिसम्भा- पापस्थान या वृत्तिः२/ &||वना, 'मरणास'त्ति कस्याशिदवस्थायां मरणप्राप्तिसम्भावना, इदं च कचिन्न दृश्यते, 'नंदिरागे'त्ति समृद्धौ सत्यां || वणीदिः वि
|रमणमभू॥५७३॥ कारागो-हों नन्दिरागा, 'पेजे'त्ति प्रेम-पुत्रादिविषयः स्नेहः 'दोसेत्ति अप्रीतिः कलह-इह प्रेमहासादिप्रभवं युद्ध, याव-18
तिवर्णादिः करणात् 'अन्भक्खाणे पेसुन्ने अरइरई परपरिवाए मायामो सेत्ति दृश्यम् ॥ अधोक्तानामेवाष्टादशानां प्राणातिपा
सू४४९तादिकानां पापस्थानानां ये विपर्ययास्तेषां स्वरूपाभिधानायाह-'अहे'त्यादि, 'अबन्नेत्ति बधादिविरमणानि जीवो
४५० पयोगस्वरूपाणि जीवोपयोगश्चामूर्तोऽमूर्तत्वाच तस्य वधादिविरमणानाममूर्तत्वं तस्माच्चावर्णादित्वमिति ॥ जीवस्व
रूपविशेषमेबाधिकृत्याह-जुप्पत्तिय'त्ति उत्पसिरेव प्रयोजनं यस्याः सा औत्पत्तिकी, ननु क्षयोपशमः प्रयोजनमस्याः ॥ सत्यं, स खल्वन्तरङ्गत्वात्सर्वबुद्धिसाधारण इति न विवक्ष्यते, न चान्यच्छाखकर्माभ्यासादिकमपेक्षत इति, 'वेणइय'ति ||
विनयो-गुरुशुश्रूषा स कारणमस्यास्तत्प्रधाना वा पैनयिकी, कम्मय'ति अनाचार्य कर्म साचार्य शिल्पं कादाचित्कं || वा कर्म शिल्पं तु नित्यव्यापारः, ततश्च कर्मणो जाता कर्मजा, 'पारिणामिय'त्ति परि:-समन्तानमनं परिणामः- ५७३| सुदीर्घकालपूर्वापरावलोकनादिजन्य आत्मधर्मः स कारणं यस्याः सा पारिणामिकी बुद्धिरिति वाक्यशेषः, इयमपि वर्णादिरहिता जीवधर्मत्वेनामूर्तत्वात् ।। जीवधर्माधिकारादधग्रहादिसूत्र कादिसूत्रं च, अमूर्त्ताधिकारादवकाशान्तर
दीप अनुक्रम [५४२-५४३]
SHREILLEGunintentiational
~56
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४४९-४५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४४९
NRN
-४५०]
सूत्रं अमूर्त्तत्वविपर्ययात्तनुवातादिसूत्राणि चाह-तत्र च 'सत्तमे णं भंते ! उवासंतरे'त्ति प्रथमद्वितीयपृथिव्योर्यदन्तराले आकाशखण्डं तत्प्रथमं तदपेक्षया सप्तम सप्तम्या अधस्तात्तस्योपरिष्टात्सप्तमस्तनुवातस्तस्योपरि सप्तमो धनवात| स्तस्याप्युपरि सप्तमो घनोदधिस्तस्याप्युपरि सप्तमी पृथिवी, तनुवातादीनां च पञ्चवर्णादित्वं पौद्गलिकत्वेन मूर्सस्वात् ,
अष्टस्पर्शत्वं च बादरपरिणामत्वात् , अष्टौ च स्पर्शाः शीतोष्णस्निग्धरूक्षमृदुकठिनलघुगुरुभेदादिति । जम्बूद्वीपे इत्यत्र यावत्करणाल्लवणसमुद्रादीनि पदानि वाच्यानि 'जाव वेमाणियावासा' इह यावत्करणादसुरकुमारावासादिपरिग्रहः, ते च भवनानि नगराणि विमानानि तिर्यग्लोके तन्नगर्यश्चेति । 'वेउवियतयाई पडुच्च'त्ति वैक्रियतैजसशरीरे हि बादरपरिणामपुद्गलरूपे ततो बादरत्वात्तयो रकाणामष्टस्पर्शत्वं, 'कम्मगं पडुच्चत्ति कार्मणं हि सूक्ष्मपरिणामपुद्गलरूपमतश्चतुःस्पर्श, ते च शीतोष्णस्निग्धरूक्षाः 'धम्मस्थिकाए' इह यावत्करणादेवं दृश्यम्-'अधम्मत्थिकाए आगासधि|काए पोग्गलस्थिकाए अद्धासमए आवलिया मुहुत्ते'इत्यादि, 'दवलेसं पडुच्च'त्ति इह द्रव्यलेश्यावर्णः 'भावलेसं |पडुच'त्ति भावलेश्या-आन्तरः परिणामः, इह च कृष्णलेश्यादीनि परिग्रहसम्ज्ञाऽवसानानि अवर्णादीनि जीवपरिणाम| स्वात् , औदारिकादीनि चत्वारि शरीराणि पश्चवर्णादिविशेषणानि अष्टस्पर्शानि च बादरपरिणामपुद्गलरूपत्वात् , सर्वत्र |च चतुःस्पर्शत्वे सूक्ष्मपरिणामः कारणं अष्टस्पर्शत्वे च बादरपरिणामः कारणं वाच्यमिति, सहदद्य'त्ति सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि 'अत्धेगइया सबदच्या पंचवन्ने'त्यादि बादरपुद्गलद्रव्याणि प्रतीत्योक्तं सर्वद्रव्याणां मध्ये कानिचि| स्पश्चवर्णादीनीति भावार्थः 'चउफासा' इत्येतच पुद्गलद्रव्याण्येव सूक्ष्माणि प्रतीत्योक्तं 'एगगंधे'त्यादि च परमाण्वा
दीप अनुक्रम [५४२-५४३]
5453
MRImurary.org
~57
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४४९-४५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
१२ शतके
प्रत सूत्रांक [४४९-४५०]
| मेवर्णादिः
व्याख्या- दिव्याणि प्रतीत्योक्तं, यदाह परमाणुद्रव्यमाश्रित्य-"कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरस | प्रज्ञप्तिः | वर्णगन्धो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥ १॥” इति, स्पर्शद्वयं च सूक्ष्मसम्बन्धिनां चतुर्णा स्पर्शानामन्यतरदविरुद्धं भवति, मभयदेवीया वृत्तिः२४
तथाहि-स्निग्धोष्णलक्षणं स्निग्धशीतलक्षणं वा रूक्षशीतलक्षणं रूक्षोष्णलक्षणं वेति, 'अवपणे'त्यादि च धर्मास्तिकायादिद्रव्याण्याश्रित्योकं, द्रव्याश्रितत्वात्मदेशपर्यवाणां द्रव्यसूत्रानन्तरं तत्सूत्रं, तत्र च प्रदेशा-द्रव्यस्य निविभागा अंशाः
कर्मतो वि॥५७४॥
| पर्यवास्तु धर्माः, ते चैवंकरणादेवं वाच्याः-'सषपएसा णं भंते ! कइवण्णा ? पुच्छा, गोयमा ! अस्थेगइया | सवपएसा पंचवना जाव अट्ठफासा'इत्यादि । एवं च पर्यवसूत्रमपि, इह च मूर्त्तद्रव्याणां प्रदेशाः पर्यवाश्च मूर्त्तद्रव्य- ४५१-४५२ वत्पश्चवर्णादयः, अमूर्तद्रव्याणां चामू-द्रव्यवदवर्णादय इति । अतीताद्धादित्रयं चामूर्तत्वादवर्णादिकम् ॥ वर्णाद्यधिकारादेवेदवाह
जीवे णे भंते ! गम्भ वक्कममाणे कतिवन्न कतिगंध कतिरसं कतिफासं परिणामं परिणमइ ?, गोयमा ! पंचवन्नं पंचरसं दुगंध अट्ठफासं परिणाम परिणमइ ॥ (सून ४५१) कम्मओ णं भंते ! जीवे नो अकम्मओ
॥५७४॥ विभत्तिभावं परिणमह कम्मओ णं जए नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ, हंता गोपमा
कम्मओ णं तं चेव जाव परिणमइ नो अकम्मओ विभतिभावं परिणमह, सेवं भंते । सेवं भंतेत्ति || ४(सूत्र ४५२)॥१२-५।
दीप अनुक्रम [५४२-५४३]
NCES
~58~
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४५१-४५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४५१-४५२]
'जीवे ण'मित्यादि, 'परिणामं परिणमइ'त्ति स्वरूपं गच्छति कतिवर्णादिना रूपेण परिणमतीत्यर्थः 'पंचवन्नति | गर्भव्युत्क्रमणकाले जीवशरीरस्य पञ्चवर्णादित्वात् गर्भव्युत्क्रमणकाले जीवपरिणामस्य पञ्चवर्णादित्वमवसेयमिति ॥ अनन्तरं गर्भ व्युत्क्रामन् जीवो वर्णादिभिर्विचित्रं परिणाम परिणमतीत्युक्तम् , अथ विचित्रपरिणाम एव जीवस्य यतो भवति तद्दर्शयितुमाह-'कम्मओण'मित्यादि, कर्मतः सकाशानो अकर्मतः-न कर्माणि विना जीवो 'विभक्ति| भावं' विभागरूपं भावं नारकतिर्यगमनुष्यामरभवेथु नानारूपं परिणाममित्यर्थः 'परिणमति' गच्छति तथा 'कम्मओ णं जए'त्ति गच्छति तांस्तानारकादिभावानिति 'जगत्' जीवसमूहो जीवद्रव्यस्यैव वा विशेषो जङ्गमाभिधानो 'जगन्ति | जङ्गमान्याहु'रिति वचनादिति ॥ द्वादशशते पञ्चमः ॥ १२-५॥
SARAM
दीप अनुक्रम [५४४-५४५]
जगतो विभक्तिभावः कर्मत इति पञ्चमोद्देशकान्ते उक्त, स च राहुग्रसने चन्द्रस्यापि स्यादिति शङ्कानिरासाय षष्ठो| देशकमाह, तस्य चेदमादिसूत्रम्
रायगिहे जाव एवं वयासी-बहुजणे णं भंते ! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति जाव एवं परूवेद-एवं खलु। राह चंदं गेहति एवं०२, से कहमेयं भंते ! एवं ?, गोयमा जन्नं से बहुजणे णं अन्नमन्नस्स जाव मिच्छं ते एव माहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव एवं परूवेमि-एवं खलु राह देवे महिहीए जाव महेसक्खे | वरवत्यधरे वरमल्लधरे वरगंधधरे वराभरणधारी, राहुस्स णं देवस्स नव नामधेजा पण्णत्ता, तंजहा-सिंघा
अत्र द्वादशमे शतके पंचम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ द्वादशमे शतके षष्ठं-उद्देशकः आरभ्यते
राहू, राहो: नव नामानि, राहूविमान, ग्रहण
~59~
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [६], मूलं [४५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४५३]
दीप अनुक्रम [५४६]
व्याख्या- टए १ जडिलए २ खंभए [खत्तए]३ खरए ४ दहुरे ५ मगरे ६ मच्छे ७ कच्छभे ८ कण्हसप्पे ९, राहुस्स १२ शतके प्रज्ञप्तिःण देवस्स बिमाणा पंचवन्ना पण्णत्ता, तंजहा-किण्हा नीला लोहिया हालिहा सुकिल्ला, अस्थि कालए || अभयदेवी
का उद्देश: * राहुविमाणे खंजणवन्नाभे पण्णत्ते अस्थि नीलए राहुविमाणे लाउयवन्नाभे प० अस्थि लोहिए राहुविमाणेया वृत्तिः२
मंजिट्टवन्नामे पं० अस्थि पीतए राहुविमाणे हालिद्दवन्नामे पन्नत्ते अस्थि सुकिल्लए राहुचिमाणे भासरासि सू४५३ ॥५७५॥ | वन्नामे पन्नते ॥ जया णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउबमाणे वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं
पुरच्छिमेणं आवरेत्ता गं पञ्चच्छिमेणं बीतीवयइ तदा णं पुरच्छिमेणं चंदे उचदंसेति पचच्छिमेणं राहू,
जदाणं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विचमाणे वा परियारेमाणे चंदलेस्सं पञ्चच्छिमेणं आवरेत्ताणं || ४ पुरच्छिमेणं बीतीवयति तदा णं पञ्चच्छिमणं चंदे उवदंसेति पुरच्छिमेणं राहू, एवं जहा पुरच्छिमेणं पञ्च|च्छिमेणं दो आलावगा भणिया एवं दाहिणेणं उत्तरेण य दो आलावगा भा०, एवं उत्तरपुरच्छिमेण दाहिण-|| पञ्चच्छिमेण य दो आलावगा भा० दाहिणपुरच्छिमेणं उत्तरपुरच्छिमेणं दो आलावगा भा० एवं चेव जाव तदा णं उत्तरपचच्छिमेण चंदे उवदंसेति दाहिणपरच्छिमेणं राह, जदा णं राह आगच्छमाणे वा। गच्छमाणे विउछ परियारेमाणे चंदलेस्सं आवरेमाणे २ चिट्ठति तदा णं मणुस्सलोए मणुस्सा वदंति-एवं-५७५।। | खलु राहू चंदं गे एवं०, जदा णं राष्ट्र आगच्छमाणे ४ चंदस्स लेस्सं आवरेसाणं पासेणं वीइवयह सदा णं मणुस्सलोए मणुस्सा वदंति-एवं खलु चंदेणं राहुस्स कुच्छी भिन्ना एवं०, जदा णं राहू आगच्छमाणे वा ४
454545453
SAREastatininternational
राहू, राहो: नव नामानि, राहूविमान, ग्रहण
~60~
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [६], मूलं [४५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
4545
-8
प्रत सूत्रांक [४५३]
3
चंदस्स लेस्सं आवरेत्ताणं पचोसका तदा णं मणुस्सलोए मणुस्सा चदंति-एवं खलु राहणा चंदे वते, एवं० जदा णं राहू थागछमाणे वा ४ जाव परियारेमाणे वा चंदलेस्सं अहे सपक्खि सपडिदिसिं आवरेत्ताणं चिट्ठति तदा णं मणुस्सलोए मणुस्सा वदंति-एवं खलु राहुणा चंदे घत्थे एवं०॥कतिविहेणं भंते !राह पन्नत्ते? गोयमा ! दुबिहे राहू पन्नत्ते?, तंजहा-धुवराष्टू पचराहू य, तस्थ णं जे से धुवराह से णं बहुलपक्खस्स है |पाडिवए [अन्धाअम् ८०००] पन्नरसतिभागेणं पन्नरसइभागं चंदस्स लेस्सं आवरेमाणे २ चिट्ठति, तंजहापढमाए पढम भागं बितियाए बितियं भागं जाव पन्नरसेसु पन्नरसमं भाग, चरिमसमये चंदे रत्ते भवति अवसेसे समये चंदे रत्ते य विरत्ते य भवति, तमेव सुक्कपक्खस्स उवदंसेमाणे उव०२ चिट्ठति पढमाए पढम भागं जाव पन्नरसेसु पन्नरसमं भागं, चरिमसमये चंदे विरत्ते भवइ अवसेसे समये चंदे रत्ते य विरत्ते
य भवइ, तस्थ णं जे से पबराहू से जहन्नेणं छण्हं मासाणं उक्कोसेणं बायालीसाए मासाणं चंदस्स अड*यालीसाए संवच्छराणं सूरस्स (सूत्रं ४५३) | 'रायगिहें'इत्यादि, 'मिच्छते एवमाहसुत्ति, इह तद्वचनमिथ्यात्वमप्रमाणकत्वात् कुप्रवचनसंस्कारोपनीतत्वाच, ग्रहणं हि राहुचन्द्रयोर्विमानापेक्षं, न च विमानयोग्रासकग्रसनीयसम्भवोऽस्ति आश्रयमात्रत्वान्नरभवनानामिव, अधेदं । गृहमनेन प्रस्तमिति दृष्टस्तव्यवहारः १, सत्यं, स खल्वाच्छाद्याच्छादकभावे सति नान्यथा, आच्छादनभावेन च ग्रासविव|क्षायामिहापि न विरोध इति । अथ यवत्र सम्यक् तद्दशयितुमाह-अहं पुणे'त्यादि । 'खंजणवन्नाभेत्ति खञ्जन
दीप अनुक्रम [५४६]
CRENRE५२--
ROENGA
राहू, राहो: नव नामानि, राहूविमान, ग्रहण
~614
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [४५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
%%
प्रत सूत्रांक [४५३]
%
%
दीप अनुक्रम [५४६]
व्याख्या- दीपमल्लिकामलस्तस्य यो वर्णस्तद्वदामा यस्य तत्तथा 'लाउयवन्नाभे'त्ति 'लाउयति तुम्बिका तोहापवावस्थं ग्राह्यमिति १२ शतके प्रज्ञप्तिः भासरासिवण्णाभे'त्ति भस्मराशिवर्णाभं, ततश्च किमित्याह-'जया णमित्यादि, 'आगच्छमाणे वत्ति गत्वाऽति- उद्देशः अभयदेवी- चारेण ततः प्रतिनिवर्तमानः कृष्णवर्णादिना विमानेनेति शेषः 'गच्छमाणे वत्ति स्वभावचारेण चरन् , एतेन च पद- राहुविमानं या पाता| दयेन स्वाभाविकी गतिरुक्ता, 'विज्चमाणे वत्ति विकुर्वणां कुवन परियारेमाणे वत्ति परिचारयन् कामकीडां कुर्वन,
सू ४५३ ॥५७६॥
॥ एतस्मिन् दयेऽतित्वरया प्रवर्तमानो विसंस्थुलचेष्टया स्वविमानमसमजसं वलयति, एतच द्वयमस्वाभाविकविमानगतिग्रहणायोक्तमिति, 'चंदलेस पुरच्छिमेणं आवरेत्ताणं ति स्वविमानेन चन्द्रविमानावरणे चन्द्रदीप्तेरावृत्तत्वाचन्द्र-12 | लेश्यां पुरस्तादावृत्त्य 'पञ्चच्छिमेणं वीइवयह'त्ति चन्द्रापेक्षया परेण यातीत्यर्थः 'पुरच्छिमेणं चंदे उवदंसेइ पञ्चच्छिमेणं राहु'त्ति राहपेक्षया पूर्वस्यां दिशि चन्द्र आत्मानमुपदर्शयति चन्द्रापेक्षया च पश्चिमायां राहुरात्मानमुपदर्शयतीत्यर्थः । एवंविधस्वभावतायां च राहोश्चन्द्रस्य यद्भवति तदाह-'जया ण'मित्यादि, 'आचरेमाणे' इत्यत्र द्विर्वचनं तिष्ठतीति क्रियाविशेषणत्वात् 'चंदेण राहुस्स कुच्छी भिन्नति राहोरंशस्य मध्येन चन्द्रो गत इति वाच्यं, चन्द्रेण राहो कुक्षिर्मिन्न इति व्यपदिशन्तीति, 'पचोसकाइ'त्ति 'प्रत्यवसर्पति' ब्यावर्त्तते 'वंतेत्ति 'वान्तः' परित्यक्तः, 'सपक्खि सपडिदिसं'ति सपर्श-समानदिग यथा भवति सप्रतिदिक-समानविदिक च यथा भवतीत्येवं चन्द्र-II ॥५७६॥ & लेश्यां 'आवृत्त्य' अवष्टभ्य तिष्ठतीत्येवं योगः, अत आवरणमात्रमेवेदं वैनसिकं चन्द्रस्य राहुणा असनं न तु कार्मण-18 || मिति ॥ अथ राहोर्भेदमाह-कविहे ण'मित्यादि, यश्चन्द्रस्य सदैव संनिहितः संचरति स ध्रुवराहुः, आह च
45-
2-3-
राहू, राहो: नव नामानि, राहूविमान, ग्रहण
~62~
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग -1, अंतर-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [४५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४५३]
4%C46-4-5A4%ERACRe0
किण्हं राहुविमाणं निश्चं चंदेण होइ अविरहियं । चउरंगुलभप्पत्तं हेहा चंदस्स तं चरइ ॥१॥" इति [कृष्णं राहुविमानं
चन्द्रेणाविरहित (भवति) चतुरजलाप्राप्तं नित्यं चन्द्रस्याधस्तात्तचरति ॥१॥] यस्तु पर्वणि-पौर्णमास्थामावास्ययोश्चनन्द्रादित्ययोरुपरागं करोति स पर्वराहुरिति । 'तत्थ णं जे से धुवराई'इत्यादि 'पाडिवए'त्ति प्रतिपद आरभ्येति शेषः।
पश्चदशभागेन स्वकीयेन करणभूतेन पञ्चदशभागं 'चंदस्स लेस्संति विभक्तिव्यत्ययाचन्द्रस्य लेश्यायाः चन्द्रविम्बसम्बन्धिनमित्यर्थः आवृण्वन् २ प्रत्यहं तिष्ठति, 'पढमाए'त्ति प्रथमतिथौ, 'पन्नरसेसु'त्ति पश्चदशसु दिनेषु अमावास्यायामित्यर्थः 'पन्नरसमं भाग "आवरित्ताणं चिट्ठईत्ति वाक्यशेषः, एवं च यद्भवति तदाह-'चरिमे'त्यादि, चरमसमये | पश्चदशभागोपेतस्य कृष्णपक्षस्यान्तिमे काले कालविशेषे वा चन्द्रो रको भवति-राहुणोपरको भवति सर्वथाऽप्यारछा|दित इत्यर्थः, अवशेषे समये प्रतिपदादिकाले चन्द्रो रक्तो वा विरक्तो वा भवति, अंशेन राहुणोपरकोऽशान्तरेण चा
नुपरका आच्छादितानाच्छादित इत्यर्थः । तमेव'त्ति तमेव चन्द्रलेश्यापश्चदशभागं शुक्लपक्षस्य प्रतिपदादिष्विति गम्यते | | 'उपदर्शपन् २' पञ्चदशभागेन स्वयमपसरणतः प्रकटयन् प्रकटयंस्तिष्ठति, 'चरिमसमये'त्ति पौर्णमास्यां चन्द्रो विरको
भवति सर्वथैव शुक्लीभवतीत्यर्थः सर्वथाऽनाच्छादितत्वादिति, इह चायं भावार्थ:-पोडशभागीकृतस्य चन्द्रस्य पोडशो है भागोऽवस्थित एवास्ते, ये चान्ये भागास्तान राहुः प्रतितिथ्येकैकं भागं कृष्णपक्षे आवृणोति शुक्ले तु विमुश्चतीति,
उक्तश्च ज्योतिष्करण्डके-"सोलसभागे काऊण उडुवई हायएरथ पन्नरस । तत्तियमेत्ते भागे पुणोवि परिवहुई जोण्हा M॥१॥"[पोडश भागान् कृत्वोडपतिस्पयत्यत्र पञ्चदश । तावन्मात्रान् भागान् पुनरपि वर्द्धयति ज्योत्स्नायाः ॥१॥]
दीप अनुक्रम [५४६]
ॐRE-ACTERACCRARY
व्या०५७
A
asurary.com
राहू, राहो: नव नामानि, राहूविमान, ग्रहण
~634
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [४५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
१२ शतके राहुविमान
उद्देशः सू४५३
प्रत सूत्रांक [४५३]
व्याख्या-1 इति, इह तु षोडशभागकल्पना न कृता व्यवहारिणां षोडाभागस्यावस्थितस्यानुपलक्षणादिति सम्भाषयाच हनि, मन प्रप्तिः चन्द्रविमानस्य पञ्चैकषष्टिभागन्यूनयोजनप्रमाणत्वाद् राहुविमानस्य च ग्रहविमानत्वेनार्द्धयोजनप्रमाणत्वात्कथं पञ्चदशे अभयदेवी-|दिने चन्द्रविमानस्य महत्त्वेनेतरस्य च लघुत्वेन सर्वावरणं स्यात् । इति, अत्रोच्यते, यदिदं ग्रहविमानानामईयोजन
वृत्तिा मिति प्रमाणं तत्प्रायिक, ततश्च राहोर्महस्योक्ताधिकप्रमाणमपि विमानं संभाव्यते, अन्ये पुनराहु-लघीयसोऽपि राहु॥५७७॥5
[विमानस्य महता तमिस्ररश्मिजालेन तदानियत इति, ननु कतिपयान् दिवसाम् यावद् ध्रुवराहुविमानं वृत्तमुपलभ्यते | द ग्रहण इव कतिपयांश्च न सथेति किमत्र कारणम् , अनोच्यते, येषु दिवसेम्वत्यर्थं तमसाऽभिभूयते शशी तेषु तद्वि
मानं वृत्तमाभाति येषु पुनर्नाभिभूयतेऽसौ विशुङ्यमानत्वात् तेषु न वृत्तमाभाति, तथा चोक्तम्-"वहण्मो कइच-| इदिवसे धुवराहुणो विमाणस्स । दीसइ परं न दीसइ जह गहणे पबराहुस्स ॥२॥" आचार्य आह-"अर्थ नहि तम| साऽभिभूयते जं ससी विसुझंतो । तेण न वदृश्छेओ गहणे उ तमो तमोबहलो ॥१॥" इति । [ कतिपथदिवसेषु ध्रुवराहोविमानस्य वृत्तभागो दृश्यते यथा ग्रहणे पर्वराहोः कतिपयेषु च न तथा दृश्यते ॥१॥ यद्विशुद्ध्यमामः शशी तमसात्यर्थ नैवाभिभूयतेऽतो न वृत्तभागः ( उपलभ्यते) ग्रहणे तमस्तमोबहुला पर्वराहुः ॥२॥] 'तत्थ णं जे से पवेत्यादि, 'यायालीसाए मासाणं' सार्द्धस्य वर्षत्रयस्योपरि चन्द्रस्य लेश्यामावृत्य तिष्ठतीति गम्यं, सूरस्याप्येवं नवरमुत्कृष्टतयाप्रचत्वारिंशता संवत्सराणामिति ॥ अथ चन्द्रस्य 'ससित्ति यदभिधानं तस्यान्वर्धाभिधानायाह
से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचह-चंदे ससी २१, गोपमा ! चंदस्स जोइसिंदस्स जोइसरसो मियंके विमाणे
CRECACARASHTRA
दीप अनुक्रम [५४६]
॥५७७॥
राहू, राहो: नव नामानि, राहूविमान, ग्रहण
~644
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [४५४-४५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४५४-४५५]
कता देवी कंताओ देवीओ कंताई आसणसयणखभभंडमत्तोवगरणाई अपणोविय चं चंदे जोइसिंदेश है जोइसराया सोमे कंते सुभए पियदसणे सुरूवे से तेणद्वेणं जाव ससी ॥ (सूर्य ४५४ ) से केणद्वेणं भंते !
एवं वुचइ-सूरे आइथे सूरे०२१, गोपमा ! सूरादिया णं समयाइ वा आवलियाइ वा जाव उस्सप्पिणीइ चा || अवसप्पिणीह वा से तेणट्टेणं जाव आइच्चे०२॥ (सूत्र ४५५) दा 'सेकेण'मित्यादि, 'मियंकेति मृगचिहत्वात् मृगाङ्के विमानेऽधिकरणभूते 'सोमे तिसौम्यः' अरौद्राकारो नीरोगो वा
तेत्ति कान्तियोगात् 'सुभएत्ति सुभगः-सौभाग्ययुक्तत्वाबल्लभो जनस्य 'पियदंसणे'त्ति प्रेमकारिदर्शनः, कस्मादेवम्? अत आह-सुरूपः 'से तेण मित्यादि अथ तेन कारणेनोच्यते 'ससी'ति सह श्रिया वर्त्तत इति सश्रीः तदीयदेवादीनां स्वस्य च कान्त्यादियुक्तत्वादिति, प्राकृतभाषापेक्षया च ससीति सिद्धम् ॥ अथादित्यशब्द स्यान्वर्थाभिधानायाह
'से केण'मित्यादि, 'सूराईयत्ति सूरः आदि:-प्रथमो येषां ते सूरादिका, के ? इत्याह-समयाइ वत्ति समया:-अहोरात्रादिकालभेदानां निर्विभागा अंशाः, तथाहि-सूर्योदयमवधिं कृत्वाऽहोरात्रारम्भका समयो गण्यते आवलिका मुहू
दियश्चेति 'से तेण'मित्यादि अथ तेनार्थेन सूर आदित्य इत्युच्यते, आदौ अहोरात्रसमयादीनां भव आदित्य इति | व्युत्पत्तेः, त्यप्रत्ययश्चेहापत्वादिति ॥ अथ तयोरेवानमहिष्यादिदर्शनायाह
चंदस्स णं भंते। जोइसिंदस्स जोइसरन्नो कति अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ जहा दसमसए जाच णो चेव णं मेहुणवतियं । सूरस्सवि तहेव । चंदमसूरिया णं भंते ! जोइसिंदा जोइसरायाणो केरिसए काम
दीप अनुक्रम [५४७-५४८]
Santaratinila
चन्द्र एवं सूर्यस्य काम-भोग:
~65
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [४५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
उद्देश
प्रत सूत्रांक [४५६]
दीप अनुक्रम [५४९]
व्याख्या-1
भोगे पचणुम्भवमाणा विहरंति ?, गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे पढमजोवणुट्ठाणवलत्थे पढमजोवणुप्रज्ञप्तिः | हाणवलवाए भारियाए सर्दि अचिरवत्तविवाहकज्जे अस्थगवेसणघाए सोलसवासविष्पवासिए से तो अभयदेवी
लट्ठ कपकज्जे अणहसमग्गे पुणरवि नियगगिहं हवमागए कयवलिकम्मे कयकोज्यमंगलपायकिछत्ते सवालं. दशश्यादित्य या वृत्तिः२कारविभूसिए मणुन्नं थालिपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाकुलं भोयणं भुत्ते समाणे तंसि तारिसगंसि बासघरंसि योरन्वर्थः ॥५७८॥
वनओ महबले कुमारे जाव सयणोवयारकलिए ताए तारिसियाए भारियाए सिंगारागारचारुवेसाए जाव ज्योतिष्ककलियाए अणुरत्ताए अविरत्ताए मणाणुकुलाए सद्धिं इ8 सद्दे फरिसे जाव पंचविहे माणुस्सए कामभोगे कामभोगाः पचणुब्भवमाणे विहरति, से णं गोयमा! पुरिसे विउसमणकालसमयंसि केरिसयं सायासोक्खं पचणुब्भव
सू४५४माणो विहरति ?, ओरालं समणाउसो, तस्स णं गोयमा ! पुरिसस्स कामभोगेहिंतो वाणमंतराणं देवाणं
४५६ अणतगुणविसिहतराए चेव कामभोगा, वाणमंतराणं देवाणं कामभोगेहितो असुरिंदवज्जियाणं भवणवाहै सीणं देवाणं एत्तो अर्णतगुणविसिहतराए चेव कामभोगा, असुरिंदवजियाणं भवणवासियाणं देवाणं का
मभोगेहिंतो असुरकुमाराणं देवाणं एत्तो अणंतगुणविसिद्धृतराए चेव कामभोगा, असुरकुमाराणं देवाणं कामभोगेहिंतो गहगणनक्खत्ततारारूवाणं जोतिसियाणं देवाणं एत्तो अनंतगुणविसिट्टतराए चेष कामभोगा, है गहगणनक्खत्तजाव कामभोगेहिंतो चंदिमसूरियाणं जोतिसियाणं जोतिसराईणं एत्तो अर्णतगुणवि- ५७८॥ सिट्ठयरा चेव कामभोगा, चंदिमसूरियाणं गोयमा ! जोतिसिंदा जोतिसरायाणो एरिसे कामभोगे
चन्द्र एवं सूर्यस्य काम-भोग:
~66~
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [४५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
4
प्रत सूत्रांक
-CACASSA
[४५६]
A
उपवणम्भषमाणा विहरति । सेवं भंते । सेवं भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव विहरा।। (सूत्रं ४५६)॥१२-६॥
'चंदस्सेत्यादि, 'पढमजोवणुहाणवलत्थेत्ति 'प्रथमयौवनोत्थाने प्रथमयौवनोद्गमे यदलं-प्राणस्तत्र यस्तिष्ठति स || तथा 'अचिरवत्तविवाहकज्जे' अचिरवृत्तविवाहकार्यः 'वन्नओ महाबले'ति महाबलोद्देशके वासगृहवर्णको दृश्य | है इत्यर्थः 'अणुरत्ताए'त्ति अनुरागवत्या 'अविरत्ताए'त्ति विप्रियकरणेऽप्यविरक्तया 'मणाणुकूलाए'त्ति पतिमनसोऽनु
कुलवृत्तिकया 'विउसमणकालसमयंसित्ति व्यवशमनं-पुंवेदविकारोपशमस्तस्य यः कालसमयः स तथा तत्र रतावसान ट्र इत्यर्थः, इति भगवता पृष्टो गौतम आह-ओरालं समणाउसो'त्ति, 'तस्स गं गोयमा ! पुरिसस्स कामभोगेहितो' है इहाग्रेतनः 'एत्तोत्ति शब्दो योज्यते ततश्चैतेभ्य उक्तस्वरूपेभ्यो व्यन्तराणां देवानामनन्तगुणविशिष्टतया चैव कामका भोगा भवन्तीति, क्वचित्तु एत्तोशब्दो नाभिधीयते एवेति द्वादशशते षष्ठः ॥ १२-६ ॥
अनन्तरोद्देशके चन्द्रादीनामतिशयसौख्यमुक्तं, ते च लोकस्यांशे भवन्तीति लोकांशे जीवस्य जन्ममरणवक्तव्यताप्ररूपणार्थः सप्तमोद्देशक उच्यते, तस्य चेदमादिसूत्रम्| तेणं कालेणं २ जाव एवं वयासी-केमहालए णं भंते ! लोए पन्नत्ते?, गोयमा ! महतिमहालए लोए पन्नत्ते, पुरच्छिमेणं असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ दाहिणणं असंखिज्जाओ एवं चेव एवं पचच्छिमेणवि एवं
दीप अनुक्रम [५४९]
%
CROCES
%
SAREaratun
अत्र द्वादशमे शतके षष्ठं-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ द्वादशमे शतके सप्तम-उद्देशक: आरभ्यते
चन्द्र एवं सूर्यस्य काम-भोग:
~67~
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [४५७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४५७]
व्याख्या- उत्तरेणचि एवं उर्खपि अहे असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविक्खंभेणं । एपंसिणं भंते ! एमहा- १२ शतके प्रज्ञप्तिलगंसि लोगंसि अस्थि केइ परमाणुपोग्गलमत्तेवि पएसे जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा न मए बावि, उद्देशः अभयदेवी- गोयमा ! नो इणढे समढे, से केणटेणं भंते ! एवं बुबह एयंसिणं एमहालगंसि लोगंसि नत्थि केइ परमाणु- महति लोके या वृत्तिः । पोग्गलमेरोवि पएसे जत्थ णं अयं जीवे ण जाए वा न मए वावि?, गोयमा ! से जहानामए के पुरिसे जन्ममर
णाभ्यां ॥५७९॥] * अपासपस्स एग महं अयावयं करेजा, से णं तत्थ जहन्नेणं एको वा दो चा तिन्नि वा उकोसेणं अयासहस्सा पक्खिचेजा ताओ णं तस्थ पउरगोयराओ पउरपाणियाओ जहन्नेणं एगाहं वा बियाहं वा तियाहं वा
व्यापकता
सू४५७ |उकोसेणं छम्मासे परिवसेज्जा, अस्थि णं गोयमा तस्स अयावयस्स केई परमाणुपोग्गलमेत्तेवि पएसे जे णं नासिं अयाणं उचारेण वा पासवणेण वा खेलेण वा सिंघाणएण वा वंतेण वा पित्तेण वा पूएण वा सु
केण वा सोणिएण वा चम्मेहिं वा रोमेहिं वा सिंगेहिं वा खुरेहिं या नहेहिं पा अणाकंतपुषे भवइ १, भगवंद छणो तिणढे समझे, होजाविणं गोयमा! तस्स अपाययस्स केई परमाणुपोग्गलमेसेवि पएसे जे णं सार्सि Mअयाण उचारेण वा जाप णहेहिं वा अणकतपुचे णो चेव णं एयंसि एमहालगंसि लोगसि लोगस्स य सासर्य
भावं संसारस्स य अणादिभावं जीवस्स य णिचभावं कम्मबहुतं जम्मणमरणवाहुल्लं च पहुच नस्थि ५७९॥ कर परमाणुपोग्गलमेसेवि पएसे जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा न मए वावि, से तेणढणं तं चेव जाव न मए वावि ॥ (सूर्घ ४५७)
3+CCCCCRACK
दीप अनुक्रम [५५०]
~68~
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [४५७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४५७]
'तेण मित्यादि, 'परमाणुपोग्गलमेतवित्ति इहापिः सम्भावनायां 'अयासयरस'त्ति षष्ट्याश्चतुर्थ्यर्थत्वाद् अजावा18 साय 'अयावयं'ति अजाब्रजम् अजावाटकमित्यर्थः 'उकोसेणं जयासहस्सं पक्खिवेज'त्ति यदिहाजाशतप्रायोग्ये द वाटके उत्कर्षेणाजासहस्रप्रक्षेपणमभिहित तत्तासामतिसङ्कीर्णतयाऽवस्थानख्यापनार्थमिति, 'पउरगोयराओ पउरपा-1
णीयाओं'त्ति प्रचुरचरणभूमयः प्रचुरपानीयाश्च, अनेन च तासां प्रचुरमुत्रपुरीषसम्भवो बुभुक्षापिपासाविरहेण सुस्थतया चिरंजीवित्वं चोक्तं 'नहेहि वत्ति नखाः-खुराप्रभागास्तैः 'नो चेव णं एपंसि एमहालयंसि लोगंसि' इत्यस्य 'अस्थि के पमाणपोग्गलमत्तेवि पएसे' इत्यादिना पूर्वोकाभिलापेन सम्वन्धः, महत्त्वालोकस्य, कथमिदमिति चेदत आह-14 |'लोगस्से'त्यादि क्षयिणो ह्येवं न संभवतीत्यत उक्तं लोकस्य शाश्वतभावं प्रतीत्येति योगः, शाश्वतत्वेऽपि लोकस्य
संसारस्य सादित्वे नैवं स्थादित्यनादित्वं तस्योक्तं, नानाजीवापेक्षया संसारस्यानादित्वेऽपि विवक्षित जीवस्यानित्यत्वे नोको|ऽर्थः स्यादतो जीवस्य नित्यत्वमुक्तं, नित्यत्वेऽपि जीवस्य काल्पत्वे तथाविधसंसरणाभावानोक्तं वस्तु स्यादतः कर्म| वाहुल्यमुक्तं, कर्मबाहुल्येऽपि जन्मादेरल्पत्वे नोक्तोऽर्थः स्यादिति जन्मादिबाहुल्यमुक्तमिति ॥ एतदेव प्रपञ्चयन्नाह
कति गंभंते । पुढवीओ पपणत्ताओ?, गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ जहा पढमसए पंचमउद्देसए तहेव आवासा ठावयचा जाव अणुत्तरविमाणेत्ति जाव अपराजिए सबट्टसिहे । अयन्नं भंते ! जीवे इमीसे | रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव
दीप अनुक्रम [५५०]
~69~
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [४५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
व्याख्या- प्रज्ञप्तिः अभयदेवीयावृत्तिः२]
प्रत सूत्रांक [४५८]
॥५८०॥
SEARCKSECRET
दीप अनुक्रम [५५१]
वणस्सइकाइयत्ताए नरगत्ताए नेरइयत्ताए उववन्नपुवे ?, हंता गोयमा ! असई अदुवा अर्णतखुत्तो, अयन्नं |२||१२ शतके भंते ! जीवे सकरप्पभाए पुढवीए पणवीसा एवं जहा रयणप्पभाए तहेव दो आलावगा भाणियबा, एवं उद्देशः जाव धूमप्पभाए । अयन्नं भंते ! जीवे तमाए पुढवीए पंचूणे निरयावाससयसहस्से एगमेगंसि सेसं तं चेच, नरकादित|अयन्नं भंते ! जीवे अहेसत्तमाए पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु महतिमहालएसु महानिरएसु एगमेगंसि निर-| या सर्वषायावासंसि सेसं जहा रयणप्पभाए, अयन्नं भंते ! जीवे चोसट्ठीए असुरकुमारावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि |
सामनन्तकृ
व उत्पादः असुरकुमारावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाच वणस्सइकाइयत्ताए देवत्ताए देवीत्ताए आसणसयणभंडमत्तोव
18 सू४५८ गरणत्ताए उववन्नपुचे?, हंता गोयमा! जाव अर्णत खुत्तो, सबजीवावि ण भंते ! एवं चेच, एवं धणियकुमारेसु, नाणत्तं आवासेसु, आवासा पुषभणिया, अयन्नं भंते ! जीवे असंखेज्जेसु पुढविक्काइयावाससयसहस्सेस् एग-18 मेगंसि पुढविकाइयावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वण. उबवन्नपुषे ?, हंता गोयमा ! जाच अर्णत खुत्तो एवं | सबजीवावि एवं जाव वणस्सइकाइएस, अयण्णं भंते ! जीवे असंखेजेसु बेदियाबाससयसहस्सेसु एग-17 | मेगसि बंदियावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए बेईदियत्ताए उववन्नपुषे', हंता गोषमा! जाव खुत्तो, सबजीवावि णं एवं चेव एवं जाव मणुस्सेसु, नवरं तेंदियएसु जाव वणस्सइकाइयत्ताए तेंदि
18॥५८०॥ यत्ताए चरिदिएसु चरिंदियत्ताए पंचिदियतिरिक्खजोणिएम पंचिंदियतिरिक्खजोणियत्ताए मणुस्सेसु|| मणुस्सत्ताए सेसं जहा बेदियाणं, घाणमंतरजोइसियसोहम्मीसाणेसु य जहा असुरकुमाराणं, अयण्णं ||
~70
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [४५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४५८]
भंते ! जीवे सर्णकुमारे कप्पे वारससु विमाणावाससयसहस्सेसु एगमेगसि विमाणिपायासंसि पुढविकाइयत्ताए सेसं जहा असुरकुमाराणं जाव अणंतखुत्तो, नो चेष णं देवीत्ताए, एवं सघजीवाधि, एवं जाव आणयपाणएसु, एवं आरणबुएमुषि, अपनं भंते ! जीवे तिमुधि अट्ठारसुत्तरेसु गेविजविमाणावाससयेसु
एवं चेव, अयन्नं भंते ! जीवे पंचसु अणुत्तरविमाणेसु एगमेगंसि अणुत्तरविमाणंसि पुढ वि तहेव जाव अणंतर खुत्तो नो चेव णं देवत्ताए वादेवीत्ताए वा एवं सधजीवादि। अयन्नं भंते जीवे सबजीचाणं माइत्ताए पियत्ताए
भाइत्ताए भगिणित्ताए भजताए पुसत्ताए धूयत्ताए सुण्हत्ताए उववनपुधे, हंता गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो, सबजीवावि णं भंते । इमस्स जीवस्स माइत्ताए जाव उववन्नपुबे ?, हंता गोयमा !जाच अणं
तखुत्तो, अथपणं भंते ! जीवे सबजीवाणं अरित्ताए वेरियत्ताए घायकत्ताए वहगत्ताए पहिणीयत्ताए पचामित्तिसाए उपवनपुषे ,हंता गोयमा ! जाच अर्णतखुत्तो, सबजीवावि णे भंते ! एवं चेव, अयन्नं भंते ! जीवे
सबजीवाणं रायत्ताए जुवरायत्ताए जाच सस्थवाहत्ताए उववन्नपुवे?, हंता गोयमा ! असति जाव अणंत-15 खुत्तो, सघजीवाणं एवं चेव । अयन्नं भंते ! जीवे सबजीवाणं दासत्ताए पेसत्ताए भयगत्ताए भाइल्लगत्ताएर | भोगपुरिसत्ताए सीसत्ताए वेसत्ताए उपवनपुषे ?, हंता गोयमा! जाव अणंतखुत्तो, एवं सबजीचाबि अणंतखुत्तो । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाव विहरइ ।। (सूत्रं ४५८) १२-७॥
SC-SOCHER56-
4
दीप अनुक्रम [५५१]
-4564SCA5255
~71
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:) शतक [१२], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [४५८]
प्रत सूत्रांक [४५८]
ब्याख्या
'कइ ण'मित्यादि, 'मरगत्ताए'त्ति नरकावासपृथिवीकायिकतयेत्यर्थः 'असईति असकृद्-अनेकशः 'अदुवं'त्ति || १२ शतके प्रज्ञप्ति
अथवा 'अणतखुत्तोत्ति अनन्तकृत्वः-अनन्तनारान् 'असंखेजेसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु'त्ति इहासङ्ख्या- उद्देश: अभयदेवी- तेषु पृथिवीकायिकावासेषु एतावतैव सिद्धेर्थच्छतसहस्रग्रहणं तत्तेषामतिबहुत्वख्यापनार्थ, नवरं 'तेइंदिएसु'इत्यादि बी-ट्र नरकादितया वृत्तिः२न्द्रियादिसूत्रेषु द्वीन्द्रियसूत्रात् त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेत्यादिनैव विशेष इत्यर्थः 'नो चेव णं देवीत्ताए'त्ति ईशानान्तेम्बेवया सर्वेषा
| देवस्थानेषु देव्य उत्पद्यन्ते सनत्कुमारादिषु पुनर्नेतिकृत्वा 'नो चेव णं देवीत्ताए' इत्युक्तं 'नो चेच णं देवत्ताए दे- मनन्तकृ॥५८१॥ वीत्ताए वत्ति अनुत्तरविमानेवनन्तकृत्वो देवा नोत्पद्यन्ते देण्यश्च सर्वथैवेति 'नो चेव ण'मित्यायुक्तमिति, 'अरि
त्व उत्पाद: |त्ताए'ति सामान्यतः शत्रुभावेन 'बेरियत्साए'ति वैरिका-शत्रुभावानुबन्धयुक्तस्तत्तया 'घायगत्ताए'त्ति मारकतया || 'वहगत्ताए'त्ति व्यधकतया ताडकतयेत्यर्थः 'पडिणीयत्ताएत्ति प्रत्यनीकतया-कार्योपघातकतया 'पचामित्तत्ताए'त्ति अमित्रसहायतया 'दासत्ताए'त्ति गृहदासीपुत्रतया 'पेसत्ताए'त्ति प्रेष्यतया-आदेश्यतया भियगत्ताए'त्ति भृतकतया दुष्कालादी पोषिततया 'भाइल्लगत्ताए'त्ति कृष्यादिलाभस्य भागग्राहकत्वेन 'भोगपुरिसत्ताए'त्ति अन्यैरुपार्जितार्थानां भोगकारिनरतया 'सीसत्ताए'त्ति शिक्षणीयतया 'वेसत्ताए'त्ति द्वेष्यतयेति ॥ द्वादशशते सप्तमः ॥ १२-७॥
दीप अनुक्रम [५५१]
॥५८॥
सप्तमे जीवानामुत्पत्तिश्चिन्तिता, अष्टमेऽपि सैव भवन्तरेण चिन्त्यते, इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्---- तेणं कालेणं तेणं समएणं जाय एवं वयासी-देवे णं भंते ! महहीए जाव महेसक्खे अणंतरं चर्य चहत्ता
wwwIOTINGHDTAN.Om
अत्र द्वादशमे शतके सप्तम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ द्वादशमे शतके अष्टम-उद्देशक: आरभ्यते
~72
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [८], मूलं [४५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
e
-%
प्रत सूत्रांक [४५९]
4
5645654545454555*
बिसरीरेसु नागेसु उववजेजा ?, हंता गोयमा ! उववजेजा, से णं तत्थ अच्चियवंदियपूइयसकारियसम्मा& णिए दिवे सच्चे सच्चोवाए संनिहियपाडिहेरे यावि भवेजा, हंता भवेज्जा से णं भंते ! तओहिंतो अणंतरं|
उत्पष्टित्ता सिझेजा बुझेजा जाव अंतं करेजा, हंता सिग्झिज्जा जाव अंतं करेजा, देवे गंभंते !
महड्डीए एवं चेव जाव विसरीरेसु मणीसु उचवजेजा, एवं चेव जहा नागाणं, देवे णं भंते ! महहीए जाव & बिसरीरेसु रुक्खेसु उववजेजा, हंता उपवज्जेज्जा एवं चेव, नवरं इमं नाणत्तं जाव सन्निहियपाटिहेरे लाउल्लोका इयमहिते यावि भवेजा, हंता भवेज्जा सेसं तं चेव जाव अंतं करेजा ॥ (सूत्रं ४५९) || तेण मित्यादि, 'विसरीरसुति द्वे शरीरे येषां ते द्विशरीरास्तेषु, ये हि नागशरीरं त्यक्त्वा मनुष्य शरीरमवाप्य | सेत्स्यन्ति ते द्विशरीरा इति, 'नागेसु'त्ति सप्पेषु हस्तिषु वा 'तत्यत्ति नागजन्मनि यत्र वा क्षेत्रे जातः 'अच्चिए'त्यादि, | इहार्चितादिपदानां पञ्चानां कर्मधारयः तत्र चार्चितश्चन्दनादिना वन्दितः स्तुत्या पूजितः पुष्पादिना सरकारितो-ब| स्वादिना सन्मानितः प्रतिपत्तिविशेषेण 'दिवे'त्ति प्रधानः 'सचे'त्ति स्वमादिप्रकारेण तदुपदिष्टस्यावितथत्वात् 'सच्चोवाए'त्ति सत्यावपातः सफलसेव इत्यर्थः, कुत एतत् ? इत्याह-सन्निहियपाडिहेरे'त्ति सन्निहित-अदूरवर्ति प्रातिहार्यपूर्वसङ्गतिकादिदेवताकृतं प्रतिहारकर्म यस्य स तथा 'मणीसुत्ति पृथिवीकायविकारेषु'लाउल्लोइयमहिए'ति'लाइयं-11 ति छगणादिना भूमिकायाः संमृष्टीकरणं 'उल्लोइय'ति सेटिकादिना कुझ्यानां धवलनं एतेनैव द्वयेन महितो यः स तथा, | एतच्च विशेषणं वृक्षस्य पीठापेक्षया, विशिष्टवृक्षा हि बद्धपीठा भवन्तीति ॥
%A
दीप अनुक्रम [५५२]
-e
k
PURaitaram.org
~73
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [४६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
r
प्रत
सूत्रांक
%AE%
[४६०]
॥५८२॥
च गोला
%
व्याख्या-ला
अह भंते ! गोलंगूलवसभे कुकुडवसभेमंडुक्कवसभेएएणं निस्सीला निव्या निग्गुणा निम्मेरा निप्पचक्खा- १२ शतके प्रज्ञप्तिः
दाणपोसहोववासा कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसेणं सागरोवमद्वितीयंसि नरगंसिदउद्देश: अभयदेवी
नागमण्या|| नेरइयत्ताए उववजेजा ? समणे भगवं महावीरे वागरेइ-उववजमाणे उबवन्नेत्ति वत्तवं सिया। अह भंते! सीहे या वृत्तिः बग्घे जहा उस्सप्पिणीउद्देसए जाव परस्सरे एए णं निस्सीला एवं चेव जाव वत्त सिया, अह भंते । के
दौदेवागमः
द्विशरीरता कंके विलए मग्गुए सिखीए, एए णं निस्सीला०, सेसं तं चेव जाव वत्तचं सिया । सेवं भंते ! सेवं भंते! जाव विहरइ ॥ (सूत्रं ४६०) १२-८॥
| गूलादेनर___ 'गोलंगूलबसभे'त्ति गोलाङ्गलाना-वानराणां मध्ये महान् स एव वा विदग्धो विदग्धपर्यायत्वाद्वषभशब्दस्य, एवं
कासू४५९कुर्कुटवृषभोऽपि, एवं मण्डूकवृषभोऽपि, 'निस्सील'त्ति समाधानरहिताः 'निषय'त्ति अणुव्रतरहिताः 'निग्गुण'त्ति गुण- ४६० प्रतैः क्षमादिभिर्वा रहिताः 'नेरइयत्ताए उववजेज्जा' इति प्रश्नः, इह च 'पववजेजा' इत्येतदुत्तरं, तस्य चासम्भवमाश-||2||
मानस्तत्परिहारमाह-'समणे इत्यादि, असम्भवश्चैव-यत्र समये गोलाङ्गलादयो न तत्र समये नारकास्ते अतः कथं ते नारकतयोत्पद्यन्ते इति वक्तव्यं स्याद्?, अत्रोच्यते-श्रमणो भगवान् महावीरो न तु जमाल्यादिः एवं व्याकरोतियदुत उत्पद्यमानमुत्पन्नमिति वक्तव्यं स्यात्, क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदाद्, अतस्ते गोलालप्रभृतयो नारकतयोत्पत्तु
५८२॥ कामा नारका एवेतिकृत्वा सुच्यते 'नेरइयत्ताए उववजेजत्ति, 'उस्सप्पिणिउद्दसए'त्ति सप्तमशतस्य पष्ठ इति । द्वादशशतेऽष्टमः ॥ १२-८॥
-१०
दीप अनुक्रम [५५३]
-१०
45%
:
-१
5
-१
अत्र द्वादशमे शतके अष्टम-उद्देशक: परिसमाप्त:
~74
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४६१-४६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
SC
6-1SKCE-
[४६१
-४६६]
-4561%
अष्टमोदेशके देवस्य नागादिषूत्पत्तिरुक्ता नवमे तु देवा एव प्ररूप्यन्त इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्कइविहा णं भंते ! देवा पण्णत्ता ?, गोयमा ! पंचविहा देवा पण्णता, तंजहा-भविपदपदेवा १ नरदेवाला २ धम्मदेवा ३ देवाहिदेवा ४ भावदेवा ५, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुबइ भविषदषदेवा भविपदवदेवा, गोयमा! जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा देवेसु उववजिसए से तेणटेणं गोयमा एवं X वुच भवियवदेवा २, से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ नरदेवा नरदेवा ?, गोयमा । जे इमे रायाणो चाउरंत
चकवट्टी उप्पन्नसमत्तचक्करयणप्पहाणा नवनिहीपणो समिद्धकोसा बत्तीसं रायवरसहस्साणुजायमग्गा सागरवरमेहलाहिवइणो मणुस्सिदा से तेणटेणं जाच नरदेवा २, से केपट्टेणं भंते! एवं बुचद धम्मदेवा धम्म-४ देवा , गोयमा जे इमे अणगारा भगवंतो ईरियासमिया जाव गुत्तवंभयारी से तेणतुणं जाव धम्मदेवा २, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ देवाधिदेवा देवाधिदेवा ?, गोयमा! जे इमे अरिहंता भगवंतो उप्पन्ननाणदंस-12 णधरा जाव सबदरिसी से तेण?णं जाव देवाधिदेवा २, से केणतुणं भंते । एवं बुचइ-भावदेवा भावदेवा, गोयमा ! जे इमे भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिया देवा देवगतिनामगोयाई कम्माई वेदेति से तेणद्वेणं जाव। भावदेवा (सूत्रं ४६१)॥ भवियदवदेवाणं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? किं नेरइएहिंतो उववजंति तिरिक्ख०मणुस्स देवेहिंतो उववजति ?, गोयमानेरहपहिंतो उववर्जति तिरि०मणु देवेहिंतोवि उववजंति भेदो जहा वक्तीए सधेसु उववाएयवा जाव अणुत्तरोववाइयत्ति, नवरं असंखेजवासाख्यअकम्मभूमगअंतर
%
दीप अनुक्रम [५५४-५५९]
%
%
%95%AC%
8452-
%
ध्या.९८
अथ द्वादशमे शतके नवम-उद्देशक: आरभ्यते
'देव' शब्दस्य अर्थ एवं तस्य भेद-प्रभेदा:
~75
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४६१-४६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४६१-४६६]
दीप
ध्याख्या- दीवगसबसिद्धवजं जाव अपराजियदेवेहितोवि उववजंति, णो सबढसिजदेवेहितो उववज्जति । मेरदेवा १२ शतके
प्रज्ञप्तिःट्रीण भंते !कओहितो उपवनंति ? किं नेरतिए.१ पुच्छा, गोयमा । नेरतिएहितोवि उववतिनी ९ उद्देशः अभयदेवी- तिरि०नो मणु देवहिंतोवि उववज्जति, जइ मेरइएहिंतो उववर्जति किं रयणप्पभापुडविनेरइएहिती उच- भव्यद्रव्य या वृत्तिः वजंति जाव अहे सत्तमापुढविनेरइएहिंतो उववज्जति !, गोयमा ! रयणप्पभापुढविनेरहएहितो उववर्जति नो|
देवादीनां
स्वरूपमार सक्करजाव नो अहेसत्तमापुढविनेरहपहिंतो उववजंति, जइ देवेहिंतो उववर्जति किं भवणवासिदेवेहितो।। 11५८३॥
उववजंति वाणमंतर० जोइसिय वेमाणियदेवहितो उववज्जति ?, गोयमा ! भवणवासिदेवेहिंतोवि उवव- ५६१-४६२
चंति चाणमंतर एवं सचदेवेसु उववाएयवा वतीभेदेणं जाव सबसिद्धत्ति, धम्मदेवाणं भंते । कओहिंतो ट्र उववज्जति किं नेरहए.१ एवं वतीभेदेणं सवेसु उववाएयवा जाव सबढसिद्धत्ति, नवरं तमा अहेसत्तमाए
नो उववाओ असंखिजवासाज्यअकम्मभूमगअंतरदीवगवलेसु, देवाधिदेवाणं भंते । कतोहिंतो उक्जजति || किं नेरइएहिंतो उववर्जति ? पुच्छा, गोयमा ! नेरइएहिंतो उववजंति नो तिरि० मो मणु० देवेहितोवि ||
|| उखवजंति, जह नेरइएहितो एवं तिसु पुढवीस उववजंति सेसाओ खोडेयवाओ, जइ देवेहितो, वेमाणिदिएसु सबेसु उववज्जति जाव सबट्ठसिद्धत्ति, सेसा खोडेयका, भावदेवा णं भंते ! कओहितो उववर्जति ,
al एवं जहा वकंतीए भवणवासीणं उववाओ तहा भाणियचो ॥ (सूत्रं ४६२) भवियदधदेवाणं भंते ! केंव|| तियं कालं ठिती पण्णता ?, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुरा उक्कोसेर्ण तिनि पलिओवमाई, नरदेवाणं पुच्छा
अनुक्रम [५५४-५५९]
For P
OW
'देव' शब्दस्य अर्थ एवं तस्य भेद-प्रभेदा:
~76
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४६१-४६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
4
प्रत सूत्रांक
+
[४६१
4
-४६६]
+
गोयमा ! जहमेणं सत्त वाससयाई उक्कोसेणं चउरासीई पुवसयसहस्साई, धम्मदेवाणं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! जहमेणं अंतोमुटुत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुचकोडी, देवाधिदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं पायत्तरि वासाई उकोसेणं चउरासीई पुचसयसहस्साई, मावदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहनेणं दस वाससहस्साई उक्कोसेणं तेप्सीसं सागरोवमाई ॥ (सूत्रं ४६३)॥ भवियदवदेवा णं मंते ! किं एगतं पम् विधिसए पुहुर्स पभू विउषिसए , गोयमा । एगपि पभू विउवित्तए पुष्टुत्तंपि पभू विउवित्तए, एगत्तं विउच्चमाणे पर्गिवियरूवं वा जाव पंचिदियरूवं वा पुहुत्तं विउमाणे एगिदियरूवाणि का जाक पंचिंदियरूवाणि वा ताई संखे-10
आणि वा असंखेजाणि वा संबद्धाणि वा असंबद्धाणि वा सरिसाणि वा असरिसाणि वा विउति विउविसा तओ पच्छा अप्पणो जहिच्छियाई कजाई करेंति, एवं मरदेवावि, एवं धम्मदेवावि, देवाधिदेवाणं पुच्छण, गोयमा। एगसंपि पभू विउवित्तए पुत्सपि पभू विउवित्तए नो चेवणं संपसीए विउर्विसु वा विर्षिति वा वा विउविस्संति चा । भावदेवाणं पुच्छा जहा भवियदवदेवा ॥ (सूत्र ४६४) भवियदरदेवाणं भंते ! अर्णतरं जयहिता कहिं गच्छति ? कहिं उपवर्जति ? किनेरइएKउववजति जाव देवेसु उववजति , गोपमा 1|
नो नेरइएसु उववजति नो तिरिनो मणु देवेसु उक्वजति, जइ देवेसु ववज्जति सबवेवेसु उववज्जति ||जाव सबट्ठसिद्धत्ति । नरदेवा णं भंते ! अणंतरं उच्चहित्ता पुच्छा, गोयमा ! नेरइएसु उववजंति नो तिरि० नो. बामणुकणो देवेसु उवचचंति, जानेरइएसु उववनंति,सत्तमुवि पुढवीसु ज्ववजति । धम्मदेवाणं मंते । अर्णतर
दीप अनुक्रम [५५४-५५९]
5644*
M
aitaram.org
'देव' शब्दस्य अर्थ एवं तस्य भेद-प्रभेदा:
~77
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४६१-४६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४६१-४६६]
दीप अनुक्रम [५५४-५५९]
मायापुच्छा, गोयमा! नो नेरइएमु उबवजेजा नो तिरिनो मणु देवेसु उववनंति, जइ देवेसु उववज्जति किं १२ शतके प्रज्ञप्तिः ||भवणवासि पुछा, गोपमा ! नो भवणवासिदेवेसु उवववति नो वाणमंतर नो जोइसिय माणियदेवेस|४||९ उद्देश: अभयदेवी- उववज्जति, सवेसु बेमाणिएसु उवयजति जाच सबसिद्धअणुत्तरोववाइएसु जाव उववजंति, अत्धेगड्या दभव्यद्रव्यया वृत्तिः २ सिझंति जाव अंतं करेंति । देवाधिदेवा अणंतरं उबहित्ता कहिं गच्छति कहिं उबवजंति ?, गोयमा! वाद
तिवेकियो Iષ૮૪મા ॥५८४ासजसातजावत सिझंति जाव अंतं करेंति । भावदेवा णं भंते ! अणंतरं उघहित्ता पुच्छा जहा वक्रतीए असुरकुमाराणं |
इनान्तउचट्टणा तहा भाणियबा ॥ भवियदवदेवे णं भंते ! भवियवदेवेत्ति कालओ केवचिरं होइ', गोयमा ! जह-IX नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई, एवं जहेव ठिई सच्चेव संचिट्ठणावि जाव भावदेवस्स, नवरं सेवानि सू धम्मदेवस्सं जह० एक समयं उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी॥ भवियदवदेवस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतर भा४६-४६५
होइ?,गोयमा!जह दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तमभहियाई उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो। नरदेवाणं KIपुच्छा, गोपमा ! जहन्नेणं सातिरेगं सागरोवम उक्कोसेणं अर्णतं कालं अपहुं पोग्गलपरियह देसूर्ण । धम्म
देवस्स णं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमपुहुत्तं उक्कोसेणं अणतं कालं जाव अवह पोग्गलपरियई | देसूर्ण । देवाधिदेवाणं पुच्छा, गोयमा ! नथि अंतरं। भावदेवस्स णं पुच्छा, गोपमा ! जहनेणं अंतोमुहत्तं | || उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो॥ एएसिगं भंते! भवियदवदेवाण नरदेवाणं जावभावदेवाण य कयरे 12/२ जाव विसेसाहिया वा, गोयमा ! सबथोवा नरदेवा देवाधिदेवा संखेजगुणा धम्मदेवा संखेजगुणा
SAREarattunintennational
'देव' शब्दस्य अर्थ एवं तस्य भेद-प्रभेदा:
~78~
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४६१-४६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
+
प्रत सूत्रांक
[४६१
-४६६]
ट्र भवियदवदेवा असंखेजगुणा भावदेवा असंखेनगुणा ॥ (सूत्रं ४६५)॥ एएसिणं भंते ! भावदेवाणं भव
णवासीणं चाणमंतराणं जोइसिपाणं वेमाणियाणं सोहम्मगाणं जाव अनुयगाणं गेवेजगाणं अणुत्तरोववाइयाण य कयरे २ जाव विसेसाहिया वा?, गोषमा! सवत्थोवा अणुत्तरोषवाइया भावदेवा उवरिमगेवेजा भावदेवा संखेज्जगुणा मज्झिमगेवेजा संखेजगुणा हेहिमगवेजा संखेज्जगुणा अचुए कप्पे देवा संखेज्जगुणा जाव आणयकप्पे देवा संखेजगुणा एवं जहा जीवाभिगमे तिविहे देवपुरिसे अप्पाबहुयं जाव जोतिसिया भावदेवा असंखेजगुणा । सेचं भंते ! २॥(सूत्रं ४६६)॥ बारसमसयस्स नवमो ॥१२-९॥
'कइविहा ण'मित्यादि, दीव्यन्ति-क्रीडां कुर्वन्ति दीव्यन्ते वा-स्तूयन्ते वाऽऽराध्यतयेति देवाः 'भविषदवदेव'त्ति द्रव्यभूता देवा द्रव्यदेवाः, द्रव्यता चाप्राधान्याद्भूतभाबित्वाद्भाविभावत्वाद्वा, तत्राप्राधान्याद्देवगुणशून्या देवा | द्रव्यदेवा यथा साध्वाभासा द्रव्यसाधवः, भूतभावपक्षे तु भूतस्य देवत्वपर्यायस्य प्रतिपन्नकारणा भावदेवत्वाफ्युता| द्रव्यदेवाः, भाविभावपक्षे तु भाविनो देवत्वपर्यायस्य योग्या देवतयोत्पत्स्यमाना द्रव्यदेवाः, तत्र भाविभावपक्षपरिग्रहार्थमाह-भव्याश्च ते द्रव्यदेवाश्चेति भव्यद्रव्यदेवा, 'नरदेव'त्ति नराणां मध्ये देवा-आराध्याः क्रीडाकान्त्यादियुक्ता वा| निराश्च ते देवाश्चेति वा नरदेवाः, 'धम्मदेव'त्ति धर्मण-श्रुतादिना देवा धर्मप्रधाना वा देवा धर्मदेवाः, 'देवाइदेवत्ति ४. देवान् शेषानतिक्रान्ताः पारमार्थिकदेवत्वयोगाद्देवा देवातिदेवाः, 'देवाहिदेव'त्ति कचिदृश्यते तत्र च देवानामधिकाः
पारमार्थिकदेवत्वयोगाद् देवा देवाधिदेवाः, 'भावदेव'त्ति भावेन-देवगत्यादिकर्मोदयजातपर्यायेण देवा भावदेवाः । 'जे
SAMACH
दीप अनुक्रम [५५४-५५९]
*CRACT
AR
'देव' शब्दस्य अर्थ एवं तस्य भेद-प्रभेदा:
~79
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४६१-४६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४६१
-४६६]
व्याख्या- भविए' इत्यादि, इह जाती एकवचनमती बहुवचनाथें व्याख्येयं, ततश्च ये मन्या:-योग्याः पञ्चेन्द्रियतिर्यम्वोमिका वा १२ शतके प्रज्ञप्ति मनुष्या वा देवेपतुं ते यस्माद्भाविदेवभावा इति गम्यं अर्थ 'तेनार्थन' सेन कारणेन हे गौतम ! तान् प्रत्येवमुग्यते-18|९ उद्देशः अभयदेवी-18 भन्यद्रव्यदेवा इति । 'जे इमे' इत्यादि, 'चाउरंतचकवाहित्ति चतुरन्ताया भरतादिपृथिव्या एते स्वामिन इति चातु-भिन्यद्न्यया वृत्ति
18 देवाद्याः 3 रन्ताः चक्रेण वर्तनशीलत्वाचक्रवत्तिनस्ततः कर्मधारयः, चतुरन्तग्रहणेन च वासुदेवादीनां ब्युदासः, ते यस्मादिति । ॥५८५॥
वाक्यशेषः 'उप्पनसमसचक्करयणप्पहाण'त्ति आर्षत्वान्निर्देशस्योत्पन्नं समस्तरमप्रधानं चक्रं येषां ते तथा 'सागरवर-13/ मेहलाहिवाणोत्ति सागर एव वरा मेखला-काश्ची यस्याः सा सागरवरमेखला-पृथ्वी तस्या अधिपतयो वे ते तथा, | सागरमेखलान्तपृथिव्यधिपतय इति भावः, 'से तेणद्वेणं ति अथ 'तेनार्थेन तेन कारणेन गौतम ! तान् प्रत्येवमुच्यते
नरदेवा इति । 'जे इमे' इत्यादि, ये इमेऽनगारा भगवन्तस्ते यस्मादिति वाक्यशेषः ईर्यासमिता इत्यादि से तेणद्वेणं४ति अथ तेनार्थेन गौतम तान् प्रत्येवमुच्यते धर्मदेवा इति । 'जे इमे' इत्यादि, ये इमेऽहन्तो भगवन्तस्ते यस्मादुत्पन्नलज्ञानदर्शनधरा इत्यादि से तेणद्वेणं'ति अथ तेनार्थेन तान् प्रति गौतम एवमुच्यते-देवातिदेवा इति। जे इमे इत्यादि, ॥ ये इमें भवनपतयस्ते यस्माद्देवगतिनामगोत्रे कर्मणी वेदयन्ति अनेनार्थेन तान् प्रत्येवमुच्यते-भावदेवा इति । एवं देवान | प्ररूप्य तेषामेवोत्पादं प्ररूपयन्नाह-'भवियदरदेवा भंते । इत्यादि, भेदो'त्ति 'जइ नेरहएहिंतो उववजति किं ॥५८५।। रयणप्पमापुढविनेरहएहितो' इत्यादि भेदो वाच्यः, 'जहा वकंतीए'त्ति यथा प्रज्ञापनापटपदे, मवरमिस्यादि, 'असंखेनवासाउपसि असवातवर्षायुष्काः कर्मभूमिजाः पश्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्या असङ्ख्यातवर्षायुषामकर्मभूमिज़ावीमा
दीप अनुक्रम [५५४-५५९]
%
%
RELIGunintentiational
For P
OW
aurauasaram.org
'देव' शब्दस्य अर्थ एवं तस्य भेद-प्रभेदा:
~80
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४६१-४६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४६१
-४६६]
साक्षादेव गृहीतत्वात् एतेभ्यश्चोद्वत्ता भव्यद्रव्यदेवा न भवम्ति, भावदेवेष्वेव तेषामुत्पादात, सर्वार्थसिद्धिकास्तु भन्यद्रव्यसिद्धा एव भवन्तीत्यत एतेभ्योऽन्ये सर्वे भव्यद्रव्यदेवतयोत्पादनीया इति, धर्मदेवसूत्रे 'नवर मित्यादि, 'सम'त्ति है पष्टपृथिवी सत उद्भुत्तानां चारित्रं नास्ति, तथाऽधासप्तम्यास्तेजसो वायोरसोयवर्षायुष्ककर्मभूमिजेभ्योऽकर्मभूमिजेभ्योऽन्तरद्वीपजेभ्यश्चोत्तानां मानुषत्वाभावान चारित्रं, ततश्च न धर्मदेवत्वमिति । देवाधिदेवसूत्रे 'तिमु पुतवीसुर उवववति'ति तिसभ्यः पृथिवीभ्य उद्भुत्ता देवातिदेवा उत्पद्यन्ते 'सेसाओ खोडेयवाओति शेषाः पृथिव्यो निषेप-1 वितव्या इत्यर्थः ताभ्य उद्त्तानां देवातिदेवत्वस्थाभावादिति । 'भावदेवा णमित्यादि, इह च बहुतरस्थानेभ्य नबुत्ता
भवनवासितयोत्पद्यन्ते असजिनामपि तेषूत्पादाद् अत उक्त 'जहा वक्तीए भवणवासीणं उववाओ'इत्यादि । अथ 8 ४ तेषामेव स्थिति प्ररूपयन्नाह-'भवियदवदेवाण'मित्यादि, 'जहन्नेणं अंतोमुहुरतं ति अन्तर्मुहर्त्तायुषः पवेन्द्रियतिरश्चोते
देवेषूत्पादागव्यद्रव्यदेवस्य जघन्याऽन्तर्मुहूर्त्तस्थितिः, 'उकोसेणं तिनि पलिओवमाईति उत्तरकुर्वादिमनुजादीनां देवेष्वेवोत्पादात् ते च भव्यद्रच्यदेवाः तेषां चोत्कर्षतो यथोक्ता स्थितिरिति । सत्त वाससयाई ति यथा ब्रह्मवत्तस्य 'चउ-टू रासीपुषसयसहस्साई ति यथा भरतस्य । धर्मदेवानां 'जहन्नेणं अंतोमुहर्स'ति योऽन्तर्मुहर्रावशेषायुश्चारित्रं प्रतिपद्यते तदपेक्षमिदं, 'उकोसेणं देसूणा पुषकोडी'ति तु यो देशोनपूर्वकोव्यायुश्चारित्रं प्रतिपद्यते तदपेक्षमिति, ऊनता च पूर्वकोव्या अष्टाभिर्वर्षे अवर्षस्यैव प्रव्रज्याहत्वात् , यच्च षड्वर्षत्रिवर्षों या प्रत्रजितोऽतिमुक्तको पैरस्वामी वा तत्कादा-IRI चित्कमिति न सूत्रावतारीति । देवातिदेवानां 'जहन्नेणं वायत्तरि वासाईति श्रीमन्महावीरस्येव 'उकोसेणं चउरा
दीप अनुक्रम [५५४-५५९]
4
%
%
कन
'देव' शब्दस्य अर्थ एवं तस्य भेद-प्रभेदा:
~81~
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४६१-४६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४६१-४६६]
व्याख्या- सीद पुषसयसहस्साईति ऋषभस्वामिनो यथा । भावदेवानां 'जहन्नेणं दस वाससहस्साई ति यथा व्यन्तराणां १२ शतके प्रज्ञप्तिः'उकोसेणं तेत्तीसं सागरोषमाईति यथा सर्वार्थसिद्धदेवानां ।। अथ तेषामेव विकुर्वणां प्ररूपयन्नाह-'भवियपदबदे-|४|९ उद्देशः अभयदेवी-वाण'मित्यादि 'एगत्तं पभू विउवित्तए'त्ति भव्यद्रव्यदेवो मनुष्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्वा वैक्रियलब्धिसम्पन्नः 'एकत्वम् भन्यद्रव्यया वृत्तिः२/४
एकरूपं 'प्रभु' समर्थों विकुर्वयित 'पुहतंति नानारूपाणि, देवातिदेवास्तु सर्वथा औत्सुक्यवर्जितत्वान्न विकुर्वते का देवाद्याः ॥५४॥ शक्तिसद्भावेऽपीत्यत उच्यते-'नो चेव ण'मित्यादि, 'संपत्तीए'त्ति बैंक्रियरूपसम्पादनेन, विकुर्वणशक्तिस्तु विद्यते,
| तलब्धिमात्रस्य- विद्यमानत्वात् ॥ अथ तेषामेवोद्वर्तनां प्ररूपयन्नाह-'भवियद'त्यादि, इह च भविकण्यदेवानां Pभाविदेवभवस्वभावत्वान्नारकादिभवत्रयनिषेधः । नरदेवसूत्रे तु निरइएमु उववजंति'त्ति अत्यक्तकामभोगा नरदेवा ४ नैरबिकेपूत्पद्यन्ते शेषत्रये तु तनिषेधः, तत्र च यद्यपि केचिच्चक्रवर्तिनो देवेषूत्पद्यन्ते तथाऽपि ते नरदेवत्वत्यागेन | धर्मदेवत्वप्राप्ताविति न दोषः, 'जहा चकतीए असुरकुमाराणं उबट्टणा तहा भाणियव'त्ति असुरकुमारा बहुषु ।
जीवस्थानेषु गच्छन्तीतिकृत्वा तैरतिदेशः कृतः, असुरादयो हीशानान्ताः पृथिव्यादिष्वपि गच्छन्तीति ॥ अथ तेपामे-|| 8/वानुबन्ध प्ररूपयन्नाह-'भविपदवदेवे णमित्यादि, 'भवियदवदेवेइ'त्ति भव्यद्रव्यदेव इत्य, पर्यायमत्यजन्नित्यर्थः |
५८६॥ द'जहन्नेणमंतोमुटुत्त'मित्यादि पूर्ववदिति । एवं जहेव ठिई सचेव संचिट्ठणाविति 'एवम्' अनेन न्यायेन येव । |'स्थितिः' भवस्थितिः प्राग वर्णिता सैवैपां संस्थितिरपि तत्पर्यायानुबन्धोऽपीत्यर्थः, विशेष वाह-'नवर'मित्यादि, धर्म-||2|| देवस्य जपन्येनेक समयं स्थितिः अशुभभावं गत्वा ततो निवृत्तस्य शुभभावप्रतिपत्तिसमयानन्तरमेव मरणादिति ॥ अथै
ASIASAIRA
दीप अनुक्रम [५५४-५५९]
%- 34X45%
'देव' शब्दस्य अर्थ एवं तस्य भेद-प्रभेदा:
~82
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४६१-४६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४६१-४६६]
* 4
तेषामेवान्तरं प्ररूपयन्नाह-'भवियदवदेवस्स णं भंते !' इत्यादि, 'जहन्नेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्तमम्भहियाईति भव्यद्रव्यदेवस्यान्तरं जघन्येन दशवर्षसहस्राण्यन्तर्मुहूत्ताभ्यधिकानि, कथं ?, भव्यद्रव्यदेवो भूत्वा दशवपसहनस्थितिषु व्यन्तरादिषूत्पद्य च्युत्वा शुभपृथिव्यादौ गत्वाऽन्तर्मुहू स्थित्वा पुनर्भव्यद्रव्यदेव एवोपजायत इत्येवं,8 एतच टीकामुपजीव्य व्याख्यातं, इह कश्चिदाह-ननु देवत्वाच्युतस्यानन्तरमेव भव्यद्रव्यदेवतयोत्पत्तिसम्भवादशवर्षसहस्राण्येव जघन्यतस्तस्यान्तरं भवत्यतः कथमन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि तान्युक्तानि इति, अत्रोच्यते-सवेजघन्यायुर्देवश्चयुतः । सन् शुभपृथिव्यादिषूत्पद्य भव्यद्रव्यदेवेषूत्पद्यत इति टीकाकारमतमवसीयते, तथा च यथोक्तमन्तरं भवतीति, अन्ये ।। पुनराहुः-इह बद्धायुरेव भव्यद्रव्यदेवोऽभिप्रेतस्तेन जघन्यस्थितिकाद्देवत्वाक्युत्वाऽन्तर्मुहूर्त्तस्थितिकभव्यद्रव्यदेवत्वेनोत्पन्नस्यान्तर्मुहत्तोपरि देवायुषो बन्धनाद् यथोक्तमन्तरं भवतीति, अथवा भव्यद्रव्यदेवस्य जन्मनोमरणयोर्वाऽन्तरस्य ग्रहणाद् यथोक्तमन्तरमिति । 'नरदेवाण'मित्यादि, 'जहन्नेणं साइरेगं सागरोवमंति, कथम् !, अपरित्यक्तसङ्गाश्च
क्रवर्तिनो नरकपृथिवीपूत्पद्यन्ते, तासु च यथास्वमुत्कृष्टस्थितयो भवन्ति, ततश्च नरदेवो मृतः प्रथमपृथिव्यामुत्पन्नस्तत्र M|| चोत्कृष्टां स्थिति सागरोपमप्रमाणामनुभूय नरदेवो जातः, इत्येवं सागरोपम, सातिरेकत्वं च नरदेवभवे चक्ररत्नोत्पत्तेरा-16
चीनकालेन द्रष्टव्यं, उत्कृष्टतस्तु देशोनं पुद्गलपरावर्द्धि, कथं ?, चक्रवर्त्तित्वं हि सम्यग्दृष्टय एव निवर्तयन्ति, तेषां च || देशोनापार्द्धपुद्गलपरावर्त एव संसारो भवति, तदन्त्यभवे च कश्चिन्नरदेवत्वं लभत इत्येवमिति । 'धम्मदेवस्स ण'-INDI
दीप अनुक्रम [५५४-५५९]
545+%
REarami
'देव' शब्दस्य अर्थ एवं तस्य भेद-प्रभेदा:
~83~
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४६१-४६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [४६१
EXA4%
१२ शतके ९उद्देश: भव्यद्रव्य| देवाधाः
भावदेवा
-४६६]
ल्पबहुत्वं
व्याख्या-15 मित्यादि, 'जहम्मेण पलिओवमपुहसं'ति, कथं !, चारित्रवान् कश्चित् सौधर्म पल्योपमपृथक्त्वायुष्केवृत्पद्य तसम्युतो प्रज्ञप्तिः धर्मदेवत्वं लभत इत्येवमिति, यच्च मनुजत्वे उत्पन्नश्चारित्रं विनाऽऽस्ते तदधिकमपि सत् पल्योपमपृथक्त्वेऽन्तर्भावित- अभयदेवी-III मिति । 'भावदेवस्स ण'मित्यादि, 'जहन्नेणं अंतोमुहस'ति, कथं , भावदेवश्युतोऽन्तर्मुहर्तमन्यत्र स्थित्वा पुनरपि
प्रभावदेवो जात इत्येयं जघन्येनान्तर्मुहूर्तमन्तरमिति ॥ अर्थतेषामेवाल्पबहुत्वं प्ररूपयन्नाह-'पएसि ॥'मित्यादि, 'सब॥५८७ || त्योवा नरदेव'त्ति भरतैरवतेषु प्रत्येक द्वादशानामेव तेषामुत्पत्तेर्विजयेषु च वासुदेवसम्भवात् सर्वेष्वेकदाऽनुत्पत्तेरिति ।
देवाइदेवा संखेज्जगुण'त्ति भरतादिषु प्रत्येकं तेषां चक्रवर्तिभ्यो द्विगुणतयोत्पत्तेर्विजयेषु च वासुदेवोपेतेष्वप्युत्पत्तेरिति । II 'धम्मदेवा संखेजगुण'त्ति साधूनामेकदाऽपि कोटीसहस्रपृथक्त्वसद्भावादिति, 'भविषदवदेवा असंखेजगुण'त्ति देश
| विरतादीनां देवगतिगामिनामसङ्ख्यातत्वात्, 'भावदेवा असंखेजगुणत्ति स्वरूपेणैव तेषामतिबहुत्वादिति ॥ अथ *भावदेवविशेषाणां भवनपत्यादीनामल्पबहुवप्ररूपणायाह-एएसि ण'मित्यादि, 'जहा जीवाभिगमे तिबिहे इत्यादि,
इह च 'तिविहे'त्ति त्रिविधजीवाधिकार इत्यर्थः देवपुरुषाणामस्पबहुत्वमुक्तं तथेहापि षाच्य, तथैर्व-सहस्सारे कप्पे
देवा असंखेजागुणा महासुके असंखेजगुणा लतए असंखेज्जगुणा बंभलोए देवा असंखेजगुणा माहिदे देवा असंखेजगुणा &सणकुमारे कप्पे देवा असंखेज्जगुणा ईसाणे देवा असंखेजगुणा सोहम्मे देवा संखेजगुणा भवणवासिदेवा असंखेजगुणा
पाणमंतरा देवा असंखेजगुणत्ति ॥ द्वादशशते नवमः ॥ १२-९॥
दीप अनुक्रम [५५४-५५९]
।
५८७॥
Auditurary.com
अत्र द्वादशमे शतके नवम-उद्देशक: परिसमाप्त:
'देव' शब्दस्य अर्थ एवं तस्य भेद-प्रभेदा:
~84~
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१०], मूलं [४६७-४६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
*-%245
प्रत सूत्रांक [४६७-४६८]
नवमोदेचाके देवा उकास्ते चात्मन इत्यात्मस्वरूपस्य भेदतो निरूपणाय दशमोद्देशकमाह, तस्य चेदमादिसूत्रम्काविहा णं मंते | आया पण्णता ?, गोयमा ! अट्ठविहा आया पण्णत्ता, संजहा-दवियाया कसायायां योगाया उवभोगाया णाणाया दंसणाया चरित्ताया वीरियाया ॥ जस्स गं भंते ! दवियाया तस्स कसाया
या जस्स कसायाया तस्स दवियाया ?, गोयमा ! जस्स दवियाया तस्स कसायाया सिय अस्थि सिय नस्थि लजस्स पुण कसायाया तस्स दवियाया नियम अस्थि ।जस्स णं भंते ! दवियाया तस्स जोगाया एवं जहा। |दवियाया कसायाया भणिया तहा दवियाया जोगाया भाणियवा । जस्स गंभंते ! दवियाया तस्स उपओ-| गाया एवं सवत्थ पुच्छा भाणियचा, गोयमा ! जस्स दबियाया तत्स उवओगाया नियमं अस्थि, जस्सवि उवओगाया तस्सवि दवियाया नियमं अस्थि, जस्स दवियाया तस्स णाणाया भयणाए जस्स पुण णाणाया तस्स दबियाया नियमं अस्थि, जस्स दवियाया तस्स देसणाया नियम अस्थि जस्सवि दंसणाया तस्स दवियाया नियम अस्थि, जस्स दरियाया तस्स चरित्ताया भयणाए जस्स पुण चरित्ताया तस्स दवियाया। नियम अस्थि, एवं वीरियायाएवि समं । जस्स गंभंते ! कसायाया तस्स जोगाया पुच्छा, गोयमा !! जस्स कसायाया तस्स जोगाया नियम अस्थि, जस्स पुण जोगाया तस्स कसायाया सिय अस्थि | सिय नत्थि, एवं उवओगायाएवि समं कसायाया नेयचा, कसायाया य णाणाया ये परोप्परं दोवि | भइयवाओ, जहा कसायाया य उवओगाया य तहा कसायाया य दंसणाया य कसायाया य चरित्ताया
दीप अनुक्रम [५६०-५६१]
19575315
-
-
अथ द्वादशमे शतके दशम-उद्देशक: आरभ्यते
'आत्मा' शब्दस्य अर्थ एवं तस्य द्रव्यात्मा आदि अष्ट-भेदा:
~85
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१०], मूलं [४६७-४६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४६७
-४६८]
॥५८८॥
दीप अनुक्रम [५६०-५६१]
व्याख्या
४ य दोवि परोप्परं भइयवाओ, जहा कसायाया य जोगाया य तहा कसायाया य चीरियाया य भाणि-18|| १२ शतके प्रज्ञप्तिः दयबाओ, एवं जहा कसायायाए बत्तवया भणिया तहा जोगायाएवि उपरिमार्हि सम भाणियबाओ||१० उद्देशाः अभयदेवी- जहा दवियायाए वत्तवया भणिया तहा उबयोगायाएवि उचरिल्लाहिं समं भाणियवा । जस्स नाणाया||| द्रव्यात्माया वृत्तिः॥६॥ तस्स दंसणाया नियम अस्थि जस्स पुण दंसणाया तस्स णाणाया भयणाए, जस्स नाणाया तस्स चरित्ताहै या सिय अस्थि सिय नत्थि जस्स पुण चरित्ताया तस्स नाणाया नियम अत्थि, णाणाया बीरियाया दोवि
दाभेद: परोप्परं भयणाए । जस्स दसणाया तस्स उचरिमाओ दोवि भयणाए, जस्स पुण ताओ तस्स दसणाया|
सू४६८ नियम अस्थि । जस्स चरित्ताया तस्स बीरियाया नियम अस्थि जस्स पुण चीरियाया तस्स चरित्ताया सिय है अत्थि सिय नत्थि ॥ एयासिणं भंते दिवियायाणं कसायायाणं जाव वीरियायाण य कयरे २ जाव विसेसा गोयमा ! सबथोवाओ चरित्सायाओ नाणायाओ अर्णतगुणाओ कसायाओ अर्णत०जोगाया
ओ वि०वीरियायाओवि उवयोगदविपदसणायाओ तिन्निवि तुल्लाओ वि०॥ (सूत्रं ४६७) आया भंते। नाणे अन्नाणे ?, गोयमा ! आया सिय नाणे सिय अन्नाणे णाणे पुण नियम आया ॥ आया भंते!||| सानेरइयाणं नाणे अन्ने नेरइयाणं नाणे १ गोयमा ! आया नेरइयाणं सिय नाणे सिय अन्नाणे नाणे पुण से || | नियमं आया एवं जाव पणियकमाराणं, आया भंते ! पुढवि. अन्नाणे अने पुढविकाइयार्ण अन्नाणे | गोयमा! आया पुढविकाइयाणं नियम अन्नाणे अन्नाणेचि नियमं आया, एवं जाव वणस्सइका, इंदिय-र
'आत्मा' शब्दस्य अर्थ एवं तस्य द्रव्यात्मा आदि अष्ट-भेदा:
~86
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४६७-४६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४६७-४६८]
इंदिय जाव वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं । आया भंते ! दंसणे अने दंसणे ? गोयमा !, आपा नियम 51 दसणे दंसणेवि नियम आया । आया भंते ! नेर० दंसणे अन्ने नेरइयाणं दसणे , गोयमा ! आया नेरइ-15 याणं नियमा दंसणे दसणेवि से नियमं आया एवं जाव चेमा० निरंतर दंडओ ॥ (सूत्र ४६८)॥ | 'कइविहा ण'मिति, 'आय'त्ति अतति-सन्ततं गच्छति अपरापरान् स्वपरपर्यायानित्यात्मा, अथवा अतधातोर्ग६ मनार्थत्वेन ज्ञानार्थत्वादतति-सन्ततमवगच्छति उपयोगलक्षणत्वादित्यात्मा, प्राकृतत्वाच्च सूत्रे स्त्रीलिङ्गनिर्देशः, तस्य |
चोपयोगलक्षणत्वात्सामान्येनेकविधवेऽप्युपाधिभेदादष्टधात्वं, तत्र 'दवियाय'त्ति द्रव्य-त्रिकालानुगाम्युपसर्जनीकृतकपायादिपर्यायं तद्रूप आत्मा द्रव्यात्मा सर्वेषां जीवानां, 'कसायाय'त्ति क्रोधादिकषायविशिष्ट आत्मा कषायात्मा अक्षीणानुपशान्तकपायाणां; 'जोगाय'त्ति योगा-मनःप्रभृतिव्यापारास्तत्प्रधान आत्मा योगात्मा योगवतामेव, 'उवओगायत्ति उपयोगः-साकारानाकारभेदस्तत्प्रधान आत्मा उपयोगात्मा सिद्धसंसारिस्वरूपः सर्वजीवानां, अथवा विवक्षितवस्तूपयोगा-1 |पेक्षयोपयोगात्मा, 'नाणाय'त्ति ज्ञानविशेषित उपसर्जनीकृतदर्शनादिरात्मा ज्ञानात्मा सम्यग्दृष्टेः, एवं दर्शनात्मादयोऽपि नवर दर्शनात्मा सर्वजीवानां, चारित्रारमा विरतानां, वीर्य-उत्थानादि तदात्मा सर्वसंसारिणामिति, उक्त-"जीवानां
१ यद्यपि प्रशमरतौ 'जीवाजीवानां द्रव्यात्मा सकषायिणां कषायात्मेति पाठः व्याख्याद्वये च तथैव विवरण तथैवोल्लेखोऽन्यत्रापि, तथापि अभियुक्तैरेष पाठोऽभिमतोऽन्न, न चाश लेखकदूषण, यतः प्रागत्रैव प्रतिपादने सर्वजीवानां द्रव्यात्मेति व्याख्यातमन्यथा व्याख्या-10 | स्वन् द्रव्यात्मा जीवाजीबानामिति, न चोच्यते सूत्रकृद्भिः कषायादिभिः सह वृत्तिता नियमः । जीवप्रकरणमनुसरद्भिस्त्यक्ता वाऽजीवा अभियुक्तैः स्युः।
54555555
दीप अनुक्रम [५६०-५६१]
प्या०९९
'आत्मा' शब्दस्य अर्थ एवं तस्य द्रव्यात्मा आदि अष्ट-भेदा:
~87
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१०], मूलं [४६७-४६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४६७
-४६८]
दीप अनुक्रम [५६०-५६१]
ध्याख्या-18|| द्रव्यात्मा ज्ञेयः सकपायिणां कषायारमा । योगः सयोगिनां पुनरुपयोगः सर्वजीवानाम् ॥ १॥ ज्ञानं सम्यगह-18|| १२ यातके प्रप्तिः टेर्दर्शनमथ भवति सर्वजीवानाम् । चारित्रं विरतानां तु सर्वसंसारिणां वीर्यम् ॥२॥” इति ॥ एवमष्टधाऽऽत्मानं १० उदेशः अभयदेवी- प्ररूप्याथ यस्यात्मभेदस्य यदन्यदात्मभेदान्तरं युज्यते च न युज्यते च तस्य तदर्शयितुमाह-'जस्स णमित्यादि,
द्रव्यात्माया वृत्तिः इहाष्टौ पदानि स्थाप्यन्ते, तत्र प्रथमपदं शेषैः सप्तभिः सह चिन्त्यते, तत्र यस्य जीवस्य 'द्रव्यात्मा' द्रव्यात्मत्वं जीव- ४॥
द्याःसू ४६७
ज्ञानादिभे॥५८९| | त्वमित्यर्थः तस्य कषायात्मा 'स्यावस्ति' कदाचिदस्ति सकपायावस्थायां 'स्थानास्ति' कदाचिन्नास्ति क्षीणोपशान्तकषा
दाभेदः यावस्थायां, यस्य पुनः कषायात्माऽस्ति तस्य द्रव्यात्मा द्रव्यात्मत्वं-जीवत्वं नियमादस्ति, जीवत्वं बिना कपायाणामभा- सू ४६८ ४ वादिति । तथा यस्य द्रव्यात्मा तस्य योगात्माऽस्ति, योगवतामिव, नास्ति चायोगिसिद्धानामिब, तथा यस्य योगात्मा 8
तस्य द्रव्यात्मा नियमादस्ति, जीवत्वं विना योगानामभावात् , एतदेव पूर्वसूत्रोपमानेन दर्शयन्नाह-एवं जहा दवि
यायेत्यादि । तथा यस्य जीवस्य द्रव्यात्मा तस्य नियमादुपयोगात्मा, यस्याप्युपयोगात्मा तस्य नियमाद्रव्यात्मा, एतयोः ४ परस्परेणाविनाभूतत्वाद् यथा सिद्धस्य, तदन्यस्य च द्रव्यात्माऽस्त्युपयोगारमा चोपयोगलक्षणत्वाज्जीवानां, एतदेवाहटा'जस्स दवियायेत्यादि । तथा 'जस्स दवियाया तस्स नाणाया भयणाए जस्स पुण नाणाया तस्स दवियाया नियमं अस्थि'त्ति यस्य जीवस्य द्रव्यात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति यथा सम्यग्दृष्टीनां स्यान्नास्ति यथा मिथ्यादृष्टी
| ॥५८९॥ 3 नामित्येवं भजना, यस्य तु ज्ञानात्मा तस्य द्रव्यात्मा नियमादस्ति, यथा सिद्धस्येति । 'जस्स दपियाया तस्स दस-| लणाया नियम अस्थिति यथा सिद्धस्य केवलदर्शनं 'जस्सवि दंसणाया तस्स वियाया नियमं अस्थिति यथा|
'आत्मा' शब्दस्य अर्थ एवं तस्य द्रव्यात्मा आदि अष्ट-भेदा:
~88~
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४६७-४६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४६७-४६८]
चक्षदर्शनादिदर्शनवतां जीवत्वमिति, तथा 'जस्स दवियाया तस्स चरित्ताया भयणाए'त्ति यतः सिद्धस्याविरतस्य है। वा द्रव्यात्मत्वे सत्यपि चारित्रात्मा नास्ति विरतानां चास्तीति भजनेति, 'जस्स पुण चरित्ताया तस्स दवियाया नियम अस्थि'त्ति चारित्रिणां जीवत्वाव्यभिचारित्वादिति, 'एवं वीरियातेवि समति यथा द्रव्यात्मनश्चारित्रात्मना | सह भजनोका नियमश्चैवं वीर्यात्मनाऽपि सहेति, तथाहि-यस्य द्रव्यात्मा तस्य वीर्यात्मा नास्ति, यथा सकरणवीर्यापेक्षया सिद्धस्य तदन्यस्य स्वस्तीति भजना, वीर्यात्मनस्तु द्रव्यात्माऽस्त्येव यथा संसारिणामिति ७॥अथ कषायात्मना
सहान्यानि षट् पदानि चिन्त्यन्ते-'जस्स 'मित्यादि, यस्य कपायात्मा तस्य योगात्माऽस्त्येव, नहि सकषायोऽयोगी & भवति, यस्य तु योगात्मा तस्य कषायात्मा स्याद्वा न वा, सयोगानां सकषायाणामकषायाणां च भावादिति, 'एवं
उवओगाया, एवी'त्यादि, अयमर्थः यस्य कषायारमा तस्योपयोगात्माऽवश्यं भवति, उपयोगरहितस्य कषायाणामभावात् , ४ यस्य पुनरुपयोगात्मा तस्य कषायारमा भजनया, उपयोगात्मतायां सत्यामपि कषायिणामेव कषायास्मा भवति निष्कषायाणां तु नासाविति भजनेति, तथा 'कसायाया य नाणाया य परोप्परं दोवि भइयवाओ'त्ति, कथम् ?, यस्य कथायात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति स्यान्नास्ति, यतः कपायिणः सम्यग्दृष्टानात्माऽस्ति मिण्यारष्टेस्तु तस्य नास्त्यसाविति | भजना, तथा यस्य ज्ञानात्मास्ति तस्य कषायात्मा स्यादस्ति स्यान्नास्ति, ज्ञानिनांकषायभावात् तदभावाचेति भजनेति, जहा कसायाया उवओगाया य तहा कसायाया य दंसणाया य'त्ति अतिदेशः, तस्माचेदं लब्धं-'जरस कसायाया तस्स दसणाया नियम अस्थि' दर्शनरहितस्य घटादेः कषायात्मनोऽभावात् 'जस्स पुण दंसणाया तस्स कसायाया सिय
दीप अनुक्रम [५६०-५६१]
CSCARSHACKASEX
'आत्मा' शब्दस्य अर्थ एवं तस्य द्रव्यात्मा आदि अष्ट-भेदा:
~89~
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१०], मूलं [४६७-४६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४६७-४६८]
दीप अनुक्रम [५६०-५६१]
व्याख्या-18 आत्थ सिय
अस्थि सिय नस्थि' दर्शनवता कपायसद्भायात्तदभावाच्चेति, दृष्टान्तार्थस्तु प्राक् प्रसिद्ध एवेति, 'कसायाया य चरि- १२ शतके मज्ञप्तिः
साया य दोषि परोप्परं भइयचाओ'त्ति, भजना चैवं-न्यस्य कषायात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति स्यान्नास्ति, कथं ?, १० उद्देश: अभयदेवी- कायिणां चारित्रस्य सद्भावात् प्रमत्तयतीनामिव तदभावाच्चासंयतानामिवेति, तथा यस्य चारित्रात्मा तस्य कषायात्मा द्रव्यात्माया वृत्तिः स्यादस्ति स्यान्नास्ति, कथं ?, सामायिकादिचारित्रिणां कषायाणां भावाद् यथाख्यातचारित्रिणां च तदभावादिति,
द्यासू ४६७ Men 'जहा कसायाया य जोगाया य तहा कसायाया वीरियाया य भाणियबाओ'त्ति दृष्टान्तः प्राक् प्रसिद्ध, दाष्टान्तिकस्वेवं
ज्ञानादि:यस्य कषायात्मा तस्य वीर्यात्मा नियमादस्ति, न हि कषायवान् वीर्यविकलोऽस्ति, यस्य पुनर्वीर्यात्मा तस्य कषा
दाभेदः
सू४६८ यात्मा भजनया, यतो वीर्यवान् सकषायोऽपि स्याद् यथा संयतः अकषायोऽपि स्याद् यथा केवलीति ६ । अथ योगात्मा |ऽग्रेतनपदैः पञ्चभिः सह चिन्तनीयस्तत्र च लाघवार्थमतिदिशन्नाह-एवं जहा कसायायाए वत्तवया भणिया तहा जोगा
याएविउवरिमाहिं समं भाणिय'त्ति, सा चैवम्-यस्य योगात्मा तस्योपयोगात्मा नियमाद् यथा सयोगानां, यस्य पुनरु|पयोगारमा तस्य योगात्मा स्यादस्ति यथा सयोगानां स्यान्नास्ति यथाऽयोगिनां सिद्धानां चेति, तथा यस्य योगात्मा तस्य
ज्ञानात्मा स्यादस्ति सम्यग्दृष्टीनामिव स्यान्नास्ति मिथ्यादृष्टीनामिव, यस्य ज्ञानात्मा तस्यापि योगात्मा स्यादस्ति सयोगि-1 || नामिव स्यान्नास्त्ययोगिनामिवेति, तथा यस्य योगात्मा तस्य दर्शनात्माऽस्त्येव योगिनामिव यस्य च दर्शनात्मा तस्य योगात्मा दास्यादस्ति योगवतामिव स्यान्नास्त्ययोगिनाभिव, तथा यस्य योगात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति विरतानामिव स्याना-IC
॥५९०॥ स्त्यविरतानामिव, यस्यापि चारित्रात्मा तस्य योगात्मा स्यादस्ति सयोगचारित्रवतामिव स्यान्नास्त्ययोगिनामिवेति,
'आत्मा' शब्दस्य अर्थ एवं तस्य द्रव्यात्मा आदि अष्ट-भेदा:
~90~
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१०], मूलं [४६७-४६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४६७-४६८]
।
दीप अनुक्रम [५६०-५६१]
वाचनान्तरे पुनरिदमेवं दृश्यते-'जस्स चरित्ताया तस्स जोगाया नियम'त्ति तत्र च चारित्रस्य प्रत्युपेक्षणादिव्यापाररूपस्य विवक्षितत्वात्तस्य च योगाविनाभावित्वात् यस्य चारित्रात्मा तस्य योगात्मा नियमादित्युच्यत इति, तथा यस्य योगात्मा तस्य वीर्यात्माऽस्त्येव योगसद्भावे वीर्यस्यावश्यम्भावात् , यस्य तु वीर्यात्मा तस्य योगात्मा भजनया यतो वीर्यविशेषवान् सयोग्यपि स्याद् यथा सयोगकेवल्यादिः अयोग्यपि स्याद् यथाऽयोगिकेवलीति ५ ॥ अथोपयोगात्मना सहान्यानि चत्वारि चिन्त्यन्ते तत्रातिदेशमाह-'जह दवियाय'त्यादि, एवं च भावना कार्यान्यस्योपयोगात्मा | तस्य ज्ञानारमा स्यादस्ति यथा सम्यग्दृशां स्थानास्ति यधा मिथ्यादृशां, यस्य च ज्ञानारमा तस्यावश्यमुपयोगारमा सिद्धानामिवेति १, तथा यस्योपयोगात्मा तस्य दर्शनात्माऽस्त्येव यस्यापि दर्शनात्मा तस्योपयोगात्माऽस्त्वेव यथा सिद्धा| दीनामिवेति २, तथा यस्योपयोगात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति स्थान्नास्ति यथा संयतानामसंयतानां च, यस्य तु चारित्रात्मा तस्योपयोगारमाऽस्त्येवेति यथा संयतानां ३, तथा यस्योपयोगात्मा तस्य वीर्यात्मा स्यादस्ति संसारिणामिव स्यान्नास्ति सिद्धानामिव यस्य पुनवीर्यारमा तस्योपयोगात्माऽस्त्येव संसारिणामियेति ४ । अथ ज्ञानात्मना सहान्यानि त्रीणि चिन्त्यन्ते-'जस्स नाणे'त्यादि, तत्र यस्य ज्ञानात्मा तस्य दर्शनात्माऽस्त्येव सम्यग्दृशामिव, यस्य च दर्शनात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति यथा सम्यग्दृशां स्थान्नास्ति यथा मिथ्याशामत एवोक्तं 'भयणाए'त्ति १, तथा 'जस्स| नाणाया तस्स चरित्ताया सिय अत्धिति संयतानामिव 'सिय नत्यि'त्ति असंयतानामिव 'जस्स पुण चरित्ताया
RELIGunintentiational
'आत्मा' शब्दस्य अर्थ एवं तस्य द्रव्यात्मा आदि अष्ट-भेदा:
~91
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१०], मूलं [४६७-४६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४६७
-४६८]
दीप अनुक्रम [५६०-५६१]
व्याख्या
तस्स नाणाया नियम अत्थि'त्ति ज्ञानं विना चारित्रस्थाभावादिति २, तथा 'णाणाये'त्यादि अस्यार्थः यस्य ज्ञानात्मा १२ शतके मज्ञप्तिः तस्य वीर्यात्मा स्यादस्ति केवल्यादीनामिव स्यान्नास्ति सिद्धानामिव, यस्यापि वीर्यात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति सम्यग्दृष्टेरिव
१० उद्देशः अभयदेवीस्यान्नास्ति मिथ्यादृश इवेति शाअथ दर्शनात्मना सह द्वे चिन्त्येते–'जस्स दसणाये'त्यादि, भावना चास्य-यस्य दर्शनात्मा
द्रव्यात्माया वृत्तिः३
द्याःसू ४६७ तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति संयतानामिव स्यान्नास्त्यसंयतानामिव,यस्य च चारित्रात्मा तस्य दर्शनात्माऽस्त्येव साधूनामिवेति?, ज्ञानादिभे॥५९॥ तथा यस्य दर्शनात्मा तस्य वीर्यात्मा स्यादस्ति संसारिणामिव स्थानास्ति सिद्धानामिव, यस्य च वीर्यारमा तस्य दर्शना-15|| दाभेदः
स्माऽस्त्वेव संसारिणामिवेति २॥ अथान्तिमपदयोर्योजना-जस्स चरिसे'त्यादि, यस्य चारित्रात्मा तस्य वीर्यात्मा- सू४५८ स्त्येव, वीर्य विना चारित्रस्याभावात् , यस्य पुनर्यात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति साधूनामिव स्थानास्त्यसंयतानामि-1 वेति ॥ अधुनैपामेवात्मनामल्पबहुत्वमुच्यते-'सपत्थोवाओ चरित्तायाओ'त्ति चारित्रिणां सङ्ख्यातत्वात् 'णाणायाओ अणंतगुणाओ'त्ति सिद्धादीनां सम्यग्दृशां चारित्रेभ्योऽनन्तगुणत्वात् 'कसायाओ अणंतगुणाओत्ति सिद्धेभ्यः कपायोदयवतामनन्तगुणत्वात् 'जोगायाओ विसेसाहियाओं'त्ति अपगतकषायोदयैर्योगवभिरधिका इत्यर्थः 'पीरियायाओ विसेसाहियाओ'त्ति अयोगिभिरधिका इत्यर्थः, अयोगिनां वीर्यवत्वादिति, 'उवओगदवियदसणायाओ
॥५९शा सतिपिणवि तुल्लाओ विसेसाहियाओ'त्ति परस्परापेक्षया तुल्याः, सर्वेषां सामान्यजीवरूपत्वात् , वीर्यात्मभ्यः सकाशा-12 दुपयोगहव्यदर्शनात्मानो विशेषाधिका यतो वीर्यात्मानः सिद्धाश्च मीलिता उपयोगाचारमानो भवन्ति, ते च वीर्यात्मभ्यः
'आत्मा' शब्दस्य अर्थ एवं तस्य द्रव्यात्मा आदि अष्ट-भेदा:
~92
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४६७-४६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४६७-४६८]
SSSXXXXXXX
सिद्धराशिनाऽधिका भवन्तीति, भवन्ति चात्र गाथा:-"कोडीसहस्सपुहुर्त जईण तो थोवियाओं चरणाया । णाणाहै याऽणतगुणा पडुच सिद्धे य सिद्धाओ ॥शा होति कसायायाओऽणतगुणा जेण ते सरागाणं । जोगाया भणियाओ अयोगिवज्जाण तो अहिया ॥२॥जं सेलेसिगयाणवि लद्धी विरियं तओ समहियाओ । उवओगदवियदंसण सबजिया णं ततो अहिया ॥३॥" इति ॥ अथात्मन एव स्वरूपनिरूपणायाह-'आया भंते ! नाणे इत्यादि, आत्मा ज्ञानं योऽयमात्माऽसौ ज्ञानं न तयो दः अथात्मनोऽन्यज्ज्ञानमिति प्रश्नः, उत्तरं तु-आत्मा स्याज्ज्ञानं सम्यक्त्वे सति मत्यादिज्ञानस्वभावत्वात्तस्य, स्यादज्ञानं मिथ्यात्वे सति तस्य मत्य ज्ञानादिस्वभावत्वात् , ज्ञानं पुनर्नियमादात्मा आत्मधर्मत्वाज्ज्ञानस्य, न च सर्वथा धर्मो धर्मिणो भिद्यते, सर्वथा भेदे हि विप्रकृष्टगुणिनो गुणमात्रोपलब्धौ प्रतिनियतगुणिविषय एव संशयो | न स्यात् , तदन्येभ्योऽपि तस्य भेदाविशेषात् , दृश्यते च यदा कश्चिद्धरिततरुतरुणशाखाविसररन्ध्रोदरान्तरतः किमपि। शुक्लं पश्यति तदा किमियं पताका किमियं बलाका ? इत्येवं प्रतिनियतगुणिविषयोऽसौ, नापि धर्मिणो धर्मः सर्वथैवाभिन्नः, सर्वथैवाभेदे हि संशयानुत्पत्तिरेव, गुणग्रहणत एवं गुणिनोऽपि गृहीतत्वादतः कथञ्चिदभेदपक्षमाश्रित्य ज्ञान ले पुनर्नियमादात्मेत्युच्यत इति, इह चात्मा ज्ञानं व्यभिचरति ज्ञानं त्वात्मानं न व्यभिचरति खदिरवनस्पतिवदिति सूत्र
१ यतीनां कोटीसहसप्पथक्वं ततः स्तोकाश्चरणात्मानः ज्ञानात्मानोऽनन्तगुण!: सिद्धाः सिद्धान् प्रतीय ॥ १॥ कषायास्मानोऽनहन्तगुणा भवन्ति यतस्ते सरागाणां ततो योगात्मानोऽधिका अयोगिवा यतो भणिताः॥ २॥ यच्छैलेशीगतानामपि लब्धिवीर्य ततस्ते सनहै घिकाः । उपयोगद्रव्यदर्शनात्मानः सर्वे जीवास्ततोऽधिकाः ॥३॥
दीप अनुक्रम [५६०-५६१]
'आत्मा' शब्दस्य अर्थ एवं तस्य द्रव्यात्मा आदि अष्ट-भेदा:
~93~
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१०], मूलं [४६७-४६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४६७-४६८]
दीप अनुक्रम [५६०-५६१]
व्याख्या
गर्भार्थ इति ॥ अमुमेवा) दण्डके निरूपयन्नाह-आयेत्यादि, नारकाणां 'आत्मा' आत्मस्वरूपं ज्ञानं उतान्यनारकाणां १२ शतके प्रज्ञप्तिः । ज्ञानं ? तेभ्यो व्यतिरिक्तमित्यर्थः इति प्रश्नः, उत्तरं तु आत्मा नारकाणां स्याज्ज्ञानं सम्यग्दर्शनभावात् स्थादज्ञानं ४१० उद्देश: समयदेवी- | मिथ्यादर्शनभावात् , ज्ञानं पुनः 'से'त्ति तन्नारकसम्बन्धि आत्मा न तद्वयतिरिक्तमित्यर्थः ।। 'आया भंते ! पुढविकाइयाण-रिलमनाव: या वृत्तिः२मित्यादि, 'आत्मा' आत्मस्वरूपमज्ञानमुतान्यत्तत्तेषां ?, उत्तरं तु-आत्मा तेषामज्ञानरूपो नान्यत्तत्तेभ्य इति भावार्थः ।
वाद्यानिएवं दर्शनसूत्राण्यपि, नवरं सम्यग्दृष्टिमिथ्यारष्ट्योदर्शनस्थाविशिष्टत्वादात्मा दर्शनं दर्शनमध्यात्मैवेति वाच्य, यत्र हि धर्मे |
ता भङ्गा ॥५९२॥
सू४६९ विपर्ययो नास्ति तत्र नियम एवोपनीयते न व्यभिचारो, यधेव दर्शने, यत्र तु विपर्ययोऽस्ति तत्र व्यभिचारी नियमश्चयथा ज्ञाने, आत्मा ज्ञानरूपोऽज्ञानरूपश्चेति व्यभिचारः, ज्ञान स्वास्मैवेति नियम इति ॥
आया भंते ! रयणप्पभापु० अन्ना रयणप्पभा पुढवी!, गोयमा ! रयणप्पभा सिय आया सिय नो आया दासिय अवत्त आयाति य नो आयाह य, से केण?णं भंते ! एवं बुचइ रयणप्पभा पुतवी सिय आया सिय
नो आया सिय अवत्त आतातिय नो आतातिय ?, गोयमा ! अप्पणो आदिट्टे आया परस्स आदिढे नो| |आया तदुभयस्स आदितु अवत्तवं रयणपभा पुढवी आयातिय नो आयाति य से तेणतुणं तं चेव जाव नो आयातिय । आया भंते ! सकरप्पभा पुडची जहा रयणप्पभा पुढवी तहा सकरप्पभाएवि एवं जाव| अहे सत्समा । आया भंते ! सोहम्मकप्पे पुच्छा, गोयमा ! सोहम्मे कप्पे सिय आया सिय नो आया जाव
॥५९२॥ || नो आयाति य, से केणटेणं भंते ! जाव नो आयातिय?, गोयमा ! अपणो आइहे आया परस्स आइडे
'आत्मा' शब्दस्य अर्थ एवं तस्य द्रव्यात्मा आदि अष्ट-भेदा:
~94
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
--
प्रत सूत्रांक [४६९]
0
-0
*नो आया तदुभयस्स आइडे अवत्त आताति य नो आताति य, से तेणढणं तं चेव जाब नो आयाति याला
एवं जाच अशुए कप्पे । आया भंते । गेविजविमाणे अने गेविजविमाणे एवं जहा रयणप्पभा तहेच, एवं अणुत्तरविमाणावि, एवं इसिपम्भारावि । आया भंते ! परमाणुपोग्गले अन्ने परमाणुपोग्गले ? एवं जहा 8 सोहम्मे कप्पे तहा परमाणुपोग्गलेवि भाणियचे॥ आया भंते ! दुपएसिए खंधे अन्ने दुपएसिए खंधे ?, गोयमा दुपएसिए खंधे सिय आया१सिय नोआया रसिय अवत्त आयाइ यनो आयातिय ३ सिय आया य नो आया य ४ सिय आया य अवत्त आयाति य नो आयाति य ५ सिय नो आया य अवत्त आयाति य नो आयाति य ६, से केणद्वेणं भंते । एवं तं चेव जाव नो आयाति य अवसघं आयाति य नो आयाति य | | गोयमा ! अप्पणो आदिहे आया परस्स आदिहे नो आया २ तदुभयस्स आदिहे अवत्त दुपएसिए खंधे ॥ आयाति य नो आयाति य ३ देसे आदि सम्भावपजवे देसे आदिढे असम्भावपज्जवे दुप्पएसिए खंधे आया [य नो आया य४ देसे आदितु सम्भावपजवे देसे आदितु तदुभयपजवे दुपएसिए खंधे आया य अवत्तवं आयाइ य नो आयाइ य ५ देसे आदिढे असम्भावपजवे देसे आदिहे तदुभयपज्जवे दुपएसिए खंध ना| आया य अवत्त आयाति य नो आयाति य ६से तेणतुणं तं चेव जाव नो आयाति य ॥ आया भंते ।। |तिपएसिए खंधे अन्ने तिपएसिए खंधे, गोयमा ! तिपएसिए खंधे सिय आया १ सिय नो आया २ सियर अवत्त आयाति य नो आयाति यसिय आया यनो आया यसिय आया य नो आयाओ य ५ सिय
दीप अनुक्रम [५६२]
SEKASGANA
~95
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [४६९]
दीप अनुक्रम [५६२]
व्याख्या-
| आयाउ य नो आया य ६ सिय आया य अवतवं आयाति य नो आयाति य ७ सिय आयाइय अवत्तबाई
आयाउ य ना आया यसिय प्रज्ञप्तिः आयाओ य नो आयाओ य ८ सिय आयाओ य अवत्त आयाति य नो आयाति य ९सिय नो आया||१० उद्देशः अभयदेवी- य अवत्त आयाति य नो आयाति य १० सिय आया य अवत्तबाई आयाओ य नो आयाओ य ११४ रत्नप्रभाधया वृत्तिःल सिप नो आयाओ य अवत्त आयाइ यनो आयाइ य १२ सिय आया य नो आया य अवत्त आयाइ वाद्यानि
15ता भगाः य नो आयाइ य १३, से केणटेणं भंते ! एवं बुबइ तिपएसिए खंधे सिय आया एवं चेव उचारेयचं जाव ॥५९॥
सू ४६९ सिय आया य नो आया य अवत्त आयाति पनो आयाति य?, गोयमा ! अप्पणो आइहे आया १ परस्स आइढे नो आया २ तदुभयस्स आइहे अवत्त आयाति य नो आयाति य३ देसे आइहे सम्भाव|पज्जवे देसे आदिढे असम्भावपळचे तिपएसिए खंधे आयाय नो आया य४ देसे आदितु सम्भावपजवे देसा |आइहा असम्भावपजवे तिपएसिए खंघे आया य नो आयाओ य ५ देसा आदिवा सम्भावपञ्जवे देसे 31
आदिढे असम्भावपजवे तिपएसिए खंधे आयाओ य नोआया य ६ देसे आदिढे सम्भावपजचे देसे आदिढेल तदुभयपजवे तिपएसिए खंधे आया य अवत्त आयाइय नो आयाइ य ७ देसे आदिढे सम्भावपज्जवे देसा || आदिट्ठा तदुभयपजवा तिपएसिए खंधे आया य अवसबाई आयाउ य नो आयाउ य८ देसा आदिट्ठा
२९३॥ दिसम्भावपजवा देसे आदितु तदुभयपजवे तिपएसिए खंधे आयाउ य अवत्त आयाति य नो आपाति य ९
पए तिन्नि भंगा, देसे आदिहे असब्भावपज्जवे देसे आदिढे तदुभयपजवे तिपएसिए खंधे नो आया य
Hirwastaram.org
~96~
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४६९]
अवत्तवं आयाइ य नो आयाति य १० देसे आदिढे असन्भावपज्जवे देसा आदिवा तदुभयपजवा तिपए-| सिए खंधे नो आया य अवत्तबाई आयाउ य नो आयाउ य ११ देसा आदिट्ठा असम्भावपज्जवा देसे आदितु तदुभयपजवे तिपएसिए खंधे नो आयाउ य अवत्त आयाति य नो आयाति य १२ देसे आदिद्वे सम्भावपज्जवे देसे आदिढे असम्भावपज्जवे देसे आदिट्टे तदुभयपजवे तिपएसिए खंधे आया य नो आया य अवत्त आयाति य नोआया इय १३ से तेणट्टेणं गोयमा! एवं बुच्चद तिपएसिए खंधेसिय आया तं चेव जाब नो आयाति य ॥ आया भंते ! चउप्पएसिए खंधे अन्ने० पुच्छा, गोयमा चउपएसिए खंधे सिय आया १सिय
नोआया २ सिय अवत्त आयाति य नो आयाति य ३ सिय आया य नो आया य ४ सिय आया य अवदत्त ४ सिय नो आया य अवत्तई ४ सिय आया यनो आया य अवत्त आयाति य नो आयाति य १६ सिय
आया य नो आया य अवत्तवाइं आयाओ य नो आयाओ य १७ सिय आया य नो आयाओ य अवत्त आयाति य नो आयाति य १८ सिय आयाओ य नो आया य अवत्त आयाति य नो आयाति य १९ । से केणद्वेणं भंते ! एवं युचइ चउप्पएसिए खंधे सिय आया य नो आया य अवत्त तं चेव अढे पडिउच्चारेयवं? गोयमा ! अप्पणो आदिढे आया १ परस्स आदिट्टे नो आया २ तदुभयस्स आदिहे अवत्त आयाति य
नो आयाति य ३ देसे आदितु सम्भावपनवे देसे आदितु असम्भावपजवे चउभंगो, सम्भावपज्जवेणं दातदुभयेण य चउभंगो असम्भावेणं तदुभयेण य चउभंगो, देसे आदितु सम्भावपळवे देसे आदिढे ४
दीप अनुक्रम [५६२]
~97
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४६९]
व्याख्या-3 असम्भावपज्जवे देसे आदितदुभयपज्जवे चउप्पएसिए खंधे आया य नो आया य अवत्त आयाति य नो १२ शतके प्रज्ञप्तिः आयाति य, देसे आदिट्टे सम्भावपज्जवे देसे आदिढे असम्भावपजवे देसा आदिहा तदुभयपजवा चउप्पएसिए१० उद्देश: अभयदेवी- खंधे भवइ आया य नो आया य अवत्तचाई आयाओ य नो आयाओ य १७ देसे आदिहे सम्भावपजवे देसारलप्रभाधया पात आदिवा असम्भावपजवा देसे आदितु तदुभयपजवे चउप्पएसिए खंधे आया य नो आयाओ य अवत्तवं
पवाद्याश्रिआयाति य नोआयाति य १७ देसा आइहा सम्भावपजवा देसे आइटे असम्भावप० देसे आइहे तदुभयपनवे
ता भङ्गाः ॥५९४ाजाचात वनाजायातिय चउप्पएसिए खंधे आयाओ य नोआया य अवत्तवं आयाति य नो आयाति य १९ से तेणटेणं गोयमा! एवं
|सू ४६९ बुच्चइ चउप्पएसिए खंधे सिय आया सिय नो आया सिय अवत्त निक्खेवे ते चेव भंगा उचारेयवा जाव नो आयाति य ॥ आया भंते ! पंचपएसिए खंधे अन्ने पंचपएसिए खंधे, गोयमा ! पंचपएसिए खंधे सिय आया १ सिय नो आया २ सिय अवत्सवं आयाति य नो आयाति य ३ सिय आया य नो आया य सिय अवत्तवं ४ नो आया य अवत्तषेण य ४तियगसंजोगे एकोण पडद, से केणटेणं भंते !तं चेव पडिउचारेयचं ?, गोयमा ! अप्पणो आदिट्टे आया १ परस्स आदिहे नो आया २ तदुभयस्स आदिहे अवत्तवं ३ देसे आदिट्टे सम्भावपजवे देसे आविढे असम्भावपजवे एवं दयगसंजोगे सवे पडति तियगसंजोगे एको ण ||
Vi||५९४|| है पडइ । छप्पएसियरस सवे पडंति जहा छप्पएसिए एवं जाव अणंतपएसिए । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाव | विहरति ॥ (सूत्रं ४६९) ॥ दसमो उद्देसो समत्तो ॥ बारसमं सयं समत्तं ॥ १२-१०॥
दीप अनुक्रम [५६२]
~98~
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४६९]
KI आरमाधिकाराद्रमप्रभादिभावानात्मत्वादिभावेन चिन्तयन्नाह-'आया भंते 'इत्यादि, अतति-सततं गच्छति तांस्तान | द पर्यायानित्यात्मा ततश्चात्मा-सद्रूपा रत्नप्रभा पृथिवी 'अन्न'त्ति अनात्मा असद्रूपेत्यर्थः 'सिय आया सिय नोआय'त्ति स्यात्सती स्थादसती 'सिय अवत्त, ति आत्मत्वेनानात्मत्वेन च व्यपदेष्टुमशक्यं वस्त्विति भावः, कथमवक्तव्यम् । इत्याह-आत्मेति च नोआत्मेति च वक्तुमशक्यमित्यर्थः, अप्पणो आइडे'त्ति आत्मनः-स्वस्य रलप्रभाया एव वर्णादिपर्यायः |'आदिष्टे'आदेशे सति तैय॑पदिष्टा सतीत्यर्थः आत्मा भवति,स्वपर्यायापेक्षया सतीत्यर्थः, परस्स आइडे नोआय'त्ति परस्य ★ शर्करादिपृथिव्यन्तरस्य पर्यायरादिष्टे-आदेशे सति तैय॑पदिष्टा सतीत्यर्थः नोआत्मा-अनारमा भवति, पररूपापेक्षया
सतीत्यर्थः, 'तदुभयस्स आइडे अवत्तीति तयोः-स्वपरयोरुभयं तदेव बोभयं तदुभयं तस्य पर्यायैरादिष्टे-आदेशे सति तदुभयपर्याययंपदिष्टेत्यर्थः 'अवक्तव्यम्' अवाच्यं वस्तु स्यात् , तथाहि-न ह्यसौ आत्मेति वक्तुं शक्या, परपर्या| यापेक्षयाऽनात्मत्वात्तस्याः, नायनात्मेति वक्तुं शक्या, स्वपर्यायापेक्षया तस्या आत्मत्वादिति, अवक्तव्यत्वं चात्मानात्मशब्दापेक्षयैव न तु सर्वथा, अवक्तव्यशब्देनैव तस्या उच्यमानत्वाद्, अनभिलाप्यभावानामपि भावपदार्थवस्तुप्रभृतिशब्दैरनभिलाप्यशब्देन वाऽभिलाप्यत्वादिति । एवं परमाणुसूत्रमपि ॥ द्विप्रदेशिकसूत्रे पडू भङ्गाः, तत्राधास्त्रयः सकलस्कन्धा|पेक्षा पूर्वोक्ता एव तदन्ये तु त्रयो देशापेक्षाः, तत्र च 'गोयमे'त्यत आरभ्य व्याख्यायते-अप्पणोति स्वस्य पर्यायः 'आदि?'त्ति आदिष्टे-आदेशे सति आदिष्ट इत्यर्थः द्विप्रदेशिकस्कन्ध आत्मा भवति १एवं परस्य पर्यायैरादिष्टोऽनात्मा २ तदुभयस्य-द्विपदेशिकस्कन्धतदन्यस्कन्धलक्षणस्य पर्यायैरादिष्टोऽसाववक्तव्यं वस्तु स्थात्, कथम् , आत्मेति |
1525153455*
दीप अनुक्रम [५६२]
Pandurary.org
~99~
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
ना
प्रत
सूत्रांक [४६९]
+60-96
व्याख्या- चानात्मेति चेति २॥ तथा द्विपदेशत्वात्तस्य देश एक आदिष्टः, सद्भावप्रधानाः-सत्तानुगताः पर्यवा यस्मिन् स समाव- १२ शतके प्रज्ञप्तिः पवाभावी पर्यवः, अथवा तृतीयाबहुवचनमिदं स्वपर्यवैरित्यर्थः, द्वितीयस्तु देश आदिष्टः असद्भावपर्यवः परपर्यायैरित्यर्थः, परपर्य-18
१० उदेशः अभयदेवी
शारतप्रभाद्य. वाश्च तदीयद्वितीयदेशसम्बन्धिनो वस्त्वन्तरसम्बन्धिनो वेति, ततश्चासौ द्विप्रदेशिकः स्कन्धः क्रमेणात्मा चेति
क्रमणात्मा चौतर याद्यानिनोआत्मा चेति ४, तथा तस्य देश आदिष्टः सद्भावपर्यवो देशश्चोभयपर्यवस्ततोऽसावात्मा चावक्तव्यं चेति ५, तथा | ता भइनाः ॥५९५॥ | तस्यैव देश आदिष्टोऽसद्भावपर्यवो देशस्तूभयपर्यवस्ततोऽसौ नोआत्मा चाबक्तव्यं च स्यादिति ६, सप्तमः पुनरात्मा च | सू ४७०
नोआत्मा चावक्तव्यं चेत्येवंरूपो न भवति द्विप्रदेशिके व्यंशवादस्य त्रिप्रदेशिकादौ तु स्यादिति सप्तभङ्गी ॥ त्रिपदेशिकस्कन्धे तु त्रयोदश भङ्गास्तत्र पूर्वोक्तेषु सप्तस्वाद्याः सकलादेशात्रयस्तथैव, तदन्येषु तु त्रिषु त्रयस्त्रय एकवचनबहुवचनभेदात्, सप्तमस्त्वेकविध एव, स्थापना चेयम्यह प्रदेशद्वयेऽप्येकवचनं क्वचित्तत्तस्य प्रदेशद्वयस्यैकप्रदेशावगाढत्वादिहेतुनैकत्यविवक्षणात्, भेदविवक्षायां च बहुवचन मिति ॥ चतुष्पदेशिकेऽप्येवं नवरमेकोनविंशतिर्भङ्गाः, तत्र त्रयः सकलादेशाः तथैव शेषेषु चतुर्पु प्रत्येक चत्वारो
५९५॥ |विकल्पाः,ते चैवं चतुर्थादिषु त्रिषु-:FE सप्तमस्त्वेवम्-EFFERपश्चप्रदेशिके तु द्वाविंशतिस्तत्राद्यास्त्रयस्तथैव, तदुत्तरेषु च त्रिषु प्रत्येकं चत्वारो
+
-
दीप अनुक्रम [५६२]
+
--
आत
-
For P
OW
~100
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
विकल्पास्तथैव, सप्तमे तु सप्त, तत्र त्रिकसंयोगे किलाष्टौ भङ्गका भवन्ति, तेषु च सप्तैवेह ग्राह्या एकस्तु तेषु न पतत्य स-16 म्भवात् , इदमेवाह-'तिगसंजोगे त्यादि, तत्रैतेषां स्थापना-EEEEEEE यश्च न पतति स पुनरयम् २२२ पट्नदेशिके त्रयोविंशतिरिति ॥ द्वादशशते दशमः ॥ १२-१०॥ समाप्तं च द्वादशशतविवरणम् ॥१२॥ गम्भीररूपस्य महोदधेयरपोतः परं पारमुपैति मछु । गतावशक्तोऽपि निजप्रकृत्या, कस्याप्यदृष्टस्य विजृम्भितं तत् ॥१॥
प्रत सूत्रांक [४६९]
HORSCOS
दीप अनुक्रम [५६२]
व्याख्यातं द्वादर्श शतं, तत्रचानेकधा जीवादयः पदार्था उक्ताः, त्रयोदशशतेऽपि त एव भवन्तरेणोच्यन्त इत्येवं-|| | सम्बन्धमिदं व्याख्यायते, तत्र पुनरियमुद्देशकसङ्ग्रहगाधा
पुढवी १ देव २ मणंतर ३ पुढवी ४ आहारमेव ५ उववाए है। भासा ७ कम ८ अणगारे केयाघडिया समुग्धाए १०॥ रायगिहे जाव एवं वयासी-कति णं भंते ! पुढवीओ पन्नत्ताओ?, गोयमा! सत्त पुढवीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-रयणप्पभा जाव अहेसत्तमा । इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए केवतिया निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता ?, गोयमा ! तीसं निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता, ते णं भंते ! किं संखेनवित्थडा असंखेजवित्थडा ?, गोयमा! संखेजवित्थडावि असंखेजवित्थडावि, इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं केवतिया नेरइया उववनंति १? केवतिया
SAGAR
SanEauratond
n e
अत्र द्वादशमे शतके दशम-उद्देशक: परिसमाप्त:
तत् समाप्ते द्वादशमं उद्देशक: अपि परिसमाप्तं
अथ त्रयोदशमं शतकं आरभ्यते
अथ त्रयोदशमे शतके प्रथम-उद्देशक: आरब्ध:
रत्नप्रभा-आदि नरकेषु उत्पाद:
~101
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४७०-४७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४७०-४७२]
व्याख्या-ट काउलेस्सा उववनंति २१ केवइया कण्हपक्खिया उबवजंति ३? केवतिया सुक्कपक्खिया उववनंति ४ ? केव- १३ शतके प्रज्ञधिःतिया सन्नी उववजंति ५? केवतिया असन्नी उववज्जति ६ ? केवतिया भवसिद्धीया उव०७? केवतिया १ उद्देश: अभयदेवी- अभवसिद्धीया उवव०८? केवतिया आभिणिबोहियनाणी उव०९? केवइया सुयनाणी उव०१०१ केव-रलप्रभादिया वृत्तिः२
इया ओहिनाणी उववज्जति ११ ? केवइया मइअन्नाणी उवव०१२ ? केवइया सुयअन्नाणी उव० १३ ? केव-14 पूर ॥५९६॥ HD इया विम्भंगनाणी उवव०१४ ? केवइया चक्खुदंसणी उव०१५ ? केवइया अचक्खुदंसणी उवव०१६
केवड्या ओहिदसणी उवव०१७? केवइया आहारसन्नोवउत्ता उवव०१८ ? केवइया भयसन्नोवउत्ता उव०१९? केवइया मेहुणसन्नोवउत्ता उवव २०? केवइया परिग्गहसन्नोवउत्ता उवव०२१ ? केवड्या इत्थिवेयगा उवव० २२ ? केवइया पुरिसवेदगा उवव०२३ ? केवइया नपुंसगवेदगा उपव०२४ ? केवड्या कोहकसाई उवव०२५ ? जाव केवइया लोभकसायी उवव०२८ ? केवइया सोइंदियउवउत्ता उव. २९ १ जाव केवइया फासिदियोवउत्ता उब०३३ १ केवइया नोइंदियोवउत्ता उव० ३४ ? केवतिया मणजोगी उवव० ३५१ केवतिया बहजोगी उवव०३६१ केवतिया कायजोगी उवव.३७१ केवतिया सागारोवउत्ता उपच० ३८१| | केवतिया अणागारोवउत्ता उवव०३९२, गोषमा! इमीसेणं रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयस-| हस्सेसु संखेजवित्थडेसु नरएसु जहनेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उकोसेणं संखेना नेरइया उचव०, जह-||x नेणं एको घा दो वा तिन्नि वा उको संखेज्जा काउलेस्सा उव०, जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि चा उफोसेणं
ARMACISROCKS
दीप अनुक्रम [५६३-५६६]
DIL५९६॥
SAREarattin international
रत्नप्रभा-आदि नरकेषु उत्पादः
~1024
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४७०-४७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४७०-४७२]
दीप अनुक्रम [५६३-५६६]
संखेजा कण्हपक्खिया उव०, एवं सुकपक्खियावि, एवं सन्नी एवं असन्नीवि एवं भवसिद्धीया एवं अभवसिद्धिया आभिणियोहियना सुयना ओहिना० मइअन्नाणी सुयअन्नाणी विभंगना० चक्खुदंसणी ण ज्वव. जहन्नेणं एको वा दो बा तिन्नि वा उक्कोसे० संखे० अचक्खुदंसणी उवव० एवं ओहिदसणीवि आहा-- रसन्नोघउत्तावि जाव परिग्गहसन्नोवउ० इत्थीवेषगा न उव० पुरिसवेयगावि न उच० जहन्नेणं एको वा दो। वा तिन्नि वा उकोसेणं संखेना नपुंसगवेदगा उवव एवं कोहकसाईजाव लोभ सोइंदियउवउत्तान उवव० एवं जाव फासिदिओवउत्ता न उवव० जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेजा नोइंदिओवउत्ता उववनंति मणजोगीण उववजंति एवं वइजोगीवि जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं| संखेजा कायजोगी उपयजति एवं सागारोवउत्ताचि एवं अणागारोवउत्तावि ॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्प-1
भाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु नरएम एगसमएणं केवड्या नेरइया उववदति ? केवतिया काउलेस्सा उवबटुंति ? जाव केवतिया अणागारोवउत्ता उबटुंति ?, गोयमा! इमीसेणं रयण-3 हिप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं जहन्नेणं एको वादोवा
तिन्नि वा उक्कोसेर्ण संखेजा नेरइया उववति, एवं जाव सन्नी, असन्नी ण उबटुंति, जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेजा भवसिद्धीया उबद्दति एवं जाव सुयअन्नाणी विभंगनाणी ण उववति, चक्खुदसणी ण उबद्दति, जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेजा अचक्खुदंसणी उबईति, एवं जाव:
SARERatinand
रत्नप्रभा-आदि नरकेषु उत्पादः
~103
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४७०-४७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४७०-४७२]
॥५९७॥
दीप
व्याख्या-1
लोभकसायी, सोइंदियउबउत्ताण उच्चति एवं जाव फार्सिदियोवउत्ता न उबद्दति, जहनेणं एको वा दो वा १२ शतके प्राप्तिः तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेजा नोइंदियोवउत्ता उबट्टति मणजोगी न उबदति एवं बहजोगीवि जहन्नेणं एको||१ उद्देशः अभयदेवी- वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेजा कायजोगी उपद्दति एवं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता ।। इमीसे रत्नप्रभादि. या वृत्तिा भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजविस्थडेसु नरएसु केवइया नेरइया
सू४७० ॥ पन्नत्ता ? केवड्या काउलेस्सा जाव केवतिया अणागारोवउत्ता पन्नत्ता केवतिया अणंतरोववन्नगा पन्नत्ता ११ केवइया परंपरोवचन्नगा पन्नत्ता २१ केवइया अणंतरोगाढा पन्नत्ता ३१ केवइया परंपरोगाढा प०४ ? केवइया
अणंतराहारा पं०५१ केवतिया परंपराहारा ६ ? केवतिया अणंतरपजत्ता प०७१ केवतिया परंपरपज्जत्ता दापनत्ता ८१ केवतिया चरिमा प०९१ केवतिया अचरिमा पं०१०१, गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए
तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु नरएसु संखेना नेरतिया प० संखेजा काउलेसा प० एवं
जाय संखेजा सन्नी प०, असन्नी सिय अस्थि सिय नस्थि जइ अस्थि जहन्नेणं एको या दो वा तिन्नि वा उक्कोद सेणं संखेचा प०, संखेजा भवसिद्धी प० एवं जाव संखेवा परिग्गहसन्नोवउत्ता प० इस्थिवेदगा नस्थि पुरि
सवेदगा नत्थि संखेजा नपुंसगवेदगा प०, एवं कोहकसायीवि मानकसाई जहा असन्नी एवं जाव लोभक० ॥५९७॥ &ा संखेजा सोइंदियोवउत्ता प० एवं जाच फासिंदियोवउत्ता नो इंदियोवउत्ता जहा असन्नी संखेजा मणजोगी तप० एवं जाव अणागारोवउत्ता, अणंतरोववन्नगा सिय अस्थि सिय नस्थि जइ अस्थि जहा असन्नी, संखेजा
अनुक्रम [५६३-५६६]
रत्नप्रभा-आदि नरकेषु उत्पादः
~104
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४७०-४७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
SECCA
[४७०-४७२]
| परंपरोववन्न प०, एवं जहा अणंतरोववन्नगा तहा अणंतरोगाढगा अणंतराहारगा अणंतरपजसगा परंपरोगाढगा जाव अचरिमा जहा परंपरोववन्नगा । इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु असंखेजवित्थडेसु एगसमएणं केवतिया नेरइया उववनंति जाव केवतिया अणागारोवउत्ता उवबजंति', गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु असंखेज्जवित्थडेसु नरएम एगसमएणं जह एको वा दो वा तिन्नि वा उक्को० असंखेजा नेरड्या उवव०, एवं जहेव संखेजविस्थडेसु तिन्नि गमगा तहा असंखेजविस्थडेसुवि तिन्नि गमगा, नवरं असंखेजा भा० सेसं तं चेव जाव असंखेजा अचरिमा प०, नाणत्तं लेस्सासु, लेसाओ जहा पढमसए नवरं संखेजवित्थडेसुवि असंखेजवित्थडेमुवि ओहिनाणी ओहिदंसणी य संखेजा उचट्टावेयबा, सेसं तं चेव ।। सकरप्पभाए णं भंते ! पुढवीए केवतिया निरयावास० पुच्छा, गोयमा ! पणवीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता, ते णं भंते ! किं संखेजविस्थडा असंखेजविस्थटा एवं जहा रयणप्पभाए तहा सकरप्पभाएवि, नवरं असन्नी तिसुवि गमएमु न भन्नति, सेसं तं चेव । वालुयप्पभाए णं पुच्छा, गोयमा ! पन्नरस निरयावाससयसहस्सा प० सेसं जहा सकरप्पभाए णाणत्तं लेसासु लेसाओ जहा पढमसए ॥ पंकप्पभाए पुच्छा, गोयमा दस निरयावास०, एवं जहा सकरप्पभाए नवरं ओहिनाणी ओहिदसणी य न उबद्दति, सेसं तं चेव ।। धूमप्पभाए णं पुच्छा, गोयमा ! तिन्नि निरयावाससयसहस्सा एवं जहा पंकप्पभाए । तमाए णं भंते ! पुढवीए केवतिया निरयावास पुच्छा, गोयमा! एगे पंचूणे
D
दीप अनुक्रम [५६३-५६६]
ALSCRECR
SaintairatanANM
रत्नप्रभा-आदि नरकेषु उत्पाद:
~105
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४७०-४७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४७०-४७२]
व्याख्या- निरयावाससयसहस्से पपणत्ते, सेसं जहा पंकप्पभाए ॥ अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए कति अणुक्तरा मह
HE१२ शतके |तिमहालया महानिरया पन्नत्ता ?, गोयमा! पंच अणुत्तरा जाव अपइहाणे, ते णं भंते ! किं संखेजविस्थडा अभयदेवी
१ उद्देशः असंखेजवित्थडा, गोयमा! संखेजवित्थडे य असंखेचवित्थडा य, अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए पंचसु ॥ रत्नप्रभादिया वृत्तिः२
अणुत्तरेसु महतिमहालया जाव महानिरएमु संखेनवित्थडे नरए एगसमएणं केवतिया उच० १, एवं जहा त्पादः ॥५९८॥ पंकप्पभाए नवरं तिसुनाणेसुन उववान उच्चट्ट०, पनत्त एसु तहेव अस्थि, एवं असंखेजवित्थडेसुवि नवरं असं- सू ४७१
खेजा भाणियथा ॥ (सूत्र ४७०)। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढबीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसुई। |संखेजवि. नरएसु किं सम्मदिट्टी नेरतिया उवव० मिच्छदिट्टीने. उव० सम्मामिच्छदिट्टी नेर० उ० गोयमा! सम्मदिट्ठीवि नेरड्या उवमिच्छादिट्ठीवि नेरइया उब. नो सम्मामिच्छदिट्ठी उव० । इमीसे थे। भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु नरएसु किं सम्मदिट्टी नेर | उच्वइंति एवं चेव । इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजबित्थडा
नरगा किं सम्मदिट्टीहिं नेरइएहि अविरहिया मिच्छादिट्ठीहिं नेरइएहिं अविरहिया सम्मामिच्छदिट्ठीहिं IM नेरइएहिं अविरहिया चा?, गोयमा सम्मचिट्ठीहिंवि नेरइएहिं अविरहिया मिच्छादिट्ठीहिवि अविरहिया ५९८ |सम्मामिच्छादिहीहि अविरहिया विरहिया वा, एवं असंखेजवित्थडेसुवि तिनि गमगा भाणियबा, एवं सकरप्पभाएवि, एवं जाव तमाएवि । अहेसत्समाए णं भंते ! पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु जाव संखेजवित्थडे |
RESCOMSEX
दीप अनुक्रम [५६३-५६६]
C
-
4
रत्नप्रभा-आदि नरकेषु उत्पादः
~106~
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४७०-४७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४७०-४७२]
-50- 20-50
10-0-94-30
नरए किं सम्मदिट्टीनेरइया पुच्छा, गोयमा ! सम्मदिहीनेरइया न उवव० मिच्छादिहीनेरहया उवव० सम्मा-1 मिच्छदिही नेरइया न उवव० एवं उच्चतिवि अविरहिए जहेब रयणप्पभाए, एवं असंखेज्जविस्थडेमुवि तिन्नि गमगा (सूत्रं ४७१)सेनूर्ण भंते कण्हलेस्से नीललेस्से जाव सुक्कलेस्से भवित्ता कण्हलेस्सेसु नेरइएमु उवव०१, |हंता गोयमा ! कण्हलेस्से जाप उववजंति, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचई कण्ह लेस्से जाव उववजति ?, गोषमा! || लेस्सहाणेसु संकिलिस्समाणेसु संकि.२ कण्हलेसं परिणमइ कण्ह०२कहलेसेसु नेरइएमु उववजंति से है | तेणटेणं जाव उबवजंति । से नूर्ण भंते ! कण्हलेस्से जाव सुक्कले से भवित्ता नीललेस्सेसु नेरइएसु उववजं|ति ?, हंता गोयमा ! जाव उववजंति, से के गट्टेणं जाच उववजंति ?, गोषमा! लेस्सहाणेसु संकिलि-14 कस्समाणेसु चा विसुज्झमाणेसु नीललेस्सं परिणमंति नील०२ नीललेस्सेसु नेरइएसु उवव० से तेणतुणं है
गोयमा ! जाव उवव०, से नूर्ण भंते ! कण्हलेस्से नील जाव भविसा काउलेस्सेसु नेरइएसु खचव एवं का | जहा नीललेस्साए तहा काउलेस्सावि भाणियवा जाव से तेणतुणं जाव उवववति । सेवं भंते ! सेवं 31 भंते ! (सूत्रं ४७२)॥१३-१॥
'पुढवी'त्यादि, 'पुरुषी'ति नरकपृथिवीविषयः प्रथमः १, 'देव'त्ति देवप्ररूपणार्थो द्वितीयः २'अणंतर'त्ति अनन्त-13 राहारा नारका इत्याद्यर्थः प्रतिपादनपरस्तुतीयः ३, 'पुढवित्ति पृथिवीगतवफव्यताप्रतिवद्धश्चतुर्थः ४, 'आहारे'त्ति || |नारकाचाहारप्ररूपणार्थः पञ्चमः ५, 'उववाए'त्ति नारकाद्युपपातार्थः षष्ठः ६, 'भास'त्ति भाषार्थः सप्तमः ७ 'कम्म'त्ति
दीप अनुक्रम [५६३-५६६]
SARELaturintnhatiind
HTRJulturary.org
रत्नप्रभा-आदि नरकेषु उत्पाद:
~107~
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४७०-४७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४७०-४७२]
दीप अनुक्रम [५६३-५६६]
व्याख्या- कर्मप्रकृतिप्ररूपणार्थोऽष्टमः ८,'अणगारे केयाघडिय'त्ति अनगारो-भावितात्मा लब्धिसामर्थ्यात् 'केयाघडिय'त्ति
प्रज्ञप्तिः रजुबद्धघटिकाहस्तः सन् विहायसि बजेदित्याद्यर्थप्रतिपादनार्थो नवमः ९,'समुग्धाए'त्ति समुद्घातप्रतिपादनार्थों दशम उद्देश: अभयदेवी- इति । तत्र प्रथमोद्देशके किंश्चिल्लिख्यते-केवडया काउलेसा उववर्जति'त्ति रलप्रभापृथिव्यां कापोतलेश्या एवोत्प-15 रत्नप्रभादिया वृत्तिा | धन्ते न कृष्णलेश्यादय इति कापोतलेश्यानेवानित्य प्रश्नः कृत इति । 'केवइया कण्हपक्खिए'इत्यादि, एषां च पुत्पादः ॥५९९॥
| लक्षणमिदं-"जेसिमवड्डो पोग्गलपरियट्टो सेसओ उ संसारो । ते सुकपक्खिया खलु अहिगे पुण कण्हपक्खीया ॥१॥" लेश्याश्च [येषामपाधः पुद्गलपरावतः शेषः संसारः ते शुक्लपाक्षिकाः खलु अधिके पुनः कृष्णपाक्षिकाः ॥१५] इति । 'चक्खुदं
सणी न उववजंति'त्ति इन्द्रियत्यागेन तत्रोत्पत्तेरिति, तर्हि अचक्षुर्दर्शनिनः कथमुत्पद्यन्ते !, उच्यते, इन्द्रियानाश्रित ४ तस्य सामान्योपयोगमात्रस्याचक्षुर्दर्शनशब्दाभिधेयस्योत्पादसमवेऽपि भावादचक्षुर्दर्शनिन उत्पद्यन्त इत्युच्यत इति, |'इत्थीवेयगे'त्यादि, स्त्रीपुरुषवेदा नोत्पद्यन्ते भवप्रत्ययान्नपुंसकवेदत्वात्तेषां, 'सोइंदिओवउत्ता इत्यादि श्रोत्राथुपयुक्ता
नोत्पद्यन्ते इन्द्रियाणां तदानीमभावात् 'नोइंदिओवउत्ता उपवनंति'त्ति नोइन्द्रिय-मनस्तत्र च यद्यपि मनःपर्याप्य|भावे द्रव्यमनो नास्ति तथाऽपि भावमनसश्चैतन्यरूपस्य सदा भावात्तेनोपयुक्तानामुत्पत्तोंइन्द्रियोपयुक्ता उत्पद्यन्त | इत्युच्यत इति, 'मणजोगी'त्यादि मनोयोगिनो वाग्योगिनश्च नोत्पद्यन्ते, उत्पत्तिसमयेऽपर्याप्तकत्वेन मनोवाचोरभा-5 वादिति, 'कायजोगी उववजंति'त्ति सर्वसंसारिणां काययोगस्य सदैव भावादिति ॥ अथ रसप्रभानारकाणामेवोद्वर्त्तनामभिधातुमाह-'इमीसे ण'मित्यादि, 'असन्नी न उववति'त्ति उद्धर्तना हि परभवप्रथसमये स्यात् न च नारका अस
---
Auditurary.com
रत्नप्रभा-आदि नरकेषु उत्पाद:
~108~
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४७०-४७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४७०-४७२]
जिपूत्पद्यन्तेऽतस्तेऽसज्ञिनः सन्तो नोदन्ति इत्युच्यते, एवं 'विभंगनाणी न उववती'त्यपि भावनीयं, शेषाणि तु | पदान्युत्पादवल्याख्येयानि, उक्तश्च चूर्ध्याम्-"असन्निणो य विभगिणो य उबट्टणाइ बजेजा । दोसुवि य चक्खुदंसणी 8 मणवइ तह इंदियाई वा ॥१॥” इति ॥ अनन्तरं रत्नप्रभानारकाणामुत्पादे उदर्तनायां च परिमाणमुक्तमय तेषामेव है। सत्तायां तदाह-'इमीसे ण'मित्यादि, 'केवइया अर्णतरोववन्नग'त्ति कियन्तः प्रथमसमयोत्पन्नाः १ इत्यर्थः 'परंपरो-12 ववनगति उत्पत्तिसमयापेक्षया व्यादिसमयेषु वर्तमानाः 'अणंतरावगाढ'त्ति विवक्षितक्षेत्रे प्रथमसमयावगाढाः 'पर-18 परोगाढ'त्ति विवक्षितक्षेत्रे द्वितीयादिकः समयोऽवगाढे येषां ते परम्परावगाढाः 'केवइया चरिमत्ति चरमो नारकभ-1
बेषु स एव भवो येषां ते चरमाः, नारकभवस्य वा चरमसमये वर्तमानाश्चरमाः, अचरमास्त्वितरे, 'असन्नी सिय अस्थि हैसिय नस्थिति असज्ञिभ्य उद्वत्य ये नारकत्वेनोत्पन्नास्तेऽपर्याप्तकावस्थायामसज्ञिनो भूतभावत्वात्ते चारुपा इति ||४||
|कृत्वा 'सिय अत्थी'त्याद्युक्तं, मानमायालोभकषायोपयुक्तानां नोइन्द्रियोपयुक्तानामनन्तरोपपन्नानामनन्तरावगाढाना-IC | मनन्तराहारकाणामनन्तरपर्याप्तकानां च कादाचित्करवात् 'सिय अस्थि'इत्यादि वाच्यं, शेषाणां तु बहुत्वात्समाता इति वाच्यमिति ॥ अनन्तरं सङ्ख्यातविस्तृतनरकाबासनारकवक्तव्यतोक्ता, अथ तद्विपर्ययवतव्यतामभिधातुमाह'इमीसे ण'मित्यादि, 'तिन्नि गमग'त्ति 'उववजंति उचति पन्नत्त'त्ति एते त्रयो गमाः, 'ओहिनाणी ओहिदसणीय संखेजा उबट्टावेय'त्ति, कधं, ते हि तीर्थङ्करादय एव भवन्ति, तेच स्तोकाः स्तोकत्वाच सङ्ख्याता एवेति, 'नवरं असन्नी तिमुवि गमएसु न भन्नति' कस्मात् ?, उच्यते-असज्ञिनः प्रथमायामेवोत्पद्यन्ते 'असन्नी खलु पढम' इति वचना
SSCRIDASCINEMA
दीप अनुक्रम [५६३-५६६]
REnantaHina
~109.
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४७०-४७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४७०-४७२]
दीप अनुक्रम [५६३-५६६]
व्याख्या- दिति, 'णाणत्तं लेसासु लेसाओ जहा पढमसए'त्ति, इहाद्यपृथिवीद्वयापेक्षया तृतीयादिपृथिवीषु नानात्वं लेश्यासु१२ शतके प्रज्ञप्तिः भवति, ताश्च यथा प्रथमशते तथाऽध्येयाः, तत्र च सङ्घहगाथेयं-"काऊ दोसु तइयाइ मीसिया नीलिया चउत्थीए ।
१० उद्देशः अभयदेवी-पंचमियाए मीसा कहा तत्तो परमकण्हा ॥ १ ॥"द्वयोः कापोता तृतीयायां मिश्रा चतुर्यो नीला पञ्चम्या मिश्रात
रत्नप्रभादि. या वृचिः | कृष्णा ततः परमकृष्णा ॥१॥] इति 'नवरं ओहिनाणी ओहिदसणी यन उवववति'त्ति, कस्मात् ?, उच्यते, ते
पूत्पादः
में लेश्याश्च हि प्रायस्तीर्थकरा एंव, ते च चतुर्थ्या उद्त्ता नोत्पद्यन्त इति, 'जाव अपइट्ठाणे'त्ति इह यावत्करणात् 'काले महाकाले रोरुए महारोरुए'त्ति दृश्यम् , इह च मध्यम एव सङ्ख्येयविस्तृत इति, 'नवरं तिसु णाणेसु न उववजंति
न उबति'त्ति सम्यक्त्वभ्रष्टानामेव तत्रोत्पादात् तत उद्वर्त्तनाचायेषु त्रिषु ज्ञानेषु नोत्पद्यन्ते नापि चोद्वर्तन्त इति है 'पन्नत्ताएसु तहेव अस्थिति एतेषु पञ्चसु नरकावासेषु कियन्त आभिनिवोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनश्च प्रज्ञप्ताःइत्यत्र तृतीयगमे तथैव-प्रथमादिपृथिवीचिव सन्ति, तत्रोत्पन्नानां सम्यग्दर्शनलाभे आभिनिबोधिकादिज्ञान
यभावादिति ॥ अथ रक्षप्रभादिनारकवक्तव्यतामेव सम्यम्यादीनाश्रित्याह-'इमीसे ण'मित्यादि, 'नो सम्मा-12 मिच्छादिही उववजंति'त्ति "न सम्ममिच्छो कुणइ काल"[सम्यग्मिभ्याम् न करोति कालम् ] मिति वचनात् मिश्रह
टयो न वियन्ते नापि तद्भवप्रत्ययं तेषामवधिज्ञानं स्यात् येन मिनदृष्टयः सन्तस्ते उत्पद्येरन्, 'सम्मामिच्छदिहीहि नेरदइएहिं अविरहिया विरहिया वत्ति कादाचित्कत्वेन तेषां विरहसम्भवादिति ॥ अथ नारकवक्तव्यतामेव भजयन्तरेणाह-2
से नूण मित्यादि, 'लेसहाणेसुत्ति लेश्याभेदेषु 'संकिलिस्समाणेसुत्ति अविशुद्धिं गच्छत्सु 'कण्हलेसं परिणमइ'त्ति
C६८०॥
~110~
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४७०-४७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
कष्णलेश्यां याति ततश्च 'कण्हलेसे'त्यादि । 'संकिलिस्समाणेसु वा विसुद्धमाणेसु 'त्ति प्रशस्तलेश्यास्थानेषु भवि-||2 ४ शुद्धिं गच्छस्सु अप्रशस्तलेश्यास्थानेषु च विशुद्धिं गच्छत्सु, नीललेश्यां परिणमतीति भावः॥ त्रयोदशशते प्रथमः ॥१३-१॥
+
+0000
सूत्रांक
[४७०-४७२]
दीप अनुक्रम [५६३-५६६]
प्रथमोद्देशके नारका उक्काः द्वितीये त्वौपपातिकत्वसाधादेवा उच्यन्ते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदं सूत्रम्काविहाणं भंते ! देवा पण्णता ?, गोयमा!चउबिहा देवा पन्नत्ता,तंजहा-भवणवासी वाणमंतरा जो०४ वेमा। भवणवासी णं भंते ! देवा कतिचिहा पण्णता, गोयमा ! वसविहा पणत्ता, संजहा-असुरकुमारा एवं भेओ जहा वितियसए देवुद्देसए जाव अपराजिया सबढसिद्धगा । केवड्या णं भंते ! असुरकु-2 मारावाससयसहस्सा पण्णत्ता, गोयमा !चोसहि असुरकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता, ते ण भंते । किं संखेजवित्थडा असंखेजवि०१, गोयमा ! संखेजविस्थावि असंखेज्जवि०, चोसट्टी णं भंते ! असुरकु|मारावाससयसहस्सेसु संखेज्ववित्थडेसु असुरकुमारावासेसु एगसमएणं केवतिया असुरकुमारा उपव०12 जाव केवतिया तेउलेसा उवव० केवतिया कण्हपक्खिया उववजंति एवं जहा रयणप्पभाए तहेव पुच्छा
तहेव घागरणं नवरं दोहिं वेदेहि उववचंति, नपुंसगवेयगा न उबव०, सेसं २०, उच्चतगावि तहेव नवरं असन्नी का उच्चति, ओहिनाणी ओहिदसणी य ण उपद्दति, सेसं तं चेव, पन्नत्तएम तहेव नवरं संखेनगा इत्थिवेदगा
पपणत्ता एवं पुरिसवेदगावि, नपुंसगवेदगा नस्थि, कोहकसाई सिय अस्थि सिय नस्थि जइ अस्थि जहर
S A :
व्या..
Kalamurary.om
अत्र त्रयोदशमे शतके प्रथम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ त्रयोदशमे शतके द्वितीय-उद्देशक: आरब्ध:
~111
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [४७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४७३]]
दीप
व्याख्या- एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेजा पण्णत्ता एवं माण माया संखेजा लोभकसाई पण्यात्ता सेसंतं चेव १३ शतके
तिसुवि गमएसु संखेजेसु चत्तारि लेस्साओ भाणियवाओ, एवं असंखेजविस्थडेसुवि नवरं तिमुवि गम- २ उद्देशः अभयदेवी
देवेष्वावा| एसु असंखेचा भाणियचा जाव असंखेना अचरिमा पण्णत्ता । केवतिया णं भंते ! नागकुमारावास? एवंद या वृत्तिः२ दिजाव थणियकुमारा नवरं जत्थ जत्तिया भवणा ॥ केवतिया णं भंते ! वाणमंतरावाससयसहस्सा पन्नत्ता,
सोत्पादादि ॥६०१॥
गोयमा ! असंखेजा वाणमंतरावाससयसहस्सा पन्नत्ता, तेणं भंते ! किं संखेज्जवित्थडा असंखेजवित्थडा, || गोयमा ! संखेजवित्थडा नो असंखेजविस्थडा, संखेनेसु णं भंते ! चाणमंतरावाससयसहस्सेसु एगसमएणं है
केवतिया वाणमंतरा उवव० १, एवं जहा असुरकुमाराणं संखेजवित्थडेसु तिन्नि गमगा तहेव भाणियवा वाणमंतराणवि तिन्नि गमगा । केवतिया णं भंते! जोतिसियविमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता ?, गोयमा! असंखेजा जोइसियबिमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता, ते णं भंते ! किं संखेजवित्थडा, एवं जहा | वाणमंतराणं तहा जोइसियाणवि तिन्नि गमगा भाणियचा नवरं एगा तेउलेस्सा, उववजंतेसु पन्नत्तेसु य || असन्नी नस्थि, सेसं तं चेव ॥ सोहम्मे णं भंते ! कप्पे केवतिया विमाणावाससयसहस्सा पत्ता, गो-15 यमा ! बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता, ते णं भंते ! किं संखेजवित्थडा असंखेजवित्थडा ?, गो यमा! संखेजविस्थडावि असंखेजविस्थडावि, सोहम्मे णं भंते ! कप्पे बत्तीसाए बिमाणाबाससयसहस्सेसु " |संखेचवित्थडेसु विमाणेसु एगसमएणं केवतिया सोहम्मा देवा उववज्जति ? केवतिया तेउलेसा उबवजंति ?
अनुक्रम [५६७]
AME%%
6-0-60-%
~112~
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [४७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४७३]
दीप
एवं जहा जोइसियाणं तिनि गमगा तहेव तिनि गमगा भाणियचा नवरं तिसुवि संखेज्जा भाणियवाट
ओहिनाणी ओहिदसणी य चयावेयवा, सेसं तं चेव । असंखेजवित्थडेसु एवं चेव तिन्नि गमगा णवरं तिसु| वि गमएसु असंखेजा भाणियबा, ओहिनाणी य ओहिदसणी य संखेजा चयंति, सेसं तं चेव, एवं जहा सोहम्मे वत्तबया भणिया तहा ईसाणेवि छ गमगा भाणियचा, सणकुमारे एवं चेव नवरं इत्थीवेयगा न उववनंति पन्नत्तेसु य न भण्णंति, असन्नी तिमुवि गमएसु न भण्णंति, सेसं तं चेव, एवं जाव सहस्सारे, | नाणतं विमाणेसु लेस्सासु य, सेसं तं चेव ॥ आणयपाणयेसु णं भंते ! कप्पेसु केवतिया विमाणावाससया
पण्णत्ता?, गोयमा! चत्तारि विमाणावाससया पणत्ता, ते णं भंते ! किं संखेज. असंखे० गोयमा! संखेज| वित्थ० असंखेजवि० एवं संखेजविस्थडेसु तिन्नि गमगा जहा सहस्सारे असंखेजवित्थडे० उववज्जतेसु य चयंतेसु य एवं चेव संखेज्जा भाणियत्वा पन्नतेसु असंखेजा नवरं नोइंदियोवउत्ता अणंतरोववनगा अणंतरो| गाढगा अणंतराहारगा अणंतरपजत्सगाय एएसिं जहन्नेणं एको वा दोचा तिन्नि वा उकोसेणं संखेजा पं० सेसा असंखेजा भाणिया । आरणचुएम एवं चेव जहा आणयपाणएसु नाणत्तं विमाणेसु, एवं गेवेजगावि ।। कति णं भंते ! अणुत्तरविमाणा पन्नत्ता ?, गोयमा! पंच अणुसरविमाणा पन्नत्ता, ते ण भंते ! किं संखेनवित्थडा असंखेजवित्थडा, गोयमा ! संखेजवित्थडे य असंखेजवित्थडा य, पंचसु णं भंते ! अणुत्तरविमाणेसु संखेजविस्थडे विमाणे एगसमएणं केवतिया अणुत्तरोचवाइया देवा उवव०, केवतिया सुक्कलेस्सा
अनुक्रम [५६७]
REaratmanelona
~113
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [४७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४७३]
अभयदेवीया वृत्तिः२
दीप
व्याख्या- उवव०१ पुच्छा, तहेव गोयमा ! पंचसुणं अणुत्तरविमाणेसु संखेजवित्थडे अणुत्तरविमाणे एगसमएणं जहप्रज्ञप्तिः एको वा दो वा तिन्नि वा उकोसेणं संस्खेजा अणुत्तरोववाइया देवा उववजंति एवं जहा गेवेज़विमाणेसु ।
१३ शतके
२ उद्देशः संखेजवित्थडेसु नवरं किण्हपक्खिया अभवसिद्धिया तिसु अन्नाणेसु एए न उववज्जति न चयति न पन्नत्त-13
देवेष्वावाएसु भाणियवा अचरिमावि खोडिजंति जाव संखेजा चरिमा पं० सेसं तं, असंखेजवित्थडेसुवि एए नसोत्पादादि ॥६०२॥ भन्नति नवरं अचरिमा अस्थि, सेसं जहा गेवेजएसु असंखेजवित्थडेसु जाव असंखेजा अचरिमा प० । चोस- सू ४७३
ट्ठीए णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु असुरकुमारावासेसु किं सम्मट्टिी असुरकु-15 मारा उवव०मिच्छादिट्ठी एवं जहा रयणप्पभाए तिन्नि आलावगा भणिया तहा भाणियबा, एवं असंखेजवित्थडेसुवि तिन्नि गमगा, एवं जाव गेजवि. अणुत्तरवि० एवं चेव, नवरं तिसुवि आलावएसु मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्टी य न भन्नति, सेसं तं चेव । से नूर्ण भंते ! कण्हलेस्सा नीलजाब मुफलेस्से भवित्ता |
कण्हलेस्सेसु देवेसु उचव०१, हंता गोयमा! एवं जहेव नेरइएमु पढमे उद्देसए तहेव भाणियचं, नीललेसाएवि Viजहेव नेरइयाणं जहा नीललेस्साए, एवं जाव पम्हलेस्सेसु सुक्कलेस्सेसु एवं चेव, नवरं लेस्सट्टाणेसु विमुज्म
|माणेसु वि०२ सुक्कलेस्सं परिणमति सु०२ सुक्कलेस्सेसु देवेसु उववनंति, से तेणडेणं जाव उववजति । सेवं 8/ भिंते । सेवं भंते ! (सूत्रं ४७३) ॥१३-२॥
॥६०२॥ WI 'कइविहे'त्यादि, 'संखेजविस्थावि असंखेजवित्थडावित्ति इह गाथा-"जंबुद्दीवसमा खलु भवणा जे तिर
648-4-6-56055
अनुक्रम [५६७]
~114~
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [४७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४७३]
दीप
|साखडागा । संखेजविस्थडा मझिमा उ सेसा असंखेज्जा यानि सर्वचल्लानि भवनानि तानि जम्बूद्वीपसमानि भव-||४|| न्ति मध्यमानि सोयविस्तृतानि शेषाणि त्वसम्वेयविस्तृतानि ॥ १॥]" इति, 'दोहिवि वेदेहिं उववलंति'त्ति द्वयोरपि खीपुंवेदयोरुत्पद्यन्ते, तयोरेव तेषु भावात् , 'असण्णी उच्चदंति'त्ति असुरादीशानान्तदेवानामसजि
वपि पृथिव्यादिषूत्पादात् , 'ओहिनाणी ओहिदसणी यन' उच्चदृति'त्ति असुराशुद्धत्तानां तीर्थकरादित्वालाभात् ॥ है तीर्थकरादीनामेवावधिमतामुत्तेः, 'पण्णत्तएम तहेवत्ति 'प्रज्ञसकेषु' प्रज्ञप्तपदोपलक्षितगमाधीतेष्वसुरकुमारेषु तथैव
यथा प्रथमोद्देशके । 'कोहकसाई'इत्यादि, क्रोधमानमायाकषायोदयवन्तो देवेषु कादाचित्का अत उक्तं 'सिय अस्थी| त्यादि, लोभकषायोदयवन्तस्तु सार्वदिका अत उक्तं 'संखेज्जा लोभकसाई पन्नत्त'त्ति, 'तिसुवि गमएसु चत्तारि |लेसाओ भाणियबाओ'त्ति 'उववज्जति उघदृति पन्नत्ता'इत्येवलक्षणेषु त्रिष्यपि गमेषु चतम्रो लेश्यास्तेजोलेश्यान्ता |भणितव्याः, एता एव हि असुरकुमारादीनां भवन्तीति, 'जत्थ जत्तिया भवण'त्ति यत्र निकाये यावन्ति भवनलक्षाणि
तत्र तावन्त्युच्चारणीयानि, यथा-"चउसही असुराणं नागकुमाराण होइ चुलसीई । बावत्तरि कणगाणं वाउकुमाराण है छन्नई ॥१॥ दीवदिसाउदहीणं विजुकुमारिंदणियमग्गीणं । जुयलाणं पत्तेयं छावत्तरिमो सयसहस्सा ॥२॥ PI[ असुराणां चतुःषष्टिर्नागकुमाराणां चतुरशीतिर्भवन्ति द्वासप्ततिः कनकानां षण्णव सिर्वायुकुमाराणाम् ॥१॥द्वीप४ दिगउदधिविद्युत्कुमारेन्द्रस्तनितानीनां युगलानां प्रत्येकं षट्सप्ततिलेक्षाः॥२॥] इति॥ व्यन्तरसूत्रे 'संखेजवित्थडत्ति,
इह गाथा-"जंबुद्दीवसमा खलु उकोसेणं हवंति ते नगरा । खुड्डा खेत्तसमा खलु विदेहसमगा उ मझिमगा ॥१॥"
अनुक्रम [५६७]
SARERauntillama
~115
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [४७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [४७३]
दीप अनुक्रम [५६७]
व्याख्या-3[ उत्कृष्टेन जम्बूद्वीपसमानि तानि नगराणि भरतसमानि क्षुलानि विदेहसमानि मध्यमानि ॥१॥] इति ॥ ज्योतिष्कसूत्रे १३ शतके प्रज्ञप्ति
सङ्ख्यातविस्तृता विमानावासाः 'एगसट्ठिभाग काऊण जोयण'मित्यादिना ग्रन्धेन प्रमातव्याः 'नवरं एगा तेउलेस्स'त्ति || २ उद्देशः अभयदेवी-2
व्यन्तरेषु लेश्याचतुष्टयमुक्तमतेषु तु तेजोलेश्यैवैका वाच्या, तथा 'उववज्जतेस पन्नत्तेसु य असन्त्री नस्थिति व्यन्त- देवेवावाया वृत्तिः२ रेवसज्ञिन उत्पद्यन्त इत्युक्तमिह तु तन्निषेधः, प्रज्ञप्तेष्वपीह तन्निषेध उत्पादाभावादिति ॥ सौधर्मसूत्रे 'ओहिना- सात्पादाद
पासू४७३ णी' ततश्युता यतस्तीर्थकरादयो भवन्त्यतोऽवधिज्ञानादयश्यावयितव्याः 'ओहिनाणी ओहिदंसणी य संखेजा च-18 ॥६०३॥
यति'त्ति सहयातानामेव तीर्थकरादित्वेनोत्पादादिति । 'छ गमग'त्ति उत्पादादयस्खयः समपातविस्तृतानाश्रित्य अत एव । |च अयोऽसपातविस्तृतानाश्रित्य एवं षडू गमाः, 'नवरं इत्थिवेयगे'त्यादि, स्त्रियः सनत्कुमारादिषु नोत्पद्यन्ते न च सन्ति उद्वृत्ती तु स्युः 'असन्नी तिसुवि गमएसु न भन्नह'त्ति सनत्कुमारादिदेवानां सज्ञिभ्य एवोत्पादेन च्युतानां च 8 सजिष्वेष गमनेन गमत्रयेवसज्जित्वस्याभावादिति । 'एवं जाव सहस्सारे'त्ति सहस्रारान्तेषु तिरक्षामुत्पादेनासखातानां त्रिष्यपि गमेषु भावादिति । 'णाणसं विमाणेसु लेसासु यत्ति तत्र विमानेषु नानात्वं 'बत्तीसअट्ठचीसे'ल्या-10 दिना ग्रन्थेन समवसेयं, लेश्यासु पुनरिद-तेऊ १ तेऊ २ तहा तेउ पम्ह ३ पम्हा ४ य पम्हसुका य ५ । सुका य ६ परमसुक्का ७ सुकाइविमाणवासीणं ॥१॥[तेजः १ तेजः २ तथा तेजः ३ पद्मा च ४ पद्मशक्का च ५ शुक्ला च ६ परम-द ॥६०३॥ || शुक्ला ७ शुक्रादिविमानवासिना (लेश्या)॥१॥] इति, इह च सर्वेष्वपि शुक्रादिदेवस्थानेषु परमशक्केति ॥ आनता-|| दिसूत्रे 'संखेजवित्थडेसु'इत्यादि, उत्पादेवस्थाने च्यवने च समातविस्तृतत्वाद्विमानानां समाता एवं भवन्तीति
15%
~116
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [४७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४७३]
भावः, असहयातविस्तृतेषु पुनरुत्पादच्यवनयोः सङ्ग्याता एव, यतो गर्भजमनुष्येभ्य एवानतादिपूत्पद्यन्ते ते घ सङ्ख्याता एव, तथाऽऽनतादिभ्यश्चयुता गर्भजमनुष्येष्वेवोत्पद्यन्तेऽतः समयेन सङ्ख्यातानामेवोत्पादच्यवनसम्भवः, अवस्थितिस्त्व| सङ्ख्यातानामपि स्थादसङ्ख्यातजीवितत्वेनैकदैव जीवितकालेऽसङ्ग्यातानामुत्पादादिति । 'पन्नत्तेसु असंखेज्जा नवरं नोइंदिओवउत्ते'त्यादि प्रज्ञप्तकगमेऽसङ्ख्येया वाच्या केवलं नोईद्रियोपयुक्तादिषु पञ्चसु पदेषु सङ्ख्याता एव, तेषा-18 मुत्पादावसर एव भावाद, उत्पत्तिश्च सङ्ख्यातानामेवेति दर्शितं प्रागिति, 'पंच अणुत्तरोषवाइय'त्ति तत्र मध्यमं सङ्ख्यातविस्तृत योजनलक्षप्रमाणत्वादिति । 'नवरं कण्हपक्खिए'त्यादि, इह सम्यग्दृष्टीनामेवोत्पादात् कृष्णपाक्षिकादिपदानां गमत्रयेऽपि निषेधः, 'अचरिमावि खोडिजंति'त्ति येषां चरमोऽनुत्तरदेवभवः स एव ते चरमास्तदितरे त्वच
रमास्ते च निषेधनीयाः, यतश्चरमा एवं मध्यमे विमाने उत्पद्यन्त इति । 'असंखेज्जवित्थडेसुधि एएन भन्नति'ति ४ इहैते कृष्णपाक्षिकादयः 'नवरं अचरिमा अत्यि'त्ति यतो वाह्यविमानेषु पुनरुत्पद्यन्त इति । 'तिन्नि आलावग'त्ति
सम्यग्दृष्टिमिथ्याष्टिसम्बग्मिध्यादृष्टिविषया इति । 'नवरं तिमुवि आलावगेसु'इत्यादि, उप्पत्तीए चवणे पन्नत्तालावए य मिथ्याष्टिः सम्यग्मिथ्यादृष्टिश्च न वाच्यः, अनुत्तरसुरेषु तस्यासम्भवादिति ॥ त्रयोदशशते द्वितीयः ॥१३-२॥
दीप अनुक्रम [५६७]
SALOGSECASSA
अनन्तरोद्देशके देववक्तव्यतोक्का, देवाश्च प्रायः परिचारणावन्त इति परिचारणानिरूपणार्थ तृतीयोद्देशकमाह, तस्य वेदमादि सूत्रम्
Saintairatani
अत्र त्रयोदशमे शतके द्वितीय-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ त्रयोदशमे शतके तृतीय-उद्देशक: आरब्ध:
~117~
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [४७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
व्याख्या-
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२||
नेरड्या णं भंते ! अणंतराहारा ततो निचत्तणया एवं परियारणापदं निरवसेसं भाणियई । सेवं भंते ! सेवं भंते (सूत्र ४७४) ॥१३-३॥ | 'नेरइया णमित्यादि, 'अणंतराहार'त्ति उपपातक्षेत्रप्राप्तिसमय एवाहारयन्तीत्यर्थः, 'तओ निवराणय'त्ति ततः | शरीरनिवृत्तिः, 'एवं परियारणे'त्यादि, परिचारणापदं-प्रज्ञापनायां चतुर्विंशत्तम, तचैवं-तओ परियाइयणया तओ में परिणामणया तओ परियारणया तो पच्छा विउवणया ?, हंता गोयमा इत्यादि, 'तओ परियाइयणय'त्ति ततः पर्यापानम्-अङ्गप्रत्यङ्गैः समन्तादापानमित्यर्थः 'तओ परिणामणय'त्ति तत आपीतस्य-उपात्तस्य परिणतिरिन्द्रियादिविभागेन 'तओ परियारणय'त्ति ततः शब्दादिविषयोपभोग इत्यर्थः 'तो पच्छा विउवणय'त्ति ततो विक्रिया नानारूपा इत्यर्थ इति ॥ त्रयोदशशते तृतीयः ॥ १३-३ ॥
१२ शतके ३ उद्देशः नारकाणामनन्तराहारितादि सू४७४
सूत्रांक [४७४]
॥६०४॥
दीप अनुक्रम [५६८]
अनन्तरोद्देशके परिचारणोक्का, सा च नारकादीनां भवतीति नारकाद्यर्थप्रतिपादनार्थ चतुर्थोद्देशकमाह, तस्य || चेदमादिसूत्रम् । कति णं भंते । पुढषीओ पन्नताओ, गोयमा सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-यणप्पभा जाव आहे-1|| ॥६०४॥ सत्तमा, अहेसत्तपाए भंते ! पुढवीए पंच अणुसरा महलिमहालया जाव अपइहाणे, ते ण णरगा छडीए| लमाए पुढचीप नरएहितो महततरा चेव १ महाविच्छिन्नतरा चेव २महावासतरा चेव ३ महापारिकतरा ||
अत्र त्रयोदशमे शतके तृतीय-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ त्रयोदशमे शतके चतुर्थ-उद्देशक: आरब्ध:
~118~
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४७५]
चेव ४, णो तहा महापवेसणतरा चेव १ नो आइन्नतरा चेव २ नो आउलतरा चेव ३ अणोयणलरा पेच ४, तेसुर्ण नरएसु नेरतिया छट्ठीए तमाए पुढवीए नेरहएहिंतो महाकम्मतरा चेव १ महाकिरियतरा चेव २ महासवतरा चेव ३ महावयणतरा चेव ४ नो तहा अप्पकम्मतरा चेव १ नो अप्पकिरियतरा चेव २ नो अप्पासवतरा चेव ३ नो अप्पवेदणतरा चेव ४ अपहियतरा चेव १ अप्पजुत्तियतरा चेव २ नो तहा महष्टियतरा चेव १ नो महजुइयतरा चेव २। छट्ठीए णं तमाए पुढवीए एगे पंचूणे निरयावाससयसहस्से पण्णते,
ते गं नरगा अहेसत्तमाए पुढवीए नेरइएहिंतो नो तहा महत्तरा चेव महाविच्छिन्न.४ महप्पवेसणतरा चेव | दिआइन्न०४ तेसु णं नरएसु णं नेरतिया अहेसत्तमाए पुढवीए नेरइएहिंतो अप्पकम्मतरा चेव अप्पकिरि०४
नो तहा महाकम्मतरा चेव महाकिरिय ४ महड्डियतरा चेव महाजुइयतरा चेव नो तहा अप्पड्डियतरा चेव अप्पजुइयतरा चेव । छडीए णं तमाए पुढबीए नरगा पंचमाए धूमप्पभाए पु० नरएहितो महत्तरा चेच ४ नो तहा महप्पवेसणतरा चेव ४, तेसुण नरएम नेरतिया पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीएहितो महाकम्मतरा चेव ४ नो तहा अप्पकम्मतरा चेव ४ अप्पढियतरा चेव २ नो तहा महहियतरा चेव २, पंचमाए णं धूमप्पभाए | पुढवीए तिन्नि निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता एवं जहा छट्ठीए भणिया एवं सत्तवि पुढवीओ परोपरं भषणंति|४| ||जाव रयणप्पभंति जाव नो तहा महहियतरा चेव अप्पजुत्तियतरा चेव (सूत्रं ४७५)॥
'कह ण'मित्यादि, इह च द्वारगाथे कचिदू रश्येते, तद्यथा-"नेरइय १ फास २ पणिही ३ निरयंते ४ चेष लोय-12
ASSADCACAM
दीप अनुक्रम [५६९]
SCHOOS
ACA
REaratima
For P
OW
~119~
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४७५]
व्याख्या- मज्झे य ५। दिसिविदिसाण य पवहा ६ पवत्तण अस्थिकाएहिं ७ ॥१॥ अत्थी पएसफुसणा ८ भोगाहणया य जीव- १३ शतके प्रज्ञप्तिः मोगाढा । अस्थि पएसनिसीयण बहुस्समे लोगसंठाणे ॥३॥" इति, अनयोश्चार्थ उद्देशकार्थाधिगमावगम्य एवेति, ४ उद्देशः
|'महंततरा चेव'त्ति आयामतः 'विच्छिन्नतरा वत्ति विष्कम्भतः 'महावासतरा चेव'त्ति अवकाशो-बहूनां विव- पृथ्वीनां या वृत्तिः२
|क्षितद्रव्याणामवस्थानयोग्य क्षेत्र महानवकाशो येषु ते महावकाशाः अतिशयेन महावकाशा महावकाशतराः, ते च महत्त्वादि ॥६०५॥
| महाजनसङ्कीर्णा अपि भवन्तीत्यत उच्यते 'महापारिकतरा चेव'त्ति महत्प्रतिरिक्त-विजनमतिशयेन येषु ते तथा सू' |'नो तहा महापवेसणतरा चेव'त्ति 'नो' नैव 'तथा' तेन प्रकारेण यथा षष्ठपृथिवीनरका अतिशयेन महत्प्रवेशनं-गत्यन्तरान्नरकगती जीवानां प्रवेशो येषु ते तथा, षष्ठपृथिव्यपेक्षयाऽसहयगुणहीनत्वात्तन्नारकाणामिति, नोशब्द उत्तरपदरयेऽपि सम्बन्धनीयः, यत एव नो महाप्रवेशनतरा अत एव 'नो आइन्नतरा चेव'त्ति नात्यन्तमाकीर्णाः सङ्कीर्णा नारकैः 'नो आउलतरा चेव'त्ति इतिकर्तव्यतया ये आकुला नारकलोकास्तेषामतिशयेन योगादाकुल तरास्ततो नोशब्दयोगः, किमुक्तं भवति ?-'अणोमाणतरा चेव'त्ति अतिशयेनासङ्कीर्णा इत्यर्थः कचित्पुनरिदमेवं दृश्यते-'अणोयणतरा चेव||त्ति तत्र चानोदनतराः व्याकुलजनाभावादतिशयेन परस्परं नोदनवर्जिता इत्यर्थः 'महाकम्मतर'त्ति आयुष्कवेदनीया-||PI
|दिकर्मणां महत्त्वात् 'महाकिरियतर'त्ति कायिक्यादिक्रियाणां महत्त्वात् तत्काले कायमहत्वात्पूर्वकाले च महारम्भा-11 *दित्वाद् अत एव महाश्रवतरा इति 'महावेषणतर'त्ति महाकर्मत्वात् , 'नो तहे त्यादिना निषेधतस्तदेवोक्तं, विधिप्रतिधितो वाक्पप्रवृत्तेः, नोशब्दश्चेह प्रत्येकं सम्पन्धनीयः पदचतुष्टय इति, तथा 'अप्पड्डियतर'त्ति अवध्यादिऋद्धेरल्प-ii
दीप
अनुक्रम [५६९]
XXAN
~120
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४७५]
| त्वात् 'अप्पजुइयतर'त्ति दीप्रभावात् , एतदेव व्यतिरेकेणोच्यते-'नो तहामहहिए'इत्यादि, नोशब्दः पदद्वयेऽपि सम्बन्धनीयः॥
रयणप्पभापुढविनेर इया णं भंते ! केरिसयं पुढविफासं पञ्चणुभवमाणा विहरंति ?, गोयमा ! अणिटुं जाव अमणाम एवं जाव अहेसत्तमपुढविनेरइया एवं आउफासं एवं जाव वणस्सइफास (सूत्रं ४७६)॥ इमार णं भंते ! रयणप्पभापुढची दोघं सफरप्पर्भ पुढवि पणिहाय सबमहंतिया बाहल्लेणं सपखुडिया सर्वतेसु एवं
जहा जीवाभिगमे बितिए नेरइयउद्देसए ॥ (सूत्रं ४७७)। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णिरयप-10 E रिसामंतेसु जे पुढविक्काइया एवं जहा नेरइयउद्देसए जाव अहेसत्तमाए (सूत्रं ४७८)। कहिणं भंते ! है लोगस्स आयाममझे पण्णते?, गोयमा! हमीसे णं रयणप्पभाए उवासंतरस्स असंखेजतिभागं ओगाहेत्ता
एत्थ णं लोगस्स आयाममजले पण्णत्ते । कहि णं भंते ! अहेलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते ?, गोयमा ! चउधीए पंकप्पभाए पुढवीए उवासंतरस्स सातिरेगं अद्धं ओगाहित्ता एत्थ णं अहेलोगस्स आयाममझे पण्णते, कहिणं भंते ! उडलोगस्स आयाममज्झे पण्णते ?, गोयमा ! उपि सणकुमारमाहिंदाणं कप्पाणं हेहि भलोए कप्पे रिदृषिमाणे पत्थडे एत्थ णं उहृलोगस्स आयाममज्झे पपणत्ते । कहिन्नं भंते । तिरियलो
गस्स आयाममजले पण्णत्ते, गोपमा ! जंबूहीवे २ मंदरस्स पवयस्स बहुमज्झदेसभाए इमीसे रयणप्पभाए &| पुढवीए उचरिमहेहिलेसु खुड्डागपयरेसु एत्थ णं तिरियलोगस्समझे अट्ठपएसिए रुपए पण्णत्ते, जओ ण इमाओK
दीप अनुक्रम [५७०]
25645-15064-5-%-54--
AN-SCRECOCOCCAREAK
~121
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[४७६
-४८०]
दीप
अनुक्रम [५७०
-५७४]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र -५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [४], मूलं [४७६-४८०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥६०६॥
४७६-४७८
दस दिसाओ पवहंति, तंजहा- पुरच्छिमा पुरच्छिमदाहिणा एवं जहा दसमसए नामधेनंति (सूत्रं ४७९ ) ॥ इंदा णं भंते! दिसा किमादीया किंपवहा कतिपदेसादीया कतिपदेसुत्तरा कतिपदेसीया किंपजवसिया किंसंठिया पक्षता ?, गोयमा ! इंदा णं दिसा रुपगादीया रुपगप्पबहा दुपएसादीया दुपएसुन्तरा लोगं पडुच असंखेज्जपएसिया अलोगं पहुंच अणतपएसिया लोगं पहुच साईया सपज्जवसिया अलोगं पहुच साईया अपज्ञवसिया लोगं पडुच सुरजसंठिया अलोगं पहुच सगडुद्धिसंठिया पन्नता । अग्गेधी णं भंते ! दिसा किमादीया किंवा कतिपएसादीया कतिपएसविच्छिन्ना कतिपएसीया किंपजबसिया किंसं * लोकादिमठिया पन्नता ? गोयमा ! अग्गेयी णं दिसा रुपगादीया रुपगप्पवहा एगपएसादीया एगपएसविच्छिन्ना अणुसरा लोगं पडुच असंखेज्जपएसीया अलोगं पहुंच अणतपएसीया लोग पहुच साइया सपजव० अलोगं | पडुच साइया अपज्जबसिया छिन्नमुत्ताच लिसंठिया पण्णत्ता जमा जहा इंदा, नेरइया जहा अग्गेयी, एवं जहा इंदा तहा दिसाओ चत्तारि जहा अग्गेई तहा चत्तारिवि विदिसाओ। विमला णं भंते! दिसा किमादीपा० ?, पुच्छा जहा अग्गेयीए, गोयमा ! विमला णं दिसा रुपगादीया रुपगप्प वहा चउप्परसादीया | दुपएसविच्छिन्ना अणुत्तरा लोगं पडुच सेसं जहा अग्गेयीए नवरं रुपगसंठिया पण्णत्ता एवं तमाचि ( ४८० ) ॥ स्पर्शद्वारे 'एवं जाव वणस्सहफासं ति इह यावत्करणात्तेजस्कायिकस्पर्शसूत्रं वायुकायिकस्पर्शसूत्रं च सूचितं, तत्र च कश्चिदाह - ननु सप्तस्त्रपि पृथिवीषु तेजस्कायिकवर्जपृथिवी कायिकादिस्पर्शो नारकाणां युक्तः येषां तासु विद्यमानत्वात्
Education Intention
For Parts Only
~122~
१३ शतके
४ उद्देशः नरके वेदना महत्तापृथ्वी कायादि सू
ध्यं सू ४७९
दिशः सू ४८०
॥ ६०६॥
nayor
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४७६-४८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
--
%
4
प्रत सूत्रांक [४७६
-४८०]
४ी बादरतेजसा तु समयक्षेत्र एवं सद्भावात् सूक्ष्मतेजसा पुनस्तत्र सद्भावेऽपि स्पर्शनेन्द्रियाविषयत्वादिति, अनोच्यते.
वह तेजस्कायिकस्येव परमाधार्मिकविनिर्मितज्वलनसदृशवस्तुनः स्पर्शः तेजस्कायिकस्पर्श इति व्याख्येयं न तु साक्षात्तेजस्कायिकस्यैव असंभवात् अथवा भवान्तरानुभूततेजस्कायिकपर्यायपृथिवीकायिकादिजीवस्पर्शापेक्षयेदं व्याख्येयमिति ॥ प्रणिधिद्वारे 'पणिहाय'त्ति प्रणिधाय-प्रतीत्य 'सबमहंतियत्ति सर्वथा महती अशीतिसहस्राधिकयोजनलक्षप्रमाणत्वाद्रनप्रभावाहल्यस्य शर्करामभावाहल्यस्य च द्वात्रिंशत्सहस्राधिकयोजनलक्षमानत्वात् 'सपखुडिया सर्वतेसु'त्ति सर्वथा। लची 'सर्वान्तेषु' पूर्वापरदक्षिणोत्तरविभागेषु, आयामविष्कम्भाभ्यां रज्जप्रमाणत्याद्रलप्रभायास्ततो महत्तरत्वात् शर्कराप्रभाया, 'एवं जहा जीवाभिगमे इत्यादि, अनेन च यत्सूचितं तदिदं-'हंता गोयमा ! इमा णं रयणप्पभा पुढवी दो पुढवि पणिहाय जाव सबखुड्डिया सर्वतेसु । दोच्चा णं भंते ! पुढवी तचं पुढषि पणिहाय सबखुडिया जाय सब- तेसु, एवं एएणं अभिलावेणं जाव छठिया पुढवी अहे सत्तमं पुढविं पणिहाय जाव सबखुडिया सर्वतेसु'त्ति ॥ निरयान्त-| द्वारे 'निरपपरिसामंतेमु'त्ति निरयावासानां पार्श्वत इत्यर्थः 'जहा नेरइयउद्देसए'त्ति जीवाभिगमसम्बन्धिनि, तत्र चैवमिदं सूत्रम्-'आउकाइया तेउक्काइया वाउकाइया वणस्सइकाइया, ते णं जीवा महाकम्मतरा चेव जाव महावेयणतरा चे?, हंता गोयमा !' इत्यादि । लोकमध्यद्वारे 'चउत्थीए पंकप्पभाए' इत्यादि, रुचकस्याधो नवयोजनशतान्यतिक्रम्याघोलोको भवति लोकान्तं यावत् , स च सातिरेकाः सप्त रजवस्तन्मध्यभागः चतुर्थ्याः पञ्चम्याश्च पृथिव्या यदवकाशान्तरं तस्य सातिरेकमर्द्धमतिवाह्य भवतीति, तथा रुचकस्योपरि नवयोजनशतान्यतिक्रम्योर्द्ध लोको व्यपदि
दीप अनुक्रम [५७०
-५७४]
ध्या०१
~123
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४७६-४८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
४ उद्देश
प्रत सूत्रांक [४७६-४८०]
व्याख्या-दिइयते लोकान्तमेव यावत्, स च सप्त रजवः किश्चिञ्चूनास्तस्य च मध्यभागप्रतिपादनायाह-उप्पि सर्णकुमारमाहि-||
१३ शतके प्रज्ञप्तिः दाणं कप्पाण'मित्यादि । तथा 'उवरिमहिडिल्लेसु खुडागपयरेसुत्ति लोकस्य वजमध्यत्वाद्रलप्रभाया रलकाण्डे सर्वेक्षु
लघुमहत्ता या वृत्ति जनपदवालकं प्रतरद्वयमस्ति, तयोश्चोपरिमो यत आरभ्य लोकस्योपरिमुखा वृद्धिः 'हेडिल्लेत्ति अधस्तनो यत आरभ्य लोकस्याधो
लोकमध्यं मुखा वृद्धिः तयोरुपरिमाधस्तनयोः 'खुड्डागपयरेसुत्ति क्षुल्लकातरयोः सर्वलघुप्रदेशप्रतरयोः 'एत्थ णं'ति प्रज्ञापकेनो
सू४८० १९०७ पायतः प्रदर्घामाने तिर्यग्लोकमध्येऽष्टप्रदेशको रुचकः प्रज्ञप्तः, यश्च तिर्यग्लोकमध्ये प्रज्ञप्तः स सामथ्योत्तियेंगलोका-| याममध्यं भवत्येवेति, किम्भूतोऽसावष्टप्रदेशिको रुचकः ? इत्याह-'जओ णं इमाओ'इत्यादि, तस्य चेयं स्थापना
- ॥दिगविदिप्रबहद्वारे 'किमाइय'त्ति क आदिः-प्रथमो यस्याः सा किमादिका
आदिश्च विवक्षया विपर्ययेणापि स्यादित्यत आह-किंपवह'त्ति प्रबहति-प्रवर्तते अस्मादिति प्रबहः कः प्रवहो यस्याः सा तथा 'कतिपएसाइय'त्ति कति प्रदेशा आदि-| यस्याः सा कतिप्रदेशादिका 'कतिपएसुत्तर'त्ति कतिप्रदेशा उत्तरे-पृद्धी यस्याः सा| तथा 'लोगं पडच मुरजसंठिय'त्ति लोकान्तस्य परिमण्डलाकारत्वेन मुरजसंस्थानता दिशः स्यात्ततश्च लोकान्तं प्रतीत्य मुरजसंस्थितेत्युक्तं, एतस्य च पूर्वी दिशमाश्रित्य ||
C ॥६०७॥ चूर्णिकारकृतेयं भावना-'पुवुत्तराए पएसहाणीए तहा दाहिणपुवाए रुयगदेसे मुरज-॥४॥ हेढ दिसि अंते चउप्पएसा दद्वधा मन्झे य तुई हवइत्ति, एतस्य चेयं स्थापना
दीप अनुक्रम [५७०-५७४]
UTLETITTE
REAया
~124
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४७६-४८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४७६
Z777
-४८०]
11'अलोग पहुच सगडद्विसंठिय'त्ति रुचके तु तुण्डं कल्पनीयं आदी संकीर्णत्वात् तत उत्तरो
त्तरं विस्तीर्णत्वादिति, 'एगपएसविच्छिन्न'त्ति, कथम् ! अत आह-'अणुत्तर'त्ति वृद्धिव IN____जिता यत इति ॥
किमियं भंते ! लोएसि पवुथइ ?, गोयमा ! पंचत्थिकाया, एस णं एवतिए लोएत्ति LIZLLN
पग्रह, तंजहा-धम्मस्थिकाए अहम्मत्थिकाए जाव पोग्गलस्थिकाए । धम्मस्थिकाए
भंते ! जीवाणं किं पवत्तति ?, गोयमा ! धम्मत्थिकारणं जीवाणं आगमणगमण भासुम्मेसमणजोगा वइजोगा कायजोगा जे यावन्ने तहप्पगारा चला भावा सधे ते धम्मस्थिकाए पवतंति, | गइलक्षणे णं धम्मस्थिकाए ।अहम्मस्थिकारणं जीवाणं किं पवत्तति ?, गोयमा! अहम्मत्थिकाएणं जीवाणं | ठाणनिसीयणतुयट्टण मणस्स य एगत्तीभावकरणता जे यावन्ने थिरा भावा सबे ते अहम्मत्थिकाये पवत्तति, ठाणलक्खणे णं अहम्मत्यिकाए ॥ आगासत्थिकाए णं भंते ! जीवाणं अजीवाण य किं पवत्तति ?, गोयमा ! आगासस्थिकारणं जीवदवाण य अजीवदवाण य भायणभूए-एगेणवि से पुन्ने दोहिवि पुन्ने सयंपि माएज्जा । कोडिसएणवि पुन्ने कोडिसहस्संपिमाएजा ॥१॥ अवगाहणालक्खणे णं आगासस्थिकाए । जीवस्थिकाएक भंते ! जीवाणं किं पवत्तति, गोयमा! जीवस्थिकारणं जीवे अणताणं आभिणियोहियनाणपजवाणं अर्णताणं सुयनाणपजवाणं एवं जहा वितियसए अस्थिकायउद्देसए जाव उबओगं गच्छति, उवओ-|
दीप अनुक्रम [५७०-५७४]
%
~125
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
व्याख्या
प्रत सूत्रांक
[४८१]
दीप अनुक्रम [५७५-५७७]
गलक्षणे णं जीवे ॥ पोग्गलत्धिकाए णं पुच्छा, गोयमा ! पोग्गलस्थिकाएणं जीवाणं ओरालियवेउधियआ
१३ शतके
४ उद्देशः प्रज्ञप्तिःहारए तेयाकम्मए सोइंदियचक्खिदियघाणिदियजिभिदियफासिंदिपमणजोगवयजोगकायजोगआणापाणूणं ।
पञ्चातिकाअभयदेवी-18|च गहणं पचत्तति, गहणलक्खणे णं पोग्गलस्थिकाए (सूत्रं ४८१)॥
यप्रयोजना या वृत्तिः२ प्रवर्तनद्वारे 'आगमणगमणे इत्यादि, आगमनगमने प्रतीते भाषा-व्यक्तवचनं 'भाष व्यक्तायां वाचि' इति वचनात् नि सू ४८१
उन्मेष:-अक्षिव्यापारविशेषः मनोयोगवाग्योगकाययोगाः प्रतीता एवं तेषां च द्वन्द्वस्ततस्ते, इह च मनोयोगादयः ॥६०८॥
सामान्यरूपाः आगमनादयस्तु तद्विशेषा इति भेदेनोपात्ताः, भवति च सामान्यग्रहणेऽपि विशेषग्रहणं तत्स्वरूपोपदर्शनार्थमिति, 'जे यावन्ने तहप्पगार'त्ति 'ये चाप्यन्ये' आगमनादिभ्योऽपरे 'तधाप्रकाराः' आगमनादिसदृशाः भ्रमणचलनादयः 'चला भाव'त्ति चलस्वभावाः पर्यायाः सर्वे ते धर्मास्तिकाये सति प्रवर्तन्ते, कुत ? इत्याह-गइलक्खणे णं धम्मस्थिकाए'त्ति । 'ठाणनिसीयणतुयण'त्ति कायोत्सर्गासनशयनानि प्रथमावहुवचनलोपदर्शनात, तथा मनसश्चानेकत्वस्यैकत्वस्य भवनमेकत्वीभावस्तस्य यस्करणं तत्तथा । 'आगासस्थिकाएण'मित्यादि, जीवद्रव्याणां चाजीवद्रव्याणां च भेदेन भाजनभूतः, अनेन चेदमुक्तं भवति-एतस्मिन् सति जीवादीनामवगाहः प्रवत्तेते एतस्यैव
॥६०८॥ प्रश्चितत्वादिति, भाजनभावमेवास्य दर्शयन्नाह-एगेणवी त्यादि, एकेन-परमाण्यादिना 'से'त्ति असौ आकाशास्तिकायप्रदेश इति गम्यते 'पूर्णः' भृतस्तथा द्वाभ्यामपि ताभ्यामसौ पूर्णः, कथमेतत् ?, उच्यते, परिणामभेदात् यथाऽपव-18 रिकाकाशमेकप्रदीपप्रभापटलेनापि पूर्यते द्वितीयमपि तत्तत्र माति यावच्छतमपि तेषां तत्र माति, तथौषधिविशेषापादि-ते
| ...अत्र शिर्षक-स्थाने मूल-संपादने एका सामान्य स्खलना वर्तते- 'पंचास्तिकाय' स्थाने 'पंचातिकाय' मुद्रितं
~126~
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४८१]
ANGA
तपरिणामादेकत्र पारदकर्षे सुवर्णकर्षशतं प्रविशति, पारदकर्षीभूतं च सदोषधिसामर्थ्यात् पुनः पारदस्य कर्षः सुवर्णस्य |च कर्षशतं भवति विचित्रत्वात्पुद्गलपरिणामस्येति, 'अवगाहणालक्खणे णं'ति इहावगाहना-आश्रयभावः ॥ 'जीवस्थिकारण'मित्यादि, जीवास्तिकायेनेति अन्तर्भूतभावप्रत्ययत्वाज्जीवास्तिकायत्वेन जीवतयेत्यर्थः भदन्त ! जीवानां कि प्रवर्तते ? इति प्रश्नः, उत्तरं तु प्रतीतार्थमेवेति ॥ 'पोग्गलत्थिकारण मित्यादि, इहौदारिकादिशरीराणां श्रोत्रेन्द्रियादीनां मनोयोगान्तानामानप्राणानां च ग्रहणं प्रवर्तते इति वाक्यार्थः, पुद्गलमयत्वादौदारिकादीनामिति ॥ अस्तिकायप्रदेशस्पर्शद्वारे
एगे भंते ! धम्मत्थिकायपदेसे केवतिएहिं धम्मस्थिकायपएसेहिं पुढे ?, गोयमा ! जहन्नपदे तिहिं उकोसपदे छहिं । केवतिएहिं अहम्मत्थिकायपएसेहिं पुढे, गोयमा ! जहन्नपए चाहिं उकोसपए सत्तहिं । केव-18 Bातिएहि आगासस्थिकायपएसेहिं पुढे १, गोयमा ! सत्तहिं । केवतिपहिं जीवस्थिकायपएसेहिं पुढे, गोयमा!
अणतेहिं । केवतिएहिं पोग्गलत्थिकायपएसेहिं पुढे ?, गोयमा ! अणंतेहिं । केवतिएहिं अद्धासमएहिं पुढे ?, *सिप पुढे सिय नो पुढे जइ पुढे नियमं अणंतेहिं ॥ एगे भते ! अहम्मस्थिकायपएसे केवतिएहिं धम्मत्धिकासायपएसेहिं पुढे?, गोयमा ! जहन्नपए चाहिं उकोसपए सत्तहिं । केवतिएहिं अहम्मस्थिकायपएसेहिं पट्टे ?
जहन्नपए तिहिं उकोसपए छहिं सेसं जहा धम्मस्थिकायस्स ।। एगे भंते । आगासस्थिकायपएसे केवतिएहि || धम्मत्थिकायपएसेहिं पुढे ?, गोयमा ! सिय पुढे सिय नो पुढे, जइ पुढे जहन्नपदे एकेण वा दोहिं वा तीहिं
दीप अनुक्रम [५७५-५७७]
36456444552
For P
OW
~127~
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४८२-४८२.R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४८२४८२R]
व्याख्या- वा चालहि वा उकोसपए सत्सहिं, एवं अहम्मस्टिकायप्पएसेहिवि । केवतिएहिं आगासत्यिकाय ? छहिं, १३ शतके प्रज्ञाप्तः चतिहिं जीवस्थिकायपएसेहिं पुढे १, सिय पुढे सिय नो पढे, जह पट्टे नियम अणतेहिं । एवं पोग्गलत्थि-131 उद्दशा अभयदेवी
Filk कायपएसेहिवि अद्धासमएहिवि (सूत्रं ४८२)॥ एगे भंते ! जीवस्थिकायपएसे केवतिएहिं धम्मस्थि० पुरुछा मस्तका या वृत्तिः२/8
जहन्नपदे चाहिं उकोसपए सत्तहिं, एवं अहम्मस्टिकायपएसेहिवि । केवतिएहिं आगासत्थि०१, सत्तहिं । ॥६०९॥
केवतिएहिं जीवत्थि., सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स ॥ एगे भंते ! पोग्गलस्थिकायपएसे केवतिएहिं धम्म-3|| सैथिकायपए एवं जहेच जीवत्थिकायस्स ॥ दो भंते ! पोग्गलस्थिकायप्पएसा केवतिएहि धम्मत्धिकाय-IC
पएसेहिं पदा, जहनपए छहिं उक्कोसपए पारसहिं, एवं अहम्मस्थिकायप्पएसेहिदि । केवतिएहि आगासथिकाय, पारसहिं, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स ॥ तिन्नि भंते ! पोग्गलस्थिकायपएसा केवतिएहिं धम्म-181 थि०१, जहन्नपए अट्ठहिं उकोसपए सत्तरसहिं । एवं अहम्मस्थिकायपएसेहिथि । केवतिएहिं आगासत्यिक, सत्तरसहि, सेसं जहा धम्मस्थिकायस्स । एवं एएणं गमेणं भाणियवं जाव दस, नवरं जहन्नपदे दोन्नि पक्खिवियबा उफोसपए पंच ।चसारि पोग्गलत्थिकायस्स०, जहन्नपए दसहिं उको बावीसाए, पंच पुग्गल, जह बारसहिं उकोस. सत्तावीसाए, छ पोग्गल जहरू चोदसहिं उक्को बसीसाए, सत्त पो० जहन्नेणं सोलसहित
उको सत्ततीसाए, अट्ट पोजहन्न अट्ठारसहिं उक्कोसेगं बायालीसाए, नव पो० जहन्न. बीसाए उको ६०९।। ४ सीयालीसाए, दस जहरू बावीसाए उको. वाचनाए। आगासस्थिकायस्स सबस्थ उकोसगं भाणियचं ॥
दीप अनुक्रम [५७८-५७९]
ACCESCROS
SAREDuratinin
मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने किंचित् स्खलना दृश्यते-सूत्रक्रमांक ४८२ द्वि-वारान् लिखितं संभाव्यते
~128~
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[४८२
४८२]
दीप
अनुक्रम
[५७८
-५७९]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र -५ ( मूलं + वृत्तिः)
शतक [१३], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४८२-४८२.R]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
संखेज्जा भंते ! पोग्गलत्थिकायपएसा केवतिएहिं धम्मत्थिकायपएसेहिं पुट्ठा १, जहन्नपदे तेणेव संखेज्जएर्ण दुगुणेणं दुरूवाहिएणं उक्कोसपर तेणेय संखेज्जएणं पंचगुणेणं दुरूवाहिएणं, केवतिएहिं अधम्मत्थिकायएहिं एवं चेव, केवतिएहिं आगासत्धिकाय० तेणेव संखेज्जएणं पंचगुणेणं दुरूषाहिएणं, केवइएहिं जीवत्थिकाय ०१, अनंतेहिं, केवइएहिं पोग्गलत्धिकाय० १, अनंतेहिं, केवइएहिं अद्धासमपहिं ?, सिय पुढे सिय नो पुढे जाव अणतेहिं । असंखेज्जा भंते ! पोग्गलत्थिकायप्पएसा केवतिपहिं धम्मत्थि० १, जहनपर तेणेव असंखेचएणं दुगुणेणं दुरूवाहिणं उको० तेणेव असंखेलएणं पंचगुणेणं दुरूवाहिएणं, सेसं जहा संखेजाणं जाव नियमं अनंतेहिं ॥ अनंता भंते! पोरगलत्थिकायपएसा केवतिएहि धम्मत्थिकाय, एवं जहा असंखेजा तहा अणतावि निरवसेसं ॥ एगे भंते अद्धासमए केवतिएहिं धम्मस्थिकायपएसेहिं पुढे ?, सत्तहिं, केवतिपहिं अहम्मत्थि० ?, एवं चेव एवं आगासत्धिकाएहिवि, केवतिएहिं जीव० १, अनंतेहिं, एवं जाव अद्धासमएहिं ॥ धम्मत्थिकाए णं भंते! केवतिएहिं धम्मत्धिकायप्पएसेहिं पुढे ?, नस्थि एकेणवि, केवतिएहिं अधम्मत्थिकायप्पएसेहिं ?, असंखेजेहिं, केवतिएहिं आगासत्थि० प० १, असंखेजेहिं, केवतिएहिं जीवत्थिकायपए०१, अर्णतेहिं, केवतिएहिं पोग्गलत्थिकायपएसेहिं ?, अणतेहिं, केवतिएहिं अद्धासमएहिं ?, सिय पुढे सिय नो पुढे, | जइ पुढे नियमा अनंतेहिं । अहम्मत्थिकाए णं भंते! केव० धम्मत्थिकाय ?, असंखेजेहिं, केवतिएहिं अहस्मत्थि० ?, णत्थि एकेणवि, सेसं जहा धम्मत्थिका यस्स, एवं एएणं गमएवं सद्देवि सहाणए नत्थि एक्केणवि पुट्ठा,
For Park Lise Only
मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने किंचित् स्खलना दृश्यते - सूत्रक्रमांक ४८२ द्वि- वारान् लिखितं संभाव्य
~ 129~
ayor
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४८२-४८२.R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४८२४८२R]
व्याख्या-1लापरवाणए आदिल्लएहिं तिहिं असंखेजेहिं भाणियवं, पच्छिल्लएसु अणंता भाणियवा, जाव अद्धासमयोत्ति. १३ शतके प्रज्ञप्तिः जाव केवतिएहिं अद्धासमएहिं पुढे !, नत्थि एकेणवि ॥
४ उद्देशः अभयदेवी
अस्तिका'एगे भंते ! धम्मत्थिकायप्पएसें'इत्यादि, 'जहन्नपए तिहिति जघन्यपदं लोकान्तनिष्कुटरूपं यत्रैकस्य धर्मास्ति-|| या वृत्तिः२१ कायादिप्रदेशस्यातिस्तोकैरन्यैः स्पर्शना भवति तच्च भूम्यासन्नापवरककोणदेशप्राय: , इहोपरितनेनैकेन द्वाभ्यां च पार्श्वत है।
| स्पर्शना |एको विवक्षितः प्रदेशः स्पृष्टः, एवं जघन्येन त्रिभिरिति । 'उकोसपए छहिंति विवक्षितस्यैक उपर्येकोऽधस्त- सू ४८२ नश्चत्वारो दिक्षु इत्येवं पद्भिरिदं च प्रतरमध्ये, स्थापना च-...। 'जहन्नपदे चउहिंति धर्मास्तिकायप्रदेशो जघन्यपदेऽधर्मास्तिकायप्रदेशैश्चतुर्भिःस्पृष्ट इति, कथं?, तथैव त्रयः, . चतुर्थस्तु धर्मास्तिकायप्रेदशस्थानस्थित एवेति, उत्कृपदे सप्तभिरिति, कथं !, पडू दिकपड़े, सप्तमस्तु धर्मास्तिकायप्रदेशस्थ एवेति २, आकाशप्रदेशैः सप्तभिरेव, लोकान्तेऽप्यलोकाकाशप्रदेशानां विद्यमानत्वात् ३, 'केवतिएहिं जीवत्थिकाए'इत्यादि 'अणतेहिति अनन्तैरनन्तजीवसम्बन्धिनामनन्तानां प्रदेशानां तत्रैकधर्मास्तिकायप्रदेशे पार्श्वतश्च दिक्त्रयादौ विद्यमानत्वादिति ४, एवं पुद्गला-16 स्तिकायप्रदेशैरपि ५, 'केवतिएहिं अडासमएहि इत्यादि, अद्धासमयः समयक्षेत्र एव न परतोऽतः स्यात्स्पृष्टः हे स्थान्नेति, 'जइ पुढे नियमं अणंतेहिं ति अनादित्वादद्धासमयानां अथवा वर्तमानसमयालिङ्गितान्यनन्तानि द्रव्याण्य-3॥६१०॥
नन्ता एवं समया इत्यनन्तस्तैः स्पृष्ट इत्युच्यत इति ६॥ अधर्मास्तिकायप्रदेशस्य शेषाणां प्रदेशैः स्पर्शना धमोस्तिकाय४|| प्रदेशस्पशेनाऽनुसारेणावसेया ६॥'एगे भंते ! आगासत्धिकायपएसे इत्यादि, 'सिय पुढे'त्ति लोकमाश्रित्य 'सिय
*-45%
दीप अनुक्रम [५७८-५७९]
-
*
मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने किंचित् स्खलना दृश्यते-सूत्रक्रमांक ४८२ द्वि-वारान् लिखितं संभाव्यते
~130
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४८२-४८२.R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४८२४८२R]
|| नो पुढे'त्ति अलोकमाश्रित्य 'जइ पुढे' इत्यादि यदि स्पृष्टस्तदा जघन्यपदे एकेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः, कथम् ।।
एवंविधलोकान्तवर्तिना धर्मास्तिकायैकप्रदेशेन शेषधर्मास्तिकायप्रदेशेभ्यो निर्गतेनैकोऽप्रभागवर्त्यलोकाकाशप्रदेशः स्पृष्टो वक्रगतस्त्वसौ द्वाभ्यां यस्य चालोकाकाशप्रदेशस्यान।। तोऽधस्तादुपरि च धर्मास्तिकायप्रदेशाः सन्ति स | त्रिभिर्धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः, स चैवम्-- यस्त्वेवं-- लोकान्ते कोणगतो व्योमप्रदेशोऽसावेकेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन तदवगाढेनान्येन चोपरिवर्ति नाऽधोवर्तिना वा द्वाभ्यां च दिगद्वयावस्थिताभ्यां स्पृष्ट इत्येवं चतुर्भिः यश्चाध उपरि च तथा दिग्द्वये तत्रैव वर्तमानेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स पश्चभिः यः पुनरध उपरि च तथा दिनये तत्रैव च प्रवर्त्तमानेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स पद्भिः, यश्चाध उपरि च तथा दिक्चतुष्टये तत्रैव च वर्तमानेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स सप्तभिर्धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टो भवतीति १, एवमधर्मास्तिकायमदेशैरपि २ केवडएहिं आगासस्थिकापपएसेहिं, 'छहिंति एकस्य लोकाकाशप्रदेशस्यालोकाकाशप्रदेशस्य वा पहूदिग्व्यवस्थितरेव स्पर्शनात् पद्भिरित्युक्तम् ३ जीवास्तिकायसूत्रे 'सिय पुढे'त्ति यद्यसौ लोकाकाशप्रदेशो विवक्षितस्ततः स्पृष्टः 'सिय नो पुढे'त्ति यद्यसावलोकाकाशप्रदेशविशेषस्तदा न स्पृष्टो जीवानां तत्राभावादिति ४-५ एवं पुद्गलाद्धाप्रदेशः ६॥ 'एगे भंते ! जीवस्थिकायप्पएसे'इत्यादि, जघन्यपदे लोकान्तकोणलक्षणे सर्वाल्पत्वात्तत्र स्पर्शकप्रदेशानां चतुर्भिरिति, कथम् ?, अध उपरि वा एको द्वौ च दिशोरेकस्तु यत्र जीवप्रदेश एवावगाढ इत्येवं, एकश्च जीवास्तिकायप्रदेश एकत्रा-18 | काशप्रदेशादौ केवलिसमुद्घात एव लभ्यत इति, 'उक्कोसपए सत्तहिंति पूर्ववत्, 'एवं अहम्मे'त्यादि पूर्वोक्तानुसा
दीप अनुक्रम [५७८-५७९]
SantaratindiAll
मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने किंचित् स्खलना दृश्यते-सूत्रक्रमांक ४८२ द्वि-वारान् लिखितं संभाव्यते
~131
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४८२-४८२.R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
१३ शतके ४ उद्देशः अस्तिकायतत्प्रदेश स्पशेना सू४८२
[४८२
४८२R]
व्याख्या रेण भावनीयम् ॥ धर्मास्तिकायादीनां ४ पुन्नलास्तिकायस्व चैकैकप्रदेशस्य स्पर्शमीक्ता, अथ तस्यैव द्विप्रदेशादिरक- प्रज्ञप्तिः शन्धानां तां दर्शयन्नाह-दो भंते ! इत्यादि, इह चूर्णिकारव्याख्यानमिद-लोकान्ते द्विपदेशिका स्कन्ध एकप्रदेशस- अभयदेवी
मवगाढः स च प्रतिद्रव्यावगाहं प्रदेश इति नयमताश्रयणेनावगाहप्रदेशस्यैकस्यापि भिन्नत्वाद् द्वाभ्यां स्पृष्टः, तथा यस्स- या वृत्तिः
| स्योपर्यधस्ताद्वा प्रदेशस्तस्यापि पुद्गलद्वयस्पर्शनेन नयमतादेव भेदाद् द्वाभ्यां, तथा पार्श्वप्रदेशावेककमणुं स्पृशतः परस्प॥६११॥ रव्यवहितवाद् इत्येवं जघन्यपदे पनिर्धर्मास्तिकायप्रदेशैयणुकस्कन्धः। स्पृश्यते, नयमतानङ्गीकरणे तु चतुर्मिरेव
४ व्यणुकस्य जघन्यतः स्पर्शना स्यादिति" वृत्तिकृता वेवमुक्तम्- "इह यद्विन्दुद्वयं तत्परमाणुद्वयमिति मन्त
व्यं तत्र चार्वाचीनः परमाणुधर्मास्तिकायप्रदेशेनार्वाकस्थितेन स्पृष्टः, परभागवत्ती च परतः स्थितेन एवं द्वौ, तथा ययोः प्रदेशयोर्मध्ये, परमाणू स्थाप्येते तयोरग्रेतनाभ्यां प्रदेशाभ्यां ती-स्पृष्टौ एकेनैको द्वितीयेन च द्वितीय इति चत्वारो | द्वौ चावगाढत्वादेव स्पृष्टावित्येवं षट् । 'उक्कोसपए पारसहिंति,कथं?,परमाणुद्वयेन द्वौ द्विप्रदेशावगाढत्वात्स्पृ । टौती चाधस्तनी उपरितनी च द्वी पूर्वापरपार्पयोश्च द्वौ र दक्षिणोत्सरपार्श्वयोश्चकैक इत्येवमेते द्वादशेति १ ।। । hlic एवमधर्मास्तिकायप्रदेशैरपि २, 'केवतिएहिं आगासस्थिकायप्पएसेहिं ?,'वारसहिति इह जघन्यपदं नास्ति
लोकान्तेऽप्याकाशप्रदेशानां विद्यमानत्वादिति द्वादशभिरित्युक्तं ३, 'सेसं जहा धम्मत्थिकायस्सत्ति, अयमर्थः-'दो टाभते । पोग्गलस्थिकायप्पएसा केवतिएहिं जीवस्थिकायप्पएसेहिं पुहा, गोयमा ! अणतेहिं ४ । एवं पुगलास्तिकायन
देशैरपि ५, अद्धासमयैः स्यात् स्पृष्टौ स्यान्न, यदि स्पृष्टौ तदा नियमादनन्तैरिति ६॥'तिन्नि भंते ! इत्यादि, 'जहन्नपए
दीप अनुक्रम [५७८-५७९]
॥६१॥
मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने किंचित् स्खलना दृश्यते-सूत्रक्रमांक ४८२ द्वि-वारान् लिखितं संभाव्यते
~132
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
"भगवती”- अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४८२-४८२.R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४८२४८२R]
अट्ठहि'ति, कथं ?, पूर्वोक्तनयमतेनावगाढप्रदेशस्त्रिधा अधस्तनोऽप्युपरितनोऽपि वा त्रिधा द्वौ पार्श्वत इत्येवमष्टी, 'उकोसपए सत्तरसहिंति प्राग्वद्भावनीयं, इह च सर्वत्र जघन्यपदे विवक्षितपरमाणुभ्यो द्विगुणा द्विरूपाधिकाश्च स्पर्शका प्रदेशा भवन्ति, उत्कृष्टपदे तु विवक्षितपरमाणुभ्यः पञ्चगुणा विरूपाधिकाश्च ते भवन्ति, सत्र चैकाणोद्धिगुणत्वे है द्वौ द्वयसहितत्वे च चत्वारोजघन्यपदे स्पर्शकाः प्रदेशाः, उत्कृष्टपदे खेकाणोः पञ्चगुणत्वे द्विकसहितत्वे च सप्त स्पर्शकाः प्रदेशा भवन्ति, एवं व्यणुकश्यणुकादिष्वपि, स्थापना चेयम्- पापाका परमाणुसंशाया । एतदे || वाह-एवं एएणं गमएण'मित्यादि, आगासस्थिकायस्स १० १२१४/१६/१४/२०/२२। अपन्यवश | सबस्य | उक्कोसपयं भाणिय'ति 'सर्वत्र' एकप्रदेशिकाद्यनन्तप्रदेशि १२,१७ २२.२०३२३७४२५०/५२' उस्कृष्टस्पर्श कान्ते सूत्रगणे उत्कृष्टपदमेवन जघन्यकमित्यर्थः आकाशस्य सर्वत्र विद्यमानत्वादिति ॥ 'संखेजा भंते !'इत्यादि, 'तेणेव'त्ति यत् ट्र सधेयकमयः स्कन्धस्तेनैव प्रदेशसधेयकेन द्विगुणेन द्विरूपाधिकेन स्पृष्टः, इह भावना-विंशतिप्रदेशिकः स्कन्धो लोकान्त एकप्रदेशे स्थितः स च नयमतेन विंशत्याऽवगाढप्रदेशैः विंशत्यैव च नयमतेनैवाधस्तनैरुपरितनैर्वा प्रदेशैः द्वाभ्यां | |च पार्थप्रदेशाभ्यां स्पृश्यत इति, उत्कृष्टपदे तु विंशत्या निरुपचरितैरवगाढप्रदेशः, एवमधस्तनै २० रुपरितनैः २० पूर्वापरपार्श्वयोश्च विंशत्या २० द्वाभ्यां च दक्षिणोत्तरपार्श्वस्थिताभ्यां स्पृष्टस्ततश्च विंशतिरूपः सङ्ख्याताणुकः स्कन्धः पञ्चगुणया विंशत्या प्रदेशानां प्रदेशद्वयेन च स्पृष्ट इति, अत एव चोक्तम् 'उक्कोसपए तेणेव संखेज्जएणं पंचगुणेणं दुरूवाहिएणति ॥ 'असंखेजा इत्यादी षट्सूत्री तथैव ॥ 'अणता भंते ! इत्यादिरपि पट्सूत्री तथैव, नवरमिह यथा
ALANKAKAAREE
दीप अनुक्रम [५७८-५७९]
Saintairat
मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने किंचित् स्खलना दृश्यते-सूत्रक्रमांक ४८२ द्वि-वारान् लिखितं संभाव्यते
~133
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४८२-४८२.R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४८२४८२R]
व्याख्या-1 जघन्यपदे औपचारिका अवगाहप्रदेशा अधस्तना उपरितना वा तथोत्कृष्टपदेऽपि, न हि निरुपचरिता अनन्ता आकाशप्र- १३ शतके अभयदेवी- देशा अवगाहतः सन्ति, लोकस्याप्यसङ्ख्यातप्रदेशात्मकत्वादिति । इह च प्रकरणे इमे वृद्धोक्तगाथे भवतः-"धम्माइप-
10
४ उद्देशः या वृत्तिः२ एसेहिं दुपएसाई जहन्नयपयमिम । दुगुणदुरूवहिएणं तेणेव कहं नु हु फुसेज्जा ॥१॥ एत्थ पुण जहन्नपयं लोगते तथा
अस्तिका
स्वायतत्प्रदेशMERM लोगमालिहिजे । फुसणा दावेयवा अहवा खंभाइकोडीए ॥२॥” इति [ जघन्यपदे द्विप्रदेशादिदिगुणद्विरूपाधिधर्मादिप्र-
II देशैस्तेनैव कथं नु स्पृशेत् ॥१॥ अत्र जघन्यपदं लोकान्ते ततो लोकमालिख्य स्पर्शनां दर्शयेद् अथवा स्तम्भादिको-18 सू४८२ व्याम् ॥२॥] 'एगे भंते । अद्धासमए'इत्यादि, इह वर्तमानसमयविशिष्टः समयक्षेत्रमध्यवर्ती परमाणुरद्धासमयो ग्राह्यः, अन्यथा तस्य धर्मास्तिकायादिप्रदेशैः सप्तभिः स्पर्शना न स्यात् , इह च जघन्यपदं नास्ति, मनुष्यक्षेत्रमध्यवर्तित्वादद्धासमयस्य, जघन्यपदस्य च लोकान्त एव सम्भवादिति, तत्र सप्तभिरिति, कथम्?, अद्भासमयविशिष्ट परमाणुद्रव्यमेकत्र || धर्मास्तिकायप्रदेशेऽवगाढमन्ये च तस्य पट्सु दिक्ष्विति सप्तति, जीवास्तिकायप्रदेशैश्चानन्तरेकप्रदेशेऽपि तेपामनन्तत्वात्,
'एवं जाव अद्धासमपहि'ति, इह यावत्करणादिदं सूचितम्-एकोऽद्धासमयोऽनन्तैः पुद्गलास्तिकायप्रदेशैरद्धासमयैश्च स्पृष्ट । है इति, भावना चास्यैवभू-अद्धासमयविशिष्टमणुद्रव्यमद्धासमयः, स चैकः पुद्गलास्तिकायप्रदेशैरनन्तः स्पृश्यते, एकद्र-|| il व्यस्य स्थाने पार्वतश्चानन्तानां पुद्गलानां सद्भावात् , तथाऽद्धासमयैरनन्तरसौ स्पृश्यते अद्धासमयविशिष्टानामनन्ता-II॥१२॥ नामप्यणुद्रव्याणामद्धासमयत्वेन विवक्षितत्वात् तेषां च तस्य स्थाने तत्पार्वतश्च सद्भावादिति ॥ धर्मास्तिकायादीनां प्रदेशतः स्पर्शनोकाऽथ द्रव्यतस्तामाह-'धम्मत्थिकारण'मित्यादि, 'नस्थि एगणवि'त्ति सकलस्य धमास्तिकायद्र
दीप अनुक्रम [५७८-५७९]
SAREastatinintennational
मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने किंचित् स्खलना दृश्यते-सूत्रक्रमांक ४८२ द्वि-वारान् लिखितं संभाव्यते
~134
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-1, अंतर-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४८२-४८२.R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४८२४८२R]
4%-
445
RE5%
A
व्यस्य प्रनितत्वात् तव्यतिरिक्तस्य च धर्मास्तिकायप्रदेशस्याभावादुक्तं नास्ति-न विद्यतेऽयं पक्षो यदुत एकेनापि धर्मा-IDI 8 स्तिकायप्रदेशेनासौ धर्मास्तिकायः स्पृष्ट इति, तथा धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकायप्रदेशैरसोयैः स्पृष्टो, धर्मास्तिकायप्रदेशानन्तर एष व्यवस्थितत्वादधर्मास्तिकायसम्बन्धिनामसङ्ख्यातानामपि प्रदेशानामिति, आकाशास्तिकायप्रदेशैरप्यसङ्ख्येयैः, असङ्ख्ययप्रदेशस्वरूपलोकाकाशप्रमाणत्वाद्धर्मास्तिकायस्थ, जीवपुद्गलप्रदेशैस्तु धर्मास्तिकायोऽनन्तैः स्पृष्टः, तळ्याप्त्या धर्मास्तिकायस्यावस्थितत्वात्तेषां चानन्तत्वात् , अद्धासमयैः पुनरसी स्पृष्टश्चास्पृष्टश्च, तत्र यः स्पृष्टः सोऽनन्तैरिति । एवमधमास्तिकायस्य ६ आकाशास्तिकायस्य ६ जीवास्तिकायस्य ६ पुगलास्तिकायस्य ६ अद्धासमयस्य च ६ सूत्राणि वाच्यानि, केवलं यत्र धर्मास्तिकायादिस्तत्पदेशैरेव चिन्त्यते तत्स्वस्थानमितरच परस्थानं, तत्र स्वस्थाने 'नस्थि एगेणवि पुढे' इति निर्वचनं वाच्यं, परस्थाने च धर्मास्तिकायादिवयसूत्रेषु ३ असङ्ख्येयैः स्पृष्ट इति वाच्यं, असङ्ख्यातप्रदेशत्वाद्धर्माधर्मास्तिकाययोस्तत्संस्पृष्टाकाशस्य च, जीवादित्रयसूत्रेषु चानन्तैः प्रदेशः स्पृष्ट इति वाच्यं, अनन्तप्रदेशत्वात्तेषामिति, एतदेव दर्शयन्नाह-एवं एएणं गमएण'मित्यादि, इह चाकाशसूत्रेऽयं विशेषो द्रष्टव्यः-आकाशास्तिकायो धर्मास्तिकायादिन-12 देशैः स्पृष्टश्चास्पृष्टश्च, तत्र यः स्पृष्टः सोऽसधेयैर्धर्माधर्मास्तिकाययोः प्रदेशैर्जीवास्तिकायादीनां त्वनन्तैरिति, 'जाव अद्धासमओ'त्ति अद्धासमयसूत्रं यावत् सूत्राणि याच्यानीत्यर्थः, 'जाव केवइएहिं' इत्यादी यावत्करणादद्धासमयसूत्रे आये पदपन सूचितं षष्ठं तु लिखितमेवास्ते, तत्र तु 'नथि एकोणवित्ति निरुपचरितस्याद्धासमयस्सैकस्यैव भावात् , अतीतानागतसमययोश्च विनष्टानुत्पन्नत्वेनासत्त्वान्न समयान्तरेण स्पृष्टताऽस्तीति ॥ अथावगाहद्वार, तत्र
दीप अनुक्रम [५७८-५७९]
व्या०१०३
मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने किंचित् स्खलना दृश्यते-सूत्रक्रमांक ४८२ द्वि-वारान् लिखितं संभाव्यते
~135
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४८३-४८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रज्ञप्तिः
प्रत सूत्रांक
[४८३
-४८४]
व्याख्या- िजत्थ णं भंते ! एगे धम्मस्थिकायपएसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्यिकायप्पएसा ओगाढा?, नथि १३ शतके एकोवि, केवतिया अहम्मत्थिकायप्पएसा ओगाढा ?, एको, केवतिया आगासस्थिकाय?, एको, केवतिया,
४ उद्देशः
सअस्तिकायजीवत्थिल, अणता, केवतिया पोग्गलस्थि०१, अणता, केवतिया अद्धासमया ?, सिय ओगाढा सिय नो या वृत्तिः२
तत्प्रदेशावओगाढा जइ ओगाढा अणंता । जत्थ णं भंते ! एगे अहम्मत्थिकायपएसे ओगाढे तत्व केवतिया धम्म-द ॥३१॥ थि०१, एको, केवतिया अहम्मत्थि०१, नथि एकोवि, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । जस्थ णं भंते ! एगे आ- ४८३
गासत्थिकायपएसे ओगाढे तस्थ केवतिया धम्मस्थिकाय?, सिय ओगाढा सिय नो ओगाढा, जइ ओगाढा कायानां पर एको, एवं अहम्मस्टिकायपएसावि, केवड्या आगासस्थिकाय, नस्थि एकोचि, केवतिया जीवस्थि रस्परावगा| सिय ओगाढा सिय नो ओगाढा, जइ ओगाढा अणंता, एवं जाव अजासमया । जत्थ णं भंते ! एगे जीव- हासू ४ स्थिकायपएसे ओगादे तत्थ केवतिया धम्मस्थि०१, एक्को, एवं अहम्मस्थिकाय, एवं आगासस्थिकायपए-3
सावि, केवतिया जीवस्थि०१, अणंता, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । जत्थ णं भंते।एगे पोग्गलत्धिकायपएसे द ओगाहे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकाय?, एवं जहा जीवस्थिकायपएसे तहेव निरवसेसं । जत्थ णं भंते ! दो पोग्गलस्थिकायपदेसा ओगाढा तत्थ केवतिया धम्मस्थिकाय?, सिय एको सिय दोन्नि, एवं अहम्मत्थि
॥६१३॥ कायस्सवि, एवं आगासस्थिकायस्सवि, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । जत्थ णं भंते ! तिन्नि पोग्गलस्थितत्थ *केवड्या धम्मस्थिकाय?. सिय एको सिय दोन्नि सिय तिन्नि, एवं अहम्मस्थिकायस्सवि, एवं आगा
दीप अनुक्रम [५८०]
SARERainintamarana
Tamirary.com
~136~
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४८३-४८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४८३
-४८४]
सस्थिकायस्सवि, सेसं जहेव दोण्हं, एवं एफेको वहियचो पएसो आइल्लएहिं तिहिं अस्थिकाएहिं, सेसं जहेच दोहं जाव दसण्हं सिय एक्को सिय दोन्नि सिय तिन्नि जाव सिय दस, संखेज्जाणं सिय एक्को सिय दोन्नि जाव सिय दस सिय संखेज्जा, असंखेजाणं सिय एको जाव सिय संखेजा सिय असंखेजा, जहा असंखेज्जाट एवं अणंतावि । जस्थ णं भंते ! एगे अद्धासमए ओगादे तत्थ केवतिया धम्मस्थि०१, एको, केवतिया अहम्मस्थि०, एको, केवतिया आगासस्थि०, एक्को, केवइया जीवस्थि०१, अणंता, एवं जाव अद्धासमया। जस्थ णं भंते | धम्मस्थिकाए ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मस्थिकायप० ओगाढा ?, नत्धि एकोवि, केवतिया अहम्मत्धिकाय?, असंखेवा, केवतिया आगास?, असंखेजा, केवतिया जीवस्थिकाय?, अणंता, एवं जाव अद्धासमया । जत्थ णं भंते ! अहम्मस्थिकाए ओगादे तत्थ केवतिया धम्मस्थिकाय?, असंखेजा, केवतिया अहम्मत्यि, नथि एकोवि, सेसं जहा धम्मस्थिकायस्स, एवं सबे, सहाणे नस्थि एकोवि भाणियचं, परहाणे आदिल्लगा तिन्नि असंखेज्जा भाणियबा, पच्छिल्लगा तिन्नि अर्णता भाणियचा जाव अद्धासमओत्ति जाव केवतिया अद्धासमया ओगाढा नस्थि एकोवि (मूत्रं४८३)। जत्थणं भंते ! एगे पुढविकाइए ओगाढे तत्थ णं केवतिया पुढविकाइया ओगाढा ?, असंखेजा, केवतिया आउकाइया ओगाढा?, असंखेजा, केवइया | है तेउकाइया ओगाढा ?, असंखेजा, केवइया वाउ० ओगाढा ?, असंखेजा, केवतिया वणस्सइकाइया ओगाकोटा, अर्णता । जत्थ णं भंते ! एगे आउकाइए ओगाढे तत्थ णं केवतिया पुढवि० असंखेजा, केवतिया आउ०8)
दीप अनुक्रम [५८०]
SARERainintennatural
Hrwasaram.org
~137
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४८३-४८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रज्ञप्तिः
प्रत सूत्रांक
[४८३
-४८४]
व्याख्या- असंखेजा, एवं जहेव पुढविकाइयाणं वत्तवता तहेव ससि निरवसेसं भाणियचं जाव वणस्सइकाइयाणं १३ शतके जाव केवतिया वणस्सइकाइया ओगाढा !, अणंता (सूत्रं ४८४)॥
४ उद्देशः अभयदेवी
| 'जत्थ णं भंते इत्यादि, यत्र प्रदेशे एको धर्मास्तिकायस्य प्रदेशोऽवगाढस्तत्रान्यस्तत्प्रदेशो नास्तीतिकृत्वाऽऽह-12 बातम्रालाथि एकोवित्ति, धर्मास्तिकायप्रदेशस्थानेऽधर्मास्तिकायप्रदेशस्य विद्यमानत्वादाह-एको त्ति, एवमाकाशास्तिकायस्या
गाहः सू ॥३१॥ प्येक एव, जीवास्तिकायपुद्गलास्तिकाययोः पुनरनन्ताः प्रदेशा एकैकस्य धर्मास्तिकायप्रदेशस्य स्थाने सन्ति तैः प्रत्येकमन
I४८४ स्तैाप्तोऽसावत उक्तम्-'अणंत'त्ति, अद्धासमयास्तु मनुष्यलोक एष सन्ति न परतोऽतो धर्मास्तिकायप्रदेशे तेषाम
कायानांप| वगाहोऽस्ति नास्ति च, यत्रास्ति तत्रानन्तानां भावना तु प्राग्वत् , एतदेवाह-'अद्धासमये'त्यादि । 'जस्थण'मित्यादी-|| न्यधर्मास्तिकायसूत्राणि पडू धर्मास्तिकायसूत्राणीव वाच्यानि, आकाशास्तिकायसूत्रेषु 'सिय ओगाढा सिप नो ओ-हासू ४८४ गाढ'त्ति लोकालोकरूपत्वादाकाशस्य लोकाकाशेऽवगाढा अलोकाकाशे तु न तदभावात् ॥ 'जत्थ णं भंते ! पोग्गलK|| त्थिकायपएसे'त्यादि, 'सिय एको सिय दोन्नि'त्ति यदैकत्राकाशप्रदेशे व्यणुकः स्कन्धोऽयगाढः स्यात्तदा वत्र धमास्तिकायप्रदेश एक एव, यदा तु द्वयोराकाशप्रदेशयोरसाववगाढः स्यात्तदा तत्र द्वा धर्मप्रदेशाववगाही सातामिति, एवमवगाहनानुसारेणाधर्मास्तिकायाकाशास्तिकाययोरपि स्यादेकः स्याद्वाविति भावनीय, 'सेसं जहा धम्मस्थिकाय-] स्स'त्ति शेषमित्युकापेक्षया जीवास्तिकायपुद्गलास्तिकायाद्धासमयलक्षणं त्रयं यथा धर्मास्तिकायप्रदेशवक्तव्यतायामुक्त
१४॥ तथा पुद्गलप्रदेशद्वयवक्तव्यतायामपि, पुद्गलप्रदेशद्वयस्थाने तदीया अनन्ताः प्रदेशा अवगाढा इत्यर्थः । पुद्गलप्रदेशत्रयसू
दीप अनुक्रम [५८०]
CCCALCALL
wiumstaram.org
~138~
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४८३-४८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४८३
-४८४]
४|| श्रेषु 'सिप इको'इत्यादि, यदा त्रयोऽप्यणव एकत्रावगाढास्तदा तत्रैको धर्मास्तिकायप्रदेशोऽवगाढा, पदानुबयो १२ स्तिदा द्वाववगा ढी, यदा तु त्रिषु । १।१।१। तदा त्रय इति, एवमधमोस्तिकायस्याकाशास्तिकायस्य च याच्य, IPI सेसं जहेव दोण्हति शेष जीवपुगलाद्धासमयाश्रितं सूत्रत्रयं यथैव द्वयोः पुद्गलप्रदेशयोरवगाहचिन्तायामधीतं तथैव । ४|| पुद्गलप्रदेशत्रयचिन्तायामष्यध्येयं, पुद्गलप्रदेशत्रयस्थानेऽनन्ता जीवप्रदेशा अवगाढा इस्येवमध्येयमित्यर्थः, 'एवं एकेको है बडेयबो पएसो आइल्लेहिं तिहिं २ अधिकाएहिं ति यथा पुद्गलप्रदेशत्रयावगाहचिन्तायां धर्मास्तिकायादिसूत्रत्रये | एकैकःप्रदेशो वृद्धिं नीतः एवं पुगलप्रदेशचतुष्टयाद्यवगाहचिन्तायामप्येकैकस्तत्र वर्जनीयः, तथाहि-'जत्थ ण भते । ४||चत्तारि पुग्गलस्थिकायप्पएसा ओगाढा तत्थ केवइया धम्मत्थिकायप्पएसा ओगाढा 1, सिय एको सिब दोभि सिय 81 दातिनि सिय चत्तारि' इत्यादि, भावना चास्य प्रागिव, 'सेसेहिं जहेब दोहति शेषेषु जीवास्तिकायादिषु त्रिषु सप्रेषु
युगलप्रदेशचतुष्टयचिन्तायां तथा वाच्यं यथा तेब्वेव पुद्गलप्रदेशद्वयावगाहचिन्तायामुक्तं, तचैव-जत्य भंते !
चत्तारि पोग्गलत्थिकायप्पएसा ओगाढा तत्थ केवतिया जीवस्थिकायप्पएसा ओगाढा !, अर्णता'इत्यादि, 'जहा असंदाखेजा एवं अणंतावित्ति, अस्यायं भावार्थ:-'जत्थ णं भंते 1 अणंता पोग्गलस्थिकायप्पएसा ओगाढा तत्थ केवतिया
धम्मत्थिकायप्पएसा ओगाढा!, सिय एको सिय दोन्नि जाव सिय असंखेज्जा'एतदेवाध्येयं न तु 'सिय अणंत'त्ति. 8| धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायलोकाकाशप्रदेशानामनन्तानामभावादिति ॥ अथ प्रकारान्तरेणावगाहद्वारमेवाह-जत्य - मित्यादि, धर्मास्तिकायशब्देन समस्ततत्प्रदेशसङ्ग्रहात प्रदेशान्तराणां चाभावादुच्यते-यत्र धर्मास्तिकायोऽवगाढस्तत्र
CA
दीप अनुक्रम [५८०]
RELIGuninternational
~139~
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४८३-४८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४८३
-४८४]
व्याख्या- नास्त्येकोऽपि तत्प्रदेशोऽवगाढ इति, अधर्मास्तिकायाकाशास्तिकाययोरसझयेयाः प्रदेशा अवगाढा असोयप्रदेशत्वा- ४१३ शतके प्रज्ञप्ति दधर्मास्तिकायलोकाकाशयोः, जीवास्तिकायसूत्रे चानन्तास्तत्प्रदेशाः, अनन्तप्रदेशत्वाज्जीवास्तिकायस्य, पुद्गलास्तिकाय- ४ दृशः अभयदेवी
सूत्राद्वासूत्रयोरप्येवं, एतदेवाह-एवं जाव अद्धासमय'त्ति ।। अथैकस्य पृथिव्यादिजीवस्य स्थाने कियन्तः पृथिव्या
दिजीवा अवगाढाः इत्येवम 'जीवमोगाढ'त्ति द्वार प्रतिपादयितुमाह-'जत्थ भंते ! एगे पुढविकाइए'इत्यादि, ||SIनाभावः ॥१५॥ 8 एकपृथिवीकायिकावगाहेऽसोयाः प्रत्येक पृथिवीकायिकादयश्चत्वारः सूक्ष्मा अवगाढाः, यदाह-'जत्थ एगो तथा सू४८५
| नियमा असंखेजत्ति, वनस्पतयस्त्वनन्ता इति ।। अथास्तिकायप्रदेशनिषदनद्वारं, तत्र च
एयंसिणं भंते ! धम्मत्थिकाय अधम्मस्थिकाय आगासत्धिकार्यसि चकिया केई आसइत्तए वा चिहितए वा निसीहत्तए वा ताहित्तए वा ?, नो इणढे समढे, अणंता पुण तत्थ जीवा ओगाढा, से केणतुणं भंते ||5|| एवं वुच एतंसि णं धम्मत्थि० जाव आगासस्थिकार्यसि णो चकिया केई आसइत्तए वा जाव ओगाढा , गोयमा! से जहा नामए-कूडागारसाला सिया दुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा जहा रापप्पसेणइजे जाव दुवारवयणाई पिहेइ दु.२तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए जहन्नेर्ण एको वा दो वा तिन्नि वा उक्को-|| सेणं पदीवसहस्सं पलीवेजा, से नूणं गोयमा ! ताओ पदीवलेस्साओ अन्नमन्नसंबद्धाओ अन्नमनपुट्ठाओ जाव अन्नमनघडताए चिट्ठति ?, हंता चिट्ठति, चक्किया णं गोयमा ! केई तासु पदीवलेस्सासु आसइत्तए
दीप अनुक्रम [५८०]
॥६१५॥
For P
OW
~140
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४८५]
रवा जाव तुयहित्तए वा?, भगवं ! णो तिणढे समढे, अणंता पुण तत्थ जीवा ओगाढा, से तेणद्वेणं गोयमा। एवं चुच्चइ जाव ओगाढा (सूत्रं ४८५)॥
'एयंसि ण'मित्यादि, एतस्मिन् णमित्यलङ्कारे 'चक्कियत्ति शक्नुयात्कश्चित् पुरुषः ॥ अथ बहुसमेति द्वार, तत्र| कहिणं भंते ! लोए बहुसमे ? कहिणं भंते ! लोए सबचिग्गहिए पण्णत्ते, गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए है पुढवीए उपरिमहे हिल्लेसु खुड्डागपयरेसु एस्थ णं लोए बहुसमे एत्थ णं लोए सबविग्गहिए पण्णत्ते । कहि णं
भंते ! विग्गहविग्गहिए लोए पण्णत्ते?, गोयमा विग्गहकंडए एस्थ णं विग्गहविग्गहिए लोए पण्णत्ते(सूत्रं४८६) व 'कहिण'मित्यादि, 'बहुसमें त्ति अत्यन्तं समः, लोको हि कचितुर्द्धमानः कचिद्धीयमानोऽतस्तनिषेधाबहुसमो * वृद्धि हानिवर्जित इत्यर्थः 'सबविग्गहिए'त्ति विग्रहो वक्र लघुमि(रि)त्यर्थः तदस्यास्तीति विग्रहिकः सर्वथा विग्रहिकः सर्वका विग्रहिका सर्वसनिस इत्यर्थः, 'उबरिमहडिल्लेसु खुड्डागपयरेसु'त्ति उपरिमो यमवधीकृत्योई प्रतरवृद्धिः प्रवृत्ता, अध-150 ४ स्तनच यमवधीकृत्याधः प्रतरप्रवृद्धिःप्रवृत्ता, ततस्तयोरुपरितनाधस्तनयोः क्षुल्लकमतरयोः शेषापेक्षया लघुतरयो रजुप्रमा*णायामविष्कम्भयोस्तिर्यग्लोकमध्यभागवर्तिनोः 'एस्थ णं'ति एतयोः-प्रज्ञापकेनोपदय॑मानतया प्रत्यक्षयोः 'बिग्गह
विग्गहिए'त्ति विग्रहो-वर्क तयुक्तो विग्रहः-शरीरं यस्यास्ति स विग्रहविग्रहिका, 'विग्गहकडए'त्ति विग्रहो-वर्क कण्डक-अवयवो विग्रहरूपं कण्डक-विग्रहकण्डकं तत्र ब्रह्मलोककूर्पर इत्यर्थः यत्र वा प्रदेशवृद्ध्या हान्या वा वकं भवति | तद्विग्रहकण्डक, तच्च प्रायो लोकान्तेष्वस्तीति ॥ अथ लोकसंस्थानद्वार, तत्र च
दीप अनुक्रम [५८१]
~141
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४,५], मूलं [४८७,४८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४८७,
४८८]
सिंठिए णं भंते ! लोए पण्णते?, गोयमा ! सुपइडियसंठिए लोए पण्णत्ते, हेढा विच्छिन्ने मजले जहा ||१३ शतके व्याख्याप्रज्ञप्तिः
सत्तमसए पढमुद्देसे जाव अंतं करेति ॥ एयस्स गं भंते ! अहेलोगस्स तिरियलोगस्स उड्डलोगस्स प कयरे २- ४ उद्देशः अभयदेवी-हिंतो जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा । सबथोवे तिरियलोए उहलोए असंखेवगुणे अहेलोए बिसेसा-8 लोकसंस्थाया वृत्तिः२हिए । सेवं भंते सेवं भंतेत्ति (सूत्रं ४८७)॥१३-४॥
नाल्पबहुत्वे 'सबथोवे तिरियलोए'त्ति अष्टादशयोजनशतायामत्वात् , 'उडलोए असंखेजगुणे'त्ति किश्चिश्यूनसधरजूच्छूित-18|| सू४८६ १६१६॥ त्वात् 'अहे लोए विसेसाहिए'त्ति किश्चित्समधिकसप्तरजूच्छ्तित्वादिति ॥ त्रयोदशशते चतुर्थः ॥१३-४॥
१३ शतक
५ उद्देशा ___ अनन्तरोद्देशके लोकस्वरूपमुक्त, तत्र च नारकादयो भवन्तीति नारकादिवतच्यतां पञ्चमोदेशकेनाह, तस्य नारकादीचेदमादिसूत्रम्
नामाहारः नेरड्या ण भैते । किं सचित्साहारा अचित्ताहारा मीसाहारा, गोयमा ! नो सचित्ताहारा अचित्ताहारा4ve नो मीसाहारा, एवं असुरकुमारा पढमो नेरहयउद्देसओ निरवसेसो भाणिययो । सेवं भंते । सेवं भंतेसि (सूत्रं ४८८)॥१३-५॥ | 'नेरहया भंते इत्यादि, 'पढमो मेरइयउद्देसओ'इत्यादि, अयं च प्रज्ञापनायामष्टाविंशतितमस्थाहारपदस्थ ॥१६॥
प्रथमा, स पैवं रश्या-निरइया ण भंते ! किं सचित्ताहारा अचित्ताहारा मीसाहारा ,गोयमा ! नो सचित्ताहारा अचि-IHI 1||त्ताहारा नो मीसाहारा। "एवं असुरकुमारेत्यादीति ॥ त्रयोदशशते पत्रामः॥१-५॥
X***********MAX*XXX
दीप अनुक्रम
[५८३,
५८४]
अत्र त्रयोदशमे शतके चतुर्थ-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ त्रयोदशमे शतके पंचम-उद्देशक: आरब्ध: एवं परिसमाप्त:
~142
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [४८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४८९]
अनन्तरोदेशके नारकादिवक्तव्यतोक्का पछेऽपि सैवोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्थास्येदमादिसूत्रम्रायगिहे जाव एवं वयासी-संतरं भंते ! नेरतिया उवववति निरंतरं नेरहया उबवजंलि गोयमा! संतरंपि नेरइया उपव० निरंतरपि नेरझ्या उबवज्जति, एवं असुरकुमारावि, एवं जहर गंगेये लहेच दो दंडगा जाव संतरपि वेमाणिया चयंति निरंतरपि बेमाणिया चयंति (खूनं ४८९)॥
'रायगिहें'इत्यादि, 'गंमेए'त्ति नवमशतद्वात्रिंशत्तमोद्देशकाभिहिते 'दो दंडग'त्ति उत्पत्तिदण्डक उद्धर्शनादण्डकश्चेति ॥ | अनन्तरं वैमानिकानां च्यवनमुकं, ते च देवा इति देवाधिकाराचमराभिधानस्य देवविशेषस्यापासविशेषषरूपणायाह
कहिनं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुररको चमरचंचा नाम आवासे पपणते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे मंदरस्स पञ्चयस्स दाहिणेणं तिरियमसंखेने दीवसमुहे एवं जहा बितियए सभाए उद्देसए यत्तषया सचेव अप
रिसेसा नेयवा नवरं इमं नाणत्वं जाब तिगिच्छकूडस्स अप्पायपवयस्स चमरचंचाए रायहाणीए चमरचंदाचस्स आवासपचयरस अन्नेसिं च बरणं सेसं तं चेव जाव तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचिविसेसा परि-18 मक्खेचेणं, तीसे णं चमरचंचाए रायहाणीए दाहिणपञ्चच्छिमेणं छफोडिसए पणपत्रं च कोडीओ पणतीस य
सयसहस्साई पनासं च सहस्साई अरुणोदगसमुई तिरियं वीइवत्ता एस्थ णं चमरस्स असुरिदस्स असुरद्राकुमाररनो चमरचंचे नाम आवासे पण्णते, चउरासीई जोपणलहस्साई आयामविक्खंभेणं दो जोयणसय
सहस्सा पन्नार्डिं च सहस्साई छचत्तीसे जोपणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेणं, से 4 एर्ण पागारेणं
दीप अनुक्रम [५८५]
SAMACHAR
JAMEauratonia
)
अथ त्रयोदशमे शतके षष्ठ-उद्देशक: आरभ्यते
~143
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [४९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
दोद्वर्तनादि
[४९०]
दीप अनुक्रम [५८६]
व्याख्या
सबओ संमता संपरिक्खित्ते, से पागारे दिवढ जोयणसयं उहुं उच्चत्तेणं एवं चमरचंचाए रायहा- ||११ शतके
जाणीए वत्तवया भाणियवा सभाविहूणा जाव चत्सारि पासायपंतीओ । चमरे णं भंते ! अमुरिंदे असुरकु- उद्देशः अभयदेवी- मारराया चमरचंचे आवासे वसहिं उबेति, नो तिणढे समढे, सेकेणं खाइ अद्वेणं भंते ! एवं बुचइ चम- नारकोत्पात रचंचे आवासे च०२१, गोयमा ! से जहानामए-इहं मणुस्सलोगंसि उवगारियलेणाइ वा उजाणियलेणाइ वा ।
दसू ४८९ ॥६१७॥
|णिजाणियलेणाइ वा धारिवारियलेणाइ वा तत्थ णं वहवे मणुस्सा य मणुस्सीओ य आसयंति सपंति जहा| रायप्पसेणहजे जाव कहाणफलवित्तिविसेसं पचणुभवमाणा विहरति अन्नत्य पुण वसहि उति, एवामेव
चमरचश्च
आवास: गोपमा ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो चमरचंचे आवासे केवलं किड्डारतिपत्तियं अन्नत्थ पुण| चसहिं उति से तेण जाव आवासे, सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाव विहरह (सूत्र ४९०)॥
'कहिष्ण भंते ! इत्यादि, 'सभाविड़णति सुधर्माद्याः पञ्चेह सभा न वाच्याः, कियडू यावदियमिह चमरचंचा-14 राजधानीवक्तव्यता भणितच्या ? इत्याह-जाव चत्तारि पासायपंतीओ'त्ति ताश्च प्राक् प्रदर्शिता एवेति, 'उचगाभारिपलेणाइ वत्ति 'औपकारिकलयनानि' प्रासादादिपीठकल्पानि 'उज्जाणियलेणाइ वति उद्यानगतजनानामुपकारिक-1 18|| गृहाणि नगरप्रदेशगृहाणि वा 'णिज्जाणियलेणाइव'त्ति नगरनिर्गमगृहाणि 'धारिवारियलेणाइ बत्ति धाराप्रधानं वारि- ६१७॥ द जलं येषु तानि धारावारिकाणि तानि च तानि लयनानि चेति वाक्यम् 'आसयंति'त्ति 'आश्रयन्ते' ईषद्भजन्ते 'सर्य
ति'त्ति 'श्रयन्ते' अनीषद्भजन्ते, अथवा 'आसयंति' ईषत्स्वपन्ति 'सयंति' अनीषत्स्वपन्ति 'जहा रायप्पसेणइजेत्ति |51
~144
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [४९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४९०
अनेन यत्सूचितं तदिदं-'चिट्टति' अमीस्थानेन तेषु तिष्ठन्ति 'निसीयंति' उपविशन्ति 'तुयदृति' निषण्णा आसते
ति' परिहास कुर्वन्ति रमन्ते' अक्षादिना रतिं कुर्वन्ति 'ललन्ति' ईप्सितक्रियाविशेषान् कुर्वन्ति 'कीलंति' कामक्रीडां कुर्वन्ति 'किडुति' अन्तर्भूतकारितार्थत्वादन्यान् क्रीडयन्ति 'मोहयन्ति' मोहन-निधुवनं विदधति । 'पुरापोराणाणं सुचिन्नाणं सुपरिफताणं सुभाणं कडाण कम्माणं'ति व्याख्या चास्य प्राग्वदिति, 'वसहिं उति'त्ति वासमुपयान्ति, 'एवामे-'त्यादि, 'एवमेव' मनुष्याणामोपकारिकादिलयनवच्चमरस्य ३ चमरचञ्च आवासो न निवासस्थान केवलं किन्तु 'किड्डारइपत्तिय'ति क्रीडायां रतिः-आनन्दः क्रीडारतिः अथवा क्रीडा च रतिश्च क्रीडारती सा ते 2
वा प्रत्ययो-निमित्तं यत्र तत् क्रीडारतिप्रत्ययं तत्रागच्छतीति शेषः ॥ अनन्तरमसुरकुमारविशेषावासवक्तव्यतोक्का, || असुरकुमारेषु च विराधितदेशसर्वसंयमा उत्पद्यन्ते ततश्च तेषु योऽत्र तीर्थे उत्पन्नस्तद्दर्शनायोपक्रमते
तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ जाब विहरइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था बन्नओ पुन्नभ चेहए वन्नओतए णं समणे भगवं महावीरे
अन्नया कदाइ पुवाणुपुर्वि चरमाणे जाव विहरमाणे जेणेव चंपा नगरी जेणेव पुन्नभद्दे चेतिए तेणेव उवाग० है|२जाब विहरह, तेणं कालेणं २ सिंधुसोवीरेसु जणवएसु वीतीभए नाम नगरे होस्था बन्नओ, तस्स णं
वीतीमयस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एस्थ णं मियवणे नामं उजाणे होत्था सबोउय० द बन्नओ, तत्व णं बीतीभए नगरे उदायणे नामं राया होत्था महया वन्नओ, तस्स णं उदायणस्स रन्नो प
4584%95%25645625
दीप अनुक्रम [५८६]
AARONOSAXCREATER
SAREairatomKI
उदायन-राजर्षि-चरित्रं
~145
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [४९१-४९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४९१-४९२]
दीप अनुक्रम [५८७-५८८]
व्याख्या- भावती नामं देवी होत्था सुकमाल. वन्नओ. तस्स णं उदायणस्स रसो पुसे पभावतीए देवीए अत्सए अभी-18|१२ शतके अभयदानातिनाम कुमारे होत्था सुकमाल जहा सिवभद्दे जाव पचुवेक्वमाणे विहरति, तस्स णं उदापणस्स रनो नि-द६ उद्देशः या वृत्तिः
यए भायणेज्जे केसीनामं कुमारे होत्था सुकुमाल जाव सुरूवे, से णं उदायणे राया सिंधुसोवीरप्पामो- उदायनामी ॥६१८॥ खाणं सोलसहं जणवयाणं वीतीमयप्पामोक्खाणं तिहं तेसट्ठीणं नगरागरसयार्ण महसेणयामोक्खाणं| चिवतव्यः दिसण्हं राईणं बद्धमउडाणं विदिन्नछत्तचामरवालवीयणाणं अन्नेसिं च बटणं राईसरतलबजाय सत्यवाहप्प-तापुर
भिईणं आहेवच्चं जाव कारेमाणे पालेमाणे समणोवासए अभिगयजीवाजीचे जाब विहरह । तए णं से उदाजायणे राया अन्नया कयाइ जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ जहा संखे जाव विरुस ।तए ण तस्स उदा-1
यणस्स रन्नो पुषरत्ताबारसकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयालये अन्मपिए अब समुप्प|जित्था-धना णं ते गामागरनगरखेडकबडमडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाहसमिकेसा जत्थ णं समणे भगवं महावीरे विहरह, धन्ना णं ते राईसरतलघरजावसत्यवाहप्पभिईओ जे णं समणं भगषं महामी बदलि नमसंति जान पजुवासंलि, जहां समणे भगवं महाचीरे पुषाणुपुर्षि चरमाणे गामाणुगामं जाव हिरमाणे इह-18
D॥१८॥ मागच्छेज्जा इह समोसरेजा इहेब बीनीभयस्स नगरस्स बहिया मियवणे उजाणे अहापडिरूर्व सग्गरं अपिग-
हित्ता संजमेणं तमसा जाब विहरेजा तो णं अहं समर्ण भगवं महावीरं वंदेजा मर्मसेजा जाप 'पशुवासेना, दतए णं समणे भगवं महावीरे उदायणस्स रनो अयमेयारूवं अम्भत्थियं जाव समुप्पन वियामिक्स पाओ|8||
ACASASSASSAGE*
उदायन-राजर्षि-चरित्रं
~146~
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [४९१-४९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४९१-४९२]
नगरीभो पुग्नभदाओ चेझ्याओ पडिनिक्खमति पडिनि०२ पुषाणुपुर्वि चरमाणे गामाणु जाव विहरमाणे जेणेच सिंधुसोवीरे जणवए जेणेव वीतीभये णगरे जेणेव मियवणे उज्जाणे तेणेव उवा०२ जाव विहरतिर तए णं बीतीभये नगरे सिंघाडगजाव परिसा पजुवासह । तए णं से उदायणे राया इमीसे कहाए लडे ।
समाणे हहतुह० कोटुंबियपुरिसे सदावेति को०२ एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! वीयीभयं नगरं । टू सम्भितरबाहिरियं जहा कुणिओ उववाइए जाव पजुवासति, पभावतीपामोक्खाओ देवीओ तहेव जाव
पजधासंति, धम्मकहा । तए णं से उदायणे राया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोचा निसम्म हडतुडे उडाए पढेइ २ समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाय नमंसित्ता एवं वधासी-एवमेयं भंते ! | तहमेयं भंते ! जाव से जहेयं तुज्झे वदहत्तिकद्द जं नवरं देवाणुप्पिया ! अभीपिकुमारं रजे ठावेमि, है तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पचयामि, अहामुहं देवाणुप्पिया ! मा पटिवघं । तए *
णं से उदायणे राया समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हद्वतुढे समणं भगवं महावीरं वंदति 3
नमंसति २ तमेव आभिसेकं हस्थि दुरूहद २त्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ मियवणाओ दो उज्याणाओ पडिनिक्खमति प०२ जेणेच चीतीभये नगरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तए णं तस्स उदायणस्स
रनो अयमेयारूवे अन्भस्थिए जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु अभीयीकुमारे ममं एगे पुत्ते इडे कंते जाव किमंग पुण पासणयाए, तं जति णं अहं अभीयीकुमारं रजे ठावेत्ता समणस्स भगवओमहावीरस्स अंतियं
SARKARINAKAR
दीप अनुक्रम
[५८७
-५८८]
व्या.10
उदायन-राजर्षि-चरित्रं
~147
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [४९१-४९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४९१-४९२]
दीप अनुक्रम
व्याख्या-1 मुंडे भवित्ता जाव पव्वयामि तो णं अभीयीकुमारेरजे यरटे य जाव जणवए माणुस्सएमु य कामभोमेसु मुच्छिए १३ शतके प्रज्ञप्तिः गिद्धे गढिए अज्झोववन्ने अणादीयं अणवदग्गं दीहमळू चाउरंतसंसारकतारं अणुपरियहिस्सइ, तं मो खलु उद्देशः अभयदेवी- मे सेयं अभीयीकुमारं रजे ठावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पवइत्तए, सेयं खलु मेणियगं भाया वृत्तिः इणेज केसि कुमारं रजे ठावेत्ता समणस्स भगवओ जाव पचइत्तए, एवं संपेहेइ एवं संपे० २४
|चिवक्तव्य ॥५१॥ जेणेव बीतीभये नगरे तेणेव उवागच्छद २ वीतीभयं नगरं मज्झमझेणं जेणेव सए गेहे जेणेवा
बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवाग० २ आभिसेकं हत्यि ठवेति आभि०२ आभिसेकाओ ६ हत्थीओ पचोरुभइ आ०२ जेणेव सीहासणे तेणेच उवागच्छति २ सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमुहे निसी-18 यति नि०२ कोटुंबियपुरिसे सद्दावेति को०२ एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! बीतीभवं भगरंट
सम्भितरबाहिरियं जाव पचप्पिणति, तए णं से उदायणे राया दोचंपि कोडंपियपुरिसे सहावेति स.२ एवं मा 18 वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पियाकेसिस्स कुमारस्स महत्थंएवं रायाभिसेओ जहा सिवभहस्स कुमारस्स तहेब भाणियहो जाच परमाउं पालयाहि इट्टजणसंपरिबुडे सिंधुसोवीरपामोक्खाणं सोलसण्हं जणवयाणं -
॥६१९॥ बीतीभयपामोक्खाणं० महसेण राया अन्नेसिं च बहणं राईसर जाव कारेमाणे पालेमाणे विहराहित्तिकडु जय18 जयसई पति । तए णं से केसीकुमारे राया जाए महया जाच विहरति । तए णं से उदायणे राया केसि बारायाणं आपुरुछा, तए णं से केसीराया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति एवं जहा जमालिस्स तहेव सम्भितरषा-16
[५८७
-५८८]
उदायन-राजर्षि-चरित्रं
~148~
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [४९१-४९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४९१-४९२]
190456
हिरियं तहेव जाव निक्खमणाभिसेयं उववेति, तए णं से केसीराया अणेगगणणायग जाव संपरिबुडे
उदायणं रायं सीहासणवरंसि पुरत्याभिमुहे निसीयावेति २ अट्ठसएणं सोवन्नियाणं एवं जहा जमालिस्स ६ जाव एवं वयासी-भण सामी! किं देमोकिं पयच्छामो? किंणा वा ते अहो,तए णं से उदायणे राया केसि
रायं एवं क्यासी-इच्छामि गं देवाणुप्पिया ! कुत्तियावणाओ एवं जहा जमा लिस्स नवरं पउमावती अम्गकेसे पडिच्छइ पियविप्पयोगदूसणा, तए णं से केसी राया दोचपि उत्तरावकमणं सीहासणं रयावेति दो०२ उदायर्ण राय सेयापीतएहि कलसेहिं सेसं जहा जमालिस्स जाब सन्निसन्ने तहेव अम्मघाती नवरं पजमावती || हंसलक्खणं पडसाइंगं गहाय सैसं सं चेव जाव सीयाओ पचोरुभति सी० २ जेणेव समणे भगवं महा
धीरे तेणेव उवागच्छइ २ समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदति नमंसति वं. नम० उत्तरपुरसिछम ६ दिसीभागं अवक्कमति उ०२ सयमेव आभरणमल्लालंकारं सं चेव पउमावती पडिच्छति जाव घडिया
सामी ! जाव नो पमादेयवंतिकट्ट, केसी राया पउमावती य समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति २ जाव पडिगया। तए णं से उदायणे राया सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं सेसं जहा उसमदत्तस्स जाव सबबुक्खप्पहीणे (मूत्रं ४९१)॥तए णं तस्स अभीयिस्स कुमारस्स अन्नदा कयाइ पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अन्भथिए जाव समुप्पजिस्था-एवं खलु अहं उदायणस्स पुत्ते पभावतीए देवीए अत्तए, तए णं से उदायणे राया ममं अवहाय नियगं भायणिज केसिकुमार रजे ठावेत्ता समणस्स भग
--8
X4
दीप अनुक्रम
+
[५८७
4
-५८८]
KAARCASSOS
k
Santaratmland
उदायन-राजर्षि-चरित्र
~149~
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [४९१-४९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४९१-४९२]
-0
च्याख्या- वओ जाव पवइए, इमेणं एयारूवेणं महया अप्पत्तिएणं मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे अंतेपुरप- १३ शतके प्रज्ञप्तिः ॥रियालसंपरिवडे सभडमत्तोवगरणमायाए वीतीभयाओ नयराओ पडिनिग्गच्छंति पडिनि०२ पुषाणुपुर्वि देशा अभयदेवी- चरमाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे जेणेव चंपा नयरी जेणेव कृणिए राया तेणेव उवा०२ कूणियं राय उवसंपज्जि- अभीचे श्रा या वृत्तिः२त्ताणं विह० तत्थवि णं से विउलभोगसमितिसमन्नागए यावि होत्या, तए णं से अभीयीकुमारे समणोवासएलवकत्वादि
सू ४९२ ॥६२०॥
याविहोत्था, अभिगय जाव विहरद, उदायणमि रायरिसिंमि समणुयद्धवेरे यावि होत्या, तेणं कालेणं २इमीसे हरयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेमु चोसहि असुरकुमारावाससयसहस्सा पत्नत्ता, तए णं से अभीयी दि कुमारे बहुइं वासाई समणोवासगपरियागं पाउणति पा०२अद्धमासियाए संलेहणाएतीसं भत्ताई अणसणाए
छपहर तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकते कालमासे कालं किचा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरय
परिसामंतेसु चोयडीए आयावा जाव सहस्सेसु अन्नयरंसि आयावा असुरकुमारावासंसि असुरकुमारसे देवत्ताए उव०, तस्थ णं अत्थेग आयावगाणं असुरकुमाराणं देवाणं एगं पलिकठिई प० तत्थ णं अभीपिस्सवि देवस्स एग पलि.ठिई पण्णत्ता । सेणं भंते ! अभीयीदेवे ताओ देवलोगाओ आउक्ख०३ अणंतरं उपट्टित्ता कहिं ग० ? कहिं उव०१, गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति, सेवं भंते ! ॥
॥६२०॥ है सेवं भंतेत्ति (सूत्रं ४९२)॥१३-६ ॥ PI 'तए ण'मित्यादि, 'सिंधुसोवीरेसुत्ति सिन्धुनद्या आसन्नाः सौवीरा-जनपदविशेषाः सिन्धुसौवीरास्तेषु 'वीईभए'त्ति |
दीप अनुक्रम
१
[५८७
-५८८]
उदायन-राजर्षि-चरित्रं
~150
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [४९१-४९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४९१-४९२]
CASEARSACAD
विगता ईतयो भयानि च यतस्तद्वीतिभयं विदर्भेति केचित् 'सबोउयवन्नओ'त्ति अनेनेदं सूचित-सषोउयपुष्फफलस-18|१३ शतके मिद्धे रम्मे नंदणवणप्पगासे'इत्यादीति । 'नगरागरसयाणं'ति करादायकानि नगराणि सुवर्णाद्युत्पत्तिस्थानान्याकरा ८ उद्देशः६ नगराणि चाकराश्चेति नगराकरास्तेषां शतानि नगराकरशतानि तेषां 'नगरसया'ति कचित्पाठः, 'विदिनछत्तचामरपालवीयणाण'ति वितीर्णानि छत्राणि चामररूपवालव्यजनिकाश्च येषां ते तथा तेषाम् । 'अप्पत्तिएणं मणोमाणसिएणं दुक्खेणं'ति 'अप्रीतिकेन' अप्रीतिस्वभावेन मनसो विकारो मानसिकं मनसि मानसिकं न यहिरुपलक्ष्यमाणविकार| | यत्तन्मनोमानसिकं तेन, केनैवंविधेन ? इत्याह-दुःखेन, 'सभंडमत्तोषगरणमायाय'त्ति स्वां-स्वकीयां भाण्डमात्रां
भाजनरूपं परिच्छदं उपकरणं च-शय्यादि गृहीत्वेत्यर्थः, अथवा सह भाण्डमात्रया यदुपकरणं तत्तथा तदादाय, 'समणुPावद्धवेरित्ति अव्यवच्छिन्नवैरिभाषः 'निरयपरिसामंतेसुत्ति नरकपरिपार्श्वतः 'चोयहीए आयावा असुरकुमारा-1
वासेसु'त्ति इह 'आयाव'त्ति असुरकुमारविशेषाः, विशेषतस्तु नावगम्यत इति ॥ त्रयोदशशते षष्ठः ॥ १३-६॥
CARRENCE
दीप अनुक्रम
[५८७
-५८८]
य पतेऽनन्तरोद्देशकेऽथों उक्तास्ते भाषयाऽतो भाषाया एव निरूपणाय सप्तम उच्यते, तस्य चेदमादिसूत्रम्रायगिहे जाव एवं वयासी-आया भंते ! भासा अन्ना भासा, गोयमा ! नो आया भासा अन्ना भासा, रूविं भंते ! भासा अरूविं भासा ?, गोयमा ! रूविं भासा नो अरूविं भासा, सचित्ता भंते । भासा अचि-| दत्ता भासा ?, गोयमा ! नो सचित्ता भासा अचित्ता भासा, जीचा भंते ! भासा अजीवा भासा ?,गोयमा!
645454
अत्र त्रयोदशमे शतके षष्ठं-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ त्रयोदशमे शतके सप्तम-उद्देशक: आरब्ध:
~151
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [४९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४९३]
दीप
व्याख्या- नो जीचा भासा अजीचा भासा । जीवाणं भंते ! भासा अजीवाणं भासा, गोयमा ! जीवाणं भासा १३ शतके प्रज्ञप्तिः
नो अजीवाणं भासा, पुर्वि भंते ! भासा भासिज्जमाणी भासा भासासमययीतिकता भासा, गोयमा:४७ उद्देशः अभयदेवी-नो पुर्वि भासा भासिज्जमाणी भासा णो भासासमयवीतिकता भासा, पुदि भंते ! भासा भिज्नति भा
- भाषाया या वृत्तिः सिजमाणी भासा भिजति भासासमयबीतिकता भासा भिज्जति !, गोयमा ! नो पुर्वि भासा भिजति
आत्मत्वादि ॥१२॥
भासिज्जमाणी भासा भिजइ नो भासासमयवीतिकता भासा भिजति । कतिविहा णं भंते ! भासा पण्णता, गोयमा! चउधिहा भासा पण्णत्ता, तंजहा-संचा मोसा सचामोसा असचामोसा (सूत्रं ४९३)॥
'रायगिहें'इत्यादि, 'आया भंते ! भास'त्ति काकाऽध्येयं आत्मा-जीयो भाषा जीवस्वभावा भाषेस्यर्थः यतो जीवेन ब्यापार्यते जीवस्य च बम्धमोक्षार्था भवति ततो जीवधर्मस्वाज्जीव इति व्यपदेशार्हा ज्ञानवदिति, अथान्या भाषा-न जीयस्वरूपा श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यत्वेन मूर्ततयाऽऽत्मनो विलक्षणत्वादिति शङ्का अतः प्रश्ना, अत्रोत्तर-नो आया | भास'त्ति आत्मरूपा नासौ भवति, पुद्गलमयत्वादात्मना चं निसृज्यमानत्वात्तथाविधलोष्ठादिवत् अचेतनस्वाचाकाशवत्, यच्चोक्तं-जीवेन व्यापार्यमाणस्वाज्जीवः स्याज्ञानवत्तदनैकान्तिक, जीवव्यापारस्य जीवादत्यन्तं भिन्नस्वरूपेऽपि दात्रादौ दर्शनादिति । 'सर्वि भंते ! भास'त्ति रूपिणी भदन्त ! भाषा श्रोत्रस्यानुग्रहोपघातकारित्वात्तथाविधकर्णाभ-16
॥६२१॥ रणादिचत्, अथारूपिणी भाषा चक्षुषाऽनुपलभ्यत्वाद्धर्मालिकायादिवदिति शङ्का अतः प्रश्नः, उत्तरं तु रूपिणी भाषा, यच्च चक्षुरग्राह्यत्वमरूपित्वसाधनायोक्तं तदनकान्तिक, परमाणुवायुपिशाचादीनां रूपवतामपि चक्षुरग्राह्यत्वेनाभिमत
अनुक्रम [५८९]
~152
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग -1, अंतर-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [४९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४९३]
दीप
स्वादिति । अनात्मरूपाऽपि सचित्तासौ भविष्यति जीवरछरीरवदिति पृच्छन्नाह-सचिसे'त्यादि, उत्तरं तु मो सचित्ता "जीवनिसृष्टपुद्गलसंहतिरूपत्वात्तथाविधलेष्ठुवत्, तथा 'जीवा मंते।'इत्यादि, जीवतीति जीवा-प्राणधारणस्वरूपा भाषा
उतैतद्विलक्षणेति प्रश्नः, अनोत्तरं नो जीवा, उच्छासादिप्राणानां तस्या अभावादिति । इह कैश्चिदभ्युपगम्यते अपौरुषेयी वेदभाषा, तन्मतं मनस्याधायाह-'जीवाण'मित्यादि, उत्तरं तु जीवानां भाषा, वर्णानां तास्वादिव्यापारजन्यत्वात् ताल्वादिव्यापारस्य च जीवाश्चितत्वात्, यद्यपि चाजीवेभ्यः शब्द उत्पद्यते तथाऽपि नासौ भाषा, भाषापर्याप्तिजन्यस्यैव
शब्दस्य भाषात्वेनाभिमतत्वादिति । तथा 'पुधिमित्यादि, अत्रोत्तर-नो पूर्व भाषणाद् भाषा भवति मृत्पिण्डाव-13 ४ स्थायां घट इव, भाष्यमाणा-निसर्गावस्थायां वर्तमाना भाषा घटावस्थायां घटस्वरूपमिव, 'नो' नैव भाषासमयव्यति
कान्ता-भाषासमयो-निसृज्यमानावस्थातो यावद्भाषापरिणामसमयस्तं व्यतिक्रान्ता था सा तथा भाषा भवति, घटसमयातिकान्तघटवत् कपालावस्थ इत्यर्थः । 'पुत्विं भंते 'इत्यादि, अनोत्तरं-'नी' नैव पूर्व निसर्गसमयादापाद्रव्यभेदेन
भाषा भिद्यते, भाष्यमाणा भाषा भिद्यते, अयमत्राभिप्राय:--इह कश्चिन्मन्दप्रयलो वक्ता भवति स चाभिन्नान्येव र शब्दद्रव्याणि निसृजति, तानि च निसृष्टान्यसवेयात्मकत्वात् परिस्थूरत्वाच्च विभिद्यन्ते, बिभिद्यमानानि च सङ्खयेयानि | योजनानि गत्वा शब्दपरिणामत्यागमेव कुर्वन्ति, कश्चित्तु महाप्रयलो भवति स खल्वादानविसर्गप्रयलाभ्यां भित्त्वैव |विसृजति, तानि च सूक्ष्मत्वाद्बहुत्वाच्चानन्तगुणवृद्ध्या वर्द्धमानानि षट्सु दिक्षु लोकान्तमामुवन्ति, अत्र च यस्यामव-! द स्थायां शब्दपरिणामस्तस्यां भाष्यमाणताऽवसेयेति, 'मो भासासमयवीइकंतेति परित्यक्तभाषापरिणामेत्यर्थः
अनुक्रम [५८९]
CAKASAMANASALESO
~153
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [४९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४९३]
दीप
व्याख्या
उत्कृष्टप्रयलस्य तदानी निवृत्तत्वादितिभावः ॥ अनन्तरं भाषा निरूपिता, सा च प्रायो मनःपूर्विका भवतीति मनो- १३ | निरूपणायाह
७ उद्देश: अभयदेवी-| आया भंते ! मणे अन्ने मणे ?, गोयमा ! नो आया मणे अन्ने मणे जहा भासा तहा मणेचि जाव नो| मनस, या वृत्तिः२ अजीवाणं मणे, पुषिं भंते ! मणे मणिज्जमाणे मणे? एवं जहेव भासा, पुर्वि भंते ! मणे भिजति मणिज- आत्मवादि
माणे मणे भिजति मणसमयवीतिक मणे भिजति ?, एवं जहेब भासा । कतिविहे गं भंते ! मणे पपणते ?. सू. ४९४ ॥२२॥ गोयमा ! चउबिहे मणे पन्नत्ते, तंजहा-सच्चे जाव असचामोसे (सूत्र ४९४)॥ आया भंते ! काये अन्नेदा कायस्या
त्मवादि काये?, गोयमा! आयावि काये अन्नेचि काये, रूविं भंते ! काये अरूविकाये ?, पुच्छा, गोयमा ! रूविपिन
पाला सू४९५ काये अरूविपि काए, एवं एकेके पुच्छा, गोयमा! सचित्तेवि काये अचित्तेवि काए, जीवेवि काए अजीचेचि || DI काए, जीवाणवि काए अजीवाणवि काए, पुर्वि भंते ! काये पुच्छा, गोयमा ! पुधिपि काए कायिज्जमाणेवि काए कायसमयवीतितेवि काये, पुचि भंते ! काये भिजति पुच्छा, गोयमा ! पुबिंपिकाए भिजति जाव
Mil॥६२२॥ काए भिजति ॥ कहविहे गं भंते ! काये पन्नत्ते, गोयमा! सत्तविहे काये पन्नते, तंजहा-ओराले ओरा-18 लियमीसए वेउधिए वेउवियमीसए आहारए आहारगमीसए कम्मए (सूत्र ४९५)
'आया भंते ! मणे इत्यादि, एतत्सत्राणि च भाषासूत्रवन्नेयानि, केवलमिह मनोव्यसमुदयो मननोपकारी मन:४॥ पोतिनामकर्मोदयसम्पायो, भेदश्च तेषां विदलनमात्रमिति ॥ अनन्तरं मनो निरूपितं तच्च काये सत्येव भवतीति काय
अनुक्रम [५८९]
~154
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [४९४-४९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
__
काली माता - पिता
प्रत
सूत्रांक
[४९४-४९५]
दीप अनुक्रम [५९०-५९१]
निरूपणायाह-'आया भंते ! काये' इत्यादि, आत्मा कायः कायेन कृतस्यानुभवनात्, न ह्यन्येन कृतमन्योऽनुभवति अकृतागमप्रसङ्गात् , अधान्य आत्मनः कायः कायैकदेशच्छेदेऽपि संवेदनस्य सम्पूर्णत्वेनाभ्युपगमादिति प्रश्नः, [प्रन्थाग्रम् १३०००] उत्तरं त्वात्माऽपि कायः कथञ्चित्तदव्यतिरेकात् क्षीरनीरवत् अग्ययस्पिण्डवत् काञ्चनोपलवद्वा, अत एव कायस्पर्शे सत्यात्मनः संवेदनं भवति, अत एव च कायेन कृतमात्मना भवान्तरे वेद्यते, अत्यन्तभेदे चाकृतागमप्रसङ्ग इति, 'अन्नेवि काये'त्ति अत्यन्ताभेदे हि शरीरांशच्छेदे जीवांशच्छेदप्रसङ्गः, तथा च संवेदनासम्पूर्णता स्थात्, तथा शरीरस्य दाहे आत्मनोऽपि दाहप्रसङ्गेन परलोकाभावप्रसङ्ग इत्यतः कथञ्चिदात्मनोऽन्योऽपि काय इति, अन्यैस्तु कार्मणकायमाश्रित्यात्मा काय इति व्याख्यातं, कार्मणकायस्य संसार्यात्मनश्च परस्पराव्यभिचरितत्वेनैकस्वरूपत्वात्, 'अनेवि काए'त्ति औदारिकादिकायापेक्षया जीवादन्यः कायस्तद्विमोचनेन तनेदसिद्धिरिति, 'रूविपि काए'त्ति || रूप्यपि कायः औदारिकादिकायस्थूलरूपापेक्षया, अरूप्यपि कायः कार्मणकायस्यातिसूक्ष्मरूपित्वेनारूपित्वविवक्षणात्,
एवं एफके पुच्छत्ति पूर्वोक्तप्रकारेणैकैकसूत्रे पृच्छा विधेया, तद्यथा-सचित्ते भंते ! काये अचित्ते काये "इत्या|दि, अनोत्तरं-सचित्तेवि काए' जीवदवस्थायां चैतन्यसमन्वितत्वात् , 'अचित्तेविकाए' मृतावस्थायां चैतन्यस्या४|| भावात् , 'जीवेवि कायेति जीवोऽपि विवक्षितोच्छासादिप्राणयुक्तोऽपि भवति कायः औदारिकादिशरीरमपेक्ष्य, * अजीवेवि काये'त्तिअजीवोऽपि उच्यासादिरहितोऽपि भवति कायः कार्मणशरीरमपेक्ष्य, 'जीवाणवि कायेत्ति
जीवानां सम्बन्धी 'काय' शरीरं भवति, अजीवाणवि कायेत्ति अजीवानामपि स्थापनाईदादीनां 'काय' शरीरं।
CASSESCOCOMMC
~155
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [४९४-४९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४९३]]
दीप
व्याख्या भवति शरीराकार इत्यर्थः 'पुर्विपि काए'त्ति जीवसम्बन्धकालारपूर्वमपि कायो भवति यथा भविष्यजीवसम्बन्धं मृत- १३ शतके मज्ञप्तिःदरशरीरं 'काइजमाणेवि काए'त्ति जीवेन चीयमानोऽपि कायो भवति यथा जीवच्छरीरं, 'कायसमयवीतिक- ७ उद्देशः अभयदेवी-18 तेयि काए'त्ति कायसमयो जीवेन कायस्य कायताकरणलक्षणस्तं व्यतिक्रान्तो यः स तथा सोऽपि काय एव मृतकडेव-/ मनःकायया वृत्तिः रखत, 'पुकिंपिकाए भिजइ'त्ति जीवेन कायतया ग्रहणसमयात्पूर्वमपि कायो मधुघटादिन्यायेन द्रव्यकायो भिद्यते प्रति
सयोरात्मत्वा क्षणं पुद्गलचयापचयभावात् , 'काइजमाणेषि काए भिजत्ति जीवेन कायीक्रियमाणोऽपि कायो भिद्यते, सिकताक
दिसू ४९५ ॥६२३॥
णकलापमुष्टिग्रहणवत् पुद्गलानामनुक्षणं परिशाटनभावात्, 'कायसमयबीतिफतेऽवि काये भिजा'त्ति कायसमयव्यहै तिक्रान्तस्य च कायता भूतभावतया घृतकुम्भादिन्यायेन, भेदश्च पुद्गलानां तत्स्वभावतयेति, पूर्णिकारेण पुनः कायसू
त्राणि कायशब्दस्य केवल शरीरार्थत्यागेन चयमाववाचकत्वमङ्गीकृत्य व्याख्यातानि, यदाह-कायसदो सधभावसामपसरीरवाई कायशब्दः सर्वभावानां सामान्यं यच्छरीरं चयमात्रं तद्वाचक इत्यर्थः, एयं च 'आयाविकाए सेसदवाणिधि काय'त्ति, इदमुक्तं भवति-आत्माऽपि कायः प्रदेशसञ्चय इत्यर्थः तदन्योऽप्य| कायप्रदेशसञ्चयरूपत्वादिति, रूपी कायःk
पुद्गलस्कन्धापेक्षया, अरूपी कायो जीवधर्मास्तिकायाद्यपेक्षया, सचित्तः कायो जीवच्छरीरापेक्षया, अचित्तः कायोऽचेतन॥ सञ्चयापेक्षया, जीवः कायः-उचहासादियुक्तावयवसथयरूपः, अजीवः कायः तद्विलक्षणः, जीवानां कायो-जीवराशिः, अजी-॥ ६ ॥
वानां कायः-परमाण्वादिराशिरिति, एवं शेषाण्यपि ॥ अथ कायस्यैव भेदानाह-'कइविहे ण'मित्यादि, अयं च सप्तविधोऽपि | Vापार विस्तरेण व्याख्यातः इह तु स्थानाशून्यार्थ लेशतो व्याख्यायते, तत्र च 'ओरालिए'त्ति औदारिकशरीरमेव पुद्ग-1
In
अनुक्रम [५८९]
wirstudiorary.com
~156~
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [४९४-४९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४९४
-४९५]
दीप अनुक्रम [५९०-५९१]
| लस्कन्धरूपत्वादुपचीयमानत्वात्काय औदारिककाया, अयं च पर्याप्तकस्यैवेति, 'ओरालियमीसए'सि औदारिकश्चासी ४ मिश्रश्च कार्मणेनेत्यौदारिकमिश्रः, अयं चापर्याप्तकस्य, 'वेविय'त्ति वैक्रियः पर्याप्तकस्य देवादेः, 'उधियमीसए'त्ति वैक्रियश्चासौ मिश्रश्च कार्मणेनेति वैक्रियमिश्रः, अयं चाप्रतिपूर्णवैक्रियशरीरस्य देवाः, आहारए'त्ति आहारकः आहारकशरीर
निवृत्ती, 'आहारगमीसए'त्ति आहारकपरित्यागेनौदारिकग्रहणायोद्यतस्याहारकमिश्रो भवति मिश्रता पुनरौदारिकेणेति, IX 'कम्मए'त्ति विग्रहगतो केवलिसमुद्राते था कार्मणः स्यादिति ॥ अनन्तरं काय उक्तस्तत्त्यागेच मरणं भवतीति तदाह
कतिविहे गं भंते ! मरणे पत्नत्ते ?, गोयमा ! पंचविहे मरणे पण्णते, तंजहा-आवीचियमरणे ओहिमरणे आदितियमरणे बालमरणे पंडियमरणे। आवीचियमरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णसे , गोयमा! पंचविहे पण्णते, तंजहा-दवावीचियमरणे खेत्ताचीचियमरणे कालापीचियमरणे भवाचीचियसरणे भावावीचियमरणे । दधावीचियमरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! चउबिहे पण्णत्ते, तंजहा-नेरइयदवावीचियमरणे तिरिक्खजोणियदवाबीचियमरणे मणुस्सदवाचीचियमरणे देवदवाबीचियमरणे, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचड़ नेरइयरावीचियमरणे नेरइयदद्यावीचियमरणे, गोयमा! जपणं नेरहया नेरइए दवे वट्टमाणा जाइंदबाई नेरइयाउयत्ताए गहियाई बधाई पुट्ठाई कडाई पट्टवियाई निविट्ठाई अभिनिविट्ठाई अभिसमन्नागयाई भवंति ताई दवाई आवीची अणुसमयं निरंतरंमरंतित्तिकट्ट से तेणडेणं गोयमा! एवं बुच्चइ नेरइयदबाबीचियमरणे, एवं जाव देवदवावीचियमरणे । खेत्तावीचियमरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! चउधिहे
REnatin
.
मरण एवं तस्य आवीचिमरणादि पञ्च भेदा:
~157.
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [४९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४९६]]
%
व्याख्या-18 पण्णत्ते, तंजहा-नेरइयखेत्तावीचियमरणे जाव देव०, सेकेणद्वेणं भंते! एवं. नेरइयखेत्तावीचियमरणे नेर०२१, १३ शतके प्रज्ञप्तिः
जण्णं नेरदया नेरइयखेत्ते वहमाणा जाई दवाई नेरच्याउयत्ताए एवं जहेव दवाबीचियमरणे तहेव खेत्ता- उद्देशः अभयदेवी- वीचियमरणेवि, एवं जाव भावाचीचियमरणे । ओहिमरणे गंभंते ! कतिविहे पण्णते?, गोयमा ! पंचविहे आवीचि. या वृत्तिः |पण्णसे, तंजहा-दछोहिमरणे खेसोहिमरणे जाव भावोहिमरणे । दद्योहिमरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ?.3 मरणादि ॥६२४॥
गोयमा ! चउधिहे पण्णत्ते, तंजहा-नेरइयदघोहिमरणे जाव देवदघोहिमरणे, से केणटेणं भंते ! एवं बु नेरइयदबोहिमरणे २१, गोयमा ! जण्णं नेरइया नेरइयदचे वट्टमाणा जाई दवाई संपर्य मरंति जण्णं नेरड्या
ताई दवाई अणागए काले पुणोचि मरिस्संति से तेण गोयमा! जाच दरोहिमरणे, एवं तिरिक्खजो&ाणिय० मणुस्स० देवोहिमरणेवि, एवं एएणं गमेणं खेत्तोहिमरणेवि कालोहिमरणेवि भचोहिमरणेवि भावोहिमरणेवि । आईतियमरणे णं भंते ! पुच्छा, गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, तं०-दत्वादितियमरणे खेत्तादितियमरणे जाष भावादितियमरणे, दवादितियमरणे णं भंते ! कतिविहे प०१, गो! चउविहे प० त०-नेरइयदवाईतियमरणे जाव देवदवादितियमरणे, से केणटेणं० एवं यु० नेरइयवादिंतियमरणे नेर०२१, गो. जपणं
KISI ॥२॥ नेरइया नेरहयदये वट्टमाणा जाई दवाई संपर्य मरति जेणं नेरझ्या ताई दवाईअणागए काले नो पुणोषि मरिस्संति से तेणढणं जावमरणे, एवं तिरिक्ख०मणुस्सन्देवाइंतियमरणे, एवं खेसाइंतियमरणेवि एवं जाव भावाइंतियमरणेवि । बालमरणे णं भंते ! कतिबिहे प०, गो! दुवालसविहे पं००-बलयमरणं जहा खंदए
-2
दीप अनुक्रम [५९२]
%
SACAROO
%
SAREauraton mamanime
मरण एवं तस्य आवीचिमरणादि पञ्च भेदा:
~158~
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [४९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४९६]
जाव गद्धपढे ॥ पंडियमरणे णं भंते ! कइविहे पणते?, गोयमा! दुविहे पण्णते, तंजहा-पाओवगमणे य भत्तपचक्खाणे य । पाओवगमणे गं भंते ! कतिविहे प०,गोयमा! दुविहे प०, तं०-णीहारिमेय अनीहारिमेय जाव नियम अपडिकम्मे । भत्तपञ्चक्खाणे णं भंते! कतिविहे प०१, एवं तं चेव नवरं नियमं सपष्टिकम्मे। सेवं भंते २त्ति (सूत्रं ४९६)॥१३-७॥ | 'कतिविहे गं भंते ! मरणे इत्यादि, 'आवीइयमरणे'त्ति आ-समन्ताद्वीचयः-प्रतिसमयमनुभूयमानायुपोऽपराप. रायुर्दलिकोदयात्पूर्वपूर्वायुर्दलिकविच्युतिलक्षणाऽवस्था यस्मिन् तदाबीचिकं अथवाऽविद्यमाना वीचि:-विच्छेदो यत्र तदबीचिकं अवीचिकमेवावीचिकं तच्च तन्मरणं चेत्यावीचिकमरणं, 'ओहिमरणे'त्ति अवधिः-मर्यादा ततश्चायधिना मरणमवधिमरणं, यानि हि नारकादिभवनिबन्धनतयाऽऽयुःकर्मदलिकान्यनुभूय वियते, यदि पुनस्तान्येवानुभूय मरि-8 व्यते तदा तदवधिमरणमुच्यते, तद्रव्यापेक्षया पुनस्तद्हणावधि यावजीवस्य मृतत्वात् , संभवति च गृही| तोज्झितानां कर्मदलिकानां पुनर्ग्रहणं परिणामवैचिच्यादिति, 'आइंतियमरणे'त्ति अत्यन्तं भवमात्यन्तिकं तच तन्मरणं चेति वाक्यं, यानि हि नरकाचायुष्कतया कर्मदलिकान्यनुभूय नियते मृतश्च न पुनस्तान्यनुभूय पुनर्मरिष्यत || इत्येवं यन्मरणं, तच्च तद्रव्यापेक्षयाऽत्यन्तभावित्वादात्यन्तिकमिति, 'बालमरणे'त्ति अविरतमरणं 'पंडियमरणे'त्ति | सर्वविरतमरण, तत्रावीचिकमरणं पञ्चधा द्रव्यादिभेदेन, द्रव्यावीचिकमरणं च चतुझे नारकादिभेदात्, तत्र नारकद्रव्यावीचिकमरणप्रतिपादनायाह-जपण'मित्यादि, 'यत्' यस्माद्धेतो रयिका नारकत्वे द्रव्ये नारकजीवत्वेन वर्त
दीप अनुक्रम [५९२]
6056445-60%
wwrajastaramorg
मरण एवं तस्य आवीचिमरणादि पञ्च भेदा:
~159
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [४९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४९६]
दीप अनुक्रम [५९२]
व्याख्या ||माना मरन्तीति योगः, 'नेरहयाउयत्ताए'त्ति नैरयिकायुष्कतया 'गहियाईति स्पर्शनतः 'बदाईति बन्धनतः||१३ शतके प्रज्ञप्तिः 'पुट्ठाईति पोषितानि प्रदेशप्रक्षेपतः 'कडाईति विशिष्टानुभागतः 'पट्टवियाईति स्थितिसम्पादनेन 'निविट्ठाई
तिउद्दशः अभयदेवीया वृत्तिः२
जीवप्रदेशेषु 'अभिनिविट्ठाईति जीवप्रदेशेष्वभिव्याप्त्या निविष्टानि अतिगादतां गतानीत्यर्थः, ततश्च 'अभि- आवीचि.
समन्नागयाईति अभिसमन्वागतानि-उदयावलिकायामागतानि तानि द्रव्याणि 'आवित्ति, किमुक्तं भवति | मरणादि ॥६२५|| 2-'अणुसमय'ति अनुसमय-प्रतिक्षणम्, एतच्च कतिपयसमयसमाश्रयणतोऽपि स्यादत आह-निरंतर मर- तासू ४९६
ति'त्ति 'निरन्तरम्'. अव्यवच्छेदेन सकलसमयेचित्यर्थः नियन्ते विमुञ्चन्तीत्यर्थः 'इतिकट्ट'त्ति इतिहेतो रयि-I कद्रव्यावीचिकमरणमुच्यत इति शेषः, एतस्यैव निगमनार्थमाह से तेण?ण मित्यादि । 'एवं जाव भावावीचियमरणे'त्ति इह यावत्करणात् कालावीचिकमरणं भवावीचिकमरण च द्रष्टव्यं, तत्र चैवं पाठः-'कालावीइयमरणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! चउबिहे पण्णते, तंजहानेरइयकालावीइयमरणे ४, से केणडेणं भंते ! द एवं वुच्चइ नेरइयकालावीचियमरणे २१, गोयमा ! जन्नं नेरइया नेरइयकाले वट्टमाणा'इत्यादि, एवं भवाबीचिकमर-16
णमध्यध्येयम् । नैरयिकद्रव्यावधिमरणसूत्रे 'जण्ण'मित्यादि, एवं चेहाक्षरघटना-नैरयिकद्रव्ये वर्तमाना ये नैरयिका यानि द्रव्याणि साम्प्रतं वियन्ते-त्यजन्ति तानि द्रव्याण्यनागतकाले पुनस्त इति गम्यं मरिष्यन्ते-त्यक्ष्यन्तीति यत्तन्नेरयिक
॥६२५॥ द्रव्यावधिमरणमुच्यत इति शेषः 'से तेणटेण'मित्यादि निगमनम् ॥ पण्डितमरणसूत्रे 'णीहारिमे अणीहारिमे'त्ति | यत्पादपोपगमनमाश्रयस्यैकदेशे विधीयते तन्निर्हारिम, कडेवरस्य निर्हरणीयत्वात् , यच्च गिरिकन्दरादी विधीयते तद
SAMEairahimal
Hetaurary.com
मरण एवं तस्य आवीचिमरणादि पञ्च भेदा:
~160
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [४९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
Pok
[४९६]
निहारिम, कडेवरस्यानिहरणीयत्वात् , 'नियम अप्पडिकम्मे त्ति शरीरप्रतिकर्मवर्जितमेव, चतुर्विधाहारप्रत्याख्याननिपन्नं चेदं भवतीति, 'तं चेव'त्ति करणान्निहोरिममनिहारिमं चेति दृश्य, सप्रतिकर्मैव चेदं भवतीति ॥ त्रयोदशशते सप्तमः ॥१३-७॥
अनन्तरोद्देशके मरणमुक्तं, तच्चायुष्कर्मस्थितिक्षयरूपमिति कर्मणां स्थितिप्रतिपादनार्थोऽष्टम उद्देशकस्तस्य चेद-| मादिसूत्रम्
कति णं मंते ! कम्मपगडीओ पपणत्ताओ?, गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णताओ एवं बंधहिइउसो भाणियचो निरवसेसो जहा पन्नवणाए । सेवं भंते ! सेवं भंते 1(सत्र ४९७)॥१३-८॥ A 'कति ण'मित्यादि, 'एवं बंधठिहउदेसओ'त्ति 'एवम्' अनेन प्रश्नोत्तरक्रमेण बन्धस्य-कर्मबन्धस्य स्थितिर्बन्ध-18
स्थितिः कर्मस्थितिरित्यर्थः तदर्थ उद्देशको बन्धस्थित्युदेशको भणितव्यः, स च प्रज्ञापनायास्त्रयोविंशतितमपदस्य द्वि
तीयः, इह च वाचनान्तरे सङ्घहणीगाथाऽस्ति, सा चेय-पयडीणं भेयठिई बंधोवि य इंदियाणुवाएणं । केरिसय जह४ ठिई बंधाइ उकोसियं वावि ॥१॥ अस्याश्चायमर्थः-कर्मप्रकृतीनां भेदो वाच्यः, स चैवं-'कइ णं भंते ! कम्मपय-|
डीओ पन्नताओ?, गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-नाणावरणिज दंसणावरणिज'मित्यादि, तथा 'नाणावरणिज्जे णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णते?, गोयमा ! पंचविहे पपण, तंजहा-आभिणियोहियणा
दीप अनुक्रम [५९२]
अत्र त्रयोदशमे शतके सप्तम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ त्रयोदशमे शतके अष्टम-उद्देशक: आरब्ध:
~161
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [४९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४९७]]
व्या-टणावरणिज्जे सुयणाणावरणिज्जे'इत्यादि । तथा प्रकृतीनां स्थितिर्वाच्या, सा पै-नाणावरणिजस्स णं भंते ! प्रज्ञप्तिः कम्मस्स केवइयं कालं ठिती पण्णता?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुरा उक्कोसेणं तीस सागरोवमकोडाको-1 अभयदेवी-डीओ'इत्यादि, तथा बन्धो ज्ञानावरणीयादिकर्मणामिन्द्रियानुपातेन वाच्यः, एकेन्द्रियादिजीवः कः कियती कर्म-18 कर्मबन्धया वृत्तिः२ स्थिति बन्नाति ? इति वाच्यमित्यर्थः, स चैवम्-'एगिदिया णं भंते ! जीवा नाणावरणिजस्स कम्मस्स किं स्थितिः
| बंधति ?, गोयमा जहन्नेणं सागरोवमस्स तिनि सत्तभागे पलिओवमरस असंखेजेणं भागेणं ऊणए उको- सू ४९७ ॥६२६॥ ।
सेणं ते चेव पडिपुत्ने बंधति'इत्यादि, तथा कीदृशो जीवो जघन्यां स्थिति कर्मणामुत्कृष्टां वा बनातीति वाच्यं. १३ शतके | तच्चेदं-नाणावरणिज्जस्स णं भंते! कम्मस्स जहन्नहिइबंधए के०१, गोयमा ! अन्नयरे सुहुमसंपराए उवसामए उद्देशः |वा खपए वा एस णं गोयमा ! णाणावरणिजस्स कम्मस्स जहन्नट्टिइबंधए तबइरित्ते अजहन्ने' इत्यादि ॥ त्रयो- साधा कत.
