SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 343
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्याणमंदिरस्तोत्र अर्थसहित. ३२३ पामे डे, तेम तमारा समीपथकी केवल नविक लोकज अशोक थाय ने एटज नहीं, परंतु वृद्ध पण अशोक थाय ने ॥ १५ ॥ हवे सुरकृत पुष्पवृष्टिलक्षण द्वितीय प्रातिहार्यातिशय कहे . चित्रं विनो! कथमवाङ्मुखटतमेव, विष्वक पतत्य विरला सुरपुष्परष्टिः ॥ त्वजोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश, गबंति नूनमधएव हि बंधनानि ॥२०॥ अर्थः-( विनो के० ) हे स्वामिन् ! अविरला के ) निरंतर ( सुरपु ष्पवृष्टिः के० ) देवतायें करेली जे पुष्पनी वृष्टि ते ( विष्वक् के० ) चारे तरफ ( अवाङ् के) नीचु बे (मुख के०) मुख जेनुं एवं जे (वृंतं के०) बीट ते ( एव के० ) जेम होय तेमज (कथं के० ) केम ( पतति के०) आकाशथकी नूमिने विषे पडे बे. ए (चित्रं के) आश्चर्य जे. हवे ( य दिवा के) एनुं दृष्टांतें करी समाधान करे . अथवा ( मुनीश के०) हे मुनीश ! (त्वज्ञोचरे के० ) तमो प्रत्यद बते तमारा समीपने विषे ( सुम नसां के० ) शोलायमान डे मन जेमनां एवा नव्यजनो तथा देवता ते उनां ( बंधनानि के०) निगमादिक बाह्य बंधन अने स्नेहादिक अध्यंतर बंधन ते ( नूनं के०) निश्चे ( हि के०) यस्मात् जे कारणमाटें (अधएव के) नीचेंज ( गळंति के०) जाय ले. अर्थात् तमारा समीपें सुमनस जे फूल तेनां बीट जे बंधन ते अधोमुख थाय बे, अने सुमनस जे जव्यजी व, तेनां बाह्यान्यंतर बंधन पण नीचां थाय ने ॥ २० ॥ हवे दिव्यध्वनिलक्षण तृतीय प्रातिहार्यातिशय कहे . स्थाने गनीरहृदयोदधिसंनवायाः, पीयूषतां तव गिरः समुदीरयंति॥पीत्वा यतः परमसंमदसंगना जो, नव्या व्रजति तरसाऽप्यजरामरत्वम् ॥११॥ अर्थः-हे स्वामिन् ! (गनीर के०) गंजीर एवो जे (हृदयोदधि के० ) हृदयरूप समुज तेथकी ( संजवायाः के) उपनी एवी जे ( तव के०) त मारी (गिरः के०) वाणी तेना (पीयुषतां के०) अमृतत्वने श्रोताउँ(समुदीर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003850
Book TitlePratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1906
Total Pages620
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy