Book Title: Pratikraman Sutra
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमणा संवर मापन तथा rent मायना२ - १२१ नवस्मरण अने देववंदना दि जायचय. अर्थसहित.॥२॥ 24 म२२६ झान :२ तथा अने चैत्यवंदन, थोय स्तवन, सद्यायादियुक्त. आ ग्रंथ समस्त जैनबंधुउने प्रतिदिन अवश्य उपयोगी जाणी, तेने यथामति संशोधन करीने श्रावक जीमसिंह माणकें __श्रीमोहमयीपत्तनमध्ये निर्णयसागरनामक मुद्रायंत्रमां मुद्रित कराव्यो छे. संवत् १९६२ माहा वदि १३ सन १९०६. आ पुस्तकनो सर्व प्रकारनो हक्क सन १८६७ ना आक्ट मुजब मालेके पोताने स्वाधीन राख्योछे. माटें धणीनी रजा . शिवाय बीजा कोइयें छापवो छपाववो नहीं. . Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. श्रा प्रतिक्रमण जे बे, ते षमावश्यकरूप बे, तेमां प्रथम साम बीजो चतुर्विंशतिस्तव, त्रीजुं वंदनक, चोथुप्रतिक्रमण, पांचमो कायो अने हुं प्रत्याख्यान, एक प्रकारनी आवश्यक क्रियालक्षण- कारि ण , ते विशेषे करी गृहस्थाश्रमीनो धर्म , तिहां संध्याकालने वि नपूजनानंतर श्रावक जेडे, ते साधुनी पासें अथवा पोषधशालाने जश्ने प्रतिक्रमण करे, ए प्रतिक्रमण शब्द, आवश्यक विशेषवाची ने पण आहिं सामान्यतायें करी षड्विध आवश्यक क्रियाने विषे रूढ बै उ आवश्यकमध्ये पहेलु सामायिक जे , ते आर्तरोऽध्यानपरिहार धर्मध्यानकरणे करी शत्रु, मित्र, पाषाण तथा कांचनादिकने विषे । जावरूप बे, माटें प्रारंजमां कडं बे, बीजो चतुर्विंशतिस्तव, एटले चे श तीर्थंकरना नामकीर्तनपूर्वक गुणकीर्तन तेनुं कायोत्सर्गने विषे मन अनुध्यान होय बे, माटें तेने बीजं कडं बे, त्रीजुं वंदनक एटले वांदवायो एवा धर्माचार्यने पच्चीश आवश्यकें विशुक, बत्रीश दोष रहितनमस्का करवो, ते पण युक्तज , चोथुप्रतिक्रमण ते शुजयोगथकी अशुजयोग विषे गमन करनारने फरी पालुं गुजयोगमांज क्रमण करवू, तेने प्रति क्रमण कहियें, ऐटले मोक्षफल आपनारा एवा शुजयोगने विषे निःशल्य थर्बु तेने प्रतिक्रमण कहिये. तिहां मिथ्यात्व थवाथी तथा असंयम थवा थी तथा कषाय थवाथी अशुनयोग थाय, ते अशुजयोगना विछेदने माटें जे निंदाछारें करीने अशुन्जयोग निवृत्तिरूप पमिकमणुं करवं, ते अतीत काल विषयिक पडिकमणुं जाणवू, तथा संवरछारें करीने वर्तमान काल विषयिक पमिकमणुं जाणवु अने अनागतकाल विषयिक पमिकमणुं पण संवरहारें करीने बे. माटे तेमां पण दोष नथी. ए रीतें त्रिकाल विषयि क प्रतिक्रमण सिफ थाय जे. ए प्रतिक्रमण विधिकोश्स्थानकें रूढी, कोश स्थानकें षमावश्यक क्रियामां घटमान . ते प्रतिक्रमण, पांच प्रकारें बे. तेमां एक दैवसिक, बीजुं रात्रिक, त्रीजु पादिक, चोथु चातुर्मासिक आ पांचमुं सांवत्सरिक बे, ते पांच प्रकारना प्रतिक्रमणनो विधि यथावका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. ३ पुस्तकमां दाखल करयो बे, परंतु विशेषविधि, जिज्ञासुजनोयें प्रतिक्रमण हेतुगर्जादिक, अन्य ग्रंथोकी जाणी लेवो. हवे ए प्रतिक्रमण रूप जे षडावश्यक बे, ते दिवस दिवस प्रत्यें उजय कालने विषे श्रावकें कर. अने वली जकप्राणी यें तो अज्यासने पण कर. परंतु एवी रीतनी आशंका करवी नहिं के " जेणें को पण व्रत अंगीकार करयुं नथी एवा जड़क जीवने व्रतना अति चारोनो असंभव बे, तेम बतां पण तेनी शुद्धिरूप प्रतिक्रमण करयुं, ते ते अनुचित ? अथवा तेने ते प्रतिक्रमणना पाठनो उच्चार करवो पण योग्य नथी, तथा जेने व्रतोना अतिचारो लागता नथी, एवा न कजीवो जो अतिचार विना पण पाठनो उच्चार करे, अथवा प्र तिक्रमण पण करे, तो तेने साधुना पंच महाव्रतोना अतिचारनो उच्चार करवानो पण प्रसंग थाशे ? " एवी एवी शंका करवी नहिं, कार के जेम कोइ जक जीवने जैनमार्गमां प्रवेश कराववाने दी कानुं विधान करावीयें ढैयें, तेनी पेठें जड़क जीवने प्रतिक्रमण क खुं पण युक्तज बे. जो पण ते नद्रक जीवें कोई व्रत अंगीकार क नथ तो पण तेवा जीवने ते व्रत करवानुं अश्रद्दानादिक पणुं तो पूर्वै बेज, तेथे तेने ते व्रतोना अतिचारोना उच्चार करवा थकी अश्रद्धान विपरीत प्ररूपणादिक विषयनुं प्रतिक्रमण करवुं, तेतो तेणें अंगीकरेलुं ज. ते विषे या पुस्तकना ( १५५) मा पेचमां " पडिसिद्धाणं करणे" इत्यादि वंदितासूत्री श्रमतालीशमी गाथानो अर्थ जोइ लेवो, अने ते माटेंज श्रावक यार प्रतिमा तथा साधुनी बार प्रतिमा जेणें अं fare करेली नथी, एवा साध मुनिराज पण प्रतिक्रमण करतां " इगार सहिं वासगप डिमाहिं बारसहिं निरकुप मिमाहिं " एवी रीतनो पाठ जणे बे, परंतु ते प्रतिमा ते साधुयें कांइ अंगीकार करेही होती नथी, शी तेना अतिचारोनो असंभव बतां पण तेनो पाठ जणे बे. तेम जड व्रतना अतिचारनो असंभव बतां पण तेनो पाठ जणवामां कांहि नथी, कारण के जगवानें पण एक व्रतना अंश अंगीक श्रावकथी मांगीने संपूर्ण बार व्रत पर्यंतने अंगीकार करना वास्ते एक प्रकारनुं प्रतिक्रमण कहेलुं बे, परंतु प्रत्ये Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोसहपारवानो विधि. वास्ते जूई जूई प्रतिक्रमणसूत्र बांधेलु नथी,अने जोनक जीवने प्रतिक मण करवानी प्रजुनी आज्ञा न होत, तो जूदां जूदां एकादिक व्रतोना धार क श्रावकोने माटे पण जूदां जूदां प्रतिक्रमण करवां जोतां हता, परंतु ते तो कस्यां देखातां नथी. प्रतिक्रमणसूत्र तो मात्र साधु अने श्रावक ए बे श्राश्रयीज बे, ते पण एटला वास्ते जूदां , के अणुव्रतवाला साधुने जे वातनी मना करेली बे, तेवी वातोनुं जे श्रावके आचरण करवं तेनो प्रपंच कहेवा सारु श्रावकनुं प्रतिक्रमण जूई , तेथी ते विशेषे करी श्राव कने घणुं उपयोगमां आवे तेवू बे, ते माटें श्रावकना प्रतिक्रमणे करीनेज श्रावक प्रतिक्रमण करे . अहियां घणा हेतु तथा दृष्टांतो डे, परंतु प्र स्तावनाना विस्तारजयथी अधिक विलेखन कझुं नथी, माटें कोई पण प्रका रनी आशंका कख्या विना नमक जीवें षमावश्यकरूप प्रतिक्रमण,प्रतिदिव र उनयकालें अवश्य करवू; एज महानंदसंदोह हेतु जे.किं बहु विलखनेन. ॥ अथ पोसहपारवानो विधि ॥ ॥प्रथम इरियाव हियाए पमिकमी, श्वामि खमासमणो देश नाका रेण संदिसह जगवन् ! पोसह मुहपत्ति पडिलेडं ? एम बोली मुहपत्ति पनि लेहवी. तदनंतर श्लामिण श्लाका पोसह संदिसाडं वली श्च श्वाका संदि० पोसह गलं ? पली बे हाथ जोमी एक नवकार गणीने पोसहनुं पच्चरकाण करवू. श्वामिण श्वाका सामायिक मुहपत्ति पमिलेहुँ, त्यांथी ते सद्याय करूं, त्यां सूधी कही त्रण नवकार गणी पनी श्वामिण श्वास बहुवेल संदिसा हुं. श्छण् श्छा बहुवेल करशुं. श्वं श्छा पमिलेहण करुं ? एम कही मुहपत्ति पमिलेहवी. श्वामि० श्बाकारि लगवन् ! "पसाय करी पमिलेहणा पमिलेहावो. श्छामिण श्लाका उपधि मुहपत्ति पमिलेहुं ? एम कही मुहपत्ति पमिलेहवी. श्वामिण इलाका उपधि संदि साहुं ? श्छामि श्वाका उपधि पडि लेहुं श्वामिण श्वाका सघाय करूं? ए कही एक नवकार गणी मन्ह जिणाणंनी सजाय कहेवी, पोर अवसरें शरियावहिया पमिकमी श्वामि० श्छाका पमिलेहणा म कही मुहपत्ति पडिलेहवी. ॥ हवे सहु समद पोसह उच्चारवो, ते कहे ॥ त्या प्रमाणे सर्वे कहे, पण सद्याय न कहेवी. ने पढी राश हवी, वांदणां बे देवां. पडी राश्यं बालोठं ? एम कही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोसहपारवानो विधि. 'जो मे राश्यों तथा सवस्स वि राश्य कही पन्नास होय तो वांदणां बे दे वां. पडी अहिउँ खामवो. खामीने वांदणां बे देवां अने पच्चरकाण करवू. त्यार पड़ी कालना देव वांदवा. पाली वखतें पमिलेहण करे, तेशरियावही, पमिकमी पड़ी गमणागमणे आलोउं ? कही, इरियासमिति, नाषासमिति एषणासमिति, आदानमनिकेवणासमिति, पारिष्ठापनिका समिति, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति. ए पांच समिति, त्रण गुप्ति, ए श्राप प्रव चन मातातणी पोसह सामायिक लीधे खमण विराधना थर होय, ते सवि मन, वचन कायायें करी मित्रा मि उक्कडं. श्छामिण श्वाकाण पमिलेहण करूं ? श्वामिण श्लाका पोसहशाला प्रमाणु ? एम कही मुहपत्ति, कटासणुं, चरवलो पडिलेहवा. पड़ी श्वामि श्वाकारि लगवन् ! पसाय करी पमिलेहणा पमिलेहावोजी. श्वामि श्छाका उपधि मुहपत्ति पनि खेहवी. श्वामि श्वाका सद्याय करुं ? एम कही एक नवकार गणीने मन्ह जिणाणंनी सद्याय कहेवी. जो जम्या होय तो वांदणां देश पञ्च काण करे. अने जो जम्या न होय तो खमासमण देश पञ्चरकाण करे. पड़ी श्वामि० श्बाका उपधि संदिसाडं, श्वामि० श्लाका उपधि पनि खेडं ? एम कही जेटलां वस्त्र होय, तेटलां पमिलेहे, पनी देव वांदी प्रति क्रमण करे अने पढ़ी पोसह पारी नवकार गणी सागरचंदो कहे. प्रजातना पोसह लीधेलाने रात्रं पोसह सेवानो विधि. प्रजातनो पोसह लेवानो विधि बे, ते प्रमाणे खमासमण देश शरियावहियाथी यावत् बहु वेल करशुं, त्यां सुधी कहे. पण पोसहना पञ्चरकाणमां फेर बे, ते शेष दिवसमा अहोरत्तं पद कहे. पड़ी खमासमण देश रियावहि पमिकमी श्वामि० श्लाका डिल पमिलेहुँ ? एम कही मामलां चोवीश करे. ___ सांजे नवीन पोसह लेवानो विधि. उपवासादि जघन्य एकासणुं कसुहोय तो तेणे लेवाय. खमासमण देशरियावही पमिकमी पमिलेहण करे, खमा समण देश् शरियावदियी यावत् बहु वेल करशुं त्यां सुधी. पठी श्वामिण श्बाका पमिलेहण करुं ? एम कही श्वामिण श्छाका पोसहशाला प्रमा र्जु ? कही मुहपत्ति पमिलेहवी. श्वामिण श्चकारि नगवन् ? पसाय करी पमिलेहणा पमिलेहावो जी. एम कही श्छामि श्वाका उपधि मुहपत्ति पमिखेडं ? कही मुहपत्ति पमिलेहवी. परी श्वामिण श्छाका स Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहपारवानो विधि. चाय करु? कह श्रने सद्याय करे, खाधेद्यं होय तो, वांदणां वे देश पञ्च काण करे, खाधेनुं न होय तो खमासण देश पञ्चरकाण पारे. पड़ी श्वामिण श्वाका उपधि संदिसाडं. श्वामि श्खाका उपधि पडिलेहुँ ? कही पड़ी देववंदना करी मांडलां करे प्रतिक्रमण करे. पठी एक पहोर रात्रि श्राशरे जाय, त्यां सुधी निमा लीये नहीं पड़ी खमासमण देश् श्बाका बहुपडि पुन्ना पोरिसी कही खमासमण देई शरियाव हिया पडिकमी यावत् लोग स्स कही श्लामि० श्लाका बहुपडिपुन्ना पोरिसी राश्य संथारए गचं ? कही पड़ी श्वामिण्श्छाका० चैत्यवंदन करूं ? एम कही चउकसायर्नु चैत्यवं दन यावत् जयवीयराय सुधी करे. पडी श्वामिण श्वाका संथारा विधि जणवा मुहपत्ति पमिले हुँ ? एम कही मुहपत्ति पमिलेहवी. संथारा पोरिसी जणाववी. जागे त्यां सुधी सद्याय ध्यान करे. पोसहमा एकासणादिक कलुं होय तो अवसरें पञ्चरकाण पारी पोसहशालाथी श्रावस्सर कही ने निजगृहें O शोधतो खमासमण दर, इरियावहि पडिकमी खमा गमणागमणं आलोश, काजो पूंजी यथासंचवें अतिथिसंविनाग व्रत फरसीने निश्चल आसने बेसी हाथ,मुख, पग वगेरे पमिलेही नवकार सं नाली प्राशुक आहार जमे. अथवा पोसहशालायें प्रथम प्रेरित नि जपुत्रादिकें आण्यो आहार करे, पण साधुनी पेरें गोचरी करे नही. त था कारण विना मोदक, स्वादिष्ट, लविंगादिक तांबुल न लीये. ते पछी निसिहि कही पोसहशालये श्रावी खमाण इरिया पमिकमी, चैत्यवंदन करे ॥ इति श्री पौषधपारवानोविधिःसंपूर्णः ॥१॥ अ आ इ ईनक ए ऐ उ औ अं अः क ख ग घ ङ च ज ज ञ ट ठ म ढ ण त थ द ध न प फ ब न म य र ल व श .. ष स ह द ज्ञः १२३४५६७ ए ० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाराखडि. क का कि की कु कू के कै को कौ कं कः ख खा खि खी खु खू खे खै खो खौ खं खः ग गा गि गी गु गू गे गै गो गौ गं गः घ घा घि घी घु घू घे घै घो घौ घं घः ङ ङा ङि ङी कु कू डे डै ङो ङौ ङ ङः च चा चि ची चु चू चे चै ਰ ਗ ਰਿ ਰੀ ਰੁ ਰੂ ਰੇ ਹੈ ज जा जि जी जु जू जे ऊ का कि की कु कू के कै को कौ अ आ जि जी जुजू जे जै जो औ अं ट टा टि टी टु टूटे टै टो टौ टं उठा मिठीतु वै ठगे गै] म मा मिमी में मैं मो मो में ढ ढा ढि ढी ढ ढ ढे ढै ढो ढौ ढं ण णा णि णी णु णू णे णै णो णौ णं णः त ता ति थ था थि द दा दि दी दु दू दे दै दो दौ दं दः HND FAO APNB 45MB NashNEHERar FEEFFE 55 TEENEFH FMo IF EMBAS MESENEFIT GEET MAA.A. 64. Sl. I..... . . . . . . 'थं थः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाराखडि. 4. 4.4.) 4. A. 4. य या यि ध धा धि धी धु धू धे धै धो धौ धं धः न ना नि नी नु नू ने नै नो नौ नं नः प पा पि पी पु पू पे पै पो पौ पं पः फ फा की फु फू ब बा बि बी बू बू बे बै बो बौ बं बः नजानि नीनु नू ने नै नो नौ नं नः म मा मि मी मु मू मे मै मो मौ मं मः यु यू ये यै यो र रा रि री रुरू रे रै रो ली लु लू ले लै लो लौ खं खः व वा वी वु वू वे वै वौ वं वः श शा शि शी शु श शे शै ष षा षि पी षु षू षे पै स सा सि सी सु स से सै ह हा हि ही हु हु हे है हदा दि दी कु कू के दै दो ज्ञ झा झि झी झु झू से झै झो FFIF FF IF 作街市 OFFEE सला लि rb . 29. NO. 4. 4.4. # wit Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्य ग्रंथस्यानुक्रमणिका. अनुक्रमांक. ग्रंथोनां नाम. पृष्ठांक. १ श्री नवकार मांगलिकरूप अर्थसहित, तेनी (अनुक्रमणिका.) १ श्री नमो अरिहंताणं ए शब्दना अर्थ अनेक प्रकारे दर्शाव्या . १ २ नमो सिकाणं ए शब्दना अर्थ. ३ नमो आय रियाणं ए शब्दना अर्थ. ४ नमो उवसायाणं ए शब्दना अर्थ. ५ नमो लोए सबसाहणं ए शब्दना अर्थ. ६ श्रीअरिहंतादिक पंच परमेष्टीने अनुक्रमें नमस्कार करवाना हेतु. ७ एसो पंचणमुक्कारो इत्यादिक शब्दोना अर्थ. १२ ७ हवश् मंगलंने कोइएक होश् मंगलं कहे , तेनुं समाधान. १३ ए श्री अरिहंतनां श्राप प्रातिहार्य तथा चार मूलातिशय कह्या ले. १० श्री सिझ परमात्माना आठ गुणनुं वर्णन कझुं बे. ११ श्री आचार्य प्रजुना बत्रीश गुण सविस्तर वर्णव्या बे. १२ श्री उपध्यायजीना पच्चीश गुण दर्शाव्या . .... १३ श्री साधु मुनिराजना सत्तावीश गुणनां नाम कह्यांबे. २ गुरुस्थापना पंचिंदिय अर्थसहित. एमां प्रसंगें पंचेंजियना त्रेवी श विषय अने बशें बावन विकारनो विवरो देखाड्यो बे. .... ३ खमासमण अथवा प्रणिपात अर्थसहित. .... .... .... २७ ४ सुगुरुने शातासुखपृला. श्वकारिनो पाठ. अर्थसहित. .... .... ५ रियावहियं सूत्र विस्तारित अर्थसहित एमां श्रढार लाख, चोवी श हजार, एकशो ने वीश मिठामि उक्कडंनो विवरो दर्शाव्यो...... २७ ६ तस्स उत्तरीकरणेणं अर्थसहित. .... .... .... .... ३६ ७ अन्नड उससिएणं अर्थसहित. एमां बार आगारनां नाम तथा ___ काउस्सग्गना अंगणीश दोषनां नाम पण कह्यां . .... ... ३० लोगस्स अर्थसहित. एमांप्रसंगेश्री ऋषनादिक चोवीश तीर्थकरनांमाता, पितातथानगरीयादिकनांनामकह्यांतयातीर्थंकरोनांनामपामवानाहेतु. ४५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‍ अनुक्रमणिका. अनुक्रमांक. ग्रंथीनां नाम. ए करेमि नंते, ए सामायिकनां पञ्चस्काणनो पाठ अर्थसहित. १० सामायिक पारवानो, सामश्यवयजुत्तो ए पाठ अर्थसहित. ११ सबलोए अरिहंत चेश्याएं अर्थसहित. १२ जगचिंतामणि चैत्यवंदन अर्थसहित. १३ जं किंचि अर्थसहित. .... .... Jain Educationa International .... .... .... .... २३ नमोऽर्हत् सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुत्र्यः अर्थसहित. २४ संसारदावानी स्तुति अर्थसहित. २५ कल्याणकंदनी स्तुति अर्थसहित १४ नमुणं अथवा शक्रस्तव अर्थसहित एमां इहलोका दिक सात ari नाम इत्यादिक घणी वातो प्रसंगें आवेली ठे. १५ जावंति चेाई अर्थसहित ३ १६ जावंत केवि साहू अर्थसहित. ३ १० उपसर्गहर स्तवन अर्थसहित तथा एनी उत्पत्ति पण दर्शावी बे. ७४ १८ जयवीयराय जगगुरु अर्थसहित. १० अरिहंत चेश्याएं अर्थसहित... २० पुरकरवरदी व अर्थसहित. २१ सिद्धाणं बुद्धाएं अर्थसहित. २२ वेयावच्चगराणं अर्थसहित. .... पृष्ठांक ५४ दय այ այ ६० For Personal and Private Use Only .... .... .... .... 0.00 .... .... .... .... **** .... .... .... .... .... .... ६१ .... GE २६ स्नातस्यानी स्तुति अर्थसहित...... US 29 सुगुरुने वांदणांनो अधिकार, घणाज विस्तारित अर्थसहित.... १०० २८ प्रतिचारनी आठ गाथा अर्थसहित एमां बार प्रकारना तपनो अधिकार बे, तथा तेनी साथै "सयणासण पाणे" ए गाथा जे मुनिराज काउस्सग्गमां चिंतवे बे, ते पण अर्थसहित बे. २० देवसि थालो अर्थसहित. ३० सात लाख पृथिवीकायनो पाठ. ३१ अढार पापस्थानक अर्थसहित. ३२ देवसि पंडिकमणे गतं. एनो अर्थ आगल सबस्सवि देवसियं नामा श्रामत्रीशमा सूत्रांनी अंतर्गत यवशे. १ ३ ԵՒ o १ १ ए २० ११ પ ११७ १९७ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. ३ अनुक्रमांक. ग्रंथोनां नाम. पृष्ठांक ३३ श्रावक पक्किमणसूत्र अथवा वंदितासूत्र अर्थसहित एमां श्राव saureater एकशो चोवीश अतिचारोनो विवरो करयो बे. ११७ યજ્ઞ १५ए १६० १६१ १६३ १६३ १६४ ३४ हिं गुरुखामणां अर्थसहित. ३५ आयरिय उवझाए अर्थ सहित. ३६ नमोस्तु वर्द्धमानाय अर्थसहित. ३७ विशाल लोचन अर्थसहित. ३८ सङ्घस्सवि देवसियं अर्थसहित...... .... ४६ चकसाय परिमरण अर्थसहित. ४७ पोसहनुं पञ्चरकाण, करेमि जंते पोसहं ए अर्थसहित. ४० पोसह पारवानी गाथा, सागरचंदो कामो अर्थसहित. ४ जरदेसरनी सजाय अर्थसहित नरहेसर बाहुबली. ५० मन्दजिणारांनी सद्याय अर्थसहित. ५१ संथारा पोरिसी अर्थसहित. ५२ ज्ञानपंचमी स्तुति, श्रीनेमिः पंचरूप अर्थसहित. ५३ सकलाईत् अर्थसहित. २४ श्रावक पाक्षिकादि संदेपा तिचार. Jain Educationa International ३० श्रुतदेवता तथा क्षेत्रदेवतानी स्तुति अर्थसहित. ४० कमलदलनी स्तुति श्रर्थसहित. ४१ वनदेवतानी स्तुति तथा ज्ञानादिगुणयुतानां अर्थसहित. ४२ अासु मुनिवंदन अर्थसहित. ४३ वरकनक अथवा सप्ततिशत जिन स्तुति अर्थसहित. ४४ सकल तीर्थ वंदूं कर जोक. तीर्थवंदना. ४५ लघुशांतिस्तव अर्थसहित तथा एनी उत्पत्ति पण देखामी बे.... १६८ १६७ 299 ... For Personal and Private Use Only .... **** .... .... .... **** .... 0908 .... .... .... 290 კედ १० १६ १ १४ ჯდე २१० २१७ २५ श्रावक पाक्षिकादि विस्तारा तिचार. ५६ नवस्मरण मध्यें प्रथम पंचपरमेष्ठि नमस्कार, संक्षेप अर्थसहित. २२६ ५७ उवसग्गहरं द्वितीय स्मरणनो अर्थ चम्मोतेरमां पेचमा लखायो बे. २२७ 4G संतिकरस्तोत्रनामक तृतीयस्मरण अर्थसहित. ५० तिजयपटुत्त नामक चतुर्थस्मरण अर्थसहित. श् २३५ .... .... ... .... **** .... .... .... १६५ १६६ १६६ .... Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. अनुक्रमांक. ग्रंथोनां नाम. पृष्ठांक. ६० नमिऊण नामक पंचमस्मरण अर्थसहित. ...... २४३ ६१ अजितशांतिस्तव नामक षष्ठस्मरण अर्थसहित. .... .... २५५ ६५ जक्तामर नामक सप्तम स्मरण अर्थसहित. .... २३ ६३ कल्याणमंदिर स्तोत्र नामक अष्टम स्मरण अर्थसहित. ..... ३११ ६४ बृहबांति स्तव नामक नवम स्मरण अर्थसहित. .... .... ३३० ६५ पञ्चकाण संबंधि किंचित् विचार दर्शाव्या . .... ..... ३४ ६६ नमुक्कार सहिधेनुं पञ्चरकाण अर्थसहित..... .... .... ३५१ ६७ नमुकार सहि मुहिसहियं, पञ्चकाण अर्थसहित. .... ३५४ ६० पोरिसि साह पोरिसिनु पञ्चकाण अर्थसहित. .... .... ३५४ ६ए पुरिम अवठ्नुं पञ्चरकाण अर्थसहित. .... .... .... ३५६ ७० विग निविगर्नु पच्चरकाण अर्थसहित..... .... .... ३५७ ३१ बेश्रासणां तथा एकासणांनुं पच्चरकाण अर्थसहित..... ___.... ३५७ ७२ आयंबिल- पच्चरकाण अर्थसहित. .... ..... ३६१ ७३ चनविहार उपवासनुं पञ्चरकाण अर्थसहित. .... ..... ३६२ तिविहार उपवासर्नु पञ्चकाण अर्थसहित. ७५ चउब बह नत्तादिकनुं पच्चरकाण. .... १६ ब नदविगयना त्रीश निवियाता तेनां नाम दर्शाव्यां बे. .... 3 पाणहारनुं पच्चरकाण. .... ... .... .... ३६५ s७ गंठ सहितं आदि अनिग्रहोर्नु पञ्चरकाण. पुए चौद नियम धरनारने देसावगासिक, पच्चरकाण अर्थसहित..... ७७ चौद नियमनी गाथा, सचित्तदव विगई अर्थसहित.... ७१ पाणहार दिवस चरिमंनुं पच्चरकाण अर्थसहित. ... ज्य रातें चनविहार करवो, तेनुं पञ्चरकाण अर्थसहित...... ३ रातें तिविहार करवो, तेनुं पञ्चरकाण. ७४ रातें विहार करवो, तेनुं पञ्चरकाण. ..... .... ... ३६७ ज्य पच्चरकाणना आगारनी गाथा.. .... ६ उ प्रकारें पच्चरकाणनी शुद्धि करवी, तेनो पाठ अर्थसहित. ... ३६७ ७ साधुजीने चौद प्रकारना दाननी निमंत्रणानो पाठ अर्थसहित..... ३६ए ६ FC Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. अनुक्रमांक. ग्रंथोनां नाम. पृष्ठांक. ज् पञ्चरकाण पारवानो विधि. .... .... ३७० ए सामायिक लेवानो विधि. ..... ३७० ए सामायिक पारवानो विधि. .... ..... ३७१ ए? पमिलेहण करवानो विधि. .... ..... ३७१ एए देव वांदवानो विधि. ए३ देवसि प्रतिक्रमण विधि. .... ..... ३७१ एव राश् प्रतिक्रमण विधि. .... .... ३७३ एए परिक प्रतिक्रमण विधि. .... ..... ३७४ ए६ चउम्मासी प्रतिक्रमण विधि. .... .... ३७६ ए सांवत्सरी प्रतिक्रमण विधि. ..... ____ .... ३७६ ए पोसह पारवानो विधि. या ग्रंथनी प्रस्तावनाना पृष्ठ. एए उ आवश्यकनां नाम तथा तेनो संदेपें अर्थ. .... .... ३७६ १०० ब आवश्यकें सात नयनुं प्रथम हार. .... ..... १०१ आवश्यकें कालादिक पांच कारण- बीजुं हार..... १२ आवश्यकें उत्पाद, व्यय अने ध्रुवनुं त्रीजुं छार. १०३ उ आवश्यकें हेय, झेय अने उपादेयतुं चोथु छार. १०४ ब आवश्यकें षट्रव्यना व्यवहारनुं पाचमुंहार. .... .... ३० १०५ व आवश्यक मांहेलु कयुं कयुं आवश्यक नवतत्त्वमांहेला कया कया तत्त्वमां ? ते कहेवानुं हुं हार. ... .... ३०० १०६ ब आवश्यकें सप्तनंगी विचारवानुं सातमुंहार. .... .... ३० १०७ ब आवश्यकें चार निदेपा तथा क्षेत्र अने काल- आठमुं छार.३०१ १०७ पोसहमां चोवीश मंगल करवां, तेनां नाम. .... .... ३२ ॥अथ देववंदनादि नाष्यत्रयानुक्रमणिका ॥ १०ए तत्र प्रथम चैत्यवंदन नाष्यस्यानुक्रमणिका प्रारज्यते. १ चैत्यवंदननो विधि चोवीश छारें सचवाय , तेनां नाम. ३७४ २ प्रथम निसिही आदिक दश त्रिकना छार- सविस्तर नेद प्रतिनेद सहित खरूप, तथा ए दश त्रिकमांहेलोकयो कयो नेद क्या क्या करवो ? इत्यादि.. .... .... ३७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ अनुक्रमणिका. अनुक्रमांक. ग्रंथोनां नाम. पृष्ठांक. ३ बीजं पांच प्रकारना अनिगमनुं स्वरूप तेनुं द्वार ... ३७६ ४त्रीजुं बे दिशिनुं छार, तथा चोथु त्रण अवग्रह छार.३ए तथा ३७६ ५ पांचमुंत्रण प्रकारें चैत्यवंदन करवानुं छार. .... .... ३ए ६ बहुं प्रणिपात हार तथा सातमुं नमस्कार द्वार....... .... ३एए ७ देव वंदनाधिकारें जे नवकारप्रमुख नव सूत्रां आवे बे, तेमना हलवा नारी अदरोनी संख्या, श्रापमुं हार, तथा पदसंख्यानुं नवमुं छार अने संपदानुं दशमुं हार कडं बे. ४०० अगीयारमुं पांच दंगकनुं हार अने बारमुं पांच दमकने विषे देव वांदवाना बार अधिकार आवे , तेनुं छार. .... ए तेरमुं चार वांदवा योग्यतुं छार, .... १० चौदमं सम्यग्दृष्टि देवोने स्मरवा योग्यतुं द्वार. .... ४१६ ११ पन्नरमुं नाम स्थापनादिक चार जिननुं छार. .... १५ शोलमुं चार थोयो, छार. ___.... .... ....४१ए १३ सतरमुं देव वांदवाना आठ निमित्तोनुं हार. .... .... ४२० १४ अढारमुं देव वांदवाना बार हेतु, छार. .... १५ उंगणीशमुं अन्नबससिएणादिक शोल गारनुं हार. .... १६ वीशमुं काउस्सग्गना उंगणीश दोषनुं छार. .... १७ एकवीशम काउस्सग्गना प्रमाण- हार. .... .... ४२४ २७ बावीशमुं श्रीवीतरागर्नु स्तवन केवे प्रकारे करवू ? तेनुं हार. ४२४ रए त्रेवीशमुं एक दिवसमां चैत्यवंदन केटली वार करवू?तेनुं छार. ४२५ २० चोवीशमुं सर्वबोल सफल करवामाटे दशथी मांसीने चोराशी पर्यंत श्राशातनाना परिहार करवानुं छार. .... ४२६ १ देव वांदवानो विधि कह्यो बे. ११० अथगुरुवंदन जाण्यानुक्रमणिका. १ फेटा वंदनादि कहीने वांदणां देवानुं कारण. .... ..... ४३१ २ वांदणांनां पांच नाम कह्यां बे. .... .... ४३२ ३ वांदणानां बावीश छारनां नाम कह्यां बे.. ..... ४३३ ४ पहेलुं वांदणांना पांच नामनुं हार कडं बे. ..... ४३५ ४२१ .... ४२२ प्रश्६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... ४४ अनुक्रमणिका. अनुक्रमांक ग्रंथोनां नाम. पृष्ठांक. ५ बीजु वंदन कर्म उपर अव्य नावथी पांच दृष्टांतनुं धार. .... ४३५ ६त्रीजुं पासबादिक पांच अवंद निकनां नामर्नु हार. .... ४३७ ७ चोथु आचार्यादिक पांच वांदवा योग्य , तेनानामनुं छार. ४४१ - पांचमुं चार जण पासें वांदणां न देवराववां, तेनुं छार. .... ४४३ ए उई चार जण पासें प्रायः वांदणां देवरावां, तेनुं छार. ४४३ १० सातमुं पांच स्थानकें वादणां न देवां, तेनुं छार. .... ४४३ ११ आठमुं चार स्थानकें वांदणां देवानुं छार. १२ नवमुं आठ कारणें वांदणां देवां, तेनुं छार. .... ....४४४ १३ दशमुं वांदणां देतां पच्चीश आवश्यक सचवाय, तेनुं छार. ४४५ १४ अगीयारमुं मुहपत्तिनी पञ्चीश पमिलेहणानुं छार. .... ४४७ १५ बारमुं शरीरनी पच्चीश पमिलेहणानुं हार..... .... १६ तेरमुं वांदणामां वत्रीश दोष त्यागवा तेना नामर्नु छार. ४५० १७ चौदमुं वांदणां देतां ब गुण उपजे, तेना नामनुं हार. ४५४ १७ पन्नरमुं वांदणांमां गुरुनी स्थापना केम करवी? तत्स्वरूप छार. ४५४ १ए शोलमुंबे प्रकारना अवग्रहन हार. .... .... .... ४५६ २० सत्तरमु वांदणांना सूत्रांना अदरनी संख्या घार, तथा __अढारमुं पदनी संख्या- छार. ए बे छार, साथें कह्यां . ४५७ २१ उंगणीशमुं वांदणांना दायकनां व स्थानकोनुं द्वार. .... ४५७ २२ वीशमुं वांदणांनां न स्थानकमां ब गुरुवचन होय तेनुं छार. ४५ २३ एकवीशमुं तेत्रीश आशातना न लगामवी, तेनां नामोनुं हार. ४५ए २४ बावीशमुं प्रनातें अने सांके ए बे वंदनक विधिनुं छार. .... ४६३ १११ ॥ तृतीय पच्चरकाण नाष्यस्यानुक्रमणिका ॥ १ पञ्चरकाणना मूल नवछारनां नाम तथा ए शब्दनो अर्थ. ४६६ २ पहेलुं उत्तर गुण पच्चरकाणना दश नेदनु छार..... .... ४६७ ३ बीजुंपच्चरकाण करवाना पाठ रूप चार प्रकारना विधिनुं छार. ४७१ ४त्रीजुं चार प्रकारना आहारना स्वरूप, छार. .... .... ४७६ ५ चोथु नवकारसी प्रमुखना आगारोनी संख्या यथार्थ. .... ४७० ६ पांचमुंब जदय तथा चार अजय मली दश विगश्नु हार, ४४ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. अनुक्रमांक ग्रंथोनां नाम. पृष्ठांक. नेद प्रतिनेद सहित एमां निवियातादिकनां स्वरूप कहेला जे. ४ए। ७ बहुं उनदय विगयना त्रीश नीवियाता कराय बे तेनुं हार. ऐमां निवियातानो अधिकार सविस्तर वर्णवेलो . ........ ४ए G सातमुं पञ्चकाणना मूलगुण उत्तर गुणरूप बे लांगा तथा उंगण पञ्चास आदिक बीजा पण नांगा कहेवानुं छार. .... ५०१ ए आठमुं पञ्चरकाण ब शुझियें सफल थाय, तेना नामर्नु छार.५०६ १० नवमुं पञ्चरकाण नुं फल इहलोक तथा परलोक आश्रयी बे प्र कारें थाय, तेनुं दृष्टांतसहित कथन-छार. .... ... ५०७ ॥ चैत्यवंदन बावीशनी अनुक्रमणिका. ॥ १ विमलकेवल ज्ञानकमला, सिकाचलजीनु. .... .... ५१५ २ श्रीशत्रुजय सिझक्षेत्र, सिझाचलजीनु. .... .... ५१५ ३ आज देव अरिहंत नमुं, पंचतीर्थी चैत्यवंदन. .... .... ५१५ ४ पद्मप्रनने वासुपूज्य दोय राता कहीये. चोवीशजिनवर्णनु. ५१२ ५ प्रथम तीर्थंकर तणा दूआ, चोवीश जिनसमकित नवगणतीनु. ५१३ ६ गणधर चोराशी कह्या, चौदर्श बावन गणधरनु. ..... ५१३ ७ बार गुण अरिहंत देव, पंच परमेष्ठीन. ..... .... ५१३ श्री सीमंधर वीतराग, सीमंधर जिनमुं. ए सीमंधर परमातमा, सीमंधर जिन-. .. १० श्री सीमंधर जगधणी, सीमंधर जिनमुं. ११ पहेले पद अरिहंत नमुं, वीशस्थानकतपतुं. ..... १५ चोवीश पंदर पीस्तालीशनु, वीशस्थानकना काउस्सग्गर्नु १३ रोहिणी तप आराधीयें, रोहिणीतपर्नु. १४ सीमंधर प्रमुख नमुं, विचरता जिननु. १५ जुविध धर्म जिणे उपदिश्यो, बीजतिथिy. १६ त्रिगडे बेग वीरजिन, झानपंचमीन. १७ माहाशुदि आग्मने, दिने, अष्टमीन..... १७ शासन नायक वीरजी, एकादशी. .... .... ५१७ पत्र ... ५१४ ५१४ एसप પપ م ....५१६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक. .... ५१७ .... पण ५२३ ५२४ अनुक्रमणिका. अनुक्रमांक. ग्रंथोनां नाम. १ए शांति नमि मसी मेष , चोवीश तीर्थंकरनी राशिनु. २० परमेश्वर परमातमा, परमात्माजीन. .... .... ५१० १ निजरूपें जिननाथ के, जिनपूजा-. .... .... ५१ २५ अरिहंत नमो जगवंत नमो, चंदकेवलीना रासमांथी. ..... ५१० ॥अथ बंदादिकोनी अनुक्रमणिका ॥ १ सेवो पास संखेसरो मन्नशुझें, शंखेश्वरजीनो. .... .... ५१ २ कल्याणकेलिसदनाय नमो नमस्ते, पार्श्वजिनस्तोत्र..... ३ सेवो वीरने चित्तमां नित्य धारो, श्रीमहावीरजीनो..... ४ दीरजिनेसर केरो शिष्य, गौतमाष्टक बंद .... ... ५ वांडित पूरे विविध परें, नवकारनो बंद. .... .... ६ आदिनाथ श्रादें जिनवर वंदी, शोल सतीनोबंद. ...... ७ सिद्धार्थ नूपति सोहे, ए प्रजातें कहेवानां चार मंगल. शिवं शुझबुझ परं विश्वनाथं, वीतरागाष्टक. .... ५२५ ॥ अथ स्तुतियोनी अनुक्रमणिका ॥ १ सीमंधर जिनवर सुखकर साहेब देव. श्रीसीमंधर जिननी. .... ५५५ २ श्रीसीमंधर देव सुहंकर. .... .... ३ श्रादिजिनवर राया, जास सोवन्नकाया, दिजिननी.. ४ षज चंडानन वंदन कीजें, शाश्वत जिननी. .... .... ५२६ ५ जिनशासन वंडित, पूरण देव रसाल, सिद्धचक्रजीनी. ६ अरिहंत नमो वलि सिक नमो, सिचक्रजीनी .... ७ दिन सकल मनोहर बीज दिवस सुशेष , बीजतिथिनी. श्चावण शुदि दिन पंचमीए पंचमीनी. ...... एश्ज ए मंगल आठ करी जस आगल, अष्ठमीनी. .... ..... ५२ १० एकादशी अति रूअमी गोविंद पूजे नेम, एकादशीनी. ११ पूछे गौतम वीर जिणंदा, वीश स्थानकना तपनी..... १५ सत्तरनेदी जिनपूजा रचीने. पर्युषणनी...... .... १३ नदात्र रोहिणी जे दिन आवे, रोहिणी तपनी. ..... ....... ५३० पए 430 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ५३४ ५३४ 13U अनुक्रमणिका. अनुक्रमांक. ग्रंथोनां नाम. पृष्टांक. ॥अथ स्तवनोना समुदायनी अनुक्रमणिका ॥ १ पुरस्कलवर विजयें जयो रे, सीमंधर जिनमुं. ___ .... .... ५३१ २ सुणो चंदाजी सीमंधर परमातमा पासे जाजो, सीमंधर जिनमुं. ५३१ ३ शत्रुजे झषन समोसस्या, तीर्थमालानु. ...... .... .... ५३२ ४ आंखमीय रे में आज शत्रुजय दीगे रे, सिकाचलजीजें. .... ५ विमलाचल नित्य वंदीयें , सिकाचलजीन. ६ सिझगिरि ध्यावो नविका, सिझाचलजीन. ..... ७ समेत शिखर जिन वंदियें, समेत शिखरजीमुं. ...... जज पूजो लाल समेतशिखर गिरि उपर. समेतशिखरजीचं. .... ए राजुल उनी मालिये, जंपे जोमी हाथ, नेमनाथजीनुं १० चल अह दस दोय वंदी जी, अष्टापदजीनुं .... ११ आदिजिणेसर पूजतां कुःख मेटो रे, आबुजीन. .... ___ .... ५३६ १२ श्रावो श्रावोने राज, श्रीअर्बुद गिरि जश्य, अर्बुद गिरिनु. .... ५३७ १३ श्रीराणकपुर रलियामणुं रे लाल, राणकपुरजीमुं. ..... १४ समरि शारदा माय, सिझचक्रजीनुं स्तवन. १५ साहिब सांजलो रे, संचव अरज हमारी, संजवजिनमुं. १६ सहजानंदी शीतल सुखजोगी तो, शंखेश्वरजीतुं. .... १७ अंतरजामी सुण अलवेसर, शंखेश्वर जीन. .... १७ सजनी मोरी, पास जिणेसर पूजो रे, श्रीपार्श्वनाथजीन. १ए जय जिनवर जग हितकारी रे, दीवाली .... २० सेवधी संचल घेरियां अलबेले सांई श्रीवीर जन्मकुंमलीन .... १ सिझनी शोना रे शी कडं, सिक नगवाननु. .... .... २५ गिरुआ रे गुण तुम तणा, महावीर स्वामीन. .... .... २३ सांजल रे तुं प्राणीया, समकितनुं स्तवन सात ढालनु. .... २४ सकल सिकि दायक सदा, आराधनानुं पुण्यप्रकाशनुं स्तवन..... ५४६ २५ सुतसिझारथ नूपनो रे, ज्ञानपंचमी, स्तवन उ ढालन. .... ५५५ २६ श्रादिजिणंद अरिहंतजी प्रनु अमने रे, आदि जिननु, .... ५५६ २७ अवसर पामीने रे कीजें नव आंबीलनी उली, सिझचक्रजीन. ५५७ ३० 30 ५४० ___.... ५४१ पर ५४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. अनुक्रमांक. ग्रंथोनां नाम. पृष्ठांक. २७ सुविधिनाथनी पूजा सार, सुविधिजिन पूजानुं स्तवन. ..... ५५७ शए तीरथ अष्टापद नित्यनमिये, अष्टापदजीतुं. .... ५५० ३० श्रावण वरसे रे स्वामी, श्रीनेमराजुलनुं चोमासुं, ..... .... ५५ए ३१ एक वार वलदेश आवजो जिणंदजी, समवसरणY. .... ५५ए ३२ मनडं ते महारं मोकले, महारा वालाजी रे, सीमंधर जिन-..... ५६० ३३ काया पामी अति कूमी, युगमंधरजिनमुं. .... .... ५६१ ३४ जश्ने रहेजो महारा वालाजी रे, नेमि जिननुं .... .... ५६१ ३५ धन धन रे दीवाली मारे आजनी रे. जिनप्रनुनी वांगीना दर्शनुं. ५६५ ३६ प्रणमी शारद मायशासन वीर सुहंकलं जी, बीज तिथि- स्तवन. ५६५ ३७ पंचमी तप तमें करो रे प्राणी, पंचमीन..... .... .... ५६३ ३० हारे महारे गमधर्मना साडा पचवीश देश जो, अष्टमीचं. .... ५६३ ३ए जगपतिनायक नेमिजिणंद, एकादशीनुं चार ढालन. .... ५६५ ४० मारगदेशक मोदनो रे, दीवालीन. .... ___ .... ५६न ४१ जीहो प्रणमुं दिन प्रत्ये जिनपति, सिद्धचक्रजीनुं चार ढालनु. ५६० ४२ हारे महारे वासुपूज्यनो नंदन मघवा नाम जो, रोहिणीतपर्नु. ५० ४३ पामी सुगुरु पसाय रे, शत्रुजय धणी, आदिजिनविनति. .... ५७३ ४४ श्रीगौतमखामीनो रास. ..... .... ५७५ ४५ रमती ऊमती अमुन साहेली, दीवाली-. .... .... ५० ४६ माता त्रिशला नंद कुमार जगतनो दीवो रे, आमलक्रीडानुं .... ५० ४७ सुणो सखि सऊन नां विसरे, नेमनाथजीनु. ___.... .... ५७१ ४७ शामलीया लाल तोरणथी रथ फेस्यो कारण कहोने, नेमि जिननु.५७२ ४ए आवो गिरि सिझाचल जश्य, सिझाचलजीन. .... .... ५७५ ५० श्रीसिझाचलमंगण स्वामी रे, सिफाचल जीन. .... .... ५७३ ॥अथ सद्याउनी अनुक्रमणिका ॥ १ जनकसुता हुं नाम धरावं सीताजीनी. .... एन्ध २ समरी श्रुत देवी शारदा, आंबिल तपमां आहार लेवाना विधिनी. ५४ ३ चेतन अब कबु चेतीयें, चेतन शिखामणनी. ..... .... ५५ ४ हो सुण आतमा मत पम मोहपिंजरमांहे. आत्मबोधनी. ... ५७५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. पृष्ठांक. ५७७ अनुक्रमणिका. अनुक्रमांक. ग्रंथोनां नाम. ५ सांजल सयणां साची सुणावं, सांजल सयणानी. .... .... ५७६ ६ जोबनीयांनी मोजां फोजांजाय नगारां देती रे, जोबन अथिरनी. ५७६ निंदा म करजो कोश्नी पारकी रे, निंदावारकनी. .... .... ५६ G धोबीडा तुं धोजे मननुं धोतीयु रे, धोबीमानी...... .... ए ढंढणशषिजीने वंदना हुँ वारी लाल, ढंढणाषिनी. १० सिरिजंब रे, विनयनक्ति शिरनामीने, मुहपत्तिना पच्चास बोलनी. एन् ११ काया रे वामी कारमी सीचंतारे शुके, काया उपरनी. .... एनए १५ नरजव नयर सोहामणुं वणजारा रे, वणकारानी. ..... .... ५७ए १३ सुन सोदागर बे दिलकी बात हमारी, सोदागरनी. .... एए १४ श्रापस्वनावमां रे, अधू सदा मगनमें रहेनां, थापखलावनी. एएस १५ शोल सतीनां लीजें नाम. शोल सतीयोनी. १६ आतमरामें रे मुनि रमे, आतमशिदानी. .... .... एए? १७ अरिहंत पहेले स्थानक गणीयें, वीश स्थानकना तपनी. .... २७ ए तो नारी रे बारी पुर्गति तणी, शीयलनी. १ए जय जय आरती शांति तुमारी, शांति जिन आरती. २० अप्सरा करती भारती, जिनश्रागें ॥ श्रादिजिन श्रारति. २१ जल नरी संपुटपत्रमां, श्रीजिन नव अंगपूजाना दोहा. .... २२ आरती कीजें पास कुमरकी, श्रीपार्श्वनाथनी आरति. .... एएच २३ चारो मंगल चार आज महारे. ए चारो मंगल चार. .... एएए २४ सिझारथसुत वंदियें, पांचकारण- स्तवन, विनयविजयजीकृत. एएए २५ श्रीशुनगुरुचरणे, सामायिकना बत्रीशदोषनी सद्याय. .... एएए ॥अथ संधिसूत्राणि ॥ ॥ सिको वर्णसमाम्नाय । तत्र चतुर्दशादौ खराः। दश समानाः।तेषां छौ छावन्योन्यस्य सवर्णों । पूर्वोहखः। परो दीर्घः। स्वरोऽवर्णव|नामी। एकारा दीनि संध्यदराणि। कादीनि व्यंजनानि । ते वर्गाः पंच पंच । वर्गाणां प्रथम द्वितीयौशषसाश्च घोषाः। घोषवन्तोऽन्ये । अनुनासिकाङञणनमाः। अन्त स्था यरलवाः। ऊमाणः। शषसहाः। अः इति विसर्जनीयः। अंश्त्यनुवारः। पूर्वपरयोरर्थोपलब्धौ पदम्।अखरं व्यंजनम् । परं वर्ण नयेत्। अनतिक्रमयन् विश्लेषयेत् । लोकोपचाराजहणसिद्धिः । इति संधिसूत्रेषु प्रथमश्चरणः॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्रीगोमीपार्श्वनाथाय नमः॥ ॥अथ ॥ श्रीपंचप्रतिक्रमणादिसूत्राणि सार्थानिप्रारंजः ॥ तत्र॥ ॥ प्रथमं नवकारमांगलिकरूपम् ॥ ॥नमो अरिहंताणं ॥१॥नमो सिसाणं ॥२॥ नमो आयरियाणं ॥३॥ नमो उवनायाणं ॥४॥ नमो लोए सव साहूणं ॥५॥ एसो पंच नमुक्कारो ॥६॥ सवपावप्पणासणो॥ ७॥ मंगलाणं च सवेसिं ॥७॥ पढमं दव मंगलं ॥ ए॥इति नमस्काराः॥१॥ अर्थः-हवे प्रथम सर्वमांगलिक, मूल, श्रीजिनशासननो सार, अगीयार अंग अने चौद पूर्वनो उकार, सदैव शाश्वत एवो श्रीपंच परमेष्ठिने नमस्काररूप महामंत्र श्रीनवकार , तेनो प्रारंज करीयें बैये. त्यांप्रथम श्रीश्ररिहंतपदनुं मंगल वर्णवीयें बैयें. ( नमो अरिहंताणं के० ) नमोऽरिहन्नयः • एटले (अरि के) रागादिक वैरी प्रत्ये (हंताणं के०) हणनार एवा, बार गुणें करी सहित समवसरणने विषे बिराजमान विहरमान तीर्थंकर जे श्री. अरिहंत, ते प्रत्ये (नमो के०) नमस्कार था. एनो सविस्तर अर्थ कहे . .. हां नमः ए नैपातिक पद जे. ते अव्य तथा जावना संकोचने अर्थे बे. कहेढुंबे के "नेवाश्यं पयं दत्वं नावसंकोयण पयो” माटे नमः ए पचवडे कर, चरण अने मस्तकें करी सुप्रणिधानरूप नमस्कार था. एटले कर,शिर अने पादादिक, जे हलन, चलन, ते व्यसंकोच जाणवो. अने वीशुद्ध माननो नियोग ते नावसंकोच जाणवो. एटले अव्य अने लावधी नमस्कार थाउँ, एम कयु. एवो नमस्कार कोने था ? तो के अरिहंता दिक प्रजुने नमस्कार था. अहिंयां जूदा जूदा त्रण पाठ बे. एक णमो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. अरहंताणं, बीजो णमो अरिहंताणं, त्रीजो णमो अरुहंताणं, ए त्रणे पाउना निन्न निन्न अर्थो कहे बे. प्रथम (णमो अरहंताणं के०) नमोऽर्हन्यः जे अतिशय पूंजाने अर्हति एटले योग्य ते अरहंत कहिये. अर्थात् अमरवर निर्मित एवा अशोकादि आठ महाप्रातिहार्यरूप पूजाने जे योग्य जे, तेने अरहंत कहियें. ए विषे आबुवचन जेः-"अरहंति वंदण नम, सणाश्अरहंति पूअसक्कारं ॥ सिडिग मणं च अरहा, अरहंता तेण वुच्चंति ॥१॥” ए माटे तेउँने नमस्कार था. तथा अरिहननात् अरहंत एटले संसाररूप गहनवनने विषे अनेक खोने पमामनार एवा मोहादिक शत्रुने हणवाथकी अरहंत कहीये. त था रजोहननात् अरहंत एटले जेम वादलां, सूर्यमंमलने ढांकी मूके बे, तेम आत्माना ज्ञानादिक गुणने ढांकी मूके, एवां चार घातिकर्मरूप रज, तप शत्रुने हणवाथकी अरहंतकहियें तथा रहस्यानावत् अरहंत एटसे दूर थयुं निरवशेष ज्ञानावरणादि कर्मनु पारतंत्र्य जेने विषे अने न हणाय एवं अनुत केवल ज्ञान अने दर्शन, तेणें करी निरंतर प्रत्यक्षपणे करी जाणनारा एवा जगवानने रहस्यनो अनाव डे एटले जेनाथी कांश बानु नथी माटें अरहंत कहियें, आ अरहंत पदना त्रणे अर्थ, पृषोदरादिनी पेठे सिझ थाय . ए माटे तेउँने नमस्कार था. अथवा (अ के०) अविद्यमान ने (रह के) एकांत रूप देश अने (अंत के०) मध्यनाग गिरि गुफादिकनो जेने एटले समस्त वस्तुसमूह गतप्रछन्नपणाने अजावें करी अरहतोंर कहीयें, अर्थात् सर्वविदितपणुं डे जेने एवा अरहोंतर जगवान् तेउँने नमस्कार था. अथवा (अ के० ) अविद्यमान बे एटले नथी (रह के०) रथ जे स्यदन ते सकल परिग्रह उपलक्षणनूत जेने अने (अंत के०) विनाश एटले विनाशना करनारा जे जरादि उपलदणनूत ते जेमने अविद्यमान डे मा. टेअरहांत एटले अरथांत कहियें, एवा अरहांत प्रजुउँने नमस्कार था; __ अथवा अरहयग्न्यः एटले प्रकृष्ट रागादिहेतुजूत एवा मनोज्ञ अने अमनोज्ञ जे विषय तेना संपर्कथकी पण वीतरागादिक जे पोतानो स्वखनाव बे, तेने गंमता नथी, तेमाटें अरहंत कहिये. एवा अरहंत प्रजुउँने नमस्कार था. यतः " थुश् वंदण मरहंता, अमरिंद नरिंद पूयमरहंता । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकार अर्थसहित. सासय सुहमरहंता, अरहंता हुंतु मे सरणं ॥ १॥" ए प्रथम पाठनो अर्थ थयो. वे ( मोरिहंताणं के० ) नमोऽरिहदन्यः ए वीजा पाउनो अर्थ करे. त्यां (रि०) आठ कर्मरूप शत्रुने ( हंताणं के० ) हणनारा एवा श्री अरिहंत प्रत्यें नमस्कार था. ए विषे या वाक्य बे "विहं पिer कम्मं, रिजूयं होइ सयलजीवाणं ॥ तं कम्ममरिहंता, अरिहंता ते च्चति ॥ १ ॥ " ए गाथानो नावार्थ:- आठ प्रकारनां जे कर्म बे, ते सर्व जीवनेरित एटले वैरीरूप बे, एवा कर्मरूप वैरीने हणनार बे, माटें अरिहंत कड़ेवाय बे. ते प्रत्यें नमस्कार था. तथा अरिहंतना सहायश्री मोक्षरूप नगरने पमाय बे. माटे सार्थवा हनी उपमा, तथा एमना याश्रयथकी जवसमुद्रनो पार पमाय बे, माटे निर्यामकनी उपमा, तथा प्राण, भूत, जीव ने सत्व, ए चार प्रकारना जीवने माह माह एवो शब्द कहे, माटे सर्व जीवो उपर कृपा बे, तेथ नीर्वाणरूप वनप्रत्यें पहचाडे बे, माटे महागोपनी उपमा, ए त्रण उपमा सार्थक बे, ते श्री अरिहंतनेज बाजे बे, एवा श्रीअरिहंतने ए सर्व जीवलोकने विषे लोगुत्तम जावे करी तेमज नमस्कार था. m तथा राग, द्वेष, परिसह, उपसर्ग, एटलाने जे नमावे एटले पांचे इंडि ना वीश विषय, चार कषाय, बावीश परिसह तथा आत्मोबिताने परकृत एव वे प्रकारनी वेदना ने अनुलोम तथा प्रतिलोम, एवा वे प्रकारना उपसर्ग, इत्यादिक शत्रुने हणनार तेमाटे अरिहंत कहियें, ते प्रत्यें नमस्कार था. एवा अरिहंतने मन, वचन ने कायानी एकाग्रतापणे नमस्कार करतो थको जीव, जवनां सहस्रोथकी मूकाय, नाव सहित नम स्कार करतो को बोधिना लाजने पामे, ए वीजा पाठनो अर्थ थयो. वे (मोरुहंताणं के० ) नमोऽरुहस्यः ए त्रीजा पदनो अर्थ कहे बे, तिहां रुहः हीं (रुह बीजतंतुसंताने) ए धातुनुं रुह पद वे एटले की कर्मबी जपणाथ की जेमने फरी संसारमध्यें, ( रुदंत के० ) उपजवुं ( के० ) नथी एटले अरुदंत कहियें, अर्थात् बीजनुं विस्तारपणं नथी. हवे कोण व करवो नथी माटे रुहंत कहीयें, उक्तं च " दग्धे बी जे यथात्यंतं, प्रादुर्भवति नांकुरः ॥ कर्मवीजे तथा दग्धे, न रोहति जव कुरः ॥ १ ॥ " अर्थः-जेम कोइ बीज बे, ते अत्यंतपणे नियें करी बल्युं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. होय, तेने वाव्यां थकां तेनो अंकुरो प्रगट न थाय, तेम अहीयां पण क मरूप बीजें करी फरी संसारमध्ये अवताररूप अंकूरो उगे बे, ते कर्मरूप बीजने बाल्या की संसाररूप अंकूरो प्रगट न थाय, नवा नव न करे माटे अरुहंत कहीयें, एवा अरुहंतने नमस्कार था.. ____ एवा लक्षणोवाला नगवानने नमस्कार करवानो हेतु शु? त्यां कहे . महानयंकर जे आ जवरूप गहनवन, तेने विष ब्रमण करवाने बीक पामेला एवा जीवोने अनुपम आनंदरूप जे परमपद तप जे नगर, तेना मार्गने देखामवापणा- परमोपकारीपणुं ने जेने विषे तेमाटे तेने नमस्कार करवो योग्यज बे. अहीयां नमः शब्दना योगथी व्याकरणरीतिथी चतुर्थी विनक्ति जोश्ये, ते ठेकाणे जे षष्ठी जे ते प्राकृतसूत्रथकी प्राकृतशैली ना वश थकि बे, तेमां षष्ठीनुं बहुवचन बे, ते अद्वैतव्यवजेदें करी अर्हक हुत्वनाख्यापनने माटे . तथा विषय बहु पणायें करीने नमस्कार करना रने फलातिशय ज्ञापनने माटे , ए श्रीअरिहंतने चंडमंगलनी पेरें - तवर्णे ध्यायियें. ए नावमंगल करतां पंच परमेष्ठिपदमां प्रथम अरिहंत पदनुं मंगल वर्णव्युं ॥ ए पहेली संपदा एक पदनी थक्ष, संपदा एटले ज्यां अर्थसमाप्तिनो अधिकार होय, ते संपदा जाणवी, तथा ज्यां विशामो लश् यें, ते विशामाना स्थानकने संपदा कहियें, एम सर्वत्र जाणवू ॥१॥ __ हवे बीजु सिझपदनु मंगल वर्णवे , (णमोसिद्धाणं के० ) नमः सिकेन्यः अहीयां ( सित् के०) बङ एटले चिरकालनो बांधेलो एवो जे अष्टकर्मरूप काष्ठनो नारो, तेने जाज्वलमान शुक्लध्यानरूप अग्नियें करी जेणे ( मातं के०) धम्यो ने बाल्यो जे जस्म कीधो , तेने निरुक्तिना विधि प्रमाणे सिक कहीयें, एवा सर्व सिद्धने महारो (णमो के ) नमस्कार होजो, अथवा पिधु धातु, गतिने अर्थे बे, ए वचनथी अपुनरावृत्तियें एटले पालुं न अवाय एवी रीतें मोदनगरी प्रत्यें गया, ते सिक क हेवाय, अथवा निष्ठितार्थ थया ते सिझा अथवा शिदा करनार शास्त्रक थक थया, ते सिक अथवा शासनने प्रवर्त्तावनार थश्ने सिकरूप मांगल्य पणा प्रत्यें अनुजव्या, ते सिद्ध कहीयें. अथवा नित्य अपर्यवसित अनंत स्थितिने पामवा पणा थकी सिफ कहीयें अथवा जेनाथी गुणोनुं समूहपणुं जव्य जीवोने उपलब्ध थाय ने माटे सिद्ध कहिये, ए विषे आ वचन प्रः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकार अर्थसदित. माण डे, “ध्मातं सितं येन पुराणकर्म, योवा गतो निर्वृतिसौधमूर्ध्नि ॥ ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्टितार्थो,यःसोऽस्तु सिकः कृतमंगलो मे ॥१॥” ए श्लोकमां उपर जेटलां सिझनां लक्षणो कह्यां, तेटलांनो समुच्चय, वर्णनरूपें बे. ए सिक परमात्माने नमस्कार करवानो हेतु शुं ? त्यां कहे जे. ए वि नाश रहित एवो अनंत चतुष्क एटले ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा वीर्य, ए गुणो जेउँने प्रगट थया ते शानदर्शन सुखवीर्यादिक गुण युक्तपणे करी स्वविषय प्रमोदप्रकर्ष उत्पादने करी आनंद उत्पादन करवाने लीधे नव्य जीवोने अत्यंत उपकारहेतुपणुं ने माटे ते सिकने नमस्कार करवा योग्य बे. ए श्रीसिद्ध नगवानने उगता सूर्यनी पेरें रक्तवर्णं ध्यायियें. एवा सिझने नमस्कार करतां पंच परमेष्टि मंगलमां बीजुं मंगल जाणवू. ए बीजुं पद अने बीजी संपदा थई ॥२॥ - हवे आचार्यपदनु त्रीजुं मंगल कहे जे. (णमो आयरियाणं के०) नम आचार्येन्यः आ एटले मर्यादायें तद्विषय विनयरूपें करी चर्यते एटले सेवियें अर्थात् जिनशासनना अर्थनी उपदेशकतायें करीने, ते उपदेशकतानी आकांक्षा करनारा जीवो जेने सेवे बे, तेने आचार्य कहीये. तेने (णमो के ) नमस्कार था. उक्तं च “सुत्तब विकलकण, जुत्तो गठस्स मेढि नूउंथ ॥ गणतत्ति विप्पमुक्को, अखं वाएर आयरि ॥१॥ अथवा ज्ञानाचारादिक पांच प्रकारनो आचार, अथवा या एटले म. र्यादायें चार एटले विहार ते आचार, एवा आचारने पालवामां पोतें साधु एटले नला चतुर बे तथा प्रकर्षे करी बीजाने ते आचार पलाववानो उपदेश कहेवाथकी तथा उत्कृष्टपणे बीजा साधु प्रमुखने ते आचार देखामवाथकी आचार्य कहियें. उक्तंच ॥ “ पंचविहं आयारं, आयरमाणा तहा पयासंता ॥ श्रायारं दंसंता, आयरिया तेण वुचंति” ॥१॥ अथवा (आ के० ) ईषत् एटले अपरिपूर्ण जे ( चार के०) हेरिक एटले शिष्य ते. आचार ते चारकल्प कहिये. एटले युक्तायुक्त विनाग नि रूपण करवामां अनिपुण एवा विनेय जे शिष्य तेने विषे (साधु के०) जला यथार्थ शास्त्रार्थ उपदेशकपणे करीने ते आचार्य कहेवाय जे. . एवा आचार्यने नमस्कार करवानो हेतु शुं ? त्यां कहे . आचारनो उपदेश करवाथकी परोपकारीपणुं जेमने प्राप्त थयुं तथा उत्रीश बत्रीशी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. गुणे करी सुशोजित, युगप्रधान, सर्वजनमनोरंजक, जगजीवमां नव्य जी वने जिनवाणीनो उपदेश आपी प्रतिबोधिने कोश्ने सम्यक्पणुं पमाडे बे, कोश्ने देशविरतिपणुं पमाडे , कोश्ने सर्व विरतिपणुं पमाडे ३ तथा कोइएक उपदेश सांजलीने नमकपरिणामी थाय जे. एवा उपकारना करनार, शांत मुखाना धारक, दणमात्र पण कषायें ग्रसित न होय माटें ते प्रजुर्ज, नमस्कार करवा योग्य बे. __वली ते आचार्य नित्ये प्रमाद रहित थका अप्रमत्त धर्मना कथक बे. वली राजकथा, देशकथा, स्त्रीकथा, नक्तकथा सम्यक्त्व ढिलणीया अने बही चारित्र ढिलणीया, एवी विकथाना वर्जक जे. वली अमल अमायी बे. तथा सारणा, वारणा, चोयणा, अने पमिचोयणादिकें करी शिष्यादिकने प्रवचननो अभ्यास करावनारा २ अने साधुजनने क्रिया धरावता थका बे. वली जेम सूर्य अस्त थयां गृहने विषे घटपटादिक पदार्थ न देखाय; पली दीपकथकी सर्व पदार्थ दृष्टिगोचर आवे, तेम अहिंयां केवरुझान जास्कार समान श्रीतीर्थंकरदेव मुक्ति गया थकां त्रण जुवनना पदार्थना कथक दीपकसमान एवा श्रीआचार्य , एवा श्रीआचार्यने, जे नव्य प्राणी निरंतर नमस्कार करे, ते प्राणी धन्य जाणवा, तेमने नवनो क्षय तुरत थाय. वली ते आचार्य प्रजुयें कृपा करीने जे हितनां वचन कह्यां होय, ते वचनोने हृदयथी अणमूकतो थको रहे, ते प्राणी विशेषे शुधि सहित नलो आचारवंत थाय. ए श्रीआचार्यने सुवर्णवणे ध्यायियें. एवा आचार्यने नमस्कार करवाथी पंचपरमेष्टिमंगलमां त्रीजुं मंगल जाणवू ॥ ए त्रीजुं पद अने त्रीजी संपदा थ६ ॥३॥ हवे उपाध्यायपदनुः चोथु मंगल वर्णवे बे. (णमो उवनायाणं के०) नम उपाध्यायेन्यः ( उप के० ) समीप रह्या तथा व्या एवा जे साधु प्रमुख ते प्रत्ये जे ( अप्लाय के०) अध्याय एटले सिद्धांतनुं अध्ययन करावे, तथा जेनी समीपें आवी अधीयते नाम नणाय , ते उपाध्याय कहिये. ते जणी (णमो के ) नमस्कार था. अथवा जेना उप समीपमां आधिक्येन गम्यते एटले अधिकपणायें जवाय बे, अथवा श्क् स्मरणे एवा धातुना अर्थमा स्मरण कराय बे. सूत्रथकी जि नप्रवचन- जेथकी ते उपाध्याय कहियें. ए विषे आई प्रमाण . "बार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकार अर्थसहित. संगो जिणका सद्यार्ड कहि बुहेहिं ॥ तं उवश्संति जम्हा, उवद्याया ते ण वुचंति ॥१॥ अर्थः-द्वादशांगी, श्रीवीतरागें अर्थथी नांखी अने गण धरें सूत्रथी गुंथी, तेनो सद्याय करवो, ए रीतें बुध एटले पंमितें कडं ते जे कारण माटें ते छादशांगीने उपदेशे, ते कारण माटे ते उपाध्याय कहियें. __ अथवा"उत्ति उवढंग करणे,जत्ति जास्स हो तिदेसे ॥ एएण हुँति उड़ा एसो अन्नोवि पजाउ ॥१॥ अर्थः-उकार जे बे, ते उपयोग कर वाने अथै बे, तेथी (उ के०) जव थयो अने जव पड़ी जो बे,ते जकारवर्णे ध्याननो निर्देश कह्यो बे. एम उ अने ज ए बे अदर थकी उवजाय पद थाय बे. ए पर्यायार्थ बे. वली पण पर्याय फेर नाम कहे . “उत्ति उवढंगकरणे,पत्ति अ पाव परिवजणे हो॥ जत्ति अ जाणस्स कए, जत्ति अ उसकणा कम्मे ॥१॥" अर्थः-उ वर्ण ते उपयोगने अर्थे जे अने प वर्ण ते पापर्नु समस्त प्रकारें वर्ज, तेने अर्थे बे, अने ज वर्ण ते ध्यान करवाने अर्थे बे, पुनः उ वर्ण ते कर्मथकी उसरवाने अर्थे जे. ए रीतें चार अदर मख्या थकां उपाजार्ड थाय , ते पण पर्यायांतरें उपाध्यायनुज नाम जाणवू. अथवा उपाधान एटले उपाधि अथवा सन्निधि ते पासें वसवू; ते उ पाधियें करीने अथवा उपाधिने विषे आय एटले लाल बे श्रुतनो जेथ की अथवा उपाधि एटले विशेषणादिकना प्रस्तावथकी शोजन उपाधिनो श्राय एटले लान ने जेउथी ते उपाध्याय कहियें. ___ अथवा उपाधि तेज सन्निधि अने आय एटले श्ष्टफल एटले जेने वि षे दैवजनितपणे जे आय एटले इष्टफलो तेहना समूहy एक हेतु पर्ण बे, ए हेतुमाटें तेने उपाध्याय कहीयें. ___ अथवा आधि जे मननी पीमा, तेनो आय एटले लाज तेने अध्याय कहिये. अथवा अधि एटले ढूंकी बुद्धि अर्थात् कुबुद्धि तेनो आय एटले लाल ते अध्याय कहिये. अथवा ध्यैधातु चिंताने अर्थे जे. ए धातुनो प्रयो ग तथा नानो अर्थ, कुत्सित एटले खराब एवो थाय , ए बे मली 3 ान एवो अर्थ सिझ थाय , एने अध्याय पण कहे . ए उपरला अध्याय अथवा आध्याय तथा ए बन्ने जेणं करी उपहत एटले हणायेला बे, तेने एक उपाध्याय कहियें. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. एवा श्री उपाध्याय पच्चीश गुणें करी शोजित, द्वादशांगीना पारंगा मि, द्वादशांगीना धारक, सूत्र छाने अर्थना विस्तार करवाने रसिक, एवा उपा ध्यायने नमस्कार करवानो हेतु शुं ? त्यां कहे बे. संप्रदाय थकी श्रावेलां जे जिनवचन, तेनुं अध्यापन एटले जणाववुं करावे बे, एणें करी जव्य जीवोनी उपर उपकारीपणुं होवाथी नमस्कार करवा योग्य ते . ए श्रीपाध्यायजीने मरकत मणिनी पेरें नीलवर्णे ध्यायियें. ए श्रीउपाध्याय जीने नमस्कार करवाथी पंचपरमेष्ठिमंगलमां उपाध्यायपदनुं चोथुं मंगल जाएकुं. ए चोथुं पद ने चोथी संपदा थइ ॥ ४ ॥ हवे साधुपदनुं पांच मंगल वर्णवे बे. (एमोलोएसबसाहूणं के०) नमोनमः लो के सर्वसाधुभ्यः अढी द्वीप प्रमाण लोकमांहेला सर्वसाधुर्जने नमस्कार था. त्यां जे ज्ञानादिक शक्तियें करी मोक्षने साधे, तेने साधु कहियें, अथवा सर्व प्राणीमात्रने विषे समपणुं ध्यावे, तेने निरुक्तिन्यायें करी साधु कहि यें. ए विषे वचन प्रमाण बे:- “ निवाण साहए जोए, जम्हा साहंति साहुणो ॥ समा य सवनूएसु, तम्हा ते जावसाहुणो || १ ||" अर्थः- निर्वाण जे मोक्ष तेना साधवाना जे योग, ते प्रत्यें जे कारण माटें साधे, ते माटें ते साधु कहीयें. वली सर्वभूत जे चोराशी लाख जीवायोनि तेथी उपना जे जीव, ते सर्वसार्थं समतापणुं जे धरे बे. ते कारणमाटे तेने जावसाधु कहियें, अथवा संयमना सखाइ जे सत्तर नेद, ते प्रत्यें जे धारे, ते साधु कहीयें. उक्तं च ॥ " किं पिसि साहूणं, तवं च नियमं च संयमगुणं वा ॥ तो वंदसि साहूणं, एयं मे पुछि साहु ॥ १ ॥ श्रर्थः - अरे प्राणी ! साधु ते पोताना गुणें करीनेज साधु होय, तेमाटे तु साधुजणी शुं देखे बे ? एटले शुं तपश्चर्यानो गुंण देखे बे ? अथवा संयमना गुण देखे बे ? ते गुण देखीने वार पी तु शु साधु प्रत्यें वांदीश ? एम हुं तुजने पूहुं हुं, माटें साधुने गुज साधु देखीने वंदना करवी. उऊं च ॥ विसय सुहनियत्ताणं, विसुद्धचा रित्त नियमजुत्ताणं तच्च गुणसाहयाणं, साहए किच्चकायण नमो ॥ १ ॥ अर्थः- साधु केहवा बे ? तो के शब्दादिक पांच प्रकारना विषय तेनां जे सुख, तेथी निवृत्त्या बे, एटले वेगला थया बे. तथा वि. शुद्ध निर्मल चारित्र ने विविध प्रकारना जे नियम, तेणें करी युक्त बे, वली ( तच्च के० ) तथ्य एटले साचा जे गुण तेना साधक बे ? कृतकृत्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकार अर्थसहित. पावाने एटले मोद पामवानां जे कार्य, तेहिज साधवाने उद्यमवंत पणुं बे, जेमने एवा साधुर्जने नमस्कार था. वली साधु केदेवा बे ? "सदाइ सहायतं, करेति मे संजमं करंत स्स ॥ एए कारणेणं, णमामि हं सबसाहूणं ॥ १ ॥ " अर्थ - जेनो कोश, सखाइन न होय, तेना साधु सखाइया बे. एटले जेने कोइनुं सहाय नथी, तेनुं सहाय साधु करे, निःकारणबंधुसमान उपकारी एवा साधु ते ( मेho ) ऊ प्रत्यें ना दिनुं संयमपणुं टाली संयमपणुं कर्त्ता बे. एटले इंडियनो निग्रह करावे इत्यादिक कारणें करी “सबसाहूणं श्रहं नमामि " एटले सर्व साधु प्रत्यें हुं नमस्कार करुं बुं. अथवा संयमकारी जनोने सहायता धारण करे, ते साधु कहियें. निरुक्ति की निरुक्तं पदजंजनं' एटले सामायिकादि विशेषणें सहित एवा समतावंत साधु सर्व, ते अप्रमत्तादिक, पुलाका दिक, जिनक स्पिक, प्रति मार्क स्पिक, यथानंदकल्पिक, परिहारविशुद्धिकल्पिक, स्थविरक स्पिक, स्थितकल्पिक, स्थितास्थितकल्पिक, तथा कल्पातीत नेदोवाला प्रत्येकबुद्ध, स्वयं बुद्ध, बुद्धबोधित नेदोवाला ने जारतादिक मेदोवाला अथवा सुखमडुखमादिक विशेषित साधु ते सर्व साधु जावा. अहींयां सर्व गुणवंतने विशेष करी नमस्कार करवा पणाना प्रतिपादनने अर्थे सर्व शब्दनुं ग्रहण कस्युं बे. एवी रीतें अर्हत् प्रमुख पदोने विषे पण जाणी लेवुं. यां पांचमा पढ़ने विषे सर्व पदनी पूर्ति करवी, ए माटे पण सर्व पद मेल्युं बे, एटले न्यायना सामान्य पणाथकी पांचे पढ़ें सर्व, शब्द सूचव्यो. अथवा सर्व जीवोने हितना करनारा ते सार्व, तेहीज साधु अथवा सार्व शब्दे श्रद्धर्म अंगीकार करनार साधु जावा, पण सार्व शब्दें बौद्धादिकना साधु ग्रहण करवा नहिं, ते सार्व साधु अथवा सर्व शुभ योगोने साधे, ते सार्व साधु, अथवा सार्व एटले अरिहंत ते प्रत्यें साधे, एटले तेनी ज्ञाना करवा थकी आराधे, प्रतिष्ठापना करे, दुर्नयनां निराकरण की ते सार्थसाधु कहियें. 2/b अथवा श्रव्य एटले श्रवण करवा योग्य जे वाक्यो, तेने विषे साधु, अथवा सव्य एटले दक्षिण ते पोताने अनुकूल जे कार्य तेने विषे साधु एटले निपुण, ते श्रव्यसाधु कहियें, अथवा सव्यसाधु पण सब शब्दवडे २ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० प्रतिक्रमण सूत्र जाणी सेवा, सर्व शब्दनुं देश तथा सर्वताने विषे दर्शन डे माटें अपरिशेष सर्वथकी उपदर्शनने माटें लोक शब्द कह्यो डे. अहींयां लोकशब्दें मनुष्यलोक साईघ्यहीपसमुज्वर्ती, ऊर्ध्व नव शत योजन प्रमाण, अधः नीचे सहस्र योजन प्रमाण तथा वली कोश्एक लब्धिवंत साधु मेरुचूलिका पर्यंत पण तपस्या करता थका होय. एम लो कने विषे जिहां जिहां साधु होय, ते सर्व साधुने महारो नमस्कार था. ए साधुऊने नमस्कार करवानो हेतु शुं ? त्यां कहे . मोदमार्गने विषे सहायता करनार होवाथी उपकारी पणाने लीधे नमस्कार करवा योग्य बे. स्तवना, प्रशंसा, गुणवर्णन करवा योग्य . जेम उमर, वृदना सुगंधी फूल उपर बेसे, तेनो थोमो एक पराग लेश बीजे फूलें जाय, एम अनेक फूलें नमी नमीने पोताना आत्माने संतुष्ट करे, पण फूलने बाधा न उपजावे, तेम साधु पण अनेक घर नमी जमीने ब लैंतालीश दोष रहित आहर शुद्ध गवेषी पोतानुंपिंपोषण करे. पांडियने पोताने वश राखे, पांचेंजियना विषयने कीपे, षट्कायजीवनी रदा पोतें करे, बीजा पासे करावे, वली सत्तर नेद सहित संयमने आराधे, सर्वजीव उपर दयाना परिणाम राखे, अढार हजार शीलांग रथना धोरी, अचल अमग्ग आचाररूप जेनुं चारित्र , एवा महंत मुनीश्वरने जयणायुक्त वंदीने पोतानुं जन्म पवित्र करीये. वली नव प्रकारें ब्रह्मचर्यनी गुप्ति पाले, बार प्रकारे तप करवाने शूरा, आत्मार्थी तथा वली आदेश, उपदेश थकी न्यारा बे, जेने जनमेलननी ईहा नथी, वंदन पूजननी वांडा नथी, एवा मुनिनु दर्शन तो जो पुण्योजम होय तोज पामीयें, ए श्री साधुने आषाढना मेघनी पेरें श्यामवर्ण ध्यायियें. ए पांचमा पदरूप साधुमंगल वखाएयु, एटले पांचमा पदनी पांचमी संपदा थ॥५॥ नावमंगल अनेक प्रकारें, तेमां ए पंच परमेष्ठीनुं प्रथम मंगल जाणवू. आशंकाः-ए पंच परमेष्ठीने जे नमस्कार करवो, ते संदेपें करवो, किंवा विस्तारें करवो? तेमां जो संदेपें नमस्कार कराय बे एम कहेशो, तो सि छ अने साधु प्रत्ये नमस्कार करवोज युक्त जे. केम के ? ए बेहुने नमन करवाश्री अरिहंत आचार्य अने उपाध्यायनुं पण ग्रहण थयुंज, कारण के ए अर्हदादिक त्रण जे जे ते पण साधुपणुं बोमता नथी, ते माटे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकार अर्थसहित. अने जो तमें कहेशो के विस्तारें नमस्कार कराय ने ? तो त्यारें झपनादिक चोवीशे तीर्थंकरोने व्यक्तिसमुच्चारण थकी एटले जू जूउं नाम लेश्ने नमस्कार करवो जोश्य. समाधानः-अरिहंतने नमस्कार करवाथकी जे फल पामीयें, ते साधुने नमस्कार करवाथकी फल न पामीयें, जेम मनुष्यमात्रने नमस्कार करवा थकी राजादिकना नमस्कार- फल न पामीयें, ते माटे विशेषथकी प्रथम श्रीअरिहंतनेज नमस्कार करवो युक्त जे. __आशंकाः-जे सर्वश्री मुख्य होय, तेनुं प्रथम ग्रहण करवू ए योग्य , तो तमें अहीयां पंच परमेष्टीने नमस्कार करतां प्रथम श्रीअरिहंतने नम स्कार कीधो, परंतु जो प्रधान न्याय अंगीकार करीयें, तो अहीयां पंच पर मेष्ठीमां सर्वथा कृतकृत्य पणे करी सिझने प्रधान पणुं २ माटे सिझ मुख्य बे, तेथी प्रथम सिझने नमस्कार करीने पठी अरिहंतादिकने अनुपूर्वीयें नमस्कार करवो युक्त जे. समाधानः-सिझने पण श्रीअरिहंतना उपदेशथकी जाणीयें बैये. वली अरिहंत, तीर्थ प्रवर्तन करे, उपदेश आपीने घणा जीवोने उपकार करे अने सिक पण श्रीअरिहंतना उपदेशथकीज चारित्र आदरी कर्मरहित थर सिद्धपणुं पामे, माटे श्रीअरिहंतनेज प्रथम नमस्कार करवो योग्य . आशंकाः-जो एम उपकारीपणुं चिंतवी नमस्कार करीयें, तो आचा र्यादिकने पण प्रथम नमस्कार करवो युक्त था? केम के को एक समयें एनाथी पण अर्हदा दिकनुं जाणपणुं थाय बे, माटें आचार्यादिक पण म. होटा उपकारी बे, तेथी तेमने प्रथम नमस्कार करवो युक्त जे. समाधानः-आचार्यने उपदेश देवानुं सामर्थ्य, श्रीअरिहंतना उपदेश्या थकीज होय , परंतु आचार्या दिक स्वतंत्रथका उपदेश थकी अर्थज्ञापकपणुं पमिवजता नथी, एटला माटे अरिहंतज परमार्थे करी सर्व अर्थ ज्ञापक ने तेथी, प्रथम नमस्कार करवा योग्य जे. वली आचार्यादिक तो अरिहंतनी पर्षदारूप जे. माटे आचार्यादिकोने प्रथम नमस्कार करी पड़ी श्रीअरिहंतने नमस्का करवो, ए योग्य न कहेवाय, ए विषे आम कह्यु बेः-"पुवाणुपुवि न कमो नेवय पछाणुपुबि एस नवे ॥ सिझाश्या पढमा, वीश्रा ए साहुणो श्राइं॥॥” अरहंता उवएसेणं, सिद्धाणं जंति तेण श्ररि For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. हाई ॥णवि कोई परिसाए, पणमित्ता पणमई रन्नोत्ति ॥५॥” पूर्वे जेटला प्रश्न उत्तर कस्या, तेनो संबंध ए गाथा मध्ये डे, तेमाटे लोकमां पण पर्ष दाने प्रणाम करीने पढी राजाने को प्रणाम न करे, तो अहीं आचार्यादिक तो सर्व पर्षदा रूप ले अने श्रीअरिहंत ते राजा रूप ले माटे प्रथम राजाने प्रणाम कस्या पडी पर्षदाने प्रणाम कराय जे.ए रीतें श्रीअरिहंतने नमस्कार कस्या पळी आचार्यादिकने नमस्कार करवो युक्त बे, एम सिद्ध थयुं, एटले पांत्रीश अदरें श्रीनवकार पांच पदरूप मूल मंत्र कह्यो. हवे आगले चार पदनी चूलिकामांहे ए मूलमंत्रनो प्रभाव कहे जे. ( एसोपंचणमुक्कारो के ) एषपंच नमस्काराः ( एसो के०) ए जे अ रिहंता दिकसंबंधी (पंच णमुक्कारो के०) पांच नमस्कार बे. एटले नमस्कार पंचक , ते केहवो जे? तोके (सवपावप्पणासणो के०) सर्वपापप्रणाशनः ( सबपाव के०) झानावरणादिक सर्व पाप तेनो (प्पणासणो के०) प्पणास एटले विनाशनो करनार बे. अहीं बहा अने सातमा, ए बे पदनी बही अने सातमी, ए बे संपदा थई. वली ते नमस्कारपंचक केहवो ? तो के (मंगलाणंचसवेसिपढमंहवश्मंगलं के०) मगलानां च सर्वेषां प्रथम नवति मंगलं एटले सर्व मंगलोमां (पढमं के०) प्रथम एटले मुख्य, मंगलं के ) मंगल मांगलिक एटले कल्याणकारक (हव के ) . ___ एटले मंगल बे प्रकारनुं बे. एक प्रव्यमंगल, ते लौकिक मंगल, अने बीजें नावमंगल ते लोकोत्तर मंगल जाणवू. तेमां दधि, अक्षत, केसर, चंदनदूर्वादिक, ते लौकिक मंगल जे. ए मंगल अनेकांतिक तथा अनात्यंतिक जाणवं. ते पण एक नाममंगल, बीजुं स्थापनामंगल, अने त्रीजुं अव्यमंगल. ए त्रण मंगलथी वां बितार्थ सिकि न थाय, अने एथकी विपरीत एकांत में गल तथा आत्यंतिक मंगल, ते नावमंगल जाणवू. ए मंगल, विशेषे इति तार्थ सिझनु कारक , माटे पूजनीय बे, प्रधान बे, ते जप, तप तथा निय म प्रमुखन्नेद निन्नपणे करी अनेक प्रकार- बे. तेमां पण अति उत्कृष्ट मंगल, ए पंच परमेष्ठिनमस्काररूप , माटे ए विशेषे करी ग्रहण करवू. ए थकी मोदरूप सुखनी प्राप्ति थाय जे. परमेष्ठीने मंगलपणे, लोकोत्तम पणे, शरणयोग्यपणे ग्रहवाय जे. उक्तं च ॥ अरिहंता मंगलं, सिझा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपपत्तो धम्मो मंगलं ॥ इति ॥ ए चूलिकानां चार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकार अर्थसहित. - १३ पदमां तेत्रीश अदर डे, आठमां अने नवमा, ए बे पदनी मलीने एकज आठमी शंपदा थ. माटे एमां विश्रामनां स्थानकरूप संपदा आठ ठे अने पद नव डे तथा बधा मली लघु अदर एकश डे अने गुरु अदर सात बे, सर्व अदर अमश बे. इति मंगलम् ॥ __हवे ए चूलिकामध्ये केटला एक (हवश् मंगलं) ने स्थानकें (होश् मंगलं) कहीने बत्रीशज अक्षर माने थे, परंतु एना मूल तेत्रीश अदर बे. यमुक्तं श्रीमहानिशीथ सिद्धांतें “ तहेव श्कारस पय परिबिन्नति आलावग तितीस अकर परिमाणं ॥ एसो पंच णमुक्कारो,सबपावप्पणासणो मंगलाणं च सवोर्स, पढमं हवश् मंगलंति चूलं. तेणेव कमेण ह सत्तमम दिणेसुश्रा यं बिलेहिं अहि जिजा” तथा प्रवचनसारोकारेऽप्युक्तं "पंच परमिहिमंते, पए पए सत्त संपया कमसो ॥ पङत सत्तरकर, परिमाणा अठमी जणिया ॥१॥” गाथा (ए) मी. यद्यपि हवश मंगलने स्थानकें होमंगलं एवो पाठ कहेवाथकी अर्थविन्नेद कांश नथी, तथापि हव मंगलं एवोज पाठ कहेवो. केम के नमस्काराव सिकाग्रंथमध्ये का बे के, को कार्यविशेष उपने थके जेवारें चूलिकानुज ध्यान करियें, तेवारें बत्रीश दल- कमल रची एकेको अदर, एकेकी पांखमीयेंस्थापवो अने तेत्रीशमो अदर, मध्यकर्णिकायें स्थापीने ध्यान करवं. माटे जो हो मंगलं एवो पाठ कहियें, तो चूलिकामां बत्रीशज अदर थाय, ते बत्रीश अदरें बत्रीश पांखमीज पूराय, तेवारें मध्यनी कर्णिका खाली रही जाय. इत्यादिक अनेक, सिद्धांत युक्ति बे, ते मध्यस्थपणे विचारवं. हवे ए पंच परमेष्ठीने नमस्कार करीने एमना एकशो ने आठ गुणरूप मंत्रनो जाप करीयें, ते गुणो या प्रमाणे बेः-“बारस गुण अरिहंता, सिझा अहेव सूरि बत्तीसं ॥ उवकाया पणवीसं, साहू सगवीस अहसयं, ॥१॥ अर्थः-अरिहंतना बार गुण, सिझना आठ गुण आचार्यना बत्रीश गुण, उपाध्यायना पच्चीश गुण अने साधुना सत्तावीश गुण, ए सर्व मली (अ. उसयं के०) एकसोने आठ गुण थाय. ते आवी रीतेः तिहां श्रीअरिहंत प्रजुनां आठ प्रातिहार्य, तथा चार मूलातिशय, मलीने बार गुणो जाणवा. तेमध्ये प्रथम आठ प्रातिहार्य कहे . उक्तं चः-"किकिल्लि कुसुमवुमि, देवचुणि चामरासणारं च ॥ नावलय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ प्रतिक्रमण सूत्र नेरि उत्तं, जयति जिण पामिहेराइं ॥१॥” अर्थः-जगवंतने सहचारि होय माटे प्रातिहार्य कहिये,अथवा इंजना आदेशकारी जे देव तेनुंजे कर्म, तेने प्रातिहार्य कहीये. ते आठे प्रातिहार्य, देवतानां करेलां जाणवां. तिहां पहेलु १ (किंकिति के०) अशोकवृद, ते ज्यां श्रीनगवंत विचरे, समोसरे, तिहां महाविस्तीर्ण, कुंसुमसमूहबुब्धत्रमरनिकरें शीतल, सबाय, मनो हर, विस्तीर्णशाखावालो, नगवाननु जेटवू देहमान होय तेथी बारगुणो, अशोकवृद, देवता करे, तेनी नीचे बेसीने धर्मदेशना जगवान् आपे. - २ (कुसुमति के०) फूलनी वृष्टि एटले जल तथा स्थलने विषे उत्पन्न थयेलां फूलो जेवां के श्वेत, रक्त पीत, नील तथा श्याम, ए पांच वर्णानां विकश्वर सरस सुगंधमय, नीची बीटें अने ऊंचे मुखें एवां सचित्त फूलो नी वृष्टि समवसरणनी पृथिवीने विषे चोफेर एक योजनमध्ये गोठण प्रमाण देवतार्ड करे , अहींयां फूल विषे मतांतर बे, ते कहे बेः-कोश एक तो अचित्त फूल कहे जे तथा को एक तो किहां एक फूल उपर जाली बंध कहे . वली को एक तो क्या एक क्यारारूप में, एटले ज्यां साधु, मनुष्य अने देवता बेसे , त्यां पुष्पवृष्टि नथी अने शेष चोफेर स्थानके बे, ऐम मतांतर जे. परंतु ते मध्ये अचित्त फूलना कथक तो धर्मतिजिन वचनना उबापक एवा ढूंढक लोको जाणवा, अने शेष बे मतांतरनो पण निषेध बे, केम के समवसरणमां सर्वत्र फुलनी वृष्टि तो होयज बे, पण ते फूलोने जे बाधा नथी उपजती तेनुं कारण तो अचिंत्य शक्तिना धणी एवा श्रीनगवंतनुं माहात्म्य जाणवू. एम श्रीश्रावश्यक चूर्णीमध्ये कयु बे. तेनी श्रीआवश्यक नियुक्तिनी वृत्ति, श्रीमलयगिरिमहाराजनी करेली , तेमां साख दीधी , माटे पुष्पवृष्टि समवसरणमध्ये सर्वत्र देवता करे . .. ३ ( देव णि के) दिव्यध्वनिः एटले नगवान् जेवारें दूध साकरथी पण मीगशवाला अत्यंत मधुर स्वरवडे सरस अमृतरससमान समस्त लोकने प्रमोदनी देवा वाली एवी वाणीयें धर्मदेशना दीये जे. तेवारें देव ताठ ते जगवंतना खरने पोताना ध्वनिवडे अखंग पूरे . यद्यपि मधुर मां मधुर पदार्थथकी पण प्रजुनी वाणी मध्ये रस घणो , तोपण नव्य जीवना हितने अर्थे प्रजुजी जे देशना आपे बे, ते मालवकोश रागें करीनेज आपे बे, अने ते मालवकोश रागें जेवारें देशना आलापे, तेवारें पर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ नवकार अर्थसदित. मेश्वरनी बन्ने बाजुयें रहेला देवता, ते मनोहर वेणुवीणादिकना शब्दें करीने ते वाणीने विशेषे मनोहर करे, एटले जेम कोश् सुखरें गायन करतो होय, तेनी पासे वीणादिकने शब्दें ध्वनि पूरीयें, तेम अहीयां देवता करे, तेने दिव्यध्वनिनामा प्रातिहार्य कहिये. ___४ (चामर के०) चामर एटले केलिना स्तंनने विषे जेम तंतुना निकर लागा होय तेनी पेरें मनोहर जेना दंगने विषे अनेक रत्नना समूह लागेला होय ते रत्नना किरणे करी जाणी, इंधनुष्यने विस्तारतो होय नही ? एवा रत्ने करी जमित सुवर्णनी मांमी सहित श्वेत चामरो समवसरणमां जगवंतने देवताउँथकी विजाय बे. ___५ (आसणाश्च के० ) आसनानि च एटले आसन जे सिंहासन ते अनेक रत्ननी चुनीयें करी विराजमान सुवर्णमय मेरुना शृंगनी पेरे जंचुं अने कर्मरूप वैरीना समूहने जाणीयें बीवरावतुं होय नहीं ? एम सादात् सिंहरूपें शोलायमान एवं सुवर्णमय सिंहासन देवता करे, तेनी उपर बेसीने नगवान् , देशनां आपे, (नावलय के० ) नामंगल नामा प्रातिहार्य, ते श्री जगवंतनी ने विषे शरद् ऋतु संबंधि सूर्यना किरणनी पेरें जोतां दोहिबुं एवं ने देदीप्यमान श्रीवीतरागना मस्तकने पाडले नागें नामंमलनी पेरें नाम होय एटले (ना के०) कांति तेनुं मंगल एटले मांमढुं करे, तेने ना. मल कहीयें. नामंगल न होय तो प्रजुना मुखनी सन्मुख जोवाय नही. ___(नेरि के नेरी, ढक्का, कुंकुन्नि, ए एकार्थ डे जेणे पोताना लांकार शब्दें करीने विश्वनुं विवर जयुं बे, एवा नेरी, ढक्का शब्दायमान करे . एटले हे जनो, तमे प्रमादने बांमिने श्रीजिनेश्वरप्रत्यें सेवो, ए जिनेश्वर ते मुक्ति नगरीयें पहोंचामवाने सार्थवाह समान बे. ए रीतें नेरीनो शब्द त्रण जगतनां लोकने कहे जे. एम हुं जाणुं बुं, एवी इंउनि एटले आका शने विषे क्रोमो गमे देवतानां वाजिनो दिव्यनुनावें वाजे बे. ___G (बत्त के०) बत्रं, बत्रनामा प्रातिहार्य ते त्रण नवनने विषे परमेश्वर पणानुं जणावनार, शरत् कालना चंउमा तथा मचकुंदनी पेरें उज्ज्वल, एवी मोतीनी मालायें करी बिराजमान, एवा त्रण बत्र प्रजुने मस्तकें बत्रा तिबत्र प्रत्ये धरे. समवसरणनी निश्रायें चार जोमी चामर, अने बार बत्रो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र होय बे, ए आठ प्रातिहार्य कह्यां. उक्तं च ॥ अशोकवृक्षःसुरपुष्पवृष्टि, दि. व्यध्वनिश्चामरमासनं च ॥ नामंगलं निरातपत्रं,सत्प्रातिहार्याणी जिनेश्वराणां॥१॥ए आठ प्रातिहार्य ते श्रीअरिहंतना आठ गुणो कहेवाय डे, तेमज चार मूल अतिशय , ते आ प्रमाणे:-पहेलो अपायापगमाति शय, बीजो ज्ञानातिशय, त्रीजो पूजातिशय तथा चोथो वचनातिशय. तत्र प्रथम अपायापगमातिशय, ते बे प्रकारें बेः-एक स्वाश्रयी ने बीजो परा श्रयी, तेमां स्वाश्रयी बे प्रकारें बेः-अपाय कहेतां उपव ते अव्य अने नाव ए बे प्रकारें बेः-तेमां अव्यथी जेमने सर्व रोगो अपगम एटले दय थ गया डे अने लावधी अंतरायादिक अढार दोषयकी रहित थया ने ते आ. प्रमाणे:- १ दानांतराय, २ लानांतराय, ३ वीर्यांतराय, ४ जोगांत राय, ५ उपजोगांतराय, ६ हास्य, ७ रति, अरति, ए जय, १० शोक, ११ जुगुप्सा, एटले निंदा, १२ काम, १३ मिथ्यात्व, १४ अज्ञान १५ निडा, १६ अविरति, १७ राग, २७ वेष. ए अढार दोषो श्री वीतरागना दिए थ गया बे. ए स्वाश्रयी अपायापगमातिशय कह्यो. हवे पर आश्रयी अपगमातिशय आप्रमाणे:-ज्यां नगवंत विहार करे, त्यां आसमंतात् सवाशो योजन सुधीमां प्रा यें करी रोग, वैर, ऊंदर प्रमुखनो उपजव. मारी, मरकी, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, उर्जिद, पोताना सैन्यनो लय तथा परना सैन्यनो जय. एटला वानां थाय नहीं, ए पर आश्रयी जाणवो. __ बीजो ज्ञानातिशय ते आवी रीतें जाणवो. नगवान् केवलझाने करी लोकालोकनुं स्वरूप सर्व प्रकारे जाणे जे. सर्व प्रकारें देखे बे को प्रकारें कांश नगवानथी अज्ञात रहेतुं नथी तेथी नगवान् शानातिशयवंत जाणवा. त्रीजो पूजातिशय ते याप्रमाणे:-जगवंतने राजा, बलदेव वासुदेव च क्रवर्ती, नवनपतिदेव, व्यंतरदेव, ज्योतिष्कदेव तथा वैमानिकदेवता प्रमुख जगत्रयवासी नव्य जीवो पूजा करवानी अनिलाषा करे बे. अर्थात् श्रीतीर्थकर सर्वपूज्य , माटे ए त्रीजो पूजातिशय जणवो. चोथो वचनातिशय श्राम जाणवोः-जगवंननी वाणी संस्कारादिकगुणें करी सहित होय . माटे मनुष्य, तिथंच तथा देवताउँने अनुयायी होय, ते एवी रीतें संस्कारने पामे डे के, सर्व जव्य जीवो पोतपोतानी जापाना अनुसारें तेनो अर्थ समजी जाय जे. जेम एक जिल्स, पोतानी त्रण स्त्री स Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकारअर्थसदित. हित एकदा प्रस्तावें वनमा जतो हतो, तेने मार्गमां एक स्त्रीयें कडं के मुऊने हरण हणीने आणी आपो, बीजीयें कडं के मने अत्यंत तृषा लागी ने माटे पाणी लावी आपो अने वली त्रीजीयें कडं के मने गीतगान करी संजलावो. ए त्रणेने निहें कडं के, (सरो नथी) एम एक उत्तर कह्यो. त्यारे पहेली समजी के, सरो एटले बाण नथी. बीजी समजी के, सरो एटले सरोवर नथी. त्रीजी समजी के, सरो एटले मधुरवर नथी. एम एक उत्तरथी त्रणे स्त्रीयो समजी गइ, ए दृष्टांतें प्रजुनो वचनातिशय पण जाणवो. ए जिनेंनी वाणीना पांत्रीश गुणो बे, ते विस्तारना जयथी लख्या नथी.ए चार अतिशय,आठ प्रातिहार्य साथै मेलवतां श्रीतीर्थकरना बार गुणो थया. हवे सिझना आठ गुणो विवरीने कहे बेः-गाथा " नाणं च दंसणं चेव अवाबाहं तहेव सम्मत्तं ॥ अस्कयहि अरूवी, अगुरु लहु वीरियं हव” अर्थः-प्रथम (नाणं च के०) ज्ञानावरणीय कर्म दय थर जवाने लीधे ज्ञाननी उत्पत्ति थयाथी तेना प्रत्नावें लोकालोकना खरूपने विशेष प्रकारे जाणे जे. बीजो (दंसणंचेव के0) दर्शनावरणीय कर्मनो दय थई जवाथी केवल दर्शननी उत्पत्ति थवाने लीधे तेना योगें लोकालोक स्वरूप नली प्रकारें देखे , त्रीजो (अवाबाहं के०) सर्व प्रकारनी बाधा पीमाथकी रहित, एटले वेदनीय कर्म कय थई जवाथी नैरुपाधिक अनंत सुखनी उत्पत्ति थाय बे. ते सुख आq डे केः-व्यवहारीयानां सुख, राजा नां सुख , बलदेवनां सुख, वासुदेवनां सुख, चक्रवर्तीनां सुख, असंख्याता जवनपति, व्यंतर तथा ज्योतिष्क देवोनां सुख, बार देवलोकना देवतानां सुख, नव प्रैवेयकना देवतानां सुख, पांच अनुत्तर विमानवासी देव, ए सर्वनां सुख तेथकी अनंतगणुं अधिक सुख, सिझना जीवोने जे. ते सुखनो अनुनव सिझ विना बीजा कोश्ने पण थक्ष शके नही. जेम मूगो साकर खाय, तेनो स्वाद पोतें जाणे पण बीजाने कही शके नहीं, तेम सिझना सुखने केवलज्ञानी जाणे , पण ते सुख वचनातीत , माटें मुखथी कही शके नहीं. चोथो (तहेव सम्मत्तं के०) तेमज मोहनीय कर्मनो दय थर जवाने लीधे दायिक सम्यक्त्वनी उत्पत्ति थाय , ते सिझने विषे यथाव स्थित होय . पांचमो (अस्कयहिश के०) आयुः कर्मनो क्षय थ याथी अक्षय स्थिति थाय बे. सिझना जीवने पर्यायवडे सादि अनंत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ प्रतिक्रमण सूत्र. स्थिति बे, माटें अक्षय स्थिति कहेवाय बे. बो ( रूवी के० ) रूपथकी रहित बे. उपलक्षणथी वर्ण, गंध, रस तथा फरसथकी पण रहित जा पियें. एटले सिद्ध पांच वर्णमांना एके वर्णों कहेवाय नहीं; वे गंधमां कोइ गंधनो सिद्धां संभव नथी; पांच रसमां एके रस सिद्धनेविषे न होय अने व स्पर्शमांनो एके स्पर्श सिद्ध न होय. एटले नामकर्मना - यथकी एउनो तादात्म्यसंबंध सिद्धनेविषे नहिं होवानेलीधे ए रूपी गुण कह्यो बे. सातमो (अगुरुल के० ) गोत्रकर्मनो दय थ जवाथी सिद्ध जारी पण नथी, तेम हलका पण नथी एटले ( गुरु ० ) सिद्ध नेउंच गोत्र न होय तथा ( लहु के० ) सिद्धने नीच गोत्र न होय एटले सिद्ध, कार्मिक सन्मान तथा सत्कार रहित होय बे, अर्थात् विषयता संबंधें करी खानाविक पूजा सत्कारें करी रहित बे ने मो (वीरिय के० ) अंतराय कर्मनो दय थवाथ की वीर्यांतरायना कयने लीधे सिद्धने स्वाजाविक आत्मानुं अनंत बल होय बे, ते बल एवं के लोकने लोकमां arrated लोकमां करी नाखे पण सिद्ध ते बलने फोरवे नहिं, फोव्यं पण नथी ने फोरवशे पण नहीं. कृतकृत्य थया बे माटें तादृश वी ने फोरवे नहीं. ए श्राव, सिद्धना गुण थया. वे चायना वीश गुणो श्रावी रीतें:- " पंचिंदियसंवरणो, तह नववि बंजर गुतिधरो ॥ चविह कसाय मुक्को, हारस गुणेहिं संजुत्तो ॥ १ ॥ पंच महवयजुत्तो, पंच विहायार पालण समो ॥ पंच स मिर्ज तिगुत्तो, बत्तीस गुणो गुरू मझ ॥ २ ॥” अर्थः- ( पंचिंदियसंवरणो ha) स्पर्शनेंद्रिय प्रमुख पांच इंद्रियो, तेर्जना स्पर्शादिक मुख्य पांच विपयो तथा ते विषयोना अवांतर देवीश नेदो थाय, तेमां जे पोताने अनु कूल प्रीतिकारी होय, तेउनी उपर राग न धरे ने जे प्रतिकूल प्रीति कारी होय, तेजनी उपर द्वेष न करे, ते माटे पंचेंद्रियना संवरयुक्त एम क एम प्रत्येक इंडियना विषयने विषे राग तथा द्वेषना अजावें रहे. ए प्रमाणें पांचे इंडियना विषयो विषे करता, पांच गुणो थया. (तह के ० ) तथा ( नव विवजचेर के० ) नव प्रकारनी ब्रह्मचर्यनी ( गुत्तिधरो के० ) तिने धारण करनार, तेमां प्रथम, गाय प्रमुख पशु, नपुंसक तथा स्त्री थकी रहित एवा स्थानकने विषे रहे. बीजुं, स्त्रीनी कथा, वार्त्ता, प्रीतियुक्त . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकार अर्थसदित. रए सरागपणे करे नही. त्री, जे आसनें स्त्री बेठी होय ते ठेकाणे बे घमी पर्यंत ब्रह्मचारी पुरुष बेसे नही, अने जे आसनने विषे पुरुष बेगे होय, तिहां स्त्री त्रण प्रहर सुधी बेसे नही, चोथु, स्त्रीना अंगोपांग, राग सहित निरखे नही; पांचमुं, नीतप्रमुखने आंतरे स्त्री पुरुष बन्ने सूतां होय अथवा कामविषे वातो करतां होय, त्यां बेसी न रहे. हुं पूर्वावस्थामां स्त्रीनी साथें कामक्रीमा कीधी होय, तेनुं स्मरण न करे. सातमुं, सरस स्निग्ध आहार न लिये. आठमुं नीरस आहार पण अति मात्रायें वजन उपरांत न लिये, नवमुं शरीरनी शोना विजूषा न करे. ए नव प्रकारें ब्रह्मचर्य मन, वचन, कायारूप त्रिकरण शुद्धपणे पाले. ए नव गुणो अने प्रथम कहेला पांच मली चौद गुणो थया. क्रोधादिक चार कषाय ते चारित्रना घातक परिणाम विशेष जाणवा. ए चार कषायथकी मुक्त एटले मूकाणा , एऊना नेदोनुं विस्तारें करी विवरण कयुं नथी. ए चार गुण मली अढार गुण थया. (श्य अहारस गुणेहिं संजुतो केव) ए अढार गुणोए करी संयुक्त जाणवा ॥१॥ हवे बीजा अढार कहे जेः-(पंचमह. वयजुतो के०) पांच महाव्रतें करी युक्त. तेमां प्रथम “ सबा पाणारवाया वेरमणं” एटले मन, वचन अने कायायें करी निकायना जीवोने पोतें हणे नहीं, बीजानी पासें हणावे नहीं, तथा हणनाराने अनुमोदन दिये नहीं, तिहां पृथिवी, हरमजी, वानी, हरियाल प्रमुखं खरखें वाटे नहीं, वटावे नही, पोताने अर्थे वाट्युं होय ते लीये नही; तथा पाणी पोताने अर्थे उन्हुँ कयुं होय ते लीये नही, बीजाने लेवरावे नही तथा को लेतो होय ते प्रत्ये रूमो जाणे नहीं, लेनारनी साथें वसे नही, दिवसर्नु आणेलु पाणी, रात्रे तथा विहांणे वावरे नही, अग्निसंबंधी दीवो, फानस तथा अगर उकेवो इत्यादिक करे नही, करावे नही, अनेरायें कीधुं आदरे नही, आदरनारनी साथें वसे नही तथा मोरपीठी अने लूगमा प्रमुखें वायरो करे नही, करावे नही, करतो होय, तेने वारी राखे, वायरो करवो बादरे, तेनी साथें वसे नही. वनस्पति, नील, फूल तथा जामुआं उपर चाले नहीं तथा धान्यप्रमुख साधुने अर्थे रांध्यु होय, ते वोहोरे नही. तथा आंबानो रस घोल्यो होय, खमबूजा प्रमुख मोदयां होय, तेने वहोरे नही. तथा त्रसकायनी विराधना थाय, माटे रात्रे चाले Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्रतिक्रमणसूत्र. नही. गृहस्थने घेर तथा उपाशरे अणपमिलेह्यां वस्त्र राखे नहीं, ए प्रथम महाव्रत कडं. २ “सबा मुसावाया वेरमणं" क्रोध, लोन, लय तथा हास्यादिकथी प्रव्य, क्षेत्र, काल अने नाव संबंधे मन, वचन तथा कायायें करी पोतें जूतुं बोले नही, बीजाने जूतुं बोलावे नही तथा जूतुं बोलनारने अनुमोदे नहीं, एटले खनावें तथा कार्य उपने तथा पोतानो शिथिलाचार ढांकवाने अर्थे तथा आदेशादिकनी वात करतां तथा गृहस्थ- मन राखवाने अर्थे जूतुं कदापि बोले नहीं. ए बीजुं माहाव्रत कथु.. ____३ “सबा अदिन्नादाणा वेरमणं” पारकुं अदत्त, पोतें तृणमात्र पण लिये नही, परने लेवरावे नही, तथा लेताने अनुमोदे नहीं. एटले नीर्थकर अदत्त, गुरुदत्त, खामियदत्त तथा जीवअदत्त. ए चार प्रकारनां श्र दत्त , तिहां पोताने अर्थे रांधेलो आहार लीये तथा असुजतां वस्त्र, पात्र प्रमुख लीये, तेने तीर्थंकर अदत्त सहित गुरुदत्त ए बे अदत्त लागे, अने गृहस्थे अणाप्युं तथा मन पांखे श्राप्युं लीये, तेने स्वामिश्रदत्त सहित तीर्थंकर अदत्त लागे, अने फासुकरणमां पाणी प्रमुख सजीव वस्तु वहोरे, त्यां जीव अदत्तसहित तीर्थंकरअदत्त लागे. ते लिये नही, लेवरावे नही तथा लेताने अनुमोदे नही, ए त्रीजुं महाव्रत का. ४ "सबा मेहुणा वेरमणं” अढार नेदें ब्रह्मचर्य पाले. ते था प्रमाऐं:-औदारिक कामी ते मनुष्य तथा तिर्यंचनी स्त्री संबंधी तेने मन, वचन तथा कायायें करी सेवना करे नही, परने करावे नही तथा करताने अनुमोदन न दिये. एमज नव नेद वैक्रियना ते देवताउंनी. स्त्रीविषे जाणी लेवा. ए अढार नेदें ब्रह्मचर्य पाले एटले कोई प्रकारनी स्त्री जातिनी सोथें आलाप, संलाप तथा अतिपरिचय न करे. केम के एम कस्याथी व्रतनो नंग थाय जे.अने बीजो को देखे तो जिनशासननी हेलना करे अने घणो वेषी होय तो गाममां बकवाद करे, तेथी निंदा थाय. ए चोथु महाव्रत कवू. ___५ "सबार्ड परिग्गहार्ड वेरमणं.” नव विध परिग्रह तथा धातुमात्र मूळ रूपें राखे नहीं, धर्म सहायक उपकरणोथी अधिक उपकरणो राखे नही, बीजाने रखावे नही, अने राखताने अनुमोदन दिये नहीं जे साधु होय, ते औधिक चौद उपकरण तथा औपग्रहिक जे संथारो, उत्तरपट्ट, मांगो प्रमुख Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ नवकार अर्थसहित. नेते खप प्रमाणे राखे. परंतु गृहस्थने घरे गांठमी बांधीने तो सर्वथा राखेज नही अने जो गृहस्थने घेर राखे तो तेने पांच महाव्रत मांहेदूं एक पण माहाव्रत बे एम न जाणवू. अने तेने नावसाधु पण न कहीयें, जो कहीयें तो मिथ्यात्व लागे. ए पांचमुं महाव्रत कथु. सर्व मली त्रेवीश गुणो श्रया. ___ हवे (पंचविहायारपालणसमझो के ) पांच प्रकारना आचार पालवाने समर्थ होय. तेमां प्रथम ज्ञानाचार एटले ज्ञान पोतें लणे, परने जणावे, पोतें लखे, बीजानी पासेंथी.लखावे, पोतें ज्ञानना नंमारा करे, परनी पासे करावे अने जे झानतुं पठन प्रमुख सारो उपयोग करतो होय, तेनी उपर राग धरे. एम 'काले विणए' श्वादि गाथा वडे कडं बे, ते जाणी लेवू. बीजो दर्शनाचार. ते पोतें सम्यक्त्व पाले, बीजाने सम्यक्त्व पमाडे अने सम्यक्त्वथी पमतो होय तेने हेतुयुक्तिना वचनें करी स्थिर करे, ए निस्संकिय निकंकिय' इत्यादिक बे गाथायें करी जाणवू. त्रीजो चारित्राचार. ते पोतें चारित्र पाले, बीजाने चारित्र पलावे, जे कोश् शुद्ध चारित्रने पालतो होय तेने अनुमोदे, ते 'पणिहाण जोगजुत्तो' इत्यादिक बे गाथायें करी समजवो. चोथो तपत्राचार. ते पोते बार नेदें तप करे, बीजाने तप करावे, जे को बार नेदना तपने करतो होय तेने अनुमो. दे, ते 'अणसणमूणोअरिया' ए गाथावडे जाणवू. अने पांचमो वीर्याचार, ते पंचाचारने विषे शक्ति फोरवे, पमिकमणुं पमिलेहण, धर्मानुष्टानने विषे बलवीर्य गोपवे नहीं. ते 'श्रणगुहिश्र बलवीर” ए गाथा थकी समजी लेवु. ए पांच आचाररूप पांच गुणो मली अहावीश थया.. (पंच समिठ के०) पांच समितियो एटले यासमिति, नाषासमिति, एषणासमिति,यादान निदेपणसमिति, तथा पारिष्ठापनिकासमिति. तिहां, या समिति' ते धोसरा प्रमाण दृष्टियें जोतो चाले, संधिदिशायें उपयोग राखे, 'लाषासमिति' ते सर्वथा सावध वचन न बोले,निरवद्य वचनज बोले, जो धमोपदेश प्रमुख न आपे, तो अंतरायकर्म उपार्जन करे, माटे मुखें मुहपत्ती राखी क्रोधादिक रहित वचन बोले. 'एषणासमिति' ते श्राधाकर्मादिक बहें तालीशदोष रहित आहार करतां अंगालीक दोष प्रमुख मामलाना पांच दोष टाले. 'श्रादाननमनिदेपणासमिति' ते दृष्टिये जोर पूंजीने मात्रा प्रमुख लीये तथा मूके. 'पारिघावणियासमिति' ते लघु नीती तथा वनी नीतिने दृ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. ष्टियें जो पूंजीने “अणुजाणह जसुग्गहा” ए पद कहीने परग्वे,पढी त्रण वार वोसिरे कहे, मात्रे प्रमुख जिंजेली नूमि उपरे परग्वे, तो पंचेंडियनी घातनो करनार जाणवो. ए पांच मली तेत्रीश गुणो थया. (तिगुत्तो के० ) त्रण गुप्तियो एटले देशथी अथवा सर्वथी जे योगनी निवृत्ति तेने गुप्ति कहि ये. ते त्रण प्रकारें बेः-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति तथा कायगुप्ति. तेमां वली मनो गुप्ति त्रण प्रकारें बेः- असत्कल्पनावियोगनी,समताजाविनी, तथा आत्मा रामता. तेमां आर्त तथा रौअध्यानने अनुयायी ते शत्रु तथा रोगादिक माठी वस्तुनी अपेक्षायें हिंसादिक आरंन संबंधी जे मनोयोगनीनिवृत्ति ते असत्कल्पनावियोगनी मनोगुप्ति कहियें. ए गुप्ति, प्रसन्नचंदादिक साधु नी पर्नु अशुन ध्यान तथा अशुल नावनाथी मनने निवृत्ताववाने प्रस्ता वे थाय . बीजी सिकांतने अनुसारें धर्मध्यानने अनुयायि नावनायें करी सहित परलोक साधक एवी समता परिणामरूप जे मनोयोगनी निवृत्ति, ते समतानाविनी मनोगुप्ति कहिये. ए गुप्तिनो अवकाश शुलना वना तथा शुन्नध्यानना अनिमुख कालें होय. त्रीजी शैलेशीकरणकालें सकल मनोयोगनी निवृत्ति, ते आत्मारामता मनोगुप्ति जाणवी. हवे बीजी वेचनगुप्ति बे नेदें :-एक मौनावलंबिनी अने बीजी वागनियमिनी. तेमां पहेली ए जे संज्ञा, होकारो, खोखारो, पाषाण तथा काष्ठ- फेंकवु,नेत्रपत्र वी तथा करपदवी प्रमुखने बमवे करी मौन करवू,अथवा सकल नाषायो गनु, , ते मौनावलंबिनी नाषागुप्ति कहियें. ए गुप्ति, ध्यान तथा पूजा ना कालें होय . बीजी जणवू, नणावq. पूबवू, प्रश्ननो उत्तर देवो, धर्मोपदेश देवो, परावर्त्तना प्रमुखने कालें यत्नापूर्वक तथा शास्त्रने अनुसार मुखें वस्त्रादिक देश्ने बोलतां जे सावद्ययोगनी निवृत्ति, ते वागनि यमिनी जाषागुप्ति कहिये. त्रीजी काय{प्ति ते बे नेदें बेः-एक चेष्टानिवृत्ति रूप तथा बीजी यथासूत्रचेष्ठा नियमिनी. तेमां प्रथम कायोत्सर्गावस्थायें काययोगनी स्थिरता अथवा सकलकाययोगर्नु रूंधq ते चेष्टानिवृत्तिरूप कायगुप्ति कहियें. बीजी शास्त्रना अनुसारें सूर्बु, बेस, मूकबु, ले, जq, श्राव, ऊनुं रहे. इत्यादिक गमें कायायें करी पोताने बंदें प्रवृत्तती चेष्टा थी निवृत्ते, तेने यथासूत्रचेष्टानिय मिनी कायगुप्ति कहियें इहां गुप्तिने कालें जे शुद्धोपयोग ते नावगुप्ति कहिये,एत्रण गुप्तियो अने प्रथमना तेत्रीश मली Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकार अर्थसदित, (उत्तीसगुणोगुरू मनके०) बत्रीश गुणे करी सहित गुरु मुझ प्रत्ये था. हवे श्री उपाध्यायजीना पच्चीश गुणो कहे जेः-अगीयार अंग तथा बार उपांग, ए त्रेवीशने नणे तथा नणावे अने चरण सित्तिरी, तथा करणसि त्तिरी ए बेहुने शुद्ध रीतें पाले, ए सर्व मली पच्चीश गुणो जाणवा. हवे साधुना सत्यावीश गुणो कहे जेः-"अवय बकाय रका, पंचिंदिय लोह निग्गहो खंती ॥ नाव विसोही पमिले, हणाय करणे विसुकीय॥१॥संजम जोए जुत्तो, अकुसल मण वंयण काय संरोहो ॥ सीयार पीमसहणं, मरणं उवसग्गसहणं च” ॥२॥ अर्थः-६ ( बवय के०) पांच महाबत तथा बहुं रात्रिनोजनविरमण, ए व्रत पाले; १५ ( बकायरका के०) पोताना आत्मानी पहें बकायनी रक्षा करे; १७ (पंचिंदियलोह निग्गहो के०) पांच इंजियो तथा हो लोन तेनो निग्रह करे, १ए (खंति के०) क्षमा करे, २० (नाव विसोही के०) नाववीशुकि ते चित्तनी निर्मलता करे, १ (पनि लेहणायकरणेविसुद्धीय के०) बाह्य उपकरणादिक, पमिलेहण विशुकिये उपयोग सहित करे, २२ (संजमजोएजुत्तो के०) संयमना योग, तेणें करी सहित, एटले संयमने अनुकूल एवा समिति गुप्त्यादिरूप योगने आदरे, अविवेक, विकथा, निसादिक प्रमाद योगने गंडे, एटले २५ (अकुसलम णवयणकायसंरोहो के०) मारे गमें मन, वचन तथा काय प्रवर्त्तता होय, तेने रोकी राखे, २६ (सीयाश्पीमसहणं के०) शीतादिक बावीश परिसहनी पीमाने सहन करे, २७ ( मरणंउवसग्गसहणंच के०) मरणांत उपसर्ग सहे पण धर्म मूके नही. ए साधुना सत्यावीश गुणो जाणवा. ए सर्व, पांच परमेष्टीना मलीने एकशो ने आठ गुणो थया. हवे श्री नवकारनो महिमा कहे बेः-गाथा "नवकार श्क अकर, पावं फेडेर सत्त अयराणं ॥ पन्नासं च पएणं, सागर पणसय समग्गेणं ॥१॥ जो गुण लक मेगं, पूए विहीं जिण नमुक्कारं ॥ तिबयरनाम गोश्र, सो बंधश् नबि संदेहो ॥२॥ अहेवय असया, असहस्सं च अह कोमी ॥ जो गुण नत्तिजुत्तो, सो पाव सासयं गणं ॥३॥ ए श्री नवकारने नावसहित विधियें जपतां श्री गुरुदत्त आम्नाय आस्थान विशेषे करी श्ह लोकें अने परलोकें समस्त वांबित फलनी सिकि थाय. ॥ इति श्री नवकारनो बालावबोधः संपूर्णः॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ प्रतिक्रमण सूत्र. हवे जेम साधुनें एक अहोरात्रसां सात वार चैत्यवंदन करवू कडु बे, तेम श्रावकने पण सम्यक्त्वनी शुद्धिने अर्थे नित्ये प्रत्य जघन्यथी त्रण वा र, पांच वार अने उत्कृष्टथी सात वार चैत्यवंदन करवू कडं . तेम वली गुणवंतनी नक्तिने अर्थे गुरुने वांदणां देवां तथा सर्व ज्ञानादि पंचाचार विशुछिने अर्थे सांज तथा सवार मली बेहु कालें त्रस स्थावर प्राणी करी रहित एवा प्रेदित प्रमार्जित स्थानकने विषे गुरुसादिक उ आवश्य करूप प्रतिक्रमण करवू, कारण के गुरुसादिक अनुष्ठान,अत्यंत दृढ थाय बे, माटें गुरुसादिक प्रतिक्रमण करवं. तिहां ए सर्व क्रिया करवी. अने जो गुरुनो अनाव होय तो स्थापनाचार्यनी स्थापना मांगीने ते स्थापना आगल सर्व क्रिया करवी. कारण के आ, उःखमकाल पांचमो आरो ते मांहे स्थापनानो आधार , एम श्रीजिनशासनने विषे दीपक समान श्रीजिनजागणिक्षमाश्रमण तेमणे कयु के, गुरुनो उपदेश तेना उपदर्शनने निमितें जेम जिनने विरहें श्रीजिनेश्वरनी प्रतिमानी सेवना बे, तेम गुरुना विरहें गुरुनी स्थापना करवी, जेम राजाने अजावें प्रधान राजकाज चलावे , तेम गुरुने अनावें स्थापनाचार्यनी गुरुनी पेरें सेवा करवी. ए विनय, कारण बे, माडे ते गुरुस्थापनानो पाठ कहे बे. ॥ अथ पंचिंदिय ॥ ॥ पंचिंदिश संवरणो, तद नव विद बंनचेर गुत्तिघरो चनविद कसाय मुक्को, इअ अहारस गुणेहिं संजुत्तो॥१॥पंचमहन्वय जुत्तो, पंचवि दायार पालण समबो ॥ पंचसमि तिगुत्तो, ... बत्तीस गुणो गुरू मज ॥२॥ इति ॥२॥ अर्थः-(पंचिंदिश के०) पांचेंजियना शब्दादिक त्रेवीश विषय अने बशें बावन विकारप्रत्ये ( संवरणो के ) संवरणहार एटले रोकनार ( तह के०) तथा ( नवविह के०) नवविध एटले नव प्रकारें (बंजचेर के०) ब्रह्मचर्य एटले शीलवतनी ( गुत्तिधरो के० ) गुप्तिना धरनार, एटले शी लनी नव वामना पालनार, ( चनविह के० ) चतुर्विध एटले, चार प्रकारना ( कसाय के०) क्रोधादिक कषायथकी (मुक्को के०) मुक्त बे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचिंदिश अर्थसहित. एटले मूकाणा (श्य के०) ए त्रण, गुरुविशेषणमांहे रह्या जे (अठारसगुणेहिं के) अढारे गुण, तेणें करी (संजुत्तो के०) संयुत एटले सहित ॥१॥ (पंचमहव्वयजुत्तो के०) प्राणातिपातादिक पंचावना त्रिविध त्रिविध त्यागरूप पांच महावतें करी युक्त सहित, (पंचविहायारपालणसमबो के०) ज्ञानादिक पंचविध आचार पालवाने समर्थ सावधान (पं चसमि के०) या दिक पांच समितियें करी समित एटले युक्त, (तिगुत्तो के) मनोगुप्त्या दिक त्रण गुप्तियें करी गुप्त, एटले गोप्यो बे, पाप थकी आत्मा जेणे ए सात, गुरुना विशेषणोमांहे रह्या जे (उत्तीस गुणो के) बत्रीश गुण, तेणें करी संपन्न ते (गुरु के) गुरु बे, एटले स्वामी ने, (मद्य के) महारो. ए गुरुशब्दनो निरुक्तिथी अर्थ कहे जे. जेम केः(गु के०) अज्ञान पाप तेने (रु के०) रूंधे, तेने गुरु कहियें. एनो विस्तारें अर्थ, उपर पंचपरमेष्टीना अर्थना विवरणप्रसंगें यथानुक्रमें एज बे गाथाउंना वर्णनरूपें कस्यो , माटें अहीं फरी विस्तास्यो नथी, संदेपेंज अर्थ कस्यो बे. एमां गाथा बे , पद आठ , गुरु एटले बेवमा एवा नारे अदर दश , लघु एटले बेवमा वर्ण नहीं एवा अदर सित्तेर बे. सर्व मली ए सूत्रांना अदर एंशी बे. इति गुरुस्थापनायुगलगाथार्थः॥१॥ ___ या सूत्रने विषे पंचेंजियना त्रेवीश विषयना बशें बावन विकार कह्या , जेणे करी जीवने कर्मबंध थाय , ते नेदो विवरीने देखाडे जे. __ १५ प्रथम कर्णेजियना बार विकार थाय बे. ते आवी रीतें केः-एई जियना एक सचित्त शब्द, वीजो अचित्त शब्द अने त्रीजो मिश्रशब्द,ए त्रण विषय बे, ते अनुक्रमें मयुर, कोकिल प्रमुखना सचित्त शब्द तथा मृ दंगताल प्रमुखना अचित्तशब्द तथा पुरुष अने स्त्री मध्ये वस्त्रादिक मिश्र नेरी नफेरी प्रमुखना मिश्रशब्द, ए त्रण शुनं अने त्रण अशुन मलीन थाय. ते ब रागें अने उ मली बार श्रोत्रंजियना विकार थाय. ६० बीजा चनुरिंजियना शाप विकार थाय , ते आवी रीतें के, ए इंजियना पांच वर्णरूप पांच विषय बे, तेमां रत्नादिकना पांच शुन अने केशादिकना पांच अशुन मली दश नेद थाय, ते सचेत रत्नादिकना अने अचेत गुली प्रमुखना तथा मिश्र ते स्त्री, पुरुष प्रमुखना एत्रण नेदें त्रिगुणा करतां त्रीश नेद थाय, ते रागें अने के बमणा करतां शाप नेद थाय. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. १५ त्रीजा घ्राणेंजियना बार विकार थाय बे. ते आवी रीते के, ए इंजियना एक सुरनिगंध अने बीजो पुरनिगंध, एवा बे विषय में, ते वली सचित्त पुष्पादिकनो शुन गंध , अने लशणादिक सचित्तनो अशुनगंध बे, तेमज अचित्त कस्तूरी प्रमुखनो शुन्न गंध डे अने अचित्त विष्टादिकनो अशुन्न गंध ने तथा मिश्र ते पद्मिनीस्त्रीप्रमुखनो शुत्न गंध अने शं खिनी स्त्री प्रमुखनो अशुज गंध, एम शुनाशुन ए बे गंधने सचित्त,अचित्त अने मिों गुणतां उ नेद थाय, तेने राग अने हेपें गुणतां बार नेद थाय. चोथा रसें प्रियना बहोंतेर विकार थाय बे, ते आवी रीते के, एइजियना विषय पांच बे तथापि अहीं ब रसना नेद लश्ने विकार करियें, तेवारें रस शुन्ज अने ब रस अशुन्ज मली बार थाय. तेने वली सचित्त, अचित्त ने मिश्र, एवा त्रण नेदें गुणतां बत्रीश थाय. ते बत्रीशने रागें अने द्वेषं बमणा करतां बहोंतेर ने रसेजियना विकार थाय . ए६ स्पर्शेजियना उन्नुं विकार थाय बे, ते श्रावी रीतें के, ए इंडियनो एक हलवो स्पर्श, ते अर्कतुल्य, बीजो गुरुस्पर्श ते वज्रादिक, त्रीदा मृतु स्पर्श ते हांसरं प्रमुख, चोथो खरस्पर्श ते कर्वतधार तथा गोजिव्हा प्रभुख, पांचमो शीतस्पर्श ते हिमप्रमुख, बठो उस स्पर्श ते अग्निप्रमुख, सातमो स्निग्धस्पर्श ते घृतादिक, आठमो लूखो स्पर्श ते नस्मादिकनो. एवा आठ स्पर्शरूप आठ विषय बे, ते पुष्पादिक सचित्त अमे माखण प्रमुख अचित्त तथा स्त्री पुरुष मिश्र, एम सचित्त, अचित्त अने मिश्रना नेदेंत्रण गुणा करतां आठ त्रिक चोवीश थाय, ते चोवीश सारा अने चोवीश नर सा गणतां अमतालीश थाय, तेने वली राग अने हे गुणतां बन्न थाय. ए रीतें श्रोत्रंपियना बार, चरिंजियना शाउ, नासिकाना बार, जिव्हाना बहोतेर अने स्पर्शेजियना बन्नु, मली विकारना नेद बशे ने बावन थाय डे. ___ए री नवकारपूर्वक गुरुस्थापना करीने हवे इरियावही पमिकम्याविना चैत्यवंदन, सजाय, सामायिक, पोसह, पमिकमj, कांश पण कीर्छ सूजे नहीं. उक्तं च श्रीश्रागमे “रियावहिए अपमिकंताए न कप्पर किंपि चेश्यवंदण सद्याआवस्सयाश्काउ" ते नणी प्रथम शरियावहि सूत्र वखाणीयें बैये ते शरियावहिने धुरें खमासमण आपीयें, ते आवी रीतेः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इरियावदियं अर्थसहित. ॥ अथ खमासमण अथवा प्रणिपात ॥ ॥श्वामि खमासमणो वंदिलं जावणिजा ए निसीहिआए मबएण वंदामि ॥ इति ॥२॥ अर्थ-(खमासमणो के०) हे दमाश्रमण ! एटले दमादिक दश विध यतिधर्मने विषे प्रधान सावधान एवा हे दमासहित श्रमण तपस्वी रुषीश्वर साधुजी! एवा आमंत्रणे करी गुरुने बोलावीने कहियें के ,तमारा चरणकमल प्रत्ये (जावणिजाए के० ) यापनीयया एटले शक्तिसहित एवी जे (निसीहिआए के ) नैषेधिक्या एटले आपणी तनु जे शरीर, तेणे करी (वंदिलं के० ) वंदितुं एटले वांदवाने (श्छामि के०) हुं वां, बुं, बुं बु. एटबुं उन्ना बतांज कहिये. पलेवी, संमासा, बे जानु, ललाट, माबो हाथ अने नूमिका प्रमार्जी बे जानु, बे हाथ, अने पांचमुं ललाट, ए पंचांगें करीनूमि फरसतो थको (मबएण वंदामिः) एवं कहे, एटले (मस्तकेन वंदामि के० ) मस्तकें करी तमोने हुं वांछ बुं, एम कहे. ए सूत्र मां त्रण गुरु, अने पच्चीश लघु, मली अहावीश अदरी ने ॥३॥ फरी उनो थर बे हाथ जोमीने नीचे मुजव समाचारी कहे. ॥ अथ सुगुरुने शातासुखपृछा ॥ श्वकार, सुहराइ, सुहदेवसि, सुखतप, शरीरनिरा बाध,सुख संजम जात्रा,निर्वहोगे जी, स्वामी शाता डेजी, नात पाणीनो लान देजोजी॥इति ॥४॥ अर्थः-(श्वकार के० ) श्छा करुं बुं. (सुहराइ के०) सुखें रात्रि, (सुह देवसि के ) सुखें दिवस, ( सुखतप के ) सुखें तपश्चर्यामां (शरीरनि राबाध के) शरीरसंबंधी निराबाधपणामां एटले रोगरहितपणामां (सुखसंजमजात्रा के०) सुखें संयमयात्रामां (निर्वहोलोजी के०) प्रवर्तों बो जी, स्वामी जी शाता ने जी ॥४॥ एवी सुखशाता पूढीने पठी एमज उनो थको बे हाथ जोमी इरियावहियंनो पाठ कहे ते लखीयें बैयें. ॥अथ रियाव हियं ॥ ॥श्बाकारेण संदिसह जगवन् रियावदियं पमिकमामि चं॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त प्रतिक्रमण सूत्र. ___ अर्थः-(श्लाकारेण के ) श्वाकारि पूर्वक एटले तमारी श्वा पूर्वक पण महारा वचनने बलात्कारें तथा दाक्षिण्यपणे नही, परंतु तमारी श्छा होय तो ( जगवन् के०) हे ज्ञानवंत ! महानाग्य, पूज्य, (सं दिसह के०) आदेश आपो आज्ञा करो, तो (इरियाव हियं के) चालवानो मार्ग तथा साधु श्रावकनो मार्ग, जे सर्व विरति देशविरतिरूप तेने विषे यश होय, जे जीवबाधादिक सपाप क्रिया तथा अतिचाररूप मलिनता ते पाप थकी निवर्त्तवानो जे साधु तथा श्रावकनो आचार , ते प्रमाणे हुं (प मिकमामि के०) प्रतिक्रमुं, निवर्तुं, पाठो वढुं, तेवारें गुरु कहे के ( पनि कमह के०) एटले निवत्तों, पाप टालो. तेवारें शिष्य कहे के, (छ के०)प्रमाण बे. एटले जेम तमें आज्ञा दीधी, तेमज हूं तमारो आदेश अंगीकार करुं बुं, मस्तकें चढावू बुं. ए आदेश मागवाना सूत्रामां त्रण गुरु अदर अने त्रेवीश लघु अदर डे, सर्व मली उवीश अदरो ॥ श्वामि पडिकमिजं ॥१॥इरियावदियाए विराहणाए॥॥ अर्थः-टुं पण एटQज (श्छामि के०) अनिलषामि एटले वांडं वं, जे (इरियाव हियाए विराहणाए के०) ऐर्यापथिक्या विराधनया एटले गमन डे प्रधान जेमां एवो जे मार्ग, तेने रियापथ कहियें अने ते मार्गने विषे थती एवी जे जंतुनी विराधना तेने ऐर्यापथिकी विराधना कहियें. अथवा ऐर्यापथिक ते साधु तथा श्रावकनो आचार एटले ध्यान मौनादिक जे निकुनुं व्रत, तेने विषे थयेली जे आचारातिकमरूप व्रतने बाधा तेने ऐर्यापथिकी विराधना कहियें तेनेज सपाप क्रिया कहिये. ते थकी (पमिकमिजं के०) प्रतिक्रमितुं एटले प्रतिक्रमवाने निवर्त्तवाने हुं बांबुं बुं, इखं बुं. अहींयां पमिकमवाने अत्यंत उजमाल थयो, ए संबंधे पहेला बे पदनी अच्युपगम नामें प्रथम संपदा थर. जे आलोचना लदण रूप कार्यअंगीकार करवू, ते अच्युपगम संपदा जाणवी. एमां लघु अदर ब, तथा गुरु बे मली आठ अर . अने बीजी इरियावहियादिक बे पदनी निमित्तसंपदा कही ते अंगीकारकृत वस्तुने उपजवानां कारण रूप . माटें ए- निमित्त एवं नाम . एमां पण बे पद बे, अने लघुअदर बार बे॥२॥ हवे ते विराधनारूप सपापक्रिया शुं कस्याथी थाय? ते कहे . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इरियावदियं अर्थसदित. ए ॥ गमणागमणे ॥३॥ अर्थः-(गमणागमणे के०) गमनागमने एटले पोताना स्थानकथकी परस्थानकें जवं, तेने गमन कहियें अने परस्थानकथकी पोताने स्थानकें आवq, तेने आगमन कहिये. तेने विषे जे जीवोनी विराधना थइ होय. अहीं विशेष न कर्वा माटें ए सामान्यप्रकारे प्रायश्चित्त उपजाववा रूप एक पदनी त्रीजी उघ ते सामान्य हेतु संपदा जाणवी. केम के जीवहिंसा उ पजाववानुं सामान्यहेतु ते गमनागमन बे; एमां लघु अदर उ ने ॥३॥ हवे त्यां परस्थानकें जतां अने स्वस्थानकें आववाने विषे विराधना केम थाय ? ते कहे . पाणकमणे, बीयकमणे, दरियकमणे, उसा जतिंग पणग दग मट्टी मकडा संताणा संकमणे ॥४॥ अर्थः-(पाणकमणे के० ) प्राण्याक्रमणे एटले बेंझिय, प्रिय अने चौ रिंजिय, जीवोने प्राणी कहिये. ते जीवोने आक्रमण एटले पगें करी चांपवाथकी तथा (बीयकमणे के०) बीजाक्रमणे बीज एटले शालि, गोधूम, यव, शरशवादिक सर्वजातिनां धान्य प्रमुख जे वाव्यां बतां उगी आवे, ते बीज जाणवां तेने आक्रमण एटले पगे करी चांपवाथी तथा (हरियकमणे के ) हरिताक्रमणे, हरित एटले नीलवर्णवाली एवी जे मूलस्कंधादिक दश प्रकारनी वनस्पति, तेने आक्रमण एटले पगें करी चांपवा थकी. एमां पाठलां बे पदें करी सर्व बीज अने सर्व वनस्पतिने विषे जीव पणुं कर्तुं जे माटे, जीवनां लदण, सर्व एमां संपूर्ण दीगमां आवे , ते श्रा प्रमाणे:-मनुष्यना शरीरनी पेठे वनस्पतिनुं शरीर पण बाल, कोमल, तरुण तथा वृद्धताप्रमुखें करी सहित दीगमां आवे . तथा जेम हाथ तथा पगादिक अवयवोयें करी मनुष्यनो देह वृद्धिने पामे बे, तेम शाखादिक अवयवोयें करी वृदनी वृद्धि पण थाय बे. तथा जेम मनुष्यादिक प्राणीयोमा जाग्रत् तथा निशा अवस्था दीगमां आवे ओ तेम पुआम तथा आमली प्रमुख वृद, चंडविकासिक तथा सूर्यविकासिकादिक कमल,अने अंबामी पुष्पादिकमां निता तथा जाग्रतादिक अवस्था दीगमां आवे . तथा लोन, हर्ष, लजा, जय, मैथुन, क्रोध, मान, माया, लोन, आहार, Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र उघसंज्ञा, इत्यादिक सर्व विकार, वृदोने पण मनुष्यनी पेठे थता दीनामां आवे जे. जेम के, श्वेत आकमानुं वृक्ष तथा बील पलाशादिक वृक्ष, नूमिगत निधानने पोताना मूलनी जमें करी वींटी लिये , ते लोचनो लाव जाणवो, वर्षाकालने विषे मेघनी गर्जना सांजलीने शीतल वायुना फरसे करी अंकूर उत्पन्न थाय बे, ते हर्षनो नाव जाणवो. लजालु वेली, मनुप्यना हाथ वगेरे अंगना स्पर्शथकी संकोचाई जाय बे; ए लजा तथा नय नो नाव कहेवाय. अशोकवृद, बकुलवृद तथा तिलकवृदादिक नवयौवनस्वरूप सालंकार कामिनीना पगनी पानिना प्रहारें करी, तेना मुखनो तांबूलरस बांटवाथी, तेना करेला सस्नेहालिंगन वडे तथा तेना करेला हा वनाव कटादविदे करी तत्काल फलता दीसे बे; ए मैथुनसंझानो नाव जाणवो. कोकनद वृदनो कंद, मनुष्यनो पग लाग्याथी हुंकारा मूके केए क्रोधनो नाव जाणवो. रुदंती वेल, अहो हुँ उतां आ लोको उःखी कां थाय ने ? एवा अहंकारें करी निरंतर अश्रुपात करे बे. केम के, तेना योगश्री सुवर्णनी सिद्धि थाय बे; माटे ए माननो नाव जाणवो. प्रायः घj करीने वधी वेलीयो पोत पोतानां फलोने पांदमायें करी ढांकी लिये बे, ए मायानो नाव जाणवो. तथा नूमिका जलादिक श्राहारना योगें वृदो नी वृद्धि थाय जे; अने ते विना दिवसे दिवसें कुमलाई जाय डे. मनुष्य नी पेठे नागरवेलि प्रमुखने तिलवटी गोमय तथा उग्धादिकना दोहला उपजे जे. ते परिपूर्ण थया पनी पत्र, फल, फूल, तथा रसनी वृद्धि थाय बे; ए पण थाहारसंज्ञानो नाव जाणवो. वृदने पांडू. गांठ. उदरवृद्धि, सोजो तथाऽर्बलपणुं प्रमुख रोगें करी फूल, फल, पान, त्वचाने विकार दीसे . तथा सर्व वनस्पतिना आउखां पोत पोताना नियतज होय ; इष्ट तथा अनिष्ट श्राहारनी प्राप्तियें करी वृदो पुष्ट तथा अपुष्ट थाय बे; वेलीयो मार्गने मूकीने वृदनी उपरज चढे ; ए उघसंज्ञानो नाव जाणवो. इत्यादिक युक्तियें करी श्री आचारांगना पहेला श्रुतस्कंधना पहेला अध्ययनमा सविस्तर जीवपणुं स्थाप्युं बे. अहीं को पू के, जो वनस्पति जीवरूप होय तो बेदन तथा नेदन प्रमुख करतां कां रुदन करती नथी? अथवा नाशी जती नथी ? एनो उतर ए डे के, मनुष्यनी पेठे वनस्पतिने मुख, पग, तथा हाथ प्रमुख अवयवोनो अनाव डे अने स्थावर कर्म Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरियावदियं अर्थसहित. ना उदयथी नासवाने बनतुं नथी, तो पण ते ने अव्यक्त वेदना होयज २. जेम को एक आंधलो, बहेरो, बोबमो, तुंगे, पांगलो अने विषम वा युना विकारें करी थंनाणो थको सर्व अंगोपांगना व्यापार रहित एवो पुरुष होय, तेने को तामनप्रमुख करे, तो तेथी ते सहन थाय नही पण मुखादिकना अनावें रोइ तथा नाशी शके नही तथापि तेने वेदना तो था यज . माटे कोश् महोटा अवश्य प्रयोजन विना वनस्पतिनी विराधना करवी नही. (उसा के०) अवश्याय एटले गर, एथी आकाशथकी जे सूक्ष्म अप्काय पडे, तेनुं ग्रहण करवं. ए सूक्ष्म अप्कायनी विराधना आ करी पापहेतु बे; एम जणावे . उक्तं च श्री आगमे " एगंमि उदगबिंडुमि, जे जीवा जिणवरेहिं पमत्ता॥ ते जसरिसिव मित्ता, जंबूदीवे न मायंति ॥१॥” तथा (उत्तिंग के०) गर्दनाकार जीवो, नूमिने विषे वृत्ताकार घर करीने रहे, अर्थात् नूमिने विषे गोल विवरना करनार जेनुं जुश्या एवं नाम होय , ते जाणवा. अथवा उत्तिंग शब्दें करी कीमीयोनां नागरां पण जाणवां. (पणग के०) पनक एटले पांचवर्णां नील फूल जाणवां. (द गमहि के०) दकमृत्तिका एटले जे सचित्त नूमिकायें सचित्त पाणीने योगें करी कादव थाय, अर्थात् पाणी अने माटी, ए बे नेला मलेला कादव कीचम जाणवा अथवा दग एटले पाणी अने मट्टि एटले माटी एम बन्ने पदना अर्थ जूदा जूदा पण जाणवा. (मकमा के०) मर्कट एटले कोलीयावमाना (संताणा के) संतान एटले जाल ए कोलीयावमानी जालने मर्कटसंतान कहियें. ए सर्व पांच अथवा ब जातिना जीवोने ( संकमणे के०) संक्रमणं एटले पगे करी पीड्याथकी अथवा चाप्याथकी, पगादिकें करी मसलवाथकी, मथन करवाथकी, तामन, तर्जन करवा थकी जे कांश विराधना थक्ष होय, ए विशेषपणे बीजादि आक्रमण रूप चार पदनी - त्वर एटले विशेषहेतु नामें चोथी संपदा जाणवी. एमां लघुअदर बत्रीश अने गुरु अदर उ बे, सर्व मली मत्रीश अदरो जाणवा ॥४॥ हवे घणुं शुं कहेवं परंतु एकजपदें करी सर्व जीवोनी विराधना कहियें बैयें. जे मे जीवा विरादिया॥५॥ जर्थः-(जेमेजीवाविरहिया के०) ये मया जीवा विराधिताः एटले For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमणसूत्र. जे कोइ जीवो में विराध्या होय, मुःखमांहे पाड्या होय, एमां जीव विराध्या एम सामान्य कयुं पण एकेजिय, बेंजिय, इत्या दिक विस्तारें न कडं माटें ए सकलजीवना परितापरूप एक पदनी पांचमी संग्रहसंपदा जाणवी. एमां सर्व लघु अदर आठ डे ॥५॥ हवे ते कया जीव में विराध्या एटले फुःखीया कीधा ? ते कहे . ॥ एगिदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चरिंदिया, पंचिंदिया ॥६॥ अर्थः-(एगिंदिया के०) एकेंजियाः एटले जेने शरीररूप एकज इजिय होय ते पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु अने वनस्पतिरूप पांच प्रकारना स्थावर जीवने एकेंघिय जाति कहिये, ते वली पांचे स्थावरना पण एकेकाना अनेक नेद , ते जीवखरूप कुलकथकी जाणवा. हवे त्रसजीव कहे . ( बेदिया के ) हींजियाः एटले जेने शरीर अने मुख ए बे इंडियोज होय, एवा कृमि, शंख, शीप जलो, गंमोला, अलसीयां प्रमुख जेने पग न होय तेने बेंघिय जीव कहिये. ( तेदिया के ) वीडियाः एटले जेने शरीर, मुख तथा नासिका, ए त्रणज इंडियो होय, एवा गद हिया, कुंथुआ, जू, लीख, मांकम, कीमी, मकोमा प्रमुख जेने आधिका पग होय अथवा जेम मुखाग्रे शिंग होय ते सर्व प्रिय जीव जाणवा. (चरिं दिया के ) चतुरिंजियाः एटले जेम शरीर, मुख, नासिका अने आंख, ए चार इंडिय होय एवा माखी, कुती, मबर, मांस, विंडी, कोलीयावमा, चांचम, चमरी, टीम प्रमुख जे जे उमनारा जीव होय, जेने ब अथवा आठ पग होय तथा मस्तकें शिंग होय, ते सर्व चतुरिंजिय जीव जाणवा. (पंचिंदिया के ) पंचेंज्यिाः एटले जेम शरीर, मुख,नासि का, आंख अने कान. ए पांचे इंडिय होय एवा जलचर ते मत्स्य कछपा दिक तथा स्थलचर ते सिंहव्याघ्रादिक अने खेचर ते हंस मयूरादिक, पदीयो ए तिर्यंच जाणवा. तथा मनुष्य, देव अने नार की, ए सर्व पंचेंछिय जीव कहियें. ए पांच बोल मध्ये सर्व संसारी जीव आवी गया, एमां एकेंजिय, बेंजिय, एम जीवनां नाम कह्यां, तेथी ए एकेंजियादिक, जीवनेद देखामवारूप पांच पदनी जीवसंपदा बही जाणवी. एमां सर्व मली एकवीश लघु अदर बे. ॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इरियावदियं अर्थसहित. हवे ए जीवोने केवी केवी रीतें विराध्या ? तेनो प्रकार कहे . अनिदया, वत्तिया, लेसिया, संघाश्या, संघट्टिया, परि याविया, किलामिया, जद्दविया, गणा गणं संकामि या, जीविया ववरोविया, तस्स मिलामि उक्कडं ॥ ७॥ अर्थः-(अनिहया के०) अनिहताः तिहां अनि एटले सामा आवताने पगें करी हता एटले हण्या, अथवा उपामीने परहा पटकाव्या एट ले परहा नाख्या, तेने अनिहता. कहियें तथा (वत्तिया के०) वर्तिताः एटले पूंजीने एका कीधा एक ढगले कीधा, अथवा धूलें करी किंवा कर्द में ढांक्या, तेने वर्त्तिता कहीये. तथा (लेसिया के०) श्लेषिताः एटले नू मियें घश्या तथा नीतादिकें लगाड्या अथवा लगारेक मसख्या तेने लेसिया कहिये. (संघाश्या के०) संघातिताः एटले माहोमांहे शरीरने मेलववे करी पिंकीचूत कीधा, एका मेलव्या तेने संघातिता कहियें, तथा (संघट्टिया के०) संघहिताः एटले थोमो स्पर्श करवे करी हव्या, (परियाविया के०) परितापिताः एटले समस्त प्रकारे ताप्या, पीड्या, परि. ताप उपजाव्यो, (किलामिया के०) क्वामिताः एटले गाढी किलामणाग्लानि उपजावीने निस्तेज कीधा, निटोल कीधा, मास्या नहिं पण मृत प्राय कीधा, (उदविया के०) अवजाविताः एटले उत्रासित त्रास पमाड्या अर्थात् शेष जीव रह्यो पण हाली चाली न शके, एवा कीधा, तथा (गणा गणं संकामीया के०) स्थानात् स्थानं संक्रामिताः एटले (गणा के० ) एक स्थानकथकी उपामीने (गणं के०) बीजे स्थानकें (संकामि या के० ) संक्रमाव्या (जीवियाउँववरोविया के०) जीविताष्ठ्यवरोपिताः मा रिताः एटले (जीविया) जीवितव्य थकी (ववरोविया के०) चूकाव्या जूदा कीधा, अथवा मास्या. ए अनिहया इत्यादिकें करी जे एकेंजियादिक जीवोनी विराधना थर होय (तस्स के०) ते संबंधी जे अतिचार लाग्या, तेने (कुक्कम के०) पुष्कृत एटले पाप कहिये, ते पुष्कृत (मि के) मे एटले महारं मन, वचन, कायायें करी (मिछा के) मिथ्या एटले निष्फल था. हवे वली एवां पाप न करूं. इति नावः ॥ एमां अनिहया ३ त्यादिक विराधनानां नाम दीधां, माटे ए जीवादिक नेदने परितापना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ प्रतिक्रमण सूत्र. विराधना रूप अगीश्रार पदनी विराधना नामें सातमी संपदा थश्. एमां लघु अदर एकावन, गुरु अदर बबे, सर्वादर सत्तावन , हवे मिला मिछक्कम ए पदनो अदरार्थ समासें करी कहे जे. जेम केः- “मिऊ मद्दव उत्ते, बच्चिय दोसाण बायणे होश॥ मित्तिय मेराशहिजे, उत्ति पुगंबगमि अप्पा णं ॥१॥ कत्तिय कम्मे पावं, मत्तिय मवेमि तं जवसमेणं ॥ एसो मिछा उक्कम, पयकरबो समासेणं ॥२॥” अर्थः-(मिऊमदवबत्ते के०) मिकार जे जे ते मृटु सुकुमाल अहंकार रहित पणाने अर्थे ।, (बच्चियदोसाणायणे होश के०) डकार जे जे ते, दोषना गंवाने अर्थे . ( मित्तियमेराश्ही के०) मिकार जे , ते मर्यादामा रहेवाने अर्थे . (उत्तिगंगमिअप्पाणं के०) पुकार जे बे, ते पापकारि आत्माने पुगंगवाने माटे ॥१॥ (कत्तियकममे पावं के०)ककार जे बे, ते में जे पाप कीधुं तेने (मत्तियमवेमितंजवसमेणं के०) मकारें करी दडं . वालु . उपशमार्बु , (एसोमिछाकुक्कम के) ए मिला मिक्कनो (पयस्करबोसमासेणं के) पदादरार्थ, समासे करीने कह्यो. __ ए शरियावहिने सम्यक् प्रकारे मन, वचन अने कायायें करी त्रिकरणशुकै पमिकमतां मिछामि कुक्कमना देनारने कणेकमां मृगावतीनी पेरें सर्व कर्मोनो दय थाय. तिहां सर्व मली पांचशे ने त्रेशठ जातिना जीवो बे, तेनी साथें मिलामिछक्कम दश्ये, तेवारें अढार लाख, चोवीश हजार, एकशो ने वीश, एटला मिठामिछक्कम देवाय, ते आवी रीतेंः-तिहां प्रथम पांचशोने त्रेशन स्थानकें जीव उपजे , ते स्थानकोनुं विवरण करे बेः- पृथ्वीकाय, अपूकाय, तेउकाय तथा वाउकाय. ए चार स्थावरने सूक्ष्म तथा बादर करतां आप नेद थाय. अने पांचमा वनस्पतिकायना त्रण नेद बेः-एक सूक्ष्म निगोदरूप तथा बे प्रकारनी बादर, एक प्रत्येक ने बीजी साधारण, ए पांच स्थावरना मलीने अग्यार नेद थया, तथा बेइजिय, ते इजिय ने चरिंजिय, एत्रणे विकलेंजिय कहेवाय जे. ए संमूर्बिमज होय . ए त्रण पहेला अग्यारनी साथें मेलवीयें एटले चौद नेद थाय; ते चन्द पर्याप्ता तथा चउद अपर्याप्ता मली अहावीश नेद थाय. हवे पंचेंजिय ति यंचना दश नेद कहे जेः-तेमां सर्व प्रकारना मत्स्यादिक जलचरनो एक नेद, स्थलचरना त्रण नेद, तेमां एक घोमा प्र व चतुष्पाद, आशीविष प्रमुख उर परिसर्प, अने गोहप्रमुख जुजपरिसर्प ए स्थलचरना त्रण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इरियावहियं अर्थसहित. ३॥ नेद अने चार प्रकारना खेचरनो एक नेद, ए सर्व मली पांच गर्नज अने पांच संमूर्बिम मली दश नेद थाय. ए दशने पर्याप्ता तथा अपर्याप्ता गणी त्यारे वीश नेद थाय- ए वीशमां पहेला अहावीश मेलवीयें, त्यारें अमतालीश थाय. ए तिर्यंचना नेद जाणवा. हवे नारकीना नेद कहे . रत्नप्रजा, शर्कराप्रना, वावुकप्रना, पंकप्रना, धूमप्रना, तमप्रजा तथा तम तमप्रजा, ए सात नरकना नारकी पर्याप्ता तथा अपर्याप्ता मली चौद नेद थाय; तेमां पाबला अमतातीश मेलवियें, त्यारें बाशठ थाय. हवे मनुष्यना नेद आ प्रमाणे:-पांच जरत, पांच ऐरवत, तथा पांच महाविदेह, ए कर्मचूमिना पंदर नेद; पांच हेमवंत, पांच हिरण्यवंत, पांच हरिवर्ष, पांच रम्यक, पांच देवकुरु तथा पांच उत्तरकुरु, ए अकर्मन्नूमिना त्रीश नेद अने उपन्न अंतर छीपो कहेवाय . ए उपन्ननी साथे पेला कर्म नूमिना पंदर तथा अकर्मनूमिना त्रीश मेल वियें, त्यारे एकशो एक नेद मनुष्य जातिना थाय. एमां गर्ज़ज मनुष्यना पर्याप्ता तथा अपर्याप्ता मली बशें ने बे नेद थाय. अने तेनी साथें एकशो ने एक अपर्याप्ता संमूर्बिम मनुष्यना नेद मेलवीयें, त्यारें त्रणशे ने त्रन नेद थाय. अने बाश: प्रथम तिर्यंचना कह्या, ते सर्व एका कस्याथी त्रणरों ने पांशठ नेद थाय. __ हवे देवताना एकशो ने अठाणुं नेद कहियें जैएं:-प्रथम परमाधामी ना पंदर, दश जुवनपति, आठ व्यंतर, आठ वाणव्यंतर, दश ज्योतिषी, तेमां पांच चर ने पांच स्थिर जाणवा. त्रण किदिबषिया, दश तिर्यक्रूजूंनक, पांच नरत तथा पांच ऐरवत, ए दश देवना दश वैताढ्यने विषे “अन्ने पाणे सयणे, वजे लेणयपुप्फफलपुवा ॥ बहुफल अविवत्ति जुआ, जंजगा दसविहा हुंतीति जनकाः॥१॥” नव लोकांतिक, बार देवलोकना, नव ग्रैवेयकना, पांच अनुत्तर वैमानिकना, ए सर्व मलीने नवाणुं थया. ते पर्याप्ता तथा अपर्याप्ता, ए बे नेदें करतां एकशो ने अहाणुं नेद थाय. तेने पाबला त्रणशो ने पांशठमां नेलीये त्यारें पांचशो ने त्रेशठ सर्व जी वोनां उत्पत्तिस्थानक थाय. तेने 'अनिहया' इत्यादिक दश पदवडे दश गुणा करियें, त्यारें पांच हजार शें ने त्रीश थाय; ते वली राग ने वेषथी बमणा करिये, त्यारें अग्यार हजार बशें ने शाठ थाय; ते मन, वचन ने कायायें करी त्रण गुणा करिये, त्यारे तेत्रीश हजार, सातशे ने एंशी था Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. य. ते करवा, कराववा तथा अनुमोदनश्री त्रण गुणा करिये, त्यारें एक लाख, एक हजार, त्रणशे ने चालीश थाय. ते अतीत, अनागत तथा व र्तमानकालें करी त्रण गुणा करिये, त्यारें त्रण लाख चार हजार ने वीश थाय. ते अरिहंतनी साखें, सिद्धनी साखें, साधुनी साखें, देवनी साखें, गुरुनी साखें, तथा आत्मानी साखें, ए बनी साखें गुणा करिये, त्यारें अढार लाख, चोवीश हजार, एक शो ने वीश, मिठामिछक्कम थाय. एवी रीतें जीवने खमत खामणां कीजें. ए रियावही पमिकमतां शुज ध्याने करी अनेक घोर पाप विलय थाय ॥५॥ हवे ए आलोया पमिकम्या जे अतिचार, तेनुं उत्तरीकरण एटले वली विशेष शुद्धि करवाने अर्थ काउस्सग्ग करवाने वां तो थको तस्सउत्तरीनो पाठ कहे, ते आवी रीतेंः ॥ अथ तस्स उत्तरी॥ तस्स उत्तरीकरणेणं, पायचित्तकरणेणं, विसोहीकरणेणं, विसल्लीकरणेणं, पावाणं क म्माणं निग्धायणहाए, गमि कानस्सग्गा अर्थः-हवे एवी रीतें आलोवतां, पमिकमतां पण जे कां पापसहि त आत्मा रह्यो होय, ( तस्स के०) तेनीज वली विशेष शुछिने अर्थे जे का आगल करवं, तेने ( उत्तरीकरणेणं के०) उत्तरीकरण एटले विशेष करी वली उपर शुद्ध करवं तेने उत्तरीकरण कहिये, ते आगल तो हवे काउस्सग्ग करवू , माटे कायोत्सर्ग करवे करीने विशुकि करुं बुं, एटले जे अतिचारनु आलोयण प्रमुख पूर्वे कीg , तेनी वली वशेषशुछिने अर्थे कायोत्सर्ग करुं बुं, वली ते कायोत्सर्ग तो ( पायचित्तकरणेणं के० ) शुद्ध प्रायश्चित्त करवे करीने होय, एटले गुरुपासें पाप आलोवीयें, पनी गुरुयें दीधुं एवं जे आलोयणानुं तप, तेने प्रायश्चित्त कहिये. प्रायः घणुं चित्त ए टले मन अथवा जीव तेने शोधे , तेने प्रायश्चित्त कहियें अथवा जे पापने बेदे, तेने प्रायश्चित्त कहिये. ते कानस्सग्गने करवे करी पाप बेदाय, आत्मा पाप रहित थाय. वली ते प्रायश्चित्त पण ( विसोहीकरणेणं के० ) विशे Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्नबनससिएणं अर्थसहित. शोधq तेने विशोधीकरण कहियें एटले आत्मानो पापरूप अंतर मल जे अतिचार, तेना टालवाथी एटले निर्मलता करवे करीने विशोधी होय वली ते विशोधीकरण पण विशव्य होय, तो थाय, त्यां कहे . (विससी करणेणं के०) गयां ने मायादि त्रण शल्य जेनाथी तेने विशल्य कहियें. एटले एक मायाशस्य, बीजु नियाणशल्य,अनेत्रीजुं मिथ्यात्वशल्य, ए अंत रंग त्रण शल्यने टालवा थकी थाय. ए उत्तरीकरणादिक चार हेतुयें करी एटले ए चार निमित्तें करीने शुं करवु ? तो के (पावाणं कम्माणं के०) संसार हेतु जे ज्ञानावरणीयादिक पाप कर्मों , तेउने (निग्घायणहाए के० ) निर्घातनार्थाय एटले उछेदन करवाने अर्थे (काजस्सग्गं के०) कायव्यापार त्यागरूप कायोत्सर्ग प्रत्ये (गमि के०) तिष्टुं बुं, कायाने एक गमें करुं बु, केम के जे स्थानकें कायानो व्यापार करवो कह्यो होय, तो ते स्थानकें जीव गुं नहिं करे ? अर्थात् सर्व कांश करे. ए माटे कायाना व्यापारने गं . एमां तस्स उत्तरीकरणेणं इत्यादिक पमिकमवाना शब्दो कह्या. माटे ए ड पदनी आठमी पमिकमण नामें संपदा जाणवी. एमां लघु अदर उंगणचालीश गुरु अदर दश; सर्वादर गणपञ्चाश , ए बे सूत्रोना गद्यपाठ के गाथा बंध नथी माटे ए बेहु सूत्रोमां संपदा आउ, पद बत्रीश, गुरु अदर चोवी. श, लघु अदर एकशो ने पंचोतेर, सर्व मली एकशो ने नवाणुं अदरो बेः हवे ए आगल एक गमें काजस्सग्ग करूं ए पदें करी एवी प्रतिज्ञा करी के, कायानो व्यापार न करूं, तो हवे बीजो शरीरनो कोइ पण व्या, पार कस्याथी प्रतिज्ञानो नंग थाय, तेमाटे काउस्सग्गमां नीचें कहेला आ गार मोकलां राख्यां दे, ए आगारें करी काउस्सग्गनो जंग न थाय ते कहे जे. ॥ अथ अन्नब उससिएणं ॥ अन्न नससिएणं, नीससिएणं, खासिएणं, गएणं, जंना इएणं, उड्डएणं, वायनिसग्गेणं, नमलिए, पित्तमुनाए ॥२॥ अर्थः-(अन्नब के० ) अन्यत्र ते बीजे ठगमें एटले हवे जे उडासादिक आगारो कहेशे, ते आगार वर्जीने वीजे स्थानकें कायानो व्यापार करवानो नियम करुं बुं. हवे ते आगारोनां नाम कहे , (उससिएणं के०) उवासितात् एटले मुखें तथा नासिकायें करी उंचो श्वास लश्य. तेने उ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ प्रतिक्रमण सूत्र. वास कहियें. ते टालीने अन्यत्र बीजो कायव्यापार करवानो नियम बे र्थात् उंचो श्वास लेतां महारो काउस्सग्ग जंग न थाय. एम आगल पण सर्व पढ़ें जाणी लेवु. ( नीस सिएणं के० ) निःश्वासितात् एटले जे मुखें तथा नासिकायें करी नीचो श्वास मूकीयेंः तेने निःश्वास कहियें, ते नीचो श्वास मुकतां महारो काजस्सग्ग न जांगे, ए वे आगार, अशक्यपरिहार जी मोकला कीधा, ( खासिए के० ) का सितात् एटले खांसी उधरस वे थके (dly के० ) विकितात एटले ठींक आवे थके (जंजाइए ho) जूं नितात् एटले बगासुं यावे थके एटले जेवारें खांसी, टींक ने बगासुं श्रावे, तेवारें जीवरक्षा जणी मुखें हाथ देतां महारो काउस्सग्ग न जांगे. ( उड्डुए कें० ) उद्गारितात् एटले उमकार वे थके ( वायन सग्गेणं के०) वात निसर्गात् एटले वायसंचय ते अधोद्वारें जे वायु निकले तेने वात निसर्ग कहियें, ए जेवारें उद्गार तथा वातप्रवर्त्तन करे तेवारें जीव रक्षा जणी मुखद्वारें हाथ देतां मुहपत्ति प्रमुख देवानी जयणा करतां काजस्सग्ग न जांजे, (जमलिए के० ) देहजमेः एटले चमरी, चक्री, फेर अकस्मात् यावे, तेने जमलि कहियें. ( पित्तमुखाए के० ) पित्तमूर्छायाः ए टले पित्त प्रकोपें करी मूर्छा यावे, तेने पित्तमूर्छा कहियें. ए चमरी अने मूर्छा आवे थके जो नीचें न बेसे तो उनो थको पडे, तेथी आत्मविराधना तथा संयम विराधना थाय, तेमाटे त्रमरी, मूर्छा व्याथी तिहांबेसवुं पडे तेथी महारो काउस्सग्ग जंग न थाय. अहीं सुधी एकेका गारनां नाम दधां, माटे ए नव पदनी प्रथम एकवचनांत आगारसंपदा थइ. एमां लघु अक्षर आमत्रीश, अने गुरु अक्षर व बे, सर्व मली चुम्मालीश अक्षर बे. सुदुमेहिं अंगसंचालेहिं, सुडुमेदिं खेलसं चालेहिं सुहुमेहिं दिठिसंचालेहिं ॥ २ ॥ अर्थः-( सुडुमेहिंत्र्ंगसंचालेहिं के ) सूदोन्योऽङ्गसंचारेज्यः एटले सूक्ष्म जे अंगनो संचार ते हालवुं करे, शीतादिक वेदनायें करी रोमो त्कंप उपजे तेथी शरीरनो संचार थाय, ( सुदुमेहिंखेलसंचालेहिं के० ) सूक्ष्मेन्यः श्लेष्मसंचारेज्यः एटले शरीरमांहे जे सूक्ष्म श्लेष्मनो संचार याय, मुखना थूकनुं चालवुं तथा कफनुं गलवं थाय, ( सुहुमेहिं दिहिसंचा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ए अन्नबनससिएणं अर्थसहित. लेहिं के० ) सूदमेन्यो दृष्टिसंचारेन्यः एटले सूक्ष्म जे दृष्टिनो संचार मिषो मिषादिके चकुने हलाववाथकी थाय. अहीं सुहुमेहिं प्रमुख पदमांहे वहु आगारनां नाम दीधां माटे ए त्रण पदनी बहुवचनांत आगार नामें संपदा जाणवी. एमां लघु उगणत्रीश अने गुरु एक, मली त्रीश अदरो . एवमाइएहिं आगारेदिं अन्नग्गो, अ विरादिर्ज, हुङ मे काउस्सग्गो ॥ ३ ॥ अर्थः-( एवमाश्एहिंथागारेहिं के० ) एवमादिकैः आगारैः एटले एव मादिक जे पूर्वोक्त बार आगार कह्यां, ते आदें देश्ने अंहिं आदि शब्द थकी बीजां पण चार (आगारेहिं के०) यागार लेवां, तेनां नाम कहे . एक तो वीजली अथवा दीपकादिकनी उजेहि एटले अग्निना अजवा लानो प्रकाश आपणा शरीर उपर पडे, तो उढण वस्त्रादिक खेबु पडे अथवा बीजे स्थानकें जq पडे, तेथी महारो काउस्सग्ग न जांजे. बीजो मार्जार तथा उंदरादिक प्रमुख, आगल जतां श्रावतां होय. दोमता होय, तथा मुख आगल पंचेंजियजीवनु बेदन, नेदन थतुं देखे. तो बीजे स्थान के जवू पडे, तेथी काउस्सग्ग न नांगे. त्रीजो अकस्मात् चोरनी धाम आवी पडे,अथवा राजादिकना नयथी बीजे स्थानकें जर्बु पडे आघा पाग थर्बु पडे तेथी काउस्सग्ग न जांगे, तथा चोथो अग्नि लागे अथवा घरनी नीत खमहमती पमती जाणीयें तथा पोताने अने पर जे साधु आदिक तेने सादिक दंश मारे, अथवा सिंहादिकना उपव थता जाणे, इत्यादिक अनेरा पण जिहां विलंब करतां घणीज धर्मनी हानि थती देखीयें तो तिहां अणपूगो काउस्सग्ग पारतां थकां पण काउस्सग्ग न जागे, ए चार आगार अपवादमार्गे जाणवा, पण उत्सर्गे न जाणवा. एनी साथें पूर्वोक्त बार आगार मेलवीये तेवारें शोल आगार थाय, ए सर्व शोल आगारोयें करीने काउस्सग्ग पारतां थोमीशी विराधना थतां पण ए व्यापार करतां महारो काउस्सग्ग (अजग्गो के० ) अनग्नः एटले सर्वथा अखंमित (अविराहि के० ) अविराधितः एटले थोमोशो देशथी पण न विराध्यो, अर्थात् देशथी पण अविराधित एवो अखंमित संपूर्ण (काउस्सग्गो के०) कायो त्सर्ग ते ( मे के०) महारे (हुऊ के ) होजो, एमां एवमाश् श्त्यादिक For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० प्रतिक्रमण सूत्र. आगार कह्यां, माटें ए ड पदनी त्रीजी आगंतुक आगारसंपदा जाणवी. एमां लघु एकवीश, अने गुरु चार, मली पञ्चीश अदरो डे ॥३॥ हवे ए काउस्सग्गनो वखत आंके , एटले एवो कायो ___त्सर्ग केटली वार सुधी होय? ते कहे जेःजाव अरिहंताणं, नगवंताणं, नमुकारेणं, न पारेमि ॥४॥ अर्थः-(जावअरिहंताएंजगवंताणंनमुक्कारेणं के०) यावदर्हतां जगवतां नमस्कारेण एटले (जाव के०) ज्यां लगें (अरिहंताणं नगवंताणं के०) श्री अरिहंत जगवंत पूज्य तेने (नमुकारेणं के०) नमस्कार सहित एटले नमो अरिहंताणं एवो उच्चार करी (न पारेमि के) न पारयामि, नहिं पारूं एट ले कायोत्सर्गना पार प्रत्ये न पामुं, समाप्त न करूं, त्यां सुधी जाणवू. एमांजाव अरिहंताणं इत्यादिक पदमां काउस्सग्गनुमान कडं. तेथी ए चार पदनी कायोत्सर्गने अवधिमर्यादारूप कायोत्सर्गावधि नामें चोथी संपदा जाणवी. एमां लघु अदर वीश, अने गुरु अदर एक, सर्व मली एकवीश अदरो ॥४॥ तावकायं, ठाणेणं, मोणेणं, काणेणं, अप्पाणं वोसिरामि ॥ ५॥ अर्थः-( तावकायं के० ) तावत्कायं एटले ( ताव के ) त्यां लगें (का यं के०) महारी कायाने शरीरने (गणेणं के०) स्थानेन एटले एक स्थान के स्थिरपणे उठे राखीने (मोणेणं के०) मौनेन एटले वचनने रुधवे करीने ( जाणेणं के ) ध्यानेन एटले ध्यान ते धर्मने विषे मनन स्थिरपणुं अर्थात् नवकारादिकने विषे एकाग्रध्यान तेणें करीने (अप्पा णंबोसिरामि के) आत्मानं व्युत्सृजामि एटले (अप्पाणं के० ) पोतानी काया ते प्रत्ये ( वोसिरामि के) वोसिरा, बुं, एटले हुँ तनुं बु. अर्थात् कामस्सग्ग रहित पणाथकी अने सावद्य व्यापारपणा थकी कायाने वोसिरावू लु, एमां तावकायं इत्यादिकमां शरीर स्थिर राखवानुं कडं, माटें ए उ पदनी पांचमी स्वरूपसंपदा जाणवी. एमां लघु अदर उंगणीश, अने गुरु अदर एक, सर्व मली वीश अदरो . तथा ए काउस्सग्गने सूत्रं अन्नछ उस सिएणंथी मांमीने अप्पाणंवोसिरामि लगें बधी मली संपदा पांच बे, बबीश पद , लघु अदर एकशो सत्तावीश बे, अने गुरु अदर तेर बे, सर्वादर एकशो चालीश ॥५॥६॥ हवे ए काउस्स Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्नच्चनससिएणं अर्थसहित. ४१ U ग्गमां उगणीश दोष टालवा तेनां नाम, लक्ष्ण सहित कहियें बैयें. (१) घोमानी पेरें एक पगे शरीरनो नार यापी, बीजो पग वांको करी रहे, ( २ ) वायरे हलावेली वेलमीनी पेरें क्षरों क्ष रहुं परहुं कोले, कंप्या करे, (३) यांजाने अथवा जीतने याधारें क्यो थको काउस्सग्गे रहे, ( ४ ) उपरले माले मस्तक अमावी रहे, ( ५ ) जेम नीलमी वस्त्र रहितकाले विजागें हाथज यामो व्यापे, तेम काउस्सग्ग करतो बे हाथ गली राखे, (६) नवपरणीत वधूनी पेरें नीचु माथु करे, (७) बेी घाल्यानी पेरें पग पहोला करे अथवा वे पग मेलावी नेला करे, पण जिनमुद्रामां जेटलुं यांतरं कर्तुं बे, तेटलुं न करे. ( 6 ) नानि थकी चार अंगुल नीचें ने जानुथकी चार अंगुल उपर, चोलपट पड़े खुं कर्तुं बे तेम न करे, परंतु नाजि उपर ने जानु देवल वस्त्र पहेरी काउस्सग्ग करे ( ) मांस मशकादिकना जयथकी चोलपट्टादिकें करी हृदय ढांकीने काउस्सग्ग करे, (१०) गामांनी उंधनी पेरें पगनी वे पानी मेलवाल बे पग विस्तारी काउस्सग्ग करे, अथवा बे पगना बे अंगुठा मेलवी ने पाला पानीना जाग तरफ बेहु पग विस्तारे. ( ११ ) सं यति महासतीनी पेरें बेहु स्कंध उपरें वस्त्र उढे जे जणी काजस्गमां दक्षिणस्कंध उघामो की धो जोइयें, ते न करे, माटें ए दोष (१२) घोमा ना चोकमानी पेरें रजोहरण, यागल आऊं यापी काजस्सग्ग करे, (१३) वायसनी पेरे यांखना कोला की की थरहां परहां फेरवे, (१४) कोवनी पेरें पढेवानां वस्त्रनो एकठो पिंग करी बेहु पगनी वचालें चांपे, (१५) नूतावे शनी परें मस्तक कंपावे, (१६) मूंगानी पेरें हुं हुं करे, ( १७ ) नव कार लोगस्सनी संख्या करवाने जमुह ते पापण अथवा यांगुली हलावे, ते जमुहंगली दोष जाणवो. (१०) मदिरा पीधेलानी पेरें बम बम करतो काजस्सग्ग करे, ( १ ) अपेक्षा विना रहुं परहूं जोतो वान रनी पेठें हो वे हलावतो काउस्सग्ग करे. ए काउस्सग्गना उगणीश दोष मध्ये आठमो, नवमो, तथा अगीयारमो ए ऋण दोष महासती सा ध्वीने न लागे, केम के तेनुं वस्त्रावृत शरीर होय तेमाटे. पण एटलुं वि शेष जे साध्वी प्रतिक्रमणादि क्रिया करे तो मस्तक उघाऊं राखे, अने वधू दोष जेलीयें, तेवारें चार दोषश्राविकाने न लागे, शेष पंदर दोष ६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ प्रतिक्रमण सूत्र. लागे. ए सर्व दोष टालीने कास्सग्ग करवो. तथा श्रीसिकांतमां तो सर्व क्रिया साधु आश्रयी कही बे. तेमाटे नानिथी चार अंगुल नीचें चो लपट्टो पहेरवानु राखे तथा बे कोणीयें चोलपट्टो काली राखे, कंदोरा न बांधे. इत्यादिक सर्व साधु आश्रयी . ए कायोत्सर्गने विषे “चंदेसु निम्म लयरा” लगें, लोगस्सना पच्चीश पद चिंतवियें, अने कामस्सग्ग पूरो थया पठी “नमो अरिहंताणं” कहीने काउस्सग्ग पारीयें ॥ इति ॥ ६ ॥ हवे ए काउस्सग्ग पास्या पठी तो “सिंझासिहं” पर्यंत संपूर्ण लोगस्सनो पाठ प्रगट कहेवो जोश्ये, माटें ते कहे . ॥अथ लोगस्स ॥ लोगस्स नजोअगरे, धम्म तिबयरे जिणे॥ अरिहंते कित्तश्स्सं, चनवीसंपि केवली ॥२॥ अर्थः-अहिं ( अरिहंते के० ) अर्हतः एटले कर्मरूपशचुने हणवा थकी निर्दोषपणुं प्राप्त थयुं ने जेमने एवा अरिहंतने ( कित्तश्स्सं के) कीर्तयिष्ये, एटले नामोच्चारणपूर्वक हुँ स्तुति करीश. हवे ते अरिहंत तो राजादिक अवस्थाने विषे अव्य अरिहंत पण होय , ते मा. नावाईत्त्व प्रतिपादनने माटे ( केवली कें० ) केवलिनः एटले उत्पन्न थयु ने केवल झान जेमने, एवानुं कीर्तन करीश. अर्थात् नावाईतनुं कीर्तन करीश. आ केवल ज्ञानना पदें करीने प्रजुनो ज्ञानातिशय सूचव्यो. हवे ते तीर्थं करोनी संख्या कहे जे. (चवीसंपि के०) चतुर्विंशतिमपि एटले रुपना दिक चोवीश परमेश्वरनुं तो नामोच्चारणपूर्वक कीर्तन करीश अने अ पि शब्दथकी अन्य तीर्थंकरो जे महाविदेहादिक देत्रोने विषे बे, तेनुं पण कीर्तन करीश. ते केहवा ? तो के, ( लोगस्सउडोअगरे के ) लोकस्य उद्योतकरान् एटले पंचास्तिकायात्मकलोकने केवलज्ञानरूप प्रदीपें करीने उद्योतकरणशील , एवानुं कीर्तन करीश. हवे जे अनुपकारी होय तेने कोश् सेवे नही, माटें एमना उपकारी पणाना प्रदर्शनने अर्थे कहे बे. ( धम्मतिबयरे के०) धर्मतीर्थकरान् एटले धर्म ते उक्तस्वरूप अने तीर्थ एटले जेनाथी तराय ते तीर्थ कहियें, एवो धर्म प्रधान जे तीर्थ तेने धर्मतीर्थ कहियें, ते धर्मतीर्थ करवानुं शील ने जेमनुं तेमनु कीर्तन Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगस्स प्रर्यसदित. ४३ करीश. अहीयां तीर्थकरान् एवो पाठ न को ने धर्मतीर्थकरान् एवो पाठ को बे, ते एटला माटें के नद्यादि शाक्यादि संबंधी जे द्रव्यतीर्थ धर्म प्रधान बे, तेनो परिहार करवानुं वे शील जेमनुं तेमने धर्मतीर्थकर कहियें. तेमनुं हुं कीर्त्तन करीश. अर्थात् देव, मनुष्य, सुरयुक्त एव पर्ष दामां सर्व जाषा परिणामि एवी वाणीयें करी धर्मतीर्थने प्रवर्त्ताविनारा एवा प्रजु बे, तेमने हूं स्तवीश. या पढ़ें करीने प्रजुनो प्रजातीशय तथा वचनातिशय सूचव्यो. दवे चोथो अपायापगमातिशय कहे बे. (जिले के०) जिनान एटले रागद्वेषादिकने जीतनारा, तेमनुं कीर्त्तन करीश ॥ १ ॥ ए श्लोकमा लघु वीश ने गुरु ब, सर्व मली बत्रीश अरो बे. हवे कीर्तन करतो तो अगली त्रण गाथायें चोवीशे तीर्थंकरोनां नाम कहे बे. उसनमजियं च वंदे, संजवमनिणंदणं च सुमई च ॥ पतमप्पदं सुपासं, जिणं च चंदप्पदं वंदे ॥ २ ॥ अर्थः- “रुषजमजितं च वंदे, संजवमजिनंदनं च सुमतिं च ॥ पद्मप्र सुपार्श्व, जिनं चद्रप्रनं वंदे" ( उसनं के०) श्रीरुषनदेवप्रत्यें (जियंवंदे ho ) श्री अजितनाथ प्रत्यें हुं वांडु ढुं. ( च के० ) वली ( संजवं के० ) संजवनाथ प्रत्यें, (निणंदणं के० ) अभिनंदननाथ प्रत्यें, ( च के० ) वली (सुम के० ) सुमतिनाथ प्रत्यें, ( च के० ) वली ( पमप्प के ० ) पद्मखामी प्रत्यें, (सुपासं के० ) सुपार्श्वनाथप्रत्यें, ( जिणं के० ) कर्म शत्रुने जीतनार एवा, (च के० ) वली ( चंदप्पहं के० ) श्रीचंद्रप्रनप्रत्यें ( वंदे के० ) हुं बांडुं हुं ॥ २ ॥ ए गायामां लघु अक्षर सामत्रीश, अने गुरु अक्षर बे, सर्व मली उगणचालीश अक्षरो बे. सुविदिं च पुप्फदंतं, सीग्रल सिऊंस वासुपुऊं च ॥ विमलमांतं च जिणं, धम्मं संतिं च वंदामि ॥ ३ ॥ अर्थः- ( सुविहिं के० ) श्री सुविधिनाथप्रत्यें, ( च के० ) वली एमनुं बीजुं नाम (पुप्फदंतं के०) पुष्पदंत बे ते प्रत्यें, (सील के ० ) श्री शीतलनाथ प्रत्यें, ( सिद्धांस के० ) श्री श्रेयांसनाथप्रत्यें, ( वासुपु के०) श्रीवासुपूज्य स्वामी, एत्रण तीर्थंकर प्रत्यें, ( च के० ) वली ( विमलं के० ) श्री विमल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ მმ प्रतिक्रमण सूत्र. नाथ प्रत्ये, (तं के० ) श्रीअनंतनाथप्रत्यें, ( च के० ( वली ( जिणं ho ) कर्मशत्रुप्रत्यें, जीपनार एवा ( धम्मं के० ) श्रीधर्मनाथ ते प्रत्यें, (च ho ) वली (संतिं के० ) श्रीशांतिनाथप्रत्यें, (वंदामि के०) वांडुं हुं ॥३॥ ए गाथामां वत्रीश लघु, अने चार गुरु, मली बत्रीश अरो बे. कुंभुं परं च मत्रि, वंदे मुसुिखयं नमिजिणं च ॥ वंदामि रिनेमिं पासं तद वधमाणं च ॥ ४॥ अर्थ :- ( कुंथं के० ) श्रीकुंथुनाथप्रत्यें, (अरं के० ) श्रीअरनाथ प्रत्यें, ( च के० ) वली (मलिं के० ) श्रीमल्लिनाथ प्रत्यें, ( वंदे के० ) वांडुं बुं. ( मुणी सुवयं के० ) श्री मुनिसुव्रतस्वामी प्रत्यें, ( न मिजिएं के० ) श्रीनमिजिन प्रत्ये, (च के० ) वली ( वंदामि के० ) बांडु तुं. (रिनेमिं के० ) श्री अरिष्टनेमि प्रत्यें, ( पांसं के० ) श्रीपार्श्वनाथ प्रत्यें, ( तह के० ) तथा (वमाके० ) श्रीवर्द्धमानस्वामी प्रत्यें, हुं बांडु तुं. या श्लोकमां जे बेल्लो चार बे, ते पादपूर्णार्थ बे ॥ ४ ॥ या गाथामां लघु एकत्रीश, अने गुरु चार, मली पांत्रीश अरो बे. एम ऋण गाथायें करीने श्रीकृषनादिक चोवीश तीर्थंकरने वंदना करी, हवे पूर्वोक्त " उसन मजियं च " इत्यादि त्रणे गाथार्जुनो समुदायार्थ तो सुगम बे, परंतु पदना अर्थनुं विरंजन कराय बे, ते बे प्रकारें बे, एक सामान्ययकी ने बीजुं विशेष की. तेमां सामान्ययकी तो जे अर्थ सर्वे तीर्थंकरोमां पामीयें. जेम के ( उसनं के० ) रूपनं एटले ( पति के० ) गछति अर्थात् जे परमपदप्रत्यें (गच्छति के०) जाय बे, तेने कृषन कहियें तथा 'उहत्वादौ' एणें करी उत्व करे बे, ते ( उसहः के० ) वृषः आ रीतें पण अर्थ करियें तो वर्ष एटले सींचे बे, देशनारूपजलें करीने दुःखाग्नियें करी ज्वलित एवा जगतनें ते रुपन, ए अर्थ सर्व तीर्थंकरोमां व्याप्त बे. अने जे विशेपार्थ वे ते एकज तीर्थंकरना नामनुं निमित्त बे, ते विशेषार्थ कड़े बे, १ पहेला श्रीकृषन देवने हुं बांडुं हुं, ते जगवानना बेदु ऊरुने विषे वृषजनुं लांबन हतुं माटे वृषन नाम दीधुं. तथा सर्व तीर्थंकरोनी माता प्रथम स्वप्नमां हस्ती देखे, अने एमनी जननीयें प्रथम स्वप्नमां वृषन दीवो, माटें वृषन कहियें तथा धर्मनी यादिना करनार माटें बीजं आदिनाथ नाम कहि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगस्स अर्थसहित. ४५ यें. एवी रीतें सर्व तीर्थंकरोना प्रथम सामान्यार्थ ने वीजा विशेषार्थ नामो जावा. एमनी विनीता नगरी, नाजिराजा पिता, श्रीमरुदेवी माता, पां चशे धनुष्यप्रमाण शरीर, चोराशी लक्षपूर्वायु, सुवर्णवर्ण देह, वृषन लांबन. २ बीजा श्री जितनाथ ने हुं बांड बुं, अजित एटले परिसहा दिकें करी निर्जित तथा जगवाननां माता, पिता प्रथम कोइ वारें द्यूतरमण करतां हतां, तेवारें राणी बाजी हारी जती हती, धने राजानी जीत यती हती, अने जगवान्, गर्ने याव्या पढी जगवाननी माता जीतवा लागी ने राजा हारवा लाग्यो. एवो गर्जनो महिमा जाणी ने य जितनाथ नाम दीधुं, एमनी अयोध्या नगरी, जितशत्रु राजा पिता, विजया राणी माता, सामा चारशें धनुष्यप्रमाण शरीर, बहतेर लक्ष पूर्वायु, सुवर्णवर्ण देह, हस्ती लांबन. ३ त्रीजा श्री संजवनाथने हुं वांडु तुं, एटले प्रकर्षे करीने चोत्री प्रतिश नागुणो जेने विषे ते माटे संभव कहियें, अथवा जे, ए प्रजुनी स्तुति करेबे, तेने ( सं के० ) सुख ( जव के० ) थाय बे, तेमाटे संभव कहियें, तथा जगवान् गर्जगत ये थके अधिक सस्य एटले धान्यनो संभव थयो माटे संभव कहियें, एटले देशमां दौर्जिक्ष्य हतुं, ते जगवान् गर्ने थाव्याथी चिंतव्यो मेह वृगे, धान्यनां वहाणो आव्यां, चिंतव्यो पृथिवीमां धान्यनो संजव थयो, तेथी संजव नाम दीधुं, एमनी श्रावस्ती नगरी, जितारिराजा पिता, सेना राणी माता, चारशें धनुष्य प्रमाण शरीर, शाठ लाख पूर्वायु, सुवर्णवर्ण देह, अश्व लांबन. ४ चोथा श्री जिनंदन प्रजुने हुं बांड बुं. एटले (च के०) वली देवेंद्रा दिकोयें जेमनुं जिनंदन थाय बे, तेथीा जिनंदन तथा प्रभु गर्ने याव्या तिहांथी यारंजी ने प्रतिक्षण शक्राजिनंदन वे, एटले गर्ने थाव्या पठी इंड महाराज श्रावस्ती स्तवीने जता. अर्थात् अनिंद्या, प्रशंस्या ते माटे जिनंदन नाम, मात पितायें दीधुं, एमनी अयोध्या नगरी, संवरराजा पिता, सिद्धार्था राणी माता, सामात्रशें धनुष्य प्रमाण शरीर, पच्चाश लाख पूर्व आयु, सुवर्णवर्ण देह, वानर लांबन. ५ पांचमा श्री सुमतिनाथने हुं वांडु तुं. (च के०) वली शोजन बे मति जेमनी तथा प्रभु गर्ने श्राव्याथी तेमनी जननीनी सुनिश्चित जली मति बे, तेवी रीतें के, एक वणिकनी वे स्त्रीयो हती, तेमां न्हानी ने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ प्रतिक्रमण सूत्र. पुत्र हतो अने महोटी वंध्या हती, अने ते बोकरानुं प्रतिपालन बन्ने मा ताउँ करती हती,एम करतां ते वणिकें अकस्मात् काल कस्यो,तेवारें महो टी स्त्री धननी लालचें कहेवा लागी जे पुत्र महारो ने, अने जेनो पुत्र, तेनुं धन थाय. एवी चाल डे माटें धन पण महारूं , तेमज न्हानीनो तो दी करो हतोज तेथीतेणें कह्यु के पुत्र महारो अने धन पण महारुं बे. ए रीतें बन्ने शोक्योनी वढवाम थर, ते वढती वढती दरबारमा गइ, त्यां राजाथी पण चूकादो न थयो, तेवारें गर्जना माहात्म्यथकी राणीने चूका दो करवानी नली बुद्धि उत्पन्न थ. तेथी युक्ति करीने राणीयें कडं जे, बन्ने शोक्यो मलीने धन अर्को अर्थ वेंची व्यो, तथा बोकराना पण बे जाग करी अर्को अर्ड वेंची व्यो, ते सांजली न्हानी स्त्री जे सगी माता हती, ते बोली के महारे उव्य जोश्तुं नश्री अने बोकराना कांश बे जाग थाय नहीं महारे पुत्रनो तथा धननो खप नयी, एनेज सोंपो, एनो डे ते महारोज , एवं सांजली राणी बोली के ए पुत्र न्हानी स्त्रीनो बे, केम के पुत्रनुं मृत्यु थाय त्यां सुधी पण महोटी स्त्रीथी ना कहेवाणी नही अने न्हानी स्त्रीनो पुत्र बे तेथी तेणें मारवानी मना करी, माटे एने पुत्र अने धन बेहु स्वाधीन करो अने महोटी स्त्रीने धरथी बाहेर काढो. एवी न्याय करवानी बुद्धि उपनी माटें सुमतिनाम दीधुं, एमनी अयोध्या नग री, मेघरथ राजा पिता, सुमंगला राणी माता, त्रणशे धनुष्य प्रमाण शरीर, चालीश लाख पूर्व- श्रायु, सुवर्णवर्ण देह, क्रौंच लांबन. ६ हा श्रीपद्मप्रनने हुं वांडे ढुं. पद्मप्रन एटले निःकंपताने अंगीका करीने पद्मना समूह सरखी बे, प्रजा एटले कांति जेमनी तेथी पद्मप्रन कहियें, तथा गर्ने आव्या पी एमनी माताने पद्म एटले कमलनी शय्या ये शयन करवानो दोहोलो उपन्यो, ते देवतायें पूर्णकस्यो, तेना महिमाथी पद्मप्रन नाम दीधुं. तथा पद्म सरखं रक्तवणे नगवाननुं शरीर हतु, माटेप द्मप्रन कहियें. एमनी कोशंबी नगरी, धरराजा पिता, सुसीमा राणी माता, अढीशें धनुष्य शरीर, त्रीश लाख पूर्वायु, सुवर्णवर्ण देह, पद्म लांबन. सातमा श्रीसुपार्श्वनाथने हुँ वांषु . सुपार्श्व एटले रूमां ने पार्श्व जेमने तथा नगवान् गर्नगत थये बते तेमनी जननी पण सुपार्धा थ. एटले राणीनां बेहु पासां रोगें करी कोढीयां हतां, ते सुवर्णवणे घणां Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगस्स अर्थसहित. ყJ सुकुमाल थयां, माटें सुपार्श्वनाम दीधुं, एमनी वाराणसी नगरी, सुप्रतिष्ठ राजा पिता, पृथ्वीराणी माता, बशें धनुष्य प्रमाण शरीर, वीश लाख पूर्व आयु, सुवर्णवर्ण देह, स्वस्तिक लांबन आठमा श्रीचंद्रप्रने हुं बांडुं हुं वली चंद्रना सरखी जेनी प्रजा चंद्रसमान वर्ण बे, तथा परमेश्वर गर्जगत थये बते एमनी माताने चंपान करवानो दोहोलो उपन्यो, ते प्रधानें बुद्धियें करी पूर्ण कस्यो, एवो प्रजाव जांण। चंद्रप्रन एवं नाम दीधुं. एमनी चंद्रपुरी नगरी, महसेन राजा पिता, लक्ष्मणा राणी माता, एकशो पच्चास धनुष्यप्रमाण शरीर, दश लाख पूर्व आयु, श्वेतवर्ण देह, चंद्र लांबन. नवमा श्री सुविधिनाथने हुं बांड इं. एटले शोजन वे विधि जेनो श्रर्थान् सर्वस्थलें वे कौशल्य जेमनुं, ते सुविधि कहियें, तथा जगवान् गर्न गत बतेज तेमनां माता, पिता, जला विधियें करी धर्ममां प्रवर्त्यां. एवो गर्जनो प्रभाव जा सुविधिनाथ नाम दीधुं वली मचकुंदना फूलनी कली सरखा उज्ज्वल प्रजुना दांत हता, माटे बीजं पुष्पदंत एवं नाम दीधुं. ऐमनी काळंदी नगरी, सुग्रीवराजा पिता, रामा राणी माता, एकशो धनुष्य प्रमाण शरीर, बे लाख पूर्व आयु, सुवर्णवर्ण देह, मगरमत्स्य लांबन, १० दशमा श्रीशीतलनाथने हुं वांडु ढुं, समस्त जीवोना संतापने हरण करे बे, माटे शीतलनाथ तथा जगवानना पिताने पित्तदाह रोग हतो, ते जग वान् गर्ने व्यापी राजाना शरीर उपर राणीयें हाथ फेरव्यो, तेथी रोग उपशांत थयो, शरीरें शीतलता थइ, ते माटें शीतलनाथ नाम दीधुं. एमनुं जद्दिलपुर नगर, दृढरथ राजा पिता, नंदा राणी माता, नेवुं धनुष्य प्रमाण शरीर, एक लाख पूर्व आयु, सुवर्णवर्ण देह, श्रीवत्सलांबन. ११ अगियारमा श्री श्रेयांस जिनने हुं वांडु ढुं. सर्वजगतने श्रेय एटले हितना करनार माटें तथा सकल जवनने अत्यंत प्रशंसा करवाएं बे. जेमनुं ते माटें श्रेयांस कहियें, ते पृषोदरादिकनी पेठें सिद्ध थाय बे. तथा राजाना घरमां परंपरागत देव अधिष्ठित शय्यानी पूंजा यती हती, ते शय्यायें जे बेसे, अथवा सुवे, तेने उपद्रव उपजे, ते जगवंत गर्ने याव्या पठी माताने ते शय्या उपर सूवानो दहोलो उपन्यो तेवारें विचाखुं जे देव गुरुनी प्रतिमानी पूजा थाय, परंतु शय्यानी पूजा तो क्यांहिं सांजली, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G प्रतिक्रमण सूत्र. नथी, एम चिंतवी शय्यानी रदा करनारें मनाइ कस्या उतां पण प्रनुनी माता, ते शयय्या उपर सूतां, तेवारें गर्जना प्रजावधी अधिष्टित देव शय्या मूकी जतो रह्यो. पनी राजा प्रमुखें ते शय्या वपराशमां लीधि. ए रीतें माताने श्रेय थयुं, माटें श्रेयांस नाम दी, एमनु सिंहपुर नगर, विष्णुराजा पिता, विष्णा राणी माता, एंशी धनुष्य प्रमाण शरीर, चोराशी लाख वर्षायु, सुवर्णवर्ण देह, षमंगी लांउन. ____ १५ बारमा श्रीवासुपूज्य खामीने हुं वांडु बु. वसु जे देवताविशेष ते मने पूजवा योग्य माटें वासुपूज्य कहियें, अथवा नगवंत गर्ने आव्या पठी वसु जे हिरण्य तेणें करी छ महाराजें आवी राजकुलने पूजता हता मात्रै वासुपूज्य, अथवा वसुपूज्य राजाना पुत्र मात्रै वासुपूज्य नाम दीधुं बे, एमनी चंपा नगरी, वसुपूज्य राजा पिता, जया राणी माता,सीत्तेर धनुष्य प्रमाण शरीर, वहोतेर लाख वर्षायु, रक्तवर्ण देह, महिष लांबन. ___ १३ तेरमा श्रीविमलनाथने हुं वां . जेने निर्मलझानादिक डे, तेमाटें विमल कहियें अथवा कर्ममलरहित माटें विमल कहियें, तथा प्रनु गर्ने आव्याथी तेमना नगरमां को स्त्री जर्त्तार, देहरे आवी उतस्यां, तेमांथी स्त्री पाणीपीवाने अन्यस्थानकें गश् एटलामां, एक व्यंतरी देवी त्यां रहती हती तेणें ते पुरुष, सुंदर रूप दी, तेथी तेने कामक्रीमा करवानी अनि लाषा थर, त्यारे तेनी स्त्रीना जेवू पोतानुं रूप विकूर्वी, ते व्यंतरी तेनी पासे आवी बेठी, एटलामा पोतानी खरी स्त्री पण आवी,तेवारें बन्ने स्त्रीने समान देखीने पुरुष कडं जे एमां महारी स्त्री कोण ? तेवारें पहेली कडं के हुँ तहारी स्त्री बु, अने बीजीयें कडं के हुँ तहारी स्त्री बुं, एम वढतां वढतां सर्व राजा पासें श्राव्यां, तेवारें राजा तथा प्रधान पण बे? स्त्रीयोने सरखा रूपवाली देखी निवेडो करी शक्या नहीं, परंतु राणीयें प हेला पुरुषने एक बाजू उनो राख्यो अने बेहु स्त्रीयोने तेनाथी केटलेक दूर उनी राखीने बोली के जे स्त्री पोताना सत्यवचनना प्रजावथी नरिने स्पर्श करे, तेनो ए चरतार जाणवो, ते सांजली व्यंतरीयें देव शक्तिना प्रनावें पोतानो हाथ लांबो करी नर्त्तारने स्पर्श कस्यो, तेवोज राणीयें तेनो हाथ पकमीने कडं, के तुं तो व्यंतरी बो, माटें तहारे ठेकाणे जती रहे. एवा जूदा जूदा चार न्याय करवायी राणी विमलमतीवाली Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पए लोगस्स अर्थसदित. कहेवाणी तथा प्रजु गर्ने आव्याथी मातानुं शरीर पण निर्मल थयु, एवो गर्जनो प्रनाव जाणी विमलनाथ नाम दीधुं, एम, कापिलपुर नगर, कृत वर्माराजा पिता, श्यामा राणी माता, शाउ धनुष्य प्रमाण शरीर, शाम लाख वर्षायु, सुवर्ण देह, सुअर लांबन. १४ चौदमा श्रीअनंतनाथ प्रजुने हुं वांउंचं. कर्मना अनंत अंश जेणे जीत्या वे अथवा जेने ज्ञान, दर्शन पण अनंतुं बे, माटें अनंतनाम सार्थक बे. तथा गाममा आगल ताप आवता हता ते प्रज्जु गर्ने श्राव्या पठी, एमनी मातायें अनंत गांठना दोरा करी बांध्या, तेथी ताप निवृत्त थयो तथा स्वप्नमध्ये जेनो अंत नहिं एवी महोटी रत्ननी माला दीपी, एवो गर्जनो प्रनाव जाणी अनंतनाथ नाम दीधुं, एमनी अयोध्या नगरी, सिंहसेन राजा पिता, सुयशा राणी माता, पञ्चास धनुष्य प्रमाण शरीर, त्रीश लाख वर्षायु, सुवर्णवर्ण देह, सिंचाणा- लांबन. __१५ पंदरमा श्रीधर्मनाथ जिनने हुँ वां , उर्गतियें पमता प्राणीने धरीराखे,माटें धर्मनाथ,तथा प्रजु गर्नमांश्राव्याथी प्रजुनां माता पिता रूमी रीतें दानादि धर्मपरायण थयां एवो गर्जनो महिमा जाणी धर्मनाथ नाम दी, एमर्नु रत्नपुर नगर, नानुराजा पिता, सुव्रता राणी माता, पिस्ताली श धनुष्य प्रमाण शरीर, दश लाख वर्षायु, सुवर्णवर्ण देह, वज्रनुं लांबन. १६ शोलमा श्रीशांतिनाथने हुँ वांषु .स्वयमेव शांतिना करनारा अथवा शांतिना योगयी अथवा शांतिरूप होवथी शांतिनाथ तथा ते देशमां म रकीनो उपजव घणो हतो, ते प्रजु गर्ने आव्या पली राणीयें अमृतनां बांटा नाख्या, तेथी मरकीनी शांति थ. तेना प्रजावथी शांतिनाथ नाम दीधुं. एमनुं गजपुर नगर, विश्वसेन राजा पिता, अचिरा राणी माता, चालीश धनुष्य प्रमाण शरीर, एक लाख वर्षायु, सुवर्णवर्ण देह, मृग लांबन. १७ सत्तरमा श्रीकुंथुनाथने हुं वां .कु कहेतां पृथिवी तेने विषे स्थित माटे कुंथु तथा नगवान् गर्नमां आवे उते, तेमनी मातायें रत्नमय कुंथु उनो राशि पृथ्वीमां दीगे अथवा परमेश्वर जन्म्या पली कुंथुथा प्रमुख न्हाना महोटा जीवोनी जयणा देशमा प्रवर्ती, माटें कुंथुनाथ नाम दीधुं. एमनुं हस्तिनापुर नगर, शूरराजा पिता, श्रीराणी माता, पांत्रीश धनुष्य प्रमाण शरीर, पंचाएं हजार वर्षायु, सुवर्णवर्ण देह, डाग लाउन. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० प्रतिक्रमण सूत्र. १७ अढारमा श्रीअरनाथने ढुं वाड्. अरिहंत जेवा सर्वोत्तम पुरुष जे कुलने विषे उपजे, अने जेनाथी कुलनी वृद्धिथाय, ते पुरुषने वृक्ष पुरुषो अर एवं नाम कहे जे. तथा जगवान् गर्नमांश्रावे थके तेमनी मातायें स्वप्नामां सर्व रत्नमय अर एटले थारो तथा थुन दीगे माटें अरनाथ नामदीधुं, एमगज पुर नगर, सुदर्शनराजा पिता, देवी राणी माता, त्रीश धनुष्य प्रमाण शरीर, चोराशी हजार वर्षायु, सुवर्णवर्ण देह, नंदावर्त्त लांबन. १ए उंगणीशमा श्रीमद्विनाथने हुँ वांछ . परिसहरूप मन तेनो जय करवाथकी मति कहियें तथा नगवान् गर्ने आव्या पली माताने एक शतुमां सर्व ऋतुनां सुरजि फूलनी शय्यायें सुवानो दोहलो उपन्यो, ते देवातायें पूर्ण कस्यो, माटें महिनाथ नाम दीई. एमनी मिथिला नगरी . कुंजराजा पिता, प्रनावती राणी माता, पञ्चीश धनुष्य प्रमाण शरीर, पञ्चावन्न हजार वर्षायु, नीलवर्ण देह, कुंन लांबन. २० वीशमा श्रीमुनिसुव्रत स्वामीने हुँ वांडे . जे जगतनी त्रिकाला वस्थाने जाणे ते मुनि कहिये. वली जेने शोजन व्रत ने तेने सुव्रत कहियें. तथा जगवान् गर्ने आव्या पठी एमनी जननीय मुनि सरखा शोजन श्रावकनां व्रत पाल्यां, एवो महिमा जाणी मुनिसुव्रत नाम दीधुं, एमर्नु राजगृह नगर, सुमित्र राजा पिता, पद्मराणी माता, वीश धनुष्य प्रमाण शरीर, त्रीश हजार वर्षायु, कृष्णवर्ण देह, काचबानुं लांबन. १ एकवीशमा श्रीनमिजिनेश्वरने हुँ वांढुं. परिसह उपसर्गादिकने जे णे नमाव्या ले मात्रै नमि कहिये,तथा प्रजु गर्ने आव्या पली सीमाभिया रा जा नगवंतना पिताना शत्रु हता, तेचढी आव्या, गामने विंटी लीधुं, राजा आकुल व्याकुल थयो, निमित्तियाने पूज्युं, तेवारें निमित्तियायें कडं के राणी सगा बे, तेने गढने कोशीशें चढावी वैरीयोने दर्शन करावो, राजायें तेमज राणीने किसा उपर चढावीने शत्रु ने वांकी नजरें जोवराव्या, तेवारें वैरीयोथी राणीनुं तेज खमायुं नही, तेथी सर्व वैरी मान मूकी नगवंतनी माताने नमस्कार करीने कहेवा लाग्या जे अमोने सौम्यदृष्टियें करी जून, राणीयें सौम्यदृष्टियें जोइ माथे हाथ राख्यो. पठी सर्व राजा राणीने पगे लागी आज्ञा मागी पोत पोताने नगरें गया, ए रीतें सर्वराजा नम्या, एवो गर्जनो प्रनाव जाणी नमिनाथ नाम दीg. एमनी मिथिला नगरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगस्स प्रर्थसहित. ५१ विजयराजा पिता, विप्रा राणी माता, पन्नर धनुष्य प्रमाण शरीर, दश हजार वर्षायु, सुवर्णवर्ण देह, नीलोत्पलनं लांबन. १२ बावीशमा श्रीश्ररिष्टनेमि प्रजुने हुंबाडु बुं. रिष्ट एटले पाप तेना ना शने विषे चक्रधारी सरखा हता माटें अरिष्टनेमि, तथा प्रभु गर्ने श्राव्या पी प्रजुनी मातायें स्वप्नमा रिष्टरलनी रेल दीठी. वली आकाशने विषे रि ट रत्नमय नेमि एटले चक्रधारा उबलती स्वप्नामां दीठी, माटें रि ष्टनेमि नाम दीधुं, बीजुं नाम श्रीनेमिनाथ. एमनुं सौरीपुरी नगर, समुद्र विजय राजा पिता, शिवादेवी राणी माता, दश धनुष्य प्रमाण शरीर, एक हजार वर्षायु, श्यामवर्ण देह, शंखनुं लांबन. २३ त्रेव शमा श्री पार्श्वनाथने हुं बांडु बुं. जे समस्त जावोने स्पृशति एटले जाणे माटें पार्श्वनाथ तथा एमनो वैयावृत्त्यकर जे पार्श्वनामा यह तेना नाथ माटें पार्श्वनाथ अथवा प्रभु गर्ने श्राव्या पी अंधारी रात्रें पोतानी पासें सर्प जतो ( पास के०) दीवो, ते सर्पना जवाना मार्गनी वचमां राजानो हाथ देखी राणी यें उंचो कीधो, तेथी राजा जागी उठ्यो ने बोल्यो के शा माटे हाथ उंचो की धो? राणी यें कयुं के में सर्प जतो दीठो माटे तमारो हाथ उंचो की धो. राजा बोल्यो, तमें जूनुं बोलो बो. पठी सेवकने तेमी दीपक मंगावीने जोयुं, तो सर्प दीठो, तेवारें विस्मय पामी राजायें विचाखुं जे में नदीतुं ने राणी यें दीव्रं, ए निश्चें गर्जनो प्रजाव बे, एम जाणी श्रीपार्श्व ना नाम दधुं . एम वाराणसी नगरी, अश्वसेन राजा पिता, वामा राणी माता, नव हाथनुं शरीर, एकशो वर्षायु, नीलवर्ण देह, सर्पनुं लांबन २४ चोवी शमा श्रीवर्द्धमानस्वामीने हुं बांडुं हुं जन्मथकी मांगीने ज्ञानादिर्के वृद्धि पाम्या तेथी वर्द्धमान तथा प्रमु गर्ने आव्या पबी मातापिता धन धान्यादिकना जंगार तथा देश, नगर, द्विपद, चतुष्पद, इत्यादि सर्व प्रकारनी शद्धियें करी वृद्धि पाम्यां तथा सर्व राजा पण यज्ञामां वर्त्तवा लाग्या. एवो गर्जनो प्रजाव जाणी वर्द्धमान नाम दीधुं तथा जगवंतें जन्मतांज मेरु पर्वत माबा पगने अंगुठे कंपाव्यो, वली देवता साथै आमल क्रीम करतां जगवंत यगल देवता द्वारयो, नाशी ने इंद्र पासें गयो, जगवंत जींत्या. एम जगवंतनुं अनंत बल जाणीने श्रीमहावीर एवं बीजुं नाम इंद्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. महाराजे दीg. एमनुं क्षत्रियकुंम नगर, सिद्धार्थ राजा पिता, त्रिशला राणी माता, सात हाथ- शरीर, बहोंतेर वर्षायु, सुवर्णवर्ण देह, सिंह लांबन. ए रीतें कीर्तन करीने चित्तनी शुद्धिने मात्रै प्रणिधान कहे . एवं मए अनिथुआ, विद्वयरयमला पहीण जरमर .. णा॥ चनवीसंपि जिणवरा, तियरा मे पसीयंतु ॥५॥ अर्थः-( एवं के० ) ए प्रकारे ( मए के० ) महारे जीवें जे ( अनिथु श्रा के०) अनिस्तुता एटले नामपूर्वक स्तव्या ते चोवीशे परमेश्वर कहेवा जे ? तो के विहुय के) विधुत एटले टाल्या (रयमला के०) कर्म रूप रज अने कर्मरूप मल जेणें एटले जे कर्म इरियावहि क्रियायें करी बंधाय अथवा नवां बंधातां जे ढीलां कर्म, तेने रज कहियें अने जे पूर्व बंध चीरकालतुं संचित निकाचित गाढ कर्म अथवा सांपरायिक क्रियायें करी बंधाय, तेने मल कहियें, ए बेहु प्रकारना कर्मने जेणे टाटयां बे. वली केहेवा जे ? तो के (पहीण के०) प्रदीण एटले अतिशयें करीने दय कस्या छे (जरमरणा के0 ) जरा अने मरण जेणे एटले जे समय समय आयुष्य घटे, तेने जरा कहियें अने सर्वथा आयु घटीने प्राणनो वियोग थाय, तेने मरण कहियें. एवा जरा अने मरण, ए बेहु जेणें दय कस्यां ने एवा जे (चवीसंपि के०) चतुर्विंशतिरपि एटले पूर्वोक्त ए चो वीशे जिनवर सांप्रत कालें थया अने अपि शब्दथकी बीजा पण तीर्थकर पूर्ववत् लेवा. ( जिणवरा के०) श्रुतधरा दिक जिनोथकी प्रधान श्रेष्ठ एवा जिनवर (तियरा के0) तीर्थंकरा एटले तीर्थंकरो ते (मे के०) म हारा उपर (पसीयंतु के०) प्रसीदंतु एटले प्रसन्न था, अर्थात् प्रसाद (कृपा) करवाने तत्पर था. यद्यपि श्रीवीतराग डे, तेथी स्तुति करनार उपर प्रसन्न थता नथी, तेमज निंदा करनार उपर अप्रसन्न पण थता नथी तथापि स्तुति करनारने स्तुतिनुं फल मले बे, अने निंदा करनारने निंदानुं फल मले बे. जेम चिंतामणि, मंत्रादिकोयें करी शुजनी वांडा करनारने शुन्न फल मले ने अने अशुजनी वांडा करनारने अशुल्न फल मले बे, यद्यपि जे नयीज प्रसन्न थता ते शी रीतें प्रसन्न थशे? माटे वृथा प्रला करी नक्तिनो अतिशय थतो नथी; तथापि एम कहे ते पण दोष नथी, कारण के क्षीण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगस्स प्रर्थसहित. ५३ शबे ते जेम प्रसन्न यता नथी तेम तेमनी स्तुति पण वृथा यती नथी कारण के तेने सर्व जावनी विशुद्धि बे ॥ ५ ॥ ए गाथामां लघु चालीश, ने गुरु एक, मली एकतालीश अक्षरो बे. कित्तिय वंदिय मढ़िया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिधा ॥ रुग्ण बोदिलानं समादिवरमुत्तमं दिंतु ॥ ६ ॥ " :- ( कित्तिय के०) कीर्त्तित वे, एटले नामवीशेषें करी जेने इंद्रादिक की बे, स्तवे छे. ( वंदिय के० ) जे वंदित वे एटले इंद्रादिक जेने विशुद्ध मन, वचन ने कायायें करी वांदे बे. पंचांग प्रणाम करे बे. ( महिया के० ) जे महित बे एटले इंद्रादिक जेनें प्रधान पुष्पादिकें करी अर्चे बे, पूजे बे, एवा (जे के० ) जे तीर्थंकर ( ए के० ) ए सुतीर्थ ज्ञान - दृष्टिवंत ते प्रत्यक्ष (लोगस्सउत्तमा के० ) लोकने विषे उत्तम प्रधान एवा ( सिद्धा के० ) श्री सिद्ध जगवंत थया एटले निष्ठितार्थ थया. एवा हे उत्तम सिद्ध जगवंत ! तमें मुकने ( रुग्ग के० ) द्रव्य आरोग्यता तथा ara रोग्यता, त्यां द्रव्य आरोग्यता ते रोगरहित ने नाव आरो यता ते सिद्धपणं जाणवुं. ते सिद्धपएं ( वो हिलानं के० ) श्री जिन धर्म न प्रातिनो लान थाय, तेवारें पमाय वे माटें श्री जिनधर्मनी प्राप्तिनो लाज वा ( उत्तमं के० ) उत्कृष्ट अत्यंत उंची एवी ( समाहिवरं के० 50 ) प्रधान समाधि ते ज्ञानादिकरत्नत्रय तेने विषे एकता परम स्थिरता प्रत्यें (दतु ० ) यो, आपो एटले समाधि अनेक प्रकारें तारतम्यतायें अधिक न्यून मायुकृष्ट समाधि द्यो ॥ ६ ॥ या गाथामध्यें लघु त्री, गुरुब, सर्व मली बत्रीश अरो बे. चंदेसु निम्मलयरा, याचेसु हियं पयासयरा ॥ सा गरवर गंजीरा, सिधा सिद्धिं मम दिसंतु ॥ ॥इति ॥८॥ अर्थः- (चंदेसु के० ) चंद्रसमुदायथकी (निम्मलयरा के० ) निर्मल तर एटले अत्यंत निर्मल (आसु के० ) आदित्य एटले सूर्य समुदाय ते की प ( हियं के० ) अधिक ( पयासयरा के० ) प्रकाशना करनार ( सागरवर के० ) प्रधान बेलो स्वयंनूरमण नामा समुद्र तेनी परें (गंजीरा के० ) गुणें करी गंजीर बे. एवा जे ( सिद्धा के० ) अष्टकर्म रहित सिद्ध For Personal and Private Use Only Jain Educationa International . Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ प्रतिक्रमण सूत्र. ते (सिडिं के०) सिकि एटले मुक्ति ते (मम के०) मुझने (दिसंतु के०) यो, श्रापो ॥७॥श्रा गाथामां लघु तेत्रीश, अने गुरु चार, सर्व मली सा. मंत्रीश अदरो बे, अने ए चनविसाबने विषे प्रथमनो एक श्लोक अने पनवाडेनी ब गाथा मली सात गाथा , पद अहावीश बे, तेमां लघु अक्षर बशें उंगणत्रीश, तथा गुरु अदर सत्त्यावीश, मली सर्वादर बशें ने बप्पन्न बे. तथा सवलोएना चार अदर एनी साथें मेलवीयें, तेवारे बशें ने साठ अदरो थाय. इति नामस्तवसूत्रार्थः ॥७॥ ॥ अथ करेमि जंते, अथवा सामायिकनुं पञ्चरकाण ॥ ॥ करेमि नंते सामाश्यं, सावऊं जोगं पच्चरकामि, जाव नियमं पङ्गुवासामि, उविहं, तिविदेणं, मणेणं, वायाए, कारणं, न करेमि. न कारवे मि, तस्स नंते, पडिकमामि, निंदामि, गरिहा मि, अप्पाणं वोसिरामि ॥१॥ इति ॥५॥ अर्थः-(नंते के) हे नदंत, जयांत, नवांत, पूज्य, एटले सुखकारककल्याण कारकपणाथकी नदंत कहियें तथा सात प्रकारना नयनो अंत करवाथकी जयांत कहीयें तथा चातुर्गतिकरूप संसारनो उछेद करवाथकी नवांत कहियें तथा पूजवा योग्य माटें पूज्य कहियें एवी रीतें गुरुनु आमंत्रण करीने सर्व कार्य करवां. हवे कहे जे के, तमारा समीप वर्तमान काल आश्रयी (सामाश्यं के०) सामायिकप्रत्यें एटले (सम के) ज्ञानादिक गुण तेनो ( आय के ) लान ने जेने विष अथवा (सम के ) रागोषरहित एवो जे जीव, तेने सम्यग् ज्ञानादिक गुणनो डे (आय के ) लाल जेने विषे ते रूप जे व्रत, ते सामायिक व्रत कहियें अथवा समता परिणामरूपप्रशमसुख तप सामायिक प्रत्ये (करेमि के०) हुं करूं एटले समता परिणाम आएं! वली अनागत काल आश्रयी तो ( सावऊं के ) सावा एमां अवद्य एटले पाप, तेणें करी स एटले सहित एवा जे ( जोगं के०) योग एटले मन, वचन अने कायाना व्यापार, अर्थात् पापसहित जे मन, वचन कायाना योग, ते प्रत्ये ( पच्चरकामि के० ) हुँ पञ्चकुं बुं, निषेधुं बुं. एटले Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक पारवा, अर्थसहित. ५५ स्यायु टुं. ते क्यां सुधि? तो के ( जाव के ) ज्यां सुधी (नियमं के० ) सामायिक व्रतना नियम प्रत्ये (पज्जुवासामि के०) हुं पर्युपासु एटले सेवु, अर्थात् ज्यां सुधी सामायिकनो काल, जघन्यतो एक मुहूर्त प्रमाण बे, तेने विष हुँ पर्युपासु एटले रहुँ, त्यां सुधि (ऽविहं के) करवा कराववा रूप ए बे प्रकारनो जे सावद्य व्यापार, ते प्रत्यें (तिविहेणं के०) त्रिविधे करी एटले त्रण प्रकारे करी. ते त्रण प्रकारनां नाम कहे जे. एक (मणेणं के०) मनें करी, बीजो (वायाए के०) वचनें करी, त्रीजो ( काएणं के० ) शरीरें करीने, (नकरेमि के० ) नहीं हुं पोतं करूं, ( नकारवेमि के० ) हुं बीजा पासे न करावं, ( तस्स के०) ते अतीतकाल संबंधी जे सावध व्यापार रूप पाप, ते प्रत्ये (नंते के० ) हे जगवंत ! आपनी समीप (पमिक मामि के० ) हुँ प्रतिकमुं बु. एटले ते पापथकी हुँ निवर्तुं हुं मिछामि उक्कम देखें . ( निंदामि के० ) श्रात्मा साखें हुं निंडं बुं, ( गरिहामि के०) गुरुनी साखें हुं गहुँ बुं, एटले विशेषे निउं डं (अप्पाणं के०) पूर्वकालसंबंधी पुष्ट क्रियाकारक एवो जे महारो आत्मा, तेने ते पुष्ट क्रियायकी ( वोसिरामि के० ) वोसिरा, ढुं, एटले विशेषे करीने तजुर्बु, अहींयां साधु जावनियमने स्थानकें जावजीवं बोले . अने विहंने स्था नके तिविहं बोले . अने “सर्व करतंपि अन्नं न समणुजाणामि” एवा बे पाठ अधिक बोले ,अने श्रावकने तो एक मुहूर्त्तनुं सामायिक , तेमां पण पुत्र, स्त्री, वाणोतर प्रमुख जे सावद्यव्यापार करे , ते व्यापारने पोतें अण करतो तो पण तेनुं अनुमोदन जे. ए मन, वचन अने कायायें करी करुं नहीं, करावु नहीं, ए ब बोल आश्रयी श्रावकने (१३०४१२२००) एटला नांगा उपजे,ते ग्रंथांतरथकी जाणवा ॥ इति सामायिकसूत्रार्थः ॥१॥ इति ॥५॥ ॥ अथ सामायिक पारवानुं ॥ सामाश्त्र वयजुत्तो, जाव मणे दो नियमसंजुत्तो॥ बिन्नइ असुई कम्मं, सामाश्त्र जत्तिावारा ॥२॥ सामाश्अंमि न कए, समणोश्व सावर्ड दवइ ज म्हा ॥ एएण कारणेणं, बहुसो सामाश्यं कुजा ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ प्रतिक्रमणसूत्र. सामायिकविधिं लीबूं विधिं पारिज, वाध करता जे कोइ अविधि हुउँ होय, ते सवि हु मन वचन कायायें करी मिबामि उकडं ॥१॥ इति ॥१०॥ अर्थः-(जाव के ) ज्यां सुधी ( मणे के०) मन, एटले जीव ते (नियमसंजुत्तो के० ) सावध व्यापारना नियम एटले पञ्चरकाणने विषे संयुक्त ( होश् के० ) होय, एटले सम्यक् प्रकारें जोडेलो होय. वली (सामाश्अवयजुत्तो के०) सामाश्क व्रतने विषे संयुक्त होय, त्यां सुधी ए जीव, ( असुहंकम्मं के०) अशुल कर्मने (बिन्न के ) छेदे, (जत्ति आवारा के०) जेटली वार (सामाश्य के ) सामायिक करे, तेटली वार अशुन कर्मप्रत्ये छेदे. अथवा ज्यां सुधी सावद्य व्यापारने विषे मनमांहे नियम संयुक्त होय, तेटली वार सामायिक व्रतनो धणी कहेवाय ते जेटली वार सामायिक व्रत लीये, तेटली वार अशुल कर्मने बेदे ॥ १॥ (उ के ) तु एटले वली (जम्हा के० ) जेमाटें (सामाश्शं मिकए के०) (सामायिक करती वखत (सावर्ड के०) श्रावक जे , ते (समणोश्व के०) श्रमण एटले साधु समान (हवर के०) होय, (एएणकारणेणं के० ) ए कारणे ( बहुसो के०) घणी वार, ( सामाश्यं के०) सामा यिकप्रत्ये जे तत्त्वना जाण होय, ते ( कुडा के) करे ॥२॥ अहींयां केटलाएक एम कहे जे के सामायिक, दिन प्रत्ये उन्नय कालज करियें, पण अधिक न करिये, तेंने निषेधे , जे नणी “सामाश्यं मिउकए” ए. गाथा श्री नम्बाहुस्खामी चौद पूर्वधरप्रणीत आवश्यकनियुक्तिमांहेली ने, एमां सामायिक करतां श्रावक, मनें, वचनें अने कायायें करी करे नहीं, करावे नही,ते नणी साधु समान तो होय, पण साधु निटोल नहीं कहेवाय. अने श्रावकने अनुमति मोकली , तथा श्रावकें देशथकी पोसह लीधो होय अने सामायिक बते पण आधाकर्मी आहार गृहस्थने मोकलो मूक्यो , जे जणी श्रीनिशीथचूर्णीमध्ये एम कडं जे, जे “जंच उदिछ कहें, तं कम सामाश्न विचं जश्य” अने साधु तो आधाकर्मी आहार कोश् पण रीतें लीये नही, ते जणी साधु निटोल न कहेवाय, तो पण सामायिकने विषे रहेला श्रावकने साधु सरखो कहियें. ए कारणमाटें “बहुसो सामाश्यं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगचिंतामणि अर्थसदित. ५७ कुजा” एटले घणां सामायिक लेवां. एम कडं, जेवारें वखत मले, तेवारें सामायिक लेवो, उक्तं च “जाहे खणिज ताहे, सामाश्यं करे” तथा श्री श्रावश्यकचूर्णी, श्रावकने प्रज्ञप्तिवृत्त्यादिक घणा ग्रंथोमध्ये वारं वार सामा यिक खेवो, एम कडं बे. “सामाश्य पोसह सं विस्स जीवस्स जा जो कालो ॥ सो सफलो बोधवो, सेसो संसारफलहेऊ ॥१॥” अर्थः-सामायिक तथा पौषध लीधे थके जीवनो जे काल जाय, ते सफल जाणवो. अने शेष काल जे , ते संसार उपार्जन करवानुं कारण जाणवो ॥१॥१०॥ ॥अथ सबलोए ॥ सबलोए, अरिहंत ॥ करेमि० ॥ वंदण ॥१॥इति ॥११॥ अर्थः-त्रण नवननां चैत्य वांदवा निमित्तें काउस्सग्ग करवा वांबतो सबलोए कहे. त्यां सर्वलोक शब्दें अधोलोक, ऊर्ध्वलोक अने तिर्यग् लोक, ए त्रण लोकमांहे जे (अरिहंतचेश्ाणं के० ) श्रीअरिहंतनां चैत्य, प्रतिमारूप में, एटले आठ क्रोम, सत्तावन लाख, बशें ने ब्याशी शा श्वता प्रासाद बे. तेमां पंदरशें क्रोम, बहेंतालीश क्रोम, अहावन लाख, बत्रीश हजार अने एंशी, एटलां जिनबिंब बे, तेने (वंदणवत्तियाए के०) वांदवादिक निमित्तें (करेमिकाउस्सग्गं के०) हुँ काउस्सग्ग करुं हुं ॥११॥ ॥अथ जगचिंतामणि चैत्यवंदन ॥ इनाकारेण संदिसद नगवन चैत्यवंदन करूं ॥ बं॥ जग चिंतामणि जगनाद, जगगुरु जगरक ण ॥ जगबंधव जगसबवाह, जगन्नाव विअरकण॥ अहावय संगविय, रूव कम्मळ विणासण ॥ च जवीसंपि जिणवरा, जयंतु अप्पमिदयसासण ॥२॥ अर्थः-हवे श्रीवीतराग देव केहवा ? तो के (जग के०) नव्यजीव, तेमना मनोवांछित अर्थ पूरवा माटे (चिंतामणि के०) चिंतामणिरत्न समान बे. एटले चिंतामणि जेम मनोवांडा पूर्ण करे , तेम प्रजु पण आश्रित नव्य प्राणियोनां सर्व वांबित पूर्ण करे , वली (जग के०)निकट जव्य जीवोना जे (नाह के) नाथ बे, केम के ? जे जीव, धर्म पाम्या नथी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ԱՆ प्रतिक्रमण सूत्र. तेने धर्म विषे जोडे बे ने जे जीव, धर्म पाम्या बे, तेना धर्मनी रक्षा करे बे, माटें नाथ बे. वली ( जग के० ) समस्तलोकमांडे हितोपदेश देवाकी ( गुरु के० ) महोटा बे, वली (जग के० ) षड्जीव निकायना जे ( रकण के० ) रक्षक बे, प्रतिपालक बे, वली ( जग के० ) समान बोधवंतना तथा सकल जंतुना जे (बंधव के०) महोटा विवेकवंत जाइनी पेरें जाई बे. वली ( जग के० ) मोक्षा जिलाषी साधु प्रमुखना, जे ( सब वाह के० ) सार्थवाह बे, महोटा व्यापारी बे, शा थकी ? के जे संसाररूप कांतारथकी पार पमामीने अनंत लाजनुं स्थानक, एवं जे मोहरूप नगर ते प्रत्यें पहोंचा बे. वली (जग के० ) षड्द्रव्य तथा जीवादिक नव पदा र्थना (जाव के० ) रहस्य तेने दर्शाववाने विषे जे ( विरकण के० ) वि. क्षण वे, माझा बे, अनंत ज्ञानपणामाटें विचक्षण बे. वली (श्रावय के० ) अष्टापद पर्वतनी उपर नरतेश्वरें ( संविय के० ) संस्थापित करयां बे ( रू के० ) रूप एटले विंव जेनां, वली ( कम्म विपास के० ) ज्ञाना वरणीयादिककर्मनो कीधो से विनाश जेणें, एवा ते (चडवीसं पिजि वरा के०) चोवीश जिनवर ते अपि एटले निश्वें (जयंतु के०) जयवंता वत्त, सर्व उपरें वत्तों. (अप्प हियसासण के०) अप्रतिहतशासन एटले को थी ह गाय रोकाय नही एवं जेनुं शासन वे अर्थात् शिक्षावचन रूप उपदेश बे ॥ १ ॥ कम्मभूमिदं कम्मभूमिदं ॥ पढम संघयणि ॥ नक्कोसय सत्तरि सय | जिवराण विहरंत लग्न || नव कोडीहिं केवलि ॥ कोडि सदस्स नव साहु गम्मइ ॥ संपइ जि वर वीस मुणि ॥ बिहुँ कोडिदिं वरना | समाद कोमि सहस || थुणिजि निच विहाणि ॥ २ ॥ अर्थ :- कम्म मिहिं के० ) असि, मषी, अने कृषि रूप कर्म जिहां वर्त्ते बे, एटले सि, मषी ने कृषि ए त्रण. तेमां तरवार प्रमुख शस्त्रनी ज्यां प्रवृत्ति होय, तेनेति कहियें अने लिखित प्रमुख ज्ञान ज्यां होय, तेने मषी कहियें तथा क्षेत्र, वामी प्रमुखें ज्यां जीविका होय तेने कृषि कहियें. एकरी जिहां श्राजीविका चाले बे, तेने कर्मभूमिका कहियें. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगचिंतामणि अर्थसहित. (कम्मनूमिहिं के०) ते कर्मनूमिनां जरतादिक पन्नर देत्रनेविषे (उकोसय के ) उत्कृष्टपदें ( जिणवराण के ) जिनवरो एटले जे तीर्थंकरो डे, ( पढमसंघयणि के०) प्रथम संघयण जे वज्रषजनाराच तेना धणी एवा ( सत्तरिसय के० ) सप्ततिशत एटले एकशो ने सित्तेरनो समुदाय, ( विहरंतलन के०) विचरतो लाने. ते श्रीअजितनाथनी वारें एटला लाने, वली (नवकोमी हिंकेवलिण के) केवलज्ञानी लगवाननी नव कोटि होय, तथा ( कोमिसहस्सनव के० ) नव सहस्रकोटि (साहु के०) साधु ( गम्मर के) जिनागमथकी जाणियें अने ( संपर के० ) संप्रति एटले वर्तमानकालें ( जिणवरवीस के० ) श्रीसीमंधरस्वामी प्रमुख वीश जिनवर विचरता पामियें, तथा (मुणिबिहुँको मिहिं के०) बे कोम मुनि, ( वरनाण के० ) प्रधान केवलझानना धरनार, एवा केवलज्ञानी वली ( कोमिसहस्सभ के० ) हिसहस्र कोटि ( समणह के०) श्रमण एटले साधु विचरे , ते सर्वने ( थुणिजिअ के०) थुणी, स्तवियें, (निच्च विहाणि के० ) नित्य प्रनातें सूर्योदयें निरंतर स्तवीयें ॥२॥ जयन सामी जयन सामी॥ रिसह सत्तुंजि॥ जति पढ़ नेमि जिण ॥ जयन वीर सच्चरि मंमण ॥नरु अहिं मुणि सुवय॥मुदरि पास उद उरिअखंमण॥ अवरविदेहिं तियरा॥चिहुँदिसि विदिसि जिंकेवि॥ तीआणागय संपश्य, वंदूं जिण सवेवि ॥३॥ अर्थः-हवे श्री (सत्तुं जि के०) शत्रुजय तीर्थ उपरें (सामीरिसह के०) श्री रुषलवामी (जयउ के) जयवंता वत्तों. वली (किंत के०) श्री गिर नारजी उपर (पहु के०) प्रजु एटले सामर्थ्यवाला एवा ( सामी नेमि जिण के०) स्वामी श्री नेमि जिनेश्वर ते (जयन के०) जयवंता वत्र्तों, वली (वीर के ) महावीर खामी ते ( सञ्चउरीमंमण के ) सत्यपुरी एटले साचोर नगर तेना मंगण एटले आजूषणरूप ते जयवंता वत्तॊ. वली ( जरुअहिंमुणिसुव्वय के०) श्रीजरूच नगरने विषे श्री मुनिसुव्रत नाथ अने (मुहरि के० ) मुहरिगामना नायक, ( पास के ) श्रीपार्श्वनाथ, ए जिन पंचक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० प्रतिक्रमण सूत्र. केहबुं ? तो के (उहरियखंगण के०) कु.ख अने उरित जे पाप तेनुं खंमन एटले विनाश करनाकं , (अवर के०) अपर एटले बीजा (विदे हिं के०) पांच महाविदेहने विषे जे (तिबयरा के०) तीर्थंकर बे, (चिहुं दिसिविदिसि के) पूर्वादि चार दिशि अने अग्निकोणादि चार विदिशि, ए आउने विषे (जिंकेवि के०) जे कोइ पण (तीआणागयसंपश्य के०) अ तीतकाल, अनागतकाल अने संप्रति जे वर्तमानकाल, ए त्रण कालसंबंधी (जिणसवे वि के०) सर्वे जिनेश्वर ते प्रत्ये पण (वंडं के०) हुं वांदू बुं ॥३॥ हवे निरंतर स्मरणने अर्थे शाश्वता जिनप्रासादनी संख्या कहे जे. ॥ सत्ताणवश सहस्सा, लका उप्पन्न अह को डी । बत्तीस बासिआइं॥ पागंतरं॥ बत्ती सय बासिआइं, तिअलोए चेइए वंदे ॥४॥ अर्थः-(अहकोमी के०) आठ क्रोम, (लकाबप्पन्न के०) उप्पन लाख, (सत्ताणवश्सहस्सा के०) सत्ताणुं सहस्र, (बत्तीसबा सिआई के०) बत्रीशशें ने ब्याशी, एटला (तिअलोए के०) त्रण लोकने विषे (चेश्ए के०) चैत्य एटले जिनप्रासाद बे, ते सर्वप्रत्ये ( वंदे के० ) हुं वां ९ ॥४॥ हवे पूर्वोक्त शाश्वता प्रासादोने विषे एकंदर प्रतिमानी संख्या कहे . ॥पनरस कोमि सयाई, कोमी बायाल लक अमवन्ना ॥ बत्तीस सहस असिई ॥पांगतरं॥ असिआई, सासयबिंबाइं पणमामि ॥ ५॥ अर्थः-(पनरसको मिसयाई के ) पन्नरशें कोमी एटले पंदर अब्ज, वली ( कोमीबायाल के ) बहेंतालीश कोम, (लरकसमवन्ना के०) अहा वन लाख, ( उत्तीससहसअसिई के०) बत्रीशे हजार अने उपर एंशी, (१५४२५८३६०७०) एटला पूर्वोक्त जिनप्रासादने विषे (सासयबिंबाई के०) शाश्वतां जिनबिंब डे, ते सर्व प्रत्ये (पणमामि के) हुं प्रणमुं बुं ॥५॥ ॥ अथ जं किंचि ॥ ॥जं किंचि नाम तिवं, सग्गे पायालि माणुसे लोए॥ जाइं जिणबिंबाई, ताई सत्वाइं वंदामि ॥६॥इति॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमुढणं अर्थसहित. अर्थः-( सग्गे के० ) स्वर्गे एटले ऊर्ध्वलोकने विषे, ( पायाति के० ) पाताले एटले अधोलोकने विषे, (माणुसे लोए के०) मानुष्ये लोके एटले ती लोकने विषे, (जाइंजिणबिंबाई के०) जे जिन तीर्थंकरनां बिंब , (ताई सवाई के०) ते सर्व जिनबिंब प्रत्ये किं बहुना धणुं शुं कहियें? (जंकिं चि के ) जे कां त्रण लोकने विषे परमेश्वरनां (नामाति के० ) नामरूप तीर्थो , ते प्रत्ये पण (वंदामि के०) हुँ वांउं बुं ॥१॥ इति ॥ १५ ॥ __एम चैत्यवंदन कह्या पठी, पंचांग प्रणाम करी बेशीने बेहु जानु नूमि यें लगामी हाथे एकेक अंगुली मांहोमांहे करी मोमाने आकारें वे हाथ करीने पेट उपर वे हाथनी कोणी राखीयें, तेने योगमुना कहियें, ए समस्त ठकुराई प्रमुख लक्षणे करी सहित , एवी योगमुडा साचवतो “नमु तुणं अरिहंताणं” इत्यादिक शकस्तव दंमक कहे. इंड, जेवारें परमेश्वरने स्तवे, तेवारें ए नमत्रुणंनो पाठ कहेतो थकोज स्तवे बे, एवी स्थिति बे, तेमाटे एने शकस्तव कहियें बैयें. तेनो पाठ कहे , अहींयां केटलाएक एवं कहे डे के नमुनुणं कहेतां थकां माबो जानु उंचो करियें, अने जमणो जानु नूमियें लगामीये, ते युक्त नश्री. केम के श्रीमहानिशीथना तृ तीयाध्ययनमां कांबे के, “जिणपमिमाविणवस्सिय, नयणेण विरश्य वकमंजलिणा ॥नूमिनिहि उन्नय जाणुणा, सकब पढियवो ॥१॥” इति॥ अने श्रीकल्पसूत्र मध्ये इंध्याश्री श्रीमहावीरने अधिकारें " वामजाणु अच्चेश् दाहिणजाणु धरणितलसिकदृश्” एवो पाठ , तिहां इं गकुर ने ते. नणी चतुरंग प्रणाम करे, एवं कारण कयुं बे, तथा श्रीझाताधर्मकथां गमध्ये धर्मरुचि महात्मायें आराधनाने अवसरें बेगं थकांज नमुनुणं कडं बे. तिहां ते धर्मरुचि महात्माने नागश्रीतुं आपेढे विषमय कम तुंबहुँ परग्वतां घण। विराधना दीगमां आवी तेथी ते तुंबमानो तेमणे पोतेंज आहार कस्यो तेनुं विष परिणमतां थकां शरीरनी शक्ति मंद थर, तेमाटे पर्यंकासने बेग थकांज नमुन्नुणंनो पाठ कह्यो , ए कारण जाणवू. ॥ अथ नमुनुणं वा शक्रस्तव ॥ ॥नमुतुणं अरिहंताणं नगवंताणं ॥१॥ अर्थः-( नमुन्नुणं के०) नमोस्तु एटले नमस्कार हो. अहीं नमः पदवडे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ प्रतिक्रमण सूत्र. नमस्कार, अनु एटले अस्तु नवतु ए पदवडे हो, तथा णं कार जे बे, ते वाक्यालंकारने अर्थे , जेम अलंकारें करी स्त्री शोने, तेम एंकारें करी वाक्य शोने , ते नमस्कार कोने हो? तो के (अरिहंताणं के०) श्री अरी हंतने हो. अहीं जूदा जूदा त्रण पाठ , एक तो इंसादिक देवोनी करेली पूजाने योग्य तेने अरहंत कहियें, बीजो कर्मरूप वैरीने हण्या, माटें अरिहंत कहियें, त्रीजो फरी संसारमा अवतरवु नयी माटे अरुहंत कहियें, तेने नमस्कार था. हवे ते श्री अरिहंतजी तो नामादिक ने करी अनेक प्रकारें बे, माटें अहीं नावअरिहंतने नमस्कार करवाने अर्थे आगल, पद कहे . ( नगवंताणं के०) नगवद्न्यः एटले जगवंतने हो. ए जग शब्द, ते प्रकारें बे. एक समस्त ठकुराइ, वीजुं रूप, त्रीजुं यश, चोथी लक्ष्मी, पांचमो धर्म, अने हो प्रयत्न, ए ड वानां अरिहंतमा उत्कृष्ट . तिहाँ नक्ति नम्रतायें करीने देवोयें शुजानुबंधी माहापातिहार्य करण लक्षण, तेने समग्र ऐश्वर्य कहियें. तथा सकल स्वखप्रनाव विनिम्मित अंगुष्ठरूप अंगार निदर्शनातिशयें करी जे सिफ, तेने रूप कहियें, तथा राग, द्वेष, परिसह, उपसर्ग सहनरूप पराक्रमथकी उत्पन्न थयुं जे त्रैलोक्यानंदकाल प्रतिष्ठ, तेने यश कहियें, तथा घातिकर्मना उछेदरूप पराकमें करी प्राप्त थयुं जे केवल लोकोत्तरनिरतिशय सुख, तेनी संपत्तियें करी युक्त तेने उत्कृष्टलक्ष्मी कहियें, तथा सम्यग्दर्शनादि रूप अने दान, शील तपोना वनामय, तेने धर्म कहियें, तथा परम वीर्ये करी उत्पन्न थयुं जे एक रात्रि क्यादिक महाप्रतिमा नावहेतु, तेने प्रयत्न कहियें, एक प्रकारचं ने लग जेमने, ते जगवान् कहियें, तेमने नमस्कार था. एवा नगवंत ते विवेकी पुरुषोने स्तववा योग्य बे, माटें ए बे पदनी प्रथम स्तोतव्य संपदा जाणवी. एमां लघु तेर अने गुरु एक, सर्व मली चौद अदरो ॥१॥ हवे स्तववा योग्यनो सामान्य हेतु कहेवा माटें कहे डे. ॥आगराणं, तिबयराणं, सयंसंबुझाणं ॥३॥ अर्थः-वली ते श्री अरिहंत केहेवा बे? ए प्रकारे श्रागल पण हवे पड़ीना सर्व पदोने विषे कहे. (आगराणं के०) आदिकरेन्यः एटले सर्व तीर्थंकर पोत पोताना तीर्थे छादशांगीनी आदिना करनार , तेमाटें आदिकर कहि यें. यद्यपि ए हादशांगी, निरंतर जे तथापि तेमां अर्थनी अपेदायें तो नित्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमुतुणं अर्थसहित. ६३ डे परंतु शब्दनी अपेदायें तो स्वस्वतीर्थमां श्रुतधर्मादिकनु करवू अविरुफज बे. हवे ए पण कैवल्यप्राप्त्यनंतर अपवर्गवादीये ते अतीर्थंकरज कहेवाय ? तो त्यां कहे के, (तिबयराणं के) तीर्थकरेन्यःजेणे करी संसारसमुख तराय जे ते तीर्थ एटले प्रवचन तथा तेना अव्यतिरेक संबंधथकी संघ पण तीर्थ कहियें, वली गणधर पण तीर्थ कहियें, एटले प्रवचनकथकपणा थकी तथा चतुर्विध श्रीसंघरूप तीर्थना करवाथकी तथा प्रथम गणधर रूप तीर्थना करवाथकी, तीर्थंकर कहिये. हवे ए तीर्थंकरपणुं पण श्रीश्र रिहंतने अन्यउपदेशपूर्वकपणे नथी, एटला माटें आगल पद कहे जे. (संयंसंबुझाणं के०) स्वयंसंबुझेन्यः ( सयं के०) पोतानी मेलें ( सं के०) सम्यक् प्रकारें (बुझाणं के०) तत्त्वना जाण थया एटले परोपदेश विना पो तानी मे जव्य सामग्रीना परिपाकथकी बोध पामेला जाणवा. यद्यपि नवांतरने विषे तथाविध गुरु संनिधान थकी अवबोधित . तथापि ती थंकर जन्मने विषे परोपदेशनी अपेदा नथीज. अने जो पण तीर्थंकर जन्मने विषे लोकांतिक देवताना वचनथकी “नयवं तिबं पवत्तेहि" ए लदणवाली दीदाने पामे बे, तो पण जेम राजा होय ते नाट प्रमुख स्तुति करनाराऊना वचनमा रहेतो बतो पण स्वतंत्रताने त्याग न करतो थको पोतानुं कार्य करे , तेम ते तीर्थंकरो पण पोतानी स्वतंत्रतायेंज प्रत्रज्या ग्रहण करे ठे, तेमाटे सयंसंबुझाणं कहियें एमां स्तववा योग्यना सामान्य हेतु कह्या, माटें ए त्रण पदनी उघ एटले सामान्यहेतु नामें बीजी संपदा जाणवी. एमां लघु चौद, अने गुरु बे, सर्व मली शोल अदरो जे ॥२॥ हवे ए बीजी संपदाना अर्थनें विशेषे दीपाववा माटे त्रीजी विशेषहेतु संपदामा पूर्वोक्त स्वयंसंबुझपणुं तो को सामान्य जनने पण होय बे, परंतु जगवंत तेवा पुरुष नथी, जगवंत तो सर्व पुरुषमांहे उ त्तम बे. तेमाटें आगल पुरुषोत्तमपणुं देखामवाने पद कहे जे. पुरिसुत्तमाणं, पुरिससीदाणं, पुरिसवरपुं डरीआणं, पुरिसवरगंधदबीणं ॥३॥ अर्थः-(पुरिसुत्तमाणं के०) पुरुषोत्तमेन्यः पुरुषोने विषे उत्तम प्रधान एटले धैर्य, गांजीय, औदार्य परोपकार, इत्यादिक गुणें करी उत्तम ने प Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. रंतु बीजा जीवनी पेरें क्रुर, क्षपण. मलीन बुझिना धणी नथी, अहीं पुरि एटले शरीर तेने विषे जे शयन करे, ते पुरुष जाणवो. ते शरीरने विषे वास करनारा ने सत्व तेमने विषे सहज नव्यत्वादिक नावथकी श्रेष्ठ माटें पुरुषोत्तम जाणवा. तथा सर्वार्थ विना सर्व संसारी जीवोने परमार्थ कर वानुं व्यसन जेने तथा उचितक्रियारूप दाने करी युक्त ने माटें पुरुषो त्तम कहिये. हवे ए पुरुषोत्तमपणानेज सिंहादिक उपमायें करी समर्थतो थको आगल कहे . (पुरिससीहाणं के० ) पुरुषसिंहेन्यः एटले पुरुषमांहे सिंहसमान बे, अर्थात् जेम सिंह, शौर्यादिकगुणें करी युक्त होय बे, तेम जगवंत पण कर्मरूप शत्रुने शूरतायें करी बेदनारा बे, क्रुरतायें करी क्रोधादिकने उबेदनारा बे, सहनतायें करी रागादिकने उच्छेद नारा. बे. वीर्ययोगें करी तपश्चर्यामां प्रवर्त्तनारा डे तथा अवज्ञा परीसह उप सर्गने विषे एमने जय नथी, इंजियवर्गने विष खेद नथी तथा अजायें करी संयम मार्गने विषे निःप्रकंपता वे. अथवा जगवंत १ बौड़, २ नैया यिक, ३ सांख्य, ४ वैशेषिक, ५ जैमिनीय, अने ६ मीमांसक, ए परवादी रूप हस्तीयोनुं मथन करनारा ने तेमाटे पुरुषसिंह कहिये. (पुरिसवरपुंगरी याणं के) पुरुषवरपुंमरीकेन्यः एटले पुरुषोने विषे वर प्रधान पुंगरीक कमल समान बे, एटले पुंगरीक कमल, जेम कचराथी उत्पन्न थाय बे, जलमां वृद्धि पामे , अने ते बन्नेनो त्याग करी उपर वर्ते ने, प्रकृतियें करी सुंदर होय बे, नुवनलमीनो निवास बे, चक्कु प्रमुखने आनंदनुं घर बे, उत्तमगुणना योगें करी विशिष्ट तिर्यंच, मनुष्य अने देवोयें करी सेवन कराय , तेने सुखनुं हेतु थाय बे. तेम श्रीअरिहंत नगवंत पण, काम रूप जे कचरो एटले मातानुं रुधिर अने पिता, वीर्य, ते थकी उत्पन्न थया, दिव्यनोगरूप जलें करी वृद्धि पाम्या. पली बेहुनो त्याग करी वर्ते बे, पोतें सुंदर , केवल ज्ञानादिक गुणना योगें करी नव्यजीवो सेवे बे. तेने मोदसुखना हेतु थाय , (पुरिसवरगंधहबीणं के० ) पुरुषवरगंधह स्तिन्यः पुरुषोने विषे वर प्रधान गंधहस्ती समान ने एटले जेम गंधहस्ती ना गंधे करी ते देशमा विचरनारा बीजा हुआ हाथीयो नाशी जाय बेतेनी षेठे नगवानना विहाररूप पवनना गंधथकी परचक्र,पुर्निद, मारी प्रमुख उपवरूप जे गज बे, ते नागी जाय , माटें पुरुषवरगंधहस्ती कहिये. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमुबुणं अर्थसहित.. एम सिंह, पुमरिक अने गंधहस्ती, ए त्रण उपमा थकी पुरुषोत्तम कहि ये, एमां पुरुषमांहे उत्तम कह्या, माटें ए चार पदनी पूर्वोक्त सामान्य हेतु संपदा थकी इत्वर एटले विशेषहेतुनामें त्रीजी संपदा जाणवी. एमां लघु त्रीश, अने गुरु बे, सर्व मली बत्रीश अदरो ले ॥३॥ हवे चोथी उपयोग संपदामा जे पूर्वे जगवानने पुरुषोत्तमज कह्या, परंतु ते केवल पुरुषोत्तमज नथी, त्यारे केहवा जे? ते कहे जे. ॥लोगुत्तमाणं, लोगनाहाणं, लोगदिआणं, लोगपश्वाणं, लोगपजोअगराणं ॥४॥ । अर्थः-( लोगुत्तमाणं के० ) लोकोत्तमेन्यः सर्व लोकने विषे उत्तम बे. ही लोकशब्दें करीने सर्व जव्य लोक ज ग्रहण करवा, ते नव्य लोकोने कल्याणना करनार बे, ए माटें लोकोत्तम कहियें. हवे जे लोकमां उत्तम होय, ते तो नाथ कहेवाय, ते पागले पदें देखाडे बे. (लोगनाहाणं के०) लोकनाथेन्यः एटले लोकना नाथ जे. अहीं लोकशब्दें करीने आसन्न सिकि जीव लेवा, (आसन्न के०) नजीक डे सिकि जेने एवा नव्य जीवोना नाथ ने एटले तेने योगदेमना करनार जे. केम के ? अलब्धधर्मीने धर्म नेविषे जोमवो, तेने योग कहियें, अने लब्धधर्मीने जेम कुशल वर्ते, तेम करवू, तेने देम कहिये. अर्थात् जे धर्म पाम्या नथी तेने पमाडे बे अने जे धर्म पाम्या बेतेनी रक्षा करे बे, ए रीतें योग अने देम, ए बेहु वानां प्रनु करे ने माटें लोकना नाथ कहिये. तिहां तात्त्विक नाथपणुं केवा प्रकारें थाय , ते कहे . (लोगहियाणं के०) लोकहितेन्यः लोकने हितना करनार ने. अहीं लोकशब्द संर्वसंव्यवहारी प्राणिवर्ग लेवो, तेने सम्यग्दर्शन प्ररूपण, रदणरूप योगें करी हितना करनार , अथवा षमविध जीवनिका यनीरदादिकने करवे करी ते हितकारक . माटें लोकने हितना करनार क हिये हवे ए नाथपणुं अने हितपणुं ते यथावस्थित समस्तवस्तुसमूहप्रदीपन थकीज होय, तेमाटें आगल पद कहे . (लोगपश्चाणं के०) लोकप्रदीपेन्यःअहीं लोकशब्दें संझी पंचेंजिय जीव, जेने धर्मनी आस्था डे ते लेवा.ते मने देशनादिक करवे करीने अज्ञानमिथ्यावरूप अंधकार टालवा माटेंप्रदीप समान जे. अहीं संझी जीवोने विष प्रदीपपणानी उपपत्ति बे, परंतु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रतिक्रमण सूत्र. असंझीने विषे नथी. कैम के अंधप्रत्ये प्रदीपपणुं वृथा बे ते माटें. तथा ( लोगपजोयगराणं के ) लोकप्रद्योतकरेन्यः अहीं लोकशब्दें विशिष्ट चौद पूर्वने जाणनारा लोक ग्रहण करवा ते गणधर चौद पूर्वधर जाणवा. तेमना हृदयने विषे हादशांगीरचनारूप बोधना प्रकाश करवापणानी उप पत्ति ने एटले तेने सूर्य समान बे, अर्थात् प्रजुना “उपन्नेश्वा, विगमेश्वा, धुवे श्वा,” एटली त्रिपदीने वचनें करीज गणधरने एवी बुद्धि उत्पन्न थाय डे के जेथकी ते नवां अगीयार अंग अंने चौद पूर्वनी ते वखतेंज रचनां करे , माटे लोकप्रद्योतकर कहिये. एमां लोगुत्तमाणं इत्यादिकें करी लोकमां उत्तम कह्या माटें सामान्यस्तवनानो जे उपयोग तेनो हेतु कह्यो तेथी ए उपयोगसंपदा चोथी जाणवी. एमां लघु सत्तावीश अने गुरु बे, सर्व मली उंगणत्रीश अदरो डे ॥४॥ हवे ए पूर्वोक्त संपदाने विशेष हेतुरूप पांचमी उपयोगहेतुसंपदा कहे , पूर्वोक्त लोकप्रद्योतकर एवा विशेषणयुक्त तो सूर्य, हरि, हर, ब्रह्मादिक पण तत्तीर्थिकमतें करीने होय बे, त्यारे ते प्रजुमा विशेष शुं ? ते आगलना पदें करी कहे जे. ॥अन्नयदयाणं, चकुदयाणं, मग्गदया णं, सरणदयाणं, बोहिदयाणं ॥ ५ ॥ अर्थ;-(अजयदयाणं के०) अजयदेन्यः एटले श्ह लोक, परलोकादिक सात नय रहित एवं जे अजयपद, तेना दातार अथवा सर्व प्राणीनां जे जय, तेना परिहारवाली एवी दया अनुकंपा डे जेने अथवा जे अपकारी प्राणापहरणरसिक उपसर्गकारक एवा जीवोने पण जय न आपे माटें अन्नयद कहियें. ए प्रमाणे सर्व प्राणीने अजय देनारा, एवा हरि, हर, ब्रह्मा दिक न होय. हवे ए प्रनु केवल अपकारीने अथवा ते अपकारीथी अने रा बीजा जीवोने अनर्थपरिहारमात्रज करे डे, एटबुंज नहीं पण अर्थ प्राप्ति पण करे , तदर्शनार्थ कहे जे. (चकुदयाणं के०) चतुर्देन्यः सम्य कूर्मज्ञानरूप लोचनना दातार तथा चकुशब्दें विशिष्ट आत्मधर्मरूप तत्त्वा वबोध वस्तुत्वदर्शनें धर्मकल्पजुमनी बीजजूत एवी श्रझारूप कल्याणचतु ते जगवान्थकी प्राप्त थाय ने, तथा अझानांध जीवने श्रुतज्ञानरूप चतु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमुलुणं अर्थसहित श्रापे . कहेलुं , के चतुष्मंत तो तेज नर जालवा के जे श्रुतज्ञानरूपच हुयें करीने सम्यक्रीतें हेय उपादेय नावने जाणे, माटें श्रुतचकुने देनारा ते चकुई कहियें, ए रीतें चकु आपी, तेथी ते प्रजुनुं श्रुतचकुईत्व उपकारीपणुं कडं. हवे निर्वाणमार्गदत्व उपकारीपणुं कहे , ( मग्गद याणं के०) सम्यग्दर्शनादिक रत्नत्रयरूप जे मोदनो मार्ग बे, तेना दातार; जेम कोश् एक अटवीमां नूला पडेला वटेमाणुधन, चोर लोकोयें खुंटीने तेने जन्मार्गे पाड्यो होय. पड़ी तेने को सत्पुरुष वस्त्र, धन प्रमुख आपी खरो मार्ग देखामी, तेना स्थानकें पहोंचाडे, तेम था संसार रूप अटवीने विषे नविक जीवरूप सार्थना धर्मधनरूप संवलने महामोहा दिकनी धामें खुंटी मिथ्यात्वादिक पाटा बांधीने कर्म स्थितिरूप कुमार्ग अट वीमां नाख्या, तेने परोपकारी एवा जगवंत ते मिथ्यात्वादिक पाटा कापी, धर्मसंबल श्रापी, रत्नत्रयीरूप शुद्ध मार्गे चलावी शाश्वतस्थान प्रत्ये पहोचाडे . हवे तेवा मार्गप्रत्ये पहोंचाडे, ते परमोपकारी कहेवाय? ते माटे परमोपकारीपणुं देखामवाने कहे . ( सरणदयाणं के ) शरण देन्यः एटले जन्म, जरा अने मरणप्रत्ये पमामनार एवो कर्मरूप नूप, ते थकी बीक पामनारा जीवने शरणना दातार बे, अर्थात् जेम वैरीना नयथकी बीक पामेला पुरुषने को उत्तम पुरुष शरण राखे. तेम उर्गतिना नय थकी बीक पामनार पुरुषने नगवंत शरण राखे. अहीं शरणशब्दें करीनयार्त्तत्राण एटले संसाररूप जुर्मार्गने विष प्राप्त श्रयेला अने अत्यंत प्रबल रागादिकें करी पीमा पामेला एवा जनोने तत्त्वचिंतवनरूप अध्यवसाय जेणे करी मोक्षप्राप्ति थाय तेना दातार. हवे ते शरणद पणानेज आपीने पठी शानो लाल आपे ? माटें आगल कहे जे. (बोहिदयाणं के०) बोधिदेच्यः ए टले बोधि ते जिनधर्मप्राप्ति तेने देनारा ते बोधिद कहियें. एमां पूर्वे कही जे उपयोग संपदा तेना अर्थने अजयदयाणं इत्यादिक हेतु सन्नावें करी दीपाव्यु माटे ए पांचमी तकेतु संपदा अथवा उपयोगहेतुसंपदा जाणवी. एमां लघु पचीश अने गुरु बे, सर्व मली सत्तावीश अदरो ॥५॥ एम अजयदान, चतुर्दान, मार्गदान, शरणदान अने बोधिदान. ए सर्वने जगवंतना धर्मनी प्राप्तियें करी पाम्यो,ए माटे प्रजुनुं धर्मदत्व आगल कहे बे. तथा स्तोतव्य संपदाने विषेज विशेषे करी उपयोग संपदा पण कहे बे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ច प्रतिक्रमण सूत्र. धम्मदयाणं, धम्मदेसियाणं, धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं, धम्मवरचाजरंत चक्कवट्टीणं ॥ ६॥ अर्थः- ( धम्मदयाणं के० ) धर्मदेन्यः यथायोग्य साधु श्रावक संबंधी धर्मना दातार बे. इहां धर्म एटले चारित्रधर्म ग्रहण करवो, ते बे नेदें बे. तेमां सर्वसावद्ययोग विर तिलक्षण, ते साधुनो धर्म ने देशविर तिलक्षण ते श्रावकनो धर्म, ए पण जगवानथकीज प्राप्त थाय बे यद्यपि धर्मना अन्य हेतुनो सद्भाव 'बे खरो, तथापि तेनुं प्रधानत्व जगवानने विषेज बे. केम के एनी दे शना अन्यथा होय नही, माटे धर्मद कहियें. हवे धर्मदायकपणुं तो ध मना उपदेशथकी होय, तेमाटेज श्रागल पद कहे वे के, (धम्मदे सियाणं के०) धर्मदेशकेन्यः पूर्वोक्त जेने जेवो धर्म योग्य होय, तेने तेवो साधु श्रावक संबंध धर्म तेना देशक एटले उपदेशना करनार बे. माटें धर्मदेशक कहियें. ( धम्मनायगाणं के० ) धर्म नायकेभ्यः एटले धर्मना नायक अर्थात् धर्मने वश करवाथकी तथा ते धर्मनुं फल जे अरिहंत पदवी बे, तेने जोगववा थकी अथवा कोई धर्मनो व्याघात करे, तो करवा न दीये माटें धर्मनाय क कहियें, तथा ( धम्मसारहीणं के०) धर्मसार थिन्यः धर्मना सारथि बे, म के जेम सारथि रथस्थानी तथा रथिकनी अने अश्वोनी रक्षा करे बे, तेम श्री अरिहंत पण चारित्रधर्मनां जे अंग तेमनु रक्षण तथा उपदेश करे, जव्यजीवरूप रथसमूह तेने कुमार्गे चालवा न आपे, कुमार्गे जाता नेपाढा वाले, एक मोक्षमार्गने विषेज चलावे माटें धर्मसारथि कहियें; तथा (धम्मवरचाजरं तचक्कवहीणं के०) धर्मवरचातुरंतचक्रवर्त्तिन्यःधर्म तेज प्रधान श्रेष्ठ बे चार गतिरूप संसारना अंतनु करनार एटले मिथ्यात्वादिक जावशत्रु तेमने उच्छेद करवानुं कारण तडूप धर्मचक्रे करीने जे वर्त्ते बे, विच रेबे अर्थात् उत्कृष्टधर्म तेज चारगतिना अंत करवारूप चक्र तेणें करी स दित वर्त्ते बे, ते धर्मरचातुरंतचक्रवर्ती कहियें. एमां पूर्वोक्त उपयोग हेतु सं पदाना गुण दीपाववा निमित्तें कारण सहित स्तववा योग्यनुं स्वरूप कयुं. माटें ए बी सविशेषोपयोग हेतु संपदा जाणवी. एमां लघु उगणत्रीश, अने गुरु सात सर्व मली बत्रीश अरो बे ॥ ६ ॥ हवे यथार्थस्वरूप प्रकटार्थ देखावा रूप सातमी संपदा कहे . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमुचुर्थसहित. अप्पमिदयवर नाणधराणं, विट्टबनमाणं ॥ ७ ॥ अर्थः- हवे ते धम्मदयाणं इत्यादि प्रकृष्ट विशेषण समूह तो ज्ञाना दिक योगथकी होय, त्यां ज्ञानातिशयत्व कहे बे. ( अप्प हिय के०) अप्रतिहत एटले कायिकपणा की कोथी हणाय रोकाय नहीं एवं जे ( वर के० ) प्रधान ( नाण के० ) ज्ञान ते विशेषोपयोग ने (दंसण के० ) दर्शन ते सामान्योप योग तेहना ( धराणं के० ) धरनार बे, तेने अप्प हियवर नाणदंसणधरा कहिये. हवे एव ज्ञानसंपत्तिमान् तो कोइ एक उद्मस्थ पण होय, परंतु ते मिथ्या उपदेशकपणाथकी उपकारी न होय माटें निद्मपणुं प्रतिपाद न करतो थको कहे बे तथा अप्रतिहतज्ञानपणुं केम उपन्युं ? ते पण he a. ( माणं के० ) व्यावृत्तबद्मन्यः यहीं (विट्ट के० ) निवॄ त्युं बे जेथकी ( बजमाणं के० ) बद्मस्थपणुं एटले कपटपणं शठपणुं अथवा आवरणपणुं, ते ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय ने अंत राय, ए चार घनघातिकर्म जेथकी दय थ‍ गयां बे तेने व्यावृत्तबद्मा कहीयें. एमां अप्रतिहतवरनाणदंसणधरत्वें करी तथा व्यावृत्तबद्मतायें करीने प्रथम स्तोतव्य संपदाने विषेज सातमी स्वरूपहेतु संपदा कही. एमां लघु वीश ने गुरु बे, सर्व मली बावीश अक्षरो बे ॥ ७ ॥ हवेए "चांतिमात्रमसद विद्या एवां वचनथी अरिहंत प्रजुने कल्पितय विद्या वादी यो परमार्थे का जिना दिक कहे बे. तन्निरासार्थ तथा पूर्वोक्तव्यावृत्त ब्रद्मस्थपणुं रागादिकना जयश्री थायज बे. माटें ते आमी संपदायें कहे बे. जिलाणं जावयाणं, तिन्नाणं तारयाणं, बु-हाणं बोदयाणं, मुत्ताणं मोगाणं ॥ ८ ॥ अर्थः- ( जिणाणं जावयाणं के० ) जिनेन्यो जापकेभ्यः एटले ( जिणाणं ho ) रागादिक वैरीनुं जीतवापएं बे माटें जिन कहियें, अर्थात् ए प्रजुने विषे रागादिक शत्रु अस्तित्व नथी. तथा ( जावयाणं के० ) जापके यः एटले नव्य जीवोने पण सडुपदेशें करी रागादिक शत्रुथकी मूकाव ६ बे, माटें जापक कहीयें. हीं एवा जापक पण काल करणवादीयोयें जावकीतीर्ण कद्देवाय वे तेना निरासार्थ कहे बे. ( तिन्नायंतारया णं के० ) तीर्णेभ्यस्तार केन्यः एटले पोतें संसारसमुद्र कि तरया, अने 1 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ND प्रतिक्रमण सूत्र. नव्यजीवोप्रत्ये संसारसमुपथकी तारनार बे. अर्थात् सम्यकझानदर्श न चारित्ररूप नावें करीने पोतें नवार्णवयी तस्या बे तथा अन्य नवि जीवोने तारे ने माटें संसारपारंगतने कालावर्त्तनपणुं घटतुं नथी भाटें ते तिर्ण अने तारक जाणवा. अहिं तेवाने पण ज्ञानवादी एवा मैमासिकन्दवाला पुरुषो, अबुद्ध कहे ? तेना निराकरणार्थ कहे . (बुझाणं के०) बुझेन्यः पोतें तत्त्वना जाण थया. ( बोहयाणं के० ) बोधकेन्यः एटले नव्य जी वोने स्वपरखरूपनो बोध करावनार, (मुत्ताणं के) मुक्तेन्यः एटले पोतें चातुर्गतिकविपाक विचित्र कर्मथकी मूकाणा तथा (मोअगाणं के० ) बीजा नव्य प्राणीने कर्मथकी मूकावनारा बे, ए जिनत्व जापकत्व, तीर्णत्व तारकत्व, बुद्धत्व बोधकत्व, मुक्तत्व मोचकत्व, एणे करी स्वपरहित.. सिकिडे तेथी पोताने तुल्य परने फलना आपनार कह्या. ते माटें ए स्वतु व्य फलकारी एवी चार पदनी आठमीनिजसमफलद नामें संपदा जाणवी. एमां लघु पच्चीश, अने गुरु त्रण, सर्व मली अहावीश अकरो ॥७॥ हवे श्री अरिहंत मोदे गया, ते अवस्था आश्रयीने नवमी संपदा कहे जे. सवन्नणं, सबदरिसिणं, सिव मयल मरुअ मणंत म कय मवाबाद मपुणरावित्ति सिधिगइ नामधेयं, गणं संपत्ताणं, नमो जिणाणं जिअनयाणं ॥ ए॥ अर्थः-( सवन्नृणं के० ) सर्वझेन्यः एटले सूक्ष्म बादर एवा सर्व जगत् संबंधी जाव तेना झात जाण एटले सर्वं जानाति इति सर्वज्ञः सर्वने जाणे तेने सर्वज्ञ कहिये, (सबदरिसिणं के०)सर्व दर्शिन्यः एटले सर्व सूक्ष्म, बादर, जगत्ना जाव तेने प्रत्यदनी पेरें देखे, अहींयां सर्वपदार्थ सामन्य अने विशेषरूप में, तो पण प्रथमसमयें विशेषरूप जाणे माटें सर्वइ अने तेवार पनी बीजे समयें सर्वपदार्थ सामान्यपणे देखे, माटें सर्वदर्शी जाणवा. अहींयां को आशंका करे के प्रथम समयें ज्ञानोपयोग अने बीजे समयें दर्शनोपयोग कहो हो, तेवारें ज्ञानसमयें दर्शननो अनाव अने दर्शनसमयें शाननो अनाव थवानो प्रसंग आवशे ? तेने कहीयें के, सर्वज्ञ केवलीने सर्वदा निरंतर ज्ञान दर्शननी लब्धि बतां पण खनावथी एकसमयें बे उपयोगनो असंजव , दायोपशमिक नावें पण एमज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमुतुणं अर्थसदित देखाय , केम के चार ज्ञानना धणीने पण एक समय एक झाननो उप योग होय, तेवारें बीजा त्रण झाननो अनाव न होय. अहींयां घणी वक्तव्यता बे, परंतु ग्रंथगौरवना नयथी नथी लखता. हवे ए प्रकारना सर्व विशेषणोयें करी युक्त मुक्त बे. तो पण मुक्तवादी नियतस्थानस्थ, ते कहेवाता नथी त्यां कहे . ( सिव के०) शिव एटले सर्वोपावरहित बे, माटें शिव कहिये. ( मयल के) अचल एटले स्वानाविक प्रायोगिक चलन क्रिया रहित ले माटें अचल स्थिर अने अकंपित कहिये.(मरुय के०) अरुज एटले व्याधिवेदनथी रहित तथा तेना बंधनरूप शरीर अने मन नो अनाव माटें अरुज रोगरहित कहिये. (मणंत के०) अनंत एटले श्रनंत ज्ञानादिक चतुष्टयें करी युक्त ने माटें अनंत कहिये. (अरकय के०) अदय एटले सर्वकाल विनाशनो अन्नाव के निरंतर निश्चल डे माटें अक्षय कहिये. ( मवाबाह के ) अव्याबाध एटले अकर्मत्व ने माटें समस्त प्रकारें बाधारहित बे (मपुणरावित्ति के०) अपुनरावर्ति अपुनः एटले नश्री वली आवृत्ति एटले पार्बु श्रावq जेथी अर्थात् जे गतिथकी फरी संसारने विषे अवतार लेवो नथी, एवी (सिडिग के०) सिछिगति बे,(ना मधेयं के०) नाम जेनुं ए शिवमयलथी मामीने सात विशेषणसहित एवं (गणं के) स्थानकप्रत्ये (संपत्ताणं के०) संप्राप्तेन्यः एटले पाम्या बे, अर्थात् मोदनगर प्रत्ये पाम्या , एवा अरिहंत नणी (णमो के०) नमस्कार था..अहींयां वीजी वार णमो पद आव्यु ते पदें पदें नमस्कार जणाववाने अर्थे . तथा अहिं स्तुति करी बे, माटें पुनरुक्ति दोष पण नथी कारण के, सद्याय, ध्यान, तप, कायोत्सर्ग, उपदेश, स्तुति अने उत्तमना गुणनां वखाण, एटले स्थानकें पुनरुक्तिनो दोष कह्यो नथी. वली ते श्रीअरिहंत केहवा ? तो के (जिणाणं के०) अंतरंगरागादिक रिपुवर्ग प्रत्ये जीपनार तथा (जियजयाणं के०) इहलोकादिक सात नयप्रत्ये जीप नार बे, ते सात नयनां नाम कहे जे. मनुष्यने मनुष्यनुं लय, ते प्रथम श्हलोकनय जाणवू. मनुष्यने देवतादिकपु नय, ते बीजं परलोकनय जाणवू. रखे को महारं कांहिं लीये? ते त्रीजु आदाननय जाणवू, रखे महारी आजीविका हणाय? ते चोएं आजीविकाजय जाणवू. नींत प्रमुख पम्वानो शब्द सांजली बीक पामे, ते पांचमु अकस्मात् नय जाणवं. रखे ने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ प्रतिक्रमण सूत्र. मुझने मरण आवे ? ते बहुं मरणय जाणवू. अपयश पामवाथकी बीक राखे, ए सातमुं अपयशजय जाणवू. ए सवन्नृणं इत्यादिक वाक्य मोदमां बे, तेहईं स्वरूप कडं माटें ए त्रण पदनी मोक्षसंपदा जाणवी. एमां लघु एकावन्न अने गुरु सात, सर्व मली अहावन्न अदरो ॥ ए॥ ए श्री शक्रस्तवमाहे अनेक विधामंत्र गोपव्या , ते गुरु आम्नायें जा णीयें, ए नमुबुणे करीने नगवंतने जन्म कल्याणादिकने विषे इंछ स्तवे डे माटे एने शक्रस्तव कहियें. एमां सर्व मली संपदानव बे, पद तेत्रीश बे, बशें चोत्रीश लघु, अने अहावीश गुरु, सर्व मली बशें ने बाशठ अदरो बे. ए सम वसणे बेठा विहरमान तीर्थंकर देव जे नाव जिन , तेने स्तववारूप प्रथम अधिकार कह्यो. एटलो शक्रस्तव श्रीगणधर देवनो करेलो जाणवो. हवे अव्यअरिहंत जे श्री तीर्थंकर देवनां दलियां, ते पण वंदनीय बे. जेम श्रीजरतेश्वरें श्रीमहावीरना जीवने मरीचिना नवें वांद्यो, ते नणी ते अव्यथरिहंत कहियें. एवा त्रिकालवर्ती प्रव्य अरिहंत जे होय, तेमने वांदवाने अर्थे पूर्वाचार्यकृत गाथा कहे . ॥जे अई सिधा, जे अनविस्संति णाग ए काले ॥ संपश्य कट्टमाणा, सबै तिविदेण वंदामि ॥ १० ॥ इति ॥ १३ ॥ अर्थः-(जेश के) ये एटले जे जिन,(अईया के०)अतीताः एटले यातीतकालने विषे थया, एवा(सिझा के०)सिझाःसिक जगवंत एटले जे अतीत कालने विष तीर्थकर पदवी पाली मोदें पहोता (अणागएकाले के०)अनागत कालने विषे (जे के०)ये एटले जे जिन,(न विस्संति के०)नविष्यंति एटले थाशे सिद्धपर्याय पामशे, (अ के) वली(संपश्य के)सांप्रतिक एटले सांप्रत वर्तमान कालने विषे (वट्टमाणा के० ) वर्तमानाः सांप्रतकालें वर्तमान चोवीशीयें श्रीशषप्रमुख चोवीश तीर्थकर थया अथवा महाविदेह दे ने विषे विहरमान जे श्रीसीमंधर प्रमुख वीश तिथंकर जयवंता , तेने वर्तमान कहिये. ते ( सत्वे के०) सर्व जिनप्रत्ये (तिविहेण के० ) त्रिवि धेन त्रिविधं करी एटले मन, वचन अने कायानी एकाग्रतायें करी (वंदा मि के० ) हुं वांउं ॥ अव्य अरिहंत जो नरकादि गतिमा होय तो पण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जावंत के विसा अर्थसहित. ७३ ते जावारिहंतनी पेरें वांदवा योग्य बे, अहिं नामजिन ने जाव जिन पण द्रव्यमां स्थापन करी वांदवा. या गाथामां लघु एकत्रीश, गुरु चार, सर्व मली पत्रीश अक्षरो वे. ते पूर्वला साथै मेलवतां लघु ( २६५ ) गुरु (३२) मली ( १०१ ) प्रक्षरो थाय ॥ १० ॥ १३ ॥ ॥ अथ जावंति चेाई ॥ ॥ ॥ जावंति चेाई, उडे दे तिरिच्य लोए सवाई ताई वंदे, इह संतो तब संताई ॥ १ ॥ १४ ॥ अर्थः- (उड़े के० ) ऊर्ध्वलोकने विषे ( ० ) वली (दे के० ) धोलोक विषे ( ० ) वली ( तिरियलोए के० ) तिलोकने विषे ( जावंति के० ) जेटला (चेश्याएं के०) चैत्यानि एटले जिनप्रतिमा बे. (ताई सवाई के०) तानि सर्वाणि एटले ते सर्व प्रत्यें (वंदे के०) हुं वांडु तुं, ते केवो को हुं बांड हुं? तो के ( इहसंतो के ० ) अहींया रह्यो थको ने कहेवी ते जिनप्रतिमा बे? तो के, (त के० ) तिहां त्रण लोकमांडे (संताई के० ) ती विराजमान रही बे, एटले ऊर्ध्वलोकें वैमानिक मांहे (८४७०२३ ) एटलां त्याने विषे ( १५२०४४४७६० ) जिनप्रतिमा बे, तथा ज्योतिषी मध्यें असंख्याता प्रासाद ने संख्यातां बिंब वे तथा अधोलोकें जवन पतिमध्यें ( 99200000 ) प्रासाद बे. तिहां ( १३८५६००००oo ) बिंब बे. तेमज व्यंतरमां संख्याता प्रासाद ने असंख्यातां बिंब बे. तथा तिर्यंचलोकमां ( ३२५० ) प्रासाद. तिहां ( ३०२१३२० ) एटलां शाश्वतां जिनबिंब अशाश्वतानुं कांहिं गणित नथी, ते हुं अहींयां ने ते चैत्य तिहां वे तेनेहींयांथकी हुं बांडुं कुं. या गाथामां चार पद बे, चार संपदा बे, लघु वत्रीश अने गुरु त्रण, सर्व मली पांत्रीश रो बे ॥ १ ॥ इति ॥ १४ ॥ ॥ अथ जावंत केवि साहू ॥ जावंत केवि साहू, जरदेवयमदाविदेदे च ॥ सधेसिं तेसिं पण, तिविदेण तिदमविरयाणं ॥ १ ॥ इति ॥ १५॥ अर्थ: - (रह के० ) पांच जरत, ( एरवय के० ) पांच ऐरवत, (०) वली (महाविदेहे ० ) पांच महाविदेह, ए पंदर क्षेत्रने विषे ( जावंत के० ) १० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H प्रतिक्रमण सूत्र. जेटला (केवि के०) कोई पण ( साहू के० ) साधु बे, ( तेसिंसवेसिं के० ) ते सर्व साधु, साध्वी जी महारो ( पार्ट के० ) नमस्कार था. ते साधु केहवा बे ? तो के ( तिविद्वेण के० ) त्रिविध एटले मन, वचन, अने कायायें करीने ( ति के० ) अशुद्ध मन, वचन कायारूप ऋण कथकी (विरयाणं के० ) निवर्त्या बे. एटले जे जीवनुं, मन, कुध्यानें वर्त्ते, ते मनोदंग, सावद्य वचन बोले ते वचन, अने काया कुव्यापारें प्रवर्त्तावे, तेने काय कहियें. ए त्रण दंम जाणवा || एमां चार पद, चार संपदा, लघु सामत्रीश अने गुरु एक, सर्व अक्षर आमत्रीश बे. पूर्वली गाथाना मेलवतां उगणोतेर लघु, चार गुरु, सर्व अक्षर तहोंतेर वे ॥ १ ॥ १५ ॥ ॥ अथ उपसर्ग हर स्तवन ॥ उवसग्गहरं पासं, पासं वंदामि कम्मघणमुक्कं ॥ विसदर विसनिन्नासं, मंगल कलाप्रवासं ॥२॥ अर्थः- जेना शासननुं ( उवसग्गहरं के०) दुःखसंकटादिक उपसर्गनो हरनार एवो, ( पासं के०) पार्श्वनामें यह बे सेवक जेनो एवा श्री ( पासं० ) पार्श्वनाथ स्वामी प्रत्यें ( वंदामि के० ) हुं वांड तुं. अथवा राग, द्वेष ने मोह ए त्रणना करेला जे जन्म, जरा अने मरणरूप उपसर्ग, ते प्रत्यें प्रभु पोतें हरनार बे. एवा ( पासं के० ) प्राशं एटले प्रशब्दें करी ग बेशं शंब्दें करी आशा वांटा जेथकी एवा श्रीपार्श्वनाथ प्रत्यें हुं वांड . वली श्री पार्श्वनाथ केहेवा बे? तो के, ( कम्मघणमुक्कं के० ) कर्मना घन एटले समूह तेथकी मुक्त बे, रहित बे, अथवा शुद्धचेत नरूप चंद्रमाने ढांकनार एवो कर्मरूप घन एटले मेघ तेथकी मुक्त बे, रहित बे. वली श्री पार्श्वनाथ केहवा बे ? तोके, (विसहरके० ) विषधर जे द्रव्यथी तिर्यंचसर्प, ते संबंधी जे ( विस के० ) विष, एटले दृष्टिविष, आशीविष, लाल विषादिक ते प्रत्यें ( निन्नासं के० ) निर्नाश एटले यति शयें करीने नाशना करनार बे. अथवा जावथी विषधर ते मिथ्यात्वी जीव संबंधी जे विष, ते मिथ्यादृष्टिपणुं जे अनादि अनंत कालनुं महामोह रूप सर्पनुं विष, ते जावथी सर्व श्रात्मप्रदेशें व्याप्यं वे एवं जे मिथ्यात्वरूप विष, तेनातिशयें करी नाशना करनार बे. वली श्री पार्श्वनाथ केहेवा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवसग्गदरस्तवन अर्थसहित. य ? तो के ( मंगल के० ) दुःखनो विलय, उपद्रवनिवृत्ति तेने मंगल क हियें तथा ( haru h० ) सुखनी वृद्धि तेना ( वासं के० ) प्रवास वे. या गाथामां लघु बत्रीश ने गुरु पांच, मली सामग्रीश अक्षरो बे ॥१॥ हवे मंत्रगर्जित ऐवुं जे या स्तवन, तेनो महिमा कहे बे. विसहरफुलिंगमंतं, कंठे धारे जो सया मर्ज ॥ तस्स गढ़ रोग मारी, डुठजरा जंति नवसामं ॥ २ ॥ अर्थः- ( जो के० ) जे ( मणुर्ज के० ) मनुष्य, श्री पार्श्वनाथना नाम गर्जित एवो ( बिसहरफुलिंगमंतं के० ) विषधरस्फुलिंगनामा अढार श्र करनो मंत्र जे एहीज स्तोत्रमांथी निकले बे, ते मंत्रप्रत्यें (सया के० ) सदा सदैव निरंतर ( कंठे के० ) कंठने विषे ( धारेश के० ) धरे, स्मरे, ( तस्स के० ) तेहना (गह के० ) सूर्यादिक ग्रह, ( रोग के० ) कफ कुष्ठजलोदरादिक रोग, (मारी के०) मर्ती उपद्रव, ( डुजरा के० ) पुष्ट डुन एवा शत्रु तथा एकांतरिया प्रमुख ज्वर, ते ( उवसामं के० ) उप शमा प्रत्यें एटले नाशप्रत्यें ( जंति के० ) पामे. या गाथामां त्रीश लघु ने बे गुरु, मली श्रामत्रीश अरो बे ॥ २ ॥ ॥चिन दूरे मंतो, तु पणामो वि बहुफलो दोइ ॥ नर तिरिसुवि जीवा, पावंति न डुकदोगचं ॥ ३ ॥ अर्थः- अथवा हे नाथ ! ए ताहारो जे ( मंतो के० ) विषधर स्फुलिंग नामें जे मंत्र, ते तो ( दूरे के०) दूर एटले बेगलो (चिहन के० ) तिष्ठतु ए ले रहो. पण (तु के ० ) तहारो ( पणामोवि के० ) प्रणाम एटले नम स्कार करवो, ते पण (बहुफलो के० ) बहुफल एटले घणां एवा सौभाग्य, रोग्य, धन, धान्य, कलत्र, पुत्र, द्विपद, चतुः पद, चक्रवर्ती ने इंद्रादिकनी पदवीना फलनोपनार ( होइ के० ) बे, तेहीज कहियें बैयें. इह लोकना फलनुं तो शुंकहेतुं ? पण तमोने नमस्कार करनार जे सम्यग्रदृष्टि जीव बे, ते प्रायेंः वैमानिकदेवोमांउत्पन्न घाय बे ने कदाचित् पूर्ववायु बतां नवपरंपरायें करीने जीव, ( नर तिरिए सुवि के० ) नर एटले मनुष्यने विषे अथवा तिर्यंचने विषे उत्पन्न थाय बे, तो पण त्यां तेने शारीरीक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ प्रतिक्रमणसूत्र. तथा मानसिक दुःख अने दारिख प्राप्त न थाय, केम के जो मनुष्यमां उ पजे, तो रोगादिकें रहित थाय अने समस्त हितार्थ करी संपत्तिमान् थाय. माटे तेने शारीरिक अने मानसिक छुःखप्राप्त न थाय. तथा कृषि समृद्धि वान् होय माटें दरिडीपणे न होय अने तिर्यंचमां उपजे, तो पण कनक, रत्न, चिंतामणि, कल्पम, पट्टतुरंगम, जयकुंजरा दिने विषं उपजे, तिहां पूजा पामे. अथवा ते मनुष्य पण केहवो ? तो के तिरिए एटले पशु समान एवा बाल गोपाल कृषीवलादिक तेने विषेपण कदाचित् कर्मना वशथकी उपजे, कोण उपजे ? तो के तुमप्रत्यें प्रणामनां करनार एवा (जीवा के ) जीवो, तो तिहां पण (पुरकदोगचं के) जुःख अने दारिजप्रत्ये (नपावंति के) न पामे. या गाथामां लघु तेत्रीश, अने गुरु चार, सर्व मली सामंत्रीश अदरो ने ॥३॥ ॥ तुद सम्मत्ते लझे चिंतामणिकप्पपायवघ्नदिए ॥ पावंति अविग्धेणं, जीवा अयरामरं गणं ॥४॥ अर्थः-(चिंतामणि के०) चिंतामणिरत्नथकी अने ( कप्पपायवप्न हिए के ) कल्पपादप एटले कल्पवृदयकी अधिक ऐवो ( तुह के०) त मारा ( सम्मत्ते के ) सम्यक्त्व दर्शनने (लके के ) पामे बते, (अवि ग्घेणं के) विनरहितपणे (जीवा के०) नव्य जीवो, (अयरामरं के०) अजर एटले ज्यां जरा नथी अने अमर एटले ज्यां मरण नथी, एवं (गणं के) स्थान, तेप्रत्ये (पावंति के०) पामे बे, पण तमारुं सम्यग् दर्शन माम्याविना को जीव, मोदप्रत्ये पामे नहीं. आ गाथामां लघु उंगणत्रीश, अने गुरु ब, सर्व मती पांत्रीश अदरो ने ॥४॥ ॥अ संथुई महायस, जत्तिनरनिग्नरेण दिएण ॥ ता देव दिज बोदिं, नवे नवे पास जिणचंद॥५॥ इति ॥१६॥ अर्थः-(महायस के०) हे महायशः! एटले हे त्रैलोक्यव्यापकयशः! (न त्तिप्पर के ) नक्तिने समूहें करी ( निप्परेण के) पूर्णजरें एटले नक्तिना समुदायें करी परिपूर्ण जघु एवं, ( हिएण के०) हृदय एटले चित्त तेवा चित्तें करी में सेवके (श्य के०) ए प्रकारे तुऊने (संथुङ के०) संस्तुत एट Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयवीयराय अर्थसदित. Ij ले स्तव्यो. ( ता के ) ते कारण माटें (देव के०) हे देव ! निज स्वरूप रूपवनने विषे क्रीमाना करनार एवा (पासजिणचंद के०) हे पार्श्वजि नचं! एटले समीप रह्या जे श्रुतधरादिक जिन,तेने विषे चंडमा समान एवा हे श्रीपार्श्वनाथ ! तमें मुऊ नणी ( नवेनवे के) जन्म जन्मने विषे एटले ज्यां सुधी हुँ मुक्तिप्रत्ये नहीं पामुं, त्यां सुधी (बोहिं के ) बोधि एटले जिनधर्मनी प्राप्ति ते प्रत्यें (दिऊ के) दीयो,एटले आपो. किं बहुना एटले शुं घणुं कहुं ? या गाथामां लघु चोत्रीश, अने गुरु चार, सर्व अदर आमत्रीश ॥५॥ सर्व मली पांचे गाथामध्ये पद वीश, संपदावीश, गुरु एकवीश,लघु एकशो चोशन, सर्वादर एकशो पंच्याशी ॥ हवे आ उवसग्गहरं स्तोत्र शा माटें अने क्यारें थयु? तेनुं कारण लखे . वराहमिहिरनो जीव मरी व्यंतर देवता थयो, तेणें संघमां मरकी विकुर्वी, संघे श्रीनप्रबाहु गुरुने वीनव्या, तेवारें गुरुयें ए महामंत्रमय उवस ग्गहर स्तोत्र करी आप्युं, एना नणवा गणवा तथा सांजलवा थकी मरकी उपशम पामी, पठी लोक निरंतर उवसग्गहरं जणवा लाग्या, तेवारें धरणीने प्रत्यद आवq पमतुं हतुं, माटें धरणींडे गुरुने विनति करी के हे जगवन् ! सर्वलोक जवसग्गहरं स्तोत्र जणे बे, तिहां निरंतर मुऊने आवq पडे बे. माटें प्रसन्न थर बही अने सातमी गाथा नंमारी मूको अने बाकीनी पांच गाथायेंज श्रीसंघनी आर्ति नांजीसुं. एबुं सांजली गुरुयें वे गाथा नंगांरी मूकी बाकी आ पांच गाथाज राखी, ते आज सुधी प्रवर्ते . ___ ए स्तवन कह्या पठी साम सामी आंगुली मेली मोतीयें नरेली शीपना संपुटना आकारें बे हाथ जोमी ललाटदेशे लगामीयें, तेने मुक्ताशुक्तिमुता कहियें. केटलाएक आचार्य कहे जे के, बे हाथ जोमी ललाटें न लगामीयें, एम वे मत . पठी ए मुजायें जयवीयराय कहिये, तेनो पाठ लखे ॥१६॥ ॥अथ जयवीयराय ॥ जय वीयराय जगगुरु, दोन ममं तुह पन्नाव जयवं ॥ नवनिवे मग्गा, णुसारिआ इफलसिही ॥१॥ अर्थः-(वीयराय के )हे श्रीवीतराग ! ( जगगुरु के०) हे जगत्रय गुरो! तुमें (जय के०) जयवंता वत्तॊ. ए वीतरागादिक आमंत्रण, ते त्रिलो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JG प्रतिक्रमण सूत्र. कनाथ एवा नगवानने बुद्धिना सन्निधापनार्थ बे. (तुहपन्नाव के०) तमारा प्रनावथकी एटले तमारा सामर्थ्यथकी ( ममं के०) महारे (होउ के०) थार्ज, (जयवं के०) हे जगवन् ! ए जे संबोधन , ते जत्यतिशयना झापनने माटे . हवे ते \ था! त्यां कहे . एक तो (जवनिवेठ केप)नव निर्वेद था, एटले अत्यंत दुःखदायक बंदीखाना समान एवो जे नव संसार तेथी उदासपणुं थाउँ, एटले हुँ संसारमाहेथी निकलु, चारित्रधर्मने आदरं, एवो जे नाव तेने जवनिर्वेद कहियें, ते महारे था. कहेढुंबे के जवथकी अनिर्विम (जेने निर्वेद नथी ) ते भोदने योग्य नथी. अने बीजुं (मग्गाणुसारिया केण) मार्गानुसारिपणुं था. एटले कदाग्रहने त्या ग करी तहारा मार्गने अनुसार चालवू,तेवा मार्गानुसारी पुरुष संबंधी गुणो, तेनी प्राप्ति था. त्रीजुं (इफलसिझी के ) इष्ट एटले वांछितफल तेनी सिछि था. एटले शुद्ध आत्मधर्म , ते साधु अथवा श्रावकने इष्ट ने मा टें तेनेविषे सदा उपयोगनी पूर्णता तेनी सिकता ते महारे था. आं गाथामां लघु बत्रीश अने गुरु चार, सर्व मली चालीश अदरो ने ॥१॥ ॥लोगविरुच्चार्ज, गुरुजणपूा परचकरणं च ॥ सुद गुरु जोगो तवय,ण सेवण आनव मखंमा॥२॥ अर्थः- तथा चोथो (लोगविरुधञ्चार्ड केय) लोक विरुधनो त्याग था, एटले जे कार्य जिनागमथी विरुद्ध होय अने साधु श्रावक जे कार्यने नि षेधे, निंदे, तथा जे कार्यथी धर्मनी हेलना थाय, एवां कर्त्तव्य जे परनिं दा, चोरी, परस्त्रीगमनादिक, ते सर्व लोकविरुद्ध कार्य कहिये तेनो त्याग था. तथा पांचमो ( गुरुजण कें) मातापितादिक तथा धर्मना दातार जे सद्गुरु इत्यादिक महोटानी (पू के०) पूजा नक्ति करवी था. यद्यपि गुरुपदें करीने आचार्यमुंज ग्रहण थाय, तथापि अहिं मातापिता दिकनुं पण ग्रहण करवू, तुं (परबकरणंच के०) परार्थ एटले पर संबंधी जे अर्थ तेनुं करण एटले कर, एटले परोपकार करवो, ते महारे था अथवा (परार्थ के०) मोद तेनुं (करण के०) साधान जे ज्ञानादि रत्नत्रय ते महा रेथा. ए प्रमाणे पर हितार्थादिक करण था जीवलोकनुं सारनूत पुरुषार्थचिन्ह थये ते लौकिकने विषे लोकोत्तर धर्माधिकारी थाय जे. ते कहे . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयवीयराय अर्थसदित. ए सातमो (सुहगुरु के.) शुजगुरु जे शुझप्ररूपक कालानुसारें शुद्धकि याना खप करनारा गुरु तेनो (जोगो के ) योग एटले समागम महारे था, आठमो ( तवयण केu) तम्चन एटले तेहीज सदगुरुना वचन नी अथवा जिनवचननी ( सेवणा के० ) सेवा एटले आराधना था. ते क्यां सुधी था ? तो के मारे ज्यां सुधी (आनवं के०) संसार बे, त्यां सुधी था. ते सेवना केवी रीतें था ? तो के ( अखंमा के०) अखंम परिपूर्ण जेथी परगुणमां चित्त प्रवेश करे नहीं. सदा निज गुणमां ज चित्त वर्ते, अथवा ए आठ वानां ज्यांसुधी हुं संसारमा रहुँ, त्यां सुधी मुऊने था. किंबहुना. ए गाथामां लघु पांत्रीश, गुरु चार, सदर उंगण चालीश ॥२॥ए बे गाथा श्रीगणधरजीनी करेली बे, एमां प्रणिधान मननी समाधिनी याचना करी, ते प्रायः करीने निःसंगानिलाषरूपत्व बे. ए बे गाथामां पद आठ , संपदा आठ . एकोत्तेर लघु अने आठ गुरु सर्व मली उंगणाएंशी अदरो के. बेहु जावंतना मेलवतां (१५२) थाय. हवे आगली त्रण गाथा पूर्वाचार्यकृत ने माटे मुख आगल बे हाथ जोमी देव वांदवानी समाप्तिये कहे, ते कहे . वारिजाइ जवि निआ, ण बंधणं वीराय तुह समए ॥ तहवि मम हुऊ सेवा, नवे नवे तुम्ह चलणाणं ॥ ३ ॥ अर्थः-(वीराय के ) हे श्रीवीतराग! ( तुह के० ) तमारा (समए के) सिद्धांत तेने विषे ( जशवि के ) यद्यपि एटले जो पण (निाण बंधणं के ) नियाणानुं वांधq एटले अमुक राज्यादिकनी पदवी हुँ पामुं ? एवा निदाननी वांगनुं करवू, तेने (वारिजा के०) वायुं बे, निषेध्युं बे. ( तहवि के ) तथापि एटले तो पण हुं एटयुं मायुं बुं जे ( तुम्हचल णाणं के० ) तमारा. चरणोनी ( सेवा के० ) नक्ति, ते (मम के) महारे ( नवेनवे के० ) जन्म जन्मने विषे (हुआ के ) होजो ॥३॥ श्रा गाथामां लघु आमत्रीश, गुरु त्रण, सर्व मली एकतालीश अकरो ॥ ॥ उककर्ज, कम्मक समादिमरणं च बोदिलानो अ॥ संपजाऊँ मह एअं, तुद नाह पणामकरणेणं ॥ ४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. अर्थः- एक ( पुरककर्ज के ) शारीरिक अने मानसिक एटले शरीर संबंधी दुःख ने मननां दुःख तेनो दय तथा बीजो ( कम्मरकट के० ) ष्ट कर्मनो क्षय, एटले मोहनीयादिक शुकर्मनो कय, त्रीजो (समा हिमरणं ho) समाधिमरण, (च के०) वली चोथो ( वो हिलाजो अ के० ) बोधबीजनोलान, ते जिनधर्मनी प्राप्तिनुं यावुं एटले क्रियासहित सम्यग ज्ञानदर्शननो लान. प्रकार पादपूर्णार्थ बे. (एं के० ) ए चार बोल, ( मह के० ) माहारे ( संपऊर्ड के०) संपद्यतां एटले घाउ. पण शुं करीने and ? तोके ( तुहनाह के ) तुम नाथ प्रत्यें एटले हे नाथ ! तुक प्रत्यें (पणामकरणेणं के०) प्रणाम करवे करीने एटला वानां मुऊने था या गा यामां लघु चोत्रीश, गुरु पांच, सर्वाक्षर जंगणचालीश बे ॥ ४ ॥ Go सर्वमंगलमांगल्यं, सर्वकल्याणकारणम् ॥ प्रधानं स र्वधर्माणां, जैनं जयति शासनम् ॥ ५ ॥ इति ॥ १७ ॥ अर्थः- हवे जिनशासन ने मांगलिक जी संस्कृत श्लोकें करी आशीर्वाद यापे बे. (जैनं शासनं के०) जैन एवं शासन ते श्री जिन तीर्थंकर संबंधी युं शासन एटले प्रदेश. (जयति के०) जयवंतुं वर्त्ते बे, ते केदेवं बे ? तो के ( सर्व मंगलमांगल्यं के०) सर्व मंगलमांहे मांगलिक बे, एटले जैनशासन विना बीजी को मांगलिक वस्तु नथी अने दर्पण, रूपुं पुत्रमुख, गायमुखादिकनुं जो, तथा दधि, गोल, पुष्प, चंदन, अक्षत, दूर्वादिकने जे लोक मांगलिक कहे बे, ते सर्व जूठी कल्पना जाणवी. कारण के ते ऐहिक मंगल बे, ने जैनशासन पारलौकिक मंगल वे. वली ते जैनशासन केहवुं बे? तोके ( सर्व कल्याणकारणं के०) सर्वकल्याणनुं संपूर्ण कारण एटले सुखवृ किनुं कारण बे. वली (सर्वधर्माणां के०) सर्व धर्मोना मध्यमां (प्रधानं के० ) प्रधान बे मुख्य d. ए श्लोकमा जारेण ने लघु उगणत्रीश, मली बत्रीश अरो वे ॥ ५ ॥ एमां जीवदयानी मुख्यता तेजी, ए पाली वे गाथा ने एक श्लोक मली ऋण थ. तेमां बार पद, बार संपदा, लघु एकशो एक अने गुरु गीयार, सर्व मली एकशो बार अरो बे ने ए जयवीयराय नी सर्व मी पांच गाथा थइने पद वीश, संपदा वीश, लघु (१७२) गुरु गणीश, सर्व मली (१०१) अक्षरो बे. ए रीतें सूत्र, अर्थ, संपदा, पद, अक्षर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरिहंत चेाणं अर्थसदित. १ शुधनो उच्चार करतां देव वांदवामां ध्यानने बलें जीव तीर्थंकरगोत्र मेघर थराजानी परें उपार्जन करे ॥ इति जयवीयराय सूत्रार्थः ॥ इति ॥ १७॥ हवे पंचांग प्रणाम करी उन्नो थर पगे जिनमुखा अने हाथे योगमु जा साचवतो थको चैत्यस्तव दंमक कहे, ते लखे ॥ ___॥ अथ अरिहंत चेश्याणं ॥ अरिहंत चेश्आणं, करेमि कानस्सग्गं ॥१॥ अर्थः-(अरिहंतचेश्याणं के०) अरिहंतचैत्यानां एटले अहीं अरिहंत शब्दें नावअरिहंत लेवा,तेमनी चैत्य शब्दें,चित्तने समाधिनी करनार प्रतिमा समजवी,ते प्रतिमाने वंदना दिने अर्थे (करेमिकाउस्सग्गं के०) करोमिकायो त्सर्ग एटले हुँ कायोत्सर्ग करुं बुं. ए संबंध, एटले एक स्थानकें रही मौन कर बु, ध्यान धरवू, एटलां वानां विना बीजी क्रियानो त्याग करवो,तेने काउस्स ग्ग कहियें ए वे पदें करीअरिहंतनां चैत्य वांदवा निमित्तें काउस्सग्ग करीश. माटें अरिहंत वांदवानी अंगिकाररूप प्रथम अभ्युपगम एटले अंगीकार संप दा जाणवी. एमां पद बे, लघु तेर, अने गुरु बे, सर्व मली पंदर अदरो बे॥१॥ ॥वंदणवत्तिआए, पूअणवत्तिआए, सकार वत्तिआए, सम्माणवत्तिाए, बोदिलान वत्तिआए, निरुवसग्गवत्तिाए ॥ २ ॥ अर्थः-हवे श्री तीर्थंकरनी प्रतिमाने वंदन आदिक जे जे निमित्ते का उस्सग्ग करवो, ते निमित्त कहे . ( वंदणवत्तिाए के) वंदनप्रत्ययं एटले प्रशस्त मन, वचन अने कायानी प्रवृत्ति त्रिधा शुद्धियें प्रणामर्नु करवू तेथकी जे निर्जरारूप फल थाय बे, ते फलने निमित्ते अर्थात् परमेश्वरनां चैत्य वांदतां जे पुण्य थाय, ते पुण्य, काउस्सग्ग करतां मुझने होजो. अहीं प्राकृत जणी वत्तिाए एवो शब्द थयो जे. एम काउस्सग्ग करतां मुझने फल होजो. इत्यादि नाव, आगले पांचे पढ़े जाणवो. (पूत्र णवत्तिाए के०) पूजनप्रत्ययं एटले गंध, कर्पूर कस्तूरी, फल, फूल, चंद नादिकें पूजानुं करवं, ते थकी जे निर्जरारूप फल थाय . ते फलने अथे काउस्सग्ग करुं बु. ( सकारवत्तिाए के) सत्कारप्रत्ययं एटले सस्कार ते नलां वस्त्र, आजरणादिकें करी पूजवू, तेथकी जे निर्जरारूप ११ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G प्रतिक्रमण सूत्र. फल थाय बे, ते फलने अर्थे काउस्सग्ग करुं बु. (सम्माणवत्तिाए के०) सन्मानप्रत्ययं सन्मान एटले स्तवन, स्तोत्र प्रमुखें करी प्रजुना गुणग्राम कहे वा थकी जे निर्जरारूप फल थाय बे, ते फलने अर्थे (काउस्सग्ग के०) कायोत्सर्गप्रत्ये (करेमि के) हुं करुं बु. अहीयां कोइ कहेशे के श्री अरिहंतनी प्रतिमाने वंदन, पूजा, सत्कार अने सन्मानना फलनी प्रार्थना शा वास्ते करो हो ? तेनी आशंका टालवाने हवे आगल पद कहे बे. (बोहिलाजवत्तिश्राए के०) बोधिलानप्रत्ययं एटले परनवें श्रीजिनधर्मनी प्रा तिने अर्थे प्रार्थना करीयें यें. वली को कहेशे के श्रीजिनधर्मनी प्रार्थना पण शा वास्ते करो डो? तेमाटें आगल पद कहे के, (निरुवसग्गवत्तिाए के) निरुपसर्गप्रत्ययं एटले जन्म, जरा अने मरणादिक उपसर्गथी रहि त एवं जे मोक्षरूप स्थानक, ते स्थानकने निरुपसर्ग कहिये, ते पामवाने अर्थे कामस्सग्ग करुं बु. एमां वंदणवत्तियाए इत्यादिकमां श्रीअरिहंतनां चैत्यवंदनादिक करतां जे फल होय, ते फल, ए काउस्सग्गथी होजो, ए निमित्त कह्यां. तेमाटें ए ड पदनी बीजी निमित्तसंपदा जाणवी. एमां पद ब बे, लघु बत्रीश अने गुरु नव, सर्व मली पीस्तालीश अदरो वे ॥२॥ हवे ए काउस्सग्ग जे , ते श्रमादिकें करी रहित कस्यो थको फलने न आपे, परंतु श्रमादिकें करी सहित कस्यो थको श्ष्टफलने आपनार था य , माटे जेणे करी काउस्सग्ग सफल थाय, तेनी त्रीजी संपदा कहे . ॥ सझाए, मेदाए, धीईए, धारणाए, अणुप्पेहाए, वहमा णीए, गमि कानस्सगं ॥ ३॥इति ॥ १७ ॥ अन्नब० ॥ अर्थः-(सझाए के०) श्रझ्या ते ए काउस्सग्ग श्रझायें करी एटले पोतानी प्रास्ताथी करूं, पण कोश्नी जोरावरीथी नहीं, ( मेहाए के) मेध या एटले मेधायें करी ते हेय उपादेय परिझानरूप निर्मल बुछियें करी एट ले सारा मागनां फल जाणीने करूं पण मूर्खपणे नहिं. ( धीईए के०) धृत्या एटले धृतियें करी अर्थात् चित्तनी स्थिरतायें करी मनने वस्थपणे करी करूं; पण राग, द्वेष, चपलतायें करी नहीं करूं. ( धारणाए के०) धारणया एटले धारणायें करी अर्थात् श्रीजिनेश्वरना गुण धारतो थको अणविसारतो थको करूं, पण शून्यपणे नहिं करूं. (अणुप्पेहाए Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्करवरदीवडे अर्थसदित. ८३ ho) अनुप्रेक्षायें करी एटले श्रीजिनेश्वरना गुणने वांरवार चिंतवतो को करूं, श्री जिनगुणार्थ विचारतो थको करूं, पण विकल पणे नहीं करूं, ( माणीए के० ) वर्द्धमानया एटले वृद्धिने पामती एवी श्रद्धा, मेधाधृति, धारणा अनुप्रेक्षा, ए पांचे बोल तेणें करी सहित थको (काउस्सग्गं के० ) कायोत्सर्ग प्रत्यें ( गमि के० ) हुं करुं हुं ॥ ३ ॥ एमां समाए इत्यादिकमां श्रद्धादिक पांच बोल वृद्धिवंता थवाना हेतु कह्या, माटें ए सात बोलनी त्रीजी हेतुसंपदा जाणवी. एम पद सात, लघु चोवीश ने गुरु पांच, मली गणत्रीश अरो बे. अहीं सुधी बद्धां मली पन्नर पद थयां, त्रण संपदा थइ, तथा त्रहोंतेर लघु ने शोल गुरु, मली नेव्याशी अक्षरो थया. तथा एने बेडे अन्नवस सिएणं इत्यादिक काउस्सग्ग क संपूर्ण कहियें. तेनो अर्थ, प्रथम लखाई गयो बे, ए बेदु मलीने याव संपदा, तालीशपद, लघु अक्षर बशो, गुरु उगणत्रीश, सर्व मली बने गणत्रीश अरो वे ॥ इति ॥ १८ ॥ वे जेणें करी सकल पदार्थ जाणियें एवो प्रदीप समान जे श्री सिद्धांत तेने, संस्तववो जोश्यें, तेमध्यें पहेली गाथायें तेना प्ररूपक श्रीतीर्थंकर देवने स्तवे बे. अथ पुरकरवरदीव लिख्यते ॥ ॥ पुरकरवर दीवडे, धायइसंडे जंबुदीवे ॥ नरदेवयविदेदे, धम्मा गरे नम॑सामि ॥ १ ॥ अर्थः- ( पुरकरवरदीवडे के० ) पुष्करवर नामा त्रीजो द्वीप तेनो थ एटले पुष्करवरही पाने विषे वे वे, तथा ( था के० ) वली ( धायइसंडे ho) धात किखं नामा बीजो द्वीप ए द्वीपमां धातुमी वृना खंग एटले वन ते घणां वे माटें द्वीपनुं पण तेहीज नाम जावं, ते विषेपण बे बे, तथा (जंबुदी वे के० ) जंबुद्धीपने विषे एक, एक, ए रीतें अढी द्वीप संबंधी (जरह के ० ) पांच जरत क्षेत्र बे, तेने विषे, वली (एरवय के० ) पांच ऐरवत क्षेत्र बे, तेने विषे, वलि (विदेहे के० ) पांच महाविदेह क्षेत्र बे, तेने विषे, ( धम्मा गरे के० ) धर्म्मनी यादिना करनार एवा जे श्री सीमंधरस्वामी प्रमुख विहरमान जगवंत बे ते सर्व प्रत्यें ( नम॑सा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ច។ प्रतिक्रमण सूत्र. मि के ) हुँ नमस्कार करुं ९ ॥१॥ ए गाथामां लघु चोत्रीश, गुरु त्रण, सर्वादर सामंत्रीश ॥ए विहरमान जिनने वांदीने हवे सिद्धांतने स्तवेळे. ॥तमतिमिरपालवि, सणस्स सुरगणनरिंदमदि स्स॥सीमाधरस्स वंदे, पप्फोडिअ मोहजालस्स ॥२॥ अर्थः-(सीमाधरस्स के०) सीमा एटले जीवने धर्मनी मर्यादाने विषे धरी राखे, पण कुमार्गे वर्तवा न आपे,एवो जे सिद्धांत, ते प्रत्ये(वंदे के०) ढुं वांडु बुं, ते सिद्धांतरूप श्रुतज्ञान केहबुं बे ? तो के ( तम के० )अज्ञानरूप जे (तिमिर के) अंधकार, तेना (पमल के०) समूह, तेप्रत्ये ( विसणस्स के) विध्वंस एटले विनाशनो करनार जे. अर्थात् अज्ञान रूप अंधकारना समूहप्रत्ये नाशनो करनार , अथवा (तम के०) बफ स्पष्ट अने निहत कर्मनां पडल जे समूह अने (तिमिर के) निकाचित कर्मनां (पमल के०) समूह ते प्रत्ये विनाशनो करनार . वली ते सिद्धांत केहवो जे ? तो के ( सुरगण के०) देवसमूहना तथा (नर के०)मनुष्यना जे (इंद के०) इंडो तेणें ( महिअस्स के०) अर्यो बे, पूज्यो ,वली ते सिकांत केहवो बे?तो के (पप्फोमिश्र के०) प्रस्फोटित एटले अत्यंतपणे करीने त्रोमी डे अर्थात् फोमी नांखी ( मोहजालस्स के०) अविवेकि जनोनी अज्ञानरूप मोहजाल एटले मिथ्यात्वजाल जेणे एवो बे, अहीं श्रुतज्ञा नने सीमाधर कह्यो बे,तेनुं कारण ए ने, के सीमा एटले मर्यादा तेमर्यादाने विषे सर्व पदार्थप्रत्ये धरी राख्या स्थापी राख्या ने,माटेंएवा सिद्धांतने हुँ वांउं.ए गाथामां लघु चोत्रीश, गुरु ब, सर्वमली चालीश अदरोडे ॥॥ हवे वली पण ए श्रीसिकांतना गुणोपदर्शनपूर्वक सिझांतमां प्रमाद न करवो, एवो विषय देखाडे ॥ ॥ वसंततिलकाबंद ॥ ॥जाई जरामरणसोगपणासणस्स, कल्लाणपुरकल विसालसुदावहस्स ॥को देवदाणवनरिंदगणचित्र स्स, धम्मस्स सारमुवलग्न करे पमायं ॥३॥ अर्थः-(धम्मस्स के०) धर्मस्य एटले श्रुतधर्म जे श्रीसिद्धांत तेनो (सारं के०) सामर्थ्य एटले श्रुतझान जणवानी शक्ति अथवा श्रुतझाननो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्करवरदीवढे अर्थसदित. ५ (सारं के०) महिमा तेने जाणी, तेना रहस्य पामवानी शक्ति, ते प्रत्यें (उवलन के०) उपलन्य एटले पामीने (को के) कोण जव्य जीव विवेकी पुरुष, (पमायं के०) प्रमाद एटले आलस प्रत्ये (करे के०) करे, अर्थात् जाण एवो कोइ पण पुरुष, प्रमाद, न करे. वली ते श्रुतधर्म केहवो ? तो के (जाजरामरणसोग के) जाति एटले जन्म, तथा जरा, मरणे अने शोक, ते प्रत्ये (पणासणस्स के०) प्रनाशनस्य एटले अतिशयें करीने नाशनो करनार बे. अहीं मरण पामीने फरी संसार मध्ये उपजq तेने जन्म कहीयें, तथा जरा ते वृद्धावस्थानी प्राप्ति, तथा मरण ते प्राणनाश, तथा परवस्तुनो वियोग थाय, तेवारें मनमांहे खेद, उःख धरवू अने शुफ आत्मधर्मथी उदासपणुं राखवू, तेनें शोक कहियें. वली ते श्रुतधर्म केहवो के ? तो के ( कहाण के) कट्य एटले आरोग्य तेने अणति नाम कहेनार ते कल्याण कहिये. ते कल्याणनो कारक, ते पण अल्प नही, परंतु (पुरस्कल के) पुष्कल एटले संपूर्ण (विसाल के०) विस्तीर्ण एवं जे मोदसंबंधी ( सुह के०) सुख, तेनो (श्रावहस्स के०) करनार , एटले आपनार, वली, ते श्रुतधर्म केहवो बे? तो के (देव के०) वैमानिक अने ज्योतिषी देवता संबंधि तथा (दाणव के ) नवनपति अने व्यंतर देवतासंबंधि तथा ( नर के०) मनुष्यसंबंधि जे (कंद के0) इंडो तेना (गण के०) समूह तेणें (अच्चियस्स के०) अर्यों ने पूज्यो बे, स्तव्यो बे, एवो जे श्रीसिझांत, तेने विषे प्रमाद करतो जीव, मासतुसानी पेरें ज्ञानावरणीय कर्म बांधे, माटें प्रमाद अप्रमादनां फल जाणीने सिद्धांतने विषे प्रमाद न करवो. तेवा प्रमादी मूर्ख ज्ञान रहित जीवनां आठ लक्षणो कह्यां जे ते कहे जे. प्रथम लक्षण ए जे चिंतारहित होय, वीजुं घणुं नोज न करे, त्रीजुं मनमां लगा पामे नहीं, चोथु रात्रिदिवस सुखें सुश् रहे, पांचमुं कार्याकार्य विचारवाने बहेरो होय, हुं मान, अपमानने विषे समान होय, सातमुं प्रायः रोगरहित होय, आठमुं शरीरें करी दृढ स्थूल बलवंत होय, ए आठ गुणे करी मूर्ख सुखें जीवे , पण ते मूर्ख एम चिंतवे नहीं जे अनेक शास्त्र सुनाषित सिद्धांतरूप अमृतरसे करी कानने उत्सव करतां जेना दिवस जाय बे, एवा पंमित-जन्म, तथा जीवितव्य सफल अने सुकृतार्थ बे. एवा पंमितें करी पृथिवी शोने दे. अने बीजा पशुसमान वि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G६ प्रतिक्रमण सूत्र. नयविवेक रहित,पुरुष तो पृथ्वीने विषे नारचूत , ते शा कामना जाणवा ? श्त्यर्थः॥३॥श्रा काव्यमां लघु सुमतालीश,गुरु नव, सर्व बप्पन्न अदरो ॥३॥ ॥ शार्दूलविक्रीमित छंद ॥ सिनो पय णमो जिणमए, नंदी सया संजमे ॥ देवं नाग सुवन्न किन्नरगण, स्सस्नूय नावच्चिए ॥ लोगो जब पहिजे जगमिणं, तेलुक्क मच्चासुरं॥ धम्मो वन सा स विजय, धम्मुत्तरं वन ॥४॥ सुअस्स जगव उ॥ करेमि कानस्सगं वंदणवत्तिाए ॥इति ॥॥ अर्थः-(जो के०) हे ज्ञानवंतलोको! तमें जुड़ (सिझे के) सिजाय एटले फलना अव्यनिचारपणायें प्रतिष्ठित तथा नय निदेप प्रमाणादिकें करीने जे सिक एटले निष्पन्न करेलो , अथवा जे कुतर्करहित स्याहा दरूप, डे वली जेने आराधीने भव्य जीव मोदफल प्रत्ये पामे जे. एवो (जिणमए के) जिनमताय एटले जिनमत अर्थात् श्रीतीर्थंकर देवनो प्रका शेलो जे सिकांत, जे तेने (पय के०) प्रयत्नः एटले आदर सहित थको हुँ, (णमो के०) नमस्कार करूं ९. ते जिनमतना प्रसादथकी महारे ( संजय के०) संयम एटले चारित्र, तेने विषे (सया के०) सदा निरंतर, (नंदी के ) समृषि वृद्धि था, ते संयम केहवो ? तो के (देवं के०) वैमा निक देवो, (नाग के) नागेंडादि ते पातालवासी नवनपति देवो, (सुवन्न के० ) सुपर्ण जे गरुमो तथा ज्योतिषी देवो, (किन्नर के० ) व्यंतर देवो, ए चार प्रकारना देव, तेना (गण के ) समूहने जे (स्सयतनाव के) सनंतनावें एटले सत्यनावें करी (अच्चिए के० ) अर्यो, पूज्यो . वली (जब के ) जे जिनमतने विषे ( लोगो के०) त्रिकाल ज्ञान, (पहि के०) प्रतिष्ठयु , कडं जे. वली जे सिद्धांतने विषे (तेवुक के०) अधोलोक, ऊर्ध्वलोक अने तीझेलोक, ए त्रण लोक मध्ये ( मच्च के०) मृत्य एटले मनुष्य, (असुरं के०) नवनपति प्रमुख सर्व देवता अने उप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिणं बुझाणं प्रर्थसदित. लक्षणथी नारकी, तिर्यंच पण लेवा. ए प्रकारनुं ( जग मिणं के० ) श्र जगत् ज्ञेयत्वें प्रतिष्टयुं बे. एटले ए सर्व लोकनुं ज्ञान जे शास्त्रमां स्थाप्युं a. अर्थात सर्व जगत्, जे सिद्धांतना बलें करी जाय बे, एवो (धम्मो ० ) सिद्धांत रूप श्रुतधर्म, ते ( व के० ) वृद्धिं यातु, वृद्धिने पामो. ते श्रुतधर्म नित्य पणा माटे अर्थ आश्रयी सदैव ( सास के० ) शाश्वतो 69 तथा ( विजय ० ) परवादीयोने कींपवा थकी विशेषपणे करी जय तो बे, वली ( धम्म के० ) चारित्र धर्मनुं ( उत्तरं के० ) प्रधानपएं जेम थाय, तेम ते श्रुतधर्म, ( वहुत के० ) वृद्धिने पामो. एमां फरीने जे (वउ ) ए पद बे, ते ज्ञानवृद्धि करवी, एम देखावा माटें बे ॥ ४ ॥ ( सुसन गवर्ड के० ) हे जगवंत! ते श्रुत सिद्धांतने राधवा जी थवा एवा श्रुत सिद्धांतरूप जगवंत तेने राधवा जणी अथवा (जगवdho) महिमा जे सिद्धांत तेने आराधवाने निमित्ते ( करेमि काउस्स गं के० ) हुं काजस्सग करुं हुं, पढी वंदणवत्तित्र्याए इत्यादिक पाठ जणी ने कायोत्सर्ग करे, तेनो अर्थ पूर्ववत् जावो ॥ इति श्रुतस्तवसूत्रार्थः ॥ ए काव्यमा लघु एकशठ, गुरु पंदर, सर्वाक्षर बोंतेर बे, “सुप्रस्स जगवर्नु" एटले सुधी गणतां लघु समशव, गुरु शोल, सर्व मली त्र्याशी अक्षरो बे. ए चारे गाथाना मली लघु एकशो त्र्याशी, गुरु तेत्री शमली सर्व शो ने शोल बे. एमां बे गाथा तथा काव्य पण बे बे ॥ इति ॥ ११७ ॥ हवे. सर्व क्रियाना परंपराफलभूतजे सिक, तेने नमस्कार करवामादें कहे बे. ॥ सिद्धाणं बुद्धाणं ॥ अक्षर ॥ सिणं बुझाएं, पारगयाणं परंपरगयाणं ॥ लोग मुवगयाणं, नमो सया सबसिणं ॥ १ ॥ ( अर्थ :- सिद्धाणं के० ) सर्व अर्थ सिद्ध करयो वे जेणें, तेने सिद्ध कहियें. हवे ते सामान्यथी कर्म सिद्ध, विज्ञान सिद्ध, विद्यासिक, ए पण सिद्ध कहेवाय बे ? त्यां कहे बे के, ( बुद्धाणं के० ) बुद्धेभ्यः एटले ज्ञानवडे तत्त्वना जाण अर्थात् समस्त जगत्रयना स्वरूपने जेणें जाण्या बे. वली ( पारगयाणं के० ) पारगतेन्यः एटले संसारसमुना पारप्रत्यें पाम्या बे, अथवा सर्व कार्यनो पार एटले अंत, ते प्रत्यें पाम्या बे माटे सिद्ध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ចុច प्रतिक्रमण सूत्र. कहियें. (परंपरगयाणं के ) परंपरागतेन्यः एटले परंपरायें करीने अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थानकथी मामीने अनुक्रमें चउदमा अयोगी गुणगणा सुधी चमीने मोदप्रत्ये पहोता अथवा कर्मना दयोपशमादिकथी प्रथम शुझ सम्यक्दर्शन, पडी सम्यक्झान, पठी सम्यक्चारित्र पामी दपक श्रेणि करी एवी परंपरायें करी अनुक्रमें मोदें पहोता. (लोअग्गमुवगयाणं के०) लोकायमुपगतेन्यः एटले लोकाग्रने विष उपगत एटले पहोता सिकदेत्रप्रत्यें पाम्या, एवा (सबसिझाणं के)सर्व सिकेन्यः एटले तीर्थ, अतीर्थादिक नेदें पंदर प्रकारना जे सर्व सिझ, ते प्रत्ये (सया के०) सदा निरंतर (नमो के०) नमस्कार था. आ गाथामां लघु त्रीश, अने गुरु पांच, सर्व मली पांत्रीश अदरो ॥१॥ हवे ढुकमा निकट उपकारी माटें वर्तमान तीर्थंकर शासनना नायक श्री महावीर स्वामी ने, तेनी स्तुति नणे बे. जो देवाणवि देवो, जं देवा पंजली नमसंति ॥ तं देवदेवमदिअं, सिरसा वंदे महावीरं ॥२॥ अर्थः( जोदेवाणविदेवो के०) योदेवानामपि देवः एटले जे देवोना पण देव बे,ते देवाधिदेव कहियें वली (जं के०) जेमने (देवा के०) वैमानिक प्रमुख चार निकायना देवतार्ज,ते (पंजली के०)हाथ जोमी मस्तकें चढावीने ( नमसंति के) नमस्कार करे . वली (देवदेव केण) देवताउँनो देव जे इंड, तेणें (महिरं के ) पुष्पादिकें करी पूज्या जे. (तं के०) ते (महावीर के) श्रीमहावीरखामीप्रत्ये (सिरसा के०) मस्तकें करीने ( वंदे के०) हुँ वांउं बु. या गाथामां सर्व मली चोत्रीश लघु अक्षरोज ॥२॥ हवे नमस्कारनुं फल देखामवाने आगल गाथा कहे बे. इकोवि नमुकारो, जिणवरवसदस्स वक्ष्माणस्स ॥ संसारसागराज, तारे नरं व नारिं वा ॥३॥ अर्थः-( जिणवर के०) सामान्य केवलीयोने विषे एटले श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी प्रमुख ते जिन कहियें,ते मध्ये वर एटले प्रधान एवा केवलज्ञानी नगवान् तेने जिनवर कहियें, ते केवलीयोने विषे (वसहस्स के०)वृष न सरखा बे, एटले तीर्थकर नाम कर्मना उदयथकी प्रधान ने. त्यां शंका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिक्षाणं बुझाणं अर्थसहित. करे ले के एवा तो झपनादि चोविशे तीर्थंकरो ग्रहण थाशे, तो त्यां कहे . के (वकमाणस्स के )श्री वर्धमान स्वामी लेवा. तेने जावें करीने(श्कोवि न मुकारो के०) एक वार पण नमस्कार कस्यो होय,एटले घणा नमस्कार तो अलगा रह्या, तथापि एकवार पण नमस्कार करवाथी पण पुःखें पार पमा य, एवो जे ( संसारसागरा के ) संसारसमुड ते थकी (तारे के)तारे बे,एटले मोक्षपदवी आपे बे. ते कोने तारे जे ? तो के ( नरं के०)नर प्रत्ये अने ( व के० ) वली ( नारी के०) नारीप्रत्ये (वा के०) अथवा कृत्रिम नपुंसक प्रत्ये तारे जे. अहीं कोइएक दिगंबरमतानुसारी स्त्रीने मोद नथी, एम कहे . ते जू कहे , केम के, मोदनुं कारण जेज्ञान,दर्शन,अने चारित्ररूप रत्नत्रयी ने तेनुं आराधन कर, तो पुरुष तथा स्त्री बेहुने विषे समान बे, ते तो प्रत्यक्ष दीगमां आवे ,मादे स्त्रीने मोद जवामां कां पण प्रतिबंध नथी॥आ गाथामां लघु एकत्रीश अने गुरु पांच,सर्व मली बत्रीशअदरो॥३॥एत्रण गाथा श्रीगणधरजीनी करेली नेते मात्रै नियमपूर्वक कहेवी. हवे आगली आवश्यकचूर्णीमांहेलि बे गाथा, गुरुपरंपरागत बे, ते पण कहेवी. तेमां पहेली गाथायें श्रीगिरनारपर्वतमुखमंमन सकल विघ्न समूह विहंगन, एवा श्रीनेमिनाथ नगवान् , तेमनी स्तुति कहे बे. जर्जित सेलसिहरे, दिरका नाणं निसीहिआ जस्स॥ तं धम्मचकवहि, अरिहनमि नमसामि ॥४॥ अर्थः-(उजिंतसेलसिहरे के०) उकिंत शैलशिखरनी उपर एटले गिरनार पर्वतना शिखरनी उपर सहस्राम्रवन माहे जेनां त्रण कल्याणक थयां बे, ते कहे . एक (दिरका के०) दीदाकट्याणक, अने बीजुं ( नाणं के०) झानकल्याणक, त्रीजु ( निसीहिया के ) सकलव्यापार निषधवा नणी निषेधिका एटले मोदकट्याणक, ए त्रण कल्याणक, ( जस्स के० ) जे स्वामीनां थयां बे. वली (धम्मचकवहिं के ) मिथ्यात्वादिक नाव शत्रुनो उन्नेद करवाथकी धर्मचक्रवर्तीसमान, ( तं के ) ते (अरिहनेमि के) श्री अरिष्टनेमि नगवानने ( नर्मसामि के० ) हुं नमस्कार करुं बुं॥ आ गाथामां लघु सत्तावीश अने गुरु सात,मली चोत्रीश अदरो बे॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 प्रतिक्रमण सूत्र. बीजी गाथा श्रीअष्टापद प्रमुख तीर्थने नमस्कार करवा नणी कहे . चत्तारि अह दस दो, अवंदिया जिणवरा चनबीसं ॥ परमहनिहिअहा, सिहा सिई मम दिसंतु ॥५॥३०॥ अर्थः-अष्टापद पर्वत उपर नरत चक्रवर्तीये करावेलो एवो जे चतुर्मुख प्रासाद तेने विषे जेनां प्रतिबिंब विराज्यां , त्यां दक्षिण दिशिने विषे संनवादिक (चत्तारि के०) चार अने पश्चिम दिशिने विषे सुपार्श्वजिनादिक (अठ के० ) आठ तथा उत्तरदिशिने विषे धर्मजिनादिक (दस के०) दश तथा पूर्वदिशिने विषे झपनजिनादिक (दोश्र के०) बे, ए सर्व एका मेल वीयें, तेवारें ( जिणवरा चनवीसं के) चोवीश तीर्थंकरो वर्तमान चोवी शीना थाय. ते केहवा ?तो के (वंदिया के०) वंदित , एटले जेने इंसादिक वांदे . माटें वंदित , वली (पस्म के०) परमार्थे करी, पण कल्पनामात्रे नही, एटले सत्यार्थ पणे करी जे (निहिअहा के ) निष्ठितार्थ थया ने, एटले ( निष्ठित के ) स्थिर अचल कस्युं ( अर्थ के० ) सर्व प्रयोजन जेणे अर्थात् जे कृतकृत्य थया ने तथा ( सिझा के०) सिद्ध थया , एटले पूर्णफलने पाम्या बे, एवा झपनादिक चोवीशे जिनवर ते ( मम के) मुझने (सिकिं के०) सिद्धि एटले मोद, ते प्रत्ये (दिसंतु के०) द्यो आपो॥५॥ए गाथामां लघु उंगणत्रीश, गुरु आउ, मली सामंत्रीश अदरो बे. ए गाथा जे प्रकारें श्रीगौतम स्वामीयें अष्टापद पर्वतनी उपर जश्ने देवनी वंदना करता करतां करी बे, ते प्रकारेंज निबंधन थयेली बे. ए सिकस्त वमां बधी मलीने पांच गाथा बे, वीश पद , वीश संपदा बे, लघु एकशो ने एकावन अने गुरु पच्चीश, मली एकशो ने बहोतेर अदरो २ ॥२०॥ हवे सवब नचियकरण एम परमेश्वरें कडं बे.तेमाटें उचित करवा नणी श्रीवीतरागना वैयावच्चगर एवा जे सम्यग्दृष्टि देवता, तेना प्रत्ययने अर्थे कानस्सग्ग करवा सारु आवी रीतें कहे, ते कहे जे ॥ ॥अथ वेश्रावच्चगराणं ॥ वेआवञ्चगराणं, संतिगराणं, सम्मद्दिहिसमादिगराणं ॥१॥इति ॥२१॥ करेमि कानस्सग्गं अन्न ॥ अर्थः-श्रीजिनशासन- ( वेश्रावच्चगराणं के० ) वैयावच्च एटले सार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोऽर्दत् तथा संसारदावानी स्तुति अर्थसदित. ए! संजाल चिंताना करनार सान्निध्यकारी एवा जे गोमुख यद, अने चके श्वरी प्रमुख, (संतिगराणं के०) सर्वसंघने शांतिना करनार, कुञोपवने उपशमना करनार, (सम्मदिहिसमाहिगराणं के०) सम्यकदृष्टि जीवोने स माधि एटले चित्तनी एकाग्रताना करनार, एवा देवो आश्रयीने ॥१॥ (करे मि काउस्सग्गं के०) हुं कायोत्सर्ग करूं बु. अहीं वंदणवत्तिाए इत्यादिक पाठ न कहिये, जे नणी ते यदादिक देवो अविरति पणे बे, माटें वांदवा पूजवा योग्य नथी तेथी 'अन्नब उससीएणं' इत्या दिकज कहियें. अहींयां देवतानो काउस्सग्ग करतां मिथ्यात्व लागे , ए रीतें केटलाएक कहे , ते जूतुं कहे , केम के? श्रीहरिजमसूरिकृत ललितविस्तरानी वृत्ति तथा श्रीहेमाचार्यकृत योगशास्त्रवृत्ति तथा आवश्यकचूर्णी मध्ये देवतानो काउ स्सग्ग करवो प्रगटज कह्यो बे, तथा श्रीवयरस्वामीयें गोष्ठामा हिल्स निन्ह वने अर्थे तथा सुनना श्राविकायें चंपानगरीनी पोल उघामवाने अवसरें तथा मनोरमा श्राविकायें,सुदर्शन श्रेष्ठीने शूलिनुं संकट पडे थके देवताना कास्सग्ग कीधा जे. एम घणे स्थलें सांनलिये बैयें, माटें सम्यकूदृष्टि जीवोने देवतानो काउस्सग्ग करवाथकी कांई पण दूषण नश्री. आ सूत्रमध्ये अ ढार लघु, अने चार गुरु, मली बावीश अदरो ॥१॥ इति ॥२१॥ ॥ अथ परमेष्ठिनमस्कार ॥ नमोऽर्हत्सिदाचार्योपाध्यायसर्वसाधुन्यः॥१॥इति ॥२२॥ अर्थः-अरिहंत, सिझ, आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधु, ए पांच परमे ष्टिने महारो नमस्कार हो. ए सूत्र चौद पूर्व माहेढुं एवो प्रघोष ने. तेजणी स्त्री जणवा न पामे ॥ १॥ इति ॥ २२ ॥ ॥ अथ संसारदावानी स्तुति ॥ ॥अवज्राचंद ॥ संसारदावानलदादनीरं, संमोहधूलीहरणे समीरम् ॥ माया रसादारणसारसीरं, नमामि वीरं गिरिसारधीरम् ॥१॥ अर्थः-( वीरं के०) श्रीवीर नगवान् प्रत्ये (नमामि के०) हुं नमस्कार करुं बुं. ते श्रीवीर केहवा ? तो के ( संसार के०) चातुर्गतिकने विषे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एश प्रतिक्रमणसूत्र. संसरवु एटले जमवं तेने संसार कहिये. ते संसाररूप (दावानल के) वननो अग्नि तेनो (दाह के०) ताप, ते तापने लववाने (नीरं के०) पाणी समान बे. वली केहवा जे ? तो के (संमोहधूली के०) मोह एटले अज्ञान तप धूली एटले रज तेने (हरणे के०) हरण करवाने (समीरं के०) पवन समान बे. तथा ( मायारसा के० ) कपटरूप जे रसा एटले पृथ्वी तेने ( दारण के )विदारवाने उखेमवाने ( सार के० ) प्रधान अत्यंत तीदण एवा (सीरं के०) हल समान बे. वली केहवा ? तो के ( गिरिसार के०) मेरुनी पेरें (धीरं के) जे धीर बे, अचल , एटले पोताना खरू पने विषे अचल बे, एवा वीर नगवान् बे. या श्लोकमां सर्व अदार चुम्मालीश , तेमां नारे अदर कोश् पण नथी. ॥१॥ ॥ वसंततिलका बंद ॥ ॥नावावनामसुरदानवमानवेन, चूलाविलोलकमलावलिमालितानि ॥ संपूरितानिनतलोकसमी हितानि, कामं नमामि जिनराजपदानि तानि॥२॥ अर्थः-( तानि के ) ते प्रसिद्ध ( जिनराजपदानि के० ) जिनराजनां चरण, ते प्रत्ये (कामं के ) यथेटपणे ( नमामि के०) हुं नमुं बुं. नम स्कार करुं बुं, ते श्रीजिनराजनां चरण केहवां वे ? तो के ( ना के०) जावें करीने (अवनाम के०) नम्या एवा जे (सुरदानवमानव के ) सुर ते वैमानिक अने ज्योतिषिक देवता, तथा दानव ते पातालवासी नवन पति तथा व्यंतर देवता अने मानव ते मनुष्य, तेना जे (श्न के०) स्वामी गकुर तेना (चूला के०) मस्तकने विषे जे मुकुट तेनी उपर रहेली एवी जे ( विलोल के) देदीप्यमान (कमलावति के) कमलनी श्रेणियो तेणे, (मालितानि के) पूजित कस्यां बे, एटले पूज्यां बे. वली ते श्रीजि नराजनां चरण केहवां ? तो के (संपूरित के०) सम्यक् प्रकारें पूख्यां ने (अनिनतलोक के ) त्रिकरणशुक्रियें करी नमनार एवा जे जक्तलोको नव्य जीवो तेनां ( समीहितानि के०) मनोवांडित जेणे एवां .आ श्लोकमां अक्षर बप्पन बे, नारे अदर कोइ पण नयी ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारदावानी स्तुति अर्थसदित. ॥ मंदाक्रांताछंद ॥ बोधागाधं सुपदपदवीनीरपूराभिरामं, जीवाहिंसा विरल लदरीसंगमागाददेदम् ॥ चूलावेलं गुरुगममणीसंकुलं दूरपारं सारं वीरागमजलनिधिं सादरं साधु सेवे ॥ ३ ॥ " अर्थ : - ( वीर के० ) श्रीवीर जिन संबंधी जे ( श्रागम के० ) सिद्धांत रूप ( जलनिधिं के० ) समुद्र ते प्रत्यें, ( सादरं के० ) आदर सहित ( साधु के० ) सम्यक प्रकारें ( सेवे के० ) हुं सेतुं बुं, ते श्रीवीरागमजल निधि hear a ? एवी रीतें सर्वविशेषणोनी सायें कहेतुं, ( बोधागाधं ho) बोध जे ज्ञान तेणें करीने अगाध एटले गंजीर बे, अथवा अगाध एटले करीने गंजीर एवो बोध एटले यथार्थज्ञान वे जेने विषे, एवो बे. वली ( सुपद के० ) “धम्मोमंगलमुक्किहं” इत्यादि सुंदर पदोनी (पदवी के० ) श्रेणीरचना ते रूप ( नीरपूर के० ) पाणीनो पूर जे समूह, तेणें करीने (निरामं के० ) शोभायमान बे, मनोहर बे. वली केहवो बे? तो ३ ( वाहिंसा के० ) जीवदयारूप एटले षटूकाय जीवोनी रक्षारूप ( अविरल के० ) अंतररहित एवी ( लहरी के० ) लहेरी यो एटले तरंगो तेना ( संगम के० ) परस्पर मलवे करीने ( अगाह ० ) अगाध एटले पार वे देहखरूप जेनुं, एटले बेदन नेदन करी नहीं शकाय एवो अने अगाध महागंजीर ( देहं के०) देह एटले शरीर बे जेनुं, एवो वली (चूला के० ) श्री सिद्धांतोनी जे चूलिकार्ड बे, ते चूलिकारूपिणी ( वेलं के० ) वेलो बे जे समुद्रने विषे, वली जे ( गुरु के० ) महोटा एवा जे ( गम ho ) सरखा पाठ ते रूप ( मणी के० ) रत्न तेणें करी ( संकुलं के० ) संकीर्ण बे नरेलो बे, वली ( दूर के० ) अत्यंत दूर बे ( पारं के० ) पार जेनो एटले जेनो कांठो घणो दूर बे, केम के ? समुनी पेरें सिद्धांतनो पार पामवो महादुर्लन बे, एटले संपूर्ण श्रुतज्ञानी अथवा केवज्ञानी विना बीजाथी जेनो पार पमाय नहीं, एवो ( सारं के० ) प्रधान बे, पूज्य बे. माटें श्लोकमां सर्व र अमराव बे, जारे अक्षर कोई नयी ॥ ३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. ॥ स्रग्धरा बंद ॥ आमूलालोलधूलीबहुलपरिमलालीढलोलालिमाला, ऊंकारारावसारामलदलकमलागारन्नूमीनिवासे ॥ गयासंनारसारे वरकमलकरे तारदारानिरामे, वाणीसंदोहदेदे नव विरदवरं देहि मे देवि सारं ॥४॥इति ॥१३॥ अर्थः-(देवि के) हे श्रुतदेवि ! ( मे के) मुजने (सारं के०)प्रधान एवो ( नवविरह के०) संसारनो जे विरह तेने मोद कहियें, तेनों (वरं के० ) वरदान एटले मोदसंबंधि वरदान, तेने ( देहि के० ) दे, आप. अहीं पांच संबोधनयुक्त एवी देवी ,माटें ते पांच संबोधन कहियें बैयें प्रथम (आमूल के०) मूल लगें (आलोल के) चपल ते मोलतुं एवं, वली (धूली के ) मकरंद सुगंधना कणीया तेना ( बहुल के ) घणा (परिमल के०) सुगंध, तेने.विषे (आलीढ के) आसक्त मग्न एवा जे (लोल के०) चपल ( अलि के) चमराठ तेनी ( माला के०) श्रेणी तेना (ऊंकार के० ) गुंजार तेना (आराव के०) शब्द तेणे करीने जे(सार के०) प्रधान ने एवं, वली ( अमल के) निर्मल एवां ( दल के०) पांदमां तेणे करीने सहित एवं ( कमल के) जे कमल तेनी उपर, (आगार के) जुवन ने एटले घर ने जेनु, तेना मध्यनागनी (नूमी के) नूमिने विषे शयन चेन करवानी अतिरमणीय शय्या ने तेने विषे ( निवासे के) निवास एटले वसवं ने जेए प्रथम पदें करी प्रथम संबोधन जाणवू. हवे वली (बाया के०) कांति तेनो जे (संजार के) समूह ते समूहें करी ( सारे के०) प्रधान डे माटे हे बायासंजारसारें! ए बीजा पदें करी बीजं संबोधन जाणवू. वली (वरकमल के० ) प्रधान कमल ने जेना (करे के०) हाथने विषे तेना संबोधने हे वरकमलकरे! ए त्रीजुं संबोधन जाणवू. वली ( तार के ) देदीप्यमान एवा ( हार के) हारें करीने (अनिरामे के०) सुंदर डे हृदय जेनुं अथवा ( तार के) नेत्रनी कीकी डे (हार के०) सुरनरने हरावनारी जेनी तेणें करी (अनिरामे के०) सुंदर बे. अहीं हे तारहारानिरामे! ए चोथें पदें करी चोथु संबोधन जाणवू. हवे (वाणी के०) छादशांगीरूप वाणी तेनो ( संदोह के०) समूह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एU कल्लाणकंदनी स्तुति अर्थसदित. तेजीज डे (देहे के०) शरीर जेनु, अहीं हे वाणीसंदोहदेहे ! ए पांचमा पदनुं पांचमुं संबोधन जाणवू. आ श्लोकमां सर्व अदर चोराशी जे. जारे अदर कोई नथी ॥ सर्व चारे गाथानां मली पद शोल , संपदा शोल बे, सर्व मली बशें ने बावन अदरो , एमां को नारे अदर नथी ॥३॥ ॥ अथ कल्याणकंदनी स्तुतिप्रारंनः॥ ॥ तिहां श्री जिनपंचकने वांदवानी पहेली थुश् कहे जे ॥ कल्लाणकंदं पढमं जिणंदं, संति त नेमिजिणं मुणिंदं॥ पासं पयासं सुगुणिकगणं,नत्ती वंदे सिरिवह्माणं ॥१॥ अर्थः-(कल्याणकंदं के०) कल्याण एटले सुखवृद्धि तेना कंदं एटले मूल बे एवा, (पढमंजिणंदं के ) प्रथम जिनें जे श्रीषनदेव तेप्रत्यें तथा बीजा (संति के०) श्रीशांतिनाथ ते प्रत्ये (त के०) तेवार पड़ी त्रीजा (मुर्णिदं के०) मुनिउँने विषे इंश समान एवा जे श्री (नेमिजिणं के०) नेमि जिनेश्वर तेप्रत्ये, वली त्रण जुवनने विषे ( पयासं के) प्रकाशना करनार, एवाजे (पासं के०) श्री पार्श्वनाथ तेप्रत्ये, वली चोथा ( सुगुण के) ज्ञानादि, दयादि अने दमादि, इत्यादिक अनेक गुण तेने सुगुण समूह कहियें, तेनुं (श्कगणं के ) एक अद्वितीय स्थानक एवा, (सि रिवझमाणं के०) श्रीमान जगवान् ते प्रत्ये (जत्ती के०) नक्तियें करीने (वंदे के०) हुँ वांउंडं. या काव्यमां लघु चालीश, गुरु चार, मली चुम्मालीश अदरो बे. ए जिनपंचकने वांदवारूप प्रथम थु थ॥१॥ हवे सर्व तीर्थंकरोने वांदवानी बीजी थुइ कहे . अपारसंसारसमुद्दपारं, सत्ता सिवं दितु सुश्कसारं ॥ सवे जिणंदा सुरविंदवंदा, कल्लाणवल्लीण विसालकंदा ॥२॥ अर्थः-(सक्वेजिणंदा के०) सर्वे जिने जे , ते मुझने (सिवं के०) शि व जे मोद, तेने (दिंतु के०) द्यो, आपो. ते समस्त जिनेंद्र केहवा ने ? तो के ( अपारसंसारसमुद्दपारं के०) नथी जेनो पार एटले डेमो एवो जे संसाररूप समुष तेना पारप्रत्ये अंतप्रत्ये (पत्ता के०) प्राप्ता एटले पाम्या जे. वली ते सर्वजिने केहवा जे ? तो के (सुरविंद के०) देवताउँ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए६ प्रतिक्रमण सूत्र. नां वृंद एटले समूह. तेने जे ( वंदा के) वांदवा योग्य वे. वली ते सर्वे जिनेंद्र केहवा ? तो के ( कहाणवतीण के०) कल्याणरूप वेलीना (वि सालकंदा के०) विस्तीर्ण महोटा कंद मूल बे, वली ते शिव कहेवं जे? तो के (सुश्कसारं के०) शुचि एटले पवित्र जे वस्तु , तेनुं एक सार , अर्थात् जाणियें एक सारज काढेलो होय नहीं? एवं ने श्रा काव्यमां लघु आमत्रीश तथा गुरु ब, मली चुम्मालीश अदरो २ ॥५॥ हवे ज्ञानवर्णनपूर्वक जिनमत नमनरूप त्रीजी थुइ कहे जे. निवाणमग्गे. वरजाणकप्पं, पणासियासेसकुवाश्दप्पं ॥ मयं जिणाणं सरणं बुदाणं, नमामि निच्चं तिजगप्पदाणं॥३॥ अर्थः-( जिणाणं के० ) जिनानां एटले जिन जे जे तेमना (मयं के) मत एटले श्री जिनमतप्रत्ये (निच्चं के) नित्य एटले सदा निरंतर (नमा मि के०) हुँ नमुं बु. ते श्री जिनमत केहबुं ने ? तो के ( निवाणमग्गे के) निर्वाण जे मोद, तेना मार्गने विषे एटले मोदनगरनो ज्ञानादिरत्नत्रयरूप जे मार्ग मे ते मार्गने विषे पहोंचामवाने (वर के०) प्रधान एवं (जाण के०) यान एटले रथ तेनी (कप्पं के०) कल्प एटले समान बे. वली ते जिनमत केहबुं बे ? तो के (पणा सिय के०) अतिशयपणे करीने नाश कस्यो डे (असेस के०) संपूर्ण (कुवाइ केण) कुवादीयो एटले पाखंमीयो नो (दप्पं के ) दर्प एटले अहंकार जेणें, एटले कुवादीयो जे अन्यदर्श नीयो तेना अहंकारने जेणे संपूर्ण नाश कस्यो जे. एवं जिनमत जे. वली जिनमत केहबुं बे ? तो के (बुहाणं के०) बुधानां एटले जे पंमितो बे, तेने (सरणं के०) शरण , आधारचूत बे, जेम पदीउने आकाश श्रा धारचूत , तेनी पेरें जाणवू. वली ते श्री जिनमत केहQ ? तो के (तिजग के) त्रण जगतने विषे (प्पहाणं के०) प्रधान बे. एमां लघु आमत्रीश अने गुरु ब, सर्व मली चुम्मालीश अदरो ॥३॥ हवे शासनना अधिष्ठायिक देव, देवीना वर्णननी चोथी थुइ कहे . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्नातस्यानी स्तुति अर्थसहित. ए कुंदिगोरकीरतुसारवन्ना, सरोजदना कमले निसन्ना ॥वाएसिरी पुबयवग्गदबा, सुदाय सा अम्द सया पसबा ॥४॥ इति ॥२०॥ अर्थः-(सा के ) ते (वाएसरी के०) वागीश्वरी एटले श्रुतदेवी सरखाति ( अम्ह के०) अमने (सया के०) सदा निरंतर, (सुहाय के०) सु खाय एटले सुखने माटे था. इति शेषः ॥ हवे ते वागीश्वरी केहवी ? तो के (कुंद के०) मचकुंद जातिनां फूल, (के०) चंद्रमा, (गोरकीर के०) गायन उध तथा (तुसार के) हिम, ए चारनी पेरें उज्ज्वल डे, (वन्ना के ) वर्ण जेनो, वली ते वागीश्वरी केहवी ? तो के ( सरोज हबा के०) सरोजहस्ता बे. तिहां (सरोज के) कमल तेणें करी सहित डे (हबा के) हाथ जेनो एटले हाथमां कमल धारण कयुं . वली ते वागीश्वरी केहेवी ? तो के (कमले के०) कमलमां (निसन्ना के०) बेस बुं बे, रहेq ने जेनुं एवी जे. वली ते वागीश्वरी केहवी डे ? तो के पुत्रय वग्गहबा . तिहां (पुबय के०) पुस्तकनो जे (वग्ग के० ) वर्ग एटले समूह, ते (हबा के) जेना हाथने विषे जे. वली ते श्रुतदेवी केहवी ? तो के (पसबा के०) प्रशस्ता एटले श्रीसंघनी नक्ति विद्यादानादिक करवाथकि, प्रशस्त उत्तम ॥४॥ आ गाथामां लघु पांत्रीश तथा गुरु नव, सर्वादर चुम्मालीश , ए चारे गाथामां पद शोल, संपदा शोल, लघु एकशो एकाघुन्न, गुरु पच्चीश, सर्वादर एकशो गेतेर २ ॥ इति ॥ २४॥ ॥ अथ स्नातस्यानी स्तुतिप्रारंजः॥ ॥ तत्र प्रथमं वर्षमानस्तुतिः॥ स्नातस्याप्रतिमस्य मेरुशिखरे शच्या विनोः शै शवे, रूपालोकनविस्मयाहृतरसत्रांत्या चमच्चदु षा ॥ नन्मृष्टं नयनप्रनाधवलितं दीरोदकाशंकया, वकं यस्य पुनः पुनः सजयति श्रीवर्धमानो जिनः॥२॥ अर्थः-(शच्या के०) साणी जे तेणें (मेरुशिखरे के) मेरु पर्वतना शिखरने विषे (स्नातस्य के०) नवराव्या अने (अप्रतिमस्य के०) निरुपम १३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ୯g प्रतिक्रमण सूत्र. एवा ( विजो: के० ) वीरजगवान् तेना ( शैशवे के० ) बालकपणाने विषे (रूपालोकन विस्मयाहृतरसत्रांत्या के०) रूपनं आलोकन जे जोवुं, ते थकी उपन्यो एवो जे विस्मय कहेतां आश्चर्य तद्रूप श्राहृत एटले जोगव्यो एवो जे रस कतां पोरो, तेनी जे जांति तेणें करी ( मच्चक्षुषा के० ) - मती नाम रही परही याती बे चक्कु जेनी एवी इंद्राणी यें ( नयनप्रजा वलितं ० ) नेत्री प्रजा जे कांति तेणें करी धवलित एटले उज्ज्वल कस्युं एवं (यस्य के०) जे प्रनुं ( वक्रं के० ) मुख, ते ( दीरोदक के ० ) क्षीरसागरनुं जल, तेनी (याशंकया के०) श्राशंकायें करीने (उन्मृष्टं के० ) लूaj बे, एवा (श्रीवर्द्धमानो जिनः के०) श्रीवर्द्धमान जिन जे श्रीवीर जगवा न् (सः के०) ते (पुनःपुनः के० ) वारं वार ( जयति के०) उत्कृष्टा वर्ते बे ॥ १ ॥ ॥ अथ द्वितीया सर्व जिनस्तुतिः ॥ इंसांसादतपद्मरेणुकपिशदीरार्णवांनोनृतैः, कुनै रप्सरसां पयोधरजरप्रस्पर्धिनिः कांचनैः ॥ येषां मंदररत्नशैल शिखरे जन्माभिषेकः कृतः, सर्वैः स र्वसुरासुरेश्वरगणैस्तेषां नतोऽहं क्रमान् ॥ २ ॥ अर्थः- (सर्वैः के०) सर्व एवा ( सर्वसुरासुरेश्वरगणै: के०) सर्व नाम समग्र सुर, असुर तेना ईश्वर जे इंद्र, तेना गए जे समूह, तेणें (हंसांसादतप झरेणुकपिशीरार्णवांनो नृतैः के० ) हंस जे राजहंसो तेन स जे पांखो तेणें करी हत नाम उमामी एवी पद्मरेणु जे कमलनी रज, तेणें करी कपिश नाम रातुं पीलुं युं एवं कीरांज जे कीरसमुद्रनुं जल तेणें करी नृतैः नाम या एवाने (प्सरसांपयोधरजरप्रस्पर्किं जिः के०) अप्सरार्जुना पयोधर जे स्तन तेमनो जर जे समूह तेनी साथै प्रस्पर्द्धि निः एटले प्रतिस्पर्द्धाना क रनार एवा (कांचनैः के० ) कांचनना (कुंनैः के०) कलशोयें करीने ( मंदर रत्नशैल शिखरे के० ) मंदररत्न जे मेरुनामा शैल जे पर्वत, तेना शिखरे नाम शिखरने विषे ( येषां के०) जे जिनोनो ( जन्मा निषेकः के० ) जन्मजिषेक, ते ( कृतः के० ) करेलो बे, ( तेषां के० ) ते सर्व जिनोनां (क्रा • मानू के० ) चरण कमल प्रत्यें ( नतोऽहं के०) हुं नमेलो नुं ॥ २ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्नातस्यानी स्तुति प्रर्थसहित. ॥ अथ तृतीया द्वादशांगस्तुतिः ॥ प्रसूतं गणधररचितं द्वादशाङ्कं विशालं, चित्रं बह्वर्थयुक्तं मुनिगणवृषनैर्धारितं बुद्धिमङ्गिः ॥ मोक्षाग्रधारनृतं व्रतचरणफलं ज्ञेयभावप्रदीपं जक्त्यानित्यं प्रपद्ये श्रुतमहमखिलं सर्वलोकैकसारम् ॥ ३॥ अर्थः- (प्रसूतं के० ) अर्हत् जे अरिहंत तेनुं वक्र जे वदन ते थकी प्रसूतं नाम प्रगट थयुं, अने ( गणधररचितं के०) गणधर कहेतां गणध रोयें रचितं नाम रचना कयुं ने (चित्रं के०) आश्चर्यकारि तथा (बह्वर्थ युक्तं के०) बह्वर्थ ते घणा अर्थों तेणें करी युक्त नाम सहित तथा (बुद्धिमङ्गिः ho) बुद्धिमंत एवा ( मुनिगणवृपनैः के०) मुनिगण एटले साधुर्जनो स मुदाय तेना वृष एटले नायकोयें ( धारितं के० ) धारण कर एवं अने ( मोक्षाग्रारभूतं के० ) जोरूपगृह तेनुं श्रग्रद्वार केहतां मुख्यद्वार समान तथा ( व्रतचरणफलं के० ) व्रताने चरण, जे चारित्र तेनुं फल बे मां एवं अने (ज्ञेयनावप्रदीपं के० ) यजाव ते जाणवा योग्य व ते विषे प्रदीप नाम दीपक समान एवं ने (सर्वलोकैकसारं के० ) सर्व लोकने विषे एकसारं कहेतां द्वितीयसारभूत एवं (अखिलं के० ) समग्र ( विशालं के० ) विशाल एवं ( द्वादशांगं के० ) द्वादशांगरूप ( श्रुतं के० ) सिद्धांत तेने ( त्या के० ) जक्तियें करीने ( नित्यं के० ) निरंतर (श्रहं के० ) हुं (प्रपद्ये के० ) अंगीकार करुं हुं ॥ ३ ॥ 릴 ॥ अथ कार्य सिद्धिप्राप्त्यर्थ चतुर्थ सर्वानुभूतिनामा यस्तुतिः ॥ निष्पंकव्योमनी लघु तिमलसदृशं बालचंशजदंष्ट्रं मत्तं घंटारवेण प्रसृतमदजलं पूरयंतं समंतात् ॥ आरूढो दिव्य नागं विचरति गगने कामदः कामरूपी, यक्षः सर्वानुभूति दिशतु मम सदा सर्वकार्येषु सिद्धिम् ॥ ४ ॥ इति ॥ २५ ॥ अर्थः- (निष्पंकव्योमनी द्युतिं के० ) निष्पंक एटले वादले रहित एवं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० प्रतिक्रमण सूत्र. व्योम जे आकाश, तेनी युति जे कांति तेना सरखी नील एटले श्याम ने कांति जेनी एवो, तथा (अलसदृशं के०) अलस एटले मदघूर्णित ने नेत्र जेना तथा (बालचंडानदंष्ट्र के०) बालचंड एटले बालचंडमानी आजा जे कांति तेना सरखी दंष्ट्रा एटले माढो जे जेनी एवा ( मत्तं के) मदो न्मत्त, अने (घंटारवेणके ) घंटाना रवेण नाम शब्दनी साथे (प्रसृतम दजलं के) प्रसृत नाम प्रसरतुं एवं जे मदजलं एटले मदवारि तेप्रत्ये (समंतात् के०) सर्व जगायें (परयंतं के०) पूरावतो एवो ( दिव्यनागं के०) दिव्यरूप नाग जे हस्ती ते प्रत्ये (आरूढः के०) वेठगे एवो बतो(का मरूपी के०) स्वेबाचारी तथा ( कामदः के०) काम जे मनोरथ तेने दे. नारो एवो (सर्वानुनूतिः के०) सर्वानुन्नूतिनामा ( यदः के०) यद बे, ते ( गगने के०) आकाशने विषे ( विचरति के ) विचरे बे. ते ( मम के ) मुझने ( सदा के०) निरंतर, ( सर्वकार्येषु के ) समग्रकार्योने विषे (सिर्कि के ) सिद्धिने (दिशतु के.) आपो ॥ ४॥ इति ॥ २५ ॥ ॥अथ गुरुवांदणां प्रारंजः॥ - हवे गुरुवंदन वखाणियें छैयें. ते जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट एवा त्रण प्रकारें बे. तिहां प्रणाममात्र जे फेटा वंदन, ते जघन्यवंदन कहियें, अने जे खमासमण आपी विधियें करी वांदीयें, ते थोन वंदनने मध्यमवंदन कहियें, तथा उत्कृष्ट तो छादशावर्त वंदन गुणवंत गुरुने पगे आपीयें. ते आवी रीतें. त्यां गुरुने वांदणां देतां उघो, मुहपत्ती, ए बे उपकरण साधुने जोश्ये, अने श्रावकने मुहपत्ती, तथा चरवलो ए बे जोश्ये. ए मुहपत्ती अने रजो हरण लेवाना अदर, साधुने तथा श्रावकने साधारणपणे श्रीअनुयोग छार सूत्रनी वृत्तिमध्ये प्रकटज डे तथा केवल श्रावक श्राश्रयी पण श्रावी रीतें श्रदर कह्या बे, “सामाश्य कमस्स समणोवासगस्स चनवि हे धम्मोवगरणे पन्नत्ते. तं जहा ठवणाय रिअत्ति मुहपत्तीअत्ती जवमालिय त्ति दंम्पाउपुठणगंचत्ति” ए आलावो श्रीअनुयोगहारनी चूर्णीमध्ये बे, तथा वली जो "मुहपत्तियं अपमिलेहित्ता वंदणं देई गोयमा तस्स गुरुशं पायनितं हविजा” ए आलावो व्यवहारचूर्णीमध्ये बे. तथा “ गंतु पोस ह सालाए, गवितु उवणायरियं ॥ मुहपत्तिथं पमऊंतो, सीहो गिण्हर पोसहं ॥ १ ॥" ए श्लोक विवाहचूखिकाग्रंथें सिंहश्रावकने पोसह ले Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगुरुवांदणां अर्थसहित. २०१ वाने अधिकारें बे, तथा “पावरणं मुत्तूणं, गिएहीता मुहपतिथं ॥ वन काय विसुडीए, करे पोसहाश्यं ॥ १॥ ए श्लोक श्री व्यवहारचूर्णीमध्ये बे. इत्यादिक वचनथकी ए बे उपकरण टाली बीजां कल्पक, कांबली प्र. मुख साधुने तेमज पडेमी प्रमुख श्रावकने कांहि पण राखवून सूजे. तथा हेडे वांदणां दीधां न सूजे अने साधवीने तथा श्राविकाने वस्त्र होय ते थकां वांदणां देवानो व्यवहार बे, त्यां प्रथम खमासमण देशआदेशमागी, मुहपत्ती पमिलेही,शरीरनी पच्चीश पमिलेहणा करी, ए मुहपत्तीनी पञ्चीश पमिलेहणा तथा शरीरनी पच्चीश पमिलेहणानी गाथा अर्थ सुधां आ पमिकमणामां आगल श्रावशे; मूलगे नांगे पोतानां पगने चरवले करी पूंजवा. हवे वांदणां देतां जे पच्चीश आवश्यक साचववां जोश्ये, ते विगत करी कहे बे. गुरुथी चार दिशायें जंग जंप हाथ प्रमाण साधु श्रावकनी अपेदायें अवग्रह राखवो एटले पोताना देहप्रमाण ते अवग्रहनुं देव जाणवू, अने साधवी तथा श्राविकानी अपेक्षायें तेर हाथनो अवग्रह जाणवो, ते मध्ये को कार्यने अर्थे आचार्यनी अनुज्ञा मागीने अवग्रहमांहे प्रवेश करवो,ते आवी रीतें केः-अवग्रह बाहिर रह्यो शिष्य,पणन चमावेला धनुष्यनी पेठे नम्रकाय बतो बे हाथ जोमी मुखें मुहपत्ती आपी, “ श्छामि खमासमणो वंदिलं जावणिजाए निसीहिआए"एटयूँ कहेतो पोतें गुरुने वांदवानी श्छा जणावे. पठी लगारेक नीचो नमीने “अणुजाणह मे मिजग्गहं" कहे, ए नीचुं नमवारूप प्रथम आवश्यक जाणवू,पठी वली शिष्य मुखथकी निसीहि कहे तो रजोहरणे करी आगली नूमि पूंजतो प्रमार्जतो अवग्रहमांहे प्रवेश करे. ए अवग्रहमांहे प्रवेश करवारूप बीजुं आवश्यक जाणवू. पनी संमासादिक पमिलेहतो अधुगमो बेशीने गुरुना चरण समीपें रजोहरण मूकी, मावे हाथे मुहपत्ती ले ते मुहपत्तीयें करी मावा कर्णथी आरंजीने दक्षिण, कर्ण पर्यंत ललाट पूंजी प्रमार्जी वली तेणें करीज माबो जानु पूजी तिहां मुहपत्ती मूकी 'अहोकाय' इत्यादिक कहेतो त्रण आवर्त करे, ते आवी रीतें केः-बेहु बाहु लांबा करी, पसारी, कूपरें साथल अणस्पर्शतो गुरुना चरण उपरें संलग्न, बेहु हाथनी दशे आंगुली लगामतो मुखें (अ) अदर कहे, पली तेमज दश आंगुली पोताने ललाटें लगामतो (हो) अदर कहे, ए बेहुं अदरें एक आवर्त थाय. तेमज वली ( का) अने (यं) ए बेहु अद Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ प्रतिक्रमण सूत्र. रने उच्चारवे बीजो श्रावत थाय. तेमज वली (का) अने (य) एबे अदरें त्रीजो आवत थाय. पनी संफास शब्द कहेतो गुरुने पगें मस्तक लगाडे. वली बेहु हाथ कमलकोशने आकारें जोमी,माथे चमावी “खमणिजो ने किलामो अप्पकिलंताणं बहुसुन्नेण ने दिवसो वश्कतो” एवो पाठ कहे.पठी बेहु हाथ मस्तकथी उतारी जत्ताने इत्यादि कहेतो वली पण त्रण आवर्त करे, तिहां पूर्वली पेरें दश आंगुली सामसामी करी, गुरुने पगें हाथ लगामतो पहेढुं (ज) अदर मंदखरें कहे, बीजुं हाथ उपामतो (त्ता) अक्षर मध्यमखरें कहे, त्रीजु (ने) अदर ललाटें हाथ फरसतो उंचेखरें कहे. ए त्रण स्थानकें त्रण अदर उच्चारतां प्रथम आवर्त थाय. तेवी रीतेंज वली (ज) (व) (णि) ए त्रण अदर त्रिविधसादें करी त्रण स्थानकें उच्चारतां बीजो आवर्त्त थाय. तेमज वली (ऊं) (च) (ने) ए त्रण अदर पूर्व रीतें जच्चारतां त्रीजो आवर्त्त थाय. एवं उ आवर्त थया. पडी बे हाथ अने मस्तक गुरुने पगें लगामी “खामेमि खमासमणो देवसियं वश्वमं” कहे पठी उन्नो थर रजोहरणे करी पाबली नूमि प्रमार्जतो मुखथकी “श्रावसि आए कहेतो थको अवग्रहथी बाहेर नीकले. ए अवग्रहमध्येथी बाहेर नीकलवा रूप आवश्यक जाणवू. पठी उन्नो रही बे हाथे योगमुजा पगे जिनमुखा साचवतो “पमिकमामि खमासमणाणं” इत्यादिक संपूर्ण बेदमा पर्यंत सूत्रनो उच्चार करे, एमज वली बीजं वांदणुं पूर्वली रीतेंज करे, पण एटलुं विशेष जे बीजे वांदणें “आवसियाए” ए पद न कहे, एटले अवग्रहथी बाहेर नीकलq नही, स्थानकेंज उनो रही “पमिकमामि खमासमणाणं” इत्यादिक सूत्रनो उच्चार करे. ए वांदणां देतां मनोगुप्ति एटले मनमांहे एक ध्यानपणुं करवू. वचनगुप्ति एटले वे वांदणांनी वचमां बीजुं कांही बोलवू नहीं, कायगुप्ति एटले शरीर आघु पाडं हलावq नही. एत्रण गुप्तिरूप त्रण आवश्यक जाणवां. तथा “खमणिडोनेकिलामो" इत्यादिक कहेतां जे, मस्तकें बे हाथ चमावीयें बैयें, तेने यथायात आवश्यक कहियें. जे नणी जन्मसमयें जेम बालक बे हाथ मस्तकें चमावीनेज जन्मे बे, तेम ए पण बे, ते जणी यथाजात एवं नाम जाणवू. हवे ए पच्चीश आवश्यकनो शरवालो मेलवे . बेहु वांदणे यश्बे वार नीचुं नमवारूप बे, बेहु वांदणांना बार आवर्त, गुरुचरणे चार वखत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगुरुवांदणां अर्थसदित. १०३ मस्तक नमामबुं ते रूप चार, बे वार अवग्रहमा पेसतां नीचुं नमवा रूप बे, एकवार अवग्रहथी बाहेर नीकलवा रूप एक बीजे वांदणे अवग्रहथी नीकलवू नथी माटें एकज कडं. त्रण गुप्ति अने एक यथा जात, एवं पचीश. आवश्यक ते अवश्य करवा माटें आवश्यक एवं नाम कहेलु . ए गुरुवंदन संबंधि विशेष बोल आश्रयी विचार, गुरुवंदन नाष्य, तथा प्रवचनसारोकारादि ग्रंथमां उपाश् गयाश्री अहींयां विस्तार कस्यो नथी. हवे वांदवाने उजमाल थयेलो एवो शिष्य, विधिपूर्वक मुहपत्ती पमिलेही वली पोतानुं शरीर पमिलेही लगारेक काय नमावतो बे हाथे उघो, चरवलादिक ग्रहण कस्यां जेणे एवो अवग्रहथी बाहिर रह्यो थको मुखें मुहपत्ती देश आ प्रमाणे वांदणांना सूत्रनो पाठ कहे, ते कहे जे. श्वामि खमासमणो, वंदिलं, जावणिजाए निसीदिए ॥१॥ अर्थः-(खमासमणो के०) हे दमादिक गुणें प्रधान ! अहीया दमा ते सहन कहियें तथा श्राम्यति एटले संसारना विषयने विषे जे खिन्न डे अथवा तपश्चर्या करे बे, तेने श्रमण कहियें, एटले सहनशील जे श्रमण तेने दमाश्रमण कहीये, आहिं दमा शब्दना ग्रहणे करीने मार्दव, आर्यवादिक गुणोनी पण सूचना करीने. वली दमा शब्दें करी तेमने वंदनयोग्यत्व सूचन कझुं बे, एवा हे दमाश्रमण ! तमोने ( जावणिजाए के) याप नीयया एटले जेणे करी कालदेप करीयें कालगमावियें तेने यापनीया कहियें, ते शक्तियें करी सहित एवी ( निसीहीआए के०) नैषेधिक्या ए टले प्राणातिपातादिकथी निवृत्तिरूप प्रयोजन के जेमां, तेने निषेधिकी तनु एटले शरीर कहियें. अर्थात् जीवहिंसादिक निवृत्तिरूप प्रयोजनवायूँ शरीर जाणवू. आ ठेकाणे नैषेधिक्या ते विशेष्य ने अने यापनीयया ते विशेषण बे.एटले पोतानी शक्तियें करी सहित एवं निषेधिकीजे शरीर, तेवा शरीरें करी तुमने ( वंदिउँ के) वांदवाने (श्छामि के) अनिलाषामि एटले हुं श्चु बुं, वांबुं बुं. ए पदें करीने बलानियोगनो त्याग करवानी सूचना करी, एटले हे श्रमणगुणयुक्त ! हुं शक्तिसमन्वित बतो प्रतिषेध करी ने पापक्रिया जेणे एवो थको तमोने वांदवाने श्बु बुं. ए प्रथम शिष्यनुं वचन सांजलीने ते वखतें जो गुरु कोश् कार्यमां विदेपचितवंत होय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ प्रतिक्रमण सूत्र. तो 'तिविहेण' एवो शब्द कहे एटले मन, वचन अने काया, एम त्रिविधे करी संदेज वांदो. एवा अर्थवालुं गुरुनु वचन सांगली शिष्य पण संदेपेंज वांदे अने जो गुरुनु चित्त, को कार्यादिकमां विदेप न होय तो 'लं. देण, एवो शब्द कहे एटले महारे निरावाध ने सुखशाता , माटें जेम तमारो बंद एटले अनिप्राय होय, श्छा होय तेम वांदो. ए प्रथम गुरुवचन जाणवू. ए पांच पदनुं प्रथम स्थानक थयुं ॥१॥ पनी शिष्य तिहांज रह्यो थको,लगारेक नीचो नमीने नीचे प्रमाणे पाठ कहे. अणुजाणद, मे, मिनग्गरं ॥२॥ अर्थः-गुरु पासेंथी चारे दिशायें (मिजग्गहं के०) मित अवग्रह एटले मान करेलो एवो जे खदेहप्रमाण अवग्रह एटले सामात्रण हाथ प्रमाण देत्र, तेमांहे प्रवेश करवानी ( मे के) मुझने (अणुजाणह के०) अनुझा आपो एटले आशा आपो, ए बीजुं शिष्यनुं वचन सांजलीने गुरु कहे. (अणुजाणामि के०) हुँ थाज्ञा आपु बुं. ए बीजुं गुरुनु वचन जाणवू. ए त्रण पदनुं बीजु स्थानक थयुं ॥२॥ हवे बार पद त्रीजुं स्थानक कहे जे. निसीदि. अहो, कायं, कायसंफासं, खमणिजो, ने किलामो, अप्पकिवंताणं, बहुसुन्नेण, ने दिवसो, वश्कतो॥३॥ अर्थः-पढी शिष्य निसीहि कहेतो थको एटले ( निसीहि के०) एक गुरु वांदणां विना निषेध्यो अन्य क्रियारूप व्यापार जेणे एवो बतो मित अवग्रहमांहे विधिपूर्वक प्रवेश करीने बेसीने संमासां पूंजी रजोहरण पग उपर मूकी अने मुहपत्ती साधु माबा ढीचण उपरें मूके तथा श्रावक चरवला उपर मूके, ते मूकीने बे हाथ पोताता ललाटें लगामी गुरुनां चरण प्रत्ये स्पर्शवाने अर्थे आवी रीतनो पाठ कहे, ते कहे . (अहोकायं के) अधःकायं एटले अधः प्रदेशनो हलो नाग, तेने पग कहिये. अर्थात् देवी काय ते गुरुना पगलवण जाणवी. ते तमारा पगप्रत्ये (काय के०) महारा हाथ अने ललाटें करी रूमी रीतें (संफासं के०) स्पर्श, बेतेनी आज्ञा आपो. ते गुरुनी आज्ञा पामीने गुरुनां चरण प्रत्ये पोताने हाथे तथा मस्तकें करी रूमी रीतें स्पर्शे, पडी उंचो थर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगुरुवांदणां अर्थसहित. १०५ मस्तकें बे हाथचमावी गुरुनी संमुख दृष्टि राखी, “खमणिको ने” इत्यादिक पद कहे, ते आवी रीतें के, हे जगवंत ! तमारां चरण स्पर्शतां जे कां आपने (किलामो के० ) क्कम एटले जे कांइ ग्लानि उपजावी होय, खेद उपजाव्यो होय, एटले महारे जीवें जे कां तमारे शरीरें पीमा उपजावी होय, ते पीमारूप जे खेद, तेने (ने के० ) नवद्भिः एटले तमोयें (खमणिको के० ) खमवायोग्य वे एटलुं कहीने पती वली पण शिष्य, दिवस संबंधि देम कुशलनुं स्वरूप गुरुने पूबे, ते श्रावी रीतेंः( बहुसुने के० ) बहुशुजेन एटले बहु शुझें करीने क्षेमकुशलें करीने अर्थात् घणा समाधिजावें करीने ( ने के० ) जवतां एटले तमारो ( दिव सो के० ) दिवस, निराबाघपणे ( वकतो के० ) व्यतिक्रांत थयो, एटले "वित्यो; तमें केहवा बो? तो के ( अप्प किलंताणं के० ) अल्प बे वांत एटले ग्लानिपणुं जेमने एवा, अर्थात् अल्पवेदनावाला एवा तमें बो. रात्रि अनुष्ठाने विषे 'राइट वकतो' ने पाक्षिकना दिवसने विषे 'परको वकतो' तथा चमासीना दिवसने विषे 'चम्मा सिर्ज वकतो' म संवत्सरीना दिवसने विषे 'संवछरो वकतो' एवा पाठ कहेवा. ए त्रीजुं शिष्यनुं वचन थयुं. ए सांजलीने गुरु कड़े के तह त्ति एटले तथेति अर्थात् जेम में पूज्यं तेमज अमारो दिवस समाधिमांहेज गयो बे ॥ इति जावः ॥ एत्रीजुं गुरुनुं वचन जाणवुं. ए बार पदनुं त्रीजुं स्थानक थयुं ॥ ३ ॥ ए रीतें शरीरसंबंध सुखशाता गुरुने पूढीने हवे वली शिष्य तप निय मादिक संयम संबंधि वार्त्ता गुरुने पूढवाने अर्थे गुरुना पगने विषे पोतानुं ललाट फरसतो वर्त्त करतो, आवी रीतें पाठ कहे ते कहे बे. जत्ता, ने ॥ ४ ॥ अर्थ :- हे करुणासमुद्र ! ( जत्ता के० ) तप; नियम, संयम, स्वाध्याय रूप यात्रा, ते (जे के० ) जवतां एटले तमारे अव्याबाध पणें व बे ? ए चोयुं शिष्यनुं वचन थयुं, ते सांजलीने गुरु कहे के, (तुपि वहए के०) तुभ्यमपि वर्त्तते एटले जेम मुकने वर्त्ते बे, तेम तने पण तर्त्ते बे ? ए गुरुनुं पण चोथुं वचन जाणवुं. ए वे पदनुं चोथुं स्थानक थयुं ॥ ४ ॥ १४ Jain Educationa International जवद्यिं च मे ॥ ५ ॥ " For Personal and Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ प्रतिक्रमण सूत्र. अर्थ: - ( च के० ) वली नियममां राखवा योग्य पदार्थ संबंधि वार्त्ता, शिष्य पूबे बे. (जवणिऊं के० ) यापनीयं एटले इंडियाने नोइंप्रियोना उपशमादिक प्रकारें करी निराबाध शरीर, (ने के०) जवतां एटले तमारुं ? इंडियाने नोइंडियोयें पीमित नहीं एवं तमारुं शरीर बे ? ए पांचमुं शिष्यनुं वचन सांजलीने गुरु कहे, ( एवं के० ) एमज बे. गुरुनुं पण पांचमुं वचन जावं. ए त्रण पदनुं पांचमुं स्थानक थयुं ॥ ५ ॥ खामेमि, खमासमणो, देवसियं, वइक्कम्मं ॥ ६ ॥ - वली शिष्य, रजोहरण उपर हाथ तथा मस्तक मूकीने कड़े के, ( खमासमणो के० ) हे क्षमाश्रमण ! ( देवसियं के० ) दिवस संबंधि ( asari के० ) व्यतिक्रम एटले अवश्यकरणीय विराधनारूप महारो पराध, ते प्रत्यें (खामेमि के० ) हुं खामुं तुं. ए बहुं शिष्यनुं वचन सां गुरुकड़े के, (मवि खामि के० ) अहमपि कमयामि एटले में पण सारणावारणादिक करवाने वीषे, जे प्रमाद किधो होय, ते हुं पण तने खमावुं बुं. ए गुरुनुं पण बहुं वचन थयुं, एटले व शिष्यनां वचन प्रश्नरूपें ने गुरुनां वचन उत्तररूपें कह्यां, ए चार पदनुं बहु स्थानक युं ॥ ६ ॥ ए ए स्थानकना मलीने अंगणत्रीश पद थयां ॥ पढी शिष्य, पगे जिनमुद्रा ने हाथे योगमुद्रा साचवतो जो रही वली पावली वातनेज विशेष पणे पूढतो नीचें प्रमाणें कहे. च्यावसिच्याए, पक्किमामि, खमासमणाणं, दवसिच्याए, सायणाए, तित्ती सन्नयराए, जं किंचि, मिचाए, मडक डाए, वयकडाए, कायक्कडाए, कोढाए, माणाए, माया ए, लोढ़ाए, सबका लिआए, सवमिचोवयाराए, सवधम्मा इक्कमणाए, आसायलाए, जो मे, इयारो, कर्ज, त स्स, खमासमणो, पडिक्कमामि, निंदामि गरिदामि प्पाणं वो सिरामि ॥ ७ ॥ इति ॥ २६ ॥ यहींयां बीजी वारने वांदणें 'आवसियाए' ए पद न कहेतुं ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुगुरुवांदणां अर्थसदित. २०७ श्रर्थः - हवे शिष्य, रजोहरणें करी पाठली भूमिका पूंजी मितावग्रहथी बाढेर नीकलतो' या सियाए परिक्रमामि' कहेतो थको निकले एटले (सा० ) अवश्य कर्त्तव्य जे चरण सित्तरी ने करण सित्तरी रूप क्रिया पहिण प्रमुख व्यापार, ते सेवतां पालतां जे अतिचार लाग्यो होय, मातुं याच होय, ते थकी (पमिकमामि के० ) हुं प्रतिक्रमुं तुं, निवर्त्ती ढुं. ( खमासमणाणं के० ) क्षमाश्रमण संबंधिनी ( देव सिखाए के० ) दिवस विषेय, एवी जे (आसायलाए के०) यशातना खंगना, ते या शातनायें करीने. ते केवी यशातनायें करीने? तो के ( तित्ती सन्नयराए ho ) तेत्री श्राशातनामांदेली छानेरी कोई एक पण यशातनायें करीने. वली केवी यशातनायें करीने? तो के (जंकिंचि मिठाए के०) जे कां कुरूं आलंबन लइने मिथ्यानाव वरताव्यो होय, ते किंचित् मिथ्याजावरूप शातनायें करीने. वली वीजी पण केवी आशातनायें करी ने ? ए तें गल पढ़ें पढ़ें कहेतां जनुं, ( मणडुक्कमाए के० ) मनःसंबंधी जे दुष्कृत एटले पाप, ते रूप आशातनायें करीने, अर्थात् प्रद्वेष मनें करी तथा ( वयकमाए के०) वचनसंबंधी दुष्कृत ते सन्य पुरुषादिक वचनें करी जे दुष्कृत एटले पाप, ते रूप आशातनायें करी ( कायडुक्कमाए ho) कायासंबंधिते यासन, गमन स्थानादिक जे दुष्कृत एटले पाप ते रूप श्राशातनायें करी, ( कोहाए के० ) क्रोधजाव ते विनयभ्रंशादिक जे दुष्कृत एटले पाप ते रूप शातनायें करी, ( माणाए के० ) मानरूप शातनायें करी ( मायाए के० ) माया एटले कपट ते रूप आशातनायें करी, ( लोहाए के० ) लोजरूप आशातनायें करी ( सबका लिया ० ) सर्वकाल ते अतीत, अनागत अने वर्त्तमानकालने विषे गुरुनां विनया दिक जे थयां, ते रूप आशातनायें करी हिंयां को पूबे, जे अनागत काल नीशी शातनाय ? तेने कहिये जे अनागत कालें कदापि कोइ समयें गुरुने आमंत्रण कोइ एक प्रकारें अनिष्ट विनयादिक थइ जाय, एवं चिंतव्युं होय, तत्संबंधि अनागत कालनी यशातना जाणवी . ( सब मिछोवयाराए के० ) सर्व मिथ्याउपचाररूप एटले सर्व कूम, कपट, क्रियारूपाशातनायें करीने ( सवधम्माकमणाए के० ) सर्व धर्म ते आठ प्रवचनमाता रूप अथवा सर्वधर्मनी जे करणी, तेने यतिक्रमवा उल्लंघवारूप यशातनायें करीने. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ प्रतिक्रमण सूत्र ए पूर्वोक्त प्रकारनी सर्व ( सायणाए के० ) आशातनायें करी (जो के ० ) जे, ( मे के० ) महारे जीवें, ( अश्यारो के० ) अतिचार दोष, ( कर्ज ho ) को होय. सेव्यो होय, ( तस्स के० ) ते तिचार प्रत्यें (खम | समणो के०) हे क्षमाश्रमण ? तमारी समीपें (पमिकमामि के०) हुं प्रति क्रमुं हुं. मिठामि डुक्करु देतं बुं. फरी तेम हुं नहिं करूं, ( निंदामि के० ) पुष्ट कर्मकारी आत्माने हूं निंडु तुं, ( गरिहामि के० ) गुरुनी साखें हुं गर्छु नुं, एटले विशेषे निंडुं हुं ( अप्पाणं के०) दुष्ट पापिष्ट आत्मा प्रत्यें ( वोसिरामि के० ) हु वो सिरानुं नुं, एटले बोकावुं तुं. अर्थात् श्राशातना करवी. ते कालसंबंधि पाप सहित आत्माने हुं त्यागुं तुं. ए प्रथम वांदणुं थयुं तेमज वीजुं वांद पण एवीज रीतें जाणवुं, परंतु तेमां एटलुं विशेष जे तिहां अवग्रहथी नी कल नथी, माटें त्यां यावसियाए एवो पाठ न कहेवो ॥ ७ ॥ ए वां दणांना सूत्रमध्ये पच्चीश आवश्यक, अट्ठावन पद, तथा पच्चीश गुरु ने बशे ने एक लघु, सर्व मली बरों ने बधिश अक्षरो बे. इति गुरुवंदनसू त्रार्थः ॥ ए रीतें सर्व बोल साचवतो जे गुरुने जावसहित वांदणां श्रापे, तेनां अनेक जवनां संच्यां कर्म, दय थ जाय, परंतु जाव विना पफल होय. जेम श्रीकृष्ण, जावसहित साधुने वांदतां कायिक स म्यक्त्व पाम्या. तथा सातमी नरक योग्य शिथिल ययुः कर्म उपार्जन कथुं हतुं, ते संक्रमण करणें करी टालीने त्रीजी पृथिवी योग्य कीधुं, अने वीराशालवीने द्रव्यथी वांदणां देतां मात्र पोताना स्वामीनी अनुवर्त्तना टाली, पण वीजुं कांइ फल ययुं नहीं ॥ इति सुगुरुवांदणां ॥ २६ ॥ अतिचारनी आठ गाथा || ॥ नामि दंसणंम आयरणं यारो, इ चरणंमि तवंमि तदय विरियंमि ॥ एसो पंचदा नणि ॥ १ ॥ अर्थ: - ( नामि के० ) ज्ञानने विषे, ( दंसणंमि के० ) दर्शनने विषे ( o ) वली ( चरणंमि के० ) चारित्रने विषे, वली ( तवं मि के० ) तपने विषे ( तहय के०) तथा (विरियंमि कें०) वीर्यने विषे, ( खायरणं के० ) जे आचरण एटले व्यापार, तेने ( यायारो के० ) याचार कहियें. अथवा ए ज्ञानादिक पांचनुं जे आचरण एटले व्यापार, तेने आचार क Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिचारनी पाठ गाथा अर्थसहित. २० हियें, जेम ज्ञान आश्रयी ज्ञानाचार, ए रीतें सर्वने विषे केहवं. ( इ ho ) ए प्रकारें ( एसो के० ) ए प्रत्यक्ष, ( पंचहा के० ) पंचधा एटले पांच प्रकारे आचार, ते ( जणि के० ) श्री तीर्थंकरें को बे ॥ १ ॥ हवे त्यां प्रथम ज्ञानाचार कहे बे. काले विणए बहुमाणे, नवदाणे तद अनिण्हवणे ॥ वंजण च तनए, विदो नाणमायारो ॥ २ ॥ अर्थः- प्रथम ( काले के० ) जे कालें, जे श्रवसरें, जे जणवानुं होय, ते कालें तेज वसरें तेज जावं, तेने काल कहियें. बीजो ( विणए के० ) ज्ञानीनुं युवान वंदनादिक उचित साचव तेने विनय कहियें, श्री जो ( बहुमाणे के० ) ज्ञानी तथा ज्ञानने विषे अंतरंग प्रेम करवो, तेने बहुमान कहियें. चोथो ( उवहाणे के० ) नवकारादिक सूत्रोना तपो विशेष उपधान योग्यनुं वहेतुं, तेने उपधान कहियें . ( तहय के० ) तथा पांच ( निहवणे के० ) जणावनार जे विद्यागुरु, तेने उलववो नहीं विसारवो नहिं तेने निहवण कहियें. बघो ( वंजण के० ) सूत्र अर, शुद्ध जणवो खोटुं न जावं, शुद्धोच्चार करवो, तेने बंजण कहियें. सातमो ( ० ) अर्थ शुद्ध जावो, आाठमो ( तडुजए के० ) सूत्र अर्थ, ए बहु शुद्ध जणवां, ए ( विहो के० ) या प्रकारें ( नाणमायारो के ० ) ज्ञानाचार जाणवो. ए आठ प्रकारें ज्ञानना प्राचार जेम कह्या छे, तेमज करियें, तेने ज्ञानाचार कहियें, अने तेथी विपरीत करियें, तो प्रतिचार लागे ॥ २ ॥ हवे दर्शनाचार कहे बे निस्सं कि निक्कंखिच्प्र, निधितिगिता प्रमूढ दिहीच्य ॥ जववूद थिरीकरणे, वचल प्पनावणे, ग्रह ॥ ३ ॥ अर्थः- प्रथम श्रीवीतरागना वचनमां शंका करवी. एकांतें सत्य मा नवं ते (निस्सं कि के०) निःशंकित पुरुषनुं लक्षण जाणवुं, बीजो स्याद्वादरूप श्री जनमत विना बीजा अन्यमतनी आकांक्षा एटले वांछा न क रवी, लगारेक तप क्षमा दिक गुण देखी, परदर्शननो अभिलाष करवो नहीं, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. ते ( निखिल के० ) निःकांदित पुरुष, लक्षण जाणवू, त्रीजो धर्मना फलमां संदेह न आणवो, एटले श्रीजिनधर्मने विषे क्रिया अनुष्ठानादिक ना फलने विषे संदेह करवो नहिं. अथवा साधु, साधवीनां मलमलिन शरीर तथा वस्त्र देखी, उगंडा करवी नहीं, निंदा करवी नहीं, ग्लानि कर वी नहीं, ते (निवितिगिछा के) निर्विजुगुप्स पुरुष- लक्षण जाणवू. चोथु अज्ञानी, मिथ्यात्वीनां क्रिया, कष्ट, कांश करामत चमत्कार देखीने तेनी उपर व्यामोहित न था, तथा ए लोकोमां पण काश्क ले? एवो पण मनमां विचार न करवो. तथा श्री जिनशासनने विषे नवतत्व समाचारी प्रमुखमां मुंफावं नहिं, तेमां प्रवीण होवु, ते (अमूढ दिछीथ के०) अमूढदृष्टि पुरुषy लक्षण जाणवू, पांचमुं सम्यक्त्वधारी गुणवंतना अल्प गुणनी पण श्रद्धा पूर्वक प्रशंसा करवी, मुखें करी प्रकाशवी, ते ( उववूह के०) उपबृंहक पुरुष- लक्षण जाणवं. बहुं श्रीजिनधर्मथकी पमता प्राणीने सहाय आ पीने धर्ममां स्थिर करवो, अथवा जे जीव, श्रीजिनधर्म नथी पाम्या, ते जीवने हितोपदेशादिकनुं सहाय आपीने श्रीजिनधर्मने विष स्थापवो, स्थिर करवो, ते (थिरीकरणे के०) स्थिरीकार पुरुष- लक्षण जाणवं, सातमो साधर्मिकनी विशेष नक्ति करवी तथा सर्व जीवने विषे करुणा, मैत्री जावना करवी, ते ( वबल के०) वात्सल्यपुरुषतुं लक्षण जाणवू. आठमो जे रीतें अन्य दर्शनी लोक पण जैनशासननी अनुमोदना करे, मिथ्यात्व मत मूकीने जैनमतने आदरे, तेम करवं, एटले एवां कार्य करवां, के जे थकी जैनशासन दीपे, घणां लोक बोधवीज पामे, ते (प्पन्नावणे के०) प्राजाविक पुरुष- लक्षण जाणवू, ए (अह के०) आठ लदण दर्शनाचार नां जाणवां. आहिं लक्षण शब्द आचार ग्रहण करवो. एवी रीतें प्रवर्तवू,ते ने दर्शनाचार कहियें, एथी विपरीत प्रवर्ते, तो अतिचार लागे ॥३॥ ___ हवे चारित्राचार कहे . पणिहाण जोगजुत्तो, पंचदिं समिईहिं तिहिं गुत्तीहिं॥ एस चरित्तायारो, अविहो दोश् नायवो ॥ ४॥ अर्थः-(पणिहाणजोग के०) प्रणिधान एटले स्थिरयोग, संयम व्यापार, तेणें करी एटले एकाग्र सावधान पणे करी मन, वचन, तथा कायाना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिचारनी आठ गाथा अर्थसहित, 222 योग सर्व चारित्र पालवाने विषे ( जुत्तो के०) युक्त होय एवो, (एसचरित्ता यारो के०) ए चारित्राचार, ते (पंचहिं समिहिं के ० ) पांच समिति तेणें करी, तथा ( तिहिंगुती हिं के०) त्रण गुप्ति तेणें करी (विहो के०) अष्टविध एटले आठ प्रकारें ( होइ के० ) बे, ते ( नायवो के० ) जाणवो. ते अष्ट विध जे पांच समिति ने त्रण गुप्तिनां नाम गल नवकारना अर्थमां श्री आचार्यनां विशेषणमां श्राव्यां बे, माटें यहीं नथी लख्यां. ए आठ बोलें प्रवर्त्त, तेने चारित्राचार कहियें, अने ए पांच समिति ने त्रण गुप्ति न पाले, तो चारित्राचारना अतिचार लागे, तेमाटें साधुने निरंतर वने श्रावकने सामायिक पोसह लीधे ए पांच समिति ने त्रण गुप्ति अवश्य मालवी ॥४॥ हवे तपाचार कहे बे. बारसविदंमिवि तवे, सनिंतर बादिरे कुसल दिठे ॥ गिलाइ अणाजीवि, नायवो सो तवायारो ॥ ५ ॥ अर्थः- (सो के० ) ते ( तवायारो के० ) तपाचार, ते (बारस विहं मि वि तवे के० ) बार प्रकारना तपने विषे पि एटले निश्चें ( नायवो के० ) जावो. ते तपाचार केहवो बे ? तो के ( अ गिलाइ के० ) ग्लानि जाव एटले डुगंछाजाव रहित ने एटले तप करतां डुगंछा करीने तेनो जंग करे नहीं, वली (अणाजीवी के० ) अशनादिक आजीविकायें करी रहित बे, एटले हुं जो तप करूं, तो तपस्वी कहेवाजं ? पेट जराइ चाले ? मने लोको तपखी जाणी धन प्रमुखवडे महारी जक्ति करे ? एवी बुद्धी तप न कर, वली ते द्वादशविध तप केहवं बे ? तो के ( सनिंतरबा हिरे के ० ) a नेद अन्यंतराने व नेद बाह्य सहित बे. वली केहवुं बे ? तो के (कुसल के०) तीर्थंकरोयें (दिट्ठे के०) उपदिष्टयुं बे, प्रकाश्युं बे, एवा तपमां प्रवर्त्ततुं, ने तपाचार कहियें, एथी विपरीत प्रवर्त्ते, तो अतिचार लागे ॥ ५ ॥ हवे ए तपाचारमां बाह्य तपना व नेद विवरीने कहे . सण मूणोयरिया, वित्ती संखेवणं रसच्चार्ज ॥ काय किलेसो संली, याय बघो तवो दोइ ॥ ६॥ अर्थः- पहेलुं (अणसणं के० ) अशनादिक चार आहारनो त्याग थोमा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ प्रतिक्रमण सूत्र. काल लगें करवो अथवा जावजीव पर्यंत करवो, ते अनशन तप जाणवू. बीजुं (ऊणोयरियाके० ) ऊनोदरिका एटले वस्त्र, पात्र, उडां करवां, अ थवानूख करतां पांच सात कोलिया उठा जमवां तथा कषायनी न्यूनता करवी, तेने ऊनोदरिका तप कहियें. त्रीजुं ( वित्तीसंखेवणं के ) अव्या दिक चार प्रकारना अनिग्रहें करीने जे वृत्ति एटले आजीविका तेनो संदेप करवो, तेने वृत्तिसंदेप तप कहियें जेम के साधु होय, ते अव्यादिक चा रथी संदेप करे, त्यां वहोरवा जतां साधु घरनी संख्या करे, जेम के पांच, सात अथवा एटलेज घेरथी जो सूजतो आहार मले, तो वो, न मले तो उपवास करवो. अने श्रावकें तो सवार- पञ्चरकाण करतां दश, पंदर, किंवा जेटलां अव्य मोकलां राख्यां होय, तेमांथी वली बेत्रण अव्य उडां करवां. एवाप्रकारना अनिग्रह करे,तेने वृत्तिसंक्षेप तप कहियें. चोथु (रसच्चा के०)विगयादिक रसनो त्याग करवो, एटले. ब विगयमांथी एक बे विगयनो त्याग करवो, तथा लीलोतरी प्रमुखनो जे नियम लेवो, तेने रसत्याग तप कहियें. पांचमुं ( कायकिलेसो के०) कायोत्सर्ग करवो. वीरासन, पद्मासन, तथा उत्कटासनादिक आसन करवां. जेमतेम का याने पीमवी, टाढ तापनी आतापना लेवी, लोच कराववो, उघाडे पगें चालवू, नूमि उपर शयन करवू इत्यादिक प्रकारे करीने शरीरने कष्ट देवू, तेने कायक्वेश तप कहियें. बहुं ( संलीणयाय के०) विषय कषायने उदी रवा नहीं, जे उदय आव्या तेने निःफल करवा, अशुज योगर्नु निवार, शुल योगमा प्रवर्त्तवृं; स्त्री, पशु, नपुंसक रहित स्थानक सेवकुं, कुकमीनी पेरें हाथ, पग, प्रमुख अंगोपांग संवरी राखवा, तेने संलीनता तप कहियें. ए उ प्रकारे (बद्योतवो के) बाह्य तप ( होश् के० ) ॥६॥ हवे प्रथम कहेला अत्यंतर तपना बनेद विवरीने कहे . पायबित्तं विण, वेयावचं तदेव सद्या ॥ काणं जस्सग्गो विष, अग्निंतर तवो होई॥७॥ अर्थः-प्रथम (पाय बित्तं के०) दोष लागे थके गुरु गीतार्थनी आगल सरल मन वडे पापरूप अपराध प्रकासे, पड़ी ते अपराधनो निवारण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिचारनी या गाया अर्थसहित. ११३ करवाने गुरु जे थालोचनादिक एटले प्रायश्चित्तादिक आपे, ते रूमी तें करे, तेने प्रायश्चित्ततप कहियें. बीजं (विर्ड के० ) ज्ञानादिक सात प्रकारनो विनय करवो, ते विन यतप, अथवा वली आठ प्रकारें गुरुनो विनय करवो, ते कहे बे, एक गुरुने देखी उजा कुं, बीजुं गुरुने यावता देखी सामे जनुं, त्रीजुं गुरुने देखी हाथ जोमी मस्तकें चढावत्रा, चोथुं गुरुने बेसवाने श्रासन थाप, पांचमुं पोतें सने बेसवानुं मूकी देवुं, बहुं ज्यां सुधी गुरु उना होय, त्यां सुधी जा रहे, सातमुं गुरुने वांदणां देवां, गुरुनी पर्युपासना एटले सेवा कर वी, विसामण करवा, तथा आवसुं गुरु जाय, तेवारें तेनी पाबल वोलाव वा जनुं. ए व प्रकारें पण विनयतप कहियें. श्री ( वेावचं के० ) वैयावृत्त्य तप कर, ते आहारादिक आणी पवा, केम पगादिक चांपवा प्रमुख आचार्यादिक दश पुरुषोनी नक्ति करवी, एटले प्राचार्य, ग्लान, बाल, वृद्ध, तपखी, नवदीक्षित साधु, साध र्मी, कुल, ते जे एक आचार्यनां संतान तेने कुल कहियें, तथा गछ, तेजे घणा आचार्यनां संतान एकां थयेलां होय, तेने गछ कहियें, तथा संघ, ते साधु, साधवी, श्रावक ने श्राविका तडूप ते संघ. ए दशनुं जे वैयावृ य कर, तेने वैयावच्च तप कहियें. ( तदेव के० ) तेमज वली . चोथुं ( सकार्ड के०) वांचनादिक पांच प्रकारनो स्वाध्याय करवो, तेने स्वाध्यायतप कहियें. त्यां एक वांचना एटले जणवुं, बीजी पृछना ते संश य टालवाने पूठ, त्रीजी परावर्त्तना एटले विसरी गयेलुं संजारखं. चोथी अनुप्रेक्षा एटले तत्त्वचिंतवना करवी, पांचमी धर्मकथा एटले तीर्थंकरा दिक गुणिजननी कथा करवी. ए पांच जेद, सकायतपना जाणवा. पांचमुं (ऊाण के० ) ध्यानतप ते श्रार्त्त रौद्रध्याननुं निवारयुं ने धर्म तथा शुक्ल, ए वे शुध्याननुं ध्यावनुं, ए वे प्रकारें ध्यानतप जाणवु ai ( सगो के ० ) परवस्तुनो त्याग करवो, कर्मना क्षय निमित्तें कायोत्सर्ग करवो, तेने कायोत्सर्गतप कहियें. ( अपि के० ) निथें, ए ब दें ( नंतर तो के० ) अन्यंतर तप ( होइ के० ) बे ॥ ७ ॥ १५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ प्रतिक्रमण सूत्र अणिमूहिअ बल विरि, पमिकमइ जो जहुत्तमाउत्तो॥ जुज अ जहा थाम, नायवो वीरिआयारो॥॥इति॥३॥ अर्थः-(अणिगूहिअ के० ) अनिगूहित , अणढांकेबुं वे एटले प्र गट बे, ( बलविरि के) बल वीर्य जेनु, वली (जो के०) जे (जहुत्तं के०) यथोक्त एटले जेम श्रीतीर्थंकर देवें कह्यु , तेमज (पनिकम के० ) पराक्रम करे , एटले उद्यम करे बे. अर्थात् शरीरनुं बल अने मननुं वीर्य, ए बेहुने अणगोपवतो थको मनमा उत्साह धरतो थको, वचनें धर्मव्यापार करतो बतो, खेदने अणपामतो थको, धर्मने विषे उद्यम करे जे. वली जे (आउत्तो के ) उपयुक्त थको, एटले सावधान थको, (जहाथामं के ) पोताना बलने अनुसारें पोतानीशक्ति प्रमाणे ( जुजर के० ) जोडे, लागे, एटले प्रवर्ते, ते शानेविषे प्रवर्ते? तो के धर्मकार्यने विपे प्रवर्ते. ते (वीरियारो के० ) वीर्याचार, ( नायवो के०) जाणवो. एत्रण प्रकारें वीर्याचार करो ॥ ७ ॥ इति ॥ २७ ॥ हवे आ नीचें लखेली गाथा मुनिराज, काउस्सग्गमां चिंतवे, ते लखियें बैयें. सयणासणन्नपाणे, चेश्य जर सिद्य काय उच्चारे ॥ समिई लावण गुत्ती, वितहायरणे अश्यारो ॥ १॥ अर्थः-( सयण के ) सुवाना संथा रिया प्रमुख, (आसण के० ) बेसवाना आसन, बाजोठ प्रमुख, (अन्नपाणे के०) अशन, पान, खादिम, स्वादिम, (चेश्य के० ) चैत्यवंद न, (जश के०) यति, तेसाघुनक्ति अन्युबानादिक, ( सिद्य के ) शय्या, वसति, उपाश्रय, ( काय के) लघुनीति, ते पीशाब, (उच्चारे के०) वमीनीति ते थं मिल परग्ववानो विधि, ( समिई के०) यादिक पांच समिति, ( नावण के० ) अनित्यादिक बार नावना तथा पंच महाव्रतनी पच्चीश नावना, (गुत्ती के० ) त्रण गुप्ति ए सर्व बोल, ( वितह के०) वितथपणे एटले असत्यपणे विपरीत पणे (आयरणे के ) आचरवा थकी अंगीकार करवाथकी (अश्यारो के०) अतिचार होय, एटले झानादिक आत्मगुण मलिन थाय ॥ इति गाथार्थः॥ १॥ इति ॥ २७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवसिअं आलो अर्थसहित ११५ ॥ अथ देवसिझं आलोचं लिख्यते ॥ श्वाकारेण संदिसह नगवन देवसिअं आलोचं आ लोएमि जो मे देवसि अश्यारो कउँ काई वाई माण सि नस्सुत्तो उम्मग्गो अकप्पोअकरणिको उजाउँ विचिं ति अणायारो अणिविप्रबो असावगपानग्गो नाणे दंसणे चरित्ताचरित्ते सुए सामाइए तिण्डं गुत्तीणं चनएदं कसायाणं पंचराहमणुबयाणं त्तिमहं गुणवयाणं चनपदं सि कावयाणं बारसविहस्स सावगधम्मस्स जं खंडिअं जं विरादिशं तस्स मिलामि उक्कम ॥१॥ इति ॥ १७ ॥ . अर्थः-(नगवन् के ) हे जगवन् ! (श्छाकारेण के०) पोतानी श्वायें करी पण कोश्ना बलात्कारें नहीं, (संदिसह के) मुऊने आदेश आपो. ( देव सिझं के०) दिवससंबंधि जे अतिचार उपन्या, ते प्रत्ये (आलोएमि के ) आ एटले मर्यादायें करी अथवा समस्तपणे करी लोए मि एटले हुँ प्रकाशुं बुं. अहिंयां रात्रि होय, तो राश्संबंधि अतिचार प्रकाशुं बुं. एम कहेवू. ए रीतें शिष्य कहे तेवारें गुरु कहे के आलोह, एटले आलोचो प्रकाशो. पठी शिष्य कहे, (छ के०) हुं पण खं बुं, तमारं वचन अंगीकार करुं बुं. (आलोएमि के० ) हुं आलोचं बुं, एटले मर्यादायें करी संपूर्णनावें करी हुँ प्रकाशुं बु. (जो के० ) जे ( मे के०) महारे जीवें, ( देव सिर्ज के) दिवस संबंधियो (अध्यारो के ) अतिचार दोष(कर्ड के) कीधो होय, एटले लगाड्यो होय, ते अतिचार, अनेक प्रकारें बे. माटें तेना प्रकारो कहे . ( काल के० ) कायासंबंधी ( वाज़ के) वचन संबंधि (माण सिजे के०) मनःसंबंधी एटले काया, वचन अने मनः संबंधियो अतिचार . तेमां प्रथम काया अने वचन संबंधि अतिचारनुं खरूप कहे . ( उस्सुत्तो के०) उत्सूत्र एटले जिनागमथी विरुक बोलवू ते हेतुथी उत्पन्न थयुं तथा ( उम्मगो के ) उन्मार्ग ते दायोपश मिक जावरूप मार्ग, ते प्रत्ये अतिक्रमि उलंघीने औदयिक नावें करी एटले मिथ्यात्व कषायादिक नावें करी कीधो थाप्यो जे, उन्मार्ग, ते उन्मार्गना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ प्रतिक्रमण सूत्र. योगें करी नीपन्यो जे (अकप्पो के०) अकल्पः एटले कल्प जेविधि ते चरणकरणव्यापार, तेथकी अ एटले रहित ते अकल्प कहिये, ते अकल्प पणाना हेतुथकी उत्पन्न थयो जे (अकरणिजो के०) अकरणीय एटले जे करवायोग्य नहीं, एवा कार्यने करवे करी, एम अहींयां हेतुहेतुमन्नाव , ते आवी रीतें के, जे माटें उत्सूत्र, ते मार्टेज उन्मार्ग; अने जेमाटें जन्मार्ग, तेमाटेंज अकल्प, जेमाटें अकल्प, तेमाटेंज अकरणीय कहियें. एटले काय अने वचनसंबंधिअतिचार-खरूप कडं. हवे मनःसंबंधि अतिचारनुंवरूप कहे जे. (उजाउँ के) उर्ध्यान ते चित्तने एकाग्रपणे आर्त रौअध्यानध्यावq.ते जेमाटें उर्ध्यान, तेमाटेंज(विचिंति के०) विचिंतित एटले जे चल चितपणे करीष्ट अशुजकार्यनेज मनमां चिंतववं, जेमाटें ते पुर्विचिंतित, ते माटेंज(अणायारो के०)अनाचार कहियें एटले जेथकी व्रतादिकनो सर्वथा नंग थाय,जेमा ते अनाचार,तेमाटेंज(अणिबियवो के०)अनेष्टितव्यः एटले जे श्वा वांढवा योग्य नथी, जेमाटे ते अनेष्टितव्य, तेमाटेज(असावगपाजग्गो के०) नथी श्रावकने प्रयोग्य एटले श्रावकने उचित नथी, तिमनः संबंधि अतिचार-हवे ए सर्व अतिचार,शेने विषेलगाड्या होय? ते कहे डे, ( नाणे के ) निजपर सत्तारूप वस्तुनुं यथार्थ जाणपणारूप जे ज्ञान तेने विषे, (दंसणे के० ) देवादिक त्रण तत्त्व- साचं श्रझानरूप जे दर्शन, तेने विषे, (चरित्ताचरित्ते के०) कांशएक विरतिरूप, कांइएक अविरति रूप एबुं जे देशविर तिरूप श्रावकनुं चारित्र, तेने विषे, अथवा ज्ञानादिक निजगुणमांहे देश थकी जे स्थिरता, ते रूप जे चारित्राचारित्र तेने विषे. एहीज वली कहे . ( सुए के०) श्रुतसिद्धांतने विषे अकालें स्वाध्याय इत्यादिक अतिचार लगाड्यो होय, (सामाश्ए के०) सम्यक्त्वरूप सामायिकने विषे जिनवचनने विषे शंकादिक अतिचार लगाड्यो होय. ए चारित्राचारित्रसंबंधि अतिचार, प्रतिनेदें करी कहे (तिन्हगुत्तीणं केण) मनोएप्ति, वचनगुप्ति अने काय गुप्ति. ए त्रण गुप्तिने अणपालवे करी, (चउएहंकसायाणं के०) क्रोध मान, माया अने लोन, एवा चार कषायने करवे करी (पंचएहमणुबयाणं के) एक स्थुलप्राणातिपातविरमण, बीजं स्थूलमृषावाद विरमण, त्रीजुं स्थुलअदत्तादानविरमण, चोथु स्थुलमैथुनविरमण, पांचमुं स्थुलपरिग्रह विरमण, ए पांच अणुव्रतमाहेथी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ सातलाख तथा अढारपापस्थानक अर्थसहित. १२७ तथा ( तिएहंगुणवयाणं के० ) एकदिशि परिमाणवत, बीजें उपत्नोगपरिनोगपरिमाणव्रत, त्रीजुं अनर्थदंमविरमणव्रत, ए त्रण गुणव्रतमाहेथी तथा (चउएहंसिकावयाणं के) एक सामायिकवत, बीजुं देशावकाशिक व्रत, त्रीजु पोषधोपवासव्रत, चोथु अतिथिसंविनागव्रत, ए चार शिदात्रतमाहेथी, घणुं शुं कहियें ? परंतु ( बारस विहस्स के० ) ए पूर्वोक्त छादशविध एटले बार प्रकारना व्रतरूप (सावगधम्मस्स के०) श्रावक संबंधी जे धर्म ते मांहेथी महारे जीवें (जंखं मियं के०) जे खंमयुं, एटले देश थकी नंग कीधो, (जंविराहियं के ) जे विराध्युं एटले सर्वथकी जंग कीधो, ( तस्स के ) तेहर्नु ( उक्कम के०) पुष्कृत एटले पाप, ते (मि के०) मने जे लाग्युं ते ( मिला के) मिथ्या था, एटले निष्फल था ॥१॥ एमां लघु अदर एकशो उंगणचालीश अने गुरु अदर 5गणत्रीश, सर्व मली एकशो ने अमराव अदरो ॥ इति ॥ २० ॥ ॥ अथ सात लाख ॥ सात लाख पथिवीकाय, सात लाख अप्पकाय, सात लाख तेनकाय, सात लाख वानकाय, दशलाख प्रत्येक वनस्पति काय, चनद लाख साधारण वनस्पतिकाय, बे लाख बेंडि य, बे लाख तेंज्यि, बे लाख, चौरिंख्यि, चार लाख देवता, चार लाख नारकी, चार लाख तिर्यंच पंचेंजिय, चौद लाख मनुष्य, एवंकारें चोराशी लाख जीवायोनिमांदे मदारे जीवें जे कोइजीव दण्यो होय, दणाव्यो दोय, दणतां प्रत्ये अनुमोद्यो दोय,ते सर्वे मनें, वचनें, कायायें करी तस्स मिहामि उक्कम ॥२॥ति ॥॥ एनो अर्थ सुगम ॥ ॥ अथ अढार पापस्थानक ॥ पहेले प्राणातिपात, बीजे मृषावाद, बीजे अदत्तादान, चोथे मैथुन, पांचमे परिग्रद, के क्रोध; सातमे मान, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ प्रतिक्रमण सूत्र. आठमे माया, नवमे लोन, दशमे राग,इगियारमे वेष, बारमे कलह, तेरमे अन्याख्यान, चौदमे पैशुन्य, पन्नर मे रति अरति, शोलमे परपरिवाद, सत्तरमे माया मृषा वाद, अढारमे मिथ्यात्वशल्य. ए अढार पापस्थानकमां हि महारे जीवे जे कोइ सेव्यु होय, सेवराव्युं होय, सेवताप्रत्ये अनुमोयुं होय, ते सर्वे मनें, वचनें, काया ये करी तस्स मिलामि कि ॥१॥ इति ॥ ३०॥ अर्थः-परजीवना प्राणनो नाश चिंतववो ते प्रथम प्राणातिपात-जूतुं बो लवाना परिणाम, ते बीजु मृषावाद. पारकी वस्तु धणीना दीधा विना चो री लेवानी रुचि, ते त्रीजु अदत्तादान. विषयसुखनी वांडारूप परिणाम ते चोथु मैथुन नव प्रकारें बाह्य अने चौद प्रकारें अन्यंतर परिग्रहनी वांग, ते पांचमो परिग्रह. कोश्नी उपर आकरा तीव्र परीणामें क्रोध करवो, ते हो क्रोध. आठ प्रकारे मद करवो, ते सातमुंमान. कपटसहित लोकने देखावा रूप धर्मकरणी करवी, ते आठमी माया. धन शरीर, कुटुंब, परिवाररूप संप दाने एकठी करवानी तथा राखवानी घणी वांबा, ते नवमो लोन. पौगलिक परवस्तु उपर राग धरवो, ते दशमो राग. पोताने अणगमती वस्तु उपर अरुचिन्नाव, ते अगीयारमो द्वेष. कोइ पण कारणे क्वेश करवानी रुचि, ते बारमो कलह. परजीवने अण दीj अण सांजदयुं थाल देवू, ते तेरमुं अन्याख्यान. पारकी चामी करवी, ते चौदमुं पैशुन्य. सुख दुःख आवे हर्ष शोक धरवो, ते पंदरमुं रति अरतिनामा पापस्थानक कहिये. गुणी किं वा निर्गुणी जीवनी निंदा करवी, ते शोलमो परपरिवाद कहियें. अंतरमां बीजी वात होय अने बाहेर मुखथकी मी बोलवू, इत्यादिक अनेक प्रका रें बल करीने लोकोने उगवाना परिणाम, ते सत्तरमो माया मृषावाद. पांच प्रकारे मिथ्यात्व सेववारूप परिणाम, ते अढारमुं मिथ्यात्य शल्य नामां पापस्थानक जाणवू. ए अढार प्रकारे जे जीवने चित्तमां पापरूप नाव उत्पन्न थाय, तेने नावपाप कहिये अने ते नावनी चिकाशें करी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंदितासूत्र अर्थसहित. १२ए जे जीवने सत्तायें कर्मनां दलीयां लागे, तेने अव्यपाप कहियें, ते अव्यपा पनां दलियां सत्तायें बंधाणां, ते आगल नावपणे तिर्यंच तथा नारकीना नव पामीने ब्याशी प्रकारे लोगवाय ॥ १॥ इति ॥ ३० ॥ . ॥ अथ देवसिअपमिकमणे ठगलं ॥ सबस्सवि, देवसिअ, उचिंतिअ, नासिअ, उच्चि हिअ, तस्स मिबामि उक॥१॥इति ॥ ३१॥ अर्थः-श्रा सूत्रनो अर्थ, आगल सबस्सवि नामा सामनीशमुं सूत्र आव शे, तेना अंतर्गत आवी जाशे, माटें आहीं नथी लख्यो ॥१॥३१॥ __अथ श्रावकपमिकमणसूत्र अथवा वंदितासूत्र ॥ वंदित्तु सब सिझे, धम्मायरिए अ सवसाढू अ॥ बामि पमिक्कमित्रं, सावगधम्माश्ारस्स ॥ १ ॥ अर्थः-( सब के० ) सर्व सर्वज्ञ एटले सर्व वस्तुने जाणे, सर्वना हित वांबक एवा तीर्थंकर तेमने, तथा (सिके के०)सिक जे अष्ट कर्मना दय थकी पूर्ण थयां ने अर्थ प्रयोजन जेमनां तेमनें, तथा (धम्मायरिए के०) धर्माचार्य जे श्रुतचारित्ररूप धर्म, तेना आचारने विषे श्रेष्ठ तथा धर्मना दातार, तेमनें, तथा ( अ के० ) च शब्द थकी उपाध्याय जे सिद्धांतना जणावनार ते पण लेवा, तेमने तथा (सबसाहू के०) सर्व साधु ते स्थवि रकल्पिकादिक जिनकल्पी प्रमुख अनेक प्रकारना साधु मोदना साधनार तेमने, (अ के) अकार समुच्चयार्थवाचक . एटले ए पांच पद जे बे, तेमने ( वंदित्तु के ) वांदीने नमस्कार करीने एटले ए पांचेने सर्व विघ्नोपशांतिने माटें वंदन करीने, (सावगधम्माश्र स्स के०) श्राव कधर्मने विषे जे अतिचार लाग्यो होय, तेथकी एटले एकशो ने चोवीश अतीचारथकी (पमिकमिजं के०) प्रतिक्रमवाने निवृत्तवाने (श्वामि के०) हुं श्वें बुं, वांबु, बुं. अहिं अतिचार शब्दनो अर्थ आवी रीतें बे, के जे आत्माना गुणने मलिन करे, तेने अतिचार कहियें ॥१॥ हवे सामान्यप्रकारें सघलाव्रतना अतिचार पमिकमवाने अर्थे कहे जे. जो मे वयाश्आरो, नाणे तद दंसणे चरिते अ॥ सुहुमो अ बायरो वा, तं निंदे तं च गरिदामि॥२॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० प्रतिक्रमण सूत्र. अर्थः-(वयाश्यारो के०) बार व्रतना अतिचार पंचोतेर बे, केम के ? अगीयार व्रतना तो प्रत्येके पांच पांच अतिचार बे. अने एक सातमा व्रतमध्ये कर्मादाननापंदर अतिचार अंतरजूत आवे , अने पांच मूल सातमा व्रतना अतिचार मेलवतां वीश थाय. ए रीतें सर्व मली पञ्चितेर अति चार थाय, (तह के० ) तथा ( नाणे के ) ज्ञानना आठ अतिचार, ते 'काले विणए' इत्यादिक आठ प्रकारे ज्ञानाचार, तेने विपरीतपणे आचरवा थकी होय, (दसणे के०) दर्शन सम्यक्त्वना तेर अतिचार .तेमां शंकादिक पांचने सेववाथकी पांच अतिचार तथा 'निस्संकिय निस्किय', इत्यादिक आठ प्रकारे दर्शनाचारने अणसेववा थकी आठ अतिचार, सर्व मली तेर अतिचार थाय तथा (चरित्ते के०) चारित्राचारना आठ अतिचार, ते पांच समिति अने त्रण गुप्तिने अणपालवाथकी अथवा विपरीतपणे पास वाथकी थाय, (अके) च शब्द थकी तपाचारना बार अतिचार, ते 'अनशन ऊणोदरी' इत्यादिक बार प्रकारनो तपाचार तेने विपरीत पणे आ चरवाथकी होय. वीर्याचारना त्रण अतिचार, ते बती सामर्थ्य मन, वच न अने कायायें करी धर्मने विषे उद्यम श्रणकरवाथकी होय, अने सं लेषणा मरणांत आराधनाना शह लोक परलोकनी वांग इत्यादिक पांच अतिचार . ए सर्व मली एकशो चोवीश अतिचारमध्ये थी (सुहुमोके०) सूक्ष्म ते जे जाणवामां नहिं आवे, ते जाणवो. (अ के०) वली (वा के०) अथवा (बायरो के०) बादर जे प्रगट जाणवामां आवे, ते जाणवो. ए सूक्ष्म अथवा बादर अतिचारमांहेलो (जो के ) जे अतिचार, (मे के०) महारे हुर्ड होय, (तं के० ) ते अतिचारप्रत्ये ( निंदे के ) आत्म साखें हुं निहुं . हवे वली नहिं करूं. (च के०) वली (तं के०) ते अति चारप्रत्ये ( गरिहामि के० ) गुरुसमद हुँ गहुँ ९, एटले निडु बुं ॥२॥ हवे जे जे व्रत , ते ते व्रतना अतिचार पण प्रायः परिग्रहथकी उ. पजे जे, तेमाटें प्रथम सामान्यपणे परिग्रह आश्रयीने पमिकमवाने कहे . उविदे परिग्गमि, सावजे बहुविहे अ आरंने॥ कारावणे अ करणे, पमिकमे देसिकं सवं ॥ ३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ वंदितासूत्र अर्थसहित. अर्थः-(विहे के० ) बे प्रकारना ( परिग्गरंमि के० ) परिग्रह बे, तिहां एक छिपद चतुष्पदरूप सचित्त परिग्रह,अने बीजो अव्य तथा आनू षणादिक ते अचित्तपरिग्रह जाणवो. तथा एक बाह्यपरिग्रह ते धनधान्या दिक नवविध जाणवो. अने बीजो अन्यंतरपरिग्रह ते कषाय, नोकषाय, मिथ्यात्वरूप चौद प्रकारनो परिग्रह ले. तेनी उत्पत्तिनुं कारण, ( सावळे के०) पापसहित एवा ( अ के ) वली (बहुविहे के०) बहुविध कृषि प्रमुख अनेक प्रकारना जे (आरंने के०) आरंज, तेने ( करणे के०) पोतें करवाथकी ( कारावणे के० ) अनेरापासे कराववाथकी (अ के०) बीजा आरंन करनाराने अनुमोदवाथकी जे महारे अतिचार लाग्यो होय, (देसियं सर्व के0 ) ते सर्व दिवससंबंधी अतिचारप्रत्यें (पनिक्कमे के) हुँ प्रतिक्रमुं बुं, एटले ते अतिचारथकी हुँ निवर्तुं बुं ॥३॥ हवे प्रथम ज्ञानाचारना अतिचार आलोवे बे. जं बझमिदिएहिं, चनहिं कसाएहिं अप्पसनेहिं ॥ रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि ॥४॥ अर्थः-(इदिएहिं के०) स्पर्शनादिक पांच इंडिय मोकलां राख्यां तेणें करीने तथा (चाहिंकसाएहिं के०) क्रोधादिक चारकषायें करी, (अप्पस बेहिं के०) अप्रशस्त एटले मागेमिथ्यात्वादिक औदयिक नाव तेना उदयें करी ( रागेण के ) रागें करी, (व के० ) अथवा (दोसेण व के० ) हेपे करी, अहिं व पादपूर्णार्थ बे, (जं के०) जे ज्ञानातिचार रूप अशुन कर्मने (बई के०) बांध्यु होय, उपायु होय, (तं के०) ते ज्ञानातिचाररूप अशुन कर्मप्रत्ये (निंदे के ) आत्मानी साखें हुँ निंउं बुं, ( चके० ) वली (तं के० ) तेप्रत्ये ( गरिहामि के० ) गुरुनी साखें हुं गहुँ ढं, निहुं ॥४॥ हवे सम्यग्दर्शनना तथा चर्दर्शनना अतिचार आलोवे . आगमणे निग्गमणे, गणे, चंकमणे अणानोगे ॥ अनिलंगे अनिउंगे, पमिकमे देसियं सवं ॥ ५॥ अर्थः-(अणानोगे के० ) अनुपयोगथकी ( अनिउँगे के० ) राजानां आदेश तथा घणा लोकना आग्रहथकी. इत्यादिक अनियोग श्रागार थकी ( अ के० ) वली ( निउंगे के) पराधीन आजीविका चलावता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ प्रतिक्रमण सूत्र. जेनुं दासपणुं करीयें, तेनी श्राज्ञाथकी तथा मंत्री, श्रेष्ठी, तेनी आज्ञा थ की, मिथ्यादृष्टि संबंधि रथ यात्रा प्रमुख जोवाने कौतूक जोवाने - एटले मीथ्यात्वीनां देव, देहरां प्रमुखने विषे उत्सवादिक जोवाने ( थागमणे निग्गमणे के०) आगमन, निर्गमन कर एटले जावुं तथा यवकुं तथा (ठाणे ho) मिथ्यात्वीने स्थानकें उत्जां रहेतां, ( चंक्रमणे के० ) तिहांज अहां परहां फरतां, जे अतिचाररूप पाप बांध्युं, ते (पक्किमेदे सियं स ho) ते सर्व दिवस संबंधिया अतिचार लाग्या होय, तेथी पक्किमुं तुं, निवर्त्ती, हयां प्राकृत शैलीना वशथकी वकारनो लोप थाय बे, तेमाटे, 'देसि स' पाठ को बे, परंतु 'देवसियं सर्व' पाठ को नथी. वली या ठेकाणे प्रजातें 'राज्य' एवो पाठ कहियें, अने परिकएं 'परिकयं एवो पाठ कहियें, तथा चडमा सियें 'चउम्मा सियं' एवो पाठ कहियें, तथा संक वरियें 'संवछरियं' एवो पाठ कहियें ॥ ५ ॥ हवे सम्यक्त्वना तिचार बालोवे बे. संका कंखे विगिचा, पसंस तद संथवो कुलिंगीसु ॥ सम्मेत्तस्स रे, पक्किमे देसियं सवं ॥ ६ ॥ अर्थः- प्रथम जीवादिक नव तत्वनेविषे जीव बे, किंवा नथी ? तथा जि जाति वचनने विषे ए साधुं हशे के केम हशे ? एवो संदेह करवो तेने ( संका के० ) शंका जाणवी, बीजुं अल्प स्वल्प क्षमादिक, अहिंसा दिक गुण, परदर्शनी मां देखीने ते उपर अजिलाप उपजे, ते (कंख के०) कांदा कहियें, श्रीजुं दानादिक धर्म कस्यानुं फल हो, के नहिं होय ? रखे फोक ट प्रयास करवो पतो होय ? एवो संदेह धरवो, अथवा साधु, साधवीनां शरीर, वस्त्र मलिन देखी डुगंडा करे. ते (विगिठा के० ) विगुप्सा क हियें. चोथो (कुलिंगीसु के० ) कुलिंगि मिथ्यात्वीने विषे (पसंस के० ) प्रशं सा करे, ते प्रशंसा कहियें, (तह के० ) तथा पांचमो कुलिंगी मिथ्यात्वी ने विषे संस्तव, परिचय करे, ते ( संघवो के० ) संस्तव कहियें. ए दर्शनमोहनीय कर्मना क्षायोपशमादिक पणा थकी उत्पन्न थयो जे जिनप्रणीत तत्त्वश्रद्धानरूप आत्मानो शुनपरिणाम, तेने ( सम्मत्तस्स २) सम्यक्त्व कहियें, तेना ए पांच ( इयारे के० ) अतिचार जाणवा. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंदितासूत्र अर्थसदित. १२३ श्रीने जे (देसियं के० ) दिवससंबंधी पाप बांध्युं ते, ( सवं के० ) सर्व (पक्किमे के० ) हुं पक्कि तुं ॥ ६ ॥ हवे चारित्राचारना यतिचार आलोवे बे. बक्कायसमारंजे, पयणे च पयावणे च जे दोसा ॥ अत्तठा य परठा, उज्जया चैव तं निंदे ॥ ७ ॥ अर्थः- चारित्रना अतिचार प्रतिक्रमवानी आदिमां उक्काय समारंज श्री दोषने निंदियें यें. (अत्ता के०) श्रात्माने अर्थ एटले पोनाना जोगवा श्रात्मार्थ एटले मुकने याम कस्याथी पुण्य यशे ? एव जोली बुद्धियें साधुने पवाने . ( य के० ) वली ( परहा के० ) प्राणादिक परने अने ( उज्जया के० ) निज पर ए बेहुने नादिक आहार (पयले के० ) पचवते एटले पोतें रांधते ( के० ) वली ( पावणे के० ) पचावते एटले बीजा पासें रंधावते ( के०) अ शब्द थकी वीजा रांधता होय तेनें अनुमोदन देते, एम (काय के० ) पृथिवी, पाणी, अग्नि, वायु, वनस्पति ने त्रस ए बक्कायजीवोना ( समारंभे के ० ) समारंभ, परिताप, उपद्रव हुवे बते अथवा बक्कायने विषे यनायें प्रव वाथकी, (जे के० ) जे कर्मबंधरूप ( दोसा के० ) दोष लाग्या होय, ( चेव के० ) एव शब्दे निश् च शब्दें पर उपर द्वेष करवाथकी जे अतिचार दोष लाग्यो होय, ( तं के० ) ते प्रत्यें ( निंदे के० ) हुं निंडुं हुं ॥ ७ ॥ त्यां सामान्यप्रकारें चारित्रातिचार प्रतिक्रमवाने बार तिचार कहे . पंचण्हमणुवयाणं, गुणवयाणं च तिष्हमइयारे ॥ सिखाणं च चन्हं, पडिक्कमे देसियं सवं ॥ ८ ॥ अर्थः- ( पंचण्डमणुवयाणं के० ) स्थूल प्राणातिपातादिक एवां पांच व्रत, ते विषे, (च के० ) वली (तिरहं के० ) दिशिपरिमाण यादिक ऋण ( गुणवयाणं के०) गुणव्रत, तेने विषे तथा (चाहं सिरकाएं के०) सामायिक यादें देने चार शिक्षावत, विषे, ( च के० ) वली तप, संलेषणादिकने विषे जे (यारे के० ) तिहार लाग्यो होय, ते अतिचार आश्रयी, (पमिक्कमे के० ) हुं पक्किमुं बुं. निंडुं हुं, ( दे सियंसवं के० ) दिवससंबंधि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ प्रतिक्रमण सूत्र. सर्व अतिचारप्रत्ये अहीं पांच अणुव्रत ते पांच मूलगुण कहियें, अने ते पांचने विशेष गुण करनारा दिशिप्रमाणप्रमुख त्रण गुणव्रत जाणवां; वली चार शिदाव्रत, ते थोमा कालनां मानवाला जाणवां. ते जेम शिष्यने विद्या नणावीने अभ्यास कराववा योग्य , तेम ए सामायिकादिक चार शिदाव्रतनेविषे पण सदा उद्यम कराववा योग्य ॥॥ हवे प्रथम स्थूलप्राणातिपातविरमणनामा अणुव्रत कहे . पढमे अणुवयंमि, थूलग पाणाश्वाय विरई ॥ आयरिश्रमप्पस, श्च पमायप्पसंगणं ॥५॥ अर्थः-(पमाय के) पांच प्रकारना प्रमाद तेने विषे, (प्पसंगणं के) अत्यंतपणे प्रसंग एटले प्रवर्तवू, तेने प्रमादप्रसंग कहिये, तेणें करीने तथा आकुट्या दिकें करीने (अप्पस के०) अप्रशस्त अशुन माग एवां अज्ञानमिथ्यात्व कषायादिक औदायिकत्नाव हुए बते, (थूलग के) स्थूल बादर मोटको जे जावू, आवद्यु, फरवू, इत्यादिक लदणे करी प्रगट जणाय , तथा संकल्प निरपरांधि निरपेद, बेंजिय, तेंघिय चरिंजिय, पचेंडेिय, त्रस जीव ने संबंधी (पाण के०) आयु, इंडिय, प्राण, तेनां (अश् वाय के) अतिपात एटर.._तेनी (विर के०) विरति निवृत्ति. तेथकी (आयरिश के कमवू उद्धंघवं ते (श्व के०) अहींयां पढमेअणुव्वयंमि के०) प्रथम तने विषे अतिचार जाणवो. अथवा स्थूलप्राणातिपातनिवृत्ति प्रत्ये श्रियीने जे जे दोष (आयरियं के०) थाचस्यो सेव्यो होय, आगली गाथामां पडिकमिश ॥ ५ ॥ हवे प्रथम व्रतना पांच अतिचार कहे ले. वद बंध गवि जेए, अनारे नत्तपाणवुए ॥ पढमवयस्स इआरे, पमिक्कमे देसियं सवं ॥१०॥ अर्थः-कषायना वशथकी छिपदादिक जीवने लाकमी प्रमुखें निर्दयता यें करी, एक (वह के० ) वध, हणवू, ताम, प्रहार देवो, घायल करवो, बीजो (बंध के) दोरमादिकें करी बांधवं, त्रीजो (बवि के०) बलद समारवा, शरीरना कान अने नासिकादिक अवयवोने(एके)बेदवा,चोथो थोमोजार उपामवानी शक्तिवाला एवा पोठीया गामला वृषनादिकोनी उपर लोचना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंदितासूत्र अर्थसहित. १२५ वश थकी ( अश्नारे के० ) तिजारनुं खारोपण करवुं. एटले तेनी उपर घणो जार नाखवो, पांचमो ( जत्तपाणवठेए के०) जात पाणीनो व्युवेद करवो, अंतराय करवो, ए ( पढमवयस्सइयारे के० ) प्रथम व्रतना पांच अतिचार, ते श्रीने जे मुने अतिचार लाग्यो होय, ( सवंदे सियं के० ) ते सर्व दिवससंबंध तिचार प्रत्यें, (पक्किमे के० ) हुं प्रतिक्रमुं तुं, निंदु तुं. या ठेका कोइ शंका करे के, प्राणातिपात विरमणत्रतवालाने धादिकनो तिचार लागे नहीं, कारण के प्राणातिपात शब्दें करी वधादिक ग्रहण थाय नहीं, तेथी वधादिक करे तो पण तेने प्राणातिपात विरमण तिचार लागे नहीं ? त्यां कहे वे के, मुख्यतायें करीने तो प्राणातिपातनुंज पच्चरकाण कखुं बे, परंतु वधादिकनुं प्रत्याख्यान - नथी, तो पण परमार्थे ते वधादिकनुंज प्रत्याख्यान जाणवुं, कारण के ते वधादिकने प्राणातिपातनुं हेतुत्व बे, ते हेतुमारें ते बधादिक करवा थकी प्राणातिपातत्रतजंग थाय, तेथी ते प्राणातिपात विरमणत्रतवालाने वधा दिनुं पञ्चरका योग्य बे १० ॥ वे बी . बीए वयं मि, परिथूलग अलि वयण विरई ॥ प्रायरिमनसचे, इच पमायप्पसंगेणं ॥ ११ ॥ अर्थः- एक कन्यालीक ते कन्यायाश्रयी जतुं बोलकं, सुलक्षणीने अपलक्षण कहेतुं नेपलक्षणीने सुलक्षणी कहेतुं, एमां द्विपद संबंधी जे जू बोलवं, ते सर्व जाणी लेवुं. बीजुं गोवालिक ते गौश्राश्रयी जतुं बो लवं, एटले थोमा दूधवालीने घणा दूधवाली कहेवी ने घणा दूधवालीने थोमा दूधवाली कहेवी एमां कोइ पण चतुष्पदसंबंधी जे जूनुं बोल ते सर्व ले. श्रीजुं नूम्यालीक ते मिश्राश्रयी जूठ ते पारकी जूमिने पोतानी भूमि कहेवी तथा द्रव्यादिकसंबंधी जे जतुं बोलवं. ते सर्व एमां थावे बे, चोथो न्यासापहार ते पारकी थापणवस्तु राखीने जूनुं बोलकं, जे में तो नयी राखी. पांचमुं मत्सरने सीधे अथवा लांच लेइने मोटकी कूमी साक्षी रवी तथा कूंमा करहानुं काढवुं, विश्वासघात करवो, ए सर्व एमां आव्युं. इत्यादिक जेमां राजा दंडे, लोक मंडे, एवो ( परिथूलग के० ) अतिशयें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ प्रतिक्रमण सूत्र. करी मोटको (अलियवयण के ) अलीक वचन मृषावाद तेनी (विरा के) विरति ते थकी(आयरिश्र के०)जे अतिक्रमवू,उद्धंघर्बु ते(वीएअणुव्वयंमि के०) वीजा अणुव्रतने विषे अतिचार थाय,ते अतिचार, शुंहोवाथी थाय ? तो के (श्व के) एहीज व्रतने विषे (पमायप्पसंगणं के)प्रमाद ने प्रसंगें करी(अप्पसले के०)अप्रशस्त अशुन नाव हुए बते थाय, अथवा मोटका मृषावादनी विरतिप्रत्ये आश्रयीने(आयरियं के )जे दोष आचस्यो होय,एटले आ व्रतमध्ये जे दोष लगाड्योहोय,तेागलीगाथायें पमिकमीश. अहीं कोई कहेशे के अदत्तादानविरमणव्रतमां न्यासापहारनी वात आवशे, तेवारें अहीं लखवाथी पुनरुक्ति थाय . त्यां कहे डे के, प्रधानत्वें करी तो न्यासापहार ते वचन- खोटु बोलवापणुंज बे. तेथी ए मृषा वादपणुंज थाय बे. तेमाटें अहीं मृषावाद आश्रयी लख्युं . __ तथा वली न्यासापहार अने जूठी सादीपणुं, ए पूर्वोक्त हिपदादिक अलीकना अंतर्जावमा आवी जाय , तो पण लोकने विषे ए बेहुनु अत्यंत ग्रहण करेलापणुं बे, माअहीं ए बेनुं जूडं ग्रहण कर्यु डे ॥११॥ सहसा रहस्स दारे, मोसुवएसे अ कूडलेदे अ॥ बीअ वयस्सश्ारे, पमिकमे देसियं सवं ॥१॥ अर्थः-(सहसा के० ) सहसात्कारें अण विचामु कोने माथे जूतुं श्रा ल देवु एटले कोश्ना उपर आ चोर बे,इत्यादिक कहीने कलंक चढाव. ते प्रथम सहसान्याख्यान अतिचार तथा कोश्ने एकांतें बानी वात करतां देखीने कहे के, तमें अमुक अमुक राजविरुक विचार करो बो ? बोलो बगे! ते बीजो ( रहस्स के० ) रहस्यान्याख्यान अतिचार जाणवो. तथा पोतानी स्त्रीयें आपणा उपर विश्वास आणीने कांश बगनी वात आपण ने कही होय, ते वात बीजा आगल प्रगट करे, एटले ते साचुं वचन होय तोपण परने पीमाकारी थवाथी जूडं जाणवू, ते त्रीजो (दारे के०) खदारमंत्रनेद अतिचार जाणवो, तथा अणजाण्यां औषध मंत्रादिक बतावे अथवा कोश्ने कष्टमां पामवाने अर्थे कूमी बुद्धि आपे, ते चोथो(मोसुवएसे के०) मृषा उपदेश अतिचार कहियें, तथा (अ के०) वली कूमा का गल लखवा, खोटां खत करवां, तथा खरा अदर जांजी खोटा अदर लखवा, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंदिता सूत्र अर्थसहित. १२७ बीजानी महोर मुसा जांजवी. इत्यादिक मषीनेद सर्व एमां आवे बे, ते पांचमो (कूमलेहे के०) कूट लेख अतिचार कहीयें. (अ के०) अकार पादपूर्णार्थ जे. ए पांच, बीअवयस्सश्यारे के ) बीजा व्रतना अतिचार,ते आश्रयी जे मुने अतिचार लाग्यो होय, ते ( सवंदे सियं के०) सर्व दिवस संबंधी अतिचारप्रत्यें ( पमिकमे के० ) हुं पमिकमु , निं ९ ॥ १५ ॥ हवे त्रीजुं अणुव्रत कहे . तइए अणुव्वयंमि, थूलगपरदवहरणविरई ॥ आयरिश्रमप्पसबे, श्व पमायप्पसंगणं ॥ १३ ॥ अर्थः-जेथकी राजानो दंग पामीयें, एवं खातर खंणी ठंठमी बोमी,तालां, पुमकुंची, पमी जमी वस्तु धणी जाणी राखवी, रखाववी, मार्गे जातानेटवो, इत्यादिक (थूलग के०) मोटको, (परदवहरण के०)पर-अव्य ते धन हरवानी (विर के) विरतिथकी (आयरिश के०) अतिक्रमवु उलंघवु ते (तइएअणुव्वयंमि के०) त्रीजा अणुव्रतने विषअतिचार थाय, ते अतिचार शुं होये थके थाय ? तो के (श्च के) एहीज तृतीयव्रतने विषे (पमायप्पसंगणं के०) प्रमादना प्रसंगें करीने (अप्पसने के० ) अप्रशस्त अशुजन्नाव हुए बते थाय ॥ १३॥ तेअतिचारोने आगली गाथायें प्रगट कहे बे. त्रीजा अणुव्रतना पांच अतिचार कहे . तेनादमप्पउंगे, तप्पमिरूवे विरुगमणे अ॥ कूडतुलकूममाणे, पमिकमे देसियं सत्वं ॥ १४॥ अर्थः-(तेन के०) चोर तेनी (आहम के०) आहृत एटले हरण करेली अर्थात् चोरेली वस्तु,तेने लेवी एटले चोरनी आणेली केशर कस्तूरी था. दिक बहुमूल्य वस्तु तेने सोंधी जाणी लीये, ते प्रथम स्तेनाहृत अतिचार जाणवो. बीजो (प्पउँगे के०) चोरने खरचादिक संबल सहाय आप, स खा मेलवी आपवो, चोरीनी प्रेरणा करवी, ते बीजो प्रयोगातिचार जाण वो. तथा त्रीजुं (तप्पमिरूवे के०)तत्प्रतिरूप वस्तु करीने वेचवी एटले खो टीवस्तुने खरी वस्तुने रूबे करी, खरीने नावें वेचवी तथा वस्तुमां नेल संनेल करवो, एटले खरा मोतीमा खोटां मोती सोनामां त्रांबु, केशरमां क सुंवो, कस्तुरीमां मेल, धृतमां तेल, गहूना लोटमा जुवारनो लोट, गोलमां Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. प्रतिक्रमण सूत्र. राख, अझ जूनां वस्त्रने निखरावी, रंगावी, तेने नवां करी वेचवां अथवा कारमी माठी एवी जे सिंदूर, कपूर, अफिणादिक वस्तु होय तेने खराने मूत्यें वेचवी. सूत्र, कपासादिकने पाणीयें नींजवीने वेचवा. लविंग, जायफलादिक मांहे दूधनुं पोतुं देवू, इत्यादिक तत्प्रतिरूप अतिचार जाणवो, तथा चोथु ( विरुझगमणे के०) विरुधगमन ते दाणचोरी प्रमुख राजविरुक आचर, जेथी राजा दंग लीये, बंदीखाने नाखे, ते विरुङगमन अतीचार जाणवो. पांचमो (कूमतुलकूममाणे के०) कूमां तोलां, अने कूमां मापां राखे, एटले अधिकां उडां. काटलां, वाट तथा तोलां त्राजुआं, पाली, माणा, गजा दिकनुं राखवू, त्यां अधिके लेवु अने में देवं, ए कूमतोल कूममान अति चार जाणवो. अहीं यकार समुच्चायार्थे बे. ए त्रीजा व्रतना पांचअतिचा र, ते आश्रयी जे मुने अतिचार लाग्यो होय, ( सवंदेसियं के०) ते सी दिवससंबंधी अतिचार प्रत्ये (पमिकमे के०) हुं पमिकमुं बुं,निउं बुं ॥१४॥ हवे चोथु अणुव्रत कहे ... चन अणुवयंमि, निचं परदारगमणविरई ॥ आयरिअमप्पस, श्व पमायप्पसंगणं ॥१५॥ अर्थः-( निच्चं के० ) नित्य सदैव निरंतर, (परदार के०) परनी ते वी जानी दार एटले स्त्री तेनी साथे, ( गमण के ) गमन करवानी एटले कामनोग जोगववानी ( विर के) विरति, ते थकी (आयरिय के०) जे अतिक्रमवू, उलंघवं ते (चउल्लेअणुवयंमि के०) चोथा अणुव्रतने विषे अतिचार जाणवो, ते अतिचार शुं हुए बते थाय ? (श्व के०) एहीज परस्त्रीगमनत्यागरूप चोथा अणुव्रतने विषे (पमायप्पसंगणं के०) प्रमादने प्रसंगें करी, ( अप्पसबे के) अप्रशस्त अशुजनाव हुए बते थाय,अथवा परस्त्री सेववानो व्रतीप्रत्ये जे (आयरिअं के०) अतिचार पाच स्यो होय, सेव्यो होय, ते आगली गाथामां नाम लश्ने पमिकमीश ॥१५॥ ॥ चोथा अणुव्रतना पांच अतिचार कहे जे. अपरिग्गदि इत्तर, अणंग वीवाद तिवअणुरागे ॥ चउब वयस्स श्रे , पमिकमे देसियं सवं ॥१६॥ अर्थः-प्रथम (अपरिग्गहिया के०) अपरिगृहीता एटले जेने बीजा कोश Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ए वंदितासूत्र अर्थसहित. ये ग्रहण करेली न होय, परणेली न होय, ते कुमारिका,अथवा जेनो धणी मृ त्यु पाम्यो होय, तेविधवा, तेनी साथें मैथुन सेवq. तेमज श्राविका पण कुंवारा अथवा रांडेला पुरुषनी वांग करे, तो तेने पण अतिचार लागे. बी जो (इत्तर के०) इत्वर ते कोशएक पुरुषं वेश्या दिकने स्त्रीने स्थानके राखेली होय, तेनी साथें मैथुन सेवईं, तेमज स्त्री पोतानी शोक्यनो दिवस होय तेनुं निवारण करी जरिने सेवे, तेने बीजो अतिचार लागे. त्रीजु (अणंग के०) कामक्रीमा, ते जेम केः-परस्त्रीनी साथें हास्य,कुतूहल करवां, तथा तेनुं कुच मर्दन, मुखचुंबन, उष्ठदशन आलिंगनादिक करवू, कंदर्पनां चोराशी आसन सेवां, पुरुषचिह्न टाली साथवें अंगुष्ठादिके करी मैथुन सेववं, ते त्रीजो अतिचार. चोथो (वीवाह के०) विवाहकरण ते पोतानां बोरु टालीने यश लेवाने अर्थे परना विवाह, सगाइ, लग्न करवां, कराववां, कन्यादान देवं देवराव, नाउँ जोमवं. पाचमुं (तिवअणुरागे के) कामनोगने विषे तीव्र अनुराग करवो, अत्यंत अनिलाषy, करवं कामनोगने अर्थे दूध, दहिं, घृतादिक, बंग, त्रांचं, फलाद प्रमुख धातु तथा अनेक औषधीपाक मा जूम रसादिक काम दीपाववानी वस्तु खावी, वापरवी. ए पांच, ( चउबव यस्सश्यारे के ) चोथा व्रतना अतिचार, ते श्राश्रयी जे महारे अति चार लाग्यो होय, ( सवंदेसियं के०) ते सर्व दिवससंबधी अतिचार प्रत्यें (पमिकमे के०) हुँ प्रतिकमुं बुं, निउं बुं ॥ १६ ॥ ___ हवे पांचमुं अणुव्रत कहे बे. इत्तो अणुवए पं, चमंमि आयरिश्रमप्पसमि॥ परिमाणपरिए, श्च पमायप्पसंगणं ॥ १७॥ अर्थः-(श्त्तो के ) ए चोथा व्रत कह्या उपरांत स्थूलपरिग्रहपरि माणनामें पांचमुं अणुव्रत कहियें बैयें. (श्न के०) ए परिग्रहपरिमाण व्रतने विषे (पमायप्पसंगणं के०) प्रमादने प्रसंगें करीने, (अप्पसबंमि के० ) अप्रशस्त अशुननाव थये बते, (परिमाणपरिचए के०) परिय हना परिमाण प्रत्ये परिजेद करे ते एटले उलंघन करवाथकी (पंचमं मिअणुवए के० ) धनधान्यादिक नवविध परिग्रहना परिमाणरूप पांच १७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० प्रतिक्रमण सूत्र. मा अणुव्रतने विषे, जे अतिचार (आयरियं के०) आचस्यो होय, एटले लगाड्यो होय, ते गली गाथामां पमिकमीश ॥ १७ ॥ धण धन्नखित्त वव,रुप्प सुवन्ने अकुवित्र परिमाणे॥ उपए चनप्पयंमि, पडिकमे देसियं सवं ॥ १७ ॥ अर्थः-प्रथम (धण के०) चार प्रकारनां धन , तेमां एक गणवा रूप धन, ते पूगी, नालीएर प्रमुख जे गणीने वेचाय ते. बीजुं धरिम एटले तोलवारूप धन, ते गोल, खांक, प्रमुख तोलीने वेचाय, ते जाणवू. त्रीजें गजें तथा पालीयें करी मापीने वेचाय, ते मापवारूप धन ते कापम, जमीन, तेल, दूध, घृत, प्रमुख. चोथु परीक्षा करीने जे लेवाय, वेचाय, ते रूपुं, नाj, धन, रत्नादिक, माणिक्य मोती प्रमुख जाणवां. ए चार प्रकारें धन अने (धन्न के०) धान्य ते गोधूम, चोखा अमद प्रमुख जाणवा. ए बेहुना करेला परिमाणथकी उलंघq एटले नियम उपरांत थयुं जाणीने ज्यां सुधी आगबुं वेचाय नहीं, त्यां सुधी बीजाने घेर रखावे अथवा संचकार थापी मूके, कोग अथवा मूमानुं परिमाण की, होय तो तेन्हाना ने बदले महोटा बंधावे, ते प्रथम धनधान्यपरिमाणातिक्रम अतिचार जाण वो. बीजो(खित्त के) केत्र, तेहलें खेमी नूमि, ते क्षेत्र, ते त्रण प्रकारचं जे.एक अरहट्टने पाणीयें नीपजे, ते सेतुक्षेत्र, बीजुं वरसादने पाणीयें निपजे,ते केतु क्षेत्र, त्रीजु जे बेहुना पाणीयेंथी नीपजे, ते उन्नयक्षेत्र जाणवू. ए त्रण प्रकारनां क्षेत्र जाणवां. तथा (वस्तू के०) वास्तु ते घर, हाट, वखारप्रमुखनी नूमि, ते पण त्रण प्रकारें बे. एक तो जे जमीन खोदीने नीचें नोयरादिक करिये, ते खातनूमि, बीजी मालियादिक जे उंचां चमावीयें, ते उद्रित नूमि, त्रीजी ज्यां खणवू, चणवं, बेहु वानां करीयें, एटले नोंयलं पण करियें अने उपर माल पण चणावियें. तथा ग्राम नगरादिक पण एमां आवे, ते खातोदित नूमि जाणवी. ए बेहुना परिमाणथी उलंघ, ते आवी रीतें केः-एक क्षेत्र मोकळु होय अने बीजु लेवरावे, तेवारें नियम नंगना जयथी पूर्वला क्षेत्रनी वाम नांगीने बन्नेनुं एक क्षेत्र करी मूके; तथा घर, हाट,व खार, प्रमुख अधिका थतां देखीने वचमांनी नीत तथा मोन पामीने एक करी मूके, ए क्षेत्र वास्तुपरिमाणातिक्रम बीजो अतिचार जाणवो, त्रीजें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंदितासूत्र अर्थसहित. १३१ (रुप्प के०) रू', (सुवन्ने के०) सोनु, ए बेहुना परिमाणथी उलंघ, एटले रू', सोनुं, अधिक थतुं देखीने नार्यादिकना नाम उपर करी मूके, ते रुप्प सुवन्नपरिमाणातिकम नामा त्रीजो अतिचार जाणवो. (अ के० ) वली ( कुवित्रपरिमाणे के ) कुपित ते थाल कचोलां प्रमुख एटले सोनू, रूपुं टालीने बाकी समस्त धातुना त्रांबमा, थाली, कलशीया, वाटका, चरू, खाटला पाटला प्रमुख समस्त घरवखरी जे होय बे, ते सर्वने नियम उप रांत अधिक थतां देखीने नांगी नखावी महोटां करीने संख्यायें तेटलांज राखे, ते कुवियपरिमाणातिकम चोथो अतिचार जाणवो. पांचमो (कुपए के) द्विपद ते गामी, दास, दासी, रांघणी, वाणोतर प्रमुख अने (चउप्पयं मि के०) चतुष्पद ते गाय, घोमा, नेश प्रमुख जाणवां. ए बेहुना परिमा रणथी उलंघवं, एटले नियम उपरांत थता जाणी गर्नग्रहण घणुं महोर्नु करावे, तथा वेचे, ते पांचमो छिपदचतुःपदपरिमाणातिकम अतिचार जाण वो. ए पांचमा व्रतना पांच अतिचार ते श्राश्रयी जे महारे कोश् अतिचार लाग्यो होय, (सर्वदेसियं के०) ते सर्व दिवससंबंधी अतिचार प्रत्ये (पमिकमे के०) हुँ पमिकमुं बुं, निंउं दुं ॥ १७ ॥ हवे त्रण गुणवतमां प्रथम दिकूपरिमाणव्रत कहे . गमणस्स न परिमाणे, दिसासु जडं अहे अतिरिक्षं च॥बुढि सय अंतर-झा, पढमंमि गुणवए निंदे ॥२॥ अर्थः-(दिसासु के)ऊर्ध्वदिशि,अधोदिशि अने पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ए चार दिशि तथा चार विदिशि,ए आग्ने तीर्थी दिशि कहिये,तेने विषे ( गमणस्स के) जावाना ( परिमाणे के० ) परिमाण एटले सो योजन अथवा तेथी न्यूनाधिक पर्यंत जावानुं परिमाण करेलुं होय, ए रूप प्रथम गुणवतने विषे ( उ के०) तु शब्दथकी जे अतिचार लाग्यो होय, ते आ गल निंदियें बैयें. प्रथम (उ के०) ऊर्ध्व ते उंची दिशिना परिमाणप्रत्ये उलंघ, वीजुं (अहेब के०) अधो एटले नीची दिशिना परिमाण प्रत्ये उ खंघ, वली त्रीजु (तिरिअं के)तीनिदिशिना परिमाणप्रत्ये अतिक्रमवू,उ खंघg अथवा नियमनंगना नयने लीधे वाणोतर प्रमुखने मोकलवो, चोथु (बुद्धि के ) देवनी वृद्धि एटले सर्व दिशीयोना परिमाण ते सो, किंवा बसो योजन पर्यंत जावाना सरखा करेला ने, पछी को कार्य पडे. तेवारें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ प्रतिक्रमण सूत्र. एक दिशियें कार्य विशेष पच्चास योजन वधारवा, बीजी दिशियें पच्चास योजन घटावा, ते चोथो क्षेत्रवृद्धिनामा यतिचार जाणवो पांचमो (स 5 अंतरा के०) स्मृत्यंतर्द्धा ते मार्गमांडे स्मृतिनो अंश याय एटले संदेह कारी एक विचार उपजे के, शं था दिशि महारे सो योजने मोकली राखेली बे ? के पच्चास योजन मोकली राखेली बे ? एवी शंका बते पच्चास योजन उपरांत जावुं, ते पांचमो अतिचार अने सो योजन उपरांत जावुं ते अनाचार व्रतजंग जाणवो. ए पांचमो स्मृत्यंतर्द्धानामें अतिचार. ( पढi am a ho) प्रथम गुणवतने विषे पूर्वोक्त पांच प्रतिचार मांहेलो जे अतिचार लाग्यो होय, ते प्रत्यें ( निंदे के० ) हुं निडुं हुं ॥ १५ ॥ वे बीजं उपजोग परिजोग परिमाण गुणत्रत कहे बे. ममि मंसंमि, पुप्फे फले गंध मल्ले ॥ जवनोगपरीनोगे, वीमि गुणवए निंदे ॥ २० ॥ अर्थः- जे वस्तु उप एटले एकवार सेवाय तथा मुखादिकमां शरीरमां प्रवेश कराय एवी वस्तु, जेम के खान, पान, फूल, जे वविलेपन प्रमुख स्तु तेनो जोग ते उपजोग तथा परि एटले बाहिरथी वारं वार सेवियें, ते परिजोग वस्तु. ते वस्त्र, आजरण, जवन, स्त्री प्रमुख जाणवां. उपजोग परिभोग परिमाणनामा बीजुं गुणव्रत वे प्रकारें बे. एक जोजनथकी, बीजुं कर्मथकी, तेना वीश अतिचारने प्रथम सामान्यपणे निंदियें ढैयें. ( ममि के०) मदिरा, (मंसंमिश्र के०) मांस, वे चकारथकी बीजा पण अजक्ष्य द्रव्य ग्रहण करवां. जेवां के मधु, माखण, अनंतकाय प्रमुख ( पुप्फे के० ) केरमां, मनमादिकनां फूल, ( अके०) चशब्दथकी कुंथुथा, दिक त्रस जीवें करीने सहित एवा नागरवेलीनां पान प्रमुख जाणवतं. तथा (फले के० ) वाली जांबू, बीलां, पीलूमां, पीच, बोर, पाकां करमदांए फल सर्व अक्ष्य वस्तु बे, श्रावकने खावा पीवा योग्य नथी. ए वस्तु खाधामां वपराय बे, ते कही, एटले अंतर्भोगवस्तु सूचवी हवे बाहिर ना जोगमां आवे ते वस्तु कहे बे. ( गंध के० ) बरास, तर, अबीरकपूर, अगर, तगर, धूपादिक जाणवां. ( मलेा के०) फूला दिकनी माला, ते केतकी चंपकादिकनां फूलनी जाणवी तथा च शब्दथकी अन्य सर्व Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंदितासूत्र अर्थसहित. १३३ जोग्य वस्तु, जेवी के :- सचित्तद्रव्य विगयादिक वस्तु पण लेवी. ए सर्व वस्तु, करेलाप्रमाणथकी विपरीतपणें अनुचितपणे सेवन करते थके एटले जोगवते थके ( वनोगपरी जोगे के० ) उपजोगपरिजोगनामें (बीमि गुण के० ) बीजा गुणत्रतने विषे जे अतिचार लाग्यो होय, ते सर्व प्रत्यें ( निंदे के० ) हुं निंडुं हुं ॥ २० ॥ ed विशेषथी ए वतना जोग उपजोग याश्रयी पांच ने कर्म यी पंदर, मलीने वीश अतिचार बे, ते पमिक्कमियें बैयें. प्रायः श्रावक सचित्त वस्तुनो तो त्यागीज होय, माटें तेनी अपेक्षायें करी प्रथम जोजन श्री अतिचारपंक पक्किमीयें यें. सच्चित्ते पडिब, पोल डुप्पोलियं च आहारे ॥ सदिकया, पडिक्कमे देसियं सवं ॥ २२ ॥ अर्थः- (सच्चित्ते के० ) सर्व समस्त सचित्तनो त्याग करीने अथवा स चित्तनुं परिमाण क होय, तेथी उपरांत प्रमादने व सचित्त वस्तुनो हार करवो, ते प्रथम सचित्ताहारनामें अतिचार जाणवो. बीजो (पमि as ho) सचित्त प्रतिबद्ध ते सचित्तनी सायें बांधेली वस्तु एटले जोनें लागेलो सुंदर, वलिया सहित राय ने गोटली सहित थांबा, तेनुं मुखमां घालवं, जेम वृक्षमांथी उखेमीने गुंदरने चित्तनी बुद्धियें वापरे. अथवा बाने गोटली सहित अने रायणने वलिया सहित मुखमां घाले, ते स चित्तप्रतिबनामें बीजो अतिचार जाणवो. तथा त्रीजो ( पोल के० ) अपक्काहार एटले जेने अग्निनो संस्कार कीधो न होय, एवी सचित्त मिश्रि तकाची वस्तु, जेवी के:- तुरतनो पीशेलो लोट, अणचाल्यो लोट इत्या दिक पोल जावी. ए विषे सिद्धांतमां कां वे के, अणचाल्यो लोट, श्रावण अने जादरवा महीनामां पांच दिवस मिश्र रहे, पी चित्त थाय. याश्विनमा चार दिवस मिश्र रहे. कार्त्तिक, मार्गशीर्ष अने पौष, ए त्रण मासेंत्रण दिवस मिश्र रहे, तथा मादा ने फाल्गुनें पांच प्रहर मिश्र रहे. चैत्र, वैशाखें चार प्रहर मिश्र रहे. ज्येष्ठ तथा आषाढें त्रण प्रहर मि श्र रहे, इत्यादिक मिश्र रहे, पी चित्त थाय. ते काचो लोट, तेने पीशेलो जाणीने चित्त बुद्धियें लीये. इत्यादिक सचित्त शंकित वस्तुनुं जण क Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ प्रतिक्रमण सूत्र. रवं, ते अपक्वौषधिलक्षणनामें त्रीजो अतिचार जाणवो. चोथो (कुप्पोलि यंच के०) उपक्काहार ते कांश्क काचा अने कांश्क पाका एवा उँला, बी, पोंक, पापमी प्रमुख वस्तु, तेनो (आहारे के ) श्राहार करवो न दण करवू, ते उपक्वौषधिजदणनामें चोथो अतिचार जाणवो. पांचमो (तु छोसहितकणया के०) तुबौषधिजदण ते मग प्रमुखनी कोमल फली त था बोर प्रमुख तुछ असार वस्तु जे घणी खाधाथी पण तृप्ति न थाय, ए वी जे औषधि कुलीफलीरूप तेने अचित्त करी वापरे, तो तेने तुडौषधि जहणनामें पांचमो अतिचार लागे, जेने सचित्त वस्तु खावानो नियम होय तेने ए पांच अतिचार(संचवे. ए बीजा गुणव्रतना जोजन विषयिक पांच अ तिचार, ते आश्रयी जे महारे अतिचार लाग्यो होय, (सबंदेसियं के)ते सर्व दिवस संबंधी अतिचार प्रत्ये (पमिकमे के०) हुं प्रतिक्रमु , निंबु बुं. __ हवे जे गृहस्थ आजीविकाना हेतुयें कुव्यापार करे, तेने पण लोगोप जोगज कहिये. ते शंगालादिक पांच कर्म, दंतादिक पांच वाणिज्य, अने यंत्रादिक पांच सामान्य, एवं पंदर कर्मादान बे. ते अत्यंत घणा कर्मो उपा र्जन करवानां कारण , तेमाटे एने श्रावके जाणवां, पण आचरवां नहीं. ते पन्नर कर्मादान श्राश्रयीने पंदर अतिचार वे गाथायें करी कहे . इंगाली वण साडी, नाडी फोडी सुवजए कम्मं ॥ वाणिजं चेव य दं, त लरक रस केस विस विसयं ॥२॥ अर्थः-प्रथम काष्ठ बाली अंगारा करी वेचवा तथा सोनार,कुंभार, लोहार जामजा, कंसारादिकनां अग्निसंबंधि जे कर्म, ते(शंगाली के०) अंगारकर्म. बीजुं वनस्पतिनुं निपजावईं, दवू, नेदवू, व्द्यां अण बेद्यां आखां वन वेचवां-पान,फल,फूल,लीलां तृण, काष्ठ अने कंद वेचवां. वामी, वनखंग क रवा, आजीविकाहेतुयें कण दलावे. पीसावे, ते बीजु (वण के )वनकर्म. त्रीजुं गामां प्रमुख बनावी बनावीने वेचे, तथा गामांना अवयव धोंसरी धोंसरा समोल प्रमुख, घमावीने वेचे, वेचावे, ते ( सामी के० ) शकटकर्म. __ चोथु गामां, बलद, उंट, नेष, खर, वेसर,घोमा, घर, हाट, प्रमुख राखीने जाडे आपवानुं आजीविका निमित्तें करे, ते (जामी के०) नाटिक कर्म. पांचमुं जव, चणा, गोधूमः मग, अमद, प्रमुख धान्यनो साथवो करवो, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंदितासूत्र अर्थसहित. १३५ तथा तेनी दाल करवी, तथा शालि प्रमुखना चोखा करवा, तथा पृथिवी काय प्रमुखनो फोम, तोम करवो एटले कूवा, वापी, तलाव प्रमुख खणवा, खणाववा, उम लोकोतुं, तथा शिलाट काम करवू, हल दंतालीयें करीनूमि खेमवी, खाण खणाववी, टांकुं खणावq, कृषी करवी, इत्यादिक जेटलो पृथिवीनो आरंज, ते सर्व (फोमी के०) स्फोटिक कर्म जाणवू. (कम्मं के०) ए पांच सामान्य कर्म, ते प्रत्ये श्रावक (सुवहाए के) अत्यंतपणे वऊँ. हवे पांच कुवाणिज्य कहे . ( च के०) वली ( एव के ) निश्चे अथवा चेवय ए शब्द पादपूर्णार्थ जे. त्यां प्रथम दांत, नख, चर्म, शिंगमा दिकना व्यापार एटले हाथीदांत, चमरीगायना वालनां चमर, मत्स्यादि कना नख, शंख, कोमा, चीम, पोश्सा, कस्तूरी, मुक्ताफल, तथा वाघ, चितरा अने मृगादिकनां चर्म, हिंग, हांसरू प्रमुख रोम, इत्यादिक त्रस जीवोना अंगोनुं वाणिज्य जेमां आवे , तेने जो आगरे जश् वहोरे, तो तेमां घणो दोष लागे, ए सर्वने (दंत के०) दंतकुवाणिज्य कहिये. बीजें लाख, धावभीनां फूल, कसुबो, हरताल, मणशिल, गुली, महुमां, टंकणदारादिकनो व्यापार, जेथकी बाहिरना जीवोनुं मृत्यु थाय, ते सर्व (लक के०) लाख कुवाणिज्य जाणवू. त्रीजुं विगय महाविगय एटले घृत, तेल, गोल, मध, दूध, दहीं प्रमु खनो व्यापार, ते सर्व ( रस के०) रस कुवाणिज्य जाणवू. चोथु द्विपद ते मोर, सूमा, तथा मनुष्य प्रमुखना व्यापार अने चतुष्पद ते गाय, नेष, बलद, घोमा, बाली प्रमुखनो व्यापार ते सर्व, (केस के०) केशकुवाणिज्य जाणवू. पांचमुं अफीण, सोमल,शिंगीयो वत्सनाग, साबू , हरताल, नांग, पोस्त, इत्यादिक तथा बूरी, कटारी, धनुष्य, बाण, खग, कूहामादिक शस्त्र, अने सन्नाह पाखर प्रमुख जेना बलें करी संग्राममध्ये घणा जीवोनो संहार थाय, तथा हल, कोदाल, इत्यादिक सर्व कुवस्तुनो जे व्यापार, ते (वीस विसयं के०) विस केतां विष तथा शस्त्रादिकनो विसय एटले विषय डे जेने विषे ते विसविसय कहिये. ए विसविसय, ( वाणिड के) वाणिज्य जाणवू. ए पांच कुवाणिज्यने श्रावके वर्जवां ॥२५॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ प्रतिक्रमण सूत्र. एवं खुजंत पिल्लण, कम्मं निल्लंबणं च दवदाणं ॥ सर दर्द तलाय सोस, असई पोसं च वाि ॥ २३ ॥ अर्थः- हवे पांच सामान्य कर्म कहे बे. ( एवं के० ) एम (खु के० ) निवें शिला, लोढी, उखल, मूशल, घंटी, चरखो, रेंटीया प्रमुख अनेक जातिनां यंत्र करीने वेचे, ते सर्व यंत्रकर्म. तथा पिल्लण ते शेलकी, तिल, सरशव, एरंगादिकने पीलवानां यंत्र, जेम के कोहलुं, घाणी प्रमुख, ते सर्वथी लागे जे कर्म तेने प्रथम (जंत पिल्लण के० ) यंत्रपीलन कर्म कहियें, बीजुं बालकनां कान, नाक, बींधवा, स्त्रीफूल विध्वंस करवो, नपुंसक करवो, उंटादिकने कवो, घोमा बलदनां नाक वींधाववां, त्र्यांक पडा ववा. समराववा, कर्ण, कंबल, पूबमां बेदाववां तेमज इजारे गाम लइने करा कर करवा, कोटवालपणुं करयुं, इत्यादिक जेटलां निर्दयपणानां काम बे, सर्व, (निलंबणं के० ) निलंबन कर्म जावं. (च के० ) वली श्रीजुं धर्मनी बुद्धियें अथवा मोकली जूमिने विषे सुखथी संग्राम थाय अथवा स्वजावें अथवा तृणादिक वाव्या पढी नवा अंकूरा उगे, तो गायो चरे. इत्यादिक हेतुथी वन ने कामी प्रमुखने जे ( दव के० ) अग्निनुं ( दाणं के० ) दान एटले आप, अर्थात् दव लगामवो, तथा कोइने ननुं देवं तेने दवदानकर्म कहियें. चो सरोवर खण्या विना जे जगामां जल रहे, तेवा गमने ( सर के० ) सर कहियें तथा ( दह के० ) इह ने ( तलाय के० ) तलाव, ए सरोवर, प्रह, तलाव, तथा कूवा, वापी, इत्यादिक पाणीनां स्थानकोनुं ( सोसं के० ) शोषण करवुं, ए जलाशयना पाणी उलटाववाथी अनेक जलचर पंचेंद्रिय जीवनी हिंसा थाय, तथा नील फूल 'वगेरें घणा जीवोनो विनाश थाय, तेने सरददतलाव सोसणकर्म कहियें. पांचमुं ( च के० ) वली (सईपोसं के० ) असती पोषणकर्म, तेस ती कहियें कुतरां, बिल्लामां, मोर. कूकमां सूवा, मेनां, सींचाणा, सूमा, सालही प्रमुख हिंसक जीवोनुं पोषण करवं, ते असती पोषणकर्म कहि यें. अथवा सती एटले कुसती, कुशी लिणी व्यभिचारिणी स्त्रीनुं पोष ण कर. ते पण सतीपोषणकर्म कहियें, अथवा दुष्ट पुत्रादिक, पुष्ट Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंदितासूत्र अर्थसदित. १३७ दास, दासीनु जरण पोषण करवं तथा कसा, माली, वाघरी, तेलीनी साथें व्यापार करवो, इत्यादिक जे अधर्मी जीवोनुं पोषण करवू, ते सर्व, असतीपोषणकर्म कहिये. ( कम्मं के० ) ए पांच सामान्य कर्म कह्यां, अहिं एवं खुशब्द ते गाथाना अंत सुधीना दरेक पदमां लेवं. जेम केः-एवं एटले ए प्रकारनां खर कर्मो जे जे गुप्तिपालनादिक , तेने खु एटले निश्चयें करी श्रावके ( वजिजा के ) वर्जीवां, ए पंदरे अतिचारमांहेलो जे महारे अतिचार लाग्यो होय, ते सर्वप्रत्ये हुं निडु बुं ॥३॥ हवे अनर्थदंमविरमणनामा त्रीजु गुणव्रत कहे . जेथकी निरर्थक आत्मा दंमाय, पाप लागे, तेने अनर्थदंम कहिये. ते चार प्रकारें बे. ते मांप्रथम तो जे आर्तध्यान, रौअध्यान ध्याववं, ते अपध्यानाचरित अनर्थ दंम कहियें, एटले वेगं बेगं मनमां चिंतवना करवी, जे वैरीने बांधुं, मारी नाखुं अने राजा था, तो वैरीनां गाम बाली ना ? विद्याधर थालं, तो स्वेचायें ज्यां नावे त्यां जालं? मनमानती स्त्रीनी साथै विलास करूं ? इत्यादिक जे मा ध्यान करवू, ते अपध्यानाचरित अनर्थदंग कहियें। बीजो प्रमादाचरितअनर्थदंझ. ते पाप विकथा करवी, दूध, दही, लग श, घृत, तेल, इत्यादिक वस्तुने ढांकवानुं आलस करवं, ते बीजो नेद. त्रीजो हिंसप्रदानअनर्थदंझ, ते घंटी, उखल, मुशल, चाकू, बुरी प्रमु ख पाप अधिकरण कोश्ने आपवां, ते हिंसप्रदानअनर्थदंमनो त्रीजो नेद. - चोथो पापकर्मोपदेश अनर्थदंम, ते न्हार्ज, अग्नि जलावो, वस्त्र धोवो, खेती करो, करावो, वाठमाने समरावो, अमुकने कूटो, मारो, बांधो, इत्यादिक उपदेश देवा, ते चोथो नेद. ए चार प्रकारमा अनर्थदंमथकी निवृत्तवं, तेने अनर्थदंमविरमणनामें त्रीजु गुणव्रत कहिये. तिहां पोता ने तथा झाती, गोत्री प्रमुखने अर्थे पाप करवू, ते व्यवहारदृष्टियें अर्थ दंग , माटें अहींयां तेनो त्याग नथी ॥ २३ ॥ हवे ते त्रीजा गुणवत श्राश्रयी जे अतिचार लाग्या, ते त्रण गाथायें करी पमिकमियें बैयें. सबग्गि मुसल जंतग, तण कठे मंत मूल सजे ॥ दिन्ने दवा विए वा, पमिकमे देसियं सत्वं ॥ २४ ॥ अर्थः-( सब के ) शस्त्र, ( अग्गि के० ) अग्नि, (मुसल के० ) मुश १८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ प्रतिक्रमण सूत्र. ल, (जंतग के० ) यंत्रक ते घंटी प्रमुख, ( तण के० ) सावरणी प्रमुख, ( क के ) काष्ठ लाकमी अरहट्टनी लाती प्रमुख, (मंत के०) मंत्र ते साप खीलवा प्रमुखना, जाणवा, ( मूल के० ) नागदमणी प्रमुख जडी बूटी, तथा गर्नशातन पातन प्रमुख जाणवा. (नेस) के ) नैषज्य ते बे आदि वस्तुना मेलापथी जे वस्तु उपजे एटले गोली, चूर्ण, तंत्रविद्या. इत्यादिक उपवकारी वस्तु जाणवी. इत्यादिक वस्तु दाक्षिणता टाली बी जाने (दिन्ने के०) देवाथकी, एटले आपवाथकी, (दवा विए के०) परपासें अपाववाथकी ( वा के०) अथवा वीजा आपनारने अनुमोदवाथकी, जे अतिचार लाग्या होय, (सवंदेसियं के) ते सर्व दिवस संबंधि अतिचार प्रत्ये, ( पडिक्कमे के ) हुँ प्रतिकमुं बुं, निंउं बुं ॥ २४ ॥ न्हाणू वट्टण वन्नग, विलेवणे सदरूवरसगंधे ॥ वनासण आनरणे, पमिकमे देसियं सवं ॥२५॥ अर्थः-( न्हाण के० ) स्नान ते अन्यंगन करी तेल चोपडीने नाहियें त्यां अजयणायें जीवाकुल नूमिकायें स्नान करे,अथवा अणगल पाणीयें स्ना न करे, ( उवट्टण के०) उवटणुं ते उर्त्तन जे पीठी प्रमुखें करी शरीरनुं उवटण करे, मेल उतारे, (वन्नग के०) वर्णक वस्तु, ते अबीर, गुलाल,अलतादिक, (विलेवणे के०) केसर, चंदन, कुंकुमादिक वगेरेनुं विलेपन जा णवं. ( सद्द के० ) वंश बीणादिकना शब्द कौतुकें सांजलवा, तथा प्रहररात्रि उपरांत उंचे शब्दें बोलवू, (रूव के ) स्त्री प्रमुखना रूप जोवां, वेश्या दिकनां नाटक जोवां, (रस के०) मधुर, आम्लादिक रस, (गंधे के०) वास, एटले सुगंध, ते कर्पूर, कस्तूरी प्रमुखना जाणवा, (वड के०) वस्त्र, (आसण के ) बेसवानां आसन तेने संबंधे शय्या पण जाणवी. तथा आसन एटले कामशास्त्र, कोक, वात्स्यायनादिक शीख्या होय अनेकविध विषयनोग संबंधी चोराशी आसन जाणवां, (आचरणे के०) आचरण ते नूषण, मुकुट, कुंडल, कंकण, मुधिकादिक तथा द्यूतक्रीडा, मद्यपान, जल क्रीडा, हीचवं, इत्यादिक पुष्ट वानां करवां, जोवां, एम अनेक उपजोग परि लोग वस्तु आश्रयी अयत्नाथी अणउपयोगथी जे कोश् महारे अतिचार लाग्यो होय, (सर्वदेसियं के०) ते सर्व दिवससंबंधी अति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंदिता सूत्र अर्थसहित. १३० शब्दा चार ( पडिक मे के० ) हुं पडिक्कमुं तुं, निंडुं तुं श्रा ठेका दिक पांच विषय ग्रहण करया बे. माढें तजातीय मद्यादि पांच प्रकारना प्रमादनुं पण ग्रहण कर ॥ २५ ॥ हवे ए वतना पांच तिचार प्रतिक्रमणने माटें कड़े बे. कंदप्पे कुक्कुइए, मोहर दिगरण जोग इरिते ॥ दंमंमि प्रणठाए, तइयमि गुण निंदे ॥ २६ ॥ " अर्थः- (कंदप्पे के०) कंदर्प, ते कामजोगनी कथानुं कर, तथा एवं हास्य कारी वचन बोलवु जे थकी कामविकार जागे. ते प्रथम यतिचार जाणवो, तथा ( कुक्कुए के० ) कौकुच्च, तेज़कुटी, नेत्र, नाक, मुख, हाथ पादादिकनी एवी चेष्टा करे, के जेथकी लोकोने अत्यंत हास्य उत्पन्न याय, एटले जांगनी पेरें शरीरादिकनी कुचेष्टायें करीने लोकोने अत्यंत हास्य उपजावनुं, कोइना चाला पामवा. ते बीजो अतिचार, तथा ( मोहरि ho) मुखरीप, ते विचार रहित वाचालपणे गणुं बकबक कर मकार चकारादिक घटित वचन बोलवां, ते त्रीजो अतिचार जाणवो, तथा ( हिरण के० ) शस्त्र, अग्नि, मुशल, नीसा, लोढुं घंटी प्रमुख अधि करण, सक करी राखवां, कोइ मागवा यावे तेने आपवां, तेमज अग्नि प्रमुख धिकरणनी प्रथम प्रवृत्ति चलाववी, ते चोथो प्रतिचार जाणवो. तथा (जोगाइरि के० ) उपजोग परिजोगनी वस्तु ते अतिरिक्त एटले पोताना खप करतां पण अधिक राखवी एटले जोगवस्तु जे तेल, कंकोमी, खयल, पाणी प्रमुख बे, ते अधिक राखे, जे देखीने बीजाने न्हा वा प्रमुखनी वांबा उपजे, तेथी जोगादिक वस्तुनो दोष लागे ने उपजोग वस्तु, ते जो एक घरनो खप होय तो पण बे चार घर प्रमुख खप विना सामट करावे, तेथी उपजोग वस्तुनो अधिक दोष लागे. ते पांचमो अतिचार (दंडं मिणाए के० ) ए अर्थदंड विरमण नामें ( तश्यं मिगुmar ho) त्रीजा गुणवतने विषे पूर्वोक्त जे अतिचार लाग्यो होय, ते प्रत्यें ( निंदे के० ) हुं निहुं हुं ॥ २६ ॥ इति गुणव्रतप्रतिक्रमणं ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० प्रतिक्रमण सूत्र. हवे चार शिक्षात कहे बे. त्यां प्रथम सामायिक नामक शिक्षात कहे बे. तिविदे डुप्पणिदाणे, प्रणवठाणे तदा सविदू ॥ सामाइ वित कए, पढमे सिकावर निंदे ॥ २७ ॥ अर्थ : - ( तिविहे के० ) त्रिविधें एटले त्रण प्रकारें ( डुप्पणिहाणे के ० ) दुःप्रणिधान ते पुष्टव्यापार एटले सावद्य व्यापार बे, तेना त्रण अतिचार जाणवा. तेमध्यें प्रथम घर, हाट प्रमुख संबंधी जे सावध व्यापारनुं मनमां चितवन कर, ते प्रथम मनोः प्रणिधान अतिचार जाणवो. तथा कर्कश एटले कठोर, सावद्यनाषायें करी बोलवं, ते वीजो वचनडुः प्रणिधान नामें अतिचार जाणवो. तथा ऋण उपयोगथी पापव्यापारमां कायाने, प्रवर्त्ता ववी, देखवा, पंजवा विना बेसकुं, सूनुं, जीतनुं रिंगण कर, इत्यादिक विपरीतपणे जे कायाने प्रवर्त्ताविवी ते कायडुः प्रणिधाननामा त्रीजो अि चार जाणवो. तथा (वाले के० ) अनवस्थान, ते सामायिकनुं जघन्य बे घडी कालमानबे तेटलो काल पूर्ण करया विना सामायिक पारवो, तथा दररहितपणे सामायिक पारवो, तथा यादररहितपणे सामायिक करवो, ते चोथो अनवस्थाना तिचार जाणवो. ( तहा के० ) तथा ( स विहू के० ) स्मृतिविहीन एटले नीद्रादि प्रमाद की सामायिक धो ? एवं उपयोगनुं शून्यपणुं ते पांचमो अतिचार. एतें (सामा के० ) सामायिक प्रत्यें ( वितहकए के० ) वितथ एटले जूतो, कृते नाम कीधे थके ( पढमे सिरकावए के० ) प्रथम सामाकिनामा शिक्षातने विषे पूर्वोक्त पांच यतिचार मांहेलो जे अतिचार लाग्यो होय, ते प्रत्यें ( निंदे के० ) हुं निंडुं हुं ॥ २७ ॥ शंका:- सामायिक लेने पती सर्वथा मननो संवर तो करी शकीयें नहीं, यने मनना कुव्यापारें एक तो कुव्यापारनुं पाप लागे, अने बीजं सामायिकन जंग थाय बे, तेथी तेनुं फरी प्रायश्चित्त कर जोइयें, तेमाटें विधिदोषने लीधे सामायिक करवाने बदले नहींज करवो तेज जनुं बे ? समाधान:- सामायिक तो अवश्य करवो, केम के सामायिक लेवाय बे, ते डुविहं तिविहे ए जांगे लेवाय बे, ए जांगामां मन, वचन अने काया एत्रणें करी सावद्य व्यापार करूं नहीं, तथा करावं नहीं, ए व निय वेबे, तो ते ब मध्यें कोइवारें कदापि एक नियम जंग थाय तो पण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंदितासूत्र अर्थसहित. २४१ पांच तो अखंमित रहे . अने मनना कुव्यापार- पाप अल्प होय , ते पापथी तो 'मिछा मि उकडं' देवाथी बूटीयें बैयें. माटें एवां अल्प कारण थी जो सामायिक करवानो चालज बंध करीयें, तो आ कालमां चारित्रीयो कोइ पण नथी. एकुंज थजाय, तेमाटें सामायिक अवश्य लेवो अने ते सामा यिक लेश्ने पठी जेम बने तेम शुद्ध पालवानो खप करवो, कारण के हमणां ना कालनी दीदा अने सामायिक प्रमुख जे , ते सर्व अभ्यास मात्र बे. माटें अन्यास करतां थकां को वखतें शुद्ध चारित्रनो लान पण थशे. तेथी सामायिकनो अत्यंतानाव एटले निर्मूलपणुं करवं योग्य नथी, केम के सर्व विरति सामायिकने विषे पण तेमज थाय , तेमां पण गुप्त्यादि नंगमां मिथ्या पुष्कृत प्रायश्चित्त कहेलु , तेथी सामायिक न करवो ते योग्य नथी. वली पण सातिचार जे अनुष्ठान , ते पण अभ्यास करतां कालें करीने निरतिचार अनुष्ठान थाय ने, एम पूर्वाचार्यों कहे जे. वली कहेढुंबे के, अन्यास जे बे. ते मनुष्यादिकना महोटा जन्ममां पबवाडे चालनारो थाय , माटें शुरू . तथा बाह्य लोको पण कहे . के अज्यास जे बे, ते कर्मना कुशलपणाने करे . माटें निरंतर सामायिक करवो तेज योग्य बे. जेम ग्रहण करवाना पात्रमा एक बखत पडेलो उदकबिंदु महत्ताने पामतो नथी, तेम मनना सदोषपणायें करी सामायिक करवो, ए पण अत्यंत दोषनी महत्ताने पामतो नश्री कारण के तेनी मिनामि मुक्क डंथी शुद्धि , माटे अविधि करवाने बदले सामायिक नज करवो, एवं बो लवं ते असूयावचनज बे. कहेलुं बे, के “अविहिकया वरमकयं, उस्सूत्र वयणं नणंति समणुन्नं ॥ पायबित्तं जम्हा, अकए लहुरं कए गुरुओं ॥१॥ माटें धर्मानुष्ठान निरंतर करवं अने करनारे सर्व शक्तियें करी विधिमां यत्न राखवो. एज श्रझाबुनु लक्षण . वली कृषी, वाणिज्य, सेवादिक, लोजन, शयन, आसन, गमन, तथा वचनादिक ते सर्व पण अव्य,देत्र, कालादिक विधियें करीने पूर्ण फलवालां थाय बे. अन्यथा यतां नथी, माटें समस्त पु. ण्य क्रियाना प्रांतमांविधि आशातना निमित्त मिथ्याऽष्कृत देवू. किंबहुना. हवे बीजा देशावकाशिक शिदाव्रतना अतिचार कहे जे. आणवणे पेसवणे, सद्दे रूवे अ पुग्गलकेवे ॥ देसावगासिअंमि, बीए सिरकावए निंदे ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ प्रतिक्रमण सूत्र. अर्थ :- ( प्रथमजे भूमिनां परिमाण कीधां बे, ते जूमिनी उपरांत बाहिर नी नू मिश्री कोइ जनार माणसनी हस्तक वस्तु पदार्थने ( प्राणवणे के० ) नयन, एटले अणावकुं, मगाववुं ते, नयननामा प्रथम अतिचार जा वो. तथा परिमाण उपरांतनी भूमिने विषे दास प्रमुखने मोकलवो, क्रय विक्रयनो आदेश देवो, ते बीजो (पेसवणे के० ) प्रेषवणनामा अतिचार जा वो, तथा कोइ कार्य उपने थके नी मेली भूमिकाथी बाहिर रह्यो जे मनुष्य, तेने खोखारादिक शब्दें करी पोतापणुं जणाववं, ते त्रीजो ( सद्दे के० ) शब्दानुपाति नामा प्रतिचार जाणवो. तथा उंचो थइ पोतानुं रूप दे खामीने बोल्या विना पण जेने बोलाव होय, तेनी दृष्टियें पडे, तेना द र्शनथकी तेना समीपमां जाय, ते चोथो ( रूवेा के० ) रूपानुपातिनामा अतिचार जाणवो. तथा नीमेली भूमिकाथी बाहिर रहेला पुरुषने कांक रादिक नाखी पोतापणुं जणाववुं, ते पांचमो ( पुग्गल रकेवे के० ) पुनलो पनामा यतिचार जाणवो. ए पांच प्रतिचारमांदेबी (देसावगा सि मि के०) देशावका शिकनामें (बीए सिरकावए के०) बीजा शिक्षात्रत ने विषे जे अतिचार लाग्यो होय, ते प्रत्यें ( निंदे के० ) हुं निंडुं बुं. यांत विषे देश की अवकाश बे, एटले जे व्रतने विषे उप जोग परिजोग वस्तुनी बूट बे. तेने देशावकाशिक कहियें, तथा घं साथी थोऊ कर, तेने पण देशावकाशिक कहियें ॥ २८ ॥ हवे श्रीजा पौषधोपवास शिक्षात्रतना पांच अतिचार कहे बे. संथारुच्चारविदी पमाय तद चेव जोअणाजोए ॥ पोसढ़ विदि विवरीए, तइए सिरकावए निंदे ॥२॥ अर्थ:- संधार के० ) शय्यासंथार, ( उच्चार के० ) वमीनीति अने लघुनी तिनां वंदिल, एनो (विही के०) विधि जे प्रकार, तेने विषे ( पमाय ho ) जे प्रमाद करवो, ते अतिचारचक्क जाणवुं, ते अतिचारचक्क aa कहे . त्यां शय्या संथाराने न पहिले हे अथवा प्रतिलेखन करे, तो कांइक करे, कांइक न करे, ते प्रथम अप्प मिले हिश्र पुष्प मिले हि सद्यासंथारे नामा अतिचार जाणवो, तथा शय्या संथाराने न प्रमार्जं, प्रमार्ज तो कांइक प्रमार्जवुं, कांइक न प्रमार्जवुं, ते बीजो अप्प Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंदितासूत्र अर्थसहित. २४३ मयिअप्पमधियसद्यासंथारे नामा अतिचार जाणवो, तथा वमीनीति अने लघुनीति, परग्ववानी जे नूमि, ते नूमिने न पडिलेहवी, अथवा पडिलेहवी, तो कांश्क पमिलेहवी अने कांश्क न पडिलेहवी, ते त्रीजो अप्पडिलेहिश पुप्पडिलेहिब जच्चारपासहवणनूमि नामा अतिचार जा णवो. तेमज ते नूमिने न प्रमार्जवी, अथवा प्रमार्जवी तो कांक्षक प्रमा जवी कांश्क न प्रमार्जवी,ते चोथो अप्पम चित्र पुप्पमधि उच्चारपासह वणनूमिनामा अतिचार जाणवो. ए चारे अतिचार ते शय्या संथारो तथा लघुनीति, वडीनीतिनां वंडिलने दृष्टियें करी जूवे नहीं, तेमज च रवला तथा दंडासणादिकें करी पूंजे, प्रमार्जे नहीं अथवा शून्यचित्तें जू ए, अने पूंजे ते संबंधी ए अतिचारचतुष्क कयु. (तहचेव के०) तथैव ए टले तेमज वली निश्चें (लोणालोए के०) नोजननो आनोय एटले श्रा नोग करवो चितवन करवू, अर्थात् पोसह लीधा पड़ी जोजनादिकनी चिंता करे, एटले क्यारें पोसह पूर्ण थशे क्यारें पारणुं करशुं ? अथवा पार णे अमुक नोजन करशुं ? एवी चिंतवणा करवी, ते पांचमो लोअणालोए नामा अतिचार जाणवो. ए पांच अतिचारोयें करीने (पोसह विहि विवरीए के०) पोसहव्रतनो विधि जे प्रकार ते विपरीत करे थके, (तश्ए सिरकावए के०) पौषधोपवासनामा त्रीजा शिदाव्रतने विषे पूर्वोक्त पांच अतिचार मांहेलो जे अतिचार लाग्यो होय, तेने ( निंदे के०) हुँ नि बुं ॥शए॥ हवे चोथा अतिथिसंविनाग शिदाबतना पांच अतिचार कहे . सच्चित्ते निस्किवणे, पिहिणे ववएस मबरे चेव ॥ कालाश्कम दाणे, चनजे सिरकावए निंदे ॥३०॥ अर्थः-(सञ्चित्ते के०) साधुने देवा योग्य जे जत्तादिक तेने पृथिव्यादिक जेसचित्त,ते सचित्तनी उपर पूर्वोक्त प्राशुक निर्दोष वस्तुनुं (निरिकवणे के०) नादपवू मूकवू ते सचित्तनिदेपण नामा प्रथम अतिचार जाणवो. तथा प्राशुक निर्दोष देवा योग्य वस्तुने सचित्त ते कंद, पत्र, पुष्पादि पदार्थे करी (पिहिणे के०) ढांकवी,ते सचित्तपिहिण नामा बीजो अतिचार जाणवो,तथा ववएस के०) व्यपदेश करवो एटले पोतानी वस्तुने अण देवानी बुछियें पारकी करीने कहेवी, तथा देवानी बुझिये पारकी वस्तुने पोतानी करीने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ प्रतिक्रमण सूत्र. कहेवी, एवी रीतें व्यपदेश करवो ते व्यपदेशनामा त्रीजो अतिचार जा णवो. तथा (मछरे के०) मत्सर एटले कोप नावें दान आपq तथा पारकुं सारं दान न जोशकवू परनी ईर्ष्या करतां मान धरतां मुनिने दान आप, ते मत्सरनामाचोथो अतिचार जाणवो. तथा (चेव के०) निश्चें (कालाश्क मदाणे के) मुनिराजनी गोचरीनो काल अतिक्रमि उलंघीने मुनिरा जने तेडे, अने मनमां जाणे जे साधु हमणां वहोरशे पण नहीं अने महा रो नियम नंग पण थाशे नहीं ! ते पांचमो कालातिक्रमदान नामें अतिचा र जाणवो. ए अतिथिसंविनागनामें ( चल्बेसिकावए के) चोथा शि दावतने विषे अल्प देवानी बुझियें तथा अणदेवानी बुद्धियें करीने ए मांहेला जे अतिचार लाग्या होय, तेप्रत्ये (निंदे के०) हुँ निंउं बुं ॥३०॥ हवे रागादिकें करी दान दीधुं तेना प्रतिक्रमणने माटें कहे . सुदिएसु अ उदिएसु अ, जा मे अस्संजएसु अणुकंपा ॥ रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि ॥ ३१ ॥ अर्थः-(सुहिएसु के०) सुष्टु नाम रूमी रीतें हित झानादित्रय एट ले सम्यक् झान, दर्शन अने चारित्रनुं जेमने ते सुहित कहियें, ते सुहित एवा, (अ के० ) वली (कुहिएसु के०) कुःखित ते रोगें करीने पीडीत त करीने पुर्बल, तुब, जीर्ण,उपाधियें करीने फुःखिया एवा, (अस्संजएसु के०) अहीं (अ के०) नथी ( स्वं के०) पोताने बंदें ( यत के ) यत्न एटले उद्यम करवो विचरवू जेने एटले पोतानी खेलायें विचरनारा नहीं, परंतु गुरुनी अज्ञाने विषे विचरनारा एवा सुसाधु, ते उपर ( रागेण के) पुत्रा दिकने रागें करी एटले आ महारो पुत्र तथा ना प्रमुख बे, एवा रागें करी दान दीधुं, पण गुणवंतनी बुद्धियें दान न दीधुं, (व के०) अथवा (दोसे ण के०) हेष ते आ ठेकाणे साधुनिंदारूप जाणवो. ते जेम के, आ साधुने झातिना लोकोयें काढेलो बे, नूख्यो , ए बापडाने आपणे आहार पाणी न आपीयें, तो बीजो कोण आपे? नहिं आपशुं तो ए नूखें मरशे? एवी निंदा रूप जे वेष, तेवा हे करी एटले पुगंडानावनी बुकियें करी (मे के)महा रे जीवें (जा के०) जे (अणुकंपा के०) अशनादिक प्रमुख दाने करी दया नक्ति कीधी होय, ( सं के०) तेप्रत्ये (निंदे के०) आत्मसाखें हुं निंउंबु, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंदितासूत्र अर्थसदित. १४५ (च के०) वली ते प्रत्ये (गरिहामि के०) गुरुसाखें हुं गहुँ बुं, विशेषे निंई ढुं. __ अथवा बीजो अर्थ आवी रीतें :-( सुहिएसु के० ) वस्त्र पात्रादिकें करी सुखीया अने (उहिएसु के०) रोगप्रमुखें करी उःखिया एवा (असंजएसु के० ) असंयत एटले ( अ के ) नथी जेने ( सं के) सम्यक् एटले रूमो एवो, ( यत के० ) यत्न जे उद्यम करवो, एटले जे रूमो उ द्यम नथी करता, परंतु जीवहिंसादिक कर्मपाशमां पम्वा संबंधी उद्यमना करवावाला, जैनानास,वेशविघ्बक एवा असंयती,पासना, उसन्नादिक तेने. तथा त्रीजो अर्थ, ते असंयत षड्डिधजीव वधकोने अथवा अन्यदर्शनी कुलिं गी तेने रागें करीने, जेम के, एक गामना वासी ने अथवा महारा नाश प्रमुख बे, आपणी उलखाणना बे, इत्यादिक जे रागनावें करी दान दी, तथा जिनशासनना प्रत्यनीक बे, वेषी , निर्लजा नमक डे, इत्यादिक द्वेष उपन्यो तो पण घरे आव्या, माटें दान आप्यु, इत्यादिक नावें जे महारे जीवें अनुकंपा, दया कीधी होय, तेने हुँ निउं डं ॥३१॥ अहीं गुणवंत साधुने दान दीधुं ते निंदवू नहीं, परंतु पूर्वोक्त. राग पनी निंदा करवी तथा पासबादिक अने कुलिंगी प्रमुखने गुणवंतनी बुद्धियें दान दीधुं होय, ते निंदवू, पण जे सहेज अनुकंपायें दान दी, होय, ते तो अनुकंपाज कहेवाय, ते दाननें नगवंतें निषेध्यु नथी, अहीं रागद्वेषनी निंदा जाणवी. पण दान दीधुं तेनी निंदा जाणवी नहीं ॥ हवे सुसाधुने दान न दीधु, ते आलोवे बे. सासु संविनागो, न कां तव चरण करण जुत्तेसु ॥ संते फासुअ दाणे, तं निंदे तं च गरिदामि ॥३२॥ अर्थः-( तव के ) तपें करीने, ( चरण के० ) चरणसित्तरी करीने ( करण के) करण सित्तरियें करीने, (जुत्तेसु के० ) सहित एवो, ( साहूसु के०) सुसाधु तेने विषे (फासुअदाणे के०) देवा योग्य प्राशुक निर्दोष एवं अशनादिक दान, ( संते के० ) ते महारे जीवें जो (संवि जागो के० ) संविनाग, ( नक के ) न कीधो होय, तेथी जे अतिचा र हुई होय, (तं के०) ते प्रत्ये ( निंदे के० ) हुँ आत्मसाखें निंधु बुं, (च के० ) वली (तं के० ) ते प्रत्ये ( गरिहामि के०) गुरुनी साखें गहुँ १९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ प्रतिक्रमण सूत्र. बुं. आ ठेकाणे तपः पदनुं जू; उपादान कयुं . तेणें करीने जे तप , ते नीकाचित कर्मोने पण दय करनारुं बे, एवं प्राधान्य सूचन कयु . ए त्रण गाथायें करी चो) शिदाव्रत थयु ॥इति चतुः शिदाबतप्रतिक्रमणं ॥३॥ हवे संवेषणाना पांच अतिचार परिहार करता बता कहे . इह लोए परलोए, जीवित्र मरणे अ आसंसपउँगे। पंचविहो अश्आ रो, मा मऊं हुज मरणंते ॥३३॥ अर्थः-(इहलोए के०) इह लोकने विषे एटले आ धर्मना प्रजावें शेउ, गाथापति, सेनापति, राजा, मंत्रि प्रमुख इद्धिमंत मनुष्य थवानो (आसंसपउँगे के०) आशंसा जे अनिलाष तेनो प्रयोग जे मननो व्यापार, तेश्हलोकाशंसप्रयोग नामा प्रथम अतिचार जाणवो. अहीं श्राशंसाप्रयोग ए पद,दरेक पदना प्रारंजमां प्रयोजबु. (परलोए के) या धर्मना प्रनावें पर लोकनी आशंसा जे देव, देवेंऽ थवानो अभिलाष, तेनो प्रयोग जे मननो व्यापार करवो, ते परलोकाशंसप्रयोगनामा बीजो अतिचार, (जीविथ के०) अनशनने लीधे सन्मान सत्कार देखी घणा काल पर्यंत जीववानी आशंसाजे वांगा, तेनो प्रयोग जे मननो व्यापार, ते त्रीजो जीवियाशंसप्रयोग अतिचार जाणवो. (मरणे के०) कर्कश देत्रने विषे अनशन लश्ने कोश् पूजा, अर्चा न करता होय तेणें करी अथवा दुधादिकें करी पीड्यां थकां शीघ्र मरण नी आशंसा जे वांग, तेनो प्रयोग जे मननो व्यापार, ते मरणाशंसप्रयोग नामा चोथो अतिचार जाणवो. ( अ के ) चशब्दथकी आ धर्मने प्रना वें श्रावते नवें रूमा शब्द, रूप, रसादिक जे कामनोग , तेनी आशंसा जे वांबा तेनो प्रयोग जे मननो व्यापार, ते पांचमो कामनोगाशंसप्रयोग नामा अतिचार जाणवो. ए पाच वांगनुं जे करवू, ते संलेषणा संबंधी ए (पंचविहो के० ) पंचविध, ( अश्यारो के० ) अतिचार ( मरणंते के०) मरणने अंतें एटले ज्यां सुधी चरम श्वास होय, त्यां पर्यंत ( मद्यं के०) महारे ( मा के) न (हुद्य के०) थार्ज, एटले ए पंचविध अतिचार; ते मरणने अंतें मुझने म होजो ॥ ३३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंदितासूत्र अर्थसहित. २४० हवे प्रायः सर्व अतिचार, मन, वचन अने कायाना कुव्या पारें होय बे, तेनुं प्रतिक्रमण कहे बे. काएण काश्अस्स, पमिकमे वाअस्स वायाए॥ मणसा माणसिअस्स, सबस्स वयाश्ारस्स॥३४॥ अर्थः-( काश्स्स के ) कायिकस्य एटले वधादिकारी एवा शरीरें करी करेला जे अतिचार, ते अतिचारने (काएण के०) कायोत्सर्गादिक तप अनुष्ठानादिक जे कायाना शुल व्यापार, तेणें करी युक्त एवा शरीरें करी ने, तथा (वाश्अस्स के०) वाचिकस्य, एटले सहसाच्याख्यानदानादि रूप वाणीयें करीने कस्यो एवो जे वचनसंबंधी अतिचार तेने, (वायाए के०) वचनें करीने मिलाक्कम देवु, जिनस्तवन करवू, इत्यादिक जे शुल वचन नो व्यापार, तेणें करीने, तथा ( माण सिअस्स के० ) मानसिकस्य एटले देवतत्त्वादिकने विषे मनें करी शंकादिकने करवे करी कख्या एवा जे अति चार तेने (मणसा के ) मने करीने एटले अनित्य नावनादिक जे मन ना शुजव्यापार तेणें करीने तथा “हा! में उष्ट काम कडे” इत्यादिक आ त्मनिंदायें करीने एम ( सवस्सवयाश्यारस्स के०) सर्व व्रतना अतिचा रप्रत्ये त्रिकरण शुळं करीने ( पमिकमे के ) हुं प्रतिक्रमु ढुं, निवर्तुं बुं. अहीं 'सवस्सवयाश्यारस्स' ए पढ़ें करीने सामान्य करी त्रण योगर्नु प्रतिक्रमण कह्यु ॥ ३४ ॥ हवे एनेज विशे करी कहे . वंदण वय सिरका गा, रवेसु सन्ना कसाय दंडेसु ॥ गुत्तीसु अ समिईसु अ, जो अश्वारो अतं निंदे ॥ ३५॥ अर्थः-एक (वंदण के०) वंदन ते वे प्रकारें . तेमां एक देववंदन, वीजें गुरुवंदन जे. बीजुं (वय के०) श्रावकनां स्थूलप्राणातिपात विरमणादिक व्रत बार प्रकारें , त्रीजी (सिरका के०) शिदा बे नेदें बे. त्यां श्रावकने सामा यिक सूत्रार्थनुं ग्रहण,तेने ग्रहण शिदा कहिये. ते जघन्य नवकारथी मामीने अष्ट प्रवचन, गुरु पासेंथी नणे अने उत्कृष्टो दशकालिकसूत्रना पांचमा बजीवणिया अध्ययन पर्यंत सूत्र अने अर्थ बेहु नणे, ग्रहे, धारे, शीखे त्यां लगें प्रथम ग्रहण शिदा जाणवी. अने जे अर्थ सहित नमुक्कार सहित Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ प्रतिक्रमण सूत्र.. प्रमुख दिनकृत्य एव श्रावक संबंधी क्रियाअनुष्ठाननी जे समाचारी बे, एटले पहेलो नवकार कहेतो थकोज उठे, पढी पोतानुं स्वरूप विचारे जे हुं श्रावक तुं, केटल व्रत मुकने बे ? इत्यादिक श्राद्ध दिनकृत्य प्रकरण तथा श्राद्धवि धिमा जे समाचारी कही बे, ते सर्व जाणे, याचरे यासेवे, ते बीजी यसेवना शिक्षा कहियें. चोथो (गारवेसु के०) शद्धिगारव, रसगारव अने शातागारव, ए त्रण प्रकारनां गारव बे. तेमां जे पोतानी पासें धन, तथा कुटुंब परिवार घणो देखीने मनने विषे अहंकार खाणे, तेने इद्धिगारव कदियें. ने जे सरस अन्न पाणी प्रमुखने विषे लोलुपी थाय, ते रसगार व कहियें. तथा जे सुकुमाल वस्त्र, शय्या, घर प्रमुख मोहें बांध्यो को तेने मूकी शके नहीं, तेने शातागारव कहियें. ए त्रण प्रकारनां गारव क ह्यां, तेनुं सेवन करवाथी तथा पांचमो ( सन्ना के० ) आहार, जय, मैथु परिग्रह, ए चार संज्ञाउं. बीजी क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक, उंघ, एब संज्ञा. ते एकें प्रियादिक सर्व जीवोने होय बे, तथा बडो (कसाय के०) क्रोधादिक चार कपाय, तथा सातमो ( दंडेसु के० ) धर्मधनथी जेणें करी आत्मा दंगाय, ते दंग, अशुभ मनादिक ऋण नेदें बे. आठमो (गुत्ती सु ho) मनादिक ऋण गुप्ति, नवमो ( समिसु के० ) ईर्यादिक पांच समिति ( ० ) शब्द थकी दर्शनपमिमा प्रमुख श्रावकनी गीयार परिमा ए पूर्वोक्त नव बोल मध्ये जे बोल निषेध करवा योग्य बे, तेना करवा थकी ने जे बोल करवा योग्य बे तेना न करवाथकी (जो के०) जे अश्या रोके० ) अतिचार, ( के० ) अथवा दोषसमुच्चय जे मनें लाग्यो होय, ( तं के० ) तेप्रत्यें ( निंदे के० ) हुं निंपुं हुं ॥ ३५ ॥ हवे सम्यग्दर्शनने माटें कहे बे. सम्मद्दिठी जीवो, जवि हु पावं समायरइ किंचि ॥ अप्पो सि दोइ बंधो, जेण न निधसं कुणइ ॥ ३६ ॥ अर्थः- ( जवि के० ) जो पण (सम्म दिडीजीवो के० ) सम्यग्रदृष्टि एटले यथावस्थित स्वरूपनो जाए एवो जीव, ते (किंचि के० ) किंचित् थोडुं (पावं के०) कृषी प्रमुख यरंजरूप पाप, ते प्रत्यें निर्वाह चलाववाने, अर्थे ( समायर के०) समाचरे बे, पटले करे बे, (हु के०) तो पण (सि के० ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *दितासूत्र अर्थसदित. १४० ते श्रावक सम्यग्दृष्टि जीवने (अप्पो के०) अल्प ते पूर्व गुणस्थाननी अपे कायें करथोमो (बंधो के०) कर्मनो बंध, (होइ के०) होय, (जे के०) जे का रण माटें जाणी यें बैयें के, सम्यग्रदृष्टि जे श्रावक ते ते, (निधसं के०) निर्द यपणे हिंसादिक व्यापार. (नकुइ के०) न करे, ने करे, तो पण शंका राखीने करे, वली मनमां विचारे के धिक्कार पमो या गृहस्थाश्रमने के जेने विषे केटला पाप करवां पडे बे ? एवी बीक राखीने करे पण निर्दय परि णाम राखीने न करे, तेथे । तेने पाप थोरुं लागे बे ॥ ३६ ॥ अहीं कोई आशंका करे के, जेम थोरुं पण विष खाधुं यकुं प्राण ह रण करे बे, तेम थोऊं पण पाप करवाथकी दुर्गतिनी प्राप्ति न थाय शुं ? या आशंकानो उत्तर आगली गाथायें आपे बे. तंपि हु सपक्किमणं, सप्परित्र्यावं सउत्तरगुणं च ॥ खिप्पं नवसामेई, वादि व सुसिरिकर्ड विजो ॥ ३७ ॥ अर्थः- ( पक्कम के ) प्रतिक्रमण जे षमावश्यक तेणें करी सहि त को एटले प्रतिक्रमणने करवे करी, (च के०) वली (सप्प रियावं के ० ) परिताप सहित थको एटले पश्चात्ताप करवे करी, वली (सउत्तरगुणं के० ) उत्तर गुणें सहित को एटले गुरुयें दीधुं जे प्रायश्चित्त तप, ते तप करवे करी युक्त एवो श्रावक, (हु के० ) निवें ( तंपि के० ) ते अल्पकर्मना बंध प्रत्यें प ( खिष्पं के० ) दिप्र एटले शीघ्र उतावलो ( वसामेई के०) उ पशमावे बे, टाले बे, कोनी पेठें ? तोके (व के०) जेम (सुसि रिकर्ड के० ) जो शीखेलो एवो (विको के० ) वैद्य, ते ( वाहि के० ) व्याधि प्रत्यें सा ध्यरोग प्रत्यें तुरत उपशमावे बे, तेम ए पण जाणवुं ॥ ३७ ॥ हवे वली बीजो दृष्टांत कहे बे, जहा विसं कुठगयं, मंत मूल विसारया ॥ विद्या दांति मंतेहिं, तो तं दवइ निविसं ॥ ३८ ॥ अर्थः - ( जहा के० ) यथा जेम, ( मंतमूल विसारया के० ) मंत्र मूलना विशारद, एटले जाए, माह्या एवा जे ( विजा के० ) वैद्यो, ते (कुठगयं ho) कोष्ठगत एटले शरीरमां व्यापेलुं एवं जे (विसं ० ) सर्पादिकनुं विष, प्रत्यें (मंतेहिं के०) मंत्रोयें करी ने ( इांति के० ) हणे बे, एटले दूर करे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० प्रतिक्रमण सूत्र. बे,(तो के०)ते वारें (तं के) ते शरीर, (निविसं के०) निर्विष एटले विषरहित (हवर के०) होय . जो पण विषार्त पुरुष, अहिमणि मंत्रादर औषधि नो प्रनाव जाणतो नथी तो पण अहिमणि मंत्रादर औषधिनो प्रनाव अचिंत्य बे, तेथी तेनुं विषार्त्तत्व निवृत्त थाय बे, तेम अहिं पण श्रावक ने गुरुवाक्यानुसार तदनरश्रवणश्री लाल थाय ने ॥ ३० ॥ एवं अहविहं कम्म, रागदोससमधिकं ॥ आलो अंतो अनिंदंतो, खिप्पं दण सुसावजे ॥ ३ ॥ अर्थः-( एवं के० ) ए पूर्वोक्त दृष्टांतें ( आलोअंतो के० ) गुरु समीपें आलोवतो एटले पोतानां पाप प्रकाश करतो तो, ( अ के) वली (निंदंतो के०) निंदतो थको एटले साचा मनथी मिठामिठक्कर' देतो थको (सुसाव के०) चलो श्रावक जे बे, ते (रागदोस के०) राग, द्वेषं करीने ( समधिों के० )समार्जित करेलुं एटले उपार्जेबुं बांधेबुं एवं जे (अहविहंकम्मं के) अष्टविध कर्म, ते प्रत्ये (खिप्पं के०) विप्र एटले शीघ्र, ( हण के०) हणे , फेडे ने ॥ ३५ ॥ वली एहीज वातने सविशेष कहे जे. कयपावोवि मणुस्सो; आलोच्य निदिअ गुरुसगासे ॥ होइ अरेग बहु, उदरिअनरुवनारवहो॥४०॥ अर्थः-(कयपावोवि के०) पापनो करनार एवो पण ( मणुस्सो के ) मनुष्य, अहीं मनुष्य शब्दना ग्रहणे करीने प्रतिक्रमण जेने, ते कृतपाप म नुष्यनेज करवं योग्य . ते (गुरुसगासे के०) गुरुनी समिमें अहिं गुरुसगासे ए पदें करीने पूर्वोक्त आलोयणा. गुरु गीतार्थादिकनी समीपमांज करवी, एवी सूचना करी अने जो कदाचित् स्वतःज आलोयणा करी होय तो शु छिनो अनाव थाय बे. एम पण सूचन कयुं , माटें गुरु समीपने विषे (आलोश्य के०) आलोवतो थको एटले करेला पापप्रत्ये प्रकाश करतो थको (निंदिश के ) पापनी निंदा करतो थको एटले मिबाडुक्कर देतो थको (अरेग के ) अतिरेक एटले अत्यंत पापथकी (लहु के०) लहु एटले हलवो (होश के०) थाय, (व के०) जेम (जारवहो के) नारनो व Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ वंदितासूत्र अर्थसदित. हेनार वहीतरुं करनार पुरुष, (जरु के०) लार प्रत्ये (उहरिष केप) उतारी ने दलवो थाय , तेम ए पण कर्मरूप जारें करीने हलवो थाय ॥४॥ हवे बहु आरंजरक्त एवा श्रावकने पण आवश्यकें करी ते पापरूप फुःखनो अंत थाय ने, ते देखाडे बे. आवस्सएण एएणं, सावउजवि बहुर हो॥ उकाणमंत, किरिअं काही अचिरेण कालेण ॥४१॥ अर्थः- जशवि के ) जो पण, (बहुरजे के ) बहु एटले घणो नवो कर्मबंधरूप रजवालो एटले आरंज परिग्रहें करी घणा पा सहित एवो ( सावर्ड के० ) श्रावक (होश के ) होय, तो पण ( एएण के० ) एतेन एटले ए पमिकमणादिक (आवस्सएण के०) आवश्यकेन एटले आव श्यकें करीने. ही कोश् शंका करशे जे आवश्यकशब्दें करी दंतधावना दिक पण आवश्यक , ते लेशं? तो त्यां कहे जे के, या गाथामां एतेन ए शब्दनुं जे ग्रहण कयुं बे, ते व्यावश्यक निषेधार्थ डे तथा नावावश्य क प्रतिपादनार्थ डे माटे तेवा नावावश्यकें करी (उकाणं के०) शा रीरिक, मानसिक दुःखोनी (अंतकिरियं के०) अंतक्रिया एटले विनाश क्रियाने ( काही के०) करशे. (अचिरेणकालेण के०) थोमा कालमां हे ते पापोनो विनाश करशे ॥४१॥ हवे पमिकमणुं करतां जे अतिचार आलोववाने विसर्जन थया होय _ एटले जे अतिचारो, विस्मृत थया होय, ते आलोवे बे. आलोअणा बहुविदा, नय संनरिआ पडिक्कमणकाले ॥ मूलगुण उत्तरगुणे, तं निंदे तं च गरिहामि ॥४२॥ अर्थः-(आलोअणा के०) आलोचना एटले गुरु आगल पाप,प्रमाद, आलोववानी प्रकाश करवानी रीति ते, (बहुविहा के० ) घणा प्रकारनी बे. ते (पमिकमणकाले के०) तेना प्रतिक्रमण कालने विषे एटले पमिक मण करवाना अवसरें (नयसंजरिया के ) न सांजरी होय, ते न सांजरवायकी (मूलगुण के०) सम्यक्त्व पूर्वक पांचअणुव्रत, तेने विषे तथा (उत्तरगुणे के०) त्रण गुणव्रत अने चार शिदाबत, तेने विषे जे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ प्रतिक्रमण सूत्र. तिचार लाग्यो होय, ( तं के०) तेप्रत्यें (निंदे के०) हुं आत्मसाखें निकुं बुं. (च के० ) वली ( तं के० ) ते प्रत्यें ( गरिहामि के० ) गुरुसाखें हुं गहुँ हुँ, निंडुं हुं ॥ ४२ ॥ ए बर्हेतालीश गाथा बेठां थकांज कहेवी. aat तो 'तस्स धम्मस्स केवली पन्नत्तस्स' एम कहेतो जो थई वे हाथ जोगीने आगली मंगलगर्जित आठ गाथा कहे, ते कहे बे. तस्स धम्मस्स केवलिपन्नत्तस्स ॥ द्विमि पारा, दाए विरजमि विराहणार ॥ तिविदेण पडिकतो, वंदामि जिणे चवीसं ॥ ४३ ॥ अर्थः- ( तस्स के० ) ते गुरुपार्श्वने विषे प्रतिपन्न एवोने (केवलि पन्नत्तस्स के० ) केवलिनाषित एवो ( धम्मस्स के० ) श्रावकधर्मनी (या राहणाए के ) अराधनानें माटें (अहिमि के० ) हुं सारी रीतें पालन करवाने उठ्यो बुं, ( विरादणाए के० ) ते धर्मनी विराधनाथकी (विर म ० ) हुं वित्यो बुं, एटले निवत्यों तुं, ( ति विष के० ) त्रिविधें करी एटले मन, वचन ने कायायें करी ( पडिक्कतो के० ) प्रतिक्रांत थको एटले अतिचार पापथकी निवर्त्यो थको ( चवी सं जिणे के० ) चोवीश जिनप्रत्यें ( वंदामि के० ) हुं बांडुं हुं ॥ ४३ ॥ P एवी रीतें जावजिनने नमस्कार करीने हवे सम्यकत्वनी शुद्धिनेर्थे त्रिलोकगत स्थापना अरिहंत वांदवाने गाथा कहे बे. जावंति चेाई, नढे हे अतिरि लोए च ॥ सवाई ताई वंदे, इद संतो तब संताई ॥ ४४ ॥ अर्थः- ( उड़े के० ) ऊर्ध्वलोकने विषे ( छा० ) वली (हे के० ) धोलोकने विषे ( ० ) वली (तिरिअलोए के० ) तिलोकने विषे ( जावंति के०) जेटलां (चेश्याई के०) चैत्य एटले जिनबिंब बे. ( ताई स वाई के० ) ते सर्वप्रत्यें (वंदे के० ) हुं बांडुं बुं. शुं करतो थको बांडुं बुं ? तो के हुं ( इह के० ) हिंयां ( संतो के० ) रह्यो को ( के० ) त्यां ते त्रण लोकने विषे ( संताई के०) रह्यां वे जे जिनबिंब, ते सर्व प्रत्यें हुं बांडुं हुं ॥ ४४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ वंदितासूत्र अर्थसहित. हवे सर्व साधुने वंदन करवाने अर्थे कहे जे. जावंत केवि साह,नरहेरवयमहाविदेहे॥ सवे सिं तेसिं पण, तिविहेण तिदंडविरयाणं॥४॥ अर्थः-( जरह के०) पांच जरतदेवने विषे, ( एरवय के० ) पांच एर वतक्षेत्रने विषे, ( महाविदेहे के० ) पांच महाविदेहदेवने विषे, (अ. के ) चशब्दथकी अकर्मनूमिक्षेत्रादिकने विषे, (जावंत के० ) जेटला ( केवि के० ) को पण जिनकल्पिक स्थविरकल्पिक प्रमुख जघन्य बे ह जार कोमी अने उत्कृष्टा नव हजार कोमी ( साहू के ) साधु ने, (ते सिंसवेसि के) ते सर्व साधुप्रत्यें (तिविहेण के ) त्रिवि करी एटले मन, वचन अने कायायें करीने (पण के० ) ढुं प्रणमुं बुं, ते सर्व साधु केहेवा ? तो के, (तिदंम के०) त्रण दंमथकी एटले अशुन मन, वचन अने कायाना व्यापारथकी ( विरयाणं के ) विराम पामेला ने ॥ ४५ ॥ हवे एवी रीतें चैत्यनें तथा यतिने वंदन कस्यां ने जेणे एवो बतो नवि प्यकालनेविषे पण शुजनावनी प्रार्थना करतो तो कहे, ते लखे डे. चिरसंचियपावपणासणी, नवसयसहस्समदणीए ॥ चवीस जिणविणिग्गय कदाई, वोलंतु मे दिअदा॥४६॥ अर्थः-(चिरसंचियपाव के० ) चिरसंचित पापप्रत्ये एटले घणा का लना संचायेलां एवां जे पापो, तेप्रत्ये (पणासणी के० ) प्रनाशनी कर नारी एटले विनाशनी करनारी एवी, (जवसयसहस्स के०) शतसहस्रनव प्रत्यें एटले संसारना लद नव जे करवां, तेप्रत्ये, (महणीए के) मथन करनारी एटले हणनारी एवी, (चवीसजिण के०) चोवीशजिनो थकी एटले चोवीश तीर्थंकरोथकी ( विणिग्गय के ) विनिर्गत एटले नीकली जे ( कहा के०) जिनगुणोत्कीर्तनरूप कथा, ते कथा करवे करीने ( मे के) महरा ( दिअहा के०) दिवसो, ( वोलंतु के०) व्रजंतु एटले वोलो, जा. ए प्रार्थना करी ॥ ४६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ प्रतिक्रमण सूत्र. हवे मंगलपूर्वक जन्मांतरने विषे पण सम्यग्दृष्टि देवोपासेंथी बोधबीज पामवानी प्रार्थना करे ले. मम मंगलमरिहंता, सिहा साहू सुअंच धम्मो अ॥ सम्मदिछी देवा. दिंतु समादिं च बोहिं च ॥४७॥ अर्थः-(अरिहंता के०) एक श्रीअरिहंत देव, (सिद्धा के०) बीजा सिक जगवान् , ( च के० ) वली ( साहू के०) त्रीजा साधु मुनिराज, ( सुध के०) चोथो श्रुतधर्म, ते अंगोपांगादिक आगम, (अ के० ) वली (धम्मो के०) चारित्रात्मक धर्म पण लेवो. ए श्रुतधर्म अने चारित्रधर्म, एम बे प्रकारें केवलीयें प्ररूप्यो जे धर्म ते. ए चार वानां (मम के ) महारे (मंगलं के०) मांगलिक बे, अ शब्दथकी ए चारे वानां लोकने विषे उत्तम बे, शरणनूत , वली पण एम प्रार्थना करीयें बैये जे, ( सम्म दिछीदेवा के०) सम्यग्दृष्टि जिनजक्त देवता जे जे ते मुऊने (समाहिं के०) समा धिप्रत्ये एटले शुजकार्यने विषे जे चित्तनी स्थिरता, तेप्रत्ये (च के०) वली ( बोहिं के ) बोधिप्रत्ये एटले परनवें श्रीजिनधर्मनी प्राप्ति तेप्रत्ये (दितु के ) द्यो, आपो. ( च के ) बीजो च , ते पादपूर्णार्थ ॥ अहीं आशंका करे ने के; आ गाथामां धर्मशब्दना ग्रहण करवाथकी श्रुतशब्दनुं ग्रहण थयुंज, कारण के श्रुतनुं धर्मांतर्गतत्व जे? त्यां कहे बे. श्रुतशब्दनुं जे पृथक् ग्रहण कझुंबे तेनुं कारण ए ले जे, समुदित एवां ज्ञानकि यायें करीनेज मोद थाय बे, तेनुं सूचन करवाने अर्थे जूउं ग्रहण कऱ्या बे, अहीं वली बीजी पण आशंका करे ने के, ते देवो समाधिदानने विषे समर्थ बे, किंवा नथी ? जो कहेशो के समर्थ नथी,तो प्रार्थना करवी व्यर्थ ? अने जो कहेशो के समर्थ डे, तो पूरजव्य तथा अजव्यने केम नथी आपता? अने कदापि एम मानशो के योग्यनेज आपे बे, पण अयोग्यने आपवा असमर्थ डे ? त्यारें तो योग्यताज प्रमाण , माटें अजागल स्तनसदृश एवा देवोनी प्रार्थनायें करीने शुं ? समाधानः-अमारे सर्वत्र योग्यताज प्रमाण बे; परंतु अमें नियतवा दीयोनी पेठे एकांतवादी नथी. कारण के अमें जिनमतानुयायी बैये माटें सर्वनयसमूहात्मक स्याछादमुना, ते अननिनेदि सामग्रीने विशेषे उत्पन्न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंदिता सूत्र अर्थसहित. १५५ करनारी बे, एवं वचन वे ए हेतुमारें जेम घटसिद्धिने विषे मृत्तिकानी योग्यता खरी तो पण कुंजार, चक्र, चीवर, दंगादिक, ए सर्व तेनां सह कारी कारण बे, एम यहीं पण जीवनी योग्यता तो बे, तथापि पूर्वोक्त दृष्टांत नी पेठें विघ्नोनुं निराकरण करीने ते देवो पण समाधि बोधिदानने विषे समर्थ होय बे, माटें ते देवोनी बोधिदानने विषे प्रार्थना करवी निरर्थक नथी ॥४७॥ वे को शंका करे के जेणें व्रत स्वीकारयां वे तने प्रतिक्रमण करवं योग्य बे, परंतु वतीने तो व्रतना जावें करीने तेना अतिचारनो पण अाव बे, माटें प्रतिक्रमण कर योग्य नथी, ते वातनो निषेध करवाने कड़े के, प्रतिक्रमण जे बे, ते केवल यतिचारोने विषेज नथी। परंतु चार स्थानकने विषे पण बे, माटें ते चारे स्थानकने विषे प्रतिक्र मण थाय बे, तेना उपदर्शनने माटें गाथा कहे . " पसा करणे, कच्चाणमकरणे पक्किमणं ॥ सदा तहा, विवरीय परूवणाए ॥४८॥ 50 अर्थ :- एक (पसिद्धाणं के०) जे प्रतिषेधवा योग्य निषेधवा योग्य सम्यक्त्वादिनां मालीन्यहेतु एवां शंकावाधादि तथा प्रढार पाप स्थानका दिक जे तिचारसेवनादिकरूप अशुजकारी बे, ते अशुभ कार्यने ( करणे ० ) करवे करी, तथा बीजो ( किच्चाणं के० ) करवा योग्य एवां देवपूजादिक षट्कर्म तथा सामायिकादिक पमावश्यक विनयदानादिक अरिहंतनां जक्तिप्रमुख जे शुभकार्य बे, ते शुजकार्य ( करणे ho ) अणकरवाथकी ( के० ) वली त्री जो ( असदहणे के० ) अश्रद्दधान ने विषे एटले निगोदादिक सूक्ष्म विचारने सहवे करीने ( के० ) वली ( तहा के० ) तथा चोथो ( विवरीयपरूवणाए के० ) जिनागम थकी विपरीत एटले उलटी प्ररूपणा करवे करीने एटले उत्सूत्र प्ररूपणा करवे करीने, जे विपरीत प्ररूपणा बे, ते चतुरंत एवं अत्यंत वज्रमण, तेनी कारणनूत बे. ते विपरीतप्ररूपणा तो अनाजोगादिकें करे ते पण प्रतिक्रमण कराय बे. त्यां शंका करे बे के विपरीत परू पण जे बे, ते तो सूत्र कथन करतो होय, तेने थवानो संभव बे, परंतु अन्य ने तो नथी, माटें शुं धर्मकथननो अधिकार श्रावकने बे ? तो त्यां कहे बे For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ प्रतिक्रमण सूत्र. सूत्र के, श्रावकने धर्मकथननो अधिकार बे, कारण के गीतार्थथकी अधिगत जेने तेवा तथा गुरुने आधीन बे वचन जेने, तेवा श्रावकने शा माटें सूत्रकथननो अधिकार न होय ? त्यावादी कहे बेके, एधिकार बे, तेमां प्रमाण शुं ? तो त्यां प्रमाण कहे बे के :- " पढइ सुणे गुणेइ, जिएस धम्मं परिकदेइ" इत्यादि वचन बे, तथा चूर्णीमां पण लख्युं बे जे "सो जिदास सावमि चउदसीसु उववास करेइ पुत्रयं च वाए" इत्यादि माटें श्रावकने अधिकार बेज, तेथी ए चार प्रकारें करीने जे पापलायुं होय, अतिचार हुई होय, ते पापने दूर करवाने (पि कमणं के० ) प्रतिक्रमण बे, मित्रामि डुक्कम बे ॥ ४८ ॥ हवे अनादि संसारसागरवत्तीतर्गत जे सत्त्वो बे, तेमने अन्योऽन्य वैरनो संजव बे, माटे ते खमावाने कहे . खामि सजीवे, सवे जीवा खमंतु मे ॥ मित्ति मे सब,, वेरं मद्यं न केाइ ॥४९॥ बे अर्थ:- ( सबजीवे के० ) सर्व जीवो प्रत्यें ( खामे मि के० ) हुं खमावुं बुंटले अनंत वने विषे पण ज्ञानमोहावृतत्वें करीने जीवोने जे पीडा कीधी होय, ते खमावुं तुं, थने ( सब्बेजीवा के० ) ते सर्व जीवो पण ( मे के० ) महारा अपराधप्रत्यें, ( खमंतु के० ) खमो, माफ करो, ए कमनक्षमापनमां कारण कहे बे के, ( सवनूएस के ० ) सर्व तो विषे ( मे के० ) महारे (मत्ती के०) मैत्री जाव ठे, ( केइ के० ) कोइ जीवनी साथै (मद्यं के० ) महारे ( वेरं के० ) वैरभाव ( न के० ) नी ||४|| हवे प्रतिक्रमण अध्ययनने उपसंहार करतो तो बेल्ली मंगलप्रदर्शनार्थ गाथा कहे बे. एवमदं आलोय, निंदि गरदिच्य डुगं सम्मं ॥ तिविदे पडिक्कतो, वंदामि जिणे चवीसं ॥ ५० ॥ इति ॥ ३२॥ र्थः - ( एवं के०) एम (आलोय के० ) पाप आलोच्युं प्रकाश की धुं ( निंदि०) आत्मसाखें निंद्यु, (गर हिय के०) गर्छु ( डुगंबियं के० ) sij त्यंत खोटुं जाएयुं, ते माटें ( सम्मं के० ) सम्यक प्रकारें एसम्यक् पद सर्व पदोनी साथै पूर्वमां योजवु, (तिविदेश के० ) त्रिविधें करी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुहिउदं गुरुखामणां अर्थसदित. १५ एटले मन, वचन अने कायायें करीने (पमिकंतो के) अतिचारादिक पापथकी प्रतिक्रांत थको पाठो फरतो थको एटले पापने पमिकमतो थको एवो जे (अहं के०) हुँ, ते (चवीसंजिणे के०) चोवीश जिनप्रत्ये (वंदा मि के० ) वांउं बु. या प्रकारे अस्परुचि जीवोना बोधने माटें आवंदि तासूत्रनो अर्थ, संदेपें करी कह्यो . विस्तारार्थ तो बृहकृत्तिथकी तथा चूर्णीथकी जाणवो ॥ ५० ॥ इति ॥ ३ ॥ हवे वली तेमज बे वांदणां देश्ने गुरुने अपराध खमाववाने आवी रीतें कहे, ते कहे जे. ॥ अथ अपछि हं गुरुखामणां ॥ ॥श्चाकारेण संदिसहजगवन् अनुहिममि अग्निंतर देवसिअं खामेलं ॥ ॥ खामेमि देवसिअं जं किंचि अपत्तिअं परपत्तिअं नत्ते पाणे विणए वेत्रावच्चे आलावे संलावे जच्चासणे समासणे अंत रनासाए उवरिनासाए जं किंचि मन विणयपरिदी णं सुहुमं वा बायरं वा तुने जाणद अहं न याणा मि तरस मिलामि उक्कम ॥१॥इति ॥ ३३ ॥ अर्थः-(जगवन् केप) हे जगवन् ! (श्चाकारेण के ) तमारी पोतानी श्वायें करी, (संदिसह के) मुझने आदेश आपो, (अप्रिंतरदेव सिरं के०) दिवसमांहे कीधा होय जे अपराध, तेप्रत्ये ( खामे के') खमाववाने (अप्नुहिमि के०) हुं अन्युबित एटले ऊज्यो , अर्थात् आपना सन्मुख हुँ उनो थयो बुं. तेवारें गुरु कहे, खामेह एटले खमावो. एवं सशुरुनु वचन तेने बहु मानतो बतो शिष्य उनो रह्यो थकोज श्छ एवो पाठ कहे एटले (श्चं के०) एहीज हुं हुं बुं, वांडं . (खामेमि के०) हुँ खामुं बुं. शा प्रत्ये खामुं बुं ? तो के (देवसि के०) दिवससंबंधि अपराध प्रत्ये खामुं बुं, पड़ी विधिवत् धरणीतलस्पृष्ट एवा पंचांगें प्रणाम करी मुखें मुहपत्ती देश आवी रीतें जणे, ते कहे जे. (जंकिचि के०) जे कांश सामान्यथी (अपत्तियं के०) अप्रीतिकं एटले अप्रीतिनाव उपजाव्यो होय, (परपत्तियं के०) पराप्रीतिकं पर प्रकृष्ठ एटले Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ प्रतिक्रमण सूत्र. विशेषथी अप्रीतिनाव, अध्याहारथी आपने विषे उपजाव्यो होय,शाने विषे उपजाव्यो होय ? ते कहे . (जत्ते के०) अशन, खादिम, स्वादिमने विषे, (पाणे के०) पाणीने विषे, (विणए के०) गुरु आव्या देखीने साहामा उठवा वांदवादिक आसन प्रमुख आप, इत्यादिक विनय करवो, तेने विषे (वेत्रा वच्चे के०) गुरुनी पादसेवा, औषधपथ्यादिक आणी आपवां इत्यादिक वैया वृत्त्यने विषे, (आलावे के०) एक वार बोलाववाने विषे, ( संलावे के०) वारं वार बोलाववाने विषे, (उच्चासणे के०) गुरुथी जंचे आसने बेसवाने विषे, ( समासणे के०) गुरुनी पासें सरखं आसन करी तेनी उपर बेसवा नेविषे, (अंतरजासाए के) अंतरजाषाने विषे एटले गुरु वात करता होय, तेनी वच्चें वात करवी, तेने अंतरजाषा कहियें तेने विषे. (उवरिना साए के०) उपरिलाषाने विषे एटले गुरु वात करी रह्या पली तेहीज वात पोतानी स्फुरती देखामवाने अर्थे विशेषपणे करवी, तेने उपरिजाषा क हियें, तेने विषे, ( जंकिंचि के ) जे कांश ( मद्य के ) महारे (विणय परहीणं केण) विनय नक्ति परिहीणपणुं एटले रहितपणुं थयुं होय, ते विनयत्नक्तिरहितपणुं के, थयुं होय ? तो के (सुहुमं के०) सूक्ष्म एटले न्हानुं जे थोडे प्रायश्चित्तें शुद्ध थाय ते, (वा के०) अथवा (बायरं के०) बादर ते जे घणा प्रायश्चित्तें करी शुद्ध थाय, एवं विनयहीन पणुं ते सर्व हे नाथ ! (तु जाणह के०) सकल जगतना नाव जाणवाथकी तुमें जाणो डो. अने ( अहंनयाणामि के) हुँ मूढपणामाटे जाणतो नथी (तस्स के०) ते अप्रीतिप्रमुख अतिचारनुं लाग्युं जे (उकम के०) उकृत एटले पाप, ते (मि के०) महारं (मिठा के०) मिथ्या था. एटले फोक था. अहीं बीजो वा ते पादपूर्णार्थ डे ॥१॥ इति गुरुखामणासूत्रा र्थः ॥ ३३ ॥ ए खामणांना सूत्रने विषे धुरथकी गुरु पंदर अने लघु एक शो अगीयार, मली एकशो ने बबीश अदरो . ए विधिपूर्वक अप राध खमावतां चंडरौछाचार्यादिक अनेक जीवोने केवलज्ञान उपन्युं . ॥ अथ आयरिय उवद्याए । आयरिय उवद्याए, सीसे साहम्मिए कुलगणे अ॥ जे मे केइ कसाया, सवे तिविदेण खामेमि ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिय उवद्याए अर्थसहित. १५ अर्थः-पंचाचारसंपन्न अथवा उत्रीश गुणें विराजमान, अर्थदानना दातार, तेने (आयरिय के० ) आचार्य कहियें. तथा समीप रह्या अने आव्या जे शिष्यादिक तेने सूत्रना जणावनार अथवा पच्चीश गुणे बिराज मान तेने ( उवद्याए के) उपाध्याय कहीयें, तथा ग्रहण शिदा अने आसेवनाशिदाने योग्य होय तेने ( सीसे के०) शिष्य कहीयें, तथा श्रका अने प्ररूपणादिक गुणें करीने जे आपणा सरखा होय, एवा सरखा धर्मना पालनार, तेने ( साहम्मिए के) साधर्मिक कहियें, तथा जे एक आचार्यनो शिष्य संतान परिवार, तेने ( कुल के० ) कुल कहिये, तथा घणा आंचायना शिष्यसंतान परिवार, तेने (गणे के०) गण एटले समुदाय कहिये. ( अ के० ) ए अ ते वली वली कहेवाने अर्थे जे. ए सर्वनी उपर (मे के०) महारे जीवें (जे के०) जे(कश्के०) कोश पण (कसाया के०) क्रोधादिक कषाय कीधा होय, ए कारणे ( सवे के०) सर्व ते आचार्या दिकप्रत्ये (तिविहेण कें) त्रिविधं करी एटले मन, वचन अने कायायें करी (खामेमि के०) हुँ खामुं हुं ॥१॥ आ गाथामां लघु बत्री. श, गुरु त्रण, सर्व अदर पांत्रीश जे. सबस्स समणसंघस्स, लगव अंजलिं करिय सीसे ॥ सवं खमावश्त्ता, खमामि सबस्स अदयंपि ॥ २ ॥ अर्थः-(सीसे के ) मस्तकनी उपर ( अंजलिं के ) बे हाथप्रत्ये ( करिय के) करीने एटले स्थापीने नम्रीनूत थश्ने (सवस्ससमणसंघ स्सनगव के०) सर्व श्रमणसंघरूप नगवंतना कीधा जे अपराध, ( सवं के) ते सर्व अपराधप्रत्ये ( खमावश्त्ता के० ) खमावीने, वली एम कहे, के (सवस्स केu) ते सर्वना करेला अपराध प्रत्यें (अहयंपि के०) हुं पण (खमामि के०) खमुं बुं, एटले सम्यक् प्रकारे सहन करूं धूं ॥२॥ आ गाथामां लघु एकत्रीश अने गुरु सात, मली सर्वादर आमत्रीश ॥ सबस्स जीवरासिस्स, नाव धम्म निदिय नियचित्तों ॥ सवं खमावश्त्ता, खमामि सबस्स अदयंपि॥३॥३४॥ __ अर्थः-(नाव के०) नावथी ( सवस्सजीवरासिस्स के०) एकेडिया दिक सर्व जीवनो राशि एटले समूह तेनो कीधो जे में अपराध, ते (सवं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० प्रतिक्रमण सूत्र. के०) सर्व अपराधप्रत्ये ( खमावश्ता के० ) खमावीने, वली एम कहे के ते सर्व जीवोनी उपर समजाव ते रूप (धम्म के० ) धर्म, तेने विषे (निहिय के ) निधित कयुं बे एटले स्थाप्यु नावथकी आरोपण कमु , ( नियचित्तो के ) निजचित्त एटले पोतार्नु मन जेणें एहवो (अहयंपि के०) हुँ पण (सबस्स के०) सर्व जीव राशिना कीधा जे अप राध ते अपराधप्रत्यें (खमामि के०) हुँ खमुं बुं ॥३॥ आ गाथामां लघु अहावीश अने गुरु नव, सर्वादर सामंत्रीश ३ ॥ इति खामणां ॥ ३४ ॥ ॥अथ नमोस्तु वर्षमानाय ॥ श्वामो अणुसहिं ॥ नमो खमासमणाणं ॥ नमोऽहेत्॥ नमोऽस्तु वर्षमानाय, स्पईमानाय कर्मणा ॥ तऊयावाप्तमोदााय, परोदाय कुतीथिनाम् ॥१॥ अर्थः-( वर्धमानाय के० ) श्रीवर्धमान स्वामी जणी, ( नमोस्तु के०) नमस्कार थार्ड, ते श्रीवर्डमान खामी केहवा छे ? तो के ( कर्मणा के०) कर्मोनी साथे ( पढ़मानाय के) स्पर्काना करनार बे, एटले ाना करनार बे, केम के ? कर्मोना वैरी , माटें तेनी साथें ईर्ष्याना करनार बे. वली केहवा ने तो के ( तऊया के० ) ते कर्मनो जय करीने (अवाप्त के) पाम्या ( मोदाय के० ) मोद प्रत्यें एवा , वली केहवा ? तो के ( कुतीर्थिनां के० ) कुतीर्थीयो जे मिथ्यादृष्टि जीवो, तेने (परो दाय के ) परोद में, एटले दृष्टिथी दूर जे. अर्थात् मिथ्यादृष्ठि जीव होय, ते प्रजुनुं स्वरूप जाणी न शके ॥ इति नावः॥१॥ येषां विकचारविंदराज्या, ज्यायः क्रमकमलावलिं दधत्या सदृशैरिति संगतं प्रशस्य, कथितं संतु शिवाय ते जिनेशः॥२॥ अर्थः-(ते के ) ते ( जिनेंडाः के ) जिनें तीर्थंकर, (शिवाय के०) शिव एटले परम कल्याण, तेने अर्थे ( संतु के०) था. ते जिनेऊ केहवा ने ? तो के (येषां के०) जे जिनेंडोनी ( ज्यायः के० ) प्रधान प्रशंसनीय एवी (क्रमकमलावलिं के०) चरणकमलनी श्रावलि एटले श्रेणीप्रत्यें ( दधत्या के ) धरती हुश् एटले पोतानी उपर स्थापित हुश्, अर्थात् वि हारसमय प्रजुना चरणकमलनी नीचे सुवर्णमय नव कमल जे देवता रचे Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशाललोचन अर्थसहित. १६१ बे, ते रूप ( विकच के० ) विकखर प्रफुल्लित (अरविंद के०) अरविंदनामें जे कमल तेनी ( राज्या के ) राजी एटले श्रेणीयें करीने, (सदृशैः के०) सरखानी साथे ( संगतं के०) मलवं, ते (प्रशस्यं के ) अति रूहुँ प्र शंसा करवा योग्य जे. (इति के० ) ए प्रकारें ( कथितं के ) कथु बे. जेम के सरखे सरखां मले ते शोने, माटें ते सुवर्णमय नवकमल अने प्रजुनां चरण, ए बेहु कमलो मलवाथी अत्यंत शोजा थई ॥२॥ कषायतापार्दितजंतुनिर्वृति,करोति यो जैनमुखां बुदोगतः॥स शुक्रमासोनववृष्टिसंनिनो, दधातु तुष्टिं मयि विस्तरो गिराम्॥३॥इति ॥ ३५॥ अर्थः-(स के०) ते (गिरां के) सिद्धांतरूपवाणीनो (विस्तर के०) विस्तार ते, (मयि के०) महारे विषे ( तुष्टिं के ) तुष्टिप्रत्यें संतोषप्रत्ये (दधातु के०) करो, ते वाणीनो विस्तार केहवो ले ? तो के (यो के०) जे वाणीनो वि स्तार, ( कषाय के) कषायरूप ( ताप के०) तापें करीने (अर्दित केण्) पीमित एवा ( जंतु के०) प्राणीयो तेने ( निति के० ) शांति स माधिप्रत्ये ( करोति के०) करे . वली (यो के० ) जे (जैनमुख के०) जिनराजना मुखरूप (अंबुद के) मेघ तेथकी (जगतःके) उपज्यो बे. वली (यो के०) जे (शुक्रमास के) ज्येष्ठमासथकी (उन्नव के०) उपन्यो एवो जे(वृष्टि के०) वर्षाद तेनी (संनिनो के०) सरखो ॥३॥ इति ॥ ३५॥ ॥ अथ विशाललोचन ॥ विशाललोचनदलं, प्रोद्यदंतांशुकेसरम् ॥ प्रातरिजिनेंस्य,मुखपद्मं पुनातु वः॥१॥ अर्थः-(वः के) तुमने (प्रातः के ) प्रजातसमयें ( वीरजिनें स्य के) श्रीवीरजिनेंस संबंधी (मुखपद्मं के०) मुखकमल , ते (पुना तु के) पवित्र करो, ते मुखकमल केहबुं बे ? तो के ( विशाल के ) वि स्तीर्ण ( लोचन के ) नेत्ररूप (दलं के ) पत्र जे जेने विषे वली केह ले ? तो के (प्रोद्यत् के०) अत्यंत ऊलहलता एवा (दंतांशु के०) दांत नां किरणरूप ( केसरं के० ) केसर सुगंधना कणीया जे जेने विषे ॥१॥ २१ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ प्रतिक्रमण सूत्र. येषामनिषेककर्म कृत्वा, मत्ता दर्षनरात् सुखं सुरेंजाः ॥ तृ णमपि गणयंतिनैव नाकं,प्रातःसंतु शिवाय ते जिनेंतः॥२॥ अर्थः-(ते के ) ते ( जिनेंसाः के०) श्रीजिनेप्रोजे तीर्थंकरो, ते (प्रात के ) प्रत्नात समयें (शिवाय के०) शिवने एटले निरुपवने अर्थे (संतु के० ) था. ते जिनेंसो केहवा बे? तो के (येषां के०) जे जिनेंमोना (अनि षेककर्म के० ) स्नानकर्म कार्यप्रत्ये (कृत्वा के०) करीने (हर्षजरात् के ) हर्षना जर एटले समूहथकी (मत्ता के०) माता थका मग्न थका (सुरेंजाः के०) देवेंसो जे , ते ( नाकं के० ) देवलोक संबंधी जे ( सुखं के) सुख तेने ( तृणमपि के ) तृणतुल्य पण (नैव के) नहींज (गणयंति के०) गणे जे. अर्थात् जिनेंना अनिषेक सुखने पामीने देवता उ स्वर्गसुखने तृणसमान पण नथी मानता ॥२॥ कलंकनिर्मुक्तममुक्तपूर्णतं, कुतर्कराहुग्रसनं स दोदयम् ॥ अपूर्वचं जिनचंन्नाषितं, दिनाग मे नौमि बुधैर्नमस्कृतम् ॥ ३ ॥ इति ॥ ३६॥ अर्थः-( जिनचंजनाषितं के०) जिनचंड संबंधि जाषित जे आगम ते प्रत्यें (दिनागमे के० ) प्रजातसमये ( नौमि के० ) हुं स्तवं . ते जिन चंदनाषित केहबु डे ? तो के (कलंकनिर्मुक्तं के०) कलंक रहित एबुं अ ने (अमुक्तपूर्णतं के०) नथी मूकाणी पूर्णता जेनी अने वली (कुतर्क राहुग्रसनं के०) कुतर्क करनारा एवा जे परदर्शनीरूप राहु तेने ग्रसन हार एटले नदण करनार एवं , तथा (सदोदयं के०) सदा निरंतर उदय एटले उगेलो एवो एक (अपूर्वचंडं के०) अपूर्व चंअसदृश बे, एटले जिनागमरूपचंडमानी तुल्य बीजो को चंउमा नथी, वली ते जिनचंजना षित केहबुं ? तो के (बुधैर्नमस्कृतं के० ) बुधोयें एटले पंमितोयें कस्यो नमस्कार जेने, एवं ३ ॥३॥ इति स्तुतिसूत्रार्थः ॥ ३६ ॥ ॥ अथ सबस्स वि देवसियं लिख्यते ॥ सवस्सवि देवसिअ, उचिंतिअ, नासिअ, उच्चिहिअश्वाकारेण संदिसह नगवन् श्वं तस्स मिबामि उक्कम॥१॥इति ॥ ३७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबस्सवि तथा श्रुतदेवता स्तुति अर्थसदित. १६३ अर्थः-(सबस्सविदेव सिथ के०) सर्वे पण दिवस संबंधी अतिचार ते (उचिंतिथ के०) मुश्चिंतित जे परषादिक पुष्ट कार्य तेने चिंतववाथकी थयो, वली केहवो ते दिवस संबंधि अतिचार? तो के (नासिब के) पुर्जाषित जे उपयोग रहित अनिष्ट पुष्टादिक नाषा तेवी नाषा बोलवा थकी थयो, वली केहवो ते दिवस संबंधि अतिचार ? तो के (उच्चिहिय के०) उश्चेष्टित जे उपयोग रहित हालवा चालवाथकी तथा कामासना दिक एवी कायनी उष्ट चेष्टारूप प्रवृत्ति, ते प्रवृत्ति करवाथकी थयो, तेनुं मिथ्या:कृत देवाने (नगवन् के०) हे नगवन् ! (श्वाकारेण के०) पो तानी श्छायें करी (संदिसह के०) मुऊने श्राज्ञा करो अहिंयां गुरु आज्ञा आपे पड़ी शिष्य कहे. (श्छ के० ) हुँ एहीज श्छु बु. (तस्समिबामि उक्कडं ) ए पदोनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो ॥ १॥ इति ॥ ३ ॥ ॥अथ श्रुतदेवतास्तुतिः॥ सुअदेवयाए करेमि कानस्सग्गंग ॥ सुअदेव या नगवई, नाणावरणीय कम्म संघायं॥तेसिं खवेन सययं, जेसिं सुयसायरे नत्ती ॥१॥ अर्थः-( सययं के०) सततं एटले सदा निरंतर, (जेसिं के०) जे जव्य पुरुषोनी ( सुयसायरे के० ) श्रुतिसागरने विषे (जत्ति के० ) जक्ति बे, एटले अंतर प्रीति ने ( तेसिं के० ) ते पुरुषो संबंधी (नाणावरणीय कम्म के० ) ज्ञानावरणीयकर्मना ( संघायं के० ) संघात एटले समूह ते प्रत्ये (सुअदेवया के) श्रुतदेवता, वली ( नगवई के) जगवती जे सर खती , ते (खवेल के०) खपावो एटले दय करो ॥ १॥ ए श्रुतदेवता श्रुतसिद्धांतनी अधिष्ठायिका जे सरस्वती, तेने आराधवा निमित्त काउ स्सग्ग करवो. एमां वंदणवत्तीआए ए पाठ न कहिये, अन्नब उससिएणं ए पाउज कहीये. ए गाथा श्रीपातिक सूत्र सिझांतने बेहडे ने, तेजणी काउस्सग्ग करतां मिथ्यात्वनी शंका न करवी. आ गाथामां लघु बत्रीश, अने गुरु बे; मली सर्वाक्षर अमत्रीश २ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ प्रतिक्रमण सूत्र. ॥ अथ देत्रदेवतानी स्तुति ॥ जीसे खित्ते साहू, दंसण नाणेहिं चरण सहिएहिं ॥ सादंति मुकमग्गं, सा देवी दर उरिया ॥२॥ इति॥३॥ अर्थः-(चरणसहिएहिं के) चारित्र सहित एवो (दसणनाणेहिं के०) दर्शन श्रने ज्ञान तेणे करीने (जीसे के०) जे देवीना ( खित्ते के०) दे त्रने विषे (साहू के०) साधु मुनिराज, (मुकमग्गं के०) मोदना मार्ग प्रत्य (साहंति के०) साधे बे, (सा के०) ते, (देवी के०) देवी, (पुरियाई के०) रितप्रत्ये एटले पापप्रत्यें (हरड के०) हरो, दूर करो ॥२॥ ए के त्र देवतानो काउस्सग्ग श्रीवयरस्वामीयें कीधो सांजलीयें बैयें, अने श्रीना वाहु खामीये पण करवो कह्यो , ते जणी एमां मिथ्यात्व नहीं,एम समजवू. था गाथामां लघु तेत्रीश, गुरु त्रण, सर्वादर बत्रीश जे. बेहु गाथाना लघु उंगणोतेर, अने गुरु पांच, मली सर्वादर चम्मोतेर २ ॥ इति ॥ ३ ॥ ॥अथ कमलदलस्तुतिः॥ कमलदलविपुलनयना, कमलमुखी कमलग नसमगौरी ॥ कमले स्थिता नगवती, ददा तु श्रुतदेवता सिधिम् ॥१॥ इति ॥ ३॥ अर्थः-(जगवती के०) उकुरा प्रमुख गुणनी धरनारी एवी जे (श्रुत देवता के ) सिद्धांतनी अधिष्ठायिका श्रुतदेवी , ते अमने ( सिडिं के०) धर्मनी सिझिप्रत्ये (ददातु के) दियो आपो, ते श्रुतदेवी केहवी ने ? तो के ( कमलदल के०) कमलनी पांखमी समान (विपुल के) विशा लडे (नयना के०) नेत्र जेहनां एवी . वली केहवी ? तो के (कमलमुखी के० ) कमलमुखी , अर्थात् कमल सरखं सुगंधीयुक्त वाटलु एवं सुशोनि त मुख ने जेहनु, वली केहवी ने ? तोके (कमलगर्जसमगौरी के० ) कमल ना गर्जनी पेरें गौर वर्ण , एटले कमलना मध्यनागमा जे गर्न , तेना सरखो गौरवर्ण , जेनो एवी , वली केहवी डे ? तो के (कमले के०) क मलने विषे ( स्थिता के०) रही डे ॥ १॥ इति ॥ ३ए ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुवन देवता स्तुति अर्थसहित. १६५ ॥ अथ जुवनदेवतादिस्तुतिः ॥ नुवणदेवयाए करेमि कानस्सग्गं० ॥ यस्याः देत्रं समाश्रित्य, साधुनिः साध्यते क्रियाः ॥ सा दे त्रदेवता नित्यं, नूयान्नः सुखदायिनी ॥१॥ अर्थः-(नः के ) अमने ( सा के ) ते (देवदेवता के०) क्षेत्र देवी, (नित्यं के ) निरंतर, (सुखदायिनी के०) सुखनी देवावाली (नूया त् के०) होय, ते क्षेत्रदेवी केहवी ? तो के (यस्याः के०) जेना (के त्रं के ) देत्रप्रत्ये (समाश्रित्य के०) समाश्रयीने एटले अंगीकार करीने (साधुनिः के० (साधुयें (क्रियाः के०) तपःसंयमरूप धर्मक्रियार्ड (सा ध्यते के०) सधाय बे, अर्थात् कराय ॥१॥ झानादिगुणयुतानां, नित्यं स्वाध्यायसंयमरतानाम्॥विधा तुजुवनदेवी, शिवं सदा सर्वसाधूनाम् ॥२॥इति ॥४०॥ अर्थः-( जुवनदेवी के०) जुवननिवासिनी देवी ने ते, (सर्वसाधूनां के०) सर्व साधुउने ( शिवं के०) शिव एटले परम कल्याण, ते प्रत्ये (सदा के ) निरंतर, (विदधातु के०) करो, ते सर्व साधु केहवा ? तो के (ज्ञानादिगुण के०) झानादिक गुणें करीने (युतानां के०) युक्त ने स हित बे. वली ते सर्वसाधु केहवा ? तो के (नित्यं के) निरंतर जे (स्वा ध्यायसंयमरतानां के०) वांचनादिक पांच प्रकारनो स्वाध्याय अने आश्र वनिरोध रूप सत्तर प्रकारनो संयम, तेने विषे रत , एटले आसक्त बे, मग्न बे. ए जुवनदेवतानो काउस्सग्ग श्री नबाहुखामीयें आवश्यकमां करवो कह्यो , ते माटें एमां मिथ्यात्व समजवू नहीं ॥२॥ इति ॥ ४० ॥ ॥अथ श्रवारजेसु मुनिवंदन ॥ अमाइजेसु दीवसमुद्देसु, पनरससु कम्मनूमीसु ॥ जावंत केवि साहू, रयदरण गुब पडिग्गधारा ॥१॥ पंचमहत्वयधारा, अछारस सदस्स सीलंग धारा ॥ अकयायारचरित्ता, ते सधे सिरसा मण सा मबएण वंदामि ॥ ॥ इति ॥ ४२ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ प्रतिक्रमण सूत्र. अर्थः-(अहवाइजेसुदीवसमुद्देसु के०) अढी द्वीप बे समुष संबंधी जे (पनरससुकम्मन्नूमीसु के ) पंदर कर्मनूमी क्षेत्रने विषे, (जावंत के०) जेटला ( केवि के०) कोश पण ( साहू के०) साधु, (रयहरणगुबपमिग्ग हधारा के०) रजोहरण ते उघो अने गुडो ते पात्रानी जोलीनी उपरतुं उ पकरण अने पतद्ग्रह ते पाठे इत्यादिक धर्मोपकरणना (धारा के०) धारण करनारा ॥१॥ एटले सुधी साधुनो वेषमात्र जणाव्यो परंतु ते वेष तो गु ण विना अप्रमाण कह्यो बे, माटें हवे गुण कही देखाडे . वली ते साधु के हवा ने ? तो के (पंचमहत्वयधारा के०) पाच महाव्रतना धरणहार बे, व ली केहवा बे ? तो के(अधारससहस्ससीलंगधारा के०) अष्टादश सहस्त्र शील नां चारित्रनां अंग जे अंश ने तेना धरनार, वली केहवा जे? तो के (अरक यायारचरित्ता के०)अदत संपूर्ण श्राचाररूप चारित्र तेना धरणहार जे. (ते सवे के०) ते सर्वप्रत्ये (सिरसा के०) ललाटें करीने (मणसा के० ) मनें क रीने (मबएण के०) मस्तकें करीने (वंदामि के०) हुं वांउं . अथवामबए ण वंदामि ए वचनें पंचांग प्रणामें करी वां ॥२॥ इति सर्वसाधु नमस्कार सूत्रार्थनाया बेहु गाथामां लघु बहोंतेर, गुरु तेर, सर्वादर पंच्याशी ॥४॥ ॥अथ वरकनक ॥ अथवा सप्ततिशत जिनस्तुतिः॥ वरकनकशंखविधुम, मरकतघनसन्निनं विगतमोहम् ॥ सप्ततिशतं जिनानां, सर्वामरपूजितं वंदे ॥१॥४२॥ अर्थः-(जिनानां के०) जिनेंस्रो संबंधी ( सप्ततिशतं के० ) सप्ततिशत प्रत्यें एटले एकशो सित्तेर जिनेसोप्रत्ये (वंदे के०) हुं वांडं . ते जिन सप्ततिशत केहबुं ? तो के (वर के०) प्रधान एवं ( कनक के० ) सुवर्ण, शंख के०) शंख, ( विजुम के०) प्रवालां, ( मरकत के०) नीलमणि, (घन के०) सजल मेघ, तेना (सन्निनं के०) सर बे, एटले पांचव ों ने जेना एवं जे. वली ते सप्ततिशत केहवं ? तो के ( विगतमोहं के) मोहादिक रहित . वली केहबुं बे ? तो के ( सर्वामरपूजितं के०) सर्व अमर एटले देवता पूजे जे जेने एवं ॥१॥ इति ॥ ४२ ॥ ॥ अथ तीर्थ वंदना ।। ॥ सकल तीर्थ बंदूं कर जोड्य, जिनवरनामें मंगल कोड्य ॥ पहेले खर्गे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थवंदना. १६७ लाख बत्रीश, जिनवर चैत्य नमुं निशि दीस ॥ १ ॥ बीजे लाख अहावीश कह्यां, त्रीजे बार लाख सद्दयां ॥ चोथे स्वर्गे म लाख धार, पांच वंदूं लाखज चार ॥ २ ॥ बठे स्वर्गे सहस पच्चास, सातमे चालिश सहस प्रासाद | मे खर्गे व हजार, नव दशमे वंदूं शत चार ॥ ३ ॥ अग्या र बारमेण सार, नवग्रैवेयकें त्रणशें अढार ॥ पांच अनुत्तर सर्वे मली, लाख चोराशी अधिकां वली ॥ ४ ॥ सहस सत्ताएं त्रेविश सार, जिनवर वन तो अधिकार || लांबां शो योजन विस्तार, पचास उंचां बहोंतेर धार ॥ ५ ॥ एकशो एंशी बिंब प्रमाण, सजा सहित एक चैत्यें जाए | शो को बावन को संजाल, लाख चोराएं सहस चाल ॥ ६॥ सातशे उपर साठ विशाल, सवी बिंब प्रणमुं त्रण काल ॥ सात कोम ने बहोंतेर लाख, जुवनपतिमां देवल जांख ॥७॥ एकशो एंशी बिंब प्रमाण, एक एक चैत्यें संख्या जाण ॥ तेरशें कोम नेव्याशी कोम, शाठ लाख दूं कर जोम ॥ ८ ॥ बत्रीरों ने उगणशाठ, तीर्छा लोकमां चैत्यनो पाठ ॥ त्रण लाख एकाएं हजार, त्रणशें वीश ते बिंब जुहार ॥ ए ॥ व्यंतर ज्यो तिषी मां वलि जेह, शाश्वता जिन वंदूं तेह || रुपन चंद्रानन वारिषेण, वर्द्धमान नामें गुणसे ||१०|| समेत शिखर वंदूं जिन वीश, अष्टापद वंदूं चोवीश ॥ विमलाचल ने गढ गिरनार, आबु ऊपर जिनवर जुहार ॥ ११ ॥ शंखेश्वर केसरियो सार, तारंगें श्री अजित जुहार ॥ अंतरिक वरकाणो पास, जीरावलो ने थंजण पास ॥ १२ ॥ गाम नगर पुर पाटण जेह, जि नवरचैत्य नमुं गुणगेह ॥ विहरमान वंदूं जिन वीश, सिद्ध अनंत नमुं निश दीस ॥ १३ ॥ द्वीपमां जे अणगार, अढार सहस शीलांगना धार ॥ पंच महाव्रत समितिसार, पाले पलावे पंचाचार ॥ १४ ॥ बाह्य अभ्यंतर तप उजमाल, ते मुनि वंदूं गुण मणिमाल || नित नित ऊठी कीर्त्ति करूं, जीव कहे जवसायर तरूं ॥ १५ ॥ इति ॥ ४३ ॥ ॥ अथ लघुशांतिस्तवप्रारंभः ॥ बृहवीय प्रसिद्धप्रभावी श्रीमानदेव सूरि, ते नाकुल नगरमां चोमासुं ह्या हता, ते समयें, शाकंजरी नगरमां श्रीसंघ, शाकिनीजनित मरकीना उपवें पीमित थयो, तेवारें त्यांना संघें मलीने विनतिपत्र लखी तेमां रोग (वरूप निवेदन करी श्रीमानदेव सूरि पासें मनुष्य मोकल्यां, पठी पद्मा, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ प्रतिक्रमण सूत्र. जया, विजया अने अपराजिता, ए चार देवीयो डे सान्निध्य जेमने एवा तथा निरतिशय करुणायें करीने जेमनुं अंतःकरण कोमल , एवा श्रीमा नदेवसूरि, तेईये सर्वत्र सकल श्रीसंघने सर्वोपत्रव शांतिने अर्थे ा स्तो बनी रचना करीने संघने आप्यु. पठी ते शाकंनरी नगरस्थ संघना केटला एक जनोयें तो प्रतिदिवस ए स्तोत्रनुं पोतें अध्ययन कयुं, तथा केटला एकोयें तो अन्यपासें अध्ययन करावीने सांजलवा मांम. तथा ए स्तोत्रं अनिमंत्रित जलने उंटाव्यु, तेणें करी श्रीसंघनो शाकिनीजनित मरकीनो उपजव शांतिने पाम्यो. त्यांथी ए स्तोत्र सर्वस्थलें शांतिकारक थयुं, पड़ी प्रायः प्रतिदिवस ए लघुशांतिस्तोत्र प्रतिक्रमणानंतर नणाय , एवं संप्रदाय बे. श्रा स्तोत्र कये ठेकाणे शा वास्ते निर्मित कयुं ? ते विषे एज गबना गुरुयें एक श्लोक रचेलो , ते लखीयें छैयें ॥ श्लोक ॥ नामूल नामनगरस्थितमेघकालैः, शाकंनरीपुरसमागतसंघवाचा ॥ शांतिस्तवः प्रब लमारिजयापहारी, यैर्निर्ममे सुविहितक्रममार्गदीपैः॥१॥ हवे ए स्तोत्रनो अर्थसहित प्रारंन करिये बैयें. शातिं शांतिनिशांतं, शांतं शांताशिवं नमस्कृत्य ॥ स्तोतुःशांतिनिमित्तं, मंत्रपदैः शांतये स्तौमि ॥१॥ अर्थः-हुँ (शांति के०) श्रीशांतिजिनप्रत्ये (नमस्कृत्य के०) नमस्कार करीने, तेज श्रीशांतिजिनना ( मंत्रपदैः के०) मंत्रोनां पदोयें करीने श्रर्थात् अक्षरगनित जे मंत्रनां पद, तेणें करीने (स्तौमि के०) स्तुति करूं बुं, ते शा माटें स्तुति करुं दुं ? तो के (शांतये के०) फुःख, कुरित, उपस र्ग, तेनी निवृत्तिने माटें स्तुति करुं बुं, हवे ते श्रीशांतिजिन केहवा ने ? तो के (शांति के०) जुःखउपसर्गनीवृत्तिरूप, अथवा कषायोदयापगम लक्षण, तेना (निशांतं के०) घर बे, वा स्थानकरूप , वली (शांतं के० ) उपशमोपेत , एटले रागोषरहित बे. वली (शांताऽशिवं के०) शांत एटले उपशमने पाम्या ने अशिव एटले अकल्याणकारक अरिष्ट उपवो जेथकी एवा श्रीशांतिजिन . वली केहवा बे ? तो के ( स्तोतुः के० ) स्तुति करनारना ( शांतिनिमित्तं के ) अरिष्टोपजव निवारण रूप जे शांति, तेना निमित्तं एटले उत्पादनहेतु ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुशांतिस्तव अर्थसहित, २६॥ उमिति निश्चितवचसे, नमो नमो नगवतेऽर्हते पूजाम् ॥ शांतिजिनाय जयवते, यशस्विने स्वामिने दमिनाम् ॥२॥ अर्थः-(शांतिजिनाय के०) श्रीशांतिजिन, तेमने ( नमोनम, के०) न मस्कार था. आंहीं नमोनम, ए छिरुक्ति जे , ते अत्यादर जणाववाने अर्थे अथवा ससंन्रम ख्यापनने अर्थे बे. हवे ते श्रीशांतिजिन केहवा बे? तो के (मितिनिश्चितवचसे के०) अवति एटले रक्षण करे , तेने 3 कहीयें, अने ॐ एटले परंज्योति, इति केतां ए प्रकारे निश्चित एटले नि र्धार कयुं वच, एटले वांचक पद जेमनुं एवा बे, अथवा 3 एवा वचने करीने श्राख्येय एटले कहेवा योग्य जे वाच्यवाचकनाव जेमनो एवा बे. वली केहवा बे? तो के (जगवते के०) समग्र ऐश्वर्य जे जेमने तेमने न जगवान् कहियें, वली जे (पूजां के ) पूजाने (अर्हत् के०) योग्य ले अर्थात् सुराऽसुरनरेशादिकें करेली पूजाने योग्य एवा बे. वली (जयवते के०) जेमने रागादिक परानव करी शकता नथी माटे जयवान् जययुक्त जे. व ली (यशखिने के०) प्रसिक प्रशस्त यश चे जेमनुं एवा . वली (दामि नां के०) इंजियोने दमन कस्यां , वश कस्यां ले जेणे ए जे मुनिमहाराज. तेमना ( स्वामिने के० ) खामी एटले नाथ एवा ॥२॥ सकलातिशेषकमहा, संपत्तिसमन्विताय शस्याय ॥ त्रैलोक्यपूजिताय च, नमोनमः शांतिदेवाय ॥३॥ अर्थः-( शांतिदेवाय के० ) शोलमा तीर्थंकर श्री शांतिनाथजी तेमने (नमोनम, के०) नमस्कार था. ते केहवा ? तो के ( सकल के०) समस्त( अतिशेषक के०) चोत्रीश अतिशय, ते रूप (महासंपत्ति के०) महो टी संपदा तेणें करीने (समन्विताय के०) सहित, तथा ( शस्याय के०) प्रशंसवा योग्य एवा ( च के० ) वली (त्रैलोक्य के ) स्वर्ग, मृत्यु अने पाताल रूप त्रण लोक, तेणें (पूजिताय के०) पूजित एवा डे ॥३॥ सर्वामरससमूद, स्वामिकसंपूजिताय निजिताय ॥ जुवनजनपालनोद्यत, तमाय सततं नमस्तस्मै ॥४॥ अर्थः-( तस्मै के० ) ते श्रीशांतिजिन महाराज तेमने ( सततं के) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० प्रतिक्रमण सूत्र. निरंतर, ( नम, के) नमस्कार था, ते केहवा बे? तो के ( सर्वामरससमूह के ) समस्त चार निकायना देवताना समूह सहित, तेहना (स्वामिक के० ) खामी जे चोशठ इंस्रो , तेमणे (संपूजिताय के०) सम्यक् प्रकारें पूजित एवा . वली (निजिताय के०) नथी जीत्या देवादिको ये अर्थात् कोश्ये पोताने वश करेलां नथी एवा तथा (जुवन के०) त्रण जुवनना ( जन के ) लोको तेमनुं (पालन के) पालन करवं, तेहने वीषे ( उद्यततमाय के० ) अत्यंत सावधान एवा ने ॥ ४ ॥ सर्वरितौघनाशन, कराय सर्वाऽशिवप्रशमनाय ॥ उष्टप्रदजुतपिशाच, शाकिनीनां प्रमथनाय ॥५॥ अर्थः-वली केहवा बे ? तो के ( सर्व के० ) समस्त जे (रित के०) पाप तेहनो (उघ के) समूह. तेहना (नाशनकराय के) नाश करनार बे. वली ते केहवा बे? तो के (सर्वाशिव के०) सर्व जे अशिव एटले उपश्व तेहना (प्रशमनाय के०) प्रकर्षे करी एटले अतिशयपणे समावणहार बे, वली केहवा जे? तो के (उष्टग्रह के०) कुछ आकरा एवा जे मेंगल, शनिश्चर, राहु, केतु, इत्यादिक असुखनां करनार ग्रह तथा (नूत के०) वृदादिकने विषे वसनार, ( पिशाच के०) राक्षसादिक, तथा (शाकिनी नां के०) शाकिनी ते मंत्राधिष्ठित स्त्री, ए सर्वना उपञवो तेमने (प्रथम नाय के ) प्रकर्षे करी मथन एटले नाशना करनार बे, मटामनार ने अ र्थात् श्रीशांती जिनेश्वरना स्मरण करनारना पूर्वोक्त सर्व उपजवो, नाश ने पामे , माटें तेने नमस्कार थाय ले ॥५॥ यस्येति नाममंत्र, प्रधानवाक्योपयोगकततोषा ॥ विजयाकुरुतेजनहित, मितिच नुता नमत तं शांति॥६॥ अर्थः-हे जव्य जनो! तमें (तं के०) ते (शांति के०) श्रीशांतिजिनप्रत्ये (नमत के०) प्रणाम करो, ते कया शांतिजिन ? तो के (यस्य के०) जे शां तिजिननो (इति के०) ए पूर्वोक्त प्रकारे करीने (नाममंत्र के) नामरूप जे महामंत्र तेणें करीने (प्रधानवाक्य के०) प्रकृष्ट सर्वोत्तम पवित्र एवं जे वचन तेनो (उपयोग के) उपयोग एटले नामोच्चारणमात्र स्मरण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुशांतिस्तव अर्थसदित. ११ तेणे करीने (कृत के०) कस्यो ने चित्तने विषे (तोषा के० ) संतोष जेणे एवी (विजया के०) विजयानामें जे देवी बे, ते श्री शांतिजिनना नाम स्मरण करनारा एवा जे (जन के०) जन एटले मनुष्य, तेनुं (हितं के०) हित जे तेने (कुरुते के०) करे डे, (च के०) वली ते विजया देवी केहवी ने ? तो के (इति के०) ए पूर्वे कह्यो एवो जे प्रकार ते प्रकारे करीने ( नुता के० ) नमेली , स्तुति करेली , श्रीशांतिनाथने एवी २ ॥६॥ नवतु नमस्ते नगवति, विजये सुजये परापरैर जिते ॥ अपराजिते जगत्यां, जयतीति जयावदे नवति ॥७॥ अर्थः-(जगवति के०) अहीं लग शब्द जे , ते ज्ञान, माहात्म्य, यशो, रूप जे वीर्य, तेनो प्रयत्नेहालक्षण अहण करवो, ते जेने विद्यमान होय, तेने जगवती कहीये. तेना आमंत्रणे हे जगवति एवी (विजये के०) सह न न करी शके एवा ावाला पुरुषोनुं परानव करवापणुं ने जेना विषे तेना संबोधने हे विजया देवि ! तथा ( सुजये के०) जेना प्रतापनी वृद्धिने शत्रुयें परानव कस्यो नश्री, तेना संबोधने हे सुजयादेवि ! अथवा सुजय एटले शोजन के जयपणुं जेने अथवा सु एटले अतिशयें करीने डे जय जेनो एवी तेना संबोधने हे सुजयानामा देवि ! तथा (परापरैर जिते के०) पर एटले उत्कृष्ट एवा अपर एटले अन्य देवो तेमणे नजिता एटले नथी पराजव कस्यो जेनो तेवा संबोधने हे परापरैर जिते देवि ! अर्थात् हे अजितादेवि ! तथा (अपराजिते के०) को स्थानकें परानवने न पामेली एवा आमंत्रणे हे अपराजिता देवि ! तमो (जगत्यां के) पृथि वीने विषे (जयति के ) जयवंतां वत्तों, (इति के) एम स्तुति करे बते ( जयावहे के०) स्तुति करनार नक्तजनने जयनी आवहन करनारी थाय , तेने संबोधने हे जयावहा देवि ! तथा (जवति के० ) स्त्रीलिंगें नवत् शब्दना संबोधने हे नवति ! ए प्रकारनी पूर्वोक्त एक विजया, बीजी जया, त्रीजी अजिता, चोथी अपराजिता, एवी चार देवियो, (ते के०) तमोने ( नम, के०) नमस्कार (जवतु के) थाउँ ॥७॥ सर्वस्यापि च संघस्य, नकल्याणमंगलप्रददे ॥ साधूनां च सदा शिव, सुतुष्टिपुष्टिप्रदे जीयाः॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ प्रतिक्रमण सूत्र. अर्थ:-( सर्वस्यापिच के०) चतुर्विध एवा सर्व पण, च पादपूर्णार्थ ठे. (संघ स्य के०) संघने (जड़ के०) सौख्य, ( कल्याण के० ) निरुपद्रवपणुं, (मंगल ho) डुरितोपशांति, इत्यादिकने ( प्रददे के० ) प्रकर्षे करी आपनार एवी, अर्थात् एतादृशगुणयुक्त एवी हे देवि ! ( च के० ) वली ( साधूनां के० ) मोहने जे साधे ते साधु कहियें एटले मुनियो तेमने ( सदा के०) सर्वदा ( शिव के ० ) निरुपद्रवत्व, (सुतुष्टि के ० ) शोजन चित्तनी शांति, ( पुष्टि ho) धर्मनी वृद्धि, तेने ( प्रदे के० ) देनारी एवी हे देवि ! तुं ( जीयाः ho ) जयवंती हो, अर्थात् सर्वोत्कर्षपणे जगत्मां वर्त्तो ॥ ८ ॥ नव्यानां कृत सि. निर्वृत्तिनिर्वाणजननि सत्त्वानाम् ॥ जयप्रदाननिरते, नमोऽस्तु स्वस्तिप्रदे तुभ्यम् ॥ ॥ अर्थ : - ( व्यानां के०) जव्य जीवोने (कृत सिद्धे के० ) कररी बे सिद्धि जेणें एटले सर्वकार्योंनी निर्विघ्नपणे समाप्ति कर बे जेणें एवी, वली (स वानां के०) जव्य जीवोने (निर्वृति के ० ) चित्तसमाधि तथा ( निर्वाण के० ) मोक्ष एटले परमानंद एम निर्वृत्ति, निर्वाणने ( जननि के० ) उत्पन्न कर नारी मा निर्वृति निर्वाणजननि एवा. संबोधनवाली, उक्तं च " सम्मद्दिही देवा, दिंतु समाहिं च बोहिं च तथा ( अजय के० ) निर्भयपणं तेने ( प्रदान के० ) प्रकर्षे करीने देवाने ( निरते के० ) तत्पर . स्वस्तिप्रदे के० ) कल्याणने प्रकर्षे करी देवावाली एवी अर्थात् ए पूर्वोक्त सर्वगुणयुक्त एवा संबोधनवाली हे देवि ! ( तुभ्यं के० ) तुमने ( न मोsस्तु के० ) नमस्कार हो ॥ ५ ॥ "" तथा भक्तानां जंतूनां शुभावदे नित्यमुद्यते देवि || सम्यगृदृष्टीनां धृति, रतिमतिबुद्धिप्रदानाय ॥ १० ॥ अर्थ :- (क्तानां के० ) पोतानी सेवाना करनार जक्तिमंत एवां (जंतूनां के० ) जे जीव ढे, तेमनें ( शुभावहे के० ) शुभ एटले श्रेयपणाने आए टले सर्व प्रकारें वहा एटले वहन करनारी पमागनारी बे माटें शुभकारि का कहियें, तथा वली ( सम्यग्दृष्टीनां के० ) सम्यग्रदृष्टि जीवोने ( धृति ha) संतोष, (रति के० ) प्रीति, (मति के० ) प्राप्त विषयनी बुद्धि, ए Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुशांतिस्तव अर्थसहित. २७३ टले नविष्यकालने जाणनारी बुद्धि, (बुद्धि के ) सांप्रतदर्शिनी एटले वर्तमानकालना विषयनी जाणनारी एवी बुद्धि, ते प्रत्ये (प्रदानाय के) अतिशयपणे देवाने माटें (नित्यं के०) सदैव निरंतर, (उद्यते के) सावधान उद्यमवंत, एवा सर्व संबोधनयुक्त (देवि के०) हे देवि ! तमें बो ॥ १० ॥ जिनशासननिरतानां, शांतिनतानां च जगति जनतानाम् ॥ श्रीसंपत्कीर्तियशो, वईनि जयदेवि विजयस्व ॥ ११ ॥ अर्थ-(जिनशासन के) श्रीवीतरागना शासनने विषे (निरतानां के०) रक्त ते रागवंत तत्पर एवा अने (च के०) वली केहवा ? तो के (शांति नतानां के०) श्रीशांतिनाथप्रत्ये नमस्कार करनारा, प्रणाम करनारा एवा (जगति के०) जगतने विषे ( जनतानां के० ) जनसमुदायो जे , तेमने (श्री के० ) लक्ष्मी, ते सुवर्णादि तथा (संपत् के०) झफिविस्तार, ( किर्ति के) ख्याति, ते एक दिग्व्यापि, (यश के०) यश ते सर्व दिग्रव्यापी एटले सर्वत्र प्रसिफि तेनी (वर्कनि के) वधारनार एवी (जयदेवि के०) हे जया नामा देवि ! तमें ( विजयख के० ) सर्वोत्कर्षे करी वत्तॊ ॥ ११ ॥ सलिलानलविषविषधर, उष्टग्रहराजरोगरण नयतः॥रादसरिपुगणमारी, चौरेतिश्वापदादि न्यः॥१२॥ अथ रद रद सुशिवं, कुरु कुरु शांतिं च कुरु कुरु सदेति॥तुष्टिं कुरु कुरु पुष्टिं. कुरु कुरु स्वस्ति च कुरु कुरु त्वं ॥ १३ ॥ अर्थः-(सविल के०) जल ते समुद्रादिकनां, (अनल के० ) अग्नि ते उत्पातरूप, (विष के ) विष ते अफीणादिक, (विषधर के०) सर्प (उष्टग्रह के०) दृष्ट ग्रह एटले चालवामां अशुल एवा शनिश्चर, राहु, केतु श्रादिक पुष्टखनाववाला ग्रह, (राज के०) उष्टस्वनाव वाला दंमादि क करनारा अर्थग्रहण करनारा एवा राजा, (रोग के०) उष्टज्वर, नगंदर, महोदरादिक रोग अने (रण के०) संग्राम, ए' सर्वना (जयतः के०) लय थकी (रद रद के०) रक्षण कर, रक्षण कर. वली (राक्षस के०) राक्षस ते व्यंतर विशेष, (रिपुगण के०) शत्रुना समूह, (मारी के०) मरकोनो उप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ प्रतिक्रमण सूत्र. sa (चोर के० ) चोर ते तस्कर, ( इति के० ) सात ईतिना जय, ( श्वापद के० ) मदोन्मत्त हस्ती, सिंहादि प्रमुख दुष्ट जीवो, ( श्रादिभ्यः के० ) श्रादिशब्द की शाकिनी, डाकिनी, भूत, वेतालादिक पण ग्रहण करवा. ते सर्वना जयथकी रक्षण कर, रक्षण कर. यहीं रक्ष रक्ष ए क्रियापद बे ते श्रवता श्लोकमांथी ग्रहण करेलुं बे, कारण के बेहु श्लोकनो संबंध एकत्र ॥ १२ ॥ ( o ) एटला थकी अनंतर हे विजयामाता ! ( त्वं के० ) तुं (सु० ) तिशयें करीने अथवा सुष्ठु एवं (शिवं के० ) निरुपद्रवप तेने (कुरुकुरु के०) कर कर, ( च के० ) वली (शांतिं के० ) शांति ते पूर्वे उत्पन्न रोगनी निवृत्तिरूप तेने ( सदा के० ) निरंतर ( कुरु कुरु के० ) कर कर, ( इति के० ) ए प्रकारें वली (तुष्टिं कुरुकुरु के०) संतोषपणाने कर कर तथा ( पुष्टिं कुरु कुरु के०) पुष्टि जे वृद्धि अथवा शरीरनुं नीरोगपणुं ते प्रत्यें कर कर, तथा (स्वस्तिं कुरु कुरु के० ) कल्याणपणाप्रत्यें कर कर, मां कुरु कुरु शब्द जे बे, ते अत्यादर ख्यापनने अर्थे बे, तथा मंत्रपदमां सर्वत्र द्विरुच्चार देखाय बे, एवो संप्रदाय पण बे ॥ १३ ॥ भगवति गुणवति शिव शांति, तुष्टि पुष्टिस्वस्तीद् कुरु कुरु जनानाम् ॥ उमिति नमोनमो झाँ, झीँ झं झः यः ः झीं फुट् फुट् स्वाहा ॥ १४ ॥ अर्थ - ( जगवति के ) हे जगवति ! एटले समग्र ऐश्वर्यादि गुणयुक्त तथा ( गुणवति के० ) हे गुणवति! गुण एटले औदार्य, धैर्य, गांजीर्य, शौर्यादिक सकल गुणोयें करी शोजायमान एवी हे देवि ! तुं ( इह के० ) पृथ्वीने विषे (जनानां के० ) समस्त लोकोने ( शिव के० ) निरुपद्रव कल्याण, (शांति के०) मरक्यादि रोगनी उपशांति, (तुष्टि के० ) मनःसं तोष (पुष्टि ० ) शरीरादिकनी वृद्धि, दृढपणुं. ( स्वस्ति के० ) देम ते कल्याण. तेने ( इह के०) या जगतने विषे ( कुरुकुरु के०) कर, कर, हवे मंत्राक्षरें करीने विजया देवीने स्तवे बे. ( उमिति के० ) ज्योतिःस्वरूपिणी एव हे देवि ! तुने ( नमोनमः के० ) नमस्कार था, तथा ( झां झीं क्रू झः यः क्षः झीं फुट् फुट् स्वाहा के० ) ए प्रकारना मंत्रस्वरूपिणी एवी देवि! तुने नमस्कार था. श्रांहीं फुट्फुट् ए जे शब्द लख्या बे, ते विघ्न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुशांतिस्तव अर्थसदित. २७५ त्रासार्थ मंत्रादर प्रयोग बे. अने श्रा झां ही इत्यादि अक्षरो जे लख्या ने ते शांतिनो मूलमंत्र जाणवो ॥ १४ ॥ एवं यन्नामादर, पुरस्सरं संस्तुता जया देवी॥ कुरुते शांतिं नम तां (पागंतरे कुरुते शांतिनिमित्तं) नमोनमःशांतये तस्मै॥२५॥ अर्थः-(तस्मै के) ते शांतिनाथने (नमोनमः के०) पुनः पुनः न मस्कार था. ते कया शांतिनाथने नमस्कार था ? तो के ( एवं के०) ए पूर्वोक्त प्रकारें (यन्नामादरपुरस्सरं के०) जेना नामाक्षरमंत्रपूर्वक (संस्तुता के०) स्तुति करेली एवी ( जया के ) जयानामा (देवी के०) देवी ते ( शांति के० ) श्रीशांतिनाथ प्रत्ये ( नमतां के) नमस्कार कर नारा एवा नव्यजीवोने (शांति के०) सर्वारिष्टनुंजे प्रशमन, तेने (कुरुते के०) करे , पागंतरे (कुरुतेशांतिनिमित्तं के०) शांति जे सर्वोपप्रवनिवृत्तिरूप तेनुं निमित्त एटले हेतु, तेने कुरुते एटले उत्पन्न करे ॥ १५ ॥ इति पूर्वसूरिदर्शित, मंत्रपदविदर्जितः स्तवः शांतेः ॥स खिलादिनयविनाशी, शांत्यादिकरश्च नक्तिमताम् ॥१६॥ अर्थः-( शांतेः के० ) ए श्रीशांतिनाथजीनो (स्तवः के०) स्तव, ते (जक्तिमतां के०) नंक्तिमान् प्राणीयो जे , तेमने (सविलादिनय के०) समुझोप उवा दिलय, बाहिं श्रादिशब्दथकी अग्नि, विष सर्प, पुष्टगज, सिंह, संग्राम, शत्रु, चोर, शाकिनी, नूत, प्रेत, पिशाच, रोग, शोकादिक एवा जयनो ( विनाशी के) विनाश करनारो, (च के०) वली (शांत्यादि करः के०) शांत्यादि ते शांति, सुख, सौनाग्य, शकि, वृद्धि, कल्याण अने जय, ए सर्वने करनारो नवतुके था. वली ते स्तव केहवो डे ? तो के ( इति के०) आप्रकारें (पूर्वसूरिदर्शित के०) पूर्वाचार्ये दर्शित नाम उपदिष्ठ करेलां एवां (मंत्रपद के) मंत्रनां पद एटले मंत्रादर बीज, तेणें (विवर्णितः के) विरचित एवो . आ श्लौकनो तथा आवता बीजा श्लोकनो संबंध साथें ॥ १६ ॥ यश्चैनं पठति सदा, शृणोति भावयति वा यथा योगम् ॥ स हि शांतिपदं यायात् (पागंतरे शि वशांतिपदं यायात् ) सूरिश्रीमानदेवश्च ॥१७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ प्रतिक्रमण सूत्र. ___ अर्थः-(च के ) वली यः के० ) जे पुरुष, ( यथायोगं के०) योग ने न उलंघन करीने एटले योग प्रत्ये यथा कार्यनो उद्देश करीने (सदा के०) सर्वदा (पति के) पोतें पाठ करे , (एनं के०) ए स्तोत्रने (शृणो ति के०) अन्यपासेंथी श्रवण करे , (वा के) अथवा (नावयति के०) मनमध्ये नावना करे , एटले मनमां स्मरण करे बे, तो ( हि के) निश्चे (सः के ) ते पुरुष, (शांतिपदं के०) शांतिनुं स्थानक एटले रोग, उपसर्ग, व्याधि, दुःख, दौर्मनपणुं तेथकी रहितत्व, तेने ( यायात् के०) पामे ( च के० ) वली ( सूरिश्रीमानदेवः के ) " श्रीमानदेवसूरि” पण शांतिपदने पामे. श्रा पदें करीने स्तोत्रकर्तायें पोताना नामनी पण सूचना करी बे. पागंतरे ( शिवशांतिपदंयायात् के०) शिव जे क ल्याण, शांति जे सर्वोपवादिनिवृत्ति, तेनुं पद जे स्थानक तेने यायात् एटले पामे ॥ १७ ॥ उपसर्गाः दयं यांति, बिद्यते विघ्नवल्लयः॥ मनः प्रसन्नतामेति, पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥ १७ ॥ अर्थः-(जिनेश्वरे के०) जिनेश्वर एवा नगवान् ते (पूज्यमाने के०) पूजे बते, (उपसर्गाः के०) देवादिकृत उपसर्गों जे जे ते, (दयं के) दय प्रत्ये (यांती के० ) पामे . अने ( विघ्नवद्धयः के) विघ्ननी वसीयो जे जे ते, (विद्यते के० ) बेदाय . (मनः के०) मन जे जे ते, ( प्रसन्नतां के) प्रसन्नताने (एति के०) पामे डे ॥ १७ ॥ सर्वमंगलमांगल्यं, सर्वकल्याणकारणम ॥ प्रधानं सर्वधर्माणां, जैनं जयति शासनम ॥२॥ अर्थः-(जैनंशासनं के०) जिनतीर्थंकर संबंधि जे शासन एटले आ देश ते, (जयति के०) जयवंतुं वर्ते . ते शासन केहबुं ? तो के (स र्वमंगलमांगल्यं के०) सर्वमंगलमांहे मांगलिक बे, वली केहबुं ? तो के (सर्वकल्याणकारणं के) सर्व कल्याण एटले सुखवृद्धि, तेनुं कारण बे, वली (सर्वधर्माणां के०) सर्वधर्मोना मध्यमां (प्रधानं के०) प्रधान , एटले मुख्य ले ॥ १५ ॥ इति खघुशांतिस्तवः संपूर्णः ॥ ४ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चनक्कसाय अर्थसहित. १७४ ॥ अथ चउकसाय ॥ चउकसाय पमिमल्नुबूरणु, उजय मयण बाण मुसुमूरणू .. सरसपिअंगु वन्नु गयगामिन,जयन पासुनुवणत्तय सामिज॥२॥ अर्थः-(नुवणत्तयसामिन के ) त्रण जुवनना स्वामी, (पासु के०) श्रीपार्श्वनाथ जे. ते (जयन के०) जयवंता वत्तॊ. ते श्रीपार्श्वनाथ केहवा ने ? तो के, (चउकसाय के) क्रोधादिक चार कषायरूप जे (पमिमल्ल के०) प्रतिमन एटले वैरी, तेना (उतरणु के०)नबेदनार ,एटले टालनार बे, वली केहवा ? तो के (उऊय के०) उर्जय एटले फुःखें जीत्यो जाय एवो (मयण के) मदन एटले कंदर्प ते संबंधी जे ( बाण के०) बाण, एटले तीदण बाण, तेना (मुसुमूरण के०) नाजनार बे, एटले उन्मूलन करनार जे. वली केहवा जे? तो के (सरस के०) रसें करीने सहित एटले स्निग्ध, नीलो एवो (पिअंगु के०) प्रियंगु ते रायणनो वृदा, ते समान (वन्नु के०) शरीरनो वर्ण जे जेनो, वली केहेवा जे? तो के (गयगामिड के०) गजनी पेरें गमनना करनार बे, अर्थात् हस्तीनी जेवी गति ॥१॥ जसु तणु कंति कमप्प सिणिन, सोहर फणम णि किरणा लिन ॥ नं नवजलहर तडिल्लय संग्नि, सो जिणु पासु पयन वंनि ॥२॥इति ॥४५॥ अर्थः-( सो के० ) ते ( जिणुपासु के० ) श्रीपार्श्वजिन ते, (वंडिज के) महारां वांबित प्रत्ये (पयन के ) आपो. हवे ते श्रीपार्श्वजिन केहवा ? तो के (जसु के) जेना ( तणु के० ) शरीरनी ( कंति के०) कांति एटले युति तेनो ( कमप्प के) कलाप एटले समूह ते ( सोहर के० ) शोने जे. ते कांतिसमूह केहवो ? तो के ( सिणिझन के) स्निग्ध , एटले चीकाश सहित बे, वली ते कांतिसमूह केहवो ? त्तो के (फणि के० ) नागेंनि फण ते संबंधि जे ( मणि के०) मणिरत्न तेना (किरण के०) किरणोयें करी (आलिफज के ) व्याप्त बे, एटले सहित बे, वली ते कांतिसमूह केवी रीतें अने केवो शोने ? तो के ( तडित् के०) विजली, तेनी ( लय के०) लतायें करी ( लंठिन के० ) लांछित २३ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ प्रतिक्रमण सूत्र. एटले सहित एवो जे ( नवजलहर के०) नवो मेघ ते (नं के०) जेम शोने , तेम ते कांतिसमूह शोने दे ॥२॥ इति चउकशाय ॥ ४५ ॥ ॥ अथ पोसहनु पच्चकाण ॥ करेमि नंते पोसहं, आहारपोसहं, देसउँ सबढ॥सरीर सकारपोसहं सब ॥बनचेर पोसहं सब ॥ अवावार पोसहं सब ॥ चनविदे पोसहं गमि ॥ जाव दिवसं, अ होरत्तं, पावासामि ॥ उविदंतिविदेणं मणेणं वायाए का एणं न करेमि न कारवेमि तस्स नंते पमिकमामि निंदा मि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥१॥ इति ॥४६॥ अर्थः-(जंते के०) हे जगवन् ! हे कल्याणकारक ! अगीयारमा पौषधव्रत ने अथवा जे धर्मनी पोष नाम पुष्टिप्रत्ये धरे, तेने पोषध कहिये, ते (पोस हं के०) पोषध प्रत्ये ( करेमि के०) हुं करुं बुं. एटले अष्टमी. चतुर्दशी प्रमु ख दिवसोने विषे जे पोषधनो नियम करवो, ते चार प्रकारें , तेहीज वली विशेषपणे कहियें बैयें. प्रथम (आहारपोसहं के०) अशनादिक श्रा हार निषेध पोषध पहेलो नेद, ते वली बे प्रकारें. एक तो (देस के०) देशथकी निषेध, ते त्रिविध आहारत्यागरूप ति विहार तथा विगयत्या ग, आयंबिल, एकासण पच्चरकाणथी करवो ते देशथकी आहार त्याग पोसह कहियें अने बीजो (सवर्ड के०) सर्वथकी चारे आहारनो त्याग करवो, ते सर्वथकी आहारत्याग पोसह कहियें. ए प्रथम आहार त्याग पोसहना बे नेद कह्या. हवे बीजो (सरीरसकारपोसहं के०) शरीरसंबं धि स्नान, उवटण, विलेपनादिक तथा वस्त्रानरणा दिकें शोलानो नियम तथा नख, केश, रोमनुं समारवं. तेल चोपमवं, पीठी, करवं, इत्यादिक शरीर सत्कारनिषेध नामें ए बीजो पोसह बे, ते ( सवर्ड के०) सर्वथकी जाणवो. त्रीजो (बंजचेरपोसहं के०) ब्रह्मचर्यपोषध ते ( सवर्ड के ) सर्व थकी जाणवो. एटले सर्वथकी ब्रह्मचर्यनी पुष्टि करे, सर्व प्रकारे स्त्रीसेवन न करे. चोथु(अवावारपोसहं के) अव्यापारनी पुष्टिरूप ते (सवर्ड के) सर्व श्री जाणवो. एटले कृषी, सेवा, वाणिज्य, पशुपालन, गृहकर्म प्रमुखना जे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोसहनु पञ्चकाण अर्थसहित. २७ए व्यापार, तेनो सर्वथा निषेध करे, (चविहेपोसहं के०) ए चार प्रकारना पोषधने विषे (गमि के) हुं तिष्टुं, रहुं, अंगीकार करुं बुं, (जाव के०) ज्यां सुघी (अहोरत्तं के०) दिवस अने रात्रि मती आठ पहोरें पोषधप्रत्ये अ थवा (जावदिवसं के० ) ज्यां सुधि दिवस प्रत्ये क्रमण के त्यां सुधि चार पहोर पोषधवत प्रत्ये, अथवा (जावरत्तं के०) ज्यांसुधि रात्रिप्रत्ये क्रमण ने त्यांसुधी चार पहोर पोषधवत प्रत्ये (पखुवासामि के०) हुं पर्युपासु, से, त्यां सुधि अने थोमोक दिवस होय तेवारें रात्रिपोसह जो लीये तो “जा वदिवसं रत्तं पञ्जावासामि” एवो पाठ कहे, ज्यां सुधि थोमो दिवस होय, त्यांथी लेश्ने आखी रात्रि सुधी पोसह निरतिचार पा, (छविहंतिवि हेणं के०) सुविध, त्रिविधं करी इत्यादिनो अर्थ सुगम ने ॥॥इति ॥६॥ ॥ अथ पोसह पारवानी गाथा ॥ सागरचंदो कामो, चंदवमिंसो सुदंसणो धन्नो ॥ जेसिं पोसद पमिमा, अखंमिश्रा जीवियंतेवि ॥१॥ अर्थः-(जीवियतेवि के०) जीवितनो अंत थाते थके पण एटले श्रा युनो विनाश थाते थके पण, (जेसिं के०) जेहनी (पोसहपमिमा के) पोषधप्रतिमा, ( अखं मिआ के०) अखंमित रही, संपूर्ण रही, ते श्रावक (धन्नो के०) धन्य बे, ते श्रावकोनां नाम कहे . (सागरचंदो के०) एक सागरचंड कुमार, बीजो (कामो के०) कामजी, त्रीजो (चंदवमिंसो के०) चंझावतंस राजा चोथो (सुदंसणो के०) सुदर्सन शेठ ॥१॥ धन्ना सलादणिया, सुलसा आणंद कामदेवाय ॥ जेसिं पसंसद नयवं, दढवयं तं महाविरो ॥२॥ पोसह विधिं लीधनं, विधिं पारिलं, विधि करतां जे कांइ अविधि हुई दुइ,ते सवि हुँ मन, वचन, कायायें करी मिना मि उक्कम ॥ इति ॥ ४ ॥ अर्थः-एक (सुलसा के०) सुलसाश्राविका, बीजा (आणंद के०) श्रा नंद श्रावक (य के०) वली त्रीजा (कामदेवा के०) कामदेव श्रावक, ए त्रणे (धन्ना के०) धन्य डे (सलाहणिजा के०) श्लाघनीय एटले श्लाघा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० प्रतिक्रमण सूत्र करवा योग्य . ( तं के ) ते प्रत्यद पणे ( जेसिं के) जेहना ( दढवयं के०) दृढव्रत प्रत्ये (नयवं के०) जगवान् ( महावीरो के०) श्रीमहा वीर खामी, पोतें श्रीमुखें (पसंस के०) प्रशंसे बे, वखाण करे , माटें ते धन्य कृतपुण्य जाणवा ॥२॥ पोषध व्रत विधियें लीधुं होय, विधियें पायुं होय, विधि करतां जे कां अविधि हुई होय, ते सर्व, मन, वचन अने कायायें करी मिलामि डुक्कम इति ॥ ४ ॥ ॥अथ नरहेसरनी सजाय प्रारंजः ॥ जरहेसर बाहुबली, अन्नय कुमारो अ ढंढणकुमारो ॥ सिरि अणियानत्तो, अश्मुत्तो नागदत्तो अ ॥१॥ अर्थः-एक (जरहेसर के) श्रीनरतेश्वर, प्रथम चक्रवर्ती श्रीषनदेव ना पुत्र, वीजा (बाहुबली के०) बाहुबली ते पण श्रीषनदेवना पुत्र, नरतेश्वर करतां पण अधिक बलवंत जाणवा, त्रीजा ( अनयकुमारो के) अन्नयकुमार, श्रेणिकराजाना पुत्र, (च के०) वली चोथा (ढंढणकुमारो के०) ढंढणकुमार, ते श्रीकृष्णजीना पुत्र. पांचमा ( सिरिज के ) श्रीक, ते श्रीश्रू विनउजीना न्हाना नाई, उहा (अणियाउत्तो के) अनिकापुत्र आचार्य, जे गंगा नदी उतरतां केवलज्ञान पाम्या, सातमा (अश्मुत्तो के) अति मुक्त कुमार, जेणे उ वर्षनी अवस्थामा श्रीवीरपासेंथी दीदा लीधी, (चके ) वली आठमा ( नागदत्तो के) नागदत्त, श्रेष्ठी पुत्र, अदता दानना त्यागी जाणवा ॥१॥ मेअज थूलिनद्दो, वयररिसी नंदिसेण सीहगिरी॥ कयवन्नो अ सुकोसल, घुमरि केसि करकंमु॥॥ अर्थः-नवमा (मेअऊ केए) मेतार्यमुनि, जेने माथे सुवर्णकारें आलां चांबमां वीट्यां, दशमा ( शूलिनद्दो के) श्रीथूलिजमुनि, जेणे कोश्यावेश्याने घरे चोमासुं कीg, अने अखंग शील राख्युं, तथा वेश्याने श्रा विका कीधी, अगीयारमा (वयररिसी के ) वज्रशषि एटले वज्रस्वामी, बारमा (नंदिसेण के०) नंदिषेणजी, जेणें वेश्याने घरे रहीने बार वर्षपर्यंत प्रतिदिवस दश दश जण प्रतिबोध्या, तेरमा (सीहगिरी के०) श्रीसिंह गि रिजी महाराज, ते श्रीवज्रवामीना गुरु, चउदमा (कयवन्नो के०) कृतवर्ण For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरदेसरनी सद्याय अर्थसहित. ११ कुंमार, श्रेष्ठिपुत्र, (च के०) वली पंदरमा(सुकोसल के०) सुकोशलमुनि, जे मनुं शरीर, वाघणीयें नदण कीg, शोलमा (पुमरि के०) श्रीपुमरिकजी श्रीप्रथम तीर्थंकरना प्रथम गणधर, वली जे चैत्री पूनमने दिवसें पांचको मी मुनि संघातें सिझगिरिनी उपर सिकनगरीमां पहोता, सत्तरमा (केसि के०) केशीकुमार, ते परदेशी राजाना गुरु, अढारमा (करकंम् के०)करकं, प्रत्येकबुद्ध मुनि, जे जर्जरीनूत वृषन्न प्रत्ये जोश्ने साधु थया ॥२॥ हल्ल विहल्ल सुदंसण, साल माहासाल सालिनद्दो अ॥जद्दो दसन्ननदो, पसन्नचंदो अ जसनदो॥३॥ अर्थः-उगणीशमा ( हल के ) हदयकुमार, वीशमा ( विहल के ) विहदयकुमार, ए बेहु पण श्रेणिकराजाना पुत्र जाणवा. एकवीशमा (सुदंस ण के०) सुदर्शन शेठ, जेना शीलने प्रनावें शूलिमांथी सिंहासन थयुं, बावी शमा (साल के०) साल मुनी, त्रेवीशमा (माहासाल के०) माहासाल मुनि, ए बे श्रीगौतमखामीजीयें प्रतिबोध्या, चोवीशमा (सालिनदोष के) शालिन प्रसिकजोगी, श्रेष्टिपुत्र, पञ्चीशमा (जद्दो के) जवाहु स्वामी चतुर्दश पूर्वना जाण, बबीशमा (दसन्ननदो के०) दशार्णन, ते रिकिगार वें, जे श्रीवीरने वांदवा आव्या, त्यां संयम लीधो, सत्तावीशमा (पसन्नचंदो अ के०) प्रसन्नचं राजर्षि, जेणें रौऽध्यानथी सातमी नरकनां दलीयां मेलव्यां, तेने शुक्नध्यानथी विखेरीने केवलज्ञान प्रगट कीधुं, अहावीशमा (जसनदो के०) श्रीयशोजप्रसूरि, ते श्रीजप्रवाहुखामीना गुरु जाणवा ॥३॥ जंबुपतु वंकचूलो, गयसुकुमालो अवंतिसुकुमालो॥ धन्नो इलाइपुत्तो, चिलाइपुत्तो अबाहुमुणी ॥४॥ अर्थः-उगणत्रीशमा (जंबुपहु के० ) जंबुप्रनुस्खामी. जे अष्टवधू अने नवाणुं क्रोम अव्य, त्यागीने चरम केवली थया, त्रीशमा (वंकचूलो के०) वंक चूलराजकुमार,जे कर्मना वशथकी चोरना स्वामी श्रया, पठी साधुयें दीधेलां व्रत पालीने देवलोकें गया. एकत्रीशमा (गयसुकुमालो के) गजसुकुमार, श्रीकृष्णजीना न्हाना जाई, सोमलनो करेलो अग्निनो उपसर्ग सहन करी ने जे दीदाने दिवसेंज मोदे गया, बत्रीशमा (अवंतिसुकुमालो के ) अवंतिसुकुमार, जेनुं शीयालिणीयें शरीर जदण कीडूं, तोपण चारित्र धर्म Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ प्रतिक्रमण सूत्र. श्री न चव्या, जे नलिनी गुल्मविमाने पहोता, तेत्रीशमा (धन्नो के०) धन्नो, ते शालिनानो बनेवी, चोत्रीशमा (श्लाश्पुत्तो के०) एलाचीपुत्र, जे नाट क करतां थकां केवलझान पाम्या, पांत्रीशमा (चिलाश्पुत्तो के०) चिलाति पुत्र, जेनुं शरीर, कीमीयोयें चालणीप्राय कीg, तो पण उपशम, विवेक अने संवरना अर्थविचारथकी न चूक्या, जे अतिशय ज्ञान पामी स्वर्गगा मी थया, (च के०) वली बत्रीशमा (बाहुमुणी के०) युगबाहु मुनि ॥ ४ ॥ अङगिरि अजरस्किअ, अजसुहबी उदायगो मण गो॥ कालयसूरि संबो, पअन्नो मूलदेवो अ॥५॥ अर्थः-सामनीशमा (अङगिरि के.) आर्यमाहागिरिजी, श्रीथूविना स्वामीना शिष्य, आमत्रीशमा (अररिक के०) आर्यरदित महाराजा, उंगणचालीशमा (अङसुहबी के०) आर्यसुहस्ती सूरि, थूलिनजी जेना गुरु हता, चालिशमा (उदायगो के०) उदायिराजा, ते श्रीनगवतीसूत्रं प्रसि क. एकतालीशमा ( मणगो के) मनकपुत्र, जेने अर्थे श्रीदशवैका लिक सूत्र नीपन्युं, बहेंतालीशमा (कालयसूरिके०) श्रीकालिकाचार्यश्रीप नवणासूत्रना कर्ता, निगोदखरूपना वक्ता, तालीशमा (संबो के०) सांब कुमार, अंबवतीना पुत्र, चुम्मालीशमा (पद्युन्नो के०) प्रद्युम्न कुमार,रुक्मि णीना पुत्र, पीस्तालीशमा ( मूलदेवो के) मूलदेवराजा, जेणें तपस्वी साधुने निर्दोष अमददीधा ॥ ५ ॥ पनवो विन्दुकुमारो, अद्दकुमारो दढप्पहारी अ॥ सिजंस कूरगञ, सिङनव मेदकुमारोअ॥६॥ अर्थः- तालीशमा ( पत्नवो के ) प्रनवस्वामीजी, जेने श्रीजंबुखा मीयें प्रतिबोध्या, सुमतालीशमा ( विन्दुकुमारो के० ) विष्णुकुमार, जेणे श्रीसंघने कारणे लाख योजन- रूप विकूव्र्यु, अमतालीशमा (अद्दकुमारो के ) आईकुमार, जे पूर्वनवें संयम विराधवाथकी अनार्यदेशमां उपन्या, अने अजयकुमार मोकलेली जिनप्रतिमा देखीने जेने पूर्वजव सांजस्यो, साधु थया, जंगणपञ्चाशमा (दढप्पहारी के ) दृढप्रहारी चोर, चार हत्याना . करनार; मुनि थश्ने मोदें गया, ( चके० ) वली पञ्चाशमा (सिऊंस के०) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरदेसरनी सद्याय अर्थसहित. १७३ श्रेयांसकुमार, जेणे श्रीषनदेवप्रत्ये इकुरसतुं दान दीधुं, एकावनमा (कूरगमुत्र के०) कूरगमु साधु, जेणें गुरुनु कुत जेथूक ते सहित खीच मी खातां केवलज्ञान उपायुं, बावनमा ( सिङनव के) सिचंनव श्रा चार्य. जेणें पूर्वथकी श्रीदशवैकालिक सूत्र उमङ्गु, त्रेपनमा ( मेहकुमा रोथ के ) मेघकुमार श्रेणिकराजाना पुत्र, जेनें श्रीवीरप्रजुजीयें हाथीनो पूर्वलो नव संजलावीने संयममां स्थिर कीधो ॥६॥ एमाइ महासत्ता, दिंतु सुदं गुणगणेहिं संजुत्ता ॥ जेसिं नामग्गहणे, पावपबंधा विलय जंति ॥ ७॥ अर्थः-(एमाई के) इत्यादिक बीजा पण खंधकुमार, खंदकमुनि, क पिलमुनि, हिरकेशी मुनि, संयतमुनि, दमदंतमुनीश्वर, दमसारमुनीश्वर प्र मुख (महासत्ता के०) महासत्वना धरनारा एटले महोटा पराक्रमी केट लाएक ते नवेंज मोड़ गया, केटलाएक आगल मोदें जाशे, तेसर्वे मुऊ जणी ( सुहं के) शिवसुखप्रत्ये (दितु के ) द्यो, आपो, ते महास त्वा केहवा ? तो के (गुणगणेहिं के) ज्ञानादिक गुणोना गणें करी एट ले समूहें करिने ( संजुत्ता के ) संयुक्त , वली केहवा ने ? तो के ( जे सिं के) जेना ( नामग्गहणे के० ) नामग्रहण करवाथकी (पावप बंधा के) पापना प्रबंध एटले समूह जे जे, ते ( विलय के०) विनाश प्रत्ये ( जंति के० ) पामे ने एवा डे ॥ ७॥ - सुलसा चंदनबाला, मणोरमा मयणरेहा दमयंती॥ नमयासुंदरी सीया, नंदा नद्दा सुजद्दा य ॥ ७ ॥ अर्थः-एक ( सुलसा के० ) सुलसा श्री वीरस्वामीनी मुख्य श्राविका, बीजी ( चंदनबाला के०) चंदनबालिका श्रीवीरस्वामीनी प्रथम साधवी, त्रीजी (मणोरमा के० ) मनोरमा सुदर्शनशेउनी नार्या, चोथी ( मयण रेहा के०) मदनरेखा, नमिराजर्षिनी माता, पांचमी ( दमयंती के०) द मयंती नलराजानी राणी, जेनुं मस्तक दीवानी पेरें प्रकाशकारी थातुं हतुं, बही (नमयासुंदरी के०) नर्मदासुंदरी, सातमी (सीया के०) सीता सती, आठमी (नंदा के) नंदा ते अजयकुमारनी माता, तथा नवमी वज्रखा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ प्रतिक्रमण सूत्र. मीनी माता पण नंदा जाणवी, दशमी ( नद्दा के० ) ना शेगणी, शा लिननी माता, (च के०) वली अगीयारमी एवंतिसकुमारनी माता पण जना जाणवी. बारमी (सुनद्दा के०) सुनना जेणे काचे तांतणे चारणी बांधी, कूवामांथी जल काढी चंपानगरीनी पोल उघामी, तथा तेरमी श्री कृष्णजीनी उरमान नगिनी, तेनुं नाम पण सुनमाज जाणवू ॥ ७ ॥ रायमई रिसिदत्ता, पनमावइ अजंणा सिरि देवी ॥ जिह सुजित मिगावई, पनावई चिल्लणा देवी ॥ ए॥ अर्थः-चौदमी ( रायमई के०) राजिमती जेणें गिरिगुफामांहे संयम थकी पमता एवा रथनेमि प्रत्यें सुनाषित वचनें स्थिर कीघो. पंदरमी (रि सिदत्ता के) झषिदत्ता सती, शोलमी ( पजमावश् के० ) पद्मावती करकं मुजीनी माता, सत्तरमी (अंजणा के)अंजना सुंदरी, हनुमंतवीरनी माता, अढारमी (सिरीदेवी के) श्रीदेवी, अतिमुक्तकुमारनी माता, जंगणीशमी (जिह के०) ज्येष्ठा, वीशमी (सुजिह के) सुज्येष्ठा, एकवीशमी ( मिगा वई के०) मृगावती, बावीशमी (पन्नावश् के०) प्रजावती त्रेवीशमी (चिब णादेवी के ) चेलणा राणी, ए पांचे चेला राजानी पुत्रीयो जाणवी ॥५॥ बंनी सुंदरी रुप्पिणि, रेवइ कुंती सिवा जयंती य॥ देव दोवर धारणी, कलावई पुप्फचूला य ॥१॥ अर्थः-चोवीशमी (बंजी के ) ब्राह्मी, नरतनी नगिनी, पच्चीशमी ( सुंदरी, के) सुंदरी, ते बाहुबलनी नगीनी, बबीशमी ( रुप्पिणि के०) रुक्मिणी, जेणें वज्रस्वामीनी पासे कुमारिकापणामां दीदा लीधी, सत्तावी शमी (रेवर के) रेवती श्राविका, जेणे जगवानने कोलापाक वहोराव्यो, अहावीशमी (कुंती केण) कुंती, पांमवोनी माता, गणत्रीशमी ( सिवाके ) शिवा, ते चेमाराजानी पुत्री, त्रीशमी (जयंती य के० ) जयंती श्रीवीरस्वामीनी श्राविका. “नंते किं सवे नवा सिङति?” इत्यादिक प्रश्ननी करवावाली, एकत्रीशमी (देवर के०) देवकी, श्रीकृष्णजीनी माता, बत्रीशमी ( दोवर के० ) प्रौपदी, पांझवनार्या, तेत्रीशमी (धारण। के०) धारणी, ते चंदनबालानी माता, चोत्रीशमी मेघकुमारनी माता पण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरदेसरनी सद्याय अर्थसहित. १७५ धारणी नामें जाणवी. पांत्रीशमी जंबुकुमारनी माता पण धारणी जाणवी. बत्रीशमी ( कलावई के० ) कलावती, शीलने प्रनावें जेना कापेला हाथ वली नवपसव थया, (च के०) वली सामंत्रीशमी ( पुप्फचूला के०) पुष्पचूलानामा साधवी, अनिकापुत्र आचार्यनी नक्तिना उदासथी जेणे केवल ज्ञान पाम्युं, जे वर्षाद वरसते आहार लावी ॥ १० ॥ पनमावई य गोरी, गंधारी लरकमणा सुसीमा य ॥ जंबुवइ सच्चन्नामा, रुप्पिणि कन्दछ महिसी ॥ ११ ॥ अर्थः-श्रामत्रीशमी (पउमावश् के.) पद्मावती, उंगणचालीशमी (गोरी के ) गौरी, चालीशमी ( गंधारी के०) गांधारी, एकतालीशमी ( लकमणा के ) लक्ष्मणा, बहेंतालीशमी (सुसीमा के०) सुसीमा, (च के०) वली तालीशमी (जंबुवर के०) जांबुवती, चुम्मालीशमी (सच्चनामा के ) सत्यनामा, पीस्तालीशमी (रुपिणि के) रुक्मिणी ए (कन्हत केण) श्रीकृष्णनी आउ, ( महिसी के०) अग्रमहिषीयो बे, एटले पटराणीयो बे, अहिंचकार पादपूर्णार्थ डे ॥ ११ ॥ जरका य जकदिन्ना,नूआ तद चेव नूदिन्ना य ॥ सेणा वेणा, रेणा, जयणी थूलिनदस्स ॥१२॥ अर्थःवेंतालीशमी (जका के०) यदा, (च के०) वली सुमताली शमी (जरकदिन्ना के०) यद दिन्ना, अमतालीशमी (नूया के) नूता (तह के ) तथा (चेव के) वली निश्चे, गणपच्चासमी (नूदिन्ना के०) नूत दिन्ना, (च के०) वली पच्चासमी (सेणा के०) सेना,एकावन्नमी (वेणा के०) वेणा, बावन्नमी (रेणा के०) रेणा, ए सात (नयणी के ) नगिनीयो, (थूलिनदस्स के०) श्रीस्थूलिनजीनी जाणवी ॥ १५ ॥ श्चाइ महासख, जयंति अकलंकसीलकलिआ ॥ अझवि वजाइ जासिं, जस पमहो तिहुअणे सयले ॥ १३ ॥ ४ ॥ __ अर्थः-(श्च्चार के०) इत्यादिक बीजी पण कमलावती, लीलावती, मानवती, मृगांकलेखा, चंडलेखा, मयणासुंदरी, कौशल्या प्रमुख ( महा सा के०) जे महोटी सतीयो ते सर्वे. ( जयंति के०) जयवंती , For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ प्रतिक्रमण सूत्र. एटले सर्व स्त्रीयोमा प्रधान थाती हवी. केहवी थाती हवी ? तो के (अकलंकसीलकलिया के) निर्मल शील गुणे करीने सहित होती हवी, वली ( जासिं के०) जेनो (जसपमहो के०) जशनो ढोल, (तिहु अणेसयले के०) सकल त्रिजुवननेविषे ( अद्यवि के०) आज पण (वजा के० ) वाजे ने ॥ १३ ॥ इति सता सतीयोनी सद्याय सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ ॥अथ मन्ह जिणाणं सद्याय ॥ मन्द जिणाणं आणं, मित्रं परिदरद धर सम्मत्तं ॥ विद आवसयंमी, उज्जुत्तो होइ पइदिवसं ॥१॥ अर्थः-( जिणाणं के ) श्रीजिनेश्वरनी (श्राणं के ) आज्ञा तेन ( मन्ह के०) मानवी, तथा ( मीठं के०) मिथ्यात्वनो (परिहर के०) परिहार करवो, एटले त्याग करवो, अने (सम्मत्तं के०) समक्त्वने (धर के०) धरवो एटले धारण करवो. (बविह के०) षड्विध एटले सामायि कादिक ब प्रकारना (आवसयंमि के) आवश्यकने विषे ( पश्दिवशं के) प्रतिदिवस ( उद्युत्तो के) उद्युक्तो एटले उद्यमवंत ( होश के०) होय एटले हो ॥ १॥ पवेसु पोसहवयं, दाणं सीलं तवो अनावो अ॥ सद्यायनमुक्कारो, परोवयारो अ जयणा अ॥२॥ __ अर्थः-चतुर्दशी आदिक (पवेसु के० ) पर्वोना दिवसोने विषे (पोस हवयं के०) पौषधव्रत करवू, अने ( दाणं के) सुपात्रने दान देवू, (सीलं के०) शील पालवू, ( तवो के) तप करवू, (अ के) वली (जावो के०) अनित्यादि जावना नाववी ( अके० ) वली सद्याय के०) वाचना पृछनादि पांच प्रकारनो स्वाध्याय करवो, ( नमुक्कारो के०) नम स्कारनो पाठ करवो. (परोवयारो के०) परोपकार करवो, (अ के०) व ली (जयणाय के) जयणा राखवी एटले यत्नायें प्रवर्त्तवें ॥२॥ जिणपूआ जिणथुणिणं, गुरुथुअ सादम्मिआण वबल्लं ॥ ववदारस्स य सुझी, रदजुत्ता तिबजुत्ता य ॥ ३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्दजिणाणं सवाय अर्थसहित. १८७ अर्थ :- ( जि० ) श्री जिनेश्वर भगवाननी पूजा जक्ति करवी, ( जिणं ० ) श्री जिनेश्वरनी स्तुति करवी, ( गुरु के० ) गु रुनी स्तुति करवी ने ( साह म्मियाण वल्लं के० ) साधर्मियोनी वात्स लता करवी, ए (ववहारस्सय सुद्धि के० ) व्यवहारनी शुद्धि ते (रहजुत्ता ho) रथयात्रा ने ( तिछजुत्ता य के० ) तीर्थयात्रा सहित करवी ॥ ३ ॥ वसम विवेक संवर, नासा समिई बजीवकरुणा य ॥ धम्मि जण संसग्गो, करणदमो चरिण परिणामो ॥४॥ अर्थः- (उवसम के०) उपशम एटले दमा धारण करवी, तथा (विवे sho) विवेक ने ( संवर के० ) संवर जाव राखवो ( जासा समिई के० ) षा समिति (जीव करुणाय के० ) पृथिव्यादिक व प्रकारनो जे जी व निकाय तेमना उपर करुणा, एटले दया राखवी, रक्षा करवी तथा ( धम्मिश्र जण संसग्गो के०) धार्मिक जनोनी साधें संसर्ग करवो, तथा (करण के०) रसनादिक पांच इंडियो तेने ( दमो के० ) दम दमन क र ने (चरिए परिणामो के० ) चारित्रना परिणाम राखवा ॥ ४ ॥ संघोवरि बहुमाणो, पुढय लिहणं पावणाति ॥ सट्टा चि मे, निचं सुगुरू वरसेणं ॥ ५ ॥ इति श्रावक दिनकृत्य सद्याय ॥ ४५ ॥ र्थः - ( संघोरि के० ) चतुर्विध श्रीसंघनी उपर ( बहुमाणो के० ) ब हुमान राखनुं, एटले श्रीसंघनुं बहुमान कर, तथा ( पुछय लिहणं के० ) पुस्तक लखावतुं ने (पावणातिछे के० ) तीर्थमां प्रजावना कर वी. ( सट्टा के० ) श्रावक जनोना ( निच्चं के० ) नित्य करवा योग्य ( किच्च के० ) कृत्य ते ( मेयं के ) एयं एटले ए बे ते ( सुगुरुवए सें के० ) सुगुरुना उपदेशें करी जाणी लेवा ॥ ५ ॥ इति ॥ ४९ ॥ ॥ अथ संथारापोरिस लिख्यते ॥ निसिदी, निसिदी, निसिदी, नमो खमासमणाणं गोय माईणं महामुणणं ॥ आटलो पाठ तथा नवकार त था करेमि ते सामाइयं ए सर्व पाठ त्रण वार कही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. ने पनी ॥ अणुजाणद जिहिला, हिजा ॥ अणुजा पद परम गुरु ॥गुरु गुण रयणेहिं मंमिश्र सरीरा ॥ बहुपम्पुिन्ना पोरिसि, राश्श संथारए गमि ॥ १॥ अर्थः-हवे अर्थ विनाषायें करी संथारानो विधि लखीये बैयें. अहींयां साधु तथा श्रावक, पमिकमणां करीने पड़ी स्वाध्याय करे, एटले नणवं, गणवू करे, पठी पोरिसी थये बते आचार्य समीपें आवे, तिहां खमासमण दश्ने कहे. श्वाकारेण संदिसह जगवन् “बहु पमिपुला पोरिसि,राश्य सं थारए गमि” एनो अर्थ लखियें बैयें. (नगवन के ) हे नगवन् ! संपू र्ण ऐश्वर्यादिक गुणे युक्त! तमें(श्चाकारेण के०) पोतानी श्छायें करी. मुऊ ने ( संदिसह के०) आदेश आपो. (बहुपमिपुलापोरिसि के०) घणी प्रतिपूर्ण एवी पोरिसि थ माटे (राश्य के) रात्रि संबंधी (संथारए के)संथारा प्रत्ये (गमि के०) ढुं करूं ? गुरु आदेश थापे, पठी इरियावहियं पू र्वक चैत्यवंदन करे, पठी शरीरचिंता लघुशंकादिक कार्य सर्व करे, पढी यत्ना यें करी संथारो करे. पड़ी माबो पग, संथारानी साथें राखीने मुखवस्त्रिका नुं प्रतिलेखन करे एटले मुहपत्ती पमिलेहे, पडी त्रण वार निसिही जणे, (निसिही के०) पाप व्यापारनो निषेध करीने, (महामुणीणं के०) महोटा मुनीश्वर एवा (गोयमाईणं के०) श्रीगौतमादिक. ( खमामसणाणं के०) दमाश्रमण जे जे, ते प्रत्ये (णमो के०) नमस्कार करे, पडी (जिहिला के ) हे ज्येष्ठार्याः ! एटले हे वृसाधुरी ? तमें मुजने (अणुजाणह के०) आशा आपो, ए प्रकारे कहेतो थको, संथारानी उपर रह्यो थको, नम स्कारपूर्वक सामायिक पाठ त्रण वार जणे, पड़ी आवी रीतें कहे, ते कहे ने. (गुरुगुणरयणेहिं के प्रतिरूपादिक आचार्यना गुरुगुण एटले महोटा जे गुण, ते रूप रत्नोयें करी ( मंमिअसरीरा के० ) मंमित , शोनित ने शरीर जेनां एवा (परमगुरु के०) उत्कृष्ट गुरुङ तेमने संबोधन दर, बोला वीयें, के हे परमगुरु ! तमे मुझने (अणुजाणह के०) आदेश आपो. प्रति पूर्ण एटले घणी एवी पोरिसि थर, माटें रात्रिसंथारकनी उपर हुं तिष्टुं ? एटले विश्राम करूं? निजा मुकाउं! अहींयां सुधी गद्यपाठ तथा एक गाथा मां संथारानी आझानुं स्वरूप कर्वा ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथारापोरिसि अर्थसदित. एनए हवे वली भागल बे गाथायें करी संथारानी आज्ञा प्रमुखनुं स्वरूप कहियें बैयें. अणुजाणद संथारं, बाहुवदाणेण वामपासेणं ॥ कुकुडिपाय पसारण, अंतरंत पमझाए लूमिं ॥२॥ संकोश्अ संडासा, नवते य कायपदिलेहा ॥ दवाई उवांगं, ऊसास निरंजणा लोए ॥३॥ अर्थः-(संथारं के)संथारानी, हे जगवन्! तमें मुझने (अणुजाणहके०) आज्ञा आपो, पड़ी गुरु आज्ञा आपे, तेवारें (बाहुवहाणेण के०) बाहु अने हाथने उपधानें करी एटले उशीके करी (वामपासेण के०) माबे पासें सूवे, ते पण शी रीरें सूवे? तो के (कुकुमि के) कुकमीनी पेरें आकाशने विषे ( पायपसारण के ) पग पसारीने सूवे, जो ए रीतें (अंतरंत के)असमर्थ थकां नहीं रहि शकाय, तो शुं करे? ते कहियें बैयें जूमि के०) नूमि प्रत्ये (पमधए के) प्रमार्जी,पंजीने तिहां पग स्थापे ॥२॥ ज्यारे पग संकोचवो होय, त्यारें ( संमासा के ) साथल संधी प्रत्यें पूंजीने ( संकोश्य के०) संकोचे, अने ज्यारें पासुं फेरवदुं होय, त्यारें ( काय के) शरीरत्ये (पमिलेहा के०) प्रतिलेखीने एटले शरीरने प्रमार्जी पूंजीने, (उबट्टते के) उहतें, एटले पासुं फेरवे. ए सूवानो प्रकार कह्यो. हवे (च के०) वली जागवानो प्रकार कहियें बैयें, ज्यारें लघुशंका दिकने अर्थे उठे,तेवारें (दवावगं के) व्यादिकना उपयोग करे एटले ते विचार करे, जे अव्यथकी हुं कोण बुं ? साधु बुं के गृहस्थ ढुं? अने क्षेत्र थकी एम विचारे के हुँ उपर बुं, के नीचे बुं? के कोश् अन्य स्थानकें बुं? कालयकी शुं विचारे ? तो के हमणां रात्रि , के दिवस ? जो रात्रि बे, तो केटली रात्रि बाकी हशे ? इत्यादि कालथी विचार करे, उपयोग आपे अने नावथी तो आम विचारे के महारे लघुशंकादिकनी बाधा बे, किंवा नथी ? एवा चार प्रकारे उपयोग देतां, विचार करतां जो नीजान जाय, तो ( ऊसासनिरंजण के० ) उबास, निःश्वास प्रत्ये रुंधीने एटले नासिका दबावीने निजा दूर करे ते निसा दूर थाय पनी (बालोए के०) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० प्रतिक्रमण सूत्र. लोक प्रत्यें जूए एटले बाहेर निकलवानां द्वार प्रत्यें देखे, त्यां ज‍ लघुशंका दिक करीने पढी धर्मध्यानमां प्रवर्त्ते ॥ ३ ॥ जइ मे हुआ पमार्ज, इमस्स देदस्सिमाइ रयणी ॥ आहारमुवहिदेहं सवं तिविदेण वोसिरियं ॥ ४ ॥ अर्थः- दवे सुइ रहेवाथी प्रथम शुं करवुं ? ते कहियें ढैयें. (इमाइरइ fe ho) एह रात्रिने विषे ( जइ के० ) जो ( मे के० ) महारे ( इमस्सदे इस्स के० ) या देहसंबंधी ( पमा के० ) प्रमाद एटले मनुं, (दु के० ) थाय तो ( आहारं के० ) अशनादिक चार प्रकारना आहार प्रत्ये ( बहि के० ) उपधि जे वस्त्र, पात्रादिक तेप्रत्यें, तथा (देहूं के०) शरीर प्रत्यें अथवा ( वहिदेहं के० ) शरीर संबंधि उपधि प्रत्यें, ( सवं के० ) बीजा पण सर्वप्रत्यें (तीविण के० ) त्रिविधें करी एटले मन, वचन अने कायायें करी ( वो सिरियां के० ) हुं वो सिरानुं हुं, त्यांगुं हुं ॥ ४ ॥ चत्तारि मंगलं, अरिदंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपसत्तो धम्मो मंगलं ॥ ५ ॥ चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सि झालोगु त्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोग त्तमो ॥६॥ चत्तारि सरणं पवकामि, परिदंते सरणं पवनामि, सिदे सरणं पवकामि, सादु सरणं पव कामि, केवलिपत्तं धम्मं सरणं पवामि ॥ ॥ अर्थः - ( चत्तारि के० ) चार ( मंगलं के० ) मांगलिक बे तेमां एक तो अरिहंता के० ) जेणें रागादिक अंतरंग वैरीने इण्या ते श्रीअरिहंत (मं गलं के०) मांगलिक बे बीजा (सिद्धा के० ) अष्ट कर्मोंनो दय करीने जे सि पदने पाम्या बे, ते सिद्ध. ( मंगलं के०) मांगलिक बे, त्रीजा (साहु के ० ) सम्यकूज्ञान क्रियायें करी शिवसुखना साधक जे साधु, ते ( मंगलं के० ) मांगलिक बे, चोथो (केवलि के०) श्री केवली जगवंतें ( पत्तो के०) प्ररूप्यो एवो जे श्रुतचारित्ररूप (धम्मो के०) धर्म, ते (मंगलंके०) मांगलिक बे॥५॥ ( चत्तारि के० ) चार ( लोगुत्तमा के० ) लोकमांदे उत्तम ढे, एक (रि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथारा पोरीसी अर्थसहित. २१ हंता के० ) श्री अरिहंत बे, ते ( लोगुत्तमा के० ) लोकमां उत्तम बे, बीजा (सिझा के०) सिझ जे जे ते (लोगुत्तमा के०) लोकमां उत्तम ,त्रीजा (साहु के०) साधु , ते (लोयुत्तमा ते०) लोकमां उत्तम बे, चोथो ( केवली के) श्रीकेवलियें ( पलत्तो के०) प्ररूप्यो जे (धम्मो के ) धर्म, ते ( लोगुत्तमो के०) लोकमां उत्तम डे ॥ ६ ॥ (चत्तारि के०) चार (सरणं के) शरण प्रत्ये (पवजामि के) हुँ पमिवहुं . अंगी कार करुं बुं. एक तो (अरिहंते सरणं के० ) श्रीअरिहंत शरण प्रत्ये हुँ (पवजामि के०) अंगीकार करुं बुं. बीजुं ( सिकेसरणं के ) श्री. सिझशरण प्रत्ये हुँ (पवजामि के०) अंगीकार करं ९, त्रीजुं ( साहु सरणं के०) साधुशरण प्रत्यें हूं ( पवजामि के०) अंगीकार करुं हुं चोथु (केवलि के) श्रीकेवलिये ( पमत्तं के ) प्ररूप्यो जांख्यो एवो जे (धम्मं के० ) धर्म तेनो ( सरणं के०) शरणप्रत्ये हुँ (पवजामि के) अंगीकार करुं बुं ॥७॥ पाणाश्वायमलियं, चोरिक मेहुणं दविणमुद्धं ॥ कोदं माणं मायं, लोग्नं पिऊं तदा दोसं ॥ ७ ॥ कलदं अग्नकाणं, पेसुन्नं र अरइ समानत्तं ॥ परपरिवायं माया, मोसं मिबत्तसलं च ॥ ए॥ अर्थः-प्रथम (पाणाश्वाय के) प्राणातिपात ते जीवहिंसा, बीजें (अलियं के ) अलिक वचन एटले मृषावाद, त्रीजुं (चोरिकं के०) चो री, एटले अदत्तादान, चोथु ( मेहुणं के०) मैथुन एटले स्त्रीप्रमुखनो जोग, पांचU ( दविणमुद्धं के०) पुजलप्रव्यने विषे मूळ, एटले परिग्रह, हो (कोहं के०) क्रोध, सातमो (माणं के०) मान एटले अहंकार, था. ठमो (मायं के० ) माया ते कपट, नवमो (लोहं के०) लोन, दशमो (पिऊं के प्रेम ते राग, (तहा के०) तथा अगियारमो (दोसं के०) दो ष ते वेष ॥ ७॥ बारमो ( कलहं के) क्लेश, तेरमो (अनकाणं के०) अन्याख्यान, एटले परनेआल देवं, चोदमुं ( पेसुन्नं के०) पैशून्य एटले चुगली चामी करवी, पंदरमुं(रअर श्के) पुजल पदार्थोंने विषे रति तथा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ प्रतिक्रमण सूत्र. खुशी पण एमां ग्रहण करवी ने रति ते शुजकार्यने विषे दिलगीरी, तेणें करीने (समात्तं के०) सहित, शोलमो ( परपरिवार्य के० ) परनो परिवाद एटले निंदा, सत्तरमो ( मायामोसं के० ) मायामृषा एटले कपट सहित जूठ बोल, अढारमुं (मिछत्तसलं के०) मिथ्यात्वनुं शल्य एटले श्री जिनमतथी विपरीत मतनी श्रद्धा, तेने मिथ्यात्वशल्य कहियें. यहीं चकार जेबे, ते समुच्चयार्थवाची बे. ए अढार पाप स्थानकनां नाम कह्यां ॥ ए॥ वे आगलनी गाथामां एनो त्याग कहियें हैयें. वोसिरिसु इमाई मु, रक मग्ग संसग्ग विग्ध नूआई ॥ डुग्गर निबंधाई अठारस पावठाणाई ॥ १० ॥ अर्थः - (इमाई के० ) ए प्रत्यक्ष, ( हारसपावठाणा के० ) पापस्थनक जे बे, ते प्रत्यें रे जीव ! तुं ( वो सिरिसु के० ) वो सिराव एट ले त्याग कर. ते ढार पापस्थनक केहवां बे ? तो के ( मुरकमग्ग के० ) मोक्षमार्गने विषे (संसग्ग के०) संसर्ग करता एटले गमन ( करता एवा जीवोने (विग्घआई के०) विघ्नभूत बे, एटले अंतरायनां करनार बे. वली ते पापस्थानक केहवां बे ? तो के ( डुग्गर के ० ) दुर्गति जे नरक निगोदा दिकनी गति तेना ( निबंधणाई के० ) कारण बे ॥ १० ॥ ढार गोदं न मे कोई नादमन्नस्स कस्सई ॥ एवं अदीणमणसो, अप्पाणमणुसासई ॥१२॥ अर्थ: - ( अहं के० ) हुं ( एगो के० ) एक बुं, ( मे के० ) महारो (कोई के०) को ( नहि के० ) नथी, अने ( अन्नस्साकस्सई के० ) अन्य कोनो ( अहं के० ) हुं ( न के० ) नथी, ( एवं के० ) एम, ( अदी एम सो ० ) दीनमनथको एटले सावधान चित्त थयो थको ( अप्पाणं ho ) आत्मायें ( सासई के० ) शीखाम पे ॥ ११ ॥ एगो मे सास अप्पा, नाणदंसणसंजर्ज ॥ सेसा मे बाहिरा जावा, सधे संजोगलका ॥१२॥ अर्थः- ( नाणदंसण के० ) ज्ञान दर्शनें करी ( संजु के० ) संयुत ए टले सहित एवो (सास के० ) शाश्वतो सदा, नित्य एवो ( एगो के० ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथारापोरिसि अर्थसहित. २५३ रागादिक प्रत्नावथी रहित एकज, ( मे के० ) महारो (अप्पा के०) श्रा त्मा बे, ( सेसा के०) शेष थाकता रह्या जे ( संजोगलरकणा के ) - व्यथकी तन, धन, कुटुंबादि संयोग मिलापरूप अने नावथकी विषय कषा यादिरूप संयोग मिलाप, एवा (नावा के७) नाव जे जे ते (सव्वे के०) सर्वे (मे के०) महारा वरूपथकी (बाहिरा के०) बाह्य बे, एटले न्यारा ॥१॥ संजोगमूला जीवेण, पत्ता उस्कपरंपरा ॥ तम्हा संजोगसंबंध, सवं तिविदेण वोसिरियं ॥३॥ अर्थः-तन, धन, कुटुंब ममत्वादि रूपनो (संयोग के०) संयोग एटले मि लाप, तेहीज (मूला के०) मूलकारण ले जेनुं एवी (उस्कपरंपरा के०) फुःख नी श्रेणी ते (जीवेण के० ) जीवें (पत्ता के०) पामी (तम्हा के०) ते कार ण माटें (संजोगसंबंधं के०) पूर्वोक्त जे संयोग संबंध , ते (सवं के०) सर्व प्रत्ये (तिविहेण के० ) त्रिविधं करी ( वोसिरियं के०) हूं वोसिरा, ढुं अथवा त्यागु बुं, एम कहे, ॥ १३ ॥ अरिहंतो मह देवो, जावजीवं सुसाहुणो गुरुणो ॥ जिणपन्नत्तं तत्तं, श्य सम्मत्तं मए गहियं ॥ १४॥ अर्थः-( अरिहंतो के० ) श्रीअरिहंत अने सिक नगवंत, ते ( मह के०) महारा ( देवो के०) देव . ( जावजी के० ) ज्यां सुधी जीवु त्यां सुधी (सुसाहुणो के०) सुसाधु, जे जिनमतने विषे सावधान सम्यक ज्ञानक्रियावान् एवा आचार्य उपाध्याय अने मुनि, ते महारा (गुरुणो के ) गुरु , ज्यां सुधी जीवं, त्यां सुधी ( जिण के० ) जिनेश्वर देवोयें (पन्नत्तं के०) प्ररूप्युं नांख्युं एवं जे दयामूल तथा विनयमूल तत्त्व, अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र अने तपोरूप ( तत्तं के ) तत्त्व, ते महारो धर्म बे. जावजीव सुधी (श्य के०) ए प्रकारें (सम्मत्तं के) सम्यक्त्व (मए के० ) महारे जीवें (गहियं के० ) ग्रडं अंगीकार कीधुं ॥ १४ ॥ इति रात्रिसंस्तारकविधिसूत्रार्थः ॥ खमित्र खमाविअ मइ खमिय, सबद जीवनिका य॥ सिह साख आलोयणद, मुजाद व न ना २५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ प्रतिक्रमण सूत्र. व॥१५॥सवे जीवा कम्मवस, चनदह राज नमंत॥ ते मे सब खमाविश्रा, मुसावि तेह खमंत् ॥ १६ ॥ जंजं मणेण बई, जं जंवारण नासिअंपावं॥ जंजं कारण कयं, मिना मि उक्कडं तस्स ॥१७॥इति॥५॥ ॥अथ ज्ञानपंचमीस्तुति प्रारंजः॥ ॥ श्रीनेमिः पंचरूपत्रिदशपतिकृतप्राज्यजन्मानिषे क.श्चत्पंचादमत्तहिरदमदनिदा पंचवकोपमानः॥ निर्मुक्तः पंचदेह्याः परमसुखमयप्रास्तकर्मप्रपंचः, कल्याणपंचमीसत्तपसि वितनुतां पंचमझानवान् वः॥२॥ अर्थः-(श्रीनेमिः के० ) श्रीनेमिनाथ जगवान् , ते (व के०) तमारा (पंचमीसत्तपसि के०) पंचमीना सारा तपने विषे (कल्याणं के) निर्वि नप्रत्ये ( वितनुतां के ) विस्तारो. हवे ते नेमिनाथ नगवान् केहवा ने ? तो के (पंचरूप के०) पांच रूपें करीने (त्रिदशपति के०) देवतानो पति एवो जे इंड, तेणें (कृत के०) कस्यो , (प्राज्यजन्मानिषेकः के०) महोटो अने उत्तम जन्मानिषेक जेमनो एवा, वली ते केहवा ? तो के (चंचत् के) दीपता एवां (पंचाद के०) पांच इंजियो तेरूप (मत्त के० ) मदोन्मत्त एवो (हिरद के०) हस्ती, तेना (मदनिदा के०) मद नेदवे करीने (पंचवको पमानः के० ) पंचवक्र जे सिंह तेनुं ने उपमान जेमने एवा , वली ते केहेवा जे? तो के (पंचदेह्याः के०) औदारिकादिक पांच शरीर ते थकी ( निर्मुक्तः के ) मुक्त थया एवा, वली ते केहवा ने ? तो के (परम के०) उत्कृष्ट एटले अतींघिय एवा (सुखमय के०)सुखें करी सहित, वली ते केहवा ? तो के (प्रास्त के) प्रकर्षे करी टाल्या , (कर्मप्रपंचः के०) कर्मना प्रपंच एटले विस्तार जेमणे एवा, वली ते केहवा ? तो के (पंचमझान वान् के०) पांचमुं ज्ञान जे केवलज्ञान तेणें करी युक्त ने ॥१॥ संत्रीणन् सच्चकोरान् शिवतिलकसमः कौशिकानंदमूर्तिः, पुण्याब्धिप्रीतिदायी सितरुचिरिव यः स्वीयगोनिस्तमांसि।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानपंचमी स्तुति प्रर्थसदित. १ एय सांजाणि ध्वंसमानः सकलकुवलयोल्लासमुच्चैश्वकार, ज्ञानं पुष्याजिनौघः स तपसि नविनां पंचमीवासरस्य ॥ २ ॥ अर्थः- हवे जिनसमुदायने चंद्रनी समानता रूपें स्तवे बे. ( सितरु चिरिव के० ) चंद्रमा सदृश एवो तथा ( शिव तिलकसमः के० ) शिव जे मोदतेने विषे तिलकसमान एवो ( यः के० ) जे ( जिनौघः के० ) जिनसमुदाय बे, ते ( जविनां के० ) जव्यजनोना ( पंचमी वासरस्य के० ) पंचमीना दिवसना ( सतपसि के० ) रूमा तपने विषे (ज्ञानं के० ) ज्ञान जेने ( पुण्यात् के० ) पुष्टिने करो • हवे ते जिनसमुदायने चंद्रतुल्यत । केही रीतें बे? ते सर्व, विशेषणोयें करीने कहे बे. जेम चंद्र ( सच्चको रान् के०) उत्तम जे चकोर तेमने (संप्रीणन् के०) रुडे प्रकारें आनंद करे बे, म ए श्री जिनसमुदाय पण ( सच्चकोरान् के० ) सत्पुरुषरूप जे चकोर तेमने (संप्रीन के०) सम्यक् प्रकारें हर्ष करे बे. वली जेम चंद्र (कौशिक ho) घूमतेने (आनंदमूर्तिः के० ) आनंददायक वे मूर्ति जेनी एवो बे, म ए जनसमुदाय पण ( कौशिक के० ) इंद्र तेने ( आनंदमूर्त्तिः के० ) श्रानंदरूप बे मूर्त्ति जेनी एवो बे. तथा जेम चंद्र, ( पुण्याब्धि के० ) पुएयकारक समुद्र तेने (प्रीतिदायी के० ) प्रीतिदायिक बे, तेम जिनौघ पण (पुण्याब्धि के० ) पुण्यरूप जे समुद्र तेने ( प्रीतिदायी के० ) प्रीतिनो देना रोबे, तथा जेम चंद्र ( स्वीय के० ) पोतानां ( गोनिः के० ) किरणोयें करी ( सांद्राणि के० ) गाढ एवां (तमांसि के० ) अंधकारोने (ध्वंसमानः के० ) ध्वंस एटले नाश करनारो बे, तेम जिनौध पण ( सांद्राणि के० ) गाढवां ( तमांसि के० ) जीवोनां अज्ञान, तेमने ( ध्वंसमानः के० ) ध्वंस एटले नाशनो करनारो बे तथा जेम चंद्र, ( सकलकुवलय के० ) समग्र कुवलय जे चंद्र विकासी एवां कमलो, तेने (उल्लासं के०) वीकसित पणाने ( उच्चैः के० ) अत्यंत ( चकार के० ) करतो हवो, तेम ए जिनौ घपण ( कुवलय के० ) पृथ्वीवलय तेने ( उल्लासं के० ) हर्षने ( चका र० ) करतो वो वो बे, माटे तेने चंद्रमानी उपमा योग्य बे ॥ २ ॥ पीत्वा नानानिधार्थामृतरसमसमं यांति यांस्यंति जग्मु, जवा यस्मादने के विधिवदमरतां प्राज्य निर्वाणपुर्याम् ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ प्रतिक्रमण सूत्र. यात्वा देवाधिदेवागमदशमसुधाकुंममानंदहेतुः स्तत्पं चम्यास्तपस्युद्यतविशदधियां नाविनामस्तु नित्यम्॥३॥ . अर्थः-( देवाधिदेव के० ) श्री वीतराग देव तेनो (आगम के०) सि झांत ते रूप ( दशम के० ) दशमो, एवो ( सुधाकुंमं के०) अमृतकुंभ जे जे ( तत् के० ) ते (पंचम्याः के०) ज्ञानपंचमीना ( तपसि के ) तपने विषे ( उद्यत के ) उजमाल तथा ( विशदधियां के०) निर्मल डे बुद्धि जेमनी एवा (नाविनां के० ) नाविक नव्य जीवोने (आनंदहेतुः के०) आनंदनो कारणनूत ( नित्यं के० ) निरंतर ( अस्तु के ) था. हवे ते जिनागमरूप दशम सुधाकुंम केहवो ? तो के ( नानानिधार्था मृतरसं के) नाना प्रकारनां ने नाम जेमनां एवा जे अर्थो, ते रूप अ मृतरस ने जेमां एवो तेने ( विधिवत् के० ) विधिप्रमाणे (पीत्वा के०) पान करीने (असमं के०) निरुपम एवा सुखने (यास्यंति के०) पामशे, (यांति के) पामे बे, अने ( जग्मुः के०) पामता हवा. ( यस्मात् के) जेनुं पान करवाथकी (अनेके के० ) अनेक एवा (जीवाः के०) जीवो जे जे ते (प्राज्यं के०) महोटी एवी (निर्वाणपुर्य्या के०) मोदनगरीने विषे अमरतां के ) अजरामर पणाने(यात्वा के०) पामीने स्वस्थ थाय ॥३॥ स्वर्णालंकारवल्गन्मणिकिरणगणध्वस्तनित्यांधकारा, हुंका रारावदूरीकृतसुकृतजनवातविघ्नप्रचारा ॥ देवी श्रीअंबि काख्या जिनवरचरणांनोजमुंगीसमाना, पंचम्यङ्गस्त पोथै वितरतु कुशलं धीमतां सावधाना ॥४॥५१॥ अर्थः-(श्रीअंबिकाख्या के० ) श्रीअंबिका डे नाम जेनुं एवी ( देवी के०) देवी. ते ( सावधाना के० ) सावधान एवी बती (धीमतां के०) बु हिमान् एवा नविक जीवना (पंचम्यह्नः के ) पंचमीना दिवसना (त पोर्थ के० ) तपने माटे ( कुशलं के० ) कुशल जे जे तेने ( वितरतु के०) विस्तारो. ते देवी कहेवी ? तो के (स्वर्णालंकार के०) सुवर्णनाजे अलंकार तेने विषे (वल्गन्मणि किरणगण के०) वलग्या एवाजेमणि तेनां किरण तेना जे गण, तेणें करी ( ध्वस्तनित्यांधकारा के० ) टाल्यो ले निरंतर अंधकार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलाऽर्हत् अर्थसदित. जेणे, वली ते देवी केहवी ने ? तो के (हुंकार के० ) हुंकारनो (आराव के) शब्द तेणें करी (दूरीकृत के०) दूर कख्या डे (सुकृतजनवात केण) सुकृतनो करनारो एवो जे जनसमूह तेना (विघ्नप्रचारा के) विघ्नना प्रचार जेणे, वली ते देवी केहेवी , तो के (जिनवरचरणांनोज के) श्रीवीतरागनां चरणरूप कमल, तेने विषे (मुंगीसमाना के ) जमरी समान बे॥४॥५१॥ हवे पाक्षिकादि प्रतिक्रमण योग्य सूत्रां लखियें बैयें. ॥ अथ सकाऽर्हत् प्रारंजः॥ सकलात्प्रतिष्ठान, मधिष्ठानं शिवश्रियः ॥ नूर्जुवःस्वस्त्रयीशान,मात्यं प्रणिध्महे॥२॥ अर्थः-(आईत्यं के०)अरिहंतनो जे समूह, तेने अमो (प्रणिदध्महे के०) चित्तमांहे ध्यान करीयें बैयें. हवे ते आईत्य केहेवू डे ? तो के (सकल के०) समग्रने (अर्हत् के०) पूजवा- (प्रतिष्ठानं के) स्थानक , वली ते केह, डे ? तो के ( शिव श्रियः के) मोदरूप लक्ष्मीनु (अधिष्ठानं के०) स्था नक , वली ते केहवू डे ? तो के (जूः के०) मनुष्यलोक, (नुवः के० ) पाताललोक, (स्वःकेण) देवलोक, ए (त्रयी के०) त्रण लोक तेनुं (ईशानं के०) स्वामी ॥१॥ नामाकृतिव्यन्नावैः, पुनतस्त्रिजगजनम् ॥ क्षेत्रे काले च सर्वस्मि, नर्हतः समुपास्महे ॥२॥ अर्थः-(सर्वस्मिन् के०) सर्व एवां ( देने के०) सर्व एवां देवने विषे,(च के ) वली (काले के) समस्तकालनेविषे एटले अतीत, अनागत अने वर्तमान कालने विषे, ( नाम के) नामनिदेप, ते तीर्थकरनाम कर्मोदय जाणवो तथा (आकृति के ) स्थापनानिदेप, ते जिनप्रतिमा जाणवी. (अव्य के) अव्यनिदेप, ते जिनना जीव जे आगल थाशे, ते जाणवा, (जावैः के ) नावनिदेप, ते समवसरणने विषे बिराजमान श्रीसीमंधर स्वामीप्रमुख जाणवा. ए चार निदेपायें करी (त्रिजगऊनम् के ) त्रण जगतना जे जनो तेप्रत्ये (पुनतः के) पवित्र करनार एवा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. ( अर्हतः के०) श्रीअरिहंत प्रजुने ( समुपास्महे के ) वंदन. सत्कार. सन्मानादिकें करी अमें सेवीयें छैयें ॥२॥ हवे वर्तमान चोवीशजिनने प्रणाम करवा श्चतो तो प्रथम श्री रुपनदेवजीने स्तवे बे. आदिमं पृथिवीनाथ, मादिमं निःपरिग्रहम् ॥ आदिमं तीर्थनाथंच, शेषनस्वामिनं स्तुमः॥३॥ अर्थः-प्रथम (रुषन के०) जेमनी मातायें स्वप्नमां वृषन दीठो, माटें झपन कहिये, अथवा जेमनी दक्षिण जंघाने विषे वृषनर्नु चिन्ह ने माटें षन कहिये, एवा (स्वामिनं के०) श्री रुषन स्वामी तेने (स्तुमः के०) स्तवियें बैयें. ते केहवा जे ? तो के (आदिमंपृथिवीनाथं के ) प्रथम पृथिवीना नाथ, अर्थात् सर्वनी आदिमां राजा एवा, तथा वली ते केहवा ने? तो के (आदिमं के) सर्वश्री प्रथम एवा (निःपरिग्रहं के) निःशेष पणायें करीने त्याग कस्यो ने परिग्रह जेणे एवा अर्थात् अग्रिम साधु बे. वली ते केहवा ? तो के (आदिमं के०) प्रथम एवा (तीर्थनाथं के०) तीर्थना नाथ अर्थात् आदिम तीर्थंकर एवा ॥३॥ हवे बीजा श्रीअजितनाथने स्तवे . अदंतमजितं विश्व, कमलाकरनास्करम् ॥ म्लानकेवलादर्श, संक्रातजगतं स्तुवे ॥४॥ अर्थः-(अजितं के०) कर्मोयें जीती न शकाय माटें अजित अथवा माताना गर्नमां रहे ते अन्य राजायें एमनां माता पिता जीती न शका यां, ते माटें अजित कहिये ते बीजा अजितनाथने (स्तुवे के०) हुं स्तवं बु. ते अजितनाथ केहवा ठे? तो के (अर्हतं के ) त्रण लोकने पूजवा यो ग्य एवा तथा वली ते केहवा ? तो के ( विश्वकमलाकर के०) विश्व रूप जे कमलाकर सरोवर अर्थात् कमलना आकर एटले समूह ने जेमां एवं सरोवर तेहने प्रकाश करवामां (नास्करं के) सूर्यतुल्य एवा, वली ते केहवा ? तो के (अम्लान के०) निर्मल एवं (केवल के०) केवल ज्ञा नरूप, (आदर्श के ) आरीसो तेने विषे (संक्रांत के०) संक्रमाव्युं , एटले प्रतिबिंबित कघु ( जगतं के०) जगत् जेणे एवा ३ ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलाईत अर्थसहित. दवे श्रीजा श्री संजवनाथने स्तवे बे. विश्वनव्यजनाराम, कुल्यातुल्या जयंतु ताः ॥ देशनासमये वाचः, श्रीसंनवजगत्पतेः ॥ ५ ॥ अर्थः - ( ताः के० ) ते उत्कृष्ट एवी (देशनासमये के०) देशना एटले धर्मोपदेशना समयने विषे (श्री संजवजगत्पतेः के०) जेथी शं केतां सुख उत्प न थाय तेने शंभव कहियें. अथवा जेमनाजन्मना समयने विषे धान्यना समुदाय, विशेषं निपन्या, ते माटें संभव कहियें. तेमनी ( वाचः के० ) वा यो ते ( जयंतु के० ) जयवंती वर्तो, अर्थात् उत्कृष्टी वत. ते वाणी यो हव बे ? तो के ( विश्व के० ) जगत्ने विषे अथवा ( विश्व के० ) समस्त ( जव्यजन के० ) जव्यजनरूप ( आराम के० ) उद्यान तेने सींच वाने ( कुख्या के० ) पाणीनी नीक तेने (तुल्या के०) तुल्य एवी बे ॥ ५ ॥ हवे चतुर्थ श्री जिनंदन जिनने स्तवे बे. अनेकांत मतांनोधि, समुल्लासन चंद्रमाः ॥ दद्यादमंदमानंद, जगवानजिनंदनः ॥ ६ ॥ ୧୯୯ अर्थः - ( जगवान् के० ) षकैश्वर्यगुणयुक्त एवा ( अभिनंदन : के० ) श्री जिनंदन नामा जिन जे बे, ते (मंदं के० ) घणो एवो जे ( यानंद के० ho) हर्ष तेने ( दद्यात् के०) पो, ते अभिनंदन जगवान् केहवा बे ? तो के ( अनेकांतमत के० ) स्याद्वादमतरूप जे ( अंजोधि के० ) अप रंपार अगाधजलवालो एवो समुद्र, तेना (समुल्लासन के० ) रूमो उल्लास करवाने ( चंद्रमाः के० ) चंद्रमा जेवा बे, अर्थात् जेम चंद्रमा देखी समु वृद्धिने पामे बे, तेम स्याद्वादरूप समुद्र जे बे, ते जगवंतरूपचद्रमाने जोइ समुल्लास पामे बे ॥ ६ ॥ हवे पांचमा श्री सुमतीनाथने स्तवे बे. घुस किरीटशाणाग्रो, तेजितांघ्रिनखावलिः ॥ जग वान् सुमतिस्वामी, तनोत्वनिमतानि वः ॥ ७ ॥ अर्थः- (सुमतिस्वामी के० ) श्री सुमतिस्वामीनामा ( जगवान् के० ) ज गवान् ते ( वः के० ) तमारां (अमितानि के० ) वां बिताने ( तनोतु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० प्रतिक्रमण सूत्र. के० ) विस्तारो . ते सुमतिनाथ केहवा बे ? तो के ( सत् के० ) देवता जं, तेना ( किरीट के० ) मुकुट, तडूप जे ( शाणाग्र के० ) श्रृंगना खूणा एटले देवताना मुकुटना अग्रभागना खूणा तेणें (उत्तेजित के० ) अतिश यतेजवंत कीधी बे (अंधि के० ) चरण तेना ( नख के० ) नख तेनी ( यावलिः के० ) पंक्ति जेमनी एवा बे ॥ ७ ॥ हवे as श्री स्वामीने वंदन करे बे. पद्मप्रप्रनोर्देद, नासः पुष्णंतु वः श्रियम् ॥ अंतरंगारिमथने, कोपाटोपादिवारुणाः ॥ ८॥ अर्थः- ( पद्मनोः के० ) स्वामी गर्भगत थवाथी जेमनी माता रक्तपद्मनी शय्यामां सुवानो दोहोलो उत्पन्न थयो. तेमाटें पद्मप्रन कहियें. ते प्रजुनी (देहजासः के०) शरीरसंबंधी जे कांति बे, ते (वः के०) तमारी ( श्रियं के० ) कल्याणरूप लक्ष्मी जे बे, ते प्रत्यें ( पुष्णंतु के० ) पोषण करो. हवे ते श्रीपद्मप्रजनी शरीरकांति रक्तवर्णे बे, ते उपर कवि उत्प्रेक्षा रेबे, के (अंतरंगार के० ) अंतरंग शत्रु जे मोहादिक तेमने ( मथ a ho ) मथन करवाने विषे अर्थात् दूर करवाने विषे (कोपाटोपा के० ) कोप जे क्रोध तेनो आटोप जे प्रबलपणं तेनाथीज ( इव के० ) जाणे ( अरुणा के० ) राती य होय नहिं ? ॥ ८ ॥ हवे सातमा श्री सुपार्श्व जिनने नमन करे बे. श्री सुपार्श्व जिनेंशय, महेंद्रमदितांप्रये ॥ नमश्चतुर्वर्णसंघ, गगनानोगनास्वते ॥ ९ ॥ अर्थः- (श्री सुपार्श्व के०) श्री सुपार्श्वनामा ( जिनेंद्राय के० ) श्री जिनेंद्र तेने ( नमः के०) नमस्कार हो, ते सुपार्श्वजिन केहवा बे ? तो के ( महेंद्र के० ) महोटा जे चोराठ इंद्रो, तेणें (महित के० ) पूजित बे, (घये के०) चरण जेमनां एवा तथा वली केहवा बे ? तो के ( चतुर्वर्णसंध के० ) च तुर्वर्ण जे श्रीसंघ एटले साधु, साधवी, श्रावक ने श्राविका, ते रूप जे ( गगन के० ) आकाश तेनो ( जोग के० ) प्रकाश तेनो विस्तार करवानें (जास्खते के०) सूर्यसमान बे ॥ 0 ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलाऽर्दत् अर्थसहित. वे मा श्री चंद्रप्रन स्वामीने स्तवे बे. चंपप्रमप्रनोचंड, मरीचि निचयोज्ज्वला ॥ मूर्ति मूर्त्तसितध्यान, निर्मितेव श्रियेऽस्तु व ॥ १० ॥ अर्थः- ( चंद्रप्रप्रजोः के० ) चंद्रप्रजनामा प्रजुनी (मूर्त्तिः के०) मूर्ति एटले शरीर, ते ( वः के० ) तमोने ( श्रिये के० ) ज्ञानादि लक्ष्मीने ( अस्तु के० ) था . ते प्रजुनी मूर्त्ति केहवी बे ? तो के ( चंद्र के० ) चंप्रमानां ( मरीचि के० ) किरणो, तेमना ( निचय के० ) समूह तेथकी प अधिक ( उज्ज्वला के०) उज्ज्वल एटले निर्मल एवी बे, तथा वली केह वी ठे? तो के ( मूर्त्त के० ) मूर्तिमंत एवं जे (सितध्यान के० ) शुक्लध्यान, तेणें करीनेज (इव के० ) जाणें ( निर्मिता के० ) निर्माण करी होय नहिं ? एव ॥ १० ॥ हवे नवमा श्रीसुविधि जिनने स्तवे बे. करामलकवद्विश्वं कलयन् केवल श्रिया ॥ अचिं त्यमाहात्म्यनिधिः, सुविधिर्बोधयेऽस्तु वः ॥ १२ ॥ " अर्थः - ( सुविधिः के० ) श्री सुविधिनाथ, ते ( वः के० ) तमोने ( बोध ये ho) बोधि जे सम्यक्त्व, तेने (अस्तु के ० ) यार्ड ते श्री सुविधि नाथ हवा बे ? तो के ( कर के० ) हाथ, तेहने विषे रहेलुं एवं (अमल के० ) निर्मल ( क के०) पाणी तेहनी ( वत् के० ) पेठें (विश्व के० ) सर्व प्राणी प्रत्यें ( केवल श्रिया के० ) केवलज्ञानरूप लक्ष्मी यें करी, ( कलयन् के० ) जाणता एवा तथा ( अचिंत्य के० ) न चिंतवी शकवा योग्य एवं जे ( माहात्म्य के० ) महोटापएं तेहना ( निधिः के० ) निधान ॥ ११ ॥ हवे दशमा श्रीशीतल जिननी स्तुति करे बे. सत्त्वानां परमानंद, कंदोदनवांबुदः ॥ स्याहा दामृत निस्यंदी, शीतलः पातु वोजिनः ॥ १२ ॥ Jain Educationa International २०१ अर्थः- ( शीतलः के०) श्री शीतलनाथनामा (जिनः के० ) जिन जे बे, ते ( वः के० ) तमोने ( पातु के० ) रक्षण करो, अर्थात् संसारथी रक्षण करो. ते श्री शीतल जिन केहवा बे ? तो के ( सत्त्वानां के० ) प्राणीयोने ( परम के० ) उत्कृष्ट एवो जे (आनंद के०) चित्तप्रसन्नता लक्षण यानंद; २६ For Personal and Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ प्रतिक्रमण सूत्र. तेनो ( कंद के० ) अंकूर तेनुं (उद्वेद के०) प्रगट धनुं, तेने विषे ( नवां बुदः के०) नवीन मेघसदृश बे. तथा (स्याद्वादामृत के० ) अनेकांत शासन ते रूप जे अमृत रस, तेहना ( निस्यंदी के० ) करनारा एवा बे ॥ १२ ॥ हवे ग्यारमा श्रीश्रेयांस जिनने स्तवे बे. नवरोगार्त्तजंतूना, मगदंकारदर्शनः ॥ निःश्रेय सश्रीरमणः, श्रेयांसः श्रेयसेऽस्तु वः ॥ १३ ॥ र्थः - ( श्रेयांसः के०) श्रेयांसनामा जिन ते, ( वः के० ) तमारा ( श्रे यसे के० ) कल्याणने अर्थे (अस्तु के० ) थार्ज हवे ते श्रेयांस प्रभु केह वा बे ? तो के ( जवरोग के० ) संसाररूप रोग तेणें करी ( आर्त्तजंतूनां ho) एटले पीमायेला अर्थात् जन्म, जरा ने मरणरूप रोगें करी पीमायेला एवा जंतुर्जने ( अगदंकार के० ) वैद्यसमान वे ( दर्शन: के० ) सम्यक्त्व दर्शन जेमनुं, अथवा दर्शन एटले देखवं जेमनु एवा. वली ते केहवा बे ? तो के ( निःश्रेयस के० ) मोद ते रूप ( श्री के० ) लक्ष्मी तेना ( रमणः के० ) जरतार एटले स्वामी बे ॥ १३ ॥ हवे बारमा श्री वासुपूज्य जिननी स्तुति करे बे. विश्वोपकारकीभूत, तीर्थकृत्कर्मनिर्मितिः ॥ सुरासुरनरैः पूज्यो, वासुपूज्यः पुनातु वः॥१४॥ अर्थ : - ( वासुपूज्यः के० ) श्रीवासुपूज्यनामा जिन, ते ( वः के० ) त मोने ( पुनातु ० ) पवित्र करो, एटले तमारां पाप टालो. ते वासुपूज्य केहवा बे ? तो के ( विश्वोपकारकीनूत के० ) विश्वना उपकारभूत एवं जे ( तीर्थकृतकर्म के ० ) तीर्थंकरनामकर्म, तेमनी ( निर्मितिः के० ) निष्प त्ति करीबे जेणें, अर्थात् पंचकल्याणकने विषे सुखना हेतु बे, वली ( सुर के० ) वैमानिक देवता, (असुर के० ) जवनपत्यादि देवता, तथा ( नरैः के० ) मनुष्य तेमणें ( पूज्यः के० ) पूजवा योग्य बे ॥ १४ ॥ हवे ते मां श्री विमल जिनने स्तवे बे, विमलस्वामिनो वाचः, कतकदोदसोदराः ॥ जयंति त्रिजगच्चेतो, जलनैर्मल्यदेतवः ॥ १५ ॥ अर्थः- ( विमलखामिनः के० ) श्री विमलस्वामीनी ( वाचः के० ) वा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलाऽर्हत् अर्थसदित. २०३ णीयो जे जे, ते ( जयंति के० ) जयवंती वर्ते ले. ते वाणीयो केहवी ने ? तो के (कतकदोद के०) कतक फल, दोद जे चूर्ण, तेनी (सोदराः के०) सरखी जे. अर्थात् जेम कतक फलना चूर्णना योगें पाणी निर्मल थाय तेम, (त्रिजगच्चेतोजलनैर्मल्यहेतवः के०) त्रण जगतनां जे चित्त, ते रूप जे जल तेनुं जे निर्मलपणुं करवू तेनी हेतु जे. एटले जेम कत कफलचूर्णे करी मेलसहित पाणी निर्मल थाय , तेम जगवंतनी वाणी यें करी मेलां थयां एवां जे त्रण जगतनां चित्त, ते निर्मल थाय ॥१५॥ हवे चउदमा श्रीअनंतजिनने स्तवे बे. स्वयंनूरमणस्पदि, करुणारसवारिणा ॥ अनंतजिदनंतां वः,प्रयतु सुखश्रियम्॥१६॥ अर्थः-( वयंजूरमण के० ) अंतिमसमुद्र तेनी ( स्पर्धि के०) स्प | करे अर्थात् ते अंतिम समुअथकी पण अधिक एवं ( करुणारसवा रिणा के० ) करुणारसरूप वारि जे जल, तेणें करी युक्त एवा (अनंत जित् के०) अनंतनाथ परमेश्वर , ते (वः के ) तमोने (अनंतां के० ) नथी अंत जेनो एवी (सुखश्रियं के०) मोदस्वरूप लक्ष्मी तेने (प्रयछतु के ) आपो ॥ १६ ॥ हवे पन्नरमा श्रीधर्मनाथ जिनने स्तवे बे. कल्पमसधर्माण, मिष्टप्राप्तौ शरीरिणाम् ॥ चतुर्दा धर्मदेष्टारं, धर्मनाथमुपास्मदे ॥१७॥ अर्थः-(धर्मनाथं के0) धर्मनाथ जिन प्रत्ये (उपास्महे के ) उपासना करिये 3यें, एटले सेवीयें बैये. ते धर्मनाथ जिन केहवा ? तो के (शरीरिणां के) शरीरधारी प्राणीयोने, (श्ष्टप्राप्तौ के०) वांछितफलनी प्रा तिने विषे (कल्पमसधर्माणं के०) कल्पाम समान बे धर्म जेमनो एवा बे, वली केहवा ने ? तो के (चतु धर्म के०) दान, शील, तप, तथा नाव, ते रूप चार प्रकारनो जे धर्म, तेने (देष्टार के) देखामनार एवा ॥१७॥ हवे शोलमा श्रीशांतिनाथ जिनने स्तवे . सुधासोदरवाग्ज्योत्स्ना, निर्मलीकृतदिङ्मुखः ॥ मृगलमा तमःशांत्यै, शांतिनाथ जिनोऽस्तुवः॥२॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ प्रतिक्रमण सूत्र. अर्थः-( शांतिनाथ जिनः के० ) शांतिनाथनामा जिन ते, (वः के० ) तमारी एटले नव्यजीवोनी ( तमः के ) अाननी ( शांत्यै के० ) शांतिने अर्थे ( अस्तु के०) था. हवे ते शांतिनाथ केहवा ? तो के ( सुधा के० ) अमृत तेनी (सोदर के०) सरखी एवी ( वाक् के०) वा णी ते रूप जे (ज्योत्स्ना के०) चंडिका तेणें करी ( निर्मलीकृत के) निर्मल कस्यां ( दिङमुखःके ) दिवासी जनोनां मुख जेमणे एवां बे, व ली ( मृगलमा के) मृगनुं ने लक्ष्म एटले चिन्ह जेमने एवा ने ॥१७॥ हवे सत्तरमा श्रीकुंथुनाथ जिनने स्तवे ने. श्रीकुंथुनाथो नगवान, सनाथोऽतिशयदिनिः॥ सुरासुरननाथाना, मेकनाथोऽस्तु वः श्रिये॥२॥ अर्थः-(श्रीकुंथुनाथोजगवान् के ) षडैश्वर्यगुणयुक्त एवा श्रीकुंथुनाथ जगवान् ते ( वः के) तमोने (श्रिये के ) कल्याणरूप लक्ष्मीने अर्थे ( अस्तु के० ) था. ते कुंथुनाथ नगवान् केहवा डे ? तो के ( अतिश यर्जिनिः के०) चोत्रीश अतिशयरूप जे झकि तेणें करी (सनाथः के ) सहित . वली ते केहवा ले ? तो के ( सुर के ) वैमानिक देवता ( असुर के०) नवनपत्यादिक देवता (नृ के०) मनुष्य तेमना (नाथा नां के ) स्वामी जे इंघ अने उपेंड जे चक्रवर्त्यादिक तेमना (एकनाथः के) एकनाथ एवा अर्थात् अद्वितीयपणे नाथ ने ॥ १५ ॥ हवे अढारमा श्री अरनाथ जिनने स्तवे बे. अरनाथस्तु नगवाँ, श्चतुर्थारननोरविः ॥ चतुर्थपुरुषार्थश्री, विलासं वितनोतु वः ॥२०॥ अर्थः-(नगवान् के ) ज्ञानादि बार अर्थयुक्त, अर्थात् जगशब्दना चउद अर्थ थाय जे. तेमांथी बार अर्थ परमेश्वरने घटे हे माटें अहिं बार अर्थ लेवा. एवा (अरनाथस्तु के ) अरनाथनामा जिन, ते (वः के) तमोने (चतुर्थपुरुषार्थ के०) चोथो पुरुषार्थ जे मोदा, तेहनी (श्री के०) लक्ष्मी तेनो ( विलासं के) नोगविलासने ( वितनोतु के ) विस्तारो. ते अरनाथ नगवान् केहवा के ? तो के ( चतुर्थार के) चोथो आरो ते रूप ( ननः के) आकाश तेने विषे ( रविः के) सूर्यसमान ॥२॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa Interational Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलाऽर्हत् अर्थसहित. २०५ हवे उंगणीशमा श्रीमल्लिनाथ जिनने स्तवे बे. सुराऽसुरनराधीश, मयूरनववारिदम् ॥ कर्मउ न्मूलने हस्ति, मलं मल्लिमन्निष्टुमः ॥२१॥ अर्थः-( मल्लिं के) श्रीमबिनाथप्रत्ये (अनिष्टुमः के ) स्तवना करिये बैयें. ते श्रीमति जिन केहवा डे ? तो के (सुर के०) वैमानिक देव ता, ( असुर के) नवनपत्यादि तथा ( नर के ) मनुष्य, तेहना (अ धीश के ) इंछ, उपेंड, चक्रवर्त्यादिक, तेरूप जे ( मयूर कें० ) मोर तेह ने नवास करवाने ( नववा रिदं के ) नवीन आषाढना मेघसमान बे. वली ते केहवा ? तो के ( कर्म के) ज्ञानावरणादिक कर्म तेरूप जे (जु के०) वृद तेहना (उन्मूलने के ) उखेमी नाखवाने विषे एटले दूर करवाने विषे ( हस्तिमद्धं के ) ऐरावत हस्ती जेवा दे ॥१॥ हवे वीशमा श्रीमुनिसुव्रतजिनने स्तवे . जगन्महामोदनिज्ञ, प्रत्यूषसमयोपमम् ॥ मुनिसुव्रतनाथस्य, देशनावचनं स्तुमः ॥१२॥ अर्थः-( मुनिसुव्रतनाथस्य के ॥ मुनिसुव्रतनाथसंबंधी (देशनावचनं के ) धर्मोपदेशनुं वचन, तेने (स्तुमः के ) स्तवीयें बैयें. ते देशनावच न केहबुं बे ? तो के ( जगन्महामोह के ) जगत्ने विषे रहेला एवा जे प्राणीयो तेनो जे महामोह ते रूप जे ( निमाके) निजा, तेने दूर कर वाने (प्रत्यूषसमयोपमं के) प्रत्नातकालनी उपमा डे जेहने एवं बे, अर्थात् जेम प्रजातमां उघथकी जागीयें बैयें, तेम प्रजुना उपदेशरूप प्रजातथकी अज्ञानरूप निखानो त्याग करी जागीयें बैयें ॥ ॥ हवे एकवीशमा श्रीनमिनाथ जिनने स्तवे बे. लुतोनमतां मूर्ध्निः, निर्मलीकारकारणम् ॥ वारिप्लवा श्व नमेः पातु पादनखांशवः॥१३॥ अर्थ-(नमेः के० ) श्रीनमिनाथ जे जे तेमना (पादनखांशवः के) पाद जे पग तेना जे नख तेनां अंशु जे किरणो ते, तमारं (पांतु के) रद ण करो, अर्थात् नमिनाथना चरणना नखनां जे किरणो , ते रक्षण करो. ते चरणनखांशु केहवा ? तो के (नमतां के) नमस्कार करता एवा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ प्रतिक्रमण सूत्र. जे प्राणीयो तेमना (मूर्ध्नि के० ) मस्तकने विषे (खुवंतोः के०) बुंगयमान तथा वली केहवा ? तो के ( निर्मलीकारकारणं के ) निर्मल एटले पा परहितपणाना कारण एटले हेतुजूत जे. आहिं वंदन करनार प्राणीनामस्त क उपर नगवंतना पादनखनी कांति पडे बेतेनी उपर कवि उत्पेदा करे ने के ( वारिप्लवाश्व के०) वारि जे जल तेना प्रवाहज जाणीयें होय नहिं ? ॥२३॥ हवे बावीशमा श्रीअरिष्टनेमि जिनने स्तवे . यज्वंशसमुजः, कर्मकदहुताशनः ॥ अरि ष्टनेमिनगवान. भूयामोऽरिष्टनाशनः ॥२४॥ अर्थः-(अरिष्टनेमिः के०) अरिष्टनेमिनामा (नगवान् के०) नग वान्, ते ( वः के ) तमारा (अरिष्टनाशनः के० ) अरिष्ट जे उपज्व, तेने नाश करनार एवा (नूयात् के) था. ते अरिष्टनेमि केहवा ? तो के ( यऽवंश के० ) यादववंश तप जे ( समुद्र के० ) समुन, तेने उल्लास पमामवाने (छः के०) चंद्रमासदृश बे. वली ते केहवा ने ? तो के ( कर्म के० ) कर्म जे झानावरणादि अष्टविध कर्म, तप (कद के०) कद जे वनखंग तेने विषे ( हुताशनः के० ) अग्निसमान बे. अर्थात् शु क्लध्यानानलें करी सर्व कर्म नस्म कस्यां वे जेणे एवा ॥ २४ ॥ हवे त्रेवीशमा श्रीपार्श्वनाथ जिनने स्तवे हे. कमठे धरणीजे च, स्वोचित्तं कर्म कुर्वति ॥ प्रस्तु ल्यमनोरत्तिः, पार्श्वनाथः श्रियेऽस्तु वः ॥२॥ अर्थः-( पार्श्वनाथः के०) श्रीपार्श्वनाथ, ते (वः के०) तमारी (श्रिये के) ज्ञानादि लक्ष्मी तेने अर्थे ( अस्तु के०) था. हवे ते श्रीपार्श्व नाथ केहवा ? तो के ( कमठे के०) कमग्नामें पूर्वनवनो वैरी एवो जे मेघमाली देवता तेने विषे, (च के०) वली (धरणीजे के०) पार्श्वनाथ प्रजुयें बलतो उगायो एवो जे सर्प, ते मरीने धरणीं थयो ते धरणी अने विषे, (तुल्यमनोवृत्तिः के ) तुल्य डे मननी वृत्ति जेमनी एवा बे. वली णे कमठ तथा धरणींछ केहवा ? तो के (स्वोचितं के०) पोताने योग्य एवं ( कर्म के ) कर्म तेने (कुर्वति के० ) करे जे. अर्थात पोत पोतार्नु उचित कर्म करे जे. जेम के कमठ , ते उपसर्ग करे , अने धर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलाऽर्दत् अर्थसहित. JoJ fis बे, ते उपसर्ग निवारे बे, पण श्रीपार्श्वनाथ वे ते समदृष्टिवाला बे, पर जावां वर्त्तता नथी. वली केहवा बे ? तो के ( प्रजुः के० ) समर्थ दे ||२५|| हवे चोवीशमा श्रीमान स्वामीने स्तवे बे. श्रीमते वीरनाथाय, सनायायाद्भुतश्रिया ॥ मदानंदसरोराज, मरालायार्दते नमः ॥ २६ ॥ अर्थ:- ( ० ) अरिहंत एवा ( वीरनाथाय के० ) श्रीमहावीर स्वामी तेमने ( नमः के० ) नमस्कार था. ते अरिहंत केहवा बे ? तो के ( श्रीमते के० ) केवल ज्ञानरूप बे धन जेने तथा वली केहवा बे ? तो के (तश्रिया के०) व महाप्रातिहार्य तथा चोत्रीश यतिशयादिक जे अद्भुत लक्ष्म। तेणें करीने ( सनाथाय के० ) सहित बे. वली केहवा बे ? तो के (महानंद के० ) महानंदरूप ( सरः के० ) सरोवर तेने विषे की मा करवाने ( राजमरालाय के० ) राजहंस नामा पक्षीनी तुल्य बे ॥ २६ ॥ जयति विजितान्यतेजाः सुरासुराधीश सेवित श्रीमान् ॥ विमलस्त्रासविरदित, स्त्रिभुवन चूमामणिर्भगवान् ॥ २७ ॥ अर्थः- ( विजितान्यतेजाः के० ) विशेष करी जींत्युं वे अन्यनुं तेज जे (सुरासुराधीश के० ) सुर ने असुर, तेना जे इंद्रो तेमणें (से वितः के० ) सेवेला बे जेमने, तथा वली केहवा बे ? तो के ( श्रीमान् के०) केवल ज्ञानरूपलक्ष्मीवंत ठे वली केहवा बे? तो के ( विमलः के० ) नि मलबे, तथा ( त्रासविरहितः के०) सप्तजयरूप त्रास ते थकी विशेष कर रहित बे, तथा वली केहवा बे ? तो के ( त्रिभुवन के० . ) त्रण जुवनने विषे ( चूकामणिः के०) मुकुटसमान बे. एवा ( जगवान् के० ) कैश्वर्यगुणयुक्त प्रभु ते, ( जयति के० ) जयवंता वर्त्ते बे ॥ २७ ॥ वीरः सर्वसुराऽसुरेंद्रमदितो, वीरं बुधाः संश्रिताः, वीरेणादितः स्वकर्मनिचयो, वीराय नित्यं नमः ॥ वीरात्तीर्थमिदं प्रवृत्तमतुलं, वीरस्य घोरं तपो, वीरे श्रीधृतिकीर्त्तिकांति निचयः, श्रीवीर! नवं दिश ॥२८॥ अर्थ: - ( सर्व के० ) समग्र ( सुर के० ) वैमानिक देवता (सुर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ प्रतिक्रमण सूत्र, के०) नवनपत्यादिक देवता, तेमना जे (इंछ के) इंस्रो बे, तेमणे (महितः के) पूजित एवा बे, वली वीर नगवान् केहवा जे? तो के (वीरः के) वीरस्वामी बे, अर्थात् वीर जेमनुं नाम डे अने ए पूर्वोक्त विशेषणे युक्त जे (वीरंके) वीरस्वामी ते प्रत्ये (बुधाः के०) पंमितो, (संश्रिताः के०) आश्रय करी रहेला . तथा (वीरेण के) वीरखामीयें (वकर्म निचयः के०) पोता ना कर्मनो निचय जे समुदाय, ते (अनिहतः के ) समस्तप्रकारें हण्यो बे. एवा ( वीराय के० ) वीरस्वामीने ( नित्यं के ) निरंतर ( नमः के) नमस्कार था. तथा ( वीरात् के०) वीरथकी (दं के०) आ (तीर्थं के०) प्रत्यद चतुर्विधसंघरूप तीर्थ अथवा छादशांगीश्रुतरूप तीर्थ, (प्रवृत्तं के ) प्रवत्र्यु ले. ते तीर्थ केहबुं बे ? तो के (अतुलं के) नथी उ. पमा जेने एबुं बे, तथा ( वीरस्य के० ) वीर नगवान- ( तपः के) तप, ते (घोरं के०) कायर प्राणीयें आचरवु घणुं कठिन , तथा ( वीरेकेण्) श्रीवीरस्वामीने विषे ( श्री के० ) केवलज्ञानरूप लक्ष्मी, तथा (धृतिके०) धैर्य, ( कीर्ति के) कीर्ति तथा ( कांति केण्) अनुतरूप, तेनो ( निचयः के०) समूह ते वर्ते बे, एवा ( श्रीवीर के०) हे श्री वीर स्वामिन् ! तमो (नई के०) कल्याण प्रत्ये (दिश के ) आपो ॥ २७ ॥ हवें सर्व जिनचैत्यने नमन करवाने कहे . अवनितलगतानां कृत्रिमाऽकृत्रिमानां, वरन्नुवनगता नां दिव्यवैमानिकानाम् ॥ इह मनुजकृतानां देवराजा चितानां, जिनवरजुवनानां नावतोऽदं नमामि ॥७॥ अर्थः-(अवनितलगतानां के०) पृथ्वीना तलने विषे रहेलां एवां (कृत्रिमाऽकृत्रिमानां के) कृत्रिम एटले करेलां अने अकृत्रिम एटले नहिं करे लां एटले अशाश्वतां अने शाश्वतां एवां जे चैत्य, तथा (दिव्यवैमानिकानां के) वैमानिक देवो अने नवनपति व्यंतरादिक देवो, तेनां (जुवन के) श्रेष्ठघर तेने विषे (गतानां के०) रह्यां एवां, तथा (इह के०) आ म. नुष्यलोकने विषे ( मनुजकृतानां के०) मनुष्य जे जरतादिक राजा प्रमुख तेमणे करावेलां एवां अने जेमने (देवराजार्चितानां के) देवतानां राजा जे तेणें अर्चित एटले पूजित कस्या एवा (जिनवर के०) सामान्य केव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलाऽर्दत् अर्थसहित. २०ए बी, तेने विष प्रधान एवा जे श्रीतीर्थंकर, तेमनां (जुवनानां केश) जुवन जे चैत्य एटले जिनप्रतिमा , तेमने (जावतः के० ) जावथकी (अहं के०) हुँ ( नमामि के) नमस्कार करुं बुं ॥ ए॥ सर्वेषां वेधसामाद्य, मादिमं परमेष्ठिनम् ॥ देवा । धिदेवं सर्वज्ञ, श्रीवीरं प्रणिदध्महे ॥३०॥ अर्थः-( सर्वेषां के ) सर्व एवा (वेधसां के०) ज्ञाता पुरुषो ते मध्ये (आद्यं के०) प्रथम मुख्य एवा तथा (आदिमं के०) आदिम (परमेष्ठि नं के०) परमेष्ठिरूप एवा तथा (देवाधिदेवं के०) देवताउँना देव जे इंस तेना पण देव एवा तथा (सर्वज्ञ के ) सर्व पदार्थने जाणनारा एवा, (श्रीवीरं के) श्रीवीर नगवान् तेमनु (प्रणिध्महे के०)प्रकर्षे करी ध्यान करीयें बैयें ॥३०॥ देवोऽनेकनवार्जितोर्जितमदापापप्रदीपानलो, देवः सिध्विधूविशालहृदयाऽलंकारहारोपमः ॥ देवो ऽष्टादशदोषसिंधुरघटानिर्नेदपंचाननो, नव्यानां विदधातु वांबितफलं श्रीवीतरागोजिनः ॥ ३१॥ अर्थः-(श्री वीतरागः के) श्रीवीतराग एवा ( जिनः के) जिन ते(जव्यानां के ) नव्यजीवोने (वांछितफलं के०) वांडित एवा फनने (विदधातु के७) आपो. ते (देवः के०) वीतराग देव केहवा जे ? तो के (अनेक के०) अनेक एवा (जव के) जवकोमाकोमीने विषे (अर्जित के) संचेलां अने (ऊर्जित के०) घणां एवां जे (महापाप के०) महोटां पाप, तेने (प्रदीप के०) प्रकर्षे करी बालवाने अथ (अनलः के०) अग्निसमान , वली ते केहवा ? तो के (देवः के०)देव बे, एटले प्रकाशयुक्त बे, तथा वली केहवा बे? तो के (सिझिवधू के) मोदरूप जे स्त्री, ते संबंधी ( विशालहृदय के) विशाल हृदय तेने विषे (अलंकारहारोपमः के०) अलंकारहारनी उपमा जे जेमने एवा . वली ( देवः के०) देव केहवा जे? तो के (अष्टा दशदोष के ) अढार दोष तप जे (सिंधुरघटा के ) गजघटा तेहने (निर्जेद के) नेदवाने (पंचानन के के ) केसरी सिंह समान बे॥३१॥ २७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० प्रतिक्रमण सूत्र. ख्यातोऽष्टापदपर्वतोगजपदः सम्मेतशैलाभिधः, श्रोमा न रैवतकःप्रसिध्मदिमा शQजयो मडंपः॥ वैनारःकन काचलोऽबुंदगिरिःश्रीचित्रक्टादय,स्तत्र श्रीशषनादयो जिनवराः कुर्वतु वो मंगलम् ॥ ३२ ॥ इति ॥५॥ अर्थः-( ख्यात के० ) प्रख्यातवंत एवो, (अष्टापदपर्वतः के) अ ष्टापद पर्वत, तथा ( गजपदः के०) गजपद पर्वत, वली ( सम्मेतशैलानि धः के) सम्मेतशिखरनामा पर्वत, तथा ( श्रीमान् के) लदमीवंत एवो ( रैवतकः के०) रेवताचल ते गिरनार पर्वत, तथा (प्रसिद्धम हिमा के) प्रसिफ महिमा जेनो एवो (शत्रुजयो मंगपः के) श्रीसिझगि रिमंझप पर्वत, वली (वैनारः के० ) वैनार पर्वत, तथा ( कनकाचलः केण ) मेरुपर्वत, तथा ( अर्बुद गिरिः के० ) आबू पर्वत, तथा (श्रीचित्र कूटादयः के०) श्रीचित्रकूटादिक पर्वतो जे जे (तत्र के) तेने विषे (श्रीष नादयः के०) श्रीषनादिक (जिनवराः के०) जिनवरो बे, एटले सामान्य केवलीने विषे प्रधान एवा तीर्थंकरो बे, ते (वः के०) तमाळं (मंगलंके०) कल्याण तेने (कुर्वंतु के० ) करो ॥ ३५ ॥ इति सकलाईत्संपूर्णम् ॥५॥ ॥ अथ श्रीश्रावकपादिकादिसंदेपातिचारा लिख्यते ॥ ॥ नाणंमि दसणंमि अ, चरणंमि तवंमि तहय विरियमि ॥ आयरणं आयारो, श्श्र एसो पंचहा नणि ॥१॥ ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्रा चार, तपाचार, वीर्याचार. ए पंचविध आचारमांहि अनेरो जे को अति चार, पद दिवसमांहे सूक्ष्म, बादर, जाणतां, अजाणतां, हु हुश, ते सवि हुं मन, वचन, कायायें करी तस्स मिला मि मुकनं ॥१॥ तत्र ज्ञानाचार आठ अतिचार ॥ काले विणए बहुमाणे,उवहाणे तहय निन्दवणे ॥ वंजण अब तऊनए, अहविहो नाणमायारो॥२॥ ज्ञान का लवेलायें लण्यो, गण्यो विनयहीन, बहुमानहीन,योग उपधानहीन, अनेरा कन्हें जणी, अनेरो गुरु कह्यो. देववंदन वादणे, पमिकमणे, सजाय कर तां, जणतां, गुणतां, कूमो अदर, कान्हा मात्रे, आगलो उडो जण्यो सूत्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक पाक्षिकादि संदेपा तिचार. २११ बेटू कूका कला, साधु तणे धर्मों काजो मांगो, अप मिलेयां. काजो अण उद्धरिजं, असकाइ प्रणोफामांहि दशवैकालिक प्रमुख सिद्धांत जयो year. श्रावक धर्मै थिविरावलि, पक्किमणासूत्र, उपदेशमाला प्रमुख कालवेला काजो अणउद्धरिये पढियो ज्ञानद्रव्य नक्षित, उपेक्षित प्रज्ञा पराध विणा सियो, विणसतां उवेखियो, सार संजाल न कीधी तथा ज्ञानो पगरण पाटी, पोथी, ठवणी, कवली, नोकरवाली सांपमा, सांपमी, दस्तरी वही, उलिया प्रत्यें पग लागो, थुंक लागो, थूकें करी अक्षर मांज्यो, कन्हें हार निहार की धो, ज्ञानवंत प्रत्यें द्वेष, मत्सर, अंतराय, अवज्ञा कधी आपणा जाणवा तो गर्व चिंतव्यो ॥ ज्ञानाचारवत विष रोजे को अतिचार प० ॥ १ ॥ ने दंसणाचार व तिचार || निस्संकिय निक्कंखिय, निष्वितिगिष्ठा अ मूढ दिट्ठी ॥ ववुह थिरीकरणे, वबलप्पनावणे अ॥ ३ ॥ देव गुरु धर्म त विषे निःशंकपणुं न कीधुं तथा एकांत निश्चय न कीधो. धर्म संबधिया फलतणे विषे निस्संदेह बुद्धि धरी नहीं. तपोधन तपोध नी प्रत्यें मलम लिन गात्र देखी डुगंछा कीधी. मिथ्यात्वी ती पूजाप्रजा वना देखी मूढदृष्टिपणं कीधुं तथा संधमांहि गुणवंत ती अनुपवृंद कधी स्थिरीकरण, वात्सल्य, प्रीति, यक्ति की धी. तथा देव द्रव्य, गुरुद्रव्य, साधारणद्रव्य, जक्षित, उपेक्षित, प्रज्ञापराध विणास्यो. विसतो वेख्यो. बती शक्तियें सार, संजाल न कीधी, तथा साधर्मिकशुं कलहकर्मबंध की धो. अधोती अष्टपट मुखकोश पाखें देवपूजा कीधी. वा सकूंपी, धूपधाएं, कलश तणो ठबको लागो, देहरा पोसालमांहि मलश्ले ष्म लूह्यां. हास्य, केलि, कुतूहल कीधां. जिनवनें चोराशी श्राशातना गुरुप्रत्यें तेन्रीश शातना. उवणहारी हाथथकुं पयुं, पकिलेहवं विसा . गुरुवचन तदत्ति करी परिवज्युं नहीं ॥ दंसणाचार व्रत विषश्यो थ नेरो जे को अतिचार प० ॥ २ ॥ चारित्राचार व अतिचार || पणिहाण जोगजुत्तो, पंचहिं समिि तिहिं गुत्तिहिं ॥ एस चरित्तायारो, विहो होइ नायवो ॥४॥ ईर्यासमि ति, जापासमिति, एषणासमिति, आदानजांग निरकेवणासमिति, पारिछा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१‍ प्रतिक्रमण सूत्र. व पियासमिति, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति एष्ठ प्रवचन माता तणे धर्मे, सदैव साधु श्रावक तो धर्मों, सामायिक पोसह लीधे, रूमी पेरें चितव्यं नहीं, खंगण, वीराधना कीधी ॥ चारित्राचार व्रतविषश्यो अनेरो जे को अतिचार प० ॥ ३ ॥ विशेषतः श्रावकतणे धर्मे सम्यक्त्व मूल बारव्रत सम्यक्त्व तणा पांच तिचार || संका कंख विगिछा० ॥ संकाः - श्री अरिहंत तणां बल, अतिश य, ज्ञान, लक्ष्मी, गांजीर्यादिक गुण, शाश्वती प्रतिमा, चारित्रियानां चारित्र, जिनवचनतणो संदेह की धो ॥ १ ॥ आकांक्षा:- ब्रह्मा, विष्णु, महेश्व र, क्षेत्रपाल, गोगो, आसपाल, पादरदेवता, गोत्रदेवता, देवदेहरानो प्रजाव देखी रोग यावे, इह लोक परलोकार्थै पूज्या, मान्या. बौद्ध, सांख्य, संन्या सी, जरडा, जगत, लिंगीया, योगी, दरवेश, अनेराइ दर्शनीयानुं कष्ट मंत्र, चमत्कार देखी, परमार्थ जाण्या विण मूलाव्या. मोह्या, कुशास्त्र शी ख्यां, सांजल्यां. श्राऊ, संवत्सरी, होली, बलेव, माहीपुंनम, श्रजापमवो, प्रेतबीज, गौरीत्रीज, विणायगचोथ, नागपंचमी, जिल्ला बघ, शीयलस समी, ध्रुवअष्टमी, नोली नवमी, अहवदशमी, व्रत इग्यारसी, वत्सबारसी धनतेरसी, अनंत चौदसी, श्रमावास्या, श्रादित्यवार, उत्तरायन, नैवेद्य याग, जोग, मान्या. पीपले पाणी रेड्यां, रेमाव्यां. घर बाहिर, कू, तलाव, नदी, प्रह, कुंड, वाव्य, समुझें, पुण्यहेतु स्नान कां ॥ २ ॥ विि गिष्ठाः - धर्मसंबंधीयां फलतणो संदेह कीधो जिना रिहंत धर्मना श्रागा, र, विश्वोपकारसागर, मोक्षमार्गना दातार, इस्या गुण जणी पूज्या नहिं इहलोक परलोक संबंधीया जोगवांछित पूजा कीधी रोग, श्रातंक कष्ट वे खीण वचन याग मान्या. महात्माना जात, पाणी, मलशोजा ती निंदा कीधी ॥३॥ प्रीति मांगी ||५|| तेहनी दा दिए लगें, तेहनो धर्ममान्यो ॥ ५ ॥ श्री सम्यक्त्व व्रतविषश्यो अनेरो जे कोइ ० प० ॥ ४ ॥ पहेले स्थूल प्राणातिपात विरमणव्रतें पांच प्रतिचार ॥ वह बंध - ० ॥ द्विपद चतुष्पद प्रत्यें रीषवरों गाढो घाय घाल्यो. गाढ बंधन वांध्यं, घणे नारें पीड्यो, निलंबण कर्म कीधुं, चारा पाणी ती वेलायें सार संजाल न कीधी. लेणे, देणे कुणहने उढ्युं, लंघाव्युं, तेणें भूखें आपण ज म्या, शक्ष्यां धान्य रूडी पेरें जोयां नहीं, पाणी गल्लतां ढोल्युं, जीवाणी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक पादिकादि संदेपातिचार. १३ शूकव्युं, गलतां कालक नाखी, गलगुं रूहुंन कीg. इंधण, बाणां, अणशो ध्यां बाल्या. तेमांही साप, खजुरा, विंठी, सरोला, मांकम, जूवा, गीगोमा साहतां मूश्रा, उहव्या, रूडे स्थानकें न मूक्या कीडी, मंकोमी, उदेही, घी मेल, कातरा; चुडेल, पतंगीया, देमकां, अलसीयां, श्यल प्रमुख जे कोश जीव विणग, विणसता उवेख्यां, चाप्या, उहव्या, हलावतां, चलावतां,पाणी बांटतां, अनेराश् काम काज करतां, निध्वंसपणुं कीधु.जीवरदा रूडी न की धी॥पहेले स्थूलप्राणातिपातव्रतविषश्यो अनेरोजे कोअतिचार प० ॥५॥ बीजे स्थूलमृषावाद विरमणबतें पांच अतिचार ॥ सहस्सा रहस्स दा रे॥ सहसात्कारें कुणहप्रत्ये अयुक्त आल दीधुं. स्वदारामंत्रनेद कीधो. अ नेराश् कुणहनो मंत्र आलोच मर्म प्रकाश्यो, कुणहने अपाय पामवा कूमी बुद्धि धरी, कूडो लेख लख्यो, जूठी साख जरी, थापणमोसो कीधो. कन्या, ढोर, नूमि संबंधिया लेहणे, देहणे, वाद वढवाम करतां मोटकुं जूतुं बोल्या ॥ बीजे स्थूलमृषावादव्रत विषश्यो अनेरो जे को० ॥पददि ॥६॥ त्रीजे स्थूलअदत्तादान विरमणव्रतें पांच अतिचार ॥ तेनाहडप्पउँगे॥ घर बाहिर, खेत्र, खले, परायुं अणमोकल्युं लीधुं, वावगुं, चोराक्ष वस्तु लीधी, चोर प्रत्ये संबल दीधुं, विरुङ राज्यादि कर्म कीधुं. कूमां मान, मापां कीधां. माता, पिता, पुत्र, मित्र, कलत्र, वंची कुणहने दीधुं. जूदी गांठ कीधी. नवा जुना सरस नीरस वस्तु तणा नेल संनेल कीधा ॥त्रीजे अ दत्तादान व्रतविषश्यो अनेरो जे कोश् अतिचार पदा० ॥७॥ __ चोथे खदारासंतोष परस्त्रीविरमणव्रतें पांच अतिचार ॥ अपरिग्गहि या इत्तर ॥ अपरिगृहीतागमन कीg, अनंगक्रीमा कीधी, विवाह कारण कीg, कामनोगतणे विषे अति अनिलाष कीधो, दृष्टिविपर्यास कीधो, आठम, चउदश तणा नियम खेर नांग्या. अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचा र, अनाचार, सुहणे खप्नांतरें हुआ ॥ चोथे मैथुन विरमणबत विषश्यो अनेरो जे को अतिचार पद दिवस ॥७॥ पांचमे स्थूलपरिग्रह परिमाणवतें पांच अतिचार ॥ धण धन्न खित्त वनू ॥ धण धन्ननुं परिमाण उपलं रखाव्यु. सोनु, रू', नवविध परिग्रह प्रमाण लीधुं नहीं, पढवू विसायुं ॥ पांचमे परिग्रहपरिमाणव्रत विषश्यो अनेरो जे कोश् अतिचार पद दिवस ॥ ए॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ प्रतिक्रमण सूत्र. हे दिविरमणव्रतें पांच प्रतिचार ॥ गमणस्य परिमाणे० ॥ उदि शें, हो दिशैं, तिर्यग् दिशें, जावा याववा तथा नियम लेइ नांग्या. एक दिशि संदेपी, बीजी दिशि वधारी विस्मृत लगें अधिक भूमि गया. पा, daणी घी मोकली. वहाण व्यवसाय कीधो, वर्षाकाले गामतरुं की धुं ॥ विरमण विषयो ने जे कोइ अतिचार प० ॥ १० ॥ सातमे जोगोपनोगतें पांच प्रतिचार ॥ सचित्ते पनिबद्धे ० ॥ सचिहारे, सचित्त प्रतिबद्ध याहारे, अप्पोलस हिनरकण्या, टुप्पोलसहि जरकण्या, तुहोस हिरकण्या, सचित्तनरकण्या, अपक्काहारे, दुःपक्काहारे औषधि कुली बली, उला, जंबी, पड़ोंक, पापमी तणां जक्षण कीघां, अनंतकाय, अथाणां तणां जक्षण कीधां तथा रींगण, विंगण, पीलु पीचु, पंपोटा, महूम, वडबोर प्रमुख बहुबीज तणां जक्षण कीधां ॥ गाथा ॥ सचित्त व विग, वाद तंबोल व कुसुमेसु || वाहण सयण विलेवण, बंज दिसी नाण जत्सु ॥ १ ॥ एचद नियम दिनप्रत्यें लीधा नहीं, लेइ संदेप्या नहीं, सचित्तद्रव्य, विगय, खासमां, वाहन, तंबोल, फोफल, बेसण, शयन, पाणी, अंघोलणें, फल, फूल, जोजन, वादनें, जे कोइ नियम लेइ नांग्या. बावीश अजदय, वत्रीश अनंतकायमांहि यदू, मूला, गाजर, पीक, पींमालु, कचुरो, सूरण, खिलोकां, मोरडा, सेलरां, कुली थांबली, वाधरडां, गिरमर, नीली गलो. वाल्होल खाधी. वाशी कठोल, पोली, रोटली, त्रण दिवसना - दन, मधु, महुड, विष, हिम, करहा, घोलबडां, अजाण्यां फल, टीबरु, गुंदां, बोर, थाणुं, काचुं मीतुं, तिल, खसखस, कोटिंबकां खाधां. लगबग वेलायें बालू कीधां. दिन उग्या विण शीराव्या. जे कोइ अनेरो अतिचार हु होय ॥ तथा कर्मतः इंगालकम्मे, वणकम्मे सामी कम्मे, जामी कम्मे फोड | कम्मे, ए पांच कर्म ॥ दंतवाणिज्य, लकवाणिज्य, रसवाणिज्य, विषवाणि ज्य, केशवाणिज्य, ए पांच वाणिज्य || जंत पिल्लणकम्मे, निलंबणकम्मे, दवग्गिदावण्या, सरद्दहतलायसोसण्या, सईपोसण्या ॥ ए पांच सामान्य, ए पन्नरकर्मादानमांहि कीधां, कराव्यां, अनुमोद्यां, अनेरां कां सावध कर्म समाचस्यां होय ॥ सातमे जोगोपजोग व्रत विषयो अनेरो० ॥०॥११॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक पादिकादि संदेपातिचार. आठमे अनर्थदंमवतें पांच अतिचार ॥ कंदप्पे कुक्कुश्ए० ॥ अनर्थ दंग जे कहियें, काम काज पाखें मुधा पाप लाग्यां. मुखहास्य, खेल, कुतू हल, अंगकुचेष्टा कीधी, निरर्थक लोकने कर्षण, गामां वाही, ग्रामांतरें क मावानी बुद्धि दीधी. कण, वस्तु, ढोर लेवराव्या. अनेराश् पापोपदेश दीधा. कोश, कूहामा, रथ, उखल, मूशल, घर घंटी प्रमुख सङ करी मेटयां. माग्यां आप्यां. अंघोल नाहणे, पगधोयणे, खालें पाणी ढोल्यां. अथवा कीलणां जील्यां, जूवटुं रम्या, नाटक पेखणां जोयां, पुरुष स्त्रीनारूप, शृंगार वखाण्या. राजकथा, देशकथा, नक्तकथा, स्त्रीकथा, पराश् तांत कीधी. ककैश वचन बोल्या, संन्नेमा लगाड्या. शरज, कूकमा प्रमुख जूझता जोया. कलह करता जोया, लोक तणी उपार्जना कीधी, सुखकीर्ति देश लश् चिं तवी. खूण, पाणी, माटी, कण, कपाशिया काजविण चाप्या. ते उपरें बेग, आली वनस्पति चूंटी, अंगीठा काष्ठ वणिज कीधां. बाश पाणी, घी, तेल, गोल, आम्लवेतस, बेरंजा तणां नाजन उघामां महेल्या. तेमां हे कीमी, मंकोमी. कुंथुथा, उदेही, घीमेल, घिरोली प्रमुख जे को जीव विणग. शूमा, सालही, क्रीमाहेतु पांजरे घाख्या ॥ अनेराश् जीवने राग वेष लगें एकने झकि परिवार वांडी. एकने मृत्युहाणी वांगी ॥ आठमे अनर्थदंमत्रत विषश्यो अनेरो जे कोश् अतिचार पक्षः ॥ १५ ॥ __ नवमे सामायिकतें पांच अतिचार ॥ तिविहे पुप्पणिहाणे ॥ सामा यिकमांहि मन आहट्ट दोहट्ट चिंतव्युं, वचन सावद्य बोल्यु. शरीर अणप मिलेयु हलाव्यु. बती शक्तियें सामायिक लीधो नहीं, उघाडे मुखें बोल्या, सामायिकमांहि जंघ श्रावी, वीज दीवा तणी उजेही लागी, विकथा की धी. कण, कपाशिया, माटी, पाणी तणा संघट्ट हुआ. मुहपत्ती संघट्टी, विषश्यो अनेरो जे को अतिचार प० ॥ १३ ॥ ___ दशमे देशावगाशिक व्रतें पांच अतिचार ॥ आणवणे पेसवणे ॥ आण वणप्पलेंगे, पेसवणप्पउँगे, सदाणुवार, रूवाणुवाई, बहियापुग्गलकेवे ॥ नीमी नूमिकामांहिथी बाहिर अणाव्यु. आपण कन्हेथी बाहिर मोकट्यु, शब्द संजलावी, रूप देखाडी, कांकरो नाख्यो. आपणपणुं तुंजणाव्यु. पुन लतणो प्रदेप कीधो ॥ दशमे देशावगाशिकवत वीषश्यो अनेरोपण॥ अग्यारमे पौषधोपवासव्रतें पांच अतिचार ॥ संथारुच्चारुविहि ॥ पो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ प्रतिक्रमण सूत्र. सह लीधे संथारा तणी नूमि बाहिरलां मिलां संदीसे रूमां शोध्यां नहीं. पमिलेह्यां नहीं. थं मिल वावरतां. मा परग्वतां, चिंतवणी न कीधी. 'अ णुजाणह जस्सगो' न कह्यो. परतव्यां पूठे वार त्रण वोसिरे, वो सिरे न कह्यो. देहरा पोसालमांहे पेसतां, निसरतां, निसहि श्रावस्सहि कहेवी विसारी. पुढवी, अप्प, तेज, वाउ, वनस्पति, त्रसकायतणा संघट्ट,परिताप, उपजव कीधा. संथारा पोरिसी तणो विधि नणवो विसास्यो, अविधियें संथास्या. पारणादिक तणी चिंता निपजावी. कालवेलायें देव न वांद्या. पोसह असूरो लीधो, सवारो पास्यो, पर्वतिथे पोसह सीधो नहीं ॥ अ. ग्यारमे पोषधोपवासव्रतविषश्यो अनेरो जे को अतिचार प० ॥ १५ ॥ ___ बारमे अतिथिसंविनागव्रतें पांच अतिचार ॥ सचित्ते निरिकवणे ॥ सचित्त वस्तु हेगं उपर उतां असूजतुं दान दीधुं. वहोरवा वेला टली रह्यां. मत्सर लगें दान दीधुं. देवातणी बुझें पराश् वस्तु धणीने अण कहे दीधी, अथवा आपणी करी दीधी.अणदेवातणी बुझें सूफतुं फेमी,असूफतुं कीधुं. गुणवंत आवे नक्ति न साचवी, अनेरा धर्मदेत्र सीदातां बती शक्ते उमस्या नहीं. दीन, खीनप्रत्ये अनुकंपा दान दीधुं नहीं. देतां वाद्ये ॥ बा रमे अतिथिसंविनागवत विषश्यो अनेरो जे कोश् अतिचार प० ॥ १६ ॥ संलेषणा तणा पांच अतिचार ॥ इहलोए परलोए ॥ इहलोगासंसप्प उंगे, परलोगासंसप्पउँगे, जीवियासंसप्पळगे, मरणासंसप्पळगे, कामनोगासंसप्पउँगे. इहलोकें धर्मतणा प्रत्नाव लगें राजझलि जोग वांड्या. परलो. के देव, देवें चक्रवर्तीतणी पदवी वांठी. सुख आवे जीववा तणी वांबा कीधी. पुःख आवे मरवा तणी वागं कीधी. काम जोगतणी वांग कीधी॥ संलेषणाव्रतविषश्यो अनेरो जे कोश् अतिचार प० ॥ १७ ॥ तपाचारना बार नेद ॥ बाह्य, अन्यंतर ॥ अणसणमूणोअरिया ॥ अणसण नणी उपवासादिक पर्वतिथि तप न कीg. ऊणोदरी बे चार कवल ऊणा न उठ्या, अव्य नणी सर्व वस्तु तणो संदेप न कीधो. रसत्याग न कीधो. कायक्लेश लोचादि कष्ट कस्यां नहीं. संलीणतां अंगोपांग संको. ची राख्यां नहीं, पञ्चरकाण नांग्यां, पाटलो मगतो फेड्यो नहीं, गंठसही पच्चरकाण नांग्यु, उपवास, आंबील, नीवि कीधे मुखें सचित्त पाणी घाव्यु, विमन हु ॥ बाह्यतपव्रत विषश्यो अनेरो जे कोश् अतिचार प०॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक पाक्षिकादि विस्तारातिचार. งง अभ्यंतर तप पायवित्तं वि० ॥ सुधुं प्रायवित्त परिवज्युं नहीं, श्रालोण ती सूधी टीप कीधी नहीं, सूधो तप पहोंचाड्यो नहीं, साते नेदें विनय न कीधो, दश नेदें वैयावच्च न कीधो, पंचविध सजाय न कीधोकषाय वोसराव्यो नहीं, दुःखक्षय कर्मक्षय निमित्त काउस्सग्ग न कीधो, शुक्लध्यान, धर्मध्यान, ध्यायां नहीं खार्त्त, रौद्र, ध्यान ध्यायां ॥ अभ्यंतर तप व्रत विषयो नेरो जे कोइ अतिचार पक्ष दिवसमांहि दुवो० ॥ १ वीर्याचार प्रण अतिचार ॥ अगूहिय बलविरियो० ॥ मनोवीर्य, धर्म ध्यान तो विषे उद्यम न की धो. पडिकमणे देवपूजा धर्मानुष्ठान, दान, शील तप, जावना, बती शक्तियें गोपवी, आलसें उद्यय न कीधो, बेगं पमिक्क मणुं कीधुं, रूमां खमासमण न दीघां ॥ वीर्याचार विष ने रो० ॥२०॥ सिद्धाणं करणे० ॥ प्रतिषेध, अजय, अनंतकाय, महापरिग्रह, जे कोइ प्राणातिपात, मृषावाद, श्रदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोज, राग, द्वेष, कलह, श्रन्याख्यान, पैशुन्य, रति रति, परपरिवाद, मायामृषावाद, मिथ्यात्वशस्य. ए अढार पापस्थानकमांहे कीधां, कराव्यां, अमोघ हुए, ते सविहुं मन, वचन, कायायें करी मित्रामि डुक्कडं ॥२१॥ एवंकारें साधु श्रावकतणें धर्मे सम्क्त्वमूल बार व्रत, एकशो चोवीश तिचार पक्ष दिवसमा सूक्ष्म, बादर, जाणतां जाणतां दुवो दुइ, ते सवि हुं मन, वचन, कायायें करी मिठामि डुक्करुं ॥ २२ ॥ इति ॥ ५३ ॥ ॥ श्रथ श्रावकपाक्षिकादि विस्तारातिचार प्रारंभः ॥ ॥ नाणं मि दंसणं मिश्र, चरणमि तवंमि तहय विरियंमि ॥ श्ररणं श्रायारो; श्र एसो पंचढ़ा जरियो ॥ १ ॥ ज्ञांनाचार, दर्शनाचार चारित्रा चार, तपाचार, वीर्याचार, ए पंचविध श्राचारमां अनेरो जे कोइ अति चार पक्ष दिवसमांहे सूक्ष्म, बादर, जाणतां अजाणतां दुर्ज होय, ते सवि ढुं मनें, वचनें, कायायें करी तस्स मिठा मि डुक्करं ॥ १ ॥ तत्र ज्ञानाचारें श्राव अतिचार | काले विषए बहुमाणे, उवहाणे त दय निन्दवणे ॥ वंजण अब तडुनए, अहविहो ना मायारो ॥ २ ॥ ज्ञा न कालवेलामा नपि गुणितं नदिं, श्रकालें जयो. विनयहीन, बहुमा नहिन, योगउपधानहीन, अनेरा कन्हे जी अनेरो गुरु को, देव गुरु वांदणे पक्किमणे सजाय करतां जातां गुणतां. कूमो अक्षर कान्हे, २८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ प्रतिक्रमण सूत्र. मात्रे अधिक jaो जयो सूत्र कुरूं कस्युं. अर्थ कूको कह्यो, तडुजय कूमां कां. जीनें विसाख्यां साधु तणे धर्मकाजें काजो जरूरये, मांगो एप मिले, वस्ती श्रणशोधे, अणपवेसे, सजाय, श्रणोकायमांदे श्रीदश वैकालिक प्रमुख सिद्धांत जण्यो, गुण्यो, श्रावकतणे धर्मे थिविरावलि, पि कमणां, उपदेशमाला प्रमुख सिद्धांत जण्यो, गुण्यो, कालवेला काजो ए उस्ये पढियो. ज्ञानोपगरण पार्टी, पोथी, ठवणी, कवली, नोकरवाली. सांपमां, सांपमी, दस्तरी, बड़ी, उलियाप्रमुख प्रमुख प्रत्यें पग लाग्यो, थुंक ला ग्यो थूकें करी अक्षर मांज्यो, उशीशें धस्यो. कन्हें बतां श्राहार निहार कीधो. ज्ञानद्रव्य जतां उपेक्षा कीधी, प्रज्ञापराधें विपसतो विणाइयो. विणसतो वेख्यो, बती शक्तियें सार संजाल न कीधी. ज्ञानवंत प्रत्ये द्वेष मत्सर चिंतव्यो, अवज्ञा, आशातना कीधी. कोईप्रत्यें जणतां, गुणतां, अंतराय कीधो, आपणा जाणपणातलो गर्व चिंतव्यो मतिज्ञान, श्रुतज्ञा न अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान, केवलज्ञान, ए पंचविध ज्ञानतणी सद हा कीधी. कोइ तोतो, बोबको हस्यो, वितक्यों, अन्यथा प्ररूपणा कधी ॥ ज्ञानाचात विष नेरो जे० ॥ प० ॥ १ ॥ दर्शनाचा दि " व अतिचार ॥ निस्सं किय निक्कंखिय, निद्वितिगिष्ठा अम् ॥ उबवूह थिरीकरणे, वञ्चलप्पजावणे अ ॥ ३ ॥ देव, गुरु, धर्म विषे निःशंकपणुं न कीधुं तथा एकांत निश्वय न कीधो. धर्मसंबंधि या फलतणे विषे निःसंदेहबुद्धि धरी नहिं. साधु, साधवीनां मल मलिन मात्र देखी डुगंधा निपजावी. कुचारित्रिया देखी चारीत्रिया उपर जा व दुर्ज. मिथ्यत्वी तर्ण पूजा प्रजावना देखी मूढदृष्टिपणं कीधुं तथा सं घमiहे गुणवंत ती अनुपबृंहणा कीधी. अस्थिरीकरण, वात्सल्य, अप्री ति, यक्ति निपजावी. बहुमान कीधो तथा देवद्रव्य, गुरुद्रव्य, ज्ञान द्रव्य, साधारण द्रव्य, जक्षित, उपेक्षित, प्रज्ञापराधें विषाश्युं विणसतां उवेख्युं, बती शक्तियें सार, संजाल न कीधी; तथा साधर्मिकसायें कलह क र्मबंध कीधो धोती, अष्टपडमुखकोश पाखें देवपूजा कीधी, बिंबप्रत्यें वास कुंपी, धूपधाएं कलशतणो वबको लाग्यो. बिंब हाथथकी पाडयुं. जवा स, निःश्वास लाग्यो. देहरे, उपाशरे, मलश्लेष्मादिक लूह्यां देहरामांदे हा स्य, खेल, केलि, कूतूहल, आहार, निहार, कीधा, पान सोपारी निवेदियां Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक पादिकादि विस्तारातिचार. खाधां-उवणहारि हाथथकी पाडी. पमिलेहद् विसाझुं, जिनजुवनें चोराशी थाशातना, गुरु,गुरुणी प्रत्ये तेत्रीश श्राशातना कीधी होय.गुरुवचन तहत्ति करी पनिवज्युं नहिं ॥ दर्शनाचार व्रतविषा अनेरो जे कोइ अति ॥२॥ __चारित्राचारे श्राग्थतिचार ॥ पणिहाण जोगजुत्तो, पंचहिं समिहिं तिहिं गुत्तीहिं ॥ एस चरित्तायारो, अहविहो होश नायवो ॥॥ र्यासमि ति, ते अणजोये हिंड्या. जाषासमिति, ते सावधवचन बोट्या. एषणास मिति, ते तृण मंगल अन्न, पाणी असूऊतुं लीधुं. श्रादाननंम्मत्तनिकेवणा समिति, ते अशन, शयन, उपगरण, मातरं प्रमुख श्रणपूंजी जीवाकुलनू मिकायें मूक्यु, लीधुं. पारिष्टापनिकासमिति, ते मलमूत्र, श्लेष्मादिक अणपूं जी जीवाकुलनूमिकायें परठव्यु. मनोगुप्ति, मनमा श्रात, रौष ध्यान ध्या यां. वचनगुप्ति, सावयवचन बोल्यो. कायगुप्ति, शरीर अणपमिलेयु हला व्यु. श्रणपूंजे बेगा. ए अष्ट प्रवचनमाता, ते सदैव साधुतणे धर्मे अने श्रावकतणे धर्मे सामायिक पोसह लीधे रूडी पेरें पाल्यां नहिं. खंगणावि राधनाः दुश्॥ चारित्राचारव्रतविष श्रनेरो जे कोइ० ॥३॥ विशेषतः श्रावकतणे धर्मे श्रीसम्यक्त्वमूल बार व्रत सम्यक्त्वतणा पांच अतिचार ॥ संकाकंख विगिला संकाः-श्रीअरिहंततणां बल, अतिशय ज्ञा नलक्ष्मी, गांजीर्यादिक गुण, शाश्वती प्रतिमा, चारित्रियानां चारित्र, श्री जिनवचन तणो संदेह कीधो. श्राकांदाः-ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, क्षेत्रपाल, गोगो, आसपाल, पादरदेवता, गोत्रदेवता, ग्रहपूजा, विनायक, हनुमंत, सु ग्रीव, वाली,नाह, इत्येवमादिक देश.नगर, ग्राम, गोत्र, नगरी, जूजूवा देवदे हेरांना प्रनाव देखी,रोग आतंक कष्ट श्रावे, श्ह लोक परलोकार्थे पूज्या; मा न्या. सिझ विनायक, जीराउलाने मान्यु; श्वयु, बौफसांख्या दिक, संन्यासी जरमा,नगत,लिंगिया,जोगिया,जोगी दरवेश, अनेरा दर्शनियातणो कष्ट, मं त्र,चमत्कार देखी, परमार्थ जाण्या विना नूलाव्या; मोह्या. कुशास्त्र शिख्यों; सांजल्यां. श्राफ, संवत्सरी, होली, बलेव, माहिपूनेम. अजा पमवो, प्रेतबी ज, गौरी त्रीज, विनायक चोथ, नागपंचमी, फिलणा बही, शील सात मी,ध्रुव आठमी, नोली नोमी, अहवा दशमी,व्रत ग्यारसी,वत्स बारसी, धन तेरसी, अनंत चउदसी,अने अमावास्या, आदित्यवार, उत्तरायण, नैवेद्य की धां, नवोदक याग, जोग, उतारणां कीधां, कराव्यां. अनुमोद्यां. पिंपले Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० प्रतिक्रमण सूत्र. पाणी घाख्यां, घलाव्या. घर बाहिरें क्षेत्रे खले, कूवें, तलावें, नदीयें, अहें वावें, समुझें, कुंनें, पुण्यहेतु स्नान कीधां कराव्यां, अनुमोद्यां, दान दीधा॥ ग्रहण, शनिश्चर, माहामासें नवरात्रि नाहाया, अजाणनां थाप्यां ॥ अनेराई बत व्रतोलां कीधां, कराव्यां॥ वितिगिलाः-धर्मसंबंधीया फलतणे विषेसंदेह कीधो, जिनअरिहंत धर्मना श्रागार, विश्वोपकारसागर, मोदमार्गना दा तार, इस्या गुण नणी न मान्या, न पूज्या. महासती माहात्मानी इहलो. क, परलोकसंबंधिया नोगवांछित पूजा कीधी. रोग, आतंक, कष्ट श्रावे, खि. न वचन लोग मान्या. महात्माना नात, पाणी, मलशोना तणी निंदा कीधी. कुचारित्रिया देखी चारित्रिया उपर कुन्नाव हु. मिथ्यात्वी तणी पूजा, प्रना वना देखी प्रशंसा कीधी.प्रीति मांमी.दाक्षिण्य लगें तेहनोधर्म मान्यो,कीधो, श्रीसम्यक्त्व विष श्रनेरो जे कोअतिचारपद दिवसमांहि हुवो हुष्ठ॥४॥ पहेले स्थूलप्राणातिपात विरमणव्रतें पांच अतिचार ॥ वह बंध विच्छे ए॥ छिपद, चतुष्पदप्रत्ये रीशवशे, गाढो घाव घाल्यो, गाढे बंधनें बांध्यां, अधिक जार घाट्यो, निाउन कर्म कीधां, चारा पाणी तण। वेलायें सार, संजाल न कीधी, लेहणे, देहणे, किणहीप्रत्ये लंघाव्यो, तेणें नूखें आपण जम्या,कन्हें रही मराव्यो, बंधीखाने घलाव्यो, शट्यां धान्य तावडे नाख्यां, दलाव्यां, नरमाव्यां, शोधी न वावस्यां, इंधण, गणां, अणशोध्यां बाल्यां, तेमांहे साप, विंडी, खजूरा, सरवलां, मांकम, जुश्रा, गिंगोमा, साहतां मु आ, उहव्या, रूंडे स्थानकें न मूक्या. कीमी, मंकोमीनां इंडां विछोह्यां. लीख फोमी, उदेही, कीमी, मंकोमी, घीमेल, कातरां, चूडेल, पतंगिया,दे मकां, अलसीयां, अल, कुंता, डांस, मसा, बगतरा, मांखी, तीम प्रमुख जीव विणव्या. माला हलावता, चलावतां, पंखी,चमकलां तथा काग तणां इं मां फोड्यां.अनेरा एकेडियादिक जीव विणाश्या, चाप्या, उहव्या. कांश हलावतां, चलावतां, पाणी बांटतां, अनेरा कांड काम काज करतां निर्वस पणुं कीधुं. जीवरदा रूडी न कीधी. संखारो शूकव्यो. रूमु गलगुं न की धुं. अणगल पाणी वावगुं. रूमी जयणा न कीधी. अणगल पाणीयें कीव्यां, खूगमां धोयां,खाटला तावडे नाख्यां, फाटक्या. जीवाकूलचूमि लीपी वाशी गार राखी. दलणे, खांगणे, लींपणे, रूमी जयणा न कीधी. श्राम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक पादिकादि विस्तारातिचार २२१ चदशना नियम जांग्यां, धूणी करावी ॥ पहेले स्थूलप्राणातिपात विरमण व्रतविष नेरो जे कोइ अतिचार पक्ष दिवसमांहे दुवो दुइ० ॥ ५ ॥ बीजे स्थूलमृषावाद विरमणत्रतें पांच श्रतिचार ॥ सहस्सारहस्सदारे० ॥ सहसात्कारें कुणही प्रत्यें अजुगतुं श्राल, अन्याख्यान दीधुं. खदारामंत्रद की. नेरा कुणहीनो मंत्र आलोच, मर्म प्रकाश्यो. कुणहीने - पावा कूडी बुद्धि दीधी, कूमो लेख लख्यो, कूमी साख जरी. थापमोसो की धो. कन्या, गौ, भूमि संबंधी लेहेणें, देहेणें, व्यवसाय वाद वढवा म करता मोटकुं जू बोल्या. हाथ, पग ती गाल दीधी, करकडा मोड्या. मर्म वचन बोल्यां ॥ बीजे स्थूलमृषावाद विरमणत्रत विष ने० ॥ ६ ॥ त्री स्थूलश्रदत्तादान विरमणव्रतें पांच प्रतिचार ॥ तेनाहरुप्पनुंगे० ॥ घर, बाहिर, खेत्र, खले, पराइ वस्तु णमोकली लीधी, वावरी, चोराइ वस्तु वहोरी, चोरधाडप्रत्यें संकेत कीधो तेने संबल दीधुं. तेहनी वस्तु लीधी, विरुद्धराज्यातिक्रम कीधो. नवा, पूराणा, सरस, विरस, सजीव, नि जीव वस्तुना जेल संजेल कीधा. कूडे काटले, तोलें, मानें, मापें, वहोरयां. दाचोरी कीधी. कुंणहीने लेखे वरांस्यो, साटे लांच लीधी. कूडो करहो काढ्यो विश्वासघात कीधो. परवंचना कीधी. पासंग कुंडा कीधा. डांडी चढावी. लहके, त्रहके कूमां काटलां, मान मापां कीधां माता, पिता, पुत्र कलत्र वंची कोने दीधुं. जुदी गांठ कीधी. थापण उलवी. कुणहीने लेखे पलेखे जोलव्युं. पकी वस्तु लवी लीधी ॥ त्री जे स्थूल अदत्तादान वि० ॥ ॥ चोथे स्वदारासंतोष परस्त्रीगमन विरमणत्रतें पांच प्रतिचार ॥ परिग्ग हियाइत्तर० ॥ अपरिगृहीतागमन ॥ इत्वर परिगृहीतागमन कीधुं. विधवा, वेश्या, परस्त्री, कुलांगना, खदाराशोकतणे विषे दृष्टिविपर्यास कीधो. सराग वचन बोल्यां. आठम, चन्दश, अनेरायें पर्वतियें नियम नांग्या. घरघरेणां कीधां. कराव्यां, वर वढू वखाण्यां. कुविकल्प चिंतव्यो नंग काकीधी, स्त्रीनां अंगोपांग निरख्यां पराया विवाह जोड्या ढिंगला ढिंगली पराव्या. कामजोगतणे विषे तित्र जिलाष की धो. अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार, सुहणे स्वप्नांतरे हुवा. कुस्वप्न लाधां, नटविट, स्त्री हांसुं कीधुं ॥ चोथा खदारासंतोषत्रत विष अनेरो जे कोई अतिचार प० ॥ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ प्रतिक्रमण सूत्र. पांच स्थूलपरिग्रहपरिमाणवतें पांच यतिचार ॥ धधन्न वित्तवन्नू० ॥ धन. धान्य, खेत्र, वास्तु, रुप्प, सुवर्ण, कुप्य, द्विपद, चतुःपद, नवविध परिग्रह तथा नियम उपरांत वृद्धि देखी, मूर्छा लगें संक्षेप न कीधो मा ता, पिता, पुत्र, स्त्रीत लेखे की धो. परिग्रह परिमाण लीधुं नहीं. लेइने पढिलं नहिं, पढनुं विसायुं, अलीधुं मेल्युं, नियम विसारया ॥ पांचमे परिप्र परिमाणत विष नेरो जे कोइ प्रतिचार प० ॥ ॥ दिपरिमाणतें पांच प्रतिचार ॥ गमणस्स य परिमाणे० ॥ ऊर्ध्व दिशि, अधोदिशि तिर्यग् दिशियें जावा, श्रववा तणा नियम लइ जांग्या. नाजोगें विस्मृत लगें अधिक भूमि गया. पाठवणी श्राघी, पाठी मोक ली, वाहाण व्यवसाय कीधो, वर्षाकाले गामतरुं की धुं. भूमीका एक गमां संक्षेप. बीजी गमां बधारी ॥ उठे दिक्परिमाणात विष अनेरोजे को प्रति० ॥ १० ॥ सातमे जोगोपनोग विरमणवतें जोजन श्राश्रयी पांच अतिचार अने कर्महूंती पंदर, एवं वीश प्रतिचर ॥ सच्चित्ते परिबद्धे ० ॥ सचित्त नियम लीधे अधिक सचित्त लीधुं अपकाहार, दुःपक्काहार, तुञ्चोषधि तणुं जक्षण कीधुं. जेला, उंबी, पोंक, पापमी, कीधां ॥ सच्चित्त दव विगई, वाणह तंबोल व कुसुमेसु || वाहण सयण विलेवण, बंज दिसी न्हाण जत्तेसु ॥ चौद नियम दिनगत रात्रिगत लीधा नहीं. लेइने जांग्यां. बावीश यजदय, बत्री अनंत कायमांहि आडु, मूला, गाजर पिंग, पिंकालु, कचूरो, सुरण, कुली बली, गलो तथा वाघरमा खाधां वाशी कठोल, पोली, रोटली, त्रण दिवसनुं चंदन लीधुं मधु, महमां, माखण, माटी, वेंगण, पीलु पीचु, पंपोटा, विष, हिम, करहा, घोलवमां, अजाण्यां फल, टिंबरु, गुंद, महोर, अथाएं, आमण बोर, काचुं मीतुं, तिल, खसखस तथा कोळिंबां खाधां रात्रि जोजन कीधा. लगबग वेलायें वालुं कीधुं. दिवस विए उगे शीराव्या, तथा कर्मतः पन्नर कम्र्मादान ॥ इंगालकम्मे, वणकम्मे, साडी कम्मे, जामीकम्मे, फोमीकम्मे, ए पांच कर्म दंतवाणिजेो, लरकवां णिडो, रसवाणिजे, केसवाणिजे, विसवाणिजे. ए पांच वाणिज ॥ जंत पिल्ल एकम्मे, निलंबणकम्मे, दवग्गिदावण्या, सरदहतलाय सोसण्या, सईपोसण्या, ए पांच सामान्य ॥ ए पांच कर्म, पांच I Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक पादिकादि विस्तारातिचार. २३ वाणिज्य, पांच सामान्य, एवं पन्नर कर्मादान, बहु सावध महारंज रांग णी,लीहाला कराव्या. इंट, निजामा पचाव्या. धाणी, चणा, पक्वान्न करी वेच्यां. वाशी माखण तपाव्यां, तिल वहोत्या. फागुण मास उपरांत राख्यां. दलीदो कीधो, अंगीग कराव्या. श्वान, बीलामां, शूमा सालहि, पोष्या. अनेरा जे कांश बहुसावद्य खर कर्मादिक समाचस्यां. वाशी गार राखी, लींपणे, घूपणे महारंज कीधो. श्रणशोध्या चूला संधूक्या. घी. तेल, गोल तथा बास तणां जाजन उघामां मूक्यां. तेमांहि माखी, कुंती उंदर, के गिरोली पमी. कीडी चमी. तेनी जयणा न कीधी ॥ सातमे लोगोपनोगविरमणव्रत विषर्छ॥११ श्राम्मे अनर्थदंमविरमणव्रतें पांच अतिचार ॥ कंदप्पे कुकुश्ए ॥ के दर्पलगें विटचेष्टा. हास्य, खेल, कुतूहल कीधां, पुरुष स्त्रीना हाव, नाव, रू प, शृंगार, विषयरस वखाण्या. राजकथा, नक्तकथा, देशकथा, स्त्रीकथा कीधी, पराश्तांत कीधी, तथा पैशुन्यपणुं कीg. श्रात, रौद्ध ध्यान ध्यायां. खांमां, कटार, कोश, कूहामा, रथ, उखल, मुशल, अग्नि, घंटी, निसाह, दातरडां प्रमुख अधिकरण मेली, दाक्षिण्यलगे माग्यां आप्यां, पापोपदेश दीधो. अष्टमी, चतुर्दशीयें खांमवा, दलवा तणा नियम नांग्या. मूरखपणा लगें असंबंध वाक्य बोल्या. प्रमादाचरण सेव्यां. अंघोले, नाहाणे, दात णे, पगधोरणे, खेलपाणी तेल गंव्यां, जीलणे जील्या. जूवटें रम्या हिं चोले हिंच्या, नाटक प्रेक्षणक जोयां, कण, कुवस्तु, ढोर लेवराव्यां, कर्क श वचन बोल्या, आक्रोश कीधा, अबोला लीधा, करकडा मोड्या, मत्सर धस्यो, संन्नेमा लगाड्या, शाप दीधा, नेसा, सांढ, हुकु, कूकमा, श्वानादिक फूफास्यां, पूंजतां जोया. खादि लगें अदेखा चिंतवी.माटी, मी, कण कपा शीया काज विण चांप्या. ते उपर बेग आली वनस्पति बूंदी. सूर शस्त्रादि क निपजाव्या. घणी निसा कीधी.राग, द्वेष लगें एकने कि परिवार वांडी.ए कने मृत्यु हानि वांबी॥ एषाम्मे अनर्थदंडविरमणव्रत विष अने॥१॥ नवमे सामायिक व्रतें पांच अतिचार ॥ तिविहे उप्पणिहाणे ॥ सामा यिक लीधे मन आहट्ट दोहट्ट चिंतव्यु. सावद्य वचन बोल्यां, शरीर अणपमिलेयु हलाव्यु उती वेलायें सामायिक न लीधो. सामायिक लेश उ घाडे मुखें बोल्या. जंघावी, वात- विकथा, घर तणी चिंता कीधी, वीज दीवा तणी उहि हुश्, कण, कपाशिया, माटी, मीतुं, खमी, धावनी, अर णेटो पाषाण प्रमुख चाप्या, पाणी, नील, फूल, सेवाल, हरिकाय, बीयकाय, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ प्रतिक्रमणसूत्र. इत्यादिक आनड्यां. स्त्री, तिर्यंच तणा निरंतर परस्पर संघट्ट हुथा, मु हपत्तीयो संघट्टी, सामायिक श्रणपूग्युं पायुं, पार, विसामु ॥ नवमे सामायिकबत विषश्यो अनेरो जे कोश् अतिचार पद दिवस ॥ १३ ॥ ___ दशमे देशावगाशिकवतें पांच अतिचार ॥ आणवणे पेसवणे ॥ श्राण वणप्पउँगे, पेसवणप्पलेंगे, सदाणुवा, रूवाणुवार, बहियापुग्गलपकेवे ॥ नियमित नूमिकामांहि बाहेरथी कांश अणाव्युं, आपण कन्हेथकी बाहेर कां मोकट्युं, अथवा रूप देखामी, कांकरो नाखी, साद करी, आपणपणुं तुंजणाव्युं ॥ दशमे देशावगाशिक व्रतविषळ अनेरो जे कोश्थतिः ॥१४॥ अग्यारमे पोषधोपवासबतें पांच अतिचार ॥ संथारुचारुविहि०॥श्रप्पनि लेहिय,कुप्पमिले हिय,सजासंथारए॥अप्पमिले हिय, फुप्पमिले हिय, उच्चार पासवणचूमि ॥ पोसह लिधे संथारातणी नूमि न पूंजी, बाहिरलां लहुमां वमां स्थं मिल, दिवसें शोध्यां नहिं, पमिलेह्यां नहिं. मातरं श्रणपूंज्युं हला व्यु, अणपूंजी नूमिकायें परमव्यु. परग्वतां, अणुजाणह जस्सग्गो, न कह्यो. परठव्या पूठे वार त्रण वोसिरे वोसिरे न कह्यो. पोसहशालामांहि पेस तां निसिहि, निसरतां आवस्सहि,वार त्रण जणी नहिं. पुढवी, अप्प, तेज, वाऊ, वनस्पति, त्रसकाय तणा संघट्ट, परिताप उपजव हुआ. संथारा पो रिसीतणो विधि जणवो विसास्यो, पोरिसिमांदे घ्या, अविधे संथारो पा थरयो, पारणादिक तणी चिंता कीधी, कालवेलायें देव न वांद्या, पमिकम णुं न कीधुंपोसह असूरो लीधो, सवेरो पाल्यो, पर्वतिथे पोसह लीधो नही॥ श्ग्यारमें पोषधोपवासव्रत विषा अनेरो जे को अतिचार पक्षण ॥१५॥ __ बारमे अतिथिसं विनागव्रतें पांच अतिचार ॥ सच्चित्ते निरिकवणे ॥ सचित्त वस्तु हेठे उपर बतां महात्मा महासतीप्रत्ये असूझतुं दान दीधुं. देवानी बुझं असूफतुं फेडी सूझतुं कीधुं. देवानी बुझें परायुं फेडी आपणुं कीg अणदेवानी बुझें सूफतुं फेमी असूफतुं कीg. अणदेवानी बुझें श्रा पणुं फेमी परायु की, वहोरवा वेला टली रह्यां असूरे करी माहात्मा ते ड्या, मत्सर धरी दान दीधुं गुणवंत आवे नक्ति न साचवी, बती शक्तं साहम्मिवात्सल्य न की .अनेराश् धर्मक्षेत्र सीदातां बती शक्तियें उमस्यां नहिं. दीन, दीणप्रत्त्ये अनुकंपादान दीधुं ॥ बारमे अतिथिसंविनाग व्रत विष अनेरो जे को अतिचार ॥ पद दिवसमांहि हुवो हुश्॥१६॥ संलेषणातणा पांच अतिचार ॥ इहलोए परलोए ॥ इहलोगासंस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक पादिकादि विस्तारातिचार, २५ प्पळगे, परलोगासंसप्पळगे, जीवियासंसप्पउँगे, मरणासंसप्पलंगे, कामजो गासंसप्पलेंगे ॥ इहलोकें धर्मना प्रन्नाव लगें राजझकि, सुख, सौजाग्य, प रिवार, वांब्यो. परलोकें देव, देवेंड, विद्याधर, चक्रवर्तीतणी पदवी वांगी, सुख आवे जीवितव्य वांग्यु. कुःख आवे मरण वांब्यु. काम नोगतणी वां ग किधी ॥ संलेषणाव्रत विषश्न अनेरो जे को अतिचार पद दिवस मांहे हुवो हु० ॥ १७ ।' तपाचारना बार नेद, ब बाह्य, उ अत्यंतर ॥ अणसणमूणोयरिया ॥ णसण नणी उपवास विशेष पर्व तिथे ती शक्तं कीधो नहिं. कणोदरीव्रत कोलिया पांच, सात, ऊणा रह्या नहिं. वृत्तिसंदेप, ते अव्यजणी सर्ववस्तु नो संदेप कीधो नहिं. रसत्याग तथा विगयत्याग न कीधो. कायक्वेश, लो चादिक कष्ट कस्यां नहीं. संलीनता ते अंगोपांग,संकोची राख्यां नहिं, पञ्च काण नांग्यां-पाटलो मगतो फेड्यो नहिं. गंठसी पोरिसी,साढापोरिसी,पुरि म, एकासगुं, बेासणुं, नीवि, आंबिल प्रमुख पच्चरकाण पारदुं विसायं. बे सतां नोकार न लण्यो, उठतां पच्चरकाण करवू विसायुं, गंठसी नाग्यु, नीवि, आंबिल, उपवासादिक तप करी काचुं पाणी पीधुं. वमन हर्ज ॥ बा ह्यतप विषल अनेरो जे कोश् अतिचार पद दिवसमांहे ॥ १७ ॥ अध्यंतरतप ॥ पायबित्तं वि०॥ मनशुळे गुरुकन्हें आलोयणा लीधी नहिं गुरुदत्त प्रायश्चित्त तप, लेखाशुळें पहोंचामयुं नहिं. देव, गुरु, संघ, सा हम्मीप्रत्ये विनय साचव्यो नहिं. बाल, वृद्ध, ग्लान, तपस्वी प्रमुख, वैया वञ्च न कीधुं. वाचना. पृछना, परावर्त्तना. अनुप्रेदा, धर्मकथालवण पंच विध स्वाध्याय न कीधो. धर्मध्यान, शुक्लध्यान न ध्यायां. आर्तध्यान तथा रौऽध्यान ध्यायां. कर्मदय निमित्तं लोगस्स दश वीशनो काउस्सग्ग न की धो॥अत्यंतरतप विषा अनेरो जे को अतिचार पद दिवसमां ॥१॥ वीर्याचारना त्रण अतिचार ॥ अणिमूहिथ बलविरी॥ पढवे, गुणवे, विनय, वैयावच्च, देवपूजा, सामायिक, पोसह, दान, शील.तप, नावनादिक धर्मकृत्यने विषे मन, वचन, कायातणुं तुं बल,वीर्य, गोपव्यु. रूमां पंचांग खमासमण न दीधां. वांदणांतणा आवर्त्त विधि साचव्या नहिं. अन्यचि त्त निरादरपणे बेग. उतावलुं देववंदन, पमिकमणुं कीg ॥ वीर्याचार विष जे अनेरो जे को अतिचार पद दिवसमाहे हुवो होय ते स० ॥२०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ प्रतिक्रमण सूत्र. नाणाश् अह पश्वय, समसंलेहण पन्नर कम्मेसु ॥ बारस तव विरिथ तिगं, चवीसं सय अश्यारा ॥१॥ पमिसिझाणंकरणेः-प्रतिषेध, अजय, अनंतकाय, बहुबीजनक्षण, महारंजपरिग्रहादिक कीधां. जीव जीवादिक सूक्ष्म विचार सह्या नहिं. आपणी कुमति लगें उत्सूत्र प्ररूपणा कीधी. तथा प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोज, राग, द्वेष, कलह, अन्याख्यान, पैशुन्य, रति अरति, परपरिवाद, मायामृषावाद, मिथ्यात्व शल्य ए अढार पापस्थानक कीधां करा व्यां, अनुमोद्यां होय. दिनकृत्य प्रतिक्रमण, विनय, वैयावच्च न कीधां. अनेरु जे कांश वीतरागनी आझाविरुद्ध कीg, कराव्यु, अनुमोयुं होय. ए चिहुँ प्रकारमाहे अनेरो जे कोश् अतिचार पद दिवसमांहे सूक्ष्म, बादर, जाणतां,श्र जाणतां हुर्ज होय, ते सवि हुँ मनें, वचनें, कायायें करी तस्स मिहामि एक्कम ___ एवंकारें श्रावक तणे धर्मे श्रीसमकितमूल बार व्रत, एकशो चोवीश अ तिचारमांहि अनेरो जे कोश् अतिचार पद दिवसमांहि सूक्ष्म, बादर, जा णतां अजाणतां, हुई होय, ते सवि हुं मनें, वचनें, कायायें करी तस्स मिठा मि मुक्कम ॥ इति श्रीश्रावक परकी चउमासी संवत्सरि अतिचाराः॥५४॥ ॥अथ ॥ ॥ नव स्मरणानि सार्थानि प्रारज्यते ॥ ॥ तत्र प्रथम सर्वस्मरणमांदे प्रधान; सर्वमंगलमां नावमंगलमय एवा पंच परमेष्ठीतुं नमस्काररूप प्रथम स्मरण लखीयें .यें. नमो अरिहंताणं, नमो सिहाणं, नमो आयरिआ णं, नमो जवप्नायाणं, नमो लोए सबसाहूणं, एसो पंच नमुक्कारो, सबपावप्पणासणो॥ मंगलाणं च स वेसिं, पढमं दवश्मंगलं ॥इति प्रथमं स्मरणम्॥२॥ अर्थः-(अरिहंताणं के ) विहरमान श्रीअरिहंतने महारो ( नमो के०) नमस्कार हो. (सिझाणं के०) सर्व सिझने महारो (नमो के) नमस्कार हो. (आयरियाणं के०) पंचविध आचारने पाले, एवा श्री श्राचार्य प्रत्ये महारो ( नमो के ) नमस्कार हो. ( उवप्नायाणं के०) For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकार अर्थसहित. पच्चीश गुणधारक एवा श्री उपाध्याय प्रत्ये महारो (नमो के०) नमस्कार हो. (लोए के०) अढीछीपरूप मनुष्य लोकने विषे (सवसाहूणं के) स्थविरकल्पादिक नेदोवाला सर्वसाधुप्रत्ये महारो (नमो के) नमस्कार हो. ( एसो के) ए जे अरिहंतादिक संबंधी (पंचनमुक्कारो के०) पांच नमस्कार डे, एटले ए नमस्कारपंचक जे , ते केहबुं ? तो के (सबपा व के) ज्ञानावरणादिक सर्वपापप्रत्यें (प्पणासणो के०) प्रकर्षे करी ना शनुं करनार बे, वली ए नमस्कारपंचक केहबुं ? तो के ( मंगलाणंचस वेसि के०) सर्वमंगलमांहे (पढमं के०) प्रथम एटले मुख्य (मंगलं के०) मंगल (हवर के ) . एटले ए नावमंगल बे, ते मोदसुखनु आपनार बे. आनो विस्तारार्थ आज ग्रंथना प्रारंजमां लख्यो जे ॥१॥ ॥ अथ उवसग्गहरनामकद्वितीयस्मरणप्रारंजः ॥ जवसग्गदरं पासं, पासं वंदामि कम्मधणमुकं ॥ विसहरविसनिन्नासं, मंगलकल्लाणावासं ॥१॥ विसदरफुलिंगमंतं, कंठे धारे। जो सया मणु ॥ तस्स ग्गदरोगमारी, उठ जरा जंति उवसामं ॥३॥ चिठन दूरे मंतो,तुम्न पणामोवि बहुफलो दोश्॥नर तिरिएसुवि जीवा, पावंति न पुरक दोगचं॥दोदग्गं ॥ ॥३॥तुद सम्मत्ते लई,चिंतामणिकप्पपायवग्नदिए॥ पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं गणं ॥४॥ श्अ संथुङ महायस, नत्तिनर निग्नरेण दिअएण॥ ता देव दिज बोटिं, नवे नवे पास जिणचंद ॥५॥ ए उवसग्गहर स्तोत्रनो सविस्तर अर्थ; श्राज ग्रंथना चम्मोतेरमा पानामा आगल लखाई गयो बे, तेथी आहीं लख्यो नथी. ॥ अथ संतिकरस्तोत्र नामकं तृतीयं स्मरणं प्रारंज्यते ॥ ॥ प्रथम श्रा स्तोत्र उत्पन्न थवानुं किंचित् कारण लखीयें .ये. तपो गठनायक श्रीसोमसुंदरसूरिना पट्टप्रजावक श्रीमुनिसुंदर सूरि मेदपाट Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत प्रतिक्रमण सूत्र. देश संबंधी देवकुलपाट गामने विषे चोमासु रह्या हता, ते समयमां श्री संघने विषे अकस्मात् मरकीनो महीटो उपाव उत्पन्न थयो. ते उपवें पीमित एवा संघनां लोकोने जोर जेमने स्वगुरु सान्निध्यथी सद्विद्या प्राप्त थयेली हती एवा अने करुणासहित हृदयवाला श्रीमुनिसुंदरसूरि, तेम णे श्रीसूरिमंत्रना आम्नायथी गर्जित एवं आ संतिकरनामा स्तोत्र रच्युं, ए ना पठनपाठनथी तथा ए स्तोत्रमंत्रित जल गंटवाथी श्रीसंघने समस्त मरकीनो उपजवशांत थयो, त्यारथी आ स्तोत्रने पठनपाठनादिकनो संप्रदाय चाल्यो , ते स्तोत्र, अर्थसहित लखीयें बैयें ॥ संतिकरं संतिजिणं, जगसरणं जयसिरी दायारं ॥ समरामि नत्त पालग, निवाणी गरुडकयसेवं ॥१॥ अर्थः-श्रा ठेकाणे अहं ए कर्तृपद अध्याहारथी लेवु. एटले ( अहं के) हुँ (संति जिणं के०) वर्तमान चोवीशीना शोलमा तीर्थंकर श्रीशां तिजिन, ते प्रत्ये (समरामि के०) मनमां चिंतवन करुं बुं, एटले ध्यान करुं बुं. ते श्रीशांतिनाथ केहवां ? तो के (संतिकरं के०) सर्व उपवना निवारण करनारा बे, केम के? प्रज्जु गर्नगत थया, तेवारे एमनी माताना पग धोयेला जलना बांटवाथकी लोकोने मरकीनो उपजव शांत थयो, तेथी माता, पितायें शांतिनाथ एवं नाम पाड्यु. वली श्रीशांतिजिन केहवा ? तो के (जगसरणं के०) जगन्निवासी लोक तेना शरण एटले नयनिवारण करनार , वली (जयसिरी के०) जय ते प्रधान एवी श्री जे लक्ष्मी, अथ वा जय ते जय अने लदमी जे शोना तेने जयश्री कहियें, ए बेहु वानांना ( दायारं के० ) दातार बे. वली केहवा ? तो के (नत्त के० ) पोताने जजनारा एवा जे नक्तलोक तेमने (पालग के०) पालन करनारा बे, एटले तुष्टि,पुष्टिना देनारा बे, अर्थात् नक्तने विघ्नविनाशपणायेंकरी हितकार क बे, वली (निवाणी के०) नीर्वाणी नामक देवी तथा (गरुक के०) गरुम नामक यद, ए बेहुयें (कयसेवं के०) करेली ने सेवा जेमनी एवा ने ॥१॥ ॐ सनमो विप्पोसदि पत्ताणं संतिसामिपायाणं ॥ ाँ स्वादामंतेणं, सबासिवरिअहरणाणं ॥२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतिकरस्तव अर्थसदित. श अर्थः-(संतिसामिपायाणं के०) श्रीशांतिस्वामीपादने ( सनमो के०) ॐ कारें सहित नमस्कार था. ते श्री शांतिस्वामीपाद केहवा ? तो के (विप्पोसहिपत्ताणं के०) विप्रौषधि लब्धिने प्राप्त थया एवा बे, तेमां वि जे विष्टा, अने प्र जे लघुनीति ते औषधिरूपें जे जेमना एवा , वली केह वा ? तो के (क्राँ स्वाहामंतेणं के) ाँ स्वाहा ए प्रकार, सूरियें कहे झुं जे मंत्रबीज, तेणें करी युक्त जे. वली केहवा ? तो के “उँस नमोवि प्पोसहिपत्ताणं ाँ स्वाहा” एवा मंत्रना पदें करीने सकल जगतना (सव्वा सिव के०) सर्व अशिव एटले मरकी अपस्मारादिक सर्व उपवो, तेने तथा (ऽरिय के०) उरित जे पाप तेने (हरणाणं के०) हरण करनार डे ॥॥ संति नमुक्कारो, खेलोसदिमाइ लझिपत्ताणं ॥ साँ ही नमो सवोसहि, पत्ताणं च देश सिरिं॥३॥ अर्थः-( 3 के० ) अहीं ॐ जे बे, ते अन्युपगम अर्थमां जाणवो. अर्थात् 3 एटले शोजायमान एवा (संति के) शांतिस्वामीपादने (न मुक्कारो के ) नमस्कार था. ते शांतिस्वामीपाद केहवा ने ? तो के (खे लोसहिमाश्ल द्धिपत्ताणं के०) खेल जे श्लेष्मा कफ, ते आदि सिंघाणादिक, तेहीज परम औषधिपणायें करीने प्राप्त थयां जे जेमने. अहीं मार त्यां म कार जे बे, ते लादणिक बे. ( च के ) वली तेने (साँ ही नमो के) साँ ही सहित नमस्कार हो. वली ते केहवा ? तो के (सबोसहिपत्ताणं के०) सर्व जे दंत, केश, नख, रोमादिक अंगरूप जे अवयवो, ते सर्वोषधि प. णाने पाम्या ने जेमने एवा जे. अने तेने करेलो जे नमस्कार , ते जव्योने (देशसिरिं के०) लक्ष्मीने आपोआहिं" ही नमोखेलोसहि लद्धि पत्ताणं, तथा 3 ही नमो सबोसहिपत्ताणं” ए बे सूरिमंत्रपदो जे बे, ते सर्वोपवनाशकारक जे. वली 3 कारसहित शांतिजिननो नमस्कार जे बे, ते श्लेष्मौषध्यादि लब्धिप्राप्त एवा साध्वा दिकने अव्यथी तथा नाव थकी पण एवी बे प्रकारनी श्री जे लक्ष्मी तेने आपे बे ॥३॥ वाणी तिहुअणसामिणि, सिरि देवी जकराय गणिपिमगा॥ गददिसिपालसुरिंदा, सयावि रकंतु जिणनत्ते ॥ ४ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० प्रतिक्रमण सूत्र. अर्थः - (वाणी के०) वाग्देवता, जे श्रुताधिष्ठायिनी, (तिहुपसा मिलि के० ) त्रिभुवनस्वामिनी एटले सूरिमंत्रपठपंचकाधिष्ठायिनी एटले एनं ध्यान करनार जे जक्त जन, तेने प्रातिहार्य करनारी एवी, अने पद्मद्रह निवासिनी व्यंतरजा तिवाली (सिरिदेवी के०) लक्ष्मीनामा देवी तथा (ज करायग लिपिमगा के०) योनी मध्यें द्युतियें करीने जे राज एटले धिक शो तेने यक्षराज कहियें, ने गणिपीटक जे द्वादशांग तेनो धिष्टायिक बे, ए हेतुमारें ते गणिपीटक नामा यक्षराज जाणवो, तथा ( ग ० ) सूर्यादि नवग्रह तथा ( दिसिपाल के० ) दश दिक्पाल तथा ( सूरिंदा के० ) सुरना इंड. ते चोराव इंद्र ए सर्व सम्यग्रदृष्टि देवो बे, ते ( सयावि के० ) सदा निरंतर पण ( जिणनत्ते के० ) श्री तीर्थंकरना जक्तिकारक जनोने ( रकंतु के० ) रक्षाने करो ॥ ४ ॥ रकंतु मम रोहिणी, पन्नत्ती वसिंखला य सया ॥ वऊंकुसि चक्केसरि, नरदत्ता कालि महाकाली ॥५॥ अर्थ: - ( मम के० ) मने अने उपलक्षणथकी अन्य जीवोने पण सपडवोकी (सया के० ) निरंतर ( रकंतु के० ) रक्षण करो. आहिं सर्वो पडवो की ए पद अध्याहारथी लेबुं. हवे ते कोण रक्षण करो ? तो के शोल देवीयो रक्षण करो. तेनां नाम कहे बे. एक ( रोहिणी के ० ) पुण्य रूप बीजने उत्पन्न करे बे माटें रोहिणी कहियें, ते रोहिणीनामा देवी रक्षण करो. बीजी (य के० ) वली ( पन्नत्ती के० ) प्रकृष्ट बे इति एटले ज्ञान जेने विषे माटे प्रज्ञप्तिदेवी एवं नाम कहियें, तथा त्रीजी ( वजसिं खला के० ) वज्रनी पेठें दुर्भेद्य बे, दुष्ट दमनार्थ एवी श्रृंखला ते बे जेना हाने विषे तेमाटे तेने वज्रशृंखला देवी कहियें. ए त्रणे देवीयो महारुं रक्षण करो. चोथी (वऊंकुसि के० ) वज्र ने अंकुश, ए वे अस्त्र बे जे ना हस्तने विषे माटें तेने वज्रांकुशी कहियें तथा पांचमी (चक्केसरिके० ) निरंतर चक्रनुं धारण करवाएं बे जेना हाथने विषे माटें तेने चक्रेश्वरी कहियें, तथा बडी (नरदत्ता के० ) नर जे मनुष्य तेने वरादिकनी देवावाली बे. माटें तेने नरदत्ता देवी कहीयें तथा सातमी ( कालि के० ) जेना शरीरने विषे श्यामवर्णत्व बे, माटें काली देवी कहीयें. अथवा शत्रु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतिकरस्तव अर्थसदित. २३१ उने विषे कालनी उपमा ने माटें काली देवी कहियें. तथा आग्मी (महाकाली के०) महाकाली देवी, आहिं महाशब्दें करीने विशेष जाणवु॥५॥ ___ गोरी तद गंधारी, मदजाला माणवी अ वश्रुट्टा ॥ अनुत्ता माणसिआ, महामाणसिआ देवी ॥६॥ अर्थः-नवमी (गोरी के०) गौरवर्णपणुं जे माटें गौरी देवी कहियें. (तह के०) तथा वली दशमी (गंधारी के०) गा एटले सुरनि तेना वाहनने धा रण करे ने माटे गांधारी कहियें तथा अगीयारमी ( महजाला के) सर्व अस्त्रोनी महोटी ने ज्वाला जेने तेने महाज्वाला कहियें तथा बारमी (माणवी के०) मनुष्यथी जननी तुल्य, तेने मानवी कहिये. ( अ के०) वली तेरमी ( वट्टा के० ) अन्योऽन्य वैरोपशांत्यर्थ अव्य एटले श्राव ने जेनुं ते वैरुट्या कहियें. तथा चौदमी (अछुत्ता के) पापने विषे जेने स्पर्श नथी तेने अबुत्ता कहियें. तथा पंदरमी (माण सिथा के०) ध्यान करनारना मनने सान्निध्य जेनाथकी थाय ले ते माटें मानसिका कहियें. तथा शोलमी ( महामाणसिया के०) ते पण पूर्वोक्त मानसि कानी जेम जाणवू. एक महा पद , ते महत्तावाचक , ए शोल (दे. वी के) देवियो जे , ते रक्षण करो. ए शोले देवीयोनुं विद्याप्रधानत्व बे ते माटें ए विद्यादेवीयो कहेवाय . ए शोल देवीयोयें करी मंत्रावर्णावति ससाधन थाय . ए देवीयोनुं श्रीमंत्रपट्टमां पोतपोताना स्थानकोने विषे स्थापन थाय बे, अने तेनुं ध्यान करनारने ए ध्यान,सुखावह होय ॥६॥ हवे चोवीश तीर्थंकरोना चोवीश यदोनां नाम अनुक्रमें कहे जे. जरका गोमुद महज, क तिमुह जकेस तुंबुरू कुसुमो॥ मायंगो विजयाजिय, बंनो मणु सुरकुमारो॥७॥ अर्थः-प्रथम (गोमुह के ) गोमुखनामा (जरका के० ) यद, बी जो ( महजक के० ) महायद, बीजो (तिमुह के० ) त्रिमुख यद चो श्रो ( जकेस के ) ईश्वरनामा यद, पांचमो ( तुंबुरु के) तुंबुरुना मा यद, हो ( कुसुमो के ) कुसुम नामा यद, सातमो (मायंगो के०) मातंगनामा यदा, आठमो ( विजय के०) विजयनामा यद, नवमो (अजिय के०) अजितनामा यद, दशमो (बंजो के०) ब्रह्मनामा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ प्रतिक्रमण सूत्र. यद, अगीयारमो (मणु के० ) मनुजनामा यद, बारमो ( सुरकुमार के) सुरकुमारनामा यद ॥७॥ उम्मुद पयाल किन्नर, गरुडो गंधव तदय जस्किंदो ॥ कूबर वरुणो निजडी, गोमेदो पास मायंगो ॥ ७ ॥ अर्थः-तेरमो ( उम्मुह के ) षण्मुखनामा यद, चौदमो ( पयाल के) पातालनामा यद, पन्नरमो ( किन्नर के) किन्नरनामा यद, शोल मो (गरुमो के०) गरुमनामा यद. सत्तरमो ( गंधव के०) गंधर्वनामा यद, ( तहय के) तथा वली अढारमो (जकिंदो के )यदेजनामा यद बे, उंगणीशमो (कूबर के०) क्बरनामा यद, वीशमो ( वरुणो के ) वरुण नामा यदा, एकवीशमो ( जिउमी के ) भृकुटिनामा यदा, बावीशमो (गोमेहो के ) गोमेधनामा यद, त्रेवीशमो (पास के०)पार्श्वनामा यद, चोवीशमो (मायंगो के०) मातंगनामा यद, ॥ए प्रमाणे प्रत्येक तीर्थंकर नो प्रत्येक यद अनुक्रमें जाणवो.ए चोवीश तीर्थंकरोना चोवीश यदोना वर्ण, वाहन, हस्त, आयुध्यो, तेमनुं सविस्तर वर्णन,श्रीप्रवचनसारोकारना मा ग्रंथना बबीशमा छारमा बपाश् गयाथी अहींयां लख्यां नथी ॥७॥ हवे चोवीश तीर्थंकरोनी चोवीश देवीयोनां नाम अनुक्रमें कहे बे. देवी चक्केसरि,अजिआ उरिआरि कालि महाकाली॥ अच्चुभ संता जाला, सुतारया सोय सिरिवना ॥ ए॥ अर्थः-प्रथम ( चक्केसरि के० ) चक्रेश्वरीनामा देवी, बीजी (अजिया के ) अजितानामा देवी, त्रीजी (कुरियारि के) उरिता रिनामा देवी, चोथी ( कालि के ) कालीनामा देवी, पांचमी ( महाकाली के ) महा कालीनामा देवी, बही (अञ्चुत्र के) अच्युतनामा देवी, सातमी ( संता के ) शांतानामा देवी, आग्मी (जाला के०) ज्वालानामा देवी, नवमी (सुतारया के) सुतारानामा देवी, दशमी (असोय के०) अशोका नामा देवी, अगीयारमी (सिरिवबा के) श्रीवत्सानामा देवी, ए श्री तीर्थकरनी ( देवी के ) देवीयो ॥ ए॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतिकरस्तव अर्थसदित. चंमा विजयंकुसि प, न्नत्ति निवाणि अच्चुआ धरणी॥ वश्रुट वृत्त गंधा, रि अंब पनमावई सिधा ॥ १०॥ अर्थः-बारमी ( चंमा के० ) चंडानामा देवी, तेरमी ( विजय के०) विजयानामा देवी, चौदमी ( अंकुसि के० ) अंकुशानामा देवी, पन्नरमी (पन्नत्ति के०) पन्नगानामा देवी, शोलमी ( निवाणि के० ) निर्वाणी नामा देवी, सत्तरमी (अञ्चुाके० ) अच्युतानामा देवी, अढारमी (धर णी के० ) धारिणीनामा देवी, उंगणीशमी ( वश्रुट के०) वैरोट्यानामा देवी, वीशमी (वृत्त के )अबुप्तानामा देवी, एकवीशमी (गंधारि के०) गांधारीनांमा देवी, बावीशमी ( अंव के० ) अंबानामा देवी नेवीशमी (पठमावई के० ) पद्मावतीनामा देवी, चोवीशमी (सिझा के०) सिझाना मा देवी. एप्रकारें चोवीश देवीयो अनुक्रमें चोवीश तीर्थंकरोनी जाणवी. ए चोवीश देवीयोना वर्ण, वाहन, हस्त, आयुकादिक सर्व प्रवचनसारोकार नामा ग्रंथना सत्तावीशमा छारमा बपाश् गयाथी श्राहिं लख्यां नयी ॥१॥ श्अ तिब रकण रया, अन्नेवि सुरा सुरी चनदावि ॥ वंतर जोइणि पमुदा, कुणंतु रकं सया अम्हं ॥१२॥ अर्थः-(श्य के०) ए प्रकारे पूर्वोक्त यद, यक्षिणी, तुमें (ति के०) चतुर्विध संघरूप जे तीर्थ, तेनुं सर्वोपजवथकी जे ( रकण के० ) पालन करवू, तेने विषे ( रया के०) तप्तर था. तथा ( अन्नेवि के०) अन्य पण ( चउहावि के) चार प्रकारना एवा पण (सुरा के०) देवता, (सुरी के०) देवीयो जे नवनपत्यादिक चार निकायनां , ते (वंतर के) घंटाक र्णादिक बावन वीर विशेष, अथवा माणिजमादि क्षेत्रपाल विशेष जाणवा. तथा ( जोणिपमुहा के )नकाली प्रमुख चोशठ योगिनी व्यंतरी विशे ष, ते (रकं के०) रदाप्रत्ये (सया के०) निरंतर आ स्तोत्रनु स्मरण क रनारा एवा ( अम्हं के०) अमोने ( कुणंतु के) करो ॥ ११॥ .. एवं सुदिहि सुरगण, सदि संघस्स संति जिणचंदो ॥ मजावि करेउ रकं, मुणिसुंदरसूरिथुअ महिमा ॥ १२ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ प्रतिक्रमण सूत्र. अर्थः-( एवं के०) एम (सुदिहिसुरगण के०) पूर्वोक्त सम्यग्दृष्टि देव तानो समूह, तेणें ( सहिजे के०) सहित एवा (संघस्स के०) श्रीसंघ जे तेने ( संतिजिणचंदो के०) सामान्य केवलीने विषे श्रादहादकारी माटें जिनचंड कहियें; ते श्रीशांतिजिनचंड, तमें (मऊवि के) मने पण सों पव निवारणरूप ( रकं के ) रदा तेप्रत्ये ( करेउ के० ) करो. ए श्रीशांति जिनचंड केहेवा जे ? तो के ( मुणि के० ) मुनिने विषे (सुंदर के०) प्रधान एवा जे श्रुतकेवली, मनःपर्यवझानीयो तेणें तथा (सूरि के०) पंमितो तेमणे (थुश्र के० ) स्तुति कस्यो डे ( महिमा के० ) माहात्म्य जेमनुं एवा . अथवा पक्षांतरें आ स्तोत्रकर्त्तानुं नाम पण श्रीमुनिसुंदर सूरि , एम जणाववाने या डेलु पद लख्युं ॥ १५ ॥ इअ संति नाह सम्म, दिकी रकं सर तिकालं जो॥ सबोवद्दवरदिर्ज, स सदश् सुहसंपयं परमं ॥ १३ ॥ अर्थः-(श्य के०) ए प्रकारे (सम्महिही के०) रूमी ने दृष्टि जेनी एवो तत्त्वश्रकानवालो (जो के०) जे कोइ मनुष्य, (संतिनाह के०) श्री शांतिनाथ तेनी ( रकं के० ) रदा जे जे तेने (तिकालं के) त्रणे कालें त्रिसंध्यायें ( सर के०) स्मरण करे , मनें करी चिंतवन करे बे, ते मनुष्य, (सबोवद्दवरहि के०) सर्वोपवें करी रहित थाय बे, अने (स के०) ते मनुष्य, (परमं के०) सर्वोत्कृष्ट एवा (सुहसंपयं के०) सुखसंपत् श्रथवा सुखदायक संपदा तेने ( लहर के० ) पामे ॥ १३ ॥ तवगगयणदिणयर,जुगवरसिरिसोमसुंदरगुरूणं॥ सुपसायल गणदर,विद्यासिनिणसीसो॥२४॥ इति श्री संतिकरं नाम तृतीयं स्मरणम् ॥ ३ ॥ अर्थः-( तवग के ) श्री तपोगबरूप (गयण के०) गगन तेने विषे (दिणयर के० ) दिनकर जे सूर्य ते समान ( जुगवर के ) युगप्रधान पदवीना जोगवनार एवा ( सिरिसोमसुंदरगुरूणं के०) श्रीसोमसुंदरसूरि नामा गुरु धर्माचार्य तेमना ( सुपसाय के० ) सुप्रसादें करीने (लझ के) प्राप्त यश् एवी ( गणहरविद्यासिडिं के ) गणधर विद्या सिद्धिने ( सीसो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिजयपहुत्त अर्थसहित. २३५ के० ) शिष्य जे श्रीमुनिसुंदरसूरि, ते (नण के०) नणे ॥१॥इति॥३॥ . ॥ अथ तिजयपहुत्तनामकचतुर्थस्मरणस्य प्रारंजोऽयं ॥ तिजय पहुत्त पयासय, अह महापाडिदेरजुत्ताणं ॥ समयरिकत्त ग्ािणं, सरेमि चकं जिणंदाणं ॥१॥ अर्थः-९ ( जिणंदाणं के०) सामान्य केवलीने विषे इंछ तुल्य माटें जिनेंद्र कहिये ते जिनेंस्रोतुं (चकं के०) चक्र एटले वृंद अथवा चक्र एटले यंत्र तेनुं (सरेमि के०) स्मरामि एटले ध्यान करुं बुं. ते जिनेंसो केहवा ने ? तो के (तिजय के०) त्रण जगत् तेनुं (पहुत्त के०) प्रजुत्व जे ऐ श्वर्य तेने (पयासय के०) प्रकाशना करनारा बे, वली (अहमहापामिहेर के०) श्राप जे महाप्रातिहार्य तेणें करी (जुत्ताणं के०) युक्त जे. वली केहवा बे? तो के ( समय के०) काल विशेष उपलक्षणथी अहोरात्र ने प्रधान जेने विषे एवं जे (रिकत्त के०) क्षेत्र एटले पीस्तालीश लाख योजन प्रमाण अढीवीप लक्षण जे समयदेत्र के तेने विषे (ठियाणं के०) स्थित एटले वर्त्तता एवा उत्कृष्ट कालने विषे जेवारें कोइ पण क्षेत्रने विषे तीर्थंकरनो विरह होतो नथी तेवारें पंदर कर्मनूमि क्षेत्रने विषे उत्कृष्टथी एकशो नेसीत्तेर तीर्थंकरो समकालें होय , तेनुं हुं स्मरण करुं बुं ॥१॥ हवे ए एकशो ने सीत्तेर समय क्षेत्र स्थित जिनवृंदने एकशो सीत्तेर संख्याना अंकना प्रमाणवालो अने महोटुंबे माहात्म्य जेनुं एवो महा यंत्र बे, ते यंत्रनो उद्धार विधि सात गाथायें करी देखाडे जे. ए यंत्रमा पांच कोष्टको ऊर्ध्व लखवां, अने पांच कोष्टको आमां लखवां, तेवारें पांच पच्चां पच्चीस कोष्टको थाय. तिहां मध्यने विषे पांच आमां कोष्टको जे बे, तेमां "क्षिप स्वाहा” ए पंचाक्षरी पंचमहाजूतात्मिका महाविद्या लखवी, तेमज वली उनां मध्यनां जे पांच कोष्टको ने तेमां पण "दिप ऊँ स्वाहा” ए पंचादरी महाविद्याज लखवी, तेमां (दि) ए पृथ्वी बीज , (प) ए अप्वीज बे, (5) ए तेजोबीज डे,(स्वा) ए पवनवीज डे, अने (हा) ए आकाशबीज बे. एम ए पांच बीजो मध्यनी आमी लीटीना तथा मध्यनी उनी लीटीना दरेक कोष्टकमांलखवां,अने बीजां कोष्टको जे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ प्रतिक्रमण सूत्र. मां को लखवा. तिहां यंत्रना आरंजनी खाडी पंक्तिनां जे पांच कोष्टको बे, तेमध्यें लखवा योग्य अंकोने गाथायें करी देखाडे बे. पणवीसा ययसीच्या, पन्नरस पन्नास जिणवर समूहो ॥ नासेन सयल डुरि, नविप्राणं नत्तिजुत्ताणं ॥ २ ॥ अर्थः- तिहां यंत्रनी यामी पंक्तिना पांच कोष्टको जे बे, तेना प्रथम कोष्टकम (पणवीसा के० ) पच्चीशनो अंक लखवो, (य के० ) तथा बीजा कोष्टकम (असा के०) एंशीनो श्रंक लखवो, तथा श्रीजुं कोष्टक तो म ध्यमांबे, तेथी तेमां तो पूर्वे का प्रमाणे (हि) अक्षर लखेलुंज बे, तथा चोथा कोष्टकमi (पन्नरस के०) पंदरनो अंक लखवो, तथा पांचमा कोष्ट कमां ( पन्नास के० ) पच्चासनो अंक लखवो. ए प्रमाणें लखेलो ( जिण वर के० ) सामान्य केवलीमां श्रेष्ठ एवा तीर्थकरोनो ( समूहो के० ) समु दाय तेनो यंत्र, ते (जत्तिजुत्ताणं के०) नक्तियें करी युक्त एवा ( जविया के० ) जव्य जीवो जे बे, तेनां (सयल के० ) समग्र एवा ( डुरिअं ho ) डुरित जे पापकर्म तेने ( नासे के० ) नाश करो ॥ २ ॥ हवे ए यंत्रनी वीजी खाडी पंक्तिनां कोष्टकोने विषे जे क लखवा योग्य बे, ते को कहे . वीसा पणयालाविय, तीसा पन्नत्तरी जिणवरिंदा || गढ़ भूप रक साइणि, घोरुवसग्गं पण संतु ॥३॥ अर्थः- प्रथम कोष्टकने विषे ( वीसा के० ) वीशनो अंक लखवो, तथा बीज कोष्टकने विषे ( पण्याला विय के० ) पीस्तालीशनो अंक लखवो, तथा त्रीजा मध्य कोष्टकमां तो आगल कहेली रीतिप्रमाणें (प) र ल खायेलुंज बे, तथा चोथा कोष्टकमां ( तीसा के० ) त्रीशनो अंक लखवो. तथा पांचमा कोष्टकने विषे ( पन्नत्तरी क० ) पंचोतेरनो अंक लखवो. ए प्रमाणे सर्व मली एकशो सीतेर ( जिवरिंदा के० ) जिनवरो जे तीर्थं करो या ते, (गह के० ) मंगलादिक ग्रहो, (नू के० ) व्यंतर विशेष, ( रक के० ) राक्षस विशेष, ( साइणि के० ) शाकिनी ते यातुधानी विशेष, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिजयपहुत्त अर्थसहित. २३४ ए सर्वथकी उत्पन्न थया एवा जे. (घोरुवसग्गं के० ) घोर उपसर्गों तेमने (पणासंतु के०) प्रकर्षे करीने नाशने पमामो ॥३॥ हवे ते यंत्रना मध्यमां रहेली मी पंक्तिनां पांच कोष्टकोमां तो पूर्वो क्त रीति प्रमाणे “दिप 3 वाह” ए पांच अदर लखेलाज , माटे ते पठीनी चोथी आमी पंक्तिमा जे लखवा योग्य अंको . ते कहे बे. सित्तिरि पणतीसाविय, सही पंचेव जिणगणो एसो ॥ वादि जलजलण दरि, करि चोरारिमदानयं दरज ॥४॥ अर्थः-प्रथम कोष्टकने विषे (सित्तिरि के) सित्तेरनो अंक, बीजा कोष्ट कने विषे (पणतीसाविय के०) पांत्रिशनो अंक, त्रीजा कोष्टकने विषे पूर्वोक्त रीति प्रमाणे (स्वा)अदर लखेढुंज , ते पड़ी चोथा कोष्टकने विषे (सही के०) शानो अंक, तथा पांचमा कोष्टकने विषे (पंचेव के०) पांचनो अंक लखवो. ए प्रमाणे (एसो के०) ए मनमा प्रत्यक्ष एवो ( जिणगणो के० ) तीर्थक रसमूह, ते (वाहि के०) व्याधि, (जल के०) नदी समुशादि, अथवा पागं तरें (जर के०) ज्वर ते सन्निपातादिक, (जलण के0) अग्न्यादि, (हरि के०) व्याघ्र, (करि के ) उष्टहस्ती, (चोर के० ) तस्कर, (अरि के) शत्रु तेमनुं (महालयं के०) महोटुं जे जय, तेने (हरत के ) हरण करो ॥४॥ हवे आ यंत्रनी आमी पांचमी पंक्तिना कोष्टकोमां लखवा __ योग्य जे अंको , ते कहे जे. पणपन्ना य दसेव य, पन्नही तहय चेव चालीसा॥ रकंतु मे सरीरं, देवासुरपणमिया सिझा ॥ ५ ॥ अर्थः-प्रथम कोष्टकने विषे (पणपन्ना के० ) पञ्चावन्ननो अंक, (य के० ) वली वीजा कोष्टकने विषे ( दसेव के ) दशनो अंक, (य के) वली त्रीजा कोष्टकने विषे पूर्वोत्तरीतिप्रमाणे (हा) अदर लखेबुंज बे, तथा चोथा कोष्टकने विषे ( पन्नही के० ) पांशठनो अंक, ( तह यचेव के )तेमज निश्चें पांचमा कोष्टकने विषे (चालीसा के ) चाली शनो अंक, एम सर्व अंकोना मली शरवाले एकशो सीत्तेर जिनो ते (मे के) महारं ( सरीरं के०) शरीर जे इंडियायतन, तेने ( रकंतु के०) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ प्रतिक्रमण सूत्र. रक्षा करो. ते जिनो केहवा जे ? तो के (देवासुर के०) देव जे देवता अने असुर जे दानव , तेणें (पण मिश्रा के ) प्रणाम कस्यो जे जेने एवा बे, तथा (सिझा के) सिद्ध एटले जस्म करी नाख्यां ने ज्ञानावरणादि आठ कर्मो जेणे ते सिद्ध कहियें अर्थात् सिफ थया ने एवा ॥५॥ हवे पूर्वोक्त गाथाउमां कह्या प्रमाणे लख्या के अंको जेमां एवा यंत्रने विषे बीजां पण बीजो लखवा योग्य ,ते कयां बीजो? तथा ते बीजो कया कोष्टकमां केवी रीतें लखवां ? तथा ते बीजोनो महिमा प्रमुख शुंबे? ते कहे जे. ॐ हरहुँदः सरसुंसः, हरहुंदः तदचेव सरसुंसः ॥ आलिदिय नाम गप्नं, चकं किर सबउनदं ॥६॥ अर्थः-या गाथामां “ हरहुंह ” ए चार बीजादरो जे , तेणें करी पद्मा, जया, विजया अने अपराजिता, ए चार देवियोनां नाम अनुक्रमें प्र त्येक बीजे जाणवां तथा वली आ गाथामां “सरसुंसः” ए चार बीजा करो जे जे, ते महोटा प्रजाववाला तथा व्यंतरादिक पुष्ट देवोयें करेला उपसग्र्गोना निवारण करवाने अर्थे , तथा वली प्रथममां रह्या एवा "हरहुंहः” ए चार बीजाक्षरोने विषे (हा) अदर जे बे, ते सूर्यबीज डे 'ते छरितनाशकारक , तथा (र) अदर जे , ते अग्निबीज बे,ते कल्मष एटले पापने दहनकारक , तथा (९) अदर जे , ते क्रोधबीज , तथा कवच पण बे, ते नूतादित्रासक बे, अने कवचत्वें करी आत्मरदक पण बे, तथा (ह) अदर जे , ते संपुटित . ते पड़ी आ गाथामां बीजा "सरसुं सः” ए चार बीजादरो जे , तेमां (स) अदर जे , ते चंडबीज ते सौ म्यताकारक तथा सर्वदा शिवकारक जाणवू, तथा (र) श्रदर जे बे, ते अग्निबीज डे ते तेजोद्दीपन जाणवू. तथा (सु) अदर जे , ते संपुटित बीज , एम जाणवू. हवे ए आवे बीजो जे बे, ते कया कोष्टकमां कया अंकनी नीचें लखवां ? ते कहे बे. तिहां गाथाना आरंजमां बीज जे , ते परमात्मवाचक तथा पंचपर मेष्ठिवाचक माटें ते पदनो उच्चार करीने ते यंत्रनी प्रथम पंक्तिमा लखेला जे पांच कोष्टको बे, तेना मध्य कोष्टकमां तो (दि) अदर पूर्वे लखेQज बे,ते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिजयपहुत्त प्रर्थसदित. १३० विना बाकीनां चार कोष्टकोमां जिहां (२५) (८०) (१५) (२०) एवा अंको नरेला बे, ते चारे अंकोनी नीचें अनुक्रमें ( हरहुंहः के० ) ह, र, हुं, हः, ए चार बीजो लखवां. तथा बीजी पंक्तिना मध्यना कोष्टकमां तो पूर्वै ( प ) अक्षर लखेलुंज बे, पठी बाकीनां चार कोष्टकोमां जेमां (२०) (४५) (३०) ( 2 ) एवा चार को लखेला बे ते कोनी नीचें अनुक्रमें ( सरसुंस के० ) स, र, सुंः, सः, ए चार बीजो लखवां. तथा त्रीजी पंक्तिना कोष्टकोमां तो पूर्वै “पि खादा " ए पांच बीजमंत्राक्षरो लखेलांज बे, तथा वली चो पंक्ति कोष्टक मांदेला मध्यकोष्टकमां तो पूर्वे (स्वा) र लखे लुंज बे, ते विनानां बीजां चार कोष्टको जेमां ( 30 ) (३५) (६०) (4 एवा को लखेला बे, ते अंकोनी नीचें वली बीजी वारनां प ( हरहुंहः ho ) द, र, हुं, हः, ए चार बीजो अनुक्रमें लखवां तथा पांचमी पंक्तिना कोष्टकमांहेला मध्यकोष्टकमां तो (हा ) अक्षर पूर्वे लखेलुंज बे ते वि नानां बीजां चार कोष्टकामध्यें (२५) (१०) (६५) (४०) एवा चार को पूर्वै लखेला बे ते अंकनी नीचें अनुक्रमें ( सरसुंसः के० ) स, र, सुः, सः, ए चार बीज लखवां, छाने वली (खालि हिय के०) लिखित ए टले (To) समस्त प्रकारें करीनें ( लिखित के० ) लख्युं बे ( नाम hu ) साधन करनार पुरुषनुं नाम ँ कारसहित जे यंत्रना (गनं के० ) गर्न एटले मध्यजागना मध्य कोष्टकने विषे, एवो (किर के०) किल एटले निवें ( सहज के० ) सर्वतोभद्र एटले ऊर्ध्व पंक्तिनी गणनायें तथा मी पंक्तिनी गणनायें तथा तीच पंक्तिनी गणनायें तथा कोणगत पंकिनी गणनायें सर्वतो एटले ए पंक्तिना सर्व प्रकारें को गणतां शरवाले ( १७० ) थाय बे, तेमादें सर्वतोभद्र एवं ( नाम के० ) नाम बे जेनुं, एवं ( चक्कं के० ) चक्र ते यंत्र जाणवो, तथा वली ( सर्वतः के० ) सर्व प्रकारें जे थकी (as ho) कल्याण थाय बे. तेमाढें सर्वतोभद्र नाम जाण ॥६॥ हवे पी ते यंत्रना चारे तरफना पार्श्व प्रदेशोने विषे रह्यां एवां जे शोल कोष्टको तेने विषे शोल विद्या देवीनां नाम लखवां, ते कहे . रोहिणी पन्नत्ती, वसिंखला तदय वप्रकुसिया ॥ चक्केसरि नरदत्ता, कालि महाकालि तद गोरि ॥ ७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० प्रतिक्रमणसूत्र. गंधारी मदजाला, माणवि वश्रुट तहय अनुत्ता॥ माणसि'महाणसिआ, विद्यादेवी रकंतु ॥ ७॥ अर्थः-अहिं शोल देवीयोनां नाम जे लखवां, ते 3 एटले प्रणवबीज, अने बीजुं ही एटले मायावीज, त्रीजुं श्री एटले लक्ष्मीबीज. एवां ए त्रण बीज पूर्वक लखवां तथा तेना अंतमां नमः पद पण लखवू, जेम के प्रथम ॐ ही श्री रोहिण्यै नमः। एवी रीतेंत्रण बीज आगल मूकीने सर्व शोल देवी योनां नाम केहेवां, बीजी प्रज्ञप्त्यै नमः। एम त्रीजी वज्रशृंखलायै नमः। ( तहय के०) तथा वली चोथी वजांकुश्यै नमः । पांचमी चकेश्वर्यै नमः। बही नरदत्तायै नमः । सातमी काल्यै नमः। आठमी महाकाल्यै नमः । (तह के०) तथा नवमीगौर्यै नमः ॥७॥ दशमी गांधार्यो नमः। अगीयारमी महाज्वाल्यै नमः । बारमी मानव्यै नमः। तेरमी वैरुट्यायै नमः । (तहय के०) तथा वली चौदमी अनुप्तायै नमः। पंदरमी मानस्यै नमः । शोलमी महामानस्यै नमः । ए शोल नाम, ( कार )ते प्रणवबीज तथा (ही) ते मायाबीज तथा (श्री) ते लदमी बीज ए त्रण बीज पूर्वक अने अंतमां नमः पद सहित लखवां. एवो आ नाय बे, तेवी ( विद्यादे वी के ) हे विद्यादेवी ! तमें (रकंतु के०) मारु रदण करो.॥७॥ हवे एकशो सीत्तेर जिनवरोर्नु उत्पत्तिस्थानक कहे .. पंचदस कम्म नमिसु, नप्पन्नं सत्तरं जिणाणसयं ॥ विविद रयणाश्वन्नो, वसोंदिरं हर उरिआइं॥ए॥ अर्थः-जंबूद्वीप, धातकीखंम, पुष्कराई लक्षण एवा साध्य छीपोने विषे पांच नरत देत्रो, पांच ऐवत क्षेत्रो अने पांच विदेह देत्रो, ए ( पंचदस के०) पन्नर, ( कम्मनूमिसु के०) कृषिवाणिज्यादि कर्म ते डे प्रधान जेमां एवी जे नूमि तेने कर्मचूमि कहियें, ते कर्मचूमिउने विषे (उप्पन्नं के०) उत्पन्न थयुं, जे कारण माटे उत्कृष्ट कालने विषे पांच जरत ने विषे पांच तीर्थंकर, पांच ऐवतने विषे पांच तीर्थकर, तथा एक महा विदेहने विषे बत्रीश विजयो, तेवा पांच महा विदेहोना एकशो ने शाउ वि जयो ,तेमांप्रति विजयें एकेक तीर्थंकर थाय बे, एम जेवारें कोश्पण देत्रने विषे तीर्थंकरनो विरह न थाय? तेवारें उत्कृष्टा एकशो सीत्तेर तीर्थंकर थाय ने माटें कर्मचूमिउँने विषे उत्पन्न थयुं एवं (सत्तरिंजिणाणसयं के) एक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिजयपहुत्त अर्थसहित. २४१ शो सित्तेर जिनोनो समूह, ते श्री जितनाथ तीर्थंकरना समयने विषे होतो हवो. तेज॑नां नाम, तेज॑ना अंगवर्ण, ते मथुरास्थ स्तूपथ की उद्धार करेला पट्टिकायंत्रें करी जावां ते जिनसप्तत्यधिकशत केहेतुं बे ? तो के (विवि e ho ) विविध प्रकारना ( रयणाइ के० ) रत्नादिना ( वन्न के० ) वर्ण एटले श्वेत, पीत, रक्त, हरित, श्याम एवा वर्णोंयें करीने ( उवसोहिां ho) उपशोजित एटले अतिशोजित एवं बे. ते अमारां ( डुरिआई ho ) डुरितो जे बे, तेने ( हरउ के० ) हरण करो ॥ ए ॥ हवे ते केवा जिनोनुं ध्यान करवुं ? ते कहे बे. चनती सच्यइसयजुच्या, अहमदापाडिदेरकयसोदा ॥ तिचयरा गयमोदा, कावा पयत्तेां ॥ १० ॥ अर्थः- (चतीस सय जुया के०) चोत्रीश अतिशयोयें करीने युक्त, तथा वली केहेवा बे? तो के (महापामिर के०) आठ महाप्रातिहार्य तेणें (यसोहा के० ) करी बे शोजा जेमनी एवा, वली केहेवा बे ? तो के ( गयमोहा के० ) गयो बे मोह जेमनो एवा ( तियरा के० ) तीर्थंकरो, ( पत्ते के० ) प्रयतें करीने ( जाएवा के०) ध्यातव्य बे, अर्थात् हृद विषे चिंतनीय बे, एटले तीर्थंकरोनां एवा रूपनुं ध्यान करवुं ॥ १० ॥ हवे ए एकशो सीत्तेर तीर्थंकरोनो केहवो वर्ण बे ? ते कहे . वरकणयसंखविद्रुम, मरगयघणसन्निदं विगयमोदं ॥ सत्तरिसयं जिणाणं, सवामरपूइयं वंदे ॥ स्वाहा ॥ ११ ॥ अर्थः- केटला एक तीर्थंकरोनो ( वरकणय के० ) श्रेष्ठकनक सरखो पीत वर्ण बे, तथा केटलाएक तीर्थंकरोनो ( संख के०) शंखना सरखो वर्ण बे, तथा केटलाएक तीर्थकरोनो (विदुम के० ) प्रवालां सरखो वर्ष बे, तथा केटलाएक तीर्थंकरोनो ( मरगय के० ) मरकतमणिना सरखो वर्ण बे, तथा केटलाएक तीर्थंकरोनो ( घण के० ) मेघ तेना ( सन्निहं के० ) सर खो वर्ण बे, तथा ( विगयमोहं के० ) गयो के मोह जेथकी तेने विगत मोह कहियें. एवं, अर्थात् या गाथामां कहेला विविध वर्णवालुं एवं (स तरिसयं जिणाएं के० ) जिनोनुं सप्तत्यधिकशत. ते केहबुं बे ? तो के ( सवा ३१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ प्रतिक्रमण सूत्र. मरपूश्यं के ) सर्वामरपूजित बे, तेने हुं पण ( वंदे के०) वंदन करुं बुं अने (खादा के०) सुष्ठु. एटले रूहुं आह नाम कहे जे तेने स्वाहा कहि यें. अर्थात ए जिनेश्वरोने नमस्कार करवाथी शोजन सुखादिक थाय बे. अथवा बीजो अर्थ एम जे केः-"स्वाहा देवहविर्दाने” एम कहेढुं बे, तेथी देवताने हविनुं प्रदान ले. श्रा प्रदानें करीने देवो परितुष्ट थाय ॥११॥ हवे श्रा यंत्रना प्रजावें करी सर्व देवो पण उपभव करता नथी, ते कहे . उनवणव वाण वंतर, जोइसवासी विमाणवासी अ॥ जे केवि उठ देवा, ते सत्वे जवसमंतु मम ॥ स्वादा ॥१२॥ अर्थः-अहिं ( ॐ के०) ते पंचपरमेष्ठिवाचक पद जाणवू, ते म. हामंगलरूप , तेने श्रादिने विषे प्रयोजq. (जेकेवि के०) जे को पण (पुखदेवा के०) पुष्ट देवो ते मिथ्यादृष्टि जैनशासनना उपकारक श्रने जनोना अहितकारक देवो डे (तेसवे के०) ते सर्व पण आ स्तवनना प्रजाव थकी ( मम के०) मने (उवसमंतु के०) उपशांत हो, अर्थात् विघ्नोनेम करो. ते कया पुष्ट देवो ? तो के (नवणवर के०) जवनपति, (वाणवं तर के० ) वाणव्यंतर, (जोश्सवासी के०) ज्योतिष्कवासी देवो, (च के०) तथा ( विमाणवासी के) विमानवासी देवो बे. अने वाहापद जे , तेनो अर्थ पूर्वनी पेठे जाणवो ॥ १५ ॥ हवे ए यंत्रने फलकादिक जे काष्ठपट्टादिक तेने विषे लखीने पीवानो पण प्रजाव , ते कहे जे. चंदणकप्पूरेणं, फलए लिहिकण खालिअं पीअं ॥ एगंतराइ गद भूञ, साइणि मुग्गं पणासे ॥ १३॥ अर्थः-(चंदण के ) चंदन, अगरु, कुंकुम, तथा (कप्तरेणं के०) कपूरादिक तेणें करी (फलए के० ) फलक ते काष्ठपट्टादिक तेने विषे (लि हिऊण के ) लखीने, तथा वली कोश्क पुरुषो कहे जे जे पवित्र एवा कांस्यस्थालादिकने विषे कर्पूर, गोरोचन, कुंकुम, चंदन, अगरु, कस्तूरी प्रनृतिनो कर्दम करीने ते कर्दमें करी सात वखत प्रलेपन करीने यायें करी शूकवीने तेनी उपर पूर्वोक्त यंत्रने लखी, पुष्पधूपादिके पूजन करीने प्रातः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिळण अर्थसहित. २४३ कालने विषे ( खालि के ) झालन कस्यो एवो जे यंत्र, तेने जेणें (पी यं के०) पीधो होय, तेमना (एगंतरा के० ) एकांतरिक ज्वर आदि श ब्दयीठ्यांतरिक, त्र्यांतरिक ज्वर पण ग्रहण करवा. ते सर्व जातिना ज्वर तथा ( गह के०) ग्रह गोचर ते अशुल नाववाला जे ग्रह, अथवा ग्रह ण करे तेमने ग्रह कहियें, एवा (जून के) नूत ते व्यंतर विशेष अने (साइणि के०) शाकिनी विशेष (मुग्गं के०) मोगक, उपलदणथी अन्य पण उष्टरोग, नूत प्रेतादि आवेशने तथा कृतकर्मणादि जे जे, तेमने (प णासेश् के०) प्रनाशन करे जे ॥१३॥ __ वली बीजो पण प्रकार कहे . इन सत्तरिसयं जंतं, सम्मं मंतं वारि पडिलिदिअं॥ उरिआरि विजयवंतं, निग्नंतं निच्चमवेद ॥१४॥ अर्थः-(श्य के) श्रा (सत्तरिसयं के०) सप्तत्यधिकशतनामा एवो (जंतं के०) यंत्र जे जे तेनुं (सम्मं के०) रूडे प्रकारें (निप्रंतं के) निसंदेहें करीने हे जव्य जीवो ! (निच्चं के०) निरंतर, (अञ्चेह के) श्र र्चन करो. हवे ते यंत्र केहवो ? तो के (मंतं के० ) सर्वमंत्रमां गुह्य ए टले रहस्य , वली केहेवो ? तो के (कुवारि के०) गृह हारने विषे वा शुद्धि स्थानकने विषे पूर्वोक्त रीतें (पमिलिहियं के०) प्रतिलेखन करेलो . वली ते यंत्र केहेवो जे? तो के (कुरिअ के) कष्टो अने (अरि के०) शत्रु, तेने (विजयवंतं के) विजय एटले निराकरण करतो एवो बे. आहि वली केटला एक तो एम कहे , जे रूपाना पत्रामां अथवा ताम्रपत्रमा लखीने गृहमध्यने विषे पूंजन करवू, अने ज्यारे कार्य पडे, ते वखतें ते यंत्रनुं शुद्ध जलें प्रदालन करीने ते प्रदालित जलनुं पान करबुं ॥ १४ ॥ इति तिजयपहुत्तनामकं चतुर्थं स्मरणं समाप्तं ॥४॥ ॥अथ नमिऊणनामकं पंचमं स्मरणं लिख्यते ॥ - तेमां प्रथम मंगलानिधानपुरस्सर मंगलगाथा कहे . नमिकण पणयसुरगण, चूडामणि किरणरंजिअं मुणिणो। चलणजुअलं महानय, पणासणं संथवं वुडं ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ प्रतिक्रमणसूत्र. अर्थः- ( मुोि के० ) मुनिनुं जे पार्श्वनाथ तेमनुं (चलणजालं के० ) चरणयुगल एटले जे चरणारविंदनुं युगल तेने, ( नमिऊण के० ) नमस्कार करीने हवे ते चरणयुगल केहवुं बे ? तो के ( पणय के० ) प्रणत एटले नमस्कार करनारा एवा जे ( सुरगण के० ) देवताना समूह तेना मस्तकने विषे रहेला एवा जे ( चूमा के० ) मुकुट, ते मुकुटनेविषे रहे ला जे ( मणि के० ) मणियो, तेना ( किरण के० ) किरणो, तेणें करीने ( रं जिथं के० ) रंजित एवं बे. वली केहवुं बे ? तो के ( महाजय के० रोग, जल, ज्वलनादि एवा सोल पदार्थथकी उत्पन्न ययुं एवं जे महो जय, तेने ( पणासणं के० ) प्रकर्षे करीने नाश करनारुं एवं ते चरणयुगल बे, तेने नमस्कार करीने हुं या प्रकारना ( संथवं के० ) शंस्तव जे तेने (बुद्धं के० ) कहीश ॥ १ ॥ हवे " रोग जल जलण " ए पूर्वोक्त शोल जय ते मध्यें आठ महाज य बे, तन्निवारणलक्षण प्रभुनुं अतिशय वर्णन, ते प्रत्येक a गाथायें करी तो बतो प्रथम रोगजय निवारणलक्षण प्रजुनो अतिशय, गाथायुगग्में करी कडे बे. समियकरचरणनदमुद, निबुड नासा विवन्न लायन्ना ॥ कुठमदारोगानल, फुलिंगनिद्द सवंगा ॥ २ ॥ ते तुद चलणारादण, सलिलंजलि सेय बुढिय वाया || (उच्चादा) व दवदवा गिरिपा, यव व पत्ता पुणोलचीं ॥ ३॥ अर्थः- ( समय के० ) विशीर्ण बे एटले सडी गयेलां बे ( करचरणनहमुह के० ) हाथ, पग, नख अने मुख जेमनां एवा, तथा ( निबुड्ड के० ) निमग्न बे, एटले बेशी गयेली बे (नासा के०) नासिका जेनी एवा, तथा ( विवन्न के० ) विनष्ट युं बे ( लायन्ना के० ) लावण्य जेमनुं एवा, ( कुछ के० ) कुष्ठ प्रसिद्ध एवो कोढरूप ( महारोग के० ) महान् रोग तेनुं संतापजनक पं बे जेने हेतु माटे ( अनल के० ) अग्निसमान तेनां (फुलिंग के ० ) स्फुलिंगना सरखा एटले अंगारना तणखा ते समान पी माकारक तेणें करी ( निee ho ) बाल्यां बे ( सवंगा के० ) सर्व अंग जेमनां एवा ॥ २ ॥ ( ते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिऊण अर्थसहित. २४५ के०) ते प्राणीयो पण हे पार्श्वनाथ ! (तुह के ) तव एटले तमारां (चलणाराहण के ) चरणोनुं आराधन जे सेवन तेज (सलिलंजलि के० ) सलिलांजलि जे पाणी पीवानी अंजलि तेनुं ( सेत्र के ) सेक जे सेचन तेणें करी (वुढ़ियछाया के ) वृद्धिंगत थ डे बाया शोना जेम नी एवा बता (पुणो के०) फरीने (लही के०) लक्ष्मी जे आरोग्यरूप संपदा तेने ( पत्ता के०) प्राप्त थाय जे. तेने विषे उपमा कहे जे के, जेम (वणदव के०) वननो अग्नि तेणें करी ( दवा के०) दग्ध थयेला (गिरि पायव के) गिरिपादप एटले पर्वतनां वृदोडे तेज (व के०) जेम ( वुहिपहाया के०) वृद्धि पामी शोजा जेमनी, एवा थाय ने वली वुहिउछाहा एवो पण पाठ , तो तेनो अर्थ एम जाणवो जे वृकिंगतथी यो ने उत्साह जेमनें एवा अर्थात् दवदग्ध वृदो जे जे, ते वृष्टिना जलें करी सिंचेला उता फरीने नवकोमलादि संपत्तिनो प्रार्जाव करे ले. तेम कुष्ठादि महारोगोयें करीने विवर्णनावने पामेला एवा जनो, ते तमारा चरणारा धनामृतें सिंचायेला बता फरी पाबा मकरध्वजतुल्य रूपने पामे जे ॥३॥ हवे गाथाघ्ये करीने प्रजुनुं बीजुं जलजयापहरण लक्षण माहात्म्यने देखामतो बतो कहे बे. ज्वायखुनियजलनिदि, उन्नडकखोलनीसणारावे ॥ संनंतनयविसंठुल, निद्यामयमुक्कवावारे ॥ ४ ॥ विदलिअ जाणवत्ता, खणेण पावंति इजिअं कूलं॥प सजिणचलणजुअलं, निच्चं चित्र जे नमंति नरा॥५॥ अर्थः-(ज्वाय के० ) पुष्टवात एटले प्रतिकूल पवन, तेणे (खुप्रिय के ) दोनित कस्यो एवो ( जलनिहि के ) जलनिधि जे समुफ, तेना ( उपम के) उन्नट एटले उदार एवा (कबोल के) कबोल जे लहे रीयो तेमना (जीसण के०) जयंकर डे (आरावे के०) शब्दो जेने विषे एवो तथा ( संनंत के०) हवे शुं करवं जोश्ये? एवो विचार करवाने विषे मूढ थयेला तथा (जय के०) जय जे बीक तेणें करीने ( विसंतुल के०) विव्हल थया एवा (निद्यामय के ) निर्यामक एटले खलासी तेणें (मुक्कवावारे के०) मूक्यो ने व्यापार जेने विषे ॥४॥ एवा पण समु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ प्रतिक्रमण सूत्र. ने विषे (विद लिय के० ) नथी जांग्युं ( जाणवत्ता के० ) यानपात्र ते वहाण जेमनुं एवा बता ( खणेण के० ) क्षणें करीने एटले घमीना वा जागें करी ( इछि के० ) इति एवं ( कूलं के० ) समुद्रतट एटले कांगे तेने ( पावंति के० ) प्राप्नुवंति एटले पामे बे. ते कया नर जाणवा ? अर्थात् सर्वजन नहिं, परंतु ( जे के० ) जे ( नरा के० ) मनुष्यो ( पास जि पण के० ) श्रीपार्श्वजिन तेनुं ( चलणलं के० ) चरणकमलनुं जुगल तेने (चित्र के० ) चित्र शब्द अवधारणार्थ वे (निच्चं के० ) निरंतर (नमंति ho) नमन करे बे, अथवा (निच्चं चित्र के०) नित्य गंधादिकें करी अर्चन क रीने जे (नमंति के०) नमस्कार करे बे, ते नरो समुद्रना पारने पामे बे ॥२ हवे गाथायुगलें करीने प्रजुनो त्रीजो दावानलजया पहारातिशय कहे . खरपवाणु हुयवणदव, जालावलि मिलियसयल डुमगढ़ ॥ तमु मयव, जी सणरवजी सांमि वणे ॥ ६ ॥ज गगुरुणो कमजुअलं, निवाविञ्प्रसयल तिहुणानोयं ॥ जे संरंति मणुच्या, न कुणइ जलणो जयं तेसिं ॥ ७ ॥ अर्थः- गल कशे ए प्रकारना ( वणे के० ) वनने विषे ( जालो ho) ज्वलन जे नि ते जय करतो नथी. हवे ते वन केह बे ? तो के (खर के०) प्रचंक एवो जे (पवण के) वायु, तेणें करी (जय के० ) उद्धत सर्व दि शियाने विषेाणी तरफ पहेली तरफ प्रसारने पमाडेलो एवो (वणदव के०) वननो, नितेनी (जाला के० ) ज्वाला तेनी (यावली के०) श्रेणि तेणें करी (मिलिय के० ) परस्पर एकीभूत थया बे (सयल के०) समग्र ( डुम के ० ) म एटले वृो तेना (गहणे के०) गहन जेने विषे, एटले या बानुं वन, या चंपकवन, इत्यादिक बे जे वनने विषे तथा वली ते वन केह बे? तो के (मत के०) दाजती एवी (मुद्ध के) मुग्ध एटले सरल एवीजे (मयवहु के ० ) मृगवधू एटले हरणीयो तेमनो (जीसा के०) जयंकर (रव के० ) कंद, शब्द तेणें करीने ( जी समि के० ) जयप्रद थयेलुं अर्थात् जयंकर य येलुं. यहीं जी एटले जय तेने सन केतां यापे, तेने जीषण कहियें एवा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ नमिऊण अर्थसहित. (वणे के०) वनने विषे. वली आही केटलाएक तो एवो अर्थ करे ने के, (मऊंत के०) दह्यांत एटले दहन थवा योग्य एवं जे वन तेनो अंत ए टले अवसान ने जेमां, तेने दह्यांत कहिये ते दह्यांत जे दवाग्नि तेनी (मुक के०) सरल एवी जे ज्वाला तेना श्राकुलितपणायें करीने मूढ एवा जे ( मय के०) अरण्यवासी पशुङ तेनो ( बहु के ) घणो अत्यंत (नीस ण के०) जयंकर एवो (आराव के०) श्राकंद तेणें करीने (नीसणंमि के०) जयनीत थयेवू एवं (वणे के७) वनने विषे ॥६॥ (जगगुरुणो के०) वसा मर्थ्यथकी थयेला एवा जगतना गुरु जे श्री पार्श्वनाथ स्वामी तेमनुं (कमजुयलं के०) चरणयुगल, ते चरणयुगल केहबुं ले ? तो के ( निवावि अ के०) निर्वापित एटले आपत्तिना तापने प्रशमनें करी सुखीयो कस्यो डे (सयल तिहुश्रणानोरं के ) समग्र त्रिजुवना जोग एटले परिपूर्ण त्रण जुवन जेणे एवं चरणयुगल बे. आहीं श्रानोग शब्द जे , ते अनि पणनिषेधार्थ डे, एवा प्रजुना चरणकमलने (जे के०) जे मणुश्रा के०) मनुष्यो (संजरंति के० ) स्मरण करे . ( तेसिं के०) ते स्मरण करनार जनोने पूर्वोक्त जे (जलणो के०) दावाग्नि ते (जयं के) जय प्रत्ये (नकुण के) नथी करतो ॥ ७॥ हवे गाथायुग्में करीने जगवंतनो चोथो विषधरजयनिवारकत्व महिमाने देखामतो बतो कहे . विलसंत नोग नीसण, फुरिआरुण नयण तरल जीहाल। जग्गनुअंग नवलज, य सदं नीसणायारं ॥ ७ ॥ मन्नंति कीम सरिसं, दूर परिबूढ विसम विसवेगा ॥ तुद नामकर फुडसि, इमत्तं गुरुआ नरा लोए । ए॥ अर्थः-( विलसंत के० ) सुशोजित एवा (जोग के० ) फणा जे जेना अथवा ( विलसंत के०) सुशोनित (नोग के) देह जेनो एवो तथा (जीसण के०) नयंकर अने (फुरित्र के ) स्फुरित एटले चपल अने (अरुण के०) आरक्त ने ( नयन के ) चहु जेनां एवो तथा (तरल के०) चंचल ले (जीहालं के० ) जिव्हा जेनी एवो ( जग्गजुश्रंग के०) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ प्रतिक्रमण सूत्र. जय जंगम एटले जयंकर सर्प, वली ते सर्प केहेवो बे ? तो के (नवजलय के० ) नवीन जलद एटले आषाढ महिनानो वर्षाद, तेना ( सहं के० ) सदृश बे, एटले मेघनी पेरें श्यामवर्णे बे. वली केहेवो बे? तो के (नी सणा यारं के० ) जीषणाकार एटले जयंकर बेकार जेनो, अथवा जयंकर बे चार कहेतां वेल्लन एटले यहिं त्यहिं भ्रमण जेनुं एवो सर्प ॥ ८ ॥ ने ( की सरिसं के० ) कीटसदृश (मन्नंति के० ) माने बे. तेने कीटसह श कोण माने बे ? तो के ( दूर के० ) अत्यंत दूर कस्यो बे (परिनूढ के० ) चारे तरफ टायो ने ( विसम के० ) याकरो एवो ( विसवेगा के० ) वि. षनो वेग जेयें. ते कोणें टाल्यो बे ? तो के हे श्री पार्श्वनाथ ! (तुह के ० ) तमारुं (नामरकर के०) नामाक्षर तेज ( फुरु के० ) स्फुट बे प्रभाव जेनो तेणें करीने (सिद्ध के०) सिद्ध थयेलो एवो (मंत के०) गारुमा दिकनो मंत्र एटले तमारा नामना जे ( पार्श्व ) ए वे प्राजाविक अक्षरो बे, ते अक्षरोयें करीने सिद्ध येलो एवो जे गारुमादिक मंत्र, तेणें करीने (गुरुच्या के० ) गरिष्ठ एटले महोटा एवा जे ( नरा के० ) मनुष्यो जे (लोए के०) लोकने विषे बे, तेणें टाल्यो. तेज पूर्वोक्त सर्पने कीटसदृश माने बे ॥ ९ ॥ हवे गाथायुगलें करीने प्रजुनुं पांचमुं तस्करजय निवारकत्व कहे दे वसु निल्ल तर, पुलिंदसद्दूलसद्दजीमासु ॥ जयविदुरखुन्नकायर, उल्लूरि पदिप्रसवासु ॥ १०॥ विलुत्त विदवसारा, तुद नाद पणाममत्तवावारा ॥ ववयविग्घा सिग्घं, पत्ता दिय इचियं वाणं ॥ ११ ॥ अर्थः- (वसु के०) सर्व अटवीयोने विषे. ते पटवीयो केहवी बे ? तो के ( जिल्ल के० ) जिल्ल जे पलीवासी लोक, तथा ( तक्कर के० ) तस्क र एटले चोर, (पुलिंद ० ) वनचर जीवो, ( सहल के० ) शार्दूल सिं ह, तेने मारो, हणो, इत्यादिक जे ( सह के० ) शब्दो तेणें करीने (जी मासु के० ) जयंकरबहामणी एवी, तथा ( जय के० ) जय तेणें करीने ( विदुल के० ) विव्हल तथा ( बुन्न के० ) विषम एटले दुःखित एवा पुरु पोने (कायर के०) कातर एवा जिल्ल लोकोयें (उल्लू रिच के०) लूंच्या Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिकण अर्थसहित. २४ए बे, (पहिअसबासु के०) पंथीयोना सायो जेने विषे एवी अटवीयो बे॥१॥ एवी अटवीयोमां पण हे श्रीपार्श्वनाथ ! (अविवुत्त के०) नथी चोखु एवं (विहवसारा के०) उत्कृष्टधन जेनु, ते कोण पुरुष उत्कृष्ट धन नथी चोयु? तो के ( नाह के०) हे नाथ ! (तुह के) तमोने (पणाममत्त के०) प्रणाममात्र करवो, तेज ने ( वावारा के०) व्यापार जेमने, एटले ते अवसरने विषे तमोने प्रणाम करवानुं ने कृत्य जेमनुं एवा पथिको जे बे, तेना (सिग्धं के०) शीघ्र एटले उतावला (विग्घा के०) विघ्नसमूह, (वव गय के०) विशेषे करी गया जे जेथकी एवा पुरुष, ( हियडियं के) पोताना हृदयने विषे शछित एवा (गणं के०) खनगरपामादिक जे मनोवां वित स्थानक, ते प्रत्ये (पत्ता के ) प्राप्त थाय ने ॥ ११॥ हवे गाथायें करीने बहुं सिंहनयनिरासकारक प्रनु माहात्म्य कहे . पऊलिानलनयणं, दूरवियारियमुझं महाकायं ॥ नद कुलिसघायविअलिअ, गइंदकुंजबलानोअं ॥१२॥ पणयससंनमपबिव, नहमणिमाणिकपमिअपमिमस्स ॥ तुह वयणपहरणधरा, सीहं कु-इंपि न गणंति ॥१३॥ अर्थः-(पालिथ के) प्रज्वलित एवो जे (अनल के० ) अग्नि, तेना सरखांडे ( नयणं के०) नेत्र जेनां एवा, तथा ( दूरवियारियमुहं के०) दूरथकी फाड्युं ने जहण करवाने अर्थे मुख, जेणे एवो, तथा (महा के०) महोटो डे ( कायं के०) देह जेनो एवो, तथा (नहकुलिस के०) नखरूप कुलिश जे वज्र, तेना (घाय के ) घात, एटले जे प्रहार, तेणें करी (विलिय के०) विदलित एटले विशेषे निन्न कस्यांडे (गरुंद के०) गजेंड जे हस्ती तेमनां जे (कुंजबल के०) कुंजस्थल तेना (आनोअं के०) आलोग एटले विस्तार जेणे एवो ॥ १५ ॥ अने (कुपि के०) क्रोधा यमान थयो एवो पण ( सीहं के०) सिंह जे जे तेने (नगणंति के०) नथी गणता, अर्थात् तेवा सिंहने विषे पण नयहेतुतायें करी संजावना करता नथी. ते कोण संजावना करतानथी ? तो के ( पणय के ) नम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० प्रतिक्रमणसूत्र. ता एवा ( ससंजम के) ससंत्रम एटले आदरसहित जे ( पनिव के) पार्थिव जे राजार्ज, ते संबंधीनु अथवा पृथिवीने विषे विख्यात जे इंलो ते संबंधी, ( नहमणिमाणिक के० ) प्रजुना नखो तेहीज श्रेष्ठ म णिमाणिक्य तेने विषे (पमिय के ) पड्युं (पमिमस्स के ) प्रति बिंब जेमने एवा तमें बो, ते ( तुह के० ) तमारा ( वयणपहरण के० ) वचनें करी जे नामग्रहण करवं, ते रूप प्रहरण एटले शस्त्रो, ते शस्त्रोने (धरा के०) धारण कस्यां ने जेमणे एवा, जनो सिंहने गणता नथी ॥१३॥ हवे गाथायुग्में करीने सातमो गजजयनिरासकारक प्रजुनो अतिशय देखामतो बतो कहे जे. ससिधवलदंतमुसलं, दीदकरुल्लालवुहिनबादं ॥ ममु पिंगनयणजुअलं, ससलिलनवजलहरारावं ॥१४॥ नीमं महागइंदं,अच्चासन्नंपि ते न विगणंति॥जे तुम्ह चलणजुअलं, मुणिव तुंगं समल्लीणा ॥१५॥ अर्थः-( मुणिवर के०) हे मुनिपते! (ते के० ) ते नरो, (अञ्चासन्नपि के०) अत्यासन्न एटले अतिशयें करीने निकटवर्ती एटले ढूकमो रहे लो एवो पण (महागदं के०) महोटो एवो गजेंड तेने (नविगणंति के०) नथी गणता. अर्थात् ते नरो गजनय हेतुनी संजावना करता नथी. हवे ते गजेंड केहेवो ? तो के (नीम के) बिहामणो अतिजयंकर एवो, वली केहेवो जे? तो के (ससि के०) चंडमा तेना सरखो (धवल के) धोलो डे (दंतमुसलं के०) बे दांत रूप मुशल जेनें एवो अने (दीह के०) दीर्घ एटले लांबो एवो ( कर के) शुंढादंम तेनुं ( उबाल के०) उंचु उमामवं, तेणें करीने ( वुद्धि के) वृद्धिंगत थयो रे ( उदाहं के०) उ त्साह जेने एवो, तथा ( महु के०) मधु एटले मघ तेना सर (पिंग के) पीतरक्त डे (नयणजुअलं के०) नेत्रनुं युगल जेनुं एवो, तथा वली केहेवो ? तो के ( ससलिल के ) जलें करी पूर्ण एवो जे (नवजलह रारावं के०) नवीन मेघ, तेना सरखो ने आराव एटले गर्जनारूप शब्द जेनो एवो, अहिं जलधर शब्द जे , ते मेघवाचि जाणवो. कदापि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिकण अथर्सदित. २५१ तेम न कहियें, तो प्रथम सलिल शब्द ग्रहण करेलो , तेथी पुनरुक्ति दो पनी आपत्ति थाय ने माटे. वली ते नरो केहेवा ? तो के (जे के०) जेनरो, (तुम्हचलणजुअलं के०) तमारा चरणयुगल ते प्रत्ये ( समसी णा के०) सम्यग्रीतें आश्रयें करीने रह्या एवा जे. ते तमारु चरणयुग ल केहे ? तो के ( तुंग के०) सर्वथकी गुणोयें करीने उन्नत एबुं बे. हवे ए सर्वनो नावार्थ एज ने जे, तमारा चरणाश्रित नरोने एतादृश गजजय होतुं नथी ॥ १५ ॥ ॥ हवे गाथायुग्में करीने आठमो प्रजुनो संग्रामनयहरातिश यने कहेतो तो कहे जे.॥ समरम्मि तिकखग्गा, निग्यायपविनध्यकबंधे ॥ कुंतविणिनिन्न करि कलह,मुक्क सिकार पनरंमि॥१६॥ निजियदप्पुटररिज, नरिंदनिवदा नडा जसं धवलं ॥ पावंति पाव पसमिण, पास जिण तुद प्पनावेण॥१०॥ अर्थः-( पास जिण के० ) हे पार्श्वजिन ! तथा ( पावपसमिण के० ) हे पापना प्रकर्षे करी शमावनहार ! (नमा के०) नट जे सुनटो ते, (समर म्मि के०) संग्रामने विषे (तुहप्पन्नावण के०) तमारा प्रजावें करीने (ध वलं के०) उज्ज्वल एवं (जसं के) यश जे तेने (पावंति के) पामे जे. ते नटोयें तमारा प्रजावें करीने (निजिय के०) निर्जित एटले जीत्या ने (दप्पुकर के ) दर्प जे अहंकार तेणें करी मदोन्मत्त थयेला अर्थात् “अमें योझा बैयें."तेवा अनिमान धरनारा एवा (रिउनरिंद के०) शत्रु एवा जे राजा तेमना ( निवहा के० ) समूह जेमणे एवा थाय ने ॥ १७ ॥ हवे पूर्वोक्त संग्राम केहवोडे ? तो के (तिकखग्गा के०) तीदण एवा जे खग तेना (अनिग्घाय के०) प्रहार तेणे करीने (पविक के०) उबृंखल जेम तेमज ( जाय के) आम तेम नाचवा लाग्यां (कबंधे के०) मस्तक रहित धम जेने विषे एवो, तथा वली केहवो ते संग्राम के ? तो के (कुंत विणिजिन्न के०) कुंत जे नाला, तेमणे विशेषे करी नेदेलां ने अंग जेनां एवा जे ( करिकलह के० ) हस्तीना त्रीश वर्षना बालको, तेमणे (मु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमणसूत्र, कसिकार के) मूकेला एवा जे सीत्कारो ते सीत्कारातिशयें करीने (पज रम्मि के०) प्रचुर एवो संग्राम के. एवा दारुण संग्रामने विषे तमारा प्रनावें करी ते सुनटो जयने पामे ने ॥ १६ ॥ हवे एटला स्तोत्रं करीने कवियें प्रजुनु आठ जयनिवारणातिशय पणुं पृथक् पृथक् युग्मगाथायें करीने कडं, सांप्रत एक गाथायें करीनेज पूर्वे कह्यां एवां जे जयो, तेने निरास करतो बतो कहे जे. रोग जल जलण विसहर, चोरारि मइंद गय रण नया॥ पासजिण नाम संकि, त्तणेण पसमंति सबाई ॥ १७॥ अर्थः-( रोग के ) रोग जे कुष्ठादि, (जल के०) पाणी (जलण के०) अग्नि, (विसहर के०) सर्प, (चोर के०) तस्कर, (अरि के ) शत्रु, (मशंद के०) सिंह, (गय के०) हस्ती, (रण के०) संग्राम, तेनां (सवाई के०) सर्व (जया के) जय ते, (पासजिणनामसंकित्तणेण के०) पार्श्वजिननां श्रका पूर्वक जे नाम, तेनुं जे कीर्तन, तेने करवे करीने (पसमंति के०) प्रकर्षे करी शांति पामे जे. अर्थात् प्रशब्दें करीने फरी ते लय उत्पन्न पण थाय नहिं आ ठेकाणे मंत्र कहे . ते जेम के:-" नमिऊण पास विस विसहर वसह जिण फुलिंग हीरोग जल जलण विसहर चोरारि मसूद गय रण नया पास जिण नाम संकित्तणेण पसमंति मम स्वाहा ॥” आ महामंत्र बे, ते आ स्तोत्रना वेराएला अदरोयें करी उत्पन्न करेलो ने ॥ २७ ॥ हवे था गाथामां आ स्तोत्रनुं माहात्म्य कहे बे. एवं मदानयदरं, पास जिणिंदस्स संथवमुआरं ॥ नविय जणाणंदयरं, कल्लाण परंपर निदाणं ॥२॥ अर्थः-(एवं केश) ए पूर्वोक्त रीतें कडं एवं, (पास जिणिंदस्सके०) श्रीपार्श्वजिनेनुं (संथवं के०) स्तवन , ते केहे जे ? तो के (महालयहरंके) महोटुं एवं जे नय तेने हरनारंबे, अर्थात् अनर्थप्रतिघातक जे. श्रा पदें करीने या स्तोत्रनुं नाम पण जयहर जाण. वली ते केह.? तो के (उयारं के०) अर्थथकी अने शब्दथकी उदार बे. वली केहे ? तो के (लवियजणाणंदयरं के०) लव्य जे मुक्तिगमन योग्य जीव, तेने आनंद Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमिकण अर्थसदित. २५३ करनारं बे. आहिं को शंका करे के, नवियानंदयरं एम न कयु अने नवियजणाणंदयरं एम कहेवानुं हुं कारण ? अने कदाचित् पूर्वोक्त पाठ कह्यो हत, तो पण अर्थमां एमज आवत. ते जेम केः-लविकोने आनंद दे नारूं बे. त्यां समाधान करे ने के, जो जन शब्दनुं ग्रहण करियें, तो अव्यव हारिक निगोदमां पण नविक जीव , तो तेने आनंद थवानो संजव ने नहीं, कारण के ते एकेडिय डे माटे मध्ये जन शब्दनुं ग्रहण कसु बे. अहीं व्यवहारराशिमां जे उत्पन्न थाय, तेने जन कहियें माटें नविक एवा जन ने आनंदकारक था स्तवन बे, एम जाणवं. वली आ स्तवन केहq ? तो के (कहाणपरंपरनिहाणं के ) कल्याण जे श्रेय तेनी परंपरा जे संतति तेनुं निदानरूप एवं बे. अहिं केटलाएक तो पदविनंजन करीने आम अर्थ करे में, ते जेम केः-(नवियजणाणं के) नविक जनोने (कखाणपरं के०) कल्याणैकस्थान एवं बे. वली केहेतुं ? तो के (परनिहाणं के०) परनिजानां एटले पर जे शत्रुर्व तेनां निज जे कपट ते उच्चाटनादि तेने (अंदयरं के०) बांधनारंडे, अर्थात् प्रकारांतरें करी एम जाणवू जे कुछ कर्मोंने स्तंजन करनारं ॥ १५ ॥ हवे था गाथायें करीने जे कोइ जयस्थानको होय, ते ठेकाणे श्रा स्तवन नण, एवां जयस्थानकोने प्रगट करतो तो कहे बे. राय जय जक ररकस, कुसुमिण उस्सनण रिक पीडासु ॥ संकासु दोसु पंथे, जवसग्गे तदय रयणीसु ॥२०॥ अर्थः-( रायनय के० ) राजनय, ( जरक के० ) यदाजय, ( रकस ) के०) रादसनय, ( कुसुमिण के० ) कुखप्ननय, तथा (उस्सउण के) कुशकुन, एटले उष्ट शकुननय तथा (रिक के०) अशुल ग्रह, ते सर्वनी (पीमासु के ) पीमाउँने विषे, तथा ( दोसुसंकासु के०) बे संध्या ते एक प्रातः काल अने बीजी सायंकाल तेने विषे, तथा (पंथे के० ) पंथ जे अरण्यादिक मार्ग तेनेविषे. तथा (उवसग्गे के७) देव अने मनुष्यकृत जपसनेने विषे ( तह के) तथा ( य के) च ते समुच्चयार्थवाचक बे. रय णीसु के० ) रात्रियोने विषे ॥२०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ प्रतिक्रमण सूत्र. जो पढाइ जो निसुाइ, ताणं कइणो य माणतुंगस्स ॥ पासो पाव पसमेज, सयल जुवचित्र चलणो ॥ २२ ॥ अर्थः- ( जो के ) जे कोइ जन, ए उक्तप्रकारें करीने श्रीपार्श्वजिन नुं यास्तव जे बे, तेने ( पढ के० ) जो बे, तथा (जो निसु के० ) जे उपयोग पूर्वक सांजले बे, (ताणं के०) ते बेहु जननुं ( य के० ) वली (को०) प्रस्तुत स्तोत्रना कर्त्ता एवा ( माणतुंगस्स के०) मानतुंग सूरि तेमना निजप्रभु एवा जे ( पासो के०) पार्श्वनामा जिन यहिं पार्श्व पढ़ें करीने पार्श्वय ग्रहण करवो नहिं, कारण के ते यने हवे केदेशुं एवां विशेषणोनी अनुपपत्तिबे माटें ते पार्श्वजिन, (पावं के०) पाप ते अशुभ कर्म जे राजा दिनुं कारण, तेने ( पसमेत के० ) विनाश करो. ते पार्श्वजिन केहेवा बे ? तो के ( सयलजुवण श्चियचलणो के० ) सकल एवं वन जे जगत् तेणें, यहिं जुवनशब्दें करीने त्रिभुवनमा रहेनारा जनो ग्रहण करवा, तेणें अर्चित एटले पूजित के चरण जेनां एवा बे ॥ २१ ॥ हवे ते पार्श्वजिन केहवा बे ? तेनो अतिशय, या गाथायें करी कहे बे. वसग्गंते कमठा, सुरम्मि काणार्ड जो न संचलि ॥ सुर नर किन्नर जुवइहिं, संधु जयन पास जिणो ॥ २२ ॥ अर्थ :- ( उवसग्गंते के० ) उपसर्गकारक एवो ( कमठासुर म्मि के० ) कमासुर बते पण ( जो के० ) जे जगवान् ( ऊाणा के ) षड्जीव नि काय हितचिंतनरूप एवा ध्यानथकी (नसंच लिर्ड के० ) चलायमान थ या नहीं. अर्थात् कोन पाम्यानही. वली ते केढ़वा वे ? तो के ( सुर के० ) देवो, ( नर के० ) मनुष्य, ( किन्नर के० ) किन्नर, ( जुवइहिं के० ) युवती एटले ते सर्वनी स्त्रीयो तेणें (संधु के०) रूडे प्रकारें एटले त्रिधा शुद्धियें करीने स्तुति करेला एवा ( पास जिलो के० ) श्रीपार्श्वजिन ते ( जय के० ) जयतु एटले उत्कर्षे जयवृद्धिने पामो ॥ २२ ॥ इस मनयारे, अहारस करेदिं जो मंतो ॥ जोजाइ सो काय, परम पयचं फुडं पासं ॥ २३ ॥ अर्थ: - ( एस० ) या स्तोत्रना ( मनयारे के० ) मध्यनें विषे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशांतिस्तव अर्थसहित. वेरेला अदरोयें करी “नमिळणपासविसहरवसह जिणफुलिंग” ए (अहा रसअकरेहिं के०) अढार अदरोयें करीने (जो के०) जे चिंतामणिनामा गुप्त ( मंतो के ) मंत्र , तेने ( जो के) जे (जाण के०) गुरु उपदे शथकी जाणे , (सो के० ) ते, तेवा मंत्रे करीने (पासं के०) पार्श्वनाथने (काय के०) श्रीमंत्रमय पार्श्वप्रजुनुं ध्यान करे , ते केहवा श्री पार्श्व नाथ ? तो के ( फुडं के ) प्रगटध्यान स्वरूपें करीने (परम के०) उ त्कृष्ट एवं ( पयलं के० ) पद जे स्थानक तेने विषे रहेनारा ३ ॥ ३ ॥ पासद समरण जो कुणश, संतुझे दियएण ॥ अछुत र सय वादि नय, नास तस्स दूरेण ॥ २४ ॥ इति श्रीमहानयहरनामकं पंचमस्मरणं संपूर्णम् ॥५॥ अर्थः-(जो के ) जे जीवो, (संतुहियएण के० ) संतुष्ट हृदयें क रीने (पासह के० ) श्रीपांश्वनाथy ( समरण के०) स्मरण जे , तेने (कुण के ) करे , (तस्स के०) ते जीवोना (अहुत्तरसय के० ) एक शो ने आठ एवा (वाहि के०) व्याधि संबंधि जे (जय के) जय, ते (दू रेण के ) दूर प्रत्ये ( नास के ) नासे डे ॥ २४ ॥ इति नमि ॥५॥ ॥अथ ॥ ॥श्री अजितशांतिस्तवननाम्नः षष्ठस्मरणस्य प्रारंजः॥ अजिअं जिअ सब नयं, संतिं च पसंत सब गय पावं ॥ जय गुरु संति गुणकरे, दोवि जिणवरे पणिवयामि ॥१॥गाहा ॥ अर्थः-जगवान् गर्नस्थ बते तेमनी विजया देवी माताने पोताना वा मी जितशत्रु राजाये द्यूतक्रीमाने विषे न जीती, माटें (अजियं के) अजितनाथ नामा बीजा तीर्थंकर, (च के ) वली ( जिसवनयं के) जीत्युं बे, श्ह लोकादिक सप्तविध सर्व नय जेणे एवा, (संति के०) श्रीशांतिनाथ नगवान् ते, जे वखत गर्जमां हता, ते समय पण जगत ना अशिवोनी उपशांतिने करता हवा, अने हमणां पण जे स्मरणथकी जीवने शांतिने करे बे. ते शांतिनामक शोलमा तीर्थंकर केहेवा जे ? तो के ( पसंत के०) अपुनर्जावें करी निवृत्त थया डे ( सब के ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ प्रतिक्रमणसूत्र. सर्व एवा ( गय के० ) रोग अने (पावं के) पाप एटले अशुज कर्म जे मनां एवा बे, ते (दोवि के० ) बेहु पण ( जिणवरे के०) जिनवर तेने (पणिवयामि के० ) प्रणिपतामि एटले ननस्कार करुं बुं. ते बेहु जिनवर केहेवा जे? तो के (जय के) जगत् जे देशनाई प्राणिवर्ग तेना (गुरु के०) तत्त्वोपदेष्टा एवा बे, अथवा जगतना (गुरु केण) महोटा एवा तथा (संति के०) कषायनो अन्नाव, तथा (गुण के) ज्ञानादिक गुण तेने (करे के०) करे बे, अथवा शांतिरूप गुणना करनार ॥१॥आ, गाथानामक बंद जा णवो. श्रा सर्वस्तोत्रना बंदनुं लक्षण बंदोरत्नाकरनामक ग्रंथथी जाण ॥ ववगय मंगुल नावे, तेदं विजल तव निम्मल सहावे ॥ निरुवम मदप्पनावे, योसामि सुदिक सनावे ॥शा गाहा ॥ अर्थः-( ववगय के० ) व्यपगत एटले गयो डे ( मंगुलनावे के०) अशोजन नाव जेमनो एवा, आ कां एवं ववगयमंगुलजावत्व, तेने विषे विशेषणधारायें करीने हेतु कहे , ते जेम केः-(विउल के) विस्तीर्ण ते बाह्याज्यंतर छदाशविध एq ( तव के ) तप तेणें करीने ( निम्मलस हावे के०) निः कर्मा, बे, स्वसत्तायें करी खनाव जेमनो एवा, ते पूर्वनी गाथा मां कह्या जे श्री अजितनाथ तथा शांतिनाथ, ते बेहुनी हुं नंदिषेणनामा सूरि, (थोसामि के०) स्तुति करुं बु. हवे ते बेहु जिन केहेवा ने ? तो के (निरुवम के०) निरुपम, उपमातीत बे, (महप्पनावे के०) महान् एट ले महोटो प्रजाव एटले शक्ति जेनी एवा जे. अथवा निरुपम एटले महोटो एवो प्रजाव ते माहात्म्य जेनुं एवा जे. वली केहेवा ? तो के ( सुदि 5 के ) रूडे प्रकारें करी, अर्थात् केवलज्ञान अने केवल दर्शनें करी दीठा ले ( सनावे के ) विद्यमान जीवाजीवादिक नावो जेमणे एवा बे. आहिं 'तेहं' ए जे पाग्ने, ते अप्रामाणिक बे; कारण के तेनुं प्रावाहि कत्वें करीने आगमन , तथापि ते पाठ सर्वजनो नणे , तेथी अहिं ल ख्यो ॥२) श्रा पण, गाथानामा बंद जाणवो. सब उरक प्पसंतीणं, सब पाव प्पसंतिणं ॥ सया अ जिय संतीणं, एमो अजिय संतिणं॥३॥ सिलोगो॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशांतिस्तव अर्थसदित. श् अर्थः - ( सब के० ) सर्व एवा जे जन्मजरादि विद्यमान कर्म, तेथकी उपनां जे (एक के०) दुःखतेनी ( प्पसंतीणं के० ) प्रशांति यर ने जेने एवा बे, अथवा सर्व योग्य जंतुना दुःखनी प्रशांति करी बे मजेणें एवा बे, तथा ( सब ० ) सर्व एवां जे प्राणातिपातादिक ( पाव के० ) पापकर्मों बे, तेनी (प्यसंतिणं के० ) प्रशांति थ वे जेमने एवा बे, तथा वली ( श्रजिअ के० ) रागादिकें करी नयी पराजव पामेलो एवो ( संति णं के० ) शांति एटले उपशम बे जेमनो एवा, (सिंतिणं के० ) श्री जितनाथजी तथा शांतिनाथजी तेमने ( सया के० ) सदा निरंतर ( नमो के० ) नमस्कार थाई ॥३॥ य गाथानो श्लोकनामा बंद जाणवो ॥ अजिजि सुद प्पवत्तणं, तव पुरिमुत्तम नाम कित्तां ॥ तद य धिइ मइ प्पवत्तणं, तव य जित्तम संति कित्तणं ॥ ४ ॥ मागदिया ॥ अर्थः- ( जिजि के० ) हे अजितजिन ! तथा ( पुरिसुत्तम के० ) पुरुष जे मर्त्यलोक तेने विषे उत्तम एटले श्रेष्ठ तेना संबोधनने विषे हे पुरुषोत्तम ! ( तव के० ) तमारुं ( नाम कित्तणं के० ) नामनुं जे कीर्त्तन, ते ( सुहृप्पवत्तणं के० ) स्वर्गापवर्ग लक्षण जे सुख, तेनुं प्रवर्त्तन करनारुं एवं वर्त्ते . ( तहय के० ) तथा वली ( धि‍ के० ) धृति ते चित्तनी व स्थतारूप समाधि तथा ( मइ के० ) मति जे बुद्धि तेनुं ( प्पवत्तणं के० ) प्रवर्त्तन एटले प्रकर्षे करिने वर्त्तन करनारुं बे, तथा ( जिणुत्तम ho ) जिन जे सामान्य केवली, तेने विषे श्रेष्ठ एवा हे (संति के० ) श्री शांतिनाथ ! ( तवय के० ) वली तमारा नामनुं जे (कित्तणं के० ) कीर्त्तन बे, ते पण पूर्वोक्तगुणयुक्त बे. कोइ ठेकाणे 'पवत्तण' एवो पाठ छे, तेनो अर्थ पण तेमज जाणवो ॥ ४ ॥ या गाथानो, मागधिका नामा बंद जाणवो. किरिया विदि संचिच्यं कम्म किलेस विमुरक यरं, अ जिखं निचिप्रं च गुणेदिं महामुणि सिद्धि गयं ॥ अजि अस्सय संति महामुणिणोवि प्र संतिकरं, सययं म म निवुइ कारणयं च नमसायं ॥ ५ ॥ आलिंगणयं ॥ ३३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. अर्थः-(किरियाविहि के०) कायिक अधिकरणीयादिक पच्चीश क्रिया, तेना विधि एटले नेद, तेणें करि (संचित्र के०) संचित करेलां एटले एका करेलां एवां जे (कम्म के०) ज्ञानावरणादिक आठ कर्म, तथा ( किलेस के ) कषाय तेथकी ( विमुस्कयरं के ) मूकावनारा बे, एटले तेथकी अत्यंत अनावना करावनारा बे. अहीं किलेस ते कषाय तेनुं पण कर्मने विषे अंतर्गतपणुं , तथापि संसारना कारणनेविषे कषाय, मुख्यत्वप णुं बे, एवं सूचन करावाने कषाय, जूउं ग्रहण कयुं , तथा (अजिअं के) तीर्थांतरीय एवा अन्यदर्शनीयो जे ईश्वरादिक देवो , तेने वांदवानुं जे पुण्य, तेणें नथी जीत्या जेह एवा बे. (च के०) वली केहवा ? तो के ( गुणेहिं के ) सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्रादिक गुणे करीने ( निचियं के) निचित्त एटले व्याप्त एवा बे. उपलकणथी ए गुणोनी प्राप्ति पण न गवानने नमस्कार करवाथकी होय . वली केहवा जे ? तो के ( महामु णि के०) महोटा मुनियो जे ऋषियो तेमनी (सिधि के) अणिमादिक आठ सिधियो जे बे, तेने (गयं के०) गत एटले प्राप्त थया एवा , उपलक्षण थकीते अणिमादिक आठ सिझियोनी प्राप्तिपण जगवंतने नमस्कार करवा थकी थाय बे, एवा (अजिअस्स के०) अजित नामें बीजा तीर्थकर तेमने अने (य के०) वली जे विघ्नोपशांतिने करे , एवा (संति के०) श्री शांतिनाथ नामा शोलमा तीर्थंकर, (महामुणिणोवित्र के) जे महामुनि , तेमने अ थवा महामुनियोने शांतिना करनार श्रीशांतिनाथ तेमने जे (नमंसणयं के०) विशिष्ट प्रणमन करवू, ते ( मम के०) मुझने (सययं के०) निरंतर, (संति करं के०) विघ्नोपशांति करवानुं अने (च के०) वली (निबुश्के) निर्वृत्ति जे मोदसुख तेनुं प्रशस्त, (कारणयंच केu) कारण, (नवतु के) हो. अहीं जवतु ए पद अध्याहारथी ले. कारण के ए पदमां जे बेचं कारणकं, त्यां क जे , ते नमनप्रशंसाने विषे जे ॥५॥ श्रा, आलिंगनकनामा बंद ॥ पुरिसा जइ उकवारणं, जश् अ विमग्गह सुरक कारणं ॥ अजिअं संतिं च नाव, अन्नयक रे सरणं पवजाहा ॥ ६ ॥ मागदिा ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशांतिस्तव अर्थसहित. यए अर्थः-(पुरिसा के ) हे मनुष्यो ! (जइ के०) यदि एटले जो तमें (उकवारणं के) फुःख, प्रतिषेधन करवू,तेने (विमग्गहके) विमार्गयथ, एटले खोलो बो, अर्थात् शोधवांडो डगे, अने (अ केश) वली (जश्के) यदि एटले जो (सुस्ककारणं के०) सुखनुं कारण एटले हेतु तेने पण विमग्गह एटले खोलो बो, शोधो बो, तो (अजिअं के) श्रीअजितनाथy (च के०) तथा (संति के०) श्रीशांतिनाथ तेमनुं ( सरणं के०) शरण जे त्राण तेने (नाव के०) नाव नक्तियें करीने, परंतु अव्ये करीने नहीं एवं सूचन करवाने अर्थे नाव ए शब्द ग्रहण कस्यो . (पवजाहा के) प्राप्त था. ए बेहु तीर्थंकर केहेवा ? तो के (अजय के) निर्जय तेने (करे के०) करे एवा वे ॥ ६॥ श्रा, मागधिका नामा बंद जाणवो ॥ एम बेहु तीर्थंकरनी स्तवना करीने हवे अनुक्रमें एकेक तीर्थंकरनी स्तुति करे . तेमां पण प्रथम श्रीअजितनाथने स्तवे . अर र तिमिर विरहिअ मुवरय जर मरणं, सुर असुर गरुल जुयग वश्पयय पणिवाअजिअ मद मविप्र सुनय नय निनण मन्नयकरं, सरण मुअसरिअ जुवि दिविज मदिरं सययमुवणमे ॥ ७ ॥ संगययं अर्थः-(अरश केण) संयमने विषे अरति अने ( र के० ) असंयमने विषे रति एटले समाधि तथा ( तिमिर के ) अज्ञान, तेणें करी ( विर हिब के ) विरहित एवा, अथवा अरति ते मोहनीयउदयथकी उपन्यो जे चित्तोडेग अने रति ते मोहनीयोदयथकी उपनी जे चित्तानिरति, ते बेहु सम्यक् ज्ञानने आछादन करनारी , ते रूप तिमिर जे अंधकार, तेणें करी विरहित , अने वली (उवरयजरमरणं के०) उपरत एटले निवृत्ति पाम्यां ने जरा अने मरण जेनां अथवा ( उवरयजरं के ) उपरत ठे जरा जेने तथा वली (अरणं के ) नथी रण ते युझादिक क्लेष जेने एवा, वली (सुर के०) वैमानिक देवो, ( असुर के ) नवनपति, (गरुल के ) सुवर्णकुमार, (नुयग के ) नागकुमार, तेना (व के० ) पति जे इंझो उपलदणथकी अन्य देवोना पण इंस्रो लेवा. तेमणे (पय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० प्रतिक्रमण सूत्र. य के० ) रूडे प्रकारें जेम थाय तेम ( पणिवश्य के० ) प्रणिप्रत्यं एटले नमस्कार करो बे जेने एवा. अथवा (सुर के० ) वैमानिक, (असुर के०) वनपति, (गरुल के० ) ज्योतिषी, ( जयगा के०) जुज जे वृक्ष तेनें विषे, गा नाम चाले एवा जे व्यंतर, ते वनचर संज्ञायें करीने तेनुं रूढपणुं बे, ए हेतु माटें तेमना (वइ के०) पति तेम (पययं के० ) शुद्धतायें करीने (पणिव इयं के० ) प्रणिपत्य करयुं बे जेमने एवा बे, वली केहवा बे? तो के (वि०) पिच एटले सर्व समीचीन एव अन्य विशेषणोयें युक्त एवा तथा ( सुनय के० ) शोजन एवा जे अनेकांतरूप नैगमादिक नय, मनुं ( नय ० ) प्रतीतिनुं पामनुं, तेने विषे ( निजण के० ) निपुण ह्या बे, तथा ( जयकरं के० ) निर्भयपणाना करनार अथवा जय रहित सुखना पारा, एवा जिनना (सरण के० ) शरणने ( उवस रिा के०) उपसृत्य एटले शरणतायें करी प्रतिपादन करीने (वि के० ) विज जे मनुष्यो, ( दिविज के० ) देवो तेणें (महिां के० ) पूजित a एवा (i ho) श्री अजितनाथने ( सययं के० ) सततं एटले निरंतर ( अहं के० ) हुं स्तवन करनारो ( उवणमे के० ) उपनमे एटले सामीप्यें करीने नमस्कार करुं हुं ॥ ७ ॥ श्रा, संगतनामा बंद जाणवो. वे शांति जिनने स्तवे बे. तं च जिणुत्तम मुत्तम नित्तम सत्तधरं, व मद्दव खंति विमुत्ति समादि निर्दि ॥ संतिकरं पणमामि दमुत्तम तिचयरं संतिमुणी मम संति समा दिवरं दिस ॥ ८ ॥ सोवालयं ॥ अर्थः- हुं ( तं के० ) ते जगत्प्रसिद्ध एवा (संतीमुणी के०) शांतिनामें जे मुनि, तेने ( पणमामि के० ) श्रद्धापूर्वक प्रणाम करूं . ( च के० ) च े ते पादपूर्णार्थ बे, ते शांतिमुनि केहवा बे ? तोके ( जिए के० ) सामान्य केवली ते विषे ( उत्तम के० ) तीर्थंकरपणायें करीने श्रेष्ठ, ( उत्तम के० ) प्रधान ( नित्तम के० ) निस्तम एटले ज्ञानरहित बे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशांतिस्तव अर्थसहित. २६१ अथवा निस्तम एटले कांदारहित बे, तथा ( सत्तधरं के ) सत्र एटले नावयज्ञ तेने धारण करनारा , वली (अजाव के०) आर्जव, ते निर्मायि कपणुं (मदव केश) मार्दव, ते निरहंकारता, (खंति के) दमा, (विमुत्ति के०) निर्लोजता तथा (समाहि के) समाधि तेमना (निहिं के) निधि एवा बे, तथा ( संतिकरं के० ) शांतिक जे विपत्तिनो उपशम, तेने रं एटले आपे बे एवा, वली केहेवा ? तो के ( दमुत्तम के०) दम जे इंजिय दमन एटले इंडियनो जय, तेणेंकरीने उत्तम एटले प्रधान , वली (तिछयरं के ) तीर्थ करावानुं ने शील जेनुं तेने तीर्थंकर कहिये. एवा ते (मम के) मुजने (संति के०) शांति अने (समाहिवरं के०) प्रधान समाधि जे चित्तनी स्वस्थता, तेहीज वर एटले वांडितपणुं तेने ( दिसउ के) द्यो, आपो॥७॥ श्रा, सोपानकनामा बंद जाणवो. हवे श्री अजितनाथने गाथायुग्में करीने स्तवे बे. सावबि पुत्व पबिवं च वर दनि मबय पसब विनि न्न संथियं, थिर सरिन वलं मयगल लीलायमा ण वर गंधदनि पबाण पबियं संथवारिदं ॥ दनि दब बाहुं धंत कणग रुअग निरुवदय पिंजरं, पवर लरकणो वचिय सोम चारु रूवं,सुइ सुद मणानिरा म परम रमणिय वर देव इंदि निनाय महुर यर सुदगिरं ॥ ए॥ वेळ ॥ अर्थः-(साववि के०) श्रावस्ति शब्दें करीने अहीं अयोध्या ग्रहण करवी, तेविषे आगमनुं प्रमाण , ते जेम केः-"श्काग नूमिउंद्या, सावळे विणियं कोसलपुरं च” माटे ते अयोध्याने विषे (पुवपछिवं के) पूर्व एटले दीक्षा ग्रहणथी पहेला पार्थिव एटले राजा हता, अथवा पूर्वे कहेली एवी अयोध्या तेना पार्थिव एटले राजा, (च के०) चकार पादपूर्णार्थ डे. वली ( वर के) श्रेष्ठ एवो जे (हलिमबय के ) वनहस्ती तेनुं मस्तक तेना सर ( पसब के०) प्रशस्त एटले प्रशंसा करवा योग्य अने (विवि न के) विस्तीर्ण एबुं बे शरीरनुं ( संथियं के) शुजसंस्थान जेमनुं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ प्रतिक्रमण सूत्र. एवा तथा (थिर के० ) स्थिर कठिन ( सरि के० ) सरखं श्रविष म एवं ( वछं के० ) वद एटले हृदय बे जेमनुं, अथवा ( थिर के० ) निश्चल ऐवं (सिरिन के० ) श्रीवत्सनामा लक्षण विशेष ते बे (वछं के०) वक्षःस्थलने विषे जेने एवा, तथा ( मयगल के० ) मदोन्मत्त अने ( लीलायमाण के० ) लीला करतो एवो ( वर के० ) प्रधान ( गंधह नि के० 50 ) गंधहस्ती तेनुं जे ( पठाण के० ) प्रस्थान एटले गमन तेनी पेरें (०) पदसंक्रमण एटले गति बे जेमनी एवा, तथा (संथवारिहं के० ) संस्तव जे स्तुति ते वर्णन करवुं तेने श्रई एटले योग्य तथा (हचिव के० ) हस्तीनो हस्त जे शुंडादं तेना सरखा सरल तथा लांबा बे ( बाहुं के० ) बाहु जेना एवा, तथा ( धंत के० ) धमेलुं एवं जे ( कणग के० ) कनक एटले सुवर्ण तेनुं ( रुग के० ) रुचक एटले जाजन अथवा अनरण विशेष तेना सरखु (निरुवदय के० ) निरुपहत एटले निष्कलंक एवो ( पिंजरं के० ) पीतवर्ण बे जेनो एवा, तथा ( पवर के० ) प्रवर एटले श्रेष्ठ एवा शंख, चक्र, अंकुशादिक ( लकण के० ) लक्षणो तेणें करीने ( जव चि ० ) सहित बे व्याप्त बे, तथा ( सोम के० ) सौम्याकार एवं ने देखनाराने (चारु ०) मनोहर सुखदायक बे ( रूवं के० ) रूप जेमनुं एवा, तथा ( सुइ के० ) श्रुति जे कान, तेने ( सुह के० ) सुख नी दायक तथा (मण के० ) मनने ( जिराम के० ) मनोहर आल्हा दकारी (परम के० ) अत्यंत ( रमणिक के० ) रमणिक, अथवा ( पर hu ) उत्कृष्ट बे ( मा के० ) लक्ष्मी जेने एवा श्रीमंत जनो तेने, अथवा ( पर के० ) दूर ठे ( मा के० ) लक्ष्मी जेने एवा दरिद्री जनो, ते वे हुने ( रमणिके० ) रमामनार एटले संतोष पमागनार एवी, तथा (व र०) श्रेष्ठ एव (देवडुडुहि के०) देवडुडुनि तेनो ( निनाय के० ) शब्द तेना सरखी (मरयरसुह के०) मधुर तर शुभ कल्याणकारिणी एवी ठे ( गिरं के० ) वाणी जेमनी एवा बे ॥ ए ॥ या, वेष्टकनामा बंद जावो. Jain Educationa International अजि जिप्रारिगणं, जिप्रसवजयं नवो दरिजं ॥ पणमामि यहं पयर्ज, पावं पसमेन मे जयवं ॥ १० ॥ रासालु ॥ युग्मं ॥ For Personal and Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशांतिस्तव अर्थसहित. २६३ अर्थ:- ( जारिगणं के० ) जीत्या बे, अष्टकर्मरूप शत्रुना समूह जे , तथा ( जिवनयं के० ) जीत्या बे सर्वजय जेणें, एम ए पदनो अर्थ, पूर्वै गयेला पदनी पेरें करवो. तथा तेना पुनरुक्तिदोष परिहारने पर्थ करवो, ते जेम के: - ( जिय के० ) जीव ते अहीं पंचेंद्रि य जीव लेवा तेने (सव के० ) श्रव्य एटले सांजलवा योग्य बे (जयं के ० ) जग एटले जाग्य जेमनुं एवा, तथा ( नवीहरिजं के० ) जव एटले सं सार तेनो घ जे प्रवाह तेना रिपु एटले शत्रु वे अर्थात् संसारनुं उछे दकपणुं वे जेमने एवा ( अ जिथं के० ) श्री अजितनाथ, ते प्रत्यें ( पयर्ज ho ) प्रयतः एटले मन, वचन ने कायायें करी उपयुक्त एवो बतो (हं के० ) हुं (पणमामि के० ) प्रणाम करूं . अने ( जयवं के० ) ते जगवान् ( मे के० ) महारुं ( पाव के० ) पाप जे बे, तेने ( पसमेट ho ) प्रशमतु एटले प्रकर्षे करी शमावो, कारण के पापक्षय बतेज मोबे, ते विना नी ॥ १० ॥ श्रा रासालुब्धकनामा बंद जावो. ed a गाथायें करी श्री शांति जिनने स्तवे बे. कुरु जणवय दचिणार, नरीसरो पढमं तर्ज महा च Tag जोए महप्पजावो, जो बावत्तरि पुर वर सद स्स वर नगर निगम जणवय वई, बत्तीसा राय वर सहसाणुयाय मग्गो ॥ चउदस वर रयण नव महानि दि च सठि सदस्स पवर जुवईण सुंदरवइ, चुलसी दय गय र सय सदस्स सामी, बम्बइ गाम को मि सामी सिजो नारदम्म जयवं ॥ ११ ॥ वे ॥ अर्थः- ( कुरु के० ) कुरुनामें ( जणवय के० ) जनपद एटले देश, ते विषे ( हरि ० ) हस्तिनापुर नगर, तेना ( नरीसरो के० ) रा जाते ( पढमं के० ) प्रथम थया ( त के० ) तेवार पटी ( महा के० ) महोटा (चक्रवहि के०) चक्रवर्त्ती तेनो ( जोए के० ) जोग जे राज्य, तेने विषे वर्त्तता हवा, एटले व खंगना राज्यना जोग जोगव्या ( महप्पनावो For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ प्रतिक्रमण सूत्र. के० ) महोटो जेनो प्रनाव एटले महिमा बे, उत्सवोयें करी आत्माने प्रीति करनारी बे, वली केहेवा जे ? तो के (जो बावत्तरिपुरवरसहस्स के०) जे बहोंतेर हजार एवा पुरवर ते, जे घरोयें करीने श्रेष्ठ तेने पुरवर कहिये तथा ( वरनगर के०) श्रेष्ठ नगर जे गजपुरादि, जेमां कर नहीं, ते नगर कहियें अने ( निगम के ) ज्यां महोटा झद्धिवंत वणिक् व्यवसाय कर नारानी दुकानो होय ते, तथा (जणवय के) जनपद ते देशविशेष जाणवा तेना ( वई के०) अधिपति स्वामी, अथवा प्रकारांतरें बत्रीश स हस्त्र पुरवर, नगर, निगम, जनपद, तेना स्वामी एवा, अने (बत्तीसारायव रसहसा के ) बत्रीश हजार एवा जे रायवर एटले मुकुटबद्ध राजा ते बत्रीश हजार देशना नायकें (अणुयायमग्गो के०) अनुयात मार्ग २ जेमनो एटले ते बत्रीश हजार देशना मुकुटबक बत्रीश हजार राजा ते सर्व श्रीशांतिनाथ नामा चक्रवर्तीनी पनवाडे चालनारा बे. वली केहवा डे ? तो के (चउदस के०) चउद डे ( वर के) श्रेष्ठ एवा ( रयण के) रत्न जेने एवा, तथा ( नवमहानिहि के०) नव महोटा निधि एटले निधान नंमार अखूट दे जेने, वली (चनसहिसहस्स के ) चोशठ हजार (पवर के ) प्रवर एटले श्रेष्ठ एवी ( जुवईण के ) युवती जे स्त्री तेना ( सुंदरवर के ) सुंदर पति एटले जर्रार बे, वली (चुलसी के०) चोरा शी (सयसहस्स के०) शत सहस्र एटले चोराशी शो हजार अर्थात् चोराशी लाख ( हय के ) घोमा तथा चोराशी लाख (गय के० ) गज ते हस्ती तथा चोराशी लाख (रह के०) रथ, तेना (सामी के०) खामी अधिपति जाणवा. वली को ठेकाणे अढार क्रोड घोडा पण कह्या तथा व ली ( बमवश्गामकोमि के ) बन्नुं क्रोम गाम तेना ( सामी के )खामी एवा (जयवं के०) जगवान् (नारहम्मि के) जरतदेत्रने विषे (आसि जो के०) होता हवा ॥ ११॥ आ वेष्टकनामा बंद जाणवो. तं संतिं संतिकरं, संतिमं सवनया ॥ संतिं थुणामि जिणं, संतिं वेहेन मे ॥२॥ रासानंदियं ॥युग्मम् ॥ अर्थः-(तं के० ) ते पूर्वोक्त (संति के०) मूर्तिमान् उपशमरूप एवा तथा (संतिकरं के०) व एटले पोताना अंतिक जे समीप ते मोद Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजित शांतिस्तव अर्थसहित. २६५ लक्षण, तेने ( र के) आपनार एवा, अने ( संतिमं के० ) रूडे प्रकारें तस्यु ने ( सब के०) सर्वोयें (जया के) मृत्यु जेथकी, अर्थात् जेथकी सर्व मृत्युनय तरे के एवा, (संतिं के) श्रीशांतिनाथ (जिणं के०) तीर्थंकर तेने (थुणामि के०) स्तुति करं बुं. श्या माटें स्तुति करं बुं ? तो के ( मे के०) महारा उपसर्गनी ( संतिं के० ) शांति तेने ( वेहेळं के) विधातुं एटले करवाने अर्थे स्तुति करुं बुं ॥१॥ श्रा, रासानंदित बंद बे. वली अजितनाथने स्तवे बे. इकाग विदेह नरीसर, नर वसहा मुणि वसदा ॥ नव सारय ससि सकलाणण, विगय तमा विदा रया ॥अजि उत्तम तेज गुणेदिं, मदा मुणि अ मिअ बलाविजल कुला ॥ पणमामि ते नव नय मूरण, जग सरणा मम सरणं ॥१३॥ चित्तलेदा॥ अर्थः-(इकाग के०) इक्ष्वाकुकुलवंशमां उत्पन्न श्रया माटे हे इकाग कुलवंश्य ! तथा ( विदेह के ) विदेहनामा देश तेना ( नरीसर के) नरेश्वर एटले राजा माटे हे विदेहनरेश्वर! तथा (नर के०) मनुष्य तेमां ( वसहा के ) वृषन एटले श्रेष्ठ माटे हे नरवृषन! तथा (मुणिवसहा के०) मुनिमांहे एक अद्वितीय एटले मुनिधर्ममां धोरी, अथवा मुनीसोनी सना तेने विषे जे नवो स्तव जेमनो एवा, तेना संबोधने हे मुनिवृषन ! तथा ( नव के ) नवो उग्यो एवो जे (सारय के) शारद एटले शरद् शतु संबंधी ( ससि के० ) चंडमा तेनी पेरें ( सकल के०) शोजावंत ठे (आणण के) आनन एटले मुख जेमनुं माटे हे नवशारदशशिसकला नन! वली ( विगयतमा के०) गयुं ने तम ते अज्ञानरूप अंधकार जेना थकी माटे हे विगततम ! तथा ( विहुअरया के ) विघुत एटले गयुं डे फेड्यु बे निकाचित कर्मरूप रज जेणें माटे हे विधुतरज! तथा (अजित के) रागादिकें न जीताय माटे हे अजित ! तथा ( गुणेहिं के०) बाह्य अन्यंतर एवा गुणोयें करी (उत्तम के०) श्रेष्ठ बे, (तेय के०) तेज जेमनुं एवा माटे हे उत्तमतेज ! तथा (महामुणि के०) महातपस्वीयो जे महोटा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ प्रतिक्रमण सूत्र. मुनियो , तेथी पण (अमिश्र के०) प्रमाण थ न शके एq डे ( बला के) सामर्थ्य जेमनुं एटले अपरिमितबल डे जेमनुं एवा माटे हे महा मुन्यमितबल ! तथा ( विउलकुला के०) विपुल एटले विस्तीर्ण डे कुल एटले वंश जेमनो माटे हे विपुलकुल ! तथा (नवजय के) संसारनुं नय, तेने ( मूरण के ) लांजनार माटे हे नवनयमूरण ! तथा (जग सरणा के०) जगत्ना शरण एटले रक्षण करनार माटे हे जगबरण ! तमे ( मम के) महारा पण ( सरणं के) रक्षण करनारा बो, अथवा ( अमम के०) ममत्वरहित डो, माटे हे अमम (ते पणमामि के०) तमो ने हुं प्रणाम करुं हुं ॥१३॥ चित्रलेखाबंद. हवे शांति जिनने स्तवे बे. देव दाणविंद चंद सूर वंद दछ तुह जिह परम ॥ लह रूव धंत रूप्प पट्ट सेय सुछ नि धवल ॥ दंत पंति संति सत्ति कित्ति मुत्ति जुत्ति गुत्ति पवर॥ दित्त तेअवंद धेअ सब लोअनाविअप्पनाव॥ णे पश्समे समादिं ॥ १४ ॥ नाराय ॥ अर्थः-( देव के० ) सुर, (दाणव के ) असुर, तेना (इंद के०) इंड, तथा (चंद के०) चंडमा अने (सूर केu) सूर्य, तेमने (वंद के०) वंद्यमा न ने पग जेना, तथा (हह के०) आरोग्यवंत (तु के०) प्रमोदवंत (जि 5 के०) प्रशंसा करवा योग्य (परमल के०) अत्यंत कांतियुक्त डे (रूव के०) रूप जेमनु, तथा (धंत के) धमेबुं एवं (रूप्प के० ) रूपुं, तेनो (पट्ट के) पाटो, तेनी पेरें (सेय के०) श्वेत ते घन (सुद्ध के०) निर्मल (नि क के०) स्निग्ध अरूद एवी (धवल केआ) उज्ज्वल डे (दंतपंति के०) दां तनी पंक्ति जेमनी, तथा (सत्ति के०) शक्ति ते पराक्रम जो सर्व देवता एका मले, तो पण परमेश्वरनी पगनी टचली आंगुली चलावी न शके, अथ वा मेरु पर्वतने टचली आंगलीयें करी उपाडे, एटली शक्ति बे, (कित्ति के) कीर्ति ने समुशांत जेहनी (मुत्ति के ) मुक्ति ते निर्लोजता (जुत्ति केण्) युक्ति ते न्यायोपेत वचन, (गुत्ति के०) गुप्ति ते त्रण प्रसिक, तेणें करीने (पवर के) श्रेष्ठ बे तथा (दित्ततेत्र के०) दीत ने तेजनुं (वंद के०) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशांतिस्तव अर्थसदित. २६७ वृंद जेमनुं अथवा (वंदधेय के०) सुरेंजादिकें वांदवा योग्य वे गणधरादि कने ध्यान करवा योग्य , अथवा वांदवा कोग्य जे महामुनियो तेमने ध्यान करवा योग्य स्मरण करवा योग्य एवा बे, तथा (सब के०) सर्व ए वा जे (लोष केप) लोक तेणें (जावित्र के) नावित बे, अवबुझ , जा णेलो (प्पन्नाव के०) प्रत्नाव जेमनो तेणें करी (णेश के०) झेय एटले जाणवा योग्य एवा (संति के०) हे श्रीशांतिनाथ ! तमे (मे के) मुऊने (समाहिं के) समाधिने (पश्स के०) प्रदिश एटले पो ॥ १४ ॥ श्रा, नाराचक नामा हुंद जाणवो ॥ __ हवे गाथायुग्में करीने अजितनाथने स्तवे बे. विमल ससि कलारे सोमं, वितिमिर सूर कराअ तेअं॥ तिअस व गणारेअरूवं, धरणिधर प्पवरारेअ सारं ॥१५॥ कुसुमलया॥ अर्थः-(विमल के) निर्मल एवी (ससिकला के०) चंडमानी कला ते थकी (अरेथ के०) अतिरेक ते अधिक डे (सोमं के०) सौम्यता जेनी तथा ( वितिमिर के० ) गयो ने मेघनो अंधकार जेथकी एवा (सूरकर के०) सूर्यनांकिरणो, ते थकी पण (अरेय के ) अधिक डे (तेधे के) तेज जेनु एवा , तथा (तिअसवर के०) त्रिदश जे देवता तेमना पति जे छ तेमना (गण के७) समूह, ते थकी पण (अरेस के०) अधि क (रूवं के) रूप जेनु, जेमाटें सर्व देवता मली पोतानुं रूप एकत्र करी परमेश्वरनी टचली अंगुली पासें मूके, तो पण सुवर्ण अने त्रांबाना रूपमां जेटलो तफावत होय, तेटलो तफावत त्यां देखाय, एवं तीर्थंकर नुं रूप वखाण्यु , तथा (धरणिधर के०) पर्वतो तेमांहे (प्पवर के०) प्र धान श्रेष्ठ एवो जे मेरुपर्वत, तेथकी पण (अशेश केण) अधिक डे (सारं के०) स्थैर्य एटले धैर्य जेमनुं एवा ॥ १५ ॥ आ, कुसुमलता नामा बंद जाणवो ॥ था श्लोक तथा श्रावता श्लोकनो संबंध एकत्र २ ॥ सत्ते असया अजिअं, सारीरे अ बले अजि अं॥ तव संजमे अ अजिअं, एस थुणामि For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ प्रतिक्रमणसूत्र. जिणं अजिअं॥१६॥ नुअगपरिरंगिअं॥ अर्थः-तथा ( सत्ते के०) सत्वने विषे ( सया के) निरंतर (अजिथं के०) अजित डे एटले नहीं पराजवने पामेला एवा जे. चकार पादपूर्णा र्थ . तथा (अ के०) वली (सारीरे के० ) देहसंबंधी जे (बले के) बल जे सामर्थ्य तेने विषे पण ( अजिअं के ) बीजा पुरुषोथी न जीती शकाय एवा ने तथा ( तव के०) बार प्रकार, तप ( अ के०) वली (सं जमे के०) सत्तर प्रकारनो संयम तेनो समूह तेणें करीने पण (अजिथं के) बीजा पुरुषोथी न जीताय एवा, (अजिअं के०) श्रीअजितनाथ नामें ( जिणं के ) जिनवर तेमनी ( एस के ) आ (थुणामि के) स्तुति करुं दुं ॥ १६ ॥ आ जुजगपरिरंगितनामा छंद जाणवो ॥ हवे विमलससी इत्यादिक कहेला अर्थने नंग्यंतरें करीने कहे . सोम गुणेहिं पावन तं, नव सरय ससी॥ तेष गु णेहिं पावइ न तं, नव सरय रवी ॥ रूव गुणेहिं पा वन तं, तिअस गण वई॥ सार गुणेहिं पावन तं, धरणि धर वई॥ १७॥ खिजिअयं ॥ अर्थः-( सोमगुणेहिं के० ) सौम्य जे शांतिगुण तेणें करीने (नव के०) नवो उदयमान थयेलो (सरय के) शरद काल संबंधी जे (ससी के०) चंजमा ते पण ( तं के०) ते अजितनाथना सौम्यगुणने एटले सरखी सौम्यता प्रत्ये ( नपावर के० ) पामी न शके तथा ( तेअगुणेहिं के०) तेज एटले शरीरनी कांतिना गुणें करीने (नवसरयरवी के०) नवो उगेलो एवो जे शरद कालनो सूर्य, एटले शरद ऋतुमा आकाश निर्मल होवाथी सूर्यनुं तेज श्रेष्ठ होय , ते पण ( तं के ) ते श्रीअजितना थना कांतिगुण प्रत्ये तुलनाने (नपावर के० ) पामी न शके. तथा (रूव गुणेहिं के ) रूपगुणें करीने (तिअसगणवई के०) त्रिदश जे देवता तेना गण जे समूह, तेना पति जे इंज, ते पण (तं के०) ते श्रीअजितनाथनु अनुप मानरूपत्व बे, माटें रूपगुणनी तुलनाप्रत्ये (नपावर के) पामी न शके, तथा ( सारगुणेहिं के) स्थिरताना गुणोयें करीने (धरणिधर के०) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशांतिस्तव अर्थसदित. २६ए पर्वतो तेनो (वई के) पति एवो जे कनकाचल एटले मेरुपर्वत, ते पण (तं के) ते जगवंतना स्थिरतागुणें करीने तुलनाप्रत्ये (न पाव के०) पामी शके नहीं. अर्थात् ए पूर्वेक्त सर्व पदार्थों जगवंतना गुणनी बराबरी करी शकता नथी ॥ १७ ॥ श्रा, खिजितक नामा छंद जाणवो. ___ हवे श्री शांतिनाथजीने स्तवे बे. तिबवर पवत्तयं तम रय रहियं, धीर जण थुअ चित्रं चुअ कलि कलुसं ॥ संति सुद प्पवत्तयं तिगरण पयज, संति महं महामुणिं सरण मुवणमे ॥२॥ ललिअयं ॥ अर्थः-(तिबवर के०) श्रेष्ठ तीर्थ जे चतुर्विध संघ अथवा प्रथम गणधर तेना ( पवत्तयं के० ) प्रवर्तक अथवा तिर्थमां वर एटले श्रेष्ठ एवो जे धर्म तेने तीर्थवर कहिये ते धर्मरूप तीर्थना प्रवर्तक एवा तथा (तम के० ) अज्ञान(रय के०) रज ते बध्यमान कर्म, उपलक्षणथी बंधातुं एवं जे कर्म, तेणें करी ( रहियं के०) रहित एवा तथा (धीर के०) बुद्धियें क री शोने, तेने धीर कहिये, एवा (जण के०) जन जे , तेमणे (थुश्र के०) वाणीयें करी स्तुति कस्या अने (अच्चियं के०) फूलें करी अर्चन क ख्या एवा तथा ( चुत्र के ) बांमयुं ए ( कलि के) वैर अथवा कलह तेनुं ( कलुसं के) कानुष्य एटले पाप जेणे एवा तथा (संति के०) मोद, तेनुं जे ( सुह के ) सुख तेने अर्थे (प्पवत्तयं के०) प्रवर्त्तता एवा जे साधु तेने दं एटले पालन करनार अथवा मोदसुखना प्रवर्तक एटले करनार एवा (महामुर्णिसंति के०) महोटा मुनि जे श्रीशांतिनाथजी ते प्रत्ये (तिगरण के०) मन, वचन अने काया तेणें करी ( पयर्ड के०) पवित्र तो एवो ( अहं के) हुँ (सरणं के०) शरणप्रत्यें (उवणमे के) उपनमे एटले जाजं दुं ॥ १७ ॥ आ ललितक नामा छंद जाणवो ॥ हवे त्रण लोकें करी श्री अजितनाथजीने स्तवे बे. विणणय सिरि र अंजलि रिसिगण संथ थि मिविबुदादिव धण व नर वश्थ्य मदि अच्चि अं बहुसो ॥अश्रुग्गय सरय दिवायर समदिन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० प्रतिक्रमण सूत्र. सप्पनं तवसा ॥ गयणंगण वियरण समुश्अ चार ण वंदिशं सिरसा ॥ १० ॥ किसलयमाला ॥ अर्थः-( विणणय के० ) विनयें करी नत एटले नम्या एवा ( सिरि के०) मस्तक तेने विषे (रश के०) रची बे, जोमी २ (अंजलि के०) करसंपुट जेणे एवा (रि सिगण के०) झषियोना समूह तेमणे (संथुआं के०) रू डे प्रकारें स्तुति करी जेमनी एवा तथा (थिमिश्र के०) स्तिमित एट ले तरंग रहित एवो जे समुद्र तेनी पेठे निश्चल बे. कारण के कर्म कृत उंच नीच पणानो अनाव . तथा (विबुहा हिव के) विबुधाधिप एटले विबुध जे देवता तेमनाअधिप जे इंस्रो तथा (धणवश के०) धनपति जे धनद कुबेर लोकपाल, उपलदणथी बीजा पण सर्व लोकपाल जे जे, तेमणे त था (नरवर के०) नरपति जे राजा चक्रवर्ती तेमणे (बहुसो के) घणी वार (थुय के) वाणीयें करी स्तव्या, (महिअ के०) प्रणामादिकें करीपू जन कस्या एवा तथा (अच्चियं के०) पुष्पादिकें करी अर्चित कस्या एटले पूज्या एवा तथा (तवसा के०) तपें करीने (अश्रुग्गय के०) अचिरोजत एट ले तत्कालनो उदय थयेलो एवो (सरय के०) शरद् ऋतुनो (दिवायर के०) दिवाकर एटले सूर्य, तेथकी पण (समहिश्र के) समधिक एटले अत्यंत अधिक डे (सप्पनं के०) पोतानी प्रजा एटले कांति जेमनी एवा तथा (गयणंगण के०) गगनांगण जे आकाश, तेने विषे (वियरण के०) विचर ण एटले विचरवं, चालवू, तेणें करीने (समुश्य के०) समुदित एटले एक ठा थयेला एवा (चारण के०) जंघाचारणादिक मुनियो, तेमणे ( सिरसा के०) मस्तकें करीने (वंदिरं के) वंदन कझुंडे जेमने एवा २ ॥ १५॥ श्रा, किसलयमाला नामा बंद जाणवो ॥ असुर गरुल परिवंदिअं, किन्नरोरग णमंसिकं ॥ देवको मिसय संथुअं, समण संघ परिवंदियं ॥२०॥ सुमुदं॥ अर्थः-वली केहेवा जे ? तो के (असुर के०) असुर कुमार, (गरुल के०) सुवर्णकुमार, उपलक्षणथी बीजा पण सर्व निकायना नवनपति देवो जे बे, ते पण सेवां. तेमणे (परिवंदिरं के०) समस्त प्रकारे वंदन कस्या एवा For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशांतिस्तव अर्थसहित. १ तथा (किन्नरोरग के०) किन्नर अने उरग जे व्यंतर विशेष, तेमणे (णमं सिधे के०) नमस्कार कस्यो जे जेमने एवा तथा (देव के०) वैमानिक दे वो तेमना (कोमिसय के०) कोटिशत एटले शेकमा गमे कोटियो तेमणे (संथुओं के०) स्तुति करी जे जेमनी एवा, तथा (समणसंघ के०) यतिना संघ अथवा श्रमण एटले चतुर्विध संघ, तेणें ( परिवं दिशं के) परि समंतात् एटले चोतरफनावें करीने वंदन कयुं में जेमने एवा ॥२०॥ आ, सुमुखनामा छंद जाणवो ॥ अनयं अणदं, अरयं अरुयं ॥ अजियं अ जिअं, पय पणमे॥२॥वितविलसिअं॥ अर्थः-वली केहेवा डे ? तो के (अजयं के०) सात प्रकारना नयें क री रहित एवा, तथा (अणहं के०) अनघं एटले जेने अघ जे पाप, ते अ एटले नथी तेने अनघ कहियें एवा, तथा (अरयं के०) अरत एटले वैरागपणायें करीने विषयासक्तपणुं नयी अथवा अरत एटले मैथुन रहि त डे एवा, तथा (अरुयं के०) अरुज एटले रोगरहित , तथा (अजि यं के०) बाह्य अने अत्यंतर वैरीयोयें जेंने परानव पमाड्या नथी एवा (अजिअं के) श्रीअजितनाथ तेने ( पयर्ड के०) सादरपणे (पणमे के०) प्रणाम करुं हुं ॥ २१॥ श्रा, विद्युछिलसित नामा छंद जाणवो ॥ हवे चार श्लोकें करीने शांतिनाथजीने स्तवे . आगया वर विमाण, दिव्व कणग रद तुरय पदकर सएदिं हलिअं॥ ससंनमो अरण, स्कुनिअ लुलिअचल कुंडलं गय तिरीड सोहंत मजलि माला ॥२२॥ वेढळ ॥ अर्थः-(आगया के०) आगता एटले आव्या जे सुरसमुदाय श्री शां तिनाथनी समीपें ते केवी रीतें आव्या ने ? तो के ( वरविमाण के०) श्रेष्ठ विमान तथा (दिव के०) मनोहर एवा(कणगरह के०) कनकमयरथ, (तुरय के०) तुरंग तेना (पहकर के) समूह तेना (सएहिं के) शेकमा ये करीने (हुलियं के) शीघ्र उतावला वेगें तथा (ससंनम के) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ བབ་ प्रतिक्रमण सूत्र. ससंत्रम एटले सत्वर (जअरण के० ) आकाशथकी उतरवू, तेणें करीने (कुनिथ के०) कुनित एटले संचलित उते (बुलिय के०) लोलायमान अरहां परहां हालतां (चल के) चंचल एवां (कुंमल के) काननां नरण तथा (अंगय के०) अंगद जे बाजुबंध ( तिरीम के० ) किरी ट जे मुकुट तेणें करी ( सोहंत के ) शोजायमान' थक्ष एवी डे (मज लिमाला के०) मस्तकनी माला जेमनी एवा देवो डे ॥ २२ ॥ आ, वेष्ट कनामा छंद जाणवो. जं सुरसंघा सासुरसंघा, वेर विनत्ता नत्ति सुजुत्ता ॥ आयर जूसिअ संनम पिंडिअ, सुह सुविम्दिा सब बलोघा ॥ उत्तम कंचण रयण रूपवित्र, नासुर नसण नासुरिअंगा ॥ गाय समोणय नत्ति वसागय, पंजलि पोसिअ सीस पणामा ॥ २३॥ रयणमाला ॥ अर्थः-(जं के०) जे नगवंतनी समीपें (सुरसंघा के०) वैमानिकदेवस मूह आव्या बे. ते केहेवा ? तो के (सासुरसंघा के ) असुर जे नवन पत्यादिक देव तेना संघ जे समूह तेणे करी सहित एवा , तथा ( वेर विउत्ता के०) वैरविमुक्ता वैररहित ३ तथा ( जत्तिसुजुत्ता के ) सन्न क्तियें करी बहुमाने करीने सहित एवा तथा (आयर के०) बाह्योपचार रूप आदर तेणें करी (नूसिय के०) नूषित एटले शोनित तथा ( संचम के०) उतावलें करी (पिमित्र के) एका मट्या एवा ( सुहु के०) सुष्ट एटले अतिशयें करी (सुविम्हि के) सुविस्मित जेम होय, तेनी पेरें ( सव्व के०) सर्व जे ( बल के ) गजतुरंगमादिक कटक, तेनो (उघा के) समूह तथा ( उत्तम के) श्रेष्ठ एवं जे (कंचण के०) सुवर्ण अने ( रयण के०) रत तेणे करीने (परूविथ के) प्रकृष्ट रूपयुक्त कस्यां एवा (नासुर के ) दीप्तिमंत ऊलहलतां जे (नूसण के) जुजबंध कटकादि आचरणो तेणें करी (नासुरिय के०) देदीप्यमान डे ( अंगा के अंगो जेमनां एवा, तथा (गाय के० ) गात्र ते शरीर, तेणें करीने ( समोणय के० ) समोन्नत एटले समवनत ते सम्यकू प्रकारे नम्रीनूत For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशांतिस्तव अर्थसहित. १३ थया थका तथा ( जत्तिवसागय के ) जक्तिने वशे आवेला एट ले नक्तिनी आधीनताने प्राप्त थया थका (पंजलि के०) बे हाथ ललाटें लगामीने (पेसिय के०) प्रेशित एटले कस्यो डे (सीसपणामा के)मस्तकें करीने प्रणाम जेणे एवा ने ॥ २३ ॥ आ रत्नमालानामा बंद जाणवो. वंदिळण थोऊण तो जिणं, तिगुणमेव य पुणो प यादिणं ॥ पण मिळण य जिणं सुरासुरा, पमु श्या सनवणाइं तो गया ॥ २४ ॥ खित्तयं ॥ अर्थः-एवी रीतें (वंदिऊण के०) वंदन करीने (तो के०) तेवार पठी (य के०) वली (तिगुणमेव के०) त्रण वारज करी (पयाहिणं के०) प्रदक्षिणा जेने अर्थात् त्रण प्रदक्षिणायें करीने उपासित एवा देवो ते, (जिणं के०) श्रीशांतिजिन, ते प्रत्ये ( य के ) वली ( थोऊण के०) वाणीयें करी स्तुति करीने (पुणो के ) फरीने पोताना स्थानकप्रत्यें जवाने अवस रें (जिणं के०) श्रीशांतिजिनप्रत्ये (पण मिऊण के) प्रणाम करीने एटले नमस्कार करीने (सुरासुरा के०) सुर अने असुर जे देवो के, ते (पमुश्या के०) प्रमुदिता एटले हर्षित थया थका ( सनवणा के०) पोताना नव न जे सौधर्मादिक ते प्रत्ये ( तो के०) ते स्थानकथकी (गया के०) गता एटले जाता हवा ॥ २४ ॥ आ दिप्तकनामा बंद जाणवो. तं महामुणि मपि पंजली, राग दोस नय मोद वजिअं ॥ देव दाणव नरिंद वंदिअंसं तिमुत्तम मदातवं नमे ॥ २५॥ खित्तयं ॥ अर्थः-(तं के ) ते ( संति के ) श्रीशांतिजिन तेने (अहंपि के०) हुँ पण (पंजली के ) प्रांजलि एटले जोड्या ने हाथ जेणे एवो बतो (नमे के) नमस्कार करुं बुं, ते शांतिजिन केहेवा ? तो के ( महा (मुणिं के ) महोटा मुनियो के शिष्य जेमना एवा ने तथा (राग के०) माया लोजरूप राग, अने (दोस के०) क्रोध, मान रूप वेष, (नय के०) जीति ते उछेग. (मोह के0) अज्ञान, तेणें करी (वङियं के०) वर्जित . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ प्रतिक्रमण सूत्र. तथा (देवदारिंद के०) देव, दानव ने नरेंद्र, तेणें (वंदि के ० ) वंदित एटले वांद्या एवा बे, अथवा देव, दानव ने नरेंद्र तथा तदा श्रित लोकोने ( बंदि के०) बंदीखानारूप जे संसार, तेने ( श्रं के० ) दं ए एले खंगन करे एवा बे. तथा ( उत्तम के० ) प्रधान एवं ( महातवं के० ) महोढुं बे तप जेमनुं एवा बे ॥ २५ ॥ श्रा, दिप्तक नामा बंद बे. वे जितनाथ ने चार श्लोकें करीने स्तवे बे. अंबरंतर विचारणियाहिं, बलि हंस वहु गामि पिचादिं || पीसो थिण सालिणीच्याहिं, सकल कमल दल लोप्रिहिं ॥ २६ ॥ दीवयं ॥ -- अर्थः- गलना बंदोमां कहेशे एवा प्रकारनी देवांगनायें जेम नां चरणारविंदनुं वंदन करयुं बे तेम बतां पण जेमनुं मन किंचित् पण वि कारने पाम्युं नहीं, एवा जे श्री अजिनाथ जगवान्, तेमने हुं नमस्कार करुं तुं. हवे ते देवांगना केहवीयो बे ? तो के ( अंबरंतर के० ) आका शमार्गना अंतराने वीषे ( विचार पाहिं के० ) विचरवानुं बे शील जे मनुं तथा (ललि०) रमणीय एवी जे ( हंसवहु के ० ) हंसवधू जे हंसी तेनी पेरें (गामिद्धिं के०) गमन करवानुं वे शील जेमनुं, तथा (पी ho) पुष्ट एवो जे (सोलि के०) कटिप्रदेश तथा ( था के० ) स्तन ते रोज तेणें करीने ( सालि पित्र्याहिं के०) शोजती एवी तथा (सकल के० ) संपूर्ण ( कमल के० ) पद्म तेनां ( दल के० ) पत्रो, ते समान बे ( लो हिं के० ) लोचन जेमनां एवीयो बे ॥ २६ ॥ श्रा दीपकचंद बे. पीए निरंतर यजर विमि गायलच्यादि ॥ मणि कंच पसिटिल मेहल सोदिच्य सोणितमा दिं ॥ वर खिखिणि नेजर सतिलय वलय विस प्रादि || रइ कर चर मणोदर सुंदर दंसि हिं ॥ २७ ॥ चीत्तखरा ॥ अर्थः- वली ते देवसुंदरी यो केहवीयो बे ? तो के ( पीए के० ) महो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशांतिस्तव अर्थसहित. २५ टा श्रने कामुक पुरुषना हृदयने आल्हाद कारक एवा अने (निरंतर के०) निर्व्यवधानपणुं ने ए हेतु माटें निबिग गाढ एवा (थण के०) स्तन जे पयो धर तेनो (जर के० ) नार तेणें करीने ( विण मिश्र के) विशेषे करीने नमेला ( गायलबाहिं के ) गात्रो जेमनां अर्थात् सुकुमारपणुं तथा तनुपणुं वे माटें लतावहीनी पेरें अत्यंत नमेलां शरिर जेमनां एवीयो, तथा ( मणि के ) मणियो, माणको अने (कंचण के ) सुवर्ण, तेनी करेली एवी अने ( पसिढिल के० ) प्रकर्षे करी शिथिल एवी जे ( मेहल के ) मेखला, तेणें करीने (सोहिश्र के०) शोजित ने ( सोणि तमाहिं के०) कटिनो प्रदेश जेमनो एवीयो तथा ( वर के०) श्रेष्ठ एवी ( खिंखिणि के) किंकिणी अने ( नेउर के ) नेपुर वली ( सति लय के०) मनोहर तिलक तथा ( वलय के )कंकण, एवां जे आभूषण तेणें करीने ( विनूसणियाहिं के) विशेषे करीने सुशोनित एवीयो तथा (रश्कर के०) रतिकर एटले प्रीति करनार एवं तथा (चउरमणोहर के०) चतुर पुरुषना मनने हरण करनारुं एवं ( सुंदरदंसणियाहिं के ) सुंदर जे दर्शन जेमनुं एवी देवीयोः ॥ २७ ॥ श्रा, चित्रादरानामा छंद जाणवो. देव सुंदरीदिं पाय वंदिआदि वंदिया य जस्स ते सुविकमा कमा अप्पणो निमालएहिं मंडणोडण पगारएदि केहिं केहिंवि अवंग तिलय पत्तलेद ना मएहिं चिल्लएहिं संगयं गयाहिं नति संनिविठ वंद णागयाहिं हुंति ते वंदिया पुणो पुणो॥२॥ नारायउँ ॥ अर्थः-(पायवंदियाहिं के) पोताना शरीरने विषे पहेरेलां नूषणोनां अथवा शरीरनां पाद जे किरणो तेना बंद जे समूह ते जे जेमने एवीयो देवांगना ने. तेमणे (वंदिया के ) वंदन कस्यां (य के०) च पादपूर्णार्थ बे. ते शुं वंदन कस्यां ले ? तो के (जस्स के०) जे नगवंतना (ते के) तो एटले ते प्रसिक एवां अने (सुविकमा के) रूहुं पराक्रम जेनुं अथवा गति जेमनी एवां (कमा के०) चरणारविंद, तेने वंदन कस्यां. ते चरणारविंद शेणे करी वंदन कस्यां ? तो के (अप्पणोनिमालएहिं के०) पोतानां लला Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ प्रतिक्रमण सूत्र. टोयें करीने. ते देवीयो केहेवीयो ले? तो के जेमना शरीरने विषे (मंगण के०) आजूषण तेनी ( उड्डण के ) रचना तेना ( पगारएहिं के०) प्रकारो, ते( केहिंकेहिं वि के) केहवा केहवा अपूर्व प्रकारो? ते कहे जे. (अवंग के ) अपांग जे नेत्र तेना प्रांतमा जे अंजननी रचना तथा (तिलय के०) तिलक एटले टीलां, ( पत्तलेह के०) पत्रलेख ते कस्तूरिका दिकनां शरीरने विषे करेलां जे टबकां इत्यादिक (नामएहिं के०) नाम जे जेनां एवा ( चिल्लएहिं के) देदीप्यमान मंमननी रचनायें करी (संगय के०) संगत एटले मल्या (अंगाहिं के०) शरीरना अवयव जेमना एवी देवांगना 5 ते (जत्तिसन्निविठ के०) नक्तियें करीने व्याप्तथकी (वंदणा के०) वंदन ने माटे (आगयाहिं के०) आवेलीयो एवीयो बे. ते देवीयोयें (ते के०) ते पूर्वोक्त तमारां चरणारविंद अफातिशयें करीने (पुणोपुणो के०) वारं वार (वंदिया के०) वंदन करेलां एवां (हुंति के ) . अर्थात् तमा रां चरणारविंदने श्रझातिशयथकी (देवसुंदरीहिं के) देवांगनाउँ वा रं वार वंदन करे ने ॥ २७ ॥ श्रा, नाराचकनामा बंद जाणवो. तमदं जिणचंदं, अजिअं जिअ मोदं ॥धुय सब किलेसं, पयर्ड पणमामि ॥शए॥ नंदिअयं ॥ अर्थः- (तं के ) ते पूर्वोक्त ( जिणचंदं के) जिनोमध्ये चंडमा समान एवा तथा ( जिअमोहंके) जीत्यो बे मोह एटले अज्ञान जेम णे एवा तथा (धु के) टाट्या डे (सव के०) समग्र एवा जे कर्मज नित शारीरिक अने मानसिक (किलेसं के) क्वेश जेमणे एवा (अजि अं के० ) श्रीअजितनाथनामा बीजा तीर्थंकर तेने (पय के ) प्रयत्न ते मन, वचन अने कायाना उद्यमें करी युक्त थको एवो (अहं के०)हुँ पण (पणमामि केव) प्रणमन करुं बुं, एटले नमस्कार करुं बुं ॥ए ॥ आ, नंदितक नामा छंद जाणवो ॥ हवे गाथायुग्में करीने शांतिनाथने स्तवे बे. थुत्र वंदिअस्सा रिसी गण देवगणेहिं, तो देव व हूदिं पय पण मिअस्सा ॥ जस्स जगुत्तम सासण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशांतिस्तव अर्थसहित. ७ यस्सा, जत्ति वसागय पिंमिअयादिं देव वर बरसा बहुयादिं सुर वर र गुण पंडियाहिं ॥ ३० ॥ नासुरयं । अर्थः-श्रीशांतिनाथ जे तेनां चरणारविंदने देवनर्तकियो जे बे, तेणें नृत्य करी वंदन कस्यां, तेने हुं पण नमस्कार करुं बु. ते शांतिनाथ केहेवा जे? तो के ( रिसीगण के) झषियोना समूह तथा (देवगणेहिं केण) देवता ऊना समूह, तेणें (थुअवंदिअस्सा के०) स्तुति करेला अने वंदन करेला ए वा अने (तोके) तदनंतर (देववहूहिं के०)देववधू जे जे तेमणे (पय के०) प्रयत्नथकी (पणमिअस्सा के०) प्रणाम करेला एवा (जस्सजगुत्तमसासणय स्सा के०) जेथकी जगत् मुक्ति पामवाने शक्तिमान थाय ने माटे उत्तम डे शासन जेमनुं एवा . हवे ते देवनर्तकीयो केहवी ने ? तो के (जत्तिवसा गय के) नक्तिवशे करीने देवलोकथकी जे आवq तेणें करीने (पिंकि अयाहिं के०) एकठी मलेली एवीयो अने (देववर के०) नर्तक वादक देवो अने नृत्यकुशल एवी (बरसा के७) अप्सरा तेमना (बहुयाहिं के) घ णायें मलेली एवीयो अने ( सुरवरर के ) देवताउँने जेथकी प्रीति थाय एवा ( गुण के ) गुणोने विषे (पमियाहिं के ) पंमित एटले माही एवीयो ॥ ३० ॥ श्रा, नासुरकनामा बंद जाणवो. वंस सद्द तंति ताल मेलिए तिनकरा निराम सद्द मीसए कए अ सुश् समाणणे असु सङ गीअ पाय जाल घंटिहिं ॥ वलय मेहला कलाव ने जरानिराम सद्द मीसए कए अ देव नहिहिं दा व नाव विघ्नम प्पगारएहिं॥ नच्चिऊण अगं दार एहिं वंदिया य जस्स ते सुविकमा कमा तयं तिलो य सब सत्त संति कारयं ॥ पसंत सव्व पाव दोसमे स हं नमामि संति मुत्तमं जिणं ॥३१॥ नारायउं॥ अर्थः-हवे ते देवनर्तकीयोयें केवा प्रकारनां गीत, नृत्य करते बते प्र जुना चरण- वंदन कझुं ? ते कहेले. (वंससद्द के०) वांसनो शब्द एटले For Personal and Private Use Only Jain Educationa Interational Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ प्रतिक्रमणसूत्र. वेणुध्वनि, (तंति के०) वीणा, (ताल के०) चपटी पटहादिक तेणें (मेलि ए के०) मले, एटले एकीकृत थये ते (च के०) वली (तिजरकर के० ) त्रि पुष्करनामा वाजित्र विशेष तेना (निराम के०) मनोहर एवा (सद के० ) शब्द तेणें करीने (मीसए के० ) मिश्रित (कए के०) करे बते, तथा व ली ( सुइ के० ) श्रुति जे कान तेनुं ( समाणणे के० ) समानन एटले ते सर्व शब्द सांजलवाने विषे काननुं समान करयुं, ते करे थके (सुद्ध के० ) अनुनासिकादि दोष रहित एवो ( स के० ) षडज ते मयुर, केका, शं खादिकना ध्वनिविशेषे करीने अथवा सऊ एटले अधिक गुणयुक्त एवं जे (गीय के०) गीत तेणें करीने सहित एवी जे ( पायजाल के० ) पगने विषे जालना आकार वाली एवी ( घंटियाहिं के० ) घंटिका एटले घू घरीयो तेणें करीने उपलक्षित बते तथा ( वलय के० ) सोनानां वलियां कंकण, ( मेहला के० ) मेखला ते कडनु यानरण, ( कलाव के० ) अ लंकार विशेष, (नेजर के० ) नेफुर तेमनो ( अजिराम के० ) मनोहर एवो जे ( सह के० ) शब्द तेणें करी ( मीसएक के० ) मिश्रित करे बते, ( o ) वली ( हाव के० ) बहु कामविकार, (जाव के० ) अल्प विकार प्रिय, (विनम के० ) विक्रम एटले विलास तेमना (पगारए हिं के० ) प्रकारो ने जेमने विषे एवा ( अंगहारएहिं के० ) जला अंगना विदेपें करीने (देवन हिश्राहिं के० ) देवनर्त्तकीयो जे देवांगनार्ड तेमणें पूर्वोक्त प्रकारें (नचिऊण के०) नृत्यें करीने, (सुविकमा के०) सुविक्रमा ए टले उत्तम जेमनुं पराक्रम बे एवा ( जस्स के० ) जे श्रीशांतिनाथजीना (ते के०) ते जगद्विदित पराक्रमें करी सहित एवा (कमा के० ) चरणो तेने ( वंदित्राय के० ) वंदन करयां बे. एमां चकार पादपूर्णार्थ बे. एवा ( तयं के० ) ते ( तिलोय के० ) त्रिभुवनना ( सवसत्त के० ) सर्व सत्त्व एटले प्राणीयो तेमने (संतिकारयं के०) शांतिना करनार एवा ने ( पसंत ho) प्रशांत या बे ( सबपावदोस के० ) सर्व पाप तथा रागादिक दोष जेथक एवा ( उत्तमं के० ) उत्तम जे ( संतिं के० ) श्रीशांति नांमा (जि ido ) जिन प्रत्यें ( एस के० ) या प्रत्यक्ष, ( हं के० ) हुं ( नमा मि के० ) नमस्कार करुं हुं ॥ ३१ ॥ या, नाराचकनामा बंद जाणवो.. अ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशांतिस्तव अर्थसहित. शए हवे त्रण श्लोकें करी अजितनाथ अने शांतिनाथने स्तवे बे. बत्त चामर पमाग जूव जव मंमिश्रा, जय वर मगर तुरय सिरिवत्र सुलंबणा ॥ दीव समुद्द मंदर दिसा गय सोदिआ, सबिअ वसद सीह रदचकवरं किया ॥ पागंतर ॥ सिरिवन सुलंबणा ॥ ३२॥ ललिययं ॥ अर्थः-(बत्त के० ) बत्र, ( चामर के) चामर, (पमाग के०) पता का, ( जूव के०) यूप, (जब के०) यव, एवां लक्षणोयें करीने (मंमि श्रा के०) मंमित सुशोनित एवा तथा (ऊयवर के) सिंहादि रूपोपलदित ध्वजवर, ( मगर के) मगरमत्स्य, जलजंतु, (तुरय के) अश्व, (सिरि व के०) श्रीवत्स ते उत्तम पुरुषोना वदःस्थलमां होय बे, अने पगमां पण थवानो संचव जे. (सुलंबणा के०) ते सर्व शोजायमान डे लांउन जे मने एवा तथा (दीव के०) छीप ते जंबूछीपादिक, (समुद्द के०) समुप, ते लवणोदधि प्रमुख, (मंदर के) मेरु पर्वत अथवा प्रासाद पण जाणवो. (दिसागय के) दिग्गज, जे प्रधान हस्ती,एवा लक्षणे करी एटले आकारें करीने (सोहिया के०) शोनित एवा ने तथा (सबिध के ) स्वस्तिक, (वसह के०) वृषन, (सीह के०) सिंह, (रह के०) रथ (चक के०) चक्र (वर के०) श्रेष्ठ तेणें करी(अंकियाके) अंकित एटले चिन्हित एवां. पागं तरें (सिरि के०) लदमी, (वड के) वृद, ते कल्पवृदादिक तेना (सुलंगणा के) नलां शोजन लांबनो डे एटले लदो बे, श्रीशांतिनाथना हाथ प गादिक अंगोने विषे एवा ॥ ३२ ॥ आ, ललितकनामा छंद जाणवो. सदाव लह सम प्पश्शा, अदोस उहा गुणेहिं जिहा ॥ पसाय सिहा तवेण पुछा, सिरीहिं श्छा रिसीहिं जुहा ॥ ३३ ॥ वाणवासिया ॥ अर्थः-वली केहेवा वे ? तो के (सहाव के०) खजावें करीने (लहा के०) ललित एटले शोजायमान बे, तथा ( समप्पा के०) समा ते अस्थपुट एटले विषमोन्नत रहित एवी नूमिकाने विषे प्रतिष्ठित एटले रह्या डे अ थवा असम एटले निरुपम ने प्रतिमा जेमनी एवा ने तथा (अदोसडा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० प्रतिक्रमण सूत्र. के०) रागादिक दोषे करी अपुष्ट , एटले रागादिक विकारें करी रहित बे, तथा (गुणेहिं के) कूर्मोन्नतत्व रक्तादिक जे गुण, तेणें करीने (जिहा के०) ज्येष्ठ एटले महोटा , अथवा गुण जे सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र लक्षण तेणें करीने ज्येष्ठ एटले वृक्ष बे. तथा ( पसाय के०) प्रसाद जे अनुग्रह अथवा रागादिकनो दय तेथी जे निर्मलपणुं तेणें करी (सिहा के०) श्रेष्ट डे तथा ( तवेणपुछा के ) बार प्रकारना तपें करीने पुष्ट . तथा ( सिरीहिं के०) श्री जे लक्ष्मी तेणे करीने (हा के०) श्ष्ट , अ थवा लदमीनामक देवीयें जेने पूज्या बे एवा . तथा ( रिसीहिं के) ऋषि जे मुनियो, तेमणे (जुहा के) जुष्टा एटले निरंतर सेव्या ने जेमने एवा ने ॥ ३३ श्रा वानवासिका नामाबंद जाणवो. ते तवेण धुय सव्व पावया, सब लोअ दिअ मूल पावया ॥ संथुया अजिअ संति पायया, हुंतु मे सिव सुदाण दायया ॥ ३४ ॥ अपरांतिका ॥ अर्थः-(ते के ) ते पूर्वे वर्णन कस्या एवा तथा ( तवेण के० ) त करीने (धुय के ) टाढ्यु डे अथवा जस्मीनूत कयुं ने ( सब के०) सर्व एवं जे शुनाशुन कर्म रूप (पावया के ) पाप जेमणे एवा, वली केहेवा जे ? तो के ( सबलोथ के ) सर्व लोक तेने ( हिथ के ) हित कारक एवो जे मोद, तेनु (मूल के०) मूल कारण जे ज्ञान, दर्शन अने चारित्र तेने (पावया के) प्रापका एटले पमामनारा , तथा जेने (सं थुया के०) पूर्वोक्त प्रकारे शं, एटले सुख तेने अर्थे स्तवन कमु जे जेमनुं एवा जे (अजिअसंतिपायया के०) श्री अजितशांतिपाद आहीं पाद शब्द पूज्यवाचक डे ते पूज्य, (मे के) मने ( सिवसुहाणदायया के०) शिव सुखना देनार एवा (डंतु के०) थाउँ ॥ ३४ ॥ श्रा, अपरांतिका नामा छंद जाणवो॥ एवं तव बल विनलं, थुझं मए अजिअ संति जिण जुअलं ॥ववगय कम्म रय मलं, गइंगयं सासयं विनलं ॥३५॥गाहा ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजितशांतिस्तव अर्थसहित. पर अर्थः-( एवं के) ए प्रकारें ( तवबलविजलं के०) तपोबलें करीने विपुल विस्तीर्ण विशाल एबुं अने ( ववगय के०) गयुं (कम्मरयमलं के०) कर्मरूप रज अने मल जेमने एवं तथा (सासयं के०) शाश्वती एवी तथा ( विउलं के) विपुल विस्तीर्ण ने सुख जेने विषे एवी (गई के०) गति जे तेने (गयं के०) गत एटले प्राप्त थयुं, एवं (अजिअसंति जिजुअलं के०) अजितशांतिजिनयुगल एटले बीजा अने शोलमा तीर्थंकर, युगल तेने (मए के) में, (शुभं के) स्तुति कडं ॥ ॥ ३५ ॥ श्रा, गाथा नामक बंद जाणवो. तं बहु गुणप्पसायं, मुक सुदेण परमेण अविसायं ॥ नासेज मे विसायं, कुणन अ परिसावि अ पसायं ॥३६॥गादा ॥ अर्थः-वली (तं के ) ते पूर्वोक्त जिनयुगल केहq डे ? तो के (बहु गुणप्पसायं के०) ज्ञानादिक अनेक गुणोनो ने प्रसाद जेमने एवं तथा (पर मेण के० ) परम उत्कृष्ट एवा (मुरकसुदेण के) मोदसुख जे तेणें करी (अविसायं के०) नथी विषाद जेमने एवं जिनयुगल, ते (मे के०) म हारा ( विसायं के०) विषाद जे जे तेने ( नासेउ के) नाशने (कुणउ के०) करो, (अ के०) वली (परिसावि के०) आ प्रस्तुत स्तव सांजलनारी जे विछानोनी सजा ते पण महारी उपर गुण- ग्रहण अने दोषनो त्याग ते रूप, ( पसायं के०) प्रसादने करो ॥ ३६ ॥ श्रा पण गाथाछंद जाणवो. हवे स्तवनना अंतमां मंगलशब्दोयें करीने प्रणिधान कहे बे. तं मोएन अनंदि, पावेन अनंदिसेण मनिनंदि॥परिसावि य सुद नंदि, मम य दिसन संजमे नंदि॥ ३७॥गादा ॥ अर्थः-(तं के) ते अजितशांतियुगल ते, मने (मोएल के) मोद एटले हर्ष तेने द्यो,आपो (अ के) अने सर्व लोकोने (नंदि के) समाधिने (पावेल के०) प्राप्त करो. (अ के) वली या स्तवन करनार जे (नंदिसेण के०) नंदिषेण कवि, तेने (अजिनंदि के ( सर्व प्रकारे समृद्धि सानंदने पमामो.(य के०) तथा (परिसावि के) आ गावन सांजलनार जे श्रोता जनोनी पर्षदा, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. तेने पण ( सुहनंदि के०) सुखवृद्धिने ( दिसउ के०) आपो. (य के०) वली (मम के०) मुझने (संजमे के०) सत्तर प्रकारनो जे संयम तेने विषे (नंदि के०) आनंदने (दिसड के) आपो ॥३७॥ आगाथा बंद . अहींयां केटलाएक वृद्ध पुरुष एम कहे डे के श्रीशत्रुजयनी गुफायें श्री अजित,अने शांति चोमासुंरह्या हता,पबीते बन्ने तीर्थंकरना पूर्वाभिमुख देरां थयां. तिहां एकदा श्रीनेमिनाथना गणधर, श्रीनंदिषण सूरि तीर्थयात्रायें आव्या थका श्रीअजित शांतिस्तवननी रचना कीधी, ते थाही सुधी जाणवी. हवे एना माहात्म्यनी आगली गाथा अनेरा बहुश्रुतें कीधी बे, ते वखाणीये कैयें. परिक चाजम्मासे, संवरिए अवस्स नणिअबोसो अबो सवेदि, उवसग्ग निवारणो एसो॥३७॥ गाहा ॥ अर्थः-(परिका के०) पांखीना पमिकमणाने विषे तथा (चाउम्मासे के०) चोमासाना पमिकमणाने विष तथा (संवछरिए के०) संवत्सरीना प मिकमणानी रात्रिने विषे (अवस्स के०) निश्चे (नणिअबो के०)जणवो, ते एक जणें नणेलो एवो जे आ स्तव, तेने (सोहि के०) सर्व संधे (सोअबो के०) सांजलवो. कारण के सर्वजनो जो एकज अवसरें एकग पाउनणे तो तेमां कोलाहल थवानो संचव डे मात्रै एकज जणे जणवो अने वीजा सर्व संघ जनोयें सांजलवो. (एसो के०) ए स्तव जे ने ते, (उवसग्गनिवारणो के) उपसर्ग जे विघ्न, तेनुं निवारण करनारो ने ॥ ३० ॥ गाथाबंद. जो पढइ जो अ निसुण, उन्न कालंपि अजिअ संति थयं ॥ न हु हुँति तस्स रोगा, पुबुप्पन्ना विना संति ॥ ३ए॥ गादा॥ अर्थः-(जो के०) जे कोई पुरुष, (अजिअसंतिथअं के० ) श्रीअजि तनाथ श्रने श्रीशांतिनाथ तेना स्तवनने ( उनकालंपि के०)प्रातःकाल तथा सायंकाल अने अपि शब्द थकीत्रणे काल सेवा तेने विषे ( पढश् के) नणे , तथा ( जोश के०) जे. वली ( निसुण के) निरंतर श्र वण करे , तो ( तस्स के०) ते पठन करनार अने सांचलनार पुरुषने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्तामरस्तोत्र अर्थसहित. (रोगाः के०) रोगो जे जे ते, (नहुहुँति के०) निश्चे होता नथी अने (पु बुप्पन्ना के) पूर्वोत्पन्न थयेला एवा जे रोगो, ते पण ( विनासंति के०) विशेषे करीने नाश पामे ले ॥ ३५ ॥ श्रा पण गाथाबंद जाणवो. जश्श्ब द परम पयं, अदवा कित्तिं सुविबडं जुवणे ॥ता तेलुकुरणे, जिण वयणे आयर कुणद ॥ ४० ॥ गादा ॥ अर्थः-(जश् के) यदि एटले जो (परमपयं के०) परमपद जे मो द, तेनी (श्छह के) श्खा करो डो, (अहवा के) अथवा (जुवणे के) त्रण जुवनने विषे ( सुविबम के०) सुविस्तृत एटले विस्तार पामे ली एवी (कित्तिं के) कीर्ति, तेनी श्वा करो बो, (ता के ) तो (ते खुकुकरणे के) त्रण लोकना उकार करनारां एवां ( जिणवयणे के०) जिनवचनो जे बे, तेने विषे (आयरं के०) आदर सत्कार तेने (कुणह केज) करो ॥३॥ आ, गाथाबंद ॥ इति अजितशांतिस्तवः समाप्तः॥६॥ ॥अथ ॥ ॥ नक्तामरनामक सप्तम स्मरण प्रारंजः॥ तेमां प्रथम बे काव्ये करीने देवता, नमस्कारात्मक मंगल करे बे. भक्तामरप्रणतमौलिमणिप्रनाणा, मुद्योतकं द लितपापतमोवितानम् ॥ सम्यकू प्रणम्य जिन पादयुगं यगादा, वालंबनं नवजले पततां जना नाम् ॥ १॥ यः संस्तुतः सकलवाङ्मयतत्त्वबो धा, उन्नतबुझिपटुनिः सुरलोकनाथैः ॥ स्तोत्र जगत्रितयचित्तदरैरुदारैः, स्तोष्ये किलादमपि तं प्रथमं जिनेंम् ॥३॥ अर्थः-(नक्तामर के) नक्तिमंत एवा अमर जे देवता तेना (प्रण त के०) नमेला एवा जे ( मौलि के०) मुकुट, तेने विषे रहेला जे (म णि के०) मणियो, तेनी (प्रजाणां के०) कांतियोने (उद्योतकं के) प्रका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शन्। प्रतिक्रमणसूत्र. श करनारं एवं, तथा ( दलित के०) दलन करी नाख्यो डे (पाप के०) पापरूप जे (तमो के०) अंधकार तेनो ( वितानं के० ) समूह जेणें एबुं तथा (जवजले के ) संसारसमुज्ने विषे ( पततां के०) पडेला एवा (जनानां के) नव्यजनोने (युगादौ के०) युगने आदें एटले त्रीजा आरा ना अंतमां (श्रालंबनं के०) आलंबन ते आधारनूत श्राश्रयरूप एवं (जिनपादयुगं के) श्री तीर्थंकरनु पादयुग, तेने मन, वचन तथा काया यें करी (सम्यक् के०) रूडे' प्रकारें (प्रणम्य के०) नमस्कार करीने ॥१॥ (यः के) जे जगवान् ते, ( सकल के० ) समस्त एवं ( वाङ्मय के) शास्त्र तेनुं ( तत्त्व के० ) रहस्य तेना ( बोधात् के) जाणवाथकी (उभूत के०) उत्पन्न थर एवी जे निपुण (बुद्धि के) कि तेणें करी (पटुभिः के ) कुशल एवा (सुरलोकनाथैः के०) देवलोकनानाथ जे इंस्रो, तेणें (जगत्रितय के० ) त्रण जगतना जे प्राणी तेनां (चित्तहरैः के) चित्त ने हरण करनारां एवां तथा ( उदारैः के०) अर्थथकी अने शब्दथकी उ दार एवां निर्दोष ( स्तोत्रैः के०) स्तोत्रोयें करीने (संस्तुतुः के०) स्तुति करेला जे. (तं के०) ते चोविश जिननी अपेक्षायें सर्व जिनोमां (प्रथम के) श्राद्य एवा (जिने के०) सामान्य केवलीमां इंस सरिखा श्री शषन खामी तेने (अहमपि के) हुँ पण ( किल के०) निश्चें करी (स्तोष्ये के०) स्तुति करीश ॥२॥ आ, सर्व स्तोत्रना वसंततिलकाबंद बे. हवे स्तोत्रकर्ता श्री मानतुंगाचार्य, पोताना उकतपणानो त्याग करे . बुझ्या विनापि विबुधार्चितपादपीठ, स्तोतुं समुद्य तमतिर्विगतत्रपोऽदम् ॥ बालं विहाय जलसंस्थि तमिबिंब, मन्यः कश्बति जनःसहसा ग्रहीतुम्॥३॥ अर्थः-( विबुध के०) देवर्नु श्रथवा पंमितो तेणें ( अर्चितके० ) श्र र्चन एटले पूजन करेधुं एq डे (पादपीठ के०) पादासन एटले पग राख वानुं श्रासन जेनुं, तेना संबोधनने विो हे विबुधार्चितपादपीठ ! (बुझ्या विनापि के०) बुझिविना पण एटले पांमित्य विना पण (विगतत्रपः के) विशेषे करीने गर जे त्रपा एटले लजा जेनी अर्थात् अशक्य वस्तुने विषे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जक्तामरस्तोत्र अथर्सदित. प्रवर्त्तनथकी गतलज बतो ( स्तोतुं के०) स्तुति करवानी (समुद्यतमतिः के०)रूडे प्रकारे प्रयत्नवती करेली के बुद्धि जेनी अर्थात् उद्यमवती थश्बु छि जेनी एवो (अहं के) हुँ ढुं. अहीं दृष्टांत कहे जे. ते जेम के (जलसं स्थितं के ) जलने विषे रूडे प्रकारे रह्यां एटले प्रतिबिंबित थयेनुं एवं जे (बिंब के०) चंप्रमानुं प्रतिबिंब तेने (सहसा के०) तत्काल (ग्रहीतुं के०) ग्रहण करवाने (बालं विहाय के०) बालक विना एटले बालक मूकीने (अ न्यः के०) बीजो (कः के०) कयो (जनः के०) मनुष्य. (श्वति के०) श्ला करे ? अर्थात् बालक विना बीजो कोश् पण बुद्धिमान् जन, जलप्रति बिंबत चंने ग्रहण करवाने श्वतो नथी. तेम हुँ पण तमारं स्तोत्र कर वाने बालकनी पेरें अशक्य बतो पण स्तुति करवाने अभिलाष करुं बु. मा टें मने गतलऊ बालकज जाणवो ॥३॥ हवे जगवान्नी स्तुति करवामां बीजाउंनी कुष्करता देखाडे डे. वक्तुं गुणान् गुणसमु! शशांककांतान्, कस्ते दमः सुरगुरुप्रतिमोपि बुझ्या ॥ कल्पांतकालपवनोश्त नक्रचक्रं, कोवा तरीतुमलमंबुनिधिं जुजाच्याम् ॥४॥ अर्थः-(गुणसमुन के०) गुणसमुज एटले हे गुणरत्नाकर ! (ते के०) त मारा (शशांककांतान के०) शशांक जे चंप्रमा, तेना सरखा मनोहर उज्ज्वल एवा (गुणान् के०) गुणो जे जे तेने (वक्तुं के) कहेवाने वर्णन करवाने (बुध्या के०) बुद्धियें करीने (सुरगुरुप्रतिमोपि के०) बृहस्पति समान ए वो पण (कः के०) कयो पुरुष, (क्षमः के०) समर्थ थाय ?अर्थात् को ६ पण समर्थ थतो नथी. आहीं दृष्टांत कहे , के जेम (कल्पांतकाल के०) प्रलयकाल जे संहारकाल, तेनो (पवन के) वायु, तेणें करी ( उक त के०) उड्या एटले उबली रहेला एवा डे (नक्रचक्रं के०) नक्र चक्र ए टले मगरमत्स्यना समूह जेने विषे एवो जे (अंबुनिधि के०) समुख तेने (नु जान्यां के) बे हाथें करीने (अलं के) परिपूर्ण (तरीतुं के) तरवाने (कः के) कोण (वा के०) वा ते दृष्टांतना अर्थमां डे (दमः के) समर्थ थाय? अर्थात् एतादृश समुज्ने बे हाथे करी तरवाने कोइ पण समर्थ थ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श६ प्रतिक्रमणसूत्र. तो नथी. तेम तमारी स्तुति करवाने बुद्धियें करी बृहस्पति समान पुरुष पण समर्थ थतो नथी ॥४॥ हवे स्तवन रचनाने विषे प्रयत्न करवानुं कारण कहे . सोऽहं तथापि तव नक्तिवशान्मुनीश, कर्तुं स्तवं वि गतशक्तिरपि प्रवृत्तः ॥ प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगें, नान्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ॥ ५॥ अर्थः-(मुनि के ) मुनि जे मुमुठ तेमना (श के० ) खामी, तेने मुनीश कहियें तेना संबोधनने विषे हे मुनीश ! हुं तमारं स्तोत्र करवाने असमर्थ बु. (तथापि के०) तो पण (तव के०) तमारा (जक्तिवशात् के०) जक्तिना वशथकी एटले नक्तिवशपणायें करी अखतंत्र बतो ( विगतश क्तिरपि के०) गश् शक्ति जेनी अर्थात् स्तोत्र करवामां दीण ने शक्ति जेनी एवो बतो पण (सः के०) ते पूर्वोक्त बुद्धिवृद्धिवर्जित एवो (अहं के०) हुं मानतुंगनामा आचार्य, ते (स्तवं के) तमारी स्तुति तेने ( कर्तुं के) करवाने (प्रवृत्तः के०) प्रवृत्त थयो बु. त्यां उपमान कहे . जेम (मृगः के० ) हरिण ते, (प्रीत्या के०) स्नेहें करीने (आत्मवीर्य के० ) पोतानुं बल तेने ( अविचार्य के० ) नहिं विचारीने ( निजशिशोः के) पोताना बालकना (परिपालनार्थ के०) रक्षण करवाने अर्थे ( मृगें के०) सिंहप्रत्ये (किं के०) ( नान्येति के ) सन्मुख युद्ध माटें न जाय ? अर्थात् जायज . तेम कवि कहे डे के हुँ पण तमारी नक्तिवशें करीने स्तुति करवाना सामर्थ्यने न विचारतोथको पण तमा री स्तुति करवाने प्रवर्तेलो ढुं ॥५॥ हवे कवि स्तोत्र करवाने असमर्थ बतो पण स्तोत्र करवाने वाचालपणानुं कारण कहे बे.. अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिदासधाम, त्वन्नक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् ॥ यत्कोकिलःकिल मधौ मधुरं विरौति, तच्चारुचूतकलिकानिकरैकहेतुः॥६॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्तामरस्तोत्र अर्थसदित. ១០១ अर्थः-(अल्पश्रुतं के) अल्प डे श्रुत एटले शास्त्रज्ञान अवधारण जेनुं ए कारण माटें (श्रुतवतां के०) श्रुतज्ञानवंत एवा पुरुषो एटले बहुश्रुत जनो तेमनें (परिहासधाम के) हास्य करवानुं स्थानकरूप एवो (मां के०) मने (त्वन्नक्तिरेव के०) तमारी नक्तिज (बलात् के०) बलात्कारथकी स्तोत्र करवाने ( मुखरीकुरुते के० ) वाचाल करे . त्या दृष्टांत कहे जे. ( यत् के०) जे कारण माटें (मधौ के०) चैत्र मासने विषे (कोकिलः के०) को किल जे डे, (किल के०) सत्य ( मधुरं के ) मनोझमधुर खरने ( विरौ ति के०) जपे बे, बोले ले (तत् के०) ते बोलवाने (चारुचूतकलिका के०) मनोहर एवी आम्रकलिका तेनो (निकर के०) समूह, तेज (एकहे तुः के) एक कारण बे, तेम मने तमारी नक्तिज एक कारण ॥६॥ हवे स्तवन रचनामां जे गुण , ते कहे . त्वत्संस्तवेन नवसंततिसन्निबई, पापं दाणादय मुपैति शरीरनाजाम॥ आक्रांतलोकमलिनीलमशे षमाशु, सूर्याशुनिन्नमिव शार्वरमंधकारम् ॥ ७॥ अर्थः-हे जिन ! (शरीरलाजा के०) देहने नजनारा एटले देहधारी जे जीवो बे, तेनुं (जवसंततिसन्निबधं के०) जव जे जन्म, जरा अने मरण रूप संसार तेनी परंपरायें करी बंधायेदुं एवं जे (पापं के०) पाप ते, (त्व संस्तवेन के०) तमारा रूमा स्तवनें करीने (कणात् के०) घमीना बहा जागे करीने (वयं के०) क्षयने (उपैति के० ) पामे . कोनी पेठे पामै बे? तो के (आक्रांतलोकं के०) लोकमां व्यापी रहेलो एवो अने (अलि के) ब्रमराना सरखो (नीलं के०) श्याम कालो अने (शार्वरं के५) अं धारीरात्रिथकी उत्पन्न थयो एवो जे (अशेषं के० ) समस्त (अंधकार के०) अंधकार जे जे ते, (आशु के) शीघ्र (श्व के०) जेम (सूर्यांशु के०) सूर्यना अंशु जे किरणो तेनो जे प्रकाश तेणें करीने (निन्नं के०) नाश पा मेलो होय , तेनी पेरें जाणी लेवं. एटले तिमिर नाशमां जेम सूर्यप्र काश कारण , तेम पापक्षयमां तमारो स्तव ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ខូចច प्रतिक्रमणसूत्र. हवे स्तवनारंज सामर्थ्यने दृढ करतो बतो कहे . मत्वेति नाथ ! तव संस्तवनं मयेद, मारन्यते त नुधियापि तव प्रनावात् ॥ चेतोदरिष्यति सतां नलिनीदलेषु,मुक्ताफलद्युतिमुपैति ननूदबिंजान॥ अर्थः-(नाथ के०) हे नाथ. ! (इति के०) ए पूर्वोक्त प्रकारे पापनुं हर ण करनारा एवा आ स्तोत्रने (मत्वा के०) मानीने (तनुधियापि के) मं दबुझिवालो एवो पण (मया के ) हुँ जे बुं, तेणें (तव केश) तमारूं (दं के०) आ (संस्तवनं के) स्तवन जे , ते करवाने (आरंज्यते के०) था रंज कराय बे. ते (तव के०) तमारा (प्रनावात् के०) प्रनावथकी (सतां के०) संत पुरुषो एटले सऊन पुरुषोनां (चेतः के) चित्तने (हरिष्यति के०) हरण करशे, परंतु खल पुरुषोनां (चित्तने) हरण नहिं करे, एवी सू चना करवाने अर्थे (सतां) ए पद ग्रहण करघु बे. तिहां उपमान कहे , ते जेम के:-(नलिनीदलेषु के०) कमलपत्रने विषे पडेलो एवो जे (उदविं पुः के०) उदकनो बिंडु, ते कमलना प्रजावें करीने ( मुक्ताफलद्युति के०) मुक्ताफलनी शुति एटले कांति तेना जेवी शोनाने ( ननु के०) निश्चे (उ पैति के) पामे , तेम तमारा प्रजावधी आ महारुं करेलु जे स्तवन,ते सत्कविविरचित काव्यनी बायाने पामशे ॥७॥ हवे सर्वज्ञ एवा नगवाननुं स्तवन, ते तो सकलदोष हरणकारक हो, परंतु ते श्रीसर्वइसंबंधिनी कथा पण सकलडरित हरे , ते कहे जे. आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोषं, त्वत्संकथापि जगतां उरितानि इंति॥ दूरे सहस्त्रयिरणः कुरुते प्रनैव, पद्माकरेषु जलजानि विकाशनांजि ॥ ए॥ अर्थः-हे देव ! (अस्त के) नाश पाम्या डे ( समस्तदोषं के०) समग्र दोष जेथकी एवं (तव के०) तमारुं (स्तवनं के०) स्तवन जे जे, ते (आस्तां के) दूर रहो, परंतु (त्वत्संकथापि केण) तमारी मात्र आ लव तथा पर जवना चरित्रनी कथा जे करवी, ते पण (जगतां के०) जगन्निवासी लो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जक्तामरस्तोत्र अर्थसदित. एनए कोनां (कुरितानि के०) पाप जे जे, तेमने (हंति के०) हणे , तिहां उपमा कहे बे, के (सहस्रकिरणः के) सूर्य जे जे, ते तो (दूरे के०) दूर रहो, परंतु तेनी (प्रजैव के०) प्रना जे , तेज (पद्माकरेषु के०) पद्मना आकर, एटले समूह ने जेमां एवां सरोवरादिक तेने विषे रहेलां एवां जे (जलजानि के०) कमलो तेने (विकाशनांजि के०) विकस्वर एटले प्रकाशने जजनारां एवांने (कुरुते के०) करे . अर्थात् सूर्येदय थयाथी पूर्वे प्रवर्त्तनारी एवी सू र्यनी प्रजाज जेवारें कमलने विकखर करनारी थाय , तेवारें सूर्य पोतें तेनो विकाश करे, तेमां तो झुंज कहेवू ? तेम अहिंयां पण जगवंतनी कथाज जेवारें पुरितनाशिनी बे, तो जगवंतनुं स्तोत्र पुरित निवारण करे, तेमां तो झुंज कहेवू ? ॥ ५॥ हवे नगवंतना गुणनी स्तुतिनु फल कहे . नात्यनुतं जुवननूषणनूत ! नाथ, नूतैर्गुणैवि नवंतमनिष्टुवंतः॥तुल्या नवंति नवतोननु तेन किं वा, नृत्याश्रितं यश्च नात्मसमं करोति॥२०॥ अर्थः-(जुवननूषणचूत के०) हे जगतने विषे नूषणरूप ! अर्थात् हे जगदाजरणसमान ! (नूतैः के०) सत्य एटले असत्य नहिं एवा तमारा (गुणैः के०) गुणोयें करीने (जुवि के०) जगतने विषे (नवंतं के) तमोने (अनिष्टुवंतः के ) स्तुति करनारा एवा जे जनो , ते जनो, रूपें तथा गुणें करीने (नवतः के) तमारी (तुल्याः के०) तुल्य एटले समान ( नवं ति के ) थाय बे. तेमां (नअत्यनुतं के०) अति आश्चर्य नथी. (ननु के०) प्रश्नमां, (नाथ के०) हे नाथ ! (यः के०) जे को धनवान् खामी, (श्हके०) श्रा लोकने विषे पोताने (आश्रितं के०) आश्रय करीने रह्यो एवो जे सेव क, तेने (नूत्या के०) संपत्तियें करीने, (लक्ष्मीयें करीने ) महत्त्वें करीने, (आत्मसमं के०) पोतानी तुल्य (न करोति के०) नहीं करे, तो (वा के०) अथवा (तेन के०) तेखामीयें करीने (किं के०) शुं ? अर्थात् कांहींज नहीं. तेम स्तवनकर्ता कहे , के हुँ पण तमारी स्तुति करतो तो तमारी पेठे तीर्थंकर नामकर्मने संपादन करनारो श्राश्श ॥ १० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श प्रतिक्रमण सूत्र. हवे जगवदर्शन- फल कहे .. दृष्ट्वा नवंतमनिमेषविलोकनीयं, नान्यत्र तोषमुप याति जनस्य चक्षुः॥पीत्वा पयःशशिकरद्युतिउग्ध सिंधोः, दारं जलं जलनिधेरशितुं कश्चेत् ॥११॥ अर्थः-हे नाथ ! (अनिमेषविलोकनीयं के०) मिषोन्मिषरहितपणे क रीने जोवा योग्य, एटले दर्शन करवा योग्य एवा (नवंतं के०) तमोने ( दृष्ट्वा के०) जोश्ने ( जनस्य के०) ते जोनारा लोकोनां (चकुः के०) चकुर्ड जे बे, ते (अन्यत्र के०) तमाराथी व्यतिरिक्त जे अन्य दवो , तेने विषे (तोष के०) संतोषने (नउपयाति के० ) न पामे बे, अर्थात् अ निमेषह ष्टियें करीने तमारा दर्शन करनारा एवा जे नव्य जनो, ते तमारे विषेज प्रीतिने पामे बे, परंतु अन्य हरिहरादिक देवोने विषे प्रीति पामता नथी. त्या दृष्टांत कहे . के (शशि के०) चंद्रमा तेनां (कर के०) किरणो तेनी (युति केण) कांति तेना सरखी उज्ज्वल ने कांति जेनी एवो जे (उग्धसिंधोः के) दीरसमुज तेनुं (पयःके) पाणी. तेने (पीत्वाके०) पान करीने (कः के०)कयो पुरुष, (जलनिधेः के०) लवणसमुद्र जे बे, ते नुं (दारं जलं के०) न पीवा योग्य एवं अस्वादिम खालं पाणी तेने (अ शितुं के०) पान करवाने (श्छे त्के०) श्छा करे ? अर्थात् क्षीरसमुना पा णीसदृश एवं जे तमारं दर्शन, तेने त्याग करीने लवणसमुज्ना पाणी तु ख्य एवं जे अन्य देवोनुं दर्शन, तेने कोण करे? अर्थात् कोश् नज करे॥११॥ हवे जगवानना रूपनुं वर्णन करे . यैः शांतरागरुचिनिः परमाणुनिस्त्वं, निर्मापितस्त्रि जुवनैकललामन्नूत!॥ तावंतएव खलु तेप्यणवः पृ थिव्यां, यत्ते समानमपरं नहि रूपमस्ति ॥१२॥ अर्थः-(त्रिनुवन के०) त्रण जुवनने विषे (एक के०) अद्वितीय एटले एकज (ललामजूत के०) सुंदरजूत तेना संबोधनने विषे हे त्रिजुवनैकललाम नूत ! (यैः के०)जे (शांत के०) शांतनामा जे नवमो रस, तेनो(राग के०) जाव तेनी (रुचिलिः के०) गया जे जेमने विषे एवा (परमाणु निः केय) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श जक्तामरस्तोत्र अर्थसहित. परमाणुयें करीने ( निर्मापितः के) निर्माण करेला एवा शरीरवाला (त्वं के०) तमें बो. अने ( तेपि के० ) ते पण ( अणवः के ) परमाणु (पृथिव्यां के०) जगतने विषे (तावंतएव के०) जगव निर्मितमात्रज बे, एट ले ते रागोषनी शांतता रूप परमाणु पण (खलु के०) निश्चे जगतमां तेट लाज , तेने विषे हेतु कहे . ( यत् के)जे कारण माटें (पृथिव्यां के०) पृथिवीने विषे ( ते के० ) तमारा ( समानं के) सर ( अपरं के) बीजु कोइ (रूपं के ) रूप ( नहि के ) नहिं ( अस्ति के०) बे ॥१५॥ हवे प्रजुना मुखनुं वर्णन करे . वकं व ते सुरनरोरगनेत्रहारि, निःशेषनिर्जितजग त्रितयोपमानम् ॥ बिंबं कलंकमलिनं क निशाकर स्य, यवासरे नवति पांमुपलाशकल्पम् ॥ १३ ॥ अर्थः-हे नाथ! (सुर के०) देवताउँ, ( नर के)मनुष्यो, (उरग के०) नुवनपति अथवा नागकुमार प्रमुख जे देवो तेनां (नेत्र के०) चतु, तेने (हा रि के०) हरण करवानुं बे शील जेनुं एवं जे. वली केहq ने ? तो के (निशेष के०) समस्त एवां जे (जगत्रितयोपमानं के०) त्रण नुवनने विषे जेनी उपमा देवाय एवा कमल, चंड, दर्पणादि पदार्थों ते सर्वना सौंदर्य ने ( निर्जित के) निःशेषपणायें करीने जीत्युं वे जेणे एवं ( ते के) तमारं ( वक्र के०) मुख, ते (क के० ) क्यां ? अने (कलंकमलिनं के०) लांबनें करी मलिन तथा ( यत् के) जे ( वासरे के०) दिवसने विषे (पांमुपलाशक:पं के) खाखराना जामनुं पांदा जेवू पीबुं पमी जाय, तेना सरखं (जवति के०) थाय . एवं (निशाकरस्य के०) चंउमा तेनुं (बिंब के०) बिंब ते (क्व के ) क्या ? अर्थात् तमारा मुखनुं अने चंबिबर्नु उपमेयत्व घटतुं नथी ॥ १३ ॥ हवे नगवझुणोनी व्याप्ति कहे जे. संपूर्णमंमलशशांककलाकलाप, शुत्रागुणास्त्रि जुवनं तव लंघयंतिाये संश्रितास्त्रिजगदीश्वरःना थमेकं, कस्तान्निवारयति संचरतोयथेष्टम् ॥१४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श‍ प्रतिक्रमण सूत्र. अर्थः- ( त्रिजगदीश्वर के० ) त्रण जगतना ईश्वर एटले हे त्रिजगन्ना थ! ( संपूर्णमंगल के० ) संपूर्ण बे मंगल जेनुं एवो जे पूर्णिमानो ( शशां क के०) चंद्रमा तेनी (कला के०) कला तेनो (कलाप के० ) समूह तेना सरखा ( शुत्राः के० ) शुत्र एटले उज्ज्वल एवा ( तव के० ) तमारा ( गुणाः के० ) गुणो ते ( त्रिभुवनं के० ) त्रण जुवनने ( लंघयति के० ) उल्लंघन करे बे, एटले तमारा जे ज्ञान, दर्शनादिक गुणो बे, ते त्रण वनथी उपरांत बे, वली ( ये के० ) जे गुणो ( एकं के० ) अद्वितीय अ ने (नाथं के०) वनना स्वामी एवा जगवंतने (संश्रिताः के० ) - श्रय करी रहेला बे ते गुणो, ( यथेष्टं के० ) स्वेच्छायें यथानिप्रायें ( संचरतः के० ) सर्वत्र प्रकारें अस्खलनपणे संचरता एटले विचरता एवा बे. ( तान् के० ) ते गुणोने ( कः के० ) कयो पुरुष, ( निवारयति के० ) निवारण करी शके ? अर्थात् कोइ पण निवारण करी शके नहिं ॥ १४ ॥ हवे जगवाननुं यथार्थ नामपणं कहे . चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनानि, नीतं मनागपि मनोन विकारमार्गम् ॥ कल्पांतकालमरुता चलिता चलेन, किं मंदराद्विशिखरं चलितं कदाचित् ॥ १५ ॥ अर्थः- हे प्रनो ! बद्मस्थ अवस्थायें विचरता एवा तमोने (यदि के० ) जो (त्रिदश ho) देवता तेनी (अंगनानि: के०) स्त्रीयो जे तेणें (ते के० ) तमारुं (मनः के०) मन जे बे ते ( मनागपि के० ) किंचित् मात्र पण (विकारमार्ग के० ) विकारना स्थानकप्रत्यें ( न नीतं के० ) न पमाड्यं एटले तमारुं मन, दोनने न पमाड्यं तो (त्र के०) ए ठेका ( चित्रं के० ) आश्चर्य (किं के० ) शुं ? अर्थात् एमां कां पण आश्चर्य नथी. त्यां दृष्टांत कहे . के ( चलिताचलेन के० ) चलायमान करया बे अचल एटले म होटा मोटा पर्वतो जेणें एवो जे (कल्पांतकालमरुता के० ) कल्पांत का नो वायु एटले प्रलयकालनो वायरो ते वायुयें करीने ( कदाचित् के० ) क्यारें पण ( मंदराद्रिशिखरं के० ) मंदराचल एटले मेरुपर्वत तेनुं जे शिखर, ते (किं के० ) शुं ( चलितं के० ) चलायमान थाय ? अर्थात् प्रलय कालना पवनें सर्व पर्वतोने तो चलाय मान कस्या, परंतु मेरुपर्वतने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्तामरस्तोत्र अर्थसदित, २५३ चलायमान न कस्यो. तेम देवतानी स्त्रीयोयें पण बीजा हरिहरादिक देवोने तो चलायमान कस्या; परंतु तमोने दोन पमामी शकीयो नही॥१५॥ हवे जगवानने दीपनी उपमानी व्यर्थता कहे डे. निमवतिरपवर्जिततैलपूरः कृत्स्नं जगत्रयमिदं प्रकटीकरोषि ॥ गम्यो न जातु मरुता चलताचला नां, दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ! जगत्प्रकाशः॥१६॥ अर्थः-(नाथ के०) हे नाथ ! (त्वं के०) तमें (अपरः के०) विलक्षण ए वो बीजोज (जगत्प्रकाशः के०) जगत्प्रकाशक रूप (दीपः के०) दीपक (असि के) बो. ते केवी रीतें बो ? त्यां कहे जे. (निझमवर्तिः के) नि र्गत एटले गयो ने हेषरूप धूम्र अने वर्ति एटले कामवशतारूप वाट्य जेथकी एवा अपूर्वदीपक तमें बो. अने बीजा लौकिक दीपक जे बे. ते तो धूम्र अने बत्ती तेणें करी सहित होय , वली तमें केहवा दीपक बगे ? तो के (अपवर्जिततैलपूरः केर) अपवर्जित थयो ने स्नेह प्रकाशरूप तैलनो पूर जेथकी एवा दीपक बो अने बीजा लौकिक दीपक तो तैलपूरे करी सहित होय . वली तमें केहेवा दीपक बो? तो के (इदं के०) आ (कृ. त्वं के०) समग्र (जगत्रयं के०) त्रण जगतने (प्रकटीकरोषि के०) प्रगट करो बो, एटले केवलज्ञानरूप उद्योतें करी प्रकाश करो डो, अने लौकि क दीपक तो केवल गृहमात्रनेज प्रकाशकारक जे. वली तमें दीपक जे बगे, ते केहवा बो? तो के (अचलानां के०) पर्वतोने (चलता के०) चलायमा न करतो एवो (मरुता के०) वायरो जे , तेणें करीने (जातु के०) क्या रें पण ( गम्यः के० ) जावा योग्य (न केu) नहिं बो, अने लौकिक दीप क जे , ते तो पवनथकी जावा योग्य ३ ॥ १६ ॥ ___ हवे प्रजुने सूर्यसाथै उपमानी व्यर्थता कहे डे, नास्तं कदाचिऽपयासि न राहुगम्यः, स्पष्टीकरोषि सहसा युगपजगंति ॥नांनोधरोदरनिरुक्ष्मदापना वः, सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीं, लोके ॥ १७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए४ प्रतिक्रमण सूत्र. __ अर्थः-(मुनीं के०) हे मुनीं! तमो (लोके के।) जगतने विषे (सू र्यातिशा यिमहिमा के) सूर्यथकी अधिक महिमावाला एवा (असि के०) बो. ते केवी रीतें सूर्यातिशायि बो? तो के (कदाचित के०) क्यारें पण (अस्तं के०) अस्तपणाने (नउपयासि के०) नथी पामता एवा बो. अने सूर्य तो अस्त पामे . तथा वली तमें (नराहुगम्यः के०) राहुयें ग्रसित होता नथी अने सूर्य तो राहुग्रस्त थाय ने वली तमें तो ( युगपत. के०) समकालें (जगंति के०) त्रण जगतने (सहसा के० ) साथेंज (स्पष्टी करोषि के ) प्रकाश करो हो, अने सूर्य तो एक जंबूहीपनेज प्रकाश करे . तथा तमो तो (अंजोधर के) ज्ञानावरणादिक पांच आवरणरू प मेघ तेनो (उदर के०) मध्यनाग तेथकी (निरुक के०) रोकायो बे (म हाप्रनावः के०) महोटो महिमा जेनो एवा (न के०) नथी अने सूर्य तो मेघना वादलांनो मध्यनाग जे मेघघटा, तेणें रोकाय एवो डे ॥ १७ ॥ हवे विशेषे करी चंञोपमान व्यर्थ करतो बतो कहे बे. नित्योदयं दलितमोदमदांधकारं, गम्यं न राहुवदन स्य न वारिदानाम् ॥ वित्राजते तव मुखाब्जमनल्प कांति, विद्योतयजगदपूर्वशशांकबिंबम् ॥ १७ ॥ अर्थः-हे नाथ ! (तव के०) तमारूं (मुखाजं के०) मुखरूप कमल जे बे ते, (अपूर्व के०) विलक्षण एवं (शशांक के०) चंजमा तेना (बिंबं के०). बिंबरूप (वित्राजते के०) शोने जे. ते केवी रीतें ? तो के तमाकं मुखरूप कमल तो (नित्योदय के०) निरंतर उदय पामेबुं ने अने चंडबिंब जे ,ते तो निरंतर उदय थवावालुं यतुं नथी. तथा वली तमारुं मुखाब्ज केहवू डे ? तो के (दलितमोहमहांधकारं के०) मोह एटले अज्ञानरूप महोटा अंध कारने दली नाख्यो ने जेणे एवं, अने चंद्रबिंब तेवा गुणवायूँ नथी ते तो मात्र अंधकारनोज नाश करे . तथा वली तमारं मुखकमल तो, पुर्वा दि जे कुतर्क करनारा वादियो तप (राहुवदनस्य के०) राहुनुं जे मुख तेने (नगम्यं के०) ग्रसवा योग्य नथी अने चंडने तो राहुनु मुख ग्रसे बे. तथा वली तमाकं मुखकमल तो (अनल्पकांति के०) अल्पकांतिवायूँ नश्री थतुं अने चंद्रबिंब तो अल्पकांतिवावं पण क्यारेक थाय . तथा वली Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नतीमरस्तोत्र अर्थसदित. शए तमाहे मुखजि तो निवारिदानां के०) मेघोने आबादन करवाने अशक्य बे अने चंद्रबिंबने तो मेघ आबादन करवाने शक्तिमंत ने अने तमारं मुखकमल तो (जगत् के०) त्रण जगतने (विद्योतयत् के०) प्रकाश करे ले अने चंद्रबिंब तो एक जंबुद्दीपनेज मात्र प्रकाश करे , माटे हे प्रनो! अपूर्वशशांकविंबपणुं ते तमारा मुखकमलने योग्यज डे ॥ १७ ॥ हवे प्रजुना मुखेपासें सूर्य, चंद्रमा पण निःप्रयोजन वाला बे, एबुं देखाडे बे. किं शर्वरीषु शशिनान्दि विवस्वता वा, युष्मन्मुखंड दलितेषु तमस्सु नाथ!॥ निष्पन्नशालिवनशालिनि जीवलोके, कार्य कियजालधरैर्जलनारनौः॥१॥ अर्थः-(नाथ के०) हेनाथ ! (युष्मन्मुखेंऽ के०) तमारा मुखरूप इंसु जे चंद्रमा तेणें (तमस्सु के०) अज्ञानरूप जे अंधकारो ते (दलितेषु के०)द लन करे ते पड़ी ( शर्वरीषु के०) रात्रियोने विषे उदय थनारा एवा (शशिना के०) चंडमा तेणें करीने (किं के०) शुं कार्य थवानुं ? (वा के०) अथवा (अन्हि के०) दिवसने विष उदय थनारा एवा ( विवखता के०) सूर्ये करीने (किं के ) कार्य थवानुं ? त्यां दृष्टां त कहे , केजेम (निष्पन्न के०) पाकेलां एवां जे ( शालिवन के० ) शा लिनं वन, तेणें करी (शालिनि के०) शोलायमान थयेला एवा (जीवलो के के०) मृत्युलोक तेने विषे (जलजारननैः के०) जलनो जे नार तेणें क री नम्न श्रयेला एवा ( जलधरैः केण ) मेघोयें करी ( कियत्कार्य के०) शुं प्रयोजन ? अर्थात् कांश पण कार्य सिद्धि नहिं ॥ १७ ॥ हवे ज्ञानधारायें करी अन्यदेवोने तिरस्कार करतो बतो कहे . झानं यथा त्वयि विनाति कृतावकाशं, नैवं तथा द रिदरादिषु नायकेषु॥तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं, नैवं तु काचशकले किरणाकुलेपि॥२०॥ अर्थः-हे नाथ ! (कृतावकाशं के०) अनंत पर्यायात्मक जे पदार्थो, ते ने विषे कस्यो ने अवकाश एटले प्रकाश जेणे एवं ( ज्ञानं के) केवल Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श६ प्रतिक्रमण सूत्र. झान ते (यथा के०) जेवी रीतें (त्वयि के०) तमारेविषे ( विनाति के०) शोने , (तथा के० ) तेवी रीतें ( नायकेषु के०) पोतपोताना शासन ना स्वामी एवा (हरिहरादिषु के०) हरि हरादिक जे देवो बे, तेने विषे ( एवं के०) ए प्रकारचें (न के) नथी शोजतुं. त्या दृष्टांत कहे , केः( यथा के०) जेवी रीतें ( तेजः के०) प्रकाश जे जे, ते ( स्फुरन्मणिषु के) देदीप्यमान जातिवंत मणियोने विषे (महत्त्वं के०) गौरवताने (याति के ) पामे बे, (तु के०) वली( एवं के) ए प्रकारें (किरणाकुले पि के ) कांतियें करीने व्याप्त एटले चलकता एवापण ( काचशकलेके० ) काचना जे कटका तेने विषे गौरवताने (नैवं के) प्राप्त नथीज थतुं. अर्थात् जेवं तमारे विषे शान बे. तेवं अन्य देवोमां नथी ॥ २० ॥ हवे जगवाननी निंदास्तुति कहे . मन्ये वरं दरिदरादयएव दृष्टा, दृष्टेषु येषु ददयं त्वयि तोषमेति ॥ किं वीदितेन नवता नुवि येन नान्यः, कश्चिन्मनोहरति नाथ ! नवांतरेपि॥२॥ अर्थः-(मन्ये के०) हुं विचार करुं बुं के, ( हरिहरादयः के०) हरिह रादिक देवोते ( दृष्टाः के०) दीग ते (वरंएव के०) सारंज थयु. केम के ? (येषु के०) जे देवो (दृष्टेषु केश) दीठे बते माझं ( हृदयं के) हृदय जे चित्त, ते ( त्वयि के० ) तमारे विषे ( तोषं के ) संतोषने (एति के०) पामे . अने प्रथम ( वी हितेन के०) देखेला एवा (नवता के०) तमोयें करीने (किं के० ) शुं थयुं ? तो के ( येन के ) जे तमारा दर्शने करीने (जुवि के०) पृथ्वीने विषे ( कश्चित् के० ) कोश (अन्यः के० ) अन्यदेव, ( नाथ के०) हे नाथ ! ( नवांतरेपि के० ) अन्यनवने विषे पण (मनः के ) माझं मन, (न हरति के० ) हरण करतो नथी ॥१॥ हवे मातानी प्रशंसाधारायें करीने नगवर्णन करे बे. स्त्रीणां शतानि शतशो जनयंति पुत्रान, नान्या सुतं त्वउपमं जननी प्रसूता ॥ सर्वादिशो दधति नानि सदस्ररश्मि, प्राच्येव दिग्जनयति स्फुदशुरजालम् ॥२२॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्तामरस्तोत्र अर्थसहित. अर्थः-हे नाथ! लोकने विषे (स्त्रीणांशतानि के०) स्त्रीउना शश्कमाएटसे घणी स्त्रीयो, डे, ते स्त्रीयो, (शतश:के) शश्कको गमे नाना प्रकारना स्वरूप वाला एवा (पुत्रान् के०) पुत्रोने ( जनयंति के०) जन्म आपे ने खरी, परंतु ते (अन्या के) बीजी (जननी के ) माता जे बे, ते (त्वप मं के० ) तमारी उपमा देवाय एवा (सुतं के०) पुत्रने (नप्रसूता के०) उप्तन्न करी शकती नथी. त्यां दृष्टांत कहे , के ( सर्वादिशः के०) सर्वे मली श्राप दिशा जे , ते (जानि के०) अश्विन्यादिक नक्षत्रोने (दधति के०) धारण करे , परंतु (प्राच्येव दिकू के०) एक मात्र पूर्व दिशाज (स्फुरदंशुजालं के०) देदीप्यमान डे किरणजाल जेनां एवो अने (सह स्त्र के) हजार २ ( रश्मिं के) किरणो जेमनां एवा सूर्यने (जनयति के) उप्तन्न करे . अर्थात् जेम एक पूर्वदिशि सूर्यनी जननी , तेम एक तमारी माताज तमारा सरखा सुपुत्रनी जननी जे ॥॥ हवे प्रजुनी परमपुरुषत्वे करीने स्तुति करे ले. त्वामामनंति मुनयः परमं पुमांस, मादित्यवर्णमम खं तमसः परस्तात् ॥ त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयं ति मृत्युं, नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीं! पंथाः॥२३॥ अर्थः-(मुनी के०) हे मुनी ! जे (मुनयः के) महर्षि एवा सा धु जनो , ते (त्वां के५) तमोने ( तमसः के०) अंधकाररूप धरित, ते नी (परस्तात् के० ) श्रागल (आदित्य के०) सूर्यना सरखा ( वर्ण के०) कांतिवाला एवा अने रागद्वेष रहितपणे करीने (अमलं के) निर्मल (परमंपुमांसं के० ) परम पुमान् एटले निःकर्म सिक एवाने (श्रामनंति के ) कहे . तथा (स्वामेव के०) तमोने (सम्यकू के०) रूडे प्रकारे (उप सन्य के०) निश्चयत्वें करी जाणीने, ते महर्षियो (मृत्यु के०) मृत्युने (ज यंति के) जीते . माटें (अन्यः के०) बीजो कोश (शिवःके) निरुपव एवो (शिवपदस्य के०) मोक्षपदनो (पंथाःके) मार्ग, (न के०) नथी ॥३॥ __ हवे सर्व देवना नामें करीने जिनने स्तवे बे. त्वामव्ययं विनुमचिंत्यमसंख्यमाद्यं, ब्रह्माणमी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श प्रतिक्रमण सूत्र. श्वरमनंतमनंगकेतुम् ॥ योगीश्वरं विदितयोगमने कमेकं, ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदंति संतः ॥ २४ ॥ अर्थः- हे प्रो ! ( त्वां के० ) तमोने (संतः के०) संत पुरुषो जे बे, ते (प्रव दंति ० ) प्रमाणें कहे बे. जे तमें (१) (अव्ययं के०) दाय रहित बो एटले सदा स्थिरैकस्वावी बो. वली (२) (विभुं के०) परम ऐश्वर्ये करीने विशेषें शोजो बो, अथवा कर्मोन्मूलन समर्थ बो. (३) ( चिंत्यं के० ) चिंतवन शर्के नहीं एवा महिमावंत हो, अथवा तमारुं स्वरूप कोईथी कला य नहीं एवा बो. ( ४ ) ( असंख्यं के०) गुणोनी संख्या रहित बो, एटले तमारा गुणोनी संख्या यह शके नहीं एवा बो. अथवा संख्य एटले युद्ध ते जेने ( के०) नथी एवा ठो (५) ( श्राद्यं के० ) लोकसृष्टि हेतु पणायें करी मां बो, अथवा यद्य तीर्थंकर बो. अथवा पंच परमेष्ठिमध्ये ae aो. (६) (ब्रह्माणं के०) अनंत श्रानंदें करी सर्वथकी अधिक वृद्धि वाला बो, माटें ब्रह्म बो, निवृत्तिरूप बो. ( 9 ) ( ईश्वरं के० ) ईश्वरशील बो, सर्व देवना ईश्वर बो. (G) (अनंतं के०) ज्ञानदर्शनना योगश्री अनंत बो, अथवा अंत रहित हो. (५) (अनंगकेतुं के०) कामदेवने वेदवा पणायें कने केतु बो. एटले जेम जगत्नो नाश करवाने केतु जे पूंबमी यो रो ते कारणभूत बे, तेम तमें पण कंदर्पना नाश करवाने कारणभूत बो (१०) ( योगीश्वरं के०) योगी एटले मन, वचन ने कायारूप व्यापारने जीतनारा एवा जे सामान्यकेवली तेना ईश्वर बो. (११) (विदितयोगं के०) शित ए टले ज्ञात बे, अवगत ने ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप योग हस्तामलवात् जेने अथवा ज्ञानी पुरुषोयें तमाराथकी अष्टविध योग जाएयो बे एवाटो, या (१२) ( अनेकं के० ) ज्ञानें करी सर्वगत होवाथी सर्वव्यापक हो, माटेपर्यायची अनेक बो, (१३) (एकं के० ) अद्वितीय उत्तमोत्तम बो, अथवा ज्व द्रव्या पेक्षायें द्रव्य की एक बो ने अनन्य स्वरूपपणुं बे. (१४) (नस्वरूपं ho ) कायिक केवलज्ञान रूपत्व हो, माटें कायिक स्वरूपी नं ( १५ ) ( श्रमलं के० ) अष्टादश दोषरूप पापमल रहित बो ॥ २४ ॥ हवे बीजो अर्थ करी बीजा देवने नामें जिननी स्तुति रे बे. बुधस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धिबोधात् त्वं शंकरो For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तामरस्तोत्र अर्थसहित. शपए नुवनत्रयशंकरत्वात् ॥धातासि धीर ! शिवमार्गविधे विधानात्, व्यक्तं त्वमेव जगवन्! पुरुषोत्तमोऽसि ॥श्य॥ अर्थः-हे नाथ ! (विबुधार्चितबुद्धिबोधात् के०) देवतायें अर्चित एटले पूजित कस्यो ने केवलज्ञाननो बोध जेमनो माटें (त्वमेव के०) तमेंज (बुद्धः के०) बुद्ध देवता डो, एटले ज्ञानतत्त्वी बो तथा (जुवनत्रयशंकरत्वात् के) त्रण नुवनने सुखना करनार होवाथी ( त्वं के०) तमें (शंकरोसि के) शंकर देवता बो. अन्यपदमां जे शंकर देवता डे ते तो नग्न, कपाली, नैरव, संहारक, तेणें करीने ते यथार्थनामा शंकर नथी. तथा (धीर के) हे घीर ! तमेंज ( शिवमार्ग के० ) मोक्षमार्ग तेनो (विधेः के०) रत्नत्रय योगरूप क्रिया तेना (विधानात् के) निःपादन करवाथकी (धाताके) विधाता एटले संपन्न (असि के०) बो. अर्थात् तमेंज ब्रह्मदेव बो, अन्य पक्षमा जे ब्रह्मा बे. ते तो जम बे, अने तेणें तो वेदोपदेशथकी नरक पथ उघाड्यो बे, ते माटे यथार्थ ते ब्रह्मा नथी. वली (जगवन् के) हे नगवन् ! (त्वमेव के०) तमेंज (व्यक्तं के) प्रगटपणे (पुरुषोत्तम के) पुरुषो त्तम ते नारायण देव, (असि के) बो. अन्यपदमां जे पुरुषोत्तम कृष्ण बे, ते तो सर्वत्र कपटवशथकी यथार्थ पुरुषोत्तम नथी ॥ २५ ॥ हवे वली फरीने जिनने नमस्कार करतो बतो कहे जे. तुल्यं नमस्त्रिजुवनातिहराय नाथ, तुभ्यं नमः दि तितलामलनूषणाय ॥ तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्व राय, तुभ्यं नमोजिन ! नवोदधिशोषणाय ॥२६॥ अर्थः-(नाथ के०) हे नाथ ! ( त्रिजुवनातिहराय के० ) त्रण जुवननी श्रार्ति जे पीमा तेने हरण करनारा एवा (तुन्यं के) तमोने (नमःके०) नमस्कार हो. तथा (दितितल के०) पृथिवीतल तेने विषे (अमल के०) निर्मल (जूषणाय के०) अलंकाररूप हो अथवा पृथिवीतल जे पाताल अने अमल जे स्वर्ग तेना नूषणरूप एवा ( तुन्यं के०) तमोने ( नमः के०) नमस्कार हो. तथा ( त्रिजगतः के०) त्रण जगतना (परमेश्वराय केण्) प्रकृष्ट प्रनु एवा ( तुज्यं के० ) तमोने ( नमः के०) नमस्कार हो. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० प्रतिक्रमण सूत्र. तथा ( जिन के० ) हे श्रीवीतराग ! ( जवोदधि के० ) संसाररूप समुद्र, तेने ( शोषणाय के० ) शोषण करनारा एवा ( तुभ्यं के० ) तमोने (नमः ho ) नमस्कार हो. अहींयां तुभ्यं ए एक वचन ग्रहण कर बे, ते सर्व अन्य देवोना निषेध सूचनार्थ कस् बे ॥ २६ ॥ वे निंदास्तुति कड़े a. कोविस्मयोsa यदि नाम गुणैरशेषै, स्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश ! ॥ दोषैरुपात्तविविधाश्रयजा तगर्वैः, स्वप्नांतरेपि न कदाचिदपीदितोसि ॥२७॥ अर्थः- ( मुनीश के० ) हे मुनियोना ईश्वर ! ( नाम के० ) नाम ए प द जे बे, ते कोमलामंत्रणमां बे. ( यदि के० ) यदिशब्द अंगीकारार्थमां बे. ( त्वं के० ) तमें (अशेषैः के० ) समग्र एवा ( गुणैः के० ) गुणोयें ( निरवकाशतया के० ) निरंतरपणे ( संश्रितः के० ) रूमा प्रकारें श्राश्र य करायेला बो (त्र के० ) एने विषे ( को विस्मयः के० ) शुं आश्चर्य ? अर्थात् कांहिं नहिं. अने ( उपात्त के० ) ग्रहण करेला एवा जे ( विविधाश्र ho) विविध श्राश्रयो, तेणें करीने ( जात के० ) उत्पन्न थया एवा (गर्वैः के० ) गर्वरूप अवगुण तेना ( दोषैः के० ) दोषोयें करीने सहित एवा जनोयें तमो (स्वमांतरेपि के०) स्वप्नांतरने विषे पण ( कदाचिदपि के० ) क्यारें पण ( नई दितोसि के० ) जोयेला नथी ॥ २७ ॥ हवे केलाएक प्रातिहार्यनें प्रगट करतो जिननी स्तुति करे बे. उच्चैरशोकतरुसंश्रितमुन्मयूख, मानाति रूपमम सं नवतो नितांतम् ॥ स्पष्टोल्लसत्किरणमस्ततमो वितानं, बिंबं वेखि पयोधरपार्श्ववर्त्ति ॥ २८ ॥ अर्थः- हे जिन! आठ प्रातिहार्यमांहेलो प्रथम प्रातिहार्य, ( उच्चैरशो कतरु के० ) प्रभुना अंगथकी बार गुणो उंचो एवो जे अशोकवृक्ष तेने विषे ( संश्रितं के० ) आश्रय करीने रहेलुं श्रर्थात् अशोकनी नीचें बेठे ला बो, ते समयें ( उन्मयूखं के० ) उंचा बे अधिक बे मयूख एटले कि - रणो जेनां एवं ( जवतः के० ) तमारुं ( रूपं के० ) शरीर ते ( नितांतं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्तामरस्तोत्र अर्थसहित. ३०१ के) अत्यंत (अमलं के) निर्मल (आजाति के०) शोने जे. त्या दृष्टांत कहे , के (स्पष्टोलसत्किरणं के) प्रगट उंचां गयेला डे किरणो जेनां एबुं (रवेः के) सूर्य जे तेनुं (बिंबं के०) बिंब जे , ते (पयोधर के) मेग, तेना (पार्श्ववर्ति के०) पार्श्वमां वर्त्ततुं एटले पासे रघु थकुं (श्व के०) जेम होय नहिं ? एटले सूर्य पोतानां प्रकाशित किरणो वडे करीने (अस्ततमोवितानं के) अंधकारना समूहने अस्त करी नाखीने एटले नाश करीने शोजाने पामे , तेम तमें अशोकवृदनी नीचें बेग थका शोजाने पामो डो॥२॥ हवे वली पण जगवंतना शरीरनुं वर्णन करे ने. सिंहासने मणिमयूखशिस्वाविचित्रे, विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् ॥ बिंबं वियलिसदंशुलता वितानं, तुंगोदयानिशिरसीव सहस्ररश्मेः ॥२॥ अर्थः-दे देव ! (मणि के) मणियो तेनां (मयूख के) किरणो, तेनी (शिखा के० ) पंक्तियो, तेणे करीने (विचित्रे के) चित्र विचित्र एवं (सिंहासने के०) सिंहोपलक्षित श्रासन, तेने विषे (कनक के०) सुवर्ण तेना सर (श्रवदातं के०) मनोज्ञ एवं (तव के ) तमारं वपुः के) शरीर, ते (वित्राजते के) विशेषे करी शोने . त्यां दृष्टांत कहे बेः-(तुंगं के०) उंचो एवो जे (उदयाति के०) उदयाचल पर्वत तेना (शिरसि के०) शिर उपर जे (वियत् के०) आकाश तेने विषे जेनां ( विलसत् के०) उद्योत मान (अंशु के० ) किरणो तेनी (लता के ) शाखा तेनो ( वितानं के० ) समूह ने जेने एवो (सहस्ररश्मे के ) सूर्य जे तेनुं (बिंबं के) बिंब ते (श्व के०) जेम शोजाने पामे डे, तेम प्रजुनुं शरीर सिंहासन उपर शोजाने पामे वे ॥॥ हवे फरी पण प्रकारांतरें नगवानना शरीरनुं वर्णन करे . कुंदावदातचलचामरचारुशोनं, विज्राजते तव वपुः कलधौतकांतम् ॥ उद्यबशांकशुचिनि:रवारिधार, मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौंनम् ॥ ३०॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ प्रतिक्रमण सूत्र. ___ अर्थः-हे नाथ! (कुंद के०) मोघरानां पुष्प,तेना सरखां (श्रवदात के०)उ ज्ज्वल अने (चल के०)चंचल एटले शादिकें वींजेलां एवांजे (चामर के)बे चामरो तेणें करीने (चारुशोजं के०) मनोहर ले शोजा जेनी एवु, अने (कल धौतकांतं के०) सुवर्णना सरखं मनोहर एबुं (तव के५) तमारं (वपुः के०) शरीर, ते (वित्राजते के०) विशेषे करी शोने बे, त्यां दृष्टांत कहे जे. (उ द्यत् के०) उदय पामेलो एवो (शशांक के) चंद्रमा तेना सर ( शुचि के) निर्मल अने (निर्जर के) निर्धारणानी (वारिधारं के० ) जल धारा जेने विषे वही रश एवं (शातकौंनं के०) सुवर्णमय जे (सुरगिरेः के) मेरुपर्वत तेनुं (उच्चैः के०) उंचं एबुं (तटं के०) तट एटले शिखर ते जेम शोने (श्व के० ) तेनी पेरें तमारुं शरीर पण शोने ३ ॥ ३० ॥ हवे त्रत्रयनामा प्रातिहार्यने वर्णन करतो तो कहे . नत्रयं तव विनाति शशांककांत, मुच्चैःस्थितं स्थ गितनानुकरप्रतापम् ॥ मुक्ताफलप्रकरजालविट शोनं, प्रख्यापयत्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥३१॥ अर्थः-हे प्रनो! ( शशांककांतं के ) चंजमाना सरखं मनोहर एवं (उच्चैःस्थितं के) तमारी उपर रघु अने (स्थगितनानुकरप्रतापं के) ढां की दीधो के सूर्यना किरणोनो प्रताप जेणे एवं तथा (मुक्ताफल के०) मो ती तेना (प्रकर के०) समूह तेनी (जाल के० ) रचना, तेणे करीने (विवृ कशोनं के० ) विशेषे करी वृद्धि पामी ने शोजा जेनीए,, (त्रिजगतः के) त्रण जगत् जे जे तेनुं ( परमेश्वरत्वं के० ) परमेश्वपरपणुं तेने (प्र ख्यापयत् के०) प्रकर्षे करीने जणावनाएं एवं ( तव के) तमाएं (बत्र त्रयं के ) बत्रत्रय जे दे, ते ( विनाति के) शोने के एटले तमोने उ त्रातिबत्र एवां त्रण बत्र जे धराय बे, ते त्रण जगतनुं प्रजुत्व प्रख्यापन करे . तिहां एक बजे करी पाताल लोकतुं प्रजुत्व सूचन करायडे, बी जा बत्रे करी मृत्युलोकनुं स्वामित्व सूचन कराय बे, अने त्रीजा क री देवलोकनुं स्वामित्व सूचन कराय ने ॥ ३१ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तामरस्तोत्र अर्थसहित. ३०३ हवे अतिशय छारायें जिनने स्तुति करतो तो कहे जे. .. नन्निज्मनवपंकजपुंजकांति, पर्युल्लसन्नखमयूख शिखानिरामौ ॥ पादौ पदानि तव यत्र जिनें! धत्तः,पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयंति ॥३॥ अर्थः-(जिने के०) हे जिनें! (उन्निके०) विकसित (हेम के०) सुवर्णनां (नव के०) नवसंख्या जे जेनी अथवा नवीन एवां (पंकज के) कमल, तेना (पुंज के०) समूह तेनी (कांति के०) युति तेणें करिने (पर्युलसत् के०) चारे तरफ उबलतां एवां, (नखमयूख के०) परमे श्वरना पगना नख तेनां जे किरणो तेनी ( शिखा के०) प्रकाशपंक्ति जे ने आसमंतात् नागमां फेली रही ले तेणें करीने (अनिरामौ के० ) म नोहर एवां ( तव के) तमारां (पादौ के ) चरणो ते, ( यत्र के) जे नूमिनेविषे ( पदानि के ) गमननां स्थानकप्रत्ये (धत्तः के०) धा रण करे . ( तत्र के) ते स्थलने विषे ( विबुधाः के०) देवता (प झानि के० ) कमलोने (परिकल्पयंति के ) रचना करे . एटले बे क मल चरणनी नीचे अने सात कमल मार्गमां रचे जे. अहीं नख कमलनी कांति दर्पण सदृश बे, अने देवतायें रचेलां एवां सुवर्णकमलनी कांति पीत बे, ते बेहुना मलवाथी चरणोनो विचित्र वर्ण थयो ॥ ३५ ॥ हवे एक अतिशयें करीने बीजाउँने उत्देप करता उपसंहार करे . श्वं यथा तव विनूतिरनूजिने !, धर्मोपदेशनवि धौ न तथा परस्य ॥ यादृक् प्रना दिनकृतःप्रदतांध कारा, तादृक्कतोगदगणस्य विकाशिनोपि ॥३३॥ अर्थः-(जिनेंड के)हे सामान्य केवलीने विषेश तुल्य!ऽर्गतियें पगता प्राणीने धरी राखे एवो जे श्रुत चारित्र लक्षण (धर्म के०) धर्म, ते धर्मना (उपदेशन विधौ के०) उपदेश विधिने विषे एटले उपदेश करवाना समयने विषे, (श्चं के) ए पूर्वे कही एवी (तव के०) तमारी (विजूतिः के ) अतिशयनी संपदा ते, (यथा के०) जे प्रकारें (अनूत् के०) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ प्रतिक्रमण सूत्र. थइ (तथा के०) तेवी ( परस्य के ) बीजा जे हरिहरादिक देवो , तेनी (न के०) नथी थती. त्या दृष्टांत कहे . के जेम (प्रहत के०) प्रकर्षे करी हण्यो डे (अंधकारा के०) अंधकार जेणे एवी (दिनकृतः केप) सूर्य जे तेनी (यादृप्रना के०) जेवी कांति बे, (तादृक् के०) तेवी कांति, ( विका शिनोपि के०) प्रकाशित थयेला एवा (ग्रहगणस्य के०) नौमादिक जे ग्रह ना समूह तेनी प्रजा (कुतः केप) क्यांश्री होय ? एटले सर्वथा नज होय. अर्थात् देशना समयें जे अशोक वृक्षादिक श्राप महा प्रातिहार्य तथा चोत्रिश अतिशयवाली एवी तमारी जे समृद्धि , तेवी हरिहर ब्रह्मा दिकनी क्यांथी होय ? कारण के एमने सरागपणाने सीधे कर्मक्षयपणुं नधी ते कर्मदय विना उत्तमोत्तमताने पमाय नहीं. अने उत्तमोत्तमता विना प्रातिहार्यादिक समृझिनो अनावज होय ॥ ३३ ॥ ___ हवे जिनने गजलयहर दर्शावतो बतो कहे जे. श्योतन्मदाविलविलोलकपोलमूल, मत्तत्रमन्त्रम रनादविटकोपम् ॥ ऐरावतानमिनमुश्तमापतंतं, दृष्टा जयं भवति नो नवदाश्रितानाम् ॥ ३४ ॥ अर्थः-हे नाथ ! (श्योतत् के) करतो एवो (मद के ) मद तेणें करीने (आविल केआ) कलुष थयेला एवा अने (विलोल के.) चंचल एवा जे (कपोलमूल के०) गंमस्थल जे गंगप्रदेश तेणें करीने (मत्त के०)मदोन्मत्त थयेलो एवो अने (चमत् केण) अहिं तहिं ब्रमण करनारा एवा जे (जम र के०) जमरा तेना (नाद के०) ऊंकारशब्द तेणें करीने ( विवृद्धकोपं के ) वृद्धि पाम्यो ने क्रोध जेने एवो अने (ऐरावतानं के ) ऐरावत हाथीना सरखीने आजा एटले कांति जेनी एवो अने (उद्धतं केश) अविनी त एटले अंकुशादिक शस्त्रने अवगणना करतो एवो जे (नं के०) हस्ती, तेने (श्रापतंतं केश) सन्मुख आवता एवाने (दृष्ट्वा के०) जोस्ने (जवत् के०) तमारा (श्राश्रितानां के) आश्रय करीने रहेला एवा जनोने अर्थात् तमारा जक्तजनो जे तेने, (जयं के) जयजे , ते (नोजवति के०) नथी यतुं ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तामरस्तोत्र अर्थसहित. ३०५ हवे सिंहलयापहारी जगवानने दर्शावतो तो कहे बे. निन्नेनकुंनगलज्ज्वलशोणिताक्त, मुक्ताफलप्रक रजूषितनूमिनागः ॥ बक्रमः क्रमगतं दरिणाधि पोऽपि, नाकामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ॥ ३५॥ अर्थः-(जिन्न के०) नेदन करेला एवा जे (इनकुंन के०) हस्तीनां कुं नस्थल, तेथकी (गलत् के०) नीचे खस्या, पड्या एवा (उज्ज्वल के०) उ ज्ज्वल ते रक्त श्वेत वर्ण युक्त एवा (शोणिताक्त के०) रुधिर व्याप्त एट ले लोहीथी खरमायेला एवा ( मुक्ताफलप्रकर के०) मुक्ताफलना समूह तेणे करीने (नूषित के०) शोजाव्यो (नूमिनागः के०) पृथिवीनो नाग जेणें तथा (बक्रमः केश) कीलित ने कम एटले पाद जेना एवो (हरि णाधिपोऽपि के० अरण्य पशुढनो अधिप जे सिंह ते पण (ते के०) तमा रा (क्रमयुगाचल के०) चरणयुगरूप पर्वत तेने (संश्रितं के) आश्रय क रीने रह्यो एवो पुरुष, जो ते सिंहनी (क्रम के०) फाल तेने विषे (गतं के०) प्राप्त थयो होय तो पण तेने ते सिंह ( नाकामति के०) प्रहार क रवाने दोमतो नथी, एटले हे प्रनो ! तमारा श्राश्रित जनोने पूर्वोक्त वि शेषणवालो सिंह पण पराभव करतो नथी ॥ ३५ ॥ - हवे दावानल जयने दलन करतो तो स्तवे बे. कल्पांतकालपवनोतवन्दिकल्पं, दावानलं ज्व लितमुज्ज्वलमुत्फुलिंगम् ॥ विश्वं जिघत्सुमिव संमु खमापतंतं, त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम्॥३६॥ अर्थः-हे कर्मकाननाग्ने ! (कल्पांतकाल के०) प्रलय कालनो जे (पवन के०) वायरो तेनी सहायतायें करीने (उछत के०) जोरमां आवी गयेलो एवो जे (वन्हि के०) अग्नि तेना (कल्पं के०) सदृश एवो अने (ज्वलितं के०) जाज्वल्यमान थयेलो अने (उज्ज्वलं के०) उज्ज्वल अने ( उत्फुलिं गं के०) जंचा गया वे तणखा जेना एवो तथा (अशेषं के०) समस्त (वि श्वं के० ) जगत् तेने (जिघत्सुमिव के०) जाणे गली जवाने श्वा करतो होय नहीं? एवो जे ( दावानलं के०) वनमा लागेलो अग्नि ते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ प्रतिक्रमण सूत्र. अचानक (संमुखं के०) सन्मुख (आपतंतं के० ) आवी प्राप्त थयो तेने (त्वन्नामकीर्तनजलं के०) तमारा नामनुंजे कीर्तन करवू, ते रूप जल ते (श्र शेषं के०) निरवशेष एवा अग्निने (शमयति के०) शांत करी मूके . एटले विश्वने बाली नाखवानीछा करनारो एवो जे दावाग्नि, ते पण तमारा नाम स्मरणरूप जलें करीने शांतताने पामे डे, एवो तमारा कीर्तननो प्रजाव , तेवारें तमारी आज्ञादिक पालवाथी शुं सर्वोत्कृष्टता प्राप्त न थाय ? ॥३६॥ हवे उरगनय निवारण करतो तो कहे . रक्तेदाणं समदकोकिलकंठनीलं, क्रोधोतं फणिन मुत्फणमापतंतम् ॥ आक्रामतिक्रमयुगेन निरस्त शंक, स्त्वन्नामनागदमनी हृदि यस्य पुंसः॥३७॥ अर्थः-( रक्तेक्षणं के ) रातांबे नेत्र जेनां एवो अने (समद के) मदोन्सत्त एवो तथा ( कोकिल के) कोकिल तेनो (कंठ के० ) कंठ तेना सरखो ( नीलं के०) श्यामवर्णवालो एवो अने (क्रोधोकतं के०) क्रोधे करीने उकत थयेलो तथा (उत्फणं के०) उंची करेती ने फणा जे ऐं एवो जे (फणिनं के०) सर्प ते (आपतंतं के०) उतावलो सन्मुख श्रावतो होय तेने पण (निरस्तशंकः के०) शंका रहित थयो थको पो ताना (क्रमयुगेन के०) चरणयुगलें करीने (श्राकामति के०) उलंघन करे . ते कयो पुरुष उलंघन करे ? तो के ( यस्य के) जे (पुंसः के ) पुरुषना ( हृदि के ) हृदयने विषे (त्वन्नाम के०) तमारा नाम रूप जे (नागदमनी के ) नागदमनीनामें औषधि नरेली बे, ते तमारा नामरूप नागदमनी औषधियें करीने उग्र सर्पना जयथकी पण निःशं कित थाय ने ॥३७॥ हवे रणजयापहरण करतो बतो कहे . वलगत्तुरंगगजगर्जितनीमनाद, माजौ बलं बल वतामपिपनूतीनाम् ॥ उद्यदिवाकरमयूखशिखाप विई, त्वत्कीर्तनात्तमश्वाशु निदामुपैति ॥ ३ ॥ अर्थः-जे (श्राजौ के० ) संग्रामने विषे (वल्गत् के०) युद्ध करता Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्तामरस्तोत्र अर्थसहित. ३०७ एवा (तुरंग के०) घोमा ते जेने विषे दोमी रह्या ने अने (गज के ) हस्ती तेनी (गर्जित के०) गर्जना तेणें करी (नीम के०) जयंकर बे (नादं के) शब्दो जेने विषे एवं (बलवतामपिनूपतीनां के०) अतिशय बलवान् राजा तेनुं पण ( बलं के०) सैन्य ते ( त्वत्कीर्तनात् के०) तमारा ना मना कीर्तनथकी (आशु के०) शीघ्र (निदां के) नेदने (उपैति के०) पामे बे, एटले तरत नाशी जाय , ते कोनी पेठे ? तो के (उद्य दिवाकर के) उदय थयेलो एवो जे सूर्य, तेनां ( मयूख के) किरणो तेनी (शि खा के) शिखाउँ तेणें करीने (अपविऊं के० ) उदिप्त एटले नेदन श्रयेलु एq (तमः के०) अंधकार तेज (श्व के०) जेम होय नहीं ? श्र र्थात् सूर्यकिरणोयें करीने जेम अंधकार नाश पामे , तेम तमारा नाम ग्रहण प्रजावथकी शत्रु- सैन्य संग्रामने विषे पलायन थाय ॥३०॥ हवे वली पण प्रकारांतरें करीने संग्रामनयने निरास करतो बतो कहे बे. कुंताग्रनिन्नगजशोणित वारिवाद, वेगावतारतरणा तुरयोधनीमे ॥ युझे जयं विजितजयजेयपदा, स्त्वत्पादपंकजवनाश्रयिणो सनंते ॥ ३५ ॥ अर्थः-(कुंत के०) बरबी, तेमना (अग्र के०) अग्रनाग जे अणी तेणें करी (जिन्न के०) नेदेला एवा ( गज के) हस्ती तेना (शोणित के ) रुधिररूप (वारिवाह के०) जलना प्रवाह तेने विषे जे ( वेगाव तार के०) उतावलुं प्रवेश थq एटले रुधिररूप पाणीमां तणाश् जवाने तैयार थयेला तेमांथी (तरणातुर के०) फरी पाला तरी नीकलवाने श्रा तुर थयेला एवा जे (योध के० ) सुनटो तेणें करीने (जीमे के) जयं कर देखातुं एवं ( युझे के०) युद्ध तेने विषे पण (त्वत्पाद केण्) तमारा चरणारविंद ते रूप जे (पंकजवन के) कमलवन तेने (आश्रयिणः के०) आश्रय करीने रह्या एवा जे पुरुष, (उय के ) नहीं जीताय एवा जे (जेयपदाः के ) शत्रुना वर्गों ते जेमणे ( विजित के०) जीत्या ने एवा बता ( जयं के०) जयने (लनंते के ) पामे ॥ ३५ ॥ __ हवे समुजनय निरास करतो बतो कहे बे. अंनोनिधौ दुनितनीषणनकचक्र, पाठीनपीउन्नय Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. दोल्बणवाडवानौ ॥ रंगतरंग शिखर स्थितयान पात्रा, स्त्रासं विदाय भवतः स्मरणाद्व्रजंति ॥ ४० ॥ अर्थ:- ( सुजित के० ) दोन पमाड्या बे ( जीषण के० ) महाजयंकर एवा (नचक्रपाठी नपीठ के० ) नक्र चक्र छाने पाठीनपीठ एटले मत्स्य विशेष जीव जेने विषे एवा तथा ( जयद के० ) नय उत्पन्न करनारो एवो उल्बण के० ) जयंकर बे ( वामवाग्नौ के० ) वामवाग्नि जेने विषे एवा (जो निधौ के०) समुद्रने विषे (रंगत् के ० ) उबलता एवा (तरंग के०) तरंगो तेनां (शिखर के०) शृंगो तेनी उपर ( स्थित के०) रधुं बे ( यानपात्रा के० ) बढ़ाण जेमनुं एवा पुरुषो जे बे, ते (जवतः के० ) तमारा ( स्मरणात् के ० ) स्मरणथकी (त्रासं के०) त्रासने ( विहाय के० ) त्याग करीने समुद्र पारनें ( व्रजं ति के० ) पामे बे. एटले इति द्वीपांतरने विषे पहोंचे बे ॥ ४० ॥ ३०८ वे रोगजयने निवारण करतो तो स्तवे बे. उद्भूतभीषणजलोदरनारनुन्नाः, शोच्यां दशामुपग तायुतजीविताशाः ॥ त्वत्पादपंकजरजोऽमृतदिग्ध देदा, म जवंति मकरध्वजतुल्यरूपाः ॥ ४१ ॥ अर्थः- हे जगन्नाथ ! ( उद्भूत के० ) उत्पन्न थयो एवो ( जीषण के० ) यंकर ( जलोदर के०) जलयुक्त होय बे उदर जेणें करीने तेने जलोदर रोग कहियें अने ते जलोदर रोगना (जार के०) जारें करीने (जुग्नाः के० ) वक्र थया एवा ने ( च्युतजीविताशाः के० ) त्याग करी बे जीवितनी आशा जेमणें एवा अने (शोच्यां दशामुपगताः के०) शोक करवा योग्य एवी दशाने प्राप्त थवा अने ( त्वत्पादपंकजरजोऽमृतदिग्धदेहाः के० ) तमारां चरणकमलं जे रज ते रूप जे अमृत तेणें करी लिप्त अंग जेमनां एवा (मर्त्याः के० ) जीवो जे बे ते, ( मकरध्वजतुल्यरूपाः के० ) काम देवसमान वे रूप जेनं एवा (जवंति के०) होय ते. अर्थात् जेम अमृत लिसदेही पुरुष सकल शारीरिक रोगनाशें करीने कामदेव समान थाय बे. तेम तमारा चरणारविंदनी रजें करी लिप्त अंग बे जेनां एवा जीव पण सकल रोगक्षयें करीने कामदेव तुल्यरूपवाला थाय बे ॥ ४१ ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तामरस्तोत्र अर्थसहित. ३०० हवे निगमादि बंधन- जय टालतो उतो कहे बे. आपादकंठमुरुशृंखलवेष्टितांगा, गाढं बृदनिगम कोटिनिघृष्टजंघाः ॥ त्वन्नाममंत्रमनिशं मनुजाःस्म रंतः, सद्यः स्वयं विगतबंधनया नवंति ॥ ४॥ अर्थः-हे कर्मबंधनरहित ! (आपादकं के०) जेना पगथी मामीने ग ला पर्यंत (उरुशृंखल के०) महोटी श्रृंखला तेणें करी (वेष्टितांगा के०) वेष्टित एटले निब सर्व अंगो जेमनां एवा अने (गाढं के०)श्र त्यंत (बृहन्निगमकोटि के०) महोटी बेमीयो तेनी कोटियो जे जीणी श्रणी यो तेणें करीने (निघृष्टजंघाके) निःशेषपणायें करीने घसाती ने जंघा जेम नी एवा पुःखित थयेला पुरुषो बतां (त्वन्नाम के०) तमारूं जे नाम ते रू प (मंत्र के०) मंत्र जे बे, तेने (अनिशं के०) रात्रि दिवस अर्थात् निरंत र ( स्मरंतः के० ) स्मरण करता एवा ( मनुजाः के०) मनुष्यो, ते (सद्यः के०) तत्काल (वयं के०) पोतानी मेलें ( विगतबंधनयाः के) विशेषे करीने गयुं ने बंधनजय जेमनुं एवा (जवंति के०) थाय ने ॥ ४५ ॥ हवे पूर्वोक्त सर्व नयने त्याग करतो तो संदेपथी कहे जे. मत्तजिमृगराजदवानलादि, संग्रामवारिधिमदो दरबंधनोत्रम् ॥ तस्याशु नाशमुपयाति जयं निये व, यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥४३॥ अर्थः-हे प्रनो! ( यः के० ) जे ( मतिमान् के० ) बुद्धिमान् पुरुष, ( तावकं के० ) तमारं (श्मं के) श्रा (स्तवं के०) स्तवन जे जे तेने (अधीते के० ) लणे , (तस्य के० ) ते पुरुषने (मत्त के० ) मदोन्मत्त एवो ( छिपेंड के०) महान् हस्ती अने (मृगराज के०) सिंह, तथा (द वानल के० ) वनाग्नि तथा (अहि के०) सर्प अने ( संग्राम के) सं ग्राम, अने (वारिधि के०) समुज, तथा (महोदर के) जलोदरादि रो ग, अने (बंधन के०) बंधीखानुं ए आठ वानां ते थकी (उद्धं के ) उ त्पन्न थयुं एबुं जे (जयं के० ) जय ते ( नियेव के०) बीके करीनेज जे म होय नहिं ? तेम (श्राशु के०) शीघ्र उतावलु ( नाशं के०) नाशने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० प्रतिक्रमण सूत्र. ( उपयाति के०) पामे बे. अर्थात् था तमारा स्तोत्रना पाठ करनारने पूर्वोक्त श्राप प्रकारना जयनो नाश थाय ३ ॥४३॥ हवे स्तवनप्रनाव सर्वखने कहे जे. स्तोत्रस्रजं तव जिनें? गुणैर्निवहां, नत्या मया रुचिरवर्णविचित्रपुष्पाम्॥धत्तेजनो यश् कंगता मजस्रं, तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४॥ इति नक्तामर नामकस्तोत्रं सप्तमस्मरणम् ॥ ७ ॥ अर्थः-(जिने के०) हे जिने ! (तव के०) तमारी (इह के०) आलो कने अषे (यःके०) जे (जनः के०) पुरुष, (स्तोत्रस्त्रजं के०)स्तोत्र तेज पद सं दर्जितपणे करीने जाणे मालाज होय नहिं ? ते स्तोत्ररूप पुष्पमालाने ( कंगतां के०) पोतानां कंठने विषे (अजस्रं के) निरंतर (धत्ते के०) धा रण करे बे, (तं के०) ते (मान के०) चित्तनी उन्नति तेणें करीने (तुंगं केण) अत्यंत उन्नत थयेलो एवो पुरुष अथवा स्तोत्रना कर्ता श्री मानतुं गाचार्य जे ते (अवशा के०) अखतंत्र एवी जे (लक्ष्मीः के०) वर्गपवर्ग अने सत्काव्यरूप लक्ष्मी तेने, (समुपैति के०)पामे बे. हवे ते स्तोत्र रूपस्त्र ज केहवी ने ? तो के मानतुंगाचार्यनामक एवो (मया के) हुंजे तेणें (जत्त्या के) नक्ति जे श्रझा, अथवा पुष्पमालापदें नक्ति जे विचित्र रचना तेणें करीने अने (गुणैः के०) प्रजुना गुणे करीने अथवा पुष्पमालापदें गुण जे सूत्र तेणें करीने ( निबझां के ) बांधेली बे, गुंथेली बे. वली कहेवी ने तो के (रुचिर के०) मनोहर एवां ( वर्ण के ) बावन अदर तेज डे (विचित्रपुष्पां के०) चित्र विचित्र पुष्पो जेने विषे अने पुष्पमाला पदमां मनोहर ने वर्ण जेना एवां विचित्रपुष्पो ने जेमां एवी जे. श्रा स्तोत्रना अंतमां पुष्पस्रज शब्द जे जे ते अनीष्ट शकुनपणायें करी महोत्सवनां श्रानंदनो कारणनूत ने अने लक्ष्मी शब्द जेबे, ते मांगल्यवाची बे, तेणें करी था स्तोत्रना पाठ करनार तथा श्रवण करनार पुरुषने आ स्तोत्रनी समाप्ति पर्यंत कल्याण परंपरा थाशे, एवो नाव डे ॥४४॥ इति जक्तामर स्तोत्रनामक सप्तमस्मरणस्य बालावबोधः समाप्तः ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणमंदिरस्तोत्र अर्थसदित. ॥ अथ ॥ Jain Educationa International || श्री कल्याणमंदिरस्तोत्रनामक अष्टमस्मरणं लिख्यते ॥ ॥ वसंततिलकावृत्तम् ॥ कल्याणमंदिरमुदारमवद्यनेदि, नीताजयप्रदम निंदितमंघ्रिपद्मं ॥ संसारसागर निमजदशेषजंतु, पोतायमानमनिनम्य जिनेश्वरस्य ॥ १ ॥ यस्य स्व यं सुरगुरुर्गरिमांबुराशेः, स्तोतुं सुविस्तृतमतिर्न विजुर्विधातुम् ॥ तीर्थेश्वरस्य कमठस्मयधुमकेतो, स्त स्यादमेष किल संस्तवनं करिष्ये ॥ २ ॥ युग्मम् ॥ ३११ अर्थः- (एषः के० ) या प्रत्यक्ष मूर्ख एवो (अहं के० ) हुं सिद्धसेन दिवा करनामा आचार्य ते ( तस्य के० ) ते श्रीपार्श्वनाथ ( तीर्थेश्वरस्य के० ) तीर्थ जे चतुर्विध संघ तेना ईश्वर तेनुं (किल के० ) निश्चें (संस्तवनं के० ) स्तवन जे तेने ( करिष्ये के०) करीश, हवे ते श्रीपार्श्वनाथ तीर्थेश्वर केह वा बे ? तो के ( कमठ के०) दश जन्मनो बे वैरभाव जेने एवो जे कमठ नामा दैत्य तेनो (स्मय के० ) अहंकार तेने विषे ( धूमकेतोः के० ) पूढमी या तारा सरखा बे एटले कमव दैत्यनो गर्व नाश करवाने धूमकेतु सह शबे, वली केहवा बे? तो के ( सुविस्तृतमतिः के० ) विस्तार पामी बेबु जेनी एवो (स्वयं के० ) पोतें (सुरगुरुः के० ) बृहस्पति जे बे, ते पण (यस्य के०) जे श्रीपार्श्वनाथना ( गरिमा के० ) महिमा जे तेनो ( अंबुरा शेः के०) समुद्र तेनुं जे (स्तोत्रं के० ) स्तवन तेने ( विधातुं के०) करवाने ( न विजुः के० ) समर्थ तो नथी, एवा श्रीपार्श्वनाथनी हुं स्तवना करवाने क्यांथी समर्थ थाजं ? तथापि स्तवना करूं बुं. ते शुं करीने स्तवना करूं नुं ? तो के ( जिनेश्वरस्य के० ) ते श्रीजिनेश्वर तेना ( अंत्रिपद्मं के० > चरणकमल तेने (निम्य के० ) नमस्कार करीने स्तवना करुं हुं. दवे ते चरणकमल केह बे? तो के ( कल्याणमंदिरं के० ) कल्याण एटले मांगलिक तेनुं मंदिर एटले घर बे, वली केदवुं बे ? तो के ( उदारं के० ) For Personal and Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. महोटुंबे,अथवा नव्य जीवोना मनोवांडित अर्थ देवाने उदार , तथा वली केहे बे? तो के (अवध के०) अवद्य जे पाप तेने (नेदि के०)नेद नारंबे,ते माटें अवद्यन्नेदि ने वली केहे, जे ? तो के (जीत के०)संसार नयें त्रास पामता जे जीवो, तेने ( अनय के०) मोद तेने (प्रदं के०) प्रक र्षे करीने देनाकै एवं ,वली केहबुं ? तो के (अनिंदितं के०) निंदा रहि त डे अर्थात् जेने विषे अणुमात्र पण दोषनो संचव नथी, वली केहबुं बे? तो के (संसारसागर के०) संसाररूप जे समुख तेने विषे (निमजात् के०) बूमता एवा जे (अशेषजंतु के०) समग्र प्राणीयो तेने (पोतायमानं के०) वहाण सरखु ए, जिनेश्वरनुं चरणकमल . आ स्तोत्रना श्लोक सर्व वसंततिलकावृत्तं जाणवा. आबे श्लोकनो एकठो अर्थ वखाण्यो ॥२॥ हवे नगवाननी सर्व प्रकारें विशेषे करीने स्तुति करवाने तो हुं समर्थ नथी, परंतु सामान्य करीने पण प्रजुनी स्तुति करवाने हुं असमर्थ बु, एम देखाडे बे. सामान्यतोऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप,मस्मादृशाः क थमधीश! नवंत्यधीशाः॥धृष्टोपि कौशिकशिशुर्यदि वा दिवांधो, रूपं प्ररूपयति किं किल धर्मरश्मेः ॥ ३ ॥ अर्थः-(अधीश के०) हे स्वामिन् ! (अस्मादृशाः के०) महारा सरखा मंदमति पुरुषो जे जे, ते (सामान्यतोपि के०) सामान्यपणे एटले विशे षविरहितत्वें करीने पण (तव के० ) तमाळं ( खरूपं के) वरूप जे डे तेने ( वर्णयितुं के ) वर्णन करवाने ( कथं के ) केम (अधीशाः के) समर्थ ( नवंति के०) थाय बे? अर्थात् थाता नथी. त्यां दृष्टांत कहे बे, ते जेम केः-( यदिवा के०) जो पण ( कौशिकशिशुः के० ) धूमनो बाल क, ते (धर्मरश्मेः के) सूयबिंबना ( रूपं के ) वरूपने ( किं के०) झुं (प्ररूपयति के०) कहि शके ? (किल के) निश्चें. अर्थात नथी कही श कतो. हवे ते कौशिकशिशु केहवो ? तो के ( धृष्टोपि के) दृढ हृदय पणायें करीने प्रगल दे तो पण (दिवांधःके०) दिवसने विषे अंध ॥३॥ हवे हुँ तो मंदमति बुं, तेथी महारामां स्तुति करवानुं सामर्थ्य न होय ते योग्यज डे, परंतु केवलझानी पुरुषो, केवलझाने करीने सर्व जाणता बता पण जिनगुणोने कद्देवाने समर्थ थाता नथी, ते कहे . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ कल्याणमंदिरस्तोत्र अर्थसहित. मोददयादनुलवन्नपि नाथ! मग, नूनं गुणान् गण यितुं न तव दमेत ॥ कल्पांतवांतपयसः प्रकटोऽपि यस्मा, न्मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशिः॥ ४ ॥ अर्थः-( नाथ के०) हे नाथ! ( मोहदयात् केप) मोहनीयादिक कर्म ना यथकी अथवा अज्ञानदयथकी (अनुलवन्नपि के०) गुणोने अनुभव करतो एटले तमारा गुणोने जाणतो बतो पण (मर्त्यः के) मनुष्य जे डे ते, (नूनं के०) निश्चे ( तव के०) तमारा (गुणान् के०) गुणो जे जे तेने ( गणयितुं के०) गणवाने एटले संख्या करवाने (न कमेत के) न सम र्थ थाय.त्यां दृष्टांत कहे ,ते जेम केः-(ननु के०) आशंकाने विषे ( यस्मा त् के०) जे कारण माटें (कल्पांत के०) प्रलयकालने विषे(वांत के०) विदि त थयुं डे (पयसः के०) जल जेने विषे एवो (जलधेः के०) समुद्र जे डे तेनो (प्रकटोऽपि के०) प्रत्यद एवो पण (रत्नराशिः के०) रत्ननो समूह ते (केन के०) कया पुरुषे ( मीयेत के०) मापी शकाय ? अर्थात् कोईथी प ण माप करी शकाय नहिं ॥४॥ हवे जो पण जगवानना गुणो तो असंख्य बे, ते कहेवाने अशक्य लु, तो पण नक्तिवशथकी स्वशक्त्यनुसारे टुं स्तुति करुं बुं. अच्युद्यत्तोऽरिम तव नाथ! जडाशयोऽपि,कर्तुं स्तवं लसद संख्यगुणाकरस्य ॥ बालोऽपि किं न निजबाहुयुगं वितत्य, विस्तीर्णतां कथयति स्वधियांवुराशेः ॥ ५॥ अर्थः-(नाथ के०) हे नाथ! हुँ (जमाशयोऽपि के ) जडअंतःकरणवा लो वा जमना सरखा अभिप्राय वालो ढुं तो पण (तव के०) तमारूं (स्तवं के०) स्तवन जे जे तेने (कर्तुं के) करवाने (अच्युद्यतोऽस्मि के०) उद्यम मुक्त थयो बुं,एटले सावधान थयो बुं. ते तमें केहवा बो? तो के ( लसत् के०) देदीप्यमान एवा जे (असंख्यगुण के०) अनंतगुणो तेना (आकरस्य के०) निधानरूप बो. तेज अर्थने दृष्टांतं करीने दृढ करे . (बालोपि के०) बालक पण ( निजबाहुयुगं के०) पोताना बे हाथने ( वितत्य के०) विस्ता रीने ( स्वधिया के०) पोतानी बुद्धियें करीने (अंबुराशेः के) समुफ जे २ ४० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ प्रतिक्रमणसूत्र. तेनी ( विस्तीर्णतां के० ) विस्तारता जे बे तेने ( किं के० ) शुं ( न कथयति ho) नहिं कहे अर्थात् कहे बेज. एटले जेम बालक पोताना वे हाथ प सारीने समुद्रनो विस्तार कहे बे, जे समुद्र आटलो महोटो बे, तेम बालक नी पेरें हुं पण तमारुं स्तवन करवाने कस्यो बे उद्यम जेणें एवो ढुं ॥२५॥ फरी पूर्व कहेला बे लोकोनाज अर्थने दृढ करतो तो कहे बे. ये योगिनामपि न यांति गुणास्तवेश, वक्तुं कथं जव ति तेषु ममावकाशः॥ जाता तदेवमसमीक्षितकारि तेयं, जल्पति वा निजगिरा ननु पक्षिणोऽपि ॥ ६ ॥ : - ( ईश के०) हे स्वामिन्! (ये के०) जे ( तव के० ) तमारा ( गुणाः ho) गुणो जे बे, ते ( योगिनामपि के०) रत्नत्रयरूप योगाराधने करीने समु त्पन्न बे ज्ञान जेमने एवा योगींद्र पुरुषोंनें पण ( वक्त के०) कड़ेवाने ( न यांति के०) यावी शकता नथी तो ( तेषु के०) ते गुणाने विषे ( मम के ० ) महारी ( अवकाशः के०) बोलवानी शक्ति ते ( कथं के० ) केम ( जवति के०) होय? (तत् के०) ते कारण माटें ( एवं के०) ए प्रकारें ( इयं के० ) या प्रस्तुतस्तुति विषय ते ( समीक्षितकारिता के०) विचार्यका रिता ( जाता के० ) इ. केम के ? नवकाशने विषे जे स्तुति करवी ते विचार्यकारीज कवा हिं दृष्टांत कहे बे. (वा के० ) अथवा ( ननु के० ) निवें (पक्षि गोपि के० ) पदियो पण यद्यपि मनुष्य वाणीयें करी बोलवाने असमर्थ बे तो पण (निज गिरा के० ) पोतानी जेवी तेवी वाणीयें करीने ( जल्पति के० ) अर्थात् बोलेज बे? तेम हुं पण स्तुति करवाने प्रवत्यों हुं ॥ ६ ॥ हवे जगवत्स्तोत्रनुं तथा जगवन्नामग्रहणनुं माहात्म्य कहे . यास्तामचिंत्यमहिमा जिन संस्तवस्ते, नामापि पा तिजवतो नवतोजगंति ॥ तीव्रातपोपदतपांथजना निदाघे, प्रीणाति पद्मसरसः सरसो निलोऽपि ॥ ७ ॥ अर्थ :- (जिन के०) हे जिनेश्वर ! (अचिंत्यमहिमा के० ) नथी चिंतन करवा योग्य महिमा जेनो एवो ( ते के० ) तमारो ( संस्तवः के० ) स्तव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणमंदिरस्तोत्र अथर्सदित. ३२५ जे ,ते तो (श्रास्तां के०) दूर रहो, परंतु (नवतः के०) तमारूं ( नामापि के) श्रीपार्श्वनाथ एवं नाम जे जे ते पण ( नवतः के०) संसारथकी (ज गंति के० ) त्रण जगत्ने (पाति के०) रक्षण करे . त्या दृष्टांत कहे बे. ( पद्मसरसः के० ) कमलोपल दित एवा तलाव- जे पाणी ते तो (आ स्तां के०) पूर रहो. परंतु ते पद्मसरोवरनो ( सरसः के ) सुंदर ठंमो जलशीकर युक्त एवो (अनिलोऽपि के०) वायरो पण ( निदाघे के०) ग्रीष्मकालने विषे (तीव्र के) आकरो एवो (तप के०) तमको तेणें करीने ( उपहत के ) हणाणा एवा ( पांथजनान् के) पथिक जनोने (प्रीणाति के०) संतोष करे जे. अर्थात् पद्मसरोवरनो वायरो पण पथिकोने प्रसन्न करे बे, तेवारें जलनुं तो गुंज कहे ? तेम हे प्रनो ! तमारं नाम पण त्रण जगत्ने पवित्र करे , तेवारें तमारा स्तोत्र नी तो शीज वार्ता कहेवी ? ॥ ७॥ हवे खामीना ध्यान- माहात्म्य कहे . हार्तिनि त्वयि विनो!शिथिलीनवंति,जंतोः दाणेन निविडाअपि कर्मबंधाः ॥ सद्योनुजंगममयाश्व म ध्यन्नाग, मन्यागते वनशिखंडिनि चंदनस्य ॥ ७ ॥ अर्थः-(विलो के०) हे स्वामिन् ! (त्वयि के०) तमो (हृर्तिनि के०) हृ दयने विषे वर्त्तते ते (जंतोः के०) प्राणीना (निविमाअपि के०) दृढ एवा पण (कर्मबंधाः के) कर्मना जे बंधो ते पण (कणेन केश) क्षणमात्रे करी ने (शिथिलीनवंति के०) शिथिल थ जाय बे,एटले निविमताने डोमीने शिथिलताने नजे बे.अहीं दृष्टांत कहे बे.ते जेम केः-(वनशिखं मिनि के०) वननो मयुर ते ( मध्यन्नागं के ) वनना मध्यनागप्रत्यें (अन्यागते के०) आवे बते (चंदनस्य के०) चंदनना वृदना जे (जुजंगममयाश्व के०) सर्प मयबंधनो जे जे ते जेम (सद्यः के) तत्काल शिथिल थक्ष जाय , तेनी पेरें जाणी लेवं. एटले जेम वनमयुर वनना मध्यनागें आवे बते चंदन दनां सर्पवेष्टन शिथिल थर जाय बे, तेम तमें पण प्राणीना हृदय मध्ये आवे बते ते प्राणीना दृढ कर्मबंध पण शिथिल थर जाय ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ प्रतिक्रमण सूत्र. हवे खामीना दर्शन, माहात्म्य कहे . मुच्यतएव मनुजाः सहसा जिनेंज, रौरुपश्वश तैस्त्वयि वीदितेपि ॥ गोस्वामिनि स्फुरिततेजसि दृष्टमात्रे, चौरैरिवाशु पशवः प्रपलायमानैः ॥ए॥ अर्थः-(जिने के०) हे सामान्य केवलीना छ ! (त्वयि के०) तमो (वी दिपिते के०) जोये बते पण ( मनुजाः के०) मनुष्यो (सहसा के०) शीघ्र पणे करीने (रौः के०) नयानक बीहामणा एवा (उपवशतैः के) उपवोना जे शेकमा तेथकी (मुच्यंतएव के०) मुकाइ जाय बेज. आहीं दृष्टांत कहे . जेम केः-(स्फुरिततेजसि के०) देदीप्यमान डे तेज जेनुं ए टले जगत्मा प्रकाश करवे करीने विस्तृत जे तेज जेनुं एवो (गोस्वामिनि के०) गो जे किरणो तेनो खामी जे सूर्य अथवा गो जे पृथिवी तेनो स्वा मी जे राजा ते पण स्फुरित ने प्रताप जेमनो एवो बे, अथवा गो एटले पशु तेनो खामी जे गोवालीयो ते पण बलरूप स्फुरित ने तेज जेनुं ए वो बे. एवा ए त्रण जे जे ते, (दृष्टमात्रे के) दृष्टमात्र एटले जोवाये थके (प्रपलायमानैः के०) पलायन करता नासता एवा (चौरैः के०) चोरो थकी (श्व के०) जेम (आशु के०) शीघ्र उतावला ( पशवः के०) पशु जे गो महिष्यादि चोपगां जनावरो जेम मूकाय , तेम जीवो पण तमो जोवाये थके शेकमो उपलवोथकी मूकाय जे. ए तात्पर्य ॥ ए॥ हवे खामीना ध्यान- माहात्म्य कहे . त्वं तारकोजिन! कथं नविनां तएव, त्वामुहंति हृ दयेन यज्त्तरंतः॥ यहा तिस्तरति यजालमेषनू न, मंतर्गतस्य मरुतः स किलानुन्नावः ॥ १० ॥ अर्थः-(जिन के) हे जिनेश्वर! (त्वं के) तमें (नविनां के)संसारी जीवोना ( कथं के) केम ( तारकः केप) तारक गे? (यत के०)जे कारण माटे उलटा (तएव के०) ते संसारी जीवोज ( उत्तरंतः के०) संसार स मुत्रने उतरता उता (हृदयेन के०) हृदयें करीने ( त्वां के ) तमोने (उ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्यांणमंदिरस्तोत्र अर्थसहित. ३१७ हंत के०) वहन करे बे, माटें तमें केवी रीतें संसारी जीवोना तारक Dो ? कारण के वा वाहकमां वाह्यने तारकपणानो असंभव बे, जेम नाव बे ते पोताना मध्यमां रहेला पुरुषोने तारे बे परंतु नावमां रहेला पुरुषो कां नावने तारता नथी, तेम जव्य जीवो पण तमोने पोताना हृ दयमा राखीने तारे बे, परंतु तमें ते जव्य जीवोने तारो, ते तो महोटु श्वर्य हवे एवा तर्कनुं समाधान करे बे, के हे प्रभो ! तमेंज नव्योने तारो बो. ते (या के०) युक्त बे. अहीं दृष्टांत कहे बे ( यत् के०) जे कार माटे जेम (दृतिः के० ) चर्ममयपात्र एटले चामकानी मसक जे बे ते ( नूनं के०) निश्चें (जलं के० ) नद्या दिकना पाणी प्रत्यें ( तरति के० ) तरे बे (सएष के ) ते या प्रत्यक्ष (अंतर्गतस्य के०) ते मसकनी मध्यवर्त्ति ये व्यो एवो जे ( मरुतः के० ) पवन तेनोज ( किल के० ) निवें ( जाव: के० ) प्रजाव बे. एटले चर्मनी मसकंना मध्यगत जे वायु बे ते जेम मसकनो तारक बे, तेम जव्य जीवोना हृदयस्थ तमें बो, माटें तमें पण नव्योना तारक बो, एमां शुं प्रयुक्त बे ? ॥ १० ॥ वेण श्लोकें करीने जगवंतनुं राग द्वेष विरहितपणुं देखाडे बे. यस्मिन् दरप्रभृतयोऽपि हतप्रभावाः, सोऽपि त्वया रतिपतिः क्षपितः क्षणेन ॥ विध्या पिता हुतभुजः पय साथ येन, पीतं न किं तदपि ईरवाडवेन ॥ ११ ॥ अर्थः- ( यस्मिन् के०) जे कामदेवने विषे ( हरप्रभृतयोऽपि के० ) हर हरि विरंचि प्रमुख पण ( हतप्रभावाः के० ) दणाणो वे प्रजाव जेमनो ए वा थाय बे. अर्थात् जे कामदेवें हरहस्यादिक देवोने जीत्या बे, ( सोपि रतिपतिः के० ) ते कामदेव पण ( त्वया के०) तमोयें ( क्षणेन के० ) दण मात्रे करीने ( रूपितः के० ) दय पमाड्यो. ए अर्थ कह्यो. परंतु दृष्टांत विना प्रतीत याय नहीं माटे याही दृष्टांत कहे . ( ० ) पद दृष्टांत उपन्यासार्थ बे. ( येन के० ) जे ( पयसा के० ) जलें ( हुतनुजः ( विध्यापिताः के० ) बूजावी दीधा ( तदपि के० ) तो पण ते पाणी जे बे ते ( डुर्द्धरवामवेन के०) दुस्सहवमवानलें ( किं न पीतं के० ) शुं न पीधुं ? अर्थात् पीधुंज. एटले जे जलें अन्य अभियो बूजा ho) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ प्रतिक्रमण सूत्र. व्या एवं पण समुजगत जे जल, ते वमवानले शोषण कयुं, तेमज जे का मदेवें हरहस्यादिक जीत्या, तेज कामने तमोयें जीत्यो बे. आश्लोक करे थके श्रीपार्श्वनाथनी मूर्ति प्रगट थप, ते वात सर्वत्र प्रसिद्ध २ ॥ ११ ॥ स्वामिन्ननल्पगरिमाणमपि प्रवन्ना, स्त्वां जंतवः कथ मदो हृदये दधानाः ॥ जन्मोदधिं लघुतरंत्यतिलाघ वेन, चिंत्यो न हंत महतां यदि वा प्रनावः ॥ १२॥ अर्थः-( खामिन् के०) हे खामिन् ! तमोने (प्रपन्नाः के ) स्वामी पणायें करी पाम्या एवा ( जंतवः के०) प्राणीयो (अनस्पगरिमाणमपि के ) घणुं महोटापणुं ने जेमनुं एवा पण ( त्वां के०) तमोने (हृदये के०) हृदयने विषे (दधानाः के ) धारण करता थका (अहो के) आश्चर्ये (अतिलाघवेन के) थोमा पण नारना अनावें करीने ( जन्मो दधिं केण्) नवसमुज्ने (लघु के०) शीघ्रपणे जेम होय तेम ( कथं के) केम ( तरंति के०) तरे जे? अर्थात् अत्यंत नारें करीने युक्त एवा तमें बो तेने हृदयने विषे धारण करता उता जाणे थोमा पण नारें करीने रहितज होय नहिं? एवा थका संसार समुज्थकी नव्यजीवो केम तरे ? केम के जे अतिनार युक्त होय, ते तो तरवाने असमर्थ होय . अहीं(य दिवा के०) समाधान अर्थमां ने माटें समाधान कहे डे, (हंत के) निश्चें (महतां के०) त्रण जगत्मां उत्तम महोटा पुरुषोनो ए (प्रनाव के०) महिमाज बे, माटे एमां (न चिंत्यः के०) चितवन करवा योग्य कांश पण नथी, कारण के अत्यंत नार युक्त एवा जीवोने पण पोताना प्रनावथी जाणे सर्वथा नार रहितज होय नहिं ? तेवी रीतें महोटा पुरुषो करे , माटें तमो नव्य जीवोने तारो डो, तेमां आश्चर्य नथी ? ॥ १२॥ क्रोधस्त्वया यदि विनो! प्रथमं निरस्तो, ध्वस्तास्तदा ब त कथं किल कर्मचौराः॥ प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिरा पि लोके, नीलमाणिविपिनानि न किं दिमानी ॥ १३ ॥ अर्थः-(विजो के०) हे स्वामिन् ! ( त्वया के०) तमोयें ( यदि के०) ज्यारे (क्रोधः केश) क्रोध जे , ते (प्रथमं के०) प्रथमज ( निरस्तः के०) परास्त कस्यो एटले पुर कीधो, ( तदा के) त्यारें पड़ी क्रोध विना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणमंदिरस्तोत्र अर्थसदित. ३१ए (बत के०) आश्चर्य डे के (कर्मचौराः केश) कर्मरूप जे चोरो ने, ते (कथं ध्वस्ताः के) केवी रीतें हण्या ? ( किल के) निश्चे. अर्थात् तमें क्रोध विनाज कर्म चोरोने हण्या ए महोटु आश्चर्य ? ( यदिवा के०) समाधान अर्थमा जेम केः-(अमुत्र के०) आ (लोके के०) लोकने विषे ( शिशिरा पि के०) शीतल एवी पण (हिमानी के०) हिमसंहति जे बरफ ते (नील जमाणि के०) नीलां ने वृदो जेने विषे एवां (विपिनानि के७) वन जे तेने (किं के०) शुं (न प्लोषति के० ) न बाले जे ? अर्थात् बाले बेज. एटले जे शीतल एवी हिमसंहति , ते नीलां वृदनां वनोने दहन करे बे, तेम क्रोध रहित एवा तमो पण कर्मचोरोने हणो बो, ते युक्तज ॥ १३॥ हवे योगियोयें ध्यान करवा योग्य एक जिनस्वरूपने कहे . त्वां योगिनो जिन! सदा परमात्मरूप, मन्वेषयंति हृद यांबुजकोशदेशे ॥ पूतस्य निर्मलरुचेर्यदिवा किमन्य, ददस्य संन्नवि पदं ननु कर्णिकायाः ॥ १४ ॥ अर्थः-( जिन के ) हे जिन ! ( योगिनः के ) महर्षियो जे ते (हृदयांबुजकोशदेशे के०) हृदयरूप जे कमल तेना कोश एटले कली ते ना मध्यप्रदेशने विषे (परमात्मरूपं के०) सिझस्वरूप एवा (त्वां के०) त मोने (सदा के०) नीरंतर (अन्वेषयंति के०) ज्ञानचकुयें करीने जोवे बे, ए अर्थ युक्त जे. (यदिवा के०) अथवा जेम (ननु के०) निश्चे ( निर्मलरु चेः के०) निर्मल डे रुचि एटले कांति जेमनी एवं अने (पूतस्य के० ) प वित्र एवं (अदस्य के०) कमलनुं बीज जे जे तेनुं ( कर्णिकायाः के०) क र्णिकाथकी (अन्यत् के०) बीजुं एटले कमलमध्यप्रदेश टालीने बीजु (प दं के) स्थानक (किं संजवि के) शुं संजवे जे ? ना संजवतुं नथी. त्या रें शुं संजवे बे? तो के कमलनी कर्णिकाज संजवे ठे? तेम तमें पण निर्म लरुचि युक्त तथा सकल कर्ममलना अपगमथकी पवित्र थयेला एवा डो. ए माटें तमारं पण योगीसोना हृदयकमलकर्णिकारूपस्थानकने विषे रहे, थाय जे, ते योग्यज ने ॥ १४ ॥ हवे तमारा ध्यान करनारा पण तमारी जेवाज थाय ने ते कहे .. __ध्यानाजिनेश! नवतोनविन दणेन, देहं विहाय .... Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० प्रतिक्रमणसूत्र. परमात्मदशां व्रजति ॥ तीव्रानलाउपलनावमपास्य लोके, चामीकरत्वमचिरादिव धातुनेदाः ॥ २५ ॥ अर्थः-( जिनेश के०) हे जिनेश ! (नविनः के०) नव्य प्राणीयो जे ने ते (जवतः के) तमारा (ध्यानात् के) ध्यानयकी अथवा स्मर णथकी (दणेन के० ) एक दणमात्रे करीने ( देहं के) शरीरने ( वि हाय के ) त्याग करीने (परमात्मदशां के०) सिझावस्थाने (बजंति के) पामे . कहेवू डे के, “ वीतरागं यतोध्यायन्, वीतरागोनवेनवी ॥ लिका मरीनीता, ध्यायंती चमरी यथा ॥१॥” एनो अर्थ एम जे जे वीतरागनुं ध्यान करतो तो जीव, वीतरागरूप थाय बे, केनी पेठे? तो के जमरीथकी बीक पामती एवी जे ईल, ते चमरीनुं ध्यान करती तीज त्र मरीरूप थाय बे. आर्हि दृष्टांत कहे . ते जेम केः-(लोके के० ) लोकने विषे (धातुन्नेदाः के०) मृत्तिका पाषाण विशेषो जे जे ते (तीवानलात के०) प्रबलअग्निथकी (उपलनावं के०) पाषाणनाव जे , तेने (अपास्य के०) टालीने (अचिरात् के ) थोमा समयमां (चामीकरत्वमिव के०) सुवर्ण पणानेज जेम (व्रजंति के ) पामे , तेम प्राणीयो जे , ते तमारा ध्यानयकी देहने त्याग करीने सिद्धावस्थाने पामे ॥ १५ ॥ अंतःसदैव जिन! यस्य विनाव्यसेत्वं, नव्यैः कथं तदपि नाशयसे शरीरम ॥ एतत्स्वरूपमथ मध्यवि वर्तिनो दि, यधिग्रहं प्रशमयंति महानुन्नावाः॥१६॥ अर्थः-( जिन के) हे जिन ! (नव्यैः के०) नव्य प्राणीयो जे बे, ते मणे ( यस्य के०) जे देह तेना (अंतः के ) मध्यनाग एटले जे हृदय तेने विषे ( सदैव के०) निरंतर ( त्वं के० ) तमो (विजाव्यसे के०) वि शेर्षे करी विचारा नो,चितवन था बो, (तदपि के०) तो पण तमें ते न व्यना (शरीरं के०) शरीर जे तेने (कथं के०) केम (नाशयसे के०)पुर क रोबो? अर्थात् ते नव्य जीवोने मुक्ति पमामीने शरीर रहित करो बो, माटे जे स्थानमां जव्य जीव तमोने चितवन करे ते स्थान तमारे नाश कर, योग्य नहीं. आही दृष्टांत कहे ,जेम केः-(अथ के०) अथ शब्द अर्थ उ. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणमंदिरस्तोत्र अर्थसहित. ३१ पन्यासने माटें .(महानुनावाः के०) महोटो ने प्रजाव जेमनो एवा (म ध्यविवर्तिनः के०) मध्यस्थ अपक्षपाती पुरुष जे जे तेनुं (एतत्स्वरूपं के) एबुंज स्वरूप ,एटले खनाव के (यत् के०) जे कारण माटे ( विग्रहं के०) वढवाम जे मांहोमांहे थता क्लेश,तेनो परस्पर विवाद तेने (प्रशमयं ति के०) उपशमावे . तेम तमें पण शरीर अने जीवनो परस्पर विग्रह टालवाने शरीरनो नाश करो बो, ते (हि के) निश्चे युक्तज ॥ १६ ॥ आत्मा मनीषिभिरयं त्वदनेदबुध्या,ध्यातोजिनें! नवतीद नवत्प्रानवः॥ पानीयमप्यमृतमित्यनुचित्य मानं, किं नाम नो विषविकारमपाकरोति ॥ १७ ॥ अर्थः-(जिने के०) हे जिने ! (मनीषिभिः के०) पंमितो जे जे तेम णें (अयं के०) आ (आत्मा के०) जीव ते, ( त्वदन्नेदबुद्ध्या के० ) तमारी साथे अनेदबुछियें करीने (ध्यातः के०) ध्यान कस्यो बतो (नवत्प्रजावः के०) तमारा सरखो ने महिमा जेनो एवो (इह के) या संसारनेविषे (नवति केण्) थाय . त्यां दृष्टांत कहे जे. जेम केः-(नाम के०) नामशब्द कोमलामंत्रणमां बे. अथवा प्रसिद्ध अर्थमां ने. (पानीयमपि के०)जल जे बे, ते पण (अमृतं के०) अमृत ले ( इति के) ए प्रकारें (अनुचिंत्यमानं के) चिंतन कडं उतुं अथवा मणिमंत्रादिकें करी संस्कारित कझुं तुं ( विषकारं के) विषना विकारने (किं के०) शुं ( नोअपाकरोति के०) नथी दूर करतुं ? अर्थात् अमृत बुझियें चिंतवन कमु अथवा मंत्रित क घु एवं जल पण अमृत तुल्य थश्ने विषविकारने टालेज डे ॥ १७ ॥ हवे अन्यदर्शनीयोयें पण नामांतर कल्पनायें करीने तमो श्रीवीत रागदेवज ध्यान करेला बो, ते कहे . त्वामेव वीततमसं परवादिनोपि, नूनं विनो! हरिद रादिधिया प्रपन्नाः॥ किं काचकामलिनिरीश! सितो पिशंखो, नो गृह्यते विविधवर्णविपर्ययेण ॥ १७ ॥ अर्थः-( विनो के ) हे स्वामिन् ! ( नूनं के) निश्चे ( परवादिनोपि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ प्रतिक्रमण सूत्र. के०) परतीर्थिक पण (हरिहरा दिधिया के०) विष्णु, महेश्वर अने ब्रह्मादि कनी बुछियें करीने (त्वामेव के०) तमोनेंज (प्रपन्नाः के०) आश्रय करीने रहेला बे,अर्थात् अन्यदर्शनी जे शैव,सांख्य, नैयायिकादिको जे बे, ते पण नामांतर परावर्त करीने तमारुंज श्राराधन करे .ते तमें केहेवा डो? तो के (वीततमसं के०) अज्ञान रहित बो. ही दृष्टांत कहे ,के(ईश के०) हे ईश ! (काचकामलिनिः के०) काचकामलिनामें रोग जे जेनी आंखमां एवा पुरुषो जे ,तेणें (सितोपि के) श्वेत एवो पण ( शंखः के०) शंख जे बे,ते विविधवर्ण विपर्ययेण के०) नील,पीतादिक विविध प्रकारना वर्णपराव ते करीने (किं नो गृह्यते केए) नथी ग्रहण करातो ? एटले ग्रहण करा यज . अर्थात् जेम कमलना रोगवालो पुरुष उज्ज्वल शंखने पण जूदा जूदा वर्णे करी जूवे बे,तेम अन्यतीर्थी पुरुषोयें पण वीतराग एवा जे तमो ते आहरि,आ हर,आ ब्रह्मा,एवी बुछियें करीने आराधन करा ॥रज॥ हवे आठ काव्योयें करी आठ महाप्रातिहार्य सूचनद्वारा लगवाननी स्तुति करे , तेमां प्रथम अशोकवृदातिशयने कहे जे. धर्मोपदेशसमये सविधानुनावा, दास्तां जनो नव ति ते तरुरप्यशोकः॥अन्युजते दिनपतौ समहीरु होपि, किं वा विबोधमुपयाति न जीवलोकः ॥॥ अर्थः-हे स्वामिन् ! (धर्मोपदेशसमये के०) धर्मदेशनाना अवसरने वि षे (ते के०) तमारा ( सविधानुनावात् के०) समीपना प्रजावयकी (जनः के ) लोक जे जे ते तो ( श्रास्तां केण) दूर रहो, परंतु ( तरुरपि के०) वृद जे जे ते पण (अशोकः के०) शोक रहित (नवति के०) थाय . हवे एज वातने दृष्टांतें करीने समर्थन करे डे.(वा के०) अथवा (दिनपतौ. के०) सूर्य जे जे ते (अच्युजते के०) उदय पामे थके (समहीरुहोपि के०) वृदादिकं सहित एवो पण (जीवलोकः के०) जीवलोक जे समस्त जगत् ते ( विबोधं के० ) विकाशत्वने (किं के०) (न उपयाति के० ) न पामे ? अर्थात् पामेज में, एटले जेम सूर्योदय थयाथी केवल लोकज नि मानो त्याग करीने विबोधने पामे वे एटर्बुज नहीं परंतु वनस्पति जे दे ते पण पत्रसंकोचादि लक्षण निझानो त्याग करीने विकाश पणाने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणमंदिरस्तोत्र अर्थसहित. ३२३ पामे डे, तेम तमारा समीपथकी केवल नविक लोकज अशोक थाय ने एटज नहीं, परंतु वृद्ध पण अशोक थाय ने ॥ १५ ॥ हवे सुरकृत पुष्पवृष्टिलक्षण द्वितीय प्रातिहार्यातिशय कहे . चित्रं विनो! कथमवाङ्मुखटतमेव, विष्वक पतत्य विरला सुरपुष्परष्टिः ॥ त्वजोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश, गबंति नूनमधएव हि बंधनानि ॥२०॥ अर्थः-( विनो के० ) हे स्वामिन् ! अविरला के ) निरंतर ( सुरपु ष्पवृष्टिः के० ) देवतायें करेली जे पुष्पनी वृष्टि ते ( विष्वक् के० ) चारे तरफ ( अवाङ् के) नीचु बे (मुख के०) मुख जेनुं एवं जे (वृंतं के०) बीट ते ( एव के० ) जेम होय तेमज (कथं के० ) केम ( पतति के०) आकाशथकी नूमिने विषे पडे बे. ए (चित्रं के) आश्चर्य जे. हवे ( य दिवा के) एनुं दृष्टांतें करी समाधान करे . अथवा ( मुनीश के०) हे मुनीश ! (त्वज्ञोचरे के० ) तमो प्रत्यद बते तमारा समीपने विषे ( सुम नसां के० ) शोलायमान डे मन जेमनां एवा नव्यजनो तथा देवता ते उनां ( बंधनानि के०) निगमादिक बाह्य बंधन अने स्नेहादिक अध्यंतर बंधन ते ( नूनं के०) निश्चे ( हि के०) यस्मात् जे कारणमाटें (अधएव के) नीचेंज ( गळंति के०) जाय ले. अर्थात् तमारा समीपें सुमनस जे फूल तेनां बीट जे बंधन ते अधोमुख थाय बे, अने सुमनस जे जव्यजी व, तेनां बाह्यान्यंतर बंधन पण नीचां थाय ने ॥ २० ॥ हवे दिव्यध्वनिलक्षण तृतीय प्रातिहार्यातिशय कहे . स्थाने गनीरहृदयोदधिसंनवायाः, पीयूषतां तव गिरः समुदीरयंति॥पीत्वा यतः परमसंमदसंगना जो, नव्या व्रजति तरसाऽप्यजरामरत्वम् ॥११॥ अर्थः-हे स्वामिन् ! (गनीर के०) गंजीर एवो जे (हृदयोदधि के० ) हृदयरूप समुज तेथकी ( संजवायाः के) उपनी एवी जे ( तव के०) त मारी (गिरः के०) वाणी तेना (पीयुषतां के०) अमृतत्वने श्रोताउँ(समुदीर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ प्रतिक्रमण सूत्र. यंति के०) कहे ,ते (स्थाने के०) युक्तज बे. कारण के अमृतनी उत्पत्ति तो समुअथकीज जे. अने या वाणीरूप अमृतनी उत्पत्ति तो हे प्रनो ! त मारा हृदयरूपसमुअथकी थाय . हवे ए वाणीने अमृतपणुं केम घटे ? त्यां कहे . ( यतः के०) जे कारणमाटें (परम के०) उत्कृष्ट (संमद के०) हर्ष तेनो ( संग के ) संयोग तेना (जाजः केश) नजनार एवा (जव्याः के) नव्य प्राणीयो जे . ते तमारी वाणीने (पीत्वा के०) पान करीने एटले कर्णे जियें कर। आदर सहित सांजलीने ( तरसापि के०) शीघ्रपणे एटले वेगें करीने पण (अजरामरत्वं के०) अजरामरपणाने (व्रजंति के ) पामे ले. अर्थात् जेम अमृतपान जे करे , ते अजरामर थाय , तेम तमारी वाणीना श्रवणथकी पण अजरामरपणुं प्राप्त थाय ने, माटें तमारी वाणीने अमृतपणुं कडं, ते योग्यज ॥१॥ हवे चामरलकण चोथो प्रातिहार्यातिशय कहे . स्वामिन् ! सुदूरमवनम्य समुत्पतंतो, मन्ये वदंति शु चयः सुरचामरौघाः॥ येऽस्मै नतिं विदधते मुनिपुंग वाय, ते नूनमूर्ध्वगतयः खलु शुचनावाः ॥२२॥ अर्थः-वली स्तुति करतो तो कहे ,के (स्वामिन् के०) हे स्वामिन् ! हुं (मन्ये के०) एम मार्नु बु जे (शुचयः के०) पवित्र एवा (सुरचामरौघाः के०) देवताउँयें वींजेला एवा जे चामरोना समूह, ते (सुदूरं के०) अत्यंतप णे (अवनम्य के०) नीचा नमीने फरी (समुत्पतंतः के ) ऊंचा उबलता बता आ प्रकारे (वदंति के०) कहे . के (ये के०) जे मनुष्यो (अस्मै के०) श्रा प्रत्यद एवा (मुनिपुंगवाय के) मुनियोने विषे प्रधान जे श्री पार्श्व नाथ स्वामी तेने (नति के०) नमस्कार तेने ( विदधते के) करे , (ते के०) ते मनुष्यो (खनु के०) वाक्यालंकारमा डे ( नूनं के०) निश्च (ऊर्ध्व गतयः के०) उंची छे गति जेनी एवा थाय बे. तथा ( शुकनावाः के०) शुद्ध डे नाव जेमनो एवा थाय जे. अर्थात् चामरो कहे डे के अमो पण प्रजु आगल नीचां नमीने पड़ी उंचां चमीयें बैयें, तेम बीजा पण जे प्र जुने नमस्कार करनारा जव्य जीवो , ते ऊर्ध्वगतिने पामशे ॥ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याण मंदिरस्तोत्र अर्थसदित. हवे पांचमो सिंहासननामा प्रातिहार्यातिशय कहे . श्यामं गभीर गिरमुज्ज्वलहेमरत्न, सिंहासनस्थमिद नव्यशिखंडिनस्त्वाम् ॥ आलोकयंति रजसेन नदंत मु, श्रमीकराद्विशिरसीव नवांबुवादम् ॥ २३ ॥ अर्थः- ( हे स्वामिन्! या संसारक्षेत्रने विषे ( जव्य शिखं मिनः के० ) व्यरूप शिखंमी जे मोर बे, ते ( इह के० ) या समवसरणने विषे ( त्वां ho) तमोने ( उज्ज्वल के० ) निर्मल देदीप्यमान ( हेमरल के० ) सु वर्ण तथा रत्न तेणें मिश्रित एवा ( सिंहासनस्थं के० ) सिंहासनने वि बेठा थका ने (श्यामं के० ) श्यामवर्णयुक्त तथा ( गजीर गिरं के० ) गंजीर बे वाली जेमनी एवा तमोने ( रजसेन के० ) उत्सुकपणायें करीने (लोकयति के० ) जोवे बे, ते केवी रीतें जोवे बे ? तो के ( चामीकराडि के० ) मेरुपर्वतना ( शिरसि के० ) शिखर तेने विषे (उ चैः के० ) उंचे खरें करी (नदंतं के०) शब्द करतो एटले गर्जना करतो एवो ( नवांबुवाई के० ) नवीन मेघनेज ( श्व के० ) जेम. अर्थात् हिं मेरुपर्वतने स्थानके सिंहासन जावं, ने मेघने स्थानकें प्रजुनुं श्याम शरीर जाणवुं तथा गर्जनाने स्थानकें प्रजुनी वाणी समजवी ॥ २३॥ वे मंगलाख्यनामा बडो प्रातिहार्यातिशय कहे बे, उता तव शितिद्युतिमंमलेन, लुप्तदवविरशो कतरुद्भव | सान्निध्यतोऽपि यदि वा तव वीतराग, रात को सचेतनोपि ॥ २४ ॥ ३२५ अर्थ :- हे स्वामिन्! (तव के० ) तमारुं (ऊछता के० ) उंचुं जातुं एवं श्रथवा प्रसरतुं एवं (शितिद्युतिमंडलेन के० ) श्याम जे प्रजा तेनुं जे मं मूल अर्थात् नामंगल. तेणें करीने ( लुप्त के० ) लोपाणी बे एटले आ छादित (द० ) पानमानी ( बविः के० ) बवि एटले कांति अर्थात् रक्तता जेनी एवो ( अशोकतरुः के० ) अशोकवृक्ष ते ( बनूव ho ) होतो हवो. ए अर्थ युक्तज बे, केम के ? ( यदिवा के० ) अथवा ( वीतराग के० ) गयो ने रागाने द्वेष जेथकी एवा हे वीतराग ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ प्रतिक्रमण सूत्र. (तव के० ) तमारा ( सान्निध्यतोऽपि के ) सान्निध्यथकी पण एटले त मारं वचनश्रवण तथा तमारु रूपदर्शन तो दूर रहो, परंतु तमारा सान्नि ध्यथकी पण (सचेतनोपि के०) चेतनायें करी सहित एवो पण एटले अ चेतन अशोक तो पुर रहो, पण चेतना सहित जे होय ते पण (कःके०) कोण ( नीरागतां के० ) नीरागताने एटले निर्ममत्वने वैराग्यने (न के०) नहिं (व्रजति के०) पामे ? अर्थात् तमारा सांनिध्यथी जीव अवश्य नी रागीज थाय ॥२४॥ हवे देवऽऽनिलकण सातमा प्रातिहार्यातिशयने कहे बे. नोनोः प्रमादमवधूय नजध्वमेन, मागत्य निति पुरि प्रति सार्थवादम् ॥ एतन्निवेदयति देव जग त्रयाय, मन्ये नदन्ननिननः सुरउंनिस्ते ॥ २५॥ अर्थः-( मन्ये के ) हुँ एम मार्नु ढुं के, ( देव के०) हे देव! (ते के०) तमारो (सुरउंतिः के०) देवउंछनि जे , ते (अनिननः के०) आकाशने अभिव्यापीने (नदन् के०) शब्दायमान थयो बतो (जगत्रया य के०) त्रण जगत्ने (एतत् के०) या प्रकारे निवेदयति के) निवेदन करे , जेम केः-(जोनोः के) हे जगत्रयजनो! तमें (प्रमादं के०) आ लस तेने ( अवधूय के ) त्याग करीने आगत्य के०) आवीने (एनं के) ए जे श्रीपार्श्वप्रनु तेने (नजध्वं के०) नजो. ते केवा पार्श्वप्रनु बे? तो के (निवृतिपुरिप्रति के०) निवृतिपुरि जे मोदपुरि ते प्रत्ये (सा र्थवाहं के०) मार्गवाहक एवा . अर्थात् ते सुरकुंकुनि कहे जे के हे लोको! तमें प्रमाद घर करीने मोददायक एवा पार्श्वप्रजुने नजो ॥ २५ ॥ हवे बत्रत्रयनामक आठमा प्रातिहार्यातिशयने कहे जे. नद्योतितेषु नवता नुवनेषु नाथ, तारान्वितो विधुर यं विहताधिकारः ॥ मुक्ताकलापकलितोवसितात पत्र, व्याजात्रिधा धृत्ततनुर्बुवमन्युपेतः ॥२६॥ अर्थः-( नाथ के ) हे खामिन् ! ( अयं के०) था तमारा उपर जे त्रण बत्र , ते त्रण बत्र नथी, परंतु शुं जे ? तो के (मुक्ता के ) मोती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ कल्याणमंदिरस्तोत्र अर्थसदित. तेना (कलाप के) समूह, तेणें करी (कलित के०) सहित अने (उन्नास त के०) उबसित एवा जे (आतपत्र के) त्रण बत्र तेना (व्याजात् के०) मीशें करीने ( तारान्वितः के ) तारामंडल सहित बतो (ध्रुवं के) निश्चयथकी (विधा के०) त्रण प्रकार- (धृततनुः के) धारण कस्युं शरीर जेणे एवो (विधुः के०) चंद्रमा जे बे, ते तमारी सेवाकर वाने अर्थे जाणियें (अन्युपेतः के०) तमारी पासे आव्यो होय नहीं? ते चंडमा केहवो थको आव्यो ? तोके (विहताधिकारः के०) विशेषे करी ने हणाणो ने जगत्ने विषे विद्योत करवारूप अधिकार एटले व्यापार जेनो एवो . ते व्यापार शा वास्ते हणाणो ? तो के (नवता के० ) तमोयें (जुवनेषु के०) त्रण नुवन जे ते (उद्योतितेषु के०) प्रकाशित करे डे ते एटले तमें जगत्नो प्रकाश कस्यो, तेवारें चंजमाने प्रकाश करवानो थ धिकार विफलीजूते थयो ॥ २६ ॥ हवे रत्नादिनिर्मित वप्रत्रयने विषे मध्यस्थायिपणुं तथा देवें वंद्य त्व एवा लोकोत्तर अतिशयघ्यने काव्यध्ये करीने कहे . स्वेन प्रपूरितजगत्रयपिमितेन, कांतिप्रताप यशसामिव संचयेन ॥माणिक्यमरजतप्रवि निर्मितेन, सालत्रयेण लगवन्ननितोविनासि ॥॥ अर्थः-(जगवन् के०) हे जगवन् ! तमें (अनितः के०) चारे पासें (मा णिक्य के०) नील रत्न अने (हेम के०) सुवर्ण तथा (रजत के०) रू, ते में करीने (प्रविनीर्मितेन के०) प्रकर्षे करीने वीनिर्मित करेलो एवो जे(सा लत्रयेण के०) त्रण गढ, त्रिगडो गढ तेणें करीने ( विनासि के) शोजो बो, बिराजो बो, एटले एक गढ रत्नमय, बीजो सुवर्ण मय, अने त्रीजोरौप्य मय, एवा त्रण गढ़ें करीने तमें शोचो बो, ते केनी पेठे शोनो गे? तेनी उपर कवि उत्प्रेदा करे बे, ते जेम केः-(खेन के०) पोतानां ऐटले प्रनु नां (प्रपूरित केप) प्रकर्षे करीने पूडं बे (जगत्रय के०) त्रण जगत् जेणे तेणें करी (पिंमितेन के०) पिंमीनूत थश्ने रह्यां एवा ( कांति के ) शरीरनो वर्ण अने (प्रताप के०) प्रताप तथा (यशसां के० ) यश तेमना ( संचयेन के ) संचयें करीनेज एटले समूहें करीनेज (श्व के ) जा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ प्रतिक्रमण सूत्र. णीयें होय नहीं? अर्थात् कांति, प्रताप श्रने यश तेना समूहेंज जाणे शोने बे. केम के ? नीलरत्नना गढने प्रजुना श्यामवर्णनी सदृशता डे तथा सुवर्ण ना गढने नगवानना प्रतापनी सदृशता बे, तथा रूपाना गढने नगवानना यशनी सदृशता , माटें ए उत्प्रेक्षा करी, ते योग्यज डे ॥२७॥ दिव्यसृजोजिन! नमत्रिदशाधिपाना, मुत्सृज्य रत्न रचितानपि मौलिबंधान ॥पादौ श्रयंति नवतो यदि वा परत्र, त्वत्संगमे सुमनसो न रमंतएव ॥ २ ॥ अर्थः-(जिन के०) हे जिन! (दिव्यसृजः के०) मनोहर एवी जे पुष्पनी माला ते (नमत्रिदशाधिपानां के०) तमारा चरणने विषे नमेला एवा जे देवेंलो तेमना (रत्नर चितानपि के५) वैमुर्य मणिरत्नोयें रचित एवा पण ( मौलिबंधान् के०) मुकुटो जे जे तेने ( उत्सृज्य के ) त्याग करीने (जवतो के० ) तमारा (पादौ के०) चरणारविंदने (श्रयंति के) आश्र य करे बे, एटले इंझोना मुकुटमा रहेलीयो जे पुष्पमाला जे, ते मुकुटनो त्याग करीने नगवानना चरणारविंदमां पडे डे. श्राही दृष्टांत कहे .(यदिवा के ) अथवा (सुमनसः के०) पंमित अथवा देवता जे जे, ते (त्वत्संगमे के० ) तमारा संगम बते (परत्र के) अन्यस्थानकें (न रमंत एव के ) नथीज रमता. कारण के ते तमारा संग तेज आनंद पामे बे, तेम पुष्प, नाम पण सुमनस डे माटें पुष्पमालायें जे तमारा चरणा रविंदनो आश्रय कस्यो बे, ते युक्तज डे ॥॥ हवे जिनोक्त मार्गने जे आश्रय करीने रह्या , तेने जिन तारे , ते कहे बे. त्वं नाथ! जन्मजलधेर्विपराङ्मुखोपि, यत्तारयस्यसु मतो निजपृष्ठलग्नान् ॥युक्तं दि पार्थिवनिपस्य सत स्तवैव, चित्रं विनो! यदसि कर्मविपाकशून्यः॥२॥ अर्थः-(त्वं के० ) तमें ( नाथ के ) हे स्वामिन् ! (जन्मजलधेः के०) जवसमुअथकी (विपराङ्मुखोपि के.) विशेषे करी पराङ्मुख थयेला डो उता पण ( निजपृष्ठलग्नान् के ) तमारी पोतानी वांसे वलगेला ए वा (असुमतः के०) प्राणीयो जे डे, तेने (यत् के ) जे कारण माटें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणमंदिरस्तोत्र अर्थसहित. ३२ (तारयसि के ) तारो बो, ते ( पार्थिवनिपस्य के० ) विश्वना स्वामी अ ने ( सतः के ) सुज्ञ एवा ( तवैव के ) तमोनेज (हि के) निश्चें (यु क्तं के ) युक्त जे. त्यां दृष्टांत कहे जे. जेम पार्थिव जे पृथिविनी मृत्तिका तेथकी उत्पन्न थयेलो एवो ( निप के० ) घट बेते पण पाणी उपर रह्यो बतो तेना पृष्ठदेशमा लागेला जनोने तारे , तेम तमें पण पार्थिवनिप जो माटें तमारी पूंजें वलगेला जनोने संसारसमुपथकी तारो बो, ते यु क्तज . परंतु अहिंयां (चित्रं के० ) एक आश्चर्य बे, ते शुं आश्चर्य ? तोके (यत् के०) जे कारण माटें (विजो के०) हे स्वामिन् ! तमो ( कर्म विपाकशून्यः के) ज्ञानावरणादिक आठ कर्मना विपाक जे फल तेथी शून्यः एटले रहित (असि के०) बो अने पार्थिवनिप जे माटीमय घट डे ते तो कुंजकारादिकृत पचनादिक क्रियायें करी युक्त , तेथी ते कर्मवि पाकशून्य नथी, माटें एटबुंज तमारामां आश्चर्य ३ ॥ ५ ॥ हवे विरोधालंकारगर्मित एवा जिनना अचिंत्यस्वरूपने कहे डे विश्वेश्वरोऽपि जनपालक उर्गतस्त्वं, किं वादरप्रकृ तिरप्यलिपिस्त्वमीश ॥अज्ञानवत्यपि सदैव कथंचि देव, ज्ञानं त्वयिस्फुरति विश्वविकाशदेतुः॥ ३० ॥ अर्थः-(जनपालक के ) जन जे लोक तेनुं पालन करे, तेने जनपा लक कहियें. तेना संबोधनमां हे जनपालक ! (त्वं के) तमें (विश्वेश्वरो पि के) विश्व जे त्रण जगत तेना ईश्वर हो तो पण (उर्गतःकेण्) दरिद्धी बो. अहीं जे विश्वनो ईश्वर होय ते दरिडी केम होय? ए विरोधालंकार बे, ते विरोधनो परिहार करे , के तमें विश्वेश्वर बो, तो पण (उर्गतःके०) पुःखें करीने ज्ञात हो जाणवा योग्य बो. अथवा जनपालकऽर्गतः” ए शब्दनां आवी रीतें पद काहामीने अर्थ करवो, जेम केः-(जनप के०) हे जनप ! तमें (अलक के०) केश तेणें करी (उर्गतः के०) दरिद्धी बो, एट ले तमारे दीक्षाग्रहणानंतर केशवृछिनो अन्नाव डे ( वा के० ) अथवा पदांतरे (त्वं के०) तमें (ईश के०) हे स्वामिन् ! (किं के०) शुं (अदरप्रकृ तिरपि के० ) अदर एटले मोद स्वनावी बो, तो पण ( अलिपिः के०) ब्राह्मी श्रादिक लिपियें करी रहित वर्तो बो, एटले जे अदर स्वनावी ४२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० प्रतिक्रमण सूत्र. होय, तेतो लिपिरूप होय, ए पण विरोध , ते विरोधनो परिहार करे ले (अदर के०) स्थिर ने निश्चल ने (प्रकृतिः के०) स्वजाव जेनो ते अद रप्रकृति कहियें, अर्थात् शाश्वतरूप डो, अथवा अक्षर जे मोद तेज डे प्रकृति एटले स्वजाव जेनो एवा तथा (अलिपिः के०) नथी कर्मरूप लेप जेने एवा तमें बो तथा (अज्ञानवत्यपि के०) अज्ञानवाला एवा पण (त्व यि के०) तमारे विषे निश्चंथकी (विश्वविकाशहेतुः के०) त्रण जगत्ने प्र काश करवानुं हेतुलूत एवं जे (ज्ञानं के०) ज्ञान ते (सदैव के०) निरंतर (कथंचित् के०) केमज (एव के०) निश्चे (स्फुरति के) स्फुरे ? एटले जे अज्ञानवान् होय, तेने ज्ञान स्फुरे नहीं, ए विरोध बे, ते विरोधना परिहारने माटें कहे . अज्ञान अने अवति ए बे पद जूदां करीने अर्थ करवो, त्यारे (अझान् के०) ज्ञान रहित एवा जे मूर्खजन तेने (श्रवति के०) सम्यक् बोध करे बते ( त्वयि के ) तमारे विषे ज्ञान स्फुरे वे ॥३०॥ हवे जे जिननी अवज्ञा करे , तेने ते अवज्ञा अनर्थने __माटें थाय बे, ते त्रण काव्ये करी कहे जे. प्राग्नारसंनृतननांसि रजांसि रोषा, उबापितानि कमरेन शठेन यानि॥गयापि तैस्तव न नाथ! दता हताशो, ग्रस्तस्त्वमीनिरयमेव परं पुरात्मा ॥ ३१॥ अर्थः-(नाथ के०) हे नाथ ! (कमठेन के०) कमगसुर जे तेणें (रोषात् केप) कोपथकी एटले कषायना उदयथकी (यानि के०) जे रजांसि के०) रजो, तमारा उद्देशें करीने (उजापितानि के०) उमामीयो (तैः के०) ते रजोयें करीने (तव के०) तमारी (गयापि के०) शरीरनी लाया एटले कांति ते पण (न हता के०) न हणाणी, ते रज केवीयो जे? तो के (प्राग्नार के) अधिकपणायें करीने (संतृत के०) नस्यां ने व्याप्यां ले (ननां सि के०) आकाशो जेणे एवी जे. हवे ते कमगसुर केहवो ? तो के (शठे न के०) मूर्ख एवो जे. (परं के०) परंतु (हताशः के०) हणाणी जे आशा जेनी एवो (कुरात्मा के०) पुष्ट आत्मा जेनो एवो (अयमेव के०) एज कमगसुर ते पोतेंज (अमीनिः के०) एज रजोयें करीने (ग्रस्तः के०) व्याप्त थयो. अर्थात् रज जे पापरूप कर्म तेणें करीने पोतेंज व्याप्त थयो ॥ ३१ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्यांणमंदिरस्तोत्र अर्थसहित. यऊर्जऽर्जितघनौघमदनीमं, नश्यत्तमिन्मुसल मांसलघोरधारम् ॥ दैत्येन मुक्तमय इस्तरवारि दधे, तेनैव तस्य जिन ! स्तरवारिकृत्यम् ॥३२॥ अर्थ :- ( जिन के० ) हे जिन ! ( दैत्येन के० ) कमठासुर जे बे तेणें ( स्तर के ० ) दुःखें तरवा योग्य एटले असह्य एवं ( वारि के० ) पाणी ते ( यत् के० ) जे कारणें उपसर्ग करवाने माटें तमारा उपर (मुक्तं के० ) मूक्युं वर्षाव्युं, ( के० ) एटलाथकी अनंतर हवे ( तेनैव के० ) तेज पाणी ( तस्य के० ) ते कमठासुरने (दुस्तरवारिकृत्यं के०) मूंमी तरवा नुं कार्य ( दधे के० ) कीधुं एटले माठी तरवारें करी जेम बेदन भेदन थाय ते संसारनें विषे बेदन भेदनादिक लक्षण जे कार्य ते कस्युं, अर्थात् भगवाननी उपर जलप्रक्षेप जे कस्यो, ते सांसारिक दुःखहेतु वे माटें डुस्तर तरवारनी पेरें कमासुरने पोतानेज बेदन भेदन वधादिकनो हेतु थयो, हवे ते दुस्तर पाए। वर्षाव्युं ते केहबुं बे ? तो के ( गर्जत् के० ) गर्जना करतो ( उर्जित के० ) प्रबल बलवंत एवो बे (घनौघं के० ) मेघनो समूह जेने विषे एवं बे, तथा वली केहेतुं बे ? तो के (श्रीमं के० ) घणुं जयंकर एवं बे, वली केहवुं बे ? तो के ( श्यत् के० ) याका शकी पती एवी ( तमित् के० ) विजली वे जेने विषे एवं बे. वली के हवं बे? तो के (मुसल के०) मुशलना सरखी (मांसल के ) पुष्टाने (घोर के०) बीहामणी जयंकर एवी बे ( धारं के०) धारा जेने विषे एवं बे ॥३२॥ ध्वस्तोर्ध्वकेश विकृताकृतिमर्त्यमुंड, प्रालंबनृप्रय वक्त्रविनिर्यदग्निः ॥ प्रेतव्रजः प्रति जवंतमपीरितो यः, सोऽस्याऽनवत्प्रतिनवं नवङः खदेतु ॥ ३३ ॥ ३३१ अर्थः- हे स्वामिन्! कमठनामा दैत्य जे बे, तेणें ( यः के० ) जे (प्रेत व्रजः के०) दैत्यनो समूह ( जवंतं के० ) तमारी (प्रति के० ) प्रत्यें (ईरितः के० ) प्रेरयो ( सः के० ) ते दैत्यसमूह ( अपि के० ) पण ( अस्य के० ) एकमवासुरनेज (प्रतिजवं के० ) जव जवने विषे ( जवदुःख हेतुः के० ) संसारनां जे दुःख तेनुं कारण ( अजवत् के० ) होतो हवो . हवे ते दैत्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ प्रतिक्रमण सूत्र. समूह केहवो बे ? तो के ( ध्वस्त के० ) नीचें पड्या एवा जे ( ऊर्ध्वकेश के०) उपरना केश तेणें करीने ( विकृताकृति के० ) विरूप थ बे - तियो जेनी एवां जे ( मर्त्यमुंरु के० ) मनुष्यनां माथां तेनुं (प्रालंब के० ) फूलतुं एटले हृदय पर्यंत अवलंबित थाय एवं जे कुमलुं तेने (नृत् के० ) धारण करे बे, वो प्रेतव्रज बे, वली केहवो बे ? तो के ( जयद के० ) जयने देना एवां जे ( वक्र के० ) मुख तेथकी (विनिर्यदग्निः के० ) निकलेल अनि जेने एवो प्रेतब्रज बे ॥ ३३ ॥ हवे जे प्राणी जिननुं श्राराधन करे बे, तेनी प्रशंसा करे बे. धन्यास्तएव भुवनाधिप ! ये त्रिसंध्य, माराधयंति वि धिवद्विधुतान्यकृत्याः ॥ योल्लसत्पुलकपदमलदे ददेशाः, पादद्वयं तव विनो! मुवि जन्मनाजः ॥ ३४ ॥ अर्थ :- ( जुवनाधिप के० ) हे त्रण जगत्ना अधिपति ! तथा ( विजो ho) हे स्वामिन्! ( तएव के० ) तेज जनो ( धन्याः के० ) धन्य बे एट ले प्रशंसनीय बे, ते या जनो धन्य बे ? तो के ( ये के० ) जे (जन्मना जः के० ) जव्य जनो ( मुवि के०) पृथिवीने विषे ( विधिवत् के० ) विधिपू र्वक एटले जले प्रकारें करी (त्रिसंध्यं के० ) त्रणे कालें ( तव के० ) तमारुं ( पादद्वयं के० ) चरणयुगल जे बे, तेने ( आराधयंति के० ) आराधन करे बे एटले सेवे बे, ते जन धन्य जाणवा. ते केवा जनो बे ? तो के ( विधु तान्यकृत्याः के० ) विशेष करी टाल्यां वे अन्यकृत्यो एटले बीजां कार्यो जेम एवा छे, वली केहवा बे ? तो के (जयोलसत् के० ) क्तियें करी उल्लास पामतो एवो जे ( पुलक के० ) रोमांच तेणें करी ( पाल के० ) यात बे ( देहदेशाः के०) शरीरना जाग जेमना एवा ॥ ३४ ॥ हवे व काव्यें करीने ग्रंथकर्त्ता पोतानी विज्ञातिने कड़े बे. अस्मिन्न पारनववारिनिधौ मुनीश !, मन्ये न मे श्र वणगोचरतां गतोऽसि ॥ कणिते तु तव गोत्रपवि मंत्रे, किं वा विपद्वषधरी सविधं समेति ॥ ३५ ॥ अर्थः- (मुनीश के० ) हे मुनीश ! ( मन्ये के० ) हुं एम मानुं हुं, के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणमंदिरस्तोत्र अर्थसहित. ३३३ ( अस्मिन् के० ) आ ( अपारजववारिनिधौ के० ) नथी पार जेनो एवो जे संसाररूप पाणीनो समुन, तेने विषे तमें ( मे के०) महारा (श्रवण गोचरतां के०) कानना विषय ते प्रत्ये ( न गतः के ) न प्राप्त थयेला एवा (असि के०) बो, एटले में था संसार समुज्ने विषे तमोने को वारें पण सांजल्या नथी. एज वातने समर्थन करे बे, ते जेम के:-(वा के०) अथवा जो (तव के०) तमारा (गोत्रपवित्रमंत्रे के० ) नामरूप जे पवित्र मंत्र ते (आकर्णिते तु के०) श्रवण करे बते पण (विपहिषधरी के०) श्रा पदारूप जे सर्पिणी ते (किं के ) शुं ( सविधं के ) समीप. ( समे ति के ) आवे ? अर्थात् तमाळं नाम सांजव्या पड़ी तो आपदा आवे नही अने मने तो आ संसाररूप आपत्तियो आवेली बे, तेथी एम मार्नु बुं, के में पूर्वनवोने विषे क्यारे पण तमारु नाम सांजदयु नथी ॥ ३५ ॥ जन्मांतरेपि तव पादयुगं न देव!, मन्ये मया मदि तमदितदानददम् ॥ तेनेह जन्मनि मुनीश! परान वानां, जातोनिकेतनमदं मथिताशयानाम् ॥ ३६॥ अर्थः-(देव के०) हे देव! (मन्ये के०) हुँ मानुं बु, संजावना करुं बु के (मया के०) में (जन्मांतरेपि के०) जन्मांतरने विषे पण (तव के०) तमा रु (पादयुगं के) चरणयुगल जे जे तेने (न महितं के) नथी पूज्युं, ते चरणयुगल केहबु बे ? तो के (इहित के०) वांछित तेनुं जे ( दान के०) देवं तेने विषे (ददं के) चतुर एवं बे, हवे तेज कहे . जे (मुनीश के०) हे मुनीश ! ( तेन के ) तेकारण माटें (अहं के०) हुँ (श्ह के) श्रा (जन्मनि के०) जन्मने विषे ( मथिताशयानां के० ) मथन कस्यो डे चित्तनो आशय जेमणे एवा (परानवानां के५) परानवो जे तेमनुं (निके तनं के०) स्थानक (जातः के०) थयो, अर्थात् तमारा चरणारविंदनो पू जक, परानव- स्थानक होतो नथी, परंतु में पूर्व नवोने विषे तमारां च रविंद क्यारे पण पूज्यां नथी, एम नासे ॥ ३६ ॥ नूनं न मोदतिमिरातलोचनेन, पूर्व विनो! सकृ. दपि प्रविलोकितोऽसि ॥मर्माविधो विधुरयंति दिमा मनाः , प्रोद्यत्प्रबंधगतयः कथमन्यथैते ॥ ३७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ प्रतिक्रमण सूत्र. अर्थः-( विनो के० ) हे स्वामिन् ! ( नूनं के०) निश्चे में (पूर्व के०) प्रथम ( सकृदपि के०) एक वार पण तमो (न के० ) नहिं (प्रविलोकि तोऽसि के ) जोयेला बो, ते ९ केहवो ? तो के (मोहतिमिरावृतलोचनेन के) मोहरूप तिमिर जे अंधकार तेणे आवृत थयां ने नेत्र जेनां एवो ढुं. शा माटें नथी जोया ? तो के ( हि के०) जे कारण माटें (अन्यथा के०) जो तमाळं दर्शन कयुं हत तो ( एते के० ) आ, (अनर्थाः के० ) अनर्थरूप कष्टो (मां के०) मुजने ( कथं के०) केम ? (विधुरयंति के०) पीडे बे, अर्थात् पूर्वे जो तमाळं दर्शन थयुं हत, तो आ अनर्थो मुने पि मत नहीं. हवे ते अनर्थो केहवा ? तो के ( मर्मा विधः के० ) मर्मस्था नने नेदनारा ले तथा वली केहवा ? तो के (प्रोद्यत्प्रबंधगतयः के०) प्रकर्षे करी प्राप्त थ डे सविस्तर कर्मप्रबंध तेनी प्रवृत्ति जेने एवाडे ॥३७॥ आकर्णितोऽपि मदितोऽपि निरीदितोऽपि, नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि त्या॥जातोऽस्मि तेन जनबांधव ! फुःख पात्रं, यस्माक्रियाः प्रतिफलंति न नावशून्याः ॥ ३० ॥ अर्थः-(जनबांधव के० ) जन जे लोक तेना बांधव एटले हितकर्ता अर्थात् हे जनहितकारिन् ! ( मया के० ) हुँ जे तेणें कोश् नवने विषे तमो (आकर्णितोऽपि के० ) सांजव्या पण तथा ( महितोऽपि के०) पूं ज्या पण तथा ( निरीदितोऽपि के०) दीग पण परंतु ( नूनं के) निश्चें (जक्त्या के० ) जक्तियें करीने (चेतसि केश) चित्तने विर्षे (नविध तोऽसि के०) धारण करेला नथी. ( तेन के) ते कारण माटें (उःखपात्रं के) पुःखनुं पात्र, हुँ ( जातोऽस्मि के०) उत्पन्न थयेलो बु. ( यस्मात् के०) जे कारण माटे ( क्रियाः के ) आकर्णिता दिक क्रिया जे जे, ते (नावशून्याः के० ) नावें करि रहित एवी उती (न के ) नहिं (प्रति फलंति के० ) विशिष्टफल देवावाली थाय ने ॥ ३७॥ . त्वं नाथ! अखिजनवत्सल! दे शरण्य! कारुण्यपुण्यव सते! वशिनां वरेण्य!॥ जत्या नते मयि मदेश! दयां विधाय, उःखांकुरोद्दलनतत्परतां विधेदि ॥ ३ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्यांणमंदिरस्तोत्र अर्थसदित. ३३५ अर्थ : - ( नाथ के०) हे खामिन्! ( दुःखिजनवत्सल के०) दुःख बे जेने ते दुःखी कहियें, ने दुःखी एवा जे जनो तेने विषे वत्सल एटले कृपापर तेना संबोधनमां हे दु:खिजनवत्सल ! (देशरण्य कें० ) शरणें वेला प्रा ीने हितकारक तेना संबोधनमां हे शरण्य ! तथा ( कारुण्यपुण्यवसते के० ) कारुण्य जे दयापणुं तेनी पुण्य एटले पवित्र वसति एटले स्थानक तेना संबोधनने वीषे हे कारुण्यपुण्यवसते! अथवा कारुण्य जे दया ने पुण्य जे धर्म अर्थात् दया धर्मनी वसति एटले घर एवा तथा ( वशिनां वरे एय के० ) वश बे इंद्रियो जेमने एवा जितेंद्रिय पुरुषोमां वरेण्य एटले श्रेष्ठ तेना संबोधनने विषे हे वशिनां वरेण्य ! तथा (महेश के० ) मोटा एवा ईश जे स्वामी तेने महेश कहियें तेना संघोधनने विषे हे महेश ! ( जक्त्या के० ) क्तितें करीने ( नते के० ) नमस्कार कस्यो बे जेणें एवा ( मयि के०) मारे विषे (दयां के०) कृपा जे तेने ( विधाय के० ) करीने (दुः खांकुर के० ) दुःखनो अंकुर जे उत्पत्तिस्थानक, तेनुं ( उद्दलन के० ) खं न ते विषे ( तत्परतां के०) तत्परपणुं तेने ( विधेहि के० ) करो ॥ ३ ॥ निःसंख्यसारशरणं शरणं शरण्य, मासाद्य सादि तरिपुप्रथितावदातम् ॥ त्वत्पादपंकजमपि प्रणिधा नवंध्यो, वध्योऽस्मि चेञ्जवनपावन ! हा इतोऽस्मि ॥४०॥ अर्थ :- हे स्वामिन्! तथा ( भुवनपावन के० ) हे ऋण जगत्ने पवित्र करनार ! (त्वत्पादपंकजं के० ) तमारा चरणारविंदना ( शरणं के० ) शर तेने (आसाय के०) पामीने (अपि के०) पण ( प्रणिधानवंध्यः के० ) प्रणिधान जे तमारुं ध्यान कर, तेणें करीने वांकियो थयो एटले शून्य थयो एवो ( श्रस्मि चेत् के० ) जो हुं हुं, तो ( वध्यः के० ) रागादि क शत्रुयें करी हणवा योग्य हुं, ए कारण माटें ( हा के० ) हा ! इति खेदे (तोस्मि के०) दुर्दैवें मारेलो बजं. हवे तमारुं पादपंकज केहवं बे ? तो के ( निःसंख्य के० ) असंख्य एटले अनंत एवं जे (सार के० ) बल तेनुं ( शरणं के० ) घर एवं बे तथा ( शरण्यं के० ) शरण करवा योग्य बे, वली केहेतुं बे? तो के (सादित के० ) दय पमाड्या बे ( रिपु के० ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ प्रतिक्रमण सूत्र. रागादिक वैरी जेणे, तेणें करीने (प्रथित के) प्रसिद्ध ले (अवदात के ) प्रजाव जेनो एवं ने ॥ ४ ॥ देवेंज्वंद्य ! विदिताखिलवस्तुसार!, संसारतारक! विनो! जुवनाधिनाथ ॥ त्रायस्व देव! करुणाहृद मां पुनीहि, सीदंतमद्य नयदव्यसनांबुराशेः ॥४१॥ अर्थः-(देवेंड के०) देवतानो जे इंश तेणें (वंद्य के०) वंदन करवा यो ग्य तत्संबोधने हे देवेंजवंद्य ! वली ( विदित के) जाएयु डे ( अखिल के) समय (वस्तु के०) वस्तुनुं (सार के०) रहस्य जेणे, तेना संबोधन मां हे विदिताखिलवस्तुसार! तथा (संसारतारक के) हे संसारसमुख थकी तारनार ! ( विनो के०) हे समर्थ ! तथा (जुवनाधिनाथ के) हे त्रिजुवनना नाथ ! तथा ( देव के) हे देव ! तथा ( करुणाहृद के०) करुणाना अह, उपलक्षणथी हे करुणाना समुद्र ! (अद्य के) हमणां (सीदंतं के ) सीदातो विषादने प्राप्त थयो एवो ( मां के० ) मुजने (जयद के० ) जयनो देनारो एवो (व्यसनांबुराशेः के०) व्यसननो जे समुज तेथकी (त्रायख के ) रक्षण करो अने (पुनीहि के) पापनो नाश करी पवित्र करो ॥४१॥ यद्यस्ति नाथ! प्रवदंघ्रिसरोरुहाणां, नक्तेः फलं कि मपि संततिसंचितायाः ॥ तन्मे त्वदेकशरणस्य शर एय!नूयाः, स्वामी त्वमेव जुवनेऽत्र नवांतरेऽपि ॥४॥ अर्थः-( नाथ के०) हे नाथ ! ( यदि के ) जो ( नवदंघिसरोरुहा णां के ) तमारां चरणारविंदसंबंधी (नक्तेः के ) नक्तिनुं (किमपि के०) कां पण (फलं के) फल (अस्ति के) ले (तत् के) तो ( शरण्य के ) हे शरणागतवत्सल ! ( त्वदेकशरणस्य के०) जेने तमारुंज एक शरण एवा ( मे के० ) मने (अत्र के) आ (जुवने के० ) लोकने विषे तथा (नवांतरेऽपि के०) नवांतरने द्रिये ( त्वमेव के) तमेज (वा मी के०) स्वामी (नूयाः के०) था. हवे पूर्वोक्त नक्ति केहवी ? तो के ( संततिसंचितायाः के) निरंतर संताननी परंपरायें संचेती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणमंदिरस्तोत्र अर्थसहित. ३३७ एटले वृद्धिंगत थक्ष एवी . तथा आहिं चरण, तो युगल डे तथापि "अंनिसरोरुहाणां” ए बहु वचन लख्यु ते पुण्यत्वज्ञापनने माटें ॥४॥ हवे कवि स्तवननो उपसंहार करतो बतो तथा पोताना नाम ने प्रकाश करतो तो कहे बे. श्वं समादितधियो विधिवजिनेंड, सांजोल्लसत्पुल ककंचुकितांगनागाः ॥ त्वदिबनिर्मलमुखांबुजब लदा, ये संस्तवं तव विनो रचयंति नव्याः॥४३॥ जननयनकुमुदचं,प्रनास्वराःस्वर्गसंपदो जुक्त्वा॥ ते विगलितमलनिचया, अचिरान्मोदं प्रपद्यते ॥४४॥ युग्मम् ॥ इति श्रीकल्याणमंदिरनामक अष्टमस्मरणं समाप्तम् ॥७॥ अर्थः-( जिनेंड के० ) हे जिनें ! तथा ( विनो के०) हे स्वामिन् ! तथा (जननयनकुमुदचंड के०) जन जे मनुष्य तेना नेत्ररूप जे चंडविक ! सि कमल, तेने विषे चंगमा समान तेना संबोधनने विषे हे जननयनकु मुदचंड! अहिं अन्यंतरमां कवियें श्रीसिद्धसेन दिवाकराचार्य दीक्षा समय मां गुरुयें दीधेला कुमुदचंड एवा पोताना नामर्नु पण सूचन कझुंडे. (ये के) जे (नव्याः के०) नव्यप्राणीयो (श्वं के०) एम पूर्वोक्त प्रकारें (विधि वत् के०) विधिपूर्वक, (तव के०) तमारा (संस्तवं के०) स्तोत्रने (रचयंति के०) रचे ले (ते के०) जव्यप्राणीयो, (अचिरात् के०) थोमाएक कालमां (मोदं के०) अनंतान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, स्वरूप निःश्रेयसने (प्रपy ते के०) पामे . शुं करीने पामे जे? तो के ( स्वर्गसंपदः के ) देवलोक नी संपदा सुखने (जुक्त्वा के०) जोगवीने, ते केवी स्वर्ग संपदा ? तो के (प्रजास्वराः के०) प्रकर्ष एटले अत्यंत जास्वर नाम देदीप्यमान एवीयो, तथा ते जव्यो केहवा ? तो के (समाहितधियः केय) समाधिवाली ध्या नयुक्त निश्चल बे बुद्धि जेनी एवा , वली केहवा जे? तो के ( सांस्रोत सत् के०) आकरो, उल्हास पामतो एवो ( पुलक के० ) रोमांच तेणें (कं चुकित के०) कंचुकें करी सहित ले (अंगनागाः के) शरीरनो देश Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० प्रतिक्रमण सूत्र. जेनो एवा, वली केहेवा ? तो के ( त्वदिव के ) तमाहं जे प्रतिबिंब तेनुं ( निर्मल केण) मलरहित एवं जे ( मुखांबुज के ) मुखकमल तेने विषे (बलदाः के०) बांध्यु डे लदाः एटले ध्यान जेमणे एवा, तथा व ली केहेवा ? तो के ( विगलित के) विशेषे करीने गली गयो रे (म लनिचयाः के०) कर्मरजोलकण मलसमूह जेमनो एवा . अर्थात् श्रा प्रकारना कहेला एवा, जे नव्यप्राणीयो तमाकं संस्तवन करे . ते स्व र्गलोकमां देवता थश्ने त्यां स्वर्ग सुखोने नोगवी फरी मनुष्य नव पामीने थोमाक कालमां शिवसुखने पामे ॥ा स्तोत्रमा प्रायः दरेक श्लोकमां मंत्रो बे, परंतु रूमी रीतें आहीं कहेला नथी, माटें ते गुरुना आम्नायथी जा णवा ॥ ४ ॥ इति श्री कल्याणमंदिरनामकं अष्टमं स्मरणं संपूर्णम् ॥७॥ ॥ अथ ॥ ॥ बृहबांतिस्तवनामकं नवमस्मरणं प्रारच्यते ॥ नो नो नव्याः शृणुत वचनं प्रस्तुतं सर्वमे तत्, येयात्रायां त्रिनुवनगुरोराईतां नक्तिना जांः ॥ तेषां शांतिनवतु नवतामर्ददादिप्रनावा, दारोग्यश्रीधृतिमतिकरी क्वेशविध्वंसदेतुः॥१॥ अर्थः-(जोजोजव्याके) जोजो ए संबोधनें करी हे जव्याः एटले हे मुक्तियोग्य प्राणीयो! तमो (प्रस्तुतं के०) प्रस्ताव एटले अवसरने योग्य एवं अने ( सर्वं के० ) साद्यंत एवं तथा (एतत् के०) या समीपतरवर्ति एवं ( वचनं के० ) वचन जे तेने (शृणुत के०) सांजलो. ते समीपतरवर्ति एवं कयुं वाक्य ? तो के ( आर्हतां के० ) अहंत जे वीतराग ते ने देव जेने एवा (तेषां के०) प्रसिद्ध (नवतां के०) तमें ते तमारी (शांतिः के०) शांति, (नवतु केए) हो. ते शांति शेणे करीने थाय ? तो के (अर्हदादिप नावात् के० ) अर्हत्, सिक, आचार्य, उपाध्याय साधु, तेमना माहात्म्य थकी, वली ते केहवा तमो नव्य प्राणीयो के जेने शांति थाय? तो के (ये के०) जे नव्यप्राणीयो (त्रिजुवनगुरोः के) त्रिजुवनना गुरु जे जगवान् ते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ए बृदबांतिस्तव अर्थसदित. मनी ( यात्रायां के० ) यात्राने विषे (नक्तिनाजः के०) नक्तिना जजना रा बे. ते जव्य प्राणीयोने शांति थाय. हवे ते शांति केहेवी ? तो के(आ रोग्यश्रीधृतिमतिकरी के०) आरोग्य, श्री, धृति अने मति, ए चार वानां ने करनारी एवी , तथा वली (क्वेशविध्वंसहेतुः के० ) क्वेशना विध्वंस नी कारणचूत ने ॥१॥ - वली पण कहे . ॥गानो नोनव्यलोका इह हि नरतैरावतविदेद संनवानां समस्ततीर्थकृतां जन्मन्यासनप्रकंपानंतर मवधिना विज्ञाय सौधर्माधिपतिः सुघोषाघंटाचाल नानंतरं सकलसुराऽसुरेंः सह समागत्य सविनय मर्दन्नहारकं गृहीत्वा गत्वा कनकाशृिंगे विहित जन्मानिषेकः शांतिमुद्घोषयति यथा ततोऽहं कृ तानुकारमिति कृत्वा महाजनो येन गतः स पंथाः इति नव्यजनैः सह समेत्य स्नानपीठे स्नात्रं विधाय शांतिमुद्रघोषयामि तत्पूजायात्रास्नात्रादिमहोत्सवा नंतरमिति कृत्वा कर्ण दत्वा निशम्यतां निशम्यतां स्वादा ॐ पुण्याहं पुण्याहं प्रीयंतांप्रीयंतां नगवंतोऽ ईतः सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनस्त्रिलोकनाथास्त्रिलोकमदि तास्त्रिलोकपूज्यास्त्रिलोकेश्वरास्त्रिलोकोद्योतकराः ॥ अर्थः-(लोजोजव्यलोकाः के ) हे नव्यलोको ! (हि के०) जेकारण माटें (शह के ) या (जरतैरावतविदेह के०) जरत, ऐरावत अने म हा विदेह तेने विषे ( संनवानां के ) उत्पन्न थया एवा (समस्ततीर्थक तां के०) समग्र तीर्थंकरो जेने तेमना ( जन्मनि के) जन्म समयने विषे (आसन के) सौधर्माधिपतिनां आसन, (प्रकंप के०) प्रकंपित थयां तेनी (अनंतरं के० ) पठी ( अवधिना के०) अवधिझाने करीने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० प्रतिक्रमण सूत्र. (विज्ञाय के० ) जिनजन्मने जाणीने (सुघोषाघंटा के०) सुघोषानामा घंटा ना (चालनानंतरं के०) चलन एटले वगाड्या पटी (सौधर्माधिपतिः के० ) सौधर्मेंद्र जे बे ते, (सकल के० ) समग्र ( सुर के० ) देवता, (असुर के ० ) पातालवासी देवो तेना (इंदैः सह के० ) इंडोनी साथै एटले असुरसुरेंद्रो ये युक्त तो (समागत्य के०) त्यां श्रावीने (सविनयं के० ) विनय जे स्तु ति तेणें करीने (सहारकं के० ) अर्हरूप जट्टारक तेने (गृहीत्वा के० ) करसंपुटमां ग्रहण करीने (कनका द्रिशृंगें के० ) मेरुपर्वतना शिखर उपर (गत्वा के० ) जइने ( विहित के० ) निर्माण कस्यो बे ( जन्मा निषेकः के० ) स्नात्र महोत्सव जेणें एवो बतो ते स्नात्रनी समाप्ति थये बते शांतिमुद् घोषयति के० ) महोटा एवा शब्दें करीने शांतिने पठन करे बे ( ततः के०) ते कारण माटें (हं के० ) हुं पण ( कृतानुकारं के० ) तेमज अनु ति (यथा के०) जेम थाय, ( इति के०) ए प्रकारें ( कृत्वा के० ) करीने त था विचारीने, शुं विचारीने? तो के ( महाजनः के० ) इंद्रादिक देव समू ह (येन के०) जे मार्गे ( गतः के० ) प्रवत्यों (सः के० ) तेज ( पंथाः के० ) मार्ग तेने आपण पण अनुसरवुं श्रर्थात् आप पण देवसमूहें कस्युं ते म कर. (इति के० ) ए कारण माटें (जव्यजनैः के० ) जव्य प्राणीयो जि नालयने विषे (सह समेत्य के०) रूमी रीतें एकता मली साथै आवीने, ( नापीठे ho) स्नात्र पीउने विषे ( स्नात्रं विधाय के० ) श्री जिननो स्नात्र करावीने (शांतिं के०) शांतिना पाउने हुं जे (उद्घोषया मि के ० ) उद्घोषणा करुं हुं ते (तत्पूजायात्रास्त्रात्रादिमहोत्सवानंतरं के० ) तेनी पूजा, यात्रा, नात्रादि, महोत्सवानंतर ( इतिकृत्वा के०) ए प्रकारें करीने शांतिना महो त्सवनी उद्घोषणाने हे जव्यजनो ! तमो (कर्ण दत्वा के०) सांजलवा माटें कानने सावधान करीने ( निशम्यतां निशम्यतां खाहा के०) सांजलो सा लो. स्वाहा ए मंत्राक्षर पूर्वक यहिं द्विरुक्ति बे, ते अत्यादर ख्यापनने माटे . ( ० ) कार जे बे, ते पंच परमेष्ठिवाचक मंगलने माटें उच्चारण करीने कड़े बे, के हे जव्यप्राणीयो ! (पुण्याहं पुण्यां के०) आज पुण्यनो दिवस बे, पुण्यनो दिवस बे, तथा ( जगवंतः के०) समग्र ऐश्वर्ययुक्त एवां (अर्हतः के०) तीर्थंकरो ते (श्रीयंतां प्रीयंतां के० ) अतिसंतुष्ट था, तिसं तुष्ट था. ते जगवान् कहेवा बे ? तो के (सर्वज्ञाः के०) सचराचर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहबांतिस्तव अर्थसदित. ३४१ जगत् जे तेने केवलज्ञानें करीने जाणे एवा ने. वली केहवा जे ? तो के (सर्वदर्शिनः के) केवल दर्शनें करीने सर्वने जोवे बे, तथा (त्रिलोकना थाः के०) लोकत्रय जे स्वर्ग, मृत्यु अने पाताल, तेना नाथ एवा, तथा ( त्रिलोकमहिताः के०) पूर्वोक्त त्रण लोकें करी अर्चित एवा, अने वली (त्रिलोकपूज्याः के०) त्रण लोकने पूजन करवा योग्य एवा, तथा ( त्रि लोकेश्वराः के) त्रण लोकना ईश्वर एवा, तथा ( त्रिलोकोद्योतकराः के० ) अज्ञानतिमिरनाशकत्वें करी त्रण लोकना प्रकाशकारक बे. ॐ शषन अजित संनव अभिनंदन सुमति पद्मप्रन सुपार्थ चंप्रन सुविधि शीतल श्रेयांस वासुपूज्य विमल अनंत धर्म शांति कुंथु अर मल्लि मुनिसुव्रत नमि नेमि पार्श्व वईमानांता जिनाः शांताःशांतिकरा नवंतु स्वादा ॐ मुनयो मुनिप्रवरा रिपुविजय निंदकांतारेषु उर्गमार्गेषु रदंतु वो नित्यं स्वाहा ॥ अर्थः-वली ते केहवा बे ? तो के ( शांताः के०) क्रोधादिकना अन्नाव थकी उपशांत थयेला एवा तथा (जिनाः के ) रागादिकना जय कर नारा एवा श्री षनदेवजी जेमां आदि ले तथा ( वर्षमानांताः के०) श्रीवीरस्वामी ने अंतमां जेने एता चोवीश तीर्थंकरो ते (शांतिकराः के०) शांतिना करनारा एवा (नवंतु के ) हो. ( 5 के०) ॐकार मंगलार्थ वाचक जाणवो. तथा (मुनिप्रवराः के) मुनियोने विषे श्रेष्ठ एवा (मु नयः के०) साधु जे जे ते ( रिपुविजय के०) शत्रुकृत परानव, तथा (उर्जिद के० ) उष्काल तथा (कांतारेषु के) चोर कंटकादिकें दूषि तमार्गने विषे तथा (उर्गमार्गेषु के ) अरण्यमार्गने विषे ( वः के) तमोने ( नित्यं के ) निरंतर ( रदंतु के०) रक्षण करो ॥ *ही श्री धृति मति कीर्ति कांति बुद्धि लक्ष्मी मेधा विद्यासाधनप्रवेशननिवेशनेषु सुगृहीत नामानो जयंतु ते जिनेशः॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ प्रतिक्रमण सूत्र. अर्थः-(ॐ के ) कार परमात्मावाचक प्रणव बीज बे, (ही के०) हीकार मायाबीज ते वश करनार , (श्री के०) श्रीकार लदमीबीज ते अव्यागमन कारण , तथा (धृति के ) धैर्य, (मति के०) बुद्धि, की र्ति के०) यश, ( कांति के ) शोजा, (बुद्धि के०) वर्तमाने उपजती सांप्र तदर्शिनी बुद्धि, (लक्ष्मी के) धनादि संपत्ति, ( मेधा के० ) धारण कर वानी बुकि, (विद्यासाधन के०) चौद विद्यानुं साधन, तथा (प्रवेशन के०) गृहप्रवेश तथा (निवेशनेषु के०) निवेशन जे मुकाम तेने विषे (सुगृहीतना मानः केप) शोजन ग्रहवा योग्य नाम जेमनुं एवा ( ते के) ते पूर्वोक्त ( जिनेंताः के ) तीर्थंकरो ते सदैव ( जयंतु के ) जयवंता वर्तो ॥ ॐ रोहिणी प्राप्ति वजशृंखला वजांकुशी अप्रति चक्रा पुरुषदत्ता काली माहाकाली गौरी गांधारी सर्वास्त्रा महाज्वाला मानवी वैरुट्या अबुप्ता मानसी महामानसी षोमश विद्यादेव्यो रदंतु वो नित्यं स्वादा॥ आचार्योपाध्यायप्रनिति चातुवर्ण्यस्य ॥ श्रीश्रमणसंघस्य शांतिर्नवतु तुष्टिनवतु पुष्टिनवतु॥ अर्थः-वली रोहिणीश्री आरंजीने मूलमां लखेली एवी महामानसी देवी पर्यंत (षोमश के०) शोल एवी ( विद्यादेव्यः के) विद्याधिष्ठात्री देवीयो ( वः के ) तमोने (नित्यं के०) निरंतर ( रदंतु स्वाहा के) र दाण करो. ए ठेकाणे ( वाहा के ) स्वाहा नणवू. कारण के ते वृछनो आम्नाय बे. को ठेकाणे उँ स्वाहा एवो पण पाठ . वली पाहिं ( 3 के) कार ते मंगलार्थ बोलवो. पडी (आचार्योपाध्यायप्रनृति के०) श्रा चार्य अने उपाध्याय प्रमुख (चातुर्वर्ण्यस्य के०) आचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी, ए चार प्रकारवाला एवा (श्रीश्रमणसंघस्य के० ) सुशोजित एवा श्रमण जे श्रीवीर जगवान् तेना संघने ( शांतिर्नवतु के० ) शांति हो, ( तुष्टिर्नवतु के ) तुष्टि था ( पुष्टिर्नवतु के ) धर्मनी पुष्टि था ॥ ॐ ग्रहाश्चंड सूर्यागारक बृहस्पति शुक्र शनैश्चर राहु केतु सहिताःसलोकपालाः सोम यम वरुण कु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहबांतिस्तव अर्थसहित. ३४३ बेर वासवादित्य स्कंद विनायकोपेताः ये चान्येऽपि ग्रामनगर क्षेत्र देवतादयस्ते सर्वे प्रीयंता प्रीयंतां अदीणकोशकोष्ठागारा नरपतयश्च नवंतु स्वादा ॥ अर्थः-हवे वली पण पूर्वोक्त श्रीसंघने ( ग्रहाः के०) नव ग्रहोजे ले तेनां नाम कहे . चंड, सूर्य, अंगारक, बुध, बृहस्पति, शुक्र,शनैश्चर, राहु अने केतु (सहिताः के) परस्पर मल्या ते सोम, यम, वरुण अने कुबेर ए ( सलोकपालाः के० ) चार लोकपाले सहित तथा वासव ते इंस, आ दित्य ते बार प्रकारना सूर्य, स्कंद अने विनायक जे गणेश, तेणेकरी (उ पेता के ) मल्या एवा सर्व देवता (ये च अन्येपि के०) वली अनेरा प ण जे ग्राम, नगर, देवना (देवतादयस्ते सर्वे के०) देवतादिक ने ते सर्वे (प्रीयंतां प्रीयंतां केण) प्रसन्न थाले, प्रसन्न था, तथा (अदीण के०) नथी दय पाम्या एवा ( कोश के) नंमार जेना तथा ( कोष्ठागाराः के०) धान्यनां गृह जेमनां एवा ( नरपतयः के० ) राजा जे जे ते प्रसन्न (ज वंतु के ) थार्ज, ( स्वाहा के०) स्वाहानो अर्थ पूर्ववत् जाणवो ॥ ॐ पुत्र मित्र त्रात कलत्र सुहृद स्वजन सं बंधि बंधुवर्गसदिता नित्यं चामोद प्रमोद कारिणः अस्मिँश्च नूमंगलायतनानिवसिसाधु साध्वी श्रावकश्राविकाणां रोगोपसर्गव्याधि छुःखनिददौर्मनस्योपशमनाय शांतिर्नवतु ॥ अर्थः-पुत्र एटलेसुत, मित्र एटले हितकारक, व्रातृ एटले सहोदर कलत्र एटले स्त्री, सुहृद् एटले समान वयवाला, स्वजन एटले शाति, संबंधी एट ले श्वशुरपदवाला, बंधुवर्ग एटले सगोत्रीय ते ( सहिताः के) परस्पर मल्या, एवा ते सर्व (नित्यं के) निरंतर ( च के० ) वली आमोद ए टले हर्ष अने प्रमोद एटले चित्तप्रसन्नता तेने कारिणः एटले करनारा हो, तथा (अस्मिन् केu) आ मृत्युलोकने विषे (नूमंगलायतन के० ) पृथि वीमां पोताना स्थानकोने विषे ( निवासि के) निवास करनारा एवा साधु, साध्वी, श्रावक अने श्राविका तेमना रोग, उपसर्ग, व्याधि, फुःख, मुनि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ प्रतिक्रमण सूत्र. द अने उर्मनपणुं तेमना ( उपशमनाय के ) उपशमने अर्थे शांति जे , ते ( नवतु के ) हो. * तुष्टि पुष्टि इरिद्धि मांगल्योत्सवाः सदा प्राउजूतानि पा पानि शाम्यंतु उरितानि शत्रवः पराङ्मुखा लवंतु स्वाहा ॥ अर्थ-( के०) कार जे जे ते मंगलार्थज (तुष्टि के ) संतोष, (पुष्टि के) शरीरादि तोष, अथवा पुरुषार्थसाधन सामर्थ्य,(झकि के)संप त्ति, एटले धनधान्यादिबाहुल्य, (वृद्धि के०) पुत्रपौत्रादिक परिवारनो वि स्तार, (मांगल्य के०) कल्याण अने (उत्सवाः के०) पुत्रजन्म विवाहादि महोत्सव ते सर्व था, तथा (सदा के) निरंतर (प्राउजूता निके०)उत्पन्न थ यां एवांजे (पापनि के०)पापो, ते (शाम्यंतु के) शांतिने पामो. (छरिता नि के०) अशुजफलागमरूप ते पण शांतिने पामो, अने तमारा ( शत्रवः के०) वैरीयो जे बे, ते सर्व (पराङ्मुखाः के) अवधुंडे मुख जेमनुं एवा नवंतु के०) थाउँ, (स्वाहा के ) सुष्टु एटले रूमु थाह एटले कहे ॥ हवे शांतिने माटें श्री शांतिनाथने नमस्कार करतो बतो कहे . श्रीमते शांतिनाथाय, नमः शांतिविधायिने॥ त्रैलोक्यस्यामराधीश, मुकुटाच्यर्चितांघ्रये ॥१॥ अर्थः-(शांतिनाथाय के०) श्रीशांतिनाथने ( नमः के) नमस्कार थार्ज, ते श्रीशांतिनाथ केहवा जे ? तो के ( श्रीमते के० ) समवसरणा दि कि ते ने जेने एवा अने वली केहवा डे ? तो के (शांतिविधायिने के०) शांति जे पुःख पुरितोपसर्गनिवृत्तिरूप, तेने करनारा एवा, ते कोने करना रा ? तो के (त्रैलोक्यस्य के०) त्रणे लोकने, तथा वली ते केहवा ? तो के (अमराधीश के०) चोशल इंसो तेमना (मुकुट के०) मुकुट तेमणे ( अन्यर्चित के०) पूजित डे (अंघ्रये के) चरण जेमनुं एवा ॥१॥ शांतिः शांतिकरः श्रीमान् , शांतिं दिशतु मे गुरुः॥ । शांतिरेव सदा तेषां, येषां शांतिर्गदे गूदे ॥२॥ अर्थः-(शांतिकरः के०) शांतिने करनार एवा ( शांतिः के) श्रीशांति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहबांतिस्तव अर्थसहित. ३४५ नाथ, (मे के०) मने ( शांति के० ) फुःखरितोपशांतिने (दिशतु के०) आपो. कारण के (येषां के०) जमना (गृहे के०) घरने विषे (गुरुः के) यथार्थोवदेशना करनार एवा ( श्रीमान् के०) सुशोनित एवा ( शांतिः के०) श्रीशांतिनाथनामा जे जिन तेनुं पूजन थाय , ( तेषां के०) ते मना (गृहे के० ) घरने विषे ( सदा के ) निरंतर ( शांतिरेव के) शांतिज थाय ॥२॥ हवे श्री शांतिनाथना केवल नामग्रहण मात्रनुं माहात्म्य कहे जे. जन्मृष्टरिष्टउष्ट, ग्रहगतिःस्वप्ननिमित्तादि ॥ संपादितदितसंप, नामपदणं जयति शांतेः॥३॥ अर्थः-(शांतेः के०) श्रीशांतिनाथर्नु (नामग्रहणं के) नामग्रहण पण (जयति के०) उत्कृष्ठ वर्ने बे. सेवातत्पर सेवकोने सुखश्रेयस्कारक एवं वर्ते . हवे ते नामग्रहण केहबुं बे? तो के (उन्मृष्ट के ) दूर करयां ले (रिष्टपुष्टग्रहगति के०) उपजव तथा उष्ट एवी अंगारकादि ग्रहनी गति, तथा (छुःस्वप्नपुर्निमित्तादि केण) खर, उंट, महिषादिक, देखq तथा प्रह, नदी, समुसादिमां पम्वु तथा व शिरनु पम, इत्यादिक फुःस्वप्न जे उखोनां कारण ले तेने, अने वली केहबुं ? तो के ( संपादित के) संपादन करी ले (हितसंपत् के०) हितनी संपत्ति जेणे एवं ॥३॥ हवे शांतिनो उद्घोषविशेष कहे डे श्रीसंघजगजनपद, राजाधिपराज्यसन्निवेशानाम् ॥ गोष्ठिकपुरमुख्यानां, व्यादरणैादरेबांतिम् ॥४॥ अर्थः-(श्रीसंघजगजनपदराजाधिपराज्यसन्निवेशानां के०) ए सर्वना (व्याहरणैः के०) नामग्रहणे करीने तथा ( गोष्ठिकपुरमुख्यानां के०) गो ष्ठिकपुरप्रमुख जे नगरना मुख्य पुरुष तेना पण ( व्याहरणैः के०) उपक रण नामसंग्रह तेणें करीने एटले ए सहुना नाम लश् लश्ने (शांतिं के) शांति जे तेने (व्याहरेत् केण) उंचे स्वरें करीने उद्घोषणा करे॥ ४४ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ प्रतिक्रमण सूत्र. हवे पूर्वे कला श्लोकमां नामग्रहण करीने उद्घोष करवो एम जे कयुं, तेही नामो कहे बे. श्री श्रमण संघस्य शांतिर्भवतु, श्री पौरजनस्य शांति जवतु, श्रीजनपदानां शांतिर्भवतु, श्रीराजाधिपानां शांतिर्भवतु, श्रीराजसन्निवेशानां शांतिर्भवतु, श्री गोष्टिकानां शांतिर्भवतु, श्रीपुरमुख्याणां शांतिर्भव तु, श्रीब्रह्मलोकस्य शांतिर्भवतु, नैं स्वादा स्वादा ॐ श्री पार्श्वनाथाय स्वाहा ॥ अर्थ:- सुशोजित एवा श्रमण संघनी विघ्ननिवृत्तिरूप शांति था, तथा पुरने विषे वसनाएं लोकोनी विघ्नोपशमरूप शांति था. तथा जनपद जे देश तेनी विघ्नोपशमरूप शांति था. तथा राजा ने अधिपति तेनी शांति था, तथा राजाना उपदेशनस्थानक जे सन्निवेश, तेनी विघ्नोप रामरूप शांति था, तथा गोष्ठिकानां एटले धर्मसमास्यजनो तेमनी कषायो दयोपशमरूप शांति था, तथा पुरना मुख्य जे पुरुषो तेमनी विघ्नोपशमरूप शांति या ब्रह्मलोक जे बे तेनी विघ्नोपशमरूप शांति था. पहेली वार नुं स्वाहा ए पद जेबे, ते मंगलार्थ बे, तथा बीजी वारनुं ॐ स्वाहा जे पद बे, ते रूडे प्रकारें देवाने कहे बे, तथा ( ॐ श्री पार्श्वनाथाय स्वाहा के ० ) कुंकुम, चंदन, विलेपन, पुष्प, अक्षत, धूप, दीपादिक, पूजानां उपकरण श्री पार्श्वनाथने संतोषने माटें थाई ॥ हवे ते शांतिपाठ कर वखतें वो ? ते कहे . एषा शांतिप्रतिष्ठा यात्रास्त्रात्राद्यवसानेषु शांतिकलशं गृहीत्वा कुंकुमचंदनकर्पूरागरुधूपवासकुसुमांजलिस मेतः स्नात्रचतुष्किकायां श्रीसंघसमेतः शुचिशुचिवपुः पुष्पवस्त्र चंदनाजरणालंकृतः पुष्पमालां कंठे कृत्वा शांतिमुद्दोषयित्वा शांतिपानीयं मस्तके दातव्यमिति ॥ अर्थ: - ( एषा के० ) श्रा (शांतिः के०) शांतिपाठ ते ( प्रतिष्ठा के० ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृदबांतिस्तव अर्थसदित. ३४७ प्रतिष्ठाना तथा ( यात्रा के० ) यात्राना तथा (स्नात्र के०) स्नात्रना (श्रव सानेषु के०) अवसान जे अंत तेने विषे लणवो. तथाः(आदि के०)यादि शब्दें करी पाक्षिक, सांवत्सरिक प्रतिक्रमणना अंतमा अवश्य पाठ करवो, तथा वीजा पण धर्मकार्योनी समाप्तिमा मंगलार्थ ते शांतिपाठ अवश्य उद् घोषण करवा योग्य जे. हवे ते केहवी रीतें उद्घोषण करवू? ते कहे बे. कोर पण विशिष्टगुणवान् श्रावक, उनो थश्ने (शांतिकलशं के०) शांतिने माटें शुरुजलें नरेला शांतिकलशने मावा हायने विषे ( गृहीत्वा के०) ग्रहण करीने तेनी उपर दक्षिण कर स्थापन करीने (कुंकुमचंदनकर्पूरागरु धूपवासकुसुमांजलिसमेतः के०) कुंकुम, चंदन, कपूर, अगरु धूप, वास, कुसुमांजलि, तेणें समेत एटले युक्त बतो (स्नात्रचतुष्किकायां के०)स्नात्र मंझपमां (श्रीसंघसमेतः के ) चतुर्विध संघयुक्त बतो (शुचिशुचिवपुः के०) बाह्याभ्यंतर मलिनतारहित वपु एटले शरीर जेनुं एवो (पुष्प के०) पुष्प, ( वस्त्र के ) पवित्र देवपूजायोग्य जे वस्र, तथा ( चंदन के०) चंदन, (आचरण के०) वलयमुर्णिकादिक, तेमणे (अलंकृतः के० ) सुशो जित बतो (पुष्पमालां के०) पुष्पनी जे माला तेने ( कंठे के०) पोताना कंठने विषे (कृत्वा के) करीने एटले धारण करीने (शांतिमुद्घोषयित्वा के) महोटा शब्दें शांतिने उद्घोष करीने पठी ते महान् पुरुषं तथा बीजायें (शांतिपानीयं के०) शांतिकलशन जे जल तेने (मस्तके के०)मस्तक नेविषे (दातव्यं के०) देपण करb. (इति के०) इति ए समाप्तिना अर्थमां . हवे फरीने नव्यजनो स्नात्रप्रांतमां शुं करे ने ? ते कहे जे. नृत्यंति नित्यं मणिपुष्पवर्ष, सृजति गायंति च मंगलानि ॥ स्तोत्राणि गोत्राणि पति मं त्रान्, कल्याणनाजो दि जिनानिषेके ॥१॥ अर्थः-(जिनानिषेके के०) जिनना अनिषेकने विषे एटले स्नात्रमहो त्सवने विषे जे नव्यजनो ( नित्यं के ) निरंतर ( नृत्यंति के० ) नृत्य करे , (मणि केश) रत्न, उपलक्षणथी मोतीयो अने (पुष्पवर्ष के०) पंच वर्ण युक्त फूलो तेमनी वृष्टिने ( सृजंति के०) करे . ( च के० ) वली (मंगलानि के०) मंगल एवां एवां गीत अने धवल तेने (गायंति के०) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ प्रतिक्रमणसूत्र. गान करे , तथा ( स्तोत्राणिगोत्राणि के.) स्तोत्र जे तेमने तथा गोत्र जे तीर्थंकरना वंश तेमने (पति के०) पठन करे , वली (मंत्रान् के०) मंत्र गर्जित एवा पागेने पठन करे , अने वली बीजा जनोयें पठन क रेला एवा मंत्रोने सांजले , ते नव्य जीवो, ( कट्याणजाजः के) कल्या णने नजनारा एवा थाय ने. (हि के०) निश्चें ॥१॥ हवे आ ठेकाणे आशीर्वाद कहे . शिवमस्तु सर्वजगतः, परदितनिरता नवंतु नूतगणाः॥ दोषाः प्रयांतु नाशं, सर्वत्र मुखीनवंतु लोकाः॥२॥ अर्थः-(सर्वजगतः के) समग्र जगत् जे तेनुं (शिवमस्तु के०) कल्या ण थार्ज, तथा (नूतगणाः के०) प्राणिसमूह जे बे, ते (परहितनिरताः के०)परहित करवामां प्रीतियुक्त (जवंतु के०) सावधान था,तथा (दोषाः के०) दोष जे आधि, व्याधि, फुःख धर्मनपणुं ते (नाशं के) विशेषे क रीने नाशने (प्रयांतु के०) पामो, तथा ( सर्वत्र के०) सर्वस्थानकने विषे ( लोकाः के ) समग्रलोको, (सुखीजवंतु के०) सुखी था ॥२॥ अहं तिबयरमाया, सिवा देवी तुम्ह नयरनिवासिनी॥ अ म्द सिवं तुम्द सिवं, असिवोवसमं सिवं नवतु ॥ स्वाहा ॥३॥ अर्थः-(अहं के०) हुँ, (तिबयरमाया के०) तीर्थंकर जे श्री नेमिनाथ तेमनी माता, जे (सिवादेवी के) शिवा देवी बुं, ते केवी ? तो के (तुह्म के०) तमारा ( नयर के०) नगरने विषे (निवासिनी के) निवास करनारी बुं, एटले सान्निध्यकारी बु. ए कारण माटें (अह्म के) अमाकं ( सिवं के०) कल्याण हो, अने ( तुह्म के०) नामोच्चारमात्र करी तमारं (सिवं के०)कल्याण हो.(थसिवोवसमं के) अशिवनो ने उपशम जेमां एवं(सिवं के)कल्याण (नवतु के) हो. स्वाहा ए पदनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो॥३॥ उपसर्गाः दयं यांति, बिद्यते मिघ्नवल्लयः॥ मनः प्रसन्नतामेति, पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥४॥ अर्थः-(जिनेश्वरे के) जिनेश्वर ते (पूज्यमाने के) पूज्ये उते (विप्न वलयः के) विघ्ननी वलियो जे , ते विद्युते के) बेदाय , अने (मनः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशपच्चरकाण अर्थसहित. ३४ए के ) मन जे , ते ( प्रसन्नतां के०) प्रसन्नताने ( एति के) पामे डे, अ ने ( उपसर्गाः केप) उपसर्गो ( दयं यांति केण) दयने पामे ॥४॥ सर्वमंगलमांगल्यं, सर्वकल्याणकारणम् ॥प्रधानं सर्वधर्माणां, जैनं जयति शासनम् ॥ ५॥ इति ॥॥ अर्थः-(सर्वमंगल के०) सर्व लौकिक मंगलपदार्थ तेने विषे (मांगल्यं के०) मंगल करनारुं तथा ( सर्वकल्याणकारणं के० ) संपूर्ण आरोग्यतानुं कारण, ( सर्वधर्माणां के ) सर्वधर्मोने विषे (प्रधानं के०) श्रेष्ठ एवं (जै नं के) जिनसंबंधि ( शासनं के) शासन ते ( जयति के०) सर्वोत्कृष्ट वर्ने ३ ॥५॥ इति बृहबांतिनामकं नवमस्मरणं समाप्तम् ॥ ए॥ ॥अथ प्रत्याख्यानाधिकारप्रारंनः ॥ हवे गुरुवंदनाना अधिकारमध्ये पच्चरकाण घणा विस्तार नणी कह्यां नहीं, ते जणी हमणां वखाणीयें बैयें. ते पञ्चरकाण वे नेदें , एक मूल गुण पच्चरकाण, बीजु उतरगुण पच्चरकाण. तिहां मूलगुण पञ्चरकाण वली बे नेदें , एक देशथी, बीजुं सर्वथी, तेमां सर्वथी मूलगुण पञ्चकाण जे पंच महाव्रतरूप, ते तो साधुने होय, अने देशथी मूलगुण पच्चरकाण पंच अणुव्रतरूप श्रावकने होय, तेमज उत्तरगुण पच्चरकाण पण देशथी अने सर्वथी एवा बे नेदें , तिहां साधुने सर्वथी उत्तरगुण पच्चरकाण जे ,ते पिंमविशुझि, पांच समिति, बार नावना, बार प्रकार, तप, बार प्रतिमा अनिग्रह, ए आदें देश्ने अनेक प्रकारें , तथा श्रावकने देशथी उत्तर गुण पच्चरकाण जे जे, ते सात शिदाबत प्रमुखरूप ले. हवे पहेलु पमिकमणुं करतां उ मासी तपना काउस्सगमांहे जे आज अमुक पञ्चकाण करगुं, पढ़ी चौद नियम यथाशक्तियें ले गुरुमुखें पञ्च रकाण उच्चरे, अने जो गुरु प्रत्यद न होय तो स्थापनाचार्य समद, अथ वा देवपूजा करे,तेवारें देवनी समद पच्चरकाण उच्चरे, अने जो प्रजातनुं पमिकमणुं गुरु मांगले, पोशालें न की, होय, तो उपाशरे जश् गुरुने पगे बे वांदणां दश् गुरुमुखें अथवा गुरुने आदेशेकोश्साधुने मुखें पञ्चरकाण करे. ___ अहींयां गुरु अने पच्चरकाणना लेनार श्रावक आश्री चार नांगा उप जे , ते कहे . एक तो गुरु पण पच्चरकाणनो जाण, अने श्रावक पण Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० प्रतिक्रमण सूत्र. पच्चरकाणनो जाण, ए प्रथम नांगो शुझ जाणवो. बीजो गुरु जाण अने श्रावक अजाण होय, तेवारें गुरु तेने पञ्चरकाण- स्वरूप संदे समजावी ने करावे,तेथी ए नांगो पण शुद्ध जाणवो,त्रीजो गुरु अजाण , पण पञ्च काणनो करनार श्रावक जाण डे,माटें ए नांगो पण नलो जाणवो,चोथो गुरु अजाण अने श्रावक पण अजाण. ए नांगो अशुफ जाणवो. हवे ते पच्चरकाण संदेपी जोश्य तो त्रण नेदें ,एक अझापच्चरकाण, बीजं सांकेतिक पञ्चरकाण अने त्रीजुं अनिग्रह पच्चरकाण. हवे तिहां अ झा एटले काल तेनुं पञ्चकाण. ते पोरिसी, साठ्ठपोरिसी, पुरिम अवल, पदक्षपण, मासदपणादिक, ए सर्व अकापच्चरकाणमां कहेवाय. तथा बी जुं सांकेतिक पच्चरकाण, ते जिहां संकेत कीधो होय, जेम गंठसहिथं मु हिसहिअं,वींटीसहिथं प्रमुख एटले ए पञ्चकाण बीजा पच्चरकाणनी वच्चे थाय बे. जेम के को एक श्रावकें पोरिसी प्रमुख पच्चरकाण कीg होय,प बी देत्रादिकें गयो, अथवा घेर बेगंज पोरिसी पूर्ण थक्ष,परंतु हजी नोज ननी सामग्री तैयार थक्ष नथी, तेवारें विचारे जे एटलो काल वचमां अप चरकाणी पणे श्रावकने रहेवू नहीं? माटें अंगुठसहियं पञ्चकामि एटले ज्यां सुधी मुठिमां अंगुगे राखु बुं, तिहां सुधी महारे वली पण पच्चरकाण नी सीमा बे,एमज वीजी मूठि बांधी राखे,तेने मुहिसहियं पच्चरकामिक हियें त्रीजुं गांठ बांधवी ते गंठसहि कहियें, चोथु घरसहिरं,पांचमुं अं गना परसेवानो बिंड निकले,त्यां सुधी,ते सेउसहियं कहियें उस्सास सहित,सातमुं पाणीना बिंया नाजनादिकें शूके त्यां सुधीते थिबुकसहिथं कहियें,तथा आठमुं दीवाप्रमुखनी ज्योतिसहित ते,जोसहिझं कहियें ए पञ्चकाण जेम बीजा पच्चरकाणनी वच्चें थाय ,तेम जो बीजा पोरिसीयादिक पच्चरकाण न करे,अने केवल एवो अनिग्रहज करे,के गांव प्रमुख न लगे, तिहां सुधी महारे अमुक पञ्चरकाण बे,एम अनिग्रहने विषे पण ए पच्च काण थाय बे, तथा साधुने पण कोश्क स्थानकें मांझदयादिकें गुरु श्रा दिक आव्या नथी, अथवा सागारिका दिकनुं कांश कारण होय, तो पण अनिग्रहें सांकेतिक पच्चरकाण थाय बे. एने सांकेतिक पच्चरकाण कहियें. अने त्रीजु अनिग्रह प्रत्याख्यान ते विगय, नीवी, आयंबिल, प्रमुख कर वां, ए सर्व अजिग्रह प्रत्याख्यान जाणवां. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशपच्चरकाण अर्थसहित. ३५१ हवे विस्तारें जोश्यें तो साधुने अने श्रावकने उत्तरगुण पञ्चरकाण दश नेदें ,एक नवकारसहिथ बीजु पोरिसी,त्रीजुं पुरिम,चोथु एकासण,पांच मुं एकलगणुं, बहुं विगश्,सातमुं आयंबिल, बाग्मुं उपवास, नवमुंदिवस चरिम,दशमुं अनिग्रह-ए दश पञ्चरकाण तथा तेने लगता बीजा पच्चरका णना विचार अने आगारनी युक्ति कहीयें 3यें. बीजी पच्चरकाण संबंधि स विस्तर वातो प्रवचनसारोझार तथा बीजा ग्रंथांतरथी जाणवी. ॥प्रथम नमुक्कारसहिय, पच्चरकाण ॥ जग्गए सूरे नमुक्कारसदिशं पच्चकामि चनविदंपि आहारं असणं पाणं खाश्मं साश्मं अन्नबणा नोगेणं सहसागारेणं वोसिरे॥इति ॥१॥ अर्थः-(जग्गएसूरे केu) सूर्यना उदयथी मामीने बे घमी प्रमाण एट ले रात्रिनोजननो दोष निवारवाने अर्थे,बे घमी पली(नमुक्कारसहिओं के०) नवकार कहीने पालं तिहां सुधी (पञ्चरकामि के०) पञ्चरकाण करुं बुं, एटले नियम ललं बु.अहींयां नवकार कहीने पञ्चरकाण पारदुं बे, माटें ए पच्चरका णनु नाम नवकारसी कहेवाय ,तथा गुरु पच्चरकाश् कहे, अने शिष्य पच्च कामि कहे,एम सर्व पञ्चरकाणोने विषे जाणी लेवु. ए नवकारसीनु पञ्चरका ण बे घमी प्रमाण काल पर्यंत चविहारज होय, एवो आम्नाय बे, एटले रात्रिना चार पहोर जे रात्रिनोजननो नियम कस्यो हतो, तेना तीरण रू प एटले शिदारूप ए पच्चरकाण , अहीं कोई पूजे जे नवकारसीनुं मान तो एक मुहूर्त्तज लीधुं , तेने बदले जो मुहूर्तयादिक लीधां होय, तो शी हरकत ? कारण के ते काल पण पोरिसी ना कालथी अल्प डे. हवे तेने एम केहQ जे सर्वश्री स्तोक काल अझापच्चरकाणनो एक मुहूर्त ज माटें एक मुहर्त्तज लेवो. ए नवकारसी पच्चरकाण सूर्योदय पहेलां करवु अने पंचपरमेष्टि नमस्कारें करी पारवं, अन्यथा नंगदोष लागे. ए नवकारसी कस्या पठी आगले पोरसियादिक थाय, परंतु नवकारसी वि ना पोरसीयादिक न थाय. तथा को कहेशे के सायंकाल पर्यंतमां गमे ते वखत नवकार कहिने पारीयें, अथवा एक घमी पडी नवकार कहिने पारीयें, तो पच्चरकाण पहोंचे किंवा न पहोंचे ? तेने कहियें के नव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३ प्रतिक्रमण सूत्र. कारसी ए शब्दनो अर्थज श्रावो ने, के बे घमी वीत्यां नवकार जणीये त्यारेंज पहोचे, परंतु बीजे वखतें न पहोचे, ए पच्चरकाणमांबे घमी सुधी चनविहार होय,माटें बे घमी वीत्या पठी नवकार गणे,तो पहोंचे, पण बे घमी वीत्यानी अगाउ नवकार गणे,तो न पहोंचे. तथा जो दिवस उग्याथी पहेलां बे घमी नी अंदर अने पाबली वे घमीनी पड़ी जमे,तो तेने रात्रिनोजननो दोष लागे. हवे शानुं पच्चरकाण करे? ते कहे . (चनविहं पिाहारं के) चारण कारनो आहार न करवो, तेनुं पच्चरकाण करे, ते आहारनां नाम कहे जे. __ एक (असणं के० ) अशन एटले शालि, ज्वार, गोधूम, बंटी प्रमुख तथा सर्व जातिना चंदन एटले जात तथा मग, मठ अने तूवर प्रमुख सर्व कोल तथा साथुआदिक सर्व जातना लोट, तथा मोदकादिक सर्व जातिनां पक्वान्न, तथा सूरणादिक सर्व जातिनां कंद,तथा मांडा प्रमुख सर्व जातिनी केलवेली वस्तु, ए सर्वने अशन कहिये. तेमज वेशण, वरियाली, धाणा, सूआ आदिक एने पण अशनज कहिये. बीजु ( पाणं के०) पाणी ते कांजी, यव, चोखा अने काकमी प्रमुख नां धोयण तथा नदी प्रमुख सर्व जलाशयनां पाणी, ए सर्व पाणी कही यें. तथा शाकरवाणी, जादवाणी, आंबिलवाणी अने शेलडीरस प्रमुख ए सर्व, यद्यपि पाणीमांहे आवे बे. तथापि एने व्यवहारथी अशनज कहियें. त्रीजु (खाश्मं के०) खादिम ते खारेक, बदाम, शिंगोमां, खजूर, कोप रां, जादा, तथा अखोमादिक सर्व जातिनो मेवो, तथा काकमी, आंबा,फ णस अने नालियेर प्रमुख सर्व जातनां फल, तथा शेकेलां धान्य, ते जेवां केः-धाणी, पहुाप्रमुख तथा पापम प्रमुख सर्व खादिम कहियें. चोथु (साश्मं के०) स्वादिम ते दंतकाष्ठ, शुंठ, हरडे, पीपरी, मरी, अ जमो, जायफल, कसेलो, काथो, खसखस, जेठीमध, तज, तमालपत्र, ए लची, लविंग, जावंत्री, सोपारी, पान, बीमलवण, आजो, अजमोद, कलिं जण, पिंपलीमूल, चिणिकबाब, कचूरो, मोथ, कांटासेलीयो, कपूर, संचल, बेहेडां, आमलां, हिंगलाष्टक, हिंग, त्रिविसो, पुष्करमूल, जवासामूल, बाबची बाउलबाल,धवाल, खेरवाल, खिजमाबाल, पान, पंचकूल, तुलसी,जीरं, ए जीराने पच्चरकाणनाष्य तथा प्रवचनसारोछारमा खादिम कडं बे, अने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशविधपच्चरकाण अर्थसहित. ३५३ श्रीकल्पवृत्तिमांहे खादिम कडं , तथा अजमाने पण केटला एक खादिम कहे जे. तथा कोठपत्र, कोठवमी, आमलगंठी, लिंबुश्पत्र, आंबा गोटली प्रमुखने खादिम कहियें. ए चार प्रकारना आहार कह्या. हवे अनाहार वस्तु कहियें बैये. तेमां लिंबमानां पांच अंग, ते मूल, बाल, पत्र, फूल, फल, तथा गोमूत्र, गलो, कडू, करियातुं, अतिविष, सुखड, राख, हलदर, रोहिणी, उपलेट, वज, त्रिफला, धमासो, नाही, श्रासंधि, रिंगणी, एलीयो, गुगल, वोणी, बदरी, कंथेरमूल, करीरमूल पुयाम, आजी, मजीठ, बोल बीजे, कुंवार, चित्रो, कुंदरू, तमाकु, बाउलबाल प्रमुख अनिष्ट स्वादवाली वस्तु तथा स्वाद विना रोगादिक कारणे चतुर्विध आहा रादिक कल्पे, अफिण प्रमुख पण एमज जाणवां. एटले जे वस्तु खातां थकां जीवने अरुचि उपजे, अलखामणा लागे, ते सर्व अनाहार वस्तु जाणवी. ए वस्तु अहींयां प्रसंगें लखी. एम ए पूर्वोक्त चारे प्रकारना आ हारनो हुँ नियम ल बुं. हवे ए नियमनंग थवाना नयने लीधे अहीयां नोकारसीना पञ्चरकाणने विषे बे आगार मोकलां मूके , ते कहे . १ (अन्नबणानोगेणं के०) अन्यत्रानानोगात् एटले विसरवा थकी ते अहींयां पच्चरकाणनो उपयोग विसरवाथकी अजाणपणे अनुपयोगें कोश वस्तु मुखमां प्रदेप कस्याथी पच्चरकाण नंग न थाय,परंतु वचमां पच्चरकाण सांजरे,तेवारें तरत मुखथी त्याग करे,यूंकी नाखे तो पच्चरकाण न नांगे, थवा अजाणपणे मुखथकी हेतुं उतमु पठी कालांतरें सांजगुं, अथवा तुरत सांनयुं, तो पण पच्चरकाण न नांगे, पण शुद्ध व्यवहार माटें फरी निःशंक न थाय,तेमाटें यथायोग्य प्रायश्चित्त लेवू,ए रीतें सर्व आगारोने विषे जाणी लेवू. २ (सहसागारेणं के०) जे पच्चरकाण कयुं तेनो उपयोग तो विस यो नथी, पण कार्य करवामां प्रवर्त्ततां योग्य लक्षण सहसात्कार एटले खन्नावेंज मुखमध्ये प्रवेश थाय, जेम दधि मथतां बांटो जमी मुखमां पडे, अथवा गाय,नेश प्रमुख दोहोतां थकां तथा घृतादिक मथतां तथा घृतादि कनो तोल करतां अचानक बांटो मुखमां पडे, अथवा चनविहार उपवासें वर्षाकालें मेघना बांटा मुखमां पडे, तेथी पञ्चरकाण जंग न थाय. ए रीतें उक्त बे प्रकारना आगारें करी (वोसिरामि के०) बे घमी सुधी चारे थाहा रने वोसिरावं बुं, एटले अपच्चरकाणी आत्माने बांसुं बु. अहींयां 'वोसिरे ए गुरुनु वचन बे, अने 'वोसिरामि' ए शिष्यनुं वचन ने ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ प्रतिक्रमण सूत्र. ॥ अथ नमुक्कारसहिथं मुहिसहिअंनु पञ्चकाण ॥ जग्गए सूरे नमुक्कारसदिशं मुसिदिशं पञ्चकाइ चनविपि आहारं असणं पाणं खाश्मं साश्मं ॥ अन्नबणा नोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सव्व समादिवत्तियागारेणं वोसिरे ॥ इति ॥२॥ अर्थः-एना अर्थमां (मुहिसहियं के०) मूवि सहित, एटले ज्यां सुधी मूपिहोय,त्यां लगें पञ्चरकाण अने नोकार गणी मूवि मोकली मूकुं, तेवारें पच्च काण मोकलुं थाय. एना आगारोनो अर्थ बीजा पच्चरकाणोथी जाणवो ॥२॥ ___॥ अथ पोरिसि सालपोरिसिनु पञ्चकाण ॥ ॥जग्गए सूरे नमुक्कारसदिअं पोरिसिं साहपोरिसिं मुसिदिअंपच्चरकाशानग्गए सूरे चनविदंपि आदा रं असणं पाणं खाश्मं साश्मं अन्नबणानोगेणं स दसागारेणं पबन्नकालेणं दिसामोदेणं साहुवयणेणं महत्तरागारेणं सबसमादिवत्तियागारेणं वोसिरे॥३॥ अर्थः-(पोरिसिं के०) प्रहर दिवस सुधी अने (साहपोरिसिं के०) सा ऊपोरिसि एटले अर्क प्रहर सहित एक प्रहर अर्थात् दोढ प्रहर सुधी (पञ्चका के०) नियम लहुं बुं. श्हां पुरुष प्रमाण शरीरनी गया ज्यां हो य, पण अधिक न्यून न होय तेने पोरि सि कहियें, अथवा पुरुष जमणे काने सूर्यनुं बिंव राखीने, दक्षिणायनना प्रथम दिवसें ढीचणनी बाया जे वखतें वे पगलां होय, ते वखतें पोरिसी थाय. जे माटें श्री उत्तराध्ययन मां का डे के ॥ आसाढि पुलिमाए, उपया पोसे चप्पया चित्ता ॥श्रा सुए एसु मासेसु, तिपया हव पोरिसि ॥१॥ हवे हानि वृद्धि ते आ प्र. माणे जाणवी, ते जेम केः-अंगुलं सत्त रत्तेणं, परकेणं तु छ अंगुलं ॥ व. कुए हाय एवावि, मासेण चतरंगुलं ॥२॥ अर्थः-बार अंगुलनु एक पगबुं कहिये. हवे पुरुषे उनो रही जमणे काने सूर्यमंडलनुं बिंब राखीने ढीच णनी बाया जोवी. तिहां श्राषाढी पूर्णिमायें कर्क संक्रांतिना प्रथम दिवसें जे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशविधपच्चरकाण अर्थसदित. ३५५ वखत ते माया बे पगप्रमाण होय ते वखत पोरिसिकहीये. तेवार पठी महीना पर्यंत मास मासनी संक्रांतियें चार चार आंगुल वधारता जश्ये, तेवारें पोष मासनी मकर संक्रांतियें चार पगनी बायायें पोरिसी थाय. तेवार पड़ी वली मास मासनी संक्रांतियें चार चार आंगुलनी हानि करियें, तो फरी आषाढ महीने बे पगनी बाया थाय, तेमज आश्विन अने चैत्रमासें त्रण त्रण पगनी गया जाणवी, तथा तेवीज रीतें अषाढनी संक्रांति थकी सात दिवसें एक अंगुल अने पखवाडे बे अंगुल बायानी वृद्धि करवी, अने पो षमासनी संक्रांतिथकी सात दिवसें एक अंगुल अने पखवामीये बे अंगुल यानी हानि करवी, तेम महिने चार अंगुलनी हानी वृद्धि करवी, एटले पोरिसी एक प्रहरनी थइ. अने मुछिसहिअंनो अर्थ तो पूर्वे लख्यो ने, (असणंपाणंखाश्मंसाश्मं के०) अशन, पान, खादिम अने स्वादिम, ए चार प्रकारना आहारनो नियम करूं बुं. हवे आगार कहे , एक (श्र नबणानोगेणं के०) अनानोगे ते अजाणते विसारवा थकी, वीजो (स. हसागारेणं के०) सहसात्कारें. त्रीजो (पबन्नकालेणं के०) कालनी प्रचनता ते मेघादि, ग्रहादि, दिग्दाह, रजोवृष्टि तथा पर्वत अने वादल प्रमुखें करी सूर्य ढंका जाय तेणें करी वखतनी बराबर खबर न पडे एवां अजाण पणायें करी अधूरी पोरिसिये पण पोरिसि पूर्ण थक्ष, एवं समजी ने पच्चकाण पालवामां आवे. तो तेथी नंग नहीं, अने कदापि ए रीतें अधूरी पोरिसियें जमवा बेग एटलामां तावमो जोयो, अने जाएयु जे हजी सवार बे, पोरिसिनो वखत पूर्ण श्रयो नथी, तेवारें जे मुखमां कोलीयो होय, ते राखमां परवीने बेसी रहे, अने यावत् पोरिसि पूर्ण थया पड़ी जमवा बेसे, तो पच्चरकाण नांगे नहीं.. चोथो ( दिसामोहेणं के०) दिशिने मूढपणे एटले दिशिविपर्यास थ याथी अजाणते पूर्वने पश्चिम अने पश्चिमने पूर्व करी जाणे. एम अजाणतां वहेलु पलाय तो पच्चरकाण जंग नहीं, अने यो जम्या पली कोश ना कह्याथी जाणवामां आवे तो मुखमांनो कोलीयो बूंकी नाखे. ए रीतें दिङ्मोह टल्या पडी, अऊ जम्यो बेसी रहे तो जंग नहीं. पांचमो (साहुवयणेणं के०) 'उध्घाम पोरिसि' एवा साधुना वचनें करी पो रिसि जणी, सांजलीने पाले, तो पच्चरकाण नंग नहिं, पठी ज्यारे जाणवामां Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ प्रतिक्रमण सूत्र. श्रावे के साधु तो उ घमीनी पोरिसी नणे , तेवारें पूर्वली रीतें तेमज बे सी रहे, तो पच्चरकाण नांगे नहीं. ए पाबला बे आगार व्रमतानां . बहुं (सबसमाहिवत्तियागारेणं के०) सर्व प्रकारे शरीरमां असमाधि रहे, एटले पच्चरकाण कत्या पनी तीव्र शूलादिक रोग उपने थके अथवा सादिकें मश्यो होय, ते वेदनाथी जीव आर्तिमां पडे, अथवा जेवारें श्रकस्मात् कष्ट थाय, तेवारे सर्व इंजियोनी समाधिने अर्थे अपूर्ण पच्चरकाणे पण पथ्य औषधादिक लेवां पडे तो तेथी पञ्चरकाण जंग न थाय, अने समाधि थया पठी तेमज पाबलो विधि करे. इहां पण गुरु वोसिरे, कहे अने शिष्य जे पच्चरकाणनो करनार ते वोसिरामि कहे. ए पञ्चकाणमा मुछिसहिरं साथें लीधुं वे, तेथी महत्तरागारेणं ए आगार वध्यो बे, तेनो अर्थ आम बे, के (महत्तर के०) महोटे कार्ये एटले जेटलो पच्चरकाणमां निरानो लाल थाय बे, ते करतां पण अत्यंत महोटो निर्जरानो लान जे कार्यमां थतो होय, अर्थात् कोर ग्लान, प्रासाद, संघ अथवा देवना वैयावच्चने अर्थे को बीजा पुरुषथी ते कार्य न थश् शकतुं होय, त्यारें गुरु तथा संघना आदेशथी मुहिसहियंनो वख त पूर्ण थया विना पण जो पालवामां आवे, तो पच्चरकाणनंग न थाय. अने ते कार्य पूर्ण थया पड़ी पाबलोज विधि समजवो ॥३॥ ॥अथ पुरिम अवहनु पच्चरकाण ॥ ॥ सूरे जग्गए नमुक्कारसहिअं पुरिमढ मुसिदिअं पच्चरकाश्. सूरे जग्गए चनविपि आहारं असणं पाणं खाश्मं साइमं अन्नबणानोगेणं सहसागरेणं पबन्नकालेणं दिसामोदेणं साहुवयणेणं महत्तरागा रेणं सबसमादिवत्तियागारेणं वीसिरे ॥ ४ ॥ अर्थः-(सूरेजग्गए के०) सूर्यना उदयथी मामीने (पुरिमलु के०) पहे, ला प्रहर सुधी पुरिमा कहियें, अने जो अवढनु पञ्चरकाण लेवु होय, तो उपर सूत्रमा अवहy नाम कहियें अवह एटले त्रीजा प्रहर सुधी अशनादि क चार थाहार पञ्चकुंडं, एना आगारोना अर्थ प्रथम लखा गया ३ ॥४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशविधपच्चकाण अर्थसहित. ३५७ ॥ अथ विग निविगश्चं पञ्चरकाण ॥ ॥ विग निविगश्त्र पच्चरकामि अन्नबणानोगेणं सहसागारेणं लेवालेवेणं गिदबसंसहेणं रिक त्तविवेगेणं पडुच्च मस्किएणं पारिहावणियागारेणं मदत्तरागारेणं सबसमादिवत्तियागारेणं वोसिरे ॥५॥ अर्थः-जोजन करतां जे थकी कामादिक उन्मादरूप विकार थाय,तेने विग कहीयें,ते विगश्सर्व मली दश बे.तेमां मांस, मदिरा, माखण अने मध, ए चार तो अजयज बे. बाकी जय विगय न प्रकारनां . एक दूध,बीजु • दही, त्रीजुं घृत, चोथु तेल, पांचमो गोल अने बहुं पक्वान्न. ए प्रकार नी विगश्मांथी एक पण विगनुं जे पच्चरकाण करवं, तेने विग पच्च काण कहियें, अने समस्त विगश्नुंजे पच्चरकाण करवं तेने (निविगश्य पच्च कामि के०) निवि पञ्चकुं बु. एटले निवितुं पच्चरकाण कहीयें. त्यां श्रावकने निविमांहे निविआता लीधा कल्पे नहीं, जो लागठ तप मांड्युं होय, तो तेमांहे त्रण दिवस पड़ी निवियाता लीधा कट्पे. __ तथा साधुने तो एक निविमांहे निवियाता सीधा कल्पे ,अने विग श्शाता तथा जो निवियातानो नियम लीये तो,तेवारें आयंबिल पच्चरके, तेथी आयंबिलमांहे जे कल्पे, ते वस्तु टालीने बीजी सर्व वस्तुनो नियम लीये. हवे पच्चरकाण नंगना जयथी जे आगार मोकलां मूके डे, ते कहे जे. एक अन्नबणानोगेणं. बीजो सहसागारेणं. ए बेना अर्थ लखा गया बे. त्रीजुं (लेवालेवेणं के०) लेपालेप ते आवी रीतें के घृत प्रमुख जे वि गश्नो नियम साधुने होय तेवी घृतादिक विगश्थी गृहस्थनो हाथ खरमा येलो होय,पली तेने खूबीनाख्यो होय,तेवा हाथथी अथवा खरडायेला चाटु वाने खंबीने ते चाटुवाथी वहोरावे अथवा पीरसे, तो पच्चरकाण जंग न थाय. चोथु (गिहबसंसहेणं के०) गृहस्थ- जे वाटकी प्रमुख जाजन ते वि गर प्रमुखें खरड्युं होय, तेवा नाजनथी जे गृहस्थ अन्न आपे, ते अन्न विग प्रमुखें मिश्र होय, अने जो ते अन्न जमे. तो पच्चरकाण नांगे नहीं. पांचमुं. (उरिकत्तविवेगेणं के०)गाढी विग जे गोल पक्वान्नादिक ने तेना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ प्रतिक्रमण सूत्र. कटका रोटली उपर नाखी करी पढी उपामी परहा करया होय, तेवी रो टली प्रमुख लेतां पण पच्चरकाण जंग न थाय. बहु ( पच्चमरिक के० ) रोटला प्रमुखने लगारेक सुंदाला राखवा मोदीधुं होय, अथवा लगारेक हाथ चोपमी कीधी होय, ते रेचवाली रोटली प्रमुख तथा पुरुलादिक लेतां पच्चरकाण जंग न थाय. सातमुं पारिधावपियागारेणं, श्रावसुं महत्तरागारेणं, नवमं सवसमाहि वत्तित्रागारेणं, ए त्रण यागारनो अर्थ, बीजा पच्चरकाणोथी जावो ॥५॥ बेासां तथा एकासांनुं पच्चरका ॥ ॥ उग्गए सूरे नमुक्कारसहि पोरिसिं सापोरिसिं पु रिम मुसिदियं पञ्चकाइ || नग्गए सूरे चनविदंपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अन्नानोगे णं सहसागारेणं पञ्चन्नकालेणं दिसामोदेणं साहुवय णं महत्तरागारेणं सवसमादिवत्तियागारेणं बेचा सणं पञ्चकाइ तिविदपि प्रहारं असणं खाइमं साइमं अन्नचणानोगेणं सहसागारेणं सागारियागा रे पसारेणं गुरुअठाणेणं पारिठावणि यागारेणं महत्तरागारेणं सवसमादिवत्तियागारेणं पाणस्स लेवेण वा प्रलेवेण वा अत्रेण वा बहुलेवे वा स सिचेण वा प्रसिद्वेण वा वो सिरे॥एका सणां नुं पञ्चकाण करवुं दोय तो बे सणांने में एका सणं पञ्चकाइ एवो पाठ कदेवो ॥ इति ॥ ६ ॥ ७ ॥ अर्थः- उग्गए सूरे इत्यादिकनो अर्थ प्रथमनां पञ्चरकाणोमां लखाइ यो बे. ज्यां एक वार ( असणं के० ) जोजन करवुं तेने एकासएं कहियें; अथवा ज्यां एक आसन बे ते एकास कहेवाय बे, छाने बे वार अशन एटले जोजन करीयें, तेने बेचाएं कहियें, ते ( पच्चरका मि के० ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशविधपञ्चकाण अर्थसदित. ३थए पञ्चकुं बुं,एटले नियम ले बु. श्हां जो उविहंपि थाहारं करे तो बे श्रा हार ते एक अशन अने बीजुं खादिम बांडे,एटले जम्या पठी एक पाणी अने बीजुं सोपारी प्रमुख खादिम वस्तु लीये, तेवारें असणं खाश्मंनो पाठ कहीयें,अने जो तिविहंपि आहारं करे, तो त्रण आहार ते अशन, खादिम अने खादिम, ए त्रण आहार- पञ्चरकाण करे, अने जम्या पठी ए क पाणी मोकलु राखे,तेवारें असणं खाश्मं साश्मंनो पाउ कहियें. तथा च जविहंपि आहारं करे तो जम्या पली चारे प्रकारना आहारनो त्याग करे. हवे एनां आगार कहे . त्यां एक अन्नबणानोगेणं अने बीजो सहसागा रेणं, ए बे आगारना अर्थ तो प्रथम लखा गया बे. - त्रीजु (सागारियागारेणं के०) साधु जमवा बेग पठी त्यां को सागा रिक जे गृहस्थ ते आव्यो,पढी ते चाल्यो जतो होय तो क्षण एक सबूर करे, बेशी रहे, अने जो तेने त्यां स्थिर रहेतो जाणे, अने गृहस्थनी नजर प डे तो साधु त्यांथी उठीने बीजे स्थानकें जश् आहारलीये. केम के गृहस्थ नी देखतां जमे तो प्रवचनोपघातादिक महादोष सिद्धांतमां कह्या बे, ते लागे. ए साधु आश्री कह्यु, अनें गृहस्थ आश्री तो गृहस्थ एकासणुं करवा बेग पडी जेनी दृष्टि पमतां अन्न पचे नहीं, एवा को पुरुषनी दृष्टि पडे, थवा सर्पावे, चोरआवे, बंदीवान आवी जनो रहे, अकस्मात् अग्नि लागे, घर पमवा मांडे तथा अकस्मात् पाणीनो रेल आवे, इत्यादिक कारणे ते स्थानकथी उठीने बीजे स्थानकें जश् एकासणुं करतां पच्चरकाण नांगे नहीं चोथु (आजट्टणपसारेणं के०) जमवा बेग पड़ी हाथ पग जंघादिक अंगोपांग पसारतां तथा संकोचतां कां यासन चलायमाम थाय तो पञ्च काण नंग न थाय. पांचमु (गुरुअनुहाणेणं के०) पञ्चरकाणे जमवा बेगं बतां गुरु जे आचार्य,उपाध्याय तथा साधु ते आवे थके तेमनो विनय सा चववाने अर्थे बे पगने ठगमें राखी उठवू पडे. तो पच्चरकाण नंग न थाय, बई (पारिछावणियागारेणं के०) विधियें निर्दोषपणे ग्रहण करेलुं अने विधियें वेहेंची आप्युं जे अन्न तेने साधुयें विधियें जुक्त कस्यां थकां कांहिं जगघु एवं पारिष्ठापन योग्य जे अधिक अन्न ते स्निग्ध अन्नने परग्वतां जीव विराधनादि घणा दोष उपजे , एवं जाणीने तेवू अन्न तथा विग यादिकने गुरुनी आझायें एकासणादिकथी मांगीने उपवास पर्यंत पच्च Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० प्रतिक्रमण सूत्र. काण वालाने ते वधेला थाहारने जमतां पच्चरकाणनंग न थाय, पण तिहां एटबुं विशेष जे चनविहार उपवासमांहे पाणीनुं पारिफावणियागारेणं था य, अने ति विहार उपवासना पच्चरकाणे अन्नादिकनुं पारिछावणियागारे णं थाय. ए आगार यतिने होय पण श्रावकने न होय, तथापि आलावो बेटे माटें गृहस्थने एकज पाठ संलग्न कहेतां दोष नथी. सातमुं महत्त रागारेणं, अने आठमुं सबसमाहिवत्तियागारेणं एना अर्थ लखा गया . हवे पाणस्सना आगार कहीयें बैयें. जो तिविहारें तथा चलबिहारें करी एकासणुं प्रमुख पच्चरकाण कमु होय, तो अवश्य पाणस्सना आगार कही ये,तथा जो उविहारें करी एकासणुं प्रमुख पच्चरकाण कझुं होय, अने ते मां अचित्त नोजी अचित्तपाणी पीवामां लीये, तो पण पाणस्सना आगार कहीये. अने उविहार पच्चरकाणमांदे सचित्त आहर लीये, तथा सचित्त पाणी पीये, तेवारे पाणस्सना आगार न कहियें. (पाणस्स के०) पाणी, ते पाणी केहq? तो के (लेवेणवा के०) जे अन्नादिकें करीनाजनादिक खरमाय ते लेपकृत आचाम्ल, तथा उसामण गलीने पीये.आदिशब्द थकीजादादिक आम्लकादिक पानकादिक जाणवां. ते पीवाथकी पच्चरकाण नंग न थाय. बीजं (अलेवेणवा के० ) अलेपकृत पाणी ते सौवीर, कांजी, धोयण, आदिशब्दथकी गमुलजरवाणी प्रमुखने पीये तो पच्चरकाण न नांगे. त्रीजुं (अणवा के०) अ ते ऊलजल तथा बीजां पण निर्मल उकाल्यां पाणी,नीतमु फलादिकनुं धोयण प्रमुख तेने पीये तो पच्चरकण नंग न थाय, चोथु ( बहुलेवेणवा के० ) बहुलेप एटले मोहोवू चोखा प्रमुख धो वण तेने गलीने पीये, तो पच्चरकाण न नांगे, ___ पांचमुं (ससिणवा के) सिबसहित अन्नादिक दाणाना खाद विना धोवण तथा दाथरादिकनुं धोवण तेने गलीने पीये, तो पच्चरकाण न नांगे. बहुं (असिओणवा के०) सिबरहित कणक प्रमुखें हाथ खरड्यो होय, तेनुं धोवण गलीने पीये, तो पच्चरकाण नांगे नहीं, ए आगार पाणीना कह्या, ते टाली बीजा पाणीने (वो सिरामि के०) वोसिरा, बुं ॥६॥७॥ हवे एकलहाणानुं पच्चरकाण पण एकासणा प्रमाणे बे, परंतु तेमां सात आगार , माटें एक आउट्टणपसारेणं ए आगार न कदेवो ॥७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशविधपञ्चकाण अर्थसहित. ३६१ ॥ अथ श्रायंबिलपच्चरकाण लिख्यते ॥ नग्गए सूरे नमुक्कारसदिशं पोरिसिं साहपोरिसिं मुहिसदि अं पच्चकाइ. नग्गए सूरे चनविदंपि आहारं असणं पाणं खाश्मं साश्मं अन्नबणानोगेणं सहसागारेणं पबन्नकाले णं दिसामोदेणं साहुवयणेणं महत्तरागारेणं सबसमादिव त्तियागारेणं आयंबिलं पच्चरकाश. अन्नबणानोगेणं सहसा गारेणं लेवालेवेणं गिहबसंसरणं कित्तविवेगेणं पारिका वणियागारेणं महत्तरागारेणं सबसमादिवत्तियागारेणं ए गासणं पञ्चकाइ, तिविपि आदारं असणं खाश्मं साइ मं अन्नबणानोगेणं सहसागारेणं सागारियागारेणं आ उहणपसारेणं गुरुअनुहाणेणं पारिछावणियागारेणं मह तरागारेणं सबसमादिवत्तियागारेणं पाणस्स लेवेण वा अलेवेण वा अनेण वा बहुलेवेण वा ससिबेण वा असि बेण वा वोसिरे॥इति आयंबिल पच्चरकाण समाप्त ॥ ए॥ अर्थः-( श्रायंबिलंपञ्चरकाश् के० ) श्रांबिल पञ्चकुं बुं. एक अन्नबणा जोगेणं बीजुं सहस्सागारेणं ए बे आगारना अर्थ आगल लखा गया . त्रीजुं (लेवालेवेणं के०) तेमां जे विगय तथा शाकादिकने सस्नेहलें श्रांगुली तथा नाजनादिक खरड्यु होय,तेने लेप कहियें, पड़ी तेनेज घणी सारी रीतें लुंडी नाखीने जेमां विगयादिकना अवयव कांश पण देखाय नहीं एवं कलुं होय, तेने अलेप कहियें एवां लेप अलेपवालां नाजन होय अथवा हाथ लेपालेपवाला होय, एवा कांश लेप अलेपवाला नाजनें तथा हाथे पीरसवाथकी पच्चरकाण नंग न थाय. एने लेपालेप आगार कहिये. चोथु (गिहबसंसहेणं के०) गृहस्थे पोताने अर्थे हाथ तथा चाटुश्रा दिकने विगयें करी खरड्या होय, तेवा हाथे अथवा चाटुवादिकें अन्न थापे, ते अन्न जमतां थकां आंबिल जंग न थाय, पांचU (उरिकत्तविवेगेणं ४६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ प्रतिक्रमण सूत्र. के०) गाढी विगय जे गोल पक्वान्नादिक ने तेने रोटली उपर मूकीने फरी परहि करी होय, तेवी रोटली निवि आंबिलमां लेतां पच्चरकाण नंगन थाय. बहुं (पारिछावणिआगारेणं के०) पररवतो आहार लेतां एटले कोश्सा धुयें अधिक वहोयुं होय पड़ी ते तेने परग्ववानुं होय, ते परवतां तेने घणीज अजयणा लागे, अने तेज विगर प्रमुख, पोताने पञ्चरकाण पण होय,अथवा पोतें उपवासादिक तप कयुं होय, तेम बतां पण, गुरुनी श्रा झायें तेवा आहारने लेवाथकी पण नंग न थाय. सातमुं ( महत्तरागारेणं के० ) महोटी निर्धाराने लाने पच्चरकाण नां गे नहीं. आठमुं (सवसमाहिवत्तियागारेणं के) सर्व प्रकारे शरीर अस माधियें पञ्चरकाण नांगे नहीं, वो सिरामि एनो अर्थ सुलज डे ॥५॥ ॥ अथ चनविहार उपवास- पञ्चरकाण ॥ ॥ सूरे जग्गए अन्नतंह पच्चरकाश् चनविपि आदारं असणं पाणं खाश्मं साइमं अन्नबणाजोगेणं सदसा गारेणं पारिहावणियागारेणं महत्तरागारेणं सबसमा दिवत्तियागारेणं वोसिरे ॥ इति ॥१०॥ अर्थः-सूर्यना उदयथी मामीने (अनत्तपञ्चकामि के)अंजक्तार्थं एट से जात पाणीनो नियम खडं बुं, (चउविहंपि आहारं के०) चारे थाहारनो नियम लहुं ,ते चार थाहारनां नाम कहे जे.एक थशन,बीजो पान,त्रीजो खादिम, श्रने चोथो खादिम, हवे एना आगार कहे . एक अन्नबणा जोगेणं, बीजो सहसागारेणं, त्रीजो पारिछावणियागारेणं, चोथो महत्तरागारेणं, अने पांचमो सबसमाहिवत्तियागारेणं, एना अर्थ लखा गया . तथापि पारिकावणियागारेणंगें विशेष एवं ने के, पाणी अने आहार ए बे वानां कोई परवतो होय तो गुरुनी आझायें आहार कीधो कल्पे, पण एकलो आहारज को पररवतो होय तो ते आहार कीधो कल्पे नहीं, केम के ? चविहार पाणीनो नियम के अने पाणी विना मुख शुद्ध न था य मा. पाणी अने आहार ए बे वानां को परठवतो होय तो चनविहार उपवासमां लीधा कल्पे,अने तिविहार उपवासमां तो पाणी मोकढुंबे,माटें एकलो आहार कोपरग्वतो होय तो पण गुरुनी आज्ञायें लीधो कल्पे॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशविधपञ्चरका प्रर्थसदित. ॥ अथ तिविहार उपवासनुं पञ्चरका ॥ ॥ सूरे नग्गए नत्त पञ्चकाइ तिविदपि यदारं अ सणं खाइमं साइमं अन्नानोगेणं सहसागारेणं पा रिठावणियागारेणं महत्तरागारेणं सवसमादिव त्तियागा रे पाणदार पोरिसिं सापोरिसिं मुसिदियं घरस दियं पञ्चरका इ. उग्गए सूरे पुरिम प्रवङ्कं पञ्चकाइ. अन्नानोगेणं सहसागारे पचन्नकालेणं दिसामोदे णं साहुवयणेणं महत्तरागारेणं सङ्घसमादिवत्तियागारेणं पाणस्स लेवेण वा प्रलेवेण वा अत्रेण बहुलेवेण वा ससिचेण वा सिचेण वा वोसिरे ॥ इति ॥ ११ ॥ अर्थ : - ( सूरेजग्गए के० ) सूर्यना उदयथी यरंजीने ( अमत्त के० ) अक्तार्थं एटले उपवास प्रत्यें ( पच्चरकामि के० ) पञ्चकुं तुं, ए त्रिविहा रमां एक पाणीनो आहार मोकलो, बाकीना ( असणं के० ) अशन अने (खाइमं के० ) खादिम, तथा (साइमं के०) स्वादिम ए (तिविहं पिश्राहारं ho) त्रण थाहार न करवा, तेनो नियम लउं बुं- हवे एना श्रागार कहे बे. एक अन्नाजोगेणं, बीजो सहसागारेणं, त्री जो पारिघाव पियागारेणं, चोथो महत्तरागारेणं, पांचमो सबसमा हिवत्तिश्रागारेणं. एनाद्यर्थलखाणाबे ३६३ 0 ए पच्चरकाणमां ( पाणहार के० ) पाणीनो आहार मोकलो बेतेनो अवधि तथा यार कहे बे. (उग्गएसूरे के० ) सूर्यना उदयथी प्रारंजी ने (पोरिसिं के०) प्रहर लगे ( सापोरिसिं के० ) मोढ प्रहर लगे ( मुहि सहि के० ) नोकार गणी मूठि मोकली मूके तेवारें पच्चरकाण मोकलुं थाय. ( घरसहिi ho ) पोताने घेर जई नवकार गणी पच्चरकाण पारुं ( जग्गसूरे के० ) सूर्योदयथी प्रारंभीने ( पुरिमन के ० ) बे प्रहर लगें ( व के० ) अवटु लगें ( पच्चरका मि के ० ) पच्चकुं ढुं. हवे पाणी न पीवाना वखत सुधीना आगार कहे बे. एक अन्नाजागेणं, बीजो सह सागारेणं, त्रीजो पनन्नकालेणं, चोथो दिसामोहेणं, पांचमो साहुवयणेणं, बो महत्तरागारेणं, सातमो सवसमाहि वत्तियागारेणं. एना अर्थ लखाणा बे. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ प्रतिक्रमणसूत्र. __ हवे (पाणस्स के०) पाणी पीवाना आगार , ते कहे , (लेवेण वा के०) लेपजल ते खजूरनुं तथा पाठण, बीजं (अलेवेणवा के०) अलेप जल ते धोयण प्रमुख, त्रीजुं (अबेणवा के०) निर्मल उष्ण पाणी, चोथु (बहुलेवेणवा के०) महोबुं तांदूलनुं धोत्रण प्रमुख, पांचU (ससिडेणवा के०) सीथ सहित पीउनुं धोयण, बहुं (असिछेणवा के०) सीथरहित फासू जल एटलां टाली बाकीनां पाणीने (वोसिरामि के) वो सिरा, बुं ॥११॥ ॥ अथ च ह लत्तादिक, पञ्चकाण आवी रीतें कहेतुं ॥ सूरे जग्गए चनबनतं अन्नत्त पञ्चरकाइ.सूरे जग्ग ए बहनत्तं अन्नत्तहं पच्चकाइ, सूरे जग्गए अहम जत्तं अन्नत्तहं पच्चरकाइ. इत्यादिप्रकारे आगार स दित कदेवू. एना अर्थ सुलन ने ॥॥ हवे ए पञ्चरकाणने प्रसंगें दश विगयमांहेला उ जद विगय बे, ते प्र त्येकना पांच पांच निवियाता करतां त्रीश निवियाता थाय जे. ते कहे . प्रथम दूध विगयना पांच निवियाता कहे . त्यां एक जे दूध घणुं होय, अने चोखा थोमा होय, तेनें पेया कहे बे, बीजो खाटी बाश सहित जे दूध अर्थात् दूधमा खटाश नाखी पचावीयें अथवा त्रण दिवसनी प्रसूत गाय दूध उकालीयें तेने पुकही कहे .त्रीजुंपाद टोपरादिक नाखीने रांधेदुं जे दूध, तेने पयसामी कहे जे. चोथु चोखानो थोमो लोट नाखीने रां धेबुं जे दूध, तेने अवलेही कहे . पांचमो चोखा घणा अने दूध थोमु,एरी ते जे रांधेलु होय तेने खीर कहे . नेदांतरें वली एना पण नेद थाय ने हवे दहींनां पांच निवियाता कहे . एक दहींने घोलीने अथवा उ कालीने तेमां वडां नाखे, तेने घोलवडां कहे जे. बीजुं दहीं घोलीने वस्त्र मांथी गालीये तेने मथ्थु अथवा गएयुं दहीं कहे . त्रीजुं दहीने हाथ थी मथन करी तेमा खांड अथवा साकर नेलीयें तेने शिखरणी अथवा शिखंग कहे जे. चो\ दही अने रांधेला चोखा एकग करीयें तेने करबो कहे वे. पांचमुं खूण नाखीने जे दहीं मथन करेलुं होय तेने सलवण कहे . . हवे घृतना पांच निवियाता कहे जे. एक औषधियें करी पकावेj घृत तेने पक्कघृत कहे जे. बीजु घृतनी कीटी जे मेल थाय ने ते वघारि प्रमुख, त्रीजें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशविधपच्चरकाण अर्थसदित. ३६५ जे घृतमां को औषधि पकाव्युं होय तेना उपरनी तरी घृत, खंगादिकस हित तेने पक्वौषधि घृत कहे जे. चोथु पक्वान्न तलतां वधेदुं घृत तेने नितंज न कहे . एटले त्रण घाण तल्या परीनुं रहेलु घृत अथवा सीरादिक उप रखें घृत जालवू. पांचमुं दहीनी तरीमां गहूंनो लोट नाखीने जे तावडे त पावी. तेने विसंदण कहे . एना पण नेदांतर नेद घणा थाय बे. हवे तेलना पांच निवियाता कहे . एक तिलकुटी ते घाणीमांहे ति ल पीलेलानी सामी तेमांहे खंमादिक नाखे ते. बीजी तेलनी मली, त्रीजी लादादिक अव्ये करी पकावेलुं तेल, चोथु पाकेला औषधनी तरी. पांच मुं घाण पबवाडेनुं बलेढुं तेल, एना पण नेदांतरे नेद घणा थाय बे. ___ हवे गोल विगयना पांच निवियाता कहे जे. एक अर्को काढेलो शेलमी नो रस, बीजं गोलवाणुं, गोलनी राब, गोलना पाणीमां लोट नाखे ते, त्रीजो शाकरनी जात, चोथो खांगनी जात सर्व जाणवी, पांचमो गोलनी पाती जाणवी. एना पण नेदांतरें नेद घणा थाय बे. . हवे कडाविगयना पांच निवियाता कहे .जो एक काजांवडे कमाइन राश्ग होय तो तेथी बीजुं खानुं निवियातुं थाय बे, पण तेमां मात्र बीजु घृत नाखवू न जोश्ये,तेज घृत वडे पकावीयें, तेने प्रथम निवियातो कहीये. बीजं एकनी उपर एक नाखीयें एम त्रण घाण उपरांत तेज घृतमा जे चो थो पकावीयें, ते बीजो निवियातो जाणवो. त्रीजो गोलधाणी, गोलपापमी प्रमुखनो निवियातो जाणवो. चोथो पाणी, गोल, घृत, एकगं उकाली पड़ी ते पाणीमां लोट नाखी रांधेली लापशी करीयें, ते निवियातो जाण वो. पांचमो निवियाते करी चोपडी काहाडेला तावमानी उपर पुमला प्र मुख करे, ते पांचमो निवियातो जाणवो. एना पण नेदांतर घणा थाय बे. ॥ अथ ह अध्मादिक तप करे अने बीजा दिवसादिकं पाणी वाव रवु होय, त्यारे पाणहारनुं पञ्चरकाण करे, ते कहे . ॥पाणदार पोरिसिं मुंसिदिशं पञ्चरकाश. अन्नवणा जोगेणं सहसागारणं महत्तरागारेणं सबसमादिवत्तिया गारेणं पाणस्स लेवेण वा अलेवेण वा अबेण वा बद्ध लेवेण वा ससिडेण वा असिडेण वा वोसिरे॥इति ॥१३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. ॥ अथ गंग्स हियं यदि यनियहोनुं पच्चरका ॥ ॥ गंग्सदिच्यं वेश्वसहित्र्यं दिवसदिच्यं धिबुगसहिां मुसिदियं पञ्चकाइ अन्नणानोगेणं सदसागारे णं महत्तरागारेणं सवसमादिवत्तियागारेणं वो सिरे ॥१४॥ ॥ अथ चउद नियम धारनारने देसावगा सिकनु पञ्चरका ॥ देसावगासियं नवजोग परिनोगं पञ्चकाइ अन्नानोगेणं सदसा गारेणं महत्तरागारेणं सवसमादिवत्तियागारेणं वो सिरे ॥ इति ॥ १५ ॥ ३६६ : अर्थः- (देसावगा सिद्धं के० ) दिशिना श्रवकाशनुं व्रत अथवा बका नि यम श्री तो ( देस के० ) थोमामां अवकाश खाणे, तेने देशावका शिक व्रत कहियें. एटले इहां जे एकली दिशिनुंज पञ्चरकाण करे, तेवारें जबजोग परिजोगनो पाठ न कहियें तेने देसावगा सियं पच्चरका मिज कहियें. ( उव जोग के० ) एकवार जोगवीयें एवा आहार तथा विलेपनादिक तेने उप जोग कहियें. ने ( परिनोगं के० ) वारंवार जोगवियें एवी वस्तु जे या जर वस्त्रादिक तेनुं प्रमाण करे, एटले जे चौद नियम संजारे, तेने ए उपजोग परिजोगनो पाठ कहियें, एना श्रागारोनो अर्थ सुलन बे ॥ १५ ॥ ॥ अथ चउद नियमनी गाथा कहे बे ॥ ॥ सचित्तदव विगई, वाद तंबोल व कुसुमेसु ॥ वाढ सय विलेवण, बंज दिसि न्हाण जत्तेसु ॥ १ ॥ अर्थः- पहेलुं ( सचित्त के० ) पाणी, फल, बीज, दातण, कण प्रमुख सचित्त चीजनुं प्रमाण करे. बीजु ( दव के० ) जे वस्तुनो जिन्न स्वाद ते द्रव्य कहियें, तेनुं मान करे, त्रीजुं (विगइ के० ) घृत प्रमुख व विगय मां जेटली खावाने मोकली राखवी होय, तेनुं मान करे, उपरांत निषेध करे. चोथुं (वाह के० ) उपानह ते पगरखानुं मान करे. पांचमुं ( तं बोल के० ) पान सोपारी प्रमुख सर्वने तंबोल कहीयें, तेनुं मान करे. बहुं (aa ho) वस्त्र जे पोताना शरीरें वापरवानां वस्त्र होय, तेनुं मान करे. सात (कुसुमेसु के०) फुलनुं मन करे. यामुं ( वाहण के० ) वाहन ते अश्व, पालखी, मोली, गामां प्रमुख जे वादन, तेनुं मान करे. नवसुं (स Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशविधपच्चरकाण अर्थसहित. ३६७ यण के०) शय्या तथा श्रासन प्रमुखनुं मान करे, दशमुं ( विलेवण के० ) चंदन तेल प्रमुख विलेपन करवानी वस्तुनुं मान करे. अगीयारमुं (बंन के ) ब्रह्मचर्य पालवाने मैथुननी मर्यादा करे. वारमुं ( दिसि के ) दि शिविदिशिनुं मान करे. तेरमुं ( न्हाण के०) स्नान कंकोमी प्रमुखें नाईं, तथा अंघोलीनु मान करे. चौदमुं (नत्तेसु के०) नात पाणीनुं मान करे. अहिंयां बीजा पण नियम , ते प्रसंगें लखीयें बैयें, पन्नरमुं पृथ्वीकाय थाश्री माटी, मीतुं, खडी प्रमुख पोताने निमित्तें वावरे, तो तेनुं प्रमाण करे. शोलमुं अप्पकाय श्राश्री पाणी पीवामां अथवा न्हावा प्रमुखमा वापरवामां श्रावे, तेनुं प्रमाण करे. सत्तरमुं तेजकाय आश्री पोताना शरी रना नोगोपनोगमां चूला, चाडी, शघमी,अंगीठी प्रमुखनुं रांध्यु,नीपज्यु, तपाव्युं, शेक्यु, तेनुं प्रमाण करे. अढारमुं वायुकायथाश्री पंखा, हिंचोला, पमदा तथा बुगमादिकथी पवन करवानुं प्रमाण करे. जंगणीशमुं वनस्प तिकाय श्राश्री लीलां फल, फूल, शाक, दातण प्रमुख खावानुं तथा वा वरवानुं प्रमाणकरे. वीशमुं त्रसकाय जे त्रास पामे एवा जीव ते कीमी कीमा, विंठी, गाय मत्स्य, पक्षी, मनुष्य, देव नरकादिक मांहेला को जी वने विना अपराधे संकल्प करी मारूं नहीं. तेनो नियम करे. एकवीशमुं असि ते तरवार, नालां, तीर, बुरी, कोश, कोदाल, पावमा, घंटी प्रमुख जीवघात करनारी वस्तुनो नियम करे. बावीशमुं मसी ते शाश्ना खमीया, कलम प्रमुख वापरवानुं प्रमाण करे.त्रेवीशमुं कृषि ते जमीन खोदवादिक घर हाट क्षेत्र प्रमुख तलाव कूपा दिकने खोदवा, तथा तेना शस्त्रनो निय म करे, ए चौदे नियमादिक त्रेवीश बोल जे , ते जेवी रीतें पोताथी पसे तेवी रीतें अवश्य पाले ॥१॥ ॥अथ सांऊनां पच्चरकाण ॥ ॥ बेश्रासण,एकासण, निविग, आयंबिल, उपवास, ह अहमादि त प करनार ऊष्णजल वावरे, ते सांजे पाणहारनुं पञ्चरकाण लीये ते कहे बे. ॥अथ पाणहार दिवसचरिमर्नु पञ्चरकाण ॥ ॥पाणदार दिवसचरिमं पञ्चकाइ अन्नबणानोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सबसमादिवत्तियागारेणं वोसिरे ॥इति ॥१६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ प्रतिक्रमण सूत्र. ॥ अथ रातें चविहार करवो, तेनुं पच्चरकाण ॥ ॥ दिवसचरिमं पञ्चकाइ चनविपि आदारं असणं पाणं खाश्मं साइमं अन्नबणानोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारेणं सबसमादिवत्तियागारेणं वोसिरे॥१७॥ अर्थः-( दिवसचरिमं के० ) दिवसना बेडाथी मामीने नवो सूर्य उगे त्यां सुधी (पच्चरकामि के०) पञ्चकुं बु. (चउविहं पि आहारं के०) चवि हार ते चार प्रकारना आहारने पञ्चकुं बुं. शेष अर्थ सुलन डे ॥ १७ ॥ ॥ अथ रात्रं तिविहार ते एक पाणी मोकळु राखे, तेनुं पञ्चकाण ॥ ॥ दिवसचरिमं पच्चरकाश तिविपि आदारं असणं खाश्मं साइमं अन्नबणानोगेणं सहसागारेणं महत्त रागारेणं सबसमादिवत्तियागारेणं वोसिरे ॥ १७ ॥ ॥अथ रात्रै उविहार ते पाणी अने खादिम मोकलु राखे,तेनुं पच्चरकाण॥ ॥ दिवसचरिमं पच्चकाइ विपि आदारं असणं खा इमं साइमं अन्नबणानोगेणं सहसागारेणं महत्तरागारे णं सबसमादिवत्तियागारेणं वोसिरे ॥इति ॥१५॥ ॥अथ पञ्चकाणना आगारनी गाथा ॥ दोचेव नमुक्कारे, आगारा बचेव पोरिसिए ॥ सतेवय पुरिमढे एकासणगंमि अव ॥१॥ सत्तेगहाणेसु अ, अवय अंबि लंमि आगारा ॥ पंचेव य जत्तठे, बप्पाणे चरिमचत्तारि ॥२॥ पंचचउरो अनिगहे, निवीए अनव आगारा ॥ अप्पाउ रणे पंचचन हवंति सेसेसु चत्तारि ॥४॥ ॥ हवे उ प्रकारें पच्चरकाण शुरू थाय , ते कहे .॥ ॥ फासिअं, पालिअं, सोहिअं, तीरिअं, किहिअं, आरादि अं, जंच न आरादिअं, तस्स मिलामि उक्कडं ॥ इति ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशविधपञ्चरका अर्थसहित. ३६० अर्थः- पञ्चरका विधें कस्युं, उचित वेलायें जे प्राप्त थयुं, तेने फासिां कहियें. पञ्चरकाण वारं वार उपयोग देने संजारखं, तेने पालि कहियें. प्रथम गुरुने हर पाणी देइ थाकतुं जोजन करवुं, तथा अतिचार न ल गाव तेने शोजित कहियें. (ती रिघं के०) पञ्चरका पूगा पी पण थो hi अधिक काल ये पालवं, निर्मल करखं. ( किट्टियां के० ) जोजन वे लायें अमुक माहारे पच्चरकाण बे, एम संजारवु. ( आरा हिां के० ) पच्चरका णजे रीतें कीधुं, ते रीतें श्राराध. ए व सुधी जाणवी (जंचनारा हिांके ० ) जे में पच्चरकाण न याराध्यं होय, अतिचार लगाड्या होय. ( तस्स मिठा मिडु करुं के०) ते महारं पाप मिथ्या था. एवा पच्चरकाणोने विषेज विवेकी पुरु षें उद्यम करवो; केम के ? शुद्ध धर्मनें प्रजावें जीव मोक्ष प्रमुखनां सुख पामे॥ अथ साधुजीने चौद प्रकारना दाननी निमंत्रणा करवी, ते कहे ॥ ॥ पञ्चरकाण कश्या पढी बे ढींचा अने मस्तक नू मियें लगामी, माबे हाथे मुखें मुहपत्ती देइ जमणो हाथ गुरुने पगें लगानी चावी रीतें कहे. ॥ इवाकारि जगवन् पसाय करी फासू एस ि जेणं असणं पाणं खाइमं साइमेणं वच पडिग्गढ़ कं बल पाय पुणेणं पाडिहारिा पीढ फलग सिधा सं थारएणं उसद नेसतेणं जयवं श्रणुग्गहो कायवो ॥ अर्थः- इवाकारि जगवन्, पसाय करी प्राशुक एटले चित्त (एसणि hi के० ) ऐषणिक ते सुजतो एटले जे साधुने कल्पे, एवो आधाकर्मादिक दोष रहित शन, पाणी, ( खाइमं के० ) सुखमी, ( साइमं के० ) शुंव, हलदर प्रमुख (व के०) वस्त्र ते चोलपटादिक, ( परिग्गह के० ) पढगा दिक पात्रां प्रमुख, ( कंबल के० . ) कांबली, ( पायपुछणेणं के० ) बेसवानुं पोट, ( पामिहारि के० ) अणवहोरी वस्तु जे गृहस्थनी थकां वाव रीने पनी गृहस्थाने पाठी पाय बे, तेवी वस्तु ( पीढ के० ) बाजोव, ( फलग के० ) पार्टीयुं, ( सिद्या के० ) वस्ति, एटले रहेवानो उपाश्रय, ( संचार एवं के० ) पाट अथवा मान प्रमुख, वली ( सह के० ) औषध जे क्वाथ, चूर्ण, गोली प्रमुख एकज वस्तु होय ते ( नेसणं के० ) त्रिगडू, ४७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. त्रिफला प्रमुख, ए पूर्वोक्त वस्तुयें करी (जयवं के०) हे जगवन् गुरुजी ( अणुग्गहोकायवो के०) अनुग्रह करवो, एटले जे जोश्ये ते वहोरजो. ॥ अथ पञ्चरकाण पारवानो विधि ॥ ॥प्रथम इरियावहियाए पमिकमीयें यावत् जगचिंतामणिर्नु चैत्यवंदन जयवीयराय सुधी करवू. पठी मन्ह जिणाणंनी सद्याय कही, मुहपत्ती पडि सेहवी.श्वामिण्श्छाकापच्चरकाण पारु,यथाशक्ति श्वामिण्श्छाका पच्चरका ण पाखु, तहत्ति एम कही जमणो हाथ कटासणां चरवला उपर थापी एक नवकार गणी पञ्चरकाण कयुं होय ते कही पारवं, ते लखीयें बैयें. ॥ जग्गए सूरे नमुक्कारसहिथं पोरिसिं सापोरिसिं गंठसहिथं मुह सहियं पञ्चरकाण कयुं चनविहार आंबिल,नीवी,एकासणुं बेआसणुं कह्यु तिविहार पच्चरकाण फासि.पालिअं,सोहिअं, ती रिश्र, किटिअंबाराहि अंजं च न आराहियं तस्स मिठामि उक एम कही एक नवकार गणवो. ॥अथ सामायिक लेवानो विधि ॥ ॥ प्रथम जंचे आसने पुस्तक प्रमुख मूकीने श्रावक,श्राविका कटासणुं, मुहपत्ती चरवलो लेशशुफ वस्त्र जग्या पुंजी,कटासणा उपर बेसी,मुहपत्ती माबा हाथमां मुखपासें राखी,जमणो हाथ थापनाजी सन्मुख राखी, एक नवकार गणी पंचिंदिय कही,श्वामि खमासमण देश इरियाव हिया, तस्स उत्तरी, अन्नब उससिएणं कही, एक लोगस्सनो अथवा चार नवकारनो कालस्सग्ग करी,पारी, प्रगट लोगस्स कही,खमासमण देश, श्ठाकारेण सं दिसह नगवन् ,सामायिक मुहपत्ती पमिलेढुं ? श्वं एम कहि मुहपत्ती तथा अंगनी पमिलेहणना पचास बोल कही, मुहपत्ती पमिलेहियें. पली खमास मण देण्श्छाकारेण संदिसह नगवन्!सामायिक संदिसाइं? श्वं. वली ख मासमण देश.श्वासामायिक गजं? श्वं. एम कही बे हाथ जोमी एक नवकार गणी,श्वाकारी नगवन्, पसाय करी सामायिक दंगकउच्चरावोजी. तेवारें वमिल करेमी नंते कहे. पड़ी खमासमण देश् श्वा बेसणे संदिसा हुँ ?॥ श्वं खमा॥श्वा॥ बेसणे गउं? खमा॥ श्वं श्वा० ॥ सद्याय सं दिसाडं ॥श्वं खमा० ॥ श्वा० ॥ सजाय करूं ॥ श्वं ॥ एम कही त्रण नवकार गणवा, पठी बे धमी सजाय धर्म ध्यान करवू ॥ इति ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चरकाण पारवानो तथा सामायिक लेवानो विधि. ३१ ॥ अथ सामायिक पारवानो विधि ॥ ॥ खमासमण देश इरियावहि पमिकमवाथी जावत् लोगस्स सुधी क ही खमा॥श्वाणामुहपत्ती पमिलेहुं कही, मुहपत्ती पडिले हि, खमासमण देश ॥श्वासामायिक पारं. यथाशक्ति वली खमासमण देश, श्वा० ॥ सा मायिक पालुं; तहत्ति कही,पली जमणो हाथ चरवला उपर अथवा कटा सणां उपर थापी,एक नवकार गणी,सामाश्यवयजुत्तो कहियें पड़ी जमणो हाथ थापना सन्मुख सवलो राखीने एक नवकार गणी ऊठवू ॥ इति ॥ ॥ अथ पमिलेहण करवानो विधि ॥ ॥ नवकार पंचिंदिय कही इरियावहि पमिकमी स्थापना होय तो नव कार पंचिंदिय न कहेवू.पली तस्सउत्तरी कही, एक लोगस्स अथवा चार नवकारनो कामस्सग्ग करी,प्रगट लोगस्स कही उन्ने पगें बेसी मुहपत्ती, कटासणुं,चवलो,उत्तरासण,धोतीयुं,कंदोरो,आदें पमिलेहवां, पड़ी काजो का हामी,जीव कलेवर सचित्त श्रादे जोवु-पड़ी काजो काहामनार थापनाजी सन्मुख जनो रही इरियावहि पमिकमे,पठी काजो परउववा जग्या शोधी त्रण वार अणुजाणह जस्सग्गो कही,काजो परग्वे, पनी त्रण वार वोसिरे कहे ॥ इति पमिलेहण करवानो विधि ॥ ॥अथ देव वांदवानो विधि ॥ ॥ प्रथम इरियावहि पमिकमवाथी मामीने जावत् लोगस्स कही, पनी उत्तरासण नाखीने चैत्यवंदन नमुलुणं कही,थानवमखंडा सुधी अर्कोजय वीधराय कहे वली बीजु चैत्यवंदन करी, नमुनुणं कही जावत् चार थोयो कहीयें,वली नमुनुणं कही जावत् बीजी चार थोयो कहियें बैये, त्यां सुधी बधुं कहे, पठी नमुखुणं तथा वे जावंती कही, एटले जावंति चेश्या तथा जावंत केवि साहु ए बे कही. उवसग्गहरं अथवा स्तवन कही थ को जयवीयराय थानव मखमासुधी कही,पठी चैत्यवंदन कही नमुबुणं कही संपूर्ण जयवीयराय कहेवा. प्रनाते देव वांदवा तेमांमन्ह जिणाणंनी स जाय कहेवी,अने मध्यान्हें तथा सांके देव वांदे तेमां सजाय न कहेवी॥ इति ॥ अथ देवसि प्रतिक्रमण विधि प्रारंजः ॥ ॥ प्रथम सामायिक लीजें पड़ी पाणी वावगुं होय तो मुहपत्ती पमिले Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ प्रतिक्रमण सूत्र. हवी,अने श्राहार वावस्यो होय तो वांदणां बे देवां,त्यां वीजा वांदणामां श्रावसीयाए ए पाठ न कहेवो.यथाशक्ति पञ्चकाण करवू. खमासमण देश श्वाकारेण कही, वडेरा अथवा पोतें चैत्यवंदन कहीने पढ़ी जंकिंचिनमु बुणं कही,उन्ना थईने अरिहंतचेश्याणं कहीने एक नवकारनोकाउस्सग्ग करी नमोऽर्हत्ण्कहिने प्रथम थोय कहेवी.पली लोगस्स,सव्वलोए,अरिहंत चेश्याणं कहीने एक नवकारनो काउस्सग्ग पारीने बीजी थोय कहेवी. पली पुरकरवरदी कही,सुअस्स नगवर्ड करेमि काउस्सग्गं वंदण एक नव कारनो काउस्सग्ग पारी त्रीजी थोय कहेवी. पठी सिकाणं बुजाणं कही वेयावच्च गराणं करेमि कानस्सग्गं अन्नबण्कही एक नवकारनो कामस्सग्ग पारी,नमोऽहत्ण्कही,चोथी थोश् कहेवी.पली बेसी हाथ जोमी नमुलुणं क हे. पली चार खमासमण देवा पूर्वक लगवान् , आचार्य, उपाध्याय सर्व साधु प्रत्ये थोन वंदन करियें पड़ी श्वाकारेण ॥ देवसि प्रतिक्रमणे ग जं, एम कही, जमणो हाथ चवला कटासणा उपर थापीने श्वं सबसवि देवसिअण्कहे, पनी उन्ना थर करेमि नंते श्वामि गमि काउस्सग्गं जो में देवसि तस्सउत्तरी कही,पडी आउ गाथानो काउस्सग्ग करवो. आ उ गाथा न आवडे तो आठ नवकारनो काउस्सग्ग करवो,ते पारीने,पढी लोगस्स कहेवो पली बेसीने त्रीजा आवश्यकनी मुहपत्ती पमी लेहीने वांदणां बे देवां,पली उना थश्ने श्वाका देवसिथ आलोजं श्वं आलो एमि जो मे देव सिउँ कहींने,पठी सात लाख कहेवा-पठी अढार पाप स्था नक आलोश्ने सवस्सवि देवसिय कहीने बेसबुं बेसीने एक नवकार गणी पड़ी करेमि नंते श्वामि पमिकमिलं कहीने,वंदित्तु कहेवू,पली वांदणां बे देवां. पली अनुचिहं अप्रिंतर देव सित्र खामीने वांदणां बे देवां. पठी उ जा थ आयरिय उवज्ञाए कहीने, करेमि नंते श्वामि गमि काउस्सग्गं जो मे देवसिण्तस्सउत्तरी कही,पली बे लोगस्सनो अथवा आठ नवका रनो कामस्सग्ग करी लोगस्स प्रगट कहेवो,पठी सवलोए,अरिहंत चेश्या णं,वंदणवत्तिश्राए कही,एक लोगस्स अथवा चार नवकारनो कास्सग्ग पारीने,पुरकरवरदीसुअस्स नगवर्ड करेमिण्वंदण एक लोगस्स अथवा चार नवकारनो काउस्सग्ग पारीने, सिकाणं बुझाएंकही सुअदेवयाए करेमि काउस्सगं एक नवकारनो काउस्सग्ग पारी नमोऽर्हत् कही, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिवसी तथा राइप्रतिक्रमण विधि. ३७३ पुरुषं सुअदेवयानी पहेली थोय कहेवी, अने स्त्री कमलदलनी पहेली थोय कहेवी. पठी खित्तदेवयाए करेमि काउस्सग्गंग कही एक नवकारनो काउस्सग्ग पारी नमोऽर्हत् कही देत्र देवयानी बीजी थोय स्त्रीयें तथा पुरुषे बन्नेयें कहेवी.पठी प्रगट एक नवकार गणी बेसीने,हा आवश्यकनी मुहपत्ती पमिलेहि,बे वांदणां आपीयें,पठी सामायिक चनविसबो,वंदनक, पमिकमj,काउस्सग्ग अने पञ्चरकाण ए उ आवश्यक संजारवां. पठी श्वा मि अणुसहिं कही नमो खमासमणाणं कही,नमोऽहत् कहीने पुरुष, नमो स्तु वर्षमानाय कहे,अने स्त्री संसार दावानी त्रण गाथा कहे. पठी नमुटु णं कही स्तवन कहे.पळी वरकनक कही नगवान् आदें वांदवा-पली जम णो हाथ उपधी उपर थापी अवाश्सु कहेवू पनी देयसिथ पायबित्तनो काउस्सग्ग चार लोगस्सनो अथवा शोल नवकारनो करवो. पड़ी ते काउ स्सग्ग पारी,प्रगट लोग्गस्स कही,बेसीने खमासमण बे देश सद्यायनो आ देश मागी एक नवकार गणी,सद्याय कहीयें,पली वली एक नवकार गणी ये,पठी पुस्करकळ कम्मकउनो काउसग्ग चार लोगस्सनो संपूर्ण अथ वा शोल नवकारनो करवो.एक वडेरे अथवा पोतें पारीने नमोऽहत् कही लघुशांति कहेवी,पली प्रगट लोगस्स कहेवो,पली इरियावही तस्स उत्तरी कही एक लोगस्स अथवा चार नवकारनो काउस्सग्ग करी प्रगट लोग स्स कहेवो. पठी चउकसाय कही, नमुबुणं, जावंति बे कही,उवसग्गहरं, जय वीयराय कही,मुहपत्ती पमिलेहवी.श्वामि॥श्वाका॥ सामायिक पारं. य थाशक्ति श्वामिणाश्बाका॥सामायिक पालुं तहत्ति कही, पड़ी जमणोहा थ उपधी उपर थापी एक नवकार गणीने सामाश्अवयजुत्तो कहेवो. पड़ी थापना होय तो एक नवकार गणी उठे ॥ ए देवसि प्रतिक्रमणनो विधि कह्यो,बाकी अंतरविधि वडेराथी समजवो॥इति देवसि प्रतिक्रमण विधि ॥ ॥अथ राइ प्रतिक्रमण विधि ॥ ॥प्रथम पूर्वली रीतें सामायिक लीजें,पबी कुसुमिण ऽसुमिणनो काउ स्सग्ग चार लोगस्सनो अथवा शोल नवकारनो करी,पारी,प्रगट लोगस्स कहेवो,पली खमासमण देश जगचिंतामणिर्नु चैत्यवंदन जयवीयराय सुधी करवु. पनी चार खमासमण पूर्वक लगवान् ,आचार्य,उपाध्याय, सर्व साधु प्रत्ये वांदवा,खमासमण बे देश,सशायनो आदेश मागी एक नवकार ग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ प्रतिक्रमण सूत्र. णीने जरदेसरनी सझाय कहीने फरी एक नवकार गणवो. पढी कार सुहराइनो पाठ कहेवो. पी बाका०राइ प्रतिक्रमणे ठाउँ कहीने जमणो हाथ उपधी उपर स्थापी ने इवं सवस्सवि राज्य दुर्चितिय कही ॥ नमुनु तथा करेमि ते कही. इछामि गमि काउस्सग्गं० जोमेराइयो तस्सउ तरी कही एक लोगस्स अथवा चार नवकारनो काउस्सग्ग पारी प्रगट लोगस्स कही, सोए अरिहंत कही, एक लोगस्स अथवा चार नवकार नो काजस्सग्ग पारी पुरकरवरदी सुप्रस्स०वंदण कही, तिचारनी याव गाथानो अथवा या नवकारनो काउस्सग्ग पारी, सिद्धाणं बुद्धाणं कही नेत्रीजा यावश्यकनी मुहपत्ती पहिलेही वांदणां वे देवां त्यांथी ते अहि खामि वांदणां वे दीजें, त्यां सुधी देवसीनी रीतें जाणवुं पण जे गमैं दे वसि यावे ते गमें राश्यं कहेतुं पी आयरिश्र उवझाए करेमि जं ते वामि वामि काउस्सग्गं तस्स उत्तरी कही, तप चिंतामणि करतां न वडे तो चार लोगस्सनो अथवा शोल नवकारनो काउस्सग्ग करवो. ते पारी प्रगट लोगस्स कही, पती उद्या यावश्यकनी मुहपत्ती पमिलेहीने वां दणां देवां, पी तीर्थवंदन कर, पठी यथाशक्तियें पच्चरकाण करवुं पडी इवाकारेण संदिसह जगवन्! सामायिक, चच विसञ्चो, वंदनक, पक्किम, का उस्सग्ग अने पञ्चरका ए व आवश्यक संजारवां- पच्चरका कस्युं होयतो कर बे जी कहे, ने धातुं होय तो धाखुं वे जी ? एम कहेतुं पटी इलामो सहिं नमो खमासमणाणं नमोऽर्हत्०, विशाल लोचन, नमुनु, अरिहं तचेश्याएं एटलां कही एक नवकारनो काउस्सग्ग पारीने नमोऽर्हत्० क ही कल्याणकंदनी प्रथम थोइ कहेवी पठी लोगस्स, पुरकरवर दि, सिद्धाणं बु कही अनुक्रमें चार थोयो कहीयें ढैयें त्यां सुधी सर्व कहेतुं पछी न कही, जगवान् यदि चारने चार खमासमणे वांदवा. पी जमणो हाथ उपधी उपर थापी अठ्ठाइस कहे .पी श्रीसीमंधर स्वामीनुं चैत्य वंदन, स्तवन, जयवीयराय, काउस्सग्ग थोय पर्यंत कर. पी खमासमण पूर्व क श्री सिद्धाचलजीनुं चैत्यवंदन, स्तवन, जयवीयराय, काउस्सग्ग थोय सुधी कर. पी सामायिक पारवाना विधिनी रीतें सामायिक पारवा सु धी कहेतुं ॥ इति ॥ ॥ अथ परिकप्रतिक्रमणनो विधि लिख्यते ॥ ॥ देवसि प्रतिक्रमणमां वंदित्तुं कहियें बैयें त्यां सुधी सर्व कहे, पण चैत्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परकी प्रतिक्रमणविधि. ३७५ वंदन सकलाऽहत्तुं कहेवू ने थोयो स्नातस्यानी कहेवी. पड़ी खमासमण देश्ने श्छाकारेण संदिसह जगवन् , देवसिथ आलोश्यं पमिकंता श्छा का परिक मुहपत्ती पडिलेडं, एम कही मुहपत्ती पमिलेहियें. पनी वांदणां बे दीजें,पली श्वाकाण्संबुझा खामणेणं अनुहिउहं अप्निंतर परिकथं खा मेलं श्व खामे मि परिस्कयं पन्नरस दिवसाणं पन्नरसराश्याणं जंकिंचि अप त्ति कही श्छाका कही परिकअं आलोएमि छ आलोएमि जो मे प रिक अश्यारोकजे कही श्छाकाण्कही परिक अतिचार आलोजं,एम कहीने अतिचार कहियें पड़ी एवंकारें श्रावक तणे धर्मे श्रीसम कित मूल बा र व्रत एकशो चोवीश अतिचारमाहे जे को अतिहार पद, दिवसमांहे सूक्ष्म, बादर जाणतां अजाणतां हुई होय, ते सवि हुँ मनें, वचनें काया यें करी मिछामि उक्कलं. सबस्सवि,परिकथ, उचिंतित्र,नासिश्र, चिकि अ, श्वाकारेण संदिसह नगवन् ,तस्स मिठा मि उकडं. श्वाकारि नगवन्! पसा करी परिक तपःप्रसाद करोजी. एम उच्चार करीने आवी रीतें क हियें. चउबेणं एक उपवास, बे आयंबिल त्रण निवि, चार एकासणां, आठ बियासणा, बे हजार सद्याय,यथाशक्ति तप करी प्रवेश कस्यो होय तो पर हि कहिये. अने करवो होय तो तहत्ति कहियें. तथा न करवो होय तो अण बोल्या रहियें. पडी बे वांदणां दीजें; पठी श्छाका पत्तेय खामणेणं अप्न हिउहं अप्रिंतर परिकअं खामेलं खं खामेमि परिकरं पन्नरस दिवसाणं पन्नरस राश्याणं जंकिंचि अपत्तियं पली वादणं बे दीजें,पली देवसिझं आलोश्य पमिकंता श्छाकारेण संदिसह जगवन्, परिकअं पमिकमुं समं पमिकमामि छ एम कही करेमि नंते सामाश्यं कही,श्यामि पमिक मिलं जो मे परिकर्ड कह्या पड़ी ख़मासमण देश श्छाकारेण कही परिकसूत्र पहुँ, एम कही त्रण नवकार गणी साधु होय तो परिकसूत्र कहे, अने साधु न होय तो त्रण नवकार गणीने श्रावक वंदित्तुं कहे,तिहांप्रथम सुअदेवयानी थोय कहेवी. पठी हेग बेसी जमणो ढीचण उन्नो राखी एक नवकार गणी करेमि नंते श्वामि पमिकमिलं कही, वंदित्तु, कहे. पली करेमि नं ते,श्छामि गमि काउस्सग्गं,जो मे परिकर्ड,तस्स उत्तरी, अन्नबण्कहीने बार लोगस्सनो काउस्सग करवो. ते लोगस्स चंदेसु निम्मलयरा सुधी कहेवा, अथवा अमतालीश नवकारनो काउस्सग्ग करीने पारवो. पारीने प्रगट लो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ प्रतिक्रमण सूत्र. गस्स केहवो. पनी मुहपत्ती पडिलेहीने, वांदणां बे दीजें. पली इलाका समाप्त खामणेणं अनुहिउहं अप्रिंतर परिकथं खामेलं श्छ खामे मि परिकथं एक परकाणं पन्नरस दिवसाणं पन्नरस राश्याणं जं किंचि अपत्तिअंग कही पड़ी खमासमण देश्ने श्छाका कही, परिक खामणा खामुं? एम कहीने खामणां चार खामवा. पठी देवसि प्रतिक्रमणमां वंदित्तु कह्या पड़ी वांद णां बे देश्ने त्यांथी सामायिक पारियें, त्यां सुधी देवसिनी पेठे जाणवू; पण सुअदेवयानी थोयोने ठेकाणे ज्ञानादिक्कनी थोयो कहेवी, स्तवन अ जितशांतिनुं कहेवू, सद्यायने ठेकाणे नवसग्गहरं तथा संसारदावानी चार थोयो कहेवी.अने लघुशांतिने ठेकाणे महोटी शांति कहेवी ॥इति॥ ॥ अथ चउम्मासी प्रतिक्रमण विधि ॥ ॥ ए उपर लखेला परिकना विधि प्रमाणेज बे, पण एटलो विशेष जे बार लोगस्सना काउस्सग्गने ठेकाणे वीश लोगस्सनो कानस्सग्ग करवो, अने परकीना आगारने ठेकाणे चोमासीना कहेवा. तथा तपने ठेकाणे उ केणं, बे उपवास, चार आंबिल, उ निवी, आठ एकासणां, शोल बीआस णां, चार हजार सजाय,ए रीतें कहे।इति चउम्मासी प्रतिक्रमण विधि॥ ॥ अथ सांवत्सरी प्रतिक्रमण विधि ॥ ॥ ए पण उपर लखेला परकीना विधि प्रमाणे , तथापि बार लोग स्सना काउस्सग्गने ठेकाणे चालीश लोगस्स अथवा एकशो ने शाउ नवका रनो काउस्सग्ग करवो, अने तपने ठेकाणे अहम जत्तं एटले त्रण उपवा स, उ आंबिल, नव निवि, बार एकासणां, चोवीश बेथासणां, अने बह जार सजाय, ए रीतें कहेवं तथा परकीना आगारने ठेकाणे संवत्सरीना श्रागार कहेवा ॥ इति सांवत्सरी प्रतिक्रमण विधिः॥ ॥ हवे उ आवश्यकनां नाम कहे जे ॥ ॥एक करे मिलते ए सामायिकनामा पहेलु आवश्यक, बीजं चउविसको नामा आवश्यक,त्रीजुंमुहपत्ती पमिलेहीने वांदणां बे देवां, ते वंदनावश्यक चो) देवसियं आलोई ए सूत्रकही यावत् अनुहि खामीयें,ते पमिकमणा आवश्यक, पांचमुं बे वादणां देश्ने आयरिय उवद्यायना त्रण काउस्सग्ग कीधे काउस्सग्ग नामें आवश्यक थाय. बहुं पञ्चरकाण- संजार. ते पञ्च काणनामा आवश्यक, ए आवश्यकनां नामा कह्यां. अहीं परकी, चोमा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यावश्यकें सात नय. ३७७ सीने संवत्सरी ए पक्किमणानामें चोथा श्रावश्यकमांहे अंतर्भूत थाय बे. ॥ हवे एयावश्यकना संपें कहे बे ॥ ॥ जे अवश्य करं तेहने आवश्यक कहीयें, अने सर्वजीवो साथै जे स मतानाव तथा सर्व सावद्य व्यापारथी विरमवुं तेने सामायिक कहीयें, " समं श्रायाति सामायिकं" इति वचनात् बीजुं चोवीश जिनना स्तवन श्री दर्शन मोहनीयकर्मनो क्षयोपशम थश्ने समकेत शुद्ध थाय, ते चट विसो. त्रीजुं गुरुवंदनथी ज्ञान, दर्शन निर्मल थाय, ते वंदनावश्यक. चोथं पकिमणाथी श्रावकने एकशो ने चोवीस अतिचारनी आलोयणा था. पांचमुं काउस्सग्गथी सबल कषायनुं जीतवु थाय, अने ज्ञान, द र्शन, चारित्रादिकनी शुद्धि याय. बहुं पञ्चरकाण आवश्यकथी तप पच्च रकाणनुं संजारवुं, तथा पञ्चरकानुं लेवुं याय. ए व यावश्यकना संक्षेपें अर्थ का विस्तारें अर्थ ग्रंथांतरथी जाणवा दवे एवश्यकें सात नय फलावीयें ढैयें. ॥ त्यां प्रथम सामायिक आवश्यकें सात नय फलावे रे || १ नैगमनये एक जीव अथवा घणा जीव तेने सामायिक कहीयें, छाने मो ना कारण बे तेथी मोक्ष पण कहीयें; केम के ? कारणे कार्योपचार वे माटे. २ संग्रहनये जीवनो गुण तेज सामायिक, तदभेद आत्मा ए श्री जे श्रात्मा, तेज सामायिक. ३ व्यवहारनये समता ने यत्नायें प्रवर्त्ते, तेवारें सामायिकवंत आत्मा जाणवो ४ जुसूत्रनये उपयोगरहित बाह्य यत्ना होय, ते समयनो जे सामायिकवंत आत्मा ते स्थूल रुजुसूत्रनयनो मत बे, अने उपयोगयुक्त बाह्य यत्नावंतने ते समय जे सामायिक कहेतुं, ते सूक्ष्म जुसूत्रनुं मत जाणवुं. २ शब्दनयें पांच समिति तथा त्रण गुति पाले, अने सावद्यथी निवर्त्ते, क्रोधादिकनो त्याग करे, तेवारें ते आ माने सामायिक माने बे. ६ समनिरूढ नयमतें तो जीवने अप्रमादि थका जे जे गुण उत्पन्न याय बे ते ते गुणने वाक्यभेदें करी ए नय जिन्न सामायिक माने बे. ७ एवंभूतनयमतें त्रिविध त्रिविधें मन, वचन, काया ना अशुद्ध जाव जे सावययोग, तेने निषेधीने जे निश्चल शुद्धस्वभाव ते सामायिक जावो. ४८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ प्रतिक्रमण सूत्र. ॥ हवे बीजा च विसवा नामा त्र्यावश्यक उपर सात नय फलावे बे. १ नैगमनयमते अनुपयोगी सर्व द्रव्यात्मानी स्तुति कीधे मोक्ष होय ते सामान्य नैगमनुं मत बे, अने अरिहंतना चार निक्षेपाने स्तवने मोद मानवो अथवा चविसवो मानवो, ते विशेष नैगमनुं मत बे. २ संग्रहन यनेमतें आत्मानुं स्तवन कीधे मोक्षप्राप्ति बे. ३ व्यवहारनयमतें नूत जावि जे चोवीश जिनमांहे व्यक्त गुण बे, माटें तेहनी स्तवनायें मोक्ष होय. ४ रुजुसूत्रनयमतें वर्त्तमानकालें चोवीश जिननां कीर्त्तन, वंदन, पूजन, जे समय करवां ते समय, मोदनुं कारण बे, ए स्थूल रुजुसूत्रनुं मत, तथा चोवीश जिन जे समय, मोदें गया, ते समयनुं जे कालद्रव्य, ते सूक्ष्म जुसूत्रनुं मत बे. ५ शब्दनयमतें समवसरणें विराजमान रि तने वा सिद्ध अवस्था पाम्या तेहने पण जाविजिन कहियें माटें तेनी स्तवनायें च विसो जावो. ६ समजिरूढ नयमतें जे जीव मोक्ष ना पर्याय अनुवे, तेहनी स्तवना करवे चविसवो जावो. ७ एवं नूतनय मतें अरिहंतपणुं तीर्थंकरनी शद्धि जोगवी, संसारथी नीकली श्रा घाति चार कर्म दय करी सिद्ध शिलाउपर रह्या, तेमनी स्तुतियें मोक्ष बे. ॥ हवे त्रीजा वंदनावश्यक उपर सात नय फलावे बे ॥ १ नैगम ने संग्रह, ए बे नयने मते सर्व जीवमांदे ज्ञान, दर्शन चारित्रादिकनी सत्ता के माटें जीवने वांदवाथीज मोक्ष होय, ए विनयवा दीनुं मत बे. ३ व्यवहारनयमते जेहमां साधुनी आचारणा देखीयें, तेहने वांदवा ते वंदन वे. ४ जुसूत्रनयमते तो जे कायायें करी चारित्र पाले, ते वांदवा योग्य. ए स्थूल रुजुसूत्रनुं मत बे, अने जे समय श्रुतज्ञान सहित क्रिया पाले, ते समय वांदवाथी मोक्षप्राप्ति थाय, ए सूक्ष्म जुसू नुं मत बे. ५ शब्दादिक ऋण नयमतें तो शुद्ध ज्ञान. दर्शनना अनुजव करनारने वांदवाथी मोक्षप्राप्ति बे. · ॥ हवे चोथा प्रतिक्रमणावश्यक उपरें सात नय फलावे बे ॥ १ नैगम तथा संग्रहने मते जे जीव, ते पक्किम. ३ व्यवहारनय मतें पकिमणानी क्रिया करतो होय, ते जीवने पक्किमणुं कहियें ४ रु जुसूत्रनयमतें उपयोग विना जे समय द्रव्य पक्किमणुं करवुं, ते स्थूल रुजुसूत्रमतें पक्किमथुं बे ने उपयोगसहित जे समये पक्किमणानी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रावश्यकें नय तथा नवतत्व. ३७ क्रिया करवी, ते सूक्ष्म रुजुसूत्रनयमते परिक्कम जाणवु. ५ शब्दादिक त्रणे नयमते जे शुद्ध ज्ञान, दर्शन, तेज पक्किमणुं जावं. ॥ हवे पांचमां काउस्सग्गनामा आवश्यक उपर सात नय फलावे वे ॥ १ नैगम तथा संग्रहनयमते जीव ते काउस्सग्ग. ३ व्यवहारनयमते शुद्ध क्रियायें काया स्थिर मुद्रायें राखवी, तेने काउस्सग्ग कहे बे. ४₹ जुसूत्रनयमतें जे समयें उपयोग विना काउस्सग्ग करवो, ते स्थूल रुजुसू त्रनुं मत बे, घनें जे समयें उपयोगसहित काउस्सग्ग करवो. ते सूक्ष्म रुजु सूत्रनुं मत बे. ५ शब्दादिक ऋण नयमतें जे ज्ञान तेहीज काउस्सग्ग जावो. ॥ हवे बघा पच्चरकाण आवश्यक उपर सात नय फलावे बे ॥ १ नैगम तथा संग्रहनयमतें जे आत्मा तेज पच्चरकाण. ३ व्यवहार नयमतें शनादिक चारनुं लोकलाजें जे पच्चरकाण कर, तेने पच्चरकाण कदेवु. ४ जुसूत्रनयमतें जे उपयोग विना पञ्चरकाण लेवुं, ते स्थूल रुजुसूत्रना मतें पच्चरकाण बे, तथा उपयोगसहित शुद्ध पच्चरकाण, ते सू दम जुसूत्रना मतें पच्चरकाण बे. ५ शब्दादिक ऋण नयमतें तो ज्ञान, दर्शनरूप परिणाम, तेने पच्चरका कहियें. ॥ हवे ए षमावश्यकें कालादिक पांच कारण उतारे ॥ १ जे का वश्यकनी क्रिया करवाथी व यावश्यक निपजे, ते प्रथम कालकारण. २ जीवने पक्किमणुं करवानो स्वभाव बे. माटेज प किमणुं करे बे. ते बीजुं स्वजावकारण. ३ जेथकीयावश्यक कार्य था, ते त्रीजुं निश्चयकारण, एटले ए व आवश्यक निश्चय यवानां होय तो थाय ४ पुण्यपापादिक ते कर्म कड़ेवाय बे, ते यहीं मोहादिक कर्मनो क्षयोपशम होय तो व श्रावश्यकनो उदय श्रावे ते चोधुं कर्मनामा कारण . ५ ते बधां कारण मले पण ए व आवश्यक मांहे जे उद्यम फोर ववो, ते उद्यमनामा पांचमुं कारण बे. ॥ हवे व आवश्यकें उत्पाद, व्यय ने ध्रुवनुं द्वार देखाडे बे ॥ १ सामायिक करवायी सावद्ययोगथी विरमवा पणानो गुण उपजे, च विसाथी सम्यक्त्वगुण उपजे, वंदनाथी विनयगुण उपजे, पक्किमणार्थी पापथी उपरांठो थवारूप गुण उपजे, काउसग्गथी ज्ञान दर्शन रूप शुद्धगु ण उपजे, पञ्चरकाणर्थी आश्रय निरोधगुण उपजे, ए व्यवहारनयें करी गु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० प्रतिक्रमण सूत्र. गर्नु उत्पादकपणुं देखाड्यु. ५ ए बए आवश्यकथी अशुजकर्मनो नाश थाय , ते माटे अहिं अशुन कर्मनो व्यय जाणवो. ३ ए गए आवश्य कथी जीव निर्मलखनावमांहे ध्रुवपणुं जाणवू. ॥ हवे षमावश्यकें हेय, ज्ञेय अने उपादेय देखाडे ॥ १ब आवश्यकने वीषे जे नय निक्षेपार्नु ज्ञान ते ज्ञेय . एटले जा णवा योग्य बे. केम के ? दपक श्रेणी चढावाने अनुपयोगी बे, काम नावे माटे. २ नाम, स्थापना अने अव्य, ए त्रण निदेपा मोक्षार्थे हेय बे, एटले गमवा योग्य बे, ३ चोथो नावनिदेपो ते मोदार्थे उपादेय बे, माटे ते आदरवा योग्य . ॥ हवे उ आवश्यकें षडअव्यनो व्यवहार श्रात्मा साथें अशु शनिश्चयनयमते युक्ति देखाडे बे. ॥ जे वेलायें जीव चाले, तेवारें धर्मास्तिकाय पोतानी साथै बांध्यो, आयत कीधो, पण बीजां अव्य बूटां जे. एम अधर्मास्तिकाय, आकाश तथा काल अने पुजल जाणवा. पण शुक निश्चयनयमते तो आत्मा बंधाय, बोमाय नहीं, पुजल, बंधाय बोमाय बे. हवे ए ब आवश्यकमांहे कयुं कयुं आवश्यक, नवतत्वमांहेला ___कया कया तत्त्वमां बे ? ते देखामवानुं हार कहे जे. ॥ सामायिकमांहे जे शुजाश्रव थाय, तेहनो संवर तत्त्वमांहे अंतर्जाव थाय , माटे सामायिक संवरतत्त्व बे. चविसबो ते मोदतत्त्वमा अंत—त बे, तथा वंदना, पमिमकएं, काउस्सग्ग अने पञ्चरकाण, ए चार आवश्यकयद्यपि शुजाश्रवमध्ये , तथापि विशेषे आत्मानी परिणतियें षमावश्यक साशवता निर्जरातत्त्वमांहे अंतर्भूत थाय . ॥ हवे उ ए आवश्यकें सप्तनंगी कहे जे ॥ १ सामायिक संवररूपें अस्ति बे, चजविसको किर्तनरूपें अस्ति बे, वांदणां गुणवंत प्रतिपत्तिरूपें अस्ति , पमिकमणुं आलोयणारूपें अस्ति , काउस्सग्ग, शान, दर्शन अने चारित्र, आराधनरूपें स्यात् अस्ति , अने पच्चरकाण ते व्रत धारणरूपें अस्ति , ए पूर्वोक्त गुणरूप षमावश्यक स्वात् अस्तिरूपें , ए प्रथम जंग जाणवो.. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ आवश्यकें नामादि बवाना. ३१ २ ए षमावश्यक अशुज बंधपणे नथी, माटे एमां अशुज बंधनी ना स्ति बे, तेथी स्यात् नास्तिपणुं, ए बीजो जंग जाणवो. ३ ए षमावश्यक खकीय एटले पोताने अव्य, क्षेत्र, कालजावें अस्ति रूपें , ते अस्ति जांगो , अने एहीज अव्य ते परजव्यनांजव्य क्षेत्र, काल जावपणे नथी, ते नास्तिनामें नांगो बे, माटे जे समये अस्ति डे ते सम येंज नास्ति नंग पण बे; ए स्यात् अस्ति नास्ति नामें त्रीजो नंग जाणवो; ४ए पूर्वोक्त त्रिनंगीयें करीब आवश्यकतुं खरूप जाणीयें, पण ए समय समकालें कहेवाय नहीं, केम के? वचन- तो कमें प्रवर्तन , तेथी एक सम यमां सर्व धर्म कहेवाय नहीं, माटे ए अवक्तव्य नामा चोथो जंग जाणवो. ५ ए षमावश्यकमांहे एक समयने विषे अस्तिपणाना अनंता धर्म रह्या बे, ते जाणे खरो, पण एक समयें कहेवाय नहीं, केम के एक अक्षरनो उच्चार करतां पण असंख्याता समय लागे बे; माटे ए स्यात् अस्ति अव क्तव्य एवे नामें पांचमो नंग जाणवो. ६ ए षमावश्यकमांहे एक समयने विषे नास्तिपणाना अनंता धर्म र ह्या , ते जाणे खरो, पण एक समयमांहे वचनें करी कह्या जाय नहीं. माटे ए स्यात् नास्ति अवक्तव्य नामा बहो नंग जाणवो. ७ ए षमावश्यकमां पोताना रूपें अस्तिपणे एक समयने विषे अनंता धर्म डे, अने पररूपें नास्तिपणे पण अनंताधर्म एक समयने विषे , पण ते एक समयें वचनें करी कह्या जाय नही; माटे ए स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति युगपत् अवक्तव्य नामा सातमो नंग जाणवो. हवे ए प्रत्येक आवश्यकें चार नामादिक निदेपा तथा क्षेत्र अने काल ए ब वानां जूदां जूदां विवरीने कहे बे. ॥ त्यां प्रथम सामायिकावश्यकें ड वानां कहे ॥ १ सामायिक एहवं नाम, ते नाम सामायिक, २ सामायिकनी क्रिया, रचना, विशेष, सूत्रनी स्थापना, ते स्थापना सामायिक ए बे नेदें बे. ३ सूत्रना शुरू श्रदरनो उच्चार ते ऽव्य सामायिक. ४ संकल्प विकल्प रहित शुन्न नावना जे आत्माना अध्यवसाय तेहने नावसामायिक कहियें. ५ जे क्षेत्र सामायिक करियें, ते क्षेत्र सामायिक.६ अने एनो अंतरमुहर्त प्रमाण काल, ते कालसामायिक. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ प्रतिक्रमण सूत्र. ॥हवे चनविसहा नामा बीजा आवश्यक उपर बवानां ॥ १ षनादिक चोवीश जिननां नाम ते नाम चउविसबो कहीये. जी ननी काष्ठमय चित्रित पुतली तथा पित्तलादिकनी मूर्ति ते स्थापना नामा चजविसबो, तेना बे नेद जे. एक जे स्थापनाना अंगोपांग तादृश देखाय ते सन्नावस्थापना जाणवी, अने वीजी शंका प्रमुखें जे गुरुनी स्थापना क रीयें, ते असदनावस्थापना. ए बे नेदें स्थापना चनविसहो जाणवो. ३ जीवजिन ते अव्य च विसबो कहीयें.४ समवसरणस्थ जिन ते नाव चउ विसको. ५ जे क्षेत्रं ते देत्र चजविसबो. ६ जे कालें ते काल चजविसलो. ॥ हवे वंदनावश्यक नामा त्रीजां आवश्यक उपर ब वानां ॥ १ वांदणां एहवू नाम, ते नाम वांदणुं. ५ कोश्क वांदणाने काष्ठ चि त्रादिकने विषे स्थापे, जे आ में वांदणुं स्थाप्यु , ते स्थापना वांदणुं.३ यावर्त्त बार तथा पच्चीश आवश्यकादिक शुफ उपयोग विना करवां, ते अव्यवंदन कहियें. ४ नावपूर्वक उपयोग सहित वांदवू, ते नाववंदन. ५ जे क्षेत्रे वांदवू, ते देत्रवंदन. ६ जे कालें वांदवू, ते कालवंदन. . ॥ हवे पमिकमणां आवश्यक उपर ब वानां ॥ १ पमिकमण एवं नाम, ते नाम पमिकमणुं. २ जीवाजीवनि श्छायें काष्ठादिक स्थापीयें, ते स्थापनापमिकमणुं. ३ जे उपयोग विना करवू, ते अव्य पडिकमणुं. ४ लावधी उपयोग सहित करवू, ते नाव पमिकमणुं ५ जे क्षेत्र पमिकमणुं करवू. ते देत्रपमिकमणुं. ६ जे कालें पमिकमणुं करवू, ते काल पमिकमणुं. ए पमिकमणानी परेंज काडस्सग्ग तथा पञ्चरकाण ए बन्ने आवश्यकना नामादिक बए बोल जाणी लेवां. __ अथ वमी नीति लघुनीत्यादि परठवण, योग्य जग्या प्रतिलेषण निमित्तें पोसहमां चोवीश मंगल करवां, ते कहे . त्यांप्रथम संथारा पासेंनी जग्यायें. १ आघाडे आसन्ने उच्चारे पासवणे अण हियासे. २ आघाडे आसन्ने पासवणे अणहियासे. ३ आघाडे मजे उच्चारे पासवणे अणहियासे.४ आघाडे मजे पासवणे अणहियासे. ५ आघाडे दूरे उच्चारे पासवणे अ ण हियासे. ६ आघाडे दूरे पासवणे अणहियासे. ॥ हवे उपाश्रयना बारणांना मांहेनी तरफनां ॥ १ आघाडे श्रासन्ने उच्चारे पासवणे अहियासे.२ श्राघाडे आसन्ने पा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदनन्नाष्य अर्थसहित. ३७३ सवणे अहियासे. ३ आघाडे मजे उच्चारे पासवणे अहियासे. ४ आघाडे मऊ पासवणे अहियासे. ५ आघाडे दूरे उच्चारे पासवणे अहियासे. ६ आधाडे दूरे पासवणे अहियासे. ... ॥ हवे उपाश्रयनां बारणां वाहिर नजिक रहीने करे ॥ १ अणाघाडे आसन्ने उच्चारे पासवणे अणहियायासे. २ अणाघाडे आसन्ने पासवणे अणहियासे. ३ आणाघाडे मजे उच्चारे पासवणे अण हियासे. ४ अणाघाडे मजे पासवणे अणहियासे. ५ अणाघाडे दूरे उच्चारे पासवणे श्रण हियासे. ६ अणाघाडे दूरे पासवणे अणहियासे. ॥ हवे उपाश्रयथी शो हाथ आशरे दूर रहे, ते करवां ॥ १ अणाघाडे आसन्ने उच्चारे पासवणे अहियासे. अणाघाडे आसन्ने पासवणे अहियासे.३ अणाधाडे मद्ये उच्चारे पासवणे अहियासे.अणाघा डे मद्ये पासवणे अहियासे.५ अणाघाडे दूरे उच्चारे पासवणे अहियासे.६ अणाघाडे दूरे पासवणे अहियासे ॥ इति मंगल बोल चोवीश समाप्त ॥ अथ श्री देवेंसूरिविरचितं चैत्यवंदनादिनाष्यत्रयं बालावबोधसदितं प्रारज्यते ॥ तंत्र प्रथम श्री चैत्यवंदननाष्यप्रारंनोऽयं, ग्रंथकर्ता मंगलाचरण माटे गाथा कहे बे. वंदित्तु वंदणिजे, सवे चिश्वंदणाइ सुवियारं ॥ बहु-वित्ति-नास-चुप्मी, सुयाणुसारेण वुबामि ॥१॥ बालावबोध कर्त्तानुं मंगलाचरण कहे जे. प्रणम्य प्रणतानंद, कारकं विघ्नवारकम् ॥श्रीमविजयदेवार्थी, लसल्लावण्यधारकम् ॥१॥ मेरुधीर स्फुर-हीर, गंभीरं, नीरधीशवत् ॥ नाष्यत्रयार्थ बोधाय, बालबोधो विधीयते ॥२॥ अर्थः-(वंदणिये के०) वंदनीयान् एटले वांदवा योग्य एवा जे (सत्वे के०) सर्वे श्रीतीर्थंकर देव अथवा श्रीअरिहंतादिक (सवे के०) सर्वे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ प्रतिक्रमण सूत्र, पांचे परमेष्ठी तेमने (वंदित्तु के० ) वंदित्वा एटले वांदीने (चिश्वंदणाश के ) चैत्यवंदनादिक एटले चैत्यवंदन तथा आदिशब्दथी गुरुवंदन अने पच्चरकाण पण लेवां. ते रूप (सुवियारं के०) सुविचारं एटले रूमा विचार प्रत्यें (बहु के०) घणा एवा जे ( वित्ति के०) वृत्ति, (नास के०) जाष्य अने (चुली के०) चूर्णि तथा नियुक्ति प्रमुख ग्रंथो तप (सुया णुसारेण के०) श्रुतने अनुसारें करीने (वुबामि के०) कहीश. परंतु म हारी मतिकल्पनायें नहीं कहीश. एटले धर्मरुचि जीवोने पंचांगी सम्म त चैत्यवंदनादिकनो विधि कहीश. कारण के समकेतनुं बीज तो शुद्ध देव, शुद्ध गुरु अने शुद्ध धर्मनुं स्वरूप जाणवू, अने सद्दहवू डे ते मात्रै अढार दोष रहित, निष्कलंक एवा जे श्रीअरिहंत देव बे, ते शुक देव ले तेना स्थापनादिक चारे निदेपा वांदवा योग्य , तो हां चैत्यश ब्दें श्रीअरिहंत तथा श्रीअरिहंतनी प्रतिमा तेनी जे वंदना करवी, ते वि धिसहित करवी ते विधि कहीश ॥ इति ॥१॥ हवे ते चैत्यवंदननो विधि मूल तो चोवीश छारें सचवाय , ते चोवीशना वली उत्तर नेद २०७४ थाय . माटें चोवीश छारनां नाम, प्रत्ये क हारना उत्तरजेदनी संख्या सहित चार गाथायें करी कहे . ददतिग अदिगम-पणगं, उदिसि तिहुग्गद तिदा न वंदण या॥पणिवाय-नमुक्कारा, वरमा सोल-संय-सीयाला ॥२॥ गसीइ सयं तु पया, सग-नन संपयान पण दंमा ॥ बार अदिगार चळवं, दणिक, सरणिक चनद जिणा ॥ ३॥ च जरो थु निमित्तठ, बारद देऊअ सोल आगारा ॥ गुण वीस दोसनस्स, ग माण थुत्तं च सगवेला ॥४॥दस आ सायण चार्ज, सवे चिश्वंदणाइं गणाई ॥ चनवीस ज्वारे हिं, उसहस्सा हुँति चन सयरा ॥ ५॥ इतिदारगादा ॥ अर्थः-प्रथम देव वांदतां नैषेधिक आदिक (दहतिग के०) दश त्रिक साचववा जोश्ये, तेनुं हार कहीश, बीजं (अहिगमपणगं के०) अनिगम पंचक एटले पांच अनिगमनुं द्वार कहीश: त्रीजुं देव वंदन करतां स्त्रीने कयी दशायें अने पुरुषने कयी दशायें उन्ना रहे, जोश्ये, ते (उदिसि के०) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदन जाय प्रर्थसहित. द्विदिशि एटले वे दिशानुं द्वार कहीश, चोथुं जघन्य, मध्यम घने उत्कृष्ट एवा (तिजग्गह के०) त्रण प्रकारना अवग्रहनुं द्वार कहीश, पांचमुं (तिहा उवंदण्या के० ) त्रिधातुवंदनया एटले त्रण प्रकारें वली चैत्यवंदना करवी. तेनुं द्वार कहीश, बहु पंचांग एटले पांच ( पशिवाय के० ) प्रणिपात करवो, तेनुं द्वार कहीश, सातमुं ( नमुक्कारा के०) नमस्कार कर वानुं द्वार कहीश, मुं देववंदनना अधिकारें जे नवकार प्रमुख नव सूत्रां वे बे, तेना (वा के०) वर्ण एटले अक्षर ते ( सोलसयसीयाला के० ) शोलरों ने सुकतालीश थाय. तेने गणी देखामवानुं द्वार कहीश ॥ २ ॥ नवमं देववंदनना अधिकारें नवकार प्रमुख नव सूत्रानां (इगसी इसयं ho ) एकसोने एक्यासी ( तु के० ) वली ( पया के० ) पढ़ो थाय छे, ते देखावानुं द्वार कहीश, दशमुं एज नवसूत्रानां (सगनइ के०) सप्तनव ति एटले सत्ताणुं ( संपयार्ड के ) शंपदा थाय बे, ते देखामवानुं द्वार क हीरा, गीयारमुं नमुणादिक ( पणदंडा के० ) पांच दमकनुं द्वार कही श, बारमुं चैत्यवंदनने विषे पांच दमकमां (वार हिगार के०) बार अधि कार वेबे, तेनुं द्वार कहीश, तेरमुं (चउवंद पिता के०) चार वांदवा यो ग्य तेनुं द्वार कहीश, चौदमुं उपद्रव टालवा निमित्तें एक (सरणित के० ) स्मरण करवा योग्य जे सम्यग्दृष्टि देवो तेमनुं द्वार कहीश, पन्नरमुं नामस्था पादिक (चह जिला के० ) चार प्रकारना जिननुं द्वार कहीश ॥ ३ ॥ ३८५ शोलमुं (चरोथुइ के०) चार स्तुति कड़ेवानुं द्वार कहीश, सत्तरमुं देव वांदवामां पापपणादिक ( निमित्त के० ) निमित्त व बे, तेनुं द्वार कही श, ( के० ) वली अंगणी मुं अपवादें काउस्सग्गना ( सोलसखागारा ho) शोल श्रागारनुं द्वार कहीश, वीशमं काउस्सग्गमां (गुणवीसदोस के०) गणीश दोष उपजे तेनुं द्वार कहीश, एकवीशमं (उस्सग्गमाण के ० ) का उस्सग्गना प्रमाणनुं द्वार कहीश, बावीशमं श्रीवीतरागनुं (धुत्तं के०) स्त वन केवा प्रकारें करवुं ? तेनुं द्वार कहीश, त्रेवीश ( के०) वली दिन प्रत्यें चैत्यवंदन ( सगवेला के० ) सात वेला करवुं तेनुं द्वार कही ॥४॥ चोवीसमुं देववंदन करतां देरासरमां तांबूल प्रमुख (दसासायणचार्ज के० ) दश शातनानो त्याग करवो, तेनुं द्वार कहीश, एम (सवे के० ) सर्वे ४९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ प्रतिक्रमण सूत्र. (चिश्वंदणारंगणाई के०) चैत्यवंदननां स्थानक ते (चवी सवारेहिं के० ) चोवीरों द्वारें केरीनें (सहस्सा के०) बे हजारनी ऊपर (चसयरा के०) चुम्नो तेर ( हुंति के ० ) था ॥२॥ ( दारगाहा के ० ) ए द्वारनी गाथार्ज चार जाणवी ॥ चोवीश द्वानां उत्तरजेदसहित यंत्रनी स्थापना. उत्तरभेदनी संख्या. सरवालो. क मुलद्वानां नाम. १ नैषेधिकादिक दश त्रिकनुं द्वार. २ पांच निगम साचववानुं द्वार. ३ देववदतां स्त्री पुरुषने उजा रहेवानी वे दिशाउनुंद्वार ४ जघन्य, मध्यमादि त्रण अवग्रहनुं द्वार. ५ त्रण प्रकारें वंदना करवी तेनुं द्वार. ६ प्रणिपात पंचांगें करवानुं द्वार. ७ नमस्कार करवानुं द्वार. ८ नवकार प्रमुख नवसूत्रानां वर्षोनुं द्वार. to नवकार प्रमुख नव सूत्रानां पदसंख्यानुं द्वार १० नवकार प्रमुख नवसूत्रानी संपदानुं द्वार. ११ नमोत्रुणादि पांच दंडकनुं द्वार. १२ देव वांदवाना बार अधिकारनुं द्वार १३ चार थुइ कहेवानुं द्वार. १४ स्मरण करवा योग्यनुं द्वार. १५ नामादि चार प्रकारे जिननुं द्वार. १६ चार थुइ कदेवानुं द्वार. १७ देव वदवाना व निमित्तनुं द्वार. १८ देव वांदवाना बार हेतुनुं द्वार. १९० काउस्सग्गना शोल आगारनुं द्वार. २० काउस्सग्गना ঔगणीश दोषनुं द्वार. २१ काउस्सग्गना प्रमाणनुं द्वार. २२ स्तवन केम करवुं ? तेनुं द्वार. २३ सात वार चैत्यवंदन करवानुं द्वार. २४ दश आशातना त्यागवानुं द्वार. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ३० ५ ‍ ३ | १६४७ १८१ G ५ १२ ५ १ ყ ४ Մ १२ १६ १ १ १ ง 24 ३० ३५ ३७ Yo ४३ ४४ ५५ १६‍ १८७३ १० १५ १८१ ११ UU १६ २००० २००८ २०१० २०३६ २०५५ २०५६ २०५७ २०६४ २०७४ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदन नाष्य अर्थसदित. ३७ हवे ए चोवीशे झारना उत्तर दनुं स्वरूप अनुक्रमें देखामतो थको प्रथम दश त्रिकोनुं हार कहेतो बतो वे गाथायें करी दश त्रिकोना नाम कहे जे. तिन्नि निसिदी तिन्निड, पयादिणा तिन्नि चेव य पणामा ॥ तिविदा पूया य तहा, अवन-तिय-नावणं चेव ॥६॥ तिदिसि-निरकण-विरई, पयनमि-पमजणं च तिकुत्तो॥ वन्नाश-तियं मुद्दा, तियं च तिविदं च पणिहाणं ॥ ७ ॥ अर्थः-प्रथम देरासरें जातां (तिन्निनिसिही के०) त्रणवार नैषिधिको कहेवी, बीजुं देरासरें (तिनिउ के०) त्रण वली (पयाहिणा के० ) प्रद दिणा देवी, त्रीजी (तिन्नि के) त्रण वार (चेवय के०) ए निर्धार वाच क शब्द ले (पणामा के० ) प्रणाम करीयें, चोथो (तिविहा के ) त्रण प्रकारनी अंगपूजादिक (पूया के) पूजा करवी, पांचमी (य के) वली (तहा के) तथा प्रजुनी पिंडस्थावस्थादिक (अवबतियनावणं के०) अवस्थात्रयनुं नावq जाणवू, ( चेव के) निश्चें ॥ बही चार दिशिमांथी मात्र जगवान् जे दिशियें बेठेला होय तेज एक दिशिनी सामुं जोवू अने शेष (तिदिसिनिरकणविरई के ) त्रण दि शिनी सन्मुख जोवानुं विरमण करवू, सातमी (पयनूमिपमजणं के) पग मूकवानी नूमिर्नु प्रमाऊन ते ( च के ) वली ( तिकुत्तो के ) त्र ण वार करवू, आठमी ( वन्नातियं के ) वर्णादिकना आलंबन त्रण कहेशे (च के० ) वली नवमी (मुद्दतियं के) त्रण मुजा कहेशे, दशमी (तिविहं के०) त्रण प्रकारें (च के ) वली (पणिहाणं के०) प्रणिधा न कहेशे, जे त्रण बोलनो समुदाय तेने त्रिक कहीयें ए दश त्रिकनां नाम कह्यां ॥७॥ हवेप्रथम निसिही त्रण कये कये स्थानकें करवी? ते कहे . घर-जिणदर-जिण-पूया, वावारच्चाय निसिदि-तिगं ॥ अग्ग-दारे मजे, तश्या चिश्-वंदणा-समए ॥ ७ ॥ अर्थः-जे सावध व्यापारनो मन, वचन अने कायायें करी निषेध करवो तेने निसिही कहीये, ते एक पोताना (घर के०) घरनां बीजी (जिणह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३नत प्रतिक्रमण सूत्र. र के ) जिनघर ते देरासरना, त्रीजी (जिणपूया के ) श्रीजिनेश्वरनी पूजानां जे (वावार के०) व्यापार एटले ए त्रणना जे व्यापार तेने (चा य के० ) त्यागवाथकी ( निसिहीतिगं के०) नैषिधिकीत्रिक थाय ते मां प्रथम निसिहि ते पोताना घर, हाट, परिवारादिक संबंधी जे सावध व्यापार ते सर्व निवर्ताववा माटें श्रीजिनमंदिरने (अग्गदारे के० ) अग्र छारें कहे. एटले देरासरनां मूल बारणे दरवाजामां पेसतांज कहे, पण शहां श्रीजिनघरने पूंजवा समारवा संबंधि तथा पूजा संबंधि सर्व व्यापा र आदरे, तथा बीजी निसिही ते जिनघर संबंधी व्यापारथी निवर्त्तवा रूप देरासरनी (मजे के०) मध्य गंजारामां पेसतां कहे, तिहां देरासर पड्या श्राखड्यानी चिंतानो तथा देरासरमां पूंजवादिकनो त्याग करीने अव्यपू जादिकनो प्रारंभ करे, एम सर्व प्रकारनी पूजा विधिसहित साचवी रह्या पड़ी ( तश्याके० ) त्रीजी निसिही जे जिनपूजा संबंधि व्यापारना त्या ग रूप ले ते. जिनपूजा व्यापार त्याग तो ( चिश्वंदणासमए के० ) चैत्य वंदन करवाना अवसरें कहे, यहां अव्यपूजा व्यापार सर्व निवर्त्तावीने कैव ख्य नावपूजारूप चैत्यवंदन स्तवनादिकनो एकाग्र चित्तें करी पाठ करे, ए रीतें त्रण निसिही साचवे. अथवा मन, वचन अने कायायें करी घरसंबंधी व्यापार निषेधवा रूप त्रण निसिही देरासरना अग्रहारमा कहेवी, अने तेज प्रमाणे मना दिक त्रणे योगें देरासर संबंधी व्यापार त्यागवा आश्रयी त्रण निसिही गंजारामां कहेवी, तथा वली चैत्यवंदनादि कहेवाने अवसरे पण मन वचन कायायें करी जिनपूजा व्यापार त्यागरूप त्रण निसिही कहेवी, ए रीतें दरेक वखतें मन, वचन अने कायाना योगें करी त्रण त्रण नि सिही कहेवी, अथवा दरेक वखतें एकज निसिही कहेवी. परंतु घर सं बंधी देरा संबंधी अने जिनपूजा संबंधी व्यापार निषेध करीयें .यें, एम समजीने देरासरमां पेसतांज त्रणे निसिही कही देवी नहीं. ए तात्पर्य . ए प्रथम निसिहीत्रिक कां ॥ ७ ॥ हवे बीजं प्रदक्षिणात्रिकनुं नाम प्रथम सामान्य नही गाथामां कहेढुं बे, तेनो प्रगट अर्थ डे, माटें जू; वखाएयुं नथी. तथापि चैत्यना दक्षिण जागथी त्रण प्रदक्षिणा देवी, एटले संसारना जवज्रमण टालवा रूप नाव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदना अर्थसदित. ३८५ नायें श्री प्रतिमाजी महाराजनी जमणी बाजुश्री अनुक्रमें ज्ञान, दर्शन ने चारित्रनी आराधना रूप ऋण फेरा फरवा. ए बीजुं प्रदक्षिणा त्रिक कयुं. हवे त्रीजुं प्रणामत्रिक कहे बे. अंजलि-बंधो हो, उ प्र पंचंग प्र तिपणामा ॥ Ras वा तिवारं, सिराइ - नमणे पणाम-तियं ॥ ॥ अर्थः- श्री जिन प्रतिमा देखी वे हाथ जोमी निल्लाडे लगामी प्रणाम करीयें ते प्रथम (अंजलिबंधो के० ) अंजलिबंध प्रणाम कहीयें, तथा क टिदेशथी उपरलुं अर्धं शरीर तेने लगारेक नमामी प्रणाम करीयें, अथ वा ऊर्ध्वादि स्थानकें रह्यां थकां कांइक शिर नमामीयें, तथा शिर करा दि के करी जूमिका पादादिकनुं फरसवुं ते एक अंगथी मांगीने चार अंग पर्यंत नमामनुं ते बीजो ( श्रोर्ड के ० ) अविनत प्रणाम कहीयें, तथा ( o ) वली वे जानु, बेकर ने पांचमुं उत्तमांग ते मस्तक, ए पांच अंग नमामी खमासमण यापीयें, ते त्रीजुं (पंचंग के० ) पंचांग प्रणाम जाणवो. ए ( तिपणामा के० ) त्रण प्रणाम जाणवा. ( वा के० ) अथवा ( सबब के० ) सर्वत्र प्रणाम करवासमये ( तिवारं के० ) त्रण वार ( सिराश्नमणे के० ) मस्तकादिक नमामवे करी एटले शिर, कर, अंजली प्रमुखें कर जे त्रण वार नमन आवर्त्त करयुं ते ( पण मतियं के० ) प्रणामत्रिक जाणवुं. ए त्रीजुं प्रणाम त्रिक कयुं ॥ ए ॥ हवे चोथुं पूजा त्रिक कहे बे. अंगग्गनावभेया, पुप्फादार थुइदं पूयतिगं ॥ पंचोवयारा हो, वयार सोवयारा वा ॥ १० ॥ अर्थ : - ( अंगग्ग के० ) अंगने अग्र एटले पहेली अंगपूजा ने बीजी आगल ढोवारूप अग्रपूजा, तथा त्रीजी चैत्यवंदनरूप (जाव के० ) जा वपूजा एत्रण (नेया के०) नेदथकी अनुक्रमें ( पुप्फादार इहिं के० ) पु ष्पाहारस्तुति जिः एटले पहेली पुष्प केसरादिके ाने वीजी आहार फला दि ढोकने तथा त्रीजी स्तुति करवे करीने (पूयतिगं के ० ) पूजा त्रिक थाय बे. For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. तेमां प्रथम अंगपूजा ते श्रीवीतरागनी पूजा अवसरे मनः शुद्धि, वच नशुद्धि, कायशुद्धि, वस्त्रशुद्धि, नीतिनुं धन, पूजाना उपकरणानी शुद्धि, नू मिशुद्धि, ए सातवाना शुद्ध करी धवल निर्मल सुपोत धोतीयां पुरुष पहेरे, जेनोपको मुखकोश याय एहवी एक सामी उत्तरासंगनी धरे, ए वी रीतें पुरुष पूजा अवसरें बे वस्त्र राखवां अने स्त्रीनें तो विशेष वस्त्रा दिकनी शोजा जोइयें तथापि हमणां संप्रदायें त्रण वस्त्र पहेरी पूजा करे, ए रीतें वस्त्र परी आशातना टालतो थको प्रथम पुंजणी यें करी श्रीजिन बिंबने पंजे, पंजवार्थी मांगी पर्वनेविषे त्रण, पांच, सात, कुसुमांजलि प्र देप करे. न्हवण. अंगलूणां धरतो, विलेपन, भूषण, अंगीरचन, पुष्प च कावतो जिनहस्तमां नारिकेरादिक, धूपादेप, सुगंधवासदेपणादिक करतो पूजा करे. ए सर्व अंगपूजा जाणवी . पुष्प प्र बीजी पूजा; तेमां धूप, दीप, नैवेद्यादि शब्दे आहार ढोकन कर, गंधिम, वेढिम पूरिम, संघातिमादि नेदें जल, लवणोत्तारण, आरती, मंगलदीपक, अष्टमंगलतरण, ए सर्व बीजी अग्रपूजा जाणवी. श्रीजी जावपूजामध्यें स्तुति, गीत, गान, नाटक, छत्र, चामर, विंजवा दि तथा देवद्रव्य वधारवा प्रमुख सर्व जावपूजा जाणवी. ए पूजा त्रिक कयुं. अथवा करवा, कराववा अने अनुमोदवा रूप ए प त्रिविध पूजा जाणवी. ३०० थवा एक विघ्नोपशा मिनी, बीजी ज्युदयसाधनी, त्रीजी निवृत्तिदा यिनी, ए पूजा त्रिक जाणवुं यदुक्तं ॥ विग्घोवसायिगेगा, अनुदयसाह ि वे बीया ॥ निवुकरणी तश्या, फलयान जहब नामेहिं ॥ १ ॥ इत्याव श्यक निर्युक्तिवचनात् ॥ ( वा के० ) अथवा ( पंचोवयारा के० ) पंचोपचारा पूंजा ते १ गंध, २ माल्य, ३ अधिवास, ४ धूप, ५ दीप. अथवा १ कुसुम, २ त ३ गं ध, ४ धूप, ५ दीप ए पांच प्रकारें पण प्रथम अंगपूजा जाणवी . बीजी ( वयार के० ) अष्टोपचार एटले १ कुसुम २ रकह ३ गंध ४ पईव ५ ध्रुव ६ नैवेद्य 9 जल ८ फलेहि पुणो ॥ विह कम्म महणी, अडुवयारा हवइ पूया ॥ १ ॥ इति श्रावश्यक निर्युक्तिवचनं ए to प्रकारें पूजा जाणवी . त्रीजी ( सोवयारा के० ) सर्वोपचारा ए सर्वोपचार पणे पूजा प्रते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदन नाष्य अर्थसहित. ३एर णाम मात्रादिक सर्व लोकोपचार विनय ते सर्वपूजा जाणवी. अथवा जे टली वस्तु मले तेणें करीने पूजा करवी, ते सर्वोपचारपूजा जाणवी. तिहां १ न्हवण, २ विलेपन, ३ देवपुष्यवस्त्र, तथा चनुयुगल, ४ वासपूजा, ५ फूलपगर, ६ फूलमाल, ७ बूटां फूल, ७ चूर्णघनसारादि,तथा आंगी रचनादि, ए ध्वजारोपण, १० आचरण, ११ फूलघर, १५ फूलनो मेघ, १३ अष्टमंगल रचना, १४ धूप दीप आरती मंगल दीपादिक नैवेद्य ढोकन, १५ गीतगान, १६ नाटक, १७ वाजित्र. ए सत्तर प्रकारें पूजा,तथा वली १ प्रकारें पूजा, तेनां नाम कहे . १ स्नात्र, विलेपन, ३ नूषण, फल, ५ वास, ६ धूप, दीप, ७ फूल, ए तंडुल, १० पत्र, ११ पूगी, १२ नैवेद्य, १३ जल, १४ वस्त्र, १५ नत्र, १६ चामर, १७ वाजित्र, १७ गीत, १ए नृत्य, २० स्तुति, १ देवप्रव्यकोशवृद्धि, एवं एकवीश नेद, तथा एकशो आठ प्रकारादि ए सर्व बहुविध पूजा जाणवी. ए रीतें पंचोपचार अष्टोपचार अने सर्वो पचार मली त्रण नेदें पूजा जाणवी. ए चोथु पूजात्रिक कर्वा ॥ १० ॥ हवे पांचमुं, अवस्थात्रिक कहे जेःनाविक अवतियं, पिंडन पयन रूवरदियत्तं ।। बनमन केंवलित्तं, सिइत्तं चेव तस्सबो॥११॥ अर्थः हे नव्यजीव! तुं (जाविद्य के०) जाव्य. श्रीनगवंतनी (अव बतियं के) त्रण अवस्था प्रत्यें एटले त्रण अवस्थानी जावना जावि यें, ते कहे जे. प्रथम (पिंडल के ) पिंमस्थावस्था नावीयें बीजी (पय ब के०) पदस्थ अवस्था नावीयें, त्रीजी (रूवरहियत्तं के) रूपवरहितत्वं एटले रूपरहित एवी रूपातीत अवस्था नावीयें, तिहां जे पिमस्थावस्था ते (उउमन के ) बद्मस्थावस्थायें लावियें तीर्थंकर पदनां पिंड जे शरीर तीर्थकर नामकर्मयोग्य बे, ते पिंमस्थावस्था में अने पदस्थावस्था ते ( केवलितं के ) केवलज्ञान अवस्थायें नावीयें एटले केवल ज्ञान पा म्या पली प्रजुपदस्थ थया ते, तथा रूपातीतावस्था ते ( सिद्धत्तं के०) सिझत्वं एटले सिझपणानी अवस्थायें जाववी, कारण के सिझपणुं जे जे, ते रूपथकी अतित , माटे सिकरूपपणुं नावतां रूपातीत नावना कही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ए प्रतिक्रमण सूत्र. यें. ए ( चेव के) निश्चे ( तस्सबो के ) ते पिंडस्थादिक त्रण अवस्था नो अर्थ जाणवो ॥ ११॥ ॥ हवे ए त्रणे अवस्था क्या क्या नाववी ? तेनां गम कहे . सहवणच्चगेहिं उनम, बवह पडिदार गेहिं केवलियं ॥ पलियं कुस्सग्गेदिय, जिणस्स भाविऊ सिइत्तं ॥१२॥ अर्थः-( एहवणच्चगेहिं के० ) स्नपनार्चकैः एटले न्हवण, पखाल, अ _दि पूजाना अवसरें, पूजा करनारा पूजक पुरुषोयें ( जिणस्स के०) श्रीजिनेश्वरनी (बनमबव के ) बद्मस्थावस्थाने नाववी, ते बद्म स्थावस्थाना त्रण नेद बे, एक जन्मावस्था, बीजी राज्यावस्था अने त्री जी श्रमणावस्था, तेमां प्रजुने न्हवण अर्चादिक प्रदालन करतां जन्मा वस्था नाववी, अने मेरुपर्वतनी उपर जे जन्म महोत्सव जाववो ते पण जन्मावस्थाज जाणवी. तथा मालाधारादि, पुष्प, केशर, चंदन अने अलंकारादि चढावतां राज्यावस्था नाववी. वली जगवंतने अपगत शिरकेश, शीर्ष, श्मश्रु कूर्च रहित एवा मुख मस्तकादिक देखीने श्रमणावस्थानी नावना नाववी. ए प्रथम बद्मस्थावस्था त्रण नेदें विवरीनें कही. तथा किंकली, कुसुमवृष्टि अने दिव्यध्वनि प्रमुख (पडिहारगेहिं के०) आठ महाप्रातिहार्ये करीने एटले प्रातिहार्य युक्त नगवानने देखीने बीजी पदस्थावस्था एटले ( केवलियं के० ) केवली पणानी अवस्था नावीये. तथा (पलियंक के ) पर्यकासने करी सहित एटले पलोंठी वालीने बेठा एवा (उस्सग्गेहिं के०) काउस्सग्गीयाने आकारें (य के०) वली (जिणस्स के) जिन- बिंब देखवे करीने ( सिद्धत्तं के ) सि कत्व एटले सिद्धपणानी अवस्था अर्थात् रूपातीतपणानी अवस्था प्रत्ये ( नाविक के) नाववी. केम के ? केटलाएक तीर्थंकरो पयंका सने काउस्सग्ग मुखायें मुक्ति गया माटें ज्योतिरूप अवगाहना ना ववी. आ गाथामां नाविऊ ए क्रियापद सर्वत्र संगत करवु, ए पांचमुं अवस्था त्रिक कर्वा ॥ १५ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदन नाष्य अर्थसहित. ३५३ हवे बहुं त्रणे दिशि जोवाथी निवर्त्तवानुं त्रिक कहे जे. जहादो तिरिआणं, तिदिसाण निरकणं चश्मदवा ॥ पत्रिम दादिण वामण, जिण मुद नब दिहि जुर्ज ॥१३॥ अर्थः-श्रीजिनप्रतिमा जुहारतां प्रजु उपर एकांत ध्यान राखवा निमि तें एक (उठा के०) ऊर्ध्व दिशि, बीजी (अहो के०) अधोदिशि अनेत्री जी (तिरियाणं के०) तीर्जी दिशि, ते आई अवयूँ ए (तिदिसाण के०) त्रण दिशिनुं ( निरकणं के ) जोवु ( चश्ज के ) बांगq एटले वर्जन करवू. (अहवा के०) अथवा (पलिम के०) पाबली पूंनी दिशियें (दाहि ण के०) जमणी दिशियें तथा (वामण के०) माबी दिशियें एटले जे दि शायें श्रीनगवंतनी प्रतिमा होय, ते दिशि टालीने शेष पूंनी बाजु तथा जमणी बाजु अने माबी बाजु, ए त्रण दिशायें जोबानुं वर्जन करवू, मात्र (जिणमुह के०) श्री जिनेश्वरना मुखनेविषे पोतानी (दिहि के) ह ष्टिने (नब के०) न्यस्त एटले स्थापी राखेली होय, तेणे करी (जु के०) युक्त एटले सहित एवो थको वंदन करे. एटले जिनप्रतिमा उपर पोतानां लोचन थापी एकाग्र मन करे, परंतु आहुं अवलु अरढुं परहुँ जूवे नहीं. ए बहुंत्रण दिशि निरखण वर्डवानुं त्रिक कयु ॥ १३ ॥ हवे सातमुं पदनूमिप्रमार्जनत्रिक कहे , ते आवी रीतें केः-श्रीजिन वंदनायें शरियावहि पमिकमतां तथा चैत्यवंदन करतां जीवयनने अर्थे रूडे प्रकारें दृष्टिवडे जोश्ने पद स्थापवानी नूमि त्रण वार पूंजवी. तिहां गृहस्थ होय तो वस्त्रांचवें करी पूंजे, अने साधु होय तो रजोहरणे करी पूंजे. ए सातमुं त्रिक थयु. हवे बाग्मुं आलंबनत्रिक अने नवमुं मुसात्रिकनुं स्वरूप कहे जे. वन्नतियं वन्नबा, लंबणमालंबणं तु पडिमाई॥ जोग जिण मुत्तसुत्ती,मुद्दान्नेएण मुद्दतियं ॥१४॥ अर्थः-(वन्नतियं के०) वर्ण त्रिकं एटले वर्णत्रिक ते, कयुं ते कहे . (व नबालंबणं के० ) वर्णार्थालंबनं एटले एक वर्णालंबन, बीजुं अर्थालंबन, तिहां नमोबुंणादिक सूत्र गणतां तेमां आवेला जे हलवा नारे अक्षर ते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ प्रतिक्रमण सूत्र. न्यूनाधिकरहित पणे यथास्थित बोलवां, तथा संपदा प्रमुखनुं बराबर चिं तन राखवू, ते प्रथम वर्णालंबन जाणवू, अने जे नमोबुणं प्रमुख सूत्रो जणतां तेना अर्थ हृदयमां नाववा, ते बीजु अर्थालंबन जाणवू, तथा (बालंबणं तु के०) आलंबन ते वली शुं कहीयें ? तोके (पमिमाई के) प्रतिमादि एटले जिनप्रतिमा तथा आदिशब्दथकी नाव अरिहंतादिकनुं तथा स्थापनादिक, पण ग्रहण करवू, तेनुं जे स्वरूप आलंबन धारवं, ते त्रीजु प्रतिमालंबन जाणवू, ए आठमुं आलंबनत्रिक कडं. हवे नवमुं मुमात्रिक कहे . एक (जोग के०) योगमुखा, बीजी ( जिण के) जिनमुका अने त्रीजी (मुत्तसुत्ती के०) मुक्ताशुक्ति मुजा ए ( मुद्दानेएण के०) योग मुसादिकना नेदें करीने ( मुद्दतियं के०) मु मात्रिक जाणवू ॥ १४ ॥ हवे प्रथम योगमुखानुं स्वरूप कहे जेःअन्नुमंतरिअंगुलि, कोसागारेहिं दोहिं दबेहिं ॥ पिट्टोवरि कुप्परि सं, विएहिं तह जोगमुद्दत्ति ॥२॥ अर्थः-( अन्नुसंतरिअंगुलि के ) अन्योन्यांतरितांगुलि एटले बे हाथ नी दशे अंगुलिने अन्योन्य ते मांहोमांहे अंतरित करी जिहां एवी अने ( कोसागारोहिं के ) कमलना डोडाने आकारें जोडीने कीधा एवा ( दो हिंहबेहिं के०) बे हाथे करीने, ते बेहु हाथ केहवा ? तो के (पिट्टोवरि के) पेट उपरें ( कुप्परि के०) कोणी ते (संहिएहिं के०) संस्थित एटले रही ले जेनी एवा प्रकारे रहेवे करी ( जोगमुदत्ति के०) योगमुडा इति एटले योग मुजा एम होय. ए पहेली योगमुजानुं स्वरूप कडं ॥ १५ ॥ ___ हवे बीजी जिनमुखानु लक्षण कहे . चत्तारि अंगुलाई, पुरउ ऊणाइं जब पत्रिम ॥ पायाणं उस्सग्गो,एसा पुण हो जिणमुद्दा॥१६॥ अर्थः-( जब के० ) यत्र एटले जिहां (पायाणं के०) पगना जे (पुर के०) श्रागलना अंगुलिनी बाजु तरफना पहोचाने माहोमांहे ( चत्तारि अंगुलाई के) चार पांगुलनो आंतरो राख्यो होय, अने पगना (पछिम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदनार्थसहित. ३० के०) पाउलनी पानीनी बाजुना जागमां मांहोमांहे चार यांगुलथी कांइक (ऊणाई के० ) ऊणो तरो राख्यो होय. ए रीतें पग राखीने (उस्सग्गो ho) काउस्सग्ग करीयें (एसा के० ) ए प्रकारें (पुण के०) वली (जिएमुद्दा ho ) जिनमुद्रा ( होइ के० ) होय ॥ १६ ॥ हवे त्रीजी मुकाशुक्तिमुद्रा कहे . मुत्ता सुत्ती मुद्दा, जसमा दोवि गनिया दवा || ते पुण निलाम्देसे, लग्गा अन्ने अलग्ग ति ॥१७॥ अर्थ :- ( ज ० ) जिहां ( दोवि के० ) बेहुए प ( हा के० ) हाथ ते (समा के० ) सरखा बराबर ( गया ० ) गर्जितपणे राखी ( ते के० ) ते बे हस्त ( पुण के० ) वली ( निलाम से के० ) ललाटना देश एटले ललाटनां मध्य जागने विषे ( लग्गा के ० ) लगाड्या होय, वली ( o ) अन्य एटले बीजा केटलाएक याचार्यों कहे बे के ( अलग्गत्ति ho) लगाया होय एटले ललाटदेशथी दूर राख्या होय. इति एटले ए प्रकारें (मुत्तासुत्ती मुद्दा के०) मुक्ताशुक्तिनामे मुद्रा कहीयें. एमां चंगु लिनां बिs विना जेम मोतीना बीपनो जोको मलेलो होय, तेवा कारें हाथ राखवा, ए मुद्रानुं ए लक्षण बे ॥ १७ ॥ हवे ए त्रण मुद्रा मांहेली कइ मुद्रायें क्रिया करवी. ते कहे बे. पंचगो परिवार्ड, थयपाढो दोइ जोगमुद्दाए || वंद जिएमुद्दाए, पणिहाणं मुत्तसुत्तीए ॥१८॥ अर्थः- एक इछामि खमासमणनो पाठ तेने ( पंचगो परिवार्ड के ० ) पंचांग प्रणिपात कहीयें. बीजो ( थयपाढो के० ) स्तवपाठ ते श्रीजिने श्वरना गुणनी स्तुति जे स्तवनादिकनो पाठ करवो ते ( जोगमुद्दाए ho ) योगमुद्रायें करीने ( होइ के० ) होय, तथा ( वंद के० ) वांद या देवां ने काउस्सग्ग जे अरिहंतचेश्याणं इत्यादि सर्व (जिएमुद्दा एके० ) जिनमुद्रायें करीने थाय, तथा जावंति चेश्याएं, जावंत के वि साहु ने जयवीयराय ए त्रणे ( पणिहाणं के० ) प्रणिधान संज्ञामां वे. पण इहां ते संप्रदायगत एकज जयवीयरायने कही यें बैयें, ते (मुतसुतीए के ० ) मुक्ताशुक्ति मुद्रायें कहीयें ॥ १८ ॥ इहां श्रीसंघाचार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ प्रतिक्रमण सूत्र. जाष्यमध्ये मुक्ताशुक्ति मुखायें स्त्रीने स्तनादिक अवयवो प्रगट देखाय तेम न थर्बु जोश्ये, एवा हेतु माटे स्त्रीने उंचाललाटदेशें हाथ लगाडवा कह्या नथी. ए नवमुं मुखात्रिक कर्वा ॥ हवे दशमा प्रणिधानत्रिकनुं स्वरूप कहे . पणिदाणतिगं चेश्य, मुणिवंदण-पडणा-सरूवं वा ॥ मण-वय-काएगत्तं,सेस-तियो न पयडुत्ति ॥२॥ दारं॥२॥ अर्थः-(पणिहाणतिगं के०) प्रणिधानत्रिक, ते कडे? ते कहे . ति हां जावंति चेश्आई ए गाथा ( चेश्य के ) चैत्यवांदवा रूप ते प्रथम प्रणिधान जाणवू. तथा जावंत केवि साहु ए गाथा ( मुणिवंदण के) मुनि वांदवा रूप, ते बीजुं प्रणिधान जाणवू. तथा जयवीयराय आ नव मखंमा पर्यंत ए गाथा ( पत्रणासरूवं के० ) प्रार्थनास्वरूप ते त्रीजुं प्रणि धान जाणवु. ( वा के) अथवा एक (मण के ) मननुं बीजुं (वय के) वचन, अने त्रीजुं ( काय के) कायार्नु ( एगत्तं के ) एकत्व एटले एकाग्र पणुं ते पण प्रणिधानत्रिक कहीये. श्हां शिष्य पूजे जे के चैत्यवंदनायें प्रणिधान आवे ,अने बीजी शेष वंदना तो प्रणिधान विनाज थाय बे, तिहां ए बोल सचवाता नथी ते केम ? तेने गुरु कहे बे, के तिहां मन, वचन अने कायानी एकाग्रता के ए मुख्य प्रणिधान बे ए दशमं प्रणिधान त्रिक कडं. __ हवे (सेस के.) शेष रह्या जे (तिय के०) त्रिक एटले आहीं गाथायें करी जेनुं स्वरूप नही वखाएयु एवं बीजं अने सात, त्रिक, तेनो (अबो के०) अर्थ ते (तु के०) वली ( पयमुत्ति के०) प्रकट बे, माटे तेनुं खरू प मूल गाथामां लख्युं नथी, एम जाणवू. तथापि बालावबोधकर्तायें ते त्रिकोना अनुक्रमें संक्षेप अर्थ ते ते स्थानकें लख्या , एटले दशत्रिकनुं ए प्रथम मूल छार थयुं अने उत्तर बोल त्रीश थया ॥ २॥ हवे बीजुं पांच प्रकारना अनिगमर्नु छार कहे . सचित्त दव मुजाण, मचित्त मणुकाणं मणेगत्तं ॥ग सामि उत्तरासं, ग अंजलि सिरसि जिण दिहे॥२०॥ अर्थः-चैत्यादिकने विषे प्रवेश करवानो विधि तेने अनिगम कहीये. ते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदन नाष्य अर्थसहित. ३ए पांच प्रकारें . तिहां देहरे जातां (सचित्तदत्वं के०) सचित्तव्य जे पोताना अंगे श्राश्रित कुसुमादिक,फलादिक, होय, तेनु (उजाणं के०) बांगवू,ते प्रथ म अनिगम, तथा (अचित्तं के०) अचित्त पदार्थ जे अव्यनाणादिक तथा आजरणादिक वस्त्रादिक वस्तु तेनुं ( अणुऊणं के) अणगंम एटले पोतानी पासे राखवानी अनुझा ते बीजो अनिगम. तथा (मणेगत्तं के०) मन- एकाग्रपणुं करवू, ते त्रीजो अनिगम. तथा (गसामि के) एकप हुं वस्त्र बेहु डायें सहित होय तेनो (उत्तरासंग के०) उत्तरासंग करवो, ते चोथो अनिगम. तथा (जिण दिले के०) श्रीजिनेश्वरने दूरथकी नजरें दी थके (अंजलि के०) बे हाथ जोमीने (सिरसि के०)मस्तकनेविषे लगा मवा एटले अंजलिबल प्रणाम करवो,ते पांचमो अनिगम जाणवो ॥२॥ श्य पंचविदानिगमो, अदवा मुच्चंति रायचिन्दाइं॥ खग्गं बत्तोवाणद, मनडं चमरे अ पंचमए ॥१॥ दारं ॥३॥ अर्थः-(श्य के० ) पूर्वती गाथामां कह्या जे (पंचविहानिगमो के० ) पांच प्रकारें अनिगम ते देव तथा गुरु पासें आवतां साचववा (अहवा के०) अथवा वंदना करनार श्रावक जो पोतें राजादिक होय तो ते ए पांच अनिगम साचवे, अने वली बीजां (रायचिन्हा के०) राजानां पांच चि न्ह जे ते प्रत्ये (मुच्चंति के०) मूके एटले बगंडे तेनां नाम कहे , एक (खग्गं के० ) खड्ग, बीj ( उत्त के०) बत्र, त्रीजुं ( उवाणह के ) उपा नह, एटले पगनी मोजडी,चोथो माथार्नु (मजमं के०) मुकुट अने(पंचमए के०) पांचमुं (चमरेथ के०) चामर, ए पण पांच अनिगम जाणवा ॥१॥ एटले पांच अनिगमर्नु बीजुं हार पूर्ण थयुं ॥ उत्तर बोल पांत्रीश थया॥ ॥ हवे वे दिशिनुं त्रीजुं हार, तथा ऋण अवग्रहनुं चोथु छार कहे ॥ वंदंति जिणे दाहिण, दिसिम्आि पुरिस वा मदिसि नारी ॥ दारं ॥ ३॥ नवकर जदन्नु सहि, करजिह मकुग्गदो सेसो ॥ २॥ दारं ॥४॥ अर्थः-(जिणे के०) श्रीजिनने (दाहिण दिसिडिया के०) दक्षिण दिशि स्थिता एटले मूल नायकनी जमणी दिशायें रह्या थका (पुरिस के०) पुरुषो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३एन प्रतिक्रमण सूत्र. (वंदति के०) वांदे एटले चैत्यवंदना करे,अने मूल नायकने (वामदिसि के) माबे पासे रही थकी (नारी के०) स्त्री जनवांदे,एटले चैत्यवंदना करे.इहां चै त्यवंदना पूजाना अधिकार माटें प्रसंगथी जमणी पासें दीपक थापवो, अने माबी पासें धूपादिक नाणुं, फलादिक, जिन आगलें तथा हस्तें आपीयें.ए बे दिशिनुं त्रीजुं छार थयु. अने उत्तर बोल सामंत्रीश थया. हवे त्रण अवग्रह,चोथु हार कहे जे. तिहां जगवंतथकी (नवकार के०) नव हाथ वेगला रहीने चैत्यवंदना करवी,ते प्रथम (जहन्नु के०)जघन्य अ वग्रह जाणवो, तथा जगवंतथकी (सहिकर के०) षष्ठिकर एटले शाप हाथ वेगला रहीने चैत्यवंदना करवी,ते बीजो (जिह के०) ज्येष्ठ एटले उत्कृष्ट अव ग्रह जाणवो, अने (सेसो के०) शेष जे नव हाथथी उपर अने शाप हाथनी मांदेली कोरें एटली वेगलाईयें रही चैत्यवंदना करवी, ते सर्व त्रीजुं (माग्ग हो के०) मध्यम अवग्रह जाणवो.तथा केटलाएक आचार्य बार प्रकारना अव ग्रह कहे डे के ॥ उक्कोस सहि पन्ना, चत्ता तीसा दसह पणदसगं ॥ दस नव ति छ एगकं, जिणुग्गहं बारस विनेयं ॥१॥ एटले ६०,५०,४०,३०,१७,१५, १०,ए,३,२,१,०॥ ए बार अवग्रह थया एटले अर्का हाथथी मामीने शाप हा थ पर्यंत श्रीजिनगृहें तथा गृहचैत्यादिकें श्वासोबासादि आशातना वर्जवा निमित्तें ए अवग्रह जाणवां ॥ २२ ॥ ए चोथु त्रण अवग्रहy द्वार कह्यु, शहां सुधी सर्व मती उत्तर बोल ४० थया ॥२५॥ हवे त्रण प्रकारें चैत्यवंदना करवी,तेनुं पांचमुं हार कहे डे नमुक्कारेण जहन्ना, चिश्वंदण मद्य दंम थुइ जुअला ॥ पण दंम थुश् चउकग, थय पणिदाणेहिं नकोसा ॥१३॥ अर्थः-( नमुक्कारेण के० ) एक नमस्कार श्लोकादिक रूप तथा नमो अरिहंताणं कहीने अथवा हाथ जोमी मस्तक नमामवे करी अथवा नमो जिनाय कही नमवे करी अथवा एक श्लोकादि केहेवे करी अथवा हमणां देहरे चैत्यवंदन कहियें बैयें, इत्यादि रूपें सर्व प्रथम (जहन्ना के) ज घन्य ( चिश्वंदण के ) चैत्यवंदन जाणवू. तथा ( दंडथुश्जुअला के०) दंडक युगल ते अरिहंत चेश्याणंनुं युगल तथा स्तुतियुगल ते चार थुर एटले एक नमस्कार श्लोकादिरूप कही, शक्रस्तव कही, उन्ना थक्ष, अरि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदन नाष्य अर्थसहित. ३एए हंत चेश्याणं कही काउस्सग्ग करी, थुइ कहेवी, ते बीजी ( मद्य के ) मध्यम चैत्यवंदना जाणवी. तथा ( पणदंग के ) पांच नमोबुणा रूप पांच दंमकें करी अने (श्रुश्चउकग के०) स्तुतिचतुष्क एटले आठ थुश्य करीने, (थय के ) स्तवनें करीने तथा जावंति चेश्या, जावंत केवि साहु अने जयवीयराय, ए त्रण (पणिहाणेहिं के) प्रणिधाने करीने त्रीजी (उकोसा के०) उत्कृष्टी चैत्यवंदना जाणवी ॥ २३ ॥ अन्ने बिति गेणं, सक्कबएणं जहन्न वंदणया॥ तहुग तिगे ण मन्ना, नकोसा चनहिं पंचदिं वा ॥ २४ ॥ दारं ॥५॥ अर्थः-(अन्ने के०) अन्य एटले बीजा वली केटला एक आचार्य एम (बिंति के०) ब्रुवंति एटले कहे जे के (श्गेणं के०) एकेन एटले एक (सकल एणं के ) शकस्तवें करीने देव वांदीये ते ( जहन्न के० ) जघन्य (वंद णया के) चैत्यवंदना जाणवी. अने ( तदुगतिगेण के) तद्धिकत्रि केण एटले तेहीज बे तथा त्रण शक्रस्तवें करी (मद्या के०) मध्यम चैत्य वंदना जाणवी. तथा ( चाहिं के०) चार शक्रस्तवें करी (वा के) अ थवा (पंचहिं के०) पांच शकस्तवें करीने प्रणिधान युक्त करीये ते (उ कोसा के० ) उत्कृष्ट चैत्यवंदना जाणवी, अने नाष्यादिकने विषे स्तुती युगल कह्यां , ते त्रण थुश् स्तुतिरूप एक गणीयें .यें. अने चोथी थुइ शिदारूप समकेतदृष्टिनी सहायरूप जूदी गणी ते माटें स्तुति युगल कहे , तेनो विचार आवश्यकवृत्तिथकी जाणवो ॥ २४ ॥ एटले त्रण नेदें चैत्यवंदना पांचमुं हार कह्यु. सर्व मली उत्तर बोल तालीश थया॥ __ हवे बहुं प्रणिपातहार तथा सातमुं नमस्कार घार कहे बे. पणिवा पंचंगो, दो जाणू करगुत्तमंगं च ॥दारं॥६॥सुम दब नमुकारा,ग जुग तिग जाव असयं ॥श्यादार॥७॥ अर्थः-जिहां प्रकर्षे करी नक्ति बहुमानपूर्वक नमवू तेने (पणिवार्ड के०) प्रणिपात कहीये ते ( पंचंगो के ) पांच अंग नूमियें लगामवा रूप जाणवो, तेनां नाम कहे डे ( दोजाणू के०) बे जानु, एटले बे ढींचण, अने ( करग के०) बे हाथ, (च के०) वली पांचमुं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४00 प्रातक्रमण सूत्र. ( उत्तमंगं के०) उत्तमांग ते मस्तक, ए पांच अंग जिहां खमासमण आ पतां नूमिये लागे, ते पंचांग प्रणिपात कहीये. एणे करी “ श्वामि खमा समणो वंदिलं जावणियाएनिसीहियाए मबएण वंदामि " ए पाठ कहे. ए बहु प्रणिपात द्वार कह्यु. उत्तर बोल चुम्मालीश थया ॥ हवे सातमुं नमस्कार कार कहे . ( सु के ) जला एवा ( महल के०) अत्यंत महोटा गहन अर्थ जेहना एटले नक्ति, ज्ञान, वैराग्य दिशाना दीपक एवा ( नमुक्कारा के० ) नमस्कार कहेवा ते (ग के०) एक तथा ( उग के०) बे, तथा ( तिग के० ) त्रणथी मांडीने (जावय उसयं के०) यावत् एकशो ने आठ पर्यंत कहे ॥ए सातमुं नमस्कार द्वार कडं. उत्तर बोल पीस्तालीश थया ॥ २५॥ - हवे देववंदनना अधिकारें जे नवकार प्रमुख नव सूत्रां आवे बे, तेमने एक वारनां उच्चस्यां हलवां तथा नारे मलीने सर्व गणीये तेवारे १६४७ अदर थाय अने १७१ पद थाय तथा एy संपदा थाय, ए अदर, पद तथा संपदा मली त्रणे हार एकगं कहे . तेनी साथे संपदानां नाम तथा अर्थ पण कहेशे. यद्यपि श्यामि खमासमणो तथा जे अभ्यासिका ए गाथा तथा तस्स उत्तरी, अन्नब, इत्यादि अपर ग्रंथांतरें तो ए सूत्रमां संकलित नथी तथापि नाष्यमांहेला देववंदनाधिकारें बोल्या बे, अन्यथा जे पूर्वे उत्तरछार कह्यां, ते पूर्ण न थाय, तेमाटें ते सर्व द्वार एकगं कहे बे. अमसहि अम्वीसा,नवनन्यसयं च उसय सग नगया॥दो गुणतीस उसा, 3 सोल अमनग्यसय ऽवन्नसयं ॥२६॥ अर्थः-१ प्रथम “ पंच मंगल महासुयरकंध” एह नाम नवकारबे, तेनां अदर (अमसहि के० ) अमशह ते हवश मंगलं एवो पाठन णतां थाय, केम के श्रीमहानिशीथ सूत्रमध्ये प्रकटादरें हवश् मगलं ए हवो पाठ ॥ यमुक्तं ॥ पंच पयाणं पणतिस, वसचूलाई वम तित्तीसं ॥ एवं सम्मे समप्पश्. फुड मकर महसहीए ॥ इति ॥ १॥ तेमाटें जो नम स्कारनो एक अदर उदो करे, तो चोशठ विधानें नमस्कार साधवो ते न्युन थाय, तेथी छाननी आशातनानो अतिचार लागे, एवं श्रीजड्बाहु खामीयें नमस्कार कल्पें प्रकाश्युं बे, माटें हवश् मंगलं एवो पाठ कहेवो. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदन नाष्य अर्थसहित. ४०१ २ बीजु “ प्रणिपात” एवं नाम श्वामिखमासमण- बे, ते थोजसू त्रमा गुरुवंदनाधिकारें वांदणामां आवशे, पण इहां चैत्यवंदन माटें नेतुं कडं . तेना अदर (अहवीसा के०) अहावीश बे. ___३ त्रीजुं “पमिकमणा सुयकंध” एवं नाम इरियावहियानुं वे ते सूत्र ना श्वामि पमिकम हांथी मांडीने यावत् गमि काउस्सग्गं लगें अ कर ( सयंव के० ) एकशोने वली उपरें ( नवनउ य के०) नवाणुं बे. ४ चोथु “शक्रस्तव" एवं नाम नमोबुणं- बे. तेना अदर (उसयस गनजया के०) बशें ने सत्ताणुं जाणवा. ___५ पांचमुं" चैत्यस्तव ” एवं नाम अरिहंतचेश्याएंगें बे, तेना अदर (दो गुणतीस के० ) बशें ने जंगणत्रीश जे. ६ बहुं “नामस्तव” एवं नाम लोगस्सनु बे, वर्तमान जिन चोवीशीना नामनुं गुणोत्कीर्तनरूप तेना अदर (उसहा के ) बशें ने शाप बे.. ७ सातमुं “श्रुतस्तव” एवं नाम पुरकरवरदीनुं ने तेना अदर (उ सो ल के० ) बशेनें शोल . आउ{ " सिन्नस्तव” एवं नाम सिझाएं बुझाणं- हे तेना अकर ( अमनउयसय के०) एकशोने अठाणुं बे. ए नवमुं“ प्रणिधान त्रिक" एबुं नाम जावंति चेश्या जावंत के वि साहु अने सेवणा आजवखंमा पर्यंत जयवीयराय ए त्रणेनुं बे. तेना अदर (वन्नसयं के०) एकशो ने बावन डे ॥ २६ ॥ इस नवकार खमासण, इरिअ सकनआइ दमेसु ॥प णिहाणेसु अ अरु, त्त वन्नसोलसय सीयाला॥२७॥ अर्थः-(इल के०) ए पूर्वे कह्या जे अदर ते अनुक्रमें अमशठ अदर (नवकार के०) नवकारने विषे जाणवा, अहावीश अदर (खमासण के०) खमासमणने विषे जाणवा, तथा एकशो नवाणुं अदर (इरिय के०) इरि या वहियाना गमि काउस्सग्गं लगें जाणवा, (१२००) अदर (सक आ दंडेसु के०) शकस्तवादिक पांच दमकने विषे अनुक्रमें जाणवा. तेमां नमुनुण ना सवे तिविदेणवंदामि लगें एड, तथा अरिहंतचेश्याणंना अप्पाणं वो सिरामि लगें शशए, तथा लोगस्सना सबलोए लगें २६०, तथा पुरस्करवर Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ प्रतिक्रमण सूत्र. दीना सुअस्सनगवर्ड लगें २१६, तथा सिसाणं बुझाणंना वेश्रावच्चगराणं, संतिगराणं, सम्मदिहि समाहिगराणं लगें रए, ए सर्व मली पांच दमक ना १२०० अदर थया. तथा १५५ श्रदर जावंति चे आई, जावंत के वि साहु अने जयवीयराय सेवणा ानव मखंमा लगें ए त्रण (पणिहाणेसु के०)प्रणीधानने विषे जाणवा.ए रीतें ए नव सूत्रांना अदरो एका करियें. त्यारे (अकुरुत्त के०) अद्विरुक्त एटले बीजी वार अण उच्चस्या एवा (व ना के०) वर्ण एटले अदर ते सर्व मली (सोलसयसीयाला के० ) शो लशे ने सुमतालीश थाय ॥२७॥ हवे पदसंख्या कहे . नव बत्तीस तित्तीसा, तिचत्त अडवीस सोल वीसपया ॥ मंगल इरिया सक, बयाश्सु गसीइ सयं ॥ २० ॥ अर्थः-नवकारनां ( नव के ) नव पद डे, इरियाव हिनां (बत्तीस के०) बत्रीश पद, नमोबुणंनां (तित्तीसा के० ) तेत्रीश पद, अरिहंतचे श्याणंना ( तिचत्त के० ) तालीश पद, लोगस्सनां ( अमवीस के) अहावीश पद, पुरकरवदीनां (सोल के) शोल पद, सिफाणंबुझाणंनां ( वीसपया के०) वीश पद, एम (मंगल के०) नवकार, (रिया के) शरियावहि अने ( सकछयाश्सु के०) शकस्तवादिक पांचे दमक ए सात सूत्रांने विषे सर्व मली (गसीइसय के०) एकशो ने एक्याशी पदनी संख्या जाणवी. अने प्रणीपातनां पद तो वांदणां नेलां गुरु वंदनमां कहेशे. तथा प्रणिधानत्रिकनी पद संपदा अनुक्रमें बे, तेमाटें न कह्यु “ वारिजा” त्यादि गाथा नक्तिनी योजना बे, ते श्हां गणी नही ॥२७॥ हवे संपदानी संख्या कहे . अहह नवघ्य अहवी,स सोलसय वीस वीसामा॥ कमसो मंगल इरिया, सक्कथयाईसु सगनन ॥२॥ अर्थः-प्रथम नवकारनी (अह के०) आठ संपदा, तथा इरियावहिनी (अह के०)श्राप संपदा, तथा नमोबुणंनी(नव के०)नव संपदा, तथा अरिहंत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदन जाय अर्थसदित. ४०३ यानी ( के० ) या संपदा, ( य के० ) वली लोगस्सनी (श्र वीस के० ) अावीश संपदा, तथा पुरकरवरदीनी ( सोलस के० ) शो लसंपदा, (य के० ) वली सिद्धाणंबुद्धाणंनी ( वीस के० ) वीश संपदा जावी. एलगारेक रहेवानुं स्थान तथा अर्थनो ( वीसामा के० ) वी सामो लेवानुं स्थान तेने संपदा कहीयें. ते (कमसो के०) अनुक्रमें (मंग a ho) नवकारने विषे ( इरिया के० ) इरियावदिने विषे धने ( सक्कथ याईसु के० ) शक्रस्तवादिक पांच दंरुकने विषे ए सर्व मली सात सूत्रांने विषे सर्व संपदा ( सगनउई के०) सप्तनवती एटले सत्ताएं थाय ॥ २५ ॥ 0 "" हवे नवकारना अक्षर तथा पद ने संपदा विवरी देखाडे . वस नव पय, नवकारे अठ संपया तच॥सग संपय पय तुल्ला, सतरकर अठमी डुपया ॥३०॥ "नवस्कर मी डुपयबडी" इत्यन्ये अर्थः- ( नवकारे के० ) नवकारने विषे ( वणसहि के० ) अमराठ वर्ण होय, तथा नमो रिहंताणं श्रादिक ( पय के० ) पद तें ( नव के० ) नव होय, अने ( संपया के० ) संपदा तो ( अ ० ) आठ होय, ( तब ० ) तिहां ते आठ संपदामांहे प्रथमनी “ सवपावप्पणा सणो सुधीनी जे ( सगसंपय के० ) सात संपदा बे, ते तो ( पयतुल्ला के० ) पदने तुल्य जाणवि एटले जेटला पद तेटली संपदा पण जाणवी तथा (मी के० ) मी संपदा तो "मंगलाणं चसवेसिं" पढमं हवs मंगलं ए वे पदने एकठां कहीयें माटे ए ( डुपया के० ) वे पदनी जाणवी, तथा अन्य केटलाएक आचार्य एम कहे बे, के " पढमं हव मंगलं " ए (नवरकर मी के० ) नव अक्षरनी आठमी संपदा तथा " एसोपंच नमुक्कारो, सबपावप्पणासणो ” ए ( डुपय के० ) वे पदनी अने शोल करनी ( बही के०) बही संपदा जाणवी ॥ ३० ॥ " हवे प्रणिपात खमासमणना अक्षर तथा पद छाने संपदा विवरी देखाडे बे. पशिवाय अकराई, अठावीसं तदाय इरियाए ॥ नव नन = मकर सयं, तीस पय संपया अठ ॥ ३१ ॥ अर्थ :- (पशिवाय के० ) प्रणिपात दंडकने विषे (हावीसं के० ) श्रावीश Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ प्रतिक्रमण सूत्र. ( अकरा के० ) अदर बे, (तहाय के० ) तथाच एटले तेमज वली (रियाए के०)रियावहिने विषे ( नवनग्अमरकरसयं के०) नवनव ति अक्षरशतं एटले नवाणुयें अधिक एकशो अदर जाणवा अर्थात् एक शो ने नवाणुं अदर जाणवा, तथा (उतीस के०) त्रीश (पय के०)पद जाणवां अने ( संपया के०) संपदा (अह के) आठ जाणवी ॥३१॥ ए आठ संपदाना पदनी संख्या तथा संपदाना आदि पद कहे जे. जुग जुग ग चन ग पण, गार बग इरिय संपया पया॥ श्वा हरि गम पाणा, जे मे एगिदि अनि तस्स ॥३२॥ अर्थः-पहेली संपदा ( उग के० ) बे पदनी, बीजी संपदा पण (उग के० ) बे पदनी, त्रीजी (ग के) एकपदनी, चोथी (चन के०) चार पदनी, पांचमी (ग के०) एकपदनी, बही(पण के०) पांच पदनी, सातमी (गार के ) अगीयारपदनी, बाग्मी (बग के०) पदनी जाणवी ॥ हवे ए (इरिय के०) शरियावहीनी सर्व (संपया केण) संपदाउँना (आ इपया के०) आदिपद एटले प्रथमना पद जे संपदाना धुरियां ते कडे बे. तिहां प्रथम (श्वा के० ) श्वामि ए पहेली संपदा, पहेलु पद, (इरि के०) शरियाव हियाए ए बीजी संपदा, पहेलु पद, (गम के०) गमणागमणे ए त्रीजी संपदानु पहेवू पद, (पाणा के० ) पाणकमणे ए चोथी संपदानुं प हेलु पद, (जेमे के) जेमेजीवा विराहिया ए पांचमी संपदानुं पहेढुं पद, (एगिदि के०) एगिदिया ए बही संपदानु पहेढुं पद, ( अनि के० ) अ निहया ए सातमी संपदा, पहेढुं पद, (तस के० ) तस्सउत्तरी करणेणं ए बाठमी संपदानुं पहेवू पद जाणवू ॥ ३ ॥ ॥ हवे ए रियावहिनी पाठ संपदानां नाम कहे ॥ अनुवगमो निमित्तं, उदे अरदेन संगदे पंच ॥ जीवविरादण पडि, कमण नेयनतिन्नि चूलाए ॥ ३३ ॥ अर्थः-अच्युपगम एटले अंगीकार कर ते आहीं पापना दयनुं जे श्रालोचना लक्षण कार्य तेनो अंगीकार करवो ते स्वरूप एटला माटे श्वामि पमिकमिजं ए बे पदनी प्रथम(अनुवगमो के०) अन्युपगम संपदाजाणवी. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदन नाष्य अर्थसहित. ४०५ २ ते अंगीकार कृत वस्तुनें उपजाववाना कारण रूप इरियाव हियाए विराहणाए बे पदनी बीजी (निमित्तं के०) निमित संपदा जाणवी. ३ सामान्य प्रकारे प्रायश्चित्त उपजाववा रूप गमणागमणे ए एक प दनी त्रीजी (उहे के०) उघ एटले सामान्य हेतु संपदा जाणवी. ए जीव हिंसा उपजाववानो सामान्य हेतु गमनागमन बे. __४ जीवहिंसाना विशेष हेतु रूप एटले विशेषपणे प्राण बीजादिक आक्रमण रूप ते पाणकमणे, बीयकमणे, हरियकमणे, उसा उत्तिंग पण ग दगमट्टीमकमा संताणा संकमणे, ए चार पदनी चोथी (इअरहेउके०) श्तरहेतु एटले विशेष हेतु संपदा जाणवी. जे सामान्यथी इतर ते विशे ष होय; माटे विशेष हेतु ए, नाम जाणवू. ५ समस्त जीवना परिताप रूप जीव विराधना संग्रह रूप ते जे मे जी वा विराहिया ए एकपदनी (पंच के०) पांचमी (संगहे के)संग्रह संपदा. ६ एकेडियादिक पांच जीवने देखाडवा रूप जीवनेद ५६३ प्रमुख क थन रूप एगिदिया, बेदिया, तेदिया, चरिंदिया, पंचिंदिया, ए पांच पदनी बही ( जीव के०) जीव संपदा जाणवी. ___७ ते जीवादिक नेदने परितापना विराधना रूप ते अनिहयाथी मां मीनें तस्स मिलामि मुक्कम लगें अगीयार पदनी सातमी (विराहण के०) विराधना संपदा जाणवी. ___प्रायश्चित्तविशोधनकरण रूप ते तस्सउत्तरी करणेणंथी मांगीने ग मि काउस्सग्गं लगें न पदनी आग्मी (पमिकमण के०)प्रतिक्रमण संपदा. (नेय के०) ए नेदथकी. ए मांहे प्रथमनी पांच संपदा ते इरियाव हिनी मूल संपदा जाणवी, अने पाउलनी (तिन्नि के०) त्रण संपदा ते रिया वहिनी ( चूलाए के) चूलिकारूप जाणवी ॥ ३३ ॥ हवे नमुनुणंनी प्रत्येक संपदाना पदनी संख्या तथा आदिपद कहे बे. उति चन पण पण पण, चन तिपय सक्कथय संपयाइपया॥ नमु आग पुरिसो, लोग अन्नय धम्मऽप्प जिण सवं ॥३४॥ अर्थः-पहेली (3 के०) बे पदनी, वीजी (ति के० ) त्रण पदनी, त्रीजी (चन के ) चार पदनी, चोथी (पण के) पांच पदनी, पांचमी (पण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ प्रतिक्रमण सूत्र. के०) पांच पदनी,बही (पण के०)पांच पदनी,सातमी(3 के०)बे पदनी,श्रा मी (चन के०)चार पदनी अने नवमी (तिपय के०)त्रण पदनी ए ( सक्क थय के०) नमुबुणंने विष संपदानां पद कह्यां,ते सर्व मली तेत्रीश जाणवां. हवे नमुन्नुणंनी (संपया के०) संपदाना (आश्पया के०) आदिना एटले पहेला धुरियांनां पद कहे . ( नमु के०) नमोबुणं ए पहेली (संपदार्नु प्रथम पद जाणवू,(आश्ग के०) आगराणं ए बीजी संपदानुं प्रथम पद, (पुरिसो के०) पुरिसुत्तमाणं ए त्रीजी संपदानुं प्रथम पद, ( लोग के०)लो गुत्तमाणं ए चोथी संपदानुं प्रथम पद, (अजय के०) अजयदयाणं ए पां चमी संपदानुं प्रथम पद, (धम्म के०) धम्मदयाणं ए बही संपदानुं प्रथ म पद, (अप्प के०) अप्पमिहयवरनाणदसणधराणं ए सातमी संपदानु प्रथम पद, (जिण के०) जिणाणं जावयाणं ए आग्मी संपदानुं प्रथम पद, अने (सब के०) सवन्नुणं सबद रिसिणं ए नवमी संपदानुं प्रथम पद. हवे ए शक्रस्तवनी नव संपदाउँनां नाम कहे . थोअव संपया उद, ईयरदेक वउंग तक॥ सविसेसु वनग सरूव, देन नियसमफलय मुरके ॥ ३५॥ अर्थः-श्रीअरिहंत नगवंत ते विवेकी जनोयें स्तववा योग्य डे एटला माटे नमुबुणं अरिहंताणं, जगवताणं ए बे पदनी पहेली ( थोपव संप या के०) स्तोतव्य संपदा जाणवी. पठी ते स्तववा योग्यतुं सामान्य हेतु कहेवा माटे आगराणंथी मांगीने सयंसंबुझाणं लगें त्रण पदनी वीजी ( उह के०) उघ एटले सामान्यहेतु संपदा जाणवी. पड़ी ए बीजी संप दाना अर्थने विशेषे दीपावे तेमाटे सामान्यहेतुथी (श्यरहेऊ के०) श्त रहेतु ते विशेषहेतुरूप त्रीजी संपदा जाणवी,पड़ी आद्य संपदाना अर्थने विशेषे दीपावे एटले सामान्य स्तवनानो उपयोग तेनुं कहेवू ते चोथी ( उवउंग के ) उपयोग संपदा जाणवी. पडी ए उपयोग संपदा नाज अर्थ ने हेतु सनावें करी दीपावे ते पांचमी (तकेऊ के० ) तत् हेतु सं पदा जाणवी, अथवा उपयोग हेतु संपदा जाणवी, पड़ी एज उपयोग हेतु संपदाना अर्थ गुण दीपाववा निमित्तें अर्थ विशेषे जणावे एटले कारण सहित स्तववा योग्य, स्वरूप कहेवं ते बही (सविसेसुवलग के०) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदन नाष्य अर्थसहित. ४09 सविशेष उपयोग हेतु संपदा जाणवी,पढी यथार्थ पोताना स्वरूपन हेतु प्रकटार्थ देखामवा रूप सातमी ( सरूवहेज के०) स्वरूप हेतु संपदा जा णवी, तथा पोताने समान फलदायक प्रकटार्थ रूप एटले स्तवना करना रने आपतुल्य करे एवी परम फलदायिनी एटले पोतानी समान परने फ लन करण एटला माटे आठमी (नियसमफलय के०) निज समफलदनामे संपदा जाणवी, तथा मोद स्वरूप प्रकटार्थ रूप मोक्षपदनुं स्वरूप, एटला माटे नवमी (सुके के०) मोद संपदा जाणवी. जे माटे कडं बे के “ सब थाई पढमो, बी सिवमयल मा ालावो ॥ तर्ज नमोजिणाणं जिय नयाणं तन्निदिको ॥ १॥ इत्यावश्यके ॥ ३५ ॥ हवे नमोबुणंना अक्षरादिकनी एकंदर सरवाले संख्या कहे . दो सगनका वमा, नवसं पयः तित्तीस सक्कथए । चेश्यथय संपय,तिचत्त पय वम उसयगुणतीसा ॥३६॥ अर्थः-( सकथए के० ) शकस्तव जे नमोनुणं तेने विषे सर्व मलीने (दोसगनऊ के)बशेने सत्ताएं (वला के०) वर्ण जाणवा अने (नवसंप य के०) नव संपदा जाणवी, तथा (पयतितीस के०) पद तेत्रीश जाणवां. हवे (चेश्यथय के०) चैत्यस्तव एटले अरिहंत चेश्याणंने विषे सर्व मली (अठसंपय के०) आठ संपदा जाणवी अने ( तिचत्तपय के ) तें तालीश पद जाणवां, तथा (वम के ) वर्ण एटले श्रदर ते (उसयगु णतीसा के०) बशें ने उगणत्रीश जाणवा ॥ ३६ ॥ हवे चैत्यस्तव जे अरिहंत चेश्याएं तेनी प्रत्येक संपदाना पदनुं मान तथा प्रत्येक संपदाना आदिपद एटले धुरियां कहेजे. बसग नव तिय उ चन,बप्पय चिइ संपया पया पढमा॥ अरिदं वंदण सिझा, अन्न सुहुम एव जा ताव ॥३७॥ अर्थः-पहेली (3 के ) बे पदनी, बीजी (के०) ब पदनी, त्रीजी ( सग के०) सात पदनी, चोथी ( नव के०) नव पदनी, पांचमी (तिय के० ) त्रण पदनी, बठी ( के ) उ पदनी, सातमी ( चउ के० ) चार पदनी, आग्मी (बप्पय के०) ब पदनी जाणवी. For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8០០ प्रतिक्रमण सूत्र. हवे ए (चि के०) चैत्यस्तवनी प्रत्येक (संपया के) संघदाना- ( पढ मा के०) प्रथमना एटले आदिनां धुरीयांनां (पया के०) पद कहे . ति हां (अरिहं के) अरिहंत चेश्याणं ए पहेली संपदानुं प्रथम पद (वंदण के०) वंदणवत्तियाए ए बीजी संपदानुं प्रथम पद (सिझाए के०) सिकाए ए त्रीजी संपदानुं प्रथम पद, (अन्न के०) अन्नबउससिएणं ए चोथी सं पदानुं प्रथम पद, (सुहुम के०) सुहुमेहिं अंगसंचालेहिं ए पांचमी संप दानुं प्रथम पद, (एव के०) एवमाश्एहिं आगारेहिं ए बही संपदानुं प्र श्रम पद, ( जा के ) जाव अरिहंताणं ए सातमी संपदानुं प्रथम पद, ( ताव के०) तावकायं ए आग्मी संपदानुं प्रथम पद ॥३॥ हवे ए चैत्यस्तवनी संपदाउँनां नाम कहे . अनुवगमो निमित्तं, देन इग बहु वयंत आगारा॥ आगंतुग आगारा, उस्सग्गावहि सरूवह ॥ ३७॥ अर्थः-जे अंगीकार करवू तेने अभ्युपगम कहीयें माटे श्हां अरिहंत वांदवानी अंगीकाररूप प्रथम (अपवगमो के) अच्युपगम संपदा जाण वी,तथा काउस्सग्ग कया निमित्तें करी करीये? ते बीजी (निमित्तं के०)नि मित्त संपदा जाणवी. तथा श्रमादिक हेतु वधते वधते करी करियें, केम के श्रमादिक कारण विना निष्फल थाय मानें त्रीजी (हेज के०) हेतु सं पदा जाणवी. तथा श्रागार राख्या विना निरतिचारपणे काउस्सग्ग न था य, एटला माटें आगार राखवानी अन्नबससीएणं इत्यादि उबासादिकने करवे करी चोथी (गवयंत के) एकवचनांत आगार संपदा जाणवी. तथा “सुहुमेहिं अंगसंचालेहिं” एटले सूमनेत्रादिकफुरकवादि मात्र आ दिकें करी पांचमी (बहुवयंत आगारा के ) बहुवचनांत आगार संप दा जाणवी. हां आगारा पद बेहुने जोमवू, तथा एक सहज बीजो अ दपबाहुल्य एटले एवमाश्एहिं एणे करी अग्निस्पर्श, पंचेंप्रिय छेदन, चौ रादिलय, सर्पादि, कदाचित् आवी मले तो इत्यादि आगार कह्यां, माटें बहुहेतु आगंतुक नावरूप अथवा अग्न्यादिक उपघात रूप बही (श्रा गंतुग आगारा के०) आगंतुकागार संपदा जाणवी. तथा जाव अरिहं ताणं इत्यादिक काउस्सग्गनो अवधि मर्यादा रूप जे संपदा, ते सात Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवनंदन नार्थसहित. ყდ मी गांव कायोत्सर्गावधि संपदा जाणवी, तथा कायो त्सर्गनुं यथावस्था रूप स्वरूप ते आमी ( सरूव के० ) स्वरूप संपदा जा वी. ए ( के० ) आठ संपदानां नाम कह्यां ॥ ३८ ॥ हवे नामस्तव एटले लोगस्सादिकने विषे पदादिकनी संख्यादिक कe a. नामथयाइस संपंय, पयसम प्रमवीस सोल वीस कमा ॥ रुत्तम दो सव, इसय सोलह ना सयं ॥ ३९ ॥ अर्थः- (नामययासु के०) नामस्तवादिकने विषे एटले नामस्तव ते लोगस्स तथा यादिशब्द थकी पुरकरवरदी ते श्रुतस्तव जाणवुं श्रने सि स्तव ते सिद्धाणं बुद्धाणं जावं. ए त्रण सूत्रने विषे ( पयसम के० ) पद समान ( संपय के० ) संपदा जाणवी. एटले जेटलां ए सूत्रोनां पढ़ बे, तेलां विशामानां स्थानक जाणवां- तिहां लोगस्सनां पद पण ( अ वीस के० ) हावीश ने संपदा पण अहावीश जाणवी ने पुरकर व दीनां पद पण ( सोल के० ) शोल ने संपदा पण शोल जाणवी. त या सिद्धाणं बुद्धांना पद पण ( वीस के० ) वीश ने संपदा पण वी श जावी. ए (कमा के० ) अनुक्रमें संपदा तथा पद कहेवां, तथा लोग सने विषे (रुत्त के० ) वीजी वार उच्चस्या एवा, ( दोसठ के० ) बशे ने शाठ (वस के० ) वर्ण एटले अक्षर जाणवा. तथा पुरकरवरदीना सुप्रस जगव पर्यंत ( डुसयसोल के० ) बशे ने शोल अक्षर जाणवा, ने सिद्धाणं बुद्धाना करेमि काउस्सग्गं पर्यंत ( नासयं के० ) एकशो ने हाणुं अक्षर जाणवा ॥ ३५ ॥ पणिहाण ज्वन्नसयं, कमेण सग ति चनवास । तत्तासा ॥ गुणतास अठवीसा, चडती सिगतीस बार गुरु वसा ॥४०॥ दारं ॥ ॥ १० अर्थः- दवे जावं तिचेश्याएं तथा जावंत केवि साहू ने सेवा था नवमखंमा लगें जयवीयराय, एत्रण (पणिहाण के० ) प्रणिधान सूत्र बे, ते विषे ( डुवन्नसयं के० ) एकशो ने बावन अक्षर जाणवा हवे ( कमेण के०) अनुक्रमें संयोगी या गुरु एटले नारे अक्षर सर्व सू ५२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. ४१० त्रांना कहे . तिहां प्रथम नवकारने विषे द्धा, प्रा, व, हू, का, व, प्प, ए ( सग के० ) सात अक्षर गुरु एटले नारे जाणवा तथा खमासमणने विषे बा, जा, ब, ( ति के० ) त्रण अक्षर गुरु जावा. तथा इरियावहिने विषे वा, क, क, क्क, क, त्तिं, हि, क, त्ति, हि, द्द, स्स, छा, क, स्स, त, बि, त्त, ह्री, म्म, ग्घा, हा, स्स, ग्गं, ए ( च वीस के० ) चोवीस अक्षर गुरु जाणवा. तथा नमुने विषे तु छ, द्धा, त्त, वि, त्त, जो, स्कु, ग्ग, म्म, म्म, म्म, म्म, म्म, क्क, ही, प्प, ह, न्ना, द्धा, त्ता, व, न्नु, व, रके, वा, त्ति, द्धि, त्ता, द्धा, स्सं, ह, वे, ए ( तित्तीसा के० ) तेत्री अक्षर गुरु जाणवा. केट ला एक वजमाणं पदना बकारने गुरु कहेता नथीने केलाएक म्म, ए त्रणने गुरु गणीने तेत्री गुरु अक्षर करे. तिहां चूलिकानी गाथा गुरु नयी गणता. इत्यादिक बहु मतांतर बे, पण इहां तो संप्रदायागत एक टकार जारे गणीयें बैयें. तथा अरिहंत चेश्याणं रूप चैत्यस्तवने विषे स्स, ग्गं, त्ति, त्ति, का, त्ति, म्मा, त्ति, त्ति, ग्ग, त्ति, द्धा, प्पे, दु, स्स, ग्ग, न्न, छ, मु, ग्गे, त्त, बा, हिग्गो, स्स, ग्गो, का, प्पा, ए (गुणतीश के०) गणत्रीश अक्षर गुरु बे. तथा लोगस्सरूप नामस्तवने विषे स्स, जो, म्म, छ, त्त, स्सं, प्प, प्प, प्फ, ऊं, ऊं, म्मं, लिं, व, छ, अ, ब, त्ति, स्स, त्त, द्धा, ग्ग, त्त, म्म, बे, , द्धि, व, ए (वीसा के० ) अवावीश अक्षर गुरु जाणवा " तथा पुरकरवरदी रूप श्रुत स्तवने विषे रक, ढे, म्मा, ऊं, स्स, स्स, स्स, प्फो, स्स, स्स, ब्ला, रक, स्स, च्चि, स्स, म्म, स्स, प्र, हे, न्न, न्न, स्स, प्रू, च्चि, ब, हि, क, च्चा, म्मो, ह, म्मु, त्त, छ, स्स, ए ( चडतीस के० ) चोत्री र गुरु जाणवा. तथा सिद्धाणं बुद्धारूप सिद्ध स्तवने विषे द्धा, द्धा, ग्ग, व, द्धा, को, क्का, स्स, द्व, स्स, जिं, रका, स्स, म्म, क, हिं, ह, त्ता, घ, वी, छ, छि, हा, का, छिं, च, म्म, दि, हि, स्स, ग्गं, ए ( इगतीस के०) एकत्रीश अक्षर गुरु बे. तथा प्रणिधान त्रिकने विषे हे, वा, ब, वे, ग्गा, दु, डि, ऊ, च्चा, छ, , ए ( बार गुरुवा के० ) वार गुरुवर्ण एटले नारे अक्षर जाणवा ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदन नाष्य अर्थसहित ४११ एटले वर्ण संख्या, पदसंख्या अने संपदा मली त्रण छार कह्यां, तेनी साथे पूर्वे कहेलां सात छार मेलवतां मूल दश द्वार कहेवाणां, अने उ उर नेद १ए थया. ए सूत्रांना अर्थ सर्व श्रीआवश्यकनियुक्तिनी वृत्ति श्री जाणजो. इहां घणो ग्रंथ वधे माटें अर्थ लख्यो नथी ॥ ४० ॥ ए आठमो, नवमो अने दशमो मली त्रणे छारना यंत्रनी स्थापना. सूत्र. सूत्रांनां नाम. पदसंख्या. संपदासर्वादर गुरुङ्गलघुश्र नवकार. पंचमंगलसुत्रए ६० श्वामिखमासमप्रणिपातबोनसूत्र २ ३ २५ शरियावहि. पडिकमणासूत्र. ३२ ज एए | २४ १७५ नमोबुणं. शकस्तव. ए ए ३३ २६४ अरिहंतचेश्याणं.चैत्यस्तवाध्ययन. ४३ शए ए २०० लोग्गस्स. नामस्तव. २७ २६० । पुरकरवरदीवले. श्रुतस्तव. १६ २१६ सिझाएंबुजाणं. सिझस्तव. २० | १७३१ जावंतिचेश्या. प्रणिधानत्रिक. अनुक्रमें. अनु जावंतके विसाहु. जयवीयराय. १५५ | १५ | १४० सर्वमली सरवाले.... .... १७१ ए १६४७ २०१ १४४६ शरियावहिनीसंपदा संपदानां पद. धुरियांनां पद. १ अन्युपगमसंपदा.. २ निमित्तसंपदा. इरियावहियाए. ३ उघसंपदा. गमणागमणे. ४ इतरहेतुसंपदा. पाणकमणे. ५ संग्रहसंपदा. जेमेजीवाविराहिया. जीवसंपदा. एगिदिया. ७ विराधनासंपदा. अनिहया. पमिकमणसंपदा. तस्स उत्तरि. ܘ ܘ ܘ ܘ 8 ܝ श्वामि. ms. c won Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ of w o सिकाए. 2 aFcmo m w to w ean FC AM ४१२ प्रतिक्रमण सूत्र. चैत्यस्तवनीसंपदा. संपदानांपदसंख्या. धुरियांनां पद. १ अभ्युपगमसंपदा. अरिहंतचेश्याणं. निमित्तसंपदा. वंदणवत्तिाए. हेतुसंपदा एकवचनांतसंपदा. अन्नबससीएणं. बहुवचनांतसंपदा. सुहुमेहिंअंगसंचालेहिं. आगंतुगागारसंपदा. एवमाश्एहिंथागारेहिं. कायोत्सर्गावधिसंपदा. जावअरिहंताणं. स्वरूपसंपदा. तावकायं. शक्रस्तवनी संपदा. संपदानां पद. धुरियांनां पद. स्तोतव्य संपदा. नमोबुणं. उघसंपदा. आगराणं. ३ इतरहेतुसंपदा. पुरिसुत्तमाणं. उपयोगसंपदा. लोगुत्तमाणं. तक्षेतुसंपदा. अजयदयाणं. सविशेषोपयोगसंपदा. धम्मदेसियाणं. ७ स्वरूपहेतुसंपदा. अप्पमिहयवर निजसमफलदसंपदा. सवन्नृणं मोदसंपदा. जिणाणंजावयाणं. हवे अगीयारमुं पांच दंडकनुं छार अने बारमुं पांच दमकने विषे देव वांदवाना जे बार अधिकार दे, तेनुं छार कहे जे. पणदंडा सकत्बय, चेअ नाम सुअ सिश्चय श्च ॥दारं॥१२॥ दो ग दो दो पंच य, अदिगारा बारस कमेण ॥४१॥ अर्थः-(पणदंमा के० ) पांच दंगकनां नाम कहे . तेमां पहेवू न मोबुणंने ( सकलय के ) शक्रस्तव दंगक कहियें. बीजं अरिहंत चे याणंने ( चेश्य के ) चैत्यस्तव दंमक कहिये. त्रीजु लोग्गस्सने (नाम के०) नामस्तव दंगक कहिये. चोथु पुरकरवरदीने (सुश्र के०) श्रुतस्तव our w3310 wr Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदन नाष्य अर्थसहित. ४१३ दमक कहियें. पांचमु सिकाणंबुझाणंने ( सिमलय के ) सिहस्तव दंग क कहियें. ए पांच दंमकना नामर्नु अगीयारमुं हार कह्यु. सर्व मली उ त्तर बोल १९७५ थया ॥ हवे (श्व के०) ए पांच दमकने विषे देव वांदवाना बार अधिकार बे, तेमनुं बार- हार कहे जे. तिहां प्रथम शक्रस्तव मध्ये ( दो के० ) बे अधिकार , तथा बीजा अरिहंतचेश्याणंरूप चैत्यस्तवमध्ये (ग के० ) एक अधिकार बे, तथा त्रीजा नामस्तव एटले लोगस्सने विषे ( दो के० ) बे अधिकार , तथा चोथा श्रुतस्तव मध्ये ( दो के०) बे अधिकार , पांचमा सिझस्तवमध्ये (पंचय के ) पांच अधिकार . ए (कमेण के०) अनुक्रमें कहेवा. सर्व मली चैत्यवंदनने विषे (बारसअहिगारा के०) बार अधिकारो बे. ॥४१॥ हवे ए बार अधिकारनां धुरियानां पद एटले आद्यनां पद कहे बे. नमु जेश्अ अरिहं, लोग सब पुरक तम सिह जो देवा ॥ धिं चत्ता वेआ, वच्चग अदिगार पढम पया ॥४॥ अर्थः-(नमु के०) नमोलुणं ए पहेला अधिकार प्रथम पद जाणवू, (जेश्य के०)जेय अश्या सिझा एबीजा अधिकार-प्रथम पद जाणवू. तथा (अरिहं के०) अरिहंत चेश्याणं ए त्रीजा अधिकार- प्रथम पद जाणवू, (लोग के०) लोगस्स उजोयगरे ए चोथा अधिकारनुं प्रथम पद जाणवू. (सव के०) सबलोए अरिहंत चेश्याणं ए पांचमा अधिकारनुं प्रथम पद जाणवू, ( पुरस्क के०) पुरकरवरदीव ए बहा अधिकारनुं प्रथम पद जा णवू, (तम के०) तमतिमिर पमल विसणस्स ए सातमा अधिकारनुप्र थम पद जाणवू, (सिझ के०) सिझाएं बुझाणं ए आठमा अधिकारनुं प्र थम पद जाणवू, (जोदेवा के०) जो देवाणविदेवो ए नवमा अधिकार, प्रथम पद जाणवू, (नधिं के०) उचित सेल सिहरे ए दशमा अधिकारनु प्रथम पद जाणवु (चत्ता के०) चत्तारि अह दस दोय, ए अगीयारमा अ धिकारनुं प्रथम पद जाणवू, (वेत्रावञ्चग के०) वेत्रावच्चगराणं ए बारमा अधिकारनु प्रथम पद जाणवू ए बार (अहिगार के०) अधिकारोना (पढ मपया के०) पहेलां पद एटले आदिनां पद धुरियां जाणवां ॥ ४५ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ प्रतिक्रमण सूत्र. ए बार अधिकार मांहेला कया अधिकारें कोने वांदवा? ते कहे बे. पढम अदिगारे वंदे, नावजिणे बीयएन दवजिणे॥ गचेश्य ठवणजिणे, तश्य चमि नामजिणे ॥४३॥ अर्थः-नमुवणंथी मामीने जियनयांणं पर्यंत (पढमअहिगारे के०) प हेला अधिकारने विषे जे तीर्थंकर थया, केवलज्ञान पाम्या बे. एवा (नाव जिणे के०) नाव जिनने एटले जावतीर्थकरने (वंदे के०) हुँ वांउं , तथा जे अश्या सिझा ए गाथायें (बीयएउ के) बीजो अधिकार , तेने विषे वली जे आगल थाशे एवा (दवजिणे के) अव्यजिनने हुं वांडं . ए बे अधिकार नमुद्रणंना जाणवा. तथा (तश्य के०) त्रीजा अधिकारें (गचे श्य उवण जिणे के०) एक चैत्यना स्थापना जिनने हुं वांडु बुं, एटले एक देरासर माहेली सर्व प्रतिमाउने वंदन करवू ए अरिहंत चेश्याणंने पाठे जाणवो. ए सूत्रांमां एकज अधिकार . तथा लोगस्स उजोयगरे रूप (चउबंमि के०) चोथा अधिकारने विषे (नामजिणे के०) श्रीषनादिक नाम जिनने हुं वांउं बुं ॥ ४३ ॥ तिहुण ग्वणजिणे पुण,पंचमए विदरमाण जिण उठे। सत्तमए सुयनाणं, अहमए सव्व सि६ थुई ॥४४॥ अर्थः-(पुण के०) वली सवलोए अरिहंतचेश्याणरूप (पंचमए के०) पां चमा अधिकारने विषे वर्ग, मृत्यु अने पाताल रूप (तिहुश्रण के०) त्रण जुवनने विषे जे शाश्वता अने अशाश्वता एवा (ग्वणजिणे के०) स्थापना जिन बे ते प्रत्ये हुं वांउं. तथा पुरकरवरदीवलेनी पहेली गाथा रूप(बके के) बहा अधिकारने विषे अढी छीपमध्ये श्रीसीमंधर खाम्यादि (विहरमाणजिण के०) विचरता नाव जिनप्रत्ये वांउंडं. तथा तमतिमिरपाल हांथी मांमीने सुअस्स लगवः पर्यंत ( सत्तमए के०) सातमा अधिकारने विषे (सुअनाणं के७) श्रीश्रुतझानप्रत्ये हुं वांडं. तथा सिझाएं बुझाणं ए गाथा रूप (अहमए के०) आठमा अधिकारने विषे तीर्थ अतीर्थादिक पन्नर नेद वाला एवा (सबसिमथुई के) सर्व सिझनी स्तुति जाणवी ॥४४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदन नाष्य अर्थसहित. ४१५ तिबादिव वीरथुइ. नवमे दसमे य उजायंत थुई ॥ अहवा याइ गदिसि, सुदिठि सुर समरणा चरिमे ॥ ४५ ॥ अर्थः-तथा जो देवाणविदेवो अने कोवि नमुक्कारो ए बे गाथा रूप (नवमे के०) नवमा अधिकारने विषे या वर्तमान (तिबगहिव के०)तीर्थना अधिपति गकुर जे श्री (वीर के०) वीर नगवान् तेनी (थुर के०) स्तु ति जाणवी. तथा उजिंतसेलसिहरे ए गाथा रूप ( दसमे के०) दशमा अधिकारने विषे ( अ के ) वली ( उजायंत के) श्रीरैवतकाचल पर्व तने विषे श्रीनेमिनाथ नगवाननी (थुई के० ) स्तुति जाणवी. तथा “च तारि अहदस दोय वंदिया” ए गाथा रूप (गदिसि के) अगीयारमा अधिकारने विषे (अहवायाश् के ) अष्टपादादिकने विषे श्रीचरतेश्वरें करावेली चोवीश जिन प्रतिमानी स्तुति जाणवी. तथा वेयावच्चगराणं ए गाथारूप (चरिमे के०) बेला बारमा अधिकारने विषे (सुदिहि के)सम्य ग्दृष्टि (सुर केण) देवताने (समरणा के) स्मरवारूप स्तुति जाणवी ॥४॥ था ठेकाणे अगीयारमा अधिकारने विषे चत्तारि अहदस इत्यादि गा थामां घणां प्रकारें देव वांद्या ३ ते मांहेला केटला एक श्हां लखीयें बैयें. संनवादिक चारजिन दक्षिण दिशें, तथा सुपार्थादिक आठ जिन पश्चिमदि शें, तथा धर्मादि दश जिन उत्तर दिशें, तथा श्रीषन अने अजित ए बे जिन पूर्वदिशे. एवं चोवीश जिन वांद्या बे, तथा बीजे अर्थे प्रथमना चार ने आठ गुणा करीयें, तेवारें बत्रीश थाय. अने वचला दशने बे गुणा क रियें, त्यारे वीश थाय, ए बे आंक मेलवीये तेवारें बावन थाय, ते बावन चैत्य, नंदीश्वरही , तेने वांया बे. तथा त्रीजे अर्थे ( चित्त के ) बांग्या ले (अरि के०) वैरी जेणें ए वा अहदस एटले अढार अने बे पाबला मेलवीये त्यारें वीश तीर्थंकर श्राय ते श्रीसमेतशिखरें सिक थया तेने वांद्या. अथवा विचरता जिन उत्कृष्टे कालें एक समय जन्मश्री वीश होय तेमने वांद्या. तथा चोथे अर्थे श्राग्ने दश अढार थाय, तेनी साथें वीशनो चोथो नाग पांच थाय, ते मेलवीयें, तेवारें त्रेवीश थया. ते एक श्रीनेमीश्वर वि ना त्रेवीश जिन श्रीशत्रुजयें समवसस्या , माटें तेने वांद्या. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ प्रतिक्रमण सूत्र, पांचमे अर्थे दशने आठ गुणा करीयें, तेवारें एंशी थाय, तेने बमणा करतां एकशो ने साठ थाय,ते उत्कृष्टकालें पांच महाविदेहें विचरे,तेने वांद्या. बहे अर्थे आठ अने दश मली अढार थाय, तेने चार गुणा करतां बहोंतेर थाय. ए त्रैकालिक त्रण चोवीशी नरतादिक देवनी वांदी. सातमे अर्थे चारने आठ युक्त करीयें, तेवारें बार थाय तेने दश गुणा करीयें, तेवारें एकशोने वीश थाय, तेने बमणा करतां बरों ने चालीश थाय ते जरतादिक दश देवनी दश चोवीशी वांदी. आठमे अर्थे मूल चार , तथा वली आउने आठ गुणा करतां चोशठ थाय, तथा दशने दश गुणा करतां एकशो थाय. तेनी साथें पाबला बे मेलवतां १७० जिन थाय. ते उत्कृष्ट कालें विचरता जिनने वांद्या. नवमे अर्थे अनुत्तर, अवेयक, विमानवासी अने ज्योतिषी ए चार स्था नक ऊर्ध्वलोकें ले तिहांनां चैत्य तथा आठ व्यंतरनिकाय, दश नवनपति, ए अधोलोकनां चैत्य तथा मनुष्यलोकमां तो शाश्वती अने अशाश्वती प्रतिमा ए त्रण लोकनां चैत्य वांद्यां. एवी रीतें ए गाथा मध्ये सर्व तीर्थ वंदना लदण अर्थ घणा , ते सर्व वसुदेव हिंग प्रमुख ग्रंथोथी जो ले वा. अहींयां विस्तार घणो थाय माटें लख्या नथी ॥ ४५ ॥ नव अदिगारा इह ललि, अविचरा वित्तिाइ आणुसारा॥ तिमि सुयपरंपरया. बीयन दसमो गारसमो ॥ ४६॥ अर्थः-(श्ह के) ए बार अधिकारमाथी पहेलो, त्रीजो, चोथो, पां चमो, हो, सातमो, आठमो, नवमो, अने बारमो, ए (नव अहिगारा के०) नव अधिकार ते ( ललिअविबरा के ) ललितविस्तरा नामें नाष्य नी ( वित्तिया के ) वृत्ति आदिकना (अणुसारा के ) अनुसारथकी जाणवा. अने ( बीयन के) बीजो अधिकार, जे अश्या सिद्धा तथा ( दसमो के० ) दशमो अधिकार उजिंतसेल ए गाथोक्त तथा (गार समो के०)अगीयारमो अधिकार चत्तारि अहदस ए गाथोक्त एटले जे अश्या , उद्यंत अने चत्तारि, ए (तिमि के०) त्रण अधिकार, ते (सुयपरंप रया के०) श्रुतनी परंपराथी एटले जेम सिफांतनुं व्याख्यान , तेम तथा गीतार्थ संप्रदायथी जाणवा ॥४६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदन नाष्य अर्थसहित. ४१७ आवस्सय चुप्मीए, जं नणियं सेसया जदिबाए॥ तेणं उद्यताइवि, अदिगारा सुयमया चेव ॥४७॥ अर्थः-(जं के ) जेम ( श्रावस्सयचुलीए के) आवश्यक सूत्रनी चूीने विषे तथा प्रतिक्रमण चूर्णीमध्ये (जणियं के०) कडं बे. जे जाय तादिक ( सेसया के) शेष अधिकार ते (जहिलाए के० ) यथेलायें जा णवा. ( तेणं के ) ते कारण माटें ए (उद्यंताइवि के०) उचंतसेलसिहरे इत्यादिक गाथायें जे पण (अहिगारा के०) अधिकारो ते सर्व (सुयमया के०) श्रुतमय जाणवा. ( चेव के) चकार पादपूर्णार्थ डे अने एव शब्द निश्चयवाचक डे ॥४॥ बी सुययाइ, अब वन्नि तहिं चेव ॥ सक बयंते पढिज, दवारिदवसरि पयडबो॥ ४ ॥ अर्थः-अने “जे अश्यासिका जे जविस्संति"इत्यादि गाथायें जे अव्य जिव वंदन रूप ( बी के०) बीजो अधिकार ते पण ( सुयउयाश् के० ) श्रुतस्तवादि एटले श्रुतस्तवनी आदिमां आवेली पुरकरवरदी नामनी गा थाने विषे जे ते (अब के० ) अर्थथकी तो ( तहिं के) ते श्रुतस्तव मांहेज (चेव के ) निश्चे श्रीश्रावश्यकचूर्णीने विषे ( वन्नि के० ) व र्णितो एटले वर्णव्यो जे. जेम के नकोसेणं सत्तरिएणं जिणयर सयं जहन्न एणं वीसं तिबयराए, एताय एगकालेणं नवंति अश्या अणागया अणंता ते तिबयरा नमसंति ॥ ए पाठ बे. अहीं कोश् शंका करे के त्यां नले तेम नणो, परंतु आंही लखेला पावें करीने शुं ? तो त्यां कहे , के (सकल यंते के०) शक्रस्तवना अंतने विषे जे (पढिर्ड के०) पठितः एटले कह्यो डे अर्थात् पूर्वाचार्योंयें शक्रस्तवना अंतमा स्थापन करेलो बे, ते ( दवा रिहव सरि के०) अव्यअरिहंत वांदवाना अवसरें एटले नाव अरिहंत वंदना नंतर अव्य अरिहंत वंदनानुं अनुक्रमें प्राप्तपणुं बे, माटें ए आद्य अधिकार मां पण नवमी संपदाने विष कांश्क जणवाथकी तेनुं विस्तारार्थपणुं ने तेम ( पयमबो के० ) प्रकटार्थो एटले प्रगटार्थ जाणवो माटे ए पण श्रुतमय जाणवो. या प्रकारें नियुक्ति अने चूर्णीनां वचन ते प्रमाणज बे, जे माटें कडं ॥ ४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ प्रतिक्रमण सूत्र. असढाइन्नण वऊं, गीत प्रवारित्र्यंति मचाया यरणा विदु आए, ति वयार्ड सु बहु मन्नंति ॥४॥ अर्थः- जे आचारणा ( अणवऊं के० ) अनवद्य होय एटले पापर हित होय, अने वली ते (गीवारि के०) गीतार्थं वारित होय एटले वीजा को गीतार्थ पुरुषे तेने वारी नहीं होय ( इति के० ) एवा (मघवा के०) मध्यस्थ राग द्वेष रहित ( सढाइन के० ) शव पंकि त, गीतार्थ, पुरुषो तेणे जे आचस्यो होय तो तेवा गीतार्थनी करेली जे ( राव के० ) आचारणा ते पण ( हु के० ) निश्चें श्री जगवंतनी ( ० ) ज्ञाज कहीयें ( इति वयण के० ) एवं वचन बे, ते माटे ( o ) सुष्ट एटले जला अथवा सुविहित शठ गीतार्थनी क रेली चरणाने पण ( बहुमन्नंति के० ) गीतार्थ जन घणुं माने ॥ ४ ॥ ए बार अधिकारनुं बारमुं द्वार कयुं, इहां सुधी उत्तर बोल १९८७ यया ॥ हवे चार वांदवा योग्यनुं तेरमुं यादे देने बीजां पण द्वार कहे . चन वंदणिक जिए मुणि, सुय सिन्हा ॥ दारं ( ॥ १३ ॥ ) इद सुराइ सरणिका ॥ दारं ॥ जिला नाम ठवण, दूध नाव जिण १४ ॥ चन्द एणं ॥ ५० ॥ अर्थः- ( चवंदति के० ) चार वंदनीयक एटले चार वांदवा योग्य का बे, ते कया कया ? तेनां नाम कहे बे. एक (जिए के० ) जिन तीर्थंक रिहंत, बीजा (मुणि के० ) मुनिराज साधु, त्री जो ( सुय के० ) श्रुत सिद्धांत प्रवचन ने चोथा ( सिद्धा के० ) सिद्ध जगवान् जे मोक्ष प्राप्त थया ते जाणवा. ए चार वंदनीकनुं तेरमुं द्वार कयुं. उत्तर बोल ११ थया ॥ १३ ॥ हवे एक स्मरवा योग्यनुं चौदमुं द्वार कहे बे. ( इह के० ) ए श्री जिन शासनमांहे सम्यग्दृष्टि अधिष्ठायिक ( सुरा के० ) देवताप्रमुख ( सर fat ho) स्मरणीय बे एटले स्मरवा योग्य जाणवा. ए स्मरवा योग्य नुं चौदमुं द्वार कयुं. उत्तर बोल १७०२ यया ॥ १४ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदन नाष्य अर्थसहित. ४१ए हवे चार प्रकारना जिन- पन्नरमुं द्वार कहे बे. (चउह जिणा के०) चार प्रकारना जिन कह्या जे ते कहे . एक (ना म के० ) नामजिन, बीजा ( उवण के०) स्थापना जिन, त्रीजा ( दव के ) व्यजिन, चोथा (नाव के०) नाव जिन ए चार (जिणजेएणं के०) जिनना नेदें करीने चार जिन जाणवा ॥ ५० ॥ हवे ए चार प्रकारना जिननुं स्वरूप चार निदेपे कहे जे. नामजिणा जिणनामा, उवणजिणा पुण जिणंद पमिमा ॥ दव जिणा जिणजीवा, नावजिणा समवसरणच ॥५१॥ दारं ॥ १५॥ अर्थः-प्रथम ( जिणनामा के०) श्रीषनादिक जिननां जे नाम लेते मने ते ते नामें बोलावीये 3 तेने ( नाम जिणा के ) नाम थकी जिन कहीयें, (पुण के० ) वली वीजा ( जिणंदपमिमा के) श्रीजिनेंनी जे शाश्वती अशाश्वती प्रतिमा ने तथा पगलांडे ते सर्वने (ठवण जिणा के ) स्थापना जिन कहीयें, त्रीजा जेणे तीर्थंकर नाम कर्म बांध्युं बे ए वा श्रीकृष्ण,श्रेणिकादिक ए सर्व तथा जे तेज नवमां तीर्थंकर पदवी पामशे पण दीदा लश्ने ज्यां सुधी केवलज्ञान नथी पाम्या त्यांसुधी तेपण (जि जीवा के०) जिनना जीव कहेवाय, तेने ( दवजिणा के०) अव्ययकी जिन कहिये. चोथा जे केवल ज्ञान पामीने (समवसरणछा के) श्रीस मवसरणने विषे स्थित थया, बेग थका धर्मोपदेश आपे तेने (नाव जिणा के०) नावथकी जिन जाणवा ॥ ५१॥ ( दारं के०) ए चार प्रकारें जिन ना नाम, पन्नरमुं हार कयुं. उत्तर बोल रएए६ श्रया ॥ हवे चार थोयोनुं शोलमुं हार कहे . अदिगय जिण पढमथुई, बीया सबाण तश्अ नाणस्स ॥ वेयावच्च गराणन, नवउँग चनन थुई ॥५॥ दारं॥२६॥ अर्थः-जेनी आगल देव वांदीयें एवी जे नामे मूलनायकनी प्रतिमा होय एटले प्रस्तुत अंगीकस्यो जे चोवीश जिन मांहेलो कोश् श्रीकृषना दिक एक जिन तेने (अहिगयजिण के० ) अधिकृतजिन कहीये तेनी (पममथुई के० ) प्रथम स्तुति ते एक जिननीज जाणवी. तथा ( बीया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० प्रतिक्रमण सूत्र. ho ) बीजी स्तुति तो ( सव्वाण के० ) सर्व तीर्थंकरोनी साधारण जक्ति रूप जाणवी. तथा (ता के० ) त्रीजी स्तुति ते ( नाणस्स के० ) ज्ञान नी एटले श्रुत सिद्धांत प्रवचननी जाणवी तथा श्री जिनशासनना रख वाला (वेयावच्चगराण के० ) वैयावृत्त्यना करनार एवा सम्यगृहष्टि देवता उनी (तु के० ) वली ( वग के०) उपयोग मनःस्मरणने अर्थे ( चउ ०) चोथी स्तुति जाणवी ॥ ५२ ॥ ए चार थुइनुं शोलमुं द्वार कयुं ॥ उत्तर बोल २००० यया ॥ हवे व निमित्तनुं सत्तरमुं द्वार कहे . पाव खवच इरिपाई, वंदावत्तिय व निमित्ता ॥ पवय सुर सराचं, जस्सग्गो इा निमित्तनं ॥ ५३ ॥ दारं ॥ १७ ॥ अर्थः- गमनागमनथी उपना जे ( पाव के० ) पाप ते ( खवणच के० ) पाववाने (इरियाई के० ) इरियावहि प्रथम पक्किमवी ते प्रथ म निमित्त जाणवुं तथा श्रीतीर्थंकरने ( वंदणवत्ता के० ) वंदणवत्ति यादि ( ० ) व ( निमित्ता के० ) निमित्तें काउस्सग्ग करवो, जेम के प्रथम वंदणवत्ताए एटले श्रीजिनराजने वांदवाथी जे लाज थाय, ते काउस्सग्गमां मुजने लाज था. बीजो पूयणवत्तित्र्याए एटले केशर चं दनादिक धूप प्रमुख परमेश्वरने पूजवाथी जे लाज थाय, ते मुजने का रसग्गमां लाज था त्रीजो सकारवत्तिथाए एटले सत्कार ते श्री जिनेश्व रने रणादि चढाववाथी जे लाज थाय, ते मुजने काउस्सग्गमां लान था. चोथो सम्माणवत्तित्र्याए एटले सन्मान ते श्री जिनना स्तवनगुण कदेवाथी जे लाज थाय, ते मुऊने काउस्सग्गमां लान था, पांचमो बो हिलान वत्तिए एटले यागले नवें समकेतनो लाज याय, ते निमित्तें काउस्सग्ग करूं. बहु निरुवसग्ग एटले निरुपसर्ग ते जन्म जरा मरणादि उपसर्ग टालवा निमित्तें काजस्सग्ग करूं. ए व निमित्त छाने एक प्रथम कयुं एवं सात थयां तथा आठमुं ( पवयणसुर के० ) प्रवचनना अधिष्ठा यक सुर एटले देवता तेने (सरण के० ) स्मरवाने अर्थे (उस्सग्गो के०) एक नवकारनो काउस्सग्ग चैत्यवंदनने विषे करवो ( इ के० ) ए ( नि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदन नाष्य अर्थसहित. ४३१ मित्त के०) निमित्त आठ जाणवां. ते देववंदनने विषे होय. ए श्राप निमित्तनुं सत्तरमुं हार पूर्ण थयु. उत्तर बोल २००७ थया ॥५३॥ हवे वार हेतुर्नु अढारमुं हार कहे बे. चन तस्स उत्तरीकरण,पमुद सहा आय पण देन ॥ वेया वच्चगरता, तिन्नि अ देन बारसगं ॥ ५४॥ दारं ॥२॥ अर्थः-तिहां प्रथम देव वांदतां पाप टले ले (तस्स के०) ते पाप टा लवाना (उत्तरीकरण के०) उत्तरीकरण (पमुह के०) प्रमुख (चउ के०) चार . ते कहे . एक तस्सउत्तरी करणेणं एटले पापने आलोववे क रीने अर्थात् पापकर्म नीर्घातन करवे करी, बीजो पायबित्तकरणेणं एटले अनिहया पदथी उपन्यु जे प्रायश्चित्त ते लेवे करी, त्रीजो विसोहिकरणे णं एटले राग द्वेषनुं टालवू अतिचार टालवानी विशुद्धि करवे करी, चो थो विसबी करणेणं एटले माया मात्सर्यादि वर्जवे करी मन वचन का यानी निःशल्यत्व त्रिकाल अतीत अनागत वर्तमानने विषे अरिहंतादि क षट् पद साथै पापकर्म टालवे काउस्सग्गनुं फल आपे ए चार उत्तरी करणादि निमित्त कह्यां तथा (सझाश्या के०) श्रझादिक (य के०) वली(पणहेज के)पांच हेतु दे तेनां नाम कहे ,सझाए, मेहाए घिईए,धा रणाए, अणुप्पेहाए एटले एक श्रझा, बीजी मेधा एटले बुद्धि, त्रीजी धृ ति एटले चित्तस्वस्थता, चोथी धारणा ते यथा किंचित् शिक्षा ग्रहणता पांचमी अनुपेदा ते तदेकाग्रता, ए सर्व पांचे वानां वधते थके पांचहेतु जाणवा तथा (वेयावच्चगरता के) वेयावच्चकरत्वादिक वेश्रावच्चगराणं संतिगराणं, सम्मदिहिसमाहिगराणं ए (तिन्नि के०) त्रण हेतु करे, ते कहे . एक वैयावच्चकर सम्यग्दृष्टि देव, बीजो संतिगराणं एटले सम्य दृष्टिने रोगादिकनी शांति करवे करीने, त्रीजो समाहिगराणं एटले स म्यकूदृष्टिने समाधि उपजाववे करीने ए त्रण हेतुयें देव संजारवा एटले चार उत्तरीकरण तथा पांच श्रझादिक अने त्रण वैयावच्चकर (श्य के०) ए (बारसगं के०) द्वादशकं एटले बार (हेज के०) हेतु चैत्यवंदनने विषे जाणवा एटले बार हेतुर्नु अढारमुं हार पूर्वं थयु अने उत्तर बोल २०२० थया ॥५४॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ प्रतिक्रमणसूत्र. हवे शोल आगार- उंगणीशमुं द्वार कहे . अन्नबयाइ बारस, आगारा एवमाश्या चनरो ॥ अगणि पणिदि बिंदण, बोही खोना मकोय ॥५॥ दारं ॥१॥ अर्थः-(अन्नव्या बारस आगारा के०) अन्नबयादि बार आगार एट ले अन्नबनससिएणंथी मांमीने सुहुमेहिदिहिसंचालेहिं पर्यंत बार आगार जाणवां. तेनां नाम कहे . पहेलो जंचो श्वास लेवे, बीजुं नीचो श्वास लेवे, त्रीजुं खांसी ऊध्रस आवे, चोथु बींक आवे, पांचमुं बगासुं आवे,हुं उनकारते ऊर्ध्ववात आवे, सातमुंअधोवात आवे,आठमुं नमरि आवे,नवमुं वमन पित्त मूळ आवे,दशमुं सूक्ष्म अंगस्फुरकणथी, अगीयारमुंखेलसिंघाण नामक मेल संचारथी, बारमुं दृष्टि प्रमुख संचारथी काउस्सग्ग न नांगे. तथा ( एवमाश्या चउरो के० ) एवमादिक चार आगार कहे ने एक (अगणि केण) अग्निनो उपध्व उपने थके तिहांथी पूंजतो अलगो जाय अथवा दीवा प्रमुखनी उजेई यातां तथा अग्निनो स्पर्श थतो होय तेवारें काउस्सगमांहे कपमाथी शरीर ढांके, अथवा पूंजतो अलगो जश् रहे, बीजु ( पणिं दिविंदण के०) पंचेंजियबिंदन पंचेंजियनुं बेदन यतुं होय अ थवा मूषकादिक पंचेंघिय जीव, ते स्थापनाचार्य अने पोतानी वचमां जाता होय, तेवारें पूंजतो अलगो जश रहे, तो काउस्सग्गजंग न थाय. त्रीजु (बोहीखोना के० ) बोधिदोनादि ते जिहां राजा अथवा चो रादिक मनुष्य तेना परानवें करी पठी धर्मनी दोनणा थाय माटें काउ स्सग्गमांहे तिहांथी अलगो जश रहे तो काउत्सग्ग नंग न थाय, चोथु ( मकोय के० ) मक ते साप प्रमुखना झंकना नयें करी अथवा साप प्र मुख पासें आवतो होय तो तेना नयथी अलगुं जवू पडे, तेथी काज स्सग्ग जंग न थाय, ए शोल आगारनुं जंगणीशमुं छार थयु. उत्तर बोल २०३६ थया ॥ ५५ ॥ हवे काउस्सग्गना उंगणीश दोष त्यागवा, तेनां नामनुं वीशमुं छार कहे जे. घोडग लय खंनाई, मालु ही निअल सबरि खलिण वढू ॥ लंबुत्तर थण संजश, नमुदंगुलि वायस कविठे ॥५६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदन नाष्य अर्थसहित. ४२३ अर्थः-प्रथम घोडानी पहें एक पग उँचो राखे, वांको, पग राखे, ते (घोमग के० ) घोटक दोष, वीजो जेमवायराथी वेलमी कंपे तेम शरीर ने धूणावे, ते ( लय के० ) लता दोष, त्रीजो थांना प्रमुखने उविंगे रहे, ते (खंनाई के.) स्तंनादि दोष, चोथो मेडा उपरने माले माथु लगावी रहे ते ( माल के) माल दोष, पांचमो गामानी ऊधिनी पेरें अंगुग तथा पानी मेलवी पग राखे, ते (उकी के०) उधि दोष, हो नेउलमां पग नाख्यानी परें पग मोकला राखे, ते (नियल के० ) निगम दोष, सातमो नागी निवडीनी परें गुह्यस्थानकें हाथ राखे ते ( सबरि के) शबरि दोष, आठमो घोमाना चोकमानी परें हाथ रजोहरणे राखे, ते (खविण के० ) खविण दोष, नवमुं नवपरिणीत बहूनी पेरें माथु नीचुं राखे ते (वढू के०) वधूदोष, दशमो नानिनी उपरें अने ढीचणथी नी चे जानुं उपरें लोंबु वस्त्र राखे ते ( लंबुत्तर के) लंबुत्तर दोष, ए दोष यति आश्रयी जाणवो. केमके इंटीथी चार अंगुल नीचें अने ढीचणथी चार अंगुल उपर यतिने चोलपट पहेरवो कह्यो . अगीयारमुं डास म साना जयें अथवा अज्ञानथी लज्जाथी स्त्रीनी परें हैयुं ढांकी राखे, हृदय आबादे, ते ( थण के ) स्तनदोष, बारमो शीतादिकने जयें साधवीनी परें बेहु खंना ढांकी राखे एटले समग्र शरीर आछादी राखे ते (संजर के०) संयतिदोष, तेरमो आलावो गणवाने अर्थे संख्या करवाने अंगुली तथा पांपणना चाला करे, ते ( नमुहंगुलि के ) नमुहंगुली दोष, चउद मो वायसनी पेरें आंखना मोला फेरवे, ते ( वायस के० ) वायस दोष, पंदरमो पहेरेलां वस्त्र ते यूका तथा प्रस्वेदें करी मलिन थवाना जयने लीधे कोउनी परें बुगडं गोपवी राखे ते (कविठे के०) कपिछ दोष ॥५६॥ सिरकंप मूअ वारुणि, पेदत्ति चइज दोस उस्सग्गे॥ लंबुत्तर थण संज, न दोस समणीण सवहु सहीणं ॥५७ दारं १ अर्थः-शोलमो यदावेशितनी परें माधुं धूणावे, ते ( सिरकंप के ) शिरःकंपदोष, सत्तरमो मुंगानी पेरें हू हू करे, ते (मूत्र के) मूकदोष, अढारमो आलावो गणतो थको मदिरानी परें बमबमाट करे, ते (वारुणि के०) मदिरा दोष, उगणीशमो वानरनी पेरें अरहुं परहुँ जोवे, उष्ठ पुट Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ प्रतिक्रमण सूत्र. चलावे, ते (पेह के ) प्रेष्य दोष (इति के० ) ए प्रकारे ए उंगणीश दोष ते (उस्सग्गो के) काउस्सग्गने विषे जाणवा. तेने (चश्ज केण) बांडे. ए जंगणीश दोषमां केटलाएक नमूह अने अंगुली बे जूदा दोष करे , तेवारें वीश थाय, तथा एक (लंबुत्तर के०) लंबुत्तर, बीजो (थण के) स्तन अने त्रीजो (संजर के०) संयति ए त्रण (दोस के०) दोष ते (समणीण के०) श्रमणीने (न के०) न होय, केम के एनुं वस्त्रावृत शरीर होय, पण एटलुं विशेष जे साध्वी प्रतिक्रमणादि क्रिया करते मस्तक उघाडु राखे एटले शोल दोष साधवीने लागे, अने ए त्रण दोषने (बहु के) वधू दोषे करी (स के) सहित करिये तेवारें लंबुत्तरादि चार दोष थाय. ते (सहीणं के) श्राविकानें न होय, शेष पंदर दोष श्रावि काने लागे ए सर्व दोष टालीने काउस्सग्ग करवो एटले काउस्सग्गना दोषनुं वीशमुं छार थयु. उत्तर बोल २०५५ थया ॥ ५७ ॥ हवेकाउस्सग्गना प्रमाणYएकवीशमुंहार तथा स्तवननुंबावीशमुंहार कहे इरि उस्सग्ग पमाणं, पणवीसुस्सास अह सेसेसु ॥ दारं ॥२॥ गंजीर महुर सद, महबजुत्तं हवस् थुत्तं ॥ ५७ ॥ दारं ॥२२॥ अर्थः-(शरिउस्सग्ग के० ) रियाव हिना काउस्सग्गर्नु (पमाणं के०) प्रमाण (पणवीसुस्सास के) पच्चीश श्वासोवासनुं जाणवू. एटले संप्र दायें “चंदेसु निम्मलयरा” पर्यंत यावत् पच्चीश पदनुं काउस्सग्ग कराय बे, अने (सेसेसु के०) शेष काउस्सग्ग जे देव वांदता स्तुति काउस्स ग्ग ते (अह के) आठ श्वासोवास प्रमाण जाणवो. केम के संप्रदायें एक नवकारनी संपदा आठ माटें. ए काउस्सग्ग प्रमाण- एकवीशमुं छार थयु. उत्तर बोल २०५६ थया. __ हवे श्रीवीतरागनु स्तवन केहवा प्रकारें कहे ? तेनु बावीशमुं द्वार कहे जे, (गंजीर के) मेघनी पेरें गंजीर अने (महुरसहं के०) मधुर शब्द के जिहां अने वली (महबजुत्तं के०) महाअर्थयुक्त नक्ति, ज्ञान, वैराग्य अने आत्मानंदादि दशायुक्त एवू श्रीवीतरागर्नु (युत्त के०) स्तुत एटले स्तवन (हवर के) होय. ए स्तवन नणवानुं बावीशमुंछार थयु. उत्तर बोल २०५७ थया ॥ ७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदन नाष्य अर्थसहित. ४२५ हवे चैत्यवंदन एक दिवसमां केटलीवार करवं? तेनुं त्रेवीशमुं हार कहे ले पडिक्कमणे चेश्य जिमण, चरिम पमिकमण सुअण पडिबो दे॥चिश्वंदण इअ जश्णो, सत्तन वेला अहोरत्ते ॥॥ अर्थः-एक (पमिकमणे के० ) प्रजातने पमिकमणे पञ्चरकाण करतां देद वांदवाने विषे विशाललोचन कही चैत्यवंदन करे, बीजु (चेश्य के) चैत्यगृहमां जगवंत आगले चैत्यवंदन करे, त्रीजुं ( जिमण के) जमती वखत पच्चरकाण पारे, तेवारें चैत्यवंदन करे, चोथु (चरिम के०) बेहे लो जमीने उव्या पली एटलेषाहार करी रह्या पली दिवसचरिम पच्चरकाण करतां चैत्यवंदन करे, पांचमुं (पमिकमण के०) संध्याने पमिकमणे न मोस्तु वर्षमानादि चैत्यवंदन करे, बहुं (सुश्रण के०) सूती वखतें शयन संथारा पोरिसी जणावतां चैत्यवंदन करे, सातमुं (पमिबोहे के०) पा बसी रात्रे जाग्या पठी कुसुमिण उसुमिणकाउस्सग्ग कस्या पली किरियानी वेलायें चैत्यवंदन करे, (श्य के०) ए कह्या जे ( सत्तउवेला के०) सात वखतना (चिश्वंदण के०) चैत्यवंदन करवां ते (अहोरत्ते के०) एक अ होरात्रमध्ये (जश्णो के० ) यतिने होय ॥ ५॥ हवे श्रावकने एक अहोरात्रमा केटलां चैत्यवंदन होय? ते कहे . पमिकमिज गिहिणोवि हु, सगवेला पंचवेल अरस्स ॥ पूआसु ति संकासु अ, दोश ति वेला जहन्नेणं ॥ ६० ॥ अर्थः-एक प्रनाते अने वीजो सांके ए बे वार ( पमिकमिउ के०) पमिकमणुं करता एवा (गिहिणोवि के०) गृहस्थने पण (हु के) निश्चे यतिनी पेरें (सगवेला के०) सात वार चैत्यवंदन थाय. तथा जे एक वार पडिकमणुं करता होय एवा गृहस्थने (पंचवेल के) पांचवार चैत्यवंद न थाय, तेमां एक पोरि सि सांजलतां, एक क्रिया करतां अने त्रणवार दे व वांदता मली पांच थाय. अने तेथी (श्वरस्स के) इतर एटले जे पमिकमणुं नथी करता एवा गृहस्थने तो प्रजात, सांऊ अने मध्यान्हे ए (तिसंकासुत्र के०) त्रण संध्यायें (पूयासु के ) पूजाने विषे ( जहन्ने णं के०) ए जघन्यथी पण गृहस्थने माटें (तिवेला के०) त्रणवार चै Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ प्रतिक्रमण सूत्र, त्यवंदना (होश के० ) होय. ए सात प्रकारना चैत्यवंदन- त्रेवीशमुं द्वार पूर्ण थयु. उत्तर बोल २०६४ थया ॥ ६ ॥ हवे ए पूर्वोक्त सर्व बोल जो आशातनानो परिहार करे, तो सफल ___ थाय, माटें शोवीशमुं दश आशातना छार कहे जे. तंबोल पाण नोयण, वाणह मेहुन्न सुअण निम्वणं ॥ मुत्तुच्चारं जूअं, वजे जिणनाद जगई ए ॥६॥ अर्थः-प्रथम श्राशातना शब्दनो अर्थ करे बे. जे झान, दर्शन अने चारित्रनो आय एटले लाज तेनी शातना एटले खंमना करवी, तेने आशा तना कहीये ते जिनघरमां न करवी ते आशातना जघन्यथी दश प्रकारें बे, तेनां नाम कहे . प्रथम ( तंबोल के ) तांबूल ते सोपारी, नागरव सीना पान अने पंचसुगंधादिकनु, खावू, बीजी (पाण के० ) पाणी पीवु, त्रीजी (नोयण के० ) नोजन करवं, चोथी ( उवाणह के० ) उपानह एटले मोजमी पगरखादिक पहेरवां, पांचमी ( मेहुन्न के) मैथुन ते का मचेष्टा करवी, बही (सुअण के ) सुq ते शयन करवू, सातमी ( निव णं के) यूंक, श्लेष्म नाखवू ाठमी (मुत्त के० ) मात्रा एटले लघु नीत करवी, नवमी (उच्चारं के) उच्चार ते वमीनीतिनुं करवू, दशमी (जूझं के०) जूवटे रमवू, ए दश आशातना ते ( जिणनाह के०) जिन नाथ एटले नगवानना देरासरनी (जगईए के०) जगतीनेविषे एटले देरा सरनी कोटमीमांहे पेसतां ए दशवानां (वजे के ) वर्जवां ए जघन्यथी दश आशातना महोटी , तेनां नाम कह्यां ॥ ६१॥ हवे उत्कृष्टथी चोराशी आशातना त्यजवी जोश्ये तेनां नाम श्हांप्रसंगें लखीयें बैयें. १ खेलश्लेष्म, ५ द्यूतादिक्रीमा, ३ कलह, ४ धनुर्वेदादिक क ला. ५ कोगला नाखवा, ६ तांबूल पूगीफल पत्रादि नदण, तांबुल खावाना कूचा, तथा उजार नाखवो, ७ गालो देवी; विरुक बोलवू, ए लघुनीत वमीनीत करवी, वातनिर्गमनादि पवित्र करणादि, १० शरीर धोवन, ११ केश समारवा, १५ नख समारवा, १३ रुधिरादि नाखवा, १४ शेकेला धान्य प्रमुख खावां, १५ त्वचाचागदिक नाखवां, १६ औषधा दिकें करी पित्त वमन करे, १७ वमन करे, १७ दंतधावनादि करे, १ए वीसा Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषनो समुदाय तिचा राजादि तनामा लेखां करे, ३२ देववंदन नाष्य अर्थसदित. ४२० मण करावे, २० बकरी, गज, अने अश्वादिकनुं दमन बंधन करे,१ दांत,२५ आंख, २३ नख, २४ गंमस्थल, २५ नासिका, २६ कान, २७ मस्तका दिक, ते सर्वनो मेल बांडे, २७ सूवे, ए मंत्र नूतादि ग्रह तथा राजादि कार्यना आलोच विचार करे, ३० वृक्ष पुरुषनो समुदाय तिहां आवी म ले, ३१ नामां लेखां करे, ३२ धनना जाग प्रमुख माहोमांहें वहेंचे, ३३ पोतानुं अव्यजंमार करी तिहां थापे, ३४ पग उपर पग चमावीने बेसे, ३५ बाणां थापे, ३६ वस्त्र सुकवे, ३७ दाल ढंढणीयादिक उगवे, ३० पा पम शालेवां करे, ३ए वमीआदि देश कचर चीनमी प्रमुख सर्व शाक जाति उगवे, ४० राजादिकना नयथी देरासर मध्ये नासीने बुपी रहे, ४१ शो कादिकें रुदन आक्रंद करे, ४२ स्त्री, जक्त, राज्य, देशादिकनी विकथा करे, ४३ शर, बाण, तथा बीजा पण अधिकरण शस्त्र घडे, ४४ गाय, बलद, प्रमुख थापे, ४५ टाढें पीड्यो अग्नि सेवे, ४६ अन्नादिकनुं रांधवं करे, ४७ नाणादिक पारखे, ४७ अविधियें निसिही कह्या विना प्रवेश करे, ४ए बत्र, ५० उपानह, ५१ शस्त्र, ५५ चामर न मूके. एटले ए चार वानां साथें लश् प्रवेश करे, ५३ मननी एकाग्रता न करे, ५४ श्र न्यंग एटले शरीरें तैलादिक चोपडे,५५ सचित्त पुष्पफलादिक न मूके, ५६ अजीव वस्तु जे हार मुसादिक वस्त्रादिक ते बाहेर मूकी कुशोजावंत थर देरासरमा प्रवेश करे, ५७ नगवंत दीठे अंजलि न जोडे, ५७ एक शाटक उत्तरासंग न करे एए मुकुट मस्तकें धरे, ६० मैली पाघमी उपर वस्त्र बो कानी घोस पेच प्रमुख न बोडे, ६१ कुसुमना सेहरा, बोगां प्रमुख माथाथी न मूके, ६५ होड पामे, ३ गेमीदडे रमत करे, ६४ प्राहुणादिकने जु हार करे, ६५ नाम चेष्टा, गाल; काख पूंठ वजावे, ६६ रेकार तुकारादि तिरस्कारनां वचन बोले, ६७ लेवा देवा आश्रयी धरणुं मांडे, ६० रण संग्राम करे. ६ए वाल बूटा होय ते समा करे जूत्रा करे, माधु खणे, ७० पलांठी पग बांधे, ७१ चांखमीयें चडे, ७५ पग पसारी बेसे, ७३ पुम पुडी देवरावे, १४ पगनो मेल जाटके, ७५ वस्त्रादिक जाटके, ६ माकम थुकादिक वीणे, तथा तेने त्यांज नाखे, १७ मैथुनकीमा करे, ७ जमण करे, उए व्यापार क्रय विक्रय करे, ७ वैषु करे, ७१ शय्या समारे, ज् गुह्य लिंगादिक उघाडे, तथा समारे, ७३ बाहुयुक करे तथा कुकमादिकना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४श्न प्रतिक्रमण सूत्र. युद्ध करावे, ४ वर्षाकालादिकने विषे प्रणालीथी पाणी संग्रहे अंघोल स्नान करे, तथा पाणी पीवाना नाजन मूके, ए उत्कृष्टयी चोराशी आशा तना जिन जुवनमां वर्जवी. हवे मध्यम बहेंतालीश आशातना वर्जवी तेनां नाम कहे . १ मूत्र, २ पुरीष, ३ पाणी, ४ उपानह, ५ शयन, ६ अशन, ७ स्त्रीप्रसंग, तंबोल ए धुंकवं, १० जूवटुं रमवं, ११ जूवटादिकनुं जोवू, १५ पलांठी वालवी, १३ पग पसारवा, १४ परस्पर विवाद, १५ परिहास, १६ मत्सर, १७ सिंहासन परिजोग, १७ केश शरीर विजूषा, रए बत्र, २० खड्ग, १ मुकुट, २२ चामरनुं राखq २३ धरणुं करवू, २४ हास्यादि विलास परि हास, २५ विटसाथे प्रसंग करवो, २६ मुखकोश न करवो, २७ मलिन शरीर राखे, २७ मलिन वस्त्र पहेरे, शए अविधियें पूजा करे, ३० मननुं एकाग्रपणुं न करे, ३१ सचित्त अव्य बाहिर न मूकी आवे, ३२ उत्तरो संग न करे, ३३ अंजलि न करे, ३४ अनिष्ट, ३५ हीन, कुसुमादि पूजा पकरण राखे, ३६ अनादर करे, ३७ जिनेश्वरना प्रत्यनीकने वारे नही, ३० चैत्यअव्य खाय, ३ए चैत्यऽव्यनी उपेदा करे, ४० बती सामर्थ्य पूजावंदनादिकें मंदता करे, ४१ देवव्यादि जनक साथें व्यापार मित्रा सगार करे, ४५ तेहवा वडेरानी मुख्यता करे, तथा तेनी आझायें प्रवर्ते, ए बहेंतालीश मध्यम आशातना वर्जवी. एटले ए चोवीशमुं आशातनानुं हीर थयुं ॥ उत्तर बोल २०७४ पूर्ण थया ॥ हवे देव वांदवानो विधि कहे जे. शरि नमुक्कार नमुखुण, अरिहंत थुई लोग सब थुइ पुरक ॥ थु सिहा वेआ थुइ, नमुन जावंति थय जयवी ॥ ६ ॥ अर्थः-प्रथम (इरि के०) शरियावहि संपूर्ण पमिकमि पनी चैत्यवंदननो आदेश मागी (नमुक्कार के०) नमस्कार कही पठी (नमुनुण के ) नमु बुणं कहे. पनी उन्नो थर (अरिहंत केण) अरिहंत चेश्याणं कही काउ स्सग्ग करी एक तीर्थंकरनी (थुई के०) स्तुति कहे. परी (लोग के०) लोगस्स कहीयें पठी ( सवथुश् के ) सवलोए अरिहंत चेश्याणं कही काठस्सग्ग करी सर्व तीर्थकरनी बीजी स्तुति कहियें, पड़ी (पुरक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदन नाष्य अर्थसहित. श्ए के०) पुस्करवरदी कही काउस्सग्ग करी श्री सिद्धांतनी त्रीजी (थुर के०) स्तुति कहेवी पडी ( सिझा के) सिकाणं बुद्धाणं ( वेथा के०) वेयाव चगराणं इत्यादिक कही काउस्सग्ग करी अधिष्ठायिक देवोनी चोथी (थुर के० ) स्तुति कही पड़ी नीचे बेसीने ( नमुनु के ) नमुनुणं संपूर्ण क हीने ( जावंति के० ) जावंति चेश्याइं जावंत केवि साहु कही नमोर्हत् सिकाचार्योपाध्यायसर्वसाधुन्यः कही (थय के ) स्तवन कहीने, संपूर्ण (जयवी के०) जयवीयराय कहीये. ए देव वांदवानो विधि कह्यो ॥६॥ हवे यद्यपि कोश्प्राणी एटला बोल तथा एवो विधि न जाणतो होय तो पण आ कहेला आठ बोल तेमां होय तेने नक्तिवंत कहीयें. जेमाटे सं बोध प्रकरणमध्ये कर्वा ॥ जत्ति बहुमागोवस, संजलण सायणा परिहारो॥ पमिणीय संगवङाण, सइ सामळे तउङ्गुणणं ॥१॥ विहिजुंजण मस्स वण, मवही वायाण विहि पडिसेहो ॥ सिझाए श्य अमगुण, जुत्तो संपुण विहिजुत्तो ॥२॥ ए बे गाथानो नावार्थ कहे बे. एक जक्ति ते अंतरंग राग, बीजुं बहु मान ते बाह्य लोकोपचार विनयादि गुण. त्रीजो वर्णवाद यशोवादनुं वो लवू. चोथो आशातनादिकनो परिहार, पांचमो तेमना प्रत्यनीकनी साथें संग वर्जवो, बछो बती सामर्थ्य विघ्ननुं टालवं, सातमो आगलाने विधि मां जोमवं, आठमो अवर्णवाद न सांजलवापूर्वक अविधिनो निषेध क रवो अने विधिनो प्रतिसेवन करवो, एवा आठ गुण विशुभयुक्त ते सर्वो पाधि विशुद्ध संपूर्ण विधि युक्त कहीयें ॥२॥ सबोवादि विसुई, एवं जो वंदए सया देवे॥ देविंदविंद मदिरं, परमपयं पाव लहुसो॥६३॥ अर्थः-एम (सबोवाहि विसुझं के०) सर्वोपाधि विशुरू जेम होय (एवं के० ) एम एटले सर्व श्रीजिनधर्म संबंधिनी चिंता तेणे करी निर्दोष प्रकारे शुद्ध श्रझायें करी (जो के० ) जे नव्य प्राणी ( देवे के०) श्रीदे वाधिदेवने (सया के०) सदा सर्वदा (वंदए के० ) वांदे ते जव्य प्राणी जवजयरूप पद जिहां नथी एवो (परमपयं के) परमपद एटले मोक्ष रूप पद ते प्रत्यें ( लहुसो के०) शीघ्र उतावलो (पावर के० ) पामे. ते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० प्रतिक्रमण सूत्र. परम पद कहेतुं बे? तो के ( देविंद के० ) देवना इंद्र तेमना (विंद के० ) समूह एटले इंद्रोने समूहें जेने ( महियं के० ) अर्चितं एटले पूज्यं एवं d. एम ग्रंथकर्त्ता श्रीदेवेंद्रसूरियें पोतानुं नाम पण सूचव्युं वे एं श्रीचैत्यवंदन जानुं वार्त्तिक संपथी कयुं ने विस्तारथी तो श्रीश्रावश्यक नियुक्ति तथा प्रवचनसारोकारनी वृत्त्यादिकथी जाणवुं इति श्रेयः ॥ इति श्रीदेववंदनजाप्यं बालावबोधसहितं संपूर्णम् ॥ ६३ ॥ वे श्रीदेवाधिदेवने विधि वांदवाना फलना कहेवावाला ते श्रीगुरु माटे ते पण क्ति विनयें करी विधि पूर्वक वंदना करवा थकी सकल आगमनां रहस्य पामीयें. ए श्रीगुरुनें वदवानां पण घणां फल आगममां कां वे ॥ युक्तं ॥ वंदणणं जंते जीवे किं जण, गोयमा वंदणणं जीवे नीयागोयं खवेश, उच्चागायं पिबंध साहग्गंचणं अपमिले हियं श्राफलं निवित्तेइ दाहिण जावच जणय इति ॥ तेणे प्रसंगें आव्योजे गुरुवंदनाधिकार ते हवे कड़े बे. अथ बालावबोध सहित श्रीगुरुवंदन जाष्य प्रारंभः गुरुवंदण मह तिविदं, तं फिट्टा बोभ बारसावत्तं ॥ सिर नमणाइसु पढमं पुण खमासमण डुगिबीयं ॥ २ ॥ अर्थः- ( अह के० ) अथ शब्द ते मंगलादिकारें बे, तथा प्रथम प्रारंभने कारणे अथ शब्दें करी चैत्यवंदनजाप्य कह्या पढी हवे गुरुवंदन जाय कहीयें यें. ( तं के० ) ते ( गुरुवंदणं के० ) गुरुवंदन ( तिविहं के 50 ) त्रण प्रकारें बे तेमां पहेलुं ( फिट्टा के० ) फेटा वंदन, बीजुं (बोज के० ) योजवंदन, त्रीजं ( बारसावत्तं के० ) द्वादशावर्त्त वंदन, तिहां ( सिरनमणा इसु के० ) मस्तक नमामवादिकने विषे यदि शब्द थकी अंजलिकरण ते हाथ जोगवादिक जाणवा. ते ( पढमं के० ) पहेलुं फेटा वंदन जाणवुं. तथा ( पुष्ाखमासमणडुगि के० ) पूर्ण पंचांग बे खमासमणा देवे करीने एटले बे हाथ, बे गोठण अने एक मस्तक ए पांच अंग नमाववा रूप ते ( बीयं के० ) बीजुं योजवंदन जावं ॥ १ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवंदन भाष्य अर्थसहित. ४३१ शहां शिष्य पूजेने के थोनवंदने तथा छादशावर्त वंदने प्रथम एक वार वांदीने फरी बीजी वार शे हेतुयें वांदीयें वैयें? त्यां प्राचार्य उत्तर आपे बे. जद दूजे रायाणं, नमिलं कळं निवेश्नं पड़ा। वीसजिवि वंदिश, गवइ एमेवश्च उग॥२॥ अर्थः-(जहदू के) जेम पूत पुरुष ले ते (रायाणं के०) राजाने. (नमिजं के०) नमिने ( कऊंनिवेश्वं के) कार्य निवेदन करे वली (प डा के) पाडो राजायें (वीसजिवि के ) विसयों थको पण (वंदि अ के) वांदीने (गबर के०) जाय (एमेव के) एनी पेरें (श्व के ) श्हां गुरुवंदनने विषे पण वंदननुं (उगं के) छिक जाणवू ॥२॥ अने छादशावर्त्त वंदनें तो बेहु वांदणे मलीने आवश्यक आवर्तादि बोल नीप जे , ते माटें बेहु वांदणानी जोमीयें एकज वंदन कहेवाय ॥ हवे वांदणां देवानुं कारण शुं ? ते कहे . आयरस्सन मूलं विण सो गुणव अपडिवत्ती॥ सा य विदि वंदणा, विही श्मो बारसावत्ते ॥३॥ अर्थः-जे माटे श्रीसर्वप्रणीत जे (आयरस्स के ) आचार तेनो (उ के०) वली ( मूलं के०) मूल जे जे, ते ( विण के०) विनय ठे ( सोके) ते विनय केवी रीतें होय ? ते कहे . (गुणवर्ड के०) गुणवंत गुरुनी (अ के० ) वली (पभिवत्ती के०) प्रतिपत्ति एटले सेवा करवी जाणवी (सा के०) ते नक्ति ( च के० ) वली ( विहिवंदणा के० ) वि धियें करीने वांदवाथ कि थाय ते ( विही के ) विधि (श्मो के ) आ आगल (बारसावत्ते के ) द्वादशावत वंदनने विषे कहेशे ॥३॥ __ हवे ए त्रीजुं छादशावर्त्त वंदन केम होय ? ते कहे . तश्यं तु बंदण उगे, तब मिहो आश्मं सयल संघे॥ बीयं तु दसणीण य, पयहिणं च तश्यं तु॥४॥ अर्थः-( तश्यं के०) त्रीजुं छादशावर्त्त वंदन ते (तु के०) वली (वं दणगे के०) बे वांदणां देवे करीने होय, एटले बे वांदणां देवे करी था य, श्हां बंदण शब्द वंदनवाचक जाणवो. (तब के०) ते पूर्वोक्त त्रण वांदणां Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ प्रतिक्रमण सूत्र. मां (आश्मं के) श्रादिम एटले पहेलु फेटावंदन जे जे ते साधु, साध्वी, श्रावक अने श्राविकारूप चतुर्विध (सयलसंघे के ) समस्तश्रीसंघे म ली ( मिहो के०) मिथो एटले मांहोमांहे परस्पर तेवा तेवा अवसरने विषे करवु होय त्यारें थाय, अने (बीयं के०) बीजुं जे थोजवंदन , ते (तु के ) निश्चे वली सुसाधु एवा (दसणीण के० ) दर्शनीयनेज अर्थे होय, एटले एक गगत, बीजो अनुयोगी, त्रीजो अनियतवासी, चोथो गुरुसेवी, पांचमो आयुक्त जे संयममार्गमां सावधान एवा गुणवंत यतिने ए वांदणुं देवाय, तथा ( य के०) चकारथी, तथा विधिविशिष्ट कार्यने विषे लिंगमात्रधारी पण जो सम्यक्त्वदर्शनवंत होय, तो ते पण बोजवंदने वंदनीय होय. तथा ( तश्यं के०) त्रीजुं छादशावर्त वंदन जे जे ते (तु के ) वली आचार्य, उपाध्याय, गुणवंत गीतार्थादिक एवा ( पयहि णं के० ) पदप्रतिष्ठित जे होय तेमने ( च के ) निश्चें होय ॥४॥ __ हवे ए वांदणांनां पांच नाम बे, ते कहे . वंदण चिव किश कम्मं, पुकम्मं च विणयकम्मं च ॥ कायचं कस्स व के, ण वावि कादेव कइ कुत्तो ॥५॥ अर्थः-एक (वंदण के०) वंदन कर्म अने अभिवादन स्तुतिरूप, अर्कावन तकाय करवी, ते शरीर मस्तकादिकें अवनत तथा कर्मथकी जलां कर्म बंधाय एटला माटें बीजुं (चिश् के०) चितिकर्म, त्रीजुं (किश्कम्मं के०) कृतिकर्म वांदणुं, (च के०) वली नलां मन, वचन अने कायानी चेष्टानुं जे कर्म करवू, ते माटें चोथु (पूआकम्मं के०) पूजाकर्म कहियें, तथा विनयनुं करवू तेमाटें पांचU (विणयकम्मं के०) विनयकर्म कहीयें, ए पांच प्रकारें वंदन (च के०) वली ( कायवं के०) करवू एटले पांच प्रकारे वांदणां देवां ते (कस्स के०) केने अर्थे देवां? (व के०) वली (केणवावि के) केहने वादणां देवां? अपि शब्द निश्चयार्थमां . ( काहेव के) केवारें वांदणां देवां? (कश्कुत्तो के०) केटली वार वांदणां आपीयें ? ॥५॥ कणयं कशसिरं, कादि व आवस्सएहिं परिसुझ॥ कश्दोस विप्पमुकं, किश्कम्मं कीस किरईवा ॥६॥ अर्थः-वांदणाने विषे ( कणयं के ) केटला अवनत करवा, (क Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. ४३३ इसिरं के० ) केटली वार मस्तक नमामवं, ( कहि के०) केटला (व के) वली (श्रावस्सएहिं के०) आवश्यकें करीने (परिसुझं के०) प रिशुद्ध थको तथा ( कश्दोस विप्पमुक्कं के० ) केटला दोर्षे करी विप्रमुक्त एटले रहित थके ( कीस के) किशामाटे ( किरई के० ) करी.( किश्क म्मं के० ) कृतिकर्म वांदणां दिजें ? वा शब्द पुनर्वाचक ॥ ६॥ ए पां चमी अने नही बे गाथा आवश्यक नियुक्तिमां कही ले ते यहां कही। हवे त्रण गाथायें करी वंदनानां बावीश द्वार कहे . मूलदार गादा ॥ पण नाम पणाहरणा, अजुग्गपण जुग्गप ण चनअदाया॥ चनदाय पणनिसेदा, चनअणिसेहत कार णया ॥॥ आवस्सय मुहणंतय, तणुपेद पणिस दोस ब त्तीसा ॥ गुण गुरु ग्वण उग्गह,उव्वीसकर गुरु पणीसा ॥७॥पय अमवन्न गणा, ब गुरु वयणा, सायण ति त्तीसं ॥ उविदि वीसदारेदि, चनसया बाणनाणा ॥णा अर्थः-(मूलदारगाहा के०) मूलधारनी गाथा जाणवी. पहेबुं वांदणां नां (पणनाम के०) पांच नाम कहेशे, बीजुं वांदणांनां (पणाहरणा के०) पांच बाहरण एटले वांदणांनां पांच उदाहरण दृष्टांत अव्य अने नावथी कहेशे, त्रीजुं वांदणां देवाने (अजुग्गपण के०) अयोग्य एवा पांच पास बादिक कदेशे, चोथु वांदणां देवाने ( जुग्गपणके०) योग्य एवा आचार्या दिक पांच कहेशे, पांचमुं जेनी पासें वांदणां न देवरावीयें एवा ( चन्थ दाया के० ) चार जण वांदणांना अदाता कहेशे, बहुं जेनी पासें वांद णां देवरावीयें एवा ( चउदाय के) चार वांदणांना दातार कहेशे, सा तमु (पणनिसेहा के०) पांच स्थानकें वांदणानो निषेध करवो एटले वांद णां न देवां ते कहेशे, आठमुं (चनअणिसेह के०) चार स्थानकें वांदणां नो अनिषेध करवो एटले चार स्थानकें वांदणां देवां ते कहेशे, नवमुं वांदणां देवानां (अकारणया के०) आठ कारण कहेशे ॥ ७॥ ___ दशमुं वांदणाने विष (आवस्सय के०) आवश्यक साचववां, अग्यारमुं (मुहणंतय के० ) मुखनंतक एटले मुहपत्तिनी पमिलेहणा करवी, बारमुं (तणुपेह के०) शरीरनी पमिलेहणा करवी, ए त्रणे वानां (पणिस के) ५५ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ प्रतिक्रमण सूत्र. पञ्चीश पच्चीश करवां ते कदेशे, पणिस शब्द सर्वने जोमवो. तेरमुं वादणां दे तां (दोसबत्तीसा के०) बत्रीश दोष टालवा ते कहेशे, चौदमुं वांदणां देतां ( गुण के) ब गुण उपजे ते कहेशे, पन्नरमुं वांदणां देवामां साक्षात् गुरु न होय तेवारें सन्नाव अने असनाव रूप (गुरुठवण के०) गुरुनी स्था पना करवी ते कहेशे, शोलमुं वांदणां देतां (जुग्गह के०) बे अवग्रह सा चववा, ते कहेशे, सत्तरमुं वांदणाना सूत्रने विषे (उब्वीसकर के०)बशें ने वीश अदर , तेम (गुरुपणीसा के० ) गुरु अदर पच्चीश डे ते कहेशे ७ अढारमुं वादणानां सूत्रांने विषे (पयअमवन्न के० ) पद अहावन ते कहेशे, उंगणीशमुं वांदणां देतां शिष्यने प्रश्न पूबवालदण वीशामानां (गणा के०) ब स्थानक ने ते कहेशे, वीशमुं वांदणां देतां प्रश्नोत्तर रूप (गुरुवयणा के ) 3 गुरुनां वचन , ते कहेशे, एकवीशमुं वांद णां देतां गुरुनी ( श्रासायणतित्तीसं के० ) तेत्रीश बाशातना न करवी ते नां नाम कहेशे, बावीशमुं वांदणाने विषे (विहि के०) बे प्रकारनो वि धि कहेशे. एम वांदणाना (मुवीसदारेहिं के ) बावीशमारें करीने सर्व मली (चउसयाबाणउताणा के०) चारशेने बाणुं स्थानक थाय ॥ए॥ उत्तर शर उत्तर शर अंक मूलधारनां नाम.नेट वालो अंक मूलधारनां नाम. द. वालो. १ वंदननाम, ५ १५ शरीरपमिलेहण. | २५ १२० २ दृष्टांत. १० १३ वांदणांना दोष. ३२ १५२ ३ वांदवानेअयोग्य. ५ १५ १४ वांदणांना गुण. ६ १५, ४ वांदवानेयोग्य ५ २० १५ गुरु स्थापना. १५ ५ वांदणांना अदाता. | १६ अवग्रह. - २ १६१० ६ वांदणांना दाता. ४ १७ अदरनी संख्या. २२६ ३७ ७ निषेधनां स्थानक. ५ ३३ १७ पदनी संख्या. ५० ४४५ अनिषेधनांस्थानक. ४ रए स्थानक. ६ ४५१ ए वांदणांनां कारण. G४५ २० वांदणांमांगुरुवचन. ६७ आवश्यक. २५ ० १ गुरुनी आशातना. ३३ ४एल ११मुहपत्तिपमिलेहण. २५ एए विधि. 점 점점 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. ४३५ , हवे पूर्वोक्त बावीश छारमा पहेढुं पांच नामनुं द्वार कहे बे. पडिदार गाहा ॥ वंदणयं चिश्कम्मं, किश्कम्मं विणयकम्म पुत्र कम्मं ॥ गुरु वंदण पण नामा, दवे नावे उदोदेण ॥१०॥ दारं ॥२॥ अर्थः-(पमिदारगाहा के०) प्रतिछारनी गाथा कहे जे. प्रथम (वंदणयं के०) वंदनकर्म ते अनिवादन स्तुति रूप जाणवू. बीजं (चिश्कम्मं के०) चितिकर्म ते रजोहरणादि उपकरण विधि सहितपणे कुशलकर्मनुं करवुजा णवं. त्रीजु (किश्कम्मं के) कृतिकर्म ते शरीर मस्तकादिकें अवनमन क रवू. चोथु (पुकम्मं के०) पूजाकर्म ते प्रशस्त मन, वचन अने काय चेष्टा रूप जाणवू. पांचमुं ( विणयकम्म के) विनयकर्म ते पूर्वोक्त चार प्रकारें विशेष उद्यमपणुं जाणवू. ए ( गुरुवंदण के०) गुरु वांदणांनां (प णनामा के० ) पांच नाम ते वंदनानां पर्याय जाणवा. ए ( दवेनावे के०) एक व्यथकी वांदणां अने बीजां नावथकी वांदणां एम (मुह के० ) बे प्रकारें (उदेण के०) उपेन एटले सामान्यप्रकारे जाणवां ॥१॥ हवे पांच दृष्टांतोनुं बीजुं छार कहे जे. सीयलय कुए वीर, कन्द सेवग पालए संबे॥ पंचेए दिता, किश्कम्मे दव नावहिं॥२२॥दारं ॥२॥ अर्थः-प्रथम वंदन कर्मउपर अव्यवंदन अने नाववंदन आश्रयी (सीय लय के०) शीतलाचार्यनो दृष्टांत, बीजा चितिकर्म उपर (कुमुए के० ) खुलकाचार्यनो दृष्टांत जाणवो. त्रीजा कृतिकर्म उपर ( वीरकन्ह के० ) वीरा शालवीनो अने कृष्ण महाराजनो दृष्टांत जाणवो. चोथा पूजाकर्म उपर (सेवग 3 के०) राजाना बे सेवकोनो दृष्टांत जाणवो. पांचमा विनयकर्म उपर (पालए संबे के० ) श्रीकृष्णमहाराजना पुत्र पालक अने साम्बनो दृष्टांत जाणवो ( ए के०) ए (पंचे के) पांच ( दिता के७) दृष्टांत ते (किश्कम्मे के०) कृतिकर्म एटले वांदणाने विषे (दवनावहिं के०) अव्य जावें करीने जाणवा ॥१९॥ हवे ए पांचे दृष्टांतोनी कथा कहे . हविणार नयरना वज्रसिंह राजानी सौजाग्यमंजरी राणीने शीतलना मा पुत्र हतो,अने शृंगारमंजरी नामे पुत्री हती. कंचनपुर नगरें विक्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ प्रतिक्रमण सूत्र. मसेन राजाने परणावी, अनुक्रमें शीतलपुत्र राजा थयो, तेणें धर्मघोष सूरि पासेंथी दीदा लीधी, पठी विज्ञात सिद्धांत गीतार्थ थर, आचार्यपद पाम्या. हवे तेनी नगिनीने चार पुत्र सकलकलामां निपुण थया जाणी तेमनी माता निरंतर पोताना पुत्र आगल नाश्नी प्रशंसा करे अनेक हे के धन्य कृतपुण्य पृथिवीमांहे एक तमारो मातुल बे, के जेणें राज नार जमी दीदा लीधी ? एवी प्रशंसा सांजली ते चारे पुत्र संवेग पj पाम्या. पली स्थविरपासें दीदा लइ बहुश्रुत थ गुरुने पूबी पोताना मा मा शीतलाचार्यने एक पुरे आव्या सांजली तेने वांदवाने अर्थे गया.तिहां जातां विकाल वेलायें गाम बाहेर एक देवलमा रह्यां. मांहे पेसतां एक श्रावकने जणाव्यु के अमारा मातुलने कहेजो जे नाणेज साधु आव्या बे. हवे ते चारे नाणेजने रातें शुनध्यानथी केवलज्ञान उपज्यु. प्रनातें ते मर्नु अनागमन जाणी मातुल आव्या, तेहने अनादर करता जाणी कषा य दंडकमां आवते दंमक थापी रिया पथिका प्रतिक्रमी अव्यथी वंदनक की धुं, तेवारे ते बोल्या अहो अव्यवंदने कषाय कंमक वधते वांद्या, परंतु ना ववंदने कषायोपशांतियें वांदो, ते सांजली मामोजी बोल्या तमें केम जा एयु? तेवारें नाणेज बोल्या के अमें अप्रतिपाती ज्ञानें करी जाएयुं ते सां नली मामोजी मनमां विचारवा लाग्या के अहो में केवलीनी आशातना करी, एम विचारी कषायस्थानकथी निवर्त्या अने ते चारे केवलीने वांदवा लाग्या, अनुक्रमें चोथा केवलीने वांदतां मामाने पण केवलज्ञान उपनुं. ए शी तलाचार्य ने प्रथम अव्यवंदन पठी नाववंदनकर्म थयु. ए प्रथम उदाहरण ॥ हवे बीजा चितिकर्म उपर कुखकनो दृष्टांत कहे जे. जेम एक कुखक, जला लक्षणवालाने, आचार्ये अंत समय पोताने पदें स्थाप्यो, गीतार्थी साधु पासें जणे, ते पण विशेषथी जक्ति साचवे. एकदा समयें मोहनीय कर्मना उदयश्री नग्नपरिणामी थयो; पठी साधु निदायें गये थके बाहेर नूमिनेविषे निकल्यो पठी एक वनने विषे एक दिशें जातां थकां,तिलक, अशोक चंपकादि विविधवृद तिहां हता तेम उतां एक शमी एटले खी. जमीनो वृद तेनु कोश्क पूजन करतो हतो ते देखी पूजक प्रत्यें पूज्युं, के तमे ए कंटक वृदनें केम पूजो बो ? तेणे कडं के अमारा वमिलोयें पूर्व ए वृदने पूज्यु डे माटें अमें पण पूजीये बैयें. ते वचन सांजलीने कुल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवंदन जाय अर्थसहित. ४३७ विचायुं जे या शमी एटले जांखरांना वृक्ष सरिखो हुं हुं ; तेने उत्तम वृक्ष समान गुणवंत लोक पूजे बे. अने महारामां श्रमणपएं नथी; मात्र रजोहरणादि चितिकर्मगुणे करी मुकने पूजे बे, एम विचारी, पाठो खावी - साघुनी, पासें लोयणा लई, उजमाल थयो एम एने पूर्वे द्रव्य चिति, कर्म हतुं, पढ़ी जावचितिकर्म उत्पन्न थयुं. ए बीजं उदाहरण जाणवुं. वे जा कृतिकर्म उपर वीरा शालवी ने श्रीकृष्णनुं उदाहरण कहे a. श्रीनेमिनाथ जगवान् द्वारिकायें समोसख्या तेवारें श्रीकृष्ण सर्वसाधुर्जने द्वादशावर्त वांदणे वांद्या, एने जावकृतिकर्म कहीये, अने श्रीकृष्णने रुरुं मनावानें वीरा शालवी यें पण वांद्या एने द्रव्यकृतिकर्म कहीयें. एना संबंधनो विस्तार आवश्यकवृत्तिथी जाणवो. ए त्रीजुं उदाहरण जाणवुं. हवे चोथा पूजाकर्म उपर बे सेवकनो दृष्टांत कहे बे. जेम एक राजा ना बे सेवक हता ते गामनी सीमा निमित्तें विवाद करता राजपंथें जातां हता, मार्गमां साधु देखीने प्रशस्त मन, वचन ने कायायें करी एकें क के "साधौ दृष्टे वा सिद्धिः " एटले साधु दिवे ते निश्चयें कार्य सिद्धिथाय, एमां संशय नथी, एम कही एकाग्र चित्तें साधुने वांद्या ने बीजे सेव कें उलटी हांसी रूपें व्यवहार मात्रे तेने वनमन कर. पी राजद्वारें गये थके पहेला सेवकनो जय थयो, ने बीजानो पराजय थयो एम एकने soil पूजाकर्म ने बीजानें जावथी पूजाकर्म थयुं; ए चोथुं उदाहरण. हवे पांचमा विनयकर्मने विषे पालक नव्याने सांबनो दृष्टांत कहे बे. श्री नेमिनाथ जगवान् द्वारिका नगरीयें समोसख्या, तेवारें श्रीकृष्ण बोल्या के जे श्री नेमीश्वर जगवाननें सर्वथी पहेलुं जई वंदन करशे, तेने महारो पट्ट तुरंगम विशेष पीश, ते सांजली तुरंगमने लोजें प्रथम रात्रि तां पण पालकें वीने वांद्या, ते द्रव्यथकी वंदन जावं. नेत्यां सां ब कुमारें जावकी वांद्या बे, ते जाववंदन जावं. ए पांचमुं उदाहरण क. ए पांच दृष्टांतनुं बीजुं द्वार थयुं, उत्तर बोल दश यया ॥ ११ ॥ वे पासादिक पांच वंदनीयनुं त्रीजुं द्वार कहे . पासच्चो उस्सन्नो, कुसील संसत्तन हाचंदो ॥ डुग डुग ति गणेग विदा, अवंद पिता जिए मयं मि ॥ १२॥दारं ॥ ३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३७ प्रतिक्रमण सूत्र. अर्थः-जे ज्ञान, दर्शन अने चारित्रनी पासे रहेतेप्रथम (पासबो के०) पासबो जाणवो तथा जे साधु सामाचारीने विषे प्रमाद करे ते बीजो (उ स्सन्नो के०) उस्सन्नो जाणवो. तथा जे ज्ञान. दर्शन अने चारित्रनी विरा धना करे ते त्रीजो (कुसील के)कुशीलीयो जाणवो. तथा जे वैरागी मले तो तेनी साथे पोते पण वैरागी जेवो बनी बेसे अने जो अनाचारी मले तो तेनी साथे पोते पण अनाचारी बनी बेसे, ते चोथो (संसत्त के०) सं सक्त जाणवो तथा जे श्रीतीर्थंकरनी आज्ञा विना पोतानी श्वायें प्रवर्ते, पोतानी स्वायें प्ररूपणा करे, ते पांचमो (अहाबंदो के०) यथाबंदो जाण वो. ए पोताने बंदे प्रवर्ते माटे एने बंदो कहीये. तिहां एक देशथी बीजो सर्वथी मली (फुग के०) बे नेद पासबाना, तथा एक देशथी बीजो सवथी मली (मुग के०) बे नेद उस्सन्नना, तथा ज्ञानकुशील, दर्शनकु शील अने चारित्रकुशील मली (ति के०) त्रण नेद कुशीलीयाना, तथा सं क्लिष्ट चित्त अने असंक्लिष्ट चित्त मली (ॉग के०) बे नेद संसक्तना, तथा (अणेगविहा के० ) अनेक प्रकार, बंदाना जाणवा, एटले यथाबंदा अ नेक नेदना थाय ने ए पासबादिक पांच जे कह्या ते (जिणमयंमि के०) श्रीजिनमतने विषे (अवंदणिजा के०) अवंदनीय जाणवा ॥ १५ ॥ हवे ए पांचे- कांश्क विशेष स्वरूप लखीयें बैये. तिहां मिथ्यात्वादि क बंध हेतुरूप पास तेने विषे जे रहे, तेने पासबो कहीयें. अथवा ज्ञाना दिकनें पोतानी पासें करी मिथ्यात्वादिक पासमां रहे एटले ज्ञानादिकने पासे राखे पण सेवे नही, अथवा पासनी परें पोतानुं पासुं मलिन राखे ते पासबो कहीये. तेना बे नेद बेः-एक देशपासबो अने बीजो सर्वपासबो. तेमां जे कारणविना शय्यांतर पिंक, अन्याहृत एटले साहामो आण्यो पिंक, राज्यपिम, नित्यपिंड अने अग्रपिंमादिक खंजे. तथा गाम, देश, कुल श्रावकनी ममता मांडे, जेम के “श्रा महारा वासित जाव्या डे” ते कुला दिकनी निश्रायें विचरे, तथा गुर्वादिकने जे विशेष नक्तियोग्य रहस्यनूत थापना कुल , ते कुलमांहे निष्कारणे प्रवेश करे, तथा “नित्यप्रत्ये तमने एटद्धं देशं तमें नित्य आवजो” एवीरीतनी जे निमंत्रणा करे तेनी पासे ते पिंग लीये तेने नित्य पिंग कहीये. तथा नाजनमांहेथी वापख्या विना उदन जक्तादिकनी शिखा उपरितन जाग लक्षण लीये, ते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवंदन जाय अर्थसदित. fine. केटलाएक एम कहे बे के कारण विना प्रधान सरस श्राहार लीये तेने पिंक कहियें तथा बर्हेतालीश दोष आहारना न राखे, वारंवार आहार लीये तथा जमणवार, विवाह ने प्राणामां शि खंकि जोतो फरे, आहारनी लालचें मुखें कहे. तिहां निमित्त दोष न हो य, सूजतो होय ते माटे. तथा सूर्य थमता उगताथी मांगी जमे, मांग ये आहार न करे, सन्निधि राखे, पोतानी निश्रायें औषधादिकालगुं गृहस्थने घरे मूकावे, द्रव्यादिक सहित विचरे, तथा ज्ञानद्रव्यादिक मिषें करी स्वनिश्रायें ज्ञानादि जंगारनां नाम लेई, पुस्तकादि संग्रहे, द्रव्यादि सहित विचरे, मुखें कड़े में निग्रंथ ढैयें पूर्व साधु समान गर्व राखे. इत्या दिक अनेक प्रकारें साधु लक्षणथी विपरीत होय ते देश पासो जाणवो. तथा जे सर्वथा ज्ञान, दर्शन ने चारीत्रथी अलगो रहे, केवल लिं गधारी, वेषविरुंबक, गृहस्थाचार धारी होय, ते सर्वथी पासो जाणवो. बीजो जे क्रियामार्गने विषे शिथिलता करे, अथवा खेद पामे तेने उ सन्नो कहीये; तेना वे नेद बे. एक देशथी अवसन्नो ने बीजो सर्वर्थ । व्यवसन्नो तिहां जे यावश्यक, प्रतिक्रमण, देववंदनादि, सजाय ते पठन पाठ नादि, पडिलेह, मुखवस्त्रिका, वस्त्रपात्रादि, जिक्षा ते गोचरी कालादि, ध्यान ते धर्मध्यानादि, अक्तार्थ ते तप नियम निग्रहादि श्रागमन ते बाहेरथी उपाश्रयमां प्रवेशलक्षण, निसिहिया ते पग पूंजवादि निर्गमन ते प्रयोजनविना उपाश्रयर्थी बाहेर निकलवा लक्षण, स्थान ते कायोत्सर्गादि, निषीदन ते बेसकुं, तुयइण ते त्वग्वर्तन एटले शयन इत्यादिक, दशविध चक्रवाल साधु समाचारी, तथां उघ पद विजाग सामाचारी प्रमुख विधि संयुक्त न करे, अथवा बी अधिक करे अथवा कषाय कंक सहित करे, अथवा राजवेवनी परें करे जय मानीने करे तथा गुर्वादिना वचन सांजले, डुमणो थइने वचन खंगन करे, आक्रोश करे, इत्यादिक लक्षणें करी देश व्यवसन्नो जावो. ४३० अने सर्व की अवसन्नो तो चोमासा विना शेषकालें पाट, बाजोव, निष्कारण संथारे, सेवे, स्थापना पिंग जमे. संथारो पाथस्यो राखे, प्रानृतिकादि दोष जमे. इत्यादिक लक्षणें सर्व अवसन्नो जावो. त्री जो जेनुं कुत्सित, निंदनीय मातुं शील एटले आचार होय, तेने कु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० प्रतिक्रमण सूत्र. शील कहीये. तेना त्रण नेद . ज्ञानकुशील, दर्शनकुशील अने चारि त्रकुशील, तिहां ज्ञानकुशील ते अकाल, अविनय, अबहुमान, गुरुनिन्दव ता, योग उपधान हीन सूत्र, अर्थ अने तनय हीन, इत्यादिक याशात नायुक्त थको ज्ञान नणे तथा आजीविकातें पठन पाठन संनलाव, ल खवू, लखाववु, नंमार कराववा, नंही समारचनादि स्वार्थना उपदेश देवा, तथा आजीविका हेतें धर्मकथा कहे, लणे, घरघर धर्म संजलाववा जाय, पोताना थवाने हेतें स्त्रीबालकादिकने नणावे, अनेरा ज्ञानना जंडार उलवे ज्ञानने उलवे, लखवां, लखाववां, क्रय विक्रय पुस्तकादिकोनो करे, करावे, इत्यादिक लक्षणे ज्ञानकुशील जाणवो. बीजो दर्शनकुशील ते शंका कांदा विचिकित्सा व्यापन्न, दर्शननिन्हव, अहाबंदा, कुशीलिया वेषविमंबनादिक साथे परिचय करे, एटले तेनी सा थे आलाप संलाप पठनादिक करे, ते दर्शनकुशील जाणवो. त्रीजो चारित्रकुशील ते ज्योतिष, निमित्त, अदरकर्म, यंत्र, मंत्र, जूत कर्म, बलिपिम, जोणी, दानादि, सौजाग्य दोर्जाग्यकारी, जमी, मूली, वी द्यारोहणादिक, पादलेप, आंख अंजन, चूर्ण, स्वप्नविद्या, चिपुटीदान प्रमु ख, अतीत अनागत वर्तमान निमित्तकथन, पोतानी जाति कुल विज्ञाना दिक स्वार्थकार्ये प्रकाश करे, नख, केश, शरीर, शोना करे, वस्त्र पात्र दमादि क बहुमूल्यवाला सुंदर सुकोमलनी वांडा करे, शिष्यादिक परिग्रहनी वि शेष तीव्रता धरे, निष्कारण अपवाद पद सदूषण मार्ग प्रकाशे, तथा से वे, इत्यादिक लदणे चारित्रकुशील जाणवो. __ चोथो संसक्त, ते पासबा अथवा संविज्ञादिक जन जेवानी साथे मले त्यां तेवो थई प्रवत्र्ते, अथवा मूलोत्तर गुण दोष सर्व एकग प्रवर्त्ता वे, जे म गायनी आगल सुंमलो मूक्यो होय तेमां सरस, नीरस, कपाशिया, खोल,घृत, मुग्धादिक एक मेदयुं होय तो ते सर्वने एकगंज खाई जाय पण तेनुं विवेचन न करे. तेम ए पण गुण अने दोष सर्वने एकठा प्रव विी देखाडे तेने संसक्तो कहीयें, ते एक संक्लिष्टचित्त संसक्तो अने बीजो असंक्लिष्टचित्तसंसक्तो एवा बे ने जाणवो. तिहां जे प्राणातिपातादिक पांच आश्रवनो सेवनार, शकिगारव, रस गारव अने शातागारव ए त्रण गारवें करी सहित, स्त्रीगृहादिक सेवनने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवंदन नाष्य अर्थसदित. ४४१ विषे प्रसक्त, अपध्यानशील, परगुणमत्सरी, इत्यादि गुण युक्त ते संक्लिष्ट चित्तसंसक्तो जाणवो. तथा पोताना आत्माने जेवारें जेवो प्रसंग मले ते वारें तेवो थाय एटले प्रियधर्मी साधु मले तेवारें साधुना आचार पाले अने अप्रियधर्मी पासबो मले तेवारें तेवो थाय लिंबूंना पाणीनी पेरें त सुप थर जाय ते असं क्लिष्टचित्तसंसक्तो जाणवो. इति ॥ ___पांचमो यथाबंदो ते थया रुचियें प्रवर्ते, यथा तथा लवे, उत्सूत्र नाषे, पोताना खार्थना उपदेश आपे, स्वमति विकल्पित करे, परजातिने विषे प्रवर्ते, पारकी तांत करे, उपकारी धर्माचार्या दिकनी हेलना करे, आचार्य उपाध्यायना अवर्णवाद बोले, जेनाथी ज्ञानादिक पामे तेवा बहुश्रुतनी निंदा करे, गारव प्रतिबंधि होय, कारण विना विगय खाय, इत्यादिक अनेक नेदें यथाउँदो जाणवो. ए पांचेनां विशेष लक्षण श्रीप्रवचनसारो झारवृत्ति तथा आवश्यकवृत्ति तथा उपदेशमालावृत्ति प्रमुख ग्रंथोथी जा णवा. ए पांचेने अवंदनीय जाणवा. एमने वांदवाथी कर्मनिर्जरा न थाय, केवल क्लेश अने कर्मबंध उपजे तथापि ए कहेलां लक्षणवालो जो ज्ञान, दर्शन अने चारित्रना सहाय कारणे सेव्यो होय तो वंदनीय जाण वो. जे माटे श्रीआगममांहे कयु डे के पासबादिक चारित्रना असंनवी होय पण दर्शनना असंनवी न होय ते कारणे ते सेव्य जाणवो पण हां तो चारीत्रीयो वंदनीय कह्यो जे ते अधिकार माटे चारित्रवंत ते वं द्य बे अन्यथा जो अचारित्रीयाने वंद्य कहीयें तो जेटला तेना प्रमादनां स्थानक ते सर्व अनुमोदनीय थाय तेथी तेने वांदतो थको प्रवचन बाधाकारी थाय. ए रीतें वांदणां देवाने पासबादिक पांच अयोग्य तेमनुं त्रीजुं हार कडं. उत्तर बोल पन्नर थया ॥ १५ ॥ हवे पांच वांदवाने योग्य तेमनुं चोथु द्वार कहे बे. आयरिअ जवनाए, पवत्ति थेरे तदेव रायणिए ॥ किश कम्मनिझरहा, कायब मिमेसि पंचन्हें ॥ १३॥ दारं ॥४॥ अर्थः पहेला ज्ञानादिक पांच आचारें करी युक्त ते (आयरिय के०) श्रीश्राचार्य कहीयें, बीजा ( उवप्नाए के०) श्रीउपाध्यायजी, त्रीजा जे तप संयमने विषे प्रवर्त्तावे, गबनी चिंता करे ते ( पवत्ति के०) प्रवर्तक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ प्रतिक्रमण सूत्र. कहीयें, चोथा जे चारित्रथी पमता होय तेने प्रतिबोध आपीने पाग ठेकाणे आणे तेने (थेरे के ) थिविर कहीयें ( तहेव के० ) तथैव एट ले तेमज वली पांचमा गबने अर्थे क्षेत्र जोवा माटे विहार करे, सूत्र अर्थना जाण तेने ( रायणिए के) रत्नाधिक गणाधिप कहीयें, (श्मे सिपंचन्हं के ) ए कह्या जे आचार्यादिक पांच जण तेने ( किश्कम्म के) कृतिकर्म एटले वादणानुं कर्म (कायवं के०) कर, एटले वांदणां दे वां ते केवल (निङरहा के) कर्मनिर्धाराने अर्थे जाणवू ॥ १३॥ ए आचार्यादिक पांचवें कांश्क विशेष स्वरूप नीचे लखीयें वैयें. आचार्य ते सूत्र अने अर्थ उन्नयना वेत्ता, प्रशस्त समस्त लदणे लदि त, प्रतिरूपादि गुणयुक्त शरीर होय, जाति कुल गांजीय धैर्यादि अनेक गुणमणियुक्त, आठ प्रकारनी गणिसंपदायें करी युक्त, पंचाचार पालक, पलाववाने समर्थ. बत्रीश बत्रीशी गुणें करी बिराजमान, आर्य पुरुषे सेववा योग्य, गछमूलस्तंचनूत गछचिंतारहित अर्थनाषी, एटले जेमां गडचिंता न उपजे एवा अर्थ नाषे एवा गुण युक्त ते आचार्य जाणवा. तथा उपाध्याय ते जेनी पासें अगीयार अंग, बार उपांग, चरणसित्तिरी, करणसित्तिरी जणीयें, आचार्यने युवराज समान,झान, दर्शन अने चारित्र रूप रत्नत्रयी युक्त, सूत्र अर्थना जाण, आचार्यने हितचिंतक, ते उपाध्याय तथा प्रवर्तक ते यथोचितप्रशस्त योग जे तप संयम तेने विषे साधुसमुदा यने प्रवर्त्तावे,गबने योगदेम करवानी योग्यतानी संचालना करनार जाणवा. तथा थिविर ते ज्ञानादिकगुणोने विष सीदाता साधुने इहलोक तथा परलोकना अपाय दृष्टांत देखामी संयममार्गमां स्थिर करे, ते स्थविर त्रण प्रकारें बे. एक शावर्षना ते वयःस्थविर, बीजा वीश वरसदीदा प र्याय जेने थया होय ते पर्यायस्थविर, त्रीजा जे निशीथादिक बेदग्रंथना रहस्य जाणे, जघन्यथी समवायांगादि श्रुत जाणे, ते श्रुत स्थविर पण शहांतो जेने आचार्यादिकें स्थविर कीधा होय ते स्थविर जाणवा. तथा रत्नाधिक ते गछने कार्ये शिष्य उपधि प्रमुख लालनें अर्थे विहारक रणशील सूत्रार्थवेत्ता एनुं गणावछेदक एवं पण नाम कहीयें एवा गुणवंत ते पर्यायें ज्येष्ट अथवा लघु होय तो पण तेने रत्नाधिक कहीयें. एटले पां च वंदनिकनुं चोथु झार थयु. उत्तर बोल वीश थया ॥ For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवंदन नाप्य अर्थसदित. ४४३ हवे चार जण पासें वांदणां न देवराववां तेनुं पांचमुं हार तथा चार ज ण पासें प्रायः वांदणां देवरावां, तेनुं बहुं हार, ए बे घार साथें कहे बे. माय पित्र जिह नाया, अनमावि तदेवसवरायणिए ॥ किश्क म्म न कारिजा, चनसमणाई कुणंति पुणो॥१४॥दारं॥॥६॥ __ अर्थः-एक (माय के०) पोतानी माता, वीजो ( पित्र के० ) पोतानो पिता, त्रीजो (जिहनाया के०) पोतानो ज्येष्ट नाइ एटले महोटो नाश्, चोथो (अनमावि के०) वयादिके लघु होय एटले वय प्रमुखें तो यद्यपि पोताथी न्हानो होय तो पण (तहेव के) तेमज ए त्रणेनी परें ते (सवराय णिए के०) सर्वरत्नाधिक एटले सघला पर्यायें करी ज्येष्ठ होय ज्ञान, दर्श न श्रने चारित्रे करी अधिक होय ए चारनी पासें प्रायः (किश्कम्म के०)वां दणां देवराववानुं (न कारिजा के०)न करावे. ए विधि साधुने जाणवो,अने गृहस्थ पासें तो वंदन देवरावे.ए पांचमुंहार थयु.उत्तर बोल चोवीश थया॥ तथा ( चउसमणाई के०) चार श्रमणादिक एटले साधु, साध्वी, श्रा वक अने श्राविका ए चार जण ते कृतिकर्मने (पुणो के०) वली (कुणं ति के०) करे एटले ए चार जन वांदणां आप.ए बहुं वांदणां देवा योग्य चार जण तेनुं घार थयुं. उत्तर बोल अहावीश यया ॥ १४ ॥ हवे पांच स्थानकें वांदणां न देवांतेनुं सातमुं छार कहे . विकित्त पराहुत्त , पमत्त मा कयाइ वंदिजा॥आदारं नीदारं, कुणमाणे कान कामे अ॥१५॥ दारं ॥७॥ अर्थः-एक ( विकित्त के०) विक्षिप्त गुरुथके एटले जेवारें धर्मकथा करवामां व्यग्रचित्त होय, बीजो कार्यादिकें करीने (पराहुत्ते के ) पर, ङमुख होय एटले संमुख बेग न होय परम उपरांग बेग होय, त्रीजुं (पमत्ते के०) प्रमादी थका होय एटले क्रोधादिकें अथवा संथारवादिकें प्रमाद सेवता होय, निसालु थका होय, चोथु (आहारं के०) आहार पांचमुं ( नीहारं के ) नीहार एटले लघुनीति अथवा वमीनीति प्रत्ये ( कुणमाणे के) करता होय, अथवा (काज के ) करवानी ( कामे के० ) कामना एटले वांबना करता होय (अ के० ) वली करवा Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. მმმ जता होय एटले स्थानकें ( कयाइ के० ) केवारें पण गुरुने ( मा वंदि का के० ) वांदवा नही यहीं माशब्द निषेधवाचक बे ॥ १५ ॥ ए सातमुं द्वार थयुं. उत्तर बोल तेत्रीश थया ॥ ३३ ॥ हवे चार स्थानके वांदणां देवां, तेनुं श्रमुं द्वार कहे बे. पसंते यासाचे अ, जवसंते जब हिए ॥ प्रणुन्नवि तु मेदावी, किकम्मं पई ॥ १६ ॥ दारं ॥ ८ ॥ अर्थ:- एक ( पसंते के० ) प्रशांतचित्त व्यादेपरहित गुरु होय, बीजुं (स० ) सनस्थ एटले पोताने यासने बेठा होय, ( o ) वली श्रीजुं (वसंते के० ) उपशांतचित्त एटले कोघादिकें रहित होया चो ( वहिए के० ) उपस्थित होय एटले बंदे इत्यादिक कद्देवाने सं मुख उजमाल थया होय, एवा गुरुच्यादिकने वांदणां देवानी ( अणुन्नवि ho) अनुज्ञा मागीने ( तु के० ) वली वांदणां देवाना विधिना जाए एवा ( मेहावी के० ) मेधावी एटले पंक्तिजनो ते ( किश्कम्मं के० ) कृतिकर्म एटले वांदणां देवाप्रत्यें ( प के० ) प्रयुंजे एटले उद्यम करे ॥ १६ ॥ ए श्रमुं द्वार थयुं. उत्तर बोल सामत्रीश थया ॥ वे व कारणे वांदणां देवां, तेनुं नवमुं द्वार कहे . पक्किम्मणे सताए, काउस्सग्गे वराद पाहुणए ॥ खालो यणसंवरणे उत्तम य वंदणयं ॥ १७ ॥ दारं ॥ ए ॥ " अर्थः- एक (डिक्कम के० ) प्रतिक्रमणने विषे सामान्य प्रकारें वां दणां देवाय, बीजा ( सकाए के० ) स्वाध्यायवाचनादि लक्षण तथा स काय पढाववाने विषे विधिवांदणां देवाय, त्रीजा ( काजस्सग्गे के० ) पक्ष काण करवाना कायोत्सर्गने विषे एटले आचाम्लादि योगादि पारणे परि मितविगय विसर्तामणी विगयपरिजोगनी आज्ञा रूपें वांदणां देवाय, चो था ( वराह के० ) अपराध एटले गुरुनो विनय उलंघवा रूप पोतानो अपराध खमावतां वांदणां देवाय, पांचमा ( पाहुणए के० ) प्राणो मोटो यति खावे तेवारें तेमने वांदणां देवाय एटले महोटाना समागमने वांदणां देवाय बघा गुरुनी पासें ( आलोयण के० ) आलोचना ले वाने * एटले आलोचना विहारादि समाचारी पद जिन्न ढुंते थके वांद For Personal and Private Use Only Jain Educationa International . Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवंदन जाय अर्थसहित. ४४५ णां देवाय, सातमा पच्चरकाण करतां अथवा मासखमणादिक विशेष तप रूप (संवरणे के०) संवरने विषे वांदणां देवाय आठमा ( उत्तम के० ) उ मार्थे एटले अंतसमये अनशन करवाने विषे संलेषणाने विषे (य के० ) वली वांदणां देवाय, अथवा वांद याय. ए आठ कारणे (वंदयं के० ) वांदणां देवाय, तेनुं नवमं द्वार थयुं. उत्तर बोल पिस्तालीश यया ॥ १ ॥ हवे अवश्य साचवा माटे आवश्यक कहीयें, ते वांदणां देतां पच्चीश आवश्यक सचवाय, तेनुं दशमं द्वार कहे बे दोवणय महाजाय, आवत्ता बार चन सिरतिगुत्तं ॥ पवेसिग निस्कमणं, पणवी सावसय किइकम्मे ॥ १८ ॥ अर्थ :- ( दोवयं के० ) वे अवनत वांदणाने विषे जाणवां एटले बे वार उपरितन शरीर जाग नमामवो तिहां एक तो जेवारें "इछामि खमा समणो वंदिलं जावणिज्जाए निसी दिखाए एम कहीने नमे तेवारें बंद्रेणनी जाह एटले आज्ञा मागतो शरीरनो उपरितन जाग नमाडे त्यारे गुरु बंदे कहे. एक. अवनत थयुं, एम बीजी वार वांदणां देतां बीजुं अवनत याय. ए वे अवनत रूप बे आवश्यक थयां. 50 तथा (हाजा के० ) एक यथाजात एटले जे रूपें दीक्षानो जन्म थयो हतो अर्थात् रजोहरण, मुहपत्ति चोलपट्टमात्रपणे श्रमण थयो हतो तेटलाज मेला थई हाथ जोडे अथवा योनिथी बालक निकलते जेम रचितकर संपुट होय ते करसंपुट कस्या हाथ जोडेलाने ललाटे लगाडे ते यथाजात कहीयें एम बेताने त्रीजुं यथाजात मली त्रण आवश्यक थयां हवे शरीरा व्यापार रूप ( बार के० ) बार ( यावत्ता के० ) याव र्त्तसूत्रानिधान गर्जित कायव्यापार विशेष जाणवतं. तेमां प्रथम वांदणे वाय, ते वी रीतें:- प्रथम त्रण आवर्त्त तो “ अहो * कार्य " " 'काय " ए बे बे करें नीपजे एटले पोताना हाथनां तलां बे जंधा गुरु चरणे लगाडे तथा उत्तान हायें पोतानो ललाटदेश फरसे अने 66 १ हो २ कार्य ३ काय संफासं " कहेतो मस्तक नमाडे तेवार पी " खमपिकोथी मांगीने वश्यंतो " पर्यंत यावत् कर संपुढे कहीने वली त्रण आवर्त्त त्रण त्रण करना कहे तेमां एक अक्षर गुरुचरणे हाथ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only "" . Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ प्रतिक्रमण सूत्र. लगामतां कहे,वीजो अदर उत्तान हाथे वचाले विशामा रूप कहे अनेत्री जो अदर ललाटदेशे हाथ लगामतां कहे, जेम "ज त्ता ने” “ज व णि" " ऊंच ने” एवा त्रण आवर्त्त त्रण त्रण अकरना कहेतो खामे मि खमासमणो कही बीजी वार मस्तक नमाडे. ए रीतें ए प्रथम वांदणे बावर्त्त थयां तेम वली बीजे वांदणे पण एज रीतें उ आवर्त्त थाय, बे वार मली बार आवर्त रूप बार आवश्यक थाय. सर्व मली पंदर थयां. ___ तथा (चउसिर के०) चतुःशिरः एटले चार वार शिर नमाम तिहां पहेले वांदणे बे वार मस्तक नमामवं अने बीजे वांदणे पण बे वार मस्तक नमाम, मली चार वार शिर नमन थाय. एवं उंगणीश आवश्यक थयां. तथा ( तिगुत्तं के ) त्रण गुप्ति ते मन, वचन अने काया ए त्रण नेअन्यव्यापारथी गोपवी राखे ए त्रणने अव्यथी तथा नावथी अयत्नायें न प्रवर्त्तावे, एवं बावीश आवश्यक थयां. तथा (कुपवेस के०) हिप्रवेश एटले बे वार आवश्यकें बे वार गुरुनी आज्ञा मागी अवग्रहमांहे प्रवेश करवा रूप बे आवश्यक अने (ग निरकमणं के०) एक वार अवग्रहथी बाहेर निकले एटले पहेले वांदणे आज्ञा मागी निसीहि कहेतो पग पूंजतो थको एकवार अवग्रह मांहे प्रवेश करे अने पठी आवस्सियाए कहेतो पागल पूंजतो एकवार पहेले वांदणे अवग्रहथी बाहेर निकले, अने बीजा वांदणामां प्रवेश करे पण फ री पाडो बाहेर निकले नही माटे बे वार पेसवु अने एकवार निकलवं मली त्रण आवश्यक थयां ते पूर्वोक्त बावीश साथें मेलवतां (पणवीसा के ) पच्चीश (श्रावसय के) आवश्यक ते ( किश्कम्मे के० ) कृतिकर्म एटले वांदणांने विषे थाय ॥ १७ ॥ किइ कम्मपि कुणंतो, न दो किश्कम्म निकरा नाग। पणवी सामन्नयरं, साहु हाणं विराईतो॥रा दारं ॥१॥ अर्थः- हवे ए (पणवीसां के०) पञ्चीश आवश्यक जे जे, तेमां (श्र नयरं के०) अनेरे एक पण (हाणं के०) स्थानक प्रत्ये (विराहंतो के०) विराधतो एवो जे (साहु के०) साधु तेमज साधवी श्रावक,श्राविका होय, ते ( किश्कम्मंपिकुणंतो के ) कृतिकर्मने करतो तो पण एटले वांदणां Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववंदन नाष्य अर्थसदित. ४४७ देतो बतो पण (किश्कम्म के०) कृतिकर्म थकी जे कर्मपरिशाटनरूप (नि जरा के० ) निर्जरा थाय तेनो (नागी के०) संविनागी (न होश के०) न थाय एटले ते वांदणांनुं जे निर्जरारूप फल, ते न पामे ॥ १५ ॥ ए दशमुं छार थयुं उत्तर बोल सित्तेर थया ॥ ___ यंत्र स्थापना. अवनत यथाजात श्रावतः शिरो गुप्ति. प्रवेश. | निकलवू. नम. मुजा. . नमन. हवे मुहपत्तिनी पच्चीश पमिलेहणानुं अगीयारमुं हार कहे जे. दिहि पमिलेह एगा, बजट्ठपप्फोम तिग ति अंतरिआ ॥ अकोम पमऊणया, नवनव मुहपत्ति पणवीसा ॥ २० ॥ अर्थः-प्रथम मुहपत्तिने पहेले पासें सूत्र अने बीजे पासें अर्थ तेनुं तत्त्व, सम्यक् प्रकारें हृदयने विषे धरूं एमचिंतवीने मुहपत्ति उखेली तेना बेहु पासां सर्वत्र दृष्टियें करी जोवां ते (दिहिपमिलेह के०) दृष्टि पडिले हणा (एगा के०) एक जाणवी. तेवार पड़ी (ब के०) (उप्फोम के०) जंचा पखोमा करवा एटले मुहपत्तिने फेरवी बे हाथे साहीने एकेका हाथें नचाववा रूप त्रण त्रण उंचा पखोमा करवा तिहां माबे हाथे करतां स म्यक्त्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय अने मिथ्यात्वमोहनीय ए त्रण मोहनीय परिहरु एम चिंतवीयें तथा जमणे हाथे करतां कामराग, स्नेहराग अने दृष्टिराग, एत्रण राग परिहलं. एम चिंतवीयें ए ब खंखेरवा रूप उ पमिलेह णा यश् तेनी साथे प्रथमनी एक दृष्टि पमिलेहणा मेलवीये तेवारें सात थाय. . तेवार पड़ी (तिग के०) त्रण (अस्कोम के०) अकोमा अने (ति के०) त्रण ( पमऊणया के ) प्रमाना एटले पूंजq ते अनुक्रमे एक बीजा केडे त्रणवार (अंतरिया के० ) एकेकने अंतरे करवा एटले मुहपत्तियें एक पम वाली मुहपत्तिना त्रण वधूटक करी जमणा हायनी अंगुलीना आंतरानी वचमां नरावीने त्रण अकोमा पसली नरी त्रणवार मुह पत्ति उंची राखी मावा हाथना तलाने अण लागते खंखेरीये पण हाथने तले लगामीयें नहीं पड़ी त्रण प्रमार्जना पशलीमांहेथी घसी काहा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ მმს प्रतिक्रमण सूत्र. डीएम एकेकने यांतरे णवार ऋण ऋण कोमा करवाने त्रण वारण प्रमार्द्धना करवी. एवी रीतें त्रण वार करतां ( नव के० ) नव अकोडा खंखेरवा रूप थाय. अने ( नव के० ) नव परकोमा प्रमाऊंना एटले पूंजवा रूप याय. मली अढार परिलेहणा याय तेनी सायें पूर्वोक्त सात मेलवीयें, तेवारें सर्व मली ( मुहपत्ति के० ) मुहपत्तिनी पहिला ( पणवीसा के० ) पच्चीश थाय ॥ २० ॥ हवे ढार मिलेहणा करतां एकेका त्रिके शुं शुं मनमां चिंतवियें ? ते कड़े बे. पहेला त्रण कोमामां सुदेव, सुगुरु छाने सुधर्म, ए ऋण तत्त्व यादरुं, पीत्रण प्रमार्जनामां कुदेव, कुगुरु ने कुधर्म, एत्रण परिहरु, बीजात्र कोमामां ज्ञान, दर्शन अने चारित्र, ए त्रण यादरुं, पढी त्रण प्रमा नामां ज्ञानविराधना दर्शनविराधना अने चारित्रविराधना ए त्रण परिहरु, त्रीजा त्रण कोमामां मनोगुप्ति, वचनगुप्ति ने कायगुप्ति ए गुप्ति याद, पठी त्रण प्रमार्जनामां मनोदंग, वचन, अने काय दंग, एत्रण दंग परिहरु, एवी रीतें मनमां चिंतव, ए क्रिया करवानी मुह पत्ति एक वेंतने चार अंगुल आत्म प्रमाणनी जोइयें अने रजोहरण तथा चरवलो बत्री अंगुलनो जोइयें तेमां चोवीश गुलनी दांगी गुलनी दशी जोइयें अथवा न्यूनाधिक करी होय तो पण सरखाले वत्रीश चंगुल जोइयें, ए पच्चीश पडिलेहणा स्त्री पुरुष बेहुयें करवी. ए गारमु द्वार थयुं, अने उत्तर बोल पच्चाएं यया ॥ हवे शरीरनी पच्चीश पडिलेहणानुं बारमुं द्वार कहे बे. पायादिणे तिच्यति, वामेच्छर बाहु सीस मुद दिय ए ॥ सुट्ठादो पिठे, चन बप्पय देद पणवीसा ॥ २१ ॥ :- ( पाया हि के० ) प्रदक्षिणायें एटले प्रदक्षिणा करी एक (वाम के०) मा (बाहु के०) बाहु ने बीजं (र के०) इतर ते जमणे बायें तथा त्री (सीस के०) मस्तकें, चोथुं ( मुह के० ) मुखें ने पां च (हिए के० ) हीयाने विषे ए पांच वामे ( तिति के० ) त्रण त्र वारकरी एटले मुहपत्तिने वधूटकनी पेरें ग्रहण करीने वा मनुजादिक पांच स्थानके फेरववी तेवारें पन्नर प मिलेहण याय, अने (अं For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. ४४ए सुडाहो के०) अंसुख एटले बे खंनानी उपर अने ते वे खंजानी अहो एट से नीचे काखमां (पिठे के) पिठ एटले वांसानी बाजुयें (चन के) चार पडिलेहण करवी एटले बे खंना उपर अने बे काखने विषे. एमज(ल प्पय के) पमिलेहण बे पगनी उपर करवी तेमांत्रण वाम पगे अने त्रण दक्षिण पगे करतां उ थाय, एवी रीतें सर्व मली (देह के) शरीरनी पमिलेहणा (पणवीसा के०) पच्चीश थाय ॥२१॥ यहां यद्यपि श्रीआवश्यक वृत्ति तथा प्रवचनसारोझारादिकें पमिलेहणा नो विशेष विचार कह्यो नथी तो पण शहां परंपराधी संप्रदाय समाचारीयें स्त्रीन शरीर वस्त्रे आवृत होय माटें एने शरीरनी पमिलेहणा पञ्चीशमां थीत्रण मस्तकनी, त्रण हृदयनी अने बे पासाना खंनानी चार, एवं दश पमिलेहणा न होय शेष पन्नर होय तथा वली साध्वीने तो उघाडे माथे क्रिया करवानो व्यवहार डे माटें तेने मस्तकनी त्रण पमिलेहणा होय शेष सात न होय बाकी अढार पडिलेहणा होय. ___ए पमिलेहणा जे, ते यद्यपि जीवरदानी कारणचूत जव्य जीवनें बे एम तीर्थंकरनी आज्ञा दे तो पण मनरूप मांकडाने नियंत्रवा सारु बोल धारीये ते यद्यपि आवश्यकवृत्ति तथा प्रवचनसारोकारादि ग्रंथें कह्यु नथी तोपण अल्पमतिने मन स्थिर राखवा माटें “ सुत्तब तत्तदिति” इत्यादि पांच गाथा- कुलक कर्तुं , ते यहां वांदणामां अधिकार नथी तोपण ते पांच गाथानो अर्थ लखीये बैयें. , जमणा फेरथी मुहपत्तिने वधूटकनी पेरें ग्रहण करीने पडिलेहण क | ये ते कहे जे. मावा हाथनी जुजायें. त्रण वार पुंजिये त्यां हास्य, रति ने अरति, ए त्रण परिहरु. एम चिंतवीये. जमणा हाथनी नुजायें त्रण र पुंजीयें त्यां नय, शोक अने उगंडा, ए त्रण परिहरु, एम चिंतवीयें. स्तक त्रण वार पुंजीयें तेमां कृष्ण, नील अने कापोत ए त्रण माठी लिश्या बांसु,एम चिंतवियें. मुखनी त्रण पमिलेहण करीये त्यां छिगारव, रसगारव अने शातागारव, ए त्रण परिहरु, एम चिंतवीयें. हृदयनी त्रण पमिलेहणा करीये त्यां मायाशल्य, नियाणाशल्य अने मिथ्यात्वशख्य ए त्रण शल्य गहुं,एम चिंतवीये. डाबा खंना अने जमणा खंनानी नीचें उपर बे पासानी पमिलेहणा चार करीये त्यां क्रोध, मान, माया अने लोज ए चार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० प्रतिक्रमण सूत्र. कषायने बांकुं: एम चीतवीयें. मावे जमणे पगे अनुक्रमें त्रण पहिलेहणा करीयें, तिहां अनुक्रमें पृथ्वी काय, अपकाय, ते काय वायुकाय, वनस्प तिका काय, ए ब काय जीवोनी रक्षा करूं, एम चींतवीयें ॥ तथा वली पहिना अधिकार माटें वस्त्र, पात्र, पाट, बाजोट, पाया वाला, पाटला, पाटली, स्थापनाना म्बा, ढाकणां, छाने नाजन प्रमुखनी प चीश पकिलेहण तथा कणदोरा, मांगा ने मांगीनी दश पमिलेहण तथा थापनानी तेर, पायानी तेर इत्यादिक सर्व परंपरागतें जाणवी | यावस्सएस जद जद, कुणइ पयत्तं प्रहीण मइरित्तं ॥ तिविद करणोवडत्तो, तद तद से निरा होई ॥ २२ ॥ अर्थः- ए ( वस्सएस के० ) यावश्यकने विषे तथा मुहपत्ति ने श रनी पमिहणाने विषे ( जहजह के० ) जेम जेम उजमाल चित्त थको (पयत्तं के०) प्रयत्न एटले उद्यमप्रत्यें ( श्रहीण के० ) हीन हीन परंतु जेम को बे तेमज करे, पण तेथकी बो करे नही तेमज (इरित्तके०). अतिरिक्त ते तेथक जूदो एटले जेम हीन न करे, तेम अधिक पण न करे एव रीतें जली बुद्धि सहित थको ( तिविहकरण के० ) त्रिविध करण ते मन, वचन ने काया, ए त्रण करणे करी ( उवत्तो के० ) उपयुक्त थको एटले शुद्ध उपयोगी थयो थको एकाग्रचित्त बतो ( कुइ के० ) करे ( तहत के० ) तेम तेम ( से के० ) ते उद्यम करनार पुरुषने ( निरा होई के० ) विशेष कर्मोंनी निर्झरा थाय ने जो विधियें प्रतिलेखना दिक करे तो ते व कायनो विराधक को वे एटले पहिले हणानुं बारम द्वार थयुं. उत्तर बोल एकशो वीश यया ॥ २२ ॥ हवे चार गाथायें करी वनीश दोष त्यागवानुं तेरमुं द्वार कहे बे, दोस अ, पविग्ध परिपिं मियं च ढो लगई ॥ अंकुस कवन रिंगिय, मनुवत्तं मणप ॥ २३ ॥ वेश्यब-६ जयंतं, जय गारव मित्त कारणा तिन्नं ॥ पडिणीय रुठ तजि, सठ हिलि विप लिय चिप्रयं ॥ २४ ॥ दिवमदिहं सिंगं, कर तम्मो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवंदन नाष्य अर्थसदित. ४५१ अण अणि ६ णालि ६॥ ऊणं उत्तर चूलिअ, मूअं ढङ्कर चुडलिअं च ॥ २५ ॥ बत्तीस दोस परिसुई, किश्कम्मं जो पठंजई गुरूणं ॥ सो पाव निवाणं, अचिरेण विमाणवासं वा॥१६॥ दारं ॥ १३ ॥ अर्थः-जे अनादार पणे संत्रांत थको वांदे, ते पहेलो (अणालिय के०) अनाहत (दोस के०) दोष. तथा जे जात्या दिकें करी धीगे थको स्तब्ध पणुं राखतो वांदे, अथवा अव्य नावादिक चउज्नंगी करी स्तब्ध थको वांदे ते बीजो (यट्ठिा के०) स्तब्द दोष. तथा जे वांदणां आपतो नामु तनी परें तुरत नासे, अथवा वांदणां देतो अरहो परहो फरे ते त्रीजो (अपविक के) अपविक दोष. तथा जे घणा साधु प्रत्ये एकज वांदणे वांदे अथवा आवर्त्त, व्यंजन, अने आलाप ए सर्व एकग करे, ते चोथो (परिपिमियं के) परिपिंडित दोष. (च के०) वली जे तीमनी परें उबल तो एटले उपमी उपमी विसंष्टुल वांदे, ते पांचमो ( ढोलगई के ) ढो लगति दोष. तथा जे अंकुशनी परें रजोहरणने बे हाथे ग्रहीने वांदे ते हो ( अंकुस के० ) अंकुश दोष. तथा जे कारबानीपरें रिंगतो रींगतो वांदे, ते सातमो(कबनरिंगिय के०) कबनरिंगित दोष. तथा जे उनो थर बेसीने जलमांहेला माउलानी परें एकने वांदीने उतावलो उपी फरी बीजाने वांदे, अथवा पाठ प्रबन्न करे अथवा रेचकावर्त अनुलोम प्रति खोम वांदे, ते बाग्मो (मछुवत्तं के०) मत्स्योत दोष. तथा कोश् साधु ताथी एकादे गुणें हीन होय ते दोषने मनमां चिंतवतो ईर्ष्यासहित को वांदे, ते नवमो (मणपउहं के०) मनःप्रष्ट दोष जाणवो ॥ २३ ॥ । तथा जे बे ढींचणनी उपर तथा हेठे हाथ राखीने अथवा बे हाथ विचा लें बे ढींचण राखीने अथवा बे हायनी वचमां एक ढींचण राखीने अथवा खोले हाथ मूकीने वांदे, ते दशमो ( वेश्यबक के ) वेदिकाबक दोष जाणवो. तथा ए कांश्क अमने नजशे एटले विद्यामंत्रादिक शीख वशे इत्यादिक लालचनी बुद्धियें वांदे,अथवा नही वांदीश तो रीश करशे एबुं जाणीने वांदे, ते अगीयारमो (नयंतं के0) नजंत दोष जाणवो. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ प्रतिक्रमण सूत्र, तथा एमने नही वांदीश तो मुजने गवादिकथी बाहिर काढी मूकशे, श्र थवा शापादिक आक्रोश करशे, इत्यादिक जयें करी वांदे, ते बारमो (जय के० ) जयदोष जाणवो तथा जो हुं जली रीतें वांदीश तो सर्व एम जाणशे जे ए सामाचारीमां कुशल बे, माह्यो बे, विधिप्रवीण बे, एवी रीतें जाणपणाना गारवें करी वांदे, ते तेरमो ( गारव के० ) गारव दोष जावो. तथा एमनी साथें महारे पूर्वे मित्राइ बे, एवं जाणी मित्रादिक ननुवृत्तियें वांदे, ते चौदमो ( मित्त के० ) मित्रदोष जाणवो. तथा जे ज्ञानदर्शनादिक कारण विना बीजा अन्य कारण जे वस्त्रादिक पदा दिक मुऊने देशे, एम उद्देशीने जे वांदे, ते पन्नारमो ( कारणा के० ) कारण दोष जाणवो. तथा जे चोरनी परें बानो रह्यो थको वांदे एटले परथी पोतानी आत्माने छानो राखे, रखे कोइ मुऊने जलखी लेशे तो माहारी लघुता यशे, एवी रीतें पोतानें दुपावतो वांदे, ते शोलमो ( तिन्नं के० ) स्तैन्यदोष जाणवो. तथा श्राहारादिकनी वेलायें प्रत्यनीकपणे नवसरें वांदे, ते सत्तरमो ( परिणीय के० ) प्रत्यनीक दोष जाणवो. तथा क्रोधें धमधम्यो को वंदना करे, अथवा क्रोधांतप्रत्यें वांदे, ते अढारमो ( रुह के० ) रुष्टदोष जावो. तथा जे घणीये वार वांद्या, तो पण प्रसन्न यता नथी ते कोपमां पण थता नथी काष्ठनी पेरें देखाय बे, एम तर्ज ना करतो वांदे, अथवा तर्जनी अंगुलिया दिकें तर्कना देतो थको वांदे, एटले कड़े के एने रूपेथी शुं ? अने तुठेथी पण शुं? एम ततो थको वांदे, तेर्ज शो ( तय ० ) तर्कित दोष जाणवो तथा जे मायादिक कपटें करी वांदे, अथवा ग्लानादिक व्यपदेश करी सम्यक् प्रकारें न वांदे, वीशमो (सह के० ) शव दोष जाणवो तथा हे गणि! हे वाचक ! तम वांदवा शुं फल थाय ? एवी रीतें जात्यादिकनी हेलना करतो थक वांदे, ते एकवीशमो ( हिलिय के० ) हि लित दोष जाणवो. तथा श्रद्ध वांदणां देने व मां वली देशकथादिक विकथा करतो करतो अनियाने वांदे, ते बावीशमो ( विपलिय चित्रायं के० ) विपलत चित्तकं एटले विपलितचित्त दोष जाणवो ॥ २४ ॥ जे मुंगो रही बानो मानो बेसे तेने कोइ बीजो जाणी जाय जेया बा बेसी रह्यो तो वांदे तथा कोइ परनुं वचमां अंतर बते न वांदे, ए Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. ४५३ म दीवुअणदीतुं करे,एटले कोश्यें दी कोश्य न दी एम लाजतो थको अंधारामां वांदणां आपे, ते त्रेवीशमो (दिहमदिलं के०) दृष्टादृष्ट दोष जा णवो. तथा जे पोताना मस्तकने एक देशे करी एटले मस्तक- एक पासुं गुरुने पगे लगाड़े तथा मुसाहीन पणे धर्मोपकरणादिक विपरीत पणे रा खतो तो वांदे, ते चोवीशमो (सिंगं के०) श्रृंग दोष जाणवो. तथा जे राजादिकना कर वेपनी पेरें जाणीने वांदे, पण कर्म निर्धाराने अर्थे वांदे न ही, ते पच्चीशमो (कर के०) करदोष जाणवो. तथा जे गुरुने वांदणां दीधां विना बुटको नथी, केवारें एथी बुटगुं? एम चिंतवतो वांदे, ते बबीशमो (त म्मोषण के०) तन्मोचन दोष जाणवो. तथा सत्तावीशमा आश्लिष्टाना श्लिष्टदोषनी चउन्नंगी थाय ते आवी रीतें के, हाथे करी रजोहरण अने मस्तक फरसे ए प्रथम नांगो ते शुद्धजाणवो तथा रजोहरणने हाथ लगाडे पण मस्तकें हाथ न लगाडे. ए बीजो नांगो, तथा मस्तकें हाथ लगाडे पण रजोहरणे हाथ न लगाडे ते त्रीजो नांगो, तथा रजोहरण अने मस्तक बेहुने हाथ फरसे नही एटले लगाडे नहीं, आश्लेषे नही, ते चोथो नंग जाणवो. ए चार नागामां प्रथम जांगो शुफ अने पाउला त्रण मांगा अशुद्ध दोषावतार जाणवा. एत्रण नांगे करी वंदन करेते सत्तावीशमो (श्र णिझणालिक के०) आश्लिष्टानाश्लिष्ट दोष जाणवो. तथा जे आवश्य कादिकें पाठ आलावा असंपूर्ण कहेतो थको वांदे, ते अहावीशमो (ऊणं के०) ऊण दोष जाणवो. तथा जे वांदणे वांदीने पठी महोटे शब्दें करी 'मबएण वंदामि' एम कहे, ते उगणत्रीशमो (उत्तरचूलिअ के०) उत्तरचू खका दोष जाणवो. तथा जे आलाप आवर्त्तादिकने मूकनी परें अणज रतो वांदे, ते त्रीशमो ( मूकं के० ) मूकदोष जाणवो. तथा जे आला ने अत्यंत महोटे खरें उच्चार करतो वांदे, ते एकत्रीशमो ( ढहर के०) दर दोष जाणवो. तथा जे अंबुअमानी परें रजोहरण बेहडे ग्रहण करी रिजोहरणने नमामतो थको वांदणां आपे, ते ( च के०) वली बत्रीशमो '(चुडलियं के०) चुडलिक दोष जाणवो ॥ २५॥ ए पूर्वोक्त (बत्तीसदोस के०) बत्रीश दोष तेणे करीने रहित थको (परिसुई के०) परिशुद्ध निर्दोषपणे ( किश्कम्मं के) कृतिकर्म जे वांद णां तेने (गुरूणं के०) गुरुना चरणप्रत्यें (जो के०) जे नव्यप्राणी (पगंज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ प्रतिक्रमण सूत्र. के० ) प्रयुंजे, एटले पे बे ( सो के० ) ते प्राणी (अचिरेण के० ) थोमा कलम ( निवाणं के० ) निर्वाण एटले कर्मरूपदावानलनो उपशम जे मोद ते प्रत्यें ( पाव के० ) पामे ( वा के० ) अथवा ( विमाणवासं के० ) वैमानिक देवपणाना वासप्रत्यें पामे ॥ २६ ॥ एटले ए तेरमुं बत्रीश दोष नुं द्वार पूरुं थयुं, उत्तर बोल १५२ यया ॥ हवे वांदणां देतां गुण उपजे, तेनुं चौदमुं द्वार कहे बे. इद बच्च गुणा विणन, वयारमाणाइजंग गुरुपूच्या ॥ तिब यराणय आणा, सुप्रधम्माराहणा किरिया ॥ २ ॥दारं ॥ १४ ॥ अर्थ: - ( इह के० ) ए वांदणाने विषे ( बच्च के० ) ब वली ( गुणा ho ) गुण उपजे ते कहे बे. तेमां एक तो ( विवियारं के० ) विनयो पचार करवो ते गुण उपजे एटले जे विशेषें करी सर्वकर्मनो नाश करे ते ने विनय कहीयें. तेहिज उपचार एटले राधवानो प्रकार जाणवो. बीज ( माणाइनंग के ० ) पोताना निमानादिकनो जंग थाय एटले पोताना माननुं गालबुं थाय. त्री जो ( गुरुपूत्र्या के० ) गुरु जे पूज्यजन तेमनी पूजा सेवा जक्तिनुं साचवतुं थाय. चोथो समस्त कल्याणनुं मूल रूप एवी ( तियराण्य के० ) श्रीतीर्थंकर देवनी ( आणा के० ) या ज्ञा तेनुं आराधन थाय एटले ज्ञानुं पालतुं थाय केम के जगवंते विनय मूल धर्म को बे, तथा पांचमो ( सुयधम्माराहणा के० ) श्रुतधर्मनी आराधना था, केम के श्रुतज्ञान जे गुरु पासेंथी जण ते पण वंदन पूर्वक जण कयुं छे. तथा बडो गुण तो परंपरायें एथी ( कि रिय ho ) क्रियारूप फल एटले सिद्धपएं पामीयें ए गुण वांदणां वार्थी उपजे, तेनुं चौदमुं द्वार पूर्ण थयुं, उत्तर बोल १५० थया ॥ २७ वेण गाथायें करी गुरुस्थापनानुं द्वार कहे बे. 0 गुरुगुणजुत्तं तु गुरुं, वगविता यदव तच काई ॥ प्रवा नाणाइतिच्यं, ववित सकं गुरु नावे ॥२८॥ के वराड वा, कठे पुढे चित्तकम् ॥ स नावमसज्जावं, गुरुववणा इत्तराव कदा ॥ २० ॥ गुरु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. ४५५ विरदंमि उवणा, गुरुवएसोव दंसणबं च ॥ जिणवि रदंमि जिणबि, ब सेवणा मंतणं सहलं ३०॥दारं॥१५॥ अर्थः-(गुरु के०) महोटा विशेष प्रतिरूपादि त्रीश (गुणजुत्तं के०) गुणे करी युक्त एवा (तु के०) निश्चे (गुरुं के०) गुरुने (गविजा के०) स्थापन करीने तेनी आगल प्रतिक्रमणादि क्रिया करीयें (अहवा के०) अथवा ( सकं के०) सादात् पूर्वोक्त गुणयुक्त एवा ( गुरुयनावे के०) गुरुनो अनाव उते ( तब के०) तत्र एटले ते गुरुने स्थानकें ( अका के०) अदादिक स्थापीने तेनी आगल क्रिया करीये ते अदादिक स्था पनाचार्य न होय तो ( नाणातियं के०) ज्ञानादिक त्रण एटले एक झान, बीजु दर्शन, त्रीजु चारित्र, ए त्रणेना उपकरण जे पोथी नोकरवा ली प्रमुख ले तेने ( उविज के०) स्थापीने तेनी आगल क्रिया करीयें. परंतु अगुरुने विषे गुरुबुद्धि आणीने तेनी आगल क्रिया करवी नहीं. केमके आगममा अगुरुने विषे जे गुरुबुझि आणवी तेने अत्यंत आकरूं लोकोत्तर मिथ्यात्व कर्वा ॥ २७ ॥ ___ हवे अदादिक जे कया ते कहे . एक (अरके के०) अ६ ते चंदन प्र सिफ मालानी स्थापना जाणवी, तेना अनावे ( वरामए के० ) वराटके एटले त्रण लीटीना कोमानी स्थापना करवी, (वा के० ) अथवा (क के० ) काष्ठ मामा मामी प्रमुख चंदनादिकनी पाटी आदिकनी स्थापना करवी, (पुढे के) पुस्तकनी स्थापना करवी, (अ के०) वली तेना अ जावें (चित्तकम्मे के ) चित्रकर्म ते गुरुनी मूर्तिनां चित्राम आलेख, श्र थवा गुरुनी काष्ठनी प्रतिमा ए पाठ श्रीअनुयोगहार सूत्रथी लखीयें बैयें, "से किंतं ठवणाणुमा जम वा अरके वा वराडए वा कठकम्मे वा पोबकम्मे वा लेपकम्मे वा चित्तकम्मे वा गंथिकम्मे वा वेढिकम्मे वा पूरिकम्मे वा सं घातिकम्मे वा एगे अणेगे वा सप्नाउ वा असनाउ वा ठवणा वित्ति एवं रीतें गुरुनी स्थापना करवी. ते बे प्रकारे जाणवी ते कहे, (सपाव मसनावं के०) एक सन्नावस्थापना अने बीजी असनाव स्थापना तिहां गुरुनी मूर्ति तथा प्रतिमादिकनी आकार सहित जे स्थापना ते सन्नाव स्थापना जाणवी, अने आकार विना अदादिकनी जे स्थापना करवी ते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ प्रतिक्रमण सूत्र. असन्नाव स्थापना जाणवी, वली (गुरुग्वणा के०) गुरुनी स्थापना ते ए क (इत्तर के०) श्वर अने बीजी ( यावकहा के) यावत् कथिका तेमां श्त्वर ते थोमा काल लगें स्थापना रहे, जेम नोकरवालीअने पुस्तकादिक नीजे स्थापना बे, ते स्थापना क्रिया करवाने वखतें थापे , माटें ज्यां सु धी ते क्रिया करीयें, तिहां सुधी तेस्थापना रहे, जो दृष्टि तिहांनी तिहां रा खीयें, तो रहे, नहीं तो वली फरी बीजी स्थापना स्थापवी पडे ते श्वर का लनी स्थापना जाणवी. अने बीजी यावत्कथिक स्थापना ते घणा काल प र्यंत रहे, ते प्रतिमादिक तथा अदादिकनी बे प्रकारनी स्थापना करीयें बैयें. ए स्थापनानी आशातना पण गुर्वादिकनी पेरें टालवी ॥ ए॥ __ हवे स्थापना शा कारण माटें स्थापवी ? ते कहे जे. जेवारें सादात् गुणवंत (गुरुविरहं मि के०) गुरुनो विरह एटले अनाव होय, तेवारें (गुरुवदेसोवदंसणवं के० ) गुरूपदेशोपदर्शनने अर्थे एटले गुरुनो उपदेश देखामवाने माटें (उवणा के ) स्थापना स्थापवी जोश्य (च के०) हां नावार्थ ए जे, स्थापनानी आगल क्रिया करतां ते एवं जाणे जे गुरुज मुझने आदेश आपे , ते महारे श्वाकारि कहीप्रमाण करवं. केम के ?गु रुना अन्नावें जे धर्मानुष्ठान करवू, ते शून्यन्नाव गणाय. हवे दृष्टांत कहे बे. जेम (जिणविरहंमी के०) हमणां श्रीजिनेश्वरनो विरह उतां (जिण बिंब के ) श्रीतीर्थकरना बिंब एटले प्रतिमानी (सेवण के० ) सेवन क रीने (आमंतणं के०) आमंत्रण करवू. जे हे जगवंत ! तमें मुजेनें संसार स मुज्थकी तारो,मोद आपो इत्यादिकजे कहे,ते (सहलं के०)सकल थाय जे. ए दृष्टांतें श्हां पणश्रीगुरुना विरहें गुरुनी स्थापना पण सफल होय . ए गुरु स्थापनाना एकज बोलनुं पन्नरमुं हार थयु उत्तर बोल १५ए थया ॥ ३० ॥ हवे वे प्रकारना अवग्रहनुं शोलमुं हार कहे जे. चनदिसि गुरुग्गहो इद, अदुह तेरस करे सपरपरके ॥ अणणुन्नायस्ससया, न कप्पए तब पविसेन॥३१॥दार॥१६॥ अर्थः-( इह के०) ए श्रीजिनशासनमांदे ( गुरुग्गहो के० ) गुरुथकी अवग्रह (चदिसि के०) चारे दिशाने विषे ( सपरपके के०) ख अने परपद श्राश्रयी अनुक्रमें केटलो केटलो होय? ते कहे . तिहां एक (श्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवंदन जाय अर्थसदित. ४७ दुइ के० ) सामा ण ने बीजो ( तेरस के० ) तेर (करे के०) हायनुं जा वं. तेमां स्वपद ते पोतामां साधु साधुमां ने बीजा श्रावक जाणवा. त या परपक्ष ते साधु ने साध्वी तथा श्राविका जाणवी. तेमां साधु साधुने तथा श्रावकने मांहोमां हे सामा त्रण हाथ वेगलो अवग्रह होय ने गुर्वा दिकथी साध्वी तथा श्राविकाने तेर हाथ वेगलो अवग्रह होय. तेमज सा तथा श्राविकाने मांहो मांडे सामा त्रण हाथनो अवग्रह होय ( त ho) तेटला मांडे (अन्नायस्स के० ) गुरुनी अनुज्ञा लीधा विना (सया के० ) सदा निरंतर ( पविसेनं के० ) प्रवेश करवाने वली (नकप्पए के०) न कल्पे. ए बेअवग्रहनुं शोलमुं द्वार थयुं. उत्तर बोल १६१ यया ॥ ३१ ॥ हवे वांदणांना सूत्रांना अक्षरनी संख्यानुं सत्तरमुं द्वार तथा पदनी संख्यानुं श्रढारमुं द्वार कहे बे. पण तिग बारस डुग तिग, चनरो बाण पय इगुणतीसं ॥ गुण तीस सेस याव, स्सयाई सङ्घपय अडवन्ना ||३२|| दारं ॥ १७॥१८॥ अर्थः- प्रथम वंदनक सूचना अक्षर ( २२६ ) बे. तेमां लघु अक्षर ( २०१ ) बे, ने गुरु अक्षर तो श्वामिश्री मांगी ने वो सिरामि पर्यंत पच्चीश बेलखे बे, बाजा ग्ग को प्प क ना ऊं क कत्ती न वा कक क व व बो व म्मा कस्स क प्पा. ए पचीश अक्षर गुरु जाणवा एटले सत्त रमुं वंदनक सूचना अक्षरोनुं द्वार थयुं. उत्तर बोल ( ३०७ ) थया. हवे अढारमुं वंदनक सूचना पदनी संख्यानुं द्वार गाथाना ख कहे . तिहां 'विजयंतं पदं' एटले विनक्ति जेना अंतमां होय तेने पढ़ कही ये ते इहां वंदनक सूत्रना व स्थानक मध्ये सर्व मली अठावन पदनी संख्या a, तिहां प्रथम स्थान मां इछामि, खमासमणो, वंदिनं, जावणिकाए, निसी हियाए, ए ( पण के० ) पांच पद जाएवां. तथा बीजा स्थानकमां अणुजाह, मे, मिउग्गहं, ए ( तिग के० ) त्रण पद जाणवां, तथा त्रीजा स्थानक मध्ये निसी हि, अहो, कार्य, काय संफासं, खमणिको, जे किलामो, अप्प किलंताणं, बहुसोने, जे दिवसो, वई कंतो, ए (बारस के०) बार पढ़ जाणवां, तथा चोथा स्थानकमां जत्ता, ने, ए ( डुग के० ) बे पद जाणवां तथा पांचमा स्थानकमां जव पिऊं, च, ने, ५८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. ए (तिग के०) त्रण पद जाणवां, तथा हा स्थानकमां खामे मि, खमास मणो, देव सियं, वश्कम, ए (चउरो के०) चार पद जाणवां, एम (व्हाण के०) ब स्थानकने विषे (पय गुणतीसं के०) जंगणत्रीश पद जाणवां. __ तथा ( सेस के०) शेष रह्यां जे ( गुणतीस के०) गणत्रीश पद ते (आवस्सिया के०) श्रावस्सिाएथी मामीने वो सिरामि पर्यंत थाय, तेवारें ( सब के०) सर्वे मलीने ( पय के० ) पद (अम्वन्ना के ) अहा वन्न थाय बे. हवे ए पाडला गणत्रीश पद कही देखाडे . आवस्सि याए पकिममामि खमासमणाणं देव सियाए आसायणाए तित्तीसन्नयराए जं किंचि मिठाए मणमुक्कमाए वयकमाए कायक्कमाए कोहाए माणाए मायाए लोनाए सबकालियाए सबमिडोवयाराए सवधम्माश्कमणाए सायणाए जो मे अध्यारो कर्म तस्स खमासमणो पमिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि. ए गणत्रीश पद थयां. ा ठेकाणे केट लाएक जंकिंचिमिबाए ए एक पद माने ले तथा केटलाएक आवस्सियाए ए अनिष्ठित पद माटे नथी गणता. तेमाटे वहुश्रुत कहे ते प्रमाण जाणवू. ए अहावन पदनु अढारमुंहार थयु. उत्तर बोल ४४५ थया ॥ ३ ॥ हवे वांदणांना दायकना स्थानकनुं उंगणीशमुंहार कहे . श्वाय अणुन्नवणा, अबाबाहं च जत्त जवणा य ॥अवराद खामणावि य, वंदण दायस्स बहाणा ॥३३॥ दारं ॥१॥ अर्थ-(श्छाय के० ) श्वामि खमासमणो वंदिलं जावणिजाए नि सीहियाए लगें पांच पदनुं प्रथम स्थानक जाणवं, तथा (अणुन्नवणा के) अणुजाणह मे मिजग्गहं ए त्रण पदनुं बीजुं स्थानक, तथा (अवा बाहं च के०) अव्याबाध एटले निराबाध पणुं पूबवा अर्थे निसीहिथी मां डीने दिवसो वकंतो पर्यंत बार पदोनुं त्रीगँ स्थानक जाणवू, तथा (जत्त के०) जत्ता ने ए बे पदोनुं चोथु स्थानक, तथा ( जवणाय के) जव णिऊं च ने ए त्रण पदनुं पांचमुं स्थानक, तथा (अवराहखामणाविय के ) अपराधनुं खमावq एटले खामेमि खमासमणो देवसियं वश्कम ए चार पदोनुं बहुं स्थानक जाणवू. अपिच एटले वली ए (वंदणदायस्स के) वांदणानो जे देवावालो तेनां (बहाणा के०) ब स्थानक जाणवां. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. ४५ ॥ ३३ ॥ ए ब स्थानकनुं जंगणीशमुं छार थयुं ॥ उत्तर बोल ४५१ थया. हवे ए ड स्थानकमां ब गुरु वचन होय तेनुं वीशमुं हार कहे . बँदेणणुजाणामि, तदत्ति तुम्नपि वहए एवं ॥ अहम वि खामेमि तुमं, वयणाइं वंदणरिहस्स ॥ ३४ ॥ अर्थः-जिहां श्छामि खमासमणो वंदिलं जावणिजाए निसीहियाए एटलो पाठ शिष्य कहे, तेवारें गुरु जो वांदणां देवरावे तो (देण के०) बंदेण ए पाठ कहे, अने वांदणां न देवरावे तो “तिविहेण” एवो पाठ कहे, ए प्रथम गुरुवचन जाणवू, तथा 'अणुजाणह मे मिजग्गहं' ए पाठ शि ष्य कहे, तेवारें गुरु कहे (अणुज्जाणामि के०) आशा आपुं बुं. ए बीजुं गुरुवचन जाणवू, तथा निसीहि इत्यादिक जेवारें शिष्य कहे, तेवारें गुरु कहे ( तहत्ति के० ) तथेत्ति ए त्रीजु गुरुवचन जाणवू, तथा जेवारें जत्ता ने इत्यादि शिष्य कहे, तेवारें गुरु कहे ( तुम्नं पिवट्टए के ) तुम ने काजे पण वर्ते बे. ए चोडुं गुरुवचन जाणवं, तथा जेवारें जवणिऊं च ने शिष्य कहे तेवारें गुरु कहे (एवं के०) एमज, तुं पूछे जे तेमज. ए पांचमुं गुरुवचन जाणवू. तथा जेवारें खामेमि खमासमणो शिष्य कहे, ते वारें गुरु कहे (अहम विखामे मितुमं के0) ९ पण खमा ९ तुम प्रत्ये. ए बहुं गुरुवचन जाणवू. ए 3 ( वयणाई के० ) वचन ते ( वंदण के०) वांदणां देवा योग्य (आरिहस्स के० ) आचार्या दिकनां जाणवां, एटले वीशमुं ब गुरुना प्रतिवचन- द्वार पूर्ण थयु. उत्तर बोल ४५७ थया ॥३॥ हवे त्रण गाथायें करी तेत्रीश आशातनानुं एकवीशमुंछार कहे जे. तिहां प्रथम आशातना शब्दनो अर्थ करे .जिहां ज्ञान,दर्शन अने चारित्र तेनो (श्राय के०) लाल थाय ते लानने (शातना के०) पामबु नाश करवो तेने आशातना कहिये ते शहां शिष्यादिक जो अविनयथी प्रवर्तता होय, गुरु या दिकनी आशातना करे,ते तेत्रीश प्रकारें ले तेनां नाम गाथाना अर्थथी कहे जे. पुर पकासन्ने, गंता चिठण निसीअणायमणे ॥ आलोय ण पमिसुणणे, पुवालवणे अ आलोए ॥३॥ तह नवदंस निमंतण, खक्षा ययणे तदा अपडिसुणणे॥ खत्ति य त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० प्रतिक्रमण सूत्र. बगए, किं तुम तजाय नो सुमणे ॥ ३६॥ नो सरसि कह बित्ता, परिसंनित्ता अणुहिवाइ कदे ॥ संथार पायघट्टण, चिहुच समासणे आवि ॥ ३७ दारं ॥२१॥ अर्थः-प्रथम गुरुने (पुर के०)आगल चालतां शिष्यने विनयनंगादिक लागे माटे ए अकारणे आशातना थाय परंतु जो मार्गादिकनी विषमता होय अथवा गुरुने मार्ग देखावा माटे जो गुरुथी आगल चालवू पके तो ते अकारणमां गणाय नही. बीजी (पक के०) गुरुने पमखे बेहु पासें गमन करे गुरुनी बराबर चाले तो आशातना थाय, त्रीजी (आसन्ने गंता के०) एमज गुरुने आसन्ने एटले अमकतो गंता एटले चाले पवाडे द्व कमो चाले तो श्वास, बींक, श्लेष्म, उध्रसादि दोष रूप आशातना थाय, एम ए त्रण आशातना जेटले नूमिनागें गुरुनी साथे चालतां थकां थाय, तेटलेज नूमिनागें गुरुनी पासें (चिहण के ) उन्ना रहेवाथकी पण पूर्वोक्त त्रण आशातना थाय, एम त्रणे स्थानकें गुरुनी पासें (निसिय णा के०) बेसता थकां पण पूर्वोक्त त्रण आशातना थाय. एवं नव थर, द शमी (आयमणे के०) आचमने एटले गुरुनी साथें उच्चार नूमियें गयां थ कां शिष्य जो आचार्यथकी पहेला आचमन लीये अथवा गुरुनी पहेलां च लु करे अथवा हायवाणी लीये त्रो आशातना थाय. अगीयारमी उच्चारा दिक बहिर्दिशीगुर्वादिक साथें आव्या पठी गमणागमणाथी जो गुरुथकी प्र थम (आलोयण के०) आलोये, तो आशातना थाय, बारमी गुर्वा दिक वडेरा तथा रत्नाधिक जे होय ते रात्रिये बोलावे जे कोण सूतो ? कोण जागे डे ? एम वचन सांजलतो जागतो थको पण (अपमिसुणणे के०) अण सांजलतानी पेरें पागे प्रत्युत्तर नहीं आपे तो आशातना थाय. ते रमी गुरुआदिकने आलाववा बोलाववा योग्य एवा को श्रावकादिक श्रा व्या होय अथवा आवेला जे तेने आवर्जवा माटे गुरु बोलाव्यानी (पु बालवणेय के०) पूर्वेज पोते बोलावे तो आशातना थाय, (अ के०) वली चौदमी अशन पान खादिम स्वादिम ए चारे आहार रूप जे निदा आणी होय ते प्रथम को बीजा शिष्यादिक आगल आलोईने पड़ी गुरु भागले (आलोए के ) आलोचे तो आशातना थाय ॥ ३५ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवदन नाष्य अर्थसहित. ४६१ पन्नरमी ( तह के० ) तेमज वली अशनादिक चार जेलाव्या होय ते प्रथम बीजा यतिने देखामीने पठी गुरुने (उवदंस के०) देखाडे तो श्रा शातना थाय, शोलमी तेमज अशनादिक चार लाव्या होय तेनी प्रथम बीजा यतिने निमंत्रणा करे के आ जात पाणी लेशो ? पड़ी गुरुने ( निमं तण के) निमंत्रणा करे तो आशातना थाय. सत्तरमी अशनादिक चार सूरि प्रमुख साथें निदायें आणीने पढ़ी गुर्वादिकने पूज्या विना जेनी साथे पोतानुं मन माने तेने मधुर जाणीने (खक के) खवरावे तो थाशातना लागे, अढारमी गुर्वादिक तथा रत्नाधिक साथें जमतो थको (थायणेण के० ) अशनादिक स्निग्ध सरस होय ते पोतेंज वावरे, ते आशातना जाणवी. यमुक्तं दशाश्रुतस्कंधसूत्रे ॥ सहेअसणं वा राणिए सेहिं मुंजमाणे तब सेहे खळं खळं मायं मायं उसढं उसढं मणुमं मणुमं मणा मंमणामं निकं निकं बुकं मुखं आहारित्ता श्वश् आसायणा लेहस्सत्ता ॥ ( तहा के ) तेमज उगणीशमी गुरु जेवारें साद करे तेवारें (अपमिसु णणे के०) अप्रतिश्रवणे एटले आणसांनलतानी पेरें गुरुने पागे जुबाब आपे नही, ते आशातना जाणवी. ए आशातना पूर्वे कही बे, परंतु ते रात्रिसंबंधी शयन करवा पडीनी जाणवी, अने आ ते दिवससंबंधि धिग पणे तथा अनाजोग पणे जाणवी. वीशमी रत्नाधिक तथा गुर्वादिक जे वारें साद करे, तेवारेंतेने (खत्तिथ के०) खर एटले अत्यंत कर्कश महोटे खरें करी पत्तर घणा वाले, कहे के अरे नाश् खाधो रे नाश्खाधो! केम केम मूकता नथी. इत्यादिक कठिन वचन बोले, अथवा आक्रोश गाढस्वरादिक गुरुने करावे. ते आशातना जाणवी, वली एकवीशमी गुर्वा दिकें बोला व्यो थको (तबगए के) त्यांथीज एटले पोताने ठेकाणे बेगे थकोज उत्तर आपे, परंतु गुरुनी समीपें आवीने जबाप न आपे तो आशातना थाय. बावीशमी वली गुर्वादिकें बोलाव्यो थको कहे के (किं के) बे ते ? (तुम के०) तमें कहो. कोण कहेवरावे ? शें कहो बो? इत्यादिक विनयहीन वचन बोले, ते आशातना जाणवी, तथा त्रेवीशमी वली गुर्वा दिकें बोलाव्यो थको कहे के तूंज कां नथी करतो ? एवी रीतें पोताना पूज्यने एक वचनांत बोलावे अथवा कहे के तमे कोण थका मुझने प्रेर णा करो डो ? इत्यादिक वचन कहे ते आशातना जाणवी. चोवीशमी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ प्रतिक्रमण सूत्र. गुर्वादिक तथा रत्नाधिक शिष्यने कहे के तमें समर्थ हो, पर्यायें लघु डगे, माटे वृजनुं तथा ग्लान- वैयावच्च करो तेवार ते पाडो जबाप आपे के जो तमेंज लान जाणो बो, तो तमे पोतें केम नथी करता? तथा तमारो बीजो पण शिष्यादिकनो बहु परिवार ने ते लाजनो अर्थी नथी? तो तेमनी पासे करावो. तेवारें वली गुर्वादिक तेने कहे के हे शिष्य! तमें श्रा लसु न था. तेवारें वली गुरुने कहे के तमे ते शुं अमनेज दीग ? एवीरी तनां वचन बोलीने गुरुनी (तजाय के) तर्जना करे ते आशातना जा णवी. पञ्चीशमी गुर्वादिक धर्मकथा कहेता होय तेवारें शिष्य उमणो थाय परंतु ( नोसुमणे के० ) सुमनो न थाय, गुर्वा दिकना गुणनी प्रशंसा करे नही अने कहे के तमें गृहस्थने विशेष प्रकारे समजावो बो, कहो ठो, तेरीतें अमने समजावता नथी अथवा गुर्वादिक तथा रत्नाधिकनोजे रागी होय तेने देखीने उमणो थाय ते आशातना जाणवी ॥ ३६ ॥ बबीशमी जेवारें गुरु कथा करता होय तेवारें कहे के तमने ए अर्थ (नोसरसि के) नथी सांजरतो? आ अमुकनो अर्थ एम न होय एवी रीतें कहेतां आशातना लागे. सत्तावीशमी गुर्वादिक कथा करतां होय तेनी व चमां पोतानुं माहापण जणाववाने अर्थे सन्य लोकने कहे के ए कथा डं तमने पली समजावीश एम कही (कह बित्ता के०) कथानो छेद करे, ते आशातना जाणवी, अठावीशमी गुरु कथा कहेता थका होय अने तेने सन्य लोक हर्षवंत हृदयथी सांजलतां होय तेसन्यजनोने देखतां उतां गुरुने कहे के एवमी शी कथा कहो डो? हमणां निदानो अवसर ,नोज नवेला पोरिसि वेला बे, एम कही ( परिसंनित्ता के०) पर्षदानो नंग करे तो आशातना थाय, उगणत्रीशमी गुर्वादिक धर्मकथा कही रह्या पढ़ी पर्षदा (अणुठिया के०) अणउठे थके तेज कथाने पोतानुं माहापण जणाववाने हेतुयें जे गुरुयें अर्थ कह्यो होय तेहिज अर्थ वली विशेषथी विस्तारी चर्ची देखामीने (कहि के०) कहे तो आशातना थाय, त्रीशमी (संथारपायघट्टण के०) गुरुनी शय्या तथा संथाराने पोताना पादादिकें करी संघट्टे तेने खमावे नही तो श्राशातना थाय, श्हां शय्या ते सर्वांग प्रमाण जाणवी, अने संथारो ते अढी हाथ प्रमाण जाणवो, अथवा श य्या ते कर्णादिवस्त्रमय जाणवी, अने संथारो ते दर्नादिक तृणमय जाण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुवंदन जाय अर्थसदित. ४६३ वो. एकत्री शमी गुरुनी शय्या संथारो तथा बेसणादिकने विषे ( चिड के० ) तिष्ठेत् एटले बेसे, अथवा आलोटे असन्यशरीरनें अवयवे करी फरसे, तो शातना थाय बत्री शमी गुरुथी ( उच्च के० ) उंचे सनें बेसे, अथ वा अधिक बेसणे बेसे तथा गुरु जेवां वस्त्र पहेरे, तेथकी अधिक मूल्य arai वस्त्रादिको परिजोग करे, तो आशातना थाय, तेत्री शमी ( समा साव के० ) गुरुने समान आसने बेसे, अथवा गुरुना जेवां वस्त्रा दिक होय, तेवांज समान वस्त्रादिकनो परिजोग करे तो शातना थाय a. हां शब्द निश्चयवाचक बे, तथा गुरुने आगल ने पाल तथा बायें बेसवादिनी शातना तो पूर्वै कहेली बे. ए तेत्री आशा तना टालतो थको शिष्य विनयी कद्देवाय, ते शिष्य वांदणां देवा देवरा ववाने योग्य जाणवो, ए प्रवचनपात्र थाय || ३ || ए तेत्री आशातनानुं एकवीशमं द्वार संपूर्ण ययुं. सर्व बोल ( ४९० ) थया ॥ ed a विधिनुं बावीशमं द्वार कहे बे. एटले पक्किमणुं करवानी सा मीनावें तथा वे प्रतिक्रमण करणादि पर्याप्तिने जावें जातें अ ने संध्यायें वांदणां वे देवां, ते बेदु विधिनो अनुक्रम जाणवो ते कहे बे. इरिया कुसु मिस्सग्गो, चिश्वंदण पुत्ति वंदणालोयं ॥ वंदण खामण वंदण, संवर चन बोन 5 समान ॥ ३८ ॥ अर्थः- तिहां प्रथम प्रजातनो वंदनक विधि कहे . इहां पहेली १ (६ रिया के० ) इरियापथिकी प्रतिक्रमीने, पछी २ ( कुसुमिस्सग्गो के० ) कुसुमिण डुसुमिणि उमाविणी निमित्तें चार लोग्गस्सनो काउस्सग्ग करे, ते वार पी ३ प्रदेश मागीने, ( चिश्वंदण के० ) चैत्यवंदन करे . पबी ४ देश मागीने, (पुत्ति के०) मुहपत्ति पहिलेदे, पी (वंदण के०) वांदणां बेपे, तेवार पी ६ ( आलोयं के०) राश्यं आलोए, तेवार पी 3 (वं दण के० ) बे वांदणां आपे पढी प ( खामण के० ) अनुमिि तर राइ खामनुं, पी ए ( वंद के० ) बे वार वांदणां आपे, पटी १० ( संवर के० ) पञ्चरकाण करे, पढी ११ ( चन्नोज के० ) चार ख मासमण पूर्वक जगवन् श्राचार्यादिक चारने थोज वंदन करे, पछी १२ ( इसा के० ) सद्यायसं दिसाहुं, सद्याय करूं, ए बे खमासमणें बे या Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ प्रतिक्रमण सूत्र. देश मागी सजाय संदिसाचं सजाय करे. ए प्रजातवंदन विधि जाणवो॥३७ हवे संध्यावंदनकविधि अथवा लघुप्रतिक्रमण विधि कहे . इरियां चिश्वंदण पु, त्ति वंदणं चरिमवंदणालोयं ॥ वंदणखा मण चनबो न, दिवसुस्सग्गो उसप्नान ॥ ३॥ दारं ॥२२॥ अर्थः-प्रथम १ (इरिया के०) रियावहि पडिकमीने पड़ी आदेशमागीश (चिश्वंदण के० ) चैत्यवंदन करे, तेवार पड़ी ३ (पुत्ति के०) मुहपत्ति पडि लेहे, पनी ४ (वंदणं के०) बे वांदणां दीये, ते देने पड़ी ५ (चरि म के) दिवसचरिम पञ्चकण करे, पठी ६ (वंदण के०) बे वांदणां दे श्ने ७ (आलोयं के०) देवसियं आलोए. पठी ७ ( वंदण के०) बे वांद णां देश्ने, ए (खामण के०) देवसियं खाम, करे, पछी १० (चउडोन के०) चार खमासमणां देश लगवानादिक चारने वांदी पड़ी आदेश मागीने ११ (दिवसुस्सग्गो के०) देव सियपायबित्तविसोहणवं चार लोगस्सनो का उस्सग्ग करी आदेश मागीने१५ (उसना के०) बे खमासणे सद्याय करे, एटले एक खमासमणे सिद्याय संदिसाजं, बीजे खमासमणे सद्याय क 5.इति संध्यावंदनक विधिः समाप्तः ए बावीशमुंहार प्रानातिकवंदन तथा सं ध्यावंदन मली वे विधियें करी बे प्रकारचें कडं उत्तर नेद ४ए थया॥३॥ एयं किश्कम्मविहीं, गँजंता चरण करण मानत्ता ॥ साहू खवंति कम्मं, अणेगनवसंचियमणंतं ॥४॥ अर्थः-(एयं के०) ए पूर्वे कही आव्या जे बोल, तेणें करी ( किश्क म्म के०) कृतिकर्म जे वांदणां, तेनो जे (विहिं के०) विधि जे व्यवहार ते प्रत्ये (झुंजता के०) प्रयुंजतां थकां ( चरणकरणं के०) चरण सित्तरी अने करण सित्तरी तेना गुणे करी (आउत्ता के०) आयुक्त एटले सहित थका एवाजे ( साहू के०) साधु निग्रंथ चारित्रीया ते (अणेगनवसंचि यं के) अनेक नवनां संचित एटले कोटि जन्मनां उपार्जन करेला अने जेनां (अणंतं के०) पुरंत विपाक ने एटले अनंता काल पर्यंत जो गवाय एवां अहपणे रहेनारां जे कर्म अथवा अनंत कालनां उपार्जन करेला एवां जे (कम्मं के०) कर्म ले ते कर्मो प्रत्ये तुरत शीघ्रपणे (खवंति के०) देपवी निराकरण करे बे, अर्थात् दय पमाडे ॥ ४० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६५ गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. अप्पमइ नवबोदवं, नासियं विवरियं च जमिद मए॥ तं सोहंतु गीयना, अणनिनिवसि अमन रिणो॥४१॥ इति गुरु वंदनकनाष्यं समाप्तम् ॥ अर्थः-श्रा वांदणांनो विचार ते (अप्पम के०) अल्प डे मति जेहनी एवा जे (नव्व के ) नव्यप्राणी तेमना (बोहबं के०) बोध ज्ञानने अर्थे (नासियं के) नांख्यो परंतु श्रावश्यक बृहकृत्त्यादिक ग्रंथने विषे एनो अत्यंत विस्तार ने त्यांची विशेषे जोवं, शहां संदेपथी कह्यो बे.तेमांहे जे अनानोगें (विवरिअं के०) विपरीतपणे (च के०) वली (जं के०) जे (इह के ) ए नाष्यमांहे ( मए के० ) महाराथी कहेवाणुं होय (तं के०) तेने वली (अणनिनिवेसि के०) अकदाग्रही एटले हग्वादरहित एवा अने ( अमछरिणो के०) मत्सरपणाना परिणामें रहित, गुणना रागी एवा जे (गीयबा के०) गीतार्थ एटले गीतना अर्थ तेना जाण अर्था त् सूत्रार्थना जाण तथा निश्चय व्यवहारने विषे कुशल होय ते ( सोहं तु के०) शोधजो, अर्थात् शुद्ध करजो. ए ४ए बोलें करी श्रीगुरुने वांदणां देवानो विधि कह्यो ॥ आंहीं " श्वामि खमासमणो वंदिलं जावणिजा ए निसीहियाए” इत्यादिक गुरुवंदन सूत्र जो पण ग्रंथकारें मूल पाठ मां गाथारूपें कडं नथी, तो पण प्रसंगथी तेनो अर्थ लखवो जोश ये, परंतु या प्रतिक्रमणने विषे प्रथम सुगुरु वांदणांमां ते अर्थ सविस्तर लखाइ गयेलो होवाथी आ ठेकाणे लख्यो नथी. इति श्रीगुरुवंदनक नाष्य अर्थ सहित संपूर्ण ॥४१॥ हवे एवा गुणवंत गुरुप्रत्ये वांदणां देश्ने तेमना मुखथी यथाशक्तियें पच्चरकाण लेवू, केम के 'झानस्य फलं विरतिः' एवं वचन जे. वली आगम मध्ये कयु डे के, “पच्चरकाणेणं नंते जीवे किं जणय पच्चरकाणेण य आसव दाराशनिरंनंति” तेमाटें पच्चरकाण करवानो महोटो लाज जे. ते पच्चरकाण शुं? अने ते केटला प्रकारनां पञ्चरकाणो जे? इत्यादिक जाणवा माटें त्रीजु पञ्चरकाण जाष्य कहे . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ प्रतिक्रमण सूत्र. ॥अथ॥ ॥ तृतीयपच्चरकाणनाष्यप्रारंजः॥ तिहां प्रथम पञ्चरकाणनां नवहार एक गाथायें करी कहे बे. दर पञ्चकाण चनविदि, आदार मुवीसगार अजुत्ता ॥ दस विगई,तिस विगई, गय उदलंगा व सुदि फलं ॥१॥ अर्थः-प्रथम ( दसपच्चरकाण के० ) पञ्चरकाणना दश नेद , तेनुं छार कदेशे. बीजं पच्चरकाण करवाने विष पाठ विशेषरूप (चनविहि के) चार प्रकारनो विधि के तेनुं हार कहेशे. त्रीजुं चार प्रकारना (आहार के) आहारना स्वरूपy छार कहेशे, चोथु पच्चरकाणमां (अकुरुत्ता के०) अहिरुक्त एटले बीजी वारनां अण उच्चस्या अर्थात् एकवार कह्यां तेनां ते फरी जुदां जुदां पच्चरकाणमां आवे, ते न लेवां एवा (वीसगार के०) बावीश आगारनुं हार कहेशे, पांचमुं ( दस विगई के०) दश विकृति एटले दश विगयनी संख्या- हार कहेशे, बहुं (तिस विगगय के०) त्रीशविकृतिगत एटले उ मूल विगयना त्रीश निवीयाता थाय तेनी संख्या छार कहेशे, सातमुं एक मूल गुण पञ्चकाण तथा बीजुं उत्तरगुण पच्चरकाण एम (उहनंगा के ) बे प्रकारना नांगा पच्चकाणना थाय, तेनुं छार कहेशे. आठमुं पच्चरकाणनी ( सुधि के० ) शुछिनुं स्वरूप निश्चेथी, कहे तेनुं द्वार कहेशे. नवमुं पञ्चरकाण कस्याथी इहलोक तथा परलोक मली बे ठेकाणे ( फलं के० ) फल थाय तेनुं हार कहेशे ॥ १॥ ए मूल नवझारनां नाम कह्यां. एनां उत्तरछार आहीं विवस्यां नथी, पण ग्रंथांतरें नेतुं कह्यां बे, अने अहीं पण शरवालो थापतां ने थाय बे, ते आगल विस्तारें कहेशे. हां प्रथम पञ्चकाण शब्दनो अर्थ करे . तिहां एक प्रति, बीजूं श्रा, अने त्रीजु श्राख्यान, ए त्रण पद मलीने प्रत्याख्यान शब्द थयो . तेमां अविरतिपणानां स्वरूपप्रत्ये प्रति एटले प्रतिकूलपणे करी आ एटले श्रागार मर्यादाकरणस्वरूपें करी आख्यान एटले कहे कथन कर, ते जे जेने विषे, तेने प्रत्याख्यान कहीयें. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चरकाण नाष्य अर्थसहित. ४६७ अथवा प्रति एटले आत्मस्वरूप प्रत्ये था एटले अनिव्यापीने करण एटले करवं एटले अनाशंसारूप गुण आत्माने उपजे एम करे तेनुं जे आख्यान एटले कथनरूप ते ने जेने विषे तेने प्रत्याख्यान कहीयें. अथवा (प्रति के०) परलोकें (आ के) क्रिया योगार्थे शुनाशुन फल कथनरूप जेने विषे तेने प्रत्याख्यान कहीये. एम घणां व्याख्यान ले. ते प्रत्याख्यान एक मूलगुणरूप अने बीजुं उत्तरगुणरूप एवा बे नेदें . तेमां मूलगुण- पञ्चरकाण यतिने पंचमहाव्रतादि रूप दे अने उ त्तरगुण प्रत्याख्यान तो यतिने पिंमविशुध्यादिक डे तथा श्रावकने मूल गुण तो पांच अणुव्रता दिक, डे अने उत्तर गुण तेशिदाव्रतादिकनुं . तथा सामान्य प्रकारेंजे अविरतिपणानुं प्रतिपद ते सर्व पञ्चरकाण कहीये. हवे प्रतिदिन उपयोगीपणा माटे उत्तरगुण प्रत्याख्यान दश प्रकारें होय, ते आ ग्रंथना प्रथम हारना नेद रूपें कहे . अणागय मश्कंतं, कोडीसदियं नियंटि अणगारं॥ सागार निरवसेसं, परिमाणकडं सके अहा ॥२॥ अर्थः-प्रथम जे कारण विशेष आगलथी करे पण ते दिवसें न करी शके ते (अणागयं के०) अनागत पच्चरकाण ते पर्दूषणादिक पर्व आव्या नी पहेलांज एवं विचारे जे गुरु, ग्लान, शिष्य तपस्वी प्रमुखनुं वैया वच्च महारे कर पम्शे, तेवारें व्याकुलताने लीधे महाराथी अष्टम्यादिक तपश्चर्या थश्शकशे नही, तो मने लाननी हानि थशे माटें ते पर्व आव्या नी पहेलांज गुरुपासें पञ्चरकाण लश्ने तप करे ते अनागत नावी पञ्चरकाण. बीजं (अश्वंतं के० ) अत्तिक्रांत पच्चरकाण ते पूर्वोक्त रीतें पर्युषणादि क पर्व अतिक्रम्या पली तेहि ज कार्यादिकने हेतुयें जे पालथी अष्टम्यादि क तप गुरुपासें पञ्चरकाण लइने करे तेने अतिक्रांत अतीत पच्चरकाण कहीये. त्रीजु (कोमीसहियं के०) कोटिसहित पञ्चरकाण ते प्रजातें उपवास प्रमुख व्रत करीने वली बीजा दिवसना प्रजात समये पण तेहिज उपवा सादिकनुं पच्चरकाण करे, एम बहादिकनी पण कोटि एटले संधि मेलवे एटले हादि एक पञ्चरकाण पूर्ण थयानी वखतें बीजं पञ्चरकाण पञ्चके. एवा कोटिक्रमें जे तप करवं, ते कोटिसहित तप अथवा नीवी, एकाशनादि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ प्रतिक्रमण सूत्र. कने विषे पञ्चरका पाया पहेलां थांबिलादिक करवुं ते, एटले एकनो अंत ने बीजा पञ्चरकाणनी यादि ते कोटिसहित पच्चरकाण जाणवुं - चो ( नियंटि के० ) नियंत्रित तप ते पुष्ट नीरोगी तथा ग्लानपणे होय तो पण एवं चिंतवे जे अमुक दिवसें महारे अमुक बह श्रहमादिक तप कर. पी गमे ते कारण उपजे तो पण ते निर्धारेला दिवसें ते तप अवश्य करे, पण मूके नही. एम नियतकालें ते पच्चरकाण चौदपूर्वी हम व्युचिन्न युं बे. थिविर पण ते वेलायें ते तप करता हता, परंतु हमणां ते पच्चरकाण नथी. ए नियंत्रित पञ्चरकाण जाणवुं. पांच ( अणगारं के० ) अनागार तप ते “ अन्नणानोगेणं " तथा "सहसागरे" ए वे आगार तो सर्वत्र होयज बे, परंतु महत्तरागारादिक यागार जे पच्चरकाने विषे न होय, ते यागार रहित पञ्चरका कहीयें. ए पण पहेला संघयानी साथै व्युच्छेद ययुं. बहु ( सागार के० ) गार सहित ते महत्तरागारादि आगारसहित पञ्चरकाण करवुं, ते यागार सहित पञ्चरकाण जाणवुं. सात ( निरवसेसं के० ) निरवशेष तप ते समस्त प्रशनादिक चार आहार वस्तु ने अनाहार वस्तु प्रमुख सर्वनुं पञ्चरकाण करीयें. चउ विहार प्रमुख करीयें अनशन करियें ते निरवशेष पच्चरकाण जाणवुं मुं ( परिमाणकडं के० ) परिमाणकृत तप पञ्चरकाण ते दातीनी संख्या करे तथा कवलनी संख्या करे तथा घरनी संख्या करे, एटले दातीनुं परिमाण तेमज कोलीयानुं परिमाण तथा घरनुं परिमाण जे निक्षादिकें करवुं, अथवा मग प्रमद प्रमुख द्रव्यादिकें जे निक्षानो परित्याग ते सर्व परिमाणकृत पच्चरकाण जाणवुं. नवमं (सके के० ) सांकेतिक पच्चरकाण ते इहां (केत के० ) गृह तेणें करी जे सहित वर्त्ते तेने गृहस्थ कहीयें, ते संबंधी प्रायः ए पच्चरकाण गृहस्थने हो थवा ( संकेत के० ) चिन्ह जे अंगुष्ठादिक तेणें करी होय ते संकेत कदेवाय एटले कोइएक श्रावक पोरिसी यादिक पच्चरका करीने बाहेर कोइ कामें अथवा देत्रादिकें गयो होय तिहां पोरिसीनो काल पूर्ण थयो अथवा घरमांज बेठो बे ने पोरिसीनो काल पूर्ण थयो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चरकाण नाष्य अर्थसदित. ४६ए बे, परंतु जोजन सामग्री तैयार थश् नथी ते वखत विचार करे जे एटलो काल वचमां महारो अपञ्चकाणपणे रहेशे, ते श्रावकने योग्य नथी. एम चिंतवी एक अंगुठ सहियं पच्चरकामि एटले जिहां सुधी मुठीमां अंयुगे राखं त्यांसुधी महारे पच्चरकाणनी सीमा जे. एमज बीजुं मुझसहियं पच्चरका मि एटले मुठी बांधी. राखं तिहां सुधी. त्रिजुंगंठसहियं पञ्चकामि एटले गां उबांधी राखं तिहां सुधी. चोथु घरसहियं पञ्चरकामि, पांचमुं प्रस्वेदसहियं ते ज्यां सुधी अंगना परसेवाना बिंषु निकले, त्यां सुधी. हुं उस्सासस हियं पञ्चकामि. सातमु थिबुकसहियं पञ्चरकामि एटले स्तिबुक ते ज्यां सुधी पाणीना बिंदूया नाजनादिकें तथा करादिक सूके तिहां पर्यंत जाणवू. श्राप मुं जोरकसहियं पञ्चकामि एटले ज्योतिष्क जे दीवा प्रमुखनी ज्योति रहे तिहां सुधी संकेत करे. ए आठ प्रकारे नवमुं सांकेतिक पच्चरकाण कहेवाय ने जेमाटें कयु डे के ॥ अंगुठ मुही गंठी, घर सेउ उस्सास थिबुक जो इको ॥ पञ्चरकाण विचाले, किच्च मण निग्गहे सुचियं ॥ १॥ तथा कोश पोरिसी श्रादि पञ्चरकाण न करे अने केवल अनिग्रहज करे तो गांठ प्रमुख न बोडे त्यां लगें पच्चरकाण तेने थाय,तेथी ए पञ्चरकाण जेम बीजा पच्च स्काणोनी वचमां थाय , तेम अनिग्रहने विषे पण थाय . तथा साधुने पण कोश्क स्थानकें ज्यां सुधी मंगल्या दिकें गुर्वा दिक न आव्या होय त्यां लगें अथवा सागारिकादिकनुं कांश कारण होय, तेवा, पण ए अनिग्रह शंकेत पच्चरकाण थाय. दशमुं (अजा के०) अझा ते काल मुहूर्त पौरुष्यादिक प्रमाणने पण उपचारथी जाणी लेवो. ते काल पच्चरकाण जाणवू ॥२॥ हवे ए दश पच्चरकाण कह्यां, तेमां बेहळु अझा पच्चरकाण कडं, तेना दश नेद बे, ते एक गाथायें करी कहे . नवकार सहिअ पोरिसि, पुरिम गासणेगगणे अ॥ आयंबिल अन्नत्तहे, चरिमे अ अनिग्गदे विगई॥३॥दारं॥२॥ अर्थः-प्रथम (नवकारसहिश्र के०) नवकारसहित एटले नवकार क हीने पारीये ते बे घमी प्रमाण नोकारसी पञ्चरकाण कहीयें, बीजं प होर दिवससुधी पञ्चरकाण ते ( पोरि के० ) पोरिसि कहीयें, एमां साह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० प्रतिक्रमण सूत्र. पोरिसी सा: एटले दोढ पहोरनु पञ्चकाण पण जाणवू. त्रीजु (पुरिमल के) पुरिमाळ, ते बे पहोर प्रमाण- पञ्चरकाण. चोथु (एगासण के०) ए काशननुं पच्चरकाण (अ के) अनेपांचमुं (एगगणे के०) एकलगj. ए त्रणे नुं बे पहोर प्रमाण पञ्चकाण जाणवू. हुं जिहां एक हाथ विना बीजें अंग हाले नही ते(आयंबिल के)आयंबिल पच्चरकाण.सातमुं(अन्नत्त के०) अजक्तार्थे एटले उपवास, पच्चरकाण. आठमुं (चरिमे अके०) दिवसचरिम थथवा नवचरिमादिरूप जाणवू. नवमुं (अनिग्गहे के०) अनिग्रह पच्चरकाण ते अमुक वस्तु तेवारेंज खाउंजेवारें अमुक करुं? इत्यादिक अनि ग्रह करे ते. तथा दशमुं (विगई के०) विगई निविगश्नुं पञ्चरकाण जाणवू. ए दशे पञ्चरकाणोने कालनी मुख्यता ले माटेंअझा पच्चरकाण कहीयें॥३॥ यहां शिष्य पूजे जे के पोरिसी प्रमुखने काल पच्चरकाण कयुं ते खरं पण नोकारसीनुं कालमान न कर्वा माटें नोकारसी जे , ते अनिग्रह पञ्चकाण कहेवाय पण कालपच्चरकाण थश् शके नहीं ? त्यां गुरु उत्तर कहे ले.नवकारसहियं एमां सहित शब्द आव्यो माटे सहि त शब्दें कालप्रमाण जाणवू, अने अल्प आगार जे माटें अल्पकाल जाणवो. तेवारें शिष्य पूजे ले के पोरिसी तो एक प्रहरकाल प्रमाण २ माटें ए नवकारसीने विषे मुहर्तघ्यादिक काल केम न लीधो? केम के मुहर्त छ यादिक काल पण पोरिसीथी अल्प माटेंबे घमीनुंज मान शा वास्ते ली ? गुरु उत्तर कहे , के हे शिष्य ! तें कडं ते सत्य बे, परंतु सर्वथी स्तोक काल अज्ञापच्चरकाणनो एक मुहूर्त्तज बे, मुहूर्तझा अझा इति वचनात् तेमाडे एनुं एक मुहूर्त कालमान जाणवू. हवे ए नवकारसी पच्चरकाण, सूर्योदय पहेलांज करवु अने नमस्कारें करी पारवं, अन्यथा नंग लागे, नोकारसी कस्या पठी आगल पोरिसी यादिक थाय, परंतु ते विना न थाय अने यद्यपि नोकारसी विना पोरि सीयादिक करे तो काल संकेत रूप जाणवो. तथा वली वृक संप्रदायें एम कहे जे जे नोकारसी पच्चरकाणजे , ते रात्रं चनविहारादिक पच्चरका एणना तारण रूप ले एटले शिदा रूप ले. इत्यादिक घणो विचार ते प्रवचनसारोकारग्रंथनी वृत्तिथी जाणवो. अहींयां विशेषे करी लख्यो नथी. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चरकाण नाष्य अर्थसदित. ४७१ हवे पुरुष प्रमाण या जेहने विषे थाय ते पोरिसी जाणवी “आसा ढमासे उपया” इत्यादिक पाठ श्रीउत्तराध्ययनादि सूत्रथी जाणवो. ए रीतें नोकारसी, पोरिसी, दिनहुँ पूर्वार्ध ते पुरिम, एकासण, एक लगएं, आयंबिल, उपवास, दिवसच रिम, अनिग्रह अने विग एवं दश पच्चरकाणना नाम, ए प्रथमहार थयु. उत्तर नेद दश थया ॥३॥ हवे बीजे छारें पच्चरकाण करवानो पाठरूप विधि चार प्रकारे कहे बे. जग्गए सुरे अ नमो, पोरिसि पच्चरक जग्गए सुरे॥ सुरे जग्गए पुरिमं, अन्नत्त पञ्चरकाइति ॥४॥ अर्थः-प्रथम नवकारसीनुं पच्चरकाण उच्चरीये तेवारें (उग्गए सूरे के०) उग्गए सूरे (अ के० ) वली ( नमो के०) नमुक्कार सहियं पच्चरकाश चनविहंपि आहारं असणं पाणं खाश्मं साश्मं अन्नकणाजोगेणं सहस्सा गारेणं वोसिरई ए उच्चार करवानो प्रथम विधि जाणवो. बीजो (पोरिसि के०) पोरिसीनुं (पच्चरक के०) पञ्चरकाण उच्चरीयें, तेवारें ( जग्गए सूरे के ) जग्गए सूरे पोरिसियं पञ्चरकाश, जग्गए सूरे चउविहं पि आहारं असणं पाणं खाश्मं साश्मं अन्नबणाजोगेणं सहस्सा गारेणं ए उच्चार करवानो बीजो विधि जाणवो. त्रीजो पूरिमानुं पञ्चकाण उच्चरियेंतेवारें (सूरेउग्गएपुरिमं के)सूरे उग्गए पुरिमहं पच्चरकाश् चउविहं पियाहारं ए उच्चार करवानोत्रीजोविधि. चोथो अनक्तार्थ एटले उपवासर्नु पञ्चरकाण उच्चरीये तेवारें (अन तकं पञ्चरकार के०) अजतकं पञ्चका तिविहंपि आहारं चनविहंपि थाहारं (इति के० ) एम उच्चार करीयें, ए चोथो विधि जाणवो अहींयां पुरिमाई ते दिवस, पूर्वार्थ समजवु एटले नोकारसी आदि पच्चरकाण जो पूर्वे सूर्योदयथी न कझुं होय तो पण पुरिम थाय, एम उपवासादिक पण थाय. तथा सूर्योदयथी मामीने यावत् आगला दिव सनो सूर्योदय थाय, त्यां सुधी अनक्तार्थ एटले उपवास,पच्चरकाण कहेवाय बे, एम जणाववाने तथा रात्रिनो चलविहार कस्यो होय अने बीजे दिवसें एक उपवासनुं पच्चरकाण करे, तेहने चोथनत्तनु पञ्चरकाण थाय. तथा रात्रि चनविहारपचरकाण न कह्यु होय अने बीजे दिने उपवास करे, SHTHHTHHHH Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७३ प्रतिक्रमण सूत्र. तेने अनत्तनुं पञ्चरकाण कहीयें, पण चोथनत्तनुं पञ्चकाण न कहीयें. अने उनयकोटि एकासणादिकें तो चोथनत्तनुं पच्चरकाण होयज. इत्या दिक जणाववा माटे चारे विधि देखाड्या ॥४॥ हवे बीजा पण चार विधि बे, ते देखाडे . नण गुरु सीसो पुण,पच्चरकामित्ति एव वोसिरई॥ नवउँगिब पमाणं, न पमाणं वंजणबलणा ॥५॥ अर्थः-प्रथम (गुरु के०) गुरु जे पञ्चरकाणनो करावनार होय,ते पञ्चरकाश एम (जण के०) नणे, एटले कहे; ए प्रथम विधि जाणवो. (पुण के) वली (सीसो के०) शिष्य जे पच्चरकाणनो करनार होय ते (पच्चरकामि के०) पच्चकामि (इति के ) एम कहे ए बीजो विधि जाणवो. अने (एव के०) एम संपूर्ण पच्चरकाणे गुरु ( वोसिरई के०) वोसिरई कहे. ए त्रीजो विधि जाणवो अने शिष्य जे पच्चरकाणनो करनार होय ते वोसिरामि कहे, ए चोथो विधि जाणवो. चार विधि कह्या. (श्व के०) इहां पच्चरकाणने विषे करतां तथा करावतां थकां पोताना मननो जे (उवढंग के०) उपयोग एटले मननी धारणा के तेज (पमाणं के) प्रमाण डे एटले मनमांहे जे पच्चरकाण धातूं होय तेज प्रमाण बे. परंतु (वंजण के० ) अदर तेनी (बलणा के0 ) बलना डे एटले स्ख लना बे. अर्थात् अनाजोगने लीधे धारेला त्रिविहार पञ्चरकाणथी बीजो कोश् चनविहार पञ्चरकाणनोज पाठ उच्चरीयें, ते वंजण बलना जाणवी ते (न पमाणं के०) प्रमाण नथी ॥५॥ हवे तेहीज उच्चारनो विशेष विधि कहे . पढमे गणे तेरस, बीए तिन्नि तिगाइ तश्शेमि॥ पाणस्स चउबंमि, देसवगासाइ पंचमए ॥६॥ अर्थः-हवे एनां पांच स्थानक ने तेमां (पढमेगणे के०) प्रथम स्था नकने विषे कालपञ्चरकाणरूप नोकारसी प्रमुख ( तेरस के०) तेर पच्च काण जाणवां, तेनां नाम आगली गाथायें कहेशे, तथा (बीए के) बीजा स्थानकने विषे विगश्, नीवी अने आयंबिल ए (तिनिउ के०) त्रण पञ्चकाण जाणवां. तथा (तश्यंमि के०) त्रीजा स्थानकने विषे (तिगाश Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७३ पच्चकाण नाष्य अर्थसहित. के ) त्रिकादिक एटले एकासण, बीयासण ने एकलगणादिक ए त्रण पच्चरकाण जाणवां, तथा ( चउबंमि के०) चोथा स्थानकने विषे (पा णस्स के०) पाणस्स लेवेण वा अलेवेण वा इत्यादि अचित्त पाणीनां उ आगार जाणवां, तथा (पंचमए के) पांचमा स्थानकने विषे ( देस वगासा के ) देशावकाशिकादि पञ्चरकाण करवा जाणवां ॥६॥ ए पांचस्थानक मांहेला प्रथमादि स्थानकना पृथक् पृथक् नेद कहे . नमु पोरिसीसहा, पुरिमवह अंगुठ माई अड तेर॥ नवि विग अंबिल तिय, तिय उगासण एगगणाई॥७॥ अर्थः-प्रथम स्थानकें तेर नेदनां नाम कहे . एक (नमु के०) नमु कारसी, बीजु (पोरिसी के०) पोरिसि, त्रीजो ( सहा के०) साईपोरिसि ते दोढ पहोर पर्यंत, चोथो (पुरिम के ) पुरिम ते बे पहोर, पांचमो (अवह के०) अव ते त्रण पहोरनुं पच्चरकाण. ए पांचनी साथे पूर्वोक्त (अंगुठमार के०) अंगुष्ठ सहितादिक (अम के०) आठ नेद मेलवीयें तेवारें (तेर के०) तेर नेद थाय. तथा बीजा स्थानकें एक (निवि के०) निवी, बीजो (विग के०) विग अने त्रीजो ( अंबिल के) आयंबिल ए (तिय के०) त्रण पञ्चरकाण जाणवां, तथा त्रीजा स्थानकने विषे एक (3 के०) बेथासणुं, बीजुं (गासण के०) एकासणुं अने त्रीजुं (एगग णाई के) एकलगणादिक ए (तिय के०) त्रण पच्चरकाण जाणवां ॥ ७ ॥ हवे वली प्रकारांतरें उपवासादिक विधियें उपवासने दिवसें पांच स्थानक केवी रीतें करवां ? ते कहे . पढमंमि चन्नाई, तेरस बीयंमि तश्य पाणस्स॥ देसवगासं तुरिए, चरिमे जहसंनवं नेयं ॥७॥ अर्थः-( पढमंमि के० ) पहेले स्थानकें (चनबाई के० ) चोथा दिक एटले एक उपवासथी मामीने चोथ बह इत्यादि यावत् चोत्रीश लक्त पर्यंत पच्चरकाण करवां, तथा (बीयंमि केआ) बीजा स्थानकने विषे नोका रसी, पोरिसी, साईपोरिसी, पुरिमळ, अवह अने गंठसहियं, मुहसहियं, अंगुठसहियं, घरसहियं, प्रस्वेदसहियं, श्वासोडाससहियं, जलबिंदु सहि यं, दीपसहियं, ए ( तेरस के०) तेर पञ्चरकाण मांहेढुं हर को पच्च Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ प्रतिक्रमण सूत्र. काण करवू, तथा ( तश्य के० ) त्रीजा स्थानकने विषे (पाणस्स के०) पाणीना उ आगारर्नु पञ्चरकाण करवू तथा ( तुरिए के० ) चोथा स्थानकने विषे ( देसावगासं के०) देसावगासिकनु पञ्चकाण करवू तथा पांच मा स्थानकने विषे (चरिमे के ) बेहेमार्नु पच्चरकाण जे दिवस चरिमं एटले रात्रिनुं छविहार, त्रिविहार, चनविहार पाणहार प्रमुखनुं पञ्चरका ण ते ( जहसंचवं के० ) यथासंचवें जे पोताने करवानी श्छा होय ते यथाशक्तियें करवु तथा नवचरिमादि जे , ते पण यथासंचवें करवू.एम (नेयं के०) जाणवू. ए पांच माहेढुं जे को करवू ते पच्चरकाण कहीयें॥॥ वली ए पञ्चरकाण करवाना पाठनोज विशेष कहे . तद मद्य पञ्चकाणे, सु न पितु सूरुग्गयाइ वोसिरई॥ करण विदिन न नन्नर, जदावसीयाई बिअबंदे॥ए॥ अर्थः-( तह के०) तथा ए पद विशेष देखामवा वाची डे (मद्यप चकाणेसु के०) मध्यनां वे स्थानक जे विगइ, नीवी अने आयंबिलनुं तथा एकासण, बियासण अने एकलगणानुं ए बेनां उ पच्चरकाणोने विषे पृथग् पृथग् पञ्चरकाणे (सूरुग्गयाश् के०)सूरे जग्गए विगळ पच्चरकाश् श्त्या दिक पाठ ( नपिहु के० ) वारंवार न कहेवो, एटले प्रथम जे पच्चरकाण मांडे, तिहां सूरे जग्गए कहेवो, परंतु पञ्चकाण पच्चरकाण प्रत्ये न कहे वो, तेमज ( वोसिरई के०) वोसिर तथा वोसिरामि ए पाठ पण अंत ने विषे एक वार कहीये, पण वारं वार न कहीयें ए (करण विही के०) करवानो विधि एटले पूर्वाचार्य परंपरायें एमज कहेता आव्या ने कर वानो एहज विधि . माटें महोटा पुरुष पण ( ननम के०) नथी जणता. (जहा के०) जेम (आवसीया के०) आवस्सियाए ए पाठ ( बियबंदे के०) बीजा वांदणाने विष कहेता नथी, ए पण पूर्वाचार्यनी परंपरा जे तेम इहां पण जाणी लेवू ॥ ५ ॥ तह तिविद पच्चरकाणे, नन्नंति अ पाणग व आगारा॥ उविदादारे अचित्त, नोश्णो तहय फासु जले ॥१०॥ अर्थः-( तह के) तेमज वली (तिविहपञ्चरकाणे के०) त्रिविहारना For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चरकाण नाष्य अर्थसहित. जय पच्चकाणने विषे तथा एकासणादिक पञ्चरकाणे प्रासुक निर्जीव जलपान संबंधि (पाणग के०) पानक एटले पाणीना ( आगारा के०) आगार (नमंतिथ के०) नणे ने कहे जे. तेनां नाम कहे जे. पाणस्स लेवेण वा,अले वेण वा, अछेण वा, बहुलेवेण वा, ससिबेण वा. असिबेण वा. ए उ आगा रनां नाम जाणवां. तथा (अविहाहारे के) द्विविधाहार पच्चरकाणने विषे (अचित्तनोश्णो के) अचित्तलोजी होय सचित्तनोज्य परिहारें तेने तथा ( तय )के ) तेमज जे एकासणा बियासणाविना (फासुजले के०) फासु पाणी लेतो होय एवा सचित्त परिहारीने पण पच्चरकाणने विषे पाणीना आगार कहेवा. ए प्रथम विकल्प.. तथा अचित्तनोजी होय अने फासु निर्जीव पाणी पीतो न होय तेने पाणस्सना आगार न कहेवा. ए बीजो विकल्प. तथा जे सचित्तनोजी होय पण पासु पाणी पीये तो तेने पाणस्सना आगर ब कहेवा. ए त्रीजो विकल्प तथा सचित्तनोजी डे अने फासु पाणी पीतो नथी तो तेने पाण स्सना श्रागार न कहेवा. तथा सचित्तनोजी २ अने केवल खादिम, अशन अने स्वादिम रूप त्रण आहारना पञ्चरकाणने उद्देशें रात्रिप्रमुखें तिविहार करे ,तिहां पण पाणस्सना आगार न कहेवा. ए चोथो विकल्प ए चार विकल्प आगारना कह्या, अहीं तथा शब्दथी विशेष जाणवु॥१॥ श्तुच्चिय खवणंबिल,निवियाइसु फासुयं चि य जलं तु ॥ सहावि पियंति तदा, पच्चरकंति य तिदादारं ११॥ अर्थः-(श्तुच्चिय के०)एटलाज माटें अचित्तनोजी होय तेने (खवण के ) पण एटले उपवासने विषे (अंबिल के०) आयंबिलने विषे, तथा ( निवियाइसु के ) निवि आदिक एटले निवि एकासणादिक तिविहार पच्चरकाण तथा आदिशब्दथी सचित्त परिहारने विषे (चिय के) निश्चयथकी (फासुयं के०) फासुक अचित्त (जलं के०) जल ते (तु के०) जेम यति फासुक निर्जीव पाणी पीये ( तहा के) तेनी परें ( सहावि के०) श्रावक पण फासुक पाणी ( पियंति के० ) पीये तेने पण ए हिज आगार कहीयें, परंतु ते ( य के ) वली (तिहाहारं के) तिविहार पञ्च काण ( पच्चखंति के० ) पञ्चके तेवारेंज होय पण विहारें न होय. सचित्तजोजीने पण उपवास, आयंबिल, निविर्नु पच्चरकाण तिविहारें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ प्रतिक्रमण सूत्र. होय ते ऊष्ण पाणी पीये अने एकासणादि पच्चरकाणनो नियम नथी. एमां तो ऽविहार, त्रिविहार, चनविहार यथासंजवें होय ॥ ११॥ चनहाहारं तु नमो, रतिपि मुणीण सेस तिह चनहा। निसि पोरिसि पुरिमे गा,सणाइ सहाण उतिचउदा ॥२शाश् ___ अर्थः-( नमो के ) नोकारसीनु पञ्चरकाण तथा ( रतिपि के० ) रा त्रिनु पञ्चरकाण (मुणीण के ) मुनिने, यतिने (तु के०) वली निय मा ( चउहाहारं के०) चनविहारज होय अने (सेसके०) शेष पोरिसी आदिक पञ्चरकाण ते मुनिने (तिहचउहा के०) त्रिविहारा तथा चळवीहारा यथासंचवे होय. हवे श्रावक आश्रयी कहे . ( निसीके० ) रात्रिनु पञ्च काण, (पोरिसिके) पोरिसीनुं पच्चरकाण, (पुरिम के) पुरिमनुं पच्चरकाण अने (एगासणा के०) एकासणादिक पच्चरकाण जे जे, ते (सहाण के० ) श्रावकने अर्थे (उति चउहा के०) विहार तिविहार अने चनविहार, ए त्रण प्रकारे यथायोग्य होय, तिहां नवकारसी अने पोरसी तो श्रावकने चउविहार पञ्चरकाणेज होय, अने शेष पूरिमहादि पञ्च काण तथा रात्रि दिवस चरिमादि पञ्चकाण ते सुविहार तिविहार अने चनविहारे यथायोग्य होय, परंतु ग्रंथांतरें एटलोविशेष जे जे एकासणादि त्रिविहार पञ्चरकाणीने रात्रे पाणहार होय अने उविहार पञ्चरकाणे एका सणादिकने विषे रात्रं चविहार होय तथा केटलेएक स्थानकें श्रावकने पण पोरिसी तिविहारें बोली जे. अने उविहार पञ्चरकाणे रात्रं तिविहार होय परंतु ते कारणिक जाणवू, व्यवहारे समजवू नही. इत्यादि बीजी विशेष वात ग्रंथांतरथी जाणवी, एटले चार विधिनु बीजुं द्वार पूर्ण थयु उत्तर बोल चौद थया ॥ १२ ॥२॥ हवे चार प्रकारना थाहारनुं त्रीजुं छार कहे . खुदपसम खमेगागी, आदारिव एइ देश वा सायं ॥ खुदिन वि खिव कुठे,जं पंकुवम तमादारो ॥१३॥ अर्थः-प्रथम सामान्य प्रकारे आहार- लक्षण कहे जे. जे ( खुहपस म के०) जुधाने उपशमाववाने अर्थे (खम के ) समर्थ होय एवोजे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चरकाण नाष्य अर्थसहित. ४० (एगागी के० ) एकाकी अव्य होय तथा वली (श्राहारिव के०) श्राहा रने विषे पण (ए के) एति एटले आवे एवा लवण हिंग्वादिक जे आह रमांहे (सायं के०) स्वाद प्रत्ये (देश के) आपे ते, (वा के०)वली (जं के०) जे (पंकुवम के०) पंकोपम एटले कादवनी परें असार होय कादवनी उपमा धारण करे एवं कादव सरखं अव्य होय परंतु (खुहिर्जवि के०) लुधितोपि एटले कुधित थको पण (कुठे के०)कोगमा उदरमा(खिवश्के)दिपति एटले देपवे ने तो (तं के ) ते सर्व (आहारो के०) आहार जाणवो ॥१३॥ हवे ए आहारना मूल चार नेद , ते कहे जे. असणे मुग्गोयण स, त्तु मम पय खऊ रब्ब कंदाई॥ पाणे कंजिय जव कयर, ककोडोदग सुराजलं ॥२४॥ अर्थः-तिहां एक (असणे के) अशन ते, आशु एटले शीघ्र जे दुधाने उपशमावी नाखे तेने अशन कहीयें, तेने विषे (मुग्ग के)मगादि सर्व कगेल जाति जाणवी. तथा (उयण के० ) उंदन ते चावल जात प्रमुख सर्व उंदन जाति जाणवी. तथा (सत्तु के) साथु ( मंग के०) मांमा, रोटली, पक्वान्न, रोटला पूमा प्रमुख. (पय के०) दूध, दही, घृत, तेल. माखण विगयादि प्रमुख ( खज के ) खाजलां पक्वान्न खीर सुकुमारिका लापसी दहीथरां प्रमुख पक्वान्न. ( रब्ब के०) राबमी घेस प्रमुख (कंदाई के०) कंदादिक ते सूरणकंदादिक जाणवां. तथा तेमज, तुलसी नागरवक्ष्यादि पत्र विना सर्व जातिनां फल फूल पत्र सर्वकंद सर्व वनस्पतिविकार शाकादि कूवरी चूरिम पर्पिटिकादि सर्व वस्तुनी जाति अशनमांहे आवे, तथा लवण, हिंग, सूया, अजमो, वरीयाली, धाणादिकें तल्या एक वेसण पण अशनमांवे, इत्यादि सर्व अशन जाति समजवी हवे बीजो ( पाणे के) पानने विष तिहां जेने पीजीये ते पाणी कहीये तेमां अपकाय ते नदी, तलाव, अह, समुड इत्यादि पाणीना आश्रय संबंधि सर्व स्थलोनुं पाणी जाणवू. तथा ( कंजिय के०) कांजीपाणी बासनी आब, तथा ( जव के०) यवनुं धोयण, ( कयर के) केरनुं धोयण, आमलादिकनुं धोयण, मादनुं धोयण, तथा ( कक्कमोदग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ प्रतिक्रमण सूत्र. के) काकमी प्रमुख सर्व फलनां धोयण- उदक एटले पाणी, तथा ( सुराजलं के०) सुरादि जल ते मदिरादिकनां पाणी जाणवां, ए अन दयमां नले बे. एमां आदिशब्दथी सादा दिकना आसव, नालिकेरादि कनां पाणी, कुरस, सौवीर, तक ते बाश इत्यादि सर्व पदार्थ पाणीने विषे कल्पे , तथापि कुरस, तक ते बास अने मदिरादि तथा नालिके रादिकनां जलने सांप्रत जितव्यवहारें अशनमां गणीयें 3यें ॥ १४ ॥ खाश्मे नत्तोस फलाइ, साश्मे सुंठि जीर अजमाई॥ महु गुड तंबोलाई, अणाहारे मोय निंबाई ॥१॥दारं॥ ३ ॥ अर्थः-हवे त्रीजो खादिम आहार कहे . (ख के०) आकाश एटले मुखनुं विवर कहिये. तेने पूरवाने लगारेक नूख मात्र नांजे, पण अन्ना दिकनी परें तृप्ति न करे, परंतु कांइएक अशनसमान थाय ते खादिम वस्तु कहीये. ते ( खाश्मे के०) खादिमने विष तिहां प्रथम (जत्तोस के०) नक्तोष एटले शेकेलां धान्य चणा प्रमुख तथा अखोग सुखाशिका सर्व जाणवा, तथा आंबा केलां प्रमुख सर्व (फला के०) फलादिक जा णवां, तथा फलजातिनी सुखमी मेवा सर्व कयरी पाकादिकनी जातियो, गुंदपाकादिक, प्राद, चारोली प्रमुख मेवा जाति, सर्व पक्वान्न खांम शाकरादि तेना विकार जे खांम कातली प्रमुख ते सर्व खादिमने विषे लीधा कल्पे. परंतु जीतव्यवहारें प्रसिझ पणे अशन मध्ये लेपकृत्य उ त्तम व्यमां गण्या जे. परंपरायें इत्यादिक सर्व खादिम “नत्तासं दंता, खजुर नालिकेर आई दरकाशं ॥ ककमि अंबग फणसाइ, बहुविहं खाश्मे नेयं ॥ १ ॥ इत्यादिक विचार सर्व प्रवचनसारोझार ग्रंथथी जाणवो ॥ ए त्रीजो खादिम आहार कह्यो । हवे चोथो (साश्मे के०) खादिमने विषे शुं कल्पे? ते कहे बे. तिहां प्रथम ते जे आस्वादें करी लश्य अथवा आहारादिक जे कीधां होय ते सर्व तेना स्वादमां विनाश पामे, लयलीन थाय ते स्वादिम कहीयें तेमां (सुंठि के ) सूंठ, (जीर के०) जीरं, (अजमाई के) अजमादिक, आदि शब्दथकी पीपर, मरिच, हरडे, बेहेमां, आमलां, मरी पीपली मूल, पीपर, अजमोद, आजो, काजो काथो, कुलिंजर, कसेलो, कयसेलि यो मोथ, जेठीमध, पुष्करमूल, एलची, बाबची, चिणिकबाब, कर्पूर, तज, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चरकाण नाष्य अर्थसहित. ए तमालपत्र, नागकेसर, केशर, जायफल, लविंग, हिंगुलाष्टक, हिंगुत्रेवीसो, संचल, सैंधव, यवखार, खयरसार, कोठवली, गोली सर्व जातिनी अशना दिमां न जले तेवी जाणवी, सर्व जातिनां दातण, तुलसी पत्र, श्रीपत्र,खार, सोया, मेथी, गोमूत्रादिकना कीघा अन्नमेलादिकनी गोलीयो, चित्रो, पिं मार्थ, कोइएक तो पिंडार्थने खजुर कहे . परंतु ग्रंथांतरें एने सूरणा दि कंदनां खारचूदां करे , तेने कहे . कपूर, कचूरो, त्रिगडं, पंच प टोल, विमलवण, इत्यादिक अनेक जातिना स्वादिम आहार जाणवा. तथा ( महु के० ) मधु एटले मध अने ( गुम के०) गोल, खांड, साकर तथा (तंबोलाई के)तंबोलादिक ते विविध जातिनो तंबोल नाग रवेलीनां पान तथा सोपारी प्रमुख ए पण स्वादिम जाणवा. __ हवे अणाहार वस्तु कहे जे. अने पूर्वे कहेला चारे श्राहारमाहेला कोइ पण आहारमा न आवे, परंतु चनविहार उपवासें तथा रात्रिने चउ विहारे वावरी कल्पे, ते अणाहार वस्तु जाणवी. तेनां नाम कहे . (अणाहारे के० ) अनाहारने विषे कल्पे ते वस्तु कहे . ( मोय के०) लघु नीति जाणवी, थने (निंबाई के०) निंबादिक ते निंबनी शली पानमा प्रमुख पांचे अंग ए सर्व अनाहार वस्तु जाणवी, आदि शब्दथकी त्रिफला, कडू, करियातुं, गलो,नाहि, धमासो, केरमामूल, बोरगति मूल, बावलबालि, कंधेर मूल, चित्रो, खयरसार, सूखम, मलयागरु, अगरु चीम, अंबर, कस्तूरी, राख, चूनो रोहिणी वज, हलिश, पातली, आस गंधी, कुंदरु, चोपचीनी, रिंगणी, अफिणादिक सर्वजातिनां विष, साजी खार, चूनो, जाको, उपलोट, गूगल, अतिविष, पूंयाम, एलीज, चूणीफल सूरोखार, टंकणखार गोमूत्र श्रादें देश्ने सर्व जातिनां अनिष्ट मूत्र, चोल, मंजीठ, कणयरमूल, कुंभार, थोहर, अर्कादिक पंचकूल, खारो, फ टकमी, चिन्नेम इत्यादिक वस्तु सर्व अनिष्ट स्वादवान् ने, अने श्वा विना जे चीज मुखमां प्रक्षेप करीये ते सर्व अणाहार जाणवी. ए उपवासमां पण लेवी सूजे, अने आयंबिल मध्ये पाणहार पञ्चरकाण कस्या पठी सूजे ए आहार- त्रीजुं छार थयुं, उत्तर नेद अढार श्रया ॥ १५ ॥ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० प्रतिक्रमण सूत्र. हवे नवकारसी प्रमुखना यागारनी संख्यानुं चोथुं द्वार कहे बे. दो नवकार व पोरिसि, सग पुरिमट्ठे इगासणे सत्तेगठाण अंबिल, ग्रह पण चचि बप्पाणे १६ ॥ ॥ अर्थ :- जे मूलगुण उत्तरगुण रूप पच्चरकाण राखवाने अवामी रूप होय ते त्र्यागार जाणवा. तिहां अपवाद पढ़ें द्रव्य, क्षेत्र, काल अने जावादिकें विचारतां मूलगुण पच्चरकाणने विषे अन्नादिक चार आगार जाणवा. ने उत्तरगुण पञ्चरकाणने विषे यथोक्त रीतें यागल कदेशे ते प्रमाणें सर्वत्र यागार जाणवा. ते सर्व मली एकवार उच्चस्यां rai बावी गार थाय. यद्यपि अन्नस सिएणादिक शोल आगार काउस्सग्गना बे तथा समकितना रायानि गेणादिक व आगार बे, तेमज एक चोलपट्टागारेणं बे, एवं सर्व मली (४५) आगार थाय बे, परंतु हीं यां तो दश पच्चरकाने विषे बावीश यागारनुंज काम बे, माटें ते कड़े बे. ( नवकार के० ) नोकारसीना पञ्चरकाणने विषे ( दो के०) बे आगार जावा. (पोरिसि के०) पोरिसीना पच्चरकानें विषे ( ब के०) व आगार तेम सार्द्ध पोरिसिना पच्चरकाणे पण ब आगार, ( पुरिमने के० ) पुरिमाई ना पकाने विषे ( सत्त के० ) सात श्रागार, ( इगासणे के० ) एकास ना पञ्चकाने विषे ( यह के० ) व आगार, ( एगठाण के० ) ए कलठाणाना पच्चरकाणने विषे ( सग के०) सात आगार, (बिल के ० ) आयंबिलना पच्चरकाने विषे या आगार जाणवा. ( बि के० ) चो थजक्त एटले उपवासना पञ्चरकाने विषे (पण के० ) पांच आगार, ( प्पा णे के० ) पाणस्सना पच्चरकाणने विषे ( ० ) बागार जाणवा ॥ १६ ॥ च चरिमे च निग्गहि, पण पावरणे नव निधीए ॥ गारुरिकत्तविवेग, मुत्तु दव विग नियमि ॥ १ ॥ अर्थ : - ( चरिमे के० ) दिवसचरिमना पच्चरकाने विषे ( च के० ) चार आगार जाणवा, (अनिग्ग हि के० ) अनिग्रहना पञ्चरकाने विषे ( च के० ) चार आगार जाणवा. ( पावर के० ) प्रावरण एटले वस्त्र मूकवाना पच्चरकाने विषे ( पण के० ) पांच श्रागार जाणवा, ( नवह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चरकाण नाष्य अर्थसहित. ४१ निवीए के) निवीना पञ्चरकाणने विषे नव आगार पण होय अने आठ आगार पण होय, तिहां जे पिंम अनेऽव्य रूप बेहु विगश्नु पञ्चरकाण करे तेहने नव आगार जाणवा, अने जे एकली(दव विगश्के) अव्य विगश्मात्रनो (नियमि के) नियम करे तेने (उरिकत्तविवेग के०) उकित्तविगेवेणं ए (आगार के ) आगार तेने (मुत्तु के) मूकीने बाकीना (अह के०) था श्रागार होय ॥ १७ ॥ तेना यंत्रनी स्थापना पागल करी बे. हवे प्रत्येक श्रागार संबंधी आगारोनां नाम कही देवाडे बे. अन्न सह छ नमुक्कारे, अन्न सह पब दिसय साहु सब॥ पोरिसि व सहपोरिसि, पुरिम सत्त समदत्तरा ॥ १७ ॥ अर्थः-( नमुकारे के०) नवकारसिना पच्चरकाणने विषे एक (अन्न के०) अन्नबणाजोगेणं, बीजो (सह के०) सहस्सागारेणं ए (उ के०) बे आगार जाणवा. तथा एक (अन्न के०) अन्नबणानोगेणं, बीजो (सह के०) सहसागारेणं, त्रीजो ( पल के०) पबन्नकालेणं, चोथो ( दिसय के०) दिसामोदेणं, पांचमो (साहु के०) साहुवयणेणं, बहो ( सत्व के०) सबसमाहिवत्तियागारेणं ए ( के०) आगार ते (पोरि सि के०) पोरिसीना पच्चरकाणने विषे जाणवा. तेमज ( सपोरिसी के ) सार्ड पोरिसीना पच्चरकाणने विषे पण ए हिज उ आगार जाणवा. तथा वली एज पोरिसीना आगारने एक (महत्तरा के०) महत्तरागारेणं ए आ गारें करी (स के०) सहित करीयेंतेवारें (सत्त के०) सात आगार थाय ते (पुरिम के०) पुरिम तथा अवठ्ठना पञ्चरकाणने विषे जाणवा ॥१७॥ हवे एकासणा तथा एकलगणाना आगार कहे बे. अन्न सहस्सागारिय, आजंटण गुरुअ पारि मद सब ॥ एगबिआसणि अहन, सगगगणे अउट विणा॥२॥ अर्थः-एक (अन्न के० ) अन्नबणाजोगेणं, बीजो (सहस्सा के०) सहस्सागारेणं, त्रीजो (सागारिय के०) सागारियागारेणं, चोथो (श्रा टण के०) बाउणपसारेणं, पांचमो (गुरुथ के०) गुरुअठाणेणं, हो (पारि के०) पारिहावणियागारेणं, सातमो ( मह के० ) महत्तरा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. गारेणं, आग्मो, (सव के०) सब समाहिवत्तियागारेणं, ए (अहन के०) आग्यागारते(एग बियासणि के०) एकासण अने बियासणना पञ्चरकाणने विषे जाणवा. तथा एज आठमांथी एक (अउटविणा के०) बाउंट्टणपसा रेणं ए श्रागार विना शेष एकासणाने विषे जे कह्याचे तेज (सग के०) सात श्रागार ते(गगणे के०) एकलगणाना पच्चरकाणने विषे होय॥१॥ जिहां जमणा हाथें जमे, मात्र कोलीया लेवानेज हाथ फेरवे, परंतु अंगोपांगने तो खरज खणवादिकने कामे पण हलावे नही ते एटलगणुं जाणवू ॥१५॥ हवे विग, नीवि तथा आयंबिलना आगार कहे . अन्न सह लेवा गिद, कित्त पडुच्च पारि मद सवे॥ विग निविगए नव, पडुच्च विणु अंबिले अहार॥ अर्थः-एक (अन्न के० ) अन्नबणानोगेणं, बीजो ( सह के ) सह स्सागारेणं, त्रीजो (लेवा के०) लेवालेवेणं, चोथो ( गिह के ) गिहन संसहेणं, पांचमो ( जस्कित्त के०) उरिकतविवेगेणं, बहो ( पमुच्च के०) पमुच्चमकिएणं, सातमो (पारि के) पारिहावणियागारेणं, आग्मो (मह के० ) महत्तरागारेणं नवमो ( सवे के ) सवसमाहिवत्तियागारेणं, ए (नव के०) नव आगार ते (विग के०) विग तथा ( निविगए के) निविग मली बे पञ्चकाणने विषे जाणवा, तथा ए नवमांथी एक (पमुच्चविणु के०) पमुच्चमरिकएणं ए आगार विना शेष (अठ के०) आठ आगार जे विग अने नीविना कह्या तेज (अंबिले के०) आयंबिलना पञ्च काणने विषे जाणवा. जिहां आम्ल एटले खाटो चोथो रस तेहथी निव तवं ते आयंबिल कहीयें, तेना त्रण प्रकार के, एक उदन, बीजो कुस्माष, त्रीजो साथुआदिक ए त्रण नेदें . अथवा (आचाम्ल के०) उसामणनी पेरें जिहां अन्नादिक नीरस थ निकले तेने आयंबिल कहीयें ॥२०॥ हवे उपवासना आगार कहे जे. अन्न सह पारि मद सत्व, पंच खवण ब पाणि लेवाई॥ चन चरिमंगुहार, निग्गदि अन्न सद मद सवे ॥२॥ अर्थः-एक (अन्न के०) अन्नबणानोगेणं, बीजो (सह के०) सहस्सागा रेणं, त्रीजो (पारि के०) पारिछावणियागारेणं, चोथो (मह के०) महत्तरा For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चरकाण नाष्य अर्थसहित. ४७३ गारेणं, पाचमो (सब के०) सबसमाहिवत्तियागारेणं, ए (पंच के० ) पांच आगार (खवणे के० ) उपवासना पच्चरकाणने विषे जाणवा. तथा एमां अचित्त पाणी पीये माटे (पाणि के०)पाणस्सना पच्चरकाणने विषे लेवेणवा अलेवेणवा, अणवा बहुलेवेणवा, ससिलेणवा, असिणवा, ए (लेवाई के) लेपादिक (ब के) आगार जाणवा, तथा एक (अन्न के०) अन्न बणानोगेणं, बीजो (सह के०) सहस्सागारेणं, त्रीजो (मह के०) महत्तरा गारेणं, चोथो (सवे के०) सवे समाहिवत्तियागारेणं ए (चन के०) चार आगा र ते (चरिम के०)दिवस चरिमना पञ्चकाणने विषे तथा (अंगुहाइ जिग्गहि के०) अंगुष्मुछिसहियादिक अनिग्रहना पञ्चकाणने विषे जाणवा ॥२१॥ ___ पञ्चरकाणना श्रागारोनी संख्याना यंत्रनी स्थापना. अंक.पच्चरकाणनाम. संख्या. आगारोनां नाम. १ | नोकारसी. र अन्न० ॥ सह० ॥ २ पोरिसी. ६ अन्न॥ सह ॥ पबन्न०॥ दिसामो॥ साहुण्सव ३] साम्पोरिसी.६ " " " " ४ पुरिम. अन्न सह पत्र दिसा साहु सब महत्त०॥ | अवन. " " " " " " " " " " | एकासगुं. अन्न सह सागा आजंग गुरुण्पारि महासव | बियासणं. " " " " " " " " " " | एकलगणुं अन्न सहा सागारि गुरु० पारि मह सब ए| नीवी. एअन्न सहस्सा लेवा गिहब उरिकत्ता पड्डच्चन विग. पारि० महत्तण्सव आयंबिल. अन्न सहा लेवागिह उरिक पारि महण्सव० | उपवास. ५ अन्न सह पारि मह सवण्चोलपट्टागारयतिने. | पाणहार. ६ लेवेग अले अबे बहु ससिले असिले १४ अनिग्रहसंकेत। अन्न सह महसवण २५ दिवसचरिमं.४ " " " " १६ | नवचरिमं. " " " " १७ देसावगासिक.४ " " " , १० | समकेतना. ६ राया० घणा बला० देवा गुरुनिय वित्तिक orm www DIBARMA Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ प्रतिक्रमण सूत्र. इहां उकित्तविवेगेणं ए जे श्रागार डे, ते आगार पिंमविगइ श्राश्रयी बे, ते पिंम विगय जणाववा माटें विगयना नेद कही देखाडे जे. परंतु विग यना नेदो कहेवा, छार तो पागल आवशे हाल अंहीयां तो मात्र पिंग विगय उलखाववाने निमित्तेंज कहे . सुक्ष्मद मद्य तिलं, चनरो दवविग चार पिंमदवा॥ घय गुल ददियं पिसियं मकण पक्कन्न दो पिंमा ॥२२॥ अर्थः-एंक (के०) उग्ध, बीजो (मधु के०) मधु त्रीजो (मद्य के०) मद्य एटले मदिरा अने चोथो (तिलं के०) तैल ए (चउरो के०) चार (दव विग के०) अव्य विगय ने ए चार ते ढीबुं विगय होय रस रूप होय. माटें एने रसविगय कहीयें अने एक (घय के०) प्रत, बीजो (गुल के०) गोल, जोजो (दहियं के) दधि एटले दही अने चोथो (पिसियं के ) पिशितं ते मांस ए ( चउर के) चार विगय जे ते (पिंमदवा के०) पिंगजव्यरूप रसरूप जाणवा. ए चार पिंक होय ए- अव्य कोश् वेला अव्य होय, तथा कोश् वेला पिंग रूप थीणो पिंग होय. तथा एक ( मरकण के०) माखण, बीजो ( पक्कन्न के० ) पक्का न्न ए ( दो के०) बे कमा विगय जाणवां. ते खन्नावें करीने (पिंमा के०) पिंम रूप होय कठिन होय, माटें एने पिंमविगय कहीयें. ए दस विग य कह्यां. इहां उकित्तविवेगेणं ए श्रागार जे जे ते पिंमविगयनो ने तेज णाववा माटें था गाथा कही ॥ २५ ॥ __हवे केटलांएक पञ्चकाण मांहोमांहे आगार तथा पाठ उच्चार विशेषे करी सरखा ने एटले तेना आगार पण मांहो मांहे सरखा बे, अने पाठ पण सरखो बे, ते कहे . पोरिसि सम्मवई, उन्नत्त निविग पोरसाइ समा॥ अंगुठ मुहिगंठी,सचित्त दवाइंनिग्गदिअं ॥२३॥ अर्थः-(पोरसासमा के०)पोरिसि आदि देश्ने पच्चरकाण जे बे, ते सर खां जाणवां, एटले एक पोरिसि अने बीजी (पोरिसिस के०) सार्क पो रिसि ए बे सरखांजाणवां एटले पोरिसीने सार्क पोरिसीना पच्चरकाणनापा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चकाण जाप्य अर्थसदित. न्य उनो उच्चार तथा श्रागार पण सरखाने तेमज पुरिम ने (अवडं के०) अवर्नु पच्चरकाण पण सरखं जाणवू, तथा एकासणुं अने (उजत्त के०) हिनक्त एटले बीसणानुं पच्चरकाण अने आगार पण सरखा जाणवा, तथा विगने(निविगश्के) नीविनुं पच्चरकाण अने आगार पण सरखा जाणवा. तथा (अंगुछ केश) अंगुठसहियं, (मुहि के०) मुहिसहियं, ( गंठी के) गंठिसहियं, (सचित्तदवाई के०) सचित्त व्यादिक, पच्चरकाण एटले स चित्त अव्यादिक एटले सचित्त अव्यादिकना पच्चरकाण जे देसावगासिक तेमज दिवसचरिमा दिनां पञ्चरकाण ए सर्व (अभिग्गहियं के०) अनिग्रह प चरकाण कहेवाय, तेना पण मांहोमांहे पाठ तथा आगार सरखा जणवा. परंतु कालप्रमाणादिकें तथा स्थानकें तो फेर फार होयज ॥ २३ ॥ हवे ए सर्व श्रागारोना अर्थ कहे . विस्सरण मणानोगो, सहस्सागारो सय मुदपवेसो॥ पबन्नकाल मेदाई, दीसि विवझासु दिसिमोहो ॥२४॥ अर्थः-जे (विस्सरणं के०) विस्मरण थइ जाय ते (अणाजोगो के) अनानोगयी थाय एटले पञ्चकाणनो उपयोग अनाजोग थकी वीसरी जाय तेवारें अजाणपणे कांश मुखमां प्रक्षेप करे तो तेथी पच्चरकाण नंग न थाय. ए प्रथम अणाजोगेणं श्रागार कह्यु एनी साथै अन्नब शब्द जोमीये ते वारें अन्नबणाजोगेणं एवं नाम थाय माटें तेनुं कारण समजवाने नीचें अर्थ लखीयें .यें, अन्नबणाजोगेणं एटले अन्यत्र अने अनाजोगात् तिहां अन्यत्र एटले जे आगार कह्यां होय ते आगार वर्जीने बीजा सर्वत्र स्थानकें पच्चरकाण पालवानी यत्ना राखवी. अन्नब ए पद सर्वे आगारें जोमवू, एम जाणवू तथा अनाजोगात् एटले वीसरवाथकी अर्थात् पच्च काणनो उपयोग वीसरते अजाणतां कांश मुखमां प्रदेप करा जाय पड़ी पञ्चरकाण सांजरी आवे तेवारें तरत मुखथकी त्याग करे तेथी पञ्चरकाण जंग थाय नही अथवा अजाणे मुखथकी हेठे उतरतूं पड़ी कालांतरें अ थवा तुरत स्मरणमां आवे तो पण पच्चरकाणनो नंग थाय नही परंतु शु अव्यवहार ने तेथी फरी निःशंक न थाय ते माटें यथायोग्य प्रायश्चित्त से. ए वात सर्व आगारोने विषे जाणवी. माटें आहीं पीठिकारूपें लखी. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ प्रतिक्रमण सूत्र. बीजो (सहसागारो के ) सहसात्कार ते ( सयमुह के० ) पोतानी मेलें श्रावी मुखमांहे (पवेसो के०) प्रवेश करे ते जाणवू. एटले पञ्चकाण की, जे तेनो उपयोग तो वीसख्यो नयी पण कार्य करवाना प्रवर्तनयोग सक्षण सहसात्कारें वनावेंज पोताना मुखमां कां प्रवेश थ जाय जेम दधि मथतां थकां बांटो उमीने मुखमां पमी जाय अथवा अन्नादिकनो कण मुखमां पमी जाय तथा चजविहार उपवास होय अने वर्षाकालमां मेघनो बांटो मुखमां पमी जाय तो पच्चरकाण नांगे नही. त्रीजो ( पचन्नकाल के० ) प्रचन्नकाल ते कालनी प्रचन्नता जाणवी. जेम ( मेहार के) मेघादि एटले मेघना वादले करीने ढंकाश् गयेला सूर्यनी खबर न पडे तथा आदिशब्दथकी दिग्दाह, ग्रहादिक, रजोवृष्टि, पर्वत प्रमुख सर्वत जाणी लेवं. तिहां पर्वत अने वादला प्रमुखें अंतरिक्ष, सूर्य देखाय नही अथवा रज उमवे करी न देखाय तेवारें पोरिसीयादि कना कालनी खबर न पमतां अपूर्ण थयेलीने संपूर्ण थयेली जाणीने ज मवा बेसी जाय तो पच्चरकाण जंग न थाय परंतु जाणवामां आवे तो पड़ी अर्को जम्यो थको होय तो पण एमज बेशी रहे,अने पोरिसी श्रादि पूर्ण थाय पठी जमे तो जंग न थाय, परंतु हजी पूर्ण थ नथी एबुं जाण वामां आवे तो पण परखे नही अने जमे तो पच्चरकाण जंग थ जाय ॥ चोथो (दिसिमोहो केआ) दिसामोहेणं ते (दिसिविवजासु के)दिशिना विपर्यासपणाथकी जेवारें दिङ्मूढ थर जाय तेवारें पूर्वने पश्चिम करी जाणे अने पश्चिमने पूर्व करी जाणे एम खबर न पमवाथी अपूर्ण पञ्च काणे पूर्णकाल थयो जाणीने जमे तो पच्चरकाण जंग नही अने दिङ् मोह मटी गयां पठी जेवारें जाणवामां आवे तेवारें पूर्वनी पेठे अर्को जम्यो थको होय तो पण पच्चरकाण पूर्ण थाय तिहां सुधी एमज बेशी रहे अने काल पूरो थया पड़ी जमे ॥२४॥ साहुवयण जग्घाडा, पोरिसि तणु सुबया समादित्ति॥ संघा का महत्तर, गिदब बंदाइ सागारी॥३५॥ अर्थः-पांचमुं ( उग्घामापोरि सि के०) ऊग्धाम पोरिसी एवो (साह वयण के०) साधुनुं वचन एटले बहुपडिपुला पोरिसि एवं सांजलीने जो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चरकाण नाष्य अर्थसहित. មច១ अपूर्ण पञ्चकाणे जमे तो पण पोरिसी जंग न थाय, पड़ी कोश्कना क हेवा उपरथी जाणवामां आवे के हजी लगण पोरिसीनो काल पूर्ण थयो नथी तेवारें पूर्वोक्त रीतें अर्बजुक्त रहे अने पोरिसीनो काल पूर्ण थया पली जमे ए साहुवयणेणं नामें श्रागार जाणवो. हो ( तणु के०) शरीर तेनुं (सुबया के०) स्वस्थता जे निराबाध पणुं तेने ( तणु के ) समाधि (ति के) एम कहीयें एटला माटे ए सबसमाहिवत्तियागारेणं कहेवाय शहां तीव्रशूलादिक रोग उपने थके, आर्त रौषनी सर्वथा निराशें जे शरीरनी स्वस्थता ते सर्व समाधि कहीयें तत्पात्ययिक जे कारण ते सर्वसमाधिवर्तिताकार कहीये. ते समाधिने नि मित्तं जे औषध पथ्यादिकनी प्रवृत्तिने विषे अपूर्ण प्रत्याख्याने जमतां पण पच्चरकाण नंग थाय नहीं. सातमुं (संघाश्कज के०) संघादिक- कोश् कार्य उपने थके वडेरानी आज्ञा पाले तेने (महत्तर के०) महत्तरागार कहीये, ते आवी रीतें के जे पच्चरकाण की, जे तेनी अनुपालनाथकी पण जो निर्धारानी अपेक्षायें विचारी तो महोटुं निर्जरा लान देतु कार्य , अने अन्य पुरुषांतरें ते कार्य असाध्य बे,बीजा को पुरुषथी थाय तेम नथी एवं को संघर्नु तथा आदि शब्दथकी चैत्य ग्लानादिकना कार्य प्रयोजन ले तेहिज आकार ते महत्तराकार कहीयें. तिहां अपूर्ण कालें जमतां पञ्चकाण जंग न थाय. आठमुं (गिहब के०) गृहस्थनी नजर पडे तथा (बंदा के०) सर्प बंदि वानादिकनी नजर पडे तेने (सागारी के०) सागारियागारेणं कहिये तिहां थागार एटले घर तेणे करी सहित जे जे तेने सागारिकहीये तेनी नजरें देखतां साधुने थाहार करवो कल्पे नही. केम के एथकी प्रवचनोपघातादिक बहु दोषनो संजव थाय माटें साधुने जमतां थकां जो सागारी श्रावी पडे अने ते जो चल होय एटले तरत जवावालो होय तो क्षणेक बेसी रहे अने तेने स्थिर रहेतो जाणे तो स्वाध्यायादिकना नंग पातकना जयथकी अन्यत्र जश्ने तेहिज श्रासने जमे तो पञ्चरकाण जंग न थाय. ए जेम गृह स्थने सागारिक कहीयें तेमज जेहनी दृष्टं देखतां अन्न खाश्ये ते पचे नहीं तेने पण सागारिक कहीयें तथा उपलदणें आदि शब्दथकी सर्प, अग्नि, प्रदीप, नरेती, पाणीनी रेख श्रावे तथा गृहपातादिक एटले घर पमतुं होय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ មចុច प्रतिक्रमण सूत्र. ए आगार पण लेवा. इत्यादिक उपवोना कारणे अन्यस्थानकें जज मतां पण पच्चरकाण जंग न थाय ॥ २५ ॥ आउंटण मंगाणं, गुरु पाहुण साहु गुरुअनुहाणं ॥ परिगवण विहि गहिए, जश्ण पावरण कडिपट्टो॥१६॥ अर्थः-नवमो (अंगाणं के० ) पग प्रमुख अंग तेनुं (आउँटण के०) आकुंचन एटले संकोचq तथा पसारवं ते अणखमते करवू पडे एटला माटें एने आउट्टणपसारेणं आगार कहीये तेथी जमतां थकां कांक पोतानां आसनादिक चलायमान थाय तो पच्चरकाण नंग न थाय. दशमो (गुरु के०) पोताना दीदागुरु श्रावे अथवा को महोटो पा हुणसाहु के०) प्राहुणो साधु आवे थके जमतां उठवू पडे तो (गुरुश्र जुहाणं के०) गुरुअनुहाणेणं आगार थाय एटले ते आवेला आचार्यादिक गुरुनां विनयादिक करवा माटे अच्युबानादिक साचववा सारु उग्वु पडे, फरी तेमज बेसीने जमे तो पच्चरकाण नंग न थाय ॥ __ अगीयारमो (पारिगवण के०) जे अन्न परवातुं होय ते (विहिगहिए के०) विधियें ग्रहण करेलु होय ते उपवासादिक पच्चरकाणमां पण लेवू पडे तेने पारिशावणियागारेणं कहीयें एटले जे विधियें करी निर्दोष पणे ग्रहण कहुं अने विधियें वहेंची आप्यु होय पठी अन्य साधुयें विधियें नुक्त कस्या थकी कांक आहार उगस्यो ते पारिष्ठापन योग्ग थयुं परंतु तेथ धिक आहारने परठवतां दोष उपजे बे एवं जाणीने तेहबुं अन्न तथा विगया दिकने गुरुनी आझायें आहारतां पञ्चरकाण नंग न थाय. तिहां एटलुं विशेष जे चउविहार उपवासमांहे पाणीनुं पारिकावणियागारेणं थाय तथा तिविहार उपवासना पच्चरकाणमां अन्नादिक, पारिछावणिया गारेणं थाय, परंतुविगयादिकनुं पारिछावणियागारेणं न थाय, अने बीजा सर्व पच्चरकाणोने विषे थाय. ए आगार यतिने होय परंतु पाठ संलग्न डे माटे गृहस्थने पण पाठमां कहेवाय जे. __वारमो (जश्ण के०) यतिने अर्थे आगार जाणवो ते यतिने अर्थे ( पावरण के०) प्रावरणना पच्चरकाणे ( कमिपट्टो के०) चोलपट्ट तेहनो श्रागार जाणवो, एटले वस्त्र मूकी नग्न थ बेगे होय अने गृहस्थ आवे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चकाण नाष्य अर्थसदित. नए एटले लजाने माटें उठीने चोलपट्ट पहेरे, तेने चोलपट्टागारेणं कहीयें एथी पच्चरकाणनंग न थाय. ए आगर पण यतिने होय ॥२६॥ खरडिय लुहिअमोवा, इलेव संसह मुच्च मंमाई॥रिक त्त पिंम विगई, णं मस्कियं अंगुलीहिं मणा ॥२॥ अर्थः-तेरमो, प्रथम ( खरमिय के०) खरड्यो ते लेप अने पड़ी तेने लूहिअ के) बुंबी नाख्यो होय एटले खरड्यो ते लेप अने खूब्युं ते अलेप एवो ( मोवाइ के० ) मोयो चाटुवो प्रमुख होय ते (लेव के०) सेवालेवेण आगार जाणवो, एटले जोजननुं नाजन अथवा चाटुवा प्रमुख होय ते अकल्पनीय एवा विगय अने शाक प्रमुख अन्नादिकें खरड्या होय, पड़ी ते कमली प्रमुखने खूबीने अलेप कीधां होय तो पण कांश्क विगयादिक अवयवना सनावें सहित ने तेवा नाजने करी आयंबिलादिक पञ्चरकाण वालाने जमतां पच्चरकाण नंग थाय नही. चौदमो गिहबसंसहेणं एटले नक्तदायक गृहस्थसंबंधि विगयादिकें वघारादिकें (संसह के०) संसृष्ट एटले मिश्र की, एबुं (मुच्च के०) शाका दिक केरंबादिक तथा ( मंमाई के०) मांडादिक ते लगारेक हाथे गोल प्रमुखें चोपड्या कीधा होय तेने गृहस्थसंसृष्ट कहीये ते निविना पञ्चरकाणे लेवा कल्पे तथा आयंबिलमां पण किंचिन्मात्र तैलादिकें स्निग्ध हाथे लगा डेला एवा मंडकादिक होय ते पण यतिने लेतां पञ्चकाण जंग न थाय. ___ पन्नरमो (पिंम विगईणं के०) पिंमरूप विगयर्नु (ऊरिकत्त के ) नदिप्त एटले पाडं लेबु एटला माटे एने उरिकत्तविवेगेणं नामें श्रागार कहीयें. एटले ए नाव जे मांमां प्रमुख अन्न तथा पूपिकादिक ऊपर गोल प्रमुख तथा माखणादिक मूक्यां होय, ते फरी पाना तेना उपरथी उपामी पण लीधा होय एटले ए गोल माखणादिक जे पिंम विगय ते एवां ले के जे पदार्थ उपर राखेला होय तेने फरी जेवारे तेना उपरथी पानं उ करी लश्ये तेवारे ते निःशेषपणे एटले बधां पाबां सेवा शकाय नही कां श्क पण रोटला प्रमुखने लागेलां थकांज रही जाय माटे जेना उपरथी पिंमविग अलगी करी लीधी होय एवारोटलाप्रमुखने विगश्ना पञ्चरकाण वालो, जो गृहस्थना घरथी वहोरीने मुंजे, तो पच्चरकाणनंग न थाय. ६२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. शोलमो ( मस्कियं के ) मसख्यु (अंगुलीहिं के०) अंगुलीयें करीने (मणा के ) लगारेक एटले ए नाव जे अंगुलियें घृतादिक चोपडी ते अंगुलीयें चोपडीने मांमा प्रमुख करे तेने पमुच्चम स्किएणं कहीये. ते सर्व था रूद एवा मंमकादिक होय तेने लगारेक स्नेहवंत सुकुमारता उपजा ववाने अर्थे लहुचूर प्रमुख स्तंगुलीयें करी म्रदित की, होय ते नीवि प चरकाणमां लेतां पच्चरकाण नंग न थाय, परंतु घृतादिकनी धारायें करी म्र दित करे, तो ले कल्पे नही. ए शोल आगार अशन आश्री कह्या॥७॥ हवे पाणस्सना उ आगारनो अर्थ कहे डे लेवाडं आयमाई, इअर सोवीरमन मुसिणजलं ॥धोअण बहुल ससिबं, उस्सेश्म इअर सिबविणा ॥श्ना दारं॥४॥ अर्थः-प्रथम (खेवाम केप) लेपकृत पाणी ते कोने कहीयें ? के (श्रा यमाई के०) आचाम्लादि सामण आदिशब्द थकी आंबली तथा प्रादन पाणी पण जाणवू एटला माटे ए आगारनुं नाम लेवेणवा कहीये. बीजो (श्अर के) इतर एटले पूर्वोक्त लेपथकी उलटु अलेपकृत पाणी लेवू ते माटे ए आगारनुं नाम अलेवेण वा जाणवू. ते (सोवीरं के०) सौवीर कांजी धोयण आदिशब्दश्री गडूल जरवाणी प्रमुख जाणवू त्रीजो (अखं के ) अन्च ते निर्मल पाणी (सिजलं के०) ऊष्ण पाणी एटले त्रिदंदोत्कालित ऊष्ण जल अथवा बीजुं पण निर्मल पाणी नितमु फलादिकनुं धोयण जाणवू एटला माटें अणवा नाम कहीयें. चोथो (धोत्रण के०) चोखा प्रसुखना धोयण प्रमुख, पाणी तेने (ब हुल के ) बहुलेप कहीयें एटला माटें एनुं बहुलेवेणवा एवं नाम ए तंकुलधावनादिक गंमुल पाणी जाणवू. पांचमो (ससिद्धं के०) सीथ सहित पाणी ते ( उस्सेश्म के०) श्रा टाथी खरड्या हाथर्नु धोयण एटले उत्से दिम एवं पिष्टजलनुं नाम डे एटला माटे ससिणवा एवं ए आगारनुं नाम . हो ए पूर्वोक्त पांचमा ससिलेण वा ए आगारथी (श्वर के०) इतर ते थाटावाला हाथनुं धोयण तेने वस्त्रादिकें करी गद्युं होय तेथी ते (सिबवि णा के०) सीथ विनानुं जाणवू, एटले अन्नादिक आटाना दाणाना स्वाद Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चरकाण नाष्य अर्थसहित. ४१ विनानुं थाय, एटला माटे तेनुं नाम असिछेण वा कहेवाय. ए ड श्रागार पाणीना कह्या. तेनी साथें पूर्वे कहेला शोल आगार मेलवीयें, तेवारें सर्व मली बावीश आगारोनी संख्या थाय ॥ २ ॥ आंहीयां प्रत्येक आगारें वा शब्द मूकेलो ते एक एकथी बीजा बी जामां विशेष देखामवाने माटे , एटले लेपथी अलेप विशेष, अलेपथी अब विशेष, अन्थी बहुलेप विशेष, बहुलेपथी ससि विशेष, ससिबथी असिक विशेष जाणवो, परंतु लेपादिकनुं पाणी लीये तो पण उपवासादि कनो नंग थाय नही. इति नावः ॥ ए प्रकारें अपुनरुक्त एटले फरी न उच्चरीयें एवा बावीश आगारोना अर्थनुं व्याख्यान लेशथी देखाड्यु. ए आगारोना अर्थ- चोथु. द्वार पूर्ण थयु उत्तर बोल चालीश थया ॥ हवे दश विगश्ना वरूप, पांचमुं द्वार कहे . पण चन चन चनउविह, नरकमुहाइविगगवीसं ॥ ति उति चनविद अन्नका, चन महुमाई विगश्बार ॥॥ अर्थः-जे इंडिया दिकने पुष्ट करे, मन, वचन अने कायाना योगने अप्र शस्त विकार उपजावे, ते विग कहीयें, ते विग दश नेदें . तेमांथी चार विग तो साधु अने श्रावक बेहने अनदयज ने एटलेलदाण करवा योग्य नथी, अने जदय विग साधु अने श्रावक बेहुने जदय करवा योग्य डे माटे एने नय विग कहीये, तेना उत्तर नेद बार थाय ते कहे . प्रथम मुध विग ( पण के० ) पांच न्नेदें बे, बीजी दधि विग (चल के०) चार नेदें , त्रीजी घृतविगइ (चज के०) चार नेदें , चोथी तेल विग (चन के० ) चार नेदें . पांचमी गोल विग (5 के ) बे नेदें बे. बही पक्वान्न विग (विह के०) विविध एटले बे नेदें , ए (कुझाइ के०) मुग्धादिक (ब के०) (नरक के०) जदण करवा योग्य ( विग के०) विग ने तेना सर्व मली उत्तरनेद (गवीसं के) एकवीस थाय बे. हवे चार अनदय विगश्ना उत्तर नेद कहे जे.प्रथम मधु विगइ (ति के०) त्रण नेदें , बीजी मदिरा विग (5 के०) बे नेदें , त्रीजी मांस विगश् (ति के ) त्रण नेदें , चोथी माखणविग ( चउविह के० ) चार नेदें बे. ए (महुमाई के) मधु श्रादिक (चड के ) चार (अजरका के०) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ए प्रतिक्रमण सूत्र. अनदय (विग के०) विग बे, तेना सर्व मली उत्तर नेद (बार के०) बार थाय ते सर्व नामपूर्वक पागल कहेशे ॥ २५ ॥ हवे प्रथम उ जदय विगश्ना एकवीश नेद व्यक्त करी कहे . खीर घय दहि अ तिल्लं, गुड पकनं जनक विगईन ॥ गो मदिसि टि अय ए,लगाण पण अह चउरो॥३०॥ अर्थः-प्रथम उ जदय विगयनां नाम कहे जे. एक (खीर के०) दूध. बीजो (घय के०) घृत, त्रीजो ( दहि के०) दधि, (अ के०) वली चो थो ( तिनं के० ) तैल, पांचमो ( गुम के ) गोल, बहो (पक्कान्नं के०) प क्वान्न, ए ( के०) ( नरकविग के०) जदय विगय जाणवा. एटले ए उ विगई जे जे ते साधु तथा श्रावकने लक्षण करवा योग्य वे माटें एने जय विगय कह्या, हवे ए ड जदय विगयना उत्तर दनां नाम कहे . तिहां प्रथम दूधविगयनुं नाम कमु डे माटें दूधना उत्तर नेद कही दे खाडे जे. एक ( गो के०) गायतुं दूध, बीजुं ( महिसी के०) नेषनुं दूध, त्रीजुं ( उंटि के ) उंटमीनुं दूध, चोथु (अय के०) अजा एटले बालीनु दूध, पांच, (एलगाण के०) एमका ते गामरीन दूध ए ( पण के ) पांच जातिनां (उस के ) दूध ते सर्व विगई जाणवां, अने शेष मनुष्यणी तथा बीजा पशुआदिकनां जे खीर थाय बे ते विगश्मां गणाय नही. (अह के०) अथ एटले हवे (चजरो के०) चार जातिनुं घृत तथा चार जातिनुं दहीं कहे ॥ ३० ॥ घय दहिया नहि विणा, तिल सरिसव अयसिल तिल्ल चक ॥ दवगुड पिंमगुडा दो, पकन्नं तिल्ल घय तलियं ॥३१ ॥ दारं ॥५॥ अर्थः-प्रथम (घय के० ) घृत जाणवू, बीजी (दहिया के०) दधिजा णवू, ए बे विगश्ना एक ( उहिविणा के ) ऊंटमीना दूध विना बाकी चार चार नेद जाणवा. केम के उंटडीनुं दूध जमाय नही माटे ते विना बाकी चार, एक गायना दहीनुं घी, बीजुं नेषना दहीनुं घी, त्रीजु बालीना दहीनुं घी, अने चोथु गामरना दहीघी, ए चार नेद घृतना जाणवा तथा दहीना पण एज चार नेद. एक गायना दूधनुं दही, बीजुं नेषना For Personal and Private Use Only Jain Educationa Interational Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चरकाण नाष्य अर्थसदित. ४५३ दूधनुं दही, त्रीजु बालीना दूधनुं दही अने चोथु गामरना दूधनुं दही, ए चार दहीना नेद विगरूप जाणवा. __ हवे तेल विगयना चार नेद कहे जे. एक ( तिल के ) तिल- तेल, बीजुं (सरिसव के०) सरशवनुं तेल त्रीजुं (अयसि के० ) अलसीनुं तेल अने चोथु (लट्ट के) काबरी कसुंबा धान्य खसखसना दाणानुं तेल, ए (तिल के०) तेल विगश्ना (चऊ के०) चार नेद विगश्याता रूपें जाणवा. अने बीजा एरंमीयानां फूलां, दिमोल, मधुकफल, नालियेर, खदिर, शिंश पादिक यावत् लादापाकादिक सर्व जातिनां तेल ते नीवियातां जाणवां. हवे गोल विगश्ना वे नेद कहे . एक (दवगुरु के०)अव्यगोल ते ढीलो राबमीयो रसरूप गोल जाणवो, बीजो (पिंमगुमा के०) पिंम रूप गोल ते कागे विविध जातिनो गोल जाणवो. ए (दो के०) वे प्रकारना गोल जाणवा. __ हवे (पक्कन्नं के०) पक्वान्न विगश्ना बे नेद कहे , तेमां एक तो पूर्वे जे चार जातिनां तेल कह्यां , तेमां तद्युं होय तेने (तितलिय के) तेलमां तलेढुं पक्कान्न कहियें बीजं पुर्वे जे चार जातिना घृत कह्यांडे, तेमां तन्युं होय तेने (घयतलियं के०) घृतमां तलेढुं पक्वान्न कहीये. त लियं शब्द वे स्थानकें जोमवो. ए रीतें दूधना पांच, घृतना चार, दहीना चार तेलनां चार, गोलनाबे अने पक्वान्नना बे, मली एकवीश नेद जदय विगयना कह्या. ए विगयना नामनुं पांचमुं हार पूर्ण थयु. उत्तर बोल पञ्चास थया॥ हवे ए जदय विगयना निवीयाता त्रीश कराय ने तेना नेदोनुं बहुछार कहे. पयसाडि खिर पेया,वलेहि दुटि हविगगया॥ दरक बहु अप्प तंउल, तच्चुन्नबिल, सदिअ उ॥३२॥ अर्थः-प्रथम दूधना पांच निवियाता थाय ते कहे . एक (दरक के०) शाख अने टोपरादिक नाखीने दूध रांध्यु होय तेने (पयसामि के०) पय सामी कहीयें, बीजु (बहुतंकुल के०) घणा चोखा नाखीने दूध रांध्यु होय तेने (खीर के०) खीर कहीयें, त्रीजु (अप्पतंकुल के०) अल्पतंऽल एटले थो डा चोखा नाखीने दूध रांध्यु होय तेने (पेया के० ) पेया कहिये, चोथु (तचुन्न के० ) ते चोखाना चूर्णे करी सहित एटले ते चोखानो बाटो लोक नाषायें फूकरणुं कहे , ते नाखीने, दूध पचाव्यु होय, राध्यु होय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ए। प्रतिक्रमण सूत्र. तेने (अवलेहि के) अवले हिका कहियें, पांचमुं (अंबिलसहियाके के०) खाटो रस करीआन कांजी प्रमुख खटाओं सहित उध ऊष्ण करे, अथवा एलोक नाषायें दूधमां खटाश होय तेमाटें एने फेदरी कहे जे अथवा त्रण दिवस प्रसूत गोउग्ध बलही बलहटां ते (जुट्टी के०) उमट्टी कहीये. ए पांच (पुक के०) मुग्धना ( विगगया के०) विकृतिगता एटले निवीयाता जाणिवा. जेदांतरें एनां पण वीजा नेदो थाय ने ॥ ३५ ॥ हवे घृतविगइ तथा दहीविगश्ना पांच पांच निवियाता कहे . निनंजण विसंदण, पक्कोसहि तरिय किहि पक्कघयं ॥द हिए करंब सिहरिणि, सलवण दहि घोल घोलवडा ॥३३॥ अर्थः-एक पक्वान्न तव्यापली उतखु जे बलेबु घृत तेने ( नितंजण के) निर्ज़जण एटले निर्जंजनघृत, पक्कान्ननुं तलण घृत कहीयें, बीजूं दहीनी तरी अने धान्यनी कणक बेहु एका मेलवीने नीपजाव्युं जे व्य विशेष कुल्लर इतिजाषा सपादलद देशप्रसिद्ध ते ( वीसंदण के) विसं दन एटले विस्पंदन कहीयें, त्रीजु (पकोसहितरिय के) पकोषधितरित एटले औषधिने घृत साथे पचावीये तेनी उपर जे घृतनी तरिका वले , एवं कूरिया सरिखु घृत पचीने थाय ते घीनी उपरली तरी कहीये, चो) घृतनो मेल उतरे तेने(किट्टि के०)घृतनो मेल ते कीटुं कहीयें, पांचमुं(पकघय के०) पाकुंघृत ते औषधियें पचावेलु घृत जाणवू, खयर आमलादिक ब्राह्मी प्रमुख औषधियें करी पचाव्युं होय ते जाणवू एना नेदांतर घणा थाय. हवे दहीना पांच निवियाता कहे . प्रथम (दहिए के०) दहीने विषे उंदन एटले कूर एक मेलवीने की, ते दधि सीधोरो इत्यादि लोक नाषायें कहे , तेने ( करंब के) करंबो कहीयें, बीजुं खांम नाखीने हाथायी मथन करेलुं दही तथा खांमयुक्त बांधेलु दही तेने (सिहरिणी के०) शिखरिणी कहीयें, त्रीजुं बूमना कण नाखीने मथेलु वस्त्रे अणगढ्युं जे दही, ते (सलवणदहि के०) लवणसहित दधि कहीये, चोंथु बुगमाथी गणेलु मथेलु दही तेने (घोल के०) घोलेबु दही कहीयें, पांचमुं दहीना घोलयुक्त वटक करवां कांजीवमां, दहीवमां तथा दही बाणीने तपावे, पनी मांहे वमां नाखे, तेने (घोलवमा के०) घोलवमां क Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चरकाण नाष्य अर्थसहित. ४ए हीयें, हां विवेकीने एटलु विशेष के जिहां विदलयुक्त करवू पडे, तिहां दही तथा बास जे वमामांहे नाखवी होय तेने ऊष्ण करी नाखीये तेवारें श्रावकने नदण करवा योग्य थाय, अन्यथा घोलवमां बावीश अनदयमां गणाय ते जदण करवा योग्य नथी. अकल्पनीय जाणवां ॥३३॥ हवे तेल तथा गोल विगश्ना पांच पांच निवीयाता कहे बे. तिलकुहि निनंजण, पक्कतिल पक्कुसहितरिय तिल्ल मली। सकर गुलवाणय पाय, खंम अधकढिय इकुरसो॥३४॥ अर्थः-प्रथम (तिलकुट्टी के०) तिल तथा गोल कूटीने खांमीने एकगं करिये, ते तिलवट कहीयें, वीजुं तव्या पक्वान्नथी उतरेलु दजेलु बलेवू तेल एटले पक्वान्ननुं तलण जाणवू, अथवा केरी प्रमुखादिकना सरसीया दिक तेल ते (निनंजण के०) निनंजन एटले निर्जजन जाणवं. त्रीजुं सर्व औषधवाला तेल एटले लादादिक अव्यथी पकावेलां तेलने (पकतिल के ) औषधपक्क तेल कहिये, चोथु तेलमांहे नारायणादिक औषधी पचाव्या पठी औषध उपर तरी वले ते (पकुसहितरिय के०) पक्वौषधिथी तरिय तेल एटले पकौषधियी वलेली तरि कहीयें. पांचमुं (तिबमलीके) तेलनी मली एटले तेलनो मेल कीटी जाणवी. ए पांच नीवियाता तेलना जाणवा. एना पण नेदांतरें घणा नेदो थाय. __ हवे गोलना नीवियाता कहे . एक (सकर के) साकर मिश्री, बी जो (गुलवाणिय के ) गोलवाणी तथा रांघेदुं गुलवाणुं अखात्रीजें कराय ते देशप्रसिक, त्रीजो ( पाय के ) गोलनी पांति ते पाकगुम जेणे करी खाजादिक लेपीयें 3यें एने मालवादिक देशने विषे काकबपांति एम जाषायें कहे बे, चोथो ( खंग के० ) खांमनी सर्वजाति, पांचमो (अधक ढिय इकुरसो के ) अर्को काढेलो श्छु एटले सेलमी तेनो रस, ए पांच नीवियाता गोलना जाणवा. एना पण नेदांतर घणा थाय ने ॥३४॥ ___ हवे कमाविगश्ना पांच नीवियाता कहे . पूरित्र तव पूत्रा बिय, पूअ तन्नेह तुरिय घाणाई॥गुल दाणी जल लप्पसि, य पंचमो पूत्तिकय पूजे ॥ ३५॥ अर्थः-(पूरितवपूश्रा के) पूस्यो एटले ढाक्यो सर्व तावडो ने जेणे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ प्रतिक्रमण सूत्र. एवा पूडला उपर (बापू के०) वीजो पुकलो तली काढीयें, ते बीजो पूमलो नीवीयातो जाणवो, एटले घृतादिकें पूरित एवो जे तवो तेने विषे एक पूपें करी पूरयो समस्त तवो तेहमां एक वार तली वली तेहिज पूपिका दिक पटकादिकें पूरित स्नेह एवा तवामां बीजी वार तथा त्रीजी वार पवने तली काढी यें जे पक्कान्न ते निवीयातुं जावं. बीजं (तने के०) तेथी अन्य एटले त्रण घाण तली काढ्यापढी उपरां त बीजुं घृत देपव्युं नयी एवं जे तवा मांहेलुं मूलगुं घृत ते हिज त्रण घाण नां तलमां तल्या जे ने (तुरियघाणा के०) चोथा घाणवा च्यादिक सर्व बीजुं नीवीयातुं जाणवुं, तथा त्रीजुं (गुलहाणी के० ) गोलधाणी करवी, ते त्रीजुं निवीयातुं जाणवुं. चोथं सुकुमारिकादिक काढ्या पढी एटलें पक्कान्न तली काढ्या पछी उऊत जे घृतादिक एटले वघेलुं जे घृतादिक तेणें करी खरडेलो जे तवो तेने विषे पाणी साथे रांधी एवी जे लापसी गहूंनुं उरणगोलनुं पाणी घृतादिकें जेली सीजवे वे एने मरुदेशें प्रसिद्धपणे लापसी तथा लहगड कहे बे ते (जल लप्पसि के० ) जललापसी निवीयातुं जाणवुं. एटले तावमीनी चीगट टालवा सारु मांहे लोट नाखी पाणी सायें लापसी करीयें ते जाणवी. (पं चमो के०) पांच ( पुत्तिकयपूर्ण जे० ) पोतकृत पूमलो ते घृत तेलें खर डेला एवा स्नेह दिग्ध तवाने वीषे गुमा दिकनुं पोतुं पी गल्या पुडा करे बे एटले पक्कान्न तल्या पढी खरड्या तावमा मांहे गोलादिकनुं पोतुं देने पुमलो साजवीयें ते निवीयातुं जाणवुं ॥ ए ब ज विगयना त्रीश निवीयाता कह्या. जहां घने तेलमा पाणीनो जाग खावे ते नीवियाता तल्या चि दि सर्व जणवा ने जे कमाह मांहेथी घी तथा तेल उपर फरी वले नही, चिल मिलाट न थाय एवं तलेलुं होय ते पण विगयातुं नही कहेवाय. इत्यादिक परंपरागत लेवानो विचार बहु प्रकारें बे, ते गवसमाचारिगत प्रसंगी योगादिकमांहे कल्पकल्प विचारों लखीयें ढैयें. लहचूई, पूपिकादि, पोतकृत पूपक, वेढमीत दिनकृत, करंब, घोल, फूल, वघारित पूरण, वघारिका, पटीरमी, मथित अगलित तक्रादिक, कस्मिन्न पियोगे कोइ पण योगने विषे न कल्पे अनेरी योग विना निवीमां कल्पे. हिग, गेवरा, वघारिक वर्मा, घारवां, साज्यपक खीचमी, सेवतिका, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४एस पच्चरकाण नाष्य अर्थ सहित. वघारित चणकादिक, उत्तराध्ययन योगने विषे श्राचारांग मध्यगत सप्तस तकाध्ययनने विषे चमरोद्देशक अनुज्ञा यावत् नगवतीयोगने विषे न कल्पे, बीजा सर्व योगमध्ये कटपे. ___ अने पढोगरी, फूंकरणुं, उकलधुं, वाशी करंब, तिलवटी, कुम्बर, निवी यातां, विग, गांठीयाना घारा, दलिया, गुंदविना मगीयादि, औषधादि, मो दक, पेटक, खंमा, सितावर, सोलां, वासी, गुंमपाक, गुदपाक, वगर तव्यां कांकरियां, अनुत्कालित श्कुरस, दिनत्रयावधि प्रसूत गोमुग्ध, बलहट्टी, अं गाराथी उतारी आज्यादि मिश्रित खीचडी तथा सेवश्का पाबला दिवसनी पचावेली तिलवटी, पर्पटकादि, गुमादिके मिश्रित न करेली तिलवटी, श्त्या दिक नीवीयातां श्रीआवश्यक, दशवकालिक, उत्तराध्ययनादि सर्व योगने विषे प्रायः कल्पे. एवो विचार प्रसंगथी जाणवा माटें लख्यो रे ॥३५॥ हवे गिहबसंसहेणं ए आगारथकी नीवीनां पच्चरकाणमांहे जे नीवियातां साधुने कल्पे संसृष्ट अव्य कहीयें, ते संसृष्ट अव्य जाणवाने कहे जे. ६ दही चनरंगुल, दव गुड घय तिल एग नत्तुवरि ॥ पिंगुल मकणाणं, अद्दामलयं य संसह ॥ ३६॥ अर्थः-(डुछ के) पुग्ध अने (दही के०) दधिमांहे कूर प्रमुख नाखीयें एटले दूध दही मिश्रित कूरादिक होय, ते जो दूध तथा दही कूरथी (चउ रंगुल के०) चार अंगुल उपर चडे तेने संस्कृष्ट अव्य कहीयें, ते नीवियातुं नीवीमां कल्पे एटले जात रोटी उपर दूध, दही, चार अंगुल प्रमाण उंचु चड्युं होय तो नीवीप्रमुख मांहे साधुने कल्पे अने चार अंगुलथी अधिक पांच आदिक अंगुलना प्रारंलथी जेवारें जंचु चडे, तेवारे ते विग जाणवू. माटे ते न कटपे. अने ( दवगुड के ) अव्यगोल एटले ढीलो नरम गोल अने (घय केण्) घृत ( तिल के० ) तेल ए त्रणे ज्यां सुधी (जत्तुवरि के०) नक्त जे नात अथवा रोटी ते उपरें (एग के०) एक अंगुल प्रमाण उंचां चढ्यां होय त्यां सुधी संस्कृष्ट अव्य कहेवाय, एटले नीवियातुं कहेवाय ते लेवू कल्पे अने बीजा अंगुलथी प्रारंजीने उंचा चडता देखाय, तेवारें विकृत अव्य एटले विगयअव्य जाणवां, ते लेवां कल्पे नही. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भएन प्रतिक्रमण सूत्र. (पिंगुल के० ) पिंगगोल एटले कागे गोल साथै ( मकणाणं के) मसट्युं जे चूरमुं प्रमुख तेमांहे ( अद्दामलयं के०) आम्लिक एटले शण पीलूना महोर ते समान नहाना कणीयाना जेवा प्रमाणवाला एवा गोलना बहु खंग रहे तो पण तेने ( च के० ) वली (संसहं के०) संस्कृष्ट ऽव्य कहिये. ते नीवीयातामांहे लेवा कल्पे परंतु एथी महोटा खंड गोलना रहे तो ते विकृतिगत जाणवा, ते कल्पे नही ॥ ३६ ॥ हवे वली एहिज नीवियातानुं स्वरूप दर्शाववा कांश्क विशेष कदे बे. __ दवदयविगइ विगइ, गयं पूणो तेण त हय दवं ॥ जरिए तत्तमिय, उकित दवं श्मं चन्ने ॥३॥ अर्थः-(दव के०) अव्य जे कलम शाल चोखा प्रमुख तेणें (हय के) हणी निर्वीर्य करी एवी जे दीरादिक (विग के७) विग तथा वणिका हि वणी एवी जे घृतादिक विगश्तेने (विगश्गय के०) विकृतिगत एटले नीविया कहीयें. (तेण के०) ते कारण माटे (पुणो के०) वली ते तंजला दिकें हएयु एवं जे विकृतिगत(तं के) तेने (हयं दत्वं के)हत अव्य कहीये. तथा सूखडी तावमामांहेथी (उझरिए के०) उस्या पठी एटले सूखमी कहाडी लीधा परी जगमु जे घृत (तत् के०) ते टाहाडं थया पठी तेमां लोट नाखीने हलावियें ( तम्मिय के) ते घृत तावडो हेगे उतास्या पठी (जकिदवं के०) उत्कृष्ट अव्य कहेवाय एटले विगय जाणवू (श्म चन्ने के० ) एम अनेरा आचार्य कहे . इति गाथार्थः ॥ ३ ॥ इहां नावार्थ ए जे जे अन्न प्रमुख प्रव्ये विगश्ना पुजल हण्या तेवारें विगयनो स्वाद फरी गयो तेथीते नीवीयातु कहेवाय, परंतु विग तथा नि वृत्तिक न कहेवाय, एटला माटे ते नीवीना पच्चरकाण वालाने लेवी कल्पे. अने सुकुमारिकादिक सुखडीने तावडामांहेथी काढ्या पली उगो जे प्रतादिक तेने विषे चूला उपर बते अग्निसंयोगथी तपे थके तेमांडे देपव्यु जे कणिकादिक दल प्रमुख तेने उत्कृष्ट अव्य कहीये, ते विकृति त जाणवू. ते केम के? चूरिम पूर्वे कडाह विग थई नग्न कणिका कीधी ते ऊष्ण घृत गोल परस्परेंऽव्य हत थश्ने पळी ते कणिका देप करी मोदक बांध्या एq जे चूरमादिक ते विकृतिगत जाणवू, पण विगय समजवी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एए पच्चरकाण नाष्य अर्थसहित. नहिं, एनुं नाम उत्कृष्ट प्रव्य जाणवू. एम केटलाएक आचार्य कहे जे. नामां तरे गीतार्थानिप्रायें तो एम के जो चुल्हाना माथाथी उतस्या पली शीत थया के जे कणिकादिक देपवीये, ते तथाविध पाकालावधी विकृतिगत कहीये अन्यथा परिपक्क विशेष थये व्यगत कहीये पण विग तथा निर्विकृतिक न कहीयें एवं व्याख्यान प्रवचनसारोकारवृत्तिना अभिप्राय थी लख्युं बे, पण तिहां एम कडं ने जे सुधियें जली परें विचार,जे माटे नि विकृतिक अनेक नेदें . ते बहुश्रुतनी आचरणा परंपराथी जाणवां॥३॥ हवे केटलीएक वस्तुनां नाम उत्तम अव्य कह्यां , ते देखाडे बे. तिल सकुलि वरसोलाई, रायणंबाइ दरकवाणाई॥ मोली तिलाश्या, सरसुत्तम दव देवकडा ॥३॥ अर्थः-(तिल के ) तेलथी नीपनी एवी (सकुलि के०) तिल सांकली तथा खारेक, टोपरां, सिंगोमां प्रमुख नाहोलाना हारमा तेने (वरसोलाई के) वरसोलां कहीयें अने आदिशब्दथकी साकर खांगना विकार साकरीया पापम, नालिकेर, खांग कातली, पाक, सर्व मेवा प्रमुख, राजदना आदिक, तथा (रायण के०) रायण (अंबा के०) आंबा दिक एटले आम्रादिक फल सर्व अचित्त कह्यां पाकादिकें नीपजाव्यां मधुका दिकनां, नालिकेरा दिकनां,(दरकवाणाई के०)जाखवाणी प्रमुख,नालेरवाणी प्रमुख (मोलीतिबाश्या के०) मोली तेल आदि शब्दथकी नालिकेर सरशव प्रमुखनुं तेल, एरंड प्रमुखनुं तेल जाणवू. अकोमादिक मेवा हलवा प्रमुख ए सर्व (सरसुत्तमदव के०) सरस उत्तम अव्य कहीयें तथा एने (बेवकमा के ) लेपकृत पण कहीये. ए नीवीमां कल्पनीय जाणवां ॥ ३७॥ हवे ए सर्व पदार्थ कारणे लेवां कल्पे, पण सहज पणे रसगृध्रतायें लेवां कल्पे नहीं, ते कहे जे. विगगया संसहा, उत्तमदवाइ निविपश्यंमि॥ कारणजायं मुत्तुं, कप्पंति नजुत्तुं जं वुत्तं ॥३॥ अर्थः-एक (विगगया के०) विकृतिगता एटले दूध प्रमुख विगश्थी उत्पन्न थया जे नीवीयाता जे संख्यायें त्रीश पूर्वे कह्या ने ते, बीजा (संसहा के०) संसृष्ट अव्य जे करंबादिक, मगदल, पापमी पिंमादिक, त्रीजी (उत्तम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० प्रतिक्रमण सूत्र. दवा के०) उत्तम व्यादिक ते तिलसांकली, साकर, मेवादिकसरसोत्तम अव्य जे पूर्वे कही आव्या ते ए त्रण प्रकारनी वस्तु ते (निविगश्यंमि के) नीवीना पच्चरकाणने वीषे कोश् ( कारणजायं के ) कारणजातं एटले पुष्टालंबन वीशेष प्रयोजनरूप वातादिक कारण (मुत्तुं के) मूकीने, सा धुने (जुत्तुं के०) नोगवq लेवु ( न के) नही (कप्पंति के०) कल्पे. जेने जावजीव सुधील विगयनां पञ्चरकाण होय, किंवा तथा विध विशेष त उजमाल होय, किंवा वैयावच्च करवाने उजमाल होय, झानादिकनो उद्यमी होय, तेवारें शरीरें ग्लानादिक निमित्तें औषधादिक कारणे लेवां कल्पे, अन्यथा कारण विना लेवां कल्पे नही, (जंके०) जेमाटे (वुत्तं के०) का ले ते आगली गाथायें कहे ॥३५॥ विगविगइंनीन, विगगयं जो अ नुंजए साहू ॥ विग विगई सहावा, विगई विगई बला नेइं॥४०॥ अर्थः-(वीग के०) दूध प्रमुख जे विग ने ते प्रत्ये अने (विगगयं के) विकृति गत जे दीरादिक त्रिविध अव्य नीवीयाता कह्या ने ते प्रत्यें (विगई के) विगति एटले विरुद्धगति ते नरक, तिर्यंच, कुदेवो कुमाणसत्व रुप जे माठी गतियो ने तेनाथकी (नीउके) नीती राखतो एटले बीहीतो अथवा संयम ते गति अने तेनो प्रतिपदी जे असंयम ते विगति जाणवी. तेवी विरुकगतिथकी बीहितो एवो (जो के०) जे (अ के०) वली (साह के ) साधु ते (झुंजए के० ) मुंजे एटले खाय ते साधुने (विगई के०) विग ते ( विग के ) विगति जे नरकादिकनी विरुद्धगति तेने विषे ( बला के० ) बलात्कारें एटले ते साधु जो पण उर्गतिमां जवाने नथी वांडतो तो पण बलात्कारें तेने माठी गति प्रत्ये (नेई के०) पहोंचाडे. ते (विग के०) विग केहेवी बे? तो के (विगश्सहावा के०) विकृतिवन्नाव, एटले विकार उपजाववानो ने खनाव जेने एवी जे. केम के ए विकृत ते अवश्य शब्दादिक कामनोगने वधारे एवी डे मात्रै कारण विना विगया दिक न लेवां, अने श्रावकने पण निवी प्रमुखने पञ्चरकाणे कोश् महोटा कारण विना तथा विशेष तप विना नीविता लेवा कल्पे नहीं, एनो विस्तार श्रीआवश्यकनियुक्तिनी वृत्तिथी तथा प्रवचनसारोकारनी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चकाण नाष्य अर्थसहित. ५०१ वृत्तिश्रादिक ग्रंथथी जाणवो. आंही संदेप मात्र लख्यो ॥ ॥ हवे चार अजय विगय , तेना उत्तरनेद कहे बे. कुत्तिय मयि नामर, महु तिदा कह पिठ मद्य उदा ॥ जलथल खग मंस तिहा, घयव मकण चन अन्नका ॥४१॥ दारं ॥६॥ अर्थः-तिहां प्रथम मधुविगयना नेद कहे जे. एक (कुत्तिय के०) कुत्तां बगतरांजंगलमध्ये थाय . तथा वर्षाकालें विशेष थाय , तेहगें मध,बीजें (मबिय के०) माखीजें मध, अने त्रीजु (नामर के०) नमरानुं मध एवं (तिहा के०) त्रण प्रकार- (महु के ) मधु एटले मध जाणवू तथा एक (कठ के) काष्ठ ते धाउमी प्रमुख काग्थी महुमादिकथी नीपन्यु मद्य,वीजें (पिठ के) पिष्ट ते ज्वारप्रमुखना आटादिकथी नीपनी मदिरा ए ( मद्य के०) मद्य एटले मदिरा ते (उहा के)बे प्रकारनी जाणवी. हवे मांसनानेद कहे . एक (जल के०) जलचर जीव जे मत्स्यादिक तेनुं, (थल के) थलचर जीव जे छिपदचतुष्पदा दिक तेनु, त्रीजु (खग के०) खेचर जीव जे पदीयादिक तेनु, ए (तिहा के०) त्रिधा एटले त्रण प्रकार- (मंस के०)मांस जाणवू,तथा (घयत्व के) घृतवत् एटले जेम घृत, गाय नेष गांगरी अने बगली ए चार प्रकारें कडं तेम (मखण के०) माखण पण एहज चार प्रकारचें जा णवू,पण एटलुं विशेष जे माखण ते सर्व (चनअनरका के०)चारे प्रकार नुं अनदयज अने घृत जे जे ते चारे प्रकारनुं नय विगयमां कडं बे,जेमाटें बोद यश् खटासें चलित रसपणुं पामीयें एवी एक मदिरा,बीजुंगसथी बाहेर नीकट्युं एवं माखण,त्रीजुंजीवित शरीरथी अलगुं थयुं एवं मांस,रुधिर तेपण एमज जाणवू, तथा चोथु मधुपुमाथी उपन्युं मधु, ए चारे पदार्थोने विषे अंतर मुहर्तमध्ये असंख्याता बे इंडिय जीव उपजे, तेमां मांसपेशी मध्ये तो पक्क तथा अपक्क तथा अग्नि उपरें पच्यमान एवो थको पण तेमांहे अ संख्य बेंघिय तथा पंचेंजिय तथा निगोद जीव अनंता पण पोतें पोतानी मेले उपजता कह्या बे, तेमाटें ए चार विगय जे , ते सर्वथा अजय वर्ज नीय कह्यां .ए त्रीश निविगश्नुं बहुं द्वार पूर्ण थयु. उत्तर बोलण थयाधर हवे पच्चरकाणना बे नांगानुं सातमुं हार कहे बे. पञ्चकाण बे न्नेदें , एक मूलगुणरूप अने बीजुं उत्तर गुणरूप तिहां Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ प्रतिक्रमण सूत्र. साधुने मूलगुण ते पांच महाव्रत अने उत्तरगुण ते पिंमविशुझ्यादिक जा णवां, तथा श्रावकने मूलगुण ते पांच अणुव्रत अने उत्तरगुण ते त्रण गुण व्रत अने चार शिदाबत जाणवां, तिहां सर्व पञ्चरकाणादिक तेहना नांगा जे रीतें थाय, ते रीतें कहे . तेमां सर्व उत्तरगुण पच्चरकाण अनागतादिक दश प्रकारें पूर्वे कह्यां, अने देशोत्तर गुण पच्चरकाण सात प्रकारे ते त्रण गुणव्रत अने चार शिक्षा व्रत मली थाय, तथा वली एक श्वर अने बीजुं यावत्कथिक, ए बे नेदें उत्तरगुण प्रत्याख्यान तेमां साधुने इत्वरगुण पञ्चरकाण ते कांश्क अनिग्रहा दिक जाणवां अने यावत्कथिक ते पिंमविशुख्यादिक तथाअनियंत्रितादिक जे पुर्जिदादिकं पण अजग्न होय जंग न थाय ते सर्व यावत्कथिक जाणवां अने श्रावकने तो इत्वर ते चार शिदात्रतादिक ने अने यावत्कथिक त्रण गुणव्रतादिक जे. तेश्रावक बे नेदें, एक अविरति सम्यग्दृष्टि ते केवल सम्य गदर्शन युक्त कृष्ण श्रेणिकादिकनी परें जावा अने बीजा विरति सम्य ग्दर्शन युक्त कृष्ण श्रेणिकादिकनी परें जाणवा अने बीजा विरति सम्य गदृष्टि ते वली बे ने एक सानिग्रही अने बीजा निरनिग्रही. ते वीली विनज्यमान थका आठ नेदें थाय, ते केवी रीतें? तो के एक सुविध, त्रिविध, बीजो विविध विविध, त्रीजो विविध एकविध, चोथो एक विध त्रिविध, पांचमो एकविध विविध, बहो एकविध एक विध, ए उ नांगा पांच व्रत आश्रयी थाय अने कोशएक उत्तरगुणमांहेलु कोशएक व्रत लीये ते सातमो नांगो जाणवो, अने आग्मो नांगो को नियम मात्र नज लीये ते जाणवो. ए रीतें पूर्वोक्त पांच अणुव्रतादिकने तेने उ नांगे गुणी ये तेवारें त्रीश जंग थाय तेनी साथें एक उत्तरगुणनो नांगो मेलवीयें, तेवारें एकत्रीश नांगा थाय, तेनी साथै वली को नियम मात्र व्रत न लीये. तेनो एक नांगो मेलवीये तेवारें बत्रीश नेदें श्रावक सम्यग्दर्शनी शंका कांदादिरहित अमूढदृष्टिपणे जाणवा. इत्यादिक नेदनी वक्तव्यता बहु , पण यहां मुख्यतायें उंगणपच्चास नांगा थाय, ते नांगा गाथाना अर्थे कहे . मण वयण काय मणवय, मणतणु वयतणु तिजोगि सग सत्त॥ कर कारणुम उति जुय, तिकालि सीयाल नंगसयं ॥४२॥ अर्थः-एक प्राणातिपातादिकने (मण के०) मने करी न करूं, बीजो (व Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चकाण जाप्य अर्थसहित. ५०३ यण के०) वचनें करी न करूं, त्रीजो ( काय के० ) कायायें करी न करूं, चोथो ( मणवय के० ) मन ने वचनें करी न करूं. पांचमो ( मणतणु ho ) मन ने कायायें करी न करूं, बडो ( वयतणु के० ) वचन अने कायायें करी न करूं, सातमो ( तिजोगि के० ) मन, वचन ने काया. एत्र योगें करी न करूं, ए एक संयोगी (सग के०) सात जांगा ( थया, ते सात जांगा (कर के० ) करवा श्राश्रयी जाणवा. तेमज ( सत्त के० ) सात जांगा ( कार के० ) कराववा आश्रयी जाणवा. अने सात जांगा ( o ) अनुमति श्रापवाना एटले अनुमोदन देवाना पण जाणवा वी रीतें :- प्राणातिपातादिकने एक मने करी न करावं, बीजो वचनें करी न करावं, त्रीजो कायायें करी न कराउं, चोथो मन ने वच नें करी न करावं, पांचमो मनाने कायायें करी न करा, बघो वचन कायायें करी न करावं, सातमो मन, वचन ने कायायें करी न करा. कुं. ए सात कराववाना जांगा कह्यां. हवे सात अनुमोदवाना कहे . एक प्राणातिपातादिकने मने करी न अनुमोडु, बीजो वचनें करी न धनु मो. जो कायायें करी न अनुमोड, चोथो मन ने वचने करी न अनुमो, पांचमो मनाने कायायें करी न अनुमो, बघो वचन अने कायायें करी न अनुमोड सातमो मन वचन ने कायायें करी न अनु मोड, ए सात जांगा अनुमोदन देवाच्या श्री कला, एम सात करवाना, सात कराववाना ने सात अनुमोदवाना मली एकवीश जांगा थया. हवे ( पुति के०) ठिक त्रिक योग सहित सात सात जांगा करी यें, ते आवी रीतें के एक प्राणातिपातादिकने मने करी न करूं, न करावुं. बीजो वचनें करी न करूं, न करावं, त्रीजो कायायें करी न करूं न करावं. चोथो मन ने वचने करी न करूं न करावं, पांचमो मनाने कायायें करी न करूं, न करावं, बघो वचन ने कायायें करी न करूं, न करावं, सातमो मन, वचन ने काया, ए त्रणे करी न करूं, न करावुं ए करवा कराववा याश्री सात नेद कद्या. तथा एक प्राणातिपातादिकने मने कर न करूं, न अनुमोडुं बीजो वचनें करी न करूं, न अनुमोडुं त्रीजो कायायें करी न करूं, न अनुमोडु, चोथो मन छाने वचनें करी न करूं न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ प्रतिक्रमण सूत्र. अनुमोj, पांचमो मन अने कायायें करी न करूं न अनुमो, गे वचन अने कायायें करी न करूं, न अनुमोउं, सातमो मन वचन अने काया, ए त्रणें करी न करूं, न अनुमोउं, ए सात नंग, न करवा, तथा न अनुमोदवा आश्री कह्या, तथा एक प्राणातिपातादिकने मनें कर न करावं न अनुमोउं, बीजूं, वचनें करी न करा, न अनुमोउं, त्रीजो कायायें करीन करावं, न अनुमो, चोथो मनें करी वचने करी न करावं, न अनुमोउं, पांचमो मनें करी कायायें करी न करावं, न अनुमोउं, हो वचनें करी कायायें करी न करावं, न अनुमोई, सातमो मन, वचन अने कायायें करी न करावु, न अनुमो, ए न कराववा न अनुमोदवा आश्री सात जंग कह्या. एम सात न करवा न कराववा पाश्री अने सात न करवा न अनुमोदवा आश्री तथा सात न कराववा न अनु मोदवा आश्री. एवं सर्व मली ठिकसंयोगें ए वीश जंग थया. तेनी साथें पूर्वोक्त एक संयोगना एकवीश मेलवतां, बहेंतालीश नांगा थया. हवे त्रिक संयोगें सात नंग थाय, ते कहे जे. एक प्राणातिपातादिकने मनें करी न करूं, न करा, अने न अनुमोठं, बीजो, वचनें करी न करूं, न करावं अने न अनुमोउं, त्रीजो कायायें करी न करूं, न करावं अने न अनुमोऽ, चोथो मन अने वचनें करी न करूं, न करावं अने न अनु मोउं, पांचमो मन, अने कायायें करी न करूं, न करावं, अने न अनु मोउं, हो वचन अने कायायें करी न करूं, न करावं अने न अनुमोj. सातमो मन, वचन अने कायायें करी न करूं, न करावं अने न अनुमो 5. ए त्रिकसंयोगी सात नांगा थया. ते पूवोक्त बहेंतालीश साथै मेलवतां सर्व मली उंगणपचास नांगारूप ते अणुव्रत, गुणव्रत अने अनिग्रहादिक ना नेद उपजे, तेने (तिकालि के०) त्रण काल ते अतीत, अनागत अने वर्तमान, ए त्रण कालें करी गुणी, तेवारें (सीयालजंगसयं के०) एकशो ने सुमतालीश ( १४७ ) नांगा थाय. माटें जे एटला नांगा जाणे, ते पच्च स्काणनो कुशल कहीयें. यमुक्तं ॥सीयालं नंगसयं, जस्स विसुछिए होउ वलझ ॥ सो खलु पच्चरकाणे, कुशलो सेसा अकुसलाय ॥१॥इति ॥ एना विशेषे नांगा षमनंगीना श्रावकनाव्रतसंबंधी थाय ते कहे बे. गाथा॥तेर सकीमी सया, चुलसी जुयारंवारसय लरका ॥ सत्तासीइ सहस्सा, दोय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चकाण जाय अर्थसहित. ५०५ सया तह र प्रहिया ॥ १ ॥ तेरशें कोडाकोडी, चोरासी कोडी, बारलाख सत्यासी हजार बशेंने बे थाय. एमज नवजंगीना नवाणुं हजार नवशे ने न वाएं कोडी, उपर नवाणुं लाख नवाणुं हजार, नवरों ने नवाएं एटला जांगा याय एu Uে যেত যেতেए ए ए एमज एकवीश जंगी तथा गणप चास जंगीना विशेष जांगा था, तेसर्व श्रावश्यक बृहद्वृत्तिथी, तथा दीपि काथी तथा प्रवचनसारोद्धारवृत्तिथी, तथा श्रावकत्रतजंगप्रकरणवृत्तिथी तथा देवकुलिकाथकी जाणवा. ते पच्चरकाणनो कुशल होय तेणे विचारवा. हवे ए पच्चरकाणनुंज स्वरूप कहे . एयं च उत्तकाले, सयं च मण वयण तपूढिं पालयिं ॥ जा एगजाएग पासि, त्तिनंग चटगे तिसुखसा ॥४३॥ दारं ॥ ७॥ अर्थ:- ( एयं च के० ) एपूर्वोक्त वली (उत्तकाले के०) उक्तकाल जे पोरिसीयादिक काल प्रमाण रुप ते (सवी च के० ) पोतानी मेलें जेवी रीतें बोल्युं होय यथोक्तरुपें जे जंगा दिकें लीधुं होय ते जंगादिकें (मणवयणत हिं के० ) मन, वचन ने कायायें करी ( पालयिं के० ) पालवा यो ग्य ते (जागजाग पासि के०) जाएगजाएग पासें करी एटले जाण जाण्या पासें करे ( इत्ति के० ) एम (जंगचउगे के० ) जंगचतुष्के ए टले चार जांगाने विषे करे तेमां (तिसुसा के० ) पहेला त्रण जांगाने विषे अनुज्ञा एटले आज्ञा बे एटले पच्चरकाणने करवा कराववा रुप च उजंगी थाय ते कहे बे. एक पच्चरकाणनो करनार शिष्य पण जाण होय, बीजोपच्चरका करावनार गुरु पण जाण होय, ए प्रथम जंग शुद्ध जावो. बीजो पच्चरकाण करावनार गुरु जाण होय ने पच्चरकाण कर नार शिष्य जाण होय, ए बीजो जांगो पण शुद्ध जाणवो. त्री जो पच्च काण करनार शिष्य जाण होय अने पच्चरकाणनो करावनार गुरु अजाण होय, ए त्रीजो जांगो पण शुद्ध जावो. चोथो पच्चरकाण करनार शिष्य छाने पच्चरका करावनार गुरु, ए बेहु जाण होय ते चोथो नांगो अशुद्ध जावो. ए रीतें चार जांगामांहेथी त्रण जांगे पच्चरकाण करवानी थाज्ञा बे, ने चोथा जांगाने विषे श्राज्ञा नथी ॥ ए मूलगुण, उत्तरगुणरूप प चरकाणं सातमुं द्वार थयुं. उत्तर भेद व्याशी थया ॥ ४३ ॥ ६४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ प्रतिक्रमण सूत्र. हवे पूर्वोक्त जंगादिकें विचारीने पण जेम संयमयोग हीन थाय नही,ते रीतें पञ्चरकाण की, थकुं पण प्रकारनी शुद्धियें करी सफल थाय, माटें पच्चरकाणनी उ विशुछिनुं श्रापमुं हार कहेले. फासिय पालिय सोहिय, तिरिय किट्टिय आरादिय उसुई। पच्चरकाणं फासिय, विदिणोचिय कालि जं पत्तं ॥ ४४ ॥ अर्थः-एक (फासिय के ) फासित एटले पञ्चरकाण फरश्युं, बीजें (पालिय के०) पालित एटले पच्चरकाण पादयु, त्रीजु, ( सोहिय के )शो जित एटले पच्चरकाण शोजाव्यु, चोथु (तिरिय के०) तीर्णं एटले पञ्चरकाण तीमु, पांचU (किहिय के०) कीर्त्तित एटले पञ्चरकाण कीयु, हुं (आ राहिय के) आराधित एटले पञ्चरकाण श्राराध्यु ए (उ सुझं के०) प्र कारें शुकै करी शुद्ध एयूँ (पञ्चरकाणं के०) पञ्चरकाण, फलदायक, होय. हवे ए ब विशुद्धिना अर्थ कहे जे. तिहां प्रथम सम्यक् प्रकारें (विहिणोचियकालि के०) विधियें करीउ चित कालें एटले उचितवेलायें (जं पत्तं के) पञ्चरकाण प्राप्त थयु एटले सूर्योदयथी पहेलां पञ्चरकाण उचितकाले जे पाम्युं एटले जे पच्चरका ण की, ते यावन्मात्र जेटला काल लगण ग्रहण कह्यु, तावन्मात्र तेटला काल लगें पहोंचामबुं तेने (फासिय के० ) फरश्युं कहीयें ॥ ४ ॥ पालिय पुण पुण सरियं, सोदिय गुरुदत्त सेस नोयणन ॥ तिरिय समदिय कालो, किहिय नोयण समय सरणे ॥४५॥ अर्थः-बीजुं ज्यां लगें पच्चरकाण पूरूं न थाय, तिहां लगे (पुणपुण के०) वारं वार उपयोग देश्ने सावधानतायें (सरियं के०) संनाडं जे महारे अ मुक पच्चरकाण आजे , ए रीतें पच्चरकाणने स्मरणमा राख, ते (पालिय के०) पालुं कहीयें. त्री (सोहिय के०)शोजित एटले शोजाव्यु,ते आहारादिक लाव्या हो श्ये ते प्रथम (गुरुदत्त के०) गुर्वादिकने निमंत्री आपीने पढ़ी (सेस के) शेष रह्यु होय जे (जोयण के०) जोजन तेने पोते लेवाथकी एटले पञ्च स्काण की, जे ते पूरण थया पड़ी ते वस्तु लावी पदेला गुरुने श्रापी पड़ी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चकाण जाष्य अर्थसदित. ५०० पोतें वावरे ते (सोहियं के० ) पच्चरकाण शोजाव्युं कहीयें. चोयुं (समहि कालो के०) समधिककाल ते पञ्चरकाणनो काल पूर्ण थया पढी पण यो मोसो अधिक काल लगे पडरकीने सबुर करीने पढी पच्चरकाण पारे, तेने ( तिरिr ho) पञ्चरका तिरित एटले तीयुं कहीयें. पांचमुं ( जोयणस मय के० ) जोजनना समयने विषे जोजननी वेलायें (सरणे के० ) संभा रखुं जे फलाएं अमुक पच्चरकाण हतुं, ते आज महारं पूर्ण थयुं बे. हवे अ शन करूं ? श्रारोगुं ? निस्तारुं ? इत्यादिक विनय जाषा साचवीने जमवुं, तेने (किट्टिय के०) पच्चरका की युं कहीयें ॥ ४५ ॥ पडरियारा, दियं तु दवा व सुद्धि सद्ददणा ॥ जाणविण्यणु जास, अणुपालण जावसु इति ॥ ४६ ॥ दारं ॥ ८ अर्थः- बहुं ( के०) ए सर्व प्रकारें करी (पयिरियं के० ) प्रतिचरितं एटले श्राचरतुं जे पच्चरका एटले ए सर्व प्रकारें संपूर्ण निश्रायें पमाड्यं निराशंसपणे श्रीजिनाज्ञा पालन पूर्वक संयमयात्रा निर्वाहक षट्कारण साधनपूर्वक श्रप्रमादपणे महोटो कर्मक्षयने कारणे थयुं तेने ( राहि यं ho) राधितं एटले याराध्यंकहियें ( अहवा के० ) अथवा प्र कारांतरें करी ( तु के० ) वली पण पञ्चरकाणनी ( बसुद्धि के० ) ब शुद्धि प्रकारांतरें वीजी बे ते कहे बे. प्रथम सम्यगदर्शनी श्रद्धावंतना मु खथी पञ्चरकाण करवुं ने निःशंकता याचारयुक्त शुद्ध सदहणा पूर्वक क खुं एटले करेला पञ्चरका उपर शुद्ध जाव होय ते ( सदहा के० ) सह हा शुद्धि जाणवी, बीजी पच्चरकाणने द्रव्य, क्षेत्र, काल छाने जावथी जाणीने तथा मूल उत्तरगुणे नेद जंगादिकें जाणीने वली जाणनी पासें पच्चरकाण करे, ते ( जाणण के० ) जाणवापएं ए बीजो अधिकार शुद्ध जाणवो. त्रीजी सुझानादिक श्राचारसंयुक्त अतिचार प्रविधि र हित गुरुनी पासें वांदणां देवा प्रमुख विनय साचवीनें पच्चरका कर, ते ( वय के० ) विनयशुद्धि जाणवी. चोथी गुर्वादिक कहता होय ते प्रत्ये गारादिकनुं पोतें जांख, एटले गुरु पच्चरकाण करावे, अने पालथी पोतें आगार उच्चरे, ते ( श्रणुजासण के० ) अनुभाषणशुद्धि जाणवी. पांचमी निराशंसपणे रूमी रीतें पाले जो विषम जय कष्ट यावी उपजे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. तो पण दढ रहे परंतु पच्चरकाण जंग न करे, पच्चरकाणथी चूके नहीं, ते (अणुपालण के) अनुपालणा शुद्धि जाणवी. बही पूर्वोक्त सर्वप्रकार थी निर्जरारूप इहलोक परलोकनी वांबार हितपणे आशंकादि दोर्षे करी रहित ते (नावसुझत्ति के) नावशुछि इत्ति एटले एम जाणवू. ए शुछि पण समस्त सर्वे पञ्चकाणोने विषे जाणवी. एम नंगादि वि शुधिना विस्तारनां बीजक ग्रंथांतरथी जाणवां. एटले ए आग्मुंब शु हिनुं हार थयुं ॥ उत्तर बोल अहाशी थया ॥ ४६॥ हवे पञ्चरकाण- फल बे प्रकारें थाय, तेनुं नवमुं धार कहे . पच्चरकाणस्स फलं, इह परलोएय दो विहंतु ॥ इहलोए धम्मिल्लाई, दामन्नगमाइ परखोए ॥४॥दारं ॥॥ अर्थः-( पञ्चकाणस्सफलं के० ) पञ्चरकाण- फल ते (इहपरलोएय के०) शह लोक तथा परलोक आश्री (उविहं तु के ) बे प्रकार- वली (होश के०) होय, तेमां कोशएक प्राणीने इहलोकें एज नवमां तुरत फल थाय, अने कोश्एकने परलोकें एटले परजवें फल थाय, तिहां (इहलो ए के) आ लोकाश्रयी तो (धम्मिलाई के०) धम्मिलादिकनो दृ ष्टांत वसुदेवहिंमीग्रंथथी जाणवो, एटले धम्मिलें उत्तरगुण पच्चरकाण चा रित्ररूप न महीनापर्यंत आयंबिल प्रमुख तप कह्यु, तेथी तेहीज नवें घ णी लब्धि उपनी, शरीरना मल मूत्र सर्व औषधरूप थयां, राजसंपदानो गवी मोक्षपदवी पाम्यो. अने (परलोए के) परलोकनेवीषे एटले पर नवमां (दामन्नगमा के०) दामन्नकादि प्रमुखना एटले दामनक नामें व्य वहारीयाना बेटानो दृष्टांत श्रीआवश्यकनियुक्तिप्रमुख ग्रंथथकी जाणवो. एटले पच्चरकाण फलनुं नवमुं द्वार थयु. उत्तर बोल नेवू थया ॥ ४ ॥ . एमां आजव श्राश्रयी पञ्चरकाणना फलसंबंधी धम्मिलकुमारादिकनो दृष्टांत कह्यो ,तेनी कथा संदेपथी लखवी जोश्ये, परंतु ए धम्मिन्ननो रास उपाश् गयो , तेमां एमनी संपूर्ण कथा घणा सजानोने वांचवामां आवी गयेली , माटें आंही लखी नथी, जे सङनोने वांचवानी अभिलाषा होय तेमणे रास वांची लेवो. अने परनवें दामन्नकादिकने फल थयुं ते दामन्नकनो दृष्टांत संदेप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चरकाण नाष्य अर्थसहित. ए०ए मात्रे लखीयें बैयें:-राजपुर नगरें एक कुलगर रहेतो हतो तेनो जिनदास श्रावक मित्र हतो तेनी संगतथी कोश्क दिवसें साधु पासें गयो, त्यां मत्स्य ना मांसनो नियम लीधो,अनुक्रमें पुर्निद थयु तेवारें घणा लोक मत्स्या हारी थके शालिकादि पुरुषे बलात्कारें अह समीपें थाण्यो, तिहांते जाल मां नाखेला मत्स्यने जोश्ने मूकी आपे. एम त्रण दिवस सुधी बलात्कार कराव्यो, तेवारें एक मत्स्यनी पांख त्रूटी देखी बलात्कारें तेथी निवत्यो, पनी अणसण लेश्मरण पामी राजगृह नगरें शेडनो पुत्र थयो, दामन्नक नाम दीधुं, ते आठ वर्षनो थयो तेवारें तेनुं कुल मरकीना रोगथी मरण पाम्यु, ज छिन्न थयुं, तेवारे ते दामन्नक कोश् सागरदत्त व्यवहारीने घरे फुःखित थको रह्यो. एकदा साधुनुं युगल निदाने अर्थे ते व्यवहारीने धेर श्राव्युं, तिहां ते बालकने देखीने परस्पर साधु बोल्या जे ए बालक ए घरनो स्वामी थ शे, ते प्रचन्नप्रवृत्ति घरना अधीशे जाणी तेवारें अमर्षपणे करी ते बाल कने मारवा जणी अंत्यजने आप्यो, तेणें अनिशान देखामवा निमित्तें ते नी टचली अंगुली वेदी परं तेने नीविषय जय देखामी परहो काढ्यो, पड़ी ते बालक अनुक्रमें नागे थको ते शेग्नुं जिहां गोकुल , ते ग्रामें श्राव्यो, तिहां ते गोकुलना स्वामीयतेने स्वरूपवान् तथा विनीत देखी पुत्रपणे थाप्यो, यौवन पाम्यो. पठी अनुक्रमें केटलाएक वर्षांतरें तिहां सागरदत्त शेठ श्रा व्यो, तेणें तेने देखीने उलख्यो, तेवारें को कार्यनुं निमित्त करी लेख लखी ने आप्यो, तेमां शेने पोताना पुत्रने लख्यु जे एने विष आपजो. एवो लेख आपी पोताने नगरें मोकट्यो, ते श्रांत थयो थको उद्यानमांहे का मदेवना प्रासादें श्रावी सूतो, तिहां वरार्थिनी एवी शेउनी पुत्री कामदे व पूजवा श्रावी, तिहां तेणें तेने सूतो देखी कागलमा पोताना पिताना अदर देखी कागल वांच्यो, तेमां विष देवानुं लख्युं जोश्ने पोतानुं नाम विषा ने तेथी तेनी श्चक थ मनमां विचास्युं जे महारा पितायें सुंदर व रूपवान् जाणी वर मोकट्यो बे,पण विष देजो एवं लख्यु ते महारा पिता कागल लखतां नूली गया जे विषाने स्थानकें विष लखा गयुं बे, अने कामदेवें पण महारा उपर प्रसन्न थश्ने ए वर मुजने आप्यो, मांटें काग लमां विष लख्युं हतुं तिहां विषा देजो. एम कन्यायें अंजनशलाकायें ल खीने पालो लेख तेने ठेकाणे मूकी दीधो. अनुक्रमें ते घेर आव्यो,तिहां त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० प्रतिक्रमण सूत्र. रत लग्न लेश कन्या परणावीने जामाता कीधो. एवी वात सांजलीने शेठ घरे श्राव्यो क्रोधाध्मांत थको कहेवा लागो जे मातृपूजन निमित्ते पाणि ग्रहण मांगलिक वघाववा जणी जमाश्ने मोकलो अने शे- मारवां सारु अत्यंजने संकेत कराव्यो हतो. हवे ते मातृपूजन निमित्तें जाय एटलामां वीकालवेला जाणी नवपरणीत हतो माटे शेग्नो पुत्र कहेवा लाग्यो के तमारीवती हुँ मातृपूजन करवा जाउं बुं, एम कही ते गयो एटलामां वच्चे रस्तामां अंत्यजें तेनो संकेत जाणी ते शेग्ना पुत्रने जमाइ समजी मारी नाख्यो नवितव्यताथी बलवत्तर कोइ नथी.पड़ी ते पुत्रमरण, वृ त्तांत सांजलीने हृदयस्फोट थश्शेठ पण मरण पाम्यो. अनुक्रमें घरनो स्वामी दामन्नक थयो रुषिजाषित वचन अन्यथा न थाय. अनुक्रमें एकदा पाउले पहोरेपाहरी देतो तेणे एक मंगल पाठक गाथा कहि. तद्यथा ॥ अणुपुंखमावहतावि, अन्नबा तस्स बहु गुणा हुंति ॥ सुह फुककम्म पुडंतो, जस्स कयंतो वह परकं ॥ १॥ ए गाथानो अर्थ सांजली एक लदनुं दान दीधुं, एमत्रण वार गाथा सांजली त्रण लद दान दीधुं रा जायें ते वात सांजलीने पोतानी पासें तेमाव्यो. पठी सर्व वीतक वात राजा आगल कही, राजा हर्ष पाम्यो थको तेने नगरशेग्नी पदवीयें स्थाप्यो. एकदा गुरु श्राव्या सांजलीवांदवा गयो,तिहां धर्मदेशना सांजली अने पुरा तन जव मत्स्य मांस पच्चरकाणादिक सर्व सांजऱ्या,बोधिलान पाम्यो, धर्मानु ष्ठान साचवी देवलोके गयो. तिहांथी महावीदेहमा सुकुलमा उपजशे,तिहां बोधिलाल पामी चारित्र लही केवलदान पामी परंपरायें मोदसुख पा मशे, अने केटलाएक तेहीज नवें सिद्धि पामे. ए वे प्रकारें फलनुं नवमुं छार थयुं ॥ - एटले सर्व मूलगुण प्रत्याख्यान सर्व उत्तरगुण प्रत्याख्यान तथा अनिय हादिक देशउत्तरगुण पण होय अने श्रावकनें देश मूलगुण प्रत्याख्यानते श्रणुव्रत तथा देश उत्तर गुणप्रत्याख्यान ते गुणवतअने शिक्षाबत जाणवां. ते वली बेबे नेदें एक श्वर ते अल्पकालि अनागतादि पञ्चकाण मूल उ त्तर गुण पच्चरकाण अने उत्तरगुणपच्चरकाण ते शिक्षाव्रतादि तथा देशे मूलगुण पच्चकाणअने सर्वेथी उत्तरगुण पञ्चकाण अने मूलगुण क्रियारु एवं पञ्चकाण धम्मिवादिकने जाणवू इत्यादिक पच्चरकाणना नंग विकल्प Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चस्काण नाष्य अर्थसदित. ५११ घणाबे, ते गुरुना विनयथी जाणीयें, माटे यथागृहीत मंगें पच्चरका आ राधवां, तेनुं गमन संपूर्णद्वारायें कहे बे ॥ ४ ॥ ग्रंथ समाप्त गाथा कड़े बे. पञ्चकाणमिणं से, विक्रण जावेण जिणवरु दिनं ॥ पत्ता यांत जीवा' सासय सुखं आणाबादं ॥ ४८ ॥ ॥ इति प्रत्याख्यानज्ञायं संपूर्णम् ॥ 0 अर्थः- ( पञ्चरकाणं के० ) पञ्चरकांण ते ( इणं के० ) ए यथोक्त कयुं प्रत्यें ( जावे के० ) नावें करीने एटले जावसहित, श्रद्धायें करी निःशंकित सम्यग्दर्शन सहित जे रीतें (जिणवर के० ) जिनेश्वर जगवानें ज्ञान क्रिया सहित उजयनयसम्मत ( उद्दिनं के०) कयुं बे, प्रकाश्युं वे ते प्रकारें एवा गुणधारण रूप पञ्चरकाणने ( सेविऊण के० ) सेवीने, याद रीने, पालीने, त्रिकालापेक्षायें (श्रणंत जीवा के०) अनंत जीव जव्यप्राणी ते ( सासय सुरकं के० ) शाश्वतं सुख (श्रणाबाहं के० ) अनाबाध अव्या बाध निराबाध, एटले नथी कोई बाधा जिहां एवं जे मोक्षस्थानक ते प्रत्यें ( पत्ता के० ) पाम्या, पामे बे, अने पामशे ॥ ४८ ॥ अर्थ संदेपमात्री लख्यो बे, वली जे विशेषार्थना खपी होय ते यावश्यक निर्युक्तिनी वृत्ति, प्रवचनसारोकारवृत्ति, कल्पाकल्पशतक प्रकरण, इत्यादि ग्रंथ जोवा था बालावबोध श्री ज्ञानविमल सूरि महा राजें करेलो हतो, पण तेनुं लखाण संकोचमां होवाने लीधे बीजी केटली एक टबा प्रमुखनी प्रतो साथै मेलवी पदोना अर्थ कांक खुलासा पूर्वक लखेला बे, तथापि महारी मंदमतिने सीधे तथा ढापवानी उतावलने लीधे जे भूलो रही गयेली यो होय ते चतुर पुरुषोयें शोधी ने वांचवी. हुं महाराथी शुद्धता मिठा मि टुक्कम सर्व वांचनार साहेबोनी सायें करुं बुं. इति प्रत्याख्यानजायं बालावबोधसहितं समाप्तम् ॥ शुनं जवतु ॥ ...▴▴▴▴▴▴▴▴▴▴▴▴AAA Jain Educationa International ॥ इति नाप्यत्रयं बालावबोधसहितं समाप्तम् ॥ For Personal and Private Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. ॥ अथ चैत्यवंदनानि विख्यंते ॥ ॥ तत्र प्रथम सिद्धाचल चैत्यवंदनं ॥ विमल केवल ज्ञान कमला, कलित त्रिभुवन हितकरम् ॥ सुरराज सं स्तुत चरण पंकज, नमो आदिजिनेश्वरम् ॥ १ ॥ विमल गिरिवर श्रृंग मंगन, प्रवर गुणगणनूधरम् ॥ सुर असुर किन्नर को कि सेवित ॥ नमो० ॥ २ ॥ करित नाटक किन्नरीगण, गाय जिनगुण मनहरम् ॥ निर्झरा वली नेम होनिश ॥ नमो० ॥ ३ ॥ पुंकरीक गणपति सिद्धि साधी, को मी पण मुनि मनहरम् || श्री विमल गिरिवर शृंग सिद्धा ॥ नमो० ॥ ४ ॥ निज साध्य साधन सुर मुनिवर, कोमिनंत ए गिरिवरम् ॥ मुक्ति रमणी वस्या रंगें ॥ नमो ॥ ५ ॥ पाताल नर सुरलोकमांही, विमल गिरिवर तोपरम् ॥ नहिं अधिक तीरथ तीर्थपति कहे । नमो ॥ ६ ॥ एम विमल गिरिवर शिखरमंरुन, दुःखविहंरुण ध्याइयें ॥ निजशुद्ध सत्ता साधनार्थं परम ज्योतिने पाइयें ॥७॥ जित मोह कोह विछोह निद्रा, परमपद स्थित ज यकरम् ॥ गिरिराज सेवा करण तत्पर, पद्मविजय सुहितकरम् ॥ ८॥इति ॥ १ ॥ अथ श्रीशत्रजयचैत्यवंदनं ॥ १२ श्री शत्रुंजय सिद्ध क्षेत्र, दीठे दुर्गति वारे ॥ जावधरीने जे चढे, तेने जव पार उतारे ॥ १॥ अनंत सिद्धनुं एह ठाम, सकल तीर्थनो राय ॥ पूर्व नवाणुं रिखदेव, ज्यां वविया प्रभु पाय ॥ २ ॥ सूरजकुंम सोहामणो, कविक यक्ष अनिराम ॥ ना निराया कुलमंगणो, जिनवर करूं प्रणाम ||३|| इति ॥२॥ ॥ अथ पंचतीर्थी चैत्यवंदनं ॥ " " ॥ आज देव अरिहंत नमुं समरुं तारुं नाम ॥ ज्यां ज्यां प्रतिमा जिन तणी, त्यां त्यां करूं प्रणाम ॥ १ ॥ शत्रुंजय श्रीश्रादिदेव, नेम नमुं गिरना र ॥ तारंगे श्री अजितनाथ, खाबू रिखन जुहार ॥ २ ॥ अष्टापद गिरि ऊपरें, जिनचोवीशी जोय ॥ मणिमय मूरति मानशुं, जर जरावी सोय ||३|| समेत शिखर तीरथ वऊ, ज्यां वीशे जिन पाय ॥ वैजारकगिरि ऊप रें, श्री वीरजिनेश्वर राय ॥ ॥ मांरुवगढनो राजियो. नामें देव सुपास ॥ रिख कहे जन समरतां, पहोंचे मननी यश ॥ ५ ॥ इति ॥ ३ ॥ ॥ श्रथ चोवीश जिननुं चैत्यवंदन ॥ ॥ पद्मन ने वासुपूज्य, दोय राता कही यें ॥ चंद्रप्रन ने सुविधिनाथ, दोय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवंदनानि ५१३ उज्ज्वल लहीयें ॥१॥ महीनाथ ने पार्श्वनाथ, दो नीला निरख्या ॥ मुनि सुव्रत ने नेमनाथ, दो अंजन सरिखा ॥२॥ शोले जिन कंचन समा ए, एवा जिन चोवीश॥धीरविमल पंमित तणो,झान विमल कहे शिष्य ॥३॥ इति॥४॥ ॥अथ श्रीचोविश जिन समकितनवगणती- चैत्यवंदन ॥ ॥ प्रथम तीर्थंकर तणा हुवा, नव तेर कहीजें ॥ शांतितणा लव बार सार, नव नव नेम लहीजें ॥१॥ दश नव पास जिणंदने, सत्तावीश श्री वीर ॥ शेष तीर्थंकर त्रिहुं नवें, पाम्या नवजल तीर ॥॥ ज्यांथी सम कित फरसियु, त्यांथी गणीये तेह ॥ धीरविमल पंमित तणो, ज्ञानविमल गुणगेह ॥३॥ इति ॥५॥ ॥अथ चउदशें बावन गणधरनुं चैत्यवंदन ॥ ॥ गणधर चोराशी कह्या, वली पंचाएं ब्रेक ॥ दोय अधिक ग सय ग णा, शोल अधिक शत एक ॥१॥ शत सुमति ने गणधरा, एकसय अधि का सात ॥ पंचाणुं त्राएं तथा, अमसी गसी बात ॥२॥ बोहोंतेर बा शठ सगवन, पचास त्रेतालीश ॥ बत्तिस पण तिस कुंथुने, अर गणधर ते त्रीश ॥३॥ अडवीस अष्टादश कह्या, नमि सत्तर गणधार ॥ एकादश दश शिव गया, वीर तणा अगीयार ॥४॥ रिखनादिक चोवीशना, एक सहस सय चार ॥ अधिकेरा बावन कह्या, सर्व मली गणधार ॥५॥ दय पद वरिया सवे ए, सादि अनंत निवास ॥ करियें शुज चित्त वंदना, जब लग घटमां श्वास ॥६॥ इति ॥६॥ ॥अथ पंच परमेष्ठिचैत्यवंदनं ॥ ॥ बार गुण अरिहंत देव, प्रणमीजें नावें॥ सिह आठ गुण समरतां,कुःख दोहग जावे ॥१॥ आचारज गुण उत्रीस, पंचवीश उवद्याय ॥ सत्तावीश गुण साधुना, जपतां सुख थाय ॥२॥ अष्टोत्तर सय गुण मली ए, एम समरो नवकार ॥ धीरविमल पंमित तणो,नय प्रणमे नित सार ॥३॥ति॥॥ ॥अथ सीमंधरजिन चैत्यवंदनं ॥ ॥ श्री सीमंधर वीतराग, त्रिजुवन तुमें उपगारी॥श्री श्रेयांसपिताकुलें, बहु शोजा तुमारी ॥१॥ धन्य धन्य माता सत्यकी, जेणे जायो जयकारी॥ वृषन लंबने विराजमान, वंदे नर नारी ॥२॥ धनुष पांचशे देहमी ए, सो हीयें सोवन वान ॥ कीर्तिविजय उवद्यायनो, विनय धरे तुम ध्यान ॥३॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. ॥ अथ सीमंधर जिन चैत्यवंदनं ॥ सीमंधर परमातमा, शिव सुखना दाता ॥ पुरकलवर विजयें जयो, सर्व जीवना त्राता ॥ १ ॥ पूर्वविदेह पुंरुरि गिणी, नयरीयें शोद्धे ॥ श्रीश्रेयांस राजा तिहां, जवियानां मन मोहे ॥ २ ॥ चउद सुपन निर्मल लही, स राणीमात ॥ कुंथु र जिन अंतरे, श्री सीमंधर जात ॥ ३ ॥ अ नुक्रमें प्रभु जनमीया, वली यौवन पावे ॥ मात पिता हरखें करी, रूकमि णी परणावे ॥ ४ ॥ जोगवी सुख संसारनां, संयम मन लावे ॥ मुनिसु व्रत नमितरें, दीक्षा प्रभु पावे ॥ ५ ॥ घाती कर्मनो क्षय करी, पाम्या केवल ना ॥ रिखन लंबनें शोजता, सर्व जावना जाण ॥ ६ ॥ चोराशी जस गणधरा, मुनिवर एकशो कोड ॥ त्रण भुवनमां जोयतां, नहीं कोय एहनी जोड || || दश लाख कह्या केवली, प्रभुजीनो परिवार || एक स मयत्रण कालना, जाणे सर्व विचार ||८|| उदयपेढाल जिनांतरें ए, याशे जिनवर सिद्ध || जसविजय गुरु प्रणमतां, शुजवांबित फल ली || || ५१४ ॥ अथ सीमंधरचैत्यवंदनं ॥ ॥ श्रीसीमंधर जगधणी, या जरतें यावो ॥ करुणावंतकरुणा करी, म ने वंदावो ॥ १ ॥ सकल जक्त तुमो धणी ए, जो होवे अम नाथ ॥ जवो जव हुं हुं ताहरो, नहिं महेलुं हवे साथ ॥ २ ॥ सयल संग ढंकी करी ए, चारित्र लेई ॥ पाय तुमारा सेवीने, शिव रमणी वरीशुं ॥ ३ ॥ ए जो मुने घणो ए, पूरो सीमंधर देव ॥ इहां थकी हुं विननुं, अवधारो मुजसेव॥४॥ ॥ अथ वीश स्थानकनुं चैत्यवंदन ॥ पहेले पद अरिहंत नमुं, बीजे सर्व सिद्ध ॥ त्रीजे प्रवचन मन धरो, चार सिद्ध || १ || नमो थेराणं पांचमे, पाठक गुण बठे ॥ नमो लोए सबसाहुणं जे बे गुण गरीठे ॥ २ ॥ नमो नापस्स आवमे, दर्शन मन जा वो ॥ विनय करी गुणवंतनो, चारित्रपद ध्यावो ॥ ३ ॥ नमो बंजवयधा रिणं, तेरमे किरियाणं ॥ नमो तवस्स चउदमे, गोयम नमी जिणाणं ॥४॥ चारित्र ज्ञान सुस्सने ए, नमो तिस्स जाए । जिन उत्तम पदपद्मने, नमतां होय सुखखाणी ॥ ५ ॥ इति ॥ ११ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१५ चैत्यवंदनानि ॥ अथ वीशस्थानकतपना काउस्सग्गनुं चैत्यवंदन ॥ ॥ चोवीश पंदर पिसतालीशनो, बत्रीशनो करीयें।दश पचवीश सत्ता वीशनो, कालस्सग्ग मन धरीयें ॥ १॥ पंच समसठ दश वली, सीत्तेर नव पणवीश ॥ बार अमवीस लोगस्स तणो, काउस्सग्ग धरो गुणीश ॥२॥ वीश सत्तर गवन, छादश नेपंच ॥ एणी परें काउस्सग्ग जो करे, तो जाये जव संच ॥३॥ अनुक्रमें काउस्सग्ग मन धरो, गुणी लेजो वीश ॥ वीश स्थानक एम जाणीयें, संदेपथी लेश ॥४॥ नाव धरी मनमां घणो ए, जो एकपद आराधे ॥ जिन उत्तम पदपद्मने, नमी निज कारज साघे॥॥ ॥अथ रोहिणीतपचैत्यवंदनं ॥ रोहिणी तप आराधी, श्रीश्री वासुपूज्य ॥ दुःख दोहग दूरे टले, पू जक होये पूज्य ॥१॥ पहेला कीजें वासदेप, प्रह ऊठीने प्रेम ॥ मध्यान्हें करी धोतीयां, मन वच काया देम ॥२॥ अष्ट प्रकारनी रचीयें, पूजा नृ त्य वाजिन ॥ नावें नावना नावीयें, कीजें जन्म पवित्र ॥३॥ बिहु कालें लेश धूप दीप, प्रनु आगल कीजें ॥ जिनवर केरी नक्तिशु, अविचल सुख लीजें ॥ ४॥ जिनवर पूजा जिनस्तवन, जिननो कीजें जाप ॥ जिनवर पदने ध्याश्ये, जिम नावे संताप ॥ ५॥ कोड कोम गुण फल दिये, उत्तर उत्तर नेद ॥ मान कहे ए विध करो, ज्युं होवे नवनो बेद ॥ ६ ॥ १३ ॥ ॥अथ विचरता जिन- चैत्यवंदन ॥ ॥सीमंधर प्रमुख नमुं, विहरमान जिन वीश ॥ रिखनादिक वली वंदीयें, संपर जिन चोवीश॥१॥ सिकाचल गिरनार बाबु, अष्टापद वलि सार ॥ समेतशिखर ए पंचतीर्थ, पंचमी गति दातार ॥२॥ ऊर्ध्व लोकें जिनहर नमुं, ते चोराशी लाख॥सहल सत्ताणुं उपरें, त्रेवीश जिनवर नांख ॥ ३॥ एक शो बावन कोम वली, लाख चोराणुं सार ॥ सहस चुम्माली सात शें, शाप जिन पमिमा उदार ॥४॥ अधोलोकें जिननवन नमुं, सात कोम बोहोंतेर लाख ॥ तेरशें कोम नेव्याशी कोम, शाग्लाख चित्त राख ॥५॥ व्यंतर ज्योतिषीमां वली ए, जिननवन अपार ॥ ते नवि ! नित्य वंदन करो, जेम पामो नवपार ॥ ६॥ तिळ लोकें शाश्वतां, श्रीजिनजुवन वि शाल ॥ बत्रीशशें ने जंगणशात, वंदू थ उजमाल ॥ ७ ॥ लाख त्रण ए काणुं सहस, त्रणशें वीश मनोहार ॥ जिनपमिमा ए शाश्वती, नित्यनित्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only . Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ प्रतिक्रमण सूत्र. करुं जुहार ॥ ८ ॥ त्रण जुवनमांही वली ए, नामादिक जिन सार ॥ सिद्ध अनंता वंदीयें, महोदय पद दातार ॥ इति ॥ १४ ॥ ॥ अथ बीजनुं चैत्यवंदन ॥ ॥ विध धर्म जिणे उपदिश्यो, चोथा छाजिनंदन ॥ बीजें जन्म्या ते प्रभु, जवडुःख निकंदन ॥ १ ॥ डुविध ध्यान तुम्हें परिहरो, आदरो दोय ध्यान ॥ एम प्रकाश्युं सुमति जिनें, ते चविया बीज दिन ॥२॥ दोय बं धन राग द्वेष, तेहनें जवि तजीयें ॥ मुऊ परें शीतल जिन कहे, बीज दि न शिव नजीयें ॥ ३ ॥ जीवाजीव पदार्थनुं, करो ना सुजाण बीज दिनें वासुपूज्य परें, लहो केवल नाए ॥ ४ ॥ निश्चय नय व्यवहार दोय, एकां त न ग्रहियें ॥ घर जिन बीज दिनें चवी, एम जन आगल कहियें ॥५॥ वर्त्तमान चोवीशीयें, एम जिन कल्याण ॥ वीज दिनें के पामीया, प्रजु नाण निर्वाण ॥ ६ ॥ एम अनंत चोवीशीयें ए, हुआ बहु कल्याण ॥ जिन उत्तम पदपद्मने, नमतां होय सुख खाए ॥ ७ ॥ इति ॥ १५ ॥ ॥ अथ ज्ञानपंचमीनुं चैत्यवंदन ॥ ॥ त्रिगडे बेठा वीरजिन, जांखे जविजन यागें । त्रिकरणशुं त्रिहुं लोक जन, निसुणो मन रागें ॥ १ ॥ राहो नली जातसें, पांचम अजुवा ली ॥ ज्ञान आराधन कारणें, एहज तिथि निहाली ॥ २ ॥ ज्ञान विना पशु सारिखा, जाणो इस संसार ॥ ज्ञान आराधनथी लधुं शिवपद सुख श्रीकार ॥३॥ ज्ञान रहित किरिया कही, काशकुसुम उपमान ॥ लो कालोक प्रकाशकर, ज्ञान एक परधान ॥ ४ ॥ ज्ञानी श्वासोश्वासमें, करे कर्मनो खेह ॥ पूर्व कोमी वरसां लगें, ज्ञानें करे तेह ॥ ५ ॥ देश आरा धक क्रिया कही, सर्व राधक ज्ञान ॥ ज्ञान तणो महिमा घणो, अंग पांच मे जगवान ॥ ६ ॥ पंच मास लघु पंचमी, जावजीव उत्कृष्ट ॥ पंच वरस पंच मासनी, पंचमी करो शुनदृष्टि ॥ ७ ॥ एकावनही पंचनो ए, काउ रसग्ग लोगस्स केरो ॥ उजमणुं करो जावशुं टाले जव फेरो ॥ ८ ॥ एणी पेरें पंचमी राही यें ए, आणी जाव अपार ॥ वरदत्त गुणमंजरी परें, रंगविजय लहो सार ॥ ए ॥ इति ॥ १६ ॥ ॥ अष्टमीनुं चैत्यवंदन ॥ ॥ माहा शुदी आमने दिनें, विजयासुत जायो ॥ तेम फागुणशुदि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवंदनानि बाग्में, संनव चवि आयो ॥१॥ चैत्र वदनी आग्में, जनम्या झपन जिणंद ॥ दीदा पण ए दिन लही, हुआ प्रथम मुनिचंद ॥२॥ माधव शु दि आपम दिने, आठ कर्म कस्यां दूर ॥ अनिनंदन चोथा प्रनु, पाम्या सु ख जरपूर ॥३॥ एहीज आठम ऊजली, जन्म्या सुमति जिणंद ॥आठ जाति कलशें करी, नवरावे सुरविंद ॥४॥ जन्म्या जेठ वदि आपमें मु नि सुव्रतस्वामी ॥ नेम आषाढ शुदि आपमें, अष्टमी गति पामी ॥ ५ ॥ श्रावण वदनी आपमें, नमि जन्म्या जगजाण ॥ तिम श्रावणशुदि आ में, पासजीनुं निर्वाण ॥६॥ जावा वदि आठमदिने, चविया खामी सुपास ॥ जिन उत्तमपद पद्मने, सेव्याथी शिववास ॥ ॥ इति ॥ १७ ॥ ॥ अथ एकादशीनु चैत्यवंदन ॥ ॥ शासन नायक वीरजी, प्रनु केवल पायो ॥ संघ चतुर्विध स्थापवा, महसेन वन आयो ॥ १॥ माधव सीत एकादशी सोमल हिज यज्ञ ॥ इंजनूति आदें मल्या, एकादश विज्ञ॥२॥ एकादशसें चल गुणा, तेहनो परिवार ॥ वेद अर्थ अवलो करे, मन अनिमान अपार ॥ ३ ॥ जीवा दिक संशय हरी ए,एकादश गणधार ॥ वीरें स्थाप्या वंदीयें, जिन शासन जयकार ॥४॥ मन्त्री जन्म अर मसी पास, वर चरण विलासी॥षन अजित सुमति नमी, मसी घनघाति विनाशी ॥५॥ पद्मप्रन शिववास पास, जवनावना तोडी ॥ एकादशी दिन आपणी,ज्ञछि सघली जोमी॥६॥ दश देत्र त्रिहुं कालनां, त्रणशें कल्याण ॥ वरस अग्यार एकादशी,आराधो वर नाण ॥ ७॥ अगीयार अंग लखावीयें, एकादश पागं पंजणी ठवणी विंटणी, मषी कागल कागं ॥॥ अगीयार अव्रत गंगवां ए, वहो पमिमा अगीयार ॥ खिमा विजय जिनशासनें, सफल करो अवतार ॥ ए ॥१७॥ ॥अथ चोवीश तीर्थकरनी राशियोनुं चैत्यवंदन ॥ ॥ शांति नमी मसी मेष ने, कुंथु अजित वृष नाति ॥ संनव अभिनंदन मिथुन, धर्म करक सिंह सुमति ॥ १॥ कन्या पद्मप्रन नेम वीर, पास सुपास तुला ए ॥ शशी वृश्चिक धन झपनदेव, सुविधि शीतल जिनराय॥२॥ मकर सुव्रत श्रेयांसने ए, बारमा घट मीन लील ॥ विमल अनंत अर नामथी, सुखीया श्री शुजवीर ॥३॥ इति ॥ १७ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ प्रतिक्रमण सूत्र. ॥ अथ श्रीपरमात्मानु चैत्यवंदन ॥ ॥ परमेश्वर परमातमा, पावन परमिह ॥ जय जगगुरु देवाधिदेव, नयणे में दिह ॥१॥ अचल अकल अविकार सार, करुणारससिंधु ॥ जगतीजन आधार एक, निःकारण बंधु ॥२॥ गुण अनंत प्रजु ताहरा ए, कि मही कल्या न जाय ॥राम प्रजु जिन ध्यानथी, चिदानंद सुख थाय॥३॥२॥ ॥अथ श्रीजिनपूजा, चैत्यवंदन ॥ ॥ निजरूपें जिननाथके, अव्ये पण तिमही ॥ नाम थापना नेदथी, प्रगट जगमांही ॥१॥अध्यातमयी जोडीयें, निकेपा चार ॥ प्रजुरूप समान नाव, पामे निरधार ॥२॥ पावन आतमनें करे ए, जन्म जरादि दूर ॥ ते प्रनु पूजा ध्यानथी, राम कहे सुख पूर ॥३॥ इति ॥२१॥ ॥अथ श्रीचंदकेवलीना रासमांथी चैत्यवंदन. ॥अरिहंत नमो नगवंत नमो, परमेसर जिनराज नमो ॥ प्रथम जि नेसर प्रेमें पेखत, सिझां सघलां काज नमो। अ० ॥१॥ प्रनु पारंगत परम महोदय, अविनाशी अकलंक नमो ॥ अजर अमर अद्भुत अतिश यनिधि, प्रवचन जलधिमयंक नमो ॥ अ० ॥२॥ तिहुयण नवियणजन मन वंबिय, पूरण देव रसाल नमो ॥ ललि ललि पाय नमुं हुं नालें, कर जोमीने त्रिकाल नमो ॥ अ० ॥३॥ सिझ बुझ तूं जग जन सजन, नय नानंदन देव नमो ॥ सकल सुरासुर नर वर नायक, सारे अहो निश सेव नमो ॥ अ॥४॥ तूं तीर्थंकर सुखकर साहिब, तुं निःकारण बंधु नमो ॥ शरणागत नविने हितवत्सल, तुंही कृपारससिंधु नमो ॥ अ० ॥५॥ केवलज्ञानादर्श दर्शित, लोकालोक खन्नाव नमो ॥ नाशितसकलकलंकक खुषगण, कुरित उपप्रवन्नाव नमो ॥ अ० ॥ ६ ॥ जगचिंतामणि जगगुरु जगहित, कारक जगजननाथ नमो ॥ घोर अपार नवोदधितारण, तूं शिवपुरनो साथ नमो ॥ अ॥ ७॥ अशरण शरण नीराग निरंजन, निरुपाधिक जगदीश नमो॥ बोधि दीयो अनुपम दानेसर, ज्ञानविमल सूरीश नमो ॥ अ० ॥॥ इति ॥२२॥ ॥अथ श्री शंखेश्वर पार्श्वजिनबंद ॥ ॥ सेवो पास संखेसरो मन्न शुळें, नमो नाथ निश्चें करी एक बुझें ॥ देवी देवलांअन्यने शुं नमो डो, अहो नव्यलोको जुलां कां नमो जो ॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवंदनानि ५१ए त्रिलोकना नाथने शुं तजो बो, पड्या पाशमां नूतने का जजो दो ॥ सुरधेनु बंमी अजा शुं अजो डो, महापंथ मूकी कुपंथें व्रजो डो॥॥ तजे कोण चिंतामणि काचमाटें, ग्रहे कोण रासनने हस्ति साटें ॥ सुर सुम उपानी कुण आक वावे, महामूढ ते आकुला अंत पावे ॥३॥ किहां कांकरो ने किहां मेरुशृंगं, किहां केशरी ने किहां ते कुरंग ॥ किहां विश्वनाथ किहां अन्य देवा, करो एकचित्तें प्रनु पास सेवा ॥ ४ ॥ पूजो देव प्रनावती प्राणनाथ, सह जीवने जे करे ने सनाथं ॥ महा तत्त्व जाणी सदा जेह ध्यावे, तेनां फुःख दारिज दरें पलावे ॥५॥ पामी मानु षोने वृथा कां गमो डो, कुशीलें करी देहनें कां दमो बो॥नहीमुक्तवासं विना वीतरागं, जजो जगवंतं तजो दृष्टिरागं ॥ ६॥ उदयरत्न लांखे सदा हेत आणी, दयाजाव कीजें प्रनु दास जाणी॥ आज माहरे मोतीडे मेह वुझा, प्रजु पास शंखेश्वरो आप तूग ॥ ७ ॥इति ॥ ॥ अथ पार्श्वजिनस्तोत्रं लिख्यते ॥ ॥ कल्याणकेलिसदनाय नमोनमस्ते, श्रीमत्सरोजवदनाय नमोनम स्ते ॥ रागारिवारकदनाय नमोनमस्ते, वजानिरामरदनाय नमोनमस्ते ॥१॥ अंनोधरानकरणाय न॥ लोकातिरिक्तवरणाय न० ॥ संसारवा र्षितरणाय न ॥ त्रैलोक्यसारशरणाय न० ॥ ॥ सन्निर्मितांत्रिमहनाय न० ॥ रागोरुदारुदहनाय न० ॥ विध्वस्तकृत्स्नकुहनाय न० ॥ पुण्यमा लिगहनाय न० ॥ ३॥ संसारतापशमनाय न० ॥ निर्दाक्यदायदमनाय न० ॥ सुव्यक्तमुक्तिगमनाय न ॥ रूपानिनूतकमनाय न ॥४॥ पा पौघपांसुपवनाय न० ॥ सेवापर त्रिजुवनाय न० ॥ क्रोधाशुशुणिवनाय न ॥ संमृत्युदन्वदवनाय न० ॥५॥ नेत्रा निनूतकमलाय न० ॥ शका चितांघ्रियमलाय न० ॥ निर्ना शिताखिलमलाय न ॥ पद्मोलसत्परिम लाय न० ॥ ६ ॥ श्री अश्वसेनतनयाय न० ॥ सर्वानुतैक विनयाय न० ॥ विख्यातनिश्चितनयाय न ॥ निर्णीतयुपनयाय न० ॥ ॥ श्रीसंघर्ष सुविनेयकधर्मसिंह, पादारविंदमधुलिएमुनिरत्नसिहः ॥ पार्श्वप्रजोर्नगव तः परमं पवित्रं, स्तोत्रं चकार जनतानिमतार्थ सिध्यै ॥ ७ ॥ ॥ अथ श्री महावीर जिन बंद ॥ ॥ सेवो वीरने चित्तमां नित्य धारो, अरि क्रोधने मन्नथी दूर वारो ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० प्रतिक्रमण सूत्र. संतोष वृत्ति धरो चितमांहि, राग द्वेषधी दूर था उचाहिं ॥१॥पड्या मोह ना पासमां जेह प्राणी, शुद्धतत्त्वनी वात तेणें न जाणी ॥ मनु जन्म पामी वृथा कां गमो डो, जैनमार्ग बंमी जुलां कां नमो बो॥॥अलोनी अमानी नीरागी तजो बो, सलोनी समानी सरागी नजो गे॥ हरि हरादिअन्य थी शुं रमो बो, नदी गंग मूकी गलीमां पमो बो॥३॥ केश देव हाथे असि चक्रधारा, केश देव घाले गले रुंढमाला ॥ केश देव उत्संगें राखे वामा, केश देव साथें रमे वृंद रामा ॥४॥ केश देव जपे लेश जापमाला, केश मांसनदी महावीकराला ॥केश् योगिणी नोगिणी नोग रागें, केश रुजाणी बागनो होम मागे ॥५॥ श्स्या देव देवी तण। आश राखे, तदा मुक्तिनां सु खने केम चाखे ॥ जदा लोलना थोकनो पार नाव्यो, तदा मधनो बिंदु मन्न नाव्यो ॥६॥ जेह देवलां आपणी श्राश राखे, तेह पिंमने मन्नगुं आय चाखे ॥ दीन हीननी नीम ते केम नांजे, फुटो ढोल होये कहो के म वाजे ॥ ॥ अरे ! मूढ जाता नजो मोददाता, अलोजी प्रजुने नजो विश्वख्याता ॥ रत्न चिंतामणि सारिखो एह साचो, कलंकी काचना पिंग शुं मत्त राचो ॥॥ मंदबुद्धिशुं जेह प्राणी कहे , सवि धर्म एकत्व नू लो जमे ॥ किहां सर्षवा ने किहां मेरु धीरं, किहां कायरा ने किहां शूरवी रं॥ए॥ किहां स्वर्णथालं किहां कुंचखंडं, किहां कोऽवा ने किहां खीर मं ॥ किहां दीरसिंधु किहां दारनीरं, किहां कामधेनु किहां बागखीरं ॥ १०॥ किहां सत्यवाचा किहां कूमवाणी, किहां रंकनारी किहां राय राणी ॥ किहां नारकी ने किहां देवनोगी, किहां छ देही किहां कुष्ठरोगी ॥ ११॥ किहां कर्मघाती किहां कर्मधारी, नमो वीरस्वामी नजो अन्य वारी ॥ जिसी सेजमां स्वप्नथी राज्य पामी, राचे मंदबुद्धि धरी जेह खा मी॥१२॥ अथिर सुख संसारमा मन्न माचे, ते जना मूढमां श्रेष्ठ शुं श्ष्ट गजे ॥ तजो मोह माया हरो दंजरोषी, सजो पुण्य पोषी नजो ते अ रोषी ॥१३॥ गति चार संसार अपार पामी, आव्या आश धारी प्रजु पाय खामी ॥ तुहीं तुहीं तुहीं प्रजु परमरागी, जव फेरनी शृंखला मोह नांगी ॥१४॥मानियें वीरजी अर्ज के एक मोरी, दीजें दासकू सेवना चरण तोरी॥ पुण्य उदय हुउँ गुरु आज मेरो, विवेके लह्यो में प्रजु दर्श तेरो॥१५॥ति॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंद. ५१ ॥ अथ श्री गौतमाष्टक बंद ॥ ॥ वीर जिणेसर केरो शिष्य, गौतम जपो निशदिस ॥ जो कीजें गौ तमनुं ध्यान, तो घर विलसे नवे निधान॥१॥ गौतम नामें गिरिवर चढे, मनोवांबित हेला संपजे ॥ गौतम नामें नावे रोग, गौतम नामें सर्व संयो ग ॥२॥ जे वैरी विरुया वंकमा, तस नामें नावे इकडा ॥ नूत प्रेत नवि खंडे प्राण, ते गौतमनां करुं वखाण ॥३॥ गौतम नामे निर्मल काय, गौतम नामें वाधे आय ॥ गौतम जिनशासन शणगार, गौतम नामें जयजयकार ॥ ४ ॥ शाल दाल सुरहा घृत गोल, मनोवांडित का पम तंबोल ॥ घर सुगृहिणी निर्मल चित्त, गौतम नामें पुत्र विनीत ॥५॥ गौतम उदयो अविचल नांण, गौतम नाम जपो जग जाण ॥ महोटां मं दिर मेरु समान, गौतम नामें सफल विहाण ॥ ६॥ घर मयगल घोमा नी जोम, वारू पहोंचे वांछित कोम ॥ महियल माने महोटा राय, जो तू ठे गौतमना पाय ॥७॥ गौतम प्रणम्यां पातक टले, उत्तम नरनी संग त मले ॥ गौतम नामें निर्मल झान, गौतम नामें वाधे वान ॥ ७ ॥ पुण्य वंत अवधारो सदु, गुरु गौतमना गुण बहु ॥ कहे लावण्यसमय कर जोड गौतम तूठे संपति कोम ॥ ए॥ इति ॥ ॥अथ नवकारनो बंद ॥ ॥ पुहा ॥ वांछित पूरे विविध परें, श्री जिनशासन सार ॥ निश्चे श्री नवकार नित्य, जपतां जयजयकार ॥१॥ अडशठ अदर अधिक फल, नव पद नवे निधान ॥ वीतराग खयंमुख वदे, पंच परमेष्ठि प्रधान ॥२॥ एकज अदर एक चित्त, समस्यां संपत्ति थाय ॥ संचित सागर सातनां, पातक दूर पलाय ॥ ३॥ सकल मंत्र शिर मुकुटमणि, सङ्गुरु नाषि त सार ॥ सो नवियां मन शुद्धशु, नित्य जपीयें नवकार ॥४॥ बंद ॥ नवकारथकी श्रीपाल नरेश्वर, पाम्यो राज्य प्रसिझ॥स्मशान विषे शिवनाम कुमरने, सोवन पुरिसो सिफ॥ नव लाख जपंतां नरक निवारे, पामे नवनो पार ॥ सो नवियां नत्तें चोखे चित्तें, नित्य जपीयें नवकार ॥ ५॥ बांधि वमशाखा शिंके बेसी, हेठल कुंम हताश ॥ तस्करने मंत्र समप्यों श्रावकें, उड्यो ते आकाश ॥ विधिरीतें जपंतां विषधर विष टाले, ढाले अमृत धार ॥ सो ॥६॥ बीजोरा कारण राय महाबल, व्यंतर पुष्ट Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. विरोध ॥ जेणे नवकारें हत्या टाली, पाम्यो यद प्रतिबोध ॥ नव लाख जपंतां थाये जिनवर, इस्यो अधिकार ॥ सो० ॥ ७॥ पवीपति शिख्यो मुनिवरपासें, महामंत्र मन शुद्ध ॥ परनव ते रायसिंह पृथिवीपति, पाम्यो परिगल रिक॥ ए मंत्रथकी अमरापुर पहोतो, चारुदत्त सुविचार ॥ सो ॥ ७ ॥ संन्यासी काशी तप साधंतो, पंचाग्नि परजाले ॥ दीगे श्रीपासकुमारे पन्नग, अधबलतो ते टाले ॥ संजलाव्यो श्रीनवकार स्वयंमुख, इंज्जुवन अवतार ॥ सो ॥ ए ॥ मनशुळे जपतां मयणासुंदरी, पामी प्रिय संयोग ॥ श्ण ध्यानथकी कष्ट टट्युं उबरनु, रक्त पित्तनो रोग ॥ निश्चेशुं जपतां नवनिधि थाये, धनंतणो आधार ।। सो० ॥१० ॥ घटमांदे कृष्ण जुजंगम घाल्यो, गृहिणी करवा घात ॥ परमेष्ठि प्रजावें हार फूलनो वसुधामांहि विख्यात ॥ कमलावतीयें पिंगल कीधो, पाप तणो परिहार ॥ सो ॥ ११॥ गयणांगण जाति राखी ग्रहीने, पाडी बाण प्रहार ॥ पद पंच सुणतां पांमुपति घर, ते थक्ष कुंता नार ॥ ए मंत्र अमूलक महिमा मंदिर, नवःख नंजणहार ॥ सो॥ १५ ॥ कंबल संबलें कादव काढ्यां, शकट पांचशें मान ॥ दीधे नवकारें गया देवलोकें, विलसे अमर विमान ॥ ए मंत्रथकी संपति वसुधामां लही, विलसे जैनविहार ॥ सो० ॥ १३ ॥ आगे चोवीशी हुश् अनंती, होशे वार अनंत ॥ नवकार तणी कोश् आदि न जाणे, एम नांखे अरिहंत ॥ पूरव दिशि चारे आदि प्रपंचें, समरे संपति थाय ॥ सो ॥ १४ ॥ परमेष्ठि सुरपद ते पण पामे, जे कृत कर्म कठोर ॥पूंगरगिरि उपर प्रत्यद पेख्यो, मणिधर ने एक मोर ॥ सह गुरु सन्मुख विधे समरंतां, सफल जनम संसार ॥ सो ॥१५॥ शलि कारोपण तस्कर कीधो,लोहखरो परसिझ॥तिहांशेजें नवकार सुणाव्यो, पाम्यो अमरनी रिझ॥शेठने घर आवी विघ्न निवास्या,सुरें करीमनोहार॥सो॥१६ पंच परमेष्ठि ज्ञानज पंचह,पंच दान चारित्र।पंच सद्याय महाव्रत पंचह, पंच समिति समकित ॥ पंच प्रमाद विषय तजो पंचह, पालो पंचाचार ॥सो ॥१७॥कलश॥ बप्पय ॥ नित्य जपीयें नवकार,सार संपत्ति सुखदायक ॥ सिक मंत्र शाश्वतो,जपे एम श्री जगनायक ॥ श्री अरिहंत सुसिझ,शुद्ध आचार्य गणीजें॥श्री उवद्याय सुसाधु,पंच परमेष्ठीथुणीजें।नवकार सार संसार डे कु शल लान वाचक कहे । एक चित्तें आराधतां,विविध ज्ञछि वांडित लहे॥१॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंद. ५३ ॥ अथ श्री शोल सतीनो बंद ॥ ॥ आदि नाथ आदें जिनवर वंदी, सफल मनोरथ कीजियें ए॥प्रचातें उठी मांगलिक कामें, शोल सतीनां नाम लीजिये ए॥१॥ बाल कुमारी जग हितकारी, ब्राह्मी जरतनी बहेनमी ए ॥ घट घट व्यापक अदर रूपें, शोल सतीमांहे जे वमी ए ॥२॥ बाहुबल लगिनी सतीयशिरोमणि, सुंदरी नामें झषनसुता ए ॥ अंक वरूपी त्रिजुवनमांहे जेह अनुपम गुणजुता ए ॥३॥ चंदनबाला बालपणाथी, शीयलवती शुफ श्राविका ए ॥ अमदना बाकुला वीर प्रतिलान्या, केवल लही व्रत नाविका ए॥४॥ उग्रसेन धुश्रा धारिणी नंदनी, राजिमती नेम ववना ए॥जोबन वेशे कामने जीत्यो, संयम लेश देव पुखना ए॥५॥ पंच जरतारी पांमव नारी, पद तनया वखाणीयें ए ॥ एक शो आठे चीर पूराणां, शीयलमहिमा तस जाणीयें ए ॥ ६॥ दशरथ नृपनी नारी निरुपम, कौशल्या कुलचंडिका ए ॥ शीयल सलूणी राम जनेता, पुण्य तणी परणातिका ए॥७॥ कोशं विक गमें संतानिक नामें, राज्य करे रंग राजीयो ए ॥ तस घर गृहिणी मृगावती सती,सुरजुवनें जस गाजीयो ए ॥ सुलसा साची शीयलें न काची, राची नहिं विषयारसें ए ॥ मुखमु जोतां पाप पलाये, नाम लेतां मन उससे ए॥॥ राम रघुवंशी तेहनी कामिनी, जनकसुता सीता सती ए ॥ जग सहु जाणे धीज करंतां, अनल शीतल थयो शीलथी ए ॥१०॥ काचे तांतणे चालणी बांधी,कूवाथकी जल काढीयु ए ॥ कलंक उतारवा सती सुनना, चंपा बार उधामीयु ए ॥११॥सुरनर वंदित शीयल अखं मित, शिवा शिवपदगामिनी ए ॥ जेहने नामें निर्मल थश्यें,बलिहारी तस नामनी ए ॥ १२ ॥ हस्तिनागपुरें पांमुरायनी, कुंता नामें कामिनी ए ॥ पांमव माता दसे दसारनी,बहेन पतिव्रता पद्मिनी ए॥१३॥शीयलवती नामें शीलबतधारि णी, त्रिविधं तेहने वंदीयें ए॥नाम जपंतां पातक जाये, दरिसण पुरित नि कंदीयें ए॥'॥ निषिधा नगरी नलह नरिंदनी, दमयंती तस गेहिनी ए॥सं कट पमतां शीयलज राख्युं, त्रिजुवन कीर्ति जेहनी ए ॥१५॥ अनंग अजीता जगजन पूजिता, पुप्फचूला ने प्रनावती ए ॥ विश्वविख्याता कामितदाता, शोलमी सती पद्मावती ए ॥१६॥वीरें नांखी शास्त्रे साखी, उदयरतन नांखे मुदा ए । वहाणुं वातां जे नर जणशे, ते लहेशे सुख संपदाए ॥१७॥ इति॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ प्रतिक्रमण सूत्र. ॥ अथ मंगल चार ॥ ॥ सिझार्थ नूपति सोहे दात्रियकुमें, तस घेर त्रिशला कामिनी ए॥ गजवर गामिनी पोढिय नामिनी, चउद सुपन लहे जामिनी ए॥ त्रुटक ॥ जामिनी मध्ये शोलतां रे, सुपन देखे बाल॥मयगल वृषन ने केसरी, कमला कुसुमनी माल ॥छ दिनकर ध्वजा सुंदर, कलश मंगल रूप ॥ पद्मसर जलनिधि उत्तम, अमरविमान अनूप ॥ रत्ननो अंबार उज्ज्वल, वन्हि निर्धूम ज्योत ॥ कल्याण मंगलकारी माहा, करत जग उद्योत ॥ चौद सुपन सूचित विश्वपूजित, सकल सुखदातार ॥ मंगल पहेढुं बोलीयें ए, श्री वीर जगदाधार ॥१॥ मगध देशमा नयरी राजगृही, श्रेणिक नामें नरेशरू ए॥ धनवर गोवर गाम वसे तिहां, वसुन्नूति विप्र मनोहरु ए ॥त्रुटकमनोहरु तस मानिनी, पृथवी नामें नार ॥ अनूति आदें अजे,त्रण पुत्र तेहने सार ॥ यज्ञकर्म तेणें आदमु, बहु विप्रने समुदाय॥ तेणें समे तिहां समोसस्या, चोवीशमा जिनराय ॥ उपदेश तेहनो सांजली, लीधो संयम नार ॥ अगीयार गणधर थापीया, श्री वीरें तेणी वार ॥ अनूति गुरुनगतें थयो, महा लब्धिनो नंमार ॥ मंगल बीजुं बोलीयें, श्री गौतम प्रथम गणधार ॥॥ नंद नरिंदनो पामली पुरवरें, सकमाल नामें मंत्री सरू ए॥लाबलदे तस नारी अनुपम, शीयलवती बहुसुखकरू ए॥त्रुटक॥ सुखकरू संतान नव दोय, पुत्र पुत्री सात ॥ शीयलवंतमां शिरोमणि, थूविना जग विख्यात ॥ मोहवशें वेश्यामंदिर, वस्या वर्षज बार ॥ जोग नली पेरें नोगव्या, ते जाणे सहु संसार ॥ शुद्ध संयम पामी वि षय वामी, पामी गुरु आदेश ॥ कोश्याआवासें रह्या निश्चल, मग्यो नहिं लवलेश ॥ शुद्ध शीयल पाले विषय टाले, जगमा जे नर नार ॥ मंगल त्रीजुं बोलीयें, श्री धूलिन अणगार ॥३॥ हेम मणि रूप मय घ मित अनुपम, जडित कोशीसां तेजें ऊगे ए ॥ सुरपतिनिर्मित त्रण गढ शोनित, मध्ये सिंहासन जगमगे ए॥ त्रुटकाऊगमगे जिन सिंहासनेए, वा जिन कोमा कोम॥ चार निकायना देवता, ते सेवे बेहु कर जोम ॥ प्रातिहा रज आठशुं रे, चोत्रीश अतिशयवंत ॥ समवसरणे विश्वनायक, शोने श्री जगवंत ॥ सुर नर किन्नर मानवी, बेठी ते पर्षदा बार ॥ उपदेश दे अ रिहंतजी, धर्मना चार प्रकार ॥ दान शीयल तप जावना रे, टाले सघलां Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार मंगल तथा स्तुतयः कर्म ॥ मंगल चोथु बोलीयें, जगमांहे श्री जिनधर्म ॥ए चार मंगल गावशे जे, प्रनातें धरी प्रेम ॥ ते कोमि मंगल पामशे, उदयरत्न नांखे एम॥४॥ ॥ अथ श्री वीतरागाष्टकं ॥ भुजंगप्रयात बंद ॥ ॥ शिवं शुद्ध बुझ परं विश्वनाथं, न देवो न बंधुन कर्म न कर्ता ॥ न अंगं न संगं न चेठा न कामं, चिदानंदरूपं नमो वीतरागं ॥१॥न बं धो न मोदो न रागादि लोकं, न योगं न नोगं न व्याधिन शोकं ॥न को धं न मानं न माया न लोनं ॥ चि० ॥॥ न हस्तौ न पादौ न घ्राणं न जिह्वा, न चकुर्न कर्णं न वक्रं न निमा ॥ न स्वामी न नृत्यं न देवो न मयं ॥ चि० ॥३॥ न जन्मं न मृत्युर्न मोदं न चिंता, न कुमो न जी तो न कृश्यं न तुंडा ॥ न स्वेदं न खेदं न वर्णं न मुजा ॥ चि॥४॥ त्रिदंडे त्रिखंडे हरे विश्वनाथं, हृषीकेश विध्वस्त कर्मा रिजालं ॥ न पुण्यं न पापं न चादादि प्रायं ॥ चि०॥५॥ न बालो न वृद्धो न तुबो न मूढो, न खेदं न नेदं न मूर्त्तिन मेहा ॥ न कृष्णं न शुक्लं न मोहं न तंडा ॥ चि०॥६॥ न आद्यं न मध्यं न अंतं न मन्या, न अव्यं न क्षेत्रं न दृष्टो न नावा ॥ न गुरुन शिष्यो न हीनं न दीनं ॥ चि० ॥ ७॥ इदं ज्ञान रूपं स्वयं तत्त्ववेदी, न पूर्ण शून्यं न चैत्यस्वरूपी ॥ न चान्योऽन्य निन्नं न परमार्थमेकं ॥ चि॥ ॥ शार्दूलविक्रीमितं वृत्तं ॥ आत्माराम गुणाकरं गुणनिधिं चैतन्यरत्नाकरं, सर्वे नूतगतागते सुखःखे झाते त्वया सर्वगे ॥ त्रैलोक्याधिपते स्वयं स्वमनसा ध्यायति योगी श्वरा, वंदे तं हरिवंशहर्षहृदयं श्रीमान् हृदान्युद्यतम् ॥ ए॥ इति ॥ ॥अथ स्तुतयोविख्यते ॥ ॥ तत्र प्रथम श्री सीमंधर जिनथोय ॥ ॥ सीमंधर जिनवर, सुखकर साहेब देव ॥ अरिहंत सकलनी, जाव धरी करूं सेव ॥ सकल आगम पारग, गणधर नांखित वाणी ॥ जयवंती आणा, ज्ञानविमल गुणखाणी ॥१॥ ए थोय चार वखत पण कहेवाय जे. ॥अथ सीमंधरजिननी थोय ॥ ॥ श्रीसीमंधर देव सुहंकर, मुनि मन पंकज हंसा जी ॥ कुंथु अर जिन अंतर जनम्या, तिहुश्रण जस परशंसा जी ॥ सुव्रत नमि अंतर वरी दीदा, शिक्षा जगत निरासें जी ॥ उदय पेढाल जिनांतरमा प्रजु, जाशे शिववह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ प्रतिक्रमण सूत्र. पासें जी ॥१॥ बत्रीश चउसकि चउसकि मलिया, गसहि उकिका जी॥ चन अम अम मली मध्यम कालें, वीश जिनेश्वर दिका जी॥दो चउ चार जघन्य दश जंबु, धाय पुरकर मोकारें जी ॥ पूजो प्रणमो आचारांगें, प्रव चनसार उझारें जी ॥२॥ सीमंधर वर केवल पामी, जिनपद खवण निमित्तें जी ॥ अर्थ निदेशन वस्तु निवेशन, देतां सुणत विनीतें जी ॥ छा दश अंग पूरवयुत रचियां, गणधर लब्धि विकसियां जी ॥ अपडावसिय जिनागम वंदो, अदर पदना रसियां जी ॥३॥ आणारंगी समकितसंगी, विविध जंग व्रतधारी जी ॥ चनविह संघ तीरथ रखवाली, सहु उपव हरनारी जी ॥ पंचांगुली सूरि शासनदेवी, देती तस जस झकि जी ॥ श्रीशुनवीर कहे शिव साधन, कार्य सकलमां सिछि जी ॥४॥ इति ॥ ॥अथ आदि जिनस्तुति प्रारंजः ॥ ॥आदि जिनवर राया, जास सोवन्न काया, मरुदेवी माया, धोरी लंबन पाया ॥ जगत स्थिति निपाया शुद्ध चारित्र पाया, केवल सिरीराया.मोद नगरें सिधाया ॥१॥ सवि जन सुखकारी, मोह मिथ्या निवारी,पुरगति पुःख जारी, शोक संताप वारी ॥श्रेणि क्षपक सुधारी, केवलानंतधारी, नमियें नर नारी, जेह विश्वोपकारी ॥२॥ समवसरण बेग, लागे जे जिन मीग, करे गणप पश्छा, चंडादि दिहा॥छादशांगी वरिहा,{ थतां टाले रिठा, नविजन होय हिका, देखि पुण्य गरिहा ॥३॥ सुर समकितवंता, जेह झळ महंता, जेह सुजनसंता, टालियें मुज चिंता ॥ जिनवर सेवंतां, विघ्न वारे पुरंता, जिन उत्तम थुणंता, पद्मनें सुख दिता ॥४॥ इति ॥ ॥अथ शाश्वत जिनस्तुति ॥ ॥षन चंडानन वंदन कीजें. वारिषेण फुःख वारे जी ॥ वर्कमान जि नवर वली प्रणमो, शाश्वत नाम ए चारे जी ॥ जरतादिक क्षेत्र मली होवे, चार नाम चित्त धारे जी ॥ तेणें चार ए शाश्वत जिनवर, नमीयें नित्य सवारें जी ॥ १॥ ऊर्ध्व अधो ती लोकें थ,कोमी पन्नरशे जाणो जी॥ उपर कोमी बहेंतालीश प्रणमो, अमवन्न लख मन आणो जी ॥ त्रीश सहस एंशी ते उपर, बिंब तणो परिमाणो जी॥असंख्यात व्यंतर ज्योति षीमां, प्रणमुं ते सुविहाणो जी ॥२॥ रायपश्रेणी जीवा निगमें, जगवती सूत्रं जांखी जी॥जंबूलीपपन्नत्ती गणांगें, विवरीने घणुं दाखी जी ॥ वलीय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तुतयः ५२७ शाश्वती ज्ञाताकल्पमां, व्यवहार प्रमुखं यखी जी ॥ ते जिन प्रतिमा लोपे पापी, जिहां बहु सूत्र वे साखी जी ॥ ३ ॥ ए जिन पूजाथी आरा धक, ईशानइंद्र कहाया जी ॥ तिम सूरियान प्रमुख बहु सुरवर, देवी तणा समुदाया जी ॥ नंदीश्वर हा महोत्सव, करे अति हर्ष जराया जी ॥ जिन उत्तम कल्याणक दिवसें, पद्मविजय नमे पाया जी ॥ ४ ॥ ॥ अथ श्री सिद्धचक्रस्तुति ॥ ॥ जिन शासन वंबित, पूरण देव रसाल ॥ जावें जवि जणी यें, सिद्धचक गुणमाल || त्रिहुं कालें एहनी, पूजा करे उजमाल || ते मर मर पद, सुख पामे सुविशाल ॥ १ ॥ अहंत सिद्ध वंदो, याचारिज उवसाय, मुनि दरिसण नाण, चरण तप ए समुदाय ॥ ए नवपद समुदित, सिद्धचक्र सुखदाय ॥ ए ध्यानें जविनां, जव कोटि दुःख जाय ॥२॥ यासो चैत्री मां, शुदि सातमयी सार ॥ पूनम लगें कीजें, नव बिल निरधार ॥ दोय सहस गणेयुं, पद सम सामा चार ॥ एकाशी यांबिल तप, श्रागमने अनु सार ॥ ३ ॥ सिद्धचक्रनो सेवक, श्री विमलेसर देव || श्रीपालती परें, सुख पूरे स्वयमेव ॥ दुःख दोहग नावे, जे करे एहनी सेव ॥ श्रीसुमति सुनो, राम कहे नित्यमेव ॥ ४ ॥ इति ॥ ॥ सिद्धचक्रस्तुति ॥ ॥ अरिहंत नमो वलि सिद्ध नमो, चारज वाचक साहु नमो ॥ दर्शन ज्ञान चारित्र नमो तप, ए सिद्धचक्र सदा प्रणमो ॥ १ ॥ अरिहंत अनंत या थाशे, वलि जाव निरकेपे गुण गाशे ॥ परिक्रमणां देववंदन विधिशुं बिल तप गणुं गणो विधिशुं ॥ २ ॥ बरिपाली जे तप करशे, श्रीपाल तण परें जव तरशे ॥ सिद्धचक्रने कुण आवे तोलें, एहवा जिन आगम गुण बोले || ३ || सामाचारे वरसें तप पूरूं, ए कर्म विदारण तप शुरू || सिद्धचक मनमंदिर थापो, नयविमलेसर वर यापो ॥ ४ ॥ इति ॥ ॥ अथ बीज तिथिनी स्तुति ॥ ॥ दिन सकल मनोहर, वीज दिवस सु विशेष ॥ राय राणा प्रणमे, चंद्र ती ज्यां रेख || तिहां चंद्र विमानें, शाश्वत जिनवर जेह || हुं बीज तो दिन, प्रणमं णी नेह ॥ १ ॥ अजिनंदन चंदन, शीतल शीतलनाथ ॥ अरनाथ सुमति जिन, वासुपूज्य शिव साथ ॥ इत्यादिक जिनवर, जन्म Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एशन प्रतिक्रमण सूत्र. ज्ञान निर्वाण ॥ हुं बीजतणे दिन, प्रणमुं ते सुविहाण ॥२॥ परकाश्यो बीजें, छविध धर्म जगवंत ॥ जेम विमला कमला, विउल नयनविकसंत ॥ आगम अति अनुपम, जिहां निश्चय व्यवहार ।। बीजें सविकीजें, पातक नो परिहार ॥३॥ गजगामिनी कामिनी, कमल सुकोमल चीर ॥ चके सरी केशरी, सरस सुगंध शरीर ॥ कर जोडी बीजें, हुं प्रणमुं तस पाय ॥ एम लब्धिविजय कहे, पूरो मनोरथ माय ॥ ४ ॥ इति ॥ ॥अथ पंचमीनी स्तुति ॥ ॥ श्रावण शुदि दिन पंचमी ए, जनम्या नेम जिणंद तो ॥ श्यामवर्ण तन शोजतुं ए, मुख शारदको चंद तो॥सहस वरस प्रजु आउखुं ए, ब्रह्मचा री जगवंत तो॥अष्ट करम हेलें हणी ए, पहोता मुक्ति महंत तो ॥१॥ अष्टा पद आदि जिन ए, पहोता मुक्तिमकार तो॥ वासुपूज्य चंपापुरी ए, नेम मुक्ति गिरनार तो ॥ पावापुरी नगरीमां वलि ए, श्री वीरतणुं निर्वाण तो॥ समेत शिखर वीश सिद्ध हुआ ए, शिर वहु तेहनी आण तो॥२॥ नेमनाथ झानी हुवा ए, नांखेसार वचन्न तो॥जीवदया गुणवेलमी ए, कोजें तास जत न तो।मृषान बोलो मानवी ए, चोरी चित्त निवार तो॥अनंत तीर्थंकर एम कहे ए, परहरियें परनार तो ॥३॥ गोमेद नामें यद जलो ए, देवीश्रीशं बिका नाम तो॥शासन सांनिध्य जे करे ए, करे वति धर्मनां काम तो॥त पगबनायक गुण निलो ए, श्री विजयसैन्य सुरिराय तो ॥षनदास पाय सेवतां ए, सफल करो अवतार तो ॥४॥ इति श्री पंचमीस्तुति संपूर्णा ॥ ॥ अथ अष्टमीनी स्तुति ॥ ॥ मंगल आठ करी जस पागल, नाव धरी सुरराजजी ॥ आउजातिना कलश करिने, न्हवरावे जिनराज जी॥वीर जिनेश्वर जन्म महोत्सव, कर तां शिवसुख साधे जी॥आवमनुं तप करतां अम घर,मंगल कमला वाधे जी ॥१॥ अष्ट करम वैरी गजगंजन, अष्टापदपरें बलीया जी॥आठमे आठ सुरूप विचारी, मद आठे तस गलीया जी ॥ अष्टमी गतिपरें पहोता जि नवर,फरस आउ नहिं अंग जी ॥ आठमनुं तप करतां अम घर, नित्य नित्य वाधे रंग जी ॥२॥ प्रातिहारज आठ विराजे, समवसरण जिन राजे जी॥आग्डे आठ शो आगम नांखी, नवि मन संशय लांजे जी ॥ आठे जे प्रवचननी माता, पाले निरतिचारो जी॥ आग्मने दिन अष्ट प्रकारें, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पए स्तुतयः जीवदया चित्त धारो जी ॥३॥ अष्टप्रकारी पूजा करीने, मानव जवफल लीजें जी ॥ सिद्धाश् देवी जिनवर सेवी, अष्ट महासिद्धि दीजें जी॥आठ मर्नु तप करतां लीजें, निर्मल केवल ज्ञान जी ॥ धीर विमल कवि सेवक नय कहे, तपथी कोडि कल्याण जी ॥४॥ इति ॥ ॥अथ एकादशीनी स्तुति ॥ ॥ एकादशी अति रूअमी, गोविंद पूजे नेम ॥ कोण कारण ए पर्व महो टुं, कहो मुझशुं तेम ॥ जिनवर कल्याणक अति घणां, एकशो ने पंचास॥ तिण कारण ए पर्व महोटुं, करो मौन उपवास ॥१॥ अगियार श्रावक तणी प्रतिमा, कहे ते जिनवर देव ॥ एकादशी एम अधिक सेवो,वनगजा जिम रेव ॥ चोवीश जिनवर सयल सुखकर, जेसा सुरतरु चंग ॥ जेम गंग निर्मल नीर जेह, करो जिनशुं रंग ॥२॥ अगीयार अंग लखावियें, अगीयार पागं सार ॥ अगियार कवली विंटणां, उवणी पूंजणी सार ॥ चाबखी चंगी विविधरंगी, शास्त्र तणे अनुसार ॥ एकादशी एम ऊजवो, जेम पामियें नवपार ॥३॥ वर कमलनयणी कमलवयणी, कमल सुकोम ल काय ॥ जुजदंड चंड अखंड जेहने, समरंतां सुख थाय ॥ एकादशी एम मन वसी, गणि हर्ष पंमित शिष्य ॥ शासनदेवी विधन निवारो, संघ तणां निश दिस ॥४॥ इति स्तुति ॥ ॥अथ वीश स्थानकना तपनी स्तुति ॥ ॥प्रबे गौतम वीरजिणंदा, समवसरण बेग सुखकंदा, पूजित अमर सुरिंदा ॥ केम निकाचे पद जिनचंदा, किण विध तप करतां नवफंदा, टाले पुरितह दंदा ॥ तव नांखे प्रजुजी गतनिंदा, सुण गौतम वसुनूतिनंदा, नि मल तप अरविंदा ॥ वीश थानक तप करत महिंदा, जिम तारक समुदायें वृंदा, तिम ए सवि तप कंदा ॥१॥ प्रथम पदें अरिहंत नमीजें, बीजे सिक पवयण पद त्रीजे, आचारज थेर उवीजें ॥ उपाध्याय ने साधु ग्रही जें, नाण दंसण पद विनय वहीजें, अगीयारमे चारित्र लीजें ॥ बनवयधा रिणं गणीजें, किरियाणं तवस्स करीजें, गोयम जिणाणं लहीजें ॥ चारित्र नाण श्रुत तिबस्स कीजें, त्रीजे लव तप करत सुणीजें, ए सवि जिन तप लीजें ॥२॥ आदि नमो पद सघले ठवीश, बार पन्नर बार वली बत्रीश, दश पणवीस सगवीस ॥ पांच ने समश: तेर गणीश,सत्तर नव कि ६७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० प्रतिक्रमण सूत्र. रिया पञ्चवीश, बार अहावीश चवीश ॥ सीत्तेर गवन्न पीस्तालीश,पांच लोगस्स काउस्सग्ग रहीश, नोकरवाली वीश ॥ एक एक पढ़ें उपवासज वीश, मास खटें एक उली करीश, श्म सिझांत जगीश ॥३॥ शक्तें ए कासणुं तिविहार, ह अहम मास खमण उदार, पमिकमणां दोय वार ॥ इत्यादिक विधि गुरुगम धार, एक पद धाराधन नव पार, उजमणुं वि विध प्रकार ॥ मातंग यद करे मनोहार, देवी सिझाई शासन रखवाल, सं घविघन अपहार ॥ खिमाविजय जस ऊपर प्यार, शुन नवियण धर्मी आधार, वीरविजय जयकार ॥ ४ ॥ इति ॥ ॥अथ पर्युषण स्तुति ॥ ॥ सत्तरजेदी जिनपूजा, रचीने, स्नात्र महोत्सव कीजें जी ॥ ढोल ददा मा नेरी नफेरी, जबरी नाद सुणीजें जी ॥ वीरजिन आगल नावना ना वी, मानवजव फल लीजें जी ॥ पर्व पजूसण पूर्व पुण्यें, आव्यां श्म जा णीजें जी ॥१॥ मास पास वली दसम सुवालस, चत्तारी अह कीजें जी॥ उपर वली दश दोय करीने, जिम चोवीश पूजीजें जी ॥ वडा कल्पनो बह करीने, वीर वखाण सुणीजें जी ॥ पडवेने दिन जन्म महोत्सव, धवल मं गल वरतीजें जी ॥२॥ आठ दिवस लगें अमारि पलावी, अहम, तप कीजें जी ॥ नागकेतुनी परें केवल लहीयें, जो शुलजावें रहीयें जी ॥ तेलाधर दिन त्रय कट्याणक, गणधर वाद वदीजें जी ॥ पास नेमीसर अंतर त्रीजे, षन चरित्र सुणीजें जी ॥३॥ बारशें सूत्रने सामाचारी, संवत्सरी पमिकमियें जी ॥ चैत्यप्रवामी विधिशु कीजें, सकल जंतुने खामी जें जी॥ पारणाने दिन साहम्मीवत्सल, कीजें अधिक वमाई जी॥ मानवि जय कहे सकल मनोरथ, पूरो देवी सिकाई जी ॥४॥ इति ॥ ॥अथ रोहिणीतपनी स्तुति ॥ ॥ नक्षत्र रोहिणी जेदिन आवे, अहोरत पौषध करी शुन नावें, च जविहार मन लावे ॥ वासुपूज्यनी चक्ति कीजें, गणणुं पण तस नाम जपी जें, वरस सत्तावीश लीजें ॥ थोमी शक्तं वरस ते सात, जावजीव अथवा विख्यात, तप करी करो कर्म घात ॥ निजशक्ति ऊजमणुं आवे, वासुपू ज्या बिंब जरावे, लाल मणिमय गवे ॥१॥श्म अतीत अने वर्त्तमा न अनागत वंदे जिन बहुमान, कीजें तस गुण गान ॥ तपकारकनी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. ५३१ नक्ति आदरीयें, साधर्मिक वली संघनी करियें, धर्म करी जव तरी यें ॥ रोग सोग रोहिणी तपें जाय, संकट टले तसु जस बहु थाय, तस सुर नर गुण गाय ॥ नीराशंस पणे तप एह, शंका रहित पणे करो तेह ॥ नवनिधि होय जिम गेह ॥ २ ॥ उपधान थानक जिनकल्याण, सिद्धचक्र शत्रुंजय जाण, पंचमी तप मन आए || पडिमातप रोहिणी सुखकार, कनकावली रत्नावली सार, मुक्तावली मनोहार ॥ श्राउम चउदश ने वर्द्धमान, इत्यादिक तपांदे प्रधान, रोहिणी तप बहु मान ॥ इणीपरें जांखे जिनवर वाणी, देशना मीठी अमिय समाणी, सूत्रे तेह गुंथाणी ॥३॥ चंमा यक्षणी यक्ष कुमार, वासुपूज्य शासन सुखकार, विघ्न मिटावन हार || रोहिणीतप क रता जिन जेह, इह जव परजव सुख लहे तेह, अनुक्रमे जवन बेह ॥ श्राचारी पंमित उपकारी, सत्य वचन जांखे सुखकारी, कपूरविजय व्रत धारी ॥ खिमा विजय शिष्य जिन गुरु राय, तस शिष्य गुरु मुऊ उत्तम याय, पद्मविजय गुण गाय ॥ ४ ॥ इति ॥ ॥ अथ स्तवनोनो समुदाय लिख्यते ॥ ॥ तत्र श्री सीमंधर जिन स्तवन ॥ इमर आंबा यांवली रे ॥ए देशी ॥ ॥ पुरकलव विजयें जयो रे, नयरी पुंरुरीगिणी सार ॥ श्री सीमंधर सा हिबा रे, राय श्रेयांस कुमार || जिणंदराय ॥ धरजो धर्म सनेह ॥ १ ॥ ए कणी || महोटा न्हाना अंतरो रे, गिरुया नवि दाखं ॥ शशि दरिस सायर वधे रे, कैरव वन विकसंत ॥ जि० ॥ २ ॥ ठाम कुठाम न लेखवे रे, जग वरसंत जलधार ॥ कर दोय कुसुमें वासियें रे, बाया सवि आधार ॥ जि० ॥ ३ ॥ रायने रंक सरिखा गणे रे, उद्योतें शशी सूर ॥ गंगाजल ते बिहुँ तथा रे, ताप करे सवि दूर ॥ जि० ॥ ४ ॥ सरिखा सहने तारवा रे, तिम तुमें वो महाराज ॥ मुशुं अंतर किम करो रे, बांदे यानी लाज ॥ जि० ॥ ५ ॥ मुख देखी टीलुं करे रे, ते नवि होय प्रमाण || मुजरो माने सवितो रे, साहिब तेह सुजाण ॥ जि० ॥ ॥ ६ ॥ वृषनलंबन माता. सत्यकी रे, नंदन रुकमिणी कंत ॥ वाचकजस एम वीनवे रे, जयनंजन भगवंत ॥ जि० ॥ ७ ॥ इति ॥ ॥ अथ सीमंधर जिन स्तवन ॥ ॥ सुणो चंदाजी, सीमंधर परमातम पासें जाजो ॥ मुज विनती, प्रेम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ प्रतिक्रमण सूत्र. धरीने एणी परें तुमें संजलावजो॥ए शांकणी॥ जे त्रण्य जुवननो नायक बे, जस चोश इंश पायक डे, नाण दरिसण जेहने खायक ॥ सुणो ॥१॥ जेनी कंचन वरणी काया डे, जस धोरी लंबन पाया बे, पुंगरी गिणि नगरीनो राया ॥ सुणो० ॥२॥ बार पर्षदामांहि बिराजे , जस चोत्रीश अतिशय बाजे , गुण पांत्रीश वाणीयें गाजे ने ॥ सुणोण ॥३॥ नविजननें ते पमिबोहे , तुम अधिक शीतल गुण शोहे , रूप देखी नविजन मोहे ॥ सुणोण ॥ ४ ॥ तुम सेवा करवा रसीयो ढुं, पण जरतमां दरें वसीयो बुं, महामोहराय कर फसीयो बुं ॥ सुणो॥५॥ पण साहिब चित्तमां धरियो बे, तुम आणाखग कर ग्रहियो बे, पण कांश्क मुफथी डरीयो ने ॥ सुणोण ॥ ६॥ जिन उत्तम पूंठ हवे पूरो, कहे पद्मविजय था शूरो, तो वाधे मुझ मन अति नूरो ॥सुणो॥ ७॥ ॥अथ श्री तीर्थमालास्तवनं लिख्यते ॥ ॥ शत्रुजे ऋषन समोसस्या जला गुण जख्या रे॥ सिद्धा साधु अनंत ॥ तीरथ ते नमुं रे ॥ तीन कल्याणक तिहां थयां, मुगतें गया रे ॥ नेमीश्वर गिरनार ॥ ती॥१॥ अष्टापद एक देहरो, गिरि सेहरोरे॥ जरतें जराव्यां बिंब॥तीााबु चौमुख अति जलो, त्रिजुवन तिलो रे॥ विमल वसे वस्तु पाल ॥ ती० ॥ समेतशिखर सोहामणो, रलियामणो रे ॥ सिद्धा तीर्थ कर वीश ॥ती॥नयरी चंपा निरखीयें, हैये हरखीयें, रे ॥ सिझा श्री वासु पूज्य ॥ती॥३॥ पूर्व दिशें पावा पुरी, रु नरी रे॥मुक्ति गया महावीर ॥ती॥ जेसलमेर जुहारीयें, उःख वारीयें रे॥अरिहंत बिंब अनेक ॥ती० ॥४॥विकानेरज वंदीयें, चिर नंदीये रे ॥ अरिहंत देहरां आठ ॥ती॥ सोरिसरो संखेश्वरो पंचासरो रे, फलोधी थंजण पास ॥ ती॥अंतरिक अंजावरो, अमीरो रे ॥ जीरावलो जगनाथ ॥ ती ॥ त्रैलोक्य दीपक देहरो, जात्रा करो रे ॥ राणपुरें रिसहेस ॥ ती ॥६॥ श्रीनामुलाई जाद वो, गोमी स्तवो रे ॥ श्रीवरकाणो पास ॥ ती० ॥नंदीश्वरनां देहरां, बावन जलां रे ॥ रुचककुंमलें चार चार ॥ ती० ॥ ॥ शाश्वती अशाश्वती, प्रतिमा बती रे ॥ वर्ग मृत्यु पाताल ॥ ती० ॥ तीरथ यात्रा फल तिहां, होजो मुफ शहां रे ॥ समयसुंदर कहे एम ॥ ती० ॥ ॥ इति ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. ५३३ ॥अथ श्री सिझाचलजीन स्तवन लिख्यते ॥ ॥ आंखमीयें रे में आज शत्रुजय दीगे रे, सवा लाख टकानो दाहामो रे, लागे मुने मीगे रे॥ सफल थयो रे महारा मननो उमाहो,वाहाला महा रा जवनो संशय नांग्योरे ॥ नरक तिर्यंच गति दूर निवारी, चरणे प्रजुजीने लाग्यो रे ॥ शत्रुजय दीगो रे ॥१॥ ए आंकणी॥ मानव नवनो लाहो लीजें ॥ वा० ॥ देहडी पावन कीजें रे ॥ सोना रूपाने फूलडे वधावी,प्रेमें प्रददि णा दीजें रे ॥ शत्रु ॥ ॥ उघडे पखालीने केशरें घोली ॥वा॥ श्रीश्रा दीश्वर पूज्या रे ॥ श्री सिझाचल नयणे जोतां, पाप मेवासी ध्रुज्या रे ॥ शत्रु ॥३॥ श्रीमुख सैधर्मा सुरपति आगें ॥ वा ॥ वीर जिणंद एम बोले रे ॥त्रण्य नुवनमां तीरथ महोटुं, नहिं को शत्रुजय तोलें रे॥ श॥ ॥४॥ इंजसरीखा ए तीरथनी ॥वा॥ चाकरी चित्तमां चाहे रे ॥ कायानी तो कायर काढी, सूरजकुंममां नाहे रे ॥ श॥ ॥ ५ ॥कांकरे कांकरे श्री सिझदे॥ वा ॥ साधु अनंता सिझा रे ॥ ते माटें ए तीरथ महोटुं, उझार अनंता कीधा रे श॥ ॥६॥ नाजिराया सुत नयणें जोतां ॥वा॥ मेह अमीरस वूग रे ॥ उदयरत्न कहे आज महारे पोतें, श्री आदीश्वर तूग रे श॥ध्रु० ॥ सवा० ॥ ७ ॥ इति ॥ ॥अथ श्रीसिकाचल स्तवन ॥ ॥ विमलाचल नित्य वंदीयें, कीजें एहनी सेवा ॥ मानुं हाथ ए धर्मनो, शिवतरुफल लेवा ॥ वि० ॥१॥उजाल जिनगृहमंमली, तियां दीपे उत्तं गा ॥ मार्नु हिमगिरि विज्रमें, आई अंबरगंगा वि० ॥२॥ कोई अनेरे जग नहीं, ए तीरथ तोलें ॥ एम श्रीमुख हरि आगलें, श्रीसीमंधर बोले ॥विण ॥३॥ जे सधलां तीरथ कस्यां, यात्रा फल कहीयें ॥ तेहथी ए गिरि नेटतां, शतगणुं फल लहीयें ॥ वि० ॥ ४ ॥ जनम सफल होय तेहनो, जे ए गिरि वंदें ॥ सुजस विजय संपद लहे, ते नर चिर नंदे ॥वि॥५॥ ॥अथ श्रीसिद्धाचलजीनुं स्तवन ॥ देशी लालननी ॥ ॥ सिझगिरि ध्यावो नविका, सिझगिरि ध्यावो ॥ घेर बेगं पण बहे फल पावो नविका, बहु फल पावो ॥ ए अांकणी ॥ नंदीसर यात्रायें जे फल होवे, तेथी बमणेरुं फल पुंडरगिरि होवे ॥ ज० ॥ पुं ॥१॥ तिग णुं रुचकगिरि चोगणुं गजदंता, तेथी बमणेरुं फल जंबु महंता ॥ ज० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ प्रतिक्रमण सूत्र. जं ॥ खटगणुं धातकी चैत्य जुहारें, बत्रीस गणे5 फल पुरस्कल विहारे ॥ न ॥ पु० ॥२॥ तेथी तेरशगणुं फल मेरु चैत्य जूहारें, सहस गणेरुं फल समेतशिखरे ॥ ज०॥ स० ॥ लाख गणेरुं फल अंजन गिरि जूहारें, दश लाख गणेरुं फल अष्टापद गिरनारें ॥ ज०॥०॥३॥ कोडि गणेरुं फल श्रीसिझाचल नेटें, जेम रे अनादिनां पुरित उमेटें ॥ ज०॥ कु०॥ जाव अनंतें अनंत फल पावे, ज्ञान विमल सूरि एम गुण गावे, ॥ना ए॥४॥ ॥ अथ श्री समेतशिखर गिरिनुं स्तवन ॥ क्रीडा करी घेर वियो ॥ ए देशी॥ ॥ समेत शिखर जिन वंदियें, महोटुं तीरथ एह रे॥ पार पमाडे नव तणो, तीरथ कहीये तेह रे ॥ स० ॥१॥ अजितथी सुमति जिणंद लगें, सहस मुनि परिवार रे॥ पद्मप्रनु शिव सुख वस्या,त्रणशे अड अणगार रे॥ स॥॥ पांचशे मुनिपरिवारशें, सुपास जिणंद रे ॥ चंप्रनु श्रेयांस लगें, साथे सहस मुणिंद रे ॥ स ॥३॥ हजार मुनिराजशु, विमल जिनेश्वर सिकां रे ॥ सात सहसशुं चउदमा, निज कारज वर कीधारे ॥ ॥ स ॥४॥ एकशो आठशुं धर्मजी, नवशेशुं शांतिनाथ रे ॥ कुंथु अर एक सहसशं, साचो शिवपुर साथ रे ॥ स ॥ ५॥ महिनाथ शत पांच शुं, मुनि नमि एक हजार रे ॥ तेत्रीश मुनियुत पासजी, वरिया शिव सुख सार रे ॥स॥ ६॥ सत्तावीश सहस त्रणशें, उपर जंगणपंचास रे ॥ जिन परिकर बीजा केश, पाम्या शिवपुर वास रे ॥ स० ॥ ॥ ए वीशे जिन एणे गिरि, सिझा अणसण लेई रे ॥ पद्मविजय कहे प्रणमीनें,पास शामल, चेई रे ॥ स० ॥ ७ ॥ इति ॥ ॥ अथ समेतशिखरजीतुं स्तवन ॥ ॥जश् पूजो लाल, समेत शिखरगिरि उपर पासजी शामला ॥ जिन न क्ति लाल, करतां जिनपद पावे टले नव आमला ॥ ए आंकणी ॥री पाली दर्शन करीयें, नव नव संचित पातक हरियें, निज बातम पुएयरसें नरि यें ॥ ज० ॥१॥ ए गिरिवर नित्य सेवा कीजें, जिम शिव सुखडां करमां लीजें, चिदानंद सुधारस नित्य पीजें ॥ ज० ॥२॥ जिहां शिवरमणी वरवा आव्या, अजितादिक वीशे जिनराया, बहु मुनिवर युत शिव व धू पाया ॥ जय० ॥३॥ तेणें ए उत्तम गिरि जाणो, करो सेव आतम For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि ५३५ करी शाणो, ए फरी फरी नहिं आवे टाणो ॥ जय० ॥४॥ तुमें धन कण कंचननी माया, करतां अशुचि कीनी काया, किम तरशो विण ए गिरिराया ॥ ज० ॥ ५ एम शुनमति वचन सुणी ताजां, ए जजो जगगुरु आतम राजा, गिरि फरसे धरी मन शुचि माजा ॥ जय० ॥ ६ ॥ संवत सररिषि गज चंद समे, फागुणशुदि त्रीज बुधवार गमे, गिरिदर्शने करतां चित्त रमे ॥ जय० ॥ ७ ॥ प्रनु पदपद्म तणी सेवा, करतां नित्य लहियें शिव मेवा, कहे रूपविजय मुऊ ते हेवा ॥ जश् ॥ ७ ॥ इति ॥ ॥ अथ श्री गिरनारनूषण नेमनाथजीनुं स्तवन ॥ ॥ गो वाबरमां चारवां, आहिरनो अवतार ॥ रूमु गोकुलीयुं ॥ ए देशी ॥ ॥राजुल उन्नी मालीये, जपे जोमी हाथ॥साहेब शामलीया ॥ कामणगारा कंथजी,उरा आवो नाथ ॥ सा ॥१॥ मुख मटकाळु ताहरूं, अणियाला लोचन्न सा॥ मोहनगारी मूरतें, मोद्यं माहरुं मन्न ॥ सा ॥२॥ वहाला केम रह्या वेगला,तोरण उन्ना आय।सा॥पुरव पुरव पुण्यें में लह्यो,एवो आज बनाव ॥सा॥३॥ एहवे सहु पशुयें मली, कीधो सबलो शोर ॥सा॥ बोमावी पाबा वट्या, राजुल चित्तहुं चोर ॥सा॥॥ सहसा वनमांहे जश्, सहज पुरुष संघात ॥सा॥ सर्व विरति नारी वरी, आपण सरखी जात ॥सा॥॥ पंचा वनमें दहामले, पाम्या केवल नाण ॥ सा ॥ लोकालोकप्रकाश तुं, जाणे ऊग्यो नाणसा,॥६॥राजुल आवी रंगशुं, लागी प्रजुने पाय ॥साणामुजने मूको एकली, केम शिवमंदिर जाय ॥सा॥७॥ वीतराग नावें वस्या, संयम लश जिनहाथ ॥ सा शिवमंदिर नेलां थयां, अविचल बेहुनो साथ ॥ सा ॥ ७ ॥ वाचक राम विजय कहे, सुण खामी अरदास ॥ सा ॥ राजुल जेम तारी तुमें, तेम तारो हुँ दास ॥ सा ॥ ए ॥ इति ॥ ॥अथ श्रीअष्टापदजीतुं स्तवन ॥ कुंअर गंजारो नजरें ॥ देखतां जी ॥ ए देशी ॥ ॥ चउ अ दस दोय बंदीयें जी,वर्तमान जगदीश रे ॥ अष्टापद गीरी ऊपरें जी, नमतां वाधे जगीश रे॥च॥॥ जरत नरतपति जिनमुखें जी, उच्चरियां व्रत बार रे ॥ दर्शन शुछिने कारणे रे, चोवीश प्रजुनो विहार रे ॥ च ॥२॥ उंचपणे कोश तिग कयु जी, योजन एक विस्तार रे ॥ नि ज निज मान जरावीयां जी, बिंब वपर उपगार रे ॥ च ॥३॥ अजि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ प्रतिक्रमण सूत्र. तादिक चउ दाहिणे जी, परिमे पउमाश् श्राप रे ॥ अनंत आदें दश उत्तरें जी, पूर्वे रिखन वीर पाठ रे ॥ च ॥४॥ रिखन अजित पूर्वे रह्या जी, ए पण आगम पाउ रे॥आत्म शक्ते करे जातरा जी,ते नवि मुक्ति वरे हणी आठ रे ॥च॥५॥ देखो अचंनो श्री सिफाचलें जी, हुवा असंख्य उझार रे ॥ आज दिने पण णें गिरि जी, जगमग चैत्य उदार रे ॥च॥ ॥६॥ रहेशे उत्सर्पिणी लगें जी, देवमहिमा गुण दाखि रे ॥ सिंह नि षद्यादिक थिरपणे जी, वसुदेव हिंमनी साख रे ॥ च ॥७॥ केवली जिन मुख में सुण्यं जी, श्णे विधे पाठ पगय रे ॥ श्री शुजवीर वचन रसें जी, गायो रिखन शिवाय रे ॥ च ॥ ॥ इति ॥ ॥ अथ श्रीयाबुजीनुं स्तवन ॥ चित्त चेतो रे ॥ ए देशी ॥ आदि जिणेसर पूजतां, दुःख मेटो रे ॥ आबू गढ दृढ चित्त ॥ नवि जर नेटो रे ॥ देलवाडे देहरां नमी ॥ ७० ॥ चार परिमित नित्य ॥न ॥ ॥१॥ वीश गज बल पद्मावती ॥ दु०॥ चकेसरी अव्य आण ॥ ज० ॥ शंख दिये अंबी सुरि ॥ कु० ॥ पंच कोश वहे बाण ॥ न० ॥ २ ॥ बार पातसा फीतीने ॥ फु०॥ विमलमंत्री आह्लाद ॥ ज० ॥ अव्य नरी धरती कीयो ॥ कु० ॥ षन देव प्रसाद ॥ ॥३॥ बिहुँतर अधिकां आठशें ॥०॥ बिंब प्रमाण कहाय ॥ न० ॥ पन्नरशें कारीगरें ॥ पु० ॥ वर्ष त्रिकें ते थाय ॥ ज० ॥४॥ अव्य अनुपम खरचियुं ॥ ॥ लाख त्रेपन बार कोम ॥ ज० ॥ संवत दश अव्याशीयें ॥ कु० ॥ प्रतिष्टा करी मन होम ॥ न ॥ ५॥ देराणी जेगणीना गोखमा ॥ ७० ॥ लाख अढार प्रमाण ॥ ज० ॥ वस्तुपाल तेजपालनी ॥ 3 ॥ ए दोश् कांता जाण ॥न॥६॥ मूल नायक नेमीश्वरु । उ० ॥ चारशें अमशह बिंब ॥ ज० ॥ रूषन धातुमयी देह रे ॥ पु०॥ एकशो पीस्तालीश बिंब ॥ ज० ॥ ७॥ चौमुख चैत्य जूहारियें ॥ 5 ॥ काउस्सग्गीया गुणवंताज॥बाएं मित्त तेहमां कहुं ॥ पु०॥ अगन्यासी अरिहंत ॥ न० ॥॥ अचल गढें प्रजुजी घणा ॥3॥ यात्रा करो हुशियार ॥ना कोमित फल जे लहे ॥ कुण॥ ते प्रजु नक्ति विचार ॥ न ॥ ए ॥ सालंबन निरालंबनें ॥ कु० ॥ प्रजु ध्याने जव पार ॥ ज० ॥ मंगललीला पामियें ॥ ० ॥ वीरविजय जय कार ॥ ज०॥१०॥इति ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. ५३७ ॥अथ श्री अर्बुद गिरिनुं स्तवन ॥ ॥ चालो चालो ने राज, गिरिधर रमवा जश्य ॥ ए देशी ॥श्रावो आवो ने राज, अर्बुद गिरि जयें ॥ श्री जिनवरनी नक्ति करीने, आतम निर्मल थश्ये आणए आंकणी ॥ विमल वसहिना प्रथम जिणेसर, मुख निरखे सुख पश्ये ॥ चंपक केतकी प्रमुख कुसुमवर, कंवें टो मर वीयें ॥आ॥१॥ जमणे पासे लूणग वसहि, श्री नेमीश्वर नमीयें। राजिमती वर नयणें निरखी, फुःख दोहग सवि गमीयें ॥ आ० ॥२॥ सिकाचल श्रीषन जिनेश्वर, रेवत नेम समरीयें ॥ अर्बुद गिरिनी यात्रा करतां, चिहुं तीर्थ चित्त धरीयें। आप ॥३॥ मंगप मंगप विविध कोरणी निरखी हियडे उरीयें ॥श्रीजिनवरनां बिंब निहाली,नर नव सफलो करीयें ॥ आ ॥४॥ अविचल गढ आदीश्वर प्रणमी, अशुल कर्म सवि हरीयें। पास शांति निरखी जब नयणे, मन मोडं डंगरीये ॥ आ॥५॥ पाजें चढतां ऊजम वाधे, जेम घोडे पाखरीये ॥ सकल जिनेश्वर पूजी केसर, पाप पमल सवि हरियें।आ॥६॥एकज ध्यांने, प्रजुने ध्यातां, मनमांहें नवि मरिये ॥ ज्ञान विमल कहे प्रजु सुपसायें,सकल संघ सुख करियें ॥आणा॥ ॥ अथ श्री राणकपुरजीतुं स्तवन ॥ ॥श्री राणकपुर रलीयामणुं रे ॥लाल॥श्री आदीश्वर देव ॥ मन मोह्यु रे॥ उत्तंग तोरण देहरुं रे ॥ला॥ नीरखीजें नित्यमेव ॥ म॥१॥ चउ विश मंगप चिहुं दिशें रे ॥ ला॥ चउमुख प्रतिमा चार ॥म॥ त्रिजुवन दीपक देहरुं रे ॥ला॥ समोवम नहिं संसार ॥ म॥ श्री० ॥२॥ देहरी चोराशी दीपती रे ॥ला॥मांड्यो अष्टापद मेर ॥म ॥ चलें जुहास्यां जो यरां रे ॥ ला ॥ सूता उठी सवेर ॥म ॥श्री० ॥३॥ देश जाणीतुं देहरु रे ॥ला॥ महोटो देश मेवाम ॥ म॥ लक नवाणुं लगावीयुं रे ॥ला॥ धन धरणे पोरवाम ॥ म ॥ श्री० ॥४॥ खरतर वस खांतशं रे ॥ला०॥ निरखंतां सुख थाय ॥म॥ पांच प्रासाद बीजां वलीरे ॥ला॥ जोतां पा तक जाय ॥ म ॥ श्री० ॥ ५॥ आज कृतारथ हुँ थयो रे ॥ला॥ आज थयो आनंद ॥ म ॥ यात्रा करी जिनवर तणी रे ॥ला॥ दूरे गयुं कुःख दंद ॥ म ॥ श्री॥६॥ संवत शोल ने बोतेर रे ॥ ला ॥ मागशिर मास मकारमा राणकपुरें यात्रा करी रे ॥ला॥ समयसुंदर सुखकार ॥मा॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३न प्रतिक्रमण सूत्र. ॥ अथ श्रीसिद्धचक्रजीतुं स्तवन ॥ आलेलालनी देशी ॥ ॥समरी शारदा माय, प्रणमी निजगुरु पाय ॥ आले लाल ॥ सिक चक गुण गायशुं जी ॥ ए सिझचक्र आधार, नवि उतरे जव पार॥आणा ते नणी नवपद ध्यायशुं जी ॥१॥ सिझचक गुणगेह, जस गुण अनंत अच्छेह ॥ ॥ समस्यां संकट उपशमे जी ॥ लहियें वांडित नोग, पामी सवि संजोग ॥ आ ॥ सुर नर आवी बहु नमे जी ॥२॥ कष्ट निवारे एह, रोगरहित करे देह ॥ श्रा० ॥ मयणासुंदरी श्रीपालने जी ॥ ए सि उचक्र पसाय, आपदा दू, जाय ॥आ॥ आपे मंगल मालने जी ॥३॥ए सम अवर नहिं कोय, सेवे ते सुखीयो होय ॥या॥ मन वच काया वश करी जी ॥ नव आंबिल तप सार, पमिकमणुं दोय वार ॥ ॥ देववंदन त्रण टंकनां जी ॥४॥ देव पूजो त्रण वार, गरगुं ते दोय हजार ॥ आ॥ स्नान करी निर्मल पणे जी ॥ आराधे सिद्धचक्र, सान्निध्य करे ते नी शक ॥आ॥ जिनवर जन आगे नणे जी ॥५॥ ए सेवो निश दीस, कहियें वीशवा वीश ॥आ॥ आल जंजाल सवि परिहरो जी ॥ ए चिंता मणि रत्न, एहनां कीजें यत्न ॥ आ ॥ मंत्र नहिं एह उपरें जी ॥६॥ श्री विमलेसर यदा, होजो मुफ प्रत्यद ॥आ॥ हूं किंकर बुं तादरो जी पाम्यो तुंहीज देव, निरंतर करूं हवे सेव ॥ आ ॥ दिवस वल्यो हवे माहरो जी॥७॥ विनति करुं बुं एह, धरजो मुफनेह ॥ आ॥ तमनें शुं कहीयें वली वली जी ॥ श्रीलक्ष्मी विजय गुरु राय, शिष्य केसर गुण गाय ॥ आ॥ अमर नमे तुऊ लली लली जी ॥७॥ इति ॥ ॥अथ श्री संभवनाथजीनुं स्तवन ॥ ॥ साहिब सांजलो रे, संजव अरज हमारी ॥ नवोचव हुँ जम्यो रे, न सहि सेवा तुमारी ॥ नरय निगोदमां रे, तिहां हुं बहु नव नमियो॥तुम विना कुःख सह्यां रे, अहोनिश क्रोधे धमधमियो ॥ सा ॥ १॥ इंडिय वश पड्यो रे, पाल्यां व्रत नवि सुसें ॥ त्रस पण नवि गण्या रे, हणीया थावर हुंशे ॥ व्रत चित्त नवि धडं रे, बीजुं साचु न बोल्युं ॥ पापनी गो मी रे, तिहां में हश्मg खोट्युं ॥ सा० ॥२॥ चोरी में करी रे, चवि ह अदत्त न टायुं ॥ श्री जिन आणशुं रे, में नवि संयम पाब्युं ॥ मधु कर तणी परें रे, शुद्ध न हार गवेख्यो ॥ रसना लालचें रे, नीरस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि, ५३ए पिंड उवेख्यो॥ सा ॥३॥ नर नव दोहिलो रे, पामी मोह वश पमी यो ॥ परस्त्री देखीने रे, मुफ मन तिहां जई अडियो ॥काम न को सस्यां रे, पापें पिंक में नरीयो ॥ सुध बुध नवि रही रे, तेणे नवि आतम तरीया ॥ सा ॥४॥ लक्ष्मीनी लालचे रे, में बहु दीनता दाखी ॥ तोपण नवि मली रे, मली तो नवि रही राखी ॥ जे जन अनिलसे रे, तेतो तेहथी नासे ॥ तृणसम जे गणे रे, तेहनी नित्य रहे पासें ॥ सा० ॥५॥ धन धन ते नरा रे, एहनो मोह विछोडी ॥ विषय निवारीने रे, जेहने धर्ममां जोमी ॥ अनदय ते में नख्यां रे, रात्रिनोजन कीयां ॥ व्रत उ नवि पालि यां रे, जेहवां मूलथी लीधां ॥सा ॥६॥ अनंत नव हुँ जम्यो रे, जम तां साहिब मलियो ॥ तुम विना कोण दिये रे, बोध रयण मुऊ बलियो। संभव आपजो रे, चरण कमल तुम सेवा ॥ नय एम वीनवे रे, सुणजो देवाधिदेवा ॥ सा ॥ ७॥ इति ॥ ॥ अथ श्री शंखेश्वरजीनुं स्तवन ॥ ॥ सहजानंदी शीतल सुख जोगी तो, फुःख हरिये सतावरी॥ केशर चंदन घोली पूजो रे कुसुमें ॥ अमृतवेलिना वैरीनी बेटी तो, कंत हार तेहनो अरि ॥ के० ॥ १॥ तेदना स्वामीनी कांतानुं नाम तो, एक वरणे लक्षण नरी॥ के० ॥ ते धुर थापीने आगल उवियें तो, ऊष्माण चंडक खंधारी ॥॥॥ फरसनो वरण ते नयन प्रमाणे तो, मात्रा सुंदर शिर धरी ॥के॥ वीसराज सुत दाहक नामें तो, तिगवरणादि दूरे करी ॥ के० ॥३॥ एकवीशमे फरसे धरी करण तो, अनिध ते सम हरी ॥ के० ॥अंतस्थे बीजो वर टाली तो, शिवगामी गति आचरी ॥ के॥ ॥४॥ वीश फरस वली संयम माने तो, आदिकरण धरी दिल धरी॥ के॥ ईणें नामें जिनवर नित्य ध्याउं तो, जिनहर जिनकुं परिहरी॥॥ ॥५॥ त्र्यंबकें दाह्यो वृष जन बोले तो, वात ए दिलमें न उतरी ॥ के० ॥ अज ईश्वर पण सीतानी आगें तो, जास विवश नटता धरी ॥ के० ॥६॥ ते जिनतस्कर तूं जिनराजा तो, हरि प्रणमे तुऊ पाजं परी ॥ ॥ बाल पणे उपगारें हरिपति, सेवन बल लंबन हरि ॥ के ॥ ७॥ प्रनु प्रत्य यिक जशलीहोत रहियें तो, नव नवमां नहीं शली कली ॥ के ॥ मन मंदिर महाराज पधारे तो, हरि उदयें न विनावरी ॥ के० ॥ ॥ सा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० प्रतिक्रमण सूत्र. रंगमां संपा जी ऊरकत, ध्यान अनुजव लेहरी ॥ के ॥ श्री शुजवरी विजय शिववहूने तो, घर तेडतां दोय घरी ॥ के० ॥ ए इति ॥ ॥अथ श्री शंखेश्वरजीनुं स्तवन ॥ ॥अंतरजामी सुण अलवेसर, महिमा त्रिजग तुमारो ॥ सांजलीने श्राव्यो हुँ तीरें, जनम मरण फुःख वारो ॥१॥सेवक अरज करे ये राज, अमने शिवसुख आपो ॥ ए श्रांकणी ॥ सहुकोनां मनवांछित पूरो, चिंता सहुनी चूरो ॥ एहq बिरुद के राज तुमारूं, केम राखो बो दूरो ॥ से॥५॥ सेवकने वलवलतो देखी, मनमां महेर न धरशो ॥ करुणासागर केम कहे वाशो, जो उपकार न करशो ॥ से ॥३॥ लटपटनुं हवे काम नहीं बे, प्रत्यक्ष दरिसण दीजें ॥ धुंआडे धीजें नही साहिब, पेट पड्यां पती जे ॥ से ॥४॥ श्री शंखेश्वर मंगण साहिब, वीनतमी अवधारो ॥ कहे जिनहर्ष मया कर मुजने, नवसायरथी तारो ॥ से ॥५॥ इति ॥ ॥अथ श्रीपार्श्वनाथजीनुं स्तवन ॥ ॥ सजनी मोरी पास जिणेसर पूजो रे ॥ स० ॥ जगमां देव न दूजो रे ॥ स ॥ सारंग पर शणगार रे॥ स॥प्रजा दोय प्रकार रे॥१॥स० ॥ जिनपडिमा जयकार रे ॥ स ॥वारी जाउं वार हजार रे ॥ ए आंकणी॥ ॥स०॥ गणधर सूत्रे वखाणी रे ॥ स ॥ सिद्धनी उपमा आणी रे॥स॥ समकितनी वृद्धिकारी रे ॥ स ॥ ते केम जाशे निवारी रे ॥ स ॥२॥ ॥ स० ॥ नगव अंगें धारो रे॥ स॥ चारण मुनि अधिकारो रे ॥ स ॥ जिनपमिमा जिनसरखीरे ॥ स ॥ सूत्र उववाई निरखी रे ॥ स० ॥३॥ ॥ स० ॥ रायपसेणी नांखी रे ॥ स ॥ जीवानिगमें दाखी रे ॥ स ॥ व्यवहारे पण आखी रे ॥ स ॥ शुकि पडिमा साखी रे ॥ स ४ ॥ ॥ स ॥ जंबूपन्नत्ति गणांग रे ॥ स॥ बोले दशमुं अंग रे ॥ लण ॥माहा निशीथें विचारो रे ॥ स० ॥ पूजानो अधिकारो रे ॥ स० ॥ ५॥ स० ॥ सातमे अंगें विख्यात रे ॥ स ॥ आणंद श्रावक वात रे ॥ स ॥ अन उनी पमिमा वारीरे ॥ स ॥ सूधा समकित धारी रे ॥ स० ॥६॥ स॥ झाता पाउ देखावे रे ॥ स ॥ कुमति नरम न जावे रे ॥सण॥ एम अने क सूत्र साख रे ॥ स ॥ कहो हवे केहनो वांक रे ॥ स० ॥७॥ स ॥ अर्चा अरोचक था रे ॥स ॥ नव दमकमां जाशे रे ॥ स ॥ जीव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. ५४१ करम वश जाणो रे ॥ स ॥ कुण घुमक कुण राणो रे ॥ स० ॥॥ स० ॥ जिनवर सेवा सारो रे ॥ स ॥ विषय करो परिहारो रे ॥ स ॥ सेवा प्रबंधक नाव रे ॥ स॥ नवजल तरवा नाव रे॥ स०॥ ए॥ स॥ मणि उद्योत प्रनु साचो रे ॥ स०॥ जेहवो हीरो जाचो रे ॥ स॥ शंका मन नवि लावो रे ॥ स० ॥ शुं काजूं कहेवरावो रे॥ स० ॥१०॥ इति ॥ ॥ अथ श्री दीवाली, स्तवन ॥ ॥ वादहाजीनी वाटमी अमें जोतां रे ॥ ए देशी ॥ ॥ जय जिनवर जग हितकारी रे, करे सेवा सुर अवतारी रे, गौतम पमुहा गणधारी ॥१॥ सनेही वीरजी जयकारी रे॥ अंतरंग रिपुने त्रासे रे, तप कोपाटोपें वासे रे, लडं केवल नाण उल्हासें ॥ स ॥२॥ कटि लंके वाद वदाय रे, पण जिनसाथे न घटाय रे, तेणें हरिलंबन प्रनु पाय ॥ स० ॥३॥ सवि सुरवहू थे थेश्कारा रे, जलपंकजनी परें न्यारा रे, तजी तृष्णा जोग विकारा ॥ स ॥४॥ प्रजुदेशना अमृतधारा रे, जिन धर्म विषे रथकारा रे, जेणे तास्या मेघकुमारा ॥ स ॥ ५॥ गौतमने केवल आली रे, वस्या खांतियें शिव वरमाली रे, करे उत्तम लोक दीवा ली ॥ स ॥ ६ ॥ अंतरंग अलब निवारी रे, शुन सङानने उपगारी रे, कहे वीर विनु हितकारी ॥ स० ॥ ७॥ इति समाप्तम् ॥ ॥ अथ श्रीमहावीर स्वामीनी जन्म कुंदलीनुं स्तवन ॥ देसीकेरबानी ॥ ॥ सेवधी संचल घेरियां, अलबेले सांझ, क्युं रे लगा अति बेरियां ॥ ए आंकणी॥ दीये बिनां न चले. गेरु न पीछे वले, बाबत आप उबेरियां ॥ अलबे ॥ क्युं ॥जाग्य अतुल बली, मागत अटकली, जन्म बलि ग्रह चारीयां ॥ अ॥ क्युं ॥ १॥ संवत पास ईश, दो शत अडतालीश ॥ उज्ज्वल चैतर तेरशें ॥०॥ क्युं० ॥ शाठ घमी न ऊणी, उत्तराफाल गुणी, मंगल वार निशावशें ॥ अ॥ क्युं ॥२॥ सिझियोग घमी, पन्न र चारें चरी, वेला मुहर्त्त त्रेवीशमे ॥ अ० ॥ क्युं ॥ लग्न मकर वहे, खामी जनम लहे, जीव सुखी सहु ते समे॥ ॥ क्युंग॥३॥ त्रिशला राणीयें जायो, देव देवीयें गायो, सुत सिझारथ नूपको ॥ अ०॥ क्युं॥ मंगल केतु लग्ने, रवि बुध चोथे नवनें, दशमे शनिश्चर उच्चको॥षणाक्युंग ॥॥पंथमे जीव राहु, सातमे वेद साहु, केंज जुवन ग्रह मंमली ॥ अ० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ प्रतिक्रमण सूत्र. ॥क्युंगानाग्य जुवन शशी,शुक्र संतान वसी,मेघ धुआ एक वीजली ॥अ॥ क्युंग ॥५॥ चंदिशा विपाकी, मास जुवन बाकी, जन्म दशा शनी संय मी ॥अाक्युं ॥गुरु महादशामें, केवल ज्ञान पामे, तामुख बानी मेरे दिल रमी ॥ अ० ॥ क्युं ॥६॥ थावर विगलमें, काल अनंत नमे, मेंबी नि कलीया साथमें ॥अाक्युं॥ नारक तिरि गति, सुख न एक रति काल निगमियो अनाथमें ॥ अ॥ क्युंग ॥७॥ बहोत में नाच नचे, चिढंगति चोक बिचें, नेक न मेलियें नाथ जी॥अक्युं॥ पोतप्रकाश दिये, आश निराश किये,अलग किया में आजथी ॥अक्युंगाजा मानव गण लह।, तुम सन्मुख रही, बेर बेर शिव मागते ॥अ॥ क्युंग॥ बात न उर कहुँ, लीये बिना न रहें, बाल हट्यो रस लागते ॥ अ० ॥ क्युं ॥ए ॥ नाथ् नजर करी, बेर न एक घमी, सदा मगन सुख लहेरसें ॥ अक्युं ॥ मं गल तुरवरा, गावत अपरा, श्री शुलवीर प्रनु महेरसें ॥अक्युं ॥१॥ ॥ अथ श्री सिद्धनगवान- स्तवन ॥ ॥ सिझनी शोना रे शी कहुं ॥ए आंकणी ॥ सिद्ध जगत शिर शोजता रमता आतमरामलक्ष्मी लीलानी लहेरमां, सुखीया ने शिव गम ॥ सिण॥ ॥१॥ महानंद अमृतपद नमो, सिद्धिकैवल्य नाम ॥ अपुनर्जव ब्रह्मपद वली, अदय सुख विशराम ॥ सि ॥२॥ संश्रेय निश्रेय अदरा, फुःख समस्तनी हाण ॥ निवृत्ति अपवर्गता, मोदमुक्ति निर्वाण ॥ सि ॥३॥ अचल महोदय पद लडं, जोतां जगतना गठ॥ निज निज रूपें रे जूजुश्रा, वीत्यां कर्म ते आठ ॥सि ॥४॥ अगुरु लघु अवगाहना, नामें विकसे वद न्न ॥ श्री शुनवीरने वंदतां, रहियें सुखमां मगन्न ॥ सि० ॥५॥ इति ॥ ॥ अथ वर्षमान स्वामीजी, स्तवन ॥ ॥राग धन्याश्री॥ गीरुया रे गुण तुम तणा, श्री वर्धमान जिनरायारे॥ सुणतां श्रवणें अमी करे, महारी निर्मल थाये काया रे ॥गी॥१॥ तुम गुण गण गंगाजलें, हुं कीली निर्मल थालं रे ॥ अवर'न धंघो आदरं, निशि दिन तोरा गुण गाउं रे ॥गी॥॥ जीव्या जे गंगाजलें, ते बीबरजल नवि पेसे रे ॥ जे मालतीफूलें मोहिया, ते बावल जइ नवि बेसे रे ॥ गी० ॥३॥ एम अमें तुम गुण गोग्गुं ॥ रंगें राच्या ने वली माच्या रे ॥ ते किम पर सुर आदरं, जे परनारी वश राच्या रे ॥ गी ॥४॥ तुं गति तुं मति आ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४३ स्तवनानि. शरो, तुं अवलंबन मुज प्यारो रे ॥ वाचक जस कहे माहरे, तुं जीवन जीव आधारो रे ॥ गी० ॥ ५॥ इति ॥ ॥ अथ श्री समकितनुं स्तवन ॥ ॥ ढाल पहेली ॥ ते मुफ मिठामि उक्कम ॥ ए देशी ॥ ॥ सांजल रे तुं प्राणीया, सदगुरु उपदेशो ॥ मानव नव दोहिलो लह्यो, उत्तमकुल एसो ॥१॥ सांग ॥ देवतत्त्व नवि उलख्यो, गुरुतत्त्व न जा एयो ॥ धर्मतत्त्व नवि सदह्यो, हियडे ज्ञान न आएयो ॥२॥ सांग ॥ मि थ्यात्वी सुर जिनप्रत्ये, सरखा करी जाण्या ॥ गुण अवगुण नवि उल ख्या, वयणे वखाएया ॥३॥ सांग ॥ देव थया मोहें ग्रह्या, पासें रहे ना री॥ कामतणे वशे जे पड्या, अवगुण अधिकारी ॥४॥ सांग ॥ केश क्रोधी देवता, वली क्रोधना वाह्या ॥ के कोईथी बीहता, हथीयार सवाह्या ॥५॥सां॥ क्रूर नजर जेहनी घj, देखंतांमरियें ॥ मुसा जेहनी एहवी, तेहथी शुं तरीयें ॥६॥ सांग ॥ पाठ करम सांकल जड्यां, नमे जवही मकारो ॥ जन्म मरण जव देखीये, पाम्या नहिं पारो ॥ ७॥ सांग ॥ देव थश् नाटक करे, नाचे जण जण आगें ॥ वेष करी राधा कृष्णनो, वली निदा मागे ॥ ७॥ सांग ॥ मुखें करी वाये वांसली, पहेरे तन वाघा ॥ जावंतां नोजन करे, एहवा चम लागा ॥ ए॥ सांग ॥ देखो दैत्य संहा. रवा, थयो उद्यमवंतो॥हरि हिरणाकश मारीयो, नरसिंह बलवंतो ॥१०॥ ॥सां॥ मत्स्य कब अवतार लश्, सहु असुर विदारया ॥ दश अवतारें जूजु था, दश दैत्य संहास्या ॥ ११॥ सांग माने मूढ मिथ्यामति, एहवा प ण देवो ॥ फरि फरि अवतार ले, देखो कर्मनी टेवो ॥ १२ ॥ सां॥ खामी सोहे जेहवो, तेहवो परिवारो ॥ एम जाणीने परिहो, जिनहर्ष विचारो ॥ १३ ॥ सांग ॥ इति ॥ ॥ ढाल बीजी ॥ उधव माधवने कहेजो ॥ ए देशी ॥ ॥ जगनायक जिनराजने, दाखवियें सही देव ॥ मूकाणा जे कर्मथी, सारे सुरपति सेव ॥ १॥ ज० ॥ क्रोध मान माया नहिं, नहिं लोन अ ज्ञान ॥ रति अरति वेदे नहिं, बांड्यां मद स्थान ॥२॥ ज० ॥ निखा शोक चोरी नहिं, नहिं वयण अलीक ॥ मत्सर नय वध प्राणनो, न करे तहकीक ॥३॥ ज० ॥ प्रेमक्रीमा न करे कदी, नहिं नारी प्रसंग ॥ हा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ प्रतिक्रमण सूत्र. स्यादिक अढार ए, नहिं जेहने अंग ॥४॥ ज०॥ पद्मासन पूरी करी, बेग अरिहंत ॥ निश्चल लोयण तेहनां, नासाग्र रहंत ॥५॥ ज० ॥ जिनमुना जिनराजनी, शगं परम उबास ॥ समकित थाये निर्मदुं, तपे ज्ञान उजास ॥६॥ ज० ॥ गति आ गति सहु जीवनी, देखे लोका लोक ॥ मनः पर्याय सवी तणा, केवल ज्ञान लोक ॥ ७ ॥ ज०॥ मूर्ति श्रीजिनराजनी, समतानंमार ॥ शीतल नयन सुहामणां, नहिं वांक लगा र ॥ ॥ ज० ॥ हसत वदन हरखे हैयुं, देखि श्रीजिनराय सुंदर बबि प्रजुदेहनी, शोना वरणी न जाय ॥ ए ॥ ज० ॥ अवर तण। एहवी बबि, किहां एम दीसंत ॥ देवतत्त्व ए जाणीयें, जिनहर्ष कहंत ॥१॥जण ॥ ढाल त्रीजी ॥ जत्तणीनी देशी ॥ ॥ श्री जिनवर प्रवचन नांख्या, कुगुरु तणा गुण दाख्या ॥ पासबादि, क पांचे, पाप श्रमण कह्या साचे ॥१॥ गृहीना मंदिरथी आणी, आहार करे नात पाणी ॥ सुवे जंघे निश दीस, प्रमादी विशवा वीश॥२॥ किरिया न करे किणि वार, पमिकमणुं सांऊ सवार ॥ न करे पच्चरकाण सद्याय, विकथा करतां दिन जाय ॥३॥ घृत दूध दहीं अप्रमाण, खाये न करे पञ्चरकाण ॥ ज्ञान दर्शन ने चारित्र, मूकी दीधां सुपवित्र ॥४॥ सुवि हित मुनि सामाचारी, पाले नहिं ते अणगारी॥आहारना दोष बायाल, टाले नहिं किणही काल ॥ ५ ॥ धब धब धसमसतो चाले, काचे जलें देव पखाले ॥ अर्चा रचना वंदावे, वस्त्रादिक शोना बनावे ॥६॥ परि ग्रह वली जाजा राखे, वली वली अधिकाने धाखे ॥ माठी करणी जे कहीये, ते सघनी जिणमें लहियें ॥ ७॥ एहवा जे कुगुरु आरंनी, मुनि साधु कहेवाये दंनी ॥ किश्कम्म प्रशंसा करीयें, नवनव गृहमां अवतरियें ॥ ॥ लोहानी नावा तोले, जवसायरमां जे बोले ॥ जिनहर्ष जलो अहि कालो, पण कुगुरुनी संगति टालो ॥ ए॥ ॥ ढाल चोथी ॥ कर जोमी आगल रही ॥ ए देशी ॥ ॥गुण गिरुया गुरु उलखो, हियडे सुमति विचारी रे ॥ गुरु सुपरीक्षा दो हिली, जूल पडे नर नारी रे ॥१॥गुण॥ पांच इंघिय जे वश करे, पांच महा व्रत पाले रे ॥ चार चार कषाय तजी जेणे, पांचे किरिया टाले रे॥२॥गुणा पांच समिति समिता रहे, तिन गुप्ति जे धारे रे॥दोष बहेंतालीश लीटाने, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. ५४५ पाणीजात आहारे रे ॥३॥॥ ममता बांकी देहनी, निर्लोनी निर्मायी रे॥ नवविध परिग्रह परिहरे, चित्तमें चिंते न कां रे ॥ ४ ॥ गुण ॥धर्मतणां उपकरण धरे, संयम पालवाकाजें रे ॥ नूमि जोई पगलां जरे, लोक वि रोधथी लाजे रे ॥ ५ ॥ गुण ॥ पमिलेहण निरति विधे, करे प्रमाद निवा री रे ॥ कालें शुद्धक्रिया करें, श्छा जोग निवारी रे ॥६॥ गुण ॥ वस्त्रा दिक शुरू एषणी, ले देखी सुविशेषे रे ॥ काल प्रमाणे खप करे,दूषण टल तां देखे रे ॥७॥ गुण॥ कुरकी संबल जे कयां, सान्निध्य केमही न राखे रे॥ दे उपदेश यथास्थितें, सत्यवचन मुख नांखे रे ॥ ॥ गुण ॥ तन महेलां मन ऊजलां, तप करी खीणी देही रे ॥बंधन बे बेदी करी, विचरे जन निःलेही रे ॥ ए॥ गुण ॥ एहवा गुरु जोई करी, आदरीयें शुन जावें रे ॥ बीजुं तत्त्व सुगुरुतणुं, ए जिनहर्ष कहावे रे ॥ १० ॥ गु०॥ ॥ ढाल पांचमी ॥ कर्म न बूटे रे प्राणीया ॥ ए देशी ॥ ॥जवसायर तरवा लणी, धर्म करे हो सारंन ॥ पबर नावें रे बेसीने, तरवो समुल उर्लन ॥१॥ ज० ॥ आपे गोकुल गायनां, आपे कन्या रे दान ॥ आपे क्षेत्र पुण्यार्थे, ब्राह्मणने देश मान ॥२॥ न० ॥ खूटावे घाणी वली, पृथिवी दान सुप्रेम ॥ गोला कलशा रे मोरिया, आपे हल तिल हे म ॥३॥ ज० ॥ वली खणावे रे खांतशें, कूया सुंदर वाव ॥ पुष्करिणी क रणी नली, सरोवर सखर तलाव ॥ ४ ॥ न कंद मूल मूके नहीं, अ ग्यारशने हो दीस ॥ आरंज ते दिन अति घणो, धर्म किहां जगदीश ॥ ५॥ ना याग करे होमे तिहां, घोमा नर ने रे बाग । होमे जलचर मीमकां, धर्म किहां वीतराग ॥६॥ ना करे सदाये रे नोरता, जीवतणा आरंज ॥ हणे महिष ने बोकमा, जेहथी नरक सुलंन ॥ ७ ॥न॥ सारे सरावे ब्राह्मण कने, पूर्वजनां रे शराध ॥ तेमी पोषे रे कागमा, देखो एह उपाधि ॥॥ न॥ तीरथ जाय गोदावरी, गंगा गया प्रयाग ॥ न्हाये श्रण गल नीरमें, धर्म तणो नहिं लाग ॥णाला इत्यादिक करणी करे, परजव सु खने रे काज ॥ कहे जिनहर्ष मले नहीं, एहथी शिवपुरराज ॥१॥न॥ ॥ ढाल ही ॥रे जाया तुफ विण घमी रेड मास ॥ ए देशी ॥ ॥धर्म खरो जिनवर तणो जी,शिव सुखनो दातार ॥श्री जिनराजें प्रका शियो जी, जेहना चार प्रकार ॥१॥ नविक जन, ज्ञान विचारी रे जोय ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ प्रतिक्रमण सूत्र. पुर्गति पडता जीवने जी, धारे ते धर्म होय ॥ न ए आंकणी ॥ पंच महावत साधुनां जी, दश विध धर्म विचार ॥ हित करीने जिनवर कह्यां जी, श्रावकनां व्रत बार ॥॥ ज० ॥ पंचुंबर चारे विगय जी, विष सहु माटी रे हीम ॥ रात्रिनोजनने कह्यां जी, बहुबीजांनो नीम ॥३॥ ज० ॥ घोलवमां वली रींगणां जी, अनंतकाय बत्रीश ॥ अणजाण्यां फल फूल मां जी, संधाणां निश दीस ॥ ४ ॥ ज० ॥ चलित अन्न वासी थयुं जी, तुछ सह फल दद ॥ धर्मि नर खाये नहीं जी, ए बावीश अनदय ॥५॥ ज॥ न करे निरूंधसपणे जी, घरना आरंन धीर ॥ जीवतणी जयणा घणी जी, न पिये अणगल नीर ॥६॥ न ॥ घृत परें पाणी वावरे जी, बीये करतां पाप ॥ सामायिकत्रत पोषधे जी, टाले नवना ताप ॥७॥ ज॥ सुगुरु सुदेव सुधर्मनी जी, सेवा नक्ति सदीव ॥ धर्मशास्त्र सुणतां थकां जी, समजे कोमल जीव ॥ ॥न ॥ मास मासने यांतरे जी, कुश अग्र मुंजे वाल ॥ कला न पहोंचे शोलमी जी, श्री जिनधर्म विशा ल ॥॥ ज०॥ जिनधर्म मुक्तिपुरी दीये जी, चजगति व्रमण मिथ्यात्व ॥ एम जिनहर्ष प्रकाशियेंजी, त्रीजुं तत्त्व विख्यात ॥ १० ॥ ज० ॥ इति ॥ ॥ ढाल सातमी ॥ मधुकर आज रहो रे मत चलो ॥ ए देशी ॥ ॥ श्रीजिनधर्म आराधियें जी, करी निज समकित शुझ॥ नवियण ॥ तप जप किरिया कीधली जी, लेखे पडे विशुझ॥१॥ ज०॥ श्री०॥ कंचन कशी कशी लीजीयें जी, नाणुं लीजें परीख ॥न॥ देव धर्म गुरु जोश्नेजी, आदरियें सुणि शीख ॥२॥न० ॥ श्री० ॥ कुगुरु कुदेव कुधर्मने जी, पर हरिये विष जेम ॥ न० ॥ सुगुरु सुदेव सुधर्मनें जी, ग्रहीयें अमृत तेम ॥३॥ न ॥ श्री० ॥ मूलधर्म तो जिन कह्यो जी, समकित सुरतरु एह ॥ न ॥ नव नव सुख संपत्तिथकी जी, समकितशुं धरि नेह ॥४॥ ॥॥ श्री॥ सत्तरशै बत्रीश समे जी, नन शुदि दशमी दीस ॥नास मकितसीत्तरी ए रची जी, पुर पाटण सुजगीश ॥५॥ ज०॥ श्री॥ नण जो गुणजो नावशुं जी, लेशो अविचल श्रेय ॥ना शांतिहर्षवाचक तणो जी, कहे जिनहर्ष विनेय ॥६॥नाश्री॥ इति समकितसित्तरी संपूर्णा ॥ ॥अथ श्री आराधनानुं स्तवन प्रारंजः ॥ ॥ दोहा ॥ सकल सिफिदायक सदा, चोवीशे जिनराय ॥ सहगुरुसा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. ५४७ मिनी सरसती,प्रेमें प्रणमुं पाय ॥१॥ त्रिजुवनपति त्रिशला तणो, नंदन गुण गंजीर ॥ शासननायक जग जयो, वर्षमान वड वीर ॥२॥ एक दिन वी र जिणंदने, चरणे करी प्रणाम ॥ नविक जीवना हित जणी, पूछे गौतम खामि ॥३॥ मुक्तिमार्ग श्रारांधियें, कहो केणी परें अरिहंत ॥ सूधा स रस तव वचन रस, नांखे श्री नगवंत ॥४॥ अतिचार आलोश्ये, व्रत ध रीयें गुरु साख ॥ जीव खमावो सयल जे, योनि चोराशी लाख ॥ ५ ॥ विधिशु वली वोसिरावियें, पापस्थान अढार ॥ चार शरण नित्य अनुस रो, निंदो कुरित आचार ॥ ६ ॥ शुजकरणी अनुमोदियें, नाव जलो मन आणि ॥ अणसण अवसर आदरी, नवपद जपो सुजाण ॥ ७॥ शुजगति आराधन तणा, ए ३ दश अधिकार ॥ चित्त आणीने आदरो, जिम पामो नवपार ॥ ॥ इति ॥ ॥ ढाल पहेली ॥ ए लिंमी किहां राखी ॥ ए देशी ॥ झान दरिसण चारित्र तप वीरज, ए पांचे आचार ॥ एह तणा श्ह नव परजवना, आलोश्य अतिचार रे ॥ १॥ प्राणी ज्ञान जो गुणखा णी ॥ वीर वदे एम वाणी रे ॥ प्राण ॥ गुरु उलवीयें नहिं गुरु विनयें, कालें धरी बहुमान ॥ सूत्र अर्थ तज्नय करि सूधां, नणीयें वही उप धान रे ॥२॥ प्रा० ॥ झानोपकरण पाटी पोथी, उवणी नोकरवाली ॥ तेह तणी कीधी आशातना, शान नक्ति न संजाली रे ॥३॥ प्रा० ॥ इत्यादिक विपरीतपणाथी, शान विराध्यु जेह ॥ आ नव परनव वलिय नवोनवें, मिठामुक्कम तेह रे ॥४॥ प्राणी ॥ समकित ख्यो शुझ जाणी ॥ जिनवचनें शंका नवि कीजें,नवि परमत अनिलाष॥ साधुतणी निंदा परिह रजो, फलसंदेह म राख रे ॥५॥ प्राण ॥स॥ मूढपणुं बंमो परशंसा, गुणवं तने श्रादरिये ॥ साहम्मी धर्मे करी स्थिरता, नक्ति प्रस्तावना करीयें रे॥६ प्राण ॥ स० ॥ संघचैत्य प्रासादतणो जे, अवर्णवाद मन लेख्यो ॥ अव्य देवको जे वणसाड्यो, विणसंतां उवेख्यो रे ॥ ७ ॥ प्राण ॥सण॥ इत्यादिक विपरीतपणाश्री,समकित खंड्यु जेह ॥आजवण॥ मिला ॥जा प्राणी॥चारित्र व्यो चित्त आणी ॥ पांच समिति त्रण गुप्ति विराधि, आठे प्रवचन माय ॥ साधुतणे धर्मे परमादें, अशुभ वचन मन काय रे ॥॥ प्रा० ॥ चा ॥ श्रावकने धर्मे सामायिक, पोसहमां मन वाली॥ जे जयणापूर्वक जे आठे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ प्रतिक्रमण सूत्र. प्रवचनमाय न पाली रे ॥ १० ॥ प्रा० ॥ चा० ॥ इत्यादिक विपरीतपणाथी, चारित्र महोल्युं जेह ॥ श्र नव० ॥ मिठा० ॥ ११ ॥ प्रा० ॥ चा० ॥ बारें दें तप नवि कीधुं, बते योगें निजशक्तें ॥ धर्मे मन वच काया वीरज, नवि फोरवियुं जगतें रे ॥ १२ ॥ प्रा० चा० ॥ तपवीरज श्राचारें इणी परें, विविध विराध्यां जेह ॥ आ जव० ॥ मिठा० ॥ १३ ॥ प्रा० ॥ चा० ॥ वीय विशेष चारित्र केरा, अतिचार आलोइयें || वीर जिनेसर वय सुने, पाप मयल सवि धोइयेंरे ॥ १४ ॥ प्रा० चा० ॥ इति ॥ ॥ ढाल बीजी ॥ पृथिवी पाणी तेज वाउ, वनस्पति ॥ ए पांचे यावर कह्यां ए ॥ करि कर्षण यरंज, क्षेत्र जे खेमीयां ॥ कूवा तलाव खणावीया ए ॥ १ ॥ घर रंज अनेक, टांकां जोयरां मेमी माल चणावीया ए ॥ लिंपण घुंपण काज, एणीपरें परपरें ॥ पृथिवीकाय विराधीया ए ॥ २ ॥ धोयण नाह पाणी, कील पकाय ॥ ढोती धोती करी दूहव्यां ए ॥ जातीगर कुंजार, लोह सोवनगरा ॥ जामनुंजा ॥ . लिहालागरा ए ॥ ३ ॥ तापण शेकण काजें, वस्त्र निखार ॥ रंगण रांधण रसवती ए ॥ एीपरें कर्मादान, परें परें केलवी ॥ तेज वाउ विराधीया ए ॥ ४ ॥ वाडी वन आराम, वावी वनस्पति ॥ पान फूल फल चूंटीयां ए ॥ पहोंक पापमी शाक, शेक्यां शुकव्यां ॥ बेद्यां ॥५॥ अलसीने एरंग, घाणी घालीनें ॥ घणा तिलादिक पीलिया ए ॥घाली कोलुं मांहि, पीली शेलमी ॥ कंद मूल फल वेचीयां ए ॥६॥ एम एकेंद्रिय जीव, दण्या हणावीया ॥ हणतां जे अनुमोदी या ए ॥ जव परजव जेह ॥ वलि ॥ ते मु० ॥ ७ ॥ क्रमी सरमीयां कीमा, गामर गंगोला, इयल पूरा मशीयां ए ॥ वाला जलो चूडेल, विचलित रसता ॥ वली थाणां प्रमुखनां ए ॥ ८ ॥ एम बेइंडिय जीव, नेमें दूहव्या ॥ ते मु Toll उद्देही जूलीख, मांकन मंकोमा ॥ चांचक कीडी कंथुआ ए ॥ गद हयां घीमेल, कानखजूरमा गींगोडा धनेडीयां ए ॥ एम तेइंडिय जीव, जेमें हव्या || ते मु० ॥ १० ॥ माखी मत्सर डांस, मसा पतंगीया ॥ कंसारी कोलियावडा ए ॥ ढींकण वींड तीड, जमरा जमरीयो | कोंता बग खड मांकी ए ॥११॥ एम चौरिंद्रिय जीव ॥ जे में दू०. ॥ ते मुक० ॥ जलमां नाखी जाल, जलचर दूव्या ॥ वनमां मृग संतापीयाए ॥ १२ ॥ पीड्या Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. ५४ए पंखी जीव, पामी पाशमां ॥ पोपट घाल्या पांजरे ए ॥ एम पंचेंजिय जीव, जे में दूहव्या ॥ ते मुफ ॥ इति ॥ १३ ॥ ॥ ढाल त्रीजी ॥ वाणी वाणी हितकरी जी ॥ ए देशी ॥ ॥ क्रोध लोन लय हास्यथी जी, बोल्यां वचन असत्य ॥ कूम करी धन पारकां जी, लीधां जेह अदत्त रे ॥ जिनजी ॥१॥ मिलापुक्कड आज ॥ तुम साखें महाराज रे ॥ जिनजी॥ देई सारं काज रे ॥ जिनजी॥ मिण ॥ ए आंकणी ॥ देव मनुज तिर्यंचनां जी, मैथुन सेव्यां जेह ॥ विषयारस लंपटपणे जी, घणुं विमंब्यो देह रे जि०॥२॥ मि०॥ परिग्रहनी ममता करी जी, लव लव मेली श्रथ ॥जे जिहांनी ते तिहां रही जी, कोन श्रावी साथ रे जी०॥३॥ मी॥ रयणीजोजन जे कस्यां जी, कीधां लक्ष्य अजय ।। रसनारसनी लाल, जी, पाप कस्यां प्रत्यद रे ॥ जि ॥४॥ ॥ मि ॥ व्रत लेई विसारीयां जी, वली नांग्यां पञ्चकाण ॥ कपट हेतु किरिया करीजी, कीधां आप वखाण रे ॥ जि०॥५॥ मि॥त्रण ढाल आठे हे जी, आलोया अतिचार ॥ शिवगति आराधनतणो जी, ए पहेलो अधिकार रे ॥ जि॥६॥ मि ॥ इति ॥ ॥ ढाल चोथी ॥ साहेलडीनी देशी॥ ॥पंच महाव्रत आदरो॥साहेलमी रे॥अथवा ख्यो व्रत बार तो॥ यथा शक्ति बन आदरी ॥ सा० ॥ पालो निर तिचार तो ॥१॥ व्रत लीधां संजारी ये ॥सा ॥ हियडे धरिय विचार तो॥ शिवगति श्राराधनतणो सा०॥ ए बीजो अधिकार तो॥॥ जीव सवे खमावियें ॥सा॥ योनि चोराशी लाख तोमन ॥ शु0 करो खामणां ॥साणाकोश्शुं रोष न राख तो ॥३॥ सर्व मित्र करी चिंतवो ॥ सा ॥ कोश्न जाणो शत्रु तो ॥ राग द्वेष एम परिहरो॥ सा॥ कीजें जन्म पवित्र तो ॥॥ साहम्मी संघखमावियें सा॥ जे उपनी अप्रीति तो ॥ सङन कुटुंब करी खामणांसा॥ ए जिनशासन रीति तो ॥५॥ खमियें अने खमावियें ॥सा॥एहज धर्मनो सार तो ॥ शिवगति आराधन तणो॥सा॥ ए त्रीजो अधिकार तो॥६॥मृषावाद हिंसा चोरी ॥ सा ॥ धनमू; मेहुन्न तो ॥ क्रोध मान माया तृष्णा ॥सा॥ प्रेम द्वेष पैशुन्य तो ॥७॥ निंदा कलह न कीजीयें ॥ सा ॥ कूडां न दीजें बाल तो ॥ रति अरति मिथ्या तजो सा॥ माया मोस जंजाल तो ॥॥ त्रिविध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. त्रिविध वोसिरावियें ॥स॥ पापस्थान अढार तो ॥ शिवगति आराधना तो ॥ सा ॥ ए चोथो अधिकार तो ॥ए॥ ॥ ढाल पांचमी ॥ हवे निसुणो यहां श्रावीया ए॥ ए देशी ॥ ॥जन्म जरा मरणें करी ए, ए संसार असार तो ॥ कस्यां कर्म सहुअनु जवे ए, कोश् न राखणहार तो ॥१॥ शरण एक अरिहंतनुं ए, शरण सिक जगवंत तो ॥ शरण धर्म श्रीजैननो ए, साधु शरणगुणवंत तो ॥ ५ ॥ अवरमोह सवि परीहरी ए, चार शरण चित्तधार तो ॥ शिवगति आराधन तणो ए, ए पांचमो अधिकार तो ॥३॥ श्रा नव परनव जे कस्यां ए, पापकर्म केश लाख तो ॥ आत्मसाखें निंदीयें ए,पडिक्कमियें गुरु साख तो ॥४॥ मिथ्यामति व वियां ए, जे जांख्यां उत्सूत्र तो ॥ कुमति क दाग्रहने वशे ए, वली उत्थाप्यां सूत्र तो ॥५॥ घड्यां घडाव्यां जे घ णां ए, घरटी हल हथीयार तो ॥ जव जव मेली मूकीयां ए, करतां जी व संहार तो ॥६॥ पाप करीने पोषियां ए, जनम जनम परिवार तो ॥ जन्मांतर पहोता पड़ी ए, कोन कीधी सार तो॥७॥ या नव परनव जे कस्यां ए, एम अधिकरण अनेक तो॥ त्रिविधं त्रिविधं वोसिरावीयें ए, आणी हृदय विवेक तो ॥ ७॥ उकृत निंदा एम करीए, पाप कस्यां परिहार तो ॥ शिवगति आराधनतणो ए, ए हो अधिकार तो ॥ ए॥ ॥ ढाल बही ॥ आदि तुं जोश्ने आपणी ॥ ए देशी ॥ ॥ धन्य धन्य ते दिन माहरो, जिहां कीधो धर्म ॥ दान शियल तपाद री, टाल्यां पुष्कर्म ॥ ध० ॥१॥ शत्रुजादिक तीर्थनी, जे कीधी यात्र ॥ युगतें जिनवर पूजीया, वली पोख्यां पात्र ॥ ध० ॥२॥ पुस्तक ज्ञान लखावियां, जिणहर जिणचैत्य ॥ संघ चतुर्विध साचव्या, ए साते क्षेत्र॥ ॥ध० ॥३॥ पमिकमणां सुपरें कस्यां, अनुकंपा दान ॥ साधु सूरि उवद्या यनें, दीधा बहुमान ॥ध ॥४॥ धर्मकारज अनुमोदियें, इम वारं वार ॥ शिवगति आराधनतणो, सातमो अधिकार ॥ ध० ॥ ५॥ नाव नलो म न आणीयें, चित्त आणी गम ॥ समतालावें नावियें, ए आतमराम ॥ध० ॥ ६ सुख दुःख कारण जीवने, कोश् अवर न होय ॥ कर्म आ प जे आचस्यां, जोगवियें सोय ॥ध ॥ ७ ॥ समता विण जे अनुसरे, प्राणी पुण्यकाम ॥ बार उपर ते लीपणुं, कांखर चित्राम ॥ध ॥ ७॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. ५५२ जाव नली परें नावियें, ए धर्मनो सार ॥ शिवगति आराधन तणो, ए आठमो अधिकार ॥ ध० ॥ ए ॥ इति ॥ . ॥ ढाल सातमी ॥ रेवतगिरि ऊपरें ॥ ए देशी ॥ ॥ हवे अवसर जाणी, करिय संलेषण सार॥अणसण श्रादरियें, पच्चरकी चार आहार ॥ लबुता सवि मूकी, बांकी ममता अंग ॥ ए बातम खेले, समता शान तरंग ॥१॥ गति चारे कीधा, आहार अनंत निःशंक ॥ पण तृप्ति न पाम्यो, जीव लालचियो रंक ॥ उलहो ए वली वली, अणसणनो परिणाम ॥ एथी पामीजें, शिवपद सुरपद गम ॥२॥ धन धना शालि जड, खंधो मेघकुमार ॥ अणसण आराधी, पाम्या नवनो पार ॥ शिवमं दिर जाशे, करी एक अवतार ॥ आराधन केरो, ए नवमो अधिकार ॥३॥ दशमे अधिकारें, महामंत्र नवकार ॥ मनश्री नवि मूको, शिवसुख फल सहकार ॥ ए जपतां जाये, उर्गति दोष विकार ॥ सुपरें ए समरो, चउद पूरवनो सार ॥॥ जन्मांतरें जातां, जो पामे नवकार ॥ तो पातक गाली, पामे सुर अवतार ॥ ए नव पद सरिखो मंत्र न कोई सार ॥ इह जवने परनवें, सुख संपत्ति दातार ॥ ५॥ जु नील नीलडी, राजा राणी थाय ॥ नवपद महिमाथी, राजसिंह माहाराय राणी रतनवती बेहु, पाम्यां बे सुरजोग ॥ एक नवथी लेशे, सिझिवधू संयोग ॥६॥ श्रीमती ने ए व ली, मंत्र फल्यो ततकाल ॥ फणिधर फीटीने, प्रगट थई फुलमाल ॥ शिवकुमरें योगी, सोवनपुरिसो कीध ॥ एम एणे मंत्र, काज घणानां सीध ॥ ७॥ ए दश अधिकारें, वीर जिणेसर नांख्यो ॥ आराधन केरो, विधि जेणे चित्तमा राख्यो ॥ तेणें पाप पखाली, जवनय दूरे नाख्यो । जिन विनय करंतां, सुमति अमृतरस चाख्यो ॥ ॥ इति ॥ ॥ ढाल आठमी ॥ नमो नवि नावणुं ॥ ए देशी ॥ ॥ सिझारथ राय कुलतिलो ए, त्रिशला मात मल्हार तो ॥ अवनीतलें तुमें अवतख्या ए, करवा अम उपगार ॥ १॥ जयो जिन वीरजी ए॥में अपराध कस्या घणा ए, कहेतां न लडं पार तो॥ तुम चरणे आव्या जणी ए, जो तारो तो तार ॥२॥ ज० ॥ आश करीने आवीयो ए, तुम चरणे महाराज तो ॥ याव्याने नवेखशो ए, तो केम रहेशे लाज ॥३॥ जणा कर्म श्रखूजण श्राकरां ए, जन्म मरण जंजाल तो ॥ हुं बुं एहथी ऊजग्यो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ԱԱԾ प्रतिक्रमण सूत्र. ए, बोरुव देवदयाल ॥ ४ ॥ ज० ॥ श्राज मनोरथ मुऊ फल्याए, नागं दुःख दंदोल तो ॥ तूगे जिन चोवीशमो ए, प्रगट्या पुण्य कल्लोल ॥ ५ ॥ ज०॥ जव जव विनय तुमारको ए, जाव जक्ति तुम पाय तो ॥ देव दया करी दीजियें ए, बोधबीज सुपसाय ॥ ६ ॥ ज० ॥ इति अथ कलश ॥ श्य तरण तारण, सुगति कारण, दुःख निवारण. जग जयो ॥ श्रीवीर जिनवर, चरण थुणतां, अधिक मन, ऊलट थयो ॥ १ ॥ श्री वीजयदेव, सूरिंद पटधर, तीर्थ जंगम, इ जगें ॥ तपगपति श्री विजयप्रन सूरि, सूरि तेजें ऊगमगे ॥ २ ॥ श्रीहीर विजय सूरि, शिष्य वाचक, कीर्तिविजय सुरगुरु समो ॥ तस शिष्य वाचक, विनय विजयें, थुण्यो जिन, चोवीशमो ॥ ३ ॥ सइ सत्तर संवत, उगणत्रीशें, रही रांदेर, चोमास ए ॥ विजयदशमी, विजय कारण, कियो गुण, अन्यास ए ४ ॥ नरजव आराधन, सिद्धि साधन, सुकृत लील, विलास ए ॥ निर्जराहेतें, स्तवन रचियुं, नामें पुण्य, प्रकाश ए ॥५॥ इति श्रीवीर जिन याराधनारूप पुण्य प्रकाश स्तवन संपूर्ण श्लो० ॥ सं० ॥ १२७ ॥ ॥ अथ श्री ज्ञानपंचमीनुं स्तवन ॥ ॥ पुण्य प्रशंसीयें ॥ ए देशी ॥ सुत सिद्धारथ नूपनो रे, सिद्धारथ जगवान ॥ बारह परखदा श्रागलें रे, जाखे श्री वर्द्धमानो रे ॥ १ ॥ नवि चित्तधरो ॥ मन वच काय अमायो रे, ज्ञान नक्ति करो ॥ ए श्र कणी गुण अनंत तम तथा रे, मुख्यपणे तिहां दोय || तेमां पण ज्ञा नज वसूं ॥ रे, जिथी दंसण होय रे ॥ २ ॥ ज० ॥ ज्ञानें चारित्र गुण 'वधे रे, ज्ञानें उद्योत सहाय ॥ ज्ञानें थिविरपणुं लहे रे, आचारिज उबजाय रे ॥ ३ ॥ ज० ॥ ज्ञानी श्वासोवासमां रे, कठिण कर्म करे नाश ॥ वह्नि जेम इंधण दहे रे, क्षणमां ज्योति प्रकाशो रे ॥ ४ ॥ ज० ॥ प्रथम ज्ञान पढें दया रे, संवर मोह विनाश ॥ गुणठाएंग पग थालीयें रे, जेम चढे मो ६ श्रवासो रे || || ज० ॥ मइ सुा उहि मण पऊवा रे, पंचम केवल ज्ञान ॥ च मूंगा श्रुत एक बे रे, खपरप्रकाश निदान रे ॥६॥ ज० ॥ तेह नां साधन जे कह्यां रे, पाटी पुस्तक यदि ॥ लखे लखावे साचवे रे, ध प्रमादोरे ॥ ७ ॥ ज० ॥ त्रिविध आशातना जे करे रे, जणतां करे अंतराय ॥ धंधा बहेरा बोबडा रे, मूंगा पांगुल थाय रे ॥ ८ ॥ ज० ॥ जपतां गुणतां न यावडे रे, न मले वल्लन चीज ॥ गुणमंजरी वरदत्त परें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. ५५३ रे ज्ञान विराधन बीज रे ॥ए॥जा प्रेमें पूजे परखदा रे, प्रणमी जगए रु पाय ॥ गुणमंजरी वरदत्तनो रे, करो अधिकार पसायो रे ॥१०॥ ॥ ढाल बीजी ॥ कपूर होये अति ऊजलो रे ॥ ए देशी ॥ ॥ जंबुद्धीपना जरतमां रे, नयर पदमपुर खास ॥ अजितसेन राजा तिहां रे,राणी यशोमती तास रे ॥१॥प्राणी ॥ आराधो वर ज्ञान ॥ एहज मुक्तिनिदान रे॥ प्राणीबाण ॥ एत्रांकणी ॥ वरदत्तकुंवर तेहनो रे, विनया दिक गुणवंत ॥ पितरें जणावा मूकियो रे, आठ वरस जब हुँतरे ॥२॥ प्राण ॥ पंमित यत्न करे घणो रे, बात्र नणावण हेत ॥ अदर एक नाव डे रे, ग्रंथ तणी शी चेतरे ॥३॥प्रा॥ कोठें व्यापी देहडी रे,राजा राणी स चिंत ॥ श्रेष्टी तेहिज नयरमां रे, सिंहदास धनवंत रे ॥४॥ प्राण ॥ कपूर तिलका गेहिनी रे, शीदेशोजितअंग ॥ गुणमंजरी तस बेटडी रे, मूंगी रोगें व्यंग रे ॥५॥ प्राण ॥ शोल वर्षनी सा थरे, पामी यौवनवेश ॥ उर्जग पण परणे नहीं रे,मात पिता धरे खेद रे ॥६॥प्रा०॥ तेणे अवस रें उद्यानमा रे, विजयसेन गणधार ॥ ज्ञानरयण रयणायरू रे, चरण करण व्रतधार रे॥७॥प्रा०॥ वनपालक नूपालने रे, दीध वधाई जाम ॥ चतुरंगी सेना सजी रे, वंदन जावे ताम रे ॥ प्रा०॥ धर्मदेशना सां जले रे, ॥पुरजन सहित नरेश ॥ विकसितनयन वदन मुदा रे, नहिं प्र माद प्रवेश रे ॥ ए ॥ प्रा० ॥ ज्ञान विराधन परनवे रे, मूरख पर आधी न ॥रोगें पीड्या टलवले रे, दीसे दुःखीया दीन रे ॥१०॥प्राण ॥ ज्ञान सार संसारमा रे, ज्ञान परम सुख हेत ॥ ज्ञान विना जग जीवमा रे, न लहे तत्त्वसंकेत रे॥ ११ ॥ प्राण॥ श्रेष्टी पूढे मुणिंदने रे, नांखो करु णावंत ॥ गुणमंजरी मुफ अंगजा रे, कवण कर्म विरतंत रे ॥१५॥प्रा॥ ॥ ढाल त्रीजी ॥ सूरती महिनानी देशीमां ॥ ॥ धातकी खंगनाजरतमां, खेटक नयर सुगम ॥ व्यवहारी जीनदेव बे, घरणी सुंदरी नाम ॥१॥ अंगज पांच सोहामणा, पुत्री चतुराचार ॥ पंमित पासें शीखवा, तातें मूक्या कुमार ॥२॥ बालखनावें रामतें, करतां दहामा जाय ॥ पंडित मारे त्यारें, मा आगल कहे आय ॥३॥ सुंदरी सुखि णी शीखवे, जणवानुं नहिं काम ॥ पंड्यो आवे जो तेमवा, तो तस हणजो ताम ॥४॥ पाटी खमिया लेखणो, बाली कीधां राख ॥ शग्ने विद्या Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ նստ प्रतिक्रमण सूत्र. नव रुचे, जेम करहाने द्वाख ॥ ५ ॥ पाडा परें महोटा थया, कन्या न दिये को || शेव कहे सुण सुंदरी, ए तुऊ करणी जोय ॥ ६ ॥ त्रटकी नांखे जामिनी, बेटा बापना होय ॥ पुत्री होये मातनी, जाणे बे सहु कोय ॥ ७ ॥ रे रे पापिणी! सापिणी, सामा बोल म बोल ॥ रीसाली कहे ताहरो, पा पी बाप निटोल ॥८॥ शेठें मारी सुंदरी, काल करी तत खेव ॥ ए तुम बे टी उपनी, ज्ञानविराधन देव ॥ ए ॥ मूर्द्धागत गुणमंजरी, जातिस्मरण पा मी ॥ ज्ञानदिवाकर साचो, गुरुने कहे शिर नामि ॥१०॥ शेठ कडे सुणो स्वामी, केम जाये ए रोग | गुरु कहे ज्ञान आराधो, साधो, वांबित यो ग ॥ ११ ॥ उज्ज्वल पंचमी सेवो, पंच वरस पंच मास ॥ नमो नाणस्स गण गणो, चोविहार उपवास ॥ १२॥ पूरव उत्तर सन्मुख, जपियें दोय ह जार | पुस्तक गल ढोइयें, धान्य फलादि उदार || १३ || दीवो पंचदीव ट तो, साथियो मंगलगेह ॥ पोसह मान करी शके, तिणिविध पारण एह ॥ १४ ॥ अथवा सौजग्यपंचमी, उज्ज्वल कार्त्तिक मास ॥ जावजीव लगें सेवियें, उजमणां विधि खास ॥ इति ॥ १५ ॥ ॥ ढाल चोथी | एकवीशानी देशी मां ॥ पा ढाल | पांच पोथी रे, ठवणी पाठां विटांगणां ॥ चाबखी दोरा रे, टी पाटला वतरणां ॥ मशी कागल रे, कांबी खडीया लेखणी ॥ कवली मा बली रे, चंडुवा ऊरमर पुंजणी ||१|| त्रुटक ॥ प्रासाद प्रतिमा, तास मूख ए, केसर चंदन, मावली ॥ वासकूपी, वालाकूंची, अंगणां, बावडी ॥ कलश थाली, मंगलदीवो, आरती ने, धूपणां चरवला मुहपत्ति, साहम्मी वछल, नोकरवाली, थापना ||२|| ढाल || ज्ञान दरिसण रे, चरणनां साध न जे कां ॥ तपसंत रे, गुणमंजरीयें सद्दह्यां ॥ नृप पूढे रे, वरदत्त कुंव रने अंग रे ॥ रोग उपनो रे, कवण कर्मना जंग रे ॥ ३ ॥ त्रुटक ॥ मुनि राज जासे, जंबुद्वीपें, जरतसिंहपुर, ग्राम ए ॥ व्यवहारी वसु, तास नं दन, वसुसार वसुदेव, नाम ए ॥ वनमांहे रमतां, दोय बांधव, पुण्ययोगें, गुरु मया ॥ वैराग्य पामी, जोग वामी, धर्मधामी, संवया ॥ ४ ॥ ढाल ॥ लघुबांधव रे, गुणवंत गुरु पदवी लहे || पणसय मुनिनी रे, सारण वारण नितु दिये ॥ कर्मयोगें रे, अशुन उदय यो अन्यदा । संथारे रे, पोरिसी जणी पोढ्यो यदा ॥ ५ ॥ त्रुटक ॥ सर्वघाती, निंद व्यापी, साधु मागे, वां Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. | ԱԱԻ चणा ॥ जंघमां अंतराय थातां,सूरि हवा दूमणा ॥ ज्ञान उपर,द्वेष जाग्यो लाग्यो मिथ्या,नूतडो॥ पुण्य अमृत, ढोली नाख्यु, नस्यो पाप, ताणो घमो ॥६॥ ढाल ॥ मन चिंतवे रे, कां मुझ लाएं पाप रे ॥ श्रुत अच्यासो रे, तो एवमो संताप रे ॥ मुऊ बांधव रे, जोयण सयण सुखें करे॥ मूरखना रे, आठ गुण मुख उच्चरे ॥॥त्रु॥ बार वासर, कोश मुनिने, वायणा, दी धी नहीं ॥ अशुल ध्याने, आयु पूरी, नूप तुऊ नंदन सही ॥ ज्ञानविराध न, मूढजमपणुं, कोढनी वेदन लही ॥ वृक्षबांधव, मानसरवर, हंसगति, पाम्यो सही ॥०॥ ढाल ॥ वरदत्तने रे, जातिसमरण उपनो ॥ नव दीगे रे, गुरु प्रणमी कहे शुलमनो ॥ धन्य गुरुजी रे,झान जगत्रय दीवडो॥ गु ण अवगुण रे, नासन जे जग परवडो ॥ ए त्रु ॥ ज्ञान पावन, सिकि साधन, ज्ञान कहो केम, श्रावडे ॥ गुरु कहे तपथी, पाप नासे, टाढ जेम, घन तावडे ॥ नूप पत्नणे, पुत्रने प्रजु, तपनी शक्ति, न एवडी ॥ गुरु कहे पंचमी, तप आराधो, संपदा ख्यो, बेवमी ॥ १० ॥ इति ॥ ॥ ढाल पांचमी ॥ मेंदी रंग लागो ॥ ए देशी ॥ सगुरु वयणां सुधारसें रे, नेदी साते धात ॥ तपशुं रंग लागो॥ गुणमंज री वरदत्तनो रे, नागे रोग मिथ्यात्व ॥ त ॥१॥ पंचमी तप महिमा घ णो रे, पसयो महियलमांहि ॥ त ॥ कन्या सहस सयंवरा रे, वरदत्त परएयो त्यांहि ॥त ॥२॥ नूपें कीधो पाटवी रे, आप थयो मुनिन्नूप ॥त॥नीम कांति गुणें करी रे, वरदत्त रवि शशिरूप ॥त॥३॥राजरमा रमणी तणारे, नोगवे लोग अखंग ॥ त० ॥ वरसें वरसें ऊजवे रे, पंचमी तेज प्रचंमत॥४॥जुक्तनोगी थयो संयमी रे, पाले व्रत षटकाय ॥ त०॥ गुणमंजरी जिनचंडने रे, परणावे निजताय ॥ तम् ॥ ५॥ सुख विलसी थर साधवी रे, वैजयंतें दोय देव ॥ त० ॥ वरदत्त पण उपनो रे, जिहां सीमंधर देव ॥त॥६॥ अमरसेन राजाघरें रे, गुणवंत नारी पेट ॥ताल दणलक्षित रायने रे, पुण्यें कीधो नेट ॥ त ॥७॥ शूरसेन राजा थयो रे, सो कन्या जार ॥ त ॥ सीमंधर स्वामी कने रे, सुणी पंचमी अधि कार ॥ तम् ॥॥ तिहां पण ते तप आदमु रे, लोक सहित नूपाल ॥त॥ दश हजार वरसां लगें रे, पाले राज्य उदार ॥ त०॥ए॥ चार महावत चोंपशुं रे, श्रीजिनवरनी पास ॥त॥ केवल धरि मुक्तं गयो रे, सादि अ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ प्रतिक्रमण सूत्र. नंत निवास ॥त॥१॥ रमणीविजय शुजापुरी रे, जंबु विदेह मकार ॥त॥ अमरसिंह महिपालने रे, अमरावती घर नार ॥ त ॥ ११ ॥ वैजयंत थकी चवी रे, गुणमंजरीनो जीव ॥ता मानसरस जेम हसलो रे, नाम धयुं सुग्रीव ॥ त ॥ १२ ॥ वीशे वरसें राजवी रे, सहस चोराशी पुत्र ॥ता लाख पूरवसमता धरे रे, केवलज्ञान पवित्र ॥ त ॥१३ ॥ पंचमी तप महिमाविषे रे, नांखे निज अधिकार ॥ त०॥ जेणे जेहथी शिव पद लद्यु रे तेहने तस उपकार ॥ त० ॥ २४ ॥ इति ॥ ॥ ढाल बही ॥ करकंठने करूं वंदणां ॥ ए देशी ॥ चोवीश दमक वारवा ॥ हुँ वारी लाल ॥ चोवीशमो जिनचंद रे ॥ हुँ वारी लाल ॥ प्रगव्यो प्राणांत खर्गयी ॥ हुं० ॥ त्रिशला उर सुखकंद रे ॥ हुं० ॥१॥ महावीरने करुं वंदना ॥ हुं० ॥ ए आंकणी ॥ पंचमी गतिने साधवा ॥ ९ ॥ पंचम नाण विलास रे॥ हुं० ॥ महानिशीथ सिद्धांतमां ॥हुं॥ पंचमी तप प्रकाश रे ॥ हुँ॥२॥ अपराधी पण उछस्यो ।हुं॥ चंग कोशीयो साप रे ॥ हुँ ॥ यज्ञ करंता बांजणा ॥हुं॥ सरखा कीधा आप रे ॥ हुँ० ॥३॥ देवानंदा ब्राह्मणी ॥हुं॥ रिखजदत्त वली विप्र रे ॥ हुं० ब्याशी दिवस संबंधथी ॥ ९० ॥ कामित पूस्यो क्षिप्र रे ॥ ९ ॥४॥ कर्म रोगने टालवा ॥ हुँ ॥ सवि औषधनो जाण रे ॥ ढुं० ॥ आदस्यो में आशा धरी ॥ हुं० ॥ मुऊ ऊपर हित आणी रे ॥ हुँ ॥ ५॥ श्रीविजय सिंह सूरीशनो ॥ हुँ ॥ सत्यविजय पंन्यास रे ॥९॥ शिष्य कपूर विजय कवि ॥९॥ चंद्रकिरण यश जास रे॥हुं॥६॥ पास पंचासरा सान्निध्ये ॥हुं॥ खिमाविजय गुरुनाम रे ॥ हुँ ॥ जिनविजय कहे मुझ हजो ॥ ९० ॥ पं चमी तप परिणाम रे ॥ ९ ॥ ७॥ कलश॥श्य वीर लायक, विर्श्वनायक, सिकिदायक, संस्तव्यो ॥ पंचमी तप सं, स्तवन टोमर, गूंथी निज, कंवें व्यो ॥ पुण्यपाटण, क्षेत्रमांहे, सत्तर त्राएं, संवत्सरें ॥ श्रीपार्श्वजन्म, कल्याण दिवसें, सकल नवि, मंगल करे ॥॥ इति श्रीपंचमीदिनस्तवनं ॥ ॥अथ आदि जिनस्तवनं ॥ गरबानी देशीमां ॥ आदिजिणंद अरिहंत जी ॥ प्रनु अमने रे ॥ तुमें द्यो दरिसन महाराज ॥ शुं कहुं तुमनें रे ॥ आठ पहोरमां एक घमी ॥ ॥ लाग्युं तमाळं ध्या न ॥ शुं॥१॥ मधुकरने मन मालती ॥ प्र॥ जिम मोराने मन मेह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ स्तवनानि. ॥ शुंग ॥ सीताने मन रामजी ॥ प्र ॥ तेम वाध्यो तुमशुं नेह ॥शु॥२॥ रोहिणीने मन चंदजी ॥प्र॥ वली रेवायें गजराज ॥ शुंग॥समय समय प्रनु सांजरे ॥ ॥ मनमामां महाराज ॥ शुं ॥३॥ निःस्नेही थक्ष न वि बूटीयें ॥ प्र० ॥ करुणानंद कहा ॥ शुंग ॥ गुण अवगुण जोता रखे, ॥प्र॥ तो तारक केम कहा ॥ शुं०॥४॥ रढ लागी प्रजु रूपनी ॥प्र॥ मुने न गमे बीजी वात ॥\ण॥ वाहे वात बने नहिं ॥प्र॥ मलियें मूकी ब्रांति ॥ शुं० ॥५॥ सेवे चिंतामणि फले ॥प्र०॥ तुं तो त्रिजुवननाथ ॥ध्रु॥ सो वातें बोउं नहिं ॥प्र॥ हवे आव्या मूऊ हाथ ॥ शुंग ॥६॥ मुदनी वात मूको परी ॥ ॥ जिम जाणो तिम तार ॥ शुं॥ सहगुरु सुंदर कविरायनो ॥ प्र॥ पद्मने प्रजुशुं प्यार ॥ शुं०॥ ॥ इति ॥ ॥अथ सिझचक्रस्तवनं ॥ अवसर पामिने रे, कीजें नव आंबिलनी उली ॥ उली करतां आपद जाये, झछि सिकि लहियें बहुली ॥ ॥१॥ श्राशो ने चैत्र श्रादरशुं, सात मथी संजाली रे ॥ बालस महेली यांबिल करशे, तस घर नित्य दीवा ली ॥ अ॥॥ पूनमने दिन पूरी थाते, प्रेमेशुं पखाली रे ॥ सिद्धचक्रने शुभ आराधी,जाप जपे जपमाली ॥अ॥३॥ देहरे जश्ने देव जुहारो, आ दीश्वर अरिहंत रे ॥ चोवीशे चाहीने पूजो, नावेशुं नगवंत ॥ अ॥४॥ बे टंकें पडिकमणुं बोल्युं, देववंदन त्रण काल रे ॥ श्रीश्रीपालतणी परें समजी, चित्तमां राखो चाल ॥ अ० ॥५॥ समकित पामी अंतरजामी, आराधो एकांत रे ॥ स्याहादपंथें संचरतां, आवे नवनो अंत ॥ अन ॥६॥ सत्तर चोराणुयें शुिदि चैत्रीयें, बारशें बनावी रे ॥ सिद्धचक्र गातां सुख संपत्ति,चालीने घेर आवी ॥ ॥॥ उदयरतन वाचक उपदेशें,जे नर नारी चाले रे ॥ नवनी नावठ ते लांजीने, मुक्तिपुरीमां महाले ॥णान ॥ अथ पूजाविधिाश्रयी श्रीसुविधिजिनस्तवनं ॥ ॥ चोपाश्नी देशीमां॥सुविधिनाथनी पूजा सार, करतां सघले जय ज यकार ॥ पूजानी विधि धारो सही, श्रीजगवंतें शास्त्र कही ॥१॥ पूर्व स न्मुख स्नान आदरो, पश्चिम दिशि रही दातण करो ॥ उत्तरें वस्त्र पहेरो सही, पूजो उत्तर पूर्व मुख रही ॥२॥ घरमां पेसतां वामें नाग, देरासर करवानो लाग ७ दोढ हाथ नूमिथी कीजीयें, उंचुं नीचुं सहुथी वरजीयें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एज प्रतिक्रमण सूत्र. ॥३॥पूर्व उत्तरमुख पूजा जाण, बीजी दिशें हुए करता हाण ॥ नवाग पूजानो विधि एह, विधि करतां होय निर्मल देह ॥४॥पग जंघ ने हाथ बे तणी, खंना मस्तकनी पांचमी नणी ॥ नाल कंठ हृदय ए जाण, उ दरें नवमुं तिलक वखाण ॥ ५॥ चंदन विण पूजा नवि होय, वासपूजा प्रनातें जोय ॥ कुसुमपूजा मध्यान्हें करो, सांजे धूप दीप श्रादरो ॥६॥धूप उकेवो माबे पास, जमणे पासें दीप प्रकाश ॥ ढोj आगल मूको सही, चैत्यवंदन करो दक्षिण रही ॥॥ हाथथकी जे जूमियें पडे, पग लागे म लीन आनडे ॥ मस्तकथी ऊंचुं परिहरो, नानी थकी नीचं मत करो॥ कीडे खाधुं तजीयें फूल, एम फलादिक ढोये अमूल ॥ फूल पांखमी नवि दियें, कलिका कदिये नवि नेदीयें ॥ ए॥ गंध धूप श्राखे पाणीयें, फूल दीप बलि फल जाणीयें ॥ पाणी आठमुं सुंदर सही, आठ प्रकार। पूजा कही ॥१॥ शांतिकारण उज्ज्वल वस्त्र, लाजरकारणे पीत पवित्र ॥ वैरी कींपवा पहेरो श्याम रातुं वस्त्र ते मंगल काम ॥१९॥ पंच वर्ण वस्त्रे होय सिझ, खंडित सांध्यां वस्त्र निषिक ॥ पद्मासनने मौनें रही, मुखको श पूजा विधि कही ॥१२॥ ए विधि पूजा कीजें सदा,जिम पामीजें सुख संपदा ॥ आनंद विमल पंडितनो दास, प्रीतिविजय प्रणमे उबास ॥१३॥ इति ॥ ॥ अथ अष्टापदतीर्थस्तवन ॥ ॥ तीरथ अष्टापद नित्य नमीयें, ज्यां जिनवर चउवीश जी ॥ मणिमय बिंब जराव्यां जरतें, ते वंदूं नित्य दीस जी ॥ती॥१॥ निज निज देह प्रमा में मूर्ति, दीपडे मन मोहे जी॥ चत्तारि अठ दश दोय इणी परें, जिन चो वीशे सोहे जी ॥ ती ॥२॥ बत्रीश कोशनो पर्वत ऊंचो, आउ तिहां पाव मीयो जी ॥ एकेकी चउकोश प्रमाणे, नवि जाये कोश् चमीयो जी॥ती० ॥३॥ गौतमखामी चमीया लब्धे, वांद्या जिन चोवीश जी ॥ ॥जगचिंता मणि स्तवन त्यां कीधु, पूगी मननी जगीश जी ॥ती॥४॥ तन्नव मोद गामी जे मानव, ए तीरथने वांदे जी ॥ जंघा विद्याचारण वांदे, ते तो ल ब्धिप्रसादें जी ॥ ती० ॥॥ शाठ सहस सुत सगर चक्रीना, ए तीरथ से वंतां जी ॥ बारमा देवलोकें ते पहोता, लेहशे सुख अनंतां जी ॥ ती० ॥ ॥६॥ कंचनमय प्रासाद यहां डे, वंदन करवा योग्य जी ॥ ए अधिकार ने श्रावश्यकसूत्रं, जो जो दश् उपयोग जी ॥ ती॥॥ जिहां आदीश्वर मु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. एयए ते पहोता, अविचल तीरथ एह जी ॥ जशवंतसागर शिष्य पयंपे जिनें अवधते नेह जी ॥ती॥ ॥इति अष्टापद स्तवन ॥ ॥ अथ नेमराजुलनुं चोमासुं लिख्यते ॥ ॥ श्रावण वरसे रे स्वामी, मेली न जाशो अंतरजामी ॥ माता मेहुआ रे वरसे, प्रीतम एणी रीतें केम परवमशे ॥मारा सम जाउँ मां रे वहाला, लालच लागी तुमशुं लाला ॥ मा॥१॥ नादरवो जरजोरें गाजे, नदीयें नीर खलाखल वाजे ॥ धरती शोने नीलाचर साही, वालम संयम ले जो परणी ॥ माण ॥॥ श्राशोयें आश घणेरी अमने, जीवन जावं न घटे तमने, आजूषण पहेरी परवरियां, सलूणा साहेब रंगें न रमिया ॥ मा॥ ३॥ कार्तिकें कंताजी शुं कहो बो, चतुर थश्ने शुं चूको बो ॥ जीवजीव नने सोलशें राणी, तेमां एके नहिं निर्वाणी ॥ रूपचंद बोले जे चोमासु, नेमजीने मन मलवानुं साचुं ॥ मा ॥४॥ ॥अथ समवसरणनुं स्तवन ॥ एक वार गोकुल आवजो ॥ . ॥ गीविंदजी ॥ ए देशी ॥ एक वार वउदेश श्रावजो ॥ जिणंद जी ॥ एक वार वलदेश श्रावजो॥द र्शन नयन ठहरावजो ॥ जिणंदजी ॥ एक वार आवजो ॥ जयंतीने पाय न मावजो ॥ जि० ॥ एक० ॥ वली समवसरण देखावजो ॥ जि०॥ एक ॥ ए आंकणी ॥ समवसरण शोना जे दीपी, दण दण सांजरी श्रावशे ॥जिण ॥ एक० ॥१॥ नूतल सुगंधीजल वरसावे, फुलना पगर जरावशे॥ जि०॥ कनक रतननो पीठ करीने, त्रिगडानी शोना रचावशे ॥ जि० ॥एक॥२॥ रूपानो गढ ने कनक कोशीशां, वच्चें रतन जडावशे ॥ जि ॥ रतनगढ़ें मणिनां कोशीशां, जगमग ज्योति दीपावजो ॥जी॥ एक ॥ चार छ वारें एंशी हजारा, शिवसोपान चढावजो ॥ जी० ॥ एक०॥३॥ देव चा रे कर आयुकधारी, उवारें खमा करे चाकरी ॥ जि ॥ एक ॥ दूर पा सथी एक समयें वंदे, जरंतीने लघु बोकरी ॥ जि० ॥ एक ॥४॥सह स्त्र योजन ध्वज चार ते जंचा, तोरण चज आठ वावमी ॥ जि ॥ एका मंगल आउने धूप घटामी, फूलमाला करपूतली ॥ जिगाएक॥ ५॥ श्रा उ सुरी बीजेगढछारें, रत्नगढें चल देवता ॥ जि ॥ एक ॥ जातिवै र बंमी पशुपंखी, तुऊपद कमलने सेवतां ॥ जि० ॥ एक० ॥६॥ पंचव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० प्रतिक्रमण सूत्र. साध र्णमयी जलथल केरां, फूल अमर वरसावता ॥ जि० ॥ एक० ॥ पर्षदा सात ते उपर बेसे, मुनिनर नारी देवता ॥ जि० ॥ एक० ॥ ७ ॥ आवश्य कटीकायें पण उत्तर, थाये न कुसुम किलामणी ॥ ज० ॥ एक वी वैमानिकनी देवी, उनी सुणे दोय तुरणी ॥ जि० ॥ एक० ॥ ८ ॥ बत्री श धनुष अशोक ते उंचो, चामर बत्र धरावजो ॥ जि० ॥ एक० ॥ चन मुख रयणसिंहासन बेसी, अमृतवयणां सुणावजो ॥ जि० ॥ एक० ॥ ॥ ए ॥ धर्मचक्र नामंगल तेजें, मिथ्यातिमिर हरावजो ॥ जि० ॥ एक० ॥ गणधर वाणी जब में सुणीयें, तब देवळंदें सुहावजो || जि० ॥ एक० ॥ १० ॥ देवतासुर कवि साचुंबोले, जिहां जाशो तिहां श्रावशे ॥ जिना ए क० ॥ रंजादिक अपरनी टोली, बंदी नमी गुण गावशे ॥ जि० ॥ एक० ॥ ११ ॥ अंतरजामी दूरें विचारो मुऊ चित्त जीनुं ज्ञानशुं ॥ जि० ॥ एक० ॥ हृदयकी जो दूरें जार्ज तो, कौतुक श्रमें मानशुं ॥ जि०॥ एक० | १२|| सुलसा दिक नव जिनपद दीधुं मशुं अंतर एवको ॥ जि० ॥ वीतराग जो नाम धरावो तो, सहुने सरिखा त्रेवमो ॥ जि० ॥ एक०|| १३ || ज्ञाननजरथी वात विचारो, रागदशा श्रम रूडी ॥ जि॥ एक० ॥ सेवक रागे साहेब रीके, धन धन त्रिशला मावमी ॥ जि० ॥ एक० ॥ १४ ॥ तुऊ विष सुरपति सघलातूसे, पण में श्रमणमा | जि० ॥ एक० ॥ श्रीशुजवीर हजूरें रहेतां, उत्सव रंग वधामणां ॥ जि० ॥ एक० ॥ १५ ॥ इतिसमवसरण स्तवन ॥ ॥ अथ सीमंधर जिनस्तवन ॥ रासमाना रागमां ॥ रूपैयो ते घालुं रोको, महारा बालाजी रे ॥ ए देशी ॥ मनडुंते महारुं मोकले, महारा बालाजी रे ॥ ससिहर साथै संदेश, जश्ने कहे जो महारा वाली रे ॥ कणी ॥ जरतना जक्तने तारवा ॥ महा० ॥ एक वार वने या देश ॥ ज० ॥ १ ॥ प्रभुजी वसो पुष्कलावती ॥ म हा० ॥ महाविदेहक्षेत्र मकार ॥ ज० ॥ पुरी राजें पुंरुरीगिणी ॥ महा० ॥ जिहां प्रनो अवतार ॥ ज० ॥२॥ श्रीसीमंधर साहिबा ॥ महा० ॥ वि चरंता वीतराग ॥ जइ० || परिबोहो बहुप्राणीने || महा० ॥ तेनो पामे कोण ताग ॥ ५० ॥३॥ मन जाणे कमी मनुं ॥ महा० ॥ पण पोतें नहिं पांख ॥ ज० ॥ जगवंत तुम जोवा जणी ॥ महा० ॥ अलजो धरे बे यांख रे ॥ ज० ॥ ४ ॥ दुर्गम महोटा डूगरां ॥ महा० ॥ नदी नालानो नहिं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि ५६२ पार ॥ जय० ॥ घाटीनी आंटी घणी ॥ म ॥ अटवी पंथ अपार ॥ जश्न ॥५॥ कोडी सोनैये काशीदी ॥ महा ॥ करनारो नहिं कोय ॥ जश्न कांगलीयो केम मोकद्धं ॥ महा० ॥ होंश तो नित्य नवली होय ॥ जश्न ॥६॥ लखु जे जे लेखमां ॥ महा ॥ लाख गमे अनिलाष ॥ ज० ॥ तमे लेजामां ते लहो ॥ महा ॥ मुफ मन पूरे डे साख ॥ ज० ॥७॥ लोकालोक स्वरूपना ॥ महा० ॥ जगमां तुमें बो जाण ॥ जय० ॥ जाण श्रागें शुं जणावियें ॥ मह ॥ श्राखर अमें अजाण ॥ जय० ॥ ॥ वा चकजदयनी विनति ॥ महा०॥ ससीहर कह्या संदेश ॥ जय० ॥ मानी लेजो माहरी ॥ महा० ॥ वस्ती दूर विदेश ॥ जश् ॥ ए ॥ इति ॥ ॥अथ श्री युगमंधर जिनस्तवन ॥ मधुकरनी देशीमां ॥ ॥ कायापामी अति कूडी, पांख नहीं रे आवं ऊमी, लब्धि नहिं कोय रूडी रे ॥ श्रीयुगमंधरने कहेजो ॥१॥ के दधिसुत विनतमी सुण जो रे ॥ श्रीयुग ॥ ए आंकणी ॥ तुम सेवामांहे सुर कोमी, ते हां आवे एक दोमी, आश फले पातक मोमी रे ॥ श्रीयुग ॥२॥ फुःख म समयमां श्णे जरतें, अतिशय नाणी नवि वरते, कहियें कहो कोण सांजलते रे ॥ श्रीयुग ॥३॥ श्रवणें सुखीया तुम नामें, नयणां दरि सण नवि पामे, ए तो ऊगडानो गंमें रे ॥ श्रीयुग ॥४॥ चार आंगल अंतर रहे,, शो कडलीनी परें पुःख सहेवू, प्रजु विना कोण आगल कहे यूँ रे ॥ श्रीयुग ॥ ५॥ महोटा मेल करि आपे, बेहुने तोल करी थापे, सजन जश जगमां व्यापे रे ॥ श्रीयुग ॥ ६ ॥ बेहुनो एक मतो थावे, केवल नाण जुगल पावे, तो सवि वात बनी आवे रे ॥ श्रीयुग ॥ ७॥ गजलंबन गजगतिगामी, विचरे विप्रविजय स्वामी, नयरी विजया गुण धामी रे ॥ श्रीयुग ॥७॥ मातासुतारायें जायो, सुदृढ नरपतिकुल आयो, पंमित जिनविजयें गायो रे ॥श्रीयुगए॥ इति युगमंधर जिन स्तवन ॥ ॥अथ नेमिजिन स्तवन ॥ गरबानी देशीमां ॥ ॥ जश्ने रहेजो महारा वहालाजी रे, श्रोगिरनारने गोंख ॥ जश्ने॥ अमें पण तिहां आवशुं ॥ महाराण ॥ जिहारे पामीशुं जोख ॥ जश्॥१॥ जान लेई जूनेगढें ॥ महा० ॥ श्राव्या तोरण आप ॥ जय० ॥ पशुओं पेखी पाबा वल्या ॥ महा० ॥ जातां न दीधो जबाप ॥ ज० ॥२॥ सुंद ७१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ प्रतिक्रमण सूत्र. र आपण सारिखा ॥ महा ॥ जोतां नहिं मले जोम ॥ जय० ॥ बोल्या अण बोल्या करो ॥ महा॥ ए वातें तमने खोम ॥ ज०॥३॥ हुं रागी तुं वैरागीयो ॥ महा॥जगमां जाणे सहु कोय ॥ जय० ॥रागी तो लागी रहे ॥ महा ॥ वैरागी रागी न होय ॥ जश् ॥ ४॥ वर बीजो हुँ नवि वरं ॥ महा ॥ सघला मेली सवाद ॥ जय० ॥ मोहनीयाने जर मली॥ महा ॥ महोटा साथें श्यो वाद ॥ ज० ॥५॥ गढ तो एक गिरनार ॥ महा॥ निरतो वे एक श्रीनेम ॥ ज० ॥ रमणी एक राजीमती॥ महा ॥ पूरो पाड्यो जेणें प्रेम ॥ जश् ॥ ६॥ वाचक उदयनी वंदना ॥ महा ॥ मानी लेजो महाराज॥ज ॥ नेम राजुल मुक्तं मयां ॥ महा॥ सास्यां आतमकाज ॥ ज० ॥ ७॥ इति ॥ ॥अथ सूरशशि कृत जिन प्रजुनी अांगीतुं स्तवन ॥ ॥धन धन रे दीवाली मारे आजुनी रे, मेंतो बबी नीरखी जिनराजनी रे॥ ध ॥ ए आंकणी ॥ पहेरी अांगी थालौकिक जातिनी रे, मांही बुट्टी दी धी जात नातनी रे ॥धण॥१॥ मणि हिरला मुकुटमा जड्या बहु रे, का ने कुंडलनी शोजा हुं शी कहुं रे ॥ ध० ॥२॥ मुने कृपा करी ते ढुं कडं कशी रे, महारे वहाले मुज सामुं जोयुं हसी रे ॥ ध० ॥३॥ प्रजु शांति जिणंद हृदयें वस्या रे, थई सूरशशीनी चढती दशा रे ॥ ध० ॥४॥ ॥ अथ बीजनुं स्तवन ॥ फतमल पाणीमाने जाय ॥ ए देशी ॥ ॥प्रणमी शारद माय, शासन वीर सुहंकर जी॥ बीज तिथि गुणगेह, आदरो नवियण सुंदरु जी ॥१॥ एह दिन पंच कल्याण, विवरीने क ढं ते सुणो जी ॥ महाशुदि बीजे जाण, जन्म अभिनंदन तणो जी ॥२॥ श्रावण शुदिनी हो बीज, सुमति चव्या सुरलोकथी जी ॥ तारण नवो दधि तेह, तस पद सेवे सुर थोकथी जी ॥३॥ समेतशिखर शुज गण, दशमा शीतल जिन गणुं जी ॥ चैत्रवदिनी हो बीज, वस्या मुक्ति तस सुख घणुं जी ॥४॥ फाल्गुन मासनी बीज, उत्तम उज्ज्वल मासनी जी॥ अरनाथ तस च्यवन, कर्मदयें तव पासनी जी ॥५॥ उत्तम माघज मा स, शुदि बीजें वासुप्रज्यनो जी॥ एहिज दिन केवल नाण, शरण करो जिनराजनो जी ॥६॥ करणीरूप करो खेत, समकित रूप रोपो तिहां जी॥ खातर किरिया हो जाण, खेड समता करी जिहां जी ॥ ७॥ उपशम Jain Educationa international For Personal and Private Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. ५६३ तप नीर, समकित गेड प्रगट होवे जी ॥ संतोष करी अहो वाम, पञ्च काण व्रत चोकी सोहे जी ॥७॥नासे कर्मरिपु चोर, समकित वृद फट्यो तिहां जी ॥ मांजर अनुनव रूप, उतरे चारित्र फल जिहां जी ॥ ए॥ शांति सुधारस वारी,पान करी सुख लीजीयें जी ॥ तंबोल सम.ल्यो स्वाद, जीवने संतोष रस कीजीयें जी ॥ १० ॥ बीज करो बावीश मास, उत्कृष्टी बावीश मासनी जी ॥ चो विहार उपवास, पालीये शील वसुधा सनी जी ॥ ११॥ आवश्यक दोय वार, पडिलेहण दोय लीजीयें जी ॥ देववंदन त्रण काल, मन वचकायायें कीजियें जी॥ १२ ॥ जजमणुं शुज चित्त, करि धरीयें संयोगथी जी ॥ जिनवाणी रस एम, पीजियें श्रुत उपयो गथी जी ॥ १३ ॥ण विध करीयें हो बीज, राग ने शेष दूरे करी जी ॥ केवल पद लहि तास, वरे मुक्ति उलट धरी जी ॥ १४ ॥ जिनपूजा गुरु नक्ति, विनय करी सेवो सदा जी ॥ पद्मविजयनो शिष्य, नक्ति पामे सुखसंपदा जी ॥ १५ ॥ इति ॥ ॥अथ पंचमी, लघुस्तवन लिख्यते ॥ पंचमीतप तमें करो रे प्राणी, जेम पामो निर्मल झान रे॥पहेढुं झा न ने पढ़ी क्रिया, नहिं को ज्ञान समान रे॥ पंचमी० ॥ १॥ नंदीसूत्रमा झान वखाएयु, ज्ञानना पांच प्रकार रे ॥ मति श्रुत अवधि ने मनःपर्यव, केवल एक उदार रे॥ पंचमी ॥२॥ मति अहावीश श्रुत चउदह वीश, अवधि ने असंख्य प्रकार रे ॥ दोय नेदें मनःपर्यव दाख्युं, केवल एक उ दार रे ॥ पंचमी ॥३॥ चंद्र सूर्य ग्रह नक्षत्र तारा, एकथी एक अपार रे ॥ केवल ज्ञान समुं नहीं को, लोकालोक प्रकाश रे ॥ पंचमी॥४॥ पारसनाथ प्रसादें करीने, महारी पूरो उमेद रे ॥ समयसुंदर कहे हुँ पण पामुं, शाननो पांचमो नेद रे ॥ पंचमी० ॥ ५ ॥ इति ॥ ॥अथ श्री अष्टमीनुं स्तवन लिख्यते ॥ ॥ हारे मारे गम धरमना सामा पचवीश देश जो, दीपे रे त्यां देश मगध सहुमां शिरें रे लो ॥ हारे मारे नगरी तेहमां राजगृही सुवि शेष जो, राजे रे त्यां श्रेणिक गाजे गजपरें रे लो ॥१॥ हारे मारे गाम नगर पुर पावन करता नाथ जो, विचरंता तीहां आवी वीर समोसख्या रे लो ॥ हां ॥ चउद सहस्स मुनिवरना साथें साथ जो, सूधा रे तप सं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ प्रतिक्रमण सूत्र. यम शीयलें अलंकस्या रे लो ॥शाहां॥ फूटया रसजर फूल्या अंब कदंब जो, जाणुं रे गुणशील वन हसी रोमांचीयो रे लो ॥ हां ॥ वाया वाय सुवाय तिहां अविलंब जो, वासे रे परिमल चिहुं पासें संचियो रे लो ॥३॥ हां॥ देव चतुर्विध आवे कोमा कोडि जो, त्रिगमो रे मणि हेम रजतनो ते रचे रे लो ॥हा॥ चोशठ सुरपति सेवे होमाहोम जो, आगे रे रस लागे इंशाणी नचे रे लो ॥४॥हांामणिमय हेम सिंहासन बेग या प जो, ढाले रे सुर चामर मणिरत्ने जड्यां रे लो ॥ हां ॥ सुणतां उंछ निनाद टले सवि ताप जो, वरसे रे सुर फूल सरस जानु अड्यां रे लो॥५॥ ॥हा॥ ताजे तेजें गाजे घन जेम ढुंब जो, राजे रे जिनराज समाजे धर्म ने रे लो ॥हां निरखी दरखी आवे जनमन झुंब जो, पोषे रे रसन पडे घोषे नर्ममां रे लो ॥६॥ हां आगम जाणी जिननो श्रेणिक राय जो, आव्यो रे परवरियो हय गय रथ पायगे रे लो॥हा॥ देश प्रददि णा वंदी बेगे गय जो, सुणवा रे जिनवाणी महोटे नायगे रे लो ॥७॥ ॥हां॥ त्रिभुवन नायक लायक तव लगवंत जो, आणी रे जन करुणा धर्मकथा कहे रे लो ॥ हां ॥ सहज विरोध विसारे जगना जंतु जो, सुणवा रे जिनवाणी मनमां गहगहे रे लो ॥ ॥ इति ॥ ॥ ढाल बीजी ॥ वालम वहेला रे आवजो ॥ ए देशी ॥ ॥ वीर जिनवर एम उपदिशे, सांजलो चतुर सुजाण रे ॥ मोहनीनिं दमां कां पमो, उलखो धर्मनां गण रे ॥ विरति ए सुमति धरि आदरो ॥१॥ ए आंकणी ॥ परिहरो विषय कषाय रे ॥ बापमा पंच प्रमादथी, कां पमो कुगतिमां धाय रे ॥वि॥॥ करी शको धर्मकरणी सदा, तो करो ए उपदेश रे ॥ सर्वकालें करी नवि शको, तो करो पर्व सुविशेष रे॥विण ॥३॥ जूजुश्रा पर्व षटनां कह्यां,फल घणां श्रागमें जोय रे॥ वचन अनुसारें आराधतां, सर्वथा सिद्धि फल होय रे ॥ विण ॥जीवने आयु परनव तणु, तिथि दिने बंध होय प्राय रे ॥ तेह नणी एह आराधतां, प्राणीयो सजति जाय रे ॥ वि० ॥५॥ तेहवे अष्टमी फल तिहां, पूजे गौतम स्वामि रे ॥ नविक जीव जाणवा कारणे, कहे वीर प्रजु ताम रे ॥ वि० ॥६॥ अ ष्टमहासिद्धि होय एदथी, संपदा आउनी बृद्धि रे ॥ बुद्धिना आठ गुण संपजे, एहथी आठ गुण सिकि रे ॥ विण ॥॥ लान होय आठ पमिहा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. ५६५ रनो, आठ पवयण फल होय रे ॥ नाश आठ कर्मनो मूलथी, अष्टमीफल जोय रे ॥ विण ॥॥ आदि जिन जन्म दीदा तणो, अजितनुं जन्म कल्याण रे ॥ च्यवन संजव तणुं एह तिथे, अनिनंदन निर्वाण रे ॥ वि० ॥॥ सुमति सुव्रत नमि जनमीया, नेमनो मुक्ति दिन जाण रे ॥ पास जि न एह तिथे सिझला, सातमा जिन च्यवनमान रे ॥ वि॥१॥ एह ति थि साधतो राजियो, दंमविरज लही मुक्ति रे ॥ कर्म हणवा नणी अष्ट मी, कहे सूत्र नियुक्ति रे ॥विण ॥१९॥ अतीत अनागत कालना, जिन त णां के कल्याण रे ॥ एह तिथे वली घणा संयमी, पामशे पद निर्वा ण रे ॥वि० ॥१२॥ धर्मवासित पशु पंखीयां, एह तिथे करे उपवास रे ॥ व्रतधारी जीव पोसो करे, जेहने धर्म अन्यास रे ॥ वि० ॥१३॥ नांखीयो वीरें आठम तणो, नविकहित एह अधिकार रे ॥ जिनमुखें उच्चरे प्रा णीया, पामशे नव तणो पार रे ॥ वि॥१४॥ एहथी संपदा सवि लहे, ट ले कष्टनी कोडि रे ॥ सेवजो शिष्य बुध प्रेमनो, कहे कांति कर जोमि रे॥ वि० ॥१५॥ कलश ॥ एम त्रिजग नाषण, अचल शासन, बर्डमान, जिने श्वरू ॥ बुध प्रेम गुरु सुपसाय पामी, संथुण्यो अलवेसरू ॥ जिनगुण प्र संगें, नणो रंगें, स्तवन ए, आठम तणो ॥ जे नविक नावें, सुणे गावे, कांति सुख, पावे घणो ॥ १॥ श्लोक संख्या ॥४३॥ ॥अथ एकादशीनुं स्तवन लिख्यते ॥ ॥ जगपति नायक नेमि जिणंद, द्वारिका नगरी समोसस्या ॥ जगप ति वंदवा कृष्ण नरिंद, जादव कोमशुं परिवस्या ॥ १॥ जगपति धिगुण फूल अमूल, नक्ति गुणे माला रची ॥ जगपति पूजी पूडे कृष्ण, दायिक समकित शिवरुचि॥॥जगपति चारित्र धर्म अशक्त,रक्त आरंज परिग्रहे॥ जगपति मुफ आतम उझार, कारण तुम विण कोण कहे ॥३॥ जगपति तुम सरिखो मुऊ नाथ, माथे गाजे गुणनिलो ॥ जगपति को उपाय ब ताव, जिय व शिववधू कंतलो ॥ ४ ॥ नरपति उज्ज्वल मागशिर मास, आराधो एकादशी ॥ नरपति एकशो ने पंचाश, कल्याणक तिथि उससी ॥५॥ नरपति दश क्षेत्रे त्रण काल, चोवीशी त्रीशे मली ॥ नरपति नेवू जिननां कल्याण, विवरी कहुँ आगल वली ॥६॥ नरपति अर दीदा नमी नाण, मत्रीजन्म व्रत केवली ॥ नरपति वर्तमान चोवीशी, मांहे क Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ प्रतिक्रमण सूत्र. व्याण कह्यां वली ॥ ॥ नरपति मौनपणे उपवास, दोढशो जपमाला ग णो ॥ नरपति मन वचकाय पवित्र, चरित्र सुणो सुव्रत तणो ॥ ७ ॥ नर पति दाहिण धातकी खंग, पश्चिम दिशि श्डुकारथी ॥ नरपति विजय पाटण अनिधान, साचो नृप प्रजापालथी ॥ ए ॥ नरपति नारी चंद्राव तीतास, चंडमुखी गजगामिनी ॥ नरपति श्रेष्ठी शूर विख्यात, शियलस लीला कामिनी ॥ १० ॥ नरपति पुत्रादिक परिवार, सार नूषण चीवर धरी ॥ नरपति जाये नित्य जिनगेह, नमन स्तवन पूजा करे ॥ ११ ॥ नरपति पोषे पात्र सुपात्र, सामायिक पोषध वरे ॥ नरपति देववंदन श्रा वश्यक, काल वेलायें अनुसरे ॥ १५ ॥ इति ॥ ॥ ढाल बीजी ॥ ॥ एकदिन प्रणमी पाय, सुव्रत साधु तणारी ॥ विनये विनवे शेठ मुनिवरकरि करुणा री ॥१॥ दाखो मुफ दिन एक, थोमो पुण्य कीयो री॥ वाधे जिम वमबीज, शुज अनुबंधी थयो री ॥२॥ मुनि नासे महाना ग्य, पावन पर्व घणां री ॥ एकादशी सुविशेष, तेहमां सुण सुमनारी ॥३॥ सीत एकादशी सेव, मास अग्यार लगें री॥ अथवा वरस ग्यार, उज वी तपशुं वगेरी ॥४॥ सांजली सशुरु वेण, आनंद अति उबस्यो री ॥ तप सेवी उजवीय, श्रारण स्वर्ग वस्यो री ॥५॥ एकवीश सागर आय, पाली पुण्यवशें री॥ सांजल केशवराय, आगल जेह थशे री ॥६॥ सौरी पुरमा शेठ, समृद्धदत्त वडो री ॥ प्रीतिमती प्रिया तास, पुण्यजोग चड्यो री ॥७॥ तस कूखें अवतार, सूचित शुज स्वपनें री॥ जनम्यो पुत्र पवित्र, उत्तम ग्रह शकुनें री ॥॥ नाल निक्षेप निधान, नूमि थी प्रगट हवो री ॥ गर्नदोहद अनुनाव, सुव्रत नाम ठव्यो री ॥ ए॥ बुद्धि उद्यम गुरु जोग, शास्त्र अनेक जण्यो री ॥ यौवनवय अग्यार, रूप वती परण्यो री॥१०॥ जिन पूजन मुनिदान, सुव्रत पच्चरकाण धरे री॥ अगीयार कंचन कोमि, नायक पुण्य नरेरी ॥ ११॥ धर्मघोष अणगार, तिथि अधिकार कहे री॥ सांजली सुव्रत शेउ, जातिस्मरण लहेरी॥ .१२ ॥ जिनप्रत्यय मुनि शाख, जक्तं तप उच्चरे री एकादशी दिन आउ, पहोरो पोसो धरे री॥१३॥ इति ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. ॥ ढाल त्रीजी ॥ पत्नी सयुतें पोसह लीधों, सुव्रतशेतें अन्यदा जी || अवसर जाणी तस्कर याव्या, घरमा धन लूटे तदा जी ॥ १ ॥ शासन नक्ते देवी शक्ते थंजाणा ते बापडा जी ॥ कोलाहल सुणी कोटवाल आव्यो, नूप आगल धस्या शंकमा जी ॥ २॥ पोसह पारी देव जुहारी, दयावंत लेइ भेटणां जी ॥ रायने प्रणमी चोर मुकावी, शेठें कीधां पारणां जी ॥ ३ ॥ अन्य दिवस विश्वा नल लागो, सोरीपुरमा खाकरो जी || शेठजी पोसह समरस बेटा, लोक कहे कां करो जी ॥ ४ ॥ पुण्यें हाट वखारो शेवनी, उगरी सहु प्रशं सा करे जी ॥ हरखे शेठजी तपजजमणं, प्रेमदा सायें आदरे जी ॥ ५ ॥ पुत्रने घरनो जार जलावी, संवेगी शिर सेहरो जी ॥ चडनाणी विजयशेखरसूरिपासें, तप व्रत आदरे जी ॥ ६ ॥ एक खटमासी चार चौमासी, दोसय ब सो वम करे जी ॥ बीजां तप पण बहुश्रुत सुव्रत, मौन एकादशी व्रत धरे जी ॥ ७ ॥ एक अधम सुर मिथ्यादृष्टि, देवता सुव्रत साधुने जी ॥ पूर्वोपार्जित कर्म उदेरी, अंगें वधारे व्याधिने जी ॥ ८ ॥ कर्मे न डियो पापें जमियो, सुर कहे जार्ज औषध जणी जी ॥ साधु न जाये रोष जराये, पाटु प्रहारें हट्यो मुनि जी ॥ ५ ॥ मुनि मन वचन काय त्रियोगें, ध्यान अनल दहे कर्मने जी ॥ केवल पामी जितपद रामी, सुव्रत नेम कहे श्यामने जी ॥ १० ॥ ॥ ढाल चोथी ॥ कान पयंपे नेमने ए ॥ धन्य धन्य यादव वंश, जिहां प्रभु अवतस्या ए ॥ मु मनमानसहंस, जीयो जिन नेमने ए ॥१॥ धन्य शिवादेवी माव จริง ए, समुद्र विजय धन्य तात ॥ सुजात जगतगुरु ए, रत्नत्रयी श्रवदात ॥ ॥ ज० ॥ २ ॥ चरण विराधी उपन्यो ए, हुं नवमो वासुदेव ॥ ज० ॥ तिणें मन नवि उसे ए, चरणधर्मनी सेव ॥ ज० ॥ ३ ॥ हाथी जेम कादव गढ्यो ए, जाणुं उपादेय देय ॥ ज० ॥ तो पण हुं न करी शकुं ए, डुष्ट कर्मनो नेय ॥ ज० ॥ ४ ॥ पण शरणं बलीया तणुं, ए कीजें सीके काज ॥ ज० ॥ एहवां वचनने सांजली ए, बांहे ग्रह्यानी लाज ॥ ५ ॥ नेम कहे एकादशी ए, समकित युत आराध ॥ ज० ॥ थाश ज० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ បឌុច प्रतिक्रमण सूत्र. जिनवर बारमो ए, नावि चोवीशियें लछ॥जयो ॥६॥ कलश श्य नेमि जिनवर, नित्य पुरंदर, रेवताचल, मंगणो ॥ बाण नंद मुनि, चंद वरसें,११५ राजनगरें,संथुण्यो॥संवेगरंग, तरंग जलनिधि, सत्य विजय, गुरु, अनुसरी॥ कपूर विजय कवि, दमाविजय गणि, जिन विजय, जयसिरि वरी॥१॥ ति॥ ॥अथ श्रीवीरप्रजुनुं दीवालीनुं स्तवन लिख्यते ॥ ॥ मारगदेशक मोदनो रे, केवल ज्ञान निधान ॥ नावदया सागर प्रनु रे, पर नपगारी प्रधानो रे ॥१॥ वीर प्रनु सिफ थया ॥ संघ सकल आधारो रे, हवे श्ण नरतमां ॥ कोण करशे उपगारो रे ॥ वीर ॥२॥ नाथ विहणुं सैन्य ज्युं रे, वीर विहणा रे जीव ॥ साधे कोण आधारथी रे, परमानंद अनंगो रे ॥ वीर ॥३॥ मात विद्रणो बाल ज्युं रे, अरहो परहो अथमाय ॥ वीर विहूणा जीवमारे, आकुल व्याकुल थाय रे ॥ वीरण ॥४॥ संशय बेदक वीरनो रे, विरद ते केम खमाय ॥ जे दी सुख उपजे रे, ते विण केम रहेवायो रे ॥ वीर ॥ ५॥ निर्यामक नव समुन नो रे, नवअमवी सबवाह ॥ ते परमेश्वर विण मले रे, केम वाधे उत्सा हो रे॥ वीर ॥ ६॥ वीरथकां पण श्रुत तणो रे, हतो परम आधार ॥ हवे इहां श्रुत आधार बे रे, अहो जीनमुडा सारो रे॥ वीर०॥ ७॥त्र ण कालें सवि जीवने रे, आगमथी आणंद ॥ सेवो ध्यावो नवि जना रे, जीनपमिमा सुखकंदो रे॥ वीरा॥ गणधर आचारज मुनि रे,सहूने एणी परें सिफि॥ जव नव आगम संगथी रे, देवचंद पद लीध रे वीर ॥ ए॥ ॥ अथ आंबील तप आश्रयी श्रीसिझचक्रजीतुं स्तवन ॥ ___॥जीहो कुंअर बेग गोंखडे ॥ ए देशी ॥ ॥ जीहो प्रणमुं दिन प्रत्ये जिनपति लाला॥ शिव सुखकारी अशेष॥ जीहो आशोई चैत्री नणी ॥ लाला ॥ अहाई विशेष ॥ १॥ नवि कजन, जिनवर जग जयकार ॥ जीहो जिहां नवपद आधार ॥ ज० ॥ ए आंकणी ॥ जीहो तेह दिवस आराधवा ॥ लाला ॥नंदीश्वर जाय ॥ जीहो जीवा निगममांहे कडं ॥ ला ॥ करे अम दिन महिमाय ॥२॥ ज० ॥ जीहो नवपद केरा यंत्रनी ॥ ला ॥ पूजा किजें रे जाप ॥ जीहो रोग शोक सवि आपदा ॥ ला ॥ नासे पापनो व्याप ॥३॥ न ॥ जीहो अरिहंत सिक आचारज ॥ ला ॥ उवकाय साधु ए पंच ॥ जीहो दंसण नाण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. ५६ए चारित्र तवो ॥ ला ॥ ए चउ गुणनो प्रपंच ॥४॥ ॥ जीहो ए नव पद आराधतां ॥ ला० ॥ चंपापति विख्यात ॥ जीहो नृप श्रीपाल सुखीयो थयो । ला ॥ ते सुणजो अवदात ॥ ५ ॥ ज ॥ इति ॥ ॥ ढाल बीजी ॥ कोश्लो पर्वत धुंधलो रे लो ॥ ए देशी ॥ ॥ मालव धुर उऊोणीयें रेलो, राज्य करे प्रजापाल रे ॥ सुगुणी नर ॥ सुरसुंदरी मयणासुंदरी रे लो, बे पुत्री तस बाल रे ॥ सु० ॥१॥ श्री सिझचक्र आराधियें रेलो, जेम होय सुखनी माल रे ॥ सु० ॥ श्री० ॥ ॥ ए आंकणी ॥ पहेली ॥ मिथ्या श्रुतनणी रे लो, बीजी जिन सिद्धांत रे ॥ सु० ॥ बुद्धि परीक्षा अवसरे रे लो, पूर्वी समस्या तुरंत रे ॥ सु० ॥२॥ श्री० ॥ तूठो नृप वर आपवा रेलो, पहेली करे ते प्रमाण रे ॥ सु० ॥ बीजी कर्म प्रमाणथी रे लो, कोप्यो ते तव नृपन्नाण रे ॥ सु० ॥३॥ श्री० ॥ कुष्ठी वर परणावियो रे लो, मयणा वरे धरी नेह रे ॥ सु०॥ रामा हजीय विचारीये रे लो, सुंदरी विणसे तुफ देह रे ॥ सु०॥४॥ श्री० ॥ सिद्धचक्र प्रजावधी रेलो, नीरोगी थयो जेह रे ॥ सु० ॥ पुण्यपसायें कम ला लही रे लो, वाध्यो घणो ससनेह रे ॥ सु० ॥ ५ ॥ श्री० ॥ माउले वात ते जव लही रे लो, वांदवा आव्यो गुरु पास रे ॥ सु॥ निज घर तेकी आवियो रे लो, आपे निज आवास रे ॥ सु० ॥ ६ ॥ श्री० ॥ श्रीपाल कहे कामिनी सुणो रे लो, हुँ जाउं परदेश रे ॥ सु० ॥ माल मता बहु लावशं रे लो, परशं तुम तणी खांत रे ॥ सु० ॥७॥ श्री० ॥ अवधि करी एक वरसनी रे लो, चाल्यो नृप परदेस रे ॥ सु० ॥ शेठ धवल साथे चढ्यो रे लो, जलपंथें सुविशेष रे ॥ सु० ॥ ॥ श्री० ॥ इति ॥ ॥ ढाल त्रीजी ॥ इझर श्रांबा अांबली रे ॥ ए देशी ॥ ॥ परणी बब्बर पति सुता रे, धवल मूकाव्यो ज्यांह ॥ जिनहर बार उघामते रे, कनककेतु बीजी त्यांह ॥ १॥ चतुर नर, श्री श्रीपालचरित्र ॥ ए आंकणी ॥ परणी वस्तुपालनी रे, समुज्तटें आवंत ॥ मकरकेतु नृपसुता रे, वीणावादें रीऊत ॥ च ॥२॥ पांचमी त्रैलोक्यसुंदरी रे परणी कुब्जा रूप ॥ बही ॥ समस्या पूरती रे,पंच सखीशुं अनूप ॥च॥ ॥३॥ राधा वेधी सातमी रे, आठमी विष उतार ॥ परणी आव्यो निज घरें रे, साथें बहु परिवार ॥ च ॥४॥ प्रजापालें सांजली रे, परदल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. केरी वात ॥ खंधे कुहामो बेश करी रे, मयाणा हु विख्यात ॥ च ॥५॥ चंपाराज्य लेई करी रे, जोगवी कामितनोग ॥धर्म आराधी अवतस्यो रे, पहोतो नवमे सुरलोग ॥ च ॥ ६॥ इति ॥ ॥ ढाल चोथी ॥ कंत तमाकू परिहरो ॥ ए देशी ॥ ॥ एम महिमा सिद्धचक्रनो, सुणि आराधे सुविवेक ॥ मोरे लाल ॥१॥ श्री सिझचक्र आराधीयें ॥ ए आंकणी ॥ अडदल कमलनी थाप ना, मध्ये अरिहंत उदार ॥ मो० ॥ चिहुं दिशें सिझादिक चन, वक्र दिशें तुं गुणधार ॥ मो॥२॥श्री० ॥ बे पमिकमणां जंत्रनी, पूजा देव वंदन त्रिकाल ॥ मो० ॥ नवमे दिन सविशेषथी, पंचामृत कीजें पखाल ॥ मो० ॥३॥ श्री० ॥ नूमिशयन ब्रह्मविध धारणा, रूंधी राखो त्रण जो ग ॥ मो॥ गुरु वैय्यावच्च कीजियें, धरो सद्दहणालोग ॥ मो॥४॥ श्री० ॥ गुरु पमिलानी पारियें, सहाम्मिवबल पण होय ॥ मो ॥ उजम णां पण नव नवां, फल धान्य रयणादिक ढोय ॥ मो० ॥५॥ श्री० ॥ इह नव सवि सुख संपदा, परनवें सवि सुख थाय ॥ मो ॥ पंमित शांति विजय तणो, कहे मान विजय उवकाय ॥ मो० ॥ ६॥ श्री० ॥ इति ॥ ॥ अथ रोहिणीतपर्नु स्तवन ॥ ॥ हारे मारे वासुपूज्यनो नंदन, मधवा नाम जो ॥राणी तेहनी कम ला, पंकजलोयणी रे लो॥हारे मारे आठ पुत्र ने, ऊपर पुत्री एक जोमात पिताने वहाली, नामें रोहिणी रे लो ॥ १॥ हारे मारे देखी यौवन, वय निजपुत्री नूप जो ॥ स्वयंवर मंझप मांमी, नृप तेमाविया रे लो॥ हारे मारे अंग वंग ने, मरुधर केरा राय जो॥चतुरंगी फोजांथी चंपायें, आवियारे लो ॥॥ हारे मारे पूरव जवना रागें, रोहिणी ताम जो ॥ नूप अशोकने कंठे, वरमाला धरे रे लो॥ हारे मारे गज रथ घोमा, दान अने बहुमान जो ॥ देश वोलावी बेटी, बहु आडंबरें रे लो॥३॥ हारे मारे रोहिणी राणी, जोगवतां सुख लोग जो ॥ आठ पुत्रने पुत्री, चार सोहामणी रे लो॥ हारे मारे आठमा पुत्रनुं लोकपाल के नाम जो ॥ तेखोले लेश्बेठी, गोंखे नामिनी रे लो॥४॥ हारे मारे एहवे कोश्क, नगर वणिकनो पुत्र जो ॥ आयुःदयें थी बालक, मरणदशा लहे रे लो॥ हारे मारे मात पितादिक, सह तेनो परिवार जो ॥ रमतो पमतो गोंख तले, थश्ने वहे रेलो ॥५ हारे मारेते Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . स्तवनानि. देखी अति हरखी, रोहिणी ताम जो ॥ पिउने नांखे ए नाटक, कुण नातनुं रे लो ॥ हारे मारे दीप कहे ए, पूरव पुण्य संकेत जो ॥ जन्मथ की नवि दीकुंकुःख, को जातनुं रे लो ॥६॥ ॥ ढाल बीजी ॥ ॥ पिउ कहे जोबन मदमाती, सहुने सरखी श्राशा॥ ए बालकना फुःख थीरोवे, तुऊने होवे तमासा ॥ बोलो बोल विचारी राज, एम केम कीजें हांसी ॥१॥ तव राणीने रीश करी खोलेथी, पुत्रने खूची लीधो ॥ रोहि णी राणी नजरें जोतां, गोंखथी नाखी दीधो ॥बो॥२॥ ते देखी सह अंतेउरमां, खजनें पोकार ते कीधो ॥ रोहिणी एम जाणे जे बालक, को के रमवा लीधो ॥ बो० ॥३॥ नगरतणे रखवाले देवें, अधर ग्रह्यो ति हां आवी ॥ सोनाने सिंहासण धाप्यो, आजूषण पहेरावी ॥ बो॥४॥ नगरलोक सहु लाग्य वखाणे, राजा विस्मय थावे ॥ दीप कहे जस पुण्य सखाइ, तिहां सहु नव निधि थावे ॥ बो ॥ ५॥ इति ॥ ॥ ढाल त्रीजी ॥ रूमो मास वसंत ॥ ए देशी ॥ ॥ एक दिन वासुपूज्य जिनवरना, अंतेवासी मुनिराज वहाला ॥ रूप कुंज ने सुवर्णकुंजी, चनशानी नवजहाज वहाला ॥१॥ रोहिणी तप फल जग जयवंतुं ॥ए आंकणी॥पाउ धाख्या प्रनु नयर समीपें, हरख्यो रोहिणी कंत वहाला ॥ सहु परिवारशुं पदयुग वंदे, निसुण्यो धर्म एकंत वहाला॥रो ॥२॥ कर जोमी नृप पू गुरुने, रोहिणी पुण्यप्रबंध वहाला ॥ शुं कीधुं प्रनु सुकृत एणे, नांखो ते सयल संबंध वहाला ॥ रो० ॥३॥ गुरु कहे पूर्व नवमां कीg, रोहिणीतप गुणखाण वहाला ॥ तेथी जन्मथकी नवि दी, सुख उःख जाण अजाण वहाला ॥ रो० ॥ ४ ॥ नांखशे गुरु हवे पूर्व नव नो, रोहिणीनो अधिकार वहाला ॥ दीप कहे सुणजो एक चित्तें, कर्मप्रपं च विचार वहाला ॥ रो० ॥५॥ इति ॥ ॥ ढाल चोथी॥ ॥ गुरु कहे जंबू क्षेत्र नरतमां, सिझपुर नगर मकाररे ॥ पृथिवीपाल नरेसर राजा, सिझमती तस नार ॥ राजन सुणजो रे ॥ कांश पूरव नव अधिकार, दिलमां धरजो रे ॥१॥ ए आंकणी ॥ एक दिन श्राव्या चं उ द्याने, राणी ने वली राय रे ॥ खेले क्रीमा नव नव नातें, जोजो कर्म नि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. दान ॥रा॥२॥ एहवे कोश्क मुनि तिहां आव्यो, गुणसागर तस नाम रे॥ राजा ते मुनिवरने देखी राणीने कहे ताम ॥ रा॥३॥ ऊठो ए मुनिने व होरावो, जे होय सुजतो आहार रे॥निसुणी राणीने मुनि उपर, उपन्यो क्रोध अपार ॥ रा ॥४॥ विषयथकी अंतराय थयो ते, मनमां बहु कुःख लावे रे ॥ रीशें बलती कडवं तुंबडं, ते मुनिने वहोरावे ॥ रा० ॥५॥ मुनिने आहारथको विष व्याप्युं, कालधर्म तिहां कीघो रे ॥ राजायें राणीने ततदण, देशनिकालो दीधो ॥ रा ॥६॥ सातमे दीन मुनि ह त्यापा, गलत कोढ थयो अंगें रे ॥ काल करीने बठी नरकें, उपनी पाप प्रसंगें ॥रा० ॥७॥ नारकीने तिर्यंच तणा नव, नटकी काल अनंत रे॥ दीप कहे हवे धर्मजोगनो, कहिशुं सरस वृत्तंत ॥ रा० ॥ ॥ इति ॥ ॥ ढाल पांचमी॥ ॥ ते राणी मुनि पापथी॥ केशरीया लाल ॥ फरती जवचक्र फेर रे॥केश रीया लाल ॥ तारा नयरमा उपनी ॥ के० ॥ वन मित्र शेठने घेर रे ॥ के० ॥ ॥१॥ जून कर्म विटंबना ॥ के ॥ धनवनी कुखें उपनी ॥ के० ॥ उर्ग धा तस नाम ॥ रे॥ के ॥ नगर वणिकना पुत्रने ॥ के ॥ परणावी बहु मान रे ॥ के० ॥२॥ जू० ॥ सुखशय्यानी उपरें ॥ के० ॥ आवी कंतनी पास रे ॥ के० ॥ बहु पुगंधता उबली ॥ के० ॥ स्वामी पाम्यो त्रास रे ॥ ॥ के० ॥३॥ जू० ॥ मूकी परदेशे गयो ॥ के० ॥ जु जुर्म कर्म स्वन्नाव रे ॥ के० ॥ एक दिन कन्यानो पिता ॥ के० ॥ ज्ञानीने पूछे जाव रे ॥ के० ॥४॥ जू० ॥ झानीयें पूर्वनव कह्यो ॥ के० ॥ जांख्यो सहु अवदात रे ॥ के० ॥ फरी पूढे गुरुरायने ॥ के ॥ केम होवे सुख शात रे ॥ के० ॥ ॥५॥ जू ॥ गुरु कहे रोहिणीतप करो ॥ के ॥ सात वर्ष सात मास रे ॥ के० ॥ रोहिणी नक्षत्रने दिनें ॥ के० ॥ चोविहारो उपवास रे ॥ के० ॥ ६ ॥ जू० ॥ वासुपूज्य नगवंतनी ॥ के० ॥ पूजा करो शुन नाव रे ॥ के० ॥ एम ए तप थाराधतां ॥ के ॥ प्रगटे शुछ खनाव रे ॥ के ॥ ७ ॥ जू० ॥ करजो तप पूरण थये ॥ के० ॥ उजमणुं नली जात रे ॥ के० ॥ तेथी एक नव आंतरे ॥ के ॥ लेशो ज्योति महांत रे ॥ के० ॥ ॥ ॥ एम मुनि मुखथी सांजली ॥ के० ॥आराधी ते सार रे॥ के० ॥ ए तारी राणी थई ॥ के० ॥ रोहिणी नामें नार रे ॥ के ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. ५७३ ॥णाजू॥ श्म निसुणी हरख्यां सहु ॥केरोहिणी ने वली राय रे॥के॥ दीप कहे मुनि कुंनने ॥ के० ॥प्रणमी स्थानक जाय रे ॥ के० ॥१॥जू॥ . ॥ ढाल बही॥ ॥ एक दिन वासुपूज्यजी ए, समोसस्या जिनराज ॥ नमो जिनराजने रे ॥ राय ने रोहिणी दरखियां ए, सीधां सघलां काज ॥ न ॥१॥ बहु परिवारशुं आवियां ए, वंदे प्रजुना पाय ॥ना प्रमुखथी वाणी सुणी ए, आनंद अंग न माय ॥ न ॥२॥ राय ने रोहिणी बेहु जणां ए, सीधोसंय म खास ॥न॥ धन्य धन्य संयमधर मुनि ए, सुर नर जेहना दास ॥न॥ ॥३॥ तप तपी केवल लही ए, तयां बहु नर नार ॥न॥ शिवपद अवि चल पद लघु ए, पाम्या नवनो पार ॥ न० ॥ ४ ॥ एम जे रोहिणी तप करे ए, रोहिणीनी परें तेह ॥ न ॥ मंगलमाला ते लहे ए, वली अजरा मर गेह ॥ न ॥५॥ धन्य वासुपूज्यना तीर्थने ए, धन्य धन्य रोहिणी नार ॥ न० ॥ए तप जे नावें करे ए, पामे ते जयकार ॥ न ॥६॥ संवत अढार उंगणशाउनो ए, उज्ज्वल नाव मास ॥ न० ॥ दीपविजयें तस गाश्यो ए, करी खंगात चोमास ॥न०॥७॥ कलश ॥ वासुपूज्य जग, नाथ साहेब, तास तीर्थे, ए थया ॥ चार पुत्र ने, आठ पुत्री थी, दंपती, मुगतें गयां ॥ तपगब विजयाणंद पटधर, विजय देवेंज, सूरीसरु ॥ तास राज्ये, स्तवनकीधुंसकल संघ, सोहंकरु ॥ सकल पंमित, प्रवर नूषण, प्रेम रत्न गुरु,ध्यायिया ॥ कवि दीपविजयें, पुण्य हेतें, रोहिणी गुण, गाश्या॥१॥ ॥ अथ श्री विनय विजयजी कृत आदि जिननी विनति ॥ ॥ पामी सुगुरु पसाय रे, शत्रुजय धणी ॥ श्रीरिसदेसर विनवू ए ॥१॥ त्रिजुवननायक देव रे, सेवक वीनति ॥ आदीश्वर अवधारीयें ए ॥२॥ शरणे आव्यो स्वामी रे, हुं संसारमां ॥ विरुए वैरीयें नड्यो ए ॥३॥ तार तार मुज तात रे, वात किशी कहुं ॥ नव नव ए नावठ तणी ए ॥४॥ जन्म मरण जंजाल रे, बाल तरुणपणुं ॥ वली वली जरा दहे घणुं ए ॥५॥ केमे न आव्यो पार रे, सार हवे स्वामी ॥ श्यें न करो एक माहरी ए ॥६॥ तास्या तुमें अनंत रे, संत सुगुण वली ॥ अपराधी पण उमस्या ए॥७॥ तो एक दीन दयाल रे, बाल दयामणो ॥ हुँ शा माटें वीसस्यो ए ॥ ॥ जे गिरुआ गुणवंत रे, तारो तेहने ॥ तेमांहे अचरि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. ज किश्यु ए॥ ए ॥ जे मुज सरिखो दीन रे, तेहने तारतां ॥ जग विस्तरशे यश घणो ए ॥ १० ॥ आपद पमियो आज रे, राज तुमारडे ॥ चरणे हुं आव्यो वही ए ॥ ११ ॥ मुज सरिखो को दीन रे, तुऊ सरिखो प्रनु ॥ जोतां जग लाने नहीं ए ॥ १२ ॥ तोये करुणासिंधु रे, बंधु जुवन त णा ॥ न घटे तुम उवेखवू ए ॥ १३ ॥ तारणहारो कोई रे, जो बीजो हुवे ॥ तो तुम्हने शाने कहुं ए ॥ १४ ॥ तुहिज तारीश नेट रे, पहिला ने पडें ॥ तो एवमी गाढिम कीशी ए ॥ १५ ॥ आवी लाग्यो पाय रे, ते . केम बोमशे ॥ मन मनाव्यां विण हवे ए ॥ १६ ॥ सेवक करे पोकार रे, बाहिर रह्या जस ॥ तो साहिब शोना कीसी ए ॥१७॥ अतुली बल अरिहंत रे, जगने तारवा ॥ समरथ बो खामी तुमें ए॥ १७ ॥ शुं श्रावे बे जोर रे, मुऊने तारतां ॥ के धन बेसे वे किश्यु ए ॥१॥ कहेशो तुमें जिणंद रे, नक्ति नथी तेहवी ॥ तो ते नक्ति मुऊने दीयो ए ॥ २० ॥ वली कहेशो नगवंत रे, नहिं तुक योग्यता ॥ हमणां मुक्ति जावा तणी ए ॥२१॥ योग्यता ते पण नाथ रे, तुमहीज आपशो ॥ तो ते मुफने दी जियें ए ॥ २५ ॥ वली कहेशो जगदीश रे, कर्म घणां ताहरे ॥ तो तेहज टालो परां ए॥२३॥ कर्म अमारां आज रे, जगपति वारवा ॥ वली कोण बीजो आवशे ए ॥ २४ ॥ वली जाणो अरिहंत रे, एहने वीनति ॥ करतां आवमती नथी ए ॥ २५ ॥ तो तेहीज महाराज रे, मुझने शीख वो ॥ जेम ते विधिशुं वीनवु ए ॥ २६ ॥ माय ताय विण कोण रे, प्रेमें शीखवे ॥ बालकने कहो बोलवू ए ॥ २७ ॥ जो मुफ जाणो देव रे, एह अपावन ॥ खरड्यो ने कलिकादवें ए ॥ २० ॥ केम लेलं उत्संग रे, अंग जघु एहनुं ॥ विषयकषाय अशुचिशुं ए॥ ए ॥ तो मुझ करो पवित्र रे, कहो कोण पुत्रने ॥ विण मावित्र पखालशे ए॥३॥ कृपा करी मुक देव रे, शहां लगे आणीयो ॥ नरक निगोदादिकथकी ए॥३१॥ आव्यो हवे हजूर रे, ऊनो थक्ष रह्यो । सामुं श्ये जूर्ज नहीं ए ॥ ३२ ॥ आमो मांमी आज रे, बेगे बारणें ॥ मावित्र तुमें मनावशो ए॥ ३३ ॥ तुमें बो दयासमु रे, तो मुझने देखी ॥ दया नथी श्ये आणता ए ॥ ३४ ॥ उवेखश्यो अरिहंत रे, जो आणी वेला ॥ तो महारी शी पेर थशे ए॥३५॥ उन्ना ने अनेक रे, मोहादिक वैरी ॥ बल जुए माहरां ए ॥३६ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UU स्तवनानि. तेहने वारो वेगें रे, देव दया करी ॥ वली वली शुं वीनवु ए ॥३७॥ म रुदेवी निजमाय रे, वेगे मोकली ॥ गज बेसारी मुक्तिमा ए ॥ ३० ॥ जर तेसर निज नंद रे, कीधो केवली ॥ आरीसा अवलोकतां ए ॥ ३५ ॥ अ हाणुं निज पुत्र रे, प्रतिबोध्या प्रेमें ॥ जुऊ करंता वारीया ए ॥४०॥ बाहुबलने नेट रे, नाण केवल तमें ॥ स्वामी सहामुं मोकल्यु ए ॥४१॥ इत्यादिक अवदात रे, सघला तुम तणा ॥ हुँ जाणुं दुं मूलगा ए ॥ ४५ ॥ महारी वेला आज रे, मौन करी बेग ॥ उत्तर शें आपो नहीं ए॥४३॥ वीत राग अरिहंत रे, समतासागरू॥ महारां तहारांशुं करो ए॥४४॥ एक वार महाराज रे, मुझने स्वमुखें ॥बोलावो सेवक कही ए॥४५॥ एटले सिमां काज रे, सघलां माहरां ॥ मनना मनोरथ सवि फल्या ए ॥४६ ॥ खमजो मुज अपराध रे, आसंगो करी॥॥असमंजसजेवीनव्युं ए॥४॥ अवसर पामी श्राज रे, जो नवि विनवू ॥ तो पछतावो मन रहे ए ॥ ४ ॥ त्रिजुव न तारणहार रे, पुण्यें माहरे ॥ श्रावी एकांतें मल्या ए ॥ भए ॥ बालक बोले बोल रे, जे अविगतपणे ॥ माय तायने ते रुचे ए ॥ ५० ॥ नयणें निरख्यो नाथ रे, नानि नरिंदनो ॥ नंदन नंदनवन जिस्यो ए ॥५१॥ मरुदेवी उरहंस रे, वंश इकागनो ॥ सोहाकर सोहामणो ए॥५२॥ मा य ताय प्रजु मित्र रे, बंधव माहरो ॥ जीव जीवन तुं वालहो ए ॥ ५३॥ अवर न को आधार रे, श्ण जग तुज विना ॥ त्राण शरण तुं मुज धणी ए ॥५४॥ वलि वलि करुं प्रणाम रे, चरणे तुम तणे ॥ परमेश्वर सन्मुख जु उ ए ॥५५॥ लव लव तुम पाय सेव रे, सेवकने देजो ॥ हुँ मारे बुं एटद्यु ए॥५६॥श्री किर्तिविजय उवकाय रे, सेवक एणि परें ॥ विनय विनय करी वीनवे ए॥५॥इति श्री आदि जिनविनतिः समाप्ता॥श्लोकसंख्या ॥४॥ ॥ अथ श्री गौतमखामीनो रास प्रारंजः ॥ लाषा वीर जिणेसर चरणकमल, कमला कय वासो पणमवि पत्न णिशुं सामिसाल, गोयम गुरु रासो ॥मण तणु वयण एकंत करवि, निसुणो नो नवियां ॥ जिम निवसे तुम्ह देह गेह, गुण गण गहगहिया ॥१॥ बूदीव सिरि नरह खित्त, खोणीतल मंगण ॥मगधदेस सेणिय नरीसर, रिज दल बल खंगण ॥धणवर गुवर गामनाम, जिहां जणगुणसजा ॥ विप्प वसे वसुचू तब, जसु पुहवी नजा ॥२॥ ताण पुत्त सिरि दलूश, नूवलय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ प्रतिक्रमण सूत्र. पसिको ॥चउदह विद्या विविह रूव, नारीरस विको ॥ विनय विवेक वि चार सार, गुणगणह मनोहर ॥ सात हाथ सुप्रमाण देह, रूपें रंजावर ॥३॥ नयण वयण कर चरण जिण, विपंकज जल पाडिय ॥ तेजें ताराचंद सूर, आकास नमामिय ॥ रूवें मयण अनंग करवि,मेदिह नि रधामिय ॥ धीरमें मेरू गंजीर सिंधु, चंगमचयचाडिय ॥ ॥ पेखवी निरु वम रूव जास, जिण जंपे किंचिय ॥ एकाकी किल जीत श्न, गुण मेव्हा संचिय ॥ अहवा निश्चे पुत्र जम्म, जिणवर इण अंचिथ ॥ रंजा पउमा गौरी गंगा, रतिहा विधि वंचिय ॥५॥ नहिं बुध नहिं गुरू कवि न कोइ, जसु आगल रहियो ॥ पंचसया गुणपात्र गत्र, हिंडे परवरियो ॥ करे निरंत र यज्ञकर्म, मिथ्यामति मोहिय ॥ण उल होशे चरम नाण, दंसण ह विसोहिय ॥ ६ ॥ वस्तु छंद ॥ जंबूदीवह जरह वासंमि, खो णीतल मंमणो ॥ मगध देस सेणिय नरेसर, वरगुवर गाम तिहां ॥ विप्प वसे वसुनू सुंदर, तसु नजा पुहवी सयल, गुण गण रूव निहाण ॥ ताण पुत्त विद्यानिल, गोयम अतिहि सुजाण ॥ ७॥ नाषा ॥ चरम जिणेसर केवल नाणी, चनविह संघपश्वा जाणी ॥ पावापुर सा मी संपत्तो, चनविह देव निकायें जुत्तो ॥ देवें समवसरण तिहां कीजें, जिण दी मिथ्यामति खीजें ॥ त्रिजुवनगुरू सिंहासण वश्चगे, तत खिण मोह दिगंतें पश्ठो ॥ ए ॥ क्रोध मान माया मद पूरा, जाये नाग जिम दिन चोरा ॥ देवउंउहि आकाशे वाजी, धर्म नरेसर आवियो गाजी ॥ १० ॥ कुसुमवृष्टि विरचे तिहां देवा, चोशठ इंछ जसु मागे सेवा ॥ चा मर बत्र सिरोवरि सोहे, रूपेंहि जिणवर जग सहु मोहे ॥ ११ उवसम रस जर जरी वरसंता, जोजन वाणी वखाण करंता ॥ जाणवि वझमाण जिण पाया, सुर नर किन्नर आवे राया ॥ १२ कतिसमूहें ऊलफलक ता, गयण विमाणे रण रणकंता ॥ पेख वि इंदनू मन चिंते, सुर आवे अम्ह जगन होवंते ॥ १३ ॥ तीर तरंमक जिम ते वहता, समवसरण पहोता गहगहता ॥ तो अनिमाने गोयम जपे, इणि अवसरे को तणु कंपे ॥ १४ ॥ मूढ लोक अजाणिलं बोले, सुर जाणंता श्म कांश मोले ॥ मुंआगल कोश् जाण नणीजें, मेरु अवर किम उपमा दीजें ॥ १५ ॥ ॥ वस्तुबंद ॥ वीर जिणवर वीर जिणवर नाण संपन्न ॥ पावा पुरिसुरम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. हिय पत्तनाह संसार तारण ॥ तिहिं देवेहिं निम्मविय समवसरण बहु सुरककारण ॥ जिणवर जग उजोय करे तेजें करि दिनकार ॥ सिंहा सण सामिय उवि, हुर्ड सुजय जयकार ॥ १६ ॥ नाषा ॥ तो चढि उ घण माण गजें, इंदनू नूयदेव तो ॥ हुंकारो करी संचरिङ, कव ण सुजिणवर देव तो ॥ जोजन नूमि समोसरण, पेखवी प्रथमारंज तो ॥ दह दिसि देखे विबुधवह, श्रावंती सुररंज तो ॥ १७ ॥ मणिम य तोरण दंग धजा, कोसीसें नव घाट तो ॥ वैर विवर्जित जंतुगण, प्राती हारज आठ तो ॥ सुर नर किन्नर असुरवर, इंड इंशाणीराय तो ॥ चित्तें चमकिय चिंतवे ए, सेवंता प्रजुपाय तो ॥ १७ ॥ सहसकिरण सम वीर जिण, पेखवी रूप विशाल तो ॥ एह असंजव संचव ए, साचो एस जाल तो ॥ तो बोलावे त्रिजग गुरु, इंदनूई नामेण तो ॥ श्रीमुख संसय सामि सवे, फेडे वेदपएण तो ॥ १ए ॥ मान मेदिह मद वेली करे, जगते नामे सीस तो ॥ पंचसयाशुं व्रत लिई ए, गोयम पहिलो सीस तो॥ बंधव संजम सुणवि करे, श्रगनिनूर आवे तो ॥ नाम ले आनाष करे, तं पुण प्रतिबोधे तो ॥ २० ॥ इणि अनुक्रमें गणहररयण, थाप्या वीर ग्यार तो ॥ तो उपदेशे जुवन गुरु, संजमशुं व्रत बार तो ॥ बिहुँ उपवा से पारणुं ए, आपण विहरंत तो ॥ गोयम संजम जग सयल, जय जयकार करत तो ॥२१॥ वस्तुचंद ॥ इंदनूई इंदनूई चढिय बहुमा न ॥ हुँकारो करि संचरि समवसरण पुहतो तुरंतो ॥ श्ह संसा सामि सवे, चरमनाद फेडे फुरंतो ॥ बोधबीज सजाय मने, गोयम नवह विरत्त ॥ दिरक लेश सिरका सहिय, गणहर पय संपत्त ॥॥ जाषा ॥ श्राज हुई सुविहाण, आज पचेलिमा पुल नरो ॥ दीग गोय म सामि, जो नियनयणें अमिय नरो ॥ सिरिगोयम गणहार, पंच सया मुनि परवरिय ॥ नूमिय करय विहार, नवियां जन पमिबोह करे ॥ समवसरण मकार, जे जे संसा उपजे ए ॥ ते ते पर उपगार, कारण पूजे मुनिपवरो ॥ २३ ॥ जिहां जिहां दीजें दिक, तिहां तिहां के वल उपजे ए ॥ आप कन्हे अण हुँत, गोयम दीजें दान श्म ॥ गुरु उपर गुरुजत्ति, सामिय गोयम उपनिय ॥ण बल केवल नाण, राग ज राखे रंग नरें ॥ २४ ॥ जो अष्टापद शैल, वंदे चढि चवीस जिण ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UNG प्रतिक्रमण सूत्र. श्रातम लब्धि वसेण, चरमसरीरी सोइ मुनि ॥ इथ देसण निसुणेश, गोयम गणहर संचलिर्ज ॥ तापस पन्नरस एण, तो मुनि दीगे श्रावतो ए ॥ २५ ॥ तव सोसिय निय अंग, अम्ह शक्ति नवि उपजे ए ॥ किम चढशे दृढकाय, गज जिम दीसे गाजतो ए ॥ गिरु ए अनिमान, तापस जो मन चिंतवे ए॥ तोमुनि चढियो वेग, आलंबवि दिनकरकिरण ॥ २६ ॥ कंचन मणि निप्पन्न, दंग कलस धज वम सहिय ॥ पेखवि परमाणंद, जिणहर नरहेसर महिय ॥ निय निय काय प्रमाण, चनदि सि संधि जिणहबिंब ॥ पणमवि मन उदास, गोयम गणहर तिहां वसिय ॥ ॥ वयर सामीनो जीव, तिर्यक् जूंनक देव तिहां ॥प्रतिबो धे पुंडरीक, कंदरीक अध्ययन जणी ॥ वलता गोयम सामी, सवि ताप स प्रतिबोध करे ॥ लेश् श्रापणे साथ, चाले जिम जूथाधिपति ॥ २० ॥ खीर खंमघृत श्राणि, अमिश्र वूठ अंगुठ ठवे ॥ गोयम एकण पात्र, करावे पारणुं सवे ॥ पंचसया सुज नाव, उजाल नरि खीरमीसें ॥ साचा गुरु संजोग, कवल ते केवल रूप हु ॥ श्ए ॥ पंचसया जिणनाह, समवसरण प्राकार त्रय ॥ पेखवि केवल नाण, उप्पन्नो उजोय करे ॥ जाणे जिणह पीयूष, गाजतो घण मेघ जिम ॥ जिणवाणी निसुणे, ना णी हा पंचसया ॥ ३० ॥ वस्तुबंद ॥णे अनुक्रमें श्णे अनुक्रमें ना णसंपन्न ॥ पन्नरह सय परवरिय हरिय पुरिय जिणनाह वंदश् ॥ जाणवि जगगुरु वयण तिह नाण अप्पाण निंद ॥ चरम जिणेसर श्म जणश, गोयम म करिस खेउ ॥ बेह जर आपण सही, होशं तुला बेड ॥३१॥ जाषा ॥ सामि ए वीर जिणंद, पूनिमचंद जिम उबसिथ ॥ विहरिए जरहवासंमि, वरिस बहुत्तर संवसिथ ॥ ठवतो ए कणय पउमेव, पायक मल संघे सहि॥श्रावि ए नयणाणंद, नयर पावा पुरि सुर महिय ॥३२॥ पेखियो ए गोयमसामी, देवशर्मा प्रतिबोध करे ॥ आपण ए त्रिशलादेवि, नंदन पहोतो परम पए ॥ वलतो ए देव आकास, पेखवि जाणिय जिण समे ए ॥ तो मुनि ए मन विखवाद, नाद नेद जिम उपनो ए ॥ ३३ ॥ कुण समो ए सामिय देखि, श्राप कन्हे हुँ टालियो ए॥ जाणंतो ए तिद्ध अणनाह, लोक विवहार न पालियो ए ॥ अति नर्बु ए कीधेदुं सामि, जाणियुं केवल मागशे ए ॥ चिंतवियु ए बालकजेम, अहवा के लागशे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. पए ए ॥३४॥ हुँ किम ए वीर जिणंद, जगते गोलो गोल विउ ए ॥ आपणो ए अविहल नेह, नाह न संपे सूचव्यो ए॥ साचो ए श्ह वीतराग, नेह न जेणे लालि ए ॥ण समे ए गोयमचित्त, राग वैरागें वालि ए ॥ ३५॥ आवतो ए जो ऊलट, रहेतो रागें साहिउँ ए ॥ केवलु ए नाण उप्पन्न, गोयम सहेजें उमाहिउँ ए ॥ तिहुश्रण ए जय जयकार, केवबु महिमा सुर करे ए ॥ गणहरु ए करय वखाण, नवियण लव श्म निस्तरे ए॥ ॥३६ ॥ वस्तुबंद ॥ पढम गणहर पढम गणहर वरस पंचास ॥ गि हिवासें संवसिय तीस वरिस संजम विनूसिय ॥ सिरिकेवल नाण पुण बार वरिस तिहुयण नमंसिय ॥ रायगिहि नयरीहिं पवित्र बाणवश्वरि साठ ॥ सामी गोयम गुण निलो, होशे शिवपुर गउँ ॥ ३ ॥ नाषा ॥ जिम सहकारें कोयल टहुके, जिम कुसुमवनें परिमल बहेके, जिम चं दन सुगंधनिधि ॥ जिम गंगाजल लहेरें लहके, जिम कणयाचल तेजें फलके, तिम गोयम सौजाग्य निधि ॥ ३० ॥ जिम मानसरोवर निवसे हंसा, जिम सुरवर सिरि कणयवतंसा, जिम महुयर राजीववनी ॥ जिम रयणायर रयणे विलसे, जिम अंबर तारागण विकसे, तिम गोयम गुण केलिवनी ॥३ए॥पूनिम निसि जिम ससिहर सोहे, सुरतरु महिमा जिम जग मोहे, पूरव दिसि जिम सहसकरो ॥ पंचानन जिम गिरिवर राजे, नरवर घर जिम मयगल गाजे, तिम जिनशासन मुनिपवरो ॥ ४० ॥ जिम सुरतरुवर सोहे शाखा, जिम उत्तम मुख मधुरी नाखा, जिम वनके तकी महमहे ए ॥ जिम नूमिपति जुयबल चमके, जिम जिनमंदिर घंटा रणके, तिम गोयम लब्धे गहगहे ए॥४१॥ चिंतामणि कर चढि श्रा ज, सुरतरु सारे वंबिय काज, कामकुंच सवि वश हुई ए॥कामगवी पूरे मनकामिय, अष्ट महासिद्धि श्रावे धामिय, सामिय गोयम अणुसरो ए॥ ॥४२॥ पणवरकर पहेलो पत्नणीजें, मायाबीज श्रवण निसुणीजें, श्रीमति शोजा संजवे ए ॥ देवह धुरि अरिहंत नमीजें, विनयपहु उवद्याय थु णीजें, श्ण मंत्र गोयम नमो ए ॥ ४३ ॥ पुर पुर वसतां कांश करीजें, दे श देशांतर कांश नमीजें, कवण काज आयास करो ॥ प्रह ऊठी गोयम समरीजें, काज समग्रह ततखण सिके, नवनिधि विलसे तास घरे ॥ ॥४४॥ चउदह सय बारोत्तर वरसें, गोयम गणहर केवल दिवसें, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. किउं कवित्त उपगार करो ॥ आदेहिं मंगल एह पक्षणीजें, परव महोत्सव पहिलो लीजें, कि वृद्धि कहाण करो ॥ ४५ ॥ धन्य माता जिणें उयरें धरिया, धन्य पिता जिण कुल अवतरिया, धन्य सह गुरु जिणें दिकिया ए ॥ विनयवंत विद्यानंमार, जस गुण को न लप्ने पार, विद्यावंत गुरु वीनवे ए ॥ गौतमखामीनी रास नणीजें, चनविह संघ रलियायत कीजें, झद्धि वृद्धि कल्याण करे ॥ ४६ ॥ इतिश्री गौतमखामीनो रास संपूर्ण ॥ ॥अथ दीवाली, स्तवन ॥ ॥प्रनु कंठे उवि फूलनी माला ॥ ए देशी ॥ ___॥ रमती जमती अमुन साहेली, बेहु मली लीजियें एक ताली रे॥ सखि आज अनोपम दीवाली ॥ लील विलासें पूरण मासे, पोष दशम निशि रढीयाली रे ॥ स ॥१॥ पशु पंखी वसीयां वनवासे, ते पण सुखी यां समकाली रे ॥ स ॥ एणी रात्रं धेर घेर उत्सव होशे, सुखीयां जगत मां नर नारी रे ॥ स ॥२॥ उत्तम ग्रह विशाखा जोगें, जन्म्यां प्रनु जी जयकारी रे ॥ स ॥ साते नरकें थयां अजुवालां, थावरने पण सुख कारी रे ॥ स ॥३॥ माता नमी श्रावे दिगकुमरी, अधोलोकनी वस नारी रे ॥ स ॥ सूतीघर ईशानें करती, जोजन एक अशुचि टाली रे ॥स॥४॥ऊर्ध्व लोकनीाउज कुमरी, वरसावे जल कुसुमाली रे॥ स०॥ पूरव रुचक आदर्पण धरती, दक्षिणनी अम कलशाली रे॥ स० ॥५॥ अम पबिमनी पंखा धरती, उत्तर आठ चमर ढाली रे ॥ स ॥ विदिशिनी चउ दीपक धरती, रुचक छीपनी चल बाली रे ॥ स ॥६॥ केलतणां घर त्रणे करीने, मर्दन स्नान अलंकारी रे ॥ स ॥ रक्षापोटली बांधी बेहुने, मंदि र मेहय्यां शणगारी रे ॥ स० ॥ ७॥ प्रनु मुख कमलें अमरी नमरी, रास रमंती लटकाली रे ॥ स ॥ प्रजु माता तुं जगतनी माता, जन दी पकनी करनारी रे ॥ स ॥ ॥ माजी तुऊ नंदन घणुं जीवो, उत्तम जीवने उपगारी रे ॥ स० ॥ बप्पन दिगकुमरी गुण गाती, श्री शुजवीर वचन शाली रे ॥ स ॥ ए ॥ इति ॥ ॥अथ आमलकी क्रीडानुं स्तवन ॥ ॥श्राव्यो आषाढो मास, नाव्यो धूतारो रे ॥ ए देशी ॥माता त्रिशला नंदकुमार, जगतनो दीवो रे ॥ मारा प्राण तणो आधा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. र, वीर घणुं जीवो रे ॥ ए आंकणी ॥ श्रामलकी क्रीमायें रमतां, हास्यो सुर प्रजु पामी रे॥ सुणजोने स्वामी आतमरामी, वात कहुं शिर नामी रे॥ वीर घणुं जीवो रे ॥१॥ मा० ॥ सौधर्मा सुरलोकें रहेता, अमो मिथ्या त जराणां रे ॥ नागदेवनी पूजा करतां, शिर न धरी प्रनु आणा रें ॥ वी॥२॥ मा० ॥ एक दिन इंज सन्नामां बेगं, सोहमपति एम बोले रे ॥ धैरजबल त्रिन्नुवननुं नावे, त्रिशलाबालक तोलें रे ॥ वी० ॥३॥ मा० ॥ साचुं साचुं सहु सुर बोल्या, पण में वात न मानी रे ॥ फणिधर ने लघु बालक रूपें, रमत रमीयो बानी रे ॥ वी० ॥४॥मा॥ वर्कमान तुम धैरज महोटुं, बलमां पण नहिं काचुं रे ॥ गिरुआना गुण गिरुश्रा गावे, हवे में जाएयुं साचुं रे ॥ वी० ॥ ५॥ मा० ॥ एकज मुष्टिप्रहारें मारु, मिथ्यात लाये जाय रे ॥ केवल प्रगटे मोहरायने, रहेवानुं नहिं थाय रे ॥ वी० ॥ ६ ॥ मा ॥ आजथकी तुं साहेब मारो, ढुं बुं सेवक तहारो रे ॥ खिण एक स्वामी गुण न विसारुं, प्राणथकी तुं प्यारो रे ॥ वी० ॥ ॥७॥ मा० ॥ मोह हरावे समकित पावे, ते सुर सरग सधावे रे ॥ मा हावीर प्रजु नाम धरावे, इंजसजा गुण गावे रे ॥ वी० ॥ ॥ मा ॥ प्रनु मल पता निज घेर श्रावे, सरखा मित्र सोहावे रे ॥ श्रीशुजवीरनुं मुखहुं देखी, माताजी सुख पावे रे ॥ वी० ॥ ए ॥ इति स्तवन संपूर्ण ॥ ॥ अथ नेमिनाथनुं स्तवन ॥ श्रावो हरि कुंकुमने पगले ॥ ए देशी ॥ - ॥ सुणो सखि सऊन ना विसरे ॥ आठ नवंतर नेह नि वाही, नवमे केम विबडे ॥ सु० ॥ नेह विबुझा आ उनीयामां, ऊंपापात करे ॥ सु॥ ॥१॥ घर बंडी परदेशे फरतां, पूरण प्रेमें ठरे ॥ सुण ॥ जान सजी करी जादव आये, नयनसे नयन मिले ॥ सु॥२॥ तोरण देख गये गिरनारे, चारित्र ले विचरे ॥ सु०॥ कुःखण नरियां उर्जन लोकां, दयिता दोष नरे ॥सु०॥३॥ माता शिवासुत सांजल सऊन, साचा एम ठरे ॥ सु॥ तोर ण श्रावी मूक समजावी, संयम शान करे ॥ सु०॥४॥राजुल रागविरा गें रहेतां, ज्ञान वधाइ वरे ॥ सु० ॥ प्रीतम पासें संजम वासे, पातक दूर हरे ॥ सु॥५॥ सहसावनकी कुंज गलनमें, झानसें ध्यान धरे ॥सु ॥ केवल पामी शिवगति गामी, श्रा संसार तरे ॥ सु०॥६॥ नेम जिनेश्वर सुखसजायें, पोढीया शिवनगरें ॥ सु० ॥ श्री शुजवीर अखंग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८‍ प्रतिक्रमण सूत्र. सनेही, कीर्ति जग पसरे ॥ सु० ॥ ७ ॥ इति श्री नेमिनाथस्तवन संपूर्ण ॥ ॥ अथ श्री नेमीनाथनुं स्तवन ॥ ॥ सुण गोवाली, गोरसमावाली रे ऊजी रहेने ॥ ए देशी ॥ ॥ शामलीया लाल, तोरणथी रथ फेस्यो, कारण कहोने ॥ गुण गिरुवा लाल, मुजने मूकी चाल्या, दरिसन धोने ॥ ए की ॥ हुं हुं नारी तमारी, तुमें श्ये प्रीत मूकी मारी, तुमें संयमस्त्री मनमां धारी ॥ शा० ॥ गु० ॥ १ ॥ तुम पशुआ उपर कृपा आणी, तुमें मारी वात को नव जाणी तुमें विपरं नहिं को प्राणी ॥ शा० ॥ गु० ॥ २ ॥ आठ जवानी प्री तमी, मूकीने चाल्या रोतमी, नहिं सननी ए रीतमली ॥ शा० ॥ गु० ॥ ३ ॥ नवि कीधो हाथ उपर हाथे, तो कर मूकावुं हुं माथे, पण जावुं प्रभुजीनी साथै ॥ शा० ॥ गु० ॥ ४ ॥ एम कही प्रभु हाथे व्रत लीधो, पोतानो कारज सवि कीधो, पकड्यो मारग एणें शिव सीधो ॥ शा० ॥ ॥ गु० ॥ ५ ॥ चोपन दिन प्रभुजीयें तप करियो, पण पोतें केवल वर धरियो, पणसत बत्री शशुं शिव वरियो ॥ शा० ॥ गु० ॥ ६ ॥ एम त्रण कल्याणक गिरनारें, पाम्या ते जिन उत्तम तारे, जो पदपद्म तस शिर धारे ॥ शा० ॥ गु० ॥ ७ ॥ इति ॥ ॥ अथ श्री सिद्धाचलजीनं स्तवन ॥ सेलुंगर तुं शीदनें आव्यो ॥ ए देशी ॥ ॥ श्रवो गिरि सिद्धाचल जश्यें, पाप हरी निर्मल तो थइयें, कुमति कदाग्रहने तजीयें, आवो गिरि सिद्धाचल जइयें ॥ १ ॥ तारण तीरथ दो कहीयें, थावर जंगमने लहियें, लोकोत्तरने नित्य नजीयें ॥ श्र० २ ॥ पद वाणे पा चरियें, पुण्य घणो लानें जरीयें, सिद्धा अनंता कांकरीयें ॥ श्र० ॥ ३ ॥ सोना रूपाने फूलें, मुक्ताफल अमुलक मूलें, पूजीने नाम नहीं भूले ॥ ० ॥ ४ ॥ चमीयें गिरिवर अनुकर में, अंतर ध्यान रखें रमीयें, मरुदेवा नंदनने नमीयें ॥ ० ॥ ५ ॥ रायण देवल जिनरा या, पूर्व नवाएं श्हां याव्या, लबी लली तस प्रमुं पाया ॥ ० ॥ ॥ ६ ॥ सूरजकुंरुमां जलें नहाशुं, पेरण क्षीरोदक आतुं, आंगी रवी जिनगुण गाशुं ॥ श्र० ॥ ७ ॥ तीरथ दरशनें फरीयें, जोग उपाधि दूरें करियें, लाज अनंतो एणें गिरियें ॥ ० ॥ ८ ॥ गाम बगोदरेथी आवे, संघवी संघवण मन जावे, जिन गुणमाला कंठें गवे ॥ श्र० ॥ ए ॥ जंगणीश Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. ५८३ बीलोत्तर वरचें, ऊजल पोसनी बह दिवसें, जिनवर जेटी मन उसे ॥ ० ॥ १० ॥ देवकी नंदन अनुसरी यें, उलखा कोलें जल जरीयें, सिद्ध शिला काउस्सग्ग धरीयें ॥ ० ॥ ११ ॥ जावें डुंगर, चित्त लाया, सिडनी शीतल बाया, जाएं मावली माया ॥ श्रा० ॥ १२ ॥ विमलाचल फरसे प्राणी, जीव जविक होवे नाणी, रिखन कहे वरे शिवराणी ॥ ० ॥ १३ ॥ ॥ अथ श्री सिद्धाचल स्तवन ॥ गरबानी देशी मां ॥ ॥ श्री सिद्धाचल मंडण स्वामी रे, जगजीवन अंतर जामी रे, एतो प्रमुं हुं शिर नामी ॥ जात्रीमा जात्रा नवाएं करीयें रे ॥ करियें तो नवज ल तरियें ॥ जात्री० ॥ १ ॥ श्रीकृषन जिनेश्वरराया रे, जिहां पूर्व नवा णुं यया रे, प्रभु समवसस्या सुखदाया ॥ जात्री० ॥ २ ॥ चैत्री पूनम दिन वखाएं रे, पांच कोमी पुंमरिक जाएं रे, जे पाम्या पद निर्वाणुं ॥ जात्री ० ॥ ३ ॥ नमि विनमि राजा सुख सातें रे, वे कोडी साधु संघातें रे, एतो होता पद लोकांतें ॥ जात्री० ॥ ४ ॥ काति पूनमें करमने तोमी रे, जिहां सिद्धा मुनि दस कोमी रे, तेतो वंदो वे कर जोडी ॥ जात्री ० ॥ ॥ ५ ॥ एम भरतेश्वरने पाटें रे, असंख्याता मुनिवाटें रे, पाम्या मुक्तिर मणीए वाटें ॥ जात्री० ॥ ६ ॥ दोय सहस मुनि परिवार रे, यावच्चासुत सुखकार रे, सयपंच सैलग अणगार || जात्री० ॥ ७ ॥ वली देवकीसुत सुजगीश रे, सिद्धा बहु जादववंश रे, ते प्रणमो रे मन हंस ॥ जात्री ० ॥ ॥ ८ ॥ पांचे पांव एणें गिरि आव्या रे, सिद्धा नव नारद ऋषि राया रे, वली सांब प्रद्युम्न कहाया ॥ जात्री० ॥ ए ॥ ए तीरथ महिमावंत रे, जिहां सिद्धा साधु अनंत रे, इम जांखे श्री जगवंत ॥ जात्री० ॥ १० ॥ उज्ज्वल गि रि समो नहीं कोय रे, तीरथ सघलां में जोय रे, जे फरस्यां पाप न होय ॥ जात्री० ॥ ११ ॥ एकल आहारी (१) सचित्त परिहारी (२) रे, पदचारीने (३) भूमि संथारी (४) रे, शुद्ध समकित (५) ने ब्रह्मचारी (६) जात्री ० ॥ १२ ॥ एम बहरी जे नर पाले रे, बहुदान सुपात्रे आले र, ते जन्म मरण जय टाले ॥ जात्री० ॥ १३ ॥ धन्य धन्य तेह नर नारी रे, जेटे विमलाचल एक तारी रे, जा तेहनी हुं बलिहारी ॥ जात्री ० ॥ १४ ॥ श्रीजिनचंद्रसूरि सुपसायें रे, जिनहर्ष होय उन्नायें रे, इम विमलाचल गुण गाये ॥ जात्री ० ॥ १५ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एG४. प्रतिक्रमण सूत्र. ॥ अथ सीताजीनी सद्याय प्रारंज ॥ ॥ जनकसुता हुं नाम धरावं, राम ने अंतरजामी ॥ पालव अमारो मेलने पापी, कुलने लागे जे खामी ॥ अमशो मांजो, मांजो मांजो मांजो ॥ ॥ महारो नाहनीयो उहवाय ॥ अ० ॥ मने संग केनो न सुहाय ॥०॥ महारुं मन मांहेथीअकुलाय॥अ॥१॥ ए आंकणी ॥ मेरुम हीधर गम तजे जो, पबर पंकज ऊगे॥ जो जलधि मर्यादा मूके, पांगलो अंबर पूगे ॥ अ॥॥ तो पण तुं सांजलने रावण, निश्चय शील न खडुं ।। प्राण अमारो परलोक जाये, तो पण सत्य न बहुं ॥ अ॥३॥ कुण मणि धरना मणि लेवाने, हैडे घाले हाम ॥ सती संघातें स्नेह करीने, कहो कुण साधे काम ॥॥॥ परदारानो संग करीने, आखो कोण उगरियो॥ ऊंडं तो तुं जोय आलोची, सहि तुज दहाडो फरियो ॥ अ० ॥५॥ जन कसुता हुं जग सहु जाणे, नामंगल ने लाइ॥ दशरथ नंदन शिर डे खामी, लखमण करशे लडाई ॥ १० ॥६॥ धणीयाती पीयु गुणराती, हाथ डे महारे बाती ॥ रहे अलगो तुज वयणे न चर्चा, कां कुठे वाये जे काती ॥ अ० ॥॥ उदयरतन कहे धन्य ए अबला, सीता जेहनुं नाम ॥ सतीयामांहे शिरोमणि कहिये, नित्य नित्य होजो प्रणाम ॥ अ०॥७॥ अथ ॥ आयंबिल तपमां आहार लेवाना विधिनो स्वाध्याय ॥ ॥प्रारंजः ॥ चोपानी देशीमां ॥ ॥ समरी श्रुतदेवी शारदा, सरस-वचन वर आपो सदा ॥ शांबिल तपनो महिमा घणो, नविजन जावथकी ते सुणो ॥१॥ विगय सकलनो जिहां परिहार, 'अशनमांहे पण नेद विचार ॥ विदल सर्व तिल तूअर विना, अलसी कोअव कांगनी मना ॥२॥खड धान्य पूंहक फुकट फल सर्व, वर्जीजें बिलने पर्व ॥ सामण परें जो जल नले, तो आंबिल अंबिल रस टले ॥३॥ बीड लवण मिरच ने सुश्रा, मेथी संचल रामठ कह्या ॥ अजमादिक नेला रंधाय, तो आंबिलमा लेवा थाय ॥४॥ जीरे जले ते जे वमी कही, ते सूजे पण जीरं नहीं ॥ गोमूत्र विना अबे अणाहार, ते सवि लेवानो व्यवहार॥५॥सात जाति जे तंफुल तणी, जे सूजती बि समां जणी ॥ शेकेल धान्य अपक्की दाल, मांडा खाखर लेवा टाल ॥६॥ हलदर लविंग पिंपर पीपली, हरडे सैंधव वेशण वली ॥ खादिम स्वादिम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. ԱՇԱ जे कद्देवाय, ते यांबिलमां नवि लेवाय ॥ ७ ॥ उत्कृष्ठ विधें ऊष्णजल नीर, जघन्य विधें कांजीनुं नीर ॥ एम निर्दूषण आंबिल करे, मुख धोव दात नविकरे ॥ ८ ॥ जे निर्दूषण लिये आहार, उदननो तेने व्यव हार || टोलिगटपणी विनु, ते पण बिलमां सूजतुं ॥ ए ॥ शव गीतारण मत्सरी, जे जे विधि बोले ते खरी || बाजालान वि चारे जेह, विधि गीतारथ कहियें तेह ॥ १० ॥ यांबिल तप उत्कृष्टुं कथं, विघ्न विदारण कारण लघुं ॥ वाचक कीर्त्तिविजय सुपसाय, जांखे विनय विजय वजाय ॥ ११ इति बिल तपनी सद्याय ॥ ॥ अथ चेतन शिखामणनी सद्याय || ॥ चेतन कटु चेतीयें, ज्ञान नयन ऊघामी ॥ समता सहजपणुं जो, तजो ममता नारी ॥ चे० ॥ १ ॥ या डुनीयां दे बाजरी, जेसी बा जीगर बाजी ॥ साथ कीसीके नां चले, ज्युं कुलटा नारी ॥ चे० ॥ २ ॥ माया तरुबाया परें, न रहे स्थिरकारी ॥ जानत है दिलमें जनी, पण करत बिगारी ॥ ० ॥ ३ ॥ मेरी मेरी तुं क्या करे, करे कोणशुं यारी ॥ प लटे एक पल में, ज्युं घन अंधियारी ॥ ० ॥ ४ ॥ परमातम अविच ल जो, चिदानंद कारी ॥ नय कहे नियत सदा करो, सब जन सुखकारी ॥ ० ॥ ५ ॥ इति ॥ ॥ अथ आत्मबोधनी सधाय ॥ ॥ होतमा मत, पम मोह पंजरमांदे ॥ माया जाल रे ॥धन राज्य, जोबन रूप रामा, सुत सुता घरबार रे || हुकम होदा हाथी घोडा, कारि मो परिवार ॥ माया जाल रे ॥ हो० ॥ १ ॥ अतुलवल हरि चक्री रामा तुं जो ऊर्जित मदमत्त रे ॥ क्रुर जमबल निकट आवे, गलित जावे सत्त ॥ माया० ॥ हो० ॥ २ ॥ पुहवीने जे छत्र परें करें, मेरुनो करे दंग रे ॥ ते पण गया हाथ घसता, मूकी सर्व खंग ॥ मा० ॥ हो० ॥ ३ ॥ जे तखत बेसी हुकम करता, परी नवला वेश रे ॥ पाघ सहेरा धरत टेढा, मरी गया जमदेश || मा० ॥ हो० ॥ ४ ॥ मुख तंबोल ने अधर राता, करत नव नवा खेल रे ॥ तेह नर बल पुण्य घाठे, करत परघर टेल ॥ मा० ॥ हो० ॥ ५ ॥ जज सदा जगवंत चेतन, सेव गुरुपदपद्म रे ॥ रूप कड़े कर धर्मकरणी, पामे शाश्वत सद्म ॥ मा० ॥ हो० ६ ॥ इति Jain Educationa International ७४ For Personal and Private Use Only Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. ॥ अथ सांजल सयणानी सद्याय ॥ ॥ सांजल सयणा साची सुणावुं, पूरव पुण्यें तुं पाम्यो रे जाइ ॥ नरक निगोदमां जमतां नरजव, तें निःफल केम वाम्यो रे जाइ ॥ सां० ॥ १ ॥ जैनधर्म जयवंतो जगमां, धारी धर्म न साध्यो रे जाइ ॥ मेघघटा सरि खा गज साटे, गर्दन घरमां बांध्यो रे जाइ ॥ सा० ॥२॥ कल्पवृक्ष कूहा डे कापी, धतुरो घेर धारे रे जाइ ॥ चिंतामणि चिंतित पूरण ते, काग उमावण मारे रे जाइ ॥ सां० ॥ एम जाणी जावा नवि दीजें, नर नारी नर जवनें रे जाइ ॥ उलखी शुद्धधर्मने साधो, जे मान्यो मुनि मन नेरे जाइ ॥ सां ॥ ४ ॥ जे विजाव परजावमां जजीयें, रमणखनाव मां करियें रे जाइ ॥ उत्तमपदपद्मने अवलंबी, जवियण जवजल तरी यें रे जाइ ॥ सां० ॥ ५ ॥ इति श्रात्महित सद्याय ॥ || जोबन स्थिरनी सझाय ॥ राग प्रजाती ॥ ५८६ ॥ जोबनीयांनी मोजां, फोजां जाय नगारां देती रे ॥ घमी घमी घमी यालां वाजे, तोही न जागे तेथी रे ॥ जो० ॥ १ ॥ जरा राक्षसी जोर करे बे, फेलावे फजेती रे ॥ यावी अवघें उशंके नहीं, लखपतिने लेती रे ॥ जो० ॥ २ ॥ मालें बेठो मोज करे बे, खांतें जोवे खेती रे ॥ जमरो नमरो ताणी लेशे, गोफण गोलासेंती रे ॥ जो० ॥ ३ ॥ जिनराजानें शर जार्ज, जोरालो को न जेथी रे ॥ डुनीयामां दूजो दीसे नहीं, आखर तर शो तेथी रे ॥ जो० ॥ ४ ॥ दंत पड्या ने डोसो थयो, काज सयुं नहिं केथी रे ॥ उदयरत्न कहे या समजो, कहियें वातो केती रे ॥ जो० ॥ ५ ॥ ॥ अथ निंदावारक सझाय ॥ ॥ निंदा म करजो कोनी पारकी रे, निंदानां बोल्यां महापाप रे ॥ व र विरोध वा घणो रे, निंदा करतां न गणे माय बाप रे ॥ निं० ॥ १ ॥ दूर बसंती कां देखो तुम्हें रे, पगमां बलती देखोस कोय रे ॥ परना मलमांधोयां लूगडां रे, कहो केम ऊजलां होय रे ॥ निं० ॥ २ ॥ आप सं जालो सहुको श्रापणो रे, निंदानी मूको पनी टेव रे ॥ थोडे धणे अवगुणे सहु जरया रे, केहनां नलीयां चुवे केहनां नेव रे || निं० ॥ ३ ॥ निंदा करे ते थाये नारकी रे, तप जप कीधुं सहु जाय रे ॥ निंदा करो तो कर जो श्रापणी रे, जेम बुटकवारो थाय रे ॥ निं० ॥ ४ ॥ गुण ग्रहेजो सदु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. को तणो रे, जेहमां देखो एक विचार रे ॥ कृष्णपरें सुख पामशो रे,समय सुंदर सुखकार रे ॥ निं० ॥ ५॥ इति ॥ . ॥ अथ धोबीमानी सशाय ॥ ॥ धोबीडा तुं धोजे मननुं धातियुं रे, रखे राखतो मेल लगार रे ॥ एणे रे मेलें जग मेलो कस्यो रे, विण धोयुं न राखे लगार रे ॥ धो॥ ॥१॥ जिनशासन सरोवर सोहामणुं रे, समकिततणी रूमी पाल रे॥ दानादिक चार बारणां रे, मांही नवतत्त्व कमल विशाल रे॥ धो॥२॥ तिहां जीले मुनिवर हंसला रे, पिये ले तप जप नीर रे ॥ शम दम आदें जे शील रे, तिहां खाले आपणुं चीर रे ॥ धो० ॥३॥ तपवजे तप तम के करी रे, जालवजे नवतत्त्ववाम रे ॥ बांटा उडाडे पाप अढारना रे, एम उजलु होशे ततकाल रे ॥ धो ॥ ४ ॥ आलोयण साबूमो सूधो करे रे, रखे आवे माया सेवाल रे ॥ निश्चे पवित्रपणुं राखजे रे, पढें आप णी नीमी संजाल रे ॥धो ॥५॥ रखे मूकतो मनमोकलुं रे, चल मेलीने संकेल रे ॥ समयसुंदरनी शीखडी रे, सुखमी अमृतवेल रे, ॥ धो० ॥६॥ ॥ अथ ढंढणऋषिजीनी सशाय ॥ ॥ ढंढण ऋषिजीने वंदणा॥हुंवारी लाल ॥ उत्कृष्टो अणगार रे॥ढुंवारी लाल ॥ अनिग्रह लीधो श्राकरो ॥ ढुं वारी० ॥ लब्धं बेशु थाहार रे ॥ हुँ वारी लाल ॥ ढं॥१॥ दिनप्रति जावे गोचरी ॥ हुं ॥ न मले शुद्ध श्रा हार रे ॥ हुं० ॥ न लीये मूल असूऊतो ॥ हुं० ॥ पीजर इवो गात रे ॥ ढुं० ॥ ढं० ॥२॥ हरि पूजे श्री नेमने ॥ हुँ । मुनिवर सहस बढार रे ॥ हुं ॥ उत्कृष्टो कोण एहमें ॥ हुं ॥ मुजने कहो कृपाल रे ॥ हुं ॥ ढं० ॥३॥ ढंढण अधिको दाखीयो॥ हुँ॥श्रीमुख नेम जिणंद रे ॥ ९॥ कृष्ण उम्माह्यो वांदवा ॥ हुं ॥ धन्य जादव कुलचंद रे ॥ हुं० ॥ ढं॥४॥ गलीबारें मुनिवर मल्या ॥ हुं० ॥ वांदे कृष्ण नरेश रे ॥ हुं० ॥ किणही मिथ्यात्वी देखीने ॥ हुँ० ॥ आव्यो नावविशेष रे ॥ हुं० ॥ ढं० ॥५॥ आवो श्रम धर साधुजी ॥ हुं० ॥ यो मोदक ने शुद्ध रे ॥ हुं०॥ ऋषिजी लेई आविया ॥ हुं० ॥ प्रजुजी पास विशुद्ध रे ॥ हुं० ॥ ढं० ॥ ॥६॥ मुज लब्धे मोदक मल्या ॥ हुँ ॥ पूजे के कहो कृपाल रे ॥ हुँ॥ लब्धि नहिं वत्स ताहरी ॥ हुँ ॥ श्रीपति लब्धि निहाल रे ॥ ढुं० ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एनन प्रतिक्रमण सूत्र. ॥ ढंग ॥ ७॥ तो मुझने लेवो नहीं ॥ हुँ० ॥ चाख्यो परवण काज रे ॥ हुं ॥ इंट निंजाडे जाश्ने ॥ हुँ॥ चूरे कर्म समाज रे ॥ हु०॥ ढंग ॥॥ आवी सूधी जावना ॥ हुँ ॥ पाम्यो केवल नाण रे ॥ ढुं० ॥ ढंढण ऋषि मुक्तं गया ॥ ९ ॥ कहे जिनहर्ष सुजाण रे ॥ हुं० ॥ ढं० ॥॥इति ॥ ॥अथ मुहपत्तीना पच्चास बोलनी सद्याय ॥ ॥ ढाल ॥ सिरिजंबूरे, विनयनक्ति शिर नामिने ॥ कर जोमी रे, पूजे सो हमखामीने॥ जगवंता रे कहो शिवकांता केम मले ॥ कहे सोहम रे, मि थ्या चमदूरेटले ॥ त्रुटक ॥ दूरेटले विष गरल ईहा, उन्नय अनुसरी॥ एक ज्ञान दूजी करत क्रिया, अनेदारोपण करी ॥ जिम पंगु दर्शित चरण कर्षित, अंध बिडं निज पुर गया॥तिम सत्व सजतां तत्त्व जजतां, नविक केश् सुखिया थया ॥१॥ ढाल ॥ वैकल्य ज्युं रे, कष्ट ते करवू सोहिर्बु ॥ पण जंबू रे, जाणपणुं जग दोहिनुं ॥ तेणे जाणी रे, आवश्यक किरिया करो॥ उपगरणे रे, रजहरणो मुहपत्ती धरो ॥ त्रुटक ॥ मुहपत्ती श्वेतें मानोपेतें, शोल निज अंगुल नरी॥ दोय हाथ काली दृग निहाली, दृष्टि पडिलेहण करी॥ त्यां सूत्र अर्थ सुतत्त्व करीने, सदडं एम नावियें ॥ नचा वच्चारूप तिग तिग, पखोमा षट लावियें ॥२॥ढाल ॥ समकित मोहनी रे, मिश्र मिथ्यात्वने परिहरु ॥ काम राग रे, स्नेह दृष्टिराग संहरं ॥ ए साते रे, बोल कह्या हवे बागलें ॥ अंगुलि वच्चें रे, त्रण वधूटक कर तलें ॥ त्रुटक ॥ करतलें वामें अंजलि धरि, अखोडा नव कीजियें ॥प्रमार्जन नव तेमज करिये, तिग तिगंतर लीजियें ॥ सुदेव सुगुरु सुधर्म आदरं, प्रतिपदी परि हरु ॥ वली शान दर्शन चरण श्रादरूं, विराधक त्रिक अपहरं ॥३॥ ॥ ढाल ॥ मनोगुप्ति रे, वचन कायगुप्ति नजुं ॥ मनोदंग रे, वचन काय दंडने तनुं ॥ पचवीश रे, बोल ए मुहपत्तीना लह्या ॥ हवे अंगना रे, परि हरु एम सघला कह्या ॥ त्रुटक ॥ कह्या बधूटक करि परस्पर, वाम हा थें त्रिक करो॥ हास्य रति ने अरति उमी, इतर कर त्रिक अनुसरो ॥ जय शोक उगंबा तजीने, पयाहीणो श्राचरो ॥ कृष्णवेश्या नील कापोत, ल लाटें त्रिक परिहरो॥४॥ ढाल ॥ रस गारव रे, शशि शाता गारवा ॥ मुख हैडे रे, त्रण त्रण एम धारवा ॥ मायाशल्य रे, नियाण मिथ्यात्व टालियें ॥ वाम खंधे रे, क्रोध मान दोय गालियें ॥ त्रुटक ॥ गालीयें माया लोज द Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. ॥ ԱՇԽ दि, खंध ऊर्ध्वधो मली | त्रिक वाम पादें पुढवीने अप, वली तेउनी रक्षा करी ॥ जमणे पगे त्रण वाउ वणसई, त्रसकायनी रक्षा करुं ॥ पंचा श बोलें मिलेहण, करत ज्ञानी जव हरुं ॥ ५॥ ढाल ॥ एह मांहेथी रे, चालीश बोल ते नारीने ॥ शीशहृदयना रे, खंध बोल दश वारीने ॥ इं विधिश्यं रे, पoिहाथी शिव लह्यो । अवधि करी रे, उक्कायनो विरा धक को ॥ त्रुटक ॥ कह्यो किंचित् यावश्यकथी, तथा प्रवचन सारथी ॥ जावना चेतन पावना कही, गुरु वचन अनुसारथी ॥ शिव लहे जंबू रहे जो शुज, वीरवीजयनी वाणीयें ॥ मन मांकडुं वनवास रमतुं, वश कर करी घर येिं ॥ ६ ॥ इतिसझाय संपूर्ण ॥ ॥ अथ काया उपर सझाय ॥ ॥ काया रे वामी कारमी, सीचंतां रे शूके ॥ उंठ को कि रोमावली, फल फूल न मूके ॥ का० ॥ १ ॥ काया माया कारमी, जोवंतां जाशे ॥ मारग लेजो मोक्षनो, जीवडो सुख पाशे ॥ का० ॥२॥ अरिहंत आंबो मोरीयो, सामायिक था | मंत्र नवकार संजारजो, समकित शुद्ध गणे ॥ का० ॥ ॥ ३ ॥ वाडी करो विरतां तणी, सवि लोन निवारो ॥ शील संयम दोनुं एकता, जली पेरें पालो || को० ॥ ४ ॥ पांच पुरुष देशावरी, बेठा इ डाली ॥ फल चूंटी ने चोरियां, न करी रखवाली ॥ का० ॥५ ॥ इ वाडी एक शूडलो, सुख पिंजर बेठो ॥ बहुत जतन करी राखीयो, जातो किणही नदीठो ॥ का० ॥ ६ ॥ कां जोलपणे जव हारियो, मत मोमी संजाली ॥ रत्न चिंतामणि सारिखी, कां गांव न वाली ॥ का० ॥७॥ रत्नतिलक सेवक जणे, सुजो वनमाली ॥ वाकजली परें पालजो, करजो ढंग वाली ॥ का० ॥८॥ ॥ अथ वणजारानी सझाय ॥ ॥ नरजव नयर सोहामं ॥ वणजारा रे ॥ पामीने करजे व्यापार ॥ हो मोरा नायक रे || सत्तावन संवर तणी ॥ वं० ॥ पोटी जरजे उदार ॥ ० ॥ १ ॥ शुभ परिणाम विचित्रता ॥ व० ॥ करियाणां बहुमूल ॥ ० ॥ मोहनगर जावा जी ॥ ० ॥ करजे चित्त अनुकूल ॥ ० ॥ ॥ २ ॥ क्रोध दावानल उलवे ॥ व० ॥ मान विषम गिरिराज ॥ ० ॥ उलंघजे हलवें करी ॥ व० ॥ सावधान करे काज ॥ ० ॥ ३ ॥ वंशजाल माया त ॥ ० ॥ नवि करजे विशराम ॥ ० ॥ खामी मनोरथ नट Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. तणी॥ व ॥ पूरणनुं नहिं काम ॥ ॥॥राग द्वेष दोय चोरटा ॥ व॥ वाटमां करशे हेरान ॥ अ॥ विविध वीर्य उदासथी॥ व० ॥ते हणजे रे स्थान ॥ अ० ॥ ५॥ एम सवि विघन विदारीने ॥ व० ॥ पहोंचजे शिव पुरवास ॥ १० ॥ खय उपशम जे नावना ॥ १० ॥ पोतें जया गुणराश ॥ अ॥६॥ दायिक नावें ते थशे ॥ व०॥ लाज होशे ते अपार ॥०॥ उत्तम वणिज जे एम करे ॥ व०॥ पद्म नमे वारं वार ॥ अ० ॥ ७॥इति ॥ ॥अथ सोदागरनी ॥ सद्याय ॥ लावोने राज, मोंघा मुलनां मोती ॥ ए देशी ॥ ॥ सुन सोदागर बे, दिलकी बात हमेरी ॥ तें सोदागर दूर विदेशी, सोदा करनकुं आया ॥ मोसम आये माल सवाया, रतनपुरीमें गया ॥ सु ॥ १ ॥ तिनुं दलालकुं हर समकाया, जिनसें बहोत नफाया ॥ पांचं दीवानुं पाऊं जमाया, एककुं चोकी बिगया ॥ सु॥ ५ ॥ नफा देख कर माल विहरणां, चुथा कटे न युं धरनां ॥ दोनुं दगाबाजी दूर करना, दीपकी ज्योतें फिरनां ॥ सु॥३॥ उर दिन वली महेलमें रहनां, बंदरकुं न हलानां ॥ दश सहेर दोस्तीहिं करना, उनसे चित्त मिलानां ॥ ॥ सु० ॥ ४ ॥ जनहर तजनां जिनवर जजनां, सजनां जिनकुं दला॥ नवसर हार गले में रखनां, जखनां लखकी कटा॥ सु० ॥५॥ शिरपर मुकुट चमर ढोलाइ, अम घर रंग वधाइ ॥ श्रीशुनवीर विजय घर जाई, होत सताबी सगा ॥ सु० ॥ ६ ॥ इति ॥ ॥अथ आपस्वजावनी सद्याय ॥ ॥ श्राप खनावमां रे, अवधू सदा मगनमें रहेनां ॥ जगत जीव हे कर्माधीना, अचरिज कबुथ न लीना ॥ आ ॥१॥ तुम नहिं केरा कोई नही तेरा, क्या करे मेरा मेरा ॥ तेरा हे सो तेरी पास, अवर सबे अने रा ॥ आ ॥२॥ वपु विनाशी, तुं अविनाशी, अब हे श्नकुं विलासी॥ वपु संघ जब दूर निकासी, तब तुम शिवका वासी॥ आ॥३॥राग ने रीसा दोय खवीसा, ए तुम फुःखका दीसा ॥ जब तुम उनकुं दूरी करीसा, तब तुम जगका ईसा ॥ ॥४॥ परकी आसा सदा निरासा, ए हे जग जन पासा ॥ ते काटनकू करो अभ्यासा, लहो सदा सुखवासा ॥ आ॥ ॥५॥ कबहीक काजी कबहीक पाजी, कबहीक हुआ अपनाजी ॥ कब Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एएए स्तवनानि. हीक जगमें कीर्ति गाजी, सब पुजलकी बाजी ॥ ॥६॥ शुद्ध उपयोग ने समताधारी, ज्ञान ध्यान मनोहारी ॥ कर्म कलंककुं दूर निवारी, जीव वरे शिवनारी ॥ आ ॥ ७ ॥ इति सद्याय ॥ ॥अथ श्री शोल सतीयोनी सद्याय ॥ ॥ शोल सतीनां लीजें नाम जेथी मनोवंडित शुन काम ॥ नक्ति नाव अति आणी घणो, नाव धरीने नवियण सुणो ॥१॥ ब्राह्मी चंदनबाला नाम, राजिमती प्रौपदी अनिराम ॥ कौशल्या ने मृगावती, सुलसा सीता ए महासती ॥२॥ सती सुनमा सोहामणी, पोल उघाडी चंपा तणी ॥ शिवा नाम जपो नगवती, जगीश आपे कुंती सती ॥३॥शीलव ती शीलें शोनती, नजो नावें ए निर्मल मती ॥ दमयंती ने चूला सती, प्र नावती ने पद्मावती ॥४॥शोल सतीनां नाम उदार, नणतां गणतां शिव सुखकार ॥ शाकिनी माकिनी व्यंतर जेह, सतिनामें न परानवे तेह ॥५॥ आधि व्याधि सवि जाये रोग, मन गमता सवि पामे लोग ॥ संकट विकट जाये सविदूर, तिमिर समूह जेम उगे सूर ॥६॥राज झछि घरे होये बहु,राय राणा ते माने सहु॥वाचक धर्म विजय गुरुराय, रत्नविजय जावेंगुण गाय॥७॥ ॥अथ आत्मशिदानी सद्याय ॥ राग रामग्री ॥ ॥ श्रातमरामें रे मुनि रमे, चित्त विचारीने जोय रे ॥ तहारुं दीसे नवि कोय रे, सहु खारथी मत्युं जोय रे, जन्म मरण करे लोय रे, पूजें सब मली रोय रे ॥ श्रा० ॥१॥ खजनवर्ग सवि कारमो, कूमो कुटुंब परि वार रे ॥ को न करे तुज सार रे, धर्म विण नही को आधार रे, जिणें पामे नवपार रे ॥ आ॥२॥ अनंत कलेवर मूकीयां, तें कीयां सगपण अनंत रे नव उठेगें रे तुं नम्यो, तोही न आव्यो तुक अंत रे ॥ चेतो हृदयमां संत रे ॥ आप ॥३॥ लोग अनंता तें लोगव्या, देव मणु श्र गति मांहि रे ॥ तृप्ति न पाम्यो रे जीवमो, हजी तुऊ वांग ने त्यांहि रे, आण संतोष चित्तमांहि रे ॥ आ॥ ॥ ४॥ ध्यान करो रे आतम तणुं, परवस्तुथी चित्त वारी रे ॥ अनादि संबंध तुझ को नहीं, शुद्ध निश्चय श्म धारी रें, श्णविध निज चित्त गरी रे, मणिचंड आतम तारी रे॥श्रा॥५॥ ॥अथ वीश स्थानकना तपनी सद्याय ॥ ॥श्रीसीमंधर साहिब आगें ॥ ए देशी ॥अरिहंत पहेले स्थानक गणी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एए३ प्रतिक्रमण सूत्र. यें बीजे पद सिद्धाणं ॥ त्रीजे पवयण आयरिय चोथे, पांचमे पद थेराणं रे ॥ नविया ॥ वीश स्थानक तप कीजें ॥ उली वीश करीजें रे॥ ज०॥ गणणुं एह गणीजें रे ॥ ज० ॥ जिम जिनपद पामीजें रे ॥ ज०॥ नरजव लाहो लीजें रे ॥ ज० ॥ वी० ॥१॥ए आंकणी ॥ उवजाय बढे सब साहूणं, सातमे आपमे नाण ॥ नवमे दंसण दसमे विणयस्स, चारित्र अगी यारमे जाण रे ॥ न० ॥ वी० ॥२॥बारमे बंजवयधारीणं, तेरसमे किरिया णं ॥ चउदमे तव पनरमे गोयम, सोलसमे नमो जिणाणं रे ॥ ज० ॥ वी० ॥३॥ चारित्तस्स सत्तरमे जपीयें, अढारसमे नाणस्स ॥ जंगणीश मे नमो सुयस्स संजारो, वीशमे नमो तिबस्स रे ॥ ज० ॥ वी० ॥ ४ ॥ एकासणादिक तप देववंदन, गणणुं दोय हजार ॥ संघ विनय बुध शिष्य सुदर्शन, जंपे एह विचार रे ॥ न ॥ वी० ॥ ५ ॥ इति ॥ ॥शीयल विष शिखामणनी सद्याय ॥ ॥ ढाल ॥एतो नारी रे, बारी ने उर्गतितणी ॥ गंम संगति रे, मूरख तुं परस्त्री तणी ॥ जीव नोला रे, मोला तेहशुं म म करे ॥ शीख मानी रे, गनी वात तुं परिहरे ॥ १॥ त्रूटक ॥ जो वात करिश परनारी सायें, लोक सहु हेरे अ ॥ राय रांक थश्ने रख्या राने, सुखें नहिं बेसे पढ़ें ॥ ए मदनमाती विषय राती, जेसी काती कामिनी ॥ पहेदूं तो वली सुख देखाडे, पत्रे पाडे नामिनी ॥५॥ ढाल ॥ कर पगना रे, नयण वयण चाला करे ॥ बोलावी रे, नरने लेश धाई पडे ॥ नोलावी रे, हाव नाव देखामशे ॥ पगे लागी रे, मरकलडे मन पाडशे ॥३॥ त्रुटक ॥ ए पास पाडे धन गमाडे, मान खंडे लीलबी ॥ बोलती रूमी चित कू मी, कूम कपटनी कोथली ॥ ए नर अमूलक व्यसन परियो, पहें न पोसा ये पायको ॥ दीवान दंडे मान खंडे, मार सहे पजे रायको॥४॥ ढाल ॥ बांमी देशे रे, वेश्याना लंपट नरा ॥ सहु सधवा रे, विधवा दासी दूरें करा ॥ जा नाशी रे, रूप देखी जीव एह तणुं ॥ ऊजो रही रे, एह स हामुं म म जो घणुं ॥५॥ त्रूटक ॥घणुं म जोश एह सामुं, कुलस्त्री दी नवि गमे ॥ जिम शुनी पू- श्वान हीडे, तेम परनारी पूढे कां नमे ॥ जिम बिरामो दूध देखे, मोले डांग न देख ए ॥ परनार पेध्यो पुरु ष पापी, किस्यो जय न लेख ए ॥ ६ ॥ ढाल ॥ फुलवेणी रे, शिरसिंह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. एए३ र सेंथो जस्यो ॥ ते देख रे, फट मूरख मन कां कस्यो ॥ देखी टीलां रे, ढीला इजिय करि गहगह्यो ॥ शिर राखमी रे, आंखदेई तुं कां रह्यो ॥७॥ त्रूटक ॥ कां रह्यो मूरख थांख देई, शणगार जार श्णे धस्या ॥ ए ऊली जीहा, आंखे पीहा, कानकूपा मल जस्या ॥ नारी अग्नि पुरुष माखण, बोल बोलतां विगरे ॥ स्त्रीदेहमां शुं सार दीगे, मूढ महियां कां करे ? ॥ ७ ॥ ढाल ॥ इंजिय वाह्यो रे, जीव अज्ञानी पापीयो ॥ माने नरगह रे, सरग करी विष व्यापीयो ॥ कां नूलो रे, शणगार देखी ए हना ॥ जाणो प्राणी रे, ए जे उखनी अंगना ॥ ए ॥ त्रूटक ॥ अंगना तुं नोमी बोकरे, यश कीर्ति सघले लहे ॥ कुशीलनुं जो नाम लीये को, परलोक उर्गति उःख सहे ॥ विजयन बोले नवि डोले, शीयल थकी जे नरवरा ॥ तस पाय लागु सेवा मागु, जे जगमाहे जयंकरा ॥१॥ ॥अथ श्रीशांतिजिननी आरती ॥ ॥ जय जय आरंती शांति तुमारी, तोरां चरण कमलकी में जा ब लिहारी॥ ज० ॥ १॥ वीश्वसेन अचिराजीके नंदा, शांतिनाथ मुख पू नमचंदा ॥ ज० ॥२॥ चालीश धनुष्य सोवनमय काया, मृगलांउन प्र जुचरण सुहाया ॥ ज० ॥३॥ चक्रवर्ती प्रजु पांचमा सोहे, शोलमा जिनवर, जग सह मोहे ॥ ज० ॥४॥ मंगल आरति तोरी कीजें,ज न्म जन्मनो लाहो लीजें ॥ ज० ॥ ५॥ कर जोडी सेवक गुण गावे, सो नर नारी अमपरद पावे ॥ ज० ॥६॥ इति शांतिजिन आरती ॥ ॥अथ श्रीश्रादिजिननी आरती ॥ ॥ अप्सरा करती आरती, जिन आगे॥ हां रे जिन आगे रे जिनथा गें, हां रे ए तो अविचल सुखडांमागे ॥ हां रे नानिनंदन पास ॥ अप्स रा करती आरती जिन आगे ॥१॥ ता थे नाटक नाचती, पाय ठमके॥ हां रे दोय चरणे फांऊर ऊमके ॥ हां रे सोवन घूघरी घमके॥ हां रे लेती फुदमी बाल ॥ अ॥॥॥ ताल मृदंग ने वांसली, कफ वीणा ॥ हारेरूमां गावंती वर जीणा ॥ हां रे मधुर सुरासुर नयणां ॥ हां रे जोती मुखडं निहाल ॥ अ॥३॥ धन्य मरुदेवामातने, प्रनु जाया ॥ हां रे तोरी कंचन वरणी काया, हां रे में तो पूरवपुण्यें पाया ॥हां रे देख्यो तोरो देदार ॥अण ॥४॥ प्राणजीवन परमेश्वर प्रजु प्यारो ॥ हारे प्रजु सेवक हुँ बु तारो ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एएन प्रतिक्रमण सूत्र. हां रेनवो नवनां पुःखडां वारो॥ हां रे तुमें दीनदयाल ॥०॥५॥ सेव क जाणी आपणो, चित्त धरजो ॥ हां रे मोरी आपदा सघली हरजो ॥ हां रे मुनि माणक सुखीयो करजो॥हां रे जाणी पोतानो बाल ॥०॥६॥ ॥ अथ जिननवअंगपूजाना दोहा लिख्यते ॥ ॥ जल जरी संपुटपत्रमां, युगलिक नर पूजंत ॥ रुषन चरण अंगू मो, दायक नव जल अंत ॥१॥ जानुबलें काउस्सग्ग रह्या, विचस्या देश विदेश ॥खमां खमां केवल लन्युं, पूजो जानु नरेश ॥२॥लोकांतीक वच ने करी, वरस्या वरशीदान ॥ करकांडे प्रनु पूजना, पूजो नवि बहु मान ॥३॥ मान गयुं दोय अंशथी, देखी वीर्य अनंत ॥ नुजाबलें जव जल तस्या, पूजो खंध महंत ॥४॥ सिकशिला गुण ऊजली, लोकांतें जगवंत ॥ वसीया तिण कारण नवि, शिरशीखा पूजंत ॥ ५ ॥ तीर्थंकर पदपुण्यथी, तिहुश्रण जन सेवंत ॥ त्रिजुवन तिलक समा प्रजु, नाल तिलक जयवंत ॥ ६॥ शोल पहोर प्रजु देशना, कंठविवर वाल ॥ मधु रध्वनि सुर नर सुणे, तिणे गले तिलक अमूल ॥ ७॥ हृदय कमल उप शमबलें, बाल्या राग ने रोष ॥ हीम दहे वनखंडने, हृदय तिलक संतोष ॥ ७ ॥ रत्नत्रयी गुण ऊजली, सकल सुगुण विश्राम ॥ नानिक मलनी पूजना, करतां अविचल धाम ॥ए॥ उपदेशक नव तत्त्वना, तेणें नव अंग जिणंद ॥ पूजो बहुविध रागथी, कहे शुजवीर मुणींद ॥ १०॥ ॥ अथ श्रीपार्श्वनाथनी आरती ॥ ॥ आरती कीजें पास कुंवरकी, जन्म मरण जयहर जिनवरकी ॥ न यरि वणारसी जन्म कहावे, वामा मात प्रजु हुलरावे ॥ श्राप ॥१॥ यौ वन वन फलजोगी जणावे, नारी प्रत्नावती सती परणावे ॥ काय नीरो ग जोग विलसावे, पुरिसादाणी बिरुद धरावे ॥ आप ॥२॥ ज्ञानवि लोकी कमठ हरावे, गहन दहनथी फणी नीकसावे ॥ सेवकमुख नव कार सुणावे, धरणराय पदवी निपजावे ॥ श्रा० ॥ ३ ॥ क्रोधी कमठ हठ तप लय लावे, जिन दर्शनसें सुरगति पावे ॥ लोग संयोग वियोग बनावे, संयमश्री आतम परणावे ॥ श्रा० ॥ ४॥ ध्यान लेहरीयां काउ स्सग्ग नावें, खामीकू वम लय तव गवे ॥ मेघमाली जलधर वरसावे, जब नासा जर जर जल लावे॥ आ॥५॥ तव धरणेसासन कंपावे, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. ए पद्मावतीसाथें त्यां आवे ॥ नाथ ऊर्ध्व शिर फणीकुं धरावे, जर अपरा धी देव मरावे ॥ था ॥ ६॥ सांश् शरण लश् समकित पावे, फणिपति नाटक विधि विरचावे ॥ प्रजुचरणे नमि गेह सिधावे, जगदीश्वर घन घाती हरावे ॥ आ ॥ ७॥ साकारें केवल उग पावे, धर्म कही जिन नाम खपावे ॥ नूतल विचरी मोद सिधावे, अगुरु लघु गुण प्रनु निपजा वे ॥ आ॥७॥आरतिगतकी आरती गावे, श्रोता वक्ता रति उतरावे ॥ मनमोहन प्रजु पास कहावे, श्री शुनवीर ते शीश नमावे ॥ अ० ॥ए॥ ॥अथ मंगल चार ॥ ॥ चारो मंगल चार, आज महारे चारो मंगल चार ॥ देख्यो दरस सरस जिनजीको, शोना सुंदर सार॥आज॥१॥डिनु दिनु जनमन मोहन अों, घसी केसर घनसार ॥ आप ॥२॥ विविध जातिके पुष्प मंगावो, सफल करो अवतार ॥आ॥३॥धूप उरकेवो ने करो आरती, मुख बोलो जयकार आ० ॥॥ समवसरण आदीश्वर पूजो, चोमुख प्रतिमा चार ॥आ०५॥हैये धरी नाव नावना नावो, जिम पामो नवपार आ॥६॥ सकलसंघ सेवक जिनजीको, आनंदघन उपकार ॥ आप ॥ ७॥ इति ॥ ॥अथ ॥ श्रीपांच कारण- स्तवन ॥ ॥ दोहा ॥ सिद्धारथसुत वंदियें, जगदीपक जिनराज ॥ वस्तुतत्त्व सवि जाणीयें, जस आगमथी आज ॥१॥ स्याहादथी संपजे, सकल व स्तु विख्यात ॥ सप्तनंगि रचना विना, बंध न बेसे वात ॥२॥ वाद वदे नय जूजुआ, आप आपणे गम ॥ पूरण वस्तु विचारतां, कोइ न आवे काम ॥३॥अंधपुरुष एह गज, ग्रही अवयव एकेक ॥ दृष्टिवंत लहे पूर्ण गज, अवयव मली अनेक ॥४॥ संगति सकलनयें करी, जुगतियोग शुझबोध ॥ धन्य जिनशासन जग जयो, जिहां नहिं किश्यो विरोध ॥५॥ ॥ ढाल पहेली ॥ राग श्राशावरी ॥ ॥ श्री जिनशासन जग जयकारी, स्याछाद शुक्ररूप रे ॥ नय एकांत मिथ्यात निवारण, अकल अजंग अनूप रे ॥श्री० ॥१॥ ए आंकणी ॥ कोश कहे एक कालतणे वश, सकल जगत गति होय रे ॥ कालें उपजे कालें विणसे, अवर न कारण कोय रे ॥ श्री० ॥२॥ कालें गर्न धरे जग वनि ता, कालें जन्मे पुत्त रे ॥ कालें बोले कालें चाले, कालें काले घरसुत्त, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण सूत्र. रे ॥ श्री० ॥३॥ कालें दूधथकी दहीं थाये, कालें फल परिपाक रे॥ विविध पदारथ काल उपावे, कालें सहु थाय खाख रे ॥ श्री० ॥४॥ जिन चोवीश बार चक्रवर्ती, वासुदेव बलदेव रे ॥ कालें क्वलित कोई न दीसे, जसु करता सुर सेव रे ॥ श्री० ॥ ५॥ उत्सर्पिणी अवसर्पिणीधारा, बए जुई जु नात रे ॥ षड़झतुकाल विशेष विचारो, निन्न निन्न दिन रात रे॥ श्री० ॥ ६ ॥ काले बाल विलास मनोहर, यौवन काला केश रे॥ वृक्ष पण वली पली वपु अति पुर्बल, शक्ति नहिं लवलेश रे ॥ श्री० ॥७॥ ॥ ढाल वीजी ॥ गिरुया गुणवीरजी ॥ ए देशी ॥ ॥ तव वनाववादी वदे जी, काल किस्युं करे रंक ॥ वस्तुखजावें नीपजे जी, विणसे तिमज निःशंक ॥ सुविवेक विचारी, जु जुर्म वस्तु खन्नाव ॥ १॥ ए आंकणी ॥ ते योग जोबनवती जी, वांजणी न जणे बाल ॥ मुख नहिं महिलामुखें जी, करतल उगे न वाल ॥ सु० ॥५॥ विण खनाव नवि नीपजे जी, केम पदारथ कोय ॥ आंब न लागे लींबडे जी, बाग वसंतें जोय ॥ सु०॥३॥ मोरपिल कुण चीतरे जी, कोण करे संध्यारंग ॥ अंग विविध सवि जीवनां जी, सुंदर नयन कुरंग ॥ सु०॥४॥ कांटा बोर बबुलना जी, कोणे अणीयाला कीध ॥ रूप रंग गुण जूजुआ जी, तरु फल फूल प्रसिझ॥ सु० ॥५॥ विषधर मस्तक नित्य वसे जी, मणि हरे विष ततकाल ॥ पर्वत थिर चल वायरो जी, ऊर्ध्व अग्निनी ज्वाल ॥ . सु० ॥ ६ ॥ मत्स्य तुंब जलमा तजे जी, बूडे काग पहाण ॥ पंखी जात गयणे फिरे जी, श्णी परें सयल विनाण ॥ सु० ॥ ७॥ वायु गुग्थी उप शमे जी, हरडे करे विरेच ॥ सीजे नहिं कण कांगडू जी, शक्ति खन्नाव अनेक ॥ सु ॥ ७॥ देश विशेषे काष्ठना जी, नूमिमां थाय पहाण ॥ शंख अस्थिनो नीपजे जी, देत्र खनाव प्रमाण ॥ सु० ॥ ए ॥ रवि तातो शशी शीतलो जी, नव्यादिक बहु नाव ॥ बए अव्य आप आपणांजी, न तजे कोई खनाव ॥ सु ॥ इति स्वजाववादः ॥ ॥ ढाल त्रीजी ॥ कपूर होय अति उजलो रे ॥ ए देशी ॥ काल कीश्युं करे बापमो जी, वस्तु स्वनाव अकऊ ॥ जो नवि हो ये लवितव्यता जी, तो केम सीके कऊ रे ॥ प्राणी म करो मन जंजाल, जाविजाव निहाल रे ॥प्राणी म॥१॥ ए आंकणी ॥ जलनिधि तरे जं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि. ए गल फरे जी, कोमि जतन करे कोय॥अणनावी होवे नहीं जी, जावी होय ते होय रे ॥ प्राण ॥२॥ आंबे मोर वसंतमा जी, मादें माले केश लाख ॥ के खस्यां केश खाखटी जी, केश् श्राधां के साख रे ॥ प्रा० ॥ ३॥ बाउ ल जेम नवितव्यता जी, जिण जिण दिशि उफाय ॥ परवश मन माणस तणुं जी, तृण जेमपूंठे घाय रे ॥ प्रा० ॥ ४॥ नियतिवशे विण चिंतव्यु जी, आवि मले ततकाल ॥ वरसा सोनुं चिंतव्युं जी, नियति करे विसरा ल रे ॥ प्राण ॥५॥ ब्रह्महत्त चक्रीतणां जी, नयण हणे गोवाल ॥ दोय सहस्स जस देवता जी, देह तणा रखवाल रे ॥ प्रा०॥ ६॥ कोकहो कोय ल करेजी, केम राखी शके प्राण ॥ आहेडी शर ताकियो जी, उपर जमे सींचाण रे ॥ प्रा॥७॥आहेमी नागें मश्यो जी, बाण लाग्यो सींचाण ॥ कोकुहो ऊमी गयो जी, जुठ जुर्म नियति प्रमाण रे ॥ प्राण ॥ ॥ शस्त्र हण्यां संग्राममा जी, राने पड्या जीवंत ॥ मंदिरमांथी मानवी जी, राख्या ही न रहंत रे ॥ प्रा० ॥ ए ॥ इति नवितव्यतावादः कथितः ॥ ॥ ढाल चोथी ॥ राग मारुणी ॥ मनोहर हीरजी रे ॥ ए देशी ॥ ॥ काल खजाव नियतमती कूमी, कर्म करे ते थाय ॥ कर्मे निरय ति रिय नर सुरगति जी, जीव जवांतरें जाय ॥ चेतन चेतीये रे ॥ १॥ कर्म समो नहिं कोय ॥ चेतन० ॥ ए आंकणी ॥ कर्मे राम वस्या वनवासें, सी ता पामे आल ॥ कम लंकापति रावणर्नु राज थयुं विसराल ॥ चे ॥ ॥२॥ कम कीमी कर्मे कुंजर, कमें नर गुणवंत ॥ कम रोग शोक कुःखपी डित, जन्म जाय विलपंत ॥ चे ॥३॥ कर्मे वरस लगें रिसहेसर, उद क न पामे अन्न ॥ कर्मे वीरने जुवो योगमां रे, खीला रोप्या कन्न ॥ चे॥ ॥४॥ कर्मे एक सुखपालें बेसे, सेवक सेवे पाय ॥ एक हय गय रथ चढ्या चतुर नर, एक आगल उजाय ॥ चे ॥५॥ उद्यममानी अंध तणी परें, जग हीडे हाहतो ॥ कर्मबली ते लहे सकल फल, सुख जर सेजें सूतो रे ॥ चे ॥६॥ उंदर एकें कीधो उद्यम, करंमियो करकोले ॥ मांहे घणा दिवसनो नूख्यो, नाग रह्यो फुःख डोले रे ॥ चे ॥७॥ विवर वरी मूषक तस मुखमां, दिये थापणो देह ॥ मार्ग लश् वन नाग पधाख्या, कर्ममर्म जुर्ज एह ॥ चे ॥ ७ ॥ इति कर्म विवादः कथितः ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एन प्रतिक्रमण सूत्र. ॥ ढाल पांचमी॥ ॥ हवे उद्यमवादी नणे ए, ए चारे असमर्थ तो ॥ सकल पदार्थ सा धवा एक उद्यम समरथ तो ॥ १॥ उद्यम करतां मानवी ए, शुं नवि सी के काज तो ॥ रामें रयणायर तरी ए, लीधुं लंका राज्य तो ॥२॥ करम नियत ते अनुसरे ए, जेहमां शक्ति न होय तो ॥ देउल वाघमुखें पंखी यां ए, पियु पेसंतां जाय तो ॥३॥ विण उद्यम किम नीकले ए, तील मांदेथी तेल तो ॥ उद्यमथी उंची चढे ए, जुर्म एकेजिय वेल तो ॥४॥ उद्यम करतां एक समे ए, जेह नवि सीके काज तो ॥ ते फरी उद्यमथी हुवे ए, जो नविआवे वाज तो ॥५॥ उद्यम करी उस्या विना ए, नवि रंधाये अन्न तो ॥ श्रावी न पडे कोलीयो ए, मुखमां पखे जतन्न तो ॥ ६॥ कर्म पुत्त उद्यम पिता ए, उद्यमें कीधां कर्म तो ॥ उद्यमथी दूरे ट ले ए, जुवो कर्मनो मर्म तो ॥ ७॥ दृढप्रहारी हत्या करी ए, कीधां पाप अनंत तो ॥ उद्यमथी षट्मासमां ए, आप थयो अरिहंत तो ॥ ७॥ टी पे टीपे सर जरे ए, कांकरे कांकरे पाल तो ॥ गिरि जेहवा गढ नीपजे ए, उद्यम शक्ति निहाल तो ॥॥ उद्यमथी जल बींपुर्ड ए, करे पाषाणमां गम तो ॥ उद्यमथी विद्या नणे ए, उद्यम जोडे दाम तो ॥१॥ इति॥ ॥ ढाल ही ॥ ए मी किहां राखी ॥ ए देशी ॥ ॥ ए पांचे नयवाद करंता, श्रीजिनचरणे आवे ॥ अमियसरस जि नवाणी सुणीने, आनंद अंग न मावे रे प्राणी ॥ समकित मति मन श्रा णो ॥ नय एकांत म ताणो रे प्राणी ॥ ते मिथ्यामति जाणो रे प्राणी ॥ सम् ॥ १॥ ए आंकणी ॥ ए पांचे समुदाय मिल्या विण, कोई काज न सीके ॥ अंगुलियोगें करतणी परें, जे बजे ते री रे प्राणी ॥सणा॥ श्रा ग्रह वाणी को एकने, एहमां दीजें वडाई ॥ पण सेना मिली सकल रणांगण, जीते सुनट लमाई रे प्राणी ॥ सम ॥३॥ तंतुवन्नावें पट उपजावे, काल क्रमें रे वणाये ॥ नवितव्यता होये तो निपजे, नहिं तो विघ्न घणांय रे प्राणी ॥ सम० ॥४॥ तंतुवाय उद्यम लोक्तादिक, नाग्य सकल सहकारी ॥ एम पांचे मली सकल पदारथ, उत्पत्ति जुर्म विचारी रे प्राणी ॥ सम॥५॥ नियतिवशें हलुकरमो थश्ने, निगोदथकीनिकलि यो ॥ पुण्यें मनुज नवादिक पामी, सशुरुने जश् मलियो रे प्राणी ॥सम॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तवनानि एएए ॥६॥ नवस्थितिनो परिपाक थयो तव, पंमितवीर्य उवसीयो ॥ जव्यस्व जावें शिवगति पामी, शिवपुर जश्ने वसियो रे प्राणी ॥ सम ॥ ७॥ मान जिन एणी परें विनये, शासननायक गायो ॥ संघ सकलसुख होये जेहथी, स्याहादरस पायो रेप्राणी सम॥॥कलश॥श्य धर्म नायक,मुक्ति दायक, वीर जिनवर, संथुण्यो ॥ सय सतर संवत वन्दि लोचन, वर्ष हर्ष, धरी घणो ॥ श्रीविजय देव, सूरिंद पटधर, श्रीविजयप्रन, मुणींद ए॥ श्री कीर्ति विजय वाचक, शिष्य श्णी परें, विनय कहे, थाणंद ए ॥ ए॥ ॥अथ सामायिकना बत्रीश दोषनी सद्याय ॥ ॥ चोपाई ॥ शुन गुरु चरणे नामी शीश, सामायिकना दोष वत्रीश ॥ कहीशं त्यां मनना दश दोष, कुशमन देखी धरतो रोष ॥ १॥ सामायिक अविवेकें करे, अर्थ विचार न हैडे धरे ॥मन उठेग श्छे यश मन घणो,न क रे विनय वडेरा तणो॥२॥जय आणे चिंतें व्यापार ॥ फलसंशय नीयाणां सार ॥ हवे वचनना दोष निवार, कुवचन बोले करे टुंकार ॥ ३॥ लक्ष कुंची जा घर ऊघाड, मुखें लवी करतो वढवाम ॥ श्रावो जावो बोले गाल मोह करी हुलरावे बाल ॥४॥ करे विकथा ने हास्य अपार, ए दश दोष वचनना वार ॥ कायाकेरां दूषण बार, चपलासन जोवे दिशि चार ॥५॥ सावद्य काम करे संघात, आलस मोडे ऊंचे हाथ ॥ पग लांबे बेसे अवि नीत, उठींगण ले यांनो जीत ॥ ६॥ मेल उतारे खरज खणाय, पग उप र चढावे पाय ॥ अति उघाडं मेले अंग, ढांके तेम वली अंग उपंग ॥७॥ निजायें रसफल निर्गमे, करहा कंटक तरुयें नमे ॥ ए बत्रीशे दोष निवा र, सामायिक करजो नर नार ॥ ॥ समता ध्यान घटा ऊजली, केश री चोर हुवो केवली ॥ श्रीशुनवीर वचन पालती, स्वर्गे गश् सुलता रेव ती ॥ ए॥ इति सामायिक बत्रीश दोषस्वाध्यायः ॥ సము ము ము ము ముందుకు ॥ इति श्रीश्रावकस्य दैवसिकादिकपंचप्रतिक्रमण । . सूत्राणि सार्थानि, स्तवनसद्यायस्तुत्यादि सहितानिच समाप्तानि ॥ شما میتونه D oorcenseronommodancoremonmendmenoro R amme GAOKG Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only