घटिकादिव दशशतेऽष्टमः ॥ १३-८॥
प्रक्रियकृतिः 'अनन्तरोदेशके कर्मस्थितिरुक्ता, कर्मवशाच वैक्रिय करणशक्तिर्भवतीति तद्बर्णनाओं नवम उद्देशकस्तस्य चेद-|| | मादिसूत्रम्
रायगिहे जाव एवं वयासी-से जहानामए के पुरिसे केयाघडियं गहाय गच्छेजा, एवामेव अणगारेवि ॥ ॥५२६।। भावियप्पा केयाघडियाकिच्चहस्थगएणं अप्पाणेणं उर्दु वेहासं उपाएजा १, गोयमा !हता उप्पाएजा,
दीप अनुक्रम [५९३]
अत्र त्रयोदशमे शतके अष्टम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ त्रयोदशमे शतके नवम-उद्देशक: आरब्ध:
~162~
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [९], मूलं [४९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४९८]
अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवतियाई पभू केयाघडियाहस्थकिचगयाई रूवाई विउवित्तए !, गोयमा।|8 से जहानामए-जुवति जुवाणे हत्थेणं हत्थे एवं जहा तइयसए पंचमुद्देसए जाव नो चेव णं संपत्तीए विउ-ट विसु वा विउचिंति वा विउविस्संति वा, से जहानामए-केइ पुरिसे हिरन्नपेलं गहाय गच्छेजा एवामेव अण-12 गारेवि भावियप्पा हिरण्णपेलहत्थकिचगएणं अप्पाणेणं सेसं तं चेव, एवं सुवन्नपेले एवं रयणपेलं वइरपेलं 8 वधपेलं आभरणपेलं, एवं वियलकिडं मुंबकिहुं चम्मकिडु कंबलकिहुं एवं अयभारं तंवभारं तउपभारंट सीसगभारं हिरन्नभारं सुवन्नभारं वइरभारं, से जहानामए-बग्गुली सिया दोवि पाए उल्लंबिया २ उटुंपादाअहोसिरा चिट्ठेला एवामेव अणगारेवि भावियप्पा वग्गुलीकिचगएणं अप्पाणेणं उहूं बेहासं, एवं जन्नोव-18 इयवत्तवया भा० जाव विउविस्संति बा, से जहानामए-जलोया सिया उदगंसि कार्य उबिहिया २ गच्छेद ज्जा एवामेव सेसं जहा वग्गुलीए, से जहाणामए-बीयंबीयगसउणे सिया दोवि पाए समतुरंगेमाणे स०२२ गच्छेजा एवामेव अणगारे सेसं तं चेव, से जहाणामए-पक्खिविरालिए सिया रुक्खाओ रुक्खं डेवेमाणे 8 गच्छेजा एवामेव अणगारे सेसं तं चेच, से जहानामए-जीवंजीवगसपणे सिया दोवि पाए समतुरंगेमाणे सर २ गच्छेजा एवामेव अणगारे सेसं तं चेव, से जहाणामए-हंसे सिया तीराओ तीरं अभिरममाणे २ गच्छेज्जा एवामेव अणगारे हंसकिच्चगएणं अप्पाणेणं तं चेव, से जहानामए समुदवायसए सिया वीईओ वीई डेवेमाणे गच्छेजा एवामेच तहेव, से जहानामए-केइ पुरिसे चकं गहाय गच्छेज्जा एवामेव अणगारेवि भावियप्पा चक्क
दीप अनुक्रम [५९४]
562- 550%
Rajastaramorg
~163
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[४९८]
दीप अनुक्रम [५९४]
व्याख्या- हत्थकिचगएणं अप्पाणणं सेसं जहा केयाघडियाए, एवं छत्तं एवं चामरं, से जहानामए-केह पुरिसे रयणं १३ शतके प्रज्ञप्तिः गहाय गच्छेजा एवं चेव, एवं वरं वेरुलियं जाब रिह, एवं उप्पलहत्त्वगं एवं पउमहत्थगं एवं कुमुदहत्वगं ४९ उद्देशः अभयदेवी- एवं जाव से जहानामए-केह पुरिसे सहस्सपत्तगं गहाय गच्छेज्जा एवं चेच, से जहानामए के पुरिसे भिसंसाधो केतया पत्तिः अवदालिय २ गच्छेजा एवामेव अणगारेवि भिसकिचगएणं अप्पाणेणं तं चेव, से जहानामए-मुणालिया घटिकादिवं
सिया उद्गंसि कायं उम्मज्जिय २ चिहिजा एवामेव सेसं जहा वग्गुलीए, से जहानामए-वणसंडे सिया किण्हेर क्रियकात || किण्होभासे जाव मिकुरुयभूए पासादीए ४ एवामेव अणगारेवि भावियप्पा वणसंडकियगएणं अप्पाणेणं|
|सू ४९८ उहुं वेहासं उप्पाएजा सेसं तं चेव, से जहानामए-पुक्खरणी सिया चउक्कोणा समतीरा अणुपुवसुजायजाव४ सदुबइयमरसरणादिया पासादीया ४ एवामेच अणगारेवि भावियप्पा पोक्खरणीकिच्चगएणं अप्पाणे] उहूं हे वेहासं उप्पएज्जा ?, हंता उत्पएज्जा, अणगारे गं भंते ! भावियप्पा केवतियाई पभू पोक्खरणीकिच्चगयाई
रूवाई विउवित्तए !, सेसं तंव जाप विउविस्संति वा । से भंते ! किं मायी विउधति अमायी विउच्चति , गोयमा ! मायी विउचह नो अमायी विउच्चद, मायी णं तस्स ठाणस्स अणालोइय एवं जहा तइयसए चउत्धुद्देसए जाव अस्थि तस्स आराहणा । सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाब बिहरहत्ति (सत्र ४९८)॥ १३-१॥
॥६२७॥ PI 'रायगिहे'इत्यादि, 'केयाघडिय'ति रज्जुप्रान्तबद्धपटिका 'केयाघडियाकिच्चहत्थगएण'ति केयाघटिकालक्षणं ४ यत्कृत्य-कार्य तत् हस्ते गतं यस्य स तथा तेनात्मना 'वेहासं'ति विभक्तिपरिणामात् 'विहायसि' आकाशे 'केयाघ
Auditurary.com
~164
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [९], मूलं [४९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[४९८]
| डियाकिच्चहत्थगयाईति केयाघटिकालक्षणं कृत्यं हस्ते गतं येषां तानि तथा, 'हिरन्नपेड'ति हिरण्यस्य मञ्जषां 'विय-18
लकिलं'ति विदलानां वंशार्द्धानां यः कटः स तथा त 'मुंबकि 'ति वीरणकटं 'चम्मकिइंति चर्मव्यूत खट्वादिका | 'कंबलकिडेति ऊर्णामयं कम्बल-जीनादि, 'वग्गुलीति चर्मपक्षः पक्षिविशेषः 'चरगुलिकिश्चगएण'ति वग्गुलीलक्षणं कृत्यं कार्य गर्त-प्राप्तं येन स तथा तद्रूपतां गत इत्यर्थः, 'एवं जन्नोवइयवत्तषया भाणियवा'इत्यनेनेदं सूचित'हंता उप्पएजा, अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवइयाई पभू वग्गुलिरुवाई विउछित्तए 1, गोयमा ! से जहानामए
जुवति जुवाणे हत्थेणं हत्थे गिण्हेजा इत्यादि, 'जलोयत्ति जलौका जलजो द्वीन्द्रियजीवविशेषः 'उविहिय'त्ति | द्र उवा २ उत्प्रेर्य २ इत्यर्थः 'बीयंधीयगस उणे'त्ति बीजंचीजकाभिधानः शकुनिः स्यात् 'दोवि पाए'ति द्वावपि पादौ
'समतुरंगेमाणे'त्ति समी-तुल्यौ तुरहस्य-अश्वस्य समोरक्षेपणं कुर्वन् समतुरंगयमाणः समकमुत्पाटयन्नित्यर्थः 'पक्विचिरालए'त्ति जीवविशेषः 'डेवेमाणे'त्ति अतिक्रामन्नित्यर्थः, 'बीईओ वीई'ति कलोलात् कल्लोलं, 'बेरुलियं इह यावत्करणादिदं दृश्यं-लोहियक्खं मसारगलं हंसगम्भं पुलगं सोगंधियं जोईरसं अंकं अंजणं रयणं जायरूवं ४ अंजणपुलगं फलिहं'ति, 'कुमुदहस्थगं'इत्यत्र वेवं यावत्करणादिदं दृश्य-'नलिणहत्वगं सुभगहत्थगं सोगंधियहत्वगं पुंडरीयहत्थर्ग महापुंडरीयहत्थगं सयवत्तहत्वगं'ति, 'बिसंति विसं--मृणालम् 'अवदालिय'त्ति अवदार्य-दारयित्वा 'मुणालिय'त्ति नलिनी कायम् 'उम्मज्जियत्ति कायमुन्मज्य-उन्मग्नं कृत्वा, किण्हे किण्होभासे'त्ति 'कृष्ण' कृष्णवर्णोऽजनवत्स्वरूपेण कृष्ण एवावभासते-द्रष्टणां प्रतिभातीति कृष्णावभासः, इह यावत्कारणादिदंद
दीप अनुक्रम [५९४]
AMROSTACANCCCCCCC
Mastaram.org
~165
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [४९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४९८]
व्याख्या-
दृश्य-नीले नीलोभासे हरिए हरिओभासे सीए सीओभासे निद्धे निरोभासे तिचे तिबोभासे किण्हे १३ शतके
हरयन प्रज्ञप्तिः किण्हच्छाए नीले नीलच्छाए हरिए हरियच्छाए सीए सीयच्छाए तिचे तिवच्छाए घणकडियकद्धिच्छाए|९ सद्देशः अभयदेवी- | रम्मे महामेहनिउरवभूए'त्ति तत्र च 'नीले नीलोभासे'त्ति प्रदेशान्तरे 'हरिए हरिओभासे'त्ति प्रदेशान्तर एव साधोः केतमीलश्च मयूरगलवत् हरितस्तु शुकपिच्छवत् हरितालाभ इति च बृद्धाः, 'सीए सीओभासे'त्ति शीतः स्पर्शापेक्षया घटिकाविर्व
क्रियकृतिः ॥२८॥ 18 वल्याद्याक्रान्तत्वादिति च वृद्धाः 'निद्धे निद्धोभासे'त्ति निग्धो रूक्षत्ववर्जितः 'तिचे तियोभासे'त्ति 'तीवः' वर्णादि
सू४९८ गुणप्रकर्षवान् 'किण्हे किण्हच्छाए'त्ति इह कृष्णशब्दः कृष्णच्छाय इत्यस्य विशेषणमिति न पुनरुक्तता, तथाहि कृष्णः | सन् कृष्णच्छायः, छाया चादित्यावरणजन्यो वस्तुविशेषः, एवमुत्तरपदेष्वपि, 'घणकडियकडिच्छाए'त्ति अन्योऽन्य ४ शाखानुप्रवेशाद्वहलं निरन्तरच्छाय इत्यर्थः, 'अणुपुवसुजाय इत्यत्र यावत्करणादेवं दृश्यम्-'अणुपुवसुजायव-11 दापगंभीरसीयलजला' अनुपूर्वेण सुजाता वा यत्र गम्भीरं शीतलं प जलं यत्र सा तधेत्यादि, 'सदुग्न
इयमहुरसरनाइय'त्ति इदमेवं दृश्यं सुयवरहिणमयणसालकोंचकोइलकोजकर्भिकारककोंडलकजीवंजीवकनदीमुहकविलपिंगलखगकारंडगचकवायकलहंससारसअणेगसउणगणमिहुणविरक्ष्यसमइयमहुरसरनाइय'त्ति तत्र शुकादीनां सारसान्तानामनेकेषां शकुनिगणानां मिथुनर्विरचितं शब्दोन्नतिकं च-उन्नतशब्दकं मधुरस्वरं च नादित- २८ लपितं यस्यां सा तथेति ॥ त्रयोदशशते नवमः ॥ १३-९॥
दीप अनुक्रम [५९४]
ccomo---
A
asurary.com
अत्र त्रयोदशमे शतके नवम-उद्देशक: परिसमाप्त:
~166~
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४९९]
अनन्तरोदेशके वैक्रियकरणमुक्तं, तच्च समुद्घाते सति छद्मस्थस्य भवतीति छाझस्थिकसमुद्घाताभिधानार्थों दशम उद्देशकस्तस्य चेदमादिसूत्रम्
कति णं भंते ! छाउमत्थियसमुग्धाया पक्षत्ता ?, गोयमा ! छ छाउमस्थिया समुग्धाया पन्नत्ता, तंजहा-/ | वेयणासमुग्धाए एवं छाउमस्थियसमुग्धाया नेयचा जहा पन्नवणाए जाव आहारगसमुग्धायेत्ति । सेवं भंतेद
सेवं भंतेसि (सूत्रं ४९९)॥१३-१०॥तेरसमं सयं समत्तं ।। ४. कह 'मित्यादि, 'छाउमत्थिय'त्ति छद्मस्था-अकेवली तत्र भवाछाझस्थिकाः 'समुग्घायेति 'हन हिंसागत्योः । हननं घातः सम्-एकीभावे उत्-प्राबल्ये ततश्चैकीभावेन प्रावल्येन च घातः समुद्घातः, अथ केन सहेकीभावगमनम् ?, उच्यते, यदाऽऽत्मा वेदनादिसमुद्घातं गतस्तदा वेदनाद्यनुभवज्ञानपरिणत एव भवतीति वेदनाद्यनुभवज्ञानेन सहकीभावः, प्राबल्येन घातः कथम् , उच्यते, यस्माद्वेदनादिसमुद्घातपरिणतो बहून वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवनयोग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्योदये प्रक्षिष्यानुभूय निर्जरयति-आत्मप्रदेशः सह संश्लिष्टान् सातयतीत्यर्थः अतः प्राबल्येन घात इति, अयं चेह पविध इति बहुवचनं, तत्र 'चेयणासमुग्धाए'चि एकः, 'एवं छाउमथिए। इत्यादिअतिदेशः, 'जहा पन्नवणाए'त्ति इह षट्त्रिंशत्तमपद इति शेषः, ते च शेषाः पञ्च-कसायसमुग्घाए २ मारणंतियसमुग्धाए ३ वेषियसमुग्घाए ४ तेयगसमुग्घाए ५ आहारगसमुग्घाए ६' ति, तत्र वेदनासमुद्घातः | असद्वेद्यकश्रियः कषायसमुद्घातः कपायाख्यचारित्रमोहनीयकाश्रयः मारणान्तिकसमुद्धातः अन्तर्मुहूर्तशे
दीप अनुक्रम [५९५]
CRORS
Hirirajastaram.org
अथ त्रयोदशमे शतके दशम-उद्देशक: आरब्ध:
~167~
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [४९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४९९]
व्याख्या
दिपायुष्ककर्माश्रयः वैकुर्विकतैजसाहारकसमुद्घाताः शरीरनामकर्माश्रयाः, तत्र वेदनासमुद्घातसमुद्धत आत्मा वेद- १३ शतक प्रज्ञप्तिः नीयकर्मपुद्गलशातं करोति, कषायसमुद्घातसमुद्धतः कषायपुद्गलशातं, मारणान्तिकसमुद्घातसमुद्धत आयुष्क- १० उद्देशः अभयदेवी- 8/ कर्मपुद्गलशातं वैकुर्विकसमुद्घातसमुद्धतस्तु जीवप्रदेशान् शरीराद्वहिनिष्काश्य शरीरविष्कम्भवाहल्यमात्रमायामतश्च ||छामास्थक या वृत्तिः सोयानि योजनानि दण्डं निसृजति निसज्य च यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्वद्वान् सातयति सूक्ष्मांश्चादत्ते, यथोक्तं 'वेउबियसमुग्घाएणं समोहणइ समोहणित्ता संखेज्जाई जोयणाई दंड निसिरह २ अहाकायरे
सू४९९ ॥६२९॥
४ पोग्गले परिसाडेइ २ अहासुहुमे पोग्गले आइयईत्ति । एवं तैजसाहारकसमुद्घातावपि व्याख्येयाविति ॥ त्रयोदशशते 8
दशमः ।। १३-१०॥ समाप्तं च त्रयोदशं शतम् ॥ १३ ॥
दीप अनुक्रम [५९५]
प्रयोदशस्यास्य शतस्य वृत्तिः, कृता मया पूज्यपदमसादात् । न ह्यन्धकारे विहिलोद्यमोऽपि, दीपं बिना पश्यति वस्तुजातम् ॥१॥
॥३२॥
॥इति समाप्तं श्रीमदभयदेवसूरियरविवृत्तायां भगवत्यां शलकं त्रयोदशम् ॥ StarPravavpipappuproductiPrPIPATraiparaPAISAPANIPAPNPapyaaropapagapugapana
अत्र त्रयोदशमे शतके दशम-उद्देशक: परिसमाप्त:
तत् समाप्ते त्रयोदशं शतकं अपि समाप्त
~168
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [५००-५०१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
॥ अथ चतुर्दशशतकम् ॥
3000
प्रत सूत्रांक [५००-५०१]
गाथा
व्याख्यातं विचित्रार्थं त्रयोदशं शतम्, अथ विचित्रार्थमेव क्रमायातं चतुर्दशमारभ्यते, तत्र च दशोदेशकास्तत्स-| अगाथा चेयम्
चर १ उम्माद २ सरीरे ३ पोग्गल ४ अगणी ५ तहा किमाहारे ६। संसिह ७मलरे खलु ८ अणगारे ९ | केवली चेव १०॥१॥रायगिहे जाव एवं बयासी-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा चरम देवाचासं वीतिकाकते परमं देवावासमसंपत्ते एल्थ णं अंतरा कालं करेजा तस्स गं अंते ! कहिं गती कहिं उक्वाए पत्ते,
गोयमा 1 जे से तत्थ परियस्सओ तल्लेसा देवावासा तहिं सस्स उववाए पन्नत्ते, से य तत्व गए विराहेजा कम्मलेस्सामेव पडिमडइ, से य तत्थ गए नो विराहेजा एयामेव लेस्सं उसंपजित्ताणं विहरति । अणगारेणं भंते ! भाबियप्पा परमं असुरकुमारावासं वीतिकंते परमअसुरकुमारा०एवं चेव एवं जाय थणियकमारावासं जोइसियावासं एवं चेमाणियावासं जाब विहरइ ॥ (सब५००) नेरइयाणं भंते ! कह सीहागती कह सीहे | गतिविसए पण्णते ?, गोपमा से जहानामए के पुरिसे तरुणे बलवं जुगवं जाव निउणसिप्पोवगए आउहियं चाहं पसारेबा पसारियं वा बाहं आउंटेजा विक्खिण्णं वा मुर्हि साहरेजा साहरियं वा मुर्हि विक्विरेना | उन्निमिसियं वा अछि निम्मिसेजा निम्मिसियं वा अच्छि उम्मिसेना, भवे एयारूवे, णो लिणढे समवेद
52-5315ॐ
दीप
-
-
-
अनुक्रम [५९६-५९८]
-
अथ चतुर्दशं शतकं आरभ्यते
अथ चतुर्दशमे शतके प्रथम-उद्देशक: आरब्धः
~169~
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [५००-५०१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५००-५०१]
गाथा
व्याख्या-18| नेरइया णं एगसमएण वा दुसमएण वा तिसमएण वा विग्गहेणं उववजंति, नेरइयाणं गोयमा ! तहा सीहा १४ शतके प्रज्ञप्तिः ||गती तहा सीहे गतिविसए पण्णत्ते एवं जाव चेमाणियाणं, नवरं एगिदियार्ण चउसमइए विग्गहे भाणियो।||१ उद्देशः सेसं तं चेव सूत्रं ५०१)॥
| परावासाया वृत्तिः
18 'चरउम्माद सरीरे'इत्यादि, तत्र 'चर'त्ति सूचामात्रत्वादस्य चरमशब्दोपलक्षितोऽपि चरमः प्रथम उद्देशकः, 'उम्मा- प्राप्तगतिः ॥३०॥दयत्ति उन्मादार्थाभिधायकत्वादुन्मादो द्वितीयः, 'सरीरे'त्ति शरीरशब्दोपलक्षितत्वाच्छरीरस्तृतीयः, 'पुग्गल'त्ति पुद्गलार्था-1
सू ५०० भिधायकत्वात्पुद्गलश्चतुर्थः, 'अगणी'ति अग्निशब्दोपलक्षितत्वादग्निः पञ्चमः,किमाहारेत्ति किमाहारा इत्येवंविधप्रश्नोपल
शीघ्रागतिः
सू५०१ क्षितत्वास्किमाहारः षष्ठः,'संसि?'त्ति 'चिरसंसिट्ठोऽसि गोयम'त्ति इत्यत्र पदे यः संश्लिष्टशब्दस्तदुपलक्षितत्वात् संश्लिष्टोदेशका सप्तमः, 'अंतरे'त्ति पृथिवीनामन्तराभिधायकत्वादन्तरोद्देशकोऽष्टमः, 'अणगारे'त्ति अणगारेति पूर्वपदत्वादनगारोद्देशको नवमः, 'केबलि'त्ति केवलीति प्रथमपदत्वात्केवली दशमोद्देशक इति ॥ तत्र प्रथमोद्देशके किञ्चिलिख्यते-'चरमं| / देवावासं वीतिकते परमं देवावासं असंपत्ते'त्ति, 'चरमम्' अर्वागभागवतिनं स्थित्यादिभिः 'देवावासं' सौधर्मादिदेदावलोकं 'व्यतिक्रान्तः' लडिन्तस्तदुपपातहेतुभूतलेश्यापरिणामापेक्षया 'परम' परभागवतिनं स्थित्यादिभिरेव 'देवाबासं' सासनत्कुमारादिदेवलोकं 'असम्प्राप्तः' तदुपपातहेतुभूतलेश्यापरिणामापेक्षयैव, इदमुक्तं भवति-प्रशस्सेष्वध्यवसायस्थाने- ॥६३०॥ ४पूत्तरोत्तरेषु वर्तमान आराझागस्थितसौधर्मादिगतदेवस्थित्यादिवन्धयोग्यतामतिक्रान्तः परभागवर्तिसनरकुमारादिगत-1 | देवस्थित्यादिवन्धयोग्यता चाप्राप्तः 'एत्थ णं अंतरत्ति इहावसरे 'कालं करेज'त्ति वियते यस्तस्य कोत्पादः १ इति |
दीप
अनुक्रम [५९६-५९८]
RELIGunintentiatan
~170
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [५००-५०१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
R-
RE
प्रत सूत्रांक [५००-५०१]
प्रश्नः उत्तरं तु 'जे से तत्यत्ति अथ ये तत्रेति-तयोः चरमदेवावासपरमदेवावासयोः 'परिपार्वतः' समीपे सौधर्मादेदि रासन्नाः सनरकुमारादेवाऽऽसन्नास्तयोर्मध्यभागे ईशानादावित्यर्थः 'तल्लेसा देवावासत्ति यस्यां लेश्यायां वर्तमानः
साधुर्मतः सा लेश्या येषु ते तल्लेश्या देवावासाः 'तहिति तेषु देवावासेषु तस्थानगारस्य गतिर्भवतीति, यत उच्यते"जल्लेसे मरह जीवे तल्लेसे चेव उववजई"त्ति 'से यति स पुनरनगारस्तत्र मध्यमभागवत्तिनि देवावासे गतः 'विराहिज्जत्ति येन लेश्यापरिणामेन तत्रोत्पन्नस्तं परिणाम यदि विराधयेत्तदा 'कम्मलेस्सामेव'त्ति कर्मणः सकाशाद्या लेश्या-जीवपरिणतिः सा कर्मलेश्या भावलेश्येत्यर्थः 'तामेव प्रतिपतति' तस्या एवं प्रतिपतति अशुभतरतां याति न तु द्रव्यलेश्यायाः प्रतिपतति, सा हि प्राक्तन्येवास्ते, द्रव्यतोऽवस्थितलेश्यत्वाद्देवानामिति । पक्षान्तरमाह-से य तत्थेत्यादि, 'सः' अनगारः 'तत्र' मध्यमदेवावासे गतः सन् यदि न विराधयेत्तं परिणाम तदा तामेव च लेश्यां ययोत्पन्नः 'उपसम्पद्य' आश्रित्य 'विहरति आस्त इति ॥ इदं सामान्यं देवावासमाश्चित्योक्तं, अथ विशेषितं तमेवानित्याह'अणगारे णमित्यादि, ननु यो भावितात्माऽनगारः स कथमसुरकुमारेषूत्पत्स्यते विराधितसंयमानां तत्रोत्पादादिति, | उच्यते, पूर्वकालापेक्षया भावितात्मत्वम् , अन्तकाले च संयमविराधनासद्भावादसुरकुमारादितयोपपात इति न दोषः, बालतपस्वी वाऽयं भावितात्मा द्रष्टव्य इति ॥ अनन्तरं देवगतिरुक्केति गत्यधिकारान्नारकगतिमाश्रित्याह-'नेरइयाण'
मित्यादि, 'कहं सीहा गइत्ति 'कथं' केन प्रकारेण कीदृशीत्यर्थः शीघ्रा गतिः, नारकाणामुत्पद्यमानानां शीघ्रा गतिर्भवदतीति प्रतीतं, यादृशेन च शीघ्रत्वेन शीघ्राऽसाविति च न प्रतीतमित्यतः प्रश्नः कृतः 'कहं सीहे गइविसए'त्ति कथ
गाथा
दीप
अनुक्रम [५९६-५९८]
था.१.६
~171
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[५००
-५०१]
+
गाथा
दीप
अनुक्रम
[५९६
-५९८]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र -५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [– ], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [१], मूलं [ ५००-५०१] + गाथा
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥६३९॥
मिति कीदृशः 'सीहेत्ति शीघ्रगतिहेतुत्वाच्छीघ्रो गतिविषयो- गतिगोचरस्तद्धेतुत्वात्काल इत्यर्थः कीदृशी शीघ्रा गतिः १ | कीदृशश्च तत्कालः ? इति तात्पर्य, 'तरुणे'त्ति प्रवर्द्धमानबयाः, स च दुर्बलोऽपि स्यादत आह- 'बल' ति शारीरप्राणवान्, बलं च कालविशेषाद्विशिष्टं भवतीत्यत आह-- 'जुगवं 'ति युगं - सुषमदुष्षमादिः कालविशेषस्तत् प्रशस्तं विशिष्टबलहेतुभूतं यस्यास्त्यसौ युगवान्, यावत्करणादिदं दृश्यं-'जुवाणे' वयःप्राप्तः 'अप्पायंके' अल्पशब्दस्याभावार्थत्वादनातङ्को - नीरोगः 'थिरग्गहत्थे ' स्थिराग्रहस्तः सुलेखकवत् 'दढपाणिपायपासपितरोरुपरिणए' दृढं पाणिपादं यस्य पाव पृष्ठ्यन्तरे च ऊरू च परिणते-परिनिष्ठिततां गते यस्य स तथा उत्तमसंहनन इत्यर्थः, 'तलजमलजुयलपरिघनिभबाहू' तली-तालवृक्षौ तयोर्यमल समश्रेणीकं यद् युगलं-द्वयं परिषश्च-अर्गला तन्निभौ-तत्सदृशौ दीर्घसरलपीनत्वादिना बाहू यस्य स तथा, 'चम्मेदुहणमुट्ठियसमायनिश्चियगायकाए' धर्मेष्टया दुधणेन मुष्टिकेन च समाहतानि अभ्यासप्रवृत्तस्य निचितानि गात्राणि स तथाविधः कायो यस्य स तथा चर्मेष्टादयश्च लोकप्रतीताः, 'ओरसबलसमन्नागए' आन्तरबलयुक्तः 'लंघणपणजहणवायामसमत्थे' जविनशब्दः - शीघ्रवचनः 'छेए' प्रयोगज्ञः 'दक्खे'' शीघ्रकारी 'पतट्ठे' अधिकृतकर्म्मणि निष्ठां गतः 'कुसले' आलोचितकारी 'मेहावी' सकृतश्रुतदृष्टकर्म्मज्ञः 'निडणे' उपायारम्भकः, एवंविधस्य हि पुरुषस्य शीघ्रं गत्यादिकं भवतीत्यतो बहुविशेषणोपादानमिति, 'आउंटियं'ति सङ्कोचितं 'विक्विनं' ति 'विकीर्णी' प्रसारितां 'साहरेज 'ति 'साहरेत्' सङ्कोचयेत् 'विक्खिरेज्ज'त्ति विकिरेत् प्रसारयेत् 'सम्मि सियं'ति 'उन्मिषितम्' उन्मीलितं 'निमिसेज 'त्ति निमीलयेत्, 'भवेयारूवेत्ति काक्वाऽध्येयं, काकुपाठे चायमर्थः स्यात्
Educatin internationa
For Parts Only
~ 172 ~
१४ शतके
१ उद्देशः परावासाप्राप्तगतिः
सू ५०० शीघ्रागतिः
सू ५०१
॥६३१॥
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [५००-५०१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५००-५०१]
पर्व मन्यसे स्वं गौतम ! भवेत्तद्रूपं भवेत्स स्वभावः शीघ्रतायां नरकगतेस्तद्विषयस्य च यदुक्तं विशेषणपुरुषलाहुप्रसारणादेरिति, एवं गौतममतमाशश्व भगवानाहनाबमर्थः समर्थः, अथ कस्मादेवमित्याह-'मेरइयाण'मित्यादि, अवमभिप्रायः-नारकाणां गतिरेकवित्रिसभवा बाहुप्रसारणादिका चासवेयसमवेति कवं तारशी गतिर्भवति भारकाणामिति, तत्र च 'एगसमएण बत्ति एकेन समयेनोपपद्यन्त इति योगा, ते च ऋजुगतावेव, वाशब्दो विकल्पे, इह
च विप्रहशन्दो न सम्बन्धितः, तस्यैकसामाषिकस्थाभावात् , 'समएण वति द्वौ समयौ यत्र स द्विसमयस्तेन दि विग्रहेणेति योगः, एवं त्रिसमयेन वा विग्रहेण-धकेण, तत्र द्विसमयो विग्रह एवं-बदा भरतस्य पूर्वस्या दिशो नरके |
पश्चिमायामुत्पद्यते तदैकेन समयेनाधो याति द्वितीयेन तु तिर्यगुत्पत्तिस्थानमिति, त्रिसभयविग्रहस्वेवं-यदा भरतस्य पूर्वदक्षिणाया दिशो नारकेऽपरोत्तरायां दिशि गत्वोत्पद्यते तदैकेन समयेनाधः समश्रेण्या याति द्वितीयेन च सिर्यक पश्चिमायां तृतीयेन तु तिर्यगेव वायव्यां दिशि उत्पत्तिस्थानमिति, तदनेन गतिकाल उक्तः, एतदभिधानाच शीघ्रा गतियारशी तदुकमिति, अथ निगमयज्ञाह-नेरहयाण'मित्यादि, 'सहा सीहा गईत्ति यथोत्कृष्टतः समयनये भवति । 'तहा सीहे गाविसए'त्ति तथैव, एगिदियाण चषसामइए विग्गहे'त्ति उत्कर्षतश्चतु समय एकेन्द्रियाणां 'विग्रहों' वक्र-12
गतिर्भवति, कथम् , उच्यते, असनाण्या बहिस्तादधोलोके विदिशो दिशं यात्येकेन, जीवानामनुश्रेणिगमनात्, द्वितीहै येन तु लोकमध्ये प्रविशति तृतीयेनोर्ट्स याति चतुर्थेन तु प्रसनाडीतो निर्गत्य दिग्व्यवस्थितमुत्पादस्थान प्राप्नोतीति,
एतच बाहुल्यमशीकृत्योच्यते, अन्यथा पञ्चसमयोऽपि पिग्रहो भवेदेकेन्द्रियाणां, तथाहि-प्रसनाचा बहिस्सादयोलोके
गाथा
*
दीप अनुक्रम [५९६-५९८]
*
**
~173
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [५००-५०१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५००-५०१]
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी
या वृत्तिः२
॥६३२॥
गाथा
विदिशो दिशं यात्येकेन द्वितीयेन लोकमध्ये तृतीयेनो लोके चतुर्थेन ततस्तिर्यक् पृर्वादिदिशो निर्गच्छति ततः पञ्चमेन || १४ शतके विदिग्व्यवस्थितभुत्पत्तिस्थानं यातीति, उक्तञ्च-"विदिसाउ दिसिं पढमे बीए पइ सरह नाडिमझमि । उहुं तइए तुरिए१ उद्दशः | उ नीइ विदिसं तु पंचमए ॥१॥"[ विदिशो दिशं प्रति सरति प्रथमे द्वितीये नाडीमध्यं । तृतीये ऊर्च तुयें निर्गच्छति : अनन्तरापंचमे तु विदिशं ॥१॥] इति, 'सेसं तं चेव'त्ति 'पुढविकाइयाणं भंते ! कह सीहा गई ? इत्यादि सर्व यथा नार- युपपन्नायु: काणां तथा वाच्यमित्यर्थः ॥ अनन्तरं गतिमाश्रित्य नारकादिदण्डक उक्तः, अथानन्तरोत्पन्नत्वादि प्रतीत्यापरं तमेवाह
करणादि
|सू ५०२ | नेरइया भंते ! किं अणंतरोववन्नगा परंपरोववन्नगा अणंतरपरंपरअणुववन्नगा?, गोयमा ! नेर. अणंतरोववन्नगावि परंपरोववन्नगावि अणंतरपरंपरअणुववन्नगावि, से केण एवं बु० जाव अणंतरपरंपरअणुववन्नगावि, गोयमा ! जे ण नेरया पढमसमयोवचन्नगा ते णं नेरइया अर्णतरोववन्नगा, जेणं नेरच्या अपदमसमयोववनगा ते ण नेरइया परंपरोवबन्नगा, जेणं नेर० विग्गहगइसमावनगा ते णं नेरच्या अणंतरपरंपरअणुववन्नगा, से तेणटेणं जाव अणुववन्नगावि, एवं निरंतरं जाव वेमा० । अणतरोवथन्नगाणं भंते ! नेरइया कि नेरइयाउयं पकरेंति तिरिक्ख०मणुस्स देवाउयं पकरेंति ?, गोयमा ! नो नेरहयाज्यं पकरेंति जाव |नो देवाउयं पकरैति । परंपरोववन्नगा णं भंते ! नेरड्या किं नेरहयाज्यं पकरेंति जाव देवाज्यं पकरेंति ?,
॥६३२॥ || गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरैति तिरिक्खजोणियाज्यपि पकरेंति मणस्साउयपि पकरेंति नो देवाउयं पक-ट। रिति । अणंतरपरंपरअणुववनगाणं भंते ! नेर०कि नेरइयाउयं प० पुच्छा नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव
दीप अनुक्रम [५९६-५९८]
~174.
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [५०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५०२]
द नो देवाज्यं पकरेन्ति, एवं जाव वेमाणिया, नवरं पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य परंपरोववन्नगा
चत्तारिवि आउयाई प०, सेसं तं चेव २॥ नेरइया णं भंते ! किं अणंतरनिग्गया परंपरनिग्गया अनंतरपर-1
परअनिग्गया ?, गोयमा! नेरइया णं अणंतरनिग्गयावि जाच अणंतरपरंपरनिग्गयावि, से केणटेणं जाव अणिटू ग्गयावि, गोयमा ! जे ण नेरइया पढमसमयनिग्गया ते णं नेरइया अणंतरनिग्गया जेणे नेरइया अपढ-18
मसमयनिग्गया ते ण नेरइया परंपरनिग्गया जे ण नेरइया विग्गहगतिसमावन्नगातेणे नेरइया अणतरपरंपरअ-II |णिग्गया, से तेण?णं गोयमा ! जाव अणिग्गयावि, एवं जाव वेमाणिया ३॥ अर्णतरनिग्गया णं भंते 12 दू| नेरड्या किं नेरइयाउयं पकरेंति जाच देवाज्यं पकरेंति', गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव नो देवा-18
उयं पकरेंति । परंपरनिग्गया णं भंते । नेरइया कि नेरइयाउयं० पुच्छा, गोयमा ! नेरइयाउयंपि पकरेंति जाव देवाउयपि पकरेंति । अणंतरपरंपरअणिग्गया णं भंते ! नेरझ्या पुच्छा, गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति
जाव नो देवाज्यं पकरेंति, एवं निरवसेसं जाव वेमाणिया ४॥ नेरच्या णं भंते ! किं अणंतरं खेदोववन्नगा| *परंपरखेदोववन्नग अणंतरपरंपरखेदाणुववन्नगा , गोयमा! नेरइया० एवं एएणं अभिलावणं तं चेव चत्तारि दंडगा भाणियवा । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाव विहरइ (सूत्रं ५०२)॥ चोदसमसयस्स पढमो॥१४-१॥
'नेरइया ण'मित्यादि, 'अर्णतरोववन्नग'त्ति न विद्यते अन्तर-समयादिब्यवधान उपपन्ने-उपपाते येषां ते अनन्तरोपपन्नकाः 'परंपरोववन्नग'त्ति परम्परा-द्वित्रादिसमयता उपपन्ने-उपपाते येषां ते परम्परोपपन्नकाः, 'अणंतरपरंपरअ
दीप अनुक्रम [५९९]
ROCESCACAACK
ONOMSAMACARANASI
~175
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [५०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५०२]
व्याख्या- गुववाग'त्ति अनन्तरं-अव्यधानं परम्परं पहिनादिसमयरूपमविघमामं उत्पन्न-उत्पादो येषां ते तथा, पते च विन- १४ शतके प्रज्ञप्तिः ॥ हगतिकाः, विग्रहगतौ हि द्विविधस्याप्युत्पादस्याविद्यमानत्वादिति ॥ अथानन्तरोपपन्नादीनाभिस्यायुर्वन्धमभिधातुमाह-18
१ उद्देशः अभयदेवी-IN
दवा- 'अणंतरेत्यादि, इह चानन्तरोपपन्नानाममन्तरपरम्परानुपपनानां च चतुर्विधस्याप्यायुषः प्रतिषेधोऽभ्येतव्यः, तस्या- अनन्तरापति मवस्थायां तथाविधाभ्यवसायस्थानाभावेन सर्वजीवानामायुषो बन्धाभावात् , स्वायुपविभागादौ च शेषे बन्धसद्भा-माधु
टाकरणादि ॥३॥ वात्, परम्परोपपन्नकास्तु स्वायुषः पण्मासे शेषे मतान्तरेणोत्कर्षतः षण्मासे जघन्यतश्चान्तर्मुहुर्ते शेषे भवप्रत्ययात्तिर्यग्म-18
सू ५०२ नुष्यायुषी एव कुर्वन्ति नेतरे इति, 'एवं जाव वेमाणिय'त्ति अनेनोक्तालापकत्रययुक्तचतुर्विंशतिदण्डकोऽध्येतन्य इति
सूचितं, यश्चात्र विशेषतं दर्शयितुमाह-'नवरं पंचिंदिए'त्यादि ॥ अथानन्तरनिर्गतत्वादिनाऽपरं दण्डकमाह४ नेरइया णमित्यादि, तत्र निश्चितं स्थानान्तरप्राप्त्या गर्त-नामनं निर्गतं अनन्तरं-समयादिना निर्व्यवधान निर्गतं येषां है| तेऽनन्तरनिर्गतास्ते च येषां नरकादद्वत्तानां स्थानान्तरं प्राप्तानां प्रथमः समयो वर्सते, तथा परम्परेण-समयपरम्परया
| निर्गतं येषां ते तथा, ते च येषां नरकाचुद्वत्तानामुत्पत्तिस्थानप्राप्तानां यादयः समया:, अनन्तरपरम्परानिर्गतास्तु थे 18 नरकादुद्वत्ताः सन्तो विग्रहगतौ वर्तन्ते न तावदुत्पादक्षेत्रमासादयन्ति तेषामनन्तरभावेन परम्परभावेन चोत्पावक्षेत्रा
प्राप्तस्वेन निश्चयेनानिर्गतत्वादिति ॥ अथानन्तरनिर्गतादीनाश्रित्यायुर्वन्धमभिधातुमाह-अर्णतरे'त्यादि, इह च पर-17 सम्परानिग्गेता नारकाः सर्वाण्यापि बान्ति, यतस्से मनुष्याः पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च एवं च भवन्ति, ते च सर्वोयुर्वन्धका || एवेति, एवं सर्वेऽपि परम्परनिर्गता वैक्रियजन्माना, औदारिकजन्मानोऽप्युदत्ताः केचिन्मनुष्यपञ्चेन्द्रियतियशो भवन्त्य
RASANSAR
दीप अनुक्रम [५९९]
SanEairataniKLA
~176~
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [५०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५०२]
|| तस्तेऽपि सर्वायुर्वन्धका एवेति ॥ अनन्तरं निर्गता उकास्ते च क्वचिदुत्पद्यमानाः सुखेनोत्पधन्ते दुःखेन वेति दुःखोत्प
कानाश्रित्याह-नेरइये त्यादि, 'अनंतरखेदोववन्नग'त्ति अनन्तरं-समयाद्यव्यवहित खेदेन-दुखिनोपपन्न-उत्पादक्षेत्रप्राप्तिलक्षणं येषां तेऽनम्तरखेदोपपन्नकाः खेदप्रधानोत्पत्तिप्रथमसमयवर्तिन इत्यर्थः 'परंपरक्खेओवयन्नग'सि परम्पराद्वित्रादिसमयता खेदेनोपपन्ने उत्पादे-येषां ते परम्पराखेदोपपन्नकाः, 'अणेतरपरंपरखेदाणुववनगति अनन्तरं परम्परं |च खेदेन नास्युपपत्रकं येषां ते तथा विग्रहगतिवर्तिन इत्यर्थः, 'ते चेच यत्सारि दंडगा भाणिय'त्ति त एव पूर्वोक्का उत्पन्नदण्डकादयः खेदशब्दविशेषिताश्चत्वारो दण्डका भणितव्याः, तत्र च प्रथमः खेदोफ्पन्नदण्डको द्वितीयस्तदायुष्क|दण्डकस्तृतीयः खेदनिर्गतदण्डकचतुर्थस्तु तदायुष्कदण्डक इति ॥ चतुर्दशशते प्रथमः ॥ १४-१॥
अनन्तरोद्देशकेऽनन्तरोपपन्ननैरयिकादिवक्तव्यतोक्का, नैरस्किादयश्च मोहवन्तो भवन्ति, मोहोन्माद इत्युन्मादप्ररूपणार्थों द्वितीय उद्देशकः, तस्य चेदमादिसूत्रम्___ कतिविहे गं भंते ! उम्मादे पपणते ?, गोयमा दुविहे उम्मादे पण्णसे, जहा-जक्खावेसे य मोहणिजस्स य कम्मस्स उदएणं, तत्थ णं जे से जक्खाएसे से णं सुहवेयणतराए चेव मुहविमोयणतराए चेव, तत्व जे से मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं से णं दुहवेयणतराए चेव दुहविमोयणतराए चेव । मेरहयार्ण भंते ! कतिविहे। || उम्मादे पण्णते?, गोयमा ! दुविहे उम्मादे पण्णत्ते, तंजहाजक्खावेसे य मोहणिजस्स ये कम्मरस उदएणं, से दि केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ नेरइयाणं दुविहे उम्मादे पण्णते, तंजहाजक्खावेसे यमोहणिज्जरस जाव उदएणं?,
दीप अनुक्रम [५९९]
anditurary.com
अत्र चतुर्दशमे शतके प्रथम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ चतुर्दशमे शतके द्वितीय-उद्देशक: आरब्ध:
~177
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-, उद्देशक [२], मूलं [५०३-५०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५०३
-५०४]
दीप अनुक्रम
व्याख्या- गोयमा ! देवे चा से असुभे पोग्गले पक्खिवेज्जा, सेणं तेसिं असुभाणं पोग्गलाणं पक्खिवणयाए जक्खा- १४ शतके
प्रज्ञप्तिः सं उम्मादं पाउणेज्जा, मोहणिज्जस्स वा कम्मस्स उदएणं मोहणिज्ज उम्माय पाउणेज्जा, से तेणटेणं जाव २ उद्देश अभयदेवी
उम्माए । असुरकुमाराणं भंते! कतिविहे उम्मादे पण्णते?, एवं जहेव नेरदयाणं नवरं देवेवासे महिडीयतराए यक्षावेशमो या वृत्तिः असुभे पोग्गले पक्खिवेज्जा से णं तेसिं असुभाणं पोग्गलाणं पक्खिवणयाए जक्खाएसं उम्मादं पाउणेजा
होन्मादौ ॥६ ॥ 15 मोहणिजस्स वा सेसं तं चेव, से तेणटेणं जाव उदएणं एवं जाव थणियकुमाराणं, पुढविकाइयाणं जाव मणु-13
जिनजन्माहस्साणं एएसिं जहा नेरइयाणं, चाणमंतरजोइसवेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं ॥(सूत्रं५०३) अस्थि गं भंते! पति पज्जन्ने कालवासी बुट्टिकायं पकरेंति !, हंता अस्थि ॥ जाहे णं भंते ! सके देविंदे देवराया चुहिकार्य काउकामे |
|सू ५०४ भवति से कहमियाणि पकरेति ?, गोयमा ! ताहे चेव णं से सके देविंदे देवराया अम्भितरपरिसए देवे सदावेति, तए णं ते अम्भितरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा मज्झिमपरिसए देवे सदावेंति, तए णं ते
मज्झिमपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरपरिसए देवे सद्दावेंति, तए णं ते बाहिरपरिसगा देवा ४ सद्दाविया समाणा बाहिरं वाहिरगा देवा सद्दावेंति, तए णं ते बाहिरगा देवा सदाविया समाणा आभि-31 र ओगिए देवे सहावेंति, तए ण ते जाव सद्दाविया समाणा बुडिकाए देवे सदावेंति, तए णं ते बुटिकाइया ||३॥
देवा सहाविया समाणा बुट्टिकार्य पकरेंति, एवं खलु गोयमा । सके देविंदे देवराया चुहिकार्य पकरेति ॥ अस्थि णं भंते ! असुरकुमारावि देवा बुट्टिकार्य पकरेंति, हंता अस्थि, किं पत्तिय भंते !
[६००
-६०१]
~178~
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [५०३-५०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५०३
असुरकुमारा देवा वुट्टिकार्य पकरेंति ?, गोयमा !जे इमे अरहता भगवंता एएसि णं जम्मणमहिमासु वा निक्खमणमहिमासु वा णाणुप्पायमहिमासु वा परिनिवाणमहिमासु वा एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारावि देवा बुट्टिकायं पकरेंति, एवं नागकुमारावि एवं जाव थणियकुमारा वाणमंतरजोइसियवेमाणिय एवं चेव (सूत्रं ५०४)॥
'कतिविहे 'मित्यादि, 'उन्माद।' उन्मत्तता विविक्तचेतनाभ्रंश इत्यर्थः 'जक्खाएसे यत्ति यक्षो-देवस्तेनावेश:प्राणिनोऽधिष्ठानं यक्षावेशः, 'मोहणिज्जस्से त्यादि तत्र मोहनीयं-मिथ्यात्वमोहनीयं तस्योदयादुन्मादो भवति यतस्तदुदयवर्ती जन्तुरतत्त्वं तत्त्वं मन्यते तत्त्वमपि चातत्त्वं, चारित्रमोहनीयं वा यतस्तदुदये जानन्नपि विषयादीनां स्वरूपमजानन्निव वर्तते, अथवा चारित्रमोहनीयस्यैव विशेषो वेदाख्यो मोहनीयं, यतस्तदुदयविशेषेऽप्युन्मत्त एव भवति, | यदाह-"चिंतेइ १ दगुमिच्छइ २ दीहं नीससइ ३ तह जरे ४ दाहे ५ । भत्तअरोअग ६ मुच्छा ७ सम्माय ८ न याणई ९ मरणं १०॥१॥" इति ।[चिन्तयति द्रष्टुमिच्छति दीर्घ निःश्वसिति तथा ज्वरो दाहः। भक्तारोचकत्वं मूछो उन्मादो न जानाति मरणं च ॥ एतयोश्चोन्मादत्वे समानेऽपि विशेष दर्शयन्नाह-तत्थ 'मित्यादि तत्र तयोर्मध्ये 'सुहवेयणतराए चेव'त्ति अतिशयेन सुखेन-मोहजन्योन्मादापेक्षयाऽश्लेशेन वेदन-अनुभवनं यस्यासौ सुखबेदनतरः स एव सुखवेदनतरका, चैवशब्दः स्वरूपावधारणे, 'सुहविमोयणतराए चेव'त्ति अतिशयेन सुखेन विमोचनंवियोजनं यस्मादसौ सुखविमोचनतरः, कप्रत्ययस्तथैव । 'तत्थ ण'मित्यादि, मोहजन्योन्माद इतरापेक्षया दुःखवेदनतरो
4%95-45-45-50
-५०४]
दीप अनुक्रम
[६००
*
-६०१]
~179
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [५०३-५०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५०३
व्याख्या- प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्ति ॥३५॥
-५०४]
भवत्यनन्तसंसारकारणत्वात् , संसारस्य च दुःखवेदनस्वभावत्वात् , इतरस्तु सुखवेदनतर एक, एकभषिकत्वादिति, १४ शतके तथा मोहजोन्माद इतरापेक्षया दुःखबिमोचनतरों भवति, विद्यामन्नतन्त्रदेवानुग्रहवतामपि वार्तिकानों तस्यासाध्य- २ उद्देशः
दियक्षावेशमो वात, इतरस्तु सुखविमोचनतर एव भवति यन्त्रमात्रेणापि तस्य निग्रहीतुं शक्यत्वादिति, आह च-"सर्वज्ञमन्त्रवा-16
होन्मादौ द्यपि यस्य न सर्वस्य निग्रहे शक्तः । मिथ्यामोहोन्मादः स केन किल कथ्यतां तुल्यः ॥१॥" इदं च द्वयमपि चतुर्विंश
टू सू ५०३ तिदण्डके योजयन्नाह-नेरयाण'मित्यादि, 'पुढविकाइयाण'मित्यादी यदुक्तं 'जहा नेरहयाण'ति तेन 'देवै वा से जिनजन्माअसुभे पोग्गले पक्खिवेज्जा' इत्येतद् यक्षावेशे पृथिव्यादिसूत्रेषु अध्यापित, 'वाणमंतरे'त्यादौ तु यदुक्तं 'जहा असुर- 18 दो वृष्टिः कुमाराणं ति तेन यक्षावेश एच ब्यन्तरादिसूत्रेषु 'देवे वा से महड्डियतराए'इत्येतदध्यापितं, मोहोन्मादालापकस्तु सर्वसूबेषु समान इति ॥ अनन्तरं वैमानिकदेवानां मोहनीयोन्मादलक्षणः क्रियाविशेष उक्तः, अध वृष्टिकार्यकरणरूपं तमेव देवेन्द्रादिदेवानां दर्शयन् प्रस्तावनापूर्वकमाह-अस्थि ण'मित्यादि, 'अत्धिति अस्त्येतत् 'पज्जन्ने त्ति पर्जन्यः 'कालकासि'त्ति काले-मावृषि वर्षतीत्येवंशीलः कालवर्षी, अथवा कालश्चासौ वर्षी चेति कालवर्षी, 'वृष्टिकार्य' प्रवर्षणतो जल-1|| समूह प्रकरोति प्रवर्षतीत्यर्थः, इह स्थाने शकोऽपि तं प्रकरोतीति दृश्य, तत्र च पर्जन्यस्य प्रवर्षणकियायां तत्स्वाभाव्यतालक्षणो विधिः प्रतीत एव, शक्रप्रवर्षणक्रियाविधिस्त्वप्रतीत इति तं दर्शयन्नाह-'जाहे'इत्यादि, अथवा पर्जन्य इन्द्र एवी
॥६३५॥ यते, स च कालवर्षी काले-जिनजन्मादिमहादी वर्षतीतिकृत्वा, 'जाहे णति यदा 'से कहामियाणि पकरेहति स
सू५०४
दीप
अनुक्रम
[६००
-६०१]
SARELIEatininternational
For P
OW
~180
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [५०३-५०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५०३
-५०४]
S|| शकः कथं तदानी प्रकरोति, वृष्टिकायमिति प्रकृतम् । असुरकुमारसूत्रे 'किं पत्तियणति किं प्रत्यय कारणमा| श्रित्येत्यर्थः 'जम्मणमहिमासुवत्ति जन्ममहिमासु जन्मोत्सवान् निमित्तीकृत्येत्यर्थः ॥ देवक्रियाऽधिकारादिदमपरमाह
जाहे णं भंते ! ईसाणे देविदे देवराया तमुक्कायं काउकामे भवति से कहमियाणि पकरेति ?, गोयमा ! माताहे चेषणं से ईसाणे देविंदे देवराया अभितरपरिसए देवे सदावेति, तर ते अभितरपरिसगा देवा ||
सहाविया समाणा एवं जहेव सफस्स जाव तए णं ते आभिओगिया देवा सहाविया समाणा तमुकाइए ॥ देवे सद्दा-ति, तए णं ते तमुकाइया देवा सदाविया समाणा तमुकायं पकरेंति, एवं खलु गोषमा । ईसाणे देविंदे देवराया तमुक्कार्य पकरेति ॥ अत्थि णं भंते ! असुरकुमारावि देवा तमुक्कायं पकरेंति, हुंता अस्थि । किं पत्तियन्नं भंते ! असुरकुमारा देवा तमुक्कायं पकरेंति, गोयमा! किड्डारतिपत्तियं वा पडिणीयविमोहणट्टयाए वा गुत्तीसंरक्षणहे वा अप्पणो वा सरीरपच्छायणट्टयाए, एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारावि देवा तमुकायं पकरेंति एवं जाव वेमाणिया । सेवं भंते २ त्ति जाव विहरइ (सूत्रं ५०५)॥१४-२॥
'जाहे णमित्यादि, 'तमुक्काए'त्ति तमस्कायकारिणः 'किड्डारइपत्तियं ति क्रीडारूपा रतिः क्रीडारतिः अथवा क्रीडा ॥च-खेलनं रतिश्च-निधुवनं क्रीडारती सैव ते एव वा प्रत्ययः-कारणं यत्र तत् क्रीडारतिप्रत्ययं 'गुत्तीसंरक्खणहेर्ड वत्ति गोपनीयद्रव्यसंरक्षणहेतोर्वेति ॥ चतुर्दशशते द्वितीयः ॥ १४-२॥
दीप अनुक्रम
COACCALCCCRACCHOCK
[६००
-६०१]
| अत्र चतुर्दशमे शतके द्वितीय-उद्देशक: परिसमाप्त:
~181
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [५०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५०६]
अनगारम
दीप अनुक्रम [६०३]
व्याख्या-18 द्वितीयोदेशके देवन्यतिकर उक्तः, तृतीयेऽपि स एवोच्यते इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
१४ शतके प्रज्ञप्तिः
२ उद्देशः अभयदेवी-30
देवे णं भंते ! महाकाए महासरीरे अणगारस्स भावियप्पणो मज्झमजलेणं वीइवएज्जा ?, गोयमा ! अस्थेयावति गहए बीइवएज्जा अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा, से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ अस्थेगतिए वीइवएज्जा अस्थेगतिए
ईशानस्य त
| मस्करणं नो वीइवएज्जा ?, गोयमा ! दुविहा देवा पण्णत्ता, तंजहा-मायीमिच्छाविट्ठीउववनगा य अमायीसम्मदिट्टीउ-II
सू ५०५ ॥६३६॥ ववनगा य, तत्थ णं जे से मायी मिच्छट्ठिी उववन्नए देवे से णं अणगारं भाषियप्पाणं पासह २ नो वंदति
नो नमंसति नो सकारेति नो कालाणं मंगलं देवयं चेहयं जाव पजुवासति, से णं अणगारस्स भावियप्पणोध्येन गतिः मज्झमजोणं वीदवएज्जा, तत्थ णं जे से अमायी सम्मद्दिहिउववन्नए देवे से णं अणगारं भाचियप्पाणं पासह
पासित्ता वदति नमसति जाव पजुवासति, से णं अणगारस्स भावियप्पणो मझमझेणं नो चीयीवएज्जा, & से तेणगोयमा ! एवं बुबह जाब नो वीइवएज्जा । असुरकुमारे णं भंते ! महाकाये महासरीरे एवं चेव
एवं देवदंडओ भाणियवो जाच वेमाणिए (सूत्रं ५०६) ॥ || 'देवे ण'मित्यादि, इह च क्वचिदियं द्वारगाथा दृश्यते-"महकाए सकारे सत्थेणं वीईवयंति देवा उ । वासं चेव य ||
ठाणा नेरइयाणं तु परिणामे ॥१॥" इति, अस्याश्चार्थ उद्देशकार्थाधिगमावगम्य एवेति । 'महाकाय'त्ति महान-बृहन् | ॥६३६॥ प्रशस्तो वा कायो-निकायो यस्य स महाकायः, 'महासरीरे'त्ति बृहत्तनुः । एवं देवदंडओ भाणियोति नारकपृथि-13
FarPranaamsamumony
अथ चतुर्दशमे शतके तृतीय-उद्देशक: आरब्ध: अत्र सूत्र-क्रमांकने मूल-सम्पादने एका स्खालना जाता-उद्देश: ३ स्थाने २ मुद्रितं
~182
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [५०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५०६]
शायीकायिकादीनामधिकृतव्यतिकरस्थासम्भवाद् देवानामेव च संभवाद्देवदण्डकोऽत्र व्यतिकरे भणितव्य इति ॥ प्राय ४| देवानाश्रित्य मध्यगमनलक्षणो दुर्विनय उक्तः, अथ नैरयिकादीनाश्रित्य विनयविशेषानाह
अस्थि णं भंते ! नेरइयाणं सकारेति वा सम्माणेति वा किइकम्मेह वा अन्भुट्ठाणेइ वा अंजलिपग्गहेति वा आसणाभिग्गहेति वा आसणाणुप्पदाणेति वा इंतस्स पञ्चुग्गच्छणया ठियस्स पलुवासणया गच्छंतस्स पडिसंसाहणया?, नो तिण? समढे । अस्थि णं भंते ! असुरकुमाराणं सकारेति वा सम्माणेति वा जाव8 पडिसंसाहणया वा ?, हंता अत्थि, एवं जाव थणियकुमाराणं, पुढविकाइयाणं जाव चरिंदियाणं एएसि
जहा नेरइयाणं, अत्थि णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं सकारेइ वा जाव पडिसंसाहणया, हंता ॐ अस्थि, नो चेव णं आसणाभिग्गहेइ वा आसणाणुप्पयाणेइ वा, मणुस्साणं जाव वेमाणियाणं जहा असु-18 रकुमाराणं ॥ (सूत्रं५०७) अप्पडीए णं भंते देवे महतियस्स देवस्स मजझमझेणं वीइचएज्जा?,नो तिणढे समझे, समिहीए णं भंते ! देवे समढियस्स देवस्स मझमज्झेणं वीइवएज्जा,णो इणमट्टे समढे, पमत्तं पुण वीहवएज्जा,
सेणंभंते ! किं सत्येणं अवक्कमित्ता पभू अणकमित्ता पमू ,गोयमा ! अवक्कमित्ता पभू नो अणकमित्ता पम् , इसे गंभंते ! किं पुर्वि सत्धेणं अक्कमित्ता पच्छा बीपीवएज्जा पुषि वीईव०पच्छा सत्येणं अक्षमज्जा ?, एवं एएणं
अभिलावेणं जहा दसमसए आइडीउद्देसए तहेव निरवसेसं चत्तारि दंडगा भाणियबा जाव महडिया ४ चेमाणिणी अप्पट्टियाए वेमाणिणीए (सूत्रं ५०८)॥
दीप अनुक्रम [६०३]
P
anasaramorg
~183
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [५०७-५०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५०७-५०८]
दीप
व्याख्या- 'अस्थि ण'मित्यादि, 'सकारेइ बत्ति सत्कारो-विनयाहेषु वन्दनादिनाऽऽदरकरणं प्रवरवस्खादिदानं वा 'सत्कारो १४ शतके प्रज्ञाप्तःशापवरवत्थमाईहिं' इति वचनात् 'सम्माणेइ वत्ति सन्मानः-तथाविधप्रतिपत्तिकरण 'किहकम्मेह वत्ति कृतिकर्म- ३ उद्देश: अभयदेवी-1 या वृत्तिः२
| वन्दनं कार्यकरणं वा 'अन्भुट्ठाणेइ वत्ति अभ्युत्थान-गौरवाईदर्शने विष्टरत्यागः 'अंजलिपग्गहेइ बत्ति अञ्जलि- नारकादी
| प्रग्रहः-अञ्जलिकरणम् 'आसणाभिग्गहेइ बत्ति आसनाभिग्रहः-तिष्ठत एवं गौरव्यस्यासनानयनपूर्वकमुपविशतेति || ना सत्कारा ॥६३७॥ भणनं 'आसणाणुप्पयाणेइ वत्ति आसनानुप्रदान-गौरव्यमाश्रित्यासनस्य स्थानान्तरसञ्चारणं 'इंतस्स पचुग्गच्छण
दिदेवानां
४ मध्येन गय'त्ति आगच्छतो गौरव्यस्याभिमुखगमनं 'ठियस्स पजुवासणय'त्ति तिष्ठतो गौरव्यस्य सेवेति 'गच्छंतस्स पडिसंदिसाहणय'त्ति गच्छतोऽनुवजनमिति, अयं च विनयो नारकाणां नास्ति, सततं दुःस्थत्वादिति ॥ पूर्व विनय उक्तः, अथ५०७-५०८
तद्विपर्ययभूताविनयविशेषं देवानां परस्परेण प्रतिपादयन्नाह-'अप्पहिए णमित्यादि, ‘एवं एएणं अभिलावेण मि-16 त्यादौ 'आइहिउद्देसए'त्ति दशमशतस्य तृतीयोद्देशके 'निरवसेसं ति समस्तं प्रथम दण्डकसूत्रं वाच्यं, तत्र चाल्पर्द्धिक| महर्दिकालापकः समर्द्धिकालापकश्चेत्यालापकद्वयं साक्षादेव दर्शितं, केवलं समर्द्धिकालापकस्यान्तेऽयं सूत्रशेषो दृश्यः|'गोयमा ! पुषिं सत्येणं अकमित्ता पच्छा वीईवएना नो पुर्वि वीईवइसा पच्छा सत्थेणं अकमिजत्ति, तृती-15 || यस्तु महर्धिकाल्पर्धिकालापक एवं-'महहिए णं भंते ! देवे अप्पडियरस देवस्स मज्झमज्झेर्ण वीइवएज्जा,||||७|| दाहंता वीइवएजा, से णं भंते । किं सत्येणं अकमित्ता पभू अणकमित्ता पभू?" शखेण हत्वाऽहत्वा वेत्यर्थः, 'गोयमा।||
अक्कमित्तावि पभू अणकमित्तावि पभू , से णं भंते !किं पुर्षि सत्येणं अक्कमित्ता पच्छा वीइवएज्जा पुर्षि वीइव
अनुक्रम
[६०४
-६०५]
SARERaininternational
~184
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [५०७-५०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
क
प्रत सूत्रांक [५०७-५०८]
एज्जा पच्छा सत्येणं अमेजा ?, गोयमा ! पुच्विं वा सत्येणं अक्कमित्ता पच्छा वीइवएज्जा पुचिं वा वीइवइत्ता
पच्छा सत्थेणं अकमिजत्ति, 'चत्तारि दंडगा भाणियबत्ति तत्र प्रथमदण्डक उक्तालापकत्रयात्मको देवस्य देवस्य च,17 ४. द्वितीयस्त्वेवंविध एव नवरं देवस्य च देव्याश्च, एवं तृतीयोऽपि नवरं देव्याश्च देवस्य च,चतुर्थोऽप्येवं नवरं देव्याश्च देव्याश्चेति,
अत एवाह-'जाव महहिया चेमाणिणी अप्पहियाए बेमाणिणीए'त्ति, मझमझेण'मित्यादि तु पूर्वोक्तानुसारेणाध्ये-t || यमिति ॥ अनन्तरं देववक्तव्यतोक्ता, अथैकान्तदुःखितत्वेन तद्विपर्ययभूता नारका इति तद्गतवक्तव्यतामाह
रयणप्पभापुद्धविनेरइया णं भंते ! केरिसियं पोग्गलपरिणाम पञ्चणुन्भवमाणा विहरंति ?, गोयमा ! | अणिठं जाव अमणाम एवं जाव अहेसत्तमापुढविनेरइया, एवं वेदणापरिणामं एवं जहा जीवाभिगमे वितिए नेरइयाउद्देसए जाव अहेसत्तमापुढविनेरइया णं भंते ! केरिसयं परिग्गहसन्नापरिणामं पचणुरुभवमाणा विहरंति, गोषमा । अणि8 जाव अमणामं । सेवं भंते ! २ति (सूत्रं ५०९)॥१४-३॥ | 'रयणे'त्यादि, 'एवं वेयणापरिणाम'ति पुद्गलपरिणामवद् वेदनापरिणाम प्रत्यनुभवन्ति नारकाः, तत्र चैवमभि| लापः–'रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केरिसयं वेयणापरिणामं पचणुम्भवमाणा विहरंति ?, गोयमा !
अणिढं जाव अमणामं एवं जाब अहेसत्तमापुढविनेरइया' शेषसूत्रातिदेशायाह-'एवं जहा जीवाभिगमे | इत्यादि, जीवाभिगमोक्तानि चैतानि विंशतिः पदानि, तद्यथा-"पोग्गलपरिणामं १ वेयणाइ २ लेसाइ ३ नामगोए य |४ । अरई ५ भए य ६ सोगे ७ खुहा ८ पिवासा य ९ वाही य १० ॥१॥ उस्सासे ११ अणुतावे १२ कोहे १३ माणे
दीप
अनुक्रम
[६०४
-६०५]
HATurmurary.org
~185
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [५०९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५०९]
व्याख्या-1||य १४ माय १५ लोभे य १६ । चत्तारि य सन्नाओ २० नेरइयाण परीणामे ॥२॥” इति, तत्र चाद्यपदद्वयस्याभिलापो|| १४ शतके प्रज्ञप्तिः दर्शित एव, शेषाणि त्वष्टादशाद्यपदद्वयाभिलापेनाध्येयानीति ॥ चतुर्दशशते तृतीयः ॥१४-३॥
४ उद्देश अभयदेवी
नारकपरि. यावृत्तिः __तृतीयोद्देशके नारकाणां पुद्गलपरिणाम उक्त इति, चतुर्थोद्देशकेऽपि पुद्गलपरिणामविशेष एवोच्यते इत्येवंसम्बन्ध
रूक्षतादिसू ॥६३८॥
स्यास्येदमादिसूत्रम्I एस णं भंते ! पोग्गले तीतमणतं सासयं समयं लुक्खी समयं अलुक्खी समय लुक्खी वा अलुक्खी ||
५०९-५१० वा ? पुर्षि च ण करणेणं अणेगवन्नं अणेगरूवं परिणाम परिणमति !, अह से परिणामे निजिन्ने भवति तो पच्छा एगवन्ने एगरूवे सिया ?, हंता गोयमा! एस गं पोग्गले तीते तं चेव जाव एगरूवे सिया ॥ एस णं । भंते ! पोग्गले पड्डप्पन्नं सासयं समयं ? एवं चेव, एवं अणागयमणतंपि ॥ एस णं भंते ! खंधे तीतमणतं ? एवं चेव खंधेवि जहा पोग्गले (सूत्रं ५१०)॥
'एस णं भंते 'इत्यादि, इह पुनरुद्देशकार्थसङ्घहगाथा क्वचिद् दृश्यते, सा चेयं-"पोग्गल १ खंधे २ जीचे ३ परमाणू ४ सासए य ५ चरमे य । दुविहे खलु परिणामे अज्जीवाणं च जीवाणं ६ ॥१॥" अस्याश्चार्थ उद्देशका_धिगमावगम्य | एयेति, 'पुग्गले'त्ति पुनलः परमाणुः स्कन्धरूपश्च 'तीतमणं सासर्य समय'ति विभक्तिपरिणामादतीते अनन्ते अप-15) रिमाणत्वात् शाश्वते अक्षयत्वात् 'समये काले 'समय लुक्खी'ति समयमेकं यावद्रूक्षस्पर्शसद्भावाद्रूक्षी, तथा
दीप अनुक्रम [६०६]
अत्र चतुर्दशमे शतके तृतीय-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ चतुर्दशमे शतके चतुर्थ-उद्देशक: आरब्ध:
~186
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [५१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
425
प्रत सूत्रांक
[५१०]
|'समयं अलुक्खी 'त्ति समयमेकं यावदरुक्षस्पर्शसन्दावाद् 'अरूक्षी' स्निग्धस्पर्शवान् बभूव, इदं च पदद्वयं परमाणौ | स्कन्धे च संभवति, तथा 'समयं लुक्खी चा अलुक्खी बत्ति समयमेव रूक्षश्चारुक्षश्च रूक्षस्निग्धलक्षणस्पर्शद्वयो|पेतो बभूव, इदं च स्कन्धापेक्षं यतो व्यणुकादिस्कन्धे देशो रूक्षो देशश्वारूक्षो भवतीत्येवं युगपक्षस्निग्धस्पर्श
[सम्भवः, वाशब्दो चेह समुच्चयाओं, एवंरूपश्च सन्नसौ किमनेकवर्णादिपरिणामं परिणमति पुनश्चकवर्णादिपरिदणामः स्यात् ? इति पृच्छन्नाह–'पुर्वि च करणेणं अणेगवन्नं अणेगरूवं परिणाम परिणमई'इत्यादि, 'पूर्व चात
एकवर्णादिपरिणामात्मागेव 'करणेन' प्रयोगकरणेन विश्रसाकरणेन वा 'अनेकवर्ण कालनीलादिवर्णभेदेनानेकरूपं गन्ध
रसस्पर्शसंस्थानभेदेन 'परिणाम' पर्याय परिणमति अतीकालविषयत्वादस्य परिणतवानिति द्रष्टव्यं पुनल इति प्रकृतं, दस च यदि परमाणुस्तदा समयभेदेनानेकवर्णादित्वं परिणतवान् , यदि चस्कन्धस्तदा योगपद्येनापीति । 'अह से'त्ति 'अर्थ'
अनन्तरं सः एष परमाणोः स्कन्धस्य चानेकवर्णादिपरिणामो 'निर्जीर्णः क्षीणो भवति परिणामान्तराधायककारणो-* पनिपातवशात् 'ततः पश्चात्'निर्जरणानन्तरम् 'एकवर्णः' अपेतवर्णान्तरत्वादेकरूपो विवक्षितगन्धादिपर्यायापेक्षयाऽपरपर्यायाणामपेतत्वात् 'सिय'त्ति बभूव अतीतकालविषयत्वादस्पेति प्रश्नः, इहोत्तरमेतदेवेति, अनेन च परिणामिता पुद्गलद्रव्यस्य प्रतिपादितेति ॥ 'एस ण'मित्यादि वर्तमानकालसूत्र, तत्र च 'पटुप्पन्नं'ति विभक्तिपरिणामात् 'प्रत्युत्पन्ने' वर्तमाने 'शाश्वते' सदैव तस्य भावात् 'समय' कालमात्रे एवं चेव'त्ति करणात्पूर्वसूत्रोक्तमिदं दृश्य-समय लुक्खी समयं अलुक्खी समयं लुक्खी वा अलुक्खी वा इत्यादि, योहानन्तमिति नाधीतं तद्वर्तमानसमयस्यानन्तत्वासम्भवात्,
दीप अनुक्रम [६०७]
~187
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [५१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
व्याख्या-13 अतीतानागतसूत्रयोस्त्वनन्तमित्यधीतं तयोरनन्तत्वसम्भवादिति ॥ अनन्तरं पुद्गलस्वरूपं निरूपित, पुद्गलश्च स्कन्धोऽपि १४ शतके प्रज्ञप्तिः भवतीति पुगलभेदभूतस्य स्कन्धस्य स्वरूपं निरूपयन्नाह-एस णं भंते ! खंधे इत्यादि ॥ स्कन्धश्च स्वप्रदेशापेक्षया उद्देशः अभयदेवी- जीवोऽपि स्यादितीस्थमेव जीवस्वरूपं निरूपयन्नाह
जीवस्य सुया वृत्तिः२/
एस णं भंते ! जीवे तीतमणतं सासयं समयं दुक्खी समयं अदुक्खी समयं दुक्खी वा अदुक्खी वा ? ॥३९॥ पुर्वि च करणेणं अणेगभूयं परिणाम परिणमइ अह से बेयणिज्जे निजिन्ने भवति तो पच्छा एगभावे एग-18
भूए सिया ,हंता गोयमा ! एस णं जीवे जाच एगभूए सिया, एवं पटुप्पन्नं सासर्य समयं, एवं अणागय-18 ४ मणतं सासयं समयं (मूत्रं ५११)॥
। 'एस णं भंते ! जीवे इत्यादि, 'एषः' प्रत्यक्षो जीयोऽतीतेऽनन्ते शाश्वते समये समयमेकं दुःखी दुःखहेतुयोगात् A समयं चादुःखी सुखहेतुयोगाद्बभूव समयमेव च दुःखी वाऽदुःखी वा, वाशब्दयोः समुच्चयोर्थत्वाद् दुःखी च
सुखी च तद्धेतुयोगात्, न पुनरेकदा सुखदुःखवेदनमस्ति एकोपयोगत्वाज्जीवस्येति, एवंरूपश्च सन्नसी स्वहेतुतः किमनेकभावं परिणामं परिणमति पुनश्चैकभावपरिणामः स्यात् ? इति पृच्छन्नाह-'पुषिच करणेणं अणेगभावं ४॥ अणेगभूयं परिणामं परिणमई' 'पूर्व च' एकभावपरिणामात्मागेव करणेन कालवभावादिकारणसंवलिततया दा॥६३९॥ शुभाशुभकर्मबन्धहेतुभूतया क्रिययाऽनेको भावः-पर्यायो दुःखित्वादिरूपो यस्मिन् स तथा तमनेकभावं परिणाममिति || योगः 'अणेगभूयंति अनेकभावत्वादेवानेकरूपं परिणाम स्वभावं 'परिणमइ'त्ति अतीतकालविषयत्वादस्य 'परि-||४||
दीप अनुक्रम [६०७]
~188
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [५११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५११]
गतवान्' प्राप्तवानिति । अह से त्ति अथ 'तत्' दुःखितत्वाद्यनेकभावहेतुभूतं 'चेयणिज्जेत्ति वेदनीय कर्म उपलक्षणत्वाचास्य ज्ञानावरणीयादि च 'निर्जीण क्षीणं भवति ततः पश्चात् 'एगभावेत्ति एको भावः सांसारिकसुखविपर्ययात् है स्वाभाविकसुखरूपो यस्यासावेकभावोऽत एव 'एकभूत!' एकत्वं प्राप्तः 'सिय'त्ति बभूव कर्मकृतधर्मान्तरविरहादिति प्रश्नः, इहोत्तरमेतदेव । एवं प्रत्युत्पन्नानागतसूत्रे अपीति ।। पूर्व स्कन्ध उक्तः, स च स्कन्धरूपत्यागाद्विनाशी भवति,
एवं परमाणुरपि स्यान्न वा ? इत्याशङ्कायामाह४. परमाणुपोग्गले णं भंते! किं सासए असासए , गोयमा! सिय सासए सिय असासए, से
केणटेणं भंते ! एवं बुचद सिय सासए सिय असासए ?, गोयमा ! दट्टयाए सासए वन्नपज्जवेहिं जाव फासपजवेहिं असासए से तेण?णं जाव सिय सासए सिय असासए (सूत्रं ५१२)॥ परमाणुपोग्गले णं
भंते ! किं चरमे अचरमे ?, गोयमा! दवादेसेणं नो चरिमे अचरिमे, खेत्तादेसेणं सिय चरिमे सिय अचरिमे, दि|| कालादेसेणं सिय चरिमे सिय अचरिमे, भावादेसेणं सिय चरिमे सिय अचरिमे (सूत्रं ५१३)॥ | 'परमाणुपोग्गले णं ति पुद्गलः स्कन्धोऽपि स्यादतः परमाणुग्रहणं 'सासए'त्ति शश्वद्भवनात् 'शाश्वतः' नित्यः अशा
श्वतस्त्वनित्यः 'सिय सासए'त्ति कथञ्चिच्छाश्वतः 'दवट्टयाए'त्ति द्रव्य-उपेक्षितपर्याय वस्तु तदेवार्थी प्रव्यार्थस्तभाव-| 1|| स्तत्ता तया द्रव्यार्थतया शाश्वतः स्कन्धान्त वेऽपि परमाणुत्वस्याविनष्टत्वात् प्रदेशलक्षणव्यपदेशान्तरव्यपदेश्यत्वात्,
'वन्नपज्जवेहिति परि-सामस्त्येनावन्ति-गच्छन्ति ये ते पर्यवा विशेषा धर्मा इत्यनन्तरं ते च वर्णादिभेदादनेकधेत्यतो
-RSAGAR
दीप अनुक्रम [६०८]
RELIGunintentrational
~189
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [५१२-५१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५१२-५१३]
दीप
व्याख्या- विशेष्यते-वर्णस्य पर्यवा वर्णपर्यवा अतस्तैः, 'असासए'त्ति विनाशी, पर्यवाणां पर्यवत्वेनैव विनश्वरत्वादिति ॥ परमाण्व- १४ शतके
प्रज्ञप्तिःधिकारादेवेदमाह-'परमाणु'इत्यादि, 'चरमत्ति यः परमाणुर्यस्माद्विवक्षितभावाच्युतः सन् पुनस्तं भावं न प्राप्स्थति ४ उद्देशः अभयदेवी
5 स तद्भावापेक्षया चरमः, एतद्विपरीतस्त्वचरम इति, तत्र 'दद्यादेसेणं ति आदेश:-प्रकारो द्रव्यरूप आदेशो द्रव्यादेशस्तेन परमाणो या वृत्तिः२
* नो चरमः, स हि द्रव्यतः परमाणुत्वाच्युतः सङ्घातमवाप्यापि ततध्युतः परमाणुत्वलक्षणं द्रव्यत्वमवाप्स्यतीति । 'खेसा- शाचत ॥४०॥छा देसेणं ति क्षेत्रविशेषितत्वलक्षणप्रकारेण 'स्यात्' कदाचिच्चरमः, कथम् ?,यत्र क्षेत्रे केवली समुद्घातं गतस्तत्र क्षेत्रे यः परमा-1
४ ते चरमाच
रमते सू | गुरवगाढोऽसौ तत्र क्षेत्रेतेन केवलिना समुद्घातगतेन विशेषितो न कदाचनाप्यवगाहं लप्स्यते, केवलिनो निर्वाणगमनादित्येवंद्र
,कचालना निवागमनाचा५१२-५१३ * क्षेत्रतश्चरमोऽसाविति, निर्विशेषणक्षेत्रापेक्षया त्वचरमः, तत्क्षेत्रावगाहस्य तेन लप्स्यमानत्वादिति । 'कालादेसेणं'ति काल-II
विशेषितत्वलक्षणप्रकारेण 'सिय चरमे'त्ति कथञ्चिचरमः, कथम्?, यत्र काले पूर्वाह्नादौ केवलिना समुद्घातः कृतस्तत्रैव दियः परमाणुतया संवृत्तः स च तं कालविशेष केवलिसमुद्घातविशेषितं न कदाचनापि प्राप्स्यति तस्य केवलिनः सिद्धिगमनेन #पुनः समुद्घाताभावादिति तदपेक्षया कालतश्चरमोऽसाविति, निर्विशेषणकालापेक्षया त्वचरम इति । 'भावाएसेणं ति
भावो-वर्णादिविशेषस्तद्विशेषलक्षणप्रकारेण 'स्याचरमः' कथशिचरमः, कथं ?, विवक्षितकेवलिसमुद्घातावसरे यः पुद्गलो वर्णादिभावविशेष परिणतः स विवक्षितकेवलिसमुद्घातविशेपितवर्णपरिणामापेक्षया चरमो यस्मात्तत् केवलिनिर्वाणे पुनस्तं ॥४०॥ परिणाममसी न प्राप्स्यतीति, इदं च व्याख्यानं चूर्णिकारमतमुपजीव्य कृतमिति ॥ अनन्तरं परमाणोश्चरमत्वाचरमत्वलक्षणः परिणामः प्रतिपादितः, अथ परिणामस्यैव भेदाभिधानायाह
अनुक्रम
[६०९
६१०]
RELIGunintentration
~190
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [४], मूलं [५१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५१४]
कइविहे णभंते ! परिणामे पण्णत्ते, गोयमा ! दुविहे परिणामे पण्णत्ते, तंजहा-जीवपरिणामे य अजीनवपरिणामे य, एवं परिणामपयं निरवसेसं भाणियई । सेवं भंते ! २ जाव विहरति (सूत्रं ५१४)॥१४-४॥
'कहविहे णमित्यादि, तत्र परिणमनं-द्रव्यस्यावस्थान्तरगमनं परिणामः, आह च-"परिणामो ह्यान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् । न तु सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः॥१॥" इति, 'परिणामपर्य'ति प्रज्ञापनायां त्रयोदशं परिणामपदं, तचैवं-'जीवपरिणामे णं भंते! कइ विहे पन्नत्ते?, गोयमा ! वसविहे. पण्णते, तंजहागइपरिणामे इंदियपरिणामे एवं कसायलेसा जोगउवओगे नाणदसगचरित्तवेदपरिणाम 'इत्यादि, तथा-3 | 'अजीवपरिणामे णे भंते ! कइविहे पण्णते?, गोयमा! दसविहे पण्णत्ते तंजहा-बंधणपरिणामे १ गइपरिणामे २ एवं | संठाण ३ भेय ४ वन ५ गंध ६ रस ७ फास ८ अगुरुलहुय ९ सद्दपरिणामे १०"इत्यादि । चतुर्दशशते चतुर्थः ॥१४-४॥
दीप अनुक्रम [६११]
चतुर्थोद्देशके परिणाम उक्त इति परिणामाधिकाराव्यतिव्रजनादिकं विचित्रं परिणाममधिकृत्य पञ्चमोद्देशकमाह, || तस्य चेदमादिसूत्रम्I नेरहए णं भंते ! अगणिकायस्स मज्झमझेणं बीइवएजा?, गोयमा! अत्धेगतिए वीहवएना अत्थे-12 गतिए नो वीइवएज्जा, से केणटेणं भंते ! एवं चुचइ अत्धेगइए वीइवएज्जा अत्धेगतिए नो वीइवएजा?, गो-18 यमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-विग्गहगतिसमावन्नगा य अविग्गहगतिसमावनगा य, तस्थ णं जे से
अत्र चतुर्दशमे शतके चतुर्थ-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ चतुर्दशमे शतके पंचम-उद्देशक: आरब्ध:
~191~
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [५१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५१५]
व्याख्या- विग्गहगतिसमाचन्नए नेरतिए से णं अगणिकायस्स मज्झमझेणं वीइवएजा, से णं तस्थ झियाएजा ?, णो
१४ शतके प्रज्ञप्तिः तिणडे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ, तत्थ गंजे से अविग्गहगइसमावन्नए नेरइए से णं अगणिकायस्स
४ उद्देशः अभयदेवी- मझमझेणं णो वीइवएज्जा, से तेणटेणं जाब नो वीइवएज्जा ॥ अकुरकुमारे शंभंते ! अगणिकायस्स या वृत्ति :२
पुच्छा, गोयमा ! अस्थेगतिए वीइवएज्जा अत्धेगतिए नो वीइवएज्जा, से केणटेणं जाव नो वीइवएज्जा, सू ५१४. ॥४१॥
| गोयमा ! असुरकुमारा दुविहा पण्णत्ता, संजहा-विग्गहगइसमावन्नगा य अविग्गहगइसमावन्नगा य, तत्व | उद्देशः५ दणं जे से बिग्गहगइसमावन्नए असुरकुमारे से णं एवं जहेव नेरतिए जाच वक्कमति, तत्थ णं जे से अवि-16 | अग्निमध्ये गहगइसमावन्नए असुरकुमारे से णं अत्धेगतिए अगणिकायस्स मझमझेणं बीतीवराजा अस्थेगतिए नोटी
गमनादि वीइव०, जे णं वीतीवएज्जा से णं तत्थ झियाएजा ?, नो तिणढे समढे, नो खलु तत्थ सत्धं कमति, से तेण-D टेणं एवं जाव थणियकुमारे, एगिदिया जहा नेरइया । बेइंदिया णमंते ! अगणिकायस्स मझमझेणं जहा असुरकुमारे तहा बेइंदिएवि, नवरं जेणं वीयीवएज्जा से णं तत्थ झियाएजा ,हंता झियाएज्जा, सेणं है तं चेव एवं जाव चउरिदिए । पंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! अगणिकायपुच्छा, गोयमा ! अत्धेगतिए वीइयएजा अत्थेगतिए नो वीहवएला, से तेणढण., गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पपण ||
| ॥१४॥ ता, तंजहा-विग्गहगतिसमावन्नगा य अविग्गहगइमासवनगा य, विग्गहगइमासवन्नए जहेव नेरइए जावट नो खलु तत्थ सत्थं कमइ, अविग्गहगइसमावन्नगा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-हि-15
दीप अनुक्रम
[६१२]
SONG-OCOG+
SARERucatunMamaes
~192
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [५१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५१५]
प्पत्ता य अणिहिप्पत्ता य, तत्थ णं जे से इहिप्पत्ते पंचिंदियतिरिक्खजोणिए सेणं अत्धेगइए अगणिका-8 यस्स मज्झमज्नेणं वीयीवएजा अत्थेगइए नो वीयीवएज्वा, जे णं वीयीवएज्जा से णं तत्थ झियाएज्जा !, नो तिणढे समठे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ, तत्थ ण जे से अणिहिप्पत्ते पंचिंदियतिरिक्खजोणिए से णं अस्थे-12 गतिए अगणिकायस्स मज्झमझेणं बीयीवएना अत्धेगतिए नो वीइवएज्जा, जे णं बीयीच एज्जा से णं तत्व झियाएजा ?, हंता झियाएजा, से तेणडेणं जाव नो वीयीवएज्जा, एवं मणुस्सेवि, पाणमंतरजोइसियवेमाणिएर जहा असुरकुमारे (सूत्रं ५१५)॥
'नेरइए ण'मित्यादि, इह च क्वचिदुद्देशकार्थसहगाथा दृश्यते, सा चेयं-"नेरइय अगणिमझे दस ठाणा तिरिय पोग्गले देवे । पचयभित्ती उलंघणा य पलंघणा चेव ॥१॥” इति, अर्थश्चास्या उद्देशकार्थावगमगम्य इति, 'नो खलु टू तत्थ सत्थं कमइ'त्ति विग्रहगतिसमापन्नो हि कार्मणशरीरत्वेन सूक्ष्मः, सूक्ष्मत्वाच्च तत्र 'शस्त्रम्' आयादिकं न क्रा|मति । 'तत्य णं जे से'इत्यादि, अविग्रहगतिसमापन्न उत्पत्तिक्षेत्रोपपन्नोऽभिधीयते न तु ऋजुगतिसमापन्नः तस्येह प्रकहरणेऽनधिकृतत्वात् , स चाग्निकायस्य मध्येन न व्यतिव्रजति, नारकक्षेत्रे बादराग्निकायस्याभावात् , मनुष्यक्षेत्र एव तद्भा
वात् , यच्चोत्तराध्ययनादिषु श्रूयते-"हुयासणे जलतमि दहपुवो अणेगसो ।"इत्यादि तदग्निसदृशद्रव्यान्तरापेक्षया3वसेय, संभवन्ति च तथाविधशक्तिमन्ति द्रव्याणि तेजोलेश्याद्रव्यवदिति ॥ असुरकुमारसूत्रे विग्रहगतिको नारकवत्, द अविग्रहगतिकस्तु कोऽप्यनेमध्येन व्यतिव्रजेत् यो मनुष्यलोकमागच्छति, यस्तु न तत्रागच्छति असौ न व्यतिव्रजेत् |
दीप अनुक्रम [६१२]
456-5-195-45-45%95
GROGRAM
wereumstaramorg
~193
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [५१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रज्ञप्तिः
एगिदिया जहान
प्रत सूत्रांक [५१५]
दीप अनुक्रम [६१२]
व्याख्या-||४|| व्यतिनजन्नपि च न ध्यायते ध्मायते वा, यतो न खलु तत्र शस्त्र क्रमते सूक्ष्मत्याद्वैक्रियशरीरस्य शीघ्रत्वाच तद्गतेरिति । १४ शतके
'एगिदिया जहा नेरइय'त्ति, कथम् !, यतो विग्रहे तेऽप्यग्निमध्येन व्यतिव्रजन्ति सूक्ष्मत्वान्न दान्ते च, अविग्रहगति- ५ उद्देश: अभयदेवी-8
समापन्नकाश्च तेऽपि नाग्नेमध्येन व्यतित्रजन्ति स्थावरत्वात् , तेजोवायूनां गतित्रसतयाऽग्नेमध्येन व्यतिब्रजनं यद् दृश्यते इष्टानिष्टस्य
तदिह न विवक्षितमिति सम्भाव्यते, स्थावरत्वमात्रस्यैव विवक्षितत्वात् , स्थावरत्वे हि अस्ति कथचित्तेषां गत्यभावो यद- शायनुभव ॥६४२ पेक्षया स्थावरास्ते व्यपदिश्यन्ते, अन्यथाऽधिकृतव्यपदेशस्य निर्निबन्धनता स्यात् , तथा यद्वाग्वादिपारतव्येण पृथिव्या-1||
पशव्यासू ५१६ दीनामग्निमध्येन व्यतिब्रजनं दृश्यते तदिह न विवक्षितं, स्वातन्यकृतस्यैव तस्य विवक्षणात्, चूर्णिकारः पुनरेवमाह'एगिदियाण गई नस्थित्ति ते न गच्छन्ति, एगे वाउकाइया परपेरणेसु गच्छति विराहिजति यत्ति, पञ्चेन्द्रियतिर्यक्सूत्रे 'इहिप्पत्ता यत्ति बैंक्रियलन्धिसम्पन्नाः 'अत्थेगइए अगणिकायस्से त्यादि, अस्त्येककः कश्चित् पश्शेन्द्रियतिर्यगयोनिको यो मनुष्यलोकवत्ती स तत्राग्निकायसम्भवात्तन्मध्येन व्यतिव्रजेत्, यस्तु मनुष्यक्षेत्राहि सावनेमध्येन
व्यतिब्रजेत् , अग्नेरव तवाभावात् , तदन्यो वा तथाविधसामग्र्यभावात् , 'नो खलु तत्थ सत्थं कमइ'त्ति वैक्रियादिदलब्धिमति पञ्चेन्द्रियतिरश्चि नाम्यादिक शस्त्र क्रमत इति ॥ अथ दश स्थानानीति द्वारमभिधातुमाह
रतिया दस ठाणाई पचणुभवमाणा विहरंति, तंजहा-अणिहा सहा अणिहा रूवा अणिट्ठा गंधा || अणिट्ठा रसा अणिहा फासा अणिट्ठा गती अणिट्ठा ठिती अणिढे लावन्ने अणिढे जसे कित्ती अणिद्वे उट्ठा-10 णकम्मवलचीरियपुरिसकारपरकमे । असुरकुमारा दस ठाणाई पचणुम्भवमाणा विहरंति, तंजहा-रहा सहा
*4%A3-45
Kil
~194
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [५१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५१६]
****
इडा रूवा जाव इदे उहाणकम्मबलवीरियपुरिसकारपरकमे एवं जाव थणियकुमारा ।। पुडविकाहया ग्रहा
गाई पचणुम्भवमाणा वि०, तं०-इट्टाणिट्टा फासा इट्ठाणिट्ठा गती एवं जाब परकमे, एवं जाच वणस्सइका-18 *या । इंदिया सत्तट्ठाणाई पचणुब्भवमाणा विहरंति, तंजहा-दहाणिहा रसा सेसं जहा एगिदिया.
दिया णं अट्टहाणाई पञ्चणुभवमाणा वि०, तं०-इहाणिवा गंधा सेसं जहा दियाणं, चरिंदिया नवट्ठाणाई पचणुम्भवमाणा विहरंति, तं०-इवाणिहा रूवा सैसं जहा तेंदियाणं, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दस
ठाणाई पचणुभवमाणा विहरंति, तंजहा-इटाणिट्ठा सदा जाव परकमे, एवं मणुस्सावि, वाणमंतरजो-18 भइसियवेमाणिया जहा असुरकुमारा (सूत्रं ५१६)॥ Fi नेरइया दस ठाणाई इत्यादि, तत्र 'अणिवा गईत्ति अप्रशस्तविहायोगतिनामोदयसम्पाद्या नरकगतिरूपा वा. ॥'अणिहा ठिति'त्ति नरकावस्थानरूपा नरकायुष्करूपा वा 'अणि? लावन्नेत्ति लावण्य-शरीराकृतिविशेषः 'अणिडे
जसोकित्ति'त्ति प्राकृतत्वादनिष्टेति द्रष्टव्यं यशसा-सर्वदिग्गामिप्रख्यातिरूपेण पराक्रमकृतेन वा सह कीर्ति:-एकदिदि गामिनी प्रख्यातिनफलभूता वा यश-कीतिः, अनिष्टत्वं च तस्या दुष्प्रख्यातिरूपत्वात् , अणिढे उट्ठाणे इत्यादि, उस्था-13
नादयो वीर्यान्तरायक्षयोपशमादिजन्यवीर्यविशेषाः, अनिष्टत्वं च तेषां कुत्सितत्वादिति ॥ 'पुढविकाइए'त्यादि, 'छट्ठाणाईति पृथिवीकायिकानामेकेन्द्रियत्वेन पूर्वोक्तदशस्थानकमध्ये शब्दरूपगन्धरसा न विषय इति स्पर्शादीन्येव षट् से प्रत्यनुभवन्ति, 'इटाणिट्ठा फास'त्ति सातासातोदयसम्भवात् शुभाशुभक्षेत्रोत्पत्तिभावाच, 'इहाणिवा गइति यद्यपि
दीप अनुक्रम [६१३]
***
था. .८ Santaratinimire
~195
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [५१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५१६]
दीप अनुक्रम [६१३]
व्याख्या- तेषां स्थावरत्वेन गमनरूपा गतिर्नास्ति स्वभावतस्तथाऽपि परप्रत्यया सा भवतीति शुभाशुभत्वेनेष्टानिष्टव्यपदेशार्हा स्यात्, १४ शतके
प्रज्ञप्तिः अभयदेवी-18
| अथवा यद्यपि पापरूपत्वात्तिर्यग्गतिरनिष्टैच स्यात्तथाऽपीपत्प्राम्भाराप्रतिष्ठानादिक्षेत्रोपत्तिद्वारेणेष्टानिष्टगतिस्तेषां भाव-|| ५ उद्देशः यापलिशानीयेति, 'एवं जाव परकमेति वचनादिदं दश्यम्-इहाणिवा ठिई' सा च गतिवद्धावनीया 'इहाणिडे लावन्ने नारकादीइदं च मण्यन्धपाषाणादिषु भावनीयम् इहाणिढे जसोकित्ती' इयं सत्प्रख्यात्यसत्प्रख्यातिरूपा मण्यादिष्वेवावसेयेति, जान
स्थानानुभ॥५४॥ इहाणिढे उहाणजावपरको उत्थानादि च यद्यपि तेषां स्थावरत्वान्नास्ति तथाऽपि प्राग्भवानुभूतोत्थानादिसंस्कारव-द्र
वासू५१६ | शात्तदिष्टमनिष्ट वाऽबसेयमिति । 'बंदिया सत्तट्टाणाईति शब्दरूपगन्धानां तदविषयत्वात् , रसस्पर्शादिस्थानानि च
पुद्गलानादा || शेषाण्येकेन्द्रियाणामिवेष्टानिष्टाम्यवसेयानि, गतिस्तु तेषां त्रसत्वाद्गमनरूपा द्विधाऽप्यस्ति, भवगतिस्तूत्पत्तिस्थानविशेषेणे-जान पर्वताय. ॥धानिष्टाऽवसेयेति ॥ अथ 'तिरियपोग्गले देवे इत्यादिद्वारगाथोक्तार्थाभिधानायाह
४ नुल्लकनं सू का देवे णं भंते ! महिड्डीए जाच महेसक्खे बाहिरए पोग्गले अपरियाहत्ता पभू तिरियपवर्य वा तिरिय- ५१७ द्र भिति वा उल्लंघेत्तए वा पल्लंघेत्तए वा १, गोयमा ! णो तिणढे समटे । देवे णं भंते ! महिहिए जाव महे-II
सक्खे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू तिरिय जाव पल्लंघेसए वा, हंता पभू । सेवं भंते ! सेवं भतत्ति (सूत्रं ५१७ ) ॥१४-५॥
॥४३॥ I 'देवे 'मित्यादि, 'बाहिरए'त्ति भवधारणीयशरीरव्यतिरिक्तान 'अपरियाउत्त'त्ति 'अपर्यादाय' अगृहीत्वा 'तिरि है यपवयं ति तिरश्चीनं पर्वतं गच्छतो मार्गावरोधकं 'तिरियं भित्तिं वत्ति तिर्यग्भित्ति-तिरश्चीनां प्राकारवरण्डिका
~196~
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [५१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५१७]
दिभित्तिं पर्वतखण्ड बेति 'उल्लंघेत्तए'त्ति सकृदुल्लइने 'पल्लंघेत्तए वत्ति पुनः पुनर्लङ्घनेनेति ॥ चतुर्दशशतेपञ्चमः ॥१४-५॥
--ooooceपश्चमोद्देशके नारकादिजीववक्तव्यतोक्ता षष्ठेऽपि सैवोच्यते इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्रायगिहे जाव एवं वयासी-नेरच्या णं भंते ! किमाहारा किंपरिणामा किंजोणीया किंठितीया पण्णत्ता ?, गोयमा ! नेरइया णं पोग्गलाहारा पोग्गलपरिणामा पोग्गलजोणिया पोग्गलद्वितीया कम्मोवगा कम्मनियाणा कम्महितीपा कम्मुणामेव विप्परियासमेंति एवं जाव वेमाणिया (सूत्रं ५१८)॥ नेरहया णं भंते ! साकिं बीपीदवाई आहारैति अवीचिदवाई आहारेंति ?, गोयमा ! नेरतिया बीचिदबाईपि आहारति अची-8
चिदबाईपि आहारेंति, से केणद्वेणं भंते ! एवं चुदइ नेरतिया वीचितं चेव जाव आहारति ?, गोयमा! जेणे नेरइया एगपएसूणाईपि दवाई आहारैति ते ण नेरतिया बीचिदबाई आहारति, जेणं नेरतिया पडिपुन्नाई दवाइं आहारेंति ते ण नेरइया अवीचिदवाई आहारेंति, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जाच आहारेति, एवं जाव वेमाणिया आहारेंति (सूत्रं ५१९)॥
'रायगिहे' इत्यादि, 'किमाहार'त्ति किमाहारयन्तीति किमाहाराः 'किंपरिणाम त्ति किमाहारितं सत्परिणामयन्तीति किंपरिणामाः 'किंजोणीय'त्ति का योनिः-उत्पत्तिस्थानं येषां ते किंयोनिकाः, एवं किंस्थितिकाः, स्थितिश्च अवस्थानहेतुः,
दीप अनुक्रम [६१४]
Santaratana
अत्र चतुर्दशमे शतके पंचम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ चतुर्दशमे शतके षष्ठं-उद्देशक: आरब्ध:
~197
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [५१८-५१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५१८-५१९]
व्याख्या-टअनोत्तरं क्रमेणैव दृश्य व्यक्तं च, नवरं 'पुग्गलजोणीय'त्ति पुद्गला:-शीतादिस्पर्शा योनी येषां ते तथा, नारका हि शीत- शतके प्रज्ञप्तिः योनय उष्णयोनयश्चेति, 'पोग्गलहिइय'त्ति पुद्गला-आयुष्ककर्मपुद्गलाः स्थितियेषां नरके स्थितिहेतुत्वात्ते स्था, अथ |६ उद्देशः अभयदेवी-3 कस्मात्ते पुद्गलस्थितयो भवन्तीत्यत आह-कम्मोवगेत्यादि कर्म-ज्ञानावरणादि पुद्गलरूपमुपगच्छन्ति-बन्धनद्वारेणो- | नारकाणां या वृत्तिः पयान्तीति कर्मोपगाः, कर्मनिदान-नारकत्वनिमित्तं कर्म बन्धनिमित्तं वा येषां ते कर्मनिदानाः, तथा कर्मणः-कर्म- किमाहार
पुद्गलेभ्यः सकाशास्थितिर्येषां ते कर्मस्थितयः, तथा 'कम्मुणामेव विपरियासमेति'त्ति कर्मणैव हेतुभूतेन मकार ? ॥६४४॥
त्वादि वीआगमिकः विपर्यासं-पर्यायान्तरं पर्याप्तापर्याप्तादिकमायान्ति-प्रामुवन्ति अतस्ते पुद्गलस्थितयो भवन्तीति । आहारमेवाश्रि-3
च्यवीचिद्र
व्याहारता त्याह-निरइया 'मित्यादि, 'बीइदवाईति वीचिः-विवक्षितद्रव्याणां तदवयवानां च परस्परेण पृथगभावः 'वीचिरामप
पृथग्भावे'इति वचनात् , तत्र वीचिप्रधानानि द्रव्याणि वीचिद्रव्याणि एकादिप्रदेशन्यूनानीत्यर्थः, एतनिषेधादवीचिद्र8व्याणि, अयमत्र भावा-यावता द्रव्यसमुदायेनाहारः पूर्यते स एकादिप्रदेशोनो वीचिद्रव्याण्युच्यते, परिपूर्णस्ववीचिद्रव्या-
11 णीति टीकाकारः, चूर्णिकारस्त्वाहारद्रव्यवर्गणामधिकृत्येदं व्याख्यातवान् , सत्र च याः सर्वोत्कृष्टाहारद्रध्यवर्गणास्ता भवी|चिद्रव्याणि, यास्तु ताभ्य एकादिना प्रदेशेन हीनास्ता वीचिद्रव्याणीति, 'एगपएसजणाईपि दबाईति एकप्रदेशोना
न्यपि अपिशब्दादनेकप्रदेशोनान्यपीति ॥ अनन्तरं दण्डकस्यान्ते वैमानिकानामाहारभोग उक्तः, अथ वैमानिकविशेषस्य Snam है कामभोगोपदर्शनाथाह
जाहे णं भंते । सके देविंदे देवराया दिपाई भोगभोगाई भुंजिकामे भवति से कहमिपाणिं पकरेंति,
श्रीप
५१९
अनुक्रम [६१५-६१६]
CASSAL
For P
OW
~198~
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [५२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५२०]
गोयमा ! ताहे चेव णं [ ग्रंथानम् ९००० 1 से सके देविंदे देवराया एगं महं नेमिपडिरूवर्ग विग्यति एग|81 जोयणसयसहस्सं आयामिक्खंभेणं तिन्नि जोयणसयसहस्साई जाव अर्द्धगुलं च किंचिविसेसाहियं परिक्खे.
वेणं, तस्स णं नेमिपडिरूवस्स उवरि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पत्नत्ते जाच मणीणं फासे, तस्स णं नेमिपतिट्र स्वगस्स बहुमज्झदेसभागे तत्थ णं महं एगं पासायवडेंसगं विउच्चति पंच जोपणसयाई उहूं उच्चरोणं अहाहजाई
जोयणसयाई विक्खंभेणं अन्भुग्गयमूसियवनओ जाव पडिरूवं, तस्स पासायवर्डिसगस्य उल्लोए पउमलयभत्तिचित्ते जाव पडिरूवे, तस्स णं पासायव.सगस्स अंतो बहुसमरमणिले भूमिभागे जाव मणीणं फासो मणिपेटूडिया अट्ठजोयणिया जहा वेमाणियाणं, तीसेक मणिपेढियाए उचरिं महं एगे देवसयणिज्जे विजयह सयणिज्ज-18/ वनओ जाय पडिरूवे, तस्थ णं से सके देविदे देवराया अहहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहि दोहि य अणिएहिं नहाणिएण य गंधवाणिएण य सद्धिं महयाहयनजाब दिवाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरह ॥ जाहे ईसाणे देविंदे देवराया दिवाई जहा सके तहा ईसाणेचि निरवसेसं, एवं सर्णकुमारेवि, नवरं पासायवरें-18 सओ छ जोयणसयाई उदृ उच्चत्तेणं तिन्नि जोयणसयाई विक्खंभेणं मणिपेडिया तहेव अट्ठजोयणिया, तीसे णं मणिपेढियाए उवरिं एस्थ णं महेर्ग सीहासणं विउच्चइ सपरिवार भाणियचं, तस्थ णं सर्णकुमारे देविंदे
देवराया पावत्तरीए सामाणियसाहस्सीहिं जाव चाहिं बावत्तरीहि आयरक्खदेवसाइस्सीहि य बहूहिं दसणंकुमारकप्पवासीहि वेमाणिएहिं देवेहि य देवीहि य सद्धिं संपरिबुडे महया जाव विहरइ । एवं जहा
दीप अनुक्रम [६१७]
~199~
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [५२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५२०]
व्याख्या- सणंकुमारे तहा जाव पाणओ अचुओ नवरं जो जस्स परिवारो सो तस्स भाणियचो, पासायउच्चत्तं १४ शतके प्रज्ञप्ति: G
सएसु २ कप्पेसु विमाणाणं उच्चत्तं अद्धद्धं विस्थारो जाव अक्षुयस्स नवजोयणसयाई उहुं उच्चत्तेणं अद्धपंच- ६ उद्देशः. अभयदेवी-माईजोयणसयाई विक्खंभेणं, तत्ध गोयमा ! अचुए देविंदे देवराया दसहि सामाणियसाहस्सीहिं जाव शक्रादाना या वृत्तिः विहरइ सेसं तं चेव सेवं भंते ! २त्ति (सूत्रं ५२०)॥१४-६॥
| भोगाय ने
मिविकुर्व॥४५॥ skl 'जाहे णमित्यादि, 'जाहेत्ति यदा 'भोगभोगाई ति भुज्यन्त इति भोगा:-स्पर्शादयः भोगार्हा भोगा भोगभोगाः|
M E मनोज्ञस्पर्शादय इत्यर्थः तान् ‘से कहमियाणि पकरे 'त्ति अथ 'कथं' केन प्रकारेण तदानीं प्रकरोति ?-प्रवर्तत इत्यर्थः ॥ ५२० 'नेमिपडिरूवगं'ति नेमिः-चक्रधारा तद्योगाच्चक्रमपि नेमिः-तत्पतिरूपक-वृत्ततया तत्सदृशं स्थानमिति शेषः, 'तिनि ६ जोयणे'त्यादौ यावत्करणादिदं दृश्य-'सोलस य जोयणसहस्साई दो य सयाई सत्तावीसाहियाई कोसतियं * अट्ठावीसाहियं धणुसयं तेरस य अंगुलाई ति, 'उवरिति उपरिष्टात् 'बहुसमरमणिजे ति अत्यन्तसमो रम्यश्चेत्यर्थः 'जाव मणीणं फासो'त्ति भूमिभागवर्णकस्तावद्वाच्यो यावन्मणीनां स्पर्शवर्णक इत्यर्थः, स चार्य-से जहा-1 नामए-आलिंगपोक्खरेइ वा मुइंगपोक्खरेइ वा इत्यादि, आलिङ्गपुष्करं मुरजमुखपुढे-मईलमुखपुटं तद्वत्सम इत्यर्थः, तथा 'सच्छाएहिं सप्पमेहिं समरीई हिं सउज्जोएहिं नाणाविहपंचवन्नेहिं मणीहिं उबसोहिए तंजहा-किण्हे दि ५-15I
का॥४५॥ इत्यादि वर्णगन्धरसस्पर्शवर्णको मणीनां वाच्य इति । 'अनुग्गयमूसियवन्नओ'त्ति अभ्युद्गतोच्छ्रितादिः प्रासादवर्णको 8 वाच्य इत्यर्थः, सच पूर्ववत्, 'उल्लोए'त्ति उल्लोकः उल्लोचो वा-उपरितलं 'पउमलयाभत्तिचित्ते'त्ति पद्मानि लताश्च
दीप अनुक्रम [६१७]
~200
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [५२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५२०]
लापालतास्तद्पाभिक्तिभिः-विच्छित्तिमिश्चित्रो यः स तथा, यावत्करणादिदं दृश्य-'पासाहए दरिसणिजे अभि-18
स्वेत्ति, 'मणिपेदिया अट्ठजोयणिया जहा वेमाणियाणं ति मणिपीठिका वाच्या, सा चायामविष्कम्भाभ्यामष्टयोज|| निका यथा वैमानिकानां सम्बधिनी न तु व्यन्तरादिसत्केव, तस्या अन्यथास्वरूपत्वात् , सा पुनरेवं-तस्स णं बहुस-या ६ मरमणिजस्सभूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एस्थ णं महं एगं मणिपेढियं विज्बाइ, सा णं मणिपेढिया अट्ठ 8
जोयणाई आयामविक्खंभेणं पन्नत्ता चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं सबरयणामई अच्छा जाव पडिरूव'त्ति,k 'सयणिजवन्नओ'त्ति शयनीयवर्णको वाच्यः, स चैवं-तस्स णं देवसयणिज्जस्स इमेयारूवे वनावासे पण्णत्ते' वर्णकव्यास:-वर्णकविस्तरः, 'तंजहा-नाणामणिमया पडिपाया सोवन्निया पाया णाणामणिमयाई पायसीसगाई इत्यादिरिति, 'दोहि य अणीएहिंति अनीकं-सैन्यं 'नहाणीएण यत्ति नाव्य-नृत्यं तत्कारकमनीक-जनस
मूहो नाट्यानीकं, एवं गन्धर्वानीकं नवरं गन्धर्ब-गीतं, 'महयेत्यादि यावत्करणादेवं दृश्य-महयाहयनहगीयवाइ६ यतीतलतालतुडियघणमुइंगपडप्पवाइयरवेणं ति व्याख्या चास्य प्राग्वत्, इह च यत् शक्रस्य सुधर्मसभालक्षण-18 &भोगस्थानसद्भावेऽपि भोगार्थ नेमिप्रतिरूपकादिविकुर्वर्ण तजिनारनामाशातनापरिहारार्थ, सुधर्मसभायां हि माणवके
स्तम्भे जिनास्थीनि समुद्गकेषु सन्ति, तत्प्रत्यासत्तौ च भोगानुभवने तदबहुमानः कृतः स्यात स चाशातनेति । 'सिंहासणं विउच्वइत्ति सनत्कुमारदेवेन्द्रः सिंहासनं विकुरुते न तु शक्रेशानाविव देवशयनीयं, स्पर्शमात्रेण तस्य परिचारकत्यान्न शयनीयेन प्रयोजनमिति भावः, 'सपरिवार ति स्वकीयपरिवारयोग्यासनपरिकरितमित्यर्थः, 'नवरं जो जस्स
%ESSASAR
दीप अनुक्रम [६१७]
A S
JMEauratoniml
For P
OW
~ 2014
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [५२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५२०]
व्याख्या- परिवारो सो तस्स भाणियघोत्ति तत्र सनत्कुमारस्य परिवार उक्तः, एवं माहेन्द्रस्य तु सप्ततिः सामानिकसहस्राणि १४ शतके प्रज्ञप्तिः चतस्रश्चाङ्गरक्षसहस्राणां सप्ततयः, ब्रह्मणः पष्टिः सामानिकसहस्राणां लान्तकस्य पश्चाशत् शुक्रस्य चत्वारिंशत् सहस्रारस्य ४७ उद्देशः
||त्रिंशत् प्राणतस्य विंशतिः अच्युतस्य तु दश सामानिकसहस्राणि, सर्वत्रापि च सामानिकचतुर्गुणा आत्मरक्षा इति ।दा चिरंसथूया वृत्तिः२४ 'पासायउच्चत्तं जमित्यादि तत्र सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः षड़ योजनशतानि प्रासादस्योच्चत्वं ब्रह्मलान्तकयोः सप्त शुक्रसह
ओऽसिइति ॥६४६॥ सारयोरष्टौ प्राणतेन्द्रस्याच्युतेन्द्रस्य च नवेति, इह च सनत्कुमारादयः सामानिकादिपरिवारसहितास्तत्र नेमिप्रतिरूपके
श्रीवीरकृत गच्छन्ति, तत्समक्षमपि स्पर्शादिप्रतिचारणाया अविरुद्धत्वात् , शक्रेशानौ तु न तथा, सामानिकादिपरिवारसमक्षं कायप्र-]
आश्वासा तिचारणाया लज्जनीयत्वेन विरुद्धत्वादिति ॥ चतुर्दशाशते पष्ठः॥१४-६ ॥
सू५२१ पष्ठोद्देशकान्ते प्राणताच्युतेन्द्रयो गानुभूतिरुक्ता, सा च तयोः कथञ्चित्तुल्येति तुल्यताऽभिधानार्थः सप्तमोद्देशकः, तस्य चेदमादिसूत्रम्* रायगिहे जाव एवं क्यासी परिसा पडिगया, गोयमादी समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमतेत्ता
एवं षयासी-चिरसंसिहोऽसि मे गोयमा ! चिरसंथुओऽसि मे गोयमा ! चिरपरिचिओऽसि मे गोयमा ! दचिरजुसिओऽसि मे गोयमा ! चिराणुगओऽसि मे गोयमा ! चिराणुवत्तीसि मे गोयमा ! अणंतरं देवलोए
A n६४६॥ अणंतरं माणुस्सए भवे, किं परं? मरणा कायस्स भेदा इओचुत्ता दोवि तुल्ला एगट्ठा अविसेसमणाणत्ता भविस्सामो (सूत्रं ५२१)।
SAMACHAR
RECEN
दीप अनुक्रम [६१७]
CE
अत्र चतुर्दशमे शतके षष्ठं-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ चतुर्दशमे शतके सप्तम-उद्देशक: आरब्ध:
गौतमस्वामिनं श्री-वीर-प्रभो: आश्वासनं
~202
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[५२१]
दीप
अनुक्रम [६१८]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [५२१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
Eucati
'राग' इत्यादि, तत्र किल भगवान् श्रीमन्महावीरः केवलज्ञानाप्राप्त्या सखेदस्य गौतमस्वामिनः समाश्वासनायात्मनस्तस्य च भाविनीं तुल्यतां प्रतिपादयितुमिदमाह - 'गोयमे' त्यादि, 'चिरसंसिद्धोऽसि ति चिरं बहुकालं यावत् चिरे वा-अतीते प्रभूते काले संश्लिष्टः- स्नेहात्संबद्धश्चिरसंश्लिष्टः 'असि' भवसि 'मे' मया मम वा त्वं हे गौतम !, 'चिरसंधुओ 'त्ति चिरं बहुकालम् अतीतं यावत् संस्तुतः - स्नेहात्प्रशंसितश्चिरसंस्तुतः, एवं 'चिरपरिचिए ति पुनः पुनर्दर्शनतः परिचितश्चिरपरिचितः, 'चिरजुसिए'ति चिरसेवितश्चिरप्रीतो वा 'जुषी प्रीतिसेवनयोः' इति वचनात् 'चिराणुगए'ति चिरमनुगतो ममानुगतिकारित्वात्, 'चिराणुवत्तीसि'त्ति चिरमनुवृत्तिः - अनुकूलवर्त्तिता यस्यासौ चिरानुवृत्तिः, इदं च चिरसंश्लिष्टत्वादिकं क्कासीत् ? इत्याह- 'अनंतरं देवलोए' ति अनन्तरं निर्व्यवधानं यथा भवत्येवं देवलोके अनन्तरे देवभवे इत्यर्थः ततोऽपि - अनन्तरं मनुष्यभवे, जात्यर्थत्वादेकवचनस्य देवभवेषु मनुष्यभवेषु चेति द्रष्टव्यं तत्र किल त्रिपृष्ठभवे भगवतो गौतमः सारथित्वेन चिरसंश्लिष्टत्वादिधर्म्मयुक्त आसीत्, एवमन्येष्वपि भवेषु संभवतीति, एवं च मयि सव गाढत्वेन स्नेहस्य न केवलज्ञानमुत्पद्यते भविष्यति च तवापि स्नेहक्षये तदित्यधृतिं मा कृथा इति गम्यते, 'किं परं, मरण'त्ति किं बहुना 'पर'ति परतो 'मरणात्' मृत्योः, किमुक्तं भवति ? -कायस्य भेदाद्धेतोः 'इओ चुय'त्ति 'इतः' प्रत्यक्षान्मनुष्यभवाश्युतौ 'दोवि'त्ति द्वावप्यावां तुल्यौ भविष्याव इति योगः, तत्र 'तुल्यो' समानजीवद्रव्यौ 'एकहति 'एकार्थी' एकप्र योजनावनन्तसुखप्रयोजनत्वात् एकस्थौ वा एकक्षेत्राश्रिती सिद्धिक्षेत्रापेक्षयेति 'अविसेसमणाणत्त'त्ति 'अविशेष' निर्विशेषं यथा भवत्येवम् 'अनानात्वौ' तुल्यज्ञानदर्शनादिपर्यायाविति, इदं च किल यदा भगवता गौतमेन चैत्यवन्दनायाष्टापदं गत्वा
गौतमस्वामिनं श्री वीर प्रभोः आश्वासनं
For Parts Only
~203~
nary org
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [५२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५२१]
१४ दशतके ७ उद्देशः अनुत्तराणां तुल्यताज्ञानं सू ५२२
व्याख्या- प्रत्यागच्छता पञ्चदशतापसशतानि प्रत्राजितानि समुत्पन्नकवलानि च श्रीमन्महावीरसमवसरणमानीतानि तीर्थप्रणामकर- प्रज्ञप्तिः | णसमनन्तरं च केवलिपपदि समुपविष्टानि, गीतमेन चाविदिततत्केवलोत्पादव्यतिकरेणाभिहितानि यथा-आगच्छत भोः अभयदेवी- साधवः । भगवन्तं वन्दध्यमिति, जिननायकेन च गीतमोऽभिहितो यथा-गौतम ! मा केवलिनामाशातनां कार्षीः, ततो या वृत्तिः२
#गौतमी मिथ्यादुष्कृतमदात्, तथा यानहं प्रवाजयामि तेषां केवलमुत्पद्यते न पुनर्मम ततः किं तन्मे नोत्पत्स्यत एवेति 13 विकल्पादधृतिं चकार, ततो जगद्गुरुणा गदितोऽसी मनःसमाधानाय, यथा गौतम! चत्वारः कटा भवन्ति-सुम्बकटो|
विदलकटश्चर्मकटः कम्बलकटश्चेति, एवं शिष्या अपि गुरोः प्रतिबन्धसाधम्र्येण सुम्बकटसमादयश्चत्वार एव भवन्ति, तत्र
त्वं मयि कम्बलकटसमान इत्येतस्यार्थस्य समर्थनाय भगवता तदाऽभिहितमिति ॥ एवं भाविन्यामात्मतुल्यतायां भगव-| 181 ताऽभिहितायां 'अतिप्रियमश्रद्धेयमितिकृत्वा यद्यन्योऽप्येनमर्थं जानाति तदा साधुर्भवतीत्यनेनाभिप्रायेण गीतम एवाह| जहा णं भंते ! वयं एपमह जाणामो पासामो तहा णं अणुत्तरोववाइयावि देवा एयमझुजा पा०, हता गोयमा ! जहा गं वयं एयमढं जाणामो पासामो तहा अणुत्तरोववाहयावि देवा एयम8 जा पा०, से केणटेणं जाव पासंति ?, गोयमा ! अणुत्तरोषवाइया णं अणंताओ मणोदववग्गणाओ लद्धाओ पत्ताओ अभि| समन्नागयाओ भवंति, से तेणटेणं गोयमा! एवं बुच्चइ जाव पासंति (सूत्र ५२२)॥ HI 'जहा ण मित्यादि, 'एयमहति 'एतमर्थम् आवयोर्भावितुल्यतालक्षणं 'वयं जाणामो'त्ति यूयं च वयं चेत्येकशेषा
द्वयं तत्र यूयं केवलज्ञानेन जानीथ वयं तु भवदुपदेशात् । तथाऽनुत्तरोपपातिका अपि देवा एनमर्थं जानन्तीति ? प्रश्नः,
दीप अनुक्रम [६१८]
CARTOON
| ॥६४७॥
SAMEnirahini
For P
OW
Imaturary.org
| गौतमस्वामिनं श्री-वीर-प्रभो: आश्वासनं
~2040
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [५२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
44-3G
प्रत
सूत्रांक
[५२२]
| अनोत्तर-'हंता गोषमा 'इत्यादि, 'मणोदववग्गणाओ लद्धाओ'त्ति मनोद्रव्यवर्गणा लब्धास्तद्विषयावधिज्ञानलब्धिमात्रापेक्षया 'पत्ताओ'त्ति प्राप्तास्तद्रव्यपरिच्छेदतः 'अभिसमन्नागयाओत्ति अभिसमन्यागताः तद्गुणपर्यायपरिच्छेदतः, अयमत्र गर्भार्थः-अनुत्तरोपपातिका देवा विशिष्टावधिना मनोद्रव्यवर्गणा जानन्ति पश्यन्ति च, तासां चावयोरयो| ग्यवस्थायामदर्शनेन निर्वाणगमनं निश्चिन्वन्ति, ततश्चावयोर्भावितुल्यतालक्षणमर्थं जानन्ति पश्यन्ति चेति व्यपदिश्यत दि इति ॥ तुल्यतापक्रमादेवेदमाह
कइविहे णं भंते ! तुल्लए पण्णते?, गोयमा ! छविहे तुल्लए पपणते, तंजहा-दवतुल्लए खेत्ततुल्लए कालतुल्लए * 18. भवतुल्लए भावतुल्लए संठाणतुल्लए, से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ दबतुल्लए ?, गोयमा ! परमाणुपोग्गले परमा-15
गुपोग्गलस्स दबओतुल्ले परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलवइरित्तस्स दवओणो तुल्ले, दुपएसिए खंधे दुपएसियस्स खंधस्स दखओ तुल्ले दुपएसिए खंधे दुपएसियवइरित्तस्स खंधस्स दवओणोतुल्ले एवं जाव दसपएसिए, तुल्लसंखेजपएसिए खंधे तुलसंखेजपएसियस्स खंधस्स दवओतुल्ले तुल्लसंखेजपएसिए खंधे तुल्लसंखेजपएसियवइरित्तस्स खंधस्स दवओ णो तुल्ले, एवं तुल्लअसंखेज्जपएसिएविएवं तुल्लअणंतपएसिएवि, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ दवओ तुल्लए । से केण?णं भंते ! एवं बुचइ खेत्ततुल्लए २१, गोयमा! एगपएसोगाढे पोग्गले एगपएसोगाढस्स
पोग्गलस्स खेत्तओ तुल्ले एगपएसोगाढे पोग्गले एगपएसोगाढवइरित्तस्स पोग्गलस्स खेत्तओ णो तुल्ले, एवं जाव दिसपएसोगाढे, तुल्लसंखेजपएसोगाढे तुल्लसंखेज एवं तुल्लअसंखेजपएसोगादेवि, से तेणद्वेणं जाव खेत्ततुल्लए।
दीप अनुक्रम [६१९]
JAREDucatune
FOTO
PA
R TMLEDITIATRATE
~2050
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [५२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१२३]
दीप अनुक्रम [६२०]
व्याख्या-13 से केणढणं भंते ! एवं बुच्चइ कालतुल्लए २१, गोयमा ! एगसमयठितीए पोग्गले एग.२कालो ताले एगस-11 ५४ शतके
७ उद्देशः प्रज्ञप्तिः मयठितीए पोग्गले एगसमयठितीवइरित्तस्स पोग्गलस्स कालओणो तुल्ले एवं जाव दससमयहितीए तुल्लसंखे
द्रव्यादि अभयदेवी- जसमयठितीए एवं चेव एवं तुल्लअसंखेजसमयहितीएवि, से तेणद्वेणं जाव कालतुल्लए । से केण?णं भंते तल्यता या वृत्ति
एवं धुचइ भवतुल्लए ?, गोयमा ! नेरइए नेरइयस्स भवट्ठयाए तुल्ले नेरइयवहरित्तस्स भवट्ठयाए नो तुमे सू ५२३ ॥६४८॥ |तिरिक्खजोणिए एवं चेष एवं मणुस्से एवं देवेवि, से तेण?णं जाव भवतुल्लए । से केण्डेणं भंते ! एवं बुबह
भावतुल्लए भावतुल्लए ?, गोथमा ! एगगुणकालए पोग्गले एगगुणकालस्स पोग्गलस्स भावओ तुल्ले एगगुणकालए पोग्गले एगगुणकालगवइरित्सस्स पोग्गलस्स भाचओ णो तुल्ले एवं जाव दसगुणकालए एवं तुल्लसंखे
जगुणकालए पोग्गले एवं तुल्लअसंखेजगुणकालएवि एवं तुल्लअर्णतगुणकालएवि, जहा कालए एवं नीलए | लोहियए हालिद्दे सुकिल्लए, एवं सुब्भिगंधे एवं दुन्भिगंधे, एवं तित्ते जाव महुरे, एवं कक्खडे जाव लुक्खे, उदइए भावे उदइयस्स भावस्स भावओ तुल्ले उदइए भावे उदइयभाववइरित्तस्स भावस्स भावओ नो तुल्ले, एवं उपसमिए० खइए० खओवसमिए० पारिणामिए० संनिवाइए भावे संनिवाइयस्स भावस्स, से तेणटेणं ॥४८॥ गोषमा ! एवं बुचद भावतुल्लए २ । से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ संठाणतुल्लए २१, गोयमा ! परिमंडले || संठाणे परिमंडलस्स संठाणस्स संठाणओ तुल्ले परिभंडलसंठाणवइरित्तस्स संठाणओ नो तुल्ले एवं बटे तंसे ।
5645625645645%
RKAR
JIREucatunintenama
~206
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [५२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५२३]
परंसे आयए, समचरंससंधाणे समचरंसस्स संठाणस्स संठाणओ तल्ले समचउरंसे संठाणे समचउरससंठाणवइरित्तस्स संठाणस्स संठाणओ नो तुल्ले एवं परिमंडले एवं जाव हुंडे, से तेण जाच संठाणतुल्लए सं०२ (सूत्रं ५२३)॥ | 'कइविहे इत्यादि, तुल्यं समं तदेव तुल्यक दवतुल्लए'त्ति द्रव्यतः एकाणुकाद्यपेक्षया तुल्यकं द्रव्यतुल्यकम् , अथवा द्रव्यं चतत्तुल्यकं च द्रव्यान्तरेणेति द्रव्यतुल्यकं विशेषणव्यत्ययात्, 'खेत्ततुल्लए'त्ति क्षेत्रतः-एकप्रदेशावगाढत्वादिना तुल्यक क्षेत्रतुल्यकम् , एवं शेषाण्यपि, नवरं भवो-नारकादिःभावो-वर्णादिरीदयिकादिर्वा संस्थान-परिमण्डलादिः, इह च तुल्यव्यतिरिकमतुल्यं भवतीति तदपीह व्याख्यास्यते, 'तुल्लसंखेजपएसिए'त्ति तुल्या-समानाः सङ्ख्ययाः प्रेदशा यत्र स तथा, तुल्यग्रहणमिह ।
सङ्ख्यातत्वस्य सङ्गयातभेदत्वान्न सनातमात्रेण तुल्यताऽस्य स्याद् अपितु समानसङ्ख्यत्वेनेत्यस्यार्थस्य प्रतिपादनार्थम्, एवमन्यत्रादापीति, याचेहानन्तक्षेत्रप्रदेशावगाढत्वमनन्तसमयस्थायित्वं च नोक्तं तदवगाहप्रदेशानां स्थितिसमयानां च पुद्गलानाश्रित्यान
न्तानामभावादिति । भवट्ठयाए'त्ति भव एवार्थों भवार्थस्तद्धावस्तत्ता तया भवार्थतया, 'उदइए भावे'त्ति उदयः-कर्मणां विपाकः स एचौदयिकः-क्रियामात्र अथवा उदयेन निष्पन्नः औदयिको भावो-नारकत्वादिपर्यायविशेषः औदयिकस्य भावस्य 5 नारकत्वादेर्भावतो-भावसामान्यमाश्रित्य तुल्यः-समः, एवं उपसमिए'त्ति औपशमिकोऽप्येवं वाच्यः, तथाहि-'उपसमिए भावे उपसमियस्स भावस्स भावओ तुल्ले उपसमिए भावे उपसमियवारित्तस्स भावस्स भावओ नोतुल्ले'त्ति, एवं शेपेष्वपि वाच्यं, तत्रोपशमः-उदीर्णस्य कर्मणः क्षयोऽनुदीर्णस्य विष्कम्भितोदयत्वं स एवापशमिकः-क्रियामात्र उपशमेन वा
दीप अनुक्रम [६२०]
9CCC0CROSAGRESCRICKR
X
ध्या.१०९
For P
OW
Iail
~207~
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [५२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
|१४ शतके
प्रत सूत्रांक
तुल्यता
[५२३]
व्याख्या- निवृत्तः औपशमिकः-सम्यग्दर्शनादि, 'खइए'त्ति क्षयः-कर्माभावः स एव क्षायिकः क्षयेण वा निवृत्तः क्षायिकः-केवल-
प्रज्ञप्तिः ज्ञानादिः, 'खओवसमिए'त्ति क्षयेण-उदयप्राप्तकर्मणो विनाशेन सहोपशमो-विष्कम्भितोदयत्वं क्षयोपशमः स एव ७ उद्देश: अभयदेवी
साक्षायोपशमिका-क्रियामात्रमेव क्षयोपशमेन वा निवृत्तः क्षायोपशमिकः-मतिज्ञानादिपर्यायविशेषः, नन्वीपशमिकस्य क्षायो- द्रव्यादि या वृत्तिः२
पशमिकस्य च का प्रतिविशेषः, उभयत्राप्युदीर्णस्य शयस्यानुदीर्णस्य चोपशमस्य भावात् , उच्यते, क्षायोपशमिके विपा-3 ॥६४९॥
| कवेदनमेव नास्ति प्रदेशवेदनं पुनरस्त्येव, औपशमिके तु प्रदेशवेदनमपि नास्तीति, 'पारिणामिए'त्ति परिणमनं परिणामः सू१२३ स एव पारिणामिकः, 'सशिवाइए'त्ति सन्निपातः-औदयिकादिभावानां व्यादिसंयोगस्तेन निवृत्तः साग्निपातिकः । 'संठाणतुल्लए'त्ति संस्थान-आकृतिविशेषः, तच्च द्वेधा-जीवाजीवभेदात् , तत्राजीवसंस्थानं पञ्चधा, तत्र 'परिमंडले संठाणे त्ति परिमण्डलसंस्थानं बहिस्ताद्वृत्ताकारं मध्ये शुषिरं यथा वलयस्य, तच्च द्वेधा-धनप्रतरभेदात्, 'वहे'त्ति वृत्त-परिमण्डलमे
वान्तःशुपिररहितं यथा कुलालचक्रस्य, इदमपि द्वेधा-धनप्रतरभेदात्, पुनरेकैकं द्विधा-समसायविषमसमप्रदेशभेदात्, ला एवं व्यस्त्रं चतुरनं च, नवरं 'त्र्यनं' त्रिकोणं शृङ्गाटकस्येव चतुरनं तु चतुष्कोणं यथा कुम्भिकायाः, आयतदीर्घ यथा|
दण्डस्य, तच त्रेधा-श्रेण्यायतप्रतरायतघनायतभेदात्, पुनरेकै द्विधा-समसयविषमसषप्रदेशभेदात्, इदं च पञ्चवि|| धमपि विश्रसाप्रयोगाभ्यां भवति, जीवसंस्थानं तु संस्थानाभिधाननामकर्मोत्तरप्रकृत्युदयसम्पाद्यो जीवानामाकारः, तब ॥६४९॥ दापोढा, तत्राय 'समचउरंसेति तुल्यारोहपरिणाहं सम्पूर्णाङ्गावयवं स्वाङ्गलाष्टशतोच्छ्यं समचतुरस्र, तुल्यारोहपरिणाहत्वेन ||5|
समत्वात् पूर्णावयवत्वेन च चतुरस्त्रत्वात्तस्य, चतुरस्र सङ्गतमिति पर्यायी, 'एवं परिमंडलेवित्ति यथा समचतुरस्रमुक्त |
दीप अनुक्रम [६२०]
SCACASSES
~208~
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[५२३]
दीप
अनुक्रम
[६२०]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [७], मूलं [५२३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
तथा न्यग्रोधपरिमण्डलमपीत्यर्थः, न्यग्रोधो वटवृक्षस्तद्वत्परिमण्डलं नाभीत उपरि चतुरस्रलक्षणयुक्तमधश्च तदनुरूपं न
| भवति तस्मात्प्रमाणाद्धीनतरमिति, 'एवं जाव हुंडे'त्ति इह यावत्करणात् 'साई खुजे वामणे'त्ति दृश्यं तत्र 'साइ'त्ति | सादि नाभीतोऽधश्चतुरस्रलक्षणयुक्तमुपरि च तदनुरूपं न भवति, 'खुज्योति कुजं ग्रीवादी हस्तपादयोश्चतुरश्रलक्षणयुक्तं सङ्गितविकृतमध्यं, 'वामणे' त्ति वामनं लक्षणयुक्तमध्ये ग्रीवादी हस्तपादयोरप्यादिलक्षणन्यूनं, 'हुंडे' त्ति हुण्डं प्रायः सर्वावयवेष्वादिलक्षणविसंवादोपेतमिति ॥ अनन्तरं संस्थानवक्तव्यतोक्ता, अथ संस्थानवतोऽनगारस्य वक्तव्यताविशेषमभिधा
तुकाम आह
भत्तपचक्वायए णं भंते! अणगारे मुछिए जाव अज्झोवबन्ने आहारमाहारेति अहे णं वीससाए काल | करेति तओ पच्छा अमुच्छिए अगिद्धे जाव अणज्झोववन्ने आहारमाहारेति ?, हंता गोयमा ! भत्तपच्चक्खायए णं अणगारे तं चेव, से केणद्वेणं भन्ते ! एवं बु० भत्तपञ्चक्वायए णं तं चैव ?, गोयमा ! भत्तपञ्चक्खायए णं अणगारे [मुच्छिए] मुच्छिए जाव अज्झोवयन्ने भवइ अहे णंबीससाए कालं करेइ तओ पच्छा अमुच्छिए जाव आहारे भव से तेणद्वेणं गोयमा ! जाव आहारमाहारेति (सूत्रं ५२४ ) ॥
''त्यादि, तत्र 'पञ्चक्रखायए णं'ति अनशनी 'मूच्छितः' सञ्जातमूर्च्छ:- जाताहारसंरक्षणानुबन्धः तद्दोषविषये वा मूढः 'मूर्च्छा मोहसमुच्छ्राययोः' इति वचनात् यावत्करणादिदं दृश्यं— 'गढिए' ग्रथित आहारविषय स्नेहतन्तुभिः | संदर्भितः 'ग्रन्थ श्रन्थ संदर्भ' इति वचनात् 'गिद्धे' गृद्धः प्राप्ताहारे आसक्तोऽतृप्तत्वेन वा तदाकाङ्क्षावान् 'गृघु अभिकाङ्क्षायाम्
Ja Education Imman
For P&Fran
~209~
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [५२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५२४]
द इति वचनात् 'अज्झोववन्ने त्ति अध्युपपन्नः-अप्राप्ताहारचिन्तामाधिक्येनोपपन्नः 'आहार' वायुतैलाभ्यङ्गादिकमोदना- १४ शतके व्याख्याप्रज्ञप्तिः
दिक वाऽभ्यवहार्य तीव्रक्षुद्वेदनीयकर्मोदयादसमाधी सति तदुपशमनाय प्रयुक्तम् 'आहारयति' उपभुते, 'अहे गं'ति उद्देशः अभयदेवी-18'अर्थ' आहारानन्तरं 'विश्रसया' स्वभावत एव 'कालं ति कालो-मरणं काल इव कालो मारणान्तिकसमुद्घातस्तं 'करो- अनशनिन या वृत्तिति ' याति 'तओ पच्छ'त्ति ततो-मारणान्तिकसमुद्घातात् पश्चात् तस्मानिवृत्त इत्यर्थः अमूछितादिविशेषणविशेषित
आहार: आहारमाहारयति प्रशान्तपरिणामसद्भावादिति प्रश्नः, अत्रोत्तरं-हंता गोयमा 'इत्यादि, अनेन तु प्रश्नार्थ एवाभ्युपगतः, सू५२४ ॥६५०॥
लवसप्तमा कस्यापि भक्तप्रत्याख्यातुरेवंभूतभावस्य सद्भावादिति ॥ अनन्तरं भक्तप्रत्याख्यातुरनगारस्य वक्तव्यतोक्ता, स च कश्चिदनु-15
सू ५२५सरसुरेपूत्पद्यत इति तद्वक्तव्यतामाह
| अनुत्तरा: अस्थि णं भंते ! लवसत्तमा देचा ल.२१, हंता अस्थि, से केणतुणं भन्ते! एवं वुच्चइ लवसत्तमा देवा ल०२१,IX सू ५२६ गोयमा ! से जहानामए-केइ पुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए सालीण वा बीहीण या गोधूमाण वा ज| वाण वा जवजवाण वा पक्काणं परियाताणं हरियाणं हरियकंडाणं तिक्तेणं णवपजणएणं असिअएणं पडिसाहरिया प०२ पटिसंखिविया २जाव इणामेव२त्तिकटु सत्तलथए लुएजा, जतिण गोयमा! तेसिं देवाणं एव-* |तियं कालं आउए पहुप्पते तो ते देवा तेणं चेव भवग्गहणेणं सिझंता जाव अंतं करेंता, से तेणडेणं जाव 51
॥५०॥ ॥ लवसत्तमा देवा लवसत्तमा देवा (सूत्रं ५२५) अस्थि णं भंते ! अणुत्तरोववाइया देवाअ०२१, हंता अधि, सेकेण्डेणं भंते ! एवं बुच अ०२१.गोयमा अनुत्तरोववाइयाण देवाणं अणुत्तरा सहा जाय अणुत्तरा फासा,
दीप
अनुक्रम [६२१]
SAREILLEGuninternational
~210~
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [५२५-५२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५२५-५२६]
से तेण?णं गोयमा एवं बुच्चइ जाव अणुत्तरोववाइया देवा अ०२।अणुत्तरोषवाइयाणं भंते ! देवाणं केवतिएण कम्माषसेसेणं अणुत्तरोषवाइयदेवत्ताए उववन्ना?, गोयमा!जावतियं छट्टभत्तिए समणे निग्गंधे कम्मं निजरेति |एवतिएणं कम्मावसेसेणं अणुशरोवधाइया देवा देवत्ताए उपबन्ना । सेवं भंते !२त्ति (सूत्रं ५२६)॥१४-७॥
| 'अस्थि णमित्यादि, लवाः-शाल्यादिकवलिकालवनक्रियाप्रमिताः कालविभागाः सप्त-सप्तसञ्जया मान-प्रमाणं यस्य दि कालस्यासी लवसप्तमस्त लवसप्तमं कालं यावदायुष्यप्रभवति सति ये शुभाध्यवसायवृत्तयः सन्तः सिद्धिं न गता अपितु
देवेषूपन्नास्ते लवसप्तमाः, ते च सर्वार्थसिद्धाभिधानानुत्तरसुरविमाननिवासिनः, 'से जहा नामए'त्ति 'सः' कश्चित् 'यथानामकः' अनिर्दिष्टनामा पुरुषः 'तरुणे इत्यादेाण्यानं प्रागिव 'पकाणं ति पक्कानां परियायाणं ति 'पर्यवगताना' लवनीयावस्था प्राप्तानां 'हरियाणं ति पिङ्गीभूतानां, ते च पत्रापेक्षयाऽपि भवन्तीत्याह-हरियकंडाणं'ति पिङ्गीभूतजा-18
लानां 'नवपज्जणएण'ति नव-प्रत्यग्रं 'पज्जणय'ति प्रतापितस्यायोपनकुट्टनेन तीक्ष्णीकृतस्य पायर्न-जलनिबोलनं यस्य तन्नहायपायनं तेन 'असियएणं ति दात्रेण 'पडिसाहरिय'त्ति प्रतिसंहृत्य विकीर्णनालान् बाहुना संगृह्य 'पडिसंखिविय'त्ति
मुष्टिग्रहणेन सङ्क्षिप्य 'जाव इणामेवे'त्यादि प्रज्ञापकस्य लवनक्रियाशीघ्रत्वोपदर्शनपरचप्पुटिकादिहस्तव्यापारसूचकं वचनं 'सत्तल'त्ति लूयन्त इति लवाः शाल्यादिनालमुष्टयस्तान् लवान् 'लूएज'त्ति लुनीयात् , तत्र च सप्तलवलवने यावान्कालो भवतीति वाक्यशेपो दृश्यः, ततः किमित्याह-'जह ण'मित्यादि, 'तेसिं देवाण'ति द्रव्यदेवत्वे साध्यवस्थायामि त्यर्थः 'तेणं चेव'त्ति यस्य भवग्रहणस्य सम्बन्धि आयुर्न पूर्ण तेनैव, मनुष्यभवग्रहणेनेत्यर्थः ॥ लवसप्तमा अनुत्तरोपपा
दीप अनुक्रम [६२२-६२३]
Baitaram.org
~211
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [५२५-५२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५२५-५२६]
व्याख्या-1 तिका इत्यनुत्तरोपपातिकदेवप्ररूपणाय सूत्रद्वयमभिधातुमाह--'अस्थि णमित्यादि, 'अणुत्तरोक्याइय'त्ति अनुत्तर:- १४ शतके प्रज्ञप्तिः सर्वप्रधानोऽनुत्तरशब्दादिविषययोगात् उपपातो-जन्म अनुत्तरोपपातः सोऽस्ति येषां तेऽनुत्तरोपपातिकाः, 'जावइयं 8-18८ उद्देश: अभयदेवी-13
भत्तिए'इत्यादि किल षष्ठभक्तिकः सुसाधुर्यावत् कर्म क्षपयति एतावता कविशेषेण-अनिर्जीर्णेनानुत्तरोपपातिका देवाट पृथ्च्याद्यन्त या वृत्तिः उत्पन्ना इति ॥ चतुर्दशशते सप्तमः ॥ १४-७ ॥
रंसू ५२७ ॥६५॥
___सप्तमे तुल्यतारूपो वस्तुनो धमोंऽभिहितः, अष्टमे त्वन्तररूपः स एवाभिधीयते इत्येवंसम्बधस्यास्पेदमादिसूत्रम्
इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए सकरप्पभाए य पुढवीए केवतियं अवाहाए अंतरे पण्णत्ते, गोयमा ! असंखेजाई जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे पष्णत्ते, सकरप्पभाए णं भंते ! पुढवीए वास्लुयप्पभाए य पुढवीए केवतियं एवं चेव एवं जाव तमाए अहेसत्तमाए य, अहेसत्समाए णं भंते ! पुढवीए अलोगस्स य केवतियं आवाहाए अंतरे पण्णत्ते ?, गोयमा ! असंखेजाई जोयणसहस्साई आवाहाए अंतरे पण्णत्ते । इभीसे णं भंते । रयणप्पभाए पुढवीए जोतिसस्स य केवतियं पुच्छा, गोयमा सत्तनउए जोयणसए आचाहाए अंतरे पण्णसे, जोतिसस्स गंभंते ! सोहम्मीसाणाण य कप्पाणं केवतियं पुच्छा, गोयमा !
॥६५॥ | असंखेजाई जोयण जाव अंतरे पण्णत्ते, सोहम्मीसाणाणं भंते ! सणकुमारमा हिंदाण य केवतियं एवं चेव, सणंकुमारमाहिंदाणं भंते !बंभलोगस्स कप्पस्स य केवतियं एवं चेव, यंभलोगस्स णं भंते ! संतगस्स य|
दीप अनुक्रम [६२२-६२३]
अत्र चतुर्दशमे शतके सप्तम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ चतुर्दशमे शतके अष्टम-उद्देशक: आरब्ध:
~212~
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [८], मूलं [५२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५२७]
कप्पस्स केवतियं एवं चेक, लंतयस्स णं भंते ! महासुक्कस्स य कप्पस्स केवतियं एवं चेव, एवं महासुक्कस्स कप्पस्स सहस्सारस्स य, एवं सहस्सारस्स आणयपाणयकप्पाणं, एवं आणयपाणयाण य कप्पाणं आरणक्षु
याण य कप्पाण, एवं आरणशुयाणं गेविजबिमाणाण य, एवं गेविजविमाणाणं अणुत्तरविमाणाण या अणुत्तिरविमाणाणं भंते। ईसिंपदभाराए य पुलवीए केवतिए पुच्छा, गोयमा ! दुवालसजोयणे अवाहाए अंतरे
पण्णत्ते, ईसिंपठभाराए णं भंते ! पुढवीए अलोगस्स य केवतिए अवाहाए पुच्छा, गोयमा ! देसूर्ण जोयणं| अवाहाए अंतरे पपणसे (सूत्र ५२७)॥
'इमीसे ण मित्यादि, 'अवाहाए अंतरे त्ति बाधा-परस्परसंश्लेषतः पीडनं न बाधा अबाधा तया अबाधया यदन्तरं व्यवधानमित्यर्थः, इहान्तरशब्दो मध्यविशेषादिष्वर्थेषु वर्तमानो दृष्टस्ततस्तव्यवच्छेदेन व्यवधानार्थपरिग्रहार्थमबाधाग्रहण,
'असंखेजाई जोयणसहस्साईति इह योजनं प्रायः प्रमाणाङ्गलनिष्पन्नं ग्राह्य, “नगपुढविविमाणाई मिणसु पमाणंगुदालेणं तु ।" [नगपृथिवीविमानानि प्रमाणाङ्गुलेन मिनु । ] इत्यत्र नगादिग्रहणस्योपलक्षणत्वादन्यथाऽऽदित्यप्रकाशादेरपि प्रमाणयोजनाप्रमेयता स्थात्, तथा चाधोलोकयामेषु तत्प्रकाशाप्राप्तिः प्रामोत्यात्माकुलस्यानियतत्वेनाव्यवहारा
तया रविप्रकाशस्योच्छ्ययोजनप्रमेयत्वात् , तस्य चातिलघुत्वेन प्रमाणयोजनप्रमितक्षेत्राणामव्याप्तिरिति, यंञ्चेहेपत्याट्रा ग्भारायाः पृथिव्या लोकान्तस्य चान्तरं तदुच्छ्याङ्गुलनिष्पन्नयोजनप्रमेयमित्यनुमीयते, यतस्तस्य योजमस्योपरितनकोशस्य
षड्भागे सिद्धावगाहना धनुविभागयुक्तत्रयस्त्रिंशदधिकधनुःशतत्रयमानाभिहिता, सा चोच्छ्ययोजनाश्रयणत एव युज्यत
ASSROSTERDERARMS
दीप अनुक्रम [६२४]
IRomarary
~2134
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [८], मूलं [५२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
॥६५॥
सूत्रत्रयमाह
[५२७]
व्याख्या
इति, उक्तव-"ईसीपम्भाराए उवरिं खलु जोयणस्स जो कोसो । कोसस्स य छम्भाए सिद्धाणोगाहणा भणिया ॥१॥"||१४ शतके प्रज्ञप्तिः |8| इति । [ ईपत्पाग्भाराया उपरि योजनस्य यः क्रोशः खलु क्रोशस्य च पष्ठो भागः एषा सिद्धानामवगाहना भणिता॥१॥] उद्देश: अभयदेवी- देसूर्ण जोयणति इह सियलोकयोर्देशोनं योजनमन्तरमुक्तं आवश्यके तु योजनमेव, तत्र च किश्चिन्यूनताया अविव- शालतोष्ट या वृत्तिः२ | क्षणान्न विरोधो मन्तव्य इति ॥ अनन्तरं पृथिव्याधन्तरमुक्तं तच जीवानां गम्यमिति जीवविशेषगतिमाश्रित्येदं ।
सपनामेकावता
रतासू५२८ टी एस गंभंते ! सालरुक्खे उपहाभिहए तण्हाभिहए दवग्गिजालाभिहए कालमासे कालं किवा कहिंदू
गच्छिहिति कहिं उववजिहिति ?, गोयमा ! इहेव रायगिहे नगरे सालरुक्खत्ताए पचायाहिति, से णं तत्थल ४ अचियर्वदियपूइयसकारियसम्माणिए दिवे संचे सच्चोबाए सन्निहियपाडिहेरे लाउल्लोइयमहिए यावि भविदस्सइ, से णं भंते ! तओहिंतो अणंतरं उचट्टित्ता कहिं गमिहिति कहिं उववजिहिति, गोषमा ! महाविदेहे
वासे सिसिहिति जाव अंतं काहिति ॥एस भंते साललट्टिया उपहाभिहया तण्णामिहया दवग्गिजालाभिया :
कालमासे कालं किच्चा जाव कहिं उववजिहिति ?, गोयमा! इहेव जंबूद्दीवे २ भारहे वासे विज्झगिरिपायमूले दिमहेसरिए मगरीए सामलिरुक्खत्ताए पचायाहिति,सा णं तस्थ अच्चियवंदियपूइय जाव लाउलोइयमहिए यावि|४६५२॥
भविस्सह, से णं भंते ! तओहिंतो अणंतरं उपट्टित्ता सेसं जहा सालरुवखस्स जाच अंतं काहिति । एस णं | भंते ! उंबरलट्टिया उण्डाभिहया ३ कालमासे कालं किचा जाव कहिं उववजिहिति ?, गोयमा! इहेव जंबु
दीप अनुक्रम [६२४]
~2144
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [८], मूलं [५२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५२८]
हीवे २ भारहे वासे पाडलिपुसे नाम नगरे पाडलिरुक्खत्ताए पचायाहिति, से णं तत्थ अचियवंदिय जाव | भविस्सति, से णं भंते ! अर्णतरं उच्चत्तित्ता सेसं तं चेव जाव अंतं काहिति (सूत्रं ५२८)। ___ 'एस णमित्यादि, 'दिचे 'त्ति प्रधानः 'सचोवाए'त्ति 'सत्यावपातः' सफलसेवः, कस्मादेवमित्यत आह-'सन्निहियपाडिहेरे'त्ति संनिहित-विहितं प्रातिहार्य-प्रतीहारकर्म सांनिध्यं देवेन यस्य स तथा । 'साललट्ठिय'त्ति शालयष्टिका, इह च यद्यपि शालवृक्षादावनेके जीवा भवन्ति तथाऽपि प्रथमजीवापेक्षं सूत्रत्रयमभिनेतंव्यं १। एवंविधप्रश्नाश्च वनस्पतीनां | जीवत्वमश्रद्दधानं श्रोतारमपेक्ष्य भगवता गौतमेन कृता इत्यबसेयमिति ।। गतिप्रक्रमादिदमाह
तेणं कालेणं तेणं समएणं अम्मडस्स परिवायगस्स सत्स अंतेवासीसया गिम्हकालसमयंसि एवं जहा उवावाइए जाच आराहगा (सूत्रं ५२९)। बहुजणे णं भंते ! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं खलु अम्मडे परिवायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसए एवं जहा उववाइए अम्मडस्स वत्तवया जाव दहप्पइपणो अंतं काहिति(सूत्रं५३०)॥181
तेणमित्यादि, 'एवं जहा उपवाइए जाव आराहग'त्ति इह यावत्करणादिदमर्थतो लेशेन दृश्य-ग्रीष्मकालसमये गङ्गाया उभयकूलतः काम्पिल्यपुरात् पुरिमतालपुरं संप्रस्थितानि ततस्तेषामटवीमनुप्रविष्टानां पूर्वगृहीतमुदकं परिभुज्यमानं क्षीणं ततस्ते तृष्णाभिभूता उदकदातारमलभमाना अदत्तं च तदगृहन्तोऽहन्नमस्कारपूर्वकमनशनप्रतिपत्त्या कालं
१ प्रत्यासत्तेः सप्तमोद्देशकबक्तव्यतास्थानं यद् राजगृहं चैत्यं गुणशीलकं पृथ्वीशिलापट्टकश्च तत्रत्या वृक्षा एते समवसेयाः । अन्येप्यनेकेषु | जीयेषु सरखपि समसावयवव्याप्येकोऽस्ति वृक्षजीवः इति सूत्र० आहारपरिज्ञाध्ययने ]
दीप अनुक्रम [६२५]
ARRORSRENESS
~215
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [५२९-५३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५२९-५३०]
दीप
व्याख्या- कृत्वा महालोकं गताः परलोकस्य चाराधका इति । 'घरसए' इत्यत्र 'एवं जहे'त्यादिना यत्सूचितं तदर्थतो लेशेनैवंद १४ शतके प्रज्ञप्तिः दृश्य-भुझे क्सति चेति, एतच्च श्रुत्वा गौतम आह-कथमेतद् भदन्त, ततो भगवानुवाच-गौतम ! सत्यमेतेद्, यत
८ उद्देशः अभयदेवी-दस्तस्य वैक्रियलब्धिरस्ति ततो जनविस्मापनहेतोरेवं कुरुते, ततो गौतम उवाच-प्रव्रजिष्यत्येव(प) भगवतां समीपे ,भगवानु-४
अम्मडशिया वृत्तिः वाच-नव,केवलमयमधिगतजीवाजीवत्वादिगुणः कृतानशनो ब्रह्मलोके गमिष्यति, ततश्युतश्च महाविदेहे दृढप्रतिज्ञाभिधानो
ष्याः अम्म
डासू५२९॥६५॥ 8 महर्दिको भूत्वा सेत्स्यतीति ॥ अयमेतच्छिष्याश्च देवतयोसन्ना इति देवाधिकाराद्देववक्तव्यतासूत्राण्युद्देशकसमाप्तिं यावत्
५३३ दि अस्थि णं भंते ! अवायाहा देवा अवायाहा देवा !, हंता अस्थि, से केणटेणं भंते ! एवं बुचड़ अधावाहा:
देवा २१, गोयमा ! पभू णं एगमेगे अबाबाहे देवे एगमेगस्स पुरिसस्स एगमेगंसि अच्छिपत्तंसि दिवं देविहि 18/दिवं देवजुतिं दिवं देवजुर्ति दिवं देवाणुभागं दिवं बत्तीसतिविहं नट्टविहिं उवदंसेत्तए,णो चेवणं तस्स पुरिसस्स |किंचि आवाहं वा वावाहं वा उप्पाएइ छविच्छेयं वा करेंति, एसुहुमं च णं उवदंसेज्जा, से तेणडेणं जाव
अवाबाहा २ देवा २(सत्रं ५३१)।पभू णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया पुरिसस्स सीसं पाणिणा असिणा उछिदित्ता कमंडलुमि पक्खिवित्तए १, हता पभू, से कह मिदाणिं पकरेति !, गोयमा ! छिदिया २चणं पक्विवेजा भिंदिया भिदिया च णं पक्खिवेजा कोहिया कोट्टिया च णं पक्खिवेजा चुन्निया युनिया च णं
॥५३॥ पक्खिवेजा तो पच्छा खियामेव पडिसंघाएजा नो चेव णं तस्स पुरिसस्स किंचि आवाहं वा वायाहं वा है। उप्पाएजा छविच्छेदं पुण करेति, एसुहमं च णं पक्विवेजा (सूत्रं ५३२) । अन्थि णं भंते ! जंभया देवा
अनुक्रम [६२६-६२७]
~216
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [५३१-५३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५३१-५३३]
दीप
जंभया देवा ?, हंता अस्थि से केण?णं भंते! एवं बुच्चइ जंभया देवा जंभया देवा ?, गोयमा ! जंभगा णं देवा निचं पमुइयपक्की लिया कंदप्परतिमोहणसीला जन्नं ते देवे कुद्धे पासेजा से णं पुरिसे महंतं अयसं पाउणिज्जा |जे णं ते देवे तुढे पासेजा से णं महंतं जसं पाउणेजा, से तेणटेणं गोयमा ! जंभगा देवा २॥ कतिविहाणं भंते ! भगा देवा पण्णत्ता ?, गोयमा ! दसविहा पण्णता, तंजहा-अन्नजंभगा पाणजंभगा वत्थजभगा लेणशंभगा सयणजंभगा पुष्फजंभगा फलजभगा पुष्फफलजंभगा बिजाजभगा अवियराजंभगा, जंभगा णं भंते ! देवा कहिं वसहि उति ?, गोयमा! सबेसु चेव दीहवेयहुसु चित्तविचित्तजमगपवएम कंचणपञ्च
एसु य एत्थ णं जंभगा देवा वसहिं उति । जंभगाणं भंते ! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णसा', गोदायमा ! एग पलिओवमं ठिती पण्णता । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाव विहरति (सूत्रं ५३३)॥१४-८॥
तत्र च 'अबावाह'त्ति व्याचाधन्ते-परं पीडयन्तीति व्याबाधास्तनिषेधादच्यावाधाः, ते च लोकान्तिकदेवमध्यगता द्रष्टव्याः, यदाह-"सारस्सयमाइच्चा वण्ही वरुणा य गद्दतोया य । तुसिया अवाबाहा अग्गिचा चेव रिहा य ॥१॥" इति [ सारस्वता आदित्या वहयो वरुणाश्च गर्दतोयाश्च तुषिता अव्यावाधा अग्यर्चाश्चैव रिष्ठाश्च ॥] 'अच्छिपरांसि' अक्षिपत्रे-अक्षिपक्ष्मणि 'आवाहं वत्ति ईपद्वाधा पवाहं वत्ति प्रकृष्टवाधां 'वावाति कचित् तत्र तु 'व्यायाधी' विशिटामाबाधां 'छविच्छेयं ति शरीरच्छेदम् 'एमुहुमं च णति 'इति सूक्ष्मम्' एवं सूक्ष्मं यथा भवत्येवमुपदर्शयेन्नाव्यविधिमिति प्रकृतं । 'सपाणिण'त्ति स्वकपाणिना से कह मियाणि पकरेइत्ति यदि शकः शिरसः कमण्डल्या प्रक्षेपणे प्रभुस्त
अनुक्रम
%-2562-5-15%
[६२८
-६३०]
%
%
~217
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [५३१-५३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५३१
-५३३]
दीप अनुक्रम
व्याख्या-13 प्रक्षेपणं कथं तदानीं करोति !, उच्यते, 'छिदिया छिंदिया व 'ति छित्त्वा २ क्षुरप्रादिना कृष्माण्डादिकमिव श्लक्ष्ण-||१४ शतके प्रज्ञप्तिः
खण्डीकृत्येत्यर्थः, वाशब्दो विकल्पार्थः प्रक्षिपेत् कमण्डल्या, 'भिंदिय'त्ति विदार्योर्द्धपाटनेन शाटकादिकमिव, 'कहियत्ति उद्देशः अभयदेवीकुट्टयित्वा उदूखलादी तिलादिकमिव, 'चुन्निय'त्ति चूर्णयित्वा शिलायां शिलापुत्रकादिना गन्धद्रव्यादिकमिव 'ततो
अव्यानाध या वृत्तिः२६ पच्छ'त्ति कमण्डलुप्रक्षेपणानन्तरमित्यर्थः 'परिसंघाएजत्ति मीलयेदित्यर्थः 'एमुहुमं च णं पक्खिवेजति कमण्डल्या
सामध्ये श
शक्तिःज ॥६५४॥ || मिति प्रकृतं । 'जभग'त्ति जृम्भन्ते-विजृम्भन्ते स्वच्छन्दचारितया चेष्टन्ते ये ते जम्भका:-तिर्यग्लोकवासिनो व्यन्तर-12
म्भकाः देवाः, 'पमुहयपकीलिय'त्ति प्रमुदिताश्च ते-तोषयन्तः प्रक्रीडिताश्च-प्रकृष्टक्रीडाः प्रमुदितमकीडिताः, 'कंदप्परइति || सू५३३
अत्यर्थ केलिरतिकाः 'मोहणसील'त्ति निधुवनशीलाः 'अजसंति उपलक्षणत्वादस्थान) प्रामुयात् 'जसंति उपलक्षण-12 दत्वादस्यार्थ-वैक्रियलन्ध्यादिकं प्राप्नुयात् वैरखामिवत् शापानुग्रहकरणसमर्थत्वात् तच्छीलत्वाच्च तेषामिति । 'अन्नज-18
भये त्यादि अन्ने-भोजनविषये तदभावसावाल्पत्वबहुत्वसरसत्वनीरसत्वादिकरणतो जृम्भन्ते-विजृम्भन्ते ये ते तथा, एवं पानादिष्वपि वाच्य, नवरं 'लेणं'ति लयन-गृहं 'पुष्फफलजंभगत्ति उभयजृम्भकाः, एतस्य च स्थाने 'मंतजंभगति वाचनान्तरे दृश्यते, 'अवियराजभग'त्ति अव्यक्ता अन्नाद्यविभागेन जृम्भका ये ते तथा, क्वचित्तु 'अहिवहभग'त्ति दृश्यते तत्र चाधिपती-राजादिनायकविषये जृम्भका ये ते तथा, 'सवेस चेव दीहवेपहेस'त्ति 'सर्वेषु' प्रतिक्षेत्रं तेषां ॥५४॥ भावात् सप्तत्यधिकशतसमयेषु 'दीर्घविजयाईषु' पर्वतविशेषेषु, दीर्घग्रहणं च वर्तुलविजया व्यवच्छेदार्थ, 'चित्तवि-10 चित्तजमगपधएम'त्ति देवकुरुषु शीतोदानद्या उभयपार्श्वतश्चित्रकूटो विचित्रकूटश्च पर्वतः, तथोत्तरकुरुषु शीताभिधान-|
[६२८
-६३०]
~218~
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [५३१-५३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
ट
प्रत सूत्रांक
नद्या उभयतो यमकसमकाभिधानौ पर्वती स्तस्तेषु, 'कंचणपचएसुत्ति उत्तरकुरुषु शीतानदीसम्बन्धिनां पश्चाना नील-IN चदादिहदानां क्रमव्यवस्थिताना प्रत्येक पूर्वापरतटयोर्दश दश काश्चनाभिधाना गिरयः सन्ति ते च शतं भवन्ति, एवं 3 देवकुरुष्वपि शीतोदानद्याः सम्बन्धिनां निषदहदादीनां पञ्चानां महाहदानामिति, तदेवं द्वे शते, एवं धातकीखण्डपूर्वार्धादिष्वप्यतस्तेष्विति ॥ चतुर्दशशतेऽष्टमः ॥ १४-८॥
[५३१
-५३३]
OCCASESCACARE
दीप
| अनन्तरोद्देशकान्त्यसूत्रेषु देवानां चित्राविषयं सामर्थ्यमुक्त, तस्मिंश्च सत्यपि यथा तेषां स्वकर्मलेश्यापरिज्ञानसाPामर्थ्य कथञ्चिन्नास्ति तथा साधोरपीत्याद्यर्थनिर्णयार्थो नवमोद्देशकोऽभिधीयते, इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्४ा अणगारे णं भंते ! भाषियप्पा अप्पणो कम्मलेस्सं न जाणइन पासह तं पुण जीवं सरूविं सकम्मलेस्स जाणइ पासइ ?, हंता गोयमा ! अणगारे णं भावियप्पा अप्पणो जाव पासति ।। अस्थि णं भंते ! सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासंति ४ ?, हंता अस्थि ॥ कयरे णं भंते ! सरूपी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभा
संति जाच पभासें ति ?, गोयमा ! जाओ इमाओ चंदिमसूरियाणं देवाणं विमाणेहिंतो लेस्साओ पहिया है अभिनिस्सडाओ ताओ ओभासंति पभाति एवं एएणं गोयमा! ते सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासंति ४ (सूत्रं ५३४)। 'अणगारे 'मित्यादि, अनगारः 'भावितात्मा' संयमभावनया बासितान्तःकरणः आत्मनः सम्बन्धिनी कर्मयो|
अनुक्रम
[६२८
-६३०]
च्या .
.
.
अत्र चतुर्दशमे शतके अष्टम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ चतुर्दशमे शतके नवम-उद्देशक: आरब्धः
~219~
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [५३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५३४]
व्याख्या- योग्या लेश्या-कृष्णादिका कर्मणो वा लेश्या-'लिश श्लेषणे' इति वचनात् सम्बन्धः कर्मलेश्या तां न जानाति विशे- १४ शतके प्रज्ञधिः पतो न पश्यति च सामान्यतः, कृष्णादिलेश्यायाः कर्मद्रव्यश्लेषणस्य चातिसूक्ष्मत्वेन छद्मस्थज्ञानागोचरत्वात् , 'तं पुणउद्देशः अभयदेवी
जीवति यो जीवः कर्मलेश्यावांस्तं पुनः 'जीवम्' आत्मानं 'सरूविति सह रूपेण-रूपरूपवतोरभेदाच्छरीरेण वर्तते | | | कर्मलेश्याया वृत्तिः२
४ योऽसौ समासान्तविधेः सरूपी तं सरूपिणं सशरीरमित्यर्थः अत एव 'सकर्मलेश्यं कर्मलेश्यया सह वर्तमानं जानाति दर्शनावमा ॥६५५॥ शरीरस्य चक्षुर्माह्यत्वाजीवस्य च कथञ्चिच्छरीराव्यतिरेकादिति ॥ 'सरूविं सकम्मलेस्संति प्रागुक्तम् , अथ तदेवाधि
कृत्य प्रश्नयन्नाह-अस्थि णमित्यादि, 'सरूविति सह रूपेण-मूर्ततया ये ते 'सरूपिणः' वर्णादिमन्तः 'सकम्मले४ स्स'त्ति पूर्ववत् 'पुद्गलाः स्कन्धरूपाः 'ओभासंति'त्ति प्रकाशन्ते 'लेसाओ'त्ति तेजांसि 'पहिया अभिनिस्सडा-४ है ओत्ति बहिस्तादभिनिःसृता-निर्गताः, इह च यद्यपि चन्द्रादिविमानपुद्गला एव पृथिवीकायिकत्वेन सचेतनत्वात्सकममलेश्यास्तथापि तन्निर्गतप्रकाशपुद्गलानां तहेतुकत्वेनोपचारात्सकर्मलेश्यत्वमवगन्तव्यमिति ॥ पुद्गलाधिकारादिदमाह
नेरइयाणं भंते ! किं असा पोग्गला अणता पोग्गला?, गोयमा! नो अत्ता पोग्गला अणत्ता पोग्गला,| दाअसुरकुमाराणं भंते । किं असा पोग्गला अणत्ता पोग्गला ?, गोयमा ! अत्ता पोग्गला णो अणता पोग्ग-16 Vला, एवं जाय थणियकुमाराणं, पुदविकाइयाणं पुच्छा, गोयमा! अत्ताधि पोग्गला अणत्तावि पोग्गला, ६५५| 8 एवं जाव मणुस्साणं, चाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं, नेरइयाणं भंते ! किं इहा पो-|| है गला अणिवा पोग्गला ?, गोयमा ! नो इट्टा पोग्गला अणिहा पोग्गला जहा अत्ता भणिया एवं इद्वावि |
दीप अनुक्रम [६३१]
For P
OW
~220
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [५३५ + गाथा ] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
488
प्रत
सूत्रांक
[५३५]
दीप अनुक्रम [६३२-६३३]
कतावि पियावि मणुनावि भाणियघा एए पंच दंडगा ॥ (सूत्र) देवे णं भंते ! महहिए जाव महेसक्खे स्वसहस्स| विउवित्ता पभू भासासहस्संभासित्तए?, हंता पभू, साणं भंते !कि एगा भासा भासासहस्सं?, गोयमा! 10 एगा णं सा भासा णो खलु तं भासासहरसं (सूत्रं ५३५)॥
'नेरइयाण'मित्यादि, 'अत्तत्ति आ-अभिविधिना त्रायन्ते-दुःखात् संरक्षन्ति सुखं चोत्पादयन्तीति आत्राः आप्ता वा-एकान्तहिताः, अत एव रमणीया इति वृद्घाख्यातं, एते च ये मनोज्ञाः प्राग व्याख्यातास्ते दृश्याः, तथा 'इडे'त्यादि प्राग्वत् । पुद्गलाधिकारादेवेदमाह-'देवे णमित्यादि, 'एगाणं सा भासा भास'त्ति एकाऽसौ भाषा, जीवै
कत्वेनोपयोगैकत्वात् , एकस्य जीवस्यैकदा एक एवोपयोग इष्यते, ततश्च यदा सत्याद्यन्यतरस्यां भाषायां वर्तते तदा 18|| नान्यस्यामित्येकैव भाषेति ॥ पुद्गलाधिकारादेवेदमाहला तेणं कालेणं २ भगवं गोयमे अचिरुग्गयं बालसूरियं जासुमणाकुसुमपुंजप्पकासं लोहितगं पासइ पासिसत्ता जायसहेजाव समुप्पन्नकोउहल्ले जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद जाव नमंसित्ता जाव
एवं बयासी-किमिदं भंते ! सूरिए किमिदं भंते ! सूरियस्स अट्टे , गोयमा ! सुभे सरिए सुभे मूरियस्स अढे । किमिदं भंते ! सूरिए किमिदं भंते ! सूरियस्स पभाए एवं चेच, एवं छाया एवं लेस्सा (सूत्रं ५३६)॥ | तेण'मित्यादि, 'अचिरोद्गतम्' उद्गतमात्रमत एव बालसूर्य 'जासुमणाकुसुमप्पगासंति जासुमणा नाम वृक्षस्त|त्कुसुमप्रकाशमत एवं लोहितकमिति 'किमिदं ति किंस्वरूपमिदं सूर्यवस्तु, तथा किमिदं भदन्त ! सूर्यस्य-सूर्यशब्दस्यार्थः-13
SAMEmirathink
Maanasaram.org
...अत्र मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने स्खलना संभाव्यते (ऊपर पहली लाईनमे || (सूत्र) ऐसा लिखा है, लेकिन वहां क्रम नहीं लिखा है।
~221
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [९], मूलं [५३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५३६]
दीप अनुक्रम [६३४]
व्याख्या-14 अन्वर्थवस्तु !, 'सुभे मूरिए'त्ति शुभस्वरूपं सूर्यवस्तु सूर्यविमानपृथिवीकायिकानामातपाभिधानपुण्यप्रकृत्युदयवर्तित्यात १४ शतके प्रज्ञप्तिःलोकेऽपि प्रशस्ततया प्रतीतत्वात् ज्योतिष्केन्द्रत्वाच्च, तथा शुभः सूर्यशब्दार्थस्तथाहि-सूरेभ्य:-क्षमातपोदानसङ्कामादिवी- उद्देशः अभयदेवी रेभ्यो हितः सूरेषु वा साधुः सूर्यः 'पभ'त्ति दीप्तिः छाया-शोभा प्रतिबिम्ब वा लेश्या-वर्णः ॥ लेश्याप्रक्रमादिदमाह- आत्तेतरपुया वृत्तिः
। जे इमे भंते ! अजताए समणा निग्गंथा विहरंति एते णं कस्स तेयलेस्सं बीतीवयंति १, गोयमा मास- लम परियाए समणे निग्गंधे वाणमंतराणं देवाणं तेयलेस्सं वीइवति दुमासपरियाए समणे निग्गंथे असुरिं-ट
निम्रन्थपदधज्जियाणं भवणवासीणं देवाणं तेयलेस्सं वीयीवयंति एवं एएणं अभिलावेणं तिमासपरियाए समणे नि असुरकुमाराणं देवाणं तेय. पजम्मासपरियाए सगहनक्षत्ततारारूवाणं जोतिसियाणं देवाणं तेय. पंच-
II
सिवाण वाणतया पर क्या सू मासपरियाए य सचंदिमसूरियाणं जोतिसिंदाणं जोतिसरायाणं तेय. छम्मासपरियाए समणे सोहम्मी-५३५-५३७ साणाणं देवाणं सत्समासपरियाए सणंकुमारमाहिंदाणं देवाणं० अट्टमासपरियाए बंभलोगलंतगाणं देवाणं तेय. नवमासपरियाए समणे महामुकासहस्साराणं देवाणं तेय० दसमासपरियाए आणयपाणयआरणशु-
याणं देवाणं. एकारसमासपरियाए गेवेजगाणं देवाण बारसमासपरियाए समणे निग्गंथे अणुत्तरोववाइयाणं है 8 देवाणं तेयलेस्सं वीपीवयंति, तेण परं सुक्क सुक्काभिजाए भवित्ता सओ पच्छा सिजाति जाव अंतं करेति DINNER द सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाब विहरति (सूत्र ५३७)॥१४-१॥ ॥ जे इमे इत्यादि, ये इमे प्रत्यक्षाः 'अजत्ताए'त्ति आर्यतया पापकर्मवहिर्भूततया अद्यतया वा-अधुनातनतया वर्तमा
~222
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [९], मूलं [५३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
नकालतयेत्यर्धः 'तेयलेस्सति तेजोलेश्यां-सुखासिका तेजोलेश्या हि प्रशस्तलेश्योपलक्षणं सा च सुखासिकाहेतुरिति कारणे कार्योपचारात्तेजोलेश्याशब्देन सुखासिका विवक्षितेति, 'वीइवयंति' व्यतिब्रजन्ति व्यतिकामन्ति 'असुरिंदवज्जियाणं'ति चमरबलवर्जितानां 'तेण परं'ति ततः संवत्सरात्परतः 'सुक्केत्ति शुक्लो नामाभिन्नवृत्तोऽमत्सरी कृतज्ञः सदारम्भी हितानुबन्ध इति, निरतिचारचरण इत्यन्ये, 'सुक्काभिजाइ'त्ति शुक्लाभिजात्यः परमशुक्ल इत्यर्थः, अत एवोक्तम्-"आकिञ्चन्य मुख्यं ब्रह्मापि परं सदागमविशुद्धम् । सर्व शुकमिदं खलु नियमात्संवत्सरादूर्द्धम् ॥१॥" एतच्च श्रमणविशेषमेवानित्योच्यते न पुनः सर्व एवैवंविधो भवतीति ॥ चतुर्दशशते नवमः ॥ १४-९॥
सूत्रांक
[५३७]
*** - 48 kg
दीप अनुक्रम [६३५]
___ अनन्तरं शुक्ल उक्तः, स च तत्त्वतः केवलीति केवलिप्रभृत्यर्थप्रतिबद्धो दशम उद्देशकः, तस्य चेदमादिसूत्रम्
केवली णं भंते ! छउमत्थं जाणइ पासइ, हंता जाणइ पासइ, जहा णं भंते ! केवली छउमत्थं जाणइ पासह तहा णं सिद्धेवि छउमत्थं जाणइ पासह, हंता जाणइ पासइ, केवली णं भंते ! आहोहियं जाणा पासइ, एवं चेव, एवं परमाहोहियं, एवं केबलिं एवं सिद्धं जाव जहा णं भंते ! केवली सिद्धं जाणइ8 पासइ तहा णं सिद्धेवि सिहं जाणइ पासह ?, हंता जाणइ पासह । केवली गं भंते ! भासेज वा|
वागरेज वा , हंता भासेज वा वागरेज वा, जहा णं भंते ! केवली भासेज वा वागरेज वा तिहाणं मिद्धेवि भासेज वा वागरेज चा , णो तिणढे समद्दे, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ जहा।
SAKASEAN
For P
OW
अत्र चतुर्दशमे शतके नवम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ चतुर्दशमे शतके दशम-उद्देशक: आरब्ध:
~223
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [५३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
E
%
प्रत सूत्रांक [५३८]
व्याख्या-18 केवली णं भासेज था वागरेज वा णो तहाणं सिद्धे भासेज था बागरेज वा १, गोयमा! केवली
१४ शतके प्रज्ञप्तिःणं सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसकारपरकमे, सिद्धे णं अणुहाणे जाव अपुरिसकारपरकमे, से १० उद्देशः
यदेवी- तेणढणं जाव वागरेज वा, केवली गं भंते ! उम्मिसेज वा निमिसेज वा ?, हंता उम्मिसेज वा निम्मिसेज || केवलिसिया वृत्तिः२|| त्तिःचा एवं चेच, एवं आउद्देज वा पसारेज वा, एवं ठाणं वा सेज वा निसीहियं चा चेएज्जा, केवली णं भंते ! इम द्धानां ज्ञान रयणप्पभं पुढर्षि रयणप्पभापुढवीति जाणति पासति?, हंता जाणइ पासइ, जहा णं भंते ! केवली इमं रय-||
सायं ॥६५७|||रयणपुलावरचणमानात
भणप्पभं पुढर्षि रयणप्पभापुढवीति जाणइ पासइ तहा णं सिद्धेवि इमं रयणप्पभं पुर्वि रयणप्पभपुढवीति |
जाणइ पासह, हंता जाणइ पासइ, केवलीण भंते! सकरप्पभं पुढविं सकरपभापुढवीति जाणइ पासइ ?, एवं चेव एवं जाव अहेसत्तमा, केवली णं भंते ! सोहम्मं कप्पं जाणइ पासइ, हंता जाणइ पासइ, एवं चेव, एवंद्र ईसाणं एवं जाव अचुयं, केवलीणं भंते ! गेवेजविमाणे गेवेजविमाणेत्ति जाणइ पासइ ?, एवं चेव, एवं अणु
सरविमाणेवि, केवली णं भंते ! ईसिपन्भारं पुढविं ईसीपन्भारपुढवीति जाणइ पासइ, एवं चेव, केवली णं भिंते! परमाणुपोग्गलं परमाणुपोग्गलेत्ति जाणइ पासइ, एवं चेव, एवं दुपएसियं खंधं एवं जाव जहा णं
मंते ! केवली अर्थतपएसियं खंधं अर्णतपएसिए खंधेत्ति जाणइ पासइ तहा णं सिद्धेवि अणंतपएसियं जाव ॥६५७॥ पासह, हंता जाणइ पासह । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति (सूत्रं ५३८)॥१४-१०॥ चोइसमं सयं समत्तं ॥१४॥
दीप अनुक्रम [६३६]
RSS
~224
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [५३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
'केवली'त्यादि, इह केवलिशब्देन भवस्थकेवली गृह्यते उत्तरत्र सिद्धग्रहणादिति, 'आहोहियंति प्रतिनियतक्षेत्रावविज्ञानं 'परमाहोहिय'ति परमावधिक 'भासेज वत्ति भाषेतापृष्ट एव 'वागरेज'त्ति प्रष्टः सन् व्याकुर्यादिति 'ठाणं'ति
स्थान निषदनस्थानं त्वग्वनस्थानं चेति 'सेज्जति शय्यां-वसतिं 'निसीहियं ति अल्पतरकालिकां वसतिं 'चेएटिजत्ति कुर्यादिति ॥ चतुर्दशशते दशमः ।। १४-१० ।। समाप्तं च वृत्तितश्चतुर्दशं शतम् ॥१४॥
प्रत
सूत्रांक
[५३८]
चतुर्दशस्येह शतस्य वृत्तिर्येषां प्रभावेण कृता मयैपा । जयन्तु ते पूज्यजना जनानां, कल्याणसंसिद्धिपरस्वभावाः ॥१॥
दीप अनुक्रम [६३६]
॥ इति चन्द्रकुलनभोमृगाङ्कश्रीमदभयदेवमूरिचरविरचितविवरणयुतं चतुर्दशं शतं समाप्तम् ॥
Tuestirary.com
अत्र चतुर्दशमे शतके दशम-उद्देशक: परिसमाप्त:
तत् परिसमाप्ते चतुर्दशमं शतकं अपि समाप्तं
~225
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग -1, अंतर्-शतक -1, उद्देशक [-1, मूलं [५३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
अथ पञ्चदशं गोशालकाख्यं शतकम् ॥
प्रत सूत्रांक [५३९]
दीप अनुक्रम [६३७]
व्याख्यातं चतुर्दशशतम् , अथ पञ्चदशमारभ्यते, तस्य चाय पूर्वेण सहाभिसम्बन्धा-अनन्तराते केवली रत्नप्रभादिकं वस्तु जानातीत्युक्तं तत्परिज्ञानं चात्मसम्बन्धि यथा भगवता श्रीमन्महावीरेण गौतमायाविर्भावितं गोशालकस्य | स्वशिष्याभासप नरकादिगतिमधिकृत्य तथाऽनेनोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
नमो सुपदेवयाए भगवईए । तेणं कालेणं २सावत्थी नाम नगरी होत्था चन्नओ, तीसे णं सावत्थीए नगरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए तत्थ णं कोहए नाम चेइए होत्था वन्नओ, तत्थ णं सावस्थीए नगरीए हालाहला नाम कुंभकारी आजीविओवासिया परिवसति अहा जाव अपरिभूपा आजीवियसमयंसि लट्ठा गहियहा पुच्छियट्ठा विणिच्छियहा अद्विमिंजपेम्माणुरागरत्ता अयमाउसो! आजीवियसमये अढे अयं परमट्टे सेसे अणटेत्ति आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणी विहरइ । तेणं कालेणं २ गोसाले मंखलिपुत्ते चउचीसवासपरियाए हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावर्णसि आजीवियसंघसंपरिबुडे आजीवियसमएर्ण अप्पाणं भावेमाणे विहरह, तए णं तस्स गोसा० मंखलिपु० अन्नदा कदापि इमे छ दिसाचरा| अंतियं पाउभविस्था, तंजहा-साणे कलंदे कणियारे अच्छि अग्गिवेसायणे अजुन्ने गोमायुपुत्ते, तए णं ते छ दिसाचरा अहविहं पुचगयं मग्गदसमं सतेहिं २ मतिदसणेहि निहंति स०२ गोसालं मखलिपुत्तं उबट्टा-151
अथ पंचदशमं शतकं आरभ्यते
गोशालक-चरित्रं
~226
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग -1, अंतर्-शतक -1, उद्देशक [-1, मूलं [५३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५३९]
व्याख्याप्रज्ञप्ठिः अभयदेवी- या वृत्तिः ॥ ६५९॥
LCASSERRORISEX
दीप अनुक्रम [६३७]
इंसु, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते तेणं अटुंगस्स महानिमित्तस्स केणइ उल्लोयमेत्तेणं सवेसिं पाणाणं | १५ गोशाभू०जी० सत्ताणं इमाइंछ अणइकमणिज्जाइं वागरणाई वागरेति, तं०-लाभ अलाभं सुहं दुक्खं जीवियं लकशते षमरणं तहा। तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते तेणं अटुंगस्स महानिमित्तस्स केणइ उल्लोयमेत्तेणं सावत्थीए। में इदिशाचर नगरीए अजिणे जिणप्पलावी अणरहा अरहप्पलावी अकेवली केवलिप्पलावी असवन्नू सबन्नुप्पलावी
समागमः अजिणे जिणसई पगासेमाणे विहरद (सूत्रं ५३९)॥
तेण'मित्यादि,मखलिपुत्ते'त्ति मढल्यभिधानमङ्खस्य पुत्रः 'चउवीसवासपरियाए'त्ति चतुर्विंशतिवर्षप्रमाणप्रत्रज्यापर्याय दिसाचर'त्ति दिशं-मेरां चरन्ति-यान्ति मन्यन्ते भगवतो वयं शिष्या इति दिक्चराः देशाटा वा, दिकचरा भगवच्छिष्याः पार्श्वस्थीभूता इति टीकाकारः 'पासावचिज्जत्ति चूर्णिकार: 'अंतियं पाउभविज'त्ति समीपमागताः 'अट्ठविहं पुवगयं मग्गदसमं'ति अष्टविधम्-अष्टप्रकार निमित्तमिति शेषः, तच्चेदं-दिव्यं १ औत्पातं २ आन्तरिक्षं ३ भौमं ४ आङ्गं ५ स्वरं ६ लक्षणं ७ व्यञ्जनं ८ चेति, पूर्वगतं-पूर्वाभिधानश्रुतविशेषमध्यगतं, तथा मार्गौ-गीतमार्गनृत्यमार्गलक्षणौ सम्भाव्ये ते 'दसम'त्ति अत्र नवमशब्दस्य लुप्तस्य दर्शनानवमदशमाविति दृश्य, ततश्च मागी नवमदशमौ यत्र
६५९॥ तत्तथा, 'सएहि' २ ति स्वकैः २ स्वकीयैः २ मइदंसणेहि ति मतेः बुद्धर्मत्या वा दर्शनानि-प्रमेयस्य परिच्छेदनानि मतिदर्शनानि तैः 'निजूहंति'त्ति नियूथयन्ति पूर्वलक्षणश्रुतपर्याययूथान्निर्धारयन्ति उद्धरन्तीत्यर्थः "उवट्ठाइंसुत्ति उपस्थितवन्तः आश्रितवन्त इत्यर्थः, 'अगस्स'त्ति अष्टभेदस्य केणइत्ति केनचित्-तथाविधजनाविदितस्वरूपेण 'उल्लोयमेत्ते
गोशालक-चरित्रं
~227
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५३९]
दीप अनुक्रम [६३७]
ति उद्देशमात्रेण 'इमाइंछ अणइकमणिजाईति इमानि षड् अनतिक्रमणीयानि-व्यभिचारयितुमशक्यानि 'वागरणाई' ति पृष्टेन सता यानि व्याक्रियन्ते-अभिधीयन्ते तानि व्याकरणानि पुरुषार्थोपयोगित्वाञ्चैतानि षडुक्कानि, अन्यथा नष्टमुष्टिचिन्तालूकाप्रभृतीन्यन्यान्यपि बहूनि निमित्तगोचरीभवन्तीति ॥ 'अजिणे जिणप्पलावि' ति अजिन:-अबीतरागः सन् जिनमात्मानं प्रकर्षेण लपतीत्येवंशीलो जिनप्रलापी, एवमम्यान्यपि पदानि वाच्यानि, नवरम् अर्हन्-पूनाई। केवली-परिपूर्णज्ञानादिः, किमुक्तं भवति !-'अजिणे' इत्यादि ।
तए णं सावस्थीए नगरीए सिंघाडगजाब पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खा जाव एवं परूवेति एवं खलु देवाणुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव पकासेमाणे विहरति, से कहमेयं मन्ने एवं?, तेणं कालेणं २ सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया, तेणं कालेणं २ समणस्स भगवओ महावी-12 रस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूतीणाम अणगारे गोयमगोत्तेणं जाव छटुंछट्टेणं एवं जहा वितियसए नियंटुद्देसप । जाव अडमाणे बहुजणसई निसामेति, बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ ४-एवं खलु देवाणुप्पिया। गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव पगासेमाणे विहरति, से कहमेयं मन्ने एवं ?, तए णं भगवं गोयमे बहुजणस्स अंतियं एपमहूँ सोचा निसम्म जाव जायसढे जाव भत्तपाणं पडिदंसेति जाव पजुवासमाणे एवं व०-एवं खलु अहं भंते !तं चेव जाव जिणसई पगासेमाणे बिहरति से कह मेयं भंते! एवं ,तं इच्छामि णं भंते ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स उट्टाणपरियाणियं परिकहियं, गोयमादी समणे भगवं महावीरे
AAAAACE
गोशालक-चरित्रं
~228
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५४०]
सू.५४०
दीप अनुक्रम [६३८]
व्याख्या- भगवं गोयम एवं वयासी-(जण्णं) से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ ४-एवं खलु गोसाले मंखलिपुत्ते । १५ गोशाप्रज्ञप्तिः जिणे जिणप्पलावी जाव पगासेमाणे विहरहतपणं मिच्छा, अहं पुण गोयमा । एवमाइक्खामि जाव परूअभयदेवी- मि-एवं खलु एयस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स मंखलिनामं मंखे पिता होत्या, तस्स णं मंखलिस्स मंखस्सा या वृत्तिः जाभहानामं भारिया होत्था सुकुमाल जाव पडिरूवा, तए णं सा भद्दा भारिया अन्नदा कदापि गुबिणी यावि|
कोत्थानप
रियानिक होत्या, तेणं कालेणं २ सरवणे नामं सन्निवेसे होत्था रिद्धस्थिमिए जाव सन्निभप्पगासे पासादीए ४, ॥६६॥
तत्थ णं सरवणे सन्निवेसे गोबहुले नाम माहणे परिवसति अढे जाव अपरिभूए रिउवेद जाव सुपरिनिहिजाए यावि होत्या, तस्स णं गोबहुलस्स माहणस्स गोसाला यावि होत्था, तए णं से मंखलीमंखे नामं अन्नया
कयाइ भहाए भारियाए गुविणीए सद्धिं चित्तफलगहस्थगए मखत्तणेणं अप्पाणं भावेमाणे पुवाणुपुर्वि चरमाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे जेणेव सरवणे सन्निवेसे जेणेव गोबहुलस्स माहणस्स गोसाला तेणेव उबा०२ गोबहुलस्स माहणस्स गोसालाए एगदेसंसि भंडनिक्खेवं करेंति भंड०२ सरवणे सन्निवेसे उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे वसहीए सवओ समंता मग्गणगवेसणं करेति वसहीए सबओ समंता मग्गणवेसणं करेमाणे अन्नस्थ वसहिं अलभमाणे तस्सेव गोबहुलस्स माहणस्स गोसा
G ॥६६॥ लाए एगदेसंसि वासावासं उवागए, तए णं सा भद्दा भारिया नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाण राई दियाणं वीतिकंताणं सुसुमालजाव पडिरूवगं दारगं पयाचा, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो एक्का
गोशालक-चरित्रं
~229~
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५४०]
रसमे दिवसे वीतिकंते जाच वारसाहे दिवसे अयमेयारूवं गुण्णं गुणनिष्फन्नं नामधेनं कल-जम्हा णं अम्हे हमे | दारए गोबहुलस्स माहणस्स गोसालाए जाए तं होउणं अम्हं इमस्स दारगस्स नामधेनं गोसाले गोसा|लेत्ति, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेनं करेंति गोसालेति, तए णं से गोसाले दारए उम्मुक४|| बालभावे विषणयपरिणयमेत्ते जोवणगमणुप्पत्ते सयमेव पाडिएकं चित्तफलगं करेति सयमेव चित्तफलग-18 हत्थगए मखत्तणेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरति (सूत्रं ५४०)॥
एवं जहा वितियसए नियंटुद्देसए'त्ति द्वितीयशतस्य पञ्चमोद्देशके उट्ठाणपरियाणिय'ति परियान-विविधव्यतिकरपरिगमनं तदेव पारियानिक-चरितम् उत्थानात्-जन्मन आरभ्य पारियानिक उत्थानपारियानिक तत्परिकथितं भगबद्भिरिति गम्यते । 'मखेत्ति मङ्खः-चित्रफलकव्यग्रकरो भिक्षाकविशेषः 'सुकुमाल' इह यावत्करणादेवं दृश्य-'सुकुमालपाणिपाए लक्खणवंजणगुणोववेए'इत्यादि । 'रिद्धस्थिमिय' इह यावत्करणादेवं दृश्यम्-ऋद्धधिमियसमिद्धे पमुइयजणजाणवए'इत्यादि व्याख्या तु पूर्ववत्, 'चित्तफलगत्वगए'त्ति चित्रफलके हस्ते गतं यस्य स तथा, 'पाडिद एकति एकमात्मानं प्रति प्रत्येक पितुः फलकाभिन्नमित्यर्थः।
तेणं कालेणं २ अहं गोयमा ! तीसं चासाई आगारवासमझे वसित्ता अम्मापिईहिं देवत्तगएहिं एवं जहा भावणाए जाव एग देवदूसमादाय मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पपइत्तए, तए णं अहं गोपमा! पढम वासावासं अद्धमासंअद्धमासेणं खममाणे अट्ठियगामं निस्साए पढमं अंतरावासं वासावासं उवागए,
दीप अनुक्रम [६३८]
गोशालक-चरित्रं
~230
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५४१]
दीप अनुक्रम [६३९]
दोचं वासं मासंमासेणं खममाणे पुवाणुपुश्विं चरमाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे जेणेव रायगिहे नगरे जेणेच १५ गोशाप्रज्ञप्ति
|| नालिंदा बाहिरिया जेणेच तंतुवायसाला तेणेच उवागच्छामि ते. २ अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हामि लकशत
|| अहा.२तंतुवायसालाए एगदेसंसि वासावासं उचागए, तए णं अहं गोयमा ! पढमं मासखमणं उवस-1 या वृत्ति
| श्रीवीरेण
गोशालपजिसा णं विहरामितए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते चित्तफलगहत्थगए मंखत्तणेणं अप्पाणं भावेमाणे पुषा-1
संगमः ॥६६॥ दणुपुर्षि चरमाणे जाव दूइज्जमाणे जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव नालिंदा बाहिरिया जेणेव तंतुवायसालासेणेव उवा-14
सू५४१ गच्छहते.२ तंतुवापसालाए एगदेसंसि भरनिक्खेवं करेति भं०२ रायगिहे नगरे उच्चनीय जाव अन्नत्व कत्थवि वसहिं अलभमाणे तीसे य संतुवायसालाए एगदेसंसि वासावासं उवागए जत्थेष णं अहं गोयमा !, IN (तएणं अहंगोयमा)पढममासक्खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओपडिनिक्खमामि तंतु.२णालंदाबाहिरियं ६
मझमजमेणं जेणेच रायगिहे नगरे तेणेव उवा०२रायगिहे नगरे उच्चनीय जाव अडमाणे विजयस्स गरहा18|| वास्स गिहं अणुपविहे, तए णं से विजए गाहावती ममं एबमाणं पासति २ हहतुट्ठ० खिप्पामेव आस-112
णामो भन्भुढे खि०२ पायपीदामो पचोरुहह २ पाउयाओ ओमुयह पा. २ एगसाडियं उत्सरासंगं करेति | अंजलिम लियहत्थे ममं सत्तट्ठपधाई अणुगच्छहरममं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति २मम वंदति नम-18|| ॥६६॥ | सति २मर्म विउलेणं असणपाणखाइमसाहमेणं पडिलाभेस्सामित्तिक तुढे पडिलाभेमाणेवि तुट्टे पडिलाभितेवि हा तुडे, तए णं तस्स विजयस्स गाहावइस्स तेणं दधसुद्धेणं दायगसुद्धेणं [तवस्सिविसुदेणं तिकरणसुद्धणं पडि
गोशालक-चरित्रं
~231
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५४१]
दीप अनुक्रम [६३९]
गाहमसुद्धेणं ] तिविहेणं तिकरणसुद्धेणं दाणेणं मए पडिलामिए समाणे देवाउए निबद्धे संसारे परित्तीकए हैं। गिर्हसि य से इमाई पंच दिवाई पाउन्भूयाई, तंजहा-वसुधारा बुट्टा १ दसद्धचन्ने कुसुमे निवातिए २ लुक्खेवे कए ३ आयाओ देवदुंदुभीओ ४ अंतरावि य णं आगासे अहो दाणे ९सि धुढे, तए णं राय-18 गिह नगरे सिंघाडणजाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खड़ जाव एवं परूवेइ-घने णं देवाणुप्पिया। विजए गाहावती कयत्थे णं देवाणुप्पिया ! विजये गाहावई कयपुन्ने गं देवाणुप्पिया! विजए गाहावई कयलक्षणे चं देवाणुप्पिया ! विजये गाहावई कया णं लोया देवाणुप्पिया । विजयस्स गाहावइस्स मुलद्धे
देषाणुप्पिया माणुस्सए जम्मजीवियफले विजयस्स गाहावइस्स जस्सगं गिहंसि सहारूवे साधु साधुरूवे पहिलाभिए समाणे इमाई पंच दिवाई पाउम्भूयाई, तंजहा-वसुधारा बुट्टा जाव अहो दाणे २ पहे. तं धन्ने | ४ कयत्ये कयपुले कयलक्खणे कया णं लोया सुलद्धे माणुस्सए जम्मजीवियफले विजयस्स गाहावास्स विज०२।। दिएणं से गोसाले मंख लिपुत्ते बहुजणस्स अंतिए एयमदं सोचा निसम्म समुप्पासंसए समुप्पन्नकोउहल्ले |
जेणेव विजयस्स गाहावइस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ तेणेव०२ पासइ विजयस्स गाहावइस्स गिहंसि वसु-। आहार घुई दसद्धवर्ष कुसुमं निवडियं ममं च णं विजयस्स गाहावइस्स गिहाओ पडिनिक्खममाणं पासति |
हतुहे जेणेव मम अंतिए तेणेव उवाग.२ ममं तिक्खुसो आयाहिणपयाहिणं करेइ ९ममं वं० नम० २मम एवं क्यासी-तुझे णं भंते ! मम धम्मायरिया अहन्नं तुझं धम्मंतेवासी, तए णं अहं गोयमा!
गोशालक-चरित्रं
~232
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
व्याख्या- प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः ॥६६॥
ACANCHA
[५४१]
गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयम8 नो आढामि नो परिजाणामि तुसिणीए संचिहामि, तए णं अहं गोयमा।||१५ गोशारायगिहाओ नगराओ पडिनिक्खमामि प०२णालंदं वाहिरियं मज्झमज्झेणं जेणेव तंतुवायसाला तेणेव | लकशते उवा०२दोचं मासखमणं उपसंपज्जित्ताणं विहरामि, तए णं अहं गोयमा ! दोच्चं मासक्खमणपारणगंसि
श्रीवीरेण
गोशालतंतुवायसालाओ पडिनिक्खमामि तं०२ नालंदं बाहिरियं मज्झमज्झेणं जेणेव रायगिहे नगरे जाव अड
संगमा |माणे आणंदस्स गाहावइस्स गिहं अणुप्पविढे, तए णं से आणंदे गाहावती मम एज्जमाणं पासति एवं
सू ५४१ |जहेच विजयस्स नवरं ममं विउलाए खजगविहीए पडिलाभेस्सामीति तुट्टे सेसं तं चेव जाव तचं मासक्खमणं उवसंपजित्ताणं विहरामि, तए णं अहं गोयमा! तचमासक्खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिनिक्खमामि तं०२ तहेव जाव अडमाणे सुणंदस्स गाहावइस्स गिहं अणुपविहे, तएणं से सुणंदे गाहावती एवं जहेव विजयगाहावती नवरं ममं सबकामगुणिएणं भोयणेणं पडिलाभेति सेसं तं चेव जाव चउत्थं मासक्खमणं 8 उवसंपज्जित्ताणं विहरामि, तीसे णं नालंदाए बाहिरियाए अदूरसामंते एत्थ णं कोल्लाए नाम सन्निवेसे होत्था सन्निवेसवन्नओ, तत्थ णं कोल्लाए संनिवेसे बहुले नाम माहणे परिवसइ अढे जाव अपरिभूए रिउच्वेयजावसुपरि
M ॥६६॥ निहिए यावि होस्था,तएणं से बहुले माहणे कत्तियचाउम्मासियपाडिवगंसि विउलणं महुघयसंजुत्तेणं परमपणेणं माहणे आयामेत्था, तए णं अहं गोयमा! चउत्थमासक्खमणपारणगंसि तंतुवायसालाओ पडिनिक्खमामि तं०२णालंदं वाहिरियं मज्झमज्झेणं निग्गच्छामि नि०२ जेणेव कोल्लाए संनिवेसे तेणेव उचागच्छामि २
दीप अनुक्रम [६३९]
SACS
weredturary.com
गोशालक-चरित्रं
~233
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
ACHA
प्रत सूत्रांक
[५४१]
दीप अनुक्रम [६३९]
+SCRRC-40449
कुल्लाए सन्निवेसे उचनीय० जाव अहमाणस्स बहुलस्स माहणस्स गिहं अणुप्पविढे, तए णं से पहले माहणे मम || एजमाणं तहेव जाव ममं विउलेणं महुघयसंजुत्तेणं परमन्नेणं पडिलाभेस्सामीति तुद्वे सेसं जहा विजयस्स जाव बहुले माहणे बहु । तए णं से गोसाले मखलिपुत्तेममं तंतुवायसालाए अपासमाणे रायगिहेनगरे सम्भितर-10 बाहिरियाए ममं सवओ समंता मग्गणगवेसणं करेति मर्म कत्थवि सुतिं वा खुतिं वा पवत्तिं वा अलभमाणे जेणेव तंतुवायसाला तेणेष उवा०२ साडियाओय पाडियाओ य कुंडियाओ य पाहणाओ य चित्तकाफलगं च माहणे आयामेति आयामेत्ता सउत्तरोहूं मुंडं कारेति स० २तंतुवायसालाओ पहिनिक्खमति तं०२णालंदं बाहिरियं मझमझेणं निग्गच्छइ निग्ग०२ जेणेव कोल्लागसन्निवेसे तेणेव उवागच्छद, तए | तस्स कोल्लागस्स संनिवेसस्स बहिया बहिया बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति जाव परूवेति-धन्ने णं . देवाणुप्पिया। बहुले माहणे तं चेव जाव जीवियफले बहुलस्स माणस्स ब० २, तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स बहुजणस्स अंतियं एपमहं सोचा निसम्म अयमेयारूवे अन्भस्थिए जाव समुप्पज्जित्था-जारिसिया णं ममं धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स इड्डी जुत्ती जसे बले वीरिए पुरिसक्कारपरकमे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए नो खलु अस्थि तारिसिया णं अन्नस्स कस्सइ तहारुवस्स सम
णस्स वा माहणस्स वा इड्डी जुत्ती जाव परिक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए तं निस्संदिडं च णं एत्थ ममं है धम्मायरिए धम्मोचदेसए समणे भगवं महावीरे भविस्सतीतिकट्ठ कोल्लागसन्निवेसे सभितरवाहिरिए मम ।
REC5KSARKAR
गोशालक-चरित्रं
~2344
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५४१]
दीप अनुक्रम [६३९]
व्याख्या- सबओ समंता मग्गणगधेसणं करेइ ममं सबओ जाव करेमाणे कोल्लागसंनिवेसस्स बहिया पणियभूमीए १४ गोशामज्ञप्तिःमए सद्धि अभिसमन्नागए, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते हहतुढे मम लिक्खुत्तो आचाहिणं पयाहिणं जाव18 लकशते अभयदानमंसित्ता एवं बयासी-तुजसे गं भंते ! मम धम्मायरिया अहनं सुजसं अंतेवासी, तए णं अहं मोयमापन रावृत्ति गोसालस्स मंस्खलिपुत्तस्स एयमट्ठ पडिसुणेमि, तए णं अहं गोयमा ! गोसालेणं मखलिपुत्तेणं सदि पणियमू- गोशाल
संगमः ॥६६॥ मीए छहासाइंलाभं अलाभं सुखं दुक्खं सकारमसकारं पञ्चणुन्भवमाणे अणिचजागरियं विहरित्था(सूत्रं५४१) ।
सू५४१ 'आगारवासमझे वसित्त'त्ति अगारवास-गृहवासमध्युष्य-आसेव्य एवं जहा भावणाएत्ति आचारद्वितीयश्रुतस्कन्धस्य पञ्चदशेऽध्ययने, अनेन चेदं सूचितं-समस्तपाइन्ने नाहं समणो होहं अम्मापियरंमि जीवंतेति समाता[ भिषह इत्यर्थः 'चिच्चा हिरनं चिचा सुवन्नं चिच्चा बल मित्यादीनि, 'पढमं वासंति विभक्तिपरिणामात् मान्यामति-18 |पचे प्रथम वर्षे 'मिस्साएत्ति निश्राय निश्नां कृत्वेत्यर्थः 'पढम अंतरावासंति विभक्तिपरिणामादेव प्रथमेऽन्तरं-अव
सरो वर्षस्य-वृष्टेयंत्रासावन्तरवर्षः अथवाऽन्तरेऽपि-जिगमिषतक्षेत्रमप्राप्यापि यत्र सति साधुभिरवश्यमावासो विधीयते सोड-II 18|| स्तरावासो-वर्षाकालस्तत्र 'वासावासंति वर्षासुवासः-चातुर्मासिकमवस्थानं वर्षावासस्तमुपागतः-उपाश्रितः। दोर्ष वासंति |द्वितीये वो 'तंतुवायसाल'त्ति कुविन्दशाला'अंजलिमउलियहत्थे'त्ति अञ्जलिना मुकुलिती-मुकुलाकारौ कृती हस्ती येन स तथा, 'दवसुद्धणं'ति द्रव्यं-ओदनादिक शुद्ध-उद्गमादिदोषरहितं यत्र दाने तत्तथा तेन 'दायगसुद्धेणं'सिदत्वका शुद्धो ॥६६॥ यशंसादिदोषरहितत्वात तत्तथा तेन, एवमितरदपि, 'तिविहेण ति उक्तलक्षणेन त्रिविधेन, अथवा त्रिविपेन कृतकारिता-||४||
कs
गोशालक-चरित्रं
~235
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[५४१]
दीप
अनुक्रम [६३९ ]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
गोशालक चरित्रं
-
नुमतिमेदेन त्रिकरणशुद्धेन - मनोवाक्कायशुद्धेन 'वसुहारा बुद्ध'त्ति वसुधारा द्रव्यरूपा घारा दृष्टा 'अहो दानं ति | अहोशब्दो विस्मये 'कपत्थे नं'ति कृतार्थः- कृतस्वप्रयोजनः 'कयलक्खणेति कृतफलवलक्षण इत्यर्थः 'कथा में लोग'त्ति कृती शुभफलौ अवयवे समुदायोपचारात् टोकी-इहलोकपरलोकी 'जम्मजीवियफले'त्ति जन्मनो जीवितव्यस्य च यत्फलं तत्तथा 'तहारूवे साहु साहुरूवे'त्ति 'तथारूपे' तथाविधे अविज्ञातव्रत विशेष इत्यर्थः 'साथी' श्रमणे 'साधुरूपे' साध्वाकारे, 'धम्मंतेवासि' त्ति शिल्पादिग्रहणार्थमपि शिष्यो भवतीत्वत धम्र्मान्तेवासी, 'खज्जगविहीए'त्ति खण्डखाद्यादिलक्षणभोजनप्रकारेण 'सवकामगुणिएणं' ति सर्वे कामगुणा-अभिलापविषयभूता रसादयः सञ्जाता यत्र तत्सर्वकामगुणितं तेन 'परमन्त्रेणं'ति परमानेन रेग्या 'आयामेत्व'त्ति आचामितवान् तद्भोजनदानद्वारेणोच्छिष्टतासम्पादनेन तच्छुद्धार्थमाचमनं कारितवान् भोजितवानिति तात्पर्यार्थः । 'सग्भितरवाहिरिए' ति सहाभ्यन्तरेण विभागेन बाह्येन च यत्तत्तथा तत्र 'मग्गणगवेसणं' ति अन्वयतो मार्गणं व्यतिरेकतो | गवेषणं ततश्च समाहारद्वन्द्वः 'सुहं वत्ति श्रूयत इति श्रुतिः- शब्दस्तां चक्षुषा किल दृश्यमानोऽर्थः शब्देन निश्चीयत इति श्रुतिग्रहणं 'खुई बसि क्षवणं श्रुतिः-छीत्कृतं ताम्, एषाऽप्यदृश्यमनुष्यादिगमिका भवतीति गृहीता, 'पवत्तिं व ेत्ति प्रवृत्ति-वार्ता, साडियाओ' ति परिधानवस्त्राणि 'पाडियाओत्ति उत्तरीयवस्त्राणि, क्वचित् 'भंडिगाओ'त्ति दृश्यते | तत्र भण्डिका- रन्धनादिभाजनानि, 'माहणे आयामेति त्ति शाटिकादीनर्थान् ब्राह्मणान् लम्भयति शाटिकादीन् ब्राह्मणेभ्यो ददातीत्यर्थः, 'सउत्तरोई'ति सह उत्तरोष्ठेन सोत्तरीष्ठं-सरमश्रुकं यथा भवतीत्येवं 'मुंड' ति मुण्डनं कारयति
For Parts Only
~236~
wor
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५४१]
दीप
व्याख्या-1 नापितेन 'पणियभूमीए'त्ति पणितभूमी-भाण्डविश्रामस्थाने प्रणीतभूमौ वा-मनोज्ञभूमौ 'अभिसमन्नागए'त्ति मिलितः||१५ गोशा
प्रज्ञप्तिः एयमढे पडिमुणेमिति अभ्युपगच्छामि, यच्चैतस्यायोग्यस्याप्यभ्युपगमनं भगवतस्तदक्षीणरागतया परिचयेनेषत्स्नेहग- लकशते अभयदेवी- र्भानुकम्पासद्भाधात् छद्मस्थतयाऽनागतदोषानवगमादवश्यंभावित्वाच्चैतस्यार्थस्येति भावनीयमिति । 'पणियभूमीए'त्ति तिलस्तम्बा या वृत्तिः पणितभूमेरारभ्य प्रणीतभूमौ वा-मनोज्ञभूमौ विहृतवानिति योगः, अणिच्चजागरिय'ति अनित्यचिन्तां कुर्वन्निति वाक्यशेषाधिकार
सू५४२ | तए णं अहं गोयमा ! अन्नया कदायि पढमसरदकालसमयंसि अप्पबुट्टिकायंसि गोसालेणं मखलिपुत्तेणं सद्धि सिद्धत्थगामाओ नगराओ कुम्मारगाम नगरं संपट्टीए विहाराए, तस्स णं सिद्धत्वस्स गामस्स नगरस्स कुम्मारगामस्स नगरस्स प अंतरा एत्थ णं महं एगे तिलथंभए पत्तिए पुफिए हरियगरेरिजमाणे | सिरीए अतीव २ उपसोभेमाणे २चिट्ठइ, तए णं गोसाले मखलिपुत्ते तं तिलथंभगं पासह २ ममं 8 वं० नम०२ एवं वयासी-एस णं भंते ! तिलथंभए किं निष्फज्जिस्सइ नो निप्फज्जस्सति', एए य सत्त तिलपुष्फजीवा उदाइत्ता २ कहिं गच्छिहिति कहिं उचवजिहिंति ?, तए णं अहं गोयमा ! गोसालं मखलिपुत्तं । एवं वयासीगोसाला! एस णं तिलधंभए निष्फज्जिस्सइनो न निष्फजिस्सह, एए य सत्त तिलपुप्फजीवा||| उदाइसा २ एयस्स पेव तिलथंभगस्स एगाए तिलसंगुलियाए सत्त तिला पचायाहस्संति, तए णं से गोसालेद मंखलिपुत्ते ममं एवं आइक्खमाणस्स एयम8 नो सद्दहति नो पत्तियति नो रोएइ एयमढे असरहमा० अप-1
॥६६४॥ त्तिय० अरोएमाणे ममं पणिहाए अयण्णं मिच्छावादी भवउत्तिका मर्म अंतियाओ सणियं २ पचोसका
अनुक्रम [६३९]
गोशालक-चरित्रं
~237
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५४२]
१२ जेणेव से तिलथंभए तेणेव उवा.२तं तिलधंभग सलेयायं चेव उप्पाडेइ ७०२ एगते एडेति, तक्खणमेत्तं च णं गोयमा ! दिवे अभवद्दलए पाउन्भूए, तए णं से दिवे अभवद्दलए खिप्पामेव पतणतणाएति
२ खिप्पामेव पविजुयाति २ खिप्पामेव नचोदगं णातिमहियं पविरलपफुसियं रयरेणुविणासणं दिवं सलिलो-| दिगं वासं वासति जेणं से तिलधंभए आसत्थे पचायाए तत्धेव बद्धमूले तस्थेव पतिहिए, ते य सत्त तिलपुष्फ
जीवा उद्दाइत्ता २ तस्सेव तिलधंभगस्स एगाए तिलसंगुलियाए सत्त तिला पचायाया (सूत्रं ५४२)॥' RI 'पदमसरयकालसमयंसित्ति समयभाषया मार्गशीर्षपोषौ शरदभिधीयते तत्र प्रथमशरत्कालसमये मार्गशीर्षे, 'अप्प
बुट्टिकार्यसित्ति अल्पशब्दस्याभाववचनत्वादविद्यमानवर्ष इत्यर्थः, अन्ये त्वश्वयुकार्तिको शरदित्याहुः, अल्पवृष्टिकायत्वाच तत्रापि विहरता न दूषणमिति, एतच्चासङ्गत्तमेव, भगवतोऽप्यवश्यं पर्युषणस्य कर्त्तव्यत्वेनं पर्युषणाकल्पेऽभिहितत्वादिति । 'हरियगरेरिजमाणे'त्ति हरितक इतिकृत्वा रेरिजमाणेत्ति अतिशयेन राजमान इत्यर्थः । 'तए णं अहं । गोयमा! गोसाल मंखलिपुत्तं एवं वयासित्ति, इह यद्भगवतः पूर्वकालप्रतिपक्षमौनाभिग्रहस्यापि प्रत्युत्तरदानं तदेकादिकं वचनं मुत्कलमित्येवमभिग्रहणस्य संभाव्यमानत्वेन न विरुद्धमिति, 'तिलसंगलियाए'त्ति तिलफलिकायां 'ममं| पणिहाए'त्ति मां प्रणिधाय-मामाश्रित्याय मिथ्यावादी भवत्वितिविकल्यं कृत्वा, 'अभवद्दलए'त्ति अभ्ररूपं वारो-जलस्य दलिक-कारणमभ्रवादलकं 'पतणतणायह'त्ति प्रकर्षेण तणतणायते गर्जतीत्यर्थः 'नचोदगं'ति नात्युदकं यथा भवति 'नाइमट्टिय'ति नातिकई में यथा भवतीत्यर्थः 'पविरलपप्फुसियंति प्रविरलाः प्रस्मृशिका-विप्नुपो यत्र तत्तथा, 'रयरे
दीप
अनुक्रम [६४०]
गोशालक-चरित्रं
~238~
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५४२]
दीप
व्याख्या-14णुविणासणं ति रजो-बातोपाटितं व्योमवति रेणवश्च-भूमिस्थितपशिवस्तद्विनाशनं-तपशमक, 'सलिलोदगवास ति|१५ गोशाप्रज्ञप्तिः सलिला:-शीतादिमहानद्यस्तासामिव यदुदक-रसादिगुणसांधादिति तस्य यो वर्षः स सलिलोदकवर्षोऽतस्त, 'बद्ध- लकशत व अभयदेवी-15 मुले त्ति बद्धमूलः सन् 'तत्येव पइट्टिए'ति यत्र पतितस्तत्रैव प्रतिष्ठितः
श्यायनतेया वृत्तिः२
जोलेश्या द तए णं अहं गोयमा ! गोसालेणं मखलिपुत्तेणं सद्धिं जेणेव कुंडग्गामे नगरे तेणेव उवा०, तए तस्स है।
सू ५४३ ॥६६५॥ कुंडग्गामस्स नगरस्स बहिया वेसियायणे नाम बालतबस्सी छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेण तपोकम्मेणं सट्ट
पाहाभो पगिजिझय २ सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयाघमाणे विहरह आइयतेपतविपाओय से छप्पईओ संबओ समंता अमिनिस्सवंति पाणभूयजीवसत्तदयट्टयाए च णं पडियाओ २ तत्व २ भुजो २ पश्चोकमेति, तए णं से गोसाले मखलिपुसे वेसियायणं बालसवस्सि पासति पा० २मर्म अंतियाओ सणिय २ को
सकर ममं० २ जेणेव वेसियायणे चालतबस्सी तेणेव उवा० २ वेसियायणं चालतवस्सि एवं बयासी-किं है भवं मुणी मुणिए उदाहु जूयासेजायरए ?, तए णं से वेसियायणे बालतबस्सी गोसालस्स मखलिपुत्तस्स
पयमहणो आढाति नो परियाणाति तुसिणीए संचिट्ठति, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते वेसियायणं बालतवस्सि दोपि तचंपि एवं वयासी-किं भवं मुणी मुणिए जाव सेज्जायरए, तए णं से वेसियाषण बालत-18|॥६६५॥ यस्सी गोसालेणं मंस्खलिपुत्तेणं दोचंपि तचंपि एवं बुत्ते समाणे आसुरुते जाव मिसिमिसेमाणे आयावणभूमीओ पच्चोरुभति आ०२ तेयासमुग्याएणं समोहन्नइ तेयासमुग्घाएणं समोहनित्ता सत्सहपयाई पञ्चोसका
अनुक्रम [६४०]
गोशालक-चरित्रं
~239~
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४३-५४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५४३-५४६]
दीप अनुक्रम
स०२ गोसालस्स मखलिपुत्तस्स वहाए सरीरगंसि तेयं निसिरइ, तए ण अहं गोयमा ! गोसालस्स मंख|| लिपुत्तस्स अणुकंपणहयाए वेसियायणस्स थालतबस्सिस्स तेयपडिसाहरणट्टयाए एत्थ अंतरा अहं सीप-1
लियं तेयलेस्सं निसिरामि जाए सा ममं सीयलियाए सेयलेस्साए वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स सीओ-2 || सिणा तेयलेस्सा पडिहया, तए णं से वेसियायणे बालतबस्सी ममं सीयलियाए तेयलेस्साए सीओसिणं | तेयलेस्सं पडिहयं जाणित्ता गोसालस्स मखलिपुत्तस्स सरीरगस्स किंचि आवाहं वा वायाहं वा छविच्छेद वा अकीरमाणं पासित्ता सीओसिणं तेयलेस्सं पडिसाहरह सीओ०२ मम एवं बयासी-से गयमेयं भगवं!
से गयमेयं भगवं, लए णं गोसाले मंखलिपुत्तेममं एवं क्यासी-किण्हं भंते । एस जयासिजायरप तुझे ६ एवं वयासी-से गयमेयं भगवं गयगयमेयं भग!, तए णं अहं गोयमा.! गोसालं मखलिपुत्तं एवं बयासी
तुमं गं गोसाला! वेसियामणं चालतवारिस पाससि पासित्ता ममं अंतियाओ तुसिणियं २ पच्चोसकसि जेणेव वेसियायणे वालतवस्सी तेणेव उवागच्छसि ते०२ वेसियायणं मालतवस्सि एवं वयासी-किं भव ६ मुणी मुणिए उदाहु जूयासेज्जायरए ,तए णं से वेसियायणे चालतवस्सी तव एयमह नो आढाति नो
परिजाणाति तुसिणीए संचिट्ठइ, तए णं तुम गोसाला वेसियायणं बालतबस्सि दोचंपि तचंपि एवं वयासी-1 काकिं भवं मुणी मुणिए जाव सेजायरए, तए णं से वेसियायणे चालतवस्सी तुम दोचंपि तपि एवं वुत्ते
समाणे आसुरुत्ते जाव पचोसकति प०२ तव वहाए सरीरगंसि तेयलेस्सं निस्सरह,तए णं अहं गोसाला !तष
[६४१
६४४]
weredturary.com
गोशालक-चरित्रं
~240
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४३-५४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५४३
-५४६]
दीप
व्याख्या-18|| अणुकंपणट्टयाए वेसियायणस्स बालतवस्सिस्स सीयतेयलेस्सापडिसाहरणट्ठयाए एत्थ अंतरा सीपलिय-15|१५ गोशाप्रज्ञप्तिः दातेयलेस्सं निसिरामि जाव पडिहयं जाणित्ता तव यसरीरगस्स किंचि आयाहं वा बाबाई वा छविच्छेदं टालकशते अभयदेवी- या अकीरमाणं पासेत्ता सीओसिणं तेयलेस्सं पडिसाहरति सी०२ ममं एवं वयासी-से गयमेयं भगवं गय- पउपरिया वृत्तिः२४ २ मेयं भगवं?, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते मम अंतियाओ एयमटुं सोचा निसम्म भीए जाव संजाय-1|3||
सू ५४४ ॥६६६॥
भये ममं चंदति नमसति मम २ एवं वयासी-कहनं भंते । संखित्तविउलतेयलेस्से भवति ?, तए णं अहं गोयमा ! गोसालं मंखलिपुत्तं एवं बयासी-जेणं गोसाला एगाए सणहाए कुम्मासपिडियाए एगेण य विय-1 डासएणं छटुंछट्टेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उर्दु बाहाओ पगिज्झिय २ जाव विहरति से णं अंतो छहं मासाणं संखित्तबिउलतेयलेस्से भवति, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते मम एयमढे सम्मं विणएणं पडिसुणेति
(सूत्रं ५४३)।तएणं अहं गोयमा ! अन्नदा कदाइ गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं सद्धिं कुम्मगामाओ नगराओ 18| सिद्धत्वग्गाम नगरं संपढिए विहाराए जाहे य मोतं देसं हवमागया जस्थ णं से तिलधभए, तए णं से| दिगोसाले मखलिपुत्ते एवं वयासी-तजो गंभंते ! तदा ममं एवं आइक्खह जाव परूवेह-गोसाला! एस णं ||
तिलधंभए निष्फजिस्सइ तं चेव जाव पचाइस्संति तपणं मिच्छा इमं च णं पचक्खमेव दीसह एस णं से || तिलधंभए णो निष्फन्ने अनिष्फन्त्रमेव ते य सत्त तिलपुष्फजीवा उदाइत्ता २ नो एयस्स चेव तिलथंभगस्स || |एगाए तिलसंगुलियाए सस तिला पदायाया, तए णं अहं गोयमा! गोसालं मखलिपुत्री एवं बयासी-तुमं|
अनुक्रम
[६४१
६४४]
गोशालक-चरित्रं
~241
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक [५४३
-५४६]
दीप
अनुक्रम
[६४१
६४४]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४३-५४६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
गोशालक चरित्रं
णं गोसाला ! तदा ममं एवं आइक्खमाणस्स जाव परूवेमाणस्स एयमहं मो सद्दहसि मो पत्तियसि नो रोययसि एयमहं असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोपमाणे ममं पणिहाए अयन्नं मिच्छावादी भवउत्तिक ममं अंतियाओ सणियं २ पचोसकसि प० २ जेणेव से तिलभए तेणेव उवा० २ जाव एगंतमंते एडेसि, तक्खणमेत्तं गोसाला ! दिवे अन्भवद्दलए पाउन्भूए, तए णं से दिवे अम्भवद्दलए विप्पामेव तं चैव जाव | तस्स चैव तिलथं भगस्स एगाए तिलसंगुलियाए सत्त तिला पचायाया, तं एस णं गोसाला से तिलभए निष्फन्ने णो अनिष्पन्नमेव, ते य सत्त तिलपुष्कजीवा उदाइत्ता २ एयस्स चैव तिलथंभयस्स एगाए तिलसंगुलियाए | सन्त तिला पचायाया, एवं खलु गोसाला ! वणस्सइकाइया पट्टपरिहारं परिहरति, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते ममं एवमाइक्खमाणस्स जाव परूवेमाणस्स एयमहं नो सद्दहति ३ एयम असद्दहमाणे जाव अरोपमाणे जेणेव से तिलयं भए तेणेव उवा० २ताओ तिलथंभयाओ तं तिलसंगुलियं खुड्डति खुड्डित्ता करयलंसि | सत्त तिले पप्फोडेइ, तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स ते सत्त तिले गणमाणस्स अयमेयारूवे अन्नत्थिए | जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु सङ्घजीवाचि पउट्टपरिहारं परिहरति, एस णं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स पट्टे एस णं गोयमा ! गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स ममं अंतियाओ आयाए अवक्रमणे पं० (सूत्रं ५४४ ) तप णं से | गोसाले मंख लिपु से एग। ए सणहाए कुम्मासपिंडियाए य एगेण य विपडासएणं छछट्टेणं अनिक्खिणं तवोकमेणं उद्धं बाहाओ पगिज्झियरजाव विहरह, तए णं से गोसाले मंखलि से अंतो छन् मासाणं संखितविजलते
For Penal Use On
~ 242 ~
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४३-५४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५४३
-५४६]
दीप
व्याख्या-18 यलेसे जाए (सूत्रं ५४५)तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अन्नया कयावि इमे छदिसाचरा अंतिय||१५ गोशा
प्रज्ञप्तिः पाउभवित्था तं-साणोतं चेव सर्व जाव अजिणे जिणसई पगासेमाणे विहरति, तं नो खलु गोयमा ! गो-हलकशते अभयदेवी-साले मंख लिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसई पगासेमाणे विहरह, गोसाले णं मखलिपुत्ते अजिणे या पट्टपार
जिणप्पलावी जाव पगासेमाणे विहरह, तए णं सा मह तिमहालया महवपरिसा जहा सिवे जाव पडिगया। हातमा हतए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडगजाय बहुजणो अन्नमन्नस्स जाव परूवेइ-जन्नं देवाणुप्पिया! गोसाले समस्खलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव विहरइ त मिच्छा, समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खा जाय परूवेड-IIICHTuye
एवं खलु तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स मंखली नाम मंखपिता होत्या, तए णं तस्स मंखलिस्स एवं चेव तं|४| & सर्व भाणियचं जाव अजिणे जिणसई पगासेमाणे विहरइ, तं नो खलु गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्प
लावी जाव विहरइ गोसाले मखलिपुत्ते अजिणे जिणप्पलावी जाव विहरह, समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसई पगासेमाणे विहरह, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते बहुजणस्स अंतियं एयमझु सोचा निसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ आयावणभूमीओ पचोरुहहत्ता सावधि नगरिं मजझमजलेणं जेणेच हालाहलाए कभकारीए कुंभकारावणे तेणेव उवागच्छइ तेणे०२ हालाहलाए ||
६६७॥ कुंभकारीए कुंभकारावणंसि आजीवियसंघसंपरिखुडे महया अमरिसं वहमाणे एवं वावि विहरइ (सत्रं ५४६)॥४ 'पाणभूयजीवसत्तदयट्टयाए'त्ति प्राणादिषु समान्येन या दया सैवार्थः प्राणादिदयार्थस्तद्भावस्तत्ता तया, अथवा
अनुक्रम
[६४१
६४४]
गोशालक-चरित्रं
~2434
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४३-५४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५४३-५४६]
दीप अनुक्रम
पटूपदिका एव प्राणानामुच्छासादीनां भावात्प्राणाः भवनधर्मकत्वाद्भूताः उपयोगलक्षणत्वाज्जीवाः सत्त्वोपपेतत्वात्सत्त्वास्ततः कर्मधारयस्तदर्थतायै, चशब्दः पुनरर्थः, 'तत्थेवत्ति शिरःप्रभृतिके, 'किं भवं मुणी मुणिए'त्ति किं भवान् 'मुनिः तपस्वी जातः 'मुनिए'त्ति ज्ञाते तत्त्वे सति ज्ञात्वा वा तत्त्वम् , अथवा किं भवान् 'मुनी' तपस्विनी 'मुणिए'त्ति मुनिका-तपस्वीति, अथवा किं भवान् 'मुनिः' यतिः उत 'मुणिका' ग्रहगृहीतः 'उदाहुत्ति उताहो इति विकल्पार्थों | निपातः 'जूयासेज्जायरएति यूकानां स्थानदातेति, 'सत्तट्ट पयाई पच्चोसकर'त्ति प्रयत्नविशेषार्थमुरभ्र इव प्रहारदानार्थ-|| मिति. 'सीउसिणं तेयलेस्संति स्वां-खकीयामुष्णां तेजोलेश्यां 'से गयमेयं भगवं गपगयमेवं भगवति अथ गत-15 | अवगतमेतन्मया हे भगवन् ! यथा भगवतः प्रसादादर्य न दग्धः, सम्भ्रमार्थत्वाच्च गतशब्दस्य पुनः पुनरुच्चारणम्, इहर |च यद्गोशालकस्य संरक्षणं भगवता कृतं तत्सरागत्वेन दयैकरसत्वाद्भगवतः, यच्च सुनक्षत्रसर्वानुभूतिमुनिपुङ्गवयोर्न करि-19
प्यति तद्वीतरागत्वेन लन्ध्यनुपजीवकत्वादवश्यंभाविभावत्वाद्वेत्यवसेयमिति । 'संखित्तविउलतेयलेसे'त्ति सविताऽप्रयो|गकाले विपुला प्रयोगकाले तेजोलेश्या-लब्धिविशेषो यस्य स तथा, 'सनहाए'त्ति सनखया यस्यां पिण्डिकायां वध्यमानायामङ्गुलीनखा अङ्गष्ठस्याधो लगन्ति सा सनखेत्युच्यते 'कुम्मासपिंडियाए'त्ति कुल्माषाः-अर्द्धस्विन्ना मुद्गादयो माषा इत्यन्ये 'वियडासएणं'ति विकट-जलं तस्याशयः आश्रयो वा-स्थानं विकटाशयो विकटाश्रयो वा तेन, अमुं च प्रस्तावाचुलुकमाहुवृद्धाः, 'जाहे य मोत्ति यदा च स्मो-भवामो वयं 'अनिष्फन्नमेव'त्ति मकारस्यागमिकत्वादनिष्पन्न एव । 'वणसइकाइयाओ पजट्टपरिहारं परिहरंति'त्ति परिवृत्य २-मृत्वा २ यस्तस्यैव वनस्पतिशरीरस्य परिहार:-परिभोगस्तत्रैवोत्पा-15
[६४१
६४४]
।
गोशालक-चरित्रं
~244
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४३-५४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५४३-५४६]
दीप
व्याख्या- दोऽसौ परिवृत्यपरिहारस्तंपरिहरन्ति-कुर्वन्तीत्यर्थः, 'खुड्डइत्ति त्रोटयति 'पउट्टे'सि परिवर्तः परिवर्त्तवाद इत्यर्थः १५ गोशाप्रज्ञप्तिः आयाए अवक्कमणे त्ति आत्मनाऽऽदाय चोपदेशम् 'अपक्रमणम्' अपसरणं 'जहा सिवे'त्ति शिवराजर्षिचरिते 'मह- लकशते अभयदेवीया अमरिस'त्ति महान्तममर्षम् 'एवं वाविपत्ति एवं चेति प्रज्ञापकोपदर्यमानकोपचिह्नम् , अपीति समुच्चये।
आनन्दाय या वृत्तिः२
गोशालोको तेणं कालेणं २ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी आणंदे नाम धेरे पगइभइए जाव विणीए छटुंद
बणिग्दृष्टा॥६६॥ छट्टेणं अणिक्खिसेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरह, तए णं से आणंदे धेरे छट्ठक्खम-12
दन्तःसू५४७ णपारणगंसि पढमाए पोरिसीए एवं जहा गोयमसामी तहेव आपुच्छइ तहेव जाच उच्चनीयमजिसमजाब अङ|माणे हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स अदूरसामंते वीइवयइ, तए णं से गोसाले मंखलिपुसे आणंदं। काथेरं हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स अदूरसामंतेणं बीइवयमाणं पासइ पा० २एवं वयासी-एहि
ताव आणंदा ! इओ एग मह उवमियं निसामेहि, तए णं से आणंदे घेरे गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे जेणेव गोसाले मंखलिपुते तेणेष उवागच्छत्ति, तए णं से गोसाले मंखलिपुते आणंदं थेरं एवं वयासी-एवं खलु आणंदा ! इतो चिरातीयाए अद्धाए केइ उच्चावगा||
॥६६८ वणिया अस्थअत्थी अत्थलुद्धा अत्यगवेसी अत्यकंखिया अस्थपिवासा अत्थगवेसणयाए णाणाविहविउलपणि-18 यभंडमायाए सगडीसागडेणं सुबहुं भस्तपाणं पत्थयणंगहाय एगं महं अगामियं अणोहियं छिन्नावायं दीह॥ मद्धं अडर्षि अणुप्पविठ्ठा, सए णं तेसिं बणियाणं तीसे अकामियाए अणोहियाए छिन्नावायाए दीहमद्धाए ।
अनुक्रम
[६४१
६४४]
गोशालक-चरित्रं
~245
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४७-५४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
%15
%
प्रत सूत्रांक [५४७-५४९]
दीप
& अडवीए किंचि देसं अणुप्पत्ताणं समाणाणं से पुषगहिए उदए अणुपुवेणं परिभुजेमाणे परि०२खीणे,
तए णं ते वणिया खीणोदता समाणा तहाए परिन्भवमाणा अन्नमन्ने सद्दाति अन्न.२ एवं व०-एवं | खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमीसे अगामियाए जाव अडवीए किंचि देसं अणुप्पत्ताणं समाणाणं से | पुवगहिए उदए अणुपुषेणं परिभंजेमाणे परि० खीणे तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं हमीसे अगामियाए| जाव अडवीए उदगस्स सच्चओ समंता मग्गणगवेसणं करेसएत्तिकटु अन्नमन्नस्स अंतिए एयम8 पडि-| सुणेति अन्न०२ तीसे णं अगामियाए जाव अडवीए उद्गस्स सबओ समंता मग्गणगवेसणं करेंति उद|गस्स सबओ समंता मग्गणगवेसणं करेमाणा एगं महं वणसंडं आसादेंति किण्हं किण्होभासं जाव निकुर-13 |वभूयं पासादीयं जाच पडिरूवं, तस्स णं वणसंडस्स बहुमझदेसभाए एत्य णं महेगं बम्मीयं आसादेंति,
तस्स णं वम्मियस्स चत्तारि वप्पुओ अब्भुग्गयाओ अभिनिसढाओ तिरियं सुसंपग्गहियाओ अहे पन्नगद्ध|| रुवाओ पन्नगदसंठाणसंठियाओ पासादीयाओ जाव पडिरूवाओ, तए ण ते पाणिया हतुट्ठ० अन्नमन्नं सहा-|| । ति अ०२ एवं बयासी-एवं खलु देवा! अम्हे इमीसे अगामियाए जाव सबओ समंता मग्गणगवेसणं करेमाणेहिं इमे बणसंडे आसादिए किण्हे किण्होभासे इमस्स णं वणसंडस्स बहुमजलदेसभाए इमे बम्मीए । आसादिए इमस्स णं यम्मीयस्स चत्तारि बप्पुओ अब्भुग्गयाओ जाच पडिरूवाओ तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमस्स धम्मीयस्स पढमं वपि भिन्दित्तए अवियाई ओरालं उदगरयणं अस्सादेस्सामो, तए ण
45455-4554-550*4%
अनुक्रम [६४५६४७]
4
गोशालक-चरित्रं
~246
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४७-५४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५४७-५४९]
दीप
व्याख्या-
1ते धाणिया अनमनस्स अंतियं एपमह्र पडिसुणेति अं०२तस्स बम्मीयस्स पढम वपि भिदंति.ते णं तस्थ१४ गोशाप्रज्ञप्तिः अच्छ पत्थं जचं तणुयं फालियवन्नाभं ओरालं उदगरयणं आसाति, तए णं ते वणिया हहतुह० पाणियलकशते अभयदेवी- पिबति पा०२ वाहणाई पजे ति वा०२ भायणाई भरेंति भा०२दोचंपि अन्नमन्नं एवं वदासी-एवं खलुभाना
आनन्दाय या वृत्तिः२ देवाणुप्पिया ! अम्हेहिं हमस्स वम्मीयस्स पढमाए बप्पीए भिण्णाए ओराले उदगरयणे अस्सादिए तं सेयं
पर गोशालोको ॥६६९॥ | खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमस्स यम्मीयस्स दोच्चपि वप्पि भिदित्तए, अवि याई एत्थ ओरालं सुवन्नरयणं |
भावाराल परयन्तःसू ५४७ IM आसादेस्सामो, तए णं ते वणिया अन्नमन्नस्स अंतियं एयमझुपडिमुणेति अं० २ तस्स बम्मीयस्स दोचंपि
वप्पिं भिंदंति तेणं तस्थ अच्छं जचं तावणिज महत्थं महग्धं महरिहं ओरालं सुवन्नरयणं अस्साति, तए णं ते चणिया हहतुह० भायणाई भरेंति २ पचहणाई भरेंति २ तच्चपि अन्नमन्नं एवं व-एवं खलु दे० अम्हे || इमस्स वम्मीयस्स पढमाए वप्पाए भिन्नाए ओराले उदगरयणे आसादिए दोचाए बप्पाए भिन्नाए ओराले सुवन्नरयणे अस्सादिए तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमस्स बम्मीयस्स तथंपि वर्षि भिंदित्तए, अवि याई एत्य ओरालं मणिरयणं अस्सादेस्सामो, तर ते वणिया अन्नमनस्स अंतियं एयमटुं पडिसुणेति अं०२ तस्स धम्मीयस्स तचंपि वपि भिदंति,ते णं तत्थ विमलं निम्मलं निचलं निकलं महत्थं महग्धं महरिहं ओरालं ६६९॥ मणिरयणं अस्सादेति, तए णं ते वणिया हट्टतुट्ठ० भायणाई भौति भा०२ पवहणाई भरेति २ चउत्थंपि | अन्नमन्नं एवं वयासी-एवं खलु देवा०1 अम्हे इमस्स वम्मीयस्स पढमाए वप्पाए भिन्नाए ओराले उदगरयणे |
अनुक्रम [६४५६४७]
गोशालक-चरित्रं
~2474
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[५४७
-५४९]
दीप
अनुक्रम
[६४५
६४७]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४७-५४९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
अस्सादिए दोचाए बप्पाए भिन्नाए ओराले सुवण्णरयणे अस्सादिए तचाए बप्पाए भिन्नाए ओराले मणिरयणे अस्सादिए तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं इमस्स वम्मीयस्स उत्थंपि वपि भिंदित्तए अवि याई उत्तमं महग्घं महरिहं ओरालं वइररयणं अस्सादेस्सामो, तए णं तेसिं वणियाणं एगे वणिए हियकामए | सुहकामए पत्थकामए आणुकंपिए निस्सेसिए हियसहनिस्सेसकामए ते वणिए एवं व्यासी एवं खलु देवा० ! अम्हे इमस्स वम्मीयस्स पढमाए वप्पाए भिन्नाए ओराले उदगरयणे जाव तच्चाए चप्पाए भिन्नाए ओराले मणिरयणे अस्सादिए तं होउ अलाहि पज्जत्तं एसा चउत्थी वप्पा मा भिज्जउ, चडत्थी णे वप्पा उवसग्गा यावि होत्था, तए णं ते वणिया तस्स वर्णियस्स हियकामगस्स सहकामजाव हियसुहनिस्सेसकामगस्स एवमाइक्खमाणरस जाव परूत्रेमाणस्स एयमहं नो सद्दहंति जाव नो रोयंति, एयमहं असद्दहमाणा जाव अरोएमाणा तस्स वम्मीयरस चडत्थपि वप्पिं भिड़ंत, ते पंतस्थ उरगविसं चंडविसं घोरविसं महाविसं अतिकायमहाकायं मसिमूसाकालगयं नयणविसरोसपुन्नं अंजणपुंजनिगरप्पगासं रत्तच्छं जमलजुयलचंचल चलंतजीहं घरणितलवेणियभूयं उक्कड फुट कुडिलजडुलकक्खडविकडफडाडोवकरणच्छं लोहागरधम्ममाणधमधमेंतघोसं | अणागलिय चंडतिघरोसं समुहिं तुरियं चवलं धर्मतं दिट्ठीविसं सप्पं संघर्हेति, तए णं से दिट्ठीविसे सप्पे तेहिं वणिएहिं संघट्टिए समाणे आसुरुते जाव मिसमिसेमाणे सणियं २ उट्ठेति २ सरसरसरस्स वम्मीयस्स सिह| रतलं दुरुहेइ सि० २ आइचं णिज्झाति आ० २ ते वणिए अणिमिसाए दिट्ठीए सहओ समंता समभिलो एति,
Educatan Internation
गोशालक चरित्रं
For Parts Only
~248~
www.landbrary.org
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४७-५४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५४७-५४९]
दीप
व्याख्या- तए णं ते वणिया तेणं दिट्ठीविसेणं सप्पेणं अणिमिसाए दिहीए सवओ समंता समभिलोइया समाणा १५ गोशा
प्रज्ञप्तिः लिप्पामेव सभंडमत्तोवगरणया एगाहचं कूडाहचं भासरासी कया यावि होत्या, तस्थ णं जे से वणिए सेसिंग अभयदेवी- वणियाणं हियकामए जाव हियसुहनिस्सेसकामए से णं अणुकंपयाए देवयाए सभंडमत्तोवगरणमायाए नियगं
आनन्दाय यावृत्तिः२ नगरं साहिए, एवामेव आणंदा ! तववि धम्मायरिएणं धम्मोवएसएणं समणेणं नायपुत्तेणं ओराले परियाए|
गोशालोको
दिवणिग्दृष्टा॥६७०॥
आसाइए ओराला कित्तिवन्नस हसिलोगा सदेवमणुयासुरे लोए पुवंति गुचंति थुवंति इति खलु समणे भगवं महावीरे इति०२,तं जदि मे से अजज किंचिति वदति तो णं तवेणं तेएणं एगाहचं कूडाहचं भासरासिं करेमि जहा चा वालेणं ते वणिया, तुमं च णं आणंदा! सारक्खामि संगोवामि जहा वा से वणिए तेर्सि बणियाणं हियकामए जाव निस्सेसकामए अणुकंपयाए देवयाए सभंडमत्तोव० जाव साहिए, तं गच्छ णं तुमं% आणंदा ! तव धम्मायरियस्स धम्मोवएसगस्स समणस्स नायपुत्तस्स एयमह परिकहे हि । तए णं से आणंदे धेरे गोसालेणं मखलिपुत्रोणं एवं वुत्ते समाणे भीए जाव संजायभए गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंतियाओ हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणाओ पडिनिक्खमति २ सिग्धं तुरियं सावधि नगरि मझमज्झेणं निग्गच्छद नि.जेणेव कोहए चेहए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवा०२समणं भगवं महावीरं ॥६७०॥ तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति २वंदति नम०२एवं व०-एवं खलु अहं भंते । उट्ठक्खमणपारणगंसि* तुझेहिं अम्मणुनाए समाणे सावत्थीए नगरीए उच्चनीयजाव अडमाणे हालाहलाए कुंभकारीए जाप वीयी
अनुक्रम [६४५६४७]
गोशालक-चरित्रं
~249~
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [१४७-१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५४७-५४९]
वयामि, तए गोसाले मंखलिपुते ममं हालाहलाए जाब पासिसा एवं बयासी-एहि ताव आणदाभोला एग महं उवमियं निसामेहि, तए णं अहं गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं एवं बुत्ते समाणे जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छामि, तए णं से गोसाले मखलिपुत्से मर्म एवं|| *वयासी-एवं खलु आणंदा ।इओ चिरातीयाए अद्धाए केइ उच्चाघया वणिया एवं तं चेव जाप सर्व निरचसेसंद प्रभाणिय जाव नियगनगरं साहिए तं गच्छ णं तुम आणंदा! धम्मायरियस्स धम्मोव० जाप परिकहेहि | (सूत्रं ५४७)तं पभू णं भंते ! गोसाले मंखलिपुसे तषेणं तेएणं एगाहचं कूडाहर्च भासरासिं करेसए | विसए णं भंते ! गोसालस्स मखलिपुत्तरस जाव करेत्तए? समत्थे णं भंते !गोसाले जाव करेत्तए ?,पभू णं आगंदा गोसाले मखलिपुत्ते तवेणं जाव करेत्तए विसए णं आणंदा! गोसाले जाव करेत्तए समस्थे णं आणं|दा ! गोसाले जाव करे०, नो चेव णं अरिहंते भगवंते, परियावणियं पुण करेजा, जावतिएणं आणंदा !|| | गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवतेए एत्तो अर्थतगुणविसिट्ठयराए चेव तवतेए अणगाराणं भगवंताणं, खंति
खमा पुण अणगारा भगवंतो, जावइएणं आणंदा ! अणगाराणं भगवंताणं तवतेए एसो अणंतगुणविसिट्टयराए चेव तवतेए थेराणं भगवंताणं खंतिखमा पुण धेरा भगवंतो, जावतिएणं आणंदा ! थेराणं भगवंताणं 5 है तबतेए एत्तो अणंतगुणविसिट्टियतराए चेव तवतेए अरिहंताणं भगवंताणं, खंतिखमा पुण अरिहंता भग०,
तं पभू णं आणंदा ! गोसाले मं० पुत्ते तवेणं तेएणं जाव करेत्तए विसए णं आणंदा ! आव करे० समस्थे गं|
दीप
अनुक्रम [६४५६४७]
गोशालक-चरित्रं
~250
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४७-५४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५४७-५४९]
षेधः सू
दीप
व्याख्या- आणंदा ! जाव करेनो चेव णं अरिहंते भगवते, पारियावणियं पुण करेजा (सूत्रं५४८)तं गच्छ णं तुमं आण- १५ गोशा-. प्रज्ञप्तिः।दा ! गोयमाईणं समणाणं निग्गंधाणं एयम8 परिकहेहि-मा णं अज्जो ! तुझं केइ गोसालं मखलिपुत्तं धम्मि- लकशते अभयदेवी-5 याए पडिचोयणाए पडिचोएउ धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेउ धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेज, गोसाले वणिग्दृष्टाया वृत्तिकणं मखलिपुत्ते समणेहिं निग्गं० मिच्छ विपडिवन्ने, तए णं से आणंदे धेरे समणेणं भ० महावीरेणं एवं बुत्ते न्तःसू५४७
तेजः शक्तिः ॥६७१॥ स० समणं भ. म.६० नम०२ जेणेव गोयमादिसमणा निग्गंधा तेणेव उवाग०२ गोयमादि समणे निग्गंधे
नोदनानिआमतेति आ०२ एवं व०-एवं खलु अज्जो! छटुक्खमणपारणगंसि समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुनाए समाणे सावत्थीए नगरीए उच्चनीय तं चेव सर्व जाव नायपुत्तस्स एयम परिकहहि, तं मा णं अजो
हमाणा५४-५४९ तुज्झे केई गोसालं मंखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएउ जाव मिच्छ विपडिवन्ने (सूत्र ५४९)॥ ___ 'महं उबमियंति मम सम्बन्धि महद्वा विशिष्ट औपम्यमुपमा दृष्टान्त इत्यर्थः 'चिरातीताए अदाए'त्ति चिरमतीते काले 'उचावय'त्ति उच्चावचा-उत्तमानुत्तमाः 'अस्थत्यि'त्ति द्रव्यप्रयोजनाः, कुत एवम् ? इत्याह-अस्थलुद्ध'त्ति द्रव्यलालसाः अत एव 'अस्थगवेसिय'त्ति, अर्थगवेषिणोऽपि कुत इत्याह-अत्यखिय'त्ति प्राप्तेऽप्यर्थेऽविच्छिन्नेच्छाः, 'अस्थपि-12 वासिय'त्ति अप्राप्तार्थविषयसञ्जाततृष्णाः, यत एवमत एवाह-अत्थगवेसणयाए इत्यादि, 'पणियभंडे'त्ति पणित-||
॥६७११ व्यवहारस्तदर्थं भाण्ड पणितं वा-याणकं तद्पं भाण्डे न तु भाजनमिति पणितभाण्ड 'सगडीसागडेणं'ति शकव्योगन्त्रिकाः शकटानां-गन्त्रीविशेषाणां समूहः शाकर्ट ततः समाहारद्वन्द्वोऽतस्तेन 'भत्तपाणपत्थयण'ति भक्तपानरूपं यत्स
अनुक्रम [६४५६४७]
SAKESARKARKAKAS
weredturary.com
गोशालक-चरित्रं
~251
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४७-५४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५४७-५४९]
थ्यदन-शम्बल तत्तथा, 'अगामिय'ति अनामिकां अकामिकां वा-अनभिलाषविषयभूताम् 'अणोहिय'ति अविद्यमानज-18 दि.|लौधिकामतिगहननाविद्यमानोहां वा 'छिन्त्रावाय'ति व्यवच्छिन्नसार्थघोषाद्यापातां 'दीहमद्धं ति दीर्घमार्गा दीर्घकाला याद
'किण्हं किण्होभासं' इह यावत्करणादिदं दृश्य-नीलं नीलोभासं हरियं हरिओभास'मित्यादि, व्याख्या चास्य
प्राग्वत्, 'महेगंवम्मीयं ति महान्तमेकं वल्मीक 'बप्पुओ'त्ति वधूषि-शरीराणि शिखराणीत्यर्थः 'अम्भुग्गयाओ'त्ति अभ्यु-४॥ दादतान्यनोद्गतानि वोच्चानीत्यर्थः 'अभिनिसढाओत्ति अभिविधिना निर्गताः सटा:-तदवयवरूपाः केशरिस्कन्धसटावद्
येषां तान्यभिनिःशटानि, इदं च तेषामूर्द्धगतं स्वरूपमथ तिर्यगाह-'तिरियं सुसंपगहियाओ'ति 'सुसंप्रगृहीतानि'
सुसंवृतानि नातिविस्तीर्णानीत्यर्थः, अधः किंभूतानि ? इत्याह-'अहे पणगद्धरूवाओ'त्ति सर्पार्द्धरूपाणि यादृशं पन्नगहस्योदरच्छिन्नस्य पुग्छत जीकृतमीमधो विस्तीर्णमुपर्युपरि चातिश्लक्ष्णं भवतीत्येवं रूपं येषां तानि तथा, पन्नगार्द्धरूपाणि | चर्वणादिनाऽपि भवन्तीत्याह-पन्नगद्धसंठाणसंठियाओ'त्ति भावितमेव । 'ओरालं उद्गरयणं आसाइस्सामोत्ति | अस्यायमभिप्रायः-एवंविधभूमिगते किलोदक भवति वल्मीके चावश्यम्भाविनो गरौः अतः शिखरभेदे गर्तः प्रकटो भवि-13 प्यति तत्र च जलं भविष्यतीति, 'अच्छति निर्मलं 'पत्धं ति पथ्यं-रोगोपदामहेतुः 'जति जात्य संस्काररहितं 'तणुयति तनुकं सुजरमित्यर्थः 'फालियरपणाभंति स्फटिकवर्णवदाभा यस्य तत्तथा, अत एव 'ओरालं'ति प्रधानम् 'उद
गरयणं'ति उदकमेव रत्नमुदकरनं उदकजातौ तस्योत्कृष्टत्वात् , 'वाहणाई पल्जेति'त्ति बलीव दिवाहनानि पाययन्ति है। द'अच्छं'ति निर्मलं 'जति अकृत्रिम 'तावणिज्जति तापनीयं तापसह 'महत्थं'ति महाप्रयोजनं 'महग्छ ति महामूल्यं
दीप
ESSACASSACREArea
अनुक्रम [६४५६४७]
गोशालक-चरित्रं
~252
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४७-५४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५४७-५४९]
दीप
व्याख्या-18 महरिहंति महतां योग्यं 'विमलं'ति विगतागन्तुकमत 'निम्मलं'ति स्वाभाविकमलरहितं 'नित्तलं'ति निस्तलमसिव-१५ गोशाप्रज्ञप्तिः त्तमित्यर्थः 'निकालं'ति निष्कलं त्रासादिरलदोषरहितं 'वहररयण ति वज्राभिधानरम, 'हियकामए'त्ति इह हितं- लकशत अभयदेवी- अपायाभावः 'मुहकामए'त्ति सुख-आनन्दरूपं पत्थकामएत्ति पथ्यमिव पथ्यं-आनन्दकारणं वस्तु 'आणुकंपिए'त्ति अनु
पणिग्दृष्टाया वृत्तिः
न्तादि कम्पया चरतीत्यानुकम्पिका 'निस्सेयसिए'त्ति निःश्रेयसं यन्मोक्षमिच्छतीति नैःश्रेयसिकः, अधिकृतवाणिजस्योक्तरेव गुणैः ॥६ ॥ कैश्चिद्युगपद्योगमाह-हिए'त्यादि,'तं होउ अलाहि पज्जतंणे'त्ति तत्-तस्माद् भवतु अलं पर्याप्तमित्येते शब्दाः प्रतिषेधवाच
काकत्वेनैकाथों आत्यन्तिकप्रतिषेधप्रतिपादनार्थमुक्ताःणे तिन:-अस्माकं सवसग्गा यावि'त्ति इह चापीति सम्भावनार्थः,'उ- 18 ग्गविसं ति दुर्जरविर्ष 'चंडविसं ति दष्टकनरकायस्य झगिति व्यापकविषं 'घोरविसं ति परम्परया पुरुषसहस्रस्यापि हननसम
थविष 'महाविषति जम्बूद्वीपप्रमाणस्यापि देहस्य व्यापनसमर्थविषम् 'अइकायमहाकाय'ति कायान् शेषाहीनामतिक्रान्तोऽसिकायोऽत्त एव महाकायस्ततः कर्मधारयः, अथवाऽतिकायानांमध्ये महाकायोऽतिकायमहाकायोऽतस्तं, 'मसिमूसाकालग'त्ति मपी-कज्जलं भूषा प-सुवर्णादितापनभाजनविशेषस्ते इव कालको यः स तथा तं 'नयणविसरोसपुतं'ति नय| नविषेण-रष्टिविषेण रोषेण च पूणों यः स तथा तम् 'अंजणपुंजनिगरप्पगासंति अञ्जनपुञ्जानां निकरस्येव प्रकाशोदीप्तिर्यस्य स तथा तं, पूर्व कालवर्णत्वमुक्तमिह तु दीप्तिरिति न पुनरुक्ततेति, 'रत्तच्छं'ति रक्ताक्षं 'जमलजुयलचंचल- ॥६७२॥ चलंतजीहति जमलं-सहवर्ति युगलं-वयं चञ्चलं यथा भवत्येवं चलन्त्योः -अतिचपलयोर्जियोर्यस्य स तथा तं, प्राकृ| तत्वाश्चैवं समासः, 'धरणितलवेणिभूयति धरणीतलस्य वेणीभूतो-वनिताशिरसः केशबन्धविशेष इव यः कृष्णत्वदी
अनुक्रम [६४५६४७]
+
5-2
weredturary.com
गोशालक-चरित्रं
~253
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४७-५४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५४७-५४९]
दीप
धत्वश्लक्ष्णपश्चादागत्वादिसाधास तथा तम् 'उकडफुडकुडिलजडुलकक्खडवियडफडाडोवकरणदच्छंति उत्क-13 | टो बलवताऽन्येनाध्वंसनीयत्वात् स्फुटो-व्यक्तः प्रयत्नविहितत्वात् कुटिलो-बक्रस्तत्स्वरूपत्वात् जटिल:-स्कन्धदेशे केशरिणामियाहीनां केसरसद्भावात् कर्कशो-निष्ठुरो बलवत्त्वात् विकटो-विस्तीर्णो यः स्फटाटोपः-फणासंरम्भस्तत्करणे दक्षो यः
स तथा तं 'लोहागरधम्ममाणधमधमेंतघोसंति लोहस्येवाकरे ध्मायमानस्य-अग्निना ताप्यमानस्य धमधमायमानोX धमधमेतिवर्णव्यक्तिमिवोत्पादयन् घोषः-शब्दो यस्य स तथा तम्, 'अणागलियचंडतिघरोसं ति अनिर्गलितः-अनि
वारितोऽनाकलितो काऽपमेयश्चण्डः तीव्रो रोषो यस्य स तथा तं, 'समुहियतुरियचवलं धमत'ति शुनो मुखं श्वमुखं तस्येवाचरणं श्वमुखिका-कोलेयकस्येव भषणं तां त्वरितं च चपलमतिचटुलतया धमन्तं-शब्दं कुर्वन्तमित्यर्थः 'सरसरसरस| रस्स'त्ति सर्पगतेरनुकरणम् 'आइचं निनायइति आदित्यं पश्यति दृष्टिलक्षणविषस्य तीक्ष्णता) 'सभंडमत्तोवग-1 रणमायाय'त्ति सह भाण्डमात्रया-पणितपरिच्छदेन उपकरणमात्रया च येते तथा, 'एगाहचंति एका एव आहत्या-आह
ननं प्रहारो यत्र भस्मीकरणे तदेकाहत्यं तद्यथा भवत्येवं, कथमिव ? इत्याह-'कूडाहचंति कूटस्येव-पाषाणमयमारण४ महायन्त्रस्येवाहत्या-आहननं यत्र तत् कूटाहत्यं तद्यथा भवतीत्येवं, 'परियाए'त्ति पर्यायः-अवस्था 'कित्तिवन्नसद्दसिद लोग'त्ति इह वृद्धव्याख्या-सर्वदिग्व्यापी साधुवादः कीर्तिः एकदिग्व्यापी वर्णः अर्द्धदिग्व्यापी शब्दः तत्स्थान एव श्लोकः
श्लाघेतियावत् 'सदेवमणुयासुरे लोए' ति सह देवैर्मनुजैरसुरैश्च यो लोको-जीवलोकः स तथा तत्र, 'पुति'त्ति 'प्लवन्ते'. 18|| गच्छन्ति 'पङ्गती' इति वचनात् 'गुवंति' 'गुप्यन्ति' व्याकुलीभवन्ति 'गुप व्याकुलस्वे' इति वचनात् 'थुवंति'त्ति कचित्तत्र |
अनुक्रम [६४५६४७]
गोशालक-चरित्रं
~254
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५४७-५४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
लकशते
प्रत सूत्रांक [५४७-५४९]
सू५५०
॥६७३॥
दीप
व्याख्या-18|| 'स्तूयन्ते' अभिष्ट्रयन्ते-अभिनन्यन्ते, कचित् परिभमन्तीति दृश्यते, व्यक्तं चैतदिति, एतदेव दर्शयति-पति खल्वि'- १५गोशा प्रज्ञप्तिः त्यादि, इतिशब्दः प्रख्वातगुणानुवादनार्थः, 'तंति तस्मादिति निगमनं, 'तवेणं तेएण'ति तपोजन्यं तेजस्तप एव वा तेन अभयदेवी-'तेजसा' तेजोलेश्यया 'जहा वा वालेणं'ति यथैव 'व्यालेन' भुजगेन 'सारक्वामिति संरक्षामि दाहभयात् 'संगो-11 या वृत्तिः२ वयामित्ति संगोपयामि क्षेमस्थानप्रापणेन।
परिहार । जावं च णं आणंदे धेरे गोयमाईणं समणाणं निग्गंधाणं एयमढ परिकहेइ तावं च णं से गोसाले मखपुर
हालाह. कु. कुंभकारावणाओ पडिनि० पडिनि० आजीवियसंघसंपरिखुडे महया अमरिसं वहमाणे 13 सिग्धं तुरियं जाव सावधि नगरि मज्झमझेणं निग्ग०२ जेणेव कोट्ठए चेइए जेणेव समणे भ० महा०
तेणेव उवा०ते०२ समणस्स भ० म० अदूरसामंते ठिच्चा समर्ण भ. महा० एवं बयासी-सुङ णं आउसो कासवा ! ममं एवं बयासी साह णं आउसो ! कासवा ! मम एवं क्यासी-गोसाले मंखलिपुरसे मम धम्म-* तेवासी गोसाले०२, जेणं से मंखलिपुत्ते तव धम्मंतेवासी से णं सुके सुकाभिजाइए भवित्ता कालमासे ||
॥६७३॥ कालं किचा अन्नपरेसु देवलोएम देवत्ताए उवबन्ने, अहनं उदाइनाम कुंडियायणीए अजुणस्स गोषमपुत्रास्स टू
सरीरगं विप्पजहामि, अ०२ गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं अणुप्पविसामि गो०२इमं सत्तम पउट्टप-14 1.रिहारं परिहरामि, जेवि आई आउसो ! कासवा! अम्हं समयंसि के सिझिसु वा सिझंति वा सिज्झिरस्संति वा स ते चउरासीतिं महाकप्पसयसहस्साई सत्त दिवे सत्त संजूहे सत्त संनिगन्भे सत्त पउप
XHOXSARSAXASS
अनुक्रम [६४५६४७]]
गोशालक-चरित्रं
~255
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५०]
रिहारे पंच कम्मणि सयसहस्साई सद्धिं च सहस्साई छच्च सए तिन्नि य कम्मसे अणुपुत्वेणं खवइत्ता तो
पच्छा सिझंति बुझंति मुचंति परिनिवाइंति सबदुक्खाणमंतं करेंसु वा करेंति वा करिस्संति वा, से जहा दिवा गंगा महानदी जओ पवूढा जहिं वा पजुवत्थिया एस णं अपंचजोयणसपाई आयामेणं अजोयणं ।
विक्खंभेणं पंच धणुसयाई उवेहेणं एएणं गंगापमाणेणं सत्त गंगाओ सा एगा महागंगा सत्त महागंगाओ| |सा एगा सादीणगंगा सत्त सादीणगंगाओ सा एगा मचुगंगा सत्त मधुगंगाओ सा एगा लोहियगंगा सत्त लोहियगंगाओ सा एगा आवतीगंगा सत्स आवतीगंगांओ सा एगा परमावती एवामेव सपुचावरेणं एगं| गंगासयसहस्सं सत्तर सहस्सा छचगुणपन्नगंगासया भवंतीति मक्खाया, तार्सि दुविहे उद्धारे पपणते, संजहा-सुहुमबोंदिकलेवरे चेव बायरबोंदिकलेचरे चेव, तत्थ णं जे से सुहमयोंदिकलेवरे से ठप्पे तत्थ णं जे से बायरबोंदिकलेवरे तो णं वाससए २ गए २ एगमेगं गंगावालुयं अवहाय जावतिएणं कालेणं से कोडे | खीणे णीरए निल्लेवे निहिए भवति सेसं सरे सरप्पमाणे, एएणं सरप्पमाणेणं तिनि सरसयसाहस्सीओ से एगे महाकप्पे चउरासीइ महाकप्पसयसहस्साई से एगे महामाणसे, अणंताओ संजूहाओ जीवे चर्य चइत्सा उवरिल्ले माणसे संजूहे देवे उववजति, से णं तत्थ दिवाइंभोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ विहरिता ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता पढमे सन्निगन्भे जीवे पञ्चायाति, से ण तओहिंतो अणंतरं उपट्टित्ता मज्झिल्ले माणसे संजूहे देवे उववजइ, से णं तत्थ दिवाई भोगभोगाईजाव|
दीप अनुक्रम [६४८]
SSCMAHARSEX69
For P
OW
गोशालक-चरित्रं
~256
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५०]
दीप अनुक्रम [६४८]
व्याख्या-विहरिता ताओ देवलोयाओ आउ० ३ जाव चहत्ता दोचे सन्निगन्भे जीवे पञ्चायाति, से णं तओहितो १५गोशा
प्रज्ञप्तिः अणंतरं उच्चहित्ता हेहिल्ले माणसे संजूहे देवे उववजइ, से णं तत्थ दिवाई जाव चइता तचे सन्निगन्भे जीवेलकशते अभयदेवी-४ पचायाति, सेणं तओहिंतो जाव उच्चट्टित्ता उवरिल्ले माणुसुत्तरे संजूहे देवे उववजिहिति, से णं तत्थ दिवाई परावृत्तयावृत्तिः२
सद भोग जाव चइत्ता चउत्थे सन्निगम्भे जीवे पञ्चायाति, से णं तओहितो अणंतरं उदहित्ता मज्झिल्ले माणुसुत्तरे । परिहारः ॥६७४॥
संजूहे देवे उबवज्जति, से णं तत्थ दिवाई भोग जाव चइत्ता पंचमे सन्निगम्भे जीवे पचायाति, से णं तओ-18| सू ५५० 18 हितो अणंतरं उद्यहित्ता हिडिल्ले माणुसुत्तरे संजूहे देवे उववजति, से णं तत्थ दिवाई भोग जाव चइत्ता छ88
सन्निगन्भे जीवे पञ्चायाति, से णं तओहितो अणंतरं उववाहित्ता बंभलोगे नाम से कप्पे पन्नत्ते पाईणपडीPणायते उदीणदाहिणविच्छिन्ने जहा ठाणपदे जाच पंच बडेंसगा पं०, तंजहा-असोगवडेंसए जाव पडिरूवा, 8 से तत्थ देचे उचबज्जइ, से णं तस्थ दस सागरोवमाई दिवाई भोग जाव चइता सत्तमे सनिगम्भे जीवे | पञ्चायाति, से णं तत्थ नवण्ह मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाण जाब चीतिकंताणं सुकुमालगभद्दलए मिउ| कुंडलकुंचियकेसए मट्ठगंडतलकन्नपीढए देवकुमारसप्पभए दारए पयायति, से णं अहं कासवा, तेणं अहंका
|आउसो! कासवा ! कोमारियपबजाए कोमारएणं बंभचेरवासेणं अविद्धकन्नए चेव संखाणं पडिलभामि सं० IC||२ इमे सत्त पउट्टपरिहारे परिहरामि, तंजहा-एणेजगस्स मल्लरामस्स मल्लमंडियस्स रोहस्स भारदाइस्स अज्जु-II
णगस्स गोयमपुत्तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स, तत्थ णं जे से पढमे पउपरिहारे से णं रायगिहस्स नग
ID
गोशालक-चरित्रं
~257
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५०]
| रस्स पहिया मंडियकुञ्छिसि चेइयंसि उदाइस्स कुंडियायणस्स सरीरं विप्पजहामि उदा०२ एणेज्जगस्स
सरीरगं अणुप्पविसामि एणे०२ यावीसं वासाई पढम पउपरिहारं परिहरामि, तत्थ णं जे से दोने पउपरिहारे से उइंडपुरस्स नगरस्स बहिया चंदोयरणंसि चेइयंसि एणेज्जगस्स सरीरगं विप्पजहामि २त्सा एणे. | मल्लरामस्स सरीरगं अणुप्पविसामि मल्ल २ एकवीसं वासाई दोचं पउद्दपरिहारं परिहरामि, तत्थ पंजे से तच्चे पउपरिहारे से ण चपाए नगरीए बहिया अंगमंदिरंमि चेइयंसि मल्लरामस्स सरीरगं विप्पजहामि । मल्ल मंडियस्स सरीरगं अणुप्पविसामि मल्लमंडि०२ वीसं वासाई तयं पउट्टपरिहारं परिहरामि, तत्थ णजे से चउत्थे पउहपरिहारे से णं वाणारसीए नगरीए बहिया काममहावणसि चेइयंसि मंडियस्स सरीरगं विप्पजहामि मंडि०२ रोहस्स सरीरगं अणुप्पविसामि, रोह. २ एकूणवीसं वासाइ य चउत्थं पउपरिहारं परि| हरामि, तत्थ णं जे से पंचमे पउपरिहारे से णं आलभियाए नगरीए बहिया पत्तकालगयंसि चेहयंसि 18| रोहस्स सरीरगं विप्पजहामि रोह०२भारहाइस्स सरीरगं अणुप्पविसामि भा०२ अट्ठारस वासाई पंचम
पउट्टपरिहारं परिहरामि, तत्थ णं जे से छठे पउपरिहारे से णं वेसालीए नगरीए यहिया कोंडियायणंसि चेइयंसि भारदाइयस्स सरीरं विप्पजहामि भा०२ अजुणगस्स गोषमपुत्तस्स सरीरगं अणुप्पषिसामि अ०
२ सत्तर वासाई छटुं पउपरिहारं परिहरामि, तत्थ णं जे से सत्तमे पउपरिहारे से णं इहेब सावत्थीए दिनगरीए हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि अजणगस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विप्पजहामि अजुणयस्स|
दीप अनुक्रम [६४८]
ASEARCRARAN
गोशालक-चरित्रं
~258~
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [५५०]
व्याख्या-1 गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं अलं थिर धुवं धारणिजं सीयसह उपहसहं खुहासह विविहवंसमसग-1|१४ गोशाप्रज्ञप्तिः परीसहोवसग्गसहं थिरसंघयणंतिकट्ठ तं अणुप्पविसामि तं०२तं से णं सोलस वासाई इमं सत्तमं पउट्ट- लकशत अभयदेवी- परिहारं परिहरामि, एवामेव आउसो ! कासवा! एगणं तेत्तीसेणं वाससएणं सत्त पउपरिहारा परिहरिया
परावृत्तया वृत्तिः भवंतीति मक्खाया, तं सुहणं आजसो कासवा! ममं एवं बयासी साधु णं आउसो ! कासवा! मम ||
परिहारः
सू ५५० ॥६७५॥
|| एवं बयासी-गोसाले मंखलिपुत्ते ममं धम्मंतेवासिसि गोसाले०२(मूत्रं ५५०)॥
'पभुत्ति प्रभविष्णुर्गोशालको भस्मराशिं कर्तुम् ? इत्येकः प्रश्नः, प्रभुत्वं च द्विधा-विषयमात्रापेक्षया तत्करणतश्चेति पुनः पृच्छति-विसए णमित्यादि, अनेन च प्रथमो विकल्पः पृष्टः, 'समत्थे ण'मित्यादिना तु द्वितीय इति, 'पारिताव|णियंति पारितापनिकी क्रियां पुनः कुर्यादिति । 'अणगाराणं ति सामान्यसाधूनां 'खंतिक्खम'त्ति क्षान्त्या-क्रोधनिग्रहेण क्षमन्त इति क्षान्तिक्षमाः 'धेराणं ति आचार्यादीनां वयःश्रुतपर्यायस्थविराणां । 'पडिचोयणाए'त्ति तन्मतप्रतिकूला
चोदना-कर्त्तव्यप्रोत्साहना प्रतिचोदना तया 'पडिसाहरणाए'त्ति तन्मतप्रतिकूलतया विस्मृतार्थस्मारणा तया, किमुक्त| 2 || भवति ?-'धम्मिएण'मित्यादि, 'पडोयारेणं'ति प्रत्युपचारेण प्रत्युपकारेण वा 'पडोयारेज'त्ति 'प्रत्युपचारयतु प्रत्युप- ॥६७५|| दिचारं करोतु एवं प्रत्युपकारयतु वा 'मिच्छ विपडिवन्ने त्ति मिथ्यात्वं म्लेच्छ्यं वा-अनार्यत्वं विशेषतः प्रतिपन्न इत्यर्थः।
'मुटु णं'ति उपालम्भवचनम् 'आउसो'त्ति हे आयुष्मन् !-चिरप्रशस्तजीवित ! 'कासव'त्ति काश्यपगोत्रीय ! 'सत्तम || पउपरिहारं परिहरामि'त्ति सप्तमं शरीरान्तरप्रवेश करोमीत्यर्थः, 'जेवि आईति येऽपि च 'आई'ति निपातः 'चउ-18
दीप अनुक्रम [६४८]
***XXSKG***
Minasurary.com
गोशालक-चरित्रं
~259~
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५०]
रासीई महाकप्पसयसहस्साई'इत्यादि गोशालकसिद्धान्तार्थः स्थाप्यो, वृद्धैरप्यनाख्यातत्वात् , आह च चूर्णिकार:
संदिद्धत्ताओ तस्स सिद्धतस्स न लक्खिजइत्ति तथाऽपि शब्दानुसारेण किंश्चिदुच्यते-चतुरशीतिमहाकल्पशतसहसाम्राणि क्षपयित्वेति योगः, तत्र कल्पा:-कालविशेषाः, ते च लोकप्रसिद्धा अपि भवन्तीति तद्व्यवच्छेदार्थमुक्तं महाकल्पा-13 दो वक्ष्यमाणस्वरूपास्तेषां यानि शतसहस्राणि-लक्षाणि तानि तथा, 'सत्त दिवे'त्ति सप्त 'दिव्यान्' देवभवान् 'सत्त संजूहे'त्ति || * सप्त संयूथान-निकायविशेषान् , 'सत्त सन्निगन्भेत्ति सज्ञिगर्भान-मनुष्यगर्भवसती, एते च तन्मतेन मोक्षगामिनां सप्त
सान्तरा भवन्ति वक्ष्यति चैवैतान स्वयमेवेति, 'सत्त पउट्टपरिहारे त्ति सप्त शरीरान्तरप्रवेशान , एते च सप्तमसजिगर्भा- | नन्तरं क्रमेणावसेयाः, तथा 'पंचे'त्यादाविदं संभाव्यते 'पंच कम्मणि सयसहस्साई ति कर्मणि-कर्मविषये कर्मणामित्यर्थः पञ्च शतसहस्राणि लक्षाणि 'तिन्नि य कम्मंसित्ति त्रींश्च कर्मभेदान 'खवइत्तत्ति 'क्षपयित्वा' अतिवाह्य । 'से जहे त्यादिना महाकल्पप्रमाणमाह, तत्र 'से जहा बत्ति महाकल्पप्रमाणवाक्योपन्यासार्थः 'जहिं वा पजुबत्थियत्ति यत्र गत्वा परि-सामस्त्येन उपस्थिता-उपरता समाप्ता इत्यर्थः 'एस णं अद्ध'त्ति एष गङ्गाया मार्गः 'एएणं गंगापमाणेणं'ति गङ्गायास्सन्मार्गस्य चाभेदाङ्गाप्रमाणेनेत्युक्तम् 'एचामेव'त्ति उक्तेनैव क्रमेण 'सपुषावरेणं'ति सह पूर्वेण गादिना यदपरं महागङ्गादि तत् सपूर्वापरं तेन भाषप्रत्ययलोपदर्शनात्सपूर्वापरतयेत्यर्थः । 'तासिं दुविहे'इत्यादि, तासां गङ्गादीनां गङ्गादिगतवालुकाकणादीनामित्यर्थः द्विविध उद्धारः उद्धरणीयद्वैविध्यात्, 'सुहमयोंदिकलेवरे चेवत्ति सूक्ष्मबोन्दीनि-15 | सूक्ष्माकाराणि कलेवराणि-असङ्ख्यातखण्डीकृतवालुकाकणरूपाणि यत्रोद्धारे स तथा 'बायरबोंदिकलेवरे चेय'त्ति [ग्रन्था-12
दीप अनुक्रम [६४८]
गोशालक-चरित्रं
~260
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५०]
व्याख्या- ग्रम् १४०००] बादरबोन्दीनि-बादराकाराणि कलेवराणि-वालुकाकणरूपाणि यत्र तथा, 'ठप्पे'त्ति न व्याख्येयः इतरस्तु १५गोशामज्ञप्तिः
|| व्याख्येय इत्यर्थः 'अवहाय'ति अपहाय-त्यक्त्वा 'से कोट्टे'त्ति स कोष्ठो-गङ्गासमुदायात्मकः वीणे'त्ति क्षीणः स चाव- लकशतेअभयदेवी
| शेषसद्भावेऽप्युच्यते यथा क्षीणधान्य कोष्ठागारमत उच्यते 'नीरएत्ति नीरजाः स च तद्भूमिगतरजसामध्यभावे उच्यते | परावृत्तया वृत्तिः इत्याह-'निल्लेचे'त्ति निर्लेपः भूमिभित्यादिसंश्लिष्टसिकतालेपाभावात् , किमुक्तं भवति ?--निष्ठितः' निरवयवीकृत इति ।
परिहारः १६७६॥ 'सेत्तं सरे'त्ति अर्थ तत्तावत्कालखण्डं सर:-सरःसझं भवति मानससझं सर इत्यर्थः 'सरप्पमाणे'त्ति सर एवोक्तलक्षणं 8
दि प्रमाण-वक्ष्यमाणमहाकल्पादेर्मानं सराप्रमाणं 'महामाणसे'त्ति मानसोत्तरं, यदुक्तं चतुरशीतिमहाकल्पशतसहस्राणीति
तत्प्ररूपितम् , अथ सप्तानां दिव्यादीनां प्ररूपणायाह-'अणंताओ संजूहाओ'त्ति अनन्तजीवसमुदायरूपानिकायात् ।
'चयं चहत्त'त्ति च्यवं च्युत्वा-च्यवनं कृत्वा चयं वा-देहं 'चइत्त'त्ति त्यक्त्वा 'उवरिल्ले त्ति उपरितनमध्यमाधस्तनानां दि|| मानसानां सद्भावात् तदन्यव्यवच्छेदायोपरितने इत्युक्तं 'माणसे त्ति गङ्गादिप्ररूपणतः प्रागुक्तस्वरूपे सरसि सर प्रमाणा
युष्कयुक्त इत्यर्थः 'संजूहे'त्ति निकायविशेषे देवे 'उववजह'त्ति प्रथमो दिव्यभवः सज्ञिगर्भसङ्ख्यासूत्रोक्त एव, एवं त्रिषु । मानसेषु संयूथेष्वाद्यसंयूथसहितेषु चत्वारि संयूथानि त्रयश्च देवभवाः, तथा 'मानसोत्तरे'त्ति महामानसे पूर्वोक्तमहाकल्प
॥६७६॥ प्रमितायुष्कवति, यच्च प्रागुक्तं चतुरशीतिं महाकल्पान शतसहस्राणि क्षपयित्वेति तत्प्रथममहामानसापेक्षयेति द्रष्टव्यं, अन्यथा त्रिषु महामानसेषु बहुतराणि तानि स्युरिति, एतेषु चोपरिमादिभेदात्रिषु मानसोत्तरेषु त्रीण्येव संयूथानि वयश्च देवभवाः, आदितस्तु सप्त संयूथानि षट् च देवभवाः, सप्तमदेवभवस्तु ब्रह्मलोके, स च संयूथं न भवति, सूत्रे संयूथत्वेनानभिहित
RECTORICA
दीप अनुक्रम [६४८]
455
गोशालक-चरित्रं
~261
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५०]
दीप अनुक्रम [६४८]
त्वादिति, 'पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिन्नेत्ति इहायामविष्कम्भयोः स्थापनामात्रस्वमवगन्तव्यं तस्य प्रतिपूर्ण
चन्द्रसंस्थानसंस्थितत्वेन तयोस्तुल्यत्वादिति 'जहा ठाणपए'त्ति ब्रह्मलोकस्वरूपं तथा वाच्यं यथा 'स्थानपदे' प्रज्ञापना-2 ४ द्वितीयप्रकरणे, तश्चैव-पडिपुन्नचंदसंठाणसंठिए अचिमाली भासरासिप्पभे'इत्यादि, 'असोगव.सए' इत्यत्र ४ यावत्करणात् 'सत्तिवनवडेसए चंपगवडेंसए चूयवडेंसए मज्झे य बंभलोयव.सए'इत्यादि श्य, 'सुकुमालगभद्दलए'त्ति सुकुमारकश्चासौ भद्रश्च-भद्रमूर्तिरिति समासः, लकारककारौ तु स्वार्थिकाविति, 'मिउकुंडलकुंचियकेसए'त्ति मृदवः ।
कुण्डलमिव-दर्भादिकुण्डलकमिव कुञ्चिताश्च केशा यस्य स तथा 'महगंडतलकण्णपीढए'त्ति मृष्टगण्डतले कर्णपीठके-कर्णा-18 दभरणविशेषौ यस्य स तथा, 'देवकुमारसप्पभए'त्ति देवकुमारवत्सप्रभः देवकुमारसमानप्रभोवा यः स तथा कशब्दः स्वार्थिक
इति, कोमारियाए पछज्जाए'त्ति कुमारस्येयं कौमारी सैव कौमारिकी तस्यां प्रवज्यायां विषयभूतायां सङ्ख्यान-धुद्धिं प्रतिलेभ
इति योगः 'अविद्धकन्नए चेव'त्ति कुश्रुतिशलाकयाऽविद्धकर्णः-अव्युत्पन्नमतिरित्यर्थः । 'एणेजस्से त्यादि, इहैणकादयः8 है पञ्च नामतोऽभिहिताः द्वौ पुनरन्त्यौ पितॄनामसहिताविति । 'अलं थिरति अत्यर्थं स्थिरं विवक्षितकालं यावदवश्यस्थायि
त्वात् 'धुवंति ध्रुवं तद्गुणानां ध्रुवत्वात् अत एवं धारणिज्जति धारयितुं योग्यम् , एतदेव भावयितुमाह-'सीए'इत्यादि, 8 एवंभूतं च तत् कुतः ? इत्याह-'थिरसंघयणं'ति अविघटमानसंहननमित्यर्थः 'इतिकट्ठत्ति 'इतिकृत्वा' इतिहेतो-४ द स्तदनुप्रविशामीति ।
तए णं समणे भगवं महावीरे गोसाल मंखलिपुत्तं एवं वयासी-गोसाला ! से जहानामए-तेणए सिया
गोशालक-चरित्रं
~262
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५१-५५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५१-५५६]
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
॥६७७॥
दीप अनुक्रम [६४९-६५४]
-ACSCGAR
|गामेल्लएहि परम्भमाणे प०२ कत्थय गहुं वा दरिं वा दुग्गं वा णिन्न वा पचयं वा विसमं वा अणस्सादेमाणे १५ गोशा| एगेणं महं उन्नालोमेण वा सणलोमेण वा कप्पासपम्हेण वा तणमूएण वा अत्ताणं आवरेत्ताणं चिडेजा से हालकशते णं अणावरिए आवरियमिति अप्पाणं मन्नइ अप्पच्छपणे य पच्छण्णमिति अप्पाणं मन्नति अणिलुके णिलुन- स्तेनदृष्टामिति अप्पाणं मन्नति अपलाए पलायमिति अप्पाणं मन्नति एवामेव तुमंपि गोसाला! अणन्ने संते अन्न
शान्तः आक्रोमिति अप्पाणं उपलभसि तं मा एवं गोसाला ! नारिहसि गोसाला! सचेच ते सा छाया नो अमा (सूत्रं
|शःतेजोले
श्यामोचन ५५१)। तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते ५ समणंद
सू ५५१भगवं महावीरं उच्चावयाहिं आउसणाहिं आउसति उचा० २ उच्चावयाहिं उद्धंसणाहिं उद्धंसेति उद्धंसेत्सा | ५५३ उचावयाहिं निम्भंछणाहिं निम्भंछेति उ०२ उच्चावयाहिं निच्छोडणाहिं निछोडेति उ०२एवं बयासी-जडेसि कदाइ विणद्वेसि कदाइ भट्ठोऽसि कयाइ नट्ठविणडे भट्टेसि कदायि अज्ज ! न भवसि नाहि ते ममाहितो ट्र सुहमस्थि (सूत्र ५५२)। तेणं कालेणं २ समणस्स भगवओ म. अंतेवासी पाईणजाणवए सवाणुभूती णामं अणगारे पगहभद्दए जाव विणीए धम्मायरियाणुरागणं एयमझु असदहमाणे उट्ठाए उद्वेति ७०२|| जेणेच गोसाले मंखलिपुत्से तेणेव उवा०२ गोसालं मखलिपुत्तं एवं वयासी-जेवि ताव गोसाला! तहारू- ६७७॥ | चस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतियं एगमवि आयरियं धम्मियं सुषपणं निसामेति सेवि ताव वंदति | नर्मसति जाव कल्लाणं मंगलं देवयं चेदयं पज्जुवासह किमंग पुण तुर्म गोसाला! भगवया चेव पदाविए भग-1
गोशालक-चरित्रं
~263
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[५५१
-५५६]
दीप
अनुक्रम [६४९
-६५४]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र -५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५१-५५६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
वया चैव मुंडाविए भगवया चेव सेहाविए भगवया चैव सिक्खाविए भगवया चैव बहुस्सुतीकए भगवओ वेव मिच्छ विप्पविन्ने, तं मा एवं गोसाला ! नारिहसि गोसाला ! सचैव ते सा छाया नो अन्ना, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सवाणुभूतिणामं अणगारेणं एवं वृत्ते समाणे आसुरुते ५ सवाणुमूर्ति अणगारं तवेणं तेएणं एगाहचं कूडाचं जाब भासरासिं करेति, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सवाणुमूर्ति अणगारं तवेणं तेएणं एगाहचं कुडाहचं जाव भासरासिं करेना दोघंपि समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहिं आउसणाहिं आउसइ जाव सुहं नत्थि । तेणं कालेणं २ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी कोसलजाणवए सुणक्खते णामं अणगारे पगहमदए विणीए धम्मायरियाणुरागेणं जहा सवाणुभूती तहेब जाव सचैव ते सा छाया नो अन्ना । तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सुणक्खत्तेणं अणगारेण एवं युक्ते समाणे आसुरुते ५ सुनक्खतं अणगारं तवेणं तेएणं परितावे, तए णं से सुनक्खसे अणगारे गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं तवेणं तेपणं परिताविए समाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेष उवागच्छ २ समणं भगवन्तं महावीरं तिक्खुत्तो २ बंदर नमसह २ सयमेव पंच महवयाई आरुभेति स० २ समणाय समणीओ य खामेइ सम० २ आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते आणुपुवीर कालगए। तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सुनक्खत्तं अणगारं तवेणं तेएणं परितावेसा तपि समणं भगवं महावीरं उच्चावयाहिं आउसणाहिं आउसति स तं चैव जाव सुहं नत्थि । तए जं समणे भगर्व महावीरे गोसालं मंखलिपुतं एवं वयासी-जेवि ताव गोसाला ! तहारूवस्त समणस्स वा माहणस्स
Education Internation
गोशालक चरित्रं
For Parts Only
~264~
www.andrary.org
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५१-५५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५१-५५६]
दीप
व्याख्या-13 वा तं चेव जाव पज्जुवासेह, किमंग पुण गोसाला! तुम मए चेव पवाविए जावमए चेव बहुस्सुईकए ममं चेव मिच्छ १५ गोशाप्रज्ञप्तिः विप्पडिबन्ने ?,तं मा एवं गोसाला! जाव नो अन्ना, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेणं भगवया महावी-16 लकशते अभयदेवी-|| रेणं एवं वृत्ते समाणे आसुरुत्ते ५ तेयासमुग्घाएणं समोहन्नइ तेपा० सत्तट्ठ पयाई पचोसका २ समणस्स | तेजोलेश्याया वृत्तिः भगवओ महावीरस्स वहाए सरीरगंसि तेयं निसिरति से जहानामए थाउक्कलियाइ वा वायमंडलियाइ चा ||
मोचन
सू५५३ ॥६७८॥ दासलास वा कुड्डास वा दसेलसि वा कुटुंसि वा धंभंसि वा थूभंसि वा आवरिजमाणी वा निवारिज्जमाणी वा सा णं तस्येव णो |
कमति नो पकमति एवामेव गोसालस्सवि मखलिपुत्तस्स तवे तेए समणस्स भगवओ महावीरस्स वहाए सरीरगंसि निसिढे समाणे से णं तत्थ नो कमति नो पकमति अंचि(पंर्चि) करेंति अंचि०२आयाहिणपयाहिणं| करेति आ०२ उहूं वेहासं उप्पइए, से णं तओ पडिहए पडिनियत्ते समाणे तमेव गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं अणुडहमाणे २ अंतो २ अणुप्पविढे, तए णं से गोसाले मखलिपुत्ते सएणं तेएणं अन्नाइट्टे समाणे |समणं भगवं महावीरं एवं वयासी-तुमं णं आउसो ! कासवा ! मम तवेणं तेएणं अन्नाइडे समाणे अंतो + छह मासाणं पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवकंतीए छउमत्थे चेव कालं करेस्ससि, तए णं समणे भगवं महावीरे गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-नो खलु अहं गोसाला तव तवेणं तेएणं अन्नाइहे समाणे अंतो छण्हं जाव
॥६७८1 3 कालं करेस्सामि अहन्नं अन्नाई सोलस वासाइं जिणे महत्थी विहरिस्सामि तुमं णं गोसाला ! अप्पणा चेव टासयेणं तेएणं अन्नाइटे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स पित्तजरपरिगयसरीरे जाव छउमत्थे चेव कालं करेस्ससि.
अनुक्रम [६४९-६५४]
गोशालक-चरित्रं
~265
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५१-५५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
RAN
प्रत सूत्रांक [५५१-५५६]
दीप
तए णं सावत्थीए नगरीए सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अन्नमस्स एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेई, एवं
खलु-देवाणुप्पिया! सावत्थीए नगरीए बहिया कोट्ठए चेइए दुवे जिणा संलवंति, एगे वयंति-तुमं पुर्षि कालं से करेस्ससि एगे वदंति तुमं पुर्विकालं करेस्ससि, तत्थ णं के पुण सम्मावादी के पुण मिच्छावादी ?, तस्थ णं जे से
अहप्पहाणे जणे से बदति-समणे भगवं महावीरे सम्मावादीगोसाले मखलिपुत्ते मिच्छावादी, अज्जोति समणे | भगवं महावीरे समणे निग्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासी-अज्जो से जहानामए तणरासीह वा कट्टरासीह वा पत्तरासीह घा तयारासीइ वा तुसरासीइ या भुसरासीइ वा गोमयरासीइ वा अवकररासीह वा अगणिशामिए अगणिझुसिए अगणिपरिणामिए हयतेये गयतेये नढतेये भट्टतेये लुसतेए विणट्ठतेये जाव एवामेव गोसाले मखलिपुत्ते मम वहाए सरीरगंसि तेयं निसिरेत्ताहयतेये गयतेये जाब विणढतेये जाए, तं देणं अजो! तुझे गोसालं मखलिपुत्तं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएह धम्मि०२ धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारेह धम्मि०२ धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेह धम्मि०२ अहेहि य हेहि य पसिणेहि य चागरणेहि य कारणेहि य निप्पट्ठपसिणवागरणं करेह, तए ण ते समणा निग्गंथा समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वदंति नमसंति वं० न० जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव उवागच्छति तेणेव २ गोसालं मखलिपुतं धम्मियाए परिचोयणाए पडिचोएंति ध०२ धम्मियाए पडिसाहरणाए पडिसाहरेंति |घ०२ धम्मिएणं पडोयारेणं पडोयारेति ध०२ अहेहि य हेऊहि य कारणेहि य जाव वागरणं वागरेंति । तए
अनुक्रम [६४९-६५४]
AS452-
गोशालक-चरित्रं
~266~
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५१-५५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५१-५५६]
मोचनं
दीप
व्याख्यापणं से गोसाले मंखलिपुत्ते समणेहिं निग्गंथेहिं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोतिजमाणे जाघ निप्पट्टपसिण १५गोशा
| वागरणे कीरमाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे नो संचाएति समणाणं निग्गंथाणं सरीरगस्स किंचि आवाहं लकशते अभयदेवी- वा बाबाहं वा उप्पाएत्तए छविच्छेदं वा करेत्तए, तए णं ते आजीविया थेरा गोसालं मंखलिपुत्तं समणेहि तेजोलेश्या
निग्गंथेहिं धम्मियाए पडिचोयणाए पडिचोएजमाणं धम्मियाए पडिसारणाए पडिसारिजमाण धम्मिएणं ॥६७९॥
|पडोयारेण य पडोयारेजमाणं अहेहि य हेऊहि य जाव कीरमाणं आसुरुत्तं जाव मिसिमिसेमाणं समणाणंद | निग्गंथाणं सरीरगस्स किंचि आवाहं वा वाबाहं वा छविच्छेदं वा अकरेमाणं पासंति पा० २ गोसालस्स है मंखलिपुत्तस्स अंतियाओ आयाए अवकमंति आयाए अवक्कमित्ता २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति ते. समर्ण भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आ०२वंदति नम०२ समणं भगवं महावीरं उपसंप-15 जित्ताणं विहरंति, अस्धेगइया आजीविया थेरा गोसालं चेव मंखलिपुतं उघसंपज्जित्ताणं विहरति । तए णं
से गोसाले मखलिपुत्रो जस्सट्टाए हबमागए तमई असाहेमाणे रुंदाई पलोएमाणे दीहुण्हाई नीसासमाणे दादादियाए लोमाए लुंचमाणे अथर्ड कंड्यमाणे पुलिं पप्फोडेमाणे हत्थे विणिद्धणमाणे दोहिवि पाएहि || ॥७९॥
भूमि कोहेमाणे हाहा अहो! हओऽहमस्सीतिकट्ठ समणस्स भ. महा० अंतियाओ कोट्ठयाओ चेड्याओ ४|| पडिनिक्खमति प०२ जेणेव सावस्थी नगरी जेणेच हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणे तेणेव उवाग-II च्छइ ते०२ हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि अंबकूणगहत्थगए मज्जपाणगं पियमाणे अभिक्खणं
-2
अनुक्रम [६४९-६५४]
-
0 6-06
ARAN
गोशालक-चरित्रं
~267
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५१-५५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
S
प्रत सूत्रांक [५५१-५५६]
दीप
गायमाणे अभिक्खणं नञ्चमाणे अभिक्खणं हालाहलाए कुंभकारीए अंजलिकम्मं करेमाणे सीयलएणं महि-द। यापाणएणं आयंचणिउदएणं गायाई परिसिंचमाणे विहरति (सूत्रं५५३)। अलोति समणे भगवं महावीरे समणे निग्गंथे आमंतेत्सा एवं बयासी-जावतिएणं अज्जो गोसालेणं मखलिपुत्तेणं मम वहाए सरीरगंसि तेये निसट्टे से णं अलाहि पज्जते सोलसण्हं जणवयाणं, तं०-अंगाणं बंगाणं मगहाणं मलयाणं मालवगाणं अत्थाणं |वत्थाणं कोस्थाणं पादाणं लाढाणं बजाणं मोलीणं कासीणं कोसलाणं अवाहाणं सुंभुत्तराणं घाताए वहाए | उच्छादणयाए भासीकरणयाए, जंपिय अजो! गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारीए कभकारावणंसि ||3|| |अंबकूणगहत्थगए मजपाणं पियमाणे अभिक्खणं जाच अंजलिकम्मं करेमाणे विहरइ तस्सवि य णं वजस्स | पच्छादणद्वयाए इमाई अट्ठ चरिमाई पनवेति, तंजहा-चरिमे पाणे चरिमे गेये चरिमे न चरिमे अंजलि& कम्मे चरिमे पोक्खलसंवहए महामेहे चरिमे सेयणए गंधहत्थी चरिमे महासिलाकंटए संगामे अहं च ण इमीसे |
ओसप्पिणीए चउचीसाए तिस्थकराणं चरिमे तिस्थकरे सिज्झिस्सं जाच अंतं करेस्संति, जंपि य अजो! गोसाले मंखलिपुत्ते सीयलएणं मट्टियापाणएणं आयंचणिउदएणं गायाई परिसिंचमाणे विहरइ सस्सवि यणं| द्र वज्जस्स पच्छादणट्टयाए इमाईचत्तारि पाणगाई पनवेति, से किं तं पाणए?, पाणए चउबिहे पन्नत्ते, तंजहा-18 || गोपुट्ठए हत्यमद्दियए आयवतत्तए सिलापन्भट्ठए, सेत्तं पाणए, से किं तं अपाणए ?, अपाणए चउबिहे | पण्णत्ते, तंजहा-धाल पाणए तयापाणए सिंबलिपाणए सुद्धपाणए, से किं तं थालपाणए १, २ जपणं दाथा
SCRECRACREAST
अनुक्रम [६४९-६५४]
गोशालक-चरित्रं
~268~
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[५५१
-५५६]
दीप
अनुक्रम
[६४९
-६५४]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र -५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५१-५५६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
||६८०||
लगं वा दावारगं वा दाकुंभगं वा दाकलसं वा सीयलगं उल्लगं हत्थेहिं परामुसइ न य पाणियं पियह् सेत्तं थालपाणए, से किं तं तथापाणए १, २ जण्णं अंयं वा अंबाडगं वा जहा पओगपदे जाव बोरं वा तिंदुरु [वा [तरुयें] वा तरुणगं वा आमगं वा आसगंसि आवीलेति वा पवीलेति वा न य पाणियं पियइ सेतं तयापाणए, से किं तं सिंथलिपाणए १, २ जण्णं कलसंगलियं वा मुग्गसिंगलियं वा माससंगलियं वा सिंबलिसंगलियं वा तरुणियं आमियं आसगंसि आवीलेति वा पवीलेति वा ण य पाणियं पियति सेत्तं सिंबलिपाणए, से किं तं सुद्धपाणए ?, सु० जपणं छम्मासे सुद्धखाइमं खाइति दो मासे पुढविसंथारोवगए थ दो मासे कट्टसंधारोषगए दो मासे दग्भसंधारोबगए, तस्स णं बहुपडिनाणं छण्हं मासाणं अंतिमराइए इमे दो देवा महट्टिया जाब महेसक्खा अंतियं पाउ भवति, तं०-पुन्नभद्देय माणिभदे य, तए णं ते देवा सीयलए हिं उल्लएहिं हत्थेहिं गायाई परामुखंति जे णं ते देवे साइज्जति से णं आसीविसत्ताए कम्मं पकरेति जेणं ते देवे नो साइज्जति तस्स णं संसि सरीरगंसि अगणिकाए संभवति, से णं सरणं तेएणं सरीरगं झामेति स० २ तओ पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेति, सेन्तं सुद्धपाणए । तत्थ णं सावत्थीए नयरीए अयंपुले णामं आजीविओवासए परिवसइ अड्डे जाव अपरिभूए जहा हालाहला जाव आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तए णं तस्स अयंपुलस्स आजीविओवासगस्स अन्नया कदायि पुद्दरत्तावरतकालसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अब्भत्थिए जाव समुप्पज्जित्था - किंसंठिया हल्ला पण्णत्ता?, तए णं तस्स अयंपुलस्स आजी
Eucation Intern
गोशालक चरित्रं
For Parts Only
~ 269~
१५ गोशालकशते गोशालतेजोलेश्या
शक्तिः चर
माष्टकमयं
पुलागमश्च सू ५५४
॥ ६८०||
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५१-५५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५१-५५६]
+SACKGROCASE
ओवासगस्स दोचंपि अयमेयारूवे अन्भत्थिए जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु ममं धम्मायरिए धम्मोवदेसए गोसाले मंखलिपुत्ते उष्पन्ननाणदंसणधरे जाव सबन्नू सबदरिसी इहेच सावत्थीए नगरीए हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि आजीषियसंघसंपरिबुडे आजीवियसमएणं अप्पाणं भावमाणे विहरइ, तं सेयं । खलु मे कल्लं जाव जलंते गोसालं मखलिपुत्तं वंदित्ता जाव पञ्जुवासेत्ता इमं एयारूवं चागरणं वागरित्तएतिकटु एवं संपेहेति एवं०२कल्लं जाव जलते पहाए कयजाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे साओ गिहाछाओ पडिनिक्खमति सा०२पायविहारचारेणं सावत्थि नगरिं मझमज्झेणं जेणेष हालाहलाए कुंभकारीए| कुंभकारावणे तेणेव उवाग०२ पासह गोसालं मखलिपुत्तं हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि अंवकूण-| गहत्थगयं जाव अंजलिकमं करेमाणं सीयलयाएणं मट्टिया जाव गायाई परिसिंचमार्ण पासह २ लज्जिए| विलिए बिडे सणियं२ पच्चोसकर, तए णं ते आजीविया थेरा अयंपुलं आजीवियोवासगं लज्जियं जाव पचो-1* सकमाणं पासह पा०२एवं वयासी-एहि ताव अर्थपुला! एत्तओ, तएणं से अयंपुले आजीवियोवासए आजीवि-| यथेरेहिं एवं बुत्ते समाणे जेणेव आजीविया घेरा तेणेव उवागच्छद तेणेव०२ आजीविए धेरे वंदति नम-टू सति २ नचासन्ने जाव पजुचासइ, अयंपुलाइ आजीविया थेरा अर्यपुलं आजीवियोवासगं एवं व० से नूर्ण ते| अयंपुला ! पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि जाव किंसंठिया हल्ला पण्णत्ता, तए णं तव अयंपुला ! दोचंपि अय-| मेयातं चेव सदंभाणियत्वं जाव सावधि नगरिं मझमझेणं जेणेव हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारा
दीप
अनुक्रम [६४९-६५४]
X
For P
OW
गोशालक-चरित्रं
~270
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५१-५५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५१-५५६]
दीप
व्याख्या-
1वणे जेणेव इहं तेणेव हत्वमागए, से नूणं ते अयंपुला ! अहे समहे?, हंता अत्थि, जंपि य अयंपुला ! तब १४ गोशाप्रज्ञप्तिः धम्मायरिए धम्मोवदेसए गोसाले मंखलिपुत्ते हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणंसि अंवकूणगहत्वगए| 18 लकशते अभयदेवी- जाव अंजलि करेमाणे विहरति तस्थवि णं भगवं इमाई अट्ट चरिमाई पनवेति, तं०-चरिमे पाणे जाव अंतं, गोशालतेया वृत्तिःकरेस्सति, जेविय अयंपुला! तव धम्मायरिए धम्मोवदेसए गोसाले मंखलिपुत्ते सीयलयाए णं मट्टिया जोलेश्या
दिशक्तिःचरजाब विहरति तत्थवि णं भंते ! इमाई चत्तारि पाणगाई चत्तारि अपाणगाई पन्नवेति, से किं तं पाणए १२ ॥६८।। हैजाव तओ पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेति, तं गच्छ णं तुम अर्थपुला! एस चेव तव धम्मायरिए धम्मो-18
माष्टकमयं.
पुलागमश्च वदेसए गोसाले मखलिपुत्ते इमं एयारूवं वागरणं वागरित्तएत्ति, तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए
| सू ५५४ |आजीविएहि धेरेहिं एवं बुत्ते समाणे हहतुढे उट्ठाए उट्टेति उ०२ जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तए णं ते आजीविया धेरा गोसालस्स मखलिपुत्तस्स अंबकूणगपडावणट्टयाए एगंतमंते संगारंट कुवइ, तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते आजीवियाणं थेराणं संगारं पडिच्छइ सं०२ अंयकूणगं एगंतमंते एडेइ, तए णं से अयंपुले आजीवियोवासए जेणेव गोसाले मंखलिपुत्ते तेणेल उवाग० तेणेव०२ गोसालं मखलिहै पुत्तं तिक्खुत्तो जाच पजुवासति, अयंपुलादी गोसाले मंखलिपुत्ते अयंपुलं आजीवियोवासगं एवं क्यासी- ६८॥
से नूणं अयंपुला ! पुधरत्तावरत्तकालसमयंसि जाव जेणेव ममं अंतियं तेणेव हवमागए, से नूणं अयं-12 पुला ! अहे समढे ?, हंता अत्थि, तं नो खलु एस अंबकूणए अंबचोयए णं एसे, किंसंठिया हल्ला पन्नत्ता ?,
अनुक्रम [६४९-६५४]
4MARACROS
गोशालक-चरित्रं
~271
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५१-५५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५१-५५६]
वसीमूलसंठिया हल्ला पण्णता, वीणं वाएहि रे वीरगा वी०२, तए णं से अर्थपुले आजीवियोवासए गो-18 सालेणं मंख लिपुत्तेणं इमं एयारूवं वागरणं वागरिए समाणे हद्वतुढे जाव हियए गोसालं मखलिपुत्तं वं न०२पसिणाई पु०प०२ अट्ठाई परियादियइ अ०२ उट्ठाए उद्देति उ०२ गोसालं मखलिपुत्तं वन.२ जाव पडिगए । तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते अप्पणो मरणं आभोव्ह २ आजीविए थेरे सद्दावेई आ०२ एवं चयासी-तुज्झे णं देवाणुप्पिया ! ममं काल गयं जाणेत्ता सुरभिणा गंधोदएणं पहाणेह सु.२ पम्हलसुकुमालाए गंधकासाईए गायाई लूहेह गा०२ सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपह स०२ महरिहं हंसलक्षणं पाडसाडगं नियंसेह मह० २ सवालंकारविभूसियं करेह स०२ पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दूरूहेह पुरि०२ सावस्थीए नयरीए सिंघाडगजावपहेसु महया महया सद्देणं उग्रोसेमाणा एवं बदह-एवं खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मस्खलिपुत्ते जिणे जिणप्पलाची जाच जिणसई पगासेमाणे विहरित्ता इमीसे ओसप्पिणीए चउधीसाए तिथपराणं चरिमे तित्थयरे सिद्धे जाव सबदुक्खप्पहीणे इहिसकारसमुदएणं मम || सरीरगस्स णीहरणं करेह, तए णं ते आजीविया धेरा गोसालस्स मखलिपुत्तस्स एयम विणएणं पडिमुणेति | (सूचं५५४)।तए णं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सत्तरसि परिणममाणंसि पडिलद्धसम्मत्सस्स अयमेयारूवे || द अमथिए जाव समुप्पज्जित्था-णो खलु अहं जिणे जिणप्पलाची जाव जिणसई पगासेमाणं विहरति, अहंणं * गोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए समणमारए समणपडिणीए आयरियउयज्शायाणं अयसकारए अवन्नका
दीप
अनुक्रम [६४९-६५४]
aurariasaram.org
गोशालक-चरित्रं
~272
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५१-५५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५१-५५६]
, व्याख्या-
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
॥६८२॥
दीप
रए अकित्तिकारए वहहिं असम्भावुभावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य अप्पार्ण वा परं वा तदुभयं वा १५ गोशा|बुग्गाहेमाणे चुप्पाएमाणे विहरिता सएणं तेएणं अन्नाइडे समाणे अंतो सत्तरत्तस्स पित्तज्जरपरिगयसरीरे ॥
लकशतेदाहवकंतीए छउमत्थे चेव काल करेस्सं, समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसई पगासे-X
सम्यक्त्वोमाणे विहरइ, एवं संपेहेत्ति एवं संपेहित्ता आजीविए धेरे सद्दावेइ आ०२ उच्चावयसवहसाविए करेति
त्पादः सू
सारात ५५५ तदुउचा०२ एवं वयासी-नो खलु अहं जिणे जिणप्पलावी जाव पकासेमाणे विहरइ, अहन्नं गोसाले मखलिपुत्ते समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालं करेस्सं, समणे भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसई नीहरणं |पगासेमाणे विहरह, तं तुझे णं देवाणुप्पिया ! ममं कालगयं जाणेसा वामे पाए सुंबेणं बंधह चा०२ति
क्खुत्तो मुहे उद्गुहह ति०२सावत्थीए नगरीए सिंघाडगजाब पहेसु आकट्टिविकिहि करेमाणा महया २ सहेणं | उग्घोसेमाणा ७० एवं बदह-नो खलु देवाणुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव विह-Ig रिए, एस णं गोसाले चेव मंखलिपुत्ते समणघायए जाच छउमत्थे चेव कालगए, समणे भगवं महावीरे जिणे है जिणप्पलाची जाच विहरइ महया अणिड्डीअसकारसमुदएणं मम सीरगस्स नीहरणं करेजाह, एवं बदित्ता कालगए (सूत्रं५५५) । तए णं आजीविया धेरा गोसालं मखलिपुत्तं कालगयं जाणित्ता हालाहलाए कुंभकारीए
॥६८२॥ कुंभकारावणस्स दुवाराई पिहेंति दु०२ हालाहलाए कुंभकारीए कुंभकारावणस्स बहुमज्झदेसभाए सावत्धि नगरि आलिहंति सा०२गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स सरीरगं चामे पादे सुंबेणे बंधति वा०२तिक्खुत्तो
अनुक्रम [६४९-६५४]
--54-5644
गोशालक-चरित्रं
~273~
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५१-५५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५१-५५६]
मुहे उडुडंति २ सावत्थीए नगरीए सिंग्घाडगजाव पहेस आकढिविकहि करेमाणा णीयं २ सरेणं उग्रोसेमाणा उ०२ एवं वयासी-नो खल देवाणुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाब विहरा
एस णं चेव गोसा० मंखलिपु० समणघायए जाव छउमत्थे चेव कालगए सम० भ० महाजिणे जिणप्प० है जाव चिहरह सवहपतिमोक्खणगं करेंति स०२ दोचंपि पूयासकारक्षिीकरणद्वयाएगोसालस्स मंखलिपु० चा-- माओ पादाओ सुंवं मुयंति सु०२हालाहला. कुं० कुं० दुबारवयणाई अवगुणंति अ०२ गोसालस्स मंख-* लिपुत्तस्स सरीरगं सुरभिणा गंधोदएणं पहाणेति तं चेव जाव महया इहिसकारसमुदएणं गोसालस्स मंख-13 लिपुत्तस्स सरीरस्स नीहरणं करेंति (सूत्रं ५५६)॥
'गर्नु वत्ति गर्तः श्वनं 'दरिं'ति शृगालादिकृतभूविवरविशेष 'दुग्गं'ति दुःखगम्यं वनगहनादि निम्नति निम्नं शुष्कसरप्रभृति 'पषयं वत्ति प्रतीतं 'विसमति गर्तपाषाणादिव्याकुलम् 'एगेण महंति एकेन महता 'तणसूएण |वति 'तृणसूकेन' तृणामेण 'अणावरिए'त्ति अनावृतोऽसावावरणस्याल्पत्वात् 'उबलभसित्ति उपलम्भयसि दर्शयसीत्यर्थः 'तं मा एवं गोसाल'त्ति इह कुर्विति शेषः 'नारिहसि गोसाल'त्ति इह चैवं कर्तुमिति घोषः, 'सचेव ते सा छाय'त्ति सैव ते छाया अन्यथा दर्शयितुमिष्टा छाया-प्रकृतिः । 'उच्चावयाहिं'ति असमअसाभिः 'आउसणाहिं'ति मृतोऽसि त्वमित्यादिभिर्वचनैः 'आक्रोशपति' शपति 'उद्धंसणाहिति दुष्कुलीनेत्यादिभिः कुलाद्यभिमानपातनार्थैर्वचनैः 'उद्धंसेईत्ति कुलायभिमानादधः पातयतीव 'मिभंछणाहिंति न त्वया मम प्रयोजनमित्यादिभिः परुषवचनैः 'निम्भ
दीप
SARAKASACREAM
अनुक्रम [६४९-६५४]
गोशालक-चरित्रं
~2744
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५१-५५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५१-५५६]
व्याख्या- च्छेइ'त्ति नितरां दुष्टमभिधत्ते 'निच्छोडणाहिति त्यजास्मदीयांस्तीर्थकरालङ्कारानित्यादिभिः 'निच्छोडेइत्ति प्राप्तमर्थ र १५ गोशा
प्रज्ञप्तिः त्याजयतीति 'नटेसि कयाइ'त्ति नष्टः स्वाचारनाशात् 'असि' भवसि त्वं 'कयाइ'त्ति कदाचिदिति वितर्कार्थः अहमेवं लकशत अभयदेवी-5 मन्ये यदुत नष्टस्त्वमसीति 'विणटेसित्ति मृतोऽसि "भट्ठोसित्ति भ्रष्टोऽसि-सम्पदः व्यपेतोऽसि त्वं धर्मत्रयस्य योगया वृत्तिः पद्येन योगात नष्टविनष्टभ्रष्टोऽसीति 'नाहि तेत्ति नैव ते । 'पाईणजाणवए'त्ति प्राचीनजानपदः प्राच्य इत्यर्थः 'पचा॥१८॥
विए'त्ति शिष्यत्वेनाभ्युपगतः 'अन्भुवगमो पवज'त्ति वचनात्, 'मुंडाविए'त्ति मुण्डितस्य तस्य शिष्यत्वेनानुमननात् हासेहाविए'त्ति प्रतित्वेन सेधितः प्रतिसमाचारसेवायां तस्य भगवतो हेतुभूतत्वात् 'सिक्खाथिए'त्ति शिक्षितस्तेजो
लेण्याद्युपदेशदानतः 'बहुस्सुईकए'त्ति नियतिवादादिप्रतिपत्तिहेतुभूतत्वात् 'कोसलजाणथए'त्ति अयोध्यादेशोत्पन्नः । 'वाउकलियाइ वत्ति वातोत्कलिका स्थित्वा २ यो वातो वाति सा वातोत्कलिका 'वायमंडलियाइ वत्ति मण्डलिकाभियों |वाति 'सेलंसि वा' इत्यादी तृतीयार्थे सप्तमी 'आवरिजमाणि'त्ति स्खल्यमाना 'निवारिजमाणि'त्ति निवर्त्यमाना || 'नो कमइत्ति न क्रमते' न प्रभवति 'नो पक्कमइ'त्तिन प्रकर्षेण क्रमते 'अंचितांचिंति अश्चिते-सकृद्गते अश्चितेन वा-सकृद्गतेन देशेनाञ्चिः-पुनर्गमनमञ्चिताञ्चिः, अथवाऽभ्या-गमनेन सह आश्चिः-भागमनमच्याञ्चिर्गमागम इत्यर्थः तां करोति | 'अन्नाइडे'त्ति 'अन्वाविष्टः' अभिव्याप्तः 'सुहत्थि'त्ति सुहस्तीव सुहस्ती 'अहप्पहाणे जणे'त्ति यथाप्रधानो जनो यो यः ।। प्रधान इत्यर्थः, 'अगणिझामिए'त्ति अग्निना ध्मातो-दग्धो ध्यामितो या ईपद्दग्धः 'अगणिझूसिए'त्ति अग्निना सेवितः क्षपितो वा 'अगणिपरिणमिए'सि अग्निना परिणामितः-पूर्वस्वभावत्याजनेनात्मभावं नीतः, ततश्च हततेजा धूल्या
%94%2544%
अनुक्रम [६४९-६५४]
॥६८॥
wirwaimarary.org
गोशालक-चरित्रं
~275
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[५५१
-५५६]
दीप
अनुक्रम
[६४९
-६५४]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र -५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५१-५५६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
गोशालक चरित्रं
| दिना गततेजाः क्वचित् स्वत एव नष्टतेजाः कचिदव्यक्तीभूततेजाः भ्रष्टतेजाः कचित्स्वरूपभ्रष्टतेजा ध्यामतेजा इत्यर्थः लुप्ततेजाः क्वचित् अद्धीभूततेजाः 'पल च्छेदने छिदिर द्वैधीभावे' इतिवचनात्, किमुक्तं भवति ?- 'विनष्टतेजा' निःसताकीभूततेजाः, एकार्था वैते शब्दा:, 'छंदेणं' ति स्वाभिप्रायेण यथेष्टमित्यर्थः 'निष्पट्टपसिणवागरणं' ति निर्गतानि स्पष्टानि | प्रश्नव्याकरणाणि यस्य स तथा तम् । 'रुंदाई पलोएमाणे ति दीर्घा दृष्टीर्दिक्षु प्रक्षिपन्नित्यर्थः, मानधनानां हतमानानां लक्षणमिदं, 'दीहुण्डाई नीसासमाणे'त्ति निःश्वासानिति गम्यते 'दाढियाए लोमाई'ति उत्तरोष्ठस्य रोमाणि 'अव 'ति कृकाटिकां 'पुयलिं परफोडेमाणे 'ति 'पुतती' पुतप्रदेशं प्रस्फोटयन् 'विणिडुणमाणे'त्ति विनिर्धुन्वन् 'हाहा अहो | हओऽहमस्सीतिकडु'त्ति हा हा अहो हतोऽहमस्मीति कृत्वा इति भणित्वेत्यर्थः 'अंबकूणहत्थगए' त्ति आम्रफलहस्त। गतः स्वकीयतपस्तेजोजनितदाहोपशमनार्थमाश्रास्थिकं चूषन्निति भावः, गानादयस्तु मद्यपानकृता विकाराः समवसेयाः, 'मट्टियापाणएणं'ति मृत्तिकामिश्रितजलेन, मृत्तिकाजलं सामान्यमप्यस्त्यत आह- 'आयंचणिओदपूर्ण'ति इह | टीका व्याख्या - आतम्यनिकोदकं कुम्भकारस्य यद्भाजने स्थितं तेमनाय मृन्मिश्रं जलं तेन । 'अलाहि पज्जंते'त्ति 'अलम्' अत्यर्थं 'पर्याप्तः' शक्तो घातायेति योगः घातायेति हननाय तदाश्रितत्रसापेक्षया 'वहाए'त्ति वधाय एतच्च तदाश्रितस्थावरापेक्षया 'उच्छायणयाए'त्ति उच्छादनतायै सचेतनाचेतनतद्गतवस्तूच्छादनायेति एतच्च प्रकारान्तरेणापि भवतीत्यग्नि| परिणामोपदर्शनायाह- 'भासीकरणयाए 'ति । 'वज्जरस'त्ति वर्जस्य - अवद्यस्य वज्रस्य वा मद्यपानादिपापस्येत्यर्थः 'चरमे'त्ति न पुनरिदं भविष्यतीतिकृत्वा चरमं तत्र पानकादीनि चत्वारि स्वगतानि, चरमता चैषां स्वस्य निर्वाणगमनेन
For Parts Only
~276~
waryrp
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५१-५५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५१-५५६]
दीप
व्याख्या-18|| पुनरकरणात् , एतानि च किल निर्वाणकाले जिनस्यावश्यम्भावीनीति नास्त्येतेषु दोष इत्यस्य तथा नाहमेतानि दाहोपश- १५ गोशाप्रज्ञप्तिमायोपसेवामीत्यस्य चार्थस्य प्रकाशनार्थत्वादवद्यप्रच्छादनार्थानि भवन्ति, पुष्कलसंवर्तकादीनि तु बीणि बाह्यानि प्रकृता
|लकशत अभयदेवी
नुपयोगेऽपि चरमसामान्याजनचित्तरञ्जनाय चरमाण्युक्तानि, जनेन हि तेषां सातिशयत्वाच्चरमता श्रद्धीयते ततस्तैः सहोया वृत्तिः२
कानामाबकूणकपानकादीनामपि सा सुश्रद्धेया भवस्थिति बुद्ध्येति, 'पाणगाईति जलविशेषा व्रतियोग्याः 'अपाणयाईति ॥६८४॥ पानकसष्टशानि शीतलत्वेन दाहोपशमहेतवः 'गोपुट्ठए'त्ति' गोपृष्ठाद्यस्पतितं 'हत्यमद्दियंति हस्तेन मर्दित-मूदित मलित-8
मित्यर्थः यथैतदेवातन्यनिकोदक 'धालपाणए'त्ति स्थालं-बट्टू तसानकमिव दाहोपशमहेतुत्वात् स्थालपानकम् , उपलक्ष-I णत्वादस्य भाजनान्तरग्रहोऽपि दृश्यः, एवमन्यान्यपि नवरं त्वक्-छही सीम्बली-कलायादिफलिका, 'सुद्धपाणए'त्ति देवहस्तस्पर्श इति, 'दाथालय'त्ति उदकाई स्थालकं दावारगं'ति उदकवारक 'दाकुंभग'त्ति इह कुम्भो महान 'दाकलसं। ति कलशस्तु लघुतरः 'जहा पओगपए'ति प्रज्ञापनायां पोडशपदे, तत्र वेदमेवमभिधीयते-'भ, वा फणसं वा दा|| लिमं था इत्यादि 'तरुणगंति अभिनवम् 'आमग ति अपक्वम् 'आसगंसित्ति मुखे 'आपीडयेत्' ईपत् प्रपीडयेत् प्रक-2
र्षत इह यदिति शेषः 'कल सि कलायो-धान्यविशेषः सिंबलि'त्ति वृक्षविशेषः 'पुढविसंथारोवगए' इत्यत्र वर्चत इति माशंपी श्यः 'जे णं ते देवे साइजइ'त्ति यस्ती देवी 'स्वदते' अनुमन्यते 'संसित्ति स्वके स्वकीये इत्यर्थः । 'हल्लति ॥६८४॥ ४ गोवालिकातृणसमानाकारः कीटकविशेषः 'जाव सबन्न' इति इह यावस्करणादिदं दृश्यं-'जिणे अरहा कवली ति, | 'वागरण'ति प्रश्नः 'धागरित्तए सि प्रष्ट 'बिलिए'ति'व्यलीकितः सातव्यलीकः 'वि'त्ति ब्रीडाऽस्यास्तीति नीड:
अनुक्रम [६४९-६५४]
auratwasaram.org
गोशालक-चरित्रं
~277
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५१-५५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५१-५५६]
का लज्जाप्रकर्षवानित्यर्थः, भूमार्थेऽस्त्यर्थप्रत्ययोपादानात् । 'एगंतमंतेत्ति विजने भूविभागे यावदयपुलो गोशालकान्तिके
नागच्छतीत्यर्थः 'संगारंति 'सङ्केतम्' अयंपुलो भवत्समीपे आगमिष्यति ततो भवानायकूणिकं परित्यजतु संवृतश्च भवत्वेवरूपमिति । 'तं नो खलु एस अंबकूणएत्ति तदिदं किलामास्थिकं न भवति यतिनामकल्प्यं यद्भवताऽऽम्रास्थिकतया विकल्पित, किन्विदं यद्भवता दृष्टं तदायत्वक्, एतदेवाह-'अंघचोयए णं एसे'त्ति इयं च निर्वाणममनकाले आश्रयणीयैव, त्वमानकत्वादस्या इति । तथा हल्लासंस्थानं यत्पृष्टमासीत्तद्दर्शयन्नाह-वंसीमूलसंठियत्ति इदं च
बंशीमूलसंस्थितत्वं तृणगोवालिकायाः लोकप्रतीतमेवेति, एतावत्युक्ते मदिरामदविह्वलितमनोवृत्तिरसावकस्मादाह-वीणं दवाएहि रे वीरगा २' एतदेव द्विरावर्त्तयति, एतच्चोन्मादवचनं तस्योपासकस्य शृण्वतोऽपि न व्यलीककारणं जातं, यो हि | सिद्धिं गच्छति स चरम गेयादि करोतीत्यादिवचनैविमोहितमतित्वादिति । 'हंसलक्खणं ति हंसस्वरूपं शुक्लमित्यर्थः हंसचिहं चेति 'इहीसकारसमुदएणं' ऋक्या ये सत्काराः-पूजाविशेषास्तेषां यः समुदयः स तथा तेन, अथवा ऋद्धिसत्कार| समुदयैरित्यर्थः, समुदयश्च जनानां सदा, 'समणघायए'त्ति श्रमणयोस्तेजोलेश्याक्षेपलक्षणघातदानात् घातदो घातको वा, अत एव श्रमणमारक इति, 'दाहवर्कतीर'त्ति दाहोत्सत्त्या 'मुंबणं'ति वल्करजवा 'उद्रुभह'त्ति अवष्ठीव्यत-निष्ठीव्यत, कचित् 'उच्छुभह'त्ति दृश्यते तत्र चापशब्दं किञ्चिरिक्षपतेत्यर्थः 'आकविकदिति आकर्षवैकर्षिकाम्, 'पूया-18 सकारथिरीकरणट्टयाए'त्ति पूजासत्कारयोः पूर्वप्राप्तयोः स्थिरताहेतोः यदि तु ते गोशालकशरीरस्य विशिष्टपूजां न
RAMACHAR
दीप
अनुक्रम [६४९-६५४]
गोशालक-चरित्रं
~278~
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५७-५५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५७-५५९]
दीप
व्याख्या
कुर्वन्ति तदा लोको जानाति नायं जिनो बभूव न चैते जिनशिष्या इत्येवमस्थिरौ पूजासत्कारौ स्यातामिति तयोः स्थिरी-18 १५गोशामंज्ञप्तिःकरणार्थम् 'अवगुणंति'त्ति अपावृण्वन्ति ।
लकशते अभयदेवी-|| तए णं सम० भ० म. अन्नया कदायि सावत्थीओ नगरीओ कोट्रयाओ चेदयाओ पडिनिक्खमति पटि०२ सिंहष्यों
नीतौषधाया वृत्तिः यहिया जणवयविहारं विहरइ । तेणं कालेणं २ मेढियगामे नार्म नगरे होत्था बन्नओ, तस्स णं मेढियगामस्स
दाहशमः ॥६८५॥ नगरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्य णं सालकोहए नाम चेहए होत्था वन्नओ जाव पुढविसि
सू ५५७ लापट्टओ, तस्स णं सालकोट्ठगस्सणं चेइयस्स अदरसामंते एत्थ णं महेगे मालुयाकच्छए यावि होत्था किण्हे| | किण्होभासे जाव निकुरंगभूए पत्तिए पुफिए फलिए हरियगरेरिजमाणे सिरीए अतीव २ वसोभेमाणे | चिट्ठति, तत्थ णं मेंढियगामे नगरे रेवती नाम गाहावाणी परिवसति अहा जाव अपरिभूया, तए णं समणे
भगवं महावीरे अन्नया कदायि पुवाणुपुर्षि चरमाणे जाव जेणेव मेंढियगामे नगरे जेणेव साण(ल)कोहे चेइए। ४|| जाच परिसा पडिगया। तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स सरीरगंसि विपुले रोगायंके पाउम्भूए उज्जले
जाव दुरहियासे पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवकंतीए यावि विहरति, अवियाई लोहियवच्चाइपि पकरेइ, चाउ-II बन्नं वागरेति-एवं खलु समणे भ० महा. गोसालस्स मंख लिपुत्तस्स तवेणं तेएणं अन्नाइट्टे समाणे अंती
छण्हं मासाणं पित्तजरपरिगयसरीरे दाहवकंतीए छउमत्थे चेव कालं करेस्सति । तेणं कालेणं २ समणस्स दि भग० महा० अंतेवासी सीहे नाम अणगारे पगइभद्दए जाव विणीए मालुयाकच्छगस्स अदूरसामंते छटुंछ
अनुक्रम
[६५५
-६५७]
गोशालक-चरित्रं
~279
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५७-५५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५७-५५९]
दीप
टेणं अनिक्वित्तेणं २ तवोकम्मेणं उहुंचाहा जाव विहरति, तए णं तस्स सीहस्स अणगारस्स झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु ममं धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स सरीरगंसि विउले रोगायके पाउन्भूए उज्जले जाव छउमत्थे चेव कालं करिस्सति, वदिस्संति यणं अन्नतिधिया छउमत्थे चेव कालगए, इमेणं एयारूवेर्ण महया मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए । |समाणे आयावणभूमीओ पचोरुभइ आया०२ जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवा० २ मालुयाकच्छगं अंतो २ अणुपविसइ मालुया०२ महया २ सद्देणं कुहुकुहस्स परुन्ने । अज्जोत्ति समणे भगवं महावीरे समणे निग्गंथे आमंतेति आ०२ एवं वयासी-एवं खलु अजो। ममं अंतेवासी सीहे नामं अणगारे पगइभद्दए तं चेव सर्व भाणियचं जाव परुन्ने, तं गच्छह णं अनो! तुझे सीह अणगारं सद्दह, तए णं ते समणा नि-2 |ग्गंधा समणेणं भगवया महावीरेणं एवं बुत्ता समणा समणं भगवं महावीरं वं० न०२ समणस्स भग० म० अंतियाओ साण(ल)कोहयाओ चेहयाओ पडिनिक्खमंति सा०२ जेणेव मालुयाकच्छए जेणेव सीहे अणगारे तेणेव उवागच्छन्ति २ सीहं अणगारं एवं बयासी-सीहा! धम्मायरिया सद्दावेंति, तए णं से सीहे अण-| गारे समणेहिं निग्गंथेहिं सद्धिं मालुयाकच्छगाओ पडिनिक्खमति प०२ जेणेव साण(ल)कोट्ठए चेइए जेणेव | समणे भगवं महावीरे तेणेव उवा०२समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आ०२जाव पज्जुवासति, सीहादि| समणे भगवं महावीरे सीहं अणगारं एवं वयासी-से नूर्ण ते सीहा ! झाणंतरियाए वट्टमाणस्स अयमेया
अनुक्रम
[६५५
-६५७]
गोशालक-चरित्रं
~280
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५७-५५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५७-५५९]
व्याख्या-18
रूवे जाव परून्ने, से नूणं ते सीहा ! अढे समढे ?, हंता अस्थि, तं नो खलु अहं सीहा ! गोसालस्स मंखलि- १५ गोश प्रज्ञप्तिः पुत्तस्स तवेणं तेएणं अन्नाइढे समाणे अंतो छण्हं मासाणं जाव कालं करेस्सं, अहन्नं अन्नाई अद्धसोलस वा- लकशते अभयदेवी-|| साइं जिणे सुहस्थी विहरिस्सामि, तं गच्छह णं तुम सीहा ! मेढियगाम नगरं रेवतीए गाहावतिणीए गिह दसिंहाया वृत्तिः तत्थ णं रेवतीए गाहावतिणीए ममं अट्ठाए दुवे कवोयसरीरा उवक्खडिया तेहिं नो अट्ठो, अस्थि से अन्ने नीतापधा
| पारियासिए मजारकडए कुकुडमसए तमाहराहि एएणं अट्ठो, तए णं से सीहे अणगारे समणेणं भगवया|| दाहशमः ॥६८६॥ महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हद्वतुढे जाव हियए समणं भगवं महावीरं वं० नम०२० न० अतुरियमचवल
सू ५५७ मसंभंतं मुहपोसिघ पडिलेहेति मु०२ जहा गोयमसामी जाव जेणेच समणे भ० मतेणेव उवा०२ समणं |
भ.महा. वंदन.२समणस्स भ० महा० अंतियाओसाण(ल)कोट्टयाओ चेइयाओपडिनिक्खमति प०२अतुसरियजाच जेणेव मेंढियगामे नगरे तेणेव उवा०२ मेंडियगाम नगरं मज्झमझेणं जेणेव रेवतीए गाहावइणीए गिहे तेणेव उचा० २ रेवतीए गाहावतिणीए गिहं अणुप्पचिट्टे, तए णं सा रेवती गाहावतिणी सीहं अणगारं एजमाणं पासति पा०२ हहतुह खिप्पामेव आसणाओ अनुढेइ २ सीहं अणगारं ससट्ठ पयाई अणुगच्छह स०२तिक्खुत्तो आ०२ वंदति न०२ एवं बयासी-संदिसंतुणं देवाणुप्पिया । किमागमणप्पयोयणं, तए णं से सीहे अणगारे रेवति गाहावाणी एवं वयासी-एवं खलु तुमे देवाणुप्पिए ! समण भ. ॥१८॥ म. अहाए दुवे कवोयसरीरा उवक्खडिया तेहिं नो अत्थे, अस्थि ते अन्ने पारियासिए मज्जारकडए कुकुडम
अनुक्रम
[६५५
-६५७]]
गोशालक-चरित्रं
~281
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५७-५५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५७-५५९]
दीप
|सए एपमाहराहि, तेणं अट्ठो, तए णं सा रेवती गाहावाणी सीहं अणगार एवं वयासी-केस णं सीहा ! & से णाणी वा तवस्सी वा जेणं तव एस अहे मम ताव रहस्सकडे हवमकखाए जओ णं तुमं जाणासि ? एवं | जहा खंदए जाव जओ णं अहं जाणामि, तए णं सा रेवती गाहावतिणी सीहस्स अणगारस्स अंतियं | एयमहूँ सोचा निसम्म हडतुट्ठा जेणेव भत्तघरे तेणेव उवा०२ पत्तगं मोएति पत्तगं मोएता जेणेव सीहे। अणगारे तेणेव उवा०२ सीहस्स अणगारस्स पडिग्गहगंसि तं सर्व संम निस्सिरति, तए णं तीए रेवतीए। गाहावतिणीए तेणं दषसुद्धणं जाथ दाणेणं सीहे अणगारे पडिलाभिए समाणे देवाउए निबद्धे जहा विजयस्स जाव जम्मजीवियफले रेवतीए गाहावतिणीए रेवती०२, तए णं से सीहे अणगारे रेवतीए गाहावति|णीए गिहाओ पडिनिक्खमति०२ मेंडियगाम नगरं मझमज्झेणं निग्गच्छति निग्गच्छइत्ता जहा गोयमसामी जाव भत्तपाणं पडिदंसेति २समणस्स भगवओ महावीरस्स पाणिसि तं सचं संमं निस्सिरति, तए |णं समणे भगवं महावीरे अमुच्छिए जाव अणज्झोववन्ने विलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणेणं तमाहारं सरीर
कोहगंसि पक्खिवति, तए णं समणस्स भगओ महावीरस्स तमाहारं आहारियस्स समाणस्स से विपुले रोगाभयंके खिप्पामेव उवसमं पत्ते हट्टे जाए आरोगे बलियसरीरे तुट्टा समणा तुट्ठाओ समणीओ तुट्ठा सावया"
तुहाओ सावियाओ तुहा देवा तुट्ठाओ देवीओ सदेवमणुयासुरे लोए तुट्टे हढे जाए समणे भगवं महावीरे हट्ट २।(सूत्र ५५७) भंतेत्ति भगवंगोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नम०२एवं वयासी-एवं खलु देवाणुपियाणं
अनुक्रम
1594ACCIENC4-5
[६५५
-६५७]
गोशालक-चरित्रं
~282
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५७-५५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५७-५५९]
साधुगतिः
दीप
व्याख्या-15 अंतेवासी पाईणजाणवए सबाणुभूतीनामं अणगारे पगतिभदए जाब विणीए, से णं भंते ! तदा गोसालेणं ||
१५ गोशाप्रज्ञप्तिः मंखलिपुत्तेणं तवेणं तेएणं भासरासीकए समाणे कहिं कहिं उववन्ने ?, एवं खलु गोयमा ! ममं अंते- लकशते अभयदेवी- |वासी पाईणजाणवए सबाणुभूतीनामं अणगारे पगइभद्दए जाब विणीए, से णं तदा गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं
सानुभूया वृत्तिः२|| तवेणं भासरासीकए समाणे उई चंदिमसूरिय जाव बंभलंतकमहासुफे कप्पे वीइवइत्ता सहस्सारे कप्पे देव-12 तिसुनक्षत्र
ताए उववन्ने, तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं अट्ठारस सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता तत्थ णं सवाणुभूतिस्सवि देचस्स अट्ठारस सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता, सेणं सवाणुभूती देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्ख
सू ५५८ एणं ठिइक्खएणं जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति । एवं खलु देवाणुप्पियाण अंतेवासी कोसलजाणवए सुनक्खत्ते नाम अणगारे पगइभद्दए जाब विणीए, से णं भंते ! तदा गं गोसालेणं मखलिपुत्तेणं तवेणं परिताविए समाणे कालमासे कालं किचा कहिं गए कहिं उबवन्ने ?, एवं खलु है | गोयमा ! ममं अंतेवासी सुनक्खत्ते नामं अणगारे पगइभद्दए जाब विणीए, से गं तदा गोसालेणं मंखलि-12 का पुत्तेणं तवेणं तेएणं परिताविए समाणे जेणेव ममं अंतिए तेणेव उपाग०२दति नम०२ सयमेव पंच मह- | बयाई आरुभेति सयमेव पंच महत्वयाई० समणा य समणीओ य खामेति २ आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते ॥६८७॥ कालमासे कालं किच्चा पहुंचंदिमसरियजाव आणयपाणयारणकप्पे वीईवइत्ता अशुए कप्पे देवत्ताए उघवन्ने, || तत्थ णं अत्धेगतियाणं देवाणं यावीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता, तस्थ णं सुनक्खत्तस्सवि देवस्स बावीसं ५
अनुक्रम
[६५५
-६५७]
गोशालक-चरित्रं
~283
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५७-५५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५७-५५९]
दीप
सागरोचमाई सेसं जहा सवाणुभूतिस्स जाव अंतं काहिति (सूत्रं ५५८)। एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंते-IX बासी कुसिस्से गोसाले नामं मंखलिपुत्ते से णं मंते ! गोसाले मंखलिपुत्ते कालमासे कालं किच्चा कहिं ग कहिं उव०१, एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी कुसिस्से गोसाले नाम मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छउ-5 मत्थे चेव कालमासे कालं किचा उहुं चंदिम जाव अक्षुए कप्पे दे० उ०, तत्थ णं अत्धेग. देवाणं बावीसं|
सा०ठिती प० तत्थ णं गोसालस्सवि देवस्स बावीसं सा० ठिती प० । से णं भंते ! गोसाले देवे ताओ 15 देव. आउक्ख०३ जाव कहिं उववजिहिति ?, गोयमा ! इहेव जंबू०२भारहे चासे चिंझगिरिपायमले पंडेस
जणवएसु सयदुवारे नगरे संमुतिस्स रन्नो भद्दाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए पचायाहिति, से णं तत्थ नवण्हं मा० बहुप० जाव वीतिकंताणं जाव सुरूवे दारए पयाहिति, जं रयणिं च णं से दारए जाइहिति तं
रयर्णि च णं सयदुवारे नगरे सभितरवाहिरिए भारग्गसो य कुंभग्गसो य पउमवासे य रयणवासे य वासे दवासिहिति, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो एकारसमे दिवसे बीतिकंते जाव संपत्ते बारसाहदिवसे * अयमेयास्वं गोण्णं गुणनिप्फन्नं नामधेनं काहिति-जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि जायंसि समाणंसि सय
दुबारे नगरे सम्भितरवाहिरिए जाव रयणवासे बुढे तं होउ णं अम्हं इमस्स दारगस्स नामधेनं महापउमे| महा० तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेज़ करेहिंति महापउमोत्ति, तए णं तं महापउमं दारगं | अम्मापियरो सातिरेगहवासजायगं जाणित्ता सोभणंसि तिहिकरणदिवसनक्खत्तमुहुत्तंसि महया २राया.
अनुक्रम
[६५५
-६५७]
गोशालक-चरित्रं
~2840
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५७-५५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५७-५५९]
दीप
व्याख्या-1||भिसेगेणं अभिसिंचेहिंति, से णं तत्य राया भविस्सति महया हिमवंतमहंतवनओ जाव विहरिस्सइ, तए णं || प्रज्ञप्तिः तस्स महापउमस्स रनो अन्नदा कदायि दो देवा महड्डिया जाव महेसक्खा सेणाकम्मं काहिंति, तं०-पुन्नभद्दे
लकशतेअभयदेवी-18य माणिमहे य, तए ण सयदुवारे नगरे बहवे राईसरतलबरजाच महेसक्खा सेणाकर्म जाव सत्यवाह- गोशालक-. या वृत्तिः२ मा
प्पभिईओ अन्नमन्नं सदावेहिंति अ० एवं बदेहिति-जम्हा णं देवाणुप्पिया! अम्हं महापउमस्स रन्नो दो देवा गतिविमलcan18/महद्विया जाव सेणाकम्मं करेंति तं०-पुनभद्दे य माणिभद्दे य, तं होउ णं देवाणुप्पिया अम्ह महापउमस्स रनो|| वाहनभव
दोचंपि नामधेजे देवसेणे दे०२, तए णं तस्स महापउमस्स रन्नो दोचेऽवि नामधेजे भविस्सति देवसेणेति च सू५५९ २, तए णं तस्स देवसेणस्स रन्नो अन्नया कथाइ सेते संखतलविमलसन्निगासे चउईते हस्थिरपणे समुप्पजिस्सह, तए णं से देवसेणे राया तं सेयं संखतलविमलसन्निगासं चउतं हत्थिरयणं दूरूढे समाणे सयवारं नगरं मझमझेणं अभिक्खणं २ अतिजाहिति निवाहिति य, तएणं सयदुवारे नगरे वहवे राईसरजाव पभिईओ है। अन्नमन्नं सहावेंति अ० २ वदेहिति-जम्हा णं देवाणुप्पिया ! अम्हं देवसेणस्स रनो सेते संखतलसन्निकासे | चउईते हत्थिरयणे समुप्पन्ने, तं होज णं देवाणुप्पिया! अम्हं देवसेणस्स रन्नो तचेवि नामधेजे विमलवाहणे वि०२, तए णं तस्स देवसेणस्स रनो तच्चेवि नामधेज्जे विमलवाहणेत्ति । तए णं से विमलवाहणे राया है। अन्नया कदायि समणेहिं निग्गंथेहिं मिच्छ विप्पडिवविहिति अप्पेगतिए आउसेहिति अप्पेगतिए अवहसि-1
॥६८८॥ हिति अप्पेबतिए निच्छोडेहिति अप्पेगतिए निन्भत्थेहिति अप्पेगतिए धंधेहिति अप्पेगतिए णिभेहिति |
अनुक्रम
[६५५
-६५७]
गोशालक-चरित्रं
~285
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५७-५५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५७-५५९]
दीप
अप्पेगतियाणं छविच्छेदं करेहिति अप्पेगतिए पमारेहिह अप्पेगतियाणं उद्दवेहिति अप्पेगतियाण वत्थं पाडगह कंबलं पायपुंछणं आच्छिदिहिति विञ्छिदिहिति भिंदिहिति अवह रिहिति अप्पेगतियाणं भत्तपाणं
वोच्छिदिहि ति अप्पेगतिए णिन्नगरे करेहिति अप्पेगतिए निविसए करेहिति, तए णं सयदुवारे नगरे बहवे 8 द राईसरजाव वविहिति-एवं खलु देवाणु विमलवाहणे राया समणेहिं निग्गंधेहि मिच्छ विप्पडिवन्ने अप्पे-द
गतिए आउस्सति जाव निविसए करेति, तं नो खलु देवाणुप्पिया! एयं अम्हं सेयं नो खलु एयं विमलवाहणस्स रन्नो सेयं नो खलु एयं रजस्स वा रहस्स वा बलस्स चा वाहणस्स वा पुरस्स वा अंतेउरस्स वा जणवयस्स वा सेयं जणं विमलवाहणे राया समणेहिं निग्गंथेहि मिच्छ विप्पडिवन्ने, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं विमलवाहणं रायं एयम8 विनवित्तएत्तिकटु अन्नमन्नस्स अंतियं एयमझु पटिमुणेति अं०२जेणेच विमलवाहणे राया तेणेव उ०२ करयलपरिग्गहियं विमलवाहणं रायं जएणं विजएणं वद्धाति ज.२एवं | व-एवं खल्लु देवाणु समणेहिं निग्गंथेहि मिच्छ विप्पडिवन्ना अप्पेगतिए आउस्संति जाव अप्पेगतिए निविसए करेंति, तं नो खलु एयं देवाणुप्पियाण सेयं नो खलु एयं अम्हं सेयं नो खलु एयं रजस्स वा जाव! | जणवयस्स वा सेयं जणं देवाणुप्पिया ! समणेहिं निग्गंथेहि मिच्छ विपडिबन्ना तं विरमंतु णं देवाणुप्पिया! दएअस्स अट्ठस्स अकरणयाए, तए णं से विमलवाहणे राया तेहिं पहहिं राईसरजाव सत्यवाहप्पभिईहिं
एयम विन्नत्ते समाणे नो धम्मोत्ति नो तवोत्ति मिच्छा विणएणं एयमह पडिमुणेहिं ति, तस्स णं सयदुवा-2
अनुक्रम
[६५५
-६५७]
गोशालक-चरित्रं
~286
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५७-५५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५७-५५९]
टीप
व्याख्या- रस्स नगरस्स पहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे एत्थ णं सुभूमिभागे नाम उजाणे भविस्सइ सबोज्यो
प्रज्ञप्तिः वन्नओ। तेणं कालेणं तेणं समएणं विमलस्स अरहओ पउप्पए सुमंगले नाम अणगारे जाइसंपन्ने जहा लकशते अभयदेवी- धम्मघोसस्स चन्नओ जाव संखित्तविउलतेयलेस्से तिन्नाणोवगए सुभूमिभागस्स उजाणस्स अदूरसामंते छ8-14 गोशालकया वृत्ति | छटेणं अणि जाव आयावेमाणे विहरिस्सति । तए णं से विमलवाहणे राया अन्नया कदायि रहचरियं ।
गतिविमल॥१८॥ IAS काउं निजाहिति, तए णं से विमलचाहणे राया सुभूमिभागस्स उजाणस्स अदूरसामंते रहचरियं करेमाणे | वाहनभवसुमंगलं अणगारं छटुंछट्टेणं जाव आयावेमाणं पासिहिति पा०२ आसुरुत्ते जाच मिसिमिसेमाणे सुमंगलं
श्च सू ५५९ अणगारं रहसिरेणं [अन्धानम् १००००] णोल्लावेहिति, तए णं से सुमंगले अणगारे विमलवाहणेणं रन्ना रहसिरेणं नोल्लाविए समाणे सणियं २ उद्देहिति उ०२ दोचंपि उहुं पाहाओ पगिज्झिय जाव आयावेमाणे विहरिस्सति, तए णं से विमलवाहणे राया सुमंगलं अणगारं दोचपि रहसिरेणं णोल्लावेहिति, तए णं से
सुमंगले अणगारे विमलवाहणेणं रन्ना दोचंपि रहसिरेणं णोल्लाविए समाणे सणियं २ उद्देहिति उ०२ जाओहिं पउंजति २त्ता विमलवाहणस्स रणो तीतद्धं ओहिणा आभोएहिति २त्ता विमलवाहणं रायं एवं वहिति-नो खलु तुमं विमलवाहणे राया नो खलु तुर्म देवसेणे राया नो खलु तुमं महापउमे राया, ॥६८९॥
तुमण्णं इओ तचे भवग्गहणे गोसाले नाम मंखलिपुत्ते होत्था समणघायए जाव छउमत्थे चेच कालगए, सात जति ते तदा सवाणुभूतिणा अणगारेणं पभुणावि होऊणं संम्मं सहियं खमियं तितिक्खयं अहियासियं
अनुक्रम
[६५५
-६५७]
गोशालक-चरित्रं
~287
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५७-५५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५७-५५९]
दीप
# ASSESSES SEX
||जह ते तदा सुनक्खत्तेणं अण० जाव अहियासियं, जइ ते तदा समणेणं भगवया महावीरेणं पभुणावि जाव || अहियासियं, तं नो खलु ते अहं तहा सम्मं सहिस्सं जाच अहियासिस, अहं ते नवरं सहयं सरहं ससारहियं तवेणं तेएक एगाहर्च कूडाहचं भासरासिं करेजामि, तए णं से विमलवाहणे राया सुमंगलेणं अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे सुमंगलं अणगारं तच्चंपि रहसिरेणं णोल्लावेहिति, || तए णं से सुमंगले अणगारे विमलवाहणेणं रण्णा तचंपि रहसिरेणं नोल्लाविए समाणे आसुरुत्ते जाव मिसि-18 | मिसेमाणे आयावणभूमीओ पचोरुभइ आ०२ तेयासमुग्धाएणं समोहनिहिति तेया० २ सत्तट्ट पयाई पच्चोसकिहिति सत्तट्ट०२ विमलवाहणं रायं सहयं सरहं ससारहियं तवेणं तेएणं जाव भासरासिं करेहिति । सुमंगले णं भंते । अणगारे विमलवाहणं रायं सहयं जाव भासरासिं करेत्ता कहिं गच्छिहिति कहिं उववजिहिति ?, गोयमा ! सुमंगले अणगारे णं विमलवाहणं रायं सहयं जाव भासरासिं करता बहहिं चउत्थ छट्ठ|हमदसमदुवालसजावविचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बदइं वासाई सामन्नपरियागं पाउणेहि रत्ता मासियाए संलेहणाए सहि भत्ताए अणसणाए जाच छेदेता आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते उहुं चंदिमजाव गेविजविमाणावाससयं वीयीवइत्ता सबसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववजिहिति, तत्थ णं देवाणं अजहन्नम|णुकोसेणं तेत्तीसं सागरोचमाई ठिती प०, तत्थ णं सुमंगलस्सवि देवस्स अजहन्नमणुकोसणं तेत्तीसं सागरो
अनुक्रम
[६५५
-६५७]
गोशालक-चरित्रं
~288
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५७-५५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
IP
प्रत
सूत्रांक
[५५७-५५९]
व्याख्या-1 चमाई ठिती पमत्ता । से णं भंते ! सुमंगले देवे ताओ देवलोगाओ जाव महाविदेहे वासे सिजिशहिति जाव|१५ गोशाप्रज्ञप्तिः अंतं करेति (सूत्रं ५५९)।
लकशतम् अभयदेवी- 'साण(ल)कोहए नामं चेईए होत्था बन्नओत्ति तद्वर्णको वाच्यः स च 'चिराईए'इत्यादि 'जाव पुढविसिलापया वृत्तिः २ ओत्ति पृथिवीशिलापट्टकवर्णकं यावत् स च तस्स णं असोगवरपायवस्स हेट्ठा इसिंखंधीसमल्लीणे'इत्यादि ॥६९०॥
'मालुयाकच्छए'त्ति मालुका नाम एकास्थिका वृक्षविशेषास्तेषां यत्कक्ष-गहनं तत्तथा । 'विउले'त्ति शरीरव्यापकत्वात् || 'रोगायके'त्ति रोगः-पीडाकारी स चासावातश्च-व्याधिरिति रोगातङ्कः 'जजल्ले ति उज्ज्वलः पीडापोहलक्षणविपक्षलेशे-|| 18|| नाप्यकलङ्कितः, यावत्करणादिदं दृश्य-तिउले' त्रीन्-मनोवाकायलक्षणानर्थास्तुलयति-जयतीति त्रितुलः 'पगादे' प्रकर्ष
वान् 'ककसे' कर्कशद्रव्यमिवानिष्ट इत्यर्थः 'कडए' तथैव चंडे' रौद्रः 'ति' सामान्यस्य झगितिमरणतः 'दक्खे'त्ति दुःखो दुःखहेतुत्वात् 'दुग्गे'त्ति कचित् तत्र च दुर्गमिवानभिभवनीयत्वात्, किमुक्तं भवति ?-'दुरहियासेत्ति दुरधिसद्यः सोदुमशक्य इत्यर्थः 'दाहयतीए'त्ति दाहो व्युत्क्रान्तः-उत्पन्नो यस्य स स्वार्थिककप्रत्यये दाहव्युत्क्रान्तिकः 'अ| वियाईति अपिचेत्यभ्युच्चये 'आई'ति वाक्पालङ्कारे 'लोहियवच्चाइंपित्ति लोहितवर्चास्यपि-रुधिरात्मकपुरीपाण्यपि करोति किमन्येन पीडावर्णनेनेति भावः, तानि हि किलात्यन्तवेदनोत्पादके रोगे सति भवन्ति,'चाउवएणं'ति चातुर्वर्ण्य-ग्राम- || PM
ट ॥६९०॥ णादिलोकः, 'झाणतरियाए'त्ति' एकस्य ध्यानस्य समाप्तिरन्यस्यानारम्भ इत्येषा ध्यानान्तरिका तस्यां 'मणोमाणसि-18 एण'ति मनस्येव न बहिर्वचनादिभिरप्रकाशितत्वात् यन्मानसिकं दुःखं तन्मनोमानसिकं तेन 'दुवे कवोया'इत्यादेः श्रूय-16
PRAKAR
दीप अनुक्रम [६५५
-६५७
ForFReasFINAaponr
गोशालक-चरित्रं
~289~
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५७-५५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५५७-५५९]
माणमेवार्थ केचिन्मन्यन्ते, अन्ये त्याहुः-कपोतकः-पक्षिविशेषस्तद्वद् ये फले वर्णसाधात्ते कपोते-कूष्माण्डे ह्रस्वे कपोते कपोतके ते च ते शरीरे बनस्पतिजीवदेहत्वात् कपोतकशरीरे, अथवा कपोतकशरीरे इच धूसरवर्णसाधादेव कपोतकशरीरे कूष्माण्डफले एव ते उपसंस्कृते-संस्कृते तेहिं नो अट्ठो'त्ति बहुपापत्वात् 'पारिआसिए'त्ति परिवासितं ह्यरतनमित्यर्थः, 'मज्जारकडए'इत्यादेरपि केचित् श्रूयमाणमेवार्थं मन्यन्ते, अन्ये वाहुः-भाजीरो-वायुविशेषस्तदुपशमनाय कृतं-संस्कृतं माजोरकृतम्, अपरे त्वाहुः-माजारो-विरालिकाभिधानो वनस्पतिविशेषस्तेन कृतं-भावितं यत्तत्तथा, किं तत् ? इत्याह'कुर्कुटकमांसकं' बीजपूरकं कटाहम् 'आहराहित्ति निरवद्यत्वादिति। 'पत्तगं मोएति'त्ति पात्रक-पिठरकाविशेष मुञ्चति सिक्कके उपरिकृतं सत्तस्मादवतारयतीत्यर्थः 'जहा विजयस्स'त्ति यथा इहैव-इह शते विजयस्य वसुधाराद्युक्तं एवं तस्या अपि वाच्यमित्यर्थः, 'बिलमिवेत्यादि 'बिले इव' रन्ध्र इव पन्नगभूतेन' सर्पकल्पेन 'आत्मना' करणभूतेन 'तं' सिंहानगारोपनीतमाहार शरीरकोष्ठ के प्रक्षिपतीति 'हढे'त्ति 'हृष्टः' निर्व्याधिः 'अरोगे'त्ति निष्पीडः 'तहे हढे जाए'त्ति 'तुष्ट' तोपवान् 'हृष्टः' विस्मितः, कस्मादेवम् ? इत्याह-समणे इत्यादि हट्टेत्ति नीरोगो जात इति । 'भारग्गसो यत्ति भारपरिमाणतः, भारश्च-भारकः पुरुषोद्वहनीयो विंशतिपलशतप्रमाणो वेति, 'कुंभग्गसो य'त्ति कुम्भो-जघन्य आढकानां पट्या मध्यमस्वशीत्या उत्कृष्टः पुनः शतेनेति, 'पउमवासे य रयणवासे य वासे वासिहिति'त्ति 'वर्षः' वृष्टिवर्षिष्यति, किंविधः? इत्याह-'पद्मवर्षः' पद्मवर्परूपः, एवं रलवर्ष इति, 'सेएत्ति श्वेतः, कथंभूतः -'संखदलविमलसन्निगासेत्ति शङ्खस्य यद्दल-खण्डं तलं वा तद्रूपं विमलं तत्संनिकाशः-सदृशो यः स तथा, प्राकृतत्वाच्चैवं समासः, 'आउसि
456-05RECE5-25645%
दीप
अनुक्रम [६५५-६५७]
व्या०1१६
गोशालक-चरित्रं
~290
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५७-५५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५७
-५५९]
दीप
व्याख्या-IM हिद'सि आक्रोशान दास्यति 'निच्छोडेहिइत्ति पुरुषान्तरसम्बन्धितहस्ताद्यवयवाः कारणतो ये श्रमणास्तांस्ततो वियोजयि-15
जाय-४ १५गोशाप्रज्ञप्तिःप्यति 'निम्भत्थेहिइत्ति आक्रोशव्यतिरिक्तदुर्वचनानि दास्यति 'पमारेहिइत्ति प्रमारं-मरणक्रियाप्रारम्भंकरिष्यति प्रमार- लकसतम् अभयदेवी-2 यिषति 'उद्दवेहित्ति अपद्रावयिष्यति, अथवा 'पमारिहिइ'त्ति मारयिष्यति 'उद्दवेहिइत्ति उपद्वान् करिष्यति आञ्छिया वृत्तिा दिहिडपति ईषत छेत्स्थति 'विच्छिदेहिड'त्ति विशेषेण विविधतया वा छेत्स्यति 'भिदिहिह'त्ति स्फोटयिष्यति पात्रापेक्षमे- ॥६९१॥ | तत् 'अवहरि हिद'त्ति अपहरिष्यति-उद्दालयिष्यति 'निन्नगरे करेहिति'त्ति निगरान्' नगरनिष्क्रान्तान् करिष्यति, ||
'रजस्स वत्ति राज्यस्य वा, राज्यं च राजादिपदार्थसमुदायः, आह च-"स्वाम्यमात्यश्च राष्ट्रं च, कोशो दुर्ग बलं सुहृत् ।। | सप्ताङ्गमुच्यते राज्य, बुद्धिसत्त्वसमाश्रयम् ॥१॥" राष्ट्रादयस्तु तद्विशेषाः, किन्तु राष्ट्र-जनपदैकदेशः, 'विरमंतु णं देवा-15
णुप्पिया ! एअस्स अट्ठस्स अकरणयाए'त्ति विरमणं किल वचनाद्यपेक्षयाऽपि स्थादत उच्यते-अकरणतया-करणनि-1 ४ पेधरूपतया । 'विमलस्स'त्ति विमलजिनः किलोत्सर्पिण्यामेकविंशतितमः समवाये दृश्यते स चावसर्पिणीचतुर्थजिनस्थाने द प्राप्नोति तस्माचार्वाचीनजिनान्तरेषु बहवः सागरोपमकोटयोऽतिकान्ता लभ्यन्ते, अयं च महापद्मो द्वाविंशतेः सागरोप|माणामन्ते भविष्यती दुःखगममिदं, अथवा यो द्वाविंशतेः सागरोपमाणामन्ते तीर्थकृदुत्सर्पिण्या भविष्यति तस्यापि विमल इति नाम संभाव्यते, अनेकाभिधानाभिधेयत्वान्महापुरुषाणामिति, 'पउप्पए'त्ति शिष्यसन्तानः, 'जहा धम्मघोसस्स वन्न
ओ'त्ति यथा धर्मघोषस्य-एकादशशतैकादशोद्देशकाभिहितस्य वर्णकस्तथाऽस्य वाच्यः, स च 'जाइसंपन्ने कुलसंपन्ने || बलसंपन्ने' इत्यादिरिति 'रहचरिय'ति रथचर्चा 'नोल्लावेहिइत्ति नोदयिष्यति-प्रेरयिष्यति सहितमित्यादय एकार्थाः ।।
अनुक्रम
AAAAX
[६५५
॥६९
॥
-६५७]
गोशालक-चरित्रं
~291
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५९-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५९R]
विमलवाहणे णं भंते ! राया सुमंगलेणं अणगारेणं सहए जाव भासरासीकए समाणे कर्हि गच्छिहिति कहिं उववजिहिति ?, गोयमा ! विमलवाहणे णं राया सुमंगलेणं अणगारेणं सहये जाव भासरासीकए समाणे अहेसत्तमाए पुढवीए उकोसकालट्ठियंसि नरयंसि नेरइयत्ताए उववजिहिति, से णं ततो अणंतरं उद-द ट्टित्ता मच्छेसु उववजिहिति, से णं तत्थ सत्थवझे दाहयक्तीए कालमासे कालं किच्चा दोच्चंपि अहे सत्तमाए | पुढवीए उक्कोसकालद्वितीयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववजिहिति, से गं तोऽणंतरं उच्चहित्ता दोचंपि मच्छेसु । | उववजिहिति, तत्थवि णं सत्थवज्झे जाव किच्चा छट्ठीए तमाए पुढवीए उक्कोसकालहिइयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववविहिति, से णं तओहितो जाव बहित्ता इत्थियामु उपजिहिति, तस्थवि णं सत्थवजा दाह || जाव दोचंपि छडीए तमाए पुढचीए उक्कोसकालजाव उच्चट्टित्ता दोचंपि इत्थियासु उवव०, तत्थवि णं सत्य| वझे जाव किच्चा पंचमाए घूमप्पभाए पुढवीए उक्कोसकालजाव उच्चहिता उरएसु उववजिहिति, तत्थवि णं सस्थवज्झे जाव किच्चा दोचंपि पंचमाए जाव उत्पट्टित्ता दोचंपि उरएसु उववचिहिति, जाव किच्चा चउत्थीए । पंकप्पभाए पुढवीए उक्कोसकालद्वितीयंसि जाव उद्यहित्ता सीहेसु उववजिहिति तत्थवि णं सत्यवझे तहेव जाव किया दोचपि चउत्थीए पंकजाव उघहित्ता दोचंपि सीहेसु उवव० जाव किचा तचाए वालुपप्पभापद
उकोसकालजाव उत्पट्टित्ता पक्खीसु उवव० तत्थवि णं सत्थवज्झे जाव किया दोचंपि तच्चाए वालुयजाव उच्चद हित्ता दोचंपि पक्खीसु उवव० जाव किच्चा दोच्चाए सकरप्पभाए जाव उच्चट्टित्ता सिरीसवेसु उवध तत्थवि
दीप अनुक्रम [६५८]
गोशालक-चरित्रं
~292
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५९-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५९R]
दीप अनुक्रम [६५८]
व्याख्या-1
लणं सत्य जाब किच्चा दोचपि दोचाए सकरप्पभाए जाव उच्चट्टित्ता दोचंपि सिरीसवेसु उवव० जाव किचा प्रज्ञप्तिः इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसकालहितीयंसि नरगंसि नेरइयत्ताए उववज्विहिति, जाव उदहित्ता
लकशर्त अभयदेवी- सपणीसु उवव० तत्थवि णं सत्थवज्झे जाव किच्चा असन्नीसु उववजिहिति, तत्थवि णं सत्थवज्झे जावे गोशालकया वृत्तिः२४ किच्चा दोचंपि इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पलिओवमस्स असंखेजइभागद्वितीयंसि गरगंसि नेरइयत्ताए स्य संसारे
भ्रमण ॥६९॥
| उपवजिहिति, से णं तओ जाव उच्छट्टित्ता जाई इमाई खहयरविहाणाई भवंति, सं०-चम्मपक्खीणं लोमप-II क्खीणं समुग्गपक्खीणं विययपक्खीणं तेसु अणेगसयसहस्सखुत्तो उदाइत्ता २ तत्व २ भुज्जो २ पञ्चाया-18|| सू ५५९ हिति, सहस्थवि णं सत्थवज्झे दाहवकंतीए कालमासे कालं किच्चा जाई इमाई भुयपरिसप्पविहाणाई है भवंति, तंजहा-गोहाणं नउलाणं जहा पन्नवणापए जाव जाहगाणं, तेसु अणेगसयसहस्सखुत्तो सेसं जहा खहचराणं जाव किचा जाई इमाई उरपरिसप्पविहाणाई भवंति, तं०-अहीणं अयगराणं आसालियाण महोरगाणं, तेसु अणेगसयसह जाव किया जाइं इमाई चउप्पदविहाणाई भवति, तं०-एगखुराणं दुखुराणं
गंडीपदाणं सणहपदाणं, तेसु अणेगसयसहस्स जाव किचा जाई इमाई जलयरविहाणाई भवंति तं०-मच्छाणं | || कच्छभाणं जाव सुसुमाराण, तेसु अणेगसपसह जाव किया जाई इमाई चारिदियविहाणाई भवंति, तं०-18 अंधियाणं पोत्तियाणं जहा पन्नवणापदे जाव गोमयकीडाणं, तेसु अणेगसयसह जाव किचा जाई इमाई तेई-1
॥६९२॥ दियविहाणाई भवंति, तं०-उवचियाणं जाव हथिसोंडाणं तेमु अणेगजाव किचा जाई इमाई इंदियवि-II
HASARAN
गोशालक-चरित्रं
~293
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५९-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५९R]
दीप अनुक्रम [६५८]
Bहाणाई भवंति तं०-पुलाकिमियाणं जाच समुद्दलिक्खाणं, तेसु अणेगसयजाव किचा जाई इमाई वणस्सहवि.
हाणाई भवंति, तं०-रुकखाणं गुच्छाणं जाव कुहणाणं, तेसु अणेगसय जाव पचायाहस्सइ, उस्सनं च णं कड्डयरुक्खेसु कडुयवल्लीसु सवत्थवि णं सत्थवज्झे जाव किया जाई इमाई बाउक्काइयविहाणाई भवंति,
तंजहा-पाईणवायाण जाव सुद्धवायाणं तेसु अणेगसयसहस्सजाय किचा जाईइमाईतेउकाइयविहादणाई भवंति, तं०-इंगालाणं जाव सूरकंतमणिनिस्सियाणं, तेसु अणेगसयसह जाव किचा जाई इमाई आ
उक्काइयविहाणाई भवंति, तं-उस्साणं जाव खातोदगाणं, तेसु अणेगसयसहजाव पञ्चायातिस्सइ, उस्सपेणं च णं खारोदएसु खातोदएसु, सवत्थवि णं सत्धवजझे जाव किया जाई इमाई पुढविकाइयविहाणाई भवंति, तं०-पुढवीणं सकराणं जाव सूरकंताणं, तेसु अणेगसयजाव पचायाहिति, उस्सन्नं च शंखरबायरपुढविकाइएम. सपथवि णं सत्थवज्झे जाव किच्चा रायगिहे नगरे बाहिं वरियत्ताए उववजिहिह, तत्थवि गं सत्थवज्झे जाव किया दुचपि रायगिहे नगरे अंतोखरियत्ताए उबवजिहिति, तत्थवि णं सत्थवज्झे जाव किच्चा (सूत्रं ५५९४
'सस्थवोत्ति शस्त्रवध्यः सन् 'दाहवतीए'त्ति दाहोत्सत्त्या कालं कृत्वेति योगः दाहव्युत्क्रान्तिको वा भूत्वेति शेषः, है इह च यथोक्तक्रमेणवासजिप्रभृतयोरलप्रभादिषु यत उत्पद्यन्त इत्यसी तथैवोत्पादितः, यदाह-"अस्सण्णी खलु पढम
दोच्चं च सिरीसिवा तश्य पक्खी । सीहा जति चउत्थिं उरगा पुण पंचमि पुढविं ॥१॥छट्टि च इत्थियाओ मच्छा मणुया IAय सत्तमि पुढविं ॥"[ असंझिनः खलु प्रथमां द्वितीयां च सरिसृपाः तृतीयां पक्षिणः । सिंहा यान्ति चतुर्थी पंची पुनः
गोशालक-चरित्रं
~294
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अगसूत्र-५ (मूल+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५९-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५५९R]
व्याख्या-18|| पृथ्वीमुरगाः ॥१॥ षष्ठीं च स्त्रियो मत्स्या मनुष्याश्च सप्तमी पृथ्वीम् ॥] इति, 'खहचरविहाणाई ति इह विधानानि-भेदाः ||१५ गोशा
प्रज्ञप्तिः 'चम्मपक्खीणं'ति वल्गुलीप्रभृतीनां 'लोमपक्खीणति हंसप्रभृतीनां 'समुग्गपक्खीणं'ति समुद्गकाकारपक्षवतां मनु- लकशतं अभयदेवी-|| प्यक्षेत्रबहित्तिनां विययपक्षीण'ति विस्तारितपक्षवतां समयक्षेत्रबहिवर्तिनामेवेति 'अणेगसयसहस्सखुत्तों इत्यादि त गाशालक या वृत्तिः२ यदुक्तं तत्सान्तरमवसेय, निरन्तरस्य पञ्चेन्द्रियत्वलाभस्योत्कर्षतोऽप्यष्टभवप्रमाणस्यैव भावात् , यदाह-'पंचिंदियतिरिय-13
स्य संसारे
भ्रमणं ॥६९३॥ नरा सत्तट्ठभवा भवग्गहेण"[पञ्चेन्द्रियस्तिर्यग्नराः सप्ताष्टभवाः भवग्रहणैः] त्ति 'जहा पन्नवणापए'त्ति प्रज्ञापनायाः
सू५५९ प्रथमपदे, तत्र चैवमिदं-'सरडाणं सल्लाण'मित्यादि । 'एगखुराणं ति अश्वादीनां 'दुखुराण'ति गवादीनां 'गंडीप-* याणं ति हस्त्यादीनां 'सणहप्पयाण'ति सनखपदानां सिंहादिनखराणां 'कच्छभाणं ति इह यावत्करणादिदं दृश्य'गाहाणं मगराणं पोत्तियाणं इत्यत्र 'जहा पन्नवणापए'त्ति अनेन यत्सूचितं तदिदै-'मच्छियाणं गमसियाण'मि-18 त्यादि, 'उपचियाणं' इह यावत्करणादिदं दृश्य-रोहिणियाणं कुंथूर्ण पिविलियाण मित्यादि, 'पुलाकिमियाण'मित्यत्र यावत्करणादिदं दृश्य-'कुच्छिकिमियाणं गंडूलगाणं गोलोमाण'मित्यादि, 'रुक्खाणं ति वृक्षाणामेकास्थिकबहुबीजकभेदेन द्विविधानां, तत्रैकास्थिकाः निम्बाम्रादयः बहुवीजा-अस्थिकतिन्दुकादयः, 'गुच्छाणं ति वृन्ताकीमभृतीनां यावकरणादिदं दृश्य-गुम्माणं लयाणं वल्लीणं पचगाणं तणाणं बलयाण हरियाणं ओसहीणं जलरुहाणं'ति तत्र || 'गुल्माना' नवमालिकाप्रभृतीनां 'लतानां' पद्मलतादीनां 'वल्लीनां' पुष्पफलीप्रभृतीनां 'पर्वकाणाम्' इक्षुप्रभृतीनां 'तृणानां | दर्भकुशादीनां 'वलयानां' तालतमालादीनां 'हरितानाम् अध्यारोहकतन्दुलीयकादीनाम् 'औषधीनां' शालिगोधूमप्रभृतीनां |
HUMANAXHU6*
X
दीप अनुक्रम [६५८]
*
गोशालक-चरित्रं
~295
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५५९-R] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
%
प्रत सूत्रांक [५५९R]
AEBAR
कर
| 'जलरुहाणां' कुमुदादीनां 'कुहणाणं ति कुहुणानाम् आयुकायप्रभृतिभूमीस्फोटानाम् 'उस्सन्नं च णति बाहुल्येन पुनः | |'पाईणवायाणं ति पूर्ववातानां यावत्करणादेवं दृश्य--'पडीणवायाणं दाहिणवायाण'मित्यादि, 'सुद्धवायाण'ति | मन्दस्तिमितवायूनाम्, 'इंगालाणं' इह यावत्करणादेवं दृश्य-'जालाणं मुम्मुराणं अचीण'मित्यादि, तत्र च 'ज्वाला-18 नाम्' अनलसम्बद्ध स्वरूपाणां 'मुर्मुराणां' फुम्फुकादौ मसृणाग्निरूपाणाम् 'अर्चिषाम्' अनलाप्रतिबद्धज्वालानामिति । 'ओसाणं'ति रात्रिजलानाम् , इह यावत्करणादिदं दृश्यं-'हिमाणं महियाणं'ति, 'खाओदयाणं'ति खातायां-भूमी | यान्युदकानि तानि खातोदकानि, 'पुढवीण ति मृत्तिकानां 'सकराण'ति शर्करिकाणां यावत्करणादिदं रश्य-'वाल्लु
याणं उबलाण'ति, 'सूरकताणं ति मणिविशेषाणां, 'बाहिं खरियत्ताए'त्ति नगरबहिर्वतिवेश्यात्वेन प्रान्तजवेश्यात्वेनेत्यन्ये, ZI'अंतोखरियत्ताए'त्ति नगराभ्यन्तरवेश्यात्वेन विशिष्टवेश्यात्वेनेत्यन्ये ।
इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विंझगिरिपायमूले बेभेले सन्निवेसे माहणकुलंसि दारियत्ताए पचायाहिति। तए णं तं दारियं अम्मापियरो उम्मुक्कबालभाचं जोषणगमणुप्पत्तं पडिरूवएणं सुकेणं पडिरूविएणं विणएणं पडिरूवियस्स भत्तारस्स भारियत्ताए दल इस्सति, साणं तस्स भारिया भविस्सति इट्टा कंता जाव अणुमया | भंडकरंडगसमाणा तेल्लकेला इव सुसंगोविया चेलपेडा इव सुसंपरिग्गहिया रयणकरंडओविव सुसारक्खिया |सुसंगोविया मा णं सीयं मा णं जुहं जाव परिस्सहोवसग्गा फुसंतु । तए णं सा दारिया अन्नदा कदायि गुधिणी समुरकुलाओ कुलघरं निजमाणी अंतरा दवग्गिजालाभिहया कालमासे कालं किचा दाहिणिल्लेस र
-
दीप अनुक्रम [६५८]
--
9
2
गोशालक-चरित्रं
~296~
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [५६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१६०]
+
व्याख्या-1 अग्गिकुमारे देवेसु देवत्ताए उववजिहिति, से णं ततोहितो अणंतरं उच्चट्टित्ता माणुस्सं विग्गरं लभिहिति ॥ १५ गोशाप्रज्ञप्ति माणुस्सं २ केवलं बोहिं बुझिहिति के०२ मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पचहिति, तत्वविय णं| लकशत अभयदेवी-विराहियसामन्ने कालमासे कालं किचा दाहिणिल्लेसु असुरकुमारेसुदेवेसु देवत्ताए उववजिहिति, से णं तओ-2 दारिकासया वृत्तिः हिंतो जाव उच्चहित्ता माणुसं विग्गहं तं चेव जाच तत्थवि णं विराहियसामने कालमासे जाव किचा दाहि- म्यक्त्वचर॥६९४॥ || णिल्लेसु नागकुमारेसु देवेसु देवत्ताए उववजिहिति, से णं तओहिंतो अणंतरं एवं एएणं अभिलावेणं दाहि-पाणयुताम दिणिल्लेसु सुवन्नकुमारेसु एवं विजुकुमारेसु एवं अग्गिकुमारवजं जाव दाहिणिल्लेसु थणियकुमारसु से तओह
भवश्च जाव उच्चट्टित्तामाणुस्सं विग्गहं लभिहिति जाब विराहियसामने जोइसिएम देवेसु उववजिहिति, से णं तओ | सूप.
अणंतरं चयं चइत्ता माणुस्सं विग्ग लभिहिति जाव अविराहियसामन्ने कालमासे कालं किचा सोहम्मे कप्पे || देवत्ताए उववजिहिति, से णं तओहिंतो अर्णतरं चयं चइत्ता माणुस्सं विग्गहं लभिहिति केवलं बोर्हि बु-II झिहिति, तत्थवि णं अविराहियसामन्ने कालमासे कालं किच्चा ईसाणे कप्पे देवत्ताए उववजिहिति, सेणं तओ चहत्ता माणुस्सं विग्गहं लभिहिति, तत्थवि णं अविराहियसामन्ने कालमासे कालं किचा सणंकुमारे कप्पे देवत्ताए उववजिहिति, से णं तओहिंतो एवं जहा सणकुमारे तहा बंभलोए महासुके आणए आरणे, ९॥ से णं तओ जाव अविराहियसामने कालमासे कालं किया सबसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववजिहिति, से णं तओहितो अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेहे वासे जाई इमाई कुलाई भवंति-अहाई जाव अपरिभूयाई,
दीप अनुक्रम [६५९]
N44604
गोशालक-चरित्रं
~297
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[५६०]
दीप
अनुक्रम [६५९ ]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [–], मूलं [५६०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
तहप्पारेसु कुलेसु पुत्तत्ताए पञ्चायाहिति, एवं जहा उववाहए दढप्पन्नवत्तद्दया सचैव वत्तवया निरवसेसा भाणियवा जाब केवलवरनाणदंसणे समुप्यज्जिहिति, तए णं से दढप्पइने केवली अप्पणो तीअद्धं आभोएहीह | अप्प० २ समणे निग्गंथे सहावेहिति सम० २ एवं वदिहीइ एवं खलु अहं अज्जो ! इओ चिरातीयाए अदाए गोसाले नामं मंखलिपुत्ते होत्या समणघायए जाव छडमत्थे चेव कालगए तम्मूलगं च णं अहं अज्जो ! अणादीयं | अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंत संसारकंतारं अणुपरिपट्टिए, तं मा णं अजो ! तुझं केयि भवतु आयरियपडिणीयए उवज्झायपण्डिणीए आयरियउवज्झायाणं अयसकारए अवनकारए अकिन्तिकारए, मा णं सेऽवि एवं चैव अणादीयं अणवदग्गं जाव संसारकंतारं अणुपरियहिहिति जहा णं अहं । तए णं ते समणा निग्गंथा दृढप्पइन्नस्स केवलिस्स अंतियं एयम० सो० निसम्म भीया तत्था तसिया संसारभविग्गा दढप्पन्नं केवलिं बंदिहिंति | बं० २ तस्स ठाणस्स आलोइएहिंति निंदिर्हिति जाव पडिवज्जिहिंति, तए णं से दढम्पन्ने केवली बहूहं वासाई | केवलपरियागं पाणिहिति बहूहिं २ अप्पणो आउसेसं जाणेत्ता भत्तं पञ्चकखाहिति एवं जहा उववाइए जाब सङ्घदुकखाणमंतं काहिति । सेवं भंते । २ त्ति जाव विहरह (सूत्रं ५६० ) ॥ तेयनिसग्गो सम्मन्तो ॥ समत्तं च पद्मरसमं सर्प एक्कसरयं ।। १५-१ ॥
'परुिविएणं सुकेणं' ति 'प्रतिरूपकेन' उचितेन शुल्केन दानेन 'भंडकरंजगसमाणे 'ति आभरणभाजनतुल्या आदे
Education International
गोशालक चरित्रं
For Parata Lise Only
~298~
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[५६०]
दीप
अनुक्रम [६५९ ]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [–], मूलं [५६०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
।।६९५ ।।
येत्यर्थः 'तेलकेला इव सुसंगोवियत्ति तैलकेला इव-तैलाश्रयो भाजनविशेषः सौराष्ट्रप्रसिद्धः सा च सुष्ठु संगोपनीया भवत्यन्यथा लुठति ततश्च तैलहानिः स्यादिति, 'चेलपेडा इव सुसंपरिगहियत्ति चेलपेडावत्-वस्त्रमञ्जूषेव सुष्ठु संपरिवृत्ता (गृहीता) - निरुपद्रवे स्थाने निवेशिता । 'दाहिणिल्लेसु असुरकुमारेसु देवेसु देवत्ताए उववज्जिहिति 'त्ति विराधितश्राम* ण्यत्वादन्यथाऽनगाराणां वैमानिकेष्वेवोत्पत्तिः स्यादिति, यच्चेह 'दाहिणिल्लेसु'त्ति प्रोच्यते तत्तस्य क्रूरकर्म्मत्वेन दक्षिणक्षेत्रेष्वेवोत्पाद इतिकृत्वा, 'अविराहियसामन्ने'त्ति आराधितचरण इत्यर्थः, आराधितचरणता चेह चरणप्रतिपत्तिसमया| दारभ्य मरणान्तं यावन्निरतिचारतया तस्य पालना, आह च - "आराहणा य एत्थं चरणपडिवत्तिसमयओ पभिई । आमरणंतमजस्सं संजमपरिपालणं बिहिणा ॥ १ ॥” इति [ आराधना चात्र चारित्रप्रतिपत्तिसमयत आरभ्य आमरणान्तमजस्रं विधिना संयमपरिपालना ॥ १ ॥ ] एवं चेह यद्यपि चारित्रप्रतिपत्तिभवा विराधनायुक्ता अग्निकुमारवर्जभवन पतिज्योति - ष्कत्वहेतुभवसहिता दश अविराधनाभवास्तु यथोक्तसौधर्मादिदेवलोकसर्वार्थसिद्ध चुत्पत्तिहेतवः सप्ताष्टमश्च सिद्धिगमनभव | इत्येवमष्टादश चारित्रभवा उक्ताः, श्रूयन्ते चाष्टैव भवांश्चारित्रं भवति तथाऽपि न विरोधः, अविराधनाभवानामेव ग्रहणादिति, अन्ये स्वाहुः "अट्ठ भवा उ चरिते " [ चारित्रेऽष्टौ भवाः ।] इत्यत्र सूत्रे आदानभवानां वृत्तिकृता व्याख्यातत्वात् चारित्रप्रतिपत्तिविशेषिता एवं भवा ग्राह्याः, नाराधनाविराधनाविशेषणं कार्यम्, अन्यथा यद्भगवता श्रीमन्महावीरेण | हालिकाय प्रत्रज्या बीजमिति दापिता तन्निरर्थकं स्यात्, सम्यक्त्वमात्रेणैव बीजमात्रस्य सिद्धत्वात्, यत्तु चारित्रदानं तस्य
व्याख्याप्रज्ञप्तिः
अभयदेवीया वृत्तिः २
गोशालक चरित्रं
For Penal Use Only
~ 299~
१५ गोशालकशते दारिकासम्यक्त्वचर
णयुताभवा दृढप्रतिज्ञ
भवच सू ५६०
||६९५॥
www.landbrary.or
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [१६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५६०]
६ तदष्टमचारित्रे सिद्धिरेतस्य स्यादिति विकल्पादुपपनं स्यादिति, यच्च दशसु विराधनाभवेषु तस्य चारित्रमुपवर्णितं तद्रव्य-1
तोऽपि स्यादिति न दोष इति, अन्ये त्वाहुः-न हि वृत्तिकारवचनमात्रावष्टम्भादेवाधिकृतसूत्रमन्यथा व्याख्येयं भवति, * आवश्यकचूर्णिकारेणाप्याराधनापक्षस्य समर्थितत्वादिति। 'एवं जहा उववाइए'इत्यादि भावितमेवाम्मडपरिव्राजककथानक इति ॥ पञ्चदर्श शतं वृत्तितः समाप्तमिति ॥
श्रीमन्महावीरजिनप्रभावाद्गोशालकाहतिवद्गतेषु । समस्तविघ्नेषु समापितेय, वृत्तिः शते पञ्चदशे मयेति ॥१॥
दीप
अनुक्रम [६५९]
RAAGAR
॥ इति श्रीमदभयदेवसूरिवर्यविहितविवरणयुतं पश्चदशं गोशालाख्यं शतकं समाप्तम् ॥ ) SSSORS-
SHRS5ER--SHRSSES
अथ पंचदशमं शतकं परिसमाप्तं
~300
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[५६१
-५६२]
+
गाथा
दीप
अनुक्रम
[६६०
-६६२]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र -५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [−], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [१], मूलं [ ५६१-५६२] + गाथा
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः -अभयदेवीया वृत्तिः २
॥ ६९६ ॥
॥ अथ षोडशं शतकम् ॥
व्याख्यातं पचदर्श शर्त, तत्र चैकेन्द्रियादिषु गोशालकजीवस्यानेकधा जन्म मरणं चोकं, इहापि जीवस्य जन्ममरणाद्युच्यते इत्येवं सम्बन्धस्यास्येयमुद्देशकाभिधानसूचिका गाथा
अहिगरणि जरा कम्मे जावतियं गंगदत्त सुमिणे य । उचओग लोग बलि ओही दीव उदही दिसा धणिया ॥ १ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी अस्थि णं भंते ! | अधिकरणिंसि वाउयाए वकमति ?, हंता अस्थि, से भंते । किं पुढे उद्दाइ अपुढे उद्दाह 2, गोयमा ! पुढे उद्दार नो अपुढे उदाइ, से भंते । किं ससरीरी निकखमइ असरीरी निक्खमह एवं जहा बंदर जाव नो असरीरी निक्खमह (सूत्रं ५६१ ) । इंगालकारियाए णं भंते ! अगणिकाए केवतियं कालं संचिट्ठति ?, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुद्दत्तं उक्कोसेणं तिन्नि राइंदियाई, अन्नेवि तत्थ वाउपाए वकमति, न विणा वाडयाएणं अगणिकाए उज्जलति (सूत्रं ५६२ ) ॥
'अहिगरणी'त्यादि, 'अहिगरणि' त्ति अधिक्रियते म्रियते कुट्टनार्थ लोहादि यस्यां साऽधिकरणी-लोहूकाराद्युपकरण| विशेषस्तत्प्रभृतिपदार्थविशेषितार्थविषय उद्देशकोऽधिकरण्येवोच्यते स चात्र प्रथमः, 'जर'त्ति जराद्यर्थविषयत्वाज रेति द्वितीयः, 'कम्मे'ति कर्म्मप्रकृतिप्रभृतिकार्थविषयत्वात्कर्मेति तृतीय', 'जावइयं'ति 'जावइय' मित्यनेनादिशब्देनोपलक्षितो
Education Internationa
अत्र षोडशमे शतके प्रथम उद्देशक: आरब्धः
For Prata Use Only
अथ षोडशमं शतकं आरभ्यते
~301~
१६ शतके
उद्देशः १ अधिकर
पयांवायुः अंगारका
शेरायुःसू
५६१-५६२
||६९६॥
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [५६१-५६२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [५६१-५६२]
जावइयमिति चतुर्थः, 'गंगदत्त'त्ति गङ्गदसदेववक्तव्यताप्रतिबद्धत्वाद् गङ्गादत्त एव पञ्चमः, 'सुमिणे यत्ति स्वप्नविषय| स्वात्स्वम इति षष्ठः, 'उवओग'त्ति उपयोगार्थप्रतिपादकत्वादुपयोग एव सप्तमः, 'लोग'त्ति लोकस्वरूपाभिधायकत्वाल्लोक एवाष्टमः, 'बलि'त्ति बलिसम्बन्धिपदार्थाभिधायिकत्वादलिरेव नवमः, 'ओहित्ति अवधिज्ञानप्ररूपणाधंवादवधिरेव दशमः, 'दीवत्ति द्वीपकुमारवक्तव्यतार्थो द्वीप एवैकादशः 'उदहित्ति उदधिकुमारविषयत्वादुदधिरेव द्वादश 'विसित्ति दिकमारविषयत्वाद्दिगेव त्रयोदशः, 'धणिए'त्ति स्तनितकुमारविषयत्वात्स्तनित एव चतुर्दश इति । तत्राधिकरणीत्युद्देशकार्थप्र|स्तावनार्थमाह-'तेण मित्यादि, 'अत्धिति अस्त्ययं पक्षः 'अहिगरणिंसित्ति अधिकरण्यां 'वाउयाए'त्ति वायुकायः
'वकमइत्ति व्युत्क्रामति अयोधनाभिघातेनोत्पद्यते, अयं चाक्रान्तसम्भवत्वेनादावचेतनतयोत्पन्नोऽपि पश्चात्सचेतनीभव-5 ६ तीति सम्भाव्यत इति ॥ उत्पन्नश्च सन् वियत इति प्रश्चयन्नाह से भंते इत्यादि, 'पुढे'त्ति स्पृष्टःस्वकायशस्खादिना सशरी
रश्च कडेवरान्निष्कामति कार्मणाद्यपेक्षया औदारिकाद्यपेक्षया त्वशरीरीति ॥ अग्निसहचरत्वाद्वायोर्वायुसूत्रानन्तरमग्निसूत्रमाह-'इंगाले त्यादि, 'इंगालकारियाए'ति अङ्गारान् करोतीति अङ्गारकारिका-अग्निशकटिका तस्यां, न केवलं तस्यामग्निकायो भवति 'अन्नेऽविऽत्य'त्ति अन्योऽप्यत्र वायुकायो व्युत्क्रामति, यत्राग्निस्तत्र वायुरितिकृत्वा, कस्मादेवमित्याह-14 'न विणे'त्यादि । अत्यधिकारादेवाग्नितप्तलोहमधिकृत्याहall 'पुरिसे णं भंते । अयं अयकोटसि अयोमएणं संडासएणं उचिहमाणे वा पधिहमाणे वा कतिकिरिएका हा गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे अयं अयकोर्सेसि अयोमएणं संडासएणं उधिहिति वा पविहिति वा ताब-18
गाथा
दीप अनुक्रम [६६०
-६६२]
SAMEaratd..
~302
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [५६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५६३]
दीप अनुक्रम [६६३]
व्याख्या- च णं से पुरिसे कातियाए जाव पाणाइवायकिरियाए पंचहि किरियाहिं पुढे, जेसिपिय णं जीवाणं सरीरेहितो १६ शतके
प्रज्ञाप्तः अए नियत्तिए अयकोट्टे निवत्तिए संडासए निवत्तिए इंगाला निबत्तिया इंगालकहिणि निपत्तिया भत्था निव- उद्दशा अभयदेवी
त्तिया तेवि णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा । पुरिसे णं भंते ! अयं अयकोहाओ अयोमएणं या वृत्तिः२ |संडासएणं गहाय अहिकरणिसि उक्खित्रमाणे वा निक्खित्वमाणे वा कतिकिरिए ?, गोयमा ! जावं च णं से
णि क्रियाः
सू ५६३ ॥६९७॥ पुरिसे अयं अयकोट्ठाओ जाच निक्खिवइ वातावं च णं से पुरिसे काइयाए जाच पाणाइवायकिरियाए
पंचहिं किरियाहिं पुढे, जेसिपि णं जीवाणं सरीरेहितो अयो निबत्तिए संडासए निबत्तिए चम्मेढे निवत्तिए मुट्टिए निवत्तिए अधिकरणि अधिकरणिखोडी णि उदगदोणी णि अधिकरणसाला निवत्तिया तेवि णं
जीचा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा (सूत्रं ५६३)॥ मा 'पुरिसे णं भंते इत्यादि, 'अर्य'ति लोहम् 'अयकोट्ठसित्ति लोहप्रतापनार्थे कुशूले 'उधिहमाणे वत्ति उत्क्षिपन ||
वा 'पबिहमाणे 'त्ति प्रक्षिपन् वा 'इंगालकहिणित्ति ईपद्वकामा लोहमययष्टिः 'भत्यत्ति ध्मानखाला, इह चायःप्रभः। तिपदार्थनिवर्तकजीवानां पञ्चक्रियत्वमविरतिभावेनावसेयमिति । 'चम्मेद्वेत्ति लोहमयः प्रतलायतो लोहादिकुट्टनप्रयोजनो लोहकाराथुपकरणविशेषः, 'मुट्टिए'त्ति लघुतरो घनः 'अहिगरणिखोडित्ति यत्र काठेऽधिकरणी निवेश्यते 'उदगदो-|| ॥६९७॥ |णि'त्ति जलभाजनं यत्र तप्तं लोहं शीतलीकरणाय क्षिप्यते 'अहिगरणसाल'त्ति लोहपरिकर्मगृहम् ॥ प्राक्रियाः प्ररूपिताभास्तासु चाधिकरणिकी, सा चाधिकरणिनोऽधिकरणे सति भवतीत्यतस्तयनिरूपणायाह
HORA
~303
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [५६४-५६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५६४-५६५]
जीवे णं भंते । किं अधिकरणी अधिकरणं ?, गोयमा!जीवे अधिकरणीवि अधिकरणपि, सेकेणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ जीवे अधिकरणीवि अधिकरणपि ?, गोयमा ! अविरतिं पडुच से तेणढणं जाव अहिकरणंपि॥15 नेरइए णं भंते । किं अधिकरणी अधिकरणं?, गोयमा ! अधिकरणीवि अधिकरणंपि एवं जहेव जीवे तहेव
नेरइएवि, एवं निरंतरं जाव वेमाणिए । जीवे णं भंते ! किं साहिकरणी निरहिकरणी, गोयमा ! साहिक18||रणी नो निरहिकरणी, से केणडेणं पुच्छा, गोयमा! अविरतिं पडुच, से तेणडेणं जाव नो निरहिकरणी एवं 18 | जाव वेमाणिए । जीवे णं भंते ! किं आयाहिकरणी पराहिकरणी तदुभयाहिकरणी, गोयमा ! आयाहिकरणीवि पराहिकरणीवि तभयाहिकरणीवि, से केण?णं भंते ! एवं वुचइ जाव तदुभयाहिकरणीवि, गोयमा!* अविरतिं पडुच्च, से तेणटेणं जाव तदुभयाहिकरणीवि, एवं जाव वेमाणिए ॥ जीवाणं भंते ! अधिकरणे किं आयप्पओगनिवत्तिए परप्पयोगनिवत्तिए तदुभयप्पयोगनिवत्तिए १, गोयमा! आयप्पयोगनिवत्तिएवि परप्पयोगनिवत्तिएवि तदुभयप्पयोगनियत्तिएवि, से केणटेणं भंते !एवं बुच्चइ ?, गोयमा अविरतिं पडुच, से तेणटेणं है जाव तदुभयप्पयोगनिवत्तिएवि, एवं जाव वेमाणियाणं (सूत्रं५६४)॥ कइणं भंते ! सरीरगा पण्णत्ता?,गोयमा ! |पंच सरीरा पण्णत्ता, तंजहा-ओरालिए जाव कम्मए कति णं भंते ! इंदिया पण्णता ?, गोयमा ! पंच इंदि
या पण्णत्ता, तंजहा-सोईदिए जाव फासिदिए, कतिविहे णं भंते । जोए पण्णते ?, गोयमा! तिविहे जोए| |पण्णत्ते, तंजहा-मणजोए वहजोए कायजोए ॥ जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरं निवत्तेमाणे किं अधिकरणी
दीप
अनुक्रम [६६४-६६५]
~304
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [५६४-५६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५६४-५६५]]
व्याख्या-1 अधिकरणं?, गोयमा ! अधिकरणीवि अधिकरणंपि, से केणटेणं भंते ! एवं बुखा अधिकरणीवि अधिकर-18
राधका १६ शतके प्रज्ञप्तिः पि?, गोयमा ! अविरतिं पहुच, से तेणटेणं जाव अधिकरणंपि, पुढविकाहए ण भंते ! ओरालियसरीरं
| उद्देशः१. अभयदेवी-६ निवत्तेमाणे किं अधिकरणी अधिकरणं, एवं चेव, एवं जाव माणुस्से । एवं वेउपियसरीरंपि, नवरं जस्स जीवस्याकया वृत्तिः२|| अस्थि । जीवे णं भंते ! आहारगसरीरं निवत्तेमाणे किं अधिकरणी ? पुण्ठा, गोयमा ! अधिकरणीविरणत्वं शरी॥६९८॥
| अधिकरणंपि, से केण?णं जाव अधिकरणपि ?, गोयमा ! पमायं पडुच्च, से तेण?णं जाव अधिकरणंपि, रादीनां च द्र एवं मणुस्सेवि, तेयासरीरं जहा ओरालियं, नवरं सघजीवाणं भाणियचं, एवं कम्मगसरीरपि । जीवे णं भंते !
सोइंदियं निवत्तेमाणे किं अधिकरणी अधिकरणं, एवं जहेच ओरालियसरीरं तहेव सोइंदियंपि भाणियवं, नयरं जस्स अस्थि सोइंदियं, एवं चक्खिदियघाणिदियजिभिदियफासिदियाणवि, नवरं जाणियचं जस्स
जं अस्थि । जीवे णं भंते ! मणजोगं निवत्समाणे कि अधिकरणी अधिकरणं, एवं जहेव सोईदियं तहेव निरस्व सेस, थाइजोगो एवं च, नवरं एगिदियवजाणं, एवं कायजोगोवि, नवरं सपजीवाणं जाव वेमाणिए । सेवं|
भंते !२ त्ति (सूत्रं ५६५) ॥१६-१॥ 8 'जीवे ण'मित्यादि, 'अहिगरणीवित्ति अधिकरण-दुर्गतिनिमित्तं वस्तु तच विवक्षवा शरीरमिन्द्रियाणि च तथा द वाह्यो हलगच्यादिपरिग्रहस्तदस्यास्तीत्यधिकरणी जीवः 'अहिकरणंपित्ति शरीराद्यधिकरणेभ्यः कथञ्चिदव्यतिरिक्तवाद
धिकरणं जीवः, एतच्च द्वयं जीवस्याविरतिं प्रतीत्योच्यते तेन यो विरतिमान् असी शरीरादिभावेऽपि नाधिकरणी नाण्य
दीप अनुक्रम [६६४-६६५]
~305
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [५६४-५६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५६४-५६५]
धिकरणमविरतियुक्तस्यैव शरीरादेरधिकरणत्वादिति ॥ एतदेव चतुर्विंशतिदण्डके दर्शयति-'नेरहए'इत्यादि, अधिकरणी जीव इति प्रागुक्तं, स च दूरवर्तिनाऽप्यधिकरणेन स्याद् यथा गोमान् इत्यतः पृच्छति-'जीवे 'मित्यादि, 'साहिगर
णि'त्ति सह-सहभाविनाऽधिकरणेन-शरीरादिना वर्तत इति समासान्तेन्विधिः साधिकरणी, संसारिजीवस्य शरीरेन्द्रि-2 ६ यरूपाधिकरणस्य सर्वदैव सहचारित्वात् साधिकरणत्वमुपदिश्यते, शस्त्रायधिकरणापेक्षया तु स्वस्वामिभावस्य तदविरतिरूपस्य सहवत्तित्वाज्जीवः साधिकरणीत्युच्यते, अत एव वक्ष्यति-'अविरई पहुंच'त्ति, अत एव संयतानां शरीरादिसनावेऽप्यधिरतेरभावान साधिकरणित्वं, 'निरहिगरणिति निर्गतमधिकरणमस्मादिति निरधिकरणी समासान्तविधेः अधिकरणदूरवीत्यर्थः, स च न भवति, अविरतेरधिकरणभूताया अदरवर्तित्वादिति, अथवा सहाधिकरणिभिः-पुत्रमित्रादि-| [भिर्वर्त्तत इति साधिकरणी, कस्यापि जीवस्य पुत्रादीनामभावेऽपि तद्विषयविरतेरभावात्साधिकरणित्वमवसेयमत एव नो| निरधिकरणीत्यपि मन्तव्यमिति ॥ अधिकरणाधिकारादेवेदमाह-जीवे ण'मित्यादि, 'आयाहिगरणित्ति अधिकरणीकृष्यादिमान आत्मनाऽधिकरणी आत्माधिकरणी, ननु यस्य कृष्यादि नास्ति स कथमधिकरणीति !, अत्रोच्यते, अविरत्य-|| पेक्षयेति, अत एवाविरतिं प्रतीत्येति वक्ष्यति, 'पराहिगरणित्ति परत:-परेषामधिकरणे प्रवर्त्तनेनाधिकरणी पराधिकरणी, 'तदुभयाहि गरणि'त्ति तयोः-आत्मपरयोरुभयं तदुभयं ततोऽधिकरणी यः स तथेति ॥ अथाधिकरणस्यैव हेतुप्ररूपणा
थेमाह-'जीवाण'मित्यादि, 'आयप्पओगनिबत्तिए'त्ति आत्मनः प्रयोगेण-मनःप्रभृतिव्यापारेण निर्वतित-निष्पा-18 |दितं यत्तत्तथा, एवमन्यदपि द्वयम् ॥ ननु यस्य वचनादि परप्रवर्त्तनं वस्तु नास्ति तस्य कथं परप्रयोगनिर्वर्त्तितादि भवि
RECORREST
दीप अनुक्रम [६६४-६६५]
aviralaunasurary.orm
~306~
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [५६४-५६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५६४-५६५]]
व्याख्या- प्यतीत्याशङ्कामुपदर्य परिहरन्नाह–'से केणमित्यादि, अविरत्यपेक्षया त्रिविधमप्यस्तीति भावनीयमिति ॥ अथ शरीरा- प्रज्ञप्तिःणामिन्द्रियाणां योगानां च निर्वर्तनायां जीवादेरधिकरणित्वादि प्ररूपयन्निदमाह-'कति णं भंते । इत्यादि, 'अहिगर-
णीवि अहिगरणपित्ति पूर्ववत् 'एवं चेवत्ति अनेन जीवसूत्राभिलापः पृथिवीकायिकसूत्रे समस्तो वाच्य इति दर्शितम् , या वृत्तिः२/
|'एवं बेउबि'इत्यादि व्यर, नवरं 'जस्स अत्थि'त्ति इह तस्य जीवपदस्य वाच्यमिति शेषः, तत्र नारकदेवानां वायोः पञ्चे॥६९९॥ |न्द्रियतियङ्मनुष्याणां च तदस्तीति ज्ञेयं, 'पमायं पहुच'त्ति इहाहारकशरीरं संयमवतामेव भवति तत्र चाविरतेरभावेऽपि
प्रमादादधिकरणित्वमवसेयं, दण्डकचिन्तायां चाहारक मनुष्यस्यैव भवतीत्यत उक्तम्-'एवं मणुस्सेवित्ति, 'नवरं जस्स 8| अस्थि सोइंदियं ति तस्य वाच्यमिति शेषः, तच्चैकेन्द्रियविकलेन्द्रियवर्जानामन्येषां स्यादिति ॥षोडशशते प्रथमः॥१६-१॥
१६ शतके उद्देशः१ | जराशोको सु ५६६
दीप अनुक्रम [६६४-६६५]
प्रथमोदेशके जीवानामधिकरणमुक्तं, द्वितीये तु तेषामेव जराशोकादिको धर्म उच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्। रायगिहे जाव एवं वयासी-जीवाणं भंते ! किं जरा सोगे?, गोयमा! जीवाणं जरावि सोगेवि, से केणराहणं भंते ! एवं वु० जाव सोगेवि ?, गोयमा! जे जीवा सारीरं वेदणं वेदेति तेसि णं जीवाणं जरा जे णं
जीवा माणसं वेदर्ण वेदेति तेसि णं जीवाणं सोगे से तेणटेणं जाव सोगेवि, एवं नेरइयाणवि, एवं जाव ठा धणियकुमाराणं, पुढविकाइयाणं भंते ! किं जरा सोगे ?, गोयमा ! पुढविकाइयाणं जरा नो सोगे, से केण-IS९९।। ढणं जाव नो सोगे?, गोयमा ! पुढविकाइयाणं सारीरं वेदणं वेदेति नो माणसं वेदणं वेदेति से तेणढणं
अत्र षोडशमे शतके प्रथम-उद्देशक: परिसमाप्त: अत्र षोडशमे शतके द्वितीय-उद्देशक: आरब्ध:
~307~
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक [५६६ ]
दीप
अनुक्रम [६६६ ]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः)
शतक [१६], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [५६६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
जाव नो सोगे, एवं जाव चउरिंदियाणं, सेसाणं जहा जीवाणं जाव वैमाणियाणं, सेवं भंते ! २ त्ति जाव पजुवासति (सूत्रं ५३६ ) ।।
'रायगिहे' इत्यादि, 'जर'त्ति 'जू वयोहानी' इति वचनात् जरणं जरा-वयोहानिः शारीरदुःखरूपा चेथमतो यदन्यदपि शारीरं दुःखं तदनयोपलक्षितं, ततश्च जीवानां किं जरा भवति ?, 'सोगे'त्ति शोचनं शोको- दैन्यम् उपलक्षणत्वादेव चास्य सकलमानसदुःखपरिग्रहस्ततश्च उत शोको भवतीति, चतुर्विंशतिदण्डके च येषां शरीरं तेषां जरा येषां तु मनोऽप्यस्ति तेषामुभयमिति ॥ अनन्तरं वैमानिकानां जराशोका वुक्तौ अथ तेषामेव विशेषस्य शक्रस्य वक्तव्यतामभिधातुकाम आह
ते काले २ सके देविंदे देवराया वज्रपाणी पुरंदरे जाव भुंजमाणे विहरह, इमं च णं केवलकष्पं जंबुद्दीवं २ विपुलेणं ओहिणा आभोएमाणे २ पासति समणं भगवं महावीरं जंबुद्दीवे २ एवं जहा ईसाणे तइयसए तहेव सोवि नवरं आभिओगे ण सहावेति हरी पायत्ताणियाहिवई सुघोसा घंटा पालओ विमाणकारी पालगं विमाणं उत्तरिल्ले निज्जाणमग्गे दाहिणपुरच्छिमिल्ले रतिकरपचए सेसं तं चैव जाव नामगं सावेता पज्जुवासति धम्मकहा जाव परिसा पडिगया, तए णं से सके देविंदे देवराया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हट्टतुट्ठ० समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति २ एवं व्यासी| कतिविहे णं भंते 1 उग्गहे पन्नत्ते १, सक्का ! पंचविहे उग्गहे पण्णत्ते, तंजहा-देविंदोग्गहे रायोग्गहे गाहाबइ उग्गहे सागारियउग्गहे साहम्मियउग्गहे ।। जे इमे भंते ! अजत्ताए समणा निग्गंथा विहति एएसि णं अहं उग्गहं
Eucation International
पञ्च प्रकारस्य अवग्रहाः
For Parts Only
~308~
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [५६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
व्याख्या-
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः
१६ शतके उद्देशः२ इन्द्रदत्तोऽवग्रहा सू५६७
प्रत
सूत्रांक
||७००॥
[५६६]
अणुजाणामीतिकटु समणं भगवं महावीरं बंदति नमसति २ तमेव दिवं जाणविमाणं दुरूहति २ जामेव दिसं पाउम्भूए तामेव दिसं पडिगए। भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महा. वंदति न० २एवं वयासी- जं णं भंते ! सके देविंदे देवराया तुझे णं एवं बदइ सचे णं एसमहे?, हंता सच्चे (सूत्रं ५६७)॥ | तेणं कालेण'मित्यादि, 'एवं जहा ईसाणो तइयसए तहा सकोवि' त्ति यथेशानस्तृतीयशते प्रथमोद्देशके राजप्रश्नीयातिदेशेनाभिहितस्तथा शक्रोऽपीह वाच्यः, सर्वधा साम्यपरिहारार्थ त्याह-नवरमाभिओगे ण सदावई'इत्यादि तत्र किलेशानो महावीरमवधिनाऽवलोक्याभियोगिकान् देवान् शब्दयामास शक्रस्तु नैवं, तथा तन्त्र लघुपराक्रमः पदात्यनीकाधिपतिनन्दिघोषाघण्टाताडनाय नियुक्त उक्तः इह तु सुघोषाघण्टाताडनाय हरिणेगमेषी नियुक्त इति वाच्य, तथा तत्र पुष्पको विमानकारी उक्त इह तु पालकोऽसौ वाच्यः, तथा तत्र पुष्पक विमानमुक्तमिह तु पालकं वाच्यं, तथा तत्र दक्षिणो निर्याणमार्ग उक्त इह तूत्तरो वाच्यः, तथा तत्र नन्दीश्वरद्वीपे उत्तरपूर्वो रतिकरपर्वत ईशानेन्द्रस्यावतारायोक्त इह तु पूर्वदक्षिणोऽसौ वाच्यः 'नामगं सावेत्त'त्ति स्वकीयं नाम श्रावयित्वा यदुताह भदन्त शिक्रो देवराजो भवन्त | वन्दे नमस्यामि चेत्येवम् , 'जग्गति अवगृह्यते-स्वामिना स्वीक्रियते यः सोऽवग्रहः 'देविंदोग्गहे य'त्ति देवेन्द्रः-शक ईशानो वा तस्यावग्रहो-दक्षिणं लोकार्जुमुत्तरं वेति देवेन्द्रावग्रहः 'राओग्गहे'त्ति राजा-चक्रवर्ती तस्थावग्रहः-पट्खण्ड| भरतादिक्षेत्रं राजावग्रहः 'गाहावईजग्गहेति गृहपतिः-माण्डलिको राजा तस्यावग्रहः-स्वकीर्य मण्डलमिति गृहपत्यव-II ग्रहः 'सागारियजग्गहे'त्ति सहागारेण-गेहेन वर्तत इति सागारः स एव सागारिकस्तस्यावग्रहो-गृहमेवेति सागारिकाव
दीप अनुक्रम [६६६]
॥७००॥
पञ्च-प्रकारस्य अवग्रहा:
~309~
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [५६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५६७]
CAENAKAASARARIATE
ग्रहः 'साहम्मियजग्गहे'त्ति समानेन धर्मेण चरन्तीति साधम्मिकाः साध्यपेक्षया साधव एव तेथामवमहा-सदाभाव्यात. पञ्चकोशपरिमाणं क्षेत्रमृतुबद्धे मासमेकं वर्षासु चतुरो मासान् यावदिति साधम्मिकावग्रहः । एवमुपश्चत्येन्द्रो यदाचख्यौ । ४ तदाह-'जे इमे इत्यादि, 'एवं बयइ'त्ति एवं पूर्वोक्तम् 'अहं उग्गहं अणुजाणामि' इत्येवंरूपं वदति' अभिधत्ते सत्य
एपोऽर्थ इति ॥ अथ भवत्वयमथेंः सत्यस्तथाऽप्ययं स्वरूपेण सम्यग्वादी उत न? इत्याशङ्कयाह| सके णं भंते ! देविदे देवराया किं सम्मावादी मिच्छावादी, गोयमा ! सम्माचादी नो मिच्छावादी॥ | सके णं भंते ! देविंदे देवराया कि सच्चे भासं भासति मोसं भासं भासति सचामोसं भासं भासति है असचामोसं भासं भासति ?, गोषमा ! सचंपि भासं भासति जाच असचामोसंपि भासं भासति॥
सक्के णं भंते ! देविंदे देवराया कि सावजं भासं भासति अणवज भासं भासति ?, गोयमा ! सावजंपि भासं भासति अणवलंपि भासं भासति, से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-सावजंपिजाव अणवजंपि भासं भास-18 || ति ?, गोयमा ! जाहे णं सके देविंदे देवराया सुहमकार्य अणिहितार्ण भासं भासति ताहे णं सके देविंदे
देवराया सावज भासं भासति जाहे णं सके देविंदे देवराया सुहमकायं निजूहित्ता णं भासं भासति ताहेर ४ णं सके देविंदे देवराया अणवलं भासं भासति, से तेणटेणं जाव भासति, सके णं भंते ! देविंदे देवराया किं भवसिद्धीए अभवसि० सम्मदिहीए एवं जहा मोउद्देसए सणंकुमारो जाव नो अचरिमे ( सूत्रं ५६८) 'सके ण'मित्यादि, सम्यग् वदितुं शील-स्वभावो यस्य स सम्यग्वादी प्रायेणासौ सम्यगेव वदतीति । सम्यग्वादशी
दीप अनुक्रम [६६७]
SHREILLEGunintentiational
पञ्च-प्रकारस्य अवग्रहा:
~310~
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [५६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५६८]
व्याख्या- लत्वेऽपि प्रमादादिना किमसौ चतुर्विधां भाषां भापते न वा? इति प्रश्नयन्नाह-'सके णमित्यादि, सत्याऽपि भाषा में
१६ शतके प्रज्ञप्तिः5 कथञ्चिद्भाष्यमाणा सावद्या संभवतीति पुनः पृच्छति-सके ण'मित्यादि, 'सावज्जति सहावयेन-गहितकर्मणेति साव
उद्देशः२ अभयदेवी- द्या तां 'जाहे 'ति यदा 'सुहुमकायंति सूक्ष्मकाय हस्तादिकं बस्त्विति वृद्धाः, अन्ये त्वाहुः-'सुहुमकार्य'ति वस्त्रम् इन्द्रस्य सयावृत्तिः२ 'अनिहित्त'ति 'अपोह्य' अदवा, हस्ताद्यावृतमुखस्य हि भाषमाणस्य जीवसंरक्षणतोऽनवद्या भाषा भवति अन्या तु है म्यग्वादि॥७०१॥ सावयेति ॥ शकमेवाधिकृत्याह-'सक्के ण'मित्यादि, 'मोउद्देसए'त्ति तृतीयशते प्रथमोदेशके ॥
त्वादि चेतो जीवाणं भंते ! किं चेयकडा कम्मा कजंति अचेयकडा कम्मा कजति ?, गोयमा! जीवाणं चेयकडा
ऽचेतःकृता कम्मा कजंति नो अचेयकडा कम्मा कजति, से केण. भंते ! एवं बुचद जाव कजंति ?. गोयमा । जीवाणं ||| आहारोवचिया पोग्गला बोंदिचिया पोग्गला कलेवरचिया पोग्गला तहा २णं ते पोग्गला परिणमंति|
नधि अचेपकडा कम्मा समणाउसो', दुहाणेसु दुसेजामु दुन्निसीहियासु तहा २णं ते पोग्गला परि
णमंति नन्धि अचेयकडा कम्मा समणाउसो!, आयके से बहाए होति संकप्पे से वहाए होति मरणंते । ४. से वहाए होति तहा२णं ते पोग्गला परिणमति नथि अचेयकडा कम्मा समणाउसो!, से तेणटेणं जाव कम्मा कजंति, एवं नेरतियाणवि एवं जाव वेमाणियाणं।सेच भंते ! सेवं भंते ! जाप विहरति (सूत्रं५६९)॥१६-२॥
७०शा अनन्तरं शक्रस्वरूपमुक्तं, तच्च कर्मतो भवतीति सम्बन्धेन कर्मस्वरूपप्ररूपणायाह-'जीवाण'मित्यादि, 'चेयकडकम्म'त्ति चेतः-चैतन्यं जीवस्वरूपभूता चेतनेत्यर्थः तेन कृतानि-बद्धानि चेतःकृतानि कर्माणि 'कजति'त्ति भव |
SEXICASSOCIAtost
दीप अनुक्रम [६६८]
HTAudiorary.com
~311
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [५६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१६९]
दीप अनुक्रम [६६९]
४न्ति, कथम् ? इति चेदुच्यते-जीवाण'ति जीवानामेव नाजीवानाम् 'आहारोवचिया पोग्गल'त्ति आहाररूप-8
तयोपचिताः-सश्चिता ये पुद्गलाः 'वोदिचिया पोग्गलत्ति इह बोन्दिः-अव्यक्तावयवं शरीरं ततो बोन्दितया | चिता ये पुद्गलाः, तथा 'कडेवरचिय'त्ति कडेवरतया चिता ये पुद्गलाः 'तहा तहा ते पुरंगला परिणमंति'त्ति तेन तेन प्रकारेण आहारादितयेत्यर्थः ते पुद्गलाः परिणमन्ति, एवं च कर्मपुद्गला अपि जीवानामेव तथा २ परिणमन्तीतिकृत्वा चैतन्यकृतानि कर्माणि, अतो निगम्यते-'भत्यि अचेयकडा कम्मति न भवन्ति 'अचेताकृतानि' अचैतन्यकृतानि कर्माणि हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! इति, अथवा 'चेयकडा कम्मा कति'त्ति घेर्य-चयनं चय इत्यर्थः भावे यप्रत्ययविधानात् तत्कृतानि सञ्चयकृतानि पुद्गलसशयरूपाणि कर्माणि भवन्ति, कथम् ?, 'आहारो-3||
चचिया पोग्गला इत्यादि, आहाररूपा उपचिताः सन्तः पुद्गला भवन्ति, तथा बोन्दिरूपाश्चिताः सन्तः पुद्गला भवन्ति, * तथा कडेवररूपाश्चिताः सन्तः पुद्गला भवन्ति, किंबहुना, तथोच्छासादिरूपतया ते पुनलाः परिणमन्ति चयादेवेति |
शेषः, एवं च न सन्ति 'अचेयकृतानि' असञ्चयकृतानि कर्माणि आहारबोन्दिकडेवरपुद्गलवदिति । तथा 'दुट्टाणेसुत्ति || शीतातपदंशमशकादियुतेषु-कायोत्सर्गासनाद्याश्रयेषु 'दुसेज्जासुत्ति दुःखोत्पादकवसतिषु 'दुन्निसीहियासु'त्ति दुःख| हेतुस्वाध्यायभूमिषु 'तथा २' तेन २ प्रकारेण बहुविधासातोपादकतया 'ते पोग्गल'त्ति ते कार्मणपुद्गलाः परिणमन्ति, ततश्च जीवानामेवासातसम्भवात्तैरेवासातहेतुभूतकर्माणि कृतानि अन्यथाऽकृताभ्यागमदोषप्रसङ्गः, जीवकृतत्वे च तेषां चेतःकृतत्वं सिद्धमतो निगम्यते 'मस्थि अचेयकडा कम्म'त्ति, चेयव्याख्यान त्वेवं नीयते-यतो दुःस्थानादिवसातहेतुतया
~312
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [५६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५६९]
व्याख्या-8 पुद्गलाः परिणमन्ति अतो नोऽचेयकृतानि कर्माणि-नासश्चयरूपाणि कमाणि, असञ्चयरूपाणामतिसूक्ष्मत्वेनासातोत्पाद-४१६ शतके प्रज्ञप्तिः
कत्वासम्भवाद् विपलववदिति, तथा 'आयके इत्यादि, 'आतङ्कः' कृच्छ्रजीवितकारी ज्वरादिः 'से' तस्य जीवस्य 'वधायरा उद्देशः ३ अभयदेवी- मरणाय भवति, एवं 'सङ्कल्पः' भयादिविकल्पः मरणान्तः-मरणरूपोऽन्तो-विनाशो यस्मात्सः मरणान्तः-दण्डादिधातः, कर्मप्रकृति
तत्र च 'तथा तेन २ प्रकारेण वधजनकत्वेन ते 'पुद्गला' आतङ्कादिजनकासातसंवेदनीयसम्बन्धिनः 'परिणमन्तिाह वेदवेदादि द वर्तन्ते, एवं च वधस्य जीवानामेव भावाद् वधहेतवोऽसातवेद्यपुद्गला जीवकृताः अतश्चेतःकृतानि कर्माणि न सम्त्यचेतः- सू५७० | कृतानि, चेयव्याख्यानं तु पूर्वोक्तानुसारेणावगन्तव्यमिति ॥ षोडशशते द्वितीयः ॥१५-२॥
१७०२॥
दीप अनुक्रम [६६९]
द्वितीयोदेशकान्ते कर्माभिहितं, तृतीयेऽपि तदेवोच्यते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्रायगिहे जाव एवं बयासी-कति णं भंते ! कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ, गोयमा ! अह कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-नाणावरणिज जाव अंतराइयं, एवं जाव घेमा०। जीवे णं भंते ! माणावरणिज्ज कम्मं ॥ वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ वेदेति !, गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ, एवं जहा पनवणाए वेदावेउछेसओ सो चेव निरवसेसो भाणियचो, चेदाबंधोवि तहेच, बंधावेदोवि तहेच, बंधायंघोषि तहेव भाणियवो जाव M ean वेमाणियाणंति । सेवं भंते !२ जाब विहरति (सूत्रं ५७०)॥ 'रायगिहे'इत्यादि, 'एवं जहा पन्नवणाएं इत्यादि, 'वेयावेउद्देसओ'त्ति वेदे-वेदने कर्मप्रकृतेः एकस्याः वेदो-वेद
अत्र षोडशमे शतके द्वितीय-उद्देशक: परिसमाप्त: अत्र षोडशमे शतके तृतीय-उद्देशक: आरब्ध:
कर्म-प्रकृत्ति-वेदनं
~313
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [५७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५७०]
||नमन्यासां प्रकृतीनां यत्रोद्देशकेऽभिधीयते स वेदावेदः स एवोदेशकः-प्रज्ञापनायाः सप्तविंशतितमं पदं वेदावेदोदेशकः, दीर्घता चेह सज्ञात्वात् , स चैवमर्थतः-गोतम ! अष्ट कर्मप्रकृतीवेदयति सप्त वा मोहस्य क्षये उपशमे वा (शेषघातिक्षये चतस्रो वा), एवं मनुष्योऽपि, नारकादिस्तु वैमानिकान्तोऽष्टावेवेत्येवमादिरिति । 'वेदाबंधोवि तहेवत्ति एकस्याः कर्मप्रकृतेर्वेद-वेदने अन्यासां कियतीनां बन्धो भवतीति प्रतिपाद्यते यत्रासौ वेदावन्ध उच्यते, सोऽपि तथैव प्रज्ञापना-13 यामिवेत्यर्थः, स च प्रज्ञापनायां षडूविंशतितमपदरूपः, एवं चासौ- कई णं भंते ! कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ, गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-णाणावरणं जाव अंतराइयं, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं ।जीवेणं| भंते ! णाणावरणिज कम्मं वेदेमाणे कइ कम्मपगडीओ बंधइ ?, गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अङ्कविहबंधए वा छबिहबंधए वा एगविहबंधए वा' इत्यादि, तत्राष्टविधवन्धकः प्रतीतः, सप्तविधबन्धकस्त्वायुबन्धकालादन्यत्र, पइविधबन्धक आयुमोहवर्जानां सूक्ष्मसम्परायः, एकविधबन्धको वेदनीयापेक्षयोपशान्तमोहादिः, 'बंधावेदोवि तहेव'त्ति एकस्याः कर्मप्रकृतेर्बन्धे सत्यन्यासां कियतीनां वेदो भवति ? इत्येवमर्थो बन्धावेद उद्देशक उच्यते, सोऽपि तथैव-प्रज्ञापनायामिवेत्यर्थः, स च प्रज्ञापनायां पञ्चविंशतितमपदरूपः, एवं चासौ-'कइ णं भंते ! इत्यादि प्रागिष, विशेषस्त्वयं-'जीवे णं भंते ! णाणावरणिज | कर्म बंधेमाणे कइ कम्मपगडीओ वेएइ, गोयमा ! नियमा अझ कस्मप्पगडीओ वेएई' इत्यादि, 'बंधाबंधोत्ति एकस्या बन्धे यासां कियतीनां वन्धः? इति यत्रोच्यतेऽसौ बन्धावन्ध इत्युच्यते, स च प्रज्ञापनायां चतुर्विंशतितमं पद, सर्व-कह ण'मित्यादि सवैव, विशेषः पुमरय-'जीवे ण मंते ! णाणावरणिज कर्म बंधेमाणे कई कम्मप्पगडीओ
KNESSPASACROCES
दीप अनुक्रम [६७०]
कर्म-प्रकृत्ति-वेदनं
~3144
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[५७० ]
दीप
अनुक्रम [६७०]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः)
शतक [१६], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [५७०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २ *
॥७०३ ॥
बंधइ १, गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा छविहबंधए वा' इत्यादि, इह सङ्ग्रहगाथा कचिद् दृश्यते - "वेयावेओ पढमो १ वेयाबंधो य बीयओ होइ २ । बंधावेओ तइओ ३ चडत्थओ बंधबंधो उ ४ ॥ १ ॥” इति ।। अनन्तरं बन्धक्रिया उक्तेति क्रियाविशेषाभिधानाय प्रस्तावनापूर्वकमिदमाह -
कर्म प्रकृत्ति- वेदनं
समभवं महावीरे अन्नदा कदापि रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेहयाओ पडिनिक्खमति २ बहिया जणवयविहारं विहरति, तेणं कालेणं तेणं समएणं उयतीरे नामं नगरे होत्था बन्नओ, तस्स णं उतीरस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरच्छि मे दिसिभाए एत्थ णं एगजंबूए नामं चेइए होत्था बनाओ, तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नदा कदायि पुचाणुपुत्रिं चरमाणे जाव एगजंबूए समोसढे जाव परिसा पडिगया, भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदह नमसह वंदित्ता नर्मसित्ता एवं वयासी- अणगारस्स भंते ! भावियप्पणी छणं अणिक्खित्तेणं जाव आयावेमाणस्स तस्स णं पुरच्छिमेणं अहं दिवसं नो कप्पति हत्थं वा पादं वा बाहं वा ऊरुं वा आउट्टावेत्तए वा पसारेतए वा, पञ्चच्छिमेणं से अवद्धं दिवस कप्पति हत्थं वा पादं वा जाय करूँ वा आउंटावेत्तए वा पसारेत्तए वा, तस्स णं अंसियाओ लंबंति तं च वेजे अदक्खु ईसिं पाडेति ईसि २ अंसियाओ छिंदेजा से नूणं भंते! जे छिंदति तस्स किरिया कजति जस्स छिज्जति नो तरस किरिया कज्जइ णण्णत्थेगेणं धम्मंतराइएणं ?, हंता गोयमा । जे छिंदति जाव धम्मंतराएणं । सेवं भंते ! सेवं भंतेति ॥ (सूत्रं ५७१ ) ।। १६-३ ।।
can Internation
For Parts Only
~315~
१६ शतके उद्देशः २ अशछेदे क्रिया सू ५७१
॥७०३ ॥
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [५७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५७१]
'तए णमित्यादि । 'पुरच्छिमेणंति पूर्वभांगे-पूर्वाह्न इत्यर्थः 'अवहृति अपगतार्द्धमर्द्धदिवसं यावत् न कल्पते हस्ताद्याकुण्टयितुं कायोत्सर्गव्यवस्थितत्वात् 'पञ्चच्छिमेणं'ति पश्चिमभागे 'अवहृ दिवसं ति दिनाई थावत् कल्पते हस्ताद्या-1 कुण्टयितुं कायोत्सर्गाभावात् , एतच्च चूपर्यनुसारितया व्याख्यातं, 'तरस यत्ति तस्य पुनः साधोरेवं कायोत्सर्गाभिग्रहवतः 'अंसियाओ'त्ति अर्शासि तानि च नासिकासत्कानीति चूर्णिकारः, 'तं च'त्ति तं चानगारं कृतकायोत्सर्ग लम्बमानार्शसम् । 'अदक्खु'त्ति अद्राक्षीत् , ततश्चार्शसां छेदार्थ 'ईसिं पाडेइ'त्ति तमनगारं भूम्यां पातयति, नापातितस्यार्शश्छेदः कर्तुं 5 शक्यत इति, 'तस्म'त्ति वैद्यस्य 'क्रिया' व्यापाररूपा सा च शुभा धर्मबुद्ध्या छिन्दानस्य लोभादिना त्वशुभा 'क्रियते। भवति 'जस्स छिज्जइत्ति यस्य साधोरीसि छिद्यन्ते नो तस्य क्रिया भवति निर्व्यापारत्वात् , किं सर्वथा क्रियाया अभावः !, नैवमत आह-'नन्नत्थे'त्यादि, नेति योऽयं निषेधः सोऽन्यत्रैकस्माद्धर्मान्तरायाद्, धर्मान्तरायलक्षणक्रिया || तस्यापि भवतीति भावः, धर्मान्तरायश्च शुभध्यानविच्छेदादर्शश्छेदानुमोदनाद्वेति ॥ पोडशशते तृतीयः ॥ १६-३॥
दीप अनुक्रम [६७१]
अनन्तरोद्देशकेऽनगारवक्तव्यतोक्ता, चतुर्थेऽप्यसावेयोच्यते इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्रायगिहे जाच एवं वयासी-जावतियन्नं भंते ! अन्नइलायए समणे निग्गंधे कम निजरेति एवतिय कम्मं| नरएम नेरतियाणं वासेण वा वासेहिं वा वाससएहिं वा खवति ?, णो तिणढे समढे, जावतियण्णं भंते । चउत्थभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निजरेति एवतियं कम्मं नरएसु नेरहया वाससएर्ण वा वाससएहिं वा
AREauratonintamational
अत्र षोडशमे शतके तृतीय-उद्देशक: परिसमाप्त: अत्र षोडशमे शतके चतुर्थ-उद्देशक: आरब्ध:
~316
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[५७२]
दीप
अनुक्रम [६७२]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [५७२ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥७०४ ॥
वास सहस्सेहिं वा वाससयस हस्सेहिं (ण) वा स्ववियंति ?, णो तिगडे समट्ठे, जावतियनं भंते! छुट्टभत्तिए समणे | निग्गंथे कम्मं निज्ज़रेति एवतियं कम्मं नरएस नेरइया वाससहस्सेण वा वाससहस्सेहिं वा वाससय सहस्सेण (हिं) वा खवयंति ?, णो तिणट्ठे समट्टे, जावतियन्नं भंते । अहमभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निजरेत एवतियं कम्मं नरपसु नेरतिया वासस्यसहस्सेण वा वाससयसहस्सेहिं वा वासकोडीए वा खवयंति ?, नो तिणट्टे समट्टे, जावतियनं भंते ! दसमभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निज्वरेति एवतियं कम्मं नरपसु नेरतिया वास| कोडीए वा वासकोडीहिं वा वासकोडाकोडीए वा खवयंति ?, नो तिणट्टे समट्ठे से केणट्टेणं भंते । एवं बुचर जावतियं अन्नइलातए समणे निग्गंधे कम्मं निज्जरेति एवतियं कम्मं मरएमु नेरतिथा वासेण वा वासेहिं वा वाससएण वा (जाब) बास (सय) सहस्सेण वा नो खवयंति जावतियं चउत्थभलिए, एवं तं चेव पुत्रभणियं उच्चारेयचं जाव वासकोडाकोडीए वा नो ववयंति ?, गोपमा ! से जहानाभए केह पुरिसे जुने जराजजरियदेहे सिटिलतयावलितरंगसंपिणद्गते पविरलपरिसडियदंतसेढी उण्हाभिहए तव्हाभिहए आउरे झुंशिय पिवासिए दुब्बले किलंते एवं महं कोसंबगंडियं सुकं जडिलं मंठिलं चिकणं वाहद्धं अपत्तिथं मुंडेण परसुप्मा अक्कमेजा, तए णं से पुरिसे महंताई २ सद्दाई करेह नो महंता २ दलाई अदालेह, एबामेव गोषमा ! मेरइयाणं पाबाई कम्माई माडीकथाई चिकणीकमाई एवं जहा छटए जान नो महापावसाणा भवंति से जहाना| मए केई पुरिसे अहिकरणिं आउलेमा महया जाव को महापापसाणा भवंति से जहानामए केई पुरिसे
can Internationa
For Panalyse Only
~317 ~
१६ शतके | उद्देशः ४ अन्नग्लायकचतुर्थादि भिः कर्मक्ष
यः सू ५७२
॥७०४ ॥
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [५७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५७२]
तरुणे वल जाव मेहावी निउणसिप्पोवगए एग महं सामलिगंडियं उल्लं अजडिलं अगंठिल्लं अचिक्कणं द अवाइद्धं सपत्तियं तिक्खेण परसुणा अकमेजा, तए णं से णं पुरिसे नो महंताई २ सद्दाई करेति महंताई है।
दलाई अबदालेति, एवामेव गोयमा समणाणं निग्गंधाणं अहाबादराई कम्माई सिढिलीकयाई णिहियाई
कयाईजाव खिप्पामेव परिविद्धत्थाई भवंति जावतियं तावतिय जाव महापजवसाणा भवंति, से जहा वा दाकद पुरिसे सुफतणहत्वगं जायतेयंसि पक्खिवेज्जा एवं जहा छट्ठसए तहा अयोकवल्लेचि जाव महाप०*
भवंति, से तेणद्वेणं गोयमा! एवं चुचह जावतियं अन्नइलायए समणे निग्मंथे कम्मं नितं चेव जाव वासको ||डाकोडीए वा नो खवयंति ॥ सेवं भंते । सेवं भंते ! जाव विहरह। (सर्च ५७२)॥१६-४॥
'रायगिहे'इत्यादि, 'अन्नगिलायतेत्ति अन्नं विना ग्लायति-लानो भवतीत्यन्नग्लायकः प्रत्यग्रकूरादिनिष्पत्तिं यावद् * बुभुक्षातुरतया प्रतीक्षितुमशक्नुवन् यः पर्युषितकूरादि प्रातरेव भुते कूरगडकप्राय इत्यर्थः, चूर्णिकारेण तु निःस्पृहत्त्वात् 'सीवकूरभोई अंतपंताहारों त्ति व्याख्यातं, अथ कथमिदं प्रत्याय्यं यदुत नारको महाकष्टापन्नो महताऽपि कालेन तावत्कर्म | न क्षपयति यावत्साधुरल्पकष्टापन्नोऽल्पकालेनेति ?, उच्यते, दृष्टान्ततः, स चार्य-से जहानामए केह पुरिसे'त्ति यथेति दृष्टान्ते नाम-सम्भावने ए इत्यलङ्कारे 'सेति स कश्चित्पुरुषः 'जुन्नेत्ति जीर्णः-हानिगतदेहा, सच कारणवशादवृद्धभा|| वेऽपि स्यादत आह-'जराजजरियदेहे'सि व्यक्तं, अत एव 'सिढिल(त्तलबालितरंगसंपिणमसेत्ति शिथिलतया त्वचाक्लीतरनैश्च संपिनद्धं-परिणत गावं-देहो पस्य स तथा 'पबिरलपरिसडियदंतसेदिति प्रविरला:-केचित् कचिच्च
दीप अनुक्रम [६७२
~318~
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [५७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५७२]
व्याख्या-18|| परिशटिता दंता यस्यां सा तथाविधा श्रेणिर्दन्तानामेव यस्य स तथा 'आउरे'त्ति आतुर:-दुःस्थः 'झुझिए'त्ति बुभुक्षितः
प्रज्ञप्तिः झुरित इति टीकाकारः 'दुव्बले'त्ति बलहीनः 'किलंतेत्ति मनःक्लमं गतः,एवंरूपो हि पुरुषश्छेदनेऽसमर्थों भवतीत्येवं विशेअभयदेवी- II
पितः, 'कोसंबगंडियंति 'कोसंब'त्ति वृक्षविशेषस्तस्य गण्डिका-खण्डविशेषस्तां 'जडिलं'ति जटावतीं वलितोद्वलितामिति या वृत्तिः२
वृद्धाः 'गंठिलं'ति ग्रन्धिमतीं 'चिकणं'ति श्लक्ष्णस्कन्धनिष्पन्नां 'वाइद्धन्ति व्यादिग्धां-विशिष्टद्रव्योपदिग्धां वनामिति ॥७०५॥
वृद्धाः 'अपत्तियं ति अपात्रिकाम्-अविद्यमानाधाराम् , एवम्भूता च गण्डिका दुश्छेद्या भवतीत्येवं विशेषिता, तथा परशुरपि मुण्डः-अच्छेदको भवतीति मुण्ड इति विशेषितः, शेषं तूद्देशकान्तं यावत् षष्ठशतवव्याख्येयमिति ॥ षोडश- शते चतुर्थः ॥१६-४॥
१६ शतके उद्देशः५ शक्रस्याष्टोक्षिप्तप्रश्नाः |सू ५७३
परिणताः सू५७४
दीप अनुक्रम [६७२
चतुर्थोद्देशके नारकाणां कर्मनिर्जरणशक्तिस्वरूपमुक्तं, पञ्चमे तु देवस्यागमनादिशक्तिस्वरूपमुच्यते इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
तेणं कालेणं तेणं समएणं उलयतीरे नाम नगरे होत्था बन्नओ, एगर्जबूर चेहए बन्न ओ, तेणं कालेणं तेणं 8
समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पज्जुवासति, तेणं कालेणं २ सके देविंद देवराया वजपाणी एवं जहेव। 18|| वितियउद्देसए तहेव दिवेणं जाणविमाणेणं आगओ जाव जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छह २॥3
जाव नमंसित्ता एवं ययासी-देवेणं भंते ! महहिए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू
*
*
॥७०५॥
अत्र षोडशमे शतके चतुर्थ-उद्देशक: परिसमाप्त: अत्र षोडशमे शतके पंचम-उद्देशक: आरब्ध:
~319~
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[५७३
-५७५]
दीप
अनुक्रम
[६७३
-६७५]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र -५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [५], मूलं [५७३-५७५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
आगमित्तए १, नो तिणट्ठे समट्ठे, देवे णं भंते ! महडिए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले परियाइता पभू आगमित्तए ?, हंता पभू, देवे णं भंते! महट्टिए एवं एएणं अभिलावेणं गमित्तए २ एवं भासितए वा बागरितए वा ३ उम्मिसावेत्तए वा निमिसावेतए वा ४ आउट्टावेत्तए वा पसारेतए वा ५ ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेइत्तए वा ६ एवं विउद्दित्तए वा ७ एवं परियारावेत्तए वा ८ जाव हंता पभू, इमाई अह उक्खितपसिणवागरणाई पुच्छर, इमाई २ संभंतियवंदणएणं वंदति संभंतिय० २ तमेव दिवं जाणविमाणं दुरूहति २ जामेव दिसं पाउ भूए तामेव दिसं पडिगए (सूत्रं ५७३ ) ॥ भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति २ एवं वयासी-अन्नदा णं भंते! सके देविंदे देवराया देवाणुप्पियं वंदति नम॑सति सक्का| रेति जाब पज्जुवासति, किण्हं भंते ! अज सक्के देविंदे देवराया देवाणुप्पियं अट्ठ उक्खिन्तपसिणवागरणाई | पुच्छर संभंतियबंदणएणं वंदति णमंसतिर जान पडिगए ?, गोयमादि समणे भगवं म० भगवं गोयमं एवं क्यासी-एवं खलु गोयमा । तेणं कालेणंर महासुके कप्पे महासामाणे विमाणे दो देवा महट्टिया जाव महेसक्खा | एगविमाणंसि देवत्ताए उबवन्ना, तं०-माथिमिच्छदिट्टिउबवन्नए य अमाथिसम्मदिविवन्नए य, तए णं से मायिमिच्छादिविवन्नए देवे तं अमाथिसम्म दिउबवन्नगं देवं एवं वयासी परिणममाणा पोग्गला नो परिणया अपरिणया परिणमंतीति पोग्गला नो परिणया अपरिणया, तए णं से अमाथिसम्मदिट्ठी उबवन्नए देवे तं मायिमिच्छदिडीडववन्नगं देवं एवं वयासी- परिणममाणा पोग्गला परिणया नो अपरिणया परिणमंतीति
Eucation International
For Penal Use Only
~320~
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [५७३-५७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
शा
प्रत सूत्रांक
मज्ञप्तिः४ओरि
[५७३
-५७५]]
व्याख्या- पोग्गला परिणया नो अपरिणया, तं माथिमिच्छदिट्ठीउववन्नगं एवं पडिहणइ २ ओहिं पउंजह ओहिं २ मम १६ शतके
ओहिणा आभोएड ममं २ अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु समणे भगवं महावीरे जंबुद्दीवे २४ | उद्देशः ५ अभयदेवी- जेणेव भारहे बासे जेणेव उल्लयतीरे नगरे जेणेव एगजंबुए चेइए अहापडिरूवं जाब विहरति, तं सेयं खलु मे परिणममा. पातासमण भगवं महावीर वंदित्ता जाव पजुवासित्ता इमं एयारूवं वागरणं पुच्छिराएसिकटु एवं संपेहेइ एवं १७०६॥ संपेहित्ता चउहिवि सामाणियसाहस्सीहिं परियारो जहा सूरियाभस्स जाव निग्घोसनाइयरवेणं जेणेव जंबु-8
ता:सू५७४ दहीवे २ जेणेव भारहे वासे जेणेव उलुयातीरे नगरे जेणेव एगर्जबुए चेइए जेणेच ममं अंतियं तेणेव पहारेस्थ ||
गहन्दत्तकृत
तंवन्दनादि गमणाए, तए णं से सके देविंदे देवराया तस्स देवस्स तं दिवं देवहि दिवं देवजुर्ति दिवं देवाणुभागं दिवं
सू ५७५ तेयलेस्सं असहमाणे मम अह उक्खित्तपसिणवागरणाई पुच्छह संभंतिय जाव पडिगए (सूत्रं ५७४) जावं च 8/ |णं समणे भगचं महावीरे भगवओ गोयमस्स एयमढें परिकहति तावं च णं से देवे तं देसं हवमागए, तए Wणं से देवे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो बंदति नमंसति २ एवं वयासी-एवं खलु भंते ! महासुके कप्पे ||
महासामाणे विमाणे एगे मायिमिच्छदिटिउववन्नए देवे मर्म एवं बयासी-परिणममाणा पोग्गला नो परि-15 णया अपरिणया परिणमंतीति पोग्गला नो परिणया अपरिणया, तए णं अहं तं मायिमिच्छदिट्टिउपवनगं ॥७०६॥ देवं एवं वयासी-परिणममाणा पोग्गला परिणया नो अपरिणया परिणमंतीति पोग्गला परिणया णो अपरि-II णया, से कहमेयं मंते ! एवं १, गंगदत्सादिसमणे भगवं महावीरे मंगदत्तं एवं बयासी-अहंपि पं गंगदत्ता !
दीप अनुक्रम [६७३-६७५]
weredturary.com
~321
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [५७३-५७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५७३
-५७५]]
CSBC
एचमाइक्खामि ४ परिणममाणा पोग्गला जाब नो अपरिणया सच्चमेसे अष्टे,तए णं से गंगदत्ते देवे समणस्स भगचओ महावीरस्स अंतियं एयमह सोचा निसम्म हडतुडे समर्ण भगवं महावीर वंदति नम०२ नच्चासन्ने | जाव पजुवासति, तए णं समणे भ०महावीरे गंगदत्तस्स देवस्स तीसे य जाव धम्म परिकहेइ जाव आराहए भवति, तए णं से गंगदत्ते देवे समणस्स भगवओ० अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हहतुढे उठाए उठेति उ०९ समणं भगवं महावीर बंदति नर्मसति २एवं बयासी-अहण्हं भंते ! गंगदत्ते देवे किं भवसिद्धिए
अभवसिद्धिए ? एवं जहा सरियाभो जाव बत्तीसतिविहं नविहं उवदंसेति उव०२ जाव तामेव दिसं दीपडिपए (सूत्रं ५७५)॥
तेण'मित्यादि, इह सर्वोऽपि संसारी बाह्यान पुद्गलाननुपादाय न काञ्चित् क्रियां करोतीति सिद्धमेव, किन्तु देवः किल महर्धिकः, महर्द्धिकत्वादेव च गमनादिक्रियांमा कदाचित् करिष्यतीति सम्भावनायां शक्रः प्रश्नं चकार-'देवे गं भंते।||
इत्यादि, "भासित्सए वा बागरित्तए चति भापितु-वक्तुं व्याकर्तुम्-उत्तरं दातुमित्यनयोर्विशेषः, प्रश्नवायं तृतीयः,द है उन्मेषादिश्चतुर्थः, आकुष्टनादिः पञ्चमः, स्थानादिः षष्ठः, विकुर्वितुमिति सप्तमः, परिचारयितुमष्टमः ८'उक्खित्तपसिण
वागरणाईति उत्क्षिसानीचोखिप्तामि-अविस्तारितस्वरूपाणि प्रच्छनीयत्वात्प्रश्नाः व्याक्रियमाणत्वास व्याकरणानि यानि तानि तथा 'संभंतियबंदणएवं ति सम्पम्तिः सम्धमा औत्सुक्य तया निवृत्त साम्धान्तिक यद्वन्दनं तत्तथा तेन । 'परिणममाया पोग्यलामो परिणपति वर्तमानातीतकालयविरोधादत पवाह-अपरिणय'ति, बहवोपपत्तिमाह
दीप अनुक्रम [६७३-६७५]
~322
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [५७३-५७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५७३
-५७५]]
व्याख्या
परिणमन्तीति कृत्वा नो परिणतास्ते व्यपदिश्यन्त इति मिथ्यादृष्टिवचनं, सम्यग्दृष्टिः पुनराह-परिणममाणा पोग्गला- १६ शतके
परिणया नो अपरिणय'त्ति, कुतः इत्याह-परिणमन्तीतिकृत्वा पुद्गलाः परिणता नो अपरिणताः, परिणमन्तीति हि यद-15 उद्देशाप अभयदेवी- च्यते तत्परिणामसद्भावे नान्यथाऽतिप्रसङ्गात्, परिणामसद्भावे तु परिणमन्तीति व्यपदेशे परिणतत्वमवश्यंभावि, यदि हि गङ्गदत्तपूया वृत्तिः२
|परिणामे सत्यपि परिणतत्वं न स्यात्तदा सर्वदा तदभावप्रसङ्ग इति । 'परिवारो जहा सूरियाभस्से'त्यनेनेदं सूचित-1| वैभवादि ॥७०७॥
'तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिबईहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अमेहि य बहुहिं महासामाण-8 सू ५७६ |विमाणवासीहिं वेमाणिएहिं देवेहिं सद्धिं संपरिबुडे' इत्यादि।
भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीर जाव एवं वयासी-गंगदत्तस्स णं भंते ! देवस्स सा दिया| | देवड्डी दिखा देवजुती जाव अणुप्पविट्ठा ?, गोयमा ! सरीरं गया सरीरं अणुप्पविट्ठा कडागारसालादिहतो |जाब सरीर अणुप्पचिट्ठा । अहो णं भंते ! गंगदते देचे महहिए जाव महेसक्खे ?, गंगदत्तेणं भंते ! देवेणं | |सा दिवा देवही दिवा देवजुत्ती किण्णा लद्धा जाव गंगदत्तेणं देवेणं सा दिवा देवही जाव अभिसमन्नागया ,
गोयमादी समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं क्यासी-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं २ इहेव जंचुदहीवे २ भारहे वासे हस्थिणापुरे नामं नगरे होत्था वन्नओ, सहसंबवणे उजाणे वन्नओ, तत्थ णं हस्थिणापुरे |
| ॥७०७॥ नगरे गंगदत्ते नाम गाहावती परिवसति अह जाव अपरिभए, तेणं कालेणं २ मुणिमुखए अरहा आदिगरे * जाव सपन्नू सवदरिसी आगासगएणं चक्कणं जाब पकहिजमाणेणं प० सीसगणसंपरिखुढे पुवाणुपुर्वि
दीप अनुक्रम [६७३-६७५]
गंगदत्त-अनगारस्य कथा
~323
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [५७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५७६]
दीप अनुक्रम [६७६]
चरमाणे गामाणुगाम जाव जेणेव सहसंबवणे उजाणे जाव विहरति परिसा निग्गया जाव पजुवासति, तए || दणं से गंगदत्ते गाहावती इमीसे कहाए लढे समाणे हद्वतु जाव कययलिजाब सरीरे साओ गिहाओ,
पडिनिक्खमति २ पायबिहारचारेणं हस्थिणागपुरं नगरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छति २ जेणेच सहसंबवणे *
| उज्जाणे जेणेव मुणिसुबए अरहा तेणेव उवागच्छइ २ मुणिसुवयं अरहं तिक्खुत्तो आ० २ जाव तिविदिहाए पज्जुवासणाए पजुवासति, तए णं मुणिमुबए अरहा गंगदत्तस्स गाहावतिस्स तीसे य महतिजाव परिसा
पडिगया, तए णं से गंगदत्ते गाहावती मुणिमुषयस्स अरहओ अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हहतुट्ठ० उहाए उट्ठति २ मुणिमुवयं अरहं वंदति नमसति बंदित्ता नमंसित्ता एवं चयासी-सदहामि णं भंते ! निग्गथं | पावयणं जाव से जहेयं तुज्झे बदह, जं नवरं देवाणुप्पिया! जेट्टपुत्तं कुटुंबे ठावेमि तए णं अहं देवाणुप्पियाणं ।
अंतिय मुंडे जाव पच्चयामि, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं, तए णं से गंगदत्ते गाहावई मुणिसुधएणं 3 अरहया एवं बुत्ते समाणे हद्वतुट्ट० मुणिमुवयं अरिहं चंदति न०२मुणिसवपस्स अरहओ अंतिपाओ सह-||
संबवणाओ उजाणाओ पडिनिक्खमति प०२ जेणेव हस्थिणापुरे नगरे जेणेव सए गिहे तेणेव उवा०२ विलं असणं पाणं जाव उवक्खडावेति उ०२मित्तणातिणियगजाव आमंतेति आमंतेत्ता तओ पच्छा पहाए || जहा पूरणे जाव जेहपुत्तं कुटुंबे ठावेति तं मित्तणाति जाव जेट्टपुत्तं च आपुच्छति आ०२ पुरिससहस्सवाहणिं सीयं दुरूहति पुरिससह०२ मित्तणातिनियगजाघ परिजणेणं जेट्टपुत्तेण य समणुगम्ममाणमग्गे सवि
गंगदत्त-अनगारस्य कथा
~324
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [५७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५७६]
व्याख्या-13 हीए जावणादितरवेणं हस्थिणागपुरं मझमझेणं निग्गच्छा नि०२ जेणेव सहसंपवणे उजाणे तेणेव १६ शतके
प्रज्ञप्तिः उवा०२ छत्तादिते तित्थगरातिसए पासति एवं जहा उदायणो जाव सयमेव आभरणं मुयह स०२ सयअभयदेवी- मेव पंचमुट्टियं लोयं करेति स०२जेणेव मुणिमुपए अरहा एवं जहेव उदायणो तहेव पपइए, तहेव एकारस गङ्गदत्तपू.
भवादि या वृत्तिः अंगाई अहिजइ जाव मासियाए संलेहणाए सर्टि भत्ताई अणसणाए जाव छेदेति सहि भत्ताइं०२ आलो-3|| ॥७०८॥
सू ५७६ इयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किचा महासुके कप्पे महासामाणे विमाणे उचवायसभाए देवसयणिज्जंसि जाव गंगदत्तदेवत्ताए उववन्ने, तए णं से गंगदत्ते देवे अहुणोववन्नामेत्तए समाणे पंचविहाए पज्जसीए पजतिभावं गच्छति, तंजहा-आहारपज्जत्तीए जाव भासामणपजत्तीए, एवं खलु गोयमा । गंगदत्तेणं[8 देवेणं सा दिया देवड्डी जाव अभिसम गंगदत्तस्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता, गोयमा ! सत्त-द रससागरोवमाई ठिती, गंगदत्ते णं भंते ! देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जाव महावि. वासे |सिज्झिहिति जाच अंतं काहिति ॥ सेवं भंते।२त्ति ॥ (सूत्रं ५७६)॥ १६-५॥ _ 'दिवं तेयलेस्सं असहमाणे त्ति इह किल शकः पूर्वभवे कार्तिकाभिधानोऽभिनवश्रेष्ठी बभूव गङ्गदत्तस्तु जीर्णः। श्रेष्ठीति, तयोश्च प्रायो मत्सरो भवतीत्यसावसहनकारणं संभाव्यत इति, 'एवं जहा सूरियाभो ति अनेनेदं सूचित
॥७०८ |'सम्मादिही मिच्छादिट्ठी परित्तसंसारिए अणंतसंसारिए सुलभबोहिए दुल्लभबोहिए आराहए विराहए चरिमे अचरिमें इत्यादीति ।। षोडशशतस्य पञ्चमोद्देशः परिपूर्णता प्राप्तः॥१६-५॥
SAMACHAR
दीप अनुक्रम [६७६]
ॐॐॐॐॐ
अत्र षोडशमे शतके पंचम-उद्देशक: परिसमाप्त:
गंगदत्त-अनगारस्य कथा
~325
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [५७७-१७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५७७
५७९]
ECIAAAAA
पश्चमोदेशके गङ्गादत्तस्य सिद्धिरुका, सा च भव्यानां केषाश्चित् स्वप्मेनापि सूचिता भवतीति स्वमस्वरूप पष्ठेनोच्यते || इत्येवंसम्बन्धस्यास्वेदमादिसूत्रम्
कतिविहे णं भंते ! सुविणदंसणे पण्णते ?, गोयमा ! पंचविहे सुविणदसणे पण्णत्ते, तंजहा-अहातचे |पयाणे चिंतासुविणे तषिवरीए अवत्तदसणे ॥ सुत्ते णं भंते ! सुविण पासति जागरे सुविणं पासति सत्त-|| जागरे सुविणं पासति ?, गोयमा ! नो सुत्ते सुविणं पासह नो जागरे सुविणं पासइ सुत्तजागरे सुविणं || पासह ॥ जीवा गं भंते ! किं सुसा जागरा सुत्तजागरा?, गोयमा ! जीवा सुत्ताधि जागरावि सुत्तजाग-16 रावि, नेरड्या णं भंते । किं सुत्ता १ पुच्छा, गोयमा नेरइया सुत्ता नो जागरानो सुत्तजागरा, एवं जाव | चरिंदिया, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते । किं सुत्ता पुच्छा, गोयमा! सुत्ता नो जागरा सुत्तजाग-18 रावि, मणुस्सा जहा जीवा, वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा नेरइया ॥ (सूत्रं ५७७)॥ संवुडे णं भंते ।। || सुविण पासइ असंवुडे सुविण पासह संबुडासंबुडे सुविणं पासइ, गोपमा ! संखुडेवि सुविण पासह असं-| बुडेवि सुविणं पासह संयुडासंधुडेवि सुविण पासइ, संखुडे सुविणं पासति अहातचं पासति, असंवुढे सुविणं | पासति तहावि तं होज्या अन्नहा वा तं होजा, संवुडासंबुडे सुविणं पासति एवं चेव ॥ जीवा णं भंते ! किं| संबुता असंबुडा संबुडासंधुडा, गोयमा ! जीवा संबुडावि असंबुडावि संघुडासंबुडावि, एवं जहेव सुत्ताणं || दंडओ तहेव भाणियो। कति णं मंते ! सुविणा पण्णत्ता, गोयमा ! बायालीसं सुविणा पन्नत्ता, करणं
दीप अनुक्रम
[६७७
-६७९]
अत्र षोडशमे शतके षष्ठं-उद्देशक: आरब्ध:
स्वप्न-दर्शन, स्वप्नद्रष्टा, स्वप्नस्य प्रकाराः, भगवता द्रष्टा दश-स्वप्ना: एवं तस्य फलं
~326
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [५७७-१७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५७७५७९]
व्याख्या- भंते ! महासुविणा पण्णत्ता, गोयमा! तीसं महासुविणा पण्णत्ता, कति णं भंते ! सबसुविणा पण्णता,
१६ शतके प्रज्ञप्तिः गोयमा! बावत्तरि सबसुविणा पण्णता । तित्थयरमायरो णं भंते ! तिस्थगरंसि गन्भं वक्कममाणंसि कति
| उद्देशः६ अभयदेवी-3 महासुविणे पासित्ताणं पडिबुझंति ?, गोयमा ! तित्थयरमायरो णं तित्थयरंसि गन्भं वक्कममाणंसि एएसि
10 सुप्तादितीसाए महासुविणाणं इमे चोदस महासुविणे पासित्ताणं पडिबुझंति, तं०-गयउसभसीहअभिसेयजावदा
श्यस्वमभे
सू५७७ ॥७०९॥
सिहि च । चक्कवहिमायरो गं भंते ! चक्कर्टिसि गम्भं वक्कममाणंसि कति महासुमिणे पासित्ता णंद्र संवृतादी
पडिबुझंति ?, गोयमा!चक्कवधिमायरो चकवहिसिजाव चकममाणंसि एएसिं तीसाए महामुक एवं जहा ति- नां सत्यस्व. दत्थगरमायरो जाव सिहिं च । वासुदेवमायरो णं पुच्छा, गोयमा ! वासुदेवमायरो जाव चकममाणंसि प्रतादि७२ एएसिं चोहसण्हं महासुविणाणं अन्नयरे सत्त महासुविणे पासित्ताणं पडिबु०। बलदेवमायरो वा णं पुच्छा,
स्वप्नाश्च सू गोयमा ! बलदेवमायरो जाव एएसिं चोदसण्हं महासुविणाणं अन्नघरे चत्तारि महामुविणे पासित्ता गं |
५७८ वीरतैपडि० । मंडलियमायरो णं भंते ! पुच्छा०, गोयमा ! मंडलियमायरो जाव एएर्सि चोइसणहं महासु०
दृष्टाः१०स्व अन्नयरं एगं महं सुविणं जाव पडिबुल ( सूत्रं ५७८) ॥ समणे भ० महावीरे छमत्थकालियाए अंतिमरा
माः सू५७९ इयंसि इमे दस महासुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे,तं०-एगं च णं महं घोररूवदित्तधरं तालपिसार्य सुविणे
७०९॥ पराजियं पासित्ताणं पडिबुद्धे १ एगं च णं महं सुकिल्लपक्खगं पुंसकोइलं सुविणे पासि०२ एगं च णं महं | चित्तविचित्तपक्खगं पुंसकोइलग सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे ३ एगं च णं महं दामदुर्ग सबरयणामयं सुविणे
दीप अनुक्रम
[६७७
-६७९]
| स्वप्न-दर्शन, स्वप्नद्रष्टा, स्वप्नस्य प्रकाराः, भगवता द्रष्टा दश-स्वप्ना: एवं तस्य फलं
~327
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [५७७-१७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५७७
ACCIENCE-C
५७९]
पासित्ता०४ एगं च णं महं सेयगोवरगं सुविणे पा०५ एगं च णं महं पउमसरं सपओ समंता कुसुमिया सुविणे०६ एगं च णं महं सागरं उम्मीवीयीसहस्सकलियं भुयाहिं तिनं मुविणे पासित्ता०७ एगं च णं महं दिणयरं तेयसा जलंतं सुविणे पासइ०८ एगं च णं महं हरिवेरुलियवन्नामेणं नियगेणं अंतेणं माणुसुत्सरं। पवयं सबओ समंता आवेढियं परिवेढियं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे ९ एगं च णं महं मंदरे पवए मंदरचू| लियाए उबरिं सीहासणवरगयं अप्पाणं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे १० । जपणं समर्ण भगवं म. एग घोररूवदित्तधरं तालपिसायं सुविणे पराजियं पा० जाव पडिबुद्धे तपणं समणेणं भगवया महा. मोहणिज्जे कम्मे मूलाओ उग्घायिए १ जनं समणे भ० म० एगं महं सुकिल्लजाव पडिबुद्धे तण्णं समणे भ० म० सुक| ज्झाणोवगए विहरति, जपणं समणे भ०म० एगं महं चित्तविचित्तजाव पडिबुद्धे तपणं समणेभ०म०विचितं ससमयपरसमइयं दुवालसंग गणिपिडगं आघवेति पन्नवेति परवेति दंसेति निदंसेति उवदंसेति, तंजहाआयारं सूयगडं जाव दिद्विवायं ३, जपणं समणे भ० म० एगं महं दामदुगं सवरयणामयं सुविणे पासित्ताणं
पडिबुद्धे तण्णं समणे भ०म० दुविहं धम्म पनवेति, तं०-आगारधम्म वा अणागारधम्म वा ४, जपणं समणे है भ० म०एगं मई सेयगोवग्गं जाव पडिबुद्धे तणं समणस्स भ० म० चाउचपणाइने समणसंघे, तं०-समणा |समणीओ सावया सावियाओ५, जपणं समणे भ० म० एगं महं पउमसरं जाव पडिबुद्धे तणं समणे जाव चीरे चउबिहे देवे पन्नवेति, तं०-भवणवासी वाणमंतरे जोतिसिए वेमाणिए ६, जन्नं समणे भग०म० एगं
दीप अनुक्रम
3Ck
[६७७
-६७९]
| स्वप्न-दर्शन, स्वप्नद्रष्टा, स्वप्नस्य प्रकारा:, भगवता द्रष्टा दश-स्वप्ना: एवं तस्य फलं
~328~
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [१७७-५७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५७७५७९]
व्याख्या-|| महं सागरं जाव पहियुद्धे तन्नं समणेणं भगवया महावीरेणं अण्णादीए अणवदग्गे जाय संसारकतारे तिन्ने, १६ शतके प्रज्ञप्तिःजन्नं समणे भगवं म० एग महं दिणयरंजाव पडिबुद्धे तन्नं समणस्स भ०म० अर्णते अणुत्तरे नि०नि०का उद्देशः६ अभयदेषी-|3|| पति केवल० स० समुप्पन्ने ८, जपणं समणे जाव चीरे एगं महं हरिवेरुलिय जाच पडिबु० तण्णं समणस्सा
स्वभाषिया वृत्तिःलाभ०म० ओराला कित्तिवन्नसहसिलोया सदेवमणुयासुरे लोए परिभमंति-इति खलु समणे भगवं महावीरे
कार: ॥७१०॥
इति०९, जन्नं समणे भगवं महावीरे मंदरे पवए मंदरचूलियाए जाव पडिबुद्धे तण्णं समणे 'भगवं महाबीरे 18|| सदेवमगुआमुराए परिसाए मज्झगए केवली धम्मं आघवेति जाव उवदंसेति ।। (५७९)॥
'काबिहे'इत्यादि, 'सुविणदसणे'त्ति स्वमस्य-स्वापक्रियानुगतार्थविकल्पस्य दर्शनं अनुभवनं, तच्च स्वमभेदात्पश्चविहै धमिति, 'अहातचेति यथा-येन प्रकारेण तथ्य-सत्यं तत्त्वं वा तेन यो वर्ततेऽसौ यथातथ्यो यथातत्त्वो वा, स च दृष्टा-12
विसंधादी फलाविसंवादी वा, तत्र रष्टार्थाविसंवादी स्वप्नः किल कोऽपि स्वप्नं पश्यति यथा मह्यं फलं हस्ते दत्तं जागरित|स्तथैव पश्यतीति, फलाविसंवादी तु किल कोऽपि गोवृषकुञ्जराधारूढमात्मानं पश्यति बुद्धश्च कालान्तरे सम्पदं लभत इति,
'पघाणे'त्ति प्रतनने प्रतानो-विस्तारस्तद्पः स्वप्नो यथातथ्यः तदन्यो वा प्रतान इत्युच्यते, विशेषणकृत एवं चानयोर्भेदः, ||5|| एवमुत्तरत्रापि, 'चिंतासुमिणे ति जाग्दवस्थस्य या चिन्ता-अर्थचिन्तन तत्संदर्शनात्मकः स्वमश्चिन्तास्वमः, 'तविवरीय'त्ति ||3||
॥७१० यादर्श वस्तु स्वमे दृष्टं तद्विपरीतस्यार्थस्य जागरणे यत्र प्राप्तिः स तद्विपरीतस्वप्नो यथा कश्चिदात्मानं मेध्यविलिप्त स्वमे || पश्यति जागरितस्तु मेध्यमर्थ कंचन पामोतीति, अन्ये तु तद्विपरीतमेवमाहुः कश्चित् स्वरूपेण मृत्तिकास्थलमारूढः स्वमे|Jil
दीप अनुक्रम
[६७७
-६७९]
| स्वप्न-दर्शन, स्वप्नद्रष्टा, स्वप्नस्य प्रकाराः, भगवता द्रष्टा दश-स्वप्ना: एवं तस्य फलं
~329~
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [५७७-१७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
SAS
प्रत सूत्रांक [५७७
५७९]
E
18च पश्यत्यात्मानमश्वारूढमिति, 'अश्वत्तदसणे'सि अव्य-अस्पष्टं दर्शन-अनुभवः स्वप्नार्थस्य यत्रासावव्यक्तदर्शनः ॥४ | स्वमाधिकारादेवेदमभिधातुमाह-'मुत्ते ण'मित्यादि, 'सुत्तजागरे'त्ति नातिमुप्तो नातिजाग्रदित्यर्थः, इह सुप्तो जागरश्च
द्रव्यभावाभ्यां स्यात्तत्र द्रव्यतो निद्रापेक्षया भावतश्च विरत्यपेक्षया, तत्र च स्वमव्यतिकरो निद्रापेक्ष उक्तः, अथ विरत्य|पेक्षया जीवादीनां पञ्चविंशतेः पदानां सुप्तत्वजागरत्वे प्ररूपयन्नाह-'जीवा ण'मित्यादि, तत्र 'सुत्त'त्ति सर्वविरतिरूप-18 नैश्चयिकप्रबोधभावात् 'जागर'त्ति सर्वविरतिरूपप्रवरजागरणसद्भावात् 'सुत्तजागर'त्ति अविरतिरूपसुप्तप्रबुद्धतासद्भावादिति ।। पूर्व स्वप्नद्रष्टार उक्ताः, अथ स्वमस्यैव तथ्यातथ्यविभागदर्शनार्थं तानेवाह-संबुडे ण'मित्यादि, 'संवृतः | निरुद्धाश्रवद्वारः सर्यविरत इत्यर्थः, अस्य च जागरस्य च शब्दकृत एव विशेषः, द्वयोरपि सर्वविरताभिधायकत्वात् किन्तु || | जागरः सर्वविरतियुक्तो बोधापेक्षयोच्यते संवृतस्तु तथाविधबोधोपेतसर्वधिरत्यपेक्षयेति, 'संबुडे णं सुविण पासइ अहा-1 *तचं पासहत्ति सत्यमित्यर्थः, संवृतश्चेह विशिष्टतरसंवृतत्वयुक्तो ग्राह्यः स च प्रायः क्षीणमलत्वात् देवताऽनुग्रहयुक्तत्वाञ्च ||2
सत्यं स्वमं पश्यतीति ॥ अनन्तरं संवृतादिः स्वमं पश्यतीत्युक्तमथ संवृतत्वायेव जीवादिषु दर्शयन्नाह-'जीवा गमिदत्यादि ॥ स्वमाधिकारादेवेदमाह-कह ण'मित्यादि, 'यायालीसं सुविण'त्ति विशिष्टफलसूचकस्वमापेक्षया द्विचत्वारिं| शदन्यथाऽसयेयास्ते संभवन्तीति, 'महासुविण'त्ति महत्तमफलसूचकाः 'बावत्सरि'त्ति एतेषामेव मीलनात् । 'अंतिम
राइयंसित्ति रात्रेरन्तिमे भागे 'घोररूवदित्तधर ति घोरं यद्रूपं दीप्तं च दृप्तं वा तद्धारयति यः स तथा तं 'ताल६ पिसाय'ति तालो-वृक्षविशेषः स च स्वभावादीभवति ततश्च ताल इव पिशाचस्तालपिशाचस्तम् , एषां च पिशाचाद्य
दीप अनुक्रम
ARCH
[६७७
-६७९]
| स्वप्न-दर्शन, स्वप्नद्रष्टा, स्वप्नस्य प्रकारा:, भगवता द्रष्टा दश-स्वप्ना: एवं तस्य फलं
~330
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [५७७-१७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५७७५७९]
कारः
व्याख्या-18र्थानां मोहनीयादिभिः स्वप्मफलविषयभूतैः सह साधर्म्य स्वयमभ्यूह्यं, 'पुंसकोइलगं'ति पुंस्कोकिलं-कोकिलपुरुषमित्यर्थः, १६ शतके मज्ञप्तिः
'दामदुर्गति मालाद्वयम् 'उम्मीवीइसहस्सकलिय'ति इहोर्मयो-महाकल्लोलाः वीचयस्तु इस्वाः, अथवोमीणां वीचयो- 8 उद्देशः ६ वाला विविक्तव्यानि तत्सहस्रकलितं, 'हरिवेरुलियवण्णाभेणं ति हरिच-तन्नील वैडूर्यवर्णाभं चेति समासस्तेन 'आवेर्दियं तिट। या वृत्तिः२
अभिविधिना वेष्टितं सर्वत इत्यर्थः 'परिवेढियंति पुनः पुनरित्यर्थः 'उवरित्ति उपरि गणिपिडगं'ति गणीनां-अर्थपरि॥७११॥ लिच्छेदानां पिटकमिव पिटक-आश्रयो गणिपिटकं गणिनो वा-आचार्यस्य पिटकमिव-सर्वस्वभाजनमिव गणिपिटकम् 'आघ-18
वेईत्ति आख्यापयति सामान्यविशेषरूपतः 'पन्नवेति ति सामान्यतः 'परूवेईत्ति प्रतिसूत्रमर्थकथनेन 'सेइति तदभिधेयप्रत्युपेक्षणादिक्रियादर्शनेन 'निदसेइ'त्ति कश्चिदगृहृतोऽनुकम्पया निश्चयेन पुनः पुनर्दर्शयति 'उवदंसेइ'त्ति || सकलनययुक्तिभिरिति, 'चाउचण्णाइन्नेत्ति चातुर्वर्णश्चासावाकीर्णश्च ज्ञानादिगुणैरिति चातुर्वर्णाकीर्णः 'चउबिहे देवे||
पन्नवेइ'त्ति प्रज्ञापयति-प्रतिबोधयति शिष्यीकरोतीत्यर्थः, 'अणंतेति विषयानन्तत्वात् 'अणुत्तरे'त्ति सर्वप्रधानत्वात्, ४ यावत्करणादिदं दृश्य-निवाघाएकटकुख्यादिनाऽप्रतिहतत्वात् 'निरावरणे' क्षायिकत्वात् 'कसिणे सकलार्थप्राहक| स्वात् 'पडिपुन्ने' अंशेनापि स्वकीयेनान्यूनत्वादिति ।
हस्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं हयपति वा गयपति वा जाव वसभपति वा पासमाणे पासति | || दुरूहमाणे दुरूहति दुरूढमिति अप्पाणं मन्नति तक्खणामेव वुज्झति तेणेव भवग्गहणेणं सिज्मति जाव
अंतं करेति । इत्थी वा पुरिसे वा सुविणंते एगं महं दामिणि पाईणपडिणायतं दुहओ समुद्दे पुढे पासमाणे
दीप अनुक्रम
[६७७
-६७९]
| स्वप्न-दर्शन, स्वप्नद्रष्टा, स्वप्नस्य प्रकाराः, भगवता द्रष्टा दश-स्वप्ना: एवं तस्य फलं
~331
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [५८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५८०]
दीप अनुक्रम [६८०]
दापासति संवेल्लेमाणे संवेल्लेह संवेल्लियमिति अप्पाणं मन्नति तक्खणामेव अप्पाणं वुज्झति तेणेव भवग्गहणेणंडू
जाव अंतं करेति । इत्थी वा पुरिसे वा एगं महं रज्जु पाईणपडिणायतं दुहओ लोगंते पुढे पासमाणे पासति से छिंदमाणे छिंदति छिन्नमिति अप्पाणं मन्नति तक्खणामेव जाव अंतं करेति । इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते द एगं महं किण्हसुत्तगं वा जाव सुकिल्लसुत्तगं वा पासमाणे पासति उग्गोवेमाणे उग्गोवेइ उग्गोवितमिति
अप्पाणं मन्नति तक्खणामेव जाव अंतं करेति । इत्थी वा पुरिसे वा सुविणते एगं महं अयरासिं वा तंब
रासिं तउयरासिंवा सीसगरासि वा पासमाणे पासति दुरूहमाणे दुरूहति दुरूदमिति अप्पाणं मन्नति तक्खद्राणामेव बुज्मति दोघे भवग्गहणे सिज्झति जाव अंतं करेति । इत्थी वा पुरिसे पा सुविणते एगं महं हिरन्न-
रार्सि वा सुवन्नरासिं वा रयणरासिं वा वहररासिं वा पासमाणे पासइ दुरूहमाणे दुरूहइ दुरूढमिति
अप्पाणं मन्नति तक्वणामेव बुज्झति तेणेव भवग्गहणेणं सिझति जाव अंतं करेति । इत्थी वा पुरिसे वा द्र सुविणते एगं महं तणरासिं था जहा तेयनिसग्गे जाव अवकररासि वा पासमाणे पासति विक्खिरमाणे विक्खिरइ विकिपणमिति अप्पाणं मन्नति तक्खणामेब बुज्झति तेणेव जाव अंतं करेति । इत्थी वा पुरिसे वा
सुविणंते एग महं सरथंभं वा वीरिणथंभं वा वंसीमूलथंभं वा वल्लीमूलधंभं वा पासमाणे पासइ उम्मूलेट्रमाणे उम्मूलेइ उम्मूलितमिति अप्पाणं मन्नइ तक्खणामेव बुज्झति तेणेव जाब अंतं करेति । इत्थी वा पुरिसे
वा सुविणते एग महं खीरकुंभ वा दधिकुंभं वा घयकुंभ वा मधुकुंभ वा पासमाणे पासति उप्पामाणे
स्वप्न-दर्शन, स्वप्नद्रष्टा, स्वप्नस्य प्रकारा:, भगवता द्रष्टा दश-स्वप्ना: एवं तस्य फलं
~332
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [५८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
**
प्रत सूत्रांक [५८०
दीप अनुक्रम [६८०]
व्याख्या
उप्पाडेर उपाडितमिति अप्पाणं मन्नति तक्खणामेव बुज्झति तेणेव जाच अंतं करेह । इत्थी वा पुरिसे ||१६ शतके प्रज्ञप्तिः॥४॥वा सुविणंते एगं महं सुराषियकुंभ वा सोवीरवियडकुंभं वा तेल्लभं या वसाकुंभं वा पासमाणे पासति उदेशः ६ अभयदेवी- भिंदमाणे भिंदति भिन्नमिति अप्पाणं मन्नति तक्खणामेव बुजाति दोच्चेणं भव० जाव अंतं करेति । इत्थी वा सिद्धिदार या वृत्तिः२ पुरिसे वा सुविणते एग महं पउमसरं कुसुमियं पासमाणे पासति ओगाहमाणे ओगाहति ओगाढमिति स्वप्नाः
अप्पाणं मन्नति तक्खणामेव तेणेव जाव अंतं करेति । इत्थी वा जाव मुविणंते एगं महं सागरं उम्मीवीयी-18 सू५८० ॥७१२॥
जाब कलियं पासमाणे पासति तरमाणे तरति तिन्नमिति अप्पाणं मन्नति तक्खणामेव जाव अंतं करेति । इत्थी वा जाव सुविणते एगं महं भवणं सबरयणामयं पासमाणे पासति [दुरूहमाणे दुरूहति दुरूडमिति०] | अणुप्पविसमाणे अणुप्पविसति अणुप्पविट्ठमिति अप्पाणं मन्नति तक्खणामेव बुज्झति तेणेव जाव अंतं 8 करेति । इत्थी वा पुरिसे या सुविणते एग महं विमाणं सबरयणामयं पासमाणे पासह दुरूहमाणे दुरूहति दुरूढमिति अप्पाणं मन्नति तक्खणामेव बुज्झति तेणेव जाव अंतं करेंति ॥ (सूत्रं ५८०)॥ । 'सुविणतेत्ति 'स्वमान्ते' स्वमस्य विभागे अवसाने वा 'गयपति वा' इह यावत्करणादिदं श्य-'नरपति वा एवं |किन्नरकिंपुरिसमहोरगगंधष'त्ति 'पासमाणे पासइति पश्यन् पश्यत्तागुणयुक्तः सन् 'पश्यति' अवलोकयति, 'दामिणि'न्ति
R७१२॥ गयादीनां बन्धनविशेषभूतां रजु 'दुहओत्ति द्वयोरपि पार्श्वयोरित्यर्थः 'संवेल्लेमाणे'त्ति संपेलयन् संवर्तयन् 'संवेल्लिय|मिति अप्पाणं माइति संवेल्लितान्तामित्यात्मना मन्यते विभक्तिपरिणामादिति 'उग्गोवेमाणे'सि उद्गोपयन् विमोहय
**TAARNAAAAAA
HAMARIES
स्वप्न-दर्शन, स्वप्नद्रष्टा, स्वप्नस्य प्रकारा:, भगवता द्रष्टा दश-स्वप्ना: एवं तस्य फलं
~333
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६,], मूलं [५८०,५८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[५८०,
५८१]
1564585415645645645CRX
नित्यर्थः 'जहा तेयनिसम्पत्ति यथा गोशालके, अनेन चेदं सूचित-पत्तरासीति वा तयारासीति वा भुसरासीति वा |तुसरासीति का गोमयरासीति वत्ति 'सुरावियडकुंभ'ति सुरारूपं यद् विकटं-जलं तस्य कुम्भो यः स तथा 'सोवीरग|वियडकुंभं वत्ति इह सौवीरके-कालिकमिति ॥ अनन्तरं स्वमा उक्तास्ते चाचक्षुर्विषया इत्यचक्षुर्विषयितासाधम्र्येण गन्धपुद्गलवक्तव्यतामभिधातुमाह- अह भंते ! कोहपुडाण वा जाव केयतीपुडाण वा अणुवायंसि उभिजमाणाण वा जाव ठाणाओ वा ठाणं संकामिजमाणाणं किं कोट्टे वाति जाव केयई वाइ, गोयमा ! नो कोटे वांति जाव नो केयई वाती घाणसहगया पोग्गला वाति । सेवं भंते २ति (सूत्रं ५८१)॥१६-६॥ | 'आहे'त्यादि, 'कोहपुडाण वत्ति कोठे यः पच्यते वाससमुदायः स कोष्ठ एव तस्य पुटा:-पुटिकाः कोष्ठपटास्तेषां, यावत्करणादिदं रश्य- पत्तपुडाण वा चोयपुडाण वा तगरपुडाण वेत्यादि, तत्र पत्राणि-तमालपत्राणि 'चोय'त्ति त्वक् तगरं च-गन्धद्रव्यविशेष: 'अणुवायंसि' अनुकूलो वातो यत्र देशे सोऽनुवातोऽतस्तत्र यस्माद्देशाद्वायुरागच्छति तत्रेत्यर्थः 'उन्भिजमाणाण 'त्ति प्रावल्येनोई वा दीर्यमाणानाम् , इह यावत्करणादिदं दृश्य-'निम्भिजमाणाण वा' प्रावल्याभावेदानाधो वा दीर्यमाणानाम् 'उकिरिज्जमाणाण वा विकिरिजमाणाण वा इत्यादि प्रतीतार्थाश्चैते शब्दाः, 'किं कोढे वाइ'त्ति
कोष्ठो-वाससमुदाको वाति-दूरादागच्छति, आगत्य घ्राणग्राह्यो भवतीति भावः, 'घाणसहगय'त्ति प्रायत इति प्राणो-न्धो | गन्धोपलम्भक्रिया वा तेन सह गता।-प्रवृत्ता ये पुनलास्ते प्राणसहगताः गग्धगुणोपेता इत्यर्थः ॥ षोडशशते षष्ठः ॥१५-६॥
दीप अनुक्रम [६८०,
६८१]
अत्र षोडशमे शतके षष्ठं-उद्देशक: परिसमाप्त:
~3344
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [५८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५८२]
दीप अनुक्रम [६८२]
व्याख्या
षष्ठोद्देशकान्ते गन्धपुलला वान्तीत्युक्तं, ते चोपयोगेनावसीयन्त इत्युपयोगस्तद्विशेषभूता पश्यत्ता च सप्तमे प्ररूप्यते हैं. १६ शतके प्रज्ञप्तिः इत्येवंसम्बद्धस्यास्वेदमादिसूत्रम्
| उद्देशः अभयदेवी
| कतिविहे णं भंते । उपओगे पन्नत्ते?, गोयमा! दुविहे उवओगे पन्नत्ते एवं जहा अवयोगपदं पन्नवणाए तहेव माणसहगया वृत्तिः
निरवसेसं भाणियचं, पासणयापदंच निरवसेसं नेयम् । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ॥ (सूत्रं ५८२)॥१६-७॥ तपुद्गल ॥७१२॥ il _ 'काविहे ण'मित्यादि, 'एवं जहे'त्यादि, उपयोगपदं प्रज्ञापनायामेकोनत्रिंशत्सम, तच्चैव-तंजहा-सागारोवओगे य
18|| सू ५८१ ४ अणागारोवओगे य । सागारोवओगे णं भंते ! कतिविहे पणत्ते, गोयमा ! अदुविहे पणत्ते, तंजहा-आभिणिबोहिय-18 उपयोग
उद्देशः णाणसागारोवओगे मुयणाणसागारोवओगे एवं ओहिणाण. मणपळवनाण. केवलनाण. मतिअन्नाणसागारोवओगे पश्यत्ते
सुयअन्नाणसागारोवओगे विभंगनाणसागारोवओगे । अणागारोवओगे णं भंते ! कतिविहे पण्णचे, गोयमा ! चउबिहे सू ५८२ 8 पण्णते, तंजहा-चक्खुदंसणअणागारोवओगे अचक्खुदंसणआणागारोवओगे ओहिंदसणणागारोवओगे केवलदंसणअटणागारोवओगे'इत्यादि, एतच्च व्यक्तमेव, 'पासणयापयं च णेयई ति पश्यत्तापदमिह स्थानेऽध्येतव्यमित्यर्थः, तच्च प्रज्ञा-1
पनायां त्रिंशत्तम, तचैवं-'कतिषिहा णं भंते ! पासणया पण्णता ?, गोयमा ! दुविहा पासणया पण्णता, तंजहा-सागा-|| दरपासणया अणागारपासणया, सागारपासणया णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ?, गोयमा ! छविहा प०, तं०-सुथणाणसागार-1
॥७१२॥ पासणया एवं ओहिनाण. मणनाण केवलनाण सुयअन्नाण. विभंगनाणसागारपासणया, अणागारपासणया णं भंते !! कतिविहा प०१, गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-चक्खुदसणअणागारपासणया ओहिदसणअणागारपासणया केवलदं
अत्र षोडशमे शतके सप्तम-उद्देशक: आरब्ध:
~335.
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [५८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५८२]
ASCASSES
सणअणागारपासणया इत्यादि, अस्य चायमर्थः-पासणय'त्ति पश्यतो भावः पश्यत्ता-बोधपरिणामविशेषः, ननु पश्यत्तोपयोगयोस्तुल्ये साकारानाकारभेदत्वे का प्रतिविशेषः १, उच्यते, यत्र त्रैकालिकोऽववोधोऽस्ति तत्र पश्यत्ता यत्र पुनर्वतमानकालकालिकश्च तत्रोपयोग इत्य यं विशेषः, अत एव मतिज्ञानं मत्यज्ञानं च साकारपश्यत्तायां नोक्तं, तस्योत्पन्नाविनष्टाग्राहकत्वेन साम्पतकालविषयत्वात् , अथ कस्मादनाकारपश्यत्तायां चक्षुर्दर्शनमधीतं न शेषेन्द्रियदर्शनं, उच्यते, पश्यत्ता प्रकृष्टमीक्षणमुच्यते 'दृशिर प्रेक्षणे' इति वचनात् , प्रेक्षणं च चक्षुर्दर्शनस्यैवास्ति न शेषाणां, चक्षुरिन्द्रियोपयोगस्य । शेषेन्द्रियोपयोगापेक्षयाऽल्पकालत्वात् , यत्र चोपयोगोऽल्पकालस्तत्रेक्षणस्य प्रकर्षो झटित्यर्थपरिच्छेदात् , तदेवं चक्षुर्दर्शनखैव पश्यत्ता नेतरस्पेति, अयं चार्थः प्रज्ञापनातो विशेषेणावगम्य इति ॥ पोडशशते सप्तमः ॥ १६-७॥
दीप अनुक्रम [६८२]
सप्तमे उपयोग उक्ता, स च लोकविषयोऽपीतिसम्बन्धादष्टमे लोकोऽभिधीयते, तस्य चेदमादिसूत्रम्किंमहालए णं भंते ! लोए पन्नत्ते?, गोयमा ! महतिमहालए जहा बारसमसए तहेव जाप असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं, लोयरस णं भंते ! पुरच्छिमिल्ले चरिमंते किं जीवा जीवदेसा जीवपएसा अजीचा अजीवदेसा अजीवपएसा ?, गोयमा ! नो जीवा जीवदेसावि जीवपएसावि अजीवावि अजीवदेसावि अजीवपएसावि ॥ जे जीवदेसा ते नियमं एगिदियदेसा य अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स य देसे एवं जहा दसमसए अग्गेयीदिसा तहेव नवरं देसेसु अणिदियाणं आइल्लविरहिओ।जे अरूवी अजीवा ते
REaratalilarana
अत्र षोडशमे शतके सप्तम-उद्देशक: परिसमाप्त: अत्र षोडशमे शतके अष्टम-उद्देशक: आरब्ध:
~336~
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [५८३-५८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५८३
-५८४]
व्याख्या-1 छपिहा, अद्धासमयो नत्धि, सेस तं चेव सर्व निरवसेसं। लोगस्सणं भंते दाहिणिल्ले चरिमते किं जीवा०,एवं १९ शतके
चेव, एवं पचच्छिमिल्लेषि, उत्तरिल्लेवि, लोगस्स णं भंते ! उवरिल्ले चरिमंते किं जीवा० १ पुच्छा, गोयमा नो मज्ञप्तिः
उद्देशः अभयदेवी
लोकमहत्ता जीवा जीवदेसावि जाव अजीवपएसावि । जे जीवदेसा ते नियमं एगिदियदेसा य अणिदियदेसा य अहवा
चरमान्ताया वृत्तिः२ एगिदियदेसा च अणिदिय०दियस्स य देसे, अहवा एगिदियदेसा य अणि दियदेसा यत्रंदियाण य देसा, एवं दी जीवजी ॥७१४॥ मझिल्लविरहिओ जाप पंचिंदि०, जे जीवप्पएसा ते नियम एगिदियप्पएसा य अणिदियप्पएसा य अहवा, वदेशादि
एगिदियप्पएसा य अर्णिदियप्पएसा य दियस्सप्पदेसा य अहवा एगिदियपएसा य अणि दियप्पएसा य घेई- सू ५८३ दियाण य पएसा, एवं आदिल्लविरहिओ जाव पंचिंदियाणं, अजीवा जहा दसमसए तमाए तहेव निरवसेसं॥ द लोगस्स गं भंते । रेडिल्ले चरिमंते किं जीवा० पुच्छा ?, गोयमा! नो जीवा जीवदेसावि जाव अजीवप्प-15
एसाथि, जे जीवदेसा से नियम एगिदियदेसा अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स देसे अहवा एगिदियदेसा शाय बंदियाण य देसा एवं मज्झिल्लविरहिओ जाव अणिदियाणं पदेसा आइल्लविरहिया सवेर्सि जहा पुरदच्छिमिले परिमंते तहेव, अजीवा जहेव प्रवरिले चरिमंते तहेव ॥ इमीसे णं भंते रपणपभाए पुढवीए
पुरच्छिमिल्ले चरिमंते किं जीवा.१ पुच्छा, गोयमानो जीवा एवं जहेव लोगस्स तहेव चत्तारिवि चरिमंता जाव उत्तरिल्ले, उवरिल्ले तहेव जहा दसमसए विमला दिसा तहेव निरवसेस, हेडिल्ले चरिमंते तहेव नवरं देसे पंचिं|दिएसु तियभंगोत्ति सेसं तं चेय, एवं जहा रयणप्पभाए चत्तारि चरमंता भणिया एवं सकरप्पभाएवि उवरि-1
दीप अनुक्रम [६८३-६८४]
*64k
~337
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [५८३-५८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५८३-५८४]
महेद्विाल्ला जहारपणप्पभाए हेडिल्ले । एवं जाव अहे सत्तमाए, एवं सोहम्मस्सवि जाव अयस्स गेविजविमाणाणं एवं चेव, नवरं उपरिमहडिल्लेसु चरमंतेसु देसेसु पंचिंदियाणवि मज्झिल्लविरहिओ चेव एवं जहागेचेज | विमाणा तहा अणुत्तरविमाणावि ईसिपम्भारावि ॥ (मूत्रं५८३) परमाणुपोग्गले णं भंते ! लोगस्स पुरच्छिमि-IN लाओ चरिमंताओ पञ्चच्छिमिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति पञ्चच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ पुरच्छिमिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति दाहिणिल्लाओ चरिमंताओ उत्तरिल्लं० उत्तरिल्लाओ० दाहिणिलं. उबरिल्लाओ चरमंताओ हेडिल्लं चरिमंतं एवं जाव गच्छति हेडिल्लाओ चरिमंताओ उवरिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति?, हंता गोयमा ! परमाणुपोग्गले णं लोगस्स पुरच्छिमिलं तं चेव जाच उवरिल्लं चरिमंतं गच्छति (सूत्रं ५८४) oil 'किंमहालए 'मित्यादि, 'चरमंते'प्ति चरमरूपोऽन्तश्चरमान्तः, तत्र चासङ्ख्यातप्रदेशावगाहित्वाज्जीवस्यासम्भव इत्यत
आह-भोजीवेत्ति, जीवदेशादीनां त्वेकप्रदेशेऽप्यवगाहः संभवतीत्युक्त 'जीवदेसावीत्यादि, 'अजीवावि'ति पुद्गलस्कन्धाः 'अजीचदेसावित्ति धर्मास्तिकायादिदेशाः स्कन्धदेशाश्च तत्र संभवन्ति, एवमजीवप्रदेशा अपि ॥ अथ जीवादिदेशादिषु विशेषमाह-'जे जीवेत्यादि, ये जीवदेशास्ते पृथिव्यायेकेन्द्रियजीवानां देशास्तेषां लोकान्तेऽवश्यं भावादित्येको विकल्पः, 'अहव'त्ति प्रकारान्तरदर्शनार्थः, एकेन्द्रियाणां बहुत्वाद्बहवस्तत्र तदेशा भवन्ति, द्वीन्द्रियस्य च कादा-I& चित्कत्वात्कदाचिद्देशः स्यादित्येको द्विकयोगविकल्पः, यद्यपि हि लोकान्ते द्वीन्द्रियो नास्ति तथाऽपि यो द्वीन्द्रिय एके-4 |न्द्रियत्पित्सुारणान्तिकसमुद्घातं गतस्तमाश्रित्यायं विकल्प इति । 'एवं जहे'त्यादि, यथा दशमशते आग्नेयीं दिशमा
Isil
दीप अनुक्रम [६८३
-६८४]]
~338~
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [५८३-५८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५८३-५८४]
|श्रित्योक्तं तथेह पूर्वचरमान्तमाश्रित्य वाच्यं, तच्चेदम्-'अहवा एगिदियदेसा य बे इंदियस्स य देसा अहवा एगिदियदेसा य|| प्रज्ञप्तिः बेइंदियाण य देसा अहवा एगिंदियदेसा य तेइंदियस्स य देसे' इत्यादि, यः पुनरिह विशेषस्तदर्शनायाह-'नवरं
उद्देशः८ अभयदेवी-3 अर्णिदियाण'मित्यादि, अनिन्द्रियसम्बन्धिनि देशविषये भङ्गकत्रये 'अहवा एगिदियदेसा य अणिदियस्स देसे' इत्येवं
लोकमहत्ता या वृत्तिः
रूपः प्रथमभङ्गको दशमशते आग्नेयीप्रकरणेऽभिहितोऽपीह न वाच्यो, यतः केवलिसमुद्घाते कपाटाद्यवस्थायां लोकस्य दो जीवजी पूर्वचरमान्ते प्रदेशवृद्धिहानिकृतलोकदन्तकसद्भावेनानिन्द्रियस्य बहूनां देशानां सम्भवो न त्वेकस्येति, तथाऽऽग्नेय्यां दश- वदेशादि विधेष्वरूपिद्रव्येषु धर्माधर्माकाशास्तिकायद्रव्याणां तस्यामभावात्सप्तबिधा अरूपिण उक्ताः लोकस्य पूर्वचरमान्तेष्वद्धासमयस्याप्यभावात् षविधास्ते वाच्याः, अद्धासमयस्य तु तत्राभावः समयक्षेत्र एवं सद्भावात् , अत एवाह-'जे अरूवी अजीवा ते छबिहा अद्धासमयो नत्यि'त्ति, 'उवरिले चरिमंते'त्ति, अनेन सिद्धोपलक्षित उपरितनचरिमान्तो विवक्षितस्तत्र चैकेन्द्रियदेशा अनिन्द्रियदेशाश्च सन्तीतिकृत्वाऽऽह-'जे जीवे'त्यादि, इहायमेको द्विकसंयोगः, त्रिकसंयोगेषु च द्वौ द्वी कार्यो, तेषु हि मध्यमभङ्गः 'अहवा एगिदियदेसा य अणिंदियदेसा य बेइंदियस्स य देसा' इत्येवंरूपो नास्ति, द्वीन्द्रियस्य
च देशा इत्यस्यासम्भवाद, यतो द्वीन्द्रियस्योपरितनचरिमान्ते मारणान्तिकसमधातेन गतस्यापि देश एव तत्र संभवति। ठन पुनः प्रदेशवृद्धिहानिकृतलोकदन्तकवशादनेकप्रतरात्मकपूर्वचरमान्तवद्देशाः, उपरितनचरिमान्तस्यैकमतररूपतया लोक-|| ॥७१५॥
दन्तकाभावेन देशानेकत्वाहेतुत्वादिति, अत एवाह-एवं मज्झिल्लविरहिओ'चि त्रिकभङ्गक इति प्रक्रमः, उपरितनचरिमा-3 |न्तापेक्षया जीवप्रदेशप्ररूपणायामेवं 'आइल्लविरहिओ'त्ति वदुक्तं तस्यायमर्थः-इह पूर्वोक्त भङ्गकत्रये प्रदेशापेक्षया 'अहवा
दीप अनुक्रम [६८३
-६८४]]
...अत्र मूल-संपादने एका स्खलना दृश्यते-सूत्रक्रमांकने सू.५८३-५८४ स्थाने सू.५८३ मुद्रितं
~339~
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [५८३-५८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
+
प्रत सूत्रांक [५८३-५८४]
एगिदियपएसा य अणिदियप्पएसा य इंदियस्सप्पएसे' इत्ययं प्रथमभङ्गको न वाच्यो,द्वीन्द्रियस्य च प्रदेश इत्यस्यासम्भवात् , तदसम्भवच लोकव्यापकावस्थानिन्द्रियवर्जजीवानां यत्रैकप्रदेशस्तत्रासङ्ग्यातानामेव तेषां भावादिति, 'अजीवा जहा वसमसए तमाएं त्ति अजीवानाश्रित्य यथा दशमशते 'तमाए'त्ति तमाभिधानां दिशमाश्रित्य सूत्रमधीतं तथेहोपरितन
चरमान्तमाश्रित्य वाच्यं, तन्वं-जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-रूवीअजीवा य अरूविअजीवा य, जे रूविअजीवा ४ ते चउबिहा पण्णत्ता, तंजहा-खंधां ४, जे अरूविअजीवा ते छबिहा पण्णचा, तंजहा-नो धम्मत्थिकाए धम्मत्धिकायस्स दादेसे धम्मस्थिकायस्सप्पएसा' एवमधम्माकाशास्तिकाययोरपीति ॥ 'लोगस्स भंते ! हिडिल्ले इत्यादि, इह पूर्वचरमान्तयाबदङ्गाः कार्याः, नवरं तदीयस्य भङ्गकत्रयस्य मध्यात् 'अहवा एगिदियदेसा य इंदियस्स य देसा' इत्येवंरूपो
मध्यमभङ्गकोऽत्र वर्जनीयः, उपरितनचरिमान्तप्रकरणोक्तयुक्तेस्तस्यासम्भवाद्, अत एवाह-एवं मझिल्लविरहिओ'त्ति, | देशभरका दर्शिताः अथ प्रदेशभङ्गकदर्शनायाह-'पएसा आइल्लविरहिया सधेसि जहा पुरच्छिमिल्ले चरिमंते'त्ति, प्रदेशचिन्तायामाद्यभङ्गकरहिताः प्रदेशा चाच्या इत्यर्थः आद्यश्च भङ्गक एकवचनान्तप्रदेशशब्दोपेतः स च प्रदेशानामधश्चरमान्तेऽपि बहुत्वान्न संभवति संभवति च 'अहवा एगिदियपएसा य येइंदियस्स पएसा अहवा एगिदियप्पएसा य वेइंदियाण य |पएसा'इत्येतद्वयं, 'सबेर्सि'ति द्वीन्द्रियादीनामनिन्द्रियान्तानाम् 'अजीवेत्यादि व्यक्तमेव ॥ चरमान्ताधिकारादेवेदमाह
इमीसे णमित्यादि ।। 'उवरिल्ले जहा दसमसए विमला दिसा तहेव निरवसेस'ति दशमशते यथा विमला दिगुक्ता तथैव || रक्षपभोपरितनचरमान्सो वाच्यो निरवशेष यथा भवतीति, स चैवम्-'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिले।
दीप अनुक्रम [६८३-६८४]
--
~340
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [५८३-५८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
**
प्रज्ञप्तिः
ते नियम
सूत्रांक [५८३
*
-५८४]
व्या- चरिमन्ते किं जीवा०६?, गोयमा ! नो जीवा' एकप्रदेशप्रतरात्मकत्वेन तत्र तेषामनवस्थानात् 'जीवदेसावि ५, जे जीवदेसा १६ शतके
ते नियमा एगिदियदेसा' सर्वत्र तेषां भावात् 'अहवा एगिदियदेसा य वेइंदियस्स य देसे १ अहवा एगिदियदेसा य बेईदि- उद्देशः८ अभयदेवी-15 यस्स य देसा २ अहवा एगिंदियदेसा य बेइंदियाण य देसा ३, रत्नप्रभा हि द्वीन्द्रियाणामाश्रयः,ते चैकेन्द्रियापेक्षयाऽतिस्तो- लोकमहत्ता या वृत्तिः कास्ततश्च तदुपरितनचरिमान्ते तेषां कदाचिद्देशः स्यादेशा वेति, एवं श्रीन्द्रियादिष्वप्यनिन्द्रियान्तेषु, तथा 'जे जीवप्पएसा । चरमान्ता
दो जीवजी ते नियमा पगिदियपएसा अहवा एगिदियपएसावि बेइंदियस्स पएसा १ अहवा एगिदियपएसा बेईदियाण य पएसा २४ ॥७१६॥
वदेशादि एवं त्रीन्द्रियादिष्यप्यनीन्द्रियान्तेषु, तथा 'जे अजीवा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-रूविअजीवा य अरु विअजीवा य, जे रूविअजीवा ते चउबिहा पन्नत्ता, तंजहा-खंधा जाव परमाणुपोग्गला, जे अरूवी अजीचा ते सत्तविहा पन्नत्ता, तंजहा-नो धम्मथिकाए धम्मस्थिकास्स देसे धम्मस्थिकायस्स पएसा एवमधम्मस्थिकायस्सवि आगासस्थिकायस्सपि अद्धासमए'त्ति अद्धासमयो हि मनुष्यक्षेत्रान्तर्वर्तिनि रक्षप्रभोपरितनचरिमान्तेऽस्त्येवेति, 'हेट्ठिले चरिभंते' इति यथाऽधश्चरमान्तो लोकस्योक्तः एवं रत्नप्रभापृथिव्या अप्यसाविति स चानन्तरोक्त एव, विशेषस्त्वयं-लोकाधस्तनचरमान्ते द्वीन्द्रियादीनां देशभङ्गकत्रयं मध्यमरहितमुक्तं इह तु रखप्रभाऽधस्तनचरमान्ते पञ्चेन्द्रियाणां परिपूर्णमेव तद्वाच्यं, शेषाणां तु द्वीन्द्रियादीनां मध्यमरहितमेव, यतो रत्नप्रभाऽधस्तनचरमान्ते देवपञ्चेन्द्रियाणां गमागमद्वारेण देशो देशाश्च संभवन्त्यतः पञ्चेन्द्रियाणां तत्तत्र परिपूर्णमेवास्ति, द्वीन्द्रियाणां तु रक्षप्रभाऽधस्तनचरिमान्ते मारणान्तिकसमुद्घातेन गतानामेव तत्र देश एव संभवति न देशाः तस्यैकातररूपत्वेन देशानेकत्याहेतुत्वादिति तेषां तत्तत्र मध्यमरहितमेवेति, अत एवाह-'नवरं देसे' इत्यादि, 'चत्तारिचरमांत'
दीप अनुक्रम [६८३-६८४]
ANT७१६॥
...अत्र मूल-संपादने एका स्खलना दृश्यते-सूत्रक्रमांकने सू.५८३-५८४ स्थाने सू.५८३ मुद्रितं
~341
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [५८३-५८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५८३-५८४]
त्ति पूर्वपश्चिमदक्षिणोत्तररूपाः 'उवरिमहेडिल्ला जहा रयणप्पभाए हेडिल्ले'त्ति शर्कराप्रभाया उपरितनापसनचरमान्ती || | रत्नप्रभाया उपरितनाधस्तनचरमान्तवद्वाच्या, द्वीन्द्रियादिषु पूर्वोक्तयुक्तमध्यमभङ्गरहितं पश्चेन्द्रियेषु तु परिपूर्ण देशभङ्गकत्रय, प्रदेशचिन्तायां तु द्वीन्द्रियादिषु सर्वेष्वाद्यभङ्गकरहितत्वेन शेषभङ्गकद्वयं, अजीवचिन्तायां तु रूपिणां चतुष्कमरूपिणां | स्वद्धासमयस्य तत्राभावेन पर्दू वाच्यमिति भावः । अथ शर्कराप्रभातिदेशेन शेषपृधिवीनां सौधर्मादिदेवलोकानां अबेयक|विमानानां च प्रस्तुतवक्तव्यतामाह-एवं जाव अहेसत्तमाए' इत्यादि, पैवेयकविमानेषु तु यो विशेषस्त दर्शयितुमाह-द 'नवर'मित्यादि, अच्युतान्तदेवलोकेषु हि देवपञ्चेन्द्रियाणां गमागमसद्भावात् उपरितनाधस्तनचरमान्तयोः पञ्चेन्द्रियेषु ले देशानाश्रित्य भङ्गकत्रयं संभवति, अवेयकेषु विमानेषु तु देवपञ्चेन्द्रियगमागमाभावाद् द्वीन्द्रियादिष्विव पञ्चेन्द्रियेष्वपि | मध्यमभङ्गकरहितं शेषभङ्गकद्वयं तयोर्भवतीति ।। चरमाधिकारादेवेदमपरमाह-'परमाणु'इत्यादि, इदं च गमनसामर्थ्य |परमाणोस्तथास्वभावत्वादिति मन्तव्यमिति ॥ अनन्तरं परमाणोः क्रियाविशेष उक्त इति क्रियाधिकारादिदमाह
पुरिसे णं भंते ! घासं वासति नो पासतीति हत्थं वा पायं वा बाहुं वा उर वा आउट्टावेमाणे चा पसारेमाणे वा कतिकिरिए,गोयमा जावं च णं से पुरिसे वासं वासति वासं नो वासतीति हत्थं वा जाव ऊरंवा आउट्टायेति वा पसारेति वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुढे ॥(सूत्र ५८५) 'पुरिसे ण'मित्यादि, 'वासं वासई' वर्षा-मेघो वर्षति नो वा वर्षों वर्षतीति ज्ञापनार्थमिति शेषः, अचक्षुरालोके
दीप अनुक्रम [६८३-६८४]
~342
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर्-शतक -1, उद्देशक [८], मूलं [५८५,५८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५८५-५८६]]
चाकुचना
दौक्रियाः
व्याख्या-1 हि वृष्टिराकाशे हस्तादिप्रसारणादेव गम्यते इतिकृत्वा हस्तादिकं आकुण्टयेद्वा प्रसारयेद्वाऽऽदित एवेति ॥ आकुण्टना- २६ शतके प्रज्ञप्तिः दिप्रस्तावादिदमाह
उद्देशः८ अभयदेवी- देवे णं भंते । महहिए जाव महेसक्खे लोगते ठिचा पभू अलोगंसि हत्थं वा जाव ऊरूंचा आटावेसए वृष्टौहस्ता. या वृत्तिः२वा पसारेसए वा ?, णो तिणढे समहे, से केणतुणं भंते! एवं बुचइ देवेणं महड्डीए जाव लोगते ठिचा णो पभू
.... अलोगसि हत्थं वा जाच पसारेत्तए वा ?, जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला घोंदिचिया पोग्गला कलेवरचिया ॥७१७॥ |पोग्गला पोग्गलामेव पप्प जीवाण य अजीवाण य गतिपरियाए आहिज्जइ, अलोए ण नेवस्थि जीवा नेवस्थि
सू ५८५
अलोकेऽना |पोग्गला से तेणहे णं जाव पसारेत्तए वा । सेवं भंते ! २त्ति ॥ (सूत्रं ५८६)॥ १६-८॥
कुश्चलादि 'देवे ण'मित्यादि, 'जीवाणं आहारोवचिया पोग्गल'त्ति जीवानां जीवानुगता इत्यर्थः आहारोपचिता-आहाररूपतयोपचिताः'बोंदिचिया पोग्गल'त्ति अव्यक्तावयवशरीररूपतया चिताः 'कडेवरचिया पोग्गल'त्ति शरीररूपतया चिताः, |उपलक्षणत्वाचास्य उच्छासचिताः पुद्गला इत्याद्यपि द्रष्टव्यं, अनेन चेदमुक्त-जीवानुगामिस्वभावाः पुद्गला भवन्ति, ततश्च |
| यत्रैव क्षेत्रे जीवास्तत्रैव पुद्गलानां गतिः स्यात् , तथा 'पुग्गलामेव पप्प'त्ति पुद्गलानेव 'प्राप्य' आश्रित्य जीवानां च | 18'अजीवाण य' पुद्गलानां च गतिपर्यायो-तिधर्मः 'आहिजइत्ति आख्यायते, इदमुक्तं भवति-यत्र क्षेत्रे पुद्गलास्तत्रैव
जीवानां पुद्गलानां च गतिर्भवति, एवं चालोके नैव सन्ति जीवा नैव च सन्ति पुद्गला इति तत्र जीवपुद्गलानां गति स्ति,६ ७१७॥ तदभावाचालोके देवो हस्ताद्याकुण्टयितुं प्रसारयितुं वा न प्रभुरिति ।। षोडशशतेऽष्टमः ॥ १६-८॥
४सू ५८६
दीप अनुक्रम [६८५-६८६]
अत्र षोडशमे शतके अष्टम-उद्देशक: परिसमाप्त:
~343
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[५८७]
दीप
अनुक्रम [६८७]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ ( मूलं + वृत्तिः)
शतक [१६], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [५८७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
अष्टमोदेशके देववक्तव्यतोक्ता, नवमे तु बलेर्देवविशेषस्य सोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् —
कहिनं भंते ! बलिस्स वइरोयणिंदस्स वइरोयणरन्नो सभा सुहम्मा पन्नता ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पवयस्स उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जे जहेब चमरस्स जाव वायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहिता | एत्थ णं पलिस्स वइरोयदिस्स बह० २ रुयगिंदे नामं उपायपदए पनते सतरस एकवीसे जोपणसए एवं | पमाणं जहेव तिगिच्छिकूडस्स पासायवडेंसगस्सवि तं चैव पमाणं सीहासणं सपरिवारं पलिस्स परियारेण अट्टो तहेव नवरं रुपदिष्पभाई ३ सेसं तं चैव जाव वदिचंचाए रायहाणीए अन्नेसिं च जाव रुपयगिंदस्स णं उप्पायपचयस्स उत्तरेणं छक्कोडिसए तहेब जाव चत्तालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं बलिस्स | बहरोपणिंदस्स वइरोयणरन्नो बलिचंचा नाम रायहाणी पद्मत्ता एवं जोयणसय सहस्सं पमाणं तहेब जाव | बलिपेदस्स उवबाओ जाव आयरक्खा सङ्घ तहेब निरवसेसं नवरं सातिरेगं सागरोवमं दिती पत्नत्ता सेसं तं | चेव जाव वली वइरोयणिदे वली २ | सेवं भंते २ जाव विहरति ॥ ( सूत्रं ५८७ ) ॥ १६-९ ॥
'कहि 'मित्यादि, 'जव चमरस्स'त्ति यथा चमरस्य द्वितीयशताष्टमोद्देशकाभिहितस्य सुधर्म्मसभास्वरूपाविधायकं सूत्रं तथा चलेरपि वाच्यं तच्च तत एवावसेयम्, 'एवं पमाणं जहेव तिगिच्छिकूडस्स'त्ति यथा चमरसत्कस्य द्वितीय| शताष्टमोद्देशकाभिहितस्यैव तिगिच्छिकूटाभिधानस्योत्पातपर्वतस्य प्रमाणमभिहितं तथाऽस्यापि रुचकेन्द्रस्य वाच्यं एतदपि तत एवावसेयं, 'पासायवडेंसगस्सवि तं चैव पमाणं'सि यत्प्रमाणं चमरसम्बन्धिनस्तिगिच्छिकूटाभिधानोसातपर्वतो
अत्र षोडशमे शतके नवम उद्देशक: आरब्धः
बले वक्तव्यता
For Parts Only
~344~
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [५८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५८७]
दीप अनुक्रम [६८७]]
व्याख्या-IN परिवर्तिनः प्रासादावतंसकस्य तदेव बलिसत्कस्यापि रुचकेन्द्राभिधानोत्पातपर्वतोपरिवर्तिनस्तस्य, तदपि द्वितीयशतादेवा-II प्रज्ञप्तिः | वसेयं, "सिंहासणं सपरिवारं बलिस्स परिवारेणं'ति प्रासादावतंसकमध्यभागे सिंहासनं बलिसत्कं बलिसत्कपरिवार-18 उद्देशार
१६ शतके अभयदेवी- | सिंहासनोपेतं वाच्यमित्यर्थः तदपि द्वितीयशताष्टमोद्देशकविवरणोक्तचमरसिंहासनन्यायेन वाच्यं, केवलं तत्र चमरस्य वलेवक्तव्य या वृत्तिः ।
सामानिकासनानां चतुःषष्टिः सहस्राणि आत्मरक्षासनानां तु तान्येव चतुर्गुणान्युक्तानि बलेस्तु सामानिकासनानां पष्टिःता सू५८७ ७१८॥
कासहस्राणि आत्मरक्षासनानां तु तान्येव चतुर्गणानीत्येतावान् विशेषः, "अहो तहेव नवरं रुयगिदप्पभाई'ति यथा|
तिगिच्छिकूटस्य नामान्वर्थाभिधायकं वाक्यं तथाऽस्यापि वाच्यं, केवलं तिगिच्छिकूटान्वर्थप्रश्नस्योत्तरे यस्मात्तिगिच्छिप्रभाप्युत्पलादीनि तत्र सन्ति तेन तिगिच्छिकूट इत्युच्यत इत्युक्तं इह तु रुचकेन्द्रप्रभाणि तानि सन्तीति वाच्यं, रुचकेन्द्रस्तु रलविशेष इति, तत्पुनरर्थतः सूत्रमेवमध्येयं-से केणगुणं भंते ! एवं वुच्चइ रुयगिंदे २ उपायपधए !, गोयमा ! रुयगिंदे णं बहूणि उष्पलाणि पजमाई कुमुयाई जाव रुयगिंदवण्णाई रुयगिंदलेसाई रुयगिंदप्पभाई, से तेणद्वेणं रुयगिंदे २ उप्पायपबए'त्ति तिहेव जाव'त्ति यथा चमरचचाव्यतिकरे सूत्रमुक्तमिहापि तथैव वाच्यं, तच्चेद'-'पणपन्नं कोडीओ पन्नासं च |सयसहस्साई पन्नासं च सहस्साई वीइवइत्ता इमं च रयणप्प पुढवि'ति 'पमाणं तहेव'त्ति यथा चमरचञ्चायाः, तच्चेदम्
॥७१८॥ 'एगे जोयणसथसहस्सं आयामषिक्खंभेणं तिन्नि जोयणसयसहस्साई सोलस य सहस्साई दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए | तिन्नि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलयं च किंचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्त' 'जाव बलिपेढस्स'त्ति नगरीप्रमाणाभिधानानन्तरं प्राकारतद्वारोपकारिकालयनप्रासादावतंसकसुधर्मसभाचैत्यभवनोपपातसभा
बले: वक्तव्यता
~345
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [९,१०], मूलं [५८७,५८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[५८७,
राहदाभिषेकसभाऽलङ्कारिकसभाव्यवसायसभादीनां प्रमाणं स्वरूपं च ताबद्वाच्यं यावद्भलिपीठस्य, तञ्च स्थानान्तरादवसेयं |'उववाओ'त्ति उपपातसभायां बलेरुपपातवक्तव्यता वाच्या, सा चैवं-'तेणं कालेणं तेणं समएणं बली वइरोयणिंदे २ -1
णोववन्नमेत्तए समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छई इत्यादि, 'जाव आयरक्ख'त्ति इह यावत्करणादभिषेको है लङ्कारग्रहणं पुस्तकवाचनं सिद्धायत्तनप्रतिमाधर्चन सुधर्मसभागमनं तत्रस्थस्य च तस्य सामानिका अग्रमहिष्यः पर्षदोऽनी
काधिपतयः आत्मरक्षाश्च पार्श्वतो निषीदन्तीति वाच्यं । एतद्वक्तव्यताप्रतिबद्धसमस्तसूत्रातिदेशायाह-'सर्व तहेव निरष-12 8 सेसं'ति, सर्वधा साम्यपरिहारार्थमाह-'नवर मित्यादि, अयमर्थः-चमरस्य सागरोपमं स्थितिः प्रज्ञप्त्युक्तं बलेस्तु सातिरेक | सागरोपमं स्थितिः प्रज्ञप्तेति वाच्यमिति ।। पोडशशते नवमः ॥१५-९॥
५८८]
दीप
अनुक्रम
[६८७, ६८८]
नवमोदेशके बलेर्वक्तव्यतोक्ता, बलिश्चावधिमानित्यवधेः स्वरूपं दशमे उच्यत इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्कतिविहे गं भंते ! ओही पन्नत्ते?, गोयमा दुविहा ओही प०, ओहीपदं निरवसेसं भाणियचं ॥सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाब विहरति । (सूत्रं ५८८)॥१६-१०॥
'कइविहे ण'मित्यादि, 'ओहीपर्य'ति प्रज्ञापनायास्त्रयस्त्रिंशत्तमं, तच्चैव-तंजहा-भवपञ्चइया खओवसमिया य, दोण्ह * भवपच्चइया, तंजहा-देवाण य नेरइयाण य, दोण्हं खओवसमिया, तंजहा-माणुस्साणं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण य,
इत्यादीति ॥ षोडशशते दशमः ॥१६-१०॥
SAREauratonintenational
अत्र षोडशमे शतके नवम-उद्देशक: परिसमाप्त: अत्र षोडशमे शतके दशम-उद्देशक: आरब्ध: एवं परिसमाप्तं
~346
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
प्रत
सूत्रांक
[५८९ ]
दीप
अनुक्रम [६८९
-६९२]
[भाग-१०] “भगवती”- अंगसूत्र -५ ( मूलं + वृत्ति:)
शतक [१६], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [११-१४], मूलं [५८९]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥७१९॥
दशमेऽवधिरुक्तः, एकादशे त्ववधिमद्विशेष उच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् -
दीवकुमाराणं भंते! सबै समाहारा सबै समुस्सासनिस्सासा ?, णो तिणहे समट्टे, एवं जहा पदमसए वितियउद्देशए दीवकुमाराणं वत्तवया तब जाव समाउया समस्सासनिस्सासा । दीवकुमाराणं भंते ! कति लेस्साओ पन्नताओ ?, गोयमा ! चन्तारि लेस्साओ पन्नत्ताओ, तंजहा- कण्हलेस्सा जाव तेउलेस्सा। एएसि णं ४ भंते । दीवकुमाराणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कयरे २ हिंतो जाव विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! | सवत्थोवा दीवकुमारा तेउलेस्सा काउलेस्सा असंखेज्जगुणा नीललेस्सा विसेसाहिया कण्हलेस्सा विसेसाहिया । एएसि णं भंते ! दीवकुमाराणं कण्हलेसाणं जाब तेऊलेस्साण य कयरे २ हिंतो अप्पडिया या महहिया वा ?, गोयमा ! कण्हलेस्सा हिंतो नीललेस्सा महहिया जाव सबमहड्डीया तेउलेस्सा। सेवं भंते! सेवं भंते ! जाव विहरति ॥ उदहिकुमारा णं भंते! सबै समाहारा० एवं चेव, सेवं० ॥ १६-१२ ॥ एवं दिसाकुमारावि ।। १६-१३ ।। एवं धणियकुमाराऽचि, सेवं भंते सेवं भंते! जाव विहरह ॥ १६-१४ ॥ सोलसमं सयं समत्तं ॥ सूत्रं ५८९ ) ।। १६-१४ ।
'दीवे'त्यादि ॥ एवमन्यदप्युद्देशकत्रयं पाठयितव्यमिति ॥ षोडशशतं वृत्तितः परिसमाप्तमिति ॥ सम्यकुश्रुताचारविवर्जितोऽप्यहं यदप्रकोपात्कृतवान् विचारणाम् । अविघ्नमेतां प्रति षोडशं शतं वाग्देवता सा भवताद्वरप्रदा ॥ १ ॥
Education Internation
For Park Use Only
अत्र षोडशमे शतके एकादशात् चतुर्दशः पर्यन्ता उद्देशका: परिसमाप्ताः
तत् परिसमाप्ते षोडशकं उद्देशकः अपि परिसमाप्तः
~347~
१६ शतके उद्देशः १० अवधिः
सू ५८८ उद्देशः ११ द्वीपकुमाराः उ. उ. १२१३-१४ उदधिदिक स्तनिता
सू ५८९
॥७१९ ॥
waryru
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [५९०] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५९०]
AGRA
दीप अनुक्रम [६९३-६९५]
व्याख्यातं षोडशं शतं अथ क्रमायातं सप्तदशमारभ्यते, तस्य चादावेवोद्देशकसङ्ग्रहाय गाथानमो सुयदेवयाए भगवईए ॥ कुंजर १ संजय २ सेलेसि ३ किरिय ४ ईसाण ५ पुढवि ६-७ दग ८-९ वाऊ १०-११ । एगिदिय १२ नाग १३ सुचन्न १४ विजु १५ वायु १६ ऽग्गि १७ सत्तरसे ॥१॥रायगिहे जाव | एवं वयासी-उदायी णं भंते! हस्थिराया कओहिंतो अणंतरं उपद्वित्ता उदायिह स्थिरायत्ताए उववन्नो गोयमा ! असुरकुमारेहितो देवेहितो अणंतरं उघहित्ता उदायिहस्थिरायत्ताए उववन्ने, उदायी णं भंते ! हत्थिराया कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति कहिं उवधजिहिति ?, गोयमा ! इमी सेणं रयणपभाए पुढवीए उक्कोससागरोवमद्वितीयंसि निरयावासंसि नेरइयत्ताए उववजिहिति, से णं भंते ! तओहितो अणंतरं उद्यद्वित्ता 31 कहिं ग कहि उ०१, गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहि ति जाव अंतं काहिति ॥ भूयाणंदे ण भंतेहत्थिराया
कओहितो अणंतरं उचहित्ता भूयाणंदे हस्थिरायत्ताए एवं जहेव उदायी जाच अंतं काहिति ॥ (मन्त्र ५९०) 1 'कुंजरेत्यादि, तत्र 'कुंजर'त्ति श्रेणिकसूनोः कूणिकराजस्य सत्क उदायिनामा हस्तिराजस्तत्प्रमुखार्थाभिधायकत्वात्
| कुञ्जर एव प्रथमोद्देशक उच्यते, एवं सर्वत्र १,'संजय'त्ति संयताद्यर्थप्रतिपादको द्वितीयः २ 'सेलेसित्ति शैलेश्यादिवक्त
व्यतार्थस्तृतीयः ३ 'किरिय'त्ति क्रियाद्यर्थाभिधायकश्चतुर्थः ४ 'ईसाण'त्ति ईशानेन्द्रवक्तव्यतार्थः पञ्चमः ५ 'पुढधि'त्ति 15 पृथिव्यर्थः पष्ठः ६ सप्तमश्च ७ 'दग'त्ति अकायार्थोऽष्टमो नवमश्च ९ 'वा'चि वायुकायार्थों दशम एकादशश्च ११]
एगिदिय'त्ति एकेन्द्रियस्वरूपार्थो द्वादशः १२ 'णाग'त्ति नागकुमारवक्तव्यतार्थस्त्रयोदशः १३ 'सुवन'त्ति सुवर्णकुमा
weredturary.com
~348~
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [५९०] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५९०]
व्याख्या- प्रज्ञप्तिः अभयदेवी- या वृत्तिः२
७२०॥
दीप
रार्थानुगतचतुर्दशाः १४ "विजु'ति विद्युत्कुमाराभिधायकः पश्चदशः १५ 'वाउ'त्ति वायुकुमारवकव्यतार्थः पोडश १६|3||१७ शतके 'अग्मि'त्ति अग्निकुमारवक्तव्यतार्थः सप्तदशः १७ 'सत्तरसेति सप्तदशशते एते उद्देशका भवन्ति । तत्र प्रथमोदेशकार्थ- | उद्देशः१ प्रतिपादनार्थमाह-रायगिहे' इत्यादि ॥ 'भूयाणंदे'त्ति भूतानन्दाभिधानः कृणिककराजस्य प्रधानहस्ती ॥ अनन्तरं || उदायिभूः भूतानन्दस्योद्वर्तनादिका क्रियोक्तेति क्रियाऽधिकारादेवेदमाह
| तानन्दौ
सू ५९० पुरिसे णं भंते । तालमारुहर ता०२ तालाओ तालफलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कतिकिरिए.
तालादिनगोयमा! जावंच णं से पुरिसे तालमारुहइ तालमा०२ तालाओ तालफलं पयालेइ वा पवाडेइ वा तावं च |
चालनादौ से पुरिसे काइयाए जाव पंचाहि किरियाहिं पढे, जेसिंपिय णं जीवाणं सरीरेहिंतो तले निवत्तिए तलफले निध-15
क्रिया: त्तिए तेऽविणं जीवा काइयाए जाच पंचहि किरियाहिं पुट्ठा॥ अहे णं भंते ! से तालप्फले अप्पणो गायत्ताए सू ५९१ जाव पचोवयमाणे जाई तत्थ पाणाई जाय जीवियाओ ववरोवेति तए णं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए 2.IN गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे तलप्फले अप्पणो गरुयत्ताए जाव जीवियाओ ववरोवेति तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव चउहि किरियाहिं पुढे, जेसिपि णं जीवाणं सरीरेहिंतो तले निबत्तिए तेचि णं जीवा काइ-14 याए जाव चउहिं किरियाहिं पुट्ठा, जेसिपिणं जीवाणं सरीरोहिंतोतालप्फले नियत्तिए तेविणं जीवा काइयाए
॥७२॥ जाव पंचहि किरियाहिं पुट्टा, जेविय से जीवा अहे वीससाए पचोवयमाणस्स उवग्गहे बटुंति तेऽपिय णं जीवा काइयाए जाच पंचहि किरियाहिं पुट्टा ॥ पुरिसे णं भंते ! रुक्खस्स मूलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कति
अनुक्रम [६९३-६९५]
~349
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५९१]
दीप अनुक्रम [६९६]
किरिए ?, गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे रुक्खस्स मूलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुढे, जेसिपिय णं जीवाणं सरीरेहितो मूले निवत्तिए जाच बीए | नियत्तिए तेविय णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्टा, अहे णं भंते ! से मूले अप्पणो गरुय-13/ त्ताए जाव जीचियाओ वधरोवेइ तओ णं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए ?, गोयमा ! जावं च णं से मूल अप्पणो जाव चवरोवेइ तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव चाहिं किरियाहिं पुढे, जेसिपिय णं जीवाणं | सरीरेहिंतो कंदे निवत्तिए जाव चीए निवत्तिए तेवि णं जीवा काइयाए जाव चाहिं. पुट्टा, जेसिंपिय || |जीवाणं सरीरोहिंतो मूले निवत्तिए तेघि णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा, जेविय णं से जीया अहे वीससाए पचोवयमाणस्स उवग्गहे वटुंति तेवि णं जीचा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुट्ठा ॥ पुरिसे गं भंते ! रुक्खस्स कंई पचालेह०, गोतावं च णं से पुरिसे जाव पंचहि किरियाहिं पुढे, जेसिपि 51 जीवाणं सरीरेहिंतो मूले निधत्तिएजाव बीए निचत्तिए तेवि णं जीवा जाव पंचहिं किरियाहिं पहा, अहे गंद भंते! से कंदे अप्पणो जाव चउहिं पुढे, जेसिपि णं जीवाणं सरीरोहिंतो मूले निबत्तिए खंधेनि० जाव चाहिं पुट्ठा, जेसिपि णं जीवाणं सरीरेहिंतो कंदे निवत्तिए तेवि य जीवा जाव पंचहिं पुट्ठा, जेवि य से जीवा अहे वीससाए पञ्चोवयमाणस्स जाव पंचहिं पुट्ठा जहा खंधो एवं जाव बीयं (सूत्रं ५९१)॥ 'पुरिसे ण'मित्यादि, 'तालं'ति तालवृक्ष 'पचालेमाणे वत्ति प्रचलयन् या 'पवाडेमाणे वत्ति अधःप्रपातयन् वा
~350
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५९१]
व्याख्या-1 प्रज्ञप्ति अभयदेवीया वृत्ति
॥७२॥
'पंचहि किरियाहिं पुढे'त्ति तालफलानां तालफलाश्रितजीवानां च पुरुषः प्राणातिपातक्रियाकारी, यश्च प्राणातिपातक्रियाकारकोऽसावाद्यानामपीतिकृत्वा पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्ट इत्युक्तं १, येऽपि च तालफलनिवर्तकजीवास्तेऽपि च ।
१७ शतके | पञ्चक्रियास्तदन्यजीवान् सङ्घटनादिभिरपद्रावयन्तीतिकृत्वा २, 'अहे 'मित्यादि, अथ पुरुषकृततालफलप्रचलनादेरनन्तरं || उद्देशः१ तत्तालफलमात्मनो गुरुकतया यावत्करणात् सम्भारिकतया गुरुकसम्भारिकतयेति हश्यं 'पचोवघमाणे'त्ति प्रत्यवपतत्र
उदायिभूः | यांस्तत्राकाशादौ प्राणादीन् जीविताद् व्यपरोपयति 'तओ जति तेभ्यः सकाशात् कतिक्रियोऽसौ पुरुषः १, उच्यते, चतु
तानन्दौ
|सू ५२० | क्रियो, बधनिमित्तभावस्थापत्येन तासां चतसृणामेव विवक्षणात् , तदल्पत्वं च यथा पुरुषस्य तालफलमचलनादी साक्षा-18 तालादिनदूधनिमित्तभावोऽस्ति न तथा तालफलव्यापादितजीवेष्वितिकृत्वा ३, एवं तालनिर्वतकजीवा अपि ४, फलनिर्वतकास्तु चालनादा पञ्चक्रिया एव, साक्षात्तेषां वधनिमित्तत्वात् ५, ये चाधोनिपततस्तालफलस्योपग्रहे-उपकारे वर्तन्ते जीवास्तेऽपि पञ्च- क्रिया: क्रियाः, वधे तेषां निमित्तभावस्य बहुतरत्वात् ६, एतेषां च सूत्राणां विशेषतो व्याख्यानं पञ्चमशतोक्तकाण्डक्षेतृपुरुषसू-18| सू ५९१ वादवसेयम् , एतानि च फलद्वारेण षट् क्रियास्थानान्युक्तानि, मूलादिष्वपि पडेव भावनीयानि, 'एवं जाव बीयंति| अनेन कन्दसूत्राणीय स्कन्धत्वक्शालप्रवालपत्रपुष्पफलबीजसूत्राण्यध्येयानीति सूचितम् ॥ क्रियाधिकारादेव शरीरेन्द्रिययो|| गेषु क्रियाप्ररूपणार्थमिदमाह। कति गं भंते सरीरगा पण्णता?, गोयमा ! पंच सरीरमा पन्नत्ता, तंजहा-ओरालियजाबकम्मए । कति ॥७२१॥ |णं भंते ! इंदिया पं० १, गोयमा ! पंच इंदिया पं०, तं०-सोइंदिए जाव फासिदिए । कतिविहे णं भंते ! जोए
दीप अनुक्रम [६९६]
शरीरं-इन्द्रियं-योगं आदि एवं तस्य भेदा:
~351
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५९२]
प०१, गोयमा तिविहे जोए प०, तं०-मणजोए वयजोए कायजोए । जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरं निव-13 तेमाणे कतिकिरिए ?, गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए, एवं पुढविक्काइएवि | एवं जाव मणुस्से । जीवा णं भंते ! ओरालियसरीरं निबत्तेमाणा कतिकिरिया ?, गोयमा ! तिकिरियावि चउकिरियावि पंचकिरियाचि, एवं पुढविकाइया एवं जाव मणुस्सा, एवं वेउषियसरीरेणविदो दंडगा नवरं जस्स अस्थि वेउधियं एवं जाव कम्मगसरीरं, एवं सोइंदियं जाव फासिंदियं, एवं मणजोगं चयजोगं कायजोग | जस्स जं अस्थि तं भाणियचं, एए एगत्तपुहुत्तेणं छबीसं दंडगा (सूत्रं ५९२)॥ ___ 'कति णं भंते !' इत्यादि, तत्र 'जीवे णं भंते।' इत्यादौ 'सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए'त्ति यदा औदारिकशरीरं परपरितापाद्यभावेन निर्वयति तदा त्रिक्रियः यदा तु परपरितापं कुर्वस्तन्निवर्तयति तदा चतुष्क्रियः, | यदा तु परमतिपातयंस्तन्निवर्तयति तदा पञ्चक्रिय इति । पृथक्त्वदण्डके स्याच्छब्दप्रयोगो नास्ति, एकदाऽपि सर्वविकल्पस-| | भावादिति । 'छचीसं दंडग'त्ति पञ्चशरीराणीन्द्रियाणि च त्रयश्च योगाः एते च मीलिताखयोदश, एते चैकत्वपृथ-17 क्त्वाभ्यां गुणिताः पइविंशतिरिति ॥ अनन्तरं क्रिया उक्तास्ताश्च जीवधा इति जीवधर्माधिकाराजीवधर्मरूपान्8 | भावानभिधातुमाहoil कतिविहे णं भंते ! भावे पण्णसे ?, गोयमा ! छबिहे भावे प०,०-उदइए उबसमिए जाव सन्निवाइए,
से किं तं उदइए ?, उदइए भावे दुविहे पणते, तंजहा-उदइए उदयनिप्पन्ने य, एवं एएणं अभिलावेणं जहा
दीप अनुक्रम [६९७]
~352
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [५९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५९३]
***AC
|| अणुओगदारे छन्नाम तहेव निरवसेसं भाणियच जाव से तं सन्निवाइए भावे ॥ सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति
॥ १७ शतके प्रज्ञप्तिः (सूत्र ५१३) ॥१७-१॥
| उद्देशः१ संभयदेवी-18 कतिविहे णमंते भावे इत्यादि, औदयिकादीनां च स्वरूप प्राग् व्याख्यातमेव, 'एवं एएणं अभिलावेणं जहा। |शरीरादिया वृत्तिः अणुओगदारे इत्यादि, अनेन चेदं सूचित-से किं तं उदइए?,२ अट्ट कम्मपगडीणं उदएणं, से तं उदहए'इत्या- भ्यः क्रिया:
भावाः उ.२ ७२२॥ दीति ॥ सप्तदशशते प्रथमः ॥१७-१॥
धर्माधर्म
स्थित्ततासू प्रथमोदेशकान्ते भावा उक्तास्तद्वन्तश्च संयतादयो भवन्तीति द्वितीये ते उच्यन्त इत्येवंसम्बद्धस्थास्येदमादिसूत्रम्से नूणं भंते ! संयतविरतपडिहयपचक्खायपावकम्मे धम्मे ठिए अस्संजयअविरयअपडिहयपच्चक्खायपाव-18 कम्मे अधम्मे ठिते संजयासंजए धम्माधम्मे ठिते ?, हंता गोयमा ! संजयविरयजाव धम्माधम्मे ठिए, एएसिणं भंते ! धम्मंसि था अहम्मंसि वा धम्माधम्मंसि वा चकिया केइ आसइत्तए वा जाव तुपट्टित्तए चा?, गोयमा ! णो तिणढे समझे, से केणं खाइ अट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ जाव धम्माधम्मे ठिते ?, गोयमा ! संजय
॥७२२॥ विरयजाव पावकम्मे धम्मे ठिते धम्म चेव उवसंपजित्ताणं विहरति, असंयतजाव पावकम्मे अधम्मे ठिए दाअधम्म चेव उवसंपजित्ताणं विहरइ, संजयासंजए धम्माधम्मे ठिते धम्माधम्म उपसंपजित्ताणं विहरति, से|
तेणटेणं जाव ठिए । जीवा ण भंते ! किं धम्मे ठिया अधम्मे ठिया धम्माधम्मे ठिया, गोयमा ! जीवा ||
CEREMOCRASSACCk
दीप अनुक्रम [६९८]
*XXXS
IIXI
अत्र सप्तदशमे शतके प्रथम-उद्देशक: परिसमाप्त: अत्र सप्तदशमे शतके द्वितीय-उद्देशक: आरब्ध:
~353
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [५९४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५९४]
****
हा धम्मेवि ठिता अधम्मेवि ठिता धम्माधम्मेवि ठिता, नेरह० पु०१, गोयमा ! णेरड्या णो धम्मे ठिता अधम्मे ठिता णो धम्माधम्मे ठिता, एवं जाव चारिदियाणं, पंचिंदियतिरिक्खजो पुच्छा, गोयमा ! पंचिंदियति-IN रिक्ख जोणिनो धम्मे ठिया अधम्मे ठिया धम्माधम्मेवि ठिया, मणुस्सा जहा जीवा, बाणमंतरजोइ० वेमाणि जहा नेर० (सूत्रं ५९४)॥ __'से नूणं भंते !'इत्यादि, धम्मेत्ति संयमे 'चक्किया केइ आसइत्तए वत्ति धर्मादौ शक्नुयात् कश्चिदासयितुं ! नायमर्थः समर्थो, धर्मादेरमूर्तत्वात् मूर्ते एव चासनादिकरणस्य शक्यत्वादिति ॥ अथ धर्मस्थितत्वादिकं दण्डके निरूप-11 यन्नाह-'जीवा ण'मित्यादि व्यक्तं, संयतादयः प्रागुपदर्शितास्ते च पण्डितादयो व्यपदिश्यन्ते, अत्र चार्थेऽन्ययूधिकम
RECTONESCRISIS
*
**
तमुपदर्शयन्नाह
दीप अनुक्रम [६९९]
*
अन्नउत्थिया भंते ! एवमाइक्खंति जाव परूवेंति-एवं खलु समणा पंडिया समणोवासया बालपंडिया जस्स णं एगपाणाएवि दंडे अणिक्खित्ते से णं एगतयालेत्ति बत्तवं सिया, से कहमेयं भंते । एवं?, गोयमा! जपणं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति जाव वत्तवं सिया, जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमा०, अहं पुण गोय
मा! एवमाइक्खामि जाव परवेमि एवं खलु समणा पंडिया समणोबासगा बालपंडिया जस्स णं एगपा-15 ४ णाएवि दंडे निक्खित्ते से णं नो एगंतबालेति वत्तवं सिया ॥ जीवा णं भंते ! किंबाला पंडिया बालप-16 डिया?, गोयमा!जीवा वालावि पंडियावि बालपंडियावि, नेरइयाणं पुच्छा, गोयमानेरड्या बाला नोपंडिया
*
*
**
~354
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [१९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५९५]
HOCKEXY
दीप अनुक्रम [७००]
नो बालपंडिया, एवं जाव चरिंदियाणं । पंचिंदियतिरिक्ख० पुच्छा, गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया व्याख्या. प्रज्ञप्तिः
चाला नो पंडिया वालपंडियावि, मणुस्सा जहा जीवा, वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहानेरइया (सूत्रं५९५)॥२७ शतके
'अन्न'इत्यादि, 'समणा पंडिया समणोवासया बालपंडिय'त्ति एतत् किल पक्षद्वयं जिनाभिमतमेवानुवादपरत-| अभयदेवी
उद्देश:२
| बलरवादी या वृत्तिः२/योक्त्वा द्वितीयपक्षं दूषयन्तस्ते इदं प्रज्ञापयन्ति-'जस्स णं एगपाणाएवि दंडे'इत्यादि, 'जस्स'त्ति येन देहिना 'एक
जीवजीवाप्राणिन्यपि एकत्रापि जीवे सापराधादौ पृथ्वीकायिकादौ वा, किं पुनर्बहुषु?, दण्डो-वधः 'अणिक्खित्त'त्ति 'अनिक्षिप्त ॥७२।।
अनुज्झितोऽप्रत्याख्यातो भवति स एकान्तबाल इति वक्तव्यः स्यात् , एवं च श्रमणोपासका एकान्तबाला एव न बालप- न्यमतं सू ण्डिताः, एकान्तबालव्यपदेशनिवन्धनस्यासर्वप्राणिदण्डत्यागस्य भावादिति परमतं, स्वमतं त्वेकपाणिन्यपि येन दण्डपरि-४५९५.५९६ हारः कृतोऽसौ नैकान्तेन वालः, किं तर्हि !, बालपण्डितो, विरत्यंशसद्भावेन मिश्रत्वात्तस्य, एतदेवाह-'जस्स णमित्यादि। एतदेव बालत्वादि जीवादिषु निरूपयन्नाह-'जीवा ण'मित्यादि, प्रागुक्तानां संयतादीनामिहोक्तानां च पण्डितादीनां यद्यपि शब्दत एच भेदो नार्थतस्तथाऽपि संयतत्वादिव्यपदेशः क्रियाव्यपेक्षः पण्डित्वादिव्यपदेशस्तु बोधविशेषापेक्ष इति ॥3 अन्ययूथिकप्रक्रमादेवेदमाह
अन्नउस्थिया णं भंते । एवमाइक्खंति जाव परुति-एवं खल पाणातिवाए मुसावाए जाय मिच्छादसण- || सल्ले वट्टमाणस्स अन्ने जीवे अने जीवाया पाणाइवायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमणे कोहविवेगे जाव
मिच्छादसणसल्लविवेगे वहमाणस्स अन्ने जीवे अन्ने जीवाया, उप्पत्तियाए जाव परिणामियाए बद्दमाणस्सद ॥७२॥
~355
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [५९६-५९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५९६-५९७]
द अन्ने जीवे अन्ने जीवाया, उप्पत्तियाए उग्गहे ईहा अवाए धारणाए बट्टमाणस्स जाव जीवाया, उट्ठाणे जाव पर
कमे चट्टमाणस्स जाव जीचाया, नेरइयत्ते तिरिक्खमणुस्सदेवत्ते वट्टमाणस्स जावजीवाया, नाणावरणिजे जाव अंतराइए वद्दमाणस्स जाव जीवाया, एवं कण्हलेस्साए जाव सुकलेस्साए सम्मदिट्ठीए ३ एवं चक्खुदसणे ४ | आमिणिबोहियनाणे ५ मतिअन्नाणे ३ आहारसन्नाए ४ एवं ओरालियसरीरे ५ एवं मणजोए ३ सागारोव| ओगे अणागारोवओगे बट्टमाणस्स अण्णे जीवे अन्ने जीवाया, से कहमेयं भंते ! एवं ?, गोयमा ! जपणं ते | अन्नउस्थिया एवमाइक्खंति जाव मिच्छं ते एवमासु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमिएवं खलु पाणातिवाए जाव मिच्छादसणसल्ले वट्टमाणस्स सच्चेव जीवे सच्चेव जीवाया जाव अणागारोवओगे वहमाणस्स सचेव जीवे सच्चेव जीचाया (सूत्रं५९६)॥ देवे णं भंते!महवीए जाव महेस. पुवामेव रूवी भवित्ता पभू अरूविं विउवित्ताणं चिहित्तए १, णो तिण? समढे, से केणट्टेणं भंते ! एवं चुचद देवे णं जाव नो पभू अरूविं विउवित्ताणं चिट्ठित्तए ?, गोयमा ! अहमेयं जाणामि अहमेयं पासामि अहमेयं बुज्झामि अहमेयं | अभिसमन्नागच्छामि, मए एयं नायं मए एयं दिढ मए एवं बुद्धं मए एवं अभिसमन्नागयं जपणं तहागयस्स जीवस्स सरूविस्स सकम्मस्स सरागरस सवेदणस्स समोहस्स सलेसस्स ससरीरस्स ताओ सरीराओ अविप्पमुक्कस्स एवं पन्नायति, तंजहा-कालते वा जाव सुकिल्लत्ते वा सुन्भिगंधत्ते वा दुभिगंधत्ते वा तित्ते वा जाव महुर० कक्खडते जाव लुक्खत्ते, से तेण?णं गोयमा ! जाच चिट्टित्तए॥ सन्चेव णं भंते ! से जीवे
दीप अनुक्रम [७०१-७०२]
~356
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग [-1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [५९६-१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५९६-५९७]
व्याख्या- पुषामेव अरूवी भपित्ता पभू रूविं विउवित्ताणं चिट्टित्तए ?, णो तिण?. जाव चि०, गो० अहमेयं जाणामि
| १७शतके प्रज्ञप्तिः ||जाव जन्न तहागयस्स जीवस्स अरुवस्स अकम्म० अराग० अवेदस्स अमोहस्स अलेसस्स असरीरस्स ताओ। उद्देशः२ अभयदेवी- सरीराओ विप्पमुकरस णो एवं पन्नायति, तं०-कालते वा जाव लुक्खत्ते वा, से तेणद्वेणं जाव चिहित्तर वा ॥
रूप्यरूपिया वृत्तिः सेवं भंते !२त्ति (सूत्रं ५९७)॥१७-२॥
ताभवन 'अन्नउत्थिया 'मित्यादि, प्राणातिपातादिषु वर्त्तमानस्य देहिनः 'अन्ने जीवेत्ति जीवति-प्राणान् धारयतीति जीवः७२४॥
सू५९७ शरीर प्रकृतिरित्यर्थः स चान्यो-व्यतिरिक्तः अन्यो जीवस्य-देहस्य सम्बन्धी अधिष्ठातृत्वादात्मा-जीवात्मा पुरुष इत्यर्थः, अन्यत्वं च तयोः पुद्गलापुद्गलस्वभावत्वात् , ततश्च शरीरस्य प्राणातिपातादिषु वर्तमानस्य दृश्यत्वाच्छरीरमेव तत्कर्तृ न पुनरात्मेत्येके, अन्ये वाहु:-जीवतीति जीवो-नारकादिपर्यायः जीवात्मा तु सर्वभेदानुगामि जीवद्रव्य, द्रव्यपर्याययोश्चा-18 न्यत्वं तथाविधप्रतिभासभेदनिबन्धनत्वात् घटपटादिवत् , तथाहि-द्रव्यमनुगताकारां बुद्धिं जनयति पर्यायास्त्वननुगताकारामिति, अन्ये त्वाः-अन्यो जीवोऽन्यश्च जीवात्मा-जीवस्यैव स्वरूपमिति, प्राणातिपातादिविचित्रक्रियाभिधानं चेह सर्वावस्थासु जीवजीवात्मनोहेंदख्यापनार्थमिति परमतं, स्वमतं तु 'सच्चेब जीवे सच्चेव जीवाय'त्ति स एव जीवः-शरीरं 3 | स एव जीवात्मा जीव इत्यर्थः कथचिदिति गम्यं, न ह्यनयोरत्यन्तं भेदः, अत्यन्तभेदे देहेन स्पृष्टस्यासंवेदनप्रसङ्गो देहक-द
७२४॥ तस्य च कर्मणो जन्मान्तरे वेदनाभावप्रसङ्गाः, अन्यकृतस्यान्यसंवेदने चाकृताभ्यागमप्रसङ्गः, अत्यन्तमभेदे च परलोका-17 | भाव इति, द्रव्यपर्यायव्याख्यानेऽपि न द्रव्यपर्याययोरत्यन्तं भेदस्तधाऽनुपलब्धेः, यश्च प्रतिभासभेदो नासावात्यन्तिकत -
दीप अनुक्रम [७०१-७०२]
~357
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [५९६-५९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५९६-५९७]
&दकृतः किन्तु पदार्थानामेव तुल्यातुल्यरूपकृत इति, जीवात्मा-जीवस्वरूपं, इह तु व्याख्याने स्वरूपवतो न स्वरूपमत्यन्त
भिन्नं, भेदे हि निःस्वरूपता तस्य ग्रामोति, न च शब्दभेदे वस्तुनो भेदोऽस्ति, शिलापुत्रकस्य धपुरित्यादावियेति ॥ पूर्व जीव-||
द्रव्यस्य तत्पर्यायस्य वा भेद उक्तः, अथ जीवद्रव्यविशेषस्य पर्यायान्तरापत्तिवक्तव्यतामभिधातुमिदमाह-'देवे 'मि-| दि| त्यादि, 'पुषामेव रूबी भवित्त'त्ति पूर्व-विवक्षितकालात् शरीरादिपुद्गलसम्बन्धात् मूर्तो भूत्वा मूर्तः सन्नित्यर्थः प्रभुः
'अरूविं'ति अरूपिणं-रूपातीतममूर्तमात्मानमिति गम्यते, 'गोयमा इत्यादिना स्वकीयस्य वचनस्याव्यभिचारित्वोपदर्श४ नाय सद्बोधपूर्वकतां दर्शयन्नुत्तरमाह-'अहमेयं जाणामिति अहम् 'एतत्' वक्ष्यमाणमधिकृतप्रश्ननिर्णयभूतं वस्तु दाजानामि विशेषपरिच्छेदेनेत्यर्थः 'पासामि त्ति सामान्यपरिच्छेदतो दर्शनेनेत्यर्थः 'बुज्झामित्ति बुद्ध्ये-श्रद्दधे, बोधेः सम्य
ग्दर्शनपर्यायत्वात् , किमुक्तं भवति ?-'अभिसमागच्छामि'त्ति अभिविधिना साङ्गत्येन चावगच्छामि-सवैः परिच्छित्तिप्रकारैः परिच्छिनझि, अनेनात्मनो वर्तमानकालेऽर्थपरिच्छेदकत्वमुक्तमथातीतकाले एभिरेव धातुभिस्तद्दर्शयन्नाह'मए'इत्यादि, किं तदभिसमन्वागतम् ? इत्याह-जन्न'मित्यादि, 'तहागयस्स'त्ति तथागतस्य-तं देवत्वादिकं प्रकारमा-1 पन्नस्य 'सरूविस्स'त्ति वर्णगन्धादिगुणवतः, अथ स्वरूपेणामूर्तस्य सतो जीवस्य कथमेतत् ? इत्याह-'सकम्मस्स'ति | कम्मेपुद्गलसम्बन्धादिति भावः, एतदेव कथमित्यत आह-'सरागस्स'त्ति रागसम्बन्धात् कर्मसम्बन्ध इति भावः, दिरागश्चेह मायालोभलक्षणो ग्राह्यः, तथा 'सचेयरस'त्ति ख्यादिवेदयुक्तस्य, तथा 'समोहस्स'त्ति इह मोहा-कलत्रादिषु
स्नेहो मिथ्यात्वं चारित्रमोहो वा 'सलेसस्स ससरीरस्स'त्ति व्यक्तं 'ताओ सरीराओ अविप्पमुकरस'त्ति येन शरीरेण
दीप अनुक्रम [७०१-७०२]
ASRACKING
RELIGuninternational
~358~
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [५९६-५९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
१७ शतके
प्रत सूत्रांक [५९६-५९७]
* सशरीरस्तस्माच्छरीरादविप्रमुक्तस्य एवं'ति वक्ष्यमाणं प्रज्ञायते सामान्यजनेनापि तद्यथा-कालत्वं वेत्यादि, यतस्तस्य कालव्याख्याप्रज्ञप्तिः
शत्वादि प्रज्ञायतेऽतो नासौ तथागतो जीवो रूपी सन्नरूपमात्मानं विकुर्च्य प्रभुः स्थातुमिति ॥ एतदेव विपर्ययेण दर्शयन्नाह- अभयदेवी
'सच्चेव णं भंते !'इत्यादि, 'सच्चेव णं भंते ! से जीवें'त्ति यो देवादिरभूत् स एवासी भदन्त ! जीवः 'पूर्वमेव' विवया वृत्तिः२ क्षितकालात् 'अरूचि'त्ति अवर्णादिः 'रूविंति वर्णादिमत्त्वं 'नो एवं पन्नायति'त्ति नैवं केवलिनाऽपि प्रज्ञायतेऽसत्त्वात् ,
असत्त्वं च मुक्तस्य कर्मवन्धहेत्वभावेन काभावात् , तदभावे च शरीराभावाद्वर्णाद्यभाव इति नारूपीभूत्वा रूपीभव- ॥७२५॥
दतीति ।। सप्तदशशते द्वितीयः ॥ १७-२॥
शैलेश्यामेजनात दा श्वसू ५९८
**SORRECOGY
दीप अनुक्रम [७०१-७०२]
द्वितीयोद्देशकान्ते रूपिताभवनलक्षणो जीवस्य धर्मो निरूपितः, तृतीये त्वेजनादिलक्षणोऽसौ निरूप्यत इत्येवंसम्ब-15 अस्यास्पेदमादिसूत्रम्-- IM सेलेसि पडियनए णं भंते ! अणगारे सया समियं एयति वेपति जावतं तं भावं परिणमति ?. णो तिणढ़े |
समढे, णपणत्धेगेणं परप्पयोगेणं ॥ कतिविहाणं भंते ! एयणा पण्णता?,गोयमा ! पंचविहा एयणा पण्ण-15 ता, तंजहा-दधेयणा खेत्तेयणा कालेयणा भवेयणा भावेयणा, दवेयणा भंते ! कतिविहा प०१, गोयमा!चउ-15 विहा प०, संजहा-मेरइयदवेयणा तिरिक्ख० मणुस्सा देवदवेयणा, से केण एवं बुचइ-मेरदयदवेयणा २१, IN२५॥ कागोयमा ! जन नेरहया नेरायदथे वहिसु वा बद्दति वा वहिस्संति वा ते णं तस्थ नेरतिया नेरतियदरे वट्ट.151
अत्र सप्तदशमे शतके द्वितीय-उद्देशक: परिसमाप्त: अत्र सप्तदशमे शतके तृतीय-उद्देशक: आरब्ध:
~359
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [५९८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५९८]
18|माणा मेरदयदवेषणं एइंसु वा एपंति वा एहस्संति वा, से तेणटेणं जाव दवेयणा, से केणटेणं भंते ! एवं ||४||
बुच्चइ तिरिक्खजोणियदवेयणा एवं चेव, नवरं तिरिक्खजोणियदवे. भाणियछ, सेसं तं चेव, एवं जाव देवदधेयणा । खेत्तेयणा गं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता, गोयमा ! चउधिहा प०,०-नेरइयखेत्तेयणा जाव देवखेत्तेयणा, सेकेणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ नेरइयखेतेयणा ०२१, एवं चेव नवरं नेरइयखेत्तेयणा भाणियवा, एवं जाय देववेत्तेयणा, एवं कालेयणावि, एवं भवेयणावि, भावेयणावि जाव देवभावेयणा (सूत्रं५९८) | 'सेलेसिमित्यादि, 'नन्नत्थेगेणं परप्पओगेण ति न इति 'नो इण? समढे'त्ति योऽयं निषेधः सोऽन्यत्रैकस्मात् | परप्रयोगाद्, एजनादिकारणेषु मध्ये परप्रयोगेणवैकेन शैलेश्यामेजनादि भवति न कारणान्तरेणेति भावः॥ एजनाधिकारादे-18 वेदमाह-'कई'त्यादि, 'दवेयण'त्ति द्रव्याणां-नारकादिजीवसंपृक्तपुद्गलद्रव्याणां नारकादिजीवद्रव्याणां वा एजना-चलना| द्रव्यैजना खेत्तेयण'त्ति क्षेत्रे-नारकादिक्षेत्रे वर्तमानानामेजना क्षेत्रैजना 'कालेयण'त्ति काले-तारकादिकाले वर्तमानानामे-12 जना कालैजना 'भवेयण त्ति भवे-नारकादिभवे वर्तमानानामेजना भबैजना भावेषण'त्ति भावे-औदयिकादिरूपे वर्तमा-18 नानां नारकादीनां तगतपुद्गलद्रव्याणां वैजना भावैजना, 'नेरइयदधे चर्टिसुत्ति नैरयिकलक्षणं यज्जीवद्रव्यं द्रव्यपर्याययोः | कथश्चिदभेदान्नारकत्वमेवेत्यर्थः तत्र 'बहिसुत्ति वृत्तवन्तः 'नेरइयवेयण'त्ति नैरयिकजीवसंपृक्तपुद्गलद्रव्याणां नैरयिकजीवद्रव्याणां वैजना नैरयिकद्रव्यैजना ताम् 'एइंसुत्ति ज्ञातवन्तोऽनुभूतवन्तो वेत्यर्थः । एजनाया एव विशेषमधिकृत्याह
कतिचिहा णं भंते ! चलणा पण्णता?, गोयमा ! तिविहा चलणा प०, तं०-सरीरचलणा इंदियचलणा
AGARLX
दीप अनुक्रम [७०३]
~360
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [५९९-६००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५९९-६००]
व्याख्या-18||जोगचलणा, सरीरचलणा णं भंते ! कतिविहा प०१, गोयमा ! पंचविहा प०, तं०-ओरालियसरीरचलणा|5||१७ शतके प्रज्ञप्तिः जाव कम्मगसरीरचलणा, इंदियचलणा णं भंते ! कतिविहा प०१, गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा- उद्देशः ३ अभयदेवी- | सोईदियचलणा जाव फासिंदियचलणा, जोगचलणा णं भंते ! कतिविहा प०१, गोतिविहा प०, तं०-1 चलनातया वृत्तिः२
मणजोगचलणा वइजोगचलणा कायजोगचलणा, से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ ओरालियसरीरचलणा ओ० वेदाश्च ॥७२६॥
२१, गोयमा! जे णं जीवा ओरालियसरीरे वट्टमाणा ओरालियसरीरपयोगाई दाई ओरालियसरीरत्ताए सू५९९ परिणामेमाणा ओरालियसरीरचलणं चलिंसु वा चलंति वा चलिस्संति वा से तेणटेणं जाव ओरालियसरीरचलणा०ओ०२, से केणतुणं भंते ! एवं बु. वेउवियसरीरचलणा वेउ०, एवं चेव नवरं वेउवियसरीरे वट्ट-18 |माणा एवं जाव कम्मगसरीरचलणा, से केणतुणं भंते ! एवं ० सोईदियचलणा २१, गोयमा ! जन्नं जीवा सोइंदिए.बमाणा सोइंदियपाओगाई दवाई सोइंदियत्ताए परिणामेमाणा सोइंदियचलणं चलिंसु वा चलंति
वा चलिस्संति वा से तेण?णं जाव सोतिदियचलणा सो०२, एवं जाव फार्सिदियचलणा, से केण?णं एवं दीवुच्चइ मणोजोगचलणा २१, गोयमा ! जण्णं जीवा मणजोए वट्टमाणा मणजोगप्पाओगाई दवाई मणजो
गत्ताए परिणामेमाणा मणजोगचलणं चलिंसु वा चलिंति वा चलिस्संति वा से तेणटेणं जाव मणजोगचलणा N७२६॥ मण०२, एवं वइजोगचलणावि, एवं कायजोगचलणावि ।। (सू०५९९) अह भंते ! संवेगे निवेए गुरुसाहम्मियसुस्सूसणया आलोयणया निंदणया गरहणया खमावणया सुयसहायता विउसमणया भावे अप्पडियद्या
दीप अनुक्रम [७०४-७०५]
~361
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३, मूलं [१९९-६००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५९९-६००]
ARTHA-
R
विणिवहणया विवित्तसयणासणसेवणया सोइंदियसंवरे जाव फासिदियसंवरे जोगपञ्चक्खाणे सरीरपच-31 क्खाणे कसायपच्चक्खाणे संभोगपञ्चक्खाणे उवहिपञ्चक्खाणे भत्तपरक्खाणे खमा विरागया भावसचे जोगसच्चे करणसचे मणसमण्णाहरणया वयसमन्नाहरणया कायसमन्नाहरणया कोहविचेगे जावमिच्छादसणसल्ल विवेगे णाणसंपन्नया दंसणसं० चरित्तसं० दणअहियासणया मारणंतियअहियासणया एएणं भन्ते ! पया पिज्जवसणफला पण्णत्ता, समणासो! गोयमा! संवेगे निवेगे जाव मारणतियअहियास एए णं सिद्धि । पज्जवसाणकला पं० समणाउसों ।। सेवं भंते !२ जाब विहरति ॥ (सूत्रं ६००)॥१७-३॥ __ 'कईत्यादि, 'चलण'त्ति एजना एव स्फुटतरस्वभावा 'सरीरचलण'त्ति शरीरस्य-औदारिकादेश्चलना-तत्प्रायोग्यपुर
लानां तद्रूपतया परिणमने व्यापारः शरीरचलना, एवमिन्द्रिययोगचलने अपि, 'ओरालियसरीरचलणं चलिंसुत्ति टू औदारिकशरीरचलनां कृतवन्तः ॥ अनन्तरं चलनाधर्मो भेदत उक्तः, अथ संवेगादिधर्मान फलतोऽभिधित्सुरिदमाह'अहे'त्यादि, अथेति परिप्रश्नार्थः 'संवेए'त्ति संवेजन संवेगो-मोक्षाभिलाषः 'निचेए'त्ति निर्वेदः-संसारविरक्तता 'गुरुसाहम्मियसुस्सूसणय'त्ति गुरूणां-दीक्षाद्याचार्याणां साधर्मिकाणां च-सामान्यसाधूनां या शुश्रूषणता-सेवा सा तथा 'आलोयण'त्ति आ-अभिविधिना सकलदोषाणां लोचना-गुरुपुरतः प्रकाशना आलोचना सैवालोचनता 'निंदणयत्ति निन्दनं-आत्मनैवात्मदोषपरिकुत्सनं 'गरहणय'त्ति गईण-परसमक्षमात्मदोषोद्भावनं 'खमावणयत्ति परस्यासन्तोषवतः क्षमोत्पादनं 'विउसमणय'ति व्यवशमनता-परस्मिन् क्रोधान्निवर्तयति सति क्रोधोज्झन, पतच चिन्न दृश्यते, 'सुयसल
दीप अनुक्रम [७०४-७०५]
RER
Irajastaram.org
~362
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [५९९-६००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
सू५९९
[५९९-६००]
व्याख्या- हाययति श्रुतमेव सहायो यस्यासौ श्रुतसहायस्तावस्तत्ता, 'भावे अप्पडिबद्धयत्ति भावे-हासादावप्रतिबद्धता-अनु-18 १७ शतके
प्रज्ञप्तिः बन्धवर्जनं 'विणिवणय'त्ति विनिवर्तन-विरमणमसंयमस्थानेभ्यः 'विवित्तसयणासणसेवणयत्ति विविक्तानि-ख्याद्य- उद्देशः३ अभयदेवी-2 संसक्तानि यानि शयनासनानि उपलक्षणत्वादुपाश्रयश्च तेषां या सेवना सा तथा श्रोत्रेन्द्रियसंवरादयः प्रतीताः 'जोगपञ्च- चलनातया वृत्तिः क्खाणे'त्ति कृतकारितानुमतिलक्षणानां मनःप्रभृतिव्यापाराणां प्राणातिपातादिषु प्रत्याख्यान-निरोधप्रतिज्ञानं योगप्रत्या-18
अदाश्च ॥७२७॥
ख्यानं, 'सरीरपचक्खाणे'त्ति शरीरस्य प्रत्याख्यान-अभिष्वङ्गप्रतिवर्जनपरिज्ञानं शरीरप्रत्याख्यानं 'कसायपञ्चक्खाणे'त्ति | क्रोधादिप्रत्याख्यानं-तान् न करोमीति प्रतिज्ञानं संभोगपञ्चक्वाणे'त्ति समिति-संकरेण स्वपरलाभमीलनात्मकेन भोगः | सम्भोगः-एकमण्डलीभोक्तकत्वमित्येकोऽर्थः तस्य यत् प्रत्याख्यान-जिनकल्पादिप्रतिपत्त्या परिहारस्तत्तथा, 'उवहिपच-18 क्खाणे'त्ति उपधेरधिकस्य नियमः भक्तप्रत्याख्यानं व्यक्त 'खम'त्ति क्षान्तिः 'विरागय'त्ति वीतरागता-रागद्वेषापगमरूपा "भावसच्चेति भावसत्यं-शुद्धान्तरात्मतारूपं पारमार्थिकावितथत्वमित्यर्थः 'जोगसच्चे'त्ति योगा:-मनोवाकायास्तेषां | है सत्य-अवितथत्वं योगसत्यं 'करणसचेत्ति करणे-प्रतिलेखनादौ सत्य-यथोक्तत्वं करणसत्य 'मणसमन्नाहरणयत्ति मनसः18 | समिति-सम्यक् अन्विति-स्वावस्थानुरूपेण आडिति-मर्यादया आगमाभिहितभावाभिव्याप्त्या वा हरणं-सझेपणं मन:समन्बाहरणं तदेव मनःसमन्वाहरणता, एवमितरे अपि, 'कोहविवेगे'त्ति क्रोधविवेका-कोपत्यागः तस्य दुरन्ततादिपरिभा ||2||
॥७२७|| | वनेनोदयनिरोधः 'वेयणअहियासणय'त्ति क्षुधादिपीडासहनं 'मारणतियअहियासणय'ति कल्याणमित्रबुख्या मार|४||णान्तिकोपसर्गसहनमिति ॥ सप्तदशशते तृतीयः ।। १७-३॥
दीप अनुक्रम [७०४-७०५]
अत्र सप्तदशमे शतके तृतीय-उद्देशक: परिसमाप्त:
~363
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [६०१-६०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६०१-६०२]
RECESSASARALSEXXX
तृतीयोद्देशके एजनादिका क्रियोक्ता, चतुर्थेऽपि क्रियैवोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्तेणं कालेणं २ रायगिहे नगरे जाव एवं वयासी-अस्थि णं भंते जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कजह ITI हंता अस्थि, सा मंते ! किं पुट्ठा कज्जड अपुट्ठा कज्जइ, गोयमा ! पुट्ठा कजह नो अपुट्ठा कज्जइ, एवं जहा |पढमसए छड्रेसए जाच नो अणाणुपुविकडाति बत्त, सिया, एवं जाव वेमाणियाणं, नवरं जीवाणं एगिदियाण य निवाघाएक छहिसिं वाघायं पडुच सिय तिदिसि सिय चउदिसि सिय पंचदिसि सेसाणं नियम छदिसिं। अत्थि णं भंते ! जीवाणं मुसावाएणं किरिया कजइ ?, हंता अत्थि, सा भंते ! किं पुट्ठा कज्जइ जहा पाणाइवारणं दंडओ एवं मुसावाएणवि, एवं अदिन्नादाणेणवि मेहुणेणवि परिग्गहेणवि, एवं एए पंच दंडगा ५। जंसमपन्न भंते । जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कजइ सा भंते ! किं पुष्टा कजा अपुट्ठा कजइ, एवं तहेच जाव बत्तई सिया जाव वेमाणियाणं, एवं जाच परिग्गहेणं, एवं एतेचि पंच दंडगा १० । जंदेसेणं भंते । जीवाणं पाणाइवाएक किरिया कजति एवं चेव जाव परिग्गहेणं, एवं एतेवि पंच दंडगा १५ । जंपएसन्नं । भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जइ सा भंते ! किं पुट्ठा कजति एवं तहेव दण्डओ एवं जाव परिग्ग-|| हेणं २०, एवं एए वीस दंडगा । (सूत्रं ६०१) जीवाणं भंते ! किं अत्तकडे दुक्खे परकडे दुक्खे तदुभयकडे ||
दुक्खे, गोयमा! अत्सकडे दुक्खे नो परकडे दुक्खे नोतदुभयकडे दुक्खे, एवं जाव बेमाणियाणं,जीवाणं भंते! ४ा किं अत्तकडं दुक्ख वेदेति परकडं दुक्खं चेदेति तदुभयकडं दुक्खं वेदेति ?, गोयमा ! अत्तकडं दुक्खं वेदेति नो
दीप अनुक्रम [७०६-७०७]
अत्र सप्तदशमे शतके चर्थ-उद्देशक: आरभ्यते
~364
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [६०१-६०२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६०१
-६०२]
दीनां सू
यापरकई दुक्खं वेदेति नो तदुभयकर्ड दुक्खं वेदेति, एवं जाव वेमाणियाणं । जीवाणं भंते ! किं अत्तकडा वेयणा | Aama मज्ञप्तिः परकडा वेयणा पुच्छा, गोयमा! अत्तकडा वेयणा णो परकडा वेयणा णो तदुभयकडावेयणा एवं जाव वेमाणि
उद्देश ४ अभयदेवी- याणं,जीवाणं भंते ! किं असकर्ड वेदणं वेदेति परक वे वे० तदुभयक वे०के०१, गोयमा ! जीवा अत्तक
प्राणातिपा| चेय००नो परक नो तदुभय० एवं जाव वेमाणियाणं । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ॥ (सत्रं ६०२)॥१७-४॥
तादे क्रिया: 'ण'मित्यादि, 'एवं जहा पढमसए छट्टद्देसए'त्ति अनेनेदं सूचित-'सा भंते ! किं ओगाढा कज्जइ अणोगाढा कजइ, आत्मदिक७२८॥
गोयमा ! ओगाढा कज्जइ नो अणोगाढा कज्जइ' इत्यादि, व्याख्या चास्य पूर्ववत् । 'समय'ति यस्मिन् समये प्राणा-दतत्वदुःखातिपातेन क्रिया-कर्म क्रियते इह स्थाने तस्मिन्निति वाक्यशेषो दृश्यः, 'जंदेसं'ति यस्मिन् देशे-क्षेत्रविभागे प्राणातिपातेन [क्रिया क्रियते तस्मिन्निति वाक्पशेषोऽत्रापि रश्यः, 'जंपएसं ति यस्मिन् प्रदेशे लघुतमे क्षेत्रविभागे ॥ क्रिया प्रागुक्ता ॥
५६०१-६०२ सा च कर्म कर्म च दुःखहेतुत्वाहुःखमिति तन्निरूपणायाह-'जीवाण'मित्यादि दण्डकद्वयम् । कर्मजन्या च वेदना भवतीति तन्निरूपणाय दण्डकद्वयमाह-'जीवाण'मित्यादि । सप्तदशशते चतुर्थः ।। १७-४॥
- was-- It चतुर्थोद्देशकान्ते वैमानिकानां वक्तव्यतोक्ता, अथ पञ्चमोद्देशके वैमानिकविशेषस्य सोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
॥७२८॥ II कहिणं भंते ! ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो सभा सुहम्मा पण्णता ?, गोयमा ! जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पद्य
दीप अनुक्रम [७०६-७०७]
अत्र सप्तदशमे शतके चर्थ-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ सप्तदशमे शतके पंचम-उद्देशकः आरभ्यते
~365
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६०३]
यस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्प० पुढ० बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उर्दु चंदिमसूरियजहा ठाणपदे जाच हामझे ईसाणव.सए महाविमाणे से णं ईसाणवडेंसए महाविमाणे अद्धतेरस जोयणसयसहस्साई एवं जहा
वसमसए सफविमाणवत्तवया साइहवि इंसाणस्स निरवसेसा भाणियबा जाव आयरक्खा, ठिती सातिरेगा। दो सागरोवमाई, सेसं तंचेव जाव ईसाणे देविंदे देवराया ई०२, सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ॥(सूत्रं ६०३)॥१७॥ । 'कहि ण'मित्यादि, 'जहा ठाणपए'त्ति प्रज्ञापनाया द्वितीयपदे, तत्र चेदमेवम् –'उहूं चंदिमसूरियगहगणणक्खत्ततारा-14 है रुवाणं बहई जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साई वहुई जोयणसयसहस्साई जाव उप्पइत्ता एत्थ णं ईसाणे णाम कप्पे पाते।
इत्यादि, 'एवं जहा दसमसए सकविमाणवत्तषया इत्यादि, अनेन च यत्सूचितं तदित्यमवगन्तव्यम्-'अद्धतेरसजोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं ऊयालीसं च सयसहस्साई बावन्नं च सहस्साई अढय अडयाले जोयणसए परिक्खेवेण मित्यादि। सप्तदशशते पञ्चमः ॥ १७-५॥
दीप अनुक्रम [७०८]
CSROCCAMERCANCIENCCOct
पञ्चमोद्देशके ईशानकल्प उक्तः, षष्ठे तु कल्पादिषु पृथिवीकायिकोत्पत्तिरुच्यत इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
पुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रय पुढ० समोहए २ जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढविक्काइयत्ताए उववजिहात्तए से भंते ! किं पुर्वि उववजित्ता पच्छा संपाउणेजा पुर्वि वा संपाउणित्ता पच्छा उबव०१, गोयमा! पुर्वि
वा उववज्जिसा पच्छा संपाउणेजा पुषिं वा संपाउणित्ता पच्छा ववजेजा, से केणटेणं जाव पच्छा उवव
अत्र सप्तदशमे शतके पंचम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ सप्तदशमे शतके षष्ठात् सप्तदशपर्यन्ता: उद्देशका: आरभ्यते
~366~
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६-१७], मूलं [६०४-६१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६०४
६१५]
व्याख्या- ४ जेज्जा ?, गोयमा ! पुढविक्काइयाणं तओ समुग्घाया पं०,०-वेदणासमुग्घाए कसायसमुग्घाए मारणतिय- १७ शतके अज्ञधिः अभयदेवी
समुग्धाए, मारणंतियसमुग्घाएणं समोहणमाणे देसेण वा समोहणति सच्चेण वा समोहणति देसेणं समोहन्न-18 उद्देशः ५ या वृत्तिः२
IPमाणे पुर्षि संपाउणित्ता पच्छा उववजिजा, सबेणं समोहणमाणे पुर्वि उववजेत्ता पच्छा संपाउणेज्जा,से तेणटेणं ईशानसुधजाव उववजिजा । पुढविक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव समोहए स०२ जे भविए ईसाणे ||
मेसभा सू ॥७२९॥
१०३ उ.कप्पे पुढवि एवं चेव ईसाणेवि, एवं जाव अञ्चुयगेविजविमाणे, अणुत्तरविमाणे ईसिपन्भाराए य एवं चेव ।।
१७ पृथ्वापुढविकाइए णं भंते ! सकरप्पभाए पुढवीए समोहए २ स० जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढवि० एवं जहा रयण-दादीनां संपा. पभाए पुढविकाइए उववाइओ एवं सकारप्पभाएवि पुढविकाइओ उववाएयचो जाव ईसिपम्भाराए, एवं
घ्युत्पादो जहा रयणप्पभाए वत्तवया भणिया एवं जाव अहेसत्तमाए समोहए ईसीपन्भाराए उवचाएयचो । सेब भंते ! २त्ति ।। (सूत्रं ६०४)॥१७-६॥ पुडविकाइए णं भंते ! सोहम्मे कप्पे समोहए समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुढबीकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! किं पुर्वि सेसं तं चेव जहा। रयणप्पभापुढविकाइए सबकप्पेसु जाव ईसिपब्भाराए ताच उबवाइओ एवं सोहम्मपुढविकाइओवि सत्त-18 |सुवि पुढवीसु उववाएयबो जाव अहेसत्तमाए, एवं जहा सोहम्मपुढविकाइओ सधपुढचीसु उववाइओ एवं ॥७२९॥ 18|| जाव इंसिपम्भारापुढविकाइओ सबपुटवीसु उववाएयचो जाव अहेसत्तमाए, सेवं भंते!२॥ (सूत्रं ३०५)
१७-७॥ आउक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढचीए समोह.२जे भविए सोहम्मे कप्पे आउकाइ-||
%456964
दीप अनुक्रम [७०९-७२०]
56459456-%
RELIGunintentiational
~367~
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६-१७], मूलं [६०४-६१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६०४
६१५]
EXAG*XXX********
यत्ताए उववजित्तए एवं जहा पुढविकाइओ तहा आउकाइओबि सबकप्पेसु जाच इसिपम्भाराए तहेव
उववाएयचो एवं जहा रयणप्पभाआउकाइओ उववाइओ तहा जाब अहेसत्तमापुढविआउकाइओ उव४ बाएयचो जाव ईसिपम्भाराए, सेवं भंते !२॥ (सूत्रं ६०६)॥१७-८॥ आउकाइए णं भंते ! सोहम्मे कप्पे
समोहए समोह जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढचीए घणोदधिबलएसु आउकाइयत्ताए उववजित्तए
से ण भंते ! सेसं तं चेव एवं जाव अहेसत्तमाए जहा सोहम्मआउकाइओ एवं जाव ईसिपब्भाराआउका४|इओ जाव अहेसत्तमाए उववाएयबो, सेवं भंते ! २॥ (सूत्र ६०७)॥१७-९॥ बाउक्काइए णं भंते ! इमीसे | रयणप्पभाए जाव जे भविए सोहम्मे कम्मे वाउक्काइयत्ताए उवव जित्तए से णं जहा पुढविकाइओ तहा वांउकाइओवि नवरं वाउक्काइयाणं चत्तारि समुग्धाया पं०, तं०-वेदणासमुग्घाए जाव वेउवियसमुग्याए, मारणंतियसमुग्धाएणं समोहणमाणे देसेण वा समो० सेसं तं चेव जाव अहेसत्तमाए समोहओ ईसिपन्भाराए द उववाएयचो, सेवं भंते !२॥ (सूत्रं ६०८)॥१७-१०॥ वाउचाइए णं भंते ! सोहम्मे कप्पे समोहए स०२
जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घणवाए तणुचाए घणवायवलएसु तणुवायवलएसु चाउकाइयत्ताए | उववाओत्सए से गंभंते ! सेसं तं चेव एवं जहा सोहम्मे वाउकाइओ सत्तसुवि पुढवीसु उबवाइओ एवं जाव इसिपब्भाराए वाउचाइओ अहेसत्तमाए जाव उवधाएयचो, सेवं भंते! २॥ (सूत्रं ६०९) ॥१७-११ ॥ एगिदियाणं भंते ! सधे समाहरा सवे समसरीरा एवं जहा पढमसए वितियउद्देसए पुढविकाइयाणं बत्त
दीप अनुक्रम [७०९-७२०]
~368
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६-१७], मूलं [६०४-६१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६०४
६१५]
दीनां संप्रा
व्याख्या- या भणिया सा चेव एगिदियाणं इह भाणियदा जाव समाज्या समोववन्नगा। एगिदिया णं भंते ! कति
१७शतके प्रज्ञप्तिः लेस्साओ प०१, गोयमा! चत्तारि लेस्साओ पं०, तं-कण्हलेस्सा जाव तेउलेस्सा । एएसिणं भंते ! एगिदि उद्देशा५ अभयदेवी-याणं कण्हलेस्साणं जाब विसेसाहिया वा ?, गोयमा! सवयोवा एगिदियाणं तेउलेस्सा काउलेस्सा अणंत- ईशानसुध. या वृत्तिः२ गुणा णीललेस्सा विसेसाहिया कण्हलेसा विसेसाहिया। एएसि णं भंते ! एगिदिया शंकण्हलेस्सा इड्डी जहेव । मसभा सू
ठा दीवकुमाराणं, सेवं भंते !२॥ (सूत्रं ६१०)॥१७-१२॥ नागकुमारा गं भंते ! सधे समाहारा जहा सोल-18 द्र समसए दीवकुमारुइसे तहेव निरवसेसं भाणिय जाय इहीति, सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति ॥ १७. पृथ्वा
(सूत्रं ६११)॥१७-१३ ॥ मुवन्नकुमारा णं भंते ! सबे समाहारा एवं चैव सेवं भंते !२॥(सूत्रं ११२) ||॥१७-१४ । विजुकुमारा गं भंते ! सधे समाहारा एवं चे, सेवं भंते !२॥ (सूत्र ६१३)॥१७-१५॥
प्युत्पादौ वायुकुमारा णं भंते ! सधे समाहारा एवं चेव, सेवं भंते !२॥ (सूत्रं ६१४)॥१७-१६ ॥ अग्गिकुमाराणं भंते ! सधे समाहारा एवं चेव, सेवं भंते ! २॥ (सूत्र ६१५)॥१७-१७ ॥ सत्तरसमं सयं समत्तं ॥१७॥ | 'पुटविकाइए ण'मित्यादि, 'समोहए'ति समवहतः-कृतमारणान्तिकसमुद्घातः 'उववजित'त्ति उत्पादक्षेत्रं गत्वा 'संपाउणेज'त्ति पुद्गलग्रहणं कुर्यात् उत व्यत्ययः इति प्रश्नः, 'गोयमा ! पुषिं वा उववजित्ता पच्छा संपाउणेजति मारणान्तिकसमुद्घातान्निवृत्य यदा प्राक्तनशरीरस्य सर्वथात्यागाद् गेन्दुकगत्योत्पत्तिदेश गच्छति तदोच्यते पूर्वमुत्पद्य पश्चात्संपामुयात्-पुद्गलान् गृह्णीयात् आहारयेदित्यर्थः, 'पुर्वि वा संपाउणित्ता पच्छा उवबज्जेज'त्ति यदा मारणान्तिकसमु
दीप अनुक्रम [७०९-७२०]
G
७३०॥
~369~
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१७], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६-१७], मूलं [६०४-६१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६०४
६१५]
घातगत एव नियते ईलिकागत्योसादस्थान याति तदोच्यते पूर्व सम्प्राप्य-पुद्गलान् गृहीत्वा पश्चादुत्पद्यत, प्राक्तनशरीरस्थजीवप्रदेशसंहरणतः समस्तजीवप्रदेशरुत्पत्तिक्षेत्रगतो भवेदिति भावः, 'देसेण वा समोहलाइ सवेण वा समोहनइति यदा | मारणान्तिकसमुद्घातगतो घियते तदा ईलिकागत्योत्पत्तिदेशं प्राप्नोति तत्र च जीवदेशस्य पूर्वदेहे एव स्थितत्वाद् देशस्य || हाचोत्पत्तिदेशे प्राप्तत्वात् देशेन समवहन्तीत्युच्यते, यदा तुमारणान्तिकसमुद्घातात् प्रतिनिवृत्तः सन् प्रियते तदा सर्वप्रदेशसं-II
हरणतो गेन्दुकगत्योसत्तिदेश प्राप्ती सर्वेण समवहत इत्युच्यते, तत्र च देशेन समवहन्यमानः-ईलिकागत्या गच्छन्नित्यर्थः पूर्व सम्प्राप्य-पुद्गलान् गृहीत्वा पश्चादुत्पद्यते-सर्वात्मनोत्पादक्षेत्रे आगच्छति, 'सवेणं समोहणमाणे'त्ति गेन्दुकगत्या गच्छ-| नित्यर्थः, पूर्वमुत्पद्य-सर्वात्मनोत्पाददेशमासाद्य पश्चात् 'संपाउणेन'त्ति पुनलग्रहणं कुर्यादिति ॥ सप्तदशशते पाष्टः॥१७-६॥ |शेषास्तु सुगमा एव ॥ १७-७-८-९-१०-११-१२-१३-१४-१५-१६-१७॥ तदेवं सप्तदशातं पृत्तितः परिसमाप्तम् ॥2
शते सप्तदशे वृत्तिः, कृतेयं गुर्वनुग्रहात् । यदन्धो याति मार्गेण, सोऽनुभावोऽनुकर्षिणः ॥१॥ BRSPRRRRRRRRRRRRRRRUSHRSRs
इति श्रीमदभयदेवाचार्यविहितवृत्तियुतं सप्तदशं शतं समाप्तम् ।।
दीप अनुक्रम [७०९-७२०]
COCCARNAKCE.
अत्र सप्तदशमे शतके षष्ठात् सप्तदश: पर्यन्ता: उद्देशका: परिसमाप्ता:
~370
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक -1, उद्देशक [१], मूलं [६१६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६१६]
व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२ ॥७३॥
गाथा:
दीप अनुक्रम [७२१-७२६]
व्याख्यातं सप्तदशं शतम् , अथावसरायातमष्टादर्श व्याख्यायते, तस्य च तावदादावेवेयमुद्देशकसकहणी गाथा- १८ शतके पढमे १ विसाह २ मापंविए य ३ पाणाइवाय ४ असुरे य ५। गुल ६ केवलि ७ अणगारे ८ भविए ९ तहका उद्देशा१. सोमिलष्टारसे १०॥७॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाय एवं वयासी-जीवे णं भंते ! जीवभावणं ||
जीवादीनां
प्रथमचरम किं पढमे अपडमे ?, गोयमा ! नो पढमे अपढमे, एवं नेरइए जाव वे० । सिद्धे, णं भंते ! सिद्धभावेणं किं पढमे सदर | अपढमे, गोयमा ! पढमे नो अपढमे, जीवाणं भंते ! जीवभावेणं किं पढमा अपढमा ?, गोयमा! नो पढमा अपदमा, एवं जाव वेमाणिया १। सिद्धार्थ पुरुछा, गोयमा पढमा नो अपदमा । आहारए णं भंते जीवे || आहारभावेणं किं पढमे अपढमे ?, गोयमा ! नो पढमे अपढ़मे, एवं जाव बेमाणिए, पोहत्तिए एवं चेव । अणाहारए णं भंते ! जीवे अणाहारभावेणं पुच्छा, गोयमा ! सिय पढमे सिय अपढमे । नेरइए णं भंते ! एवं नेरतिए जाव वेमाणिए नो पढमे अपढमे, सिद्धे पडमे नो अपहमे । अणाहारगा णं भंते ! जीवा अणाहारभावेणं पुच्छा, गोयमा ! पहमावि अपढमावि, नेरइया जाव वेमाणिया णो पढमा अपढमा, सिद्धा पढमा नो अपढमा, एकेके पुच्छा भाणियचा २॥ भवसिद्धीए एगत्तपुष्टुत्तेणं जहा आहारए, एवं अभवसिद्धी-द एवि, नोभवसिद्धीयनोअभवसिद्धीए णं भंते 1 जीवे नोभव. पुच्छा, गोयमा ! पढमे नो अपढमे,
॥७३॥ णोभवसिद्धीनोअभवसिद्धीया णं भंते ! सिद्धा नोभ० अभव०, एवं चेव पुहुत्तेणवि दोण्हवि ॥
अथ सप्तदशमे शतके अष्टादश-उद्देशक: आरभ्यते
~371
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक -1, उद्देशक [१], मूलं [६१६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [६१६]
सन्नी णं भंते ! जीवे सन्नीभावणं किं पढमे पुच्छा, गोयमा ! नो पढमे अपढमे, एवं विगलिंदियवनं जाव 8 वेमाणिए, एवं पुहुत्तेणवि३। असन्त्री एवं चेव एगत्तपुहुत्तेणं नवरं जाव वाणमंतरा, नोसन्नीनोअसन्नी
जीवे मणुस्से सिद्धे पढमे नो अपढमे, एवं पुहुत्तेणवि४॥सलेसे गं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! जहा आहारए एवं || पुटुत्तेणवि कण्हलेस्सा जाव मुफलेस्सा एवं चेव नवरं जस्स जा लेसा अस्थि । अलेसे णं जीवमणुस्ससिद्धे
जहा नोसनीनोअसन्नी ५॥ सम्मदिट्टीए णं भंते ! जीवे सम्मदिहिभावेणं किं पढमे पुच्छा, गोयमा ! सिय पढमे सिय अपढमे, एवं एगिदियवजं जाव वेमाणिए, सिद्धे पढमे नो अपढमे, पुहुत्तिया जीवा पढमावि अपढमावि, एवं जाव वेमाणिया, सिहा पढमा नो अपढमा, मिच्छादिट्ठीए एगत्तपुहुत्तेणं जहा आहारगा, सम्मामिच्छादिही एगत्तपुत्तेणं जहा सम्मदिट्ठी, नवरं जस्स अस्थि सम्मामिच्छत्तं ६॥ संजए जीवे मणुस्से | य एगत्तपुहुतेण जहा सम्मदिही, असंजए जहा आहारए, संजयासंजए जीवे पंचिंदियतिरिक्खजोणिय-|| मणुस्सा एगत्तपुहुत्तेणं जहा सम्मदिट्ठी नोसंजएनोअस्संजएनोसंजयासंजए जीवे सिद्धे य एगत्तपुहुत्तेणं पढमे नो अपढमे ७॥ सकसायी कोहकसायी जावलोभकसायी एए एगत्तत्तुपुहुत्तेणं जहा आहारए, अकसा. जीवे सिय पढमे सिय अपढमे, एवं मणुस्सेवि, सिद्धे पढमे नो अपढमे, पुहत्तर्ण जीवा मणुस्सावि पढमावि अपढमावि, सिद्धा पढमा नो अपढमा ८॥णाणी एगत्तपुहुत्तेणं जहा सम्मदिही आभिणियोहियनाणी जाव मणपजवनाणी एगत्तपुत्तेणं एवं चेव नवरं जस्स जं अस्थि, केवलनाणी जीवे मणुस्से सिद्धे य एग
।
CASERECTOR
गाथा:
दीप अनुक्रम [७२१-७२६]
~372
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक -1, उद्देशक [१], मूलं [६१६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६१६]
ACCIENCE-C
गाथा:
पासित्ता०४ एगं च णं महं सेयगोवरगं सुविणे पा०५ एगं च णं महं पउमसरं सपओ समंता कुसुमिया सुविणे०६ एगं च णं महं सागरं उम्मीवीयीसहस्सकलियं भुयाहिं तिनं मुविणे पासित्ता०७ एगं च णं महं दिणयरं तेयसा जलंतं सुविणे पासइ०८ एगं च णं महं हरिवेरुलियवन्नामेणं नियगेणं अंतेणं माणुसुत्सरं। पवयं सबओ समंता आवेढियं परिवेढियं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे ९ एगं च णं महं मंदरे पवए मंदरचू| लियाए उबरिं सीहासणवरगयं अप्पाणं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धे १० । जपणं समर्ण भगवं म. एग घोररूवदित्तधरं तालपिसायं सुविणे पराजियं पा० जाव पडिबुद्धे तपणं समणेणं भगवया महा. मोहणिज्जे कम्मे मूलाओ उग्घायिए १ जनं समणे भ० म० एगं महं सुकिल्लजाव पडिबुद्धे तण्णं समणे भ० म० सुक| ज्झाणोवगए विहरति, जपणं समणे भ०म० एगं महं चित्तविचित्तजाव पडिबुद्धे तपणं समणेभ०म०विचितं ससमयपरसमइयं दुवालसंग गणिपिडगं आघवेति पन्नवेति परवेति दंसेति निदंसेति उवदंसेति, तंजहाआयारं सूयगडं जाव दिद्विवायं ३, जपणं समणे भ० म० एगं महं दामदुगं सवरयणामयं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धे तण्णं समणे भ०म० दुविहं धम्म पनवेति, तं०-आगारधम्म वा अणागारधम्म वा ४, जपणं समणे || भ० म० एगं महं सेयगोवग्गं जाच पडिबुद्धे तपणं समणस्स भ० म० चाउधपणाइने समणसंघे, तं०-समणा |समणीओ सावया सावियाओ५, जपणं समणे भ० म० एगं महं पउमसरं जाव पडिबुद्धे तणं समणे जाव चीरे चउबिहे देवे पन्नवेति, तं०-भवणवासी वाणमंतरे जोतिसिए वेमाणिए ६, जन्नं समणे भग०म० एगं
दीप अनुक्रम [७२१-७२६]
3Ck
~3730
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [६१६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६१६]
गाथा:
Iनो अचरिमे, सेसहाणेसु जहा आहारओ । अभवसिद्धीओ सबत्य एगत्तपुहुत्तेणं नो चरिमे अचरिमे, नोभ-|
वसिद्धीयनोअभवसिद्धीय जीवा सिद्धा य एगसपुहुत्तेणं जहा अभवसिद्धीओ३॥ सन्नी जहा आहारओ, है एवं असनीचि, नोसनीनोअसनी जीवपदे सिद्धपदेय अचरिमे, मणुस्सपदे चरमे एगत्तपहत्तेणं ॥सलेस्सो
जाव सुचलेस्सो जहा आहारओ नवरं जस्स जा अस्थि, अलेस्सो जहा नोसन्नीनोअसन्नी ५॥ सम्मदिट्टी जहा अणाहारओ, मिच्छादिट्ठी जहा आहारओ, सम्मामिच्छादिट्टी एगिदियचिगलिंदियवनं सिय चरिमे सिय अचरिमे, पुरत्तेणं चरिमावि अचरिमावि ६॥ संजओ जीयो मणुस्सो य जहा आहारओ, अस्संज
ओऽवि तहेव, संजयासंजएवि तहेब, नवरं जस्स जं अस्थि, नोसंजयनोअसंजयनोसंजयासंजय जहा नोभवसिद्धीयनोअभवसिद्धीमी ७॥ सकसाई जाव लोभकसायी सबढाणेसु जहा आहारओ, अकसायी जीवपदे सिद्धे य नो चरिमो अचरिमो, मणुस्सपदे सिय चरिमो सिय अचरिमो ८॥णाणी जहा सम्महिट्ठी सबस्थ आभिणिबोहियनाणी जाच मणपज्जवनाणी जहा आहारओ नवरं जस्स जं अस्थि केवलनाणी जहा नोसन्नी-13 नोअसन्नी, अन्नाणी जाव विभंगनाणी जहा आहारओ ९॥ सजोगी जाब कायजोगी जहा आहारओ जस्स है जो जोगो भत्थि अजोगी जहा नोसन्नीनोअसन्नी १० ॥ सागारोवउत्तो अणागारोवउत्तो य जहा अणाहा
रओ ११ । सवेदओ जाव नपुंसगवेदओ जहा आहारओ अवेदओ जहा अकसाई १२॥ ससरीरी जावकम्म| गसरीरी जहा आहारभो मवरं जस्स जं भत्थि, असरीरी जहा नोभवसिजीयनोअभवसिद्धीय १३ ॥ पंचहि
दीप अनुक्रम [७२१-७२६]
~374
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [६१६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६१६]
गाथा:
व्याख्या-18ताह पह
दिपज्जत्तीहि पंचहिं अपज्जत्तीहिं जहा आहारओ सबस्थ एगत्तपुहुत्तेणं दंडगा भाणियबा १४ ॥ इमा लक्खण- १८ शतके प्रज्ञप्तिः गाहा-जो जं पाविहिति पुणो भावं सो तेण अचरिमो होइ । अचंतविओगो जस्स जेण भावेण सो चरिमोद उद्देशः१ अभयदेवी-8॥१॥ सेवं भंते ! २ जाव विहरति ।। (सूत्रं ६१६)॥१८-१॥
जीवादीनां या वृत्तिामा पढमे त्यादि, तन्न 'पढमेत्ति जीवादीनामर्थानां प्रथमाप्रथमत्वादिविचारपरायण उद्देशकः प्रथम उच्यते, स चास्य ||
त्वे सू ६१६ प्रथमः १'विसाहति विशाखानगरी तदुपलक्षितो विशाखेति द्वितीयः २'मार्गदिए'त्ति माकन्दीपुत्राभिधानानगारो॥७३३॥
पलक्षितो माकन्दिकस्तृतीयः ३ 'पाणाइवाय'त्ति प्राणातिपातादिविषयः प्राणातिपातश्चतुर्थः ४ 'असुरे यति असुरादिवक्तव्यताप्रधानोऽसुरः पञ्चमः ५'गुल'त्ति गुलाद्यर्थविशेषस्वरूपनिरूपणपरो गुलः षष्ठः६ केवलि'त्ति केवल्यादिविषयः केवली सप्तमः ७'अणगारे'त्ति अनगारादिविषयोऽनगारोऽष्टमः ८'भविय'त्ति भव्यद्रव्यनारकादिप्ररूपणार्थों भव्यो नवमः ९ 'सोमिल'त्ति सोमिलाभिधानब्राह्मणवक्तव्यतोपलक्षितः सोमिलो दशमः १०, 'अट्ठारसे'त्ति अष्टादशशते एते उद्देशका इति । तत्र प्रथमोद्देशकार्थप्रतिपादनार्थमाह-'तेण'मित्यादि, उद्देशकद्वारसग्रहणी चेयं गाथा कचिदृश्यते-"जीवाहारग
भवसन्निलेसादिट्टी य संजयकसाए । णाणे जोगुवओगे वेए य सरीरपजत्ती ॥१॥” अस्याश्चार्थ उद्देशकार्थाधिगम्यः, तत्र ॥४॥ प्रथमद्वाराभिधानायाह-'जीवे ण भंते'इत्यादि, जीवो भदन्त ! 'जीवभावेन' जीवत्वेन किं 'प्रथमः' प्रथमताधर्म-||
युक्तः, अयमर्थः-किं जीवत्वमसत्प्रथमतया प्राप्त उत 'अपढमें त्ति अप्रथमः-अनाद्यवस्थितजीवत्व इत्यर्थः, अत्रो-४॥७३३।। त्तरं-'नो पढमे अपढमेत्ति, इह च प्रथमत्वाप्रथमत्वयोर्लक्षणगाथा-"जो जेण पत्तपुबो भावो सो तेणऽपढमओ
दीप अनुक्रम [७२१-७२६]
~375
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक -1, उद्देशक [१], मूलं [६१६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [६१६]
गाथा:
होइ । जो जं अपत्तपुर्व पाबइ सो तेण पढमो उ ॥१॥" इति [ यो येन प्राप्तपूर्वो भावः स तस्याप्रथमो भवति । यो| यमप्राप्तपूर्व पामोति स तस्य प्रथमः ॥ १ ॥] 'एवं नेरइए 'त्ति नारकोऽप्यप्रथमः अनादिसंसारे नारकत्वस्यानन्तशः प्राप्तपूर्वत्वादिति । 'सिद्धे णं भंते इत्यादी 'पढमे त्ति सिद्धेन सिद्धत्वस्याप्राप्तपूर्वस्य प्राप्तत्वात्तेनासौ प्रथम इति,
बहुत्वेऽप्येवमेवेति ॥ आहारकद्वारे-'आहारए ण'मित्यादि, आहारकत्वेन नो प्रथमः अनादिभवेऽनन्तशः प्राप्तRI पूर्वकत्वादाहारकत्वस्य, एवं नारकादिरपि, सिद्धस्त्वाहारकत्वेन न पृच्छयते, अनाहारकत्वात्तस्येति । 'अणाहारए ण'
मित्यादौ, 'सिय पढमें त्ति स्यादिति-कश्चिज्जीवोऽनाहारकत्वेन प्रथमो यथा सिद्धः कश्चिच्चाप्रथमो यथा संसारी, संसा| रिणो विग्रहगतावनाहारकत्वस्यानन्तशो भूतपूर्वत्वादिति । 'एकेके पुच्छा भाणिय'त्ति यत्र किल पृच्छावाक्यमलिखितं
तत्रैकैकस्मिन् पदे पृच्छावाक्यं वाच्यमित्यर्थः। भव्यद्वारे-भवसिद्धीए'इत्यादि, भवसिद्धिक एकत्वेन बहुत्वेन च है यथाऽऽहारकोऽभिहितः एवं वाच्यः, अप्रथम इत्यथैः, यतो भव्यस्य भव्यत्वमनादिसिद्धमतोऽसौ भव्यत्वेन न प्रथमः, एव| मभवसिद्धिकोऽपि, 'नोभवसिद्धियनोअभवसिद्धिए णं' इह च जीवपदं सिद्धपदं च दण्डकमध्यात्संभवति नतु नारकादीनि, नोभवसिद्धिकनोअभवसिद्धिकपदेन सिद्धस्यैवाभिधानात् , तयोश्चैकत्वे पृथक्त्वे च प्रथमत्वं वाच्यम् ।। सज्ञिद्वारे'सन्नी णमित्यादि, सञ्जी जीवः सज्ञिभावेनाप्रथमोऽनन्तशः सन्ज्ञित्वलाभात्, 'विगलिंदियवजं जाववेमाणिए'त्ति एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियान् वर्जयित्वा शेषा नारकादिवैमानिकान्ताः सन्जिनोऽप्रथमतया वाच्या इत्यर्थः, एवमसळ्यपि नवरं 'जाव वाणमंतरत्ति असज्ञित्वविशेषितानि जीवनारकादीनि व्यन्तरान्तानि पदान्यप्रथमतया वाच्यानि, तेषु हि
दीप अनुक्रम [७२१-७२६]
(2563
~376
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [६१६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६१६]
गाथा:
सजिष्वपि भूतपूर्वगत्याऽसज्ञित्वं लभ्यते असजिनामुत्पादात्, पृथिव्यादयस्त्वसञ्जिन एव, तेषां चाप्रथमस्वमनम्तम
१८ शतके प्रज्ञप्तिः
स्तल्लाभादिति, उभयनिषेधपदं च जीवमनुष्यसिद्धेषु लभ्यते, तत्र च प्रथमत्वं वाच्यमत एवोच-नोसज्ञीत्यादि ॥ लेश्या- उद्देशः१ अभयदेवी-3 द्वारे-सलेसे णमित्यादि 'जहा आहारए'सि अप्रथम इत्यर्थः अनादित्वात्सलेश्यत्वस्येति 'नवरं जस्स जा लेसा अस्थि- जीवादीनां या वृत्तिः ति यस्य नारकादेर्या कृष्णादिलेश्याऽस्ति सा तस्य वाच्या, इदं च प्रतीतमेव, अलेक्यपदं तु जीवमनुष्यसिद्धेष्वस्ति, तेषां च प्रथमचरम ॥७३॥
प्रथमत्वं वाच्यं, नोसज्ञिनोअसंज्ञिनामिवेति, एतदेवाह-'अलेसे ण'मित्यादि ॥ दृष्टिद्वारे-'सम्मद्दिविए णमित्यादि, 'सियावसू पढमे सिय अपडम'त्ति कश्चित्सम्यग्दृष्टिीवः सम्यग्दृष्टितया प्रथमो यस्य तत्प्रथमतया सम्यग्दर्शनलाभः कश्चिचामथमो 8 येन प्रतिपतितं सत् सम्यग्दर्शनं पुनर्लब्धमिति, 'एवं एगिदियवजंति एकेन्द्रियाणां सम्यक्त्वं नास्ति ततो नारकादिदण्डकचिन्तायामेकेन्द्रियान् वर्जयित्वा शेषः स्यात्प्रथमः स्यादप्रथम इत्येवं वाच्यः, प्रथमसम्यक्त्वलाभापेक्षया प्रथमः | द्वितीयादिलाभापेक्षया त्वप्रथमः, सिद्धस्तु प्रथम एव सिद्धत्वानुगतस्य सम्यक्त्वस्य तदानीमेव भावात् । 'मिच्छादिही-2 त्यादि, 'जहा आहारग'सि एकत्वे पृथक्त्वे च मिध्यादृष्टीनामप्रथमत्वमित्यर्थः, अनादित्वान्मिथ्यादर्शनस्येति । 'सम्मामिच्छादिट्ठी'त्यादि 'जहा सम्मदिहित्ति स्यात्प्रथमः स्यादप्रथमः प्रथमेतरसम्यग्मिथ्यादर्शनलाभापेक्षयेति भावः, 'नवर
जस्स अस्थि सम्मामिच्छत्तं ति दण्डकचिन्तायां यस्य नारकादेर्मिश्रदर्शनमस्ति स एवेह प्रथमाप्रथमचिन्तायामधिकर्तव्यः ॥४ ॥७३४॥ ति संयतद्वारे-संजए'इत्यादि, इह च जीवपदं मनुष्यपदं चैते द्वे एव स्तर, तयोश्चैकत्वादिना यथा सम्यग्दृष्टिरुक्तस्तधाऽसौं
वाच्यः, स्यात्प्रथमः स्यादप्रथम इत्यर्थः, एतच्च संयमस्य प्रथमेतरलाभापेक्षयाऽवसेयमिति 'अस्संजए जहा आहारपत्ति pi
दीप अनुक्रम [७२१-७२६]
HAPAGADIEDO
SAPERatininainarana
~377
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-1, अंतर-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [६१६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [६१६]
गाथा:
अप्रथम इत्यर्थः असंयतत्वस्थानादित्वात् , 'संजयासंजए'इत्यादि संयतासंयतो जीवपदे पश्चेन्द्रियतिर्यपदे मनुष्यपदेच भषवीत्यत एतेष्वेकत्वादिना सम्यग्दृष्टिववाच्यः स्यात्प्रथमः स्यादप्रथम इत्यर्थः, प्रथमाप्रथमत्वं च प्रथमेतरदेशविरतिलाभापेक्षयेति 'मोसंजएनोअस्संजए इत्यादि, निषिद्धसंयमासंयममिश्रभावो जीवः सिद्धश्च स्थात् स च प्रथम एवेति ॥ कषायद्वारे-'सकसाई'त्यादि, कषायिणः आहारकवदप्रथमा अनादित्वात्कपायित्वस्येति 'अकसाईत्यादि, अकपायो जीवः स्यात्प्रथमो यथाख्यातचारित्रस्य प्रथमलामे स्यादप्रथमो द्वितीयादिलाभे, एवं मनुष्योऽपि, सिद्धस्तु प्रथम एव, सिद्धत्वानुगतस्याकपायभावस्य प्रथमत्वादिति ॥ ज्ञानद्वारे-'णाणी त्यादि, 'जहा सम्मदिट्टी'त्ति स्यात्प्रथमः स्यादप्रथम इत्यर्थः तत्र केवली प्रथमः अकेवली तु प्रथमज्ञानलामे प्रथमः अन्यथा त्वप्रथम इति, 'नवरं जं जस्स अत्धित्ति जीवादिदण्डकचिन्तायां यत् मतिज्ञानादि यस्य जीधनारकादेरस्ति तत्तस्य वाच्यमिति, तच्च प्रतीतमेव, 'केवलनाणी'त्यादि व्यक्तम्, 'अन्नाणी'त्यादि, 'जहा आहारए'त्ति अप्रथम इत्यर्थः, अनादित्वेनानन्तशोऽज्ञानस्य सभेदस्य लाभादिति ॥ योगद्वारे-'सजोगी'त्यादि, एतदप्याहारकवदप्रथममित्यर्थः 'जस्स जो जोगो अस्थिति जीवनारकादिदण्डकचिन्तायां यस्य जीवादेयों मनोयोगादिरस्ति स तस्य वाच्यः, स च प्रतीत एवेति, 'अजोगी'त्यादि, जीवो मनुष्यः सिद्धश्चायोगी भवति स च प्रथम एवेति ॥ उपयोगद्वारे-'सागारे त्यादि 'जहा अणाहारए'त्ति साकारोपयुका अनाकारो-|| पयुक्ताश्च यथाऽनाहारकोऽभिहितस्तथा वाच्याः, ते च जीवपदे स्यात्प्रथमाः सिद्धापेक्षया स्यादप्रथमाः संसार्यपेक्षया, नार-18 कादिवैमानिकान्तपदेषुतु नो पक्षमा अप्रथमा अनादित्वात्तल्लाभस्य, सिद्धपदे तु प्रथमा नो अमथमाः साकारानाकारोपयोग
ASHTASS+
MOHARDAN
दीप अनुक्रम [७२१-७२६]
कर
SAREauratonintamanna
~378
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक -1, उद्देशक [१], मूलं [६१६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६१६]
गाथा:
विशेषितस्य सिद्धत्वस्य प्रथमत एव भावादिति ॥ वेदद्वारे-सवेयगे'त्यादि, 'जहा आहारएं' अप्रथम एवेत्यर्थः ||१८ शतके प्रज्ञप्तिः 'नवरं जस्स जो वेदो अत्थि'त्ति जीवादिदण्डकचिन्तायां यस्य नारकादेयों नपुंसकादिवेंदोऽस्ति स तस्य वाच्यः स च उद्देशः १ अभयदेवी- प्रतीत एवेति, 'अवेयओ'इत्यादि अवेदको यथाऽकषायी तथा वाच्यस्त्रिष्वपि पदेषु-जीवमनुष्यसिद्धलक्षणेषु, तत्र च जीवादीनां या वृत्तिः२जीवमनुष्यपदयोः स्यात्प्रथमः स्यादप्रथमः अवेदकत्वस्य प्रथमेतरलाभापेक्षया, सिद्धस्वप्रथम एवेति ॥ शरीरद्वारे-'सस-18||
त्वे सू११६ ॥७३५॥
रीरी'त्यादि, अयमप्याहारकबदप्रथम एवेति 'नवरमाहारगसरीरीत्यादि 'जहा सम्मदिढित्ति स्यात्प्रथमः स्यादप्रथम इत्यर्थः, अयं चैवं प्रथमेतराहारकशरीरस्य लाभापेक्षयेति, अशरीरी जीवः स्यात् सिद्धश्च स च प्रथम एवेति ॥ पर्याप्तिद्वारे४|| 'पंचही त्यादि, पञ्चभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तकः तथा पञ्चभिरपर्याप्तिभिरपर्याप्तक आहारकवदप्रथम इति, 'जस्स जा अस्थि-18 तति दण्डकचिन्तायां यस्य याः पर्याप्तयस्तस्य ता वाच्यास्ताश्च प्रतीता एवेति ॥ अथ प्रथमाप्रथमलक्षणाभिधानायाह-जो द
जेण'गाहा, यो-भावो-जीवत्वादिर्येन जीवादिना कर्जा प्राप्सपूर्वः' अवाप्तपूर्वः 'भावः' पर्यायः 'स' जीवादिस्तेन-भावे४ नाप्रथमको भवति, 'सेसेसुत्ति सप्तम्यास्तृतीयार्थत्वात् 'शेषः' प्राप्तपूर्वभावव्यतिरिक्तैर्भवति प्रथमः, किंस्वरूपैः शेषैः | इत्याह-अप्राप्तपूर्भावरिति गाथार्थः ॥ अथ प्रथमादिविपक्ष चरमादित्वं जीवादिष्वेव द्वारेषु निरूपयन्निदमाह-'जीवे ण'-16
मित्यादि, जीवो भदन्त । 'जीवभावेन' जीवत्वपर्यायेण किं चरमः ?-किं जीवत्वस्य प्राप्तव्यचरमभागः किं जीवत्वं ॥७३५॥ 18| मोक्ष्यतीत्यर्थः 'अचरम'त्ति अविद्यमानजीवत्वचरमसमयो, जीवत्वमत्यन्त न मोक्ष्यतीत्यर्थः, इह प्रश्ने आह-'नो' नैव ||४||
'चरमः' प्राप्तव्यजीवत्वावसानो, जीवत्वस्याव्यवच्छेदादिति । 'नेरइए णमित्यादि 'सिय चरिमे सिय अचरिमे'त्ति
दीप अनुक्रम [७२१-७२६]
SARERainintenarana
walinsurary.orm
~379
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक -1, उद्देशक [१], मूलं [६१६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६१६]
गाथा:
यो नारको नारकत्वादुदत्तः सन् पुनर्नरकगतिं न यास्यति सिद्धगमनात् स चरमः अन्यस्वचरमा, एवं यावद्वैमानिकः ।। 'सिद्धे जहा जीवे'त्ति अचरम इत्यर्थः, न हि सिद्धः सिद्धतया विनङ्ग यतीति । 'जीवा ण'मित्यादि, पृथक्त्वदण्डकस्तथाविध एवेति ॥ आहारकद्वारे-'आहारए सवत्य'त्ति सर्वेषु जीवादिपदेषु 'सिय चरिमे सिय अचरिमे'त्ति कश्चिच्चरमो यो निर्वास्थति अन्यस्वचरम इति । अनाहारकपदेऽनाहारकत्वेन जीवः सिद्धश्चाचरमो वाच्या, अनाहारकत्वस्य तदीयस्यापर्यवसितत्वात् , जीवश्चेह सिद्धावस्थ एवेति, एतदेवाह-'अणाहारओ'इत्यादि, 'सेसठाणेसु'त्ति नारकादिषु पदेषु 'जहा आहारओ'त्ति स्याचरमः स्यादचरम इत्यर्थः, यो नारकादित्वेनानाहारकत्वं पुनर्न लप्स्यते स चरमो यस्तु तल्लप्स्यतेऽसौ अचरम इति ॥ भव्यद्वारे-भवसिद्धीओ'इत्यादि, भव्यो जीवो भव्यत्वेन चरमः, सिद्धिगमनेन भव्यत्वस्य चरमत्वप्राप्तः, एतच सर्वेऽपि भवसिद्धिका जीवाः सेत्स्यन्तीति वचनप्रामाण्यादभिहितमिति 'अभवसिद्धिओ सबत्य'त्ति सर्वेषु जीवादिपदेषु 'नो चरिमेत्ति अभव्यस्य भव्यत्वेनाभावात् , 'नोभवेत्यादि उभयनिषेधवान् जीवपदे सिद्धपदे | चाभवसिद्धिकवदचरमः तस्य सिद्धत्वात् सिद्धस्य च सिद्धत्वपर्यायानपगमादिति ॥ सज्ञिद्वारे-'सन्नी जहा आहारओ'त्ति सज्ञित्वेन स्याचरमः स्वादचरम इत्यर्थः, एवमसङ्ग्यपि, उभयनिषेधवांश्च जीवः सिद्धनाचरमो, मनुष्यस्तु चरमः | उभयनिषेधवतो मनुष्यस्य केवलित्वेन पुनर्मनुष्यत्वस्यालाभादिति ॥ लेश्याद्वारे-'सलेसा'इत्यादि, 'जहा आहा-| है रओ'त्ति स्याचरमः स्यादचरम इत्यर्थः, तत्र ये निर्वास्यन्ति ते सलेश्यत्वस्य चरमाः, अन्ये खचरमा इति ॥ दृष्टिद्वारे
'सम्मद्दिट्टी जहा अणाहारओत्ति जीवः सिद्धश्च सम्यग्दृष्टिरचरमो यतो जीवस्य सम्यक्त्वं प्रतिपतितमप्यवश्यंभावि,
दीप अनुक्रम [७२१-७२६]
~380
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक -1, उद्देशक [१], मूलं [६१६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६१६]
१८ शतके
७३६|
गाथा:
ज्याख्या-सिद्धस्य तु तन्न प्रतिपतत्येव, नारकादयस्तु स्याचरमाः स्यादचरमाः, ये नारकादयो नारकत्वादिना सह पुनः सम्यक्त्वं ना
प्रज्ञप्ति लप्स्यन्ते ते चरमाः ये वन्यथा तेऽघरमा इति । 'मिच्छादिट्ठी जहा आहारओ'त्ति स्थाचरमः स्यादचरम इत्यर्थः || देशा अभयदेवी- यो हि जीवो निर्वास्यति स मिध्यादृष्टित्वेन चरमो यस्त्वन्यथाऽसावचरमः, नारकादिस्तु यो मिथ्यात्वयुक्तं नारकत्वं पुनर्न जीवादीनां यावृत्ति लप्स्यते स चरमोऽन्यस्त्वचरमः, 'सम्मामिच्छे'त्यादि, 'एगिदियविगलिंदियवर्जति एतेषां किल मिश्रं न भवतीति
प्रथमचरम
त्वेसू६१६ नारकादिदण्डके नैते मिश्रालापके उच्चारयितव्या इत्यर्थः, अस्य चोपलक्षणत्वेन सम्यग्दृष्ट्यालापके एकेन्द्रियवर्जमि-18 त्यपि द्रष्टव्यं, एवमन्यत्रापि यद्यत्र न संभवति तत्तत्र स्वयं वर्जनीयं, यथा सज्ञिपदे एकेन्द्रियादयः असज्ञिपदे ज्योतिएकादय इति, 'सिय चरिमे सिय अचरिम सम्यग्मिध्यादृष्टिः स्याचरमो यस्य तत्प्राप्तिः पुनर्न भविष्यति, इतरस्त्वचरम || इति ॥ संयतद्वारे-संजओ'इत्यादि, अयमर्थः-संयतो जीवः स्याच्चरमो यस्य पुनः संयमो न भविष्यति अन्यस्त्वचरमः, एवं मनुष्योऽपि, यत एतयोरेव संयतत्वमिति 'अस्संजओऽवि तहेवत्ति असंयतोऽपि तथैव यथाऽऽहारकः स्याचरमः स्यादचरम इत्यर्थः, एवं संयतासंयतोऽपि, केवलं जीवपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्यपदेष्वेवायं वाच्यः, अत एवाह-'नवरं जस्स जं अस्थिति, निषिद्धत्रयस्त्वचरमः सिद्धत्वात्तस्येति ॥ कषायद्वारे-'सकसाई'त्यादि, अयमर्थः-सकषायः सभेदो जीवादिस्थानेषु स्याचरमः स्यादचरमः, तत्र यो जीवो निर्वास्यति स सकषायित्वेन चरमोऽन्यस्त्वचरमः, नारकादिस्तु यः सकपा-IGI यित्वं नारकाद्युपेतं पुनर्ने प्राप्यति स चरमोऽन्यस्त्वचरमः 'अकसायी'त्यादि 'अकषायी' उपशान्तमोहादिः स च ॥७३॥ जीवो मनुष्यः सिद्धच स्यात्, तब जीवः सिद्धश्चाचरमो यतो जीवस्याकपायित्वं प्रतिपतितमप्यवश्यम्भावि, सिद्धस्य तु न ||
दीप
RSSCRECEMk
%
अनुक्रम [७२१-७२६]
~381
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [६१६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६१६]
गाथा:
प्रतिपतत्येव, मनुष्यस्त्वकपायितोपेतं मनुष्यत्वं यः पुनर्न लप्स्यते स चरमो यस्तु लप्स्यते सोऽचरम इति ॥ ज्ञानद्वारे'नाणी जहा सम्मदिहित्ति, अयमिह सम्यग्दृष्टिदृष्टान्तलन्धोऽर्थः-जीवः सिद्धश्चाचरमः जीवो हि ज्ञानस्य सतः प्रतिपातेऽप्य वश्यं पुनर्भावेनाचरमः, सिद्धस्त्वक्षीणज्ञानभाव एव भवतीत्यचरमः, शेषास्तु ज्ञानोपेतनारकत्वादीनां पुनर्लाभासम्भवे ४ चरमा अन्यथा त्वचरमा इति, 'सवत्यत्ति सर्वेषु जीवादिसिद्धान्तेषु पदेषु एकेन्द्रियवर्जितेष्विति गम्य, ज्ञानभेदापेक्षयाऽऽह-'आभिणियोहिए इत्यादि, 'जहा आहारओत्तिकरणात् स्याचरमः स्यादचरम इति दृश्य, तत्राभिनिवोधिकादिज्ञानं यः केवलज्ञानप्राप्त्या पुनरपि न लप्यते स चरमोऽन्यस्वत्वचरमः, 'जस्स जं अस्थिति यस्य जीवनारकादेर्यदाभिनिबोधिकाद्यस्ति तस्य तद्वाच्यं, तच्च प्रतीतमेव, 'केवलनाणी'त्यादि, केवलज्ञानी अचरमो वाच्य इति भावः 'अन्नाणी' इत्यादि अज्ञानी सभेदः स्याश्चरमः स्यादचरम इत्यर्थः यो ह्यज्ञानं पुनर्न लप्स्यते स चरमः यस्त्वभव्यो ज्ञानं न लप्स्यते एवासावचरम इति [ग्रन्थानम् १५०००] एवं यत्र यत्राहारकातिदेशस्तत्र तत्र स्थाच्चरमः स्यादचरम इति व्याख्येयं, शेषमप्यनयैव दिशाऽम्युह्यमिति ॥ अथ चरमाचरमलक्षणाभिधानायाह-'जो जं पाविहितिगाहा 'या' जीवो नारकादिः 'य' जीवत्वं नारकत्वादिकमप्रतिपतितं प्रतिपतितं वा 'प्राप्स्यति'लप्स्यते पुनः पुनरपि 'भावं धर्म स 'तेन' भावेनतद्भावापेक्षयेत्यर्थः अचरमो भवति, तथा 'अत्यन्त वियोगः' सर्वधाविरहः 'यस्य' जीवादेर्येन भावेन स तेनेति शेष: चरभो भवतीति । अष्टादशशतस्य प्रथमः ।। १८-१॥
दीप अनुक्रम [७२१-७२६]
अत्र अष्टादशमे शतके प्रथम-उद्देशक: परिसमाप्त:
~382
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [६१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६१७]
दीप
व्याख्या
प्रथमोद्देशके वैमानिको वैमानिकभावेन स्याचरमः स्यादचरम इत्युक्तम् , अथ वैमानिकविशेषो यस्तद्भावेन चरमः सा १८ शतक प्रज्ञप्तिःद्वितीयोद्देशके दर्श्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
उद्देशा२ अभयदेवीतेणं कालेणं २ विसाहानाम नगरी होत्था वन्नओ, वपुत्तिए चेइए वन्नओ, सामी समोसढे जाव पज्जु-द
कार्तिकश्रेया वृत्तिार वासह, तेणं कालेणं २ सके देविंदे देवराया वजपाणी पुरंदरे एवं जहा सोलसमसए वितियउद्देसए तहेव
ट्यधिकारः
सू ६१७ ॥७३७॥
दिवेणं जाणविमाणेणं आगओ नवरं एत्थ आभियोगादि अस्थि जाव यत्तीसतिविहं नट्टविहिं उबदंसेति । उव०२ जाव पडिगए। भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव एवं वयासी-जहा तईयसए ईसाणस्स तहेव कृडागारदिटुंतो तहेव पुवभवपुच्छा जाव अभिसमन्नागया ?, गोयमादि समणे भगवं|
महावीरे भगवं गोपमं एवं बयासी-एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे २ भारहे दिवासे हथिणापुरे नाम नगरे होत्था बन्नओ, सहस्संबधणे उजाणे वन्नओ, तत्थ णं हथिणागपुरे नगरे * कत्तिए नाम सेट्ठी परिवसति अहे जाव अपरिभूए जेगमपढमासणिए णेगमट्ठसहस्सस्स बहुसु कज्जेसु यम
| कारणेसु य को९वेसु य एवं जहा रायप्पसेणहज्जे चित्ते जाव चक्खुभूए णेगमट्ठसहस्सस्स सयरस य कुंटुं-131 ट्रिाबस्स आहेवचं जाव कारेमाणे पालेमाणे य समणोवासए अहिगयजीवाजीवे जाव विहरति । तेणं कालेणं २||
॥७३७॥ INमुणिमुपए अरहा आदिगरे जहा सोलसमसए तहेव जाव समोसढे जाव परिसा पजुवासति, तए णं से 13 कत्तिए सेट्ठी इमीसे कहाए लद्ध समाणे हद्वतुट्ठ एवं जहा एकारसमसए सुदंसणे तहेव निग्गओ जाव पञ्जु
अनुक्रम [७२७]
अथ अष्टादशमे शतके द्वितीय-उद्देशकः आरभ्यते
कार्तिकश्रेष्ठी कथा
~3830
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [६१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६१७]
8| वासति, तए णं मुणिसुबए अरहा कत्तियस्स सेहिस्स धम्मकहा जाय परिसा पडिगया, तए णं से कत्तिए || है सेट्ठी मुणिमुखयजाव निसम्म हट्टतुट्ठ उट्ठाए उद्वेति उ०२ मुणिसुवयं जाव एवं वयासी-एवमेयं भंते !
जाव से जहेयं तुज्झे वदह नवरं देवाणुप्पिया 1 नेगमट्ठसहस्सं आपुच्छामि जेहपुत्तं च कुईये ठावेमि, तए पणं अहं देवाणुप्पियाणं अंतियं पचयामि अहासुहं जाव मा पडिबंध,तए णं सेकत्तिए सेट्ठी जाव पडिनिक्ख-18 मिति २ जेणेव हस्थिणापुरे नगरे जेणेव सए गेहेतेणेव उवागच्छइ २णेगमट्ठसहस्सं सदावेति २ एवं बयासी
एवं खलु देवाणुप्पिया! मए मुणिसुदयस्स अरहओ अंतियं धम्मे निसन्ते सेऽघिय मे धम्मे इच्छिए पडि-2 |च्छिए अभिरुइए, तए णं अहं देवाणुप्पिया! संसारभयुधिग्गे जाव पवयामि तं तुझे णं देवाणुप्पिया! किं|8 करेह किं ववसह किं भे हियइच्छिए किं भे सामत्थे, तए णं तं गमट्ठसहस्सपि तं कत्तियं सेटिं एवं वयासी-जइणं देवाणुप्पिया! संसारभयुधिग्गा जाव पवइस्संति अम्हं देवाणुप्पिया! किं अन्ने आलंबणे वा आहारे चा पडिबंधे वा ? अम्हे वि णं देवाणुप्पिया ! संसारभयुबिग्गा भीया जम्मणमरणार्ण देवाणुप्पिपहिं सद्धिं मुणिसुवयस्स अरहओ अंतियं मुंडा भवित्ता आगाराओ जाव पचयामो, तए णं से कत्तिए सेट्टी तं नेगमद्दसहस्सं एवं वयासी-जदि णं देवाणुप्पिया ! संसारभयुबिग्गा भीया जम्मणमरणाणं मए सद्धिं मुणिसुषयजावपवयह तं गच्छह णं तुज्झे देवाणुप्पिया! सएसु गिहेसु विपुलं असणं जाव उवक्खडावेह ४ मित्तनाइजाव पुरओ जेट्टपुत्ते कुटुंबे ठावेह जेट्ट०२ तं मित्तनाइजाव जेहपुत्ते आपुच्छह आपु०२पुरिसस
HERCAMERE
दीप अनुक्रम [७२७]
| कार्तिकश्रेष्ठी कथा
~3840
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [६१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६१७]
सू६१७
॥७३८॥
दीप अनुक्रम [७२७]
व्याख्या- हस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूहह २ ता मित्तनाइजावपरिजणेणं जेट्टपुत्तेहि य समणुगम्ममाणमग्गा सबहीए १८ शतके
प्रज्ञप्तिः जाव रवेणं अकालपरिहीणं चेव मम अंतियं पाउम्भवह, तए णं ते नेगमट्ठसहस्संपि कत्तियस्स सेहिस्स Gउद्देशः२ अभयदेवी- एयम8 विणएणं पडिसुणेति प०२जेणेव साइं साई गिहाई तेणेव उवागच्छद २विपुलं असणजाव उवक्खडा- कार्तिकश्रेयावृत्तिः२१ |ति २ मित्तनाइजाब तस्सेव मित्तनाइजाव पुरओ जेट्टपुत्ते कुटुंबे ठावेति जेट्टपुत्ते०२तं मित्तनाइजाव
छ्यधिकारः जेट्टपुत्ते य आपुच्छंति जेट्ट०२ पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूहंति दु. २ मित्तणातिजाव परिजणेणं जेहपुत्तेहि य समणुगम्ममाणमग्गा सबहीए जाव रवेणं अकालपरिहीणं चेव कत्सियस्स सेहिस्स | अंतियं पाउन्भवति, तए णं से कत्तिए सेट्ठी विपुलं असणं ४ जहा गंगदत्तो जाव मित्तणातिजायपरिजणेणं |
जेट्टपुत्तेणं णेगमहसहस्सेण य सम्णुगम्ममाणमग्गे सबहिए जाव रवेणं हस्थिणापुरं नगरं मज्झमज्झेणं * जहा गंगदत्तो जाव आलित्ते गं भंते ! लोए पलिते गं भंते ! लोए आलित्तपलित्ते णं भंते ! लोए जाव
अणुगामियत्ताए भविस्सति तं इच्छामि णं भंते ! णेगमट्ठसहस्सेण सद्धिं सयमेव पधावियं जाव धम्ममाइ-18 |क्खियं, तए णं मुणिसुखए अरहा कत्तियं सेढि णेगमट्ठसहस्सेणं सहिं सयमेव पवावेति जाव धम्ममाइक्खा, है एवं देवाणुप्पिया ! गंतवं एवं चिट्ठियवं जाव संजमियचं, तए णं से कसिए सेट्टी नेगमट्ठसहस्सेण सद्धिं मुणि
॥७३८॥ मुवयस्स अरहओ इमं एयारूवं धम्मियं उबदेसं सम्मं पडिवजह तमाणाए तहा गच्छति जाव संजमेति, तिए णं से कत्तिए सेट्टी णेगमहसहस्सेणं सद्धिं अणगारे जाए इरियासमिए जाव गुत्तवंभयारी, तए णं से
SARANAS
कार्तिकश्रेष्ठी कथा
~385
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग -1, अंतर-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [६१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६१७]
C+
दीप अनुक्रम [७२७]
कत्तिए अणगारे मुणिसुष्षयस्स अरहओ तहारूवाणं थेराणं अंतियं सामाइयमाझ्याई चोद्दस पुष्पाइं अहिजइ सा०२ बहूर्हि चउत्थछट्टमजाच अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुन्नाई दुवालसवासाइं सामनपरियागं पाउणइ पा०२मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसेई मा०२ सहि भत्ताई अणसणाए छेदेति स०२ आलोइयजाव कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडेंसए विमाणे उबावायसभाए देवसयणिज्जेंसि जाव सक्के देविं. दत्ताए उववन्ने, तए णं से सके देविंदे देवराया अहुणोववण्णे, सेसं जहा गंगदत्तस्स जाव अंतं काहिति नवर ठिती दो सागरोवमाई सेसं तं चेव । सेवं भंते १२त्ति॥(सूत्र ६१७) ॥ अष्टादशशते दितीयोदेशकः ॥१८-२॥
'तेण मित्यादि ॥ 'णेगमपढमासणिए'त्ति इह नैगमा-वाणिजकाः 'कज्जेसु यत्ति गृहकरणस्वजनसन्मानादिकृत्येषु 'कारणेसुत्ति इष्टार्थानां हेतुषु-कृषिपशुपोषणवाणिज्यादिषु कुटुंसुत्ति सम्बन्धविशेषवन्मानुषवृन्देषु विषयभूतेषु एवं जहा रायप्पसेणइजे' इत्यादि, अनेन चेदं सूचित-'मतेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य षवहारेसु य निच्छएम य आपुच्छणिज्जे मेढी पमाणं आहारो आलंबणं चक्खू मेहिभूए पमाणभूए आहारभूए आलंबणभूए'त्ति तत्र 'मन्त्रेषु' पर्यालोचनेषु 'गुह्येषु लज्जनीयव्यवहारगोपनेषु 'रहस्येषु' एकान्तयोग्येषु 'निश्चयेषु' इत्यमेवेदं विधेयमित्येवंरूपनिर्णयेषु 'आपृच्छनीयः' प्रष्टव्यः किमिति ? यतोऽसौ 'मेदित्ति मेढी-खलकमध्यवर्तिनी स्थूणा यस्यां नियमिता गोपनिर्धान्यं गायति तद्वद्यमालम्ब्य सकलनैगममण्डलं करणीयार्थान् धान्यमिव विवेचयति स मेढी, तथा 'प्रमाणं' प्रत्यक्षादि तद्वद्यस्तदृष्टार्थानामव्यभिचारित्वेन तथैव प्रवृत्तिनिवृत्तिगोचरत्वात्स प्रमाण, तथा आधारः आधेयस्येव सर्वकार्येषु लोकानामुपकारित्वात् , तथा
C4%8-4050
| कार्तिकश्रेष्ठी कथा
~386
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग -1, अंतर-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [६१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
व्याख्या
प्रत सूत्रांक
RANASA
[६१७]
दीप
था-'आलम्बन' रज्यादि तदापन दिनिस्तारकत्वादालम्बनं, तथा चक्षुः-लोचनं तबलोकस्य विविध कार्येषु प्रतिनिधि-/१८ शतके प्रशतिः | विषयप्रदकित्याचक्षुरिति, एतवेक प्रपशयति-'मेदिभूए'इत्यादि, भूतशब्द उपमार्थ इति, 'जहा गंगवत्तोति पोटश- उद्देश ३ अभयदेवी-|| शतस्य पञ्चमोद्देशके यथा गङ्गदत्तोऽभिहितस्तथाऽयं वाच्य इति ॥ अष्टादशमते द्वितीय उद्देशकः समाप्तिमगमत् ॥
माकन्दिका यावृत्तिः२
दाय श्रमणा
नां मिथ्या१७३९॥ द्वितीयोदेशके कार्तिकस्यारतक्रियोका, तृतीये तु पृथिव्यादेः सोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येवमादिसूत्रम्
दुष्कृतं तेणं कालेणं २ रायगिहे नगरे होत्था वनओ गुणसिलए चेइए वनओ जाव परिसा पडिगया, तेणं कालेणं सू ६१८ ६ तेणं स० समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव अंतेवासी मागंदियपुत्ते माम अणगारे पगइभदए जहा मंडि-18
यपुत्ते जाव पजुवासमाणे एवं बयासी-सेनूर्ण भंते ! काउलेस्से पुढविकाइए काउलेस्सेहितो पुढविकाइपहिंतो अणंतरं उघट्टित्ता माणुसं विग्गहं लभति मा०२ केवलं बोहिं बुज्झति के० २तओ पच्छा सिजनतिर जाव अंतं करेति,इंता मागंदियपुत्ता काउलेस्से पुदविकाइए जाप अंतं करेति । सेनूर्ण मते! काउलेसे भाऊकाइए काउलेसेहितो आउकाइएहितो अणंतरं उच्चहित्ता माणुसं विग्गरं लभति मा०२ केवलं घोहि बुज्झति जाव अंतं करेति', हंसा मागंदियपुसा जाय अंतं करेति । से नूर्ण मते! काउलेस्से बणसरक-VI ए एवं चेय जाव अंतं करेति, सेवं मंतेसि मागंदियपुस अणगारे समर्ण भगवमहावीरं जावनमंसिसा जेणेव समणे निग्गथे तेणेव उपागच्छति उवा०२ समणे निग्गंथे एवं क्यासी-एवं खलु जो काउलेस्से
अनुक्रम [७२७]
अत्र अष्टादशमे शतके द्वितीय-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ अष्टादशमे शतके तृतीय-उद्देशक: आरभ्यते
मार्कदिक-अनगारस्य लेश्या, कर्म-वेदना,निर्जरा,बन्ध इत्यादि सम्बन्धी प्रश्नोत्तराणि
~387
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग -1, अंतर-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [६१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६१८]
दीप अनुक्रम [७२८]
पुढविकाइप तहेव जाव अंतं करेति, एवं खलु अनो! कापलेसे आउफाइए जाब अतं करेति एवं खली। अजो! काउलेस्से यणस्सइकाइए जाव अंतं करेति, तर ते समणा मिया मागवियपुत्तस्स अणरिस्सा एबमाइक्खमाणस्स जाव एवं परवेमाणस्स पबमईनों सदहति ३ एपम? असद्दहमाणा ३ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति २ समर्ण भगवं महावीरं वदति नर्मसति र एवं क्यासी-एवं खलु भते । मागंदियपुरले अणगारे अम्हं एवमाइक्खति जाव परूवेति-एवं खलु अजी! काउलैस्से पुढविकाइए। जाप अंतं करेति, एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से आउकाइए जाव अंतं करेति, एक वणस्सइकाइएवि || DI जाप अंतं करेति, से कहमेयं भंते ! एवं?, अयोति समणे भगर्व महावीरे ते समणे निग्गंथे आमंतित एवं ययासी-जणं अजो मार्गदियपुसे अणमारे तुज्झे एवं आइक्खति जाव परूथेति-एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से पुढविकाइए जाव अंतं करेति, एवं स्खल अजो ! काउलेस्से आउकाइए जाव अंतं करेति, एवं स्खलन अज्जो ! काउलेस्से वणस्सहकाइएवि जाय अंतं करेति, सचे णं एसम्मके, अहंपिणं आलो ! एकमाइवखामि एवं खलु अजो! कण्हलेसे पुढ० कण्हलेसेहितो पुडविकाइएहितो जाव अंतं करेति एवं खलु माडो नीला लेस्से पुरविका जाय अंतं करेति एवं काउलेस्सेवि जहा पुढविकाइए एवं आउकाइएवि एवं वणस्सइकाइएवि सणं एसमढे। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति समणा निग्गंधा समण भगवं महा० ० नमं०२ जेणेच
| माकदिक-अनगारस्य लेश्या, कर्म-वेदना,निर्जरा,बन्ध इत्यादि सम्बन्धी प्रश्नोत्तराणि
~388
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [६१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६१८]
पुद्गलानां
दीप अनुक्रम [७२८]
आख्या-14 मागंदियपुत्ते अणगारे तेणेव उवाग०२ मागंदियपुत्तं अणगारं वंदति नमं० २ एयमई सम्मं विणएणं १८ शतके प्राप्तिः भुजो २ खामेति (सूत्रं ६१८)॥
उद्देशा३ अभयदेवी- 'तेणं कालेण'मित्यादि, 'जहा मंडियपुत्ते'त्ति अनेनेदं सूचितं-'पगइवसंते पगइपयणुकोहमाणमायलोभे'त्यादि, इह निजरादियापतिः
|च पृथिव्यवनस्पतीनामनन्तरभवे मानुषत्वप्राप्त्याऽन्तक्रिया संभवति न तेजोवायूनां, तेषामानम्तर्येण मानुषत्वाप्राप्तेरतः। पृथिव्यादित्रयस्यैवान्तक्रियामाश्रित्य 'से नूण'मित्यादिना प्रश्नः कृतो न तेजोवायूनामिति ॥ अनन्तरमन्तक्रियोक्ता, अथा
ज्ञानादि
सू११९ |न्तक्रियायां ये निर्जरापुद्गलास्तद्वक्तव्यतामभिधातुमाह
तए णं से मागंदियपुत्ते अणगारे उहाए उद्देति जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति से०२समणं है। भगवं महा०५० नम०२एवं वयासी-अणगारस्सणं भंते ! भावियप्पणो सर्च कम्मं वेदेमाणस्स सर्व कम्म निज़रेमाणस्स चरिमं मारं मरमाणस्स समारं मरमाणस्स सघं सरीरं विष्पजहमाणस्स चरिमं कम्मं वेदेमाणस्स चरिमं कम्मं निजरेमाणस्स चरिमं सरीरं विष्पजहमाणस्समारणंतियं कम्मं वेदेमाणस्स मारणंतियं कम्मं निजरे माणस्समारं मरमाणस्समारणंतियं सरीरं विप्पजहमाणस्स जे चरिमा निजरापोग्गला मुहमार्ण ते पोग्गला प० समणाउसो! सर्च लोगंपिणं ते उग्गाहिसाणं चिट्टति ?, हंता मागंदियपुत्ता!, अणगारस्सणं भंते ! भावि-18
IRH ||७४०॥ पप्पणो जाव ओगाहित्ताणं चिट्ठति छतमत्थे णं भंते ! मणुस्से तेर्सि निज्जरापोग्गलाणं किंचि आणतं वा णाणतं वा एवं जहा इंदियउसए पढमे जाव वेमाणिया जाव तस्थ णं जे ते उबउत्ता ते जाणंति पासंति
RAKASE
| माकदिक-अनगारस्य लेश्या, कर्म-वेदना,निर्जरा,बन्ध इत्यादि सम्बन्धी प्रश्नोत्तराणि
~389~
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [६१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६१९]
दीप अनुक्रम [७२९]
आहारैति, से तेणढणं निक्खेवो भाणियहोत्ति न पासंति आहारंति, नेरइया णं भं० निजरापुग्गला न जाणंति न पासंति आहारंति, एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण, मणुस्सा णं भंते ! निजरापोग्गले कि | जाणंति पासंति आहारंति उदाहुन जाणंति न पासंति नाहारंति !, गोयमा ! अत्धेगझ्या जाणंति ३
अस्थेग न जाणंति न पासंति आहारंति, से केणद्वेणं भंते ! एवं वुचाइ अत्थेगइया जाणं. पासं० आहा ॥ अत्धेगन जाणं न पासं० आहारं०१, गोयमा! मणुस्सा दुविदा पन्नत्ता, तंजहा-सनीभूया य असनीभूया य, तस्थ णं जे ते असन्निभूया ते न जाणंति न पासंति आहारंति, तत्थ णं जे ते सन्नीभूया ते दुपिहा पं०, सं०-उघउसा अणुवउत्ता य, तस्थ णं जे ते अणुवउत्ता ते न याति न पासंति आहारंति, तस्थ णं जे ते उयDI उत्साते जाणंति ३, से तेणद्वेणं गोयमा! एवं चुच्चइ अत्थेगइया न जाणंति २ आहारति अत्धेगइया जाणंति|| 51 18||३, वाणमंतरजोइसिया जहा नेराया। पेमाणियाणं भंते ते निजरापोग्गले किं जाणंति ६१, गोयमा । जहा
मणुस्सा नवरं येमाणिया दुधिहा पं०, तं०-माइमिच्छदिट्ठीउवचन्नगा य अमाइसम्मदिहीववनगा य, तत्थ णं जे ते मापिमिच्छदिहिउववनगा ते णं न जान पा० आहातत्व णजे ते अमाथिसम्मदिट्ठीउवव० ते दुविहा पं०२०-अणंतरोवपन्नगा य परंपरोववनगा य, तत्थ णं जे ते अणंतरोववनगा ते णं न याति न पासंति आहारेंति, तत्थ णं जे ते परंपरोववन्नगा ते दुविहा पं०,०-पजत्तगाप अपजसगा य, तत्थणं जे ते !
+
| माकदिक-अनगारस्य लेश्या, कर्म-वेदना,निर्जरा,बन्ध इत्यादि सम्बन्धी प्रश्नोत्तराणि
~390
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [६१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६१९]
दीप
व्याख्या- अपजसमा तेणं न जाणंति २ आहारंति, तस्थ णं जे ते पळसगाते विहा पं०, तं०-उचडत्ता कभवता १८ शतके प्रशमिः यि , सस्थ णं जे से अणुवउत्सा तेज याणंति २ आहारंति॥ (सन १९९).
उद्देश: मा या वृत्ति
| निर्जरादि'अणगारस्से त्यादि, भाक्तिारमा ज्ञानादिभिर्वासितास्मा, केवली चेह संमाया, तस्स सर्व कर्म-कोपमाहिन्यरूप
पुगलानां मायुषो भेवेनाभिधास्थमानत्वात् 'वेदयतः' अनुभक्तः प्रदेशविफकानुभवाम्यां अत एव सर्व कर्म भवोपमाहिलपमेव ज्ञानादि ७४ 'मिर्जरयत' आरमप्रदेशेभ्यः शातयतः तथा 'सर्व' सर्वायुःपुद्गलापेक्षे 'मारं मरणं अन्तिममित्यर्थः 'मिफमाणस्य
सू६१९ गच्छतः सथा 'सबै समस्तं 'शरीरम् औदारिकादि विप्रजहतः, एतदेव विशेषिततरमाह-'चस्म कम्म'मित्यादि, जा'चरमं कर्म' आयुषश्चरमसमयवेद्यं वेदयत एवं निर्जरयतः तथा 'चस्म' चरमायुःपुद्धलक्षयाक्षं 'मारं मरणं 'बियमाट्राणस्य' गच्छता, तथा चरम शरीरं यच्चरमावस्थायामस्ति तत्त्यजतः, एतदेव स्फुटतरमाह-मारणतिय कर्म इत्यादि,
मरणस्य-सर्वायुष्काक्षयलक्षणस्यान्ता-समीपं मरणान्तः-आयुष्काचरमसमयस्तत्र भवं मारणान्सिक 'कर्म' भवोपमाहित्यरूपं वेदयतः पर्व निर्जरयतः तथा 'मारणान्तिक मारणान्तिकायुर्दलिकापेक्षं 'मारं' मरणं कुर्वत, एवं शरीरं त्यजतः, येस 'चरमा' सर्षान्तिमा: 'निर्जरापुतला।' निजीणकर्मदलिकानि सूक्ष्मास्ते पुनलाः प्रज्ञप्ता भगवनिःहे अभणायुष्मन् । हति भावत आमन्त्रण, सर्वलोकमपि तेऽवगाह्य-तत्स्वभावत्वेनाभिव्याप्य तिष्ठन्तीतिप्रश्ना,अनोत्तर-'हंता मागंदियपुरोलाकि
'मत्थे कति फेवली हि जानात्येव तानितिन तहतं किश्चित्प्रष्टव्यमस्तीतिकृत्वा 'समत्थे युक्त, खोल मिरतिदायों प्राहाण, 'आणति अन्यत्वम्-अनगारखसम्बन्धिनो के प्रालाले भेदक 'णाणसं कंत्ति वर्णविकत नाना
अनुक्रम [७२९]
FaPranaamaan unsony
| माकदिक-अनगारस्य लेश्या, कर्म-वेदना,निर्जरा,बन्ध इत्यादि सम्बन्धी प्रश्नोत्तराणि
~391
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [६१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६१९]
दीप अनुक्रम [७२९]
दावा 'एवं जहा इंदियउसए पामेति एवं यथा प्रज्ञापनाया पवनपदस्य प्रथमोदेशक तथा शेष वाच्यम्, अर्धामातिदेशश्चायं तेन वह 'गोयमेति पदं तत्र 'मार्गक्यिपुत्तेत्ति इष्टव्य, तस्यैक प्रच्छकत्यात, तच्चेक्म-ओमत्तं वा तुमा ४वा गरुयस वा लहुयन्तं पा जाणति पासति ?, गोयमानो इणहे समठे, से केणडेणं भंते ! एवं वुच्चइ छम्मस्थे णं ममूसे |
तेसिं निजरापुग्गलाणं णो किंचि आणतं वा जाणति पासति ?, गोंयमा ! देवेऽपि य णं अस्थगइए जे णं तेसिं निजरापोग्गलाणं [नो] किंचि आणत्तं वा ६ न जाणइ न पासइ, से तेणठेणं गोयमा एवं बुच्चइ छउमत्थे णं मणूसे तेसिं निजरापुग्गलाणं नो] किंचि आणतं वा ६ न जाणइ न पासइ, सुहुमा ण ते पुग्गला पन्नत्ता समणाउसो ! सबलोगपि य ण ते |
ओगाहित्ताणं चिट्ठति एतच्च व्यक्तं, नवरम् 'ओमत्तंति अवमत्वम्-जनता 'तुच्छत्तं ति तुच्छत्वं-निस्सारता, निर्वचन|सूत्रे तु 'देवेऽषिय णं अत्यगइए'त्ति मनुष्येभ्यः प्रायेण देक पटुप्रज्ञो भवतीति देवग्रहणं, ततश्च देवोऽपि पारत्येकका कश्चिद्विशिष्टावधिज्ञानविकलो यस्तेषां निर्जरापुद्गलानां न किञ्चिदन्यत्वादि जानाति किं पुनर्मनुष्यः, पकग्रहणाच विशि
टाषधिज्ञानकुत्तो देवो जानातीत्यवसीयते इति, 'जाव वेमाणिए'त्ति अनेनेन्द्रियपदप्रथमोदेशकाभिहित एव भाग* व्याख्यातसूत्रानन्तरवर्ती चतुर्षिशतिदण्डकः सूचितः, सच कियकूर वाच्यः' इत्याह-जाव तत्थ णं जे ते स्वपत्ता || इत्यादि, एवं चासो दण्डका-'नेरइया णं भंते । निजरापुग्गले किं जाणंति पासंति आहारिति उदाहु न जाणंति' शेष | |
तु लिखितमेवास्त इति, गतार्थ चैतत् नवरमाहारयन्तीत्यत्र सर्वत्र ओजआहारो गृह्यते, तस्य शरीरविशेषग्राह्यत्वात् तस्य चाहारकत्वे सर्वत्रभाषात्, लोमाहारप्रक्षेपाहारयोस्तु त्वम्मुखयोर्भाव एव भावात् , यदाह-"सरीरेणोयाहारो तयाय फासेण
SASUSMSMSACROSAX
| माकदिक-अनगारस्य लेश्या, कर्म-वेदना,निर्जरा,बन्ध इत्यादि सम्बन्धी प्रश्नोत्तराणि
~392
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [६१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६१९]
दीप
व्याख्या-1|| लोमाहारो। पक्खेवाहारो पुण कावलिओ होइ नायबो ॥१॥"[कार्मणेनौजआहारः त्वचा स्पर्शेन च लोमाहारः ।
पामाहारा १८ शतके मज्ञप्तिः मक्षेपाहारः पुनः कावलिको भवति ज्ञातव्यः ॥१॥] मनुष्यसूत्रे तु सज्ञिभूता विशिष्टावधिज्ञान्यादयो गृह्यन्ते, उद्देशः ३ अभयदेवी- येषां ते निर्जरापुद्गला ज्ञानविषयाः । वैमानिकसूत्रे तु वैमानिका अमायिसम्यग्दृष्टय उपयुक्तास्तान जानन्ति ये विशिष्टाव- द्रव्यभावया वृत्तिः धयो, मायिमिथ्यादृष्टयस्तु न जानन्ति मिथ्यादृष्टित्वादेवेति ॥ अनन्तरं निर्जरापुद्गलाश्चिन्तितास्ते च बन्धे सति भवन्तीति
बन्धी
सू६२० ॥७४२ बन्धं निरूपयन्नाह
कतिविहे णं भन्ते ! बंधे प०१,मागंदियपुत्ता! दुविहे प००-दवपंधेय भावबंधे य, ववधेणं भंते ! कतिविहे [प०१, मागंदियपुत्ता ! दुविहे प० सं०-पओगबंधे य वीससाबंधे य, वीससावंधे णं भंते ! कतिविहे पं०१ IM मागवियपुत्ता ! दुविहे प०, तं०-साइयचीससावंधे य अणादीयवीससायंधे य, पयोगबंधे णं भंते । कलिविहे |पं०, मार्ग पुत्ता! दुविहे पं०, सं०-सिदिलबंधणवन्धे य धणियपंधणयन्धे य, भाषषधे णं भंते । कतिविक पं०१, मागंदियपुत्ता ! दुविहे पं०० मूलपगहिषधे य उत्तरपगडिबंधे थ, नेरइयाणं भंते ! कतिविहे भाव-18 |बंधे प०१, मागंदियपुत्ता ! दुविहे भावर्षधे पं००-मूलपगडियधे य उत्तरपगडिबंघे य, एवं जाव वेमाणियाणं, नाणावरणिजस्स णं भंते । कम्मस्स कतिविहे भावबंधे प०१, मागंदिया! दुविहे भावबंधे प० तं0- ॥७४२॥ मूलपगडिपंधे य उत्तरपयटिबंधे य, नेरतियाणं भंते नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कतिविहे भावबंधे०प०१,
अनुक्रम [७२९]
| माकदिक-अनगारस्य लेश्या, कर्म-वेदना,निर्जरा,बन्ध इत्यादि सम्बन्धी प्रश्नोत्तराणि
~393
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग -1, अंतर-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [६२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६२०]
दीप
मागवियपुत्ता ! दुविहे भावबंधे प० त०-मूलपगडिबंधे य उत्तरपयडि० एवं जाप वेमाणियाणं, जद्दा नाणा|चरणिज्जेणं दंडओ भणिओ एवं जाव अंतराइएणं भाणियचो ॥ (सूत्रं ६२०)॥
'कइविहे 'मित्यादि, 'दवबंधे यत्ति द्रव्यबन्ध आगमादिभेदादनेकविधः केवलमिहोभयध्यतिरिक्तो ग्राह्यः, स च | द्रव्येण-स्नेहरज्ज्वादिना द्रव्यस्य वा परस्परेण बन्धो द्रव्यवन्धः, 'भावबंधे य'त्ति भाववन्ध आगमादिभेदाद् द्वेधा, स3 चेह नोआगमतो ग्राह्यः, तत्र भावेन-मिथ्यात्वादिना भावस्य वा-उपयोगभावाव्यतिरेकात् जीवस्य बन्धो भावबन्धः, पओयबंधे यति जीवप्रयोगेण द्रव्याणां बन्धनं 'वीससाबंधेत्ति स्वभावतः 'साईवीससाबंधे'त्ति अभ्रादीनाम् 'अणा॥ ईयवीससाबंधे यत्ति धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायादीनां सिढिलबंधणबन्धे यत्ति तृणपूलिकादीनां धणियवंधणबन्धे यत्ति रथचक्रादीनामिति ॥ कर्माधिकारादिदमाह
जीवाणं भंते ! पावे कम्मे जे य कडे जाव जेय कबिस्सइ अत्थि याइ तस्स केहणाणते ?, हंता अस्थि, से केणट्टेणं भंते । एवं बुखद जीवाणं पावे कम्मे जे य कडे जाव जे य कजिस्सति अस्थि याइ तस्स णाणते? मागंदियपुत्ता ! से जहानामए-केइ पुरिसे धM परामुसह धणुं २ उमुं परामुसइ उ०२ ठाणं ठा०२ आयय
कन्नाययं उसुं करेंति आ०२ उखु बेहासं उबिहइ से नूर्ण मागंदियपुत्ता! तस्स उसुस्स उहूं बेहासं उद्यीढस्स * समाणस्स एयतिवि पणाणतं जाव तं तं भावं परिणमतिवि णाणत्तं ?, हंता भगवं! एयतिविणाणत्तं जाव
अनुक्रम [७३०]
CALCACANCLASS
| माकंदिक-अनगारस्य लेश्या, कर्म-वेदना,निर्जरा,बन्ध इत्यादि सम्बन्धी प्रश्नोत्तराणि
~394
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक -1, उद्देशक [३], मूलं [६२१,६२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६२१-६२२]
१७४३॥
दीप अनुक्रम [७३१-७३२]
व्याख्या- परिणमतिविणाणतं से तेणद्वेणं मागंदियपुत्ता एवं कुबर जावतं तं भावं परिणमतिविणाणसं, मेरइयाणं१८ शासक प्राप्तिःपाये कम्मे जे या कडे एवं चेव नवरं जाव वेमाणियाणं ॥ (सूत्रं १२१)॥
१४ देशा अभयदेषी- 'जीवाण'मित्यादि, एकवि नाणतंति 'एजते' कम्पते यदसाविषुस्तदपि 'नानात्वं भेदोऽमेजमावस्थापेक्षया, याव-टू कमनानापाताल करणात् 'घेयइविणाणसं इत्यादि द्रष्टव्यम् , अयमभिप्राय:-यथा बाणस्योपूर्व क्षिप्तस्यैजनाविक नानात्वमस्ति एवं
त्वं सू१२१
वसू कर्मणः कृतत्वक्रियमाणत्वकरिष्यमाणत्वरूपं तीव्रमन्दपरिणामभेदात्तदनुरूपकार्यकारित्वरूपं च नानात्वमवसेयमिति ।।
आहारग्रह
" निजरे अनन्तरं कर्म निरूपितं, तच्च पुद्गलरूपमिति पुद्गलानधिकृत्याह- .
मेरायाण मैत । पोग्गले आहारताए गेण्हति तेसिणं भंते ! पोग्गलाण सेयकालंसि कतिभागं आहारति कतिभागं बिजरैति , मार्गदियपुत्ता ! असंखेजहभागं आहारैति अर्णतमार्ग निजरेंक्ति, चकिया 3
भते । केह तेसु निजरापोगलेसु आसइसए वा जाप तुहितए वा ? णो तिर्ण सम अणीहरणमेयं दुइय मसर्मणापस एवं आवेमाणियाणास मंते ! सर्व भंतेति ॥ सूपर)।१०४॥
'मेरहए त्याधि, सचकासिन्ति एण्यत्ति काले ग्रहणानन्तरमित्यर्थः 'असंखेइमाण आहारितिति गृहीता-IA लानामसङ्गोयभागमाहारीकुर्वन्ति गृहीतानामेवानन्तभागं 'निर्जरयन्ति मूत्रादिवत्त्यजन्ति, 'चक्रियाक्ति शकुयात अणा- ७४॥ हरणमेयं बुझ्य'ति आभियतेऽनेनेत्याधरणं-आधारस्तन्निषेधोऽनाधरण-आधर्तुमक्षम एतग्निर्जरापुद्गलजातमुक्तं जिनरिति । अष्ठावशश तृतीयः ॥ १८-३॥
अत्र अष्टादशमे शतके तृतीय-उद्देशक: परिसमाप्त:
माकंदिक-अनगारस्य लेश्या, कर्म-वेदना,निर्जरा,बन्ध इत्यादि सम्बन्धी प्रश्नोत्तराणि
~395
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [६२३-६२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६२३-६२५]
दीप अनुक्रम [७३३-७३५]
तृतीयोदेशकस्थान्ते निर्जरापुनलानामासितुमित्यादिभिः पदैरर्थतः परिभोगो विचारितश्चतुर्थे तु माणातिपातादीना-11 मसी विचार्य्यत इत्येवंसम्बन्धस्थास्येदमादिसूत्रम्
तेणं कालेग २ रायगिहे जाच भगवं गोयमे एवं क्यासी-अह भंते ! पाणाश्वाए मुसाचाए जाच मिच्छा दसणसल्ले पाणाइवायवेरमणे मुसाचाए जाच मिच्छादसणसल्लरमणे पुढविक्काइए जांच वणस्सइकाइए धम्म त्थिकाए अधम्मत्विकाए आगासस्थिकाए जीवे असरीरपडिबद्धे परमाणुपोग्गले सेलेर्सि पडियनए अणगारे सबे य पायरवोंविधरा कलेक्श एए णं दुविहा जीवदया य अजीवदवा य जीवाणं भंते! परिभोगत्साए हबमा गच्छंति ?, गोयमा ! पाणाइवाए जाच एए णं दुविहा जीवववा य अजीचक्या' य अत्धेगतिया जीवाणं परिभोगत्ताए हवमागच्छति अत्यगतिया जीवाणं जाव नोहवामागच्छति, से केणटेण भंते ! एवं बुचर पाणाई|वाए जाव नो हबमागच्छंति , गोयमा ! पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले पुढविकाइए जाव वणस्सहकाइए सबे य बायरवोदिधरा कलेवरा एए णं दुविहा जीवदवा य अजीचदखा य, जीवाणं परिभोगत्ताए हबमागच्छंति, पाणाइवायचेरमणे जाव मिच्छादसणसल्लचिवेगे धम्मत्थिकाए अधम्मत्यिकाए जा चपरमाणुपोग्गले सेलेसी परिवजए अणगारे एए णं दुविहा जीवदया य अजीवदवा य जीवाणं परिभोगसाए नो हवमागच्छन्ति से तेणढणं जाच नो हबमागच्छति ।। (सूत्र ६२३)॥ कति णं भंते! कसाया पन्नत्ता ?, गोयमा चित्तारि कसाया प०,०-कसायपदं निरवसेस भाणिय जाव निजरिस्संति लोभेणं ॥ कति णं भंते ! जुम्मा
MEXCSC%
अथ अष्टादशमे शतके चर्थ-उद्देशक: आरभ्यते
~396
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [६२३-६२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६२३-६२५]
दीप अनुक्रम [७३३-७३५]
व्याख्या- पन्नत्ता ?, गोयमा! चत्तारि जुम्मा पन्नत्ता-कडजुम्मे तेयोगे दावरजुम्मे कलिओगे, से केणद्वेणं भंते ! एवं १८ शतके
प्रज्ञप्तिः बुच्चइ जाव कलियोए ?, गोयमा ! जे णं रासीचउकएणं अवहारेणं अचहीरमाणे चउपज्जवसिए सेतं कड- | उद्देशः ३ अभयदेवी- जुम्मे, जेणं रासी पक्कएणं अवहारेणं अवहीरमाणे तिपजवसिए सेतं तेयोए,जेणंरासी चउक्कएणं अवहाया वृत्तिः२||
तादीनामुप रेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए सेत्तं दावर जुम्मे, जेणं रासी चउकएणं अवहारेणं अवहीरमाणे एगपज्जवसिए सेतं
भोगेतरौ कृ ॥७४४॥ कलिओगे, से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ जाव कलिओए । नेरइयाणं भंते ! किं कडजुम्मा तेयोगा दावर
तादियुग्माः जुम्मा कलियोगा ४१, गोयमा ! जहन्नपदे कडजुम्मा उक्कोसपदे तेयोगा अजहनुकोसपदे सिय कडजुम्मा १ |सू ६२३
जाव सिय कलियोगा ४, एवं जाव थणियकुमारा । वणस्सइकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नपदे अपदा ६२४ साउकोसपदे य अपदा अजहनुकोसिपपदे सिय कडजुम्मा जाब सिय कलियोगा । बेईदिया णं पुच्छा, गोयमा
जहन्नपदे करजुम्मा उक्कोसपदे दावरजुम्मा, अजहन्नमणुकोसपदे सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा, एवं जाव चतुरिंदिया, सेसा एगिदिया जहा बेंदिया, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जाव वेमाणिया जहानेरइया, सिद्धा जहा वणस्सइकाइया । इत्थीओणं भंते । किं कडजुम्मा ? पुच्छा, गोपमा ! जहन्नपदे कडजुम्माओ उकोस-18 पदे सिय कडजुम्माओअजहन्नमणुकोसपदे सिय कडजुम्माओ जाव सिय कलियोगाओ, एवं असुरकुमारिस्थी
॥७४४॥ ओवि जाव धणियकुमारइत्थीओ, एवं तिरिक्खजोणियइत्थीओ एवं मणुसित्धीओ एवं जाव वाणमंतरजोइसियवेमाणियदेवित्थीओ॥ (सूत्र ६२४)जावतियाणं भंतेवरा अंधगवण्हिणोजीवा तावतिया परा अंधगव
~397
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [६२३-६२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६२३-६२५]
दीप अनुक्रम [७३३-७३५]
|ण्हिणो जीवा ?, हंता गोयमा ! जावतिया वरा अंधगवधिहणो जीया तावतिया परा अंधगवहिणो जीवा।
से भंते २ सि॥ (सूत्र १२५)॥१८-४॥ द लेण'मित्यादि, 'जीवे असरीरपडिबद्धे'लि त्यक्तसर्वशरीरो जीवः 'बायरबोंविधरा कलेवर'त्ति स्थूलाकारधराणि
न सूक्ष्माणि कडेवराणि-निश्चेतना देहाः अथवा 'यादरयोन्दिधरा'बादराकारधारिणः कडेवराव्यतिरेकात् कडेवराद्वीन्द्रियादयो जीवाः, 'एए 'मित्यादि, एतानि प्राणातिपातादीनि सामान्यतो द्विविधानि न प्रत्येकं, तत्र पृथिवीकायादयो जीवद्रव्याणि, माणातिपातादयस्तु न जीवद्रव्याण्यपि तु तद्धा इति न जीवद्रव्याण्यजीवद्रयाणि धर्मास्तिका-1 यादयस्तु अजीवरूपाणि द्रव्याणीतिकृत्वाऽजीवद्रव्याणीति जीवानां परिभोग्यत्वायागच्छन्ति, जीवैः परिभुज्यन्त इत्यर्थः, तत्र प्राणातिपातादीन् यदा करोति तदा तान् सेवते प्रवृत्तिरूपत्वात्तेषामित्येवं तत्परिभोगः अथवा चारित्रमोहनीयकर्मद-* लिकभोगहेतुत्वात्तेषां चारित्रमोहाणुभोगः प्राणातिपातादिपरिभोग उच्यते, पृथिव्यादीनां तु परिभोगो गमनशोचनादिभिः । प्रतीत एव, प्राणातिपातविरमणादीनां तु न परिभोगोऽस्ति वधादिविरतिरूपत्वेन जीवस्वरूपत्वात्तेषां, धर्मास्तिकायादीनां तु चतुर्णाममूर्तत्वेन परमाणोः सूक्ष्मत्वेन शैलेशीप्रतिपन्नानगारस्य च प्रेषणाद्यविषयत्वेनानुपयोगित्वान्न परिभोग इति ॥ | परिभोगच भावतः कषायवतामेव भवतीति कषायान् प्रज्ञापयितुमाह-'कइ ण'मित्यादि, 'कसायपदंति प्रज्ञापनायां चतुर्दर्श, तवं-कोहकसाए माणकसाए मायाकसाए लोभकसाए' इत्यादि 'निजरिस्संति लोभेणं'ति अस्यैवं सम्बन्धःबमाणिया जे भंते काहिं बाहिं अट्ठ कम्मपयडीओ निजरिस्मंति, गोयमा चाहिं ठाणेहि, तंजहा-कोहेणं जाव
~398~
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [६२३-६२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६२३
-६२५]
लोभेणे'ति, इह नारकादीनामष्टापि कर्माण्युदये वर्तन्ते, उदयवर्तिनां च तेषामवश्यं निर्जरणमस्ति, कषायोदयवर्तिनश्च ते व्याख्या
|१८ शतके प्रज्ञप्तिः ततश्च कषायोदये कर्मनिर्जराया भायात् क्रोधादिभिर्वैमानिकानामष्ट कर्मप्रकृतिनिर्जरणमुच्यते इति॥अनन्तरं कषाया निरूअभयदेवी-४ पिताः, ते च चतुःसङ्ख्यत्वात्कृतयुग्मलक्षणसमाविशेषवाच्या इत्यतो युग्मस्वरूपप्रतिपादनायाह-'करण'मित्यादि, 'चत्तारि । पाणातिपाया वृत्तिः२ जुम्म'त्ति इह गणितपरिभाषया समो राशियुग्ममुच्यते विषमस्त्वोज इति, तत्र च यद्यपीह द्वी राशी युग्मशब्दवाच्यौ | तादीनामुप
भोगेतरौ कृ ७४५॥ द्वौ चौजःशब्दषाच्या भवतस्तथाऽपीह युग्मशब्देन राशयो विवक्षिताः अतश्चत्वारि युग्मानि राशय इत्यर्थः, तत्र 'कड
तादियुग्माः जुम्मे त्ति कृतं-सिद्ध पूर्ण ततः परस्य राशिसभ्ज्ञान्तरस्याभावेन न त्वोजःप्रभृतिवदपूर्ण यद् युग्म-समराशिविशेषस्तत्कृ-2
सू ६२३तयुग्म, 'तेओए'त्ति त्रिभिरादित एव कृतयुग्माद्वोपरिवर्तिभिरोजो-विषमराशिविशेषरुयोजः, 'दावरजुम्मे'त्ति द्वाभ्या
६२४ मादित एव कृतयुग्माद्वोपरिवर्तिभ्यां यदपरं युग्मं कृतयुग्मादन्यत्तन्निपातनविधेर्दापरयुग्म, 'कलिओए'त्ति कलिना-एकेन ।
आदित एव कृतयुग्मावोपरिपसिना ओजो-विषमराशिविशेषः कल्योज इति । 'जे णं रासी'त्यादि, यो राशिश्चतुष्केना-15 । पहारेणापहियमाणश्चतुष्पर्यवसितो भवति स कृतयुग्ममित्यभिधीयते, यत्रापि राशी चतूरूपत्वेन चतुष्कापहारो नास्ति ।
सोऽपि चतुष्पर्यवसितत्वसद्भावास्कृतयुग्ममेव, एवमुत्तरपदेष्वपि ॥ अनन्तरं कृतयुग्मादिराशयः प्ररूपिताः, अथ तैरेव | नारकादीन् प्ररूपयन्नाह-'नेरइया णमित्यादि 'जहन्नपदे कडजुम्मति अत्यन्तस्तोकत्वेन 'कृतयुग्माः कृतयुग्मसजिताः 'उक्कोसपए'त्ति सर्वोत्कृष्टतायां व्योजःसन्जिताः मध्यमपदे चतुर्विधा अपि, एतच्चैवमाज्ञामामाण्यादवगन्तव्यम् ।। ७४५॥ 'वणस्सइकाइयाण'मित्यादि, वनस्पतिकायिका जघन्यपदे उत्कृष्टपदे चापदाः, जघन्यपदस्योत्कृष्टपदस्य च तेषामभावात्,
CADAKADCAST
दीप अनुक्रम [७३३-७३५]
~399
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [६२३-६२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
%
प्रत सूत्रांक [६२३-६२५]
| तथाहि-जघन्यपदमुत्कृष्टपदं च तदुच्यते यन्नियतरूपं तच्च यथा नारकादीनां कालान्तरेणापि लभ्यते न तथा वनस्पतीना, IMP || तेषां परम्परया सिद्धिगमनेन तद्राशेरनन्तत्वापरित्यागेऽप्यनियतरूपत्वादिति, 'सिद्धा जहा वणस्सइकाइय'त्ति जघन्य-18/ पदे उत्कृष्टपदे चापदाः, अजघन्योत्कृष्टपदे च स्यात् कृतयुग्मादय इत्यर्थः, तत्र जघन्योत्कृष्टपदापेक्षयाऽपदत्वं वर्द्धमानतया । तेषामनियतपरिमाणत्वाद्भावनीयमिति ॥ जीवपरिमाणाधिकारादिदमाह-'जावइए'त्यादि, यावन्तः 'चरत्ति अर्वागभा. गवर्तिनः आयुष्कापेक्षयाऽल्पायुष्का इत्यर्थः अंधगवहिणोत्ति अंहिपा-वृक्षास्तेषां बयस्तदाश्रयत्वेनेत्यहिपवह्नयो बादरतेकायिका इत्यर्थः, अन्ये वाहुः-अन्धकाः-अप्रकाशकाः सूक्ष्मनामकर्मोदयाद्ये वह्नयस्तेऽधकवलयो जीवाः 'तावइयत्ति तत्परिमाणाः 'पर'त्ति पराः प्रकृष्टाः स्थितितो दीर्घायुष इत्यर्थ इति प्रश्नः, 'हते त्याद्युत्तरमिति ।। अष्टादशशते चतुर्थः ॥ १८-४॥
दीप अनुक्रम [७३३-७३५]
RAKA5*32
चतुर्थोद्देशकान्ते तेजस्कायिकवकव्यतोक्ता तेच भास्वरजीवा इति पञ्चमे भास्वरजीवविशेषवक्तव्यतोच्यते इत्येवं. सम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्दोभंते ! असुरकुमारा एगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमारदेवत्ताए उववन्ना तत्थ णं एगे असुरकुमारे देवे पासादीए दरिसणिजे अभिरुवे पडिरूवे एगे असुरकुमारे देवे से णं नो पासादीए नो दरिसणिज्जे नो अभिरुवे नोपडिरूवे से कहमेयं भंते ! एवं?,गोयमा असुरकुमारा देवा दुविहा प०, तं०-वेउवियसरीरा य अवेउवि
अत्र अष्टादशमे शतके चर्थ-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ अष्टादशमे शतके पंचम-उद्देशक: आरभ्यते
~400
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग -1, अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६२६]
यसरीराय, तत्थ पंजे से वेवियसरीरे असुरकुमारे देवे से गं पासादीए जाय पडिरूवे. तस्थ गंजे से १८ शतके प्रज्ञप्तिः अवेउवियसरीरे अमुरकुमारे देवे से ण नो पासादीए जाव नो पडिरूवे, से केण्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ तत्थ उद्देशः ५ अभयदेवी- जे से वेउब्वियसरीरे तं चेक जावपडिरूवे ?, गोयमा! से जहानामए-इहं मणुयलोगंसि दुवे पुरिसा भवंति-1 असुरादिप्रा यावृत्तिा पमे पुरिसे अलंबिपविभूसिए एगे पुरिसे अणलंकियविभूसिए, एएसि णं गोयमा ! दोहं पुरिसाणं कयरे सादीयतेर
|| पुरिसे पासादीए जाव पकिसके कयरे पुरिसे नो पासादीए जाव नो पडिरूवे जे वा से परिसे अलंकिप- तसू५२६ ॥७४६॥
|विभूसिए जे वा से पुरिसे अणलंकियविभूसिए, भगवं ! तत्थ जे से पुरिसे अलंकियविभूसिए से णं पुरिसे || |पासादीप जाव पहिरूबे, तस्थ णं जे से पुरिसे अणलंकियविभूसिए से गं पुरिसे नो पासादीए जाव नो पडिरूवे से तेणद्वेणं जाब नो पडिरूवे । दो भंते ! नागकुमारादेवा एगंसि नागकुमारावासंसि एवं चेव एवं जायजयकुमारा वाणमंतरजोतिसिया वेमाणिया एवं चेव ॥ (सूत्रं ६२६)॥
'दो भंते इत्यादि 'वेउवियसरीरक्ति विभूषितशरीराः॥ अनन्तरमसुरकुमारादीनां विशेष उक्तः, अथ विशेषाधिकारादिदमाह|| दो भंते नेरसिया एसि रतियावामंसि नेरलियसाए उववक्षा, तत्व णं एगे नेरहए महाकम्भतराएर | चेव जाव महादेयणतराए बेब एगे रहए अप्पकम्मतराए चेय जाव अप्पवेषणतराए चेव से कहमेयं ॥७४६॥ भंते । एवं, गोयमा बेरहया दुबिहा प००-मापिमिळाविछिउववसाय अमाविसम्मदिविउवयनमा
दीप अनुक्रम [७३६]
~401
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६२७]
प. तत्थ णं जे से मायिमिछादिहिउववन्मए नेरइए से महाकम्मतराए चेव जाच महावेयणतराए चेव, सातत्यजेसे अमायिसम्मदिहिउववन्नए नेरइए से णं अप्पकम्मतराए चेव जाव अप्पवेयणतराए व.।
कोभले असुरकुमारा चेक एवं एबिदिवमिलिरिषवळ जाव वेगाणिया (सूत्र १२७)॥ || बोलेनेहए' त्यादि, 'महाकम्मतराए कत्तिइह यावत्करणात् 'महाकिरियतराए के महासवतराए 'त्ति
दृश्य, व्याख्या पास्य प्राग्वत् । 'गिदियकिमलिदियबजति इहैकेन्द्रियादिवर्जनमेतेषां मायिमिथ्यादृष्टित्वेनामाशायिसम्यग्दृष्टिविशेषणस्यायुज्यमानत्यादिति ॥ प्राग् नारकादिवतव्यतोक्का ते चायुष्कमतिसंवेदनावन्त इति तेषां तां| ४ निरूपयन्नाह
| नेहए ण भंते ! अणंतरं अवहिता जे. भविए पंचिंदियतिरिक्वजोणिएसु उचव जित्तए से भंते ! कयर *आउयं पडिसंवेदेति ?, गोयमा ! नेरइयाजयं पडिसंवेदेति पंचिंदियतिरिक्खजोणियाउए से परओ कडे|| चिट्ठति, एवं मणुस्सेसुवि, नवरं मणुस्साए से पुरओ कडे चिट्ठइ । असुरकुमारा णं भंते ! अणंतरं उच्चट्टित्ता जे भविए पुढविकाइएसु उबवजित्तए पुच्छा, गो! असुरकुमाराउयं पडिसंवेदेति पुढविकाइयाउए से पुरओ
कडे चिट्ठइ, एवं जो जहि भविओ उपजिसए तस्स तं पुरओ कडं चिट्ठति, जत्थ ठिओतं पडिसंवेदेति जाव 1वेमाणिए, नवरं पुढचिकाइए पुढक्किाइएसु उवयजति पुढविकाइयाउयं पडिसंवेएलि अन्ने य से पुढविकाइयाउए
पुरओ को चिट्ठति पर्व वाकमणुरको सट्टाणे उबवापको परवाणे तहेव ॥ (सत्रं ५२८) दो भंते ! असुरकुमार
दीप अनुक्रम [७३७]
RAM
~402
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
२८ शतके
प्रत सूत्रांक [६२९]
व्याख्या-18| एगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमारदेवत्ताए उववन्ना तस्थ णं एगे असुरकुमारे देवे उज्जुयं विउविस्सामीति |3|| प्रज्ञप्तिः उजुयं विउच्वइ वकं विउविस्सामीति वकं विउच्चइ जं जहा इच्छइ तं तहा विउच्वइ एगे असुरकुमारे देवे उद्देशः ५ भयदवा- उजुपं विउविस्सामीति वंक विउचाइ वकं विउविस्सामीति उजुयं विउघड जं जहा इच्छति णो तंतहा वि-नारकयोमया वृत्तिः२५ बइ से कहमेयं भंते ! एवं ?, गोयमा ! असुरकुमारा देवा दुबिहा पं०, तं०-मायिमिच्छदिहिउवचन्नगा य
हाल्पवेदना ।।७४७॥ अमायिसम्मद्दिट्ठीउववनगा य, तत्थ णं जे से मायिमिच्छादिविउववन्नए असुरकुमारे देवे से णं उज्जुयं पुरस्कृतायु
बिउविस्सामीति बंकं विउति जाव णोतं तहा विउच्चइ, तत्थ णं जे से अमायिसम्मदिविउववन्नए असुर-तापी ऋज्वीत|कुमारे देवे से उजुयं विउ जाव तं तहा विउच्चइ । दो भंते ! नागकुमारा एवं चेव एवं जाव थणिय वाणमं० राबक्रिया जोइसि० वेमाणिया एवं चेव ।। सेवं भंते ! २त्ति ।। (सूत्र ६२९)॥१८-५॥
४ सू ६२७
६२९ 'नेरहए ण'मित्यादि, एतच्च व्यक्तमेव ॥ पूर्वमायु-प्रतिसंवेदनोक्ता, अथ तद्विशेषवक्तव्यतामाह-'दो भंते ! असुर-18 | कुमारा इत्यादि, यच्चेह मायिमिश्यादृष्टीनामसुरकुमारादीनामृजुविकुर्वणेच्छायामपि बङ्कविकुर्वर्ण भवति तन्मायामिथ्या-II त्वप्रत्ययकर्मप्रभावात् , अमायिसम्यग्दृष्टीनां तु यथेच्छ विकुर्वणा भवति तदानवोपेतसम्यक्त्वप्रत्ययकम्मेवशादिति
||७४७॥ | अष्टादशशते पञ्चमः ॥ १८-५ ॥
दीप अनुक्रम [७३९]
।
अत्र अष्टादशमे शतके पंचम-उद्देशक: परिसमाप्त:
~4030
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [६३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६३०]
SACRORAKAKADC
पञ्चमोद्देशकेऽसुरादीनां सचेतनानामनेकस्वभावतोक्ता, षष्ठे तु गुडादीनामचेतनानां सचेतनानां च सोच्यते इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्___फाणियगुले णं भंते ! कतिवन्ने कतिगंधे कतिरसे कतिफासे पण्णत्ते !, गोयमा । एत्य णं दो नया भवंति, तं०-निच्छइयनए य वावहारियनए य, वावहारियनयस्स गोड्डे फाणियगुले नेच्छइयनयस्स पंचवन्ने | दुगंधे पंचरसे अट्टफासे प० । भमरे णं भंते ! कतिवन्ने ? पुच्छा, गोयमा ! एस्थ णं दो नया भवंति, तं०निच्छइयनए य वावहारियन ए य, वावहारियनयस्स कालए भमरे नेच्छइयनयस्स पंचवन्ने जाव अट्ठफासे पं०।। सुपपिच्छे णं भंते ! कतिवन्ने एवं चेच, नवरं वावहारियनयस्स नीलए सुपपिरछे नेच्छाइयनयस्स पंचवपणे सेसं ||8 तं चेव, एवं एएणं अभिलावणं लोहिया मंजिट्ठिया पीतिया हालिद्दा सुकिल्लए संखे सुन्भिगंधे कोडे दुन्भि
गंधे मयगसरीरे तित्ते निबे कडुया सुंठी कसाए कविढे अंया अंविलिया महुरे खंडे कक्खडे बहरे मउए नवकाणीए गरुए अए लहुए उलुयपत्ते सीए हिमे उसिणे अगणिकाए णिद्धे तेल्ले, छारिया भंते ! पुच्छा,2 |गोयमा ! एत्य दो नया भवंति, तं०-निच्छइयनए य ववहारियनए य, चवहारियनपस्स लुक्खा छारिया | नेच्छइयनयस्स पंचवन्ना जावे अट्ठकासा पन्नत्ता (सूत्र ६३०)॥ 'फाणिए'त्यादि, 'फाणियगुले 'ति द्रवगुडः 'गोडेत्ति गौल्यं-गौल्यरसोपेतं मधुररसोपेतमितियांवत्, व्यवहारो
दीप अनुक्रम [७४०]
अथ अष्टादशमे शतके षष्ठं-उद्देशकः आरभ्यते
~404
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [६३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६३०]
हि लोकसंव्यवहारपरत्वात् तदेव तत्राभ्युपगच्छति शेषरसवर्णादीस्तु सतोऽप्युपेक्षत इति, 'निच्छदयनयस्स'त्ति नैश्चयि- व्याख्या
१८ शतके प्रज्ञप्तिः ||| कनयस्य मतेन पञ्चवणोदिपरमाणूनां तत्र विद्यमानत्वात् पश्चवर्णादिरिति ॥
| उद्देशः ६ अभयदेवी- परमाणुपोग्गले णं भंते ! कतिबन्ने जाव कतिफासे पन्नत्ते ?, गोयमा ! एगवन्ने एगगंधे एगरसे दुफासे निश्चयेतरा यावृत्तिः
भ्यांगोल्या | पन्नत्ते ॥ दुपएसिए णं भंते ! खंधे कतिबन्ने पुच्छा, गोयमा ! सिय एगवन्ने सिय दुवन्ने सिय एग गंधे सिय दुगंधे सिय एगरसे सिय दुरसे सिय दुफासे सिय तिफासे सिय चउफासे पन्नत्ते, एवं तिपएसिएवि, नवरं
| दिवर्णादि ॥७४८॥
परमाण्वादि सिय एगवने सिय दुचने सिय तिवन्ने, एवं रसेसुवि, सेसं जहा दुपएसियस्स, एवं चउपएसिएवि नवरं सिया
सिव नवर सिय ४ वर्णादिसू एगवने जाय सिय चवन्ने, एवं रसेसुवि सेसं तं चेव, एवं पंचपएसिएवि, नवरं सिय एगवन्ने जाब सिय पंचवन्ने, एवं रसेसुचि गंधफासा तहेब, जहा पंचपएसिओ एवं जाव असंखेजपएसिओ ॥ सुहमपरिणए णं भंते ! अणंतपएसिए खंधे कतिवन्ने जहा पंचपएसिए तहेव निरवसेसं, बादरपरिणए णं भंते । अणंतपएसिए खंधे कतिवन्ने पुच्छा, गोयमा ! सिय एगवन्ने जाव सिय पंचवन्ने सिय एगगंधे सिय दुगंधे सिय एगरसे जाव सिय पंचरसे सिय चउफासे जाव सिय अट्ठफासे प० । सेवं भंते ! २ सि॥(सूत्रं ६३१)॥१८-६॥
'परमाणुपोग्गले णमित्यादि, इह च वर्णगन्धरसेषु पञ्च द्वौ पञ्च च विकल्पाः 'दुफासे सि स्निग्धरूक्षशीतोष्णस्पर्शा- ७४८॥
नामन्यताविरुद्धस्पर्शययुक्त इत्यर्थः, इह च चत्वारो विकल्पाः शीतस्निग्धयोः शीतरूक्षयो उष्णस्निग्धयोः उष्णरुक्षयोश्च PSI सम्बन्धादिति ॥ 'दुपपसिष 'मित्यादि, "शिया पगवति योरपि प्रदेशयोरेकवर्णत्वाद, इह च पच विकल्पाः,
उRAKAS
दीप अनुक्रम [७४०]
weredturary.com
~405
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [६३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
ॐॐ
प्रत सूत्रांक [६३१]
'सिय नुवन्ने ति प्रतिप्रदेश वर्णान्तरभावात् , इह च दश विकल्पाः, एवं गन्धादिष्वपि, 'सिय दुफासे'त्ति प्रदेशस्य४ा स्थापि शीतस्निग्धत्वादिभावात् , इहापि त एव चत्वारो विकल्पाः, 'सिय तिफासे'त्ति इह चत्वारो विकल्पास्तत्र प्रदेचा-112 ॥ यस्यापि शीतभावात् , एकस्य च तन्त्र स्निग्धभावात् द्वितीयस्य च रूक्षभावादेकः, 'एवम्' अनेनैव न्यायेन प्रदेशद्वय-४ || स्योष्णभावाद्वितीयः, तथा प्रदेशद्वयस्यापि स्निग्धभावात् तत्र चैकस्य शीतभावादेकस्य चोष्णभावात्ततीयः, 'एवम्' अने|नैव न्यायेन प्रदेशद्वयस्य रूक्षभावाचतुर्थ इति, 'सिय चउफासे त्ति इह 'देसे सीए देसे जसिणे देसे निढे देसे लुक्खेत्ति |
वक्ष्यमाणवचनादेका, एवं त्रिप्रदेशादिष्वपि स्वयमभ्यूह्यम् ॥'सुहमपरिणए ण'मित्यादि, अनन्तप्रदेशिको चादरपरि-12 लणामोऽपि स्कन्धो भवति व्यणुकादिस्तु सूक्ष्मपरिणाम एवेत्यनन्तप्रदेशिकस्कन्धः सूक्ष्मपरिणामत्वेन विशेषितस्तत्राद्याश्च-18 II त्वारः स्पर्शाः सुक्ष्मेषु बादरेषु चानन्तप्रदेशिकस्कन्धेषु भवन्ति, मृदुकठिनगुरुलघुस्पर्शास्तु बादरेष्वेवेति ॥ अष्टादश४ शते षष्ठः ॥ १८-६॥
C4%9540643
दीप अनुक्रम [७४१]
%965-4-%
___पष्टोद्देशके नयवादिमतमाश्नित्य वस्तु विचारितं, सप्तमे त्वन्ययूथिकमतमाश्रित्य तद्विचार्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्ये. दमादिसूत्रम्
रायगिहे जाव एवं वयासी-अन्नउत्थिया गंभंते ! एचमाइक्खंति जाय परुति-एवं खलु केवली Pजक्खाएसेणं आतिढे समाणे आहच दो भासाओ भासति, तं०-मोसं वा सच्चामोसं वा, से कहमेयं भंते ।
6
अत्र अष्टादशमे शतके षष्ठं-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ अष्टादशमे शतके सप्तम-उद्देशक: आरभ्यते
~406
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [६३२]
व्याख्या
एवं?, गोयमा ! अण्णं ते अन्नउत्थिया जाव जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहिंसु, अहं पुण गोयमा ! १८ शतके प्रज्ञप्तिः एषमाइक्वामि ४-नो खलु केवली जक्खाएसेणं आइस्सति, नो खलु केवली जक्खाएसेणं आतिढे समाणे | उद्देशः७ अभयदेवी-IC आहच दो भासाओ भासति तं०-मोसं वा सचामोसं वा, केवली णं असावजाओ अपरोवघाइयाओ केवलिनोऽया वृत्तिा || आहाय दो भासाओ भासति, त०-सचं वा असचामोसं वा ॥ (सूत्रं ६३२)॥
नाविष्टता 'रायगिहे' इत्यादि, 'जक्खाएसेणं आइस्सईत्ति देवावेशेन 'आविश्यते' अधिष्ठीयत इति, 'नो खलु'इत्यादि.
सू ६३२ ॥७४९॥
कर्मोपध्यानो खलु केवली यक्षावेशेनाविश्यते अनन्तवीर्यत्वात्तस्य, 'अण्णातिट्टे'त्ति अन्याविष्ट:-परवशीकृतः ॥ सत्यादिभाषाद्वयं च
द्या-सू१३३ IN भाषमाणः केवली उपधिपरिग्रहप्रणिधानादिकं विचित्र वस्तु भाषत इति तदर्शनार्थमाह
कतिविहे णं भंते ! उवही पण्णत्ते ?, गोयमा ! तिविहे उवही प०, तं०-कम्मोवही सरीरोवही बाहिरभडमत्तोवगरणोवही, नेरइयाणं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! दुविहे उवही प०२०-कम्मोवही य सरीरोबही य, सेसाणं तिधिहा उवही एगिदियवजाणं जाव चेमाणियाणं, एगिदियाणं दुविहे प० तंजहा-कम्मोवही य. सरीरोवही य, कतिविहे णं भंते ! उवही पं?, गो. निविहे उवही प० तंजहा-सचित्ते अचित्ते मीसए, एवं | नेरइयाणवि, एवं निरवसेसं जाव वेमाणियाणं । कतिविहे भंते ! परिग्गहे प०१, गोयमा ! तिविहे परिग्गहे प०, तं०-कम्मपरिग्गहे सरीरपरिग्गहे बाहिरगभंडमत्तोवगरणपरिग्गहे, नेरइयाणं भंते ! एवं जहा|
७४९॥ उवहिणा दो दंडगा भणिया तहा परिग्गहेणवि दो दंडगा भाणियचा, [ग्रन्थानम् ११०००] कइविहे णं
दीप
अनुक्रम [७४२]
Tanasaram.org
~407
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६३३]
भंते ! पणिहाणे प०?, गोयमा!तिविहे पणिहाणे प०,तं०-मणपणिहाणे वइपणिहाणे कायपणिहाणे, नेरइयाणं 8 भिंते ! कइविहे पणिहाणे प०, एवं चेव एवं जाव थणियकुमाराणं, पुढविकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! एगे
कायपणिहाणे प०, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं, वेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा ! दुविहे पणिहाणे १०-बह-II ४ पणिहाणे य कायपणिहाणे य, एवं जाव चरिदियाणं, सेसाणं तिविहेचि जाव चेमाणियाणं । कतिविहे । भंते ! दुप्पणिहाणे प०१, गोयमा ! तिविहे दुप्पणिहाणे प०, तं०-मणदुप्पणिहाणे जहेव पणिहाणेणं
दंडगो भणिओ तहेव दुप्पणिहाणेणवि भाणियच्यो । कतिविहे णं भंते ! सुप्पणिहाणे प०१, गोयमा ! ||तिविहे सुप्पणिहाणे प०, तंजहा-मणमुप्पणिहाणे वासुप्पणिहाणे कायमुप्पणिहाणे, मणुस्साणं भंते ! | कइविहे सुप्पणिहाणे प.? एवं चेव जाव वेमाणियाणं सेवं भंते २ जाव विहरति ॥ तए णं समणे भगवं, | महावीरे जाच पहिया जणवयविहारं बिहरह ॥ (सूत्रं ६३३)।
'कतिविहे णमित्यादि, तत्र उपधीयते-उपष्टभ्यते येनात्माऽसावुपधिः, 'बाहिरभंडमत्सोवगरणोचही ति बाह्येकर्मशरीरव्यतिरिक्त ये भाण्डमात्रोपकरणे तद्पो य उपधिः स तथा, तत्र भाण्डमात्रा-भाजनरूपः परिच्छद: उपकरण च-वखादीति, 'एगिदियवजाणं ति एकेन्द्रियाणां भाण्डमात्रादि नास्तीति तदर्जितानामन्येषां त्रिविधोऽप्यस्तीति । 'सचित्ते'त्यादि, सच्चित्तादिद्रव्याणि शरीरादीनि, 'एवं नेरइयाणवि'त्ति अनेनेदं सूचित-'नेरइयाणं भंते ! कइविहे | उवही प०१, गोयमा ! तिविहे उवही प०, तंजहा-सचित्ते अचित्ते मीसएत्ति तत्र नारकाणां सचित्त उपधिः-शरीरम्
दीप अनुक्रम [७४३]
--
-
~408
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
कवृत्तं सू ६३४
[६३३]
दीप अनुक्रम [७४३]
व्याख्या- अशिस-उत्पत्तिस्थान मिश्रस्तु-शरीरमेवोच्छ्रासादिपुद्गलयुक्तं तेषां सचेतनाचेतनत्वेन मिश्रत्वस्य विवक्षणादिति। परिग्गहे'सि १८ शतके
प्रज्ञप्तिः परिगृह्यत इति परिग्रहः, अर्थतस्योपधेश्च को भेदः, उच्यते, उपकारक उपधिः ममत्वबुद्ध्या परिगृह्यमाणस्तु परिग्रह इति । उद्देशः ७ अभयदेवी- 'पणिहाणे'त्ति प्रकर्षण नियते आलम्बने धान-धरणं मनःप्रभृतेरिति प्रणिधानम् ॥ एषु च केवलिभाषितेष्वर्थेषु विप्रति- मद्दुकश्रावया वृत्तिः२/ |पद्यमानोऽहमानी मानवो न्यायेन निरसनीय इत्येतत् चरितेन दर्शयन्नाह॥७५०॥ तेणं कालेणं २ रायगिहे नामं नगरे गुणसिलए चेहए वन्नओ जाव पुढविसिलापट्टओ, तस्स णं गुणसि
लस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अन्नजत्थिया परिवसंति, तं०-कालोदायी सेलोदायी एवं जहा सत्तमसए | अन्नउत्थिउद्देसए जाव से कहमेयं मन्ने एवं ?, तत्थ णं रायगिहे नगरे महुए नाम समणोवासए परिवसति ४ अहे जाव अपरिभूए अभिगयजीवा जाव विहरति, तए णं समणे भगवं म० अन्नया कदायि पुवाणुपुर्वि च-5
रमाणे जाव समोसढे परिसा पडिगया जाव पज्जुवासति, तए णं महुए समणोचासए श्मीसे कहाए लढे ।
समाणे हद्वतुट्ठजाव हियए पहाए जाव सरीरे सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमति स. २पादविहारचारेणं ट्र रायगिहं नगरं जाव निग्गच्छति नि०२ तेर्सि अन्नउत्थियाणं अदरसामंतेणं वीपीवयति, तए णं ते अन्नड-Isk
धिया महुयं समणोचासयं अदूरसामंतेणं वीयीवयमाणं पासंति २ अन्नमनं सदावेंति २सा एवं बयासी-||७५०॥ | एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमा कहा अविउप्पकडा इमं च णं महुए समणोवासए अम्हं अदूरसामंतेणं| | वीइवयह तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं महुयं समणोवासयं एयमई पुच्छित्तएसिकटु अन्नमन्नस्स अंतियं
weredturary.com
मद्रुक-श्रावकस्य वृतांत
~409
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६३४-६३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६३४-६३८]
दीप
CRORSESASRICRORSCOCKR
एयमह पडिसुणेति अन्नमन्नस्स २सा जेणेव महुए समणोवासए तेणेव उवा०२महुयं समणोवासयं एवं वदा|सी-एवं खलु महुया! तव धम्मापरिए धम्मोवदेसए समणे णायपुत्से पंच अस्थिकाये पन्नवेइ जहा सत्तमे || || |सए अन्नउस्थिउद्देसए जाव कहमेयं महुया! एवं ?, तए णं से महुए समणोवासए ते अन्नउस्थिए एवं
वयासी-जति कजं कजति जाणामो पासामो अहे कज्ज न कजति न जाणामो न पासामो, तए गं ते अन्नउ-2 का स्थिया महुयं समणोवासयं एवं वयासी-केस णं तुम मया ! समणोषासगाणं भवसि जे णं तुम एपमहूँ || |
न जाणसिन पाससि ?, तए णं से महुए समणोवासए ते अन्नउस्थिए एवं वयासी-अस्थि णं आउसो वाउयाए वाति ,हंता अस्थि, तुज्झे णं आउसो! वाउयायस्स वायमाणस्स रूवं पासह, णो तिणटे समढे, | अस्थि णं आउसो! घाणसहगया पोग्गला ?, हंता अस्थि, तुज्झे णं आउसो! घाणसहगयाणं पोग्गलाणं रूवं पासह, णो तिण२०, अस्थि णं भंते ! आउसो! अरणिसहगये अगणिकाये?, हंता अस्थि, तुज्झे णं आउसो ! अरणिसहगयरस अगणिकायस्स रूवं पासह ?, णो ति०, अस्थि णं आउसो! समुदस्स पारग-|| याई रुवाई, हंता अस्थि, तुझे णं आउसो समुहस्स पारगयाई रुवाई पासह ?, णो ति०, अस्थि गं|४ आउसो! देवलोगगयाई रुवाई?, हंता अस्थि, तुज्झे णं आउसो ! देवलोगगयाई रुवाई पासह ,णो ति०, एवामेव आउसो! अहं वा तुज्झे वा अन्नो वा छउमत्थो जइ जो जन जाणइ न पासइ तं सबं न भवति । एवं ते सुवहुए लोए ण भविस्सतीतिकट्ट ते णं अन्नउत्थिए एवं पडिहणइ एवं प०२ जेणेव गुणसि० चेइए
अनुक्रम [७४४-७४८]
मद्रुक-श्रावकस्य वृतांत
~410~
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६३४-६३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६३४-६३८]
व्याख्या-1
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
36
TRAXXA**
॥७५१॥
मंप्रामः
दीप
जेणेव समणे भ० महातेणेव उवाग०२ समणं भगवं महावीर पंचविहेणं अभिगमेणं जाव पजुवासति।१८ शतके महुयादी! समणे भ. महा. महुयं समणोवासगं एवं वयासी-सुङ णं मधुया ! तुमं ते अन्नउस्थिए एवं वयासी, साहू णं महुया! तुम ते अन्नउ० एवं चयासी, जे णं महुया ! अटुं वा हेउं वा पसिणं वा वागरणं| वा अन्नायं अदिढ अस्सुतं अमयं अचिषणायं बहुजणमझे आघवेति पनवेति जाव उवदंसेति से णं | अरिहंताणं आसायणाए वहति अरिहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स आसायणाए वहति केवलीणं आसायणाए बट्टत्ति || केवलिपससस्स धम्मस्स आसायणाए बट्टति तं सुङ्गुणं तुम महुया! ते अग्नउ० एवं वयासी साटणं तुम
सू६३५ मदुपा | जाव एवं वयासी, तए णं महुए समणोवासए समणेर्ण भग० महा० एवं बु० समाणे हट्ट तुढे समर्ण म. महावीरं पं० न०२णयासन्ने जाव पजुवासइ, तए णं सम० भ०म० महुवस्स समणोवासगस्स तीसे| पजाब परिसा पडिगया, तए णं मा० समणस्स भ०म० जाव निसम्म हडतुह पसिणाई वागरणाई पुच्छति प०२ अट्ठाई परियातिइ २ उठवाए उ१०२समणं भगवं महा०वनमं०२ जाव पडिगए। भंतेत्ति भगवं गोयमे समणे भगवं महानमं०२ एवं वयासी-पभू णं भंते ! महुए समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतियं जाय पश्चइत्सए, णो तिणद्वे समझे, एवं अहेव संखे तहेव अरुणाभे जाव अंतं काहिति ॥ (सूत्रं ६३४) देथे भंते ७५१॥ महहिए जाव महेसक्खे स्वसहस्सं विउवित्ता पम् अन्नमन्नेणं सर्द्धि संगामं संगामित्तए,हंता पभू । साओ गंभंते। बोंदीओ किं एगजीवफुडाओ अणेगजीयफुडाओ?, गोयमा ! एगजीवफुडाओ णो अणेगजी
अनुक्रम [७४४-७४८]
मद्रुक-श्रावकस्य वृतांत
~411
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६३४-६३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६३४-६३८]
जायफडाओ,सिणं भंते ! बोंदीणं अंतरा किं एगजीयफुडा अणेगजीयफुडा, गोषमा। एगजीवफडा मो | अणेगजीवफुडा । पुरिसे णं भंते ! अंतरेणं हत्येण वा एवं जहा अट्ठमसए तइए उद्देसए जाव नो खलु तत्थ || सत्धं कमति (सूत्रं ६३५)॥ अस्थि णं भंते ! देवासुराणं संगामे २?, हंता अस्थि, देवासुरसुणं भंते। संगामेसु बद्दमाणेसु किन्न तेसिं देवाणं पहरणरपणत्ताए परिणमति !, गोयमा ! जन्नं ते देवा तणं वा कई वा पतं वा सहरं वा परामुसति तं तं तेसिं देवाणं पहरणरयणत्ताए परिणमति, जहेव देवाणं तहेव असुरकुमाराणं, णो तिणढे समढे, असुरकुमाराणं देवाणं निचं विउधिया पहरणरयणा प०(सूत्रं १३६)॥ देवेणं भंते ! महहिए जाब मद्देसक्खे पभू लवणसमुदं अणुपरियहित्ताणं हषमागच्छित्तए,हंता पभू, देवे णं भंते ! महिए एवं धायइसंह दीयं जाव हंता पभू, एवं जाव रुयगवरं दीवं जाव हंता पम्, तेणं परं बीतीवरज्या नो चेव णं अणुपरियट्टेवा (सूत्रं ६३७)॥ अस्थि णं भंते ! देवा जे अणंते कम्मसे जहन्नेणं एक्केण या दोहिं8 वा तीहि वा उक्कोसेणं पंचहिं वाससएहि खवयंति ?, हंता अस्थि, अस्थि णं भंते ! देवा जे अणते कम्मसे |जहनेणं एफेण वा दोहिं वा तीहिं वा उकोसेणं पंचहि वाससहस्सेहिं खवयंति ,हंता अस्थि, अस्थि णं भंते! ते देवा जे अणते कम्मसे जहन्नेर्ण एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा उकोसेणं पंचहिं वाससयसहस्सेहिं खवयंति, हता अस्थि, कयरेणं भंते ! ते देवा जे अणंते कम्मसे जहन्नेणं एकेण वा जाब पंचहिं वाससएहिं खवयंति, कयरेणं भंते ! ते देवा जाव पंचहिं वाससहस्सेहिं खवयंति, कपरे गंभंते ! ते देवा जाव पंचहिं बासस
दीप
अनुक्रम [७४४-७४८]
weredturary.com
~412~
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६३४-६३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६३४-६३८]
दीप
यसहस्सेहिं खवयंति ?, गोयमा ! चाणमंतरा देवा अर्णते कम्मंसे एगेणं वाससएणं खवयंति, असुरिंदवजिया १८ शसके प्रज्ञप्तिः भवणवासी देवा अणते कमसे दोहिं वाससएहिं खवयंति, अमुरकुमारा णं देवा अणंते कम्मंसे तीहिं वास- उद्देशः ७ अभयदेवी-II सरहिं खवयंति, गहनक्षत्सतारारूवा जोइसिया देवा अणंते कमसे चाहिं वास जाव खवयंति चंदिम- दवासुररः या वृत्तिा भूरिया जोइसिंदा जोतिसरायाणो अर्णते कम्मसे पंचहिं वाससएहिं खवयंति सोहम्मीसाणगा देवा अणंते
४ टन काश ॥७५३॥ कम्मंसे एगेणं वाससहस्सेणं जाच खवयंति सणंकुमारमाहिंदगा देवा अणंते कम्मंसे दोहि वाससहस्सेहि
क्षयकालम्सू खवयंति, एवं एएणं अभिलावेणं बंभलोगलंतगा देवा अणंते कम्मसे तीहिं वाससहस्सेहिं खवयंति महासुक-18GREEER सहस्सारगा देवा अर्णते चउहि वाससह आणयपाणयआरणअनुयगा देवा अर्णते पंचहिं वाससहस्सेहि खवयंति हिडिमगेविज्गा देवा अणंते कम्मंसे एगणं वाससयसहस्सेणं खवयंति मजिझमगेवेजगा देवा अणंते दोहिं वाससयसहस्सेहिं जाव खवयंति उवरिमगेवेजगा देवा अणते कम्मंसे तिहिं वासजाव खवयंति विजयवेजयंतजयंतअपराजियगा देवा अणंते चउहिं वास जाव खवयंति सबढसिद्धगा देवा अणते कम्मंसे पंचहिं वाससयसहस्सेहिं खवयंति, एएणढणं गोते देवा जे अणंते कम्मसे जहन्नेणं एकेण वा दोहिं वा तीहिं वा
उकोसेणं पंचर्हि वाससएहिं खवयंति एएणं गोते देवा जाव पंचहिं वाससहस्सेहिं खवयंति, एएण?णं 2 दिगो० ते देवा जाप पंचहिं वाससयसहस्सेहिं खवयंति। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ॥ (सूत्र ६३८)॥१८-७॥
'तेण'मित्यादि, 'एवं जहा सत्तमसए'इत्यादिना यत्सूचितं तस्यार्थतो लेशो दयते-कालोदायिसेलोदायिसेवालोदा
अनुक्रम [७४४-७४८]
~4134
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६३४-६३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६३४-६३८]
दीप
विप्रभृतिकानामन्ययूथिकानामेकत्र संहितानां मिथः कथासंलापः समुत्पन्नो यदुत महावीरः पश्चास्तिकायान् धर्मास्तिकायादीन् प्रज्ञापयति, तत्र च धर्माधर्माकाशपुद्गलास्तिकायानचेतनान् जीवास्तिकायं च सचेतनं तथा धर्माधर्माकाशजीवास्तिकायानरूपिणः पुद्गलास्तिकायं च रूपिणं प्रज्ञापयतीति 'से कहमेयं मन्ने एवं ति अथ कथमेतद्-धर्मास्तिकायादि वस्तु मन्ये इति वितर्कार्थः 'एवं' सचेतनाचेतनादिरूपेण, अदृश्यमानत्वेनासम्भवात्तस्येति हृदयम् , 'अविउप्पकडेत्ति अपिशब्दः संभावनार्थः उत्-प्राबल्येन च प्रकृता-प्रस्तुता प्रकटा वा उत्प्रकृतोत्प्रकटा वा अथवा अविभिः-अजानद्भिःहै प्रकृता-कृता प्रस्तुता वा अविद्वत्मकृता, 'जइ कजं कजइ जाणामो पासामो'त्ति यदि तैर्धर्मास्तिकायादिभिः कार्य स्वकीयं क्रियते तदा तेन कार्येण तान् जानीमः पश्यामश्चावगच्छाम इत्यर्थः धूमेनाग्निमिव, अथ कार्य तैर्न क्रियते तदा न जानीमो न पश्यामश्च, अयमभिप्राय:-कार्यादिलिङ्गद्वारेणैवार्वाग्रहशामतीन्द्रियपदार्थावगमो भवति, न च धर्मास्तिकायादीनामस्मत्प्रतीतं किश्चित् कार्यादिलिङ्गं दृश्यत इति तदभावात्तन्न जानीम एव वयमिति ।। अथ मद्भुकं धर्माII स्तिकायाद्यपरिज्ञानाभ्युपगमवन्तमुपालम्भयितुं यत्ते पाहुस्तदाह-केस ण'मित्यादि, क एष त्वं महक ! श्रमणोपासकानां X || मध्ये भवसि यस्त्वमेतमर्थ श्रमणोपासकज्ञेयं धर्मास्तिकायाद्यस्तित्वलक्षणं न जानासि न पश्यसि , न कश्चिदित्यर्थः ॥
| अथैवमुपालब्धः सन्नसौ यत्तैरहश्यमानत्वेन धर्मास्तिकायाद्यसम्भव इत्युकं तद्विघटनेन तान् प्रतिहन्तुमिदमाह-अस्थि आणमित्यादि, 'घाणसहगय'त्ति प्रायत इति प्राणो-गन्धगुणस्तेन सहगता:-तत्सहचरितास्तद्वन्तो प्राणसहगता |'अरणिसहगए'त्ति अरणिः-अभ्यर्थ निर्मन्धनीयकाष्ठं तेन सह गतो यः स तथा तं 'मुडणं मढुया ! तुमति सुष्टु
अनुक्रम [७४४-७४८]
~414
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६३४-६३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
देवासुर
[६३४
-६३८]
दीप
व्याख्या-18वं महकायेन त्वयाऽस्तिकायानजानता न जानीम इत्युक्तम्, अन्यथा अजानापि यदि जानीम इत्यभणियस्तदाऽह-I|| १८ शतके प्रज्ञप्तिः
दिदादीनामस्याशातनाकारकोऽभविष्यस्त्वमिति ॥ पूर्व मदुकश्रमणोपासकोऽरुणाभे विमाने देवत्वेनोत्पत्स्यत इत्युक्तम्, अथ|| उद्देवाः अभयदेवी
देवाधिकारादेववक्तव्यतामेवोदेचाकान्तं यावदाह-'देखे 'मित्यादि, 'तार्स बोंवीणं अंतरसि तेषां विकुर्वितशरीराHTTणामन्तराणि 'एवं जहा अट्ठमसए'इत्यादि अनेन यत्सूचितं तदिदं-पाएमा वा इत्येण वा अंगुलियाए का सिलागापणातपाय
टन कौश ॥४५॥ वा कडेण वा कलिंचेण वा आमुसमाणे वा आलिहमाणे या विलिहमाणे वा अन्नयरेण वा सिक्खेणं सत्यजाणे ४ आछिंदमाणे वा विग्छिदमाणे वा अगणिकाएण का समोडहमाणे वा तेसिं जीयप्पएसाणं आगाई वा बाबाई वा करे CM
क्षयकालःसू
हवाका ६३६-६३८ | छविच्छेयं वा उप्पाएर, जो इणढे समढे'त्ति व्याख्या चास्य प्राग्वत् । 'जनं देवा तणं वा कई वा' इत्यादि, इहप यहेवानां तृणायपि प्रहरणीभवति सदचिन्त्यपुण्यसम्भारवशात् सुभमचक्रवर्तिनः स्थालमिव, असुराणां तु यत्तिस्यविकुर्वितानि तानि भवन्ति तद्देवापेक्षया तेषां मन्दतरपुण्यत्वासथाविधपुरुषाणामिवेत्यक्गन्तव्यमिति । 'वीतीवपजति एकया| दिशा व्यतिक्रमेत 'नो चेवणं अणुपरियडेज'त्ति नैव सर्वतः परिश्चमेत, तथाविधप्रयोजनाभावादिति सम्भाव्यते । 'अस्थि णं मंते ! इत्यादि, इह देवानां पुण्यकर्मपुद्गलाः प्रकृष्टप्रकृष्टतरप्रकृष्टसमानुभागा आयुष्ककर्मसहचरिततया वेदनीया अनन्तानम्ता भवन्ति ततश्च सन्ति भदन्त ! ते देवा थे तेषामनन्तानन्तकर्मीशानां मध्यादनन्तान् काशान
७५३॥ जपन्येन कालस्याल्पतया एकादिना वर्षशतेन उत्कर्षतस्तु पञ्चभिर्वर्षशतैः क्षपयन्तीत्यादि प्रश्न, 'गोयमे याद्युत्तर, तत्र व्यन्तरा अनन्तान् कम्माशान् वर्षशतेनैकेन क्षपयन्ति अनन्तानामपि तदीयपुगलानामल्पानुभागतया सोकेनव कालेन
SANSKAR
अनुक्रम [७४४-७४८]
~415
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६३४-६३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६३४-६३८]
क्षपयितुं शक्यत्वात् तथाविधास्पस्नेहाहारवत्, तथा तावत एव काशान असुरवर्जितभवनपतयो द्वाभ्यां वर्षशताभ्यां | क्षपयन्ति, तदीयपुगलानां व्यन्तरपुद्गलापेक्षया प्रकृष्टानुभावेन बहुतरकालेन क्षपयितुं शक्यत्वात् सिमग्धतराहारवदिति, एवमुत्तरत्रापि भाक्ना कार्येति ॥ अष्टादशशते सप्तमोद्देशकः ।। १८-७॥
दीप
अनुक्रम [७४४-७४८]
सप्तमोदेशकान्ते कर्मक्षपणोक्का, अष्टमे तु तद्वन्धो निरूप्यत इत्येवंसम्बद्धस्यास्पेदमादिसूत्रम्रायगिहे जाप एवं षपासी-अणगारस्स णं भंते ! भावियप्पणो पुरओ दुहओ जुगमायाए पेहाए रीयं री-12 यमाणस्स पायरस अहे कुकुडपोते वा बट्टापोते वा कुलिंगच्छाए वा परियाक्जेजा तस्सगं भंते । किं ईरि-18 यावहिया किरिया कजह संपराइया किरिया कज्जा, गोयमा । अणगारस्स णं भावियप्पणो जाय तस्स णं है इरियाचहिया किरिया कज्जा नो संपराइया किरिया कना, से केण?णं मंते! एवं बुचा जहा सत्तमसए संवुडसए जाव अट्ठो निक्खित्तो। सेवं भंते सेवं भंते । जाब विहरति ।। तए णं समणे भगवं महावीरे ४ बहिया जाव विहरति (सूत्र ३९)
'रायगि'इत्यादि, 'पुरओ'त्ति अप्रतः 'दुहओ'त्ति 'विधा' अन्तराऽन्तरा पार्वतः पृष्ठतश्चेत्यर्थः 'जुगमायाए ति || यूपमात्रया दृष्या 'पेहाए'त्ति प्रेक्ष्य २ रीय'ति मत-गमन 'रीयमाणस्स'त्ति कुर्वत इत्यर्थः 'कुकुडपोयए'त्ति कुकुटडिम्भः 'चहापोयए'त्ति इद वर्तका-पक्षिविशेषः 'कुलिंगच्छाएच'त्ति फ्पिीसिकादिसहसः 'परियाचजेजत्ति 'पर्वाश्वेत'
अत्र अष्टादशमे शतके सप्तम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ अष्टादशमे शतके अष्टम-उद्देशक: आरभ्यते
~416~
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [६३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
मज्ञप्तिः ।
सूत्रांक [६३९]
दीप अनुक्रम [७४९]
व्याख्या
वियेत ‘एवं जहा सत्तमसए'इत्यादि, अनेन च यत्सूचितं तस्यार्थलेश एवम्-अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते, १८ शतके
गौतम ! यस्य क्रोधादयो व्यवच्छिन्ना भवन्ति तस्येर्यापथिक्येव क्रिया भवतीत्यादि 'जाव अट्ठो निक्खित्तो'त्ति 'से केण- उद्देशः अभयदेवी- टेणं भंते ! इत्यादिवाक्यस्य निगमनं यावदित्यर्थः, तच्च 'से तेणट्टेणं गोयमा इत्यादि ॥ प्राग्गमनमाश्रित्य विचारः समितस्यूवया पृत्तिकृतः, अथ तदेवाश्रित्यान्ययूथिकमतनिषेधतः स एवोच्यते
धेऽपीर्याप
Gथिकी सू ७५४॥
| तेणं कालेणं २ रायगिहे जाव पुढविसिलापट्टए तस्स णं गुणसिलस्स चेयस्स अदूरसामंते बहवे अन्नउ-3 स्थिया परिवसंति, तए णं समणे भगवं महा० जाव समोसढे जाव परिसा पडिगया, तेणं कालेणं २ समणस्सअन्यतीधिभ०म० जेडे अंतेवासी इंदभूतीनामं अणगारे जाव उहुंजाणू जाब विहरइ, तए गं ते अन्नउत्थिया जेणेव भगवंकवादः गोयमे तेणेव उवागच्छन्ति उवागच्छइत्ता भगवं गोयम एवं वयासी-तुज्झे णं अजो तिविहं तिविहेणं अस्सं-18/ सू ६५० जया जाव एगंतवाला यावि भवह, तए णं भगवं गोयमे अन्नउस्थिए एवं क्यासी-से केणं कारणेणं अजो! अम्हे तिविहं तिविहेणं अस्संजया जाव एगंतवाला यावि भवामो, तए णं ते अन्नउत्थिया भगवं गोयम एवं
वयासी-तुझे गं अजो!रीय रीयमाणा पाणे पेञ्चेह अभिहणह जाव उबद्दवेह, तए णं तुझे पाणे पेचेमाणा राजाच उवहवेमाणा तिविहं तिविहेणं जाव एगंतवाला यावि भवह, तएणं भगवं गोयमे ते अन्नउत्थिए एवं क्या-द
सी-नो खलु अजो! अम्हे रीयं रीयमाणा पाणे पेचेमोजाव उबदवेमो अम्हे णं अबोरीय रीयमाणा कार्य च M ॥७५४॥ जोयं च रीयं च पडुच्च दिस्सा २ पदिस्सा २ क्यामो तए णं अम्हे दिस्सा दिस्सा वयमाणा पदिस्सा पदिस्सा
| गौतमस्वामिन: अन्यतिर्थिकेन सह प्रश्न-संवादः
~417
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [६४०-६४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६४०-६४१]
चयमाणा णो पाणे पेचेमो जाव णो उवद्दवेमो, तए णं अम्हे पाणे अपेञ्चेमाणा जाव अणोदवेमाणातिविहं तिविहेणं जाव एगंतपंडिया याविभवामो, तुझे णं अजो अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं जाव एगंतवाला यावि
भवह, तए ते अन्नउत्थिया भगवंगोयम एवं व-केणं कारणेणं अजो! अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव भवामो, दातए णं भगवं गोयमे ते अन्नउत्थिए एवं व-तुज्झे अजोरीय रीयमाणा पाणे पेवेह जाव उबदवेह तए णं
तुझे पाणे पेचेमाणा जाव उवहवेमाणा तिविहं जाव एगंतवाला यावि भवह, तए णं भगवं गोयमे ते अन्नउ
थिए एवं पडिहणइ पडिहणित्ता जेणेव समणे भगवं महा० तेणेव उवाग०२ समर्ण भगवं महावीरं वंदति निमंसति वंदित्ता नमंसित्ता णचासन्ने जाव पजुवासति, गोयमादि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं
वयासी-सुहणं तुमं गोते अन्न उत्धिए एवं व० साहु णं तुम गोयमा! ते अन्नउस्थिए एवं व. अस्थि ण गो. ममं बहवे अंतेवासी समणा निग्गंथा छउमत्था जे णं नो पभू एयं वागरणं वागरेत्तए जहाणं तुमंतं सुह णं तुमं गो ! ते अन्नउथिए एवं बयासी साहूणं तुमं गो ! ते अन्नउथिए एवं वयासी (सूत्रं ६४०) तए ण है भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेण एवं बुत्ते समाणे हद्वतुसमणं भ०म०० नम० एवं पयासी-छउ-17 मत्थे णं भंते ! मणुसे परमाणुपोग्गलं किं जाणति पासति उदाहुन जाणति न पासति', गोयमा ! अत्धे-18 गतिए जाणति न पासति अत्थेगतिए न जाणति न पासति, छउमत्थे णं भंते ! मणूसे दुपएसियं खंधं कि जाणति २१, एवं चेव, एवं जाव असंखेजपदेसियं,छउमत्धे णं भंते ! मणूसे अर्णतपएसियं खंघं किं पुच्छा,
ASKAR
दीप अनुक्रम [७५०-७५१]
| गौतमस्वामिन: अन्यतिर्थिकेन सह प्रश्न-संवादः
~418~
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [६४०-६४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
सके
प्रत सूत्रांक [६४०-६४१]
व्याख्या- प्रप्तिः अभषदेवी- या वृत्तिा ॥७५५॥
गोपमा अत्धेगतिए जाणति पासति १ अत्थेगतिए जाणति न पासति २ अत्धेगतिए न जाणति पासा अत्यगतिए न जाणइन पासति ४ अहोहिए णं भंते ! मणुस्से परमाणुपोग्गलं जहा छउमत्थे एवं अहोहिएवि आव अतपदेसियं, परमाहोहिएणभंतेमणूसे परमाणुपोग्गलं जं समयं जाणति तं समर्थ पासति जंसमचंपासति | छमस्थस्य
तं समयं जाणति ?, णो तिणट्टे समढे, से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ परमाहोहिए णं मणूसे परमाणुपोग्गलं परमाणोज्ञा का समयं जाणति नो तं समयं पासति ज समय ।
समयं जाणति नो सं समयं पासति ज समयं पासति नो तं समयं जाणति , गोयमा सागारे से l नाज्ञाने माणे भवह अणागारे से दसणे भवइ, से तेणद्वेणं जाब नो तं समयं जाणति एवं जाय अर्णतपदेसियंसू १४१ केवली भंतेमणुस्से परमाणुपोग्गलं जहा परमाहोहिए तहा केवलीवि जाव अर्णतपएसियं । सेवं * भंते २ति ॥ (सूत्रं ६४१)॥१८-८॥
'तए 'मित्यादि, 'पेचेह'त्ति आक्रामथ 'कायं च त्ति देह प्रतीत्य अजाम इति योगः, देहश्चेद्गमनशक्तो भवति तदा 8 ब्रजामो नान्यथा अश्वशकटादिनेत्यर्थः, योगं च-संयमव्यापार ज्ञानाद्युपष्टम्भकप्रयोजनं भिक्षाटनादि, न त चिनेत्यर्थः, 'रीयं च'त्ति 'गमन च' अत्वरितादिकं गमनविशेष 'प्रतीत्य' आश्रित्य, कथम् ? इत्याह-'दिस्सा दिस्स'त्ति दृष्ट्वा 'पदिस्सा पदिस्स'त्ति प्रकर्षेण दृष्टा २॥ प्राक् छद्मस्था एवं व्याकर्तुं न प्रभव इत्युक्तम् , अथ छद्मस्थमेवाश्रित्य प्रश्नय-||४|| नाह-छउमत्थे'त्यादि, इह छद्मस्थो निरतिशयो ग्राह्यः 'जाणइन पासइत्ति श्रुतोपयुक्तः श्रुतज्ञानी, श्रुते दर्शनाभावात् , तदन्यस्तु 'न जाणइन पासईत्ति अनन्तप्रदेशिकसूत्रे चत्वारो भङ्गा भवन्ति, जानाति स्पर्शनादिना पश्यत्ति ||
दीप अनुक्रम [७५०-७५१]
CASSACREArea
1७५५
~419~
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [६४०-६४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६४०-६४१]
चक्षुपेत्येकः १, तथाऽन्यो जानाति स्पर्शादिना न पश्यति चक्षुषा चक्षुषोऽभावादिति द्वितीयः २, तथाऽन्यो न जानाति पद स्पर्शाधगोचरस्वात् पश्यति चक्षुषेति तृतीयः ३, तथाऽन्यो न जानाति न पश्यति चाविषयत्वादिति चतुर्थः ॥ छमस्था॥धिकाराच्छवास्थविशेषभूताधोऽवधिकपरमाधोऽवधिकसूत्रे ॥ परमावधिकश्चावश्यमन्तर्मुहर्तेन केवली भवतीति केवलिसूत्र, ॥ तत्र च 'सागारे से नाणे भवति त्ति.'साकार विशेषग्रहणस्वरूप 'सेतस्य परमाधोऽवधिकस्य तद्वा ज्ञानं भवति, तद्धि पर्ययभूतं च दर्शनमतः परस्परविरुद्धयोरेकसमये नास्ति सम्भव इति ॥ अष्टादशशतेऽष्टमः ॥ १८-८॥
Sareer| अष्टमोद्देशकान्ते केवली प्ररूपितः, स च भव्यद्रव्यसिद्ध इत्येवं भव्यद्रव्याधिकारान्नवमे भव्यद्रव्यनारकादयोऽभिधीयन्ते इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
रायगिहे जाव एवं वयासी-अस्थि णं भंते भवियदधनेरइया भवि०२१,हंता अस्थि, से केणद्वेणंभंते ! एवं वुच्चइ भवियदछनेर०भ०१,जे भविए पंचिंदिए तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा नेरइएसुउववज्जित्तए से तेण,एवं जाव थणियकु०, अस्थि णं भंते। भवियदछपुढवि० भ०२१, हंता अस्थि, से केण. गो. जे भविए तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा देवे वा पुढविकाइएसु उवव० सेतेण• आउकाइयवणस्सइकाइयाणं एवं चेव उववाओ, तेउबाऊबेइंदियतेइंदियचउरिदियाण य जे भविए तिरिक्खजोणिए मणुस्से वा, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं जे भविए नेरइए वा तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा देवे वा पंचिंदियतिरिक्खजोणिए वा, एवं मणुस्सावि,
दीप अनुक्रम [७५०-७५१]
RA%AAR: AK-
PRIL
अत्र अष्टादशमे शतके अष्टम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ अष्टादशमे शतके नवम-उद्देशक: आरभ्यते
~420
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [६४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६४२]
व्याख्या-3 वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा नेरइया ॥ भवियदधनेरइयस्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता!, १८ शतके
प्रज्ञप्तिः गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुचकोडी, भवियचअसुरकुमारस्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिती उद्देशः९ अभयदेवी
पन्नत्ता ?, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुत्तं उकोसेणं तिन्नि पलिओवमाई, एवं जाव थणियकुमारस्स । भवियद- भव्यद्रव्यया वृत्तिः२॥
अपुढविकाइयस्स णं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहु उकोसेणं सातिरेगाई दो सागरोवमाई, एवं नरकाद
आउक्काइयस्सवि, तेउवाऊ जहा नेरइयस्स, वणस्सइकाइयस्स जहा पुढविकाइयस्स, बेईदियस्स तेइंदि॥७५६॥
सू ६४२ यस्स चउरिदियस्स जहा नेरहयस्स, पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई, एवं मणुस्सावि, वाणमंतरजोइसियवेमाणियस्स जहा असुरकुमारस्स ॥ सेवं भंते ! सेवं । भंतेत्ति ॥ (सूत्रं ६४२)॥१८-९॥
'रायगिहे'इत्यादि, भवियदवनेरइय'त्ति द्रव्यभूता नारका द्रव्यनारकाः, ते च भूतनारकपर्यायतयाऽपि भव-1* न्तीति भव्यशब्देन विशेषिताः, भव्याश्च ते द्रव्यनारकाश्चेति विग्रहः, ते चैकभविकबद्धायुष्काभिमुखनामगोत्रभेदा भवन्ति ॥ भविषदबनेरइयस्से'त्यादि, अंतोमुहृत्तति सजिनमसज्ञिनं वा नरकगामिनमन्तर्मुहूर्तायुषमपेक्ष्यान्तर्मु-8 हूर्त स्थितिरुक्का, 'पुषकोडित्ति मनुष्य पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चं चाश्रित्येति भव्यद्रव्यासुरादीनामपि जघन्या स्थितिरित्थमेव,उत्कृष्टा ॥५६॥ तु'तिन्नि पलिओवमाईति उत्तरकुर्वादिमिधुनकनरादीनाश्रित्योक्ता, यतस्ते मृता देवेषूत्पद्यन्त इति, द्रव्यपृथिवीकायिकस्य 'साइरेगाई दो सागरोवमाईति ईशानदेवमाश्रित्योक्ता, द्रव्यतेजसो द्रव्यवायोश्च 'जहा नेरइयस्स'त्ति अन्तर्मु
दीप अनुक्रम [७५२]
~421
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [६४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६४२]
हुर्तमेकाऽन्या च पूर्वकोटी, देवादीनां मिथुनकानां च तत्रानुत्पादादिति । पश्चेन्द्रियतिरश्चः 'उक्कोसेणं तेत्तीसं साग-2
रोवमाई'ति सप्तमपृथिवीनारकापेक्षयोक्तमिति ॥ अष्टादशशते नवमः ॥ १८-९ ॥ on नवमोद्देशकान्ते भव्यद्रव्यनारकादिवक्तव्यतोक्का, अथ भव्यद्रव्याधिकाराव्यद्रव्यदेवस्थानगारस्य वक्तव्यता दशमे
8 उच्यते इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्II रायगिहे जाव एवं वयासी-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा असिधारं वा खुरधारं वा ओगाहेजा ?,
हता उग्गाहेजा, से णं तत्थ छिज्जेज वा भिजेज वा?, णो तिणढे सणो खलु तस्थ सत्थं कमइ, एवं जहा |पंचमसए परमाणुपोग्गलबत्तषया जाव अणगारे णं भंते ! भावियप्पा उदावत्तं वा जाव नो खलु तत्थ
सत्यं कमइ (सूनं ६४३)॥ __'रायगिहे' इत्यादि, इह चानगारस्थ क्षुरधारादिषु प्रवेशो वैक्रियलब्धिसामर्थ्यादवसेयः, 'एवं जहा पंचमसए'इत्यादि, अनेन च यत्सूचितं तदिदम्-'अणगारे णं भंते ! भावियप्पा अगणिकायस्स मझमझेणं वीइवएज्जा', हंता वीइव
पजा, से णं तत्थ झियाएजा?, नो इणढे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं कमई' इत्यादि । पूर्वमनगारस्यासिधारादिष्वगाकाहनोक्ता, अथावगाहनामेव स्पर्शनालक्षणपर्यायान्तरेण परमाण्वादिष्यभिधातुमाह
परमाणुपोग्गले णं भंते ! बाउयाएणं फुडे वाउयाए वा परमाणुपोग्गलेणं फुडे ?, गोयमा ! परमाणुपोग्गले
दीप
अनुक्रम [७५२]
अत्र अष्टादशमे शतके नवम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ अष्टादशमे शतके दशम-उद्देशक: आरभ्यते
~422
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [६४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
So++
प्रत सूत्रांक
[६४४]
व्याख्या- वाउयाएणं फुडे नो वाउयाए परमाणुपोग्गलेणं फुडे । दुप्पएसिएणं भंते ! खं० वाउयाएणं एवं चैव एवं जाव
प्रज्ञप्तिः असंखेजपएसिए ॥ अणंतपएसिए णं भंते ! खंधे वाउपुच्छा, गोयमा ! अणंतपएसिए खंधे वाउयाएणं फुडे उद्देश१० अभयदेवी- वाज्याए अणंतपएसिएणं खंघेणं सिय फुडे सिय नो फुडे ॥ वत्थी भंते । वाउयाएणं फुडे वाउयाए वस्थिणा अस्यादिना या वृत्तिः फुडे ?, गोयमा ! वत्थी वाउयाएणं फुडे नो वाउयाए वत्थिणा फुडे ॥ (सूत्रं ६४४)॥
वैक्रियस्था'परमाणुपोग्गले णमित्यादि, 'वाउयाएणं फुडे'त्ति परमाणुपुद्गलो वायुकायेन 'स्पृष्टः' व्याप्तो मध्ये क्षिप्त इत्यर्थः
च्छेद वायु ॥७५७॥ 'नो वाउयाए'इत्यादि नो वायुकायः परमाणुपुद्गलेन 'स्पृष्टा'व्याप्तो मध्ये क्षिप्तो, वायोमहत्त्वाद् अणोश्च निष्पदेशत्वेना
परमावा.
हादेः स्पृष्टता तिसूक्ष्मतया व्यापकत्वाभावादिति ॥ 'अणंतपएसिए ण'मित्यादि, अनन्तप्रदेशिकः स्कन्धो वायुना व्याप्तो भवति
|पृथ्व्याअन सूक्ष्मतरत्वात्तस्य, वायुकायः पुनरनन्तप्रदेशिकस्कन्धेन स्याद् व्याप्तः स्थान व्याप्तः, कथम् , यदा वायुस्कन्धापेक्षया
धो द्रव्या महानसौ भवति तदा वायुस्तेन व्याप्तो भवत्यन्यदा तु नेति ॥ 'वत्थी'त्यादि, 'वस्तिः' इतिर्वायुकायेन 'स्पृष्टः' व्याप्तः दिसामस्त्येन तद्विवरपरिपूरणात् नो वायुकायो वस्तिना स्पृष्टो वस्तेर्वायुकायस्य परित एष भावात् ॥ अनन्तरं पुद्गलद्रच्याणि १६४३-६४५
स्पृष्टत्वधर्मतो निरूपितानि, अथ वर्णादिभिस्तान्येव निरूपयवाह___ अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढ अहे दवाई वन्नओ कालनीललोहियहालिहसुकिल्लाई गंधओ७५७॥
सुम्भिगंधाई दुब्भिगंधाई रसओ तित्तकडयकसायबिलमहुराई फासओ कक्खडमउयगरुयलहुयसीयजसिणनिलुक्खाई अन्नमन्नबद्धाई अन्नमनपुट्ठाई जाव अन्नमनघडताए चिटुंति ?, हंता अस्थि, एवं जाव
याप्तःणि सू
दीप अनुक्रम [७५४]
KAHAKKER
REairadiolend
~4234
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [६४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६४५]
अहेसत्तमाए । अस्थि णं भंते ! सोहम्म० कप्परस अहे एवं चेव एवं जाव ईसिपम्भाराए पुढ०। सेवं भंते ! जाव विहरद । तए णं समणे भगवं महावीरे जाय बहिया जणवयविहारं विहरति ॥ (सूत्रं ६४५)॥ __ 'अस्थीत्यादि, 'अन्नमनबद्धाई ति गाढाश्लेषतः 'अन्नमन्नपुट्ठाई ति आगाढाश्लेषतः, यावत्करणात् 'अन्नमन्नओ-1 गाढाईति एकक्षेत्राश्रितानीत्यादिश्यम् , 'अन्नमनघडत्ताए'त्ति परस्परसमुदायतया ॥ अनन्तरं पुद्गलद्रव्याणि निरूपि-18 तानि, अथात्मद्रव्यधर्मविशेषानात्मद्रव्यं च संविधानकद्वारेण निरूपयन्निदमाह
तेणं कालेणं २ वाणियगामे नाम नगरे होत्था वलओ, दूतिपलासए चेतिए चन्नओ, तत्थ णं वाणियगामे मगरे सोमिले नाम माहणे परिवसति अढे जाव अपरिभूए रिउच्वेदजाय सुपरिनिट्ठिए पंचण्हं खंडियसयाणं सयस कुटुंबस्स आहेवचं जाव विहरति, तए णं समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे जाव परिसा पञ्चवासति, तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स इमीसे कहाए लद्धहस्स समाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्प-18 | जित्था-एवं खलु समणे णायपुत्ते पुवाणुपुर्वि चरमाणे गामाणुगाम दहजमाणे सुहंसुहेणं जाव इहमागएर जाव दूतिपलासए चेहए अहापडिरूवं जाब विहरइ तं गच्छामि णं समणस्स नायपुत्तरस अंतियं पाउम्भ-1 वामि इमाई च णं एयारूवाई अट्ठाईजाव वागरणाई पुच्छिस्सामि, तं जइ इमे से इमाई एयारूवाई
अट्ठाई जाव वागरणाई वागरेहिति ततो णं बंदीहामि नमसीहामि जावपजुवासीहामि, अहमेयं से इमाई & अट्ठाइं जाव वागरणाइंनो वागरेहिति तो णं एएहिं चेच अद्वेहि य जाव वागरणेहि य निप्पट्ठपसिणवागरणं
दीप अनुक्रम [७५५]
सोमिल-ब्राहमणस्य भगवंत-महावीरेण सह प्रश्न-संवादः
~424
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [६४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६४६]]
व्याख्या
करेस्सामीतिकट्ठ एवं संपेहेइ २ पहाए जाव सरीरे साओ गिहाओ पडिनिक्खमति पडि०२ पायविहारचारेणं १८ शतके प्रज्ञप्तिः एगणं खंडियसएणं सद्धिं संपरिबुडे वाणियगाम नगरं मझमझेणं निग्गच्छद २ जेणेव दूतिपलासए चेहए उद्देशः१० अभयदेवी- जेणेव समणे भग० म० तेणेव उवा०२ समणस्स ३ अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं म. एवं वयासी-जत्ता | या वृत्तिः २ लाते भंते ! जवणिज अवाबाहं० फासुयविहारं०१, सोमिला!जत्ताधि मे जवणिजंपि मे अवाबाहपि मे फासु- है यात्रादिसर्ष ॥ ५ यविहारंपि मे, किं ते भंते ! जत्ता?, सोमिला ! जं मे तवनियमसंजमसज्झायझाणावस्सयमादीएमु जोगेसु
| पादिप्रश्नः
सू ६४६ जयणा सेत्तं जत्ता, किंते भंते ! जवणिजं?, सोमिला ! जवणिजे दुविहे पं०, तं०-इंदियजबणिज्जे य नोइंदियजवणिजे य, से किं तं इंदियजबणिजे १,२जं मे सोइंदियचखिदियघाणिदियजिभिदियफासिदियाई निभवहयाई पसे वढुति सेत्तं इंदियजवणिजे, से किं तं नोइंदियजवणिज्जे १,२ मे कोहमाणमायालोमा
वोच्छिन्ना नो उदीरति से तं नोइंदियजवणिजे, सेतं जवणिजे, किं ते भंते ! अवाबाहं, सोमिला ! जं में दवातियपित्तियसिंभियसन्निवाइया विविहा रोगायंका सरीरंगपा दोसा उपसंता नो उदीरेंति से अचा
बाहं, किंते भंते ! फासुयविहारं, सोमिला ! जन्नं आरामेसु उजाणेसु देवकुलेसु सभासु पवासु इत्थीप-12 |सुपंडगविवजियासु वसहीसु फासुएसणिज्नं पीढफलगसेज्जासंथारगं उपसंपजिचाणं विहरामि सेसं फासु
७५८॥ यविहारं ॥ सरिसवा ते भंते। किं भक्खेया अभक्खेया?, सोमिला ! सरिसवा भक्खयावि अभक्खेयावि, से केणढे० सरिसवा मे भक्खेयावि अभक्खेयावि, से नूर्ण ते सोमिला भन्नएसु नएसु दुविहा सरि
दीप
अनुक्रम [७५६]
सोमिल-ब्राहमणस्य भगवंत-महावीरेण सह प्रश्न-संवादः
~425
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [६४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६४६]
|| सवा पन्नत्ता, तंजहा-मित्तसरिसवा य धन्नसरिसवा य, तत्थ णं जे ते मित्तसरिसवा ते तिविहा पं० -1 || सहजायया सहवडियया सहर्पसुकीलियया, ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया, तत्थ णं जेते धनसरि
सवा ते दुविहा प०,०-सत्थपरिणया य असस्थपरिणया य, तत्थ णं जे ते असस्थपरिणया ते णं समणाणं| | निग्गंधाणं अभक्खेया, तत्थ गंजे से सस्थपरिणया ते दुविहा पं०,तं०-एसणिजाय अणेसणिज्जाय, तत्थ णद
जे ते अणेसणिज्जा ते समणाणं निग्गंथाणं अभक्खया, तस्थ णं जे ते एसणिज्जा ते दुविहा प००-जाया |य अजाइया य, तत्थ णं जे ते अजाइया ते णं समणाणं निग्गंधाणं अभक्खेया, तत्व णं जे ते जातिया ते दुविहा प०, तं०-लद्धा य अलद्धा य, तत्थ णं जे ते अलद्धा ते णं समणाणं निग्गंधाणं अभक्खेया, तत्थ ण जे ते लद्धा ते णं समणाणं निग्गंथाणं भक्खेया, से तेणट्टेणं सोमिला! एवं वुचइ जाव अभक्खेयावि। मासा ते भंते । किं भक्खेया अभक्खेया ?, सोमिला ! मासा मे भक्खेयाचि अभक्खेयावि, से केणतुणं जाव अभक्खेयावि, से नूणं ते सोमिला ! बंभन्नएम नएसु दुविहा मासा प०, तं०-दरमासा य कालमासा य, तस्थ णं जे ते कालमासा ते णं सावणादीया आसाढ पजवसाणा दुवालस तं०-सावणे भद्दवए आसोए कत्तिए मग्गसिरे पोसे माहे फागुणे चित्ते वासाहे जेट्टामूले आसाढे,ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खया, तस्थ जे ते दवमासा ते दुविहा प०२०-अत्थमासा य धण्णमासा य, तत्थ णं जे ते अस्थमासा ते दुविहा प० तं०-सुवन्नमासा य रुप्पमासा य, ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया, तत्थ णं जे ते धन्न
दीप अनुक्रम [७५६]
सोमिल-ब्राहमणस्य भगवंत-महावीरेण सह प्रश्न-संवादः
~426
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [६४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
IP
व्याख्याप्रज्ञतिः अभयदेवी
23उद्देश:१०
*
या वृत्तिः
प्रत सूत्रांक [६४६]
॥७५९॥
मासा ते दुथिहा प० त०-सत्थपरिणया य असस्थपरिणया य एवं जहा धनसरिसवा जाव से तेणढेणं जावट शतके अभक्वेयावि । कुलत्था ते भंते । किं भक्खेया अभक्खेया ?, सोमिला! कुलत्था भक्खेयावि अभक्खेयावि, सेकेणद्वेणं जाव अभक्खयावि,से नूणं सोमिलाते बंभन्नएसु नएसुदुविहा कुलत्या पतं-इस्थिकुलस्था य सोमिलस्य | धन्नकुलत्था य, तस्थणं जे ते इत्थिकुलत्था ते तिविहा पं०, तंजहा-कुलकन्नयाइ वा कुलवहयाति वा कुलमा- यात्रादिसर्प उयाइ वा, ते णं समणाणं निग्गंधाणं अभक्खेया, तत्थ णं जे ते धन्नकुलस्था एवं जहा धनसरिसवा से तेण- पादिप्रक्षः टेणं जाय अभक्खेयाबि ।। (सूत्रं ६४६)॥
सू ६४६ 'तेण मित्यादि, 'इमाईच गंति इमानि च वक्ष्यमाणानि यात्रायापनीयादीनि 'जत्त'त्ति यान यात्रा-संयमयोगेषु प्रवृत्तिः 'जवणिज'ति यापनीयं-मोक्षाध्वनि गच्छतां प्रयोजक इन्द्रियादिवश्यतारूपो धर्मः 'अचाचाहंति शरीरवाधानामभावः 'फासुयविहारंति मासुकविहारो-निर्जीव आश्रय इति, 'तवनियमसंजमसज्झायझाणावस्सयमाइएमुत्ति ॥ इह तपा-अनशनादि नियमाः-तद्विषया अभिग्रहविशेषाः यथा एतावत्तपःस्वाध्यायवैयावृत्त्यादि मयाऽवश्य रात्रिन्दिवादी विधेयमित्यादिरूपाः संयमः-प्रत्युपेक्षादिः स्वाध्यायो-धर्मकथादि ध्यान-धादिः आवश्यक-पविध, एतेषु च यद्यपि || भगवतः किश्चिन्न तदानी विशेषतः संभवति तथाऽपि तत्फलसद्भावात्तदस्तीत्यवगन्तव्यं, 'जयण'त्ति प्रवृत्तिः 'इंदिपजय-1||
॥७५९॥ |णिज्जति इन्द्रियविषयं यापनीयं-वश्यत्वमिन्द्रिययापनीयं, एवं नोइन्द्रिययापनीय, नवरं नोशब्दस्य मिश्रवचनत्यादिन्द्रिचैर्मिनाः सहार्थत्वाद्वा इन्द्रियाणां सहचरिता नोइन्द्रियाः कषायाः, एषां च यात्रादिपदानां सामयिकगम्भीरार्थत्वेन भग
दीप अनुक्रम [७५६]
सोमिल-ब्राहमणस्य भगवंत-महावीरेण सह प्रश्न-संवादः
~427
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [६४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६४६]]
दीप अनुक्रम [७५६]
वतस्तदर्थपरिज्ञानमसम्भावयता तेनापधाजनार्थ प्रश्नः कृत इति ॥'सरिसव'त्ति एकत्र प्राकृतशैल्या सष्टशवयसः-समा-16 नवयसः अन्यत्र सर्पपा:-सिद्धार्थकाः, 'दछमास'त्ति द्रव्यरूपा माषाः 'कालमास'त्ति कालरूपा मासाः, 'कुलत्यति एकत्र कुले तिष्ठन्तीति कुलस्था:-कुलाङ्गनाः, अन्यत्र कुलत्थाः धान्यविशेषाः, सरिसवादिपदप्रश्नश्च छलग्रहणेनोपहासार्थ 18| कृत इति ॥ अथ चसूरि विमुच्य भगवतो वस्तुतत्त्वज्ञानजिज्ञासयाऽऽह
एगे भवं दुवे भवं अक्खए भवं अञ्चए भवं अवहिए भवं अणेगभूयभावभविए भवं !, सोमिला ! एगेवि 18|अहं जाव अणेगभूयभावभविएवि अहं, से केणटेणं भंते ! एवं वुचाइ जाय भविएवि अहं, सोमिला।
दषट्ठयाए एगे अहं नाणदंसणट्ठयाए दुविहे अहं पएसट्टयाए अक्खएवि अहं अचएवि अहं अयढिएविद | अहं उपयोगट्टयाए अणेगभूयभावभविएवि अहं,से तेणद्वेणं जाव भविएवि अहं, एत्थ णं से सोमिले माहणे | संबुद्धे समणं भगवं महावीरं जहा खंदओ जाव से जहेयं तुज्झे वदह जहाण देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईसर एवंजहा रायप्पसेणइजे चित्तो जाव दुवालसविहं सावगधर्म पडिवजति पडिच जित्ता समणं भगवं महावीरं वंदति जाव पडिगए, तए णं से सोमिले माहणे समणोवासए जाए अभिगयजीवा जाब विहरह।
भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीर वंदति नम०० नम०पभू णं भंते ! सोमिले माहणे देवाणु-13/ लिपियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता जहेव संखे तहेव निरवसेसं जाव अंतं काहिति । सेवं भंते !२त्ति जाच विह
रति ॥ (सूत्रं ६४७)॥१८-१०॥ ॥ अट्ठारसम सयं समत्तं ।।१८॥
-500-5
H
~428
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [६४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [६४७]
दीप
व्याख्या- 'एगे भव'मित्यादि, एको भवानित्येकत्वाभ्युपगमे भगवताऽऽत्मनः कृते श्रोत्रादिविज्ञानानामवयवानां चात्मनोऽने- १८ शतके
प्रज्ञप्तिः शकतोपलब्धित एकत्वं दूषयिष्यामीति बुद्ध्या पर्यनुयोगः सोमिलभट्टेन कृतः, द्वौ भवानिति च द्वित्थाभ्युपगमेऽहमित्येक- द्देश:१० अभयदेवी- वविशिष्टस्यार्थस्य द्वित्वविरोधेन द्वित्वं दूषयिष्यामीति बुद्ध्या पर्यनुयोगो विहितः, 'अक्खए भव'मित्यादिना च पदत्र
MARATHएकद्वित्वाया वृत्तिः येण नित्यात्मपक्ष पर्यनुयुक्तः, 'अणेगभूयभावभविए भवंति अनेके भूता-अतीताः भाषा:-सत्तापरिणामा भव्याश्च
दिप्रश्न
सू ६४७ ॥७६०॥ भाविनो यस्य स तथा, अनेन चातीतभविष्यत्सत्ताप्रश्नेनानित्यतापक्षः पर्यनुयुक्तः, एकतरपरिग्रहे तस्यैव दूपणायेति, तत्र
च भगवता स्याद्वादस्य निखिलदोषगोचरातिक्रान्तत्वात्तमवलम्ब्योत्तरमदायि-'एगेवि अह'मित्यादि, कथमित्येतत् ? है इत्यत आह-दवट्ठयाए एगोऽहं ति जीवद्रव्यस्यैकत्वेनैकोऽहं न तु प्रदेशार्थतया, तथा हि अनेकत्वान्ममेत्यवयवादी
नामनेकत्वोपलम्भो न बाधकः, तथा कश्चित्स्वभावमाश्रित्यैकत्वसङ्ख्या विशिष्टस्यापि पदार्थस्य स्वभावान्तरद्वयापेक्षया द्वित्वमपि न विरुद्धमित्यत उक्त-नाणदंसणद्वयाए दुवेवि अहं'ति, न चैकस्य स्वभावभेदो न दृश्यते, एको हि देवदत्तादिः पुरुष एकदैव तत्तदपेक्षया पितृत्वपुत्रत्वभ्रातृत्वभ्रातृव्यत्वादीननेकान् स्वभावाँलभत इति, तथा प्रदेशार्थतयाऽसल्येयप्रदेशतामाश्रित्याक्षतोऽप्यहं सर्वथा प्रदेशानां क्षयाभावात् , तथाऽव्ययोऽप्यहं कतिपयानामपि च व्ययाभावात् , किमुक्तं भवति ?अवस्थितोऽप्यह-नित्योऽप्यहम् , असङ्ख्येयप्रदेशिता हि न कदाचनापि व्यपैति अतो नित्यताऽभ्युपगमेऽपि न दोषः, तथा ७६०॥ 'उवओगट्टयाए'त्ति विविधविषयानुपयोगानाश्रित्यानेकभूतभावभविकोऽप्यहम् , अतीतानागतयोहि कालयोरनेकविषयषो-1 धानामात्मनः कथञ्चिदभिन्नानां भूतत्वाद् भावित्वाच्चेत्यनित्यपक्षोऽपि न दोषायेति । 'एवं जहा रायप्पसेणइज्जे इत्यादि,
अनुक्रम [७५७]
~429~
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१८], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [६४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६४७]
दीप अनुक्रम [७५७]
अनेन च यत्सूचितं तस्यार्थलेशो दर्श्यते-यथा देवानांप्रियाणामन्तिके यहवो राजेश्वरतलबरादयस्त्यक्त्वा हिरण्यसुवर्णादि मुण्डा भूत्वाऽगारादनगारितां प्रव्रजन्ति न खलु तथा शक्नोमि प्रबजितुमितीच्छाम्यहमणुव्रतादिकं गृहिधर्म भगवदन्तिके प्रतिपत्तुं, ततो भगवानाह-यथासुखं देवानांप्रिय ! मा प्रतिबन्धोऽस्तु, ततस्तमसौ प्रत्यपद्यत इति ॥ अष्टादशशते दशमः ॥१८-१०॥ ॥ अष्टादशं शतं च वृत्तितः परिसमाप्तमिति ॥ १८ ॥ AsarastrastrastrastrasaHORaptraRahasranatvasnasarastraSCARStsap
अष्टादशशतवृत्तिर्विहिता वृत्तानि वीक्ष्य वृत्तिकृताम् । प्राकृतनरो ह्यदृष्टं न कर्म कर्तुं प्रभुर्भवति ॥ १ ॥ gereser sense reservastasseaserseasesASLASEnsense ORSLAS व्याख्यातमष्टादशशतम्, अथावसरायातमेकोनविंशतितमं व्याख्यायते, तत्र चादावेवोद्देशकसहाय गाथालेस्सा य १ गम्भ २ पुढवी ३ महासवा ४ चरम ५ दीव ६ भवणा ७ य । निवत्ति८ करण ९वणचर-1 सुरा १० य एगूणवीसइमे ॥१॥ रापगिहे जाच एवं चयासी-कति णं भंते ! लेस्साओ पन्नत्ताओ, गोयमा ! छल्लेसाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-एवं जहा पन्नवणाए चउत्थो लेसुद्देसओ भाणियबो निरवसेसो। सेवं भंते २॥ (मूत्रं ६४८) ॥१९-१॥
'लेस्से'त्यादि, तत्र 'लेस्सा यत्ति लेश्याः प्रथमोद्देशके वाच्या इत्यसौ लेश्योद्देशक एवोच्यते, एवमन्यत्रापि १ चशब्दः समुच्चये, 'गम्भ'त्ति गर्भाभिधायको द्वितीयः २ 'पुढवित्ति पृथिवीकायिकादिवक्तव्यतार्थस्तृतीयः ३ 'महासव'त्ति नारका महाश्रवा महाक्रिया इत्याद्यर्धपरश्चतुर्थः४, 'चरम'त्ति चरमेभ्योऽल्पस्थितिकेभ्यो नारकादिभ्यः परमा-महास्थि
SOCIA
अत्र अष्टादशमे शतके दशम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ एकोनविंशतितमं शतके प्रथम-उद्देशक: आरभ्यते
~430~
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [६४८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६४८]
व्याख्या-1 यो महाकर्मतरा इत्याद्यर्थप्रतिपादनार्थः पञ्चमः ५, 'दीवति द्वीपाद्यभिधानार्थः षष्ठः ६'भवणा यत्ति भवनाद्यर्था-IN
१९ शतके भिधानार्थः सप्तमः ७'निवत्ति'त्ति निवृत्तिा-निष्पत्तिः शरीरादेस्तदर्थोऽष्टमः ८'करण'त्ति करणार्थों नवमः ९ 'वणच-151 प्रज्ञप्तिः अभयदेवी- रसुरा यत्ति वनचरसुरा-व्यन्तरा देवास्तद्वत्तव्यतार्थो दशम इति १०, तत्र प्रथमोद्देशकस्तावव्याख्यायते, तस्य चेदमादिया वृत्ति *सूत्रम्-'रायगिहे इत्यादि, 'पन्नवणाए चउत्थो लेसुद्देसओ भाणियबो'त्ति प्रज्ञापनायाश्चतुर्थों लेश्यापदस्य सप्तदश-HIEVs. ॥७६१॥
स्योद्देशको लेश्योद्देशक इह स्थाने भणितव्यः, स च-'कण्हलेसा जाव मुकलेसा इत्यादिरिति ॥ एकोनविंशतितमशते 18 लेश्याः प्रथम उद्देशकः समाप्तः ॥ १९-१॥
दिसू ६४९ अथ लेश्याऽधिकारवानेव द्वितीयस्तस्य चेदमादिसूत्रम्कति णं भंते । लेस्साओ प०१ एवं जहा पन्नवणाए गन्भुद्देसो सो चेव निरवसेसो भाणियबो । सेवं भंते ! सेवं भंते ! (सूत्रं ६४९) ॥ १९-२ उद्देशकः॥
'कह ण'मित्यादि, 'एवं जहा पन्नवणाए'इत्यादि, 'एवम् अनेन क्रमेण यथा प्रज्ञापनायां गर्भोद्देशके-गर्भसूत्रोपलक्षितोदेशके सप्तदशपदस्य षष्ठे सूत्र तथेह वाच्यं, तन्यूनाधिकत्वपरिहारार्धमाह-स एव गर्भोदेशको निरवशेषो भणि|तव्य इति, अनेन च यस्सूचितं तदिदं-'गोयमा ! छल्लेस्साओ पन्नत्ताओ, तंजहा-कण्हलेस्सा जाव सुकलेस्सा, मणुस्साणं ॥७६१॥ भंते ! कइ लेस्साओ प०, गोयमा! छलेस्साओ पन्नत्ताओ, तंजहा-कण्हलेस्सा जाव सुकलेस्सा' इत्यादीति, यानि च
CREASOOCHECORE
गाथा
दीप अनुक्रम [७५८-७५९]
अत्र एकोनविंशतितमे शतके प्रथम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ एकोनविंशतितमं शतके द्वितीय-उद्देशक: आरभ्यते
~431
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [६४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६४९]
सूत्राण्याश्रित्य गर्भोद्देशकोऽयमुक्तस्तानीमानि-कण्हलेस्से णं भंते ! मणुस्से कण्हलेस्सं गम्भं जणेजा ?, हंता गोयमा ! जणेज्जा । कण्हलेस्से णं भंते ! मणूसे नीललेसं गम्भं जणेजा ? हंता गोयमा ! जणेजा' इत्यादीति । एकोनविंशतितमशते द्वितीयः॥ १९-२॥ .
द्वितीयोद्देशके लेश्या उक्तास्तद्युक्ताश्च पृथिवीकायिकादित्वेनोत्पद्यन्त इति पृथिवीकायिकादयस्तृतीये निरूप्यन्त | इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्रायगिहे जाव एवं वयासी सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच पुढविकाइया एगयो साधारणसरीरं चंति एग०२ तओ पच्छा आहारेंति वा परिणामेति वा सरीरं वा बंधति ?, नो इणढे समढे, पुढविक्काइयाणं पत्तेयाहारा पत्तेयपरिणामा पत्तेयं सरीरं बंधति प०२ततोपच्छा आहारेति वा परिणामेति बासरी वा बंधति १ तेसि णं भंते ! जीवाणं कति लेस्साओ प०१, गोयमा!चत्तारि लेस्साओ०प०, तं०-कण्हलेस्सा नील काउ० तेउ०२, ते णं भंते ! जीवा किं सम्मदिट्टी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिही?, गोयमा! नो सम्मदिट्ठी मिच्छादिही नो सम्मामिच्छविट्ठी ३, ते णं भंते जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, गोयमा! नो नाणी अन्नाणी, नियमा
दुअन्नाणी, तं०-मइअन्नाणी य सुयअन्नाणी य४,ते ण भंते ! जीवा किंमणजोगी वयजोगी कायजोगी, द गोयमा! नो मणजोगी नो वयजोगी कायजोगी ५, ते णं भंते!जीवा किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता,
दीप अनुक्रम [७६०]
स्य
अत्र एकोनविंशतितमे शतके दवितीय-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ एकोनविंशतितमं शतके तृतीय-उद्देशक: आरभ्यते
~432
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [६५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६५०]
दीप अनुक्रम [७६१]
व्याख्या-5 गोयमा ! सागारोवउत्तावि अणागारोवउत्तावि, ते णं भंते ! जीवा किमाहारमाहारेंति ?, गोयमा ! दवओ | १९ शतके प्रज्ञप्तिःणं अर्णतपदेसियाई दवाई एवं जहा पन्नवणाए पढमे आहारुहेसए जावसबप्पणयाए आहारमाहारेंति ७,तणं उद्देशः ३ अभयदेवी- भन्ते जीवा जमाहारेति तं चिजति जनो आहारेति तं नो चिजंतिचिन्ने वा से उद्दाइ पलिसप्पति वा ?, हंता पृथ्व्यादिया वृत्तिः२४
| गोयमा ! ते णं जीवा जमाहारेंति तं चिजति जनो जाव पलिसप्पति या ८, तेसिक भंते ! जीवाणं एवं शरीरादि ॥७६२॥ | सन्नाति वा पनाति वामणोति वा बईइ वा अम्हे णं आहारमाहारेमो,णोतिणढे स. आहारति पुणते तेसिं १,
तेसिणं भंते ! जीवाणं एवं सन्ना. जाव वीयीति वा अम्हे णं इटाणिहे फासेयरे वेदेमो पहिसंवेदेमो?, णोतिक पडिसंवेदेति पुण ते १० ते णं भंते ! जीवा किं पाणाइयाए उवक्खाइज्नंति मुसाचाए अदिनाजाव मिच्छादसणसल्ले उबक्खाइज्जति ?, गोयमा! पाणाइवाएवि उपक्खाइजति जाव मिच्छादसणसल्लेवि उवक्खाइज्जति, जेसिपि णं जीवाणं ते जीवा एवमाहिज्जति तेसिंपिणं जीवाणं नो विजाए नाणत्ते ११ ॥ ते गं भंते ! जीवा ।
कओहिंतो उवव िनेरइएहिंतो उववजंति? एवं जहा वकंतीए पुढविकाझ्याणं उबवाओ तहा भाणि-18 दियो १२॥ तेसिणं भंते । जीवाणं केवतियं कालं ठिती प०१, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहु० उकोसेणं बावीसं
वाससहस्साई १३॥ तेसि णं भंते ! जीवाणं कति समुग्धाया प०१, गोयमा तओ समुग्घाया पं०, २०-येय- ॥७६२॥ णासमुग्घाए कसाय मारणतियस । ते णं भंते ! जीवा मारणंतियसमुग्घाएणं किं समोहया मरंति अस-5 मोहया मरंति ?, गोयमा ! समोहयावि मरंति असमोहयावि मरंसि ॥ ते ण मंते! जीवा अणंतरं उबहिसाद
SAREauratoninternational
~433
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [६५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६५०]
दीप अनुक्रम [७६१]
कहिं गच्छति कहिं उपयजति !, एवं उबद्दणा जहा वर्कतीए १२ । सिय भंते ! जाच चत्तारि पंच आउकाइया एगयओ साहारणसरीरं बंधति एग०२तओ पच्छा आहारेति एवं जो पुढविकाइयाणं गमो सो चेव |भाणियबो जाव उच्वइंति नवरं ठिती सत्तवाससहस्साई उक्कोसेणं सेसंतं चेव । सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच तेउक्काइया एवं चेव नवरं उपचाओ ठिती उबट्टणा य जहा पन्नवणाए सेसं तं चेव । वाउकाइयाणं एवं
चेव नाणत्तं नवरं चत्तारि समुग्घाया। सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच वणस्सइकाइयापुच्छा, गोयमा । दणो तिणढे समहे, अणंता बणस्सइकाइया एगयओ साहारणसरीरं बंधंति एग० २ तओ पच्छा आहारेंति
वा परि०२ सेसं जहा तेउकाइयाणं जाव उबद्दति नवरं आहारो नियम छदिसि, ठिती जहोणं अंतोमुहत्तं उकोसेणवि अंतोमुहत्तं, सेसं तं च ॥ (सूत्रं ६५०)
'रायगिहे'इत्यादि, इह चेयं द्वारगाथा कचिद् दृश्यते-"सिय लेसदिट्ठिणाणे जोगुवओगे तहा किमाहारो। पाणाइवाय उपायठिई समुग्धायउबट्टी ॥१॥"ति, अस्याश्चार्थो वनस्पतिदण्डकान्तोद्देशकार्याधिगमावगम्य एष, तन्त्र स्याद्वारे 'सिय'त्ति स्याद्-भवेदयमर्थः, अथवा प्रायः पृथिवीकायिकाः प्रत्येकं शरीरं बध्नन्तीति सिद्ध, किन्तु 'सिय'त्ति स्यात् | कदाचित् 'जाव चत्तारि पंच पुढविकाइय'त्ति चत्वारः पञ्च वा यावत्करणाद् द्वौ वा त्रयो वा उपलक्षणत्वाश्चास्य बहुतरा वा पृथिवीकायिका जीवाः 'एगओ'त्ति एकत एकीभूय संयुग्येत्यर्थः 'साहारणसरीरं बंधति'त्ति बहूनां सामान्यशरीरं बन्नन्ति, आदितस्तत्प्रायोग्यपुद्गलग्रहणतः, 'आहारति बत्ति विशेषाहारापेक्षया सामान्याहारस्थाविशिष्टशरीरबन्धनसमय
~4344
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [६५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रज्ञप्तिः
प्रत
सूत्रांक [६५०]
व्याख्या- एव कृतत्वात् 'सरीरं वा बंघप्ति'त्ति आहारितपरिणामितपुद्गलैः शरीरस्य पूर्वबन्धापेक्षया विशेषतो कधं कुर्वन्तीत्यर्थः, १९शत
| नायमर्थः समर्थो, यतः पृथिवीकायिकाः प्रत्येकाहाराः प्रत्येकपरिणामाश्चातः प्रत्येक शरीरं वान्तीति तत्प्रायोग्यपुद्गलअभयदेवी
ग्रहणतः, ततश्चाहारयन्तीत्यादि एतच्च प्राग्वदिति ॥ किमाहारद्वारे-'एवं जहा पन्नवणाए पढमे आहारुदेसए'त्ति पृथ्व्यादिया वृत्तिः२|| एवं यथा प्रज्ञापनायामष्टाविंशतितमपदस्य प्रथमे आहाराभिधायकोद्देशके सूत्र तह वाच्यं, तचैवं-'खेत्तओ असंखेजपए
शरीरादि
सू ६५० ॥७६३॥ | सोगाढाई कालतो अन्नयरकालद्वितीयाई भावओ वनमंताई गंधमंताई रसमंताई फासमंताई' इत्यादीति 'तं चिजइति
तत्-पुद्गलजातं शरीरेन्द्रियतया परिणमतीत्यर्थः 'चिन्ने वा से उहाइ'त्ति चीर्ण च-आहारितं सत्तत् पुगलजातम् 'अप-12 | द्रवति' अपयाति विनश्यतीति मलवत् सारश्चास्य शरीरेन्द्रियतया परिणमति, एतदेवाह-'पलिसप्पह वत्ति परिसर्पति च परि-समन्ताद्गच्छति, 'एवं सन्नाइ वत्ति एवं वक्ष्यमाणोल्लेखेन 'सज्ञा' व्यावहारिकार्थावग्रहरूपा मतिः प्रवर्तत इति शेषः, 'पन्नाइ बत्ति प्रज्ञा-सूक्ष्मार्थविषया मतिरेच, 'मणोड वत्ति मनोद्रव्यस्वभावं, 'बईइ बसि वाग् द्रव्य-5 श्रुतरूपा ॥ प्राणातिपातादिद्वारे-'पाणाइवाए उवक्खाइज्जती'त्यादि प्राणातिपाते स्थिता इति शेषः प्राणातिपातवृत्तय | इत्यर्थः, उपाख्यायन्ते-अभिधीयन्ते, यश्चेह वचनाघभावेऽपि पृथिवीकायिकानां मृषावादादिभिरुपाख्यानं तन्मृपावादाद्यविरतिमाश्रित्योच्यत इति, अथ हन्तन्यादिजीवानां का वार्ता ? इत्याह-'जेसिपि ण'मित्यादि, येषामपि जीवानामति-12-७६३॥ पातादिविषयभूतानां प्रस्तावात्पृथिवीकायिकानामेव सम्बन्धिनाऽतिपातादिना 'ते जीव'त्ति ते-अतिपातादिकारिणो जीवाः एवमाहिज्जति'त्ति अतिपातादिकारिण एते इत्याख्यायन्ते, तेषामपि जीवानामतिपातादिविषयभूतानां न केवल
दीप अनुक्रम [७६१]
~435
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [६५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६५०]
दीप अनुक्रम [७६१]
घातकानां 'नो' नैव 'विज्ञातम्' अवगतं 'नानात्वं' भेदो यदुत वयं वध्यादय एते तु वधकादय इत्यमनस्कत्याप्तेषा-1 मिति ॥ उत्पादद्वारे-'एवं जहा वकंतीए'इत्यादि, इह च व्युत्क्रान्तिः प्रज्ञापनायाः पष्ठं पदं, अनेन च यत्सूचित तदिदं-'किं नेरइएहिंतो उववर्जति तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजति मणुस्सहिंतो उववनंति देवेहिंतो उववज्जति !, गोयमा ! नो नेरइएहिंतो उववजति तिरिक्खजोणिएहितो उववजति मणुस्सेहिंतो उववजंति देवेहितो उवबजंति ॥ समुद्घातद्वारे-'समोहयावि'त्ति समुद्घाते वर्तमानाः कृतदण्डा इत्यर्थः 'असमोहयावित्ति दण्डादुपरता अकृतसमुद्घाता वा ॥ उद्वर्तनाद्वारे-एवं उचट्टणा जहा वकंतीए त्ति, अनेन चेदं सूचितं-किं नेरइएसु जाव देवेसु, गोयमा! नो नेरइएसु उववजति तिरिक्खजोणिएसु उव० मणुस्सेसु उववजति नो देवेसु उववजति त्ति । तेजस्कायिकदण्डके | 'नवरं उववाओ ठिई उबट्टणा य जहा पन्नवणाए'त्ति, इह स्थादादिद्वाराणि पृथिवीकायिकदण्डकवद्वाच्यानि, उत्पादादिषु | पुनर्विशेषोऽस्ति स च प्रज्ञापनायामिवेह द्रष्टव्यः, स चैवमर्थतः-तेषामुपपातस्तिर्यग्मनुष्येभ्य एव स्थितिस्तूत्कृष्टाऽहोरात्रवर्य तत उद्वृत्तास्तु ते तिर्यस्वेवोत्पद्यन्ते, यथा चेहोत्पादविशेषोऽस्ति तथा लेश्यायामपि यतस्तेजसोऽप्रशस्तलेश्या एव, पृथिवीकायिकास्त्वाद्यचतुर्लेश्याः, यच्चेदमिह न सूचितं तद्विचित्रत्वात्सूत्रगतेरिति । वायुकायदण्डके 'चत्तारि समुग्घाय'त्ति पृथिव्यादीनामाद्याखयः समुद्घाताः वायूनां तु वेदनाकषायमारणान्तिकवैक्रियलक्षणाश्चत्वारः समुद्घाताः संभवन्ति तेषां वैक्रियशरीरस्य सम्भवादिति । बनस्पतिकायदण्डके 'नवरं माहारो नियम छदिसिं'ति यदुक्तं तनावगम्यते
~4364
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [६५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६५०]
दीप अनुक्रम [७६१]
ख्या-1|| लोकान्तनिष्कुटान्याश्रित्य त्रिदिगादेरप्याहारस्य तेषां सम्भवाद् वादरनिगोदान वाऽऽश्रित्येदमवसेय, तेषां पृथिव्यायाश्रि-|| १९ शतके प्रज्ञप्तिः || तत्वेन षदिकाहारस्यैव सम्भवादिति ।। अथैषामेव पृथिव्यादीनामवगाहनाऽल्पत्वादिनिरूपणायाह
| उद्देशः३ अभयदेवी- एएसि णं भंते ! पुढविकाइयाण आउतेउवाउवणस्सइकाइयाणं सुहुमाणं चादराणं पज्जत्तगाणं अपनत्त गाणं या वृत्तिः
पृथ्व्याद्ययजाव जहन्नुकोसियाए ओगाहणाए कपरे २ जाव विसेसाहिया वा ?, गोषमा! सबथोवा सुष्टमनिओयस्सीगाहनाल्प॥७६४॥ अपजत्तस्स जहनिया ओगाहणा १ सुहुमवाउकाइयस्स अपजत्तगस्स जहनिया ओगाहणा असंखेनगुणा २
बहुत्वं सुहमतेकअपजत्तस्स जह ओगाहणा असंखेजगुणा ३ सुहमआऊअपज्जजह असं०४ सुहुमपुढविअपज्जत्तक
दिसू ६५१ जहनिया ओगाहणा असंखेजगुणा ५ बादरवाउकाइयस्स अपज्जत्तगस्स जहनिया ओगाहणा असंखेनगुणा ६ वादरतेकअपज्जत्तजहनिया ओगाहणा असंखेजगुणा ७ बादरआउअपज्जत्तजहनिया ओगा. असंखे०८ बादरपुढवीकाइयअपज्जत्त जहन्निया ओगाहणा असंखेजगुणा ९ पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइयस्स बादरनिओयस्स एएसिणं पज्जत्तगाणं एएसिणं अपजत्तगाणं जहनिया ओगाहणा दोण्हवि तुल्ला असंखे०१०-११ सुहुम| निगोयस्स पजत्तगस्स जहनिया ओगाहणा असं०१२ तस्सेव अपजत्तगस्स उक्कोसि० ओगा विसेसा १३
तस्स चेव अपज्जत्तगस्स उक्को० ओगा०बिसेसा०१४ सुहमवाउकाइयस्स पज्जत्तगजह ओगा. असं०१५४ || तस्स चेव अपजत्रागरस उक्कोसिया ओगाहणा विसे०१६ तस्स चेच पज्जत्तगस्स एकोसा बिसे०१७ एवं || मुहमतेजकाइयस्सवि १८।१९।२० एवं सहुमआउक्काइयस्सवि २१।२२।२३ एवं सुहमपुदविकायस्स विसेसा ||
RDCRACT
weredturary.com
~437
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [६५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६५१]
||२४।२६।२६ एवं पादरवाउकाइयस्स वि०२७१२८।२९ एवं बायरतेऊकाइयस्स वि०३०३१॥३२ एवं बादर-|
आउकाइयस्स वि०३३॥३४॥३५ एवं बादरपुढविकाइयस्स वि० ३६।३७३८ सबेसि तिविहेणं गमेणं भाणियचं. बादरनिगोयस्स पज्जत्तगस्स जहन्निया ओगाहणा असंखेजगुणा ३९ तस्स चेव अपजत्तगस्स उक्कोसिया ४ ओगाहणा विसेसाहिया ४० तस्स चेव पज्जत्तगस्स उकोसिया ओगाहणा विसेसाहिया ४१ पत्तेयसरीर-18 ६ बादरवणस्सइकाइयरस पजत्तगस्स ज० ओगा० असं ४२ तस्स चेव अपजत्त० उको० ओगाहणा असं०४३ तस्स चेव पज० उ० ओगा० असं०४४ ॥ (सूत्र ६५१)॥
'एएसि ण'मित्यादि, इह किल पृथिव्यप्तेजोवायुनिगोदाः प्रत्येकं सूक्ष्मवादरभेदाः एवमेते दशैकादशश्च प्रत्येकवन६ स्पतिः एते च प्रत्येक पर्याप्तकापर्याप्तकभेदाः २२ तेऽपि जघन्योत्कृष्टावगाहना इत्येवं चतुश्चत्वारिंशति जीवभेदेषु स्तोका-|| है दिपदन्यासेनावगाहना व्याख्येया, स्थापना चैर्य-पृथिवीकायस्याधः सूक्ष्मवादरपदे तयोरधः प्रत्येक पर्याप्तापर्याप्तपदे तेषा
मधः प्रत्येकं जघन्योत्कृष्टावगाहनेति, एवमकायिकादयोऽपि स्थायाः, प्रत्येकवनस्पतेश्चाधा पर्याप्तापर्याप्तपदद्वयं तयोरधः ||४ प्रत्येक जघन्योत्कृष्टा चावगाहनेति, इह च पृथिव्यादीनामङ्गलासययभागमात्रावगाहनत्वेऽप्यसवेयभेदत्वादअलासङ्ग्येयभागस्येतरेतरापेक्षयाऽसल्येयगुणत्वं न विरुध्यते, प्रत्येकशरीरवनस्पतीनां चोत्कृष्टाऽवगाहना योजनसहनं समधिकमवगन्तव्येति ॥ पृथिव्यादीनां येऽवगाहनाभेदास्तेषां स्तोकत्वाद्युक्तम् , अथ कायमाश्रित्य तेषामेवेतरेतरापेक्षया सूक्ष्मत्वनिरूपणायाह
RECASARKARE
दीप अनुक्रम [७६२]
~438~
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [६५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६५२]
DIL ६५२
दीप अनुक्रम [७६३]
व्याख्या-8 एयस्स णं भंते ! पुढविकाइयस्स आउकाइयस्स तेऊ. वाज. वणस्सइकाइयस्स कयरे काये सबसुहुमे ||१९ शतके प्रज्ञप्तिः कयरे काए सबसुहमतराए , गोषमा ! वणस्सइकाइए सबसुहुमे वणस्सहकाइए सबसुहमतराए १, एयरस का उद्देशः३ अभयदाना भंते ! पुढविकाइयरस आउकाइ तेउ. वाउक्काइयस्स कयरे काये सबसुहमे कयरे काये सबसुहुमतराए , पृथ्व्यादिषु या वृत्तिः
गोयमा ! वाउकाए सबसुहुमे बाउकाये सबसुहमतराए २, एयरस णं भंते ! पुडविकाइयस्स आउकाइयस्स४ सूक्ष्मावगा ॥७६५|| तेउकाइयस्स कयरे काये सबसुहुमे कयरे काए सचमुहुमतराए ?, गोयमा! तेउक्काए सबसुहमे तेउकाए सब-|
हना सू मुहुमतराए ३, एयस्स गं भंते ! पुढधिकाइयस्स आउक्काइयस्स कपरे काए सबसुहुमे कयरे काये सबसुहुमत-| राए ?, गोयमा ! आउकाए सबसुलुमे आउक्काए सबसुहुमतराए ४॥ एयस्स णं भंते ! पुढविकाइपस्स आउ० तेउवाउ० वणस्सइकाइयस्स कपरे काये सवबादरे कयरे काये सबबादरतराए ?, गोषमा वणस्सइकाये सबबा| दरे वणस्सहकाये सववादरतराए १, एयरस णं भंते ! पुढविकाइयस्स आउक्काइय० तेउकाइय० चाउकाइयस्स कयरे काए सवपादरे कयरे काए सबवादरतराए , गोयमा! पुढविकाए सबचादरे पुढविकाए सववादरतराए २, एयरस णं भंते !आउकाइपरसतेऊकाइयस्स चाउकाइयस्स कयरे काए सवबारे कयरे काए सवधादरतराए?, गोयमा आउक्काए सबधादरे आउकाए सबषादरतराए ३, एयरस णं भंते! तेउकाइयस्स बाउकाइयस्स | कयरे काए सबधादरे कयरे काए सबबादरतराए ?, गोयमा! तेउवाए सबबादरे तेउक्काए सबवादरतराए ४॥ केमहालए णं भंते ! पुढविसरीरे पन्नत्ते, गोयमा ! अणंताणं मुटुमवणस्सइकाइयाणं जावइया सरीरा से
७६५॥
~439~
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [६५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६५२]
एगे सुहमवाउसरीरे असंखेजाणं सुहमवाउसरीराणं जावतिया सरीरा से एगे सुहमतेऊसरीरे, असंखेजाणं सुहुमतेजकाइयसरीराणं जावतिया सरीरा से एगे सुहमे आऊसरीरे, असंखेजाणं सुहमआउकाइयसरीराणं | जावइया सरीरा से एगे सुहुमे पुढविसरीरे, असंखेजाणं सुहमपुदविकाइयसरीराणं जावया सरीरा से |एगे बादरवाउसरीरे, असं० बादरवाउकाइयाणं जावइया सरी० से एगे पादरतेऊसरीरे, असंखेजाणं वादरतेउकाइयाणं जावतिया सरीरा से एगे चादरआउसरीरे, असंखेजाणं बादरआउ० जावतिया सरीरा से एगे यादरपुढविसरीरे, एमहालए णं गोयमा ! पुढविसरीरे पन्नते ॥ (सूत्रं ६५२)॥
'एयस्से त्यादि, 'कयरे काए'त्ति कतरो जीवनिकायः 'सबसुहमें त्ति सर्वथा सूक्ष्मः सर्वसूक्ष्मः, अयं च चक्षुरग्राह्यतामात्रेण पदार्थान्तरमनपेक्ष्यापि स्याद् यथा सूक्ष्मो वायुः सूक्ष्म मन इत्यत आह-'सबसहमतराए'त्ति सर्वेषां मध्येऽतिशयेन सूक्ष्मतरः स एव सर्वसूक्ष्मतरक इति ॥ सूक्ष्मविपरीतो बादर इति सूक्ष्मत्वनिरूपणानन्तरं पृथिव्यादीनामेव बादरत्वनिरूपणायाह-'एपस्स ण'मित्यादि । पूर्वोक्तमेधार्थ प्रकारान्तरेणाह-'केमहालए ण'मित्यादि, 'अर्णताण सुहुमवणस्सइकाइयाण जावइया सरीरा से एगे सुहमवाउसरीरे'त्ति, इह यावग्रहणेनासङ्ख्यातानि शरीराणि ग्राह्याणि अनन्तानामपि
वनस्पतीनामेकाद्यसङ्ग्येयान्तशरीरत्वाद् अनन्तानां च तच्छरीराणामभावात् प्राक् च सूक्ष्मवनस्पत्यवगाहनाऽपेक्षया सूक्ष्मदिवायववगाहनाया असहयातगुणत्वेनोक्तत्वादिति, 'असंखेजाण'मित्यादि, 'सुहमवाउसरीराण'ति वायुरेव शरीरं येषां है।
ते तथा सूक्ष्माश्च ते वायुशरीराश्च-वायुकायिका सूक्ष्मवायुशरीरास्तेषामसङ्ख्येवानां 'सुहमवाउकाइयाणं'ति कचित्पाठः
दीप अनुक्रम [७६३]
SMSSACROSSESS
~440
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [६५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६५२]
दीप अनुक्रम [७६३]
व्याख्या- | स च प्रतीत एव, 'जावइया सरीर'त्ति यावन्ति शरीराणि प्रत्येकशरीरत्वात्तेषामसोयान्येव 'से एगे सुहुमै तेउस- १९ शतके प्रज्ञप्तिः रीरेत्ति तदेकं सूक्ष्मतेजःशरीरं तावच्छरीरप्रमाणमित्यर्थः ॥ प्रकारान्तरेण पृथिवीकायिकावगाहनाप्रमाणमाह
| उद्देशा३ अभयदेवी-|| पुढविकाइयस्स भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता ?, गोपमा! से जहानामए रन्नो चाउरंतच-IX
पृथ्व्यादिया वृत्तिः कवहिस्स वन्नगपेसिया तरुणी बलवं जुग जुवाणी अप्पायंका वन्नओ जाब निउणसिप्पोवगया नवरं चम्मेढ-II
शरीरमह
तावेदने ॥७६६॥ दुहणमुट्ठियसमाहरणिचियगत्तकाया न भणति सेसं तं चेव जाव निउणसिप्पोवगया तिक्खाए वय-11
सू६५३ रामईए सहकरणीए तिक्खेणं वइरामएणं वट्टावरएणं एगं महं पुढविकाइयं जतुगोलासमाणं गहाय पडि-II साहरिय प०२ पडिसंखिविय पडि०२ जाव इणामेवत्तिकट्ठतिसत्तक्खुत्तो उप्पीसेज्जा तत्थ णं गोयमा ! अ-12 स्थगतिया पुदविकाइया आलिद्धा अत्थेगइया पुढविकाइया नो आलिद्धा अस्थेगइया संघट्टि(हिया अत्धेगड्या नो संघहि(वि)या अत्थेगइया परियाविया अस्थेगइया नो परियाविया अत्धेगइया उद्दविया अत्गइया नोद उद्दविया अत्धेगहया पिट्ठा अत्धेगतिया नो पिट्ठा, पुढविकाइयस्स णं गोयमा! एमहालिया सरीरोगाहणा प-12
पणत्ता । पुढविकाइएणं भंते ! अझते समाणे केरिसियं वेदणं पच्चणुब्भवमाणे विहरति ?, गोयमा ! से जहादिनामए के पुरिसे तरुणे बलवं जाव निउणसिप्पोवगए एगं पुरिसं जुन्नं जराजज्जरियदेहं जावदुब्बलं किलंत
जमलपाणिणा मुद्धाणंसि अभिहणिज्जा से गं गोयमा! पुरिसे तेणं पुरिसेणं जमलपाणिणा मुद्धाणंसि अभि- ७६६॥ हए समाणे केरिसियं वेदणं पचणुन्भवमाणे विहरति !, अणिटुं समणाउसो, तस्स णं गोयमा! पुरिसस्स
AREE
~441
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [६५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६५३]
चेदणाहितो पुढविकाइए अक्ते समाणे एत्तो अणितरिय चेव अकंततरियं जाव अमणामतरियं चेव वेदणं ४ | पञ्चणुभवमाणे विहरति । आउयाए णं भंते ! संघट्टिए समाणे केरिसियं वेदणं पञ्चणुभवमाणे विहरति ?, गोयमा ! जहा पुढविकाइए एवं चेव, एवं तेऊयाएवि, एवं वास्याएवि, एवं वणस्सइकाएवि जाव विहरति सेवं भंते !२त्ति ॥ (सूत्रं ६५३) ॥ १९-३॥
'पुढवी'त्यादि, 'वनगपेसिय'त्ति चन्दनपेषिका तरुणीति प्रवर्द्धमानवयाः 'बलवं'ति सामर्थ्यवती 'जुगर्व'ति सुषमदुष्षमादिविशिष्टकालवती 'जुवाणि'त्ति वयःप्राप्ता 'अप्पार्यकत्ति नीरोगा 'वन्नओ'त्ति अनेनेदं सूचितं-'घिरम्महत्या दढपाणिपायपिद्रुत्तरोरुपरिणए'त्यादि, इद वर्णके 'चम्मेद्वद्हणे त्याद्ययधीतं तदिह न वाच्यं, एतस्म विशेषणस्य खिया असम्भवात् , अत एवाह-'चम्मेद्वुहणमुद्वियसमाहयनिचियगत्तकाया न भन्नइ'त्ति, तन्त्र च चर्मेष्टकादीनि व्यायामक्रिया-It यामुपकरणानि तैः समाहतानि व्यायामप्रवृत्तावत एव निचितानि च-धनीभूतानि गात्राणि-अङ्गानि यत्र स तथा तथा-IP विधः कायो यस्याः सा तथेति, 'तिक्खाए'त्ति परुषायां 'बहरामईए'त्ति वज्रमय्यां सा हि नीरन्ध्रा कठिना च भवति
'सण्हकरणीए'त्ति श्लक्ष्णानि-चूर्णरूपाणि द्रव्याणि क्रियन्ते यस्यां सा श्लक्ष्णकरणी-पेषणशिला तस्यां 'चट्ठावरएणं ति 18|| वर्तकवरेण-लोष्टकप्रधानेन 'पुढषिकाइय'ति पृथिवीकायिकसमुदयं 'जतुगोलासमाण'ति डिम्भरूपकीडनकजतुगोलक-12
प्रमाणे नातिमहान्तमित्यर्थः 'पडिसाहरिए'त्यादि इह प्रतिसंहरणं शिलायाः शिलापुत्रकाच संहत्य पिण्डीकरणं प्रतिसपणं तु शिलायाः पततः संरक्षणं, 'अत्धेगइय'ति सन्ति 'एके केचन 'आलिद्ध'त्ति आदिग्धाः शिलायां शिलापुत्रके
दीप अनुक्रम [७६४]
~442
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [६५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६५३]]
१७६७॥15
N
दीप अनुक्रम [७६४]
वा लग्नाः 'संघट्ठिय'त्ति सङ्कषिताः 'परिताविय'त्ति पीडिताः 'उदविय'त्ति मारिता, कथम् ?, यतः पिट्ठति पिष्टाः प्रज्ञप्तिः ||४||'एमहालियति एवमहतीति महती चातिसूक्ष्मेति भावः यतो विशिष्टायामपि पेषणसामध्यां केविन पिष्टा नैव च छता ||KLA अभयदेवी
उद्देश ३ अपीति ॥ 'अत्थेगइया संघट्टिय'त्ति प्रागुक्तं सङ्घश्चाक्रमणभेदोऽत आक्रान्तानां पृथिव्यादीनां यादृशी वेदना भवति या वृत्तिः
पृथ्व्यादि. तत्परूपणायाह-'पुनवी'त्यादि, 'अकंते समाणे'त्ति आक्रमणे सति 'जमलपाणिण'त्ति मुष्टिनेति भावः 'अणि?
शरीरमह| समणाउसो'त्ति गौतमवचनम् 'एत्तोति उक्तलक्षणाया वेदनायाः सकाशादिति ॥एकोनविंशतितमशते तृतीयः ॥२१-२॥
त्तावेदने
सू६५३ पृथिवीकायिकादयो महावेदना इति तृतीयोद्देशकेऽभिहितं, चतुर्थे तु नारकादयो महावेदनादिधम्मैंर्निरूप्यन्त इत्येवं|संबद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्द सिय भंते ! नेरइया महासवा महाकिरिया महावयणा महानिजरा ? गोपमा ! णो तिणढे समढे १ सियर
भंते ! नेरइया महासवा महाकिरिया महावयणा अप्पनिजरा ? हंता सिया २, सिय भंते ! नेरइया महासवा महाकिरिया अप्पवेयणा महानिज्जरा?, गोयमाणो तिणढे समढे ३, सिय भंते ! मेरइया महासवा महाकिरिया अप्पचेदणा अप्पनिजरा ? गोयमा । णो तिणट्टे समढे ४, सिय भंते ! नेरइया महासवा अप्पकि-| रिया महावेदणा महानिजरा ?, गोयमाणो तिणढे समढे ५, सिय भंते ! नेरइया महासवा अप्पकिरिया | ७६७॥ महावेयणा अप्पनिज्वरा?, गोयमा ! नोतिणढे समढे ६, सिय भंते । नेरतिया महासवा अप्पकिरिया अप्प
अत्र एकोनविंशतितमे शतके तृतीय-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ एकोनविंशतितमं शतके चतुर्थ-उद्देशकः आरभ्यते
~443~
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [६५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६५३]
****** SIASAN XXS
६ वेदणा महानिज्जरा?, नो तिणढे समढे, सिय भंते ! नेरतिया महासथा अप्पकिरिया अप्पवेदणा अप्पनि
जरा, णो तिणढे समहे८, सिय भंते ! नेरइया अप्पासवा महाकिरिया महावेदणा महानिजरा', नोतिणडे समढे ९, सिय भंते ! नेरइया अप्पासवा महाकिरिया महावेदणा अप्पनिजरा?, नो तिणद्वे समढे १०, सिय भंते ! नेरझ्या अप्पासवा महाकिरिया अप्पवेयणा महानिजरा ?, नो तिणढे समढे ११, सिय
भंते ! नेरच्या अप्पासवा महाकिरिया अप्पवेदणा अप्पनिजरा', णो तिणढे समढे १२, सिय भंते ! नेरPइया अप्पासवा अप्पकिरिया महावेयणा महानिजरानो तिणढे समढे १३, सिय भंते नेरतिया अप्पासवा
अप्पकिरिया महावेदणा अप्पनिजरा?, नो तिणहें समझे १४, सिय भंते ! नेरइया अप्पासवा अप्पकिरिया अप्पवेषणा महानिजरा', नो तिणढे समहे १५, सिय मंते ! नेरच्या अप्पासवा अप्पकिरिया अप्पवेषणा अप्पनिज्जरा ?, णो तिणढे समढे १६, एते सोलस भंगा। सिय भंते ! असुरकुमारा महा- newww.xxx सवा महाकिरिया महावेदणा महानिजरा,
णोw ww * FREn: तिणहे समहे, एवं चउत्थो भंगो भाणियचो, सेसा
wwwwwwwwwwwwE: पन्नरस भंगा खोडेयवा, एवं जाच धणियकमारा, सिय भंते ! पुचिकाइया महासवा महाकिरिया महावेपणा महानिराहता, एवं जाक-सिय भंते ! पुढ
CSCRC-F%
दीप अनुक्रम [७६४]
असुरादेः । १६ सन्त
~4444
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [६५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६५४]
व्याख्या-|| विकाइया अप्पासवा अप्पकिरिया अप्पवेयणा अप्पनिजरा ? हंता सिया, एवं जाव मणुस्सा, वाणमंतरजोइ-||१९ शतके प्रशप्तिः सियवेमाणिया जहा असुरकुमारा सेवं भंते !२त्ति ।। (सूत्रं ६५४)॥१९-४॥
उद्देशः४ अभयदेवी
| "सिय भंते !'इत्यादि, 'सिय'त्ति 'स्युः भवेयु रयिका महाश्रवाः प्रचुरकर्मबन्धनात् महाक्रियाः कायिक्यादिक्रिया वृत्तिः 15 याणां महत्त्वात् महावेदना वेदनायास्तीवत्वात् महानिर्जराः कर्मक्षपणबहुत्वात्, एषां च चतुर्णी पदानां षोडश भङ्गा
नां महा
|ल्पाश्रवक॥७६८॥
|भवन्ति, एतेषु च नारकाणां द्वितीयभङ्गकोऽनुज्ञातस्तेषामाश्रवादित्रयस्य महत्त्वात् कर्मनिर्जरायास्त्वल्पत्वात् , शेषाणां । तु प्रतिषेधः । असुरादिदेवेषु चतुर्थभङ्गोऽनुज्ञातः, ते हि महाश्रवा महाक्रियाश्च विशिष्टाविरतियुक्तत्वात् अल्पवेदनाश्च ५४ प्रायेणासातोदयाभावात् अल्पनिर्जराश्च प्रायोऽशुभपरिणामत्वात् , शेषास्तु निषेधनीयाः, पृथिन्यादीनां तु चत्वार्यपि | पदानि तत्परिणतेविचित्रत्वात् सव्यभिचाराणीति पोडशापि भङ्गका भवन्तीति, उक्तश-"बीएण उ नेरइया होति चउत्येण सुरगणा सवे । ओरालसरीरा पुण सबेहि पएहिं भणियवा ॥१॥” इति [द्वितीये तु नैरयिका भवन्ति चतुर्थे सुरगणाः | सर्वे । औदारिकशरीरिणः पुनः सर्वेषु पदेषु भणितव्याः॥१॥]॥ एकोनविंशतितमशते चतुर्थः ॥ २१-४॥
दीप
SARSACROSARE
अनुक्रम [७६५]
७६८०
चतुर्थे नारकादयो निरूपिताः, पञ्चमेऽपि त एव भङ्ग्यन्तरेण निरूप्यन्त इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
अत्थि णं भंते ! चरिमावि नेरतिया परमावि नेरतिया ?, हंता अस्थि, से नूर्ण भंते ! चरमेहितो नेरहएदाहिंतो परमा नेरहया महाकम्मतराए चेव महस्सवतराए चेव महावेयणतराए चेव परमेहिंतो वा नेहरए
अत्र एकोनविंशतितमे शतके चतुर्थ-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ एकोनविंशतितमं शतके पंचम-उद्देशक: आरभ्यते
~445
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६५५]
दीप
हिंतो वा चरमा नेरइया अप्पकम्मतराए चेव अप्पकिरियतराए चेव अप्पासवतराए चेव अप्पवेयणतराए चेव , हंता गोयमा! चरमेहिंतो नेरइएहितो परमा जाप महावेयणतराए चेव परमेहिंतो वा नेरइएहितो: चरमा नेरच्या जाच अप्पवेयणतरा चेव, से केण?णं भंते ! एवं बुचड़ जाव अप्पवेयणतरा चेव ?, गोयमा।| ठितिं पडुच्च, से तेणद्वेणं गोयमा! एवं बुच्चइ जाव अप्पवेदणतरा चेव । अत्थि णं भंते ! चरमावि असुरकुमारा परमावि असुरकुमारा?, एवं चेव, नवरं विवरीयं भाणियवं, परमा अप्पकम्मा चरमा महाकम्मा, सेसं तं चेव जाव थणियकुमारा ताव एवमेव, पुढविकाइया जावमणुस्सा एवं जहा नेरहया, वाणमंतरजोइसिय वेमाणिया जहा असुरकुमारा ॥(सूत्रं ६५५)
'अस्थि णमित्यादि, 'चरमावि'त्ति अल्पस्थितयोऽपि 'परमावि'त्ति महास्थितयोऽपि, 'ठिई पटुचेति येषां नारकाणां|| महती स्थितिस्ते इतरेभ्यो महाकर्मतरादयोऽशुभकर्मापेक्षया भवन्ति, येषां स्वल्पा स्थितिस्ते इतरेभ्योऽल्पकर्मतरादयो भवन्तीति भावः । असुरसूत्रे 'नवरं विवरीयंति पूर्वोक्तापेक्षया विपरीतं वाच्यं, तच्चैवं-से नूणं भंते! चरमेहितो असुरकुमारेहिंतो परमा असुरकुमारा अप्पकम्मतरा चेव अप्पकिरियतरा चेवेत्यादि, अल्पकर्मत्वं च तेषामसाताद्यशुभकर्मापेक्ष। || अल्पक्रियत्वं च तथाविधकायिक्यादिकष्टक्रियाऽपेक्ष अल्पाश्रवत्वं तु तथाविधकष्टक्रियाजन्यकर्मबन्धापेक्षं अल्पवेदनत्वं पल Dच पीडाभावापेक्षमवसेयमिति । 'पुढविकाइए'त्यादि, औदारिकशरीरा अल्पस्थितिकेभ्यो महास्थितयो महाकदियो। ४ भवन्ति, महास्थितिकत्वादेव । वैमानिका अल्पवेदना इत्युक्तम्, अथ वेदनास्वरूपमाह
अनुक्रम [७६६]
अत्र एकोनविंशतितमे शतके चतुर्थ-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ एकोनविंशतितमं शतके पंचम-उद्देशक: आरभ्यते
~446~
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
१९ शतके
प्रत सूत्रांक
[६५६]
दीप अनुक्रम [७६७]
व्याख्या-16 काविहा णं भंते ! वेदणा प०१, गोयमा! दुविहा वेदणा प०, तं० निदा य अनिदा या नेरड्या णं भंते! किं प्रज्ञप्तिः
| निदायं वेदणं वेयंति अनिवार्य जहा पन्नवणाए जाव घेमाणियत्ति । सेवं भंते! सेवं भंतेत्ति(सूत्रं ६५६)॥१९-40 उद्देशः ५ अभयदेवीया वृत्तिः
'कईत्यादि, 'निदा य'त्ति नियतं दान-शुद्धिजीवस्य 'दैप् शोधने' इतिवचनान्निदा-ज्ञानमाभोग इत्यर्थः तयुक्ता वेद-|| चरमपरम द नाऽपि निदा-आभोगवतीत्यर्थः चशब्दः समुच्चये 'अणिदा यत्ति अनाभोगवती 'किं निदाय'ति ककारस्य स्वार्थिक-15
पाकि-18 नारकादी११७६९॥ प्रत्ययत्वान्निदामित्यर्थः 'जहा पन्नवणाए'त्ति तत्र चेदमे-'गोयमा ! निदायपि वेयणं वेयंति अणिदायपि वेवणं वेय- नामहावद ती'त्यादि । एकोनविंशतितमशते पञ्चमः ॥ १९-५॥
नादि वेद
ना सू६५५ ---- --
६५६ पश्चमोद्देशके वेदनोक्ता सा च द्वीपादिषु भवतीति द्वीपादयः षष्ठे उच्यन्ते इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
द्वीपसमुद्रा कहि णं भंते ! दीवसमुद्दा ? केवइया णं भंते ! दीवसमुद्दा ? किंसंठिया णं भंते ! दीवसमुद्दा ? एवं जहा है सू६५७ जीवाभिगमे दीवसमुददेसो सो चेव इहवि जोइसियमंडिउद्देसगवज्जो भाणियषो जाव परिणामो जीवउव-|| वाओ जाच अर्णतखुसो सेवं भंतेत्ति ॥ (सूर्व ६५७)।। १९-६॥ | 'कहि णमित्यादि, 'एवं जहे'त्यादि, 'जहां' इति यथेत्यर्थः, स चैवं-'किमागारभावपडोयारा णं भंते ! दीवसमुद्दा *
७६९॥ |प०१, गोयमा ! जंबुद्दीवाइया दीवा लवणाइया समुद्दा इत्यादि, स च किं समस्तोऽपि वाच्यः, नैवमित्यत आह-'जोइ-10 समंडिओदेसगवज्जो'त्ति ज्योतिषेन-ज्योतिष्कपरिमाणेन मण्डितो य उद्देशको द्वीपसमुद्रोद्देशकावयवविशेषस्तद्वजैः तं
अत्र एकोनविंशतितमे शतके पंचम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ एकोनविंशतितमं शतके षष्ठं-उद्देशक: आरभ्यते
~447
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [६५७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६५७]
विहायेत्यर्थः, ज्योतिषमण्डितोद्देशकश्चैवं-'जंबुद्दीवे णं भंते ! कइ चंदा पभासिंसु वा पभासंति पभासिस्सति वा ! कइ सू8 रिया तबइंसु वा " इत्यादि, स च कियहूरं वाच्यः' इत्यत आह-'जाव परिणामो'त्ति स चायं-'दीवसमुद्दा णं भंते ! || किं पुढविपरिणामा पन्नत्ता इत्यादि, तथा 'जीवउववाओ'त्ति द्वीपसमुद्रेषु जीवोपपातो वाच्यः, स चैर्व-दीवसम-1 | हेसु णं भंते ! सबपाणा ४ पुढविकाइयत्ताए ६ उववन्नपुवा ?, हंता गोयमा ! असई अदुवा' शेषं तु लिखितमेवास्त इति ॥ एकोनविंशतितमशते षष्ठः ॥ १९-६॥
दीप
अनुक्रम [७६८]
षष्ठोद्देशके द्वीपसमुद्रा उक्तास्ते च देवावासा इति देवावासाधिकारादसुरकुमाराद्यावासाः सप्तमे प्ररूप्यन्ते इत्येवंसम्ब-| दस्यास्येदमादिसूत्रम्
केवतिया णं भंते ! असुरकुमारभवणावाससयसहस्सा प०१, गोयमा ! चउसर्हि असुरकुमारभवणा| वाससयसहस्सा प०,ते णं भंते ! किमया प०१, गोयमा ! सवरयणामया अच्छा सहा जाव पडिरूवा, |तस्थ णं बहवे जीवा य पोग्गला य वकमंति विउक्कमति चयंत्ति उववजंति सासया णं ते भवणा दवट्टयाए| वन्नपज्जवेहिं जाव फासपज्जवेहिं असासया, एवं जाव थणियकुमारावासा, केवतिया णं भंते ! वाणमंतर-॥४ भोमेजनगरावाससयसहस्सा प०१, गोयमा! असंखेज्जा वाणमंतरभोमेजनगरावाससयसहस्सा प० ते णं भंते ! किंमया प०१ सेसं तं चेच, केवतिया णं भंते ! जोइसियविमाणावाससयसहस्सा ? पुच्छा, गोयमा !
अत्र एकोनविंशतितमे शतके षष्ठं-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ एकोनविंशतितमं शतके सप्तम-उद्देशक: आरभ्यते
~448~
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
व्याख्या-1 असंखेजा जोइसियविमाणावाससयसहस्सा प०, ते णं भंते ! किंमया प.?, गोयमा ! सपफालिहामया , प्रज्ञप्तिः |
या १९ शतके | अच्छा, सेसं तं चेव, सोहम्मे णं भंते ! कप्पे केवतिया विमाणावाससयसहस्सा प०१, गोयमा! बत्तीस उद्देशः अभयदेवी- विमाणावाससयसहस्सा, ते णं भंते ! किमया ५०१, गोयमा सबरयणामया अच्छा सेसं तं चेव जाव अणु-18|| देवावासा यावृत्ति तरविमाणा, नवरं जाणेयवा जत्थ जत्तेया भवणा विमाणा वा। सेवं भंते!२ ति॥ (सूत्रं ३५८)॥१९-७॥ सू६५८ ७७०॥
___'केवइया 'मित्यादि, 'भोमेजनगर'त्ति भूमेरन्तर्भवानि भीमेयकानि तानि च तानि नगराणि चेति विग्रहः 'सवफा४|| लिहामय'त्ति सर्वस्फटिकमयाः ॥ एकोनविंशतितमशते सप्तमः ॥ १९-७॥
[६५८]
दीप
अनुक्रम [७६९]
____सप्तमेऽसुरादीनां भवनादीत्युक्तानि, असुरादयश्च निर्वृत्तिमन्तो भवन्तीत्यष्टमे निर्वृत्तिरुच्यते इत्येवसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्___ कतिबिहा णं भंते ! जीवनिधत्ती प०१, गोयमा ! पंचविहा जीवनिवत्ती प०,०-एगिदियजीवनिवत्तिए ।
जाव पंचिंदियजीवनिवसिए, एगिदियजीवनिवत्तिए भंते ! कतिविहा प०-१, गोयमा! पंचविहा प०, सं018 पुढविकाइयएगिदियजीवनिवत्ती जाव चणस्सइकाइयएगिदियजीवनिबत्ती, पुढविकाइयएगिदियजीवनि-8 दिवसी भंते ! कतिविहा प०, गोयमा ! दुखिहा प० सं०-सुहमपुढविकाइपएगिदियजीवनिबत्ती य बादर-1 ॥७७०॥
पुढयी एवं घेच एएणं अभिलावेणं भेदो जहा बहुगबंधो तेयगसरीरस्स जावसबसिद्धअणुप्तरोववातियक
गा
अत्र एकोनविंशतितमे शतके सप्तम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ एकोनविंशतितमं शतके अष्टम-उद्देशकः आरभ्यते
~449~
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [६५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६५९]
दीप
प्पानीतधेमाणियदेवपंचिंदियजीवनिवत्ती ण भंते ! कतिविहा प०१, गोयमा । दुविहा प० त०-पज्जत्तगस-13 वसिद्धअणुत्तरोववातियजावदेवपंचिंदियजीवनिवत्ती य अपज्जत्तसघट्टसिद्धाणुत्तरोवबाइयजावदेवपंचिंदियजीवनिवत्ती य । कतिविहा णं भंते ! कम्मनिवत्ती प०, गोयमा ! अट्ठविहा कम्मनिबत्ती प०,०-नाणावरणिजकम्मनिवत्ती जाव अंतराइयकम्मनिवत्ती, नेरइयाणं भंते ! कतिविहा कम्मनिवत्ती प०?, गोयमा । अट्ठविहा कम्मनिवत्ती प०, तं०-नाणावरणिज्जकम्मनिवत्ती जाव अंतराइयकम्मनिवत्ती, एवं जाव चेमाणि-18 याणं । कतिबिहा णं भंते ! सरीरनिवत्ती प०१, गोयमा ! पंचविहा सरीरनिवत्ती प०, तं०-ओरालियसरी-110
रनिवत्ती जाव कम्मगसरीरनिवत्ती । नेरइयाणं भंते ! एवं चेव एवं जाव वेमाणियाण, नवरं नायवं जस्स जइ * सरीराणि । कइविहा णं भंते ! सबिंदियनिवत्ती प०१, गोयमा ! पंचविहा सीवदियनिवत्ती प०,०-सोई-16 दियनियत्ती जाव फासिंदियनिवत्ती एवं जाव नेरइया जाव थणियकुमाराणं, पुढविकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! एगा फासिंदियनिचत्ती प०, एवं जस्स जइ इंदियाणि जाच बेमाणियाणं । कइविहा णं भंते।४ भासानिवत्ती प०?, गोयमा ! चउबिहा भासानिवत्ती पं०, तं०-सच्चाभासानियत्ती मोसाभासानिवत्ती सञ्चा-1 मोसमासानिवत्ती असञ्चामोसभासानिवत्ती, एवं एगिदियवज्ज जस्स जा भासा जाव वेमाणियाणं, कइ-17 विहाणं भंते ! मणनिबत्तीए प०१, गोयमा! चउबिहा मणनिबत्ती प०, तं०-सचमणनिषत्तीजाव असचा-8 मोसमगनिबत्तीए एवं एगिदियविगलिंदियवजं जाव चेमाणियाणं । कइविहा णं भंते ! कसायनिवत्ती प०१,
अनुक्रम [७७०]
~450
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [६५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६५९]
दीप अनुक्रम [७७०]
व्याख्या-18 गोयमा ! चउबिहा कसायनिवत्ती प०, तं०-कोहकसायनिवत्ती जाव लोभकसायनिवत्ती एवं. जाव वेमा-||१९ शतके प्रज्ञप्तिः रणियाणं । कइविहा णं भंते ! वन्ननिवत्ती प०, गोयमा ! पंचविहा बन्ननिवत्ती प० तं०-कालबन्ननिवत्ती जाव | उद्देशः अभयदेवी-|| सुकिल्लवन्ननिबत्ती, एवं निरवसेसं जाव वेमाणियाणं, एवं गंधनिचत्ती दुविहा जाव वेमाणियाणं, रसनिबत्ती जीवन्द्रिया या वृत्तिः२४ पंचविहा जाव वेमाणियाणं, फासनिबत्ती अट्ठविहा जाय वेमाणियाणं । कतिविहा णं भंते ! संठाणनिवत्ती
दिनिवृत्तिः
सू६५९ ॥७७॥
प०, गोयमा ! छविहा संठाणनिवत्ती प०२०-समचउरंससंठाणनिवत्ती जाव हुंडसंठाणनिश्वत्ती, नेरइयाणं पुच्छा गोयमा! एगा हुंडसंठाणनिवत्ती प०, असुरकुमाराणं पुच्छा, गोयमा! एगा समचउरंससंठाणनिबत्ती| प०, एवं जावणियकुमाराणं, पुढविकाइयाणं पुच्छा गोयमा ! एगा मसूरचंदसंठाणनिबत्ती प०, एवं जस्सर जं संठाणं जाववेमाणियाणं, काविहा णं भंते ! सन्नानिवत्ती प.?, गोयमा! चविहा सन्ना निबत्ती प० तं०आहारसन्नानिबत्ती जाव परिग्गहसन्नानिवत्ती एवंजाच वेमाणियाणं, कइविहा गं भंते । लेस्सानिछत्ती
प०१, गोयमा छविहा लेस्सानिवत्तीप०,०-कण्हलेस्सानिवत्ती जाव सुक्कलेस्सानिवत्ती एवं जाववेमाणियाण 2 दजस्स जइ लेस्साओ।कइविहा णभंते दिडीनिवत्तीप०१.गोयमा तिबिहा दिट्ठीनिवत्ती प०,तंजहा-सम्मादि-18
विनिवत्ती मिच्छादिहिनिबत्ती सम्मामिच्छविहीनिवत्ती एवं जाव वेमाणियाणं जस्स जइविहा दिट्ठी। कतिविहा|||७७१॥ |र्ण भंते !णाणनिवत्ती पन्नत्ता, गोयमा! पंचविहाणाणनिवत्ती प०,०-आमिणिबोहियणाणनिवती जाव | केवलनाणनिवत्ती, एवं एगिदियवजं जाव वेमाणियाणं जस्स जइणाणा। कतिविहाणं भंते ! अन्नाणनिबत्ती प०१,
~451
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [६५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६५९]
दीप अनुक्रम
गोयमा ! तिविहा अन्नाणनिवत्ती पं०, तं-मइअन्नाणनिचत्ती सुपअन्नाणनिवत्ती विभंगनाणनिवत्ती, एवं|४|| जस्स जइ अन्नाणा जाववेमाणियाणं । कइविहाणं भंते !जोगनिवत्ती प०?, गोयमा! तिविहा जोगनिवत्ती प०, तं०-मणजोगनिवत्ती वयजोगनिवत्ती कायजोगनिवत्ती, एवं जाववेमाणियाण जस्स जइविहो जोगो। कहविहा णं भंते! उवओगनिबत्ती प०१, गोयमा! दुविहा उचओगनिवत्ती प०, तं०-सागारोवओगनिवत्ती
अणागारोवओगनिबत्ती एवं जाव वेमाणियाणं, [अत्र सहगा वाचनान्तरे-जीवाणं निवत्ती कम्मप्पगडी ||| सरीरनिवत्ती । सर्विदियनिवत्ती भासा य मणे कसाया य॥१॥ बन्ने गंधे रसे फासे संठाणविही य होड बोद्धयो । लेसादिहीणाणे उचओगे चेव जोगे य॥२॥] सेवं भंते !२॥ (सूत्रं ६५९) ॥१९-८॥
'कइविहे ण मित्यादि, निर्वर्त्तनं-निवृत्तिनिष्पत्तिजविस्यैकेन्द्रियादितया निवृत्तिजीवनिवृत्तिः 'जहा बडगबंधो तेय||गसरीरस्स'त्ति यथा महल्लबन्धाधिकारेऽऽष्टमशते नवमोद्देशकाभिहिते तेजाशरीरस्य बन्ध उक्त एवमिह निवृत्तिवाच्या, | सा च तत एव दृश्येति ।। पूर्व जीवापेक्षया निर्वृत्तिरुक्ता, अथ तत्कार्यतद्धर्मापेक्षया तामाह-'कइविहे त्यादि, 'कसायनिवत्ति'त्ति कषायवेदनीयपुद्गलनिर्वर्तनं 'जस संठाणति तत्राप्कायिकानां स्तिबुकसंस्थानं तेजसा सूचीकलापसंस्थानं वायूनां पताकासंस्थानं वनस्पतीनां नानाकारसंस्थान विकलेन्द्रियाणां हुण्डं पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च षड् व्यन्तरादीनां समचतुरस्रसंस्थानम् ॥ एकोनविंशतितमशतेऽष्टमः ॥ १९-८॥
AARCRACK
[७७०
-७७३]
अत्र एकोनविंशतितमे शतके सप्तम-उद्देशक: परिसमाप्त:
~452
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [६६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६६०
व्याख्याअष्टमे निर्वृत्तिरुक्ता, सा च करणे सति भवतीति करणं नवमेऽभिधीयते इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
& १९शतके प्रज्ञप्तिः कइविहेणं भंते ! करणे पण्णत्ते ?, गोयमा! पंचविहे करणे पन्नत्ते, तंजहा-दबकरणे खेतकरणे कालकरणे उद्देशः९ अभयदेवी- भवकरणे भावकरणे, नेरहयाणं भंते ! कतिविहे करणे प०१, गोयभा! पंचविहे करणे प०, तं०-दबकरणे द्रव्यादिशयाताजाव भावकरणे एवं जाव वेमाणियाणं । कतिविहे णं भंते ! सरीरकरणे प०१, गोयमा! पंचविहे सरीरकरणे शरीरादिकर॥७७२॥ पन्नत्ते, तंजहा-ओरालियसरीरकरणे जावकम्मगसरीरकरणे य एवं जाव वेमाणियाणं जस्स जइ सरीराणि।
णानि कविहे णं भंते ! इंदिपकरणे प०१, गोयमा! पंचविहे इंदियकरणे पं०, तंजहा-सोहंदियकरणे जाव फासिंदियकरणे एवं जाच चेमाणियाणं जस्स जइ इंदियाई, एवं एएणं कमेणं भासाकरणे चउबिहे मणकरणे घउ-IN बिहे कसायकरणे चउबिहे समुग्घायकरणे सत्तविहे सन्नाकरणे चाउविहे लेसाकरणे छबिहे दिढिकरणे तिविहे है वेदकरणे तिविहे पन्नत्ते, तंजहा-इत्थिवेदकरणे पुरिसवेदकरणे नपुंसकवेंदकरणे, एए सबे नेरइयादी दंडगा
जाव वेमाणियाणं जस्स अस्थि तं तस्स सबंभाणियो । कतिविहेणं भंते ! पाणाइवायकरणे पं०?,गोयमा ।। पंचविहे पाणाइवायकरणे पं०२०-एगिदियपाणाइवायकरणे जाव पंचिंदियपाणाइवायकरणे, एवं निरवसेस जाववेमाणियाणं । कइविहे गं भंते ! पोग्गलकरणे प०१, गोयमा ! पंचविहे पोग्गलकरणे पं० सं०-वन्नकरणे टू
गंधकरणे रसकरणे फासकरणे संठाणकरणे, वनकरणे णं भंते ! कतिविहे ५०१, गोयमा । पंचविहे प०. ७७२॥ 18|| तंजहा-कालचन्न करणे जाव सुकिल्लवन्नकरणे, एवं भेदो, गंधकरणे दुविहे रसकरणे पंचविहे फासकरणे
64562555425
दीप अनुक्रम [७७४]
| अथ एकोनविंशतितमं शतके अष्टम-उद्देशकः आरभ्यते
~453
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [६६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६०
अहविहे, संठाणकरणे णं भंते ! कतिविहे प० ?, गोयमा ! पंचविहे प०, तंजहा-परिमंडलसंठाणे जाच आयतसंठाणकरणेत्ति सेवं भंते ! २त्ति जाव विहरति ॥ (सूत्रं ६६०)॥१९-९॥
'काविहे ण'मित्यादि, तत्र क्रियतेऽनेनेति करणं-क्रियायाः साधकतम कृतिर्वा करणं-क्रियामात्रं, नन्वस्मिन् व्याख्याने करणस्य निवृत्तेश्च न भेदः स्यात् , निवृत्तेरपि क्रियारूपत्वात् , नैवं, करणमारम्भक्रिया निवृत्तिस्तु कार्यस्य निष्पत्तिरिति । 'दबकरणे'त्ति द्रव्यरूपं करणं-दात्रादि द्रव्यस्य वा-कटादेः द्रव्येण-शलाकादिना द्रव्ये वा-पात्रादौ करणं द्रव्यकरणं, 'खेत्तकरणं ति क्षेत्रमेव करणं क्षेत्रस्य वा-शालिक्षेत्रादेः करणं क्षेत्रेण वा करणं स्वाध्यायादेः क्षेत्रकरणं, 'कालकरणे'त्ति काल | एष करणं कालस्य वा-अवसरादेः करण कालेन वा काले वा करणं कालकरण, 'भवकरणं'ति भघो-नारकादिः स एव करणं तस्य वा तेन वा तस्मिन् वा करणम् , एवं भावकरणमपि, शेषं तूद्देशकसमाप्तिं यावत् सुगममिति ॥ एकोनविंशतितमशते नवमः ॥ १९-९।।
|
दीप अनुक्रम [७७४*७७७.]
नवमे करणमुक्त, दशमे तु व्यन्तराणामाहारकरणमभिधीयते इत्येवंसम्बद्धोऽयंवाणमंतराणं भंते ! सवे समाहारा एवं जहा सोलसमसए दीवकुमारुद्देसओ जाय अपहियत्ति सेवं भंते २॥18 (सूत्रं ३६१) ॥ १९-१० ।।
॥ एकूणवीसतिमं सर्य सम्मत्तं ॥१९॥
LOCAC464
अत्र एकोनविंशतितमे शतके नवम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ एकोनविंशतितमं शतके दशम-उद्देशक: आरभ्यते ... अत्र द्वे गाथे वर्तते, तद् अनन्तर सूत्रांत वाक्य वर्तते । ( यहाँ दो गाथाए तथा सूत्रांत वाक्य है, जो हमारे मूल आगम के प्रकाशन में है, और उनका सूत्र-क्रम है-०७५ से ७७७ | कृपया हमारा “आगमसुत्ताणि-मूलं” देखिए | इसलिए दीप-अनुक्रम में ये तिन नंबर बढ़ जाएंगे | ...
~454
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [१९], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [६६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६१]
दीप
व्याख्या-1 सुगमो नवरं 'जाय अपहिय'ति अनेनेदमुद्देशकान्तिमसूत्र सूचितम्-'एएसिणं भंते ! वाणमंतराणं कण्हलेसाणं, १९ शतके
प्रज्ञप्ति जाव तेउलेसाण य कयरे२ हिंतो अप्पहिया वा महडिया वा, गोयमा ! कण्हलेसेहिंतो नीललेस्सा महडिया जाव सषम- उद्देशा१० अभयदेवीमयूदवार हड्डिया तेऊलेस्स'त्ति ॥ एकोनविंशतितमशते दशमः।। १९-१०॥ ॥ एकोनविंशतितमशतं च वृत्तितः समाप्तमिति ॥१९॥
व्यन्तरादीया वृत्तिः२
नां समाहाAnastanaseranastratasasanasvatanAmasaapaarastaarastamaal
रादि ७७३॥ एकोनविंशस्य शतस्य टीकामज्ञोऽप्यका सुजनानुभावात् । चन्द्रोपलश्चन्द्रमरीचियोगादनम्बुवाहोऽपि पयः प्रसूते ॥१॥ Cseversen SPASENSSerSERASAASSSSSSSSS
व्याख्यातमेकोनविंशतितमं शतम् , अथावसायातं विंशतितममारभ्यते, तस्य चादावेवोद्देशकसहणी 'बेईदिये'| त्यादिगाथामाह
बेइंदिय १ मागासे २ पाणवहे ३ उवचए ४ य परमाणू ५ । अंतर ६ बंधे ७ भूमी ८ चारण ९ सोवकमा १० जीवा ॥१॥रायगिहे जाव एवं बयासी-सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच बेंदिया एगयो साहारणसरीरं बंधति २ तओ पच्छा आहारेति वा परिणामेति वा सरीरं वा बंधंति, णो तिणद्वे समडे, बेदिया णं पत्तेयाहारा पत्तेयपरिणामा पत्तेयसरीरं बंधंति प०२ तओपच्छा आहारेति वा परिणामेति वा सरीरं वा बंधंति,
K७७३॥ | तेसिणं भंते ! जीवाणं कति लेस्साओ प०१,गोयमा! तओ लेस्सा पं० त०-कण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्सा, एवं जहा एगूणवीसतिमे सए तेजकाइयाणं जाव उच्चइंति, नवरं सम्मदिट्ठीवि मिच्छदिट्ठीवि नो सम्मामि
MANORG
अनुक्रम [७७७-७७८]
अत्र एकोनविंशतितमे शतके दशम-उद्देशक: परिसमाप्त: तत् समाप्ते एकोनविंशतितमं शतकं अपि समाप्तं
अथ विंशतितमं शतक आरभ्यते. अथ विंशतितमे शतके प्रथम-उद्देशक: आरब्ध:
~455~
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [६६२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [६६२]
गाथा
छदिहीवि, दो नाणा दो अन्नाणा नियम, नो मणजोगी वयजोगीवि कायजोगीवि, आहारो नियम छदिसिं. तेसि णं भंते । जीवाणं एवं सन्नाति वा पन्नाति वा मणेति वा बइति वा अम्हे णं इटाणिढे रसे इहाणिद्वे फासे ||
पडिसंवेदेमो?, णो तिणढे समढे, पडिसंवेदेति पुण ते, ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बारस संवच्छराई, 8 सेसं तं चेव, एवं तेइंदियावि, एवं चउरिदियावि, नाणत्तं इंदिएम ठितीए य सेसं तं चेव ठिती जहा पन्नवतणाए । सिय भंते ! जाच चत्तारि पंच पंचिंदिया एगयओ साहारणं एवं जहा बेंदियाणं नवरं छल्लेसाओ दिट्ठी|
तिविहावि चत्तारि नाणा तिन्नि अन्नाणा भयणाए तिविहो जोगो, तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सन्नाति वा पनाति वा जाव यतीति वा अम्हे णं आहारमाहारेमो?, गोयमा ! अत्धेगइयाणं एवं सन्नाइ वा पन्नाइ वा मणोइ वा वतीति वा अम्हे णं आहारमाहारेमो अत्धेगइयाणं नो एवं सन्नाति वा जाववतीति वा अम्हे गं | आहारमाहारेमो आहारेंति पुण ते, तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सन्नाति वा जाववइति वा अम्हे णं इहाणि? सद्दे इहाणिढे रूवे इट्ठाणिडे गंधे इटाणि? रसे इट्ठाणिडे फासे पडिसंवेदेमो?, गोयमा । |अत्थेगतियाणं एवं सन्नाति घा जाव चयीति वा अम्हे णं इट्टाणिढे सद्दे जाव इहाणिढे फासे पडिसंवे
देमो अत्थेगतियाणं नो एवं सन्नाइ वा जाववयीइ वा अम्हे णं इहाणि? सहे जाव इहाणिढे फासे पडि5 संवे० पडिसंवेदेति पुण ते, ते णं भंते ! जीवा किं पाणाइवाए उववाविनंति०१, गोयमा ! अत्धेगतिया
पाणातिवाएवि उपक्खाइजति जाब मिच्छादसणसल्लेवि उवक्वाइजति अत्धेगतिया नो पाणाइवाए
दीप अनुक्रम [७७९-७८०]
~4560
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [६६२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६२]
गाथा
व्याख्या-8 उवक्खातिजंति नो मुसा जाव नो मिच्छादसणसल्ले उवक्खातिजंति, जेसिंपिणं जीवाणं ते जीचा एबमा- २०शतके
* हिजति तेसिंपिणं जीवाणं अत्थेगतियाणं विनाए नाणत्ते अत्थेगतियाणं नो विण्णाए नो नाणत्ते, उववाओ उद्देशः१ अभयदेवी- सबओ जाव सबट्टसिद्धाओ ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई छस्समुग्धाया केवलि- द्वीन्द्रियाया वृत्तिः | वजा उबट्टणा सवस्थ गच्छंति जाव सबढसिद्धति, सेसं जहा दियाणं । एएसि णं भंते । बेइंदियाणं पंचि-दीनां शरी:
रवन्धादि ॥७७४॥ दियार्ण कयरे २ जाच विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सपत्थोवा पंचिंदिया चाउरिदिया विसेसाहिया तेइं दिया है।
सू ६६२ | विसेसाहिया वेईदिया पिसेसाहिया । सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरति ।। (सूत्रं ६६२)॥२०-१॥ । तत्र 'बेइंदियत्तिद्वीन्द्रियादिवतव्यताप्रतिबद्धः प्रथमोद्देशको द्वीन्द्रियोद्देशक एवोच्यत इत्येवमन्यत्रापि, 'आगासे'त्ति है आकाशाद्यों द्वितीयः, 'पाणबहे'त्ति प्राणातिपाताद्यर्थपरस्तृतीयः, 'उवचए'त्तिश्रोत्रेन्द्रियाद्युपश्चर्यार्थश्चतुर्थः, परमाणु
वक्तव्यतार्थः पञ्चमः, 'अंतर'त्ति रलप्रभाशर्करमभाद्यन्तरालवक्तव्यतार्थः षष्ठः, 'बंधे'त्ति जीवप्रयोगादिबन्धार्थः सप्तमः, 'भूमी'ति कर्माकर्मभूम्यादिप्रतिपादनार्थोऽष्टमः, 'चारण'त्ति विद्याचारणाद्यर्थो नवमः, 'सोयक्षमा जीव'सि सोपक्रमायुषो निरुपकमायुषश्च जीवा दशमे वाच्या इति, तत्र प्रथमोद्देशको व्याख्यायते, तस्य चेदमादिसूत्रम्-'रायगिहे'इत्यादि,
'सिय'त्ति स्यात् कदाचिन्न सर्वदा 'एगयओ'त्ति एकतः-एकीभूय संयुज्येत्यर्थः 'साहारणसरीरं बंधंति' 'साधारणशहरीरम्' अनेकजीवसामान्य बनन्ति प्रथमतया तत्मायोग्यपुद्गलग्रहणतः 'ठिई जहा पनवणाए'त्ति तत्र त्रीन्द्रियाणामुत्कृष्टा ॥७७४॥
एकोनपञ्चाशद्रात्रिंदिवानि चतुरिन्द्रियाणां तु षण्मासाः, जघन्या तूभयेषामप्यन्तर्मुहूर्त, 'यत्तारि माण'ति पश्चेन्द्रि
दीप अनुक्रम [७७९-७८०]
~457
Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [६६२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [६६२]
गाथा
याणां चत्वारि मत्यादिज्ञानानि भवन्ति केवलं त्वनिन्द्रियाणामेवेति, 'अत्थेगइयाण'ति सजिनामित्यर्थः 'अत्गहया पाणाइवाए उबक्खाइजति'त्ति असंयताः 'अत्धेगइया नो पाणाइवाए उवक्खाइजति'त्ति संयताः 'जेसिपि णं जीवाण'मित्यादि येषामपि जीवानां सम्बन्धिनाऽतिपातादिना ते पञ्चेन्द्रिया जीवा एवमाख्यायन्ते यथा प्राणातिपातादिमन्त एत इति तेषामपि जीवानामस्त्ययमों यदुतैकेषां सन्जिनामित्यर्थः 'विज्ञातं'प्रतीतं 'नानात्वं' भेदो यदुतैते वयं वध्यादय एते तु वधकादय इति, अस्त्येकेषां-असज्ञिनामित्यर्थः नो विज्ञातं नानात्वमुक्तरूपमिति ॥ विंशतितमशते प्रथमः ॥२०-१॥
प्रथमोद्देशके द्वीन्द्रियादयः प्ररूपितास्ते चाकाशाद्याधारा भवन्त्यतो द्वितीये आकाशादि प्ररूप्यते इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्' काविहे णं भंते ! आगासे प०१, गोयमा ! दुविहे आगासे प०, तं०-लोयागासे य अलोयागासे य, लोयागासेणं भंते । किं जीवा जीवदेसा?, एवं जहा वितियसए अस्थिउद्देसे तह चेव इहवि भाणियचं, नवरं अभिलावो जाव धम्मत्धिकाए णं भंते ! केमहालए प०, गोयमा ! लोए लोयमेत्ते लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव
ओगाहित्ताणं चिट्ठति, एवं जाव पोग्गलत्थिकाए । अहेलोए णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स केवतियं ओगाढे १, गोयमा! सातिरेगं अद्धं ओगाडे, एवं एएणं अभिलावेणं जहा वितियसए जाव ईसिपम्भारा र्ण भंते। पुढवी लोयागासस्स किं संखेज्जाभार्ग ओगाढा ? पुच्छा, गोयमा! नो संखेजहभाग ओगाढा असंखेजइभाग ओगाढा नो संखेज्जे भागे ओगाढा नो असंखेजे भागे नो सबलोयं ओगाढा सेसं तं चेव ।। (सूत्रं ६६३)
दीप अनुक्रम [७७९-७८०]
अत्र विंशतितमे शतके प्रथम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ विंशतितमे शतके द्वितीय-उद्देशक: आरभ्यते
~458~
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [६६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [६६३]
व्याख्या
'कतिविहे इत्यादि, नवरं 'अभिलावोत्ति अयमर्थः-द्वितीयशतस्यास्तिकायोद्देशकस्तावदिह निर्विशेषोऽध्येयो यावत् ४२० शतके प्रज्ञप्ति 'धम्मत्थिकाए भंते !' इत्यादिरालापकसूत्रं च नवरं-केवलं 'लोयं चेव फुसित्ताणं चिट्ठइत्ति एतस्य स्थाने 'लोयं चेव उद्देशः२ अभयदेवी- 18| ओगाहित्ताणं चिट्ठई' इत्ययमभिलापो दृश्य इति ।। अथानन्तरोक्तानां धर्मास्तिकायादीनामेकार्थिकान्याह
आकाशाया वृत्तिः२ | धम्मत्थिकायस्स णं भंते ! केवइया अभिवयणा पन्नत्ता ?, गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पन्नत्ता, तंजहा-४
दिः सू६६३
धमोस्तिका ॥७७५॥
धम्मेइ वा धम्मस्थिकायेति वा पाणाइवायवेरमणाइ वा मुसावायवेरमणेति एवं जाव परिग्गहवेरमणेतियाभिववा कोहविवेगेति वा जाव मिच्छादसणसल्लविवेगेति वाईरियासमितीति वा भासासमिए एसणासमिए आया चनानि णभंडमत्तनिक्खेवण उचारपासवणखेलजल्लसिंघाणपारिट्ठावणियासमितीति वा मणगुत्तीति वा वइगु-18 सू ६६४ त्तीति वा कायगुत्तीति वा जे यावन्ने तहप्पगारा सबे ते धम्मत्धिकायस्स अभिवयणा, अधम्मत्थिकाय- स्स णं भंते ! केवतिया अभिवयणा पन्नत्ता?, गोयमा ! अणेगा अभिवयणा प०, २०-अधम्मेति वा अधम्मस्थिकाएति वा पाणाइवाएति वा जाव मिच्छादसणसल्लेति वा ईरियाअस्समितीति वा जाव उच्चारपास
वणजावपारिद्वावणियाअस्समितीति वा मणअगुत्तीति वा वइअगुत्तीति वा कायअगुत्तीति वा जे यावन्ने || || तहप्पगारा सवे ते अधम्मस्थिकायस्स अभिवयणा, आगासस्थिकायस्स णं पुच्छा, गोयमा ! अणेगा अभि-|| || वयणा पतं०-आगासेति वा आगासस्थिकायेति वा गगणेति वा नभेति वा समेति वा विसमेति वा||४| | खहेति वा विहेति वा वीथीति वा विवरेति वा अंबरेति वा अंबरसेत्ति वा छिडेत्ति वा झुसिरेति वा मग्गेति
दीप अनुक्रम [७८१]
RMACOCCASSACROSSES
॥७७५॥
SAREauraton international
~459
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग -1, अंतर-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [६६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६४]
वा बिमुहेति वा अहेति वा वियहेति वा आधारेति वा भायणेति वा अंतरिक्खेति वा सामेति वा उवासंतरेइ वा फलिहेइ वा अगमिइ वा अणंतेति वा जे यावन्ने तहप्पगारा सबेते आगासस्थिकायस्स अभिवयणा । जीव-12 थिकायस्सणं भंते ! केवतिया अभिवयणा प०,गोयमा! अणेगा अभिवयणापं०२०-जीवेति वा जीवस्थिकायेति चा भूएति वा सत्तेति वा विनूति वा चेयाति वा जेयाति वा आयाति वा रंगणाति वा हिंदुएति वा पोग्गलेति वा माणवेति वा कत्ताति वा विकत्ताति वा जएति वा जंतुति था जोणिति वा सयंभूति वा ससरीरीति वा नायएति चा अंतरप्पाति वा जे यावन्ने तहप्पगारा सन्चे ते जाव अभिवयणा । पोग्गलस्थि-| कायस्स णं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! अणेगा अभिवयणा प०२०-पोग्गले ति वा पोग्गलत्थिकायेति वा परमाणुपोग्गलेति वा दुपएसिएति वा तिपएसिएति वा जाव असंखेज्जपएसिएति वा अणंतपएसिएति वा जे याव० सबे ते पोग्गलस्थिकायस्स अभिवयणा । सेवं भंते!२त्ति ॥ (सूत्रं ६६४)॥२०-२॥
'अभिवयणे'ति 'अभी'त्यभिधायकानि वचनानि-शब्दा अभिवचनानि पर्यायशब्दा इत्यर्थः, 'धम्मेह वत्ति जीवपुद्गलानां गतिपर्याये धारणाद्धर्मः इतिः' उपप्रदर्शने 'वा' विकल्पे 'धम्मत्थिकाए वत्ति धर्मश्चासावस्तिकायश्च-प्रदेशराशिरिति धम्मास्तिकाया, 'पाणाहवायवेरमणेइ वा इत्यादि, इह धर्मः-चारित्रलक्षणः स च प्राणातिपातविरमणादिरूपः, ततश्च धम्मशब्दसाधादस्तिकायरूपस्यापि धर्मस्य प्राणातिपातविरमणादयः पर्यायतया प्रवर्त्तन्त इति, 'जे यावन्ने'त्यादि, ये चान्येऽपि तथाप्रकाराः-चारित्रधर्माभिधायकाः सामान्यतो विशेषतो वा शब्दास्ते सर्वेऽपि धर्मास्तिकायस्याभि
**%ARKARBARAKAR
-
--
दीप अनुक्रम [७८२]
-
~460
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [६६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [६६४]
व्याख्या-5 वचनानीति । 'अधम्मे'त्ति धर्म:-उक्तलक्षणस्तद्विपरीतस्वधर्म:-जीवपुद्गलानां स्थित्युपष्टम्भकारी, शेष प्रागिव । 'आगा-*
|२० शतके प्रज्ञप्तिः सेति आ-मर्यादया अभिविधिना वा सर्वेऽर्थाः काशन्ते-स्वं स्वभावं लभंते यत्र तदाकाशं, 'गगणे'त्ति अतिशयगमन
| उद्देशः२ अभयदेवी- विषयत्वाद् गगनं निरुक्तिवशात् , 'नभेत्ति न भाति-दीप्यते इति नभः, "समें त्ति निनोन्नतत्वाभावात्समं 'विसमेति
धर्मास्तिका या वृत्तिः दुर्गमत्त्वाद्विपमं 'खहे'त्ति खनने भुवो हाने च-त्यागे यद्भवति तत् खहमिति निरुक्तिवशात् , 'विहे'त्ति विशेषेण हीयते
याद्यभिव॥७७६॥
त्यज्यते तदिति विहायः अथवा विधीयते-क्रियते कार्यजातमस्मिन्निति विहं, 'चीह'त्ति वेचनात्-विविक्तस्वभावत्वाद्वीचिः, चनानि विवरे'त्ति विगतवरणतया विवरम् 'अंधरे'त्ति अम्बेव-मातेव जननसाधादम्बा-जलं तस्य राणाद्-दानान्निरुक्तितोऽम्बर, सू६६४ 'अंबरसे'त्ति अम्बा-पूर्वोक्तयुक्त्या जलं तद्रूपो रसो यस्मात्तन्निरुक्तितोऽम्बरसं, 'छिड्डे'ति छिदः-छेदनस्यास्तित्वाच्छिद्रं | झुसिरे'त्ति झुषेः-शोषस्य दानात् शुषिरं, 'मग्गे'त्ति पथिरूपत्वान्मार्गः, 'विमुहे'त्ति मुखस्य-आदेरभावाद्विमुखम् 'अद्देत्ति अद्यते-गम्यते अट्टयते वा-अतिक्रम्यतेऽनेनेत्यईः अट्टो वा बिय'त्ति स एव विशिष्टो व्यहों व्यहोवा, 'आधार'त्ति आधा|रणादाधारः 'वोमेत्ति विशेषेणावनाल्योम, 'भायणे ति भाजनाद्-विश्वस्याश्रयणामाजनम् , 'अंतलिक्खे'त्ति अन्तः
मध्ये ईक्षा-दर्शनं यस्य तदन्तरीक्षं, 'सामेति श्यामवर्णत्वात् श्यामम् 'ओवासंतरे'त्ति अवकाशरूपमन्तरं न विशेषादि| रूपमित्यवकाशान्तरम् 'अगमति गमनक्रियारहितत्वेनागमं 'फलिहित्ति स्फटिकमिवाच्छत्वात् स्फटिकम् 'अणंते'ति अन्तवर्जितत्वात् । 'चय'त्ति चेता पुद्गलानां चयकारी चेतयिता वा 'जेय'त्ति जेता कर्मरिपूणाम् 'आय'त्ति आत्मा नानागतिसततगामित्वात् 'रंगणेत्ति रङ्गणं-रागस्तद्योगाद्रङ्गणः 'हिंदुए चि हिण्डुकत्वेन हिण्डुका, 'पोग्गले'त्ति पूरणान
दीप अनुक्रम [७८२]
RRHOEACcX
~461
Page #462
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [६६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६४]
लनाच शरीरादीनां पुद्गलः, 'माणय'त्ति मा-निषेधे नवः-प्रत्ययो मानवः अनादित्वात्पुराण इत्यर्थः 'कत्त'ति कर्ताकारकः कर्मणां 'विगत्त'त्ति विविधतया कर्त्ता विकर्ता विकर्तयिता वा-छेदकः कर्मणामेव 'जए'त्ति अतिशयगमनाजगत् 'जंतु'त्ति जननाजजन्तुः 'जोणित्ति योनिरन्येषामुत्पादकत्वात् 'सयंभु'त्ति स्वयंभवनात्स्वयम्भूः 'ससरीरि'त्ति सह || शरीरेणेति सशरीरी 'नायए'त्ति नायका-कर्मणां नेता 'अंतरप्पति अन्ता-मध्यरूप आत्मा न शरीररूप इत्यन्तरा-1 त्मेति ॥ विंशतितमशते द्वितीय उद्देशकः समाप्त इति ।। २०-२॥
XCSC
दीप अनुक्रम [७८२]
द्वितीयोद्देशके प्राणातिपातादिका अधर्मास्तिकायस्य पर्यायत्वेनोक्ताः, तृतीये तु तेऽन्ये चात्मनोऽनन्यत्वेनोच्यन्ते || इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
अह भंते ! पाणाइवा० मुसावा जाव मिच्छाद पाणातिवायवेरमणे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे खप्पत्तिया जाव पारिणामिया उग्गहे जावधारणा उट्ठाणे कम्मे चले वीरिए पुरिसकारपरकमे नेरइयत्ते असुरटू कुमारत्ते जाव वेमाणियत्ते नाणावरणिज्जे जाव अंतराइए कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा सम्मदिही ३ चक्खुदसणे ४ आभिणियोहियणाणे जाव विभंगनाणे आहारसन्ना ४ ओरालियसरीरे ५ मणजोगे ३ सागारो-17 वओगे अणागारोवओगे जे यावन्ने त सचे ते णण्णत्थ आयाए परिणमंति !, हंता गोयमा ! पाणाइवाए जाव सचे ते णपणत्थ आयाए परिणमंति ॥ (सूत्रं ६६५)
For P
OW
अत्र विंशतितमे शतके द्वितीय-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ विंशतितमे शतके तृतीय-उद्देशकः आरभ्यते
~462
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [६६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६५]]
AK
व्याख्या
'अहे'त्यादि, 'णणस्थ आयाए परिणमंति'त्ति नान्यत्रात्मनः परिणमन्ति-आत्मानं वर्जयित्वा नाम्यते वर्तन्ते, आत्म-18||२० शतके प्रज्ञप्तिः पर्यायत्वादेषा, पर्यायाणां च पर्यायिणा सह कश्चिदेकत्वादात्मरूपाः सर्व एवैते नात्मनो भिन्नत्वेन परिणमन्तीति भावः ॥ उद्देशः ३ अभयदेवी-
| अनन्तरं प्राणातिपातादयो जीवधर्माश्चिन्तिताः, अथ कथश्चित्तद्धा एव वर्णादयश्चिन्त्यन्तेअनन्त पाणालियानाडोजी
माणातिपाया वृत्तिः२ जीवे णं भंते ! गम्भं वक्कममाणे कतिवन्नं एवं जहा बारसमसए पंचमुद्देसे जाव कम्मओणं जए णो
तादीनामा
स्मपरि॥७७७॥ अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमति । सेवं भंते !२त्ति जाव विहरति (सूत्र ६६६) २०-३ ॥
णामता 'जीवे ण'मित्यादि, जीवो हि गर्भ उत्पद्यमानस्तैजसकार्मणशरीरसहित औदारिकशरीरग्रहणं करोति, शरीराणि च । वर्णादियुक्तानि तदव्यतिरिक्तश्च कथचिज्जीवोऽत उच्यते-'कतिवन्न'मित्यादि, 'एवं जहे'त्यादिना चेदं सूचित-'कतिरस गभव्युक्रम लि कतिफासं परिणाम परिणमति, गोयमा! पंचवन्न पंचरस दुगंधं अट्ठफासं परिणाम परिणमती'त्यादि, व्याख्या चास्य Sk|| सू ६६६ पूर्ववदेवेति ॥ विंशतितमशते तृतीयः ॥ २०-३॥ तृतीये परिणाम उक्तश्चतुर्थे तु परिणामाधिकारादिन्द्रियोपचयलक्षणः परिणाम एवोच्यत इत्येवंसम्बद्धस्यस्येदमादिसूत्रम्
॥७७७॥ कइविहे भंते ! इंदियउवचए पन्नत्ते ?, गोयमा! पंचविहे इंदियोवचए प० सं०-सोइदियउवचए एवं|* वितिओ इंदियउद्देसओ निरवसेसो भाणियचो जहा पन्नवणाए । सेवं भंते । २ति भगवं गोयमे जाव विह-13 रति ॥ (सूत्र ६६७)॥२०-४॥
दीप
अनुक्रम [७८३]
SAREarainintamanand
अत्र विंशतितमे शतके तृतीय-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ विंशतितमे शतके चर्थ-उद्देशक: आरभ्यते
~463
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [६६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
'कह'त्यादि, 'एवं बितिओ इंदियउद्देसओ'इत्यादि यथा प्रज्ञापनायां पञ्चदशस्येन्द्रियपदस्य द्वितीय उद्देशकस्तथाऽयं वाच्यः, स चैवं-सोइंदिओवचए चक्खिदिओवचए पाणिदिओवचए रसणिदिओवचए फासिंदिओवचए' इत्यादि ॥ विंशतितमशते चतुर्थः ॥ २०-४॥
प्रत
सूत्रांक
[६६७]
चतुर्थे इन्द्रियोपचय उक्तः, स च परमाणुभिरितिपञ्चमे परमाणुस्वरूपमुच्यते इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्- # | परमाणुपोग्गले णं भंते ! कतिचन्ने कतिगंधे कतिरसे कतिफासे पन्नते ?, गोयमा ! एगवन्ने एगगंधे एग-18| दरसे दुफासे पन्नत्ते, तंजहा-जइ एगवन्ने सिय कालए सिय नीलए सिय लोहिए सिय हालिद्दे सिय सुकिल्ले,
जइ एगगंधे सिय सुन्भिगंधे सिय दुग्भिगंधे, जइ एगरसे सिय तित्ते सिय कडुए सिय कसाए सिय अंबिले
सिय महुरे, जइ दुफासे सिय सीए य निद्धे य१सिय सीए य लुक्खे य २ सिय उसिणे य निद्धे य ३ सिय हाउसिणे य लुक्खे य ४॥ दुप्पएसिए णं भंते ! खंधे कतिवन्ने ? एवं जहा अट्ठारसमसए छटुवेसए जाव ||
सिय चउफासे पन्नत्ते, जह एगवझे सिय कालए जाव सिय सुकिल्लए जइ दुवन्ने सिय कालए नीलए य | ४. सिय कालए य लोहिए य २ सिय कालए य हालिद्दए य ३ सिय कालपय सुकिल्लए य ४ सिय नीलए लोहिए| लिसिय नी० हालिद्द०६ सिय नीलए य सुकिल्लए य ७सिय लोहिए य हालिद्दए य ८ सिय लोहिए य सुक्कि
लिए घ ९सिय हालिद्दए य सुकिल्लए य१० एवं एए दुयासंजोगे दस भंगा । जइ एगगंधे सिय सुभिगंधे १
SBAARAKASEASE
दीप अनुक्रम [७८५]
AREautatin international
अत्र विंशतितमे शतके चतुर्थ-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ विंशतितमे शतके पंचम-उद्देशकः आरभ्यते
परमाणु-पुद्गलस्य वक्तव्यता
~464
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
जा
प्रत सूत्रांक
[६६८]
दीप अनुक्रम [७८६]
व्याख्या- सिय दुन्भिगंधे य २ जइ दुगंधे सुब्भिगंधे य रसेसु जहा वन्नेसु जइ दुफासे सिय सीए य निद्धे य एवं २० शतके
प्रज्ञप्तिः जहेव परमाणुपोग्गले ४, जइ तिफासे सधे सीए देसे निद्धे देसे लुक्खे १ सधे उसिणे देसे निद्रे देसे लुक्खे उद्देशः ४ अभयदेवी-||२सबे निद्धे देसे सीए देसे उसिणे ३ सवे लुक्खे देसे सीए देसे उसिणे ४ जइ चउफासे देसे सीए देसे 3 इन्द्रियोपच या वृत्तिः२ उसिणे देसे निढे देसे लुक्खे १ एए नव भंगा फासेसु ।। तिपएसिए णं भंते ! खंधे कतिवन्ने जहा अट्ठारस | यासू ५६७
परमाण्वा. li७७८॥ मसए छहृदेसे जाव चउफासे प०, जइ एगवन्ने सिय कालए जाव सुकिल्लए ५ जइ दुवन्ने सिय कालए य सिय नीलगे य१सिय कालगे य नीलगा य २ सियकालगा य नीलए य ३ सिय कालए य लोहियए य१]
दिवर्णादि
सू ६६८ सिय कालए य लोहीयगा य२ सिय कालगा य लोहियए य३ एवं हालिद्दएणवि समं भंगा ३ एवं सुकिल्लएजाणवि समं ३ सिय नीलए य लोहियए य एत्थंपि भंगा ३ एवं हालिद्दएणधि समं भंगा ३ एवं सुकिल्लेणधि
समं भंगा ३ सिय लोहियए य हालिद्दए य मङ्गा ३ एवं सुकिल्लेणवि समं ३ सिय हालिद्दए य सुकिल्लए य भंगा ३ एवं सच्चे ते दस दुयासंजोगा भंगा तीसं भवंति, जइ तिवन्ने सिय कालए य नीलए प लोहियए य| १ सिय कालए य नीलए य हालिहए य २ सिय कालए य नीलए य सुकिल्लए य३ सिय कालए य लोहि-४ यए य हालिए य ४ सिय कालए य लोहियए य सुकिल्लए य५ सिय कालए य हालिहए य सुकिलए य६ सिय
15 ॥७७८1 नीलए य लोहियए य हालिहए य७सिय नीलए य लोहिए य सुकिल्लए य८सिय भीलए य हालिए य सुकि|ल्लए य९सिय लोहिए य हालिद्दए य सुकिल्लए य १० एवं एए दस तियासंजोगा। जइ एगगंधे सिय सुरिभ
...अब मूल-संपादने सूत्रक्रमांकन-सुचने एक स्खलना दृश्यते-उद्देश: ५ स्थाने उद्देश: ४ मुद्रितं
परमाणु-पुद्गलस्य वक्तव्यता
~465
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६८]
गंधे १ सिप दुरिभगंधे २ जाइ दुगंधे सिय सुन्भिगंधे य दुन्भिगंधे यभंगा३ । रसा जहा वना। जह दुफासे & सिय सीए य निद्धे य एवं जहेव दुपएसियरस तहेव चत्तारि भंगा ४, जइ तिफासे सबे सीए देसे निद्धे ।
| देसे लुक्खे १ सवे सीए देसे निद्धे देसा लुक्खा २ सन्चे सीए देसा निद्धा से लुक्खे ३ सबै उसिणे वेसे निडे | दिवेसे लुक्खे ३ एस्थवि भंगा तिन्नि, सबे निद्ध देसे सीए देसे उसिणे भंगा तिन्नि ९, सबै लुक्खे देसे सीए
देसे उसिणे भंगा तिनि एवं १२, जा चउफासे देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे १देसे सीए| | देसे उसिणे देसे निद्धे देसा लुक्खा २ देसे सीए देसे उसिणे देसा निद्धा देसे लुक्खे ३ देसे सीए देसा उसिणा देसे निद्धे देसे लुक्खे ४ देसे सीए देसा उसिणा देसे निद्धे देसा लुक्खा ५ देसे सीए देसा उसिणा| देसा निद्धा देसे लुक्खे ६ देसा सीया देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे ७ देसा सीया देसे उसिणे देसे निद्धे देसा लुक्खा ८ देसा सीया देसे उसिणे देसा निद्धा देसे लुक्खे ९ एवं एए तिपएसिए फासेसु पण-18 | वीसं भंगा । चउप्पएसिए णं भंते ! खंधे कतिबन्ने जहा अट्ठारसमसए जाच सिय चाफासे पन्नते जइ एग-| बने सिय कालए य जाव सुकिल्लए ५ जइ दवन्ने सिय कालए य नीलगे य १ सिय कालगे य नीलगा य २ सिय कालगा य नीलगे य३ सिय कालगा य नीलगाय ४ सिय कालए, य लोहियए य एत्यधि चत्तारि मंगा ४ सिय कालए य हालिद्दए य ४ सियकालए य सुक्किले य ४ सिय नीलए य लोहियए य ४ सिय नी|लए य हालिदए य ४ सिय नीलए य सुफिल्लए य ४ सिय लोहियए य हालिद्दए य ४ सिप लोहियए य मुकि-||
NAGACAST
दीप अनुक्रम [७८६]
RELIGunintentATHREE
परमाणु-पुद्गलस्य वक्तव्यता
~466
Page #467
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [६६८]
दीप अनुक्रम [७८६]
व्याख्या मल्लए य ४ सिय लोहियए य हालिद्दए य ४ सिय लोहियए य सुकिल्लए य ४ सिय हालिद्दए य सुकिल्लए
य २० शतके प्रज्ञप्तिः अभयदेवी
एवं एए दस दुयासंजोगा भंगा पुण चत्तालीस ४०, जइ तिवन्ने सिय कालए य नीलए य लोहियए य १ सिय उद्देशः४
कालए नीलए लोहियगा य २ सिप कालगा य नीलगाय लोहियए य ३ सिय कालगा य नीलए य लोहि- या वृत्तिः२]
इन्द्रियोपच यए य एए भंगा ४ एवं कालनीलहालिदएहि भंगा ४ कालनीलसुकिल्ल ४ काललोहियहालिद्द ४ काललोहि- यासू १५० १७७९॥ यसुकिल्ल ४ कालहालिहसुकिल्ल ४ नीललोहियहालिहगाणं भंगा ४ नीललोहियसुकिल्ल ४ नीलहालिहसु
| दिवर्णादि || किल्ल ४ लो० हा० सुकिल्लगाणं भंगा ४ एवं एए दसतियासंजोगा एकेके संजोए चत्तारि भंगा सबे ते चत्ता-ICIAEEE भालीसं भंगा ४०, जइ चउबन्ने सिय कालए नील. लोहिय हालिद्दए य १ सिय का नील लो. सुकिल्लए २ || सिय का० नील हालि० सुकिल्ल३ सिय का० लो हासुकि०४सिय नी. लोहि हासु०५ एवमेते चउ-18 दिगसंजोए पंच भंगा एए सबै नउहभंगा, जइ एगगंधे सियसम्मिगंधे सिय दुन्भिगंधे य जइ दुगंधे सिय||
सुग्भिगंधे य सिय दुन्भिगंधे य । रसा जहा वन्ना । जइ दुफासे जहेव परमाणुपोग्गले ४, जइ तिफासे सवे सीए देसे निद्धे देसे लुक्खे १ सवे सीए देसे निद्धे देसालुक्खा रसचे सीए देसा निद्धा देसे लुक्खे ३ सचे सीए देसा निद्धा देसा लुक्खा ४ सो उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे एवं भंगा ४ सचे निद्धे देसे सीए देसे उसिणे ॥७७९॥ ४ सवे लुक्खे देसे सीए देसे उसिणे ४ एए तिफासे सोलसभंगा, जइ चउफासे देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे १ देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसा लुक्खा २ देसे सीए देसे उसिणे देसा निद्धा .
For P
LOW
...अब मूल-संपादने सूत्रक्रमांकन-सुचने एक स्खलना दृश्यते-उद्देश: ५ स्थाने उद्देश: ४ मुद्रितं
परमाणु-पुद्गलस्य वक्तव्यता
~467~
Page #468
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
USAGAR
प्रत सूत्रांक [६६८]
दीप अनुक्रम [७८६]
18 देसे लुक्खे ३ देसे सीए देसे उसिणे देसा निद्धा देसालुक्खा ४ देसे सीए देसा उसिणा देसे निद्धे देसे लुक्खे
५ देसे सीए देसा उसिणा देसे निद्धे देसा लुक्खा ६ देसे सीए देसा उसिणा देसा निद्धा देसे लुक्खे ७ | देसे सीए देसा उसिणा देसा निद्धा देसा लुक्खा ८ देसा सीया देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे ९ एवं || ४ एए चउफासे सोलस भंगा भाणियबा जाच देसा सीया देसा उसिणा देसा निद्धा देसा लुक्खा सके एते फासेसु छत्तीसं भंगा ॥ पंचपएसिए णं भंते ! खंधे कतिवन्ने जहा अट्ठारसमसए जाव सिय चउफासे प०,
जइ एगवन्ने एगवन्नदुवन्ना जहेव चउप्पएसिए, जइ तिवन्ने सिय का नीलए लोहियए य१सिय कालनीलए 8. लोहिया य २ सिय काल नीलगा य३ लोहिए य ३ सिय कालए नीलगा य लोहियगा य ४ सिय काल नीलए य लोहियए य ५ सिय कालगा य नीलगे य लोहियगा य ६ सिय कालगा नीलगा य लोहियए यह ७ सिय कालए मीलए हालिहए य एत्थवि सत्त भंगा७, एवं कालगनीलगसुफिल्लएसु सत्त भंगा, कालगलो| हियहालिदेसु कालगलोहियसुकिल्लेसु ७ कालगहालिहसुकिल्लेसु ७ नीलगलोहियहालि देसु ७ नीलगलोलिहियसुकिल्लेसु सत्त भंगा ७ नीलगहालिहसुकिल्लेसु७ लोहियहालिहसुकिल्लेमुबि सत्त भंगा ७ एवमेते तिया-
|संजोए एए सत्तरि भंगा, जइ चउवन्ने सिप कालए य नीलए लोहियए हालिहए य१सिय कालए य नीलए| ४ य लोहियए य हाल्लिदगा य२ सिय कालए य नीलए यलोहियगा य हालिहगे य ३सिय कालए नीलगाय लोहि-४ & यगे य हालिहगे य४ सिय कालगाय नीलए य लोहियए य हालिद्दए य५ एए पंच भंगा, सिय कालए यनीलए य
CASSANSACX
परमाणु-पुद्गलस्य वक्तव्यता
~468
Page #469
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६८]
दीप अनुक्रम [७८६]
व्याख्या-8 लोहियए य सुकिल्लए य एत्थवि पंच भंगा, एवं कालगनीलगहालिहसुकिल्लेसुवि पंच भंगा, कालगलोहिय- २० शतके
द हालिहसुकिल्लएसुवि पंच भंगा ५, नीलगलोहियहालिहसुकिल्लेसुवि पंच भंगा, एवमेते चउकगसंजोएणं पण- | उद्देशः४ अभयदेवी
| वीस भंगा, जइ पंचवन्ने कालए य नीलए लोहियए हालिए सुकिल्लए सबमेते एक्कगदुयगतियगचउक्कपंच- इन्द्रियोपच या वृत्तिः२| गसंजोएणं ईयालं भंगसयं भवति । गंधा जहा चउप्पएसियस्स । रसा जहा बन्ना । फासा जहा चउप्पए-8
परमाणवा. सियस्स ॥ छप्पएसिए णं भंते ! खंधे कतिवन्ने ?, एवं जहा पंचपएसिए जाव सिय चउफासे पन्नत्ते, जइ ॥७८०॥ |एगवन्ने एगवन्नदुवन्ना जहा पंचपएसियस्स, जद तिवन्ने सिय कालए य नीलए य लोहियए य एवं जहेव पंच
1.दिवर्णादि
सू६६८ |पएसियस्स सस भंगा जाब सिय कालगाय नीलगा य लोहियए य ७सिय कालगाय नीलगा य लोहियगा द्रय ८एए अह भङ्गा एवमेते दस तियासंजोगा एकए संजोगे अह भंगा एवं सबेवि तियगसंजोगे असीति
भंगा, जइ चाउचन्ने सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिहए य१सिय कालए य नीलए य लोहियए यहालिहया य २ सिय कालए य नीलए य लोहिया य हालिहए य ३ सिय कालगेय नीलगे य लोहियगाय हालिइएय सिय कालगे य नीलगाय लोहियए य हालिदए य ५ सिय कालए पानीलगा य लोहियए हालिदगा याद सिय कालगे य नीलगा यलोहियगा य हालिए य ७सिय कासगा पनीलए य लोहियए य हालिदप या सिय कालगा नीलए लोहियए हालिहगा य९सिय कालगा नीलगे लोहियगा य हालिहगे य१. सिय 8
७८०1 कालगा य नीलगा य लोहियप य हालिदप प ११ एए एक्कारस भंगा, एवमेते पंचचउवासंजोगा कायदा
...अब मूल-संपादने सूत्रक्रमांकन-सुचने एक स्खलना दृश्यते-उद्देश: ५ स्थाने उद्देश: ४ मुद्रितं
परमाणु-पुद्गलस्य वक्तव्यता
~469~
Page #470
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६८]
एकसंजोए एकारस भंगा सचे ते चउक्गसंजोएणं पणपन्नं भंगा, जइपंचवन्ने सिय कालए य नीलए य लोहि-| कोएय य हालिहए य सुकिल्लए य१सिप कालए य नीलए लोहियए हालिहए सुकिल्लगा य २ सिय कालए नीलए लोहियए हालिहगा य सुकिल्लए य ३ सिय कालए नीलए लोहियगा हालिद्दए य सुकिल्लए ४ सिय कालए य नीलगा य लोहियए य हालिहए सुकिल्लए य ५सिय कालगा नीलगे य लोहियगे य हालिइए य
सुकिल्लए ६ एवं एए छम्भंगा भाणियबा, एवमेते सधेवि एक्कगदुयगतियगचउकगपंचगसंजोगेसु छासीयं भंगK सयं भवति । गंधा जहा पंचपएसियस्स । रसा जहा एयरसेव । वन्ना फासा जहा चउप्पएसियस्स ॥ सत्तपए* सिए णं भंते ! खंधे कतिवन्ने०१,जहा पंचपएसिए जाव सिय चउफासे प०,जइ एगवने एवं एगवन्नदुवषणति-19
वन्ना जहा छप्पएसियस्स, जइ चउबन्ने सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दए य १ सिय कालए यी नीलए य लोहियए य हालिहगा य २ सिय कालए य नीलए य लोहियगा हालिद्दए ३ एवमेते चउक्कगसंजोगेणं पन्नरस भंगा भाणियवा जाव सिय कालगा य नीलगाय लोहियगा य हालिद्दए य १५ एवमेते पंचच-|| उकसंजोगा नेयवा एकेके संजोए पन्नरस भंगा सबमेते पंचसत्तरि भंगा भवंति । जइ पंचवन्ने सिय कालए य
नीलए य लोहियए हालिद्दए सुकिल्लए १ सिय कालए नीलए य लोहियए य हालिद्दगे य सुकिल्लगा य २ हैसिय कालए य नीलए लोहियए हालिद्दगा य सुकिल्लए य ३ सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिदगा काय मुकिल्लगा य ४ सिय कालए य नीलए य लोहियगा य हालिद्दए य सुकिल्लए य ५सिय कालए य नीलए
दीप अनुक्रम [७८६]
परमाणु-पुद्गलस्य वक्तव्यता
~470
Page #471
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
२० शतके उद्देशः ४ इन्द्रियोपच यःसू९६१ | दिवर्णादि सू ६६८
[६६८]
दीप अनुक्रम [७८६]
व्याख्या-1
लय लोहियगा य हालिगे य सुकिल्लए य ६ सिय कालए य नीलए य लोहियगा य हालिहगा य सुकिल्लए प्राप्तिःशय ७ सिय कालए य नीलगा य लोहियगे य हालिद्दए य सुकिल्लए य ८ सिय कालगे य नीलगाय लोहियए अभयदेवी- य हालिहए य सुकिल्लगा य९सिय कालगे य नीलगा य लोहियगे हालिगा सुकिल्लए य १० सिय कालए
तय नीलगा य लोहियगा य हालिहए य सुकिल्लए य ११ सिय कालगा य नीलगे य लोहियए य हालिद्दए य ॥७८१॥
सुकिल्लए य १२ सिय कालगा य नीलगे य लोहियगे य हा लिइए य सुकिल्लगा य १३ सिय कालगा य नीलए य लोहियए य हालिहंगा य मुकिल्लए य १४ सिय कालगा य नीलए य लोहियगा य हालिद्दए य सुकिलए य १५ सिय कालगा य नीलगा य लोहियए य हालिद्दर य सुकिल्लए य १६ एए सोलस भंगा, एवं सबमेते एक्कगदुयगतियगचउकगपंचगसंजोगेणं दो सोला भंगसया भवंति, गंधा जहा चउप्पएसियस्स, रसा जहा एयरस चेव बन्ना फासा जहा चउप्पएसियस्स ॥ अठ्ठपएसियरस णं भंते ! खंधे पुच्छा, गोयमा । सिय एगवन्ने जहा सत्तपएसियस्स जाव सिय चउफासे प० जइ एगवन्ने एवं एगवन्नदुवन्नतिवन्ना जहेच सत्तपए| सिए, जइ चउचन्ने सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिहए य १ सिय कालए य नीलए य लोहियए हाय हालिद्दगा य २ एवं जहेव सत्तपएसिए जाव सिय कालगा य नीलगा य लोहियगा यहालिद्दगे य १५ सिय
कालगा य नीलगा य लोहियगा य हालिद्दगा य १६ एए सोलस भंगा, एवमेते पंच चउक्कसंजोगा, एवमेते असीति भंगा ८०, जह पंचवन्ने सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दए य सुकिल्लए य१सिय कालए
Pil८
॥
...अब मूल-संपादने सूत्रक्रमांकन-सुचने एक स्खलना दृश्यते-उद्देश: ५ स्थाने उद्देश: ४ मुद्रितं
परमाणु-पुद्गलस्य वक्तव्यता
~471
Page #472
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-1, अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६८]
दीप अनुक्रम [७८६]
य नीलगे य लोहियगे य हालिद्दगे य सुकिल्लगा य २ एवं एएणं कमेणं भंगा चारेयवा जाव सिय कालए य तिनीलगा य लोहियगा य हालिद्दगा य सुकिल्लगे य १५ एसो पन्नरसमो भंगो सिय कालगा यमीलगे य लोहि
यगे य हालिद्दए य मुकिल्लए य १६ सिय कालगा य नीलगे य लोहियगे य हालिद्दगे य सुकिल्लगा य १७ सिय कालगाय नीलगे य लोहियगे य हालिद्दगा य मुकिल्लए य १८ सिय कालगाय नीलगेय लोहियगय हालिहगा य सुकिल्लगा य १९ सिय कालगा य नीलगे य लोहियगा य हालिद्दए य सुकिल्लए य २० सिय कालगाय नीलगे य लोहियगा य हालिद्दए य सुकिल्लए य २१ सिय कालगा य नीलगे य लोहियगा य हालिदगा य सुकिल्लए य २२ सिय कालगा य नीलगाय लोहियगे य हालिद्दए य सुकिल्लए य २३ सिय कालगा य नीलगा य लोहियगे य हालिद्दए य सुकिल्लगा य २४ सिय कालगा य नीलगा य लोहियगे य हालिहगा य सुकिल्लए य २५
सिय कालगा य नीलगाय लोहियगा य हालिद्दए य सुकिल्लए य २६ एए पंचसंजोएणं छच्चीसं भंगा भवंति, ॥ एवमेव सपुषावरेणं एकगद्यगतियगचउवगपंचगसंजोएहिं दो एकतीसं भंगसया भवंति, गंधा जहा सत्त-IN
पएसियस्स, रसा जहा एयस्स चेव वन्ना, फासा जहा चउप्पएसियस्स ॥ नवपएसियरस पुच्छा, गोयमा सिय एगवन्ने जहा अट्ठपएसिए जाच सिप चउफासे प० जइ एगवन्ने एगवनवन्नतिवन्नच उचन्ना जहेव अट्ट
पएसियस्स, जह पंचवन्ने सिय कालए य नीलए य लोहियए य हालिद्दए सुकिल्लए य१सिय कालगे य नीलगे Kय लोहियए य हालिद्दए य सुकिलगा य २ एवं परिवाडीए एकतीसं भंगा भाणियबा, एवं एकगद्यगतिय
KARNAGACASSACREKASAR
परमाणु-पुद्गलस्य वक्तव्यता
~472
Page #473
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६८]
दीप अनुक्रम [७८६]
व्याख्या-1 गचउक्तगपंचगसंजोएहिं दोछत्तीसा भंगसया भवंति, गंधा जहा अट्टपएसियरस, रसा जहा एयस्स चेव वन्ना, २० शतके प्रज्ञप्तिः द फासा जहा चउपएसियस्स । दसपएसिए णं भंते ! खंधे पुच्छा, गोयमा ! सिय एगवन्ने जहा नवपएसिए जाय उद्देशः ४ अभयदेवी-||||सिय चउफासे पन्नत्ते, जइ एगवन्ने एगवन्नदुवन्नतिवन्नचउवना जहेव नवपएसिपस्स, पंचवावि तहेच नवरा इन्द्रियोपच बत्तीसतिमो भंगो भन्नति, एवमेते एकगद्यगतियगचउक्तगपंचगसंजोएसु दोन्नि सत्ततीसा भंगसया भवंति,
यासू ६६७
परमाण्वा॥७८२॥ गंधा जहा नवपएसियस्स, रसा जहा एयस्स चेव वन्ना, फासा जाब चउप्पएसियस्स । जहा दसपएसिओ
सा जहा दसपासआदिवादि एवं संखेजपएसिओवि, एवं असंखेजपएसिओवि, सुहुमपरिणओवि अणंतपएसिओवि एवं चेव ॥(सूत्रं १६००
सू ६६८ _ 'परमाणु'इत्यादि, 'एगवन्ने'त्ति कालादिवर्णानामन्यतरयोगात्, एवं गन्धादिष्वपि याच्यं, 'दुफासे'त्ति शीतोष्णनिग्धरूक्षाणामन्यतरस्याविरुद्धस्य द्वितयस्य योगाद् द्विस्पर्शः, तत्र च विकल्पाश्चत्वारः, शीतस्य स्निग्धेन रूक्षेण च क्रमेण योगाही. एवमुष्णस्यापि द्वाविति चत्वारः, शेषास्तु स्पर्शा बादराणामेव भवन्ति ॥ 'दुपएसिए णमित्यादि, द्विप्रदेशिकस्यैकवर्णता || प्रदेशद्वयस्याप्येकवर्णपरिणामात् , तत्र च कालादिभेदेन पश्च विकल्पाः, द्विवर्णता तु प्रतिप्रदेशं वर्णभेदात् , तत्र च द्विक
संयोगजाता दश विकल्पाः सूबसिद्धा एव, एवं गन्धरसेष्वपि, नवरं गन्धे एकत्वे द्वौ द्विकसंयोगे त्वेका, रसेध्येकवे पश्च || द्वित्वे तु दश, स्पर्शेषु द्विस्पर्शतायां चत्वारः प्रागुक्ताः, 'जह तिफासे इत्यादि 'सवे सीए'त्ति प्रदेशद्वयमपि शीतं १, तस्यैव ॥४ 18 यस्य देश एक इत्यर्थः स्निग्धः २ देशश्च रूक्षः ३ इत्येको भङ्गकः, एवमन्येऽपि त्रयः सूत्रसिद्धा एव, चतुःस्पर्श त्वेक ॥७८२॥
एव, एवं चैते स्पर्शभङ्गा सर्वेऽपि मीलिता नव भवन्तीति ॥ 'तिपएसिए'इत्यादि, 'सिय कालए'त्ति बयाणामपि प्रदे
...अब मूल-संपादने सूत्रक्रमांकन-सुचने एक स्खलना दृश्यते-उद्देश: ५ स्थाने उद्देश: ४ मुद्रितं
परमाणु-पुद्गलस्य वक्तव्यता
~473
Page #474
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६८]
दीप अनुक्रम [७८६]
शानां कालत्वादित्येनैकवर्णत्वे पञ्च विकल्पाः, द्विवर्णतायां चैकः प्रदेशः कालः प्रदेशद्वयं तु तथाविधैकप्रदेशावगाहादिकारणमपेक्ष्यैकत्वेन विवक्षितमिति स्थानील इत्येको भङ्गः, अथवा स्यात्कालस्तथैव प्रदेशद्वयं तु भिन्नप्रदेशावगाहादिना कारणेन भेदेन विवक्षितमतो नीलकाविति व्यपदिष्टमिति द्वितीयः, अथवा द्वी तथैव कालकावित्युक्ती एकस्तु नीलक इत्येवं तृतीयः, तदेवमेकत्र द्विकसंयोगे त्रयाणां भावादशसु द्विकयोगेषु त्रिंशद्रका भवन्ति, एते च सूत्रसिद्धा एवेति, | त्रिवर्णतायां स्वेकवचनस्यैव सम्भवाद्दश त्रिकसंयोगा भवन्तीति, गन्धे त्वेकगन्धत्वे द्वौ द्विगन्धतायां त्वेकत्वानेकत्याभ्यां पूर्ववत्रयः, 'जइ दुफासे इत्यादि समुदितस्य प्रदेशयत्रस्य द्विस्पर्शतायां द्विप्रदेशिकवचत्वारः, त्रिस्पर्शतायां तु सर्वः शीतः। प्रदेशत्रयस्यापि शीतत्वात् देशश्च स्निग्धः एकप्रदेशात्मको देशश्च रूक्षो द्विपदेशात्मको द्वयोरपि तयोरेकप्रदेशावगाहनादिना ट्र एकत्वेन विवक्षितत्वात् , एवं सर्वनेत्येको भङ्गः १, तृतीयपदस्यानेकवचनान्तरखे द्वितीयपदस्यानेकवचनान्तत्वे तृतीयः, तदेवं सर्वशीतेन त्रयो भङ्गाः ३ एवं सर्वोष्णेनापि ३ एवं सर्वस्निग्धेनापि ३ एवं सर्वरूक्षेणापि ३ तदेवमेते द्वादश १२, | चतु:स्पर्शतायां तु 'देसे सीए'इत्यादि, एकवचनान्तपदचतुष्टय आद्यः, स्थापना चेयम् : अन्त्यपदस्यानेकवचनान्तरपे ||४| | तु द्वितीयः, स चैव-द्वयरूपो देशः शीत एकरूपस्तूष्णः पुनः शीतयोरेकः स्निग्धः द्वितीयश्चोष्ण एतौ रूक्षाविति रुक्षपदेडनेकवचनं, तृतीयस्त्वनेकवचनान्ततृतीयपदः, स चैवम्-एकरूपो देशः शीतो द्विरूपस्तूष्णः, तथा यः शीतो यश्चोष्णयोरेकस्तो स्निग्धी इत्येवं स्निग्धपदेऽनेकवचनं यश्चैक उष्णः स रूक्ष इति, चतुर्थस्त्वनेकवचनान्तद्वितीयपदः, स चैव-स्निग्धरूपस्य द्वयस्यैकः शीतो यश्च तस्यैव द्वितीयोऽभ्यश्चैको रूक्षः एतावुष्णावित्युष्णपदेऽनेकवचनं, स्निग्धे तु द्वयोरेकप्रदेशा
परमाणु-पुद्गलस्य वक्तव्यता
~4744
Page #475
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रज्ञप्तिः
प्रत सूत्रांक
[६६८]
॥७८॥
दीप अनुक्रम [७८६]
श्रितत्वादेकवचनं रूक्षे त्वेकत्वादेवेति, पशमस्तु द्वितीयचतुर्थपदयोरनेकवचनान्ततया, स चैवम् एकः शीतः स्निग्धश्च ||8|| २० शतके
अन्यौ च पृथगव्यवस्थितावुष्णौ चेत्युष्णरूक्षयोरनेकवचनं, षष्ठस्तु द्वितीयतृतीयपदयोरनेकवचनान्तत्वे, स चैवम्-एक उद्देश:४ अभयदेवी- शीतो रूक्षश्च अन्यौ च पृथग्व्यवस्थितावुष्णौ स्निग्धी चेत्युष्णस्निग्धयोरनेकवचनं, सप्तमस्त्वनेकवचनान्ताद्यपदः, स चैव- इन्द्रियोपच या वृत्तिः२ स्निग्धरूपस्य द्वयस्यैकोऽन्यश्चैक एती द्वौ शीतावित्यनेकवचनान्तत्वमाद्यस्य, अष्टमः पुनरनेकवचनान्तादिमान्तिमपदः, स
यासू ६६७ चैवं-पृथकस्थितयोः शीतत्वरुक्षवे चैकस्य वोष्णवे स्निग्धत्वे च, नवमस्स्वनेकवचनान्तत्वे आद्यतृतीययो, सचिव-द्वयो-III दिवादि
परमावा. भिन्नदेशस्थयोः शीतत्वे स्निग्धत्वे च एकस्य चोष्णरूक्षत्वे चेति, पणवीसं भंग'त्ति द्वित्रिचतुःस्पर्शसम्बन्धिनां चतुर्कीद- सू ६६८ ४ शनवानां मीलनात् पश्चविंशतिर्भङ्गा भवन्ति ॥ 'चउप्पएसिए 'मित्यादि, सिय कालए य नीलए यत्ति द्वौ द्वावेक
परिणामपरिणतावितिकृत्वा स्यात्कालको नीलकश्चेति प्रथमः, अन्त्ययोरनेकत्वपरिणामे सति द्वितीयः आद्ययोस्तृतीयः उभयोश्चतुर्थः, स्थापना चेयम् ११ । एवं दशसु द्विकयोगेषु प्रत्येकं चतुर्भङ्गीभावाच्चत्वारिंशदङ्गाः । 'जइ तिवन्ने इत्यादि तत्र प्रथमः कालको द्वितीयो नीलकः अन्त्ययोश्चैकपरिणामत्वालोहितकः १११ इत्येकः तृतीयस्यानेकपरिणामतयाsनेकवचनान्तत्वे द्वितीयः ११२, २२ एवं द्वितीयस्यानेकतायां तृतीयः १२१ आद्यस्यानेकत्वे चतुर्थः २११ एवमेते चत्वार एकत्र त्रिकसंयोगे, दशसु चैतेषु चत्वारिंशदिति । 'जइ चउबन्ने इत्यादि, इह पञ्चानां वर्णानां पञ्च चतुष्कसंयोगा भवन्ति,
G ||७८३॥ ४ ते च सूत्रसिद्धा एव, 'सबे नउई भंग'त्ति एकद्वित्रिचतुर्वर्णेषु पञ्च चत्वारिंशत् २ पञ्चानां भङ्गकानां भावान्नवतिस्ते स्युरिति । ICI'जइ एगगंधे इत्यादि प्राग्वत् । 'जह तिफासे इत्यादि, 'सचे सीए'त्ति चतुर्णामपि प्रदेशानां शीतपरिणामत्वात् १ 'दसे
For P
LOW
Purajurataram.org
...अब मूल-संपादने सूत्रक्रमांकन-सुचने एक स्खलना दृश्यते-उद्देश: ५ स्थाने उद्देश: ४ मुद्रितं
परमाणु-पुद्गलस्य वक्तव्यता
~475
Page #476
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६८]
निद्धेत्ति चतुर्णा मध्ये द्वयोरेकपरिणामयोः स्निग्धत्वात् २ 'देसे लुक्खे'त्ति तथैव द्वयो रूक्षत्वात् ३ इत्येकः द्वितीयस्तु तथैव नवरं भिन्नपरिणामतयाऽनेकवचनान्ततृतीयपदः तृतीयस्त्वनेकवचनान्तद्वितीयपदा, चतुर्थेः पुनस्तथैवानेकवचना-|| न्तद्वितीयतृतीयपद इत्येते सर्वशीतेन चत्वारः, एवं सर्वोष्णेन सर्वस्निग्धेन सर्वरुक्षेणेत्येवं षोडश । 'जह चउफासे'इत्यादि
तत्र 'देसे सीए'त्ति एकाकारप्रदेशद्वयलक्षणो देशः शीतः तथाभूत एवान्यो देश उष्णः, तथा य एव शीतः स एव स्निग्धः | जयश्चोष्णः स रूक्ष इत्येका, चतुर्थपदस्य प्रागिवानेकवचनान्तत्वे द्वितीयः तृतीयस्य च तृतीयः, तृतीयचतर्थयोरनेकवच-* ४ नान्तत्वे चतुर्थः, एवमेते षोडश, आनयनोपायगाथा चेयमेषाम्-"अंतलहुयस्स हेट्ठा गुरुयं ठावेह सेसमुवरिसमं । अंतं ल-3 हुएहिं पुणो पूरेजा भंगपत्थारे ॥१॥"[अन्त्यलघोरधो गुरुं स्थापय शेषमुपरिसमम् । अन्त्यकोष्ठान पुनः लघुभिः पूरयेद्भ
प्रस्तारे ॥१॥] स्थापना चेयम्-१११११२ ११२१ ११२२ ११'छत्तीसं भंग'त्ति द्वित्रिचतुःस्पर्शेषु चतुषोडशपोडशानां भाषादिति, इह वृद्ध-११ १२१२ १२२१ १२२२ १२ गाथे-“वीसइमसउद्देसे चप्पएसाइए पउप्फासे। एगबहुवयणमीसा बीयाइया कह ११ २११२ २१२१ २१२२ २१ भंगा?॥१॥"[विंशतितमे शतके पश्चमोद्देशे चतुष्प्रदेशादिके चतुःस्पर्श एकबहुव-११ २२१२ २२२१ २२२२ २२ चनमिना द्वितीयादयो भगाः कथं स्युः ॥१॥]| एकवचनबहुवचनमिश्रा द्वितीयतृतीयादयः कथं भङ्गका भवन्ति १, यत्रव पदे एकवचनं प्रागुक्तं तत्रैव बहुवचन बहुवचने | त्वेकवचनम् , एतच्च न भवतीतिकृत्वा विरोध उद्भावितः, अत्रोत्तरं-"देसो देसा च मया दबकूखेत्तवसओ विवक्खाए । संघायभेयतदुभयभावाओ वा वयणकाले ॥१॥"[ देशो देशा वा विवक्षया द्रव्यक्षेत्रवशतो वा मताः । वचनकाले सङ्घात
दीप अनुक्रम [७८६]
SAREaurainintamarana
परमाणु-पुद्गलस्य वक्तव्यता
~476~
Page #477
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६८]
परमापवा
दीप अनुक्रम [७८६]
व्याख्या-1|भेदतदुभयभावाद्वा ॥१॥] अयमर्थ:-देशो देशा वेत्ययं निर्देशो न दुष्टः एकानेकवर्णादिधर्मयुक्तद्रव्यवशेनैकानेकावगाह
हन२० शतके प्रज्ञप्तिः क्षेत्रवशेन वा देशस्यैकत्वानेकवविवक्षणात् , अथवा भणनप्रस्तावे सङ्घातविशेषभावेन भेदविशेषभावेन वा तस्यैकत्वाने-18 उद्देशः४ अभयदेवी- कविवक्षणादेवेति ॥ पञ्चप्रदेशिके 'जइ तिबन्ने'त्यादि, त्रिषु पदेष्वष्टौ भङ्गाः केबलमिह सप्तैव ग्राह्याः, पञ्चप्रदेशिकेऽष्टम- इन्द्रियोपच था वृत्तिः२||ATHIMATERNIMAR
है स्यासम्भवात्, एवं च दशसु त्रिकर्सयोगेषु सप्ततिरिति । 'जइ चउवन्ने इत्यादि, चतुर्णा पदानां पोडश भङ्गास्तेषु चेहयः सू ६६७ ॥७८४|| पञ्च सम्भविनस्ते च सूत्रसिद्धा एव, पञ्चसु वर्णेषु पञ्च चतुष्कसंयोगा भवन्ति, तेषु चैां प्रत्येकं भावात्पञ्चविंशतिरिति,
'ईयालं भंगसयंति पञ्चप्रदेशिके एकद्वित्रिचतुष्पञ्चवर्णसंयोगजानां पञ्चचत्वारिंशत्सप्ततिपञ्चविंशत्येकसङ्ख्यानां भङ्गानां | मीलनादेकोत्तरचत्वारिंशदधिकं भङ्गकशतं भवतीति ॥'छप्पएसिएण'मित्यादि, इह सर्व पश्चप्रदेशिकस्येव, नवरं वर्णत्रयेऽष्टी | भङ्गा वाच्याः, अष्टमस्याप्यत्र सम्भवात् , एवं च दशसु त्रिकसंयोगेष्वशीतिर्भङ्गका भवन्तीति, चतुर्वर्णे तु पूर्वोक्तानां पोडशानां भड़कानामष्टदशान्तिमत्रयवर्जितानां शेषा एकादश भवन्ति, तेषां च पञ्चसु चतुष्कसंयोगेषु प्रत्येक भावात्पश्चपञ्चाशदिति । 'जइ पंचवन्ने' इत्यादी पडू भङ्गाः, 'छासीय भंगसयंति एकादिसंयोगसम्भवानां पश्चचत्वारिंशदशीतिपश्चाधिकपञ्चाशत्पट्सङ्ख्यभङ्गकानां मीलनात् पडुत्तराशीत्यधिक भङ्गकशतं भवति ।। 'सत्तपएसिय'इत्यादि, इह चतुर्वर्णस्वे पूर्वो-18 |क्तानां षोडशानामन्तिमवर्जाः शेषाः पञ्चदश भवन्ति, एषां च पञ्चसु चतुष्कसंयोगेषु प्रत्येक भावात्पश्चसप्ततिरिति । 'जह पंचवन्ने इत्यादि, इह पञ्चानां पदानां द्वात्रिंशद्भङ्गा भवन्ति, तेषु चेहाद्यानां पोडशानामष्टमद्वादशान्त्यत्रयवर्जिताः शेषा उत्तरेषां च षोडशानामाद्याखयः पञ्चमनवमौ चेत्येवं सर्वेऽपि षोडश संभवन्तीति, दोसोला भंगसयंत्ति एकद्वित्रिचतु
SASAR
॥७८४॥
...अब मूल-संपादने सूत्रक्रमांकन-सुचने एक स्खलना दृश्यते-उद्देश: ५ स्थाने उद्देश: ४ मुद्रितं
~477
Page #478
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६८]
प्पश्चकसंयोगजानां पञ्चचत्वारिंशदशीतिपञ्चाधिकसप्ततिषोडशसङ्ख्यानां भङ्गकानां मीलनाद् द्वे शते पोडशोत्तरे स्यातामिति ॥ 'अट्टपएसिए'इत्यादि, इह चतुर्वर्णत्वे पूर्वोक्काः षोडशापि भङ्गा भवन्ति, तेषां च प्रत्येकं पञ्चसु चतुष्कसंयोगेषु । भावादशीतिभङ्गका भवन्ति, पञ्चवर्णत्वे तु द्वात्रिंशतो भङ्गानां षोडशचतुविशाष्टाविंशाष्टाविंशान्त्यत्रयवर्जाः शेषाः षड-18 विंशतिर्भङ्गका भवन्तीत्यर्थः, 'दो इकतीसाईति पूर्वोक्तानां पञ्चचत्वारिंशदशीत्यशीतिषडुत्तरविंशतिसयानां भङ्गकानां
मीलनाटे शते एकत्रिंशदुत्तरे भवत इति ॥ 'नवपएसियस्से'स्यादि, इह पञ्चवर्णत्वे द्वात्रिंशतो भङ्गकानामन्त्य एव न भवति || ३ शेषं तु पूर्वोक्तानुसारेण भावनीयमिति ।।
वायरपरिणए भंते ! अणंतपएसिए खंधे कतिवन्ने एवं जहा अट्ठारसमसए जाय सिय अहफासे पन्नत्ते | * वनगंधरसा जहा दसपएसियस्स, जहचउफासे सच्चे कक्खडे सवे गाए सबे सीए सचे निद्धे १ सवे कक्खडे |* कासवे गाए सच्चे सीए सबै लुक्खे २ सचे कक्खडे सवे गरुए सबै उसिणे सबै निढे ३ सवे कक्खड़े सवे गरुए। || सबे सीए सबेलुक्खे ४ सबे कक्खडे सबे लहुए सवे सीए सबे लुक्खे ५ सवे कक्खडे सवे लहुए सवे सीएद
सबे लुक्खे ६ सबे कक्खडे सधे लहुए सधे उसिणे सबे निद्धे ७ सचे कक्खडे सो लहुए सबे उसिणे सधे| का लुक्खे ८ सवे मउए सधे गरुए सधे सीए सबे निद्धे ९ सचे मउए सवे गरुए सधे सीए सबे लुक्खे १० सधे |
मउए सवे गाए सबै उसिणे सो निद्धे ११ सवे मउए सच्चे गरुए सवे उसिणे सबै लुक्ने १२ सबे मउए सचे लहुए सवे सीए सचे निद्धे १३ सवे मउए सबे लहुए सबे सीए सधे लुक्खे १४ सधे मउए सवे लहुए सवे
दीप अनुक्रम [७८६]
~478~
Page #479
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [६६९]
दीप अनुक्रम [७८७]
व्याख्या- उसिणे सो निद्धे १५ सचे मउप सषे लहुए सधे उसिणे सो लुक्खे १६ एए सोलस भंगा। जइ पंचफासे
स ० शतके प्रज्ञप्तिः कक्खडे सबे गरुए सवे सीए देसे निद्धे देसे लुक्खे १ सवे कक्खडे सो गए सब सीए देसे निद्धे देसा उद्देशः ४ अभयदेवी
लुक्खा २ सो कक्खडे सवे गरुए सघे सीए देसा निडा देसे लुक्खे ३ सचे कक्खड़े सवे गरुए सबे सीए बादरस्कया वृत्तिः२
देसा निद्धा देसा लुक्खा ४ सवे कक्खडे सवे गरुए सने उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे ४ सधे फक्खडे सधे गन्धे वणादि ॥७८५॥ लहुए सचे सीए देसे निढे देसे लुक्खे ४ सबे कक्खडे सचे लहुए सखे उसिणे देसे निई देसे लुक्खे ।४।परिणाम: द एवं एए कक्खडेणं सोलस भंगा । सवे मउए सबे गरुए सबे सीए देसे निद्धे देसे लुक्खे ४ एवं मउएणवि
|सू ६५९ सोलस भंगा एवं बत्तीसं भंगा । सो कक्खडे सच्चे गरुए सबे निद्धे देसे सीए देसे उसिणे ४ सवे कक्खडे सो गरुए सचे लुक्खे देसे सीए देसे उसिणे ४ एए बत्तीसं भंगा, सवे कक्खडे सवे सीए सधे निद्धे देसे गहए देसे लहुए एत्थवि बत्तीसं भंगा ४, सचे गरुए सचे सीए सये निद्धे देसे कक्खडे देसे मजए एत्थवि बत्तीस
भंगा, एवं सचे ते पंचफासे अट्ठावीसं भंगसयं भवति । जइ छफासे सबे कक्खडे सवे गरुए देसे सीए देसे ४ उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे १ सवे कक्खडे सचे गरुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसा लुक्खा २ एवं
जाव सच्चे कक्खडे सवे गरुए देसा सीया देसा उसिणा देसा निद्धा देसा लुक्खा १६ एए सोलस भंगा। seum सवे कक्खडे सबे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे एत्थवि सोलस भंगा, सबे मउए सधे । लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे एत्थवि सोलस भंगा, एए चउसद्धिं भंगा, सवे कक्खडे |
...अत्र मूल-सपादने सूत्रक्रमाकन-सुचने एक स्खलना दृश्यते-उद्देश: ५ स्थाने उद्देश: ४ मुद्रितं
~479~
Page #480
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६९]
दीप अनुक्रम [७८७]
सचे निद्धे देसे गरुए देसे लहुए देसे निद्धे देसे लुक्खे एत्थवि चउसहि भंगा, सधे कक्खडे सधे निद्धे देसे से गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे १ जाव सबे मउए सबे लुक्खे देसा गरुया देसा लहुया देसा सीया, देसा उसिणा १६ एए चउसढि भंगा, सवे गाए सबे सीए देसे कक्खडे देसे मउए देसे निद्धे देसे लक्खे एवं जाव सबे लहए सधे उसिणे देसा कक्खडा देसा निद्धा देसा मउया देसा लुक्खा एए चउसहि भंगा, सवेरा
गरुए सपे निद्धे देसे कक्खडे देसे मजए देसे सीए देसे उसिणे जाव सधे लहुए सघ लुक्खे देसा कक्खडा कावेसा मज्या देसा सीया देसा उसिणा एए उसढि भंगा, सो सीए सो निढे देसे कक्खडे देसे मउए देसे
गाए देसे लहुए जाव सचे उसिणे सवे लुक्खे देसा कक्खडा देसा मउथा देसा गरुया देसा लहुया एए 81 चउसहि भंगा, सच्चे ते छ फासे तिन्निचउरासीयं भंगसया भवंति ३८४ । जह सत्तफासे सधे कक्खडे देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्ध देसे लुक्खे १ सवे कक्खडे देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए 2 देसे उसिणे देसा निद्धा देसा लुक्खा ४ सवे कवडे देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसा उसिणा देसे |निद्धे देसा लुक्खा ४ सवे कक्खडे देसे गरुए देसे लहुए देसा सीया देसे उसिणे देसे निवे देसे स्तुक्खे ४
सोते सोलसभंगा भाणियद्या, सवे कक्खडे देसे गरुए देसा लहुया देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे हलुक्खे एवं गरुएणं एगत्तेणं लहुएणं पुरसेणं एतेवि सोलस भंगा, सब कक्खडे देसा गरुया देसे लहुए देसे |सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे एएवि सोलस भंगा भाणियचा, सवे कक्खडे देसा गरुया देसा
SARERaunintenatural
Haasaram.org
~480
Page #481
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६९]
दीप अनुक्रम [७८७]
व्याख्या- लहुया देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे एएवि सोलस भंगा भाणियवा, एवमेते चउसहि भंगा २० दातके
प्रज्ञप्तिः । कक्खडेणं समं, सो मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे । एवं मउएणविक उद्देशः ४ अभयदेवी
समं चउसहि भंगा भाणियचा, सवे गाए देसे कक्खडे देसे मउए देसे सीए देसे उसिणे देसे निढे देसे वादरस्त. या वृत्तिः२] लुक्खे एवं गरुएणवि समं चउसहि भंगा कायबा, सत्वे लहुए देसे कक्खडे देसे मउए देसे सीए देसे उसिणे 5
परिणाम: देसे निद्ध देसे लुक्खे एवं लहुएणवि समं चउसहि भंगा कायदा, सधे सीए देसे कक्खडे देसे मउए देसे । ॥७८६॥
गरुए देसे लहुए देसे निद्धे देसे लुक्खे एवं सीतेणवि समं चउढि भंगा कायवा, सबे उसिणे देसे कक्खडे | देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे निद्धे देसे लुक्वे एवं उसिणेणवि समं चउसहि भंगा कायद्या, सबै निद्धे । देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे एवं निद्धेणवि चउसहि भंगा कायद्या, सच्चे लुक्खे देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे एवं लुक्खणवि समं चउसहि भंगा कायद्या जाव सबे लुक्खे देसा कक्खडा देसामउया देसाग० देसा ल० देसा सीया देसा उसिणा, | एवं सत्तफासे पंचवारसुत्तरा भंगसया भवंति । जइ अट्ठफासे देसे कक्खडे देसे मउए देसे गुरुए देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे ४ देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसे सीए देसा
॥७८६॥ उसिणा देसे निद्धे देसे लुक्वे ४ देसे कक्खडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसा सीया देसे उसिणे देसे । निद्धे देसे लुक्खे ४ देसे कखडे देसे मउए देसे गरुए देसे लहुए देसा सीया देसा उसिणा देसे निद्धे देसे लुक्खे
...अब मूल-संपादने सूत्रक्रमांकन-सुचने एक स्खलना दृश्यते-उद्देश: ५ स्थाने उद्देश: ४ मुद्रितं
~481
Page #482
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६६९-६७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६९६७०]
४ एए चत्तारि चउका सोलस भंगा, देसे कक्खडे देसे मजए देसे गरुए देसा लहुया देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्खे एवं एते गरुएणं एगत्तएणं लहुएणं पोहत्तएणं सोलस भंगा कायद्या, देसे कक्खडे देसे मउए देसा गरुया देसे लहुए देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्वे देसे लुक्खे ४ एएवि सोलस भंगा कायथा, देसे कक्खडे देसे मउए देसा गरुया देसा लहुया देसे सीए देसे उसिणे देसे निद्धे देसे लुक्ने एतेवि सोलस भंगा कायबा, सोऽपि ते चउसद्धि भंगा कक्खडमउएहिं एगत्तएहि, ताहे कक्खडेणं एगत्तएणं मउएणं पुहत्तेणं एते चउसहि । भंगा कायद्या, ताहे कक्खडेणं पुहत्तएणं मउएणं एगत्तएणं चउसहि भंगा कायबा, ताहे एतेहिं बेच दोहिवि । पुहत्तेहिं चउसहि भंगा कायदा जाव देसा कक्खडा देसा मउया देसा गरुया देसा लहुया देसा सीया | देसा उसिणा देसा निद्धा देसा लुक्खा एसो अपच्छिमो भंगो, सबेते अहफासे दो छप्पसा भंगसया भवंति।
एवं एते चादरपरिणए अणंतपएसिए खंधे सधेमु संजोएसु बारस छन्नजया भंगसया भवति ॥ (सू.६६९) कइ| विहे भंते ! परमाणु पं०१, गोयमा ! चउबिहे परमाणु प०२०-दवपरमाणू खेसपरमाणू कालपरमाणू भावपरमाणू, दवपरमाणु णं भंते ! कइविहे प०१, गोयमा ! चउबिहे प०२०-अच्छेजे अभेजे अडजसे अगेज्झे, खेत्तपरमाणू णं भंते ! कइविहे प०१, गोयमा ! चउबिहे प०२०- अणद्धे अमज्झे अपदेसे अविभाइमे, कालपरमाणू पुच्छा, गोयमा! चउबिहे प०२०-अवन्ने अगंधे अरसे अफासे, भावपरमाणू णं भंते! कइविहे प०१,5 गोयमा! चउबिहे प०२०-वन्नमंते गंधमंतेरसमंते फासमंते । सेवं भंते २त्ति जाव विहरति (सून ६७०)।२०-५॥
ॐARAN
दीप
अनुक्रम [७८७
-७८८]
~482
Page #483
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६६९-६७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
व्याख्या
प्रत सूत्रांक [६६९
अभयदेवीया वृत्तिः२
२० शतके उद्देशः ५ न्धे वणोदि , सू-६६९
६७०
॥७८७॥
दीप
'वायरपरिणए णमित्यादि, सर्व एव कर्कशो गुरुः शीतः स्निग्धश्च एकदैवाविरुद्धानां स्पर्शानां सम्भवादित्येको भङ्गः, चतुर्थपदव्यत्यये द्वितीयः, एवमेते एकादिपदव्यभिचारेण षोडश भङ्गाः । 'पंचफासे इत्यादि, कर्कशगुरुशीतैः स्निग्ध- रूक्षयोरेकत्वानेकत्वकृता चतुर्भङ्गी लब्धा, एषैव च कक्कर्शगुरूष्णैर्लभ्यत इत्येवमष्टौ, एते चाष्टौ कर्कशगुरूभ्याम् , एवमन्ये च कर्कशलघुभ्याम् , एवमेते पोडश कर्कशपदेन लब्धा एतानेव च मृदुपदं लभते इत्येवं द्वात्रिंशत् , इयं च द्वात्रिंशत् स्निग्धरूक्षयोरेकत्वादिना लब्धा, अन्या च द्वात्रिंशत् शीतोष्णयोरन्या च गुरुलध्वोरन्या च कर्कशमृद्वोरित्येवं सर्व एवैते | मीलिता अष्टाविंशत्युत्तरं भङ्गकशतं भवतीति ॥'छफासे इत्यादि, तत्र सर्वकर्कशो १ गुरुश्च २ देशश्च शीतः ३ उष्णः ४ स्निग्धो ५ रुक्ष पति, इह च देशशीतादीनां चतुर्णा पदानामेकत्वादिना षोडश भनाः, एते च सर्वकर्कशगुरुभ्यां लब्धाः, एत एव कर्कशलघुभ्यां लभ्यन्ते तदेवं द्वात्रिंशत् , इयं च सर्वकर्कशपदेन लब्धा इयमेव च सर्वमृदुना लभ्यत इति चतुःषष्टिभङ्गाः, इयं च चतुःषष्टिः सर्वकर्कशगुरुलक्षणेन द्विकसंयोगेन सविपर्ययेण लब्धा, तदेवमन्योऽप्येवंविधो द्विकर्मयोगस्तां लभते, कर्कशगुरुशीतस्निग्धलक्षणानां च चतुर्णा पदानां षड् द्विकसंयोगास्तदेवं चतुःषष्टिः पहिर्दिकसंयोगगुणितास्त्रीणि शतानि चतुरशीत्यधिकानि भवन्तीति अत एवोक्त-सवेवेते छफासे'इत्यादि । 'जइ सत्तफासे' इत्यादि, इहाद्यं कर्कशाख्यं पदं स्कन्धच्यापकत्वाद्विपक्षरहितं शेषाणि तु गुर्वादीनि पट् स्कन्धदेशांश्रितत्वात् सविपक्षाणी| त्येवं सप्त स्पशाः, एषां च गुर्वादीनां षण्णां पदानामेकत्वानेकत्वाभ्यां चतुःपष्टिर्भङ्गका भवन्ति, ते च सर्वशब्दविशेषितेनादिन्यस्तेन कर्कशपदेन लब्धाः , एवं मृदुपदेनापीत्येवमष्टाविंशत्यधिक शतं, एवं गुरुलघुभ्यां शेषैः पद्भिः सह १२८,
अनुक्रम [७८७-७८८]
७८७॥
~4834
Page #484
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६६९-६७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[६६९६७०]
दीप
शीतोष्णाभ्यामप्येवमेव १२८, एवं स्निग्धरूक्षाभ्यामपि १२८, तदेवमष्टाविंशत्युत्तरशतस्य चतुर्भिर्गुणने पञ्च शतानि द्वाद
शोत्तराणि भवन्तीति, अत एवाह-एवं सत्तफासे पंच बारसुत्तरा भंगसया भवंती'ति । 'अट्ठफासे'इत्यादि, चतुणों ||21 टाकर्षशादिपदानां सविपर्ययाणामाश्रयणादष्टी स्पर्शाः, एते च बादरस्कन्धस्य द्विधा विकल्पितस्यैकत्र देशे चत्वारो विरु-||४|
द्धास्तु द्वितीये इति, एषु चैकत्वानेकत्वाभ्यां भङ्गका भवन्ति, तत्र च रूक्षपदेनैकवचनान्तेन बहुवचनान्तेन द्वौ, एतौ च ॥ स्निग्धैकवचनेन लब्धावेतावेव स्निग्धबहुवचनं लभेते, एते चत्वारः, एते च सूत्र पुस्तके चतुष्ककेन सूचिताः, तथैतेष्वेवा-| टासु पदेषूष्णपदेन बहुवचनान्तेनोक्तचतुर्भडीयुक्तेनान्ये चत्वारः ४, एवं शीतपदेन बहुवचनान्तेनैव ४, तथा शीतोष्ण-| पदाभ्यां बहुवचनान्ताभ्यामेत एव ४ एवं चैते १६, तथा लघुपदेन बहुवचनान्तेनैत एव ४, तथा लघुशीतपदाभ्यां बहुवचनान्ताभ्यामेत एव ४, एवं लघूष्णपदाभ्यां ४, एवं लघुशीतोष्णपदैरिति ४ एवमेतेऽपि षोडश १६, एतदेव दर्शयति'एवं गुरूएणं एगत्तएण'मित्यादि, तथा कर्कशादिनैकवचनान्तेन गुरुपदेन च बहुवचनान्तेनैत एव, तथा गुरूष्णाभ्यां ४ बहुवचनान्ताभ्यामेत एव ४, एवं गुरुशीताभ्यां ४, एवं गुरुशीतोष्णः ४, एवं चैते षोडश, तथा गुरुलधुभ्यां बहुवचना-2 दन्ताभ्यामेत एव ४, एवं गुरुलघूष्णैः ४, एवं गुरुलघुशीतैः ४, एवं गुरुलघुशीतोष्णैः ४, एतेऽपि षोडश, सर्वेऽप्यादित
एते चतुःषष्टिः 'कक्खडमउएहिं एगत्तेहि ति कर्कशमृदुपदाभ्यामेकवचनवद्भयां चतुःषष्टिरेते भङ्गा लब्धा इत्यर्थः, 'ताहेति तदनन्तरं 'कक्खडेणं एगत्तएणति कर्कशपदेनैकत्वगेन एकवचनान्तेनेत्यर्थः 'मउएणं पोहत्तएणं'ति मृदुकपदेन पृथक्त्वगेनानेकवचनान्तेनेत्यर्थः 'एते चेव'त्ति एत एव पूर्वोक्तक्रमाच्चतुःषष्टिर्भङ्गकाः कर्तव्या इति, 'ताहे कक्खडेण' मित्यादि, 'ताहे'त्ति ततः कर्कशपदेन बहुवचनान्तेन मृदुपदेन चैकवचनान्तेन चतुःषष्टिर्भङ्गाः पूर्वोक्तक्रमेणैव ।
अनुक्रम [७८७-७८८]
~4840
Page #485
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [६६९-६७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६६९
६७०]
IS कर्त्तव्याः, ततश्चैतानेव कर्कशमृदुपदाभ्यां बहुवचनान्ताभ्यां पूर्ववचतुष्पष्टिभङ्गाः कर्तव्याः एताश्चादितश्चतस्रश्चतुःषष्टयो ||२० शतके प्रज्ञप्तिमीलिता द्वे शते षट्पञ्चाशदधिके स्यातामिति, एतदेवाह-सधे ते अहफासे दो छप्पन्ना भंगसया भवंति'- उद्देशः ५ अभयदेवी- त्ति, एतेषां च सुखतरप्रतिपत्तये यन्त्रकमिदम्-दसे देसे म. देसे ग. देसे ल. देसे सी. देसे उ. देसे नि. देसे रु. बादरस्कः या वृत्तिः २ 'चारसन्नउया भंगसया भवंति'त्ति बादरस्कन्धे कक्स......
न्धे वर्णादि ॥७८८|| चतुरादिकाः स्पर्शा भवन्ति, तत्र च चतुःस्पर्शादिषु १ १ १ १ १ १
परिणामः
१ १ क्रमेण पोडशानामष्टाविंशत्युत्तरशतस्य चतुरशीत्यधि-३ । ३ ३ ३
सू६६९
३ ३ ३ ३ कशतत्रयस्य द्वादशोत्तरशतपञ्चकस्य षट्पञ्चाशदधि- २५६ १२८ ६४ । ३२ १६ । ८ ४ कशतद्वयस्य च भावाद्यथोक्तं मानं भवतीति । परमाण्याद्यधिकारादेवेदमाह-कई त्यादि, तत्र द्रव्यरूपः परमाणुर्द्रव्यपरमाणुः-एकोऽणुर्वर्णादिभावानामविवक्षणात द्रव्यत्वस्यैव विवक्षणादिति, एवं क्षेत्रपरमाणुः-आकाशप्रदेशः कालपरमाणुः समयः भावपरमाणुः-परमाणुरेव वर्णादिभावानां प्राधान्यविवक्षणात् सर्वजघन्यकालत्वादिर्वा, 'चउबिहे'त्ति एकोऽपि द्रव्यपरमाणुर्विवक्षया चतुःस्वभावः 'अच्छेजति छेद्यः-शस्त्रादिना लतादिवत्तन्निषेधादच्छेद्यः 'अभेज'त्ति भेद्यः-शूच्यादिना चर्मवत्तन्निषेधादभेद्यः 'अडझेत्ति अदाह्योऽग्निना सूक्ष्मत्वात् , अत एवाग्राह्यो हस्तादिना, 'अणद्धे'त्ति समसङ्ग्यावयवाभावात् 'अमझेति विषमसङ्ग्यावयवाभावात् 'अपएसे'त्ति निरंशोऽवयवाभावात् 'अविभाइमेत्ति अविभागेन ॥७८८॥ निर्वृत्तोऽविभागिम एकरूप इत्यर्थः विभाजयितुमशक्यो वेत्यर्थः ॥ विंशतितमशते पश्चमः ॥ २०-५॥
SCREENALSO
दीप अनुक्रम [७८७-७८८]
| अत्र विंशतितमे शतके पंचम-उद्देशक: परिसमाप्त:
~485
Page #486
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [६७१-६७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
8.
प्रत सूत्रांक [६७१६७३]
-2-
9
-
5 4-58-
40
दीप अनुक्रम [७८९-७९१]
पश्चमे पुद्गलपरिणाम उक्तः, षष्ठे तु पृथिव्यादिजीवपरिणामोऽभिधीयत इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्पुढविक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए सकरप्पभाए पुढवीए अंतरा समोहए समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढविकाइयत्ताए उबबज्जित्तए से णं भंते ! किं पुछि उयवजित्ता पच्छा आहारेजा पुyि | आहारित्ता पच्छा उववज्जेज्जा ?, गोयमा ! पुर्वि वा उववजित्ता एवं जहा ससरसमसए छमुद्देसे जाव से तेण्डेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ पुचिं वा जाव उववजेजा नवरं तहिं संपाउणेजा इमेहिं आहारो भन्नति सेसं तं चेव । पुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए सकरप्पभाए पुढवीए अंतरा समोहए जे भविए ईसाणे कप्पे पुढविक्काइयत्ताए उववजित्तए एवं चेव एवं जाव ईसीपभाराए उववाएयत्रो। पुढबिकाइए णंभंते! सकरप्पभाए वालुयप्पभाए पुढवीए अंतरा समोहते स०२ जे भविए सोहम्मे जाव ईसिपम्भाराए एवं एतेण कमेणं जाव तमाए अहेसत्तमाए य पुढवीए अंतरा समोहए समाणे जे भविए उववाएयचो । पुढविकाइए णं भंते ! सोहम्मीसाणसणंकुमारमाहिंदाण य कप्पाणं अंतरा समोहए स०२ जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुढविक्काइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते ! पुधिं उववजित्ता पच्छा आहारेजा सेसं तं चेव जाव से तेणट्टेणं जाव णिक्वेवओ। पुढविकाइए णं भंते ! सोहम्मीसाणाणं सर्णकुमारमाहिंदाण य कप्पाणं अंतरा समोहए २ जे भविए सकरप्पभाए पुढवीए पुढविकाइयत्ताए उववजित्तए एवं चेव एवं जाब अहेसत्समाए उववाएयबो, एवं सणंकुमारमाहिंदाणं बंभलोगस्स कप्पस्स अंतरा समोहए समोह० २ पुणरवि जाव अहे.
GARCASSES
अथ विंशतितमे शतके षष्ठं-उद्देशक: आरभ्यते
~486
Page #487
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [६७१-६७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६७१६७३]
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२/
॥७८९॥
दीप अनुक्रम [७८९-७९१]
सत्तमाए उववाएयचो एवं बंभलोगस्स लतगस्स य कप्पस्स अंतरा समोहए पुणरवि जाव अहेसत्तमाए, एवं ||२० शतके लंतगस्स महासुक्कस्स कप्पस्स य अंतरा समोहए पुणरवि जाव अहेसत्तमाए, एवं महासुकसहस्सारस्स या उद्देशः ६. कप्पस्स अंतरा पुणरवि जाव अहेसत्तमाए, एवं सहस्सारस्स आणयपाणयकप्पाण अंतरा पुणरवि जाव या |अहेसत्तमाए, एवं आणयपाणयाणं आरणअञ्चुयाण य कप्पाणं अंतरा पुणरवि जाच अहेसत्तमाए, एवं है।
पूर्वपश्चादुर
त्पादाहारी आरणचुयाणं गेवेजविमाणाण य अंतरा जाव अहेसत्तमाए, एवं गेवेजविमाणाणं अणुत्तरविमाणाण य अंतरा |सू ६७१ पुणरवि जाव अहेसत्तमाए, एवं अणुत्तरविमाणाणं इसीपभाराए य पुणरवि जाच अहेसत्तमाए उववाए-13/६७२.६७३ यो ।(मु०६७१) आउकाइएणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए सकरप्पभाए पुढवीए अंतरा समोहए समो०२जे भविए सोहम्मे कप्पे आजकाइयत्ताए उववजित्तए सेसंजहा पुढविकाइयस्स जाव से सेणढणं एवं पढमदोचाणं अंतरा समोहए जाव ईसीपभाराए उववाएयचो एवं एएणं कमेणं जाव तमाए अहेसत्तमाए य पुढवीए अंतरा समोहए समोह०२ जाव ईसीपम्भाराए उववाएयचो आउकाइयत्ताए, आउयाए णं भंते ! सोह-पू |म्मीसाणाणं सर्णकुमारमाहिंदाण य कप्पाणं अंतरा समोहए समोहणित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए
15॥७८९॥ | पुढवीए घणोदधिवलएसु आउकाइयत्ताए उववजित्तए सेसं तं चेव एवं एएहिं चेव अंतरा समोहओ जाव | अहेसत्तमाए पुढवीए घणोदधिवलएसु आउकाइयत्ताए उववाएयदो एवं जाव अणुत्तरविमाणाणं इंसिप
CACAGGALS
~487
Page #488
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [६७१-६७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६७१६७३]
उभाराए पुढवीए अंतरा समोहए जाव अहे सत्तमाए घणोदधिवलएम उववाएयवो। (सू० ६७२) वाउकाइए पणं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए सकरप्पभाए पुढवीए अंतरा समोहए समोहणित्ता जे भविए सो
हम्मे कप्पे वाउकाइयत्ताए उववजित्तए एवं जहा सत्तरसमसए बाउक्काइयउद्देसए तहा इहवि नवरं अंतरेसु समोरणा नेयवा सेसं तं चेव जाव अणुसरविमाणाणं ईसीपब्भाराए य पुढवीए अंतरा समोहए समोह०२जे टू भविए घणवायतणुवाए घणवायतणुवायवलएसु वाउकाइयत्ताए उवव जित्तए सेसं तं चेव जाव से तेणटेणं. जाव उववज्जेज्जा । सेवं भंते २त्ति ।। (सूत्र ६७३) ॥ २०-६॥ । 'पुढवी'त्यादि, ‘एवं जहा सत्तरसमसए छद्गुइसे'त्ति, अनेन च यत्सूचितं तदिदं-'पुर्षि वा उववजित्ता पच्छा
आहारेज्जा पुर्वि वा आहारित्ता पच्छा उववजेजे त्यादि, अस्य चायमर्थः-यो गेन्दुकसंनिभसमुद्घातगामी स पूर्व समुत्प४द्यते-तत्र गच्छतीत्यर्थः पश्चादाहारयति-शरीरमायोग्यान पुद्गलान गृह्णातीत्यर्थः अत उच्यते-'पुर्षि वा उववजित्ता पच्छा
आहारेज'त्ति, यः पुनरीलिकासन्निभसमुद्घातगामी स पूर्वमाहारयति-उत्पत्तिक्षेत्रे प्रदेशप्रक्षेपणेनाहारं गृह्णातीति तत्समनन्तरं च प्राक्तनशरीरस्थप्रदेशानुत्पत्तिक्षेत्रे संहरति अत उच्यते-'पुषिं आहारित्ता पच्छा उववजेजत्ति ।। विंशतितमशते | षष्ठः ॥२०-६॥ वाचनान्तराभिप्रायेण तु पृथिव्यबूवायुविषयत्वादुदेशकत्रयमिदमतोऽष्टमः ॥८॥
दीप अनुक्रम [७८९-७९१]
१ एतदभिप्रायेणेव पीवशत्यधिकैकोनविंशतिशतान्युदेशकानां, तथा चोद्देशकगाथानुसारेण सर्वामे णोद्देशकद्वयन्यूनतायां न दोषः ।
अत्र विंशतितमे शतके षष्ठं-उद्देशक: परिसमाप्त:
~488
Page #489
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
ॐ
प्रत सूत्रांक [६७१६७३]
दीप अनुक्रम [७८९-७९१]
व्याख्या-8 षष्ठोद्देशके पृथिव्यादीनामाहारो निरूपितः, स च कर्मणो बन्ध एव भवतीति सप्तमे बन्धो निरूप्यते, इत्येवंसम्बद्ध- २० शतके प्रज्ञप्तिः स्थास्येदमादिसूत्रम्
उद्देशः७ अभयदेवी
| कइविहे णं भंते ! बंधे प०, गोयमा! तिविहे पं०२०-जीवप्पयोगबंधे १ अणंतरपओगबंधे २ परंपरबंधे जीवप्रयोग या वृत्तिः२|| नेरइयाणं भंते ! कइविहे प० एवं चेव, एवं जाव वेमाणियाणं । नाणावरणिजस्स णं भंते ! कम्मस्स
बन्धादि काविहे बंधे प०१, गोयमा ! तिबिहे बंधे प० तं०-जीवप्पयोगबंधे अणंतरबंधे परंपरबंधे, नेरइयाणं भंते ! ॥७९॥
सू६७४ नाणावरणिज्जस्स कम्मरस कइविहे बंधे प० एवं चेव जाच वेमाणियाणं, एवं जाव अंतराइयरस । णाणावर
णिज्जोदयस्सणं भंते ! कम्मस्स कइविहे बंधे प०१, गोयमा ! तिविहे बंधे पं० एवं चेव एवं नेरइयाणवि एवं काजाव येमाणिपाणं, एवं जाव अंतराइउदयस्स, इत्थीवेदस्स णं भंते ! काविहे पंधे प०१, गोयमा ! तिविहे || | बंधे प०, एवं चेव, असुरकुमाराणं भंते । इत्थीवेदस्स कतिविहे बंधे प०१, गो० ! तिविहे बंधे प० एवं चेच एवं जाव वेमाणियाणं, नवरं जस्स इत्थिवेदो अत्थि, एवं पुरिसवेदस्सवि एवं नपुंसगवे. जाव घेमाणियाणं
नवरं जस्स जो अत्धि वेदो, दंसणमोहणिजस्स णं भंते! कम्मस्स कइविहे बं, एवं चेव निरंतरं जाव चेमा०, र एवं चरितमोहणिजस्सवि जाव वेमाणियाणं, एवं एएणं कमेणं ओरालियसरीरस्स जाव कम्मगसरीरस्स
आहारसमाए जाव परिग्गहस० कण्हलेसाए जाव सुकलेसाए सम्मदिट्ठीए मिच्छादिट्ठीए सम्मामिच्छादि-12 ॥७९०॥ हीए आभिणिबोहियणाणस्स जाव केवलनाणस्स मइअन्नाणस्स सुयअन्नाणस्स विभंगनाणस्स एवं आभि
| अथ विंशतितमे शतके सप्तम-उद्देशक: आरभ्यते
~489
Page #490
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
NE
प्रत सूत्रांक
[६७४]
RORS-
दीप
णियो०णाणविसयस्स भंते ! कइविहे ५० प? जाव केवल नाणविसयस्स मइअनाणविसयस्स सुयअन्ना|| णविसयस्स विभंगणाणविस० एएसि सधेसि पदाणं तिविहे बंधे प० सवेऽवेते चउधीसं दंडगा भा० नवरं
जाणियचं जस्स जइ अत्थि जाव बेमाणि भंते ! विभंगणाणविसयस्स कइवि०बंधे प०, गोयमा ! तिविहे है बंधे प०-जीवप्पयोगबंधे अणंतरवंधे परंपरपंधे, सेवं भंते !२ जाव विहरति ।। (सूत्रं ६७४) ॥२०८७॥ । 'कतिविहे णमित्यादि, 'जीवप्पओगबंधे'त्ति जीवस्य प्रयोगेण-मनःप्रभृतिव्यापारेण बन्धः-कर्मापुद्गलानामात्म
प्रदेशेषु संश्लेषो बद्धस्पृष्टादिभावकरणं जीवप्रयोगबन्धः, 'अणंतरबंधेत्ति येषां पुद्गलानां बद्धानां सतामनन्तरः समयो वर्तते तो तेषामनन्तरवन्ध उच्यते, येषां तु बद्धानां द्वितीयादिः समयो वर्तते तेषां परम्परबन्ध इति, 'णाणावरणिजोदयस्स'त्ति 'ज्ञानावरणीयोदयस्य ज्ञानावरणीयोदयरूपस्य कर्मण उदयप्राप्तज्ञानावरणीयकर्मण इत्यर्थः, अस्य च अन्धो भूतभावापे
क्षयेति, अथवा ज्ञानावरणीयतयोदयो यस्य कर्मणस्तत्तथा, ज्ञानावरणादिकर्म हि किञ्चिज्ज्ञानाद्यावारकतया विपाकतो & वेद्यते किश्चित्प्रदेशत एवेत्युदयेन विशेषितं कर्म, अथवा ज्ञानावरणीयोदये यध्यते वेद्यते वा तज्ञानावरणीयोदयमेव
तस्येति, एवमन्यत्रापि । 'सम्मद्दिट्टीए'इत्यादि, ननु 'सम्मद्दिट्ठी'त्यादी कथं बन्धो दृष्टिज्ञानाज्ञानानामपौगलिकत्वात् !, अबोच्यते, नेह बन्धशब्देन कर्मापुद्गलानां बन्धो विवक्षितः किन्तु सम्बन्धमात्र, तच्च जीवस्य दृष्ट्यादिभिर्द्धमें: सहास्त्येव, जीवप्रयोगबन्धादिव्यपदेश्यत्वं च तस्य जीववीर्यप्रभवत्वात् अत एवाभिनिबोधिकज्ञानविषयस्येत्याद्यपि निरवयं ज्ञानस्य ज्ञेयेन सह सम्बन्धविवक्षणादिति, इह सहगाथे-"जीवप्पओगबंधे अणंतरपरंपरे च बोद्धबे ८ पगडी ८ उदए ८ वेए ३
अनुक्रम [७९२]
॥
SAREauratonintimational
~490
Page #491
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[६७४]
दीप
व्याख्या- दसणमोहे चरित्ते य ॥१॥ ओरालियघेउविय आहारगतेयकम्मए चेव । सन्ना ४ लेस्सा ६ दिट्ठी ३ णाणा ५ णाणेसु ३ ८२० शतके प्रज्ञप्तिःलातविसए ८॥२॥" ॥विंशतितमशते सप्तमः ॥२०-७॥
15 उद्देशः८ अभयदेवी
कर्माकर्मभूयावृत्तिः२ सप्तमे बन्ध उक्तस्तद्विभागश्च कर्मभूमिषु तीर्थकरैः प्ररूप्यत इति कर्मभूम्यादिकमष्टमे प्ररूप्यते इत्येवंसम्बद्धस्यास्ये
मिषुकालः
४व्रतानिजि ॥७९ ॥ दमादिसूत्रम्कइ णं भंते ! कम्मभूमीओ प०१, गोयमा ! पन्नरस कम्मभूमीओ प० त०-पंच भरहाई पंच एरवयाई
नान्तरं पूर्व*पंच महाविदेहाई, कति णं भंते ! अकम्मभूमीओ प०१,गो ! तीसं अकम्मभूमीओ प० तं०-पंच हेमव-
गतं तीर्थ
प्रवचन स याई पंच हेरनवयाई पंच हरिवासाई पंच रम्मगवासाइं पंच देवकुराई पंच उत्तरकुराई, एयासु णं भंते ! ६७५-६८२ तीसासु अकम्मभूमीसु अस्थि उस्सप्पिणीति वा ओसप्पिणीति वा?, णो तिणले समडे, एएसु णं भंते ! पंचसु॥ भरहेसु पंचसु एरवएसु अस्थि उस्सप्पिणीति वा ओसप्पिणीति वा ?, हंता अस्थि, एएसुर्ण पंचम महाविदे-ट।
हेसु०, णेवत्थि उस्सप्पिणी नेवस्थि ओसप्पिणी अवट्टिए तत्य काले प० समणाउसो।। (सूत्रं ६७५)| टूपएसु णं भंते ! पंचसु महाविदेहेसु अरिहंता भगवंतो पंचमहयाइयं सपडिकमणं धर्म पन्नवयंति , णो|
IMI|७९१॥ तिणडे समहे, एएसु णं भंते ! पंचसु भरहेसु पंचसु एरवएसु पुरच्छिमपच्छिमगा दुवे अरिहंता भगवंतो पंचमहत्वइयं पंचाणुबइयं सपडिकमणं धर्म पन्नवयंति अवसेसा णं अरिहंता भगवंतो चाउजामं धर्म पन्न- IST
अनुक्रम [७९२]
CROSSAGROct
अत्र विंशतितमे शतके सप्तम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ विंशतितमे शतके अष्टम-उद्देशक: आरभ्यते
कर्मभूमि, अकर्मभूमि, तयो: काळ, व्रत, जिन-अंतर इत्यादिः
~491
Page #492
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [६७५-६८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६७५
-६८२]
वयंति, एएसु णं पंचमु महाविदेहेसु अरहंता भगवंतो चाउजामं धर्म पन्नवयंति । जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे 31 भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए कति तित्थगरा पन्नत्ता, गोयमा !चवीसं तिस्थगरा पन्नत्ता, तंजहाउसभमजियसंभव अभिनंदणं च सुमनिसुप्पभसुपासससिपुप्फदंतसीयलसेज्जंसवासपुजं च विमलअणंतघम्मसंतिकुंथुअरमल्लिमुणिसुवयनमिनेमिपासवद्धमाणा २४ । (सूत्र ६७६) एएसिणं भंते ! चवीसाए तित्व- 8 गराणं कति जिणंतरा प०१, गोयमा! तेवीसं जिणंतरा प०। एएसिणं भंते । तेवीसाए जिणंतरेसु करस कहिं कालियसुयस्स बोच्छेदे पं0?, गोएएसु णं तेवीसाए जिणंतरेसु पुरिमपच्छिमएसु अट्ठसु २ जिणंतरेसु | एत्थ णं कालियसुयस्स अबोच्छेदे प० मज्झिमएसु सत्तसु जिणंतरेसु एत्थ शंकालियसुयस्स वोच्छेदे प०, सबस्थवि णं वोफिछने विहिवाए ॥ (सूत्रं ६७७) जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए देवाणुप्पियाणं केवतियं कालं पुत्वगए अणुसज्जिस्सति !, गोयमा जंबुद्धीवेणं दीवे भारहे वासे इमीसे उस्सप्पिणीए |ममं एग वाससहस्सं पुवगए अणुसजिस्सति, जहा णं भंते! जंबुदीचे २ भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए देवावणुप्पियाणं एग वाससहस्सं पुष्वगए अणुसज्जिस्सइ तहा णं भंते ! जंबुद्दीये २ भारहे वासे इमीसे ओसप्पि
णीए अवसेसाणं तित्थगराणं केवतियं कालं पुषगए अणुसज्जित्था ?, गोयमा ! अत्धेगतियाणं संखेनं कालं अत्धेगहयाणं असंखेनं कालं । (सूत्रं ६७८) जंबुरीवेणं भंते ! दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए | देवाणुप्पियार्ण केवतियं कालं तित्थे अणुसज्जिस्सति ?, गोयमा! जंबुशीवे २ भारहे वासे इमीसे ओसप्पि
SRCCCCCESC%
दीप अनुक्रम [७९३८००
5
कर्मभूमि, अकर्मभूमि, तयो: काळ, व्रत, जिन-अंतर इत्यादिः
~492
Page #493
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [६७५-६८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६७५-६८२]
दीप
व्याख्या-
1णीए ममं एगवीसं वाससहस्साई तित्थे अणुसज्जिस्सति (सूत्रं ६७९) जहाणं भंते ! जंबुद्धीवे भारहे चासे २० शतके प्रज्ञप्तिः इमीसे ओसप्पिणीए देवाणुप्पियाण एकवीसं वाससहस्साई तित्थं अणुसिज्जस्सति तहाणं भंते जंबुद्धीवे उद्देशः ८ अभयदेवी- भारहे वासे आगमेस्साणं चरिमतित्थगरस्स केवतियं कालं तित्थे अणुसजिस्सति ?, गोयमा ! जावतिए णं कर्माकर्मभूयावृत्तिः२ उसभस्स अरहओ कोसलियस्स जिणपरियाए एवइयाई संखेजाई आगमेस्साणं चरिमतिस्थगरस्स तित्थे | मिषु कालः १७९ || अणुसजिस्सति ।। (सूत्रं ६८०)॥ तिथं भंते ! तित्थं तित्थगरे तित्थं, गोयमा! अरहा ताच नियम तानिजितित्थकरे तित्थं पुण चाउचन्नाइन्ने समणसंघो, तं०-समणा समणीओ सावया सावियाओ।। (सूत्र ६८१)
नान्तरं पूर्व
गतं तीर्थपवयणं भंते ! पवयणं पावयणी पवयणं ?, गोयमा ! अरहा ताव नियम पावयणी पवयणं पुण दुवालसंगे || गणिपिडगे तं०-आयारो जाव दिहिवाओ॥ जे इमे भंते ! उग्गा भोगा राइना इक्खागा नाया कोरबा
प्रवचनं सू एए णं अस्सि धम्मे ओगाहंति अस्सि २ अट्ठविहं कम्मरयमलं पवाहेति पवा. तओ पच्छा सिजसंति जाव अंतं करति ?, हंता गोयमा ! जे इमे उग्गा भोगा तं चेव जाव अंतं करेंति, अत्गइया अन्नयरेसु देवलोएसु
देवत्ताए उबवत्तारो भवंति । कइचिहा णं भंते ! देवलोया पं?, गोयमा ! चउचिहा देवलोया पं० तं०-भवभाणवासी वाणमंतरा नोतिसिया बेमाणिया । सेवं भंते २ति ॥ (सूत्रं १८२)॥२०-८॥
१७९२॥ 'कइ णमित्यादि, 'कस्स कहिं कालियमुयस्स चोच्छेए पन्नते'त्ति कस्य जिनस्य सम्बन्धिनः कस्मिन् जिनान्तरे-13 15 कयोर्जिनयोरन्तरे 'कालिकश्रुतस्य' एकादशाङ्गीरूपस्य व्यवच्छेदः प्रज्ञप्तः ? इति प्रश्नः, उत्तरं तु 'एएसि ण'मित्यादि,
अनुक्रम [७९३८००]
कर्मभूमि, अकर्मभूमि, तयो: काळ, व्रत, जिन-अंतर इत्यादिः
~493
Page #494
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [६७५-६८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६७५-६८२]
दीप अनुक्रम [७९३८००
इह च कालिकस्य व्यवच्छेदेऽपि पृष्टे यदपृष्टस्याव्यवच्छेदस्याभिधानं तद्विपक्षज्ञापने सति विवक्षितार्थपोधनं सुकरं भवतीति-12 कृत्वा कृतमिति, 'मज्झिमएसु सत्तसु'त्ति अनेन 'कस्स कहि' इत्यस्योत्तरमवसेयं, तथाहि 'मध्यमेषु सप्तसु' इत्युक्ते सुविधिजिनतीर्थस्य सुविधिशीतलजिनयोरन्तरे व्यवच्छेदो बभूव, तद्व्यवच्छेदकालश्च पल्योपमचतुर्भागः, एवमन्येऽपि | षडू जिनाः षट् च जिनान्तराणि वाच्यानि, केवलं व्यवच्छेदकालः सप्तस्वप्येवमवसेयः-'चउभागो १ चउभागो र तिन्नि य चउभाग ३ पलियमेगं च ४ । तिन्नेव य चउभागा ५ चउत्यभागो य ६ चउभागो ७ ॥१॥” इति, [चतुर्थभागश्चतुर्थभागखयश्चतुर्भागाः पल्यमेकं त्रयश्चतुर्भागाश्चतुर्भागश्चतुर्थभागस्तीर्थव्युच्छेदः ॥१॥] 'एत्थ णं'ति 'एतेषु प्रज्ञापकेनोपदश्यमानेषु जिनान्तरेषु कालिक श्रुतस्य व्यवच्छेदः प्रज्ञप्ता, दृष्टिवादापेक्षया वाह-'सबथवि णं वोच्छिन्ने दिट्टियाए'त्ति | 'सर्वत्रापि' सर्वेष्यपि जिनान्तरेषु न केवल सप्तस्वेव क्वचित् कियन्तमपि कालं व्यवच्छिन्नो दृष्टिवाद इति ॥ व्यवपरछेदाधिकारादेवेदमाह-'जंबुरीवे ण'मित्यादि, 'देवाणुप्पियाण ति युष्माकं सम्बन्धि अत्धेगइयाण संखेज कालं ति पश्चानुपूर्व्या पार्श्वनाथादीनां सङ्ख्यातं कालं 'अस्थगइयाणं असंखेज कालं'ति पभादीनाम् । 'आगमेस्साणं ति आग-15 मिष्यतां-भविष्यतां महापद्मादीनां जिनानां 'कोसलियरस'त्ति कोशलदेशे जातस्य 'जिणपरियाए'त्ति केवलिपर्यायः स च वर्षसहस्रन्यून पूर्वलक्षमिति ॥ तीर्थप्रस्तावादिदमाह-'तित्वं भंते ! इत्यादि, 'तीर्थ' सफरूपं भदन्त ! 'तित्यति तीर्थशब्दवाच्यं उत तीर्थकरः 'तीर्थ तीर्थशब्दवाच्यः ? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम् -'अहेन' तीर्थकरस्तावत् 'तीर्थङ्कर तीर्थप्रवर्तयिता न तु तीर्थ, तीर्थ पुनः 'चाउवन्नाइन्ने समणसंघेत्ति चत्वारो वर्णा यत्र स चतुर्वर्णः स चासावाकीर्णश्च
~494~
Page #495
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [६७५-६८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६७५
व्याख्या- क्षमादिगुणैाप्तश्चतुर्वर्णाकीर्णः, क्वचित् 'चाउवन्ने समणसंघेत्ति पठ्यते, तच्च व्यक्तमेवेति ॥ उक्कानुसापेवाह-पवयणं 8२० शतके प्रज्ञप्तिः भंते ! इत्यादि, प्रकर्षणोच्यतेऽभिधेयमनेनेति प्रवचनम्-आगमस्तद् भदन्त ! 'प्रवचन' प्रवचनशब्दवाच्यं काकाऽध्येत- उद्देशः ९ अभयदेवी
व्यम् उत 'प्रवचनी' प्रवचनप्रणेता जिनः प्रवचनं, दीर्घता च प्राकृतत्वात् ॥ प्राक् श्रमणादिसह इत्युक्तं श्रमणाश्चोग्रादि- जहाविद्या या वृत्तिः२/ टकुलोत्पन्ना भवन्ति ते च प्रायः सिद्धयन्तीति दर्शयन्नाह-जे इमे इत्यादि, 'अस्सि धम्म'त्ति अस्मिन्नग्रन्थे धौ इति ।। चारणा
६८३-६८४ विशतितमशतेऽष्टमः ॥ २०-८॥ ॥७९३॥
-६८२]
दीप
अनुक्रम [७९३८००]
_ अष्टमोद्देशकस्यान्ते देवा उक्तास्ते चाकाशचारिण इत्याकाशचारिद्रव्यदेवा नवमे प्ररूप्यन्ते इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
काविहा णं भंते ! चारणा पन्नत्ता?, गोयमा दुविहा चारणा पं०तं०-विजाचारणा य जंघाचारणा य, से ल केणट्टेणं भंते! एवं बुच्चइ विजाचारणा वि०१, गोयमा तस्स णं छटुंछट्टेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं 8
विजाए उत्तरगुणलर्द्धि खममाणस्स विजाचारणलद्धीनाम लव्ही समुप्पज्जइ, से तेणद्वेणं जाव विजाचार, || विजाचारणस्स णं भंते ! कह सीहा गती कहं सीहे गतिविसए प०, गोयमा ! अयन्नं जंबुद्दीवे २ जाव P७९॥
किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं देवे णं महड्डीए जाव महेसक्खे जाव इणामेवत्तिकट्ठ केवलकप्पं जंबुद्दीव २ तिहिं अच्छरानिवाएहिं तिक्खुत्तो अणुपरियट्टित्ता गं हवमागच्छेजा, विजाचारणस्स गोयमा! तहाट
अत्र विंशतितमे शतके अष्टम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ विंशतितमे शतके नवम-उद्देशक: आरभ्यते
चारण, तस्याभेदाः, तेषाम सामर्थ्य
~495
Page #496
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [६८३-६८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६८३-६८४]
दीप
----CANO-OCCCCX
सीहा गती तहा सीहे गतिविसए प० । विजाचारणस्स णं भंते ! तिरियं केवतियं गतिविसए प०?, गोल! || से णं इओ एगेणं उप्पारणं माणुसुत्तरे पचए समोसरणं करेति माणु० २ तहिं चेहयाई बंदति तहिं २ विति-12 एणं उपाएणं नंदीसरवरे दीवे समोसरणं करेति नंदीस.२तहिं चेइयाई वंदति तहिं०२तओ पडिनिय-11
त्तति २इहमागच्छह २ इह चेइयाई वंदति । विजाचारणस्स णं गो! तिरियं एवतिए गतिविसए प० । * विजाचारणस्सणं भंते ! उहूं केवतिए गतिविसए प०१, गोयमा से मंइओ एगेणं उप्पाएणं नंदणवणे
समोसरण करेह नंद०२तहिंइयाई वंदति तहिं०२बितिएणं उप्पाएणं पंडगवणे समोसरणं करेइ पंड-14 ग०२ तहिं चेइयाई वंदइ तहिं चेहयाई ०२ तओ पडिनियत्तति तओ०२ इहमागच्छद इहमा०२ इहं।
चेहयाई वं०२ विजाचारणस्स णं गोयमा ! उहुं एवतिए गतिविसए प०, से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयप-5 & डिकते कालं करेति नत्थि तस्स आराहणा, से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिकते कालं करेति अस्थि तस्स
आराहणा (सूत्र ६८३)।से केणटेणं भंते ! एवं बुखद जंघाचारणे २१, गोयमा! तस्स णं अट्ठमंअट्टमेणं अनिक्खिसेणं तबोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणस्स जंघाचारणलद्धी नाम लद्धी समुप्पजति, से तेणद्वेणं जाव जंघाचारणे २, जंघाचारणस्स णं भंते ! कहं सीहा गति कहं सीहे गतिविसए प०१, गोयमा ! अयन्नं जंबुद्दीवे २एवं जहेव चिजाचारणस्स नवरं तिसत्तखुत्तो अणुपरियहित्ताणं हवमागच्छेजा जंघाचारणस्स* णं गोयमा! तहा सीहा गती तहा सीहे गतिविसए प० सेसं तं चेव । जंघाचारणस्स णं भंते । तिरियं केव
अनुक्रम [८०१
८०२]
चारण, तस्याभेदाः, तेषाम सामर्थ्य
~496~
Page #497
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [६८३-६८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
२० शतके
प्रत सूत्रांक [६८३-६८४]
1७९४ा
दीप
व्याख्या- तिए गतिविसए प०१, गोयमा ! से णं इओ एगेणं उप्पाएणं रुयगवरे दीवे समोसरणं करेति रुयग०२ प्रज्ञप्तिः तहिं चेइयाई वंदइ तहिं ०२ तओ पडिनियत्तमाणे बितिएणं उप्पाएणं नंदीसरवरदीचे समोसरणं करेति
उद्देशः अभयदेवी-दीतस्बियाई वंदह तहिं चेइयाई २ इहमागच्छह २६ चेइयाई चंदइ, जंघाचारणस्स गं| जडाविद्या यात्तिागोयमा तिरियं एवतिए गइविसए पं०। जंघाचारणस्स णं भंते ! उहुं केवतिए गतिविसए पन्नत्ते, गोयमा। चारणाःसू
से णं इओ एगेणं उप्पाएणं पंडगवणे समोसरणं करेति समो०२ तर्हि चेड्याई चंदति तहिं चे०२ततो पडि- ६८३-६८४ नियसमाणे वितिएणं उप्पाएणं नंदणवणे समोसरण करेति नंदणवणे २ तहि चेइयाइं चंदति तहिं २ इह आगच्छा २ इह चेइयाई वंदति, जंघाचारणस्स णं गोयमा उहुं एवतिए गतिविसए पं०, सेणं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकते कालं करेइ नत्थि तस्स आराहणा से णं तस्स ठाणस्स आलोहयपडिकते कालं करेति अस्थि तस्स आराहणा, सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरद ॥ (सूत्रं १८४)॥२०-९॥ ___ 'कइ ण मित्यादि, तत्र चरण-गमनमतिशयवदाकाशे एषामस्तीति चारणाः 'विजाचारण'त्ति विद्या-श्रुतं तच पूर्वगतं । | तत्कृतोपकाराश्चारणा विद्याचारणाः, 'जंघाचारण'त्ति जङ्गाब्यापारकृतोपकाराचारणा जलाचारणाः, इहार्थे गाथा:-"अह-III सयचरणसमत्था जंघाविजाहिं चारणा मुणओ। जंघाहिं जाइ पढमो निस्सं काउं रविकरेवि ॥१॥ एगुप्पारण तओ रुयग-2
M
७९४|| वरंमि उ तओ पडिनियत्तो। बीएणं नंदीसरमिहं तओ एइ तइएणं ॥२॥ पढमेणं पंडगवणं बीउप्पाएण णंदणं एड्। तइउप्पारण तओ इह जंघाचारणो एइ ॥३॥ पढमेण माणुसोत्तरनगं स नंदिस्सरं बिईएणं । एइ तओ तइएणं कयचे
अनुक्रम [८०१
८०२]
चारण, तस्याभेदाः, तेषाम सामर्थ्य
~497
Page #498
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [६८३-६८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६८३-६८४]
दीप
इयवंदणो इहयं ॥४॥ पढमेण नंदणवणं बीउप्पाएण पंडगवर्णमि । एइ इह तइएणं जो विजाचारणो होइ ॥ ५॥" [अतिशयेन चरणसमर्था जङ्घाविद्याभ्यां चारणा मुनयः । जङ्गाभ्यां याति प्रथमो निश्रीकृत्य रविकरानपि ॥१॥ एकोसादेन ततो रुचकवरं ततः प्रतिनिवृत्तो द्वितीयेन नन्दीश्वरमिह तत आगच्छति तृतीयेन ॥२॥ प्रथमेन पण्डकवनं द्वितीयोत्पादेन नन्दनमेति तृतीयोत्पादेन तत इहायाति जवाचारणः ॥ ३॥ प्रथमेन मानुषोत्तरनगं द्वितीयेन नन्दीश्वर सडू एति । ततस्तृतीयेनेहेति कृतचैत्यवन्दनः ॥ ४ ॥ प्रथमेन नन्दनवनं द्वितीयोत्पादेन पण्डकवनम् । एतीह तृतीयेन यो| विद्याचारणो भवति ॥५॥] इति । 'तस्स णं'ति यो विद्याचारणो भविष्यति तस्य पठंषष्ठेन तपाकर्मणा विद्यया । च-पूर्वगतश्रुतविशेषरूपया करणभूतया 'उत्तरगुणलद्धिं ति उत्तरगुणा:-पिण्डविशुयादयस्तेषु चेह प्रक्रमात्तपो गृह्यते | ततश्च 'उत्तरगुणलब्धि' तपोलन्धि 'क्षममाणस्य' अधिसहमानस्य तपः कुर्वत इत्यर्थः । 'कहं सीहा गई'त्ति कीदृशी & शीघ्रा 'गतिः' गमनक्रिया 'कहं सीहे गाविसए'त्ति कीदृशः शीघ्रो गतिविषयः, शीघ्रत्वेन तद्विषयोऽध्युपचारात् शीघ्र उक्तः, 'गतिविषयः' गतिगोचरः ?, गमनाभावेऽपि शीघ्रगतिगोचरभूतं क्षेत्रं किम् ? इत्यर्थः, 'अयन्न मित्यादि, अयंजम्बूद्वीप एवंभूतो भवति ततश्च 'देवे ण'मित्यादि 'हत्वमागच्छेज्जा' इत्यत्र यथा शीध्राऽस्य देवस्य गतिरित्ययं वाक्य|शेषो दृश्यः, 'से णं तस्स ठाणस्से'त्यादि, अयमत्र भावाथ:-लब्ध्युपजीवनं किल प्रमादस्तत्र चासेविते अनालोचिते न भवति चारित्रस्याराधना, तद्विराधकश्च न लभते चारित्राराधनाफलमिति, योहोतं विद्याचारणस्य गमनमुत्पादद्वयेन आगमनं चैकेन जसाचारणस्य तु गमनमेकेनागमनं च द्वयेनेति तल्लन्धिस्वभावात् , अन्ये त्वाहुः-विद्याचारणस्यागमनकाले
अनुक्रम [८०१
८०२]
चारण, तस्याभेदाः, तेषाम सामर्थ्य
~498~
Page #499
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [६८३-६८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६८३-६८४]
दीप अनुक्रम [८०१
व्याख्या-8 विद्याऽभ्यस्ततरा भवतीत्येकेनागमनं गमने तु न तथेति द्वाभ्यां, जवाचारणस्य तु लब्धिरुपजीव्यमानाऽल्पसामर्थ्या भवती- २० शतके त्यागमनं द्वाभ्यां गमनं त्वेनैवेति ॥ विंशतितमशते नवमः ।। २०-९॥
उद्देशः १० अभयदेवी
सोपक्रमेतया वृत्तिः२ नवमोद्देशके चारणा उक्तास्ते च सोपक्रमायुष इतरे च संभवन्तीति दशमे सोपक्रमादितया जीवा निरुप्यन्त इत्ये
राआत्मो
सामादित्या जावा निरुप्यन्त विपक्रमोत्पा॥७९५॥ है सम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
दादिसू जीवा णं भंते । किं सोवकमाउया निरुवकमाउया ?, गोयमा ! जीवा सोवकमाज्यावि निरुवकमाउयावि, Mileeures ४|| नेरइया णं पुच्छा, गोयमा ! नेरइया नो सोचकमाउया निरुवकमाउया, एवं जाव थ०, पुढविकाइया जहाज दाजीवा, एवं जाव मणुस्सा, वाणमं० जोइसि० वेमा० जहा नेरइया । (सूत्रं ६८५)॥
'जीवा ण'मित्यादि, 'सोवक्कमाउयत्ति उपक्रमणमुपक्रमः-अप्राप्तकालस्यायुषो निर्जरणं तेन सह यत्तत्सोपक्रमं तदेवंविधमायुर्येषां ते तथा तद्विपरीतास्तु निरुपक्रमायुषः, इह गाथे-“देवा नेरइयावि य असंखवासाउया य तिरिमणुया। उत्तमपुरिसा य तहा चरिमसरीरा निरुवकमा ॥१॥ सेसा संसारत्या हवेज सोवकमाउ इयरे य । सोवकमनिरुवकमभेओ भणिओ समासेणं ॥२॥" [देवा नैरयिका अपि चासयवर्षायुषश्च तिर्यग्मनुजा उत्तमपुरुषाश्च तथा चरमशरीराश्च *
७९५॥ निरुपक्रमाः ॥ १॥ शेषाः संसारस्था भवेयुः सोपक्रमायुष इतरे च सोपक्रमनिरुपक्रमभेदो भणितः समासेन ॥२॥]] उपक्रमाधिकारादेवेदमाह
८०२]
अत्र विंशतितमे शतके नवम-उद्देशक: परिसमाप्त: अथ विंशतितमे शतके दशम-उद्देशकः आरभ्यते
~499
Page #500
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [६८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६८६]
दीप अनुक्रम [८०४]
नेरइया णं भंते ! किं आओवक्कमेणं उववनंति परोवक्कमेणं उवव निरुवकमेणं उववजंति ?, गोयमा !
आओवकमेणवि उवव० परोवक्कमेणवि उववजंति निरुवक्कमेणवि उवववंति एवं जाव वेमाणियाणं । नेरह18 या णं भंते ! किं आओवक्कमेणं उबवटृति परोवक्कमेणं उबवटृति निरुवक्कमेणं उववदृति ?, गोयमा ! नो
आओवक्कमेणं उबद्दति नो परोवक्कमेणं उवव. निरुवकमेणं उबद्दति, एवं जाव थणियकुमारा, पुढविकाइया जाव मणुस्सा तिसु उप०, सेसा जहा नेरइ० नवरं जोइसियवेमाणिया चयंति ॥ नेरइया णं भंते ! किं आइ-12
हीए उबव० परिडीए उवव०१, गोयमा! आइडीए उवव० नो परिडीए उव० एवं जाव वेमाणियाणं । नेरइया णं | भिंते ! किं आइडीए उपवइ परिडीए उववइ, गोयमा ! आइहीए उच० नो परिड्डीए उव० एवं जाव
वेमाणि, नवरं जोइसियवेमाणिक चयंतीति अभिलावो । नेर० भंते ! किं आयकम्मुणा उववज्जति ? गो आयकम्मुणा उवव. परकम्मुणा उचव ? गो!आयकम्मुणा उवव० नो परकम्मुणा उवव० एवं जाव बेमाणि०,8 एवं उच्चट्टणादंडओवि । नेरइया णं भंते ! किं आयप्पओगेणं उववजह परप्पओगेणं उवव०१, गोयमा ! आय|प्पओगेणं उव० नो परप्पयोगेणं उ० एवं जाव वेमाणिक, एवं उचट्टणादंडओवि (सूत्रं ६८६)॥
'नेरइए'इत्यादि, 'आओवक्कमेणं उववजंतित्ति आत्मना-स्वयमेवायुष उपक्रम आत्मोपक्रमस्तेन मृत्वेति शेषः उत्प-13 हैद्यन्ते नारकाः यथा श्रेणिका, 'परोपक्रमेण' परकृतमरणेन यथा कुणिका, 'निरूपक्रमण' उपक्रमणाभावेन यथाद
| कालशौकरिकः यतः सोपक्रमायुष्का इतरे च तत्रोत्पद्यन्त इति उत्पादोद्वर्तनाऽधिकारादिदमाह- 'नेरइए'इत्यादि
~500
Page #501
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [६८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
अभयदेवी
कतिसंचि
प्रत सूत्रांक [६८६]
सू ६८७
दीप अनुक्रम [८०४]
व्याख्या- 'आइहीए'त्ति नेश्वरादिप्रभावेणेत्यर्थः 'आयकम्मुणत्ति आत्मकृतकर्मणा-ज्ञानावरणादिना 'आयप्पओगेणं'ति आरम- २० शतके प्रज्ञप्तिः व्यापारेण ॥ उत्पादाधिकारादिदमाह
उद्देशः१० या वृत्तिः२
नेरझ्या णं भंते ! किं कतिसंचिया अकतिसंचिया अवत्तगसंचिया ?, गोयमा! नेरइया कतिसंचियावि अकतिसंचियाचि अवत्तगसंचियावि, से केण जाव अश्वत्तगसंचया ?, गोयमा ! जे णे नेरइया संखेजएणं|
तादि ॥७९६॥ पबेसणएणं पविसंति ते ण नेरइया कतिसंचिया जेणं नेरइया असंखेजएणं पवेसएणं पविसंति ते ण नेरइया
अकतिसंचिया, जे णं नेरइया एक्कएणं पवेसएणं पविसंति ते ण नेरदया अबत्तगसंचिया, से तेणद्वेणं ४ गोयमा ! जाव अवत्सगसंचियावि, एवं जाव धणिय०, पुढविक्काइयाणं पुरुछा, गोयमा! पुढविकाइया नो कइसंचिया अकइसंचिया नो अबत्तगसं०, से केणटेणं एवं बुधइ जाव नो अबत्तगसंचिया ?, गोयमा ! पुढ-16 विकाइया असंखेज्जएणं पवेसणएणं पविसंति से तेणडेणं जाब नो अबत्तगसंचया, एवं जाव वणस्स०, दिया , *||जाव चेमाणिजहा नेरइया, सिद्धा णं पुच्छा, गोयमा ! सिद्धा कतिसंचिया नो अकतिसंचया अवत्तगसं-18
चियावि, से केणढे जाव अवत्रागसंचियावि, गो. जेणं सिद्धा संखेजएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं |सिद्धा कतिसंचिया जे णं सिद्धा एकएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं सिहा अवत्सगसंचिया, से तेणटेणं| kil॥७९६॥ जाव अबत्तगसंचियावि॥एएसिणं भंते । मेरइ० कतिसंचियाणं अकतिसंचियाणं अबत्तगसंचियाण य कयरे २ जाव चिसेसा, गोयमा ! सबथोवा नेरइया अवत्तगसंचिया कतिसंचिया संखेनगुणा अकतिसंचिया
~501
Page #502
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [६८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६८७]
दीप अनुक्रम [८०५]
असं० एवं एगिदियवजाणं जाच वेमाणियाण अप्पाबहुग, एगिदियाणं नत्थि अप्पाबहुगं । एएसिणं भंते !! सिद्धाणं कतिसंचियाणं अवत्तगसंचियाण य कयरे २ जाव विसेसाहिया वा ?, गोसिबत्थोवा सिद्धा कतिसंचिया अवत्तगसंचिया संखेजगुणा ॥ नेरइयाणं भंते । किं छकसमज्जिया१नोछक्कसमजिया २ छक्केण य नोछकेण य समल्जिया ३ छक्केहि य समज्जिया ४ छक्केहि य नोछकेण य समज्जिया ५१, गोयमा ! नेरच्या छकसमज्जियावि १ नोफसमज्जियावि २ छक्केण य नोछक्केण य समज्जियावि ३ छकेहि य समजियाचि ४|| छकेहि य नोछोण य समज्जियावि ५, से केणटेणं भंते ! एवं चुचह नेरइया छक्कसमजियावि जाच छ केहि य नोछकेण य समज्जियावि, गोधमा ! जे णं नेरइया छकएणं पवेसणएणं पविसंति ते ण नेरइया छकसम-17 जिया १जे णं नेरइया जहन्नेणं एकेण वा दोहिं वा तीहिं वा उक्कोसेणं पंचएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं । | नेरहया नोछकसमज्जिया २जे ण नेरहया एगणं छकएणं अनेण य जहनेणं एकेण वा दोहि वा तीहिं या उफो
सेणं पंचएणं पवेसणपणं पविसंति ते णं मेरइया छक्केण य नोछकेण य समलिया ३ जे गं नेरइया णेगेहिंद्रा *छकहिं पवेसणएणं पविसंति ते ण नेरइया एकेहिं समज्जिया ४ जेणं मेरहया गहिं छफेहिं अपणेण य जह-IN
नेणं एकेण वा दोहिं वा तीहिं वा उकोसेणं पंचएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं नेरइया उकेहि य नोछकेण: राय समजिया ५ से तेणटेणं तं चेव जाव समजियावि, एवं जाव थणियकुमारा । पुढविकाइयाण पुच्छा. | गोयमा ! पुढविकाइया नो छक्कसमज्जिया१नो नोछकसमज्जिया २ नोछक्केण य समज्जिया ३ छकेहि समजि
~502
Page #503
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [६८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
२.दातके
| कतिसंचि
प्रत सूत्रांक [६८७]
दीप अनुक्रम [८०५]
ख्या- यावि ४ छक्केहि य नोछक्केण य समज्जियावि ५, से केणटेणं जाव समज्जियावि ?, गोयमा ! जे णं पुढविकाइया | प्रज्ञप्तिःणेगेहिं छक्कएहिं पवेसणगं पविसंति ते णं पुढविकाइया छक्केहिं समज्जिया जे णं पुढविकाइया णेगेहिं छक्क- उद्देशः१० अभयदेवी- एहि य अन्नेण य जहन्नेणं एकेण वा दोहि वा तीहिं वा उक्कोसेणं पंचएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं पुढविया वृत्तिः
काइया छक्केहि य नोछक्केण य समज्जिया, से तेणदेणं जाव समज्जियावि, एवं जाब वणस्सइकाइयावि, तादि ॥७९७॥ दिया जाव वेमाणिया, सिद्धा जहा नेरइया । एएसि णं भंते ! नेरइयाणं छकसमजियाणं नोछकसमजि-151
सू६८७ याण छकण य नोछण य समजियाणं छकेहि य समज्जियाणं उकेहि य नोछकेण य समज्जियाणं कयरे २ जाव |विसेसाहिया वा ?, गोयमा! सबथोवा नेरइया छकसमलिया नोछक्कसमज्जिया संखेजगुणा छकेण य नोटकेण|
यसमजिया संखेजगुणा छ केहि य समजिया असंखेजगुणा छक्केहि य नोछण य समज्जिया संखेजगुणा द एवं जाव धणियकुमारा । एएसिणं भंते ! पुढचिकाइयाणं छक्केहिं समज्जियाणं छक्केहि य नोटकेण य सम
जियाणं कयरे २ जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सवत्थोवा पुढथिकाइया छकेहिं समज्जिया छफेहि य 18// नोटक्केण य समजिया संखेजगुणा एवं जाव वणस्सइकाइयाणं, बेईदियाणं जाच वेमाणियाणं जहा नेरह
याणं । एएसिणं भंते ! सिद्धाणं छक्कसमजियाणं नोछक्कसमज्जियाणं जाव छक्केहि य नोछकेण य समजियाण य कयरे २ जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा! सत्वत्थोवा सिद्धा छकेहि य नोकण य समविया ॥७९७॥ छकेहिं समजिया संखेनगुणा छक्केण य नोछक्केण य समजिया संखेजगुणा छक्कसमजिया संखेजगुणा नो
~503
Page #504
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [६८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६८७]
दीप अनुक्रम [८०५]
छकसमजिया संखेज गुणा । नेरइया णं भंते ! किं बारससमज्जिया १ नोबारसमजिया २ बारसएण य नोवारसरण य समजिया ३ बारसएहिं समज्जिया ४ बारसएहिं नोयारसएण य समलियापि ५१, गोयमा !
नेरतिया बारससमज्जियाचि जाव बारसएहि य समजियावि, से केणट्टेणं जाच समज्जियावि, गोयमा ! जे ४ ण नेरच्या वारसरणं पवेसणएणं पविसंति ते ण नेरड्या चारससमज्जिया १ जेणं नेरइया जहन्नेणं एकेण
वा दोहिं वा तीहि वा उकोसेणं एकारसएणं पवेसणएणं पविसंति तेणं नेरझ्या नोवारससमज्जिया २जे Pण नेरइया वारसरणं अन्नण य जहन्नेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा उक्कोसेणं एक्कारसरणं पवेसणएणं पवि
संति ते णं नेरइया वारसएण य नोवारसरण य समजिया ३ जे णं नेरइया णेगेहिं पारसरहिं पवेसणगं दि पविसंति ते ण नेरतिया बारसएहि समजिया ४ जे णं नेरइया णेगेहिं बारसएहिं अन्नेण य जहन्नेणं एकेण
वा दोहिं वा तीहिं वा उक्कोसेणं एकारसएणं पवेसणएणं पविसंति ते ण नेरइया बारसएहि य नोवारसरण
य समल्लिया ५, से तेणटेणं जाच समज्जियाचि, एवं जाव थणियकुमारा, पुढचिकाइयाणं पुच्छा गोयमा! लि पुढविकाइया नोवारससमजिया १नो नोवारससमज्जिया २ नो पारसरण य समजिया ३ यारसहिद
समजिया ४ बारसेहि पनो बारसेण य समज्जियाचि ५, सेकेणटेणं जाव समज्जियावि? [ग्रन्थानम् १२०००]
गोयमा ! जे णं पुढविकाइया णेगेहिं बारसरहिं पवेसणगं पविसंति ते णं पुढविकाइया बारसएहिं समज्जिया, लिजेणं पुढविकाइया णेगेहिं बारसएहिं अन्नण य जहन्नेणं एकेण वा दोहिं वा तीहिं वा उक्कोसेणं एकारसएणं
~504
Page #505
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [६८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६८७]
व्याख्या- पवेसणएणं पविसंति ते णं पुढविकाइया घारसएहिं नोवारसरण य समजिया से तेणटेणं जाव समज्जि- २० शतके प्रज्ञप्तिः यावि, एवं जाव वणस्सइकाइया, बेईदिया जाव सिद्धा जहा नेरदया। एएसि णं भंते । नेरतियाणं वारससम-द | उद्देशः १०
ज्जियाणं सबेसिं अप्पायहुगं जहा छक्कसमजियाणं नवरं बारसाभिलावो सेसं तं चेव । नेरतिया णं भंते ! कतिसंचि. या वृत्तिः२४ किं चुलसीतिसमविया नोचुलसीतिसमज्जिया २ चुलसीते य नोचुलसीते य समजिया ३ चुलसीतीहिं|४||
तादि ७९ समजिया४चुलसीतीहि य नोचुलसीतीए समज्जिया ५१, गोयमा ! नेरतिया चुलसीतीए समजियावि १००
जाच चुलसीतीहि य नोचुलसीतिए य समजियावि, से केणतुणं भंते ! एवं बुच्चइ जाव समजियावि, गोयमा ! जे णं नेरहया चुलसीतीएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं नेरइया चुलसीतिसमजिया १जे णं नेर-5 इया जहन्नेणं एकेण चा दोहिं वा तीहिं वा उक्कोसेणं तेसीतीपवेसणएणं पविसंति ते गं नेरड्या नोचुलसीतिसमजिया २ जे ण नेरइया चुलसीतीएणं अनेण य जहन्नेणं एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा जाव उक्कोसेणं । तेसीतीएणं पवेसणएणं पविसंति ते गं नेरतिया चुलसीतीए नोचुलसीतिएण य समज्जिया ३ जे णं नेरड्या णेगेहिं चुलसीतीएहिं पवेसणगं पविसंति ते णं नेरतिया चुलसीतीएहिं समज्जिया ४ जे ण नेरइया णेगेहिंद | चुलसीतिएहिं अनेण य जहन्नेणं एकण वा जाव कोसेणं तेसीइएणं जाव पवेसणएणं पविसंत्ति ते गं नेरतिया
७९८॥ |चुलसीतीहि य नोचुलसीतीए य समज्जिया ५, से तेणटेणं जाव समजियावि, एवं जाच थणियकुमारा, द्र पुढविकाइया तहेच पछिल्लएहिं दोहिं २ नवरं अभिलावो चुलसीतीओ भंगो एवं जाव घणस्सइकाइया,
दीप अनुक्रम [८०५]
weredturary.com
~505
Page #506
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-],उद्देशक [१०], मूलं [६८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
RA%-
3
प्रत सूत्रांक [६८७]
दिया जाव वैमाणिया जहा नेरतिया । सिद्धा णं पुच्छा, गोयमा ! सिद्धा चुलसीतिसमन्जियावि १ नोचुलसीतिसमज्जियावि २ चुलसीते य नोचुलसीतीए समज्जियावि ३ नोचुलसीतीहिं समज्जिया ४ नोचुल-15 सीतीहि य नोचुलसीतीए य समजिया ५, से केणटेणं जाव समजिया?, गोयमा ! जे णं सिद्धा तुलसीती-IN एणं पवेसणएणं पविसंति ते णं सिद्धा चुलसीतिसमजिया जेणं सिद्धा जहन्नेणं एकण वा दोहिं वा तीहिं |
वा उक्कोसेणं तेसीतीएणं पवेसणएणं पविसंति ते णं सिद्धा नोचुलसीतिसमजिया, जे णं सिद्धा चुलसीय-13 5) एणं अन्नण य जह० एक्केण वा दोहिं वा तीहिं वा उकोसेणं तेसीएणं पचेसणएणं पविसंति ते णं सिद्धा चुल
सीतीए य नोचुलसीतीए य समजिया, से तेणढणं जाव समजिया । एएसिणं मंते ! नेरतियाणं चुलसी-15 तिसमजियाणं नोचुलसी० सबेसि अप्पाबहुगं जहाउसमल्जियाणं जाव वेमाणियाणं नवरं अभिलायो चुल-15 सीतिओ। एएसि णं भंते ! सिद्धाणं चुलसीतिसमज्जियाणं नोचुलसीतिसमज्जियाणं चुलसीतीए य नोचुल
सीतीए य समज्जियाणं कयरे २ जाव विसेसा०, गोयमा ! सबथोवा सिद्धा चुलसीतीए य नोचुलसीतीए | काय समज्जिया चुलसीतीसमजिया अर्णतगुणा नोचुलसीतिसमज्जिया अर्णतगुणा । सेवं भंते ! २ त्ति जाव ||
विहरइ ॥ (सूत्र ६८७ ) ॥२०-१० ।। वीसतिमं सयं समत्तं ॥२०॥ | 'नेरइए'त्यादि, 'कइसंचिय'त्ति कतीति सङ्ख्यावाची ततश्च कतित्वेन सञ्चिताः-एकसमये सङ्ख्यातोत्पादेन पिण्डिताः कतिसञ्चिताः, एवम् 'अकइसंचिय'त्ति नवरम् 'अकईत्ति सङ्ख्यानिषेधः-असङ्ख्यातत्वमनन्तत्वं चेति, 'अबत्तगसंचिय
दीप अनुक्रम [८०५]
50-52-51-5
~506~
Page #507
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [६८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५), अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६८७]
व्याख्या- त्ति द्वयादिसङ्ग्याच्यवहारतः शीर्षप्रहेलिकायाः परतोऽसङ्ख्यातव्यवहारतश्च सातत्वेनासपातत्वेन च वक्तुं न शक्यतेऽसाव-|
२० शतके प्रज्ञप्तिः वक्तव्यः स चैककस्तेनाबक्तव्येन-एककेन एकत्वोत्पादेन सञ्चिता अवक्तब्यसञ्चिताः, तत्र नारकादयत्रिविधा अपि, एक-दा | उद्देशः१० अभयदेवी-18 समयेन तेषामेकादीनामसङ्ग्यातान्तानामुत्पादात्, पृथिवीकायिकादय ५ स्वकतिसविता एप, तेषां समयेनासयातानामेव कतिसंचि या वृत्तिः
प्रवेशाद्, वनस्पतयस्तु यद्यप्यनन्ता उत्पयन्ते तथाऽपि प्रवेशनकं विजातीयेभ्य आगतानां यस्तत्रोत्पादस्तद्विवक्षितं, अस- तादि
याता एव विजातीयेभ्य उद्वत्तास्तत्रोत्पद्यन्त इति सूत्रे उक्तम् 'एवं जाव वणस्सइकाइय'त्ति, सिद्धा नो अकतिसञ्चिता अन॥७९॥
सू ६८७ |न्तानामसङ्ग्यातानां वा तेषां समयेनासम्भवादिति ॥ एषामेवाल्पबहुत्वं चिन्तयन्माह-एएसी'त्यादि, अवक्तव्यकसञ्चिताः स्तोकाः अवक्तब्यकस्थानस्यैकत्वात् , कतिसश्चिताः सहयातगुणाः, सङ्ख्यातत्वात् सङ्ग्यातस्थानकानाम् , अकतिसञ्चितास्त्वसङ्ग्यातगुणाः असक्षपातस्थानकानामसातत्वादित्येक, अन्ये खाडः-वस्तुस्वभावोऽत्र कारणं न तु स्थानकाल्पत्वादि, कथ. मन्यथा सिद्धाः कतिसञ्चिताः स्थानकबहुत्वेऽपि स्तोका अवक्तव्यकस्थानकस्यैकत्वेऽपि सङ्ख्यातगुणा व्यादित्वेन केवलिनामल्पानामायुःसमाप्तेः इयं च लोकस्वभावादेवेति ॥ नारकाद्युत्पादविशेषणभूतसङ्ग्माऽधिकारादिदमाह--'नेरइया 'मित्यादि 'छकसमज्जिय'त्ति पट्र परिमाणमस्येति षट वृन्दं तेन समर्जिताः-पिण्डिताः षट्समर्जिताः, अयमर्थः-एकत्र समये ये समुत्पद्यन्ते तेषां यो राशिः स पट्प्रमाणो यदि स्यात्तदा ते षट्वसमर्जिता उच्यन्ते १ 'नोछक्कसमज्जिय'त्ति नोषहूं
| ॥७९९॥ द षट्काभावः ते चैकादयः पश्चान्तास्तेन नोषवेन-एकाद्युत्पादेन ये समर्जितास्ते तथा २ तथा 'छक्केण य नोछकेण य समजिय'त्ति एकत्र समये येषां पदमुत्पन्नमेकायधिकं ते पदेन नोषदेन च समर्जिता जक्ताः 'छकेहि य समजिय'त्ति एकत्र
दीप अनुक्रम
[८०५]
JAIMEIticaturintmational
FEFirtunaraPataneom
wwwINTERamay
~507~
Page #508
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०५)
[भाग-१०] "भगवती"-अंगसूत्र-५ (मूलं+वृत्ति:)
शतक [२०], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [६८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [६८७]
IGI
समय येषां बहनि पदाम्यत्पन्नानि ते पहै। समर्जिता रक्ताः ४ तथा 'छक्केहि य नोटकेण य समज्जिय'त्ति एकत्र समये || ॥ येषां बहूनि षट्वान्येकाचधिकानि ते पदैः नोषट्वेन च समर्जिताः, एते पञ्च विकल्पाः, इह च नारकादीनां पश्चापि विकल्पा द संभवन्ति एकादीनामसङ्ख्यातान्तानां तेषां समयेनोत्पत्तेः, असङ्ख्यातेष्वपि च ज्ञानिनः षट्वनि व्यवस्थापयन्तीति, एकेन्द्रियाणां त्वसङ्ख्यातानामेव प्रवेशनात् षट्दैः समर्जिताः, तथा पदैन!षट्वेन च समर्जिता इति विकल्पद्वयस्यैव सम्भव इति, अत एवाह-'पुढविक्काइयाण'मित्यादि ॥ एषामल्यबहुत्वचिन्तायां नारकादयः स्तोका आद्याः, षट्कस्थानस्यैकत्वात् , द्वितीयास्तु सङ्ख्यातगुणाः, नोषकस्थानानां बहुत्वात् , एवं तृतीयचतुर्थपञ्चमेषु स्थानबाहुल्यात्सूत्रोक्तं बहुत्वमवसेयमित्येके, अन्ये तु वस्तुस्वभावादिल्याहुरिति । एवं द्वादश सूत्राणि चतुरशीतिसूत्राणि चेति ।। विंशतितमशते दशमः ॥ २०-१०॥ विंशतितमशतं वृत्तितः परिसमासमिति ॥ २०॥ है विंशतितमशतकमलं विकाशितं वृद्धवचनरविकिरणः । विवरणकरणद्वारेण सेवितं मधुलिद्देव मया ॥१॥
दीप अनुक्रम [८०५]
अत्र विंशतितमे शतके दशम-उद्देशक: परिसमाप्त:
तत् समाप्ते विंशतितमं शतकं अपि समाप्तं
भाग
10
भगवती-अंगसूत्र [५/२] शतक-१२ से २० मूलं एवं अभयदेवसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ता:
मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी (M.Com., M.Ed., Ph.D. श्रुतमहर्षि]
~508~
Page #509
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाग
01
02
03
04
05
06
07
08
09
10
11
12
13
14
15
16
17
18
19
20
21
सवृत्तिक- आगम- सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा?
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- १,२
श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध- २ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- १ से १३
श्रुतस्कन्ध- १, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ स्थान- १४
स्थान- ५ से १० पूर्ण
आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग - १ आगम ०९ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग -१ आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति,
| आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति.
भाग-१ शतक- १ से ६
भाग-२ शतक- ७ से ११ भाग - ३ शतक- १२ से २०
भाग-४ शतक - २१ से ४१ संपूर्ण
आगम-७,८,९,१०उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति.
आगम- ११, १२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति.
आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति.
आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [ प्रतिपत्ति ३ अतर्गत सूत्र- १ से १३८
| आगम १४ जीवाजीवाभिगम भाग - २ मूलं एवं वृत्ति. [ प्रतिपत्ति-३- अतर्गत ] सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती - १० संपूर्ण
आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद- १ से ५
| आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. पद- ६ से २२
आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण
आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति.
~ 509~
कुलपृष्ठ
३१४
५८६
४९८
३९२
५९४
४९४
३३८
५९२
५५२
५१४
३८४
५२२
५३८
३८४
३१४
४८०
४८८
४२६
५१४
३३६
६१०
Page #510
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाग
कुलपृष्ठ ६०८ ३६८
४१६ ३३६
३०४
३२०
४५६
४३२
सवत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा?
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार-५ से ७. आगम १९ थी ३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान,
भक्तपरिज्ञा, तंदुलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मूलं एवं छाया आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बुहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव
आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति- १ से १२१ । | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१ आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण] आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन- ४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण] आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति.. आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन- ६ से २१ आगम ४३ उत्तराध्यन मलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. | कल्प[बारसासूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति.
४५६
४१६
४६४ ૩૬૮ ५८४ ५१२ ४७२ ४५६
५२०
५५२
४००
~510~
Page #511
--------------------------------------------------------------------------
________________
ਹਾਜ਼
ਹਾਸ
ਰਸ ਦਾ
ਹਰ ਸਾਲ ਪਹਿਲਾ , ਬਾਲ
ਜੀ
ਦਾ
ਸ਼
ਗਲ ਕਾਲ ਨੂੰ
ਸ
ਸ਼ਾਹ ਪਾ
ਹਾਥ
ਸ਼ ਸ਼ . ਲ ਨੂੰ ਤਰਸ ,
ਕਰਨ
.
आगम
वाचना शताब्दी वर्ष ।
ਸਰੀਰ ਨੂੰ ਜੀ. ਸ਼ ਕਰਨ ਦਾ ਤਰਲ ਕਈ
- 511
Page #512
--------------------------------------------------------------------------
________________
आमाजमा
नमो नमो निम्मलदसणस्स
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
तान्ह
OR
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहषि]
प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855798253062751
~512~
Page #513
--------------------------------------------------------------------------
________________
ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
श्री आगम मंदिर
पालिताणा
DEEOHIEO
EOS
~5134
Page #514
--------------------------------------------------------------------------
________________ गम आगम आगम आगमन मूल संशोधक म पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आगम - 5 'भगवती' मूलं एवं वृत्ति: [3] आजम आज अभिनव-संकलनकर्ता आजम आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आगम आगम आगम आगम आगम आगम आगम ~514